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हम तो हैं ही इसी लायक : बेटे की दवा से वह क्यों परेशान था

उन्होंने पूरी गंभीरता से टीवी पर ओपनली कहा कि उन की पुत्रबटी बेटावेटा कुछ नहीं देती, उस का तो कोरा शास्त्रीय नाम पुत्रजीवक है. अब समझने वाले जो समझ कर उन की दवाई खाते रहें. उसे खा देश के तमाम बेटे की चाह रखने वाले इस भ्रम में न रहें कि यह दवाईर् खाने वालों के बेटा होगा. चांस नो प्रतिशत.

मित्रो, यह सुन कर मेरे तो पैरोंतले से जमीन खिसक गई है. इतने ज्ञानी होने के बाद भी वे हम जैसों के साथ कैसे छल कर सकते हैं? सिर के ऊपर छत तो पहले ही नहीं थी, जो बचाखुचा आसमान था, अब तो वह भी सरक गया है. सिर और पैर दोनों ही जगह से आधारहीन हो कर रह गया हूं. इन्होंने तो विपक्ष वालों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए हड़बड़ाहट में सच कह दिया पर मेरे तो हाथपांव ही नहीं, मैं तो पूरा ही फूल गया हूं. यह तो कोई बात नहीं होती कि साहब, बस कह दिया, सो कह दिया. पर पैसे डूबे किस के? मेरे जैसों के ही न. और आप तो जानते हैं कि हर वर्ग के बंदे के लिए पैसे से अधिक कुछ प्यारा नहीं होता. फिर मैं तो ठहरा मिडल क्लास का बंदा. चाय के 5 रुपए भी 10 बार गिन कर देता हूं. चमड़ी चली जाए, पर दमड़ी न जाए.

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कम से कम एक जिम्मेदार सिटिजन होने के नाते जनाब से यह उम्मीद कतई न थी कि आप मेरे जैसे लाखों आंखों के अंधों को बेटे का सपना दिखा हम से दवाई की डाउन पेमैंट ले राह चलते को बेटे का हाथ अंधेरे में थमाएंगे. बेटे का बाप बनाने के लालच दे हमें हरकुछ खिलाएंगे. वह भी डब्बे पर छपी पूरी कीमत पहले ले कर.

जनाब, बेटे के लिए हरकुछ ही खाना होता तो अपने महल्ले के खानदानी दवाखाने वाले से ही शर्तिया बेटा होने की दवाई क्यों न ले लेता, जो बेटा होने के बाद ही दवाई की पूरी पेमैंट लेता है, वह भी आसान किस्तों में, जितने की किस्त ग्राहक को बिठानी हो, अपनी सुविधा से बिठा ले. चाहे तो पैसे बेटा दे जब वह कमाने लग जाए. वह भी बिना किसी ब्याज के.

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बेटे के नाम पर दवाई की डोज कम या अधिक लेने पर बेटी हो तो कोई पेमैंट नहीं. सारी की सारी खुराकों की पेमैंट माफ. सरकार भी ऐसा नहीं कर सकती. वह तो थोड़ीबहुत टोकन मनी लेता है, उसे भी 2 रुपया सैकड़ा की दर से बेटी होने पर ब्याज सहित सादर वापस कर देता है. पर आप के बंदों ने तो मुझ जैसों को जो भ्रम की दवाई खिलाई उस ने दिमाग का चैन भी छीना और जेब का भी. पर उस ने महल्ले के जिनजिन बापों को बेटा होने की दवाई दी, उन के, जिस की भी दया से हुए हों, बेटे ही हुए.

साहब, आप का तो जो कुछ भी होगा, भला ही होगा, पर अब मेरा क्या होगा, बाबा. मैं तो इस आस में आप की दवाई की डोज बिना नागा पूरी ईमानदारी से ले रहा था कि इधर मेरे बेटा हुआ और उधर अच्छे दिनों का द्वार खुला. पर आप ने तो मेरे लिए बुरे दिनों का द्वार भी बंद कर दिया. मैं तो पूरी आस्था से आप के डाक्टरों द्वारा बताए जाने पर एक साल से रोटी के बदले भी ये दवाई प्रसाद समझ खा रहा था.

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आप भी कमाल के बंदे हो जनाब. माना आप हमारे ग्रुप के नहीं, पर फिर भी हम केवल बेटे की चाह रखने वाले मानसिक रोगियों से आप मजाक कैसे कर सकते हैं? हम बेटे की चाह रखने वाले तो समाज में हरेक के मजाक का शिकार होते रहते हैं. अपने घर में ही हमें हमारी बीवियां मजाक की दृष्टि से देखती हैं. पर एक हम ही आप जैसे के भरोसे चलने वाले हैं, जो नहीं मानते, तो नहीं मानते. आज की डेट में माना बंदा पैसे दे कर सबकुछ खरीदता है पर कम से कम मजाक तो नहीं खरीदता. मजाक तो बिन पैसे लिए सरकार हम बंदों के साथ काफी कर लेती है.

साहब, हम तो वे बंदे हैं जो दिन में बीसियों बार हर रोज किसी न किसी के हाथों ठगे जाते हैं. अब तो उस दिन हमें नींद नहीं आती जिस रोज हम ठगे न गए हों. ऐसे में, एक ठगी और सही. आखिर, हम तो हैं ही इसी लायक.

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बॉन्ड में निवेश कम जोखिम और ज्यादा रिटर्न

लेखक–मनीषा अग्रवाल

यदि आप निवेश का जरिया खोज रहे हैं जहां आप को कम जोखिम और ज्यादा रिटर्न मिले तो सब से फायदेमंद इस समय बौंड में निवेश करना है. आइए जानें बौंड के बारे में. आजकल बैंक एफडी का ब्याज तेजी से घट रहा है. ऐसी स्थिति में निवेशक निश्चित ब्याज पाने वाले किसी और निवेश के मौके को तलाश रहे हैं. बौंड्स इस के लिए एक अच्छा विकल्प है. इस के जरिए आप अपने निवेश तथा मूलधन पर अधिक जोखिम लिए बिना अच्छे रिटर्न ले सकते हैं.

बौंड एक निश्चित आय की तरह होता है जिस में निवेशक किसी कंपनी या सरकार को निश्चित समय के लिए ऋ ण देते हैं. बौंड को हिंदी में ऋ णपत्र भी कहा जाता है. बौंड कंपनी तथा सरकार के लिए पैसा जुटाने का एक माध्यम है. कंपनी अपने कारोबार के विस्तार के लिए समयसमय पर बौंड से पैसा जुटाती है. सरकार भी राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए या दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए पैसा इकट्ठा करने हेतु बौंड जारी करती है. अर्थात सरकार और कंपनी बौंड के जरिए कर्ज लेते हैं. सरकारी बौंड को गवर्नमैंट बौंड कहते हैं. सरकारी बौंड को सुरक्षित माना जाता है क्योंकि इस पैसे की जिम्मेदारी पूरी तरह से सरकार की होती है.

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कंपनी के बौंड में निवेश के पहले उस कंपनी की वित्तीय स्थिति को देखना जरूरी होता है. कंपनी के बौंड को कौर्पोरेट बौंड कहा जाता है. बौंड एक फिक्स्ड रेट इंस्ट्रूमैंट है क्योंकि इस में ब्याज दर पहले से तय होती है. पहले बड़े निवेशक ही बौंड्स में निवेश कर पाते थे. अब इस में छोटे निवेशकों को भी निवेश की अनुमति है. बौंड की मैच्योरिटी अवधि 1 से 30 साल तक हो सकती है. यह मैच्योरिटी अवधि समाप्त होने पर तय नियमों के अनुसार आप का पैसा वापस मिल जाता है. बौंड की ब्याज दर को कूपन रेट कहते हैं. बौंड का प्राइस पहले से तय होता है. बौंड से मिलने वाले रिटर्न को यील्ड कहा जाता है.

बौंड्स के प्राइस तथा बौंड के यील्ड में विपरीत संबंध होता है. एक बौंड को खरीदने के लिए जितनी अधिक कीमत चुकाई जाती है, बौंड यील्ड उसी अनुपात में कम हो जाता है. ज्यादातर बौंड्स पर यील्ड टू मैच्योरिटी अभी करीब 4.5 फीसदी है.

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कुछ खास बौंड्स सरकारी बौंड : इन के कुछ उदाहरण हैं- सौवेरन गोल्ड बौंड : 2.5 फीसदी ब्याज (2020 में छोटे निवेशकों ने इन में विशेषरूप से निवेश किया) जीओआई सेविंग्स बौंड : 7.75 फीसदी. कैपिटल गेन बौंड, एनएचएआईएंड आरईसी. इंडियन रेलवे फाइनैंस कौर्पोरेशन टैक्सफ्री बौंड.

भारत बौंड. म्युनिसिपल बौंड : नगरनिगम अपने किसी प्रोजैक्ट, निर्माण अथवा कुछ और सरकारी खर्चों के लिए बौंड जारी करता है. लखनऊ नगरनिगम ने बंबई स्टौक एक्सचेंज में अपना बौंड लिस्ट करवाया है. कौर्पोरेट बौंड : ये प्राइवेट सैक्टर के द्वारा जारी किए जाते हैं. श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनैंस के बौंड (10.25 फीसदी) 2020 में उपलब्ध थे.

सिक्योर बौंड : इन में पैसा सुरक्षित रहता है. यूपीपीसीएल (10.15 फीसदी) एक सिक्योर बौंड है. इनसिक्योर बौंड : ये बौंड्स काफी रिस्की होते हैं जबकि इन बौंड्स को लुभावना बनाने के लिए ब्याज दर ज्यादा रखी जाती है. जीरो कूपन बौंड : इन में कोई ब्याज नहीं मिलता बल्कि कंपनी की प्राइस वैल्यू से कम प्राइस में खरीद कर इन में मुनाफा कमाया जाता है.

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परपेच्युअल बौंड्स : ये बिना मैच्योरिटी की तारीख वाले बौंड होते हैं. इन पर भी साधारण बौंड की तरह ही फिक्स रिटर्न मिलता है. इन में ज्यादा शर्तें नहीं होतीं. इन में कंपनी के शेयरों की तरह कंपनी में हिस्सेदारी मिलती है. इन को अपनी सुविधानुसार आप बेच सकते हैं. पीएनबी परपेच्युअल बौंड्स (9.15 फीसदी) ऐसा ही बौंड है. खरीदे हुए इन बौंड्स को सैकंडरी मार्केट के जरिए आप किसी दूसरे इन्वैस्टर को भी बेच सकते हैं. पर यदि आप अपने खरीदे हुए बौंड्स के पूरे लाभ लेना चाहते हैं तो आप उसे पूरे समय तक होल्ड करिए. यदि आप ऐसे निवेश का जरिया खोज रहे हैं जहां आप को कम जोखिम और ज्यादा रिटर्न मिले तो आप को सरकारी बौंड या अच्छी कै्रडिट रेटिंग वाली कंपनी के बौंड में निवेश करना चाहिए.

कोरोनिल वर्सेस वैक्सीन

भारत भूमि युगे युगे कोरोनिल वर्सेस वैक्सीन डिप्रैशन एक तरह का मानसिक आसन है जिस में पीडि़त के हाथ, पैर और दिमाग तक सुन्न पड़ जाते हैं, हालांकि होता और भी बहुत कुछ है जिस का सटीक वर्णन योगगुरु व खरबपति कारोबारी बाबा रामदेव बेहतर कर सकते हैं जो इन दिनों भीषण डिप्रैशन की गिरफ्त में हैं. वजह है, बाजार में कोरोना वैक्सीन का आगमन जिस से उन की कंपनी पतंजलि की कथित कोरोना नाशक दवा कोरोनिल की बिक्री पर ग्रहण गहराता जा रहा है.

लौकडाउन के पहले तक बाबा की आयुर्वेदिक दवाओं व उत्पादों का जादू आम लोगों के सिर से उतरने के चलते पतंजलि घाटे में आने लगी थी. झल्लाए बाबा ने अपने जातिभाई सपा प्रमुख अखिलेश यादव के सुर में सुर मिलाते साफ कह दिया है कि वे कोरोना वैक्सीन नहीं लगवाएंगे. जाहिर है, लगवाएंगे तो लोग सवाल और शक भी करेंगे. अब धंधा बढ़ाने को बाबा को तुरंत आयुर्वेदिक वैक्सीन लौंच कर देनी चाहिए. मुख्यमंत्री बलात्कारी या… अधिकतर बलात्कार पीडि़ता इतनी मासूम, भोली और नादान होती हैं कि उन्हें कई बार तो सालोंसाल बाद सम झ आता है कि अमुक दिन या रात जो कुछ भी हुआ था वह मरजी से किया गया आनंददायक सहवास नहीं, बल्कि बलात्कार था, तो वे हायहाय करने लगती हैं.

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लेकिन इस दिलचस्प मामले में आरोपी पीडि़ता के पास था भी या नहीं, यह तय कर पाना ही मुश्किल है. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर मुंबई की एक मौडल ने आरोप लगाया है कि 5 सितंबर, 2013 को मुख्यमंत्री रहते उन्होंने होटल ताज लैंड्स एंड में उस के साथ बुरा काम किया था और इस के लिए वे बाकायदा एक असिस्टैंट बलात्कारी सुरेश नागरे के साथ हवाई जहाज से मुंबई आए थे. जादू के जोर से जासूसी उपन्यासों जैसा मामला कई हवाहवाई बातों के साथ उठा तो झामुमो और भाजपा में परंपरागत तूतूमैंमैं शुरू हो गई, जिस में भगवा गैंग को मुंह की खानी पड़ी क्योंकि हर किसी को यह मामला प्लांट किया हुआ लग रहा है.

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मैडम चीफ मिनिस्टर इस में शक नहीं कि बसपा प्रमुख मायावती ने एक वक्त में वह कर दिखाया था जो मानव कल्पना से परे था. अब यह और बात है कि भगवा स्नेह के चलते वे अपनी पहचान खोने लगी हैं. लेकिन, हालिया फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ के प्रदर्शन के पहले ही मायावती की फिर चर्चा हुई. रिचा चड्डा अभिनीत इस फिल्म के बारे में आमराय यह बनी कि हो न हो यह जरूर मायावती की बायोपिक है जिस में एक कामयाब दलित महिला के हाथ में झाड़ू थमा कर उस की छवि को गलत तरीके से दिखाया गया है और इस की टैगलाइन में 2 शाश्वत शब्द अनटचेबल और अनस्पौटेबल लिखे गए हैं. सुभाष कपूर द्वारा निर्देशित इस फिल्म के कई प्रसंग मायावती की जिंदगी से मेल खाते हुए हैं जिन पर बसपा का एतराज एक तरह से फिल्म की पब्लिसिटी ही साबित हो रहा है.

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उन्हें तो खुश इस बात पर होना चाहिए कि वर्णव्यवस्था वाले धर्म, छिछोरे समाज और जातिगत राजनीति का सच दिखाने की हिम्मत तो किसी ने की. वरना आजकल दलितों की सुध लेता ही कौन है. हम तो डूबे ही हैं… पहले उन्होंने अपने गढ़ छिंदवाड़ा में संन्यास के संकेत दिए, फिर कुछ दिनों बाद भोपाल में बोले कि कुछ भी हो जाए आखिरी सांस तक मध्य प्रदेश में ही रहेंगे. मध्य प्रदेश के पूर्व और सवावर्षीय अल्पकार्यकाल के मुख्यमंत्री बुजुर्ग नेता कमलनाथ के इन बयानों पर किसी ने चूं तक नहीं की. इस से ‘पुरुष बलि नहीं होत है समय होत बलबान…’ वाला दोहा जरूर याद आया. सार यह है कि वे गेरुए कपड़े पहन लें या फिर लकदक सूटबूट में रहें, सत्तारूढ़ भाजपा की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. फर्क उन अधेड़ कांग्रेसियों पर पड़ रहा है जिन्हें कांग्रेसी बस में कंडक्टर या ड्राइवर वाली सीट नहीं मिल रही. जानकारों को डर तो इस बात का है कि कहीं ये लोग ही संन्यास न लेने लगें. फिर, कांग्रेस का क्या होगा, इस पर गौर कौन करेगा.

अंधेरी आंखों के उजाले : मदन बाबू डाक बंगला क्यों जा रहे थे

खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.

घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.

‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’

‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.

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‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.

वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.

पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.

देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.

हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ

कर उन्होंने अपने नन्हेमुन्नों को गोद में समेट लिया.

उन की अंधेरी आंखों में कितने उजाले थे. मेरा मन उन से मिलने को कर रहा था. मुझ से रहा नहीं गया तो उठ कर उन के पास चला आया.

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‘‘जी, नमस्ते,’’ और इस संबोधन को सुन कर अपने में डूबे वे दोनों चौंक गए.

‘‘पापा, कोई अंकल हैं, आप को नमस्ते कर रहे हैं,’’ एक बच्चे ने कहा.

‘‘हांहां समझा, कोई काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बस यों ही आप से बात करने का मन कर आया.’’

‘‘हम से क्यों? हम…मतलब कोई खास बात है क्या?’’

‘‘खास बात तो नहीं है, बस, थोड़ी देर आप से बात करना चाहता हूं.’’

एक तरफ को सरक कर उन्होंने मेरे लिए जगह बना दी.

‘‘रणकपुर देखने आए हैं?’’ अच्छी जगह है…मतलब बहुत सुंदर है… आप ने तो देखा?’’

अटपटा सा वार्त्तालाप. समझ नहीं पा रहा था कि सूत्र किधर से पकड़ूं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता अधिक थी पर शब्द नदारद थे.

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‘‘हम दोनों जन्मजात अंधे हैं.’’

क्या प्रश्न था और क्या उत्तर आया. एकदम अचकचा गया. यही तो पूछना चाहता था. कैसे एकदम ठीक जान लिया इन लोगों ने.

‘‘पर यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि हमारे तीनों बच्चे स्वस्थ व संपूर्ण हैं. छोटे हैं पर सबकुछ समझते हैं. इन्हें शिकायत नहीं कि हम देख नहीं सकते. हमें दिखा देने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए कहा कि संपूर्ण हैं.’’

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‘‘आप की समझ बहुत अच्छी है वरना संपूर्ण का मतलब तो अच्छेअच्छे भी नहीं जानते.’’

‘‘ठीक कहा आप ने. पढ़ालिखा हूं, फैक्टरी में वरिष्ठ लिपिक हूं पर सच कहूं तो संपूर्ण होने का दावा करने वाली यह दुनिया… सच में बड़ी खोखली है. उस का बस चले तो मेरा यह आधार भी छीन ले.’’

कितना तल्ख स्वर हो आया उन का. चोट खाना और निरंतर खाते रहना हर किसी के बस का नहीं होता.

इतना स्नेहिल व्यक्तित्व अपनी दुनिया का सबकुछ था पर बाहर की दुनिया उसे कुछ न होने का एहसास हर पल कराती.

पत्नी का हाथ पति के कंधे तक आ गया. बच्चे उन के और करीब सिमट गए. एक अनकही सांत्वना के घेरे में वह सुरक्षित हो गए. मैं बाहर था, बाहर ही रह गया. बातचीत का सिल- सिला टूट गया. मैं फिर भी न जाने किस आशा में बैठा रहा. वे भी अपने में सिमटे गुम थे.

‘‘आप…’’ मैं ने पूछना चाहा.

‘‘महाशय, आज नहीं, फिर कभी… आज का दिन इन बच्चों का है.’’

प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वे उठ गए. मंदिर में प्रसाद का प्रबंध हो रहा था. प्रसाद में पूरा खाना. पंगत में बैठे, खाना खाते वे परिवारजन अपने भीतर एक खुशी समाए हुए थे. सच में वे संपूर्ण थे. दुनिया उन्हें कुछ दे पाती उस की क्या बिसात थी. वे ही दुनिया को देने के काबिल थे. एक आदर्श पतिपत्नी, एक आदर्श मातापिता.

फिर भी मैं सोच रहा था कि यह तो उन का आज था. यहां तक आतेआते जीवन के कितने पड़ावों पर समय ने उन्हें कितना तोड़ा होगा? ये बच्चे ही जब छोटे होंगे तो क्याक्या कठिनाइयां न आई होंगी उन के सामने. निश्चय ही कितने दुख, दुविधाएं और असहजताएं पहाड़ बन कर टूट पड़ी होंगी.

मैं मंदिर से बाहर आ गया. घर आ कर भी कितने ही दिन तक उन को ले कर मन में विचार खुदबुदाते रहे थे.

फिर धीरेधीरे दिन बीतने लगे. वे कभीकभार याद आते थे, पर वक्त ने धीरेधीरे सबकुछ धूमिल कर दिया और मैं अपनी दुनिया में खो गया.

उन दिनों आफिस के काम से मुझे गुजरात के सांबल गांव जाना पड़ा. सांबल गांव क्या था, अच्छा शहरनुमा कसबा था. दिन तो कार्यालय में अपना काम पूरा करतेकरते बीत गया. शाम हो गई पर काम पूरा न हो पाया. लगता था कि कम से कम 2-3 दिन तो खा ही जाएगा यह काम. रुकने का मन बना लिया. स्टाफ में मदन भाई को थोड़ाबहुत जानता था क्योंकि वह भी इसी तरह टूर में 1-2 बार हमारे कार्यालय आए थे. बाकी 1-2 से काम के साथ ही जान- पहचान हुई.

मदन बाबू का घर पास ही था सो उन के आग्रह पर चाय उन के घर ही पीनी थी. दिन भर की थकान के बाद अदरक की चाय ने बदन में जान डाल दी. चुस्ती महसूस करता मैं ड्राइंगरूम का निरीक्षण करता रहा. मदन बाबू भीतर थे. 15-20 मिनट बाद की वापसी के बाद ही वे एकदम तरोताजा बदलेबदले लगे. तय हुआ कि वे मुझे डाक बंगले छोड़ देंगे.

मैं वहां जल्दी पहुंचना चाहता था. थकान व चिपचिपाहट से नहाने का मन कर रहा था.

डाक बंगले में पहुंच कर मदन बाबू ने विदा लेनी चाही. मैं ने भी यों ही पूछ लिया, ‘‘अब सवारी किधर को निकलेगी?’’

मदन बाबू हंस दिए, ‘‘जरा ब्लाइंड स्कूल तक जाऊंगा.’’

‘‘ब्लाइंड स्कूल? वहां क्यों?’’ मन में रणकपुर वाली घटना अनायास कौंध गई.

‘‘महीने में एक बार जाता हूं. इसी बहाने थोड़ा मन बहल जाता है कि कुछ तो किया.’’

उत्सुकता से सिर उठा लिया था, ‘‘यार, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ.’’

‘‘क्या करोगे, राव? यहीं आराम कर लो. दिन भर में थके नहीं क्या? मुझे तो वहां समय लग जाता है. तुम बेकार बोर होगे.’’

‘‘नहीं…नहीं. बस, 10 मिनट,’’ मैं हड़बड़ा कर बोला, ‘‘किसी खास मकसद से जा रहे हो?’’

‘‘मकसद तो कोई नहीं…मातापिता की याद में जाना शुरू किया था. उन के नाम से खानाकपड़ा बांट आता था. फिर मुझे लगा कि उन्हें इन चीजों से भी अधिक प्यार की जरूरत है.’’

‘‘ओह, अब तो मैं जरूर ही चलूंगा, मिनटों में हाजिर हुआ.’’

मेरे दिल में रणकपुर में मिले उन लोगों ने दस्तक दी. वे न सही, वैसे ही कुछ और लोग मिलेंगे.

मैं मदन बाबू के साथ निकल पड़ा. रास्ते मेरे पहचाने न थे. कई सड़कें, मोड़, चौराहे पार कर के हम एक इमारत के सामने रुक गए. अंध स्कूल एवं बोर्डिंग आ गया था.

भीतर प्रवेश करने पर सीधे हाथ को कुछ आफिस जैसे कमरे थे. बाएं हाथ को सामने काफी बड़ा मैदान था. कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे. कुछ पौधों में पानी दे रहे थे. कुछ आजा रहे थे. एक जगह कुछ खेल भी चल रहा था.

मदन बाबू ने किसी को आवाज दी तो सारे बच्चे मुड़ कर उन की तरफ आ गए और उन को चारों ओर से घेर लिया. किसी ने हाथ पकड़ा, किसी ने उंगली तो किसी ने बुशर्र्ट का कोना ही पकड़ लिया. एकलौते बटन की कमीज पहने एक छोटा लड़का पैरों से चिपट गया. देख कर लगा सब के सब उन के बहुत नजदीक होना चाहते थे. उन्होंने भी किसी  का गाल थप- थपाया तो किसी की पीठ पर हाथ फेर कर प्यार किया. कुछ बच्चे उन से पटाखे लाने के लिए भी कह रहे थे.

मदन बाबू ने बच्चों से उन का सामान लाने का वादा किया और हम भीतर के हिस्से में चल पड़े. अगलबगल के कमरों से गुजरते हुए मैं ने बच्चों को कुरसियां बुनते, बढ़ईगीरी का काम करते, बेंत के खिलौने बनाते देखा था. एक छोटी सी लाइब्रेरी भी देखी, जहां बच्चे ब्रेल लिपि का साहित्य पढ़ रहे थे. 5-6 बिस्तरों वाला छोटा सा अस्पताल भी देखा.

यों ही घूमते हुए हम थोड़ी खुली जगह में आ गए.

‘‘चलिए, राव साहब, अब आप को एक हीरे से मिलवाते हैं,’’ मदन बाबू मुझ से बोले.

अब हम कुछ गलियारे पार कर एक बडे़ से कमरे तक आ गए. रोशनी में डूबे इस कमरे की धड़कन कुछ अलग सी लगी, तनिक खामोश सी.

‘‘विनोद बाबू, देखिए तो कौन आया है?’’

‘‘अरे, मदनजी… किसे लाए हैं?’’ चेहरा हमारी तरफ घूम गया. मेरा दिल तेजी से धड़क उठा. आंखें पहचानने में भूल नहीं कर सकती थीं. यह वही सज्जन थे, वही रणकपुर वाले. आंखें एक बार फिर खुशी से नाच उठीं.

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‘‘अपने राव साहब हैं,’’ मदन बाबू बोले, ‘‘राजस्थान से टूर पर आए हैं. आप तक ले आया इन्हें.’’

‘‘अच्छा किया,’’ और मेरी तरफ हाथ बढ़ा कर विनोद बाबू बोले, ‘‘आइए, प्रशांतजी…’’

मैं ने बढ़ कर उन का हाथ थाम लिया. दूसरे हाथ का सहारा लगाते हुए उन्होंने हाथ मिलाया.

‘‘पहली बार आए हैं गुजरात…’’ विनोद बाबू बोले.

‘‘जी…’’ बहुत इच्छा हो रही थी कि रणकपुर की याद दिलाऊं, पर इस वक्त अनजान बने रहना ठीक लगा. मैं उन्हें सचमुच जानना चाहता था. उन के हर अनछुए पहलू को, उन के व्यक्तित्व को, जीवन को, उन के संपूर्ण बच्चों को…और मेरे होंठों पर यह सोच कर हंसी तिर आई. आखिर वे मिल ही गए.

मदन बाबू उन से बातें करने लगे. बातें सामान्य थीं, अधिकतर संस्था से संबंधित.

मदन बाबू ने बताया कि वह कितना यत्न कर के इस संस्था को संभाल रहे थे और यह भी बताया कि वह अपने काम के प्रति कितने निष्ठावान, सच्चरित्र, महत्त्वाकांक्षी और मेहनती हैं.

तो मैं ने उन्हें ठीक ही भांपा था. शायद यही सब था जो मैं जानना चाहता था. उन के चेहरे पर सलज्ज आभा थी. अपनी इतनी तारीफ सुनने में उन के चेहरे पर किस कदर सकुचाहट थी. आंखें होतीं तो वे भी सपनों को पूरा होते देख भूरिभूरि सी चमक उठतीं.

अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा के बावजूद उन के हौसलों के परिंदे कितनी ऊंची उड़ान भरना चाहते थे, वह भी सरकारी महकमे में, जहां आंख वाले तक अंधे हो जाते हैं. काम से दूर भागते, काहिल से, पीक थूकते, चाय गटकते, टिन के जंग लगे पुतलों की तरह बेवजह बजते. विनोद बाबू इन सब का अपवाद बने सामने खड़े थे.

‘‘प्रशांतजी, कैसी लगी आप को हमारी संस्था?’’

‘‘काफी व्यवस्थित सी.’’

‘‘आप तो बहुत ही कम बोलते हैं पर आप ने सही शब्द कहा है. इस व्यवस्था को बनाने में कई साल लग गए हैं. सरकारी छल तो आप जानते ही हैं. पैसों की तंगी झेलनी ही पड़ती है.’’

‘‘जानता हूं, फिर भी आप ने…’’

‘‘मैं ने नहीं, सब ने, यहां बड़ा स्टाफ है. हाथपैरों से सब करते हैं पर सुविधाएं जुटाना… पूरा दम लग जाता है.’’

‘‘कुछ ठीक से बताएंगे… आज तो मैं तल्लीन श्रोता ही हो जाता हूं.’’

खनकती हंसी हंस दिए विनोद बाबू. मदन बाबू भी बहुत उत्कंठित लगे.

‘‘प्रशांतजी, जब आया था तो सचमुच निराश था. मेरी योग्यता को ओछा बना दिया गया था. कैसे भी, कहीं भी, कोई भी काबिल, नाकाबिल सब आगे बढ़ते जाते थे. मेरी सारी शिक्षा, मेरी सारी मेहनत, मेरी इन आंखों से माप दी जाती थी. मैं ने मन मसोस कर, अंतहीन दुख पा कर बहुत समय बिताया, जगहजगह काम किया पर सब बेकार ही रहा. सब के पास आंखें थीं पर कान न थे, दिमाग न था, दिल न था. मुझे अनसुना, अनबूझा, अनजाना रहना था सो रह गया. उस कठिन घड़ी में मेरे बच्चे और मेरी पत्नी ही मेरा अंतिम सहारा थे.’’

मदन बाबू और मैं चुप थे. सन्नाटे ख्ंिचे उस प्रकाश में उन का दुख शायद अरसे बाद बाहर रिस आया था.

‘‘7-8 साल की मायूसी में डूबताउतराता मैं अंधेरे में डूब ही जाता कि रोशनी की सूरत में यह संस्थान मिल गया. प्रशांतजी, रोशनी की दुनिया का ठुकराया मेरा अस्तित्व जैसे अपनों के बीच आ मिला. जो कुछ मैं ने झेला वह ये बच्चे न झेलें, यही सोचता हूं हर दम. हौसला बांधे हुए तभी से जुटा हूं. मदनजी से बड़ी मदद है.’’

‘‘मैं नहीं विनोद बाबू, यह तो आप की यात्रा है.’’

‘‘मदन बाबू, तिनके का सहारा भी डूबते के लिए बहुत होता है. आप ने तो सब देखा ही है. कितनी बदइंतजामी थी. न खाना, न पीना, न पहनना, न जानना, न समझना. सब बेढंगा… बड़ी पीड़ा हुई थी. यहां इतना बिखराव था कि समझ में नहीं आता था कि कहां से समेटूं. बच्चों को छोड़ कर मातापिता भी जैसे भूल चुके थे.’’

‘‘क्या मतलब? इन के मातापिता हैं क्या?’’

‘‘हां, हैं न, 10-15 बच्चे अनाथ हैं यहां, पर बाकी को मांबाप की लापरवाही ने अनाथ बना दिया है. मैं ने सब से पहले यही किया. सभी बच्चों का ब्योरा बनाया. मैं भी समझ रहा था कि ये अनाथ हैं, पर राव साहब, यह अंध स्कूल है, अंध अनाथाश्रम नहीं. बच्चे दिन भर यहीं रहते हैं. खानापीना, पढ़नालिखना, रोजमर्रा के कामों की ट्रेनिंग और जो कोई कारीगरी सीख पाए तो वह भी. शाम को इन्हें घर जाना चाहिए, पर इस में नियमितता नहीं है. रात गए तक मांबाप की प्रतीक्षा करता बच्चा…क्या कहूं…कलेजा मुंह को आता है.

‘‘मांबाप को टोको तो सौ बहाने बना देते हैं. उन के लिए दुनिया के सारे काम जरूरी हैं और उन का सहारा खोजता उन का अपना बच्चा कुछ भी नहीं.

‘‘प्यार के भूखे ये बच्चे. सच इन्हें थोड़ी सी देखभाल, पर ढेर सारा प्यार चाहिए और कुछ नहीं चाहिए. ये अपनी दुनिया में संपूर्ण हैं.’’

सच में वे संपूर्ण थे. न केवल अपने परिवार के लिए वरन सामाजिक सरोकार में भी. शतरंज और लूडो खेलते, कुरसी बुनते, टाइपिंग करते, कंप्यूटर पर काम करते, एकदूसरे का कंधा थामे गणतंत्र दिवस पर परेड करते, बागबानी करते इन बालकों के जीवन में कला के कितने ही रंग, स्वर और गंध समा गई थी.

नया प्रयोग -भाग 3: बूआ का आना बड़ी सूनामी जैसा क्यों लगता था

‘‘और तुम ने अपने चाचा को भाषण दे दिया क्या? यह जो ऊंचाऊंचा कुछ बोल रही थी, क्या उन्हें ही सुना रही थी?’’

‘‘मैं भी तो घर की बेटी हूं न. क्या सारी उम्र बूआ की ही जबान चलेगी. घर की विरासत मुझे ही तो संभालनी है अब. कल वह बोलती थी, आज मैं भी तो बोलूंगी.’’

अवाक् थी मीना, चाहती है हर काम सुखचैन से बीत जाए मगर लगता नहीं कि ऐसा होगा. विजया सदा अड़चन डालती आई है और सदा उस की ही चली है. इस बार भी वह अपनी जायजनाजायज हर जिद मनवाना चाहती है. वह जराजरा सी बात को खींच कर कहानी बना रही है.

‘‘डर लग रहा है मझे स्नेहा, पहले ही मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इस औरत ने और तंग किया तो पता नहीं क्या होगा.’’

चाची का हाथ कांपने लगा था आवेग में. उच्चरक्तचाप की मरीज हैं चाची. स्नेहा के हाथपैर फूलने लगे चाची का कांपता हाथ देख कर. उस की मां का भी यही हाल हुआ था. अगर यहां भी वही कहानी दोहराई गई तो क्या होगा, इसी घबराहट में स्नेहा ने चाचा को डाक्टर के साथ घर आने के लिए फोन कर दिया. नजर चाची पर थी जो बारबार बाथरूम जा रही थीं.

डाक्टर साहब आए, पूरी जांच की और वही ढाक के तीन पात.

डाक्टर ने कहा, ‘‘तनाव मत लीजिए. काम का बोझ है तो खुशीखुशी कीजिए न, शादी वाला घर है. बेचैनी कैसी है. बेटी की शादी थोड़े है जो समधन का डर है, बेटे की शादी है.’’

चाचा बोले, ‘‘बेटे की शादी है, इसी बात की तो चिंता है. सभी रूठेरूठे घूम रहे हैं. सब की मनमानी पूरी करतेकरते ही समय जा रहा है फिर भी नाराजगी किसी की भी कम नहीं हुई.’’

‘‘आप का दिमाग खराब हो गया है क्या, जो दुनिया को खुश करने चले हैं. बाल सफेद हो गए और अनुभव अभी तक नहीं हुआ. 60 साल की उम्र तक भी अगर आप नहीं समझे तो कब समझेंगे,’’ मजाक भी था पारिवारिक डाक्टर के शब्दों में और सत्य की कचोट भी. चाचा के शब्दों पर तनिक गंभीरता से बात की डाक्टर साहब ने, ‘‘अपनी सामर्थ्य और हिम्मत से ज्यादा कुछ मत कीजिए आप. गिलेशिकवे अगर कोई करता भी है तो उस का भी चरित्र देखिए न आप. जिसे कभी खुश नहीं कर पाए उसे उसी के हाल पर छोड़ दीजिए. पहले अपना घर देखिए. अपने परिवार की प्राथमिकता देखिए. जो न जीता है, न ही जीने देता है उसे जरा सा दूर रखिए. कहीं न कहीं तो एक रेखा खींचिए न.’’

स्नेहा चुपचाप सब देखतीसुनती रही और चाचा के चेहरे के हावभाव भी पढ़ती रही. डाक्टर साहब दवाएं लिख कर दे गए और चाची बुदबुदाई, ‘मुझे कोई दवा नहीं खानी. बस, यह औरत मेरे घर से दूर रहे.’

‘‘मेरी बहन है वह.’’

‘‘तो बहन की जबान पर लगाम लगाइए, चाचा. आप के ही अनुचित लाड़प्यार की वजह से, यह दिन आ गया कि चाची बूआ को ‘यह औरत’ कहने लगी है. पापा की तरह आप भी बस वही भाषा बोल रहे हैं. ‘स्याह करे, सफेद करे, मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि वह मेरी बहन है.’ यह घर तभी तक घर रहेगा जब तक चाची जिंदा हैं और कोई बूआ को चायपानी पूछता है वह भी तब तक है जब तक चाची हैं. आप को भी अपनी बहन के जायजनाजायज तानेशिकवे तभी तक अच्छे लगेंगे जब तक उन को सहने वाली आप की पत्नी जिंदा है. जिस दिन चाची न रहेंगी, देखना, आप की यही बहन कभी देखने भी नहीं आएगी कि आप भूखे सो गए या कुछ खाया भी था,’’ रो पड़ी थी स्नेहा, ‘‘हमारे पापा का हाल देख रहे हैं न आप. अब बूआ वहां क्यों नहीं जाती, जाए न, रहे उस घर में जहां साल में 6 महीने इसी बूआ की वजह से दिनरात मनहूसियत छाई रहती थी.’’

अच्छाखासा तनाव हो गया. उस शाम चाची की तबीयत से परेशान स्नेहा खो चुकी अपनी मां को याद करकर के खूब परेशान रही. ऐसा भी क्या अंधा प्रेम जिसे रिश्ते में तालमेल भी रखना न आए. भावी दूल्हा यानी चाचा का बेटा भी बहन की हालत पर दुखी हो गया उस रात.

‘‘स्नेहा, थोड़ा तो खा ले न,’’ उस ने मनुहार की.

‘‘देख लेना बूआ का दखल एक दिन यहां भी सब तबाह कर देगा. कैसी औरत है यह जो भाई का सुख नहीं देख सकती.’’

‘‘तुम तो मेरा सुख देखो न, स्नेहा. मुझे भूख लगी है. आज कितना काम था औफिस में, क्या भूखा ही सुलाना चाहती हो?’’

हलकी सी चपत लगाई भाई ने उस के गाल पर. चाची भी भूखी बैठी थीं. वे बिना कुछ खाए दवा कैसे खा लेतीं. चाचा विचित्र चुप्पी में डूबे थे. स्नेहा मुखातिब हुई चाचा से, बोली, ‘‘इतने साल उस बेटी की चली, मैं भी ससुराल से आई हूं न, मेरा भी हक है इस घर पर. आप बूआ से कह दीजिए हमारे घर में हमारी मरजी चलने दीजिए. बस, मैं इतना ही चाहती हूं, चाचा. मेरी इतनी सी बात मान लीजिए, चाचा. चाचा, आप सुन रहे हैं न?

‘‘चाचा, मुझे इस घर में सुखचैन चाहिए जहां मेरी आने वाली भाभी खुल कर सांस ले सके. मेरी भाभी सुखी होगी तभी तो मेरा मायका खुशहाल होगा. वरना मुझे पानी के लिए भी कौन पूछेगा, जरा सोचिए.

‘‘मेरा घर, मेरा ससुराल है जहां मेरी मरजी चलती है. यह घर चाची का है, यहां चाची को जीने दीजिए और बूआ अपने घर में खुश रहे. बस, और तो कुछ नहीं मांग रही मैं.’’

गरदन हिला दी चाचा ने. पता नहीं सच में या झूठमूठ. सब ने मिल कर खाना खा लिया. तभी पता चला सुबह 6 बजे वाली गाड़ी से स्नेहा के पिता आ रहे हैं. स्नेहा का भाई बोला, ‘‘मैं शाम को ही बताने वाला था मगर घर में उठा तूफान देख मैं यह बताना भूल गया. ताऊजी का फोन आया था. पूरे 6 बजे मैं स्टेशन पहुंच जाऊं उन्हें लेने. कह रहे थे-घुटने का दर्द बढ़ गया है, इसलिए वे सामान के साथ प्लेटफौर्म नहीं बदल पाएंगे.’’ स्नेहा की चाची बोलीं, ‘‘मैं ने तो कहा भी है, भैया यहीं हमारे पास ही क्यों नहीं आ जाते. वहां अकेले रहते हैं. कौन है वहां देखने वाला.’’

‘‘भैया तो मान जाएं मगर विजया नहीं चाहती,’’ सहसा चाचा के होंठों से निकल गया. सब का मुंह खुला का खुला रह गया. हैरान रह गए सब. चाचा का रंग वास्तव में बदला सा लगा स्नेहा को. शायद अभीअभी उन का मोह भंग हुआ है अपनी पत्नी की हालत देख कर और भाई का उजड़ा घर देख कर.

‘‘भैया अगर मेरे साथ रहें तो विजया को समस्या क्या है? वही बेकार का अधिकार. हर जगह अपनी टांग फसाना शौक है इस का,’’ यह भी निकल गया चाचा के मुंह से.

सब उन का मुंह ही ताकते रह गए. चाचा ने स्नेहा का माथा सहला दिया, ‘‘कल से विजया का दखल समाप्त. अब भैया यहीं रहेंगे मेरे पास. तुम्हारी चाची और तुम्हारी आने वाली भाभी की चलेगी इस घर में. जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा.’’चाचा का स्वर भीगाभीगा सा था. पता नहीं नाराज थे उस से या खुश थे मगर उन का चेहरा एक नई ही आशा से जरा सा चमक रहा था. शायद वे एक और बेटी की जिद मान एक नया प्रयोग करने को तैयार हो गए थे.

 

 

नया प्रयोग -भाग 2: बूआ का आना बड़ी सूनामी जैसा क्यों लगता था

‘बूआ से कहिए न, अब आ कर आप का घर संभाले. मां आप दोनों भाईबहन की सेवा करती रहती थीं. तब आप को हर चीज में कमी नजर आती थी. अब क्यों नहीं बूआ आ कर आप का खानापीना देखती. अब तो आप की बहन की आंख की किरकिरी भी निकल चुकी है.’

पापा अपने पुत्र के ताने सुनते रहते हैं जिस पर उन्हें गुस्सा भी आता है और पीड़ा भी होती है. अफसोस होता है स्नेहा को अपने पापा की हालत पर. बहन से इतना प्रेम करते हैं कि उसे ऊंचनीच समझा ही नहीं पाते. कभी बूआ से यह नहीं कह पाए कि देखो विजया, तुम यहां पर सही नहीं हो. तुम्हारी अधिकार सीमा इस घर तक नहीं है.

चाची के घर आई है स्नेहा, भाई की शादी पर. इकलौता बच्चा है चाची का जिस की शादी चाची अपने तरीके से करना चाहती हैं. मगर यहां भी बूआ का पूरापूरा दखल जिस का असर उसे चाची के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा है. समझ सकती है स्नेहा चाची के भीतर उठता तनाव. डर लग रहा है उसे कहीं अति तनाव में चाची का हाल भी मां जैसा ही न हो. चाची के साथ काम में हाथ बंटाती रही स्नेहा और साथसाथ चाची का चेहरा भी पढ़ती रही.

दोपहर में जब वह दरजी के यहां से, आने वाली भाभी के कुछ कपड़े ला कर चाची को दिखाने लगी तब चाचा का फोन आया. स्नेहा ने ही उठा लिया, ‘‘जी चाचाजी, कहिए, चाची थोड़ी देर के लिए लेटी हैं, आप मुझे बताइए, क्या काम है?’’

‘‘विजया दीदी से कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’

‘‘उन का फोन आया था, नाराज थीं, कह रही थीं, वह घर गई थी, उस की बड़ी बेइज्जती हुई?’’

‘‘बेइज्जती हुई, बेइज्जती, क्या मतलब?’’

अवाक् रह गई स्नेहा. आगेपीछे देखा उस ने, कहीं चाची सुन तो नहीं रहीं. झट से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और दरवाजा भीतर के बंद कर लिया.

‘‘हां चाचा, बताइए, क्या हुआ, क्या कहा चाची के बारे में बूआ ने? बेइज्जती कैसे हुई, बात क्या हुई?’’

‘‘यह तो उस ने बताया नहीं. बस, इतना ही कहा.’’

‘‘वाह चाचा, आप भी कमाल के हैं. बूआ ने चाबी भरी और आप का बोलना शुरू हो गया पापा की तरह. चाबी के खिलौने हैं क्या आप? 60 साल की उम्र हो गई और अभी तक आप को चाची के स्वभाव का पता ही नहीं चला. बहन से प्रेम कीजिए, मायके में बेटी का सम्मान भी कीजिए मगर अंधे बन कर नहीं. बहन जो दिखाए उसी पर अमल मत करते रहिए,’’ स्नेहा के भीतर का आक्रोश ज्वालामुखी सा फूटा, गला भी रुंध गया, ‘‘हमारी मां भी सारी उम्र पापा को सफाई ही देती रही कि उस ने बूआ की सेवा में कोई कमी नहीं की. मगर पापा कभी खुश नहीं हुए. आज हमारी मां नहीं हैं और पापा अकेले हैं. इस उम्र में आप भी क्या पापा की तरह ही अकेले बुढ़ापा काटना चाहते हैं? आई थी आप की बहन और बहुत अनापशनाप…झूठसच सुना कर गई है. चाची ने जबान तक नहीं खोली. कोई जवाब नहीं दिया कि बात न बढ़ जाए, शादी वाला घर है. उस पर भी नाराजगी और शिकायतें? आखिर बूआ चाहती क्या है? क्या आप का घर भी उजाड़ना चाहती है? आप अपनी बहन की जबान पर लगाम नहीं लगा सकते तो न सही, हम पर तो सवाल मत उठाइए.’’

उस तरफ चुप थे चाचा. कान के साथ लगा था फोन मगर जबान मानो तालू से जा चिपकी थी.

‘‘बूआ से कहिए अपनी इज्जत अपने हाथ में रखे. जगहजगह उसे सवाल बना कर उछालती फिरेगी तो जल्दी ही पैरों में आ गिरेगी. कल को आप की बहू आएगी. यह तो उसे भी टिकने नहीं देगी. चाची और मां में सहनशक्ति थी जो कल भी चुप रहीं और आज भी. हमारी पीढ़ी में तनाव पीने की इतनी क्षमता नहीं है जो सदियोंसदियों बढ़ती ही जाए. बूआ का कभी किसी ने अपमान नहीं किया और अगर हमारा सांस लेना भी उसे पसंद नहीं है तो ठीक है, आप उसे समझा दीजिए, हमारे घर न आए क्योंकि

हम चैन की सांस लेना चाहते हैं.’’

फोन काट दिया स्नेहा ने और धम से पलंग पर बैठ गई. इतना कुछ कह देगी, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. तभी चाची दरवाजा खोल अंदर चली आईं.

‘‘क्या हुआ स्नेहा, किस का फोन था? तेरे ससुराल से किसी का फोन था? वहां सब राजीखुशी है न बेटी? क्या दामादजी का फोन था? नाराज हो रहे हैं क्या?’’

उस का तमतमाया चेहरा देख डर रही थी मीना. शादी से 10-12 दिन पहले ही चली आई थी न स्नेहा चाची की मदद करने को. हो सकता है ससुराल में उन्हें कोई असुविधा हो रही हो. मन डर रहा था मीना का.

‘‘मैं ने कहा था न, मैं अकेली जैसेतैसे सब संभाल लूंगी. तुम इतने दिन पहले आ गईं, उन्हें बुरा लग रहा होगा.’’

‘‘नहीं न, चाची. आप के दामाद ने मुझे खुद भेजा है यहां आप की मदद करने को. आप ही तो हैं हमारी मां की जगह. उन का फोन नहीं था, चाचा का फोन था. बूआ ने शिकायत लगाई है कि तुम ने उस की बेइज्जती की है.’’

क्या है दूध का पाश्चराइजेशन

लेखक- डा. नागेंद्र कुमार त्रिपाठी, वैज्ञानिक, पशुपालन  डा. संजय सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, जमुनाबाद, लखीमपुर

खीरी क्या है दूध का पाश्चराइजेशन आजकल पैकेट वाले दूध का चलन ज्यादा हो गया है. शहर में तो अधिकतर लोग इसी दूध का इस्तेमाल कर रहे हैं. पैकेट वाले दूध को पाश्चराइज्ड मिल्क भी कहते हैं. अधिकतर लोग इसी दूध का सेवन करते हैं पर समय और जगह की कमी के कारण ग्वालों के पास से दूध लाना मुमकिन नहीं हो पाता है,

इसलिए भी लोग आसपास की डेरी से पैकेट मिल्क ले लेते हैं. पर, क्या आप जानते हैं कि पाश्चराइज्ड दूध क्या होता है? इस प्रक्रिया को कैसे किया जाता है? इस के क्या फायदे और नुकसान हैं? होमोजिनाइल्ड दूध क्या होता है? पाश्चराइजेशन दूध क्या है इस तकनीक में दूध को अधिक तापमान पर गरम करने के बाद तेजी से उस को ठंडा कर के पैक किया जाता है. यह प्रक्रिया दूध को लंबे समय तक सही रखती है. साथ ही, यह तकनीक सेहत के लिए हानिकारक बैक्टीरिया को भी खत्म करती है. इसे ऐसे कहा जा सकता है कि इस विधि में तरल पदार्थों को गरम कर के उस के अंदर के सूक्ष्मजीवों जैसे जीवाणु, कवक, विषाणु आदि को नष्ट किया जाता है.

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इस विधि में विसंक्रमित पदार्थ को मामूली तापमान पर एक निश्चित समय तक गरम किया जाता है, जिस से हानिकारक बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं और इस पदार्थ के रासायनिक संगठन में कोई बदलाव भी नहीं होता है. पाश्चराइजेशन कितने तरीकों से किया जाता है होल्डर विधि : इस विधि में दूध को 161 डिगरी फारेनाइट तापमान पर आधे घंटे के लिए गरम किया जाता है और फिर तुरंत 50ष्ट पर ठंडा कर लिया जाता है. यह छोटे पैमाने पर पाथेजिनस को नष्ट करने का तरीका है. उच्च तापक्रम कम समय विधि : इस विधि में दूध को 161 डिगरी फारेनाइट तापमान पर 15 सैकंड के लिए गरम किया जाता है और फिर 40ष्ट पर तुरंत ठंडा कर लिया जाता है.

अधिकतर इसी विधि का इस्तेमाल दूध को पाश्चराइज करने के लिए किया जाता है. इस प्रक्रिया से दूध 2 से 3 हफ्ते तक सही या फ्रैश रहता है. अत्यधिक उच्च तापक्रम विधि : इस विधि में दूध को 275 डिगरी फारेनाइट पर 1 से 2 सैकंड के लिए गरम किया जाता है, जिस से इस की लाइफ 9 महीने तक बढ़ जाती है. अब बात करते हैं कि होमोजिनाइशेन क्या होता है? ये पाश्चराइजेशन विधि के बाद होता है. इस का मुख्य उद्देश्य दूध के अंदर के फैट के अणुओं को तोड़ना, ताकि ये दूध से अलग हो कर पैकेट में ऊपर न आ जाए या फिर दूध में ही रहे. देखा जाए तो यह एक मेकैनिकल प्रक्रिया है, जिस में कोई अलग से कैमिकल वगैरह नहीं मिलाया जाता है. इस से दही, क्रीम यानी डेरी वाले प्रोडक्ट अच्छे से बनते हैं. पाश्चराइज्ड दूध के फायदे और नुकसान पाश्चराइजेशन की प्रक्रिया दूध में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है.

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कच्चे दूध की तुलना में यह दूध की शेल्फ लाइफ को काफी हद तक बढ़ा देता है. पाश्चराइज्ड दूध और पाउडर दूध में कच्चे दूध की तुलना में पोषक तत्त्व कम होते हैं. पाश्चराइजेशन की तकनीक दूध में सभी सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देती है, जैसे कि लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (लैक्टोबैसिलि एसिडोफिलस), जो कि स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल और शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाते हैं. पाश्चराइजेशन दूध एमिनो एसिड को बदल देता है, फैटी एसिड को बढ़ा देता है, विटामिन ए, डी, सी और बी 12 को नष्ट कर देता है, खनिज, कैल्शियम, क्लोराइड, मैग्नीशियम, फास्फोरस, सोडियम और सल्फर, साथ ही कई ट्रेस मिनरल्स को भी कम कर देता है. इस के अलावा कुछ सिंथैटिक विटामिन को भी पाश्चराइज्ड दूध में मिलाया जाता है, क्योंकि दूध के प्राकृतिक एंजाइमों के बिना उसे पचाना मुश्किल होता है.

‘गुम है किसी के प्यार में’ के 100 एपिसोड पूरे, सेट पर ऐसे हुआ जश्न

सीरियल गुम है किसी के प्यार में सीरियल के सितारे इन दिनों जश्न मनाते नजर आ रहे हैं. इस सीरियल में लीड रोल में नजर आ रहे स्टार नील भट्ट ने अपने कोस्टार एश्वर्या शर्मा के साथ सगाई की थी.

इसके साथ ही नील भट्ट को दूबारा जश्न मनाने का मौका मिल गया है. इनके सीरियल के 100 एपिसोड पूरे हो चुके हैं. इस खास दिन को नील भट्ट ने सीरियल के पूरे स्टार कास्ट के साथ मिलकर सेलिब्रेट किया. जिसकी फोटो लगातार सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है.

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100 एपिसोड पूरे होते ही नील भट्ट ने अपनीटीम के साथ मिलकर केक काटा. इस दौरान नील भट्ट अपने को स्टार के साथ मस्ती करते दिखें. जैसे कि आप देख सकते हैं कि नील भट्ट ने अपने को स्टार के साथ बहुत बड़ा केक कट किया. इसे देखकर आपके मुंह में भी पानी आ जाएगा.

वहीं नील भट्ट को अपने चाहने वालों के तरफ से कुछ तोहफे मिलते नजर आ रहे हैं. जिसके साथ नील भट्ट पोज दे रहे हैं. इस दौरान सितारों ने साथ में मिलकर खूब सारी सेल्फी ली. जिसे फैंस खूब पसंद कर रहे हैं.

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आपको बता दें कि यह सीरियल पहले दिन से ही टीआरपी लिस्ट में छाया हुआ है. इसके साथ ही नील भट्ट अपनी मंगेतर एश्वर्या शर्मा के साथ भी तस्वीर क्लिक करवाई.

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जिसमें दोनों बेहद प्यारे लग रहे हैं. बता दें कि इस सीरियल की तारीफ करते फैंस थक नहीं रहे हैं. वहीं लगातार इस टीम को बधाइयां आ रही हैं. जिसमें खूब सारा प्यार फैंस के तरफ से मिल रहा है.

बिग बॉस 14 प्रोमो: निक्की तम्बोली की हरकतों पर भड़के सलमान खान, कहा- भाड़ में जाओ

बिग बॉस 14 में इस बाप वीकेंड का वार घर के कुछ सदस्यों पर भारी पड़ने वाला है. जिनके नाम है निक्की तम्बोली, रुबीना दिलाइक, अभिनव शुक्ला और राखी सावंत. खबर है कि बॉलीवुड स्टार और शो के होस्ट सलमान खान जमकर इन चारों की क्लास लगाने वाले हैं.

इस बात की जानकारी शो के प्रोमो को देखकर अंदाजा लगाया गया है. हालांकि सलमान खान सबसे ज्यादा नाराज निक्की तम्बोली पर होते नजर आ रहे हैं.

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प्रोमो में दिखाया गया है कि सलमा खान निक्की तम्बोली की जमकर क्लास लगाते नजर आ रहे हैं. सलमान खान निक्की तम्बोली की बतमिजियों को देखते हुए पहले तो निक्की को तू कहकर बुलाते हैं लेकिन फिर आप कहने लगते हैं.

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इसके सलमान निक्की पर गुस्सा दिखाते हुए कहते हैं कि आपकी इतनी गलतियों के बाद भी मैं आपको तू नहीं कह पा रहा हूं लेकिन एक आप हो कि अपनी गलती को कम करने का नाम नहीं ले रही हैं. एक बार, दो बार , तीन बार अब भाड़ में जाओ. कहकर सलमान खान घर के अंदर चिल्लाते हैं.

जिसके बाद सलमान खान के गुस्से को देखकर बाकी सभी घरवाले भी शांत हो जाते हैं. वहीं सलमान खान राखी सावंत को एंटरटेनमेंट पैकेज कहते हुए रुबीना दिलाइक और अभिनव शुक्ला को फटकारते नजर आ रहे हैं. अब देखना ये है कि आगे सलमान खान क्या करते हैं. फिर से राखी सावंत को एंटरटेनमेंट का खिताब देते हैं या फिर घरवालों को कोई नया टॉस्क देते हैं. अब ये तो आगे के एपिसोड को देखने के बाद ही पता लग पाएगा.

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फैंस बिग बॉस के इस सीजन को खूब एजॉय करते नजर आ रहे हैं. इस बार का सीजन हर बार से कुछ अलग है. इसमें कई पुराने सदस्यों की भी एंट्री हुई है. हालांकि फैंस को उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जिस दिन बिग बॉस का फिनाले होगा.

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