Download App

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 2: आलिम ने आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

आलिम के लिए तो वैदेही का अस्तित्व ही नहीं था. किंतु, वैदेही को आलिम जैसे सुचित्त की विद्वत्ता, सादगी, साफगोई तथा उदासीनता ने मोह लिया था. वह पिछले 2 वर्षों में आलिम से संलाप स्थापित करने के हर प्रयास में पराजित हो  गई थी.

कुरसी पर बैठने से भी आलिम की ऊंचाई का अंदाजा लगाना कठिन नहीं था. लंबा कद, गेहुंआ रंग, पतली नाक पर काले रंग के पतले फ्रेम का चश्मा और हलके कत्थई रंग के होंठ. पिछले 3 वर्षों से वह उसे ऐसे ही निहारती आ रही थी. प्रथम वर्ष तो मात्र अपनी भावनाओं को सम झने में खर्च हो गया. बाद के 2 वर्ष संवाद स्थापित करने के निरर्थक प्रयास में समाप्त हो गए. अब कुछ समय से उसे आलिम के व्यवहार में परिवर्तन प्रतीत हो रहा था. उस की उपस्थिति को समूल नकार देने वाला आलिम अब उसे एक नजर देख लिया करता था. शायद यह उस का भ्रम ही था लेकिन इस भ्रम में कैद वैदेही आज रिहा हो गई थी. अपनी जगह से उठ कर, सीधे आलिम के पास जा पहुंची और उस के निकट वाली कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

चर्रचर्र… कुरसी खींचने की इस ध्वनि ने आलिम के प्रवाह को रोक दिया था. अपना सिर उठा कर उस ने आवाज की दिशा में देखा, तो वहां अपने अधरों पर खेदपूर्ण मंदहास के साथ वैदेही को पाया. ऐसा नहीं था कि आलिम को वैदेही के हृदय की दशा का संज्ञान नहीं था लेकिन वह वस्तुस्थितियों को सम झता था. वह भावनाओं को व्यावहारिकता से विजित करना जानता था. इसलिए उस ने अपनी उदासीनता को हथियार बनाया था. लेकिन, वैदेही की भावनाओं का ज्वार तो घटने के स्थान पर बढ़ गया था.

आलिम चश्मा उतार कर उसे ही देख रहा था. उन भूरी आंखों की आर्द्रता का वैदेही पहली बार अनुभव कर रही थी. समय को रोक लेने की उस की प्रार्थना अस्वीकार हो गई थी. आलिम के नेत्रों के अग्रहण की उपेक्षा कर वह बोली थी, ‘‘मु झे सम झ आ गया है कि आप सम झ गए हैं.’’

आलिम ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया. बस, अपनी डायरी और पुस्तकों को उठाया और लाइब्रेरी से बाहर निकल गया था. उस अपमान से वैदेही का मुख कुछ क्षणों के लिए काला अवश्य पड़ गया था लेकिन उस उपेक्षा ने उस के निश्चय को अधिक दृढ़ कर दिया था.

आलिम को लगा कि वैदेही चली जाएगी लेकिन वह तो उस के पीछेपीछे कैंटीन तक आ गई थी, बोली, ‘‘आप मु झ से भाग क्यों रहे हैं?’’ ‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ आलिम कुरसी खींच कर बैठ गया था. उस ने वैदेही को भी बैठने का संकेत किया.

‘‘फिर बिना कुछ कहे, चले क्यों आए?’’ उस ने बैठते हुए कहा था. ‘‘जहां तक मैं जानता हूं, लाइब्रेरी में बात करना अनुपयुक्त है.’’ आलिम की बात सुन वैदेही की पलकें  झुक गई थीं.

‘‘मैं…’’ वैदेही कुछ कहती, इस से पहले ही आलिम ने उसे रोक दिया था, ‘‘पहले कुछ खाने का और्डर दे दें, मैं ने सुबह से कुछ खाया नहीं.’’ ‘‘हां…हां, वैदेही बोली थी.’’ ‘‘आप कुछ लेंगी?’’ आलिम ने पूछा तो  वैदेही ने न में गरदन हिला दी थी.

‘‘मेरे साथ खाने में कोई समस्या तो नहीं?’’ आलिम के इस व्यंग्यमिश्रित वाक्य ने वैदेही के हृदय को मरोड़ दिया था. वह तड़प उठी थी. ‘‘मेरी घ्राणशक्ति आप की सुगंध को मेरे हृदय तक ले गई थी. मेरे नेत्रों के द्वार से हो कर, बिना किसी दस्तक के, आप मेरी जान में बस गए. उस एक क्षण में मेरे शरीर, मेरे अंतर्मन और मेरे हृदय का आप के साथ समागम हो गया था, समस्या तब नहीं हुई, तो अब तो मैं भी आप ही हूं.’’

वैदेही जिन पंक्तियों का अभ्यास कर के आई थी और जिन्हें बोलने के प्रयास में हारे जा रही थी, उन के स्थान पर कुछ भिन्न कह गई थी. लेकिन, जब हृदय बोलता है, होंठ खामोश हो जाते हैं.

आलिम निरुशब्द, निर्निमेष वैदेही को देखता रह गया था. उस उन्मेष में उस का हृदय भी पलभर के लिए जागृत हुआ था. लेकिन, वह सत्य सम झता था. वह निर्बल नहीं था. वह मूर्ख भी नहीं था. उस ने स्वयं को संभाल लिया था.

‘‘वैदेही, मैं आप की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता, उन का सम्मान करता हूं. लेकिन यह मात्र मूर्खता नहीं है, बल्कि अपने उज्ज्वल भविष्य की हत्या है.’’

‘‘तो आप ने भी एक  झूठ ओढ़ा हुआ है. बातें समाज को बदलने की करते हैं लेकिन वास्तविक प्रयास से पीछे हट जाते हैं. इतना विरोधाभास क्यों?’’ वैदेही क्रोधित हो गई थी. आलिम के होंठों पर एक विजयी मुसकान खिल गई. उसे वैदेही से ऐसी ही प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी.

‘‘मैं मात्र समाज बदलने की बात नहीं करना चाहता, वास्तविकता में बदलाव चाहता हूं. मैं आज मात्र एक छात्र हूं. मेरे विचार मात्र मेरे हैं. मु झे इस लायक बनना है कि जब मैं कुछ कहूं तो उसे यह समाज सुने. अंतर्जातीय अथवा अंतर्धर्मीय प्रेम अथवा विवाह कर लेने मात्र से यह समाज नहीं बदलेगा. उस से पूर्व, स्वयं को आर्थिक तथा मानसिक रूप से इतना सशक्त बनाओ कि किसी भी तरह के विरोध का प्रभावशाली प्रतिवचन दे सको.

‘‘आज मेरे पास वह शक्ति नहीं है कि मेरी इन भावनाओं का प्रतिफल यदि मेरे परिवार, हमारे समुदायों और हमारे गांव को चुकाना पड़े तो मैं खड़ा हो सकूं. समाज को बदलने की बात लिखना जितना सरल है, बदलना उतना ही कठिन. यहां तक आने के लिए मैं ने कठिनाइयों के विशाल सागर को पार किया है. और आज भी स्वयं को डूबने से बचाने में प्रयासरत हूं.

‘‘तुम भी तो सम झती हो कि अत्यंत परिश्रम के बाद ही एक स्त्री उस गांव से निकल कर यहां तक पहुंचती है. यहां तक आ कर बदलाव का आरंभ तो तुम ने कर ही दिया है लेकिन तुम्हारा एक कदम उस गांव की अन्य स्त्रियों के लिए शिक्षा का द्वार सदा के लिए बंद कर देगा. तुम जो कह रही हो, वह गलत नहीं है लेकिन धर्म और जाति की पट्टी बांधे खड़ा यह समाज गांधारीरूपी है. इस की आंखों से पट्टी उतारने के लिए और सही समय पर सत्य का बोध कराने के लिए शिक्षा के दीपक को हर स्त्री व पुरुष के भीतर जलाना होगा. कूपमंडूकता के इस सागर को पार करने के लिए पुस्तकों का सेतु बनाना होगा.

 

किसान और मोदी सरकार

किसान और मोदी सरकार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जौनसन द्वारा 26 जनवरी के उत्सव पर भारत सरकार के अतिथि बनने का न्योता कैंसिल कर देने के पीछे सिर्फ कोरोना ही कारण नहीं. यह ठीक है कि आज ब्रिटेन में कोविड-19 की महामारी एक बार फिर सिर उठा चुकी है, हजारों लोग इस की चपेट में हैं और वहां कई जगह लौकडाउन लगाया गया है लेकिन भारत सरकार के न्योते के स्वीकार करने के समय ही ऐसा होने का अंदेशा था क्योंकि कोविड-19 का एक नया म्यूटैंट दस्तक दे चुका था. इंग्लैंड ने 2 वैक्सीनों को अनुमति दे दी है पर वे कितनी कारगर हैं और कब जनता को राहत देंगी, पता नहीं.

बोरिस जौनसन के 26 जनवरी के उत्सव में शामिल न होने के पीछे दिल्ली में चल रहा किसान आंदोलन भी एक कारण है. लंदन और दूसरे शहरों में आएदिन भारतीय गुट दूतावास व भारत सरकार के दूसरे कार्यालयों के सामने धरनेप्रदर्शन करते रहते हैं. भारतीय मूल के तनमन जीत सिंह सोंधी, जो इंग्लैंड के संसद सदस्य हैं, ने बोरिस जौनसन को पत्र लिखा था कि वे इस कानून का विरोध जताएं.

एक नगर पार्षद ने इसलिए 12,000 लोगों के हस्ताक्षर भी जुटा लिए थे कि बोरिस जौनसन भारत जाएं ही नहीं क्योंकि भारत सरकार इन कानूनों को वापस लेने की मांग करने वाले आंदोलनकारियों पर पुलिस के जरिए दमनात्मक कार्रवाई कर रही है. वाटर कैननों, लाठियों, आंसू गैस के गोलों की तसवीरें इंग्लैंड के मीडिया पर खूब दिखाई भी गई हैं. वहां रह रहे भारतीय किसानों के रिश्तेदार तो परेशान हुए हैं ही, वहीं, इंग्लैंड के उदार, तानाशाहीविरोधी लोग भारत में किसानों के अब तक के शांतिपूर्ण आंदोलन में हिस्सा ले रहे आंदोलनकारियों पर भारत सरकार द्वारा कराई गई पुलिस बर्बरता को तानाशाही का संकेत बता रहे हैं. बोरिस जौनसन इस पचड़े के दौरान भारत आ कर अपनी साख खराब नहीं करना चाहते.

शायद इसलिए भी उन्होंने भारत के गणतंत्र दिवस के मौके पर अतिथि बनने के मोदी सरकार के निमंत्रण, जिसे पहले स्वीकारा था पर अब कोरोना की आड़ ले कर उत्सव में शामिल होने में असमर्थता जाहिर कर दी है. अमेरिका के नए राष्ट्रपति वैसे भारत से मित्रता बनाए रखना चाहते हैं लेकिन उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार से कोई प्रेम नहीं है. कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने पर नरेंद्र मोदी की पार्टी ने वैसी खुशियां नहीं मनाईं जो, शायद डोनाल्ड ट्रंप की जीत पर मनाते. मार्च 2020 में नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में ‘फिर एक बार, ट्रंप सरकार’ का नारा जोरशोर से लगाया था जो विजयी जो बाइडन और कमला हैरिस की जोड़ी को याद होगा. आश्चर्य मगर दिलचस्प यह है कि हमारे पंडों के कुंडली पाठों और जापतपों के बावजूद ट्रंप हार गए हैं. हारे ट्रंप अब पैर घसीट रहे हैं कि किसी तरह मोदीछाप हेरफेर, जो कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, उत्तरपूर्व में किया गया, को वाशिंगटन में दोहरा सकें.

कृषि कानूनों पर भारत सरकार को बाइडन के नेतृत्व की अमेरिकी सरकार का समर्थन मिलेगा, इस की कोई गुजांइश नहीं है. भारत का कृषि कानूनों के बारे में किसान आंदोलन छोटा नहीं है. यह आंदोलन भारत की मोदी सरकार की कट्टरपंथी छवि को और उजागर कर रहा है. यह आंदोलन अब पूरी दुनिया की आंखों के सामने है. शायद ही कोई हो जो इस मसले पर भारत सरकार के साथ हो. नेपाल और भूटान भी साथ नहीं हैं जो पहले दिल्ली के अनुसार अपना मुंह खोलते थे. अमेरिका और भारत डोनाल्ड ट्रंप की सौगात ऐसी है कि जिस का दर्द पूरा अमेरिका दशकों तक न भूलेगा.

यह अंत है या शुरुआत, यह भी नहीं कहा जा सकता. भारत के भगवा गैंगों ने बाबरी मसजिद तोड़ कर जो दर्द दिया था वह अब भी हो रहा है. उस से पहले देश ने 1947 में दंभ देखा था जिस का खमियाजा दोनोंतीनों देश-भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश भुगत रहे हैं. अमेरिका में ट्रंप समर्थक अब चुनाव परिणाम को अंतिम मानेंगे या वाश्ंिगटन में की लड़ाई को गलियों, सड़कों, शहरों, गांवों तक ले जाएंगे, कहा नहीं जा सकता. अमेरिका आज गोरे, कट्टर धर्मअनुयायियों के दावानल से सुलगने लगा है. ट्रंप न केवल खब्ती राष्ट्रपति थे, बल्कि उन्होंने संकुचित सोच वाले कट्टरों की वर्णश्रेष्ठता की तरह रंगश्रेष्ठता की विचारधारा को फिर उजागर कर दिया है.

यह पुरानी बात नहीं जब अमेरिका में चिकित्सा के जानकार भी कालों को जन्मजात वंशानुगत कमजोर, दोयम मानव मानते थे जैसे यहां दलितों, पिछड़ों को ही नहीं, वैश्यों तक को माना जाता है. जीसस क्राइस्ट गोरे थे या काले या अरब, यह किसी को नहीं मालूम क्योंकि अगर वे हुए थे तो पश्चिम एशिया के यरुशलम इलाके में जहां यूरोपीय किस्म के गोरे तो नहीं रहते पर उन के धर्म का प्रचारप्रसार यूरोप में हुआ और फिर वह गोरों का धर्म बन गया. आज तक चाहे यूरोप हो या अमेरिका, इस धर्म में अनुयायी चाहे दूसरे रंग के कितने ही हों, सत्ता गोरों के हाथों में ही है क्योंकि उन्होंने ही इस धर्म को फैलाया, इस पर किताबें लिखीं, चर्च बनाए, चित्र बनाए, त्योहार मनाए. बाइबल का नाम ले कर क्रूसेड युद्ध मुसलिमों के खिलाफ लड़े गए जिन के चित्रों में साफ गोरे ईसाई और काले या कम गोरे अरब मुसलिम होते थे.

यह भेदभाव, जिस के खिलाफ अमेरिका ने एक गृहयुद्ध लड़ा था, आज फिर अमेरिका के लोकतंत्र को रौंद रहा है. इस आग की आखिरी लपटें डोनाल्ड ट्रंप की खिसियाहट के कारण हैं या असल में शुरुआत ही है, यह वक्त बताएगा. यह पक्का है कि ट्रंप हारे हैं पर बहुत थोड़े वोटों से. जहां सिर्फ 2 पार्टियां हों वहां 7-8 लाख वोटों की जीत कोई बड़ी जीत नहीं होती. भारत में मोदी को भी अब तक 40-42 प्रतिशत ही वोट मिलते रहे हैं. ट्रंप के विभाजनकारी एजेंडे को 49 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. बाइडन की जीत के बाद भी जौर्जिया, जहां 2 सीनेट की सीटों पर 5 जनवरी को दोबारा चुनाव हुए थे, डैमोक्रेटिक सीनेटर हजारों की गिनती में ही जीत पाए. ट्रंप ने जो भीड़ जमा की और जिस तरह उन के समर्थकों ने खुल्लमखुल्ला, पुलिस की चुप्पी के कारण, संसद भवन तक पर कब्जा कर लिया था,

वह कृत्य तानाशाही देशों की याद दिलाता है. हमारे लिए सबक है कि हमारी संस्थाएं एकएक कर के गिरती जा रही हैं और अब संसद भवन को गिराने की तैयारी है. लोकतंत्र भी गिरेगा तो पता नहीं चलेगा क्योंकि हमें तो पहले से इस की आदत डाल दी गई है. ट्रंप खुद को तो डुबो रहे ही हैं, अमेरिका भी डूब सकता है. गोरे, मेहनती, अलगअलग देशों से पनाह लेने आए लोगों ने मिल कर ही अमेरिका को बनाया था. आज ट्रंप उन लोगों को अलग कर रहे हैं, जो बाद में लाए गए या खुद आए और उन के रंग, भाषा, धर्म, आदतें अलग हैं. डोनाल्ड ट्रंप ने अकेले वह किया है जो भारत में पौराणिक विचारों के रखवाले 2-8 करोड़ लोगों ने 100-150 साल की मेहनत के बाद किया था. आज 2 बड़े लोकतंत्र खाइयों के किनारे खड़े हैं.

आगे फिसलन है, कांटे हैं, गृहयुद्ध सा माहौल है, जिस से यूरोप कई सदियों तक त्रस्त रहा. अमेरिका और भारत एक सा रास्ता अपनाएंगे, ऐसा दिख रहा है. ममता के घर में भाजपाई सेंध भारतीय जनता पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी के गढ़ पश्चिम बंगाल में वैसी ही सेंध मारनी शुरू कर दी है जैसी ममता ने 9 वर्षों पहले जमीजमाई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इसी विशाल गढ़ में मारी थी. ममता बनर्जी में अब वह दमखम नहीं रह गया जो पहले था. वे हाथपैर मार कर सोनिया गांधी की कांग्रेस की तरह अपना घर बचाने की कोशिश कर रही हैं. भाजपा ने पुराना हथकंडा अपनाया है. पहले उस ने धर्म के टोटके चलाए. रामनवमी का जुलूस निकाला. दुर्गा पंडालों पर कब्जा किया.

पंडितों के सहारे मुफ्त के कार्यकर्ताओं की फौज तैयार की. हिंदूमुसलिम अलख जगाई. धर्म की गहरी जड़ों को खादपानी दिया और समाज विभाजक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के ‘आनंद मठ’ जैसी बातें कर के अच्छे राज की जगह मरने के बाद अच्छे स्वर्ग के सपने दिखाने शुरू किए. दुनियाभर में धर्म का सिक्का आज भी चल ही जाता है. पिछली सदी में पहली बार शासकों ने मरने के बाद कल के बजाय जिंदा रहते आज की चिंता करनी शुरू की थी और धर्म को राजकाज से बाहर कर मंदिर, चर्चों और मसजिदों में बंद किया था. तब देशों ने खूब उन्नति की. समाज का नक्शा बदला था. अब बहुत देशों में शासक शासन करने के लिए पूजापाठ को सहारा बना रहे हैं और पूजापाठ को आम जनता, जो नई तकनीक का लाभ उठा रही है पर जानती कुछ नहीं है उस के बारे में, जीवनध्येय मानने लगी है.

वह धर्म का ढिंढोरा पीट कर खुश हो रही है. भारतीय जनता पार्टी को पश्चिम बंगाल में इस का फायदा होने लगा है. वोटों का फायदा तो वोटिंग के दौरान मिलेगा लेकिन अभी तृणमूल कांग्रेस के वोटों से जीते भद्रलोक विधायक अपनी तृणमूल कांग्रेस को तिलांजलि दे उस का यानी भाजपा का दामन थामने लगे हैं. ममता बनर्जी धर्म की साजिश जानती हैं या नहीं, पता नहीं, पर वे खुलेदिल से उस बारे में कुछ नहीं कह सकतीं. यह ऐसा विषय है जिस में सच को कहा ही नहीं जाता. सच कहने वाला राजनीति में सफल नहीं हो सकता. भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तेलंगाना राष्ट्र समिति और यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी धर्म के विषय में खरीखरी कहने में िझ झकती हैं. पहले कोई भी पार्टी धर्म की बात नहीं करती थी.

अब एक ने पूरा ठेका ले लिया है. ऐसे माहौल में तृणमूल कांग्रेस सकते में है. पैसे वाली, गलीगली में समर्थन जुटा सकने वाली, धमकी दे सकने वाली भाजपा का मुकाबला करना ममता के लिए आसान न होगा. ममता बनर्जी के सामने बड़ी चुनौती है. उस का मुकाबला करना आसान नहीं है क्योंकि उन के अधिकांश सांसदों, विधायकों की नीली कमीज के नीचे भगवा रंग रंगा है.

वे रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं. पैसा कमाते हैं तो उन्हें लगता है, वह उन की मेहनत का नहीं बल्कि पूजापाठ की देन है. ममता के सिपाही दिखने वाले ये नेता अपने समर्थकों को धोखा दे रहे हैं क्योंकि असलियत में ये भाजपा के छिपे सिपाही हैं. इन्हें तोड़ा जा सकता है, आसानी से. बंगाल व बंगालियों के लिए ममता के किए काम नहीं बोलेंगे. सड़कों पर होने वाले भाजपा की धार्मिक द्वेष से लबरेज सभाएं चलेंगी. धर्मभीरु लोगों को उकसानापटाना मुश्किल नहीं है क्योंकि धर्म का पाठ तो जन्म के 6ठे दिन से सिखाना शुरू कर दिया जाता है.

किसान परेड और गणतंत्र दिवस

लेखक-रोहित और शाहनवाज

26 जनवरी का दिन भारत के लिए महत्वपूर्ण दिन है. इस दिन की अपनेआप में ऐतिहासिक भूमिका है जिसे हर वर्ष याद रखा जाता है. इस दिन की एहमियत देश के संविधान से है. 72 साल पहले यह वही दिन था जब देश में संविधान लागू किया गया. संविधान यानी देश का वह ग्रन्थ जो सर्वोपरी है, सर्वमान्य है और हर नागरिक के लिए है. नागरिक वह जो इस देश की उन्नति में किसी न किसी तरह से अपनी भूमिका अदा कर रहा है. फिर चाहे वह सीमा पर डटा जवान हो या खेतखलिहानों, फेक्टरीकारखानों में मजदूरकिसान हो. यह दिन सभी के लिए आजादी को गढ़ने और अपनी आजादी को बचाए रखने की पुनर्व्याख्या के तौर पर है.किसानों ने अपनी परेड निकाल यह साबित कर दिया कि असली गणतंत्र दिवस जनता के लिए और जनता के द्वारा किया जाने वाला समारोह है.यही कारण भी था कि किसानों ने ‘ट्रेक्टर परेड’ कर गणतंत्र के इस दिन को रिडिफाइन किया.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट

इस साल 26 जनवरी कादिनअब इतिहास में लिखी जाने वाली वह परिघटना बन गई है जिस के होने के बाद अब जायज और नाजायज दोतरफा एंगल हमेशा तलाशे जाते रहेंगे. पर,किन्तु, परंतु, अगर, मगर के साथ यह दिन आगे आने वाले लम्बे समय तक याद रखा जाएगा.इस दिन की याद के केंद्र में हर साल चलने वाली सालाना राजपथ परेड नहीं होगी, ना ही हर साल आने वाले विदेशी मेहमान होंगे बल्कि वेआंदोलित किसान रहेंगेजो पिछले कुछ महीने से लगातार अपनी मांगो को ले कर हाड़ कंपाती ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर डंटे हुएथे. वे किसान जो अपने हिस्से की आजादी को बचाए रखने की जद में बैठे हुए थे कि सरकार उन की मांगे मान जाए.गणतंत्र दिवस के दिन किसानों द्वारा निकाली गई समानांतर परेड सीधासीधा सरकार को चुनौती थी कि वे अपनी मांगों को ले कर कितने अडिग हैं.

 नांगलोई में किसान-प्रशासन

किसानों की इस अनौखी परेड को सीधे ग्राउंड से कवर करने के लिए हमारी टीम उस जगह पर पहुंची जहां प्रशासन और आंदोलित किसानों के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई थी. हम सीधे नांगलोई मेट्रो स्टेशन पहुंचे. नांगलोई वह रस्साकस्सी वाली जगह थी जहां टिकरी बौर्डर से आए हजारोंहजार किसानों का रूट नजफ़गढ़ के लिए मुड़ना था. इस रूट की तय दिशा नांगलोई, झरोदा, रोहतक, असोड़ा से होते हुए वापस टिकरी के गंतव्य तक पहुंचना था. यह लगभग 62 किलोमीटर का रूट था.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन : उलट आरोपों से बदनाम कर राज की तरकीब

मेट्रो स्टेशन से नीचे रोड़ की तरफ झांका तो, दोनों तरह दूरदूर जहां तक नजर पहुंच रही थी किसानों का जनसेलाब दिख रहा था. रोड़ के एक तरफ लाइन से खड़े ट्रेक्टर इस बात की तस्दीक दे रहे थे कि किसानों के भीतर इस परेड को ले कर तैयारी भरपूर थी, वहीँ हजारों की संख्या में पैदल चल रहे किसानों को देखते बन रहा था कि वे इस परेड को ले कर कितने उत्साह में हैं.

परेड में गाड़ियों, ट्रेक्टरों-ट्रोलियों में लगे बड़ेबड़े स्पीकर पर देशभक्ति के गाने ऐसे चल रहे थे मानो यह दिन किसानों के लिए खास हो. अधिकतर महिला व बुजुर्ग किसान ट्रेक्टर पर बैठे कर जा रहे थे. इस रैली को सफल बनाने के लिए मौके परजगहजगह पर वालंटियर किसानों के समर्थन में आए डाक्टर और एम्बुलेंस की टीम हर समय मौजूद थी.बाकि युवाओं की एक बड़ी संख्या सड़क पर पैदल मार्च करते हुए रास्ता तय कर रही थी. यह उन्ही युवाओं में से थे जिसे भाजपा अपना वोटर कह कर दंभ भरती रहती थी. कुछ के हाथों में तिरंगा था तो कुछ के हाथों में किसानी का झंडा.

ये भी पढ़ें- तलाक तलाक तलाक

दिलचस्प बात यह कि नांगलोई के जिस इलाके में किसानों की यह परेड चल रही थी वहां पर आम लोग रोड के दोनों तरफ खड़े हो कर इस का अनुभव ले रहे थे. ठीक उसी जगह पर चाय की टपरियां, खानेपीने की दुकानें उसी तरह से चल रही थी जैसे हर दिन चला करती हैं. वे न तो किसानों की इस परेड से भयभीत थे और न ही आशंकित थे. कुछकुछ समय में ऐसे आम शहरी लोग भी वहां देखे जा सकते थे जो पानी की थैलियां, बिस्कुट के पैकेट, केले, संतरे इत्यादि ट्रैकटर में बैठे किसानों के बीच बांट रहे थे. वहीं दिल्लीवासी परेड में शामिल किसानों के गले में मालाएं डाल कर उन का स्वागत भी कर रहे थे. यह दिखा रहा था कि किसानों को आम समर्थन भी हासिल था.

एक वाक्या ऐसा आया जब हम बैरिकेड के ठीक दाहिने तरफ खड़े थे उसी दौरान पुलिस की तरफ से एक आंसू गैस का गोला किसानों की तरफ फैंका गया, जिस के धुंए से वहां मौजूद अर्धसैनिक बल का एक जवान भी चपेट में आ गया और बेहोश हो गया. जैसे ही वह वहां मौजूद किसान वालंटियर और डाक्टर की नजर में पड़ा, तो उसे बिना किसी देरी के उन के द्वारा तुरंत एम्बुलेंस में बैठाया गया.परेड को ले कर मीडिया में जिस तरह की बातें उस दौरान चल रही थी उस के विपरीत किसान इस कोशिश में लगे थे की चीजें व्यवस्थित तौर पर चल सके. और यह उस का सब से बड़ा उदाहरण भी है की सरकार ने अपना पल्ला झाड़ते हुए इतने बड़े हुजूम को संभालने की पूरी जिम्मेदारी किसानों के सर ही लाद दी थी.

प्रशासन खुद को किसानो से दूर पहले ही कर चुकी थी.इस पर एक सवाल बनना यह लाजमी है की प्रशासन की जिम्मेदारी क्या महज किसानों को दिल्ली के अन्दर घुसने से रोकना मात्र था? क्या उन की जिम्मेदारी यह नहीं थी की जिस तरह सेकिसान इतने बड़े क्राउड को मेनेज कर रहे थे, वो भी उन के साथ सहयोग करते?

जाहिर है पुलिस द्वारा किसी प्रकार का क्राउड मेनेजमेंट नहीं किया जा रहा था. वे बस बाधक प्रतीत लग रहे थे. कुछ क्षण ऐसे आए जब किसानों और पुलिस के बीच टकराव की स्थिति तीखी हो गई. जाहिर है इस तरह की संभावनाएं हर आंदोलन में दिखती हैं. इतिहास में हर आंदोलन में ऐसे टकराव कहीं न कहीं देखने को मिल ही जाते हैं. आंदोलन में तरहतरह के लोग शामिल होते हैं जो अप्रशिक्षित, थोड़े भटके व आपसी अंतर्विरोधों में होते हैं.आंदोलन की नियति ही कई उठापटकों से हो कर गुजरती है.

यह दुर्भाग्य है किन्तु हकीकत भी की किसानों के बीचकुछ फ्रिंज एलेमेंट्स (असामाजिक तत्व) भी रहे जिन्होंने बैरिकेड पार करने की भी कोशिश की.जिस के बाद स्वाभाविक है कि एक टकराव की स्थिति भी पैदा हुई. जिस में हिंसा दोनों तरफ से हुई. किन्तु इस छिटपुट टकराव (स्वाभाविक) के बाद भी बहुसंख्यक किसानों ने यह साबित किया की वे न तो किसी गरीब का ठेला तोड़ने दिल्ली आएं हैं, न हुडदंग मचाने आएं हैं और ना ही किसी को परेशान करने आए हैं, बल्कि उन का सीधा टकराव इस प्रशासन से है जिन्होंने ये 3 किसान विरोधी कानून पास किए हैं.

 मीडिया-प्रशासन का सेलेक्टिवेनेस

ट्रेक्टर परेड के दिन भी मीडिया का पूरा जोर उन कुछकाद फ्रिंज एलिमेंट्स की फूटेज को खंगालने में लगा रहा जो टकराव पैदा कर रहे थे. वहीँ ऐसे चीजों को पूरी तरह से छिपाने का काम किया जा रहा था जिस में पुलिस प्रशासन द्वारा किसान आन्दोलनकारियों पर बर्बर तरीके से लाठीयां भांजी जा रही थी, आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे थे. बहुत बार पुलिस का यह बर्ताव बेफिजूल होता भी दिखाई दे रहा था.नांगलोई में कई वारदाते ऐसी घट रहीं थी,जिस में आन्दोलनकारी किसानों के साथ वहां खड़े आम लोगों को पुलिस द्वारा खदेड़ा जा रहा था.

हैरानी वाली बात यह कि इन किसानों में अधिकतर किसान शांतिपूर्ण व व्यवस्थित तरीके से अपने तय रूट पर परेड को सफल बना रहे थे,जिन्हें ले कर मीडिया में किसी प्रकार की कोई रिपोर्टिंग दर्ज नहीं की जा रही थी.जिन कुछ प्रकरणों को बारबार चैनलों के माध्यम से दोहराया जा रहा था वह आम जनता को उकसानेव आन्दोलनकारी किसानों को भटकाने के अलावा और कुछ नहीं था.सरकार, भाजपा का आईटीसेल व मीडिया के पूरे सेक्शन द्वाराइस पूरी परिघटना में किसानों को विलेन बनाने की योजना चल रही थी. लेकिन सरकार की क्या जिम्मेदारी है?आखिर गृह मंत्रालय कर क्या रहा है? किसान आईटीओ, लाल किला के प्रचीर तक इतनी आसानी से कैसे पहुंच गए? प्रधानमंत्री इतने समय से चल रहे किसान आन्दोलन पर कुछ क्यों नहीं कह रहे? इन तरह के जरुरी सवालों से ये लोग लगातार पल्ला झाड़ रहेथे.

दिल्ली के बौर्डर पर जब से किसान अपनी मांगों को ले कर डटे रहे तब से सरकार और मीडिया इस आंदोलन को बदनाम करने की साजिश रचती आई है. किसानों को कभी खालिस्तानी, कभी आतंकवादी तो कभी नक्सलवादी कह कर बदनाम किया जाता रहा है और  उन्हें इस देश का दुश्मन बताया जाता रहा है. शुरुआत में तो मीडिया और प्रशासन इन्हें किसान मानने को ही तैयार नहीं थी. किन्तु जैसेजैसे किसानों का यह आक्रोश जनआंदोलन में तब्दील हुआ तो जनता के चौतरफा हमले से इन की नींद उड़ती गई.

संभव है की इस घटना के बाद किसानों के लिए अब ‘अराजक’ शब्द का भी इस्तेमाल किया जाने लगेगा. किन्तु कानूनों केविरोध में उठ रहींआवाजों का जिस प्रकार सरकार दमन कर रही है उसे तानाशाह कहने की हिम्मत अब मीडिया संस्थानों में बिलकुल भीबची नहीं है.ध्यान देने वाली बात यह है की 2014 के बाद भारत में जितने भी बड़े जनआंदोलन हुए हैं सरकार ने आंदोलन को दमन व बदनाम करने के लिएहिंसा को मुख्य हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है.

सरकार के साथ 11 दौर की विफल बातचीत के बाद भी किसानों ने अपना आपा नहीं खोया. भाजपाई मंत्रियों, आईटीसेल और गोदी मीडिया के द्वारा आंदोलन पर टेररिस्ट फंडिंग, पाकिस्तानी और न जाने क्याक्या निराधार किस्म के आरोप लगाए जाते रहे लेकिन किसान अपनी राह से डिगे नहीं. जाहिर है पूरी प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा इन प्रताड़नाओं को सहना ही किसानों के लिए अपनेआप में चैलेंज रहा है. जिस में किसान कामयाब भी रहे.साथ ही यह भी संभव है कि ट्रेक्टर परेड के दिन कुछकाद फ्रिंज एलिमेंट द्वारा कीगई घटनाओं में सरकार का लगातार किसानों के प्रति नीरस रव्वैया बने रहना ही मुख्य जिम्मेदार है.मसला जो भी हो,जिस प्रकार सरकार और मीडिया ने समस्त किसान आन्दोलन को दंगाई,उपद्रवी व अराजक बताया उस के विपरीत यह बात भी सामने है कि दिल्ली की सड़कों में चल रहे इस आन्दोलन में किसी आमजन की कोई हताहत की घटना सामने नहीं आई, ना ही किसी ने अपने संपत्ति के नुकसान की बात कही है.

प्रशासन की मंशा इस बात से समझी जा सकती है कि इस घटना के बाद उन 37 किसान नेताओं पर मुकदमा दर्ज किया गया है, जो तय रूट पर परेड कर रहे थे.अगर इन किसान नेताओं पर ‘व्यवस्था को ना बनाए रखने’ के तहत यह कार्यवाही की गई है तो पूरी केंद्र सरकार इस कृत्य में भागीदार रही है.क्या यह सर्कार से नहीं पूछा जाना चाहिए कि कैसे ये गिनती के फ्रिंज एलिमेंट आसानी से लाल किला के प्राचीर पर चढ़ गए? आखिर लालकिला के प्राचीर पर दीप सिद्धू की मिस्ट्री और भाजपा के साथ केमेस्ट्री क्या है?ऐसे में देश के गृह मंत्री को अपने पद पर बने रहने का क्या अधिकार रह जाताहै.

किसान परेड से गणतंत्र के मायने

हर साल 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस के दिन जब हम अपने घरों में होते हैं तो सुबह 8 बजे के बाद चैनल बदल कर सीमा पर तैनात जवानों और देश के विभिन्न राज्यों की झाकियां देखते हैं. हर साल होने वाली परेड में केवल देश के बड़े नेता, विदेशों से आने वाले मुख्य अथिति और गिनेचुने वो स्पेशल लोग होते हैं जो परेड का पास खरीदते हैं और परेड देखते हैं. इस सरकारी परेड में अकसर‘तंत्र’ तो मौजूद रहता है लेकिन ‘गण’ अपने टीवी चैनलों में ही कहीं सीमट कर रह जाता है.

इस साल 26 जनवरी का गणतंत्र दिवस अपनेआप में बेहद खास था. क्योंकि किसानों ने आंदोलन के लिए इसी दिन को अपनी ट्रेकटर रैली के लिए चुना था. एक तरफ राफेल उड़ रहा था तो दूसरी तरफ ट्रैक्टर मार्च हो रहा था. जनता की निगाहें नए नवेले राफेल पर नहीं बल्कि किसानों के ट्रैक्टर पर थी. किसानो की इस परेड ने पूरे देश में यह संदेश जरुर दे दिया कि गणतंत्र लुटियन जोन में बैठे नेताओं की बपौती नहीं है. बल्कि यह आम लोगों की है.

यह परेड एक तरह से सरकार को सीधी चुनौती थी की लोकतंत्र के मायने में लोगों के तंत्र की भूमिका अहम होती है न की राज के तंत्र की. इस परेड के जायज नाजायज पहलू हमेशा विवादों में जरुर रहेंगे किन्तु बिना साजोसामान, तामझाम के किसानों की परेड कर पाने की इस क्षमता ने इतिहास में अपना नाम हमेशा के लिए दर्ज कर लिया है और सत्ता में बैठे अहंकारी सत्ताधारियों के मुह पर एक जोरदार तमाचा मारा है.

गण की तंत्र को चुनौती

किसान आंदोलन की बात शुरू करने से पहले ज़रा इतिहास पर एक नज़र डालते हैं, ब्रिटिश राज में हिंदुस्तानियों को नमक बनाने का अधिकार नहीं था, जो स्वस्थ जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है. ब्रिटिश हुकूमत ने नमक पर कानून बना रखा था. हम इंग्लैंड से आने वाले नमक को अधिक पैसे देकर खरीदते थे, जबकि हमारे समंदर में नमक की कमी नहीं थी. महात्मा गाँधी ने 12 मार्च 1930 को ‘नमक कानून’ के खिलाफ साबरमती आश्रम से दांडी गांव (गुजरात) तक पदयात्रा निकाली. उनके पीछे पूरा हुजूम चला. गाँधी 24 दिन में 350 किलोमीटर पैदल चल कर दांडी पहुंचे और वहां उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के ‘नमक कानून’ को तोड़ा.

एक दशक पीछे हुए अन्ना आंदोलन की चर्चा करें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल विधेयक बनाने हेतु 5 अप्रैल 2011 को अन्ना हज़ारे ने दिल्ली के जंतर मंतर से आंदोलन की शुरुआत की. जल्दी ही आंदोलन व्यापक हो गया और लाखों लोग सड़कों पर उतर आये. उस वक़्त केंद्र में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी. गण के प्रति तंत्र का रवैया सख्त और नकारात्मक था. अन्ना के अनशन का सरकार की सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था. लेकिन अन्ना के साथ जब देश जुटने लगा तो सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और 16 अगस्त 2011 तक संसद में लोकपाल विधेयक पास कराने की बात स्वीकार कर ली.

ये भी पढ़ें- किसान परेड और गणतंत्र दिवस

अगस्त के मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर था और उस मसौदे से अलग था जो अन्ना और उनके समर्थकों ने सरकार को दिया था. अन्ना खफा हुए और 16 अगस्त से पुनः अनशन पर बैठ गए. सरकार ने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया और अन्ना व उनके समर्थकों को गिरफ्तार कर तिहाड़ भेज दिया. वहां भी अन्ना का अनशन जारी रहा और आंदोलन पूरे देश में भड़क उठा. आखिर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा. वे जेल से रामलीला मैदान  पहुंचे और उनके साथ अगले 12 दिनों तक बड़ी संख्या में लोग रामलीला मैदान में जमे रहे.

अन्ना को मनाने और अनशन तुड़वाने की भरपूर कोशिश सरकार ने की. अन्ना-समर्थकों और सरकार के बीच कई दौर की वार्ताएं हुईं, मगर नतीजा नहीं निकला. देश और दुनिया भर के मीडिया की नज़रें अन्ना आंदोलन पर थीं. दसवें और ग्यारहवें दिन भूखे प्यासे अन्ना की हालत बिगड़ने लगी. डॉक्टर्स ने ड्रिप चढाने को कहा, अन्ना ने इंकार कर दिया. सरकार के हाथ-पाँव फूल गए. अन्ना को कुछ हो गया तो क्या होगा? विपक्ष चीखने लगा. आज पत्रकारों के जिस समूह को ‘गोदी मीडिया’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है, वह उस समय अन्ना की बिगड़ती हालत पर केंद्र की यूपीए सरकार पर पिल पड़ी. इनमें से ज़्यादातर पत्रकार रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन का हिस्सा बन गए थे.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट

आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा. संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद 28 अगस्त को सुंदरनगरी की दलित समुदाय की पांच वर्षीय बच्ची सिमरन और तुर्कमान गेट की रहने वाली मुस्लिम समुदाय की बच्ची इकरा के हाथों शहद मिश्रित नारियल पानी पीकर अन्ना ने अपना अनशन समाप्त किया.

अब बात करते हैं आज के किसान आंदोलन की. 60 दिन से लाखों किसान तीन नए कृषि कानून, जिन्हें जबरन उन पर थोपा जा रहा है, को वापस लेने की मांग लेकर कड़ाके की सर्दी-बारिश में, खुले आसमान के नीचे दिल्ली को घेरे बैठे हैं. उनमें बुजुर्ग किसान हैं, बूढी औरतें और बच्चे भी हैं. अब तक 140 से ज़्यादा किसान अपनी जानें गवां चुके हैं. लेकिन बेशर्म सरकार टस से मस होने को तैयार नहीं है.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन : उलट आरोपों से बदनाम कर राज की तरकीब

सरकार और किसान नेताओं के बीच दस बार बातचीत हो चुकी है, लेकिन हर वार्ता बेनतीजा. किसान की बस एक मांग है कि तीनों क़ानून वापस ले लो हम चले जाएंगे, लेकिन सरकार अड़ी है.

देश को गणतंत्र बने 72वां साल है. गण तंत्र से मिन्नतें कर रहा है. लेकिन ढीठ सरकार पर गरीब की कराह, खौफ, दर्द, अपनों की मौतों पर गूंजती सिसकियों का कोई असर नहीं है. 12 मार्च 1930 को गाँधी ब्रिटिश हुकूमत का नमक कानून तोड़ने निकलते हैं और 24 दिन बाद तोड़ने में कामयाब हो जाते हैं. अन्ना के अनशन के आगे 12 दिन में यूपीए की सरकार झुक जाती है, लेकिन भाजपा सरकार, ब्रिटिश हुकूमत से भी कहीं ज़्यादा क्रूर है. बोरिस जॉनसन अगर 26 जनवरी 2021 की परेड के मुख्य अतिथि होते तो मोदी सरकार की क्रूरता से काफी सीखकर जाते.

देश में पहली बार गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में दो परेड निकलीं. एक जवानों की, दूसरी किसानों की. दिल्ली की सड़कों पर टैंकों के साथ ट्रैक्टरों का मार्च हुआ. लाखों किसान तय समय और तय रास्तों पर अपने ट्रैक्टर ले कर किसान नेताओं के पीछे शांतिपूर्ण तरीके से निकले. मगर साजिश देखिये कि गोदी मीडिया ने यह तस्वीरें नहीं दिखाईं. हाँ, एक जत्था जो एक साजिश के तहत तय मार्ग को छोड़ कर लाल किले पहुंच गया, सारे चैनल उन्हीं की तस्वीरें दिखाते रहे और किसान आंदोलन पर हंगामा बरपाते रहे.

सरकार और उसकी पुलिस की नाकामी देखिये कि जब आईटीओ पर ही ये साफ़ हो गया था कि ये जत्था लालकिले जाने वाला है, फिर भी उसको रोकने का कोई प्रयास नहीं किया गया? क्या ये पुलिस सुरक्षा पर सवाल नहीं है? क्या ये इंटेलिजेंस फेलियर की बात नहीं है? आखिर भाजपा सरकारें सुरक्षा के मामले में इतनी ढीली क्यों है? उरी, पठानकोट और पुलवामा हमला ढीलेपन की तस्दीक करती है. गलवां में चीन घुस आया, अरुणाचल प्रदेश में चीन ने पूरा गांव ही बसा लिया. सरकार कुछ नहीं कर पायी. थोड़ा और पीछे जाएं तो 1999 में वाजपेयी सरकार में आतंकवादी हवाई जहाज़ का अपहरण करके कंधार ले गए. बदले में सरकार को तीन खूंखार आतंकवादी छोड़ने पड़े. देश की संसद पर हमला भी वाजपई सरकार के दौर में हुआ तो कारगिल युद्ध भी हमने देखा. आखिर भाजपा सरकार हर बार कमजोर क्यों हो जाती है? क्या ऐसी कमजोर सरकार को सत्ता में बने रहने का हक़ है जो चंद किसानों से अपने ऐतिहासिक धरोहरों की हिफाज़त ना कर पाए?

26 जनवरी को लालकिले पर पहुंच कर इस किसान जत्थे ने तिरंगे के नीचे अपना भी झंडा तान दिया. आखिर वो लालकिले में घुसने में कामयाब कैसे हुए? अगर गणतंत्र दिवस वाले दिन भी लालकिले की पुलिस सुरक्षा इतनी लचर थी तो आम दिनों में क्या हाल होता होगा?

दरअसल ये सब उस साजिश के तहत हो रहा था जिसके बाद सारा ठीकरा किसान आंदोलन के सिर मढ़ कर आंदोलन को कमजोर करना था. ये साफ़ हो चुका है कि ट्रेक्टर रैली का तय रास्ता छोड़ कर जो किसान लाल किले पहुंचे थे, उनको लीड करने वाले नेता भाजपा से जुड़े हुए लोग थे, और इसीलिए पुलिस ने उनको नहीं रोका. उनको लालकिले पहुंचने का पूरा मौक़ा दिया गया. मौक़ा आखिर दिया भी क्यों नहीं जाता, जब झंडा उनके ही आदमियों को फहराना था?

झंडा लहराते ही गोदी मीडिया वाले चैनल चीखने लगे कि लालकिले पर खालिस्तान का झंडा फहराया गया. चारों तरफ शोर हो गया. जबकि जो झंडा फहराया गया, वह खालसा पंथ का केसरिया झंडा था, जिसे सिख समाज आदरपूर्वक ‘निशान साहेब’ कहता है. वही केसरिया बाना जिससे भगत सिंह और तिरंगे का केसरिया निकला है. भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट सीमा पर जिन चौकियों की रक्षा करती है, उन सब पर ‘निशान साहेब’ अहर्निश फहरता रहता है. इतना ही नहीं, जब सिख रेजिमेंट दुश्मन की किसी चौकी को फतह करती है तो उस पर भी ‘निशान साहेब’ को शान से फहराती है. लालक़िले पर निशान साहेब को लहराने वाले हाथों में तिरंगा भी था. तिरंगा ऊपर था और निशान साहेब उससे कुछ नीचे, इसलिए यह विवाद ही व्यर्थ है. साजिशकर्ता यहाँ थोड़ा चूक गए. वरना ‘निशान साहेब’ की जगह खालिस्तान का झंडा ही होता.

हकीकत तो यह है कि धर्म का बोलबाला तो उस दिन राजपथ पर निकलने वाली झांकियों में दिखा. गणतंत्र दिवस की परेड में तो सरकार ने विशेष धर्म की रैली ही निकाल दी. धर्म कोई भी हो, लेकिन गणतंत्र दिवस की परेड में उसका क्या स्थान है? धर्म को रैलियों, राजनीति में लाने की परंपरा तो सरकार की कमान सँभालने वालों ने खुद डाली है, फिर जनता से धर्म निरपेक्षता की उम्मीद क्यों? आपने कोरोना वैक्सीन, राफेल, संसद के भूमि पूजन से लेकर राम मंदिर के निर्माण में एक धर्म विशेष के प्रतीकों का उपयोग किया और बाकी धर्मों को इतना दबाया कि आज उन्हें सरकार में अपना नेतृत्व ही नजर नहीं आता. आप सरकार में रहकर धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सके, आप संविधान की शपथ लेकर धर्मनिरिपेक्ष नहीं हो सके, आप जनता से उम्मीद कर रहे हैं कि वह जब रैलियां निकाले तो धार्मिक पताकाओं का उपयोग न करे. ये कैसे संभव है?

गणतंत्र दिवस के दिन आपने पूरा संविधान ही मरोड़कर रख दिया, मगर किसानों के साथ सिख धर्म के प्रतीकों से आपको दिक्कत होने लगी? आपने नए संसद भवन के भूमि पूजन से लेकर, गणतंत्र दिवस की परेड तक में धार्मिक प्रतीक घुसा दिए. आपने न्यायालय पर चढ़कर एक धर्म विशेष का झंडा लहराने वालों को सम्मानित किया. आपने जय श्री राम के नारे लगाकर हत्या करने वालों को मालाएं पहनाई. आपने तो खुद तिरंगे और संविधान की आत्मा को तार-तार किया. आपने तिरंगे कि जगह हर जगह भगवा लहरा दिया. अब उसी तिरंगे के नीचे कुछ लोगों ने अपने धर्म की पताकाएं लहरा दीं तो आपको दिक्कत होने लगी? इसके जिम्मेदार तो आप खुद हैं. परंपरा तो आपने डाली है, उसके दुष्परिणाम तो नीचे तक पहुँचने ही हैं. आपने आईआईटी जैसे संस्थानों की वेबसाइटों में गीता-रामायण डलवा दिए. प्रधानमंत्री स्वयं मन्दिर पूजन में जाते हैं. आरतियां करते हैं. भूमि पूजन करते हैं, जबकि उसी अयोध्या में मस्जिद का शिलान्यास भी किया जा रहा है, मगर प्रधानमंत्री की तरफ से एक ट्वीट तक नहीं आया. सरकार सांप्रदायिक रहे, उसके मंत्री दंगाई रहें, संविधान के पालन की जगह कर्मकांड हों और फिर आपकी इच्छा कि प्रदर्शनकारी ‘धर्म निरिपेक्ष’ हों. ऐसा नहीं होता.

किसानों ने तो फिर भी संविधान का सम्मान रखा. तिरंगे का सम्मान रखा. उन्होंने एक हाथ से अपने संगठनों की पताकाएं फहराईं, तो दूसरे हाथ से तिरंगा फहराया. कुछ किसानों ने तो बदन से भी तिरंगा लपेट कर रखा था.

लालकिले पर प्रदर्शन मामले में पुलिस ने किसान नेताओं और किसानों के खिलाफ तमाम एफआईआर की हैं. कुछ किसान इससे डरे भी हैं. आंदोलन को इस उत्पात से थोड़ा धक्का भी पहुंचा है, लेकिन अगर मोदी सरकार ये सोचती है कि इस तरह की साजिशों से आंदोलन ख़त्म हो जाएगा तो ये उसकी खामखयाली ही है. यह आंदोलन किसानों के लिए जीवन मरण का प्रश्न है. सब कुछ सहते हुए, जान देते हुए भी बिल्कुल अहिंसात्मक तरीके से किसान महीनों से डटें हैं. यह आंदोलन साजिशों से, लॉलीपॉप देने से या दमन से खत्म होने वाला नहीं है, भले थोड़ा लंबा हो जाये. जनता की सहानुभूति किसानों के साथ है. 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर उनकी ट्रैक्टर रैली पर लोगों ने घर से निकल कर पुष्प वर्षा की. उनका उत्साहवर्धन किया. उनके साथ नाचे-गाये. सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि किसान एक संगठित राजनीतिक शक्ति भी है, वरना अकाली दल आज सरकार से बाहर न होता. सौ की सीधी बात यह है कि नए कृषि कानूनों का विरोध किसान इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वह यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि मोदी सरकार अपने चंद ख़ास कॉर्पोरेट दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए यह बिल लाकर उनकी जमीनें और पैदावार छीनने की साजिश रच कर बैठी है.

बिग बॉस 14: पारस छाबड़ा ने पवित्रा पुनिया को कहा धोखाबाज,जानें पूरा मामला

बिग बॉस 14 के घर से बाहर आ चुकी पवित्रा पुनिया को लेकर इनदिनों नई-नई खबरे सोशल मीडिया पर आ रही हैं. पवित्रा पुनिया और एजाज खान के रिश्ते को लेकर इन दिनोम माहौल गर्म होता नजर आ रहा है.

एजाज खान ने पवित्रा पुनिया को लेकर खुलकर बात करते हुए कहा है कि उन्हें पवित्रा के साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है. वहीं एजाज खान ने यह भी कहा कि वह अपने निजी कारण के वजह से बिग बॉस के घर से बाहर आएं हैं.

ये भी पढ़ें- दुल्हन बनी बॉलीवुड सिंगर शिल्पा राव , फोटो वायरल

दरअसल, पवित्रा पुनिया बिग बॉस 14 में जानें से पहले पारस छाबड़ा पर कई तरह के गंभीर आरोप लगाएं थें उन्होंने पारस को धोखेबाज तक बताया था. पारस ने उन्हें धोखा दिया था जिस वजह से दोनों अलग हुए थे पवित्रा ने अपने बयान में कहा था.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Pavitra Punia (@pavitrapunia_)

जबकी पारस छाबड़ा ने बताया था कि पवित्रा पुनिया ने शादीशुदा होने के बावजूद भी उन्हें डेट कर रही थी. जिस वजह से उन्होंने एक-दूसरे दूरी बनाई थी. पारस का कहना था कि पवित्रा उन्हें डबल डेटिंग कर रही थी.

ये भी पढ़ें- भारत-चीन युद्ध पर बेस्ड वेब सीरीज ‘‘1962: द वार इन द हिल्स’’ का टीजर वायरल

पारस ने कहा मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी कि मैं शादीशुदा होने के बावजूद भी उसके साथ दोस्ती रखा. मेरे जिंदगी में वह आई क्यों.

बिग बॉस 14 के घर में पवित्रा पुनिया ने कहा था कि मेरा पति ऐसा होना चाहिए कि जब वो घर की घंटी बजाए तो सिर्फ मेरा होना चाहिए, उससे पहले वो कुछ भी हो.

ये भी पढ़ें- अमिताभ बच्चन के मास्क वाले वीडियो पर नातिन नव्या नवेली ने दिया ये

वहीं पारस के भड़काउ बयान के बाद फैंस लगातार पवित्रा के जवाब का इंतजार कर रहे हैं. अब देखना ये है कि पवित्रा का क्या होगा जवाब.

दुल्हन बनी बॉलीवुड सिंगर शिल्पा राव , फोटो वायरल

इन दिनों एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में शादियों का दौर शुरू हो चुका है. वरुण धवन ,नताशा दलाल के बाद करणवीर मेहरा और अब सिंगर शिल्पा राव ने अपने बेस्ट फ्रेंड रितेश कृष्णन के साथ शादी रचा ली है. शिल्पा ने शादी के बाद की तस्वीर शेयर कर खुशखबरी दी है.

शिल्पा ने अपने पार्टनर के साथ तस्वीर में बेहद खुश नजर आ रही हैं. दोनों ने साथ में बेहद प्यारे लग रहे हैं. बता दें कि रितेश पेशे से फोटोग्राफर और डॉयरेक्टर हैं. शिल्पा ने तस्वीर शेयर करते हुए लिखा मिस्टर और मिसेज के तौर पर हमारी पहली सेल्फी.

ये भी पढ़ें- भारत-चीन युद्ध पर बेस्ड वेब सीरीज ‘‘1962: द वार इन द हिल्स’’ का टीजर

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Shilpa Rao (@shilparao)

ये भी पढ़ें- अमिताभ बच्चन के मास्क वाले वीडियो पर नातिन नव्या नवेली ने दिया ये

इससे पहले शिल्पा ने अपनी बचपन की तस्वीर शेयर करते हुए लिखा है कि बचपन मे हम दोनों में एक समानता थी की हमदोनों एक जैसे दिखते थें, दोनों के चेहरे पर स्माइल नहीं है.

ये भी पढ़ें- शिल्पा शेट्टी ने गणतंत्र दिवस के दिन दी स्वतंत्रता दिवस की बधाई, यूजर्स ने ट्रोल कर पूछा ये सवाल

शिल्पा राव ने कई सुपरहिट फिल्मों के लिए गाना गाया है. जैसे घुंघरू, देसी बॉयज का अल्लाह माफ करें, फिल्म ए दिल है मुश्किल का जिद ना करो. इन दोनों कपल को अभी सोशल मीडिया पर शुभकामनाएं आ रही हैं.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Shilpa Rao (@shilparao)

ये भी पढें- बिग बॉस 14: घर से बाहुर हुई सोनाली फोगाट, रोटी फेंकना पड़ा भारी

बता दें कि ये कपल लंबे वक्त से एक दूसरे को जानते थें, दोनों पहले अच्छे दोस्त थें लेकिन इनकी दोस्ती प्यार में बदल गई फिर इन दोनों ने अपने रिश्ते को एक नया नाम दे दिया.

साग और मेथी वाला टोडा : बीबी की सांस फूल रही थी

‘‘ले भोलू, साग खा ले मेथी वाले टोडे (मक्की की रोटी) के साथ, अपने हाथ से बना कर लाई हूं,’’  मुड़ेतुड़े पुराने अखबार के कागज में मक्की से बनी रोटियां और स्टील के डब्बे में सरसों का साग टेबल पर रखते हुए बीबी बोली. उस की c. चेहरे से वह कुछ परेशान और थकीथकी सी दिख रही थी.

‘‘पैरी पैणा,’’ बीबी के अचानक सामने आते ही वह कुरसी से आदर सहित खड़ा हो गया.

‘‘पैरी पैणा बीबीजी,’’ उस के पास बैठे उस के मित्र ने बीबी को न जानते हुए भी बड़े सत्कार से कहा.

‘‘जीते रहो मेरे बच्चो,’’ बीबी ने भोलू के सिर पर हाथ फेरा, फिर मातृत्व वाले अंदाज में उस का माथा चूम लिया और प्यार से उसे अपने सीने से लगा लिया. फिर उस के समीप बैठे उस के मित्र के सिर पर हाथ फेरा. इतने में औफिस का चपरासी बीबी के लिए कुरसी ले आया. बीबी कुरसी के उग्र भाग पर ऐसे बैठी जैसे अभी उठने वाली हो.

ये भी पढ़ें- हल: आखिर नवीन इरा से क्यों चिढ़ता था?

‘‘बीबी, आराम से बैठ जाओ,’’ भोलू ने आग्रहपूर्वक कहा. औफिस का वातावरण एकदम ममताभरी आभा से सराबोर हो उठा. हर चीज जैसे आशीर्वाद के आभामंडल से जगमगा उठी.

‘‘बीबी, और सुनाओ, क्या हालचाल है आप का?’’

‘‘बस, ठीक है पुत्र, तुम सुनाओ अपना, मेरी बहूरानी और बच्चों का क्या हाल है?’’

‘‘बीबी, सब ठीक हैं, बच्चे और तुम्हारी बहूरानी भी.’’

‘‘बड़ा काका अब क्या करता है, बेटा?’’

‘‘बीबी, इंजीनियरिंग कर रहा है.’’

‘‘अच्छा है, और छोटा?’’ बीबी ने बड़ी आत्मीयता से पूछा.

‘‘बीबी, वह अभी 12वीं कर रहा है.’’

‘‘भोलू, तुम्हें मां की तो बहुत याद आती होगी?’’ बीबी ने चेहरे पर संवेदना लाते हुए पूछा.

‘‘हां, बीबी, बहुत याद आती है मां की, मेरी मां बहुत अच्छी थी. उस के जैसा कोई नहीं है, बीबी. मेरा छोटा बेटा भी मां को बहुत याद करता है. बहुत स्नेह था उस का दादी से. अब भी वह अकसर दादी को याद कर के आंख भर लेता है,’’ भोलू ने भावुकता से कहा.

‘‘बहुत अच्छी थी तुम्हारी मां, भोलू. बहुत प्यारसत्कार था उस के पास. बंदे को पहचानने वाली औरत थी. बहुत दूर की नजर रखती थी,’’ बीबी ने अंतहीन दृष्टि से औफिस की दीवार पर लगी घड़ी को ताकते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- पप्पू अमेरिका से कब आएगा-भाग 1 : विभा किसकी राह देख रही थी

‘‘हां बीबी, यह तो आप ने ठीक कहा. जो उस से एक बार मिलता, वह उसे कभी भी न भूल पाता,’’ भोलू लगातार बीबी से बतियाता रहा. पास बैठा उस का मित्र मुंह से कुछ भी ना बोला. बस, उन की बातें सुनता रहा. उसे ऐसी बातों में बहुत आनंद आ रहा था. उस ने ऐसी बातें पहले कभी नहीं सुनी थीं. औफिस का वातावरण कमाल का था. किसी का मन भी वहां से जाने को न था.

‘‘बीबी और सुनाओ, मेहर कैसा है?’’

‘‘ठीक है, पुत्र काम पर जाता है अब.’’

‘‘कहां जाता है काम पर, बीबी?’’

‘‘एक धार्मिक स्थल पर सेवादार का काम करता है. सुबह 8 बजे जाता है और शाम को 6 बजे घर लौटता है.’’

ये भी पढ़ें- हल: आखिर नवीन इरा से क्यों चिढ़ता था?

‘‘बीबी, अब तो शराब नहीं पीता होगा, मेहर?’’

‘‘नहीं पुत्र, अब नहीं पीता.’’

‘‘चलो, अच्छा है, अपना घर संभालता है.’’

‘‘हां पुत्र’’ बीबी कुछ देर खामोश रही. फिर थोड़ी देर बाद बोली,‘‘बहुत दुख देखे थे तुम्हारी मां ने बेटा. तुम ने भी बहुत मेहनत की थी अपनी मां के साथ. बच्चे अच्छे हों तो मांबाप का जीवन सफल हो जाता है, बेटा. जीवन ही नहीं, बल्कि उन का मरना भी सार्थक हो जाता है,’’ बीबी भावनाओं के समंदर में डूबती जा रही थी.

‘‘हां बीबी, यह बात तो ठीक है.’’

‘‘चलो, तेरी मां इस बात से तो सुख की सांस ले कर गई है इस दुनिया से, अशके पुत्र अशके तेरे,’’ बीबी ने गर्व से गरदन उठा कर कहा.

‘‘बीबी, बहुत मुश्किल से छुड़वाई थी तुम ने मेहर की शराब, कितना इलाज करवाया था तुम ने उस का.’’

‘‘हां पुत्र, बहुत बुरे दिन देखे हैं. लेकिन हालातों के आगे तो किसी की भी नहीं चलती है न. बेटा, बिना मर्द के इस दुनिया में जीना बहुत कठिन है. उस पर यदि औलाद अच्छी न निकले, तो फिर पूछो मत कि क्या गुजरती है. मैं बता नहीं सकती. मु झे मालूम है कि मैं ने कैसे समय बिताया है. अनपढ़ औरत थी मैं. भरी जवानी में विधवा हो गई. मत पूछो, पुत्र.’’

ये भी पढ़ें- पंछी बन कर उड़ जाने दो: निशा को मौसी से क्या शिकायत थी

‘‘हां, यह तो ठीक है, बीबी.’’

‘‘हां पुत्र, लेकिन सफेद लिबासों में भेडि़ए ही फिरते हैं. मैं ने देखा है उन दरिंदों को. ये वो लोग हैं जो इंसानियत के दुश्मन हैं और समाज को खोखला कर रहे हैं. ये वो लोग हैं जो अपने थोड़े से फायदे के लिए लोगों को मौत के मुंह में  झोंक देते हैं.’’

‘‘हां बीबी, यह तो तुम ने ठीक कहा.’’

‘‘यही वे लोग हैं जिन्होंने मेहर को नशे की आदत लगा दी थी. मैंबर तो थे ये धार्मिक स्थल के और मेहर से काम करवाते थे घर का और थोड़ी पिला कर देररात तक काम करवाते रहते. बस वहां लग गई उस को नशे की लत,’’ बीबी व्यथित हृदय से सारी बातें बताती रही और अपना मन हलका करती रही. बीबी की बातों से ऐसा लग रहा था जैसे आज तक किसी ने भी उस का दुख सुना न हो. बातें करतेकरते बीबी की आंखें भर आईं. वह ऐसे बातें कर रही थी जैसे किसी अपने हमदर्द से बातें कर रही हो. भोलू उस की बातें बड़ी आत्मीयता से सुन रहा था.

भोलू को याद है जब वह छोटा सा था तो बीबी उस के घर दूध ले कर आया करती थी क्योंकि मेहर का बाप कुछ वर्ष पहले मर चुका था. मेहर के अलावा उस की 2 लड़कियां भी थीं. एक मेहर से बड़ी और एक छोटी. थोड़ा बड़ा होने पर मेहर दूध ले कर आने लगा था.

भोलू की मां और बीबी के बीच बहुत अच्छा रिश्ता बन गया था. दोनों विधवा थीं. दोनों का दुख एकजैसा ही था. दोनों का परिवार जीवन के बड़े संघर्षों से गुजर रहा था. आहिस्ताआहिस्ता भोलू ने अपने पिता के कारोबार को संभाल लिया और मेहर किसी धार्मिकस्थल में सेवादार के काम पर लग गया. औफिस का वातावरण अभी भी मोहममता की सुगंध से महक रहा था.

‘‘बीबी, बहूरानी के बारे में सुनाओ, ठीक है, सेवा करती है आप की?’’

‘‘बहूरानी तो ठीक है, घर अच्छे से संभालती है, मेरी सेवा भी बहुत करती है पर…?’’

‘‘पर क्या?’’ भोलू ने बीबी के कंठ में रुकी आधीअधूरी बात को निकालने का प्रयत्न करना चाहा.

‘‘क्या बताऊं, बेटा…’’ वह कुछ रुकी, फिर बोली, ‘‘क्या बताऊं, मेरी लड़कियों से नहीं बनती उस की,’’ बीबी यह बोलतेबोलते एकदम दुखी सी हो गई.

‘‘बीबी, फिर क्या हुआ, दुखी मत हो, अपना घर तो संभालती है न, तेरे पोतेपोतियों को तो संभालती है न, तेरे बेटे से तो ठीक है न,’’ भोलू ने बीबी को सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘पुत्र, अपने जायो से तो प्यार जानवर भी करते हैं, मजा तो तब है जब दूसरों के लिए कुछ किया जाए,’’ बीबी कर्कश स्वर में बोली.

‘‘चलो बीबी, फिक्र न किया करो.’’

‘‘नहीं पुत्र, उस की मेरी बेटियों से नहीं बनती, यह सोच कर मेरा मन बहुत दुखी होता है, वे कौन सा इस से कुछ मांग रही हैं, कुदरत का दिया सबकुछ तो है उन के पास. दो बोल ही तो बोलने होते हैं मीठे. और क्या चाहिए उन को. सारी जमीनजायदाद तो दे दी उन्होंने लिख कर इन को, फिर भी ऐसा हो तो किसे बुरा न लगेगा, भला?’’ बीबी प्रश्नचिह्न चेहरे पर लाते हुए बोली. उस की आंखों से जैसे नाराजगी के दो मोती छलकने को ही थे.

‘‘बीबी, तू चिंता मत किया कर, तेरी बेटियां अपने घर में सुखी हैं न, और तुम्हें क्या चाहिए?’’

‘‘हां बेटा, छोटा जमाई थोड़ा गुस्से वाला है पर फिर भी ठीक है, रोटी तो कमा कर खिला रहा है न.’’

‘‘चलो बीबी, आहिस्ताआहिस्ता सब ठीक हो जाएगा, चिंता मत किया करो.’’

‘‘पुत्र, घर से बेटियां अगर नाराज हो कर जाएं तो तुम्हें क्या पता कि मां के दिल पर क्या बीतती है,’’ बीबी की आंखों में अटके आंसू आखिर छलक ही पड़े.

‘‘बीबी, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा,’’ भोलू ने बीबी को सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘माताजी, चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा, अच्छा बीबी, पैरी पैणा,’’ भोलू के पास बैठे उस के दोस्त से भी जैसे रहा न गया. इतना कह वह वहां से चला गया. उस के बोलने से माहौल में कुछ बदलाव आया.

‘‘भोलू, चल साग और मेथीवाला टोडा (मक्की की रोटी) खा ले अब, मैं खुद अपने हाथों से बना कर लाई हूं. बहूरानी तो काम कर रही थी, मैं ही जल्दीजल्दी बना लाई. सोचा, आज भोलू से मिल कर आती हूं. बहुत मन कर रहा था तुम से मिलने का,’’ बीबी अपनी सारी परेशानियों से बाहर आ कर बोली, ‘‘अच्छा पुत्र, चलती हूं, बहुत देर हो गई, बहूरानी इंतजार करती होगी,’’ बीबी दुपट्टे से अपनी आंखें पोंछती हुई बोली.

ये भी पढ़ें- सैलाब से पहले

‘‘साग टोडा मु झे बहुत स्वादिष्ठ लगता है,’’ भोलू ने टोडे वाले मुड़ेतुड़े अखबार वाले पैकेट और साग वाले डब्बे की सुगंध लेते हुए कहा.

‘‘बेटा, मां के हाथ का है, स्वाद क्यों नहीं होगा?’’

‘‘बीबी, सच बता, मेहर अब कोई नशा तो नहीं करता न?’’

‘‘रहने दे, परदा ही रहने दे, बेटा. क्या बताऊं, अब तुम से क्या छिपाना, पता नहीं कहां से गोलियां ले कर खाता है नशे की. अब मैं क्या करूं?’’ बाहर खड़े मेहर के स्कूटर पर बैठने से पहले बीबी ने भोलू के कान मे पास आ कर कहा. भोलू दूर तक बीबी को स्कूटर पर जाते हुए देखता रहा. भोलू के मस्तिष्क की दूरी में कुछ चलता रहा जिसे भोलू हल करने का प्रयास करता है. पर नशे पर किसी का बस काबू है? जो एक बार फंस गया, निकल ही नहीं पाता.

तुम आज भी पवित्र हो

मंगौड़ी की तहरी ऐसे बनाएं

मौसमी सब्जियों में मूंगदाल की मंगौड़ी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. यह डिश उत्तर भारत में बहुत ज्यादा लोकप्रिय है. लेकिन इसके बनाने का हर किसी का अपना अलग- अलग तरीका होता है.  कुछ लोग इसे चावल के साथ मिक्स करके बनाते हैं तो  आइए जानते हैं कैसे बनती है मंगौड़ी डालकर चावल .

ये भी पढ़ें-खट्टे मीठे करेले बनाने कि विधि

समाग्री

बासमती चावल

हरा मटर

आलू

तेजपत्ता

नमक

लाल मिर्च

हल्दी पाउडर

गरम मसाला

धनिया

घी

ये भी पढ़ें- मेथी और पनीर से बनाया गया पुलाव

विधि

सबसे पहले चावल को अच्छे से बीनकर धो ले और 15 मिनट के लिए पानी में डालकर रख दें. अब एक कड़ाही में घी को गर्म करें और उसमें मगौड़ी को सुनहरा होने तक भूने. जब मंगौड़ी भून जाए तो उसे एक कटोरे में निकालकर रख दें.

अब आलू को छिलकर काट लें और मटर के दाने के साथ इसे फ्राई करके रख लें. अब प्रेशक कुकर में घी को डालें और जब घी गर्म हो जाए तो उसमें तेजपत्ता डाले और बाकी सभी मसाले को डालकर चलाएं. इसके बाद इसमें आलू और मटर को डालें. कुछ देर तक चलाने के बाद इसमें आप चावल के साथ हल्दी नमक डालकर मिलाए साथ में मंगौडी भी डाल दें. इस के बाद कुकर में दो सीटी लगा दें , गैस से उतारने के बाद इसमें गर्म मसाला और धनिया की पत्ति डालकर मिलाए फिर इसे सर्व करें.

जानलेवा भी हो सकता है हेल्दी फ्रूट सेब, जानिए कैसे

जिन फलों को हमें रोज खाना चाहिए उनमें सेब प्रमुख है. सेब हमारे लिए कई तरह से लाभकारी है. इसका सेवन हमारे लिए लाभप्रद है. पर क्या आपको पता है कि सेब हमारे लिए जानलेवा भी हो सकता है? जी हां, सेब हमारे लिए जानलेवा भी हो सकता है.

क्या है खतरनाक?

दरअसल सेब का बीज काफी खतरनाक होता है. इससे इंसान की मौत भी हो सकती है. आपको बता दें कि सेब की बीज में एक ऐसा तत्व पाया जाता है जो काफी जहरीला होता है. ये तत्व पाचन एन्जाइमों के संपर्क में आता है तो मिल कर साइनाइड बनाता है, जो इंसान के लिए काफी खतरनाक हो सकता है. अमिगडलिन में सायनाइड और चीनी होता है और जब इसे हमारा शरीर निगल लेता है तो वह हाईड्रोजन सायनाइड में तब्दील हो जाता है.

ये भी पढ़ें- रात में जल्दी सोने के हैं ये 7 फायदे, क्या आपको है मालूम

इससे ना सिर्फ आप बीमार हो सकते हैं, बल्कि ये आपकी जान के लिए भी काफी खतरनाक हो सकता है. हालांकि इसका तीव्र असर बहुत कम ही देखने को मिलता है, पर इसके खतरे को कम आंकना ठीक नहीं होगा.

ये भी पढ़ें- साफ पानी पीने के हैं कई फायदे वरना हो सकती हैं ये 10 गंभीर बीमारियां

कैसे काम करता है ये जहर?

साइनाइड दुनिया के कुछ सबसे खतरनाक जहरों में से एक है. इसके शरीर में जाते ही ये सबसे पहले शरीर के औक्सिजन की सप्लाई पर असर करता है. और इंसान तुरंत मर जाता है.

ये भी पढ़ें- कहीं बड़ी न बन जाएं ये छोटी बीमारियां

कितनी मात्रा है खतरनाक

सेब के 200 बीजों से बने चूर्ण इंसान के लिए खतरनाक हो सकता है. इसमें पाया जाने वाला साइनाइड मस्तिष्क और हृदय पर तेजी से असर करता है. इसमें पूरी संभावना होती है कि इंसान कोमा में चला जाए. अगर ज्यादा मात्रा में सायनाइड का सेवन कर लिया जाए तो तुरंत सांस लेने में तकलीफ शुरू हो जाती है, दिल की धड़कन बढ़ जाती है, ब्लड प्रेशर लो हो जाता है और इंसान बेहोश हो जाता है या उसकी जान भी जा सकती है. इसके थोड़े से भी सेवन से मनुष्य को चक्कर, उल्टी की समस्या होती है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें