एक दिन न जाने क्यों कुछ मीठा  खाने की इच्छा हो आई. सोचा,  दफ्तर से लौटते हुए कुछ मिठाई लेता जाऊंगा. सब मिल कर खाएंगे. अकेलेअकेले मिठाई खाने का क्या मजा है भला? वैसे भी तो अकसर ही घर लौटते हुए बच्चों के लिए कुछ न कुछ बंधवा ही लेता हूं. कभी केक, पेस्ट्री, चौकलेट तो कभी नमकीन, आज मिठाई ही सही.

रास्ते में ही एक नई बनी मार्केट में लालहरी बत्तियों से जगमगाता ‘मिठाई वाला’ का बोर्ड रोज ही दिखता था. सोचा, कार वहीं रोक लूंगा दो मिनट के लिए.

इधर एक नई बात हो गई थी. हर छोटी से छोटी बात के संदर्भ में बचपन की स्मृतियों के सैलाब से उमड़ आते थे. बारबार अपने बच्चों को भी अपने बचपन की कहानियां सुना कर शायद मैं बोर ही करता रहता था. सोचता, हो सकता है, यह बढ़ती उम्र की निशानी हो. अब इस मिठाई खाने की बात से भी बचपन की यादें हरी हो उठी थीं.

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चौराहे पर एक बड़ी सी हलवाई की दुकान थी, जहां हर समय तपती भट्ठी पर कड़ाही चढ़ी रहती थी. सुबहसवेरे गरमगरम जलेबियां और कचौडि़यां तली जाती थीं तो शाम को समोसे और पकौड़ों की बहार छा जाती थी. रात को कड़ाही में गरमगरम गुलाबजामुन तैरते मिलते थे तो दिन के समय में हलवाई अपनी जरूरत के अनुसार मिठाइयां बनाने में व्यस्त दिखता. सुबहसवेरे नहाधो कर चकाचक सफेद कपड़े पहने हुए पम्मू हलवाई के कपड़े दोपहर आतेआते चीकट हो जाते थे.

जब कभी ताऊ, चाचा या पिताजी के हाथ में मिठाई का डब्बा नजर आता, सम्मिलित परिवार के हम सभी बच्चे उन के पीछे हो लेते. घर में हुल्लड़ छा जाता. सब से पहले मिठाई पाने की होड़ में हम बच्चे, मिठाई का बंटवारा करने वाली मां, ताई या चाची की नाक में दम कर देते थे. मिठाई के साथ ही मानो घर में बेमौसम उत्सव का माहौल छा जाता था.

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