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‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यह अंतर तुम ने स्वयं अपने हाथों गढ़ा है,’’ वीरा अचानक ही जैसे कू्रर हो उठी.

‘‘मैं ने? पर...’’

‘‘हां, दीदी, तुम ने भैया को सदैव रिश्ते की छड़ी से दबाए रखा. उन के कर्तव्यों की तो हमेशा तुम्हें याद रही पर अपने फर्ज की ओर भूल कर भी नहीं देखा. दीदी, तुम यह भूल गईं कि खून के संबंध जन्म से जरूर अपना महत्त्व और मजबूती लिए होते हैं पर कभीकभी बाद में यही संबंध मात्र बोझ बन कर रह जाते हैं, जिन्हें निभाने की बस एक विवशता होती है. अब समय आ गया है कि इस बोझ को हम जानबूझ कर अपनों के कंधों पर न डालें.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है, वीरा? तू कहना चाहती है कि मैं भैया से अपना संबंध...’’ प्रिया का स्वर हैरानी के आरोह को पार कर पाता इस से पहले ही वीरा ने हंस कर उसे पकड़ लिया, ‘‘नहीं, दीदी, भैया से तुम्हारा संबंध अपनी जगह पर है. पर हां, यदि तुम इसी रिश्ते में विवशता की जगह मित्रता का रंग मिला दो तो तुम्हारा संबंध और गहरा हो उठेगा. क्योंकि मित्रता उस पुष्प की भांति है जिस की सुगंध कभी खत्म नहीं होती.

‘‘रिश्ते चुने नहीं जा सकते पर मित्र बनाना हमारे अपने अधिकार में है. रिश्ते हमारे शरीर के साथ जन्म लेते हैं जबकि मित्र हमारा मन स्वयं चुनता है. इसीलिए उन में औपचारिकता नहीं होती, रिश्तों का परंपरागत आडंबर नहीं होता.

‘‘मैं ने भी यही किया है दीदी, औपचारिकता की सारी कडि़यां एक ओर समेट मैं ने भैयाभाभी को अपना मित्र बना लिया है.’’

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