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लेखिका- शची

निशा अपने भीतर की आवाज सुन कर सोचने लगी कि आज क्या होता जा रहा है उसे? 24 साल पहले की गई भूल का एहसास उसे आज क्यों हो उठा? तो क्या उस के किए की सजा उस की बच्ची को मिलेगी. अपनी गलतियों को याद कर उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. मन को नियंत्रित करने के सारे प्रयास विफल सिद्ध हुए. वक्त ने उसे अतीत के दलदल में धकेल दिया और वह उस में हर पल धंसती चली गई थी.

याद आ रहा था उसे मां का तमतमाया हुआ चेहरा. उस दिन उस ने मां को अपने और प्रकाश के विषय में सबकुछ बताया था. मां के शब्द उस के कानों में ऐसे गूंज रहे थे मानो कल की बात हो. ‘निशा, तू जानती है न बेटा, कि प्रकाश शादीशुदा है.’

‘हां मां,’  बात काटते हुए निशा बोली, ‘पर यह कहां का इंसाफ है कि एक इंसान जिस रिश्ते को स्वीकार ही नहीं करता, उस का बो?ा ढोता रहे और फिर उस की पत्नी रजनी, वह खुद नहीं रहना चाहती प्रकाश के साथ.’

‘बेटा, रिश्ते कोई पतंग की डोर तो नहीं कि एक हाथ से छूटी और दूसरे ने लूट ली. और वह क्यों ऐसा चाहेगी, कभी सोचा है तू ने? एक पत्नी अपने पति के साथ कब रहना नहीं चाहती, जानना चाहती है तू, इसलिए नहीं कि वह उस से ज्यादा किसी और को चाहता है, बल्कि इसलिए कि उस ने उस के विश्वास को तोड़ा है. एक मर्यादा का उल्लंघन किया है,’ थोड़ा ठहर कर वे बोलीं.

‘एक परिवार टूटता है तो कितने सपने टूटते हैं, कितने अरमान बिखरते हैं, पता है तु?ो? प्रेम, जिस प्रेम की तू दुहाई दे रही है वह प्रेम नहीं, भ्रम है तेरा. कोरी वासना है. ऐसे पुरुष कायर होते हैं, न वे पत्नी के होते हैं न प्रेमिका के. प्रेम में कोई इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है? किसी के अरमानों की लाश पर अपने प्रेम का महल खड़ा करेगी तू. अपना किया किसी न किसी रूप में एक दिन अपने ही सामने आता है, पछताएगी तू,’ मां एक लंबी सांस ले कर फिर बोलीं, ‘कोई भी निर्णय लेने से पहले सोच ले, कहीं ऐसा न हो कि अपमान और तिरस्कार के दर्द को धोने के लिए तेरे पास प्रायश्चित्त के आंसू भी कम पड़ जाएं, पर मैं जानती हूं कि इसे तू सम?ा नहीं सकेगी. तू सम?ाना ही नहीं चाहती. मेरी बात मान ले और एक बार प्रकाश की पत्नी से मिल कर आ.’

निशा तो नहीं गई, पर एक दिन निशा की मां माया प्रकाश की पत्नी रजनी से मिलने पहुंच गईं. रजनी को देख कर माया पलकें ?ापकाना भी भूल गईं. उन का मुंह खुला का खुला रह गया. रजनी कितनी सुंदर थी. निशा और रजनी की क्या तुलना, क्या यही देख कर प्रकाश निशा की ओर आकृष्ट हुआ.

‘बेटा, मैं निशा की मां हूं. पता है तु?ो निशा और प्रकाश…’ वे आगे कुछ कह न सकीं. ‘पता है,’ सारी पीड़ा को मन के कुएं में डाल कर रजनी ने मानो मुसकराहट के आवरण से चेहरा ढक दिया हो. ‘और तू चुप है?’

‘और क्या करूं, मां?’ उस के  मुख से ‘मां’ का संबोधन सुन माया चकित थीं. रजनी बोलती रही, ‘प्यार कोई किला तो नहीं है न जिस के चारों ओर पहरा लगाया जाए या उसे जीतने के लिए जान की बाजी लगा दी जाए, आखिर कुछ तो होगा ही निशा में जो मेरा प्रकाश मु?ा से छीन ले गई.’

‘बेटा, तुम ने प्रकाश से बात की?’ ‘मु?ो उन से कोई बात नहीं करनी, वे कोई भी निर्णय लेने के लिए आजाद हैं. मां, वह प्यार क्या जिसे ?ाली फैला कर भीख की तरह मांगा जाए. अधिकार तो दिया जाता है, जो छीना जाए उस अधिकार में प्यार कहां? आप चिंतित न हों.’

‘कैसे चिंतित न होऊं, एक मां हूं मैं, किसी की दुनिया उजाड़ कर बेटी की मांग सजाऊं? सारा दोष निशा का है.’ ‘निशा को क्यों दोष दे रही हैं आप, वह तो न मु?ा से मिली है न मु?ो जानती है, वह मेरी दुश्मन कैसे हो सकती है. दोष है तो मेरे समय का.’

‘और प्रकाश? प्रकाश का कोई कुसूर नहीं?’ ‘है मां, लेकिन, उसे सजा देने वाली मैं कौन होती हूं. अब तो उन्होंने मु?ा से माफी मांगने का अपना अधिकार भी खो दिया है. कहीं पानी का बहाव पत्थर डालने से रुका है, वह तो उसी वेग से उछल कर बहने के लिए दिशा तलाश लेता है.’

रजनी के कहे शब्दों को माया सम?ा न सकीं. उन्हें लगा कि पति के विद्रोह ने इसे विक्षिप्त कर दिया है. उन्होंने मन ही मन फैसला किया कि उसे एक बार प्रकाश से मिलना होगा, जहां निशा न हो.

एक दिन निशा की अनुपस्थिति में प्रकाश आया. खुद पर नियंत्रण न रख सकीं और बोलीं, ‘बेटा, मैं एक मां हूं. तुम्हारा, निशा का, रजनी का, किसी का बुरा कैसे सोच सकती हूं, पर न्यायअन्याय के बारे में तो सोचना पड़ेगा न. माना कि निशा नादान है, प्यार ने उसे अंधा बना दिया है, उस ने आज तक जिस चीज पर उंगली रखी वह उसे मिली है. खोना क्या होता है, इस का उसे एहसास नहीं है. पर तुम तो सम?ादार हो, अपने अच्छेबुरे की अक्ल है तुम में. अपनी जिम्मेदारी सम?ा. तुम अकेली रजनी और 2 छोटेछोटे बच्चे किस के भरोसे छोड़ आए हो. क्या प्यार की खाई में इतने नीचे जा गिरे हो कि आसमान भी धुंधला दिखाई पड़ रहा है.’

प्रकाश की आंखें भर आईं. वे बोले, ‘मां, मैं सब सम?ाता हूं. मैं मानता हूं कि मु?ा से भूल हो गई. मैं ने रजनी की कीमत पर निशा की कामना नहीं की थी. मैं तो निशा और रजनी दोनों से माफी मांगने को तैयार हूं. निशा तो शायद माफ भी कर दे, पर रजनी, वह तो इस विषय में क्या, किसी भी विषय में मु?ा से बात करने को तैयार नहीं. पत्थर बन गई है वह. मेरी क्षमायाचना का उस पर कोई असर नहीं होता. अगर मैं उस के कदमों पर गिर भी पड़ूं तो भी वह मु?ो माफ नहीं करेगी, बेहद स्वाभिमानी औरत है वह,’ लाचारी प्रकाश के शब्दों में समाती गई. वे फिर बोले, ‘वक्त ने आज मु?ो जिंदगी के उस चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहां की हर डगर निशा तक जाती है, सिर्फ निशा तक. अब तो न मु?ो रजनी से बिछुड़ने का गम है न निशा से मिलने की खुशी.’

 

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