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Sad Story : रिक्‍शा वाले की बेटी

लेखक-ब्रजेंद्र सिंह

सुबह का शांत समय था. कोमल खिड़की से बाहर देख रही थी. यह बरसात का महीना था. बाहर के लौन में घास हरीभरी और ताजी लग रही थी. हवा ठंडी और दिल खुश करने वाली गीली मिट्टी की महक लिए वातावरण को सुगंधित कर रही थी. कोमल को 30 साल पहले के ऐसे ही बारिश से भीगे हुए दिन की याद आई…

‘मुबारिक हो मैडम, बेटा हुआ है,’ नर्स ने कोमल से कहा.

यह सुन कर कोमल ने चैन की सांस ली. उस को बेहद डर था कि कहीं दुर्भाग्य से बेटी पैदा हुई तो पति के परिवार की नजरों में उस का दर्जा का गिर जाता. इस के दो कारण थे. पहला था कि लाखों और लोगों की तरह, उस के सासससुर के सिर अपने वंश को आगे बढ़ाने का भूत सवार था. दूसरा, कोमल से पहले घर में आने वाली बहू, उस के जेठ की पत्नी ने बेटा पैदा किया था.

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जल्द ही सारे खानदान में बेटा पैदा होने का शुभ समाचार फैल गया. सब से पहले कोमल के सासससुर अस्पताल पहुंचे. उसे बधाई देने के बाद उस के ससुर ने कहा ‘‘मुझे जैसे ही समाचार मिला, मैं ने यश को जरमनी फोन कर दिया. वह बेहद खुश था.’’

यश उन का बेटा और कोमल का पति था. वह उस समय, कारोबार के सिलसिले में यूरोप का दौरा कर रहा था.

उस के सासससुर के आने के कुछ ही देर पश्चात, एक के बाद एक, दोस्त और रिश्तेदार अस्पताल पहुंचने लगे. साथ में फूलों के गुलदस्ते, मिठाई, बच्चे के लिए कपड़े और खिलौने लाए. पर अस्पताल उच्च श्रेणी का था. उस के नियम बहुत कड़े थे. कोमल के सासससुर के अलावा एक समय पर केवल दो लोग ही उस के कमरे में जा सकते थे. और जितने तोहफे और फूल वगैरह आए थे, उन सब को अलग एक छोटे कमरे में रखवा दिया. कमरे का ताला लगा कर चाभी कोमल की सास को पकड़ा दी गई.

2 दिन बाद कोमल अपने बेटे को ले कर घर आई. यश भी उसी शाम को जरमनी से लौटा. फिर कई दिनों तक बच्चे के पैदा होने का जश्न मनाया गया.

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कोमल की ससुराल में बहुत बड़ा भव्य घर था, पर उस के ससुर को लगा कि एक ही दिन सारे रिश्तेदारों और सब के दोस्तों को बुलाना तो मेले की भीड़ की तरह होगा, किसी से खुल कर बातचीत भी न हो सकेगी. अत: हर दूसरे दिन पार्टी रखी गई. एक दिन उन के रिश्तेदारों को बुलाया गया. दो दिन बाद सुसर के व्यापारी मित्र आए थे. उस के बाद कोमल की सास की सहेलियां पार्टी में आईं. तब आया वह दिन, जब यश और कोमल के मित्रगण खुशी मनाने आए.

कोमल के बेटे के नामकरण पर बच्चे के दादाजी ने उस का नाम महावीर रखा. धीरेधीरे महावीर बड़ा हुआ. पढ़ाई में काफी तेज था और हमेशा अपनी कक्षा में पहले या दूसरे स्थान पर आता था. पर बचपन से ही वह काफी अड़ियल स्वभाव का था और अपनी मनमरजी के मुताबिक ही काम करता था.

10वीं कक्षा पास करने के बाद जब वह 11वीं में जा रहा था, तो उस के पिता यश ने चाहा कि वह कौमर्स और इकोनोमिक्स पढ़े, ताकि आगे जा कर कालेज में वह ‘सीए’ या ‘एमबीए’ कर सके और डिगरी हासिल करने के बाद महावीर उन के कपड़ों के निर्यात के कारोबार में उन का साथ दे.

पर, महावीर के कुछ और ही इरादे थे. वह एक शानदार फाइवस्टार होटल खोलना चाहता था. इस कारण उस ने 11वीं कक्षा में होम साइंस लिया, और 12वीं करने के बाद वह होटल मैनेजमेंट में चला गया.

लगभग 3 साल हो गए, तब महावीर की पढ़ाई और ट्रेनिंग पूरी होने वाली थी. एक शाम जब वह घर आया, तो बहुत प्रसन्न लग रहा था.

‘‘मम्मीजीपापाजी, मैं आप के लिए एक खुशखबरी लाया हूं.’’

‘‘क्या तुम अपने सालाना इम्तिहान में अव्वल नंबर पर आए हो?’’ कोमल ने पूछा.

‘‘नहीं मम्मी, यह इम्तिहान में नंबर जैसी छोटी चीज की बात नहीं है,’’ उस के बेटे ने जवाब दिया, ‘‘यह मेरे जीवन और भविष्य के बारे में बात है.’’

‘‘अब हमें और लटका कर मत रखो,’’ यश बोला, ‘‘बता ही दो क्या बात है.’’

‘‘तो सुनिए,’’ महावीर ने कहा, ‘‘मैं ने शादी के लिए एक लड़की चयन कर ली है. मैं ने उस से बात भी कर ली है और उस को यह रिश्ता मंजूर है.’’

यश और कोमल को जोर का झटका लगा. थोड़ी देर तक दोनों कुछ बोल नहीं सके. फिर बड़ी मुश्किल से यश ने अपनी आवाज पाई,
‘‘यह क्या कह रहे हो बेटा? तुम हमारे साथ मजाक तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘नहीं पापाजी. मैं आप लोगों के साथ भला ऐसा कैसे कर सकता हूं,’’ महावीर ने जवाब दिया.

‘‘यही लड़की कौन है? उस का बाप क्या करता है? क्या वह हमारी तरह राजपूत खानदान की है?’’ सवाल पर सवाल महावीर की तरफ फेंके गए.

‘‘उस लड़की का नाम पूनम है. वह मेरे साथ होटल मैंनेजमेंट सीख रही है. उस का पिता एक ओटोरिकशा चलाता है. उस की जात और खानदान के बारे में मैं ने कभी पूछा ही नहीं. शायद वह दलित है, पर इस से क्या फर्क पड़ता है.’’

महावीर का जवाब सुनते ही यश आगबबूला हो गया. ‘‘क्या यश राठौर जैसे करोड़पति का इकलौता बेटा एक रिकशा चलाने वाले की बेटी के साथ शादी करेगा?’’ वे गुस्सीले स्वर में चिल्लाए, ‘‘क्या एक राठौर खानदान का सुपुत्र एक दलित लड़की से रिश्ता जोड़ेगा? यह मैं कभी होने नहीं दूंगा. सारे समाज में हमारी नाक कट जाएगी. लोग हम पर हंसेंगे. स्वर्ग में हमारे पुरखों की शांति भंग हो जाएगी. तुम यह शादी नहीं कर सकते हो,’’ कह कर यश पैर पटकता हुआ उस कमरे से चला गया.

‘‘बेटा, तुम यह बहुत गलत काम कर रहे हो. उस दलित लड़की का खयाल छोड़ दो,’’ कह कर कोमल भी कमरा छोड़ कर चली गई.

महावीर की बचपन की पुरानी आदत अब भी थी कि वह अपने मन की मरजी करता था, चाहे उस के मातापिता कुछ भी कहें. उसे और पूनम को एक फाइवस्टार होटल में नौकरी का बुलावा मिल चुका था, जिस के बारे में उस ने डर के मारे अपने मातापिता को नहीं बताया था.

पूनम ने तो प्रस्ताव मिलते ही होटल को ‘हां’ कह दिया था. उस दिन मातापिता के विचारों को सुनने के बाद महावीर ने तय किया कि वह भी उसी होटल की नौकरी स्वीकार कर लेगा. फिर जल्दी ही वह एक छोटा सा मकान किराए पर ले लेगा.

अगला कदम भी उस के विचारों में था कि वह तब पूनम से कोर्ट में शादी कर के अपनी गृहस्थी बसाएगा.

पूनम को महावीर की योजना सही लगी, पर वह पहले अपने पिता से अनुमति लेना चाहती थी. जब पूनम के पिता को पता चला कि उस की बेटी किस से शादी करने जा रही है, तो शुरूशुरू में तो वह डर गया. उसे पता था कि यश राठौर बड़ा आदमी था और उस की जानपहचान शहर के वरिष्ठ पुलिस आईएएस अफसरों से थी. वह चाहते तो उस का लाइसेंस जब्त करवा सकते थे या उसे किसी बहाने जेल भिजवा सकते थे.

पर, महावीर ने उसे आश्वासन दिया कि उस का पिता गुस्सैल जरूर था, और उसे जब गुस्सा आ जाता है, तो वह कुछ भी कर सकता था, लेकिन महावीर सब स्थिति संभाल लेगा.

मुश्किल से पूनम के पिता शादी के लिए राजी हो गए. पहले दिन के झगड़े के बाद महावीर ने अपने पिता के सामने अपनी शादी की बात कभी नहीं उठाई, और न ही अपनी मां को कुछ बताया.

ट्रेनिंग खत्म होने के बाद पूनम और महावीर की नौकरी लग गई. अपनी योजना के अनुसार दोनों ने कोर्ट में नोटिस दे दिया कि वह शादी करना चाहते हैं. कानून के अनुसार पहला नोटिस देने के 3 महीने के बाद ही वह शादी कर सकते थे. कायदे के मुताबिक, उन की अर्जी कोर्ट के नोटिस बोर्ड पर लग गई. धीरेधीरे दिन गुजरने लगे.

लगभग एक महीने बाद अदालत के ही एक मुलाजिम ने कुछ पैसे ऐंठने की नीयत से कोमल का पता कर उस को फोन किया और बता दिया कि उस का बेटा कोर्ट में शादी करने जा रहा है.

महावीर की होने वाली शादी की खबर सुनते ही कोमल के होश उड़ गए. वह जानती थी कि उस के पति यश बेटे महावीर से पहले ही नाराज थे, क्योंकि उस ने उन के साथ काम करने से इनकार कर दिया था और उस की जगह एक होटल में नौकरी कर रहा था. इस के ऊपर अगर वह यह सुनेंगे कि उन का बेटा एक ओटोरिकशा चलाने वाले की लड़की से शादी कर रहा है, तो वह गुस्से में आ कर महावीर को अपनी जायदाद से वंचित कर सकते थे. कोमल किसी हालत में यह नहीं सह सकती थी. आखिर महावीर उस का एकलौता बेटा था.

कोमल सोचने लगी कि वह क्या करे, ताकि महावीर और पूनम अलग हो जाएं. वह चाहती थी कि उस का कारगर उपाय कुछ ऐसा हो कि वह दोनों इस शादी के बंधन में न उलझे रहे.

धीरेधीरे कोमल के दिमाग में एक उपाय सब से ऊंचा बन कर पांव जमाने लगा.
वह यश को इस उपाय में सांझी नहीं बनाना चाहती थी. वह नहीं चाहती थी कि यश का गुस्सा महावीर को सुधारने में और भी भड़क जाए. अकसर अपना कारोबार बढ़ाने के लिए सिलसिले में यश विदेशों के लंबे टूर पर जाते थे. एक ऐसे ही अवसर पर कोमल ने महावीर को फोन किया और कहा, ‘‘बेटे, तुम्हें देखने को मेरी आखें तरस गई हैं. कल शाम को चाय पर घर आ कर मुझ से कुछ देर बातें कर लो. तुम्हारे पिताजी इस समय हिंदुस्तान से बाहर हैं. इसलिए, जिस लडक़ी से तुम शादी करने की बात कर रहे थे, उस को भी साथ ले आओ. कम से कम मैं अपने बेटे की पसंद से मिल तो लूं.

वह मान गया कि कल शाम को पूनम को साथ ले कर आएगा.

अगले दिन सुबह अपनी योजना के अनुसार कोमल बाजार गई. ड्राइवर को कार पार्किंग में छोड़ वह खरीदारी करने पैदल निकल गई, ताकि किसी को कोई शक न पड़े कि वह असल में क्या लेने आई थी. उस ने एक जोड़ी चप्पल, कुछ रूमाल और एक पर्स खरीदा. फिर अपने मन में उठ रही योजना को पूरा करने के विचार से एक चीज खरीदी- चूहे मारने की दवा.

शाम को, कहने के मुताबिक, महावीर और पूनम उस से मिलने आए. कोमल ने उन से काफी बातचीत की, उस ने पूनम की प्रशंसा की और उस से मिल कर बहुत खुश होने का नाटक भी रचा. फिर नौकर से चाय मंगाई.
जब चाय आई, तो कोमल ने उसे अलग टेबल पर रखने को कहा, और खुद उठी चाय बनाने के लिए.

कोमल जानती थी कि उस की खरीदी हुई दवा, चूहों का खून पतला कर के उन को मारती थी. मनुष्यों को भी जब खून में थक्का आ जाने का डर होता, तो इसी तरह की दवा बहुत कम मात्रा में दी जाती थी, ताकि खून पतला हो जाए. यदि किसी इनसान को चूहे मारने वाली दवा काफी मात्रा में दी जाए तो उस का खून इतना पतला हो जाता है कि उस की मौत निश्चित थी. पर मौत आने में कुछ घंटे लगते हैं.

कोमल ने एक प्याले में चाय डाली, अपनी लाई हुई दवा की चार चुटकियां डाल दीं, फिर दूध और चीनी मिला कर प्याला पूनम के सामने रख दिया. वह दूसरे प्याले में चाय डाल ही रही थी कि दूसरे कमरे में फोन बजा. ‘‘मैं अभी आती हूं’’ कह कर वह दूसरे कमरे में फोन सुनने चली गई.

पूनम ने अपनी चाय का प्याला महावीर को पकड़ाया और उठ कर अपने लिए एक और प्याला बनाया. कोमल को आने में देर लग रही थी, तो दोनों ने अपनीअपनी चाय पीनी शुरू कर दी.

कोमल वापस आई तो देरी के लिए माफी मांगी और अपने लिए चाय बना कर पीने लगी. उस ने सोचा कि पूनम ने महावीर के लिए चाय बना दी होगी.

चाय खत्म होने के बाद पूनम और महावीर ने अपनेअपने घर जाने की इजाजत मांगी और निकल पड़े.

कोमल के मन में विचार उठा कि जल्दी ही उस का बेटा आजाद हो जाएगा. आकाश की तरफ उस ने निगाहें उठाईं तो देखा कि बादल घिर रहे थे पर लगता था कि अभी वर्षा शुरू होने में समय लगेगा.

रात हो गई. कोमल खाना खाने बैठी ही थी कि फोन की घंटी बजी. फोन पर पूनम थी. उस ने कहा कि वह अस्पताल से बोल रही थी. उस की आवाज कांप रही थी और लगता था कि वह किसी क्षण रोने लगेगी. उस ने बताया कि जब वह और महावीर कोमल को छोड़ कर निकले तो वह दोनों काफी देर तक शहर के एक बड़े पार्क में घूम रहे थे, गप्पें भी हांक रहे थे और भविष्य के लिए योजनाएं भी बना रहे थे. अचानक महावीर की तबीयत खराब हो गई. पूनम उसे टैक्सी में अस्पताल ले गई. वहां डाक्टरों ने कहा कि लगता था कि महावीर ने किसी किस्म का जहर खाया था. उस का बचना मुश्किल था.

यह सब सुन कर कोमल को जोर का झटका लगा. यह क्या अनर्थ हो गया था. उस ने सोचा कि जो जाल उस ने पूनम के लिए फैलाया था, उस जाल में उसी का बेटा फंस गया था. उस ने तुरंत ड्राइवर को बुलवाया और अपनी कार से अस्पताल के लिए रवाना हो गई.

रास्ते में बारिश शुरू हो गई और जल्दी ही घनघोर वर्षा होने लगी.

उस समय सड़कें वाहनों से खचाखच भरी हुई थीं. लम्बेलम्बे ट्रैफिक जाम थे. वर्षा के कारण जाम और जटिल हुए जा रहे थे. कोमल का मोबाइल उस के पर्स में था. रास्ते में उस का फोन 2-3 बार बजा, पर बाहर के शोर के कारण, कोमल ने नहीं सुना. कोमल को अस्पताल पहुंचने में लगभग एक घंटा लग गया. वहां उसे पूनम मिली. वह रो रही थी.

‘‘मांजी, महावीर हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए,’’ सिसकियों के बीच में उस ने कहा. कोमल वहीं पास में एक बेंच पर बैठ गई. उसे लगा कि उस ने अपने सपनों को स्वयं ध्वस्त कर दिया, वह क्या करना चाह रही थी, पर जाने क्यों मामला उलट गया. बड़ी हिम्मत कर के उस ने यश को फोन लगाया. कोमल की बात सुन कर उस का भी दिल बैठ गया. उस ने कहा कि वह अगली फ्लाइट से वापस आ रहा है.

अस्पताल के डाक्टर महावीर के शव का पोस्टमार्टम करना चाहते थे, पर कोमल ने मना कर दिया. वहांं के बड़े डाक्टर उस के पति यश को जानते थे. कोमल के दबाव में आ कर मौत का कारण उन्होंने ‘दिल का दौरा’ लिख दिया.
आखिर वह बड़े उद्योगपति की बीवी होने के अलावा मृतक की मां भी थी.

कोमल आज बरसात की सुबह खिड़की के पास बैठ कर सोच रही थी. महावीर को मरे हुए 7 साल हो गए थे. उस ने महावीर का पोस्टमार्टम रुकवा कर शायद अपनेआप को कई साल कानून के कारागार में कैद होने से बचा लिया था. उस ने यश को भी सचाई नहीं बताई थी. पर उसे अपने मन, खयालात और आत्मा की कैद से कौन बचा सकता था. आत्मग्लानि ने तो उसे आजीवन कैद की सजा सुना दी थी.

Indian Politics : भाजपाई मशीनरी vs कांग्रेस मशीनरी

महाराष्ट्र और उस से पहले हरियाणा के चुनावों ने एक बात साबित कर दी है कि जहां भारतीय जनता पार्टी की मशीनरी एक हार के बाद फिर से मेहनत करने पर लग जाती है वहीं कांग्रेस की मशीनरी एक जीत के बाद यह प्लानिंग करने लगती है कि अगली जीत के बाद कौन कैसा लाभ उठाएगा. कांग्रेस जब हार जाती है तो मुंह छिपा कर बैठ जाती है.

 

भारतीय जनता पार्टी ने महाराष्ट्र और हरियाणा में ही नहीं, उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में हार के बाद भी हार नहीं मानी और दोगुनेचौगुने जोश से काम किया. कांग्रेसी जश्न के नशे में डूबे रहे. भारतीय जनता पार्टी को यह गुण धार्मिक संगठनों से मिला है. हर धर्म की खासीयत यही होती है कि उस के अनुयायी हर अत्याचार और पराजय के बाद फिर लड़ने को तैयार हो जाते हैं. लगभग हर धर्म की किताब में ऐसी कहानियां हैं जिन में उन के भगवानों को एक हार मिली तो वे दूसरी लड़ाई के लिए तैयार हो गए.

 

राजाओं के साथ अकसर यह नहीं होता था. राजा एक युद्ध हारने के बाद अकसर किसी बीहड़ में खो जाता था. राजा राम, राजा युधिष्ठिर के साथ यही हुआ. उन का साथ देने वाला धर्म तो जिंदा रहा पर राजाओं के अवशेष नहीं बचे. कांग्रेस के साथ यही हो रहा है. कोई आंदोलन, कोई पार्टी अपनेआप नहीं चल सकती. यह ऐसी रेल है जिसे लगातार कोयला चाहिए चलाते रहने के लिए. एक बार गति पकड़ने के बाद लोको ड्राइवर डाइनिंग टेबल पर बैठ कर मजे नहीं ले सकता. उसे समय पर कोयला चाहिए होगा और समय पर इंजन के बौयलर में डालना होगा.

 

कांग्रेसियों ने ऐसे लोगों को पाल रखा है जो ट्विटर (अब एक्स) पर एक मैसेज रोज डाल कर या सप्ताह में एक बार किसी अखबार में कौलम लिख कर आराम से बैठ जाते हैं. भारतीय जनता पार्टी के पास हर मंदिर में और उस से पलते हुए लोगों की विशाल भीड़ है जो उस के लिए रातदिन काम करने को तैयार है.

 

2024 के लोकसभा चुनावों के पहले राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो’ नारा दिया तो सोते-आराम फरमाते कांग्रेसियों को कुछ करनेधरने को मिला. 2024 में मिली आंशिक सफलता से उन्हें फिर लड्डू खाने की आदत पड़ गई, बिना यह सोचे कि ये लड्डू बनाएगा कौन? इंडिया ब्लौक की ज्यादातर पार्टियों का यही हाल है.

 

महाराष्ट्र में वैसे भारतीय जनता पार्टी जीती है तो शिवसेना शिंदे और अजित पवार के बलबूते पर. अगर ये दोनों अपनी राजनीति के अस्तित्व के लिए नहीं लड़ रहे होते तो देवेंद्र फडणवीस की हालत पेशवाओं जैसी होती जो अंगरेजों के रहमोकरम पर 100-150 साल रहे. 1818 में तीसरे युद्ध के बाद ब्राह्मण पेशवाओं ने राजकाज अंगरेजों को सौंप दिया था और जो राज कुर्मी-क्षत्रिय शिवाजी ने उन्हें दिया था, उसे नष्ट कर दिया. अब भी पेशवा देवेंद्र फडणवीस, मराठे शिंदे और अजित पवार के सहारे ही जीते हैं.

 

Property : ट्रस्ट नहीं, बेटेबेटियों के नाम करें संपत्ति

राजनीति हो या बिजनेस सही उत्तराधिकारी का चयन ही विरासत को आगे बढ़ाता है. यदि उत्तराधिकारी ढूंढने में समय लगता है तो परिणाम भविष्य में घातक भी साबित होते हैं.

‘पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय’ एक कहावत है. इस का मतलब है कि अगर आप का बेटा सपूत है, यानी योग्य, समझदार और जिम्मेदार है, तो उस के लिए धन संचय करने की जरूरत नहीं है. ऐसा बेटा अपनी मेहनत से धन कमा लेगा और जीवन में सफल होगा. दूसरी तरफ अगर आप का बेटा कपूत है, यानी गैरजिम्मेदार, आलसी या गलत रास्ते पर है तो भी धन संचय करने का कोई मतलब नहीं है. ऐसा बेटा संचय किए गए धन का सही इस्तेमाल नहीं करेगा और उसे बरबाद कर देगा.

आज समाज में स्टार्टअप करने वाले कई युवाओं के उदाहरण हैं. जिन के लिए मातापिता ने कोई कारोबार का खजाना नहीं छोड़ा, फिर भी अपनी योग्यता और क्षमता से सफल लोगों में गिने जाते हैं. आज इस कहावत पर चर्चा इसलिए क्योंकि अरबपति वारेन बफेट ने अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा ट्रस्ट को दिया और अपने बच्चों को उन की जरूरत भर का ही पैसा दिया. उन्होंने कहा कि बच्चों के लिए इतना ही पैसा नहीं छोड़ना चाहिए कि वह काम न करे और इतना कम भी नहीं छोड़ना चाहिए कि वह काम करने लायक ही न रहे.

सवाल उठता है कि क्या अपनी मेहनत की कमाई उन ट्रस्टों को देना चाहिए जिन का आप और आप की संपत्ति से कोई मानसिक लगाव नहीं है ? क्या ऐसे ट्रस्ट और उन के डायरैक्टर आप की भावना के अनुसार काम करेंगे ? अगर आप का पैसा आप की संतानों को जाएगा तो क्या वो आप की विरासत को आगे नहीं बढ़ाएगें ? भारत के समाज में ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं. विदेशों में ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाते हैं. भारत में राजनीतिक दलों में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां विरासत अपनी संतान को भी दी गई.

कौन है वारेन बफेट ?

फोर्ब्स की लिस्ट के अनुसार वारेन बफेट दुनिया के अमीरों की लिस्ट में छठें पायदान पर हैं. वारेन बफेट के पास 147.2 बिलियन डौलर से अधिक की संपत्ति है. वारेन बफेट ने अपने ही पिता से कारोबार करना सीखा और उन के काम से ही अपने कैरियर की शुरूआत की. 30 अगस्त 2024 को वारेन बफेट का 94वां जन्मदिन था. वारेन बफेट के पिता हौवर्ड बफेट स्टोक ब्रोकर थे. इस वजह से बचपन से ही वारेन बफेट की रुचि स्टोक में थी. सब से पहले वारेन ने वर्ष 1942 में अमेरिकी पेट्रोलियम कंपनी सिटीज सर्विस के 3 शेयर खरीदे थे. सिटीज सर्विस के 3 शेयर खरीदने के 4 महीने बाद उन्हें इन स्टोक से 5 डौलर का मुनाफा हुआ था.

इन शेयर की खरीद से ही उन के निवेश का सफर शुरू हुआ था. इस के बाद उन्होंने शेयर बाजार में निवेश करना शुरू किया. शेयर में निवेश कर के वारेन बफेट 56 साल की उम्र में अरबपति बन गए. वारेन बफेट ने 99 फीसदी संपत्ति 50 साल के उम्र के बाद कमाई है. लगातार निवेश कर के वारेन ने वर्ष 1944 में निवेश के जरिए 228 डौलर से ज्यादा की राशि कमाई थी. इसी तरह निवेश की दुनिया में अपना परचम लहराया. उन की कंपनी हैथवे के शेयर दुनिया के सब से महंगे शेयर हैं.

वारेन बफेट ने 1952 में सुसान थाम्पसन से शादी की थी. उन के 3 बच्चे सूसी, हावर्ड और पीटर है. जुलाई 2004 में सुसान की मौत हो गई. 2006 में बफेट ने एस्ट्रिड मेंक्स से दूसरी शादी कर ली. वारेन बफेट अपनी वसीयत को ले कर चर्चा में है. वारेन बफेट ने अपनी संपत्ति का 85 प्रतिशत बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन सहित 5 धर्मार्थ संगठनों को जाएगा. शेष 15 प्रतिशत में से कुछ उन के बच्चों को जाएगा. कुछ लोग इस फैसले की प्रशंसा कर रहे हैं पर असल में यह बहुत आदर्श नहीं है. वारेन को ट्रस्ट भी बनानी हो तो बनाए पर उसे चलाने की जिम्मेदारी अपनी जैविक संतानों को दे क्योंकि बाहरी लोग चाहे जितने नाम वाले हों वे कब बेईमानी करने लगें कहा नहीं जा सकता. सरकार को ट्रस्टी मान कर जनता खरबों रुपए टैक्स के रूप में देती है पर ऊपर से नीचे तक सभी, सभी देशों में, बेईमानी करते रहते हैं.

यूक्रेन में प्रेजिडेंट ने थोड़े दिन पहले कुछ रीजनल मिलिट्री जनरलों को हटाया था क्योंकि वे रिश्वत ले कर लोगों को देश छोड़ने का रास्ता दे रहे थे. देश को रूसी हमले से बचाने वाले भी रिश्वतखोरी से बाज नहीं आते तो आम सिविलियन का तो कहना क्या.

जीवित रहते पिता करे हिस्सेदारी की तैयारी

भारत में हिंदू विरासत कानूनों में समाज उत्तराधिकारी के रूप में संतान को ही मान्यता दी जाती है. ऐसे में जरूरी होता है कि पिता अपनी संपत्ति अपनी संतान को ही दे. यदि वह पूरा कंट्रोल किसी कारण नहीं देना चाहता तो ट्रस्ट बना कर संपत्ति उस के नाम करने से धन का उपयोग ट्रस्ट के डायरैक्टर के विवेक पर छोड़ना गलत होगा. यह हमारे यहां कम ही होता है.

वास्तव में ट्रस्टीयों का किसी और के कमाए धन से कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता. इस कारण वह सही तरह से धन का इस्तेमाल नहीं करते हैं. ऐसे में जरूरी है कि पिता समय रहते अपनी संतानों को अपने कारोबार से परिचित कराए. उस को काम करना सिखाएं फिर समय आने पर उसे संतान के हवाले कर दे.

अगर बच्चे एक से अधिक हैं तो उन की योग्यता के हिसाब से बंटवारा करें और यह फैसला जीवित रहते बच्चों को सुनाएं और समझाएं.
कारोबारी परिवारों में संतान को ही अधिकार मिलते हैं. जिस के तहत वह संपत्ति का प्रयोग अपने हिसाब से करते हैं. अम्बानी परिवार में संपत्ति का बंटवारा मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी को किया गया था. यह बात और है कि दोनों भाईयों ने अपनेअपने मुकाम तय किए. ऐसे में संपत्ति का बंटवारा संतानों के बीच हो और उन को पहले से ही इस जिम्मेदारी के लिए तैयार किया जाए. जिस से वह संपत्ति के बोझ में बिखर न जाए.

सामान्य बिजनेस परिवार इसी तरह से अपनी तैयारी करते हैं. पिता के साथ ही साथ बेटा कारोबार संभालने की कला में निपुण हो जाता है. ऐेसे में उस की विरासत बिखरने से बच जाती है. जहां पारिवारिक विवाद सही से सुलझाए नहीं जाते वहां पूरी विरासत बिखर जाती है.

भारत में ऐसे उदाहरण न के बराबर हैं. समाजिक उत्तराधिकार के मामले यहां जरूर दिखते हैं. जिन में उत्तराधिकारी विरासत नहीं संभाल पाएं.
बीकानेर के पूर्व राजघराने की अरबों की संपत्ति को ले कर महाराजा करणी सिंह की बेटी और अंतर्राष्ट्रीय शूटर राज्यश्री कुमारी, करणी सिंह के बेटे नरेंद्र सिंह की बेटी सिद्धि कुमारी के बीच विवाद है. दोनों प्रोपर्टी से जुड़े ट्रस्टों को ले कर अपनाअपना अधिकार जता रही हैं. सिद्धि कुमारी पर होटल चलाने वाली कंपनी ने यह मुकदमा दर्ज कराया है और दूसरा केस बुआ राज्यश्री पर सिद्धि कुमारी के ट्रस्ट की ओर से संपत्ति खुर्द-बुर्द को ले कर कराया गया है. यह सोचना भी सही नहीं है कि अगर संपत्ति ट्रस्ट के नाम कर दी जाएगी तो उस का सही उपयोग हो सकेगा.

राजनीति एक अच्छा उदहारण है जिस में विरासत अपनों को देने से किसी की बनाई पार्टी दशकों तक चल जाती है. कुछ मामलों में उदार बन कर पार्टी दूसरों को दे भी दी तो बिखर ही जाती है. लोग फिर भी बनाने वाले की संतानों के साथ काम करना ज्यादा पसंद करते हैं. परिवार के द्वारा चलाए जा रहे ऐसे दलों की संख्या तो है जिन के वारिस बहुत अच्छा नहीं कर पाए.

इस का बड़ा उदाहरण राष्ट्रीय लोकदल भी है. इस के प्रमुख चौधरी चरण सिंह ने 1929 जिला पंचायत सदस्य का चुनाव निर्विरोध जीत कर राजनीति में अपनी शुरूआत की थी. इस के बाद चौ. चरण सिंह ने छपरौली में अपनी सियासी जमीन तैयार की. छपरौली से चौ. चरण सिंह ने विधायक से ले कर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया. 1986 में चौधरी चरण सिंह के बीमार होने पर चौधरी अजित सिंह आइबीएम कंपनी की कंप्यूटर इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ अमेरिका से भारत लौटे और राज्यसभा सदस्य बन सियासत में सक्रिय हो गए. अगले ही साल 1987 में चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद अजित सिंह ने पिता की राजनीतिक विरासत संभाली.

अजित सिंह अलगअलग केन्द्र सरकारों में मंत्री बनते रहे. वे अपना ठिकाना तो ढूंढ पाए पर किसानों का मुद्दा खो गए. अगर पार्टी किसी और के पास जाती तो इतनी भी नहीं बचती और उस का हाल कम्युनिस्ट पार्टी या प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसा होता.
इस के विपरीत चौधरी चरण सिंह को अपना राजनीतिक गुरू मानने वाले मुलायम सिंह यादव न केवल खुद 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने बल्कि केन्द्र में मंत्री भी रहे और अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनवाया. 2024 के लोकसभा चुनाव में 37 सीटें जीत कर मुलायम सिंह यादव की निजी सी समाजवादी पार्टी देश की तीसरे नम्बर की सब से बड़ी पार्टी बनी.

आज बहुत सारे राजनीतिक दल ऐसे हैं जो अपने अस्तित्व के लिए परिवार के लोगों को सामने ला रहे हैं. समाजवादी पार्टी में मुलायम सिह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन में ही अपने बेटे अखिलेश को पार्टी की बागडोर सौंप दी. अगर 2012 में मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश को राजनीतिक विरासत नहीं सौपी होती तो मुलायम के बाद पार्टी बिखर कर खत्म हो गई होती. बिहार में लालू प्रसाद यादव ने अपने जीवनकाल में ही पूरी पार्टी की बागडोर बेटीबेटों को सौंप दी.

बिहार में ही रामविलास पासवान अपने बेटे चिराग को पार्टी सौपने में देर की तो वहां पर पार्टी दो हिस्सों में बंट गई. रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस और बेटे चिराग पासवान के बीच झगड़ा है. जिस का प्रभाव पार्टी पर पड़ रहा है. वह भाजपा की पिछलग्गू बन कर रह गई है.

बहुजन समाज पार्टी अपने उत्तराधिकारी को तलाश रही है. दलित आन्दोलन से जन्म लेने वाली इस पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया था. जिन का कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं था. अब मायावती अपने भतीजे आकाश आनंद को ही राजनीतिक उत्तराधिकारी बना रही है.
कांग्रेस ने राहुल गांधी को उत्तराधिकार देने में मुलायम सिंह यादव वाली समझदारी नहीं दिखाई. अगर 2004 से 2014 के बीच जब केन्द्र में डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे उसी समय राहुल गांधी को सरकार में कोई बड़ा पद दे देती तो राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ जाती.

भारत का समाज और कानून जैविक उत्तराधिकारी यानि अपनी संतानों को ही संपत्ति देने की सलाह देता है. ऐसे में बेटेबेटियों को ही संपत्ति देने से झगड़े कम हो जाते हैं. अगर ऐसा नहीं हो तो विवाद बढ़ते ही जाते हैं. विवादों में ही संपत्ति बरबाद हो जाती है. राजनीतिक भी परिवार के विरासत जैसी ही हो गई है. जिस के कारण अब नेताओं के बच्चे ही उन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी होते जा रहे हैं. सही उत्तराधिकारी ही विरासत को आगे ले कर जा पाता है.

online hindi story : देसी घी का लड्डू

पति के दिवंगत होने के बाद मां को साथ रखना बच्चों के लिए भारी पड़ने लगा तो फिर मां ने भी एक कड़ा फैसला ले लिया.

मां फोन पर सुबक रही थी, ‘‘सिर्फ खाना देना होता है और शुगर की सुई लगानी होती है. यही 2 काम शैला के लिए भारी पड़ता है. वह इतना भी नहीं करना चाहती. कहती है कि मैं थक जाती हूं. मुझ से होता नहीं,’’ सुन कर मुझे  बहुत गुस्सा आया.

शैला मेरी इकलौती भाभी है. क्या इतनी कमजोर हो गई है कि मां को खाना भी नहीं दे सकती? बुढ़ापे के कारण मां का ठीक से उठनाबैठना नहीं हो पाता था. उन के घुटनों में हमेशा दर्द बना रहता. उस पर उन का भारी शरीर. 2 कदम चली नहीं कि हांफने लगतीं. अब इस स्थिति में शैला उन की सेवा नहीं करेगी तो कौन करेगा? बुढ़ापे में बच्चे ही मांबाप का सहारा होते हैं. माना कि उन के सिर्फ एक ही लड़का कृष्णा है और हम 3 बेटियां. उन की सेवा तो हम बेटियां भी कर सकती हैं मगर वे हमारे पास आना नहीं चाहती थीं. वजह वही सामाजिक रुसवाई. लोग कहेंगे कि बेटे के रहते बेटी के यहां रह रही हैं. बेटे पर तो अधिकार है पर बेटियों के पास किस हक से जाएं?

मां की व्यथा सुन कर मेरा मन बेचैन हो उठा. अगर वे आसपास होतीं तो मैं तुरंत चल कर उन के पास पहुंच जाती. मगर विवश थी. कहां इलाहाबाद कहां चेन्नई. जब तक कृष्णा दिल्ली में था, जाना आसान था. अब संभव नहीं रहा.

‘‘शैला, दिनभर करती क्या है? बच्चों  के स्कूल जाने के बाद उस के पास काम ही क्या रहता होगा?’’ मेरा स्वर तल्ख था.

‘‘सोती रहती है. कहती है कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती,’’ मां बोलीं.

‘‘तबीयत को क्या हुआ है. जवान है, आप की तरह बूढ़ी नहीं. कृष्णा का रवैया कैसा है?’’

‘‘कृष्णा दिनभर औफिस में रहता है. औफिस से आने के बाद वह सीधे शैला के कमरे में जाता है. वहीं एक घंटे नाश्तापानी करते हुए खुसुरफुसुर करता है. वह तो उलटा मुझे  ही दोष देता है.’’

‘‘क्या कहता है?’’

‘‘यही कि मैं बिना वजह शैला से उलझती रहती हूं.’’

‘‘72 वर्षीय महिला हैं आप. जरा सा टीकाटिपप्णी कर ही दिया तो इस में बुरा मानने की क्या जरूरत है. क्या वह बूढ़ी नहीं होगी?’’ कह कर मैं सोचने लगी कि बुढ़ापे में आदमी अपने शरीर से परेशान हो जाता है. तमाम बीमारियां उसे घेर लेती हैं. जिस की वजह से वह चिड़चिड़ा हो जाता है. मां को हाई ब्लड प्रैशर के अलावा शुगर भी थी. न उन में पहले की तरह जोश था न ही स्फूर्ति. कौन कमजोर होना चाहता है. आज का नौजवान जवानी के नशे में कल की नहीं सोचता है. अगर सोचता तो मां की यह हालत न होती.

 

मुझे शैला से ज्यादा कृष्णा पर क्रोध आ रहा था. यह वही कृष्णा, जिसे मां देशी घी का लड्डू कहती थीं. हम 3 बहनों में कृष्णा सब से छोटा था. इसलिए उसे मां और हम सब का भरपूर लाड़प्यार मिला. इस की एक सब से बड़ी वजह यह भी थी कि वह लड़का था. 3 लगातार बेटियां हुईं तो मां झल्ला गईं. ऐसे में कृष्णा का आगमन अंधेरे में चिराग की तरह था.

कृष्णा के आने के बाद मां का सारा ध्यान उसी पर टिक गया. हम बहनें उन के लिए पहले ही बोझ थीं अब और हो गईं. वे जबतब हमें डांटती रहतीं. मानो हमें देखना भी नहीं चाहती हों. कृष्णा को कोई अभाव न हो, इस का हर वक्त उन्हें खयाल रहता. मां के इस रवैये से मेरा मन वेदना से भर जाता. इस के बावजूद भी मैं वही करती जो वह चाहतीं. सिर्फ इसलिए कि वह मुझ से खुश रहें.

 

घर का सारा काम करना. कृष्णा की सभी जरूरतों को पूरा करना. उस के बाद स्कूल की पढ़ाई करना. यह आसान नहीं था मेरे लिए. मेरा बोझ हलका तब हुआ जब मेरी बाद की दोनों बहनें मेरे काम में हाथ बंटाने लगीं.

आहिस्ताआहिस्ता समय सरकता रहा. फिर एक दिन ऐसा आया जब पापा को मेरी शादी की चिंता हुई. उस समय पढ़ाई पूरी कर के मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी थी. ट्यूशन व स्कूल की तनख्वाह से बटोरी गई पूंजी और रिश्तेदारों की मदद से मेरी शादी हो गई. पापा ने फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की. वे अपने रुपयों को ले कर हमेशा संशय में रहे. उन की आंखों के सामने हमेशा कृष्णा का ही भविष्य घूमता. लिहाजा, मेरी शादी चाहे जैसे लड़के से हो मगर उन का एक पैसा खर्च न हो. ऐसा ही हुआ. मैं ने भी इसे कुदरत का फैसला मान कर स्वीकार कर लिया.

इस बीच मकान मालिक ने पापा को मकान खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया. इस मकान में पापा 25 साल रहे. वह भी मामूली किराए पर. एकाएक इस समस्या ने उन्हें विचलित कर दिया. तभी उन्होंने मम्मी से रायमशविरा कर एक छोटा सा मकान खरीद लिया. जाहिर था, इस मकान का वारिस कृष्णा ही बनेगा. पापा अपने इस फैसले से संतुष्ट थे. बाद में मंझली बहन ने भी प्राइवेट स्कूल और ट्यूशन कर के जो पूंजी जमा की उसी में थोड़ाबहुत अपना रुपया पापा ने लगा कर उस की भी शादी कर दी. रह गई तीसरी. किसी तरह उसे भी निबटाया.

 

अब उन के लिए सिर्फ कृष्णा था. कृष्णा ने कोचिंग करने के लिए फीस मांगी तो पापा सहर्ष तैयार हो गए. वहीं जब मैं ने कहा था तो साफ इनकार कर दिया था. कहने लगे कि हमारे पास इतना है ही नहीं कि तुम्हारे लिए कोचिंग करवा सकें जबकि मैं पढ़ने में काफी होशियार थी.

कृष्णा एक नामी कंपनी में इंजीनियर बन गया. उस ने आधुनिक जरूरतों का सारा सामान खरीद लिया. मांपिताजी सभी कृष्णा की तरक्की से खुश थे. पापा को लगा उन का जीवन सार्थक हो गया. जब तक पापा जीवित थे सब ठीकठाक था. एकाएक पापा दिवगंत हुए तो मां को इलाहाबाद छोड़ कर कृष्णा के पास रहना पड़ा. यहां उन की देखभाल कौन करता? मां, बेटाबहू के पास नहीं रहना चाहती थीं. वजह उन्हें अपने मकान और शहर से लगाव था. मगर इस उम्र में उन की हमेशा देखभाल कौन करेगा? मैं भले ही इलाहाबाद में रहती थी मगर मेरा अपना घर था. रातबिरात उन्हें कुछ होता है तो कौन मदद के लिए आएगा? यही सब सोच कर कृष्णा ने मां को अपने पास बुला लिया. वे बेमन से चली गईं.

 

अपने शहर का सुख और ही होता है. सब से बड़ी बात सब जानासुना होता है. माहौल के रगरग से वाकिफ होता है. बहरहाल, साल में एक बार हमसब बहनें उन से मिलने जरूर जाते. वापसी पर उन की आंखें भीग जातीं. कहतीं कि मन नहीं लगता, इलाहाबाद आना चाहती हूं.

मैं कहती, ‘‘वहां अकेले रहना क्या आसान है? उम्र हो चली है. रातबिरात तबीयत बिगड़ेगी तब कौन खड़ा होगा? यहां कम से कम कृष्णा है आप की देखभाल के लिए.’’

‘‘कृष्णा बदल गया है,’’ मां बोलीं.

‘‘इस पर ज्यादा गौर मत किया करो. बदलाव सभी में आता है,’’ कह कर मैं औटो में बैठने लगी. मैं ने पीछे मुड़ कर देखा वे तब तक हमें देखती रहीं जब तब औटो उन की नजरों से ओझल नहीं हो गया. मुझे उन की मनोदशा पर तरस आ रहा था.

समय हमेशा एकजैसा नहीं होता. मां सबकुछ पहले जैसा चाहती थी पर क्या ऐसा हो सकता है? गाड़ी में बैठने के बाद जब हम बहनें थोड़ी फ्री हुईं तो मां को ले कर चर्चा हुई.

‘‘मां, बारबार इलाहाबाद आने को कहती हैं,’’ मंझली बहन शिवानी बोली. मां मंझली के ज्यादा करीब रही थीं.

‘‘क्या यह संभव है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘चाहे जैसे भी हो उन्हें उन्हीं के पास रहना होगा. इसी में उन की भलाई है.’’

‘‘कैसी बात करती हो, दीदी. तुम्हें मां के प्रति इतना निष्ठुर नहीं होना चाहिए,’’ शिवानी को बुरा लगा.

‘‘तो रख लो अपने पास. तुम से वह ज्यादा घुलीमिली रहती है,’’ शिवानी को बुरा लगा.

‘‘क्या तुम नहीं रखोगी? क्या वह तुम्हारी मां नहीं है?’’ शिवानी का सवाल बचकाना लगा मुझे.

 

‘‘सवाल रखने या न रखने का नहीं है. जिम्मेदारी की बात है. बेटे की जिम्मेदारी बनती है अपने मांबाप की सेवा की. हम रख कर कृष्णा को और बेलगाम कर देंगे. वह तो चाहेगा कि मां को हम लोग रख लें ताकि निरंकुश जीवन जीए. क्या तुम ने सुना नहीं जब शैला मां से कह रही थी कि आप की वजह से हम कहीं आजा नहीं सकते. आप ने हमें बांध कर रख दिया है.’’

‘‘दीदी ठीक कह रही है. मम्मी ने एक बार फोन कर के इस बात का जिक्र मु?ा से किया था,’’ तीसरी बहन सुमन बोली.

कुछ सोच कर शिवानी बोली, ‘‘2-2 महीने तो रख ही सकते हैं. इस बहाने उन का मन भी बहल जाएगा.’’

‘‘मैं कब इनकार करती हूं. मगर इस अवस्था में सफर कर के अलगअलग शहरों में आनाजाना क्या उन के लिए आसान होगा? कौन उन्हें चेन्नई से

ले आएगा?’’

‘‘मैं अपने पति से कहूंगी कि वह मां को ले आए,’’ शिवानी बोली.

‘‘बहुत आगे बढ़बढ़ कर तुम बोल रही हो. एक बार कह कर तो देखो, तुम्हारे पति इनकार न कर दें तो कहना. सीधे कहेंगे कि जिस की मां है वह भेजे. मैं क्यों अपनी नौकरी छोड़ कर उतनी दूर जाऊं? मैं बोली.

 

‘‘सब एकजैसे नहीं होते,’’ शिवानी का इशारा मेरी तरफ था. मेरे पति जमीनी व्यक्ति थे. वहीं शिवानी का पति धर्मपरायण. पता नहीं कैसे नौकरी करते थे. दिनभर उन का ध्यान अंधविश्वास व भगवान पर ही रहता था. क्षणिक भावनाओं में बह कर वे चेन्नई चले भी गए तो यह हमेशा ऐसा संभव होगा? वहीं सुमन का पति एकदम ठेठ प्रवृत्ति का इंसान. जब वह सुमन की नहीं सुनता तो भला सास को लेने क्या जाएगा? साफ कहेगा कि उन के बेटाबहू जानें हम से क्या मतलब. इसलिए सुमन से कोई अपेक्षा करना निरर्थक था. सुमन यही सब सोच कर चुपचाप हम लोगों की गुफ्तगू सुन रही थी.

रात होने को आई. हम लोग बात यहीं खत्म कर के अपनेअपने बैड पर सोने चले गए.

सुबह गाड़ी सतना पहुंची तो शिवानी के साथ सुमन भी उतर गई. सुमन को वहां 2 दिन रुकना था. उस के बाद वह अपने घर लखनऊ चली जाएगी. मैं ने उन से विदा ली. मेरा पड़ाव 6 घंटे बाद आने वाला था.

मैं सोचने लगी कि समय कितना बलवान होता है. कहां हम सब एक ही शहर में रह कर पलेबड़े हुए और आज 4 लोग 4 जगह के हो गए. मेरा मायका इलाहाबाद था. इसलिए मैं हर वक्त मम्मीपापा के लिए खड़ी रहती थी. बाद में पापा की तबीयत बिगड़ी तो वे दिल्ली चले गए. वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली.

 

योजना के मुताबिक मैं ने कृष्णा को फोन लगाया, ‘‘तुम्हें ले जाना हो तो ले जाओ. मेरे पास समय नहीं है,’’ उस ने साफसाफ बोल दिया.

‘‘थोड़ा समय निकालो. उन का भी जी बहल जाएगा,’’ मैं ने मनुहार की.

‘‘उन का दिल कहीं नहीं लगेगा. मैं उन के स्वभाव को जानता हूं.’’

‘‘अब तुम उन का स्वभाव भी देखने लगे?’’ मुझे बुरा लगा.

‘‘इतना ही फिक्र है तो रख लो उन को अपने पास हमेशा के लिए.’’

‘‘मैं क्यों रखूंगी. सबकुछ तुम्हें दिया है. अब जब लौटाने की बारी आई तो हम बहनों पर टाल रहे हो.’’

‘‘तो जैसे चल रहा है चलने दो.’’

‘‘कैसे चलने दूं? बीवी के मोह ने तुम्हें अपने कर्तव्य से विमुख कर रखा है.’’

‘‘मुझे अपना कर्तव्य मत सिखाओ.  मुझे अच्छे से निभाना आता है.’’

‘‘कुछ नहीं निभा रहे हो. तुम दिनभर औफिस में रहते हो. तुम्हें कुछ पता रहता है क्या? देर शाम घर आते हो तो सीधे अपने बीवी के कमरे में चले जाते हो. कभी मां का हाल पूछते हो? वे बेगानों की तरह एक कमरे में पड़ी रहती हैं.’’

‘‘मैं ने कब रोका है? क्यों नहीं आ कर हमारे पास बैठती हैं?’’

‘‘क्या बैठेंगी जब बेटेबहू ने मुंह फेर लिया है?’’ मेरे कथन पर मारे खुन्नस के चलते कृष्णा ने फोन काट दिया और तमतमाते हुए मां के कमरे में आया, ‘‘आप को ज्यादा खुशी मिलती है अपनी बेटियों से तो कहिए हमेशा के लिए उन्हीं के यहां पहुंचा दूं? दिनभर फोन कर के हमारी बुराई बतियाती रहती हैं.’’

‘‘मैं ने क्या कहा?’’ मां का स्वर दयनीय था.

‘‘बिना कहे इतना सुनने को मिल रहा है.’’

‘‘क्या कोई अपने मन की बात भी नहीं कर सकता? तुम्हारी बीवी तो जैसे जबान पर ताला लगा कर आई है. उस का ताला खुलेगा तो सिर्फ तुम्हारे लिए या तो अपने मायके वालों के लिए. ऐसे में यदि मैं अपनी बेटियों से कहसुन लेती हूं तो क्या गलत करती हूं,’’ मां ने भी तेवर कड़े किए.

‘‘मैं आप से बहस नहीं करना चाहता. आप चाहती क्या हैं?’’ कृष्णा बोला.

‘‘मैं इलाहाबाद जाना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है. मैं आप को पहुंचाने की व्यवस्था करता हूं. मगर बाद में यह न कहिएगा कि मैं ने अपनी मरजी से आप को इलाहाबाद भेज दिया.’’ मां चुप रहीं.

जिस दिन इलाहाबाद जाने को था मां की आंखें नम थीं. उन्हें अपने 2 पोतों का खयाल आने लगा. बड़ा पोता 8 साल का था. बोला,‘‘दादी, आप इलाहाबाद क्यों जा रही हैं? आप को सुई कौन लगाएगा? खाना कौन देगा?’’ सुन कर मां की आंखें डबडबा आईं.

शैला खुश थी कि चलो इसी बहाने झंझट छूटा. अंदर से कृष्णा का भी मन मुदित था क्योंकि वह जानता था कि इलाहाबाद में मैं तो हूं ही. चाहे जैसे भी हो मां के लिए करूंगी ही. सिर्फ रुपए भेजने की जरूरत है. वह भेज दिया करेगा. मैं ने भी मन बना लिया था कि जिस मां ने मुझे पैदा किया उस रिश्ते की लाज उन की अंतिम सांस तक रखूंगी.

 

पता नहीं क्यों बरबस मेरा ध्यान उस बचपन पर चला गया जब मां ने एक टौफी कृष्णा के लिए मुझ से छिपा कर रखी थी. संयोग से मेरी नजर पड़ी तो मैं ने अपने लिए मांग ली तो मां ने साफ इनकार कर दिया. बोलीं, ‘यह मैं ने कृष्णा के लिए रखी है.’ मैं मायूस दूसरे कमरे में चली गई. मैं ने बचपन की खट्टी याद को दिल के कोने में दबा दिया.

Indian Law : अदालती पेंचों में फंसी युवतियां

आज भी कानून द्वारा थोपी जा रही पौराणिक पाबंदियों और नियमकानूनों के चलते युवतियों का जीवन दूभर है. मुश्किल तब ज्यादा खड़ी हो जाती है जब कानून बनाने वाले और लागू कराने वाले असल नेता व जज उन्हें राहत देने की जगह धर्म का पाठ पढ़ाते दिखाई देते हैं.

 

2020 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने सिंदूर और चूड़ी को ले कर एक फैसला सुनाया था. हाईकोर्ट ने कहा था कि पत्नी के सिंदूर लगाने और चूड़ी पहनने से इनकार करने का मतलब है कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी आगे जारी नहीं रखना चाहती है और यह तलाक दिए जाने का आधार है.

क्या है यह पूरा मामला, जानते हैं-

एक व्यक्ति जिस की शादी 2012 में हुई थी और कुछ सालों में ही पतिपत्नी अलग हो गए थे, उस ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में तलाक के लिए याचिका दाखिल करते हुए कहा कि उस की पत्नी चूड़ी, मंगलसूत्र नहीं पहनती है और न ही सिंदूर लगाती है. उस पर गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया और कहा कि अलग रह रही पत्नी द्वारा ‘थाली’ यानी मंगलसूत्र को हटाया जाना पति के लिए एक मानसिक क्रूरता समझा जाएगा.

यह टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने पति के तलाक की अर्जी को मंजूरी दे दी थी लेकिन महिला ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि उस ने अपने गले की चेन हटाई थी, मंगलसूत्र नहीं.

वहीं, महिला की वकील ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 का हवाला देते हुए कहा था कि मंगलसूत्र पहनना आवश्यक नहीं है और इसलिए पत्नी द्वारा इसे हटाने से वैवाहिक संबंधों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने पत्नी के सिंदूर लगाने से इनकार को एक साक्ष्य के तौर पर माना.

न्यायिक बैंच ने अपने फैसले में कहा, ‘हिंदू रीतिरिवाजों के हिसाब से शादी करने वाली महिला अगर सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ी नहीं पहनती है तो ऐसा करने से वह अविवाहित लगेगी और प्रतीकात्मक तौर पर इसे शादी से इनकार माना जाएगा. ऐसा करना महिला के इरादों को साफ जाहिर करता है कि वह पति के साथ अपना वैवाहिक जीवन आगे जारी नहीं रखना चाहती है.’

कोर्ट ने यह भी कहा कि इन हालात में पति का पत्नी के साथ रहना महिला द्वारा पति और उस के परिवार को प्रताड़ना देना ही माना जाएगा.

एक आदर्श स्त्री की परिभाषा क्या है, आजकल अदालतों में इस का खूब बखान हो रहा है. कुछ वर्षों पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस परिभाषा को स्पष्ट किया था और कहा था कि आदर्श स्त्री वही है जो बलात्कार के बाद सोए नहीं, बल्कि तुरंत इस अपराध की इत्तिला करे.

बनारस की एक स्टार्टअप कंपनी ने लड़कियों को आदर्श बहू बनने की ट्रेनिंग देने की पेशकश कर डाली. ऐसी ट्रेनिंग गीताप्रैस वाले कई सालों से दे रहे हैं. उन की पुस्तकों के नाम पढ़ कर ही आप सम?ा जाएंगे, जैसे ‘नारीधर्म’, ‘स्त्री के लिए जीवन के आदर्श’, ‘दांपत्य जीवन के आदर्श’, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ आदिआदि. ऐसा ही एक आदेश गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी सुना डाला कि अगर एक विवाहित महिला सिंदूर और मंगलसूत्र नहीं पहनती तो इस का मतलब है वह अपने शादीशुदा जीवन में खुश नहीं है.

2018 में पुणे में एक महिला से एक पुलिस वाले ने पूछताछ की कि आप ने कोई गहना क्यों नहीं पहना है? सिंदूर क्यों नहीं लगाया है? एक पारंपरिक गृहिणी की तरह कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? वह उस औरत के विवाहित होने पर संदेह क्यों कर रहा था, इसलिए कि वह औरत ढकोसलों में भरोसा नहीं करती. 2018 में ही आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के गांव थोकलापल्ली की औरतों को दिन में नाइटी न पहनने का फरमान सुनाया गया था.

एक बार किसी ने कहा था कि शादी के बाद लड़कियां सिंदूर और चूडि़यां नहीं पहनतीं तो लगता ही नहीं है कि वे शादीशुदा हैं. यानी, लड़कियों के लिए शादीशुदा दिखना जरूरी है. यह दिखाना जरूरी है कि उन के शरीर पर एक पुरुष का कब्जा है. सिंदूर और मंगलसूत्र के जरिए यह दिखाना होता है कि उक्त महिला किसी की संपत्ति है. सो, वह किसी और के लिए उपलब्ध नहीं है. अदालत ने भी इस बात को पुख्ता कर दिया है कि शादी के बाद महिलाओं को सिंदूर लगाना और मंगलसूत्र पहनना ही पहनना है, वरना माना जाएगा कि उन्हें शादी में विश्वास नहीं है.

गुवाहाटी कोर्ट ने महिला को अत्याचारी भी बताया क्योंकि वह अपनी सास की सेवा नहीं करती. यानी कि उन्हें बहू नहीं, नौकरानी चाहिए थी अपने लिए?

महिलाओं के खिलाफ फैसला सुनाने वाली ज्यूडीशियरी खुद एक पुरुषप्रधान है तो वह कहां महिलाओं की भावना को समझ पाएगी.

यह समझ लें कि उच्च न्यायालय का हर निर्णय देश का कानून बन जाता है जब तक कि संसद या विधानसभा या सर्वोच्च न्यायालय उसे न बदलें. वकील इसे कानून मान कर कहीं भी लागू करवा सकते हैं.

यह वही भाषा है जो अपने एक प्रवचन के दौरान बागेश्वर बाबा धीरेंद्र शास्त्री ने मंगलसूत्र को ले कर कहा था, ‘किसी स्त्री की शादी हो गई हो तो उस की 2 पहचान होती हैं- मांग का सिंदूर और गले का मंगलसूत्र. अगर कोई महिला मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहने न दिखे तो समझ लो प्लौट खाली है और अगर किसी महिला की मांग में सिंदूर भरा दिखे और गले में मंगलसूत्र लटका दिख जाए तो समझ उस प्लौट की रजिस्ट्री हो चुकी है.’ बाबा के इस बयान पर सोशल मीडिया पर महिलाओं का गुस्सा फूटा था, लेकिन आज तक बाबा का कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाया.यदि ऐसा बयान कोई और दे तो उस के खिलाफ कई अदालतों में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के मुकदमे दायर कर दिए जाएंगे और उसे अदालतअदालत में जाना पड़ेगा.

पीएम मोदी की एक चुनावी रैली में मंगलसूत्र चर्चा का विषय बना रहा. इस विषय को उठाने का मतलब यही था कि प्रधानमंत्री भी कह रहे हैं कि विवाहित स्त्रियां मंगलसूत्र पहने रहें, उतारें नहीं, तभी संस्कारी हैं, तभी विधिक दृष्टि में उन का विवाह कानूनों का संरक्षण पा सकता है.

चुनावी सभा में मंगलसूत्र का जिक्र होने का अर्थ है, एक तरीके से पूरे समाज को आवाज देना है, क्योंकि छाप-तिलक और कंठीमाला से ज्यादा हमारी रोज की जिंदगी का सब से अभिन्न अंग है मंगलसूत्र, जो उत्तर से ले कर दक्षिण तक, हरेक विवाहित महिला के गले में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता मिलेगा फिर चाहे वह सोने का हो, पीतल का या सिर्फ धागे में पिरोए काले मोतियों से बना हो. राजतिलक की चाहत ने चुनावी रण के दांवपेंच अचानक बदल दिए. मोदी से पहले मंगलसूत्र पहुंच गया. देश की करोड़ों महिलाओं का मंगलसूत्र चुनावी रण में भाजपा का नया मुद्दा बन कर उभरा और इंडिया ब्लौक ने मंगलसूत्र की निरर्थकता पर मुंह खोलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

कानून की नजर में विवाह की वैधता

कोर्ट का यह अजीबोगरीब फैसला शादी की अस्मिता पर सवाल तो उठा रहा है लेकिन हम यहां जानते हैं कि कानून की नजर में विवाह कब वैध माना जाता है?

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 5 के अनुसार-

  •       विवाह के लिए किसी भी व्यक्ति या पार्टी को पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए, यानी कि शादी के समय किसी भी पार्टी में पहले से ही जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इस प्रकार, यह अधिनियम बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाता है.
  •     शादी के समय यदि कोई पक्ष बीमार है तो उस की सहमति वैध नहीं मानी जाएगी, भले ही वह वैध सहमति देने में सक्षम हो लेकिन मानसिक विकारग्रस्त नहीं होना चाहिए जो उसे शादी के लिए और बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अयोग्य बनाता है. दोनों में से कोई पक्ष पागल भी नहीं होना चाहिए.
  •    दोनों पक्षों में किसी की उम्र विवाह के लिए कम नहीं होनी चाहिए.
  • दोनों पक्षों को सपिंडों या निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई भी कस्टम प्रशासन उन्हें इस तरह के संबंधों के विवाह की अनुमति नहीं देता.

इस के अलावा एक्ट में यह कहीं पर भी नहीं लिखा है कि यदि कोई विवाहित महिला मंगलसूत्र या सिंदूर नहीं पहनती है तो यह पति के साथ क्रूरता का प्रतीक है और इस का यह मतलब हुआ कि महिला शादी को नहीं मानती है.

गुवाहाटी कोर्ट ने यह भी कहा कि महिला ने अपनी तरफ से शादी निभाने का कोई प्रयास नहीं किया. यानी, उस ने मंगलसूत्र पहनने की सहमति नहीं दी. लेकिन सवाल यह उठता है कि शादी का रिश्ता पतिपत्नी दोनों के बीच का होता है तो फिर रिश्ता निभाने का सारा बोझ औरतों के सिर ही क्यों? विवाहित पुरुषों के लिए शादी का कोई सिंबल क्यों नहीं है, ताकि लग सके कि फलां पुरुष भी शादीशुदा है. केवल महिलाओं के लिए ही सारे नियमकानून क्यों बनाए गए हैं? जवाब कौन देगा, क्योंकि यह पुरुषप्रधान देश जो है, ऐसा पुरुषप्रधान देश जिस में हर धर्म औरतों को पुरुषों की सेवा करने का आदेश देता है.

मनुस्मृति में महिलाओं के लिए लिखा गया है कि एक लड़की को हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए. विवाह पश्चात पति द्वारा उस का संरक्षण होना चाहिए और पति के बाद अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए. लेकिन किसी भी स्थिति में एक महिला आजाद नहीं हो सकती. यह बात मनुस्मृति के 5वें अध्याय के 148वें श्लोक में लिखी गई है. इस के अलावा मनुस्मृति में दलितों और महिलाओं के बारे में काफीकुछ लिखा गया है जो अकसर विवादों को जन्म देता है.

वैदिक पद्धति और उपनिषदों में कहीं पर भी मंगलसूत्र का जिक्र नहीं है. लेकिन इसे बाद में रूढि़वादी पुजारियों द्वारा पेश किया गया जब हम हिंदू बन गए. इस प्रणाली को पौराणिक पद्धति या पुराणों/ पौराणिक शास्त्रों द्वारा अपनाई गई प्रणाली के रूप में जाना जाता है. हिंदू धर्म के बाद के हिस्से में वैदिक धर्म की उपेक्षा की गई और हिदुओं ने इसे पौराणिक में बदल दिया. हां, विवाह में सात फेरों और सिंदूर का वर्णन जरूर मिलता है.

एक विवाह में बंधे रहने के लिए चूड़ी, सिंदूर और मंगलसूत्र से ज्यादा आपसी सम?ा, प्यार और विश्वास की जरूरत होती है. मंगलसूत्र और चूड़ी जैसी चीजें प्रेम की गारंटी नहीं होतीं. मंगलसूत्र और चूड़ी, सिंदूर पहनना न पहनना एक महिला का खुद का निर्णय होना चाहिए. लेकिन यह बात हाईकोर्ट समझ नहीं पाई और इसे पति के खिलाफ मानसिक क्रूरता की पराकाष्ठा बताते हुए अपना फैसला सुना दिया.

कितनी ही महिलाओं को सिंदूर से एलर्जी और चकत्ते जैसे हो जाते हैं, इसलिए वे इसे मांग में नहीं भरती हैं. पहले सिंदूर हर्बल सामग्री से बनाया जाता था लेकिन आजकल इसे लाल सीसा और पारा के साथ तैयार किया जाता है, जो महिलाओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है. ऐसे सिंदूर लगाने से बाल ?ड़नेकी समस्या, खुजली और इस में मौजूद मरकरी सल्फाइड तत्त्व कैंसर का कारण बन सकते हैं.

इस के अलावा, आज की पढ़ीलिखी एजुकेटेड महिलाएं बड़ीबड़ी कंपनियों में जौब करती हैं, जहां औफिसवियर के साथ मंगलसूत्र और सिंदूर मैच नहीं करता, इसलिए वे इसे नहीं पहनती हैं तो इस का मतलब यह कैसे हो गया कि वे अपने पति को प्रताडि़त कर रही हैं? सच तो यह है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को सिंदूर, चूड़ी, मंगलसूत्र जैसी चीजों में बांध कर रखा गया है लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि तर्क और तथ्य में विश्वास रखने वाली अदालतों का रुख महिलाओं के खिलाफ क्यों है?

अभी हाल ही में एप्पल कंपनी, फौक्सकौन ने भारत की विवाहित महिलाओं को आईफोन में नौकरी देने से मना कर दिया, यह कहते हुए कि शादीशुदा महिलाओं के पास ज्यादा पारिवारिक जिम्मेदारियां होती हैं और शादी के बाद उन के बच्चे होते हैं. विवाहित महिलाओं का ज्वैलरी पहनना भी प्रोडक्शन को प्रभावित कर सकता है. मतलब, महिलाओं की तो कोई मरजी है ही नहीं. वे क्या पहनें, क्या न पहनें, परिवार व सासससुर का ध्यान रखें न रखें, यह तय वे नहीं कोई और करेगा और वे मूकबधिरों की तरह देखती रहेंगी.

भारतीय सनातन परंपरा में जन्म से ले कर मृत्यु तक के बीच 16 संस्कार के विधान हैं. इन 16 संस्कारों में विवाह संस्कार सब से खास माना जाता है. यह 2 परिवारों के लिए उन के निजी उत्सव, उत्साह और समय के साथसाथ संपन्नता को प्रदर्शित करने का भी एक जरिया रहा है. बल्कि, राजामहाराजाओं के युग में तो विवाह संस्कार कूटनीति का भी हिस्सा रहा है. इस के जरिए बिना किसी युद्ध और शक्ति प्रदर्शन के समाज को सांकेतिक भाषा में ही अपनी ताकत का एहसास करा दिया जाता था.

इन में से अधिकांश संस्कारों में औरतों को कमतर ही माना गया है. यज्ञोपवीत संस्कार तो औरतों का होता ही नहीं. विवाह के समय भी अधिकांश संस्कारी रीतिरिवाज औरत को गुलाम सा बनाने वाले ही होते हैं.

भारत का कानून मैरिटल रेप को अपराध नहीं मानता

मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा ही भारतीय समाज को अनुचित लगती है. समाज इस बात को अपने गले ही नहीं उतार पाया कि आखिर पति की मरजी को कोई पत्नी अस्वीकार भी कर सकती है. जहां पत्नी की इच्छा का कोई मतलब ही न हो, वहां इसे अपराध कैसे माना जा सकता है?

शादी का मतलब ही है एक पति का अपनी पत्नी पर पूर्ण अधिकार. ऐसी सोच के दायरे में भारत में अब भी मैरिटल रेप अपराध नहीं माना जाता है. कानून ने पतियों को इस से मुक्त रखा है, जबकि दुनिया के 150 देशों में इसे अपराध मानते हुए कानून बन चुके हैं. जब भी ऐसा मामला भारतीय न्यायालय के सामने आया, संवेदनशीलता बरती गई. लेकिन महिलाओं के दर्द को किसी ने नहीं समझ, न देश ने, न समाज और परिवार ने और न ही देश के कानून ने.  एक अच्छा लोकतंत्र वही होता है जो अपने नागरिकों की समस्याओं को सम?ो. उसे प्रताडि़त होने और रोनेकलपने से पहले ही उस के अधिकार दे दे, जो एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी होता है.

बलात्कारी से करो शादी

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पोक्सो एक्ट के तहत जेल में बंद एक आरोपी को अंतरिम जमानत दे दी ताकि वह शिकायतकर्ता, जिस का उस ने रेप किया था, से शादी कर सके. कोर्ट ने राज्य सरकार की इस दलील के बावजूद आरोपी को जमानत की अनुमति दे दी कि लड़की की अभी शादी की उम्र नहीं हुई है, क्योंकि वह अभी केवल 17 साल की है.

बलात्कार कानून का एक नियम है जिस के तहत बलात्कार, यौन उत्पीड़न, वैधानिक बलात्कार, अपहरण या इसी तरह का कोई अन्य कृत्य करने वाले व्यक्ति को दोषमुक्त कर दिया जाता है यदि वह पीडि़त महिला से विवाह कर लेता है या कुछ अधिकार क्षेत्रों में कम से कम उस से विवाह करने की पेशकश जरूर करता है. ‘बलात्कारी से विवाह करो’ कानून अभियुक्त के लिए अभियोजन या दंड से बचाने का एक कानूनी तरीका है.

‘सहमति से बनाए गए संबंधों के बाद अगर कोई शादी से इनकार कर दे तो इसे रेप नहीं माना जाएगा,’ यह टिप्पणी केरल हाईकोर्ट की है. रेप के आरोप में गिरफ्तार एक वकील की जमानत पर सुनवाई के दौरान जस्टिस बेचू कुरियन थौमस की बैंच ने यह बात कही थी. साथ ही, आरोपी को जमानत भी दे दी थी.

जमानत तो खैर दे देना गलत नहीं अगर पूरी सुनवाई को जमानत का आदेश प्रभावित न करे. सजा तो निर्णय देने के बाद ही मिलती है.

केरल हाईकोर्ट के मामले में महिलावादी लेखिका कविता कृष्णन कहती हैं कि कोर्ट का यह फैसला सही है लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि लड़कियों के साथ गलत नहीं होता. कई बार लड़के बिना बताए दूसरी शादी कर लेते हैं, रिश्ता तोड़ देते हैं या लड़कियों को गलत तरीके से ट्रीट करते हैं. लेकिन रिश्ते में चीटिंग कानूनी मसला नहीं बल्कि सामाजिक और पितृसत्तात्मक नजरिए का मामला है.

विजातीय विवाह पर सवाल

2020 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्याय’ जारी किया गया था. देश में कई अन्य राज्यों की सरकारें भी ऐसे ही भारीभरकम प्रावधानों को लागू करने की प्रक्रिया में हैं. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी विविध बल सीआरवाई, प्रभावशाली, धोखाधड़ी से या विवाह के उद्देश्य से किए जाने वाले किसी भी धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है, साथ ही, इस तरह के विवाह को अवैध घोषित किए जाने का प्रावधान भी करता है और धर्मांतरण के तहत एक गैरजमानती अपराध माना जाता है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धर्मांतरण की प्रवृत्ति को ले कर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि धार्मिक सभाओं में धर्मांतरण की प्रवृत्ति जारी रही तो एक दिन भारत की बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी. इसलिए धर्मांतरण करने वाली धार्मिक सभाओं पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए. यह आदेश न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने हिंदुओं को ईसाई बनाने के आरोपी मौदहा, हमीरपुर के कैलाश की जमानत अर्जी को खारिज करते हुए दिया.

एक उच्च न्यायालय रेप करने के गुनाहगार को जमानत देता है कि वह पीडि़ता से विवाह कर सके, दूसरे उस युवक को जमानत नहीं देता जिस ने विधर्मी से विवाह किया. यह कैसा न्याय है?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक एक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के किसी भी धर्म को स्वीकार करने का अधिकार प्राप्त है. जबकि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाया गया कानून किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के चुनावों में हस्तक्षेप कर के उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है.

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी यह धर्मांतरण निषेध नीति महिलाओं के किसी भी रिश्तेदार को उस के विवाह की वैधता को चुनौती देने की अनुमति देता है यानी पतिपत्नी के संबंधों पर तीसरे बाहरी व्यक्ति को दखल देने का हक. अगर पति को गिरफ्तार कर लिया जाएगा, यह पत्नी क्या घी के दीये जलाएगी?

ऐसी स्थिति में प्रभाव उलटा पड़ेगा जिस के तहत धर्मांतरण और विवाह के लिए महिला की सहमति होने की गवाही को अनदेखा किया जाएगा.

असल में सदियों से पितृसत्तात्मक सोच यह रही है कि महिलाओं को स्वतंत्र नहीं होने देना है. उन्हें नियंत्रण में रखना है. महिलाओं के जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातों पर उन की सहमति जरूरी नहीं मानी जाती है और उन्हें अपने जीवन के निर्णय लेने के अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है.

ऐतिहासिक रूप से विवाह को महिलाओं की कामुकता को नियंत्रण करने, जातिगत जातियों को बढ़ावा देने और महिलाओं को उन की स्वात्यतता का प्रयोग करने से रोकने के लिए एक माध्यम के रूप में देखा जाता रहा है. इस प्रकार के सांप्रदायिक दुष्प्रचार का महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में कोई योगदान नहीं होता है, बल्कि यह उन के पैरों में बेडि़यां डालने का काम करता है.

क्यों आसान नहीं है एक महिला के लिए तलाक लेना

समाज की सोच आज भी उसी ढर्रे पर है जहां महिलाओं को यह समझाइश दी जाती है कि भले ही पति से नहीं बन रही है पर साथ रहो, वरना समाज तुम पर ही थूकेगा. लेकिन बात तो यह है कि महिलाओं को दी गई हर इंच आजादी के लिए खतरा है. लगभग हर समाज के नियम महिलाओं के हितों के विरुद्ध है. अंतर बस इतना है कि कोई नियम ज्यादा खिलाफ है और कोई कम.

हमारे समाज में शादी को उम्रभर के बंधन की तरह देखा जाता है. शादी में हिंसा और उत्पीड़न की वजह से भले ही दरार पड़ने लगे पर महिलाओं को परंपरा के नाम पर बरदाश्त करने की सलाह दी जाती है. मुश्किल शादियों में फंसी महिलाओं से अकसर यह कहा जाता है कि अलग हुए तो समाज क्या कहेगा? परिवार व समाज के दबाव के कारण ही महिलाएं एक असहनीय रिश्ते की गिरफ्त में कैद हो कर घुटघुट कर जीने को मजबूर हो जाती हैं. अगरकोई महिला शादी के बंधन को तोड़ कर तलाक लेने का फैसला लेती है तो समाज उसे ही गलत ठहराने का प्रयास करता है.

मुआवजे बिना गुजारा

तलाक लेने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं होता, क्योंकि उन्हें बहुत कम मेंटिनैंस मिलता है या मिलता ही नहीं है. 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई हुई, जिस में गुजारा भत्ता देने से बचने के लिए पति नामपता बदल कर गायब हो गया. उसे खोजने के लिए बनी पुलिस टीम भी उस का कुछ पता नहीं लगा पाई. तलाक की चाह में पति एलिमनी पर हामी तो भर देते हैं, लेकिन डायवोर्स मिलते ही कहीं गायब हो जाते हैं. वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष भदौरिया कहते हैं कि तलाक के बाद पति गुजारा भत्ता से बचने के लिए तरहतरह के जुगाड़ लगाते हैं.

राजकोट की रहने वाली 52 साल की मीना बेन का कहना है कि उस के 2 युवा बेटे हैं. पति सरकारी जौब में हैं. सबकुछ बढि़या चल रहा था, लेकिन असल में पति का किसी और औरत से चक्कर चल रहा था. जब महिला ने इस बात पर पति से सवाल किया तो वह उखड़ गया और बच्चों को छोड़ कर घर से चला गया. जातेजाते उस ने धोखे से तलाक पेपर पर साइन भी ले लिए. महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. गुजरात हाईकोर्ट ने उस के हक में फैसला भी सुनाया. लेकिन उसे अब तक न्याय नहीं मिला. हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद 14 वर्षों से वह महिला गुजाराभत्ता पाने के लिए लड़ रही है. मीना बेन एकलौती महिला नहीं है जो गुजाराभत्ता के लिए एडि़यां रगड़ रही है. ऐसे ढेरों मामले हैं.

भारत में विवाह समाप्त करना अधिकांश व्यक्तियों के लिए दर्दनाक होता है, लेकिन महिलाओं के लिए यह स्थिति और भी बदतर हो जाती है, जिन्हें समझने की शर्तों को समझना पड़ता है.

मिताली अपनी 11 साल की शादी से ऊब चुकी है. वह कहती है कि पति की ज्यादतियां अब उस की बरदाश्त के बाहर हैं. न तो वह अपने पति से लड़ना चाहती है और न ही उसे उस से कोई गुजाराभत्ता चाहिए. वह, बस, इस अशांत विवाह से बाहर निकलना चाहती है.

हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कुछ व्यक्तिगत कानूनों के तहत पति भी भरणपोषण के लिए क्लेम कर सकता है, लेकिन यह कानून केवल निर्दिष्ट धर्मों से संबंधित व्यक्तियों को भरणपोषण के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है.

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 में भी भरणपोषण का प्रावधान है. यह एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जिस के तहत सभी धर्मों की महिलाएं भरणपोषण के लिए आवेदन कर सकती हैं.

एक वरिष्ठ वकील संध्या राजू का कहना है कि ‘धारा 125 सीआरपीसी का मुख्य उद्देश्य तलाक के बाद महिला को बेसहारा होने से बचाना है. इसलिए जब कोई महिला भरणपोषण के लिए अदालत जाती है तो बहुत उम्मीद के साथ जाती है और अदालत ज्यादातर मामलों में सहायक भी रही है. लेकिन भरणपोषण आदेश का प्रभावी क्रियान्वयन हमेशा उस पुरुष पर निर्भर करता है जिसे भुगतान करना होता है.

तलाक का अधिकार

साल 2020 में टाइम्स ग्रुप के ‘मुंबई मिरर’ के लिए चित्रा सिन्हा की किताब ‘डिबेटिंग पैट्रिआर्की, द हिंदू कोड बिल कंट्रोवर्सी इन इंडिया (1941-1959) पर एक आर्टिकल में लिखा था, जिस में उन्होंने तलाक के अधिकार के लिए महिलाओं का संघर्ष बताया था. ऐसा संघर्ष जो जारी है. वजह है कि भले ही कानून ने महिलाओं को अधिकार दिए हैं लेकिन अदालत की लंबी प्रक्रिया और समाज का दबाव तलाक लेना मुश्किल बना देता है. कठिनाई महिला व पुरुष दोनों के लिए है पर महिलाओं के लिए थोड़ा ज्यादा ही.

यह किताब 1948 में बनाए जा रहे हिंदू कोड बिल पर है जिस में हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार देने की मांग की गई थी. चित्रा सिन्हा की इस किताब पर विरोध के स्वर भी उठे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से बुलाई गई बैठक में एक वक्ता कथित तौर पर बोले थे कि यह बिल हिंदू समाज पर एटम बम है. वहीं एक अखबार के संपादक इस की तुलना विभाजन से करते हैं.

उसी बैठक में बैठे एक नेता कहते हैं कि तलाक के अधिकारों से गरीब का जीवन मुश्किल हो जाएगा. उन्हें अदालत में जाना पड़ेगा और वकील करना पड़ेगा. बाद में जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू विवाह कानून 1955 व हिंदू विरासत कानून 1956 बनवा कर कागजों पर तो औरतों को सजा दी. ये कानून हिंदू धर्मशास्त्रों की नीयत के विरुद्ध थे.

सच तो यही है कि आज भी हमारे भारतीय समाज में महिलाओं के लिए तलाक लेना आसान नहीं है. तलाक के बाद भी एक महिला को ही समाज को जवाब देना पड़ता है, पुरुष को नहीं. यह एक गहरी सोच है कि स्त्री चाहे पद और पैसे में कितनी ही बड़ी क्यों न हो, लेकिन वह रहेगी पुरुष से नीचे ही. अदालतों में वकील, जज, गवाह सब यही कोशिश करते हैं कि किसी तरह आसानी से तलाक न हो पाए.

हमारे समाज में जहां एक लड़के के जन्म पर खुशी मनाई जाती है वहीं एक लड़की के जन्म पर मातम छा जाता है. लड़की के जन्म के बाद उस के बचपन से ही मातापिता पैसे जोड़ने लगते हैं ताकि उसे दूसरे घर भेजा जा सके. उसे शिक्षित करने, कैरियर बनाने या खुद से जीवन जीने से हतोत्साहित करना, उस से कहना कि वह तो पराया धन है और एक दिन यह घर छोड़ कर चली जाएगी आदि सब कह कर मातापिता एक लड़की को बचपन से ही यह एहसास दिला देते हैं कि वह इस घर के लिए पराई अमानत है और बड़ी होने के बाद उसे दूसरे घर जाना है.

लड़की को एक संपत्ति की तरह ट्रीट किया जाता है. जताया जाता है कि वह किसी एक पुरुष की संपत्ति है जिसे शादी के बाद उसे सौंप दिया जाएगा और फिर वह उसे चाहे जैसे इस्तेमाल करे. शादी के बाद एक महिला का कर्तव्य पति की सेवा करना और उस का वंश बढ़ाना मात्र ही रह जाता है. आज भले ही समाज कई चीजों के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा है लेकिन महिलाओं को पुरुष से नीचे रखने की सोच नहीं बदली है. कानूनों में बदलाव क्या हो रहा है. अब यूनिफौर्म सिविल कोड के नाम पर जो कानून बन रहे हैं उन में औरतों को 1955, 1956 और 2005 में दिए गए हकों का क्या किया जा रहा है.

औरतों के प्रति दुराभाव कितना है, यह इस से स्पष्ट होता है कि एमपी हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं है. साथ ही, हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि चूंकि वैवाहिक बलात्कार आईपीसी के तहत अपराध नहीं है, इसलिए पत्नी की सहमति महत्त्वहीन हो जाती है.

जस्टिस गुरपाल सिंह अहलूवालिया की बैंच ने कहा कि यदि एक पत्नी वैध विवाह के दौरान अपने पति के साथ रह रही है तो पति द्वारा अपनी पत्नी (15 साल से ऊपर) के साथ किसी भी प्रकार का यौन संबंध बलात्कार नहीं होगा. बता दें कि अक्तूबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपैंडैंट थौट बनाम यूनियन औफ इंडियन (2017) के फैसले में नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में लाने के लिए धारा 375 के अपवाद 2 में उम्र को 18 साल के बजाय 15 साल कर दिया था.

बालविवाह अब भी जारी

बालविवाह को ले कर सरकार ने भले ही सख्त कानून बनाए हों और सजा का प्रावधान भी रखा हो लेकिन बालविवाह आज भी बेरोकटोक जारी है. जिस उम्र में लड़कियां पढ़नेलिखने और जिंदगी में कुछ कर गुजरने के सपने देखती हैं, उस नाजुक उम्र में लड़कियों की शादी उस से बड़े उम्र के पुरुष से करा दी जाती है और फिर उसे बच्चे पैदा करने को मजबूर किया जाता है. लेकिन लोग छोटी उम्र में मां बनाने के जोखिम को समझ नहीं पाते हैं.

एक टीवी चैनल ने उन इलाकों का रुख किया जहां औरतों की शादी होते ही उन्हें बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझ जाता. उम्र 16 की हो या 18 की, शादी के 9 महीने बाद से उसे मां बनाने के लिए मजबूर किया जाने लगता है और अगर किसी कारणवश लड़की मां नहीं बन पाती है तो उस के साथ मारपिटाई शुरू हो जाती है. धमकी दी जाती है कि अगर वह मां नहीं बनी तो उस की शादी टूट जाएगी और इसी डर से लड़कियां कम उम्र में मां बनने को मजबूर हो जाती हैं, यह सोच कर कि कहीं उस की शादी न टूट जाए, पति उसे घर से न निकाल दे.

सीमा की शादी 15 साल की उम्र में कर दी गई और शादी के अगले साल यानी 16 साल की उम्र में उस के पेट में बच्चा आ गया. लेकिन वह बच्चा उस के पेट में ठहर नहीं पाया. ऐसे कर के 5 बार उस का मिसकैरेज हो चुका है. वह कहती है कि अब उस का शरीर पहले जैसा नहीं रहा, काफी कमजोर हो चुका है. लेकिन फिर भी उसे मां बनना है नहीं तो उस का पति उसे छोड़ देगा. यह कहते हुए उस की आंखों से आंसू ढलक पड़ते हैं.

20 साल की सावित्री की शादी को 4 साल हो चुके हैं लेकिन अब तक वह मां नहीं बन पाई है. वह अपना इलाज किसी डाक्टर से न करवा कर एक तांत्रिक से झाड़फूंक करवा रही है ताकि वह मां बन सके और उस का पहला बच्चा बेटा ही पैदा हो क्योंकि उस की सास और पति ऐसा चाहते हैं.

मन से डरपोक

यूपी के एक गांव की रहने वाली मालती की शादी को 9 साल हो चुके हैं. वह कहती है कि शादी के एक साल बाद से ही ताने शुरू हो गए कि अब तक वह पेट से क्यों नहीं हुई. जैसेजैसे साल आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे पति का अत्याचार भी बढ़ता चला गया. शराब के नशे में चूर पति उसे इस बात की धमकी देता था कि अगर वह उसे बच्चा नहीं दे सकती तो उसे धक्के मार कर इस घर से बाहर निकाल देगा और दूसरी शादी कर लेगा. तबीयत खराब में भी पति उसे इलाज के लिए पैसे नहीं देता था. एक दिन तंग आ कर वह खुद ही ससुराल छोड़ आई और मायके में रहने लगी. लेकिन यहां भी भाईभाभी उसे देखना नहीं चाहते, कहते हैं कि वह वापस ससुराल चली जाए. लेकिन मालती अब किसी भी हालत में अपने पति के पास नहीं  जाना चाहती है.

रिलेशनशिप एक्सपर्ट डाक्टर गीतांजलि शर्मा का कहना है कि लंबे समय से घरेलू हिंसा झेल रही महिलाएं मन से डरपोक हो चुकी होती है. उन्हें हर वक्त इस बात का डर लगा रहता है कि घर आने पर पति उसे मारेगापीटेगा तो नहीं?

मालती अपने पति से अलग हो चुकी है और वह अब अपने मायके में रहती है पर यहां भी उसे भाईभाभी के तानोंउलाहनों से गुजरना पड़ता है जो उसे मानसिक कष्ट देता है. मालती जानती है कि बापदादा की अर्जित संपत्ति में उस का भी बराबर का अधिकार है पर वह बोलने से डरती है कि कहीं यहां से भी मां, भाईभाभी ने उसे निकाल दिया तो फिर वह कहां जाएगी.

हिंदू विरासत कानून के तहत कांग्रेस काल में 2005 में हुए संशोधन के बाद बेटियों को बेटों के बराबर ही पैतृक संपत्ति के अधिकार हैं. लेकिन फिर भी महिलाएं अपने अधिकार से वंचित हैं तो इसलिए कहीं उस के ऐसा करने से मायके से उस का रिश्ता न टूट जाए.

45 साल की गोदावरी कहती है कि उस ने केवल अपने बापदादा की संपत्ति में हिस्से की बात की और भाइयों ने उस का फोन नंबर ब्लौक कर दिया. अगर लड़झगड़ कर संपत्ति ले लेती तो शायद वे लोग उस की जान ही ले लेते. कानून के दिए अधिकार को ले कर वह कहती है कि वह सब सिर्फ कागजों में ही सिमट कर रह गए हैं. अगर सच में कानून बेटियों को उस के अधिकार दिला पाते तो मानते.

इस पुरुषसत्तात्मक समाज में अजीबोगरीब तर्क दे कर महिलाओं को उन के अधिकार से वंचित रखने की कुचेष्टा की जाती रही है. बात चाहे पैतृक संपत्ति में अपने अधिकार की हो, सवैतनिक मातृत्व अवकाश की हो, कार्यस्थल पर नवजात शिशु की देखभाल की हो या समान वेतन की हो, महिलाओं को हर जगह वंचित रखा गया है.

देखा जाए तो आजादी के इतने सालों बाद भी देश की आधी आबादी अभी भी गुलाम है. वह अपने अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष कर रही है. वैश्विक महामारी कोरोना ने इन के संघर्षों को और बढ़ा दिया था. यह कहना गलत नहीं होगा कि पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति हमेशा हाशिए पर रही है. महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे इस सत्य को झुठलाते नजर आते हैं कि महिलाओं को पूरी तरह से पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं. सचाई यह है कि अपने छोटेबड़े अधिकार के लिए महिलाओं को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और यह भी जरूरी नहीं है कि वहां उन्हें न्याय मिल ही जाए.

वहीं, यह भी सच है कि पहले के मुकाबले आज कहीं ज्यादा बच्चियां शिक्षा पा रही हैं, बालविवाह और खतना जैसी कुप्रथाओं में गिरावट आई है. महिला स्वास्थ्य की दिशा में प्रगति हुई है जिस की वजह से महिलाओं की औसत उम्र में इजाफा हुआ है. इसी तरह बच्चों को जन्म देते समय महिलाओं की होने वाली मौतों की दरों में भी गिरावट आई है. अब पहले से ज्यादा महिलाएं संसद पहुंच रही हैं. उन के खिलाफ होने वाली हिंसा पर लोग बोलने लगे हैं. महिला श्रमिकों के अधिकारों में भी बढ़ोतरी हुई है. 155 देशों में अब घरेलू हिंसा कानून हैं. 140 देशों के पास कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न से जुड़े कानून हैं.

इस सब के बावजूद महिलाओं और पुरुषों के बीच असमानता की जो खाई है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. उन के बीच इस गहरी खाई को भरने में सदियों लग जाएंगे. भले ही हम ने विकास के कितने ही पायदान चढ़ लिए हों, लेकिन आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिल पाया है. महिलाएं आज भी रोजगार, आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्रों में पुरुषों से पीछे हैं.

लेकिन देश और कानून को यह बात सम?ानी होगी कि समाज को महिलाओं के अनुकूल बनाए बिना हम सभ्य नहीं कहलाए जा सकते. सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं, लेकिन उस का असर अभी दिख नहीं रहा है.

चीन के राजनीतिक विचारक माओत्से तुंग ने एक बार कहा था कि ‘आधा आकाश महिलाओं का है’ लेकिन महिलाओं की स्थिति को देख कर लगता है कि न तो उन की धरती आधी है और न ही आधा आकाश.

महिला अधिकारों की रक्षा की जंग केवल महिलाओं के लिए नहीं, बल्कि समाज के विकास के लिए भी जरूरी है, यह बात देश के कानून, सरकार और समाज को समझनी होगी, तभी असल में देश का विकास होगा.

महंगा इंसाफ और लंबा इंतजार

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके आर सी लाहोटी ने अपने विदाई भाषण में कहा था, ‘‘मैं ने देश की सर्वोच्च अदालत की प्रमुख कुरसी पर बैठ कर यह नजारा देखा है कि यहां एक गरीब, आम इंसान को इंसाफ मिलना तो दूर की बात है, अगर वह अदालत की चौखट तक भी पहुंच जाए, यही बहुत बड़ी बात है. क्योंकि न्याय मिलना भी अब इतना महंगा हो चुका है जिस के बारे में कभी सोचा तक नहीं था. इसलिए आज मेरी आंखें नम हैं क्योंकि मैं चाहते हुए भी देश की न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए बहुतकुछ नहीं कर पाया.’’

देश के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने वर्षों पहले लिखा था कि ‘न्याय वह है जो दूध का दूध और पानी का पानी कर दे. यह नहीं कि खुद कागजों के धोखे में आ जाए और खुद ही पाखंडियों के जाल में फंस जाए.’

दुनिया के तमाम बड़े कानूनविदों ने कहा है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए. लेकिन, देरी से मिलने वाला न्याय एक नए जुर्म की जमीन तैयार करता है.

कानूनी अधिकारों से वंचित महिलाएं

वर्ल्ड बैंक ने कुछ समय पहले दुनिया के प्रमुख 187 देशों में कुछ 35 पैमानों के आधार पर एक सूची तैयार की. इस में संपत्ति के अधिकार, नौकरी की सुरक्षा व पैंशन पौलिसी, विरासत में मिलने वाली चीजें, शादी संबंधित नियम, यात्रा के दौरान सुरक्षा, निजी सुरक्षा, कमाई आदि आधार पर जब आंकड़े जुटाए तो पता चला कि दुनिया में केवल कुछ देश ही ऐसे हैं जहां वाकई महिलाओं को उन के अधिकार प्राप्त हैं. हालांकि एकदो दशकों पहले महिलाओं को बराबरी का दर्जा किसी भी देश में नहीं था, यानी यह संख्या शून्य थी. लेकिन बीते सालों में इस में प्रगति हुई. बराबरी के 35 मानदंडों पर खरा उतरने वाले कुछ देश ही हैं. लेकिन भारत नहीं है.

वर्ल्ड बैंक की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 240 करोड़ महिलाएं पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं. पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपने कानूनी अधिकारों का बमुश्किल 77 फीसदी ही लाभ ले पाती हैं.

यह बात हमारे देश के लिए सचमुच ही शोचनीय है कि जिसे हम जननी कहते हैं, पूजनीय कहते हैं और जिसे देवी का दर्जा मिला हुआ है, उसी देश की महिलाओं को अपने हक के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है और वहां उन्हें ज्यादातर निराशा ही हाथ लग रही है.

 

सुप्रीम कोर्ट और सरोगेसी एक्ट

भाजपा सरकार ने सरोगसी (रैगुलेशन) एक्ट 2021 बना व इस के अंतर्गत 2022 व 2023 में कठिन नियम बना कर सरोगेसी की मैडिकल साइंस का फायदा औरतों को न मिल सके, इस का पक्का इंतजाम कर डाला है. मातृ सुख न पा सकने योग्य औरतें अब किराए की कोख आसानी से नहीं पा सकतीं. एबीसी बनाम यूनियन औफ इंडिया मुकदमे में 4-5 औरतों, जिन्हें मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हाउसर नाम की बीमारी थी, को 2022 में सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंचना पड़ा और बड़े बेमन से अक्तूबर 2023 में उन में से 1 को सरोगेसी करवाने की इजाजत मिली.

नए कानून के अनुसार सरोगेट मदर केवल जेनेटिकली रिश्तेदार महिला हो सकती है. इस मामले में आवेदक महिलाओं को 22-23 वकील खड़े करने पड़े थे, तब भी फैसला कम से कम एक साल बाद हुआ.

अभी भी सरोगेसी एक्ट के तहत औरतों का अपने शरीर पर हक है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है. औरतों की कोख पर हक पति का है, सरकार का है, कानून का है, वकीलों का है, औरतों का नहीं.

 

Emotional Story : नीची जाति की लड़की बंतो

रोजीरोटी की तलाश में लोग गांव से शहर चले जाते हैं. लेकिन वहां भी तो धक्के हैं. दिनरात एक करने पड़ते हैं, फिर क्यों न गांव में अपने बुजुर्गों की जमीन को संवारा जाए. बस जज्बा चाहिए जो निन्दी फौजी में था.

 

 

मैं जब गांव के रेलवे स्टेशन पर उतरा तो शाम होने वाली थी. पश्चिम का पथिक अपनी यात्रा समाप्त कर रहा था. मैं जानता था इस समय कोई सवारी नहीं मिलेगी, इसलिए रेलवे लाइन के किनारेकिनारे गांव की ओर चल पड़ा. कोई एक किलोमीटर आगे चल कर गांव की ओर रास्ता मुड़ता है. वहां तक पहुंचतेपहुंचते काफी अंधेरा हो गया था. सर्दी में वैसे भी जल्दी अंधेरा हो जाता है. सिर को सर्दी लग रही थी. उसे मैं ने कैप से ढक लिया था.

 

मेरे गांव के रास्ते में केवल एक ही गांव था. उसे पार करते ही रास्ता सुनसान हो गया था. रास्ते के दोनों ओर गेहूं के खेत लहलहा रहे थे. मैं उस की खुशबू से सराबोर हो रहा था. इस खुशबू के मोह से मैं कभी मुक्त नहीं हो पाया था. रास्ता जानापहचाना था, इसलिए मन के भीतर किसी तरह का डर नहीं था. दूर से गांव की बत्तियां दिखाई देने लगी थीं. मैं जल्दीजल्दी बढ़ने लगा.

 

गांव में बाहर के पीपल के पास बहुत सी दुकानें खुल गई थीं. उन में एक ढाबा भी था. घर में जाते ही रोटी का प्रबंध करना पड़ेगा, मैं ने ढाबे वाले से पूछा, ‘‘ढाबा कितने बजे तक खुला रहता है?’’

 

वहां बैठे लड़के ने कहा, ‘‘10 बजे तक जी.’’

 

‘‘ठीक है, मैं सामान घर में रख कर आता हूं.’’

 

यहां गांव के घर में मेरा अपना कोई नहीं रहता था. बाऊजी का बनाया मकान मेरे हिस्से आया था. मैं ने इसे सर्विस में रहते अपने ढंग से मौडर्न और सुविधासंपन्न बनवा लिया था. गांव में मेरा अपना कोई नहीं था. सभी अपने हिस्से की जमीन बेच कर शहरों में बस गए थे. अपने हिस्से की जमीन को फसल के लिए मैं ने पड़ोसी प्रकाश भाजी को दे दी थी. उसे जमीन बेची नहीं थी. केवल फसल लगाने के लिए दी थी. वह उस में से मेरी फसल का हिस्सा मकान में रखे स्टील के 2 बड़े ड्रमों में रखता रहता था. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी. केवल घर को व्यवस्थित करना था.

 

 

मैं ने डुपलीकेट चाबी से घर का दरवाजा खोला. लाइट जला दी. टंकी में पानी भर जाए, मोटर भी चला दी. फ्रैश हो कर नहाया, कपड़े पहने और ढाबे पर खाने के लिए आ गया.

 

ढाबे वाले लड़के से मैं ने पूछा, ‘‘देसी घी रखते हो?’’

 

‘‘हां बाबूजी, सारा खाना देसी घी से बनता है.’’

 

‘‘दाल में अच्छी तरह तड़का लगाओ. तवा रोटी मिलेगी?’’

 

‘‘हां जी, बिलकुल मिलेगी.’’

 

‘‘बस, दाल और गरमगरम रोटी देते जाओ जब तक मैं मना न कर दूं.’’

 

बहुत भूख थी. दाल भी बहुत टेस्टी थी. पता नहीं मैं कितनी रोटी खा गया. पैसे दे कर जाने लगा तो लड़के ने पूछा, ‘‘बाऊजी, आप इसी गांव के रहने वाले हैं?’’

 

‘‘हां भई, मैं अमृतसर वाले बाऊजी का बेटा हूं.’’

 

‘‘ओह, तुस्सी निन्दीजी हो. मैं तुहाडे बारे सिर्फ इतना जानता हूं कि तुस्सी फौजी अफसर हो.’’

 

‘‘फौजी अफसर था. अब पैंशन पर आ गया हूं.’’

 

‘‘मेरे बाऊजी कहा करते थे, फौजी हमेशा फौजी रहते हैं.’’

 

‘‘हां, तुम किस के बेटे हो?’’

 

‘‘मैं चौधरी तिलक राम का बेटा हूं.’’

 

‘‘तिलक को मैं जानता हूं. वे भी फौजी थे.’’

 

‘‘हां जी, पिछले साल उन की मौत हो गई.’’

 

‘‘ओह, अफसोस हुआ सुन कर. मौत कैसे हुई?’’

 

‘‘खेत में काम कर रहे थे, दिल का दौरा पड़ा और उसी टाइम चोला छोड़ गए.’’

 

‘‘ओह, पिता का जाना बहुत दुखदायी होता है. अब खेत कौन संभालता है?’’

 

‘‘हां जी, सर. खेत का काम हम ही संभालते हैं. मैं ढाबा खोलने से पहले उन्हें काम बता आता हूं, जी. जब घर वाली घर का काम समेट कर ढाबे पर आती है तो मैं खेतों में चक्कर मार आता हूं, जी.’’

 

‘‘यह अच्छा किया. ढाबा खोल लिया. सिर्फ घर की फसल से गुजारे कहां होते हैं.  अच्छा, यह बताओ कि घर की साफसफाई और खाना बनाने के लिए कोई औरत मिलेगी?’’

 

‘‘हां जी, बंतो है न. बहुत साफसुथरी औरत है पर नीच जाति की होने के कारण कोई उसे काम नहीं देता और उस के भाईभाभी कुत्ते की तरह रोटी डालते हैं.’’

 

‘‘उसे तुम मेरे पास भेज दो. मैं कल सुबह नाश्ता उस के हाथ का करना चाहूंगा.’’

 

‘‘चंगा जी. मैं रात को ही उसे बोल दूंगा, जी.’’

 

मैं घर लौट आया और सो गया.

 

सुबह जब मैं सैर कर के लौटा तो एक दुबलीपतली औरत दरवाजे पर बैठी थी. मैं समझ गया कि यही बंतो है. मैं ने बचपन में उसे देखा था. वह स्कूल जाया करती थी. कोई उसे साइकिल पर नहीं बैठाता था. मैं उसे बैठाता था और कहता था, ‘तुम मेरी साइकिल पर बैठो.’ वह झिझक कर कहती, ‘नहीं, गंदी हो जाएगी.’

 

‘मैं कहता, ‘कहीं गंदी नहीं होती, तुम बैठो.’ वह बैठ जाती.

 

स्कूल पहुंच कर मैं उस से कहता, ‘देखो, कहीं गंदी हुई है. वैसे ही चमक रही है.’ वह मुसकरा कर भाग जाती थी. आज उसे फटेहाल देख कर दुख हुआ. मैं उसे पहचान ही नहीं पाया था. स्कूल जाने का सिलसिला भी 8वीं तक चला था, फिर वह स्कूल नहीं जा पाई थी. मांबाप गुजर गए थे. भाईभाभी कहां पढ़ाते हैं. उन्होंने तो उस का ब्याह भी नहीं किया था. शायद गरीबी के कारण या दहेज के कारण.

 

मैं ने दरवाजा खोला और उसे अंदर आने के लिए कहा. उस ने मुझे नमस्ते की और कहा, ‘‘पहले मुझे पूरे घर की सफाई करनी है. तुस्सी थोड़ा बाहर ठहरो?’’

 

‘‘ठीक है, मु?ो रसोई के लिए बहुत सी चीजें लानी हैं, मैं तरलोके की दुकान से ले कर आता हूं. अंदर की अलमारी में मेरी पत्नी के बहुत से सूट पड़े हैं. वह तो रही नहीं. साफसफाई कर के जो पसंद हो, पहन लेना.’’

 

मैं उस से यह कह नहीं पाया कि तुम्हारा सूट जगहजगह फटा हुआ है. स्वैटर की हालत भी ठीक नहीं है जिसे वह अपनी चुन्नी से छिपाने की भरसक कोशिश कर रही थी.

 

मैं वहां से तरलोके की दुकान पर चला आया. चाय से ले कर दालें तक लेने में मुझे 2 घंटे लग गए. तरलोके के एक लड़के ने सारा सामान घर पहुंचा दिया था.

 

 

पैसे दे कर जब मैं घर आया तो पूरा घर चमक रहा था. बंतो ने कौटन का हलके पीले रंग का सूट पहना था. पत्नी का हलके भूरे रंग का एक स्वैटर भी पहन रखा था. वह नहा कर किचन में आई थी. उम्र होने पर भी वह सुंदर लग रही थी. कोई उसे नीच जाति की नहीं कह सकता था. यह मानसिकता आज भी गांवों में और शहरों में भी विद्यमान है. उन्हें कमीन समढ और कहा जाता है चाहे वे कितने ही बड़े पद पर हों.

 

उस ने शैंपू से बाल धो कर खुले छोड़ दिए थे. चेहरा कमजोर होने पर भी उस के बाल कईकई घटाएं बना रहे थे. खिड़की से आ रही हवा से कई जुल्फें उस के चेहरे को ढक जाती थीं जिन्हें वह बारबार हटा रही थी. शायद पहली बार वह इतनी अच्छी तरह नहाई थी. खुद को सहज महसूस कर रही थी.

 

मैं ने कहा, ‘‘खिड़की थोड़ा कम खोलोगी तो लहराते बाल चेहरे पर आ कर आप को तंग नहीं करेंगे.’’

 

उस ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं. धूप आ रही है. ठंडीठंडी हवा अच्छी लग लग रही है. हवा से बाल भी सूख जाएंगे.’’

 

मैं ने फिर कुछ नहीं कहा. सारा सामान किचन में रखा था. दूध जाटों के घर से आ गया था. एक पतीले में उस ने गरम करने को रख दिया था. मैं चाय बनाने के लिए कह कर कमरे में आ गया था. कुछ देर बाद वह चाय ले कर आई बड़े मग में. चाय बहुत टेस्टी थी.

 

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मैं ज्यादा चाय पीता हूं.’’

 

‘‘पंचायत के टीवी में देखा था कि फौजी बड़ेबड़े मगों में चाय पीते हैं.’’

 

वह एक तरफ जमीन पर बैठ गई थी. मैं ने कहा, ‘‘ऊपर स्टूल पर बैठो.’’

 

उस ने सिर झुका कर कहा, ‘‘मेरी जगह यहीं है. मैं यहीं ठीक हूं.’’

 

मैं ने जोर नहीं दिया. पहला दिन था. जोर देता तो जाने वह क्या सोचती. वर्षों से वह उपेक्षित रही थी.

 

बैठ कर वह बोली, ‘‘मुझे किचन के लिए प्रैशरकुकर, कुछ बरतन और फिनायल, दालें रखने के लिए डब्बे आदि चाहिए. मैं ने लिस्ट बनाई है. यहां नहीं मिलेंगे. पठानकोट या दीनानगर में मिलेंगे.’’

 

मैं उस की बात का कुछ जवाब देता, बाहर से किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई. बंतो ने दरवाजा खोला. आ कर कहा, ‘‘आप के सामान का ट्रक आया है.’’

 

‘‘ओह, अच्छा हुआ. उस में मेरी कार भी है. मैं पठानकोट से सारा सामान कार में ले आऊंगा. तुम चलोगी मेरे साथ और भी कुछ याद आएगा तो ले आएंगे.’’

 

बंतो ने कोई जवाब नहीं दिया. केवल इतना पूछा, ‘‘शाह वेला यानी नाश्ते में क्या खाएंगे?’’

 

मैं ने कहा, ‘‘अपने लिए और मेरे लिए परांठें बना लो. अचार के साथ खा लेंगे. साथ में चाय हो जाएगी.’’

 

 

आधे घंटे में ही मजदूरों ने सारा सामान अनलोड कर दिया. कार को बाहर अनलोड कर दिया. एक मजदूर ने उस ट्रक में रखा पैट्रोल भी डाल दिया और सफाई कर दी. मैं ने उन्हें बैलेंस पैसे दे दिए. वे खुश हो कर चले गए.

 

नाश्ता कर के हम पठानकोट के लिए निकले. कार में बंतो मेरे साथ नहीं बैठी. वह पिछली सीट पर बैठी. मुझे बहुत अच्छा लगा. उसे अपनी और मेरी इज्जत की फिक्र है. मैं मुसकराया और कहा, ‘‘पीछे बैठी तुम मालकिन लगती हो और मैं तुम्हारा ड्राइवर.’’

 

बहुत देर तक वह चुप रही थी. फिर बोली, ‘‘ऐसी बात नहीं है, जी. मैं आप के साथ बैठी तो गांव के लोग तरहतरह की बातें करने लगेंगे. मेरा तो कुछ नहीं. मुझे तो बातें सुनने की आदत है लेकिन आप की इज्जत का सवाल है.’’

 

थोड़ी देर बाद फिर वह फिर बोली. ‘‘मुझे तो बहुत गंदीगंदी बातें कही जाती हैं. मेरी मां सरदारों के घरों में काम करती थी. मेरे घर में सभी काले थे. मैं गोरी पैदा हुई तो सभी कहने लगे कि यह तो सरदारों की सट है. मेरी मां लाख सफाई देती मर गई लेकिन किसी ने नहीं माना.’’

 

फिर हम दोनों कुछ नहीं बोल पाए थे.

 

पठानकोट मिलिट्री कैंटीन से काफी सामान मिल गया. प्रैशरकुकर, फ्राईपैन, साबुन, तेल, बिस्कुट, शैंपू, टूथपेस्ट, वाशिंग पाउडर, शेविंग क्रीम, दालें रखने के लिए प्लास्टिक के डब्बे, बरतन धोने का साबुन वहीं से मिल गया. कुछ बड़े पतीले और कड़ाही चाहिए थी. वे पठानकोट के बरतन बाजार से ले लिए.

 

सब लेते दोपहर के 3 बज गए थे. मैं ने कहा, ‘‘अब जा कर खाना कहां बनाओगी. यहीं अच्छे ढाबे में खाना खा लेते हैं.’’

 

 

हम गुलशन ढाबे में गए. दालफ्राई और तवा रोटी का और्डर किया. वेटर ने कहा, ‘‘सर, तवा रोटी तो नहीं मिलेगी, तंदूरी रोटी मिलेगी.’’

 

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है. लेकिन मक्खन अच्छी तरह लगाना और खाने में नरम हो.’’

 

सच में खाना बहुत टेस्टी था. मैं ने और बंतो ने पेटभर खाया. बंतो के चेहरे पर बहुत प्यारी मुसकान थी. पेटभर खाने का सुख क्या होता है, शायद उस ने पहली बार महसूस किया था. नहीं तो दुत्कारों के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं मिला था. मेरे साथ चलते हुए लगती ही नहीं थी कि वह मेरी नौकरानी है और नीच जाति की है.

 

घर पहुंच कर बंतो किचन संभालने में लग गई. मैं अपने कमरे में आ गया. मैं ने 2 ऐप्लिकेशन लिखीं. एक गांव के सरपंच के लिए, दूसरी पुलिस थाने के एसएचओ के लिए. पहले मैं सरपंच साहब के पास गया. वह एक यंग लड़का था. मैं ने अपना परिचय दिया तो उठ कर उन्होंने मेरा स्वागत किया. मैं ने ऐप्लिकेशन दी तो पढ़ कर उन्होंने कहा, ‘‘आप ने बहुत अच्छा काम किया है. नीच जाति के कारण कोई उसे काम नहीं देता था. भाईभाभी भी कब तक रोटी देते. बेचारी भूखी इधरउधर से खाना मांग कर खाती थी. कोई खाना देता था, कोई दुत्कार देता था. गांव के लोग छोटे विचारों के होते हैं. कई बहुतकुछ बोलेंगे. आप चिंता न करें, मैं संभाल लूंगा. यह दूसरी एप्लिकेशन किस के लिए है?

 

‘‘यहां के एसएचओ के लिए. कृपया डुप्लीकेट कौपी पर आप इस की रसीद दे दें.’’

 

सरपंच साहब ने स्टैंप लगा कर रसीद दे दी. वहां से मैं सीधे थाने गया. बाहर एक सिपाही खड़ा था. मैं ने कहा, ‘‘मु?ो एसएचओ साहब से मिलना है.’’

 

‘‘इस परची पर अपना नाम और गांव लिख कर दे दें. जैसे ही बुलाएंगे, मैं आप को अंदर भेज दूंगा.’’

 

मैं ने परची लिख कर दे दी. वहां रखी कुरसी पर बैठ गया. थोड़ी देर बाद एसएचओ साहब खुद बाहर आए. मु?ो सैल्यूट कर के अंदर ले गए. सिपाही से कहा, ‘‘जब भी ये साहब आएं, इन्हें तुरंत मेरे पास अंदर भेजना. चाहे मैं कितना ही व्यस्त क्यों न होऊं.’’ मेरे लिए चाय मंगवाई, फिर पूछा, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

 

 

मैं ने उन्हें एप्लिकेशन दी और सरपंच को दी ऐप्लिकेशन भी दिखाई. एसएचओ साहब ने पढ़ी और कहा, ‘‘आप ने बहुत नेक काम किया है. यह ऐप्लिकेशन पुलिस कमिश्नर, पठानकोट के नाम से लिखें, कौपी टू मी. हम इसे निर्धारित प्रणाली द्वारा कमिश्नर साहब को भेजेंगे. एक कौपी आप को देंगे. कमिश्नर साहब के औफिस से अथौरिटी के रूप में एक कौपी आप को, एक कौपी ब्लौक डैवलपमैंट अफसर को, एक कौपी पंचायत को, एक कौपी हमें दी जाएगी. हम आप की और लड़की की सुरक्षा भी करेंगे.’’

 

मैं ने उन का धन्यवाद किया और ऐप्लिकेशन लिख कर रसीद ले ली. 15 दिनों में मु?ो सब की ओर से, जिन्हें मैं ने ऐड्रैस किया था, परमिशन का जवाब भी आ गया.

 

बंतो ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है, निन्दीजी?’’

 

मैं ने उसे सब सम?ाया. वह बोली, ‘‘यह आप ने अच्छा किया. बातें होने भी लगी थीं. सब से ज्यादा बातें करने वाले मेरे भाईभाभी थे. अब सब के मुंह बंद हो जाएंगे. तभी 2 दिन पहले दरोगाजी मेरे भाई को डांट गए थे. एक कमरा जिस में मैं रह रही थी, मुझे दिला गए थे. उस कमरे में भाईभाभी का कोई हक नहीं रहेगा. मु?ा से कह गए थे कि ये तग करें या और कोई भी तंग करे तो मैं आप को बताऊं. हम तुरंत ऐक्शन लेंगे. उस के बाद सब जगह शांति है.’’

 

‘‘गांव के लोग बहुत छोटे विचारों के होते है, इसलिए मैं ने यह कार्रवाई की. अब तुम यह घर संभालो. मैं तुम्हें हर महीने 5 हजार रुपए दूंगा. खाना आप मेरे यहां खाएंगी. सारा काम कर के तुम अपने कमरे में जा कर रहोगी. पहनने के लिए मेरी पत्नी के सूट बहुत हैं.’’

 

‘‘एक बात है निंदीजी, मैं भाभीजी के सूट पहनना नहीं चाहती. उन में आप की यादें छिपी हैं.मुझे अगर आप 2 हजार रुपए एडवांस दे दें तो मैं अपने लिए सूट बनवा लूंगी.’’

 

मैं ने उसे गौर से देखा. उस की आंखों में मेरी पत्नी के लिए सम्मान था. इस से उस के सात्विक चरित्र का भी पता चलता था. मैं ने उसे 2 हजार रुपए दे दिए. तीसरे दिन जब वह काम करने आई तो उस ने नया सूट पहना हुआ था. एक संभ्रांत घराने की महिला लग रही थी. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था. गोरा रंग और गोरा हो गया था. बाल बड़ी सफाई से बांध रखे थे.

 

मैं उसे देख कर मुसकराया. उसे लगा शायद वह अच्छी नहीं लग रही है. पूछा, ‘‘क्या मैं अच्छी नहीं लग रही हूं?’’

 

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. मैं इसलिए मुसकरा रहा था कि तुम बहुत सुंदर लग रही हो. ऐसे ही बन कर रहना.’’

 

‘‘जी,’’ कह कर वह किचन में चली गई थी. आज नाश्ते में उस ने आलू के परांठे बनाए थे. परांठे दे कर वह बोली, ‘‘जाटों के घर से ताजी लस्सी आई है, दे दूं?’’

 

‘‘हां, दे दो.’’

 

‘‘लस्सी में खंड डालूं या नमक?’’

 

‘‘नमक तो परांठों में है. खंड डाल ले. लस्सी अपने लिए भी रख लेना.’’

 

दो परांठे खा कर मजा आ गया. परांठे और लस्सी बिलकुल वैसी ही थी जैसे मेरी पत्नी शन्नो बनाती थी. मैं बाहर जाने लगा तो बंतो ने पूछा, ‘‘दोपहर के लिए क्या बनेगा?’’

 

मैं ने कहा, ‘‘मैं सबकुछ खा लेता हूं लेकिन मुझे दाल, चावल और महानी बहुत पसंद हैं. महानी ज्यादा खट्टा न हो.’’

 

‘‘जी.’’

 

वह किचन में जाने लगी तो मैं ने कहा, ‘‘मैं प्रकाश भाजी के पास जा रहा हूं. जो हमारी हवेली थी वह उस के पास है. मैं उसे खरीद लूंगा. कार और ट्रैक्टर वहां पार्क हो जाएंगे.’’

 

‘‘जी, लेकिन टै्रक्टर तो है नहीं आप के पास?’’ बंतो ने कहा.

 

‘‘आने वाला है.’’

 

‘‘इतनी जमीन नहीं है आप के पास कि ट्रैक्टर लें.’’

 

‘‘हो जाएगी. मैं शरीकों की बेची अपनी सारी जमीन खरीद लूंगा या दूसरे के खेतों में पैसे ले कर ट्रैक्टर चलाऊंगा.’’

 

बंतो मुसकरा कर किचन में चली गई. शायद सोच रही हो कि पैसा कमाने के साधन भी ढूंढ़ लिए.

 

 

प्रकाश भाजी से बात हो गई. उन्हें लड़की की शादी करनी थी. पैसों की जरूरत थी. मैं ने पैसे दे कर रजिस्ट्री करवा ली. कार वहां पार्क कर के ताला लगा दिया. दो दिनों में टै्रक्टर भी आ गया. धीरेधीरे मैं ने शरीकों की बेची सारी जमीन ले ली. उस में पट्टी वाले आम का खेत भी था. काम बढ़ने लगा तो मैं ने कई कामवाले रख लिए जो बाहर मजदूरी करने जाते थे. उन में बंतो का भाई भी था. गांव में बंतो के बारे में सब से ज्यादा बातें करने वाला वही था. मेरे यहां काम करने से उस की बोलती बंद हो गई थी.

 

बंतो कहने लगी, ‘‘मागी का मेला लगने वाला है. वहां से एक अच्छी भैंस ले आएं. घर का दूध, घी और देसी खाद हो जाएगी.’’

 

‘‘नहीं, अभी नहीं. जाटों के घर की आमदन रुक जाएगी. अभी दूध वहीं से आने दो. देसी घी तो कैंटीन से मिल जाता है. देसी खाद फार्महाउस से मिल जाती है.’’

 

पट्टी वाला आम के पास सारे खेत खरीदने से वह एक बहुत बड़ा खेत बन गया था. बस, उसे फेंस करवाने की जरूरत थी. दूसरे, वहीं ट्यूबवेल लगाने का विचार था. मैं ने सरपंच साहब से पूछा कि इस में उन का रोल तो नहीं है?

 

उन्होंने कहा, ‘‘नहीं. यह आप को नहर के दफ्तर के बाद डीसी औफिस सैंक्शन  करेगा. आप ऐप्लिकेशन ले कर नहर के दफ्तर जाएं. वहां से वे डीसी औफिस को फौरवर्ड करेंगे. डीसी सैंक्शन करेगा. फिर आप ट्यूबवेल लगा सकेंगे.’’

 

मैं ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं सब करवा लूंगा.’’

 

‘‘सर, इतना आसान नहीं है. बिना पैसों के काम नहीं होगा.’’

 

‘‘फौजियों से भी पैसे लेंगे?’’

 

‘‘सर, वे अपने बाप का काम भी बिना पैसों के न करें तो आप क्या चीज हैं.’’

 

‘‘चलो, देखते हैं, क्या होता है.’’

 

मैं ऐप्लिकेशन ले कर सीधे एसई नरेश शर्मा साहब के पास गया. अपना परिचय दिया तो उठ कर मेरा स्वागत किया, ‘‘अरे निंदी, तुम. मुझे पता चला था कि तुम फौज में चले गए हो. कर्नल निंदी. आज मेरे पास कैसे आए हो? बैठो, पहले चाय पीते हैं.’’

 

 

हम दोनों 12वीं तक साथ पढ़े थे. मैं आर्ट में बीए कर के फौज में चला गया और यह बीई करने के लिए इंजीनियरिंग कालेज चला गया था. आज एसई है. मैं नहीं जानता था कि यह यहां मिलेगा. चाय पीने के बाद नरेश ने आने का परपज पूछा.

 

मैं ने कहा, ‘‘यार, गांव में स्थायी रूप से आ गया हूं. ट्यूबवेल लगवाना है.’’

 

‘‘ला ऐप्लिकेशन.’’ उस ने उस पर फौरवर्ड टू डीसी लिखा और हैडक्लर्क को बुला कर डीसी औफिस के लिए कवरिंग लैटर बनाने को कहा और साइन कर के मु?ो दे दिए.

 

मु?ा से कहा, ‘‘जानते हो आजकल डीसी कौन है?’’ तोशीषी होता था न. हम उसे तुत कहा करते थे.’’

 

‘‘हां, तुत.’’

 

‘‘आजकल वह डीसी है. उस के पास सीधे चले जाना, एक सैकंड में काम हो जाएगा. ठहरो, मैं पता करता हूं. औफिस में है या कहीं टूर पर है.’’

 

‘‘हैलो, तुत साहब कहां हो? आप के साथ चाय पीने का मन कर रहा है.’’

 

‘‘आ जाओ, औफिस में बैठा हूं.’’

 

‘‘आ रहा हूं. आप के लिए एक सरप्राइज भी ला रहा हूं.’’

 

‘‘जब भी तू आता है, किसी न किसी को साथ में जरूर लाता है.’’

 

‘‘हां, चाय बढि़या होनी चाहिए.’’

 

कुछ ही देर में हम डीसी औफिस पहुंच गए. बाहर बैठा चपरासी नरेश को जानता था, इसलिए उस ने रोका नहीं.मुझे देख कर तो तुत चहक उठा, कहा, ‘‘ओए निंदी, तू फौज की जेल से छूट गया.’’

 

मैं ने कहा, ‘‘हां, छूट गया.’’

 

गले मिला और बैठने के लिए कहा, ‘‘किस रैंक से छूटे हो?’’

 

‘‘कर्नल रैंक से.’’

 

‘‘कर्नल निंदी कहना पड़ेगा.’’

 

‘‘यह फ्री की चाय पिलाने वाले नरेश से कैसे मिला?’’

 

‘‘कुछ नहीं, यार. मैं तो ट्यूबवेल लगवाने के लिए इस के पास गया था. मुझे नहीं पता था कि एसई की कुरसी पर बैठा यह मिलेगा. इस ने तो फ्री में आप के औफिस को फौरवर्ड कर दिया.’’

 

‘‘हैरानी है, नहीं तो इस का औफिस अपने बाप से भी बिना पैसे लिए काम न करे.’’

 

‘‘ओए, तुत, बेकार की बात मत कर. तेरा औफिस भी इसी श्रेणी में आता है. अभी तुम अपने हैडक्लर्क को सैंक्शन लैटर बनाने के लिए कहोगे न, उस का मुंह देखना. उस के चेहरे पर लिखा मिलेगा, ‘सरजी, क्यों 5 हजार रुपए का घाटा करवा रहे हो?’’

 

‘‘सच है, नरेश. आज हालत यह है कि बिना पैसे के किसी भी औफिस में काम करवाना असंभव है. क्या स्टाफ, क्या अफसर, यहां तक कि बड़ेबड़े लीडर और मिनिस्टर तक भ्रष्ट हैं. लगता है, पूरा देश भ्रष्ट है. कैसी व्यवस्था है कि प्रदेश का मुख्यमंत्री जेल में रह कर सरकारी काम कर रहा है. हम सब तब तक ईमानदार हैं जब तक हमें बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता.’’

 

 

नरेश ने मुंह बनाया और चुप रहा. मैं सोच रहा था कि अगर नरेश और तुत मेरे दोस्त और क्लासफैलो न होते तो बिना पैसों के मेरा काम भी न होता. एक विचार और भी था कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा? इस का उत्तर मेरे पास नहीं था. शायद किसी के पास नहीं था.

 

‘‘उस ने मुझ से ऐप्लिकेशन ली और हैडक्लर्क को बुला कर सैंक्शन लैटर बनाने के लिए कहा. सच में हैडक्लर्क का चेहरा देखने लायक था. कुछ मिनटों में तुत ने सैंक्शन लैटर बना कर दे दिया. मैं ने उन से परिवार समेत गांव आने के लिए कहा.

 

तुत ने कहा, ‘‘तुम ट्यूबवेल लगवा लो. फिर मैं और नरेश परिवार के साथ आएंगे.’’

 

‘‘बिलकुल, आप सब का स्वागत है. ड्रिंक के साथ लंच भी होगा. मेरी बहना बंतो खाना बहुत अच्छा बनाती है.’’

 

‘‘जरूर आएंगे. यह नरेश जल्दी ट्यूबवेल लगवा देगा. किर्लोस्कर कंपनी में इस का दोस्त सेल्स मैनजर है. वह बहुत जल्दी काम करवा देगा.’’

 

मैं और नरेश तुत के गले मिले और सैंक्शन लैटर ले कर नरेश के औफिस आ गए. रास्ते में उस ने सेल्स मैनजर से बात की. उस ने कहा, ‘‘कल मैं इंजीनियर भेज दूंगा. जैसा वे बोलेंगे वैसा ट्यूबवेल लगाया जाएगा और जनरेटर दिया जाएगा.’’

 

नरेश ने ‘ठीक है’ कह कर फोन बंद कर दिया. गांव का पता दे दिया था. मैं जाने लगा तो नरेश ने एक लिस्ट देते हुए कहा, ‘‘अगर तुम दूसरे के खेतों में पानी लगाते हो तो यह सरकार की तरफ से रेट लिस्ट है. इस के मुताबिक पैसे लेना. लौगबुक मैनटेन करना. कितना डीजल या बिजली लगती है, पता चलता रहेगा. इस की एक कौपी हर महीने हमारे औफिस को भेजते रहना.’’

 

‘‘ठीक है. क्या मुझे नहर का पानी नहीं मिलेगा?’’

 

‘‘मिलेगा क्यों नहीं. लेकिन नहर में पानी आता कहां है. सब छोटेबड़े किसान ट्यूबवेल का पानी लगाते हैं.’’

 

मैं कार ले कर गांव लौट आया. दूसरे रोज किर्लोसकर के तकनीकी स्टाफ ने आ कर चैक किया. जैसा सुझाव दिया था, वैसा ट्यूबवेल और जनरेटर सैट का और्डर कर दिया गया. एक हफ्ते में ट्यूबवेल और जनरेटर सैट फिट कर दिए. अब ट्यूबवेल के लिए एक कमरा और बड़ी हौदी बनानी थी. साथ ही, खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नालियां बनानी थीं. बिजली के लिए भी अप्लाई करना था. इस में 15 दिन और लग गए. गेहूं की फसल कटने के बाद चावलों की फसल लगनी थी. उस के लिए सब तैयार था. हमारे घरों के पास एक बड़ा खेत था. वहां दादू घर के लिए बासमती और मौसमी सब्जियां लगाते थे. वहां भी पानी देने के लिए छोटी मोटर लगवा ली थी.

 

 

मैं ने ट्यूबवेल लगाने वालों से पूछा था. उन्होंने कहा कि 2 हौर्स पावर तक की मोटर लगाने के लिए किसी से परमिशन लेने की जरूरत नहीं है. उन्हीं से बोर करवा लिया और 2 हौर्स पावर की मोटर का और्डर कर दिया. मोटर लग भी गई.

 

अब सब खेतों को फेंस करने की जरूरत थी. मैं पठानकोट आर्मी के सालवेज डिपो में गया. वहां मेरे ही विभाग के अफसर थे. उन से बात की. मुुुझे नौमिनल रेट पर कांटेदार तार और पोल मिल गए. फौजी ट्रक में लोड कर के मैं गांव ले आया. वहीं से तार लगाने वाले 6 मजदूर आ गए. टूल्स साथ लाए थे. उन्होंने एक हफ्ते में खेतों को इस तरह फेंस कर दिया जैसे बौर्डर पर कांटेदार तार लगाए जाते हैं.

 

सारा गांव देख कर हैरान होता रहा. बाहर से पशु और आदमी फसल को खराब नहीं कर सकते थे. इसी तरह घर के पास के खेत को फेंस कर दिया. पहले दादू सब्जियां लगाते थे तो लोग चोरी कर लेते थे. ट्रैक्टर अंदर आनेजाने के लिए बड़ेबड़े गेट लगवा कर ताले लगवाने का प्रबंध कर दिया.

 

 

सारे प्रबंध होने के बाद मैं ने तुत साहब और नरेश को परिवार समेत बुलाया. वे सारे प्रबंध देख कर बहुत खुश हुए. वे और उन के बच्चे हौदी में खूब नहाते रहे. खूब एंजौय किया. तुत ने पूछा, ‘‘निंदी, तुम जनरेटर में डीजल जो फूंक रहे हो, बिजली क्यों नहीं लगवाते?’’

 

‘‘अप्लाई किया हुआ है लेकिन लग नहीं रही.’’

 

‘‘क्यों?’’

 

‘‘वही पैसों का चक्कर होगा. बोलते हैं, ट्यूबवेल के लिए हमारे पास तार नहीं है.’’

 

‘‘बोर्ड का एसई कौन है?’’

 

‘‘मेरे पास उस का मोबाइल नहीं है. एसडीओ का नंबर है?’’

 

तुत ने अपना मोबइल ले कर बोला, ‘‘एसडीओ का नंबर बोल.’’

 

मोबाइल मिलने पर तुत ने कहा, ‘‘मैं डिप्टी कमिश्नर, पठानकोट, तोशी कुमार बोल रहा हूं. मुझे आप के एसई साहब से बात करनी है. आप उन का मोबाइल नंबर दे दें.’’

 

‘‘गुडमौर्निंग सर, आप मुझे बताएं. मैं आप का काम तुरंत कर दूंगा. एसई साहब को बताने की जरूरत नहीं है.’’

 

‘‘कर्नल नरेंद्र कुमार की ऐप्लिकेशन उन के ट्यूबवेल में बिजली के कनैक्शन के लिए पैंडिंग पड़ी है. वह कनैक्शन क्यों नहीं लग रहा?’’

 

‘‘सर, मुझे पता है. हमारे पास तार नहीं था. अब आ गया है. कल की डेट में कनैक्शन लग जाएगा.’’

 

‘‘ठीक है, कल की डेट में कनैक्शन दे कर मुझे रिपोर्ट करना. मेरा मोबाइल नंबर आप के पास आ गया है.’’

 

‘‘राइट सर.’’

 

एंजौय करने के बाद जब लंच के लिए घर जाने लगे तो एसएचओ साहब और सरपंच साहब ने तुत साहब को सैल्यूट मारा, कहा, ‘‘मुझे मेरे खबरी से पता चला था कि आप यहां आए हुए हैं. हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताएं, सर.’’

 

‘‘शुक्रिया, एसएचओ साहब. यह हमारी प्राइवेट विजिट है. कर्नल साहब हमारे क्लासफैलो भी हैं और दोस्त भी. बस, इन का खयाल रखें.’’

 

सरपंच ने कहा, ‘‘हमारे गांव में आप का स्वागत है.’’

 

‘‘मि. सरपंच, हम अपने दोस्त के घर आए हैं. फिर भी थैंक्स.’’

 

दोनों ने सैल्यूट किया और चले गए. हम कार में बैठे और घर आ गए. बंतो ने डाइनिंग टेबल पर शानदार लंच लगाया हुआ था. दाल, चावल, महानी के साथ शानदार खीर भी बनाई थी. सब ने खूब स्वाद से खाया. खीर खा कर तो सब मस्त हो गए. सब ने दोदो बार ले कर खाई. जाते समय न केवल एसई और डीसी साहब ने बंतो को इस शानदार लंच के लिए हजारहजार रुपए दिए बल्कि उन की वाइफ ने भी हजारहजार रुपए दिए. साथ ही कहा, ‘‘हमें किसी रोज आप के पास आ कर खाना बनाना सीखना पड़ेगा. बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं.’’

 

बंतो बेचारी कुछ नहीं बोल पाई थी. वह पैसे लेने से भी हिचकचा रही थी. मैं ने कहा, ‘‘ले लो, यह इन का आशीर्वाद है.’’

 

फिर उस ने चुपचाप ले लिए. मैं बाहर कार तक उन्हें छोड़ने गया. सारा गांव इकट्ठा हो गया था. वे मेरे गले मिले और चले गए. पूरे गांव में एक संदेश गया कि मुझे किसी तरह से तंग नहीं किया जा सकता. दूसरे दिन बिजली का कनैक्शन भी मिल गया था.

 

मैं घर लौटा तो बंतो ने मुझे रुपए वापस करने की कोशिश की. मैं ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘बंतो, ये पैसे आप की मेहनत के हैं. मेहमानों ने अपनी खुशी से आप को दिए हैं. इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. इन से अपनी कोई चीज बनवा लेना.’’

 

‘‘मेरे कमरे की छत कच्ची है. मैं उस पर लैंटर डलवा कर पक्की करवा लूंगी.’’

 

‘‘ठीक है, बंतो. मैं मजदूर और मिस्त्री भेज दूंगा. सीमेंट और रेत भी बचा पड़ा है. वह भी इस्तेमाल हो जाएगा.’’

 

 

15 दिनों में उस का कमरा तैयार हो गया. बिजली की सारी वायरिंग बदल कर नया तार लगवा दिया. दरवाजे खिड़की पेंट हो गए. कमरे को डिस्टैंपर कर दिया. कैंटीन से उसे पंखा दिलवा दिया. उस का कमरा शीशमहल की तरह बन गया. जब तक कमरा बन कर तैयार नहीं हुआ, वह अपने आंगन में सोती रही.

 

मजे की बात यह थी कि उस ने मुझसे कोई पैसा नहीं लिया. खुद के जोड़े पैसे से सारे काम करवाए. यहां तक कि सीमेंट और रेत के पैसे भी उस ने अपने वेतन में से कटवा दिए. वह अपने आत्मसम्मान की धनी थी. काम के प्रति समर्पित थी. मुझे उसे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मैं ने उसे अपनी बहन का दर्जा दिया था. 6 महीने में ही उस का यौवन लौट आया था. वह अत्यंत खूबसूरत औरत बन गई थी. मैं अपने खेतों को संभालता और वह घर को संभालती. उसे कपड़े धोने की औटोमैटिक मशीन चलानी नहीं आती थी. मैं ने उसे एक बार समझाया, फिर समझने की जरूरत नहीं पड़ी. कपड़े सुखाने के लिए आंगन में तारें लगवा दी थीं.

 

आज जब मैं अपने पट्टी वाले आम के खेत को देखने गया तो चावलों की फसल लहलहा रही थी. अनायास ही मैं ने आसमान की ओर देखा. दूर कही बादलों की गड़गडा़हट हुई. मुझे लगा बाऊजी समेत मेरे सारे बुजुर्ग करतल ध्वनि कर रहे हैं, आशीर्वाद दे रहे है. मन के भीतर एक और प्रश्न बड़े तीखे रूप से साल रहा था कि शहर की ओर पलायन क्यों? जानता हूं, अगर मेरे पास पैसा न होता तो मैं यह सब न कर पाता. गरीबी, पैसों और सुविधाओं का अभाव लोगों को शहर की ओर आकर्षित करते हैं पर वहां भी तो धक्के हैं. बुजुर्गों की जमीनें बेचना पाप है. उन्हें संवारना और बढ़ाना चाहिए. गांव के बहुत से समृद्ध लोगमुझे देख कर गांव लौट आए. वे अपने खेतों में काम करने लगे. जब तक वे अपने खेतों के लिए ट्रैक्टर ले कर नहीं आए, मैं उन के खेतों में ट्रैक्टर चलाता रहा. वे मुझे पैसे देते रहे. सरकारी रेट पर मैं उन के खेतों को पानी भी देता रहा.

 

बंतो के बारे यह था कि कोई जाति से नीच नहीं होता, कमीन नहीं होता. हमारे मन नीच होते हैं. हमारे विचार और संस्कार नीच होते हैं. हम खुद नीच होते हैं. बंतो जीवनभर मेरे घर को संभालती रही. वह न होती तो मुझे समय पर दालरोटी भी न मिलती, घर भी न संभलता, ऐसी थी बंतो.

sad love story : हम बेवफा न थे

‘‘अरे, आप लोग यहां क्या कर रहे हैं? सब लोग वहां आप दोनों के इंतजार में खड़े हैं,’’ हमशां ने अपने भैया और होने वाली भाभी को एक कोने में खड़े देख कर पूछा.

‘‘बस कुछ नहीं, ऐसे ही…’’ हमशां की होने वाली भाभी बोलीं.

‘‘पर भैया, आप तो ऐसे छिपने वाले नहीं थे…’’ हमशां ने हंसते हुए पूछा.

‘काश हमशां, तुम जान पातीं कि मैं आज कितना उदास हूं, मगर मैं चाह कर भी तुम्हें नहीं बता सकता,’ इतना सोच कर हमशां का भाई अख्तर लोगों के स्वागत के लिए दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया.

तभी अख्तर की नजर सामने से आती निदा पर पड़ी जो पहले कभी उसी की मंगेतर थी. वह उसे लाख भुलाने के बावजूद भी भूल नहीं पाया था.

‘‘हैलो अंकल, कैसे हैं आप?’’ निदा ने अख्तर के अब्बू से पूछा.

‘‘बेटी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ अख्तर के अब्बू ने प्यार से जवाब दिया.

‘‘हैलो अख्तर, मंगनी मुबारक हो. और कितनी बार मंगनी करने की कसम खा रखी है?’’ निदा ने सवाल दागा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मैं तो कुछ नहीं जानता कि हमारी मंगनी क्यों टूटी. पता नहीं, तुम्हारे घर वालों को मुझ में क्या बुराई नजर आई,’’ अख्तर ने जवाब दिया.

‘‘बस मिस्टर अख्तर, आप जैसे लोग ही दुनिया को धोखा देते फिरते हैं और हमारे जैसे लोग धोखा खाते रहते हैं,’’ इतना कह कर निदा गुस्से में वहां से चली गई.

सामने स्टेज पर मंगनी की तैयारी पूरे जोरशोर से हो रही थी. सब लोग एकदूसरे से बातें करते नजर आ रहे थे. तभी निदा ने हमशां को देखा, जो उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही थी.

‘‘निदा, आप आ गईं. मैं तो सोच रही थी कि आप भी उन लड़कियों जैसी होंगी, जो मंगनी टूटने के बाद रिश्ता तोड़ लेती हैं,’’ हमशां बोली.

‘‘हमशां, मैं उन में से नहीं हूं. यह सब तो हालात की वजह से हुआ?है…’’ निदा उदास हो कर बोली, ‘‘क्या मैं जान सकती हूं कि वह लड़की कौन है जो तुम लोगों को पसंद आई है?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. वह देखो, सामने स्टेज की तरफ सुनहरे रंग का लहंगा पहने हुए खड़ी है,’’ हमशां ने अपनी होने वाली भाभी की ओर इशारा करते हुए बताया.

‘‘अच्छा, तो यही वह लड़की है जो तुम लोगों की अगली शिकार है,’’ निदा ने कोसने वाले अंदाज में कहा.

‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इस में भैया की कोई गलती नहीं है. वह तो आज भी नहीं जानते कि हम लोगों की तरफ से मंगनी तोड़ी गई?है,’’ हमशां ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘मगर, तुम तो बता सकती थीं.

तुम ने क्यों नहीं बताया? आखिर तुम भी तो इसी घर की हो,’’ इतना कह कर निदा वहां से दूसरी तरफ खड़े लोगों की तरफ बढ़ने लगी.

निदा की बातें हमशां को बुरी तरह कचोट गईं.

‘‘प्लीज निदा, आप हम लोगों को गलत न समझें. बस, मम्मी चाहती थीं कि भैया की शादी उन की सहेली की बेटी से ही हो,’’ निदा को रोकते हुए हमशां ने सफाई पेश की.

‘‘और तुम लोग मान गए. एक लड़की की जिंदगी बरबाद कर के अपनी कामयाबी का जश्न मना रहे हो,’’ निदा गुस्से से बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं?है. मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मम्मी की कसम के आगे हम सब मजबूर थे वरना मंगनी कभी भी न टूटने देते,’’ कह कर हमशां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘देखो हमशां, अब पुरानी बातों को भूल जाओ. पर अफसोस तो उम्रभर रहेगा कि इनसानों की पहचान करना आजकल के लोग भूल चुके हैं,’’ इतना कह कर निदा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और आगे बढ़ गई.

‘‘निदा, इन से मिलो. ये मेरी होने वाली बहू के मम्मीपापा हैं. यह इन की छोटी बेटी है, जो मैडिकल की पढ़ाई कर रही है,’’ अख्तर की अम्मी ने निदा को अपने नए रिश्तेदारों से मिलवाया.

निदा सोचने लगी कि लोग तो रिश्ता टूटने पर नफरत करते हैं, लेकिन मैं उन में से नहीं हूं. अमीरों के लिए दौलत ही सबकुछ है. मगर मैं दौलत की इज्जत नहीं करती, बल्कि इनसानों की इज्जत करना मुझे अपने घर वालों ने सिखाया है.

‘‘निदा, आप भैया को माफ कर दें, प्लीज,’’ हमशां उस के पास आ कर फिर मिन्नत भरे लहजे में बोली.

‘‘हमशां, कैसी बातें करती हो? अब जब मुझे पता चल गया है कि इस में तुम्हारे भैया की कोई गलती नहीं है तो माफी मांगने का सवाल ही नहीं उठता,’’ निदा ने हंस कर उस के गाल पर एक हलकी सी चपत लगाई.

कुछ देर ठहर कर निदा फिर बोली, ‘‘हमशां, तुम्हारी मम्मी ने मुझ से रिश्ता तोड़ कर बहुत बड़ी गलती की. काश, मैं भी अमीर घर से होती तो यह रिश्ता चंद सिक्कों के लिए न टूटता.’’

‘‘मुझे मालूम है कि आप नाराज हैं. मम्मी ने आप से मंगनी तो तोड़ दी, पर उन्हें भी हमेशा अफसोस रहेगा कि उन्होंने दौलत के लिए अपने बेटे की खुशियों का खून कर दिया,’’ हमशां ने संजीदगी से कहा.

‘‘बेटा, आप लोग यहां क्यों खड़े हैं? चलो, सब लोग इंतजार कर रहे हैं. निदा, तुम भी चलो,’’ अख्तर के अब्बू खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘मुझे यहां इतना प्यार मिलता है, फिर भी दिल में एक टीस सी उठती?है कि इन्होंने मुझे ठुकराया है. पर दिल में नफरत से कहीं ज्यादा मुहब्बत का असर है, जो चाह कर भी नहीं मिटा सकती,’ निदा सोच रही थी.

‘‘निदा, आप को बुरा नहीं लग रहा कि भैया किसी और से शादी कर रहे हैं?’’ हमशां ने मासूमियत से पूछा.

‘‘नहीं हमशां, मुझे क्यों बुरा लगने लगा. अगर आदमी का दिल साफ और पाक हो, तो वह एक अच्छा दोस्त भी तो बन सकता है,’’ निदा उमड़ते आंसुओं को रोकना चाहती थी, मगर कोशिश करने पर भी वह ऐसा कर नहीं सकी और आखिरकार उस की आंखें भर आईं.

‘‘भैया, आप निदा से वादा करें कि आप दोनों जिंदगी के किसी भी मोड़ पर दोस्ती का दामन नहीं छोड़ेंगे,’’ हमशां ने इतना कह कर निदा का हाथ अपने भैया के हाथ में थमा दिया और दोनों के अच्छे दोस्त बने रहने की दुआ करने लगी.

‘‘माफ कीजिएगा, अब हम एकदूसरे के दोस्त बन गए हैं और दोस्ती में कोई परदा नहीं, इसलिए आप मुझे बेवफा न समझें तो बेहतर होगा,’’ अख्तर ने कहा.

‘‘अच्छा, आप लोग मेरे बिना दोस्ती कैसे कर सकते हैं. मैं तीसरी दोस्त हूं,’’ अख्तर की मंगेतर निदा से बोली.

निदा उस लड़की को देखती रह गई और सोचने लगी कि कितनी अच्छी लड़की है. वैसे भी इस सब में इस की कोई गलती भी नहीं है.

‘‘आंटी, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं. प्लीज, इनकार न कीजिएगा,’’ निदा ने कहा.

‘‘तुम मुझ को शर्मिंदा तो नहीं कर रही हो?’’ अख्तर की अम्मी ने पलट कर पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं एक दोस्त होने के नाते अपने दोस्त की बहन को अपने भाई के लिए मांग रही हूं,’’ इतना कह कर निदा ने हमशां को गले से लगा लिया.

‘‘निदा, आप हम से बदला लेना चाहती हैं. आप भी मम्मी की तरह रिश्ता जोड़ कर फिर तोड़ लीजिएगा ताकि मैं भी दुनिया वालों की नजर में बदनाम हो जाऊं,’’ हमशां रोते हुए बोली.

‘‘अरी पगली, मैं तो तेरे भैया की दोस्त हूं, दुख और सुख में साथ देना दोस्तों का फर्ज होता है, न कि उन से बदला लेना,’’ निदा ने कहा.

‘‘नहीं, मुझे यह रिश्ता मंजूर नहीं है,’’ अख्तर की अम्मी ने जिद्दी लहजे में कहा.

तभी अख्तर के अब्बू आ गए.

‘‘क्या बात है? किस का रिश्ता नहीं होने देंगी आप?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘अंकल, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं.’’

‘‘तो देर किस बात की है. ले जाओ. तुम्हारी अमानत है, तुम्हें सौंप देता हूं.’’

‘‘निदा, आप अब भी सोच लें, मुझे बरबाद होने से आप ही बचा सकती हैं,’’ हमशां ने रोते हुए कहा.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हो. मैं तो तुम्हें दिल से कबूल कर रही हूं, जबान से नहीं, जो बदल जाऊंगी,’’ निदा खुशी से चहकी.

‘‘हमशां, निदा ठीक कह रही हैं. तुम खुशीखुशी मान जाओ. यह कोई जरूरी नहीं कि हम लोगों ने उस के साथ गलत बरताव किया तो वह भी ऐसी ही गलती दोहराए,’’ अख्तर हमशां को समझाते हुए कहने लगा.

‘‘अगर वह भी हमारे जैसी बन जाएगी, तब हम में और उस में क्या फर्क रहेगा,’’ इतना कह कर अख्तर ने हमशां का हाथ निदा के भाई के हाथों में दे दिया.

‘‘निदा, हम यह नहीं जानते कि कौन बेवफा था, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि हम बेवफा न थे,’’ अख्तर नजर झुकाए हुए बोला.

‘‘भैया, आप बेवफा न थे तो फिर कौन बेवफा था?’’ हमशां शिकायती लहजे में बोली. उस की नजर जब अपने भैया पर पड़ी तो देख कर दंग रह गई. उस का भाई रो रहा था.

‘‘भैया, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप को गलत समझा,’’ हमशां अख्तर के गले लग कर रोने लगी.

सच है कि इनसान को हालात के आगे झुकना पड़ता है. अपनों के लिए बेवफा भी बनना पड़ता है.

online hindi kahani : यह शादी जरूर होगी

दीपों की टेढ़ीमेढ़ी कतारों के कुछ दीप अपनी यात्रा समाप्त कर अंधकार के सागर में विलीन हो चुके थे, तो कुछ उजाले और अंधेरे के बीच की दूरी में टिमटिमा रहे थे. गली का शोर अब कभीकभार के पटाखों के शोर में बदल चुका था.

दिव्या ने छत की मुंडेर से नीचे आंगन में झांका जहां मां को घेर पड़ोस की औरतें इकट्ठी थीं. वह जानबूझ कर वहां से हट आई थी. महिलाओं का उसे देखते ही फुसफुसाना, सहानुभूति से देखना, होंठों की मंद स्मिति, दिव्या अपने अंतर में कहां तक झेलती? ‘कहीं बात चली क्या…’, ‘क्या बिटिया को बूढ़ी करने का इरादा है…’ वाक्य तो अब बासी भात से लगने लगे हैं, जिन में न कोई स्वाद रहता है न नयापन. हां, जबान पर रखने की कड़वाहट अवश्य बरकरार है.

काफी देर हो गई तो दिव्या नीचे उतरने लगी. सीढि़यों पर ही रंभा मिल गई. बड़ेबड़े फूल की साड़ी, कटी बांहों का ब्लाउज और जूड़े से झूलती वेणी…बहुत ही प्यारी लग रही थी, रंभा.

‘‘कैसी लग रही हूं, दीदी…मैं?’’ रंभा ने उस के गले में बांहें डालते हुए पूछा तो दिव्या मुसकरा उठी.

‘‘यही कह सकती हूं कि चांद में तो दाग है पर मेरी रंभा में कोई दाग नहीं है,’’ दिव्या ने प्यार से कहा तो रंभा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘चलो न दीदी, रोशनी देखने.’’

‘‘पगली, वहां दीप बुझने भी लगे, तू अब जा रही है.’’

‘‘क्या करती दीदी, महल्ले की डाकिया रमा चाची जो आ गई थीं. तुम तो जानती हो, अपने शब्दबाणों से वे मां को कितना छलनी करती हैं. वहां मेरा रहना जरूरी था न.’’

दिव्या की आंखें छलछला आईं. रंभा को जाने का संकेत करती वह अपने कमरे में चली आई. बत्ती बुझाने के पूर्व उस की दृष्टि सामने शीशे पर चली गई, जहां उस का प्रतिबिंब किसी शांत सागर की याद दिला रहा था. लंबे छरहरे शरीर पर सौम्यता की पहनी गई सादी सी साड़ी, लंबे बालों का ढीलाढाला जूड़ा, तारे सी नन्ही बिंदी… ‘क्या उस का रूप किसी पुरुष को रिझाने में समर्थ नहीं है? पर…’

बिस्तर पर लेटते ही दिव्या के मन के सारे तार झनझना उठे. 30 वर्षों तक उम्र की डगर पर घिसटघिसट कर बिताने वाली दिव्या का हृदय हाहाकार कर उठा. दीवाली का पर्व सतरंगे इंद्रधनुष में पिरोने वाली दिव्या के लिए अब न किसी पर्व का महत्त्व था, न उमंग थी. रूढि़वादी परिवार में जन्म लेने का प्रतिदान वह आज तक झेल रही है. रूप, यौवन और विद्या इन तीनों गुणों से संपन्न दिव्या अब तक कुंआरी थी. कारण था जन्मकुंडली का मिलान.

तकिए का कोना भीगा महसूस कर दिव्या का हाथ अनायास ही उस स्थान को टटोलने लगा जहां उस के बिंदु आपस में मिल कर अतीत और वर्तमान की झांकी प्रस्तुत कर रहे थे. अभी एक सप्ताह पूर्व की ही तो बात है, बैठक से गुजरते हुए हिले परदे से उस ने अंदर देख लिया था. पंडितजी की आवाज ने उसे अंदर झांकने पर मजबूर किया, आज किस का भाग्य विचारा जा रहा है? पंडितजी हाथ में पत्रा खोले उंगलियों

पर कुछ जोड़ रहे थे. कमरे तक आते हुए दिव्या ने हिसाब लगाया, 7 वर्ष से उस के भाग्य की गणना की जा रही है.

खिड़की से आती धूप की मोटी तह उस के बिस्तर पर साधिकार पसरी हुई थी. दिव्या ने क्षुब्ध हो कर खिड़की बंद कर दी.

‘‘दीदी…’’ बाहर से रंभा ने आते ही उस के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘बाहर क्या हो रहा है…’’ संभलते हुए दिव्या ने पूछा था.

‘‘वही गुणों के मिलान पर तुम्हारा दूल्हा तोला जा रहा है.’’

रंभा ने व्यंग्य से उत्तर दिया, ‘‘दीदी, मेरी समझ में नहीं आता…तुम आखिर मौन क्यों हो? तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’

‘‘क्या बोलूं, रंभा?’’

‘‘यही कि यह ढकोसले बंद करो. 7 वर्षों से तुम्हारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है और तुम शांत हो. आखिर ये गुण मिल कर क्या कर लेंगे? कितने अच्छेअच्छे रिश्ते अम्मांबाबूजी ने छोड़ दिए इस कुंडली के चक्कर में. और वह इंजीनियर जिस के घर वालों ने बिना दहेज के सिर्फ तुम्हें मांगा था…’’

‘‘चुप कर, रंभा. अम्मां सुनेंगी तो क्या कहेंगी.’’

‘‘सच बोलने से मैं नहीं डरती. समय आने दो. फिर पता चलेगा कि इन की रूढि़वादिता ने इन्हें क्या दिया.’’

रंभा के जलते वाक्य ने दिव्या को चौंका दिया. जिद्दी एवं दबंग लड़की जाने कब क्या कर बैठे. यों तो उस का नाम रंभा था पर रूप में दिव्या ही रंभा सी प्रतीत होती थी. मां से किसी ने एक बार कहा भी था, ‘बहन, आप ने नाम रखने में गलती कर दी. रंभा सी तो आप की बड़ी बेटी है. इसे तो कोई भाग्य वाला मांग कर ले जाएगा,’

तब मां चुपके से उस के कान के पीछे काला टीका लगा जातीं. कान के पीछे लगा काला दाग कब मस्तक तक फैल आया, स्वयं दिव्या भी नहीं जान पाई.

बी.एड. करते ही एक इंटर कालेज में दिव्या की नौकरी लग गई तो शुरू हुआ सिलसिला ब्याह का. तब पंडितजी ने कुंडली देख कर बताया कि वह मंगली है, उस का ब्याह किसी मंगली युवक से ही हो सकता है अन्यथा दोनों में से कोई एक शीघ्र कालकवलित हो जाएगा.

पहले तो उस ने इसे बड़े हलकेफुलके ढंग से लिया. जब भी कोई नया रिश्ता आता, उस के गाल सुर्ख हो जाते, दिल मीठी लय पर धड़कने लगता. पर जब कई रिश्ते कुंडली के चक्कर में लौटने लगे तो वह चौंक पड़ी. कई रिश्ते तो बिना दानदहेज के भी आए पर अम्मांबाबूजी ने बिना कुंडली का मिलान किए शादी करने से मना कर दिया.

धीरेधीरे समय सरकता गया और घर में शादी का प्रसंग शाम की चाय सा साधारण बैठक की तरह हो गया. एकदो जगह कुंडली मिली भी तो कहीं लड़का विधुर था, कहीं परिवार अच्छा नहीं था. आज घर में पंडितजी की उपस्थिति बता रही थी कि घर में फिर कोई तामझाम होने वाला है.

वही हुआ, रात्रि के भोजन पर अम्मांबाबूजी की वही पुरानी बात छिड़ गई.

‘‘मैं कहती हूं, 21 गुण कोई माने नहीं रखते, 26 से कम गुण पर मैं शादी नहीं होने दूंगी.’’

‘‘पर दिव्या की मां, इतनी देर हो चुकी है. दिव्या की उम्र बीती जा रही है. कल को रिश्ते मिलने भी बंद हो जाएंगे. फिर पंडितजी का कहना है कि यह विवाह हो सकता है.’’

‘‘कहने दो उन्हें, एक तो लड़का विधुर, दूसरे, 21 गुण मिलते हैं,’’ तभी वे रुक गईं.

रंभा ने पानी का गिलास जोर से पटका था, ‘‘सिर्फ विधुर है. उस से पूछो, बच्चे कितने हैं? ब्याह दीदी का उसी से करना…गुण मिलना जरूरी है लेकिन…’’

रंभा का एकएक शब्द उमंगों के तरकश से छोड़ा हुआ बाण था जो सीधे दिव्या ने अपने अंदर उतरता महसूस किया.

‘‘क्या बकती है, रंभा, मैं क्या तुम लोगों की दुश्मन हूं? हम तुम्हारे ही भले की सोचते हैं कि कल को कोई परेशानी न हो, इसी से इतनी मिलान कराते हैं,’’ मां की झल्लाहट स्वर में स्पष्ट झलक रही थी.

‘‘और यदि कुंडली मिलने के बाद भी जोड़ा सुखी न रहा या कोई मर गया तो क्या तुम्हारे पंडितजी फिर से उसे जिंदा कर देंगे?’’ रंभा ने चिढ़ कर कहा.

‘‘अरे, कीड़े पड़ें तेरी जबान में. शुभ बोल, शुभ. तेरे बाबूजी से मेरे सिर्फ 19 गुण मिले थे, आज तक हम दोनों विचारों में पूरबपश्चिम की तरह हैं.’’

अम्मांबाबूजी से बहस व्यर्थ जान रंभा उठ गई. दिव्या तो जाने कब की उठ कर अपने कमरे में चली गई थी. दोचार दिन तक घर में विवाह का प्रसंग सुनाई देता रहा. फिर बंद हो गया. फिर किसी नए रिश्ते की बाट जोहना शुरू हो गया. दिव्या का खामोश मन कभीकभी विद्रोह करने को उकसाता पर संकोची संस्कार उसे रोक देते. स्वयं को उस ने मांबाप एवं परिस्थितियों के अधीन कर दिया था.

रंभा के विचार सर्वथा भिन्न थे. उस ने बी.ए. किया था और बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. अम्मांबाबूजी के अंधविश्वासी विचारों पर उसे कुढ़न होती. दीदी का तिलतिल जलता यौवन उसे उस गुलाब की याद दिलाता जिस की एकएक पंखड़ी को धीरेधीरे समय की आंधी अपने हाथों तोड़ रही हो.

आज दीवाली की ढलती रात अपने अंतर में कुछ रहस्य छिपाए हुए थी. तभी तो बुझते दीपों के साथ लगी उस की आंख सुबह के हलके शोर से टूट गई. धूप काफी निकल आई थी. रंभा उत्तेजित स्वरों में उसे जगा रही थी, ‘‘दीदी…दीदी, उठो न…देखो तो भला नीचे क्या हो रहा है…’’

‘‘क्या हो रहा है नीचे? कोई आया है क्या?’’

‘‘हां, दीदी, अनिल और उस के घर वाले.’’

‘‘अनिल वही तो नहीं जो तुम्हारा मित्र है और जो मुंसिफ की परीक्षा में बैठा था,’’ दिव्या उठ बैठी.

‘‘हां, दीदी, वही. अनिल की नियुक्ति शाहजहांपुर में ही हो गई है. दीदी, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. सोचा था शादी की बात घर में चलाएंगे पर कल रात अचानक अनिल के घर वालों ने अनिल के लिए लड़की देखने की बात की तब अनिल ने उन्हें मेरे बारे में बताया.’’

‘‘फिर…’’ दिव्या घबरा उठी.

‘‘फिर क्या? उन लोगों ने तो मुझे देखा था, वह अनिल पर इस कारण नाराज हुए कि उस ने उन्हें इस विषय में पहले ही क्यों नहीं बता दिया, वे और कहीं बात ही न चलाते. वे तो रात में ही बात करने आ रहे थे पर ज्यादा देर हो जाने से नहीं आए. आज अभी आए हैं.’’

‘‘और मांबाबूजी, वे क्या कह रहे हैं?’’ दिव्या समझ रही थी कि रंभा का रिश्ता भी यों आसानी से तय होने वाला नहीं है.

‘‘पता नहीं, उन्हें बिठा कर मैं पहले तुम्हें ही उठाने आ गई. दीदी, तुम उठो न, पता नहीं अम्मां उन से क्या कह दें?’’

दिव्या नीचे पहुंची तो उस की नजर सुदर्शन से युवक अनिल पर पड़ी. रंभा की पसंद की प्रशंसा उस ने मन ही मन की. अनिल की बगल में उस की मां और बहन बैठी थीं. सामने एक वृद्ध थे, संभवत: अनिल के पिताजी. उस ने सुना, मां कह रही थीं, ‘‘यह कैसे हो सकता है बहनजी, आप वैश्य हम बंगाली ब्राह्मण. रिश्ता तो हो ही नहीं सकता. कुंडली तो बाद की चीज है.’’

‘‘पर बहनजी, लड़कालड़की एकदूसरे को पसंद करते हैं. हमें भी रंभा पसंद है. अच्छी लड़की है, फिर समस्या क्या है?’’ यह वृद्ध सज्जन का स्वर था.

‘‘समस्या यही है कि हम दूसरी जाति में लड़की नहीं दे सकते,’’ मां के सपाट स्वर पर मेहमानों का चेहरा सफेद हो गया. अपमान एवं विषाद की रेखाएं उन के अस्तित्व को कुरेदने लगीं. अनिल की नजर उठी तो दिव्या की शांत सागर सी आंखों में उलझ गई. घने खुले बाल, सादी सी धोती और शरीर पर स्वाभिमान की तनी हुई कमान. वह कुछ बोलता इस के पूर्व ही दिव्या की अपरिचित ध्वनि गूंजी, ‘‘यह शादी अवश्य होगी, मां. अनिल रंभा के लिए सर्वथा उपयुक्त वर है. ऐसे घर में जा कर रंभा सुखी रहेगी. चाहे कोई कुछ भी कर ले मैं जाति एवं कुंडली के चक्कर में रंभा का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

‘‘दिव्या, यह तू…तू बोल रही है?’’ पिता का स्वर आश्चर्य से भरा था.

‘‘बाबूजी, जो कुछ होता रहा, मैं शांत हो देखती रही क्योंकि आप मेरे मातापिता हैं, जो करते अच्छा करते. परंतु 7 वर्षों में मैं ने देख लिया कि अंधविश्वास का अंधेरा इस घर को पूरी तरह समेटे ले रहा है.

‘‘रंभा मेरी छोटी बहन है. उसे मुझ से भी कुछ अपेक्षाएं हैं जैसे मुझे आप से थीं. मैं उस की अपेक्षा को टूटने नहीं दूंगी. यह शादी होगी और जरूर होगी,’’ फिर वह अनिल की मां की तरफ मुड़ कर बोली, ‘‘आप विवाह की तिथि निकलवा लें. रंभा आप की हुई.’’

अब आगे किसी को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ पर रंभा सोच रही थी, ‘दीदी नारी का वास्तविक प्रतिबिंब है जो स्वयं पर हुए अन्याय को तो झेल लेती है पर जब चोट उस के वात्सल्य पर या अपनों पर होती है तो वह इसे सहन नहीं कर पाती. इसी कारण तो ढेरों विवाद और तूफान को अंतर में समेटे सागर सी शांत दिव्या आज ज्वारभाटा बन कर उमड़ आई है.’

Hindi Online Story : कन्‍यादान

‘‘आप ही बताइए मैं क्या करूं, अपनी नौकरी छोड़ कर तो आप के पास आ नहीं सकता और इतनी दूर से आप की हर दिन की नईनई समस्याएं सुलझ भी नहीं सकता,’’ फोन पर अपनी मां से बात करतेकरते प्रेरित लगभग झंझला से पड़े थे.

जब से हम लोग दिल्ली से मुंबई आए हैं, लगभग हर दूसरेतीसरे दिन प्रेरित की अपने मम्मीपापा से इस तरह की हौटटौक हो ही जाती है. चूंकि प्रेरित को अपने मम्मीपापा को खुद ही डील करना होता है, इसलिए मैं बिना किसी प्रतिक्रिया के बस शांति से सुनती हूं.

अब तक गैस पर चढ़ी चाय उबल कर पैन से बाहर आने को आतुर थी, सो, मैं ने गैस बंद की और 2 कपों में चाय डाल कर टोस्ट के साथ एक ट्रे में ले कर बालकनी में आ बैठी. कुछ ही देर में अपना मुंह लटकाए प्रेरित मेरी बगल की कुरसी पर आ कर बैठ गए और उखड़े मूड से पेपर पढ़ने लगे.

‘‘अब क्या हुआ, क्यों सुबहसुबह अपना मूड खराब कर के बैठ गए हो? मौर्निंग वाक करने का कोई फायदा नहीं अगर आप सुबहसुबह ही अपना मूड खराब कर लो,’’ मैं ने प्रेरित को कुछ शांत करने के उद्देश्य से कहा.

‘‘पापा कल पार्क में गिर पड़े, मां को गठिया का दर्द फिर से परेशान कर रहा है. अभी 15 दिन पहले ही तो लौटा हूं कानपुर से, डाक्टर से पूरा चैकअप करवा कर और जहां तक हो सकता था, सब इंतजाम कर के आया था. जैसेजैसे उम्र बढ़ेगी, नितनई समस्याएं तो सिर उठाएंगी ही न. यहां आने को वे तैयार नहीं. बिट्टू के पास जाएंगे नहीं तो क्या किया जाए? नौकरी करूं या हर दिन इन की समस्याएं सुलझता रहूं? इस समस्या का कोई सौल्यूशन भी तो दूरदूर तक नजर नहीं आता,’’ प्रेरित कुछ झंझलाते हुए बोले.

‘‘चलो, अब शांत हो जाओ और अच्छे मन से औफिस की तैयारी करो. आज वैसे भी तुम्हारी इंपौर्टेंट मीटिंग है. कल वीकैंड है, इन 2 दिनों में हमें अम्माबाबूजी की समस्याओं का कोई परमानैंट हल निकालना पड़ेगा वरना इस तरह की समस्याएं हर दूसरेतीसरे दिन उठती रहेंगी,’’ यह कह कर मैं ने प्रेरित को कुछ शांत करने का प्रयास किया और इस के बाद हम दोनों ही अपनेअपने औफिस की तैयारी में लग गए थे.

मैं और प्रेरित दोनों ही आईसीआईसीआई बैंक में सीनियर मैनेजर की पोस्ट पर हैं. अभी हमें मुंबई शिफ्ट हुए 3 माह ही हुए थे. सो, बहुत अच्छी तरह मुंबई शहर से परिचित नहीं थे. हमारी इकलौती बेटी आरुषी 3 माह पहले ही 12वीं पास कर के वीआईटी वेल्लोर से इंजीनियरिंग करने चली गई. उस के जाने के बाद हम अकेले रह गए थे. हम तो अभी तक उस के जाने के दुख में ही डूबे रहते यदि हमारा ट्रांसफर मुंबई न हुआ होता. ट्रांसफर हो जाने पर शिफ्ंिटग में इतने अधिक व्यस्त हो गए हम दोनों कि बेटी का जाना तक भूल गए यद्यपि सुबहशाम उस से बात हो जाती थी.

हम दोनों को ही 10 बजे तक निकलना होता है, इसलिए 8 बजे मेड आ जाती है. टाइम के अनुसार सुशीला मेड आ गई थी. उसे नाश्ताखाने की कुछ जरूरी हिदायतें दे कर मैं बाथरूम में घुस गई.

नहातेनहाते वह दिन भी याद आ गया जब मैं पहली बार प्रेरित से मिली थी. मैं और प्रेरित दोनों ही इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से थे और अब भोपाल के आईआईएएम कालेज से फौरेस्ट मैनेजमैंट में एमबीए कर रहे थे. एक दिन कालेज के ग्रुप पर मैं ने एक मैसेज देखा, ‘इफ एनीवन इंट्रेस्टेड फौर यूपीएससी एग्जाम, प्लीज डी एम टू मी.’

मेरे मन के किसी कोने में भी यूपीएससी बसा हुआ था, सो, मैं ने दिए गए नंबर पर मैसेज किया और एक दिन जब कालेज की लाइब्रेरी में हम दोनों मिले तो अपने सामने लंबी कदकाठी, गौरवर्णीय, सलीके से ड्रैसअप किए सुदर्शन नौजवान को देखती ही रह गई. इस के बाद तो कभी कोचिंग, कभी नोट्स और कभी तैयारी के बहाने मिलनाजुलना प्रारंभ हो गया था और कुछ ही दिनों के बाद हम दोनों के बीच से यूपीएससी तो गायब हो गया और रह गया हमारा प्यार, एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें, एकदूसरे की तारीफ में पढ़े गए कसीदे और भविष्य की लंबीचौड़ी प्लानिंग.

भोपाल के कलिया सोत डैम के पास चारों ओर हरीतिमा से ओतप्रोत एक छोटी सी पहाड़ी पर नेहरू नगर में स्थित आईआईएफएम कालेज में हमारा प्यार पूरे 2 साल परवान चढ़ता रहा. कोर्स के पूरा होतेहोते हम दोनों का ही प्लेसमैंट आईसीआईसीआई बैंक में हो गया था और अब हम दोनों ही विवाह के बंधन में बंध जाना चाहते थे. चूंकि हम दोनों की जाति ब्राह्मण ही थी, इसलिए आश्वस्त थे कि विवाह में कोई बाधा नहीं आएगी. मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान थी और प्रेरित 2 भाई थे. उन का छोटा भाई प्रेरक (बिट्टू) मैडिकल की पढ़ाई कर रहा था. प्रेरित की मां एक होममेकर थीं और पापा एक राजपत्रित अधिकारी के पद से इस वर्ष ही रिटायर हुए थे.

मेरी मां एक मनोवैज्ञानिक काउंसलर और पापा बैंक मैनेजर थे. अभी उन के रिटायरमैंट में 2 वर्ष थे. हम दोनों ने ही घर में अपने प्यार के बारे में पहले ही बता दिया था. सो, अब औपचारिक मोहर लगनी ही बाकी थी. हम दोनों की मम्मियों ने फोन पर बातचीत भी कर ली थी. इसी सिलसिले में एक दिन प्रेरित के मम्मीपापा कानपुर से इंदौर मुझे देखने या यों कहें कि विधिवत रूप से गोद भराई की रस्म करने आए.

उन लोगों के आने की सूचना मात्र से ही मांपापा खुशी से दोहरे हुए जा रहे थे आखिर उन की इकलौती संतान के हाथ पीले होने का प्रथम चरण का आयोजन जो होने जा रहा था. आने वाले मेहमानों के लिए पूरे घर को पापा ने फूलों से सजा दिया था. मम्मी ने कांता मेड के साथ मिल कर डाइनिंग टेबल पर न जाने कितने व्यंजनों की लाइन लगा दी थी जिन के मसालों की महक से किचन ही नहीं, पूरा घर ही महक उठा था.

अतिथियों को कोई परेशानी न हो, इस के लिए पापा ने हमारे घर के पास में ही स्थित होटल रेडिसन में उन के रुकने की व्यवस्था कर दी थी. होटल से सुबह ही तैयार हो कर प्रेरित और उस के मम्मीपापा हमारे यहां आ गए थे.

चायनाश्ते के बाद मेरी गोदभराई की रस्म के तहत प्रेरित की मम्मी ने साथ लाए फल, मिठाई और कपड़ों के साथसाथ शगुन के नाम पर एक सोने की चेन मेरे गले में डाल दी थी. लंच के बाद जब सब लोग हंसीखुशी के माहौल में बातचीत कर रहे थे तभी प्रेरित की मम्मी मेरे मांपापा की ओर मुखातिब हो कर बोलीं, ‘आप लोग बुरा न मानें तो एक बात पूछ सकती हूं?’

 

‘जी कहिए, बुरा मानने की क्या बात है. अब हम रिश्तेदार होने जा रहे हैं तो संकोच कैसा?’ पापा ने मुसकराते हुए कहा.

‘अब ये त्रिपाठीजी (प्रेरित के पापा) तो रिटायर हो गए हैं और आप के रिटायरमैंट में अभी वक्त है तो आफ्टर रिटायरमैंट आप लोगों ने क्या सोचा है?’

‘जी, मैं कुछ समझ नहीं?’ पापा ने कुछ चौंकते हुए से कहा.

‘मेरा मतलब है कि अब हमारे तो 2 बेटे हैं इसलिए हमें तो कोई चिंता नहीं है बुढ़ापे की, कभी इस के पास और कभी उस के पास रहेंगे. बस, इसी में जीवन कट जाएगा पर आप की तो एक ही बेटी है, सो रिटायरमैंट के बाद वृद्धावस्था में आप लोगों ने कहां रहने का प्लान बनाया है. यहीं इंदौर में या बेटी के पास?’ प्रेरित की मम्मी के इस प्रश्न को सुन कर मम्मीपापा ही नहीं, मैं और प्रेरित भी बुरी तरह चौंक गए थे. कुछ देर बाद मुझे समझ आया कि प्रेरित के मम्मीपापा घुमाफिरा कर जानना चाह रहे थे कि विवाह के बाद मेरे मम्मीपापा की जिम्मेदारी कहीं उन के लाड़ले बेटे को न उठानी पड़ जाए. अपनी मम्मी के इस बेतुके प्रश्न पर प्रेरित का चुप रह जाना मुझे अखर गया और उन के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए जैसे ही मैं ने अपना मुंह खोलना चाहा था कि मेरी मां ने आंख के इशारे से मुझे रोक दिया था.

‘मां खुद बड़े ही शांतभाव से बोलीं, ‘जी देखिए, पहले तो अभी तो हम ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं है, पर हां, उम्मीद करता हूं कि जीवन के अंतिम दिनों तक हम इतना फिट रहें कि हमें किसी का मुंह न देखना पड़े. फिर आज के जमाने में नौकरीपेशा लोगों के लिए बेटा और बेटी में फर्क ही कहां रह गया है क्योंकि दोनों ही तो अपनी नौकरी पर चले जाते हैं. न आप का बेटा आप के पास रहेगा और न हमारी बेटी. हां, जरूरत पड़ने पर मेरी बेटी ही मेरा सबकुछ है और इसे हम ने पढ़ायालिखाया भी जीभर के है. तो, देखना तो इसे ही पड़ेगा. वैसे, आप निश्ंिचत रहें, हम दोनों ही इंदौरप्रेमी हैं और यहां से कहीं जाने वाले नहीं.’

मम्मी के इतने नपेतुले और संतुलित शब्दों में दिए गए उत्तर से मैं तो प्रभावित ही हो गई थी पर अकेले में प्रेरित से मिलते ही फट पड़ी थी, ‘‘यह सब क्या है, प्रेरित? आज के समय में जब जीवन के हर क्षेत्र में महिलाएं नितनई बुलंदियों के झंडे गाड़ रही हैं, मातापिता अपनी बेटियों को पढ़ानेलिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे तो ऐसे में इस तरह की बातें, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहीं. मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे पेरैंट्स इस प्रकार की सोच रखते हैं. जरूरत पड़ने पर मैं अपने मांपापा का सहारा नहीं बनूंगी तो कौन बनेगा. मैं पहले ही स्पष्ट किए देती हूं कि जिस तरह तुम्हारे मातापिता के लिए तुम ठीक हो वैसे ही अपने मातापिता के लिए मैं हूं, उन के लिए कुछ भी करने के लिए न मैं तुम्हें रोकूंगी और न ही मेरे मातापिता के लिए तुम मुझे रोकोगे और भविष्य में अपनेअपने मातापिता को हम खुद ही डील करेंगे. हां, जहां आवश्यकता होगी, हम एकदूसरे की मदद करेंगे.’

‘मुझे खुद इस बारे में कुछ पता नहीं था कि वे लोग कुछ दकियानूसी सोच वाले हैं. तुम जरा भी चिंता मत करो, बाद में सब ठीक हो जाएगा.’ यह कह कर प्रेरित ने मुझे उस समय बहला दिया था और इस के कुछ दिनों बाद ही मैं प्रेरित की दुलहन बन कर कानपुर आ गई थी. थोड़े से प्रयास से प्रेरित ने हम दोनों की पोस्ंिटग भी कानपुर ही करवा ली थी.

मेरे आने के बाद मांपापा अकेले हो गए थे लेकिन सब से अच्छी बात यह थी कि अपने जौब के अलावा दोनों ने ही गीतसंगीत, बागबानी और कुकिंग जैसे अनेक शौक पाल रखे थे, सो, दोनों ही बहुत व्यस्त रहते थे. इस के अलावा दोनों ही मौर्निंग वाक और व्यायाम को अपनी दिनचर्या में शामिल किए हुए थे. सो, फिजिकली भी वे बेहद फिट थे.

वहीं, प्रेरित के परिवार में इस सब से कोई लेनादेना नहीं था. सब देर तक सोते. यही नहीं, सभी कनपुरिया अंदाज में खाने के भी बहुत शौकीन थे और इसी सब का नतीजा था कि मम्मीजी और पापाजी दोनों ही बीपी, शुगर और ओबेसिटी के शिकार थे और आएदिन डाक्टर के यहां चक्कर लगाते थे. मैं अभी इस सब में ही उलझ थी कि बाथरूम के दरवाजे पर प्रेरित की आवाज आई, ‘‘तुम कर क्या रही हो, सुशीला दीदी पूरा काम कर के चली गईं, मैं औफिस के लिए रेडी हो गया और तुम हो कि नहाने में ही लगी हो. औफिस चलना है या नहीं?’’

‘‘अरे, समय का पता ही नहीं चला. बस, दो मिनट में आई,’’ कह कर मैं ने अपने नहाने व विचारों को बाइंडअप किया और बाहर आ कर फटाफट दोनों का टिफिन तैयार कर के नाश्ता टेबल पर लगा दिया और तैयार हो कर औफिस के लिए निकल पड़े. अभी मैं कार में बैठी ही थी कि मां का फोन आ गया. हम दोनों मां से बात कर सकें, इस के लिए मैं ने फोन स्पीकर पर डाल दिया.

‘‘कैसे हो बच्चो, तुम लोगों को एक गुड न्यूज देनी थी,’’ मां बोलीं.

‘‘हम लोग बिलकुल अच्छे हैं, मां. बस, अभी औफिस के लिए निकले ही हैं. कौन सी गुड न्यूज है, मां, जल्दी बताइए. आप पहले न्यूज बताया कीजिए, फिर और बातें किया कीजिए,’’ मैं ने आतुरता से मां से कहा.

‘‘अगले हफ्ते तेरे पापा का सीनियर सिटीजन क्लब की तरफ से सिक्किम में एक सैमिनार है. सो, हम दोनों ही जा रहे हैं. सैमिनार के बाद एक हफ्ते और रुक कर घूमेंगे, फिर वापस आएंगे. कल ही पता चला तो आज तुम्हें बता दिया.’’

‘‘वाऊ मां, यह तो सच में बहुत अच्छी न्यूज है. जाइएजाइए, खूब घूमिएगा और रोज मुझे पिक्स भेजिएगा. ठीक है, मां. अभी फोन रखती हूं. शाम को घर पहुंच कर बात करूंगी,’’ यह कह कर मैं ने फोन रख दिया. इस बीच प्रेरित बिलकुल शांत थे मानो मेरे मातापिता की अपने मातापिता से तुलना कर रहे हों.

मैं प्रेरित से कुछ बोल पाती, इस से पहले ही कार पार्किंग में लग चुकी थी. मैं और प्रेरित दोनों ही एकदूसरे को बाय कह कर अपनीअपनी केबिन की तरफ बढ़ गए थे. औफिस के कामों में जो हम उलझे तो शाम को 7 बजे ही मिले. वापस आते समय शरीर और मन इतना अधिक थक जाता है कि हम दोनों आमतौर पर शांत ही रहते हैं. घर आ कर डिनर कर के जो बैड पर लेटी तो कुछ अधूरे पन्ने फिर फड़फड़ाने लगे थे.

‘पूर्णशिक्षित होने के बाद भी प्रेरित के मम्मीपापा, बेटाबेटी के फर्क से जरा भी अछूते नहीं थे. बेटे के विवाह में खासे दानदहेज की भी उम्मीद थी उन्हें लेकिन प्रेरित की पसंद ने उन के अरमानों पर पानी फेर दिया था क्योंकि मैं और मम्मी दोनों ही दहेज की सख्त विरोधी थीं और मम्मी ने शुरू में ही स्पष्ट शब्दों में कह दिया था-

‘देखिए बहनजी, हम अपनी बेटी के विवाह में न तो दहेज देंगे और न ही हम उस का कन्यादान करेंगे.’

‘अरेअरे, यह क्या कह रहीं हैं आप, ऐसे विवाह में दहेज की तो हम भी उम्मीद नहीं करते लेकिन कन्यादान तो एक जरूरी रस्म है जिसे हर लड़की के मातापिता करते हैं ताकि उन्हें पुण्य प्राप्त हो सके. क्या आप उस पुण्य को प्राप्त नहीं करना चाहेंगे?’ प्रेरित के मम्मीपापा ने कहा.

‘मेरी बेटी कोई दान की वस्तु नहीं है जो मैं कन्यादान की रस्म करूं. मेरी बेटी हमारे घर की शान, हमारा अभिमान और गरूर है. हमारी बेटी ने हमें मातापिता होने का गौरव प्रदान किया है. कोई अपने गरूर और गौरव का दान करता है भला. कन्यादान की जगह हम प्रेरित और प्रेरणा को एकदूसरे का हाथ सौंप कर पाणिग्रहण संस्कार करेंगे क्योंकि विवाह के बाद जीवन के समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वहन इन्हें एकसाथ मिल कर करना है.’

मेरी मम्मी की इतनी तर्कपूर्ण बातें सुन कर प्रेरित के मम्मीपापा शांत हो गए थे और यही कारण था जिस से वे हमारे विवाह को राजी तो हो गए थे पर उतने खुश नहीं थे क्योंकि विवाह के बाद जब प्रेरित की ताईजी ने प्रेरित की मम्मी से पूछा, ‘बहू तो बढि़या है पर दानदहेज में क्याक्या मिला, वह भी दिखाओ या उसे सात परदों में रखने का विचार है.’

‘अरे जिज्जी, कैसी बातें करती हो. जो मिला, सो आप के सामने है. आप की जानकारी के लिए बता दें कि बहुरिया और उस के मम्मीपापा दानदहेज के सख्त विरोधी हैं,’ प्रेरित की मम्मी ने मेरी तरफ इशारा कर के निराशाभरे स्वर में कहा था.

‘हम ने तो सुना है कि बहू इकलौती है, कोई भाई नहीं है इस के तो बबलू (प्रेरित का घर का नाम) तुम्हें देखे कि आपन सासससुर को…’’ ताईजी कुछ कम नहीं थीं, सो, मम्मीजी की दुखती रग पर हाथ रख दिया था.

‘जिज्जी देखो, हमार तो दुई बिटवा हैं. बुढ़ापा तो बहुत आराम से कटे. चिंता तो वे करें जिन के बिटवा नहीं है. हमें किसी और के सहारे की का जरूरत. अब इस ब्याह में तो अरमान पूरे न हुए, बिट्टू के ब्याह में देखना अपने सारे अरमान पूरे करूंगी,’’ मम्मीजी ने लगभग मुझे सुनाते हुए कहा था.

विवाह के बाद हम दोनों हनीमून के लिए साउथ घूमने गए. मुन्नार, कन्याकुमारी, मदुरई जैसी प्राकृतिक छटाओं से भरपूर केरल को घूम कर हम दोनों ने दोनों माताओं के लिए कांजीवरम साडि़यां खरीदीं. जब मम्मीजी को साड़ी दी तो वे बड़ी खुश हुईं पर साथ ही यह बोलीं, ‘अपनी मम्मी के लिए नहीं लाईं? वैसे हमारे कानपुर में तो बेटियों से कुछ लिया नहीं जाता.’

‘जी, मम्मीजी, लाई हूं न, बिलकुल आप के जैसी, आप की ही तरह. वे भी मेरी प्यारी मां हैं न.’

मन के अंदर उठते तूफानी गुबार को किसी तरह शांत करते हुए मैं ने कहा था. इस के बाद हम दोनों ने अपने बैंक को जौइन कर लिया और जिंदगी बुलेट ट्रेन की स्पीड से दौड़ने लगी थी. दो वर्षों बाद मैं ने हमारे प्यार की निशानी आरुषी को जन्म दिया. एक बार फिर हमारी जिंदगी खुशियों से गुलजार हो उठी थी. पापामम्मी ढेर सारे साजोसामान के साथ अपनी नातिन से मिलने आए थे. इस के 4 वर्षों बाद घर का घटनाक्रम बहुत तेजी से बदला. हमारा प्रमोशन हुआ तो कानपुर से दिल्ली ट्रांसफर हो गया. प्रेरित के भाई प्रेरक का मैडिकल पूरा हो गया और उन की पोस्ंिटग लखनऊ के के जी मैडिकल कालेज में हो गई. मम्मीपापाजी अपने डाक्टर बेटे के लिए लड़की खोजने में लग गए. मेरी शादी में अधूरे रह गए अपने सभी अरमानों को मानो अब वे पूरा कर लेना चाहते थे. इस बीच जितने भी रिश्ते आए उन में जो मम्मीजी, पापाजी की कसौटियों पर खरे उतरे उन्हें शौर्ट लिस्ट कर के रख लिया गया था ताकि भैया जब छुट्टी में आएं तो उन का रिश्ता पक्का किया जा सके. जब भैया इस बार दीवाली पर आए तो पापाजी ने खुश होते हुए कुछ लड़कियों के फोटो उन के सामने रखते हुए कहा, ‘बेटा, अब तेरा ब्याह करना बचा है. बहुत सारे रिश्ते आए थे. उन में से जो हमें अच्छे लगे उन की फोटो रख कर शेष वापस कर दी हैं. अब इन में से तुम जिसे बताओ उसे ही फाइनल कर देते हैं.’

‘ये सब क्या है, पापा, मुझ से पूछे बिना आप लोगों ने किसी से बात क्यों कर ली? किसी भी बात को आगे बढ़ाने से पहले आप लोगों को एक बार मुझ से पूछना तो था न?’ प्रेरक भैया ने एकदम आवेश में कहा तो मम्मीजी बोलीं, ‘अरे, तो हम ने कौन सी फाइनल कर दी है. तू देख ले, जो तुझे अच्छी लगे, बता दे. सब का अच्छाखासा खातापीता परिवार है, जानेमाने पैसे वाले लोग हैं और पढ़ीलिखी लड़की है. अच्छा दानदहेज देने को भी तैयार हैं ये सब. शर्माजी की लड़की तो 2 भाइयों के बीच अकेली बहन है, सो, प्रेरित की तरह ससुराल की भी कोई जिम्मेदारी नहीं है.’

‘मैं कोई फोटोवोटो नहीं देखने वाला क्योंकि मैं अपने साथ की ही एक लड़की सुगंधा से प्यार करता हूं जो मेरी ही तरह एक डाक्टर है. मैं उसी से शादी भी करूंगा. इसलिए आप ने जिन से भी बात की है उन्हें मना कर दें और ये फोटो भी वापस कर दें. हां, यह भी बता दूं कि सुगंधा जाति से ठाकुर है.’

इतना सुनते ही पापाजी आगबबूला हो उठे थे, ‘दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा? तुम्हारे बड़े भाई ने अपनी पसंद से शादी की तो तुम कैसे पीछे रहोगे. अरे एक बार यह तो सोचा होता कि हमारे भी कुछ अरमान होंगे. आजकल के बच्चों को जरा पढ़नेलिखने बाहर क्या भेज दो, उन के दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं. मेरे जीतेजी तो यह ब्याह नहीं हो सकता.’

इस के बाद घर में तूफान सा आ गया था. प्रेरक भैया अवकाश समाप्त होने के बाद चले गए थे. इस के बाद जब अपने घुटने के दर्द के इलाज के लिए मम्मीजी और पापाजी हमारे पास दिल्ली आए तो प्रेरित से अपने भाई को समझने के लिए कहा.

प्रेरित बोले, ‘आप लोग समझते क्यों नहीं, अब जमाना बदल गया है. आप लोगों को भी अपनी सोच बदलनी पड़ेगी. यदि बिट्टू को कोई परेशानी नहीं है तो हम सब को भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. आखिर अपनी जिंदगी तो उसे ही जीनी है, न कि हमें. मेरी मानिए और अगले मुहूर्त में दोनों की शादी करवा दीजिए.’

‘हांहां, तुम तो उस का पक्ष लोगे ही. चिनगारी तो तुम्हीं ने लगाई थी न. तुम ने कम से कम अपनी जातिबिरादरी का तो ध्यान रखा था, यह तो और दस कदम आगे निकला,’ मम्मीजी ने हम दोनों पर ही कटाक्ष करते हुए कहा था.

इस के बाद कुछ दिनों तक घर में उन के ब्याह की चर्चाएं समाप्त सी हो गई थीं. एक वर्ष तक मानमनौवल होती रही. पर कहते हैं न, कि इश्क पर जोर नहीं. सो, आखिरकार बड़े बेमन से मम्मीपापाजी उन की शादी को राजी हुए.

पर रिटायरमैंट की सारी प्लानिंग को धराशायी होते देख अब दोनों ही घोर निराशा से घिर गए थे. बीमार तो पहले ही रहते थे, अब तनाव भी होने लगा था. सो गठिया, सर्वाइकल स्पौंडिलाइसिस जैसी अनेक बीमारियों ने भी आ घेरा था. सब से बड़ी समस्या यह थी कि मम्मीजी कहीं भी एडजस्ट नहीं कर पाती थीं. उन्हें कानपुर के सिवा कहीं अच्छा नहीं लगता था.

हम जब तक दिल्ली में थे, बमुश्किल 15 दिनों तक हमारे पास रह कर वापस चले जाते थे. अब यहां मुंबई के तो नाम से ही घबराने लगते हैं वे दोनों. यह सब सोचतेसोचते कब मेरी आंख लग गई, पता ही नहीं चला. अगले दिन शनिवार था, सो, थोड़े आराम से ही उठी. सुबह के काम निबटा कर बैठी ही थी कि इंदौर से मां का फोन आ गया, ‘‘कितनी बिजी हो गई है हमारी बिटिया कि मांपापा से बात करने की भी फुरसत नहीं.’’

‘‘अरे हां मां, रात को थक गई थी तो सो गई थी. आप बताइए तैयारी शुरू कर दी घूमने की. मां, वहां पहाड़ी एरिया है, स्पोर्ट्स शूज जरूर ले जाइएगा. और हां, अपना और पापा का एकएक स्वेटर भी रख लेना, ठंडक रहेगी वहां.’’

‘‘अरे हां, रचना, सब रख लूंगी. तुम लोग अपना ध्यान रखो और हां, हम दोनों आज अपने ग्रुप के साथ मांडू घूमने जा रहे हैं. नाइट स्टे भी वहीं करेंगे. हो सकता है वहां नैटवर्क न मिल पाए, सो तुम परेशान न होना. परसों लौट कर बात करते हैं,’’ कह कर मां ने फोन रख दिया.

जब से पापा रिटायर हुए हैं, उन का अपने यारदोस्तों का एक ग्रुप है और सभी एकसाथ घूमतेफिरते और लाइफ को एंजौय करते हैं. मैं सुबह से नोटिस कर रही थी कि जब से मम्मीजी का फोन आया है, प्रेरित बहुत उदास और चुप हैं मानो उन के मन में कुछ आत्ममंथन चल रहा हो. अभी भी मेरी बगल में टीवी खोल कर बैठे हैं पर मन कहीं और है. सो, मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ, आज छुट्टी वाले दिन भी शक्ल पर बारह क्यों बजा रखे हैं?’’

‘‘कुछ नहीं. बस, ऐसे ही. कल से दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा. कल से मांबाबूजी के शब्द ही कानों में गूंज रहे हैं. मैं उन की दकियानूसी सोच से परिचित हूं. यह भी जानता हूं कि वे आज भी अपने मनमुताबिक जीना पसंद करते हैं पर यह भी कटु सत्य है कि वे मेरे मातापिता हैं और मुझे यहां तक पहुंचाने में उन्होंने एड़ीचोटी का जोर लगाया है पर आज जब वे तकलीफ में हैं तो मैं बेबस हूं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं और कैसे करूं. उन के लिए कुछ न कर पाने का गिल्ट मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है,’’ कहतेकहते प्रेरित की आंखें भर आईं.

‘‘ओह, इतनी सी बात है. सच कहूं तो मैं खुद तुम से इस बारे में बात करना चाह रही थी. प्रेरित, मातापिता चाहे तुम्हारे हों या मेरे, आखिर वे हमारे मातापिता हैं और आज हम जो कुछ भी हैं अपने मातापिता की बदौलत ही हैं. इसलिए आज उन्हें जब हमारी जरूरत है तो उन्हें अकेले छोड़ना सही नहीं है. यों भी इतने बड़े फ्लैट में हम 2 ही तो रहते हैं. आरुषी के जाने के बाद पूरे घर में हमेशा सन्नाटा पसरा रहता है और औफिस से आने के बाद घर मानो काटने को दौड़ता है. वे रहेंगे तो घर भराभरा रहेगा, तुम और मैं टैंशनफ्री रहेंगे और घर उन की आपस की नोंकझंक से गुलजार रहेगा.’’

‘‘पर क्या वे यहां एडजस्ट हो पाएंगे?’’ प्रेरित ने कुछ सशंकित होते हुए कहा.

‘‘प्रेरित, इस उम्र में उन्हें नहीं, हम दोनों को एडजस्ट करना होगा और जब हम दोनों उन के साथ कंफर्टेबल और एडजस्ट हो जाएंगे तो वे तो खुदबखुद ही एडजस्ट हो जाएंगे. तुम कानपुर जा कर उन्हें ले आओ. यह सही है कि वे आने में आनाकानी करेंगे पर उन की सही देखभाल भी यहीं हो पाएगी, यह भी कटु सत्य है.

‘‘शुरुआत में हम दोनों मिल कर कुछ छुट्टियां ले लेंगे और फिर पूरे दिन के लिए एक मेड लगा देंगे जिस से उन के लिए रहना थोड़ा आसान हो जाएगा. सुबहशाम उन्हें नीचे ले चला करेंगे, वीकैंड पर उन्हें अपने साथ घुमाने ले चला करेंगे. फिर देखना, धीरेधीरे उन्हें अच्छा लगने लगेगा. यहां अच्छे डाक्टर्स भी हैं जिन से उन का इलाज करवा देंगे. तुम आज ही फ्लाइट से बुकिंग कर लो और उन्हें ले आओ. उन के यहां आ जाने से हम दोनों भी अपने काम पर फोकस कर पाएंगे.’’ मैं ने जब प्रेरित के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्रेरित खुश हो कर बोले, ‘‘रचना, ले तो मैं आऊंगा, बस, यहां तुम संभाल लेना.’’

‘‘तुम चिंता मत करो. बस, उन्हें लाने के बारे में सोचो,’’ मैं ने यह कहा तो प्रेरित तुरंत अपना लैपटौप खोल कर बैठ गए और बोले, ‘‘मैं अभी बुकिंग करता हूं. मुझे तुम पर हमेशा इसीलिए गर्व होता है क्योंकि तुम बड़ी से बड़ी समस्या को चुटकियों में हल कर देती हो. देखो न, तुम ने तो दो मिनट में मेरी इतनी बड़ी समस्या हल कर दी. मैं अब खुद को इतना हलका महसूस कर रहा हूं कि बता नहीं सकता.’’

‘‘प्रेरित, मातापिता चाहे मेरे हों या तुम्हारे, बुढ़ापे में उन की जरूरतों को समझना और उन के अनुसार खुद को बदलना हमारी जिम्मेदारी है न कि उन की. हां, एक बात तो माननी पड़ेगी कि यहां पर मेरे मम्मीपापा का रिटायरमैंट प्लान सक्सैस हो गया,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘इस में तो कोई शक नहीं. और हां, हमें भी अभी से उन का प्लान ही फौलो करना चाहिए,’’ प्रेरित ने यह कहते हुए मुझे अपने आलिंगन में भर लिया और इस के बाद हम दोनों ही अपनीअपनी तैयारियों में जुट गए. प्रेरित मम्मीजी, पापाजी को कानपुर से मुंबई लाने की और मैं खुद में और घर में कुछ बदलावों की.

Motivational Story : मां की सहेली

लेखक –  चंद्रभान ‘राही’

एक वक्त था जब गायत्री के सामने प्रिया उन की छोटी सी प्यारी बच्ची थी और आज वही प्रिया मां के रूप में अपनी बच्ची के सामने खड़ी थी. लेकिन ममता का रूप कभी नहीं बदलता. जो ममता गायत्री के मन में प्रिया के लिए थी वही आज प्रिया के हृदय में अपनी बेटी के लिए भी.

दालान से गायत्री ने अपनी बेटी की चीख सुनी और फिर तेजी से पेपर वेट के गिरने की आवाज आई तो उन के कान खड़े हो गए. उन की बेटी प्रिया और नातिन रानी में जोरों की तूतू, मैंमैं हो रही थी. कहां 10 साल की बच्ची रानी और कहां 35 साल की प्रिया, दोनों का कोई जोड़ नहीं था. एक अनुभवों की खान थी और दूसरी नादानी का भंडार, पर ऐसे तनी हुई थीं दोनों जैसे एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों.

‘‘आखिर तू मेरी बात नहीं सुनेगी.’’

‘‘नहीं, मैं 2 चोटियां करूंगी.’’

‘‘क्यों? तुझे इस बात की समझ है कि तेरे चेहरे पर 2 चोटियां फबेंगी या 1 चोटी.’’

‘‘फिर भी मैं ने कह दिया तो कह दिया,’’ रानी ने अपना अंतिम फैसला सुना डाला और इसी के साथ चांटों की आवाज सुनाई दी थी गायत्री को.

रात गहरा गई थी. गायत्री सोने की कोशिश कर रही थीं. यह सोते समय चोटी बांधने का मसला क्यों? जरूर दिन की चोटियां रानी ने खोल दी होंगी. वह दौड़ कर दालान में पहुंचीं तो देखा कि प्रिया के बाल बिखरे हुए थे. साड़ी का आंचल जमीन पर लोट रहा था. एक चप्पल उस ने अपने हाथ में उठा रखी थी. बेटी का यह रूप देख कर गायत्री को जोरों की हंसी आ गई. मां की हंसी से चिढ़ कर प्रिया ने चप्पल नीचे पटक दी. रानी डर कर गायत्री के पीछे जा छिपी.

‘‘पता नहीं मैं ने किस करमजली को जन्म दिया है. हाय, जन्म देते समय मर क्यों नहीं गई,’’ प्रिया ने माथे पर हाथ मार कर रोना शुरू कर दिया.

अब गायत्री के लिए हंसना मुश्किल हो गया. हंसी रोक कर उन्होंने झिड़की दी, ‘‘क्या बेकार की बातें करती है. क्या तेरा मरना देखने के लिए ही मैं जिंदा हूं. बंद कर यह बकवास.’’

‘‘अपनी नातिन को तो कुछ कहती नहीं हो, मुझे ही दोषी ठहराती हो,’’ रोना बंद कर के प्रिया ने कहा और रानी को खा जाने वाली आंखों से घूरने लगी.

‘‘क्या कहूं इसे? अभी तो इस के खेलनेखाने के दिन हैं.’’

इस बीच गायत्री के पीछे छिपी रानी, प्रिया को मुंह चिढ़ाती रही.

प्रिया की नजर उस पर पड़ी तो क्रोध में चिल्ला कर बोली, ‘‘देख लो, इस कलमुंही को, मेरी नकल उतार रही है.’’

गायत्री ने इस बार चौंक कर देखा कि प्रिया अपनी बेटी की मां न लग कर उस की दुश्मन लग रही थी. अब उन के लिए जरूरी था कि वह नातिन को मारें और प्रिया को भी कस कर फटकारें. उन्होंने रानी का कान ऐंठ कर उसे साथ के कमरे में धकेल दिया और ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘प्रिया, रानी के लिए तू ऐसा अनापशनाप मत बका कर.’’

प्रिया गायत्री की बड़ी लड़की है और रानी, प्रिया की एकलौती बेटी. गरमियों में हर बार प्रिया अपनी बेटी को ले कर मां के सूने घर को गुलजार करने आ जाती है.

गायत्री ने अपने 8 बच्चों को पाला है. उन की लड़कियां भी कुछ उसी प्रकार बड़ी हुईं जिस तरह आज रानी बड़ी हो रही है. बातबात पर तनना, ऐंठना और चुप्पी साध कर बैठ जाना जैसी आदतें 8-10 वर्ष की उम्र से लड़कियों में शुरू होने लगती हैं. खेलने से मना करो तो बेटियां झल्लाने लगती हैं. पढ़ने के लिए कहो तो काटने दौड़ती हैं. घर का थोड़ा काम करने को कहो तो भी परेशानी और किसी बात के लिए मना करो तो भी.

 

प्रिया के साथ जो पहली घटना घटी थी वह गायत्री को अब तक याद है. उन्होंने पहली बार प्रिया को देर तक खेलते रहने के लिए चपत लगाई थी तो वह भी हाथ उठा कर तन कर खड़ी हो गई थी. गायत्री बेटी का वह रूप देख कर अवाक् रह गई थीं.

प्रिया को दंड देने के मकसद से घर से बाहर निकाला तो वह 2 घंटे का समय कभी तितलियों के पीछे भागभाग कर तो कभी आकाश में उड़ते हवाई जहाज की ओर मुंह कर ‘पापा, पापा’ की आवाज लगा कर बिताती रही थी पर उस ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मां, दरवाजा खोल दो, मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.

घड़ी की छोटी सूई जब 6 को भी पार करने लगी तब गायत्री स्वयं ही दरवाजा खोल कर प्रिया को अंदर ले आई थीं और उसे समझाते हुए कहा था, ‘ढीठ, एक बार भी तू यह नहीं कह सकती थी कि मां, दरवाजा खोल दो.’

प्रिया ने आंखें मिला कर गुस्से से भर कर कहा था, ‘मैं क्यों बोलूं? मेरी कितनी बेइज्जती की तुम ने.’

अपने नन्हे व्यक्तित्व के अपमान से प्रिया का गला भर आया था. गायत्री हैरान रह गई थीं. उस दिन के बाद से प्रिया का व्यवहार ही जैसे बदल सा गया था.

ऐसी ही एक दूसरी घटना गायत्री को नहीं भूलती जब वह सिरदर्द से बेजार हो कर प्रिया से बोली थीं, ‘बेटा, तू ये प्लेटें धो लेना, मैं डाक्टर के पास जा रही हूं.’

प्रिया मां की गोद में बिट्टो को देख कर ही समझ गई थी कि बाजार जाने का उस का पत्ता काट दिया गया है.

गायत्री बाजार से घर लौट कर आईं तो देखा कि प्रिया नदारद है और प्लेट, पतीला सब उसी तरह पड़े हुए थे. गायत्री की पूरी देह में आग लग गई पर बेटी से उलझने का साहस उन में न हुआ था. क्योंकि पिछली घटना अभी गायत्री भूली नहीं थीं. गोद के बच्चे को पलंग पर बैठा कर क्रोध से दांत किटकिटाते हुए उन्होंने बरतन धोए थे. चूल्हा जला कर खाना बनाने बैठ गई थीं.

इसी बीच प्रिया लौट आई थी. गायत्री ने सभी बच्चों को खाना परोस कर प्रिया से कहा था, ‘तुझे घंटे भर बाद खाना मिलेगा, यही सजा है तेरी.’

प्रिया का चेहरा फक पड़ गया था. मगर वह शांत रह कर थोड़ी देर प्रतीक्षा करती रही थी. उधर गायत्री अपने निर्णय पर अटल रहते हुए 1 घंटे बाद प्रिया को बुलाने पहुंचीं तो उस ने देखा कि वह दरी पर लुढ़की हुई थी.

गायत्री ने उसे उठ कर रसोई में चलने को कहा तो प्रिया शांत स्वर में बोली थी, ‘मैं न खाऊंगी, अम्मां, मुझे भूख नहीं है.’

गायत्री ने बेटी को प्यार से घुड़का था, ‘चल, चल खा और सो जा.’

प्रिया ने एक कौर भी न तोड़ा. गायत्री के पैरों तले जमीन खिसक गई थी. इस के बाद उन्होंने बहुत मनाया, डांटा, झिड़का पर प्रिया ने खाने की ओर देखा भी नहीं था. थक कर गायत्री भी अपने बिस्तर पर जा बैठी थीं. उस रात खाना उन से भी न खाया गया था.

दूसरे दिन प्रिया ने जब तक खाना नहीं खाया गायत्री का कलेजा धकधक करता रहा था.

उस दिन की घटना के बाद गायत्री ने फिर खाने से संबंधित कोई सजा प्रिया को नहीं दी थी. प्रिया कई बार देख चुकी थी कि गायत्री उस की बेहद चिंता करती थीं और उस के लिए पलकें बिछाए रहती थीं. फिर भी वह मां से अड़ जाती थी, उस की कोई बात नहीं मानती थी. इतना ही नहीं कई बार तो वह भाईबहन के युद्ध में अपनी मां गायत्री पर ताना कसने से भी बाज नहीं आती, ‘हां…हां…अम्मां, तुम भैया की ओर से क्यों न बोलोगी. आखिर पूरी उम्र जो उन्हीं के साथ तुम्हें रहना है.’

 

गायत्री ने कई घरों के ऐसे ही किस्से सुन रखे थे कि मांबेटियों में इस बात पर तनातनी रहती है कि मां सदा बेटों का पक्ष लेती हैं. वह इस बात से अपनी बेटियों को बचाए रखना चाहती थीं पर प्रिया को मां की हर बात में जैसे पक्षपात की बू आती थी.

ऐसे ही तानों और लड़ाइयों के बीच प्रिया जवानी में कदम रखते ही बदल गई थी. अब वह मां का हित चाहने वाली सब से प्यारी सहेली हो गई थी. जिस बात से मां को ठेस लग सकती हो, प्रिया उसे छेड़ती भी नहीं थी. मां को परेशान देख झट उन के काम में हाथ बंटाने के लिए आ जाती थी. मां के बदन में दर्द होता तो उपचार करती. यहां तक कि कोई छोटी बहन मां से अकड़ती, ऐंठती तो वही प्रिया उसे समझाती कि ऐसा न करो.

बेटों के व्यवहार से मां गायत्री परेशान होतीं तो प्रिया उन की हिम्मत बढ़ाती. गायत्री उस के इस नए रूप को देख चकित हो उठी थीं और उन्हें लगने लगा था कि औरत की दुनिया में उस की सब से पक्की सहेली उस की बेटी ही होती है.

यही सब सोचतेविचारते जब गायत्री की नींद टूटी तो सूरज का तीखा प्रकाश खिड़की से हो कर उन के बिछौने पर पड़ रहा था. रात की बातें दिमाग से हट गई थीं. अब उन्हें बड़ा हलका महसूस हो रहा था. जल्दी ही वह खाने की तैयारी में जुट गईं.

 

आटा गूंधते हुए उन्होंने एक बार खिड़की से उचक कर प्रिया के कमरे में देखा तो उन के होंठों पर हंसी आ गई. प्रिया रानी के सिरहाने बैठी उस का माथा सहला रही थी. गायत्री को लगा वह प्रिया नहीं गायत्री है और रानी, रानी नहीं प्रिया है. कभी ऐसे ही तो ममता और उलझन के दिन उन्होंने भी काटे हैं.

गायत्री ने चाहा एक बार आवाज दे कर रानी को उठा ले फिर कुछ सोच कर वह कड़ाही में मठरियां तलने लगीं. उन्हें लगा, प्रिया उठ कर अब बाहर आ रही है. लगता है रानी भी उठ गई है क्योंकि उस की छलांग लगाने की आवाज उन के कानों से टकराई थी.

अचानक प्रिया के चीखने की आवाज आई, ‘‘मैं देख रही हूं तेरी कारस्तानी. तुझे कूट कर नहीं धर दिया तो कहना.’’

कितना कसैला था प्रिया का वाक्य. अभी थोड़ी देर पहले की ममता से कितना भिन्न पर गायत्री को इस वाक्य से घबराहट नहीं हुई. उन्होंने देखा रानी, प्रिया के हाथों मंजन लेने से बच रही है. एकाएक प्रिया ने गायत्री की ओर देखा तो थोड़ा झेंप गई.

‘‘देखती हो अम्मां,’’ प्रिया चिड़चिड़ा कर बोली, ‘‘कैसे लक्षण हैं इस के? कल थोड़ा सा डांट क्या दिया कि कंधे पर हाथ नहीं धरने दे रही है. रात मेरे साथ सोई भी नहीं. मुझ से ही नहीं बोलती है मेरी लड़की. तुम्हीं बोलो, क्या पैरों में गिर कर माफी मांगूं तभी बोलेगी यह,’’ कह कर प्रिया मुंह में आंचल दे कर फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐंठी, तनी रानी का सारा बचपन उड़ गया. वह थोड़ा सहम कर प्रिया के हाथ से मंजनब्रश ले कर मुंह धोने चल दी.

गायत्री ने जा कर प्रिया के कंधे पर हाथ रखा और झिड़का, ‘‘यह क्या बचपना कर रही है. रानी आखिर है तो तेरी ही बच्ची.’’

‘‘हां, मेरी बच्ची है पर जाने किस जन्म का बैर निकालने के लिए मेरी कोख से पैदा हुई है,’’ प्रिया ने रोतेसुबकते कहा, ‘‘यह जैसेजैसे समझदार होती जा रही है, इस के रंगढंग बदलते जा रहे हैं.’’

‘‘तो चिंता क्यों करती है?’’ गायत्री ने फुसफुसा कर बेहद ममता से कहा, ‘‘थोड़ा धीरज से काम ले, आज की सूखे डंडे सी तनी यह लड़की कल कच्चे बांस सी नरम, कोमल हो जाएगी. कभी इस उम्र में तू ने भी यह सब किया था और मैं भी तेरी तरह रोती रहती थी पर देख, आज तू मेरे सुखदुख की सब से पक्की सहेली है. थोड़ा धैर्य रख प्रिया, रानी भी तेरी सहेली बनेगी एक दिन.’’

‘‘क्या?’’ प्रिया की आंखें फट गईं.

‘‘क्यों अम्मां, मैं ने भी कभी आप का इसी तरह दिल दुखाया था? कभी मैं भी ऐसे ही थी सच? ओह, कैसा लगता होगा तब अम्मां तुम्हें?’’

बेटी की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू देख कर गायत्री की ममता छलक उठी और उन्होंने बेटी के आंसुओं को आंचल में समेट कर उसे गले से लगा लिया.

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