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Tears : क्‍यों बहते हैं आंखों से झर झर आंसू

लेखक :  श्री प्रकाश

हम सभी की आंखों से कभी न कभी पानीनुमा एक तरल निकलता है जिसे हम आंसू कहते हैं. आंसू हमारी आंखों से कभी दुख में तो कभी ख़ुशी से भी निकलते हैं. कभी आंखों में कुछ बाहरी धूलकण पड़ने से या कभी किसी इन्फैक्शन के चलते भी आंसू निकलते हैं.

आंसू क्या हैं

आंसू में 98 फीसदी पानी होता है और बाकी 2 फीसदी में नमक और अन्य तत्त्व. कभी आंखों से ज्यादा आंसू निकल कर होंठों तक पहुंच जाते हैं और हमें इस के नमकीन स्वाद का एहसास भी होता है. पानी के अतिरिक्त बाकी 2 फीसदी में नमक, तेल, कुछ विटामिन और करीब 200 प्रोटीन होते हैं . ये तत्त्व आंखों के सैल्स का पोषण करते हैं.

हमारे आंसुओं में एलेक्ट्रोलीट भी होता है. उन में मौजूद सोडियम के कारण वे सौल्टी (नमकीन) होते हैं. एलेक्ट्रोलीट में मुख्यतया सोडियम, पोटैशियम, क्लोराइड और बाईकार्बोनेट होते हैं. इस के अतिरिक्त आंसू में अल्प मात्रा में मैग्नीशियम और कैल्शियम भी होते हैं. ये सारे तत्त्व आंसू के लेयर्स बनाते हैं.

आंसू कहां से आते हैं

आंखों में आंसू टियर ग्लांड्स (लैक्रिमल ग्लांड्स) बनाते हैं. ये ग्लांड्स आंखों की पुतलियों के ऊपर होते हैं और कार्निया की सतह तक फैले रहते हैं. ऊपरी और निचली पलक के कोने में स्थित सूक्ष्म छिद्र से हो कर आंसू बाहर निकलते हैं और टियरडक्ट से होते हुए नाक व गले तक आते हैं. ज्यादा रोने से ज्यादा आंसू निकल कर नाक में जा कर म्यूकस से मिलते हैं. यही कारण है कि अकसर रोते समय नाक से पानी आने लगता है और रोने के बाद खुद बंद हो जाता है. औसतन एक आदमी में प्रतिवर्ष 15 से 30 गैलन आंसू बनता है.

आंसू का काम

ऐसा नहीं है कि आंसू सिर्फ दुख या अत्यंत ख़ुशी में आते/निकलते हैं. आंसू आंखों की रक्षा और पोषण के लिए हैं. ये वातावरण में मौजूद बाह्य धूलकण, वायरस और बैक्टीरिया से हमें बचाते हैं. जितनी बार हम पलक झपकते हैं, यह आंखों को लुब्रिकेट करता है और उन्हें साफ़ भी करते रहता है.

आंसू का पानी आंखों को हाइड्रेटेड रखता है. इस के अलावा इस में मौजूद मिनरल और प्रोटीन आंखों के सैल्स का पोषण कर आंखों को हैल्दी बनाए रखते हैं.

आंसू के लेयर
आंसू की 3 लेयर होती हैं.

म्यूकस लेयर: यह लेयर आंसुओं को आंखों मेंबांध कर रखती है. बिना इस के आंखों की सतह पर ड्राई स्पौट्स हो जाते हैं. आंख जितना ड्राई होगी, इन्फैक्शन का खतरा उतना ज्यादा रहेगा.

एक्वस लेयर: यह आंखों को हाइड्रेटेड रखती है, कार्निया को बचाती है और बैक्टीरिया से रक्षा करती है. यह सब से ज्यादा मोटी और नमकीन लेयर होती है.

तैलीय लेयर: यह बाकी दोनों लेयरों को वाष्प बनने से रोकती है और आंसू को पारदर्शी बनाती है.

आंसू के प्रकार

आंसू 3 प्रकार के होते हैं और उन का नमकीन होना उस के प्रकार पर निर्भर करता है.

रिफ्लेक्स टीयर: यह सब से ज्यादा नमकीन होता है और आंखों में इरिटैंट को वौश करता है, जैसे प्याज से निकली गैस और ज्यादा दुर्गंध में (कैमिकल, उलटी). इस के अलावा किसी अन्य इरिटेशन, जैसे धूल, तेज रोशनी आदि से भी आंसू आते हैं. दरअसल, किसी भी इरिटेशन के चलते टियर ग्लांड्स ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं.

बासल टीयर: यह आंखों की बाहरी सतह पर रहता है. यह हमेशा रहता है और आंखों को ड्राईनैस से बचाता है,. साथ ही, वातावरण में मौजूद अन्य खतरों से भी रक्षा करता है.

इमोशनल टीयर: यह मन की भावनात्मक स्थिति पर निर्भर करता है. ये हमारे दुख या कभी अत्यंत ख़ुशी की हालत में आंखों में आते हैं. इमोशनल टीयर से हमें आराम मिलता है. इन में कुछ हार्मोन और प्रोटीन होते हैं जो अन्य दोनों प्रकार के आंसुओं में नहीं होते. आंसू देख कर लोग सहानुभूति प्रकट करते हैं या सहायता के लिए आ सकते हैं जिस से हमें एक मोरल सपोर्ट मिलता है. इमोशनल टियर्स बायोलौजिकल, सामाजिक और शारीरिक तीनों कारणों से हो सकते हैं.

निद्रा और टीयर

इंसान के सोने के बाद आंसू का स्वरूप बदल जाता है. इस दौरान आंसू में प्रोटीन कम होता है पर एंटीबौडीज ज्यादा होता है. इस के चलते इन्फैक्शन से बचाव करने वाले सैल्स आंखों में चले आते हैं. इस के अलावा निद्रा के दौरान आंसू में औयल, म्यूकस और स्किन सैल्स मिक्स होते हैं व आंखों के कोनों में पपड़ी जमा होती है क्योंकि इस दौरान हम पलक नहीं झपकते हैं.

आंसू की कमी से क्या हो सकता है

आंसू की कमी से ड्राई आई सिंड्रोम होता है. इस के चलते आंखों में जलन और खुजलाहट हो सकती है. इस के अलावा आई इन्फैक्शन, कार्निया में अल्सर और दृष्टिदोष होने की संभावना रहती है. हालांकि सुनने में यह हास्यास्पद लगता है पर ड्राई आई से आंखों में ज्यादा पानी आता है (वाटरी आईज). ड्राईनैस एजिंग और दवाओं के असर से भी हो सकता है.

नवजात शिशु की आंखों में आंसू नहीं आते

शिशु के टियर ग्लैंड विकसित नहीं होते, इसलिए उन के रोने पर आंखों से आंसू नहीं निकलते हैं.कुल मिलाकर आंसू आंखों की हैल्थ का एक संकेत भी होता है. आंसू हमेशा हमारी आंखों की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं. ये इरिटेशन पैदा करने वाले तत्त्वों की सफाई करते हैं, इमोशन को शांत करते हैं और दूसरों को आप की पीड़ा का मैसेज देते हैं.
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Satire : मच्‍छर तू महान है

ऐ मच्छर, तू महान है. तेरी महिमा का क्या वर्णन करूं? तू मनुष्यों के लिए प्रेरणास्रोत भी है तो मनुष्यों का पालक भी है. तू ने साबित कर दिया है कि कदकाठी और आकार के आधार पर किसी को हीन नहीं समझना चाहिए. कोई न कोई कवि कह डालेगा, ‘मच्छर कबहुं न निंदिए, जो होय सूक्ष्म आकार. इन की ही कृपा से, कितनों के सपने होय साकार.’ तुझ से सौ गुणे, हजार गुणे, लाख गुणे, करोड़ गुणे लंबेचौड़े प्राणी परिवर्तन के दंश से लुप्त हो गए पर तू है कि सदियों से, सहस्त्राब्दियों, लक्षाब्दियों से डटा हुआ है, अड़ा हुआ है, अडिग रह कर खड़ा हुआ है.

किसी भी परिवर्तन ने तेरे अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं डाला. और भविष्य में ऐसी कोई संभावना नजर भी नहीं आती. तुझ से वैसे तो हर जीव को प्रेरणा लेनी चाहिए पर मनुष्यों के लिए तेरा विशेष महत्त्व है. शायद, भारतवासियों ने तुझ से ही प्रेरणा ले कर हर परिवर्तन को सहना सीखा है. महंगाई कितनी भी बढ़ जाए, भ्रष्टाचार कितना भी बढ़ जाए, कानून व्यवस्था की जो भी हालत हो उस में भारतवासी खुशीखुशी जीना सीख चुके हैं.

तेरी खून चूसने की आदत ने भारतवासियों को खून चुसवाने का अभ्यस्त बना दिया है. तू तो फिर भी कितना खून चूस पाएगा-एक मिलीलिटर न डेढ़ मिलीलिटर. हम तो अब इस कदर अभ्यस्त हो गए हैं कि कोई हमारे शरीर का सारे का सारा खून भी चूस ले तो भी कोई फर्क न पड़े, शायद. शिक्षण संस्थान, अस्पताल, व्यवसायी, सरकार सभी खून चूसते हैं आम जनता का और लोग बगैर किसी गिलाशिकवा के अपना खून प्रस्तुत करते हैं सभी को, चुसवाने के लिए. इस प्रकार, हम देशवासियों को अनुकूलन की प्रक्रिया अपनाने में तू काफी मददगार रहा है.

मनुष्यों के लिए तू रोजगार का साधन है. तू ने मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और न जाने कितनी बीमारियां मनुष्यों को दान में दी हैं. और अब तो ‘बाय वन गेट वन’ की तर्ज पर किसी को डेंगू के साथ मलेरिया तो किसी को मलेरिया के साथ चिकनगुनिया दे रहा है.

सुना है, अब तू कौंबो पैक में तीनों बीमारियां साथसाथ भी परोसने वाला है.तेरे द्वारा दिए गए मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया को लोग मनुष्यों के लिए हानिकर मानते हैं, विनाशकारक मानते हैं. लेकिन तेरी इन्हीं भेंटों के चलते न जाने कितनी पैथोलौजी लैब, कितने डाक्टर, कंपाउंडर, नर्स, अस्पताल, दवा दुकान आदि चल रहे हैं.

सुनने में आया है कि कई डाक्टरों की तो सैटिंग है पैथोलौजी लैब से. जांच की फीस में उन का हिस्सा तो होता ही है, कई बार मौसमी बुखार में भी वे डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया की जांच के लिए सलाह दे देते हैं. यदि उन की पसंद की लैब के अलावा अन्य लैब से जांच करवाई जाए तो उसे वे मान्यता नहीं देते. उन की पसंद की लैब से हुई जांच रिपोर्ट को ही उन के द्वारा मान्यता दी जाती है.

सुनने में यह भी आया है कि कई बार नियोजित तरीके से नैगेटिव रिपोर्ट को भी पौजिटिव दिखाया जाता है ताकि प्लेटलेट्स की गणना के लिए बीचबीच में जांच करवाई जाए और पैथोलौजी लैब तथा डाक्टर व उन के सहयोगियों की दालरोटी चलती रहे और उस में घी भी डलता रहे.

इतना ही नहीं, तू ने कितनों को भांतिभांति की अगरबत्तियां, कार्ड और क्रीम बनाने को प्रेरित किया. इन वस्तुओं के निर्माण में लगे पूंजीपतियों, श्रमिकों, परिवहन संचालकों, थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं की आजीविका में तेरा अप्रतिम योगदान है. और तो और, तुझ से बचाव के लिए भांतिभांति के विज्ञापन बनते हैं, उन के द्वारा भी कई कलाकार, विज्ञापन एजेंसियां आदि रोजगार पाते हैं. कई कलाकारों को तेरे कारण रजत पटल पर आने का मौका मिलता है. तेरी मेहरबानी से सरकार ने मलेरिया विभाग बना कर कई लोगों को रोजगार दिया है. आगे चल कर डेंगू विभाग, चिकनगुनिया विभाग बनने की भी संभावना है. इस से भी कई लोग रोजगार पाएंगे. वहीं, फौगिंग के नाम पर, गड्ढे भरने के नाम पर, दवा छिड़काव के नाम पर न जाने कितने सरकारी कर्मचारियों, ठेकेदारों को तू सुखीसंपन्न बनाता है.

पर यार, तू थोड़ा सा नैगेटिव भी है वरना अभी तक तो तेरी पूजा शुरू हो चुकी होती. मनुष्य जिन चीजों से डरता है उस की पूजा करने लगता है. विनाशक नदियों को मां और भगवान का दरजा दिया जाता है. मनुष्य जिन व्यक्तियों से डरता है उन्हें माननीय, आदरणीय, परमादरणीय आदि कहने लगता है. यदि तेरा प्रकोप और बढ़ जाए तो शायद तेरी भी पूजा होने लगे. तेरे नाम के साथ भी माननीय, पूज्यनीय, आदरणीय. परमादरणीय जैसे शब्द प्रयुक्त होने लगें. तेरे नाम का भी चालीसा, सहस्त्रानाम, पुराण आदि का निर्माण हो. औल द बैस्ट, यार. 

पर यार, मेरी एक सलाह मानना- आरक्षण की मांग मत करना. अभी देश में स्थिति यह है कि जो दबंग है, अमीर है वह भी दबंगई से आरक्षण की मांग करने लगता है. विनाशलीला कर कहता है कि मैं कमजोर हूं, मुझे आरक्षण चाहिए. तू मसला जाता है, कुचला जाता है, लोग तुझ से नफरत करते हैं, तुझे अनेक रोगों का कारण मानते हैं.

इन आधारों पर तू आरक्षण का हकदार तो है पर यह भी सोच, तेरे से कितने घर चल रहे हैं, कितने लोग प्रेरणा पा रहे हैं. इसलिए आरक्षण मत मांगना, भले ही दोचार बीमारियां और बढ़ा देना.

Sad Love Story : मेरे प्‍यार की मंजिल

दिसंबर का पहला पखवाड़ा चल रहा था. शीतऋतु दस्तक दे चुकी थी. सूरज भी धीरेधीरे अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था और उस की किरणें आसमान में लालिमा फैलाए हुए थीं. ऐसा लग रहा था मानो ठंड के कारण सभी घर जा कर रजाई में घुस कर सोना चाहते हों. पार्क लगभग खाली हो चुका था, लेकिन हम दोनों अभी तक उसी बैंच पर बैठे बातें कर रहे थे. हम एकदूसरे की बातों में इतने खो गए थे कि हमें रात्रि की आहट का भी पता नहीं चला. मैं तो बस, एकाग्रचित्त हो अखिलेश की दीवानगी भरी बातें सुन रही थी.

‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं रीमा, मुझे कभी तनहा मत छोड़ना. मैं तुम्हारे बगैर बिलकुल नहीं जी पाऊंगा,’’ अखिलेश ने मेरी उंगलियों को सहलाते हुए कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो अखिलेश, मैं तो हमेशा तुम्हारी बांहों में ही रहूंगी, जिऊंगी भी तुम्हारी बांहों में और मरूंगी भी तुम्हारी ही गोद में सिर रख कर.’’

मेरी बातें सुनते ही अखिलेश बौखला गया, ‘‘यह कैसा प्यार है रीमा, एक तरफ तो तुम मेरे साथ जीने की कसमें खाती हो और अब मेरी गोद में सिर रख कर मरना चाहती हो? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना जी कर क्या करूंगा? बोलो रीमा, बोलो न.’’ अखिलेश बच्चों की तरह बिलखने लगा.

‘‘और तुम… क्या तुम उस दूसरी दुनिया में मेरे बगैर रह पाओगी? जानती हो रीमा, अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो क्या कहता,’’ अखिलेश ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘यदि तुम इस दुनिया से पहले चली जाओगी तो मैं तुम्हारे पास आने में बिलकुल भी देर नहीं करूंगा और यदि मैं पहले चला गया तो फिर तुम्हें अपने पास बुलाने में देर नहीं करूंगा, क्योंकि मैं तुम्हारे बिना कहीं भी नहीं रह सकता.’’

अखिलेश का यह रूप देख कर पहले तो मैं सहम गई, लेकिन अपने प्रति अखिलेश का यह पागलपन मुझे अच्छा लगा. हमारे प्यार की कलियां अब खिलने लगी थीं. किसी को भी हमारे प्यार से कोई एतराज नहीं था. दोनों ही घरों में हमारे रिश्ते की बातें होने लगी थीं. मारे खुशी के मेरे कदम जमीन पर ही नहीं पड़ते थे, लेकिन अखिलेश को न जाने आजकल क्या हो गया था. हर वक्त वह खोयाखोया सा रहता था. उस का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था. शरीर भी काफी कमजोर हो गया था.

मैं ने कई बार उस से पूछा, लेकिन हर बार वह टाल जाता था. मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता था, जैसे वह मुझ से कुछ छिपा रहा है. इधर कुछ दिनों से वह जल्दी शादी करने की जिद कर रहा था. उस की जिद में छिपे प्यार को मैं तो समझ रही थी, मगर मेरे पापा मेरी शादी अगले साल करना चाहते थे ताकि मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर लूं. इसलिए चाह कर भी मैं अखिलेश की जिद न मान सकी.

अखिलेश मुझे दीवानों की तरह प्यार करता था और मुझे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. यह बात मुझे उस दिन समझ में आ गई जब शाम को अखिलेश ने फोन कर के मुझे अपने घर बुलाया. जब मैं वहां पहुंची तो घर में कोई भी नहीं था. अखिलेश अकेला था. उस के मम्मीपापा कहीं गए हुए थे. अखिलेश ने मुझे बताया कि उसे घबराहट हो रही थी और उस की तबीयत भी ठीक नहीं थी इसलिए उस ने मुझे बुलाया है.

थोड़ी देर बाद जब मैं उस के लिए कौफी बनाने रसोई में गई, तभी अखिलेश ने पीछे से आ कर मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया, मैं ने घबरा कर पीछे हटना चाहा, लेकिन उस की बांहों की जंजीर न तोड़ सकी. वह बेतहाशा मुझे चूमने लगा, ‘‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता रीमा, जीना तो दूर तुम्हारे बिना तो मैं मर भी नहीं पाऊंगा. आज मुझे मत रोको रीमा, मैं अकेला नहीं रह पाऊंगा.’’

मेरे मुंह से तो आवाज तक नहीं निकल सकी और एक बेजान लता की तरह मैं उस से लिपटती चली गई. उस की आंखों में बिछुड़ने का भय साफ झलक रहा था और मैं उन आंखों में समा कर इस भय को समाप्त कर देना चाहती थी तभी तो बंद पलकों से मैं ने अपनी सहमति जाहिर कर दी. फिर हम दोनों प्यार के उफनते सागर में डूबते चले गए और जब हमें होश आया तब तक सारी सीमाएं टूट चुकी थीं. मैं अखिलेश से नजरें भी नहीं मिला पा रही थी और उस के लाख रोकने के बावजूद बिना कुछ कहे वापस आ गई.

इन 15 दिन में न जाने कितनी बार वह फोन और एसएमएस कर चुका था. मगर न तो मैं ने उस के एसएमएस का कोई जवाब दिया और न ही उस का फोन रिसीव किया. 16वें दिन अखिलेश की मम्मी ने ही फोन कर के मुझे बताया कि अखिलेश पिछले 15 दिन से अस्पताल में भरती है और उस की अंतिम सांसें चल रही हैं. अखिलेश ने उसे बताने से मना किया था, इसलिए वे अब तक उसे नहीं बता पा रही थीं.

इतना सुनते ही मैं एकपल भी न रुक सकी. अस्पताल पहुंचने पर मुझे पता चला कि अब उस की जिंदगी के बस कुछ ही क्षण बाकी हैं. परिवार के सभी लोग आंसुओं के सैलाब को रोके हुए थे. मैं बदहवास सी दौड़ती हुई अखिलेश के पास चली गई. आहट पा कर उस ने अपनी आंखें खोलीं. उस की आंखों में खुशी की चमक आ गई थी. मैं दौड़ कर उस के कृशकाय शरीर से लिपट गई.

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं अखिलेश, सिर्फ ‘कौल मी’ लिख कर सैकड़ों बार मैसेज करते थे. क्या एक बार भी तुम अपनी बीमारी के बारे में मुझे नहीं बता सकते थे? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा गम बांट सकूं?‘‘

‘‘मैं हर दिन तुम्हें फोन करता था रीमा, पर तुम ने एक बार भी क्या मुझ से बात की?’’

‘‘नहीं अखिलेश, ऐसी कोई बात नहीं थी, लेकिन उस दिन की घटना की वजह से मैं तुम से नजरें नहीं मिला पा रही थी.’’

‘‘लेकिन गलती तो मेरी भी थी न रीमा, फिर तुम क्यों नजरें चुरा रही थीं. वह तो मेरा प्यार था रीमा ताकि तुम जब तक जीवित रहोगी मेरे प्यार को याद रख सकोगी.’’

‘‘नहीं अखिलेश, हम ने साथ जीनेमरने का वादा किया था. आज तुम मुझे मंझधार में अकेला छोड़ कर नहीं जा सकते,’’ उस के मौत के एहसास से मैं कांप उठी.

‘‘अभी नहीं रीमा, अभी तो मैं अकेला ही जा रहा हूं, मगर तुम मेरे पास जरूर आओगी रीमा, तुम्हें आना ही पड़ेगा. बोलो रीमा, आओगी न अपने अखिलेश के पास’’,

अभी अखिलेश और कुछ कहता कि उस की सांसें उखड़ने लगीं और डाक्टर ने मुझे बाहर जाने के लिए कह दिया.

डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद अखिलेश को नहीं बचाया जा सका. मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई थी. मेरा तो सुहागन बनने का रंगीन ख्वाब ही चकनाचूर हो गया. सब से बड़ा धक्का तो मुझे उस समय लगा जब पापा ने एक भयानक सच उजागर किया. यह कालेज के दिनों की कुछ गलतियों का नतीजा था, जो पिछले एक साल से वह एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहा था. उस ने यह बात अपने परिवार में किसी से नहीं बताई थी. यहां तक कि डाक्टर से भी किसी को न बताने की गुजारिश की थी.

मेरे कदमों तले जमीन खिसक गई. मुझे अपने पागलपन की वह रात याद आ गई जब मैं ने अपना सर्वस्व अखिलेश को समर्पित कर दिया था.

आज उस की 5वीं बरसी है और मैं मौत के कगार पर खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही हूं. मुझे अखिलेश से कोई शिकायत नहीं है और न ही अपने मरने का कोई गम है, क्योंकि मैं जानती हूं कि जिंदगी के उस पार मौत नहीं, बल्कि अखिलेश मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा.

मैं ने अखिलेश का साथ देने का वादा किया था, इसलिए मेरा जाना तो निश्चित है परंतु आज तक मैं यह नहीं समझ पाई कि मैं ने और अखिलेश ने जो किया वह सही था या गलत?

अखिलेश का वादा पक्का था, मेरे समर्पण में प्यार था या हम दोनों को प्यार की मंजिल के रूप में मौत मिली, यह प्यार था. क्या यही प्यार है? क्या पता मेरी डायरी में लिखा यह वाक्य मेरा अंतिम वाक्य हो. कल का सूरज मैं देख भी पाऊंगी या नहीं, मुझे पता नहीं.

emotional story : कसाई जैसा बेटा

वैसे तो रवि आएदिन मां को मारता रहता है लेकिन उस रात पता नहीं उसे क्या हो गया कि इतनी जोर का घूंसा मारा कि दांत तक टूट गया. बीच में आई पत्नी को भी खूब मारा. पड़ोसी लोग घबरा गए, उन्हें लगा कि कहीं विस्फोट हुआ और उस की किरचें जमीन को भेद रही हैं. खिड़कियां खोल कर वे बाहर झांकने लगे. लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि रवि के घर का दरवाजा खटखटा कर शोर मचने का कारण पूछ ले. मार तो क्या एक थप्पड़ तक कुसुम के पति ने उस की रेशमी देह पर नहीं मारा था, बेटा तो एकदम कसाई हो गया है. हर वक्त सजीधजी रहने वाली, हीरोइन सी लगने वाली कुसुम अब तो अर्धविक्षिप्त सी हो गई है. फटेगंदे कपड़े, सूखामुरझाया चेहरा, गहरी, हजारों अनसुलझे प्रश्नों की भीड़ वाली आंखें, कुछ कहने को लालायित सूखे होंठ, सबकुछ उस की दयनीय जिंदगी को व्यक्त करने लगे.

उस रात कुसुम बरामदे में ही पड़ी एक कंबल में ठिठुरती रही. टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची कि वह अपने छोटे से कमरे में, जो पहले स्टोर था, चली जाए. केवल एक ही वाक्य कहा था कुसुम ने अपनी बहू से : ‘पल्लवी, तुम ने यह साड़ी मुझ से बिना पूछे क्यों पहन ली, यह तो मेरी शादी की सिल्वर जुबली की थी.’

बस, बेटा मां को रुई की तरह धुनने लगा और बकने लगा, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि मेरी बीवी से साड़ी के लिए पूछती है.’’

कुसुम बेचारी चुप हो गई, जैसे उसे सांप सूंघ गया, फिर भी बेटे ने मारा. पहले थप्पड़ों से, फिर घूंसों से.

ठंडी हवा का तेज झोंका उस की घायल देह से छू रहा था. उस का अंगअंग दर्द करने लगा था. वह कराह उठी थी. आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. चलचित्र की तरह घटनाएं, बीते दिन सूनी आंखों के आगे घूमने लगे.

‘इस साड़ी में कुसुम तू बहुत सुंदर लगती है और आज तो गजब ही ढा रही है. आज रात को…’ पति पराग ने कहा था.

‘धत्’ कह कर कुसुम शरमा गई थी नई दुलहन सी, फिर रात को उस के साथ उस के पति एक स्वर एक ताल एक लय हुए थे. खिड़की से झांकता हुआ चांद भी उन दोनों को देख कर शरमा गया था. वह पल याद कर के उस का दिल पानी से बाहर निकली मछली सा तड़पने लगा. जब भी खाने की किसी चीज की कुसुम फरमाइश करती थी तुरंत उस के पति ला कर दे देते थे. बातबात पर कुसुम से कहते थे, ‘तू चिंता मत कर. मैं ने तो यह घर तेरे नाम ही लिया है और बैंक में 5 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट भी तेरे नाम से कर दिया है. अगर मुझे कुछ हो भी जाएगा तब भी तू ठाट से रहेगी.’

हंस देती थी कुसुम. बहुत खुश थी कि उसे इतना अच्छा पति और लायक बेटी, बेटा दिए हैं. अपने इसी बेटे को उस ने बेटी से सौ गुना ज्यादा प्यार दिया, लेकिन यह क्या हो गया…एकदम से उस की चलती नाव में कैसे छेद हो गया. पानी भरने लगा और नाव डूबने लगी. सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी कगार पर पड़ी चट्टान सी हो जाएगी कि पता नहीं कब उस चट्टान को समुद्र निगल ले.

वह बीते पलों को याद कर पिंजड़े में कैद पंछी सी फड़फड़ाने लगी. उस रात वह सो नहीं पाई.

सुबह उठते ही धीरेधीरे मरियल चूहे सी चल कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, अपने लिए एक कप चाय बना कर, अपनी कोठरी में ले आई और पड़ोसिन के दिए हुए बिस्कुट के पैकेट में से बिस्कुट ले कर खाने लगी. बिस्कुट खाते हुए दिमाग में विचार आकाश में उड़ती पतंग से उड़ने लगे.

‘इस कू्रर, निर्दयी बेटेबहू से तो पड़ोसिनें ही अच्छी हैं जो गाहेबगाहे खानेपीने की चीजें चोरी से दे जाती हैं. तो क्यों न उन की सहायता ले कर अपनी इस मुसीबत से छुटकारा पा लूं.’ एक बार एक और विचार बिजली सा कौंधा.

‘क्यों न अपनी बेटी को सबकुछ बता दूं और वह मेरी मदद करे, लेकिन वह लालची दामाद कभी भी बेटी को मेरी मदद नहीं करने देगा. बेटी को तो फोन भी नहीं कर सकती, हमेशा लौक रहता है. घर से भाग भी नहीं सकती, दोनों पतिपत्नी ताला लगा कर नौकरी पर जाते हैं.’

बस, इन्हीं सब विचारों की पगडंडी पर चलते हुए ही कुसुम ने कराहते हुए स्नान कर लिया और दर्द से तड़पते हुए हाथों से ही उलटीसीधी चोटी गूंथ ली. बेटेबहू की हंसीमजाक, ठिठोली की आवाजें गरम पिघलते शीशे सी कानों में पड़ रही थीं. कहां वह सजेसजाए, साफसुथरे, कालीन बिछे बैडरूम में सोती थी और कहां अब बदबूदार स्टोर में फोल्ंिडग चारपाई पर? छि:छि: इतना सफेद हो जाएगा रवि का खून, उस ने कभी सोचा न था. महंगे से महंगा कपड़ा पहनाया उसे, बढि़या से बढि़या खाने की चीजें खिलाईं. हर जिद, हर चाहत रवि की कुसुम और पराग ने पूरी की. शहर के महंगे इंगलिश कौन्वेंट स्कूल से, फिर विश्वविद्यालय से रवि ने शिक्षा ग्रहण की.

कितनी मेहनत से, कितनी लगन से पराग ने इसे बैंक की नौकरी की परीक्षाएं दिलवाईं. जब यह पास हो गया तो दोनों खुशी के मारे फूले नहीं समाए, खोजबीन कर के जानपहचान निकाली तब जा कर इस की नौकरी लगी.

और पराग के मरने के बाद यह सबकुछ भूल गया. काश, यह जन्म ही न लेता. मैं निपूती ही सुखी थी. इस के जन्म लेने के बाद मेरे मना करने पर भी 150 लोगों की पार्टी पराग ने खूब धूमधाम से की थी. बड़ा शरीफ, सीधासादा और संस्कारों वाला लड़का था यह. लेकिन पता नहीं इस ने क्या खा लिया, इस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जो राक्षसों जैसा बरताव करता है. अब तो इस के पंख निकल आए हैं. प्यार, त्याग, दया, मान, सम्मान की भावनाएं तो इस के दिल से गायब ही हो गई हैं, जैसे अंधेरे में से परछाईं.

रसोई से आ रही मीठीमीठी सुगंध से कुसुम बच्ची सी मनचली हो गई. हिम्मत की सीढ़ी चढ़ कर धीरेधीरे बहू के पास आई, ‘‘बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है, बेटी क्या बनाया है?’’ पता नहीं कैसे दुनिया का नया आश्चर्य लगा कुसुम को बहू के उत्तर देने के ढंग से, ‘‘मांजी, गाजर का हलवा बनाया है. खाएंगी? आइए, बैठिए.’’

हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई. एक प्लेट में हलवा रखा था, दूसरी प्लेट में गोभी के गरम परांठे. नाश्ता देते समय शहद सी मीठी बोली में बहू बोली, ‘‘पहले इन कागजों पर साइन कर दीजिए. फिर नाश्ता कर लीजिएगा.’’

‘‘न…न, मैं नहीं करूंगी साइन.’’

‘अच्छा, तो यह आदर, यह प्यार इस लालच में किया जा रहा था. छि:छि:, तुम दोनों ने तो रिश्तों को नीलाम कर दिया है. मैं चाहे मर जाऊं, चाहे मुझे कुछ भी हो जाए, मैं साइन नहीं करूंगी,’ कुसुम बड़बड़ाती रही.

‘‘जाइएजाइए, लीजिए सूखी ब्रैड और चाय, मत करिए साइन. और जब ये आ जाएं तब खाइएगा इन की मार.’’

बहू के शब्द तीरों से भी ज्यादा घायल कर गए कुसुम को. वह बाहर से अंदर तक लहूलुहान हो गई.

मरती क्या न करती. भूखी थी सूखी ब्रैड चाय में डुबो कर खाई, रोती रही. सोचती रही, ‘लानत है ऐसी जिंदगी पर. गाजर का हलवा, भरवां परांठे खा कर क्या मैं तेरी गुलाम बन जाऊं. न…न, मैं अपाहिज नहीं बनना चाहती. मैं अपना सबकुछ तुझे दे दूं और मैं अपाहिज बन जाऊं, यह नहीं हो सकता,’ बुदबुदाती हुई कुसुम, ब्रैड और चाय से ही संतुष्ट हो गई. मन ने कहा, ‘जाए भाड़ में तेरा हलवा और परांठे. मैं अपने जमाने में बचा हुआ हलवा, परांठेऔर पूरी मेहरी तक को खाने के लिए देती थी.’

कुसुम बहू की क्रियाएं आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. सास की पीड़ा, दुख, व्यथा से बहू अनजान सी अपने कामों में व्यस्त थी. चायनाश्ता कर के उस ने अपना लंच बौक्स तैयार किया, फिर गुनगुनाती हुई पिं्रटैड सिल्क की साड़ी और उसी रंग की मैच करती माला पहन कर कालेज चली गई. बाहर से घर में ताला लगा दिया.

बाहर ताला बंद कर वह हर रोज ही कालेज जाती रही. और तो और टैलीफोन भी लौक कर दिया जाता था. लेकिन उस दिन वह टैलीफोन लौक करना भूल गई. कुसुम ने हर रोज की तरह पूरा घर देखा. हर चीज लौक थी. यहां तक कि फ्रिज में भी ताला लगा हुआ था.

हां, बहू कुसुम के लिए डायनिंग टेबल पर 4 सूखी रोटी और अरहर की दाल बना कर रख गई थी. अनलौक टैलीफोन देख कर कुसुम के दिल में खुशी का खेत लहराने लगा. अब तो पड़ोसिन को फोन कर दूंगी. वह मुझे बाहर भागने में सहायता कर देगी.

उस समय कुसुम में हजार हाथियों की ताकत ने जन्म ले लिया. देह का दर्द भी कपूर सा उड़ गया. आंखों में हीरे सी चमक उत्पन्न हो गई. सब से पहले तो उस ने पड़ोसिन को फोन किया, ‘‘हैलो, कौन बोल रहा है?’’

‘‘मैं बोल रही हूं आंटी, रीता, लेकिन आप फोन कैसे कर रही हैं? क्या आज आप का फोन लौक नहीं है?’’

मुक्ति की खुशी में झूमती हुई कुसुम बोली, ‘‘हांहां बेटी, लौक नहीं है. सुनो, तुम इस समय बाहर का ताला तोड़ कर आ जाओ. तब तक मैं तैयारी करती हूं.’’

‘‘कैसी तैयारी, आंटी?’’ सुन कर रीता को आश्चर्य हुआ.

‘‘बेटी, तुम्हीं ने तो उस दिन कहा था कि आप यहां से भाग जाओ आंटी, किसी और शहर या बेटी के पास.’’

‘‘हांहां, कहा तो था. लेकिन आंटी, आप कहां जाएंगी?’’

‘‘मैं कानपुर अपने भाई के पास जाऊंगी. वह बस स्टेशन पर लेने आ जाएगा, फिर सब ठीक हो जाएगा. बेटी, अगर मैं नहीं गई तो यह मुझ से जबरदस्ती मारपीट कर, नशा पिला कर साइन करवा लेगा और…और…’’ कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

‘‘और क्या आंटी… बताओ न…’’

‘‘और फिर मुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेंक देगा,’’ बोलते हुए कुसुम की आवाज कांप रही थी. पूरी की पूरी देह ही कंपकंपाने लगी थी. उस की देह जवाब दे रही थी. लेकिन फोन रख कर उस की हिम्मत सांस लेने लगी. आशा जीवित होने लगी.

जल्दीजल्दी अलमारी खोल कर अपने कपड़े, रुपए और वसीयत के कागज निकाले, पर्स लिया. ढंग से सिल्क की साड़ी पहन कर दरवाजे के पास अटैची ले कर खड़ी हो गई.

पत्थर से ताला नहीं टूटा तो रीता ने हथौड़ी से ताला तोड़ा. कुसुम दरवाजे के पास ही खड़ी थी.

एक ओर जेल से छूटे कैदी सी खुशी कुसुम के दिल में थी तो दूसरी ओर अपना घर, अपना घोंसला छोड़ने का दुख उसे खाए जा रहा था. वह घर, जिस में उस ने रानी सा जीवन व्यतीत किया, जहां उस ने सोने से दिन और चांदी सी रातें काटीं, जहां उस के आंगन में किलकारियां गूंजती थीं, प्यार का सूरज सदा उगता था, जहां उस के पति ने उसे संपूर्ण ब्रह्मांड का सुख दिया था, जहां वह घंटों पति के साथ प्रेम क्रीड़ाएं करती थी, जो घर खुशियों के फूलों से महकता था, वक्त ने ऐसी करवट बदली कि कुसुम आज उसे छोड़ कर जाने पर विवश हो गई. क्या करती वह? कोई अन्य उपाय नहीं था.

रीता ने अपनी कार में कुसुम को बिठा लिया, उस का सूटकेस उठाते समय रीता भी रोने लगी आंटी के बिछोह पर. रोंआसी रीता ने आंटी से उन के भाई का फोन नंबर ले लिया. और बस पर चढ़ाते समय यह वादा कर लिया कि वह हफ्ते में 2 बार फोन पर उन का हालचाल पता लगाती रहेगी.

जितना दुख कुसुम को अपना घर छोड़ने का था उस से कुछ ही कम दुख रीता से बिछुड़ने का था. ज्यादा देर वह रीता को बस के पास रोकना नहीं चाह रही थी. वह सरहद पर तैनात सिपाही सी सतर्क थी, सावधान थी कि कहीं खोजते हुए उस की बहू या बेटा न आ जाएं. वह उस घर में वापस जाना नहीं चाहती थी, जहां तालाब में मगरमच्छ सा उस का बेटा रहता था, जहां उस की जिंदगी मुहताज हो गई थी.

बस चल पड़ी. वह खिड़की से बाहर आंसूभरी आंखों से रीता को तब तक देखती रही जब तक उस की आकृति ने बिंदु का रूप नहीं ले लिया.

ज्योंज्यों बस आगे बढ़ रही थी उस का अपना शहर दूर होता जा रहा था, वह शहर जहां वह सोलहशृंगार कर के अपने सुहाग के साथ आई थी. उसे लगा उस की जिंदगी एक नदी है जिस ने अपना रास्ता बदल लिया है और वह एक गांव है जो पीछे छूट गया है. बस जितना आगे बढ़ रही थी उस का दिल उतनी ही जोरों से धड़क रहा था. काफी देर बाद उस ने स्वयं को सामान्य स्थिति में पाया.

अब वह आंखें बंद कर के सोचने लगी, ‘काश, मेरी बहू रीता जैसी होती, कितनी अच्छी है, कितना खयाल रखती है अपनी सासू मां का, जितनी बार भी इस की सास मुझ से मिली हैं, हमेशा अपनी बहू की तारीफों के पुल ही बांधती रही हैं, लेकिन मुझे दुष्ट बहू मिली. अरे बहू का क्या दोष है, नालायक तो अपना बेटा है. यदि बेटा ठीक होता तो बहू की क्या मजाल कि गलत काम करे?’

ज्योंज्यों कानपुर नजदीक आ रहा था, कुसुम घबरा रही थी कि भैयाभाभी पता नहीं क्या सोचेंगे. सोचें तो सोचें, उस के पास उस रास्ते के सिवा कोई रास्ता नहीं था. वह बोझ नहीं बनेगी भैयाभाभी पर, कुछ ही दिनों में अलग छोटा सा मकान ले कर रहेगी, एक नौकरानी रखेगी. एक विचार की लहर बारबार उठ रही थी कि घर छोड़ कर मैं ने गलत काम तो नहीं किया.

फिर दिमाग ने कहा, तो फिर क्या करती, हर रोज मार खाती. और वह मारता रहता जब तक जायदाद पूरी अपने नाम न लिखवा लेता. एक बार, दो बार, तीन बार…उस ने अपनी दोबारा बनाई वसीयत पढ़ी, जिस की एक प्रति उसे अपनी बेटी के पास भी भेजनी पड़ेगी, वकील के पास तो एक कौपी रख आई थी.

कुसुम अब सोचने लगी, ‘आज मैं ने जो कुछ भी किया वह पहले ही कर लेना चाहिए था. छि:छि:, मां बेटे से मार खाए, इस से अच्छा मर न जाए. मैं अकेली पड़ गई थी, वे दोनों पतिपत्नी एक हो गए थे. शुक्र है कि रीता जैसी पड़ोसिन मिल गई, जिस ने मेरी मृतप्राय जिंदगी को सांसें दे दीं. रीता न होती तो मैं वसीयत भी न बदल पाती और घर से भाग भी नहीं पाती.’

इन्हीं विचारों का तानाबाना बुनते हुए कानपुर आ गया. हड़बड़ाते हुए कुसुम ने अटैची और पर्स पकड़ा, फिर स्वरूपनगर के लिए रिकशा कर के चल दी.

कुसुम निश्चय कर के अपने भाई देवेंद्र के घर पहुंच गई. दरवाजे पर लगी कौल बैल बजाई. थोड़ी देर में एक भोलीभाली, सुंदर सी बालिका ने दरवाजा खोला.

‘‘आप कौन, किस से मिलना है?’’ मीठी आवाज में बच्ची ने पूछा.

‘‘बेटी, मैं लखनऊ से आई हूं. तुम्हारे पापाजी की बहन हूं. मेरा नाम कुसुम है.’’

‘‘अंदर आइए, दादीजी, अंदर आइए.’’

बच्ची के पीछेपीछे कुसुम अपना पर्स और अटैची संभालती हुई चल दी. बरामदे के साथ जुड़ा हुआ ही ड्राइंगरूम था. उस घर में कुसुम 5 वर्षों बाद आई थी. पिछली बार अपने पति के साथ कुसुम कार से आई थी. घरपरिवार वालों ने खूब इज्जत, मानसम्मान दिया था. भैयाभाभी ने तो आंखों पर ही बिठा लिया था.

कुसुम के भाई के घर का वातावरण उस समय भी शांत था और अब भी लगता है सुखमय और शांत है. कुसुम की विचारतंद्रा उस के भाई ने ही तोड़ी, ‘‘अरे कुसुम, तू इस समय अकेली कैसे? कु़छ फोन वगैरह तो कर देती?’’

‘‘वह भैया, बस आना पड़ा,’’ सूखा चेहरा, मरियल आवाज में दिए उत्तर से भाई सशंकित हो गया.

‘‘आना पड़ा, मैं समझा नहीं. खैर, चल पहले चाय पी ले, कुछ खा ले फिर बताना.’’

कुसुम की आवाज सुन कर बरामदे में ही सब्जी काटती हुई भाभी दौड़ कर आईं, पांव छुए फिर बैठ गईं. थोड़ी देर बाद चायनाश्ता भी आ गया.

‘‘दीदी, आप तो बहुत दुबली हो गई हैं. 5 साल में चेहरा ही बदल गया. क्या हो गया है आप को?’’ कुसुम के पास आ कर भाभी ने आलिंगन किया और आश्चर्यचकित नजरों से उस की ओर देखती रहीं.

कुसुम बारबार बांहों पर, गरदन पर पड़े जख्मों के निशान छिपा रही थी. लेकिन मेज पर रखी हुई चाय की प्याली उठाते समय गरदन से शाल हट गई और बांह का स्वेटर ऊपर को हो गया, देखते ही भैया दौड़ कर पास आए, घबरा कर पूछा, ‘‘यह सब क्या है, कुसुम? तुम्हारे शरीर पर ये जख्म कैसे हैं?’’

‘‘वह…वह भैया, रवि मारता था. पीटता था. एक बार तो उस ने इतनी जोर से मारा कि दांत तक टूट गया. बस, ये सब उसी के निशान हैं.’’

‘‘इतना सब होता रहा और तुम ने बताया तक नहीं. अरे हम कोई गैर हैं क्या? कभी फोन ही कर देतीं या कोई खत ही डाल देती. पता नहीं तुम ने कितने दुख झेले हैं जीजाजी की मृत्यु के बाद. छि:छि:, इतना कू्रर, बिगड़ा रवि बेटा हो जाएगा. सपने में भी नहीं सोचा था. खैर, कुसुम, तुम ने अच्छा किया जो आ गईं.’’

‘‘वह तो मुझे भूखा तक रखता था. बाहर दरवाजे पर ताला, टैलीफोन पर ताला, फ्रिज और सभी अलमारियों में ताला लगा रहता था. भैया, ऐसी दुर्दशा तो किसी कैदी की भी नहीं होगी जो उस ने मेरी की थी,’’ कहते ही कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

भैयाभाभी घबरा गए. आंसू पोंछे भाभी ने फिर कुसुम से वसीयत की योजना पूछी. थोड़ी देर बाद स्वयं पर काबू पा कर कुसुम ने अपनी नई वसीयत उन दोनों को दिखा दी. भैयाभाभी खुश हुए. बहन को भाई ने खूब प्यार कर के कहा, ‘‘बहन, घबराओ मत. जैसा तुम चाहती हो वैसे ही होगा. वैसे तो अलग रहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अगर तुम चाहोगी तो स्वरूपनगर में ही तुम्हें अच्छा मकान मिल जाएगा. अभी तुम आराम करो, चिंता मत करो.’’

‘‘अच्छा भैया,’’ कह कर कुसुम सोफे पर ही लेट गई.

उधर, शाम को जब रवि औफिस से लौटा, पल्लवी ने रोनी सी सूरत ले कर दरवाजा खोला और वह वृक्ष से टूटी हुई डाली सी धम्म से सोफे पर बैठ गई. रवि ने उसे झकझोर कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है? सब ठीक तो है.’’

पल्लवी चीख पड़ी, ‘‘कुछ ठीक नहीं है, तुम्हारी मां धोखा दे कर भाग गईं और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘यह देखो, अपने पलंग पर यह चिट्ठी रख गई हैं. लिखा है : ‘मैं जा रही हूं. कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें जायदाद में से. मैं ने वसीयत बदल दी है. आधी जायदाद बेटी मोनिका और आधी विकलांगों की संस्था के नाम कर दी है. मैं कपूत बेटे से विद्रोह करती हूं. जिस बेटे को पालपोस कर बड़ा किया वह मां पर हाथ उठाता है, वह भी जायदाद के लिए. मेरा सबकुछ तेरा ही तो था. लेकिन तू ने मांबेटे के रिश्ते का कोई लिहाज नहीं किया. तुझ से रिश्ता तोड़ने का मुझे कोई गम नहीं.’’’

कागज का टुकड़ा पढ़ कर रवि पागलों की तरह चिल्लाने लगा. कभी इधर कभी उधर चक्कर लगाने लगा. उधर पत्नी पल्लवी क्रोध में बड़बड़ाने लगी, ‘मैं ने पहले ही कहा था कि मांजी को मत सताओ, मत मारोपीटो, प्यार से उन्हें अपने वश में करो लेकिन तुम ने मेरी एक न सुनी. अब भुगतो. यह घर भी खाली करना पड़ेगा.’

Satire : सरकारी बाबू

जब से बाबू लोगन की नकेल कसने के लिए बायोमीट्रिक हाजिरी मशीन लगी है, हर बाबू के कान खड़े हो गए हैं. हालांकि घबराने की बात नहीं है क्योंकि इन्होंने समय का पाबंद होने के बजाय इस मशीन से निबटने का बेहतरीन आइडिया निकाल लिया है. क्या है वह आइडिया, जरा आप भी दिमागी घोड़े  दौड़ाइए.

हमारे सरकारी दफ्तर में सभी कर्मचारियों को समय का पाबंद बनाने के लिए उन के फिंगर इंप्रैशन और फोटो रिकौर्ड में लेने के बाद इलैक्ट्रौनिक ‘बायोमीट्रिक हाजिरी प्रणाली’ की नई व्यवस्था चालू कर दी गई. नई व्यवस्था के बाद अब यदि हमारे दफ्तर के कर्मचारियों को ‘सरकारी पिंजरे में बंद पशुपक्षी’ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी.

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पशु इसलिए क्योंकि हाथी, घोड़ों, कुत्तों, यहां तक कि गधे जैसा स्वभाव व व्यवहार करने वाले लोग भी यहां पाए जाते हैं, जो अपने अहंकार के आगे इंसान को इंसान नहीं समझते. पक्षी इसलिए कि यहां पर कोयल की सुरीली आवाज वाली और मोर जैसी सुंदर, आकर्षक, शृंगारयुक्त व सुडौल महिलाएं भी होती हैं और बगुला भगत तो एक नहीं कई होते हैं. विशेषकर जिन्हें अपने दूरदराज के क्षेत्रों में स्थानांतरण व शीघ्र ही पदोन्नति पाने की चिंता होती है, उन्हें आला अधिकारियों का बगुला भगत बनते देर नहीं लगती.

कर्मचारियों को समय का पाबंद बनाने के लिए लगी बायोमीट्रिक हाजिरी प्रणाली मशीन लगने के बाद एक कर्मचारी ने अपने साथियों से कहा, ‘‘साथियो, सुबह साढ़े 9 बजे बायोमीट्रिक मशीन में अपनी हाजिरी लगा कर सभी लोग दफ्तर के गार्डन में पीछे की तरफ आ जाया करो. अब तो एकएक ताश की बाजी सुबहसुबह 10 से 11 के बीच में भी हो जाया करेगी और लंच टाइम में तो हमें कोई रोक ही नहीं सकता.’’

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दूसरे कर्मचारी ने भी चुसकी ली और बोला, ‘‘साथियो, बायोमीट्रिक मशीन में सुबहशाम अपनी हाजिरी के लिए उंगली (फिंगर इंप्रैशन) लगाना ठीक है, परंतु यदि गलती से भी कहीं और लगा दी तो अच्छा नहीं होगा. इसलिए इसे रास्ते चलते अपनी आदत मत बना लेना. गलती से भी यदि आप की उंगली भीड़भाड़ में किसी महिला के शरीर से टच हो गई तो जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है. पता होना चाहिए कि महिलाओं के संबंध में कानून व्यवस्था अब बहुत सख्त हो गई है.’’

लेखानुभाग में उपस्थित एक क्लर्क पुरुष बोला, ‘‘साथियो, सुबहसवेरे बायोमीट्रिक मशीन में उंगली लगा कर सीधे ही सभी लोग सभागार में पहुंच जाया करो. थोड़ी गपशप और चायशाय हो जाया करेगी. काम तो 11 बजे से पहले नहीं शुरू हो पाएगा. जब तक सफाई कर्मचारी कक्ष का अच्छी तरह से झाड़ूपोंछा नहीं कर लेते तब तक हम तो अपने कक्ष में बिलकुल भी नहीं बैठ सकते.’’

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दूसरा क्लर्क पुरुष बोला, ‘‘अरे यार, क्या बात करते हो, केवल गपशप और चायशाय से क्या होगा. मेरी राय में तो समय बिताने के लिए अब करना है कुछ नया काम, सुबहसुबह ही किसी कोने में इंटरनैट खोल कर बैठिए और देखिए तमाम ब्लू फिल्में.’’

उस के इतना कहते ही सभी ने जोरदार ठहाका लगाते हुए एक स्वर में कहा, ‘‘हां, आप ठीक कह रहे हैं, यही ठीक रहेगा.’’

दफ्तर में बायोमीट्रिक हाजिरी मशीन लग जाने के कारण संभ्रांत महिलाओं की चिंता थी कि सुबह साढ़े 9 बजे तक दफ्तर आने और शाम को 7 बजे से पहले न जाने पर उन के घर के कई काम अधूरे रह जाते हैं.

उन की समस्या सुन कर एक समझदार साथी ने अपनी महिला साथी की समस्या का समाधान कुछ इस प्रकार किया और बोला, ‘‘मैडम, आप तो एक इलैक्ट्रिक कुकिंग प्लेट, कुछ बरतन व जरूरी मसाले आदि ला कर यहीं अपनी अलमारी में रख लीजिए और सुबहसुबह साढ़े 9 बजे आ कर बायोमीट्रिक मशीन में अपनी हाजिरी लगा कर तुरंत दफ्तर के पास वाली मार्केट चली जाया कीजिए और वहां से ताजी सब्जियां खरीद कर ले आया कीजिए. शाम तक उसे धो कर व काटकूट कर सायं 5 बजे के बाद उसे अपने दफ्तर के कक्ष में ही तैयार कर, यहीं से सब्जी पका कर ही 6 बजे के बाद घर ले जाया करें और पहुंचते ही चपातियां सेंक कर अपने परिवार के सदस्यों को सर्व कर दिया करें.’’

वे बोलीं, ‘‘कैसी बातें करते हैं, किसी अधिकारी ने देख लिया तो?’’

समझदार साथी ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘मैडम, इस में डरने वाली कोई बात नहीं है. जब अधिकारी अपने कक्ष में इलैक्ट्रिक कैटल और नाश्ते का सामान रख सकते हैं तो आप भला क्यों नहीं रख सकतीं. आप तो खांमखां डर रही हैं.’’

एक कर्मचारी ने बताया, ‘‘दफ्तर में जब से बायोमीट्रिक मशीन लगी है मैं ने तो अपने सुबह के टहलने के समय में परिवर्तन कर लिया है और यहां साढ़े

9 क्या, 9 बजे ही आ जाता हूं और हाजिरी मशीन में अपनी उंगली का इंप्रैशन लगा कर सीधे ही पास वाले गार्डन में जा कर 11 बजे तक चक्कर लगाता हूं और फिर दफ्तर लौट कर कैंटीन में चाय पीता हूं तब जा कर सीट पर बैठ कर 2-4 फाइलें निबटा देता हूं. तब तक लंच टाइम हो जाता है. इसी प्रकार शाम को पहले 5 बजे घर भाग जाया करता था. अब 4 बजे निकलता हूं और पास वाले सुपर मार्केट से शाम के 6 बजे तक सामान गाड़ी में डाल कर ले आता हूं और यहां आ कर मशीन में दफ्तर छोड़ने के लिए उंगली का इंप्रैशन लगाता हूं और वापस घर चला जाता हूं.’’

साथी बोला, ‘‘यार, तुम्हारे कमरे की लाइट व कंप्यूटर वगैरह कौन स्विच औफ करता है?’’

वह बोला, ‘‘मुझे उस की बिलकुल भी परवा नहीं है. प्रत्येक तल पर सुरक्षा संतरी किस लिए है. वह खुली देखता होगा तो खुद ही बंद कर देता होगा. आखिर उसे भी तो कुछ काम करना चाहिए…वह भी तो तनख्वाह लेता है.’’

सच कहूं तो मुझे तो अपने दफ्तर में बायोमीट्रिक मशीन द्वारा हाजिरी लगने से केवल एक लाभ ही दिखाई दे रहा है कि जिन सरकारी कर्मचारियों को अपने दफ्तर के कार्यदिवसों में खुलने का समय व बंद होने का समय मालूम ही नहीं था, इस बहाने उन्हें पता चल गया वरना पूरी 60 वर्ष की नौकरी हो जाती और वे रिटायर भी हो जाते, उन्हें सरकारी दफ्तर के प्रत्येक दिन का सही कार्यसमय ही न मालूम हो पाता.

बंदा तो पहले घर से ही देरी से दफ्तर आता था और जल्दी चला जाता था, इसलिए अपनी सीट पर नहीं मिलता था और अब अपने कार्यदिवसों में आता तो जल्दी है और प्रत्येक दिन जाता भी दफ्तर के समाप्त होने के निर्धारित समय के बाद है मगर फिर भी वह दिनभर सीट पर कम ही दिखता है. कहां जाता है और क्याक्या करता है, किसी को पता ही नहीं रहता.

जिस किसी से पूछो कि फलां कर्मचारी कहां है तो यही कहते मिलता है कि आए तो हैं लेकिन कहां हैं, पता नहीं. देखिए, उन का चश्मा और पैन तो उन की सीट पर रखा है और कंप्यूटर भी औन है न. बायोमीट्रिक हाजिरी मशीन के कंप्यूटरीकृत सौफ्टवेयर में ताकझांक करने पर वह वहां सुबह साढ़े 9 बजे तक रोजाना ही दफ्तर आता है और शाम को भी सायं 6 बजे के बाद ही दफ्तर छोड़ता है. वहां लगे हुए उस के फिंगर इंप्रैशन व फोटो तो यही सत्यापित करते हैं. इसलिए दफ्तर के आला अधिकारियों द्वारा कभी भी उस की एक क्या, आधे दिन तक की भी, न तो छुट्टी काटी जा सकती है और न ही वेतन.

sad stroy : वो आखिरी पत्र

लेखकसंतोष सचदेव

जीवन के आखिरी पलों में न जाने क्यों आज मेरा मन खुद से बातें करने को हो गया. सोचा अपनी  जिंदगी की कथा या व्यथा मेज पर पड़े कोरे कागजों पर अक्षरों के रूप में अंकित कर दूं.

यह मैं हूं. मेरा नाम अनिता है. कहां पैदा हुई, यह तो पता नहीं, पर इतना जरूर याद है कि मेरे पिता कनाडा में भारतीय दूतावास में एक अच्छे पद पर तैनात थे. उन का औफिस राजधानी ओटावा में था. मां भी उन्हीं के साथ रहती थीं. मैं और मेरा भाई मांट्रियल में मौसी के यहां रहते थे. मेरी पढ़ाई की शुरुआत वहीं से हुई. मेरा भाई रोहन मुझ से 5 साल बड़ा था.

स्कूल घर के पास ही था, मुश्किल से 3-4 मिनट का रास्ता था. तमाम बच्चे पैदल ही स्कूल आतेजाते थे. लेकिन हमारे घर और स्कूल के बीच एक बड़ी सड़क थी, जिस पर तेज रफ्तार से कारें आतीजाती थीं. इसलिए वहां के कानून के हिसाब से स्कूल बस हमें लेने और छोड़ने आती थी.

घर में हम हिंदी बोलते थे, जबकि स्कूल में फ्रेंच और अंग्रेजी पढ़नी और बोलनी पड़ती थी. वहां की भाषा फ्रेंच थी. वहां सभी फ्रेंच में बातें करते थे. दुकानों के साइन बोर्ड, सड़कों के नाम, सब कुछ फ्रेंच में थे. जबकि मुझे फ्रेंच से बड़ी चिढ़ थी. स्कूल की कोई यूनीफार्म नहीं थी, फीस भी नहीं, किताबकापियां सब फ्री में मिलती थीं.

सर्दी में भी सभी लड़कियां छोटेछोटे कपड़े पहनती थीं. हम भारतीयों को यह सब बड़ा अजीब लगता था. बचपन के लगभग 10 साल वहीं बीते. मांट्रियल के बारे में सुना था कि वहां बहुत बड़ा पहाड़ था, जिसे माउंट रायल कहते थे. बोलतेबोलते वह माउंट रायल मांट्रियल बन गया. ऊंचे पहाड़ से बहते झरने की तरह मेरी जीवनधारा भी कभी कलकल करती, कभी हिलोरें भरती, कभी गहरी झील की गहराई सी समेटे आगे बढ़ रही थी. वह मधुरिम समय आज भी मेरे जीवन की जमापूंजी है.

मैं थोड़ा बड़ी हो गई. भारतीय परंपराओं के बंधनों से मेरा परिचय कराया जाने लगा. लड़कियां मित्र हो सकती हैं, लड़के नहीं. स्कूल सीमा के बाहर किसी लड़के के साथ न बोलना, न घूमना. पिता नए जमाने के साथ चलने के पक्षधर थे, पर मौसी ने जो बचपन में सिखाया था, उसे तब तक भूली नहीं थीं. वह उस परंपरा को आगे भी जारी रखने के लिए दृढ़ संकल्प थीं. मैं स्कर्ट नहीं पहन सकती थी. कमीज भी पूरी बाहों की, जिसे गले तक बंद करना पड़ता था. भले ही स्कूल में दूसरे बच्चों के बीच हंसी का पात्र बनूं, लेकिन मौसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी.

मैं दसवीं में पढ़ रही थी, तभी अचानक पिताजी का तबादला हो गया. हम अपने देश भारत आ गए. रहने को दिल्ली के आरकेपुरम में सरकारी मकान मिला. वह काफी खुला इलाका था, मां बहुत खुश थीं. क्योंकि उन्हें चांदनी चौक के पुराने कटरों की तंग गलियों वाले अपने पुश्तैनी मकान में नहीं जाना पड़ा था.

दिल्ली के स्कूलों में दाखिला कोई आसान काम नहीं था. पर पिताजी की सरकारी नौकरी और तबादले का मामला था, इसलिए घर के पास ही सर्वोदय स्कूल में दाखिला मिल गया. बारहवीं की परीक्षा मैं ने अच्छे नंबरों से पास की, जिस से दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए में एडमिशन में कोई परेशानी नहीं हुई. इंगलिश औनर्स से बीए कर के मैं युवावस्था की दहलीज तक पहुंच गई.

मां बीमार रहने लगी थीं, भाई रोहन डाक्टरी की ऊंची शिक्षा के लिए लंदन चले गए. जैसा कि भारतीय हिंदू परिवारों में होता है, उसी तरह घर में मेरी शादी की चिंता होने लगी. मेरे पिताजी के एक बड़े पुराने मित्र थे सुंदरदास अरोड़ा. वह ग्रेटर कैलाश में एक बड़ी कोठी में रहते थे.

कनाडा से आने के बाद हम अकसर उन के यहां आयाजाया करते थे. एक दिन उन्होंने मेरे पिताजी से कहा, ‘‘हम दोनों अच्छे मित्र हैं, हमारे परिवार एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं. क्यों न हम इस दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दें. मैं चाहता हूं कि डा. वरुण की शादी अनिता से कर दी जाए.’’

वरुण उन दिनों अमेरिका में रह रहा था. वह वहीं अपनी क्लिनिक चलाता था. उन्होंने डा. वरुण को बुला लिया. उस ने मुझे पसंद कर लिया. मेरी पसंद, नापसंद के कोई मायने नहीं थे. बात आगे बढ़ी और मैं मिस अनिता मेहरा से मिसेज अनिता अरोड़ा हो गई.

शादी के बाद मैं वरुण के साथ अमेरिका के कैलीफोर्निया में रहने लगी. एक साल में ही मैं एक बेटे की मां बन गई. बेटे का नाम रखा गया रोहित. वक्त के साथ रोहित 3 साल का हो गया और स्कूल जाने लगा. पति ने उस की देखभाल के लिए एक आया रख ली थी. इसी बीच दिल्ली में मेरी सास सुमित्राजी के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना मिली. वरुण ने कहा कि रोहित को आया संभाल लेगी, इसलिए मैं सास की देखभाल के लिए दिल्ली चली जाऊं.

दिल्ली आ कर पता चला कि सास को कैंसर था. ससुर और मैं उन्हें ले कर अस्पतालों के चक्कर काटने लगे. उन की देखभाल के लिए घर पर नर्स रख ली गई थी. लेकिन मेरा मौजूद रहना जरूरी था.

6 महीने से ज्यादा बीत गए. सास की हालत में काफी सुधार आ गया तो मैं ने कैलीफोर्निया जाने की तैयारी शुरू कर दी. शुरूशुरू में वरुण लगभग रोज ही फोन कर के मां का हालचाल पूछता रहा. मैं भी अकसर फोन कर के रोहित के बारे में जानकारी लेती रहती थी. लेकिन अचानक वरुण के फोन आने बंद हो गए. मैं फोन करती तो उधर से फोन नहीं उठता. मुझे चिंता होने लगी.

वरुण से बात किए बगैर वहां कैसे जा सकती थी. जब वरुण से बात नहीं हो सकी तो मेरे ससुर ने अपने दूर के किसी रिश्तेदार से वरुण के बारे में पता करने को कहा. उन्होंने पता कर के बताया कि वरुण किसी डा. मारिया से शादी कर के नाइजीरिया चला गया है. उस के बाद वरुण का कुछ पता नहीं चला.

हम सभी हैरान रह गए. रोहित के बारे में पता करने मैं कैलीफोर्निया गई. पर उस के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था. न परिचितों को न आसपड़ोस वालों को. मैं अकेली होटलों में कितने दिन रुक सकती थी. थकहार कर लौट आई.

मेरे ससुर और पिता की तमाम कोशिशों के बाद भी न वरुण का पता चला, न रोहित का. एक गहरा घाव भीतर ही भीतर रिसता रहा. कुछ दिन बीते थे कि मेरे मातापिता की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. भाई रोहन एक अंग्रेज महिला से शादी कर के लंदन में बस गया था. मातापिता की मौत पर दोनों दिल्ली आए थे. वे लोग चांदनी चौक का पुश्तैनी मकान बेच कर वापस चले गए. मुझे सांत्वना देने के सिवाय और वे कर भी क्या सकते थे.

ग्रेटर कैलाश की उस विशाल कोठी में मेरे दिन गुजरने लगे. समय बिताने और मानसिक तनाव से बचने के लिए मैं एक स्कूल में पढ़ाने लगी थी. स्कूल से घर लौटती तो मेरे सासससुर दरवाजे पर मेरी बाट जोहते मिलते. उन्होंने मुझे मांबाप से कम प्यारदुलार नहीं दिया. मेरे ससुर की उदास आंखें सदा मेरे चेहरे पर कुछ खोजती रहतीं. वह अकसर कहते, ‘‘मैं तुम्हारे पिता और तुम्हारा अपराधी हूं. मेरे बेटे ने मेरे हाथों न जाने किस जन्म का पाप करवाया है.’’

सास भी अकसर अपनी कोख को कोसती रहतीं, ‘‘मेरे बेटे ने जघन्य पाप किया है. इतनी सुंदर पत्नी के रहते उस ने बिना बताए दूसरी शादी कर ली. मेरे पोते को भी ले गया. जिंदा भी हो तो मैं कभी उस का मुंह न देखूं.’’

पोते का ध्यान आते ही उन की आंखों में एक चमक सी आ जाती, पर वह मेरी तरह पत्थर के दिल वाली नहीं थीं. कुछ ही दिनों में चल बसीं. मेरे ससुर ने भी चारपाई पकड़ ली.

6-7 महीने बीते होंगे कि एक दिन उन्होंने पास बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, तुम से एक खास बात करनी है. मैं ने अपने छोटे बेटे अरुण से बात कर ली है. मैं तुम्हारे नाम मकान की वसीयत करना चाहता था. उसे इस में कोई ऐतराज नहीं है. लेकिन उस का कहना है कि वसीयत में कभीकभी परेशानियां खड़ी हो जाती हैं, खास कर ऐसे मामलों में, जब दूसरे वारिस कहीं दूर दूसरे देश में रह रहे हों. उस की राय है कि वसीयत के बजाय यह संपत्ति अभी तुम्हारे नाम कर दूं.’

अरुण मेरे पति का छोटा भाई था, जो जर्मनी में रहता था. उस का कहना था कि यह संपत्ति मेरे नाम हो जाएगी तो मेरे मन में एक आर्थिक सुरक्षा की भावना बनी रहेगी. ससुर ने कोठी मेरे नाम पर कर दी. कुछ दिनों बाद ससुर भी अपने मन का बोझ कुछ हल्का कर के स्वर्ग सिधार गए. इस के बाद मैं अकेली रह गई. कहने को नौकर राजू था, लेकिन वह इतना छोटा था कि उस की सिर्फ गिनती ही की जा सकती थी.

जब वह 5 साल का था, तब उस की मां उसे साथ ले कर हमारे यहां काम करने आई थी. उस की मां की मौत हो गई तो राजू मेरे यहां ही रहने लगा था. कुछ दिनों तक वह स्कूल भी गया था, लेकिन पढ़ाई में उस का मन नहीं लगा तो उस ने स्कूल जाना बंद कर दिया. इस के बाद मैं ने ही उसे हिंदी पढ़नालिखना सिखा दिया था.

जिंदगी का एकएक दिन बीतने लगा. लेकिन अकेलेपन से डर जरूर लगता था. ससुरजी की मौत पर देवर अरुण जर्मनी से आया था. मेरे अकेले हो जाने की चिंता उसे भी थी. इसी वजह से कुछ दिनों बाद उस ने फोन कर के कहा था कि उस के एक मित्र के पिता सरदार नानक सिंह अपनी पत्नी के साथ दिल्ली रहने आ रहे हैं. अगर मुझे आपत्ति न हो तो मकान का निचला हिस्सा उन्हें किराए पर दे दूं. वह सज्जन पुरुष हैं. उन के रहने से हमें सुरक्षा भी मिलती रहेगी और कुछ आमदनी भी हो जाएगी.

मुझे क्या आपत्ति होती. मैं मकान के ऊपर वाले हिस्से में रहती थी, नीचे का हिस्सा खाली पड़ा था, इसलिए मैं ने नीचे वाला हिस्सा किराए पर दे दिया. सचमुच वह बहुत सज्जन पुरुष थे. अब मैं नानक सिंह की छत्रछाया में रहने लगी.

जितना स्नेह और अपनापन मुझे नानक सिंहजी से मिला, शायद इतना पिताजी से भी नहीं मिला था. पतिपत्नी अपने लंबे जीवनकाल के अनुभवों से मेरा परिचय कराते रहते थे. मैं मंत्रमुग्ध उन्हें निहारती रहती और अपनी टीस भरी स्मृतियों को उन के स्नेहभरे आवरण के नीचे ढांप कर रख लेती.

समय बीतता रहा. हमेशा की तरह उस रविवार की छुट्टी को भी वे मेरे पास आ बैठे. इधरउधर की थोड़ी बातें करने के बाद नानक सिंहजी ने कहा, ‘‘आज तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. मेरा बेटा जर्मनी से यहां आ कर रहने के लिए कह रहा है. वैसे भी अब हम पके आम हैं, पता नहीं कब टपक जाएं. बस एक ही बात दिमाग में घूमती रहती है. तुम्हें बेटी माना है, इसलिए अब तुम्हें अकेली नहीं छोड़ सकता, इतने बड़े मकान में अकेली और वह भी यहां की लचर कानूनव्यवस्था के बीच. इसी उधेड़बुन में मैं कई दिनों से जूझ रहा हूं.

पलभर रुक कर वह आगे बोले, ‘‘अपने काम से मैं अकसर स्टेट बैंक जाया करता हूं. वहां के मैनेजर प्रेम कुमार से मेरी गहरी दोस्ती हो गई है. एक दिन बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी का स्वर्गवास हो गया है. उस के बाद से उन्हें अकेलापन बहुत खल रहा है. कहने को उन के 3 बच्चे हैं, लेकिन सब अपनेअपने में मस्त हैं. बड़ी बेटी अपने पति के साथ जापान में रहती है. बेटा बैंक में नौकरी करता है. उस की शादी हो चुकी है. तीसरी बेटी संध्या थोड़ाबहुत खयाल रखती थी, लेकिन उस की भी शादी हो गई है. उस के जाने के बाद से वह अकेले पड़ गए हैं. एक दिन मैं ने कहा कि वह शादी क्यों नहीं कर लेते? लेकिन 3 जवान हो चुके बच्चों के बाप प्रेम कुमार को मेरा यह प्रस्ताव हास्यास्पद लगा.

मैं सुनती रही, नानक सिंहजी कहते रहे, ‘‘मैं विदेशों में रहा हूं. मेरे लिए यह कोई हैरानी की बात नहीं थी. पर भारतीय संस्कारों में पलेबढ़े प्रेमकुमार को मेरा यह प्रस्ताव अजीब लगा. मैं ने मन टटोला तो लगा कि अगर कोई हमउम्र मिल जाए तो शेष जीवन के लिए वह उसे संगिनी बनाने को तैयार हो जाएंगे. मैं ने उन से यह सब बातें तुम्हें ध्यान में रख कर कही थीं. क्योंकि मेरा सोचना था कि तुम बाकी का जीवन उन के साथ उन की पत्नी के रूप में गुजार लोगी. क्योंकि औरत का अकेली रह कर जीवन काटना कष्टकर तो है ही, डराने वाला भी है.’’

इस के बाद एक दिन नानक सिंहजी प्रेम कुमार को मुझ से मिलवाने के लिए घर ले आए. बातचीत में वह मुझे अच्छे आदमी लगे, इसलिए 2 बार मैं उन के साथ बाहर भी गई. काफी सोचने और देवर से सलाह कर के मैं ने नानक सिंहजी के प्रस्ताव को मौन स्वीकृति दे दी.

इस के बाद प्रेमकुमारजी ने अपने विवाह की बात बच्चों को बताई तो एकबारगी सभी सन्न रह गए. बड़ी बेटी रचना विदेशी सभ्यता संस्कृति से प्रभावित थी, इसलिए उसे कोई आपत्ति नहीं थी. संध्या अपने पिता की मन:स्थिति और घर के माहौल से परिचित थी, इसलिए उस ने भी सहमति दे दी. पर बेटा नवीन और बहू शालिनी बौखला उठे. लेकिन उन के विरोध के बावजूद हमारी शादी हो गई.

शादी के 3-4 दिनों बाद नवीन अपना सामान ले कर शालिनी के साथ किराए के मकान में रहने चला गया. मुझे यह अच्छा नहीं लगा. मैं सोच में पड़ गई, अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए मैं ने एक बेटे को उस के पिता से अलग कर दिया. मुझे अपराधबोध सा सताने लगा. लगता, बहुत बड़ी गलती हो गई. इस बारे में मैं ने पहले क्यों नहीं सोचा? अपने स्वार्थ में दूसरे का अहित करने की बात सोच कर मैं मन मसोस कर रह जाती. भीतर एक टीस सी बनी रहती.

पर मैं ने आशा का दामन कभी नहीं छोड़ा था, फिर अब क्यों चैन से बैठ जाती. मैं ने एक नियम सा बना लिया. स्कूल से छुट्टी होने के बाद मैं शालिनी से मिलने उस के घर जाती. एक गाना है ना ‘हम यूं ही अगर रोज मिलते रहे तो देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा…’ शालिनी एक सहज और समझदार लड़की थी. कुछ ही दिनों में उस ने मुझे अपनी सास के रूप में स्वीकार कर लिया.

मुझे ले कर उन पत्नी पति के बीच संवाद चलता रहा, नतीजतन धीरेधीरे नवीन ने भी मुझे अपनी मां का दर्जा दे दिया. एक भरेपूरे परिवार का मेरा सपना साकार हो गया. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. प्रेमकुमारजी के रिश्तेदारों की कानाफूसी से मुझे पता चला कि इतना अपनापन तो प्रेमकुमारजी की पहली पत्नी भी नहीं निभा पाई, जितना मैं ने निभाया है. मैं आत्मविभोर हो उठती.

अपनी हृदय चेतना से निकली आकांक्षाओं को मूर्तरूप में देख कर भला कौन आनंदित नहीं होता. जो कभी परिवार में नहीं रहे, वे इस पारिवारिक सुख आह्लाद की कल्पना भी नहीं कर सकते. हर दिन खुशियों की सतरंगी चुनरी ओढ़े मैं पूरे आकाश का चक्कर लगा लेती. दिनों को जैसे पंख लग गए, 3 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

नवीन का ट्रांसफर देहरादून हुआ तो उस के घर को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से 15-20 दिन के लिए मैं उस के साथ देहरादून चली गई. लौट कर आई तो सीढि़यों पर लगे लैटर बौक्स से अपने पत्र, पानी, बिजली और टेलीफोन के बिल निकाल कर लेती आई. उसी में एक लिफाफा था, जिस पर मेरा नामपता लिखा था. उस में डाक टिकट नहीं लगा था, इस का मतलब वह डाक से नहीं आया था. उस में उसी बीच की तारीख पड़ी थी, जिन दिनों मैं देहरादून में थी.

मैं ने लिफाफा खोला, तो उस में से एक पत्र निकला. उस में लिखा था, ‘मां, मैं न्यूयार्क से सिर्फ आप से मिलने आया था. मेरा नाम रोहित है. मिसेज एंटनी ने बताया था कि मेरा यह नाम आप ने ही रखा था. वैसे मुझे सब रौबर्ट कहते हैं. स्कूल में मेरा यही नाम है. मुझे पता नहीं, मैं कब पैदा हुआ, पर स्कूल रिकौर्ड के अनुसार मैं अब 16 साल का हो गया हूं. मैं मिसेज एंटनी को ही अपनी मां समझता रहा. मैं ने उन से कभी उन के पति (अपने पिता) के बारे में नहीं पूछा. सोचता था कि कहीं उन का दिल न दुखे. पर अचानक एक महीने पहले मृत्यु शैय्या पर पड़ी मिसेज एंटनी ने मुझे बताया कि वह मेरी मां नहीं हैं.

‘उन्होंने तो शादी ही नहीं की थी. उन का कहना था कि वह कई सालों पहले कैलीफोर्निया में मेरे पिता वरुण अरोड़ा के साथ नर्स के रूप में काम करती थीं. स्वास्थ्य खराब होने की वजह से वह नौकरी छोड़ कर अपने भाई के पास न्यूयार्क आ कर रहने लगी थीं. अपने एक मित्र से उन्हें पता चला कि डा. वरुण अरोड़ा ने भारत की एक महिला से शादी की थी और उन का एक बेटा है. उन की पत्नी ने अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने बेटे का नाम रोहित रखा था. कभी साल में एकाध बार डा. साहब से उन की बात हो जाती थी. वह कैलीफोर्निया से वाशिंगटन चले गए थे.

‘एक दिन अचानक डा. वरुण मुझे ले कर उन के घर आ पहुंचे और कहा कि रोहित की मां उसे छोड़ कर भारत चली गई है. इस की देखभाल के लिए कोई नहीं है, इसलिए मैं चाहता हूं कि इस की गवर्नेस बन कर वह इसे संभालें. डा. वरुण मेरे पालनपोषण का खर्च भेजते रहे, लेकिन कुछ महीनों बाद खर्च आना बंद हो गया. मिसेज एंटनी ने कैलीफोर्निया में अपने पुराने मित्रों से डा. वरुण के बारे में पता किया तो पता चला कि उन्होंने डा. मारिया नाम की एक अमेरिकी महिला से शादी कर ली है और उस के साथ नाइजीरिया चले गए हैं.

‘डा. वरुण और मेरी भारतीय मां का पता लगाने की उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन कुछ पता नहीं चला. थकहार कर वह मुझे अपना बेटा मान कर मेरा पालनपोषण करने लगी. पर मरने से पहले उन का यह रहस्योद्घाटन मेरे लिए एक बड़ी पहेली बन गया. मेरे पिता हैं तो कहां हैं? मेरी मां भारत में हैं तो कहां हैं?

‘दिनरात मैं इसी उधेड़बुन में पड़ा रहता. मेरी पढ़ाई छूट रही थी. मैं मिसेज एंटनी के पुराने सामान को खंगालता रहता. अचानक उन के भाई डेविड के साथ उन के पत्राचार में एक जगह लिखा मिला कि जर्मनी में कोई सरदार नानक सिंह हैं, जो मेरी भारतीय मां के बारे में जानते हैं. बस मैं ने उन्हें खोज निकाला और आप का पता पा लिया.

‘अब समस्या थी कि भारत में आप से कैसे संपर्क करूं? तभी मेरे एक मित्र स्टीफन के बड़े भाई की शादी दिल्ली में तय हो गई. वे लोग एक सप्ताह के लिए दिल्ली आ रहे थे. मेरे अनुरोध पर वे एक सप्ताह के लिए मुझे अपने साथ दिल्ली ले आए. मैं पहले ही दिन से आप के घर के चक्कर लगाने लगा, पर वहां ताला लगा था. पड़ोसियों से पता चला कि आप किसी दूसरे शहर देहरादून गई हैं, 15-20 दिनों में लौटेंगी.

‘मैं इतने दिनों तक नहीं रुक सकता था. मेरे लिए दिल्ली और यहां के लोग बिलकुल अजनबी थे. मुझे कल अपने मित्र के परिवार के साथ न्यूयार्क जाना है, अपने भीतर एक गहरी पीड़ा लिए मैं वापस जा रहा हूं, लेकिन आशा की डोर थामे हुए. नीचे मेरा पता और फोन नंबर लिखा है. मेरे मित्र का फोन नंबर और पता भी लिखा है. आप मेरा यह पत्र पढ़ते ही मुझे फोन करना. अब दुनिया में सिवाय आप के मेरा कोई नहीं है. आशा है, आप से जल्दी ही मिल पाऊंगा.

आप का रोहित.’

पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा बदरंग हो गया. सहमी और अधमरी सी हो गई मैं. मेरे भीतर का गहरा घाव फिर हरा हो गया. मैं कैसी मां हूं, अपने ही बेटे को भूल गई. बेटा तड़प रहा है और मैं? मेरे पति प्रेमकुमारजी ने मेरा अवाक चेहरा देखा तो मेरे हाथ से पत्र ले कर एक सांस में पढ़ गए. उन्होंने कहा, ‘‘इतनी बड़ी खुशी, चलो अभी फोन करो.’’

मोबाइल, इंटरनेट का जमाना नहीं था. एसटीडी पर फोन बुक किया. कई घंटे बाद फोन मिला. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. समय काटे नहीं कट रहा था. हम ने रोहित के मित्र स्टीफन को फोन बुक किया. फोन मिला, पर जो सुनने को मिला, लगा जैसे किसी ने कोई विषैला तीर सीधा मेरे सीने में उतार दिया है. उस ने बताया, ‘‘रोहित ने एक सप्ताह पहले आत्महत्या कर ली थी. मरने से पहले उस ने अपनी स्कूल की कौपी के आखिरी पन्ने पर लिखा था, ‘मेरा इस दुनिया में कोई नहीं. काश, मिसेज एंटनी मरने से पहले मुझे यह न बतातीं कि वह मेरी मां नहीं थी. मैं अन्य अनाथ बच्चों की तरह मनमसोस कर रह जाता. पर मांबाप के होते हुए भी मैं अनाथ हूं. पिता का तो पता नहीं, उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी पर मेरी भारतीय मां, वह भी मुझे भूल गई. दोनों ने मुझे बस पैदा किया और छोड़ दिया. कितने उत्साह और कितनी कोशिशों के बाद मैं ने अपनी भारतीय मां को ढूंढ़ निकाला था.

पिछले 15 दिनों से मेरे फोन की हर घंटी मुझे मां के फोन की लगती थी. सुना था कि मां में अपने बच्चे के लिए बड़ी तड़प होती है, लेकिन मेरी मां तो अपने में ही मस्त है. क्या मां ऐसी ही होती हैं? जब मेरा कोई नहीं तो मैं किस के लिए जिऊं. हर एक का कोई बाप, मां, भाई बहन है, मेरा कोई नहीं तो मैं क्यों हूं? बस, अब और नहीं… बस.’’

फोन पर जो सुनाई दिया, मैं जड़वत सुनती रही. फिर क्या हुआ पता नहीं. मैं ने बिस्तर पकड़ लिया. 3-4 महीने तक मैं बिस्तर पर मरणासन्न पड़ी रही. प्रेमकुमार मेरी सेवा में लगे रहे. मैं अभागी मां, सिर्फ अपने को कोसती छत की कडि़यों में 3 साल के अपने बच्चे के बड़े हुए रूप के काल्पनिक चित्र को निहारती रहती. सुना था, वक्त वह मरहम है, जो हर घाव को भर देता है. घाव यदि गहरा हो तो निशान छोड़ जाता है, पर मेरा घाव तो फिर से हरा हो गया था. मन करता, मैं भी आत्महत्या कर लूं. पर आत्महत्या के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए, यह कायरों का काम नहीं है.

कहते हैं, कि जब मनुष्य जन्म लेता है तो उस की मौत तभी तय हो जाती है. पैदा होते ही मरने वालों की लाइन में लग जाती है. कब बुलावा आ जाए, पता नहीं. मैं तो नहीं मरी, पर प्रेमकुमारजी चले गए. मैं फिर अकेली रह गई. अब क्या करूं, किस का आश्रय ढूंढू? जानती थी, पर आश्रित होने से तो अच्छा है मृत्यु की आश्रित हो जाऊं.

बुढ़ापे में परआश्रित होने पर तो असहनीय पीड़ा, घुटन भरा जीवन, अपमानित होने का डर, रहीसही जीवन की आकांक्षाओं को डस लेता है. मैं सुबहशाम एक वृद्धाश्रम में अपना समय बिताने लगी.

जीवन का 85वां सोपान चढ़ चुकी हूं. जब इतना कुछ सहने पर भी मैं पाषाण की तरह अडिग हूं तो आने वाला कल मेरा क्या बिगाड़ लेगा? कहीं पढ़ा था, ‘‘चलते रहो, चलते रहो.’’ और मैं चल रही हूं. अंतिम क्षण तक चलती रहूंगी.

Abhishek Bachchan, Ajay Devgan की फिल्में चाय पीने के पैसे भी न कर सकीं इकट्ठा

30 साल बाद दोबारा रिलीज हुई फिल्म नाम बौक्स औफिस पर बुरी तरह ढेर हो गई वहीं अभिषेक बच्चन की फिल्म कुछ खास कमाल नहीं कर पाई.

नवंबर माह के चौथे सप्ताह 22 नवंबर में राकेश रोशन ने अपनी फिल्म ‘करण अर्जुन’ को 30 साल बाद रीरिलीज किया, तो वहीं दिसंबर 2021 में प्रदर्शित फिल्म ‘पुष्पा द राइज’ को भी रीरिलीज किया गया. यह दोनों रीरिलीज फिल्में बौक्स औफिस पर कोई कमाल दिखाने में बुरी तरह से असफल रहीं. मगर दूसरी नई रिलीज हुई फिल्मों को जरूर नुकसान पहुंचाया. इस सप्ताह रिलीज हुई नई फिल्मों का बंटाधार हो गया.

शूजीत सरकार निर्देशित व रितेश शाह लिखित फिल्म ‘‘आई वांट टू टोक 2’’ में अभिषेक बच्चन मुख्य भूमिका में हैं. फिल्म की कहानी कैंसर पीड़ित अर्जुन सेन की सच्ची कहानी पर आधारित है, जो जीवन बदलने वाली सर्जरी का सामना कर रहा है और साथ ही बचपन से ही अपनी बेटी के साथ एक जटिल रिश्ते से गुजर रहा है. लेकिन अमेरिका के कैलिफोर्निया में फिल्माई गई इस फिल्म के दृश्यों व कहानी से भारतीय दर्शक रिलेट नहीं कर पाया. दर्शकों ने अभिषेक बच्चन के अभिनय की भी काफी आलोचन की. अभिषेक बच्चन को कब तक लोग अमिताभ बच्चन के कारण अपनी फिल्म में काम देते रहेंगे, पता नहीं.

यह फिल्म पूरे 7 दिन के अंदर महज 80 लाख रुपए ही कमा सकी. इस में से निर्माता की जेब में कुछ नहीं आएगा. सरल शब्दों में कहें तो फिल्म ‘आई वांट टू टोक’ बौक्स औफिस पर चाय पीने के पैसे भी निर्माता को न दिला सकी. फिल्म निर्माता अब इस फिल्म के निर्माण में खर्च की गई रकम तक बताने को तैयार नहीं है.

‘सिंघम अगेन’ और ‘भूल भुलैया 3’ के टकराव के बीच अजय देवगन ने अपनी 2002 में बनी फिल्म ‘‘बेनाम’ का नाम बदल कर ‘नाम’ के नाम से 22 नवंबर को रिलीज करने की घोसहणा कर दर्शकों को दिग्भ्रमित करने का असफल प्रयास किया. फिल्म ‘बेनाम’ यानी कि नाम को 2002 में खुद अजय देवगन ने ही रिलीज नहीं होने दिया था. अब नवंबर माह के चौथे सप्ताह 22 नवंबर को रिलीज होने पर ‘नाम’ 7 दिन में 25 लाख रूपए ही एकत्र कर सकी. निर्माता की जेब से सारा पैसा चला गया.

फ्रांस के कान्स फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत पायल कपाड़िया की फिल्म ‘‘औल वी इमेजिन एज लाइट’’ भी 22 नवंबर को रिलीज की गई. अफसोस अंगरेजी भाषा की यह फिल्म दर्शकों को आकर्षित न कर सकी. यही वजह है कि इस के निर्माता और निर्देशक इस फिल्म के बौक्स औफिस कलेक्शन को ले कर खामोश हैं.
22 नवंबर को ही निर्माता रघुनाथ राव मोहिते पाटिल और निर्देशक तुषार विजयराव शेलार की मराठी व हिंदी द्विभाषी फिल्म ‘‘धर्म रक्षक महावीर संभाजी महाराज’’ का भाग रिलीज होगी. यह नई फिल्म है. फिल्म की कहानी के केंद्र मे संभाजी का जीवन वृत्तांत व उन की देशभक्ति का गुणगान है. फिल्म में ठाकुर अनुप सिंह, अमृता खानविलकर, किशोरी शहाणे, प्रदीप रावत की अहम भूमिकाएं हैं. हिंदी में इस के पीआरओ ने कुछ काम नहीं किया है. इस वजह से हिंदी भाषी दर्शक इस फिल्म के नाम से परिचित नहीं है. दूसरी बात अब दर्शकों का देशभक्ति व राष्ट्रवाद वाली फिल्मों से मोहभंग हो गया है, जिस के चलते यह फिल्म पूरे 7 दिन में महज 3 करोड़ रुपए ही बौक्स औफिस पर जुटा पाई, इस में से निर्माता की जेब में एक करोड़ रुपए ही आए.

वैसे निर्माता को भी पता था कि उन की यह फिल्म गुणवत्तावाली नहीं है, इसलिए उन्होंने इस का प्रेस शो भी नहीं किया था. 22 नवंबर को ही जयपुर की पृष्ठभूमि पर 3 महिलाओं की मित्रता, स्वतंत्रता व यात्रा की बात करने वाली मराठी भाषा की फिल्म ‘‘गुलाबी’ भी रिलीज हुई. अभ्यंग कुलवेकर निर्देशित इस फिल्म में श्रुति मराठे, अश्विनी भावे व मृणाल कुलकर्णी की अहम भूमिकाएं हैं. पर इस फिल्म की बौक्स औफिस पर बड़ी दुर्गति हुई. यह फिल्म 7 दिन में केवल 35 लाख रुपए ही एकत्र कर सकी.

22 नवंबर को ही मृणाल कुलकर्णी की मराठी फिल्म ‘गुलाबी’ के ही साथ हिंदी भाषा की फिल्म ‘‘ढाई आखर’ रिलीज हुई. मशहूर लेखक अजगर वजाहत लिखित प्रवीण अरोड़ा निर्देशित फिल्म ‘ढाई आखर’ में मृणाल कुलकर्णी के साथ हरीश खन्ना व रोहित कोकाटे भी हैं. इस फिल्म में एब्यूज मैरिज की संवेदनशील कहानी है. मगर इस फिल्म का प्रचार सही ढंग से नहीं किया गया. खराब प्रचार के चलते इस फिल्म का मात खाना तय माना जा रहा था. मगर किसी ने यह नहीं सोचा था कि यह फिल्म मृणाल कुलकर्णी के कैरियर पर ही सवालिया निशान लगा देगी.

यह फिल्म 7 दिन में बौक्स औफिस पर 5 लाख रूपए भी नहीं कमा सकी. इस फिल्म से निर्माता का सारा धन डूब गया. इस के लिए कुछ हद तक मृणाल कुलकर्णी भी दोषी हैं. वह खुद को स्टार मानती हैं और उन्हें पत्रकारों से बात करने में यकीन नहीं है.

Special Hindi Story : आंटी का आंचल

सौतेली मां की मार से कंचन का बचपन खो गया था. प्यार के दो बोल बोलने वाली और स्नेह के साथ खाना खिलाने वाली कोई थी तो बस, पड़ोस की सुधा आंटी. सुधा भी मां की ममता को तरस रहे कंचन के मन को अपने प्यार से भर देना चाहती थी लेकिन ऐसा वह कैसे करती?

दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.

‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.

‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.

कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.

‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’

नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’

मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’

मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.

‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’

उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’

उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.

मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.

वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.

कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.

इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.

शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.

सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.

आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी.

Bride : चेहरे की किताब

ज़रीना बेग़म ख़ामोशी से आनेजाने वाले मेहमानों का जायज़ा ले रही थीं. वे वलीमे की दावत में शामिल होते हुए भी शामिल नहीं थीं. उन को लग रहा था कि उन को नीचा दिखाने के लिए देवरानी ने आननफानन बेटे की शादी कर दी है. उन का दानिश 4 साल बड़ा था माहिर से.

वे सोच रही थीं कि माहिर की उम्र ही क्या है, 26 का ही तो हुआ है, क्या हर्ज था एकाध साल रुक जाती तो. ख़ानदान भर में मेरा और दानिश का मज़ाक बना कर रख दिया, लोग तरहतरह की बातें कर रहे होंगे. हालांकि उन्होंने किसी को बातें करते सुना तो नहीं था पर जो भी उन की तरफ़ देख कर कुछ कहता या हंसता, उन्हें लगता, उन्हीं पर कटाक्ष किया जा रहा है.

‘दानिश मेरा बच्चा. मेरी रूह की ठंडक, मेरी आंखों का नूर. इकलौता होने के नाते कितना ज़िद्दी, नख़रीला सा था, जब लाड़ उठाने वाले, मुंह से निकलने के पहले हर ख़्वाहिश पूरी कर देने वाले वालिदैन हों तो होना ही था न,’ ज़रीना के दिमाग में कशमकश जारी थी.

पर 12 साल की उम्र में ही अब्बू को खो देने के बाद वह जैसे एकदम बड़ा हो गया था. बिलकुल ख़ामोश, संजीदा, मां का हद से ज़्यादा ख़याल रखने वाला, पढ़ाई जितना ही अब्बू के बिज़नैस को भी सीरियसली लेने लगा था. अम्मी की कभी नाफ़रमानी न हो, यही कोशिश रहती थी.

उस ने अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने का हक अपनी मां को दे दिया था. बस, उस की एक ही शर्त थी, जब उन की तरफ से रिश्ता फाइनल हो जाए, उन का दिल लड़की को बहू मान ले, तभी लड़की देखनेदिखाने का सिलसिला शुरू हो. वह कभी किसी लड़की को रिजैक्ट कर के उस को एहसासे कमतरी में मुब्तिला कर के अपने ज़मीर पर बोझ नहीं ले सकता.

उस की बात से पहले तो ज़रीना बेग़म मानो निहाल हो गईं, पर वक़्त गुज़रने के साथ उन पर जेहनी दबाव बढ़ता जा रहा था. उन को लगने लगा था कि अदब व तहज़ीब में ढली, नफ़ासत और क़ाबिलीयत से लबरेज़ इंसान पैदा होना बंद ही हो गए हैं जैसे ज़मीन पर. फूहड़, बेढंगी लड़कियां एक आंख नहीं सुहाती थीं उन को. ऊपर से ग़ज़ब यह कि कुलसूम, उन की देवरानी, अपने बेटे माहिर के रिश्ते के सिलसिले में सलाह लेने आ गईं.

‘अरे माहिर की उम्र ही क्या है, अभी और सुघड़ सलीकेमंद लड़कियां…’ वे बात पूरी करतीं, उस से पहले कुलसूम बोल पड़ीं, ‘भाभी साहिबा, हम भी अल्हड़, चंचल थे जब ब्याह कर आए थे इस घर में. हमारी सास ने सब्र से, प्यार से हमें इस घर के सांचे में ढाल ही लिया न. 26 का हो गया है माहिर. तालीम मुकम्मल हो गई. 2 साल से अपने अब्बू के साथ हाथ बंटा रहा है बिज़नैस में. इफ़रा, उस की दुल्हन, 22 की है. ग्रेजुएशन कर चुकी है. सही उम्र है दोनों की. एडजस्ट करने में दिक़्क़त नहीं आएगी. सब से बड़ी बात, उन दोनों की यही मरजी है.’

‘ए हे बीबी, ये कहो न आंख लड़ गई है दोनों की, चक्कर चल रहा है, तो अब कोई रास्ता तो है नहीं तुम्हारे पास. फिर यह सलाह का ढोंग क्यों?’ ज़रीना बेग़म तुनक कर बोलीं.

कुलसूम ने उन्हें अफ़सोस से देखा और कहा, ‘पसंद की शादी इतनी बुरी बात तो नहीं. जब हर लिहाज़ से जोड़ी क़ाबिलेक़ुबूल है तो इस बात पर एतराज़ कि लड़के ने पसंद कर ली लड़की, फुज़ूल है.’

‘हां, जब उड़ा कर ले जाएगी वह चंट बला लड़के को अपने साथ, तब रोते बैठी रहना,’ ज़रीना बेगम कब हथियार डालने वालों में से थीं.

‘अच्छा न कहें तो बुरा भी न कहें. मैं किसी की फूल सी बच्ची के लिए ऐसी सोच नहीं रख सकती. आख़िर, मेरी भी एक बच्ची है जो कल को किसी के घर की रौनक बनेगी. मैं रिश्ता पक्का करने जा रही हूं. आप का दिल गवारा करे, तो आ जाइएगा. कुदरत दानिश पर रहम करे.’

उन का आख़िरी जुमला ज़रीना बेग़म को सिर से पांव तक सुलगा गया था. वे सोचने लगी थीं, ‘क्या होगा जब दानिश को माहिर की शादी पक्की होने की ख़बर मिलेगी. क्या सोचेगा वह कि अम्मी मेरे लिए एक अदद हमसफ़र न तलाश सकीं. कहीं वह ख़ुद ही किसी को ले आया तो’

उन की तबीयत बिगड़ गई थी. अपनी मां को अच्छे से समझने वाला दानिश इस बार भी सब समझ गया था. ढेरों तसल्लियों के साथ उस ने मां को मना लिया था कि ख़ुशी से शादी में चलें और किसी को कुछ कहने का मौका न दें.

ओह मेरा सब्र वाला बच्चा, कैसे आगे बढ़बढ़ कर हर काम संभाले हुए है. क्या मैं सचमुच नकारी मां हूं?

इन्हीं सब ख़यालों से घबरा कर वे शोरशराबे से दूर गार्डन के पिछले हिस्से में आ बैठी थीं.

उन के ख़यालों के सिलसिले को तोड़ती एक मीठी आवाज़ कानों से टकराई, “माफ़ कीजिएगा आपी, क्या मैं इस चेयर पर बैठ सकती हूं?”

उन्हें बेवक़्त का यह ख़लल पसंद नहीं आया. बड़ी मुश्किल से तो यह कोना नसीब हुआ था शोरगुल से दूर, चिड़चिड़े अंदाज़ में जवाब दिया, “कुरसी मेरे अब्बू की तो है नहीं, बैठ जाओ जहां बैठना हो.”

“ओह, दोबारा माफ़ी चाहती हूं, शायद आप को डिस्टर्ब कर दिया, मैं चलती हूं.”

ज़रीना बेग़म के होश बहाल हुए तो देखा, 20-22 साल की ताज़ा गुलाब की तरह खिली हुई परी चेहरा लड़की उन से मुख़ातिब है.
अपनी बदएख़लाकी पर अफ़सोस करते हुए उन्होंने कहा, “अरे नहीं, मैं पता नहीं किस धुन में थी माफ़ी चाहती हूं. बैठ जाओ यहीं, प्लीज़.”

“कोई बात नहीं, आप बड़ी हैं, माफ़ी न मांगें,” कह कर वह लड़की मुसकरा कर बैठ गई.

अब ज़रीन बेग़म का पूरा ध्यान उसी पर था. उन्होंने जब उस का जायज़ा लिया तो चौंक पड़ीं. बेबी पिंक और स्काई ब्लू कौम्बिनेशन की वे दीवानी थीं कालेज टाइम में.

हालांकि एक बार पति ने टोक दिया था- ‘बेगम, मेरी आंखें कालीसफ़ेद के बजाय गुलाबीफिरोज़ी होने को हैं इस रंग को देखदेख कर.’

तब चिढ़ और कुढ़न में उन्होंने कुछ जोड़े हाउसहैल्प को और कुछ छोटी बहन को दे दिए थे. बाद में लाख मनाने पर भी दोबारा वह रंग नहीं पहना, पति की मौत के बाद तो बिलकुल नहीं, 16 साल से.

उसी कौम्बिनेशन में मोतियों के वर्क वाला दुपट्टा, मोतियों के ही छोटेछोटे इयरिंग्स और मोती की नोज़पिन. किसी सीप से निकल कर आई हुई लग रही थी वह. एकदम लाइट मेकअप और पिंक लिपस्टिक. उस के फैशन सैंस की वे कायल हो गईं.

दूसरी हैरत उन्हें तब हुई जब उन्होंने देखा कि उस की प्लेट में एक बाउल में रसगुल्ला रखा है, एक में दाल. एकएक चम्मच दाल ले कर वह चावल में मिक्स कर के खाती जा रही थी. यही उन का तरीक़ा था. चावल में एकसाथ ख़ूब सारी दाल डाल कर भकोस लेने वाले जाहिल लगते थे उन्हें.

फिर उन्होंने ग़ौर किया कि उस ने ‘एक्सक्यूज़ मी, आंटी’ जैसे नक़ली लगने वाले शब्द नहीं कहे थे, अपनाइयत से ‘आपी’ कहा था. रस्मी जुमलों से कोफ़्त थी उन्हें.

एकबारगी उन को लगा, उन की जवानी की हूबहू रेप्लिका थी वह लड़की. वे चौंक गईं, क्या यह लड़की मुझे इंप्रैस करने के चक्कर में होमवर्क कर के आई है?

पर कैसे? उन के घर में ये सब बातें कोई नहीं जानता. दानिश अपने काम के सिलसिले में ज़्यादातर वक़्त बाहर ही होता है और नौकरों की नज़रें कब से इतनी पैनी होने लगीं. अपनी सोचों से बाहर निकल कर उन्होंने सवाल किया, “क्या नाम है बेटा, आप का? किस के साथ आई हो? कहां रहती हो? पढ़ाई कर रही हो?” एकसाथ इतने सवाल दागने के बाद भी और सवाल उन की ज़बान पर मचल रहे थे, जिसे बमुश्किल काबू में किया उन्होंने.

“जी, मैं ज़ुनैरा इक़बाल. हैदराबाद से आई हूं. दुलहन इफ़रा मेरी कज़िन लगती है. एमबीए कर रही हूं. डीजे का कानफोड़ू शोर चुभ रहा था कानों में तो यहां आ गई.”

ज़रीना बेग़म को तसल्ली हुई कि कहां एमपी का भोपाल और कहां साउथ का हैदराबाद, तेलंगाना में है शायद अब तो. जानपहचान का सवाल नहीं, तो कोई प्लानिंग या साज़िश नहीं है.

“बेटा, आप लोग रोटीसब्ज़ी नहीं खाते, चावल ही खाते हो न?”

“ऐसी बात नहीं है, आपी. हम लोग बेसिकली लखनऊ के हैं. पापा की जौब की वजह से 5 साल से हैदराबाद में हैं. हम रोटीसब्ज़ी, दालचावल सब खाते हैं. साउथ वाले भी हर तरह की शोरबे बिन शोरबे वाली, सूखी, भुनी हुई सब्ज़ी खाते हैं. बस, रोटी के बजाय चावल से. पर शादियों में मैं लाइट खाना ही प्रिफ़र करती हूं, बहुत हैवी और ऑयली होता है न. माल ए मुफ़्त, दिल ए बेरहम होने से क्या फ़ायदा, पेट तो अपना ही है. देखिए, प्लेट्स कितनी चिकनी हो रही हैं बटर चिकन की ग्रेवी में, हमारा पेट कितना चिकना हो जाएगा इसे खा कर,” वह बड़ा ठहरठहर कर शांत लहजे में बोल रही थी.

“अच्छा, आप तो मुझ से इतनी छोटी हैं, फ़िर आपी क्यों कह रही हैं, बेटा?” आख़िर उन्होंने टोक ही दिया, हालांकि आंटी के बजाय बड़ी दीदी कहा जाना अच्छा ही लग रहा था उन्हें.

“ओह, आप को बुरा लगा, माफ़ कीजिए. दरअसल, मेरी आपी भी मुझ से 10 साल बड़ी हैं. आप भी 30-35 की हैं और उन्हीं की तरह ख़ूबसूरत व ग्रेसफुल. सौरी,” वह शर्मिंदा सी होते हुए बोली.

“आप माफ़ी बहुत मांगती हैं, बुरा क्यों लगेगा. मुझे आंटीवांटी सुनना, इतराइतरा कर एक्सक्यूज़ मी बोलना बिलकुल पसंद नहीं. वैसे, मैं 48 की हूं, तो ख़ाला या फुफ्फो ज़्यादा सूट करेगा.” इस बार वे खुल कर मुसकराईं.

अब ज़रीना बेग़म से सब्र नहीं हो रहा था कि कैसे उस के बारे में सारी जानकारी निकलवाएं, कैसे उसे परखें, क्या करें. ज़ुनैरा तो चली गई थी पर उन के मन में खलबली मचा गई थी. वे अपनी देवरानी को इतना कुछ सुना चुकी थीं कि उस से नज़रें मिलाने में कतरा रही थीं. यह तो उस का बड़प्पन था कि भाभी साहिबा, भाभी साहिबा कहते मुंह नहीं सूख रहा था उस का. हर काम में आगेआगे किए हुए थी उन्हें.

वे दोबारा उठ कर फंक्शन में शामिल हो गईं. अचानक सबकुछ अच्छाअच्छा सा लग रहा था उन्हें.

कल दुलहन चली जाएगी मायके वालों के साथ, आज ही की रात है, हैदराबाद तो बहुत दूर है, कैसे जाऊंगी वहां? दानिश से कह नहीं सकती, वह एक ही बार जाएगा और हां कर आएगा. क्या पता लड़की वैसी न हुई, भला फिरोज़ीगुलाबी कपड़े, मोती का सैट और चावल खाने के अंदाज़ से जिंदगी के फैसले हुआ करते हैं? वे बेचैनी से पहलू बदल रही थीं.

अब उन के दिमाग में यह विचार आया कि दुनिया उन्हें साहिर लुधियानवी की मां की तरह न समझ ले, वे तो सच में बेटे का घर आबाद देखना चाहती हैं.

तभी दानिश आ गया और उन को घर ले गया यह कहकर कि ज़्यादा देर बैठना उन की सेहत के लिए ठीक नहीं. वे बिलकुल जाना नहीं चाहती थीं पर मजबूर थीं. क्या बतातीं उसे अभी से.

2-3 दिनों में शादी के हंगामे निबट गए. लेकिन ज़रीना बेग़म को किसी पल चैन न था.
इतनी प्यारी लड़की है, इतनी खूबसूरत है. कहीं इंगेज हुई तो? किसी को पसंद करती हुई तो.

इसी उधेड़बुन में एक हफ्ता हो गया. वे मौर्निंग वाक पर भी नहीं जा रही थीं. आख़िर को दिल को सुकून देने के लिये पार्क में टहलने निकल गईं. पास की कालोनी में रहने वाली सौम्या से उन की अच्छी बनती थी. वह भी उसी पार्क में आया करती थी. वह वीमन होस्टल में रह कर जौब कर रही थी. वह उन्हें डाइट व एक्सरसाइज़ के टिप्स दे दिया करती थी और वे उसे घर के मज़ेदार पकवान.

आख़िर को वही सब से भरोसेमंद लगी उन्हें. सारी बातें दिल खोल कर बता दीं.

उन की बातें सुन कर सौम्या खिलखिलाई, “मौसी, आप भी न, छोटे बच्चों की तरह हैं. एक कहानी सुनिए, एक आदमी बाग़ीचे का सब से सुंदर फूल लेने के लिए गया. अंदर जाते ही उसे बेहद सुंदर, खुशबूदार फूल नज़र आया. उस ने सोचा कि शुरुआत में ही इतने प्यारे फूल लगे हैं तो आगे तो न जाने कितने अच्छेअच्छे होंगे. इसी सोच में वह आगे बढ़ता गया, बढ़ता गया. एक से बढ़ कर एक फूल देखे, पर पहला वाला उस के मन में बस गया था. उसे कोई पसंद न आया. आख़िर में उस ने सोचा कि वही फूल ले लेना चाहिए, सो वह वापस लौट गया. पर उस ने देखा, इतनी देर में वह फूल कोई और ले गया है. अब वह दुखी हो गया और वहीं बैठ गया. थोड़ी देर बाद उस ने मन को समझाया और सोचा, चलो कोई बात नहीं, दूसरे फूल भी कम सुंदर नहीं. वह आगे बढ़ा तो देखा, दूसरी बार जो समय गंवाया था उस ने, उस दौरान सारे फूल कोई ले जा चुका था.”

इतना कह कर सौम्या चुप हो गई.

“आय हाय बीबी, मेरा हार्ट फेल करा कर मानोगी क्या? अभी उड़ कर चली जाऊं?” ज़रीना बेग़म घबरा कर बोलीं.

“अरे नहीं मौसी, कल चलते हैं न, फ्राइडे ईव है. मेरा सैटरडे-सन्डे औफ है,” सौम्या ने कहा.

“अरे क्या सचमुच? कैसे? तुम मेरे साथ चलोगी? तुम कितनी प्यारी बच्ची हो, ख़ुश रहो हमेशा,” ज़रीना बेगम बच्चों जैसे उत्साहित हो रही थीं.

“इतने पैसे हैं आप के पास, तो क्या फ़्लाइट की टिकट नहीं बुक करा सकतीं?”
सौम्य की इस बात पर दोनों हंसने लगीं.

“मुझे इक़बाल साहब की डिटेल दीजिए, सर्च करती हूं ऐड्रेस,” और सौम्या ने जल्दी से फोन निकाला.

ज़रीना बेग़म बहुत एक्साइटेड थीं, जैसे सिंदबाद जहाज़ी किसी एडवैंचर को करने जा रहा हो. मिन्नतें भी करती जा रही थीं अपने मिशन की क़ामयाबी की.

प्लान के मुताबिक़ सौम्या घर आई और दानिश को बताया कि फ्रैंड्स के साथ आउटिंग का प्रोग्राम है, 2 दिनों के लिए उस की मम्मी उधार चाहिए. दानिश चौंक गया, इस से पहले कभी उस ने अम्मी को अकेला नहीं छोड़ा था. पर जब उन्होंने मासूमियत से रिक्वैस्ट की, तो उस से इनकार करते न बना. वीडियो कौल से टच में रहेंगी, इस वादे के साथ उस से हां करते ही बनी.

वह भी सोच रहा था अम्मी का दिल बहल जाएगा. उसे सौम्या की समझदारी पर भी पूरा भरोसा था.

दोनों ने चुपके से हैदराबाद की तरफ़ कूच कर दिया.

“पर मौसी, यह ख़राब नहीं लगेगा किसी को बिन बताए धमक जाओ उस के घर,” सौम्या को संकोच हो रहा था.

“अरे बेटा, लड़कियों का सुघड़ापा यों ही देखा जाता है अचानक जा कर, बिन लीपापोती और तैयारियों का वक़्त दिए,” ज़रीना बेगम अनुभवी थीं.

इक़बाल मेंशन के दरवाज़े के बाहर खड़ी दोनों ही हिचकिचा रही थीं.

संयोग था कि कौलबेल पर हाथ रखने से पहले ही दरवाज़ा खुल गया. एक हाथ में रूमी की मसनवी और दूसरे हाथ में बेगम अख़्तर की ग़ज़ल लगा कर फ़ोन पकड़े हुए क्रीम और मैरून कौम्बिनेशन का सूट पहने ज़ुनैरा सामने खड़ी थी. कुछ पल को दोनों अपनीअपनी जगह जम सी गईं.

ज़रीना बेग़म को यक़ीन नहीं आ रहा था. शेख सादी, मीर और रूमी को पढ़ने की वजह से सब सहेलियां उन्हें बूढ़ी रूह कह कर चिढ़ाती थीं और बेग़म अख़्तर की आवाज़ में तो जान बसती थी उन की. कालेज फेयरवैल के वक़्त इसी कौम्बिनेशन की साड़ी पहनी थी उन्होंने.

“अस्सलामो अलैकुम. जी, आइए,” ज़ुनैरा कुछ समझ और कुछ नासमझी में बोली.

“अम्मी से मिलना है?”

“आप ने पहचाना नहीं, बेटा? हम भोपाल में मिले थे,” ज़रीना बेगम आगे बढ़ीं.

“हां, ओह, अरे हां, माफ़ कीजिए आपी, अरे फिर से सौरी, ख़ालाजान तशरीफ़ लाएं,” वह एकदम ही ख़ुश हो गई.

मेहमानों को अंदर बैठा कर वह अम्मी को बुलाने चली गई.

जैसे ही मिसेज़ इक़बाल अंदर आईं, अपना परिचय करा कर बिन लागलपेट ज़रीना बेग़म ने कहना शुरू किया- “आप यक़ीन नहीं करेंगी, पर अगर मेरी बेटी होती तो हूबहू ज़ुनैरा जैसी होती.
सूरत और सीरत में मेरा अक़्स है वह. अब गोद तो ले नहीं सकती, तो उसे आप ही मुझे बेटी के तौर पर सौंप दें. मेरा एक ही बेटा है, दानिश. उस की बहुत सी फोटोज और बायोडेटा लाई हूं. ऐड्रेस, फ़ोन नंबर भी. आप अपने हिसाब से जांचपड़ताल व तसल्ली करा लें और प्लीज़, एक बार मेरे प्रपोज़ल पर ग़ौर ज़रूर करें.”

एक ही सांस में सब बोल कर जब ज़रीना बेग़म चुप हुईं, तो मिसेज़ इक़बाल ग्रेसफुली मुसकरा दीं.

“हम तो यह मानते हैं, जोड़ियां ऊपर बनती हैं, नीचे मिल ही जाती हैं ख़ुद ही. जब भी कुदरत का हुक्म हुआ, फ़ौरन निकाह कर देंगे. रिश्ते तो बेतहाशा आ रहे हैं, पर हम लोग इस की पढ़ाई पूरी होने के इंतज़ार में हैं. इस के पापा से मैं डिस्कस कर के आप को ख़बर कर दूंगी. आप लोग बड़ी दूर से आई हैं, फ्रैश हो लें. मैं खाना लगवाती हूं.”

डाइनिंग टेबल पर मलाई कोफ़्ता और बटर-पनीर देख कर सौम्या बोली, “हमें तो उम्मीद थी, नरगिसी कोफ़्ते और बटर-चिकन मिलेगा, यहां तो सब वेज है.”

“वह, दरअसल, पता नहीं था न कि आप…” ज़ुनैरा की बात अधूरी ही रह गई.
“अरे, सारे मुसलिम्स नौन वैजिटेरियन होते हैं जैसे यह सच नहीं है, वैसे ही माथे पर बिंदी लगाए हर लड़की वीगन हो, यह भी ज़रूरी नहीं,” सौम्या हंस दी.

“जी, पर वैज डिश सेफ़ रहती है, डाउट की कंडीशन में,” ज़ुनैरा भी मुसकराई.

“यह बात तो एकदम ठीक है,” ज़रीना बेगम उस की क़ायल हो गईं.

“बहन नाउम्मीद मत करना, बड़ी आस ले कर आई हूं,” जाते वक़्त उन्होंने मिसेज़ इक़बाल से कहा तो उन्होंने गर्मजोशी से जवाब दिया, “तमाम उम्मीदें कुदरत से रखें. फिर मिलेंगे.”

उस के बाद बिजली की फ़ुरती से सारे मामले तय हो गए. दानिश की तफ़्तीश के बाद उधर से ओके सिग्नल पास होते ही ज़रीना बेग़म दानिश को बताने को बेक़रार हो गईं.

दानिश ने कहा, “मैं तो आप की रज़ा में हमेशा से राज़ी हूं. पर आप तो ख़ुश हैं न? तसल्ली कर ली न? ऐसा न हो वक़्ती तौर की पसंदीदगी, किसी मनमुटाव के बाद नपसंदीदगी में बदल जाए और आप के पैमाने पर वह खरी न उतर पाए और आप के रवैयों में बदलाव आ जाए.”

“मेरा कोई पैमाना, कोई शर्त नहीं अब, मेरे बच्चे. बस, तुम दोनों मेरे पास रहो और कुछ नहीं चाहिए. परफैक्ट तो कुछ नहीं होता. बस, मोहब्बत मोटी हो तो हर ऐब पतला नज़र आता है. कुदरत तुम्हें शाद ओ आबाद रखे,” मां ने मोहब्बत से उस के सिर पर हाथ फेरा.

“क्या मैं उस से एक बार फ़ोन पर बात कर सकता हूं. एक बार तसल्ली हो जाए कि वह दिल से राज़ी है,” दानिश ने थोड़े संकोच से कहा.

“अरे ज़रूर. सौ बार इत्मीनान कर ले. यह ले उस का नंबर. मैं तो अब तक हैरान हूं, वह मुझे अपना ही एक हिस्सा लगती है, मुझ से अलग हो कर चलताफिरता. ऐसा कैसे मुमकिन है?”

“चेहरे की किताब से सबकुछ मुमकिन है, अम्मी,” वह बड़बड़ाया.

“क्या मतलब?” ज़रीना बेगम सुन नहीं पाईं ठीक से.

“अरे, मतलब आप का चेहरा खुली किताब है. आप हैं ही इतनी अच्छी. इतनी सादा, इतने आला ज़ौक़ वाली, कोई आप सा कहां है. बस, बनने की कोशिश ही कर सकता है.”

वह प्यार से माँ को देख रहा था.

“चल, बटर पौलिश बंद कर और फोन मिला. बहुत से काम पूरे करने हैं फिर.”

दानिश ने नंबर लिया और घर के बाहर आ गया. पार्क में खुली हवा में उस ने नंबर डायल किया और वीडियो कौल लगा ली.

“सो मिसेज़ दानिश. शादीखानाआबादी मुबारक आप को.”

“मैं ज़ुनैरा इक़बाल हूं और रहूंगी. बाय द वे, ख़ैर, मुबारक.”

“मैं तो सोच रहा था, बच्ची पासिंग मार्क्स कैसे लाएगी. पर यह तो टौप कर गई. इतनी शिद्दत से मेहनत की हमारे लिए.”

“ज़्यादा उड़ो मत. ज़ुनैरा जो करती है, परफैक्शन से करती है. वैसे, हर अजीबोग़रीब शौक तुम्हारी अम्मी को ही होना था? बेगम अख़्तर की ग़ज़लें, रूमी, गुलिस्तां, बोस्तां, एकएक चम्मच दाल टपका कर चावल खाना, आई मीन रियली…”

“ओ हेल्लो, मुझे कितना होमवर्क करना पड़ा, यह मत भूलो. अम्मी के बारे में कितना कम जानता था मैं. न जानने की कोशिश की, न ज़रूरत पड़ी. उन की जिंदगी का मक़सद अब्बू के बाद मैं ही तो था. बस, मेरी पसंदनापसंद माने रखती थी. वह तो इंदौर जा कर नानीमां से मिला, उन के बचपन और जवानी के क़िस्से, हौबीज़, रंग, खाने सब मालूम किए. उन के कालेज की सहेलियों से मिला. तुम्हें तो सारा सिलेबस पकापकाया मिल गया.”

“अच्छा, सिलेबस याद कर के थ्योरी और वाइवा तो मुझे ही देना था न. उस दिन को कोस रही हूं जब एक म्यूचुअल फ्रैंड की फेसबुक पोस्ट पर कमैंट वार चला था अपना.”

“अरे, वह तो मेरी ज़िंदगी का सब से ख़ुशगवार दिन था. इतनी छोटी सी बच्ची इतनी ज़हीन है, यह बात तभी तो पता चली थी.”

“इतनी बार बताया, वह मेरी भतीजी की डीपी थी. बाय द वे, तुम्हारी फ्रैंड रिक्वैस्ट इसीलिए ऐक्सेप्ट की थी कि तुम मेरी बातों से इंप्रैस थे, न कि डीपी से.”

“तुम तो इंप्रैस थीं न मेरी डीपी से,” दानिश ने उसे चिढ़ाया.

“बिल्ली, खरगोश पाल ले इंसान, मुग़ालते पालने से बेहतर है वह,” ज़ुनैरा ने पलटवार किया.

“यह फेसबुक, यह ‘चेहरे की किताब’ जिस ने इस हसीन किताबी चेहरे से मिलवाया, हमेशा शुक्रगुज़ार रहूंगा उस का,” दानिश ने दिल के जज़्बात को ज़बान दी.

“और मेरा भी, कितनी मुश्किल से बातचीत से इंग्लिश अल्फ़ाज़ निकाल कर कामचलाऊ उर्दू सीखी, ठहरठहर कर बोलना, चलना, खाना सीखा, मुश्किल शेर रटे,” ज़ुनैरा ने फ़र्ज़ी कौलर उचकाए.

“मैडम, मेरे एफर्ट कम मत आंकिए. जो कभी बौलीवुड मूवीज़ नहीं देखता था, सलमान और अभिषेक बच्चन को झेलने लगा, हालांकि मेरी टौलरैंस बढ़ी इस से. ज़ीरा राइस के साथ ग्वारफली की सब्ज़ी कोई गंवार ही खा सकता है और गुलाबजामुन रोटी से कौन खाता है? एकदो बजे रात को लौंग ड्राइव सिर्फ चुड़ैलें जाती हैं या भूत. ऐसे सारे पागलपन ‘मुझे पसंद हैं’ कहना पड़े मुझे अम्मी के सामने, ताकि आदत हो जाए उन्हें. एकदम सदमा न लगे उन्हें, न तुम्हें अपने शौक बदलना पड़ें. जानती हो, तुम दोनों मुझे जान से ज़्यादा अज़ीज़ हो. मैं तुम में से किसी को दुखी नहीं देख सकता कभी भी.”

“जानती हूं. जो अपनों का नहीं हो सकता वह किसी का नहीं हो सकता. अम्मी के लिए तुम्हारे प्यार और इज़्ज़त की वजह से ही मैं यह सब करने को तैयार हुई वरना कभी किसी के लिए नहीं बदलती मैं.”

“तुम्हें बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है. बस, मैं यह चाहता था कि अम्मी का आत्मविश्वास क़ायम रहे. उन्हें तसल्ली रहे कि उन की बहू उन का चुनाव है तो फुज़ूल के डर, वहम और अंदेशे उन के दिल में जगह न बना पाएं, तुम्हें ले कर कोई इनसिक्योरिटी न हो और मेरा घर जंग का मैदान न बने.”

“करनी का दारोमदार नीयत पर होता है. हमारी नीयत उन्हें धोखा देने की नहीं, बल्कि उन का मान रखने की ही थी, इसलिए हर मुश्किल आसान होती चली गई. मानना पड़ेगा यह फेसबुक हमेशा फेकबुक नहीं होती. इसी से हर ऐक्टिविटी की जानकारी मिलती रही मुझे. ख़ासकर उस दिन जब तुम ने अम्मी के आने की इत्तला दी, जल्दीजल्दी तैयारी की. जब वे डोरबेल बजाने में हिचक रही थीं, मुझे डर लगा कि वापस ही न लौट जाएं, इसलिए ख़ुद ही दरवाज़े पर आ गई.”

“ओहो, सासुमां से मिलने की इतनी बेताबी थी.”

“अब फ़ोन रखो, शौपिंग करनी है, सब तुम्हारी अम्मी की पसंद की करूंगी.”

“न, अपनी पसंद की करो. अम्मी यहां कर ही रही हैं तुम्हारे लिए. उन को यक़ीन है कि तुम दोनों की पसंद एकदम मिलती है.”

“मेरी पसंद के लिए जिंदगी पड़ी है. मुझे तुम्हारी, मतलब, हमारी अम्मी की पसंद पर पूरा भरोसा है जिन्होंने अपने ठीकठाक से बेटे के लिए दुनिया की सब से नायाब लड़की का चुनाव किया. उन की पसंद पर कौन शक कर सकता है, भला.”

विंड चाइम्स जैसी खनकती हंसी के साथ फोन कट गया था.

Love Story : 20 सालों का लिव इन

रविवार का दिन था. शकुंतला और कमलेश डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नाश्ता कर रहे थे.

“शकुंतला, क्यों न हम शादी कर लें?” कमलेश ने कहा.

चौंक गई शकुंतला. आज 20 सालों से वह कमलेश के साथ लिव इन रिलेशन में रह रही है. आज तक शादी की बात उस ने सोची नहीं फिर आज ऐसा क्या हो गया? पहली बार कमलेश से जब वह मिली थी तो 32 साल की थी. कमलेश उस समय 40 का रहा होगा. परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि दोनों अकेले थे.

“क्यों, ऐसा क्या हुआ कि तुम शादी की सोचने लगे? पिछले 20 सालों से हम बगैर शादी किए रह रहे हैं और बहुत ही इत्मीनान से रह रहे हैं. कभी कोई समस्या नहीं आई. अगर आई भी तो हम ने मिलजुल कर उस का समाधान कर लिया. फिर आज ऐसी क्या बात हो गई?” कुछ देर सोचने के बाद शकुंतला ने कहा.

“ऐसा है, शकुंतला कि हमारी उम्र हो चुकी है. मैं 60 का हो गया और तुम 52 की. यह बात सही है कि हम बिना शादी किए भी बहुत मजे में बड़ी समझदारी और तालमेल के साथ जिंदगी जी रहे हैं. पर मैं कानूनी दृष्टिकोण से सोच रहा हूं. अगर हम दोनों में से किसी को कुछ हो गया तो हमें कानूनन पतिपत्नी होने पर विधिक दृष्टि से लाभ होगा. बस, यही सोच कर मैं ऐसा कह रहा हूं. मुझ पर किसी प्रकार का शक न करो,” कमलेश ने कहा.

“शक नहीं कर रही, कमलेश. तुम मेरे हमसफर रहे हो पिछले 20 सालों से और मैं गर्व के साथ कह सकती हूं कि तुम से ज्यादा प्यारा कोई नहीं मेरी जिंदगी में. बस, मैं यही सोच रही हूं कि जब सबकुछ सही चल रहा है तो क्यों न हम कुछ नया करने की सोचें. हम दोनों ने जो बीमा पौलिसी ली है उस में एकदूसरे को नौमिनी बनाया है. हमारे बैंक खातों में भी हम एकदूसरे के नौमिनी हैं. फिर और क्या आवश्यकता है ऐसा सोचने की. पर तुम ने कुछ सोच कर ही ऐसा कहा होगा.

“ऐसा करते हैं, 1-2 दिनों के बाद इस पर विचार करते हैं. पहले मुझे इस नए प्रस्ताव के बारे में सोच लेने दो,” शकुंतला ने कहा.

“बिलकुल, आराम से सोच लो. जो भी होगा तुम्हारी सहमति से ही होगा,“ कमलेश ने मुसकरा कर कहा.

फुरसत में बैठने पर शकुंतला सोचने लगी थी कि जब पहली बार वह कमलेश से मिली थी. दोनों अलगअलग कंपनियों में काम करते थे. कमलेश जिस कंपनी में काम करता था उस कंपनी से शकुंतला की कंपनी का व्यावसायिक संबंध था. इस नाते दोनों की अकसर मुलाकातें होती रहती थीं. पहले परिचय हुआ फिर दोस्ती. शकुंतला की शादी बचपन में ही हो गई थी और पति से मिलने से पहले ही वह विधवा भी हो गई थी.

उन दिनों विधवा विवाह को सही निगाहों से नहीं देखा जाता था और यही कारण था कि उस का विवाह नहीं हो पाया था. आज भी विधवा विवाह कम ही होते हैं. कमलेश को न जाने क्यों विवाह संस्था में विश्वास नहीं था और शुरुआती दौर में उस ने शादी के लिए मना कर दिया था. बाद में जब 35 से ऊपर का हो गया था तो रिश्ते आने भी बंद हो गए. थकहार कर घर वालों ने भी दबाव देना बंद कर दिया था और कमलेश अकेला रह गया.

दोनों की जिंदगी में कोई नहीं था. दोनों के विचार इतने मिलते थे और दोनों एकदूसरे के लिए इतना खयाल रखते थे कि दिल ही दिल में कब एकदूसरे के हो गए पता ही नहीं चला. शकुंतला जिस किराए के फ्लैट में रहती थी उस का मालिक उसे बेचने वाला था और खरीदने वाले को खुद फ्लैट में रहना था. इसलिए शकुंतला को कहीं और फ्लैट की आवश्यकता थी. जब उस ने कमलेश को इस बारे में बताया तो उस ने कहा कि उस के पास 2 कमरों का फ्लैट है. वह चाहे तो एक कमरे में रह सकती है. हौल और किचन साझा प्रयोग किया जाएगा. थोड़ी झिझकी थी शकुंतला. अकेले परपुरुष के साथ रहना क्या ठीक रहेगा. पर कमलेश ने आश्वस्त किया कि वह पूरी सुरक्षा और अधिकार के साथ उस के साथ रह सकती है, तो वह मान गई थी.

एकदूसरे को दोनों पसंद तो करते ही थे, साथसाथ रहने से और भी नजदीकियां बढ़ गईं और शादीशुदा न होने के बावजूद पतिपत्नी की तरह ही दोनों रहने लगे. आसपास के लोग उन्हें पतिपत्नी के रूप में ही जानते थे. इस लिव इन रिलेशन से दोनों खुश थे. दोनों एकदूसरे से प्यार करते थे. कभी किसी प्रकार की समस्या नहीं आई थी अभी तक.

और इतने सालों के बाद कमलेश ने शादी का प्रस्ताव रख दिया था. शकुंतला के मन में कई बातें उभरने लगीं. क्या इस से मेरा व्यक्तिगत जीवन प्रभावित नहीं होगा? क्या शादी करने के बाद हमारे संबंध वैसे ही रह पाएंगे जैसे अभी हैं? क्या शादी के लिए स्पष्ट रूप से नियम और शर्तें निर्धारित कर लिए जाएं? शकुंतला का एक मन तो कह रहा था कि जिस प्रकार वे रह रहे हैं उसी प्रकार रहें. आखिर जब सबकुछ सही चल रहा है तो नए प्रयोग क्यों किए जाएं भला? पर दूसरा मन कह रहा था कि कमलेश के साथ वह इतने सालों से है और वह हमेशा दोनों के हित की बात ही करता था. कभी उस ने सिर्फ अपने स्वार्थ की बात नहीं की. इतने दिनों से वह उसी के फ्लैट में रह रही है. उस का व्यवहार हमेशा एक हितैषी सा रहा है. उस ने जो कहा है वह भी सही हो सकता है. उस से विस्तार से बात करने की आवश्यकता है. आखिर हम 20 सालों से रह रहे हैं और एकदूसरे के साथ खुशीखुशी रह रहे हैं. हम एकदूसरे के साथ खुल कर अपनी बात साझा भी कर सकते हैं.

इसी प्रकार 6-7 दिन बीत गए. इस बारे में न तो कमलेश ने कुछ कहा न शकुंतला ने. कमलेश के दिल की बात तो शकुंतला नहीं जानती थी पर वह हमेशा इस बात पर विचार करती थी. हो सकता है कि कमलेश भी इस बात पर विचार करता होगा पर उस ने दोबारा कभी इस विषय को नहीं उठाया. शायद वह शकुंतला पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाना चाहता था.

आज फिर दोनों की कंपनी में अवकाश का दिन था. आज शकुंतला ने फिर डाइनिंग टेबल पर उस विषय को उठाया,”कमलेश, मैं ने तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार किया पर मुझे लगता है, हम जैसे हैं वैसे ही रहें. शादी का सर्टिफिकेट एक कागज का टुकड़ा ही तो होगा. बगैर सर्टिफिकेट के हम आदर्श जोड़े की तरह रह रहे हैं. मेरे विचार से शादी करने की कोई आवश्यकता नहीं है.”

“मैं हमारी स्थाई संपत्ति के बारे में सोच रहा था. मान लो मेरी मृत्यु हो जाए तो मेरे नजदीक दूर के रिश्तेदार इस फ्लैट पर दावा करेंगे. ऐसे में तुम्हें परेशानी होगी. इसी तरह की बातों को ध्यान में रख कर मैं अपने संबंध को एक कानूनी जामा पहनाना चाह रहा था,” कमलेश बोला.

“कमलेश, तुम मेरा कितना खयाल रखते हो. पर यह काम तो हम वसीयत बना कर भी कर सकते हैं. हम दोनों एकदूसरे के नाम वसीयत बना दें तो कोई तीसरा इस प्रकार का दावा नहीं कर पाएगा. हम क्यों शादी का अनावश्यक रश्म निभाएं…”

“देखो शकुंतला, शादी से कई कानूनी और सामाजिक हक मिल जाते हैं पतिपत्नी को. उदाहरण के लिए पत्नी पति की संपत्ति में बराबर हिस्सा पाने की हकदार होती है. साथ ही पति के पैतृक संपत्ति पर भी पत्नी का अधिकार होता है और कोई भी पत्नी से इस अधिकार को छीन नहीं पाएगा. तुम जानती हो कि मेरी पैतृक संपत्ति काफी मूल्यवान है. कुदरत न करे यदि किसी कारण से हम अलगअलग रहने की योजना बना लें तो शादीशुदा होने की स्थिति में पत्नी को गुजाराभत्ता लेने का अधिकार होता है. फिर संयुक्त संपत्ति में भी पत्नी का अधिकार होता है. यह अधिकार लिव इन रिलेशन में उपलब्ध नहीं है.”

“मैं तुम्हारी सभी बातों से सहमत हूं, पर मुझे इस उम्र में जितनी संपत्ति की आवश्यकता है उतनी है मेरे पास. और मुझे नहीं लगता इतने सालों के बाद हम अलग होंगे. इसलिए मेरी सलाह तो यही है कि अब शादी करने की कोई आवश्यकता नहीं है. हां, हम यह वादा करें एकदूसरे से कि जैसे अभी तक साथसाथ रहते आए हैं वैसे ही साथसाथ रहते रहें,” शकुंतला ने कहा.

“चलो, यह भी सही है,” कमलेश ने अपनी सहमति दी.

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