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Wife को रखना है खुश तो हस्बैंड को बनना होगा परफेक्शनिस्ट

जो लोग अपने हर काम को बिल्कुल सही तरीके से करना चाहते हैं, जिसमें किसी भी कमी की कोई गुंजाइश ना हो, उन्हें परफेक्शनिस्ट कहते हैं. माना कि परफेक्शनिस्ट’ होना आसान नहीं है लेकिन किसी का अपने काम में ‘परफेक्शनिस्ट’ होना अच्छी बात है . परफेक्शनिस्ट’ होने को हमारे समाज में एक गुण माना जाता है.  आमिर खान को भी एक बेहतरीन एक्टर इसलिए माना जाता है क्योंकि वो ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ हैं.

रोहित और अनन्‍या की जिंदगी पर एक नजर डालें 

“अनन्या को दो दिन के लिए ऑफिस के काम से बैंगलोर जाना पड़ा और पीछे से वह पूरा घर सिस्टमेटिक तरीके से मैनेज करके गई थी लेकिन जैसे घर में घुसी तो उसे लगा जैसे वह किसी और के ही घर में आ गई है.. घर के हालत देखकर उसने अपना सर पकड़ लिया .

किचन में पूरे स्लैब पर घी फैला हुआ था ,गैस बर्नर पर चाय निकली हुई थी .. सारी दालों मसालों के डिब्बे खुले पड़े थे  ,सिंक में झूठे बर्तनॉन से स्मेल आ रही थी ,मसालेदानी में सारे मसाले एक दूसरे मे मिले हुए थे ,सोफ़े पर कपड़ों का ढेर लगा हुआ था ,नमकीन ,चिप्स के खाली रैपर यहाँ वहाँ पड़े हुए थे .. राशन का सारा सामन डाइनिंग टेबल पर बिखरा हुआ था ..
अनन्या और रोहित के घर से हमेशा ये ही बातें सुनाई देती थी ..
“रोहित, तुम ने आज फिर टूथपेस्ट का ढक्कन खुला छोड़ दिया..
ऑफिस से आने के बाद तुम्हारे जूते हमेशा यहाँ वहाँ पड़े रहते हैं
ग्रॉसरी लाने के बाद उन्हें अपनी जगह पर क्यों नहीं रखते हो
तुमने चाय में लगता है चीनी की जगह नमक डाल दिया है !
तुमने अपनी कपबर्ड देखी है किसी भी सॉक्स का पेयर कंप्लीट नहीं है ..
रोहित और अनन्या शादी के बाद अकेले रहते हैं . ऊपर के डायलॉग्स से आप यह तो समझ गए होंगे कि अनन्या अपने काम में परफेक्शनिस्ट’ है और वहीं रोहित उसके बिल्कुल उल्टा .. जिसकी वजह से रोज उनके बीच बहस होती रहती है .

परफेक्शनिस्ट होने के फायदे

·        परफेक्शनिस्ट लोग अपने काम को बेहतर तरीके से करने की कोशिश करते हैं.
·        ऐसे लोग काम की बारीकियों पर ध्यान देते हैं और कम गलतियां करते हैं.
·        परफेक्शनिस्ट लोगों पर लोग अपना काम कराने के लिए भरोसा करते हैं.

हसबैंड वाइफ के परफेक्शनिस्ट होने के हैं कई फायदे

·        घर में तनाव लड़ाई झगड़ा कम होता है.  हर चीज सही जगह पर मिलती है .
·        घर साफ सुथरा रहता है और साफ-सुथरे घर में रहने से तनाव कम होता है और आराम करने का ज्यादा समय मिलता है.
·        घर के काम आसानी से और जल्दी करने में मदद मिलती है
·        हसबैन्ड वाइफ के बीच जिम्मेदारियों को लेकर मानसिक स्पष्टता बढ़ती है
·        दोनों का जीवन खुशहाल और सार्थक होता है
·        रिश्तों में टेंशन न होने से हल्कापन महसूस होता है ,दिमाग रिलैक्स रहता है.
·        घर के माहौल में सुधार होता है और यह दोस्तों, परिवार के सदस्यों, और गेस्ट्स को अच्छा लगता है .

वाइफ ,हसबैन्ड की कोशिशों को सराहे

कोई भी इंसान किसी काम में परफेक्ट नहीं होता है, समय के साथ ही वो सारी चीजें सीखता है.  इसलिए वाइफ को भी चाहिए कि अगर आपके हस्बैंड परफेक्शनिस्ट बनने की दिशा में घर का कोई काम करते हैं तो उनका मनोबल बढ़ाएं, भले ही वो सही से नहीं कर पा रहे हों.  बार-बार टोकें नहीं, ऐसा करने से उन्हें बुरा लग सकता है. रिश्तेदारों ,दोस्तों के सामने हसबैन्ड द्वारा की गई कोशिशों को ,उनके काम को सराहें.  इससे हसबैंड को अच्छा लगेगा.  हसबैंड को यह समझाएं कि साथ और सही तरीके से काम करने से आप दोनों एक दूसरे के साथ ज्यादा और क्वालिटी टाइम बिता पाएंगे.

धीरे धीरे बनेगी बात

किसी भी प्रकार की आदत को जल्दी बदल पाना बेहद कठिन होता है लेकिन रोजाना की जिंदगी में कोशिश करने से आदत में बदलाव अवश्य आता है. एक रणनीति के अनुसार अगर हसबैन्ड वाइफ  दोनों मिलकर अपने घर को व्यवस्थित और साफ-सुथरा रखेंगे तो इससे उन्हें एक ही दिन में सफाई में अपनी पूरी एनर्जी नहीं लगानी पड़ेगी और उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि कितनी जल्दी और आसानी से हर रोज की सफाई हो गयी है.
अपना बेटर वर्जन बनने की कोशिश करें

हसबैन्ड वाइफ में से अगर एक अपना हर काम परफेक्ट तरीके से करता है और दूसरा बेढंगे तरीके से तो पक्का दोनों में महाभारत होगी इसलिए शुरुआत में बेढंगे पार्टनर आदर्श या बेस्ट हो जाने के लिए नहीं, बल्कि बेहतरी की राह पर चलने की सोचे.  धीरे धीरे अपनी आदतों में बदलाव लाए . ऐसी कोशिशें करे जिस में वह खुद को तराशे और आज को बीते हुए कल से बेहतर बनाने की दिशा में काम करे और अपने आने वाले कल की बेहतरी की बुनियाद भी रख सके.  ऐसे प्रयास जिंदगी के सफर को जी भरकर जीने का जरिया बनते हैं.

घर दोनों का तो जिम्मेदारी भी दोनों की

घर को साफ-सुथरा और व्यवस्थित रखना हसबैंड वाइफ दोनों की जिम्मेदारी होती है. आपके यहां आने वाले लोग आपके घर को देखकर यह अनुमान लगाते हैं कि आप अपनी जिंदगी में कितने व्‍यवस्थित हैं. आपका घर तभी व्यवस्थित और साफ-सुथरा बना रह सकता है जब आप इसको अच्छे तरीके से बनाए रखते हैं. अगर आप सलीके से नहीं रहते हैं तो आपका घर बार-बार बिखरता और अव्यवस्थित रहेगा. इसलिए अपने घर को व्यवस्थित और साफ-सुथरा बनाए रखने के लिए आप इसे अपनी आदत में शामिल करें.

Gen Z & Millennial : कंफर्ट और पैसा फिर क्यों हैं कंफ्यूजन

26 साल का यंग आईटी प्रोफैशनल का ईयरली पैकेज 50 लाख, फिर भी वह सेस्टिसफाइड नहीं है. वह हर साल जौब बदलता है. उस की लाइफ में पर्सनल रिश्तों की कोई जगह नहीं है, वीकेंड पर पार्टी करना, औफिस क्लीग्स के साथ हैंग आउट, हर 2-3 महीने में महंगा फोन लेना, साल में 3-4 बार फौरेन ट्रिप्स, हर दूसरे साल गाड़ी बदलना फिर भी वह जिंदगी से बोर हो गया है, खुश नहीं है.

एनर्जेटिक, इम्पेशेंट, केयरलेस, टैक सैवी, स्मार्ट, रिबेलियस, एमलेस, कन्फ्यूज़्ड, एनर्जी ज्यादा पेशेंस कम, फिजिकल और मेंटल हैल्थ बड़ा कन्सर्न. ये सारे फीचर जेनजी के हैं. मिलेनियल्स वह जनरेशन है जिसे पता नहीं मैं क्या करूं, कैसे अपनी खुशी हासिल करूं?

आज के यूथ से अगर पूछा जाए कि उन के लाइफ के गोल्स क्या हैं? तो वे बोलेंगे कि उन के पास कोई लिस्ट औफ गोल्स नहीं है. सोचिए कितनी ऐमलेस है आज की जेनरेशन. यही वजह है कि वह हमेशा स्ट्रेस में रहती है. सारी सुविधाओं के बावजूद भी खुश नहीं है.

यूथ को यह समझना होगा कि टारगेट बनाने से ही सफलता हासिल की जा सकती है. जैसे अगर कोई रेलवे स्टेशन के काउंटर पर टिकट लेने के लिए पहुंचता है, काउंटर पर बैठा व्यक्ति उस से पूछता है, ”कहां की टिकट चाहिए” तो वह कहता है “कहीं की भी दे दो और टिकट न मिलने पर और वह कहीं भी नहीं पहुंच पाता.

जब किसी को किसी जगह जाने के बारे में उसे सारी जानकारी होती है कि कौन सी ट्रेन जाएगी, कितने बजे जाएगी, कोन सा सीट नंबर है तो सफर सुहाना और मंजिल पर पहुंचना आसान होता है लेकिन जब जिंदगी के गोल्स क्लियर नहीं होते तो कहीं भी पहुंचा नहीं जा सकता.

यही हाल युवाओं का है गैलरी में ढेरों फोटोज हैं लेकिन प्रोफाइल पिक के लिए कोई अच्छी नहीं लग रही. एक ही एंगल की दसियों फोटो हैं और कंफ्यूज हैं कि अच्छी कौन सी है. हर थोड़े दिन में लाइफ जीने का तरीका बदल रहे हैं, रिस्क लेने को तैयार नहीं हैं, इनफार्मेशन है, कम्फर्ट है फिर भी खुश नहीं. सोशल मीडिया में लाइक्स और कमेंट पर ही सारा ध्यान है.  लक्ष्य जिंदगी में उदेश्य और दिशा देते हैं और बताते हैं कि क्या और कैसे हासिल करना है और किस दिशा में काम और मेहनत करनी है.

 

पेरैंट्स की सोच बदलना जरूरी

हमारी जेनजी जनरेशन के पेरैंट्स बचपन से वो सपने देखते हैं जो वे खुद पूरे नहीं कर पाए. बच्चों के लिए पूरी जिंदगी कुर्बान कर देते हैं इस एवज में कि बच्चे उन का नाम रोशन करेंगे. यह एक तरह का दबाव बनाता है. इस से बच्चों के दिमाग में हर समय प्रेशर हावी रहता है और बच्चे उसी दिशा में जुट जाते हैं.

दसवीं में अच्छे नंबर मिठाई तारीफें, बारहवीं में भी यही, इस के बाद प्रतियोगी परीक्षा में सफलता में या कैम्पस सेलेक्शन से और ज्यादा खुशी. अच्छी सैलरी, घर परिवार से दूरी, अकेलापन इन सब से युवाओं की मेंटल हैल्थ पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. पेरैंट्स को समझाना होगा कि वे अपनी अपेक्षाएं बच्चों पर न थोपें. जिस फील्ड में उन की रुचि और टैलेंट है वह फील्ड उसे चुनने दें, मतलब उस पर बड़ा आदमी बनने का अपना ख्वाब न थोपें. खुश कैसे रहना है उसे यह सिखाएं.

यूथ को दिशाहीन बनाने में सब से ज्यादा जिम्मेदार पेरैंट्स, मीडिया, सिनेमा और राजनीति है. देश में एक भी ऐसा नेता और संत नहीं जिस का आचरण यूथ को प्रेरित करता हो. हमारे समाज में जन्मपत्री देखने वाले, तांत्रिक, झोलाछाप डाक्टर, पूजापाठ कराने वाले पाखंडी समाज में बड़ी शान से कमाई कर रहे हैं और यूथ स्ट्रेस, अकेलेपन, गुस्सा, डिप्रेशन जैसी मानसिक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं.

दुनिया में हुए अधिकतर सर्वे कहते हैं कि मिलेनियल्स सब से अनफिट जनरेशन है और फिज़िकल ही नहीं मेंटल हैल्थ भी इन के लिए एक बड़ा कन्सर्न है. इस से बुरा हाल जेनजी का है. यह दोनों जेनरेशन ही डिप्रेशन, कैफीन डिसऔर्डर, गेमिंग डिसऔर्डर से भी जूझ रही है.

 

क्यों कन्फ्यूज्ड है यूथ

• किसी भी बात में बहुत जल्दी निर्णय लेना
• किसी के बारे में बहुत जल्दी एक सोच बना लेना
• पेशेंस की कमी होना
• हर चीज में प्रैक्टिकल होना
• हर किसी को एक ही तराजू पर तौलना
• दूसरों की गलती से न सीखना
• बहुत जल्दी किसी पर यकीन कर लेना
• प्लान ए के फेल होने पर प्लान बी का न होना
• प्रेशर न झेल पाना
• सब कुछ अपने तरीके से करना किसी की न सुनना

यूथ हर किसी को देख के आकर्षित हो जाता है. उसे अपना रोल मौडल मान लेता है बिना अपनी क्षमता को पहचाने, उस के जैसा बनने की चाहत रखने लगता. अपने मार्ग से भटक जाता है और उसे अपना जीवन बेकार लगने लगता है. कैसे यूथ को एक ही दिन में प्यार हो जाता है और फिर कुछ हफ़्तों में वही रिश्ते खत्म हो जाते हैं? उबासी और बासीपन छा जाता है. जिस नौकरी को पाने के लिए मशक्कत करता है कुछ समय बाद उसी नौकरी से नफरत करता है और अपने सपनों अपनी खुशियों पर काम करने की बजाय स्ट्रेस में आ कर जंक फूड खाते, नशा करते हुए वेब सीरीज देखने में लग जाता है. कुछ बड़ा करना तो चाहता है, लेकिन इंस्टाग्राम, फेसबुक पर समय बरबाद करता है.

गैर जिम्मेदार सरकार

देश की करीब आधी आबादी 25 वर्ष से कम उम्र वाले युवाओं की है मगर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हमारे जनप्रतिनिधि, हमारी सरकार युवाओं के लिए कुछ करने के लिए गंभीर हैं? क्या सरकार युवा शक्ति का, उन की ऊर्जा का, उन के समय का सदुपयोग करने पर कोई काम कर रही है?
सिर्फ आईआईटी, आईआईएम व नैशनल यूनिवर्सिटीज खोल कर दे देने भर से युवा देश में सक्रिय भूमिका में आ जाएंगे ऐसा नहीं है. हर साल करीब एक से डेढ़ लाख छात्र एमबीए और इस के आधे इंजीनियरिंग कर के बेरोजगार घूम रहे हैं. देश में सिर्फ 20% ग्रेजुएट्स को ही रोजगार मिलता है. बाकी बचे 80% बेरोजगार राजनीतिक रैलियों में कुछ पैसों के लिए जिंदाबाद मुर्दाबाद करते हैं. लोकल राजनीति भी इसलिए कम जिम्मेदार नहीं है. चुनावी सीजन में हर नेता को इन फेसबुकिया यूथ की टीम चाहिए होती है जो उन के लिए जिंदाबाद के नारे लगाते रहें. किसी की तारीफ तो किसी को ट्रोल करे. इस सब से नेताजी का भविष्य तो सुरक्षित हो जाता है पर यूथ का भविष्य चौपट हो जाता है.

 

यूथ की जीवनशैली बरबाद करता सोशल मीडिया

 

एक सर्वे के हिसाब से इस साल के शुरूआत तक करीब 200 मिलियन यानि कि 20 करोड़ युवा फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हात्सऐप का इस्तेमाल करते हैं और इस का रिजल्ट साइबर क्राइम, ड्रग एडिक्शन, आभासी रिश्ते बनाने के रूप में सामने आ रहा है. युवाओं की जिंदगी मशीनी होती जा रही है. समाज में फैले अपराध खासकर साइबर अपराध, हिंसा, साजिश, धोखे में युवा जानेअनजाने संलिप्त हो रहे हैं. बिना मेहनत के मिली सुविधाओं और आधुनिकता के कारण उन्होंने जिंदगी को मजाक समझ लिया है.

 

रिस्क लेना सीखे यूथ

अगर कुछ बड़ा करना है तो रिस्क और जोखिम लेने ही होते हैं. हमारे परिवारों में अगर बच्चा रूटीन से अलग कैरियर चुनने की बात घर वालों को कहता है तो वे उसे डराते हैं उस का साथ नहीं देते क्योंकि उन्होंने खुद कभी रिस्क नहीं उठाया होता. अगर कुछ नया करना है और बड़ा करना है रिस्क लेना ही एकमात्र तरीका है. यूथ को यह समझना होगा कि बिना रिस्क के कुछ नहीं मिलता और पेरैंट्स को इस में उन का साथ देना होगा.

Love Affair :  मेरे बेटे को इश्‍क हो गया

विकी ने अपने मातापिता से कभी कोई बात नहीं छिपाई थी, लेकिन बरखा के साथ अपनी मुहब्बत की बात बताने से वह ?ि?ाक रहा था. आखिर ऐसा क्या हुआ कि मां को अपने बेटे की पसंद का आभास हो गया और उन्होंने बेटे की पसंद पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी.

 

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

 

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

 

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

 

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

 

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

Romantic Story : प्‍यार की पहली छूअन

उस दिन बस में बहुत भीड़ थी. कालिज पहुंचने की जल्दी न होती तो पुरवा वह बस जरूर छोड़ देती. उस ने एक हाथ में बैग पकड़ रखा था और दूसरे में पर्स. भीड़ इतनी थी कि टिकट के लिए पर्स से पैसे निकालना कठिन लग रहा था. वह अगले स्टाप पर बस रुकने की प्रतीक्षा करने लगी ताकि पर्स से रुपए निकाल कर टिकट ले सके. बस स्टाप जैसे ही निकट आया कि अचानक किसी ने पुरवा का पर्स खींचा और चलती बस से कूद गया. पुरवा जोरजोर से चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरा पर्स, अरे, मेरा पर्स ले गया. कोई पकड़ो उसे,’’ उस के स्वर में बेचैनी भरी चीख थी.

पुरवा की चीख के साथ ही बस झटके से रुक गई और लोगों ने देखा कि तुरंत एक युवक बस से कूद कर चोर के पीछे भागा. ‘‘लगता है यह भी उसी चोर का साथी है,’’ बस में एकसाथ कई स्वर गूंज उठे. बस रुकी हुई थी. लोगों की टिप्पणी बस में संवेदना जता रही थी. एक यात्री ने कहा, ‘‘क्या पता साहब, इन की पूरी टोली साथ चलती है.’’ तभी नीचे हंगामा सा मच गया. बस से कूद कर जो युवक चोर के पीछे भागा था वह काफी फुर्तीला था. उस ने भागते हुए चोर को पकड़ लिया और उस की पिटाई करते हुए बस के निकट ले आया. ‘‘अरे, बेटे, इसे छोड़ना मत,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पुलिस में देना, तब पता चलेगा कि मार खाना किसे कहते हैं.’’

उधर कुछ यात्री जोश में आ कर अपनेअपने हाथों का जोर भी चोर पर आजमाने लगे. पुरवा परेशान खड़ी थी. एक तो पर्स छिनने के बाद से अब तक उस का दिल धकधक कर रहा था, दूसरे, कालिज पहुंचने में देर पर देर हो रही थी. बस कंडेक्टर ने उस चोर को डराधमका कर उस की पूरी जेब खाली करवा ली और फिर कभी बस में सूरत न दिखाने की हिदायत दे कर बस स्टार्ट करवा दी.

सभी यात्री महज उस बात से खुश थे कि चलो, जल्दी जान छूट गई, वरना पुलिस थाने में जाने कितना समय खराब होता. युवक ने पुरवा को पर्स देते हुए कहा, ‘‘देख लीजिए, पर्स में पैसे पूरे हैं कि नहीं.’’

उस युवक के इस साहसिक कदम से गद्गद पुरवा ने पर्स लेते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आप ने तो कमाल कर दिया.’’ ‘‘नहीं जी, कमाल कैसा. इतने सारे यात्री देखते रहते हैं और एक व्यक्ति अपना हाथ साफ कर भाग जाता है, यह तो सरासर कायरता है,’’

उस युवक ने सारे यात्रियों की तरफ देख कर कहा तो कुछ दूरी पर बैठे एक वृद्ध व्यक्ति धीरे से बोल पड़े, ‘‘जवान लड़की देख कर हीरो बनने के लिए बस से कूद लिया था. हम बूढ़ों का पर्स जाता तो खड़ाखड़ा मुंह देखता रहता.’’

इस घटना के बाद तो अकसर दोनों बस में टकराने लगे. पुरवा किसी के साथ बैठी होती तो उसे देखते ही मुसकरा देती. यदि वह किसी के साथ बैठा होता तो पुरवा को देखते ही थोड़ा आगे खिसक जाता और उस से भी बैठ जाने का आग्रह करता.

जब पहली बार दोनों साथ बैठे थे तो पुरवा ने कहा था, ‘‘मैं ने अपने मम्मीपापा को आप के साहस के बारे में बताया था.’’ ‘‘अच्छा,’’ युवक हंस दिया, ‘‘आप को लगता है कि वह बहुत साहसिक कार्य था तो मैं भी मान लेता हूं पर मैं ने तो उस समय अपना कर्तव्य समझा और चोर के पीछे भाग लिया.’’

‘‘आप क्या करते हैं?’’ पुरवा ने पूछ लिया. ‘‘अभी तो फिलहाल इस दफ्तर से उस दफ्तर तक एक अदद नौकरी के लिए सिर्फ टक्करें मार रहा हूं.’’

‘‘आप तो बहुत साहसी हैं. धैर्य रखिए, एक न एक दिन आप अपने मकसद में जरूर कामयाब होंगे,’’ पुरवा को लगा, युवक को सांत्वना देना उस का कर्तव्य बनता है. पुरवा के उतरने का समय आया तो वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘आप का नाम?’’ ‘‘कुछ भी पुकार लीजिए,’’ युवक मुसकरा कर बोला, ‘‘लोग मुझे सुहास के नाम से जानते हैं.’’

अगली बार एकसाथ बैठते ही सुहास ने पूछ लिया, ‘‘आप ने इतने दिनों में अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं.’’ ‘‘क्या जानना चाहते हैं? मैं एक छात्रा हूं. एम.ए. का अंतिम वर्ष है और मैं अंधमहाविद्यालय में संगीत भी सिखाती हूं.’’

फिर बहुत देर तक दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पर चर्चा करते रहे. विदा होते समय सुहास को याद आया, वह बोला, ‘‘आप का नाम पूछना तो मैं रोज ही भूल जाता हूं.’’ पुरवा मुसकरा दी और बोली, ‘‘पुरवा है मेरा नाम,’’ और चहकती सी बस से उतर गई.

एक दिन सुहास भी उसी बस स्टाप पर उतर गया जहां पुरवा रोज उतरती थी तो वह चहक कर बोली, ‘‘आज आप यहां कैसे…’’ ‘‘बस, तुम्हारे साथ एक कप चाय पीने को मन हो आया,’’ सुहास के स्वर में भी उल्लास था. फिर सुहास को लगा जैसे कुछ गलत हुआ है अत: अपनी भूल सुधारते हुए बोला, ‘‘देखिए, आप के लिए मेरे मुंह से तुम शब्द निकल गया है. आप को बुरा तो नहीं लगा.’’ पुरवा हंस दी. मन में कुछ मधुर सा गुनगुनाने लगा था. धीरे से बोली, ‘‘यह आज्ञा तो मैं भी चाहती हूं. हम दोनों मित्र हैं तो यह आप की औपचारिकता क्यों?’’

‘‘यही तो…’’ सुहास ने झट से उस की हथेली पर अपने सीधे हाथ का पंजा थपक कर ताली सी बजा दी, ‘‘फिर हम चलें किसी कैंटीन में एकसाथ चाय पीने के लिए?’’ सुहास ने आग्रह करते हुए कहा. चाय पीते समय दोनों ने देखा कि कुछ लड़के इन दोनों को घूर रहे थे. सुहास का पौरुष फिर जाग उठा. उस ने पुरवा से कहा, ‘‘लगता है इन्हें सबक सिखाना पड़ेगा.’’ ‘‘जाने दो, सुहास. समझ लो कुत्ते भौंक रहे हैं. सुबहसुबह उलझना ठीक नहीं है.’’ चाय पी कर दोनों फिर सड़क पर आ गए. ‘‘सुनो, सुहास,’’ पुरवा ने उसे स्नेह से देखा, ‘‘तुम्हें इतना गुस्सा क्यों आ रहा था कि उन की मरम्मत करने को उतावले हो उठे.’’ ‘‘देख नहीं रही थीं, वे सब कैसे तुम्हें घूर रहे थे,’’ सुहास का क्रोध अभी तक शांत नहीं हुआ था. ‘‘मेरे लिए किसकिस से झगड़ा करोगे,’’ पुरवा ने उसे समझाने की चेष्टा की, लेकिन उस के मन में एक मीठी सी गुदगुदी हुई कि इसे मेरी कितनी चिंता है, मेरी मर्यादा के लिए मरनेमारने को तत्पर हो उठा. धीरेधीरे कैंटीन में बैठ कर एकसाथ चाय पीने का सिलसिला बढ़ गया. अब दोनों के ड्राइंगरूम के फोन भी घनघनाने लगे थे. देरदेर तक बातें करते हुए दोनों अपनेअपने फोन का बिल बढ़ाने लगे. दोनों जब कभी एकसाथ चलते तो उन की चाल में विचित्र तरह की इतराहट बढ़ने लगी थी, जैसे पैरों के नीचे जमीन नहीं थी और वे प्यार के आकाश में बिना पंख के उड़े चले जा रहे थे.

एक उच्च सरकारी पद से रिटायर हुए मकरंद वर्मा के 3 बेटे और एक बेटी थी. बेटी श्वेता इकलौती होने के कारण बहुत दुलारी थी. एक बार जो कह दिया वह पूरा होना ही चाहिए. उन के लिए तो सभी बच्चे लाडले ही थे. उन का बड़ा बेटा निशांत डाक्टर और दूसरा बेटा आकाश इंजीनियर था. सब से छोटा बेटा सुहास अभी नौकरी की तलाश में था. पढ़ाई में अपने दोनों बड़े भाइयों से अलग सुहास किसी तरह बी. काम. पास कर सका था. बस, तभी से वह लगातार नौकरी के लिए आवेदन भेज रहा है. कभीकभी साक्षात्कार के लिए बुलावा आ जाता है तो आंखों में सपने ही सपने तैरने लगते हैं.

मकरंद वर्मा की बूढ़ी आंखों में भी उत्साह जागता है. सोचते हैं कि शायद अब की बार यह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए पर दोनों में से किसी का भी सपना पूरा नहीं होता. सुहास खाली समय घर वालों का भाषण सुनने के बजाय बाहर वालों की सेवा करने में अधिक खुश रहता है. उस सेवा में मित्रों के घर उन के मातापिता को अस्पताल ले जाने से ले कर बस में चोरउचक्कों को पकड़ना भी शामिल है.

सुहास अपनी बहन श्वेता को कुछ अधिक ही प्यारदुलार करता है. श्वेता भी भाई का हर समय साथ देती है. मम्मी रजनी बाला अपनी लाडली बेटी को जेब खर्च के लिए जो रुपए देती हैं उन में से बहन अपने भाई को भी दान देती रहती है क्योंकि उसे पता है कि भाई बेकार है.

अपने दोनों बड़े भाइयों की तरह जीवन में सफल नहीं है इसलिए उस की तरफ लोग कम ध्यान देते हैं. लेकिन श्वेता को पता है कि सुहास कितना अच्छा है जो उस का हर काम करने को तत्पर रहता है. बाकी दोनों भाई तो विवाह कर के अपनीअपनी बीवियों में ही मगन हैं. इसीलिए उसे सुहास ही अधिक निकट महसूस होता है. मकरंद वर्मा को अपने दोनों छोटे बच्चों, श्वेता व सुहास के भविष्य की बेहद चिंता थी पर चिंता करने से समस्या कहां दूर होती है.

श्वेता के लिए कई लड़के देखे, पर उसे सब में कुछ न कुछ दोष दिखाई दे जाता है. श्वेता रजनी से कहती है, ‘‘मम्मा, ये मोटी नाक और चश्मे वाला लड़का ही आप को पसंद करना था.’’ रजनी उसे प्यार से पुचकारतीं, ‘‘बेटी, लड़कों का रूपरंग नहीं उन का घरपरिवार और पदप्रतिष्ठा देखी जाती है.’’ इस तरह 1 से 2 और 2 से 3 लड़के उस की आलोचना के शिकार होते गए. श्वेता को सहेलियों के साथ घूमना जितना अच्छा लगता था उस से कहीं अधिक मजा उसे अपने भाई सुहास को चिढ़ाने में आता था.

उस दिन रविवार था. शाम को श्वेता को किसी सहेली के विवाह में जाना था. कारीडोर में बैठ कर वह अपने लंबे नाखूनों की नेलपालिश उतार रही थी. तभी उस ने सुहास को तैयार हो कर कहीं जाते देखा तो झट से टोक दिया, ‘‘भैयाजी, आज छुट्टी का दिन है और आप कहां नौकरी ढूंढ़ने जा रहे हैं?’’ ‘‘बस, घर से निकलो नहीं कि टोक देती है,’’ फिर श्वेता के निकट आ कर हथेली खींचते हुए बोला, ‘‘ये नाखून किस खुशी में इतने लंबे कर रखे हैं?’’ ‘‘सभी तो करती हैं,’’ श्वेता ने हाथ वापस खींच लिया.

‘‘सभी गंदगी करेंगे तो तुम भी करोगी,’’ सुहास झुंझला गया. ‘‘कुछ कामधाम तो है नहीं आप को, बस, यही सब टोकाटाकी करते रहते हैं,’’ श्वेता ने सीधे उस के अहं पर चोट कर दी तो वह क्रोध पी कर बाहर दरवाजे की ओर बढ़ गया. ‘‘सुहास,’’ रजनी के स्वर कानों में पड़ते ही वह पलट कर बोला, ‘‘जी, मम्मी.’’ ‘‘बिना नाश्ता किए सुबहसुबह कहां चल दिए?’’ ‘‘मम्मी, एक दोस्त ने चाय पर बुलाया है. जल्दी आ जाऊंगा.’’

‘‘दोस्त से फुरसत मिले तो शाम को जल्दी चले आइएगा,’’ श्वेता बोली, ‘‘एक सहेली की शादी में जाना है. वहीं आप की जोड़ीदार भी खोज लेंगे.’’ ‘‘मेहरबानी रखो महारानी. अपना जोड़ीदार खोज लेना, हमारा ढूंढ़ा तो पसंद नहीं आएगा न,’’ सुहास ने भी तीर छोड़ा और आगे बढ़ गया. पुरवा जल्दीजल्दी तैयार हो रही थी तभी उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘छुट्टी के दिन क्यों इतनी तेजी से तैयार हो रही है? आज तुझे कहीं जाना है क्या?’’ ‘‘अरे मम्मा, तुम्हें याद नहीं, मुझे अंधमहाविद्यालय भी तो जाना है.’’ ‘‘लेकिन आज, छुट्टी वाले दिन?’’ मम्मी ने उस के बिस्तर की चादर झाड़ते हुए कहा, ‘‘कम से कम छुट्टी के दिन तो अपना कमरा ठीक कर लिया कर.’’ ‘‘वापस आ कर कर लूंगी, मम्मी. वहां बच्चों को नाटक की रिहर्सल करवानी है,’’ पुरवा ने चहकते हुए कहा और अपना पर्स उठा कर चल दी.

‘‘कम से कम नाश्ता तो कर ले,’’ मम्मी तकियों के गिलाफ सही करती हुई बोलीं. ‘‘कैंटीन में खा लूंगी, मम्मी,’’ पुरवा रुकी नहीं और तीव्रता से चली गई. सुहास निश्चित स्थान पर पुरवा की प्रतीक्षा कर रहा था. ‘‘हाय, पुरवा,’’ पुरवा को देखते ही उल्लसित हो सुहास बोला. ‘‘देर तो नहीं हुई?’’ पुरवा ने उस की बढ़ी हुई हथेली थाम ली. ‘‘मैं भी अभी कुछ देर पहले ही आया था.’’

दोनों के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी. पुरवा के साथसाथ चलते हुए सुहास ने कहा, ‘‘घर वालों से झूठ बोल कर प्यार करने में कितना अनोखा आनंद है.’’ ‘‘क्या कहा, प्यार…’’ पुरवा चौंक कर ठहर गई. ‘‘हां, प्यार,’’ सुहास ने हंस कर कहा. ‘‘लेकिन तुम ने अभी तक प्यार का इजहार तो किया ही नहीं है,’’ पुरवा ने कुछ शरारत से कहा. ‘‘तो अब कर रहा हूं न,’’ सुहास ने भी आंखों में चंचलता भर कर कहा. ‘‘चलो तो इसी खुशी में कौफी हो जाए,’’ पुरवा ने मुसकरा कर कहा. रेस्तरां की ओर बढ़ते हुए दोनों एकदूसरे के परिवार का इतिहास पूछने लगे. जैसे प्यार जाहिर कर देने के बाद पारिवारिक पृष्ठभूमि की जानकारी जरूरी हो. ‘‘सबकुछ है न घर में,’’ सुहास कौफी का आर्डर देते हुए हंस कर बोला, ‘‘मम्मीपापा हैं, 2 भाईभाभी, एक लाडली सी बहन, भाभियों का तो यही कहना है कि मम्मीपापा ने मुझे लाड़ में बिगाड़ रखा है लेकिन मैं किसी तरफ से तुम्हें बिगड़ा हुआ लगता हूं क्या?’’ पुरवा ने आगेपीछे से उसे देखा और गरदन हिला दी, ‘‘लगते तो ठीकठाक हो,’’ उस ने शरारत से कहा, ‘‘नाक भी ठीक है, कान भी ठीक जगह फिट हैं और मूंछें…तौबातौबा, वह तो गायब ही हैं.’’ ‘‘ठीक है, मैडम, अब जरा आप अपनी प्रशंसा में दो शब्द कहेंगी,’’ सुहास ने भी उसे छेड़ने के अंदाज में कहा. ‘‘क्यों नहीं, महाशय,’’ पुरवा इतरा उठी, ‘‘मेरी एक प्यारी सी मम्मी हैं जो मेरी बिखरी वस्तुएं समेटती रहती हैं. पापा का छोटा सा व्यापार है. बड़े भाई विदेश में हैं. एक छोटा भाई था जिस की पिछले साल मृत्यु हो गई.’’ ‘‘ओह,’’ सुहास ने दुखी स्वर में कहा. इस के बाद दोनों गंभीर हो गए थे. थोड़ी देर के लिए दोनों की चहक शांत हो गई थी. कौफी का घूंट भरते हुए सुहास ने पूछा, ‘‘क्या खाओगी?’’ ‘‘जो तुम्हें पसंद हो,’’ पुरवा ने कहा. ‘‘यहां सुबहसुबह इडलीचटनी गरम सांभर के साथ बहुत अच्छी मिलती है.’’

‘‘ठीक है, फिर वही मंगवा लो,’’ पुरवा निश्ंिचत सी कौफी पीने लगी. मन में अचानक कई विचार उठने लगे. मम्मी से झूठ बोल कर आना क्या ठीक हुआ, आज तक जो कार्य नहीं किया वह सुहास की संगत पाने के लिए क्यों किया? यह ठीक है कि उसे अंधमहाविद्यालय के लिए नाटक की रिहर्सल करवानी पड़ती है, पर आज तो नहीं थी.

उस ने सुहास की ओर देखा. इतने बड़े घर का बेटा है, पर दूसरों के दुख को अपना समझ कर कैसे सहायता करने को तड़प उठता है. उस के इसी व्यक्तित्व ने तो पुरवा का मन जीत लिया है. इडलीसांभर आ चुका था. पुरवा ने अपनी प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘मम्मी ने बड़े प्यार से हलवा तैयार किया था, पर मैं बिना नाश्ता किए ही भाग आई.’’ ‘‘हाथ मिलाओ यार,’’ सुहास ने तपाक से हथेली बढ़ा दी, ‘‘मेरी मम्मा भी नाश्ते के लिए रोकती ही रह गईं, पर देर हो रही थी न, सो मैं भी भाग आया.’’ ‘‘अरे वाह,’’ कहते हुए पुरवा ने पट से उस की हथेली पर अपनी कोमल हथेली रख दी तो उस का संपूर्ण शरीर अनायास ही रोमांचित हो उठा.

यह कैसा विचित्र सा कंपन है, पुरवा ने सोचा. क्या किसी पराए व्यक्ति के स्पर्श में इतना रोमांच होता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस के मन ने तर्क किया. यह तो एक सद्पुरुष के प्यार भरे स्पर्श का ही रोमांच होगा. कितनी विचित्र बात है कि एक छोटी सी घटना जीवन को एक खेल की तरह अपनी डगर पर मोड़ती चली गई और आज दोनों को एकदूसरे की अब इतनी जरूरत महसूस होती है. शायद इसे ही प्यार कहते हैं.

Hindi Story : तीन सहेलियां

‘‘पिछले एक हफ्ते से बहुत थक गई हूं,’’ संजना ने कौफी का आर्डर देते हुए रोली से कहा, ‘‘इतना काम…कभीकभी दिल करता है कि नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाऊं.’’

‘‘हां यार, मेरे घर वाले भी शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं,’’ रोली बोली, ‘‘लेकिन नौकरी की व्यस्तता में कुछ सोच नहीं पा रही हूं…नयना का ठीक है. शादी का झंझट ही नहीं पाला, साथ रहो, साथ रहने का मजा लो और शादी के बाद के झंझट से मुक्त रहो.’’

‘‘मुझे तो लिव इन रिलेशन शादी से अधिक भाया है,’’ नयना ने कहा, ‘‘शादी करो, बच्चे पैदा करो, बच्चे पालो और नौकरी को हाशिए पर रख दो. अरे, इतनी मेहनत कर के इंजीनियरिंग की है क्या सिर्फ घर चलाने और बच्चे पालने के लिए?’’

‘‘कैसा चल रहा है तेरा पवन के साथ?’’ रोली ने पूछा.

‘‘बहुत बढि़या, जरूरत पर एक दूसरे का साथ भी है लेकिन बंधन कोई नहीं. मैं तो कहती हूं, तू भी एक अच्छा सा पार्टनर ढूंढ़ ले,’’ नयना बोली.

‘‘कौन कहता है कि शादी बंधन है,’’ संजना कौफी के कप में चम्मच चलाती हुई बोली, ‘‘बस, कामयाब औरत को समय के अनुसार सही साथी तलाश करने की जरूरत है.’’

‘‘हां, जैसे तू ने तलाश किया,’’ नयना खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आई.आई.टी. इंजीनियर और आई.आई.एम. लखनऊ से एम.बी.ए. हो कर एक लेक्चरर से शादी कर ली, इतनी कामयाब बीवी को वह कितने दिन पचा पाएगा.’’

जवाब में संजना मुसकराने लगी, ‘‘क्यों नहीं पचा पाएगा. जब एक पत्नी अपने से कामयाब पति को पचा सकती है तो एक पति अपने से अधिक कामयाब पत्नी को क्यों नहीं पचा सकता है. आज के समय की यही जरूरत है,’’ कह कर कौफी का प्याला मेज पर रख कर संजना उठ खड़ी हुई. साथ ही रोली और नयना भी खिलखिलाते हुए उठीं और अपनी- अपनी राह चल पड़ीं.

तीनों सहेलियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़ेबड़े ओहदों पर थीं. फुरसत के समय तीनों एकदूसरे से मिलती रहती थीं. तीनों सहेलियों की उम्र 32 पार कर चुकी थी. रोली अभी तक अविवाहित थी. नयना एक युवक पवन के साथ लिव इन रिलेशन व्यतीत कर रही थी और संजना ने एक लेक्चरर से 3 साल पहले विवाह किया था. उस का साल भर का एक बेटा भी था. वैसे तो तीनों सहेलियां अपनीअपनी वर्तमान स्थितियों से संतुष्ट थीं लेकिन सबकुछ है पर कुछ कमी सी है की तर्ज पर हर एक को कुछ न कुछ खटकता रहता था.

रोली जब घर पहुंची तो 9 बज रहे थे. मां खाने की मेज पर बैठी उस का इंतजार कर रही थीं. उसे आया देख कर मां बोलीं, ‘‘बेटी, आज बहुत देर कर दी, आ जा, जल्दी से खाना खा ले.’’

9 बजना बड़े शहरों में कोई बहुत अधिक समय नहीं था, पर किसी ने भी उस का खाने के लिए इंतजार करना ठीक नहीं समझा. भाई अगर देर से आएं तो उन के लिए सारा परिवार ठहरता है. आखिर, वह अपनी सारी तनख्वाह इसी घर में तो खर्च करती है.

 

मां की तरफ बिना देखे रोली अंदर चली गई. बाथरूम से फ्रेश हो कर निकली तो मां प्लेट में खाना डाल रही थीं. उस ने किसी तरह थोड़ा खाना खाया. इस दौरान मां की बातों का वह हां, ना में जवाब देती रही और फिर अपने कमरे में बत्ती बुझा कर लेट गई. दिन भर के काम से शरीर क्लांत था लेकिन हृदय के अंदर समुद्री तूफान था. लंबेचौड़े पलंग ने जैसे उस का अस्तित्व शून्य बना दिया था.

रिश्ते तो कई आते हैं पर तय हो ही नहीं पाते क्योंकि या तो उसे अपनी वर्तमान नौकरी छोड़नी पड़ती या फिर लड़के का रुतबा उस के बराबर का नहीं होता और दोनों ही स्थितियां रोली को स्वीकार नहीं थीं. इसी कारण शादी टलती जा रही थी. वह हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहती थी. उस के संस्कार उसे नयना जैसा जीवन जीने की प्रेरणा नहीं देते थे और उस का रुतबा व स्वाभिमान उसे अपने से कम योग्य लड़के से शादी करने से रोकते थे.

नयना अपने फ्लैट पर पहुंची तो फ्लैट में अंधेरा था. पर्स से चाबी निकाल कर दरवाजा खोला और अंदर आ गई. ‘पवन कहां होगा’ यह सोच कर उस ने पवन के मोबाइल पर फोन लगाया और बोली, ‘‘पवन, कहां हो तुम?’’

‘‘नयना, मैं आज कुछ दोस्तों के साथ एक फार्म हाउस पर हूं. सौरी डार्लिंग, मैं आज रात वापस नहीं आ पाऊंगा. कल रविवार है, कल मिलते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.

पवन साथ हो या न हो, एक असुरक्षा का भाव जाने क्यों हमेशा उस के जेहन में तैरता रहता है. यों उन का लिव इन रिलेशन अच्छा चल रहा था फिर भी वह अपनेआप को कुछ लुटा हुआ, ठगा हुआ सा महसूस करती थी. विवाह की अहमियत दिल में सिर उठा ही लेती. वैवाहिक संबंधों पर पारिवारिक, सामाजिक व बच्चों का दबाव होता है इसलिए निभाने ही पड़ते हैं लेकिन उन के संबंधों की बुनियाद खोखली है, कभी भी टूट सकते हैं…उस के बाद…यह सोचने से भी नयना घबराती थी.

नयना ने 2 टोस्ट पर मक्खन लगाया, थोड़ा दूध पिया और कपड़े बदल कर बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई. पवन लिव इन रिलेशन के लिए तो तैयार है पर विवाह के लिए नहीं. कहता है कि अभी उस ने विवाह के बारे में सोचा नहीं है. सच तो यह है कि पवन यदि विवाह के लिए कहे भी तो शायद वह तैयार न हो पाए. विवाह के बाद की जिम्मेदारियां, बच्चे, घरगृहस्थी, वह कैसे निभा पाएगी. लेकिन जब अपने दिल से पूछती है तो एहसास होता है कि विवाह की अहमियत वह समझती है.

स्थायी संबंध, भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा विवाह से ही मिलती है. लाख उस के पवन के साथ मधुर संबंध हैं लेकिन उसे वह अधिकार तो नहीं जो एक पत्नी का अपने पति पर होता है. यह सबकुछ सोचतेसोचते नयना गुदगुदे तकिए में मुंह गड़ा कर सोने का असफल प्रयास करने लगी.

संजना घर पहुंची तो नितिन बेटे को कंधे से चिपकाए लौन में टहल रहा था. उसे अंदर आते देख कर उस की तरफ चला आया और बोला, ‘‘बहुत देर हो गई.’’

‘‘हां, नयना और रोली के साथ कौफी पीने रुक गई थी.’’

‘‘तो एक फोन तो कर देतीं,’’ नितिन नाराजगी से बोला.

दोनों अंदर आ गए. नितिन बेटे को बिस्तर पर लिटा कर थपकियां देने लगा. वह बाथरूम में चली गई. नहाधो कर निकली तो मेज पर खाना लगा हुआ था.

‘‘चलो, खाना खा लो,’’ संजना बोली तो नितिन मेज पर आ कर बैठ गया.

डोंगे का ढक्कन हटाती हुई संजना बोली, ‘‘कुछ भी कहो, खाना महाराजिन बहुत अच्छा बनाती है.’’

 

नितिन चुपचाप खाना खाता रहा. संजना उस की नाराजगी समझ रही थी. आज शनिवार की शाम नितिन का आउटिंग का प्रोग्राम रहा होगा, जो उस की वजह से खराब हो गया. एक बार मन किया कि मानमनुहार करे लेकिन वह इतनी थकी हुई थी कि नितिन से उलझने का उस का मन नहीं हुआ.

खाना खत्म कर के उस ने बचा हुआ खाना फ्रिज में रखा और बिस्तर पर आ कर लेट गई. नितिन सो गया था. आंखों को कोहनी से ढके संजना का मन कर रहा था कि वह नितिन को मना ले, लेकिन पता नहीं कौन सी दीवार थी जो उसे उस के साथ सहज होने से रोकती थी.

वैसे नितिन उस का स्वयं का चुनाव था. जब उस के लिए रिश्ते आ रहे थे उस समय उस की बूआ ने अपने रिश्ते के एक लेक्चरर लड़के का रिश्ता उस के लिए सुझाया था. घर में सभी खिलखिला कर हंस पड़े थे. कहां संजना बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक और कहां लेक्चरर.

तब उस की छोटी बहन मजाक में बोली थी, ‘वैसे दीदी, एक लेक्चरर से आप का आइडियल मैच रहेगा. आखिर पतिपत्नी में से किसी एक को तो घर संभालने की फुरसत होनी ही चाहिए. वरना घर कैसे चलेगा. आप पति बन कर राज करना वह पत्नी बन कर घर संभालेगा.’ और बहन की मजाक में कही हुई बात संजना के जेहन में आ कर अटक गई थी.

पहले तो उस के जैसी योग्य लड़की के लिए रिश्ते मिलने ही मुश्किल हो रहे थे. एक तो इस लड़के की नौकरी स्थानीय थी और दूसरे, आने वाले समय में बच्चे होंगे तो उन की देखभाल करने का उस के पास पर्याप्त समय होगा तो वह अपनी नौकरी पर पूरा ध्यान दे सकती है. यह सोच कर उस का निर्णय पुख्ता हो गया. उस के इस क्रांतिकारी निर्णय में पिता ने उस का साथ दिया था. उन की नजर में आज के समय में पति या पत्नी में से किसी का भी कम या ज्यादा योग्य होना कोई माने नहीं रखता है. और इस तरह से नितिन से उस का विवाह हो गया था.

शुरुआत में तो सब ठीक चला लेकिन धीरेधीरे उन के रिश्तों में ख्ंिचाव आने लगा. उस की तनखाह, ओहदा, उस का दायरा, उस की व्यस्तताएं सभी कुछ नितिन के मुकाबले ऊंचा व अलग था. और यह बात संजना के हावभाव से जाहिर हो जाती थी. नितिन उस के सामने खुद को बौना महसूस करता था. संजना सोच रही थी कि काश, उस ने विवाह करने में जल्दबाजी न की होती तो आज उस की यह स्थिति नहीं होती. उस से तो अच्छा रोली और नयना का जीवन है जो खुश तो हैं. नितिन उस की परेशानियां समझ ही नहीं पाता. वह चाहता है कि पत्नी की तरह मैं उस के अहं को संतुष्ट करूं. यही सोचतेसोचते संजना सो गई.

दूसरे दिन रविवार था. वह देर से सो कर उठी. जब वह उठी तो महाराजिन, धोबन, महरी सब काम कर के जा चुके थे और आया मोनू की मालिश कर रही थी. वह बाहर निकली, किचन में जा कर चाय बनाई. एक कप नितिन को दी और खुद भी बैठ कर चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगी.

तभी उस का फोन बज उठा. उस ने फोन उठाया, नयना थी, ‘‘हैलो नयना…’’ संजना चाय पीते हुए नयना से बात करने लगी.

‘‘संजना, क्या तुम थोड़ी देर के लिए मेरे घर आ सकती हो?’’ नयना की आवाज उदासी में डूबी हुई थी.

‘‘क्यों, क्या हो गया, नयना?’’ संजना चिंतित स्वर में बोली.

‘‘बस, घर पर अकेली हूं, रात भर नींद नहीं आई, बेचैनी सी हो रही है.’’

‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर संजना उठ खड़ी हुई. नितिन सबकुछ सुन रहा था. उस का तना हुआ चेहरा और भी तन गया.

वह तैयार हुई और नितिन से ‘अभी आती हूं’ कह कर बाहर निकल गई. नयना के फ्लैट में संजना पहुंची तो वह उस का ही इंतजार कर रही थी. बाहर से ही अस्तव्यस्त घर के दर्शन हो गए. वह अंदर बेडरूम में गई तो देखा नयना सिर पर कपड़ा बांधे बिस्तर पर लेटी हुई थी. कमरे में कुरसियों पर हफ्ते भर के उतारे हुए मैले कपड़ों का ढेर पड़ा हुआ था. कहने को पवन और नयना दोनों ऊंचे ओहदों पर कार्यरत थे पर उन के घर को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि यह 2 समान विचारों वाले इनसानों का घर है.

‘‘क्या हुआ, नयना,’’ संजना उस के सिर पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘पवन कहां है?’’

‘‘वह अपने दोस्तों के साथ शहर से दूर किसी फार्म हाउस पर गया हुआ है और मेरी तबीयत रात से ही खराब है. दिल बारबार बेचैन हो उठता है, सिर में तेज दर्द है,’’ इतना बताते हुए नयना की आवाज भर्रा गई.

 

संजना के दिल में कुछ कसक सा गया. यहां नयना इसलिए दुखी है कि पवन कल से लौटा नहीं और उस के पास नितिन के लिए समय नहीं है.

‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है. रात तक पवन लौट आएगा,’’ संजना बोली, ‘‘चल, तुझे डाक्टर को दिखा लाती हूं्. उस के  बाद मेरे घर चलना.’’

‘‘बात रात तक आने की नहीं है, संजना,’’ नयना बोली, ‘‘पवन का व्यवहार कुछ बदल रहा है. वह अकसर ही मुझे बिना बताए अपने दोस्तों के साथ चला जाता है. कौन जाने उन दोस्तों में कोई लड़की हो?’’ बोलते- बोलते नयना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘लेकिन तू ने कभी कहा नहीं…’’

‘‘क्या कहती…’’ नयना थोड़ी देर चुप रही, ‘‘वह मेरा पति तो नहीं है जिस पर कोई दबाव डाला जाए. वह अपने फैसले के लिए आजाद है, संजना,’’ और संजना की बांह पकड़ कर नयना बोली, ‘‘तू ने अपने जीवन में सब से सही निर्णय लिया है. तेरे पास सबकुछ है. सुकून भरा घर, बेटा और तुझे मानसम्मान देने वाला पति पर मेरे और पवन के रिश्तों का क्या है, कौन सा आधार है जो वह मुझ से बंधा रहे? आखिर इन रिश्तों का और इस जीवन का क्या भविष्य है? एक उम्र निकल जाएगी तो मैं किस के सहारे जीऊंगी?

‘‘जीवन सिर्फ जवानी की सीधी सड़क ही नहीं है, संजना. इस सीधी, सपाट सड़क के बाद एक संकरी गली भी आती है…अधेड़ावस्था की…और जब यह गली मुड़ती है न…तो एक भयानक खाई आती है…बुढ़ापे की…और जीवन का वही सब से भयानक मोड़ है, तब मैं क्या करूंगी…’’ कह कर नयना रोने लगी.

‘‘नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन तेरे जीवन की निश्ंिचतता उसी की वजह से है. उसे खोने का तुझे डर नहीं, घर की तुझे चिंता नहीं…बेटे के लालनपालन में तुझे कोई परेशानी नहीं…’’ रोतेरोते नयना बोली, ‘‘मेरे पास क्या है? पवन का मन होगा तब तक वह मेरे साथ रहेगा, फिर उस के बाद…’’

संजना हतप्रभ सी नयना को देखती रह गई. उस की आंखों में, उस के चेहरे पर असुरक्षा के भाव थे, भविष्य की चिंता थी. लेकिन क्यों? नयना खुद इतने ऊंचे पद पर कार्यरत थी, इस आजाद खयाल जीवन की हिमायती नयना के मन में भी पवन के खो जाने का डर है, जीवन में अकेले रह जाने का डर है. पवन के बाद दूसरा साथी बनाएगी फिर तीसरा…फिर चौथा…और उस के बाद जैसे एक विराट प्रश्नचिह्न संजना के सामने आ कर टंग गया था. वह तो अपनी नौकरी के अलावा कभी किसी बारे में सोचती ही नहीं. बस, नितिन का अपने से कम योग्य होना ही उसे खलता रहता है और इस बात से वह दुखी होती रहती है.

‘‘पवन कहीं नहीं जाएगा, नयना, आ जाएगा रात तक. तुम्हारा भ्रम है यह…’’ वह नयना को दिलासा देती हुई बोली. और दिन भर के लिए उस के पास रुक गई. शाम को जब वह घर पहुंची तो घर पर रोली को अपना इंतजार करते पाया.

‘‘अरे, रोली इस समय तुम कैसे आ गईं.’’

‘‘तुझ से बात करने का मन हो रहा था. सो, आ गई. नितिनजी ने बताया कि तू नयना के घर गई है, आने वाली होगी. मुझे इंतजार करने को कह कर वह कुछ सामान लेने चले गए.’’

एक पल चुप रहने के बाद रोली बोली, ‘‘नितिन बता रहे थे कि नयना की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, क्या हुआ है उसे?’’

‘‘कुछ नहीं, वह अपने और पवन के रिश्तों को ले कर कुछ अपसेट सी है,’’ संजना सोफे पर बैठती हुई बोली, ‘‘नयना को पवन पर भरोसा नहीं रहा. उसे लग रहा है कि उस की जिंदगी में कोई और है तभी वह उस से दूर जा रहा है.’’

‘‘लेकिन नयना उस से पूछती क्यों नहीं?’’ रोली रोष में आ कर बोली.

‘‘किस बिना पर, रोली. आखिर लिव इन रिलेशन का यही तो मतलब है कि जब तक बनी तब तक साथ रहे वरना अलग होने में वैवाहिक रिश्तों जैसा कोई झंझट नहीं.’’

‘‘और तू सुना, कैसी है,’’ थोड़ी देर बाद संजना बोली.

‘‘बस, ऐसे ही, कल से बहुत परेशान सी थी. घर में रिश्ते की बात चल रही है. एक अच्छा रिश्ता आया है. सब बातें तो ठीक हैं पर लड़का मुंबई में कार्यरत है? मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. इसी बात पर घर में हंगामा मचा हुआ था. पापा चाहते थे कि मुझे चाहे नौकरी छोड़नी पड़े पर मैं उस रिश्ते के लिए हां कर दूं. इसी विवाद से परेशान हो कर मैं थोड़ी देर के लिए तेरे पास आ गई.’’

‘‘तो क्या सोचा है तू ने?’’ संजना बोली.

‘‘सोचा तो था कि मना कर दूंगी,’’ रोली खिसक कर संजना के पास बैठती हुई बोली, ‘‘लेकिन नयना के बारे में जानने के बाद अब सोचती हूं कि हां कर दूं. आज की पीढ़ी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में उलझी हुई विवाह और विवाह के बाद की जिम्मेदारियों से दूर भाग रही है लेकिन जैसेजैसे उम्र आगे बढ़ती है पीछे मुड़ कर देखने का मन करता है. अगर 10 साल बाद कोई समझौता करना है तो आज क्यों नहीं?’’ पल भर के लिए दोनों सहेलियां चुप हो गईं.

‘‘तू ने सही और समय से निर्णय लिया, संजना. सभी को कुछ न कुछ समझौता तो करना ही पड़ता है. मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ रही है और नयना को भविष्य की सुरक्षा, लेकिन तेरे पास सबकुछ है. नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन अयोग्य तो नहीं है. पहले लड़कियां इतनी योग्य भी नहीं होती थीं तो उन्हें अपने से अधिक योग्य लड़के मिल जाते थे लेकिन अब जमाना बदल रहा है. लड़कियां इतनी तरक्की कर रही हैं कि यदि अपने से अधिक योग्य लड़के के इंतजार में बैठी रहेंगी तो या तो नौकरी ही कर पाएंगी या शादी ही.

‘‘ऐसे लड़के का चुनाव करना जिस के साथ घरेलू जीवन चल सके, बच्चों की परवरिश हो सके, बड़ेबुजुर्गों की देखभाल हो सके, अपने से लड़का कुछ कम योग्य भी हो तो इस में कुछ भी गलत नहीं है. समय के साथ यह बदलाव आना ही चाहिए. आखिर पहले पत्नी घर देखती थी आज ऊंचे ओहदों पर कार्य कर रही है तो पति के पास घर की देखभाल करने का समय हो तो इस में कुछ गलत है क्या?’’ यह कह कर रोली उठ खड़ी हुई.

 

संजना जब रोली को बाहर तक छोड़ कर अंदर आई तो ध्यान आया कि नितिन को बाजार गए हुए काफी देर हो गई और अभी तक वह आए नहीं. आज नितिन के लिए संजना के मन में अंदर से चिंता हो रही थी. तभी कौलबेल बज उठी, सामान से लदाफदा नितिन दरवाजे पर खड़ा था.

‘‘अरे, आप इतना सारा सामान ले आए,’’ संजना सामान के कुछ पैकेट उस के हाथ से पकड़ते हुए बोली, ‘‘बहुत देर हो गई, मैं इंतजार कर रही थी.’’

संजना के स्वर की कोमलता से नितिन चौंक गया. बिना कुछ बोले वह अपने हाथ का सामान किचन में रख कर बेडरूम में चला गया. संजना भी उस के पीछेपीछे आ गई.

‘‘नितिन,’’ पीछे से उस के गले में बांहें डालती हुई संजना बोली, ‘‘चलो, आज का डिनर बाहर करेंगे, फिर कोई फिल्म देखेंगे. आया को रोक लेते हैं. वह मुन्ने को देख लेगी.’’

उस के इस प्रस्ताव व हरकत से नितिन हैरत से पलट कर उस की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ संजना इठलाती हुई बोली, ‘‘हर समय गुस्से में रहते हो, यह नहीं की कभी बीवी को कहीं घुमा लाओ, फिल्म दिखा लाओ.’’

 

आम घरेलू औरतों की तरह संजना बोली तो उस की इस हरकत पर नितिन खिलखिला कर हंस पड़ा.

संजना उस के गले में बांहें डाल कर उस से लिपट गई, ‘‘मुझे माफ कर दो, नितिन.’’

‘‘संजना, इस में माफी की क्या बात है? मेरे लिए तुम, तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी काम में व्यस्तता, तुम्हारा रुतबा सभी कुछ गर्व का विषय है लेकिन जब तुम मुझे ही अपनी जिंदगी से दरकिनार कर देती हो तो दुख होता है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा. मेरे लिए आप से अधिक महत्त्वपूर्ण जीवन में दूसरा कुछ भी नहीं है. आप में और मुझ में कोई फर्क नहीं, हमारा कुछ भी, चाहे वह नौकरी हो या समाज, जिंदगी भर नहीं रहेगा…लेकिन हम दोनों मरते दम तक साथ रहेंगे.’’

मानअभिमान की सारी दीवारें तोड़ कर संजना नितिन से लिपट गई. नितिन ने भी एक पति के आत्मविश्वास से संजना को अपनी बांहों में समेट लिया.

True Love Story : महान कवि जौन कीट्स का अनमोल लव लेटर

रोमांटिसिज्म एरा में जौन कीट्स का ब्रोन के लिए  प्यार गहरा था, जैसा कि कीट्स के फैनी को लिखे गए पत्रों में दिखाई भी देता है. ये पत्र अंगरेजी भाषा के सब से भावुक माने जाते हैं.

क्या ग़ालिब के पास शब्दों की कमी थी? मीर के पास? कैफ़ी आज़मी या गुलजार के पास? नहीं, ये शब्दों के जादूगर थे, हैं. कोई बात कहनी हो तो झट से दिमाग के पिटारे को खंगाला और पटक दिया सामने. भारत का कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्यार भरी बात कहता है तो ग़ालिब की शायरी आधीअधूरी तुतला के कह देता है. क्यों? क्योंकि हमें प्यार भरे शब्द सिखाए ही नहीं जाते. भाव क्या है बताए ही नहीं जाते. धर्म के लिए यह भलीच जैसी बातें जो हैं.

आखिर क्यों दिल टूटने के बाद जौन एलिया साहब याद आते हैं और ‘मुझे चैन क्यूं नहीं पड़ता, एक ही शख्स था जहान में क्या’ बुनबुनाते हैं. प्यार मार्मिक है. दिल को जोड़ता है. धोखा मिलता है तो दिल टूटता है. क्या इसे रील्स की दुनिया में समझा जा सकता है, जहां वीडियो का स्खलन 16-30 सैकेंड में हो जाता है.

मगर दिक्कत और बड़ी है कि सोशल मीडिया ने युवाओं को इन शब्दों से और दूर कर दिया है. गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड बना लेना प्यार नहीं होता, इस में कोई बड़ी बात नहीं. ओपोजिट सैक्स एकदूसरे के करीब आते ही हैं, पहले भी आते थे या आने की इच्छा रखते थे. प्यार एकदूसरे को अपनी फीलिंग शेयर करना, सपोर्ट करना, केयर करना, सुधारना और बदलना होता है. प्रेम के शब्द गढ़े जाते हैं उन में स्पष्टता होती है, यहां सस्पेक्ट का सुस, डेफिनेटली का हाइली, करिज्मा का रिज, सैक्सी या स्टाइलिश का ड्रिप नहीं चलता, बल्कि चलती है, घुमावफिराव, लफ्फेलफ्फाजी चलता है.

कोई अपनी गर्लफ्रैंड को चांद या फूल कहता है, तो इसलिए नहीं कि वह ये सब है. इस का मतलब यह है कि चूंकि चांद और फूल सुंदर और खुशबूदार होते हैं तो गर्लफ्रैंड को उन का रूपक दिया जाता है.

इसे जौन कीट्स और फैनी ब्रोन के प्यार से समझा जा सकता है. इन की प्रेम कहानी साहित्य के इतिहास की सब से मार्मिक कहानियों में से एक है. इंग्लिश रोमांटिसिज्म के एक बड़े कवि कीट्स ने 1818 में 23 साल की उम्र में लंदन के हैम्पस्टेड में रहते हुए फैनी ब्रोन से मुलाकात की थी. इंग्लिश रोमांटिसिज्म 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं के शुरुआत तक चला. इस दौरान बड़ेबड़े कवि पैदा हुए जो इंडस्ट्रियल रेवोलुशन के रिएक्शन से उपजे थे.

जौन का प्रेम जल्दी ही परवान चढ़ा, लेकिन यह कई चुनौतियों से भरा हुआ था, जिन में मुख्य चुनौती बिगड़ती सेहत और आर्थिक तंगी थी.

कीट्स और ब्रोन का प्यार गहरा था, जैसा कि कीट्स के फैनी को लिखे गए पत्रों में दिखाई भी देता है. ये पत्र अंगरेजी भाषा के सब से भावुक माने जाते हैं. कीट्स ने अपने पत्रों में अपने प्यार का जिक्र किया. लेकिन साथ ही अपने डर भी व्यक्त किए. वह अपनी प्रेमिका से अपनी समस्याएं साझा करते थे. उन का टीबी तेजी से बढ़ रहा था, और उन्हें इस बात का डर था कि उन के पास समय बहुत कम है.

1820 में कीट्स अपनी बीमारी से उबरने की उम्मीद में इटली चले गए, फैनी लंदन में रह गई. दुखद यह था कि वे फिर कभी एकदूसरे से मिल नहीं पाए क्योंकि फरवरी 1821 में रोम में कीट्स का 25 साल की उम्र में निधन हो गया. 1814 और 1819 के बीच जौन कीट्स ने 64 सानेट लिखे. सोनेट 14 लाइनों की लम्बी कविता होती है, जो 13वीं शताब्दी में इटली से शुरू हुई. इसे छोटा गाना भी कहा जा सकता है. जब कीट्स अपना पहला सोनेट लिखा था, तब उन की उम्र 18 साल थी, और जब उन्होंने अपना अंतिम सोनेट पूरा किया, तब उन की उम्र 24 साल थी. इंग्लैंड में नए बदलावों के का असर कीट्स पर पड़ा, जो उन की कविताओं में दिखती है.

कीट्स की मृत्यु के बाद, फैनी ब्रोन ने कई वर्षों तक शोक वस्त्र पहने और सार्वजनिक जीवन से दूर रहीं. उन्होंने बाद में शादी की और परिवार बसाया, पर कीट्स से उन का संबंध उन प्रेम पत्रों के माध्यम से हमेशा जीवित रहा, जो कीट्स ने उन्हें लिखे थे. उन्हीं में से एक पत्र यहां साझा किया जा रहा है.

(पत्र)

माय लव,

इस पल मैं ने कुछ पंक्तियां साफसुथरी तरीके से लिखने की ठानी थी, लेकिन मैं इसे जारी नहीं रख पा रहा हूं. मुझे तुम्हें कुछ लाइनें लिखनी होंगी ताकि शायद तुम्हें थोड़े समय के लिए अपने मन से हटा सकूं. लेकिन सच कहूं तो मेरे मन में बस तुम्हारा ही ख्याल आता है.

मेरा प्यार मुझे स्वार्थी बना चुका है. मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता, तुम्हारे सिवाय मुझे कुछ याद नहीं रहता, बस फिर से तुम्हें देखना चाहता हूं. वहीं पर मेरे जीवन की गति रुक जाती है. मुझे कोई और दिशा नहीं दिखती. तुम ने मुझे पूरी तरह अपने में समा लिया है.

इस वक्त ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं पिघल रहा हूं. तुम्हें जल्दी देखने की आशा न हो तो मैं बहुत दुखी हो जाऊंगा. मैं तुम से दूर जाने से डरता हूं. मेरी प्यारी फेनी, क्या तुम्हारा दिल कभी बदलेगा? मेरी जान, क्या ऐसा होगा? अब मेरे प्रेम की कोई सीमा नहीं रही.

तुम्हारा संदेश अभी आया और वह मुझे दूर रह कर भी सुकून नहीं दे सकता. यह किसी बहुमूल्य रत्नों से भरी हुई गाड़ी से भी अधिक अनमोल है. मजाक में भी मुझे डरा मत देना. मुझे यह सोच कर आश्चर्य होता था कि लोग धर्म के लिए कैसे शहीद हो जाते हैं, मैं इसे देख डर जाता था, अब नहीं. मैं भी अपने धर्म के लिए शहीद हो सकता हूं – प्यार ही मेरा धर्म है और तुम्हारे लिए मैं मर सकता हूं.

मेरा विश्वास प्रेम है और तुम उस में मेरी एकमात्र आस्था हो. तुम ने मुझे अपने वश में कर लिया है, एक ऐसी शक्ति से जिस का मैं विरोध नहीं कर सकता. तुम्हें देखने के बाद भी मैं ने अकसर “अपने प्रेम के तर्क के खिलाफ तर्क” करने का प्रयास किया. अब मैं यह नहीं कर सकता. दर्द बहुत बड़ा होगा. मेरा प्यार स्वार्थी है. मैं तुम्हारे बिना सांस भी नहीं ले सकता.

तुम्हारा,

जौन कीट्स

Best Hindi Story : 2 दूल्हे 2 दुलहनियां

लेखक : युगेश शर्मा 

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ालिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है.

तब नवीन ने बड़ी बहन के प्रति आदरभाव को तारतार करते हुए कह डाला, ‘‘दीदी, मां और बाबूजी के साथ ही इस पुराने मकान की रौनक भी चली गई है. अब यह पलस्तर उखड़ा मकान हमें काटने को दौड़ता है. मोनिका तो यहां एक दिन भी रहना नहीं चाहती. मायके में वह शानदार मकान में रहती थी. कहती है कि इस खंडहर में रहना पड़ेगा, उस को यह शादी के पहले मालूम होता तो वह मुझ से शादी भी नहीं करती. वह सोतेजागते नया फ्लैट खरीदने की रट लगाए रहती है. आखिर, मैं उस के तकाजे को कब तक अनसुना करूं.’’

नंदिता ने बहुतेरा समझाया था कि छोटी बहन नमिता की शादी महीने दो महीने में करनी है. अगर जमापूंजी फ्लैट खरीदने में निकल गई तो उस की शादी के लिए पैसे कहां से आएंगे. उस का तो जीपीएफ अकाउंट भी खाली हो चुका है.

नवीन उस दिन बहुत उखड़ा हुआ था. आव देखा न ताव, बोल पड़ा, ‘‘यह आप की चिंता है, दीदी. मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. नमिता की शादी करना आप की जिम्मेदारी है. उस को आप कैसे निभाएंगी, आप जानें.’’

नंदिता आश्चर्य से छोटे भाई का मुंह देखने लगी. नवीन इस तरह की बातें कहेगा, उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था. वह भी बिफर उठी थी, ‘‘तुम नमिता के बड़े भाई हो, इस परिवार के एकमात्र पुरुष. इस तरह अपनी जिम्मेदारी से पिंड कैसे छुड़ा सकते हो तुम.’’

‘‘देखो, दीदी, अब मैं कोई दूध पीता बच्चा नहीं हूं. सच बात तो यह है कि जिम्मेदारी जिस को सौंपी जाती है वही उस को निभाने के लिए पाबंद होता है. आप परिवार में सब से बड़ी हैं,’’ नवीन ने आज अपने मन की सारी भड़ास निकालने का फैसला ही कर लिया था. बोला, ‘बाबूजी ने अंतिम समय हम लोगों की सारसंभाल की जिम्मेदारी आप को सौंपी थी और आप ने तब भी उन से वादा किया था कि आप अपनी इस जिम्मेदारी को निभाएंगी.’’

यह कह कर तो नवीन ने नंदिता के मुंह पर ताला ही लगा दिया था. कुछ कहने, समझने की उस ने गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी. वह चुपचाप ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में जा कर बिस्तर पर पड़ गई. उस का दिमाग पुरानी स्मृतियों के झंझावातों से भर उठा. बीती घटनाएं फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक उस के स्मृतिपटल पर उभरने लगीं :

जब थोड़ी सी बीमारी के बाद मां की मृत्यु हुई वह बीए फाइनल में थी. मेरिट में आने का मनसूबा बांधे बैठी थी वह. परिवार की सब से बड़ी संतान और लड़की होने से घर की देखभाल का जिम्मा न जाने कब उस के कमजोर कंधों पर आ पड़ा, वह समझ ही नहीं पाई. घर की गाड़ी के पहिए उस को धुरी मान कर घूमने लगे.

‘मेरी समझदार बेटी नंदिता सब संभाल लेगी,’ बाहरभीतर सब तरफ यह घोषणा कर के पिताजी ने तो घर की सारी जिम्मेदारियों से खुद को जैसे बरी कर लिया था.

 

नंदिता 3 भाईबहन हैं. नंदिता से छोटा नवीन है और नवीन से छोटी नमिता. नवीन को पढ़ने, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने और बाकी समय में क्रिकेट खेलने से फुरसत ही नहीं मिलती थी. नमिता तो परिवार की लाड़ली होने का पूरापूरा फायदा उठाती रही. कभी मूड होता तो घर के काम में नंदिता का हाथ बंटाती वरना सहेलियों और कालेज की पढ़ाई में ही अपने को व्यस्त रखती.

नंदिता जानती थी कि नमिता को आखिर एक दिन पराए घर जाना है. घर के रोजमर्रा के काम में भी वह रुचि ले, ऐसी कोशिश नंदिता करती रहती थी पर नमिता यह कह कर उस पर पानी फेर देती कि अभी तो मुझे आप अपने राज में आजाद पंछी की जिंदगी जी लेने दो, जब ससुराल पहुंचूंगी तो सब सीख लूंगी. समय अपनेआप सब सिखा देता है. आप आज घर को जिस कुशलता से संभाल रही हैं वह भी तो समय की जरूरत ने ही आप को सिखाया है, दीदी.

नंदिता ने इस के बाद तो किसी से शिकवाशिकायत करना छोड़ ही दिया था. प्रथम श्रेणी में बीए करने के बाद वह समाजशास्त्र में एमए कर के पीएचडी करना चाहती थी पर सोचा हुआ सब कहां हो पाता है. पिताजी ने घर की जिम्मेदारियों का वास्ता दे कर बीए करने के बाद उस को घर बैठा लिया था. बेचारी मन मसोस कर रह गई थी.

एक दिन भयानक हादसा हुआ. दौरे से लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में उस के पिता इन तीनों भाईबहनों को अनाथ कर के संसार से विदा हो गए. नंदिता पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. तब कुल 25 वर्ष की उम्र थी उस की. पिता के दफ्तर वालों ने बड़ी मदद की. उस को पिता के दफ्तर में ही क्लर्क की नौकरी दे दी.

 

जैसेतैसे परिवार की गाड़ी चलने लगी. कई बार पैसे की तंगी उस का रास्ता रोक कर खड़ी हुई पर नंदिता ने नवीन और नमिता को यह एहसास नहीं होने दिया कि वे अनाथ हैं. उन की पढ़ाई बदस्तूर चलती रही.

नवीन पढ़ने में होशियार था. उस ने प्रथम श्रेणी में बीए की परीक्षा पास की और खंड विकास अधिकारी के पद पर नौकरी पाने में सफल रहा.

एक दिन नंदिता के मन में आया कि अब नवीन की शादी कर दे. बहू के आने पर घर के काम में दिनरात खटने से उस को भी कुछ राहत मिल जाएगी. उस ने लड़की तलाशनी शुरू की. छोटे मामाजी की मदद से नवीन की शादी बड़े अफसर की बेटी मोनिका के साथ हो गई.

नंदिता ने मोनिका को ले कर जो आशाएं मन में पाल रखी थीं वे कुछ महीने बीततेबीतते मिट्टी में मिल गईं. बड़े बाप की बेटी ने ससुराल में ऐसे रंग दिखाए कि नंदिता को घर के काम में उस की तरफ से किसी भी तरह की मदद की उम्मीद छोड़नी पड़ी.

नंदिता को हालांकि सकारात्मक उत्तर की जरा भी आस नहीं थी, फिर भी हिम्मत बटोर कर एक दिन उस ने मोनिका से कह डाला, ‘मोनिका, मुझे भी 10 बजे दफ्तर जाना पड़ता है. मैं चाहती हूं कि रोटियां तुम सेंक लिया करो. किचन का बाकी काम तो मैं निबटा ही लूंगी. तुम से इतनी मदद मिलने पर दफ्तर जाने के लिए मैं अपनी तैयारी भी सहूलियत से कर सकूंगी.’

‘नहीं, दीदी,’ मोनिका ने रूखा सा जवाब दिया, ‘यह मुझ से नहीं होगा. मैं तो सो कर ही सुबह 9 बजे उठती हूं. नवीन के भी बहुत सारे काम मुझे करने पड़ते हैं. रोज रोटियां सेंकने का जिम्मा मैं नहीं ले सकती. वैसे भी किचन के गोरखधंधे में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. हमारे यहां तो नौकर ही यह सब करते थे. मुझे तो आप बख्श ही दीजिए.’

इस के बाद तो नंदिता ने घर के कामकाज को ले कर चुप्पी ही साध ली. खुद ही गृहस्थी की गाड़ी को एक मशीन की तरह ढोती चली गई. परिवार के बाकी सदस्य तो सब देख कर भी अनजान बन बैठे. इस बीच मौसाजी की एक बात को ले कर घर में भूचाल ही आ गया और कई दिन उस का कंपन थमा ही नहीं. उस दिन मौसाजी ने सहज भाव से इतना ही तो कहा था कि उन्होंने भी नंदिता के लिए एक अच्छा सा लड़का देखा है. लड़का क्लास टू औफिसर है. परिवार भी खानदानी है, आदर्श विचारों के लोग हैं. दहेज की मांग भी नहीं है. नंदिता वहां बहुत सुखी रहेगी.

 

मौसाजी की बात सुन कर एक मिनट के लिए तो जैसे सन्नाटा ही छा गया. नवीन और मोनिका एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोनों के चेहरों पर हैरानी और परेशानी की गहरी रेखाएं खिंचती चली गईं.

‘यह क्या बात ले बैठे आप भी, मौसाजी,’ नवीन ने सकुचाते हुए अपनी बात रखी, ‘दीदी तो इस घर की सबकुछ हैं. वह तो आत्मा हैं हमारे परिवार की. बाबूजी उन्हीं को तो घर की सारी जिम्मेदारियां सौंप गए थे. अभी नमिता की शादी होनी है. हम पतिपत्नी भी अभी ठीक से सैटल नहीं हो पाए हैं. दुनियादारी की हम लोगों को समझ ही कहां है. दीदी दूसरे घर चली गईं तो इस घर का क्या होगा. हम तो कहीं के नहीं रहेंगे.’

मौसाजी हक्केबक्के थे. मोनिका के शब्दों ने तो उन्हें आहत ही कर डाला था. वह तैश में आ कर बोली थी, ‘दीदी यों ही सब संभालती रहेंगी, यह विश्वास कर के ही तो मैं नवीन के साथ शादी करने के लिए राजी हुई थी. वह हमें अधबीच में छोड़ कर इस घर से नहीं जाएंगी, यह आप साफसाफ सुन लीजिए, मौसाजी.’

नंदिता को लगा जैसे कई बिच्छुओं ने एकसाथ उस के शरीर में अपने जहरीले पैने डंक घुसेड़ दिए हैं और वह चीख भी नहीं पा रही है.

मोनिका की बात ने बुजुर्ग मौसाजी के दिल को छलनी कर डाला. एक लंबी जिंदगी देखी है उन्होंने, समझ गए कि माटी के पक्के बरतनों पर कोई रंग नहीं चढ़ता. बिना कुछ कहेसुने वह तुरंत घर से बाहर हो गए. वह जानते थे कि जिन की आंखों की शरम मर जाती है, उन के मन में मानवीय रिश्तों की कोई कीमत नहीं रहती, ऐसे लोगों को अच्छी नसीहतें देना रेत का घरौंदा बनाने जैसा है. नंदिता भी वहां ज्यादा देर बैठी न रह सकी.

 

उस दिन के बाद घर में रोज की जिंदगी तो पिछली रफ्तार से ही चलती रही पर जैसे उस में जगहजगह स्पीड ब्रेकर खडे़ हो गए थे. इन स्थितियों ने नंदिता को काफी दुखी कर दिया. वह चुपचुप रहने लगी. सिर्फ नमिता के साथ ही वह खुल कर बात करती थी, नवीन और मोनिका के साथ उस के संवाद का दायरा काफी सिकुड़ता चला गया था. ज्यादातर वह अपने कमरे में कैदी सी पड़ी रहने लगी थी. कोई कुछ पूछता तो ‘हां’ या ‘न’ में जवाब दे कर चुप हो जाती थी. जब अकेली होती तो खुद से पूछने लगती कि उस के स्नेह, परिश्रम और त्याग का उस को क्या यही प्रतिफल मिलना चाहिए था?

नवीन और मोनिका की निष्ठुरता से जूझते हुए भी नंदिता छोटी बहन के लिए अपनी जिम्मेदारी के बारे में बराबर सचेत रही. वह चुपचाप उस के लिए लड़के की तलाश में लगी रहती. एक अच्छा लड़का उस को पसंद आया. प्राइवेट कंपनी में एग्जीक्यूटिव था. अच्छी तनख्वाह थी. देखने में भी ठीक ही था. परिवार में पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला था. उम्र में 7 साल का अंतर नंदिता की नजर में ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं था. अमूमन लड़के और लड़की की उम्र में 5-6 साल का अंतर तो आजकल आम बात है.

 

लड़के का नाम था, कपिल. एक दिन रविवार को नंदिता ने कपिल को अपने घर चाय पर बुला लिया. उद्देश्य था वह नमिता को ठीक से देख ले, आपस में जो भी पूछताछ करनी हो, कर ले. बाकी बातें तो कपिल के मातापिता से मिल कर उस को स्वयं ही तय करनी हैं. मौसाजी और मामाजी को भी अपने साथ ले लेगी. नवीन और मोनिका को इस बात की भनक लग चुकी थी पर नंदिता ने इस काम में उन की कोई भूमिका तय नहीं की थी इसलिए दोनों चुप थे.

कपिल वक्त का पाबंद निकला. शाम के 5 बजतेबजते पहुंच गया. एक सलोना सा युवक भी उस के साथ था.

‘‘कपिलजी, एक बात पूछूं?’’ नंदिता ने शुरुआत की, ‘‘आप पिछले कुछ दिनों से मेरे दफ्तर में खूब आजा रहे हैं. कोई काम तो वहां नहीं अटका है आप का?’’

‘‘जी नहीं, कोई काम नहीं अटका. यों ही आया होऊंगा.’’

‘‘आप सरीखा समझदार आदमी किसी सरकारी दफ्तर में यों ही चक्कर काटेगा, यह बात मेरे गले नहीं उतर रही.’’

‘‘समझ आने पर बात आप के गले उतर जाएगी. आप बिलकुल चिंता न करें. अभी तो बस, इतना ही बताइए कि मेरे लिए क्या आज्ञा है?’’

नंदिता ने जांच लिया कि लड़का सचमुच तेज है. उस को बातों में भरमाया नहीं जा सकता. सो बिना भूमिका के उस ने काम की बात शुरू कर दी, ‘‘आजकल शादीब्याह के मामले में आगे बढ़ने के लिए पहली और सब से जरूरी औपचारिकता है लड़केलड़की के बीच सीधा संवाद. मैं चाहती हूं कि आप कमरे में जा कर नमिता से बात करें. जो पूछना हो पूछ लें और जो बताना हो वह बताएं.’’

‘‘मैं भला क्यों करूं यह सब पूछताछ नमिता से,’’ कपिल ने शरारती लहजे  में कहा.

 

‘‘आप को नमिता को अपने लिए चुनना है. इसलिए नमिता से पूछताछ आप नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा,’’ नंदिता पसोपेश में पड़ गई. सच बात तो यह थी कि कपिल की पहेली को वह समझ ही नहीं पा रही थी.

‘‘आप से यह किस ने कह दिया कि नमिता को मुझे अपने लिए चुनना है?’’

‘‘कपिलजी, आप को आज यह हो क्या गया है. कैसी उलटीपुलटी बातें कर रहे हैं आप.’’

‘‘मेरी बात तो एकदम सीधीसीधी है, नंदिताजी.’’

‘‘सीधी किस तरह है. मैं ने नमिता के बारे में ही तो आज आप को यहां बुलाया है. आप यह बेकार का कन्फ्यूजन क्यों पैदा कर रहे हैं?’’

‘‘कन्फ्यूजन वाली कोई बात नहीं है, मैं तो बस, आप से बात करने आया हूं.’’

‘‘मतलब.’’

‘‘यही कि मुझे तो जिंदगी में एक का चुनाव करना था, सो मैं ने कर लिया है.’’

‘‘किस का?’’

‘‘नंदिताजी का, नमिताजी की बड़ी बहन का.’’

नंदिता को लगा जैसे वह आसमान से गिर पड़ी है. एक बार तो उसे महसूस हुआ कि कपिल उस के साथ ठिठोली कर रहा है पर उस के हावभाव से तो ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था.

वह बोली, ‘‘यह क्या गजब कर रहे हैं आप. मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं कि अपनी लाड़ली बहन के सौभाग्य का सिंदूर झपट कर अपनी मांग में सजा लूं. नमिता मेरी छोटी बहन ही नहीं मेरी प्यारी बेटी भी है. मां के देहांत के बाद मैं ने प्यारदुलार दे कर उसे बड़े जतन से पाला है. मैं उस के साथ ऐसा अनर्थ तो सपने में भी नहीं कर सकती.’’ नंदिता की आंखों में आंसू छलछला आए. सारा वातावरण संजीदगी से भर गया.

 

कपिल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘नंदिताजी, आप सच मानिए, पिछले एक महीने से मैं आप के बारे में ही सारी जानकारी इकट्ठी करने में लगा था. उसी की खातिर आप के दफ्तर भी जाया करता था. आप के साथ घोर अन्याय हुआ है, फिर चाहे वह हालात ने किया हो, आप के पिता ने या फिर आप के भाई ने. आप ने अपने परिवार के लिए जो तपस्या की है उस के एवज में तो आप को वरदान मिलना चाहिए था पर सब जानते हैं कि अब तक अभिशाप ही आप के पल्ले पड़ा है. क्या अपनी गृहस्थी बसाने का आप का कोई सपना नहीं है? सचसच बताइए?’’

नंदिता ने संयत होते हुए कहा, ‘‘वह सब तो ठीक है पर नमिता के सौभाग्य को अपने सपने पर कुर्बान करने के लिए मैं न तो कल तैयार थी और न आज तैयार हूं. उसे मैं जिंदगीभर कुछ न कुछ देती ही रहना चाहती हूं. उस के अधिकार की कोई वस्तु छीनना मुझे कतई गवारा नहीं है. यह मुझ से कभी नहीं होगा. आप जा सकते हैं. आप का प्रस्ताव मुझे कतई मंजूर नहीं है.’’

 

‘‘आप को मेरा प्रस्ताव मंजूर हो या न हो पर हम तो इस घर से जल्दी ही दुलहनियां ले कर जाएंगे,’’ कपिल ने वातावरण को हलका बनाने की गरज से कहा.

‘‘मेरे जीतेजी तो यह कभी नहीं होगा.’’

‘‘जरूर होगा. इस घर से एक दिन 2 दूल्हे 2 दुलहनियां ले कर ही विदा होंगे.’’

नंदिता जैसे सोते से जाग उठी. पूछा, ‘‘और वह दूसरा लड़का?’’

‘‘यह रहा,’’ साथ में बैठे सलोने युवक की ओर इशारा करते हुए कपिल ने जवाब दिया, ‘‘और इन दोनों को किसी कमरे में जा कर आपस में पूछपरख करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि ये दोनों कालेज के सहपाठी हैं. एकदूसरे को खूब जानते हैं. साथसाथ जीनेमरने की कसमें भी खा चुके हैं, बहुत पहले.’’

‘‘पर ये हैं कौन? परिचय तो दीजिए इन का.’’

अचानक नमिता ड्राइंगरूम में आई. वह पास के कमरे में नंदिता और कपिल की बातें कान लगाए सुन रही थी.

‘‘मैं देती हूं इन का परिचय,’ नमिता बोली, ‘दीदी, इन का नाम विकास है और यह कपिलजी के चचेरे भाई हैं. डिगरी कालेज में 3 साल हम क्लासमेट रहे हैं. मेलजोल अब भी है. हम दोनों ने साथसाथ जीवन का सफर

तय करने का फैसला बहुत पहले कर लिया था.’’

‘‘लेकिन पगली, इस बारे में मुझे तो बताती. मैं तेरी दुश्मन थोड़े ही हूं,’’ नंदिता ने नमिता को अपने पास सोफे पर बिठाते हुए कहा.

‘‘आप वैसे भी इन दिनों काफी परेशान रहती हैं, दीदी. मैं विकास और अपने बारे में आप को बता कर आप की परेशानियों को बढ़ाना नहीं चाहती थी. मैंने आप से यह बात छिपाने की गलती की है. मुझे माफ करदो, दीदी.’’

 

‘‘इस में माफी जैसी कोई बात नहीं है मेरी प्यारी बहना. तू ने जो भी किया अपनी समझ से अच्छा ही किया है. विकासजी, इस बारे में आप को कुछ कहना है या फिर फैसला सुना दिया जाए?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं कहना. जो कहना था वह नमिता कह चुकी है. नंदिताजी, आप तो बस, फैसला सुना दीजिए,’’ विकास बोला.

‘‘कपिलजी ने ठीक ही कहा है, इस घर से जल्दी ही 2 दूल्हे, 2 दुलहनियां ले कर विदा होंगे,’’ इतना कह कर नंदिता ने नमिता को गले लगा लिया.

आज बरसों बाद नंदिता की सूखी आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए. उसे लगा आज पहली बार कुदरत ने उस के साथ इंसाफ किया है. इस तरह अचानक मिले इंसाफ से कितनी खुशी होती है, इस का एहसास भी उसे पहली बार हुआ.

Hindi Kahani : शादी से इनकार

Hindi Kahani : पिछले 6 महीने से मुझे पुलिस स्टेशन में बुलाया जा रहा है. मुझे शहर में घटी आपराधिक घटनाओं का जिम्मेदार मानते हुए मुझ पर प्रश्न पर प्रश्न तोप के गोले की तरह दागे जा रहे थे. अपराध के समय मैं कब, कहां था. पुलिस को याद कर के जानकारी देता. मुझे जाने दिया जाता. मैं वापस आता और 2-4 दिन बाद फिर बुलावा आ जाता. पहली बार तो एक पुलिस वाला आया जो मुझे पूरा अपराधी मान कर घर से गालीगलौज करते व घसीटते हुए ले जाने को तत्पर था.

मैं ने उस से अपने अच्छे शहरी और निर्दोष होने के बारे में कहा तो उस ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘पकड़े जाने से पहले सब मुजरिम यही कहते हैं. थाने चलो, पूछताछ होगी, सब पता चल जाएगा.’

चूंकि न मैं कोई सरकारी नौकरी में था न मेरी कोई दुकानदारी थी. मैं स्वतंत्र लेखन कर के किसी तरह अपनी जीविका चलाता था. उस पर, मैं अकेला था, अविवाहित भी.

पहली बार मुझे सीधा ऐसे कक्ष में बिठाया गया जहां पेशेवर अपराधियों को थर्ड डिगरी देने के लिए बिठाया जाता है. पुलिस की थर्ड डिगरी मतलब बेरहमी से शरीर को तोड़ना. मैं घबराया, डरा, सहमा था. मैं ने क्या गुनाह किया था, खुद मुझे पता नहीं था. मैं जब कभी पूछता तो मुझे डांट कर, चिल्ला कर और कभीकभी गालियों से संबोधित कर के कहा जाता, ‘शांत बैठे रहो.’ मैं घंटों बैठा डरता रहा. दूसरे अपराधियों से पुलिस की पूछताछ देख कर घबराता रहा. क्या मेरे साथ भी ये अमानवीय कृत्य होंगे. मैं यह सोचता. मैं अपने को दुनिया का सब से मजबूर, कमजोर, हीन व्यक्ति महसूस करने लगा था.

मुझ से कहा गया आदेश की तरह, ‘अपना मोबाइल, पैसा, कागजात, पेन सब जमा करा दो.’ मैं ने यंत्रवत बिना कुछ पूछे मुंशी के पास सब जमा करा दिए फिर मुझ से मेरे जूते भी उतरवा दिए गए.

उस के बाद मुझे ठंडे फर्श पर बिठा दिया गया. तभी उस यंत्रणाकक्ष में दो स्टार वाला पुलिस अफसर एक कुरसी पर मेरे सामने बैठ कर पूछने लगा :

‘क्या करते हो? कौनकौन हैं घर में? 3 तारीख की रात 2 से 4 के बीच कहां थे? किनकिन लोगों के साथ उठनाबैठना है? शहर के किसकिस अपराधी गिरोह को जानते हो? 3 जुलाई, 2012 को किसकिस से मिले थे? तुम चोर हो? लुटेरे हो?’

बड़ी कड़ाई और रुखाई से उस ने ये सवाल पूछे और धमकी, डर, चेतावनी वाले अंदाज में कहा, ‘एक भी बात झूठ निकली तो समझ लो, सीधा जेल. सच नहीं बताओगे तो हम सच उगलवाना जानते हैं.’

मैं ने उस से कहा और पूरी विनम्रता व लगभग घिघियाते हुए, डर से कंपकंपाते हुए कहा, ‘मैं एक लेखक हूं. अकेला हूं. 3 तारीख की रात 2 से 4 बजे के मध्य में अपने घर में सो रहा था. मेरा अखबार, पत्रपत्रिकाओं के कुछ संपादकों से, लेखकों से मोबाइलवार्ता व पत्रव्यवहार होता रहता है. शहर में किसी को नहीं जानता. मेरा किसी अपराधी गिरोह से कोई संपर्क नहीं है. न मैं चोर हूं, न लुटेरा. मात्र एक लेखक हूं. सुबूत के तौर पर पत्रिकाओं, अखबारों की वे प्रतियां दिखा सकता हूं जिन में मेरे लेख, कविताएं, कहानियां छपी हैं.’

मेरी बात सुन कर वह बोला, ‘पत्रकार हो?’

‘नहीं, लेखक हूं.’

‘यह क्या होता है?’

‘लगभग पत्रकार जैसा. पत्रकार घटनाओं की सूचना समाचार के रूप में और लेखक उसे विमर्श के रूप में लेख, कहानी आदि बना कर पेश करता है.’

‘मतलब प्रैस वाले हो,’ उस ने स्वयं ही अपना दिमाग चलाया.

मैं ने उत्तर नहीं दिया. प्रैस के नाम से वह कुछ प्रभावित हुआ या चौंका या डरा, यह तो मैं नहीं समझ पाया लेकिन हां, उस का लहजा मेरे प्रति नरम और कुछकुछ दोस्ताना सा हो गया था. उस ने अपने प्रश्नों का उत्तर पा कर मुझे मेरा सारा सामान वापस कर के यह कहते हुए जाने दिया कि आप जा सकते हैं. लेकिन दोबारा जरूरत पड़ी तो आना होगा.

पहली बार तो मैं ‘जान बची तो लाखों पाए’ वाले अंदाज में लौट आया लेकिन जल्द ही दोबारा बुलावा आ गया. इस बार जो पुलिस वाला लेने आया था उस का लहजा नरम था.

इस बार मुझे एक बैंच पर काफी देर बैठना पड़ा. जिसे पूछताछ करनी थी, वह किसी काम से गया हुआ था. इस बीच थाने के संतरी से ले कर मुंशी तक ने मुझे हैरानपरेशान कर दिया. किस जुर्म में आए हो, कैसे आए हो, अब तुम्हारी खैर नहीं? फिर मुझ से चायपानी, सिगरेट के लिए पैसे मांगे गए. मुझे देने पड़े न चाहते हुए भी. फिर जब वह पुलिस अधिकारी आया, मैं उसे पहचान गया. वह पहले वाला ही अधिकारी था. उस ने मुझे शक की निगाहों से देखते हुए फिर शहर में घटित अपराधों के विषय में प्रश्न पर प्रश्न करने शुरू किए. मैं ने उसे सारे उत्तर अपनी स्मरणशक्ति पर जोर लगालगा कर दिए. कुछ इस तरह डरडर कर कि एक भी प्रश्न का उत्तर गलत हुआ तो परीक्षा में बैठे छात्र की तरह मेरा हाल होगा.

चूंकि उस का रवैया नरम था सो मैं ने उस से पूछा, ‘क्या बात है, सर, मुझे बारबार बुला कर ये सब क्यों पूछा जा रहा है, मैं ने किया क्या है?’

‘पुलिस को आप पर शक है और शक के आधार पर पुलिस की पूछताछ शुरू होती है जो सुबूत पर खत्म हो कर अपराधी को जेल तक पहुंचाती है.’

‘लेकिन मुझ पर इस तरह शक करने का क्या आधार है?’

‘आप के खिलाफ हमारे पास सूचनाएं आ रही हैं.’

‘सूचनाएं, किस तरह की?’

‘यही कि शहर में हो रही घटनाओं में आप का हाथ है.’

‘लेकिन…?’

उस ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘आप को बताने में क्या समस्या है? हम आप से एक सभ्य शहरी की तरह ही तो बात कर रहे हैं. पुलिस की मदद करना हर अच्छे नागरिक का कर्तव्य है.’

अब मैं क्या बताऊं उसे कि हर बार थाने बुलाया जाना और पुलिस के प्रश्नों का उत्तर देना, थाने में घंटों बैठना किसी शरीफ आदमी के लिए किसी यातना से कम नहीं होता. उस की मानसिक स्थिति क्या होती है, यह वही जानता है. पलपल ऐसा लगता है कि सामने जहरीला सांप बैठा हो और उस ने अब डसा कि तब डसा.

इस तरह मुझे बुलावा आता रहा और मैं जाता रहा. यह समय मेरे जीवन के सब से बुरे समय में से था. फिर मेरे बारबार आनेजाने से थाने के आसपास की दुकानवालों और मेरे महल्ले के लोगों को लगने लगा कि या तो मैं पेशेवर अपराधी हूं या पुलिस का कोई मुखबिर. कुछ लोगों को शायद यह भी लगा होगा कि मैं पुलिस विभाग में काम करने वाला सादी वर्दी में कोई सीआईडी का आदमी हूं. मैं ने पुलिस अधिकारी से कहा, ‘सर, मैं कब तक आताजाता रहूंगा? मेरे अपने काम भी हैं.’

उस ने चिढ़ कर कहा, ‘मैं भी कोई फालतू तो बैठा नहीं हूं. मेरे पास भी अपने काम हैं. मैं भी तुम से पूछपूछ कर परेशान हो गया हूं. न तुम कुछ बताते हो, न कुबूल करते हो. प्रैस के आदमी हो. तुम पर कठोरता का व्यवहार भी नहीं कर रहा इस कारण.’

‘सर, आप कुछ तो रास्ता सुझाएं?’

‘अब क्या बताएं? तुम स्वयं समझदार हो. प्रैस वाले से सीधे तो नहीं कुछ मांग सकता.’

‘फिर भी कुछ तो बताइए. मैं आप की क्या सेवा करूं?’

‘चलो, ऐसा करो, तुम 10 हजार रुपए दे दो. मेरे रहते तक अब तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. न तुम्हें थाने बुलाया जाएगा.’

मैं ने थोड़ा समय मांगा. इधरउधर से रुपयों का बंदोबस्त कर के उसे दिए और उस ने मुझे आश्वस्त किया कि मेरे होते अब तुम्हें नहीं आना पड़ेगा.

मैं निश्ंचत हो गया. भ्रष्टाचार के विरोध में लिखने वाले को स्वयं रिश्वत देनी पड़ी अपने बचाव में. अपनी बारबार की परेशानी से बचने के लिए और कोई रास्ता भी नहीं था. मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं था. न मेरा किसी बड़े व्यापारी, राजनेता, पुलिस अधिकारी से परिचय था. रही मीडिया की बात, तो मैं कोई पत्रकार नहीं था. मैं मात्र लेखक था, जो अपनी रचनाएं आज भी डाक से भेजता हूं. मेरा किसी मीडियाकर्मी से कोई परिचय नहीं था. एक लेखक एक साधारण व्यक्ति से भी कम होता है सांसारिक कार्यों में. वह नहीं समझ पाता कि उसे कब क्या करना है. वह बस लिखना जानता है.

अपने महल्ले में भी लोग मुझे अजीब निगाहों से देखने लगे थे, जैसे किसी जरायमपेशा मुजरिम को देखते हैं. मैं देख रहा था कि मुझे देख कर लोग अपने घर के अंदर चले जाते थे. मुझे देखते ही तुरंत अपना दरवाजा बंद कर लेते थे. महल्ले में लोग धीरेधीरे मेरे विषय में बातें करने लगे थे. मैं कौन हूं? क्या हूं? क्यों हूं? मेरे रहने से महल्ले का वातावरण खराब हो रहा है. और भी न जाने क्याक्या. मेरे मुंह पर कोई नहीं बोलता था. बोलने की हिम्मत ही नहीं थी. मैं ठहरा उन की नजर में अपराधी और वे शरीफ आदमी. अभी कुछ ही समय हुआ था कि फिर एक पुलिस की गाड़ी सायरन बजाते हुए रुकी और मुझ से थाने चलने के लिए कहा. मेरी सांस हलक में अटक गई. लेकिन इस बार मैं ने पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘साहब ने बुलाया है. आप को चलना ही पड़ेगा.’’

यह तो कृपा थी उन की कि उन्होंने मुझे कपड़े पहनने, घर में ताला लगाने का मौका दे दिया. मैं सांस रोके, पसीना पोंछते, पुलिस की गाड़ी में बैठा सोचता रहा, ‘साहब से तो तय हो गया था.’ महल्ले के लोग अपनीअपनी खिड़कियों, दरवाजों में से झांक रहे थे.

थाने पहुंच कर पता चला जो पुलिस अधिकारी अब तक पूछताछ करता रहा और जिसे मैं ने रिश्वत दी थी उस का तबादला हो गया है. उस की जगह कोई नया पुलिस अधिकारी था.

मेरे लिए खतरनाक यह था कि उस के नाम के बाद उस का सरनेम मेरे विरोध में था. वह बुद्धिस्ट, अंबेडकरवादी था और मैं सवर्ण. मैं समझ गया कि अपने पूर्वजों का कुछ हिसाबकिताब यह मुझे अपमानित और पीडि़त कर के चुकाने का प्रयास अवश्य करेगा. इस समय मुझे अपना ऊंची जाति का होना अखर रहा था.

मैं ने कई पीडि़त सवर्णों से सुना है कि थाने में यदि कोई दलित अफसर होता है तो वह कई तरह से प्रताडि़त करता है. मेरे साथ वही हुआ. मेरा सारा सामान मुंशी के पास जमा करवाया गया. मेरे जूते उतरवा कर एक तरफ रखवाए गए. मुझे ठंडे और गंदे फर्श पर बिठाया गया. फिर एक काला सा, घनी मूंछों वाला पुलिस अधिकारी बेंत लिए मेरे पास आया और ठीक सामने कुरसी डाल कर बैठ गया. उस ने हवा में अपना बेंत लहराया और फिर कुछ सोच कर रुक गया. उस ने मुझे घूर कर देखा. नाम, पता पूछा. फिर शहर में घटित तथाकथित अपराधों के विषय में पूछा.

मैं ने अब की बार दृढ़स्वर में कहा, ‘‘मैं पिछले 6 महीने से परेशान हूं. मेरा जीना मुश्किल हो रहा है. मेरा खानापीना हराम हो गया है. मेरी रातों की नींद उड़ गई है. इस से अच्छा तो यह है कि आप मुझे जेल में डाल दें. मुझे नक्सलवादी, आतंकवादी समझ कर मेरा एनकाउंटर कर दें. आप जहां चाहें, दस्तखत ले लें. आप जो कहें मैं सब कुबूल करने को तैयार हूं. लेकिन बारबार इस तरह यदि आप ने मुझे अपमानित और प्रताडि़त किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा,’’ यह कहतेकहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

नया पुलिस अधिकारी व्यंग्यात्मक ढंग से बोला, ‘‘आप शोषण करते रहे हजारों साल. हम ने नीचा दिखाया तो तड़प उठे पंडित महाराज.’’

उस के ये शब्द सुन कर मैं चौंका, ‘पंडित महाराज, तो एक ही व्यक्ति कहता था मुझ से. मेरे कालेज का दोस्त. छात्र कम गुंडा ज्यादा.’

‘‘पहचाना पंडित महाराज?’’ उस ने मेरी तरफ हंसते हुए कहा.

‘‘रामचरण अंबेडकर,’’ मेरे मुंह से अनायास ही निकला.

‘‘हां, वही, तुम्हारा सीनियर, तुम्हारा जिगरी दोस्त, कालेज का गुंडा.’’

‘‘अरे, तुम?’’

‘‘हां, मैं.’’

‘‘पुलिस में?’’

‘‘पहले कालेज में गुंडा हुआ करता था. अब कानून का गुंडा हूं. लेकिन तुम नहीं बदले, पंडित महाराज?’’

उस ने मुझे गले से लगाया. ससम्मान मेरा सामान मुझे लौटाया और अपने औफिस में मुझे कुरसी पर बिठा कर एक सिपाही से चायनाश्ते के लिए कहा.

यह मेरा कालेज का 1 साल सीनियर वही दोस्त था जिस ने मुझे रैगिंग से बचाया था. कई बार मेरे झगड़ों में खुद कवच बन कर सामने खड़ा हुआ था. फिर हम दोनों पक्के दोस्त बन गए थे. मेरे इसी दोस्त को कालेज की एक उच्चजातीय कन्या से प्रेम हुआ तो मैं ने ही इस के विवाह में मदद की थी. घर से भागने से ले कर कोर्टमैरिज तक में. तब भी उस ने वही कहा था और अभी फिर कहा, ‘‘दोस्ती की कोई जाति नहीं होती. बताओ, क्या चक्कर है?’’

मैं ने उदास हो कर कहा, ‘‘पिछले 6 महीने से पुलिस बुलाती है पूछताछ के नाम पर. जमाने भर के सवाल करती है. पता नहीं क्यों? मेरा तो जीना हराम हो गया है.’’

‘‘तुम्हारी किसी से कोई दुश्मनी है?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘अपनी शराफत के चलते कभी कहीं ऐसा सच बोल दिया हो जो किसी के लिए नुकसान पहुंचा गया हो और वह रंजिश के कारण ये सब कर रहा हो?’’

‘‘क्या कर रहा हो?’’

‘‘गुमनाम शिकायत.’’

‘‘क्या?’’ मैं चौंक गया, ‘‘तुम यह कह रहे हो कि कोई शरारत या नाराजगी के कारण गुमनाम शिकायत कर रहा है और पुलिस उन गुमनाम शिकायतों के आधार पर मुझे परेशान कर रही है.’’

‘‘हां, और क्या? यदि तुम मुजरिम होते तो अब तक जेल में नहीं होते. लेकिन शिकायत पर पूछताछ करना पुलिस का अधिकार है. आज मैं हूं, सब ठीक कर दूंगा. तुम्हारा दोस्त हूं. लेकिन शिकायतें जारी रहीं और मेरी जगह कल कोई और पुलिस वाला आ गया तो यह दौर जारी रह सकता है. इसीलिए कह रहा हूं, ध्यान से सोच कर बताओ कि जब से ये गुमनाम शिकायतें आ रही हैं, उस के कुछ समय पहले तुम्हारा किसी से कोई झगड़ा या ऐसा ही कुछ और हुआ था?’’

मैं सोचने लगा. उफ्फ, मैं ने सोचा भी नहीं था. अपने पड़ोसी मिस्टर नंद किशोर की लड़की से शादी के लिए मना करने पर वह ऐसा कर सकता है क्योंकि उस के बाद नंद किशोर ने न केवल महल्ले में मेरी बुराई करनी शुरू कर दी थी बल्कि उन के पूरे परिवार ने मुझ से बात करनी भी बंद कर दी थी. उलटे छोटीछोटी बातों पर उन का परिवार मुझ से झगड़ा करने के बहाने भी ढूंढ़ता रहता था. हो सकता है वह शिकायतकर्ता नंद किशोर ही हो. लेकिन यकीन से किसी पर उंगली उठाना ठीक नहीं है. अगर नहीं हुआ तो…मैं ने अपने पुलिस अधिकारी मित्र से कहा, ‘‘शक तो है क्योंकि एक शख्स है जो मुझ से चिढ़ता है लेकिन यकीन से नहीं कह सकता कि वही होगा.’’

फिर मैं ने उसे विवाह न करने की वजह भी बताई कि उन की लड़की किसी और से प्यार करती थी. शादी के लिए मना करने के लिए उसी ने मुझ से मदद के तौर पर प्रार्थना की थी. लेकिन मेरे मना करने के बाद भी पिता ने उस की शादी उसी की जाति के ही दूसरे व्यक्ति से करवा दी थी.

‘‘तो फिर नंद किशोर ही आप को 6 महीने से हलकान कर रहे हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, मुझे इस मुसीबत से किसी तरह बचाओ.’’

‘‘चुटकियों का काम है. अभी कर देता हूं,’’ उस ने लापरवाही से कहा.

फिर मेरे दोस्त पुलिस अधिकारी रामचरण ने नंद किशोर को परिवार सहित थाने बुलवाया. डांट, फटकार करते हुए कहा, ‘‘आप एक शरीफ आदमी को ही नहीं, 6 महीनों से पुलिस को भी गुमराह व परेशान कर रहे हैं. इस की सजा जानते हैं आप?’’

‘‘इस का क्या सुबूत है कि ये सब हम ने किया है?’’ बुजुर्ग नंद किशोर ने अपनी बात रखी.

पुलिस अधिकारी रामचरण ने कहा, ‘‘पुलिस को बेवकूफ समझ रखा है. आप की हैंडराइटिंग मिल गई तो केस बना कर अंदर कर दूंगा. जहां से आप टाइप करवा कर झूठी शिकायतें भेजते हैं, उस टाइपिस्ट का पता लग गया है. बुलाएं उसे? अंदर करूं सब को? जेल जाना है इस उम्र में?’’

पुलिस अधिकारी ने हवा में बातें कहीं जो बिलकुल सही बैठीं. नंद किशोर सन्नाटे में आ गए.

‘‘और नंद किशोरजी, जिस वजह से आप ये सब कर रहे हैं न, उस शादी के लिए आप की लड़की ने ही मना किया था. यदि दोबारा झूठी शिकायतें आईं तो आप अंदर हो जाएंगे 1 साल के लिए.’’

नंद किशोर को डांटडपट कर और भय दिखा कर छोड़ दिया गया. मुझे यह भी लगा कि शायद नंद किशोर का इन गुमनाम शिकायतों में कोई हाथ न हो, व्यर्थ ही…

‘‘मेरे रहते कुछ नहीं होगा, गुमनाम शिकायतों पर तो बिलकुल नहीं. लेकिन थोड़ा सुधर जा. शादी कर. घर बसा. शराफत का जमाना नहीं है,’’ उस ने मुझ से कहा. फिर मेरी उस से यदाकदा मुलाकातें होती रहतीं. एक दिन उस का भी तबादला हो गया.

मैं फिर डरा कि कोई फिर गुमनाम शिकायतों भरे पत्र लिखना शुरू न कर दे क्योंकि यदि यह काम नंद किशोर का नहीं है, किसी और का है तो हो सकता है कि थाने के चक्कर काटने पड़ें. नंद किशोर ने तो स्वीकार किया ही नहीं था. वे तो मना ही करते रहे थे अंत तक.

लेकिन उस के बाद यह सिलसिला बंद हो गया. तो क्या नंद किशोर ही नाराजगी के कारण…यह कैसा गुस्सा, कैसी नाराजगी कि आदमी आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए. गुस्सा है तो डांटो, लड़ो. बात कर के गुस्सा निकाल लो. मन में बैर रखने से खुद भी विषधर और दूसरे का भी जीना मुश्किल. पुलिस को भी चाहिए कि गुमनाम शिकायतों की जांच करे. व्यर्थ किसी को परेशान न करे.

शायद नंद किशोर का गुस्सा खत्म हो चुका था. लेकिन अब मेरे मन में नंद किशोर के प्रति घृणा के भाव थे. उस बुड्ढे को देखते ही मुझे अपने 6 माह की हलकान जिंदगी याद आ जाती थी. एक निर्दोष व्यक्ति को झूठी गुमनाम शिकायतों से अपमानित, प्रताडि़त करने वाले को मैं कैसे माफ कर सकता था. लेकिन मैं ने कभी उत्तर देने की कोशिश नहीं की. हां, पड़ोसी होते हुए भी हमारी कभी बात नहीं होती थी. नंद किशोर के परिवार ने कभी अफसोस या प्रायश्चित्त के भाव भी नहीं दिखाए. ऐसे में मेरे लिए वे पड़ोस में रहते हुए भी दूर थे.

Movie : ‘पुष्पा 2 द रुल’ देखने में मजा आएगा जब दिमाग घर छोड़ कर आएंगे

3 स्टार
किसी सीक्वअल फिल्म के लिए पहली मूल फिल्म के बेंच मार्क को मात देना बहुत मुश्किल होता है लेकिन इस कसौटी पर निर्देशक सुकुमार सफल रहे हैं. वह 2021 की सफल फिल्म ‘पुष्पा द राइज’ का सीक्वअल ‘पुष्पा द रूल’ ले कर आए हैं. यह 3 घंटे 20 मिनट लंबी फिल्म मनोरंजन परोसने के साथ ही पुरुषप्रधान समाज पर कुठाराघात करने के साथ ही पारिवारिक मूल्यों की बात करती है. फिल्म में सिर्फ अच्छाइयां हों, ऐसा भी नहीं है.
फिल्म में गानों के अंदर नृत्य की जो कामुक भाव मुद्राएं हैं, उन्हें देख कर समाज का एक वर्ग परेशान है और आरोप लगा रहा है कि अजंता एलोरा की गुफाओं में मौजूद वल्गर मुर्तिकला को इस फिल्म में नृत्य में तब्दील किया गया है. इस तरह निर्देशक ने आम इंसान की सैक्स के प्रति जो ललक होती है, उसे भुनाने का प्रयास किया है. वहीं समाज का एक वर्ग इन नृत्य दृश्यों को देख कर आनंदित है. इतना ही नहीं पर्यावरण के मुद्दे पर फिल्म चुप रहती है. इस के अलावा समाज का एक वर्ग इस बात से नाराज है कि फिल्म सर्जक ने फिल्म में स्मगलर का महिमा मंडन किया है.

फिल्म की शुरूआत जापान में चंदन की लकड़ी के कंटेनर पहुंचने से मचे हंगामे और पुष्पा के एक्शन व जापानी भाषा में बात करने से होती है. जापानी सुरक्षा बलों से मुठभेड़ के दौरान पुष्पा के दिल में गोली लगती है और वह पानी में गिर जाता है और यह दृश्य अचानक खत्म हो जाता है. पता चलता है कि यह दृश्य पुष्पा के सपने का हिस्सा है.

इस के बाद कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पहले भाग की कहानी खत्म हुई थी. पुराने प्रतिद्वंदी श्रीनु (सुनील) और उस की गुस्सैल पत्नी दक्षा (अनसूया भारद्वाज) उस तस्करी सिंडिकेट पर फिर से नियंत्रण हासिल करना चाहते हैं जिसे पुष्पा अब नियंत्रित करता है. पुलिस इंस्पैक्टर से एसपी बन चुके भंवर सिंह शेखावत (फहद फाजिल) पुष्पाराज से बदला लेना चाहता है.

इस के लिए पुष्पा को नैतिक और पेशेवर रूप से हराने के लिए शेखावत, पुष्पा को उसी के अपने तस्करी के सिंडिकेट से बाहर करने की योजना पर काम कर रहा है लेकिन पुष्पाराज काम में प्रतिभाशाली है और वह हर बार शेखावत को पराजित और निशब्द कर देता है. उन की पत्नी श्रीवल्ली (रश्मिका मंदाना) और केशव (जगदीश प्रताप भंडारी) के नेतृत्व में उन के वफादार अनुयायी उन की पूजा करते हैं.

पुष्पा का अपने गले पर हाथ फिराने का इशारा अब एक नृत्य मुद्रा है. जब कहानी आगे बढ़ी है तो स्वाभाविक तौर पर पुष्पाराज का चरित्र विकसित होता है. अब उस के शरीर पर सोने के जेवर ही नजर आते हैं. उस के पास शक्ति है तो वह किसी की कहां सुनने वाला? उस की अहंकारी इच्छाएं और आत्मसम्मान की जिद उस के दुश्मनों के लिए बहुत परेशानी का कारण बनती है.

अब पुष्पा वह मजदूर नहीं रहा, वह तो बड़ा आदमी बन गया है. लेकिन आज भी श्रीवल्ली (रश्मिका मंदाना) उसे अपनी उंगलियों पर नचाती है. तभी तो एक तरफ पुष्पाराज अपनी पत्नी श्रीवल्ली की मुख्यमंत्री संग फोटो के लिए राज्य के मुख्यमंत्री को ही बदलवा देता है. तो वहीं श्रीवल्ली, पुष्पा की प्रतिष्ठा व मान सम्मान को बचाने के लिए पूरी दुनिया और यहां तक कि रिश्तेदारों से लड़ने के लिए तैयार है. भंवर सिंह शेखावत खुद ही अपनेआप को खत्म करने पर मजबूर हो जाता है तो दूसरी तरफ पुष्पाराज का सौतेला भाई मोहन (अजय) उस से माफी मांग कर उसे अपने परिवार, खानदान व गौत्र का हिस्सा स्वीकार कर लेता है.
माना कि यह कहानी एक तरफ पुष्पाराज व भंवर सिंह शेखावत के बीच बदले की है तो दूसरी तरफ पुष्पाराज द्वारा अपना हक व मान सम्मान पाने की लड़ाई है. मगर फिल्म की पटकथा इतनी कमाल की है, आप को इस बात का अहसास ही नहीं होगा कि इस में कहानी नहीं है. माना कि फिल्म में कई दृश्य एपीसोडिक हैं, मगर इन्हें जिस तरह से कहानी का हिस्सा बनाया गया है, वह कमाल का है.

लेखक व निर्देशक सुकुमार ने साबित कर दिया कि उन्हें भौगोलिक सीमाओं से परे अच्छे कंटैंट और दर्शकों की नब्ज की बेहतरीन समझ है. और वह लंबी फिल्म में भी दर्शक को बोर न होने देने की कूवत रखते हैं. फिल्म में पतिपत्नी के बीच प्यार व रिश्तों का गहराई से चित्रण है.
पुष्पाराज की अपनी असंगतियों व अंतर्विरोधों के साथ फिल्म आगे बढ़ती रहती है. पुष्पा के जीवन की समस्याओं में सब से बड़ी समस्या यही है कि वह वैधता चाहता है. वह अपने पिता का नाम, गौत्र व खानदान का नाम चाहता है. वह अपना हक, पहचान चाहता है. वह रिश्तों की भावुकता को भी समझता है इसीलिए वह हिंसक हो जाता है.

निर्देशक की सब से बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने धन को रिश्तों के बीच नहीं आने दिया. अति महत्वाकांक्षी पुष्पाराज पत्नी से प्रेम, भतीजी से स्नेह, सैातेले भाई से रिश्ते सुधरने की उम्मीद, इन सभी चक्रव्यूहों में फंसा हुआ है. पहले भाग में ही पता चल गया था कि पुष्पाराज अपने पिता की नाजायज औलाद है, सौतेला भाई उसे अपने परिवार, गौत्र या खनदान का नहीं मानता तो पहचान ही उस का बहुत बड़ा संघर्ष है. अपनी मां को वह प्रतिष्ठा दिलाना चाहता है. वह पैसे से किसी को भी खरीदने की क्षमता रखता है. मगर वह रिश्तों को पैसे के बल पर खरीदने में यकीन नहीं रखता.

बौलीवुड के किसी अभिनेता में इतना दम नहीं है कि वह इस तरह की परफौर्मेंस दे सके या किसी निर्देशक में इतना दम नहीं है कि किसी कलाकार से इस तरह की उच्च गुणवत्ता वाली परफौर्मेंस निकलवा सके. फिल्म के सारे सीन डिजाइन किए गए हैं. भाषा व संवाद पर काफी मेहनत की गई है, तभी तो फिल्म देखते समय यह अहसास नहीं होता कि यह फिल्म डब है.
फिल्म की एडिटिंग अच्छी है. एपीसोडिक एक्शन सीन को एडिटर ने कहानी के मध्य गूंथा है. जात्रा वाला दृश्य शानदार है और दर्शकों के मन में कुछ अजीब सी बेचैनी भी पैदा करता है.

फिल्म की लंबी अवधि को कम कर यह एक क्लासिक फिल्म बन सकती थी. कुछ गाने तो बेवजह ठूंसे हुए नजर आते हैं. तो वहीं कुछ घरेलू दृश्य, खासकर श्रीवल्ली और पुष्पाराज के बीच छेड़खानी और अंतरंग क्षण अनावश्यक हैं. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. और इन संवादों को सुन कर दर्शक ताली बजाने से बाज नहीं आ सकता. नदी के माध्यम से पुलिस का चंदन के लिए पीछा करना और पुष्पा और शेखावत के बीच मूक इशारा संचार जैसे क्षण प्रभावशाली हैं.

‘फ्लावर समझे क्या? फायर है मैं’ जैसे संवाद में अल्लू अर्जुन का स्वैग दर्शकों को ताली बजाने पर मजबूर करता है. बौलीवुड तो आम इंसान को पसंद आने वाला सिनेमा बनाना भूल ही चुका है. फिल्म में एक्शन व सैक्स दोनों हैं. मगर ‘एनिमल’ से लाख गुना बेहतर है. और हर सीन जायज नजर आता है.
दक्षिण की फिल्मों से शिकायत रहती है कि इन फिल्मों में महिलाओं का सम्मान नहीं किया जाता, लेकिन अल्लू अर्जुन और सुकुमार ने इस बार सरप्राइज किया है. इन दोनों ने इस फिल्म में कुछ ऐसा कर दिखाया है जिसे करना आसान नहीं होता. बौलीवुड का सुपर स्टार फिल्म में अपने किरदार की पत्नी के पैर छूते हुए या उस के पेर में मलहम लगाते नजर नहीं आ सकता. फिल्म में नारी सशक्तिकरण के साथ ही नारी सम्मान का बहुत बड़ा मुद्दा प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है, मगर बिना किसी भाषणबाजी के.

20 मिनट का जात्रा वाला दृश्य भावनाओं और एक्शन से भरपूर, सावधानीपूर्वक कोरियोग्राफ किया गया है. फिल्म में एक सीन है, जहां पुष्पा के 200 से ज्यादा साथियों को शेखावत पकड़ लेता है. दर्शक सोचते हैं कि अब पुष्पाराज आएगा और पुलिस स्टेशन में तोड़फोड़ व मारधाड़ कर अपने साथियों को छुड़ा ले जाएगा. पुष्पाराज अपने सभी साथियों को इज्जत से अपने साथ ले जाता है, मगर बिना मारधाड़ किए. यहां पर पुष्पाराज पुलिस स्टेशन में मौजूद सभी पुलिसकर्मियों को उन के जीवनभर की तनख्वाह का नगद भुगतान कर सभी से त्यागपत्र लिखवा लेता है और अपने साथियों को ले कर चला जाता है.
कई लोग इस दृश्य पर आपत्ति जता रहे हैं. दक्षिण की फिल्मों की चिरपरिचत शैली में इस फिल्म में भी धर्म है. पूजापाठ है, मगर फिल्म सर्जक ने इन्हें सांस्कृति धरातल पर फिल्माया है, न कि धर्म को बेचा है.
निर्देशक ने चाहे जो मुद्दे उठाए हों, पर उस ने इस बात पर जोर दिया कि वह क्लासी नहीं बल्कि मासी फिल्म यानी कि आम दर्शकों की पसंद को ध्यान में रख कर फिल्म बनाई है.

फिल्म के कुछ दृश्यों पर यकीन करना भले मुश्किल हो, मगर फिल्मकारों के लिए यह सिनेमायी स्वतंत्रता है. मसलन-फिल्म के शुरूआती दृश्य में कंटेनर में 40 दिन बिना कुछ खाएपिए जापान पहुंचना कैसे संभव है? कंटेनर के अंधेरे में किसी किताब को पढ़ कर जापानी भाषा सीखना कैसे संभव है. जब आप के हाथ व पैर दोनों बंधे हों, तब आप कैसे उछल कर दांतों से किसी को काट या यूं कहें कि घायल कर सकते हैं?
फिल्म में जत्रा वाले दृश्य में जब पुष्पाराज को पता चलता है कि उस की पत्नी श्रीवल्ली गर्भवती है तो वह कामना करता है कि बेटी पैदा हो. इस के पीछे उस की सोच यह हे कि बेटी को शादी के बाद अपने आप गौत्र व खानदान मिल जाएगा. इस तरह यहां पर निर्देशक ने कहीं न कहीं पुरुष प्रधान समाज व पितृसत्तात्मक सोच पर चोट की है.

जहां तक तकनीकी पक्ष का सवाल है तो फिल्म के कैमरामैन पोलैंड के मूल निवासी सिनेमैटोग्राफर कुबा ब्रोजेक मिरोस्लोव बधाई के पात्र हैं. फिल्म का वीएफएक्स भी प्रभावशाली है. फिल्म का सर्वाधिक कमजोर पक्ष इस का संगीत है.
हक, मान सम्मान, पहचान हासिल करने के साथ ही सौतेले भाई के साथ बचपन से ही एक अजीब तरह की लड़ाई लड़ रहे पुष्पा राज के किरदार में अल्लू अर्जुन ने जानदार अभिनय किया है. श्रीवल्ली के किरदार में रश्मिका मंदाना ने भी ठीक काम किया है लेकिन अधिक नाटकीय उदाहरणों में कार्टून जैसा महसूस कराती है. यह उन की कमजोरी है.

मलयालम फिल्मों के सुपर स्टार हीरो फहाद फाजिल ने इस फिल्म में विलेन भंवर सिंह शेखावत के किरदार में कमाल का अभिनय किया है. फहाद फाजिल ने साबित कर दिखाया कि उन के अंदर हर तरह के किरदार को निभाने की क्षमता है.

Story : औरत का बदला

यौन दुराचार के आरोप में निलंबन, धूमिल सामाजिक प्रतिष्ठा और एक लंबी विभागीय जांच प्रक्रिया के बाद निर्दोष साबित हो कर फिर बहाल हुए सुशील आज पहली बार औफिस पहुंचे. पूरा स्टाफ उन के सम्मान में खड़ा हो गया, मगर उन्होंने किसी की तरफ भी नजर उठा कर नहीं देखा और चपरासी के पीछेपीछे सीधे अपने केबिन में चले गए. आज उन की चाल में पहले सी ठसक नहीं थी. वह पुराना आत्मविश्वास कहीं खो सा गया था.

कुरसी पर बैठते ही उन की आंखों में नमी तैर गई. उन के उजले दामन पर जो काले दाग लगे थे वे बेशक आज मिट गए थे मगर उन्हें मिटातेमिटाते उन का चरित्र कितना बदरंग हो गया, यह दर्द सिर्फ भुक्तभोगी ही जान सकता है.

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कितना गर्व था उन्हें अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा पर, बहुत भरोसा था अपने व्यवहार की पारदर्शिता पर. हां, वे काम में सख्त और वक्त के पाबंद थे. मगर यह भी सच था कि अपने स्टाफ के प्रति बहुत अपनापन रखते थे. वे कितनी बड़ी खुशफहमी पाले हुए थे अपने दिल में कि उन का स्टाफ भी उन्हें बहुत प्यार करता है. तभी तो उन्हें अपने चपरासी मोहन की बातों पर जरा भी यकीन नहीं हुआ था जब उस ने रजनी और शिखा के बीच हुई बातचीत ज्यों की त्यों सुना कर उन्हें खतरे से आगाह किया था. उन्हें आज भी वह सब याद है जो मोहन ने उस दिन दोनों की बातें लगभग फुसफुसा कर कही थीं…

‘इन सुशील का भी न, कुछ न कुछ तो इलाज करना ही पड़ेगा. जब से डिपार्टमैंट में हेड बन कर आए हैं, सब को सीट से बांध कर रख दिया है. मजाल है कि कोई लंचटाइम के अलावा जरा सा भी इधरउधर हो जाए,’ शिखा की टेबल पर टिफिन खोलते हुए रजनी ने अपनी भड़ास निकाली.

‘हां यार, विमल सर के टाइम में कितने मजे हुआ करते थे. बड़े ही आराम से नौकरी हो रही थी. न सुबह जल्दी आने की हड़बड़ाहट और न ही शाम को 6 बजे तक सीट पर बैठने की पाबंदी. अब तो सुबह अलार्म बजने के साथ ही मोबाइल में सुशील का चेहरा दिखाई देने लगता है,’ शिखा ने रजनी की हां में हां मिलाते हुए उस की बात का समर्थन किया.

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‘याद करो, कितनी बार हम ने औफिस से बंक मार कर मैटिनी शो देखा है, ब्यूटीपार्लर गए हैं, त्योहारों पर सैल में शौपिंग के मजे लूटे हैं. और तो और, औफिसटाइम में घरबाहर के कितने ही काम भी निबटा लिया करते थे. अब तो बस, सुबह साढ़े 9 बजे से शाम 6 बजे तक सिर्फ फाइलें ही निबटाते रहो. लगता ही नहीं कि सरकारी नौकरी कर रहे हैं,’ रजनी ने बीते हुए दिनों को याद कर के आह भरी.

‘और हां, सुशील सर पर तो तुम्हारी आंखों का काला जादू भी काम नहीं कर रहा, है न,’ शिखा ने जानबूझ कर रजनी को छेड़ा?

‘सही कह रही हो तुम. विमल सर तो मेरी एक मुसकान पर ही फ्लैट हो जाते थे. सुशील को तो यदि बांहोें में भर के चुंबन भी दे दूं न, तब भी शायद कोई छूट न दें,’ रजनी ने ठहाका लगाते हुए अपनी हार स्वीकार कर ली.

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‘शिखा मैडम, आप को साहब ने याद किया है,’ तभी मोहन ने आ कर कहा था.

‘अभी आती हूं,’ कहती हुई शिखा ने अपना टिफिन बंद किया और सुशील के चैंबर की तरफ चल दी.

‘साहब का चमचा,’ कह कर रजनी भी बुरा सा मुंह बनाती हुई अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.

सुशील को एकएक बात, एकएक घटना याद आ रही थी. रजनी उन के औफिस में क्लर्क है. बेहद आकर्षक देहयष्टि की मालकिन रजनी को यदि खूबसूरती की मल्लिका भी कहा जाए तो भी गलत न होगा. उस की मुखर आंखें उस के व्यक्तित्व को चारचांद लगा देती हैं. रजनी को भी अपनी इस खूबी का बखूबी एहसास है और अवसर आने पर वह अपनी आंखों का काला जादू चलाने से नहीं चूकती.

मोहन ने ही उन्हें बताया था कि 3 साल पहले जब रजनी ने ये विभाग जौइन किया था तब प्रशासनिक अधिकारी मिस्टर विमल उस के हेड थे. शौकीनमिजाज विमल पर रजनी की आंखों का काला जादू खूब चलता था. बस, वह अदा से पलकें उठा कर उन की तरफ देखती और उस के सारे गुनाह माफ हो जाते थे.

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विमल ने कभी उसे औफिस की घड़ी से बांध कर नहीं रखा. वह आराम से औफिस आती और अपनी मरजी से सीट छोड़ कर चल देती. हां, जाने से पहले एक आखिरी कौफी वह जरूर मिस्टर विमल के साथ पीती थी. उसी दौरान कुछ चटपटी बातें भी हो जाया करती थीं. मिस्टर विमल इतने को ही अपना समय समझ कर खुश हो जाते थे. रजनी की आड़ में शिखा समेत दूसरे कर्मचारियों को भी काम के घंटों में छूट मिल जाया करती थी, इसलिए सभी रजनी की तारीफें करकर के उसे चने के झाड़ पर चढ़ा रखते थे.

लेकिन रजनी की आंखों का काला जादू ज्यादा नहीं चला क्योंकि मिस्टर विमल का ट्रांसफर हो गया. उन की जगह सुशील उन के बौस बन कर आ गए. दोनों अधिकारियों में जमीनआसमान का फर्क. सुशील अपने काम के प्रति बहुत ईमानदार थे और साथ ही, वक्त के भी बहुत पाबंद, औफिस में 10 मिनट की भी देरी न तो खुद करते हैं और न ही किसी स्टाफ की बरदाश्त करते. शाम को भी 6 बजे से पहले किसी को सीट नहीं छोड़ने देते.

जैसा कि अमूमन होता आया है कि लंबे समय तक मिलने वाली सुविधाओं को अधिकार समझ लिया जाता है. रजनी को भी सुशील के आने से कसमसाहट होने लगी. उन की सख्ती उसे अपने अधिकारों का हनन महसूस होती थी. उसे न तो जल्दी औफिस आने की आदत थी और न ही देर तक रुकने की. उस ने एकदो बार अपनी अदाओं से सुशील को शीशे में उतारने की कोशिश भी की मगर उसे निराशा ही हाथ लगी. सुशील तो उसे आंख उठा कर देखते तक नहीं थे. फिर? कैसे चलेगा उस की आंखों का काला जादू? इस तरह तो नौकरी करनी बहुत मुश्किल हो जाएगी. रजनी की परेशानी बढ़ने लगी तो उस ने शिखा से अपनी परेशानी साझा की थी. तभी मोहन ने उन की बातें सुन ली थीं और सुशील को आगाह किया था.

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उन्हीं दिनों विधानसभा का मौनसून सत्र शुरू हुआ था. इन सत्रों में विपक्ष द्वारा सरकार से कई तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं और संबंधित सरकारी विभाग को उन के जवाब में अपने आंकड़े पेश करने पड़ते हैं. साथ ही, जब तक उस दिन का सत्र समाप्त नहीं हो जाता,

तब तक उस विभाग के सभी अधिकारियों व उन से जुड़े कर्मचारियों को औफिस में रुकना पड़ता है. हां, देरी होने पर महिला कर्मचारियों को सुरक्षित उन के घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी जरूर विभाग की होती है. इस बाबत सुशील भी हर रोज उन के लिए कुछ टैक्सियों की एडवांस में व्यवस्था करवाते थे.

रजनी के अधिकारक्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं के लिए चलाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण विकास योजनाओं की जानकारी वाली फाइलें थीं. इसलिए सुशील की तरफ से उसे खास हिदायत थी कि वह बिना उन की इजाजत के औफिस छोड़ कर न जाए. और फिर उस दिन जो हुआ उसे भला वे कैसे भूल सकते हैं.

‘साहब ने आज आप को फाइलों के साथ रुकने के लिए कहा है,’ मोहन ने जैसे ही औफिस से निकलने के लिए बैग संभालती रजनी को यह सूचना दी, उस के हाथ रुक गए. उस ने मन ही मन कुछ सोचा और सुशील के चैंबर की तरफ बढ़ गई.

‘सर, आज मेरे पति का जन्मदिन है, प्लीज आज मुझे जल्दी जाने दीजिए. मैं कल देर तक रुक जाऊंगी,’ रजनी ने मिन्नत की.

‘मगर मैडम, हमारे विभाग से जुड़े प्रश्न तो आज के सत्र में ही पूछे जाएंगे. कल रुकने का क्या फायदा? लेकिन आप फिक्र न करें, जैसे ही आप का काम खत्म होगा, हम तुरंत आप को टैक्सी से जहां आप कहेंगी वहां छुड़वा देंगे. अब आप जाइए और जल्दी से ये आंकड़े ले कर आइए,’ सुशील ने उस की तरफ एक फाइल बढ़ाते हुए कहा. रजनी कुछ देर तो वहां खड़ी रही मगर फिर सुशील की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पा कर निराश सी चैंबर से बाहर आ गई.

‘सर, क्या मैं आप के मोबाइल से एक फोन कर सकती हूं? अपने पति को देर से आने की सूचना देनी है, मैं जल्दबाजी में आज अपना मोबाइल लाना भूल गई,’ रजनी ने संकोच से कहा.

‘औफिस के लैंडलाइन से कर लीजिए,’ सुशील ने उस की तरफ देखे बिना ही टका सा जवाब दे दिया.

‘लैंडलाइन शायद डेड हो गया है और शिखा भी घर चली गई. पर

खैर, कोई बात नहीं, मैं कोई और व्यवस्था करती हूं,’ कहते हुए रजनी वापस मुड़ गई.

‘यह लीजिए, कर दीजिए अपने घर फोन. और हां, मेरी तरफ से भी अपने पति को जन्मदिन की शुभकामनाएं दीजिएगा,’ सुशील ने रजनी को

अपना मोबाइल थमा दिया और फिर से फाइलों में उलझ गए. रजनी उन

का मोबाइल ले कर अपनी सीट पर आ गई. थोड़ी देर बाद उस ने मोहन के साथ सुशील का मोबाइल वापस भिजवा दिया और फिर अपने काम में लग गई.

‘रजनीजी, आज आप अभी तक औफिस नहीं आईं?’ दूसरे दिन सुबह लगभग 11 बजे सुशील ने रजनी को फोन किया.

‘सर, कल आप के साथ रुकने से मेरी तबीयत खराब हो गई. मैं 2-4 दिनों तक मैडिकल लीव पर रहूंगी, रजनी ने धीमी आवाज में कहा.

‘क्या हुआ?’ सुशील के शब्दों में चिंता झलक रही थी.

‘कुछ खास नहीं, सर. बस, पूरी बौडी में पेन हो रहा है. रैस्ट करूंगी तो ठीक हो जाएगा. मैं अलमारी की चाबियां शिखा के साथ भिजवा रही हूं. शायद आप को कुछ जरूरत पड़े,’ कह कर रजनी ने अपनी बात खत्म की.

2 दिनों बाद सुशील के पास महिला आयोग की अध्यक्ष सुषमा का फोन आया जिसे सुन कर सुशील के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई. रजनी ने उन पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था. रजनी ने अपने पक्ष में सुशील द्वारा भेजे गए कुछ अश्लील मैसेज और एक फोनकौल की रिकौर्डिंग उन्हें उपलब्ध करवाई थी. सुशील ने लाख सफाई दी, मगर सुषमा ने उन की एक  न सुनी और रजनी की लिखित शिकायत व सुबूतों को आधार बनाते हुए यह खबर हर अखबार व न्यूज चैनल वालों को दे दी. सभी समाचारपत्रों ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया.

चूंकि खबर एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ी थी और वह भी ऐसे विभाग का जोकि खास महिलाओं की बेहतरी के लिए ही बनाया गया था, सो सत्ता के गलियारों में भूचाल आना स्वाभाविक था. न्यूज चैनलों पर गरमागरम बहस हुई. महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था पर खामियों को ले कर विपक्ष द्वारा सरकार को घेरा गया. सुशील के घर के बाहर महिला संगठनों द्वारा प्रदर्शन किया गया. सरकार से उन्हें बरखास्त करने की पुरजोर मांग की गई.

सरकार ने पहले तो अपने अधिकारी का पक्ष लिया मगर बाद में जब रजनी के मोबाइल में भेजे गए सुशील के अश्लील संदेश और फोनकौल की रिकौडिंग मीडिया में वायरल हुए तो सरकार भी बैकफुट पर आ गईर् और तुरंत प्रभाव से सुशील को सस्पैंड कर के एक उच्चस्तरीय जांच कमेटी का गठन किया गया. मामले की निष्पक्ष जांच के लिए एक महिला प्रशासनिक अधिकारी उपासना खरे को जांच अधिकारी बनाया गया.

उपासना की छवि एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी की रही थी. उसे इस से पहले भी ऐसी कई जांच करने का अनुभव था. साथ ही, एक महिला होने के नाते रजनी उस से खुल कर बात कर सकेगी, शायद उसे जांच अधिकारी नियुक्त करने के पीछे सरकार की यही मंशा रही होगी.

इधर सुशील के निलंबन को रजनी अपनी जीत समझ रही थी. उस ने एक दिन बातों ही बातों में शेखी मारते हुए शिखा के सामने सारे घटनाक्रम को बखान कर दिया तो शिखा को सुशील के लिए बहुत बुरा लगा. उधर शर्मिंदगी और समाज में हो रही थूथू के कारण सुशील ने अपनेआप को घर में कैद कर लिया.

उपासना ने पूरे केस का गंभीरता से अध्ययन किया. सुशील और रजनी के अलगअलग और एकसाथ भीबयान लिए. दोनों के पिछले चारित्रिक रिकौर्ड खंगाले. पूरे स्टाफ से दोनों के बारे में गहन पूछताछ की और सुशील के पिछले कार्यालयों से भी उन के व्यवहार व कार्यप्रणाली से जुड़ी जानकारी जुटाई.

मोहन और शिखा से बातचीत के दौरान अनुभवी उपासना को रजनी की साजिश की भनक लगी और उन्हीं के बयानों को आधार बनाते हुए उस ने रजनी को पूछताछ के लिए दोबारा बुलाया. इस बार जरा सख्ती से बात की. थोड़ी ही देर के सवालजवाबों में रजनी उलझ गई और उस ने सारी सचाई उगल दी.

‘मैं ने औफिस के लैंडलाइन फोन की पिन निकाल कर उसे डेड कर दिया. फिर बहाने से सुशील का मोबाइल लिया और उस से अपने मोबाइल पर कुछ अश्लील मैसेज भेजे. दूसरे दिन जब सर ने मुझे फोन किया तो मैं ने उन की बातों के द्विअर्थी जवाब देते हुए उस कौल को रिकौर्ड कर लिया और फिर उन्हें सबक सिखाने के लिए सारे सुबूत देते हुए महिला आयोग से उन की शिकायत कर दी. नतीजतन, वे सस्पैंड हो गए. इस कांड से सबक लेते हुए नए अधिकारी भी मुझ से दूरदूर रहने लगे और मुझे फिर से मनमरजी से औफिस आनेजाने की आजादी मिल गई,’ रजनी ने उपासना से माफी मांगते हुए यह सब कहा. अब यह केस शीशे की तरह बिलकुल साफ हो गया.

‘रजनी, तुम्हें शर्म आनी चाहिए. तुम ने ऐसी गिरी हुई हरकत कर के महिलाओं का सिर शर्म से नीचा कर दिया. तुम ने अपने महिला होने का नाजायज फायदा उठाने की कोशिश कर के महिला जाति के नाम पर कलंक लगाया है. तुम्हें इस की सजा मिलनी ही चाहिए…’ उपासना ने रजनी को बहुत ही तीखी टिप्पणियों के साथ

दोषी करार दिया और सुशील को बहाल करने की सिफारिश की. उपासना ने अपनी जांच रिपोर्ट में रजनी को बतौर सजा न सिर्फ शहर बल्कि राज्य से भी बाहर स्थानांतरण करने की अनुशंसा की.

मामला चूंकि सरकार के उच्चस्तरीय प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ा था और आरोप भी बहुत संगीन थे, इसलिए मुख्य सचिव ने व्यक्तिगत स्तर पर गुपचुप तरीके से भी मामले की जांच करवाई और आखिरकार, उपासना की जांच रिपोर्ट को सही मानते हुए सुशील को बहाल करने के आदेश जारी हो गए, हालांकि उन का विभाग जरूर बदल दिया गया था. रजनी का ट्रांसफर दिल्ली से लखनऊ कर दिया गया.

रजनी ने कई बार मौखिक व लिखित रूप से विभाग में अपना माफीनामा पेश किया, मगर आरोपों की गंभीरता को देखते हुए विभाग ने उस का प्रार्थनापत्र ठुकरा दिया और आखिरकार रजनी को लखनऊ जाना पड़ा.

आज भले ही सुशील अपने ऊपर लगे सभी आरोपों से बरी हो चुके हैं मगर महिलाओं को ले कर एक अनजाना भय उन के भीतर घुस गया है. महिलाओं के प्रति उन के अंदर जो एक स्वाभाविक संवेदना थी उस की जगह कठोरता ने ले ली. वे शायद जिंदगीभर यह हादसा न भूल पाएं कि महज काम के घंटों में छूट न देने की कीमत उन्हें क्याक्या खो कर चुकानी पड़ी.

सुशील ने मुख्य सचिव को पत्र लिख कर अपील की कि या तो

उन के अधीन कार्यरत सभी महिलाओं को दूसरे विभाग में ट्रांसफर कर दिया जाए या फिर उन्हें ही ऐसे सैक्शन में लगा दिया जाए. जहां महिला कर्मचारी न हों. आखिर दूध का जला छाछ भी फूंकफूक कर पीता है.

स्वाभाविक है यह मांग नहीं मानी गई और सालभर बाद सुशील ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपना छोटा सा कंसल्ंिटग का व्यवसाय शुरू कर दिया. एक औरत ने इस तरह उन की कमर तोड़ दी कि अब वे पत्नी व बेटी से भी आंख नहीं मिला पाते हैं.

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