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कोरोनिल से प्रभावित होगा टीकाकरण अभियान

कोरोनिल को लेकर बाबा रामदेव और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के बीच जबरदस्त लड़ाई ठन गयी है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) ने रामदेव की कोरोनिल के क्लीनिकल ट्रायल व उसकी प्रमाणिकता पर तो सवाल उठाए ही हैं, इसके साथ ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के प्रति भी खासी नाराजगी व्यक्त की है, जो दो अन्य केंद्रीय मंत्रियों के साथ हरिद्वार में बाबा की कंपनी पतंजलि द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में आयुर्वेदिक कोरोनिल (जिसके बारे में यह तय ही नहीं है कि वह दवा है या इम्युनिटी बूस्टर) का प्रचार करने पहुंच गए थे.

एसोसिएशन के महासचिव डॉ. जयेश एम लेले का कहना है कि पतंजलि की आयुर्वेदिक दवा को जारी करने के लिए डॉ. हर्षवर्धन सहित दो केंद्रीय मंत्री मौजूद थे. उस कार्यक्रम में यह दावा किया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसे प्रमाणित किया है, जबकि डब्ल्यूएचओ का कोई प्रमाणपत्र चिकित्सा जगत के बीच मौजूद नहीं है. डब्ल्यूएचओ यूं ही किसी दवा को प्रमाण पत्र जारी नहीं करता. उसके लिए कुछ मानक हैं. यह लोगों को बहकाने की दवा है. इससे बीमारी ठीक होने के बजाय और बढ़ेगी. दूसरी बात यह कि डॉ. हर्षवर्धन खुद डाक्टर हैं, इस नाते एमसीआइ में पंजीकृत हैं, इसलिए ड्रग एंड कास्मेटिक एक्ट के तहत किसी दवा को प्रोत्साहित नहीं कर सकते हैं. डॉ. लेले ने कहा कि इस दवा के बारे में दावा किया गया कि यह कोरोना के इलाज के साथ-साथ बचाव में भी कारगर है. ऐसी स्थिति में लोग कोरोना से बचाव के लिए टीका नहीं लेंगे. इससे टीकाकरण अभियान बुरी तरह प्रभावित होगा. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को यह बताना चाहिए कि बाबा रामदेव की दवा का ट्रायल कब और कितने लोगों पर किया गया. ट्रायल का पूरा साक्ष्य लोगों के बीच रखा जाना चाहिए.

आइएमए ने रामदेव और उनकी कंपनी पतंजलि पर भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआइ) के नियमों को तोड़ने का आरोप भी लगाया है और कोरोनिल को लेकर कई सवाल पूछे हैं. आइएमए ने ना सिर्फ कोरोनिल को बहकाने वाली दवा करार दिया है बल्कि साफ़ कहा है कि इससे देश में टीकाकरण अभियान को बहुत नुकसान पहुंचेगा.

गौरतलब है कि बाबा रामदेव और उनके साथी आचार्य बालकृष्ण ने कोरोनिल का प्रचार करते हुए इस पर विश्व स्वस्थ संगठन (डब्लयूएचओ) की सहमति का झूठा ठप्पा लगा दिया था.जब डब्ल्यूएचओ के दक्षिणी पूर्व एशिया क्षेत्रीय कार्यालय ने अपने ट्विटर हैंडल से तीन दिन पहले ट्वीट कर कहा गया कि डब्ल्यूएचओ ने पारंपरिक चिकित्सा पद्धति की किसी भी दवा की समीक्षा नहीं की है और न ही प्रमाणित पत्र ही जारी किया है तो झूठ की लीपापोती के लिए आचार्य बालकृष्ण सामने आये और कहा कि  – “हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि पतंजलि की कोरोनावायरस की दवा कोरोनिल को भारत के दवा नियामक से डब्ल्यूएचओ के गाइडलाइंस के हिसाब से सर्टिफिकेट मिला है.”

स्पष्ट हो गया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस दवा को मंजूर नहीं किया है. रामदेव एंड कंपनी द्वारा कोरोनिल के साथ डब्लयूएचओ का नाम इसलिए चस्पा किया गया था ताकि लोगों के मन में इसके प्रति विश्वास कायम किया जा सके. कोरोनिल के बारे में बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण एक के बाद एक झूठ बोलते रहे और अब उनके मीडिया प्रबंधक देश के तमाम मीडिया हाउसेस और व्यक्तिगत रूप से कुछ चुने हुए पत्रकारों को इस दवा से सम्बंधित दस्तावेज़ भेज कर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की आपत्तियों को खारिज करने का प्रयास कर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि ये दस्तावेज उन्हीं को भेजे जा रहे हैं जिन मीडिया हाउसेस और पत्रकारों को वे साल भर अपनी कंपनी के लाखों-करोड़ों रूपए मूल्य के विज्ञापन देकर ओब्लाइज करते रहते हैं.

दरअसल कोरोनिल को कोरोना की सटीक दवा बता कर बाबा रामदेव अपनी आयुर्वेदिक पुड़िया को किसी भी हाल में भारत के बाज़ार में उतारने को उतावले हैं. कोरोना काल के बीते पूरे साल में विवाद के कारण कोरोनिल को बाज़ार नहीं मिल पाया. अब 2021 के दो महीने भी बीत गए हैं और कोरोनिल मार्किट में नहीं उतर पायी है. कोरोना का डर भी अब लोगों के दिलों से काफी कम हो गया है. ऐसे में बाबा की छटपटाहट समझी जा सकती है कि करोड़ों की तादात में बन चुके कोरोनिल के स्टॉक को अगर मार्किट में नहीं लाया जा सका तो बड़ा आर्थिक नुकसान पतंजलि को हो जाएगा. कंपनी के लिए अगले 10 माह इस लिहाज़ से बड़े महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कोरोना का थोड़ा बहुत डर अभी बना रहेगा, जिसके चलते लोग उनके भ्रामक प्रचार में फंस कर कोरोनिल को हाथोंहाथ खरीद लेंगे.

दूसरी तरफ कोरोना की वैक्सीन के प्रति लोगों में अभी कुछ डर है. जिनको वैक्सीन लगी है उनमे से कुछ लोगों में इसके साइड इफ़ेक्ट देखे गए हैं तो कुछ की मौत भी हुई है. मौतें वैक्सीन की वजह से हुई हैं या किसी अन्य कारण से, यह बातें भी खुल कर सामने नहीं आयी हैं. ऐसे में जब बाबा टीवी पर आकर यह प्रचार करेंगे कि उनकी आयुर्वेदिक कोरोनिल का कोई साइड इफ्फेक्ट नहीं है, यह पूरी तरह सुरक्षित है और कोरोना से बचाव करने वाली है तो लोग वैक्सीन लगवाने का ख़तरा मोल लेने के बजाय कोरोनिल खाएंगे. भले वो कोरोना से उन्हें बचाये या ना बचाये.

रामदेव और बालकृष्ण ये भलीभांति जानते हैं कि भारत की भोली जनता ने जिस तरह पतंजलि का लेबल लगा आटा, टूथपेस्ट, साबुन, तेल, क्रीम अन्य कंपनियों के बने इन्ही उत्पादों से कहीं अधिक दाम होने के बावजूद अपने घरों में भर लिए, उसी तरह कोरोनिल मार्किट में आते ही जनता के बीच इसे पाने के लिए भगदड़ मच जाएगी और कोरोना की सटीक दवाई बता कर कोरोनिल का पूरा स्टॉक आसानी से बेच दिया जाएगा. भारत में बेचने के साथ ही विदेशों में भी बड़ा स्टॉक भेजा जाएगा जो भारत में हुए प्रचार, बिक्री और अच्छे-अच्छे रिव्यु के दम पर वहाँ भी हाथों हाथ बिकेगा. यानी पांचो उंगलियां घी में और सर कढ़ाई में.

लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बाबा रामदेव के इस सुनहरे सपने के पूरा होने की राह में कांटे बो दिए हैं. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की आपत्तियां बिलकुल वाजिब हैं. भारत की जनता भोली है. वो बड़ी आसानी से प्रचार की चमक से प्रभावित हो जाती है. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है – बाबा रामदेव के आटे और किसी चक्की के पिसे आटे में कोई फर्क नहीं होता है. दोनों ही गेहूं को पीस कर तैयार किये जाते हैं. चक्की पर भी उन्हीं खेतों का गेहूं आ रहा है जिन खेतों का गेहूं रामदेव की कंपनी में जा रहा है, बावजूद इसके बाबा बताते हैं कि पतंजलि का आटा सेहत के लिए बहुत अच्छा है. ये शुगर फ्री है. मैदा फ्री है. शक्तिवर्धक है. कोरोना काल के दौरान रामदेव ने अपने आटे की कीमत भी बढ़ा दी. 300/- रूपए मूल्य में 10 किलो के पैकेट की कीमत 375/- रूपए कर दी क्योंकि उन पर 25 करोड़ रुपया प्रधानमन्त्री के कोरोना रिलीफ फंड में जमा करवाने का दबाव था. जबकि उसी गेहूं का आटा किसी चक्की से खरीदें तो 20 से 25 रूपए किलो यानी 200 से 250 रूपए का दस किलो मिल जाएगा. अगर गेहूं खरीद कर खुद पिसवा लें तो और सस्ता पडेगा. मगर पतंजलि के भ्रामक प्रचार ने जनता की आँखों पर पट्टी चढ़ा दी है और वह पतंजलि का आटा खा कर खुद को सेहतमंद महसूस कर रही है.

उल्लेखनीय है कि विज्ञापनों पर अपनी तीखी नजर रखने वाले भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई)ने पतंजलि आयुर्वेद, हिंदुस्तान यूनीलीवर, पेप्सिको, ब्रिटानिया, पिज्जा हट, अमेजन, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स, वोल्टास, एक्सिस बैंक, एयर एशिया और फ्लिपकार्ट जैसी कंपनियों को भ्रामक विज्ञापन चलाने को लेकर फटकार लगाई थी. एएससीआई ने एक बयान में कहा कि मई महीने में एएससीआई को 155 शिकायतें मिली थीं, जिनमें से 109 शिकायतें सही साबित हुईं. इन शिकायतों में 10 शिकायतें योग गुरु बाबा रामदेव के पतंजलि आयुर्वेद के खिलाफ थीं. एएससीआई ने पंतजलित आयुर्वेद के जीरा बिस्कुट, कच्ची घानी सरसों का तेल, केश कांति और दंतकांति समेत कई चीजों के खिलाफ बहुत सारी शिकायतों को सही पाया था. मार्च और अप्रैल 2016 में भी एएससीआई ने पतंजलि आयुर्वेद के खिलाफ छह मामले दर्ज किए थे.

दोहरा चरित्र -भाग 2 : शादी के बाद कंचन के जीवन में क्या बदलाव आएं

आज सुधीर के एक दूर के रिश्ते की मामी की लड़की सुनीता आने वाली थी. बिन बाप की लड़की थी. उसे बीएड करना था. इस लिहाज से तो वह एक साल रहेगी ही रहेगी. हालांकि सुधीर के मांबाप नाकभौं सिकोड़ रहे थे.

‘‘दीदी, बिन बाप की बेटी है. तुम लोग चाहोगे तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी. वरना मेरे पास तो कुछ भी नहीं है जिस के बल पर उस का ब्याह कर सकूं. पढ़ाईलिखाई का ही भरोसा है. पढ़लिख कर कम से कम अपना पेट पाल तो सकेगी,’’ कह कर मामी रोंआसी हो गईं.

मेरी सास ने उन्हें ढाढ़स बंधाया. मेरी सास सुधीर की तरफ मुखातिब हुईं, ‘‘सुधीर, तुम सुनीता को उस का स्कूल दिखा दो.’’

‘‘बेटा, यहां आनेजाने के लिए रिकशा तो मिल जाता होगा?’’ मामीजी मुंह बना कर बोलीं.

‘‘नहीं मिलेगा तो मैं छोड़ आया करूंगा,’’ सुधीर ने एक नजर सुनीता पर डाली तो वह मुसकरा दी.

‘‘यही सब सोच कर आई थी कि यहां सुनीता को कोई परेशानी नहीं होगी. तुम सब लोग उसे संभाल लोगे,’’ मामीजी भावुक हो उठीं. वे आगे बोलीं, ‘‘सुनीता के पापा के जाने के बाद तुम लोगों के सिवा मेरा है ही कौन. रिश्तेदारों ने सहारा न दिया होता तो मैं कब की टूट चुकी होती,’’ यह कह कर वे सुबकने लगीं.

सुनीता ने उन्हें डांटा, ‘‘हर जगह अपना रोना ले कर बैठ जाती हैं.’’

‘‘क्या करूं, मैं अपनेआप को रोक नहीं पाती. आज तेरे पापा जिंदा होते तो मुझे इतनी भागदौड़ न करनी होती.’’

‘‘आप कोई गैर थोड़े ही हैं, जीजी. हम सब सुनीता का वैसा ही खयाल रखेंगे जैसे आप उस का घर पर रखती हैं,’’ मेरी सास ने तसल्ली दी. वे आंसू पोंछने लगीं.

2 दिन रह कर मामीजी बरेली चली गईं. सुधीर ने सुनीता को उस का कालेज दिखलाया और दाखिला करवा दिया. उस की जरूरतों का सामान खरीदा. निश्चय ही रुपए सुधीर ने खर्च किए होंगे, मुझे कोई एतराज न था मगर इस बहाने वह सुनीता का कुछ ज्यादा ही खयाल रखने लगा. उस के खानेपीने से ले कर छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी वह हमेशा मोटरसाइकिल स्टार्ट किए रहता. पत्नी से ज्यादा गैर को तवज्जुह देना मेरे लिए असहनीय था. मेरी सास भी उसी की हो कर रह गई थीं. न जाने मांबेटे के बीच क्या चल रहा था. एक दिन मुझ से रहा न गया तो मैं बोल पड़ी, ‘‘सुनीता क्या मुझ से ज्यादा अहमियत रखने लगी है तुम्हारे लिए?’’

‘‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि वह बिन बाप की बेटी है,’’ सुधीर बोला.

‘‘तो क्या बाप की भूमिका निभा रहे हो?’’ मैं ने व्यंग्य किया.

‘‘तमीज से बात करो,’’ वह उखड़ गया.

‘‘चिल्लाओ मत,’’ मैं ने भी अपना स्वर ऊंचा कर लिया.

वह संभल गया.

‘‘आहिस्ता बोलो.’’

‘‘अब आए रास्ते पर. यह मत समझना कि तुम कुछ भी करोगे और मैं चुपचाप तमाशा देखती रहूंगी.’’

‘‘क्या किया है मैं ने?’’

‘‘अपने दिल से पूछो.’’

वह अनजान बनने की कोशिश करने लगा.

‘‘मासूम बन कर सुनीता को बरगलाओ, मुझे नहीं. मैं पुरुषों की नसनस से वाकिफ हूं. पिछले एक हफ्ते से नैपकिन लाने के लिए कह रही हूं, लाए?’’

‘‘मैं भूल गया था.’’

‘‘आजकल तो सिर्फ सुनीता की जरूरतों के अलावा कुछ याद नहीं रहता है तुम को.’’

‘‘बारबार उस का नाम मत लो. वरना…’’ सुधीर ने दांत पीसे. बात बढ़ती देख वह कमरे से बाहर निकल गया.

कायर पुरुषों की यही पहचान होती है. वे मुंह छिपा कर भागने में ही भलाई समझते हैं. सुधीर अपनी मां के कमरे में आया.

‘‘बहुत बदतमीज है,’’ मेरी सास बोलीं, ‘‘चार दिन के लिए आई है उसे भी चैन से रहने नहीं देती. वह क्या सोचेगी,’’ सिर पर हाथ रख कर वे बैठ गईं. न जाने क्या सोच कर वे थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में आईं.

‘‘क्यों बहू, तुम्हारे संस्कार यही सिखाते हैं कि अतिथियों के साथ बुरा सलूक करो?’’

‘‘आप का बेटा अपनी पत्नी के साथ क्या कर रहा है, क्या आप ने जानने की कोशिश की?’’

‘‘क्या कर रहा है?’’

 

तुझ संग बैर लगाया ऐसा

दोहरा चरित्र -भाग 1: शादी के बाद कंचन के जीवन में क्या बदलाव आएं

कंचन ने जिस सुधीर को विकलांग होते हुए भी अपनाना अपना धर्म समझा था उसी सुधीर ने आज उस के पत्नी होने के अस्तित्व को ललकारा था. आज उस के सामने सुधीर का दोहरा चरित्र जाहिर हो गया था.

सचमुच पुरुष को बदलते देर नहीं लगती. यह वही सुधीर था जिसे मैं ने हर हाल में स्वीकारा. चाहती तो शादी से इनकार कर सकती थी पर मेरे अंतर्मन को गवारा न था. इंगेजमैंट के 1 महीने बाद सुधीर का पैर एक ऐक्सिडैंट में कट गया. भावी ससुर ने संदेश भिजवाया कि क्या मैं सुधीर से इस स्थिति में भी शादी करने के लिए तैयार हूं?

पापा दुविधा में थे. लड़के की सरकारी नौकरी थी. देखनेसुनने में खूबसूरत था. अब नियति को क्या कहें? पैर कटने को लिखा था, सो कट गया. फिर भी मुझ पर उन्होंने जोर नहीं डाला. मुझे अपने तरीके से फैसला लेने की छूट दे रखी थी. दुविधा में तो मैं भी थी. जिस से मेरी शादी होनी थी कल तक तो वह ठीक था. आज उस में ऐब आ गया तो क्या उस का साथ छोड़ना उचित होगा? कल मुझ में भी शादी के बाद कोई ऐब आ जाए और सुधीर मुझे छोड़ दे तब?

मैं दुविधा से उबरी और मन को पक्का कर सुधीर से शादी के लिए हां कर दी. शादी के कुछ साल आराम से कटे. सुधीर ने कृत्रिम पैर लगवा लिया था. इस तरह वह कहीं भी आनेजाने में समर्थ हो गया. मुझे अच्छा लगा कि चलो, सुधीर के मन से हीनभावना निकल जाएगी कि वह अक्षम हैं.

5 साल गुजर गए. काफी इलाज के बाद भी मैं मां न बन सकी तो मैं गहरे अवसाद में डूब गई. कहने को भले ही सुधीर ने कह दिया कि उसे बाप न बन पाने का जरा भी मलाल नहीं है लेकिन मैं ने उस के चेहरे पर उस पीड़ा का एहसास किया जो बातोंबातों में अकसर उभर कर सामने आ जाती. एक दिन मुझ से रहा न गया, कह बैठी, ‘‘अगर एतराज न हो तो मैं एक सलाह दूं.’’

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‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न हम एक बच्चा गोद ले लें?’’ यह सुन कर सुधीर उखड़ गया, ‘‘मुझे अपना बच्चा ही चाहिए.’’

‘‘वह शायद ही संभव हो,’’ मैं ने दबी जबान में कहा. बिना कोई जवाब दिए सुधीर वहां से चला गया. मेरा मन तिक्त हो गया. यह भी कोई तरीका है अपना नजरिया रखने का. सुधीर की यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती कि मिलबैठ कर कोई सार्थक हल निकालने की जगह वह दकियानूसी व्यवस्था से चिपके रहना चाहता था. मैं ने महसूस किया कि सुधीर में पहले वाली बात नहीं रही. वह मुझ से कम ही बोलता. देर रात टीवी देखता या फिर रात देर से घर लौटता.

मैं पूछती तो यही कहता, ‘अकेला घर काटने को दौड़ता है.’

‘‘अकेले कहां हो तुम. क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं रही?’’ सुधीर टाल जाता. मेरी त्योरियां चढ़ जातीं.

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती जो पत्नी को अकेला छोड़ कर देर रात घर आते हो.’’

‘‘शर्म तुम्हें आनी चाहिए जो मुझे वंश चलाने के लिए एक बच्चा भी न दे सकीं.’’

सुन कर मैं रोंआसी हो गई. एक औरत सिर्फ बच्चा जनने के लिए ब्याह कर लाई जाती है? क्या वह सिर्फ जरूरत की वस्तु होती है? जरूरतों की कसौटी पर खरी उतरी तो ठीक है नहीं तो फेर लिया मुंह. बहरहाल, अपने आंसुओं पर मैं ने नियंत्रण रखा और कोशिश की कि अपनी कमजोरियों को न जाहिर होने दूं.

‘‘मैं तुम्हारी बीवी हूं. मुझे पूरा हक है यह जानने का कि तुम देर रात तक क्या करते हो.’’

‘‘अच्छा तो अब समझा,’’ सुधीर के चेहरे पर व्यंग्य के भाव तिर आए, ‘‘तुम्हें जलन हो रही है न कि मैं ने कहीं दूसरी न रख ली हो?’’

‘‘रख सकते हैं आप. यह कोई नई बात नहीं होगी मेरे लिए.’’

‘‘तो क्यों पूछताछ करती हो. सोच लो कि मैं ने रख ली.’’

भले ही यह कथन झूठा हो तो भी इस से सुधीर की मंशा समझ में तो आ ही गई. वह चला गया पर एक ऐसा दंश दे कर गया जिस की पीड़ा का शूल मेरे अंतस को देर तक भेदता रहा. अकेले में सुबकने लगी. कैसे कोई पुरुष इतना बदल सकता है. 5 साल जिस के साथ सुखदुख साझा किया वह एकाएक कैसे निर्मोही हो सकता है. लाख कोशिशों के बाद भी मैं इस सवाल का जवाब न ढूंढ़ सकी. किसी तरह मैं ने अपनेआप को संभाला.

दोहरा चरित्र -भाग 3 : शादी के बाद कंचन के जीवन में क्या बदलाव आएं

‘‘क्या नहीं कर रहा है. कुछ भी तो नहीं छिपा है आप से. सुनीता को सिरमाथे पर बिठाया जा रहा है. वहीं मेरी तरफ ताकने तक की फुरसत नहीं है किसी के पास.’’

‘‘यह तुम्हारा वहम है.’’

‘‘हकीकत है, मांजी.’’

‘‘हकीकत ही सही. इस के लिए तुम जिम्मेदार हो.’’

‘‘सुनीता को मैं यहां लाई?’’

‘‘बेवजह उसे बीच में मत घसीटो. तुम अच्छी तरह जानती हो कि पतिपत्नी के बीच रिश्तों की डोर औलाद से मजबूत होती है.’’

‘‘तो क्या यह संभावना सुनीता में देखी जा रही है?’’

‘‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे.’’

‘‘बेशर्म तो आप हैं जो अपने बेटे को शह दे रही हैं,’’ मैं भी कुछ छिपाने के मूड में नहीं थी.

‘‘ऐसा ही सही. तुम्हें रहना हो तो रहो.’’

‘‘रहूंगी तो मैं यहीं. देखती हूं मुझे कोई मेरे हक से कैसे वंचित करता है,’’ अतिभावुकता के चलते मेरी रुलाई फूट गई. बिस्तर पर लेटेलेटे सोचने लगी, एक मैं थी जो यह जानते हुए भी कि सुधीर विकलांग है उसे अपनाना अपना धर्म समझा. वहीं सुधीर, मेरे बांझपन को इतनी बड़ी विकलांगता समझ रहा है कि मुझ से छुटकारा पाने तक की सोचने लगा है. इतनी जल्दी बदल सकता है सुधीर. यह वही सुधीर है जिस ने सुहागरात वाले दिन मेरे माथे को चूम कर कहा था, ‘यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे तुम जैसे विशाल हृदय वाली जीवनसंगिनी मिली. मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि कभी अपनी तरफ से तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा,’ आज सुधीर इतना गिर गया है कि उसे रिश्तों की मर्यादाओं का भी खयाल नहीं रहा. माना कि दूर के रिश्ते की मामी की लड़की है सुनीता, पर जब नाम दे दिया तो उसे निभाने का भी संस्कार हर मांबाप अपने बच्चों को देते हैं. पता नहीं, मेरी सास को क्या हो गया है कि सब  जानते हुए भी अनजान बनी हैं.

पापा की तबीयत ठीक नहीं थी. भैया ने बुलाया तो मायके जाना पड़ा. एक बार सोचा अपनी पीड़ा कह कर मन हलका कर लूं पर हिम्मत न पड़ी. पापा तनावग्रस्त होंगे. पर भाभी की नजरों से मेरी पीड़ा छिप न सकी. वे एकांत पा कर मुझ से पूछ बैठीं. पहले तो मैं ने टालमटोल किया. आखिर कब तक? मेरी हकीकत मेरे आंसुओं ने बेपरदा कर दी.

रात भैया से उन्होंने खुलासा किया. वे क्रोध से भर गए. उन का क्रोध करना वाजिब था. कोई भाई अपनी बहन का दुख नहीं देख सकता. रात ही वे मेरे कमरे में आने वाले थे पर भाभी ने मना कर दिया.

सुबह नाश्ते में उन्होंने सुधीर का जिक्र छेड़ा.

‘‘तू अब उस के पास नहीं जाएगी. फोन लगा मैं उस बेहूदे से अभी बात करता हूं.’’

मैं ने किसी तरह उन्हें मनाया.

1 महीना रह कर मैं जब वापस भरे मन से ससुराल जाने लगी तो भाभी मुझे सीने से लगाते हुए बोलीं, ‘‘दीदी, चिंता की कोई जरूरत नहीं. आप के लिए इस घर के दरवाजे हमेशा के लिए खुले हैं. भाभी को मां का दरजा यों ही नहीं दिया गया है. मैं खुद नहीं खाऊंगी पर आप को भूखा नहीं रखूंगी. यह मेरा वादा है. नहीं पटे तो निसंकोच चली आइएगा.’’

‘‘मैं कोशिश करूंगी भाभी कि मैं उसे सही रास्ते पर ले आऊं,’’ भरे कंठ से मैं बोली.

ससुराल में आ कर जो दृश्य मैं ने देखा तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. सुनीता की मांग में सिंदूर भरा था. तो क्या सुधीर ने सुनीता से शादी कर ली? सोच कर मैं सिहर गई. मैं तेजी से चल कर अपने कमरे में आई. देखा सुधीर लेटा हुआ था. उसे झकझोर कर उठाया.

‘‘यह मैं क्या देख रही हूं. सुनीता की शादी कब हुई? कौन है उस का पति?’’ पहले तो सुधीर ने नजरें चुराने की कोशिश की पर ज्यादा देर तक हकीकत पर परदा न डाल सका. बेशर्मों की तरह बोला, ‘‘तुम जो समझ रही हो वह सच है.’’

‘‘सुनीता से तुम ने शादी कर ली?’’

‘‘हां.’’

‘‘मेरे रहते हुए तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘तुम इसे चाहे जिस रूप में लो पर यह अच्छी तरह जानती हो कि मुझे अपना बच्चा चाहिए.’’

‘‘मेरी सहमति लेना तुम ने मुनासिब नहीं समझा.’’

‘‘क्या तुम देतीं?’’

‘‘हो सकता था मैं दे देती.’’

सुन कर सुधीर खुश हो गया, ‘‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी,’’ कह कर जैसे ही सुधीर ने मेरे करीब आ मुझे अपनी बांहों में भर कर प्यार जताने का नाटक दिखाना चाहा, मैं ने उसे झटक दिया. मेरे क्रोध की सीमा न रही. मुझ से न रोते बन रहा था न हंसते. किसी तरह खुद को संभाला. अब जो हुआ उसे बदला तो नहीं जा सकता था. वैसे भी हमेशा पुरुषों की चली है. लिहाजा, मैं ने परिस्थिति से समझौता करना मुनासिब समझा. फिर भी सुधीर को औकात बताने से न चूकी.

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‘‘सुधीर, तुम अच्छी तरह जानते हो कि बांझ शब्द एक स्त्री के लिए गाली से कम नहीं होता. फिर उस स्त्री के लिए तो और ज्यादा जो इस कलंक के साथ अभिशापित जीवन जीने के लिए मजबूर हो. मुझे दुख इस बात का नहीं है कि तुम ने सुनीता से शादी की, दुख इस बात का है कि तुम ने मेरी पीठ में छुरा भोंका. मेरे विश्वास का कत्ल किया. यही काम तुम मुझे विश्वास में ले कर कर सकते थे.

‘‘सुधीर, अगर तुम्हारी विकलांगता को खामी समझ कर मैं ने तुम से शादी से इनकार कर दिया होता तो तुम मुझे किस रूप में लेते?’’

सुधीर ने कोई जवाब नहीं दिया. मुझे लगा मैं ने व्यर्थ का सवाल उठा दिया. जिस का चरित्र दोगला हो वह भला यह सब सोचविचार क्यों करेगा? खैर, यह समाचार मेरे मायके तक पहुंचा. भैया मेरी ससुराल आते ही गरजे, ‘‘कहां है सुधीर, मैं उसे बरबाद कर के छोड़ूंगा. सरकारी कर्मचारी हो कर भी उस की हिम्मत कैसे हुई दूसरी शादी करने की?’’

मैं ने भैया को किसी तरह शांत करने की कोशिश की.

‘‘मैं चुप रहने वाला नहीं. पुलिस में रिपोर्ट करूंगा. इस के अफसरों से शिकायत करूंगा. दरदर की ठोकर न खिलवाई तो मेरा नाम नहीं.’’

सुधीर चुपके से निकल कर बाहर चला गया. मेरी सास आईं, ‘‘भड़ास निकाल ली. अब मेरी भी सुनिए. सुनीता बिन बाप की बेटी थी. सुधीर ने सिर्फ सहारा दिया है,’’ वे बोलीं.

‘‘अपनी बेशर्मी को सहारे का नाम मत दीजिए. एक को सहारा दिया और दूसरे को बेसहारा किया,’’ भैया ने व्यंग्य किया.

‘‘आरती को क्या किसी ने घर से जाने के लिए कहा है?’’ सास बोलीं.

‘‘निकल ही जाएगी,’’ भैया बोले.

‘‘उस की मरजी. पर न मैं चाहूंगी न ही सुधीर कि वह इस घर से जाए. उस का जो दरजा है वह बना रहेगा.’’

‘‘मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए,’’ भैया मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘‘आरती, तुम सामान बांधो. अब मैं तुम्हें यहां एक पल भी न रहने दूंगा.’’

‘‘नहीं भैया, मैं ससुराल छोड़ने वाली नहीं. आज भी हमारा समाज किसी ब्याहता को मायके में स्वीकार नहीं करता,’’ मैं कहतेकहते भावुक हो गई, ‘‘मैं ससुराल की चौखट पर ही दम तोड़ना पसंद करूंगी मगर मायके नहीं जाऊंगी.’’

भैया की भी आंखें भर आईं. रूढि़वादी समाज से क्या लड़ना आसान है? गोत्र के नाम पर पतिपत्नी को भाईबहन बता दिया जाता है. ऐसे जड़ समाज से परिवर्तन की उम्मीद करना रेगिस्तान में पानी तलाशने जैसा है.

भैया की चरणधूलि लेते समय मैं ने उन्हें वचन दिया कि मैं कमजोर औरत नहीं हूं. अपने अस्तित्व के लिए कमजोर नहीं पड़ूंगी. फिर भी उन्होंने मुझे इस के लिए आश्वस्त किया कि जब चाहोगी तुम्हारे लिए मायके के दरवाजे हमेशा के लिए खुले रहेंगे.

भैया के जाने के 2 घंटे बाद सुधीर आया. आते ही हेकड़ी दिखाने लगा. मैं ने भी जता दिया कि वह अपनी औकात में रहे. सुधीर ने मुझे अलग रहने के लिए एक फ्लैट खरीद कर दिया. पहले तो मैं ने सोचा कि यहीं रह कर अपने हक के लिए लड़ती रहूंगी. कभी उस के खिलाफ कोर्ट भी जाने की इच्छा हुई पर यह सोच कर कदम पीछे कर लेती कि उस से फायदा क्या होगा? बहुत हुआ उस की नौकरी जाएगी. जेल जाएगा. वह हर महीने मुझे इतने रुपए दे जाता था कि मेरा खर्च आसानी से चल जाता. सुनीता पर दया आती, सो अलग. उसे मेरी सास और सुधीर ने बरगलाया. बहरहाल, जो हुआ उसे मैं ने नियति का चक्र मान कर स्वीकार कर लिया. मैं ने समय काटने के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली.

समय धीरेधीरे सरकने लगा. सुधीर से मेरा संबंध सिर्फ महीने के खर्च लेने के अलावा कुछ नहीं रहा. सुनीता के मोहपाश में बंधे सुधीर को मेरी कोई फिक्र न थी, न ही मुझे ऐसे आदमी से कोई ताल्लुक रखना था. एक दिन उस ने बड़े भरे मन से खुलासा किया, ‘मेरे जीवन में बाप बनना ही नहीं लिखा है.’ जिस स्वर में उस ने कहा मुझे उस से सहानुभूति हो गई. जो भी हो वह मेरा पति है. चाहती तो व्यंग्यबाण से उस का हृदय छलनी कर सकती थी पर पीछे लौट कर मैं अपने ही जख्मों को कुरेदना नहीं चाहती थी. मेरे जीवन में नियति ने जो कुछ दिया वह मिला. अब मैं क्यों बेवजह किसी को कोसूं. फिर भी पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘सुनीता के खून में इन्फैक्शन है. डाक्टर का कहना है कि अगर वह मां बनेगी तो निश्चय ही उसे विकलांग बच्चा पैदा होगा.’’

सुन कर मुझे अफसोस हुआ. सुधीर से ज्यादा दुख सुनीता के लिए हुआ. उस बेचारी का जीवन खराब हुआ. सुधीर ने 2-2 जिंदगियां बरबाद कीं. काश, वह मेरी बात मान कर किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लेता तो हमें बुढ़ापे का सहारा मिल जाता और उस बच्चे का जीवन सुधर जाता. क्षणांश चुप्पी के बाद सुधीर आगे बोला, ‘‘आरती, किस मुंह से कहूं. कहने के लिए बचा ही क्या है.’’

मैं संशय में पड़ गई. सुधीर आखिर कहना क्या चाहता है. सुधीर के दोहरे चरित्र से तो मैं वाकिफ हो चुकी थी. इसलिए सजग थी. मैं ने ज्यादा जोर नहीं डाला. आखिरकार उसे ही कहना पड़ा, ‘‘क्या हम फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

सुनते ही मेरा पारा सातवें आसमान पर चला गया. जी में आया कि अभी धक्के मार कर बाहर निकाल दूं. मेरा अनुमान सही निकला. सुधीर का दोहरा चरित्र एक बार फिर से जाहिर हो गया. किसी तरह अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए मैं ने उस से सवाल किया, ‘‘इस हमदर्दी की वजह?’’

‘‘हमदर्दी नहीं हक,’’ यह सुधीर की बेशर्मी की पराकाष्ठा थी. स्त्री व पुरुष के मूल स्वभाव में यही तो फर्क होता है. तभी तो सारे व्रत जैसे करवाचौथ, तीज सिर्फ औरतों से करवाए जाते रहे. हमारे धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषों को खुला सांड़ बना दिया, वहीं औरतों की ममता को हजार बंधनों में बांध कर उन्हें पंगु कर दिया. पर मैं भावुकता में नहीं बही.

‘‘जब सुनीता को ले आए तब हक का खयाल नहीं आया?’’

‘‘मैं भटक गया था,’’ बड़ी मासूमियत से वह बोला.

‘‘अब गलती सुधारना चाहते हो.’’

वह चुप रहा. मैं उस के चेहरे के पलपल बदलते भावों को बखूबी पढ़ रही थी. व्यर्थ बहस में पड़ने से अच्छा मुझे सबकुछ जानना उचित लगा. वह बोला, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम टैस्ट ट्यूब तकनीक से मां बन जाओ.’’

मुझे हंसी सूझी, साथ में रंज भी हुआ. वह हतप्रभ मुझे देखने लगा.

‘‘तीसरी शादी कर लो. मेरी राय में यही ठीक रहेगा.’’

‘‘आरती, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी की है.’’

‘‘माफ कर दिया.’’

‘‘तो क्या तुम…’’ उस का चेहरा खिल गया.

‘‘जैसा तुम सोच रहे हो वैसा कुछ नहीं होने वाला. अच्छा होगा तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.’’

तमाम कोशिशों के बाद भी जब उस की दाल नहीं गली तो भरे कदमों से चल कर फाटक की तरफ बढ़ा. मुझ से रहा न गया, अपने मन की बात कह दी.

‘‘सुधीर, सौतन ला कर तुम ने पत्नी के अस्तित्व को गाली दी है. तुम्हारे बाप बनने की हसरत कभी पूरी नहीं होगी.’’

उस के जाते ही बिस्तर पर पड़ कर मैं फूटफूट कर रोने लगी.

चलान कटने के बाद विवेक ओबरॉय ने शेयर किया वीडियो, कहा हमारी पावती कट गई

बॉलीवुड अभिनेता विवेक आनंद ओबेरॉय के ऊपर हाल ही में मुंबई पुलिस ने बिना हेलमेट बाइक चलाने और कोरोना काल में बिना मास्क पहनने पर चलाना इशू किया है. इसके बाद अभिनेता ने एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह अपने फैंस को ई चलान के फ्लैश करते हुए दिखा रहे हैं.

वीडियो में विवेक कह रहे हैं कि यह हम है और ये हमारी पावरी कट गई है. वीडियो को अब तक 78 हजार से ज्यादा लोगों ने देख लिया है. फैंस कई तरह के इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते नजर आ रहे हैं.

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बता दें कि विवेक ओबरॉय अपनी बीवी के साथ एक दिन बाइक पर घूमने निकल गए, जहां उन्होंने हेलमेट नहीं लगा रखा था और साथ ही उन्होंने मास्क भी नहीं पहना था.

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हालांकि इससे पहले भी विवेक ओबरॉय एश्वर्या राय को लेकर सोशल मीडिया पर ट्रोल हो चुके हैं. विवेक ओबरॉय, एश्वर्या राय और सलमान खान को लेकर विवादित मीम्स पर चर्चा में आ गए थें. उनकी इस हरकत के बाद जहां बॉलीवुड उनके खिलाफ नजर आ रहा था, वहीं दूसरी तरफ, द नेशनल कमीशन फॉर वूमेन ने उन्हें नोटिस भेजा था.

जिसके बाद विवेक ओबरॉय ने खुद के बचाव में सफाई देते हुए बयान जारी किया था. विवेक ओबरॉय ने बताया था कि आखिर क्यों उन्होंने ऐसे गलत शब्द का इस्तेमाल किया था.

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फिल्मों में विवेक जितना सफल नहीं हुए उससे कहीं ज्यादा वह अपने निजी जीवन को लेकर चर्चा में बने रहते हैं.

ससुराल सिमर का 2 में लीड रोल में नजर आएंगे अविनाश मुखर्जी, TRP में मचेगा धमाल

कलर्स चैनल के सुपरहिट सीरियल बालिका वधू में जगिया का किरदार निभाने वाले एक्टर अविनाश मुखर्जी अब बड़े हो गए हैं. वहीं खबर आ रही है कि अविनाश मुखर्जी के हाथ अब बड़ा प्रोजेक्ट आ गया है. अविनाश मुखर्जी को सीरियल ससुराल सिमर का 2 में लीड रोल निभाने का मौका मिला है.

बता दें कि साल 2018 में इस सीरियल का पहला पार्ट खत्म हुआ है. लगभग 8 साल तक इस सीरियल ने लोगों का मनोरंजन किया है. बात कि जाए सीरियल ससुराल सिमर का 2 के ऑनएयर होने की तो इसे अगले महीने ऑनएयर किया जाएगा. हालांकि अभी तक इसके मेकर्स ने इस विषय पर खुलकर बात नहीं कि है.

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इस सीरियल के पहले पार्ट में बालिका वधू में काम कर चुकी एक्ट्रेस अविका गौर ने भी काम काम किया था. जहां उनकी एक्टिंग की जमकर तारीफ हुई थी. सीरियल में इनके जिंदगी में आएं उतार -चढ़ाव के बारे में बेहद ही ज्यादा खूबसूरती के साथ दिखाया गया था.

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इस सीरियल से दर्शकों को काफी ज्यादा प्यार मिला था. अब दूसरे सीजन से लोगों का काफी ज्यादा उम्मीदे हैं. ऐसे में मेकर्स उम्मीदों पर खड़ा उतरने के लिए पूरी प्लानिंग भी कर रहे हैं.

वहीं ससुराल सीमर को देखने वाले फैंस को भी इस सीरियल का बेसब्री से इंतजार हैं. उन्हें भी लगता है कि पहले कि तरह इस साल भी सीरियल सबको एंटरटेन करेगा. खैर इस बात की पूरी जानकारी तो आपको मिल ही जाएगी, जब भी सीरियल स्टार्ट होगा.

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बता दें कि इससे पहले अविनाश मुखर्जी रुबीना दिलाइक के साथ भी काम कर चुके हैं. जहां लोगों ने उन्हें खूब पसंद किया था, सीरियल शक्ति अस्तित्व का में इनके किरदार को खूब पसंद किया गया था.

माता-पिता की मानें लेकिन आंखें और दिमाग खोलकर

लेखिका-मधु शर्मा कटिहा

बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली अंकिता की अपने माता-पिता से करियर को लेकर बात हुई तो उसे उनके विचार जानकर उसे बेहद आश्चर्य हुआ. उनका कहना था कि एक लड़की होने के नाते अंकिता को टीचर ही बनना चाहिए, जबकि अंकिता साइंटिस्ट बनने के सपने देख रही थी. पेरेंट्स के तर्क थे कि अध्यापिका को घर संभालने के लिए भरपूर समय मिलता है तथा समाज में इस व्यवसाय को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. अंकिता ने उनकी बात धैर्य से सुनने के बाद अपने विचारों से अवगत कराते हुए कहा कि घर देखना केवल औरत की जिम्मेदारी नहीं है इसलिए इस दृष्टिकोण से वह नहीं सोच रही. दूसरी बात कि जब स्त्री अपने पैरों पर खड़ी होगी तो उसे सम्मान प्राप्त होगा ही, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में कार्यरत क्यों न हो. फिर वह अपना सपना साकार करने का प्रयास क्यों न करे ? माता-पिता उसकी बातों से प्रभावित हुए व उसे अपनी इच्छा से करियर चुनने की इजाज़त मिल गयी.

एक अन्य घटना दसवीं में पढ़ने वाले अर्चित से सम्बंधित है. बोर्ड परीक्षा का परिणाम आया तो अर्चित को यह देखकर बेहद प्रसन्नता हुई कि साइंस के अतिरिक्त उसे इंग्लिश लिट्रेचर में भी 95% अंक प्राप्त हुए हैं, इसलिए अब वह अपना करियर इंग्लिश लेक्चरर के रूप में बना सकेगा. यह बात जब उसने अपने पिता को बताई तो उससे असहमत हो वे इस बात पर अड़ गए कि अर्चित को ग्यारहवीं में साइंस विषय ही लेना होगा. अर्चित को वे इंजीनियर बनाना चाहते थे. निराश अर्चित ने अपनी मम्मी से इस विषय में बात की. मां ने उसे दोनों व्यवसायों के विषय में विस्तार से बताया. इंजीनियरिंग में चार वर्ष का समय बीटैक में देने के बाद किसी प्राइवेट नैशनल या मल्टीनैशनल कम्पनी में नौकरी लग ही जाती है.

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व्याख्याता पद तक पहुंचने के लिए धैर्य की आवश्यकता होगी. बैचलर्स, मास्टर्स फिर पीएचडी में समय व परिश्रम कम नहीं होता. पीएचडी से पहले कुछ विश्वविद्यालयों में एमफ़िल की डिग्री या यूजीसी नैट क्वालीफाई करना अनिवार्य भी है. सब विस्तार से बताकर मां ने कहा कि वह आराम से सोच ले कि उसे कौन सा रास्ता चुनना है अंतिम फैसला उसका ही होगा.  अर्चित ने अपने कुछ मित्रों से इस विषय में सुझाव मांगे. लगभग सभी मित्रों का मानना था कि उसे अपना भविष्य एक सौफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में देखना चाहिए क्योंकि अपने शहर में होने वाली कोडिंग की एक प्रतियोगिता में वह विजयी रहा था और कंप्यूटर विषय में वह कक्षा में प्रथम भी आता था. अर्चित ने बहुत सोचा और अंत में साइंस लेने का निर्णय कर लिया. इंग्लिश लिट्रेचर उसका शौक था, अतः उससे जुड़े रहने के लिए उसने एक ब्लौग बना लिया जहां समय मिलने पर वह साहित्य की पुस्तकें पढ़कर उनकी समीक्षा व अपनी कविताएं आदि पोस्ट करता है.

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अर्चित ने केवल माता-पिता के कहने पर अपना विषय नहीं चुना बल्कि सोच-समझकर ही उनकी बात मानी, इसके विपरीत उसके साथ पढ़ने वाले करण को बिना विचारे अपने पेरेंट्स का फैसला स्वीकार करना भारी पड़ गया. करण के माता-पिता ने यह जानते हुए भी कि वह साइंस में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता, उसे साइंस लेने को विवश कर दिया. उनको लगता था कि केवल डौक्टर, इंजीनियर बनकर ही पैसा व इज्ज़त पायी जा सकती है. करण को साइंस दिलवाने के लिए उन्हें स्कूल भी बदलना पड़ा क्योंकि दसवीं में अच्छे अंक न होने के कारण करण को अपने विद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पाया था. परिणाम यह हुआ कि वह ग्यारहवीं में पास नहीं हो सका. निराशा और अवसाद ने घेर लिया उसे.

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आज की युवा पीढ़ी बेहद समझदार हैं, किन्तु कुछ पेरेंट्स उनकी एक नहीं सुनते. यह सच है कि माता-पिता का अनुभव बच्चों से ज़्यादा होता है तथा वे बच्चों के हित में फ़ैसले लेना चाहते हैं, किन्तु तीस-पैंतीस साल पुराने विचारों को बच्चों पर थोपना कहां की समझदारी है? ऐसे में पूरा दारोमदार बच्चों पर आ जाता है कि वे माता-पिता के फ़ैसले पर अमल करते हुए अपनी आंखें व दिमाग खुले रखें ताकि जीवन में सही दिशा प्राप्त कर सकें.

बच्चों के करियर का चुनाव करने के अतिरिक्त कुछ अन्य परिस्थितियों में भी पेरेंट्स अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं. दृष्टि डालते हैं माता-पिता के कुछ ऐसे ही निर्देशों व प्राय बोले जाने वाले कथनों तथा कुछ बच्चों की प्रतिक्रियाओं पर.

 

हम दकियानूसी नहीं लेकिन परम्परा निभानी पड़ती है

सलोनी को पीरियड्स के दौरान उसकी मम्मी का अचार छूने, पौधों में पानी देने व किसी धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेने से रोकना बहुत खलता था. एक दिन जब उसने इसका कारण पूछा तो वे अनुत्तरित हो गयीं. सलोनी बोली, “बिना किसी कारण सुनी-सुनाई बात को आगे बढ़ाते हुए आप मुझे ऐसा करने को कहती हैं इसका अर्थ तो यह हुआ कि आप दकियानूसी हैं.”

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वे अपनी सफाई देते हुए बोलीं, “नहीं भई मैं दकियानूसी नहीं हूं, लेकिन परम्परा निभाना जानती हूं. यह फ़र्ज़ तुम्हारा भी है.”

सलोनी इंकार करते हुए बोली, “मैं बेकार के रीति-रिवाज़ों को नहीं मानूंगी और ऐसी परम्पराओं को तो कभी नहीं जो औरत को नीचा दिखाने के लिए बनी हैं. मम्मी आप सच बताना, क्या उन दिनों आपके साथ जब अछूत सा व्यवहार होता है तब बेइज्ज़त महसूस नहीं करतीं क्या ख़ुद को आप? क्यों नहीं छोड़ देतीं ऐसी बेसिर-पैर की मान्यताओं को?”

इस घटना के बाद से सलोनी की मां में बदलाव आ गया और पीरियड्स के दौरान कभी घरवालों के सामने शर्मिंदा नहीं होना पड़ा सलोनी को.

 

तुम्हें तो रोज़ पिज़ा और बर्गर ही चाहिए

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जब खाने को लेकर गौरव अपने मम्मी पापा की नाराज़गी न झेलता हो. अक्सर वह घर के खाने की जगह बाहर से पिज़ा, बर्गर व पास्ता आदि मंगवाने की ज़िद करने लगता और मांग पूरी न होने पर खाना ही नहीं खाता था. एक दिन जब उसके पिता जंक फ़ूड से होने वाली हानियों के विषय में बता रहे थे तब गौरव बोला, “मैं जान गया हूं कि जंक फ़ूड में कैलरीज़, नमक, चीनी व फैट्स बहुत होते हैं. मैं नहीं खाऊंगा ये सब, लेकिन आप लोग घर के खाने के नाम पर पूरी और देसी घी से बने परांठे या उबली हुई खिचड़ी खाने को न कहियेगा. महीने में एक बार आप बाहर से मेरी पसंद का खाना मंगवा देना. इसके अलावा घर पर आप लोग व्हीट पास्ता, बकव्हीट नूडल्स के पैकेट्स और ओट्स खरीदकर ले आइये, मैं इन्टरनैट से देखकर मम्मी को कुछ रैसपिज़ बता दूंगा और किचन में उनकी मदद भी कर दूंगा. मल्टीग्रेन ब्रैड जैसी चीज़ें भी आप खरीद सकते हो मेरे लिए, तब तो आपको कोई शिकायत नहीं होगी न?”

गौरव ने माता-पिता की बात मानी और उन्होंने गौरव की. समस्या सुलझ गयी.

 

बचत करना भी सीख लो

अधिकांश बच्चों को अपने माता-पिता से ‘हम तो अपने टाइम में एक-एक पैसा देखकर खर्च करते थे’, ‘आजकल के बच्चे तो अपने को शहंशाह समझते हैं’ या ‘कितनी फ़िज़ूलखर्ची करते हैं हमारे बच्चे’, जैसे ताने सुनने को मिल जाते हैं. दिव्यांश कौलेज में पढ़ने वाला एक समझदार लड़का है. एक दिन जब वह अपने मित्र की बहन के विवाह समारोह से लौटकर कैब से उतरा तो पिता का पारा गर्म हो गया. घर में घुसते ही वे उसे डांटते हुए बोले, “क्या मैट्रो बंद हो गयीं कि तुम टैक्सी से आ रहे हो. पैसे की कद्र है या नहीं तुम्हें? तुम्हारी मम्मी बता रहीं थीं कि कल एक शर्ट औनलाइन मंगवाई तुमने जिसकी कीमत पांच हजार रुपये थी. भविष्य का कुछ भरोसा नहीं होता इसलिए पैसे जोड़ने में समझदारी है न कि उसे यूं उड़ा देने में.”

दिव्यांश ने अपने मन की बात रखते हुए कहा, “शर्ट देखकर कल मुझे भी कुछ ख़ास ख़ुशी नहीं हुई पापा. किसी नामी कंपनी का कोई कपड़ा पहली बार मंगवाया है मैंने. उसकी असली कीमत दस हजार थी, फ़िफ्टी परसेंट डिस्काउंट पर मिल रही थी इसलिए ले ली मैंने. मेरे बर्थडे पर नानाजी ने जो पैसे दिए उससे खरीदी है वह शर्ट. वैसे सच कहूं तो इतनी महंगी शर्ट मुझे अपनी सस्ती कमीजों जैसी ही लगी. मैंने भी फ़िलहाल ब्रैंडेड कपड़े नहीं खरीदने का मन बना लिया है. जहां तक कैब में आने की बात है तो शादी जिस जगह थी वहां तक पहुंचने के लिए मुझे तीन मैट्रो बदलनी पडतीं और स्टेशन से बैंकेट हौल तक जाने के लिए भी रिक्शा या इ-रिक्शा लेना पड़ता. कुल मिलाकर तब जितने पैसे खर्च होते उससे कम में ही पडी कैब. इसलिए ही तो मैं आप दोनों को कई बार कैब करने को कहता हूं. मैं भी बचत के महत्व को समझता हूं.”

दिव्यांश के माता-पिता ने फिर कभी उस पर पैसे लुटाने का आरोप नहीं लगाया.

 

ज़माना बहुत ख़राब है

कौलेज में एडमिशन लेने पर नेहा ने देखा कि उसकी सहेलियां पढ़ने के साथ-साथ खूब मस्ती करती हैं, घूमती हैं, लाइफ़ को एन्जौय करती हैं. एक दिन अपनी मां से जब नेहा ने सहेलियों के साथ फ़िल्म देखने की इजाज़त मांगी तो मां ने दो टूक जवाब दे दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि ज़माना बहुत ख़राब है. जब नेहा ने अपनी सहेलियों को यह बात बताई तो उनमें से एक ने नेहा की मम्मी को फ़ोन कर लिया. विनम्रता के साथ वह बोली, “आंटी, हम लोग भी जानते हैं कि आजकल रेप और छेड़छाड़ की घटनाएं आये दिन घट रही हैं. हम लोग ऐसी जगह जायेंगे जहां आसपास सुनसान न हो, फिर हम नाइट शो में भी नहीं जा रहे. आप सोचिये यदि डरकर लड़कियां अपने-अपने घरों में दुबक जाएंगी तो शैतानों के हौंसले बुलंद हो जायेंगे. लड़कियां डरपोक बन जाएं यही तो वे चाहते हैं.”

नेहा को निडर बनाने की चाह मन में लिए मां ने नेहा को जाने की स्वीकृति दे दी और भविष्य में भी उसे उड़ने के लिए आसमां देने का निश्चय कर लिया.

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क्या सोचेंगे लोग?

बीबीए के बाद रोहित किसी आईआईएम इंस्टिट्यूट से एमबीए करना चाहता था. रोहित के पिता का अपना व्यवसाय था इसलिए आर्थिक रूप से वे सक्षम थे और एमबीए की फ़ीस देना उनके लिए बड़ी बात नहीं थी. रोहित द्वारा अथक परिश्रम किये जाने के बाद भी दो बार कैट की प्रतियोगी परीक्षा में उसे अच्छी पर्सेनटाइल नहीं मिल सकी. इसी बात से रोहित के पेरेंट्स उससे खफ़ा हो गये और भविष्य में कैट की परीक्षा न देने का फ़रमान सुना दिया. रोहित को कैट की परीक्षा देने से रोकने का कारण उसके पेरेंट्स ने यह बताया कि मित्र व रिश्तेदार पूछते रहते हैं कि उनका बेटा क्या कर रहा है ? अपने बेटे की असफलता के विषय में बार-बार बताना उनको बहुत बुरा लगता है. रोहित ने चुपचाप उनकी बात को स्वीकार कर लिया व पिता के बिज़नस में हाथ बटाना शुरू कर दिया, जबकि उसकी ख्वाहिश नौकरी करने की थी. मन ही मन वह इस बात से बहुत दुखी था कि उसकी इतने दिनों की मेहनत बेकार चली जाएगी. उसे पूरा विश्वास था कि यदि इस बार वह कैट देता तो बेहतरीन पर्सेनटाइल पाने में कामयाब हो जाता. उसे इस बात से भी ठेस भी लगी कि उसके माता-पिता यह नहीं समझते कि जीवन में सफलता और असफलता दोनों का सामना करना पड़ता है.

 

मोबाइल का पीछा छोड़ो

मोबाइल को लेकर डांट-फटकार तो लगभग सभी बच्चों को सुननी पड़ रही हैं क्योंकि यह सच है कि आजकल बच्चे मोबाइल को कुछ अधिक ही महत्व देने लगे हैं. इन्स्टाग्राम, स्नैपचैट, व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक जैसे विभिन्न ऐप्स में लगे रहना, वीडियो देखना व गेम्स खेलना उनके प्रिय शौक बन रहे हैं. विहान भी उन बच्चों जैसा ही था. कौलेज पहुंचकर भी उसकी यह आदत नहीं बदली. मम्मी-पापा ने उसे हर समय मोबाइल में व्यस्त देख कई बार टोका और फटकार लगाते हुए उसे ऐसा करने से मना भी किया, किन्तु वह नहीं माना. कुछ दिनों बाद उसने स्वयं ही  अनुभव किया कि मोबाइल फ़ोन के अधिक इस्तेमाल से उसकी नींद पूरी नहीं हो पा रही है इसके अतिरिक्त थकान व आंखों में जलन जैसी समस्याएं भी हो रही हैं. विहान अब मोबाइल का प्रयोग पहले से बहुत कम करता है. कुछ ऐप्स डिलीट भी कर दीं हैं उसने.

 

रात भर जागकर सुबह देर से उठने की बीमारी क्यों पाल ली?

आजकल किशोरों के बीच रात को देर से सोकर सुबह लेट जागने का ट्रैंड सा बन गया है. यह आदत श्रुति और श्रेयस में भी पनपने लगी थी. दोनों भाई-बहन रात को देर तक पढ़ते, दोस्तों से चैटिंग करते और फ़िल्में देखते थे. मम्मी-पापा के टोकने पर श्रुति ने तो जल्दी सोना व उठना शुरू कर दिया, लेकिन श्रेयस पहले की तरह ही देर तक जागता रहा. दोनों ने कुछ समय बाद एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा किये तो पाया कि प्रत्येक आदत के अपने-अपने लाभ और हानियां हैं. श्रुति को जल्दी उठकर जहां मौर्निंग वौक और एक्सरसाइज़ करने के लिए काफी समय मिल जाया करता वहां श्रेयस दिन में व्यस्तता के कारण चाहकर भी इस काम के लिए समय नहीं निकाल पाता था. श्रुति को दिन में पढ़ते हुए बहुत डिस्टर्बेंस हुई वहीं श्रेयस रात में शांति से पढ़ सका. दोनों ने फैसला किया कि कुछ मम्मी-पापा की मानेंगे कुछ अपनी. रात में कुछ देर तक केवल पढ़ने के लिए ही जागेंगे और सुबह बहुत देर तक नहीं सोयेंगे.

 

इन सभी घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि युवा पीढ़ी उतनी लापरवाह नहीं जितना देखने वाले समझ लेते हैं. प्रतिस्पर्धा के इस युग में उनके सामने अनेक चुनौतियां हैं. इन चुनौतियों का सामना करने के लिए उनको चाहिए कि अपने माता-पिता द्वारा दिए गए निर्देशों को मानें लेकिन अपनी आंखें और दिमाग की खिड़कियां खुली रखें तथा पेरेंट्स के मन को चोट न पहुंचाते हुए अंतिम निर्णय स्वयं ही लें.

 

ससुराल से मिली संपत्ति पर मायके वालों का भी हक़, सुप्रीम कोर्ट ने दिया अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू महिला को ससुराल से प्राप्त संपत्ति के मामले में एक अहम् फैसला देते हुए महिला के मायके पक्ष के लोगों को भी परिवार का हिस्सा बताया है और महिला को ससुराल से मिली संपत्ति पर उनका भी हक़ कायम किया है. हरियाणा के एक गाँव में पुश्तैनी ज़मीन की मालकिन जगनो का उसके देवर व भतीजों से चल रहे विवाद और मुक़दमे में ये फैसला देते हुए कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाहिता के मायके पक्ष के उत्तराधिकारियों को बाहरी नहीं कहा जा सकता. वे महिला के परिवार के माने जाएंगे. इस नाते वह उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी भी होंगे.

सुप्रीम कोर्ट में यह मामला हरियाणा-गुड़गांव के बाजिदपुर तहसील के गढ़ी गांव से आया था. केस के मुताबिक गढ़ी गांव में बदलू की कृषि भूमि थी. बदलू के दो बेटे थे बाली राम और शेर सिंह. शेर सिंह की वर्ष 1953 में मृत्यु हो गई. उसके कोई संतान नहीं थी. शेर सिंह के मरने के बाद उसकी विधवा जगनो को पति के हिस्से की आधी कृषि भूमि पर उत्तराधिकार मिला. जगनो ने फैमिली सेटलमेंट में अपने हिस्से की जमीन अपने भाई के बेटों को दे दी. जगनो के भाई के बेटों ने बुआ से पारिवारिक सेटलमेंट में मिली जमीन पर दावे का कोर्ट में सूट फाइल किया.

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इस मुकदमे में जगनों ने एक लिखित बयान दाखिल कर भाई के बेटों के मुकदमे का समर्थन किया और कोर्ट ने समर्थन बयान आने के बाद भाई के बेटों के हक में 19 अगस्त 1991 को जमीन पर उनके हक़ में डिक्री पारित कर दी. इसके बाद जगनों के देवर बाली राम के बच्चों ने अदालत में मुकदमा दाखिल कर पारिवारिक समझौते में जगनों के अपने भाई के बेटों को परिवार की पुश्तैनी जमीन देने का विरोध किया. देवर के बच्चों ने कोर्ट से 19 अगस्त 1991 का आदेश रद करने की मांग करते हुए दलील दी कि पारिवारिक समझौते में बाहरी लोगों को परिवार की जमीन नहीं दी जा सकती है. उनका कहना था कि जगनों के भाई के बेटे जगनों के परिवार के सदस्य नहीं माने जाएंगे.

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लेकिन निचली अदालत से लेकर हाईकोर्ट तक से यह मुकदमा खारिज होने के बाद देवर के बच्चे खुशी राम व अन्य सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न पूर्व फैसलों में सभी पहलुओं पर विचार किया और अपने जजमेंट में कहा – परिवार को सीमित नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि व्यापक रूप में लिया जाना चाहिए. परिवार मे सिर्फ नजदीकी रिश्तेदार या उत्तराधिकारी ही नहीं आते बल्कि वे लोग भी आते हैं जिनका थोड़ा भी मालिकाना हक बनता हो या जो थोड़ा भी हक का दावा कर सकते हों.

कोर्ट ने कहा कि इस मामले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 15 को देखा जाना चाहिए जिसमें हिंदू महिला के उत्तराधिकारियों का वर्णन है. इस धारा 15(1)(डी) में महिला के पिता के उत्तराधिकारियों को भी शामिल किया गया है. वे लोग भी उत्तराधिकार प्राप्त कर सकते हैं. कोर्ट ने कहा कि जब पिता के उत्तराधिकारी उन लोगों में शामिल किए गए हैं जिन्हें उत्तराधिकार मिल सकता है तो फिर ऐसे में जगनो के भाई और उसके बच्चों को बाहरी नहीं कहा जा सकता.

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उत्तराधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का यह बड़ा फैसला है जिसमें एक हिन्दू महिला का मायका पक्ष भी परिवार का हिस्सा बताया गया है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने जगनो के देवर के बच्चों की याचिका खारिज कर दी है जिसमें जगनो द्वारा अपने भाई के बच्चों को संपत्ति दिये जाने को चुनौती दी गई थी. इस याचिका में पारिवारिक सेटलमेंट में परिवार के बाहर के लोगों को संपत्ति दिए जाने की डिक्री रद करने की मांग की गई थी. संपत्ति उत्तराधिकार मामले में यह महत्वपूर्ण फैसला जस्टिस अशोक भूषण व जस्टिस आर.सुभाष रेड्डी की पीठ ने हाईकोर्ट और निचली अदालत के फैसलों को सही ठहराते हुए 22 फरवरी को सुनाया.

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