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आत्ममंथन-भाग 3

आसमान पर काले बादल छाने लगे थे. अचानक अंधेरा सा फैल गया. लोग इस आशंका से भागदौड़ करने लगे कि कहीं घर पहुंचने से पहले ही बारिश न होने लगे.

आज फिर सामने के चबूतरे पर कुछेक लड़के जमा हो कर जुआ खेल रहे हैं. पिछले महीने ही तो सूरज को पुलिस पकड़ कर ले गई थी. उस की मां की मृत्यु हो चुकी थी और उस का बाप दूसरा ब्याह इसलिए नहीं कर रहा था चूंकि उसे डर था कि कहीं सौतेली मां आ कर सूरज के साथ बुरा सुलूक न करे. जब तक उस का बाप नहीं आ जाता तब तक सूरज सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है.

अरे, यह तो सुमित है. यह वहां क्यों बैठा है? क्या वह भी जुआ खेल रहा है? क्या स्कूल में छुट्टी हो गई? तब तो रोहन को भी आ जाना चाहिए था. मैं ने सुमित को आवाज दे कर बुलाना चाहा लेकिन वह मुझे चोर निगाहों से देख कर वहां से खिसक गया.

दो घर छोड़ कर अनुपमा को भी जनून सा सवार हो गया है. कार है, बंगला है फिर भी वह नौकरी पर जाती है. और उस के बच्चे? पूछो मत. सुमित को तो खैर आज ही देख रही हूं गली के इन लड़कों के साथ. लेकिन उस की जवान बेटियां अपने रसोइए के साथ हर समय हंसीठिठोली करती रहती हैं और वह भी सैंडोकट बनियान पहन कर उन लड़कियों से अजीबअजीब हरकतें किया करता है. कभी टांग अड़ा कर राह रोक लेता है तो कभी बांह दबा कर पीठ थपथपा देता है. एकाध बार अनुपमा को समझाया भी है लेकिन वह तो अपनी ही झोंक में कह देती है, ‘अब अगर नौकरी करनी है तो इन सब बातों को भुलाना ही पड़ेगा, वरना घरगृहस्थी कैसे चलेगी?’

भाड़ में जाए ऐसी नौकरी. पहले तो बालबच्चे हैं, घरगृहस्थी है. फिर दूसरे काम. रहा समय काटने का सवाल, तो किताबें पढ़ लो. मैं ने मैगजीन उठा ली और पढ़ने लगी. अचानक मेरी दृष्टि नए व्यंजनों के स्तंभ पर चली गई. शाही  टोस्ट बनाने का तरीका पढ़ कर लगा कि यह तो चुटकियों में बनाया जा सकता है. मैं ने झट चाशनी के लिए गैस चूल्हे पर पानी चढ़ा दिया और ब्रैड के टुकड़े करने लगी.

टेबल पर प्लेट सजाते हुए लगा कि यह भी तो एक काम है. दूसरे के लिए कुछ करने में भी तो एक सुख है. यह चाय की केतली में चाय डाल कर रखना, प्रीतम और रोहन के लिए हलका सा नाश्ता बना कर रखना, फिर उन का इंतजार करना, यह क्या काम नहीं? मैं बेकार कैसे हूं? मैं भी तो काम कर रही हूं.

फटफट की आवाज सुन कर मैं ने बाहर झांक कर देखा, प्रीतम और रोहन दोनों खड़े थे.

‘‘अरे, यह तुम्हें कहां मिल गया?’’

‘‘मुझे उस तरफ थोड़ा काम था. इसलिए सोचा क्यों न लौटते वक्त इसे भी लेता जाऊं.’’

‘‘मां, बहुत भूख लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, आज तो मैं ने तुम्हारे लिए शाही टोस्ट बनाया है.’’

‘‘ओह मम्मी, तुम कितनी अच्छी हो.’’

रोहन मुझ से लिपट गया और मेरे दाएं गाल पर एक चुंबन जड़ दिया. ऐसा लगा जैसे मुझे पारिश्रमिक मिल गया हो.

प्रीतम हाथमुंह धो कर मेज पर आ कर बैठ गया, बोला, ‘‘सुनो, एक बैंक खुल रहा है, जिस में सिर्फ महिलाएं ही काम करेंगी. क्यों न तुम भी अप्लाई कर दो?’’

‘‘अरे, मुझे घर के कामों से फुरसत ही कहां मिलती है जो मैं नौकरी करने जाऊंगी?’’

‘‘समय निकालोगी तो फुरसत भी मिल जाएगी,’’ प्रीतम बोले.

‘‘लेकिन, मैं ऐसे ही ठीक तो हूं.’’

‘‘मैं चाहता हूं तुम बाहर निकलो, नौकरी करो और फिर घरखर्च में भी तो मदद हो जाएगी.’’

प्रीतम की बातें सुन कर पहले तो मैं अवाक रह गई, फिर मन में विचार कौंधा कि यह वही तो है जो मैं चाहती थी. अब जब मुझे मौका मिल ही रहा है तो मैं इनकार क्यों कर रही हूं? नहीं, मुझे मना नहीं करना चाहिए. मेरी कुंठा का समाधान आखिर यह ही तो है.

मैं ने नौकरी के लिए हामी भर दी. मैं ने अगले दिन अप्लाई भी कर दिया. एक हफ्ते बाद इंटरव्यू भी दे आई और नौकरी पक्की भी हो गई. यह मेरे लिए एक स्वप्नभर था. आज भी है. जिस आत्मग्लानि से मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी वह कितनी आसानी से खत्म हो गई. रोहन को समय देना आज भी मेरी पहली प्राथमिकता है लेकिन नौकरी के साथसाथ जिस खुशी से मैं भर जाती हूं वह सारी खुशी, सारा प्यार रोहन पर लुटा देती हूं.

आज मुझे नौकरी करते हुए 2 साल बीत गए हैं पर लगता है जैसे कल ही की तो बात है.

‘टिंगटोंग…’ दरवाजे की घंटी सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई.

‘‘अरे, प्रीतम आप, आज इतनी जल्दी कैसे?’’

‘‘यों ही, सोचा तुम्हें सरप्राइज दिया जाए.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’ मैं ने उत्साहित भाव से पूछा.

‘‘यह लो,’’ कह कर प्रीतम ने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया.

‘‘यह तो किसी फ्लैट का अलौटमैंट लैटर है, पर किस का फ्लैट और कैसा फ्लैट?’’ मैं ने प्रीतम के समक्ष सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘हमारा फ्लैट है. हमें फ्लैट अलौट हुआ है.’’

‘‘कितने में?’’

‘‘50 लाख रुपए में. 10 लाख रुपए मैं ने अग्रिम भर दिए हैं और बाकी रुपए बैंक से लोन ले कर हम दोनों हर महीने ईएमआई में जितने रुपए आएंगे दे दिया करेंगे.’’

‘‘10 लाख? पर तुम्हारे पास कहां से आए?’’

‘‘जब से तुम्हारी नौकरी लगी है घरखर्च तो तुम्हीं उठा रही हो, तो बस, मैं बाकी खर्चे निकाल कर बचतखाते में जमा करता गया. और वैसे भी, तुम और मैं क्या अलग हैं? दोनों का होगा वह फ्लैट, तो दोनों ही खुशी से जीवन निर्वाह करेंगे हक और अधिकार से.’’

‘‘ओह, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर मैं प्रीतम से लिपट गई.

मैं शादीशुदा महिला हूं, यह मेरी दूसरी शादी है, मेरी सास मेरे साथ कलह करती हैं, कभी लगता है कि दूसरी शादी कर के मैं ने भूल की, बताएं मैं क्या करूं?

सवाल
मैं शादीशुदा महिला हूं. शादी को 2 वर्ष हो चुके हैं. यह मेरी दूसरी शादी है. पहले पति से तलाक होने के बाद मैं बहुत दुखी रहती थी. कारण, मायके में कोई नहीं था जो मुझे सहारा देता. ऐसे में मेरे पति ने दोस्त बन कर मुझे संभाला. हमारी दोस्ती कब प्यार में बदल गई पता ही नहीं चला. फिर इन्होंने अपने परिवार वालों से बात कर के मुझ से निकाह कर लिया.

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पहले विवाह से मेरे 2 बेटे हैं, जिन्हें पति ने तलाक के बाद अपने पास रख लिया था. मुझे बेटों की बहुत याद आती है. पति से इस बारे में बात नहीं कर सकती. हर समय परेशान रहती हूं. कभी लगता है कि दूसरी शादी कर के मैं ने भूल की. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब
आप ने बताया नहीं कि पहले पति से आप का तलाक क्यों हुआ वह भी तब जबकि आप 2-2 बेटों की मां बन चुकी थीं. अपनी जिंदगी का इतना बड़ा फैसला करने से पहले आप को अपने बच्चों के बारे में सोचना चाहिए था. पर आप ने अपने स्वार्थ में उन के बारे में तनिक भी विचार नहीं किया. आप को समझना चाहिए था कि संबंध विच्छेद का सब से अधिक खमियाजा बच्चों को भुगतना पड़ता है.

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फिर पति कोई वस्तु नहीं कि पसंद नहीं आया तो बदल लो. विवाह एक समझौता है, जिस में पतिपत्नी दोनों को ही अपनेअपने अहं को छोड़ कर तालमेल बैठाना पड़ता है. खासकर तब जब आप पर बच्चों की जिम्मेदारी होती है. आप की परिस्थिति से लगता है कि आप ने आवेश में आ कर जल्दबाजी में इतना बड़ा कदम उठा लिया और विडंबना देखिए कि दूसरे रिश्ते से भी आप असंतुष्ट हैं.

इस का सीधासीधा अर्थ है कि कमी आप के अपने स्वभाव में है. बेहतर होगा कि रिश्तों को निभाना सीखें. जहां तक अपने बेटों के लिए आप की छटपटाहट है तो वह बेमानी है. उस के लिए आप को पहले सोचना चाहिए था. अब तो संभवतया आप के बच्चे भी आप से मिलना नहीं चाहेंगे और आप के पति और उन के परिवार को भी आप की यह हिमाकत नागवार गुजरेगी.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

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आत्ममंथन-भाग 2

‘अरे, आओआओ, कैसे भूल पड़ी?’’

‘‘आज रात की ड्यूटी है न, इसलिए सोचा कि तुम से मिल लूं.’’

मैं शशि को ले कर अंदर चली आई और उसे बिठाते हुए बोली, ‘‘क्या पियोगी?’’

‘‘कुछ नहीं. अभीअभी खाना खा कर आ रही हूं. अकेले बैठेबैठे बोर हो रही थी. सोचा, तुम्हारे साथ थोड़ी देर गपशप ही कर लूं.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बैठी बोर हो रही थी. कभीकभी आ जाया करो न.’’

‘‘तुम तो कभी आतीं ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी ड्यूटी का तो कुछ पता ही नहीं चलता.’’

‘‘आज से 15 दिन के लिए रात की ड्यूटी है.’’

‘‘फिर तो जरूर आऊंगी,’’ मैं ने कहा.

शशि अस्तपाल में नर्स है. जब भी वह सफेद कपड़ों में सैंडिल ठकठकाती हुई अस्पताल जाती है तो मुझे रश्क सा होने लगता है. सोचती हूं मैं भी फिर से यहां किसी नौकरी पर लग जाऊं.

‘‘तुम क?हां तक पढ़ी हो?’’ शशि ने पूछा.

‘‘बीए तक.’’

‘‘अच्छा, सुना है शादी से पहले तुम नौकरी करती थीं.’’

‘‘हां, लेकिन ज्यों ही मंगनी हुई त्यों ही नौकरी छोड़ दी.’’

‘‘तुम ने खुद छोड़ दी या तुम्हारे पति ने छुड़वा दी?’’

‘‘उन्होंने.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ. वैसे भी तुम्हारे पति ऊंचे पद पर हैं और उन की अच्छीखासी तनख्वाह है. फिर तुम्हें क्या जरूरत है नौकरी करने की.’’

‘‘लेकिन घर पर ही बैठ कर क्या करूं? 3 जनों का खाना ही कितना होता है? कोई न कोई काम हो तो…’’

‘‘जिन के पास दांत हैं उन्हें चने नहीं मिलते और जिन के पास चने हैं उन के दांत नहीं.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘देखो, कभीकभी मैं सोचती हूं कि यह नौकरी छोड़ कर घरगृहस्थी बसा लूं और तुम घरगृहस्थी से हाथ झटक कर नौकरी करना चाहती हो.’’

‘‘तो बसा क्यों नहीं लेती?’’

‘‘तुम शायद नहीं जानतीं कि पिताजी की मृत्यु के बाद घरगृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर आ खड़ा है. मां पढ़ीलिखी हैं नहीं और बाकी सब भाईबहन छोटे हैं.’’

थोड़ी देर तक शशि बैठी, अपनी आगेपीछे की सुनाती रही, फिर उठ कर चली गई.

फड़फड़ की आवाज सुन कर मैं ने आंगन की तरफ दृष्टि दौड़ाई. आंगन में एक कबूतर आ कर बैठ गया था. रोज इसी वक्त आ कर बैठता है. मैं ने उठ कर ज्वार के दाने डाल दिए और एक बरतन में पानी डाल दिया. कबूतर दाने चुग कर और पानी पी कर थोड़ी देर गुटरगूं करता रहा. फिर फुर्र से उड़ गया. उस की उड़ान देख कर मेरी आंखों के आगे शादी से पहले का जीवन साकार हो उठा.

सवेरे जल्दीजल्दी तैयार हो कर नाश्ता करना, फिर लोकल ट्रेन में सफर कर के दफ्तर पहुंचना और कुछेक फाइलें देख कर चायकौफी के बहाने कैंटीन चले जाना, लंच आवर में खाना खा कर अपनी सहेलियों के साथ गौसिप, हंसीठट्ठा करना. शाम को 5 बजते ही दिन कैसे बीत जाता था, कुछ पता ही नहीं चलता था. अब तो पलपल बिताना मुश्किल हो गया है. दसियों बार दीवार घड़ी पर नजर चली जाती है. अब भी मैं ने दीवार घड़ी पर अपनी नजर फेंकी. ढाई बजे थे. प्रीतम के लौटने में अभी 3 घंटे बाकी हैं और रोहन के लौटने में ढाई घंटे.

बारबार जी चाहा, प्रीतम से कह दूं, मैं नहीं रह सकती घर पर इस तरह बेकार हाथ बांधे, मैं नौकरी करूंगी. आने दो प्रीतम को, आज कह कर ही रहूंगी, अब और चारदीवारी में कैद हो कर नहीं रह सकती.

कभीकभी तो प्रीतम के व्यवहार पर मन भिन्न हो उठता है. रुपए मांगो तो पूछ बैठता है, ‘क्यों, क्या खरीदना है? सभी तो ला कर दे देता हूं.’

हर माह वह राशन ला देता है और हर इतवार को सागभाजी. जब भी खरीदारी करनी हो तो साथ चल देता है और कुछ खरीदने लगूं तो कह देता है, ‘अरे, तुम्हारे पास इतनी साडि़यां पड़ी हैं, इतने गहने पड़े हैं, कितने तो सैडिल पड़े हैं. बस, मेरा तो मन यहीं आहत हो उठता है और मैं सोचने लगती हूं कि  कितना बुरा है प्रीतम. जब मुझे कुछ खरीदना हो तभी उसे किफायत सूझती है. काश, मैं खुद कमाती होती और खुद मनचाहा खरीद पाती. तब किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत तो न आती.

कई बार मैं ने कहा, ‘तुम अपनी पूरी तनख्वाह ला कर मुझे दे दो. मैं घर चलाऊंगी.’ मगर वह मानता ही नहीं और मैं तड़प कर पूछ बैठती हूं, ‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? क्या मैं फुजूल खर्च करूंगी.’

‘अरे, नहीं, ऐसी बात नहीं.’

‘तो फिर?’

‘तुम और मैं दोनों अलगअलग हैं क्या?’

‘नहीं तो.’

‘फिर?’

‘ठीक है, मुझे हर माह पौकेट मनी दे दिया करो.’

‘तुम्हें जितना चाहिए, खर्च कर लो. मैं मना तो नहीं करता.’

मगर पता नहीं क्यों मैं कभी उस की जेब में हाथ डाल कर पैसे नहीं निकाल पाई और मेरे पास इतना नहीं रहता कि मैं कुछ मनचाहा खरीद पाऊं. मैं ने शादी के बाद अगर नौकरी कर ली होती तो आज मेरे पास कितने ही रुपए होते. रोहन भी 5 साल का हो गया है. इन 6 सालों में मैं नौकरी कर रही होती तो मेरे पास अपने ही 3-4 लाख रुपए होते. सच, इतने सारे रुपयों का एहसास ही बड़ा आनंददायक लगा और मैं सोचने लगी, फिर तो मैं श्वेता की तरह मोतियों का सैट बनवा लूंगी और गुंजन की पत्नी की तरह हर महीने एक नई साड़ी खरीद लूंगी.

आज आने दो प्रीतम को, मैं उस से कह कर रहूंगी.

अगले भाग में पढ़िए क्या था नौकरी को लेकर उसका आखिरी फैसला…

स्पर्श दंश: सुनंदा सुरेश के आए बदलाव से क्यों परेशान रहने लगी थी

पहले तो सुरेश यही सोचता था कि घर वापस आने के बाद वह उस घटना को भूल जाएगा मगर ऐसा नहीं हो सका था. अपने में आए इस बदलाव पर खुद सुरेश का भी वश नहीं रहा था. एक छोटी सी घटना भी इनसान के जीवन को कैसे बदल सकती है, इस को वह अब महसूस कर रहा था. सुरेश अपनी ही सोच का कैदी हो अपने ही घर में, अपनों के बीच बेगाना और अजनबी बन गया था.

सुनंदा उस में आए बदलाव को पिछले कुछ दिनों से खामोश देख रही थी. आदमी के व्यवहार में अगर तनिक भी बदलाव आए तो सब से पहले उस की पत्नी को ही इस बात का एहसास होता है.

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सुनंदा शायद अभी कुछ दिन और चुप रह कर उस में आए बदलाव का कारण खोजती लेकिन आहत मासूम मानसी की पीड़ा ने उस के सब्र के पैमाने को एकाएक ही छलका दिया.

अपनी बेटी के साथ सुरेश का बेरुखा व्यवहार सुनंदा कब तक चुपचाप देख सकती थी. वह भी उस बेटी के साथ जिस में हमेशा एक पिता के रूप में सुरेश की सारी खुशियां सिमटी रहती थीं.

रविवार की सुबह सुरेश ने मानसी के साथ जरूरत से ज्यादा रूखा और कठोर व्यवहार कर डाला था. वह भी तब जब मानसी ने लाड़ से भर कर अपने पापा से लिपटने की कोशिश की थी.

बेटी का शारीरिक स्पर्श सुरेश को एक दंश जैसा लगा था. उस ने बड़ी बेरुखी से बेटी को यह कहते हुए कि मानसी, तुम अब बड़ी हो गई हो, तुम्हारा यह बचपना अब अच्छा नहीं लगता, अपने से अलग कर दिया था. सुरेश ने बेटी को झिड़कते हुए जिस अंदाज से यह कहा था उस से मानसी सहम गई थी. उस की आंखों में आंसू आ गए थे. साफ लगता था कि सुरेश के व्यवहार से उस को गहरी चोट लगी थी. वह तुरंत ही वहां से चली गई थी.

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बेटी के साथ अपने इस व्यवहार पर सुरेश को बहुत पछतावा हुआ था. वह ऐसा नहीं चाहता था मगर उस से ऐसा हो गया था. तब उस को लगा भी था कि सचमुच व्यवहार पर उस का नियंत्रण नहीं रहा.

सुरेश जानता था कि कई दिनों से खामोश सबकुछ देख रही सुनंदा अब शायद खामोश नहीं रहे. मानसी ने जरूर उस के सामने अपनी पीड़ा जाहिर की होगी.

सुरेश का सोचना गलत नहीं था. रसोई के काम से फारिग हो सुनंदा कमरे में आ गई और आते ही उस ने सुरेश के हाथ में पकड़ा अखबार छीन कर फेंक दिया. वह तैश में थी.

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‘‘इस बार जब से तुम टूर से वापस आए हो तुम को आखिर हो क्या गया है? अगर बिजनेस की कोई परेशानी है तो कहते क्यों नहीं, इस तरह सब से बेरुखी से पेश आने का क्या मतलब?’’

‘‘मैं किस से बेरुखी से पेश आता हूं, पहले यह भी तो पता चले?’’ अनजान बनते हुए सुरेश ने पूछा.

‘‘इतने भी अनजान न बनो,’’ सुनंदा ने कहा, ‘‘जैसे कुछ जानते ही नहीं हो. जानते हो तुम्हारे व्यवहार से दुखी मानसी आज मेरे सामने कितनी रोई है. वह तो यहां तक कह रही थी कि पापा अब पहले वाले पापा नहीं रहे और अब वह तुम से बात नहीं करेगी.’’

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‘‘अगर मानसी ऐसा कह रही है तो जरूर ही मुझ से गलती हुई है. मैं अपनी बेटी को सौरी कह दूंगा. मैं जानता हूं, मेरी बेटी ज्यादा देर तक मुझ से रूठी नहीं रह सकती.’’

‘‘क्या हम दोनों उस के बगैर रह सकते हैं? एक ही तो बेटी है हमारी,’’ सुनंदा ने कहा.

इस पर सुरेश ने पत्नी का हाथ थाम उसे अपने पास बिठा लिया और बोला, ‘‘अच्छा, एक बात बताओ सुनंदा, क्या तुम को ऐसा नहीं लगता कि हमारी नन्ही बेटी अब बड़ी हो गई है?’’

सुरेश की बात को सुन कर सुनंदा हंस पड़ी और कहने लगी, ‘‘जनाब, इस बार आप केवल 10 दिन ही घर से बाहर रहे हैं और इतने दिनों में कोई लड़की जवान नहीं हो जाती. बेटी बड़ी जरूर हो जाती है, पर इतनी बड़ी भी नहीं कि हम उस की शादी की चिंता करने लगें. अगले महीने मानसी केवल 15 साल की होगी. अभी कम से कम 5-6 वर्ष हैं हमारे पास इस बारे में सोचने को.’’

‘‘मैं ने तो यह बात सरसरी तौर पर की थी, तुम तो बहुत दूर तक सोच गईं.’’

‘‘मुझ को जो महसूस हुआ मैं ने कह दिया. वैसे इस तरह की बातें तुम ने पहले कभी की भी नहीं थीं. इस बार जब से टूर से आए हो बदलेबदले से हो. बुरा मत मानना, मैं कोई गिलाशिकवा नहीं कर रही हूं. लेकिन न जाने क्यों मुझ को ऐसा लगने लगा है कि तुम अपनी परेशानियां अब मुझ से छिपाने लगे हो. तुम्हारे मन में जरूर कुछ है, अपनी खीज दूसरों पर उतारने के बजाय बेहतर यही होगा कि मन की बात कह कर अपना बोझ हलका कर लो,’’ सुरेश के कंधे पर हाथ रखते हुए सुनंदा ने कहा.

‘‘तुम को वहम हो गया है, मेरे मन में न कोई परेशानी है और न ही कोई बोझ.’’

‘‘मेरी सौगंध खा कर और आंखों में आंखें डाल कर तो कहो कि तुम को कोई परेशानी नहीं,’’ सुनंदा ने कहा.

उस के ऐसा करने से सुरेश की परेशानी जैसे और भी बढ़ गई. सुनंदा से आंखें न मिला कर उस ने कहा, ‘‘तुम भी कभीकभी बचपना दिखलाती हो. कारोबार में कोई न कोई परेशानी तो हमेशा लगी ही रहती है.’’

‘‘मैं कब कहती हूं कि ऐसा नहीं होता मगर पहले कभी तुम्हारी कोई कारोबारी परेशानी तुम्हारे घरेलू व्यवहार पर हावी नहीं हुई. इस बार तुम्हारी परेशानी का एक सुबूत यह भी है कि तुम अपनी बेटी की फरमाइश पर उस की बार्बी लाना भी भूल गए, वह भी तब जब उस ने मोबाइल से 2 बार तुम को इस के लिए कहा था. एक तो तुम मुंबई से उस की बार्बी नहीं लाए, उस पर उस से इतना रूखा व्यवहार, वह आहत हो रोएगी नहीं तो क्या करेगी?’’

‘बार्बी’ के जिक्र से ही सुरेश के शरीर को जैसे कोई झटका सा लगा. जिस गुनाह के एहसास ने उस को अपनी बेटी से बेगाना बना दिया था उस गुनाह के नागपाश ने एकाएक ही उस के सर्वस्व को जकड़ लिया. सुरेश की मजबूरी यह थी कि वह आपबीती किसी से कह नहीं सकता था. सुनंदा से तो एकदम नहीं, जो शादी के बाद से ही इस भ्रम को पाले हुए है कि उस के जीवन में किसी दूसरी औरत की कोई भूमिका नहीं रही.

सुनंदा ही नहीं दुनिया की बहुत सी औरतें जीवन भर इस विश्वास का दामन थामे रहती हैं कि उन के पति को उस के अलावा किसी दूसरी औरत से शारीरिक सुख का कोई अनुभव नहीं. मर्द इस मामले में चालाक होता है. पत्नी से बेईमानी कर के भी उस की नजरों में पाकसाफ ही बना रहता है.

लेकिन कभीकभी मर्द की बेईमानी और उस का गोपनीय गुनाह कैसे उस के जीवन से उस के अपनों को दूर कर सकता है, सुरेश की कहानी तो यही बतलाती थी.

सुनंदा ने गलत नहीं कहा था. मानसी ने 2 बार मोबाइल से अपने पापा सुरेश से ‘बार्बी’ लाने की बात याद दिलाई थी. लेकिन न तो मानसी इस बात को जानती थी और न ही सुनंदा कि जब दूसरी बार मानसी ने सुरेश से बार्बी लाने की बात की थी तब वह मुंबई में नहीं गोआ में था.

सुरेश बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के पहली बार गोआ गया था और गोआ ने उस के लिए रिश्तों के माने इतने बदल डाले कि वह अपनी बेटी से मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत दूर हो गया था.

मानसी का बचपन बीत गया था पर उस का गुडि़यों के संग्रह का शौक अभी गया नहीं था. मानसी के होश संभालने के बाद से सुरेश जब कभी भी टूर पर जाता था वह अपने पापा से बार्बी की नईनई गुडि़या लाने को कहती थी. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि सुरेश अपनी बेटी की मांगी कोई चीज लाना भूला हो. इस बार भी सुरेश नहीं भूला था. यह अलग बात है कि इस बार उस ने बार्बी मुंबई से नहीं गोआ से खरीदी थी. मगर उसी बार्बी ने सुरेश को बेटी से दूर कर दिया था.

सुनंदा भले ही सुरेश के बारे में कितने भी भ्रम पाले रही हो मगर सच था कि शादी के बाद भी वह जिस्म का कारोबार करने वाली औरतों से यौनसंपर्क बनाता रहा था. ऐसा वह तभी करता था जब वह अपने कारोबार के सिलसिले में घर से बाहर दूसरे शहर में होता था. अगर कभी सुरेश का अपना मन बेईमान न हो तो कारोबारी दोस्तों की बेईमानी में साथी बनना पड़ता था. अब की बार इसी तरह के एक चक्कर में सुरेश के साथ जो घटना घटी थी उस ने उस की अंदर की आत्मा को झकझोर डाला था.

गोआ जाने का सुरेश का कोई कार्यक्रम नहीं था. यह तो सुरेश का मुंबई वाला कारोबारी दोस्त युगल था जिस ने अचानक ही गोआ का कार्यक्रम बना डाला था. युगल बाजारू औरतों का रसिया था और अपनी पत्नी के साथ विवाद के चलते वह चैंबूर इलाके में फ्लैट ले कर अकेले ही रह रहा था.

औरतों की तो मुंबई में भी कोई कमी नहीं थी मगर गोआ में उस के जाने का आकर्षण बालवेश्याएं थीं. 12-13 से ले कर 15-16 साल की उम्र तक की वे लड़कियां जो तन और मन दोनों से ही अभी सेक्स के लायक नहीं थीं. मगर अय्याश तबीयत मर्दों की विकृत सोच इन्हीं में पाशविक आनंद तलाशती है.

गोआ में बालवेश्यावृत्ति के बारे में सुरेश ने भी पढ़ा था. इस को ले कर जब युगल ने सुरेश से बात की तो उस का मन भी ललचा गया था.

सारी रात बस का सफर कर के सुरेश और युगल सुबह गोआ की राजधानी पणजी पहुंचे थे. गोआ सुरेश के लिए नई जगह थी, युगल के लिए नहीं. पणजी में कहां और किस होटल में ठहरना था और क्या करना था यह युगल को मालूम था.

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होटल में लगभग 4 घंटे आराम करने के बाद सुरेश और युगल बाहर घूमने निकले. दोनों गोआ के खूबसूरत बीचों पर घूम कर अपना समय गुजारते रहे क्योंकि उन्हें तो रात होने का इंतजार था.

शाम होटल लौटते समय सुरेश बाजार से मानसी के लिए बार्बी गुडि़या खरीदना नहीं भूला. मुंबई के मुकाबले गोआ में बार्बी थोड़ी महंगी जरूर मिली थी, मगर उस को खरीदने के बाद सुरेश काफी निश्ंिचत हो गया था कि अब घर वापस जाने पर उसे अपनी बेटी की नाराजगी नहीं झेलनी पड़ेगी.

होटल के अपने कमरे में आ कर सुरेश ने मानसी के लिए खरीदी बार्बी को यह सोच कर मेज पर रख दिया था कि यहां से जाते समय वह अपने बैग में जगह बना कर इसे रख लेगा.

पणजी में आ कर युगल ने होटल में एक नहीं 2 कमरे बुक करवाए थे. एक सुरेश के नाम से और दूसरा अपने नाम से. बेशक दोनों पणजी पहुंचने के बाद एक ही कमरे में साथसाथ थे, लेकिन रात को उन दोनों को अलग- अलग कमरे में रहना था.

शाम को होटल में वापस आ कर युगल लगभग 1 घंटा गायब रहा था. उस को रात का इंतजाम जो करना था.

1 घंटे बाद युगल वापस आया और अपने होंठों पर जबान फेरते हुए एक खास अंदाज में बोला, ‘‘सुरेश, सारा इंतजाम हो गया है. रात 11 बजे के बाद लड़की तुम्हारे कमरे में होगी. सुबह होने से पहले तुम्हें उस को फारिग करना है. लड़की के साथ पैसों का कोई लेनदेन नहीं होगा. जो उस को छोड़ने आएगा, पैसे वही लेगा.’’

इस के बाद युगल ने गोआ की मशहूर शराब की बोतल खोली. खाना उन दोनों ने होटल के कमरे में ही मंगवा लिया था. खाना खाने के बाद दोनों ने थोड़ी देर गपशप की. रात के लगभग साढे़ 10 बजे अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देख युगल ने अपनी एक आंख दबाते हुए सुरेश से ‘गुडनाइट’ कहा और अपने नाम से बुक दूसरे कमरे में चला गया.

सवा 11 बजे के आसपास सुरेश के कमरे के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी.

सुरेश के ‘यस, कम इन’ कहने पर एक आदमी अपने साथ एक लड़की लिए कमरे में दाखिल हो गया. लड़की की उम्र 14 साल से ज्यादा नहीं थी. लड़की का कद भी छोटा था और उस के अंग विकास के शुरुआती दौर में थे.

लड़की को कमरे में छोड़ कर वह आदमी सुरेश से 700 रुपए ले कर चला गया. यह उस लड़की की एक रात की कीमत थी.

उस आदमी के जाने के बाद सुरेश ने कमरे की चिटखनी लगा दी थी.

लड़की सिर झुकाए अपनी उंगली के नाखून कुतर रही थी. उस के चेहरे पर किसी तरह की कोई घबराहट नहीं थी. मगर कोई दूसरा भाव भी नहीं था.

इतना तय था कि उसे यह जरूर पता था कि उस के साथ रात भर क्या होने वाला था. मगर उस के साथ जो होना था उस के बारे में शायद उस को पूरा ज्ञान नहीं था. उस की उम्र अभी शायद इन चीजों के बारे में जानने की थी ही नहीं.

सुरेश ने उस का नाम भी पूछा था. नाम से लगता था कि वह क्रिश्चियन थी. मारिया नाम बतलाया था उस ने अपना.

अपने शरीर के निशानों को सहलाने के बाद भी उस की आंखों में मासूमियत बरकरार थी. उस मासूमियत में दम तोड़ते कई सवाल भी थे.

इनसान की जिंदगी में ऐसे कई मौके आते हैं जब वह खुद अपनी ही नजरों में अपने किए पर शर्मिंदा नजर आता है. यही हालत उस वक्त सुरेश की थी.

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कपडे़ पहनने के बाद मारिया कमरे में इधरउधर देखने लगी. फिर उस की भटकती नजरें किसी चीज पर टिक गई थीं.

उसी पल सुरेश ने उस के चेहरे पर बच्चों की निर्दोष और स्वाभाविक ललक देखी.

सुरेश ने देखा, मारिया की नजरें उस बार्बी पर टिकी थीं जोकि उस ने मानसी के लिए खरीदी थी.

वह ज्यादा देर बार्बी को दूर से निहारते नहीं रह सकी थी. उम्र और सोच से वह थी तो एक बच्ची ही. उस ने मामूली सी झिझक के बाद मेज पर रखी बार्बी उठाई और उस को अपने सीने से लगा कर सुरेश को देखते हुए बोली, ‘‘साहब, आप ने जो कहा, रात भर मैं ने वही किया. अगर आप मेरी सेवा से खुश हैं तो बख्शीश में यह गुडि़या मुझे दे दो. मैं कभी किसी गुडि़या से नहीं खेली साहब, क्योंकि कोई भी मुझ को गुडि़या ले कर नहीं देता.’’

मारिया के मुख से निकले ये शब्द किसी कटार की तरह सुरेश के सीने के आरपार हो गए थे. एक पल के लिए उस को ऐसा लगा था कि ‘बार्बी’ को अपने सीने से चिपकाए उस के सामने उस की अपनी बेटी मानसी खड़ी थी…वही मासूम आंखें…मासूम आंखों में वैसी ही ललक, वही अरमान…

उसी रात सुरेश की अपनी नजरों में अपनी ही मौत हो गई थी. वह मौत जिस को किसी दूसरे ने नहीं देखा था. इस गुपचुप मौत के बाद उस में कुछ भी सामान्य नहीं रहा था. अपनी बेटी के शरीर का स्पर्श ही सुरेश के लिए एक ऐसे दंश जैसा बन गया था जिस का दर्द उस से सहन नहीं होता था.

गोआ के एक होटल के कमरे में सुरेश को मारिया नाम की उस लड़की में मानसी नजर आई थी, अब मानसी में उस को मारिया नाम की लड़की की सूरत दिखने लगी थी. वह उन दोनों को अलग करने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहा था.

दूसरी शादी से डर क्यों

हम अपने आसपड़ोस में नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि कितने ही लोग हैं जिन्होंने किसी ना किसी कारणवश अपने जीवनसाथी का साथ छूटने के बाद दूसरी शादी या तीसरी शादी की है. बहुतेरे ऐसे भी मिलेंगे जो पहले साथी की जुदाई के बाद से अभी तक अकेले हैं और दूसरी शादी की उन्हें कोई चाह भी नहीं है. बहुतेरे ऐसे लोग भी हैं जो दूसरी शादी करना तो चाहते हैं, लेकिन पहली शादी के कड़ुवे अनुभवों के चलते आशंकित हैं और हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास पहली शादी से बच्चे हैं और इस कारण वो पुनः शादी की चाह रखते हुए भी अकेले जिए जा रहे हैं. इसके अलावा भी तमाम वजहें हैं जो मध्यमवर्गीय लोगों को दूसरी शादी से डराती हैं. लोग क्या कहेंगे? फिर वही झगड़े-झमेले होने लगे तो क्या होगा? आर्थिक निर्भरता, स्वतन्त्रता, धर्म की बंदिशें बहुतेरे कारण हैं जो इंसान को दूसरी शादी से रोकते हैं. खासकर महिलाओं को.

भारतीय मध्यमवर्गीय समाज में एक बात और गौर करने लायक है. यहाँ दस तलाकशुदा  पुरुषों में से औसतन सात पुरुष दूसरी शादी कर लेते हैं, लेकिन दस तलाकशुदा महिलाओं में से मात्र दो या तीन महिलायें ही पुनर्विवाह करती हैं. अधिकाँश महिलायें दूसरी शादी से डरती हैं और अकेले अथवा मायके में माता-पिता, भाई वगैरा के साथ रहने में ही खुद को सुरक्षित पाती हैं. यह भी देखा गया है कि तलाक होने या पति की मृत्यु हो जाने पर जो महिलायें किसी नौकरी या व्यवसाय से जुड़ कर आत्मनिर्भर हो जाती हैं, वो पुनः शादी करने की इच्छुक नहीं रहतीं. जबकि अधिकाँश पुरुष, चाहे कामकाजी हो या बेरोज़गार, दो या तीन साल से ज़्यादा अकेले नहीं रहते हैं. वे जल्दी ही दूसरा विवाह कर पुरानी यादों को भुला देते हैं. कई महिलायें जिन्होंने ससुराल में प्रताड़ना का दंश झेला है वो तलाक लेने के बाद दुबारा शादी नहीं करना चाहती हैं. उन्हें भय होता है कि कहीं जीवन में दुबारा वही सब ना झेलना पड़ जाए. जिन महिलाओं के साथ बच्चे होते हैं वे इस डर से दूसरी शादी नहीं करतीं कि पता नहीं दूसरा पति उसके बच्चों को एक पिता के सामान प्यार और अपनापन दे पाएगा अथवा नहीं. या बच्चे नए व्यक्ति को पिता मान कर उसके साथ एडजेस्ट कर पाएंगे या नहीं.

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भारतीय समाज में धर्म इंसान को स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीने में सबसे बड़ा बाधक है. खासतौर पर महिलाओं के पैरों में तो धर्म ने इतनी बेड़ियाँ डाल रखी हैं कि वह सारी जिंदगी ना तो खुद फैसले ले पाती है और ना ही जीवन को पूर्णता में जी पाती है. पहली शादी के कटु अनुभवों से गुज़र कर अगर कोई महिला दूसरी शादी करना भी चाहें तो फिर वही सवाल सामने आ खड़े होते हैं कि अपनी बिरादरी में, अपने धर्म, अपनी जाति का, अपने सामाजिक स्तर का कोई लड़का मिले तभी शादी करना. इस खोज में ही लड़की की पूरी जवानी गुज़र जाती है. अगर गैर-धर्म, जाति का कोई युवक उसको अपनी जीवनसंगिनी बनाने को तैयार भी हो जाए, या उसको किसी से प्यार हो जाए और वो उससे शादी करना चाहे तो समाज उसके पैरों में धर्म की बेड़ियाँ डाल देता है और वह मन मार कर रह जाती है.

भारतीय समाज में तलाक होने पर घर-परिवार और समाज इसके लिए ना सिर्फ लड़की को दोषी मानता है, बल्कि उसे दूसरी शादी करने के लिए हतोत्साहित भी करता है. लोग उसको उलाहना देते हैं कि इसकी तो किस्मत ही खराब है, इसके तो लक्षण ही खराब हैं, संस्कार तो कुछ हैं ही नहीं, पति को छोड़ आयी, कुछ तो कमी रही होगी तभी ससुराल में एडजेस्ट नहीं हो पायी, किसी गैर मर्द से चक्कर रहा होगा, अब इस से कौन शादी करेगा, दूसरे का जूठा कोई क्यों खायेगा, आदि, आदि. लेकिन पुरुष अगर तलाक लेता है तो उसको इस प्रकार के तानों-उलाहनों का सामना नहीं करना पड़ता है. उसके हमदर्द उसको यही समझाते हैं कि – अच्छा हुआ उस औरत से तलाक ले लिया, रोज़-रोज़ की झिकझिक से अच्छा है अगल हो जाना, कितनी लड़ाका थी, ना गुण ना संस्कार, कैसे पट-पट जवाब देती थी, बड़ों की इज्जत तक नहीं करती थी, अच्छा हुआ उससे पीछा छूटा, उससे अच्छी तमाम लड़कियां पड़ी हैं दूसरी शादी करो और मौज से रहो. पुरुषों को भारतीय समाज में दूसरी या तीसरी शादी के लिए उकसाया जाता है और दूसरी शादी भी किसी कुंवारी से करने पर ही अधिक जोर दिया जाता है. यही वजह है कि पुरुषों के लिए तलाक के बाद दूसरी शादी करना बहुत सहज होता है, लेकिन महिलाओं के लिए नहीं.

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अब आइये बात करते हैं दूसरी शादी के सम्बन्ध में विदेशी सोच की. विदेशों में दूसरी शादी को लेकर ज़्यादा ‘अगर-मगर’, ‘क्यों-कैसे’, धर्म-जाति, रंग, नस्ल, उम्र और बच्चों के साथ एडजस्मेंट जैसे सवाल नहीं हैं. एक साथी छूटा तो लोग तुरंत अपना अकेलापन दूर करने के लिए दूसरा साथी तलाश लेते हैं. पुनर्विवाह के मामले में विदेशों में स्त्री और पुरुष दोनों की संख्या लगभग सामान है. इसकी मुख्य वजह है स्त्री का पढ़ा-लिखा होना, आत्मनिर्भर होना, आर्थिक रूप से सबल होना और अपने जीवन के फैसले खुद करना. वे अपने जीवन सम्बन्धी निर्णयों के लिए आज़ाद हैं. बच्चे माता या पिता की दूसरी शादी में बाधा नहीं बनते हैं. परिवार और समाज ऐसी शादियों को हेय दृष्टि से नहीं देखता है, पुनर्विवाह या प्रेम की राह में धर्म भी रोड़ा नहीं अटकाता है. विदेशों में तो बुढ़ापे में भी दूसरी शादी कर जिंदगी को भरपूर जीने की ललक देखी जाती हैं जबकि हमारे यहाँ पचास पार हुए नहीं कि पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा, रोज़ा-नमाज़, हज आदि की तरफ इंसान को धकेल कर समझा दिया जाता है कि जिंदगी के मायने तुम्हारे लिए ख़त्म हो गए और अब बस ईश्वर में ध्यान लगाओ और अपना परलोक सुधारो.

विदेश में महिलायें और पुरुष दोनों शिक्षित और आत्मनिर्भर हैं. ऐसे में यदि उनको लगता है कि उनकी आपस में नहीं बन रही है तो वे ऐसी शादी के बोझ को ढोते नहीं हैं. वे तुरंत तलाक ले कर अपनी पसंद के साथी से पुनर्विवाह कर लेते हैं. उनके फैसले की राह में धर्म, समाज, परिवार, बच्चों की ओर से कोई रुकावट नहीं आती है. भारत में उच्च वर्गीय परिवारों और बॉलीवुड में ऐसा चलन देखा जाता है क्योंकि वहाँ स्त्री-पुरुष शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत हैं. मगर मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय लोग खोखले संस्कारों, खोखली इज्जत, खोखले रिवाजों और धर्म के चाबुक खा-खा कर जीवन भर अकेलेपन के दर्द में कराहते रहते हैं.

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दूसरे पति से भी ना बनी तो
दिल्ली लाजपतनगर सेन्ट्रल मार्किट की निवासी नैना भसीन का तलाक हुए सात साल हो चुके हैं. नैना मायके में माँ और भाई के साथ रहती है और अपना ब्यूटी पार्लर चलाती है. नैना हमेशा से अपना व्यवसाय करना चाहती थी. घर के कामों में उनको कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. ससुराल में बूढ़े सास ससुर थे. जिनकी देखभाल के लिए किसी को हर वक्त घर पर रहना होता था. नैना के पति चाहते थे कि वह घर के कामों पर ध्यान दे और उनके माता पिता का ख्याल रखे, लेकिन नैना का बहुत सारा वक़्त घूमने और सहेलियों के साथ गुज़रता था. वह स्वतंत्र प्रवृत्ति की महिला है. घर में दिन भर बंद रहने पर उसको घुटन होती थी. शादी के दो साल भी पूरे नहीं हुए कि नैना का रिश्ता तलाक के मुहाने पर पहुंच गया.

अब तलाक हुए भी सात साल बीत चुके हैं. इस बीच उसके भाई और माँ ने उसके लिए कई रिश्ते देखे, लेकिन नैना दूसरी शादी के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही है. उसके भीतर एक डर है कि कहीं  दूसरा पति भी उसकी काम करने की ललक को ना समझ सका और उससे भी उसकी ना बनी तो क्या होगा? वो चाहती है कि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो उसके काम करने की राह में रुकावट ना बने और उसको घर में रहने को ना कहे. लेकिन ऐसा पुरुष कहाँ मिलता है जो पत्नी पर घर और बच्चों का बोझ ना डाले. इसलिए नैना दोबारा रिस्क नहीं लेना चाहती है. जबकि नैना की माँ को चिंता है कि उनके बाद नैना पहाड़ सा जीवन अकेले कैसे काटेगी. भाई की शादी होने के बाद भाभी के साथ कैसे एडजेस्ट करेगी?

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इसके विपरीत नैना के पति ने तलाक लेने के एक साल के भीतर ही धूमधाम से दूसरा विवाह कर लिया और अब उसके पास दो बच्चे भी हैं.

बच्चे को अपनापन ना मिला तो
कीर्ति नगर दिल्ली में रहने वाली अलका कपूर के पति का दो साल पहले कैंसर के कारण निधन हो गया था. अलका के पास छह साल का बेटा है. ससुराल वालों ने उसके पति के रहते ही उससे नाता तोड़ लिया था. दरअसल वो बेटे के कैंसर का भारीभरकम खर्च नहीं उठाना चाहते थे. अलका के पिता ने उसके पति के इलाज का खर्च उठाया और उनको अपने निवास स्थान के पास ही किराय के मकान में रखा. पति की मौत के बाद अलका और उसके नन्हे बेटे का खर्च भी उसके पिता ही उठा रहे हैं. वो चाहते हैं कि अलका दूसरी शादी कर ले, मगर अलका को यह डर है कि दूसरे पति ने अगर उसके बेटे को प्यार ना दिया तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाएगी. इसके अलावा वो अब दोबारा माँ बनने की भी इच्छुक नहीं है. इसलिए अकेलापन काटने के बावजूद दूसरी शादी की बात पर अक्सर उसकी अपने पिता से बहस हो जाती है.

बच्चे तैयार नहीं होंगे
जमरूदपुर की रेखा का एक टैक्सी ड्राइवर से कई सालों से सम्बन्ध है. रेखा विधवा है. आसपास के घरों में मेड का काम करती है. पहले पति से उसके पास दो बेटियां हैं. एक बेटी दस साल की और दूसरी चौदह साल की. बेटियां स्कूल में होती हैं तो रेखा अपने प्रेमी को घर बुला लेती है. कभी-कभी वो उसके साथ काम के बहाने से बाहर भी जाती है. वो रेखा को पसंद करता है, उससे शादी करना चाहता है. बेटियों की जिम्मेदारी भी उठाने को तैयार है, मगर रेखा शादी नहीं करना चाहती. वो उससे कहती है कि ऐसे ही चलने दो. जब तक चले.

दरअसल रेखा जानती है कि उसकी दोनों बेटियों को उसकी दूसरी शादी पसंद नहीं आएगी. वो दोनों अब भी अपने पिता को याद करती हैं और रोती हैं. वो अपने पिता की जगह किसी दूसरे पुरुष को हरगिज़ नहीं देंगी. रेखा कहती है, ‘मैं अपने मोहल्ले में किसी आदमी से दो मिनट बात कर लूं तो दोनों को नागवार गुज़रता है, दोनों मुझसे लड़ती हैं, मैंने शादी कर ली तो मेरी शक्ल भी ना देखेंगी. मैं ‘उसे’ बहुत चाहती हूँ. उससे शादी भी करना चाहती हूँ मगर बेटियों को मना पाना बहुत मुश्किल है. वो उसको बाप का दर्जा देने के लिए राज़ी नहीं होंगी.

हम आज़ाद ही ठीक हैं
रूपल मेहता और उनकी बहन डिंपल दोनों का तलाक हो चुका है. दोनों बीते पंद्रह सालों से अपनी माँ के साथ रह रही हैं. रूपल जहाँ एक अच्छी पेंटर हैं वहीँ एक मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर भी कार्यरत हैं. उनकी बहन डिंपल कॉमर्स की टीचर हैं और एक अच्छे कॉलेज में कार्यरत हैं. दोनों अच्छा कमाती हैं. खुल कर खर्च करती हैं. आज़ाद पंछी की तरह उड़ती फिरती हैं.

रूपल कहती हैं – शादी ने मानो जकड़ दिया था. ये ना करो, वहां ना जाओ, दिन में मत सो, ये मत खाओ, ये मत पहनो……. हर चीज़ पर सास का हुकुम चलता था. पति भी उसी के इशारे पर नाचता था. वहां मैं जैसे गुलाम हो गयी थी. इसलिए तलाक ले लिया. दूसरी शादी नहीं करनी है. सारे पुरुष एक जैसे ही होते हैं. हम जैसों के लिए ससुराल जेल है. हम आज़ाद ही ठीक हैं.

मेरी कमाई मेरी तो है
वहीँ डिंपल ने अपनी ससुराल में अलग तरह की परेशानी झेली है. डिंपल शादी से पहले से ही कॉलेज में पढ़ा रही थी. शादी से पहले उसकी पूरी तनख्वाह पर उसका हक़ था. माँ को पिता की पेंशन मिलती थी और बहन का अपना काम था. उसका नौकरीपेशा होना उसके ससुरालवालों को खूब पसंद आया था. शादी के बाद जब उसके पति ने उससे कहा कि उसको अपनी हर महीने की कमाई सास के हाथ में रखनी होगी जैसा कि वो भी करता है तो डिंपल को धक्का लगा. कुछ महीने तक तो वो ऐसा करती रही. फिर उसने पाया कि हर छोटी-छोटी ज़रूरत के लिए उसको सास के आगे हाथ फैलाना पड़ता है. कोई सामान ले कर आओ तो पहले सास को पूरा हिसाब दो. उस पर दो-चार बात भी सुनो. कुछ समय बाद उसने सैलरी सास को देनी बंद कर दी. पूछा तो कह दिया कि घर खर्च में कमी हो तो मांग लिया करें. सैलरी मैंने अपने बैंक अकाउंट में जमा कर दी है. फिर क्या था घर में बवाल मच गया.

पहले उसको घर के संस्कार और नियम समझाने की कोशिशें हुईं. फिर पति ने मुँह फुलाना और बात-बात पर नाराज़ होने का नाटक शुरू कर दिया. आये दिन झगड़े होने लगे. सास और देवर ने बात करनी छोड़ दी. कई बार वो कॉलेज से घर लौटती तो किचन में उसके हिस्से का लंच ही नहीं होता. कभी-कभी वो नाश्ता किये बिना ही कॉलेज चली जाती क्योंकि सुबह-सुबह किचन में सास घुसी रहती थी. पानी सिर से ऊपर जाने लगा तो तंग आकर डिंपल अपने मायके आ गयी और वकील से तलाक का नोटिस भिजवा दिया.
तलाक ले कर डिंपल खुश है. कहती है – मेरी मेहनत की कमाई पर मेरा हक़ है. कोई और मेरा पैसा कैसे खर्च कर सकता है? वहां तो मैं बिन पैसे की नौकरानी बनी हुई थी. जो घर में भी काम करे और बाहर से भी कमा कर लाये, लेकिन फिर भी भिखारियों की तरह एक-एक चीज़ के लिए दूसरे के सामने हाथ फैलाये.
दूसरी शादी के नाम पर डिंपल भी मुँह बिचका लेती हैं. कहती है – हम दोनों बहनें ऐसे ही खुश हैं. दोबारा ऐसा झंझट मोल नहीं लेना है.

धर्म अटकाता है रोड़ा
संध्या की उम्र चालीस के पास पहुंच रही है. तलाक हुए दस साल हो गए. दूसरी शादी करके सेटल होना चाहती थी, लेकिन धर्म और जाति के दायरे में आने वाले वर की तलाश में उसके माता पिता ने उसकी पूरी जवानी खराब कर दी. संध्या के लिए शादी की शर्त बस इतनी थी कि कोई उसके जितना पढ़ा लिखा और नौकरीपेशा व्यक्ति मिल जाए, लेकिन उसके माता-पिता और परिवार के अन्य लोगों को संध्या की शर्तों के साथ-साथ एक पक्का शाकाहारी, धनी, धार्मिक तेलगू ब्राह्मण ही चाहिए था. ऐसा लड़का ढूंढते-ढूंढते दस साल निकल गए हैं. कई लड़के थे संध्या के कार्यक्षेत्र में, जो उससे शादी करने के इच्छुक थे, लेकिन किसी गैर-धार्मिक व्यक्ति से विवाह करके वह बूढ़े माँ बाप का दिल नहीं दुखाना चाहती थी. अब इतने सालों में तो उसकी शादी की इच्छा ही दम तोड़ चुकी है. वह बस अपनी नौकरी के सहारे एकाकी जीवन काट रही है.

समाज का दोमुंहापन
भारत में किसी भी महिला की दूसरी शादी, शायद ही कभी धूम-धाम से उस तरह होती है, जिसके लिए भारत मशहूर है. लड़की का दूसरा ब्याह तो हमेशा ही चुपचाप, गिनेचुने लोगों की मौजूदगी में हो जाता है. आपने वो कहावत तो सुनी ही होगी कि, ‘ज़िंदगी में शादी तो बस एक बार होती है.’ ये कहावत भारत में सिर्फ लड़कियों पर लागू होती है.

तेलुगू पार्श्व गायिका और डबिंग कलाकार सुनीता उपाद्रष्टा ने हाल ही में अपने क़रीबी दोस्त राम वीरप्पनन के साथ दूसरी शादी की है. वीरप्पनन एक बिज़नेस मैन हैं. शादी के दिन सुनीता ने बस इतनी सी तैयारी की थी कि अपने बालों में फूल लगाए थे और लाल रंग का ब्लाउज़ पहन लिया था.
क़रीब 42 बरस की उम्र में सुनीता के दूसरी शादी करने की ख़ुशी बहुत से लोगों ने मनाई, पर कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया था. सुनीता ने 19 बरस की उम्र में टीवी प्रोड्यूसर किरण कुमार गोपारागा से पहला विवाह किया था, लेकिन दोनों के बीच तलाक़ हो गया था. दूसरी शादी के मौक़े पर खींची गई तस्वीरों में सुनीता के साथ उनके दो बच्चे – बेटा आकाश और बेटी श्रेया भी बगल में खड़े दिखाई देते हैं. दोनों बच्चे सुनीता की पहली शादी से हैं. सोशल मीडिया पर शेयर की गई ये तस्वीरें किसी भी सामान्य शादी जैसी हैं, लेकिन ये उस समाज के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान करती मालूम होती हैं, जहां मर्दों से कहीं कम औरतें दूसरी शादी करती हैं.

ये कोई नई बहस नहीं है. लेकिन जब भी कोई महिला दूसरी शादी करती है, ज़िंदगी में दूसरी पारी की शुरुआत का जश्न मनाना चाहती है तो समाज उसका साथ नहीं देता है. समाज का ये दोमुँहापन लड़कियों को दूसरी शादी के प्रति हतोत्साहित करता है, उनके भीतर भय उत्पन्न करता है.

क्या कहते हैं आंकड़े 
2016 के भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के मुताबिक़, देश में विधवा, अपने पति से अलग रह रही और तलाक़शुदा महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है. आयु के तमाम वर्गों में ऐसी महिलाओं की अधिक संख्या ये इशारा करती है कि, भारत में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएं दूसरी शादी कम कर रही हैं. 2019 में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि पिछले दो दशकों के दौरान भारत में तलाक़ के मामले दोगुने हो गए हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाओं के बीच तलाक़ के मामले काफ़ी अधिक बढ़ गए हैं. लेकिन इस मुकाबले में महिलाओं की दूसरी शादी का आंकड़ा बहुत कम है.

हमारा समाज बड़ा पोंगापंथी और महिला विरोधी है. किसी भी महिला के लिए दूसरी शादी करके अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से शुरू कर पाना बेहद मुश्किल होता है. शादियों को लेकर समाज मे कई निरर्थक बातें प्रचलन में हैं – जैसे जोड़ियां तो ऊपर से बन कर आती हैं, जन्नत में बनी जोड़ी तोड़ना गुनाह है, पति तो परमेश्वर है, आदि आदि. ऐसे में एक परमेश्वर को छोड़ कर दूसरा ढूंढने में हिचकिचाहट होती है. जब भी बात दूसरी शादी करने की आती है, तो किसी तलाक़शुदा महिला या विधवा के लिए दूसरा साथी तलाश पाना बेहद मुश्किल होता है. ऊपर से उन्हें समाज के दबाव का भी सामना करना पड़ता है.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान तलाक़शुदा महिलाओं की मदद करने वाले कई समूह बने हैं. बहुत सी मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर अब दूसरी शादी के विकल्प उपलब्ध कराए जा रहे हैं. इसके अलावा विवाहेत्तर संबंधों के लिए भी तमाम डेटिंग साइट्स खुल गई हैं. भारत में इनका धंधा बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है. फ्रांस में विकसित किए गए, विवाहेत्तर संबंधों के डेटिंग ऐप ग्लीडीन का कहना है कि कोविड-19 महामारी के दौरान, भारत में उसके सब्सक्राइबर्स की संख्या 13 लाख को पार कर गई है. ग्लीडीन का ये भी कहना है कि पिछले तीन महीने में तो उसके सब्सक्राइबर्स की संख्या में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है.

ग्लीडीन के मुताबिक़, पिछले साल सितंबर, अक्टूबर और नवंबर महीनों में भारत में इसके सब्सक्राइबर्स की संख्या जून, जुलाई और अगस्त की तुलना में लगभग 246 प्रतिशत बढ़ गई है. हालांकि इसमें चीटिंग ज़्यादा हो रही है. लड़कियों के अकेलेपन, भावुकता, जल्दी ही नया साथी पा लेने की हड़बड़ी को अपराधी मानसिकता के लोग भुनाने में लगे हैं. ऑनलाइन डेटिंग साइट्स पर इमोशनल और आर्थिक चोट पहुंचाने के केस आयदिन साइबर क्राइम सेल में दर्ज होते हैं. लेकिन विदेशों में यह गन्दगी नहीं है.

ज्योति प्रभु सत्तर के दशक में जब अपने भाई से मिलने न्यूयॉर्क गई थीं, तो एक खिलंदड़ी किशोरी ही थीं, जिसके लिए दुनिया किसी अजूबे से कम नहीं थी. न्यूयॉर्क में ही उनकी मुलाक़ात अपने भावी पति से हुई. वो कहती हैं कि, ‘शादी के बाद हमारे यहां दो ख़ूबसूरत बेटियां हुईं, जिन्हें हमने अच्छे से पाला-पोसा.’ लेकिन, लगभग तीन दशक की ख़ुशहाल शादीशुदा ज़िंदगी के बाद, उनके पति की मौत दिल का दौरा पड़ने से हो गयी. वो 50-55 बरस के रहे होंगे, जब उनकी मौत हुई.

ज्योति प्रभु कहती हैं, ‘मैंने क़रीब छह साल विधवा के रूप में बिताये. अकेलापन मुझे कचोटता था, तन्हाई भरी शामों की ख़ामोशियां कानों में गूंजती थी, मन गहरे अवसाद में था, किताबों में भी दिल नहीं लगता था. जब कुछ परिचितों ने मुझे एक विधुर व्यक्ति से मिलने का सुझाव दिया, तो मैं राज़ी हो गई.’
उस वक़्त ज्योति अपने पैरों पर खड़ी थी. उन्हें पैसों की कोई कमी नहीं थी, बस एक साथी की कमी उन्हें बहुत खल रही थी.

ज्योति कहती हैं कि, ‘मुझे डिनर के लिए, शो देखने के लिए, घूमने-फिरने और सफ़र के लिए एक साथी की ज़रूरत थी. तो हमने अपनी ज़िंदगी के बाक़ी दिन एक-दूसरे के साथ बिताने का फ़ैसला किया. हम साथ मिलकर ख़ूब मस्ती करते थे. उनके दोनों बेटे और मेरी दो बेटियां बड़े हो गए थे. वो अपनी-अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त थे और अलग रहते थे. इसीलिए हमारे पास एक-दूसरे को तवज्जो देने के लिए पर्याप्त समय था. लेकिन अगर मैं भारत में रह रही होती तो दूसरा साथी पाना मुश्किल था. यहाँ तो बच्चे ताउम्र साथ ही चिपके रहते हैं और माँ बाप को दूसरी शादी की इजाज़त ही नहीं देते. उनको लगता है बुढ़ापे में माँ शादी करेंगे तो समाज उन पर थूकेगा.’

हालांकि आर्थिक आज़ादी के चलते भारत में भी हालात बदल रहे हैं, लेकिन इसकी रफ़्तार बहुत धीमी है. इसका एक पहलू भारत में विरासत के अधिकार का भी है. दूसरी शादी का मतलब, परिवार की संपत्ति का भी हस्तांतरण होता है. बहुत से लोगों को ये मंज़ूर नहीं होता है.

भारतीय क़ानूनों के मुताबिक़, तलाक़ या अलग होने पर पत्नी के आर्थिक अधिकार बेहद सीमित हैं. वो अपने पति से बस गुज़ारा भत्ता लेने का दावा कर सकती है. यही नहीं, भारत में ज़्यादातर शादियां और तलाक़ के मामले तमाम धर्मों के पर्सनल लॉ के हिसाब से तय होते हैं, जिनमे महिलाओं के अधिकार बहुत ही सीमित हैं. तलाक के बाद वे आर्थिक रूप से बदतर हालत में आ जाती हैं और दूसरों पर आश्रित हो जाती हैं. इस वजह से वो ज़िन्दगी अपने आश्रयदाता के घर में एक नौकरानी के तौर पर बिता देती है और दूसरी शादी की इच्छा होने पर भी उस इच्छा को व्यक्त नहीं कर पाती.

जिन महिलाओं के सामने आर्थिक समस्या नहीं है और जो दोबारा शादी करने के फ़ैसले ले रही हैं उनके फ़ैसलों पर भी सामाजिक और पारिवारिक दबाव भारी पड़ जाते हैं. मैट्रिमोनियल वेबसाइट के आंकड़े बताते हैं कि इनके लगभग सत्तर प्रतिशत यूज़र मर्द ही होते हैं जो कुंवारी लड़कियों में ही ज़्यादा इंटरेस्ट लेते हैं. यहाँ भी तलाकशुदा या एकाकी महिला के लिए संभावनाएं बहुत सीमित हैं.

वे बच्चे : हरी बत्ती और लाल बत्ती को लेकर पति-पत्नी क्यों लड़ रहे थे

अब तो लाल बत्ती पर जैसे ही कार रुकी वैसे ही भिखारी और सामान बेचने वाले उन की तरफ लपके. बड़ा मुश्किल हो जाता है इन भिखारियों से पीछा छुड़ाना. जब तक हरी बत्ती न हो जाए, भिखारी आप का पीछा नहीं छोड़ते हैं. इन के साथसाथ हिजड़ों ने भी टै्रफिक सिग्नलों पर कार वालों को परेशान करना शुरू कर दिया है. सब से अधिक परेशान अब संपेरे करते हैं, यदि गलती से खिड़की का शीशा खुला रह जाए तो संपेरे सांप आप की कार के अंदर डाल देते हैं और आप चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं.

‘‘कार का शीशा बंद कर लो,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘गरमी में शीशा बंद करने से घुटन होती है,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘डेश बोर्ड पर रखे सामान पर नजर रखना. भीख मांगने वाले ये छोटे बच्चे आंख बचा कर मोबाइल फोन, पर्स चुरा लेते हैं,’’ मैं ने कहा.

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इतने में एक छोटी सी बच्ची कार के दरवाजे से सट कर खड़ी हो गई और पत्नी से भीख मांगने लगी.

कुछ सोचने के बाद पत्नी ने एक सिक्का निकाल कर उस छोटी सी लड़की को दे दिया. वह लड़की तो चली गई, लेकिन उस के जाने के फौरन बाद एक और छोटा सा लड़का आ टपका और कार से सट कर खड़ा हो गया.

‘‘एक को दो तो दूसरे से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. देखो, इस को कुछ मत देना, नहीं तो तीसरा बच्चा आ जाएगा,’’ मैं बोला.

इसी बीच बत्ती हरी हो गई और कार स्टार्ट कर के मैं आगे बढ़ गया.

‘‘इन छोटेछोटे बच्चों को भीख मांगते देख कर बड़ा दुख होता है. स्कूल जाने की उम्र में पता नहीं इन को क्याक्या करना पड़ता है. इन का तो बचपन ही खराब हो जाता है,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘यह हम सोचते हैं, लेकिन भीख मांगना इन के लिए तो एक बिजनेस की तरह है. रोज इसी सड़क से आफिस जाने के लिए गुजरता हूं, इस लाल बत्ती पर रोज इन्हीं भिखारियों को सुबहशाम देखता हूं. कोई नया भिखारी नजर नहीं आता है. मजे की बात यह कि भिखारी सिर्फ कार वालों से ही भीख मांगते हैं. लाल बत्ती पर कभी इन को स्कूटर, बाइक वालों से भीख मांगते नहीं देखा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘भिखारियों के साथसाथ अब सामान बेचने वालों से भी सावधान रहना पड़ता है.’’

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‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ पत्नी ने कहा, ‘‘कभीकभी तरस आता है.’’

‘‘फायदा क्या इन पर तरस दिखाने का,’’ मैं ने कहा, ‘‘जरा ध्यान रखना, फिर से लाल बत्ती आ गई.’’

‘‘अपनी भाषा कभी नहीं सुधार सकते. लाल, हरी बत्ती क्या होती है. ट्रैफिक सिग्नल नहीं कह सकते क्या,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘फर्क क्या पड़ता है, बत्ती तो लाल और हरी ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैनर्स का फर्क पड़ता है. हमेशा सही बोलना चाहिए. अगर तुम्हें किसी को टै्रफिक सिग्नल पर मिलना हो और तुम उसे लाल बत्ती पर मिलने को कहो और मान लो, टै्रफिक सिग्नल पर हरी बत्ती हो या फिर बत्ती खराब हो तो वह व्यक्ति क्या करेगा? अगली लाल बत्ती पर आप का इंतजार करेगा, जोकि गलत होगा. इसीलिए हमेशा सही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए,’’ पत्नी ने कहा.

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‘‘अब इस बहस को बंद करते हैं. फिर से बत्ती लाल हो गई है.’’

इस बार एक छोटा सा 7-8 साल का बच्चा मेरी तरफ आया.

‘‘अंकल, टायर, एकदम नया है, सिएट, एमआरएफ, लोगे?’’ बच्चा बोला.

मैं चुप रहा.

‘‘एक बार देख लो,’’ बच्चा बोला, ‘‘सस्ता लगा दूंगा.’’

‘‘नहीं लेना,’’ मैं ने कहा.

‘‘एक बार देख तो लो. देखने के पैसे नहीं लगते,’’ बच्चा बोला.

‘‘कितने का देगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मारुति 800 का नया टायर शोरूम में लगभग 1,100 रुपए में मिलेगा. आप के लिए सिर्फ 800 रुपए में,’’ बच्चा बोला.

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‘‘मेरे लिए सस्ता क्यों? टायर चोरी का तो नहीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘हम लोगों की कंपनी में सेटिंग है, इसलिए सस्ते मिल जाते हैं.’’

‘‘एक टायर कितने में लाते हो?’’

‘‘सिर्फ 50 रुपए एक टायर पर कमाते हैं.’’

‘‘50 रुपए में टायर देगा?’’

‘‘नहीं लेना तो मना कर दो, क्यों बेकार में मेरा टाइम खराब कर रहे हो,’’ बच्चा बोला.

‘‘टायर बेचने बेटे तुम आए थे, मैं चल कर तुम्हारे पास नहीं गया था,’’ मैं ने कहा.

‘‘सीधे मना कर दो,’’ बच्चा बोला.

‘‘मना किया तो था, लेकिन फिर भी तुम चिपक गए तो मैं ने सोचा, चलो जब तक लाल बत्ती है तुम्हारे साथ टाइम पास कर लूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘टाइम पास करना है तो आंटी के साथ करो न. मेरा बिजनेस टाइम क्यों खराब कर रहे हो,’’ कह कर बच्चा चला गया.

‘‘बात तो बच्चा सही कह गया,’’ पत्नी बोली, ‘‘मेरे साथ बात नहीं कर सकते थे, टाइम पास करने के लिए वह बच्चा ही मिला था. ऊपर से जलीकटी बातें भी सुना गया.’’

‘‘आ बैल मुझे मार. चुप रहो तो मुसीबत, पीछा ही नहीं छोड़ते और बोलो तो जलीकटी सुना जाते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब टायर लेना नहीं था तो उस के साथ उलझे क्यों?’’ पत्नी ने कहा.

ऐसे ही बातोंबातों में घर आ गया.

दिल्ली शहर की भागदौड़ की जिंदगी में घर और दफ्तर का रुटीन है, इसी में इतनी जल्दी दिन बीत जाता है कि अपनों से भी बात करने का समय निकालना मुश्किल हो जाता है.

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एक दिन आगरा घूमने का कार्यक्रम बना कर सुबह अपनी कार से रवाना हुए. खुशनुमा मौसम और सुबह के समय खाली सड़कें हों तो कार चलाने का आनंद ही निराला हो जाता है.

फरीदाबाद की सीमा समाप्त होते ही खुलाचौड़ा हाइवे और साफसुथरे वातावरण से मन और तन दोनों ही प्रसन्न हो जाते हैं. बीचबीच में छोटेछोटे गांव और कसबों में से गुजरते हुए कोसी पार कर मैं पत्नी से बोला, ‘‘चलो, वृंदावन की लस्सी पी कर आगे चलेंगे. वैसे हम दोनों पहले भी वृंदावन घूमने आ चुके हैं. मंदिरों व भगवान में अपनी कोई रुचि नहीं लेकिन यहां के बाजार में लस्सी पीने अैर भल्लाटिक्की खाने का अलग ही मजा है.’’

कार एक तरफ खड़ी कर इस्कान मंदिर के सामने की दुकान में हम लस्सी पीने के लिए बैठ गए.

लस्सी पी कर बाहर निकले तो पत्नी बोली, ‘‘चलो, अब थकान कम हो गई.’’

कार के पास जा कर जेब से चाबी निकाली और कार का दरवाजा खोलने के लिए चाबी को दरवाजे पर लगाया ही था कि तभी एक छोटा सा बच्चा आ कर दरवाजे से सट कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘अंकल, पैसे.’’

भिखारियों को मैं कभी पैसे नहीं दिया करता पर पता नहीं क्यों उस बच्चे पर मुझे तरस आ गया और जेब से 1 रुपए का सिक्का निकाल कर उस छोटे से बच्चे को दे दिया.

वह तो चला गया लेकिन उस के जाने के बाद पता नहीं कहां से छोटे बच्चों का एक  झुंड आ गया और चारों तरफ से हमें घेर लिया.

‘‘अंकल, पैसे,’’ एक के बाद एक ने कहना शुरू किया.

मैं ने एक बार पत्नी की तरफ देखा, फिर उन बच्चों को.

जी में तो आया कि डांट कर सब को भगा दूं पर जिस तरह बच्चों की भीड़ ने हमें घेर रखा था और लोग तमाशबीन की तरह हमें देख रहे थे, शायद उस से विवश हो कर मेरा हाथ जेब में चला गया और फिर हर बच्चे को 1-1 सिक्का देता गया. किसी बच्चे को 1 रुपए का और किसी को 2 रुपए का सिक्का मिला. किसी के साथ भेदभाव नहीं था. यह इत्तफाक ही था कि जेब में 2 सिक्के रह गए और बच्चे भी 2 ही बचे थे. एक बच्चे को 5 रुपए का सिक्का चला गया और आखिरी वाले को 50 पैसे का सिक्का मिला.

‘‘क्यों, अंकल, उसे 5 रुपए और मुझे 50 पैसे?’’

‘‘जितने सिक्के जेब में थे, खत्म हो गए हैं. और सिक्के नहीं हैं, अब आप जाओ.’’

‘‘ऐसे कैसे चला जाऊं,’’ बच्चे ने अकड़ कर कहा.

‘‘और पैसे मैं नहीं दूंगा. सारे सिक्के खत्म हो गए. तुम कार के दरवाजे से हटो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मतलब ही नहीं बनता यहां से जाने का. फटाफट पैसे निकालो. दूसरे बच्चे दूर चले गए हैं. उन्हें भाग कर पकड़ना है. अपने पास ज्यादा टाइम नहीं है. अंकल, आप के पास पैसे खत्म हो गए हैं तो आंटी के पास होंगे,’’ बच्चे ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आंटी, पर्स से फटाफट पैसे निकालो.’’

मैं और मेरी पत्नी दोनों एकदम अवाक् हो एकदूसरे की शक्ल देखने लगे.

पत्नी ने चुपचाप पर्स से 5 रुपए का सिक्का निकाला और उस बच्चे को दे दिया.

सिक्का पा कर छोटा सा बच्चा जातेजाते कहता गया,  ‘‘इतनी बड़ी कार ले कर घूमते हैं. पैसे देने को 1 घंटा लगा दिया.’’

फटाफट कार में बैठ कर  मैं ने कार स्टार्ट की और अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा.

हम आगरा पहुंचे तो काफी थक चुके थे. पत्नी ने मेरे चेहरे की थकान को देख कर कहा, ‘‘चलो, किसी गेस्ट हाउस में चलते हैं.’’

गेस्ट हाउस के कमरे में बिस्तर पर लेटेलेटे सामने दीवार पर टकटकी लगा कर मुझे सोचते देख पत्नी ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो?’’

‘‘उस छोटे बच्चे की बात मन में बारबार आ रही है. एक तो भीख दो, ऊपर से उन की जलीकटी बातें भी सुनो. सोच रहा हूं कि दया का पात्र मैं हूं या वे बच्चे. दया की भीख मैं उन से मांगूं या उन को भीख दूं. कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि भिखारी कौन है. आखिर सुकून की जिंदगी कब और कहां मिलेगी. कहीं भी चले जाओ, ये भिखारी हर जगह सारा मजा किरकिरा कर देते हैं.’’

‘‘चलो, इस किस्से को अब भूल जाओ और हम दोनों ही प्रतिज्ञा करते हैं कि आज के बाद कभी भी किसी को भीख या दान नहीं देंगे, चाहे वह व्यक्ति कितना ही जरूरतमंद क्यों न हो.’’

‘‘करे कोई, भरे कोई,’’ मेरे मुंह से हठात निकल पड़ा.

‘‘किसी के चेहरे पर लिखा नहीं होता कि वह जरूरतमंद है.’’

‘‘सही बात है. हमें खुद अपनेआप को देखना है. दूसरों की चिंता में अपना आज क्यों खराब करें. अब आराम करते हैं.

अनार की उन्नत उत्पादन तकनीक भाग 2:  कटाई-छंटाई और फलों की तुड़ाई

 

लेखक-दुर्गाशंकर मीना, मूलाराम और मुकुट बिहारी मीना, पिंटू लाल मीना, सहायक कृषि अधिकारी, सरमथुरा, धौलपुर

पिछले अंक में आप ने अनार की उन्नत उत्पादन तकनीक के बारे में पढ़ा की किस तरह से खेती की तैयारी व खाद, बीज और सिंचाई आदि की जानकारी अब आगे पढि़ए.

कटाई और छंटाई

यह वानस्पतिक वृद्धि को नियंत्रित करने एवं पौधे के आकर तथा ढांचे को बनाए रखने की एक आशाजनक तकनीक है. इस विधि का सब से मुख्य फायदा यह है कि सूर्य का प्रकाश पौधे के सभी भागों अथवा पौधे के केंद्र तक आसानी से पहुंचता है, कृषण कार्य जैसे पादप रसायनों का छिड़काव एवं फलों की तुड़ाई भी आसान हो जाती है.

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अनार में संधाई ट्रैनिंग की मुख्य रूप से दो विधियां काम में ली जाती है.

  1. एकल तना विधि : इस विधि में, अनार के पौधे के अन्य शूट हटा कर केवल एक शूट रखा जाता है.
  2. बहु तना विधि : बहु तना विधि में, पौधे के आधर में 3-4 शूट रख कर पौधे को झाड़ीनुमा आकर में बनाए रखा जाता है. यह विधि बहुत लोकप्रिय और किसानों द्वारा व्यवसायिक खेती हेतु अपनाई जाती है, क्योंकि शूट भेदक के आक्रमण का असर कम होता है और बराबर उपज प्राप्त हो जाती?हैं.
  3. अनार की तितली या फल छेदक : यह अनार का एक प्रमुख कीट है जो अनार के विकास शील फलों में छेद कर देता हैं तथा फलों को अंदर से खाता रहता है जिस के कारण फल फफूंद एवं जीवाणु संक्रमण के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाते है.

नियंत्रण : शुरुवाती अवस्था में फलों को पालीथिन बैग से बेगिंग कर के या ढक कर नियंत्रित किया जा सकता है. फास्फोमिडान का 0.03 प्रतिशत या सेविन का 4 ग्राम प्रति लिटर पानी में गोल बना कर छिड़काव कर के भी इस कीट से छुटकारा पाया जा सकता है.

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  1. छाल भक्षक : यह कीट रात्रि को तने की छाल को खाता है. कीट द्वारा बनाए गए छेद इस के मल मूत्र से भरते जाते है जिस के कारण इस के लक्षणों को भी पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है. यह कीट मुख्य तने पर छेद बनता है तथा तने के अंदर सुरंगों का एक जाल बना लेता है, जिस के कारण पौधे की शाखाएं तेज हवा चलने पर टूट जाती हैं.

नियंत्रण : इस कीट के प्रभावी नियंत्रण के लिए, कीट द्वारा बनाए गए छेदों को डीजल अथवा केरोसिन में रूई भिगो कर बंद कर देते है तथा कीट द्वारा बनाए हुए छेद में केरोसिन का तेल भर देते है. आजकल किसानों द्वारा फलों की बैगिंग की जाती है जो फलों की गुणवत्ता में सुधार करती है.

व्याधियां

  1. जीवाणु पत्ती दब्बा रोग या आयली दब्बा रोग : यह रोग जेंथोमोनास औक्सोनोपोडिस पीवी पुनिका नामक रोगकारक के द्वारा फैलता हैं. इस रोग की सब से अधिक समस्या बारिश के मौसम में आती है. इस रोग में पादप के तने, पत्तियां एवं फलों पर छोटे गहरे भूरे रंग के पानी से लथपथ दब्बे बनते हैं. जब संक्रमण अधिक हो जाता है तो फल फटने लग जाते हैं.

नियंत्रण : इस के प्रभावी नियंत्रण के लिए स्ट्रेप्टोमाइसीन 0.5 ग्राम प्रति लिटर और कौपर आक्सीक्लोराइड 2.0 ग्राम प्रति लिटर के हिसाब से मिश्रण कर के छिड़काव करें.

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  1. फल फटना या फल फूटना : यह अनार एक गंभीर दैहिक विकार हैं जो सामान्यतया अनियमित सिंचाई, बोरोन की कमी और दिन अथवा रात के तापमान में अचानक उतारचढ़ाव के कारण होता हैं. इस विकार में फल फट जाते है जिस के कारण फलों का बाजार मूल्य कम हो जाता हैं जिस का सीधा नुकसान उत्पादक को होता है.

नियंत्रण : इस के नियंत्रण के लिए बोरोन का 0.1 फीसदी की दर से और त्र्न३ का 250 पीपीएम की दर से पर्णीय छिड़काव करें. इस के अलावा मृदा में उपयुक्त नमी बनाए रखें. प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें.

  1. सनबर्न : यदि फलों की उचित अवस्था में तुड़ाई नहीं की जाए तो यह विकार भी एक समस्या के तौर पर उबरता है. इस विकार में फलों की ऊपरी सतह पर काले रंग का गोल स्थान दिखाई देता है. यह फलों की सुंदरता व गुणवत्ता दोनों में कमी करता है जिस के कारण फलों का बाजार मूल्य कम हो जाता हैं.

नियंत्रण : फलों की बैगिंग करें.

फलों की तुड़ाई

अनार के फलों की तुड़ाई फूल आने से ले कर फल की परिपक्वता तक 150 से 180 दिनों के बाद शुरू होती हैं. लेकिन यह जीनोटाइप, जलवायु स्थिति एवं उगाने के क्षेत्र पर निर्भर करता है. फलों की तुड़ाई इष्टतम परिपक्व अवस्था पर करनी चाहिए क्योंकि जल्दी जुड़ाई से फल अपरिपक्व और अनुचित पकने लगते है, जबकी देरी से तुड़ाई करने पर विकारों का प्रकोप अधिक होने लगता है, इस प्रकार अनार एक नान क्लाईमैट्रिक (ऐसे फल जिन्हें तोड़ कर नहीं पकाया जा सकता) हैं. जिस से फलों को पकने के बाद एक उचित अवस्था में तोड़ना चाहिए.

फलों की परिपक्वता और तुड़ाई का आकलन करने के लिए अनेक प्रकार के संकेतों का उपयोग किया जाता हैं जैसे कि गहरा गुलाबी रंग फल की सतह पर विकसित होना. गहरे गुलाबी रंग का निशान ज्यादातर उपभोक्ताओं द्वारा पसंद किया जाता हैं. अनार के फलों के तल में स्थित कैलिक्स का अंदर की तरफ मुड़ जाना. एरिल का गहरे लाल या गुलाबी रंग में बदलना. इन निशानों के अतिरिक्त फल ज्यादा नहीं पकने चाहिए. फलों की तुड़ाई स्केटर्स या क्लिपर की मदद से करनी चाहिए क्योंकि फलों को मरोड़ कर खींचने से फलों को नुकसान हो जाता है.

उपज

एक स्वस्थ अनार का पेड़ पहले वर्ष में 12 से 15 प्रति किग्रा पौधा उपज दे सकता है. दूसरे वर्ष से, प्रति पौधे से उपज लगभग 15 से 20 किलोग्राम प्राप्त होती हैं.

तुड़ाई उपरांत प्रबंधन

सफाई और धुलाई : इस विधि में कटाई के बाद, फलों को छांट लिया जाता हैं तथा रोगग्रस्त और फटे हुए फलों को हटा दिया जाता है एवं शेष बचे हुए स्वस्थ फलों को आगे के उपचार के लिए चुन लिया जाता है. छंटाई के बाद, फलों को सोडियम हाइपोक्लोराइट के 100 पीपीएम पानी के घोल से धोना चाहिए. यह उपचार माइक्रोबियल संदूषण को कम करने और लंबी शैल्फ जीवन को बनाए रखने में मदद करता है.

पूर्व ठंडा : यह फलों के भंडारण से पहले एक आवश्यक आपरेशन है, इसलिए यह फलों से प्रक्षेत्र ऊष्मा व महत्त्वपूर्ण गर्मी को हटाने में मदद करता है, जिस के परिणामस्वरूप फलों की शेल्फलाइफ में वृद्धि होती है. अनार के फलों के लिए, मजबूत हवा शीतलन प्रणाली को पूर्व शीतलन के लिए उपयोग किया जाता है. इसलिए इसे 90 प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता के साथ 5शष् तापमान के आसपास बनाए रखा जाना चाहिए.

फलों की ग्रेडिंग : फलों को उन के वजन, आकार और रंग के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है. विभिन्न ग्रेड फल सुपर, किंग, क्वीन और प्रिंस आकार में वर्गीकृत किए जाते हैं. इस के अलावा अनार को और भी दो ग्रेडों में वर्गीकृत किया जाता है- 12ए और 12बी. 12ए ग्रेड के फल आमतौर पर दक्षिणी और उत्तरी क्षेत्र में पसंद किए जाते हैं. ग्रेडेड फल उपभोक्ताओं को आकर्षित करते हैं, जो घरेलू बाजार के साथसाथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अधिक कीमत पाने में मददगार साबित होते हैं. अनार के फल आमतौर पर उन के आकार और वजन के अनुसार वर्गीकृत किए जाते हैं. हालांकि, ग्रेडिंग मानक देश दर देश भिन्न होते हैं. निर्यात उद्देश्य के लिए राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के अनुसार ग्रेड विनिर्देश निम्नानुसार हैं.

अनार की पैकेजिंग : अनार के फल घरेलू और स्थानीय बाजारों के लिए लकड़ी के या प्लास्टिक के  बक्से में पैक किए जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए मुख्य रूप से नालीदार फाइबरबोर्ड बक्से का उपयोग किया जाता है और बाक्स की क्षमता 4 किग्रा या 5 किग्रा होनी चाहिए. ्नत्ररू्नक्त्र्य के विनिर्देशों के अनुसार 4 किलो क्षमता वाले बाक्स का आयाम 375×275×100 मिमी 3 है और 5 किलो के लिए बाक्स 480×300×100 मिमी 3 है.

भंडारण : अनार की शेल्फलाइफ के लिए तापमान सब से महत्त्वपूर्ण कारक है क्योंकि अनार जल्दी खराब होने लग जाते है, इसलिए दीर्घकालिक भंडारण के लिए एक इष्टतम तापमान की आवश्यकता होती है. बहुत कम तापमान फलों में ठंड लगने की चोट को प्रेरित कर सकता है, इसलिए ताजा अनार के फल को भंडारण के लिए एक आदर्श तापमान 5 डिगरी से 6 डिगरी और 90 से 95 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता में भंडारित किया जाता है. इस तापमान पर, अनार के फल 3 महीने तक संग्रहीत रखे जा सकते हैं.

विपणन

घरेलू बाजारों में अनार के फल 60 से 80 प्रति किग्रा फलों की थोक दर पर बिक्री कर सकते हैं जबकि दूर के बाजार में इस की कीमत 90 से 150 रुपए तक होती है.

बंदिशो के बीच लोकतंत्र की बात: किलेबंदी, तारबंदी और सड़कबंदी

4 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौराचौरी नामक दो गांवो के क्रांतिकारियों ने पुलिस चौकी में आग लगा दी थी. जिसमें 22 पुलिसकर्मियो की जिंदा जल कर मौत हो गई थी. हिंसा की इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन को रोक दिया था. अंग्रेजी हुकुमत ने 222 लोगों को आरोपी बनाया था. 19 लोगों को 2 जुलाई 1923 फांसी दे दी गई थी. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार 4 फरवरी 2021 से पूरे साल चौराचौरी क्रांति को लेकर शताब्दी साल मना रही है. जिसका वचुअल उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 4 फरवरी 2021 को किया. इसका उद्घाटन करते हुये प्रधानमंत्री ने किसानों और लोकतंत्र के महत्व पर चर्चा करते कहा ‘चौराचौरी आंदोलन में किसानों की भूमिका बडी थी. क्रांति से जुडे लोग अलगअलग गांव और पृष्ठभूमि से थे. लेकिन वह मिलकर मां भारती की संतान थे. सामूहिकता का शक्ति से ही गुलामी की बेड़िया तोड़ी गई.’

प्रधानमंत्री ने किसानों का जिक्र किसान आंदोलन को देखते हुये खास मकसद से किया था. प्रधानमंत्री के इस भाषण पर टिप्पणी करते समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा ‘ चौराचौरी जनाक्रोश से सबक लेते हुये प्रधानमंत्री को आंदोलनकरी किसानों की बात को मान लेना चाहिये. कृषि कानून वापस लेने के साथ ही साथ बाकी मांगे भी मान लेनी चाहिये. देश का किसान महीनो आंदोलित है. वह ठंड में अपने साथियों को खाने के बाद भी खेती बचाने में जुटा है. सरकार उनकी मांग को नहीं मान रही. सरकार को संविधान का सम्मान करना चाहिये. लोकतंत्र में किसानों के साथ न्याय सर्वोपरि स्थान रखता है. किसानों के प्रति क्रूरता और जनाक्रोश से देश और समाज में असंतोष पनप रहा है.‘

लोकतंत्र की बात और किसानो पर आघात:

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने ‘ चौराचौरी कांड’ का नाम बदल कर ‘ चौराचौरी जनाक्रोश’ रखा. इसको लेकर शताब्दी साल मनाने की शुरूआत भी की. चौराचौरी जनआंदोलन का महिमामंडन करने वाली सरकार किसानों के आंदोलन को खत्म करने के लिये पुलिस और प्रशासन के जबरिया बल का सहयोग लेकर दमनात्मक काम कर रही है. एक तरफ ‘ चौराचौरी जनाक्रोश’ में किसानों की भूमिका की तारीफ की जा रही तो दूसरी तरफ आजाद भारत में अपने ही देश के किसानों को दबाने के लिये सडको पर कीलें, कटीले तार, खांई, कंक्रीट की दीवार बनाने जैसे काम किये जा रहे. किसानों को दबाने में लगी सरकार को पता है कि जो किसान अंग्रेजों के जुल्म के आगे नही झुका वह देषी अफसरों के दमन के आगे कैसे झुक सकता है ?

किसानों के सामने सबसे बड़ी बाड़ लगाने का काम उत्तर प्रदेश और दिल्ली के गाजीपुर बार्डर पर किया गया है. जहां सरकार साल भर ‘ चौराचौरी जनाक्रोश’ पर लोगो के बीच कार्यक्रम कर लोकतंत्र, सविधान और आजादी के महत्व को बताने का काम करने जा रही. किसानों को रोकने के लिये गाजीपुर बार्डर पर 23 और एक्सप्रेस वे पर 18 स्तरीय बैरीकेटिंग की गई है. तीन बाड कटीली तारों की लगाई गई है. इसी तरह से सिधू बार्डर पर 10 स्तरीय बैरीकेटिंग की गई है. लोहे की बैरीकेटिंग को पूरी तरह से कटीली तारों से ढक दिया गया है. कीले जडी प्लेटे भी लगाई गई है. टीकरी बार्डर पर भी 10 स्तरीय बैरीकेटिंग की गई है. यहां पर पत्थर वाले बैरिकेट लगाने के साथ ही साथ मिटटी से भरे डंपर भी लगाये गये है. यह पूरी व्यवस्था देखकर लगता है कि यह बार्डर चीन और पाकिस्तान का है.

अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर बादल ने कहा कि 13 लेयर की बैरीकेटिंग पाकिस्तान की सीमा पर भी नहीं है. दिल्ली की सीमा पर 3 किलोमीटर तक बैरीकेटिंग लगी हुई है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार किसानों के साथ कैसे व्यवहार कर रही है. सांसद हरसिमरत कौर बादल को किसानों से मिलने नहीं दिया गया.

महापंचायतों पर नकेल:
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपने असफसरों को साफ संकेत दिया है कि प्रदेश में जहां भी किसान धरने पर बैठे है उनको खत्म कराया जाये. इसके बाद पुलिस ने मथुरा और बडौत में धरना दे रहे किसानों को वहां से हटा दिया. पष्चिम उत्तर प्रदेष और हरियाणा की खाप पंचायतों के किसानों के समर्थन में आने के बाद प्रदेष सरकार खाप पंचायतों के आयोजन की अनुमति नहीं दे रही है. षामली जिले के भैंसावल गांव में किसान महापंचायत की अनुमति नहीं दी गई. भैंसावल गांव में 36 अलग अलग बिरादरी के लोग इसमें षामिल हो रहे थे. किसानों का समर्थन देने के लिये जब से खाप पंचायतें सामने आई है किसानों की ताकत बढ गई है. हरियाणा के जींद में 50 खापों की एक संयुक्त खाप पंचायत होने के बाद सरकार ने अब ऐसे आयोजन की अनुमति बंद कर दी है.

सरकार की योजना यह है कि किसानों को बैरीकेटिंग के अंदर किसानों को घेर दिया जाय. वहां से बाहर उनको आने ना दिया जाय. किसानों की बाहर से मिलने वाली मदद को रोक दिया जाये. जिससे वह धीरेधीरे थक जाये और तब धरना को खत्म कराया जाये. सरकार किसानों से बात करने के लिये तैयार होने का दिखावा कर रही. प्रधानमंत्री ने कहा कि वह और किसान एक फोन काल की दूरी पर है. प्रशासन इस रणनीति में है कि किसानों को घेर कर उनके दायरे को समेट दिया जाये. ठीक इसी तरह से दिल्ली के शाहीनबाग में नागरिकता कानून का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों के साथ किया गया था.

किसान आन्दोलनके साथ भी शाहीनबाग फार्मूला’ :
नागरिकता कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीनबाग में जब आन्दोलन कर रहे लोगों पर पुलसिया जुर्म हो रहा था तो केन्द्र सरकार के समर्थक यह मान रहे थे कि सरकार अपने लोगों के साथ ऐसे दमनात्मक काम नहीं करेगी. ‘कृषि कानूनो’ के खिलाफ जब किसान आन्दोलन करने के लिये सडको पर आये तो उनके साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया गया जैसा शाहीनबाग में आन्दोलन करने वालों के साथ किया जा रहा था. जैसे जैसे किसान आन्दोलन आगे बढा सरकार की सख्ती और भी तेज हो गई. 26 जनवरी के पहले किसानों को केवल हाईवे पर रोका गया था. 26 जनवरी को लाल किले पर झंडा फहराने की घटना के बाद किसानों के साथ शाहीनबाग के आन्दोलनकारियों से भी सख्त व्यवहार किया जाने लगा.

राष्ट्रीय लोकदल के नेता ओंकार सिंह कहते है ‘देश के इतिहास में पहली बार किसान आन्दोलन को दबाने के लिये युद्व के मैदान जैसे हालात बना दिये गये है. सडके खोद का दीवारे बना दी गई. तार लगा दिये गये. वैरीकेटिंग कर दी गई. पानी बिजली बंद हो गया. मीडिया को वहां जाने से रोका जाने लगा. सुरक्षा के लिये सडको पर विभिन्न तरह की नुकीली कीलें लगाई गई. जिन लोगों ने भी किसानों के पक्ष में बोलने के लिये साहस किया उसका उत्पीडन भी शुरू कर दिया गया. इससे काफी कम काम शाहीनबाग में किया गया था. जो लोग आज भी यह सोंच रहे कि यह केवल किसान आन्दोलन को रोकने के लिये सरकार ऐसी संख्ती कर रही है वह गलत सोंच रहे है. एक बार आन्दोलन को रोकने के लिये सरकार जिस स्तर पर पहंुच जाती है अगली बार उससे अधिक स्तर पर जाती है.‘

ओंकार सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति के समय से सरकार के ऐसे दमन करने वाले प्रयासों को देख रहे है. वह कहते है ‘पहले लाठी चार्ज ही बड़ी बात होती थी. इसके बाद आंसू गोले, फायरिंग को शामिल किया गया. रस्सी और बल्ली से बैरीकेटिंग की जाती थी. किसान आन्दोलन में मसला किलेबंदी और तारबंदी तक पहुंच गया. पहली बार सडको पर दीवार और सडको के नीचे खांई खोद दी गई. सरकार हर बार कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो जाती है.

आसान नहीं है टिकैत को पछाड़ना:
किसान आन्दोलन में पंजाब और हरियाणा के किसानो खालिस्तान से जोडना सरल था. जबसे किसान आन्दोलन की कमान उत्तर प्रदेश के किसान नेता चौधरी राकेश टिकैत और उनके भाई नरेश टिकैत ने संभाली है भाजपा के लिये मुश्किल दौर शुरू हो गया. टिकैत परिवार का साथ देने के लिये खाप पंचायतें जुटने लगी. भाजपा से नाराज चल रहा मुसलिम भी उसके साथ खडा हो गया है. जाट और मुसलिम पष्चिम उत्तर प्रदेष के साथ ही साथ हरियाणा के भी कुछ इलाकों में अपना असर रखता है. उत्तर प्रदेश की ‘योगी सरकार’ टिकैत की ताकत का सही आकलन नहीं कर पाई. भारतीय किसान यूनियन के लिये ऐसे आन्दोलन कोई बडी बात नहीं है. भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत और उनके छोटे भाई राकेश टिकैत के पिता महेन्द्र सिंह टिकैत इससे भी बडे आंदोलनों का नेतृत्व कर सरकारों को चुनौती देने का काम करते रहे हैं.

2007 में मायावती सरकार के समय बिजनौर में किसानों की एक रैली में किसान यूनियन के अध्यक्ष महेन्द्र सिंह टिकेत ने मायावती पर कथित तौर पर जातिसूचक टिप्पणी कर दी. इससे नाराज मुख्यमंत्री मायावती ने महेन्द्र सिंह टिकैत की गिरफ्तारी के आदेश दिए. चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद पुलिस उनको गिरफ्तार करने के लिए उनके गांव सिसौली पहुंच गयी.

किसानों को जब इस बात की जानकारी हुई तो सभी ने पूरे गांव को घेर लिया और कह दिया ‘बाबा को गिरफ्तार नही होने देगें.’ पुलिस के खिलाफ किसानों ने ट्रैक्टर और ट्राली से पूरे गांव को घेर लिया था. पुलिस गांव में तीन दिन तक घुस ही नहीं पाई. भारतीय किसान यूनियन ने मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह के समय एक बड़ा आंदोलन किया था. शामली के करमूखेड़ी बिजलीघर पर उनके नेतृत्व में किसानों ने अपनी मांगों को लेकर चार दिन का धरना दिया था. चैधरी महेन्द्र टिकैत की अगुवाई पर 1 मार्च, 1987 को करमूखेड़ी में ही प्रदर्शन के लिए गए. किसानों को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी. जिसमें एक किसान की मौत हो गयी. इसके बाद भाकियू के विरोध के चलते तत्कालीन यूपी के सीएम वीर बहादुर सिंह को करमूखेड़ी की घटना पर अफसोस दर्ज कराने के लिए सिसौली आना पड़ा था.

1988 में नई दिल्ली के वोट क्लब पर हुई किसान पंचायत में किसानों के राष्ट्रीय मुद्दे उठाए गए और 14 राज्यों के किसान नेताओं ने चैधरी टिकैत की नेतृत्व क्षमता में विश्वास जताया. अलीगढ़ के खैर में पुलिस अत्याचार के खिलाफ आंदोलन और भोपा मुजफ्फरनगर में नईमा अपहरण कांड को लेकर चले ऐतिहासिक धरने से भाकियू एक शक्तिशाली अराजनैतिक संगठन बन कर उभरा. किसानों ने चैधरी महेन्द्र सिंह टिकैत को किसान ‘महात्मा टिकैत’ और ‘बाबा टिकैत’ नाम दिया. चैधरी टिकैत ने देश के किसान आंदोलनों को मजबूत बनाने में जो भूमिका निभाई उसी राह पर उनके दोनो बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत चल रहे हैं. कृषि कानूनों के खिलाफ जब किसानों ने आन्दोलन षुरू किया तो उसकी अगुवाई राकेश टिकैत ने षुरू किया. जब सरकार ने उनको जबरन धरना देने से रोका तो वह रोने लगे उनके आंसु देखकर किसान गुस्से में आ गये और उनके समर्थन में धरना तेज कर दिया. उत्तर प्रदेष के किसानों के आन्दोलन में उतर आने से सरकार मुसीबत में फंस गई है.

नोटबंदीऔर तालाबंदीके बाद किलेबंदी‘:

केन्द्र सरकार की शह पर प्रशासन ने किसान आन्दोलन को पछाडने के लिये सडक पर दीवारें बनाकर लोहे की कीले लगाकर किलेबंदी कर दी. किसानों को समझाते भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा कि जिस तरह किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिये सरकार सडको पर कीलें और लोहे के तार लगाने का काम किया उसी तरह से अंबानी और अडानी के गोदामों तक किसान पहंुच सके तब भी इसी तरह के काम किये जायेगे. राकेश टिकैत ने सरकार को यह भी साफ कर दिया कि अभी किसान कृषि बिल को वापस करने की मांग कर रहे है. अगर आगे सरकार ने बात नहीं मानी तो सरकार को गद्दी से उतारने की मांग भी कर सकती है. इसके राजनीतिक संकेत साफ है कि पष्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा को आने वाले पंचायत और विधानसभा चुनाव में सबक सिखाया जायेगा.

सरकार के लिये शाहीनबाग और किसान आन्दोलन में कोई फर्क नहीं है. जो लोग हिन्दू-मुसलिम की बात कह कर शाहीनबाग के आन्दोलनकारियों को खारिज कर रहे थे वह किसान आन्दोलन के प्रति सरकार की रूख देखकर हतप्रभ है. शाहीनबाग के समय जनता को लग रहा था कि सरकार हिन्दुत्व के एजेंडें के कारण शाहीनबाग के आन्दोलनकारियों पर सख्ती और बदनामी की जा रही अब किसानों के समय वही सब होता देख लोगों को लग रहा कि जो भी सरकार के खिलाफ आवाज उठायेगा उसको ऐसे ही दबाया जायेगा. अमेरिका की पौप स्टार रिहाना और पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने जब किसान आन्दोलन का समर्थन किया तो रिहाना कोे पौप स्टार की जगह पौर्न स्टार तक कह दिया गया. पूरी प्रौपोगंडा टीम वैसा ही व्यवहार कर रही जैसे शाहीनबाग के समय कर रही थी.

सबसे पहले तो किसानों को किसान मानने से इंकार किया. इसके बाद यह भ्रम फैलाया गया कि किसान आन्दोलन पूरे देश की जगह पंजाब, हरियाणा और पष्चिम उत्तर प्रदेष वाले ढाई प्रदेश का है. आन्दोलन करने वाले किसानों को देषद्रोही बताने के साथ ही साथ पाकिस्तान, चीन और खालिस्तान समर्थक बताया गया. किसानों के रहने खाने, कपडे, घडी पहनने, मोबाइल का इस्तेमाल करने और मंहगी कार से चलने पर सवाल उठाये गये. पूरे देश और किसानों को यह समझाने का काम किया गया कि एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य का सबसे अधिक लाभ हरियाणा और पंजाब के बडे किसान लेते है इस कारण यह परेषान है. अब देष भर के किसानों को यह लाभ मिलेगा.

सीएए तरह कृषि कानून वापस नहीं करने की योजना :

किसानों के धार्मिक धुव्रीकरण का प्रयास भी किया गया. इसके तहत यह समझाया गया कि आन्दोलन करने वाले किसान नहीं आढतिया है. आढतियों का साथ उनके यहां काम करने वाले कर्मचारी दे रहे है. किसानों के खाने तक पर सवाल उठाये गयेे. किसान है तो पिज्जा, बर्गर क्यों खा रहे ? लंगर में खाना कैसे बन रहा. इसके बाद भी जब किसान अपनी मांग से पीछे हटने को तैयार नहीं हुये तो किसान संगठनों में फूटडालने का काम किया गया. केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर और गृहमंत्री अमित शाह ने ऐसे किसान नेताओं से बात की जो किसान आन्दोलन का हिस्सा ही नहीं थे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर भाजपा का छोटे से छोटा कार्यकर्ता किसान आन्दोलन के विरोध में बोलने लगे. किसानों को विपक्ष द्वारा गुमराह बताया जाने लगा.

केन्द्र सरकार और भाजपा ने अपने साधनों और प्रचारतंत्र के जरीये यह बताने का काम षुरू किया कि सरकार किसानों और खेती के हित में काम कर रही है. आन्दोलन करने वाले गुमराह और नासमझ है. पूरे देष के किसानों को किसान आन्दोलन के खिलाफ खडा करने के लिये जनसभाएं होने लगी. भाजपा वाले राज्यों की सरकारों ने किसानो के लिये चलाई जा रही सरकारी योजनाओं का प्रचार प्रसार षुरू कर दिया. एक तरह से केन्द्र सरकार ने किसान आन्दोलन को झूठा और भ्रामक साबित करने के लिये हर स्तर पर काम शुरू कर दिया है. यही नहीं सुप्रीम कोर्ट को भी पूरे मामलें में सामने ला खडा किया है.

दिल्ली में ही नागरिकता कानून के खिलाफ जब शाहीन बाग में धरना दिया गया तो उसको बदनाम करने के लिये इसी तरह से काम किये गये थे. आज वही काम किसान आन्दोलन को लेकर किया जा रहा है. सामाजिक कार्यकर्ता और मैग्सेसे अवार्ड विजेता संदीप पांडेय कहते है ‘सरकार अपने विरोध को हर स्तर पर जाकर दबाना चाहती है. यह आवाज जो भी उठायेगा उसके साथ यही सलूक होगा. सरकार ने शाहीनबाग के समय भी तय कर लिया था कि उसे कानून में कोई बदलाव नहीं करना है. सरकार ने किसान आन्दोलन के समय भी यही तय कर रखा है कि उसे कृषि कानूनों को वापस नहीं लेना है. ऐसे में आन्दोलन करने वाले किसानों को बदनाम करने, उनके हौसले को तोडने का काम करना है. सरकार इसी तरह हर आवाज को दबाने का काम करेगी. चाहे भी जो उस आवाज को उठायें.’

अभूतपूर्व किलेबंदी   

मोदी सरकार द्वारा किसानों पर जबरन थोपे जा रहे तीन ने कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन अब सरकार के लिए गले की फांस बनता जा रहा है. 26 जनवरी को दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान लालकिले पर सिखों के पवित्र चिन्ह ‘निशान साहेब’ को फहराने की घटना के बाद जब चारों ओर से आलोचना के स्वर उठे तो आंदोलन से जुड़े किसान गुटों के बीच भी कुछ तनातनी हुई. कुछ किसान नेताओं ने आंदोलन से अपने हाथ खींच लिए और कुछ किसान जो ट्रैक्टर रैली में शामिल होने आये थे वे भी अपने गांवों की ओर लौट गए.

इस दौरान सरकार के इशारे पर पुलिस ने कई किसान नेताओं और लालकिले में उपद्रव में शामिल किसानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली. किसान नेताओं की गिरफ्तारी की आशंका बलवती होने लगी, जिससे दहशत का माहौल बना. दिल्ली की सीमाओं पर बैठे आंदोलनरत किसानों की संख्या कम हुई तो मौक़ा देख कर बचे हुए किसानों को खदेड़ने और भगाने के लिए पुलिस फ़ोर्स आ डटी. किसानों को गिरफ्तारी का डर दिखा कर भगाया जाने लगा. उनके तम्बू उखाड़ दिए गए. उनके चूल्हे तोड़ कर लंगर सेवा ठप्प कर दी गयी. नित्यक्रम के लिए बनाये गए अस्थाई निर्माण ध्वस्त कर दिए गए.

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बिजली, पानी, इंटरनेट सब बंद कर दिया. एक बारगी तो लगा कि अब यह आंदोलन इतिहास बनकर रह जाएगा, लेकिन तभी ऐसी घटना हुई कि किसान आंदोलन चौगुने वेग से फूटा और मोदी सरकार के हाथ-पाँव फूल गए. अगले चार दिनों में दिल्ली किले में तब्दील हो गयी. जबरदस्त किलेबंदी.

अभूतपूर्व किलेबंदी.  
किसान कहीं दिल्ली में ना घुस आएं और यहाँ धरना देकर ना बैठ जाएँ इस आशंका के तहत केंद्र सरकार ने दिल्ली के सारे बॉर्डर इस तरह सील करवा दिए मानों दुश्मन सेना लाव-लश्कर के साथ दिल्ली पर चढ़ी आ रही हो. गाज़ीपुर बॉर्डर, सिंधु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर दिल्ली की हर सीमा पर लोहे के कंटीले तारों को कई-कई लेयर में बाँध दिया गया. सड़कों के बीच खाइयां खोद दी गयीं. उनके पीछे भारी भरकम कंक्रीट बैरियर लगा दिए गए, जिनके बीच सीमेंट भर-भर कर सड़कों पर लोहे की कीलें और नुकीली सरिया गाड़ दी गयीं. ताकि किसान ट्रैक्टर ले कर भीतर आना चाहें तो उनके ट्रैक्टर के टायर फट जाएँ. पतले-संकरे रास्तों पर भी दूर तक कंटीले तारों का जाल बिछा दिया गया.

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बैरिकेडिंग को लोहे के एंगल से फिक्स कर दिया गया. इस तरह नाकेबंदी करके दिल्ली को आने वाले तमाम हाइवे ही बंद नहीं किये गए, हाइवे से सटे गावों को जाने वाली छोटी कच्ची सड़कों को भी कंटीले तारों से बंद कर दिया गया. पुलिस, सीआरपीएफ और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की टुकड़ियां मय हथियार के दिल्ली की सीमा पर ऐसे तैनात हो गयीं हैं जैसे युद्ध का बिगुल बजने वाला है. हैरतअंगेज़ किलेबंदी. अपने ही लोगों से दिल्ली की किलेबंदी. हमारी थालियों में रोटी रखने वालों से ऐसा खौफ! गौरतलब है कि ऐसी किलेबंदी अगर एलएसी पर की जाती तो शायद चीन की हिम्मत ना होती हमारी जमीन की तरफ देखने और वहां घुस कर गाँव बसा लेने की.

इस सम्बन्ध में बसपा प्रमुख मायावती ने भी ट्वीट किया – ‘लाखों आन्दोलित किसान परिवारों में दहशत फैलाने के लिए दिल्ली की सीमाओं पर जो कंटीले तारों व कीलों आदि वाली जबर्दस्त बैरिकेडिंग की गई है, वह उचित नहीं है. इनकी बजाए यदि आतंकियों आदि को रोकने हेतु ऐसी कार्रवाई देश की सीमाओं पर हो तो यह बेहतर होगा.’ आखिर क्यों दिल्ली को किले में तब्दील किया गया? किस डर ने मोदी सरकार को घेर लिया है?

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टिकैत के आंसुओं का सैलाब  
दरअसल लालकिले वाली घटना के बाद किसान आंदोलन बैकफुट पर आ गया था. किसान नेता खुद इस कृत्य के लिए शर्मसार थे और अफ़सोस जता रहे थे. दो किसान गुट तो आंदोलन से अलग भी हो गए. ट्रैक्टर रैली के बाद काफी किसान अपने गाँव की ओर रवाना हो गए थे. पुलिस ने मौक़ा अच्छा देखा और  कुछ कथित ‘स्थानीय लोगों’ (जिनके बारे में बाद में यह सूचना आयी कि वे लोनी के भाजपा विधायक नंद किशोर गुर्जर के लोग थे) के साथ मिल कर सीमा पर बैठे आंदोलनरत किसानों को खदेड़ना शुरू कर दिया. इन लोगों ने वहां किसान विरोधी नारे लगाए. उन्हें उपद्रवी, देशद्रोही और खालिस्तानी कहा.

इस घटना से आहात होकर 28 जनवरी की रात गाज़ीपुर बॉर्डर पर मीडिया के कैमरों के सामने किसान नेता राकेश टिकैत ने रोते हुए किसानों से वापस लौटने की भावनात्मक अपील की और देखते ही देखते किसान आंदोलन ने पलटी मार दी. हज़ारों की संख्या में किसान अपने नेता का विलाप सुन कर रातोंरात बॉर्डर पर लौट आये. एक रात और टिकैत के आंसुओं का सैलाब, इसने न केवल किसान आंदोलन को दोबारा मंच प्रदान कर दिया, बल्कि इसके असर को देशव्यापी बना दिया.

उधर भाई के आंसुओं देख कर बड़े भाई नरेश टिकैत का दिल छलनी हुआ और उन्होंने केंद्र सरकार के इस कृत्य की भर्त्सना करते हुए उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में किसानों की महापंचायत बुला ली. इस महापंचायत में उमड़ें लाखों किसानों ने आंदोलन को ऐसी धार दी, कि सरकार के रोंगटे खड़े हो गए. महापंचायत में किसानों का ऐसा रेला देख कर मोदी सरकार ही नहीं, देश की हर राजनितिक पार्टी भौंचक्की रह गयी. एक ललकार पर इतना बड़ा जनसैलाब! इतनी बड़ी ताकत! इतना बड़ा वोटबैंक! आँखें फटी की फटी रह गयीं.

छह फरवरी की चुनौती
एक तरफ मुजफ्फरनगर में नरेश टिकैत के आह्वान पर महापंचायत में उमड़ पड़ी लाखों किसानों की भीड़ जो दिल्ली कूच की हुंकार भर रही थी तो दूसरी तरफ दिल्ली की सीमा पर राकेश टिकैत के नेतृत्व में बैठे आंदोलनरत किसान. मोदी सरकार डरी कि ये आफत अगर बॉर्डर छोड़ कर दिल्ली के भीतर घुस पड़ी तो क्या होगा? अगर किसान संसद भवन घेर कर बैठ गए तो क्या होगा? सरकार तो बड़ी मुसीबत में फंस जाएगी. बस फिर क्या था, इस डर के चलते देखते ही देखते दिल्ली को किले में तब्दील कर दिया गया.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए पुलिस द्वारा सीमेंट एवं कंटीले तार के अवरोधक बनाए जाने को लेकर केंद्र सरकार पर कटाक्ष किया और कहा कि उसे दीवार की बजाय पुल बनवाने चाहिए.

सटीक कटाक्ष, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर, जो कहते हैं कि कृषि मंत्री किसानों से बस एक फ़ोन कॉल की दूरी पर हैं. किसानों की ओर से छह फरवरी को देश भर में तीन घंटे के लिए चक्का जाम करने का ऐलान हो चुका है. इसके अलावा देश भर में ट्रैक्टर रैली भी निकाली जाएगी.

टिकैत का अक्खड़ मिजाज़  
राकेश टिकैत की तुलना अब उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत से की जा रही है. कहा जा रहा है कि उन्होंने पिता के समान ही अक्खड़ मिजाज़ पाया है, तभी तो जिस गाज़ीपुर बॉर्डर पर पुलिस ने धारा 144 लगा रखी है और वहां किसी के ना फटकने की सूचना लिखे बोर्ड टांग रखे हैं, 2 फ़रवरी को वहीँ लगे बैरिकेट्स और उस सूचना पट के ठीक नीचे ज़मीन पर बैठ कर राकेश टिकैत ने खाना खाया. उनके समर्थकों में से एक ने कहा भी कि ऊपर पुलिस की चेतावनी लिखी है, तो उन्होंने कहा इसीलिए तो यहीं बैठकर खाना है. ये उनकी पुलिस और केंद्र सरकार को चुनौती थी. सोशल मीडिया पर उनके इस अंदाज की काफी चर्चा है. लोग उनके इस अंदाज की उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत के अक्खड़ मिजाज से तुलना कर रहे हैं.

उनकी इस हरकत के बाद सरकार को राकेश टिकैत और नरेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत का 32 साल पहले वाला किसान आंदोलन ज़रूर याद आया होगा, जब उन्होंने दिल्ली में घुस कर दिल्ली को ठप्प कर दिया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को उनकी सारी मांगे मानने को मजबूर होना पड़ा था. महेंद्र सिंह टिकैत एक ऐसे किसान नेता थे जो कभी सरकार की चौखट पर नहीं जाते थे, बल्कि सरकार उसके दर पर आकर खड़ी हो जाती थी. पिता से मिली उसी किसान विरासत को लेकर आज राकेश टिकैत किसान आंदोलनों के अगुवा बन गए हैं.

राकेश टिकैत के अंदाज को देखकर बाबा टिकैत से उनकी तुलना यूं ही नहीं हो रही. महेंद्र सिंह टिकैत का व्यक्तित्व इससे भी कहीं ज्यादा बड़ा था. महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को अपने हक के लिए लड़ना सिखाया था. उनके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाने के लिए साल 1988 के किसान आंदोलन का उदाहरण ही काफी है. महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्‍व में पूरे देश से करीब 5 लाख किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक कब्‍जा कर लिया था. अपनी मांगों को लेकर इस किसान पंचायत में करीब 14 राज्‍यों के किसान आए थे. सात दिनों तक चले इस किसान आंदोलन का इतना व्‍यापक प्रभाव रहा कि तत्‍कालीन कांग्रेस सरकार दबाव में आ गई थी. आखिरकार तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को किसानों की सभी 35 मांगें माननी पड़ीं, तब जाकर किसानों ने अपना धरना खत्‍म किया था.

मोदी सरकार भी अब इस आंदोलन के विशाल रूप को देख कर काँप रही है. उसको डर है कि कहीं इतिहास फिर ना दोहरा दिया जाए इसीलिए वह दिल्ली की किलेबंदी में लगी है. लेकिन किसानों से बातचीत कर रास्ता निकालने की बजाय किलेबंदी करके वह सिर्फ आम नागरिकों को परेशान कर रही है.

बीते दो महीने से किसान दिल्ली की सीमा पर बैठा है मगर आवाजाही में कोई रुकावट नहीं आयी लेकिन मोदी सरकार ने सड़कों पर कील कांटे गड़वा कर रोज काम के लिए दिल्ली आने वालों को भी रोक दिया है. सामान के ट्रक, दूध की सप्लाई हर चीज़ प्रभावित हो रही है.

बढ़ता जा रहा है आंदोलन का दायरा     
अभी तक जिस किसान आंदोलन को महज पंजाब और हरियाणा तक सीमित करके देखा जा रहा था और सिख बिरादरी को ही इसमें प्रमुखता दी जा रही थी, नरेश टिकैत के आह्वान पर मुजफ्फरनगर में हुई महापंचायत के बाद यह दायरा टूट चुका है. अब इस आंदोलन में हर धर्म और जाति का किसान एकजुट है. 3 फरवरी को हरियाणा के जींद में हुई महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत भी शामिल हुए. इन महापंचायतों ने पूरे देश के किसानों को आंदोलित कर दिया है.

विपक्षी दलों की आशा बने टिकैत
राकेश टिकैत के आंसुओं का पंजाब और हरियाणा के किसानों पर हुए व्यापक असर के बाद नरेश टिकैत द्वारा मुजफ्फरनगर में बुलाई गयी महापंचायत में उमड़े लाखो किसानों के सैलाब को देख कर केंद्र सरकार ही चिंतित नहीं है बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार खिसकने की आशंका को लेकर योगी आदित्यनाथ भी भारी टेंशन में हैं. अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं, ऐसे में किसान आंदोलन के चलते वहां भाजपा की जमीन खिसक सकती है. उधर बिखरे हुए विपक्ष को टिकैत के सहारे अपनी राजनितिक जमीन एक बार फिर पाने की उम्मीद बंध गयी है. यही वजह है कि रोज़-ब-रोज किसी ना किसी दल का नेता राकेश टिकैत और नरेश टिकैत से मुलाक़ात करने पहुंच रहा है.

29 जनवरी को गाजीपुर धरना स्थल पर किसानों के उमड़ते सैलाब को देख कर रालोद नेता जयंत चौधरी सबसे पहले टिकैत के पास जाकर बैठ गए. जयंत और आप सांसद संजय सिंह, राकेश के बड़े भाई नरेश टिकैत द्वारा मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत में भी पहुंचे. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी फोन कर राकेश टिकैत का हालचाल पूछा. इससे पहले उसी रात को कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी अपने ट्वीट के जरिए राकेश टिकैत को समर्थन की घोषणा की. उसके बाद उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी टिकैत की बगल में जा बैठे.

हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पुत्र एवं राज्यसभा सांसद दीपेंद्र हुड्डा भी राकेश टिकैत के मंच पर पहुंचे. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी पीछे नहीं रहे. वे भी टिकैत से मिलने के लिए गाजीपुर चले गए. किसान आंदोलन के कुछ प्रमुख साथी जैसे योगेंद्र यादव और दर्शनपाल ने भी धरना स्थल पर पहुंचकर संघर्ष की नई रणनीति का खुलासा किया. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने गाजीपुर बॉर्डर पहुंच भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत से मुलाकात की. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने भी टिकैत से मुलाकात की तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव एवं बसपा प्रमुख मायावती ने भी किसान आंदोलन को अपनी पार्टी का समर्थन दिया.

यही नहीं महाराष्ट्र से शिवसेना के नेता संजय राउत भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सन्देश के साथ टिकैत से मिलने पहुंचे. कुल जमा यह कि महज सात-आठ घंटे में ही राकेश टिकैत को लेकर कई राजनीतिक दलों की समझ बदल गयी और वो टिकैत के पीछे लाइन लगा कर खड़े हो गए. जिस तरह से गाजीपुर में टिकैत के मंच पर विभिन्न पार्टियों के नेताओं का जमावड़ा लगा, उसने इस कहावत को चरितार्थ किया कि – हाथी के पांव में सबका पांव.

मुख्य बात यह है कि टिकैत बंधु अब सिर्फ तीन ने कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर मंच पर नहीं हैं, बल्कि भाजपा को उखाड़ फेंकने का ऐलान करते भी सुने जा रहे हैं. मुजफ्फरनगर की महापंचायत में लाखों किसानो के सामने भारतीय किसान यूनियन के नेता नरेश टिकैत ने भाजपा के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली. उन्होंने कहा कि – ‘भाजपा पर भरोसा करना उनकी बड़ी गलती थी और वह आगे यह गलती नहीं दोहराएंगे.’ टिकैत ने यह भी कहा कि – ‘राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह को हराना उनकी सबसे बड़ी भूल थी.’ महापंचायत में किसान यूनियन और अजित सिंह के बीच घटती दूरी के संकेत से प्रदेश भाजपा का चिंतित होना लाजिमी है.

जेएनयू में समाजशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक डॉ. आनंद कुमार कहते हैं – ‘मौजूदा हालात में विरोधी दलों के पास ताकत नहीं रही. न्यायपालिका पर सवाल उठने लगे हैं. ऐसे में अब आंदोलन की राह ही दिखती है. भाजपा को अहसास तो हो गया है कि इस आंदोलन को समर्थन दे कर भविष्य में विपक्षी दलों के बीच की दूरी घट सकती है.

जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है, वहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियों पर निर्भर करेगा कि वे किसान आंदोलन का सार्थक लाभ उठा सकती हैं या नहीं. इसमें पार्टियों का आचरण एक बड़ी भूमिका अदा करेगा. देखने वाली बात होगी कि वे पार्टियां जरूरत के तौर पर किसानों की तरफ आ रही हैं, या पार्टनर बनकर उनके साथ चलेंगी. इसका बहुत ध्यान रखना होगा. किसानों का मन बहुत साफ है. राजनितिक दलों को भी अगर ये किसान आंदोलन भाजपा के खिलाफ एकजुट करता है तो राजनितिक दलों को धर्म या जातिगत समीकरणों से दूरी बनानी होगी. आज सवाल धर्म या संस्कृति का नहीं है.

सवाल जीवन का है, रोटी का है. ये नहीं है तो बाकी चीजें कहां काम आएंगी. वे तभी काम आ सकती हैं, जब जीवन बचेगा. उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल टिकैत की मार्फत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के किले को भी घेरने के लिए नए समीकरण बनाने में जुटे हुए हैं. बशर्ते वे अनुशासन और साफ मन से किसानों की मदद करें. किसानों के पास मंच का अभाव है, जबकि राजनीतिक दलों के पास लोगों के भरोसे और विश्वास का. अगर इन नए समीकरणों पर प्रभावी तरीके से काम हो जाता है, तो 2022 में भाजपा के फायर ब्रांड मुख्यमंत्री ‘योगी’ को कड़ी टक्कर दी जा सकती है. टिकैत का भाजपा से नाराज होना निश्चिततौर पर भाजपा के जाट वोट बैंक पर बुरा असर डालेगा. आज राकेश टिकैत कई राजनीतिक दलों के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ बन गए हैं. दूसरी बात ये कि संघर्ष जितना कठिन होगा, जीत उतनी ही शानदार होगी.

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