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नाराजगी-भाग 2 : संध्या दूसरी शादी के बारे सोचकर क्यों डर रही थी

लेखिका-डा. के रानी

संध्या के लिए इतनी बड़ी बात अपने तक सीमित रखना बहुत मुश्किल हो रहा था. घर आ कर उस ने अपनी मम्मी सीमा को यह बात बताई. सीमा बोली, ‘‘यह क्या कह रही हो संध्या? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?’’मम्मी, मु झे दुनिया वालों की परवा नहीं. आखिर दुनिया ने मेरी कितनी परवा की है? मु झे तो केवल सुमित की मम्मी की चिंता है. वे इस रिश्ते को कैसे स्वीकार कर पाएंगी?‘‘संध्या, तुम्हें अब सम झदारी से काम लेना चाहिए.’’‘‘तभी मम्मी, मैं ने उस से कुछ नहीं कहा. मैं चाहती हूं कि पहले वह अपनी मम्मी को मना ले.’’ ‘‘तुम ठीक कह रही हो. ऐसे मामले में बहुत सोचसम झ कर कदम आगे बढ़ाने चाहिए.’’

संध्या की मम्मी सीमा ने उसे  नसीहत दी.कुछ दिनों बाद सुमित ने फिर संध्या से वही प्रश्न दोहराया-‘‘तुम मु झ से कब शादी करोगी?’’ ‘प्लीज सुमित, आप यह बात मु झ से दूसरी बार पूछ रहे हो. यह कोई छोटी बात नहीं है.’’ ‘‘इतनी बड़ी भी तो नहीं है जितना तुम सोच रही हो. मैं इस पर जल्दी निर्णय लेना चाहता हूं.’’ ‘‘शादी के निर्णय जल्दबाजी में नहीं, अपनों के साथ सोचसम झ कर लिए जाते हैं. आप की मम्मी इस के लिए राजी हो जाती हैं तो मु झे कोई एतराज नहीं होगा.’’उस की बात सुन कर सुमित चुप हो गया. उस ने भी सोच लिया था अब वह इस बारे में मम्मी से खुल कर बात कर के ही रहेगा. सुमित ने अपनी और संध्या की दोस्ती के बारे में मम्मी को बहुत पहले बता दिया था.‘‘मम्मी, मु झे संध्या बहुत पसंद है.’’‘‘कौन संध्या?’’‘‘मेरे साथ कालेज में पढ़ाती है.’’‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है. तुम्हें कोई लड़की पसंद तो आई.’’‘‘मम्मी. वह कुंआरी लड़की नहीं है. एक विधवा महिला है. मु झ से उम्र में बड़ी है.’’‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’‘‘मैं सच कह रहा हूं.’’‘‘और कोई सचाई रह गई हो तो वह भी बता दो.’’‘‘हां, उस का एक 8 साल का बेटा भी है.’

’ सुमित की बात सुन कर आशा का सिर घूम गया. उसे सम झ नहीं आ रहा था उस के बेटे को क्या हो गया जो अपने से उम्र में बड़ी और एक बच्चे की मां से शादी करने के लिए इतना उतावला हो रहा है. उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे संध्या ने सुमित  पर जादू कर दिया हो जो उस के प्यार में इस कदर पागल हो रहा है. उसे दुनिया की ऊंचनीच कुछ नहीं दिखाई दे रही थी.‘‘बेटा, इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हें वही विधवा पसंद आई.’’‘‘मम्मी, वह बहुत अच्छी है.’’‘‘तुम्हारे मुंह से यह सब तारीफें मु झे अच्छी नहीं लगतीं,’’ आशा बोलीं.वे इस रिश्ते के लिए बिलकुल राजी न थीं. उन्हें सुमित का संध्या से मेलजोल जरा सा पसंद नहीं था. इसी बात को ले कर कई बार मम्मी और बेटे में तकरार हो जाती थी.

दोनों अपनी बात पर अड़े हुए थे. संध्या का नाम सुनते ही आशा फोन काट देतीं.शाम को सुमित ने मम्मी को फोन मिलाया.‘‘हैलो मम्मी, क्या कर रही हो?’’‘‘कुछ नहीं. अब करने को रह ही क्या गया है बेटा?’’ आशा बु झी हुई आवाज में बोलीं.‘‘आप के मुंह से ऐसे निराशाजनक शब्द अच्छे नहीं लगते. आप ने जीवन में इतना संघर्ष किया है, आप हमेशा मेरी आदर्श रही हैं.’’‘‘तो तुम ही बताओ मैं क्या कहूं?’’‘‘आप मेरी बात क्यों नहीं सम झती हैं? शादी मु झे करनी है. मैं अपना भलाबुरा खुद सोच सकता हूं.’’‘‘तुम्हें भी तो मेरी बात सम झ में नहीं आती. मैं तो इतना जानती हूं कि संध्या तुम्हारे लायक नहीं है.’’‘‘आप उस से मिली ही कहां हो जो आप ने उस के बारे में ऐसी राय बना ली? एक बार मिल तो लीजिए. वह बहू के रूप में आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं देगी.’’‘

‘जिस के कारण शादी से पहले मांबेटे में इतनी तकरार हो रही हो उस से मैं और क्या अपेक्षा कर सकती हूं. तुम्हें कुछ नहीं दिख रहा लेकिन मु झे सबकुछ दिखाई दे रहा है कि आगे चल कर इस रिश्ते का अंजाम क्या होगा?’’‘‘प्लीज मम्मी, यह बात मु झ पर छोड़ दें. आप को अपने बेटे पर विश्वास होना चाहिए. मैं हमेशा से आप का बेटा था और रहूंगा. जिंदगी में पहली बार मैं ने अपनी पसंद आप के सामने व्यक्त की है.’’‘‘वह मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है. तुम इस बात को छोड़ क्यों नहीं  देते बेटे.’’‘‘नहीं मम्मी, मैं संध्या को ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. मु झे उस के साथ ही जिंदगी बितानी है. मैं जानता हूं मु झे इस से अच्छी और कोई नहीं मिल सकती.’’

आशा में अब और बात सुनने का सब्र नहीं था. उस ने फोन कट कर दिया. सुमित प्यार और ममता की 2 नावों पर सवार हो कर परेशान हो गया था. वह इस द्वंद्व से जल्दी छुटकारा पाना चाहता था. उस ने कुछ सोच कर कागजपेन उठाया और मम्मी के नाम चिट्ठी लिखने लगा.‘मम्मी, ‘आप मु झे नहीं सम झना चाहतीं, तो कोई बात नहीं पर यह पत्र जरूर पढ़ लीजिएगा. पता नहीं क्यों संध्या में मु झे आप की जवानी की छवि दिखाई देती है.‘आप ने जिस तरीके से जिंदगी बिताई है वह मु झे याद है. उस समय मैं बहुत छोटा था और यह बात नहीं सम झ सकता था लेकिन अब वे सब बातें मेरी सम झ में आ रही हैं. परिवार की बंदिशों के कारण आप की जिंदगी घर और मु झ तक सिमट कर रह गई थी.

आप का एकमात्र सहारा मैं ही तो था जिस के कारण आप को नौकरी करनी पड़ रही थी और लोगों के ताने सुनने पड़ते थे. यह बात मु झे बहुत बाद में सम झ  में आई.‘जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मु झे लगता मेरी मम्मी इतनी सुंदर हैं फिर भी वे इतनी साधारण बन कर क्यों रहती हैं? पता नहीं, उस समय आप ने अपनी भावनाओं को कैसे काबू में किया होगा और कैसे अपनी जवानी बिताई होगी? समाज का डर और मेरे कारण आप  ने अपनेआप को बहुत संकुचित कर  लिया था. संध्या बहुत अच्छी है. वह मु झे पसंद है. मैं उसे एक और आशा नहीं बनने देना चाहता.

मैं उस के जीवन में फिर से खुशी लाना चाहता हूं. जो कसर आप के जीवन में रह गई थी मैं उसे दूर करना चाहता हूं. हो सके आप मेरी बात पर जरूर ध्यान दें.‘आप का बेटा, सुमित.’पत्र लिखने के बाद सुमित ने उसे पढ़ा और फिर पोस्ट कर दिया. आशा ने वह पत्र पढ़ा तो उन के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. उन्होंने तो कभी ऐसा सोचा तक न था जो कुछ सुमित के दिमाग में चल रहा था. उसे याद आ रहा था कि सुमित की दादी जरा सा किसी से बात करने पर उन्हें कितना जलील करती थीं. किसी तरह सुमित से लिपट कर वे अपना दर्द कम करने की कोशिश करती थीं.आज पत्र पढ़ कर रोरो कर उन की आंखें सूज गई थीं. उन्हें अच्छा लगा कि उन का बेटा आज भी उन के बारे में इतना सबकुछ सोचता है. बहुत सोच कर उन्होंने सुमित को फोन मिलाया.

नाराजगी-भाग 3 : संध्या दूसरी शादी के बारे सोचकर क्यों डर रही थी

लेखिका-डा. के रानी

‘‘हैलो बेटा.’’उस ने पूछा, ‘‘कैसी हो मम्मी?’’मां की आंसुओं में डूबी आवाज सुन कर वह सम झ गया कि उस की चिट्ठी मम्मी को मिल गई है.‘‘बेटा. मैं मुंबई आ रही हूं तुम से मिलने…’’ इतना कहतेकहते उन  की आवाज भर्रा गई और उन्होंने फोन रख दिया. यह सुन कर सुमित की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने यह बात संध्या को बताई तो वह भी खुश हो गई. एक हफ्ते बाद वे मुंबई पहुंच गई. आशा ने संध्या से मुलाकात की. दोनों के चेहरे देख कर उस का मन अंदर से दुखी था. उम्र की रेखाएं संध्या के चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं और उस के मुकाबले सुमित एकदम मासूम सा लग रहा था. दिल पर पत्थर रख कर आशा ने शादी की इजाजत दे दी.

यह जान कर संध्या के परिवार के सभी लोग बहुत खुश थे. उस के बड़े भैया अशोक ने संध्या से पहले भी कहा था कि संध्या तू कब तक ऐसी जिंदगी काटेगी. कोई अच्छा सा लड़का देख कर शादी कर ले. अर्श की खातिर तब उस ने दूसरी शादी करने का खयाल भी अपने जेहन में नहीं आने दिया था. इधर सुमित की बातों और व्यवहार से वह बहुत प्रभावित हो गई थी. आशा की स्वीकृति मिलने पर उस ने शादी के लिए हां कर दी.संध्या की मम्मी सीमा ने जब यह बात सुनी तो उन्हें भी बड़ा संतोष हुआ, बोलीं, ‘‘संध्या, तुम ने समय रहते बहुत अच्छा निर्णय लिया है.’’‘‘मम्मी, मेरा दिल तो अभी भी घबरा रहा है.’’‘‘तुम खुश हो कर नए जीवन में प्रवेश करो बेटा. अभी कुछ समय अर्श को मेरे पास रहने दो.’’ ‘‘यह क्या कह रही हो मम्मी?’’‘‘मैं ठीक कह रही हूं बेटा. तुम्हारी दूसरी शादी है, सुमित की नहीं. उस के भी कुछ अरमान होंगे. पहले उन्हें पूरा कर लो, उस के बाद बेटे को अपने साथ ले जाना.’’ बहुत ही सादे तरीके से संध्या और सुमित की शादी संपन्न हो गई थी. आशा एक हफ्ते मुंबई में रह कर वापस लौट गई थीं.

अभी उन के रिटायरमैंट में 4 महीने का समय बाकी था. संध्या ने उन से अनुरोध किया था, ‘मम्मीजी, आप यहीं रुक जाइए.’ तो उन्होंने कहा था कि वे 4 महीने बाद आ जाएंगी जब तक वे लोग भी अच्छे से व्यवस्थित हो जाएंगे. वे अभी तक इस रिश्ते को मन से स्वीकार नहीं कर पाई थीं. इकलौते बेटे की खातिर उन्होंने उस की इच्छा का मान रख लिया था. 4 महीने यों ही बीत गए थे. सुमित बहुत खुश था और संध्या भी. वह शाम को रोज अर्श से मिलने चली जाती और देर तक अपनी मम्मी व बेटे से बातें करती. अर्श मम्मी को मिस करता था. सुमित के जोर देने पर वह कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास आ गई थी ताकि अर्श को पूरा समय दे सके.रिटायरमैंट के बाद आशा के मुंबई आ जाने से संध्या की घर की जिम्मेदारियां कम हो गई थीं. उस ने अपना घर पूरी तरह से आशा पर छोड़ दिया था.

शाम को संध्या अपने हाथों से खाना बनाती. बाकी सारी व्यवस्था आशा ही देखतीं.आशा महसूस कर रही थीं कि संध्या का व्यवहार वाकई बहुत अच्छा है. भले ही वह सुमित से उम्र में बड़ी थी लेकिन हर जगह पर पति का पूरा मान और खयाल रखती थी. वह कभी उस से बेवजह उल झती न थी. कुछ ही दिनों में आशा के मन में उस के प्रति कड़वाहट कम होने लगी थी. वे सोचने लगीं दुनिया वालों का क्या है? कुछ दिन बोलेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. आखिर जिंदगी तो उन दोनों को एकसाथ बितानी है. उन का आपस में सामंजस्य ठीक रहेगा, तो परिवार की खुशियां अपनेआप बनी रहेंगी.शाम के समय अकसर संध्या खिड़की से खड़े हो कर नीचे ग्राउंड में बच्चों को खेलते हुए देखती रहती.

एक मां होने के कारण आशा उस की भावनाओं से अनभिज्ञ न थी. उसे अपना बेटा अर्श बहुत याद आता था लेकिन उस ने कभी भी अपने मुंह से उसे साथ रखने के लिए नहीं कहा था. एक दिन आशा ने ही पूछ लिया.‘‘तुम्हारा बेटा कैसा है?’’‘‘मम्मीजी, आप का पोता ठीक है.’’‘‘तुम्हें उस की याद आती होगी?’’ आशा ने पूछा तो संध्या ने मुंह से कुछ नहीं बोला लेकिन उस की आंखें सजल हो गई थीं. आशा सम झ गईं कि वह कुछ बोल कर उन का दिल नहीं दुखाना चाहती, इसीलिए कोई उत्तर नहीं दे रही.‘‘तुम उसे यहीं ले आओ. इस से तुम्हारा मन उस के लिए परेशान नहीं होगा,’’ आशा ने यह कहा तो संध्या को अपने कानों पर विश्वास न हुआ. उस ने चौंक कर आशा को देखा.‘‘मैं ठीक कह रही हूं. मैं भी एक मां हूं और सोच सकती हूं तुम्हारे दिल पर क्या बीतती होगी?’’

संध्या ने आगे बढ़ कर उन के पैर छूने चाहे तो आशा ने उसे गले लगा लिया, ‘‘बीती बातें भूल जाओ और नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करो.’’सुमित ने सुना तो उसे भी बहुत अच्छा लगा. वह तो पहले भी उसे अपने साथ लाना चाहता था लेकिन संध्या ने उसे रोक लिया था.दूसरे दिन वे अर्श को साथ ले कर आ गए. अर्श ने अजनबी नजरों से आशा को देखा तो संध्या बोली, ‘‘बेटे, ये तुम्हारी दादी हैं, इन के पैर छुओ.’’ अर्श ने आगे बढ़ कर उन के पैर छुए. आशा ने पूछा, ‘‘कैसे हो अर्श?’’‘‘मैं अच्छा हूं, दादी.’’  उस के मुंह से दादी शब्द सुन कर आशा को बहुत अच्छा लगा. सीमा भी खुश थीं कि अर्श को अपनी मम्मी मिल गई थी. सुमित और आशा के बड़प्पन के आगे संध्या के मायके वाले सभी नतमस्तक थे. उन्होंने कभी सोचा भी न था कि एक बार संध्या की जिंदगी में इतना बड़ा हादसा हो जाने के बाद उस के जीवन में इस तरह से फिर से खुशियों की बहार आ सकती है.

आशा ने परिस्थितियों से सम झौता कर के सबकुछ स्वीकार कर लिया था. अपने दिल से उन्होंने संध्या के प्रति सारी शिकायतें दूर कर दी थीं. सुमित खुश था कि उस ने अपनी मम्मी की ममता के साथ अपने प्यार को भी पा लिया था.आशा अर्श का भी बहुत अच्छे से खयाल रखती थीं. वह भी उन के साथ घुलमिल गया था. उस के दिन में स्कूल से आने पर वे उसे प्यार से खाना खिलातीं और होमवर्क करा देतीं. शाम को वह बच्चों के साथ खेलने चला जाता. आशा पार्क में बैठ कर बच्चों को खेलते देखती रहती. सबकुछ सामान्य हो गया था. तभी एक दिन अचानक आशा के पेट में बहुत दर्द हुआ और उस के बाद उन्हें ब्लीडिंग होने लगी. यह देख कर संध्या और सुमित घबरा गए.

वे तुरंत उन्हें ले कर नर्सिंगहोम पहुंचे. आशा की हालत बिगड़ती जा रही थी, यह देख संध्या बहुत परेशान थी. उस ने तुरंत अपनी मम्मी को फोन मिलाया.कुछ ही देर में सीमा अपने बेटे अशोक के साथ वहां पहुंच गईं. संध्या की घबराहट देख कर उस की मम्मी सीमा बोलीं, ‘‘संध्या, धीरज रखो. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘पता नहीं मम्मीजी को अचानक क्या हो गया? मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’ ‘‘हिम्मत से काम लो, डाक्टर उन की जांच कर रहे हैं. अभी कुछ देर में रिपोर्ट आ जाएगी. तब पता चल जाएगा कि उन्हें क्या हुआ है?’’ अशोक बोले.डाक्टर ने उन्हें भरती कर के तुरंत जांच की और बताया, ‘‘इन के गर्भाशय में रसौली है. उस का औपरेशन करना जरूरी है, वरना मरीज को खतरा हो सकता है.’’ ‘‘देर मत कीजिए डाक्टर साहब. मम्मी को कुछ नहीं होना चाहिए,’’ संध्या बोली. पूरा दिन इसी भागदौड़  में बीत गया था. संध्या ने अर्श को मम्मी के साथ घर भेज दिया था और वह खुद उन्हीं की देखरेख में लगी  हुई थी. शाम तक औपरेशन हो गया.

औपरेशन के बाद आशा को कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था. अभी उन्हें ठीक से होश नहीं आया था. सुमित बोला, ‘‘संध्या, तुम घर जाओ. मैं मम्मी की देखभाल कर लूंगा.’’ ‘‘नहीं, तुम घर जाओ. उन की देखभाल के लिए किसी औरत का होना जरूरी है. मैं यहां रुकूंगी.’’ संध्या के आगे सुमित की एक न चली और वह वहीं रुक गई. एक हफ्ते तक संध्या ने आशा की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह दोपहर में थोड़ी देर के लिए कालेज जाती. उस के बाद घर आ कर अपने हाथों से आशा के लिए खाना तैयार करती और फिर नर्सिंगहोम पहुंच जाती. शाम को सुमित मम्मी के साथ रहता. इतनी देर में संध्या घर आ कर खाना तैयार करती और उसे ले कर नर्सिंगहोम आ जाती. फिर दूसरे दिन सुबह घर लौटती.संध्या ने सास की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. इस मुश्किल घड़ी में भी वह घर, औफिस और आशा का पूरा खयाल रख रही थी. सुमित यह सब देख कर हैरान था. आशा को अपने से ज्यादा संध्या की चिंता होने लगी थी. संध्या की मम्मी, भाई, भाभी और करीबी रिश्तेदार उन को देखने रोज नर्सिंगहोम पहुंच रहे थे.संध्या की देखभाल से हफ्तेभर में आशा की सेहत में सुधार हो गया था.

वे 8 दिनों बाद घर आ गईं. संध्या की सेवा से आशा बहुत खुश थीं. घर आते ही उन्होंने इधरउधर नजर दौड़ाई और पूछा, ‘‘अर्श कहां है?’’ ‘‘वह नानी के पास है.’’‘‘उसे यहां ले आती.’’‘‘अभी आप को आराम की जरूरत है. वह कुछ दिनों बाद यहां आ जाएगा,’’ संध्या बोली.संध्या के भैया, भाभी और मम्मी सभी ने अपनी ओर से उन की  सेवा और देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.संकट की यह घड़ी भी बीत गई थी, लेकिन अपने पीछे कई सुखद अनुभव छोड़ गई थी. आशा की बीमारी के कारण दोनों परिवार बहुत नजदीक आ गए थे. सीमा अशोक और उस की पत्नी रिया के साथ आशा को देखने उन के घर पहुंचे. वे अपने साथ ढेर सारे फल ले कर आए थे.‘‘इन सब की क्या जरूरत थी? आप अपने साथ हमारे लिए सब से कीमती दहेज तो लाए ही नहीं हैं,’’ आशा बोली तो वे सब चौंक गए.सीमा ने डरते हुए पूछा, ‘‘आप किस दहेज की बात कर रही हैं?’’‘‘हमारे लिए तो सब से कीमती दहेज हमारा पोता अर्श है. मैं उस की बात कर रही हूं,’’ आशा बीमारी की हालत में भी हंस कर बोलीं तो माहौल हलकाफुलका हो गया. आशा की सारी नाराजगी दूर हो गई थी.

 

प्रगति: हलवाई की दुकान से उनकी कौन सी यादें जुड़ी थी

एक दिन न जाने क्यों कुछ मीठा  खाने की इच्छा हो आई. सोचा,  दफ्तर से लौटते हुए कुछ मिठाई लेता जाऊंगा. सब मिल कर खाएंगे. अकेलेअकेले मिठाई खाने का क्या मजा है भला? वैसे भी तो अकसर ही घर लौटते हुए बच्चों के लिए कुछ न कुछ बंधवा ही लेता हूं. कभी केक, पेस्ट्री, चौकलेट तो कभी नमकीन, आज मिठाई ही सही.

रास्ते में ही एक नई बनी मार्केट में लालहरी बत्तियों से जगमगाता ‘मिठाई वाला’ का बोर्ड रोज ही दिखता था. सोचा, कार वहीं रोक लूंगा दो मिनट के लिए.

इधर एक नई बात हो गई थी. हर छोटी से छोटी बात के संदर्भ में बचपन की स्मृतियों के सैलाब से उमड़ आते थे. बारबार अपने बच्चों को भी अपने बचपन की कहानियां सुना कर शायद मैं बोर ही करता रहता था. सोचता, हो सकता है, यह बढ़ती उम्र की निशानी हो. अब इस मिठाई खाने की बात से भी बचपन की यादें हरी हो उठी थीं.

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चौराहे पर एक बड़ी सी हलवाई की दुकान थी, जहां हर समय तपती भट्ठी पर कड़ाही चढ़ी रहती थी. सुबहसवेरे गरमगरम जलेबियां और कचौडि़यां तली जाती थीं तो शाम को समोसे और पकौड़ों की बहार छा जाती थी. रात को कड़ाही में गरमगरम गुलाबजामुन तैरते मिलते थे तो दिन के समय में हलवाई अपनी जरूरत के अनुसार मिठाइयां बनाने में व्यस्त दिखता. सुबहसवेरे नहाधो कर चकाचक सफेद कपड़े पहने हुए पम्मू हलवाई के कपड़े दोपहर आतेआते चीकट हो जाते थे.

जब कभी ताऊ, चाचा या पिताजी के हाथ में मिठाई का डब्बा नजर आता, सम्मिलित परिवार के हम सभी बच्चे उन के पीछे हो लेते. घर में हुल्लड़ छा जाता. सब से पहले मिठाई पाने की होड़ में हम बच्चे, मिठाई का बंटवारा करने वाली मां, ताई या चाची की नाक में दम कर देते थे. मिठाई के साथ ही मानो घर में बेमौसम उत्सव का माहौल छा जाता था.

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कार को रोक कर जब मैं ने ‘मिठाई वाला’ की वातानुकूलित दुकान का दरवाजा ठेला तो वहां ऐसा कुछ भी न था जोकि हलवाई की दुकान से संबंधित मेरी बचपन की स्मृतियों से मेल खाता हो. न भट्ठी, न कड़ाही, न मक्खी, न मच्छर. साफसुथरे कांच के पारदर्शी ‘शो केसों’ में रंगबिरंगी मिठाइयां सजीसंवरी रखी थीं. काउंटर पर बैठा आदमी सूटबूट से सुसज्जित था. एक जैसे कपड़े पहने 4-5 लड़केलड़कियां ग्राहकों की सेवा को तत्पर थे.

मैं ने सोचा, हमारा देश सच ही प्रगति पथ पर है. हलवाई की दुकान पर भी संपन्नता का साम्राज्य था. यह देख कर मन झूम उठा.

‘‘मैं आप की क्या सेवा कर सकती हूं?’’ एक लड़की ने अति नम्र वाणी में अंगरेजी में प्रश्न किया.

यहां भी विदेशी भाषा का वर्चस्व, कुछ हंसी आई यह सोच कर कि पम्मू हलवाई की दुकान पर अगर कोई अंगरेजी बोलता तो कैसा लगता. पर महसूस हो रहा था कि उन्नति और अंगरेजी भाषा के ज्ञान की रेखाएं हमारे देश में समानांतर दौड़ रही हैं.

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खैर, आधा किलो बूंदी के लड्डू और आधा किलो गुलाबजामुन बंधवा कर मैं बाहर निकल आया. फटेपुराने कपड़ों में लिपटे 2 छोटेछोटे बच्चे कार से टेक लगा कर खड़े थे. मुझे कार की ओर आता देख वे वहां से हटने लगे. पर उन की दृष्टि मेरे हाथ में पकड़े मिठाई के डब्बों में बंधी हुई थी. वे दृष्टि को वहीं बांधेबांधे ही धीरेधीरे वहां से एक ओर सरक रहे थे. उन के मुख पर प्रतिपल लालच, लाचारी और भूख के भाव बढ़ते ही जा रहे थे. पलभर पहले का देश में छाई संपन्नता और खुशहाली का गर्व चूरचूर हो गया.

सोचा, ऐसे दृश्य देखने के तो हम रोज के आदी होते हैं. बहुत बात्नर तो बिना किसी प्रतिक्रिया के ही हम ऐसे दृश्यों को नकार जाते हैं. पर उन मासूम चेहरों की ललक मुझे अंदर तक बेंध गई. वे भिखारी न थे, शायद उसी मार्केट के चौकीदार के बच्चे थे. वे हाथ बढ़ा कर मुझ से कुछ मांग भी न रहे थे, फिर ऐसे कैसे उन को कुछ पकड़ा दूं? उन की अबोध दृष्टि की पुकार से प्रभावित मेरे हाथों ने अनजाने ही उन की ओर मिठाई का डब्बा बढ़ा दिया.

कुछ क्षणों तक तो अविश्वास से वे उस मिठाई के डब्बे को घूरते रहे. फिर एक ही झटके में उन्होंने मेरे हाथ से डब्बा यों झटक लिया कि कहीं मैं अपना विचार न बदल दूं. मेरी ओर एक प्यारभरी नजर फेंक उन्होंने खुशी की किलकारी मारी और दौड़ कर एक बंद पड़ी दुकान के सामने बैठ डब्बे को जल्दीजल्दी खोलने लगे.

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कुछ क्षण मैं उन्हें मिठाई खाते देखता रहा. अनचाहे ही मेरे मुख पर मुसकान आ गई. निर्मल मन से कार स्टार्ट कर मैं घर आ गया.

दरवाजा मां ने खोला तो मिठाई का डब्बा मैं ने उन्हीं के हाथ में थमा दिया.

‘‘अरे, यह मिठाई किस खुशी में?’’ उन के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई.

‘‘ऐसे ही मां, आज यों ही मिठाई खाने का जी किया तो लेता आया.’’

‘‘बहुत अच्छा किया, पर बेटा, मैं तो आज खा न सकूंगी. सुबह ही दांत में दर्द था. दोपहर सो भी न सकी. बहू ने लौंग का तेल ला कर लगाया तो अब जा कर कुछ आराम हुआ है. यह डब्बा बहू को दे दे, बच्चों के साथ तुम मिल कर खाओ, पर ध्यान रखना, तेरे बाबूजी न देख लें, नहीं तो वे भी बच्चों जैसे मचलने लगेंगे,’’ मां ने डब्बा वापस पकड़ाते हुए अपनी बात समझाई.

पिताजी को मधुमेह था, मिठाई उन के लिए जहर के समान थी. पर अगर देख लें तो चखनेचखने में ही पूरा गुलाबजामुन खा जाएं.

मैं ने डब्बा एक ओर कर दिया पर मां के दांत के दर्द ने मुझे चिंतित कर दिया, ‘‘चलो मां, तैयार हो जाओ. तुम्हें दांत के डाक्टर को दिखा लाऊं. यह रोजरोज दांत की पीड़ा सहना तो मुश्किल काम है.’’

‘‘अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. कल रात रितु ने चौकलेट का टुकड़ा दिया था, वही जा कर कहीं अटक गया होगा. बस, ऐसे मीठा खाने से ही कभीकभी पीड़ा उठती है, वैसे तो अच्छीभली हूं,’’ मां टालते हुए बोलीं.

‘‘फिर भी, मैं डाक्टर से समय ले लूंगा. कल शाम को दिखा देंगे.’’

मैं मिठाई का डब्बा छिपाताछिपाता अंदर आ गया. निशा बालकनी में कुरसी पर किसी पत्रिका में मुंह छिपाए बैठी थी.

‘‘ये गुलाबजामुन प्लेट में डाल लो और बच्चों को भी बुला लो. मैं हाथमुंह धो कर आता हूं. सब मिल कर खाएंगे,’’ मिठाई का डब्बा उसे पकड़ाते हुए मैं बोला.

‘‘आज यह मिठाई क्यों?’’ निशा ने जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘ऐसे ही, खाने का जी किया तो ले आया,’’ मैं कुछ खीजने लगा था.

‘‘पर मेरे सामने तो यह डब्बा बिलकुल न खोलना. कितनी मुश्किल से तो वजन को नियंत्रण में किया है. आजकल तो मैं चाय भी फीकी पीती हूं, फिर यह मिठाई तो एक बार में ही सब गुड़गोबर कर देगी,’’ निशा ने अपनी मजबूरी बताई. वह अपने खानपान का खूब ध्यान रखती थी, तभी तो 40 की हो कर भी 30 से अधिक न दिखती थी. उसे मजबूर करना ठीक न लगा.

डब्बा वापस पकड़ मैं ने बच्चों के बारे में पूछताछ की. सोचा, वे तो मिठाई का डब्बा देखते ही लपक पड़ेंगे.

‘‘अपने कमरे में ही होंगे, वही ‘हाहा, हूहू’ वाली नई धुनों पर नाच रहे होंगे. आवाजें नहीं सुनाई दे रहीं तुम्हें?’’ निशा बोली.

बच्चों के कमरे के उढ़के हुए दरवाजे से संगीत की तीखी स्वरलहरी सच ही हवा में तैरती आ रही थी. दरवाजा ठेल कर मैं अंदर पहुंचा तो ऊंचे स्वर में बजते संगीत का स्वर कानों में चुभने लगा. फिर ऐसे शोर के बीच बात करना मुश्किल भी था.

मैं ने आगे बढ़ कर रिकौर्डप्लेयर बंद कर दिया. संगीत पर थिरकते बेटी के पांव अनायास ही थम गए. उस ने प्रश्नवाचक पर प्यारभरी दृष्टि से मेरी ओर निहारा.

मैं ने कहा, ‘‘चलो रितु, दौड़ कर प्लेट ले आओ. देखो, मैं तुम्हारे लिए गुलाबजामुन लाया हूं.’’

‘‘आप खा लीजिए, पिताजी, मैं रात को खाने के बाद खाऊंगी. अभी तो मुंह में ‘बबलगम’ है,’’ उस ने बबलगम का बड़ा सा गुब्बारा बनाते हुए रिकौर्डप्लेयर का बटन फिर से दबा दिया.

वहीं कमरे के एक कोने में बैठा बेटा शलभ, वीडियोगेम के आंकड़ों में उलझा हुआ था. उसे मिठाई खाने के लिए पुकारना व्यर्थ प्रतीत हुआ. न जाने क्यों मेरी भी मिठाई खाने की इच्छा मर गई और मुंह का स्वाद कसैला हो उठा. मन में आया कि यह दूसरा डब्बा भी उन्हीं बच्चों को पकड़ा आता तो कितना अच्छा होता. कानों में एक बार फिर उन की किलकारियां गूंज उठीं.

सिर्फ फोन ही नहीं शाओमी के ये गैजेट्स भी हैं चौंकाने वाले

अगर आप को लगता है कि स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनी शाओमी सिर्फ मोबाइल फोन ही बनाती है तो आप गफलत में हैं अगस्त 2011 में चीन से शुरुआत करने वाली कंपनी शाओमी अपने स्मार्टफोन के लिए विश्व में सब से चर्चित और सब से अफोर्डेबल मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनी के रूप में जानी जाती है. शाओमी का चीन के बाद विश्व में सब से बड़ा बाजार कोई है तो वह भारत है. लेकिन अगर आप को लगता है कि शाओमी केवल स्मार्टफोन ही बनाती है तो आप गफलत में हैं. शाओमी के सभी गैजेट्स भारतीय बाजारों में उपलब्ध नहीं हैं. इसीलिए कइयों को शाओमी के गैजेट्स के बारे में अंदाजा ही नहीं हैं.

शाओमी के गैजेट्स आम लोगों को बड़े ही हैरान करने वाले हैं. इन में कुछ बाजारों में उपलब्ध है और बहुत ऐसे हैं जो भारतीय बाजारों में अभी तक उपलब्ध नहीं हैं. हालांकि कुछ सालों में ये जरूर भारतीय बाजारों में भी उपलब्ध हो जाएंगे. लेकिन यदि आप को इन में से कुछ भी पसंद आ जाए तो आप शाओमी की औफिशियल वैबसाइट पर जा कर इंटरनैशनल मार्केट से ये चीजें खरीद सकते हैं.

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1. एमआई हाई कैपेसिटी इंक पेन :

शुरुआत करते हैं सब से बेसिक चीज से. साधारण सा दिखाई देने वाला यह पेन शाओमी का हाई कैपेसिटी इंक पेन है. शाओमी का दावा है कि यह किसी नौरमल जेल पेन से 4 गुना ज्यादा चलता है.

इस में इस्तेमाल की जाने वाली इंक जैपनीज एमआईकुनी इंक है जोकि लिखने के बाद बिना धब्बा छोड़े जल्द ही सूख जाती है. 0.5 एमएम की स्प्रिंग बुलेट निब कागज पर स्मूदली और शार्पली लिखने में मदद करती है. यह वाइट और ब्लैक 2 वैरिएंट में उपलब्ध है.

2. एमआई सिटी बैगपैक  :

स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनी शाओमी बैग भी बनाती है. बेहद स्टाइलिश दिखने वाला शाओमी का सिटी बैगपैक 2, उन युवाओं को बेहद पसंद आएगा जो सिंप्लिसिटी में भरोसा रखते हैं. इस बैग की सब से खास बात यह है कि इस में लैवल 4 का पानी से बचाने वाला लाइनिंग पोलिएस्टर फाइबर से बना गुआंगजौ फैब्रिक का इस्तेमाल किया गया है. इस में 15.6 इंच का लैपटौप आसानी से फिट हो जाता है. यह बैगपैक 17 किलो तक वजन उठाने की क्षमता रखता है. यह बैग दिखने में काफी शानदार लगता है. यह लुक्स के साथ कोम्प्रोमाइज नहीं करता. यह लाइट ग्रे, ब्लू और डार्क ग्रे, शेड्स में उपलब्ध है.

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3. एमआई स्मार्ट इलैक्ट्रिक टूथब्रश टी 500 :

‘जब बात पर्सनल केयर की हो तो शाओमी का यह स्मार्ट इलैक्ट्रिक टूथब्रश एक ऐसा गैजेट है जो लोगों के पर्सनल केयर का ध्यान रखता है. यह एक मिनट में 31,000 वाइब्रेशन पैदा करता है जो दांतों के जिद्दी दाग और गंदगी की सफाई करने का काम करता है. कमाल की बात यह है कि इस स्मार्ट इलैक्ट्रिक टूथब्रश के लिए शाओमी ने एक डैडिकेटेड ऐप भी बनाया है जो आप के दांतों की सफाई का विश्लेषण करता है और इस से आप अपने टूथब्रश को कंट्रोल भी कर सकते हैं. एक बार फुल चार्ज करने पर यह 18 दिनों तक चल सकता है.

4. एमआई वैक्यूम क्लीनर मिनी :

एमआई का यह मिनी वैक्यूम क्लीनर काफी कौंपैक्ट साइज में है जिसे कोई बच्चा भी इस्तेमाल कर सकता है. यह इतना छोटा और हलका है कि इस का वजन मात्र 500 ग्राम है. इस के मुहाने पर 2इन1 नोजल सैट कर अलगअलग तरह व जगहों पर सफाई के लिए इसे यूज किया जा सकता है.

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5. एमआई 360ए होम सिक्योरिटी कैमरा 2के प्रो :

एमआई के स्मार्टफोन में कैमरा का फीचर सब से खास होता है, ऐसे में एमआई का यह सिक्योरिटी कैमरा हर समय आप के घर की निगरानी रखने में आप की मदद करता है. इस में सब से खास यह है कि यह 360ए तक घूम सकता है और घर के हर कोने तक अपनी नजर बना कर रखता है. 1,080 पी में वीडियो रिकौर्डिंग और नौयज रिडक्शन के फीचर के साथ यह कैमरा हर समय चौकसी के लिए तैयार है. यह 32 जीबी का मैक्स्मिम मैमोरी सपोर्ट कर सकता है. इस के साथसाथ लो लाइट और नाइट मोड पर भी साफ वीडियो रिकौर्डिंग की जा सकती है.

एक प्याली चाय: प्रोफैसर साहब की पत्नी उन्हें क्यों डांटती थी

‘‘सुनो जी, चाय बना कर पी लेना और नाश्ते में ब्रैड ले लेना. मैं कीर्तन में जा रही हूं,’’ प्रोफैसर साहब की पत्नी उन्हें सोते से जगाते हुए और विदा लेते हुए बोली.

जब तक वे सो कर जगें, वह जा चुकी थी. उन्होंने घड़ी देखी तो सुबह के 8 बजे थे. वे किसी प्रकार उठे और फ्रैश हो कर चाय बनाने में जुट गए. बेमन से चाय बनाई और ब्रैड के साथ पी गए. इस के बाद टीवी चालू कर अतीत में खो गए. आज से 30 वर्ष पूर्व उन की शादी इस शारदा से हुई थी. दरदर की ठोकर खाने के साथ दिल्ली शहर में सेल्समैन और फिर एलआईसी एजेंट का काम किया. दिनरात काम करने की धुन और मृदु व्यवहार उन्हें सफल बनाता चला गया. वे आज दोनों बेटियों को एमबीबीएस की पढ़ाई करा और यह छोटा सा फ्लैट ले पाए हैं. फ्लैट में बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के साधन हैं. समय के साथसाथ पत्नी की अंधभक्ति बढ़ती चली गई.

‘‘क्यों, आज काम पर नहीं जाना? अरे, नहाएधोए तक नहीं? न जाने कब सुधरोगे,’’ पत्नी आते के साथ ही चालू हो गई थी.

‘‘जरा एक प्याली चाय…’’ वे आधा ही बोल पाए थे कि वह फिर भड़क उठी, ‘‘बस, चायचाय, खाने की जरूरत नहीं. यह चाय तुम्हें मार डालेगी. अरे, यह जहर है जहर…’’ कहती व हाथपांव पटकती बेमन से चाय बना कर लाई और कप ऐसे पटक कर रखा कि वह टूट गया और चाय की छींटें पूरे बदन पर जा गिरीं.

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‘‘अब खड़ेखड़े मेरा मुंह क्या देख रहे हो. जाओ, हाथपैर धो लो वरना दाग लग जाएगा. कपड़ों पर लगा दाग मुझ से नहीं छूटने वाला,’’ वह बजाय अफसोस जाहिर करने के भड़क रही थी. वे चुपचाप उठे, स्नान किया और कपड़े पहन कर तैयार हो घर से निकल गए. अब पत्नी का व्यवहार काटने को दौड़ रहा था. वे घर से निकल कर पार्क में बैठ कर फिर से खो गए अतीत की याद में…

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30 वर्ष पूर्व वे दरभंगा के एक कालेज में समाजशास्त्र के प्राध्यापक थे. उन्होंने पीएचडी की हुई थी. उन का विवाह शारदा से हुआ. किसी वजह से कालेज की नौकरी से उन्हें निकाल दिया गया और वे रोड पर आ गए. लोगों के कहने पर दिल्ली आ गए जहां सेल्समैन का काम करने लगे. पत्नी, जो बातूनी और मुंहफट थी, की किसी से नहीं बनती थी. कलह कर के यहां आ गई. फिर तो बेटियों का जन्म, पढ़ाईलिखाई, सारे काम समय के अंतराल में निबटते गए. उन की आदत चाय पीने की थी. वे दिन में 5-6 चाय तक पी जाते थे. वहीं, पत्नी चाय बनाने से कतराती थी. कई बार इस छोटी सी बात को ले कर कलह चरम तक पहुंच चुकी थी. कई बार इस कलह के कारण आत्महत्या तक का विचार मन में आया.

धीरेधीरे समय बीतता गया और बेटियां बड़ी हो गईं. बेटियों की शादी हो गई और वे ससुराल चली गईं. वे भी बूढ़े हो गए. कई बार अन्याय को देख बेटियां भी बाप का पक्ष ले कर मां से लड़ने लगतीं तो शारदा भड़क जाती.

‘तुम ने बेटियों पर जादू कर दिया है,’ कह कर उस का रोनाधोना चालू हो जाता.

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संयोगवश उसी समय राहुल का फोन आया.

‘‘कहां हो?’’

‘‘क्यों? कुछ काम है?’’

उन का उत्तर सुनते ही वह बोला, ‘‘बस, यों ही, कुछ खास नहीं. बस, आ जाओ. काफी दिन हुए मुलाकात किए. घर पर आ जाओ.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर वे उस के घर पर पहुंच गए.

उन के उदास चेहरे को देख वे लोग चौंक गए. फिर तो राहुल और उस की पत्नी ने जो इस का तोड़ बताया, वह अचूक था जिस ने उन की दुनिया ही बदल दी. हुआ यह कि वे उन के यहां से खाना खा कर आए और अगले दिन सुबह उठ कर उन्होंने बालों को डाई किया तथा तैयार हो कर निकल गए.

‘‘कब तक लौटोगे?’’ पत्नी के यह कहने के जवाब में चहक कर बोले, ‘‘सुनो, देर लग सकती है. रात में पार्टी से खा कर आऊंगा, तुम खाना खा लेना.’’

इतना कह कर जवाब की प्रतीक्षा किए बिना वे चल दिए. दिनभर काम निबटाया और रात के 10:30 बजे जब घर लौटे तो पत्नी का चेहरा हताश था. उन्होंने कुछ नहीं पूछा और कपड़े बदल कर सो गए. पत्नी की ओर अगले दिन भी ध्यान नहींदिया. 2 दिन में वह परेशान हो गई थी. ‘कहां जाते हैं, रोज इन्हें कौन खिलाता है? कहीं कोई चक्कर तो नहीं,’ यह सोच कर वह डर गई और अपनी सहेलियों से चर्चा की. अंजाम सुन कर वह चौंक गई. कई औरतें कीर्तनभजन में लगी रहीं और दूसरी औरतें उस का सुहाग ले उड़ीं. कहीं ऐसा हो गया तो…नहीं, अब कीर्तनभजन नहीं. घर बचाना है. मगर कैसे? यह प्रश्न उसे परेशान कर रहा था. आज रात जब वे लौटे तो वह प्याज के पकौड़े बना कर तैयार कर चुकी थी. परंतु उन्होंने उस की तरफ देखा तक नहीं. अगले दिन सुबह जब फिर उठ कर तैयार होने लगे तो उस ने ‘चाय पीते जाओ’ कह कर रोकना चाहा.

‘‘नहीं, चाय मैं बाहर पी लूंगा. तुम चिंता मत करो,’’ कहते हुए जब वे बाहर निकलने लगे तो वह झट सामने आ गई.

‘‘क्या है? कुछ चाहिए क्या?’’ उन्होंने सरल स्वर में पूछा.

‘‘रोजरोज कहां से खा कर आते हो?’’ वह सरलता से पूछ रही थी.

‘‘कुछ नहीं, काम के चक्कर में बाहर लेट हो जाता हूं. तुम्हें कौन परेशान करे, इसलिए खाना बाहर ही खा लेता हूं,’’ वे मृदु स्वर में बोल कर बाहर निकल गए.

अब तो शारदा का शक यकीन में बदल गया. कुछ गड़बड़ जरूर है वरना इस तरह कभी बात नहीं करते थे. यों कटेकटे रहना, बाहर खा कर आना आदि. आज दिन में कीर्तनभजन में मन नहीं लग रहा था. कहीं कुछ हो गया तो? वह शाम 7 बजे लौट आई. पति की पसंद का खाना तैयार किया और प्रतीक्षा करने लगी.

‘‘बेटा, अब की छुट्टियों में मैं आऊंगा. तुम्हारी मां का बता नहीं सकता. वह भजनकीर्तन में खोई रहती है,’’ इतना कहते वे फोन बंद कर के कमरे में आए.

रोज की तरह कपड़े बदल कर जैसे ही लेटे, वह पास आ गई.

‘‘क्यों जी, बड़ी के पास चलना है?’’ वह प्यार से पूछ रही थी.

‘‘हां, उसी का फोन था,’’ संक्षिप्त जवाब दे कर वे सोने की कोशिश करने लगे.

‘‘सुनो, कल रविवार है. तुम्हारी पसंद का क्या बनाऊं?’’ वह प्यार से पूछ रही थी.

‘‘कुछ नहीं, कल तो मैं कीर्तन में जा रहा हूं.’’

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‘‘नहीं, कल घर में रहेंगे. न मैं कहीं जा रही हूं न आप. कोई कीर्तनभजन नहीं. बस, घर में रह कर मैं आप की पसंद का खाना बनाऊंगी,’’ यह कहती व उन के सिर में उंगली फेरती जा रही थी और वे धीरेधीरे नींद के आगोश में समा गए. इतनी बड़ी समस्या का समाधान इतनी छोटी तरकीब से होगा, यह सोचा न था.

Crime Story: मदहोश बाप

लेखक- आर.के. राजू 

सौजन्या-सत्यकथा

अस्पताल में दुष्यंत की मौत हो चुकी थी. उस का मंझला भाई आशू लाश को घर लाने का प्रबंध कर रहा था. मां रेखा और भाभी दीपिका को उस ने घर भेज दिया था. घर में पुलिस पूछताछ कर रही थी. रेखा रो रही थी, उस की छोटी बेटी भी. बहू दीपिका का रोरो कर बुरा हाल था.

तभी रेखा का छोटा बेटा विमलेश आया और पुलिस इंसपेक्टर के सामने खड़ा हो गया. वह अपनी अंटी से पिस्तौल निकाल कर इंसपेक्टर की ओर बढ़ाते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘मैं ने मारा है भाई को, इसी से.’’इंसपेक्टर ने उस की ओर हैरानी से देखा और रूमाल में लिपटी पिस्तौल ले ली. साथ ही पास खड़े सिपाही से कहा, ‘‘गिरफ्तार कर लो इसे.’’

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घर में मोहल्ले वाले भी थे, रिश्तेदार भी. यह देख कर सब हैरान रह गए. रेखा और बहू दीपिका तक का रोना थम गया था. किसी की समझ में नहीं आया कि यह सब क्या है. पुलिस ने विमलेश को थाने भेज दिया, क्योंकि वह जुर्म भी स्वीकार कर रहा था और उस के पास हत्या में इस्तेमाल किया गया हथियार भी था. रेखा का पति, बच्चों का बाप यानी घर का मालिक वीरेंद्र कौशिक घर में नहीं था. वहां मौजूद लोगों का कहना था कि बड़े बेटे दुष्यंत पर गोली वीरेंद्र ने खुद चलाई थी, जिस से उस की  मौत हुई.

दुष्यंत के गिरते ही वीरेंद्र और विमलेश बाहर भाग गए थे. अब विमलेश तो लौट आया पर वीरेंद्र का कोई पता नहीं था. रेखा का कहना था कि पति ने दुष्यंत पर ही नहीं, उस के पांव के पास भी गोली चलाई थी, जो लगी नहीं थी. दुष्यंत पर ससुर वीरेंद्र द्वारा गोली चलाने की बात दुष्यंत की पत्नी दीपिका भी कह रही थी.

इस का मतलब गोली वीरेंद्र कौशिक ने ही चलाई थी. लेकिन वह फरार था. उस ने न जाने क्यों पिस्तौल दे कर अपने नाबालिग बेटे विमलेश को आगे कर दिया था. आश्चर्य की बात यह कि उस ने जुर्म भी स्वीकार कर लिया था. गोली क्यों चलाई गई, यह अभी रहस्य ही बना हुआ था.

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वीरेंद्र कौशिक के बारे में पता चला कि वह कांठ रोड स्थित एक डाक्टर के यहां सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करता है. वहां पुलिस भेजी गई, लेकिन वह नहीं मिला.

मृतक दुष्यंत मुरादाबाद की तीर्थंकर यूनिवर्सिटी के मैडिकल कालेज में वार्डबौय की नौकरी करता था. उस की ड्यूटी कोरोना वार्ड में चल रही थी. एक साल पहले 6 जनवरी, 2020 को उस की शादी दीपिका के साथ हुई थी. दीपिका का परिवार लाइनपार सूर्यनगर में रहता था. जबकि वीरेंद्र कौशिक का घर लाइनपार हनुमाननगर में था. शादी के बाद से दुष्यंत और दीपिका दोनों खुश थे.

थाना मझोला को दुष्यंत को गोली लगने और उस की मृत्यु की खबर एपेक्स अस्पताल से मिली थी. इस के तुरंत बाद थाना पुलिस अस्पताल और मृतक के घर पहुंच गई थी. थाना मझोला के क्राइम इंसपेक्टर अवधेश कुमार ने यह सूचना वरिष्ठ अधिकारियों को भी दे दी थी.

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सूचना पा कर मुरादाबाद के एसपी (सिटी) अमित कुमार आनंद और एएसपी कुलदीप सिंह गुनावत एपेक्स अस्पताल पहुंच गए, जहां दुष्यंत को भरती कराया गया था. पुलिस ने प्राथमिक जांच और लिखापढ़ी के बाद दुष्यंत के शव को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया.

इस बीच मृतक दुष्यंत की पत्नी दीपिका ने थाना मझोला में ससुर वीरेंद्र कौशिक और देवर विमलेश के खिलाफ दुष्कर्म और हत्या की रिपोर्ट दर्ज करा दी. उस ने यह भी बताया कि  उस का ससुर वीरेंद्र कौशिक दबंग इंसान है. उस के पास एक लाइसैंसी पिस्तौल और एक बंदूक है.

शाम तक पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी आ गई. गोली बहुत करीब से मारी गई थी जो दुष्यंत के पेट में लगी थी और पेट को चीरते हुए दाईं ओर से बाहर निकल गई थी. पुलिस अफसरों ने घटनास्थल का निरीक्षण किया तो 2 खाली खोखे और एक बुलेट मिला. सीएफएसएल टीम ने घटनास्थल से सबूत जुटाए.

छानबीन में जो कहानी सामने आई, वह एक बेगैरत इंसान की शैतानी करतूत से जुड़ी थी. वीरेंद्र कौशिक अपनी पत्नी रेखा, 3 बेटों दुष्यंत, विमलेश, आशू और एक बेटी के साथ हनुमान नगर में रहता था. वहां ज्यादातर दूरसंचार, एफसीआई, बैंक कर्मचारियों, टीचर्स और रिटायर्ड लोगों के घर हैं. वह खुद सिक्योरिटी गार्ड था. उस के बड़े बेटे दुष्यंत की एक साल पहले दीपिका से शादी हो गई थी.

25 नवंबर, 2020 को एक करीबी रिश्तेदारी में शादी थी. रेखा विमलेश, आशू और अपनी बेटी के साथ शादी में चली गई. उन दिनों दुष्यंत की रात की ड्यूटी चल रही थी. खाना खा कर वह भी ड्यूटी पर चला गया था. घर में दीपिका और उस का ससुर वीरेंद्र रह गए.

रात करीब 11 बजे वीरेंद्र कौशिक दबेपांव दीपिका के कमरे में घुसा. उस वक्त वह गहरी नींद में थी. वीरेंद्र ने सोती हुई दीपिका को दबोच लिया. आंखें खुलीं तो दीपिका ने ससुर का भरपूर विरोध किया. कहा भी कि ससुर तो पिता समान होता है, उसे ऐसी गिरी हरकत शोभा नहीं देती. लेकिन वीरेंद्र पर वासना का भूत सवार था. उस ने दीपिका का मुंह दबोच कर उस की इज्जत तारतार कर दी.

बाद में दीपिका ने धमकी दी, ‘‘घर वाले आएंगे, दुष्यंत आ जाएंगे तो मैं तुम्हारी इस हरकत के बारे में सब को बताऊंगी. मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहोगे तुम. मैं छोड़ूंगी नहीं तुम्हें.’’

वीरेंद्र कौशिक ने एक हजार रुपए निकाल कर दीपिका के पास रखते हुए हंस कर कहा, ‘‘रख ले और अपना मुंह बंद रखना. जो चीज मुझे पसंद थी, मैं ने हासिल कर ली.’’

दीपिका ने 5-5 सौ के दोनों नोट ससुर के मुंह पर फेंक कर मारे और गुस्से से फट पड़ी, ‘‘कल पता चलेगी तुझे तेरी औकात. मैं चुप रहने वालों में नहीं हूं.’’

‘जो मन आए करना,’’ वीरेंद्र हंसते हुए बोला, ‘‘कौन करेगा तेरी बात पर यकीन? तेरी ही बदनामी होगी, मैं ससुर हूं तेरा. लोग तुझे झूठी कहेंगे. रहीबची कमी मैं पूरी कर दूंगा, तेरे 10 लक्षण गिना कर. झूठ बोलने में क्या जाता है.’’  उस रात दीपिका को नींद नहीं आई. वह रात भर रोती रही. कोई न उसे देखने वाला था, न सांत्वना देने वाला.

26 नवंबर, 2020 की सुबह दुष्यंत ड्यूटी से घर लौटा तो दीपिका उस से लिपट कर खूब रोई. उस ने रात की पूरी बात पति को बता दी. सुन कर वह गुस्से से आगबबूला हो गया. उस ने पिता को खूब खरीखोटी सुनाई.

तब तक घर के बाकी सदस्य भी लौट आए थे. दुष्यंत की मां रेखा ने सुना तो उस ने भी पति वीरेंद्र को खूब गालियां दीं. उस ने कहा, ‘‘जब यह बात परिवार वालों को पता चलेगी तो किसी को क्या मुंह दिखाएगा?’’

दीपिका रोए जा रही थी. दुष्यंत ने उसे चुप कराया, सांत्वना दी. फिर बोला, ‘‘मेरा बाप मेरे लिए मर चुका. अब हम परिवार के साथ नहीं रहेंगे. कहीं अलग किराए का कमरा ले कर रह लेंगे.’’

उसी दिन वीरेंद्र ने अपना सामान ऊपर की मंजिल पर शिफ्ट कर लिया. खानेपीने का इंतजाम भी अलग. इस बात को ले कर अगले 3 दिन तक वीरेंद्र के घर में झगड़ा चलता रहा. दुष्यंत ने फिर पिता को धमकी दी, ‘‘मैं तुम्हारी करतूत पूरे परिवार को बताऊंगा. पुलिस में भी रिपोर्ट लिखाऊंगा. छोड़ूंगा नहीं तुम्हें.’’

रेखा ने भी कहा, ‘‘मैं तेरी करतूत तेरे बहनबहनोई को बताऊंगी.’’घर में केवल छोटे बेटे विमलेश के अलावा सभी को दीपिका की बात पर यकीन था. दरअसल, वीरेंद्र दबंग आदमी था. किसी से न डरने वाला. विमलेश के वह काफी नजदीक था. पिता की तरह बदतमीज और दबंग स्वभाव का विमलेश कोई गलती करता था तो वीरेंद्र उस पर परदा डाल देता था.

वह बाहर किसी से लड़ कर आता या कोई खुराफात कर के लौटता तो वीरेंद्र उसे कुछ कहने या समझाने के बजाय शिकायत करने वालों से भिड़ जाता था. बापबेटे की यही कैमिस्ट्री नजदीकियों का कारण थी.

वीरेंद्र के घर में 3 दिनों से जो झगड़ा चल रहा था, पड़ोसी भी देखसुन रहे थे. लेकिन दीपिका से दुष्कर्म की बात किसी को पता नहीं थी. वीरेंद्र की पासपड़ोस के लोगों से बातचीत भी नहीं थी, इसलिए उस की दबंगई के कारण किसी को पूछने की हिम्मत नहीं थी.

जबकि मंझला बेटा आशू इस से सहमत था कि उस के पिता ने दुष्कर्म किया है. उस ने कह भी दिया था, ‘‘आज से बाप बेटे का रिश्ता खत्म.’’28 नवंबर को वीरेंद्र और दुष्यंत के बीच खूब कहासुनी हुई. बात हाथापाई तक पहुंच गई. बेटे ने बाप पर हाथ छोड़ दिया. इस पर वीरेंद्र का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. उस ने अंटी से पिस्तौल निकाल कर पहले अपनी पत्नी रेखा पर गोली चलाई जो उस के पैर के पास से निकल गई. यह देख कर दुष्यंत बोला, ‘‘मेरी मां को क्यों मार रहा है. हिम्मत है तो मुझे मार. मैं नहीं डरता तेरी पिस्तौल से.’’

वीरेंद्र तैश में था, उस ने सामने खड़े दुष्यंत के पेट को निशाना बना कर गोली चला दी. खून के फव्वारे के साथ दुष्यंत निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ा. जरा सी देर में होहल्ला मच गया.पासपड़ोस के लोगों ने वीरेंद्र और उस के छोटे बेटे को जल्दबाजी में बाहर भागते देखा. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि वीरेंद्र के घर में गोलियां क्यों चलीं और शोर और रोनाधोना क्यों हो रहा है.

कुछ लोग घर में गए तो पता चला दुष्यंत को गोली लगी है. आशू कुछ लोगों केसाथ दुष्यंत को पास के एपेक्स अस्पताल ले गया, जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. अस्पताल ने ही यह सूचना पुलिस को दी और पुलिस अस्पताल पहुंची.

बाद में मृतक दुष्यंत की पत्नी ने थाना मझोला में ससुर वीरेंद्र कौशिक और देवर विमलेश के खिलाफ दुष्कर्म और हत्या की रिपोर्ट लिखवाई.

उधर वीरेंद्र घर से भाग कर छोटे बेटे विमलेश के साथ मुरादाबाद कचहरी जा पहुंचा था. उस का इरादा आत्मसमर्पण करने का था. इस बारे में उस ने वकीलों से बात की. लेकिन तब तक थाना मझोला में एफआईआर दर्ज नहीं हुई थी. ऐसे में अदालत में कागजात पेश नहीं किए जा सकते थे. इस पर वीरेंद्र ने वकीलों से पूछा कि वह कैसे बच सकता है.

वकीलों ने उसे राय दी कि यह तभी संभव है जब वह खुद की जगह अपने नाबालिग बेटे विमलेश को पुलिस के सामने पेश कर दे. नाबालिग होने की वजह से उसे सजा भी कम होगी और पुलिस टौर्चर भी नहीं करेगी. तब वीरेंद्र ने विमलेश को समझा कर पिस्तौल दिया और घर भेज दिया. घर जा कर विमलेश ने पिस्तौल पुलिस को सौंप कर दुष्यंत की हत्या की बात स्वीकार कर ली. यह 11 बजे घटी घटना के 2 घंटे बाद 1 बजे की बात है. यह सब मोहल्ले वालों के सामने हुआ. जब विमलेश को गिरफ्तार कर थाना मझोला भेजा गया तब वह मुसकरा रहा था, जैसे उसे बड़े भाई की हत्या से कोई फर्क न पड़ा हो.

विमलेश से वीरेंद्र के बारे में जानकारी मिली तो पुलिस ने कचहरी में दबिश दी लेकिन वीरेंद्र नहीं मिला.  हकीकत सामने आई तो पुलिस को मामले की गंभीरता का पता चला. तब आईजी मुरादाबाद रेंज रमित शर्मा ने एसएसपी प्रभाकर चौधरी को आदेश दिया कि वीरेंद्र कौशिक को तुरंत गिरफ्तार कराएं.

वीरेंद्र पुलिस की पकड़ में नहीं आया तो दीपिका ने एसएसपी प्रभाकर चौधरी को लिखित प्रार्थनापत्र दिया कि उस की जान को खतरा है. उस का ससुर उस की भी हत्या कर सकता है, दीपिका अपने मायके सूर्यनगर चली गई थी. एसएसपी के आदेश पर उस के मायके में पुसिस तैनात कर दी गई.

एसएसपी प्रभाकर चौधरी ने 2 पुलिस टीमों का गठन किया. एक टीम को एसपी (सिटी) अमित कुमार आनंद के नेतृत्व में काम करना था और दूसरी को एएसपी कुलदीप सिंह गुनावत के नेतृत्व मे. दोनों टीमों ने तुरंत काम करना शुरू कर दिया.

मोबाइल लोकेशन से पता चला कि वीरेंद्र लाइनपार कहीं छिपा है लेकिन पुलिस जब वहां पहुंची तो वह फरार हो गया. फिर भी पुलिस ने उस का पीछा नहीं छोड़ा. आखिर मोबाइल लोकेशन से उसे 30 नवंबर को रामपुर के होटल टूरिज्म से गिरफ्तार कर लिया गया.

गिरफ्तार कर उसे मुरादाबाद लाया गया. पूछताछ में उस ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया. 1 दिसंबर, 2020 को उसे अदालत पर पेश कर के जिला जेल भेज दिया गया. उस के बेटे विमलेश को पहले ही बाल कारागार भेजा चुका था.

वीरेंद्र कौशिक रंगीन तबीयत का आदमी था. एक महिला से छेड़छाड़ के मामले में वह पहले भी जेल जा चुका था. इसी रंगीनमिजाजी में उस ने अपने ही बड़े बेटे की हत्या कर के न केवल उस की पत्नी को विधवा बना दिया था बल्कि अपना ही घर उजाड़ लिया था.

उस का मझला बेटा आशू भी कह चुका है कि बाप से अब उस का कोई रिश्ता नहीं है. उधर बाद में वीरेंद्र का नाबालिग बेटा विमलेश भी अपने बयान से पलट गया. उस ने कहा कि भाई दुष्यंत पर गोली उस ने नहीं, उस के पिता वीरेंद्र कौशिक ने चलाई थी.

वीरेंद्र के पास पिस्तौल और बंदूक के 2 लाइसैंस थे. पुलिस ने दोनों लाइसैंस निरस्त कर दिए. दोनों हथियार भी बरामद कर लिए गए. इस पूरे मामले में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि कौशिक परिवार अगर 3 दिन तक इस घटना को न छिपाता तो शायद दुष्यंत की जान न जाती.

—दीपिका और विमलेश नाम परिवर्तित हैं

 

बेटियां बनें काबिल ताकि अपने लिए घर बना सकें

जिस घर को बेटियां बचपन से सजातीसंवारती हैं, अपना मानती हैं, एक दिन कन्यादान के साथ ही उन को कह दिया जाता है कि अब तुम पराया धन हो, तुम दूसरे घर की हो गई हो. मातापिता के लिए अब तुम पराई हो, यह घर अब तुम्हारा नहीं. रीना ने कौल कर के मु झे गृहप्रवेश का न्यौता दिया. मैं ने सोचा, चलो वह सैटल हो गई. सैटल होने का आप का मतलब कहीं ‘शादी’ से तो नहीं. नहीं भई, उस ने अभी शादी नहीं की. ऐसा नहीं है कि उसे शादी से कोई समस्या है, कर लेगी जब करनी होगी. घर वालों की चलती तो 10 साल पहले ही उस की शादी करवा दी होती. तब तो वह कालेज में थी.

बड़ी जिद और मेहनत से उस ने खुद को सैटल किया है. खैर, यह तो एक ऐसी लड़की की कहानी है जिस ने आज एक मुकाम हासिल कर लिया है. एक दूसरी कहानी है कोमल की, जिस की शादी के 2 साल बाद ही उस के पति गुजर गए. अब वह अपने मायके आ गई. उसे लगा यह तो अपना घर है, बाकी की जिंदगी यहीं बिता लूंगी अपनों के साथ. लेकिन हमारे समाज का खेल अनोखा है. शादी से पहले जो घर की लाड्ली थी वह अब घर वालों के लिए कब बो झ बन गई, यह उसे पता न चला. कभी इज्जत तो कभी धर्म के नाम पर मजबूरी ने उसे जकड़ लिया और उस की पूरी जिंदगी ऐसे ही गुजर गई. उस के होने या न होने से किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ता.

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ये 2 कहानियां इसलिए ताकि हम सम झ सकें कि कानून ने भले पिता की संपत्ति पर बेटियों का हक बराबर कर दिया, लेकिन असलियत क्या है, सभी को पता है. दहेज के नाम पर लाखों का सौदा तो कर लेंगे लेकिन प्रौपर्टी पर बेटी का नाम कितने मातापिता करते हैं? यह पिता के घर की बात हो गई. ससुराल में बहू के नाम पर कितनी प्रौपर्टी का हक दिया जाता है. हमारे समाज में कहा कुछ जाता है जबकि किया कुछ और. जिस घर को बेटियां बचपन से सजातीसंवारती हैं, अपना मानती हैं, एक दिन कन्यादान के साथ ही उन को कह दिया जाता है कि अब तुम पराया धन हो, तुम दूसरे घर की हो गई. जब बेटी शादी कर के ससुराल जाती है तो उस को सुनने को मिलता है, तुम तो दूसरे घर से आई हो,

पराई हो. तमाम बेटियां इस का सामना करती हैं और पूरी जिंदगी घरवालों का दिल जीतने में लगा देती हैं कि अपना मान लें. पिता, भाई या पति पर वित्तीय रूप से निर्भरता सालों से महिलाओं की मुश्किलों की जड़ रही है. मायका, ससुराल और उन पर निर्भरता तब हाल बुरा कर देती है जब पति कुछ साल बाद तलाक ले ले, दूसरी शादी कर ले या फिर उस की आकस्मिक मौत हो जाए. घर को संभालने का काम भले महिलाओं का हो लेकिन जब हक की बात आती है तो नाम पुरुष का आता है. लड़कियों को बस अपने घर वाली फीलिंग मिल जाए, इतने में खुश हो जाएं.

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घर में सब का कमरा होता है, नहीं होता तो मां का कमरा. भाईबहन एक ही घर में बचपन से रहते हैं लेकिन बात क्या होती है भविष्य की कि यहां मोनू का कमरा होगा, विवेक के लिए ऊपर वाले फ्लोर पर घर बनेगा. अरे, अधिकार तो छोड़ो, भले बेटी की शादी न हुई हो, फिर भी जब नया घर बनता है तो कौन से रंग की पेंटिंग, किचन का मौडल क्या होगा, परदे का रंग कौन सा होगा, ये सब भी उस से नहीं पूछा जाता. वह तो शादी कर के चली जाएगी. बस, यहीं से पराया होने का एहसास उसे करवा दिया जाता है.

शादी के बाद भी बेटी एक रूम में रहे, यह कौन सोचता है. या अगर बहू ही शादी कर के आ गई हो तो भी उस से कौन पूछता है कि यह कमरा तुम्हारा है, बताओ क्याक्या तुम्हारे हिसाब से होना चाहिए. अगर बहू ने कुछ कह दिया तो कहा जाता है कि अरे, पूरा घर ही तुम्हारा है. कितना सच में उस का है, यह तो उसे ही पता है. कुछ लोग नारीवाद की बात करते हैं. अगर लड़कियां अपने घर से ही ये सारे फैसले लेने लगें तो यहीं से शुरू होगा नारीवाद.

जब घर से बदलाव होगा तभी तो समाज बदलेगा. इन चीजों में बदलाव के लिए सरकार ने महिलाओं के हक में फैसले भी दिए हैं. जैसे, अगर महिला के नाम पर होम लोन लेते हैं तो उस पर ब्याज दर कम लगती है. यह एक प्रतिशत तक भी जा सकती है. वहीं अगर पत्नी भी कमाती है और उस की आय का स्रोत अलग है तो टैक्स में भी बचत हो सकती है. साथ ही, अगर पत्नी के नाम पर घर की रजिस्ट्री करवाई जाए तो 1-2 प्रतिशत तक स्टैंप ड्यूटी बच सकती है. दिल्ली में तो स्टैंप ड्यूटी की दर 4 प्रतिशत और पुरुषों के लिए 6 प्रतिशत है. कई पति लोग तो सिर्फ पैसे बचाने के लिए रजिस्ट्री पत्नी के नाम करवा देते हैं न कि इसलिए कि उस पर उस का भी हक है.

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बस, ले गए, रजिस्ट्री करवाई और बात खत्म. न प्रौपर्टी के बारे में बात होगी न घर बनाने के फैसले को ले कर. एक घर में 3 बहनों की शादी होती है. एक शारीरिक भोग के लिए शादी करता है तो दूसरा समाज और तीसरा पैसे के लिए. एक साल तक सब ठीक चलता और फिर तीनों को घर से तमाम आरोपों के साथ निकाल दिया जाता है. आरोप क्या हैं- एक बदचलन है, दूसरी झगड़ालू और तीसरी घर तोड़ने वाली और भी दस बहाने… अब तीनों बेटियां अपने पिता के घर आ कर रह रही हैं. तीनों ने उत्पीड़न का केस भी किया. लेकिन अपने यहां टीवी चैनल या फिल्मों में दहेज हिंसा के खिलाफ तुरंत ऐक्शन लेती पुलिस सिर्फ चैनल तक ही सीमित है. असल जिंदगी में तो इंसाफ मिलतेमिलते पूरी जवानी गुजर जाती है. वैसे भी, जब तक किसी महिला का सिर फूटा न हो तब तक हिंसा मानी कहां जाती है.

अब कोई अपना सिर खुद तो फोड़ने से रही, किस की हिम्मत है. मानसिक उत्पीड़न किसी को दिखता कहां है. वैसे भी तलाक लिए बिना पत्नी को छोड़ने और दूसरी शादी करने का ट्रैंड भी चालू हो गया है. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, दोतीन साल की सजा और फिर बेल. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, पूरी दुनिया में करीब 35 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी प्रकार की हिंसा की शिकार होती हैं. तो फिर उपाय क्या है तो बेटियो, तुम खुद का अपना एक घर क्यों नहीं बना लेतीं. जरूरी नहीं है कि वह घर बहुत बड़ा हो, या बड़े शहर में हो. छोटे शहर में ही सही, छोटा सा घर ही सही, एक कमरे का ही सही पर अपना तो अपना ही होता है. जहां तुम्हारा हक हो.

जहां घर के बहाने तुम्हें छोटीछोटी खुशियों से बैर न करना पड़े. जहां थोड़ा लेट आना भी चल जाए. जहां तुम्हारा कमरा फूलों नहीं बल्कि किताबों से भरा हो. जहां सादगी भी हो और शृंगार भी. जहां तुम गिरना सीखो और संभलना भी. जहां अधिकार भी हो और सम्मान भी. यह संभव कैसे होगा सुना होगा न तुम ने कि दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं. इसलिए लड़कियो, मजबूत बनो. आत्मनिर्भर सिर्फ भारीभरकम बोलने या सुनने वाला शब्द नहीं है बल्कि जीवन में अपनाए जाने वाला शब्द है. कोई भी काम करो पूरे दिल से और ईमानदारी से करो. हाउसवाइफ के लिए कई औप्शन मौजूद हैं. बेचारी बन कर मत रहो. हम यह नहीं कहते कि अपनी पहचान बनाओ. तुम लड़की हो, यह पहचान पहले से ही तुम्हारी है. बस, अपने होने का एहसास करो.

काम करो, पैसा कमाओ, मातापिता का खयाल रखो और अपने लिए घर भी बनाओ. अभी सरकार ने कई योजनाएं लागू की हैं जिन के तहत सस्ते लोन और ईएमआई की सुविधा है. अगर बैंक वाला बोले कि तुम लड़की हो, लोन कैसे मिलेगा, पिता या पति का आधार कार्ड दो तो उसे सम झाना नौकरी हमारी, सैलरी हमारी, घर हमारा है. देखो, यही ताकत है जब एक बेटी मजबूत होती है. टीना और अतहर 2 साल बाद शादी के रिश्ते से अलग हो रहे हैं. दोनों ने तलाक की अर्जी लगाई है. सोचिए, अगर टीना भी कमजोर होती, उस के पास भी वह मुकाम न होता तो कहां जाती? वह भी उन करोड़ों बेटियों की तरह घर की चारदीवारी में कैद हो कर सिसकती, हर दिन सबकुछ ठीक हो जाने की उम्मीद करती, फिर शाम ढलतेढलते उदासी की चादर ओढ़ती और सो जाती.

टीना भी कमजोर होती तो हर दिन सोचती कि, बस, आज सबकुछ छोड़ कर निकल जाऊंगी वहां से, पर उस की आंखों के सामने क्या होता? आगे जीवन कैसे चलेगा, इस बात की चिंता और मु झे इस आदमी के बगैर छांव भी आखिर कौन देगा जैसे सैकड़ों सवाल. बेटियों को तो अकसर यहां तक पति सुना देते हैं कि भाग जाओ यहां से, तुम्हारा चेहरा तक नहीं देखना मु झे, या तुम मनहूस हो, जब से आई सब बुरा हो रहा है, ऐसी बहुत सी बातें, पर वे सबकुछ सह जाती हैं,

पी जाती हैं और उसी को अपना समय मान लेती हैं. टीना ने ऐसा फैसला इसलिए लिया क्योंकि वह काबिल है. वह आईएएस है, योग्य है और दुनिया को अपने कदमों में झुकाने की ताकत रखती है. इसलिए उस ने जिंदगी अपनी मरजी से जीने का रास्ता चुना. इसलिए बेटियो, शादी से पहले खुद को उस काबिल जरूर कर लेना ताकि तुम अपनी जिंदगी अपने सहारे खुशीखुशी बिता सको. तुम्हें साथी मिले, सहारा नहीं. टीना जैसी हजारों लड़कियों के साथ समस्याएं आती हैं. इस का किसी धर्म या जाति से लेनादेना नहीं है, क्योंकि लड़कियों की बस, एक ही जाति है कि वह लड़की है.

मैं एक लड़के से बहुत प्यार करती हूं पर मम्मी पापा नहीं मानेंगे, हम क्या करें?

सवाल

मैं गांव के एक लड़के से बहुत प्यार करती हूं. वह आईटीआई कर रहा है और बहुत अच्छा है. हम दोनों शादी करना चाहते हैं, पर हम दोनों एक ही गांव के हैं, लिहाजा हमारे मम्मी पापा नहीं मानेंगे. हम क्या करें?

जवाब

पहले कुछ गांवों में ऐसा रिवाज था, पर आजकल ऐसी बातें फुजूल मानी जाती हैं. आप दोनों मिल कर अपने घर वालों को समझाएं, तो वे मान सकते हैं. बात न बने तो शहर में जा कर कोर्ट मैरिज की जा सकती है, पर लड़के को गुजारा करने लायक पैसा कमाना चाहिए.

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हस्तरेखा: रोहिणी का शिखा के साथ कौन सा अतीत जुड़ा था

रोहिणी का अतीत आज एक बार फिर उस की बेटी शिखा के रूप में उस के सामने खड़ा था. वह किसी भी सूरत में शिखा के सपने पूरे होते देखना चाहती थी. लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह शिखा को अपने अतीत से कैसे अवगत कराए? तभी शिखा के एक जवाब ने उस की सारी दुविधाओं का समाधान कर दिया.

अचानक ही मैं बहुत विचलित हो गई. मन इतना उद्वेलित था कि कोई भी काम नहीं कर पा रही थी. बिलकुल सांपछछूंदर जैसी स्थिति हो गई. न उगलते बनता न निगलते. मेरा अतीत यहां भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ था.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी सी थी. शिखा, मेरी 16 वर्षीय बेटी, शाम को जब स्कूल से लौटी तो आते ही उस ने कहा, ‘‘मां, वह शर्मीला है न.’’

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मेरी आंखों में प्रश्नचिह्न देख कर उस ने आगे कहा, ‘‘अरे वही, जो उस दिन मेरे जन्मदिन पर साड़ी पहन कर आई थी.’’

हाथ की पत्रिका रख कर रसोई की तरफ जाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘हां, तो क्या हुआ उसे?’’

‘‘उसे कुछ नहीं हुआ. उस की चचेरी दीदी आई हुई हैं, मुरादाबाद से. पता है, वे हस्तरेखाएं पढ़ना जानती हैं,’’ स्कूल बैग को वहीं बैठक में रख कर जूते खोलती हुई शिखा ने कहा.

मैं चौकन्नी हो उठी. रसोई की ओर जाते मेरे कदम वापस बैठक की तरफ लौट पड़े. शिखा इस सब से अनजान अब तक जूते और मोजे उतार चुकी थी. गले में बंधी टाई खोलते हुए वह बोली, ‘‘कल रविवार है, इसलिए हम सभी सहेलियां शर्मीला के यहां जाएंगी और अपनेअपने हाथ दिखा कर उन से अपना भविष्य पूछेंगी.’’

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मैं सोच में डूब गई कि आज यह अचानक क्या हो गया? मेरे भीतर एक ठंडा शिलाखंड सा आ गिरा? क्या इतिहास फिर अपनेआप को दोहराने आ पहुंचा है? क्या यह प्रकृति का विधान है या फिर मेरी अपनी लापरवाही? क्या नाम दूं इसे? क्या समझूं और क्या समझाऊं इस शिखा को? क्या यह एक साधारण सी घटना ही है, रोजमर्रा की दूसरी कई बातों की तरह? लेकिन नहीं, मैं इसे इतने हलके रूप में नहीं ले सकती.

शाम को खाना बनाते समय भी मन इसी ऊहापोह में डूबा रहा. सब्जी में मसाला डालना भूल गई और दाल में नमक. खाने की मेज पर भी सिर्फ हम दोनों ही थीं. उस की लगातार चलती बातों का जवाब मैं ‘हूंहां’ से हमेशा की ही तरह देती रही. लेकिन दिमाग पूरे समय कहीं और ही उलझा रहा. क्या इसे सीधे ही वहां जाने से मना कर दूं? लेकिन फिर खयाल आया कि उम्र के इस नाजुक दौर पर यों अपने आदेश को थोपना सही होगा?

आज तक कितना सोचसमझ कर, एकएक पग पर इस के व्यक्तित्व को निखारने का हर संभव प्रयास करती रही हूं. तब ऐसी स्थिति में यों एकदम से उस के खुले व्यवहार पर अपने आदेश का द्वार कठोरता से बंद कर पाऊंगी मैं?

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नहीं, मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती. तो क्या सबकुछ विस्तार से बता कर समझाना होगा उसे? अपना ही अतीत खोल कर रख देना पडे़गा इस तरह तो. अगर मैं ऐसा कर दूं तो शिखा की नजरों में मेरा तो अस्तित्व ही बिखर जाएगा. एक खंडित प्रतिमा बन कर क्या मैं उसे वह सहारा दे सकूंगी, जो उस के लिए हवा और पानी जैसा ही आवश्यक है?

मैं आगे सोचने लगी, ‘परंतु कुछ भी हो, यों ही मैं इसे किसी भी अनजान धारा में बहते हुए चुप रह कर नहीं देख सकती. शिखा के जन्म से ले कर आज तक मनचाहा वातावरण दे कर मैं इसे वैसा ही बना पाई हूं, जैसा चाहती थी सभ्य, सुशील, संवेदनशील और आत्मविश्वास से भरपूर. अपने जीवन की इस साधना को खंडित होने से बचाना है मुझे. ‘यही सब सोचतेविचारते मैं ने रात का काम निबटाया. अखिल दफ्तर के काम से बाहर गए हुए थे. अगर वे यहां होते तो मैं इतनी उद्विग्न न होती.

अखिल मेरे मन की व्यथा जानते हैं. मेरी भावनाओं की कद्र है उन के मन में. यही सोचते हुए मैं ने बची दाल, सब्जी फ्रिज में रखी, दूध को संभाला, रसोई का दरवाजा बंद किया और आ कर अपने बिस्तर पर लेट गई. शिखा मेरे हावभाव से कुछ हैरान तो थी, एकाध बार पूछा भी उस ने पर मैं ही मुसकरा कर टाल गई. उस से बात करने से पहले मैं अपनेआप को मथ लेना चाहती थी.

अंधेरे में भी आशा की एक किरण अचानक कौंधी. मैं सोचने लगी, ‘आवश्यक तो नहीं कि शिखा के हाथ की रेखाएं उस के विश्वासों और आकांक्षाओं के प्रतिकूल ही हों पर यह भी तो हो सकता है कि ऐसा न हो. तब क्या होगा? क्या वह भी मेरी तरह…?’ यह सोच कर ही मैं सिहर उठी, जैसे ठंडे पानी का घड़ा किसी ने मेरे बिस्तर पर उड़ेल दिया हो.

मेरा अतीत चलचित्र की तरह मेरी ही आंखों के सामने घूम गया…

मैं डाक्टर बनना चाहती थी. इसलिए प्री मैडिकल टैस्ट यानी  ‘पीएमटी’ की तैयारी में जीजान से जुटी थी. 11वीं तक हमेशा प्रथम आती रही. 80 प्रतिशत से कम अंक तो कभी आए ही नहीं. आत्मविश्वास मुझ में कूटकूट कर भरा था. बड़ी ही संतुलित जिंदगी थी. मातापिता का प्यार, विश्वास, भाइयों का स्नेह, उच्चमध्यवर्ग का आरामदेह जीवन और उज्ज्वल भविष्य.

प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आने ही वाला था. इस के 1 दिन पहले की बात है. मैं सुबह 4 बजे से उठ कर अपनी पढ़ाई में जुटी थी. 10 बजतेबजते ऊब उठी. मां पंडितजी के पास किसी काम के लिए जा रही थीं. मैं भी यों ही उन के साथ हो ली, एकाध घंटा तफरीह मारने के अंदाज में.

पंडितजी ने मां के प्रणाम का उत्तर देते ही मुझे देख कर कहा, ‘अरे, यह तो रोहिणी बिटिया है. देखो तो, कितनी जल्दी बड़ी हो गई है. कौन सी कक्षा में आ गई इस वर्ष?’

मैं ने उन्हें बताया तो सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और बोले, ‘अच्छाअच्छा, तो पीएमटी की तैयारी चल रही है. प्रथम वर्ष का परिणाम तो नहीं आया न अभी. वह क्या है, अपना सुरेश, मेरा नाती, उस ने भी प्रथम वर्ष की ही परीक्षा दी है.’

‘पंडितजी, आजकल में परिणाम आने ही वाला है,’ मां ने ही जवाब दिया था.

मैं तो अपनी आदत के अनुरूप उन के आसपास रखी पुस्तकों में उलझ गई थी.

मेरी ओर देख कर पंडितजी मुसकराए, ‘भई, यह तो हर वर्ष पूरे जिले में अपने विद्यालय का नाम रोशन करती है. आप तो मिठाई तैयार रखिए, इस बार भी अव्वल ही आएगी.’

मां भी इस प्रशंसा से खुश थीं. वे हंस कर बोलीं, ‘मुंह मीठा तो अवश्य ही होगा आप का. आज यह साथ आ ही गई है तो हाथ बांचिए न इस का.’

मां इन सब बातों में बहुत विश्वास रखती हैं, यह मुझे मालूम था. मुझे स्वयं भी जिज्ञासा हो आई. भविष्य में झांकने की आदिम लालसा मेरे भीतर एकाएक जाग उठी. मैं ने अपना हाथ पंडितजी की ओर फैला दिया.

उन्होंने भी सहज ही मेरा हाथ पकड़ा और लकीरों की उधेड़बुन में खो गए. लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया, उन के माथे की लकीरें गहरी होती गईं. फिर कुछ झिझकते हुए से बोले, ‘बेटी, अपने व्यवसाय को ले कर अधिक ऊंचे सपने न देखो. बहुत अच्छा भविष्य है तुम्हारा. बहुत अच्छा घरवर…’

मैं आश्चर्यचकित उन की ओर देख रही थी और मां परेशान हो चली थीं. शायद सोच रही थीं कि नाहक इस लड़की को साथ लाई, घर पर ही रहती तो अच्छा था.

आखिर मां बोल उठीं,  ‘पंडितजी, छोडि़ए, मैं तो आप के पास किसी और काम से आई थी.’’

लेकिन अचानक मां की दृष्टि मेरे बदरंग होते चेहरे पर पड़ी और वे चुप हो गईं.

कुछ पलों की उस खामोशी में मेरे भीतर क्याक्या नहीं हुआ. पहले तो अपमान की ज्वाला से जैसे मेरे सर्वांग जल उठा. मुझे लगा, मेरे चेहरे से भाप निकल कर आसपास का सबकुछ जला डालेगी. अपने भीतर की इस आग से मैं स्वयं भयभीत थी कि अगले ही पल मेरा शरीर हिमशिला सा ठंडा हो गया. मैं पसीने से भीग गई.

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहां हूं और मेरे चारों ओर क्या हो रहा है. सन्नाटे के बीच मां की आवाज बहुत दूर से आती प्रतीत हुई, ‘चल, रोहिणी, तेरी तबीयत ठीक नहीं लगती. घर चलें.’

इस के बाद पंडितजी से उन्होंने क्या बोला, कब मैं खाना खा कर सो गई, मुझे कुछ याद नहीं. सब यंत्रचालित सा  होता रहा.

अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं उस आरंभिक सदमे से बाहर आ चुकी थी. दिमाग की शून्यता फिर विचारों से धीरेधीरे भरने लगी थी. एकएक कर पिछले दिन का वृत्तांत मेरे सामने क्रम से आने लगा और विचार व्यवस्थित होने लगे.

मैं सोचने लगी कि यह मेरी कैसी पराजय है और क्यों? मैं तो पूरी मेहनत कर रही हूं. सामने ही तो सुखद परिणाम भी दिख रहे हैं, फिर यह सबकुछ मरीचिका कैसे बन सकता है? मैं अपने मन को दृढ़ करने के प्रयत्न में लगी थी. दरअसल, मां ने मुझे अकेला छोड़ दिया था.

पर यह सब तो मेरी जीवनसाधना पर कुठाराघात था. अब तक तो यही जाना था कि जीतोड़ कर की गई मेहनत कभी असफल नहीं होती. पर अब इस संदेह के बीज का क्या करूं? दादाजी भी तो कहते हैं कि हस्तरेखाओं में कुछ न कुछ तो लिखा ही रहता है. पर पढ़ना तो कोई विरला ही जानता है. मन को दिलासा दिया कि ंशायद पंडितजी पढ़ना जानते ही नहीं.

पर शक तो अपना फन फैलाए खड़ा था. असहाय हो कर मैं एकाएक रो पड़ी थी. पर फिर अपनेआप को संभाला, उठी और इस शक के फन को कुचलने की तैयारी में जुट गई. खूब मेहनत की मैं ने. मातापिता भी आश्वस्त थे मेरी पढ़ाई और आत्मविश्वास से. पर शक मेरे भीतर ही भीतर कुलबुला रहा था और शायद यही कुलबुलाहट उस दुर्घटना का कारण बनी.

मैं पहला पेपर देने जा रही थी. भाई मुझे परीक्षा भवन के बाहर तक छोड़ कर चला गया. अंदर जाने के लिए सड़क पार करने लगी कि जाने कहां से मेरा भविष्य निर्देशक बन एक ट्रक आया और मुझे एक जबरदस्त टक्कर लगा कर चलता बना. कुछ ही पलों में सब हो गया. समझ तब आया जब मैं हाथ में आई बाजी हार चुकी थी. अस्पताल में मेरी आंखें खुलीं. मेरे हाथों और सिर पर पट्टियां बंधी थीं. शरीर दर्द से अकड़ रहा था और मातापिता व भाई रोंआसे चेहरे लिए पास खड़े थे.

यहीं मुझ से दूसरी गलती हुई. मैं ने हार मान ली. मैं फिर उठ खड़ी होती, अगली बार परीक्षा देती तो मेरे सपने पूरे हो सकते थे. लेकिन मेरे साथसाथ घर में सभी मुझे छू कर लौटी मौत से आतंकित थे. सो, मेरे तथाकथित ‘भाग्य’ से सभी ने समझौता कर लिया. किसी ने मुझे इस दिशा में प्रोत्साहित नहीं किया. मेरा तो मन ही मर चुका था.

बीएससी 2 साल में पूरी की ही थी कि अखिल के घर से मेरे लिए रिश्ता आ गया.

अखिल को मैं बचपन से जानती थी. मैं ने ‘हां’ कर दी. उम्मीद थी, इन के साथ सुखी रहूंगी और सुखी भी रही. 18 साल हो गए विवाह को, कभी हमारे बीच कोई गंभीर मनमुटाव नहीं हुआ. घर में सभी सदस्य एकदूसरे को इज्जत व प्यार देते हैं.

मेरे मन में अपनी असफलता की फांस आरंभ में तो बहुत गहरी धंसी थी. लेकिन अखिल के प्यार ने इसे हलका कर दिया था. अनुकूल वातावरण में हृदय के घाव भर ही जाते हैं. लेकिन अनजाने में मेरी अपनी बेटी ने ही इस घाव को कुरेद कर हरा कर दिया था. मेरे सपनों, मेरी आकांक्षाओं और असफलताओं के बारे में कुछ भी तो नहीं जानती, शिखा.

मैं फिर सोच में डूब गई कि उसे किस तरह से समझाऊं. खुद की की गई गलतियां मैं उसे दोहराते हुए नहीं देख सकती थी. ऐसा नहीं कि मैं अपनी आकांक्षाएं उस के द्वारा पूरी कर लेना चाहती थी, लेकिन उस के अपने सपने मैं किसी भी सूरत में पूरे होते देखना चाहती थी. इस के लिए मुझे दुविधा के इस घेरे से बाहर निकलना ही था.

मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई. सोचा कि अभी देखूं शिखा क्या कर रही है? उस के कमरे का दरवाजा खुला था, बत्ती जल रही थी. मेज पर झुकी हुई शायद वह गणित के सूत्रों में उलझी हुई थी.

नंगे पैर जाने के कारण मेरे कदमों की आहट वह नहीं सुन सकी थी.

‘‘शिखा, सोई नहीं अभी तक?’’ मैं ने पूछा तो वह चौंक उठी.

‘‘ओह मां, आप भी, कैसे चुपके से आईं. डरा ही दिया मुझे. अभी तो सवा 11 ही हुए हैं. आप क्यों नहीं सोईं’’, झुंझलाते हुए वह मुझ से ही प्रश्न कर बैठी.

मैं धीरे से बोली, ‘‘बेटी, कल तुम शर्मीला के घर जाना चाहती हो न? उस की बहन, जो ज्योतिष…’’

‘‘अरे हां, लेकिन इस वक्त, यह कोई बात है करने की. यह तो फालतू की बात है. मैं तो विश्वास भी नहीं करती. बस, ऐसे ही थोड़ा सा परेशान करेंगे दीदी को,’’ शैतानी से हंसते हुए वह बोली.

मेरे चेहरे की तनी हुई रेखाओं को शायद ढीला पड़ते उस ने देख लिया था. तभी एकाएक गंभीर हो उठी और बोली, ‘‘मां, मालूम है, पिताजी क्या कहते हैं?’’

‘‘क्या?’’ मैं समझ नहीं पा रही थी किस संदर्भ में बात करना चाहती है मेरी शिखा.

‘‘पिताजी कहते हैं कि इंसान, उस की इच्छाशक्ति और उस की मेहनत, ये सब हर चीज से ऊपर होते हैं.’’

अपनी मासूम बिटिया के मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर मैं रुई के फाहे सी हलकी हो गई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेटते हुए मैं ने अनुभव किया कि शिखा मुझ पर नहीं गई, यह तो लाजवाब है. लेकिन नहीं, यह लड़की लाजवाब नहीं, यह तो मेरा जवाब है. फिर मुसकराते हुए मैं नींद के आगोश में समा गई.

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