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आलिया : परवेज अचानक अब्बू का दुकान संभालने लगा-भाग 2

कुछ समय और बीता. शमीम ने बेटे को जन्म दिया. घर में खुशियां छा गईं. सलमा ने खूब मिठाइयां बांटीं. परवेज ने बहनों को सोने के टौप्स तोहफे में दिए. मां को सोने की चेन दी. अब्बू को भी तोहफा देना चाहता था पर रहमान टाल गया.

परवेज का बेटा आरिफ गोलमटोल, बड़ा ही सुंदर बच्चा था. आरिफ का पहला जन्मदिन परवेज ने बड़ी

धूमधाम से मनाया. कई दिनों तक दावतें चलती रहीं.

समय अपनी गति से चलता रहा. आरिफ अब खूब धमाचौकड़ी मचाता, खेलता. सलमा और शमीम देखदेख कर खुश होतीं.

परवेज आज अपने बच्चे का तीसरा जन्मदिन बड़े जोरशोर से मना रहा था. उस ने बहुत सारे दोस्तों को बुलाया था. सब के लिए तोहफे भी खरीदे थे. सभी मेहमान खापी कर अपने घर चले गए. आरिफ परवेज से नाराज था कि तोहफे में उस के लिए बड़ी सी बंदूक क्यों नहीं लाई गई. कई दिनों से वह बड़ी बंदूक की फरमाइश कर रहा था. लेकिन परवेज उसे टालता जा रहा था.

नाराज हो कर आरिफ कमरे में चला गया. बाकी लोग भी सामान उठानेरखने में व्यस्त हो गए. सुबह से सभी काम में लगे थे इसलिए सभी थक गए थे. तभी आरिफ हाथ में परवेज की एके 47 ले कर दौड़ता हुआ आया, ‘‘मुझे गन मिल गई.’’

परवेज और घर के अन्य लोगों ने ज्यों ही देखा, सब सकते में आ गए. हर कोई उस की तरफ बढ़ने लगा, परवेज भी बढ़ा, ‘‘आरिफ, मुझे गन दे दो. वह भरी हुई है. इसे हाथ मत लगाओ.’’

आरिफ भला कब किस की सुनने वाला था. वह बंदूक ताने हुए टेबल पर खड़ा हो गया. परवेज चिल्लाता रहा, ‘‘बेटे, यह असली बंदूक है, नकली नहीं.’’

आरिफ की उंगलियां ट्रिगर पर थीं. पास आते अपने पापा को देख कर उस ने ट्रिगर दबा दिया.

धांयधांय 2 गोलियां परवेज के सिर में घुस गईं. आरिफ खुद घबरा गया और रोने लगा. परवेज खून से लथपथ हो रहा था. रहमान दौड़ कर टैक्सी लाया और उसे अस्पताल पहुंचाया.

रातभर जिंदगी और मौत के बीच जद्दोजहद चलती रही. सुबह होने को थी कि परवेज हमेशा के लिए सो गया. घर में कोहराम मच गया. सलमा छाती पीटपीट कर रो रही थी. शमीम तो मानो बुत बन गई, सब ने उसे रुलाने की कोशिश की पर वह बुत सी बनी रही.

जमाते इसलामी वाले लोग आए और परवेज को ऐसे ले गए मानो देश का कोई बहुत बड़ा नेता हो, फूलों की बौछार के बीच लोगों का हुजूम कब्रिस्तान तक गया. सब ने उस पर मिट्टी डाली.

शमीम कई दिनों तक सदमे से बाहर न आ सकी. रहमान का किसी काम में दिल न लगता. सलमा बेटे के गम को अंदर ही अंदर सह रही थी. वह शमीम को हर तरह से सदमे से बाहर निकालने की कोशिश करती. तकरीबन 6 महीने के बाद सलमा अपनी बहू शमीम को रुलाने में कामयाब हुई. डाक्टरों ने कह दिया था कि शमीम का रोना बहुत जरूरी है.

घाटी में दिनोंदिन हालात खराब होते जा रहे थे. रहमान ने बहुत जल्द अपनी 2 बेटियों का निकाह खालाजाद भाइयों के साथ कर दिया. हालांकि वह लड़कियों को अभी और पढ़ाना चाहता था लेकिन शहर की हालत देख कर वह घबरा गया था. अब तीसरी बेटी की शादी के बारे में भी सोच रहा था, हालांकि वह अभी बहुत छोटी थी.

तमाम कश्मीरी जम्मू की ओर पलायन कर रहे थे. कई अमीर मुसलिम परिवारों ने अपनी बीवीबच्चों को दुबई, बेंगलुरु, दिल्ली रवाना कर दिया था. हिंदू कश्मीरी तो लगभग रोज ही निकल रहे थे.

रहमान सोचता रहता कि वह भी बीवीबच्चों को ले कर चला जाए पर न तो उस के पास पैसा था न कोई रिश्तेदार या जानने वाला, फिर उसे कश्मीरी भाषा के सिवा हिंदी बोलनी भी नहीं आती, तो जाए कहां.

वह अपनेआप से बड़बड़ाता, ‘अमीर तो कहीं भी जा सकते हैं पर गरीब कहां जाएगा, उसे तो यहीं मरना है.’

कश्मीर की हालत यह हो गई थी कि रातबेरात कोई भी मुजाहिद आ जाता. उस का खानापीना करना पड़ता. इस खातिरदारी से रहमान बेहद परेशान था. खानेपीने तक तो ठीक, पर वह मुजाहिद कब क्या कर बैठे, यह सोच कर रहमान परेशान रहता. जब भी घर में कोई मुजाहिद आता, सलमा ही खाना बनाती और परोसती. बहू शमीम और बेटी आलिया कमरे में ही रहतीं, उन्हें सख्ती से रहमान ने मना किया था कि बाहर न आएं.

लगभग सालभर के बाद रहमान ने चाहा कि उस का छोटा बेटा शब्बीर शमीम से निकाह कर ले ताकि शमीम का जीवन खराब न हो और आरिफ को बाप मिल जाए. पर शब्बीर इस रिश्ते के लिए तैयार न हुआ. सलमा और रहमान दोनों ने उसे बहुत समझाया पर वह टस से मस न हुआ और कुछ दिनों के बाद अपने दोस्तों के साथ जाने कहां गायब हो गया.

रहमान ने उसे ढूंढ़ने में कोई कसर न छोड़ी. जब उसे पता चला कि शब्बीर भी मुजाहिद बन गया है तो उस के अरमानों पर पानी फिर गया. सलमा रातदिन शब्बीर के वापस आने के लिए दुआएं मांगती. रहमान हर तरह से उसे वापस लाने की कोशिश करता. किसी के जरिए शब्बीर के पास संदेश भेजा कि जहां वह चाहेगा, वहीं उस का निकाह होगा. बस, वह वापस आ जाए.

शब्बीर अपने मरहूम भाई, परवेज की तरह रहना चाहता था. नेता की भांति सारे ऐशोआराम का लुत्फ उठाना चाहता था. रहमान की सारी कोशिशें बेकार गईं.

सातवीं गेंद : सबकुछ अच्छा होते हुए भी मन में उदासी क्यों थी

लेखक-मंजुला अमिय गंगराड़े

कई दिनों बाद आज घर की छत पर जाने की फुरसत मिली.

सब कुछ कितना बदला हुआ था. बादल,पेड़, हवा, चमकती धूप और पंछियों का कलरव.

चारो ओर फैली एक अजीब सी शांति.

सड़क पर वाहनों का शोर दूर दूर तक नहीं था.

सब कुछ अच्छा होते हुए भी मन में ये उदासी कैसी है?

क्या धरती थम गई है या समय रुक गया है.क्यूं

गली मोहल्ले खामोश से है.इतनी चुप्पी कुछ चुभन का ऐहसास दे रही थी.

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मैंने एक उदास बेज़ार सी नज़र छत पर चारो ओर घुमाई,  बस यूहीं बिना किसी मकसद के…… “अरे ये क्या? ये तो गली में खेलने वाले बच्चों की क्रिकेट बॉल है”. जो संभवतः लॉकडॉउन के पहले छत पर आई थी. उनकी बॉल छत के एक कोने में बेजान सी पड़ी थी.सच, बच्चों के साथ कितनी जीवंत नज़र आती थी.

मन के किसी कोने में हूक सी उठ रही थी.मुझे याद आने लगे वो पल जब बच्चे अपनी पूरी ताकत से बेट घुमा कर बॉल को मारते और वो सीधी आ पहुंचती कभी हमारी छत पर, तो कभी बाल्कनी में, तो कभी मुंडेर से टकरा जाती.जब ज़ोर का शोर मचता तो समझो आज फिर से छत पर बॉल गई है.फिर दरवाज़े की घंटी..

प्रारम्भ में थोड़ा सब्र दिखता एक बार ही घंटी बजती.मगर अगले ही पल बेसब्री से कई बार लगातार घंटी बज रही होती. जब तक आप नींद से थोड़ा जाग्रत हो कर दरवाज़े की ओर रुख़ करे, तब तक तो जैसे घंटी  रुकने का नाम ही नहीं लेती.इस रोज-रोज की घंटी और छत पर आ धमकने वाली गेंद की वजह से दोपहर के आराम में खलल पड़ने लगा.

बच्चे भी कितने बेसब्र होते है. मैं लगभग  खीजते हुए दरवाज़े पर जा पहुंचती.

“आंटी, हमारी बॉल आपकी छत पर चली गई है” मेरे कुछ बोलने के पहले ही वे अपनी बात बोल देते.ओफ़ हो, आज फिर से  मेरी नींद खराब की “सॉरी आंटी”

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“ओके जाओ छत पर  ले आओ मुझसे नहीं  जाया जाता”

दो बच्चे छत की ओर तुरंत लपकते और कुछ ही पलों में वापस भी आ जाते

मेरे घर की छत उनके लिए जानी पहचानी सी जगह हो गई थी. वे बेधड़क छत पर जाते और बॉल ले आते.कोई संकोच नहीं, कोई डर नहीं.

इस बेतकल्लुफी का एक कारण और भी था.उन्हें मैंने कहा था कि “यदि बॉल बाहर के बरामदे में आती है तो घंटी बजाने की जरूरत नहीं है”. गेट खोल कर बॉल ले जा सकते हैं, बशर्ते कि वापसी में गेट बंद करना होगा.उन्होंने इसे सहर्ष मान लिया. मैंने भी अपनी नींद में व्यवधान न होने की उम्मीद की. सब कुछ कितना ठीक ही चल रहा था. बच्चें बेखटके आते और बरामदे से बॉल ले जाते और हां.. बाकायदा गेट बंद कर के भी जाते.

मगर अब जब से बॉल छत पर जाने लगी तब से मुसीबत हो गई थी।रोज रोज एक ही बात ,”आंटी आपकी छत पर हमारी बॉल”  …

रोज रोज के इस प्रकरण से मैं परेशान होने लगी। कई बार तो मैच के दौरान बॉल तीन या चार बार छत पर जा पहुंचती।अब बच्चों को भला कैसे पता होता कि इस बार बॉल कहां जाएगी? अलबत्ता उनमें बहस छिड़ जाती कि…”जिसने बॉल छत पर भेजी है, वो ही लेकर आयेगा” मुझे बच्चों के खेलने के कारण कोई आपत्ती नहीं थी. बस छत वाले प्रकरण से नाराज़गी थी.परंतु कोई इसका कोई हल तो निकालना ही पड़ेगा. दोनों ही पक्ष अपनी जगह सही थे.

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मैं भला बच्चों को खेलने से क्यूं मना करने लगी.रात इसी उधेड़बुन में गुज़री. फिर एक युक्ति सूझी.अगले दिन जब वे बॉल लेने आये तो मैंने कहा, “तुम सबके पास कुल मिलाकर कितनी बॉल है”?

सब आपस में हिसाब किताब मिलाने लगे.सभी की मिलाकर सात वे बोले वो मेरी और उलझन भरी निगाहों से देख रहे थे. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था.

मैं  मुस्कुरा पड़ी और कहा ,”वेरी गुड”, ये तो बहुत ही अच्छी बात है.

अब सब मेरी बात ध्यान से सुनो…

अब, जब छत पर बॉल जाएगी तो रोज घंटी नहीं बजाओगे. “जब एक एक कर सारी  बॉल छत पर आ जाए, या यूं कहो जब सातवीं बॉल भी छत पर आ जाए तभी घंटी बजेगी” “तुम्हारी सारी बॉल तो मिलेगी ही और साथ में चॉकलेट भी” मैंने देखा उनकी आंखों में चमक आ गई.

वाह। योजना काम कर गई. उन्हें भी मेरी बात पसंद आ गई. कई दिनों से निर्बाध ये सिलसिला चल रहा था.. न मेरी नींद में कोई खलल था ना बच्चों के खेल में कोई व्यवधान

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अब तो मुझे भी इस खेल में आनंद आ रहा था.उन्हें खुश देख कर मुझे अपने बच्चों का बचपन याद आ रहा था.परन्तु अब कुछ दिनों से यह सिलसिला रुक गया है. इस महामारी ने कितना कुछ बदल दिया है. गली की रौनक कहीं खो सी गई है।ये चुप्पी अब चुभने लगी है.शांति और सन्नाटे के अंतर को शायद ही कभी इतने क़रीब से महसूस किया है मैंने. मैं उन बच्चों का शोर फिर से सुनना चाहती हूं.

हां पर इस बार घर की छत पर पड़ी है केवल एक ही बॉल..

बस, अब और नहीं होता बाकी छह गेंदों का इंतजार. सारी शर्तें भुला दी है मैंने समझौते भी सब  रद्द कर दिए है मैंने अब सातवीं नहीं अपितु पहली ही बॉल पर  चॉकलेट देनी है उनको फिर वही जीवन का शोर सुनना है.. इस बार घंटी बजने का इंतजार मुझे है….. बेसब्री से चॉकलेट तो ले आई हूं, बस अब तो इंतजार है ये सुनने का…..

“आंटी हमारी बॉल आपकी छत पर चली गई है।

गुजरात का वर्चस्व

क्या हमारा पूरा देश गुजरात की कालोनी बनता जा रहा है?  ऐसा कुछ दिखने लगा है. जिस तरह भारतीय जनता पार्टी, ज्यूडिशियरी, सरकारी मशीनरी, उद्योगों, धंधों, जमीनों की मिलकीयत पर गुजरातियों की पकड़ मजबूत हो रही है उस से लगता है कि देश में गुजरात सिर्फ राज्य भर नहीं है, वह कालोनी बनाने वाला केंद्र है जहां से तैयार कार्यकर्ता, जज, शिक्षक, प्रबंधक, उद्योग मालिक सारे देश को चलाएंगे.

भारत सरकार ने हाल में अपने यहां नई नियुक्तियां करनी शुरू की हैं  सीधे प्रतियोगिताओं के बिना. इन में गुजरातियों को नहीं भरा जाएगा, इस की क्या गारंटी है. देश में जज वे ज्यादा बन रहे हैं जिन का गुजरात से संबंध है. गुजराती कंपनी का महत्त्व तो पहले से ही था पर अब गुजराती पार्टी, गुजराती मीडिया, गुजराती फिल्ममेकर, गुजराती उद्योगपति, गुजरात के उत्पादन हा ओर  दिखने लगे हैं.

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इतने बड़े देश में एक राज्य आगे बढ़ जाए, इस में कोई आपत्ति की बात नहीं है पर जब यह सोचीसमझी चाल की तरह फैलने लगे और जन्म का स्थान व बोली-भाषा ही पूरी तरह इम्पोर्टेन्ट होने लगे तो थोड़ा डर लगने लगता है कि क्या कल को गुजराती न होना एक डिसक्वालिफिकेशन हो जाएगा.

गुजराती मृदुभाषी हैं, लड़ाकू नहीं हैं. वे व्यावहारिक हैं पर चतुर भी हैं. पर इन्हीं गुणों के कारण वे सारा पैसा गुजरात में ले जाएं, यह भी तो सहन नहीं किया जा सकता. जितनी अच्छी सडक़ें गुजरात में हैं और कही नहीं पर वे बनाई गई बिहारी मजदूरों के हाथों से हैं. गुजराती मजदूरी करने को क्यों नहीं मजबूर हैं, बिहारी ही क्यों हैं?

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आज के युवाओं को सवाल पूछना होगा कि बाकी राज्यों में वैसी ही शिक्षा क्यों न मिले जो गुजरात में मिल रही है.  उतनी इनवैस्टमैंट क्यों न हो, जितनी गुजरात में हो रही है. सरदार पटेल में ऐसी क्या खासियत थी कि उन की मूर्ति गुजरात में ही बने,  वह भोपाल और हैदराबाद में भी बनाई जा सकती थी.

बुलेट ट्रेन गुजरात में ही क्यों चले,  दिल्ली से पटना के बीच क्यों नहीं. नए पोर्ट गुजरात में ही क्यों बनें, तमिलनाडू और केरल में क्यों नहीं. सारे फैसले एक राज्य के लोग एक राज्य के लोगों के लिए लेंगे तो बाकी देश के युवाओं के भविष्य की तो छोडि़ए, वर्तमान का ही क्या होगा?

शामली में किया काले चावल का उत्पादन

भारत के नौर्थईस्ट राज्य में विख्यात औषधीय गुण वाले काले चावल यानी ब्लैक राइस का उत्पादन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले में पहली बार किया गया. अपने औषधीय गुणों, स्वाद और कीमत के आधार पर यह काला चावल आम चावल की अपेक्षा बाजार में अपनी अलग पहचान रखता है, जो किसानों को परंपरागत खेती से ऊपर उठ कर कृषि विविधीकरण की ओर ले जाता है.

बातचीत में कृषि विज्ञान केंद्र, जलालपुर, शामली में कार्यरत कृषि वैज्ञानिक डा. विकास कुमार ने बताया कि उत्तर प्रदेश के शामली जिले में ग्राम सोंटा के जैविक किसान राहुल कुमार द्वारा काले चावल का सफलतापूर्वक उत्पादन किया गया. राहुल कुमार ने अपनी शिक्षा कृषि क्षेत्र में ही प्राप्त की है. ग्रामीण परिवेश और किसान परिवार से होने के कारण इन का खेती से जुड़ाव काफी गहरा रहा है. राहुल कुमार अपनी युवा नव परिवर्तित सोच से कृषि क्षेत्र में कुछ अलग करना चाहते थे, ताकि आज के परिवेश में किसानों की जो दुर्दशा हो रही है, उस से उन्हें बाहर निकाला जा सके.

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अपनी नव परिवर्तित सोच के साथ खेती में बदलाव कर के काला चावल की खेती करने की सोची, परंतु क्या काला चावल इस क्षेत्र की जलवायु में पैदा हो पाएगा या नहीं, इस का बीज कैसे और कहां से प्राप्त होगा आदि चुनौतियां सामने थीं. इन चुनौतियों से पार पाने के लिए जिले के कृषि विज्ञान केंद्र, जलालपुर, शामली में कार्यरत कृषि वैज्ञानिक डा. विकास कुमार से संपर्क किया गया. औनलाइन बीज की व्यवस्था की गई, जो नौर्थईस्ट में चकहाउ किस्म के नाम से प्रसिद्ध है डा. विकास कुमार की देखरेख में जैविक विधि द्वारा काले चावल का 2 बीघा में सफलतापूर्वक उत्पादन किया गया.

खाद की पूर्ति के लिए डीकंपोजर और गोमूत्र से बना जीवामृत इस्तेमाल किया गया. रोग व कीट प्रबंध के लिए नीम का तेल व जैविक कीटनाशकों का प्रयोग किया गया. राहुल कुमार ने 2 बीघा फसल से 6 क्विंटल धान की पैदावार ली. काले चावल का उत्पादन कर के जनपद में मिसाल कायम की और किसानों के लिए कौशल प्रेरणा का स्रोत बने. काला चावल एक औषधीय गुण वाला पौधा है. इस में प्रचुर मात्रा में एंटीऔक्सीडैंट और एंथोसाइन नामक घटक पाए जाते हैं, जो कैंसर, डायबिटीज, दिल की बीमारी को ठीक करने में काफी सहायता करते हैं. साथ ही, इस में फाइबर, विटामिन बी, ई, कैल्शियम, जिंक आदि खनिज पदार्थ पाए जाते हैं, जो अधिक पौष्टिक होने से कुपोषित लोगों के लिए फायदेमंद हैं.

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इस के अलावा यह चावल हाई ब्लडप्रैशर, कोलैस्ट्रोल, अर्थराइटिस के साथसाथ कई और बीमारियों को ठीक करने और बालों को काला करने में भी लाभकारी है. काले चावल की खेती मुख्य रूप से असम, मणिपुर राज्य में की जाती है. औषधीय गुणों के कारण बाजार में इस का मूल्य 200 से 500 रुपए प्रति किलोग्राम तक है. राहुल कुमार धान कटवा कर चावल की अच्छी तरह से पैकेजिंग और मार्केटिंग कर के 200 से 250 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं,

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जो इस समय किसानों के लिए प्रगतिशील किसान के रूप में प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं. काले चावल के दाम, उत्पादन और औषधीय गुणों को देख कर अब अन्य किसानों में भी इस की खेती का क्रेज बढ़ रहा है. डा. विकास कुमार ने बताया कि वे ऐसी फसलों पर अनुसंधान करते रहते हैं, जो इस क्षेत्र में नहीं उगाई जाती हैं और बाजार में जिन का अधिक दाम होता है. इस से किसानों की आय में इजाफा होगा. काले चावल की खेती इस इलाके के किसानों की आमदनी बढ़ाने में अहम योगदान दे सकती है.

पश्चिम बंगाल चुनाव : मोदी VS ममता

चुनावी बेला में बंगाल की धरती पर आजकल ‘जय श्री राम’ के नारे खूब लग रहे हैं. हर तरफ भगवा झंडे लहरा रहे हैं. इन दिनों शायद ही कोई दिन होता हो जब प्रदेश में भाजपा की कोई चुनावी रैली या सभा नहीं होती है. भाजपा के बड़े दिग्गज बंगाल में डेरा जमा कर बैठे हैं. केंद्र के बड़े-बड़े नेता और दूसरे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी लगातार दौरा कर रहे हैं. देश गृहमंत्री अमित शाह मंच से ‘सोनार बांग्ला’ बनाने का वादा करते हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं – ‘बंगाल में आसोल पोरिबोर्तन होबे’. पश्चिम बंगाल में ‘दीदी’ की सत्ता हथियाने के लिए नित नए हथकंडे अपनाये जा रहे हैं. सरकार को घेरने और परेशान करने के लिए सीबीआई और ईडी का भी भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. दीदी के रिश्तेदारों को जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने के प्रयास में लगी हैं. मगर ममता की रैलियों में ना भीड़ की कमी है ना जोश की. और यही चीज़ भाजपा को परेशान कर रही है.

हालांकि बंगाल में भीड़ जुटाने में भाजपा भी पीछे नहीं है, लेकिन यह भीड़तंत्र कितना प्रतिशत वोटतंत्र में बदलेगा, यह कहना अभी थोड़ा मुश्किल है. भाजपा की ओर बंगाल के ब्राह्मण, बनिए, कायस्थ का अच्छा रुझान है. ये तीनों जातियां भाजपा की धर्म की दुकानदारी की साझेदार हैं, मगर बंगाल में बड़ी संख्या ओबीसी, दलित और मुसलामानों की भी है, उनके वोट आखिर भाजपा की झोली में क्यों जाएंगे, यह बड़ा सवाल है. फिर वह तबका जो पढ़ा लिखा है, राजनितिक समझ रखता है, युवा है, शिक्षित मगर बेरोज़गार है, जिसके लिए भाजपा के पास ना कोई योजना है ना कोई वादा है, वो भाला भाजपा को वोट क्यों देगा?

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पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, जो ममता को एक शक्ति के रूप में देखती हैं. दीदी ने प्रदेश की लड़कियों को साक्षर और स्वाबलंबी बनाने के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, जैसे – कन्याश्री और सौबुज साथी योजना। सौबुज साथी योजना के तहत नौवीं से बारहवीं कक्षा तक छात्र–छात्राओं को मुफ्त साइकिलें दी गयी हैं ताकि उनका स्कूल ना छूटे और वे स्वाबलंबी हों . ऐसे में अबकी चुनाव में यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि बंगाल की जनता भाजपा के मंदिर, पूजा, आरती और ब्राह्मणों के सशक्तिकरण वाला सोनार बांग्ला बनाएगी या प्रदेश के युवाओं और महिलाओं के साक्षर और सशक्त होने को महत्त्व देगी.

चुनाव की बिसात पर अन्य राजनितिक पार्टियां भी हैं मगर सबसे ज़्यादा चर्चा तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की ही है. वे एक दूसरे के आमने सामने कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन कर हुंकार भर रहे  हैं. कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का जोश और शोर कुछ ख़ास नहीं है. इनसे भाजपा को कोई ख़ास नुकसान भी नहीं. लेकिन दस साल से सत्ता पर काबिज़ दीदी को हराना भाजपा के हिन्दू राष्ट्र के प्रसार के लिए बहुत ज़रूरी है. यही वजह है कि ममता सरकार को घेरने और बिखेरने की नित नयी चालों के साथ भाजपा लगातार तृणमूल के दिग्गज नेताओं को तोड़ने-जोड़ने में व्यस्त है. बीते तीन माह में ममता के कई ‘करीबी’ भाजपा की गोद में जा बैठे हैं, इससे ममता की पेशानी पर बल ज़रूर पड़े हैं, लेकिन वफादारी और वफादारों की पहचान भी खूब हो रही है. बकौल ममता – अच्छी बात है कि आधे अधूरे मन से पार्टी में बने रह कर भविष्य में पार्टी को नुकसान पहुचाएं इससे बेहतर है कि पहले ही अलग हो जाएँ. अवसरवादियों की जरूरत तृणमूल को नहीं है.

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क्या कहती है जनता   

2014 के आम चुनाव में मोदी लहर के बावजूद भाजपा को पश्चिम बंगाल में 42 में से केवल दो सीटें मिली थीं, मगर 2019 में उसके सांसदों की संख्या बढ़कर 18 हो गयी और वोट प्रतिशत भी 10 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया. लेकिन लोकसभा का जादू क्या विधानसभा चुनाव में कायम रहेगा? क्या ‘बैटल ऑफ़ बंगाल’ भाजपा के लिए आसान होगा? क्या भाजपा ममता बनर्जी के किले को ढहा सकेगी? इसको लेकर ‘सरिता’ ने जनता के विचार जानने की कोशिश की.

सैमुअल रॉय, हिन्दू बंगाली हैं. वे मूल रूप से कोलकाता-हुगली के रहने वाले हैं. उनका परिवार हुगली में रहता है. सैमुअल दिल्ली में कई सालों से  गॉर्ड के रूप में कार्यरत हैं. लेकिन चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का, सैमुअल नौकरी से छुट्टी लेकर अपने मताधिकार का प्रयोग करने अपने राज्य ज़रूर जाते हैं. मोदी वर्सेज ममता के सवाल पर सैमुअल बेहिचक कहते हैं, ‘सरकार तो दीदी ही बनाएगी. दीदी ने बंगाल को संवारने के लिए बहुत संघर्ष किया है. उन्होंने वहां बेहतरीन काम किया है, अभी भी कर रही है, आगे भी करेगी. दीदी जानती है बंगाल को क्या चाहिए. बाहर का आदमी नहीं समझ सकता बंगाल को. हम सिर्फ ममता को मुख्यमंत्री चाहते हैं. हमारा पूरा परिवार ममता को वोट डालेगा.’

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परोमा भट्टाचार्या

थिएटर आर्टिस्ट परोमा भट्टाचार्या का कहना है कि – ‘पश्चिम बंगाल एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला राज्य है. वहां के बंगाली ने पिछले वर्षों में काफी विकास देखा है, लेकिन उसे और अधिक देखने की जरूरत है. ममता बनर्जी इसके लिए प्रयास कर रही है. बंगाली युवाओं के लिए रोज़गार के और अधिक अवसर होने की आवश्यकता है. भाजपा ने भी वहां विकास और रोज़गार का वादा किया है. अभी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव कौन जीतेगा. मौजूदा सरकार कम बहुमत के साथ भी आ सकती है. मैं इस देश के युवा होने के रूप में अधिक उद्योगों, अपनी पीढ़ी के लिए अधिक रोजगार देखना चाहती हूं और जो भी सत्ता में आना चाहता है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा होगा.’

नीलाद्री शेखर दास

दिल्ली की एक फार्म में  मैनेजर लेबल पर कार्यरत नीलाद्री शेखर दास  का बीते दो विधानसभा चुनाव में वोट तृणमूल कांग्रेस को गया और अबकी बार वे फिर ममता के पक्ष में ही वोट करेंगे.

नीलाद्री  कहते हैं, ‘भाजपा का बहुत हल्ला है, लेकिन इस हल्ले का यह मतलब नहीं है कि बंगाल में भाजपा की सरकार बन रही है. ममता बहुत स्ट्रांग है वहां. सरकार वही बनाएगी. ममता और मोदी के बीच 60:40 का मुकाबला है. 40 परसेंट से ज़्यादा वोट भाजपा को नहीं मिलेगा. हम बंगाली लोग शक्ति का उपासक है. मांस-मच्छी खाना पसंद करता है. हमको कोई आकर बोलेगा कि दुर्गा पूजा छोड़ कर राम की भक्ति करो या मच्छी छोड़ कर आलू खाओ तो उसको हम बंगाल में खड़ा भी नहीं होने देगा. सबका अपना पसंद है. हमारा पसंद सिर्फ ममता है.’

शिक्षित बंगाली जहाँ शिक्षा और रोजगार के मसले पर भाजपा को कटघरे में खड़ा करते हैं और ममता बनर्जी के संघर्षों और प्रयासों की तारीफ़ करते हैं वहीँ गरीब बंगाली जिनके जनधन खातों में मोदी ने दस-दस हज़ार रूपए डलवाये हैं, वो मोदी के गुणगान भी करते  हैं. इन पर भगवा का काफी असर दिखता है. इसकी बड़ी वजह है.

दरअसल दिल्ली की बंगाली झुग्गी बस्ती में रहने वाले ज़्यादातर गरीब बंगाली परिवार पैंतीस-चालीस साल पहले पश्चिम बंगाल छोड़ कर रोजगार की तलाश में दिल्ली आये. इनमे बहुतेरे बांग्लादेशी भी हैं, जिनके पास अब दिल्ली का वोटर आईडी कार्ड है. इनका बंगाल के विकास या राजनीति से अब कोई ताल्लुक भी नहीं बचा है और ना ही ये वहां वोट करने जाते हैं. दिल्ली में यह सब्ज़ी-मछली बेचने के धंधे में हैं. बंगाली कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, पूजा सामग्री बेचने का भी छोटा मोटा व्यवसाय करते हैं. यह वो तबका है जो भाजपा के गुण गा रहा है और बंगाल की सत्ता में परिवर्तन की बात कर रहा है.

माया मंडल

75 साल की माया मंडल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बुराई करते नहीं थकती हैं. वो कहती हैं, ‘तुमको अच्छा लगे या बुरा लगे मगर ममता हमको नहीं चाहिए. वो हमारे लिए कुछ नहीं किया. इस बार ममता को वोट नहीं डालेगा, मोदी को डालेगा. बेटा बोला है मोदी को ही वोट देने का. ममता बुरा काम करती है. उसने हमारे नाम पर घर बनवाया मगर हमको घर नहीं दिया. उसके लोग बोलते हैं कि 35000 रुपया लाओ तब घर मिलेगा. हम विधवा औरत कहाँ से इतना पैसा लाएगी?’

कुछ और कुरेदने पर पता चला कि माया मंडल की पैदाइश बांग्लादेश की है. पति का निधन हो चुका है. उनके दो बच्चे हैं – एक लड़का और एक लड़की.

पश्चिमम बंगाल की कुल आबादी में 17 फीसदी दलित हैं. इसके अलावा भाजपा को अपर कास्ट, ओबीसी और दूसरे सभी समुदाय में तृणमूल के मुक़ाबले थोड़ा वोट ज़्यादा मिला. मगर जानकारों की मानें तो अमूमन किसी पार्टी का वोट शेयर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बराबर नहीं रहता है. ये ज़्यादातर बराबर तब रहते हैं जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव छह महीने के अंतराल में हों. तब वह स्थिति होती है कि पिछले चुनाव के लोक-लुभावने वादों का असर अगले चुनाव पर भी बना रहता है. पर दोनों चुनावों में फासला ज़्यादा होने पर विधानसभा चुनाव में वोटों का बंटवारा लोकसभा चुनाव के मुकाबले कम हो जाता है.

हालांकि अबकी विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का वोटबैंक बंटने के आसार हैं, जिससे भाजपा को काफी फायदा मिल सकता है. गौरतलब है कि अभी तक ममता के साथ मुसलमान सबसे ज़्यादा जुड़े और उनका एकतरफ़ा वोट तृणमूल को ही गया, मगर इस बार ममता के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए असद्दुदीन ओवैसी भी आ गए हैं और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी. पश्चिम बंगाल के 30 फीसदी मुसलमान निश्चित ही तीन तरफ बंट जाएंगे, इसको लेकर भाजपा खासी उत्साहित है और उसका सारा फोकस बाकी बचे 70 फीसदी वोटरों पर है, जिनको लुभाने का वो कोई मौक़ा नहीं छोड़ रही है.

हालांकि ये 70 फ़ीसदी वोटर एकतरफा वोट नहीं करेंगे. इसमें आदिवासी, दलित, ओबीसी सब आते हैं. वोट करने के पीछे उनकी अपनी पसंद, विचारधारा, दिक्क़तें और वजहें हैं. ये भी ज़रूरी नहीं है कि लोकसभा के लिए जिन्होंने भाजपा को वोट दिया वो विधानसभा के लिए भी उसी को वोट दे. बात जब घर की आती है तो फैसले बदल भी जाते हैं. विधानसभा चुनाव आते ही जनता रोज़गार, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ के सवालों को मथने लगती है. ‘अपने’ और ‘बाहरी’ का भेद भी करने लगती है.

अब गृहमंत्री अमित शाह भले पश्चिम बंगाल पहुंच कर मंच से ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाएं और उपस्थित जनता से भी हाथ उठा कर लगाने को कहें, लेकिन जैसा कि तृणमूल नेता महुआ मोइत्रा कहती हैं, ‘हमें ‘जय श्रीराम’ से दिक़्क़त नहीं है, लेकिन हम क्या बोलेंगे और कैसे अपने धर्म को फ़ॉलो करेंगें, ये हमारा निजी मामला है. हमें आपका (भाजपा का) स्लोगन नहीं बोलना है, हम अपना स्लोगन कहेंगे.’ तो कुछ यही सोच बंगाल के आम मानुस की भी है. परम्परागत रूप से दुर्गा और सरस्वती की उपासना करने वाला अचानक श्रीराम में दिलचस्पी क्यों लेने लगेगा?

महिलाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते

पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों का रुझान दीदी की तरफ दिख रहा है. दीदी में उनको शक्ति नज़र आती है. ममता ने भी भाजपा के ‘जय श्रीराम’ के जवाब में ‘दुर्गा’ को खड़ा करके बताने की कोशिश की है कि उत्तर भारतीयों की पुरुष प्रधान मानसिकता बंगाल में नहीं चलेगी. बंगाल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल है. यहाँ बंगाली औरत की अपने घर-परिवार में धमक रहती है. दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा उनके लिए महान उत्सव हैं जब वह नखशिख तक सजती हैं, सात दिन की पूजा में सत्तर प्रकार के पोशाक धारण करती हैं. इस परम्परा और अधिकार को कोई बाहरी आ कर नहीं छीन सकता है. ममता बंगाली महिलाओं की मानसिकता को बखूबी समझती हैं और इसलिए उन्होंने ‘धर्म’ के साथ-साथ ‘महिला-पुरुष’ नैरेटिव को भी ‘दुर्गा’ नैरेटिव के साथ साधने की कोशिश की है.

पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों की तादाद तकरीबन 49 फीसदी हैं जिनके लिए ममता ने काम भी किया है. ममता सरकार की साइकिल योजना और स्वास्थ्य योजना के जरिए महिलाओं को फायदा पहुंचा है. देश में आज वो अकेली महिला मुख्यमंत्री हैं और सीधे मोदी-शाह को चुनौती दे रही हैं. उनकी यह छवि महिलाओं को लुभाती है. ममता को भी अपनी महिला वोटरों से काफी उम्मीदें हैं और उन्हें साधने के लिए उन्होंने 50 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा है.

मतुआ सम्प्रदाय का महत्व

पश्चिम बंगाल की राजनीति में मतुआ संप्रदाय भी काफ़ी अहम है, जो किसी भी राजनितिक पार्टी का भविष्य तय करता है. इस संप्रदाय को मानने वालों की संख्या यहां तकरीबन 3 करोड़ है. मतुआ सम्प्रदाय अभी तक ममता को सपोर्ट करता आया था. मतुआ माता बीनापाणि देवी यानी मतुआ माता की ममता बनर्जी से साल 2010 में नजदीकियां बढ़ी. इसी साल मतुआ माता ने ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक भी घोषित किया. ममता को इससे राजनीतिक समर्थन मिला और 2011 में वह चुनाव जीत कर पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं.

बीनापाणि देवी और उनकी राजनीतिक ताकत ममता के साथ लम्बे समय तक बनी रही. लेकिन केंद्र में भाजपा के उदय के बाद मोदी की नज़र भी इस सम्प्रदाय पर टिक गयी। 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब पश्चिम बंगाल में चुनावी अभियान शुरू किया तो सबसे पहले मतुआ संप्रदाय के 100 साल पुराने मठ में बोरो मां का आशीर्वाद लेने पहुंचे. इसके बाद से इस परिवार का रुझान भाजपा की ओर होने लगा. 5 मार्च 2019 को बीनापाणि देवी के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक बंटवारा खुलकर दिखा बीनापाणि देवी के छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने भाजपा का दामन थाम लिया। 2019 में मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को भी भाजपा ने बनगांव से टिकट दिया, जिसके बाद वह सांसद बन गए.

कहते हैं मतुआ सम्प्रदाय के लोग पूर्वी पाकिस्तान से आकर पश्चिम बंगाल में बसे हैं. मतुआ संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी. उनका जन्म एक गरीब और अछूत नामशूद्र परिवार में हुआ था. मतुआ महासंघ की मान्यता ‘स्वम दर्शन’ की रही है जिसका रास्ता हरिचंद्र ठाकुर ने दिखाया. इस संप्रदाय के लोग हरिचंद्र ठाकुर को ही भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं और श्री श्री हरिचंद्र ठाकुर कहते हैं. मतुआ संप्रदाय हिन्दू धर्म को मान्यता देता है लेकिन ऊंच-नीच और भेदभाव के बगैर. जबकि भाजपा मनुवादी सोच के तहत हिन्दू को भी ऊंच-नीच, सवर्ण-अछूत जैसे खांचों में बांटती है. पर मतुआ समाज के आगे बड़ा मुद्दा नागरिकता पाने का भी है.

मतुआ सम्प्रदाय में बहुतेरों के पास भारतीय नागरिकता नहीं है और भाजपा सीएए-एनआरसी का कानून ले आई है जो मुस्लिमों को छोड़कर बाकियों को नागरिकता देने की बात कहता है. ऐसे में भाजपा की तरफ मतुआ समुदाय का झुकाव स्वाभाविक है. पूर्वी पाकिस्तान से आकर पश्चिम बंगाल में बसे मतुआ संप्रदाय के लोगों को इस कानून के तहत नागरिकता मिल जाएगी. यह बड़ा चुग्गा अबकी चुनाव में भाजपा की ओर से डाला गया है.

भाजपा आदिवासी और अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय के लोगों पर फोकस कर अपना ‘मिशन-200’ पूरा करना चाहती है. बंगाल दौरे पर गृहमंत्री अमित शाह का मतुआ समुदाय के घर पहुंच कर ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में लंच करना काफी कुछ कह जाता है. गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति की आबादी क़रीब 1.84 करोड़ है और इसमें 50 फ़ीसदी मतुआ संप्रदाय के लोग हैं जो चुनाव के वक़्त हर राजनितिक पार्टी के लिए काफी अहम् हो जाते हैं.

मुसलामानों पर नज़र  

पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुसलमान बहुत बड़ा फैक्टर है. राज्य की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 30 फ़ीसद है और 70-100 सीटों पर उनका एकतरफ़ा वोट जीत और हार तय कर सकता है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को नज़र अंदाज़ करके सत्ता की चाशनी चाटना नामुमकिन है. मुस्लिम समाज यहाँ करीब 100 से 110 सीटों पर नतीजों को प्रभावित करता है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बार 42 मुस्लिम कैंडिडेट मैदान में उतारे हैं. लेकिन यह मुस्लिम वोटबैंक को साधने में कितने कामयाब होंगे जबकि इस वोटबैंक में ओवैसी और पीरजादा सेंध लगा रहे हैं। एआईएमआईएम प्रमुख असद्दुदीन ओवैसी बंगाल की जमीन पर उतरते ही सीधे फुरफरा शरीफ की दरगाह पर सजदा करने पहुंचते हैं क्योंकि चुनाव में फुरफुरा शरीफ की खास भूमिका है. बता दें कि फुरफुरा शरीफ पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के जंगीपारा विकासखंड में स्थित एक गांव का नाम है. इस गांव में स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी की दरगाह बंगाली मुसलमानों में काफी लोकप्रिय है. कहा जाता है कि मुसलामानों के लिए अजमेर शरीफ के बाद फुरफुरा शरीफ ही दूसरी सबसे पवित्र दरगाह है. यहां पर हजरत अबु बकर सिद्दीकी के साथ ही उनके पांच बेटों की मज़ारें हैं, जहाँ सालाना उर्स में बड़ी संख्या में बंगाली और उर्दू भाषी मुसलमानों की भीड़ जुटती है. असदउद्दीन ओवैसी बिहार में पांच सीटों पर खाता खोलने के बाद बड़ी उम्मीद लेकर बंगाल के चुनावी मैदान में उतरे हैं. हालांकि ओवैसी का पश्चिम बंगाल में कोई दख़ल नहीं है. ना तो उनकी भाषा बंगाली मुसलमानों जैसी है और ना ही बंगाल के बारे में उनको ज़्यादा पता है, ना ही वो वहाँ के रहने वाले हैं. ऐसे में सोचने वाली बात है कि बंगाली मुसलमान उनको वोट क्यों देंगे?

वहीँ फुरफुरा शरीफ दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी निभाने वाले पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी हैं जो अबकी बार ममता के वोटबैंक हथियाने के लिए मैदान में हैं. पीरजादा अब्बास सिद्दीकी का मामला ओवैसी से अलग है. बंगाली मुसलमान का उन पर विश्वास है. उनका दख़ल हुगली ज़िले की सीटों पर अधिक है, जहाँ से वो ताल्लुक़ रखते हैं. मगर उसके बाहर उनका कोई प्रभुत्व नहीं है. चुनाव में उन्होंने कांग्रेस और लेफ्ट से हाथ मिलाया है मगर सीटों के बंटवारे में वह हिस्सा भी बड़ा ही चाहेंगे. लिहाज़ा आने वाले दिनों में सीटों के बंटवारे को लेकर मामला फंस सकता है. पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की महत्वाकांक्षा बड़ी हैं. अब्बास का परिवार फुरफुरा शरीफ की मज़ारों की देखरेख करता आया है और वर्तमान में इसके कर्ता-धर्ता अब्बास सिद्दीकी हैं. अब तक वे एक मजहबी शख्सियत थे और ममता से उनकी घनी छनती थी.

जब ममता के संघर्ष के दिन थे और वह सिंगुर और नंदीग्राम में आंदोलन कर रही थीं तब फुरफुरा शरीफ के पीरजादा परिवार ने ममता का खुला समर्थन किया था. तब वहां कई मुसलमान किसानों की भी जमीन सरकारी अधिग्रहण में जा रही थी, जो ममता के आंदोलन के कारण बच गयी. जब तक अब्बास सिद्दीकी मौलाना के रोल में रहे तब तक ममता से उनकी खूब पटी और उनके इशारे पर मुस्लिम वोट का खूब फायदा ममता को मिला, मगर अब्बास की राजनितिक इच्छाएं जागृत होते ही ममता से उनकी राहें जुदा हो गयीं. अपनी ऊंची महत्वाकांक्षाओं के चलते अब्बास सिद्दीकी ने ममता का साथ छोड़ कर कांग्रेस और लेफ्ट के साथ याराना गाँठ लिया. अब उनकी पार्टी ‘इंडियन सेक्यूलर फ्रंट’ बंगाल के मुसलामानों को साधने में जी-जान से जुटी है. युवा अब्बास सिद्दीकी अपने उत्तेजक भाषण, मजहबी तकरीरों की वजह से सोशल मीडिया के वर्चुअल स्पेस से लेकर हकीकत के जलसों में भी काफी भीड़ खींचते हैं. उनके चुनावी वीडियो फेसबुक, ट्विटर पर खूब वायरल हैं.

वहीँ ममता बनर्जी को अपने मुस्लिम मतदाताओं पर पूरा भरोसा है. उन्हें यकीन है कि जो मुस्लिम मतदाता उनके साथ पहले से जुड़े हुए हैं वो उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. इस भरोसे को कायम रखने के लिए ही ममता ने 42 मुस्लिम चेहरे चुनाव मैदान में उतारे हैं. लेकिन अब्बास और ओवैसी कुछ मुस्लिम वोट तो ज़रूर खींच ले जाएंगे. ऐसे में कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटों पर हक़ जमाने के चलते मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.

पश्चिम बंगाल की त्रिकोणीय बिसात को देखते हुए जानकार कहते हैं कि बंगाली मानुस ममता में ही ज़्यादा विश्वास रखता है. भाजपा के बवाल से भले तृणमूल कांग्रेस कुछ चुनौती का सामना कर रही है, मगर ममता ने जिस तरह हर तबके को ध्यान में रख कर उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, वह टीएमसी के लिए काफी आशा जगाती है. शुक्रवार को अपना लकी डे मानने वाली ममता बनर्जी ने फिलहाल जो 291 कैंडिडेट के नाम जारी किए हैं उनमें 50 महिलाएं, 42 मुस्लिम, 79 एससी, 17 एसटी और 103 सामान्य वर्ग के उम्मीदवार हैं. लिस्ट में 100 ऐसे चेहरे हैं, जिन्हें पहली बार मौका दिया जा रहा है. कई सीटों पर फेरबदल किया गया है. कम से कम 100 उम्मीदवार 50 साल से कम उम्र के हैं. इनमें से तीस उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी उम्र 40 साल से भी कम है. 80 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को ममता ने टिकट नहीं दिया है. वहीँ 24 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गए हैं. नंदीग्राम से खुद ममता बनर्जी टीएमसी छोड़ भाजपा में गए शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव में उतरेंगी. नंदीग्राम को शुभेंदु अधिकारी का गढ़ माना जाता है. अगर वो यहाँ से हारे तो भाजपा की काफी छीछालेदर होगी. इस सीट पर मुकाबला काफी रोचक होने वाला है.

बॉक्स

पश्चिम बंगाल में इस बार 8 फेज में वोटिंग होगी. 294 सीटों वाली विधानसभा के लिए वोटिंग 27 मार्च (30 सीट), 1 अप्रैल (30 सीट), 6 अप्रैल (31 सीट), 10 अप्रैल (44 सीट), 17 अप्रैल (45 सीट), 22 अप्रैल (43 सीट), 26 अप्रैल (36 सीट), 29 अप्रैल (35 सीट) को होनी है. काउंटिंग 2 मई को की जाएगी.

श्वेता तिवारी ने शेयर किया बोल्ड फोटो , फैंस को बताया मैं निडर हूं

जबसे श्वेता तिवारी ने अपना वजन कम किया है. फैंस के बीच कुछ ज्यादा ही छा गई हैं. उनका स्लिम लुक लोगों को काफी ज्यादा पसंद आ रहा है. श्वेता तिवारी आए दिन अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपनी नई- नई तस्वीर शेयर करती रहती हैं.

जिसमें वह बलां की खूबसूरत लग रही हैं. श्वेता तिवारी ने अपनी तस्वीर को शेयर करते हुए लिखा है कि डॉन्ट ट्राई मी मैं पैदाइशी निडर हूं. श्वेता तिवारी ने 1999 में सीरियल कलीरें से अपने कैरियर की शुरुआत की थी. जिसमें वह एक बेटी की भूमिका में नजर आती थी.

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इसके बाद वह सीरियल कसौटी जिंदगी में प्रेरणा के किरदार में नजर आई जहां लोगों ने उन्हें खूब ज्यादा पसंद किया. इस सीरियल से वह हर घर में और लोगों के दिलों में राज करने लगी.

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कसौटी जिंदगी में प्रेरणा के रोल में श्वेता तिवारी को लोगों ने ढ़ेर सारा प्यार दिया. जिसके बाद लोग उन्हें उनके रियल नाम से ज्यादा प्रेरणा के नाम से बुलाने लगें.

 

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कुछ दिनों पहले श्वेता तिवारी ने एक वीडियो शेयर कर खुद पर हुए घरेलू हिंसा का जिक्र किया था. जिसमें श्वेता ने बताया था कि कैसे लह मुश्किलों का सामना करते हुए अपने जीवन में आगे बढ़ रही हैं.

श्वेता तिवारी की दो बार शादी हुई दोनों शादियां टूट गई जिसेक बाद से श्वेता खुद को स्ट्रांग वूमेन की तरह ट्रीट करती हैं. श्वेता तिवारी अपनी फैमली के साथ खुश रहती हैं. श्वेता तिवारी अपने बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड करती नजर आती हैं. वह सिंगल मॉम होने के बावजूद भी खुद को अच्छा हमेशा विजी रखती हैं.

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अब श्वेता तिवारी की बेटी पलक भी बॉलीवुड इंडस्ट्री मेंअपनी जगह बनाने में लगी हुई है. जल्द ही उनकी फिल्म भी रिलीज होने वाली हैं. श्वेता की बेटी पलक भी बेहद ज्यादा क्यूट है. लोग उन्हें भई सोशल मीडिया पर खूब ज्यादा पसंद करते हैं.

ममता बनर्जी से दीदी तक का सफ़र

नीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी और पैरों में हवाई चप्पल पहने हुए एक महिला जिसका जन्म कोलकाता के बहुत ही गरीब परिवार में हुआ, बाद में जाकर कोलकाता की मुख्यमंत्री बनती है. चेहरे पर एक अलग सा तेज और बातों से एकदम साफ और कड़क. जो अपने सादे जीवन और अपने मुकर स्वभाव के लिए ही राजनीति में जानी जाती है. अपने नाम की बजाय दीदी के नाम से संबोधित की जाती है. आज हम बात कर रहे हैं ममता बनर्जी के जीवन की.

ममता बनर्जी का बचपन

ममता बनर्जी का जन्म 5 जनवरी 1955 को कोलकाता में हुआ था. ममता के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे और जब वो बहुत छोटी थी, तभी उनकी मृत्यु हो गई. बताया जाता है कि गरीब परिवार का होने का कारण उन्हें अपने छोटे भाई-बहन का पालन पोषण करने के लिए काम में अपनी मां का हाथ बंटाना पड़ता था. जिसके लिए उन्हें दूध बेचने का काम भी करना पड़ा है.

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पढ़ाई और डिग्रियां

ममता बनर्जी दक्षिण कोलकाता के जोगमाया देवी कॉलेज से इतिहास ऑनर्स की डिग्री ली है. इसके बाद ममता बनर्जी ने इस्लामिक इतिहास में मास्टर डिग्री कलकत्ता विश्वविद्यालय से ली. इसके बाद उन्होंने श्रीशिक्षायतन कॉलेसज से बीएम की और कोलकाता स्थित जोगेश चंद्र चौधरी कॉलेज से कानून की पढ़ाई की और फिर राजनीति में अपने कदम को इतनी मजबूती से जमाया कि आज पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के कद का किसी भी पार्टी में कोई भी नेता नहीं है.

15 साल की उम्र मे राजनीतिक करियर की शुरूआत

70 के दशक में मात्र 15 साल की उम्र मे कांग्रेस पार्टी से जुड़ने वाली ममता बनर्जी ने सबसे पहले एक पदाधिकारी के रूप में 1976 में अपना काम संभाला. इस दौरान वो 1975 में पश्चिम बंगाल में महिला कांग्रेस (I) की जनरल सेक्रेटरी नियु्क्त की गईं. इसके बाद 1978 में ममता कलकत्ता दक्षिण की जिला कांग्रेस कमेटी (I) की सेक्रेटरी बनीं. 1984 में ममता ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से हराया. जिसके बाद उन्हें देश की सबसे युवा सांसद बनने का गौरव प्राप्त हुआ. इसके बाद 1991 में वो दोबारा लोकसभा की सांसद बनीं और इस बार उन्हें केंद्र सरकार में मानव संसाधन विकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग में राज्यमंत्री भी बनाया गया.

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वर्ष 1991 में जब नरसिम्‍हा राव की सरकार बनी तब उन्हें मानव संसाधन विकास, युवा मामले और खेल के साथ ही महिला और बाल विकास राज्य मंत्री भी बनाया गया.  खेल मंत्री के तौर पर उन्होंने देश में खेलों की दशा सुधारने को लेकर सरकार से मतभेद होने पर इस्तीफा देने की घोषणा कर दी थी. इस वजह से 1993 में उन्हें इस मंत्रालय से छुट्‍टी दे दी गई.

TMC का गठन

इसके बाद 1996 में ममता एक बार फिर सांसद बनीं, लेकिन ममता के राजनीतिक जीवन में एक अहम मोड़ तब आया जब वर्ष 1998 में कांग्रेस पर माकपा के सामने हथियार डालने का आरोप लगाते हुए उन्होंने अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली. ममता की पार्टी ने जल्दी ही कांग्रेस से राज्य के मुख्य विपक्षी दल की गद्दी छीन ली. साल 2011 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने अकेले अपने बूते ही तृणमूल कांग्रेस को सत्ता के शिखर तक पहुंचा दिया.

राजनीतिक करियर की शुरुआत से ही ममता का एकमात्र मकसद बंगाल की सत्ता से वामपंथियों को बेदख़ल करना था. इसके लिए उन्होंने कई बार अपने सहयोगी बदले. पार्टी गठन के शुरुआती दिनों में ममता बनर्जी तब बीजेपी के सबसे बड़े नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी की करीबी रहीं. इसके अलावा उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री के रूप में भी काम किया.  2002 में उन्होंने अपना पहला रेल बजट पेश किया. ममता बनर्जी ने रेलवे के नवीनीकरण की दिशा में बड़े फैसले लिए. इस बजट में उन्होंने बंगाल को सबसे ज्यादा सुविधाएं दी, जिसको लेकर थोड़ा विवाद भी हुआ.

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लेकिन तहलका कांड की वजह से महज 17 महीने बाद ही इस्तीफ़ा देकर सरकार से अलग हो गईं. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को राज्य की 42 में महज एक ही सीट मिली थी. वह भी सीट ममता की ही थी. लेकिन उसके बाद सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों के हक में जमीन अधिग्रहण विरोधी लड़ाई के ज़रिए ममता ग़रीबों की मसीहा के तौर पर उभरीं. यही वजह थी कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल की सीटों की तादाद एक से बढ़ कर 19 तक पहुंच गई.

UPA से फिर जोड़ा नाता

साल 2009 के आम चुनावों से पहले ममता ने फिर एक बार यूपीए से नाता जोड़ लिया. इस गठबंधन को 26 सीटें मिलीं और ममता फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गईं. उन्हें दूसरी बार रेल मंत्री बना दिया गया. रेल मंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल लोकलुभावन घोषणाओं और कार्यक्रमों के  लिए जाना जाता है. 2010 के नगरीय चुनावों में तृणमूल ने फिर एक बार कोलकाता नगर निगम पर कब्जा कर लिया.

बंगाल में वामपंथ का सफाया, TMC की बड़ी जीत

साल 2011 में टीएमसी ने ‘मां, माटी, मानुष’ के नारे के साथ विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत के साथ जीत हासिल की. ममता राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं और 34 वर्षों तक राज्‍य की सत्ता पर काबि‍ज वामपंथी मोर्चे का सफाया हो गया. ममता की पार्टी ने राज्‍य विधानसभा की 294 सीटों में से 184 पर कब्‍जा किया.

UPA से तोड़ा नाता

केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर अपनी पैठ जमाने के बाद ममता ने 18 सितंबर 2012 को यूपीए से अपना समर्थन वापस ले लिया. इसके बाद नंदीग्राम में हिंसा की घटना हुई. सेज (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) विकसित करने के लिए गांव वालों की जमीन ली जानी थी. माओवादियों के समर्थन से गांव वालों ने पुलिस कार्रवाई का प्रतिरोध किया, लेकिन गांव वालों और पुलिस बलों के हिंसक संघर्ष में 14 लोगों की मौत हो हुई.

ममता ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री शिवराज पाटिल से कहा कि बंगाल में सीपीएम समर्थकों की हिंसक गतिविधियों पर रोक लगाई जाए. बाद में जब राज्य सरकार ने परियोजना को समाप्त कर दिया, तब हिंसक विरोध भी थम गया. लेकिन इस दौरान केंद्र और कांग्रेस से उनके मतभेद शुरू हो गए.

2019 के लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी का दल पश्चिम बंगाल का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा. 42 सीटों पर हुए चुनाव में ममता सबसे बड़े दल के रूप में 22 सीट जीत सकीं. इसके अलावा बीजेपी को 18 सीटों पर विजय मिलीं. बड़ी बात ये कि प्रधानमंत्री मोदी विरोध के लिए ममता बनर्जी हमेशा बीजेपी के खिलाफ रहीं. सीएए, एनआरसी, जीएसटी, नोटबंदी और किसान आंदोलन तक ममता ने मोदी सरकार के तमाम फैसले के विरोध में खड़ी नजर आई. अब वह 2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले बीजेपी के सामने प्रमुख दल के रूप में खड़ी नजर आ रही हैं.

फ़ैसलों पर अफ़सोस ना करने वाली ममता

ममता ने कभी अपने फ़ैसलों पर अफ़सोस नहीं जताया. ज़िद और टकराव की इस राजनीति ने ही उनको क़ामयाबी दिलाई है. उनकी छवि धीरे-धीरे एक ऐसे नेता की बन रही है जो केंद्र की एनडीए सरकार, प्रधानमंत्री, भाजपा और उसके ताक़तवर नेताओं से भी दो-दो हाथ करने से नहीं डरतीं.

राज्य में कांग्रेस के छात्र संगठन छात्र परिषद की नेता के तौर पर अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाली ममता ने तमाम मुकाम अपने दम पर हासिल किए. अपनी ज़िद और जुझारूपन के चलते उनको सैकड़ों बार पुलिस और माकपा काडरों की लाठियां खानी पड़ी. इस ज़िद, जुझारूपन और शोषितों के हक़ की लड़ाई के लिए मीडिया ने उनको अग्निकन्या का नाम दिया था.

कांग्रेस में रहते हुए भी ममता ने कभी पार्टी के बाक़ी नेताओं की तरह माकपा की चरण वंदना नहीं की. वह हमेशा उसके हर ग़लत फ़ैसलों और नीतियों का विरोध करती रहीं. उस दौर में बंगाल में कांग्रेस को माकपा की बी टीम कहा जाता था.

निजी या सार्वजनिक जीवन में उनके रहन-सहन और आचरण पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह रही है कि वह ज़मीन से जुड़ी नेता हैं. वह चाहे सिंगुर में किसानों के समर्थन में धरना और आमरण अनशन का मामला हो या फिर नंदीग्राम में पुलिस की गोलियों के शिकार लोगों के हक़ की लड़ाई का, ममता ने हमेशा मोर्चे पर रह कर लड़ाई की.

उनके करियर में कई ऐसी विवादास्पद घटनाएँ हुई हैं, जिनके कारण ममता बनर्जी की छवि एकसनकी और आत्मप्रशंसा में डूबे रहने वाले एक राजनीतिज्ञ की बनी.

उन पर तानाशाही के आरोप भी लगते रहे हैं. लेकिन बंगाल पर दो लाख करोड़ के भारी-भरकम कर्ज के बावजूद उन्होंने अपने बूते जितनी नई परियोजनाओं की शुरुआत की, उसकी दूसरी मिसाल कम ही देखने को मिलती है.

ममता पर भ्रष्ट नेताओं को संरक्षण देने समेत कई सवाल उठते रहे हैं. लेकिन उनके कट्टर आलोचक भी मानते हैं कि वे निजी जीवन में बेहद ईमानदार हैं. वर्ष 1993 में युवा कांग्रेस अध्यक्ष रहते राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग अभियान के दौरान पुलिस की गोली से 13 युवक मारे गए थे. तबसे ममता हर साल 21 जुलाई को शहीद रैली का आयोजन करती रहीं हैं. उन्होंने उन पीड़ित परिवारों के एक-एक सदस्य को नौकरी तो दी ही, उनको आर्थिक सहायता भी दिलाई.

कविता और पेंटिग की शौकिन ममता

ममता एक राजनेता होने के अलावा एक कवि, लेखक और चित्रकार भी हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी कविता और कहानी की दर्जनों किताबें आ चुकी हैं. ‘राजनीति’ शीर्षक से उनकी एक कविता काफी चर्चित रही है. अपने भाषणों में भी वे गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और शरतचंद्र का हवाला देती रही हैं. वर्ष 2012 में टाइम पत्रिका ने उन्हें विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया था.

रणबीर कपूर की बहन ने इस खास अंदाज में किया Alia Bhatt को बर्थडे विश

फिल्म इंडस्ट्री की जानी मानी अदाकारा आलिया भट्ट आज अपना 28वां जन्मदिन मना रही हैं. इस खास मौके पर सभी लोग आलिया को जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं. आलिया के जन्मदिन पर रणबीर कपूर की बहन रिद्धिमा कपूर ने उन्हें खास अंदाज में विश किया है.

भट्ट परिवार की लाडली को सभी लोग प्यार देते नजर आ रहे हैं. रिद्धिमा कपूर साहनी ने बेहद ही खास अंदाज में आलिया को बधाई दी है. जिसे देखकर फैंस भी लागातार उस पर कमेंट करते नजर आ रहे हैं. रिद्धिमा कपूर ने आलिया पर प्यार बरसाते हुए उन्हें डॉल कहा है.

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फोटो में आप देख सकते हैं कि रिद्धिमा कपूर ने जो फोटो शेयर किया है उसमें आलिया के अलावा उनके सभी फैमली मेंबर्स मौजूद है. फोटो शेयर करते हुए रिद्धिमा कपूर ने लिखा है कि हैप्पी बर्थ डे सुंदर डॉल हम तुम्हें बेहद ही ज्यादा प्यार करते हैं.

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सभी फोटो में काफी ज्यादा खुश नजर आ रहे हैं. बता दें कि रिद्धिमा कपूर की दोस्ती आलिया भट्ट से काफी ज्यादा अच्छी है. साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि नीतू कपूर भी आलिया भट्ट को बहुत ज्यादा पसंद करती हैं. अक्सर आलिया भट्ट को रणबीर कपूर की फैमली के साथ टाइम स्पेंड करते देखा जाता है.

 

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वैसे देखा जाए तो आलिया भट्ट अपने ब्यॉफ्रेंड रणबीर कपूर को काफी ज्यादा मिस कर रही हैं. दरअसल, रणबीर कपूर इन दिनों कोरोना जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं. जिस वजह से आलिया उन्हें मिस कर रही हैं.

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बता दें कि रणबीर और आलिया इस साल के आखिरी तक शादी के बंधन में बंध जाएंगे, जिसका इंतजार सभी घर वालों को हैं.

दरअसल, रणबीर कपूर और आलिया भट्ट एक- दूसरे के साथ पिछले साल ही शादी के बंधन में बंधने वाले थें, लेकिन रणबीर कपूर करे पापा यानि ऋषि कपूर के देथ के बाद उन दोनों की शादी नहीं हो पाई.

दोहरा मापदंड : निधि का मूड क्यों उखड़ा था- भाग 3

प्राची ने निधि के जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए सुबह से ही तैयारी शुरू कर दी थी. विहान के आ जाने से निधि खुद को पूर्ण सम झ पा रही थी. ननद रागिनी और उस की सास ने भी फोन पर बधाई के साथ घर लौट आने के लिए कहा. इन दिनों छाए एकाकीपन ने निधि के दंभ और अहं को खोखला कर दिया था. आज निधि बारीकी से प्राची भाभी की उस जादुई पकड़ को देख रही थी जिस ने पूरे घर को एकता के सूत्र में बांध रखा था. कल की अनगढ़ लड़की ने अपने धैर्य, संयम और अपनेपन से पूरे घर पर सहज अधिकार कर लिया था. जबकि उस ने खुद अपने दायरे विस्तृत करने के लिए कभी प्रयास ही नहीं किए. नतीजा… अपने ही घर वालों से मिला अजनबीपन उसे खालीपन से भरता गया. रात देर तक प्रभादेवी प्राची के साथ रसोई में लगी रहीं.

‘‘मम्मी, आप अब आराम कर लीजिए, मैं निबटा दूंगी बचा काम,’’ कहते हुए प्राची ने उन्हें भेज दिया.

रात को विहान पानी लेने आए तो हैरान रह गए, साकेत और प्राची बातें करते हुए रसोई के बरतन लगा रहे थे.

‘‘ओहो, साले साहब, बीवी की गुलामी की जा रही है,’’ विहान के मजाक पर दहला मारते हुए साकेत ने कहा, ‘‘जीजाजी, बीवी की गुलामी के बड़े फायदे हैं. बीवी का साथ और जीवन में रोमांस बना रहता है.’’

साकेत की मजाक में कही बात की सार्थकता प्राची भाभी के चेहरे की रौनक पर विहान को महसूस हुई. देर रात कौफी पीते हुए गपों के बीच ही प्राची ने निधि से कहा, ‘‘दीदी, आज कितनी रौनक है. इस रौनक की आप हकदार हैं, वादा कीजिए यह रौनक सदा बरकरार रहेगी.’’ निधि को मौन देख प्राची बोली, ‘‘इतना मत सोचिए, समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि जिस का हल न हो. जीवन में हर छोटीबातों के ऐसे बड़े मतलब नहीं निकालने चाहिए जिन के बो झ तले हम खुद को दबा महसूस करें. हर घर के अलग नियमकानून होते हैं. बस, एक चीज समान होती है, घर के सदस्यों का एकदूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण. आप घर के हर पुरानेनए रिश्तों को मानसम्मान दीजिए, यकीन मानिए, वे सभी रिश्ते आप को यों गले लगाएंगे कि पराएपन को ठहरने के लिए जगह ही नहीं मिलेगी. जिस तरह मैं ने अपनी मम्मी की हर बात को सास के मुंह से निकला सूक्तिबाण महसूस न कर एक मां की हिदायत सम झ कर उसे अपने जीवन में उतारा. वैसे ही आप भी विहानजी की मम्मी की हर टोके जाने वाली बात का बुरा मानना छोड़ दीजिए. इन बड़े लोगों के पास उम्र और तजरबों का खजाना होता है. उस का फायदा हम नहीं लेंगे तो और कौन लेगा.’’

प्राची की बात से पसरा मौन विहान ने तोड़ा, ‘‘निधि एक मौका मु झे दो तुम्हें सम झने का. शायद मैं ने भी तुम से सिर्फ अपेक्षाएं ही की हैं. तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा उतरने में नाकामी हासिल की है. इन छोटीछोटी बातों को तूल दे कर हम खुशियों से किनारा कर लेते हैं. नए माहौल में सामंजस्य बिठाने में शायद मैं तुम्हें वह साथ नहीं दे पाया जिस की तुम्हें जरूरत थी. गलती मेरी भी थी.’’ विहान की बातों से भावुक निधि भीगे शब्दों में बोल रही थी, ‘‘अब बातें ही बनाओगे या पैकिंग में मेरी मदद भी करोगे.’’  निधि की बात से सब उल्लासित हो गए. तभी प्राची ने एक लिफाफा निधि के हाथ में दिया, ‘‘ये मेरी और साकेत की तरफ से गिफ्ट है.’’

‘‘नहीं प्राची भाभी, इस की जरूरत नहीं है. आप ने बहुत किया है मेरे लिए…’’ निधि की बात को काट कर विहान जल्दी से बोले, ‘‘निधि प्लीज, इस गिफ्ट के लिए इनकार मत करना,’’ प्राची भाभी हंस रही थीं और साकेत बोल रहे थे, ‘‘भई, तुम ने तो बताया नहीं तो हम ने विहान से पूछ लिया, उस ने ही तय किया कि निधि को महाबलेश्वर अच्छा लगेगा.’’ ‘‘ओह, तो ये सब आप लोग हमारे लिए प्लान कर रहे थे,’’ निधि चहक रही थी. वहीं प्राची और साकेत की आंखों में सुकून भरी मुसकान फैल गई थी. वे उन दोनों के बीच की इस नई शुरुआत की जानकारी जल्दी से जल्दी प्रभादेवी को देना चाहते थे. जिन की आंखों की उड़ी हुई नींद इस खुशखबरी का इंतजार कर रही थीं. प्राची और साकेत, निधि और विहान के बीच एक नए सुकुमार रिश्ते को जन्म लेते साफ देख पा रहे थे. 

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