तहजीब के अब्बा इशरार ने अपनी लड़की को दिए जाने वाले दहेज को गर्व से देखा. फिर अपने साढ़ू तथा नए बने समधी से पूछा, ‘‘अल्ताफ मियां, कुछ कमी हो तो बताओ?’’

‘‘भाई साहब, आप ने लड़की दी, मानो सबकुछ दे दिया,’’ तहजीब के मौसा व नए रिश्ते से बने ससुर अल्ताफ ने कहा, ‘‘बस, जरा विदाई की तैयारी जल्दी कर दें.’’

शीघ्र ही बरात दुलहन के साथ विदा हो गई. तहजीब का मौसेरा भाई मुश्ताक अपनी मौसेरी बहन के साथ शादी करने के पक्ष में नहीं था. उस का विचार था कि यह व्यवस्था उस समय के लिए कदाचित ठीक रही होगी जब लड़कियों की कमी रही होगी. परंतु आज की स्थिति में इतने निकट का संबंध उचित नहीं. किंतु उस की बात नक्कारखाने में तूती के समान दब कर रह गई थी. उस की मां अफसाना ने सपाट शब्दों में कहा था, ‘‘मैं ने खुद अपनी बहन से उस की लड़की को मांगा है. अगर वह इस घर में दुलहन बन कर नहीं आई तो मैं सिर पटकपटक कर अपनी जान दे दूंगी.’’

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विवश हो कर मुश्ताक को चुप रह जाना पड़ा था. तहजीब जब अपनी ससुराल से वापस आई तो वह बहुत बुझीबुझी सी थी. वह मुसकराने का प्रयास करती भी तो मुसकराहट उस के होंठों पर नाच ही न पाती थी. वह खोखली हंसी हंस कर रह जाती थी. तहजीब पर ससुराल में जुल्म होने का प्रश्न न था. दोनों परिवार के लोग शिक्षित थे. अन्य भी कोई ऐसा स्पष्ट कारण नहीं था जिस में उस उदासी का कारण समझ में आता.

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