तब मीता ने कोई पल गंवाए बगैर कहा, “तनु, सुनो, यह जो दुख है न, हमारी उस याददाश्त की देन है जो खराब बातें ही याद दिलाती है. तुम को यह वर्तमान नहीं, बल्कि अतीत है जो रुला कर समय से पहले इतना जर्जर किए दे रहा है. बारबार लोगों को याद कर के लानतें मत दो. अच्छे लोगों की कीमत तब तक कोई नहीं जानता, जब तक वे हमारे व्यवहार से आहत हो कर दूर जाने न लगें. हमारे जीवन में कुछ सुकून की जो सांस चल रही होती है, वह इन सदगुणी लोगों के कारण ही होती है. तनु, गौर से सुनो और तुम एक बार याद तो करो कि तुम को कितने सहयोगी दोस्त एक के बाद एक मिलते रहे.”
तनु कुछ बोली नहीं. बस, चुपचाप सुनती रही. मीता बोलती गई, “तनु, कई लोग तो दशकों बिता देते हैं और संयोग से मिल रहे हितैषियों से भरपूर लाभ भी लेते रहते हैं पर वे लोग लापरवाह हो जाते हैं. वे अपनी उस ख़ुशी या उन मित्रों की अहमियत पर कभी ध्यान नहीं देते हैं जिन की वजह से उन की खुशी और आनंद आज अस्तित्व में हैं. और सच कहा जाए तो वह ही उन का सबकुछ है. कैसी विडंबना है कि आदमी इतना संकीर्ण हो जाता है कि वह सब से पहले उसी अनमोल खजाने को बिसरा देता है.”
“मैं ने सब के लिए कितना किया,” तनु गुस्से व नाराजगी से बोली, “रमा को हर हफ्ते मेयर की पार्टी में ले जाती थी. सुधा को तो सरकारी ठेके दिलवाए. उस उमा को तो नगर निगम के विज्ञापन दिला कर उस की वह हलकीफुलकी पत्रिका निकलवा दी. सब का काम किया था मैं ने. पर आज कोई यहां झांकता तक नहीं.”
“नहीं तनु, यह निहायत ही एकतरफा सोच है तुम्हारी. यह संकुचित सोच भी किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि ऐसे नकारात्मक सोचने वाला अपने दिमाग को सचाई से बिलकुल अलग कर लेता है.”
तनु यह सुन कर तमतमाता हुआ चेहरा कर के मुंह बनाने लगी पर मीता निडर हो कर आगे बोली, “तुम पूरी बात याद करो, तुम कह रही हो कि रमा को तुम दावतों में ले जाती थीं. पर उस के एवज में रमा की एक कार हमेशा तुम्हारे पास ही रही. और तुम ने रमा की नर्सरी से लाखों के कीमती पौधे मुफ्त में लिए, याद करो.”
तनु को वह सब याद आ गया और वह अपने होंठ काटती हुई कुछकुछ विनम्र हो गई. अब मीता ने कहा, “सुधा को तुम ने जुगाड़ कर के ठेका दिलवाया. हां बिलकुल, पर तुम्हारे घर पर कोई भी आयोजन होता था तो सुधा की तरफ से मुफ्त कैटरिंग होती थी. बोलो, सच है या नहीं?” “ओह, हां, हां,” कह कर तनु चुप हो गई.
मगर अब मीता बिलकुल चुप नहीं रही, बोली, “उमा की पत्रिका में तुम्हारी बेटी की कविता छपना जरूरी था. इतना ही नहीं, तुम ने उमा की पत्रिका को अपने ही एक प्रिय पार्षद का प्रचार साधन भी बनाया. याद आया कि नहीं, जरा ठीक से याद करो.”
“हां,” कह कर तनु कुछ उदास हो गई थी. मीता को लगा कि उसे कहीं पार्क या किसी खुली जगह में चलने को कहना चाहिए.
आखिर मीता भी इंसान थी और तनु को उदास देख कर उस का मन भी खुश नहीं रह सकता था. मीता ने उस के जीवन का हर रंग देख लिया था. तनु और उस ने कितना समय साथ गुजारा था. मीता ने उस से कहा कि तनु, सुनो, अभी तो सहायिका काम कर रही हैं, वे बिटिया को भी देखती रहेंगी. चलो, हम पास वाले पार्क तक चहलकदमी कर आते हैं. तनु के लिए मीता सबकुछ थी- बहन, दोस्त, हितैषी सबकुछ. वह चट मान गई और उस के साथ चल दी.
घर की चारदीवारी से पार होते ही तनु को कुछ अच्छा सा लग रहा था. वह आसपास की चीजों को गौर से देखती जा रही थी. पार्क पहुंच कर दोनों आराम से एक बैंच पर बैठ गईं.
तनु वहां पर उड़ रही तितली को यहांवहां देखने लगी. मीता को अब लगा कि आज तनु को सब याद दिलाना ही चाहिए, ताकि यह अपनी सोच को सही व संतुलित कर के सकारात्मक ढंग से विचार कर सके और खुद भी किसी पागलपन जैसी बीमारी का शिकार न हो जाए. तनु को उम्र के इस मोड़ पर मानसिकरूप से सेहतमंद होना बहुत अनिवार्य था. मीता यह सोच ही रही थी कि तनु अचानक अपने पति पुष्प का जिक्र करते हए पुष्प को बुराभला कहने लगी. उन की पुरानी गलतियां बता कर शिकायतें करने लगी.
पर मीता ने उस को बीच में ही फिर टोक दिया और जरा जोर दे कर कहा, “तनु, अगर तुम्हारे पति प्राइवेट स्कूल में शिक्षक न हो कर कोई बढ़िया नौकरी कर रहे होते तो तुम इतना रोब दिखातीं उन को, जरा ईमानदारी से याद करो, तनु. सुनो तनु, तुम उन की सारी तनख्वाह को जब्त कर लेती थीं और अपने ढंग से कहीं प्लौट खरीद लेतीं और लोन की किस्तें पुष्पजी के वेतन से चुकाई जातीं. वे कुछ कहते, तो तुम अपना रोबदाब दिखाने लगती थीं. तुम ने एक सरल व सच्चे इंसान को हौलेहौले मंदबुद्धि बना दिया, तनु. वे तुम्हारे चलते यह शहर ही छोड़ कर चले गए. पर आज वे आनंद से हैं, अकेले हैं, पर समाज की सेवा में बहुत खुश हैं.”