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टैक्नोलौजी: 5जी फोन के साथ 5जी की दुनिया में रखें कदम

लेखक-शहनवाज

5 जी इंटरनैट स्पीड पर खुद को रखें सब से तेज. एक जमाना था जब फोन पर इंटरनैटचलाने की स्पीड इतनी धीमी हुआ करती थी कि गूगल के एक छोटे से पेज को खुलने के लिए कम से कम 2 मिनट का इंतजार करना पड़ता था. 11 दिसंबर, 2008 को जब 3जी लौंच हुआ तो भारत में इंटरनैट के क्षेत्र में उसे किसी क्रांति से कम नहीं माना गया.

लेकिन 3जी की स्पीड हासिल करने के लिए लोगों को अपने पुराने फोन का त्याग करना पड़ा. उसी तरह से 4 सालों बाद 10 अप्रैल, 2012 को 4जी लौंच हुआ और फिर लोगों को अपने मोबाइल बदलने पड़े. अब ठीक उसी तरह से भारत में 5जी कदम रखने जा रहा है. माना जा रहा है की 5जी की स्पीड 10 गीगा बाइट्स पर सैकंड होगी, जो कि मौजूदा 4जी की स्पीड (100 मेगाबाइट्स पर सैकंड) से 100 गुना तेज होगी.

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अनुमान है कि भारत में 5जी साल 2021 की दूसरी छमाही तक बाजार में लौंच कर दिया जाएगा. और हर बार की तरह जो कोई भी 5जी स्पीड का आनंद लेना चाहता है उसे अपना मोबाइल बदलना पड़ेगा. इसीलिए, मोबाइल के कुछ नए औप्शन बताए जा रहे हैं जिन में 5जी सपोर्ट करेगा. इन में से कुछ मोबाइल्स कुछ समय बाद भारतीय बाजारों में उपलब्ध होंगे और कुछ औनलाइन शौपिंग पोर्टल्स पर उपलब्ध हैं. द्य शाओमी रेडमी नोट 9 प्रो 5जी : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.67 इंच (16.94 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 108+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 16 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. स्नैपड्रैगन 750 जी का तेज प्रोसैसर 6 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,820 मेगा एम्पियर की दमदार बैटरी, फ्लैश चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 23 फरवरी है और अनुमानित कीमत 17,990 रुपए हो सकती है.

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रिअलमी एक्स 7 प्रो : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.55 इंच (16.64 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 64+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 32 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. मीडियाटैक डाइमैंसिटी 1000 प्लस का तेज और नया प्रोसैसर 8 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,500 मेगा एम्पियर की बैटरी, फ्लैश चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 26 जनवरी है और अनुमानित कीमत 23,490 रुपए हो सकती है. द्य वन प्लस नोर्ड एन 10 : गोरिल्ला ग्लास 3 के प्रोटैक्शन के साथ 6.49 इंच (16.48 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 64+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 16 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. स्नैपड्रैगन 690 जी का तेज प्रोसैसर 6 जीबी रैम के साथ काम करेगा.

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4,300 मेगा एम्पियर की बैटरी, वार्प चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 12 फरवरी है और अनुमानित कीमत 28,790 रुपए हो सकती है.  ओपो रेनो 3 प्रो 256 जीबी : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.4 इंच (16.16 सेमी.) की डिस्प्ले. 64+13+8+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 44+2 मेगा पिक्सल के डुअल फ्रंट कैमरा के साथ. मीडियाटैक हेलिओ पी 95 का तेज प्रोसैसर 8 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,025 मेगा एम्पियर की बैटरी, वूक चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. 27,990 रुपए की कीमत के साथ बाजारों में उपलब्ध है. द्य शाओमी एमआई 10 आई : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.67 इंच (16.94 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 108+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 16 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. स्नैपड्रैगन 750 जी का तेज प्रोसैसर 6 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,820 मेगा एम्पियर की दमदार बैटरी, फ्लैश चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 18 फरवरी है और अनुमानित कीमत 20,999 रुपए हो सकती है.

Crime Story : पुत्रदा एकादशी के दिन की पुत्रियों की हत्या 

बीती 24 जनवरी को पुत्रदा एकादशी का व्रत कई माओं ने रखा था जिससे उनकी संतानें सुखी रहें लेकिन एक माँ ऐसी भी थी जो व्रत रखने वाली महिलाओं से भी ज्यादा अन्धविश्वासी और  `धर्मपरायण` निकली . दो जवान बेटियों का धार्मिक अन्धविश्वास के नाम पर बेरहमी से क़त्ल कर देने वाली इस कुमाता का नाम पद्मजा है . हादसा दिल दहला देने बाला है जिसे जिसने भी सुना उसने सतयुग लाने वाली इस कलयुगी माँ की काली करतूत और थू थू की लेकिन अफ़सोस इस बात का ज्यादा होना चाहिए कि किसी ने उस धर्म और उसके पाखंडों व ग्रंथों और अंधविश्वासों को लानत नहीं भेजी जो इस मानसिकता और उन्माद का स्रोत और उद्गम है .

पुत्रदा एकादशी व्रत के बारे में कहा यह भी जाता है कि इसे करने से घर में सुख – शांति और धन –  वैभव बगैरह भी रहते हैं . आँध्रप्रदेश के चित्तूर जिले के मदनपल्ली कस्बे में रहने बाले नायडू परिवार के पास वो सब कुछ था जिसकी इच्छा हर कोई रखता है लेकिन नहीं थी तो मानसिक शांति . हालाँकि इस संपन्न परिवार का कोई भी सदस्य नशा पत्ता नहीं करता था लेकिन यह पूरा परिवार दुनिया के सबसे घातक और खतरनाक नशे धर्म की लत में था जिसकी खुमारी 24 जनवरी को उतरी तो देश भर में सनाका खिंच गया .

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यह सच भी किसी हादसे से कम नहीं बल्कि उन्हें बढ़ावा देने बाला है कि किसी शिक्षित बुद्धिजीवी या कुलीन ने यह नहीं कहा कि यह एक धार्मिक विकृति है उलटे इसे मानसिक विकृति कहते सभी ने जता और बता दिया कि हल्के से ही नशे में तो वे भी हैं . जो नशा हमारे पूर्वज हमें दे गए हैं उसे हम धरोहर समझ अगली पीढ़ी को देने का दस्तूर निभा रहे हैं क्योंकि इस विकृति पर हमें शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व है . मदनपल्ली के इस बेटी हत्याकांड में शुक्र की बात तो लोगों का खुलेआम यह न कहना रहा कि पुलिस को नायडू दंपत्ति को वक्त देना चाहिए था मुमकिन है बेटियां जिन्दा हो भी जातीं .

यह था हादसा

यही बात पद्मजा नायडू 24 जनवरी की रात चिल्ला चिल्लाकर पुलिस वालों से कह रही थी कि सुबह होने दो , दोनों बेटियां जिन्दा हो जाएँगी क्योंकि सुबह सतयुग आने वाला है . मदनपल्ली के पुलिस इंस्पेक्टर एम श्रीनिवास को पुरुषोत्तम नायडू के पड़ोसियों ने खबर दी थी कि उनके यहाँ से चीखने चिल्लाने की अजीब अजीब आवाजें आ रहीं हैं . इन पड़ोसियों ने किसी अनहोनी की आशंका जताई थी .

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पुलिस दल पहुंचा तो पहले इन दोनों यानी पुरुषोत्तम और पद्मजा ने उसे घर में दाखिल होने से रोकने की कोशिश की जिससे पुलिस वालों का शक और गहरा उठा लिहाजा वे जबरजस्ती अन्दर घुसे तो वहां का नजारा देख उनके भी तिरपन काँप उठे . किसी पुलिस बाले ने अपनी सर्विस लाइफ में ऐसा वीभत्स दृश्य नहीं देखा था .

पूजा घर में 22 वर्षीय साईं दिव्या की नग्न लाश खून से लथपथ पड़ी थी जिसके उपर लाल रंग का चुनरीनुमा कपडा पड़ा था . हत्या से पहले उसका मुंडन भी किया गया था . दूसरे कमरे में 27 वर्षीय आलेख्या की भी नग्न लाश पड़ी थी . इस दौरान पद्मजा पुलिस की काररवाई से लापरवाह नाचती रही और पुरुषोत्तम सोफे पर समाधि की मुद्रा में पालथी मारे बैठा रहा मानों उन्होंने हत्याएं न की हों बल्कि मच्छर मसले हों . आप शायद यकीन न करें और यह सोचने में ही आपका दिल दहल जाए कि दोनों खुबसूरत युवतियों के सर धड से अलग पड़े थे और खून बह रहा था लेकिन उनके जन्मदाता और पालनहार धर्म के नशे में झूमते मानों बेटियों की मौतों का जश्न मना रहे थे .

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दहशत में आमतौर पर मुजरिम आता है लेकिन यहाँ पुलिस वालों को गश आ रहे थे कि घर में जवान लड़कियों की सर कटी नग्न लाशें पड़ी हैं और माँ नाच रही है और बाप भगवान बुद्ध की स्टाइल में इस तरह सामाधिष्ठ बैठा है मानों उपर बाले से सीधे बात कर पूछ रहा कि प्रभो हत्या कर दी है अब क्या करना है निर्देश दो .

इधर पुलिस वाले कुछ संभले तो उन्हें समझ आ गया कि मामला धर्म से जुड़े तंत्रमंत्र का है और ये दोनों पगलेट बेकार का ड्रामा कर रहे हैं लिहाजा उन्होंने पुलिसिया अंदाज और रौब दिखाया तो भगवान् का भूत इनके सर से थोडा उतरा और उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने जिगर की इन टुकड़ियों को भगवान् के पास पहुँचाया . बकौल नायडू दंपत्ति उन्होंने साईं दिव्या की हत्या त्रिशूल से की और आलेख्या का क़त्ल भारी भरकम डम्बलो से किया .

क्यों किया , इस पर दोनों ने चौंकाने बाले जबाब दिए जिनका सार यह था कि ये लोग एक तांत्रिक अनुष्ठान कर रहे थे जिसका मकसद बेटियों के भीतर बैठी दुष्टात्माओं को बाहर निकालना था . इन्हें स्वर्ग से एक दैवीय इशारा इस बाबत मिला था कि लड़कियों को मार डालो सुबह वे फिर से जिन्दा हो जाएँगी क्योंकि सतयुग शुरू हो जाएगा . यह मूढ़ता , मूर्खता और क्रूरता की इन्तहा थी जो एक सभ्य समाज के शिक्षित परिवार में समारोह पूर्वक हुई . पुलिस हिरासत में भी पद्मजा खुद को शिव का अवतार बताते यह कहती रही कि कोरोना वायरस तो शिव शंकर ने दुष्टात्माओं के संहार के लिए भेजा है . योजना तो इन दोनों ने खुद की ख़ुदकुशी की भी बना रखी थी जिससे सतयुग में पुनर्जन्म ले सकें लेकिन पुलिस के आ जाने से यह मुमकिन नहीं हो पाया .

पढ़े लिखे ढोर गंवार –

बाद की पूछताछ में उजागर हुआ कि पूरा नायडू परिवार उच्च शिक्षित है .पीएचडी कर चुके वी  पुरुषोत्तम नायडू मदनपल्ली के सरकारी कालेज में केमेस्ट्री के प्रोफ़ेसर पद पर हैं और मास्टर डिग्री में गोल्ड मैडल हासिल करने बाली पद्मजा चित्तूर के एक कार्पोरेट स्कूल की प्रिंसिपल हैं . इनकी बडी बेटी आलेख्या मास्टर डिग्री के बाद भोपाल के इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ फारेस्ट मेनेजमेंट से एक डिप्लोमा कोर्स कर रही थी तो साईं दिव्या एआर रहमान स्कूल हैदराबाद से संगीत का कोर्स कर रही थी इसके पहले वह बीबीए की डिग्री ले चुकी थी . दोनों बेटियों को भी माँ बाप अन्धविश्वास की खाई में ढकेल चुके थे जिसका अंदाजा साईं दिव्या की हादसे से चार दिन पहले सोशल मीडिया पर डाली यह पोस्ट है कि शिव आ गए हैं , काम पूरा हुआ .

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अब हादसे से ज्यादा हैरानी से सवाल यह भी उठा कि क्या पढ़े लिखे लोग भी इतने अन्धविश्वासी होते हैं और अगर होते भी हैं तो ऐसी शिक्षा के माने क्या . उजागर यह भी हुआ कि यह पूरा परिवार विकट का धार्मिक और घनघोर अन्धविश्वासी था . ये लोग शिर्डी बाले साईं बाबा , ओशो यानी रजनीश और एक और नामी बाबा मेहर के भक्त थे . घर में नियमित पूजा पाठ और आरती भजन हुआ करते थे और इनकी गतिविधियाँ भी रहस्मय थीं . कोरोना काल में दोनों बेटियां घर आ गईं थीं इसके बाद धार्मिक ढोंग पाखंडों की तादाद और बढ़ गई थी और अक्सर नायडू परिवार धार्मिक स्थलों की यात्रा करता रहता था .

पढ़े लिखे लोग क्यों इतने अन्धविश्वासी होते हैं जितना कि नायडू परिवार था यह सवाल पूछने बाले शिक्षित लोग एक दफा ईमानदारी से यह सवाल खुद से पूछें तो जबाब उन्हें मिल जाएगा कि वे भी इसके अपवाद नहीं हैं . धार्मिक पाखंडों पर कापी राइट उन लोगों के ही नहीं हैं जो गरीब , दलित या आदिवासी हैं बल्कि इस मामले में दोनों तबकों में कोई अंतर नहीं है . फर्क इतना है कि छोटा तबका बड़े नामी बाबाओं को अफोर्ड नहीं कर पाता इसलिए अपनी हैसियत के मुताबिक उसने अपने छोटे छोटे तांत्रिक , बाबा , ओझा और गुनिया पैदा कर रखे हैं जो इन्हें बताते रहते हैं कि वशीकरण कैसे करना है , घरेलू कलह से छुटकारा पाने कौन से टोटके करने हैं , गडा धन निकालने अमावस्या के दिन कितने मुर्गों की बलि दी जाती है बगैरह बगैरह .

पैसे बालों के आलीशान मकानों फ्लेट्स और बंगलों में ये ढोंग पाखंड पूरी शिद्दत और बराबरी से होते हैं . 10 में से 9 घरों में किसी न किसी ब्रांडेड बाबा ,गुरु , संत , कथित महात्मा , मुनि या शंकराचार्य की फूल माला से सुसज्जित तस्वीर टंगी रहती है .पूजा घरों में सुबह शाम पूजा आरती और खास दिनों में खास गोपनीय अनुष्ठान भी होते हैं . ये कुलीन अभिजात्य लोग भी गंवारों की तरह दैवीय चमत्कारों में पूरा भरोसा करते हैं और इसकी कीमत भी अदा करते हैं . यानी मानसिक स्तर पर किसी में कोई फर्क नहीं है . फर्क है तो आमदनी , रहन सहन और स्टेटस का जिसके चलते ये बड़े लोग खुद को बुद्धिमान और तार्किक होने की खुशफहमी पाले रहते हैं . इन पढ़े लिखे गंवारों की पोल कम ही खुलती है क्योंकि ठगे जाने या बेबकूफी भरा कोई पाखंड करने के बाद ये खामोश रहते हैं और कई बार खामोश कर भी दिए जाते हैं .

असल गुनहगार ये हैं

पुरुषोतम और पद्मजा को अदालत के आदेश पर तिरुपति के एसवीआरआर  अस्पताल के मनोरोग विभाग में दिमागी जांच के लिए भर्ती करा दिया गया  . अगर यह बीमारी थी तो भोपाल के नामी मनोचिक्त्सक डाक्टर विनय मिश्रा इसे डिल्यूजन बताते हैं जिसमें रोगी मिथ्या विश्वासों यथा स्वर्ग नर्क , जादू टोनो , तंत्र मंत्र आदि को सच मानने लगता है . इस लिहाज से देखें तो हमारे देश की 80 फ़ीसदी से कहीं ज्यादा आबादी इस बीमारी की गिरफ्त में है फर्क उसके प्रभाव के कम ज्यादा होने का है .

अब जरुरत इस बात की महसूस होने लगी है कि इस और इन कई बीमारियों की जड़ नष्ट की जाए जिनके सामने कोरोना जैसे वायरस बेहद छोटे और कम नुकसानदेह हैं . इसका तो वेक्सीन बन गया लेकिन धार्मिक उन्माद , वहशीपन और पागलपन का वेक्सीन बनना मुश्किल है क्योंकि इस बीमारी के वायरस किसी चीन या बुहान से नहीं आये हैं बल्कि देश के धर्मस्थलों में इनका रोज उत्पादन होता है .

धर्म ग्रन्थ और धर्म गुरु एक बड़ा खतरा हैं क्योंकि अपनी रोजी रोटी चलाये रखने पागलपन यही लोग फैलाते हैं इन्हें यह `ज्ञान` धर्म ग्रंथों से मिलता है जो ऊटपटांग बेतुके और काल्पनिक प्रसंगों से भरे पड़े हैं . गरुड़ पुराण इसका बेहतर उदाहरण है जिसमे स्वर्ग और नर्क की इतनी वीभत्स व्याख्या की गई है कि सख्त कलेजे बाला नास्तिक भी इसे सुनकर काँप उठता है . सभी धर्म ग्रन्थ ऐसी ही बेहूदी बातों से भरे पड़े हैं जिनके निर्देशों का पालन नायडू दंपत्ति ने किया लेकिन असल सजा के हक़दार और इनसे भी बड़े गुनहगार वे धर्म गुरु हैं जो वायरस के वाहक हैं और खुद भी किसी खतरनाक परजीवी वायरस से कम नहीं . लेकिन कोई अदालत स्वत संज्ञान लेते इन मगरमच्छों से बैर लेगी ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं .

कृषि कानूनों को किसानों के भले का बताने बाली सरकार को चाहिए कि वह 130 करोड़ देशवासियों के भले के लिए पाप पुण्य और मोक्ष मुक्ति के कारोबार को बंद करने कानून लाने की हिम्मत दिखाए लेकिन यह उम्मीद उस भगवा सरकार से करना तो बेकार है जो खुद गले गले तक इसी में डूबी है . तब तक आइये किसी नए हादसे का इंतजार करें जिसमें बालिका दिवस के मौके पर कोई नई आलेख्या और दिव्या मार दी जाएँ .

डिजिटल जहर अमेरिका से भारत तक फैला भ्रमजाल

लेखक- –शैलेंद्र सिंह के साथ रोहित और शाहनवाज

अमेरिका में जिस तरह ‘क्यूएनन’ बड़ी तेजी से बढ़े उसी तरह भारत में कट्टर अंधभक्तों की संख्या में, 2014 के बाद, तेजी आई. और यह पूरी प्रक्रिया लगभग समानरूप से चलाई गई जिस में इंटरनैट और सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है. आज यह हाथ इतना बड़ा हो चुका है कि इस के फंदे में लोकतंत्र की गरदन फंसी पड़ी है. फौरीतौर पर थोड़ी राहत देने वाली इकलौती बात यह है कि भारत में सोशल मीडिया, लड़खड़ाते ही सही, कट्टरवाद का विरोध कर रहा है क्योंकि यहां का नियमित मीडिया अलोकतांत्रिक टूल बना हुआ है.

अमेरिकी प्रैसिडैंशियल इलैक्शन से ठीक 10 दिनों पहले 23 अक्तूबर, 2020 को वहां ऐक्टर सचा बैरन कोहेन की विवादित फिल्म ‘बोरत-2’ प्रदर्शित की गई. यह फिल्म मौजूदा अमेरिकी पौलिटिक्स और अमेरिकी लोगों के भीतर रूढि़वादी विचारधारा पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करती है. फिल्म में बोरत नाम का एक किरदार है जिस ने कजाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों को अतीत में खराब किया था और अब उसे कजाकिस्तान सरकार से हुक्म मिला है कि वह वापस अमेरिका जा कर उन बिगड़े हुए संबंधों को फिर से ठीक करे. बोरत अमेरिका जाता है, कोरोना के चलते वहां लौकडाउन लग जाता है.

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वह वहां पर एक घर में पनाह लेता है, जिस के सदस्य ट्रंप समर्थक होते हैं. बोरत खुद भी रूढि़वादी होता है, सो, घर के सदस्यों के साथ घुलमिल जाता है. इसी घर के भीतर एक दिलचस्प किस्सा बनता है जब बोरत उन से अमेरिका में लौकडाउन लगने का कारण पूछता है, जिस के जवाब में वे कहते हैं कि यहां एक वायरस फैला है जिसे डैमोक्रेटिक पार्टी की पूर्व प्रैसिडैंशियल कैंडिडेट हिलेरी क्ंिलटन ने फैलाया है जो बच्चों का गला चीर कर उन का खून पी जाता है, वह नरभक्षी है.

ये सब बातें उन्होंने कहीं से सुनीपढ़ी होती हैं. जवाब जारी रखते हुए ट्रंप समर्थक सभी डैमोक्रेट्स को शैतान बताते हैं. वहीं फिल्म के दृश्यों में आगे दिखता है, वे हर दिन इंटरनैट पर ‘क्यूएनन’ की स्टोरीज को स्क्रौल करते हैं और क्यूएनन के नजरिए से देश व दुनिया का हाल जान रहे होते हैं. अब सवाल है कि यह क्यूएनन आखिर है क्या और इस का जिक्र इस बीच कैसे आ गया? अमेरिकी कैपिटल हिल दंगा 6 जनवरी, 2021 अमेरिकी इतिहास में काला दिन के तौर पर दर्ज हुआ है. इस दिन हजारों ट्रंप समर्थक अमेरिकी पार्लियामैंट ‘कैपिटल हिल’ में घुस कर दंगा करने लगे. यह योजनाबद्ध तरीके से किया गया कृत्य था जिस की अगुआई, छिपे तौर पर खुद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कर रहे थे.

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ट्रंप समर्थक ‘प्रो ट्रंप रैली’ के माध्यम से कैपिटल हिल पर धावा बोलने का फैसला उस आह्वान पर कर चुके थे जो 19 दिसंबर को ट्रंप ने ट्वीट के माध्यम से किया था. ट्वीट में ट्रंप ने कहा था, ‘वाशिंगटन डीसी पर बड़ा प्रदर्शन, बी देयर, बी वाइल्ड.’ जाहिर है यह ट्वीट अपनेआप में नफरत व गुस्से से भरा हुआ था. ट्रंप की अगुआई में ‘सेव अमेरिका रैली’ की शुरुआत ट्रंप के दोनों बेटों (एरिक और ट्रंप जूनियर) तथा उन के वकील रूडी गुइलियानी द्वारा की गई. दोपहर 12 बजे के करीब ट्रंप के एक घंटे के भाषण में दंगों को भड़काने का विवरण साफ देखा जा सकता था. वे अपने भाषण में वहां मौजूद अपने समर्थकों को कैपिटल हिल (संसद भवन) के अंदर घुसने को उत्तेजित कर रहे थे.

1 बजे जब कैपिटल हिल में वोटों की गिनती शुरू होनी थी उसी दौरान ट्रंप के ये दंगाई कैपिटल हिल की सीढि़यों पर पुलिस के साथ झड़प करते हुए भीतर घुस गए. वे दीवारों पर चढ़ने लगे. उन के हाथों में खतरनाक हथियार, जैसे पाइप बम, बंदूकें, लोहे की रौड, लाठियां इत्यादि थीं. ये सारी बातें इस बात की ओर सीधा इशारा कर रही थीं कि वे वहां किसी खतरनाक इरादे से घुसे थे. इस बीच डोनाल्ड ट्रंप लोगों को शांत करने के बजाय ट्वीट करने में व्यस्त रहे. माइक पेन्स (वाइस प्रैसिडैंट) को देश व संविधान की रक्षा के लिए जो करना था, उसे करने का उन में साहस नहीं दिखा. ऐसे में जब दंगाई कैपिटल हिल के भीतर घुस कर खिड़कियां, कुरसियां, दरवाजे, साइनबोर्ड इत्यादि तोड़ते हुए आपे से बाहर हो गए तब ट्रंप ट्वीट कर शांति बनाए रखने का नाटक करने लगे.

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यह पूरा घटनाक्रम और ट्रंप के सीधे ट्विटर के माध्यम से निर्देश सब तक पहुंच रहे थे. लगभग 12 घंटे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ने के बाद तब ट्विटर को ट्रंप के ट्वीट्स को डिलीट करने का मन बना. शुरुआत में ट्विटर ने उन के ट्वीट ही डिलीट किए लेकिन जैसेजैसे ट्विटर की आलोचना होनी शुरू हुई, तो उस ने पहले 12 घंटों के लिए ट्रंप का अकाउंट डिऐक्टिवेट किया और उस के कुछ समय बाद उन का ट्विटर अकाउंट हमेशा के लिए बैन कर दिया. सवाल यह कि ट्विटर को यह सुध पहले क्यों नहीं आई जब ट्रंप ट्विटर के माध्यम से दंगा लगातार भड़का रहे थे? इस पूरे घटनाक्रम में 5 लोगों की मौत हुई जिन में से एक पुलिस का जवान भी शामिल था.

वहीं 68 लोगों की गिरफ्तारी हुई. लेकिन एक लोकतांत्रिक राज्य के लिए सब से बड़ी बात यह है कि पूरे विश्व के सामने अमेरिका की अस्मिता डूब रही थी, उसे छलनी किया जा रहा था. अमेरिका का भविष्य किस तरफ होगा, यह अलग बात है. इस घटना ने यह साबित जरूर कर दिया कि अमेरिका फिलहाल विश्व का नेतृत्व करने लायक बिलकुल भी नहीं रहा. ऐसे में सवाल बनता है, कौन हैं ये लोकतंत्र विरोधी लोग और कैसे इन के दिमाग में ऐसी मानसिकताएं बड़ी तेजी से जन्म ले रही हैं? क्यूएनन और क्यू इसे सम झने के लिए दंगे के बाद वायरल हो रही तसवीरों पर खास गौर करने की जरूरत है.

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इन तसवीरों में दंगाई अलगअलग तरह के साइनबोर्ड और झंडों को अपने हाथों में लिए कूच करते दिखाई दे रहे थे. जिन में राजतंत्रशाही ईरानियन फ्लैग्स, कंफैडरेट फ्लैग्स, इसराईली फ्लैग इत्यादि नजर आ रहे थे. ये झंडे तानाशाही और संकीर्ण मानसिकता को दर्शाते हैं. कंफैडरेट फ्लैग उस गुलामी समर्थन का प्रतीक है जिस के तले नस्लवादी लोग व्हाइट सुप्रीमेसी के गौरवान्वित पलों को महसूस करते हैं. यह झंडा गृहयुद्ध को महिमामंडित करता है और गुलामी को नैतिक व न्यायोचित सम झे जाने का संकेत देता है. यह झंडा उस युग की बात करता है जब अमेरिका में नस्ल के आधार पर भेदभाव जोरों पर था.

दिलचस्प बात यह है कि दंगे के दौरान ‘क्यूएनन’ शब्द इंटरनैट की दुनिया से इतने बड़े स्तर पर बाहर निकल हिंसा की विचारधारा बना हुआ था. क्या है यह क्यूएनन अक्तूबर 2017 में 4 चैन नाम की एक औनलाइन वैबसाइट पर, ‘क्यू क्लीयरैंस पैट्रियट’ को नाम से डिस्कशन के लिए एक पोस्ट शेयर की गई जिस में एक यूजर ने ‘क्यू’ या ‘क्यू क्लीयरैंस’ को उच्च स्तरीय सिक्योरिटी न्यूक्लिअर वैपन विभाग का मैंबर बताया. इस पेज पर भेजे जाने वाले संदेश गुप्त थे जिन्हें ‘क्यू ड्रौप्स’ या ‘ब्रैडक्रम्ब्स’ कहा गया. दिलचस्प यह कि ये सभी गैरकानूनी व गुप्त कोड अथवा संदेश ‘प्रो ट्रंप रैली’ के दौरान स्लोगन्स, पोस्टर, प्लेकार्ड में दिखाई देते थे और दोहराए जाते थे. दिसंबर 2016 में वाशिंगटन डीसी में कौमेट पिंग पौंग नाम के एक रैस्टोरैंट में एक व्यक्ति (28 वर्षीय एडगर मैडिसन) भरी ‘असाल्ट राइफल’ ले कर घुस गया और फायर किया. वारदात के बाद पता चला कि वह आदमी कट्टर ट्रंप समर्थक और व्हाइट सुप्रीमिस्ट था, जिस ने उस वारदात को अंजाम देने से पहले सोशल मीडिया पर एक फौल्स कौंस्परेसी थ्योरी ( झूठी साजिश का सिद्धांत) गढ़ दी थी जो पिज्जा गेट के नाम से चर्चित हुई.

थ्योरी में एडगर डैमोक्रेट हिलेरी क्ंिलटन और जौन पोडेस्टा पर आरोप लगाया गया कि वे उस रैस्टोरैंट के बेसमैंट में चाइल्ड सैक्स रैकेट चलाते हैं. हालांकि यह बात सामने आई कि कौमेट पिंग पौंग में कोई बेसमैंट था ही नहीं. लेकिन इस के बावजूद ट्रंप समर्थक इस अफवाह को इंटरनैट और सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ शेयर व पोस्ट कर रहे थे. इस शूटिंग (वारदात) को ‘क्यूएनन’ की शुरुआत की पहली वारदात माना जाता है. यह सम झ लेने की जरूरत है कि मौजूदा समय में ट्रंप के आगमन के बाद क्यूएनन एक दक्षिणपंथी विचार के तौर पर उभरा है, जिस की मानसिकता बेहद रूढि़वादी और धार्मिक है. इस दक्षिणपंथी विचार वालों का मानना है कि कोविड-19 एक ऐसा छल है जो यहूदियों ने ईसाईयों के खिलाफ किया. इन में से कुछ लोगों का मानना है कि 9/11 का आतंकी अटैक एलियन द्वारा किया गया था.

इस मानसिकता में इस प्रकार का ट्रैंड चल रहा है कि अमेरिका की सत्ता में डैमोके्रट्स नरभक्षी हैं और वे बच्चों का खून पीते हैं, जिन के खात्मे के लिए डोनाल्ड ट्रंप एक मसीहा के तौर पर अवतरित हुए हैं और अमेरिका का तथाकथित पुराना गौरवशाली इतिहास वापस लाना चाहते हैं. इस विचारधारा को लगातार इंटरनैट व सोशल मीडिया के माध्यम से हवा मिलती रही है. यह ठीक वही मानसिकता है जो फिल्म ‘बोरत-2’ के उस किस्से में है जिस में घर के सदस्य न सिर्फ ट्रंप समर्थक होते हैं बल्कि वे क्यूएनन मानसिकता से ग्रसित भी होते हैं. बेलगाम इंटरनैट और सोशल मीडिया कई विश्लेषणों से यह बात सामने आई कि सोशल मीडिया और इंटरनैट पर ‘क्यूएनन’ की लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ती ही गई है. कोरोना के कारण अमेरिका में लौकडाउन के चलते लोग इंटरनैट पर ज्यादा समय गुजारने लगे.

तब फेसबुक पर कई गु्रपों ‘क्यूएनन न्यूज एंड अपडेट्स, ‘इंटेल ड्रौप्स’, ‘ब्रैडक्रम्ब्स’, ‘द वार अगेंस्ट केबल’ इत्यादि की सदस्यता संख्या में 1 जनवरी, 2020 से 1 अगस्त, 2020 तक 10 गुना इजाफा हो चुका था. लेकिन ये ही अकेले ग्रुप नहीं थे बल्कि ऐसे न जाने कितने ही गु्रप फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे बड़ेबड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बन रहे व फलफूल रहे थे. फेसबुक ने पिछले साल अक्तूबर की शुरुआत में ही यह कहा था कि वह क्यूएनन से संबंध रखने वाले इस तरह के गु्रप्स और पेज को अपने प्लेटफौर्म से हटाएगा. कंपनी ने कुछ तरह के क्यूएनन संबंधी ग्रुप्स को बैन भी किया था लेकिन अपनी नई पौलिसी के तहत व्यक्तिगत लोगों, जो क्यूएनन से संबंधित पोस्ट शेयर करते हैं, पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया. पिछले ही साल अक्तूबर मध्य तक यूट्यूब ने भी हिंसा भड़काने वाले क्यूएनन संबंधी वीडियोज को बैन किया था.

उस ने तब कहा, ‘‘हम ऐसी सामग्री पर प्रतिबंध लगा रहे हैं जो किसी व्यक्ति या समूह के षड्यंत्र का उपयोग कर दुनिया में हिंसा भड़काने के लिए पोस्ट की जाती है.’’ 21 जुलाई, 2020 को ट्विटर ने भी अपने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर से 7,000 से अधिक ऐसे क्यूएनन संबंधी अकाउंट्स को बैन किया था जो कि पूरी दुनिया के लगभग 15 लाख लोगों तक अपनी पहुंच बनाते थे. इस पर ट्विटर ने कहा, ‘‘हम उन पोस्टों, सु झावों और पिक्चर्स को हाईलाइट करने से बचेंगे जो ‘क्यूएनन’ संबंधी होंगे.’’ इसी तरह टिकटौक ने भी अक्तूबर में क्यूएनन संबंधी कंटैंट को अपने प्लेटफौर्म से हटाया था.

लेकिन सब से बड़ी समस्या यह कि यह प्रक्रिया इतनी देर में और आधीअधूरी चली कि इस तरह की मानसिकता रखने वाले लोगों द्वारा समाज पर व्यापक स्तर पर क्षति पहुंचाई जा चुकी थी. इसे ले कर बीबीसी की दुष्प्रचार विशेषज्ञ मैरिआना स्ंिप्रग कहती हैं, ‘‘कैपिटल हिल में भाग ले रहे दंगाई इस कृत्य के लिए पहले से उत्साहित थे. वे औनलाइन फैल रहे झूठे दावों (कौंस्परेसी थ्योरी) पर वास्तव में विश्वास रखते थे.’’ वे कहती हैं कि इस दंगे की आहट राष्ट्रपति चुनाव से काफी पहले देखी जा सकती थी. इसी प्रकार किंग्स कालेज लंदन की रिसर्चर डाक्टर अलैक्सी ड्रियू कहती हैं, ‘‘जब वे (क्यूएनन) फेसबुक और ट्विटर पर बैन होने लगे, तब दूसरे गुप्त व गैरकानूनी एक्सट्रीमिस्ट प्लेटफौर्म, जैसे ‘पार्लर’ की तरफ जुड़ने लगे थे.’’ ड्रियू का मानना है कि इस घटना के बाद तमाम बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बने इस तरह के ग्रुप्स, जो खतरनाक और जानलेवा झूठ फैलाते हैं, पर अब प्रतिबंध नहीं लगाए जाने का उन (कंपनियों) के पास कोई बहाना नहीं बचा है. वे कहती हैं,

‘‘फेसबुक खुद लोगों को गु्रप्स जौइन करने के लिए प्रोत्साहित करता है. उस का ढांचा ही ऐसा है कि जिस तरह की चीजें लोग देखना पसंद करते हैं उन के सजेशन फेसबुक देता है. और यही सिमिलर चीजें ट्विटर और इंस्टाग्राम पर भी देखी जा सकती हैं.’’ उन का मानना है कि फेसबुक पर ये गु्रप बने थे, इसलिए फेसबुक को उन्हें कंट्रोल करना चाहिए था, लेकिन ऐसा समय पर नहीं किया गया और स्थिति खराब हुई. भारत के संदर्भ में विश्व पटल पर जहां सब से पुराने लोकतंत्र के तौर पर अमेरिका को देखा जाता है, वहीं सब से बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत का नाम लिया जाता है. लेकिन मौजूदा समय में दोनों देश एकदूसरे के सामने ‘मिरर इमेज’ के तौर पर खड़े दिखाई दे रहे हैं. अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद जिस तरह से मीडिया, इंटरनैट, सोशल मीडिया पर ट्रंप का महिमामंडन किया गया और उसे कथित ऐतिहासिक धरोहर को वापस लाने का मसीहा माना गया,

जिस ने क्यूएननवादी मानसिकता को जन्म दिया, ठीक उसी प्रकार भारत में 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद लगातार इन माध्यमों ने कट्टर अंधभक्ति को जन्म दिया, जिस में मोदी को हिंदू राष्ट्र वापस लाने का मसीहा माना गया. उन में कथित मुगलों की संतानों से देश को मुक्त करने के तौर पर झांका गया. यही कारण है कि देश में कई मुसलिम शासकों के नाम वाली जगहों का नाम बदला गया. अंधभक्तों के लिए मोदी भारत में अपनेआप में एक राष्ट्र सम झे गए, वहीं कुछ उजाड़ अंधभक्त मोदी को भगवान के रूप में मानने लगे. ये ठीक अमेरिकी क्यूएननवादी जैसे हैं, इन्हें मोदी के फौलोअर्स कहा जाता है. दरअसल ये धर्मभीरु हैं, अंधभक्त हैं. ट्रंप और मोदी की दोस्ती या यों कहें उन के बीच आपसी वैचारिक तालमेल किसी से छिपा नहीं है.

इन दोनों देशों के नेता एकदूसरे को सत्ता में बनाए रखने के लिए एकदूसरे का साथ देते हुए दिखाई देते रहे हैं. 2019 में जहां मोदी को जिताने के लिए ट्रंप ने भारतीय मूल के ‘हाउडी मोदी’ का आयोजन और्गेनाइज किया वहीं 2020 में दोस्ती का फर्ज निभाते नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ का आयोजन किया. यह सम झा जा सकता है कि इन दोनों का आपसी तालमेल और खुद को प्रचारितप्रसारित करने का तरीका लगभग समान है. कई मानो में मोदी और ट्रंप दोनों की राजनीतिक नीतियां लगभग बराबर ही हैं. दोनों ही नेता उकसाने वाले राष्ट्रवाद, बहुसंख्यवाद, भय व धु्रवीकरण की राजनीति को बढ़ावा देते हैं. जहां एक तरफ ट्रंप अघोषित प्रवासियों को ‘लुटेरा’ व ‘जानवर’ कह कर पुकारते हैं, मैक्सिकन्स को ‘क्रिमिनल’ और ‘रेपिस्ट’ बताते हैं, वहीं भारत में प्रधानमंत्री मोदी अल्पसंख्यकों को ‘उन के कपड़ों से पहचानने’ की बात करते हैं.

गोधरा में हुई हिंसा के बाद शेल्टर होम में मौजूद पीडि़तों को वे ‘बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री’ बताते हैं. दोनों की नीतियां डिटैंशन कैंप बनाए जाने का समर्थन करती हैं. यही कारण है कि जहां अमेरिका में क्यूएनन बड़ी तेजी से बढ़े उसी तरह भारत में 2014 के बाद कट्टर अंधभक्तों की संख्या में तेजी आई और यह पूरी प्रक्रिया लगभग समानरूप से चलाई गई. इंटरनैट बना खुल्ला सांड दोनों की समानताएं सिर्फ नीतियों और विचारधारा में ही नहीं, बल्कि उन्हें अंजाम दिए जाने को ले कर भी हैं. ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, हाल ही में न्यूयौर्क से प्रकाशित दैनिक ‘द वाल स्ट्रीट जर्नल’ में एक लेख छपा, जिस का हड़कंप भारत में मचा. लेख फेसबुक पर आरोप लगाते हुए कहता है, ‘भाजपा नेताओं के नफरतभरे और हिंसाभरे पोस्ट फेसबुक से इसलिए नहीं हटाए जाते क्योंकि इस से उस के बिजनैस पर फर्क पड़ता है. गौर करने वाली बात यह है कि फेसबुक ने जियो में 43,574 करोड़ रुपए का निवेश किया है और भाजपा की अंबानी व फेसबुक के साथ आपसी मित्रता छिपी नहीं है.

हालांकि इस लेख के पहले भी फेसबुक और भाजपा के आपसी संबंधों का जिक्र आ चुका है कि किस प्रकार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में फेसबुक ने परिणाम को भाजपा के पक्ष में करने में कितना अधिक प्रभाव डाला. बजरंग दल, जो कि एक कट्टरवादी हिंदू संगठन है, को फेसबुक ‘डैंजरस कैटेगरी’ में डालने व उस पर प्रतिबंध लगाने के सोचविचार में था, लगातार उस संगठन द्वारा भड़काऊ व नफरती कंटैंट डालने के बावजूद उसे अभी तक प्रतिबंधित नहीं किया गया है. यही हाल रागिनी तिवारी के मामले में भी होता हुआ दिखता है. रागिनी भड़काऊ और दंगा भड़काने वाली बात सोशल मीडिया पर लाइव कर कहती है लेकिन उस पर कोई ऐक्शन नहीं लिया जाता.

वहीं, दिल्ली दंगों से पहले फेसबुक पर वायरल हो रहे कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण को रोकने में भी फेसबुक नाकाम रहा. ठीक उसी प्रकार, ट्विटर पर लगातार अल्पसंख्यक विरोधी और अपराधियों के पक्ष में ट्वीट ट्रैंड किए जाते रहे हैं, जिन पर अधिकतर समय ट्विटर चुप्पी साध लेता है. गौरतलब है कि नफरत फैलाने वाले ऐसे कई ट्विटर हैंडल हैं जो लगातार दलित और अल्पसंख्यक विरोधी ट्वीट करते रहते हैं. हैरानी वाली बात यह है कि उन लोगों को भारत के जिम्मेदार पदाधिकारी और नेता फौलो करते हैं. इन में खुद प्रधानमंत्री मोदी, पीयूष गोयल इत्यादि शामिल हैं. 5 दिसंबर का हालिया मामला है जिस में भाजपा आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय का किसानों को ले कर किए गए झूठी खबर वाले ट्वीट को ट्विटर ने ‘मैन्युपुलेटेड और मिसलीड मीडिया’ कहते हुए टैग कर दिया. लेकिन हैरानी यह है कि अमित मालवीय खुद ही झूठ की फैक्ट्री है.

उस के असंख्य ट्वीट यहांवहां तैर रहे हैं. ऐसे में उस के सेलैक्टिव ट्वीट को डिलीट करने के बजाय कलैक्टिवली अकाउंट को ही बैन करने की जरूरत थी. जवाबदेही जरूरी है ऐसे ही इंटरनैट पर ढेरों वैबसाइट्स हैं जो लगातार फेक न्यूज को फैलाने का काम कर रही हैं. ये वैबसाइट्स भड़काऊ, नफरती व झूठी खबरें चलाती हैं. ये ठीक उसी प्रकार का खादपानी लोगों के दिमाग में डाल रही हैं जैसे अमेरिका में गुप्त वैबसाइट्स द्वारा क्यूएननवादियों के दिमाग में लगातार एक ही प्रकार का डर, गुस्सा व नफरत डाला जा रहा है. आज सोशल मीडिया ने सामाजिक शर्म का वह परदा उठा दिया है जिस से फिल्टर हो कर जानकारियां गुजरती थीं.

ऐसे में इंटरनैट और सोशल मीडिया इस समय ऐसा खुल्ला सांड बना हुआ है जो किसी के भी नियंत्रण में नहीं है. सरकारों की या सत्तारूढ़ दलों की अपनीअपनी आईटी सैल हैं जो या तो लचर हैं या फिर मैन्युपुलेटेड हैं. जिस समय सोशल मीडिया और इंटरनैट का दौर नहीं था उस दौरान खबरें एक प्रक्रिया से हो कर गुजरती थीं. उस प्रक्रिया में तमाम अखबार, पत्रिकाएं और न्यूज चैनल होते थे जिन की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी संपादक की होती थी. ऐसे में अगर किसी नेता को अपनी बात पब्लिक को पहुंचानी होती थी तो वह इन माध्यमों का सहारा लेता था. लेकिन आज ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, व्हाट्सऐप व दूसरे तमाम सोशल मीडिया बेलगाम माध्यम बने हुए हैं जिन की अकाउंटेबिलिटी तय नहीं है. इन का कोई संपादक नहीं है. इन को कोई क्रौस चैक करने वाला नहीं है, कोई एडिट करने वाला नहीं है. जितनी देर में चीजें आपत्तिजनक मालूम पड़ती हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है.

अमेरिका का कैपिटल हिल दंगा और भारत का दिल्ली दंगा इस का ताजा उदाहरण हैं. आज के समय में इंटरनैट पूरी तरह से बेलगाम हो चुका है और भ्रम की दुनिया बनता जा रहा है. इस के अंदर जहर है, नफरत है, झूठ है, फरेब है, गुस्सा है, गालीगलौच है, जिस की कोई जवाबदेही नहीं है. इन के मालिक या तो सक्षम नहीं हैं या वे मैन्युपुलेटेड हैं जिस कारण इन चीजों पर रोक लगाया जाना इन के बूते के बाहर है. अब यह जरूरी हो चुका है कि विश्व में शांतिव्यवस्था को बनाए रखने की कसम खाने वाले यूनाइटेड नेशन को 21वीं सदी की इस त्रासदी को अपने संज्ञान में लेना होगा. और जिस प्रकार इंटरनैशनल पोस्टल यूनियन को संयुक्त राष्ट्र नियंत्रित व संचालित करता है, ठीक उसी प्रकार वर्ल्डवाइड इंटरनैट भी संयुक्त राष्ट्र संघ की संपत्ति हो जिसे यूएन अपने अधीन रख संचालित व नियंत्रित करे.

इन चीजों को रोकने के लिए यूनाइटेड नेशन हार्ड पौलिसी का निर्माण करे ताकि उस के भीतर आने वाले तमाम देश उस का अनुसरण कर सकें. वरना आने वाला समय सभी देशों के लिए घातक सिद्ध होगा. अमेरिका में जिस तरह हालिया घटना घटी, वह पूरी दुनिया के लिए सबक है, खासकर भारत के लिए जो यदाकदा इंटरनैट व सोशल मीडिया के ट्रैप में फंसते हुए उसी मुहाने पर कहीं न कहीं खड़ा है. पौराणिक कथाओं में भस्मासुर ऐसा राक्षस था जिस ने उन को जलाने या भस्म करने की योजना बनाई जिन्होंने उस को वरदान दिया था. कुछ ऐसा ही सोशल मीडिया के साथ हो रहा है. विश्वभर के नेताओं ने मुख्यधारा की मीडिया के आगे सोशल मीडिया की ताकत को बढ़ा दिया और आज वही सोशल मीडिया इन नेताओं को आईना दिखाने का काम कर रही है.

सोशल मीडिया का प्रयोग भारत में सब से पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था. सुनियोजित तरीके से युवाओं को सोशल मीडिया पर कमैंट करने के लिए तैयार किया गया. उन युवाओं को अपने किए गए कमैंट्स को ले कर अपना पूरा डेटा लिखने के लिए एक्सेल शीट बनानी होती थी. उस में खबर का विवरण, उस का शीर्षक और वैबसाइट का विवरण लिखना होता था. हर कमैंट पर युवाओं को एक रुपए की दर से भुगतान भी किया जाता था. वैसे तो चुनाव लड़ रही दोनों पार्टियां कांग्रेस और भाजपा ने इस का उपयोग किया पर धीरेधीरे भाजपा इस में आगे बढ़ती गई और कांग्रेस पिछड़ गई.

2014 के लोकसभा चुनाव में जीत का बड़ा श्रेय सोशल मीडिया को दिया गया था. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की छवि बनाने में सोशल मीडिया का बड़ा हाथ माना गया था. सोशल मीडिया का प्रयोग करने के लिए भाजपा ने पार्टी में मीडिया सैल का गठन किया था. 2014 में मोदी ने अपनी आधी लड़ाई सोशल मीडिया पर ही जीत ली थी. सोशल मीडिया पर भाजपा ने बेहद आक्रामक रणनीति अपनाई थी. उस समय की कांग्रेस सरकार, उस के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह और नेता राहुल गांधी ही नहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ले कर ऐसेऐसे पोस्ट, वीडियो वायरल किए गए कि पूरे देश ने इसी बात को सच मान लिया. राहुल गांधी का नाम ‘पप्पू’ दिया गया तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘मौनी बाबा.‘ उसी दौर में अन्ना आंदोलन से अपनी छवि बनाने वाले अरविंद केजरीवाल का ‘मफलर’ और उन की खांसी का मजाक बनाया गया.

यह भाजपा की सोशल मीडिया टीम का कमाल था. उस समय मुख्यधारा की मीडिया भाजपा के साथ खुल कर नहीं थी. ऐसे में भाजपा ने सोशल मीडिया का सहारा लिया था. उसी दौर में अमेरिका के चुनाव में भी सोशल मीडिया चुनावप्रचार का सब से बड़ा जरिया बन कर उभरी थी. सोशल मीडिया पर डोनाल्ड ट्रंप के साथ उन की पत्नी मिलेनिया ट्रंप और बेटी इवांका ट्रंप भी चर्चा में थीं. यह प्रचार किया गया कि इवांका ट्रंप ने अपने पिता डोनाल्ड ट्रंप का चुनावप्रचार करने के लिए अपने कपड़े बेचे और अपने पिता का चुनावप्रचार किया. सोशल मीडिया पर यह बात कुछ उस तरह से ही ट्रैंड हो रही थी जैसे भारत के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उन्होंने बचपन में चाय बेची थी.

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप की जीत में भारतीय मूल के 34 लाख अमीर कट्टरपंथी और जातिव्यवस्था के घोर समर्थक वोटर्स के समर्थन को बेहद खास माना गया था. इस का कारण यह था कि डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच के रिश्ते बेहद करीबी बन गए थे. सोशल मीडिया का प्रभाव इन नेताओं पर इस कद्र रचबस गया था कि ये दोनों ही नेता अपनी पार्टी से भी ऊंचे कद के हो गए. दोनों ही नेताओं के बारे में यह कहा जाने लगा कि अब इन का विकल्प नहीं है. अमेरिका में 2020 में जो चुनाव हुए उस में डोनाल्ड ट्रंप को सोशल मीडिया पर अपने से कम लोकप्रिय और अधिक उम्र के जो बाइडन से हार का सामना करना पड़ा.

भारत में मोदी भले ही 2019 के चुनाव में जीत हासिल करने में सफल रहे हों पर भारतीय जनता पार्टी को मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में हार का सामना करना पड़ा. जिस सोशल मीडिया ने अमेरिका और भारत दोनों जगह डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी को सब से मजबूत नेता बताया था वही सोशल मीडिया अब इन दोनों को आईना दिखाने का काम कर रही है. नरेंद्र मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर को बेरोजगारों ने ‘बेरोजगार दिवस’ के रूप में मनाया. सोशल मीडिया पर 17 सितंबर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस से अधिक बेरोजगार दिवस के रूप में ट्रैंड हुआ. सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री की तारीफ करते हुए आजकल एक मैसेज बेहद वायरल हो रहा है कि मुख्यधारा की मीडिया की तमाम बड़ी हस्तियों को मोदी प्रभाव ने वहां से बाहर कर दिया.

ऐसे लोग ‘यूट्यूबर’ (यूट्यूब चैनल पर पत्रकारिता करने वाले) बन कर पत्रकारिता कर के अपना जीवन गुजार रहे हैं. किसान आंदोलन के समय जब मुख्यधारा की मीडिया सरकार के पक्ष में खड़ी है तब सोशल मीडिया पर ही किसानों की बात सामने आ सकी. आज के दौर में यूट्यूब चैनल पर पत्रकारिता करने वाले जनता में बेहद लोकप्रिय तो हैं ही, वे सरकार की नीतियों का खुल कर पोस्टमार्टम भी कर रहे हैं और जनता में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. जिस सोशल मीडिया के प्रभाव से डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी जैसे नेता लोकप्रियता के शिखर छू रहे थे वही सोशल मीडिया अब ऐसे नेताओं के लिए भस्मासुर बन गई है.

पत्रकारों का बढ़ता हुजूम सोशल मीडिया पर पत्रकारों का हुजूम तेजी से बढ़ता जा रहा है. मुख्यधारा की ज्यादातर मीडिया के ‘गोदी मीडिया’ बनने के बाद जनता के बीच सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों को बड़ा समर्थन मिल रहा है. केवल पत्रकार ही नहीं, कवि, गायक और दूसरे वर्ग के जो भी लोग जनता का सच बोलने की ताकत रख रहे हैं उन को समाज स्वीकार कर रहा है. सरकार के समर्थन में खड़ी मुख्यधारा की मीडिया जनता के निशाने पर आ गई. सोशल मीडिया पर ऐसे पत्रकार और गैरपत्रकार सक्रिय हो गए हैं. जो पत्रकार सरकार के निशाने पर थे वे भी सोशल मीडिया की ताकत का प्रयोग कर के जनता की बात सामने रख रहे हैं. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का ऐसा हुजूम चर्चा में है.

सोशल मीडिया का मतलब वैबसाइट, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब होता है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय सोशल मीडिया की ताकत दिखाई दी. एक अनाम सी लोक गायिका नेहा सिंह राठौर ने बिहार सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया. उस ने सोशल मीडिया पर ‘धरोहर’ नाम से यूट्यूब पर चैनल खोला, जिस में वह बिहार की सचाई बयान करने लगी. उस का गाना ‘बिहार में का बा’ सब से ज्यादा मशहूर हुआ. नेहा बिहार के कैमूर जिले की रहने वाली है. ‘बिहार में का बा’ गीत सब से अधिक पंसद किया गया. रातोंरात नेहा सोशल मीडिया पर मशहूर हो गई. उस के चैनल ‘धरोहर’ के 1 लाख 53 हजार फौलोअर्स हो गए. कई मीडिया चैनलों ने नेहा को अपने कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए बुलाया. नेहा ने अपने गानों में बिहार की बेरोजगारी और लाचारी सब का जिक्र किया था.

चुनाव खत्म होने के बाद भी नेहा मशहूर है. नेहा के गानों में बिहार के रोतेकलपते मजदूरों के दर्द को बताया गया था. नेहा कहती है, ‘‘हम ने बिहार के सच को लोगों तक पहुंचाने का काम किया. सोशल मीडिया के आने से सब की आवाज सुनी जाने लगी है. पहले केवल मीडिया जिस मुद्दे को उठाता था वही लोग सुनते थे. अब सोशल मीडिया पर हर किसी के सच की आवाज को लोग सुन रहे हैं. हमारी बात को लोगों ने दबाने की कोशिश भी की पर सोशल मीडिया की ताकत के आगे सब फेल हो गया. हम ने अपने गीतों के माध्यम से सरकार से सवाल पूछा था. यह सवाल आगे भी पूछेंगे. सवाल पूछना जनता का हक है. सोशल मीडिया पर हर रोज हमारे फौलोअर्स बढ़ रहे हैं. यही हमारी ताकत है.’’

सोशल मीडिया बना सहारा तालाबंदी और किसान आंदोलन के दौर में सोशल मीडिया ने मुख्यधारा की मीडिया के मुकाबले जनता के मुद्दों को अधिक संवेदना के साथ उठाया. मुख्यधारा की मीडिया से बाहर होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए पुण्य प्रसून वाजपेई ने अपने नाम से ही अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया. सरकार की योजनाओं के सच को सामने लाने का काम किया तो जनता ने भी उन का साथ दिया. यूट्यूब पर उन के फौलोअर्स की संख्या 12 लाख 60 हजार हो गई. 20 से 25 मिनट के वीडियो में पुण्य प्रसून वाजपेई सरकार की गलतियों को जनता के सामने लाने का काम करते हैं. उन के कार्यक्रम को खूब पसंद किया जा रहा है. वहीं आशुतोष पहले पत्रकार रहे, फिर आम आदमी पार्टी में गए और अब वापस सोशल मीडिया के जरिए अपना यूट्यूब चैनल बना कर काम कर रहे हैं.

आशुतोष ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर ‘सत्य हिंदी डौट कौम’ नाम से यूट्यूब पर चैनल बनाया. वे अपने चैनल पर अपील करते हैं कि ‘स्वतंत्र पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए लोग मदद करें.’ सोशल मीडिया पर लोगों ने ‘सत्य हिंदी डौट कौम’ को पंसद किया. इस के 8 लाख 84 हजार सब्सक्राइबर हो गए. इस में दिखाए जाने वाले शो को देखने वालों की संख्या लाखों में होती है. इस में सब से अधिक कार्यक्रम ‘आशुतोष की बात’ को पसंद किया जा रहा है. वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम भी मुख्यधारा की मीडिया से दूर सोशल मीडिया पर चर्चा में हैं. बिहार चुनाव के बाद उन की हनक सोशल मीडिया पर बढ़ी.

इस के बाद अजीत अंजुम के 9 लाख 48 हजार सब्सक्राइबर हो गए. किसान आंदोलन के समय अजीत अंजुम सब से अधिक चर्चा में रहे हैं. वे मुख्यधारा की मीडिया पर हावी दिखे. सोशल मीडिया पर जिस तरह से अजीत अंजुम अपनी बात रख रहे हैं उस से किसानों के बीच वे काफी पसंद किए जा रहे हैं. मुख्यधारा के एक और पत्रकार अभिसार शर्मा भी सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं. जनता ने शुरू किया बायकाट एक तरफ मुख्यधारा के पत्रकार टीवी स्टूडियो में बैठ कर सरकार के समर्थन वाली खबरें प्लांट कर रहे थे तो दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार किसानों के साथ सड़क पर खड़े उन की बात जनता तक पहुंचाते नजर आए. किसानों के मुद्दों को ले कर सब से सक्रिय रिपोर्टिंग सोशल मीडिया के पत्रकारों ने की.

जब मुख्यधारा की मीडिया वाले किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीन समर्थक बताने लगे, किसानों के रहनसहन और खानपान को मुद्दा बना कर सरकार का पक्ष लेना शुरू किया तो सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों ने किसानों का पक्ष लेना शुरू किया. जिस की वजह से किसान आंदोलन मजबूत हो सका. जनता ने इस को पंसद भी किया. जनता ने श्वेता सिंह, अंजना ओम कश्यप, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया जैसे कुछ समाचार एंकरों का नाम लेना शुरू किया.

आलोचना के कई तरह के वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल किए गए. लखनऊ में ‘4 पीएम’ नामक शाम का अखबार और अपना यूट्यूब चैनल चलाने वाले संजय शर्मा को लखनऊ में सरकार से सवाल पूछने वाला पत्रकार माना जाता है. उन के चैनल के एक लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं. वे कहते हैं कि सरकार से सवाल करने वालों की ताकत सोशल मीडिया बन गई है. लोगों को लगता है कि इस आवाज को सरकार दबा नहीं सकती है. लखनऊ में ‘भारत समाचार’ को भी इसी बेबाकी के रूप में देखा जा रहा है. जनता का सब से अधिक गुस्सा टीवी के पत्रकारों को ले कर है.

किसान आंदोलन में यह बात साफ दिखाई दी. सोशल मीडिया बनाम मुख्यधारा मीडिया सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार मुख्यधारा की मीडिया के लिए खतरा हैं. सोशल मीडिया को सरकार भले ही मीडिया नहीं मानती पर जनता ने उस को मीडिया मान लिया है. चुनाव के समय जिस तरह से फेसबुक की सरकार के साथ तरफदारी पर सवाल उठे थे उस से यह खतरा भी है कि सोशल मीडिया को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का हुजूम जिस तरह से बढ़ रहा है उस का सही लाभ समाज को मिलता नहीं दिख रहा. सरकार सोशल मीडिया को मीडिया का दर्जा नहीं दे रही और उस की आवाज को दबाने को अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा भी नहीं मानती. मुख्यधारा की मीडिया के मुकाबले सोशल मीडिया पर भरोसा फिलहाल कम है.

पत्रकारिता अब केवल समाचारपत्र और पत्रिकाओं तक सीमित नहीं रह गई है. इलैक्ट्रौनिक चैनलों से शुरू हुए बदलाव के बाद सोशल मीडिया एक क्रांति बन कर दिख रही है. बदलते दौर में जहां मुख्यधारा की पत्रकारिता मानी जाने वाले समाचारपत्र, पत्रिकाएं और न्यूज चैनलों में से ज्यादातर एकतरफा खबरों को दिखाने में लगे हैं वहां सोशल मीडिया जनसरोकार की खबरों को दिखा रहा है. एक बड़े वर्ग तक पहुंचने वाली सोशल मीडिया की खास बात यह है कि यहां खबरों के लिखने और दिखाने के कई आयाम हैं. सोशल मीडिया की सब से बड़ी खासीयत यह है कि यहां हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी है.

कम से कम लागत में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात को पहुंचाया जा सकता है. ट्रंप और मोदी समर्थक इस का दुरुपयोग कर रहे हैं तो लोकतंत्र समर्थक इसी का इस्तेमाल जहर को काटने में कर रहे हैं. जनता के बीच तेजी से पहुंचने के कारण सरकार पर भी इन का प्रभाव व दबाव पड़ता है. कई बार सरकार और प्रशासन इन के दबाव में फैसले भी लेते हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की एक घटना है. सड़क के किनारे एक गरीब आदमी टाइप मशीन रख कर टाइप करने का रोजगार करता था.

एक दिन पुलिस के दारोगा ने लात मार कर उस की मशीन तोड़ दी और उसे भगा दिया. पुलिस का कहना था कि वह सड़क पर अतिक्रमण कर के अपनी दुकान लगाए हुए था. यह बात सोशल मीडिया पर वायरल हुई. अखबारों में खबर छपी तो पुलिस प्रशासन ने न केवल माफी मांगी बल्कि टाइप मशीन भी नई दी. तालाबंदी और किसान आंदोलन में दिखी ताकत तालाबंदी के दौरान तमाम तरह की दिक्कतों को केवल सोशल मीडिया पर ही दिखाया जा सका. दिल्ली में एक बूढ़े दुकानदार के खानेपीने की दुकान का प्रचार करते हुए यूट्यूब पर ‘बाबा का ढाबा’ नाम से उस का प्रचार हुआ तो सैकड़ों लोग उस की मदद को आगे आ गए. दिल्ली सीमा पर किसानों ने कृषि कानूनों के खिलाफ जब आंदोलन शुरू किया तो मुख्यधारा की मीडिया ने किसानों को हतोत्साहित करने व उन को बदनाम करने का काम शुरू किया.

वहीं, सोशल मीडिया पर किसानों की खबरों को वैबसाइट न्यूज, फेसबुक लाइव, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर दिखाया जाने लगा. नतीजतन, सरकार दबाव में आई और किसानों से बातचीत शुरू की. किसानों को सोशल मीडिया का साथ नहीं मिला होता, तो सरकार और मुख्यधारा की मीडिया उन को बदनाम कर के धरना छोड़ कर भागने को मजबूर कर देती. किसान भी इस बात को सम झ चुके थे. उन्होंने मुख्यधारा की मीडिया खासकर टीवी चैनलों के बहिष्कार करने का काम शुरू किया. आजतक और जी न्यूज जैसे तमाम टीवी चैनलों के रिपोर्टरों को अपनी ‘माइक आईडी’ छिपा कर वहां जाना पड़ा. जबकि, अपने मोबाइल के जरिए सोशल मीडिया के लिए वीडियो और रिपोर्ट बना रहे पत्रकारों की तादाद बढ़ने लगी. शुरुआत में यह लोगों को सम झ नहीं आ रहा था. जैसेजैसे किसान आंदोलन लंबा चलने लगा, सोशल मीडिया की भूमिका लोगों की सम झ आने लगी.

यही नहीं, इन को देखने वालों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि होने लगी. आज समाचारपत्र और टीवी चैनल दर्शकों व पाठकों के लिए तरस रहे हैं जबकि सोशल मीडिया पर पत्रकारों और दर्शकों दोनों की होड़ लगी है. इन पत्रकारों से सरकार परेशान हो गई है. वह इन पर अपना नियंत्रण करने की योजना बना रही है. प्रभाव कम करने में जुटी सरकार सोशल मीडिया सरकार के नियंत्रण में नहीं है. यह उस के लिए परेशानी वाली बात है. सोशल मीडिया पर खबरों के प्रभाव को कम करने के लिए सरकार ने सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को पत्रकार मानने से ही इनकार कर दिया है. कई ऐसे पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे भी कायम कराए जाने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में एक पत्रकार ने सोशल मीडिया पर स्कूल में मिलने वाले मिडडे मील का वीडियो बना कर पोस्ट किया.

जिस में बच्चों को नमकरोटी खाने को दी गई थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने उस पत्रकार को वीडियो बनाने के जुर्म में मुकदमा कायम कर के जेल भेज दिया. असल में सरकार चाहती है कि सोशल मीडिया के पत्रकारों और खबरों को फेक या झूठी बता कर उन को हाशिए पर डाल दिया जाए जिस से जनता उन पर यकीन ही न करे. सोशल मीडिया की पत्रकारिता को पत्रकारिता ही न माना जाए. सरकार के इस प्रयास का उस को यह लाभ होगा कि जब भी किसी ऐसे पत्रकार के खिलाफ सरकार मुकदमा करेगी तो वह पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आजादी को ले कर सवालों के घेरे में न आएगी. यही सरकार जब अपने पक्ष में प्रचार करना हो तो सोशल मीडिया की खबरों को संज्ञान में लेती है और इस का प्रचार भी करती है. पिछले कुछ महीनों में देखा गया कि ट्विटर पर आने वाले कमैंट पर मंत्रीजी ने ऐक्शन ले लिया. इस को मुख्यधारा की मीडिया में इस तरह से प्रचार किया गया जैसे मंत्री हर शिकायत को ले कर कितना सजग है.

बड़े समूह में कैद सोशल मीडिया मीडिया के लिए लिखने के साथ ही साथ जरूरी होता है उस का प्रसार होना. पाठकों के बीच ज्यादा से ज्यादा पहुंचना. सोशल मीडिया आज इसलिए प्रभावी दिख रही है क्योंकि मोबाइल के जरिए वह हर आदमी की पहुंच में है. इस को देखने और पढ़ने के लिए अलग से पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं होती. इस को लेने बाजार में जाने की जरूरत नहीं होती. इस का दूसरा पक्ष यह है कि पूरा सोशल मीडिया नैटवर्क साइट पर निर्भर है. चुनाव के समय भारत और अमेरिका दोनों ही जगहों पर यह आरोप खुल कर लगा कि ये सरकार के पक्ष में काम कर रहे थे. सोशल मीडिया पर यह खतरा अधिक है. सरकार ने अगर सोशल मीडिया के लिए जगह देने वाली कंपनी को अपने दबाव में ले लिया तो सभी सरकार के पक्ष में खड़े दिखने लगेंगे. यह मुख्यधारा की मीडिया को अपने कब्जे में लेने से भी सरल काम है.

कंगना रनौत बनाम रिया चक्रवर्ती 2 धड़ों में बंटी मीडिया कंगना रनौत और रिया चक्रवर्ती को ले कर मीडिया 2 धड़ों में बंटी नजर आने लगी थी. अर्णव गोस्वामी जैसे मुख्यधारा के पत्रकार रिया चक्रवर्ती को निशाने पर ले कर सुशांत की आत्महत्या को हत्या बताने में लगे रहे. कई मामलों में यह होने लगा कि मुख्यधारा की मीडिया सरकार के साथ खड़ी नजर आने लगी. सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण की कोर्ट अवमानना की बात हो या स्टैंडअप कौमेडियन कुणाल कामरा द्वारा आलोचना की, मुख्यधारा की मीडिया सरकार के पक्ष में ही खड़ी दिखी. इस कारण से सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों को जनता का समर्थन मिलने लगा. कंगना रनौत विवाद के बाद सोशल मीडिया पर उस के फौलोअर्स की संख्या 30 लाख से अधिक हो गई. कंगना केवल ट्विटर का प्रयोग ही करती हैं. उन के फौलोअर्स की संख्या अब भी बढ़ती जा रही है. कंगना को केंद्र सरकार के समर्थक सब से अधिक फौलो करते हैं जबकि महाराष्ट्र सरकार के समर्थक मानते हैं कि कंगना का प्रयोग महाराष्ट्र सरकार को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है. सोशल मीडिया के जाल में ट्रंप पहले डिक्टेटर जमीन की चाह में बड़ीबड़ी फौजें जमा करते थे.

उन तानाशाह हमलावरों की नजर जमीन पर नहीं, जमीन पर काम करने वालों की मेहनत का फायदा उठाने पर थी. आज यही काम इंटरनैट के माध्यम से हो रहा है और नई जमीन मिट्टी या पत्थर की नहीं बल्कि तारों, सैटेलाइटों, वाईफाई, इंटरनैट की है. गूगल और फेसबुक आज 2 बड़े समुद्र हैं जिन की जमीन पर एमेजौन जैसी कंपनियां फलफूल रही हैं. अब फेसबुक के मालिक व्हाट्सऐप और फेसबुक को आपस में जोड़ कर इन दोनों को इस्तेमाल करने वालों को अपनी मरजी से जानकारी देने, अपनी मरजी से उन के राज जानने, अपनी मरजी से उन्हें विज्ञापन पहुंचाने की नईनई चेष्टाएं कर रहे हैं. ध्येय यह है कि लोगों को इस तरह सहीगलत जानकारी दे कर भ्रमित रखा जाए कि जो इन के मालिकों को खुश रखे, वह इन लोगों से संपर्क कर सके, बाकी को अंधेरे में रखा जाए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने जो उत्पात मचाया और लोगों को राजधानी पर कब्जा करने के लिए उकसाया, वह ट्विटर के जरिए किया था. इस घटना से घबरा कर ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट ने अमेरिका के राष्ट्रपति के अकाउंट कुछ समय के लिए बंद कर दिए. एक तरह से इन कंपनियों ने अमेरिका के शक्तिशाली राष्ट्रपति का मुंह बंद कर दिया, उन्हें नजरबंद कर दिया, उन को खुली जेल में डाल दिया.

यह माना जा सकता है कि डोनाल्ड ट्रंप अति कर रहे थे, वे लोकतंत्र की जड़ें खोद रहे थे पर ये सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स उन के सब से बड़े टैंक व मिसाइल थे. उन का अकाउंट बंद करना यानी उन को इग्नोर करना सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों की ताकत का एहसास कराता है. जब ये अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह बंद कर सकते हैं तो आम आदमी क्या है? एकदूसरे से संपर्क रखने की चाहत ने आज लोगों को खुशीखुशी उन जंजीरों को पहनने को बाध्य कर दिया है जो उन की जानकारी, उन के प्लान, उन की बात को 24 घंटे कंट्रोल कर सकती हैं. ऐसा प्रभाव कभी भी पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचारपत्रों या टीवी का नहीं था. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स अब एकदो हाथों में सिकुड़ रहे हैं. इस का अर्थ है कि अब रूसी, चीनी, अमेरिकी साम्राज्य नहीं चलेंगे, सोशल मीडिया दिग्गजों की चलेगी. जब ये अमेरिकी राष्ट्रपति को बंद कर सकते हैं तो दूसरे किस खेत की मूली हैं. जो देश इन पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें जल्दी दिखेगा कि उन के यहां के मुखर विरोधियों की आवाज ही कट गई है. व्हाट्सऐप और फेसबुक का एक होना मार्क जुकरबर्ग के लिए सेना की जौइंट कमांड बनाने जैसा है, बस.

मेरी सास भी नहीं है और मां भी नहीं मैं प्रैग्नेंट हू, मेरे पति भी बहुत व्यस्त रहते हैं मैं क्या करुं?

सवाल

हम पत्नी-पत्नी की शादी हुए 2 साल हो गए हैं और अब में प्रैग्नैंट हूं. सासससुर थे नहीं और मेरी मम्मी भी पिछले साल नहीं रहीं. पति की जौब अच्छी है लेकिन बहुत बिजी रहते हैं. कोई ऐसा नहीं जो मेरे साथ रह सके. मेरी देखभाल करे. मु झे अपने स्वास्थ्य को ले कर चिंता होने लगी है. मु झे क्या करना चाहिए और क्या नहीं?

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जवाब

आप अकेली हैं. पति बिजी रहते हैं. इसलिए अपनी प्रैग्नैंसी का ध्यान आप को स्वयं रखना पड़ेगा. आप को अपने खानेपीने का विशेष ध्यान रखना है. कोई भी ऐसी गलती न करें जिस से आप को परेशानी हो और बच्चे को खतरा रहे. जैसे, तनाव और डिप्रैशन से बचें क्योंकि इस का सीधा असर बच्चे पर पड़ सकता है. तनाव दूर करने के लिए मैडिटेशन करें. डाक्टर से उचित सलाह लेती रहें. वे पोषक तत्त्वों से युक्त हैल्दी खाने का डाइट चार्ट आप को देंगे.

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आप घर पर अकेली हैं, तो घर के काम भी करने हैं लेकिन जरा ध्यान से. ज्यादा सीढि़यां न उतरें, न चढ़ें. कम वजन उठाने वाले ही काम करें. अपने को खुश रखने की कोशिश करें. अच्छी पुस्तकें पढ़ें. नियमित रूप से डाक्टरी चैकअप करवाएं. कुछ भी कौम्प्लिकेशन हो, तो डाक्टर से तुरंत मिलें.

यदि आर्थिक रूप से संबल हैं तो फुलटाइम मेड रख सकती हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

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पढ़ोगे तो आगे बढ़ोगे

लेखक-तपेश भौमिक

पढ़ना ऐसी क्रिया है जो ज्ञान में दिनोंदिन बढ़ोतरी करती है और जीने का सलीका सिखाती है. यह एक तरह से ऐक्सरसाइज की तर्ज पर है, जितना पढ़ेंगे उतना मंजेंगे. पढि़ए, खूब पढि़ए और आगे बढि़ए. ‘रीडिंग इज टू द माइंड, व्हाट ऐक्सरसाइज इज टु द बौडी’ प्रख्यात अंग्रेज साहित्यकार व संपादक जोसफ एडिसन ने आज से लगभग 300 साल पहले यह बात कही थी, यानी पढ़ाई दिमाग के लिए उतनी जरूरी है, जितना शारीरिक स्वास्थ्य के लिए व्यायाम. उन की यह बात कई वैज्ञानिक शोधों द्वारा प्रमाणित भी हो चुकी है. व्यायाम जिस प्रकार से हमारे शरीर को स्वस्थ और सुडौल बनाता है, ठीक उसी प्रकार हम किताबें पढ़ कर अपने मनमस्तिष्क को स्वस्थ व आनंदमय बना सकते हैं.

एक अच्छी किताब मनुष्य के मन की आंखों को जिस प्रकार खोल देती है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान और बुद्धि को भी प्रसारित कर अंत:स्थल को रोशनी से भर देती है. किताबें मनुष्य की महानतम संपदा हुआ करती हैं. इन के साथ अन्य किसी भी वस्तु की तुलना नहीं की जा सकती. उदाहरण के लिए, आप अगर एक प्रयोग से गुजरते हैं कि एक ही दिन में कुछ मनपसंद पुस्तकें और सामान खरीद कर लाते हैं और अपने सम्मुख किसी मेज पर उन्हें रख कर ध्यान लगा कर उलटपुलट कर देखते हैं, तो ऐसा निश्चित अनुभव होगा कि किताबें खरीद कर आप ने अपनेआप को अधिकतम समृद्ध किया है. साथ ही, यह भी अनुभव कर सकते हैं कि आप ने अपने आने वाले वंशज के लिए भी एक धरोहर तैयार करनी शुरू कर दी है. उन्हें इस बात का गुमान होगा कि उन के पूर्वजों ने उन के लिए धन के साथसाथ विद्या भी रख छोड़ी है.

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दस लोग केवल यह कहेंगे कि उन के पूर्वजों ने उन के लिए इतनी प्रौपर्टी रख छोड़ी थी, जबकि आप के वंशज यह तो कहेंगे कि उन के पूर्वजों ने धन के साथसाथ विद्या भी रख छोड़ी है. जिस घर में किताबों से भरी अलमारियां होतीं हैं, उस में प्रवेश कर के देखिए कि कुछ अलग अनुभव होता है या नहीं? बचपन से होश आते ही किशोर जब घर में पुस्तक और पढ़ाई का माहौल देखते हैं, तो उन में पढ़नेलिखने का संस्कार अपनेआप आ जाता है. आमतौर पर हम या तो अपने चुनिंदा विषय की किताबें पढ़ते हैं, नहीं तो मनोजगत को मनोरंजन देने के लिए साहित्य का अध्ययन करते हैं. हम जब नियमित ढंग से पुस्तकों का अध्ययन करते हैं, तब हमारा मनमस्तिष्क विकसित होने लगता है.

हमें ऐसा लगता है कि हम ने अब तक जितनी भी किताबें पढ़ कर परीक्षाएं दी हैं और सर्टिफिकेट हासिल किया है, उस पढ़ाई को ही हम सम्मानित कर रहे हैं यानी अपनी शैक्षिक योग्यता को और ऊंचा दर्जा दे रहे हैं. बहरहाल, यह भी अनुभव कर सकते हैं कि जितनी पढ़ाई कर के हम विद्यारूपी दुलहन को घर लाए हैं, उसे ही अब पुस्तकें पढ़ कर अलंकारों से सजा रहे हैं यानी कामिनी कंचन का योग. इस संसार में ऐसे उदाहरण अनेक मिलेंगे कि जितने लोगों ने अपनेअपने क्षेत्र में बड़ी सफलताएं पाई हैं, उन में पढ़ाई की एक बड़ी भूमिका अवश्य ही रही है. चाहे वे राजनीतिज्ञ रहे हों, वैज्ञानिक या समाज सुधारक या अन्य, हरेक की सफलता का राज उन के अध्ययनशील होने में ही छिपा है. साथ ही, उन्होंने अपने वर्तमान व्यस्त जीवन में भी पढ़ाई नहीं छोड़ी है. ऐसे लोगों के लिए पढ़ाई उन की मौलिक आवश्यकता बन गई. बिल गेट्स प्रत्येक वर्ष लगभग 50 पुस्तकें पढ़ लेते हैं.

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मार्क क्यूबा प्रतिदिन 3 घंटे से अधिक पुस्तकें पढ़ते हैं. एलन मस्क ने रौकेट साइंस की विद्या किताबें पढ़ कर ही अर्जित की है. नएक किताब केवल हमें जानकारियों से ही नहीं समृद्ध करती, बल्कि नई सोच, नए सवाल भी हमारे मन में पैदा करती है.  पुस्तकें पढ़ने के लाभ पुस्तकें पढ़ने के कुछ लाभों को हम इस प्रकार सूचीबद्ध कर सकते हैं : पुस्तक पढ़ने से अपनी जानकारी और सोच में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, भले ही वे कथाकहानियां या ज्ञानविज्ञान ही क्यों न हो या अपने पेशे से जुड़ी किताबें ही हों, वे निश्चय ही लाभकारी हुआ करती हैं. द्य पुस्तकें पढ़ने वाले उद्दीपन भाव के प्रेरक होते हैं. शोधों के दौरान देखा गया है कि जिन्हें पुस्तकें पढ़ने का शौक है, उन में डिमैंशिया और अल्जाइमर नामक दोनों रोगों को प्रतिरोध करने की क्षमता बहुलांश में आ जाती है.

दिमागी तनाव को कम करने के लिए पुस्तकों का पढ़ना लाभकारी है. वर्ष 2009 में यूके के ससैक्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ‘हार्ट रेट’ और ‘मसल टैंशन’ मौनिटरिंग के माध्यम से जांच कर के पाया कि पुस्तकों के पठनपाठन से स्ट्रैस लैवल घट जाता है.

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की दुनिया दुनियावी मोहमाया, क्रोध आदि से उबारने में भी सहायक सिद्ध होती है.  लेखक जब पुस्तकें लिखता है, तब वह जानेअनजाने में अपने भोगे हुए यथार्थ को भी अंकित करता जाता है. वह अपनी साधारण बातें नहीं वरन असाधारण बातों से अपने पाठकों को रूबरू कराता जाता है.

पाठक उन्हें पढ़ कर लेखकीय विचारों से आकर्षित होता जाता है. वह अकसर उन विचारों को अपना आदर्श बना लेता है. लेखक वर्षों की मेहनत के बाद एक पुस्तक लिखने में कामयाबी हासिल करता है, लेकिन पाठक उसे कुछ ही घंटे पढ़ कर अपने ‘नौलेज बैंक’ का ‘बैंक बैलेंस’ बढ़ा लेता है. द्य पुस्तकों की पढ़ाई हमारी कल्पनाशक्ति में अभिवृद्धि करती है. वह कुछ समय के लिए उस मायावी जगत में सैर कराने ले जाती है, जिस में सैर करने के लिए नशेड़ी नशीली वस्तुओं का सेवन करते हैं.

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 1: आलिम ने आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

देवीप्रसाद के कहने पर आलिम को एक पेड़ से बांध दिया गया था. पीड़ा जब अंतहीन हो जाती है, वह मनुष्य को शक्ति प्रदान कर देती है. आलिम के शरीर का हर अंग दर्द में था, लेकिन उस के हृदय और उस की जान को वे तनिक भी चोट नहीं पहुंचा पाए थे.

मानव की उत्पति के स्वाभाविक से प्रश्न का उत्तर शातिर लोगों ने कपोलकल्पित कहानियों के जरिए एक ईश्वर गढ़ लिया और फिर दुकानदारी बढ़ाते हुए उस कपोलकल्पित ईश्वर के एजेंटों की एक लंबी सूची तैयार कर ली गई. हर दुकानदार ने अपने ग्राहकों को उल झाया और मतिभ्रम कर उस का अपना खुद का वजूद उस नितांत कल्पित ईश्वर के मौजमस्ती करने वाले दुकानदारों के आगे सूक्ष्म कर डाला.

लेकिन आज तक एक प्रश्न उस के अंतर में संशय बन विराजमान है और वह प्रश्न है, इस ‘धरा पर जीवन की उत्पति’. इस एक प्रश्न ने ईश्वर जैसी किसी शक्ति के होने के संयोग पर मुहर लगा दी. कोई ईश्वर इस ब्रह्मांड का रचनाकार नहीं है, किंतु, शातिर मनुष्य कपोलकल्पित ईश्वर का रचनाकार है, यह निर्विवाद है. धर्म कोई भी हो, प्रार्थना की शैली भले ही भिन्न हो, आराध्य का रूप भी भिन्न हो, किंतु उस आराध्य, उस के विचारों तथा प्रार्थना की शैली को लोगों के मध्य स्थापित करने वाला मनुष्य ही था.

सभी धर्मों का मार्ग स्वर्ग में बैठी उस शक्ति तक जाता है जिस ने, उन के मतानुसार, यह सृष्टि बनाई तथा फिर सुदूर जा बैठा. एक प्रश्न यह भी है कि, उस ने इस संपूर्ण ब्रह्मांड में मात्र पृथ्वी को मनुष्यों के लिए बनाया, अथवा अन्य ग्रहों पर भी वह पूजनीय है. हालाकि धार्मिक ग्रंथ ईश्वर की सत्ता का संपूर्ण ब्रह्मांड में होने का दावा करते हैं किंतु विज्ञान अभी दूसरे ग्रहों पर जीवन के होने की पुष्टि नहीं कर पाया है. दूसरे ग्रहों की तो छोडि़ए, इसी पृथ्वी के पशुपक्षी इस ईश्वर की कल्पना के शिकार नहीं हैं.

जो ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करता है, वह नहीं स्वीकार करने वालों के सामने कभी सिद्ध नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानने वाला भी भक्तों को ईश्वर की भक्ति से नहीं हटा सकता. एक नास्तिक यह तर्क रख सकता है कि, ईश्वर जैसी कोई शक्ति प्रत्यक्ष उपकरणों से सिद्ध नहीं होती. वहीं, एक आस्तिक इस जटिल संसार के स्वयं उत्पन्न हो जाने के तथ्य को अंगीकार नहीं करेगा. उस के अनुसार आस्था, प्रेम और विश्वास को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है.

अब तक जितना वैज्ञानिक विकास हुआ है, वह पूर्ण नहीं है. सृष्टि के संपूर्ण रहस्य का पता लगाना अभी शेष है. विज्ञान अभी अपूर्ण है, इसलिए सृष्टिकर्ता पर संशय बना रहेगा. इस संशय का लाभ उठा कर धर्मगुरुओं, बाबाओं, मौलवियों के व्यापार का विकाशन होता रहेगा. उन के दृष्टिकोण को परमपिता की राय बना कर प्रचारित किया जाता रहेगा. मानव प्रजाति एक अदृश्य, अलख तथा अलक्ष्य ईश्वर के नाम पर फैलाई जा रही विषैली हवा में सांस लेती रहेगी. हर मजहब नफरत सिखाता ही है और यह भी सत्य है कि संसार में अत्यधिक हिंसा धार्मिक उन्माद के कारण ही हुई है.

इतना आडंबर, मिथ्याचार, अत्याचार, असहिष्णुता तथा पीड़ा देख कर भी वह ईश्वर इस संसार में न्याय की स्थापना करने नहीं आता. इस का एक ही कारण हो सकता है कि उस का अस्तित्व है ही नहीं.

मेरठ कालेज की लाइब्रेरी के एक कोने में बैठा आलिम अपने विचारों को लिपिबद्ध करने में व्यस्त था. उस की प्रज्ञता तथा विद्वत्ता उस के नाम को चरितार्थ करती थी, आलिम अर्थात ज्ञान. हिंदी में स्नातक की डिग्री उस ने स्वर्णपदक के साथ अर्जित की थी. अब स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में था. कालेज की पढ़ाई और सिविल सर्विसेज की तैयारी के मध्य जब भी समय मिलता, वह अपने आभ्यंतर के युद्ध को पन्नों पर उतार दिया करता था. कुछ पत्रिकाओं में उस के इन विचारों को स्थान भी मिल जाया करता था. समयसमय पर अनेक वादविवाद प्रतियोगिताओं में शामिल हो कर वह अपने सुवक्ता होने का प्रमाण भी दे दिया करता था.

?जब वह लिखता, उस के आसपास की दुनिया उस के लिए गौण हो जाया करती थी. आज भी वैसा ही हुआ था. लाइब्रेरी में असंख्य लोगों के मध्य भी वह एकाकी था. इसलिए वह जान ही नहीं पाया कि आधे घंटे से वैदेही उसे सामने वाली टेबल से निहार रही थी.

आलिम और वैदेही मुजफ्फरनगर के एक ही गांव से थे. उन का विषय और वर्ष भी समान था. किंतु, उन के बीच विरले ही कभी कोई संवाद हुआ था. इस का प्रयोजन उन दोनों की भिन्न पृष्ठभूमि में निहित था. उन के गांव में एक ब्राह्मण परिवार की लड़की का मुसलमान लड़के के साथ मित्रता तो दूर की बात थी, साधारण परिचय भी गुनाह था. वहां स्त्री को शिक्षा की अनुमति थी, व्यवसाय करने की भी थी लेकिन चयन तथा निर्णय का अधिकार उस के परिवार के पुरुषों को प्राप्त था. शिक्षा तथा नौकरी का अधिकार स्त्री को कृपा के रूप में प्राप्त हुआ था. परिवार वाले, येनकेन प्रकारेण, स्त्री को इस कृपा से अवगत कराना नहीं भूलते थे.

 

नर्सरी में तैयार करें लतावर्गीय सब्जियों के पौधे

जनवरी और फरवरी का महीना लतावर्गीय सब्जियों की रोपाई के लिए खास माना जाता है. इन दिनों लतावर्गीय सब्जियों की रोपाई कर गरमी के लिए अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है. इन बेल वाली सब्जियों में लौकी, तोरई, खीरा, टिंडा, करेला, तरबूजा, खरबूज, कद्दू वगैरह की रोपाई कर गरमी के मौसम में मार्च से ले कर जून माह तक अच्छी उपज ली जा सकती है. इन लता वाली सब्जियों की खेती बीज को सीधे खेत में बो कर या नर्सरी में पौध तैयार कर खेत में रोप सकते हैं. जनवरीफरवरी माह में पौधों के उचित जमाव के लिए प्लास्टिक ट्रे, प्लास्टिक लो टनल या पौलीबैग तकनीक का प्रयोग कर लतावर्गीय सब्जियों की नर्सरी तैयार की जा सकती है. इस विधि में प्लास्टिक शीट से लो टनल में भी पौध तैयार करते है. इस में बीज को बो कर पौध तैयार की जाती है.

इस के बाद तैयार पौध को तैयार खेत में रोपा जाता है. इस विधि से लतावर्गीय सब्जियों की रोपाई करने से पौधों के मरने पर उन की जगह दूसरी पौध रोप कर नुकसान से बचा जा सकता है. इन सब्जियों के पौधों की तैयार करें नर्सरी जनवरी से ले कर मार्च माह तक बोई जाने वाली लतावर्गीय सब्जियों के पौधों की अगर अगेती नर्सरी तैयार की जाए, तो बाजार में उपज की आवक जल्दी होने से दाम अच्छा मिलता है और लंबे समय तक उपज भी ली जा सकती है. हम इस समय बोआई के लिए जिन लतावर्गीय वाली सब्जियों का चयन करते हैं, उन में लौकी, करेला, खीरा, कद्दू, टिंडा, खरबूजा, तरबूज, तोरई जैसी किस्में प्रमुख हैं. ऐसे तैयार करें पौध ठंड के मौसम में लतावर्गीय वाली सब्जियों की खेती के लिए नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए कई विधियों का प्रयोग किया जाता है, जिस में मुख्य रूप से प्लास्टिक ट्रे, प्लास्टिक लो टनल या पौलीबैग में पौधों को तैयार करना ज्यादा मुफीद होता है.

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ऐसे तैयार करें प्लास्टिक लो टनल सब्जियों की पौध तैयार करने के लिए प्लास्टिक लो टनल में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था कर लें. इस के लिए ड्रिप इरिगेशन तरीका ज्यादा मुफीद होता है. प्लास्टिक लो टनल बनाने के लिए जमीन से उठी हुई क्यारियां हवा के आनेजाने को नजर में रखते हुए उत्तर से दक्षिण दिशा में बनाई जानी चाहिए. इस के बाद क्यारियों के मध्य में एक ड्रिप लाइन बिछा दी जाती है. इन क्यारियों के ऊपर अर्धवृत्ताकार लोहे के 2 मिलीमीटर मोटे लोहे के तारों को मोड़ कर दोनों सिरों की दूरी 50 से 60 सैंटीमीटर और ऊंचाई भी 50 से 60 सैंटीमीटर रख कर सैट कर लेते हैं. ध्यान रखें, मोड़े गए तारों के बीच की दूरी 1.5 से 2 मीटर हो, जो 20-30 माइक्रोन मोटाई और 2 मीटर चौड़ाई वाली पारदर्शी प्लास्टिक की चादर से ढका हो, इन तारों पर चढ़ा कर ढक दिया जाता है.

बिना मिट्टी के पौध तैयार करना कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक, इस विधि से लतावर्गीय वाली सब्जियों की पौध तैयार करने के लिए मिट्टी का उपयोग नहीं किया जाता है, बल्कि इस विधि में मृदाविहीन विधि से बीज की रोपाई कर पौध तैयार की जाती है. जो किसान इस विधि से नर्सरी में पौध तैयार करते हैं, उस से सेहतमंद पौधे तो तैयार किए ही जा सकते हैं, साथ ही, इस में बीमारियों का प्रकोप भी कम पाया जाता है. मृदाविहीन विधि से नर्सरी तैयार करने के लिए सब्जी के बीज की बोआई जमीन में न कर के प्लास्टिक ट्रे में की जाती है, जिस के लिए जरूरी चीजों में कोकोपिट, प्लास्टिक ट्रे, वर्मी कंपोस्ट, सब्जी बीज और फफूंदीनाशक के लिए घुलनशील पाउडर बाविस्टीन की जरूरत होती है. इस विधि से बीज को प्लास्टिक ट्रे में रोपाई के पहले कोकोपिट को एक प्लास्टिक या जूट के बोरे में भर कर ऊपर से बोरे का मुंह बांध देते हैं.

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इस के बाद उस को 5-6 घंटे के लिए बोरे को पानी में डुबो कर भिगो देते हैं. 6 घंटे बाद बोरे को पानी से बाहर निकाल कर भीगे हुए कोकोपिट को साफ प्लास्टिक की पन्नी पर पतली परत बनाते हुए फैला देते हैं. उस के बाद कोकोपिट को खूब दबा कर पानी निकाल लेते हैं. जब इस कोकोपिट से पूरा पानी छन जाता है, तो उस में जितनी मात्रा कोकोपिट की होती है, उतनी ही मात्रा में वर्मी कंपोस्ट मिला लेते हैं. जब कोकोपिट और वर्मी कंपोस्ट का मिश्रण तैयार हो जाए, तो उस में प्रति किलोग्राम मिश्रण की दर से 2 ग्राम बाविस्टीन को मिला लेते हैं. जब यह मिश्रण पूरी तरह से तैयार हो जाए, तो प्लास्टिक ट्रे में इस मिश्रण को दबादबा कर भर लेते हैं. ट्रे में मिश्रण को भरने के बाद उस में बीज की बोआई कर ऊपर से कोकोपिट मिश्रण की एक हलकी परत से ढक दिया जाता है.

ट्रे में तैयार किए जाने वाली इस नर्सरी में पौधों को हलकी सिंचाई की जरूरत होती है. ऐसे में इस की सिंचाई को हजारे से किया जाना ज्यादा मुफीद होता है. पौलीबैग में नर्सरी तैयार करना लतावर्गीय सब्जियों की पौध तैयार करने के लिए पौलीथिन की छोटी थैलियों का भी उपयोग किया जा सकता है. इन थैलियों में पौधे को उगाने के लिए मिट्टी, खाद व रेत का मिश्रण बराबर के अनुपात में मिला कर भरा जाता है. मिश्रण भरने से पहले हर थैली की तली में 2 से 3 छेद पानी के निकास के लिए बना लेते हैं. बीज को मिश्रण में रोपने के पहले कैप्टान दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिला कर उपचारित कर लेते हैं. बीजों के अच्छे जमाव के लिए उन्हें 6 से 12 घंटे तक पानी में डुबो कर निकाल लेते हैं और फिर किसी सूती कपड़े या बोरे के टुकड़े में लपेट कर किसी गरम जगह पर रख देते हैं. जब इन में बीजों का अंकुरण हो जाए, तो इसे तैयार पौलीबैग में बो देते हैं. इस से जमाव दर अच्छी होती है. अच्छे जमाव के लिए हर थैली में 2 से 3 बीजों की बोआई करना उचित होता है.

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बाद में एक पौधा छोड़ कर अन्य को निकाल देते हैं. बीज रोपाई के बाद इन पैकेटों को लो टनल या पौलीहाउस में रख दिया जाता है. दोनों विधियों से पौधों की रोपाई करने के लिए अधिक ठंड से बचाने के लिए इसे प्लास्टिक लो टनल के अंदर रख देते हैं. अगर पौधों में पोषक तत्त्वों की कमी हो, तो पानी में घुलनशील एनपीके मिश्रण का छिड़काव कर देना चाहिए. नर्सरी में लतावर्गीय पौधों को तैयार करने के दौरान देखभाल से जुड़ी जरूरी बातें बस्ती जिले के पचारीकला गांव के प्रगतिशील किसान विजेंद्र बहादुर पाल के मुताबिक, लतावर्गीय सब्जियों की नर्सरी तैयार करने के दौरान हमें कुछ विशेष बातों का खयाल रखना पड़ता है, जिस में पहली बात यह है कि नर्सरी में पर्याप्त नमी बनाए रखें व बीज को नर्सरी में बोने के बाद 11वें और 21वें दिन 2 मिलीलिटर मैंकोजेब प्रति लिटर पानी के साथ घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए, जिस से नर्सरी आर्द्रगलन, पौधगलन व दूसरे फफूंदजनित रोग से बचाव होता है.

यह भी ध्यान दें कि जब नर्सरी में पौधे 4 से 5 पत्ती वाले यानी 30 से 35 दिन के हो जाएं, तो ऊंची उठी हुई क्यारियों में अथवा गड्ढा बना कर निश्चित दूरी पर पौधों की रोपाई कर लेनी चाहिए. नर्सरी से सब्जी फसलों की रोपाई से लाभ सर्द मौसम में सब्जी की रोपाई बीज द्वारा सीधे खेत में किए जाने की अपेक्षा नर्सरी में पौध तैयार कर के रोपना ज्यादा मुफीद होता है. इस से न केवल पौधों के लिए उपयुक्त आवश्यक वातावरण दे कर समय से पौध तैयार की जा सकती है, बल्कि बीज की मात्रा भी कम लगती है और सेहतमंद पौधे भी तैयार होते हैं. इस विधि से खेती करने से उत्पादन लागत भी कम लगती है. नर्सरी में लो टनल या पौलीहाउस में पौध तैयार करने से बारिश, ओला, कम या अधिक तापमान, कीड़े व रोगों का प्रभाव पौधों पर कम पड़ता है. नर्सरी में तैयार किए गए पौधों का विकास तेजी से होता है, इसलिए उपज जल्दी मिलनी शुरू हो जाती है. तैयार पौधों की खेत में रोपाई प्रगतिशील किसान राममूर्ति मिश्र का कहना है कि नर्सरी में लतावर्गीय वाली सब्जियों के पौधों की खेत में रोपाई के लिए सब से पहले नाली या थाले बना लेना उचित होता है.

नाली को पूरब से पश्चिम दिशा की ओर बनाया जाता है. ये नालियां 45 सैंटीमीटर चौड़ी और 30 से 40 सैंटीमीटर गहरी बनाई जाती हैं. नाली बनाते समय यह ध्यान रखें कि खीरा, टिंडा के लिए एक नाली से दूसरी नाली के बीच की दूरी 2 मीटर और कद्दू, तरबूज, लौकी, तोरई में 4 मीटर तक दूरी रखी जाए. इसी तरह नाली के उत्तरी किनारों पर थाले बनाए जाने चाहिए, जिस में चप्पनकद्दू, टिंडा व खीरा के लिए 0.50 मीटर रखें. कद्दू, करेला, लौकी, तरबूज के लिए एक मीटर की दूरी रखी जाती है. इस तरह से पौधों की रोपाई करने से कम लागत में अधिक पैदावार ली जा सकती है. किसान राममूर्ति मिश्र के मुताबिक, नर्सरी में लतावर्गीय सब्जियों की तैयार पौध की रोपाई फरवरी माह में शुरू करें, क्योंकि तब तक पाला पड़ने की संभावना कम हो जाती है. ऐसे में पौधों को नुकसान से बचाया जा सकता है.

नर्सरी से पौधों को खेत में पौलीबैग या प्लास्टिक ट्रे से पौधा मिट्टी समेत निकाल कर तैयार क्यारियों में शाम के समय रोपें. जैसे ही पौधों की रोपाई खेत में की जाए, उस के तुरंत बाद पौधों की हलकी सिंचाई करना न भूलें. पौधों को खेत में रोपने के 10-15 दिन बाद फसल की निराईगुड़ाई कर के खरपतवार साफ कर देना चाहिए. साथ ही, पहली गुड़ाई के बाद जड़ों के आसपास हलकी मिट्टी चढ़ानी चाहिए. खेत में रोपी इन लतावर्गीय सब्जियों में जब फूल और फल आ रहा हो, उस समय सिंचाई अवश्य करें. खाद और उर्वरक कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में विशेषज्ञ, फसल सुरक्षा, डाक्टर प्रेमशंकर के मुताबिक, नर्सरी से तैयार कर लतावर्गीय वाली सब्जियों को खाद व उर्वरक देने में काफी सतर्कता बरतने की जरूरत होती है. ऐसे किसानों को रोपाई के पहले ही फसल में उर्वरक देने की पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए. खेत में जब पौध रोपाई के लिए अंतिम जुताई हो जाए, तो उस समय 200 से 500 क्विंटल सड़ी खाद के साथ 2 लिटर ट्राइकोडर्मा मिला देना चाहिए.

इस से फसल को मिट्टी से फैलने वाले फफूंद से बचाया जा सकता है. फसल से अधिक उत्पादन लेने के लिए प्रति हेक्टेयर 240 किलोग्राम यूरिया, 500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 125 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की जरूरत पड़ती है. इस में सिंगल सुपर फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की आधी मात्रा नाली बनाते समय कतार में डालते हैं, जबकि यूरिया की एकचौथाई मात्रा रोपाई के 20 से 25 दिन बाद दे कर मिट्टी चढ़ा देते हैं और एकचौथाई मात्रा 40 दिन बाद टौप ड्रैसिंग के समय दी जाती है. पौधों को गड्ढे में रोपते समय प्रत्येक गड्ढे में 30 से 40 ग्राम यूरिया, 80 से 100 ग्राम सिंगल सुपर

फास्फेट व 40 से 50 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की मात्रा मिला कर रोपाई की जानी चाहिए. पौधों की कटाई, छंटाई व सहारा देना बड़े स्तर पर सब्जियों की खेती करने वाले बस्ती जिले के दुबौलिया गांव के रहने वाले प्रगतिशील किसान अहमद अली का कहना है कि लतावर्गीय सब्जियों की फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए पौधे की कटाईछंटाई फायदेमंद होती है, इसलिए पौधों को 3 से 7 गांठ के बाद सभी द्वितीय शाखाओं को काट देना चाहिए. पौधों को सहारा देने के लिए मचान बना कर मचान के खंभों के ऊपरी सिरे पर तार बांध कर मचान पर चढ़ा लेते हैं. इस तरह लतावर्गीय सब्जियों की खेती कर के अच्छी उपज हासिल की जा सकती है और आमदनी भी अधिक ले सकते हैं.

मेरी उम्र26 साल है मैं एक 45 वर्षीय इंसान से प्यार करती हूं, अगर मैं उसे छोड़ दूंगी तो आर्थिक मदद हमारी बंद हो जाएगी

सवाल

मैं 26 वर्षीय अविवाहित, सरकारी कार्यरत युवती हूं. पिता की मृत्यु हो चुकी है. मुझ से छोटी 2 बहनें और हैं. मां ने जैसे तैसे हमें पढ़ायालिखाया. एक बहन पार्लर में काम कर रही है. उस से छोटी प्राइवेट कंपनी में रिसैप्शनिस्ट का काम कर रही है. मैं 45 वर्षीय आदमी से प्यार करती हूं और उस से शादी करना चाहती हूं. लेकिन वह शादी करने से मना करता है. मैं उसे छोड़ भी नहीं सकती क्योंकि फाइनैंशियली वह मेरे परिवार की मदद करता है. मु झ पर बहनों की शादी की भी जिम्मेदारी है. उस आदमी को छोड़ती हूं तो आर्थिक मदद बंद हो जाएगी. कुछ सम झ नहीं आ रहा, क्या करूं?

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जवाब

पिता न होने के कारण बड़ी होने के नाते छोटी बहनों की जिम्मेदारी भी आप पर है. दोनों बहनें अब थोड़ाबहुत कमाने लगीं हैं. उन के लिए लड़का खोजना शुरू कर दें. काम आसान नहीं है लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है. शादी सादी या कोर्ट मैरिज ही करें. लड़के ऐसे ही ढूंढ़ें जिन्हें आप के घर की माली हालत अच्छी तरह पता हो, जिन्हें दानदहेज का लालच न हो. ऐसा घरबार मिल जाए तो अच्छा है. आप को अपने बारे में भी सोचना पड़ेगा क्योंकि शादी की उम्र तो आप की भी हो रही है. वह आदमी आप से शादी नहीं करना चाहता, आप की मजबूरी सम झता है और उसे लगता है कि आर्थिक मजबूरी आप को उस के साथ बंधे रहने को मजबूर करती है तो आप उस की यह गलतफहमी दूर कर दें. उस आदमी से रिश्ता तोड़ दें. बेमेल प्यार की उम्र वैसे भी ज्यादा नहीं होती. अपने लिए दूसरा कोई लड़का ढूंढें़. लड़के को बता दें कि छोटी बहनों के प्रति जिम्मेदारी भी आप की है. जहां चाह होती है वहां राह निकल ही जाती है. आप के सामने 2 विकल्प हैं. सोचसम झ कर सम झदारी से मिलजुल कर आगे की जिंदगी के बारे में सोचिए. बहनें अपने को और भी ज्यादा स्वावलंबी बनाना चाहती हैं तो उन्हें उत्साहित करें. विवाह भी हर समस्या का हल नहीं. यदि जीवन में नई राह की ओर चलते हैं तो कई रास्ते मिलते हैं. इसलिए अपने बूते पर कुछ करने का दम रखें.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

लेखक- रोहित

कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे इस से मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते और भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से ही जल्दी टूट जाते हैं. कहते हैं आग में जल कर ही सोना कुंदन बनता है. यानी पहले खुद को तपाना पड़ता है, उस के बाद सफलता चूमने को मिलती है. लेकिन अजीब यह है कि इंसान अपनी सफलता व असफलता के पैमाने को अपने तथाकथित ‘भाग्य’ और ‘शौर्टकट’ से जोड़ कर देखने लगता है.

वह मानने लगता है कि यदि ‘भाग्य’ में होगा तो ही कुछ मिलेगा, भाग्य प्रबल होगा तो घर बैठे ही मिल जाएगा या जीवन में कुछ तो जुगाड़ कर लिया जाएगा. ऐसे में व्यक्ति मेहनत करने के लिए उतना नहीं सोचता जितना इन चीजों के प्रबल होने के बारे में सोचता है. थोड़ा सा कष्ट मिलते ही वह अपने पांव पीछे खींचने लगता है. वह संघर्ष के आगे खुद को असहाय महसूस करता है और हार मानने लगता है. ऐसे में वह खुद पर विश्वास करने की जगह दूसरों पर अधिक निर्भर होता जाता है. लेकिन जैसे ही यह निर्भरता टूटती है, उसे एहसास होता है. पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है, उस के पास अपना सिर पीटने के अलावा रास्ता नहीं बचता. सच, सही समय पर कड़े परिश्रम का कोई सानी नहीं है.

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इस का उदाहरण धावक हिमा दास से लिया जा सकता है, जिन्होंने सम झाया कि असल जीवन में भी सफलता के लिए लगातार दौड़ना ही पड़ता है. किसान परिवार में पैसों की अहमियत काफी होती है. किसान परिवार में जन्मी हिमा दास सम झौतों से रूबरू होती सफलता की आसमान छूती इमारत के शिखर पर चढ़ीं. किसान पिता ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से 1,200 रुपए के एडिडास कंपनी के जूते खरीदे, जिन्हें बड़े जतन से अपनी पुत्री हिमा दास को सौंपे, जैसे एक पिता अपने पुत्र को विरासत सौंपता है. अब उसी एडिडास कंपनी ने हिमा को चिट्ठी लिख अपना एंबैसडर बनाने का फैसला किया है. गरीब व कमजोर परिवार से आने वाली हिमा दास ने अपनी मेहनत पर भरोसा किया.

कड़े अनुशासन और कठिन परिश्रम को जीवन जीने का ढंग बनाया. उस ने शौर्टकट को दलील नहीं बनाया, क्योंकि वह जानती थी कि रेस चाहे कोई भी हो, उस में शौर्टकट नहीं होता. जिस चीज को लोग अपना भाग्य सम झते हैं, उस ने रियलिस्टिक हो कर उसे अपना अवसर बताया. वह बहुत बार गिरी, थकी, बैठी लेकिन दौड़ना नहीं छोड़ा, फिर चाहे वह ट्रैक पर हो या अपने जीवन के संघर्ष में हो. ऐसे ही दीपा करमाकर हैं, जिन के बारे में तो यहां तक कह दिया गया था कि जिमनास्टिक खेल के लिए उन के पैर अनुकूल नहीं हैं. यहां तो लोगों ने सीधा उन के हिस्से में लिखे कथित भाग्य को ही चुनौती दे दी. उन्होंने अपने कड़े परिश्रम और अटूट अनुशासन से सफलता की इबारत लिख दी. वे न सिर्फ जिमनैस्टिक की खिलाड़ी बनीं बल्कि ओलिंपिक खेलों में पहली खिलाड़ी के तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया.

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कारण सीधा है कि उन्होंने अपने भाग्य से ज्यादा मेहनत पर जोर दिया. ऐसे और कई लोगों की फेहरिस्त है, फिर चाहे वे किसी भी पेशे से जुड़े व्यक्ति रहे हों, जिन्होंने ऐसे कारनामे किए हैं. भाग्य पर भरोसा आमतौर पर भाग्य को कोसना सब से आसान तरीका होता है. इस से व्यक्ति अपनी गलतियों पर आसानी से परदा डाल लेता है. इस का असर इतना ज्यादा होता है कि बहुत बार ऐसे व्यक्ति अपने ‘भाग्य की होनी’ पर इतना विश्वास करने लग जाते हैं कि कुछ करने की जहमत नहीं उठाते. उन का यही मानना रहता है कि जो होना होगा वह तो होगा ही. वहीं जब बिन किए कुछ होताजाता नहीं, तब फिर से वे अपनी असफलता के लिए अपने भाग्य को कोसने में जुट जाते हैं. वे इसे अपना बुरा समय बताते तो हैं, लेकिन इस बुरे समय को मेहनत और लगन से ठीक करने के बजाय राशिफल, जादूटोना, पूजापाठ, अंधविश्वास से सुल झाने की कोशिश करते हैं.

अपनी इस सनक से वे न सिर्फ भ्रमजाल में फंसते हैं बल्कि ‘गरीबी में आटा गीला’ वाली कहावत की तर्ज पर पैसा भी खूब लुटा देते हैं. भाग्य के भरोसे खुद को छोड़ने से वे आलस और नीरसता से भर जाते हैं. उन के हाथों में कलावे, गले में मालाएं, उंगलियों में अंगूठियां बढ़ने लगती हैं. ऐसे में किसी तरह की महत्वाकांक्षा उन में नहीं रहती. बिना महत्वाकांक्षा और तय गोल के वे अपने रास्ते में भटकते फिरते हैं, जिस कारण वे अपने जीवन में अनुशासन भी तय नहीं कर पाते. ऐसी ही फंतासी में जयपाल सिंह असवाल (59) का परिवार भी फंसा है. जयपाल सिंह दिल्ली के नेहरूनगर इलाके में रहते हैं. उन के 3 बेटे हैं जिन में से 2 बेटों आशीष और विकास की शादी हो चुकी है. 58 वर्ष की उम्र में निजी कंपनी से जयपाल रिटायर हो गए थे. उस दौरान उन के दोनों बेटे कार्यरत थे. आशीष सऊदी अरब में होटल मैनेजमैंट के काम में था, तो विकास रीड एंड टेलर कंपनी में सेल्समैन था.

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3 साल पहले आशीष अपना कौट्रैक्ट खत्म कर सऊदी अरब से वापस दिल्ली आया. दिल्ली आने के बाद उस का कहीं काम करने का मन नहीं किया. उस के पास कुछ सेविंग्स थी तो वही खर्च करता रहा. वहीं विकास का भी यही हाल रहा. पहले उस की जौब कनाट प्लेस में लगी थी, लेकिन जैसे ही उसे कंपनी ने अपनी दूसरी ब्रांच नोएडा जाने को कहा तो उस ने दूर काम करने से मना कर दिया और कामधाम छोड़ कर घर पर बैठ गया. अब आलस का आलम यह है कि नजदीक उसे मनमुताबिक काम मिल नहीं रहा और दूर वह जाना नहीं चाहता. ऐसे में घर के जवान हट्टेकट्टे सदस्य पिछले 2-3 सालों से निठल्ले बैठे हैं. उन के घरखर्च का एकमात्र माध्यम फिलहाल किराएदार से मिलने वाला किराया है. हालफिलहाल जयपाल सिंह से इस सिलसिले में बात हुई. जयपाल ने बताया कि उन के परिवार पर किसी का बुरा साया पड़ा है. उन के बेटों पर किसी ने जादूटोना किया हुआ है.

इसी के चलते उन्होंने अपने गांव में इष्ट देवताओं को खुश करने के लिए बड़ी पूजा रखवाई है. अब जयपाल को कौन सम झाए कि समस्या ‘बुरे साए’ की नहीं, बल्कि बेटों के आलसपन की है. फिलहाल, जयपाल इस बात से चिंतित हैं कि पूजा में लगने वाले खर्च को वे कैसे पूरा करेंगे, क्योंकि पूजा में लगने वाला खर्च लेदे कर 50 से 60 हजार रुपए तक हो ही जाएगा. शौर्टकट भ्रमभरा रास्ता इंसान अपने जीवन में मेहनत से बचने के लिए न सिर्फ भाग्य पर निर्भर रहता है बल्कि वह सोचता है कि कोई ऐसा शौर्टकट हो जिस से कम समय में ज्यादा पैसे कमाए जा सकें. ऐसे व्यक्ति जितनी जल्दी उठते हैं उस से कई गुना रफ्तार से नीचे गिर पड़ते हैं. सफलता मेहनत से मिलती है, इस के लिए कोई शौर्टकट नहीं होता है. शौर्टकट के बल पर हासिल की गई सफलता कुछ समय के लिए ही टिकती है.

सच यह है कि एक समय के बाद व्यक्ति को अर्श से फर्श तक आने में समय नहीं लगता. ऐसे ही कई वाकए लौकडाउन के समय देखने को मिले, जहां पैसा कमाने के लिए आपदा को अवसर बनाने में लोगों ने कोई कमी नहीं छोड़ी. जिस दौरान पहला लौकडाउन लगा, लोगों में खूब भ्रम और डर फैल गया था. लोगों को गलत सूचना मिली कि फूड सप्लाई में भारी शौर्टेज होगी, जिस कारण शहरों में राशन की कमी होने लगेगी. यह भ्रम इलाकों के रिटेल विक्रेताओं और थोक व्यापारियों द्वारा फैलाया गया था. जनता के बीच खाद्य सामग्री स्टोर करने की होड़ सी मचने लग गई. किराए पर रहने वाले लोग इस अव्यवस्था को ले कर खासा सकते में रहे और उन में से कई इस कारण अपने राज्यों को पैदल ही लौट पड़े. लेकिन जो शहरी थे, वे डबल मार झेलते रहे.

दुकानदारों ने मौके का फायदा उठाते हुए राशनपानी के दाम बढ़ा दिए. लेकिन कहते हैं न, शौर्टकट से कुछ पल के लिए खिलाड़ी बना जा सकता है, लेकिन अंत में मुंह की खानी ही पड़ती है. ऐसा ही एक उदाहरण बलजीत नगर के आनंद जनरल स्टोर के अभिषेक कुमार का है. अभिषेक के पिताजी (आनंद) ने 30 साल पहले परचून की दुकान इलाके में खोली थी, जो काफी चलती थी. पिताजी ने बड़ी ईमानदारी और मेहनत से इसे शुरू किया था. इलाके में दुकान का खासा नाम भी था. इलाके के लोग घर की जरूरतों की खरीदारी इसी दुकान से करते थे. यानी कुल मिला कर एक विश्वास आनंद ने ग्राहकों में कायम कर के रखा था. लौकडाउन लगते ही इलाके में राशन की कमी का भ्रम फैला. अभिषेक ने मौका पाते ही सामान के भाव बढ़ाने शुरू कर दिए.

जो सामान 5 रुपए का था उसे 10 में देना शुरू कर दिया. जो 100 का था उसे 150 में. लोग मजबूर थे, उन्हें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए सामान लेना ही था. एक दिन टीवी पर सामान के ‘शौर्टेज वाले भ्रम’ की झूठी खबरों को सरकार ने क्लीयर किया. लेकिन अभिषेक और आसपास की दुकान वाले फिर भी बढ़े दाम में सामान बेचते रहे. ऐसे में किसी सज्जन ने दुकान की कंप्लैंट कर दी. पुलिस ने यह बात पुख्ता की और अभिषेक की दुकान सील कर दी. थाने के चक्कर काटने तो पड़े ही, साथ ही भारी बदनामी भी झेलनी पड़ी. लगभग 3-4 महीने तक उस की दुकान बंद रही. लेदे कर उस ने दुकान खुलवाने की आज्ञा प्राप्त की. लेकिन खुलने के बाद लोगों ने उस की दुकान का बायकाट कर दिया.

अब उस दुकान पर कुछ ही ग्राहक जा कर सामान खरीदते हैं. पहले जैसी रौनक न रही. जाहिर है मेहनत का रास्ता मुश्किलों भरा, लंबा और कुछ हद तक तनहा होता है. मगर सफलता का एहसास इस रास्ते की सारी तकलीफें भुलाने के लिए काफी होता है. अपनी मंजिल का रास्ता चुनते समय यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मंजिल तक पहुंचने के लिए हम जिस शौर्टकट रास्ते का चुनाव कर रहे हैं, उस की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है. मेहनत के साथ अनुशासन ही सफलता देगा अनुशासन शब्द 2 शब्दों के योग से बना है- अनु और शासन. अनु उपसर्ग है जिस का अर्थ है विशेष. इस प्रकार से अनुशासन का अर्थ हुआ- विशेष शासन. अनुशासन का शाब्दिक अर्थ है- आदेश का पालन या नियमसिद्धांत का पालन करना ही अनुशासन है. दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि नियमबद्ध जीवन व्यतीत करना अनुशासन कहलाता है. भारत में आज के युवाओं में एक अजीब तरह की संस्कृति पनपती जा रही है.

वे अनुशासन से खुद को बंधाबंधा सा महसूस करते हैं. वे इसे अपनी आजादी के बीच बाधा मानते हैं. उन का मानना रहता है कि वे अपने जीवन के खुद मालिक हैं, जिसे जैसे चाहे वे जिएं. ऐसे में कब उठना है, कब कौन सा काम करना है, किस काम को प्राथमिकता देनी है आदि सिर्फ मूड और इच्छा पर निर्भर करता है. यदि कोई दूसरा व्यक्ति खुद को अनुशासित करता दिखता है, खुद का टाइम मैनेजमैंट करता है, तो वे उसे बड़ी हैरानी और हिकारतभरी नजरों से देखते हैं, उस का सामूहिक उपहास उड़ाया जाता है. अनुशासन का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि आप नियमों और तौरतरीकों के गुलाम हो गए और आप की आजादी छिन गई है. यह सोच गलत है. सोचिए, यदि ट्रेन को पटरी से उतार दें तो वह आजाद तो हो जाएगी लेकिन ऐसे में क्या वह चल पाएगी? इस का आराम से अनुमान लगाया जा सकता है. अनुशासन आजादी में खलल नहीं है, बल्कि नियमकानून के अनुसार किसी काम को करने की सीख है.

एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति कुछ पाने की ललक में खुद को पूरी तरह झोंक देता है. उस का खुद को झोंकना सिर्फ काफी नहीं. उस की सफलता के लिए खुद को व्यवस्थित करना बहुत जरूरी है और अनुशासन ही उस की रीढ़ है. सड़क हो या सदन, व्यवसाय हो या खेती, खेल का मैदान हो या युद्धभूमि, अनुशासन के बिना जीत संभव ही नहीं है. जाहिर सी बात है, मेहनत के साथ अनुशासन या सू झबू झ का होना बहुत जरूरी है वरना पता चला कि चढ़ना था दिल्ली की ट्रेन में और बैठ गए कोलकाता की ट्रेन में. अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति अपनी प्राथमिकताएं अच्छे से सम झता है. वह यह भलीभांति जानता है कि अपने गोल तक पहुंचने के लिए उसे किस काम को वरीयता देनी है. वह अपनी दिनचर्या निर्धारित करता है. कामों का बंटवारा करता है. वरना बिना अनुशासन के वह कम जरूरी काम में ही फंस कर रह जाएगा और ऐसे में अपने दिनोंदिन खपा देगा.

अनुशासनहीन व्यक्ति चाहे मेहनती ही क्यों न हो, वह अपने गोल से भटकता रहता है. वह अपनी एनर्जी को केंद्रित नहीं कर पाता. उस के पास योजना की कमी रहती है. अगर योजना नहीं, तो उस का विकासपथ विनाश को आमंत्रण भी दे सकता है. खुद को तपाना तो पड़ेगा ही आज तमाम सफल व्यक्तियों से उन की सफलता का राज पूछा जा सकता है, चाहे वे नौकरशाह, डाक्टर, वकील इत्यादि क्यों न हों. वे सभी एक बात पर सहमत होंगे कि मेहनत और अनुशासन के ही कारण वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं. देश में इस का सब से बड़ा उदाहरण महात्मा गांधी को लिया जा सकता है. कहते हैं, वे अपने दोनों हाथों से लिखा करते थे. दायां हाथ थक जाए तो बाएं हाथ से लिखने लग जाते थे.

किसी काम को अंत तक करने की ललक उन में खूब थी. उस पर वे पूरी शिद्दत से लग जाते थे. लेकिन उन की सफलता में सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि उन के अनुशासन की भी बड़ी भूमिका है. बड़ा नेता होने के बावजूद उन्होंने खुद के लिए अनुशासन सैट किए हुए थे. जो नियम कार्यकारिणी के लिए बने थे वे उन्हें खुद पर भी अप्लाई करते थे. इसी चक्कर में उन्हें एक रोज देरी के चलते खाना खाने की लाइन में लंबा इंतजार करना पड़ गया. यह सच है कि कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे अपना मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते. भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से वे जल्दी टूट जाते हैं.

वे साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, जिस में उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा तो खोनी ही पड़ती है, साथ में अपने असफल जीवन से समयसमय पर आर्थिक चोट भी खानी पड़ती है. लेकिन यह भलीभांति सम झने की जरूरत है कि जीवन कोई सौफ्टी नहीं, जिसे जीभ लगाया और चाट लिया. इस में कांटे भी समयसमय पर मिलते रहेंगे. जीवन संघर्षों से भरा हुआ है, इस में अंधेरापन भी आएगा ही. काले ब्लैकबोर्ड पर काली चौक मार कर अपनी बात लिखी तो जा सकती है, लेकिन पढ़ी नहीं जा सकती, इसलिए खुद में परिस्थिति के अनुसार कंट्रास पैदा कर सफेद चौक बनना ही पड़ता है. उसी प्रकार खुद को तपाने के लिए जीवन में कंट्रास से गुजरना ही पड़ेगा. जो जीवन के कंट्रास से मुंह मोड़ लेगा वह अपनी बात लिख तो रहा है लेकिन उसे कोई पढ़ नहीं सकता.

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