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Bollywood : बोटौक्स व सर्जरी कराने में हर्ज कैसा

Bollywood : इस में कोई दोराय नहीं कि दर्शक, फिल्मों में ऐक्टरऐक्ट्रैस को हौट, सुंदर व आकर्षक देखना चाहते हैं. ऐसा वे प्रोफैशनल कारणों से ज्यादा करते हैं. ऐसा इसलिए यदि किसी मूवी में ऐक्ट्रैस ज्यादा सुंदर नहीं दिखती तो दर्शक ही उन्हें ट्रोल करते हैं या पसंद नहीं करते. हमारी सोसाइटी ही है जो सुन्दरता के पैरामीटर्स सेट करता है. तो ऐसे में एक्ट्रैसेज का प्लास्टिक सर्जरी या बोटोक्स करना गलत कैसे हुआ? 

हर किसी को सुंदर दिखने का हक है, वह अपनी बौडी और लुक्स के बारे में डिसीजन ले सकता है. अगर कोई सर्जरी या बोटोक्स से खुश है और इसे जरुरी समझता है तो सही जगह से बेझिझक करे. इसे हव्वा बनाने की जगह नोर्मलाइज और एक्सेप्ट करने की जरूरत है. आज जैसे हेयर ट्रांसप्लांट आम लोगों के दायरे में आ चुका है वैसे ही इस तरह की सर्जरियां भी आने वाले समय में आम होने लगेंगी.    

  • जाह्नवी कपूर

जाह्नवी कपूर बौलीवुड की खूबसूरत एक्ट्रैस हैं. अपनी मां की तरह ही जाह्नवी ने भी कई प्लास्टिक सर्जरी कराई हैं. इन में नाक, होंठ और जौ लाइन की सर्जरी शामिल हैं. वह अपनी फिजिक और बोल्डनैस के लिए जानी जाती हैं. 

  • अदिति राव हैदरी

इन की खूबसूरती के चर्चे सोशल मीडिया पर होते ही रहते हैं. उन्होंने अपनी नाक पतली कराने के लिए सर्जरी कराई थी.

  • नीसा देवगन

सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स ने काजोल की बेटी पर आरोप लगाए कि उन्होंने ब्यूटी ट्रीटमेंट्स व स्किन लाइटमेंट लेने के साथ ही प्लास्टिक सर्जरी का भी सहारा लिया है. 

  • खुशी कपूर

खुशी कपूर ने कास्मेटिक सर्जरी करवाने की बात स्वीकार कर चुकी हैं. खुशी ने खुलासा किया कि उन्होंने अपनी फिल्मी शुरुआत से पहले नाक की सर्जरी और होंठों में फिलर करवाया था. 

  • दिशा पाटनी

दिशा की पुरानी फोटोज को देख कर अकसर यही आशंका जताई जाती है कि एक्ट्रैस ने नाक और होंठ की सर्जरी कराई है. वह बौलीवुड कि हौटेस्ट एक्ट्रैस में एक हैं. 

  • नोरा फतेही

 

अभिनेत्री, डांसर नोरा ने कई सर्जरी करवाई हैं. सोशल मीडिया पर लोगों का दावा है कि उन्होंने हिप्स और ब्रैस्ट की सर्जरी कराई है. हालांकि एक्ट्रेस ने इन दावों का खंडन करती हैं.  

  • शनाया कपूर

शनाया कपूर ने अभी बौलीवुड में डेब्यू नहीं किया है. मगर अभी से वह काफी पौपुलर हैं. उन की पुरानी तस्वीरों में होंठ और नाक की शैप देख कर पता चलता है कि उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी करवाई है.

  • राजकुमार राव

इस लिस्ट में राजकुमार राव का नाम भी शामिल है. उन्होंने खुद इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू में किया कि उन्होंने आइब्रो शेप और ठोड़ी फिलर ट्रीटमेंट कराया है. 

लेखिका : कुमकुम गुप्ता

Baidyanath Sundari Sakhi : महावारी की समस्याएँ और समाधान, एक आयुर्वेदिक दृष्टिकोण

Baidyanath Sundari Sakhi : महावारी यानी मासिक धर्म एक ऐसी प्रक्रिया है जो हर महिला के जीवन का अहम हिस्सा है. यह न केवल भौतिक विकास का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि अपने साथ काई तरह की समस्याएं भी उत्पन्न करता है. आइए, हम इन समस्याओं का विश्लेषण करें और उनके समाधान खोजें.

महावारी की समस्याएँ

1. समस्याओं का संकोच

बहुत सी महिलाएँ महावारी के दौरन होने वाले शरीरिक और मानसिक दर्द के बारे में बात करने में संकोच महसूस करती हैं. इसी वजह से उन्हें सहारा नहीं मिलता और समस्याओं को समझने और हल करने में कठिनाई होती है.

2. शारीरिक दर्द

बहुत सी महिलाएँ महावारी के दौरन पेट दर्द, सर दर्द, और थकान का सामना करती हैं. ये दर्द कभी-कभी इतना कठिन होता है कि उनका दिनचर्या प्रभावित होती है.

3. मानसिक तनव

हार्मोनल परिवर्तन की वजह से महावरी के दौरान महिलाएं मानसिक तनाव और मूड स्विंग का सामना करती हैं. इस्से उनका सामान्य जीवन जीने में कठिनाइयां होती है.

4. स्वास्थ्य संबंधि समस्याएँ

कुछ महिलाओं को अत्यधिक रक्तस्राव, अनियमित मासिक धर्म, या PCOS जैसा स्वास्थ्य संबंध समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो उनकी जीवन शैली को प्रभावित कर सकती हैं.

समाधान

1. समस्या का विश्लेषण

महावरी से जुड़ी समस्याओं पर खुली बात-चीत करना जरूरी है. परिवार और दोस्त इसमें मददगार साबित हो सकते हैं. जागरूकता बढ़ाने से समस्या कम होती है.

2. दर्द प्रबंधन

दर्द के लिए दर्द निवारक दवा का उपयोग किया जा सकता है. कुछ महिलाएं योग और ध्यान के माध्यम से भी दर्द को कम करने का प्रयास करती हैं.

3. पोषण और व्यायाम

सही पोषण और नियमित व्यायाम से आप अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं. फल, सब्जियां और hydration का ध्यान रखना जरूरी है.

4. मानसिक स्वास्थ्य सहायता

अगर आपको मानसिक स्वास्थ्य के दौरान स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ता है, तो पेशेवर मदद लेना संभव है. Counselling या therapy से आपको समस्याओं का समाधान मिल सकता है.

यदि इसे भी आराम नहीं मिलता, तो आप वैद्य से परामर्श लेकर बैद्यनाथ द्वारा दी गई सुंदरी सखी का उपयोग कर सकते हैं;

बैद्यनाथ सुंदरी सखी आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से तैयार किया गया एक healthy टॉनिक है, सेहत को हर स्तर पर सुधारने में मदद करता है। इसमें शामिल जड़ी-बूटियाँ न सिर्फ शारीरिक बल देती हैं, बल्कि मानसिक तनाव को भी कम करती हैं.

बैद्यनाथ सुंदरी सखी में शामिल आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ

अशोका: महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य को सुधारने वाली यह जड़ी-बूटी मासिक धर्म की अनियमितताओं में बहुत लाभकारी है.
अश्वगंधा: यह जड़ी-बूटी शरीर की थकान और दर्द को दूर कर ऊर्जा प्रदान करती है.
मंजिष्ठा – यह त्वचा के स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करता है

सुंदरी सखी का उपयोग कैसे करें?

  • वैद्य से परामर्श लेकर रोजाना सुबह और शाम 2 चम्मच सुंदरी सखी को गुनगुने पानी  के साथ लें.
  • इसे नियमित रूप से 3 महीने तक उपयोग करें.

Hindi Story : मशीनें न बन जाएं हम

Hindi Story : एक वक्त था जब मनुष्य दर्द का  समंदर भी पी जाता था. लेकिन अब अनचाहा व्यवहार मनुष्य के स्वास्थ्य पर असर डालने लगा है. अवसाद का पंजा सारे के सारे व्यक्तित्व को डसने लगा है, गहरे अंधेरे कुएं में मनुष्य डूबता सा जाता है.

लोकेशजी परेशान चल रहे हैं बहुत दिन से. जीवन जैसे एक बिंदु पर आ कर खड़ा हो गया है, उन्हें कुछकुछ ऐसा लगने लगा है. समझ नहीं पा रहे जीवन को गति दें भी तो कैसे. जैसे घड़ी भी रुकी नजर आती है. मानो सुइयां चल कर भी चलती नहीं हैं. सब खड़ा है आसपास. बस, एक सांस चल रही है, वह भी घुटती सी लगती है. रोज सैर करने जाते हैं. वहां भी एक बैंच पर चुपचाप बैठ जाते हैं. लोग आगेपीछे सैर करते हैं, टकटकी लगा कर उन्हीं को देखते रहते हैं. बच्चे साइकिल चलाते हैं, फुटबाल खेलते हैं. कभी बौल पास आ जाए तो उठा कर लौटा देते हैं लोकेशजी. यही सिलसिला चल रहा है पिछले काफी समय से.

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‘‘क्या बात है, अंकल? कोई परेशानी है?’’ एक प्यारी सी बच्ची ने पास आ कर पूछा. नजरें उठाईं लोकेशजी ने. यह तो वही प्यारी सी बच्ची है जिसे पिछले सालभर के अंतराल से देख रहे हैं लोकेशजी. इसी पार्क में न जाने कितनी सैर करती है, शायद सैर पट्टी पर 20-25 चक्कर लगाती है. काफी मोटी थी पहले, अब छरहरी हो गई है. बहुत सुंदर है, मौडल जैसी चलती है. अकसर हर सैर करने वाले की नजर इसी पर रहती है. सुंदरता सदा सुख का सामान होती है यह पढ़ा था कभी, अब महसूस भी करते हैं. जवानी में भी बड़ी गहराई से महसूस किया था जब अपनी पत्नी से मिले थे. बीच में भूल गए थे क्योंकि सुख का सामान साथ ही रहा सदा, आज भी साथ है. शायद सुखी रहने की आदत भी सुख का महत्त्व कम कर देती है. जो सदा साथ ही रहे उस की कैसी इच्छा.

इस बच्ची पर हर युवा की नजर पड़ती देखते हैं तो फिर से याद आती है एक भूलीबिसरी सी कहानी जब वे भी जवान थे और सगाई के बाद अपनी होने वाली पत्नी की एक झलक पाने के लिए उस के कालेज में छुट्टी होने के समय पहुंच जाया करते थे.

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‘‘अंकल, क्या बात है, आप परेशान हैं?’’ पास बैठ गई वह बच्ची. उन की बांह पर हाथ रखा.

‘‘अं…हं…’’ तनिक चौंके लोकेशजी, ‘‘नहीं तो बेटा, ऐसा तो कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो है, कई दिन से देख रही हूं, आप सैर करने आते तो हैं लेकिन सैर करते ही नहीं?’’

चुप रहे लोकेशजी. हलका सा मुसकरा दिए. बड़ीबड़ी आंखों में सवाल था और होंठों पर प्यारी सी मुसकान.

‘‘घर में तो सब ठीक है न? कुछ तो है, बताइए न?’’

मुसकराहट आ गई लोकेशजी के होंठों पर.

‘‘आप को कहीं ऐसा तो नहीं लग रहा कि मैं आप की किसी व्यक्तिगत समस्या में दखल दे रही हूं. वैसे ऐसा लगना तो नहीं चाहिए क्योंकि आप ने भी एक दिन मेरी व्यक्तिगत समस्या में हस्तक्षेप किया था. मैं ने बुरा नहीं माना था, वास्तव में बड़ा अच्छा लगा था मुझे.’’

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‘‘मैं ने कब हस्तक्षेप किया था?’’ लोकेश के होंठों से निकल गया. कुछ याद करने का प्रयास किया. कुछ भी याद नहीं आया.

‘‘हुआ था ऐसा एक दिन.’’

‘‘लेकिन कब, मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’

‘‘कुछ आदतें इतनी परिपक्व हो जाती हैं कि हमें खुद ही पता नहीं चलता कि हम कब उस का प्रयोग भी कर जाते हैं. अच्छा इंसान अच्छाई कर जाता है और उसे पता भी नहीं होता क्योंकि उस की आदत है अच्छाई करना.’’

हंस पड़े लोकेशजी. उस बच्ची का सिर थपक दिया.

‘‘बताइए न अंकल, क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं न, बच्ची. क्या बताऊं?’’

‘‘तो फिर उठिए, सैर कीजिए. चुपचाप क्यों बैठे हैं. सैर पट्टी पर न कीजिए, यहीं घास पर ही कीजिए. मैं भी आप के साथसाथ चलती हूं.’’

उठ पड़े लोकेशजी. वह भी साथसाथ चलने लगी. बातें करने लगे और एकदूसरे के विषय में जानने लगे. पता चला, उस के पिता अच्छी नौकरी से रिटायर हुए हैं. एक बहन है जिस की शादी हो चुकी है.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बच्चे?’’

‘‘नेहा.’’

बड़ी अच्छी बातें करती है नेहा. बड़ी समझदारी से हर बात का विश्लेषण भी कर जाती. एमबीए है. अच्छी कंपनी में काम करती है. बहुत मोटी थी पहले, अब छरहरी लगती है. धीरेधीरे वह लोकेशजी को बैठे रहने ही न देती. सैर करने के लिए पीछे पड़ जाती.

‘‘चलिए, आइए अंकल, उठिए, बैठना नहीं है, सैर कीजिए, आइएआइए…’’

उस का इशारा होता और लोकेशजी उठ पड़ते. उस से बातें करते. एक दिन सहसा पूछा लोकेशजी ने, ‘‘एक बात तो बताना बेटा, जरा समझाओ मुझे, इंसान संसार में आया, बच्चे से जवान हुआ, शादीब्याह हुआ, बच्चे हुए, उन्हें पालापोसा, बड़ा किया, उन की भी शादियां कीं. वे अपनीअपनी जिंदगी में रचबस गए. इस के बाद अब और क्या? क्या अब उसे चले नहीं जाना चाहिए? क्यों जी रहा है यहां, समझ में नहीं आता.’’

चलतेचलते रुक गई नेहा. कुछ देर लोकेशजी का चेहरा पढ़ती रही.

‘‘तो क्या इतने दिन से आप यही सोच रहे थे यहां बैठ कर?’’

चुप रहे लोकेशजी.

‘‘आप यह सोच रहे थे कि सारे काम समाप्त हो गए, अब चलना चाहिए, यही न. मगर जाएंगे कहां? क्या अपनी मरजी से आए थे जो अपनी मरजी से चले भी जाएंगे? कहां जाएंगे, बताइए? उस जहान का रास्ता मालूम है क्या?’’

‘‘कौन सा जहान?’’

‘‘वही जहां आप और मेरे पापा भी चले जाना चाहते हैं. न जाने कब से बोरियाबिस्तर बांध कर तैयार बैठे हैं. मानो टिकट हाथ में है, जैसे ही गाड़ी आएगी, लपक कर चढ़ जाएंगे. बिना बुलाए ही चले जाएंगे क्या?

‘‘सुना है यमराजजी आते हैं लेने. जब आएंगे चले जाना शान से. अब उन साहब के इंतजार में समय क्यों बरबाद करना. चैन से जीना नहीं आता क्या?’’

‘‘चैन से कैसे जिएं?’’

‘‘चैन से कैसे जिएं, मतलब, सुबह उठिए अखबार के साथ. एक कप चाय पीजिए. नाश्ता कीजिए, अपना समय है न रिटायरमैंट के बाद. कोई बंधन नहीं. सारी उम्र मेहनत की है, क्या चैन से जीना आप का अधिकार नहीं है या चैन से जीना आता ही नहीं है. क्या परेशानी है?’’

‘‘अपने पापा को भी इसी तरह डांटती हो?’’

‘‘तो क्या करूं? जब देखो ऐसी ही उदासीभरी बातें करते हैं. अब मेरी मम्मी तो हैं नहीं जो उन्हें समझाएं.’’

क्षणभर को चौंक गए लोकेशजी. सोचने लगे कि उन के पास पत्नी का साथ तो है लेकिन उस का सुख भी गंवा रहे हैं वे. नेहा के पिता के पास तो वह सहारा भी नहीं.

‘‘चलिए, कल इतवार है न. आप हमारे घर पर आइए, बैठ कर गपशप करेंगे. अपने घर का पता बताइए.’’

पता बताया लोकेशजी ने. फिर अवाक् रहने के अलावा कुछ नहीं सूझा. उन का फ्लैट 25 नंबर और इन का 12. घरों की पिछली दीवारें मिलती हैं. एक कड़वी सी हंसी चली आई नेहा के होंठों पर. कड़वी और खोखली सी भी.

‘‘फेसबुक पर हजारों मित्र हैं मेरे, शायद उस से भी कहीं ज्यादा मेरा सुख मेरा दुख पढ़ते हैं वे. मैं उन का पढ़ती हूं और बस. डब्बा बंद, सूरत गायब. वे अनजान लोग मुझे शायद ही कभी मिलें.

‘‘जरूरत पड़ने पर वे कभी काम नहीं आएंगे क्योंकि वे बहुत दूर हैं. आप उस दिन काम आए थे जब सैरपट्टी पर एक छिछोरा बारबार मेरा रास्ता काट रहा था. आप ने उस का हाथ पकड़ उसे किनारे किया था और मुझे समझाया था कि अंधेरा हो जाने के बाद सैर को न आया करूं.

‘‘आप मेरे इतने पास हैं और मुझे खबर तक नहीं है.’’

आंखें भर आई थीं नेहा की. सच ही तो सोच रही है, हजारों दोस्त हैं जो लैपटौप की स्क्रीन पर हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं. पड़ोस में कोई है उस का पता ही नहीं क्योंकि संसार से ही फुरसत नहीं है. पड़ोसी का हाल कौन पूछे. अपनेआप में ही इतने बंद से हो गए हैं कि जरा सा किसी ने कुछ कह दिया कि आहत हो गए. अपनी खुशी का दायरा इतना छोटा कि किसी एक की भी कड़वी बात बीमार ही करने लगी. यों तो हजारों दोस्तों की भीड़ है, लेकिन सामने बैठ कर बात करने वाला एक भी नहीं जो कभी गले लगा कर एक सुरक्षात्मक भाव प्रदान कर सके.

‘‘यही बातें उदास करती हैं मुझे नेहा. आज की पीढ़ी जिंदा इंसानों से कितनी दूर होती जा रही है. सारे संसार की खबर रखते हैं लेकिन हमारे पड़ोसी कौन हैं, नहीं जानते. हमारे साथ वाले घर में कौन रहता है, पता ही नहीं हमें. अमेरिका में क्या हो रहा है, पता न चले तो स्वयं को पिछड़ा हुआ मानते हैं. हजारों मील पार क्या है, जानने की इच्छा है हमें. पड़ोसी चार दिन से नजर नहीं आया. हमें फिक्र नहीं होती. और जब पता चलता है हफ्तेभर से ही मरा पड़ा है तो भी हमारे चेहरे पर दुख के भाव नहीं आते. हम कितने संवेदनहीन हैं. यही सोच कर उदास होने लगता हूं.

‘‘अपने बच्चों को इतना डरा कर रखते हैं कि किसी से बात नहीं करने देते. आसपड़ोस में कहीं आनाजाना नहीं. फ्लैट्स में या पड़ोस में कोई रहता है, बच्चे स्कूल आतेजाते कभी घंटी ही बजा दें, बूढ़ाबूढ़ी का हालचाल ही पूछ लें लेकिन नहीं. ऐसा लगता है हम जंगल में रहते हैं, आसपास इंसान नहीं जानवर रहते हैं. हर इंसान डरा हुआ अपने ही खोल में बंद,’’ कहतेकहते चुप हो गए लोकेशजी.

उन का जमाना कितना अच्छा था. सब से आशीर्वाद लेते थे, सब की दुआएं मिलती थीं. आज ऐसा लगता है सदियां हो गईं किसी को आशीर्वाद नहीं दिया. जो उन्हें विरासत में मिला उन का भी जी चाहता है उसे आने वाली पीढ़ी को परोसें. मगर कैसे परोसें? कोई कभी पास तो आए कोई इज्जत से झुके, मानसम्मान से पेश आए तो मन की गहराई से दुआ निकलती है. आज दुआ देने वाले हाथ तो हैं, ऐसा लगता है दुआ लेना ही हम ने नहीं सिखाया अपने बच्चों को.’’

‘‘अंकल चलिए, आज मेरे साथ मेरे घर. मैं आंटीजी को ले आऊंगी. रात का खाना हम साथ खाएंगे.’’

‘‘आज तुम आओ, बच्चे. तुम्हारी आंटी ने सरसों का साग बनाया है. कह रही थीं, बच्चे दूर हैं अकेले खाने का मजा नहीं आएगा.’’

भीग उठी थीं नेहा की पलकें. आननफानन सब तय हो भी गया. करीब घंटेभर बाद नेहा अपने पिता के साथ लोकेशजी के फ्लैट के बाहर खड़ी थी. लोकेशजी की पत्नी ने दरवाजा खोला. सामने नेहा को देखा.

‘‘अरे आप…आप यहां.’’

एक सुखद आश्चर्य और मिला नेहा को. हर इतवार जब वह सब्जी मंडी सब्जी लेने जाती है तब इन से ही तो मुलाकात होती है. अकसर दोनों की आंख भी मिलती है और कुछ भाव प्रकट होते हैं, जैसे बस जानपहचान सी लगती है.

‘‘तुम जानती हो क्या शोभा को?’’ आतेआते पूछा लोकेशजी ने. चारों आमनेसामने. इस बार नेहा के पिता

भी अवाक्. लोकेशजी का चेहरा जानापहचाना सा लगने लगा था.

‘‘तुम…तुम लोकेश हो न और शोभा तुम…तुम ही हो न?’’

बहुत पुराने मित्र आमनेसामने खड़े थे. नेहा मूकदर्शक बनी पास खड़ी थी. अनजाने ही पुराने मित्रों को मिला दिया था उस ने. शोभा ने हाथ पकड़ कर नेहा को भीतर बुलाया. मित्रों का गले मिलना संपन्न हुआ और शोभा का नेहा को एकटक निहारना देर तक चलता रहा. मक्की की रोटी के साथ सरसों का साग उस दिन ज्यादा ही स्वादिष्ठ लगा.

‘‘देखिए न आंटी, आप का घर इस ब्लौक में और हमारा उस ब्लौक में.

2 साल हो गए हमें यहां आए. आप तो शायद पिछले 5 साल से यहां हैं. कभी मुलाकात ही नहीं हुई.’’

‘‘यही तो आज की पीढ़ी को मिल रहा है बेटा, अकेलापन और अवसाद. मशीनों से घिर गए हैं हम. जो समय बचता है उस में टीवी देखते हैं या लैपटौप पर दुनिया से जुड़ जाते हैं. इंसानों को पढ़ना अब आता किसे है. न तुम किसी को पढ़ते हो न कोई तुम्हें पढ़ता है. भावना तो आज अर्थहीन है. भावुक मनुष्य तो मूर्ख है. आज के युग में, फिर शिकवा कैसा. अपनत्व और स्नेह अगर आज दोगे

नहीं तो कल पाओगे कैसे? यह तो प्रकृति का नियम है. जो आज परोसोगे वही तो कल पाओगे.’’

चुपचाप सुनती रही नेहा. सच ही तो कह रही हैं शोभा आंटी. नई पीढ़ी को यदि अपना आने वाला कल सुखद और मीठा बनाना है तो यही सुख और मिठास आज परोसना भी पड़ेगा वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारे आसपास मात्र मशीनें ही होंगी, चलतीफिरती मशीनें, मानवीय रोबोट, मात्र रोबोट. शोभा आंटी बड़ी प्यारी, बड़ी ममतामयी सी लगीं नेहा को. मानो सदियों से जानती हों वे इन्हें.

वह शाम बड़ी अच्छी रही. लोकेश और शोभा देर तक नेहा और उस के पिता से बातें करते रहे. उस समय जब शायद नेहा का जन्म भी नहीं हुआ था तब दोनों परिवार साथसाथ थे. नेहा की मां अपने समय में बहुत सुंदर मानी जाती थीं.

‘‘मेरी मम्मी बहुत सुंदर थीं न? आप ने तो उन्हें देखा था न?’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने नहीं देखा?’’

‘‘बहुत हलका सा याद है, मैं तब

7-8 साल की थी. जब उन की रेल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. मैं उन की गोद में थी. वे चली गईं और मैं रह गई, यह देखिए उस दुर्घटना की निशानी,’’ माथे पर गहरा लाल निशान दिखाया नेहा ने. मां के हाथ की चूड़ी धंस गई थी उस के माथे की हड्डी में. वह आगे बोली, ‘‘पापा ने बहुत समझाया कि प्लास्टिक सर्जरी करवा लूं, यह दाग अच्छा नहीं लगता. मेरा मन नहीं मानता. मां की निशानी है न, इसे कैसे मिटा दूं.’’

नेहा का स्वर भीग गया. मेज का सामान उठातेउठाते शोभा के हाथ रुक गए. प्यारी सी बच्ची माथे की चोट में भी मां को पा लेने का सुख खोना नहीं चाहती.

वह दिन बीता और उस के बाद न जाने कितने दिन. पुरानी दोस्ती का फिर जीवित हो जाना एक वरदान सा लगा नेहा को. अब उस के पापा पहले की तरह उदास नहीं रहते और लोकेश अंकल भी उदास से पार्क की बैंच पर नहीं बैठते. मानो नेहा के पास 3-3 घर हो गए हों. औफिस से आती तो मेज पर कुछ खाने को मिलता. कभी पोहा, कभी ढोकला, कभी हलवा, कभी इडली सांबर. पूछने पर पता चलता कि लोकेश अंकल छोड़ गए हैं. कभी शोभा आंटी की बाई छोड़ गई है.

खापी कर पार्क को भागती मानो वह तीसरा घर हो जहां लोकेश अंकल इंतजार करते मिलते. वहां से कभी इस घर और कभी उस घर.

लोकेशजी के दोनों बेटे अमेरिका में सैटल हैं. उन की भी दोस्ती हो गई है नेहा से. वीडियो चैटिंग करती है वह उन से. शोभा आंटी उस की सखी भी बन गई हैं अब. वे बातें जो वह अपनी मां से करना चाहती थी, अब शोभाजी से करती है. जीवन कितना आसान लगने लगा है. उस के पापा भी अब उस जहान में जाने की बात नहीं करते जिस का किसी को पता नहीं है. ठीक है जब बुलावा आएगा चले जाएंगे, हम ने कब मना किया. जिंदा हो गए हैं तीनों बूढ़े लोग एकदूसरे का साथ पा कर और नेहा उन तीनों को खुश देख कर, खुशी से चूर है.

क्या आप के पड़ोस में कोई ऐसा है जो उदास है, आप आतेजाते बस उस का हालचाल ही पूछ लें. अच्छा लगेगा आप को भी और उसे भी.

Hindi Story Telling : तनुज के पहली शादी को घरवाले क्यों नहीं मानते थे

Hindi Story Telling : खुशियों से भरे दिन थे वे. उत्साह से भरे दिन. सजसंवर कर  रहने के दिन. प्रियजनों से मिलनेमिलाने के दिन. मुझ से 4 बरस छोटे मेरे भाई तनुज का विवाह था उस सप्ताह.

यों तो यह उस का दूसरा विवाह था पर उस के पहले विवाह को याद ही कौन कर रहा था. कुछ वर्ष पूर्व जब तनुज एक कोर्स करने के लिए इंगलैंड गया तो वहीं अपनी एक सहपाठिन से विवाह भी कर लिया. मम्मीपापा को यह विवाह मन मार कर स्वीकार करना पड़ा क्योंकि और कोई विकल्प ही नहीं था परंतु अपने एकमात्र बेटे का धूमधाम से विवाह करने की उन की तमन्ना अधूरी रह गई.

मात्र 1 वर्ष ही चला वह विवाह. कोर्स पूरा कर लौटते समय उस युवती ने भारत आ कर बसने के लिए एकदम इनकार कर दिया जबकि तनुज के अनुसार, उस ने विवाह से पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था कि उसे भारत लौटना है. शायद उस लड़की को यह विश्वास था कि वह किसी तरह तनुज को वहीं बस जाने के लिए मना लेगी. तनुज को वहीं पर नौकरी मिल रही थी और फिर अनेक भारतीयों को उस ने ऐसा करते देखा भी था. या फिर कौन जाने तनुज ने यह बात पहले स्पष्ट की भी थी या नहीं.

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बहरहाल, विवाह और तलाक की बात बता देने के बावजूद उस के लिए वधू ढूंढ़ने में जरा भी दिक्कत नहीं आई. मां ने इस बार अपने सब अरमान पूरे कर डाले. सगाई, मेहंदी, विवाह, रिसैप्शन सबकुछ. सप्ताहभर चलते रहे कार्यक्रम. मैं भी अपने अति व्यस्त जीवन से 10 दिन की छुट्टी ले कर आ गई थी. पति अनमोल को 4 दिन की छुट्टी मिल पाई तो हम उसी में खुश थे. बच्चों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. मौजमस्ती के अलावा उन्हें दिनभर के लिए मम्मीपापा का साथ भी मिल रहा था.

इंदौर में बीते खुशहाल बचपन की ढेर सारी यादें मेरे साथ जुड़ी हैं. बहुत धनवैभव न होने पर भी हमारा घर सब सुविधाओं से परिपूर्ण था. आज के मानदंड के अनुसार, चाहे मां बहुत पढ़ीलिखी नहीं थीं परंतु अत्यंत जागरूक और समय के अनुसार चलने वालों में से थीं. उन की इच्छा थी कि हम दोनों बहनभाई खूब पढ़लिख जाएं और इस के लिए वे हमें खूब प्रेरित करतीं.

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स्नेह और पैसे की कमी नहीं रही हमें. शिक्षा, संस्कार सबकुछ पाया. घर का अधिकांश कार्यभार सरस्वती अम्मा संभालती थीं. पीछे से वे अच्छे घर की थीं. विपदा आन पड़ने पर काम करने को मजबूर हो गई थीं. अपाहिज हो गया पति कमा कर तो क्या लाता, पत्नी पर ही बोझ बन गया था.

सरस्वती अम्मा घरों में खाना बनाने का काम करने लगीं. हमारा गैराज खाली पड़ा था. मां के कहने पर उसी में सरस्वती अम्मा ने अपनी गृहस्थी बसा ली. एक किनारे पति चारपाई पर पड़ा रहता. अम्मा बीचबीच में जा कर उस की देखरेख कर आतीं. शेष समय हमारे घर का कामकाज देखतीं. अच्छे परिवार से थीं, साफसुथरी और समझदार. खाना मन लगा कर बनातीं. प्यार से बनाए भोजन का स्वाद ही अलग होता है. मां ने उन के दोनों बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली थी. स्कूल से लौटने पर वे उन्हें पास बिठा होमवर्क भी करा देतीं. बेटा 12वीं पास कर डाकिया बन गया. बिटिया राधा का 15 वर्ष की आयु में ही विवाह कर दिया. मां ने नाबालिग लड़की का विवाह करने से बहुत रोका किंतु परंपराओं में जकड़ी सरस्वती अम्मा के लिए ऐसा करना संभव नहीं था. उन के अनुसार अभी राधा का विवाह न करने पर वह जीवनभर कुंआरी रह जाएगी. लेकिन 1 वर्ष बाद ही कारखाने में हुई एक दुर्घटना में राधा के पति की मृत्यु हो गई. उसे मुआवजा तो मिला पर सब से बड़ी पूंजी खो दी उस ने. मां ने उस के पुनर्विवाह के लिए कहा. परंतु सरस्वती अम्मा के हिसाब से उन की बिरादरी में यह कतई संभव नहीं था.

इसी बीच मेरा भी विवाह हो गया. मैं ने कौर्पोरेट ला की पढ़ाई की थी और अपना कैरियर बनाना मेरे जीवन का सपना था. विदेशी कंपनी में एक अच्छी नौकरी मिली हुई थी मुझे. विवाह के बाद 2 वर्ष तक तो सब ठीक चलता रहा पर जब मां बनने की संभावना नजर आई तो चिंता होने लगी. कैरियर बनाने के चक्कर में पहले ही उम्र बढ़ चुकी थी एवं मातृत्व को और टाला नहीं जा सकता था.

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शिशु जन्म के समय मां के पास इंदौर गई थी. अस्पताल से जब मैं नन्हे शिव को ले कर घर आई तो सरस्वती अम्मा ने एक सुझाव रखा, ‘क्यों न मैं राधा को अपने साथ ले जाऊं.’ उसे एक विश्वसनीय घर में रख कर वे निश्ंिचत हो जाएंगी. मेरी तो एक बड़ी समस्या हल हो गई, मन की मुराद पूरी हो गई. राधा को मैं बचपन से ही जानती आई थी. छोटी लड़कियों के अनेक खेल हम ने मिल कर खेले थे. वह मुझे बड़ी बहन का सा ही सम्मान देती थी. उस ने पहले शिव और 2 ही वर्ष बाद आई रिया की बहुत अच्छी तरह से देखभाल की और बच्चे भी उसे प्यार से मौसी कह कर बुलाते थे.

अनमोल जब घर पर होते तो यथासंभव हर काम में सहायता करते किंतु वे घर पर रहते ही बहुत कम थे. उन्हें दफ्तर के काम से अकसर इधरउधर जाना पड़ता और जब विदेश जाते तो महीनों बाद ही लौटते. यों अपने कैरियर के साथसाथ बच्चों को पालने और घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी. राधा की सहायता के बिना मेरा एक दिन भी नहीं चल सकता था. बच्चों के बड़े हो जाने के बाद भी मुझे उस की जरूरत रहने वाली थी.

मैं उस की सुविधा का पूरा खयाल रखती थी. घर के एक सदस्य की तरह ही थी वह. यों वह रात को बच्चों के कमरे में ही सोती किंतु घर के पिछवाड़े उस का अपना एक अलग कमरा भी था.

तनुज के ब्याह के लिए मैं ने अपने परिवार वालों के साथसाथ राधा के लिए भी नए कपड़े बनवाए थे. पर ऐन वक्त उस ने इंदौर जाने से इनकार कर दिया जोकि मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. अभी कुछ दिन पहले तक तो वह विवाह में गाए जाने वाले गीतों का जोरशोर से अभ्यास कर रही थी. वह जिंदादिल और मौजमस्ती पसंद लड़की थी. किसी भी तीजत्योहार पर उस का जोश देखते ही बनता था. अपने मातापिता से मिलने के लिए वह अकसर अवसर का इंतजार किया करती थी. पर इस बार न तो मांबाप से मिलने का मोह और न ही ब्याह की मौजमस्ती ही उसे लुभा पाई.

तनुज का विवाह बहुत धूमधाम से हो गया. हम ने भी 10 दिन खूब मस्ती की. लौट कर भी कुछ दिन उसी माहौल में खोए रहे, वहीं की बातें दोहराते रहे. राधा ने ही घर संभाले रखा. 2-3 दिन बाद जब मेरी थकान कुछ उतरी और राधा की ओर ध्यान गया तो मुझे लगा कि वह आजकल बहुत उदास रहती है. काम तो पूरे निबटा रही है किंतु उस का ध्यान कहीं और होता है. बात सुन कर भी नहीं सुनती. मांबाप की खोजखबर लेने को उत्सुक नहीं. विवाह की बातें सुनने को उत्साहित नहीं. पर बहुत पूछने पर भी उस ने कोई कारण नहीं बताया.

मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया था. यह चिंता नहीं थी कि मेरी अनुपस्थिति में बच्चों की देखभाल ठीक से नहीं होगी पर उस के मन में कुछ उदासी जरूर थी जो मैं महसूस कर सकती थी परंतु हल कैसे खोजती जब मैं कारण ही नहीं जानती थी.

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इतवार के दिन मेरी पड़ोसिन ने मुझे अपने घर पर बुला कर बताया कि हमारी अनुपस्थिति में एक युवक दिनरात राधा के संग उस की कोठरी में रहा था.

मैं ने मां को फोन कर के पूरी बात बताई.

मां ने शांतिपूर्वक पूरी बात सुनी और फिर उतनी ही शांति से पूछा, ‘‘पर तुम उस पर इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? ऐसा कौन सा कुसूर कर दिया है उस ने?’’

‘‘एक परपुरुष से संबंध बनाना अनैतिक नहीं है क्या? हमें तो आप कड़े अनुशासन में रखती थीं?’’

‘‘तो इस में दोष किस का है? राधा के पति की असमय मृत्यु हो गई, यह उस का दोष तो नहीं? फिर इस बात की सजा इस लड़की को क्यों दी जा रही है? 16 वर्ष की आयु में उसे मन मार कर जीवन जीने को बाध्य कर दिया. उस के जीवन के सब रंग छीन लिए…’’

‘‘पर मां, वह विधवा हो गई, इस में हम क्या कर सकते हैं?’’

‘‘क्यों? उसे जीने का हक नहीं दिला सकते क्या? तनुज का दोबारा विवाह हुआ है न? तुम्हारे भाई के तलाक में कुछ गलती तो उस की भी रही ही होगी पर राधा के विधवा होने के लिए उसे क्यों दंडित किया जा रहा है? उस ने तो नहीं मारा न अपने पति को? यह तय कर दिया गया कि वह दूसरा विवाह नहीं करेगी. उस की जिंदगी का इतना अहम फैसला लेने से पहले क्या किसी ने उस से एक बार भी पूछा कि वह क्या चाहती है? हो सकता है उस में ताउम्र अकेली रहने की हिम्मत न हो और वह फिर से विवाह करने की इच्छुक हो. जिस पुरुष के साथ वह 1 वर्ष ही रह पाई वह भी तमाम बंदिशों के बीच, उस के साथ उस का लगाव कितना हो पाया होगा? और अब तो उस की मृत्यु को भी इतने वर्ष बीत चुके हैं.’’

‘‘मां, मुझे उस पर दया आती है पर उन लोगों के जो नियम हैं, हम उन्हें तो नहीं बदल सकते न.’’

‘‘पर ये कानून बनाए किस ने हैं? समाज द्वारा स्थापित नियमकायदे समाज नहीं बदलेगा तो कौन बदलेगा? और हम भी इसी का ही हिस्सा हैं.

‘‘तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी सुखी गृहस्थी देख कर उस की कभी इच्छा नहीं होती होगी कि उस का भी कोई साथी हो, जिस से वह मन की बात कह सके, अपने दुखसुख बांट सके. अपने बच्चे हों. यदि वह तुम्हारे बच्चे से इतना स्नेह करती है तो उसे अपने बच्चों की कितनी साध होगी, कभी सोचा तुम ने?

‘‘अपने भविष्य पर निगाह डालने पर क्या देखती होगी वह? एक अनंत रेगिस्तान. बिना एक भी वृक्ष की छाया के. मांबाप आज हैं, कल नहीं रहेंगे. भाई अपनी गृहस्थी में रमा है. सरस्वती की बिरादरी वाले जो राधा के पुनर्विवाह के विरुद्ध हैं, एक पुरुष के विधुर होने पर चट से उस का दूसरा विवाह कर देते हैं. तब वे कहते हैं कि बेचारे के बच्चे कौन पालेगा? स्त्री के विधवा होने पर उन की यह दयामाया कहां चली जाती है? यों हम कहते हैं कि स्त्री अबला है. सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से उसे पुरुष पर आश्रित बना कर रखते हैं किंतु विधवा होते ही उस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अकेली ही इस जहान से लड़े. एक ऐसे समाज में जिस के हर वर्ग में भेडि़ए उसे नोच डालने को खुलेआम घूम रहे हैं.’’

दिनभर तो काम में व्यस्त रही पर दफ्तर जाते और लौटते हुए मां की बातें मस्तिष्क में घूमती रहीं. मैं ने सिर्फ किताबी ज्ञान ही अर्जित किया था. मां ने खुली आंखों से दुनिया को जिया था, देखा और समझा था. मैं अपने ही घर में रहती राधा का दर्द नहीं समझ पाई. कहने को मैं उसे घर का सदस्य समान ही समझती थी. उस से भरपूर प्यार करती थी. मैं ने उस पर थोपे निर्णय को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया था. जबकि मां उस के प्रति हुए अन्याय के प्रति पूर्ण जागरूक थीं.

मुझे मां की बातों में सचाई नजर आने लगी. सांझ ढलने तक मैं ने मन ही मन निर्णय ले लिया था और यही बताने के लिए दिनभर का काम समेट रात को मैं ने मां को फोन किया.

‘‘तुम उस लड़के से बात करो. उस की नौकरी, चरित्र इत्यादि के बारे में पूरी पड़ताल करो और यदि तुम्हें लगे कि लड़का सिर्फ मौजमस्ती के लिए राधा का इस्तेमाल नहीं कर रहा और इस रिश्ते को ले कर गंभीर है तो सरस्वती को मनवाने का जिम्मा मेरा,’’ मां के स्वर में आत्मविश्वास की झलक स्पष्ट थी.

मैं ने जब राधा के सामने बात छेड़ी तो उस ने रोना शुरू कर दिया. बहुत देर के बाद उस ने मन की बात मुझ से कही.

रौशन हमारे घर से थोड़ी दूर किसी का ड्राइवर था. उसे राधा के विधवा होने के बारे में मालूम था फिर भी वह उस से विवाह करने को तैयार था. पर राधा को डर था कि उस की मां इस विवाह के लिए कभी राजी नहीं होंगी. एक तो वे अपनी बिरादरी से बहुत डरती थीं, दूसरे, रौशन उन से भिन्न जाति का था. राधा की परेशानी यह थी कि यदि उस ने मांबाप की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली तो वह सदैव के लिए उन से कट जाएगी. एक तरफ उस की तमाम जीवन की खुशियां थीं तो दूसरी तरफ मांबाप का प्यार. इसी बात को ले कर वह उदास थी. उस ने अब तक अपने मन की बात मुझ से कहने की हिम्मत नहीं की थी तो इस में मेरा ही कुछ दोष रहा होगा.

मैं ने रौशन के पिता को बात करने के लिए बुलाया. रौशन ने पहले से ही उन्हें राजी कर रखा था. सारी पड़ताल करने के बाद मैं ने मां के आगे एक सुझाव रखा, ‘‘सरस्वती अम्मा यदि विवाह के लिए राजी हो जाती हैं तो आप उन्हें ले कर यहां आ जाइए और राधा का विवाह चुपचाप यहीं करवा देते हैं. उस की बिरादरी वालों को पता ही नहीं चलेगा.’’

मेरी कम पढ़ीलिखी मां की सोच बहुत आगे तक की थी. उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘नहीं, शादी यहीं से होगी और खुलेआम होगी ताकि उस जैसी अन्य राधाओं के आगे एक उदाहरण रखा जा सके. हम कुछ गलत नहीं कर रहे कि छिपा कर करें. मुझे इस युवक से मिल कर खुशी होगी जो यह जानते हुए भी कि राधा विधवा है, उस से विवाह करने को कटिबद्ध है. रौशन के जो भी परिजन विवाह में शामिल होना चाहें, उन का स्वागत है.’’

‘‘सरस्वती अम्मा को तो तुम मना लोगी मां, पर यदि उस की जातिबिरादरी वालों ने कोई बखेड़ा खड़ा कर दिया तो?’’ मैं अब भी हिम्मत नहीं कर पा रही थी शायद.

‘‘सेना जब युद्ध के मैदान में आगे बढ़ती है तो उस की पहली पांत को ही सर्वाधिक गोलियों का सामना करना पड़ता है. पर इस का अर्थ यह तो नहीं कि कोई आगे बढ़ने से इनकार कर देता हो. इसी तरह स्थापित किंतु अन्यायपूर्ण परंपराओं के विरुद्ध जो सब से पहले आवाज उठाता है उसे ही कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है. फिर धीरेधीरे वही रीति स्वीकार्य हो जाती है. पर किसी को तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी न.

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‘‘पहली पांत ही यदि साहस नहीं करेगी तो समाज आगे बढ़ेगा कैसे? हमारे समय में पढ़ेलिखे घरों में भी विधवा विवाह नहीं होता था. बहुत सरल, चाहे अब भी न हो किंतु वर्जित भी नहीं रहा. विडंबना यह है कि अभी भी हमारे समाज के कई वर्ग ऐसे हैं जहां विधवा की दोबारा शादी नहीं हो पाती. शायद अकेली सरस्वती यह कदम उठाने की हिम्मत न जुटा पाए परंतु यदि हम उस का साथ देते हैं तो उस की शक्ति दोगुनी हो जाएगी.’’

मैं इंदौर जा रही हूं. इस बार राधा को संग ले कर. जा कर इस के विवाह की तैयारी भी करनी है. आज से ठीक 5वें दिन रौशन आएगा इसे ब्याहने, पूरे विधिविधान के साथ.

Online Hindi Story : ममाज बौय

Online Hindi Story : ‘‘यह कौन सा समय है घर आने का?’’ शशांक को रात लगभग 11 बजे घर लौटे देख कर विभा ने जवाब तलब किया था.

‘‘आप तो यों ही घर सिर पर उठा लेती हैं. अभी तो केवल 11 बजे हैं,’’ शशांक साक्षात प्रश्नचिह्न बनी अपनी मां के प्रश्न का लापरवाही से उत्तर दे कर आगे बढ़ गया था.

‘‘शशांक, मैं तुम्हीं से बात कर रही हूं और तुम हो कि मेरी उपेक्षा कर के निकले जा रहे हो,’’ विभा चीखी थीं.

‘‘निकल न जाऊं तो क्या करूं. आप के कठोर अनुशासन ने तो घर को जेल बना दिया है. कभीकभी तो मन होता है कि इस घर को छोड़ कर भाग जाऊं,’’ शशांक अब बदतमीजी पर उतर आया था.

‘‘कहना बहुत सरल है, बेटे. घर छोड़ना इतना सरल होता तो सभी छोड़ कर भाग जाते. मातापिता ही हैं जो बच्चों की ऊलजलूल हरकतों को सह कर भी उन की हर सुखसुविधा का खयाल रखते हैं. इस समय तो मैं तुम्हें केवल यह याद दिलाना चाहती हूं कि हम ने सर्वसम्मति से यह नियम बनाया है कि बिना किसी आवश्यक कार्य के घर का कोई सदस्य 7 बजे के बाद घर से बाहर नहीं रहेगा. इस समय 11 बज चुके हैं. तुम कहां थे अब तक?’’

‘‘आप और आप के नियम…मैं ने निर्णय लिया है कि मैं अपना शेष जीवन इन बंधनों में जकड़ कर नहीं बिताने वाला. मेरे मित्र मेरा उपहास करते हैं. मुझे ‘ममाज बौय’ कह कर बुलाते हैं.’’

‘‘तो इस में बुरा क्या है, शशांक? सभी अपनी मां के ही बेटे होते हैं,’’ विभा गर्व से मुसकराईं.

‘‘बेटा होने और मां के पल्लू से बंधे होने में बहुत अंतर होता है,’’ शशांक ने अपना हाथ हवा में लहराते हुए  प्रतिवाद किया.

‘‘यह तेरे हाथ में काला सा क्या हो गया है?’’ बेटे का हाथ देख कर विभा चौंक गई.

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‘‘यह? टैटू कहते हैं इसे. आज की पार्टी में शहर का प्रसिद्ध टैटू आर्टिस्ट आया था. मेरे सभी मित्रों ने टैटू बनवाया तो भला मैं क्यों पीछे रहता? अच्छा लग रहा है न?’’ शशांक मुसकराया.

‘‘अच्छा? सड़कछाप लग रहे हो तुम. हाथ से ले कर गरदन तक टैटू बनवाने के पैसे थे तुम्हारे पास?’’ विभा क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मेरे पास पैसे कहां से आएंगे, मौम? बैंक में बड़ी अफसर आप हैं, आप. पापा भी बड़ी मल्टीनैशनल कंपनी में बड़े पद पर हैं पर अपने इकलौते पुत्र को मात्र 1 हजार रुपए जेबखर्च देते हैं आप दोनों. लेकिन मेरे मित्र आप की तरह टटपूंजिए नहीं हैं. मेरे मित्र अशीम ने ही यह शानदार पार्टी दी थी और टैटू आदि का प्रबंध भी उसी की ओर से था. पार्टी तो सारी रात चलेगी. मैं तो आप के डर से जल्दी चला आया,’’ शशांक ने बड़ी ठसक से कहा.

‘‘यह नया मित्र कहां से पैदा हो गया? अशीम नाम का तो तुम्हारा कोई मित्र नहीं था. उस ने पार्टी दी किस खुशी में थी? जन्मदिन था क्या?’’

‘‘एक बार में एक ही प्रश्न कीजिए न, मौम. तभी तो मैं ठीक से उत्तर दे पाऊंगा. आप जानना चाहती हैं कि यह मित्र आया कहां से? तो सुनिए, यह मेरा नया मित्र है. पार्टी उस ने जन्मदिन की खुशी में नहीं दी थी. वह तो इस पार्टी में अपनी महिलामित्र का सब से परिचय कराना चाहता था. पर मैं तो उस से पहले ही घर चला आया. अशीम को कितना बुरा लग रहा होगा. पर मैं समझा लूंगा उसे. मेरा जीवन उस के जैसा सीधासरल नहीं है. कल स्कूल भी जाना है,’’ शशांक ने बेमतलब ही जोर से ठहाका लगाया.

‘‘यह क्या? तुम पी कर आए हो क्या?’’ विभा ने कुछ सूंघने की कोशिश की.

‘‘इसे पीना नहीं कहते, मेरी प्यारी मां. इसे सामाजिक शिष्टाचार कहा जाता है,’’ विभा कुछ और पूछ पातीं उस से पहले शशांक नींद की गोद में समा गया था.

विभा शशांक को कंबल ओढ़ा कर बाहर निकलीं तो रात्रि का अंधकार और भी डरावना लग रहा था. पति के अपनी कंपनी के काम से शहर से बाहर जाने के कारण घर का सूनापन उन्हें खाने को दौड़ रहा था.

शशांक उन की एकमात्र संतान था. पतिपत्नी दोनों अच्छा कमाते थे. इसलिए शशांक के पालनपोषण में उन्होंने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी. पर पिछले कुछ दिनों से वह अजनबियों जैसा व्यवहार करने लगा था.

अपने स्कूल, ट्यूशन और मित्रों की हर बात उन्हें बताने वाला शशांक मानो अपने बनाए चक्रव्यूह में कैद हो कर रह गया था जिसे भेद पाना उन के लिए संभव ही नहीं हो रहा था.

‘आज क्या हुआ मालूम?’ विभा के घर पहुंचते ही वह इस वाक्य से अपना वार्त्तालाप प्रारंभ करता तो उस का कहीं ओरछोर ही नहीं मिलता था. शशांक अपने सहपाठियों के किस्से इतने रसपूर्ण ढंग से सुनाता कि वे हंसतेहंसते लोटपोट हो जातीं.

पर अब उन का लाड़ला शशांक कहीं खो सा गया था. कुछ पूछतीं भी तो हां, हूं में उत्तर देता. अब रात को देर से लौटता और अपने मित्रों व परिचितों के संबंध में बात तक नहीं करता था.

शशांक तो शायद खापी कर आया था पर उस की हरकत देख कर विभा की भूखप्यास खत्म हो गई थी. विभा ने काफी देर तक सोने का असफल प्रयत्न किया पर नींद तो उन से कोसों दूर थी. मन हलका करने के लिए उन्होंने पति संदीप को फोन मिलाया.

‘‘हैलो विभा, क्या हुआ? सोईं नहीं क्या अभी तक? सब कुशल तो है?’’ संदीप का स्वर उभरा.

विभा मन ही मन जलभुन गईं. वह भी समय था जब जनाब सारी रात दूरभाष वार्त्ता में गुजार देते थे. अब 11 बजे ही पूछ रहे हैं कि सोईं नहीं क्या? पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं बोलीं.

‘‘जिस का शशांक जैसा बेटा हो उसे भला नींद कैसे आएगी,’’ विभा कुछ सोच कर बोलीं.

‘‘ऐसा क्या कर दिया हमारे लाड़ले ने जो तुम इतनी बेहाल लग रही हो?’’ संदीप हंस कर बोले.

‘‘अपने मित्रों के साथ किसी पार्टी में गया था. कुछ ही देर पहले खापी कर लौटा है. पी कर अर्थात सचमुच पी कर. मन तो हो रहा है कि डंडे से उस की खूब पिटाई करूं पर क्या करूं, अकेली पड़ गई हूं,’’ विभा ने पूरी कहानी कह सुनाई.

‘‘तुम क्यों दिल छोटा करती हो, विभा. हम 3-4 दिन में घर पहुंच रहे हैं न. सब ठीक कर देंगे,’’ संदीप अपने अंदाज में बोले.

‘‘आप घर पहुंचेंगे अवश्य पर टिकेंगे कितने दिन? माह में सप्ताह भर भी घर पर रहने का औसत नहीं है आप का,’’ विभा ने शिकायत की.

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‘‘तुम क्यों चिंता करती हो. तुम तो स्वयं मातापिता दोनों की भूमिका खूबी से निभा रही हो. तुम चिंता न किया करो. शशांक की आयु ही ऐसी है. किशोरावस्था में थोड़ीबहुत उद्दंडता हर बच्चा दिखाता ही है. तुम थोड़ा उदार हो जाओ, फिर देखो,’’ संदीप ने समझाना चाहा.

‘‘चाहते क्या हैं, आप? रातभर घर से बाहर आवारागर्दी करने दूं उसे? पता भी है कि आज पहली बार आप का लाड़ला किशोर पी कर घर आया है?’’ विभा सुबकने लगी थीं.

‘‘होता है, ऐसा भी होता है. इस आयु के बच्चे हर चीज को चख कर देखना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे छोटा बच्चा अनजाने में आग में हाथ डाल देता है,’’ संदीप ने और समझाना चाहा.

‘‘हां, और झुलस भी जाता है. तो शशांक को आग में हाथ डालने दूं? भले ही वह जल जाए,’’ विभा का सारा क्रोध संदीप पर उतर रहा था.

‘‘विभा, रोना बंद करो और मेरी बात ध्यान से सुनो. कभीकभी तरुणाई में अपनी संतान को थोड़ी छूट देनी पड़ती है जिस से उस में अपना भलाबुरा समझने की अक्ल आ सके, शत्रु और मित्र में अंतर करना सीख सके,’’ संदीप ने विभा को शांत करने का एक और प्रयत्न किया.

‘‘वही तो मैं जानना चाहती हूं कि ये अशीम जैसे उस के मित्र अचानक कहां से प्रकट हो गए. पहले तो शशांक ने कभी उन के संबंध में नहीं बताया.’’

‘‘सच कहूं तो मैं शशांक के किसी मित्र को नहीं जानता. कभी उस से बैठ कर बात करने का समय ही नहीं मिला.’’

‘‘तो समय निकालो, संदीप. 2 माह बाद ही शशांक की बोर्ड की परीक्षा है और उस के बाद ढेरों प्रतियोगिता परीक्षाएं.’’

‘‘ठीक है, मुझे घर तो लौटने दो. फिर दोनों मिल कर देखेंगे कि शशांक को सही राह पर कैसे लाया जाए. तब तक खुद को शांत रखो क्योंकि रोनापीटना किसी समस्या का हल नहीं हो सकता,’’ संदीप ने वार्त्तालाप को विराम देते हुए कहा था पर विभा को चैन नहीं था. किसी प्रकार निद्रा और चेतनावस्था के बीच उस ने रात काटी.

अगले दिन शशांक ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. वह तैयार हो कर स्कूल चला गया तो विभा ने भी उस के स्कूल का रुख किया. बैंक से उस ने छुट्टी ले ली थी. वह शशांक की मित्रमंडली के संबंध में सबकुछ पता करना चाहती थी.

पर स्कूल पहुंचते ही शशांक के अध्यापकों ने उन्हें घेर लिया.

‘‘हम तो कब से आप से संपर्क करने का प्रयत्न कर रहे हैं. पर आजकल के मातापिता के पास पैसा तो बहुत है पर अपनी संतान के लिए समय नहीं है,’’ शशांक के कक्षाध्यापक विराज बाबू ने शिकायत की.

‘‘क्या कह रहे हैं आप? मैं तो अपने सब काम छोड़ कर पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आती हूं पर अब तो आप ने पेरैंट्सटीचर मीटिंग के लिए बुलाना भी बंद कर दिया,’’ विभा ने शिकायत की.

‘‘हम तो नियम से अभिभावकों को आमंत्रित करते हैं जिस से उन के बच्चों की प्रगति का लेखाजोखा उन के सम्मुख प्रस्तुत कर सकें. शशांक ने पढ़ाई में ध्यान देना ही बंद कर दिया है. हम नियम से परीक्षाफल घर भेजते हैं पर शशांक ने कभी उस पर अभिभावक के हस्ताक्षर नहीं करवाए,’’ बारीबारी से उस के सभी अध्यापकों  ने शिकायतों का पुलिंदा विभा को थमा दिया.

‘‘आप की बात पूरी हो गई हो तो मैं भी कुछ बोलूं?’’ विभा ने प्रश्न किया.

‘‘जी हां, कहिए,’’ प्रधानाचार्य अरविंद कुमार बोले.

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‘‘हम ने तो अपने बेटे का भविष्य आप के हाथों में सौंपा था. आप के स्कूल की प्रशंसा सुन कर ही हम शशांक को यहां लाए थे. और जब आप के द्वारा भेजी सूचनाएं हम तक नहीं पहुंच रही थीं तो हम से व्यक्तिगत संपर्क करना क्या आप का कर्तव्य नहीं था?’’ विभा आक्रामक स्वर में बोली.

‘‘आप सारा दोष हमारे सिर मढ़ कर अपनी जान छुड़ा लेना चाहती हैं पर जरा अपने सुपुत्र के हुलिए पर एक नजर तो डालिए. प्रतिदिन नए भेष में नजर आता है. स्कूल में यूनिफौर्म है पर लंबे बाल, हाथों से ले कर गरदन तक टैटू. मैं ने तो प्रधानाचार्य महोदय से शशांक को स्कूल से निकालने की सिफारिश कर दी है,’’ विराज बाबू बोले. सामने खड़े शशांक ने मां को देख कर नजरें झुका लीं.

‘‘अपनी कमी छिपाने का इस से अच्छा तरीका और हो ही क्या सकता है. पहले अपने उन विद्यार्थियों को बुलाइए जिन्होंने शशांक को बिगाड़ा है. वे रोज किसी न किसी बहाने से बड़ीबड़ी पार्टियां देते हैं. शशांक उन्हीं के चक्कर में देर से घर लौटता है,’’ विभा बोली.

‘‘कौन हैं वे?’’ विराज बाबू ने  प्रश्न किया.

‘‘कोई अशीम है, अन्य छात्रों के नाम तो शशांक ही बताएगा. आजकल वह मुझे अपनी बातें पहले की तरह नहीं बताता है.’’

‘‘अशीम? पर इस नाम का कोई छात्र हमारे स्कूल में है ही नहीं. वैसे भी, इंटर के छात्र इस समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त हैं, पार्टी आदि का समय कहां है उन के पास?’’ प्रधानाचार्य हैरान हो उठे.

‘‘शशांक, कौन है यह अशीम? कुछ बोलते क्यों नहीं?’’ विभा ने प्रश्न किया.

‘‘यह मेरा फेसबुक मित्र है. नीरज, सोमेश, दीपक और भी कई छात्र उन्हें जानते हैं,’’ शशांक ने बहुत पूछने पर भेद खोला.

‘‘मैं ने तो तुम्हारा फेसबुक अकाउंट बंद करा दिया था,’’ विभा हैरान हो उठीं.

‘‘पर हम सब का अकाउंट स्कूल में है. प्रोजैक्ट करने के बहाने हम इन से संपर्क करते थे,’’ शशांक ने बताया.

राज खुलना प्रारंभ हुआ तो परत दर परत खुलने लगा. अशीम और उस के मित्रों की पार्टियों के लिए धन शशांक और उस के मित्र ही जुटाते थे और यह सारा पैसा मातापिता को बताए बिना घर से चोरी कर के लाया जाता था.

विभा ने सुना तो सिर थाम लिया. बैंक का कामकाज संभालती है वह पर अपना घर नहीं संभाल सकी.

‘‘मैडम, आप धीरज रखिए और हमें थोड़ा समय दीजिए. भूल हम से अवश्य हुई है पर भूल आप से भी हुई है. काश, आप ने यह सूचना हमें पहले दी होती. हम इस समस्या की जड़ तक जा कर ही रहेंगे. यह हमारे छात्रों के भविष्य का प्रश्न तो है ही, हमारी संस्था के सम्मान का भी प्रश्न है,’’ प्रधानाचार्यजी ने आश्वासन दिया.

3-4 दिन बाद फिर आने का आश्वासन दे कर विभा घर लौट आईं. शशांक भी उन के साथ ही था.

अब तक खुद पर नियंत्रण किए बैठी विभा घर पहुंचते ही फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘मां, क्षमा कर दो मुझे. भविष्य में मैं आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं दूंगा,’’ शशांक उन्हें सांत्वना देता रहा.

‘‘मुझ से कहां भूल हो गई, शशांक? मैं ने तो तुम्हें सदा कांच के सामान की तरह संभाल कर रखा. फिर यह सब क्यों?’’

अगले दिन संदीप भी लौट आए थे और सारा विवरण जान कर सन्न रह गए थे.

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शीघ्र ही उन्हें पता लग गया था कि अशीम और उस के मित्र युवाओं को अपने जाल में फंसा कर नशीली दवाओं तक का आदी बनाने का काम करते थे. संदीप और विभा सिहर उठे थे. शशांक बरबादी के कितने करीब पहुंच चुका था, इस की कल्पना भी उन्होंने नहीं की थी.

‘‘मेरे बेटे के भविष्य से बढ़ कर तो कुछ भी नहीं है. मैं तो शशांक के लिए लंबी छुट्टी लूंगी. आवश्यकता पड़ी तो सदा के लिए,’’ विभा बोलीं.

‘‘मां, आज मैं कितना खुश हूं कि मुझे आप जैसे भविष्य संवारने वाले मातापिता मिले,’’ कहते हुए शशांक भावुक हो उठा.

‘‘अरे बुद्धू, मातापिता तो धनी हों या निर्धन, शिक्षित हों या अशिक्षित, सदैव संतान की भलाई की ही सोचते हैं. पर ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है. तुम यों समझ लो कि अब तुम्हें हमारी आज्ञा का पूरी तरह पालन करना पड़ेगा. तभी तुम्हारा भविष्य सुरक्षित रहेगा. नहीं तो…?’’ विभा बोल ही रही थी कि संदीप वाक्य पूरा कर बोले, ‘‘नहीं तो तुम अपनी मां को तो जानते ही हो. वह अपना भविष्य दांव पर लगा सकती है पर तुम्हारा नहीं,’’ और तीनों के समवेत ठहाकों से सारा घर गूंज उठा.

Hindi Story : उस महिला के जाने के बाद सन्नाटा क्यों हो गया

Hindi Story : हम जब इस फ्लैट में नएनए आए तो ऐसे माहौल में रहने का अनुभव पहली बार हुआ. अजीब सा लग रहा था. इतने पासपास दरवाजे थे कि लगता था जैसे अपने ही बड़े से घर के कमरों के दरवाजे हैं. धीरेधीरे सब व्यवस्थित होने लगा. हमें मिला कर कुल 4 घर थे या यों कह सकते हैं कि 4 दरवाजे दिखाई पड़ते थे. अकसर सभी दरवाजे बंद ही रहते थे, पर उन के खुलने और बंद होने के स्वरों से पता चलता था कि उन के भीतर लोग रहते हैं.

मैं मन ही मन सोचती, ‘एक भी परिवार से जानपहचान नहीं हुई. ऐसे में मैं कैसे सारा समय अकेले बिता पाऊंगी,’ बेटियां सुबह अपनेअपने काम पर चली जातीं और शाम को लौटतीं. ऐसा ही शायद अन्य घरों में भी होता था, तभी तो दिनभर हलचल बहुत कम रहती. ‘सन्नाटे की आदत डालनी होगी,’ यह सोच कर मैं शांत रही.

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एक दिन बगल वाले परिवार में छोटे बच्चे के रोने का स्वर सुनाई दिया. शायद वह परिवार उसी दिन लौटा था. सुबह का काम निबटा कर सब्जी लेने को बाहर निकली. दरवाजे पर ताला लगाते हुए लगा, मानो बगल वाले दरवाजे के भीतर कोई सरक गया है.

फिर उधर से गुजरते हुए दृष्टि पड़ ही गई. सोफे पर एक वृद्ध महिला एक बच्चे को ले कर बैठी मुसकरा रही थीं. उस मुसकराहट में एक विशेष आत्मीयता थी, जैसे बहुत अरसे की परिचिता रही हों. मैं भी मुसकराई.

सब्जी ले कर वापस आई, तब तक बगल का दरवाजा बंद हो चुका था. मैं ने उस ओर से ध्यान हटाने का प्रयास किया और सोचा, ‘आजकल हर कोई अपनी दुनिया में मस्त रहना चाहता है.’

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दोपहर में भोजन कर के एक झपकी ली ही थी कि घंटी का स्वर गूंज उठा. दरवाजा खोला तो देखा, वह बगल वाली वृद्ध महिला व एक युवती बच्चे को ले कर सामने खड़ी मुसकरा रही हैं.

युवती ने अंगरेजी में अपना परिचय दिया. वृद्ध महिला उस की सास थीं. उसी दिन वे लोग गांव से लौटे थे. बच्चे के जन्म के बाद युवती अपनी सास को साथ ले कर आई थी. उस के पति डाक्टर थे और अकसर बाहर ही रहते थे.

उस दिन कुछ विशेष बातें न हो सकीं. परिचय का ही आदानप्रदान पहली मुलाकात में काफी रहता है. युवती हिंदी नहीं बोल सकती थी क्योंकि वह उत्तर भारत कभी नहीं गई थी. वह आंध्र प्रदेश की रहने वाली थी पर अंगरेजी अच्छी बोल सकती थी. लेकिन वह वृद्ध महिला न हिंदी बोल सकती थीं, न समझ सकती थीं. मैं ने मन को तसल्ली दी कि कम से कम युवती से तो विचारविनिमय हो ही सकता है.

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इस प्रकार प्रतिदिन हमारा मिलनाजुलना होने लगा. बिलकुल बगल वाला फ्लैट था. एक ईंट की दीवार ने विभाजन किया हुआ था 2 परिवारों का. वृद्ध महिला अपना काम समाप्त कर के बहू को निर्देश दे कर मेरे पास आ बैठतीं.

मैं उन्हें देखती रहती. वे ठेठ आंध्र परिवेश की महिला थीं. गाढ़े रंगों के ब्लाउज व कीमती मगर सूती, जरी किनारे की साडि़यां पहनतीं. गले में 4 लड़ी की सोने की जंजीर, कान व नाक में हीरे दपदपाते रहते. सामने के दांत कुछ ऊंचे पर सदा मुसकराता चेहरा, जैसे अब कुछ कहने ही वाली हों, पर कह न पा रही हों.

कुल मिला कर उन का व्यक्तित्व काफी खुशनुमा था. माथे पर कभीकभी चंदन लगा देख मैं समझ गई कि वे भी विधवा हैं. हमारे उत्तर भारत में विधवा पर ‘सफेदी’ चढ़ जाती है, पर दक्षिण में ऐसी कोई मान्यता नहीं है. सिंदूर तो सभी का पुंछ जाता है. बस, यही समानता है.

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पड़ोसिन वृद्ध महिला कभीकभी मेरे पास आ कर बैठतीं अवश्य, पर हम विचारों का आदानप्रदान या तो बहू के सामने अंगरेजी में या फिर संकेतों से ही किया करतीं.

एक अनजान शहर में, जहां अपना कहने को कोई न था, हमारी पड़ोसिन व उस का परिवार ही हमारा सहारा बन गए थे. भाषा, प्रांत व रीतिरिवाजों की भिन्नता भी हमारे बीच दीवार न बन सकी. लेकिन इस के अलावा कुछ ऐसी समानता भी थी जो हमें एकदूसरे के सुखदुख में साझीदार बनाए हुए थी. आखिर क्या थी वह समानता जो हर सीमा से परे थी?

एक दिन वे मेरे पास बैठी थीं, तब पता नहीं क्या सूझी जो तपाक से उठ कर मेरे पति की तसवीर के पास जा कर खड़ी हो गईं. तसवीर को गौर से देखती रहीं. फिर अनायास ही उन की आंखों से आंसू झरने लगे. मैं भी स्वयं को न रोक सकी. अनजाने ही वे तेलुगू में लगातार कुछ कहती रहीं.

मुझे तेलुगू थोड़ीथोड़ी समझ में आ जाती थी. वे कह रही थीं, ‘‘इतनी कम आयु रही होगी आप के पति की…खैर…होनी को कौन टाल सकता है…’’

हम दोनों थोड़ी संयत हुई ही थीं कि बहू आ गई. वह सास को खाना खाने के लिए बुलाने आई थी.

इस प्रकार वह वृद्धा लगभग हर रोज मेरे पास आ कर बैठतीं. बस, खामोश बैठी रहतीं.

मुझे भी उन का आना और खामोश बैठा रहना बेहद अच्छा लगता. बल्कि यों कहूं कि मेरी आदत हो गई थी. कभीकभार मैं उन के घर जा कर बैठ जाती या वे आ जातीं.

उन के घर जाने से एक लाभ यह था कि वृद्धा जो भी बोलतीं, उस का अनुवाद अंगरेजी में कर के बहू मुझे बता देती थी. इतना स्नेह वे बहू पर छिड़कतीं, पोते पर वारीवारी जातीं. उधर बहू भी ‘अम्माअम्मा’ कहते न थकती थी.

भाषा की अड़चन होते हुए भी धीरेधीरे इन बैठकों में मैं ने आंध्र प्रदेश के कई व्यंजन, पहनावा, रीतिरिवाज सीख ही लिए थे. उधर, उन्होंने भी उत्तर भारतीय व्यंजन बनाने सीखे, विवाह आदि की रस्में सुनीं व समझीं. हम दोनों ने ही हर विषय पर बातें कर के एकदूसरे के विचार जाने और इस प्रकार हमारी गहरी मित्रता हो गई, पर यह मित्रता बहुत दिनों तक न चल सकी. 3-4 महीने बाद एक दिन बहू ने बताया कि अम्मा वापस गांव रहने जा रही हैं.

वैसे मुझे पता था कि वे गांव में ही रहती हैं. यहां तो पोते की देखभाल के लिए बहू की सहायक बन कर कुछ ही महीनों के लिए आई हैं. पर अब शायद मुझे उन का जाना अच्छा नहीं लग रहा था. मैं ने उन से कहा, ‘‘वापस क्यों जा रही हैं? यहीं रहिए न. अब तो पोता भी है, मन लगा रहेगा.’’

‘‘नहीं, अब तो जाना ही होगा. उधर कौन देखेगा. वह सब भी तो इसी के लिए देखना पड़ता है. इतनी जमीन व खेती सब इसी के लिए ही तो करना है.’’

चलते समय वे पोते को गोदी में भींच कर खूब रोईं, बहू से भी लिपट कर रोईं. मैं भी गले मिली. आखिर अपनापा तो हो ही जाता है. डाक्टर साहब मां को ले कर चले गए. दूसरे दिन निर्धारित समय पर बहू मेरे पास आई. वह रोंआसी हो रही थी. कहने लगी, ‘‘अम्मा की बेहद याद आ रही है, सो नहीं रह सकी. डाक्टर साहब तो कल लौट पाएंगे.’’

मेरी भी आंखें भर आईं. कितना सन्नाटा था उस वृद्ध महिला के बिना. फिर भी बहू को दिलासा दिया, ‘‘मन छोटा न करो. अकेली नहीं हो तुम, हम लोग भी हैं. मैं हूं तुम्हारे पास.’’

लिपट गई बहू मुझ से. रोतेरोते बोली, ‘‘मेरी मां नहीं हैं. इन अम्मा ने दोहरी भूमिका निभाई मेरे साथ. अब मुझ से कह गई हैं कि तेरी पड़ोसिन भी मेरी बहन हैं, उन्हें मेरी ही जगह पर समझना. उन की तीसरी बेटी हो जाएगी तू…’’

इतनी बड़ी बात, इतना विश्वास मुझ पर. शायद इतना तो मैं ने कुछ किया भी न था उन के लिए. पर नहीं, यह तो अपनेअपने मानने की बात है. जिस के मन में जितना स्नेह, अपनत्व भरा हो वह दूसरे में भी उतना ही मान कर चलता है.

बहू काफी भावुक रही 2-3 दिन तक. धीरेधीरे सहज होने लगी. मेरे पास आती, कभी किसी काम से, कभी यों ही बैठने, अभी तक हम इधरउधर की बातें ही करती थीं. पर एक दिन अचानक न जाने कैसे बात छिड़ गई और मैं पूछ बैठी, ‘‘अम्मा के पास उधर कौन रहता है? क्या तुम्हारे जेठ, देवर कोई ननद वगैरह हैं?’’

बहू जैसे अपनी तरफ से नहीं, पर मेरे शुरू करने की प्रतीक्षा में ही थी. घर की बातें थीं, पर फिर भी उस ने मुझे बताईं.

वह बोली, ‘‘ससुराल वाले बहुत पैसे वाले हैं, व्यापारी हैं. मूंगफली, नारियल व अन्य फलों की खेती होती है. ससुर 2 भाई थे. बड़े भाई से ससुर की न पटती थी. आएदिन झगड़े होते थे कि एक दिन ससुर की हत्या कर दी गई. गांव वाले तो कहते थे कि भाई ने ही हत्या कराई थी.

‘‘सब रोपीट कर रह गए. मेरी सास अपनी अकेली संतान को ले कर वहीं डटी रहीं. उन के भाई, भतीजे सहायता के लिए आसपास ही रहते थे. खेती में आधा हिस्सा कराया. बेटे को डाक्टर बनाया, विवाह किया.

‘‘पर अब भी निश्ंिचत नहीं हैं. पति के हिस्से की खेती व जायदाद की देखभाल अकेली ही करती हैं. बेटे को शहर में रहने दिया है, ताकि उसे सभी सुखसुविधाएं मिलती रहें और स्वयं अकेली उधर गांव में जूझती रहती हैं. बेटे को विदेश भेजने की आकांक्षा है, उच्च शिक्षा के लिए.’’

मैं हैरान थी. उन की वह भोली मुसकराहट याद हो आई. मैं सोचने लगी, इतनी साहसी महिला, कैसे देखा होगा वह क्षण, जब कुल्हाड़ी से कटा पति का निर्जीव शरीर सामने पड़ा होगा.

उफ, मेरा तो रोना निकल गया. बहू ने मुझे धीरज बंधाया, ‘‘आप रो रही हैं? जब कि अम्मा आप को आदर्श मानती हैं. वे मुझे समझा कर गई हैं कि इन्हें देखो, इन से साहस सीखो. 2 बेटियों को ले कर इतने बड़े शहर में अकेली रहती हैं. सब काम स्वयं संभालती हैं. ऐसी महिला मेरी ही कोई अपनी हो सकती है. तभी तो कहती हैं, मेरे न रहने पर उन्हें ही अपना बुजुर्ग मानना.’’

बहू चली गई. मैं अकेली बैठी सोचती रह गई कि धन्य है वह साहसी महिला.

यह बात इतना अवश्य स्पष्ट करती थी कि भाषा, प्रांत आदि की समानता न होने पर भी हम दोनों में कितनी बड़ी समानता थी. बिना पुरुष संरक्षण के कठिन स्थिति का सामना करते हुए हम दोनों ही जीवनयात्रा पर आगे बढ़ती जा रही थीं. अब वे अगली बार जब यहां आएंगी तब मुझे और भी अपनीअपनी सी लगेंगी, जैसे एक विशेष रिश्ता हम दोनों के बीच कायम हो गया था.

Hindi Kahani : नमिता राहुल को लेकर हमेशा क्यों परेशान रहती थी?

Hindi Kahani : औरत के बल पर मर्द अपना कद ऊंचा रख सकता है. राहुल आज संतुष्ट जीवन जी रहा था तो अपनी पत्नी के कारण ही. संबल ने ही उसे जीने की नई राह सुझाई थी.

अपने मैरिज होम के स्वागतकक्ष में बैठी नमिता मुख्य रसोइए से शाम को होने वाले एक विवाह की दावत के बारे में बातचीत कर रही थी, तभी राहुल उस के कमरे में आया. नमिता को स्वागतकक्ष में देख कर एक बार को वह ठिठक सा गया, ‘‘अरे, नमिता, तुम यहां?’’ निगाहों में ही नहीं, उस के स्वर में भी आश्चर्य था.

‘‘क्यों? क्या मैं यहां नहीं हो सकती?’’ हंसते हुए नमिता ने गरमजोशी से राहुल का स्वागत किया और बगल में पड़ी कुरसी की तरफ बैठने का संकेत कर रसोइए से अपनी बात जारी रखी, फिर उसे एक सूची पकड़ा कर बोली, ‘‘इस सूची के मुताबिक दावत की हर चीज तैयार रखें. खाना लगभग 9 बजे होना है. कोई शिकायत नहीं सुनूंगी मैं.’’

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‘‘जी मैडम,’’ रसोइए ने सिर झुका कर कहा और सूची ले वहां से चला गया.

‘‘यह क्या लफड़ा है भई?’’ राहुल ने अचरज से पूछा.

‘‘कोई खास नहीं,’’ नमिता मुसकराई. वही पुरानी मारक मुसकान, जिस का राहुल कभी दीवाना था.

‘‘अपनी शादी तो सफल नहीं हो सकी राहुल, पर दूसरों की शादियों का सफल आयोजन करने लगी हूं,’’ कह कर खुल कर हंसी नमिता. हंसते समय उसी तरह उस के गालों में पड़ने वाले गड्ढे और वैसे ही खिलखिलाने के साथ उस की छलक उठने वाली चमकदार पनीली आंखें. कुछ भी तो नहीं बदला है नमिता में.

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‘‘आजकल कहां हैं महाशय?’’ राहुल को पता था, नमिता का पति एक गैरजिम्मेदार व भगोड़ा किस्म का व्यक्ति निकला. जिस ने शादी के बाद जीवन की किसी भी जिम्मेदारी को ठीक से कभी निभाने की कोशिश नहीं की.

‘‘किसी तरह बिगड़ैल बैल को गाड़ी के जुए के नीचे रखने में सफल हो गई हूं राहुल,’’ वह सगर्व बोली, ‘‘आजकल हमारे इस मैरिजहोम का बाहरी काम वही देखते हैं. आदतों में भी कुछ बदलाव आए हैं. आशा है, अब सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन इतना आलीशान मैरिजहोम तुम ने बना कैसे डाला?’’ राहुल चकित स्वर में बोला, ‘‘कोई बैंक लूटा क्या तुम लोगों ने?’’

‘‘दिल में अगर कुछ करने का हौसला हो तो पैसे लगाने वालों की कमी नहीं है राहुल,’’ नमिता बोली, ‘‘मैं जिस कंपनी में काम करती थी, उस के मालिक खन्ना साहब पैसे वाले आदमी हैं. शहर में एक अच्छे मैरिजहोम की जरूरत सब महसूस कर रहे थे, पर कोईर् आगे बढ़ने का साहस नहीं कर रहा था. मैं ने खन्ना साहब से इस संबंध में अपना प्रस्ताव रखते हुए बात की तो वे गंभीर हो गए. वे बोले, ‘अगर तुम उस का इंतजाम कर सकती हो और सारा कुछ अपनी देखरेख में चला सकती हो तो बताओ.’

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‘‘मैं ने हिम्मत जुटाई और उन्होंने पैसा लगाया. साहस का संबल यह रहा कि मैरिजहोम शहर की नाक बन गया है. अब हर अच्छी शादी का इंतजाम हम करते हैं. हर अच्छी दावत हमारे यहां से होती है. और आप आश्चर्य करेंगे कि हमारे पति महाशय को अब सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती. रातदिन इस के प्रबंधन में जुटे रहते हैं. खुश भी हैं और संतुष्ट भी.’’

‘‘यानी आजाद पंछी को अपने पिंजड़े में कैद कर लिया तुम ने,’’ राहुल मुसकराया, ‘‘चलो, अच्छा हुआ, वरना मैं परेशान रहता था तुम्हें ले कर कि तुम शादी कर के खुश नहीं रह सकीं.’’

‘‘एक बार को तो सबकुछ उजड़ ही गया था राहुल. लगने लगा था कि सब बिखर गया. जीवन बेकार हो गया. शादी असफल हो जाएगी. विनोद सचमुच ऐसे इंसान नहीं हैं जो घर बसा कर रहने में विश्वास रखते हों. वे यायावर, घुमक्कड़ किस्म के व्यक्ति हैं, आज यहां तो कल वहां. आज यह नौकरी तो कल वह, आज इस शहर में तो कल उस शहर में. दरदर की ठोकरें खाना उन की प्रवृत्ति और आदत में शुमार था राहुल. यह मैं ही जानती हूं कि कैसे उन्हें सही रास्ते पर लाई और अब खुश हूं कि वे मुझे पूरा सहयोग कर रहे हैं और इस काम में रुचि ले रहे हैं. काम चल निकला है और हमें खासी आमदनी होने लगी है.’’

‘‘यह करिश्मा किस का मानूं? तुम्हारा या विनोद का?’’ राहुल ने नमिता की आंखों में अपने पुराने दिन खोजने चाहे, जिन की कोई छाया तक उसे नहीं मिली. कितनी बदल गई है नमिता, कितना आत्मविश्वास छलक रहा है अब उस में.

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नमिता के मातापिता नमिता का रिश्ता राहुल से करना चाहते थे. राहुल नमिता को पसंद भी बहुत करता था. जाति की बाधा भी नहीं थी. विश्वविद्यालय में वह नमिता के लिए रोज चक्कर लगाता था. नमिता तब इंग्लिश में एमए कर रही थी और राहुल उसी शहर में आयुर्वेदिक कालेज में बीएएमएस कर रहा था. करना तो हर युवक की तरह वह एमबीबीएस ही चाहता था, पर कई बार परीक्षा में बैठने के बाद भी उस में सफल नहीं हुआ तो जिस में प्रवेश मिल गया, वही पढ़ने लगा था. ऐलोपैथिक डाक्टर न सही, आयुर्वेदिक ही सही. डाक्टर तो बन ही रहा था. नमिता के मातापिता चाहते थे, नमिता जैसी नकचढ़ी लड़की अगर राहुल को पसंद कर ले तो उन के सिर का भार कम हो. पर नमिता ने इनकार कर दिया. उस के इनकार से राहुल को चोट भी पहुंची, लेकिन वह जोरजबरदस्ती किसी लड़की से शादी कैसे कर सकता था?

एक दिन राहुल ने पूछा था, ‘मैं

जानना चाहता हूं कि तुम ने मुझे

क्यों अस्वीकार किया नमिता? मुझ में क्या कमी या खराबी देखी तुम ने.’

‘कोई खराबी या कमी नहीं है राहुल तुम में. सच पूछो तो तुम मेरे एक अच्छे दोस्त हो जिस से मिल कर मुझे वाकई हमेशा अच्छा लगता है, खुशी होती है. पर राहुल, बुरा मत मानना, मैं किसी और से प्यार करती हूं.’

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सुन कर जैसे राहुल आसमान से गिरा हो, ‘कौन है वह खुशनसीब?’

‘विनोद,’ नमिता बोली, ‘तुम जानते हो उसे. कई बार मेरे साथ तुम्हारी उस से मुलाकात हुई है. वह मेरा सहपाठी है.’

देर तक गुमसुम बना रहा था राहुल, फिर किसी तरह बोला था, ‘तुम अपने फैसले पर फिर विचार करो नमिता. मैं विनोद की आलोचना किसी जलन से नहीं कर रहा. सच कहूं तो मुझे वह एक बेहद गैरजिम्मेदार किस्म का युवक लगता है. मैं नहीं समझ पा रहा कि तुम ने उसे कैसे और क्यों अपने लिए पसंद किया. हो सकता है, उस की कोई बात या गुण तुम्हें अच्छा लगा हो, पर…’

‘अपनाअपना दृष्टिकोण है राहुल’, नमिता बोली थी, ‘मुझे उस का यह बिखरा, बेढंगा व्यक्तित्व ही बेहद पसंद आया है. वह लकीर का फकीर नहीं है. बंध कर किसी एक विचार और बात पर टिकता नहीं है, यह उस का गुण भी है और अवगुण भी. वह जैसा भी है, वैसा ही मुझे पसंद है राहुल.’

‘तुम्हारे घर वाले राजी हैं, विनोद के लिए?’ राहुल ने दूसरा दांव फेंका.

नमिता बोली, ‘राजी नहीं हैं, पर मैं ने तय कर लिया है. शादी करूंगी तो विनोद से ही, वरना आजीवन कुंआरी रहूंगी,’ उस के दृढ़ निश्चय ने राहुल को एकदम निराश कर दिया था. उस के बाद वह नमिता से कभी नहीं मिला. सिर्फ इधरउधर से उस के बारे में सुनता रहा कि नमिता विनोद से शादी कर खुश नहीं रह सकी.

‘‘खैर, मेरी छोड़ो राहुल, अपनी बताओ कुछ,’’ नमिता ने पूछा, ‘‘आज अचानक यहां इस शहर में कैसे?’’

‘‘जिस बरात की दावत का यहां इंतजाम है, उस का मैं बराती हूं नमिता. कार्ड में यहां का पता था और संपर्क में तुम्हारा नाम. तो तुम से मिलने चला आया. और सचमुच तुम्हें यहां पा कर बहुत आश्चर्य हुआ मुझे.’’

‘‘चलो, ऊपर की मंजिल पर अपने कमरे में ले चलूं तुम्हें,’’ कह कर नमिता उठ खड़ी हुई. अपने सहायक से बोली, ‘‘विनोद साहब आएं तो कहना कि सूची में लिखे सलाद का इंतजाम वे अपनी देखरेख में खुद कराएं.’’

‘‘जी मैडम,’’ सहायक ने उठ कर कहा तो राहुल को लगा कि नमिता की अपने काम पर पूरी पकड़ है और वह सचमुच मैरिजहोम की एक कुशल संचालिका है.

नमिता का कमरा तरतीब से सजा था. राहुल दीवान पर आराम से बैठ गया. नमिता ने घंटी बजा कर ठंडा पेय मंगाया, ‘‘अब अपनी सुनाओ राहुल, शादी की? बच्चे हैं?’’ नमिता की टटोलती नजरों से बचने का प्रयास करता रहा राहुल. चेहरे पर कुछ देर पहले की हंसी अब गायब हो गई थी. वह अचकचा उठा था. कुछ सोच नहीं पा रहा था, कैसे कहे और क्या कहे.

संकोच देख कर नमिता ने उस की तरफ गौर से ताका, ‘‘क्या बात है राहुल? मुझे लग रहा है तुम किसी कशमकश से गुजर रहे हो.’’

‘‘ठीक पकड़ा तुम ने नमिता,’’ वह खिसिया सा गया, ‘‘एक कसबाईर् शहर में सरकारी अस्पताल में नौकरी कर रहा हूं. पत्नी मुझ से खुश नहीं है. उसे लगता है, उस के साथ धोखा हुआ है. जैसा डाक्टर वह समझ रही थी, मैं वैसा डाक्टर नहीं निकला. उस की कल्पना थी कि मेरे पास कार होगी, बंगला होगा, नौकरचाकर होंगे. शहर में नाम होगा, मरीजों की लाइन लगी होगी, हर कोई इज्जत देगा. पर उस की उम्मीदों पर उस वक्त पानी फिर गया, जब उस ने जाना कि मैं आयुर्वेदिक डाक्टर हूं और सरकारी अस्पताल में मुझे मरीज तभी दिखाता है, जब कोई और डाक्टर वहां उसे नहीं मिलता. मरीज को मुझ पर विश्वास भी नहीं होता.

‘‘तनख्वाह जरूर दूसरे डाक्टरों जितनी ही मिलती है, पर न वह भाव है, न वह सम्मान. अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी तक मुझे डाक्टर नहीं गिनते, न मेरी कोई बात सुनते हैं. साथी डाक्टर मुझे अपने साथ नहीं बैठाते. अपनी पार्टियों में मुझे नहीं बुलाते. एक प्रकार से अछूत माना जाता हूं मैं उन के बीच. उन की बीवियां मेरी बीवी को इज्जत नहीं देतीं. उस के मुंह पर कह देती हैं, ‘वह भी कोई डाक्टर है? चूरनचटनी से इलाज करता है. क्या देख कर तुम्हारे मांबाप ने उस से शादी कर दी.’’’

‘‘अरे,’’ नमिता को दुख सा हुआ, ‘‘तब तो तुम्हारी पत्नी सचमुच अपमानित महसूस करती होगी.’’

‘‘हां,’’ राहुल बोला, ‘‘उस अपमान के एहसास ने ही उस के दिल में मेरे प्रति नफरत पैदा करा दी नमिता. उसे मेरी सूरत से नफरत हो गई. मैं उस की आंखों में एकदम नकारा और बेकार आदमी हो गया. बिना मुझ से पूछे उस ने गर्भपात करवा लिया. अपने मायके में कह दिया, ‘ऐसे वाहियात आदमी का बच्चा मैं अपने पेट में नहीं पाल सकती.’’’

‘‘अरे, बड़ी बददिमाग औरत है वह,’’ नमिता बोली, ‘‘कहीं ऐसे जिया जाता है अपने पति के साथ?’’

‘‘2 साल वह मायके में ही रही. बारबार बुलाने पर भी नहीं आई. आखिर मैं ही गया अपनी नाक नीची कर के उसे लेने, उस के मातापिता से बात की. पूछा, मेरा क्या कुसूर है? जैसा डाक्टर हूं, वह शादी से पहले उन्हें बता दिया था. उन लोगों ने अपनी लड़की को शादी से पहले ही क्यों नहीं बता दिया? उसे अंधेरे में क्यों रखा? उस की आंखों में इतने बड़े सपने क्यों दिए कि वह जीवन की इस कठोर सचाई से आंखें नहीं मिला सकी?’’

‘‘मांबाप ने तुम्हारा पक्ष नहीं लिया?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘कोई मांबाप नहीं चाहता कि उन की लड़की का बसा हुआ घर उजड़े. उन लोगों ने भी लड़की को बहुत समझाया, ‘शादीब्याह हंसीखेल नहीं है. जीवन का प्रश्न है. निर्वाह करना चाहिए. जीवन में ऊंचनीच, अच्छाबुरा कहां नहीं होता? कोई ऐसे लड़झगड़ कर अपने घर से भाग आती है?’’’

‘‘फिर कुछ समझी वह?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘हां,’’ राहुल बोला, ‘‘लेकिन उस ने साथ चलने के लिए एक शर्त रखी.’’

‘‘ओह, शादी न हुई एक शर्तनामा हो गया,’’ हंस दी नमिता.

‘‘लेकिन मैं ने उस की वह शर्त तुरंत मान ली,’’ राहुल बोला, ‘‘उस ने कहा, ‘मैं अपना तबादला किसी ऐसे छोटे कसबे में करवा लूं जहां मुख्य डाक्टर मैं ही होऊं और कसबे वाले मुझे सचमुच डाक्टर मानें.’’’ राहुल कुछ चुप रह कर संतुष्ट स्वर में बोला, ‘‘अब जिस कसबे में हूं, वहां वह मेरे साथ खुश है. हालांकि वहां हर वक्त बिजली नहीं मिलती. अस्पताल में साधनों की कमी है. दवाएं अकसर नहीं होतीं. पर कसबे के दुकानदार दवाएं रखते हैं और मैं जिन दवाओं को परचे पर लिख देता हूं, उन्हें मंगाने की कोशिश करते हैं, जिस से मरीज ठीक होते हैं और मेरे प्रति लोगों का विश्वास जमने लगा है.

‘‘मुझे भी अब लगता है कि पत्नी की शर्त मान कर मैं ने शायद ठीक ही किया. बड़े शहर में जहां एक से एक कुशल और विशेषज्ञ डाक्टर मौजूद हों, वहां मुझ जैसे आयुर्वेदिक डाक्टर को कौन पूछेगा भला? वहां कोई क्यों मुझे सम्मान देगा, महत्त्व देगा? पर गांवकसबों में जहां विशेषज्ञ क्या, किसी तरह का डाक्टर नहीं होता, वहां लोग मुझे सम्मान देते हैं. मुझ में भी आत्मविश्वास आया है नमिता.’’

कर्मचारी शीतल पेय रख गया और दोनों पीने लगे थे. इस बीच नमिता का पति विनोद भी वहां आया था. नमिता ने परिचय कराया तो विनोद हंस दिया, ‘‘तुम तो ऐसे परिचय करा रही हो जैसे हम पहली बार मिल रहे हों.’’

कुछ औपचारिक बातों के बाद वह काम से चला गया. राहुल को लगा कि विनोद अब पहले जैसा अस्तव्यस्त और बेढंगा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति नहीं रहा. वह काफी चुस्तदुरुस्त और व्यस्त सा लगा. राहुल मुसकरा दिया, ‘‘तुम ने तो विनोद की काया पलट दी नमिता.’’

‘‘मैरिजहोम में हम हर नए जोड़े से खिलखिलाती जिंदगी की इच्छा रखते हैं. इसलिए क्या एक औरत समझदारी से काम ले कर अपनी खुद की जिंदगी को खुशियों से नहीं भर सकती राहुल?’’

‘‘जरूर भर सकती है, अगर वह पति की संबल बन जाए,’’ राहुल मुसकराया, ‘‘मुझे खुशी है कि तुम ने विनोद को संभाल लिया नमिता.’’

‘‘पहले बच्चे का गर्भपात करवाने के बाद तुम्हारी पत्नी ने दूसरे बच्चे का मन बनाया या नहीं?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘सालभर की एक बच्ची है नमिता,’’ राहुल झेंपा, ‘‘पत्नी अब मेरे साथ खुश रहती है. कसबे की औरतों में उस का सम्मान है. हर जगह उस को बुलाया जाता है और वह आतीजाती है. शायद दूसरों से जब हम अपनी तुलना करने लगते हैं तो हमारे अभाव हमें टीसने लगते हैं नमिता.

‘‘हमारी कमियां हमें आत्महीनता के दलदल में धंसाने लगती हैं. ऊंट अगर पहाड़ की तलहटी में आ कर अपनी ऊंचाई नापना चाहेगा तो अपने पर पछताएगा ही. पर जब वही ऊंट रेगिस्तान के बियाबान में अकेला होगा तो सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण साधन होगा, और सब से ऊंचा भी. यह रहस्य हम लोग कसबे में पहुंच कर समझ पाए. मैं भी ऐसा कोई अवसर नहीं चूकता, जहां मैं अपनी पत्नी को खुश कर सकूं. वह सचमुच अब प्रसन्न रहने लगी है नमिता.’’

पता नहीं किन नजरों से ताकती रही नमिता राहुल को. राहुल भी उसे ताकता रहा. पता नहीं. किस का लिखा वाक्य राहुल को उस वक्त याद आता रहा. औरतें मर्दों से ज्यादा बुद्धिमान होती हैं. हालांकि वे जानती कम हैं, पर जीवन की समझ उन में ज्यादा होती है. यह समझ ही तो है जो आज भी भारतीय परिवारों को बल और संबल प्रदान किए हुए है, जिस से आदमी अपने कद से ज्यादा ऊंचा उठा रहता है और आत्महीनता के दलदल में धंसने से बचा रहता है. औरतें ही तो हैं जो विनोद जैसे बेढंगे व्यक्ति को भी ढंग के आदमी में बदल देती हैं.

UPSC : गरीब छात्रों को हवाई सपने बेचते एजुकेशनल स्पीकर्स

UPSC : इस बात की क्या गारंटी है कि 1 साल हाड़तोड़ मेहनत कर हर ऐस्पिरेंट्स आईएएस क्लियर कर ही लेगा, जबकि सीटें ही मुश्किल से 1000 निकलती हैं? जाने कितने ही स्टूडैंट्स इस उम्मीद में सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं कि उस एक सीट पर उन का नाम लिखा है. इस उम्मीद को मोटिवेशन के नाम पर हवाई पंख देते हैं एजुकेशनल स्पीकर्स जो बड़ीबड़ी कौचिंग संस्थान चला रहे हैं. जाने इस मोटिवेशन के पीछे क्या है अंदर का खेल.

 

अगर किसी गरीब का बेटा या बेटी यूपीएससी क्लियर करता है तो इसे गाजेबाजे से प्रचारित किया जाता है. किया भी जाना चाहिए क्योंकि यह इतना आसान नहीं. मसलन, इस तरह के अपवादों को लच्छेदार सपने बना कर गरीबों पर थोपना कितना जायज है? 

 

भारत में अब हर दूसरा इन्फ्लुएंसर मोटिवेशनल स्पीकर बन चुका है. इस में अब बड़ेबड़े कौचिंग खोलने वाले व छात्रों से मोटी फीस ले करोड़ों का बिसनेस खड़ा करने वाले टीचर्स का नाम भी जुड़ गया है. 

 

आप अपनी जिंदगी को 1 साल नहीं दे सकते? अगर आप की उम्र 22 साल है और आप ने 1 साल खुद को दे दिया आईएएस की तैयारी के लिए, आप 23 साल में आईएएस बन गए तो 77 साल की जिंदगी सेफ. 22 साल कट गए तो 1 साल नहीं कटेगा. वो महावीर पागल हैं. जंगल में जा कर तैयारी कर रहे थे बुद्ध, राम, कृष्ण भी कर रहे थेवे भगवान बनने की तैयारी कर रहे थे, आप आईएएस बनने की कर रहे हैं.

 

ये लाइनें कुछकुछ नेटवर्क मार्केटिंग जैसी नहीं लगतीं, कि 1 साल बस जीजान लगा कर मेहनत कर लो अगले साल डायमंड बनोगे तो घर के बाहर बीएमडब्ल्यू खड़ी होगी? मगर ये नेटवर्क मार्केटिंग के एजेंट के बोल नहीं बल्कि अवध ओझा क्लासेस के मालिक व फेमस टीचर अवध ओझा के हैं. 

 

ऐसा ही कुछ झूठा सपना शिक्षक से मोटिवेशनल स्पीकर बने खान सर भी कहते हैं कि आप को उस जगह कोई नहीं हरा सकता जिसे आप सब से ज्यादा समझते हैं, सफलता केवल समय मांगती है.

 

एक दूसरी वीडियो में वे कहते है, काबिल इतना बनिए न कि लोग आप को रोकने के लिए साजिश करना पड़े कोशिश नहीं. एक और में वे कहते हैं, अपनेआप को इतना मजबूत करें कि रास्ते का ठोकर आप के ठोकर से बचे. 

 

एक वीडियो में वे कहते हैं, जो सपने देखते हैं उन के लिए पूरी रात छोटी पड़ जाती है और सपने पूरे करने वाले के लिए पूरा दिन छोटा पड़ जाता है. रात में जागने वाला हर लड़का आशिक नहीं होता.

 

एक और सुनिए, ऊपर वाला भी जब आप को बहुत बड़ी जिम्मेदारी देने वाला होता है तो पहले सोचता है इस का पहले टेस्ट ले लिया जाए, बहुत लोग टेस्ट में ही भाग जाते हैं. जिस के जीवन में कठिनाई आ रही है आप समझिए कि सही रास्ते में जा रहे हैं क्योंकि वही रास्ता सफलता का है. और अगर आप के जीवन में कठिनाई नहीं है तो आप गलत रास्ते में हैं.  

 

ऐसी ढेरों बातें हैं जो बीच क्लास खान सर अकसर कहा करते हैं. लेकिन सिर्फ खान सर ही नहीं, अलख पांडे जो फिजिक वाला चलाते हैं, अपनी बीच क्लासेस में यह सब कहते हैं जैसे, संत बनो, योगी बनो, शांत रहो और अपना तप करते रहो, कोई पूछे कैसा चल रहा है कहना हां ऐसी ही चल रहा है. अरे शेर बनो, शेर की दहाड़ से ज्यादा उस की खामोसी का शोर होता है.

 

वे एक दूसरे वीडियो में कहते हैं, वेन नो वन ट्रस्ट यू, ट्रस्ट योरसेल्फ, यू आर गोइंग टू मेक अ मेजिक वन डे. जो ये भरोसा नहीं कर रहे उन के मैसेज भरे रहेंगे सोशल मीडिया पर. एक बार आप से बात करने के लिए तरस रहे होंगे.

 

वे कम्पीटीशन एग्जाम को ले कर कहते हैं, अगर आप किसी एग्जाम की तैयारी कर रहे हैं तो यह मायने नहीं रखता कि आप कितनी मेहनत कर रहे हैं वहां यह मायने रखता है कि साथ वाला कितनी मेहनत कर रहा है. जैसे आप अगले 10 मिनट नहीं पढ़े तो देश के 100 बच्चे आगे, अगले 10 मिनट में 100 बच्चे आगे. वे अगली वीडियो में कहते हैं, हार नहीं माननी है बेटा अभी समय बाकी है, बाकी है.

 

ये कुछ उदाहरण हैं टीचर्स के जो साथ में मोटिवेशनल गुरु भी बन चुके हैं. इन की ऐसी ढेरों वीडियोज सोशल मीडिया पर तैरती दिख जाती हैं जहां ये इसी तरह कुछ न कुछ कहते नजर आते हैं. ऐसा नहीं है कि ये बातें कहनी गलत हैं पर सच में इन्हें छात्रों के भविष्य की चिंता होती है? अगर चिंता होती तो क्या इन बातों को फैलाने के लिए लाखों की सैलरी पर रखे पीआर की जरूरत पड़ती? क्या उन्हीं छात्रों से इतनी महंगी फीस वसूली जाती? क्या सोशल मीडिया पर फेन पेज बनाने की जरूरत पड़ती? इस के परदे के पीछे का खेल क्या है?  

 

जरा, आप ही सोचिए इस बात की क्या गारंटी है कि 1 साल मेहनत कर के कोई स्टूडैंट्स आईएएस क्लियर कर लेगा? इस का क्या भरोसा है कि 12 की जगह 16 घंटे पढ़ाई कर के एग्जाम क्रैक हो जाएगा? सवाल यह कि उस सीट के लिए लड़ने वाले कितने हैं. कहीं यह मोटिवेशनल वीडियोज वायरल हो कर, ज्यादा से ज्यादा छात्रों को अपने संस्थानों में लाने की चाल तो नहीं?

 

बात बेस की होती है. हर स्टूडेंट एकदूसरे से अलग होता है, सभी स्टूडैंट्स पर उपरोक्त मोटिवेशनल बात लागू नहीं हो सकती. लाखों स्टूडैंट्स में से जो स्टूडैंट्स कम्पीटीटिव एग्जाम क्लियर करते हैं वे एक्सेप्शनल होते हैं खासकर गरीब. अगर इस तरह की लच्छेदार बातें होती हैं तो गरीब छात्र इसे अपना सपना मान लेता है और घर की गाढ़ी कमाई इन्हीं कोचिंग्स संस्थानों में फूंक देता है. 

 

आखिर कौन हैं अवध ओझा सर 

 

जुलाई 1984 को जन्मे, उत्तर प्रदेश के गोंडा निवासी और आज के नामी शिक्षक अवध ओझा ने स्नातक की पढ़ाई के दौरान बचपन के आईएएस बनने के सपने को पूरा करने की कोशिश की. अवध ओझा ने दिल्ली में रह कर यूपीएससी परीक्षा की तैयारी की. प्रीलिम्स क्लियर कियालेकिन मेंस क्वालिफाई नहीं कर पाए. इस के बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उन की लोकप्रियता बढ़ती गई. यूपीएससी कोचिंग संस्थान में छात्रों को पढ़ाने के बाद उन्होंने यूट्यूब चैनल शुरू किया. इस से उन की ख्याति काफी बढ़ गई.

 

कोचिंग पढ़ातेपढ़ाते राजनीति में एंट्री करने वाले अवध ओझा आज करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं. यूपीएससी की औनलाइन तैयारी कराने के लिए वह हर छात्र से 80 हजार रुपए से अधिक की फीस लेते हैंजबकि औफलाइन तैयारी के लिए 1.20 लाख रुपए की फीस लगती है. 

 

मोटी फीस के अलावा अवध ओझा के सोशल मीडिया पर भी 22 लाख फौलोअर्स हैंजिस का मतलब है कि उन्‍हें यहां से भी अच्‍छी कमाई होती है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिकअवध ओझा यानी ओझा सर की नेटवर्थ करीब 11 करोड़ रुपए बताई जाती है. 

 

टीचर बने मोटिवेशनल स्पीकर

 

आईएएस की तैयारी करने वाले स्टूडैंट्स के बीच अवध ओझा की तरह ही विकास दिव्यकीर्ति और खान सर भी काफी मशहूर हैं.

 

डा. विकास दिव्यकीर्ति दृष्टि आईएएस कोचिंग सेंटर चलाते हैं और इंस्टाग्राम पर उन के लाखों फौलोअर्स हैं. उन का यूट्यूब चैनल भी करीब 30 लाख लोगों ने सब्सक्राइब किया हुआ है. साल 1996 में उन्होंने यूपीएससी पास कर के गृह मंत्रालय में नौकरी भी की लेकिनफिर नौकरी छोड़ कोचिंग क्लासेस शुरू कर दी.

 

विकास दिव्यकीर्ति हर साल करीब 2 करोड़ रुपए कमाते हैं और उन की कुल नेट वर्थ करीब 25 करोड़ रुपए है. सोशल मीडिया पर उन के फौलोअर्स और सब्सक्राइबर्स की वजह से यहां से भी उन्हें लाखों की कमाई होती है.

 

अब बात करते हैं सब से लोकप्रिय टीचर खान सर की. उन के पढ़ाने की स्‍टाइल के सभी दीवाने हैं. वह जीएस रिसर्च सेंटर कोचिंग इंस्टीट्यूट चलाते हैं. साल 2019 में उन्होंने यूट्यूब चैनल शुरू किया था और उन के 2.33 करोड़ सब्सक्राइबर्स हैं. खान सर की तमन्ना सेना में जाने की थीलेकिन अनफिट घोषित किए जाने के बाद उन्‍होंने यह सपना छोड़ दिया.

 

खान सर ने एक इंटरव्‍यू में बताया था कि कभी उन के पास फीस जमा करने के लिए 90 रुपए नहीं थे. लेकिनआज उन की हर महीने की कमाई 20 लाख रुपए है. खान सर की कुल नेट वर्थ करीब 5 करोड़ रुपए बताई जाती है. एक बार उन्‍होंने खुलासा किया था कि एक एडुटेक स्‍टार्टअप ने खान सर को 107 करोड़ रुपए का औफर दिया थालेकिन उन्होंने नौकरी करने जाने के बजाए खुद की कोचिंग चलाना ज्‍यादा बेहतर समझा.

 

ये पढ़ाने के साथ अपने मोटिवेशनल बातों की वजह से जाने जाते हैं. सोशल मीडिया पर उन के वीडियो काफी वायरल रहते हैं. अपने वीडियो और पौडकास्ट में ये गरीब स्टूडैंट्स को ऐसे सपने दिखाते हैं जो रियलिटी से कोसों दूर होते हैं. इन के सपनों के झांसे में आ कर जो युवा शायद कुछ और कर के प्रोडक्टिव हो सकता है वह आईएएस या दूसरे बड़े पोस्ट के लिए सालों ख़राब कर देता है. वह इसे अपना अल्टीमेट गोल मान लेते हैं. गरीब मांबाप का पैसा जमीन जायदाद बिक जाती है, उन की उम्मीदों की बलि चढ़ जाती है और गरीबी से आईएएस बनने का लंबा फासला कभी अचीव नहीं हो पाता.

 

दुकान चलाना मकसद

 

दरअसलआईएएस के लिए कोई स्किल नहीं चाहिए होती इसलिए उन के लिए सपने बेचना और आसान होता है और इस तरह ये अपनी जेबें भरते हैं.

 

ये सभी बड़े कोचिंग इंस्टीट्यूट एक साल में 5,000-10,000 स्टूडैंट्स को पढ़ा रहे हैं.  वे हर साल फीस के रूप में 2-3 लाख रुपए लेते हैंजो कि भारत के अधिकांश प्रीमियम कालेज लेते हैं. इन में से केवल एकआध या वो भी नहीं सफल हो पाते.

 

मुखर्जी नगर और करोल बाग की हर गली में एक कोचिंग संस्थान होने से दिल्ली सिकुड़ती जा रही है और अब ये कोचिंग संस्थान हर राज्य की राजधानी में एक मुखर्जी नगर बनाना चाहते हैं. 

 

कोचिंग संस्थानों के बीच चल रही मारकाट वाली वार 

 

भारत में यूपीएससी कोचिंग संस्थानों के बीच एक नई मारकाट वाली वार चल रही है. 3,000 करोड़ रुपए के इस अतिप्रतिस्पर्धा उद्योग में शामिल ये कोचिंग संस्थान हर साल 11 लाख भारतीयों को भर्ती करते हैं. अखबारों के पन्ने अब सिर्फ वाशिंग मशीनस्मार्ट टीवीरेफ्रिजरेटर या फिर प्रौपर्टी के विज्ञापनों से ही भरे नहीं होते हैं. अब इन में यूपीएससी कोचिंग संस्थानों के विज्ञापन भी जुड़ गए हैं.

 

असंगठित सेटअप से शुरू हुआ यह उद्योग आज कौर्पोरेट की तरह चलाया जाता है. सरकार भी इस में दिलचस्पी लेने लगी है.

 

कभी न छूटने वाली लत 

 

यूपीएससी क्लेयर करने का चक्र एक लत है. पूरी प्रक्रिया को पूरा होने में एक साल का समय लगता है. हर साल लाखों लोग हार कर और आत्मसम्मान गंवा कर  इस चक्र से बाहर निकलते हैं.

 

झूठी उम्मीदों का चक्र

 

दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहने वाला एक 25 वर्षीय यूपीएससी उम्मीदवार यूपीएससी के लुटेरे हैं सब दिल्ली मेंनाम से एक एक्स हैंडल चलाता है और @विवेकजीए54515036 के नाम से पोस्ट करता है. ऐसा कर वह कोचिंग के शिकारी तंत्र की बदसूरत सचाई को उजागर कर रहा है. वह एक मध्यमवर्गीय परिवार से आता है और इस के चार भाईबहन हैं व पिता सरकारी नौकरी करते हैं. उन्होंने यूपीएससी की यात्रा पांच साल की योजनाके साथ शुरू की. लेकिन इस से पहले ही मोहभंग हो गया.

 

यह 25 वर्षीय यूपीएससी व्हिसलब्लोअर अन्य यूपीएससी उम्मीदवारों की तरहवह आईएएस अधिकारी बनने पर ध्यान केंद्रित कर के दिल्ली आया था. उस ने कहा तीन बार सिविल सेवा परीक्षा में असफल होने से उसे ठगा हुआ और फंसा हुआ महसूस हुआ. कोचिंग संस्थानों के बड़ेबड़े वादों के मुकाबले उस की और उस के दोस्तों की बारबार की असफलता ने उस की महत्वाकांक्षा को क्रोध में बदल दिया.

 

व्हिसलब्लोअर के अनुसार यह पूरा उद्योग उम्मीदवारों के सपनों से लाभ कमाता है और उन्हें झूठी उम्मीद देता है. अगर आप 3 साल में इसे पास नहीं कर सकतेतो आप को छोड़ देना चाहिए. लेकिन कोई भी आप को यह नहीं बताता. लोग अपनी जवानी के पांच या उस से अधिक साल बर्बाद कर देते हैं.

 

हालांकि वह इस दुष्चक्र से बाहर निकलने को तैयार हैं लेकिन अन्य हिंदी माध्यम के छात्रों की मदद करने का उन का जुनून बना हुआ है. छात्रों को जागरूक और सतर्क करने के लिए अपनी डिजिटल लड़ाई को रोकने का उन का कोई इरादा नहीं है. उन्हें बस एक इंटरनेट कनेक्शनएक स्मार्टफोन और सिस्टम और क्रूर दुनिया की वास्तविकताको उजागर करने के लिए अपनी आवाज की जरूरत है.

 

पैसे और मैंटल हेल्थ दोनों से मार खाते गरीब स्टूडैंट्स

 

सागरिका (बदला हुआ नाम) जो आईएएस तैयारी शुरू करने के बाद से मुखर्जी नगर में रह रही हैं, का कहना है , “मैं अपनी तैयारी के पिछले 4 साल में अब तक लगभग 8 लाख रुपए खर्च कर चुकी हूं. इस परीक्षा में सफल होने के लिए हम स्टूडैंट्स पैसे और मैंटल हेल्थ दोनों से मार खाते हैं.

 

दिल्ली के राजेंद्र नगरपटेल नगर और मुखर्जी नगर इलाकों में जिस हालत में, आईएएस बनने का सपने ले कर आए ये छात्र जिस हाल में रहते हैं देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस स्थिति में ये रहते हैं. 30 से 40 गज के प्लाट में अवैध तरीके से 5-5 मंजिला घर बने हुए हैं. इन दमघोंटू घरों का किराया 14 से 20 हजार रुपए के बीच है. गरीब छात्र के लिए इतना पैसा देना मुश्किल होता है उसे गांव की जमीन या गहने गिरवी रखने पड़ते हैं. यहां रहने वाले छात्रों को सुविधा के नाम टूटी मेज और गंदी सी चारपाई दी जाती है. कमरे में चारों तरफ बिजली के मीटर और तारें बिखरी होती है. अगर गलती से कोई हादसा हो जाए तो छात्रों की जिंदगी स्वाहा हो सकती है. 

 

ज्यादातर बिल्डिंग में आग से बचने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. पूरा इलाका ही ऐसा है कि हर कोई जान हथेली पर ले कर घूम रहा है. छात्र बताते हैं कि यहां जब बारिश होती है तो सड़क पर घुटने के ऊपर तक पानी भर जाता है. हाल ही में दिल्ली के राजेंद्र नगर में एक नाम कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में पानी भरने और उस में 3 स्टूडेंट की डूबने से मौत हो गई थी.

 

सवाल यह कि आखिर कब तक हवाई सपने बेच कर गरीब स्टूडैंट्स और उन के मातापिता की भावनाओं से खेला जाता रहेगा और अपनी जेबें भरती जाती रहेंगी? 

Emotional Story : सनी के मन में मां को लेकर बदलाव क्यों आए

Emotional Story : अब सबकुछ सनी ही तो था नीरा के लिए जीने का एकमात्र सहारा. कैसे दूर कर देती उसे अपनेआप से. लेकिन अब उस के हाथ में कुछ नहीं था. निर्णय सनी का था. तीसरी बार फिर मोबाइल की घंटी बजी थी. सम झते देर नहीं लगी थी मीरा को कि फिर वही राजुल का फोन होगा. आज जैसी बेचैनी उसे कभी महसूस नहीं हुई थी. सनी भी तो अब तक आया नहीं था. यह भी अच्छा है कि उस के सामने फोन नहीं आया. मोबाइल की घंटी लगातार बजती जा रही थी. कांपते हाथों से उस ने मोबाइल उठाया-‘‘हां, तो मीरा आंटी, फिर क्या सोचा आप ने?’’ राजुल की आवाज ठहरी हुई थी.‘‘तुम फिर एक बार सोच लो,’’ मीरा ने वे ही वाक्य फिर से दोहराने चाहे थे.

‘मेरा तो एकमात्र सहारा है सनी, तुम्हारा क्या, तुम तो किसी को भी गोद ले सकती हो.’’‘‘अरे, आप सम झती क्यों नहीं हैं? किसी और में और सनी में तो फर्क है न. फिर मैं कह तो रही हूं कि आप को कोई कमी नहीं होगी.’’ ‘‘देखो, सनी से ही आ कर कल सुबह बात कर लेना,’’ कह कर मीरा ने फोन रख दिया था. उस की जैसे अब बोलने की शक्ति भी चुकती जा रही थी.यहां मैं इतनी दूर इस शहर में बेटे को ले कर रह रही हूं. ठीक है, बहुत संपन्न नहीं है, फिर भी गुजारा तो हो ही रहा है. पर राजुल इतने वर्षों बाद पता लगा कर यहां आ धमकेगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. बेटे की इतनी चिंता थी, तो पहले आती.अब जब पालपोस कर इतना बड़ा कर दिया, बेटा युवा हो गया तो… एकाएक फिर  झटका लगा था.

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यह क्या निकल गया मुंह से, क्यों कल सुबह आने को कह दिया, सनी तो चला ही जाएगा, वियोग की कल्पना करते ही आंखें भर आई थीं. सनी उस का एकमात्र सहारा.पिछले 3 दिनों से लगातार फोन आ रहे थे राजुल के. शायद यहां किसी होटल में ठहरी है, पुराने मकान मालिक से ही पता ले कर यहां आई है. और 3 दिनों से मीरा का रातदिन का चैन गायब हो गया है. पता नहीं कैसे जल्दबाजी में उस के मुंह से निकल गया कि यहां आ कर सनी से बात कर लेना. यह क्या कह दिया उस ने, उस की तो मति ही मारी गई.‘‘मां, मां, कितनी देर से घंटी बजा रहा हूं, सो गईं क्या?’’ खिड़की से सनी ने आवाज दी, तब ध्यान टूटा.‘‘आई बेटा, तेरा ही इंतजार कर रही थी,’’ हड़बड़ा कर उठी थी मीरा.‘‘अरे, इंतजार कर रही थीं तो दरवाजा तो खोलतीं. देखो, बाहर कितनी ठंड है,’’ कहते हुए अंदर आया था सनी, ‘‘अब जल्दी से खाना गरम कर दो, बहुत भूख लगी है और नींद भी आ रही है.’’किचन में आ कर भी विचारतंद्रा टूटी नहीं थी मीरा की. अभी बेटा कहेगा कि फिर वही सब्जी और रोटी,

कभी तो कुछ और नया बना दिया करो. पर आज तो जैसेतैसे खाना बन गया, वही बहुत है.‘‘यह क्या, तुम नहीं खा रही हो?’’ एक ही थाली देख कर सनी चौंका था.‘‘हां बेटा, भूख नहीं है, तू खा ले, अचार निकाल दूं?’’‘‘नहीं रहने दो, मु झे पता था कि तुम वही खाना बना दोगी. अच्छा होता, प्रवीण के घर ही खाना खा आता. उस की मां कितनी जिद कर रही थीं. पनीर, कोफ्ते, परांठे, खीर और पता नहीं क्याक्या बनाया था.’’मीरा जैसे सुन कर भी सुन नहीं पा रही थी.‘‘मां, कहां खो गईं?’’ सनी की आवाज से फिर चौंक गई थी.‘‘पता है, प्रवीण का भी सलैक्शन हो गया है. कोचिंग से फर्क तो पड़ता है न, अब राजू, मोहन, शिशिर और प्रवीण सभी चले जाएंगे अच्छे कालेज में. बस मैं ही, हमारे पास भी इतना पैसा होता, तो मैं भी कहीं अच्छी जगह पढ़ लेता,’’ सनी का वही पुराना राग शुरू हो गया था.‘

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‘हां बेटा, अब तू भी अच्छे कालेज में पढ़ लेना, मन चाहे कालेज में ऐडमिशन ले लेना, बस, सुबह का इंतजार.’’‘‘क्या? कैसी पहेलियां बु झा रही हो मां. सुबह क्या मेरी कोईर् लौटरी लगने वाली है, अब क्या दिन में भी बैठेबैठे सपने देखने लगी हो. तबीयत भी तुम्हारी ठीक नहीं लग रही है. कल चैकअप करवा दूंगा, चलना अस्पताल मेरे साथ,’’ सनी ने दो ही रोटी खा कर थाली खिसका दी थी.‘‘अरे खाना तो ढंग से खा लेता,’’ मीरा ने रोकना चाहा था.‘‘नहीं, बस. और हां, तुम किस लौटरी की बात कर रही थीं?’’ ‘‘हां, लौटरी ही है, कल सुबह कोई आएगा तु झ से मिलने.’’‘‘कौन? कौन आएगा मां,’’ सनी चौंक गया था.‘‘तू हाथमुंह धो कर अंदर चल, फिर कमरे में आराम से बैठ कर सब सम झाती हूं.’’मीरा ने किसी तरह मन को मजबूत करना चाहा था. क्या कहेगी किस प्रकार कहेगी.‘‘हां मां, आओ,’’ कमरे से सनी ने आवाज दी थी.मन फिर से भ्रमित होने लगा. पैर भी कांपे. किसी तरफ कमरे में आ कर पलंग के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई थी मीरा.‘‘क्या कह रही थीं तुम, किस लौटरी के बारे में?’’ सनी का स्वर उत्सुकता से भरा हुआ था. मीरा ने किसी तरह बोलना शुरू किया,

‘‘बेटा, मैं आज तु झे सबकुछ बता रही हूं, जो अब तक बता नहीं पाई. तेरी असली मां का नाम राजुल है, जोकि बहुत बड़ी प्रौपर्टी की मालिक हैं. उन की कोई और औलाद नहीं है. वे अब तु झे लेने आ रही हैं,’’ यह कहते हुए गला भर्रा गया था मीरा का और आंसू छिपाने के लिए मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया था उस ने.मां, आप कह क्या रही हो, मेरी असली मां कोई और है. तो अब तक कहां थी, आई क्यों नहीं?’’ सनी सम झ नहीं पा रहा था कि आज मां को हुआ क्या है? क्यों इतनी बहकीबहकी बातें कर रही हैं.‘‘हां बेटा, तेरी असली मां वही है. बस, तु झे जन्म नहीं देना चाह रही थी तो मैं ने ही रोक दिया था और कहा था कि जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. मेरे भी कोईर् औलाद नहीं थी. मैं वहीं अस्पताल में नर्स थी. बस, तु झे जन्म दे कर और मु झे सौंप कर वह चली गई.’’‘‘अब तू जो भी सम झ ले. हो सके तो मु झे माफ कर दे. मैं ने अब तक तु झ से यह सब छिपाए रखा था. मेरे लिए तो तू बेटे से भी बढ़ कर है. बस, अब और कुछ मत पूछ,’’ यह कहते फफक पड़ी थी मीरा और जोर की रुलाई को रोकते हुए कमरे से बाहर निकल गई.अपने कमरे में आ कर गिर रुलाई फूट ही पड़ी थी. सनी उस का बेटा इतने लाड़प्यार से पाला उसे.

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कल पराया हो जाएगा. सोचते ही कलेजा मुंह को आने लगता है. कैसे जी पाएगी वह सनी के बिना. इतना दुख तो उसे अपने पति जोसेफ के आकस्मिक निधन पर भी नहीं हुआ था. तब तो यही सोच कर संतोष कर लिया था कि बेटा तो है उस के पास. उस के सहारे बची जिंदगी निकल जाएगी. यही सोच कर पुराना शहर छोड़ कर यहां आ कर अस्पताल में नौकरी कर ली थी. तब क्या पता था कि नियति ने उस के जीवन में सुख लिखा ही नहीं. तभी तो, आज राजुल पता लगाते हुए यहां आ धमकी है. शायद वक्त को यही मंजूर होगा कि सनी को अच्छा, संपन्न परिवार मिले, उस का कैरियर बने, तभी तो राजुल आ रही है. बेटा भी तो यही चाहता है कि उसे अच्छा कालेज मिले. अब कालेज क्या, राजुल तो उसे ऐसे ही कई फैक्ट्री का मालिक बना देगी.ठीक है, उसे तो खुश होना चाहिए. आखिर, सनी की खुशी में ही तो उस की भी खुशी है. और उस की स्वयं की जिंदगी अब बची ही कितनी है, काट लेगी किसी तरह.लेकिन अपने मन को लाख उपाय कर के भी वह सम झा नहीं पा रही थी. पुराने दिन फिर से सामने घूमने लगे थे. तब वह राजुल के पड़ोस में ही रहा करती थी. राजुल के पिता नगर के नामी व्यवसायी थे.

उन्हीं के अस्पताल में वह नर्स की नौकरी कर रही थी. राजुल अपने पिता की एकमात्र संतान थी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर शादी के चारपांच माह बाद ही वह तलाक ले कर पिता के घर आ गईर् थी. तब उसे 3 माह का गर्भ था. इसीलिए वह एबौर्शन करा कर नई जिंदगी जीना चाह रही थी. इस काम के लिए मीरा से संपर्क किया गया. तब तक मीरा और जोसेफ की शादी हुए एक लंबा अरसा हो चुका था और उन की कोई संतान नहीं थी.मीरा ने राजुल को सम झाया था. ‘तुम्हारी जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. तुम एबौर्शन मत करवाओ.’ बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए राजुल तैयार हुई थी. और बेटे को जन्म दे कर ही उस शहर से चली गई. बेटे का मुंह भी नहीं देखना चाहा था उस ने.सनी का पालनपोषण उस ने और जोसेफ ने बड़े लाड़प्यार से किया था. राजुल की शादी फिर किसी नामी परिवार के बेटे से हो गई थी और वह विदेश चली गई थी.यह तो उसे राजुल के फोन से ही मालूम पड़ा कि वहां उस के पति का निधन हो गया और अब वह अपनी जायदाद संभालने भारत आ गई है, चूंकि निसंतान है, इसलिए चाह रही है कि सनी को गोद ले ले, आखिर वह उसी का तो बेटा है.

मीरा समझ नहीं पा रही थी कि नियति क्यों उस के साथ इतना क्रूर खेल खेल रही है. सनी उस का एकमात्र सहारा, वह भी अलग हो जाएगा, तो वह किस के सहारे जिएगी.आंखों में नींद का नाम नहीं था. शरीर जैसे जला जा रहा था. 2 बार उठ कर पानी पिया.सुबह उठ कर रोज की तरह दूध लाने गई, चाय बनाई. सोचा, कमरा थोड़ा ठीकठाक कर दे, राजुल आती होगी. सनी को भी जगा दे, पर वह जागा हुआ ही था. उसे चाय थमा कर वह अपने कमरे में आ गई. बेटे को देखते ही कमजोर पड़ जाएगी. नहीं, वह राजुल के सामने भी नहीं जाएगी.जब राजुल की कार घर के सामने रुकी, तो उस ने उसे सनी के ही कमरे में भेज दिया था. ठीक है, मांबेटा आपस में बात कर लें. अब उस का काम ही क्या है? वैसे भी राजुल के पिता के इतने एहसान हैं उस पर, अब किस मुंह से वह सनी को रोक पाएगी. पर मन था कि मान ही नहीं रहा था और राजुल और सनी के वार्त्तालाप के शब्द पास के कमरे से उस के कानों में पड़ भी रहे थे.‘‘बस बेटा, अब मैं तु झे लेने आ गईर् हूं. मीरा ने बताया था कि तू अपने कैरियर को ले कर बहुत चिंतित है.

पर तु झे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. करोड़ों की जायदाद का मालिक होगा तू,’’ राजुल कह रही थी.‘‘कौन बेटा, कैसी जायदाद, मैं अपनी मां के साथ ही हूं, और यहीं रहूंगा. ठीक है, बहुत पैसा नहीं है हमारे पास, पर जो है, हम खुश हैं. मेरी मां ने मु झे पालपोस कर बड़ा किया है और आप चाहती हैं कि इस उम्र में उन्हें छोड़ कर चल दूं. आप होती कौन हैं मेरे कैरियर की चिंता करने वाली, कैसे सोच लिया आप ने कि मैं आप के साथ चल दूंगा?’’ सनी का स्वर ऊंचा होता जा रहा था.इतने कठोर शब्द तो कभी नहीं बोलता था सनी. मीरा भी चौंकी थी. उधर, राजुल का अनुनयभरा स्वर, ‘‘बेटे, तू मीरा की चिंता मत कर, उन की सारी व्यवस्था मैं कर दूंगी. आखिर तू मेरा बेटा ही है, न तो मैं ने तु झे गोद दिया था, न कानूनीरूप से तेरा गोदनामा हुआ है. मैं तेरी मां हूं, अदालत भी यही कहेगी मैं ही तेरी मां हूं. परिस्थितियां थीं, मैं तु झे अपने पास नहीं रख पाई. मीरा को मैं उस का खर्चा दूंगी. तू चाहेगा तो उसे भी साथ रख लेंगे.

मु झे तेरे भविष्य की चिंता है. मैं तेरा अमेरिका में दाखिला करा दूंगी, यहां तु झे सड़ने नहीं दूंगी. तू मेरा ही बेटा है.’’ ‘‘मत कहिए मु झे बारबार बेटा, आप तो मु झे जन्म देने से पहले ही मारना चाहती थीं. आप को तो मेरा मुंह देखना भी गवारा नहीं था. यह तो मां ही थीं जिन्होंने मु झे संभाला और अब इस उम्र में वे आप पर आश्रित नहीं होंगी. मैं हूं उन का बेटा, उन की संभाल करने वाला, आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है, सम झीं? और अब आप कृपया यहां से चली जाएं, आगे से कभी सोचना भी मत कि मैं आप के साथ चल दूंगा.’’सनी ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया था. फिर राजुल शायद धीमे स्वर में रो भी रही थी. मीरा सम झ नहीं पा रही थी कि क्या कह रही है.तभी सनी का तेज स्वर सुनाई दिया, ‘‘मैं जो कुछ कह रहा हूं, आप सम झ क्यों नहीं पा रही हैं. मैं कोई बिकाऊ कमोडिटी नहीं हूं. फिर जब आप ने मु झे मार ही दिया था तो अब क्यों आ गई हैं मु झे लेने. मैं बालिग हूं, मु झे अपना भविष्य सोचने का हक है. आप चाहें तो आप भी हमारे साथ रह सकती हैं. पर मैं, आप के साथ मां को छोड़ कर जाने वाला नहीं हूं. आप मु झे भी सम झने की कोशिश करें. मेरा अपना भी उत्तरदायित्व है.

जिस ने मुझे पालापोसा, बड़ा किया, मैं उसे इस उम्र में अंधकार में नहीं छोड़ सकता. कानून आप की मदद नहीं करेगा. दुनिया में आप की बदनामी अलग होगी. आप भी शांति से रहें, हमें भी रहने दें. आप मु झे सम झने की कोशिश करें. अब मैं और कुछ कहूं और अपशब्द निकल जाएं मेरे मुंह से, मेरी रिक्वैस्ट है, आप चली जाएं. सुना नहीं आप ने?’’ सनी की आवाज फिर और तेज हो गई थी.इधर, राजुल धड़ाम से दरवाजा बंद करते हुए निकल गई थी. फिर कार के जाने की आवाज आई. मीरा की जैसे रुकी सांसें फिर लौट आई थीं. सनी कमरे से बाहर आया और मां के गले लग गया और बोला, ‘‘मेरी मां सिर्फ आप हो. कहीं नहीं जाऊंगा आप को छोड़ कर.’’ मीरा को लगा कि उस की ममता जीत गई है.

Best Hindi Story : वो लंदन की हिंदी बोलने वाली लड़की

Best Hindi Story : पिछले हफ्ते मैं जब ब्रिटेन से घर लौटा तो मुझे महसूस हुआ जैसे मैं आधा अधूरा हो कर लौटा हूं. मन में कहीं यह अपराधबोध था कि मैं ने यौवन और सौंदर्य से भरपूर नारी के आमंत्रण को ठुकरा कर उस की भावनाओं को आहत किया था. इस में उस औरत का क्या दोष? हर किसी के भीतर स्थायी व संचारी भाव होते हैं. कभी कोई भाव इनसान पर हावी रहता है तो कभी कोई. उस समय उस के रति भाव का मुझे मान रखना चाहिए था.

ब्रिटेन के लंदन, बर्मिंघम, मैनचेस्टर, यार्कशायर, नाटिंघम आदि शहरों में स्थित यू.के. हिंदी समिति, गीतांजलि, हिंदी भाषा समिति, भारतीय भाषा संगम आदि संस्थाओं ने मुझे हिंदी दिवस के अवसर पर अलगअलग समारोहों के लिए आमंत्रित किया था.

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लंदन में मेरी मुलाकात मैगी से हुई थी. वह छरहरे बदन की युवती थी. समारोह समापन के बाद वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘आप के व्याख्यान और व्यक्तित्व ने मुझे बेहद प्रभावित किया है. मैं आप के दिशानिर्देशन में एक पुस्तक लिखना चाहती हूं. मुझे हिंदी भाषा से बेहद लगाव है.’’

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एक अंगरेज लड़की के मुख से इतनी शुद्ध हिंदी सुन कर मैं भौचक रह गया. मुझे इस स्थिति में देख कर उस ने बताया था कि उस के पिता ब्रिटेन के हैं और मां भारत की. मैं मां के साथ भारत जाती रहती हूं. वह मुझ से हिंदी में ही बात करती हैं और सच कहूं तो हिंदी में बोलना मुझे अंगरेजी से ज्यादा सहज लगता है. आप भारत से आए हैं और हिंदी के प्रखर विद्वान हैं यह जान कर मैं खुद को आप से मिलने के लिए रोक न सकी.

मैगी से मिल कर मुझे भी बहुत खुशी हुई. वह लंदन में किसी कंपनी में नौकरी करती थी. उस के मातापिता यार्कशायर में रहते थे.

लंदन में मेरा 3 दिन का कार्यक्रम था. इन 3 दिन में हमारे बीच खासी मित्रता हो गई. उस ने मुझे पूरा लंदन घुमा दिया. आखिरी दिन मुझे रात्रिभोज के लिए उस ने अपने घर पर आमंत्रित किया तो मैं उस के स्नेहिल निमंत्रण को ठुकरा न सका.

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शाम को 7 बजे मैं उस के बताए पते पर पहुंच गया. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया. कौफी के लिए जब वह रसोई में गई तो मैं ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाई. कमरा छोटा जरूर था पर था पूरी तरह व्यवस्थित. अलमारी में ढेरों हिंदी की किताबें रखी थीं. मेज पर जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रखी थी. शायद वह उसे पढ़ रही थी.

‘लीजिए, प्रो. पल्लवजी, कौफी,’ कहते हुए उस ने मुझे कप थमाया तो मैं मुसकरा कर बोला, ‘यहां आ कर तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं किसी पुस्तकालय में आ गया हूं.’

कौफी पीने के थोड़ी देर बाद मैगी ने खाना लगा दिया. खाना खाने के बाद वह बोली, ‘पल्लवजी, जिस तरह कालिदास के ‘मेघदूत’ में प्रेमिका का रूप वर्णन है उसी तरह मैं भी अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी के अनोखे रूप का वर्णन करना चाहती हूं.’

यह सुन कर मुझे हंसी आ गई, ‘तो तुम कालिदास बनना चाहती हो.’

‘मैं कालिदास तो नहीं बन सकती लेकिन अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी का रूप तो उतार सकती हूं,’ कहती हुई वह मेरे नजदीक कुछ ज्यादा ही खिसक आई थी. उस के इरादे भांप कर मैं उसे अपने से दूर करता हुआ बोला, ‘इस में मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?’

मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए मैगी रोमांटिक अंदाज में बोली, ‘इस में आप ही मेरी मदद कर सकते हैं. मैं आप को अपना प्रेमी मान कर, आप के रूप को निहार कर, हर भाव को पढ़ कर ही तो कुछ लिख सकूंगी,’ कहते हुए मैगी मुझ पर पूरी तरह झुक गई थी.

मैं जानता था कि मैगी उस समय होश में नहीं थी क्योंकि खाने के बाद उस ने बीयर का एक बड़ा पैग लिया था. उन नाजुक क्षणों में मैं ने अपनी भावनाओं को पूरी तरह नियंत्रण में रखते हुए उसे परे धकेल दिया और जोर से चीखा, ‘तुम होश में तो हो, मैगी.’

मैगी अपनी ही रौ में बोली, ‘बिना अनुभव और सत्यता के कोई भी एक शब्द नहीं लिख सकता. चाहे वह कितना ही महान कवि और लेखक क्यों न हो,’ कहते हुए वह मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर झूल गई.

मैं बड़ी बेरहमी से मैगी को अपने से अलग करते हुए बोला, ‘क्या तुम ने अश्विनी दत्त की ‘भक्तियोग’ नहीं पढ़ी, जिस में लिखा है कि ब्रह्मचारी को नारी से दूर रहना चाहिए. मैं ने तब तक ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा है जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लूं. तुम्हारे उन्माद में साथ दे कर मैं अपने त्याग को व्यर्थ नहीं करना चाहता.’

‘लेकिन पल्लवजी, मैं ने भी किसी पुस्तक में पढ़ा है कि भोग के बिना त्याग की स्थिति तक नहीं पहुंचा जा सकता.’

उस का जवाब दिए बगैर मैं वापस अपने होटल आ गया था. फिर कार्यक्रमों को पूरा कर मैं वापस भारत आ गया.

मेरा लक्ष्य था एक पुस्तक लिखने का, जोकि बहुत ही जटिल विषय पर आधारित थी और जिस के लिए मैं ने ब्रह्मचर्य धारण किया था. पिछले 2 सालों से वह अधूरी पड़ी थी. उसे पूरा कर के ही मैं अपने व्रत को तोड़ना चाहता था. यद्यपि इस प्रतिज्ञा से मेरे मातापिता खासे नाराज थे. उन का मानना था कि विवाह किसी कार्यविशेष में बाधक नहीं बल्कि सहायक है क्योंकि जीवनसाथी की प्रेरणा से ही ऊर्जा और प्रेम प्राप्त होता है.

मैंजब भी लिखने बैठता मैगी का रूपयौवन मुझे उद्वेलित कर जाता और मैं लिखना भूल कर उस के खयालों में डूब जाता. कभी न कभी तो मुझे खुद झुरझुरी आ जाती कि आखिर मुझे हो क्या गया है. कहां मैं हिंदी का इतना बड़ा विद्वान जो पचासों पुस्तकें और सैकड़ों कहानियां लिख चुका हूं, आज एक लाइन तक नहीं लिख पा रहा हूं. जिस उद्देश्य के लिए मैं ने मैगी को ठुकराया था अब उसी को पाने को मन क्यों बारबार मचल उठता है. जितना ही मैं उसे अपने खयालों से दूर करने की कोशिश करता उतना ही वह अपने पूरे वजूद के साथ मेरे पास आ कर मुझे बेचैन करती. ऐसी स्थिति में एक साल बीत गया और मेरी पुस्तक अधूरी ही पड़ी रही.

अचानक एक दिन लंदन की एक हिंदी संस्था ने मुझे पुस्तक विमोचन के लिए आमंत्रित किया. यह निमंत्रण पा कर मैं खुशी से उछल पड़ा. मैगी से मिलन की अनुभूति मात्र से मैं रोमांचित हो उठा था.

हवाई अड्डे पर संस्था के सदस्यों ने मेरा स्वागत किया तथा मुझे होटल पहुंचाया. पुस्तक का विमोचन शाम को था इसलिए सोचा कि विमोचन के बाद होटल से अपना सामान ले कर सीधा मैगी के घर जाऊंगा और अपनी पूर्व की गलती की क्षमा भी मांग लूंगा.

शाम को मेरा मन पुस्तक विमोचन में कम और मैगी में अधिक था. विमोचन की गई पुस्तक का शीर्षक था ‘प्रेरणा.’ लेखिका के रूप में मैगी का नाम पढ़ कर पूरे शरीर में सनसनी फैल गई.

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मैगी मुसकरा कर मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया. संस्था के अध्यक्ष बोले, ‘पल्लवजी, मैगी का विशेष आग्रह था कि इस पुस्तक के विमोचन के लिए भारत से सिर्फ आप को ही बुलाया जाए.’

मैं वहीं मंच पर बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगा. भूमिका में लिखा था, ‘मेरी प्रेरणा के प्रेरणास्रोत को सादर समर्पित  —मैगी.’

पुस्तक विमोचन के बाद मैं सीधा होटल गया. अब मैं मैगी की पुस्तक को पढ़ने के बाद ही उस के घर जाने की सोच रहा था. मैगी की इस ‘प्रेरणा’ नामक पुस्तक में हृदय से उपजी कविताओं का संग्रह था जो बेहद मार्मिक था. कविता की एकएक पंक्ति मेरे मन को छू गई.

अचानक दरवाजा खुला. सामने मैगी खड़ी पूछ रही थी, ‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं?’

‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारी ही कविताएं पढ़ रहा था. वाकई जवाब नहीं इन का. कितने सुंदर, सहज और मधुर भावों को समेट कर तुम ने इन कविताओं का सृजन किया है. कहां से मिली तुम्हें प्रेरणा? आखिर कौन है तुम्हारा प्रेरणास्रोत?’

मैगी मुसकरा कर निरुत्तर सी बस, मुझे देखती रही.

मैं भावावेश में बोला, ‘मैगी, मैं तो तुम से मिलने के बाद से ही कुछ बेचैनी सी अनुभव करने लगा हूं. इस वजह से मैं 3 साल से अधूरी पड़ी अपनी पुस्तक को भी पूरी नहीं कर पाया. प्लीज, तुम मेरी मदद करो, मुझे संभालो और सहारा दो,’ कहते हुए मैं ने उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया.

मैगी फुरती दिखाते हुए एक झटके से मुझ से अलग हो गई और तेज स्वर मैं बोली, ‘आप को शरम नहीं आती एक औरत के साथ जबरदस्ती करते हुए.’

उस के इस अप्रत्याशित रूप और व्यवहार को देख कर मैं हतप्रभ रह गया. मेरा जोश बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया. मैं सोचने लगा, पहले तो खुद को समर्पित करने के लिए आतुर थी, आज सती होने का ढोंग रच रही है. लगता है इसे अपनी ‘प्रेरणा’ पर बहुत गर्व हो रहा है और खुद को बहुत बड़ी लेखिका समझने लगी है. अब मैं भी अपनी वर्षों से अधूरी पड़ी पुस्तक को पूरा कर के साहित्याकाश में तहलका मचा दूंगा.

भारत आने के बाद मैं अपनी पुस्तक को पूरा करने में एकाग्र हो कर जुट गया. मुझे ताज्जुब हुआ कि जो काम मैं पिछले 3 वर्षों से नहीं कर पा रहा था वह मात्र 3 माह में हो गया. पुस्तक का विमोचन शहर के प्रसिद्ध प्रेक्षागृह में होना था. इस अवसर पर मैं ने लंदन से मैगी को भी आमंत्रित किया.

पुस्तक विमोचन के अवसर पर हिंदी जगत की सैकड़ों जानीमानी हस्तियां मौजूद थीं लेकिन मैगी नहीं आई तो मुझे अत्यधिक निराशा हुई.

मेरी इस पुस्तक ने देशविदेश में तहलका मचा दिया. अपनी इस उपलब्धि पर मैं इतरा उठा. अचानक एक दिन मैगी का पत्र देख कर मुझे आश्चर्य हुआ.

‘‘मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत

प्रो. पल्लवजी, आप को  सादर नमस्कार.

स्वास्थ्य अच्छा न होने की वजह से आप के पुस्तक विमोचन के अवसर पर न आ सकी, इस के लिए क्षमा मांगती हूं. आप ने मुझ से पूछा था कि मेरी ‘प्रेरणा’ का पे्ररणास्रोत कौन है? अब मैं बताती हूं, वह आप हैं, सिर्फ आप. अगर आप उस रात मुझे न संभालते तो शायद इस ‘प्रेरणा’ का जन्म ही नहीं होता. आप के ठुकराने से मैं अंदर तक आहत अवश्य हुई थी लेकिन मैं ने अपने भीतर कुछ नया सा महसूस किया था, शायद वह आप की प्रेरणा थी, जिस के फलस्वरूप मेरी ‘प्रेरणा’ का सृजन हुआ.

आप की 3 वर्षों से पुस्तक अधूरी पड़ी थी तो इसलिए कि आप का मन भटक गया था. आप के प्रस्ताव को मैं ने इतनी बेरहमी और बेरुखी से इसीलिए ठुकराया ताकि आप भी मेरी तरह एकाग्र हो कर अपने उद्देश्य को मछली की आंख की तरह निशाना बनाएं.

अगर उस रात मैं आप के प्रति समर्पित हो जाती तो शायद आप जिंदगी भर अपनी इस पुस्तक को पूरी न कर पाते क्योंकि मनुष्य जो वस्तु एक बार सहजता से प्राप्त कर लेता है उसे बारबार पाने के लिए अपनी राह से भटक कर उसी के खयालों में डूबा रहता है.

आप की पुस्तक पूरी हो गई इस बात की मुझे बेहद खुशी है. मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत के कदमों को सफलताएं जिंदगी भर इसी तरह चूमती रहें यही कामना है मेरी.   मैगी.’’

पत्र पढ़ कर मैं इस सोच में डूब गया कि आखिर कौन किस की प्रेरणा है. मैं मैगी की प्रेरणा हूं या मैगी मेरी. अंदर से आवाज आई, ‘मैगी मेरी प्रेरणा है क्योंकि उस में त्याग की भावना निहित है.’

मैं तो मैगी की प्रेरणा हो ही नहीं सकता क्योंकि उस में मेरे त्याग की नहीं बल्कि स्वार्थ की भावना निहित थी.

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