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Best Hindi Story : वो लंदन की हिंदी बोलने वाली लड़की

Best Hindi Story : पिछले हफ्ते मैं जब ब्रिटेन से घर लौटा तो मुझे महसूस हुआ जैसे मैं आधा अधूरा हो कर लौटा हूं. मन में कहीं यह अपराधबोध था कि मैं ने यौवन और सौंदर्य से भरपूर नारी के आमंत्रण को ठुकरा कर उस की भावनाओं को आहत किया था. इस में उस औरत का क्या दोष? हर किसी के भीतर स्थायी व संचारी भाव होते हैं. कभी कोई भाव इनसान पर हावी रहता है तो कभी कोई. उस समय उस के रति भाव का मुझे मान रखना चाहिए था.

ब्रिटेन के लंदन, बर्मिंघम, मैनचेस्टर, यार्कशायर, नाटिंघम आदि शहरों में स्थित यू.के. हिंदी समिति, गीतांजलि, हिंदी भाषा समिति, भारतीय भाषा संगम आदि संस्थाओं ने मुझे हिंदी दिवस के अवसर पर अलगअलग समारोहों के लिए आमंत्रित किया था.

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लंदन में मेरी मुलाकात मैगी से हुई थी. वह छरहरे बदन की युवती थी. समारोह समापन के बाद वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘आप के व्याख्यान और व्यक्तित्व ने मुझे बेहद प्रभावित किया है. मैं आप के दिशानिर्देशन में एक पुस्तक लिखना चाहती हूं. मुझे हिंदी भाषा से बेहद लगाव है.’’

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एक अंगरेज लड़की के मुख से इतनी शुद्ध हिंदी सुन कर मैं भौचक रह गया. मुझे इस स्थिति में देख कर उस ने बताया था कि उस के पिता ब्रिटेन के हैं और मां भारत की. मैं मां के साथ भारत जाती रहती हूं. वह मुझ से हिंदी में ही बात करती हैं और सच कहूं तो हिंदी में बोलना मुझे अंगरेजी से ज्यादा सहज लगता है. आप भारत से आए हैं और हिंदी के प्रखर विद्वान हैं यह जान कर मैं खुद को आप से मिलने के लिए रोक न सकी.

मैगी से मिल कर मुझे भी बहुत खुशी हुई. वह लंदन में किसी कंपनी में नौकरी करती थी. उस के मातापिता यार्कशायर में रहते थे.

लंदन में मेरा 3 दिन का कार्यक्रम था. इन 3 दिन में हमारे बीच खासी मित्रता हो गई. उस ने मुझे पूरा लंदन घुमा दिया. आखिरी दिन मुझे रात्रिभोज के लिए उस ने अपने घर पर आमंत्रित किया तो मैं उस के स्नेहिल निमंत्रण को ठुकरा न सका.

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शाम को 7 बजे मैं उस के बताए पते पर पहुंच गया. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया. कौफी के लिए जब वह रसोई में गई तो मैं ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाई. कमरा छोटा जरूर था पर था पूरी तरह व्यवस्थित. अलमारी में ढेरों हिंदी की किताबें रखी थीं. मेज पर जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रखी थी. शायद वह उसे पढ़ रही थी.

‘लीजिए, प्रो. पल्लवजी, कौफी,’ कहते हुए उस ने मुझे कप थमाया तो मैं मुसकरा कर बोला, ‘यहां आ कर तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं किसी पुस्तकालय में आ गया हूं.’

कौफी पीने के थोड़ी देर बाद मैगी ने खाना लगा दिया. खाना खाने के बाद वह बोली, ‘पल्लवजी, जिस तरह कालिदास के ‘मेघदूत’ में प्रेमिका का रूप वर्णन है उसी तरह मैं भी अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी के अनोखे रूप का वर्णन करना चाहती हूं.’

यह सुन कर मुझे हंसी आ गई, ‘तो तुम कालिदास बनना चाहती हो.’

‘मैं कालिदास तो नहीं बन सकती लेकिन अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी का रूप तो उतार सकती हूं,’ कहती हुई वह मेरे नजदीक कुछ ज्यादा ही खिसक आई थी. उस के इरादे भांप कर मैं उसे अपने से दूर करता हुआ बोला, ‘इस में मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?’

मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए मैगी रोमांटिक अंदाज में बोली, ‘इस में आप ही मेरी मदद कर सकते हैं. मैं आप को अपना प्रेमी मान कर, आप के रूप को निहार कर, हर भाव को पढ़ कर ही तो कुछ लिख सकूंगी,’ कहते हुए मैगी मुझ पर पूरी तरह झुक गई थी.

मैं जानता था कि मैगी उस समय होश में नहीं थी क्योंकि खाने के बाद उस ने बीयर का एक बड़ा पैग लिया था. उन नाजुक क्षणों में मैं ने अपनी भावनाओं को पूरी तरह नियंत्रण में रखते हुए उसे परे धकेल दिया और जोर से चीखा, ‘तुम होश में तो हो, मैगी.’

मैगी अपनी ही रौ में बोली, ‘बिना अनुभव और सत्यता के कोई भी एक शब्द नहीं लिख सकता. चाहे वह कितना ही महान कवि और लेखक क्यों न हो,’ कहते हुए वह मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर झूल गई.

मैं बड़ी बेरहमी से मैगी को अपने से अलग करते हुए बोला, ‘क्या तुम ने अश्विनी दत्त की ‘भक्तियोग’ नहीं पढ़ी, जिस में लिखा है कि ब्रह्मचारी को नारी से दूर रहना चाहिए. मैं ने तब तक ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा है जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लूं. तुम्हारे उन्माद में साथ दे कर मैं अपने त्याग को व्यर्थ नहीं करना चाहता.’

‘लेकिन पल्लवजी, मैं ने भी किसी पुस्तक में पढ़ा है कि भोग के बिना त्याग की स्थिति तक नहीं पहुंचा जा सकता.’

उस का जवाब दिए बगैर मैं वापस अपने होटल आ गया था. फिर कार्यक्रमों को पूरा कर मैं वापस भारत आ गया.

मेरा लक्ष्य था एक पुस्तक लिखने का, जोकि बहुत ही जटिल विषय पर आधारित थी और जिस के लिए मैं ने ब्रह्मचर्य धारण किया था. पिछले 2 सालों से वह अधूरी पड़ी थी. उसे पूरा कर के ही मैं अपने व्रत को तोड़ना चाहता था. यद्यपि इस प्रतिज्ञा से मेरे मातापिता खासे नाराज थे. उन का मानना था कि विवाह किसी कार्यविशेष में बाधक नहीं बल्कि सहायक है क्योंकि जीवनसाथी की प्रेरणा से ही ऊर्जा और प्रेम प्राप्त होता है.

मैंजब भी लिखने बैठता मैगी का रूपयौवन मुझे उद्वेलित कर जाता और मैं लिखना भूल कर उस के खयालों में डूब जाता. कभी न कभी तो मुझे खुद झुरझुरी आ जाती कि आखिर मुझे हो क्या गया है. कहां मैं हिंदी का इतना बड़ा विद्वान जो पचासों पुस्तकें और सैकड़ों कहानियां लिख चुका हूं, आज एक लाइन तक नहीं लिख पा रहा हूं. जिस उद्देश्य के लिए मैं ने मैगी को ठुकराया था अब उसी को पाने को मन क्यों बारबार मचल उठता है. जितना ही मैं उसे अपने खयालों से दूर करने की कोशिश करता उतना ही वह अपने पूरे वजूद के साथ मेरे पास आ कर मुझे बेचैन करती. ऐसी स्थिति में एक साल बीत गया और मेरी पुस्तक अधूरी ही पड़ी रही.

अचानक एक दिन लंदन की एक हिंदी संस्था ने मुझे पुस्तक विमोचन के लिए आमंत्रित किया. यह निमंत्रण पा कर मैं खुशी से उछल पड़ा. मैगी से मिलन की अनुभूति मात्र से मैं रोमांचित हो उठा था.

हवाई अड्डे पर संस्था के सदस्यों ने मेरा स्वागत किया तथा मुझे होटल पहुंचाया. पुस्तक का विमोचन शाम को था इसलिए सोचा कि विमोचन के बाद होटल से अपना सामान ले कर सीधा मैगी के घर जाऊंगा और अपनी पूर्व की गलती की क्षमा भी मांग लूंगा.

शाम को मेरा मन पुस्तक विमोचन में कम और मैगी में अधिक था. विमोचन की गई पुस्तक का शीर्षक था ‘प्रेरणा.’ लेखिका के रूप में मैगी का नाम पढ़ कर पूरे शरीर में सनसनी फैल गई.

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मैगी मुसकरा कर मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया. संस्था के अध्यक्ष बोले, ‘पल्लवजी, मैगी का विशेष आग्रह था कि इस पुस्तक के विमोचन के लिए भारत से सिर्फ आप को ही बुलाया जाए.’

मैं वहीं मंच पर बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगा. भूमिका में लिखा था, ‘मेरी प्रेरणा के प्रेरणास्रोत को सादर समर्पित  —मैगी.’

पुस्तक विमोचन के बाद मैं सीधा होटल गया. अब मैं मैगी की पुस्तक को पढ़ने के बाद ही उस के घर जाने की सोच रहा था. मैगी की इस ‘प्रेरणा’ नामक पुस्तक में हृदय से उपजी कविताओं का संग्रह था जो बेहद मार्मिक था. कविता की एकएक पंक्ति मेरे मन को छू गई.

अचानक दरवाजा खुला. सामने मैगी खड़ी पूछ रही थी, ‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं?’

‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारी ही कविताएं पढ़ रहा था. वाकई जवाब नहीं इन का. कितने सुंदर, सहज और मधुर भावों को समेट कर तुम ने इन कविताओं का सृजन किया है. कहां से मिली तुम्हें प्रेरणा? आखिर कौन है तुम्हारा प्रेरणास्रोत?’

मैगी मुसकरा कर निरुत्तर सी बस, मुझे देखती रही.

मैं भावावेश में बोला, ‘मैगी, मैं तो तुम से मिलने के बाद से ही कुछ बेचैनी सी अनुभव करने लगा हूं. इस वजह से मैं 3 साल से अधूरी पड़ी अपनी पुस्तक को भी पूरी नहीं कर पाया. प्लीज, तुम मेरी मदद करो, मुझे संभालो और सहारा दो,’ कहते हुए मैं ने उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया.

मैगी फुरती दिखाते हुए एक झटके से मुझ से अलग हो गई और तेज स्वर मैं बोली, ‘आप को शरम नहीं आती एक औरत के साथ जबरदस्ती करते हुए.’

उस के इस अप्रत्याशित रूप और व्यवहार को देख कर मैं हतप्रभ रह गया. मेरा जोश बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया. मैं सोचने लगा, पहले तो खुद को समर्पित करने के लिए आतुर थी, आज सती होने का ढोंग रच रही है. लगता है इसे अपनी ‘प्रेरणा’ पर बहुत गर्व हो रहा है और खुद को बहुत बड़ी लेखिका समझने लगी है. अब मैं भी अपनी वर्षों से अधूरी पड़ी पुस्तक को पूरा कर के साहित्याकाश में तहलका मचा दूंगा.

भारत आने के बाद मैं अपनी पुस्तक को पूरा करने में एकाग्र हो कर जुट गया. मुझे ताज्जुब हुआ कि जो काम मैं पिछले 3 वर्षों से नहीं कर पा रहा था वह मात्र 3 माह में हो गया. पुस्तक का विमोचन शहर के प्रसिद्ध प्रेक्षागृह में होना था. इस अवसर पर मैं ने लंदन से मैगी को भी आमंत्रित किया.

पुस्तक विमोचन के अवसर पर हिंदी जगत की सैकड़ों जानीमानी हस्तियां मौजूद थीं लेकिन मैगी नहीं आई तो मुझे अत्यधिक निराशा हुई.

मेरी इस पुस्तक ने देशविदेश में तहलका मचा दिया. अपनी इस उपलब्धि पर मैं इतरा उठा. अचानक एक दिन मैगी का पत्र देख कर मुझे आश्चर्य हुआ.

‘‘मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत

प्रो. पल्लवजी, आप को  सादर नमस्कार.

स्वास्थ्य अच्छा न होने की वजह से आप के पुस्तक विमोचन के अवसर पर न आ सकी, इस के लिए क्षमा मांगती हूं. आप ने मुझ से पूछा था कि मेरी ‘प्रेरणा’ का पे्ररणास्रोत कौन है? अब मैं बताती हूं, वह आप हैं, सिर्फ आप. अगर आप उस रात मुझे न संभालते तो शायद इस ‘प्रेरणा’ का जन्म ही नहीं होता. आप के ठुकराने से मैं अंदर तक आहत अवश्य हुई थी लेकिन मैं ने अपने भीतर कुछ नया सा महसूस किया था, शायद वह आप की प्रेरणा थी, जिस के फलस्वरूप मेरी ‘प्रेरणा’ का सृजन हुआ.

आप की 3 वर्षों से पुस्तक अधूरी पड़ी थी तो इसलिए कि आप का मन भटक गया था. आप के प्रस्ताव को मैं ने इतनी बेरहमी और बेरुखी से इसीलिए ठुकराया ताकि आप भी मेरी तरह एकाग्र हो कर अपने उद्देश्य को मछली की आंख की तरह निशाना बनाएं.

अगर उस रात मैं आप के प्रति समर्पित हो जाती तो शायद आप जिंदगी भर अपनी इस पुस्तक को पूरी न कर पाते क्योंकि मनुष्य जो वस्तु एक बार सहजता से प्राप्त कर लेता है उसे बारबार पाने के लिए अपनी राह से भटक कर उसी के खयालों में डूबा रहता है.

आप की पुस्तक पूरी हो गई इस बात की मुझे बेहद खुशी है. मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत के कदमों को सफलताएं जिंदगी भर इसी तरह चूमती रहें यही कामना है मेरी.   मैगी.’’

पत्र पढ़ कर मैं इस सोच में डूब गया कि आखिर कौन किस की प्रेरणा है. मैं मैगी की प्रेरणा हूं या मैगी मेरी. अंदर से आवाज आई, ‘मैगी मेरी प्रेरणा है क्योंकि उस में त्याग की भावना निहित है.’

मैं तो मैगी की प्रेरणा हो ही नहीं सकता क्योंकि उस में मेरे त्याग की नहीं बल्कि स्वार्थ की भावना निहित थी.

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डौ. अनिता राठौर ‘मंजरी’

Emotional Story : अपना घर

Emotional Story : घर की दहलीज पर कदम रखते ही सामने दीवार पर मम्मी का मुसकराता फोटो देख कर उस के कदम वहीं रुक गए. न जाने कितनी देर अपलक वह मम्मी के फोटो को निहारती रही.

‘‘दीदी, अब अंदर भी चलो. कब तक दरवाजे के बाहर खड़ी रहोगी?’’ उन को बसस्टैंड से लिवाने गए अविनाश ने पीछे से आते हुए कहा.

‘‘हां, चलो,’’ कहते हुए वह घर के अंदर दाखिल हो गई.

मम्मी की फोटो के आगे हाथ जोड़ कर प्रणाम करने के बाद वह कमरे का मुआयना करने लगी. अविनाश उस का बैग ले कर अंदर के कमरे में चला गया. कमरे में करीने से सजा कर रखी गई एक भी वस्तु में उसे कहीं भी इस बार अपनेपन का एहसास नहीं हो रहा था. इस कमरे में दीवार पर लगी मम्मी की फोटो के अतिरिक्त उसे सबकुछ अपरिचित सा दिखाई दे रहा था. 10 महीनों में पूरे घर की साजसज्जा ही बदल चुकी थी. लकड़ी के नक्काशी वाले पुराने सोफे की जगह मखमली गद्दी वाले नए सोफे ने ले ली थी.

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एक समय मम्मी की पसंद रही भारीभरकम सैंट्रल टेबल की जगह पर कांच वाली राउंड सैंट्रल टेबल आ चुकी थी. खिड़की के पास कमरे के कोने में मनीप्लांट का पौट रखा हुआ होता था. वह उसे कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. मम्मी ने कई वर्षों तक जतन कर उसे सहेज कर रखा हुआ था. उसे अब भी याद है कि सुबह हाथ में चाय का प्याला लेने के साथ ही मम्मी मनीप्लांट को पानी देना कभी नहीं भूलती थीं.

तभी अविनाश की पत्नी ज्योति पानी का गिलास ले कर बाहर के कमरे में आई.

‘‘आप खड़ी क्यों हैं? बैठिए न दीदी.’’

‘‘बस यों ही कमरे की सजावट देख रही थी,’’ पानी का गिलास हाथ में लेते हुए उस ने अनमने भाव से कहा.

‘‘पसंद आया न आप को? सारी चीजें मेरी पसंद की हैं. आप के भाई को तो इन सब बातों में कुछ सूझता ही नहीं,’’ ज्योति ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अच्छा है,’’ बुझे स्वर में उत्तर देते हुए वह अंदर की ओर जाने लगी. उस के कदम अपनेआप ही मम्मी जिस कमरे में सोती थीं उस ओर बढ़ गए. तभी पीछे से ज्योति की आवाज सुन कर वह रुक गई.

‘‘दीदी, उधर नहीं इधर. सासुमां के जाने के बाद अब वह कमरा रानी का है. आप का सामान इधर दूसरे कमरे में रखा है.’’

मम्मी और उस की कई कही और अनकही बातों का साक्षी था वह कमरा. 12वीं पास करने के बाद से ही वह इस कमरे में मम्मी के साथ अपनी शादी होने तक रह चुकी थी. उस के इस घर से विदा होने के बाद मम्मी अपनी अंतिम सांस तक इसी कमरे में रहीं. दो घड़ी एक नजर उस ने उस कमरे पर डाली और फिर मनमसोस कर दूसरे कमरे में चली गई.

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यह कमरा उसे पहले की अपेक्षा कुछ छोटा महसूस हुआ. सहसा कमरे के फर्नीचर पर नजर पड़ते ही उसे इस के छोटे लगने का कारण समझ आ गया. दरवाजे के बाजू की सूनी पड़ी रहती दीवार पर वार्डरोब बन चुका था. खिड़की के पास एक बैड और उस के नजदीक एक कुरसी रखी हुई थी. 10×10 फुट के कमरे में इस से अधिक फर्नीचर आने की गुंजाइश नहीं थी. वह वहीं पलंग पर बैठ गई.

पलंग पर बैठ कर न जाने क्यों उसे एक अजीब तरह की अनुभूति होने लगी. यहां उसे कुछ अपना सा महसूस हो रहा था. उठ कर उस ने गौर से पलंग को देखा तो उस का मन खुशी से भर गया. इसी पलंग पर तो मम्मी ने अपनी अंतिम सांसें ली थीं. इसी पलंग पर लेटे हुए उन्होंने उस से और अविनाश से एकदूसरे के सुखदुख में हमेशा साथ निभाने का वचन लिया था. पुरानी डिजाइन का यह पलंग शायद रानी को पसंद नहीं आया होगा, इसीलिए इसे मम्मी के जाने के बाद शायद अलग कमरे में रख दिया. वह यह सोच कर कुछ अंदाजा लगा रही थी कि सहसा उसे याद आया इसी कमरे में तो मम्मी की अलमारी रखी होती थी. अलमारी की जगह पर तो वार्डरोब बन चुका था.

‘तो अलमारी कहां गई?’ वह मन ही मन बुदबुदाई.

मम्मी की अलमारी से तो उन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई थीं. वह तब 14 वर्ष की रही होगी जब पापा ने मम्मी को उन के जन्मदिन पर अलमारी गिफ्ट में दी थी. मम्मी ने बड़ी ही सूझबूझ के साथ अलमारी में पापा, अविनाश और उस के कपड़ों के लिए एक अलग जगह बना दी थी. उन्होंने अपने सामान के लिए एक लौकर वाला पार्टिशन बचा कर रखा था जिस में वे अपने गहने और अन्य कीमती सामान रखा करती थीं.

घर में किसी की भी मजाल नहीं थी कि कोई उन के उस लौकर को छू सके. पापा तो हर दफा अपने कपड़े अलमारी से निकालते वक्त सारी अलमारी अस्तव्यस्त कर देते थे और मम्मी उन पर गुस्सा होते हुए सारे कपड़े फिर से करीने से जमाने बैठ जाती थीं. उसे अब भी याद है जब एक बार अविनाश से अलमारी के दरवाजे पर लगा कांच टूट गया था और वह मम्मी के खौफ से बचने के लिए अलमारी के अंदर ही छिप गया था.

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बड़बड़ाते हुए मम्मी ने अविनाश को खोजा, उस के न मिलने पर उसे कोसती हुई वे टूटे पड़े कांच बटोरने लगीं. तभी अलमारी के दरवाजे के कोने से खून की बूंदें निकलते देख वे घबरा उठीं और हड़बड़ा कर दरवाजा खोला तो अविनाश नीचे के खाने में बेहोश पड़ा हुआ था.

घबराए बिना उन्होंने उसे बाहर निकाला और पानी के छींटे दे कर उसे होश में लाने का प्रयत्न किया. उस ने जब आंखें खोलीं तो उसे सीने से लगाए वे घंटों तक रोती रहीं. इस घटना के बाद तो उन्होंने उस के समझदार होने तक अलमारी को लौक कर रखने की आदत बना ली.

तभी अविनाश अंदर आ कर उस के पास ही कुरसी ले कर बैठ गया.

‘‘दीदी, मम्मी के जाने के बाद से तो जैसे आप ने इस ओर आना ही बंद कर दिया. मम्मी थीं तो कम से कम महीनेदोमहीने में आप उन की खबर पूछने के बहाने आ जाती थीं.’’

‘‘तब की बात और थी, अविनाश. मम्मी की बीमारी का पता चलते ही हर बार मन में एक भय सा बना रहता था कि अगली बार मम्मी मिलेंगी या नहीं. इसलिए बारबार जब मन होता था तो आ जाती थी,’’ उस ने शांति से अविनाश की बात का उत्तर दिया.

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‘‘आप का यह छोटा भाई अब भी इसी घर में रहता है. आप को इस घर की याद अब क्या केवल रक्षाबंधन के दिन ही आती है?’’ अविनाश के स्वर में शिकायत थी.

‘‘नहीं रे, ऐसा नहीं है. तू तेरी घरगृहस्थी में सुखी है, फिर अब मम्मी के जाने के बाद बारबार इस उम्र में मायके आना शोभा नहीं देता,’’ कहते हुए उस के चेहरे के भाव बदल गए.

‘‘क्या बात है, दीदी? आप कुछ उखड़ी हुई सी लग रही हैं,’’ अविनाश उस के चेहरे के बदलते भाव भांप गया.

‘‘अविनाश, यहां इस कमरे में मम्मी की अलमारी रखी होती थी. वह कहां है?’’ उस से रहा नहीं गया.

‘‘वो तो निकाल दी. इस कमरे में वार्डरोब बनवाने के बाद तिजोरी रखने की जगह नहीं बची थी. वैसे भी, वह बहुत पुरानी हो चुकी थी,’’ अविनाश ने जवाब दिया.

मम्मी की मौजूदगी में जब भी आई तब तक वह घर उस के लिए मम्मी का घर था पर अब एक रिश्ते के जाते ही जैसे समीकरण बदल चुके थे. मम्मी का घर कहलाने वाला घर अब भाई का घर हो चुका था. इसीलिए मम्मी के जाने के 10 महीनों के बाद एक बार फिर से इस घर में आने पर उसे बारबार पहली बार यहां आने का आभास हो रहा था. दुख उसे इस बात का हो रहा था कि मम्मी से जुड़ी यादों का सौदा करने से पहले अविनाश ने एक बार भी उस से पूछा नहीं. मम्मी के जाते ही उसे पराया कर दिया.

‘‘तू ने मम्मी की आखिरी निशानी नहीं रखी? उसे बेच दिया? मम्मी को कितनी प्यारी थी वह अलमारी, मुझ से एक बार कहा होता तो…’’ कहते हुए उस की आंखों से आंसू की 2 बूंदें उभर आईं.

‘‘क्या दीदी आप भी. इतनी भावुक हो कर कैसे जी लेती हैं?’’ अविनाश थोड़ा असहज हो गया.

‘‘सवाल भावुकता का नहीं है. मम्मी की वह कीमती निशानी तो रहने दी होती इस घर में?’’

‘‘पुरानी चीज जाएगी तभी तो नया सामान आएगा. फिर मम्मी ने दादी की बसाई हुई पुरानी चीजें समय बीतने पर नहीं निकाल दी थीं?’’ अविनाश ने अपना तर्क रखा.

‘‘पर कम से कम कुछ समय तो बीतने दिया होता. अभी सालभर भी नहीं हुआ है उन को गए,’’ कहते हुए उस का गला रुंध गया.

‘‘आप की भावना समझता हूं मैं. मम्मी की बसाई सारी चीजें ऐसी जगह गई हैं जहां उन की सब से ज्यादा जरूरत थी.’’

‘‘तू कहना क्या चाहता है? मैं समझी नहीं?’’ अविनाश की बात सुन कर उस ने उस की ओर देखा.

‘‘एक वृद्धाश्रम को उन सब चीजों की जरूरत थी तो मैं ने दान कर दीं. इस बहाने उन की याद बनी रहेगी. वैसे भी मम्मी को तो अलमारी इसलिए प्यारी थी क्योंकि उस में उन की एक और कीमती चीज उन्होंने रख छोड़ी थी,’’ अविनाश की बात सुन कर वह उसे सवालिया नजरों से देखने लगी.

किचन में काम करती ज्योति शायद भाईबहन के बीच हो रही बात सुन चुकी थी. तभी वह एक छोटा सा डब्बा ले कर उस कमरे में दाखिल हुईर्. अविनाश ने वह डब्बा उस के हाथ से ले लिया.

‘‘दीदी, आप को याद है मम्मी की अलमारी का लौकर हम सब के लिए कुतूहल का विषय बना रहता था? लौकर को वे किसी को भी छूने नहीं देती थीं?’’

‘‘हां, तो?’’ अविनाश के प्रश्न के उत्तर में उस ने हामी भरते हुए सिर हिला दिया.

‘‘यह उन के उस अलमारी के लौकर से निकला है,’’ यह कह कर अविनाश ने वह डब्बा उस की ओर बढ़ा दिया.

उस छोटे से डिब्बे को हाथ में ले कर उस की आंखें डबडबा आईं. उसे लगा जैसे उस ने मम्मी को स्पर्श कर लिया. धीमे से उस ने उस डब्बे का ढक्कन खोला. एक पुराना सा ब्लैक ऐंड व्हाइट फोटो और एक पुराना सा पत्र उस के हाथ में आ गया.

फोटो को बड़े ही गौर से देखने के बाद भी उस में कैद छवि को वह पहचान नहीं पाई.

‘‘कौन है यह अविनाश?’’

‘‘फोटो के साथ रखा पत्र पढ़ लो, दीदी, सब समझ जाओगी,’’ अविनाश ने उस की जिज्ञासा को और बढ़ाते हुए कहा.

‘मेरी प्रिय रंजना,

फूलों की खुशबू की तरह अब भी तुम मेरे मन पर छाई हुई हो. तुम्हारी तसवीर जब भी देखता हूं, बस, तुम से मिलने को जी बेताब होने लगता है. इस बार शायद गांव न आ पाऊं. यहां बौर्डर पर दुश्मनों की हलचल बढ़ चुकी है, इसलिए अगले महीने मिलने वाली छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं. जब भी छुट्टी मंजूर होगी, दौड़ा चला आऊंगा तुम से मिलने और तुम्हें अपना बनाने. आते ही तुम्हारे बाबा से बात कर हमारी शादी के लिए उन्हें मना लूंगा. बस, तब तक मेरा इंतजार करना.

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तुम्हारा, केवल तुम्हारा

रतन.’

वह 2-3 बार धूमिल हो चुके उस पत्र को पढ़ गई.

‘‘रतन? कहीं ये मामा के गांव वाले रतन चाचा तो नहीं?’’ उस ने एक बार फिर से उस तसवीर को गौर से देख कर कुछ अनुमान लगाते हुए कहा.

‘‘वही हैं, दीदी. मैं ने फोन पर उन से बात कर कन्फर्म किया है,’’ कहते हुए अविनाश की आंखें भीग आईं.

‘‘तू यह क्या कह रहा है? मम्मी और रतन चाचा…फिर पापा…? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है?’’ उस के मन में एक अजीब सी हड़बड़ाहट होने लगी.

‘‘सबकुछ सच है, दीदी. मम्मी और रतन चाचा आपस में प्यार करते थे पर जब वे 2 साल तक बौर्डर पर से गांव नहीं आ पाए तो मम्मी की शादी पापा से हो गई. रतन चाचा उन्हें बेहद प्यार करते थे और यही वजह है कि फिर वे किसी दूसरी स्त्री को अपनी जिंदगी में स्थान नहीं दे पाए.’’ अविनाश अपनी जगह से खड़ा हो गया.

मम्मी की मृत्यु के बाद पहली बार इस घर में आ कर जिन चीजों में वह मम्मी के एहसास को खोज रही थी उन्हें न पा कर मन ही मन उसे अब अपनेआप को इस घर से पराए होने का एहसास हो रहा था. पर फिर अविनाश द्वारा सहेज कर रखी गई मम्मी की इस अमूल्य याद को पा कर उस के मन में उठता पराएपन का भाव अपनेआप ही तिरोहित हो गया. इस क्षण पहली बार उसे भाई के घर में मम्मी के अब भी होने का एहसास हो आया.

‘‘अब समझ आ रहा है कि क्यों मम्मी के प्यार में एक दुखमिश्रित दर्द समाया होता था. अपने अंतिम समय में क्यों वे बारबार अलमारी की रट लगाए हुए थीं. आज पहली बार जान पाई कि मम्मी किस पीड़ा को अपने अंदर समाए जी रही थीं,’’ कहते हुए उस की आंखों से अश्रुधारा निकल पड़ी.

Hindi Kahani : सविता को नीलिमा ने ताना क्यों मारा?

Hindi Kahani : ‘‘भई, मैं ने तो अपनी शादी से पहले ही सोच लिया था कि अगर अपनी मां की टोकाटाकी ‘यह मत करो, यह मत पहनो, ऐसे चलो, वैसे मत बोलो’ वगैरहवगैरह सहन कर सकती हूं तो सास की छींटाकशी भी चुपचाप सहन कर लूंगी और मैं ने जो सोचा था वह किया भी,’’ सविता ने बड़े दर्प से कहा, ‘‘अब सास बनने से पहले भी मैं ने फैसला कर लिया है कि जब मैं अपनी अनपढ़ नौकरानियों के नखरे झेलती हूं, उन की बेअदबी की अनदेखी करती हूं तो अपनी पढ़ीलिखी बहू की छोटीमोटी गलतियों को भी अनदेखा किया करूंगी.’’ फिर थोड़ा रुक कर आगे कहा, ‘‘कोई भी 2 व्यक्ति कभी भी एकजैसा नहीं सोचते, कहीं न कहीं सामंजस्य बैठाते हैं, तो फिर भला सासबहू के रिश्ते में समझौते की गुंजाइश क्यों नहीं है?’’

‘‘सौरभ की शादी कर लो, इस सवाल का जवाब तुम्हें खुदबखुद मिल जाएगा,’’ उस की अभिन्न सहेली नीलिमा व्यंग्य से बोली.

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‘‘हां सविता, सौरभ की शादी के बाद देखेंगे क्या कहती हो,’’ किट्टी पार्टी में आई अन्य महिलाएं चहकीं.

‘‘वही कहूंगी जो आज कह रही हूं,’’ सविता के स्वर में आत्मविश्वास था.

सौरभ और दिव्या की शादी धूमधाम से हो गई. शादी के 2 वर्षों बाद भी किसी को सविता या दिव्या से एकदूसरे की शिकायत सुनने को नहीं मिली. दोनों के संबंध वाकई में सब के लिए मिसाल बन गए.

‘‘चालाक औरतों के हाथी की तरह खाने के दांत और, दिखाने के और होते हैं,’’ नीलिमा ने एक दिन मुंह बिचका कर ऊषा से कहा, ‘‘बाहर तो बहू से बेटी या सहेली वाला व्यवहार और घर में जूतमपैजार. यही सबकुछ सविता भी करती होगी अपनी बहू के साथ.’’

‘‘मुझे भी यही शक था नीलिमा. सो एक रोज जब मेरी जमादारनी नहीं आई तो मैं ने सविता की जमादारनी को बुला लिया और फिर उसे फुसला कर कुरेदकुरेद कर सविता और दिव्या के ताल्लुकात के बारे में पूछा,’’ ऊषा ने बताया.

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‘‘अच्छा, फिर क्या पता चला?’’ सभी महिलाओं ने एकसाथ पूछा.

‘‘वही सबकुछ जो हमें पहले से मालूम था, बल्कि उसे और भी पुख्ता कर दिया,’’ ऊषा ने उसांस ले कर कहा, ‘‘यह नहीं है कि सविता दिव्या को डांटती नहीं है या दिव्या पलट कर जवाब नहीं देती, दोनों में मतभेद और मानमनौअल भी होते हैं, मगर पल भर के लिए. दोनों उस का ‘इशू (मसला) नहीं बनातीं और तूल नहीं देतीं.’’

इसी तरह कई वर्र्ष बीत गए. दिव्या के 2 बच्चे भी हो गए, लेकिन सासबहू के संबंध वैसे ही मधुर बने रहे. अचानक दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन होने की खबर सुन कर सब चौंक पड़े.

सब से ज्यादा हैरान, परेशान सविता थी. दिव्या को क्या टैंशन हो सकती है भला? पैसे की कोई कमी नहीं है. बच्चों की परवरिश भी अपने ढंग से ठीक कर रही है. बच्चे भी सुशील और होनहार हैं. बच्चों की पूरी जिम्मेदारी सविता और उस के पति गौरव पर डाल कर दिव्या और सौरभ स्वच्छंद हो कर घूमतेफिरते हैं. सौरभ भी जान छिड़कता है दिव्या पर. सविता चौंक पड़ी.

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‘‘पति का पत्नी पर अधिक आसक्त होना, जरूरत से ज्यादा कामेच्छा भी तो पत्नी के तनाव का कारण हो सकती है?’’

सब शर्मलिहाज छोड़ कर सविता ने सौरभ से जवाबतलब किया.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, मां. हमारे यौन संबंध बिलकुल सामान्य हैं. मैं ने दिव्या के साथ कभी भी कोई जोरजबरदस्ती नहीं की, जिसे ले कर वह तनावग्रस्त हो,’’ सौरभ ने आश्वासन दिया.

‘‘तो फिर इस तनाव की वजह क्या है?’’ सविता ने जिरह की, ‘‘जिस की वजह से दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन हुआ है?’’

‘‘अप्रत्यक्ष या वर्तमान में तो कुछ भी नहीं है,’’ सौरभ हंसा, ‘‘लेकिन अगर किसी अप्रत्यक्ष डर या भविष्य को ले कर कोई तनाव पाल ले तो इसे तो उसी के दिमाग का दोष कहा जाएगा.’’

‘‘एकदम गलत,’’ सविता भड़क उठी, ‘‘दिव्या तुम से कहीं ज्यादा संतुलित है.’’

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‘‘तो फिर आप खुद ही उस से उस के तनाव की वजह पूछ लो, मां. और अगर आप के पास उस का हल हो तो सुझा भी दो.’’

‘‘कोई समस्या ऐसी नहीं होती जिस का कोईर् हल न हो.’’

‘‘दिव्या की समस्या कुछ ऐसी ही है.’’

‘‘मानो तुझे समस्या मालूम है?’’

‘‘हां, समस्या की जड़ ही मैं हूं,’’ सौरभ ने हंसते हुए बात काटी, ‘‘मगर मैं अपने को उखाड़ कर फेंकने वाला नहीं हूं. फिर भी आप दिव्या से तो बात कर ही लो और बेहतर रहे कि आज ही. क्योंकि अभी तो इलाज चल ही रहा है, तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो डाक्टर तो आता ही है, वह संभाल लेगा.’’

सविता को बेटे की बातें अटपटी लगीं, लेकिन समस्या गंभीर थी. सो, उस ने दिव्या से पूछने का फैसला किया.

‘‘आजकल जो माहौल है, मां, उस में जब तक बच्चे स्कूल से न आ जाएं, घर के मर्द काम पर से न लौट आएं, तब तक सभी को घबराहट रहती है,’’ दिव्या ने कह कर टालना चाहा.

‘‘मगर सभी का तो इन और इन के अलावा रोजमर्रा की कई और चिंताओं को ले कर नर्वस ब्रेकडाउन नहीं होता,’’ सविता तुनक कर बोली, ‘‘देख दिव्या, अगर तू नहीं चाहती कि तेरे बारे में सोचसोच कर मैं भी तेरी तरह बीमार पड़ जाऊं और घर व बच्चे परेशान हो जाएं, तो तुझे मुझे अपनी टैंशन की वजह बतानी ही पड़ेगी.’’

पहले तो कुछ देर दिव्या चुप रही, फिर कुछ हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘आप जिद कर रही हैं, मांजी, इसलिए बताना पड़ रहा है. मेरी टैंशन की वजह आप हैं, मां.’’

सविता के सिर पर किसी ने जैसे बम विस्फोट कर दिया. ‘‘मेरी वजह से भी किसी को टैंशन हो सकती है, कभी सोचा नहीं था. खैर, मेरी वजह से कोई परेशान हो, यह तो मुझे कतई गवारा नहीं है. मैं अभी इन्हें फोन कर के नीतिबाग वाली कोठी खाली करवाने को कहती हूं. किराएदार के जाते ही हम दोनों वहां रहने चले जाएंगे,’’ सविता ने उठते हुए कहा.

‘‘रुकिए मां, मैं ने आप से कहीं जाने के लिए नहीं कहा है और न ही मैं आप को कभी कहीं जाने दूंगी. बात मेरी टैंशन की हो रही है और वह आप के कहीं भी रहने या न रहने से कम नहीं होगी,’’ दिव्या ने असहाय भाव से कहा.

‘‘क्यों नहीं होगी, जब उस की वजह ही हटा दी जाएगी तो.’’

‘‘उस की वजह नहीं हटाई जा सकती, मां,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे उस के साथ ही जीना है.’’

‘‘बेहतर रहे दिव्या, तू यह सब छोड़ कर अपनी परेशानी की वजह मुझे साफसाफ बता दे,’’ सविता ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘परेशानी की वजह है, पापा के रतिका शर्मा के साथ विवाहेतर संबंध. पर आप का चुप रहना या  यह कहिए, रतिका को स्वीकार कर लेना.’’

सविता को जैसे किसी ने करंट छुआ दिया.

‘‘यह भी खूब रही, जब इन के और रतिका के रिश्ते को ले कर कभी मुझे भरी जवानी में कोई तनाव नहीं हुआ तो तुझे क्यों हो रहा है?’’ सविता ने हाथ नचा कर पूछा.

‘‘महज इसीलिए मां कि आप कभी इस रिश्ते को ले कर परेशान ही नहीं हुईं. आप ने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं. आप ने अपने पति को चुपचाप एक अन्य स्त्री के साथ बांट लिया. माना कि आप झगड़ा कर के खानदान की इज्जत नहीं उछालना चाहती थीं या सौरभ को टूटे परिवार का बच्चा कहलवाना नहीं चाहती थीं और आप की इस समझदारी और त्याग ने आप को ससुराल में महान बना दिया, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ सविता ने आवेग में पूछा, ‘‘उस सब से तुझे क्या फर्क पड़ा? तू क्यों गड़े मुरदे उखाड़ रही है?’’

‘‘मुझे ही तो फर्क पड़ा है, मां. जिन्हें आप गड़े मुरदे समझ रही हैं उन के साए मेरी जिंदगी पर छाए हुए हैं और हमेशा छाए रहेंगे,’’ दिव्या ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘शादी से पहले ही सौरभ ने मुझे पापा और रतिका के संबंध के बारे में बता दिया था. आप की सहनशीलता और त्याग को सराहते हुए कहा था कि उस के जीवन में आदर्श महिला सिर्फ उस की मां हैं और उन्हीं के सभी गुण वह अपनी बीवी में भी देखना चाहेगा. उस समय तो प्यार के ज्वार में मैं ने भी हामी भर ली थी कि मैं भी आप ही के पदचिह्नों पर चलूंगी, मगर अब लग रहा है कि यह तो असंभव है.’’

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‘‘क्या असंभव है?’’

‘‘आप जैसा बनना या आप के पदचिह्नों पर चलना.’’

‘‘अरी, छोड़ बेटी, तू मुझ से कहीं अच्छी गृहिणी, पत्नी और मां है,’’ सविता सराहना के स्वर में बोली.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ता, मां. सवाल है मेरे सहनशील होने का, जो मैं कभी हो ही नहीं सकती. और न आप की तरह अपने पति को किसी दूसरी औरत के साथ बांट सकती हूं.’’

सविता बुरी तरह चौंक पड़ी.

‘‘नहीं, सौरभ का किसी दूसरी औरत के साथ कोई चक्कर नहीं हो सकता. दूसरी औरत के साथ फंसे लोग खुलेआम शाम घर आ कर बच्चों के साथ नहीं खेला करते,’’ सविता कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘और सौरभ बिला नागा बच्चों के सोने से पहले घर आ जाता है. खैर, यह बता, यह दूसरी औरत वाली बात तेरे दिमाग में आई कहां से?’’

‘‘पिछले हफ्ते छोटी चाची के पोते के मुंडन पर यह सब चचेरेफुफेरे भाईबहनोई बैठे अपनी सफलता और कमाई की बातें कर रहे थे. सुनील भैया ने कहा कि वे और सौरभ तो अब इतना कमा रहे हैं कि चाहें तो एक गृहस्थी और भी बसा लें. इस पर सौरभ बोला, ‘और हमारे पास तो एक्स्ट्रा (फालतू) बीवी रखने का लाइसैंस भी है. बीवियों के एतराज करने की परंपरा तो हमारे खानदान में है ही नहीं.’ मानती हूं मां, ये सब मजाक में कही गई बातें थीं.

‘‘लेकिन मजाक को हकीकत में बदलते क्या देर लगती है? सौरभ सफल, आकर्षक और दिलचस्प व्यक्ति है, उस पर तो हर आयु में औरतें कुरबान होती रहेंगी. कितने मोहपाश में बांधूंगी मैं उसे? देशविदेश में घूमता है, कभी भी कहीं भी फिसल सकता है. परिवार के धिक्कार या ‘लोग क्या कहेंगे’ का डर तो उसे है नहीं.

‘‘आप क्यों चुप रहीं, मां? क्यों नहीं खदेड़ा रतिका को अपनी जिंदगी से बाहर? क्यों नहीं अपना संपूर्ण हक जताया पति पर? क्यों बनीं त्याग की मूर्ति और क्यों की एक गलत परंपरा आदर्श के नाम पर स्थापित इस परिवार में? यह सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं रिश्ते की मेरी सभी देवरानीजेठानियों का भी है, मां,’’ दिव्या फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘क्यों दिया आप ने हम सब को जीवनभर का यह दर्द? क्या हमारी पीढ़ी के प्रति आप का कोई उत्तरदायित्व नहीं था, मां?’’

सविता हतप्रभ सी देखती रही. उस के पास न तो दिव्या के सवालों के जवाब थे और न ही उस के तनाव का कोई इलाज.

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Delhi Elections : दिल्ली चुनाव में धर्म, कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना

Delhi Elections : हमेशा से ही दिल्ली विधानसभा चुनाव शिक्षा, विकास और स्थानीय मुद्दों के इर्दगिर्द घूमते रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ चुनाव से एक नई प्रवृति देखने को मिली है कि चुनावों में धर्म का इस्तेमाल किया जा रहा है.

देश की सत्ताधारी पार्टी भाजपा साल 2014 के लोकसभा चुनाव से लगातार चुनावों में धर्म का झंडा ले कर निकल पड़ती है और लोगों को यह बताती है कि उन का धर्म खतरे में है. चुनाव दिल्ली का हो या झारखंड का, भाजपा का झुकाव हमेशा से ही धर्म की ओर रहा है. भाजपा का धर्म पर अपना स्टैंड रखने से उसे कई चुनावों में फायदे भी हुए हैं तो कई चुनावों में भारी नुकसान भी उठाना पड़ा है.

2024 का लोकसभा चुनाव यह साफ करता है कि धर्म का झंडा ले कर चलने वाली भाजपा के लिए अब राह आसान नहीं है. उन्हें धर्म की राजनीति से ऊपर उठ कर विकास की राजनीति करनी होगी, नहीं तो अगले चुनावों में परिणाम अयोध्या की तरह देखने को मिल सकता है.

बहरहाल, भाजपा इसे बरकरार रखते हुए दिल्ली के चुनाव में कूद गई है और ‘बंटोगे तो कटोगे’ के नारे से अपने चुनाव प्रचार में जान फूंकने की पूरी कोशिश कर रही है. भाजपा नेता हर मंदिर और गुरुद्वारे के चक्कर लगा रहे हैं और अपनी बात को लोगों के सामने रख रहे हैं. उन्हें यह लगता है कि उन के असली वोटर तो उन्हें इन्हीं पवित्र स्थानों पर मिलेंगे.

हालांकि इस तरह का चुनाव प्रचार भाजपा ने पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी किया था और राम मंदिर पर कोर्ट के फैसले को ले कर अपने पक्ष में जम कर ढिंढोरा पीटा था. साथ ही ढिंढोरा पीटपीट कर धुआंधार प्रचार भी किया था. वह तो बाद में जनता ने बताया कि उन की चुनाव प्रचार में सिर्फ धुंआ था धार तो रत्ती भर भी नहीं थी.

पिछले चुनाव से सबक न लेते हुए भाजपा इस बार भी पुराने मूड में ही नजर आ रही है. हलांकि पार्टी ने अपने चेहरे तो जरूर बदले हैं लेकिन अपने कामकाज में कोई अंतर नहीं आने दिया. इस का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि पार्टी ने रमेश बिधूड़ी को कालकाजी विधानसभा से मैदान में उतारा है, यह जानते हुए भी कि उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री समेत कई पर विवादित बयान दिए हैं.

जब भी चुनाव आते हैं, भाजपा अकसर विकास के बजाय धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों को प्राथमिकता देती दिखती है. चाहे वह हनुमान चालीसा का पाठ हो, मसजिद मंदिर के विवादों को हवा देना हो या लव जिहाद और गौरक्षा जैसे मुद्दे उठाने हों, पार्टी बारबार धार्मिक भावनाओं को भड़काने की कोशिश करती है.

दिल्ली चुनाव के संदर्भ में यह रणनीति और भी स्पष्ट हो जाती है. पिछले चुनावों में भाजपा के नेताओं के दिए गए विभाजनकारी बयान, जैसे ‘शाहीन बाग’ को आतंकवाद से जोड़ना, न केवल लोकतंत्र को कमजोर करता है, बल्कि दिल्ली के बहुसांस्कृतिक समाज के तानेबाने को भी नुकसान पहुंचाता है.

 

विकास के मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश

दिल्ली के लोगों की प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं- शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और परिवहन. लेकिन जब इन मुद्दों पर जवाब देने में असमर्थता होती है, तो भाजपा धार्मिक भावनाओं को भड़का कर जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश करती है.

 

नफरत की राजनीति को बढ़ावा

भाजपा के कई नेता चुनावों के दौरान धार्मिक आधार पर विवादित बयान देते हैं. जैसे ‘देशद्रोहियों को गोली मारो’ नारे न केवल समाज में नफरत फैलाते हैं, बल्कि धार्मिक ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा देते हैं. यह राजनीतिक रणनीति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, बल्कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश की आत्मा पर भी चोट करती है.

 

आम आदमी पार्टी ने भी किया धर्म का इस्तेमाल

 

पिछले दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को जोरशोर से उठाती थी. पार्टी का कहना था कि दिल्ली में विकास की राजनीति केवल आम आमदमी पार्टी ही करती है. लेकिन अब ‘आप’ भी राजनीति में धर्म का इस्तेमाल कर रही है. आम आदमी पार्टी जो खुद को भ्रष्टाचार विरोधी और विकास केंद्रित पार्टी के रूप में प्रस्तुत करती है, लेकिन पार्टी धर्म को सहारा लेना ही पड़ा.

 

केजरीवाल का ‘हनुमान भक्त’ अवतार

अरविंद केजरीवाल की राजनीति की शुरुआती पहचान एक धर्मनिरपेक्ष, भ्रष्टाचार विरोधी नेता की रही है. लेकिन 2020 के दिल्ली चुनावों से एक नया ट्रैंड दिखने लगा, केजरीवाल का खुद को ‘हनुमान भक्त’ बताना और सार्वजनिक मंचों से हनुमान चालीसा का पाठ करना. इस से साफ पता चलता कि पार्टी को भाजपा से मुकाबला करने के लिए धर्म की जरूरत पड़ती है.

 

मुफ्त तीर्थयात्रा योजना : धर्म के नाम पर वोट बैंक साधने की कोशिश

आम आदमी पार्टी की ‘मुख्यमंत्री तीर्थ यात्रा योजना’ के तहत दिल्ली के वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त में धार्मिक स्थलों की यात्रा करवाई जाती है. चाहे वह अयोध्या में रामलला के दर्शन हों, वैष्णो देवी की यात्रा हो या फिर अमृतसर में स्वर्ण मंदिर का दौरा, आप सरकार की यह योजना धार्मिक राजनीति को बढ़ावा देने का ही संकेत देती है.

दिलचस्प बात यह है कि जहां भाजपा हिंदुत्व की राजनीति करती है, वहीं आम आदमी पार्टी ‘सौफ्ट हिंदुत्व’ की राह पर चल रही है. पार्टी के मंत्री मनीष सिसोदिया ने खुद को रामराज्य की संकल्पना से जोड़ते हुए कहा था कि आप सरकार दिल्ली में रामराज्य की परिकल्पना को साकार कर रही है. मगर पार्टी खुद को विकास आधारित राजनीति की प्रतीक बताती है, लेकिन उसे भी धार्मिक चुनावी नैरेटिव सेट करने की जरूरत पड़ रही है.

 

मुसलिम समुदाय से जुड़ाव

एक तरफ आम आदमी पार्टी हिंदू वोट बैंक को मजबूत करने के लिए हनुमान चालीसा और तीर्थयात्रा योजना को आगे बढ़ाती है, तो वहीं दूसरी ओर मुसलिम समुदाय से भी करीबी बनाए रखने की कोशिश करती है.

2020 के चुनावों में शाहीन बाग विरोध प्रदर्शनों के दौरान पार्टी ने खुल कर कोई बयान नहीं दिया, लेकिन आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान को मुसलिम राजनीति का चेहरा बनाने की कोशिश जरूर हुई. पार्टी पर हमेशा आरोप लगते हैं कि पार्टी जरूरत के हिसाब से धार्मिक राजनीति करती है, हिंदू वोटों को साधने के लिए ‘हनुमान भक्त’ बन जाती है और मुसलिम वोटों को बनाए रखने के लिए चुप्पी साध लेती है.

 

भाजपा और आप : धर्म की राजनीति में कितना फर्क

 

अगर भाजपा खुल कर धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करती है, तो आप एक संतुलन साधने की कोशिश कर रही है. भाजपा जहां खुले तौर पर ‘मंदिर-मसजिद’ और ‘हिंदू-मुसलिम’ जैसे मुद्दे उठाती है, वहीं आम आदमी पार्टी एक ओर हनुमान चालीसा का पाठ करती है और दूसरी ओर धार्मिक अल्पसंख्यकों से दूरी नहीं बनाना चाहती.

भाजपा और आम आदमी पार्टी दोनों ही अब अलगअलग तरीकों से धार्मिक भावनाओं को इस्तेमाल कर रही हैं. यह जनता पर निर्भर करता है कि वह विकास के नाम पर वोट दे या फिर धर्म के नाम पर. लेकिन एक बात साफ है, भारतीय राजनीति में धर्म अब एक अटूट चुनावी हथियार बन चुका है, जिसे कोई भी पार्टी पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकती.

Emotional Story : मीनाक्षी की जिंदगी में बरसों बाद कौन आया?

Emotional Story : ठकाठक ठक, ठकाठक ठक, ठकाठक ठक. रात के साढ़े 12 बजे थे. लखनऊ मेल टे्रन तेजी से लखनऊ की ओर जा रही थी. डब्बे के सभी यात्री सोए हुए पर मीनाक्षी की आंखों में नींद कहां? उस का दिमाग तो अतीत की पटरियों पर असीमित गति से दौड़ रहा था. उसे लगता था जैसे वर्षों पुरानी बेडि़यों के बंधन आज अचानक टूट गए हों.

50 वर्षीया मीनाक्षी दिल्ली में सरकारी सेवा में एक उच्च पद पर आसीन है. सैकड़ों बार कभी सरकारी कामकाज के सिलसिले में तो कभी अपने निजी कार्यवश टे्रन में सफर कर चुकी है. लेकिन आज की यात्रा उन सभी यात्राओं से कितनी भिन्न थी.

‘चाय, चाय, चाय गरम,’ आवाज सुन कर, मीनाक्षी का ध्यान टूटा तो देखा, टे्रन बरेली स्टेशन पर खड़ी है. बरेली? हां, बरेली ही तो है. 30 साल पुराने बरेली और आज के बरेली स्टेशन में लेशमात्र भी फर्क नहीं आया था. वही चायचाय की पुकार, वही लाल कमीज में भागतेदौड़ते कुली और वही यात्रियों की भगदड़.

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‘एक कप चाय देना,’ जैसे स्वप्न में ही मीनाक्षी ने कहा. वही बेस्वाद कढ़ी हुई बासी चाय, वही कसैला सा स्वाद. हां, कुल्हड़ की जगह लिचपिचे से प्लास्टिक के गिलास ने जरूर ले ली थी.

कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था. पर इन 30 वर्षों में मीनाक्षी में जरूर बहुत बदलाव आ गया था. मां के डर से बालों में बहुत सारा तेल लगा कर एक चोटी बनाने वाली मीनाक्षी के बाल आज सिल्वी के सधे हाथों से कटे उस के कंधों पर झूल रहे थे. 30 वर्ष पहले की दबीसहमी, इकहरे बदन की वह लड़की आज आत्मविश्वास से भरपूर एक गौरवशाली महिला थी. चाय का गिलास हाथ में पकड़ेपकड़े दिमाग फिर अतीत की ओर चल पड़ा था…

‘मम्मी, आज सुषमा का जन्मदिन है, उस ने अपने घर बुलाया है. मैं जाऊं?’

‘सुषमा? कौन सुषमा?’ मां का रोबदार स्वर कानों में गूंजा तो मीनाक्षी सहम सी गई थी.

‘मेरी क्लास में पढ़ती है, आज उस का जन्मदिन है,’ मुंह से अटकअटक कर शब्द निकले थे.

‘कौनकौन आ रहा है?’ मां ने पत्रिका से सिर उठाए बगैर ही पूछा था.

‘यह तो पता नहीं पर मम्मी, मैं जल्दी ही आ जाऊंगी,’ आशा बंधती देख मीनाक्षी ने जल्दीजल्दी कहा था.

‘उस के घर में और कौनकौन हैं?’

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‘उस की मम्मी, और भाई. पापा तो ट्रांसफर हो कर इलाहाबाद चले गए हैं. ये लोग भी अगले शनिवार को जा रहे हैं.’

‘भाई बड़ा है या छोटा?’

‘भाई उस से 2 साल बड़ा है.’

‘तुम नहीं जाओगी किसी सुषमावुशमा के यहां,’ मां के स्वर में दृढ़ता थी.

‘पर क्यों, मम्मी? वे लोग अब इलाहाबाद चले जाएंगे. मैं उस से अब कभी मिल भी नहीं पाऊंगी,’ मीनाक्षी ने साहस जुटा कर कहा था.

‘बेकार बहस मत करो. जा कर पढ़ाई करो.’

‘पर मम्मी, सुषमा मेरा इंतजार कर रही होगी.’

‘कह दिया न एक बार, बड़ों का कहना मानना भी सीखो कभी.’

मां ने पत्रिका से सिर उठा कर जब उसे घूर कर देखा तो वह कितना सहम गई थी. चुपचाप अपने कमरे में अर्थशास्त्र की किताब खोल कर बैठ गई थी. खुली किताब पर कितनी ही देर तक टपटप आंसू गिरते रहे थे.

‘‘मेमसाब, चाय के पैसे दे दो. टे्रन चलने वाली है,’’ चाय वाले की आवाज सुन कर मीनाक्षी फिर वर्तमान में लौट आई थी. इटली से लाए हुए विशुद्ध चमड़े के बैग से 5 रुपए का सिक्का निकाल कर उस ने चाय वाले को दिया तो उस का ध्यान लाल नेल पौलिश से रंगे अपने नाखूनों पर चला गया. मां का वह कठोर अनुशासन क्या उसे ऐेसे गाढ़े रंग की नेल पौलिश लगाने की अनुमति देता? उस कठोर अनुशासन के माहौल में पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकलने की मीनाक्षी की कभी हिम्मत ही नहीं हुई थी. मार्शल, रौबिंस और कींस की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के बाहर भी एक दुनिया है, उस का पता उसे तब चला जब उस का चयन इंडियन इकानौमिक सर्विस में हो गया. तब से आज तक, उस ने मुड़ कर पीछे नहीं देखा था. मां का 5 साल पहले निधन हो गया था.

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इतने सालों के बाद सुषमा जब उसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर मिल गई तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. कितनी देर तक दोनों ने फोन पर बातें की थीं. सुषमा की शादी हो गई थी, 2 बेटियां भी थीं. मीनाक्षी ने तो न शादी की थी न ही करने का इरादा था. वह तो अपने काम की दुनिया में ही शायद खुश थी.

कल सुबह जब सुषमा का फोन आया तो मीनाक्षी को खयाल आया कि उस की बेटी की शादी का कार्ड भी तो आया था जो मेज की दराज में डाल कर वह भूल गई थी.

‘‘क्या? तू अभी तक दिल्ली में ही बैठी है? आज शाम को लेडीज संगीत है, कल शादी है. कब पहुंच रही है?’’

‘‘नहीं सुषमा, मैं नहीं आ पाऊंगी. दफ्तर में जरूरी मीटिंग है.’’

‘‘मीटिंग गई भाड़ में. मेरे घर में पहली शादी है और तू नहीं आएगी?’’ सुषमा ने क्रोध दिखाया तो मीनाक्षी ने उसे टालने को कह दिया, ‘‘अच्छा, देखती हूं.’’

‘‘देखनावेखना कुछ नहीं. बस, आ जा,’’ कह कर सुषमा ने फोन काट दिया.

मीनाक्षी फिर फाइलें देखने में लग गई. उसे पता था कि शादी और मीटिंग में किसे प्राथमिकता देनी है. वर्षों के कठोर अनुशासन ने उस की सोच को ऐसा ही बना दिया था. पर काम करने में दिल नहीं लगा तो चपरासी को हुक्म दिया, ‘ये सब फाइलें कार में रख दो. मैं घर जा रही हूं.’

पर पता नहीं क्यों, घर पहुंचतेपहुंचते जैसे दिल में एक कशमकश सी शुरू हो गई. क्या उसे लखनऊ जाना चाहिए? पर मीटिंग का क्या होगा? क्या जिंदगी सिर्फ दफ्तर की फाइलों और घर की चारदीवारी में ही सीमित है? रिश्तों का इस में कोई स्थान नहीं है?

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उस के मन में यह अंतर्द्वंद्व चल ही रहा था कि नीचे के फ्लैट से कुछ शोर सा सुनाई दिया.

‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. मैं ने कह दिया न,’’ पड़ोसिन मिसेज गुप्ता अपनी 16 वर्षीय बेटी कनुप्रिया से कह रही थीं.

‘‘क्यों, क्यों न जाऊं? पूजा मेरा इंतजार कर रही होगी.’’

‘‘मुझे नापसंद है यह तेरी पूजावूजा.’’

‘‘नहीं पसंद तो मैं क्या करूं? मैं ने कब कहा कि आप उस से दोस्ती कर लीजिए,’’ कनुप्रिया ने पलट कर जवाब दिया था, ‘‘उस का आज बर्थडे है. मुझे तो वहां जाना ही है,’’ कनुप्रिया के जवाब में ढिठाई थी.

मीनाक्षी के मन में एक खलबली सी मच गई और चाहेअनचाहे वह कान लगा कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘मुझे नापसंद आवे है यह तेरा सहेलीपन. वो छोरी ठीक ना है. तू उस के घर ना जावेगी, बस, मैं ने कह दिया,’’ मिसेज गुप्ता ने गुस्से में कहा.

‘‘क्यों, क्या खराबी है उस में?’’ कनुप्रिया ने फिर सवाल दागा.

‘‘ऐ छोरी, जबान लड़ावे है? कान खोल के सुन ले. जो छोरी मुझे पसंद ना है, तू उस से दोस्ती ना रख सके है.’’

जैसेजैसे कनुप्रिया और उस की मां की तकरार बढ़ रही थी, मीनाक्षी के दिल में घबराहट का तूफान सा उठ रहा था.

50 वर्षीया प्रौढ़ा का दिल फिर 16 वर्षीया किशोरी की तरह धड़कने लगा था, साथ ही लगा कि पड़ोसियों की घरेलू बातें सुनना अच्छी बात नहीं है. वह उठ कर खिड़की बंद करने लगी तो कनुप्रिया की आवाज फिर कानों में पड़ी.?

‘‘लड़कों को तो छोड़ो, अब लड़कियों से दोस्ती करने के लिए भी मांबाप से परमीशन लेनी पड़ेगी क्या? भैया को तो आप कुछ कहती नहीं हैं.’’

मीनाक्षी के दिल में धुकधुक होने लगी. क्या कनुप्रिया अपनी सहेली के घर जाएगी या फिर वह भी अपने कमरे में जा कर अर्थशास्त्र की किताब के पन्नों को आंसुओं से भिगोएगी? कनुप्रिया को जाना ही चाहिए. कनुप्रिया जरूर जाएगी, उस का बागी दिल कह रहा था. पर नहीं, बेचारी कनु मां से बगावत कैसे करेगी? मां नाराज हो गई तो? पर मां भी तो अत्याचार कर रही है. सोचसोच कर मीनाक्षी के दिमाग में हथौड़े बजने लगे थे.

हीरो पुक के स्टार्ट होने की आवाज ने मीनाक्षी को जैसे सोते से जगा दिया. ऐक्सिलरेटर की घूंघूंघूं, ऊंऊंऊं …कनुप्रिया पूजा से मिलने चली गई थी. आज की पीढ़ी कितनी भिन्न है, कितनी दबंग है. क्या मीनाक्षी कभी अपनी किसी सहेली के घर जा पाई थी? अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बाद दफ्तर की फाइलें ही उस की नियति बन गई थी. पेपर, नोट्स, नोटिंग्स, लक्ष्य, लक्ष्य और लक्ष्य, क्या इन सब के बाहर भी कोई दुनिया है? सोचतेसोचते कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला. नीचे कनुप्रिया वापस आ गई थी. साथ में, शायद पूजा भी थी.

दोनों की खिलखिलाहट भरी हंसी सुन कर मीनाक्षी के दिल में एक टीस सी उठी. कर्तव्य, काम और ड्यूटी के आगे भी एक दुनिया है जिस में जीतेजागते इंसान रहते हैं. अचानक यह एहसास बहुत तेज हो गया और फिर जैसे घने बादल छंट गए. उस का हाथ फोन की ओर बढ़ गया, ‘‘हैलो, सुपर ट्रैवल्स? एक टिकट लखनऊ का आज रात का, किसी भी क्लास में, फौरन भेज दीजिए. समय कम है, क्या आप का आदमी मुझे टिकट स्टेशन पर ही दे सकता है?’’ और मीनाक्षी ने अपनी अटैची पैक करनी शुरू कर दी.

‘‘हां, मेमसाब, कुली चाहिए?’’ लखनऊ स्टेशन पर कुली पूछ रहा था.

आखिरकार, मीनाक्षी लखनऊ पहुंच गई, दिल्ली से लखनऊ की यात्रा पूरी हुई या उस के जीवन की नई यात्रा शुरू हुई? यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई.

Religion: ब्राहमण बनते अपर कास्ट ओबीसी, नहीं बदल रही वर्ण व्यवस्था

Religion: अपर कास्ट ओबीसी के कुछ लोग भले ही खुद को ब्राहमण समझने लगे, लेकिन इस से समाज की वर्ण व्यवस्था नहीं बदलने वाली.

रविवार 8 दिसंबर 2024 का विश्व हिंदू परिषद के विधि प्रकोष्ठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के लाइब्रेरी हौल में ‘विधि कार्यशाला’ नामक कार्यक्रम का आयोजन किया था. इस कार्यक्रम में जस्टिस शेखर कुमार यादव के अलावा इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक और मौजूदा जज जस्टिस दिनेश पाठक भी शामिल हुए. कार्यक्रम में वक्फ बोर्ड अधिनियम, धर्मांतरण कारण एवं निवारण और समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता जैसे विषयों पर अलगअलग लोगों ने अपनी बात रखी. इस दौरान जस्टिस शेखर यादव ने ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ विषय पर बोलते हुए कहा कि देश एक है, संविधान एक है तो कानून एक क्यों नहीं है?

लगभग 34 मिनट की इस स्पीच के दौरान उन्होंने कहा ‘हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा. यही कानून है. आप यह भी नहीं कह सकते कि हाई कोर्ट के जज हो कर ऐसा बोल रहे हैं. कानून तो भैया बहुसंख्यक से ही चलता है.’ अपने इसी भाषण में जस्टिस शेखर यादव यह भी कह जाते हैं कि ‘कठमुल्ले’ देश के लिए घातक हैं.’ वह यह समझते हैं कि ‘कठमुल्ला’ शब्द गलत है. इस के बाद भी कहते हैं ‘जो कठमुल्ला हैं, शब्द गलत है लेकिन कहने में गुरेज नहीं है, क्योंकि वो देश के लिए घातक हैं. जनता को बहकाने वाले लोग हैं. देश आगे न बढ़े इस प्रकार के लोग हैं. उन से सावधान रहने की जरूरत है.’

‘कठमुल्ला’ का शाब्दिक अर्थ ‘कट्टरपंथी मौलवी’, ‘अपने मत या सिद्धांत के प्रति अत्यंत आग्रहशीन या दुराग्रही व्यक्ति होता है. इस का मतलब कट्टर मौलवी होता है जो काठ के मनकों की माला फेरता हो. अब इसी ‘कठमुल्ला’ शब्द विवाद का विषय बन गया है. जस्टिस शेखर कुमार यादव की दूसरी उस बात पर विवाद है जिस में यह कहा कि ‘कानून तो बहुसंख्यक से ही चलता है.’ इस देश में कठमुल्ला, बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक जैसे शब्द राजनीतिक दलों को बहुत लुभाते हैं.’

जस्टिस शेखर कुमार यादव जैसे ओबीसी समाज के तमाम ऐसे लोग हैं जिन को लगता है कि देश से वर्ण व्यवस्था खत्म हो गई है. ऐसे ही लोगों में एक बड़ा नाम है बाबा रामदेव का. उन्होंने धर्म का प्रयोग अपने को स्थापित करने का किया. 2012-2013 में वह अन्ना हजारे के आंदोलन का हिस्सा बने थे. उस समय केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार थी. 2014 में जैसे ही सरकार बदली रामदेव धर्म के प्रचारक हो गए. योग के साथ ही साथ उन्होने अपने जो प्रोडक्टस बेचने शुरू किए उन का आधार धर्म को बनाया.

दक्षिणपंथ से अलग थी समाजवादी विचारधारा

धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर रामदेव का कारोबार भले ही बढ़ गया हो पर इस से वर्ण व्यवस्था पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसे ओबीसी नेताओं की लिस्ट लंबी है. जो ओबीसी के नाम पर आगे तो बढ़ गए लेकिन वह खुद को ब्राहमण जैसा समझने लगे. ओबीसी के जो नेता आगे बढ़े वह धर्म की आलोचना करके ही आगे बढ़े थे. इन की विचारधारा दक्षिणपंथी पंडावाद की नहीं थी. यह समाजवादी विचारधारा के थे. जिस में महिलाओं और रुढ़िवादी विचारों को व्यापक जगह दी गई थी.

समाजवादी राजनीति उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं जो वर्ण व्यवस्था वाले समाज को बदल कर उस में अधिक आर्थिक और जातीय समानता लाना चाहते हैं. इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जताई जाती है जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या कमजोर हों. समाजवादी विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की बात करती है. यह वर्णव्यवस्था के ठीक विपरीत विचारों को ले कर चलती है. यही वजह है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की विधान सभा में कहा कि ‘हम शूद्र हैं.’ समाजवादी पार्टी कार्यालय पर इस का प्रचार करता होर्डिग भी लगाया गया था.

उत्तर प्रदेश में रामचरितमानस पर विवादित बयान देने वाले नेता स्वामी प्रसाद मौर्य उस समय समाजवादी पार्टी में थे. इस को ले कर सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर सवाल उठ रहे थे. अखिलेश यादव को हिंदू संगठनों ने काले झंडे दिखाए और उन के खिलाफ नारेबाजी की. इसे ले कर अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार पर हमला बोला है. अखिलेश ने कहा कि “मैं मुख्यमंत्रीजी से सदन में पूछूंगा कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं. भाजपा और आरएसएस के लोग दलितों और पिछड़ों को शूद्र समझते हैं.” यह वर्ण व्यवस्था की देन थी.

क्या है वर्ण व्यवस्था ?

वर्ण व्यवस्था का सब से पहले जिक्र ऋग्वेद के दसवें मंडल में पाया जाता है. यही बाद में जातीय व्यवस्था का आधार बन गई. जातीय व्यवस्था में 4 जातीयां प्रमुख रखी गई. यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं. शुद्र का मतलब दलित वर्ग से नहीं था. वर्ण व्यवस्था में उन को तो चर्चा के लायक भी नहीं समझा जाता था. वर्ण व्यवस्था 1500 ईसा पूर्व आर्यों के आने के साथ ही भारत में आ गई थी. यह मध्य एशिया से भारत आए थे. यह गोरे रंग वाले लोग थे. अपनी नस्लीय श्रेष्ठता को बनाए रखने के प्रयास में उन्होंने देश के मूल निवासियों यानी काली चमड़ी वाले लोगों से खुद को अलग रखा था.
आर्यों के आगमन के बाद समाज में दो वर्ग हो गए. मूलवर्ग काले रंग का था. जिस को दास कहा गया. ऋग्वैदिक काल में ही समाज का विभाजन हो गया था. आर्यों के एक समूह ने बौद्धिक नेतृत्व के लिए खुद को दूसरों से अलग रखा. इस समूह को ‘पुजारी’ कहा जाता था. दूसरे समूह ने समाज की रक्षा के लिए दावा किया. जिसे ‘राजन्या’ यानि राजा से पैदा कहा जाता था. यही आगे चल कर क्षत्रिय वर्ग बन गया. तीसरे वर्ग ने कारोबार करना शुरू किया यह ही वैश्य कहलाया.

उत्तर वैदिक काल में शूद्र नामक एक नए वर्ण का उदय हुआ. इस की जानकारी ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलती है. ब्राह्मणों, क्षत्रिय और वैश्यों को द्विज का दर्जा दिया गया था. जबकि शूद्रों को द्विज स्थिति के दायरे से बाहर रखा गया था और उन्हें ऊपरी 3 वर्णों की सेवा के लिए बनाया गया था. वर्ण व्यवस्था के तहत लोगों को उन की सामाजिक आर्थिक स्थिति के आधार पर दर्जा दिया जाता था. वर्ण व्यवस्था के तहत समाज को 4 अलगअलग वर्णों में विभाजित किया गया था. इस के आधार पर जातीय भेदभाव भी खूब होता है.

वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था. एक ब्राह्मण महिला एक ब्राह्मण पुरुष से ही शादी कर सकती थी. इस के बाद दूसरे नंबर पर क्षत्रिय वर्ग आता था. इन का मुख्य कार्य युद्धभूमि में लड़ना था. एक क्षत्रिय को सभी वर्णों की स्त्री से विवाह करने की अनुमति थी. हालांकि एक ब्राह्मण या क्षत्रिय महिला को प्राथमिकता दी जाती थी. इस व्यवस्था में तीसरा नंबर वैश्य का था. इस वर्ण की महिलाएं पशुपालन, कृषि और व्यवसाय में अपने पति का साथ देती थी. वैश्य महिलाओं को किसी भी वर्ण के पुरुष से शादी करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई थी. शूद्र पुरुष से शादी करने का प्रयास नहीं किया जाता था.

शूद्र वर्ण व्यवस्था में सब से निचले स्थान पर थे. इन को किसी भी तरह के अनुष्ठान करने से रोक दिया गया था. कुछ शूद्रों को किसानों और व्यापारियों के रूप में काम करने की अनुमति थी. शूद्र महिलाएं किसी भी वर्ण के पुरुष से विवाह कर सकती थीं. जबकि एक शूद्र पुरुष केवल शूद्र वर्ण की महिला से ही विवाह कर सकता था. बौध और जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था में जातीय भेदभाव को खत्म करने की कोशिश की लेकिन यह खत्म नहीं हो सका. आजादी के बाद भी इस का प्रभाव कायम है. संविधान से मिली आरक्षण की ताकत से शूद्र वर्ग के लोग राजनीतिक और सामाजिक रूप से आगे बढ़ गए. आर्थिक संपन्नता से यह खुद को ब्राहमणों जैसे समझने लगे. असल में यह अपने वर्ग में श्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था में इन की जगह जहां थी वहीं है. इस का सब से बड़ा उदाहरण समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में देखी जा सकती है.

वैवाहिक विज्ञापनों में दिखती है वर्ण व्यवस्था:

‘ब्राह्मण, 29 वर्षीय पोस्ट ग्रेजुएट बिजनेसमैन युवक के लिए सर्वगुण सुंदर, स्लिम, संस्कारी, गृहकार्य दक्ष, विश्वसनीय, ईमानदार व शाकाहारी वधु चाहिए. केवल सरकारी टीचर और केवल ब्राह्मण परिवार ही स्वीकार्य. कुंडली मिलान और 36 गुणयोग, बायोडाटा फोटो सहित सम्पर्क करें.’
वैवाहिक विज्ञापनों में पूरी जातीय और वर्ण व्यवस्था दिखती है. हर जाति के लिए अलग कालम बने हैं. जहां अतंर जातीय विवाह की बात होती है उस का अर्थ है कि ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य आपस में विवाह कर सकते हैं. शूद्र के साथ यह लोग अतंर जातीय विवाह नहीं करते हैं. यह विज्ञापन आज भी उतने ही रूढ़िवादी और जातिवादी हैं जितने पहले थे.
हाल के 10-15 सालों में विज्ञापन और अधिक पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त हो गए हैं. इन विज्ञापनों में यह भी दिखता है कि कैसे हमारे सामाज में विवाह की मूल सोच को नकारते हुए इसे वैवाहिक सौदा बनाया गया है जिस में जाति, धर्म, गोत्र का ध्यान रखना सब से पहले आवश्यक है. कुछ विज्ञापनों में बिना दहेज और कोई जाति बाधा न होने जैसी बातें भले ही लिखी जा रही हैं लेकिन विज्ञापन देनेवाले अपनी जाति का उल्लेख करना नहीं भूलते हैं. वास्तविक रूप अपनी जाति से इतर शादी करना कितना कठिन होता है, इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में अपनी पसंद से शादी करने वाले जोड़े को जान तक गंवानी पड़ती है.

शादी के नाम पर पहले भी मातापिता की रजामंदी के आधार पर जातीय व धार्मिक व्यवस्था को लागू किया जाता रहा है. मैट्रिमोनियल साइट्स इन बातों को ध्यान में रखते हुए जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र और व्यव्साय जैसे वर्गों को अपनी साइट्स में बांटे हुए हैं. वैवाहिक विज्ञापनों और साइट्स की भाषा समाज की उसी मानसिकता को दिखाते हैं, जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की ही मानसिकता है.
वैवाहिक विज्ञापनों की शुरूआत के पहले कालम में ‘ब्राहमण’ वैसे ही लिखा होता है जैसे वर्ण व्यवस्था में उस का नाम पहले आता है. वर चाहिए या वधू इस के अलगअलग कालम होते हैं. इस के बाद क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ, जाट, जाटव, मुसलिम, यादव, बंगाली, पंजाबी, सिख होते हैं.

एक कालम अन्य का होता है. इस में पासी, विश्वकर्मा, पाल, गडरिया, प्रजापति, चमार जैसी जातियों के लिए वर या वधू का जिक्र होता है. ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य के विज्ञापनों में सजातीय शब्द के वर वधू की चाहत अधिक होती है. बहुत कम में जाति बंधन नहीं लिखा मिलता है. पासी, विश्वकर्मा, पाल, गडरिया, प्रजापति, चमार और जाटव जैसी जातियों के वर्ग में जाति बंधन नहीं लिखा होता है.
सोशल मीडिया पर वैवाहिक साइटों की मेंबरशिप लेने से पहले वर या वधू का पूरी जानकारी बायोडाटा के रूप में ली जाती है. अब इस में लड़कालड़की और उस के मातापिता की जानकारी के अलावा भाई, बहन, चाचा और चाची की जानकारी भी ली जाती है. इस के साथ ही साथ लड़की शाकाहारी और अल्कोहल का प्रयोग नहीं करती यह भी लिखा जाता है. एक नया कालम जुड़ गया है जिस में पूछा जाता है कि वह सोशल मीडिया पर रील तो नहीं बनाती. समाचारपत्रों के वैवाहिक विज्ञापनों में कम बातों का जिक्र किया जाता है.

वैवाहिक साइटों में तमाम गोपनीय जानकारी ली जाती है, जिस से आर्थिक हालत, लोन, ईएमआई जैसे सवाल होते हैं. कुछ बातें फौर्म में भरी नहीं जाती अपने परिचय में बताई जाती है. वैवाहिक साइटों को चलाने वालों का दावा है कि इन जानकारियों के जरिए ही वे परफैक्ट मैच तलाश करते हैं. इन के जरिए लोगों की गोपनीय जानकारियां कहीं की कहीं पहुंचने का खतरा रहता है. इस तरह से आजादी के 77 साल के बाद भी वर्ण व्यवस्था कायम है. आज भी शादी का वहीं ढांचा चल रहा है जो मनुवाद के समय था. ऐसे में कुछ ओबीसी और एससी के ब्राहमण जैसे बनने से पूरे समाज में बदलाव नहीं माना जा सकता है.

Love Story : कालेज वाला प्यार

Love Story : रोहित अमला से मिलने उस के कालेज आया था. दोनों कैंटीन में बैठे चाय पी रहे थे. रोहित एमबीए फाइनल ईयर में था और अमला एमए फाइनल में थी. दोनों ने प्लस टू की पढ़ाई एक ही स्कूल से की थी. इस  के बाद वे कालेज की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गए थे. रोहित ग्रेजुएशन के बाद एमबीए करने दूसरे कालेज चला गया था, पर अकसर अमला से मिलने उस के कालेज आता था. उसे कैंपस से अच्छा प्लेसमैंट मिल गया था. दोनों लगभग 6 साल से एकदूसरे को जानते थे और अच्छी तरह परिचित थे.

अमला काफी सुंदर थी और रोहित भी हैंडसम और स्मार्ट था. दोनों पिछले 2 साल से एकदूसरे को चाहने भी लगे थे. दोनों चाय पी रहे थे और टेबल के नीचे अपनी टांगों की जुगलबंदी किए बैठे थे. तभी रोहित का एक दोस्त अशोक भी अपनी गर्लफ्रैंड के साथ वहां आ गया. उस टेबल पर 2 कुरसियां खाली थीं. वे दोनों भी वहीं बैठ गए.

अशोक बोला, ‘‘यार, तुम दोनों की जुगलबंदी हो चुकी हो तो अपनी टांगें हटा लो, अब हमें भी मौका दो.’’

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यह सुन कर रोहित और अमला ने अपनेअपने पैर पीछे खींच लिए. अमला थोड़ा झेंप गई थी.

‘‘अच्छा, हम दोनों चाय पी चुके हैं, अब चलते हैं. अब तुम लोगों के जो जी में आए करो,’’ रोहित ने अमला  भी उठने का इशारा किया.

चलतेचलते रोहित ने अमला से पूछा, ‘‘आज शाम मूवी देखने चल सकती हो?’’

‘‘हां, चल सकती हूं.’’

सिनेमाहौल में दोनों मूवी देख रहे थे. रोहित ने अमला का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से उस के कान में कहा, ‘‘कब तक हम लोग बस हाथपैर मिलाते रहेंगे. इस से आगे भी बढ़ना है कि नहीं?’’

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अमला ने संकेत से चुप रहने का इशारा किया और कहा, ‘‘सब्र करो, आसपास और भी लोग हैं. अपना हाथ हटा लो.’’

हाथ हटाते समय रोहित का हाथ अमला के वक्ष को स्पर्श कर गया, हालांकि यह अनजाने में हुआ था. अमला ने मुड़ कर उस की ओर देखा. रोहित को लगा कि अमला की आंखों में कोई शिकायत का भाव नहीं था बल्कि उस की नजरों में खामोशी झलक रही थी.

मूवी देखने के बाद दोनों एक दोस्त मुकेश के यहां डिनर पर गए. वह अपने पिताजी के फ्लैट में अकेला रहता था. उस के पिताजी न्यूजीलैंड में जौब करते थे. मुकेश ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मैं 6 महीने के लिए न्यूजीलैंड और आस्टे्रलिया जा रहा हूं. तुम लोग चाहो तो यहां रह सकते हो. कुछ दिन साथ रह कर भी देखो, आखिर शादी तो तुम्हें करनी ही है. जैसा कि तुम दोनों मुझ से कहते आए हो.’’

यह सुन कर रोहित और अमला एकदूसरे का मुंह देखते रहे. मुकेश बोला, ‘‘तुम लोगों को कोई प्रौब्लम नहीं होनी चाहिए. पिछली बार तुम्हारे पेरैंट्स आए थे तो उन्हें तुम्हारे बारे में पता था. तुम ने खुद बताया था उन्हें. अंकलआंटी दोनों कह रहे थे कि तुम्हारे दादादादी अभी जीवित हैं और बस, उन की एक औपचारिक मंजूरी चाहिए. इत्तेफाक से तुम दोनों सजातीय भी हो तो उन लोगों को भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.’’

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‘‘ठीक है, हम सोच कर बताएंगे.’’

डिनर के बाद जब दोनों जाने लगे तो मुकेश बोला, ‘‘तुम एक डुप्लीकेट चाभी रख लो. मैं अपार्टमैंट औफिस में बता दूंगा कि मेरी अनुपस्थिति में तुम लोग यहां रहोगे.’’

इतना कह कर मुकेश ने चाभी रोहित को थमा दी. रास्ते में रोहित से अमला बोली, ‘‘तुम ने चाभी अभी से क्यों रख ली? इस का मतलब हम अभी से साथ रहेंगे क्या? मुझे तो ऐसा ठीक नहीं लगता. मम्मीपापा को शायद उतना बुरा न लगे, पर दादादादी पुराने विचारों के हैं, उन्हें पता चलेगा तो आसमान सिर पर उठा लेंगे.’’

‘‘दादादादी ही पुराने विचारों के हैं, मैं और तुम तो नहीं. और वे गांव में बैठे हैं. उन्हें कौन बताएगा कि हम साथ रह रहे हैं या नहीं. आज जमाना कहां से कहां पहुंच गया है. तुम्हें पता है कि पश्चिमी देशों में अगर कोई युवती 18 साल तक वर्जिन रह जाती है तो उस के घर वाले चिंतित हो जाते हैं, इस का मतलब आमतौर पर लोग यही अंदाजा लगाते हैं कि उस में कोई कमी है.’’

‘‘बेहतर है हम जहां हैं, वहां की बात करें.’’

‘‘तुम किस गलतफहमी में जी रही हो? यहां भी युवकयुवती लिवइन रिलेशन में साल दो साल एकसाथ रहने के बाद एकदूसरे को बायबाय कर देते हैं. वैसे मैं तुम्हें फोर्स नहीं करूंगा. और तुम हां कहोगी तभी हम मुकेश के फ्लैट में शिफ्ट करेंगे. संयोगवश यह मौका मिला है और हम दोनों शादी करने जा ही रहे हैं, पढ़ाई के बाद. तुम कहो तो कोर्ट मैरिज कर लेते हैं इस के पहले.’’

‘‘नो कोर्ट मैरिज. शादी की कोई जल्दबाजी नहीं है. जब भी होगी ट्रैडिशनल शादी ही होगी,’’ अमला ने साफसाफ कहा.

2 हफ्ते तक काफी मनुहार के बाद अमला मुकेश के फ्लैट में रोहित के साथ आ गई. दोनों के कमरे अलगअलग थे. मुकेश की कामवाली और कुक दोनों के कारण खानेपीने या घर के अन्य कामों की कोई चिंता नहीं थी. 4 महीने के अंदर रोहित को नौकरी जौइन करनी थी और उस के पहले अमला को डिग्री भी मिलनी थी.

रोहित और अमला देर रात तक साथ बातें करते और फिर अपनेअपने कमरे में सोने चले जाते थे. धीरेधीरे दोनों और करीब होते गए. अब तो रोहित अमला के बालों से खेलने लगा था, कभीकभी गाल भी सहला लेता. दोनों को यह सब अच्छा लगता. पर एक दिन दोनों के सब्र ने जवाब दे दिया और वे एक हो गए. जब एक बार सब्र का बांध टूट गया तो दोनों इस सैलाब में बह निकले.

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कुछ दिन बाद अमला बोली, ‘‘रोहित, इधर कुछ दिनों से मेरे पेट के निचले हिस्से में दर्द सा रहता है. कभीकभी यह ज्यादा ही हो जाता है.’’

‘‘किसी गाइनोकोलौजिस्ट से चैकअप करा लो.’’

‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी, तुम्हें भी साथ चलना पड़ेगा.’’

‘‘अब लेडी डाक्टर के पास मुझे कहां ले जाओगी?’’

‘‘तब रहने दो, मैं भी नहीं जाती.’’

‘‘अच्छा बाबा, चलो, कल सुबह चलते हैं.’’

अगले दिन सुबह दोनों गाइनोकोलौजिस्ट के पास पहुंचे. वहां कुछ मरीज पहले से ही थे, उन्हें काफी देर तक इंतजार करना पड़ा. इस बीच उन्होंने देखा कि वहां आने वाली ज्यादातर औरतें प्रैग्नैंट थीं और उन के साथ कोई मर्द या प्रौढ़ महिला थी. सब से कम उम्र की पेशैंट अमला ही थी. अमला यह सब देख कर थोड़ी घबरा गई थी. उस की बगल में बैठी एक औरत ने पूछा, ‘‘लगता है तुम्हारा पहला बच्चा है, पहली बार घबराहट सब को होती है. डरो नहीं.’’

रोहित और अमला एकदूसरे को देखने लगे. रोहित बोला, ‘‘डोंट वरी, लेट डाक्टर चैकअप.’’

जब अमला का नाम पुकारा गया तो रोहित भी उस के साथ चैकअप केबिन में जाने लगा. नर्स ने उसे रोक कर कहा, ‘‘आप बाहर वेट करें, अगर डाक्टर बुलाती हैं तो आप बाद में आ जाना.’’

डाक्टर ने अमला को चैक किया. उस की आंखें, पल्स, ब्लडप्रैशर आदि चैक किए. फिर पूछा, ‘‘दर्द कहां होता है?’’

अमला ने पेट के नीचे हाथ रख कर कहा, ‘‘यहां.’’

डाक्टर ने नर्स को पेशैंट का यूरिन सैंपल ले कर प्रैग्नैंसी टैस्ट करने को कहा और पूछा ‘‘शादी हुए कितने दिन हुए.’’

‘‘मैं अनमैरिड हूं डाक्टर.’’

‘‘सैक्स करती हो?’’

अमला ऐसे प्रश्न के जवाब देने के लिए तैयार नहीं थी. उस को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या बोले, वह सिर्फ डाक्टर की ओर देख रही थी. डाक्टर ने नर्स को बुला कर कहा, ‘‘इन के साथ जो आदमी आया है उस को बुला कर लाओ और इन की प्रैग्नैंसी टैस्ट रिपोर्ट लेती आना.’’

रोहित केबिन में गया तो डाक्टर ने पूछा, ‘‘पेशैंट कहती है कि वह अनमैरिड है, पर जब मैं ने सैक्स के बारे में पूछा तो वह कुछ बता नहीं पा रही है. डाक्टर से सच बोलना चाहिए तभी तो इलाज सही होगा.’’

इसी बीच डाक्टर ने उन दोनों से फ्रैंडली होते हुए पूछा कि वे कहां के रहने वाले हैं. बातोंबातों में पता चला कि डाक्टर अमला की मां की सहपाठी रह चुकी हैं. तभी नर्स टैस्ट रिपोर्ट ले कर आई जो पौजिटिव थी. डाक्टर बोली, ‘‘अब तो शक की कोई गुंजाइश नहीं है, अमला तुम प्रैग्नैंट हो. इस का मतलब तुम दोनों अनमैरिड हो लेकिन फिजिकल रिलेशन रखते हो.’’

रोहित और अमला दोनों को यह बात असंभव लगी. उन के बीच रिलेशन तो रहा है, पर उन्होंने सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा है. रोहित अमला की ओर देखे जा रहा था, अमला लगातार सिर हिला कर न का संकेत दे रही थी. रोहित के पास भी अमला पर शक करने की कोई वजह नहीं थी.

रोहित डाक्टर से बोला, ‘‘हम फिजिकल भले रहे हों, पर इस रिपोर्ट पर मुझे भरोसा नहीं है.’’

‘‘ठीक है, मैं दोबारा टैस्ट करा लेती हूं या फिर बगल में एक दूसरी लैब में भेज दूं अगर तुम लोगों को मुझ र भरोसा नहीं है,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘नहीं डाक्टर, भरोसा कर के ही तो हम आप तक आए हैं. फिर भी एक बार और टैस्ट करा लेतीं तो ठीक था.’’

डाक्टर ने नर्स को बुला कर यूरिन का सैंपल दोबारा टैस्ट करने को कहा. नर्स को थोड़ा आश्चर्य हुआ. उस ने रिपोर्ट अपने हाथ में ले कर पढ़ी और कहा, ‘‘सौरी, यह रिपोर्ट इन की नहीं है. दूसरे पेशैंट की है. दरअसल, दोनों के फर्स्ट नेम एक ही हैं और सरनेम में बस, एक लेटर का फर्क है. इन का सरनेम सिन्हा है और यह रिपोर्ट मैडम सिंह की है. आइ एम सो सौरी, अभी इन की रिपोर्ट ले कर आती हूं.’’

यह सुन कर रोहित और अमला की जान में जान आई. नर्स अमला की रिपोर्ट ले कर आई जो निगेटिव थी. तब डाक्टर ने रोहित से कहा, ‘‘आई एम सौरी फौर दिस मेस. आप बाहर, जाएं, मैं पेशैंट को ऐग्जामिन करूंगी.’’

अमला का बैड पर लिटा कर चैकअप किया गया. फिर रोहित को भी अंदर बुला कर डाक्टर ने कहा, ‘‘डौंट वरी, इन के ओवरी में बांयीं ओर कुछ सूजन है. मैं दवा लिख देती हूं, उम्मीद है 2 सप्ताह में आराम मिलेगा. अगर फिर भी प्रौब्लम रहे तो मुझे बताना आगे ट्रीटमैंट चलेगा.’’

अमला ने चलतेचलते डाक्टर को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘प्लीज डाक्टर, मम्मी को आप यह नहीं बताएंगी.’’

‘‘मेरा तो पिछले 15 साल से उस से कोई संपर्क नहीं रहा है. वैसे पता रहने पर भी नहीं बताती, डौंट वरी, गेट मैरिड सून. अपनी मम्मी का फोन नंबर देती जाना, अगर तुम्हें कोई प्रौब्लम न हो तो.’’

‘‘श्योर, मैं लिख देती हूं, मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

अमला ने अपनी मां का फोन नंबर एक पेपर पर नोट कर डाक्टर को दे दिया.

क्लिनिक से बाहर आ कर अमला ने कहा, ‘‘आज तो हमारे रिश्ते की बात हम दोनों के सिवा इस डाक्टर और नर्स को भी पता चल गई. उस ने मम्मी का कौन्टैक्ट्स भी मुझ से ले लिया है. उम्मीद है कि वह मम्मी को नहीं बताएगी.’’

‘‘बता भी दिया तो क्या हो जाएगा? हम लोग शादी करने जा रहे हैं. मैं अगले महीने नौकरी जौइन करने जा रहा हूं. कंपनी की ओर से फ्लैट और कार भी मिल रही है. जल्द ही हम शादी कर लेंगे.’’

‘‘वो तो ठीक है, पर मम्मी मुझ से कहती आई हैं युवतियों को अपनी वर्जिनिटी शादी तक बचानी चाहिए.’’

‘‘आजकल सबकुछ हो जाने के बाद भी वर्जिनिटी दोबारा मिल सकती है. तुम्हें पता है कि प्लास्टिक सर्जरी से युवतियां अपना खोया हुआ कौमार्य प्राप्त कर सकती हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘सही बोल रहा हूं. बस, कुछ हजार रुपए खर्च कर कुछ घंटे प्लास्टिक सर्जन के क्लिनिक पर हाइमनोप्लास्टी द्वारा हाइमन बनाया जाता है और युवतियां फिर से कुंआरी बन जाती हैं.’’

अमला रोहित की तरफ अचरज भरी नजरों से देखने लगी तो फिर वह बोला, ‘‘देश भर के छोटेबड़े शहरों में सैकड़ों क्लिनिक हैं, जो हाइमनोप्लास्टी करते हैं. इन्हें अपने लिए ज्यादा प्रचार भी नहीं करना होता है. यह तो एक कौस्मेटिक सर्जरी है. इतना ही नहीं कुछ बालबच्चों वाली महिलाएं भी वैजिनोप्लास्टी करा कर दांपत्य जीवन के शुरुआती दिनों जैसा आनंद फिर से महसूस करने लगी हैं.’’

‘‘ओह.’’

‘‘जरूरत पड़ी तो तुम्हारी भी हो सकती है, कह कर रोहित हंसने लगा.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए यह सब. अब इस बारे में मुझे और कुछ नहीं सुनना है.’’

रोहित और अमला को अपनी तात्कालिक समस्या का निदान मिल चुका था. दोनों ने खुशीखुशी अपने फ्लैट पर जा कर चैन की सांस ली.

Best Hindi Story : जंगल में रात कैसे कटेगी?

Best Hindi Story : मनचाहा शिकार तो मिल गया, लेकिन शिकारी थक कर चूर हो चुका था. एक तो थकान, दूसरे ढलती सांझ और तीसरे सात कोस का सफर. उस में भी दो कोस पहाड़ी चढ़ाई, फिर उतनी ही ढलान. समर सिंह ने पहाड़ी के पीछे डूबते सूरज पर निगाह डाल कर घोड़े की गर्दन पर हाथ फेरा. फिर घोड़े की लगाम थामे खड़े सरदार जुझार सिंह को टोकते हुए थके से स्वर में बोले, ‘‘अंगअंग दुख रहा है, सरदार! …ऊपर से सूरज भी पीठ दिखा गया. धुंधलका घिरने वाला है, अंधेरे में कैसे पार करेंगे इस पहाड़ी को?’’

जुझार सिंह थके योद्धा की तरह सामने सीना ताने खड़ी पहाड़ी पर नजर डालते हुए बोले, ‘‘थक तो हम सभी गए हैं, हुकुम. सफर जारी रखा, तो और भी बुरा हाल हो जाएगा. अंधेरे में रास्ता भटक गए तो अलग मुसीबत. मेरे ख्याल से तो…’’ जुझार सिंह की बात का आशय समझते हुए समर सिंह बोले, ‘‘लेकिन इस बियाबान जंगल में रात कैसे कटेगी? हम लोगों के पास तो कोई साधन भी नहीं है. ऊपर से जंगली जानवारों का अलग डर.’’

पीछे खड़े सैनिक समर सिंह और जुझार सिंह की बातें सुन रहे थे. उन दोनों को चिंतित देख एक सैनिक अपने घोड़े से उतरकर सरदार के पास आया और सिर झुका कर खड़ा हो गया. सरदार समझ गए, सैनिक कुछ कहना चाहता है. उन्होंने पूछा, तो सैनिक उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘सरदार, अगर रात इधर ही गुजारनी है, तो सारा बंदोबस्त हो सकता है. आप हुक्म करें.’’

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‘‘क्या बंदोबस्त हो सकता है, मोहकम सिंह?’’ जुझार सिंह ने सवाल किया, तो सैनिक दाईं ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘इस छोटी सी पहाड़ी के पार मेरा गांव है. बड़ी खूबसूरत रमणीक जगह है उस पार. इस पहाड़ी को पार करने के लिए हमें सिर्फ एक कोस चलना पड़ेगा. आधे कोस की चढ़ाई और उस ओर की आधे कोस ढलान. रास्ता बिलकुल साफ है. अंधेरा घिरने से पहले हम गांव पहुंच जाएंगे. मेरे गांव में हुकुम को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

जुझार सिंह ने प्रश्नसूचक नजरों से समर सिंह की ओर देखा. वह शांत भाव से घोड़े की पीठ पर बैठे थे. उन्हें चुप देख सरदार ने कहा, ‘‘सैनिक की सलाह बुरी नहीं है हुकुम. रात भी चैन से बीत जाएगी और इस बहाने आप अपनी प्रजा से मिल भी लेंगे. जो लोग आप के दर्शन को तरसते हैं, आप को सामने देख पलकें बिछा देंगे.’’

…और ऐसा ही हुआ था. मोहकम सिंह का प्रस्ताव स्वीकार करके जब समर सिंह अपने साथियों के साथ उसके गांव पहुंचे, तो गांव वालों ने उनके आगे सचमुच पलकें बिछा दीं.

छोटा सा पहाड़ी गांव था, राखावास. साधन विहीन. फिर भी वहां के लोगों ने अपने राजा के लिए ऐसेऐसे इंतजाम किए, जिन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. हुकुम के आने से मोहकम सिंह को तो जैसे पर लग गए थे. उस ने गांव के युवकों को एकत्र कर के सूखी मुलायम घास का आरामदेह आसन लगवाया. उस पर सफेद चादर बिछवाई. सरदार के लिए अलग आसन का प्रबंध किया और सैनिकों के लिए अलग. चांदनी रात थी, फिर भी लकडि़यां जला कर रोशनी की गई.

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आननफानन में सारा इंतजाम कराने के बाद गांव के कुछ जिम्मेदार लोगों को शिकार भूनने और बनाने की जिम्मेदारी सौंप कर मोहकम सिंह घोड़ा दौड़ाता हुआ दो कोस दूर समलखा गांव गया और वहां से वीरन देवल से चार बोतल संतूरी ले आया. राजस्थान की बेहतरीन शराब, जो केवल राजामहाराजाओं के लिए बनाई जाती थी.

उन का अदना सा एक सिपाही कितने काम का साबित हो सकता है, यह बात समर सिंह को तब पता चली, जब उस के अपने हाथों मारे गए शिकार का जायकेदार गोश्त परोसा गया, भोजन के साथ संतूरी का लुत्फ लेते हुए उन की नजर घुंघरू छनका कर मस्त अदाओं के साथ नाचती मौली पर पड़ी. ऐसा रूपलावण्य, ऐसा अछूता सौंदर्य, ऐसा मदमाता यौवन और अंगअंग में ऐसी लोच, समर सिंह ने पहली बार देखी थी. उन के महल तक में नहीं थी, ऐसी अनिंद्य सुंदरी. ऊपर से फिजाओं में रंग बिखेरती मौली का सधा हुआ स्वर और एक ही ताल पर बजते घुंघरूओं की झंकार. रहीसही कसर मानू की ढोलक की थाप पूरी कर रही थी. घुंघरूओं की रुनझुन और ढोलक की थाप को सुन लगता था, जैसे दोनों एक दूसरे के पूरक हों.

पूरक थे भी. मौली का सधा स्वर, घुंघरूओं की रुनझुन और मानू की ढोलक की थाप ही नहीं, बल्कि वे दोनों भी. यह अलग बात थी कि इस बात को गांव वाले तो जानते थे, पर समर सिंह और उन के साथी नहीं.

मौली और मानू खूब खुश थे. उन्हें यह सोच कर खुशी हो रही थी कि अपने राजा का मनोरंजन कर रहे हैं. इस के लिए उन दोनों ने अपनी ओर से भरपूर कोशिश भी की. लेकिन उन की सोच, उनके उत्साह, उन के समर्पण भाव और कला पर पहली बिजली तब गिरी, जब शराब के नशे में झूमते राजा समर सिंह ने मौली को पास बुला कर उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आज हम ने अपने जीवन में सब से बड़ा शिकार किया है. हमारी शिकार यात्रा सफल रही. ये रात कभी नहीं भूलेगी.’’

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इस तरह मौली का हाथ कभी किसी ने नहीं पकड़ा था. मानू ने भी नहीं. उसे मानू के हाथों का स्पर्श अच्छा लगता था. लेकिन उस ने उस के पैरों के अलावा कभी किसी अंग को नहीं छुआ था. मौली के पैरों में भी उस के हाथों का स्पर्श तब होता था, जब वह अपने हाथों से उस के पैरों में घुंघरू बांधता था.

मौली को राजा द्वारा यूं हाथ पकड़ना अच्छा नहीं लगा. उस ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, तो समर सिंह उस की कलाई पर दबाव बढ़ाते हुए बोले, ‘‘आज के बाद तुम सिर्फ हमारे लिए नाचोगी, हमारे महलों में. हम मालामाल कर देंगे, तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को ही नहीं, इस गांव को भी.’’

घुंघरूओं की झनकार भी थम चुकी थी और ढोलक की थाप भी. सब लोग विस्मय से राजा की ओर देख रहे थे. कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी. मानू भी अवाक बैठा था. मौली राजा से हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘मौली रास्ते की धूल है हुकुम… और धूल उन्हीं रास्तों पर अच्छी लगती है, जो उस की गगनचुंबी उड़ानों के बाद भी उसे अपने सीने में समेट लेते हैं. इस खयाल को मन से निकाल दीजिए हुकुम. मैं इस काबिल नहीं हूं.’’

समर सिंह ने लोकलाज की वजह से मौली का हाथ तो छोड़ दिया, लेकिन उन्हें मौली की यह बात अच्छी नहीं लगी.

रात बड़े ऐश ओ आराम से गुजरी. मोहकम सिंह और गांव वालों ने हुकुम तथा उन के साथियों की खातिरतवज्जो में कोई कसर न उठा रखी थी. सुबह जब सूरज की किरणों ने पहाड़ से उतर कर राखावास की मिट्टी को छुआ, तो वहां का कणकण निखर गया. राजा समर सिंह ने उस गांव का प्राकृतिक सौंदर्य देखा तो लगा, जैसे स्वर्ग के मुहाने पर बैठे हों. मौली की तरह ही खूबसूरत था उस का गांव. चारों ओर खूबसूरत पहाडि़यों से घिरा, नीलमणि से जलवाली आधा कोस लंबी झील के किनारे स्थित. पहाड़ों से उतर कर आने वाले बरसाती पानी का करिश्मा थी वह झील.

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रवाना होने से पहले समर सिंह ने मौली के मांबाप को तलब किया. दोनों हाथ जोड़े आ खड़े हुए, तो समर सिंह बोले, ‘‘तुम्हारी बेटी महल की शोभा बनेगी. उसे ले कर महल आ जाना. हम तुम्हें मालामाल कर देंगे.’’

‘‘मौली को हम महल ले आएंगे हुकुम.’’ मौली के मांबाप डरतेसहमते बोले, ‘‘नाचनागाना हमारा पेशा है, पर मौली के साथ मानू को भी आप को अपनी शरण में लेना पड़ेगा. उस के बिना तो मौली का पैर तक नहीं उठ सकता.’’

‘‘हम समझे नहीं.’’ समर सिंह ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा, तो मौली के पिता बोले, ‘‘मौली और मानू बचपन के साथी हैं. नाचगाना भी दोनों ने साथसाथ सीखा. बहुत प्यार है दोनों में. मौली तभी नाचती है, जब मानू खुद अपने हाथों उस के पांव में घुंघरू बांध कर ढोलक पर थाप देता है. आप लाख साजिंदे बैठा दें, मौली नहीं नाचेगी हुकुम… इस बात को सारा इलाका जानता है.’’

‘‘हमारे लिए भी नहीं?’’ समर सिंह ने अपमान का सा घूंट पीते हुए गुस्से में कहा, तो मौली के पिता बोले, ‘‘आप के लिए नाचेगी हुकुम…जरूर नाचेगी. लेकिन उस के साथ मानू का होना जरूरी है. सारा गांव जानता है, मौली और मानू दो जिस्म एक जान हैं. अलग कर के सिर्फ दो लाशें रह जाएंगी. उन्हें अलग करना सम्भव नहीं है.’’

‘‘तुम्हारे मुंह से बगावत की बू आ रही है. …और हमें बागी बिल्कुल पसंद नहीं.’’ समर सिंह गुस्से में बोले, ‘‘मौली को खुद महल लेकर आते तो हम मालामाल कर देते तुम्हें, लेकिन अब हम खुद उसे साथ लेकर जाएंगे. जाकर तैयार करो उसे, यह हमारा हुक्म है.’’

अच्छा तो किसी को नहीं लगा, लेकिन राजा की जिद के सामने किस की चलती? आखिरकार वही हुआ, जो समर सिंह चाहते थे. रोतीबिलखती मौली को उन के साथ जाने को तैयार कर दिया गया. विदा बेला में मौली ने पहली बार मानू का हाथ थाम कर कहा, ‘‘मौली तेरी है मानू, तेरी ही रहेगी. राजा इस लाश से कुछ हासिल नहीं कर पाएगा.’’

मानू के होंठों से जैसे शब्द रूठ गए थे. वह पलकों में आंसू समेटे चुपचाप देखता रहा. आंसू और भी कई आंखों में थे, लेकिन राजा के भय ने उन्हें पलकों से बाहर नहीं आने दिया. अंतत: मौली राखावास से राजा के साथ विदा हो गई.

राखावास में देवल, राठौर और नाड़ीबट््ट रहते थे. मौली और मानू दोनों ही नट जाति के थे. दोनों साथसाथ खेलतेकूदते बड़े हुए थे. दोनों के परिवारों का एक ही पेशा था, नाचगाना और भेड़बकरियां पालना. मानू के पिता की झील में डूबने से मौत हो गई थी. घर में मां के अलावा कोई न था. जब यह हादसा हुआ, मानू कुल नौ साल का था. पिता की मौत के बाद मां ने कसम खा ली कि वह अब जिंदगी भर न नाचेगी, न गाएगी. घर में 10-12 भेड़बकरियों के अलावा आमदनी का कोई साधन नहीं था. भेड़बकरियां मांबेटे का पेट कैसे भरतीं? फलस्वरूप घर में रोटियों के लाले पड़ने लगे. कभीकभी तो मानू को जंगली झरबेरियों के बेर खा कर दिन भर भेड़बकरियों के पीछे घूमना पड़ता था.

मौली बचपन से मानू के साथ रही थी. वह उस का दर्द समझती थी. उसे मालूम था, मानू कितना चाहता है उसे. कैसे अपने बदन को जख्मी कर के झरबेरियों में से कुर्ते की झोली भरभर लाललाल बेर लाता था उस के लिए… और बकरियों के पीछे भागतेदौड़ते उस के पांव में कांटा भी चुभ जाता था, तो कैसे तड़प उठता था वह. खून और दर्द रोकने के लिए उस के गंदे पांवों के घाव पर मुंह तक रखने से परहेज नहीं करता था वह.

अमीर तो मौली का परिवार भी नहीं था. बस, जैसेतैसे रोजीरोटी चल रही थी. मौली को जो भी घर में खाने को मिलता, उसे वह अकेली कभी नहीं खाती. बहाना बना कर भेड़बकरियों के पीछे साथ ले जाती. फिर किसी बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपने हाथों से मानू को खिलाती. मानू कभी कहता, ‘‘मेरे नसीब में भूख लिखी है. मेरे लिए तू क्यों भूखी रहती है?’’ तो मौली उस के कंधे पर हाथ रख कर, उस की आंखों में झांकते हुए कहती, ‘‘मेरी आधी भूख तुझे देख कर भाग जाती है और आधी, रोटी खा कर. मैं भूखी कहां रहती हूं मानू?’’

इसी तरह भेड़बकरियां चराते, पहाड़ी ढलानों पर उछलकूद मचाते मानू चौदह साल का हो गया था और मौली बारह साल की. दुनियादारी को थोड़ाबहुत समझने लगे थे दोनों. इस बीच मानू की मां उस के पिता की मौत के गम को भूल चुकी थी. गांव के ही एक दूसरे आदमी का हाथ थाम कर अपनी दुनिया आबाद कर ली थी उस ने. सौतेला बाप मानू को भी साथ रखने को तैयार था, लेकिन उस ने इनकार कर दिया.

मानू और मौली जानते थे, नाचगाना उन का खानदानी पेशा है. थोड़ा और बड़ा होने पर उन्हें यही पेशा अपनाना पड़ेगा. उन्हें यह भी मालूम था कि उन के यहां जो अच्छे नाचनेगाने वाले होते हैं, उन्हें राजदरबार में जगह मिल जाती है. ऐसे लोगों को धनधान्य की कमी नहीं रहती. हकीकतों से अनभिज्ञ वे दोनों सोचते, बड़े होकर वे भी कोशिश करेंगे कि उन्हें राज दरबार में जगह मिल जाए.

एक दिन बकरियों के पीछे दौड़ते, पत्थर से टकरा कर मौली का पांव बुरी तरह घायल हो गया. मानू ने खून बहते देखा, तो कलेजा धक से रह गया. उस ने झट से अपना कुर्ता उतार कर खून पोंछा. लेकिन खून था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था. मानू का पूरा कुर्ता खून से तर हो गया, पर खून नहीं रुका. चोट मौली के पैर में लगी थी, पर दर्द मानू के चेहरे पर झलक रहा था. उसे परेशान देख मौली बोली, ‘‘कुर्ता खून में रंग दिया, अब पहनेगा क्या?’’

हमेशा की तरह मानू के चेहरे पर दर्दभरी मुस्कान तैर आई. वह खून रोकने का प्रयास करते हुए दुखी स्वर में बोला, ‘‘कुर्ता तेरे पांव से कीमती नहीं है. दसपांच दिन नंगा रह लूंगा, तो मर नहीं जाऊंगा.’’

काफी कोशिशों के बाद भी खून बंद नहीं हुआ, तो मानू मौली को कंधे पर डाल कर झील के किनारे ले गया. मौली को पत्थर पर बैठा कर उस ने झील के जल से उस का पैर धोया. आसपास झील का पानी सुर्ख हो गया. फिर भी खून था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था.

कुछ नहीं सूझा तो मानू ने अपने खून सने कुर्ते को पानी में भिगो कर उसे फाड़ा और पट्टियां बदलबदलकर घाव पर रखने लगा. उस की यह युक्ति कारगर रही. थोड़ी देर में मौली के घाव से खून बहना बंद हो गया. उस दिन मौली को पहली बार पता चला कि मानू उसे कितना चाहता है. मानू मौली का पांव अपनी गोद में रखे धीरेधीरे घाव को सहला रहा था, ताकि दर्द कम हो जाए. तभी मौली ने उसे टोका, ‘‘खून बंद हो चुका है, मानू. दर्द भी कम हो गया. तेरे शरीर पर, धवले (लुंगी) पर खून के दाग लगे हैं. नहा कर साफ कर ले.’’

मौली का पैर थामे बैठा मानू कुछ देर शांत भाव से झील को निहारता रहा. फिर उस की ओर देख कर उद्वेलित स्वर में बोला, ‘‘झील के इस जल में तेरा खून मिला है मौली. मैं इस झील में कभी नहीं नहाऊंगा… कभी नहीं.’’

थोड़ी देर शांत रहने के बाद मानू उसके पैर को सहलाते हुए गम्भीर स्वर में बोला, ‘‘अपने ये पैर जिंदगी भर के लिए मुझे दे दे मौली. मैं इन्हें अपने हाथों से सजाऊंगा, सवारुंगा.’’

‘‘मेरा सब कुछ तेरा है मानू’’ मौली उस के कंधे पर हाथ रख कर उस की आंखें में झांकते हुए बोली, ‘‘सब कुछ. अपनी चीज को कोई खुद से मांगता है क्या?’’

पलभर के लिए मानू अवाक रह गया. उसे वही जवाब मिला था, जो वह चाहता था. वह मौली की ओर देख कर बोला, ‘‘मौली, अब हम दोनों बड़े हो चुके हैं, ज्यादा दिन इस तरह साथसाथ नहीं रह पाएंगे. लोग देखेंगे, तो उल्टीसीधी बातें करेंगे. जबकि मैं तेरे बिना नहीं रह सकता. हमें ऐसा कुछ करना होगा, जिस से जिंदगी भर साथ न छूटे.’’

‘‘ऐसा क्या हो सकता है?’’ मौली ने परेशान से स्वर में पूछा, तो मानू सोचते हुए बोला, ‘‘नाचनागाना हमारा खानदानी पेशा है न, हम वही सीखेंगे. तू नाचेगीगाएगी, मैं ढोलक बजाऊंगा. हम दोनों इस काम में ऐसी महारत हासिल करेंगे कि दो जिस्म एक जान बन जाएं. कोई हमें अलग करने की सोच भी न सके.’’

मौली खुद भी यही चाहती थी. वह मानू की बात सुन कर खुश हो गई. मौली का पांव ठीक होने में एक पखवाड़ा लगा और मानू को दूसरा कुर्ता मिलने में भी. इस बीच वह पूरे समय नंगा घूमता रहा. आंधी, धूप या बरसात तक की चिंता नहीं की उस ने. उसे खुशी थी कि उस का कुर्ता मौली के काम तो आया.

मानू के पिता की ढफ घर में सहीसलामत रखी थी. कभी उदासी और एकांत के क्षणों में बजाया करता था वह उसे. मौली का पैर ठीक हो गया, तो एक दिन मानू उसी ढफ को झाड़पोंछ कर ले गया जंगल. मौली अपने घर से घुंघरू ले कर आई थी.

मानू ने एक विशाल शिला को चुन कर अपना साधनास्थल बनाया और मौली के पैरों में अपने हाथों से घुंघरू बांधे. उसी दिन से मानू की ढफ की ताल पर मौली की नृत्य साधना शुरू हुई, जो अगले 2 वर्षों तक निर्बाध चलती रही. इस बीच ढफ और ढोलक पर मानू ने नएनए ताल ईजाद किए और मौली ने नृत्य एवं गायन की नईनई कलाएं सीखीं.

अपनीअपनी कलाओं में पारंगत होने के बाद मौली और मानू ने होली के मौके पर गांव वालों के सामने अपनीअपनी कलाओं का पहला प्रदर्शन किया, तो लोग हतप्रभ रह गए. उन्होंने इस से पहले न ऐसा ढोलक बजाने वाला देखा था, न ऐसी अनोखी अदाओं के साथ नृत्य करने वाली. कई गांव वालों ने उसी दिन भविष्यवाणी कर दी थी कि मौली और मानू की जोड़ी एक दिन राजदरबार में जा कर इस गांव का मान बढ़ाएगी.

समय के साथ मानू और मौली का भेड़करियां चराना छूट गया और नृत्यगायन पेशा बन गया. कुछ ही दिन में इलाकेभर में उन की धूम मच गई. आसपास के गांवों के लोग अब उन दोनों को तीजत्योहार और विवाहशादियों के अवसर पर बुलाने लगे. इस के बदले उन्हें धनधन्य भी मिल जाता था. मानू ने अपनी कमाई के पैसे जोड़ कर सब से पहले मौली के लिए चांदी  के घुंघरू बनवाए. घुंघरू मौली को सौंपते हुए वह बोला, ‘‘ये मेरे प्यार की पहली निशानी है, इन्हें संभाल कर रखना. लोग घुंघरूओं को नाचने वाली के पैरों की जंजीर कहते हैं, लेकिन मेरे विचार से किसी भी नृत्यांगना के लिए इस से बढि़या कोई तोहफा नहीं हो सकता. तुम इन्हें जंजीर मत समझना. इन घुंघरूओं को तुम्हारे पैरों में बांधूगा भी मैं और खोलूंगा भी मैं.’’

मौली को मानू की बात भी अच्छी लगी और तोहफा भी. उस दिन के बाद से वही हुआ, जो मानू ने कहा था. मौली को जहां भी नृत्यकला का प्रदर्शन करना होता, मानू खुद उस के पैरों में घुंघरू बांधकर ढोलक पर ताल देता. ताल के साथ ही मौली के पैर थिरकने लगते. जब तक मौली नाचती, मानू की निगाह उस के पैरों पर ही जमी रहती. प्रदर्शन के बाद वही अपने हाथों से मौली के पैरों के घुंघरू खोलता.

प्यार क्या होता है, यह न मौली जानती थी, न मानू. वे तो केवल इतना जानते थे कि वे दोनों बने ही एकदूसरे के लिए हैं. मरेंगे तो साथ, जिएंगे तो साथ. मौली और मानू अपने प्यार की परिभाषा भले ही न जानते हों, पर गांववाले उन के अगाध प्रेम को देख जरूर जान गए थे कि वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. उन्हें उन के इस प्यार पर नाज भी था. किसी ने उन के प्यार में बाधा बनने की कोशिश भी नहीं की. मौली के मातापिता तक ने भी नहीं.

एक बार एक पहुंचे हुए साधू घूमतेघामते राखावास आए, तो गांव के कुछ युवकयुवतियां उन से अपनाअपना भविष्य पूछने लगे. उन में मौली भी शामिल थी. साधू बाबा उस के हाथ की लकीरें देखते ही बोले, ‘‘तेरी किस्मत में राजयोग लिखा है. किसी राजा की चहेती बनेगी तू.’’

मौली ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, मानू से बिछुड़ने की. उस के लिए वह राजवाज तो क्या, सारी दुनिया को ठोकर मार सकती थी. उस ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘मेरी किस्मत में राजयोग लिखा है, तो मानू का क्या होगा बाबा? …वह तो मेरे बिना…?’’

साधू बाबा पल भर आंखें बंद किए बैठे रहे. फिर आंखें खोल कर वह नीली झील की ओर निहारते हुए बोले, ‘‘वह इस झील में डूब कर मरेगा.’’

मौली सन्न रह गई. लगा, जैसे धरतीआकाश एक साथ हिल रहे हों, न चाहते हुए भी उस के मुंह से चीख निकल गई, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मैं ऐसा होने नहीं दूंगी. मुझे मानू से कोई अलग नहीं कर सकता.’’

उस की बात सुन कर साधू बाबा ठहाका लगा कर हंसे. थोड़ी देर हंसने के बाद वे शांत स्वर में बोले, ‘‘होनी को कौन टाल सकता है बालिका.’’

बाबा अपनी राह चले गए. मौली को लगा, जैसे उस के सीने पर सैकड़ों मन वजन का पत्थर रख गए हों. यह बात सोचसोच कर वह पागल हुई जा रही थी कि बाबा की भविष्यवाणी सच निकली, तो क्या होगा? उस दिन जब मानू मिला, तो मौली उसे खींचते हुए झीलकिनारे ले गई और उस का हाथ अपने सिर पर रख कर बोली, ‘‘मेरी कसम खा मानू, तू आज के बाद जिंदगी भर कभी इस झील में कदम तक नहीं रखेगा.’’

मानू को मौली की यह बात बड़ी अजीब लगी. वह उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘यह कसम तो मैंने उसी दिन खा ली थी, जब तेरा खून इस झील के जल में मिल गया था. फिर भी तू कहती है, तो एक बार फिर कसम खा लेता हूं …पर बात क्या है? …इतनी घबराई हुई क्यों है?’’

मानू के कसम खा लेने के बाद मौली ने बाबा की बात उसे बताई, तो मानू हंसते हुए बोला, ‘‘तू इतना डरती क्यों है? जब मैं झील के पानी में कभी उतरूंगा ही नहीं, तो डूबूंगा कैसे? फिर कोई जरूरी तो नहीं कि बाबा की भविष्यवाणी सच ही हो.’’

साधू की भविष्यवाणी को वर्षों बीत चुके थे. इस बीच मौली 17 साल की हो गई थी और मानू 19 का. दोनों ही बाबा की बात भूल चुके थे.

…और तभी शिकार से लौटते समय राजा समर सिंह राखावास में रुके थे.

समर सिंह मौली को अपने साथ क्या ले गए, राखावास के प्राकृतिक दृश्यों की शोभा चली गई, गांव वालों का अभिमान चला गया और चली गई मानू की जान. पागलसा हो गया मानू. बस झील किनारे बैठा उस राह को निहारता रहता, जिस राह  राजा के साथ मौली गई थी. खानेपीने का होश ही नहीं था उसे. लगता था, जैसे राजा उस की जान निकाल कर ले गया हो.

बात तब की है, जब हिन्दुस्तान में मुगलिया सल्तनत का पराभव हो चुका था और ईस्ट इंडिया कंपनी का परचम पूरे देश में फहराने के प्रयास किए जा रहे थे. देश के कितने ही राजेरजवाड़े विलायती झंडे के नीचे आ चुके थे, और कितने आने को मजबूर थे. उन्हीं दिनों अरावती पर्वतमाला की घाटियों में बसी एक छोटीसी रियासत थी चंदनगढ़. इस रियासत के राजा समर सिंह थे तो अंग्रेज विरोधी, पर शक्तिहीनता की वजह से उन्हें भी ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे तले आना पड़ा था. उन पर अंग्रेजों का इतना प्रभाव था कि उन्हें अपने घोड़े गोरा का नाम बदल कर गोरू करना पड़ा था.

समर सिंह उन राजाओं में थे, जो रासरंग में डूबे रहने के कारण राजकाज और प्रजा का ठीक से ध्यान नहीं रख पाते थे. राजा समर सिंह को 2 ही शौक थे, पहला शिकार का और दूसरा नाचगाने और मौजमस्ती का. मौली को भी उन्होंने इसी उद्देश्य से चुना था. लेकिन यह उन की भूल थी. वह नहीं जानते थे कि मौली दौलत की नहीं, प्यार की दीवानी है.

राजा समर सिंह मौली के रूपलावण्य, मदमाते यौवन और उस की नृत्यकला से प्रभावित हो कर उसे साथ जरूर ले आए थे, लेकिन उन्हें इस बात का जरा भी भान नहीं था कि यह सौदा उन्हें सस्ता नहीं पड़ेगा.

राजमहल में पहुंच कर मौली का रंग ही बदल गया. राजा ने उस की सेवा के लिए दासियां भेजीं, नएनए वस्त्र, आभूषण और श्रृंगार प्रसाधन भेजे, लेकिन मौली ने किसी चीज की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. वह जिंदा लाशसी शांत बैठी रही. किसी से बोली तक नहीं, मानों गूंगी हो गई थी वह. दासियों ने समझाया, पड़दायतों ने मनुहार की, पर कोई फायदा नहीं हुआ.

राजा समर सिंह को पता चला, तो वे स्वयं मौली के पास पहुंचे. उन्होंने उसे पहले प्यार से समझाने की कोशिश की, फिर भी मौली कुछ नहीं बोली, तो राजा ने गुस्से में कहा, ‘‘तुम्हें महल ला कर हम ने जो इज्जत बख्शी है, वह हर किसी को नहीं मिलती… और एक तुम हो, जो इस सब को ठोकर मारने पर तुली हो. यह जानते हुए भी कि अब तुम्हारी लाश भी राखावास नहीं लौट सकती. हां, तुम अगर चाहो, तो हम तुम्हारे वजन के बराबर धनदौलत तुम्हारे मातापिता को भेज सकते हैं. लेकिन अब तुम्हें हर हाल में हमारी बन कर हमारे लिए जीना होगा.’’

मौली को मौत का डर नहीं था. डर था तो मानू का. वह जानती थी, मानू उस के विरह में सिर पटकपटक कर जान दे देगा. उसे यह भी मालूम था कि उस की वापसी संभव नहीं है. काफी सोचविचार के बाद उस ने राजा समर सिंह के सामने प्रस्ताव रखा, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि मैं आप के महल की शोभा बन कर रहूं, तो मेरे लिए पहाड़ों के बीचवाली उस झील के किनारे महल बनवा दीजिए, जिस के उस पार मेरा गांव है.’’

अपने इस प्रस्ताव में मौली ने 2 शर्तें भी जोड़ीं. एक यह कि जब तक महल बन कर तैयार नहीं हो जाता, राजा उसे छुएंगे तक नहीं और दूसरी यह कि महल में एक ऐसा परकोटा बनवाया जाएगा, जहां से वह हर रोज अपनी चुनरी लहराकर मानू को बता सके कि वह जिंदा है. मानू उसी के सहारे जीता रहेगा.

मौली, मानू को जान से ज्यादा चाहती है, यह बात समर सिंह को अच्छी नहीं लग रही थी. कहां एक नंगाभूखा लड़का और कहां राजमहल के सुख. लेकिन मौली की जिद के आगे वह कर भी क्या सकते थे. कुछ करते, तो मौली जान दे देती. मजबूर हो कर उन्होंने उस की शर्तें स्वीकार कर लीं.

राखावास के ठीक सामने झील के उस पार वाली पहाड़ी पर राजा ने महल बनवाना शुरू किया. बुनियाद कुछ इस तरह रखी गई कि झील का पानी महल की दीवार छूता रहे. झील के 3 ओर बड़ीबड़ी पहाडि़यां थीं. चौथी ओर वाली छोटी पहाड़ी की ढलान पर राखावास था. महल से राखावास या राखावास से महल तक आध कोस लंबी झील को पार किए बिना किसी तरह जाना संभव नहीं था.

उन दिनों आज की तरह न साधनसुविधाएं थीं, न मार्ग. ऐसी स्थिति में चंदनगढ़ से 7 कोस दूर पहाड़ों के बीच महल बनने में समय लगना स्वाभाविक ही था. मौली इस बात को समझती थी कि यह काम एक साल से पहले पूरा नहीं हो पाएगा. और इस एक साल में मानू उस के बिना सिर पटकपटक कर जान दे देगा. लेकिन वह कर भी क्या सकती थी, राजा ने उस की सारी शर्तें पहले ही मान ली थीं.

लेकिन जहां चाह होती है, वहां राह निकल ही आती है. मोहब्बत कहीं न कहीं अपना रंग दिखा कर ही रहती है. मौली के जाने के बाद मानू सचमुच पागल हो गया था. उस का वही पागलपन उसे चंदनगढ़ खींच ले गया. मौली के घुंघरू जेब में डाले वह भूखाप्यासा, फटेहाल महीनों तक चंदनगढ़ की गलियों में घूमता रहा. जब भी उसे मौली की याद आती, जेब से घुंघरू निकाल कर आंखों से लगाता और जारजार रोने लगता. लोग उसे पागल समझ कर उस का दर्द पूछते, तो उस के मुंह से बस एक ही शब्द निकलता मौली.

मानू चंदनगढ़ आ चुका है, मौली भी इस तथ्य से अनभिज्ञ थी और समर सिंह भी. उधर मानू ने राजमहल की दीवारों से लाख सिर टकराया, पर वह मौली की एक झलक तक नहीं देख सका. महीनों यूं ही गुजर गए.

राजा समर सिंह जिस लड़की को राजनर्तकी बनाने के लिए राखावास से चंदनगढ़ लाए हैं, उस का नाम मौली है, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. राजा स्वयं उसे मालेश्वरी कह कर पुकारते थे. उस की सेवा में दासदासियां रहती थीं. एक दिन उन्हीं में से एक दासी ने बताया, ‘‘नगर में एक दीवाना मौलीमौली पुकारता घूमता है. पता नहीं कौन है मौली, उस की मां, बहन या प्रेमिका. बेचारा पागल हो गया है उस के गम में. न खाने की सुध, न कपड़ों की. एक दिन महल के द्वार तक चला आया था, पहरेदारों ने धक्के दे कर भगा दिया. कहता था, इन्हीं दीवारों में कैद है मेरी मौली.’’

मौली ने सुना तो कलेजा धक्क से रह गया. प्राण गले में अटक गए. लगा, जैसे बेहोश हो कर गिर पड़ेगी. वह संज्ञाशून्य सी पलंग पर बैठ कर शून्य में ताकने लगी. दासी ने उस की ऐसी स्थिति देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है? आप मेरी बात सुन कर परेशान क्यों हो गईं? आप को क्या, होगा कोई दीवाना. मैंने तो जो सुना था, आप को यूं ही बता दिया.’’

मौली ने अपने आप को लाख संभालना चाहा, लेकिन आंसू पलकों तक आ ही गए. दासी पलभर में समझ गई, जरूर कोई बात है. उस ने मौली को कुरेदना शुरू किया, तो वह न चाहते हुए भी उससे दिल का हाल कह बैठी. दासी सहृदय थी. मौली और मानू की प्रेम कहानी सुनने और उन के जुदा होने की बात सुन उसका हृदय पसीज गया. मौली ने उस से निवेदन किया कि वह किसी तरह मानू तक उस का यह संदेश पहुंचा दे कि वह उस से मिले बिना न मरेगी, न नाचेगी. वह वक्त का इंतजार करे. एक न एक दिन दोनों का मिलन होगा जरूर. जब तक मिलन नहीं होता, तब तक वह अपने आप को संभाले. प्यार में पागल बनने से कुछ नहीं मिलेगा.

दासी ने जैसेतैसे मौली का संदेश मानू तक पहुंचाया भी, लेकिन उस पर उस की बातों का कोई असर नहीं हुआ.

उन्हीं दिनों एक अंग्रेज अधिकारी को चंदनगढ़ आना था. राजा समर सिंह ने अधिकारी को खुश करने के लिए उस की खातिरदारी का पूरा इंतजाम किया. महल को विशेष रूप से सजाया गया. नाचगाने का भी प्रबंध किया गया. राजा समर सिंह चाहते थे कि मौली अपनी नृत्य कला से अंग्रेज रेजीडेंट का दिल जीते. उन्होंने इस के लिए मौली से मानमनुहार की, तो उस ने शर्त बता दी, ‘‘मानू नगर में मौजूद है, उसे बुलाना पड़ेगा. वह आ कर मेरे पैरों में घुंघरू बांध देगा, तो मैं नाचूंगी.’’

समर सिंह जानते थे कि जो बात मौली की नृत्यकला में है, वह किसी दूसरी नर्तकी के नृत्य में हो ही नहीं सकती. अंग्रेज रेजीडेंट को खुश करने की बात थी. राजा ने मौली की शर्त स्वीकार कर ली. मानू को ढुंढ़वाया गया. साफसफाई और स्नान के बाद नए कपड़े पहना कर उस का हुलिया बदला गया.

अगले दिन जब रेजीडेंट आया, तो पूरी तैयारी के बाद मौली को सभा में लाया गया. सभा में मौजूद सब लोगों की निगाहें मौली पर जमी थीं और उस की निगाहें उस सब से अनभिज्ञ मानू को खोज रही थीं. मानू सभा में आया, तो उसे देख मौली की आंखें बरस पड़ीं. मन हुआ, आगे बढ़ कर उस से लिपट जाए, लेकिन चाह कर भी वह ऐसा न कर सकी. करती, तो दोनों के प्राण संकट में पड़ जाते. उस ने लोगों की नजर बचा कर आंसू पोंछ लिए.

आंसू मानू की आंखों में भी थे, लेकिन उसने उन्हें बाहर नहीं आने दिया. खुद को संभाल कर वह ढोलक के साथ अपने लिए नियत स्थान पर जा बैठा. मौली धीरेधीरे कदम बढ़ा कर उस के पास पहुंची, तो मानू थोड़ी देर अपलक उस के पैरों को निहारता रहा. फिर उस ने जेब से घुंघरू निकाल कर माथे से लगाए और मौली के पैरों में बांध दिए. इस बीच मौली उसे ही निहारती रही. घुंघरू बांधते वक्त मानू के आंसू पैरों पर गिरे, तो मौली की तंद्रा टूटी. मानू के दर्द का एहसास कर उस के दिल से आह भी निकली, पर उस ने उसे जैसेतैसे जज्ब कर लिया.

इधर ढोलक पर मानू की थाप पड़ी और उधर मौली के पैर थिरके. पलभर में समां बंध गया. मौली उस दिन ऐसा नाची, जैसे वह उस का अंतिम नृत्य हो. लोगों के दिल धड़कधड़क कर रह गए. अंग्रेज रेजीडेंट बेहद खुश हुआ. उस ने नृत्य, गायन और वादन का ऐसा अनूठा समन्वय पहली बार देखा था. राजा समर सिंह का जो मकसद था, पूरा हुआ. महफिल समाप्त हुई, तो मौली ने मानू से हमेशा की तरह घुंघरू खुलवाने चाहे, लेकिन राजा ने इस की इजाजत नहीं दी.

अंग्रेज अधिकारी वापस चला गया, तो मानू को महल के बाहर कर दिया गया. मौली अपने कक्ष में चली गई. उस ने कसम खा ली कि उस के पैरों के घुंघरू खुलेंगे, तो मानू के हाथों से ही.

झील किनारे वाला महल तैयार होने में एक वर्ष लगा. छोटे से इस महल में राजा समर सिंह ने मौली के लिए सारी सुविधाएं जुटाई थीं. मौली की इच्छानुसार एक परकोटा भी बनवाया गया था, जहां खड़ी हो कर वह झील के उस पार स्थित अपने गांव को निहार सके.

राजा समर सिंह जानते थे कि मौली और मानू एकदूसरे को बेहद प्यार करते हैं. प्यार में वे दोनों किसी भी हद तक जा सकते थे. इसी बात को ध्यान में रख कर राजा समर सिंह ने महल से सौ गज दूर झील के पानी में पत्थरों की एक ऐसी अदृश्य दीवार बनवाई, जिस के आरपार पानी तो जा सके, पर जीवों का जाना संभव न हो. दीवार के इस पार उन्होंने पानी में 2 मगरमच्छ छुड़वा दिए. यह सब उन्होंने इसलिए किया था, ताकि मानू झील में तैर कर इस पार न आ सके. आए, तो मगरमच्छों का शिकार बन जाए.

पूरी तैयारी हो गई, तो मौली को झील किनारे निर्मित महल में भेज दिया गया. जिस दिन मौली को महल में ले जाया गया, उस दिन महल को खूब सजाया गया. राजा समर सिंह की उस दिन वर्ष भर पुरानी आरजू पूरी होनी थी.

वादे के अनुसार मौली ने राजा के सामने स्वयं को समर्पित कर दिया. उस दिन उस ने अपना श्रृंगार खुद किया था, बेहद खूबसूरत लग रही थी वह. समर सिंह की बाहों में सिमटते हुए उस ने सिर्फ इतना कहा था, ‘‘आज से मेरा तन आप का है, पर मन को आप कभी नहीं छू पाएंगे. मन पर मानू का ही अधिकार रहेगा.’’

राजा को मौली के मन से क्या लेनादेना था. उन की जिद भी पूरी हो गई और हवस भी. उस दिन के बाद मौली स्थाई रूप से उसी महल में रहने लगी. सेवा में दासदासियां और सुरक्षा के लिए सैनिकों की व्यवस्था थी. महीने में 6-7 दिन मौली के साथ गुजारने के लिए राजा समर सिंह झीलवाले महल में आते रहते थे. वहीं रह कर वह पास वाले जंगल में शिकार भी खेलते थे.

मौली का रोज का नियम था. हर शाम वह महल के परकोटे पर खड़ी हो कर अपनी वही चुनरी हवा में लहराती, जो गांव से ओढ़ कर आई थी.

मानू को मालूम  था कि मौली झीलवाले महल में आ चुकी है. वह हर रोज झील के किनारे बैठा मौली की चुनरी को देखा करता. इस से उस के मन को काफी तसल्ली मिलती. कई बार उस का दिल करता भी, कि वह झील को पार कर के मौली के पास जा पहुंचे, लेकिन मौली की कसम उस के पैर बांध देती थी.

देखतेदेखते एक वर्ष और गुजर गया. मौली को गांव छोड़े दो वर्ष होने को थे. तभी एक दिन राजा समर सिंह को अंग्रेज रेजीडेंट का संदेश मिला कि वह उन की रियासत के मुआयने पर आ रहे हैं और उसी नर्तकी का नृत्य देखना चाहते हैं, जो पिछली यात्रा में उन के सामने पेश की गई थी.

राजा समर सिंह ने जब यह बात मौली को बताई, तो उस ने अपनी शर्त रखते हुए कहा, ‘‘यह तभी संभव है, जब मानू मेरे साथ हो. उस के बिना नृत्य का कोई भी आयोजन मेरे बूते में नहीं है.’’

समर सिंह ने मौली को समझाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वह नहीं मानी. अंग्रेज रेजीडेंट को खुश करने की बात थी. फलस्वरूप राजा समर सिंह को झुकना पड़ा. मौली ने राजा से कहा कि वह चंदनगढ़ जाने के बजाय उसी महल में नृत्य करेगी और मानू को भी वहीं बुलाना होगा.

राजा समर सिंह नहीं चाहते थे कि मानू किसी भी रूप में मौली के सामने आए. जबकि अंग्रेज रेजीडेंट को खुश करना भी उन की मजबूरी थी. सोचविचार कर राजा ने झील में बनी अदृश्य दीवार (पानी के नीचे) पर ठीक महल के परकोटे के सामने पत्थरों का एक बड़ा सा गोल चबूतरा बनवा कर उस पर प्रकाश स्तंभ स्थापित कराया. इस चबूतरे और महल के बीच ही वह कुंड था, जिस में मगरमच्छ थे. मगरमच्छों को भोजन चूंकि उसी कुंड में डाला जाता था, अत: वे वहीं मंडराते रहते थे. महल के परकोटे से 2 मजबूत रस्सियां इस प्रकार प्रकाश स्तंभ में बांधी गईं, कि आदमी एक रस्सी के द्वारा स्तंभ तक जा सके और दूसरी से आ सके.

अंग्रेज रेजीडेंट के आने का दिन तय हो चुका था. उसी हिसाब से राजा ने झीलवाले महल में मेहमानवाजी की तैयारियां कराईं. जिस दिन रेजीडेंट को आना था, उस दिन 2 सैनिक इस आदेश के साथ राखावास भेजे गए कि वे झील के रास्ते मानू को प्रकाश स्तंभ तक भेजेंगे. मौली ने मानू को झील में न उतरने की कसम दे रखी थी, यह बात समर सिंह नहीं जानते थे.

तयशुदा दिन जब अंग्रेज रेजीडेंट चंदनगढ़ पहुंचा, राजा समर सिंह यह कह कर उसे झीलवाले महल में ले गए, कि उन्होंने इस बार उन के मनोरंजन की व्यवस्था प्रकृति की गोद में की है. राजा का झीलवाला महल अंग्रेज रेजीडेंट को खूब पसंद आया.

मौली भी उस दिन खूब खुश थी. मानू से मिलने की खुशी उस के चेहरे से फूटी पड़ रही थी. उसे क्या मालूम था कि मानू को उस के सामने झीलवाले रास्ते से लाया जाएगा और वह ठीक से उस की सूरत भी नहीं देख पाएगी.

जब सारी तैयारियां हो गईं और अंग्रेज रेजीडेंट भी आ गया, तो महल के परकोटे से मौली की चुनरी से राखावास की ओर वहां मौजूद सैनिकों को इशारा किया गया. सैनिकों ने मानू से झील के रास्ते प्रकाश स्तंभ तक तैर कर जाने को कहा, तो उस ने इनकार कर दिया कि वह मौली की कसम नहीं तोड़ सकता. इस पर सैनिकों ने उस से झूठ बोला कि मौली ने अपनी कसम तोड़ दी है, वह अपनी चुनरी लहरा कर उसे बुला रही है. मानू ने महल के परकोटे पर चुनरी लहराते देखी, तो उसे सैनिकों की बात सच लगी. उस ने बिना सोचेसमझे मौली के नाम पर झील में छलांग लगा दी.

जिस समय मानू झील को पार कर प्रकाश स्तंभ तक पहुंचा, उस समय तक  राजा समर सिंह का एक कारिंदा रस्सी के सहारे ढोलक लेकर वहां जा पहुंचा था. उसी ने मानू को बताया कि महल और प्रकाश स्तंभ के बीच मगरमच्छ हैं. उसे उसी स्तंभ पर बैठ कर ढोलक बजानी होगी और मौली उसी धुन पर परकोटे पर नाचेगी. कारिंदा राजा का हुक्म सुना कर दूसरी रस्सी के सहारे वापस लौट आया.

मौली को जब राजा की इस चाल का पता चला, तो वह मन ही मन खूब कुढ़ी, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. उस ने मन ही मन फैसला किया कि आज वह अंतिम बार राजा की महफिल में नाचेगी और नाचतेगाते ही हमेशाहमेशा के लिए अपने मानू से जा मिलेगी.

राजा की महफिल छत पर सजी थी. प्रकाश स्तंभ और महल की छत पर विशेष प्रकाश व्यवस्था कराई गई थी. जब अंधेरा घिर आया और चारों ओर निस्तब्ध्ता छा गई, तो मौली को महफिल में बुलाया गया. उस समय उस के चेहरे पर अनोखा तेज था. सजीधजी मौली घुंघरू खनकाती महफिल में पहुंची, तो लोगों के दिल धड़क उठे. मौली ने परकोटे पर खड़े हो कर श्वेत ज्योत्सना में नहाई झील को देखा. प्रकाश स्तंभ के पास सिकुड़ेसिमटे बैठे मानू को देखा और फिर आकाश के माथे पर टिकुली की तरह चमकते चांद को निहारते हुए बुदबुदाई, ‘‘हे मालिक, तुम से कभी कुछ नहीं मांगा, पर आज मांगती हूं. इस नाचीज को एक बार, सिर्फ एक बार उस के प्यार के गले जरूर लग जाने देना.’’

मन की मुराद मांग कर मौली ने एक बार जोर से पुकारा, ‘‘मानू…’’

उस की आवाज के साथ ही मानू के हाथ ढोलक पर चलने लग. ढोलक की आवाज वादियों में गूंजने लगी और उस के साथ ही मौली के पैरों के घुंघरू भी. पल भर में समां बंध गया. सभा में मौजूद लोग दिल थामे मौली की कला का आनंद लेने लगे. अभी महफिल जमे ज्यादा देर नहीं हुई थी.

मौली का पहला नृत्य पूरा होने वाला था. लोग वाहवाह कर रहे थे. तभी मौली तेजी से पीछे पलटी और कोई कुछ समझ पाता, इस से पहले ही मानू का नाम ले कर चीखते हुए परकोटे से प्रकाश स्तंभ तक जानेवाले रस्से को पकड़ कर झूल गई. मौली का यह दुस्साहसिक रूप देख पूरी सभा सन्न रह गई.

महल के परकोटे से प्रकाश स्तंभ तक आनेजाने वाले कारिंदे रस्सों में विशेष प्रकार के कुंडे में बंध झूला डाल कर आतेजाते थे. काम के बाद कुंडे और झूला निकाल कर रख दिए जाते थे. मौली चूंकि रस्से को यूं ही पकड़ कर झूल गई थी, फलस्वरूप रस्से की रगड़ से उस के हाथ बुरी तरह घायल हो गए. वह ज्यादा देर तक अपने आप को संभाल नहीं पाई और झटके के साथ कुंड में जा गिरी.

हतप्रभ मानू यह दृश्य देख रहा था. मौली के गिरने की छपाक की आवाज उभरी, तो मानू ने भी कुंड में छलांग लगा दी. अंग्रेज रेजीडेंट, राजा और उस की महफिल इस भयावह दृश्य को देखती रह गई. कुछ देर मानू और मौली पानी में डूबतेउतराते दिखाई दिए भी, लेकिन थोड़ी देर में वे आंखों से ओझल हो गए.

Romantic Story : क्यों शेफाली की जिंदगी बदल गई?

Romantic Story : वह है शेफाली. मात्र 24-25 वर्ष की. सुंदर, सुघड़, कुंदन सा निखरा रूप एवं रंग ऐसा जैसे चांद ने स्वयं चांदनी बिखेरी हो उस पर. कालेघुंघराले बाल मानों घटाएं गहराई हों और बरसने को तत्पर हों. किंतु उस धमाके ने उसे ऐसा बना दिया गोया एक रंगबिरंगी तितली अपनी उड़ान भरना भूल गई हो, मंडराना छोड़ दिया हो उस ने.

मुझे याद है जब हम पहली बार पैरिस में मिले थे. उस ने होटल में चैकइन किया था. छोटी सी लाल रंग की टाइट स्कर्ट, काली जैकेट और ऊंचे बूट पहने बालों को बारबार सहेज रही थी. मेरे पति भी होटल काउंटर पर जरूरी औपचारिकता पूरी कर रहे थे. हम दोनों को ही अपनेअपने कमरे के नंबर व चाबियां मिल गई थीं. दोनों के कमरे पासपास थे. दूसरे देश में 2 भारतीय. वह भी पासपास के कमरों में. दोस्ती तो होनी ही थी. मैं अपने पति व 2 बच्चों के साथ थी और वह आई थी हनीमून पर अपने पति के साथ.

मैं ने कहा, ‘‘हाय, मैं रुचि.’’ उस ने भी हाथ बढ़ाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘आई एम शेफाली. आप की बेटी बहुत स्वीट है.’’ उस की मुसकराहट ऐसी थी गोया मोतियों की माला पिरोई हो 2 पंखुडि़यों के बीच. रात के खाने के समय बातचीत में मालूम हुआ कि उन्होंने भी वही टूर बुक किया था जो हम ने किया था. अगले ही दिन मैं अपने परिवार के साथ और वह अपने पति के साथ निकल पड़ी ऐफिल टावर देखने, जोकि पैरिस का मुख्य आकर्षण एवं 7 अजूबों में से एक है. वहां पहुंच वह तो बूट पहने भी खटखट करती सीढि़यां चढ़ गई, मगर मैं बस 2 फ्लोर चढ़ कर ही थक गई और फिर वहीं से लगी पैरिस के नजारे देखने और फोटो खिंचवाने. वह और ऊपर तक गई और फिर थोड़ी ही देर में अपने पति के कंधों पर अपने शरीर का बोझ डाल कर व उस की कमर पकड़े चलती हुई लौट आई. हमारे पास आ कर जब उस ने कहा कि क्या आप हमारे फोटो खींचेंगे तो मैं ने कहा हांहां क्यों नहीं?

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वह अलगअलग पोज में फोटो खिंचवा रही थी और जब मन होता अपने डायमंड से सजे फोन से सैल्फी भी ले लेती. इस के बाद हम चले पैलेस औफ वर्साइल्स के लिए जोकि अब म्यूजियम में तबदील हो गया है. वहां के लिए स्पैशल ट्रेन चलती है. उस की कुरसियां मखमल के कपड़े से ढकी थीं और ट्रेन में पैलेस के चित्र बने थे. वे दोनों पासपास बैठे एकदूसरे से प्यार भरी छेड़छाड़ कर रहे थे. न चाहते हुए भी मेरा ध्यान उन पर चला ही जाता. आरामदेह और एसी वाली ट्रेन से हम पैलेस औफ वर्साइल्स पहुंचे. इतना बड़ा पैलेस और उस का बगीचा देखते ही बनता था. बगीचे में लगे फुहारे उस की शान को दोगुना कर रहे थे. उस पैलेस की मशहूर चीज है मोनालिसा की पेंटिंग जिसे देखने भीड़ उमड़ी थी. वह उस भीड़ को चीरते हुए आगे जा कर पेंटिंग के फोटो ले आई और मिहिर को इतनी खुशी से दिखा रही थी गोया उस ने कोई किला जीत लिया हो.

पैलेस में यूरोपियन सभ्यता को दर्शाते सफेद पुतले भी हैं, जिन में पुरुष व स्त्रियां वैसे ही नग्न दिखाई गई हैं जैसेकि हमारे अजंताऐलोरा की गुफाओं में. कोई भी पुरुष उन्हें देख अपना नियंत्रण खो ही देगा. वही मिहिर के साथ हुआ और उस ने शेफाली के गालों और होंठों को चूम ही लिया. वैसे भी यूरोप में सार्वजनिक जगहों पर लिप किस तो आम बात है. पति के किस करने पर शेफाली इस तरह इधरउधर देखने लगी कि उन्हें ऐसा करते किसी ने देखा तो नहीं. फिर हम साइंस म्यूजियम, गार्डन आदि सभी जगहें घूम आए. अब था वक्त शौपिंग का. मैं तो हर चीज के दाम को यूरो से रुपए में बदल कर देखती. हर चीज बहुत महंगी लग रही थी. और शेफाली, वह तो इस तरह शौपिंग कर रही थी जैसे कल तो आने वाला ही न हो. हर पल को तितली की तरह मस्त हो कर जी रही थी वह. बस एक ही दिन और बचा था उस का व हमारा वहां पर. अत: शाम को मैट्रो स्टेशन, जोकि अंडरग्राउंड होते हैं और उन में दुकानें भी होती हैं, में भी वह शौपिंग करने लगी. फिर वापसी में जैसे ही हम ट्रेन पकड़ने को दौड़े तो वह पीछे रह गई. हम सब के ट्रेन में चढ़ते ही ट्रेन के दरवाजे बंद हो गए और वह रवाना हो गई. मैं चलती ट्रेन से उसे देख रही थी. एक बार को तो लगा कि अब क्या होगा? लेकिन अगले ही स्टेशन पर हम उतरे और उस का पति उलटी दिशा में जाती ट्रेन में चढ़ कर उसे 5 ही मिनट में ले आया.

मैं ने जब उस से पूछा कि तुम्हें डर नहीं लगा तो वह कहने लगी कि बिलकुल नहीं. उसे मालूम था कि मिहिर उसे लेने जरूर आएगा. मैं सोच रही थी कि कितने कम समय में वह अपने पति को पूरी तरह पहचान गई है. होटल में रात के खाने के समय वह हमारे पास आ कर कहने लगी कि भारत जा कर न जाने हम मिलें न मिलें, इसलिए चलिए आज साथ ही खाना खाते हैं. मेरी 7 वर्षीय बेटी उस से बहुत हिलमिल गई थी. अगले दिन सुबह हम वक्त से पहले तैयार हो गए. नाश्ता कर अपने पैरिस के अंतिम दिन का लुत्फ उठाने होटल से सड़क पर आ गए. अपने टूर की बस की राह देखते हुए चहलकदमी कर ही रहे थे कि तभी एक जोर के धमाके की आवाज आई और फिर न जाने कहां से कुछ लोग आ कर धायंधायं गोलियां बरसाने लगे. जिसे जहां जगह मिली छिप गया. मेरे पति बेटी को गोद में उठा कर भाग रहे थे और मेरा बेटा मेरे साथ भाग रहा था. मैं एक कार के पीछे छिप गई थी. तभी शेफाली का भागते हुए पैर मुड़ गया. उस का पति उसे गोद में ले कर भागा, किंतु इसी बीच 1 गोली उस के पैर में व 1 पीठ में लग गई. अगले ही पल शेफाली चीखचीख कर पुकार रही थी कि मिहिर उठो, मिहिर भागो. पर शायद मिहिर इस दुनिया को अलविदा कह चुका था. बाद में मालूम हुआ वह एक आतंकी हमला था. पुलिस वहां पहुंच चुकी थी. बंदूकधारी वहां से भाग चुके थे. मैं यह सब कार के पीछे छिपी देख रही थी. पुलिस वाले मिहिर को अस्पताल ले गए, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.

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मैं शेफाली को संभालने की कोशिश कर रही थी. उस का रोरो कर बुरा हाल था. शाम को जिस विमान से हनीमून का जोड़ा लौटने वाला था उस तक सिर्फ शेफाली जीवित पहुंची और मिहिर की लाश. हम भारत अपने शहर मुंबई पहुंचे फिर अगले ही दिन दिल्ली शेफाली के घर पहुंचे. उस के घर मातम पसरा था. शेफाली तो पत्थर हो चुकी थी. न हंसती थी न बोलती थी. हां, मुझे देख कर मुझ से लिपट कर रो पड़ी. मैं उस से कह रही थी, ‘‘रो मत शेफाली. सब ठीक हो जाएगा.’’ किंतु मैं स्वयं अपनेआप को नहीं रोक पा रही थी. वह धमाका जो हम ने एकसाथ सुना था, शायद हम उसे हादसा समझ भूल जाएं, लेकिन शेफाली की तो उस ने दुनिया ही उजाड़ दी थी. तब से वह पत्थर की मूर्ति बन गई है. ऐसा लगता है जैसे एक तितली के पर कट गए हों और वह उड़ान भरना भूल गई हो. मैं अब भी सोचती रहती हूं कि काश, वह धमाका न हुआ होता.

Short Hindi Story : प्यार उसका न हो सका

लेखक- किशन लाल शर्मा

Short Hindi Story : ‘‘कौन है?’’ दरवाजे पर कई बार दस्तक देने के बाद अंदर से आवाज आई पर अब भी दरवाजा नहीं खिड़की खुली थी.

‘‘मैं, नेहा. दरवाजा खोल,’’ नेहा बोली, ‘‘कब से दरवाजा खटखटा रही हूं.’’

‘‘सौरी,’’ प्रिया नींद से जाग कर उबासी लेते हुए बोली, ‘‘तू और कहीं कमरा तलाश ले.’’

‘‘कमरा तलाश लूं,’’ नेहा ने हैरानी से प्रिया की ओर देखा व बोली, ‘‘कमरा तो तुझे तलाशना है?’’

‘‘अब मुझे नहीं, कमरा तुझे तलाशना है,’’ प्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘मैं ने और कर्ण ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’ नेहा ने आश्चर्य से प्रिया को देखा. उस के माथे की बिंदी और मांग में भरा सिंदूर इस बात के गवाह थे.

‘‘पतिपत्नी के बीच तेरा क्या काम?’’ और इतना कहने के साथ ही प्रिया ने खिड़की बंद कर ली.

नेहा खड़ीखड़ी कभी खिड़की को तो कभी दरवाजे को ताकती रह गई. प्रिया औैर कर्ण के बारे में सोचतेसोचते उस के अतीत के पन्ने खुलने लगे.

नेहा और कर्ण कानपुर में इंजीनियरिंग कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. अंतिम वर्ष की परीक्षाएं चल रही थीं, तभी कालेज कैंपस में प्लेसमैंट के लिए कई कंपनियां आईं. मुंबई की एक कंपनी में नेहा और कर्ण का सलैक्शन हो गया. परीक्षा समाप्त होने के बाद दोनों मुंबई चले गए.

मुंबई में नेहा और कर्ण ने मिल कर एक फ्लैट किराए पर ले लिया और दोनों लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. साथ रहतेरहते दोनों एकदूसरे के करीब आ गए.

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एक रात जब कर्ण ने नेहा का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा तो वह चौंकते हुए बोली, ‘कर्ण, क्या कर रहे हो?’

‘प्यार… लव…’

‘नहीं,’ नेहा बोली, ‘अभी हमारी शादी नहीं हुई है.’

‘क्या प्यार करने के लिए शादी करना जरूरी है?’

‘हां, हमारे यहां शादी के बाद ही पतिपत्नी को शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत है.’

‘कैसी दकियानूसी बातें करती हो, नेहा. जब शादी के बाद हम सैक्स कर सकते हैं तो पहले क्यों नहीं,’ कर्ण बोला, ‘अगर तुम शादी को जरूरी समझती हो तो वह भी कर लेंगे.’

नेहा शिक्षित और खुले विचारों की थी, लेकिन सैक्स के मामले में उस का मानना था कि शादी के बाद ही शारीरिक संबंध बनाने चाहिए. लेकिन कर्ण ने अपने प्यार का विश्वास दिला कर शादी से पहले ही नेहा को समर्पण के लिए मजबूर कर दिया.सैक्स का स्वाद चखने के बाद नेहा को भी उस का चसका लग गया. रोज रात को समर्पण करने से तो वह इनकार नहीं करती थी, लेकिन सावधानी जरूर बरतने लगी थी.

शुरू में तो नेहा ने कर्ण से शादी के लिए कहा, लेकिन दिन गुजरने के साथ वह भी सोचने लगी थी कि औरतआदमी दोनों अगर साथ जीवन गुजारने को तैयार हों तो जरूरी नहीं कि समाज को दिखाने के लिए शादी के बंधन में बंधें. बिना शादी के भी वे पतिपत्नी बन कर रह सकते हैं.

नेहा को कर्ण के प्यार पर पूरा विश्वास था इसीलिए उस ने शादी का जिक्र तक करना छोड़ दिया था और उसे शादी का खयाल आता भी नहीं अगर उन के बीच प्रिया न आती.

प्रिया पिछले दिनों ही उन की कंपनी में नई नई आई थी. वह दिल्ली की रहने वाली थी. मुंबई में उस का कोई परिचित नहीं था. जब तक प्रिया को कहीं कमरा नहीं मिल जाता तब तक के लिए कर्ण और नेहा ने उसे अपने साथ फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी.

प्रिया नेहा से ज्यादा सुंदर और तेजतर्रार थी. कर्ण प्रिया की सुंदरता और उस की मनमोहक बातों से इतना प्रभावित हुआ कि वह उस में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा.

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जिस कर्ण को नेहा सब से ज्यादा सुंदर नजर आती थी, वही कर्ण अब प्रिया के पीछे घर में ही नहीं औफिस में भी लट्टू था.

नेहा ने कई बार कर्र्ण को रोका, लेकिन कर्ण ने उस की बातों पर ध्यान नहीं दिया. नेहा समझ गई कि अगर जल्दी कर्ण को शादी के बंधन में नहीं बांधा गया तो वह हाथ से निकल जाएगा.

नेहा शादी के बारे में अपनी मां से बात करने एक सप्ताह की छुट्टी ले कर कानपुर चली गई. उस ने मां से कुछ नहीं छिपाया. मां ने उसे डांटते हुए कहा, ‘देर मत कर, उस से शादी कर ले.’

लेकिन नेहा आ कर कर्ण से शादी करती उस से पहले ही प्रिया ने उसे अपना बना लिया था.

कर्ण पर विश्वास कर के नेहा शादी से पहले अपना सबकुछ कर्ण को समर्पित कर चुकी थी और समर्पण कर के वह बुरी तरह ठगी जा चुकी थी. अपना सबकुछ लुटा कर भी नेहा कर्ण को अपना नहीं बना पाई.

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