Download App

बूआजी : सत्यदीप को घर छोड़कर क्यों जाना पड़ा ?

लेखक-हरीश जायसवाल

“गुडमौर्निंग डाक्टर.” आगंतुक डाक्टर दीपक के चैंबर में दाखिल होते हुए बोला, “मेरा नाम सत्यदीप है और मैं यूएसए से आ रहा हूं. पिछले दिनों मेरी आप से लगातार बातें होती रही हैं.” और वह डाक्टर दीपक के सामने रखी कुरसी पर बैठ गया.

“ओह, तो आप बूआजी के सुपुत्र हैं. आप ने आने में देरी कर दी,” डाक्टर दीपक बोले और अभिवादव के तौर पर हाथ जोड़ लिए.

“नहींनहीं डाक्टर, आप को गलतफहमी हो रही है. मेरी मम्मी का नाम तो दीपिका सत्यनारायण है. वे तो कोविड ट्रीटमैंट के लिए आप के नर्सिंगहोम में भरती हैं. मेरी मम्मी अपने मातापिता की इकलौती संतान थीं,” सत्यदीप ने अपनी बात एक ही सांस में कह दी. स्पष्टतौर पर यह बूआ शब्द का विरोध ही था.

“हां सत्यदीप जी, मैं जानता हूं. बूआजी का ही नाम दीपिका, उन के पति का नाम सत्यनारायण और आप का नाम दोनों को मिला कर सत्यदीप रखा गया है. मैं यह भी जानता हूं कि आप उम्र में मुझ से बड़े हैं तथा लगभग 20 बरसों से यूएसए में रह रहे हैं. अब्रॉड जाने के लगभग 2 साल बाद ही आप की शादी हो गई थी और आप शादी के तुरंत बाद ही भाभी जी को ले कर स्टेट्स चले गए थे.“उसी साल आप के पिताजी का देहांत हो गया था. चूंकि आप उस साल अपनी शादी के लिए

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi : मान अभिमान- क्यों बहुओं से दूर हो गई थी

काफी छुट्टियां ले चुके थे, सो आप लोगों के लिए 15 दिनों से अधिक रुकना संभव नहीं था. उस के अगले साल ही आप की पत्नी प्रैग्नैंट हो गई और अपनी सुरक्षा, हाईजीन व बच्चे के लिए विदेशी नागरिकता के दृषिकोण से वहीं पर डिलीवरी करवाने का निर्णय लिया. यद्यपि बूआजी आप की सहायता के लिए वहां गई थीं और लगभग 6 महीने तक आप लोगों के साथ रहीं भी मगर उन्हें वहां का क्लाइमेट और कल्चर सूट न होने के कारण फिर कभी वे उस देश में नहीं गईं हालांकि आप ने उन्हें कई बार बुलाया.

“उस के बाद आप का 4 बार इंडिया आना हुआ. मगर हर बार आप अपनी ससुराल के किसी न किसी फंक्शन को अटेंड करने के लिए ही आए थे. साथ ही. आप इंडिया के टूरिस्ट प्लेसेस को घूमने का प्रोग्राम भी बना कर आए थे. इसी कारण बूआजी से आप की मुलाकातें अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही हुआ करती थीं,” डाक्टर दीपक बोल रहे थे.

“आप मेरे बारे में इतना कुछ कैसे जानते है? क्या आप का कोई रिलेटिव, मेरा मतलब है मम्मी या पापा, भी उस सरकारी स्कूल में सर्विस करता था जहां पर मम्मी थीं?” सत्यदीप ने आश्चर्य से पूछा.

“जी नहीं. मेरी बूआजी के परिवार में एंट्री उस समय हुई जब आप के पिताजी के देहांत को 6 महीने हो चुके थे और अपने इतने बड़े घर में अपना अकेलापन दूर करने के लिए घर के एक हिस्से, जिस में एक बैडरुम, किचन था, को किराए पर देने का निर्णय लिया. उन दिनों मैं और मेरी पत्नी दोनों ही यहां के सरकारी हौस्पिटल में ट्रांसफर हो कर आऐ थे.

ये भी पढ़ें- Raksha Bandhan 2021 : एक छोटी सी गलतफहमी – समीर अपनी बहन के

“घर दिखाते समय बूआजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे घर को किसी भी आर्थिक मजबूरी के कारण किराए से नहीं दे रही हैं और न ही वे किराएदार रख रही हैं बल्कि वे तो अपने दुखसुख बांटने के लिए अपना परिवार बढ़ा रही हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान बाजारभाव से इस जगह का किराया 5 हज़ार रुपए प्रतिमाह होता है लेकिन आप को जो भी उचित लगे, आप दे दीजिएगा.

“उस के बाद हम उस घर में बूआजी के साथ लगभग साढ़े 5 साल तक रहे. सरकारी नौकरी छोड़ कर नर्सिंगहोम डालने की रूपरेखा में बूआजी ने सक्रिय सहयोग दिया. हमारे परिवार की  पहली व एकमात्र डिलीवरी भी उसी घर में हुई. अपने बच्चे की देखभाल के लिए उन्होंने हमें कभी भी आया नहीं रखने दी. दलील देती थीं कि बड़े होने के बाद तो बच्चों की अपनी मजबूरियां होंगी और वे हमारे साथ रह पाएं या नहीं, सभीकुछ परिस्थितियों पर निर्भर करेगा. हम आज से ही क्यों अपने बच्चों को व्यावसायिक हाथों में सौंपे.

“हमारे बच्चे के सभी काम उन्होंने पूरी प्रसन्नता और मनोयोग से किए. कभीकभी विशेष परिस्थितियों में हम दोनों को ही नाइट शिफ्ट में जाना पड़ता था, ऐसे में बूआजी सारी रात बच्चे को अपने साथ ही रखती व संभालती थीं.

ये भी पढ़ें- Social Story in Hindi : किटी पार्टी

“किराए के घर में प्रवेश के पहले दिन जब हम रहने पहुंचे तो शिष्टाचारवश मैं ने उन्हें मम्मीजी कह दिया तो तुरंत उन्होंने प्रतिकार करते हुए कहा कि यह संबोधन मैं सत्यदीप के अलावा किसी और के मुंह से सुनना नहीं चाहती हूं. यह अधिकार सिर्फ और सिर्फ सत्यदीप का है.

मेरे विचार से वे आप से बहुत अधिक स्नेह करती थीं और आप को एक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहती थीं. वे यह भी नहीं चाहती थीं कि वे किसी और की औलाद को अपना लें.

तब आप को क्या कहूं? मैं ने कुतुहल से पूछा था तो उन्होंने कहा था कि ‘तुम दोनों ही मुझे बूआ कह सकते हो क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि एक स्त्री को अपने भाई के बच्चे अपने खुद के

बच्चों से भी अधिक प्रिय होते हैं. बूआ का संबंध अपने भतीजेभतीजियों से ज्यादा निकट होता है और दोनों तरफ से विचारों का आदानप्रदान सम्मानपूर्वक व सुगम होता है.’

“ ‘बिलकुल सही बूआजी. मैं अपनी बूआ की गोद में सिर रख कर सो भी जाती हूं और उन के साथ ताश व अंत्याक्षरी भी खूब खेलती हूं. जो बात मैं अपने मातापिता से नहीं कह पाती हूं वह बूआ के माध्यम से उन तक पहुंचा देती हूं.’ मेरी पत्नी बीच में बोली.

“अब स्थिति यह है कि मेरा बेटा भी उन्हें दादी न कह कर बूआजी ही कहता है. मेरा नर्सिंगहोम खुलने के बाद अनिवार्यता के दृष्टिकोण से अपना निवास यहीं बनवा लिया. मगर बूआजी से

संपर्क निरंतर बना रहा.

“मैं अकेला नहीं, बल्कि मेरे बाद आने वाले अन्य 5 किराएदार भी उन्हें बूआजी कह कर पुकारते हैं और वे घर के सभी सदस्यों से ज्यादा सम्माननीय भी हैं. उन सभी लोगों को सूचित भी कर दिया गया है. आप देखेंगे कि अभी कुछ ही समय में सभी लोग यहां पहुंच चुके होंगे.”

“मगर अभी तो कोरोना प्रोटोकौल चल रहा है. ऐसे में कौन अपनी जान जोखिम में डालेगा?” सत्यदीप हैरानी से बोला.

“अरे साहब, बूआजी ने हम सभी की एक बार नहीं, बल्कि कई बार इस तरह की मदद की है कि उन का कर्जा उतरना कम से कम इस जन्म में तो हमारे लिए संभव नहीं है. कोरोना से भी बड़ी कोई महामारी हो, तब भी हम 6 लोग तो बेझिझक वहां पर पहुंच ही जाते,” डाक्टर बोले, “और हां, नर्सिंगहोम के अकाउंटैंट से मैं ने सिर्फ आप को सूचना देने के लिए बोला था, आप से पैसे मंगवाने के लिए बिलकुल भी नहीं बोला गया था. वह तो साधारण पेशेंट के साथ जैसा व्यवहार करता है, उसी प्रकार उस ने आप के साथ भी कर दिया. वैसे, उस की गलती है भी नहीं क्योंकि यह तो उस की ड्यूटी का एक हिस्सा है. आप के द्वारा भेजा गया पैसा वापस आप के अकाउंट में ट्रांसफर किया जा रहा है.”

अब तक बाकी के पांचों किराएदार भी पहुंच चुके थे. वर्तमान किराएदार ओमप्रकाश तो लगातार रोए जा रहे थे. आंसू तो सभी की आंखों में थे जो बूआजी के प्रति स्नेह व आदर दिखाने के लिए पर्याप्त थे.

तभी बतलाया गया कि बूआजी के मृत शरीर को अंत्येष्टि के लिए ले जाया जा रहा है. कोरोना प्रोटोकौल के अंतर्गत सिर्फ 5 व्यक्ति ही जा सकते थे और वह भी सिर्फ पंचनामे पर साइन करने के लिए.

सत्यदीप तो परिवार का सदस्य था, सो उस का जाना तो अनिवार्य था ही लेकिन बाकी 6 में से कोई भी बूआजी का साथ अंतिम समय में छोड़ने को तैयार नहीं था यह जानते हुए भी कि यह एक तरह का रिस्क है.

आखिरकार, 2 व्यक्ति ऐसे व्यक्ति के साथ गए जिन के अपने तक उन की अंतिमक्रिया में जाने को तैयार नहीं थे. बूआजी का क्रियाकर्म कर के लौटते समय सत्यदीप बोला, “मुझे आप लोगों की बातें सुन कर और आप लोगों के व्यवहार को देख कर ऐसा लगता है जैसे मैं ने अपनी मम्मी के साथ न रह कर बहुत बड़ी गलती कर दी है जिस का पश्चात्ताप मुझे जिंदगीभर रहेगा.” उस की आंखें नम थीं.

“नहींनहीं सत्यदीप जी, ऐसी कोई बात नहीं है. बूआजी को आप से कभी कोई शिकायत नहीं थी. वे आप की मजबूरियों को बहुत अच्छे से समझती थीं. दूसरे, सत्यदीपजी, एक बात और है ना, जो चीज हमारे पास होती है उसे हम हमेशा कमतर ही आंकते हैं. शायद इसी कारण से बूआजी की तारीफें सुन कर आप ऐसा समझ रहे हैं. आप की जगह हम सब में से भी यदि कोई होता तो वह भी वही करता जो आप कर रहे हैं. जीवनयापन की सब की अपनीअपनी विवशताएं हैं,” डाक्टर दीपक सत्यदीप के कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देते हुए बोले.

श्वेता तिवारी अपने दोस्त की वजह से हुईं ट्रोलिंग की शिकार, हेटर्स बोले अब तीसरा तलाक होगा

रोहित शेट्टी के शो खतरों के खिलाड़ी 11 में नजर आ चुकी श्वेता तिवारी इन दिनों सुर्खियों में बनी हुईं हैं. खतरों के खिलाड़ी में हुई कहा सुनी के बाद से वह खूब लोगों के बीच छाई रहीं. श्वेता का यह अंदाज लोगों को खूब पसंद आ रहा है तो वहीं कुछ लोग श्वेता को लेकर ट्रोल भी कर रहे हैं.

हाल ही में श्वेता तिवारी के खास दोस्त विशाल कालांत्री का जन्मदिन था, इस खास मौके पर विशाल को श्वेता ने अपने सोशल मीडिया से बधाई दी है.

ये भी पढ़ें- आदित्या की जिंदगी से मालिनी को हटाने की कोशिश करेगी मीठी, घरवाले होंगे

जिसके बाद से कुछ लोग श्वेेता को ट्रोल करना भी शुरू कर दिए. कुछ फैंस ने तो यह भी पूछ लिया कि विशाल कालांत्री के साथ तीसरी शादी करोगी क्या. जिसके बाद से कुछ ने लिखा कि एक और जिंदगी बर्बाद होने वाली है. श्वेता तिवारी का यह अंदाज लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया . शायद यही वजह है कि लोगों ने श्वेता तिवारी को खरीखोटी सुनानी शुरू कर दिया.

ये भी पढ़ें- फिल्म‘‘बेलबाॅटम’’को लेकर अक्षय कुमार ने उठाया बड़ा कदम 19 अगस्त को फिल्म ‘बेलबाॅटम’ पहुॅचेगी सिनेमा घरो में

दरअसल विशाल के जन्मदिन पर श्वेता तिवारी ने अपने सोशल मीडिया पर विश करते हुए लिखा था कि अब मैं तुम्हारे बारे में क्या लिखूं, मैं तुमसे कहती हूं कि मैं जब भी कुछ कहती हूं तो तुम मेरी सारी बात मानते हो. मुझे हमेशा सही गलत की पहचान कराते हो, जब मुझे लोगों पर यकीन नहीं होता है तब तुम मेरी मदद करते हो. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं.  जन्मदिन की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं दोस्त.

ये भी पढ़ें- अपार शक्ति खुराना कर रहे हैं भारतीय समाज में टैबू समझे जाने वाले ‘कंडोम’पर बनी फिल्म‘हेलमेट’

श्वेता तिवारी की इतनी प्यारी बात सुनने के बाद फैंस को श्वेता पर भरोसा नहीं हो रहा है. और फिर क्या उन्हें ट्रोल करना शुरू कर दिया.

आदित्या की जिंदगी से मालिनी को हटाने की कोशिश करेगी मीठी, घरवाले होंगे इमली के खिलाफ

टीवी सीरियल इमली में इन दिनों कुछ न कुछ नया देखने को मिल रहा है. एक तरफ जहां आदित्या का प्यार इमली के लिए बढ़ते जा रहा है वहीं दूसरी तरफ मालिनी ने भी ठान लिया है कि वह आदित्या को अपना बनाकर रहेगी.

पिछले एपिसोड में आपने देखा होगा कि इमली आदित्या को पूरी बात बताने की कोशिश करेगी , लेकिन वह मानने को तैयार नहीं होगा.  वहीं मीठी को यह बात समझ में आ गया है कि आदित्या को पाने के लिए मालिनी किसी भी हद तक जा सकती है.

अब इस सीरियल में कई सारे ट्विस्ट आने वाले हैं खूब सारे धमाके होने वाले हैं. फैंस को इस सीरियल में इन दिनों खूब सारा ट्विस्ट देखने को मिलने वाला है.

ये भी पढ़ें- अपार शक्ति खुराना कर रहे हैं भारतीय समाज में टैबू समझे जाने वाले ‘कंडोम’पर बनी फिल्म‘हेलमेट’

मीठी इमली को समझाने की कोशिश करती है कि वह इस वक्त आदित्या से दूर न जाए क्योंकि मालिनी इस वक्त मौके का फायदा उठा सकती है. वहीं आदित्या मालिनी के घर चला जाएगा. जहां घायल हुई मीठी रूकी हुई है, मीठी आदित्या को समझाने की कोशिश करेगी लेकिन आदित्या फिर से नहीं सुनेगा.

ये भी पढें- Super Dancer Chapter 4 : लंबे समय बाद शो में हुईं शिल्पा शेट्टी कि

वहीं आदित्या यह समझाने कि कोशिश करेगा मीठी को कि मालिनी आप सभी का बुरा नहीं चाहती है. वह सबके लिए अच्छा सोच रही है. तभी तो उन्होंने कहा था कि मैं आपकी फेवरेट मिठाई लेकर आऊं.

अब मीठी को इस बात पर पूरा यकीन हो जाएगा कि मालिनी इमली को खुलकर चुनौती दे रही है. ऐसे में मालिनी मीठी को कहेगी कि वह यहां से कहीं नहीं जाएगी ताकि ज्यादा गलतफहमी न हो जाए.

आदित्या के पीछे-पीछे जाकर मालिनी कार में बगल वाली सीट पर जाकर बैठ जाएगी, जैसे ही इमली आएगी वह देखकर हटने की कोशिश करेगी, लेकिन आदित्या उसे रोक लेगा. अब देखना है कैसे मालिनी की सच्चाई घर वालों के सामने आएगी.

अश्वगंधा लगाएं कम लागत में अधिक कमाएं

अश्वगंधा औषधीय पौधों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है. सोलेनेसी कुल के इस 1-4 फुट तक ऊंचे पौधे का नाम ‘अश्वगंधा’ मूलत: इस के संस्कृत अर्थ से पड़ा है, जिस का मतलब है ‘अश्व’ के समान ‘गंध’ वाला. इस पौधे के पत्ते और जड़ को मसल कर सूंघने से उन में अश्व (घोड़े) के पसीने और मूत्र/अस्तबल की जैसी गंध आती है, जिस से संभवत: इसे अश्वगंधा नाम मिला. अश्वगंधा बहुत ही आसानी से उगने वाला बहुवर्षीय पौधा है, जिस की 2-3.5 इंच लंबी 1-1.5 इंच चौड़ी नुकीली पत्तियां होती हैं और पुष्प हरिताभ अथवा बैगनी आभा लिए पीताभ, वृंतरहित छत्रक समगुच्छों में होता है, जिस के घंटिकाकार और मृदु रोमश कैलिक्स फलों के साथ बढ़ कर रसभरी की भांति फलों को आवृत्त कर लेता है.

फल मटर के आकार वाले लाल नारंगी रंग के होते हैं. बीज असंख्य, अतिछुद्र, वृक्काकार और बैगन के बीज के समान होते हैं. मूल (जड़) शंक्वाकार मूली की तरह, परंतु उस से कुछ पतली होती हैं. जड़ ही इस का मुख्य उपयोगी भाग है. इस की जड़ों में लगभग काफी अधिक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं, जिन में विथानिन और सोमनीफेरेन मुख्य हैं. इस के अतिरिक्त विदासोमनाइन एनाहाइग्रीन, एनाफ्रीन, आइसोपैलीटरीन, विथानिन ट्रोपनोल कोलीन, सूडोट्रोपनोल, कुसोकाइजीन एकेलाइड भी पाए जाते हैं. इस की जड़ों में स्टार्च रीड्यूसिंग शुगर ग्लाइकोसाइड्स विदानिसिल, हैंट्रियाकोंटेन, क्लोनोजेसिक एसिड और फ्लेवेनायड्स की उपस्थिति भी देखी गई हैं.

ये भी पढ़ें- इंटीग्रेटेड फार्मिंग: एक एकड़ में कमा सकते है लाखों रुपए

अश्वगंधा का प्रत्येक भाग (जड़, पत्ते, फल व बीज) औषधीय उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है, परंतु सर्वाधिक उपयोग इस की जड़ों का ही है. अश्वगंधा की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग है, फिर भी किसानों में जागरूकता की कमी के कारण इस की खेती बहुत कम क्षेत्रफल में हो रही है, इसलिए अश्वगंधा की मांग और पूर्ति में भारी अंतर को देखते हुए वृहद स्तर पर इस की खेती की नितांत आवश्यकता है. अश्वगंधा का खेतीकरण अश्वगंधा एक बहुवर्षीय पौधा है, जो निरंतर सिंचाई की व्यवस्था में कई वर्षों तक चल सकता है, परंतु इस की ख्ेती 6-7 माह की फसल के रूप में की जाती है.

शुष्क प्रदेशों में प्राय: इसे खरीफ की फसल के रूप में लगाया जाता है और जनवरीफरवरी माह में उखाड़ लिया जाता है. इस की बिजाई का सब से उपयुक्त समय 15 अगस्त से 10 सितंबर तक का है. इस की बड़े पैमाने पर खेती निम्न प्रकार की जाती है: भूमि और जलवायु यह शुष्क और समशीतोष्ण क्षेत्रों का पौधा है. इस की सही बढ़त के लिए शुष्क मौसम ज्यादा उपयुक्त होता है. अत्यधिक वर्षा वाले और ठंडे क्षेत्रों में इस की खेती नहीं की जा सकती है. जड़दार फसल होने के कारण इस की खेती नरम और पोली मिट्टी में अच्छी प्रकार की जा सकती है, क्योंकि इस मिट्टी में इस की जड़ें ज्यादा गहराई में जा सकती हैं. इस प्रकार रेतीली दोमट और हलकी लाल मिट्टियां इस की खेती के लिए उपयुक्त हैं.

खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था हो और पानी न रुके. अत्यधिक उपजाऊ और भारी मिट्टी में पौधे बड़ेबड़े हो जाते है, परंतु जड़ों का उत्पादन अपेक्षाकृत कम ही मिलता है. इस तरह कम उपजाऊ, उचित जल निकासयुक्त बलुईदोमट और हलकी लाल, पर्याप्त जीवांशयुक्त मिट्टी इस की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई हैं. उन्नतशील प्रजातियां अश्वगंधा की नागौरी अश्वगंधा, जवाहर अश्वगंधा-20, जवाहर अश्वगंधा-134, डब्ल्यूएस-90, डब्ल्यूएस-100 आदि प्रजातियां हैं, जिन में से नागौरी और जवाहर अश्वगंधा प्रजातियां अत्यधिक प्रचलित हैं. खेत की तैयारी अश्वगंधा की व्यावसायिकता और अधिकाधिक उत्पादन की दृष्टि से आवश्यक होता है कि मानसून के प्रारंभ में (जुलाईअगस्त) में ख्ेत की 2 बार आड़ीतिरछी जुताई की जाए, तदुपरांत प्रति हेक्टेयर 5 ट्रौली (8-10 टन) सड़ी गोबर की खाद डाल कर दोबारा जुताई की जाए. उस के बाद ख्ेत में पाटा लगा दिया जाना चाहिए.

ये भी पढें- भैंसपालन : अच्छी नस्ल और खानपान

बिजाई की विधि व्यावसायिक रूप से इस का प्रवर्धन बीज के द्वारा किया जाता है, जिस में बीज को सीधे खेत में बोया जाता है. सीधे खेत में बिजाई करने की मुख्यत: 2 विधियां अपनाई जाती हैं. पहली छिटकवां विधि और दूसरी लाइन में बोआई. छिटकवां विधि के अंतर्गत 10-12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज ले कर उस में 5-6 गुना बालू/रेत मिला लिया जाता है, तदुपरांत हलका हल चला कर बालू मिश्रित बीजों को छिड़क कर खेत में चला कर बहुत ही हलका पाटा लगाया जाता है. लाइन की बिजाई करने की दशा में 30-45 सैंटीमीटर की दूरी पर 10-15 सैंटीमीटर ऊंची मेंड़ें बना कर उस पर 1-1.5 सैंटीमीटर गहरी लाइन बना लेते हैं. तत्पश्चात इन लाइनों में हाथ से बीज डालते रहते हैं. उस के बाद मेंड़ की मिट्टी से बीज को हलका सा ढक देते हैं. सीडड्रिल मशीन से बोआई सीडड्रिल मशीन में मोटी बालू के साथ बीज को मिला कर भी बोआई की जा सकती है. व्यावसायिक दृष्टिकोण से लाइनों में बोआई ज्यादा खर्चीली होती है.

बोआई करते समय यह ध्यान रखें कि मौसम सूखा हो और बोआई के बाद 5-7 दिनों तक भारी वर्षा की संभावना कम हो. इस के अतिरिक्त यह ध्यान रखें कि बीज नया हो और बोआई के बाद भारी पाटा न लगाएं. अश्वगंधा की फसल में बीजजनित कुछ बीमारियां देखी गई है, जिन से बचने के लिए बोआई से पूर्व थीरम या डायथेन एम-45 दवा से (2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर) उपचार कर के इन रोगों से बचा जा सकता है. जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार के द्वारा भी इन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है. पौधों का विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण सीधी विधि विश्ेषकर छिटकवां विधि से बिजाई करने की दशा में पौधों का विरलीकरण करना आवश्यक होता है.

ये भी पढ़ें- सर्वभक्षी कीट मिलीबग का प्रबंधन

इस के लिए बिजाई से 25-30 दिन पश्चात पौधों को इस प्रकार निकाला जाता है कि पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सैंटीमीटर और लाइन से लाइन की औसत दूरी 20-25 सैंटीमीटर रख कर बोई गई फसल में पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. अश्वगंधा की फसल में भी बहुत से खरपतवार आ जाते हैं, जिन के नियंत्रण के लिए हाथ से निराईगुड़ाई की जाती है. पौधों के विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण का कामों साथसाथ भी किया जा सकता है. खाद और उर्वरक अश्वगंधा की फसल को ज्यादा दैनिकी जरूरत नहीं पड़ती है. यदि इस से पूर्व में ली गई फसल में उर्वरक का अधिक प्रयोग किया गया है, तो बिना खाद डाले ही अश्वगंधा की फसल ली जा सकती है. ज्यादा नाइट्रोजन मिलने से तनों की वृद्धि अधिक होती है, जिस से जड़ का विकास कम हो जाता है. औषधीय फसल होने से इस में रासायनिक खादों, खरपतवारनाशी और कीटनाशी के प्रयोग से बचना चाहिए.

बोआई से पहले केवल गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट डालना पर्याप्त होता हैं. सिंचाई अश्वगंधा एक वर्षा आधारित फसल है. यह काफी कम सिंचाई में अच्छी उपज देती है. बिजाई के समय भूमि में मध्यम नमी होना आवश्यक है. बिजाई के 30-35 दिन और 60-70 दिन बाद वर्षा न होने की दशा में हलकी सिंचाई की आवश्यकता होती है. फसल सुरक्षा अश्वगंधा की फसल में भी कुछ रोगों व कीड़ों का प्रकोप देखा गया है, जिस के नियंत्रण के लिए समुचित बीज का उपचार और खड़ी फसल में गौमूत्र या नीम आधारित कीटनाशक का छिड़काव लाभकारी सिद्ध होता है. फसल का पकना और जड़ों की खुदाई अश्वगंधा के पौधे में फूल और फलन दिसंबर महीने में होता है. बोआई के 5-6 माह के उपरांत (जनवरीफरवरी माह) जब इस की निचली पत्तियां पीली पड़ने लगें और इन के ऊपर आए कुछ फल पकने लगें, तब पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए. यदि सिंचाई की व्यवस्था हो,

तो पौधों को उखाड़ने से पूर्व खेत में हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए, जिस से पौधे आसानी से उखड़ जाएं. बहुत कम फल आने पर ही खुदाई करना सर्वोत्तम रहता है, क्योंकि पौधे के अत्यधिक परिपक्व होने की दशा में जड़ें कठोर हो जाती हैं और उन की गुणवत्ता खराब होती है. उखाड़ने के तत्काल बाद जड़ों को तने से अलग कर दिया जाना चाहिए. उस के बाद जड़ों से मिट्टी साफ कर के 7-8 दिनों तक हलकी छाया वाले स्थान पर सुखाया जाना चाहिए. जब ये जड़ें तोड़ने पर ‘खट’ की आवाज से टूटने लगें, तो समझना चाहिए कि जड़ें सूख कर बिक्री के लिए तैयार हैं. उत्पादन का सही मूल्य प्राप्त करने के लिए जड़ों को 3 श्रेणियों में बांटा गया है : ‘ए’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में मुख्य और जड़ का ऊपर वाला भाग आता है, जिस की लंबाई 5-6 सैंटीमीटर या उस से अधिक और व्यास 1-1.5 सैंटीमीटर होता है. इस ग्रेड की जड़ के अंदर का भाग ठोस और सफेद होता है. इस में स्टार्च और एल्केलाइड्स अधिक होता है.

‘बी’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में जड़ का बीच वाला हिस्सा आता है. जड़ के इस भाग की औसतन लंबाई 3.5-5 सैंटीमीटर और व्यास 0.5-0.7 सैंटीमीटर रहता है. ‘सी’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में अधिक मोटी, काष्ठीय कटीफटी खोखली और बहुत छोटी जड़ें आती हैं. उपरोक्त तरीके से श्रेणीकरण करने से उपज का अच्छा मूल्य मिल जाता है, क्योंकि अच्छी फसल में ज्यादातर ‘ए’ और ‘बी’ ग्रेड की जड़ें होती हैं, जिन का बाजार मूल्य अच्छा मिलता है. उपज और आय एक हेक्टेयर फसल से औसतन 4-5 क्विंटल सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं, परंतु अच्छी प्रजातियों में 7-8 क्विंटल तक भी उत्पादन हो सकता है. इस के अतिरिक्त 50-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज का भी उत्पादन होता है. जड़ें औसतन 200-220 रुपए प्रति किलोग्राम और बीज 150-200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक जाता है. इस तरह से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 1,40,000-1,70,000 रुपए जड़ से और 7,500-10,000 रुपए बीज से प्राप्त हो सकते हैं. प्रति हेक्टेयर लागत तकरीबन 24,000-30,000 रुपए आती है. इस तरह शुद्ध लाभ 1,20,000-1,50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर तक मिल सकता है. इस प्रकार अन्य नकदी फसलों की तुलना में अश्वगंधा के खेती में शुद्ध लाभ कम है, परंतु नकदी फसलों की तुलना में इस की खेती आसानी से कम उपजाऊ और कम पानी वाली जमीन में की जा सकती है.

इस को पशुओं से नुकसान का भी खतरा कम रहता है. अश्वगंधा का विपणन अन्य औषधीय पौधों की अपेक्षा आसान है, क्योंकि इस की मांग अधिक है और इस को आसानी से कुछ समय तक भंडारित कर के रखा जा सकता है. इस प्रकार देखा जा सकता है कि अश्वगंधा न केवल मानवीय स्वास्थ्य की दृष्टि से, बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से भी काफी लाभकारी फसल है. कम खर्चे में, कम पानी में और कम उपजाऊ जमीनों में इस का उगना और बिक्री में आसानी के कारण इस का भविष्य उज्ज्वल है. इन्हीं विशेषताओं के कारण भारी संख्या में किसान इस की खेती को अपना कर अच्छा लाभ प्राप्त कर रहे हैं. नोट : अश्वगंधा की उपज, लागत व शुद्ध लाभ क्षेत्र विशेष में खेती और बाजार दर पर आधारित है. यह अन्य क्षेत्र, खेती की तकनीकी, भूमि व जलवायु और बाजार दर में कम या ज्यादा हो सकती है.

मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा

मुद्दों से भटका रही सरकार

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में किसान आन्दोलन और कृषि कानून मुख्य मुददा हो सकता है. विपक्षी दल किसानों के मुद्दों का मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने में लगे है. भाजपा मुददों से ध्यान भटका रही और विपक्षी विधायकों के साथ भेदभाव कर रही है.

मोहनलालगंज विधानसभा क्षेत्र के विधायक अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘विधानसभा सत्र के दौरान भी उत्तर प्रदेश की सरकार सही तरह से सवालों का जवाब नहीं देती. उसके जवाब ऐसे होते है जिससे मुददे की बात को हवा में उडाया जा सके और सदन में हंगामा हो जाये जिससे सदन को स्थगित करने का मौका मिल जाये. विपक्षी विधायकों की मांगों को और उनके क्षेत्र में विकास के कामों की अनदेखी की जा रही है. जिससे विरोधी दल का विधायक अपने क्षेत्र में विकास के काम न करा सके और वह चुनाव हार जाये.’
अम्बरीष पुष्कर मोहनलालगंज सुरक्षित विधानसभा सीट से 2017 में पहली बार विधायक चुने गये. पेशे से वकील अम्बरीष पुष्कर युवा विधायक है. जिस चुनाव में समाजवादी पार्टी के खिलाफ हवा चल रही थी उसमें भी क्षेत्र की जनता ने उनको विधायक चुना. अम्बरीष पुष्कर की लोकप्रियता का देख सत्ताधारी भाजपा की सरकार ने उनके क्षेत्र की उपेक्षा करनी शुरू की. अम्बरीष पुष्कर ने क्षेत्र में लडकियों के डिग्री कालेज खोलने की मांग थी. इसके अलावा कई गांव में सडक बनाने की प्रस्ताव दिया था. लेकिन योगी सरकार ने उनकी मांग को पूरा नहीं किया. अम्बरीष पुष्कर पिछले 4 साल से हर विधानसभा सत्र के दौरान यह मांग करते है.

ये भी पढ़ें- अब क्या ख़ाक तालिबां होंगें

मोहनलालगंज उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से जुडी विधानसभा और लोकसभा सीट है. दलित बाहुल्य आबादी होने के कारण यह सुरक्षित क्षेत्र बनाया गया था. भाजपा सरकार को इस क्षेत्र से लगाव नहीं दिखता. इसकी वजह यह है कि यहां से भाजपा का विधायक कभी नहीं रहा. इस कारण योगी सरकार में मोहनलालगंज क्षेत्र के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा.

किसानो के मुददो पर मौन है सरकार :
विधानसभा सत्र शुरू होने पर विरोध दलों ने विकास, मंहगाई, कानून व्यवस्था और किसानों के मुददे पर बात करने का काम किया तो सरकार ने सवालों के सही जवाब न देकर हो-हल्ला करने का बढावा देने लगी. अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘हम लोग यह सवाल कर रहे थे कि भाजपा ने किसानो की आय दोगुनी करने का वादा अपने घोषणा पत्र में किया था लेकिन वह वादा पूरा नहीं किया. सरकार से बढती मंहगाई पर जवाब मांगा जा रहा था. इस सवाल का जवाब देने की जगह पर कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही किसानों के साथ लखीमपुर में धोखधडी पर बोलने लगे.’

‘असल में भाजपा को यह पता है कि आने वाले विधानसभा के चुनाव में कृषि कानून और किसान आन्दोलन मुख्य मुद्दा हो सकता है. ऐसे में योगी सरकार किसानों से जुडी किसी बात का सही तरह से जवाब नहीं देना चाहती. किसान भाजपा के खिलाफ एकजुट ना हो सके. इस कारण उनको अगडा पिछडा और दलित के बीच बांटा जा रहा है. किसानों को समझाने के लिये मंत्री और सांसदो को रैली और सभाए करने को कहा जा रहा है. भाजपा को लगता है कि 5 सौ रूपये महीने की किसान सम्मान निधि के जरीये वह किसानो को खुश कर लेगी.’

ये भी पढ़ें- अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा

बदले की भावना से होता है काम :
अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘भाजपा सरकार बदले की भावना से काम करती है. इस कारण वह विपक्षी दलों के विधायको के क्षेत्र की योजनाओं को मंजूरी नहीं देती है. यही नहीं पंचायत चुनावों में हारने के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लौक प्रमुख के चुनाव में सरकार ने सत्ता की हनक और दुरूपयोग के बल पर अपने लोगों को जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लौक प्रमुख बनवाया. पंचायती राज चुनाव के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि जिस दल के सदस्य कम जीते हो लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लौक प्रमुख उसी दल के चुने गये हो.’ यह पंचायती राज चुनाव की मूल भावना के पूरी तरह से खिलाफ है.’

मोहनलालगंज क्षेत्र में 30 लाख के करीब जनसंख्या है. इसमें 75 फीसदी गांव का इलाका आता है. प्रति एक हजार पुरूषों पर 906 औरते है. औसत साक्षरता दर 80 फीसदी है. 1993 में यहां से विधायक समाजवादी पार्टी से संत बक्श रावत रहे. इसके बाद 1996, 2002 और 2007 में आरके चौधरी विधायक बने. वह मूलरूप से बसपा के नेता रहे. 2012 में समाजवादी पार्टी की चन्द्रा रावत और 2017 में अम्बरीष पुष्कर विधायक बने. भाजपा ने 2014 और 2019 में लोकसभा के चुनाव में जीत भले ही हासिल की हो पर विधानसभा चुनावो में क्षेत्र की जनता को भाजपा पर भरोसा नहीं रहा है.

बढ रहा शहरी इलाका :
लखनऊ शहर का विस्तार होने के बाद मोहनलालगंज में शहरी इलाका बढ रहा है. बहुत सारी आवासीय योजनाएं और हाईवे यहां से निकल रहे है. जिसकी वजह से गांव में खेती खत्म होती जा रही है. इस कारण क्षेत्र के किसानों की अपनी अलग परेशानियां हो रही है. खेती का नुकसान हो रहा है. जिन शहरी लोगो के पास पैसा है वह किसानों की गरीबी का लाभ उठाकर लालच देकर खेती की जमीन खरीद ले रहे है. यहां बस रही कालोनियों में शहरों की तरह वाली सुविधाएं नहीं है. तमाम गांव कागजों में नगर निगम क्षेत्र में शामिल कर लिये गये है पर यहां शहर जैसी सुविधाएं नहीं है.

ये भी पढ़ें- छोटे नेताओं के बड़े हौसले

अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘खेती की जमीन लगातार कम होने से किसानो की आने वाली पीढियां बेरोजगार हो जायेगी. सरकार ऐसे किसानों के लिये किसी भी तरह की योजना नहीं ला रही. प्राइवेट बिल्डर्स मनमानी तरह से जमीन की खरीददारी कर रहे है. किसानों की सोने वाले कीमत की जमीन माटी के मोल बिक रही है. तमाम किसानों से केवल एग्रीमेंट के आधार पर थोडा सा पैसा देकर जमीन पर कब्जे किये जा रहे है. किसान ऐसे लोगों से अपने पैसे निकलवाने के लिये थाना और तहसील के चक्कर लगाता रहता है. वहां भी उनकी सुनवाई नहीं होती है. जब इन मुददों को लेकर विधानसभा में आवाज उठाने का काम होता है तो सरकार मुददों से ध्यान भटकाने में जुट जाती है.’

Family Story in Hindi : मान अभिमान- क्यों बहुओं से दूर हो गई थी रमा?

अपने बच्चों की प्रशंसा पर कौन खुश नहीं होता. रमा भी इस का अपवाद न थी.ं अपनी दोनों बहुओं की बातें वह बढ़चढ़ कर लोगों को बतातीं. उन की बहुएं हैं ही अच्छी. जैसी सुंदर और सलोनी वैसी ही सुशील व विनम्र भी.

एक कानवेंट स्कूल की टीचर है तो दूसरी बैंक में अफसर. रमा के लिए बच्चे ही उन की दुनिया हैं. उन्हें जितनी बार वह देखतीं मन ही मन बलैया लेतीं. दोनों लड़कों के साथसाथ दोनों बहुओं का भी वह खूब ध्यान रखतीं. वह बहुओं को इस तरह रखतीं कि बाहर से आने वाला अनजान व्यक्ति देखे तो पता न चले कि ये लड़कियां हैं या बहुएं हैं.

सभी परंपराओं और प्रथाओं से परे घर के सभी दायित्व को वह खुद ही संभालतीं. बहुओं की सुविधा और आजादी में कभी हस्तक्षेप नहीं करतीं. लड़के तो लड़के मां के प्यार और प्रोत्साहन से पराए घर से आई लड़कियों ने भी प्रगति की.

मां का स्नेह, सीख, समझदारी और विश्वास मान्या और उर्मि के आचरण में साफ झलकता. देखते ही देखते अपने छोटे से सीमित दायरे में उन्हें यश भी मिला और नाम भी. कार्यालय और महल्ले में वे दोनों ही अच्छीखासी लोकप्रिय हो गईं. जिसे देखो वही अपने घर मान्या और उर्मि का उदाहरण देता कि भाई बहुएं हों तो बस, मान्या और उर्मि जैसी.

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi – छलना- भाग 1 : क्या थी माला की असलियत?

‘‘रमा, तू ने मान्या व उर्मि के रूप में 2 रतन पाए हैं वरना आजकल के जमाने में ऐसी लड़कियां मिलती ही कहां हैं और इसी के साथ कालोनी की महिलाओं का एकदूसरे का बहूपुराण शुरू हो जाता.

रमा को तुलना भली न लगती. उन्हें तो इस की उस की बुराई भी करनी नहीं आती पर अपनी बहुओं की बड़ाई उन्हें खूब सुहाती थी. वह खुशी से फूली न समातीं.

इधर कुछ समय से रमा की सोच बदल रही है. मान्या और उर्मि की यह हरदम की बड़ाई उन्हें कहीं न कहीं खटक रही है. अपने ही मन के भाव रमा को स्तब्ध सा कर देते हैं. वह लाख अपने को धिक्कारेफटकारे पर विचार हैं कि न चाहते हुए भी चले आते हैं.

‘मैं जो दिन भर खटती हूं, परिवार में सभी की सुखसुविधाओं का ध्यान रखती हूं. दोनों बहुओं की आजादी में बाधक नहीं बनती…उन पर घरपरिवार का दायित्व नहीं डालती…वो क्या कुछ भी नहीं…बहुओं को भी देखो…पूरी की पूरी प्रशंसा कैसे सहजता के साथ खुद ही ओढ़ लेती हैं…मां का कहीं कोई जिक्र तक नहीं करतीं. उन की इस सफलता में मेरा काम क्या कुछ भी नहीं?’

अपनी दोनों बहुओं के प्रति रमा का मन जब भी कड़वाता तो वह कठोर हो जातीं. बातबेबात डांटडपट देतीं तो वे हकबकाई सी हैरान रह जातीं.

मान्या और उर्मि का सहमापन रमा को कचोट जाता. अपने व्यवहार पर उन्हें पछतावा हो आता और जल्द ही सामान्य हो वह उन के प्रति पुन: उदार और ममतामयी हो उठतीं.

मांजी में आए इस बदलाव को देख कर मान्या और उर्मि असमंजस में पड़ जातीं पर काम की व्यस्तता के कारण वे इस समस्या पर विचार नहीं कर पाती थीं. फिर सोचतीं कि मां का क्या? पल में तोला पल में माशा. अभी डांट रही हैं तो अभी बहलाना भी शुरू कर देंगी.

क्रिसमस का त्योहार आने वाला था. ठंड खूब बढ़ गई थी. उस दिन सुबह रमा से बिस्तर छोड़ते ही नहीं बन रहा था. ऊपर से सिर में तेज दर्द हो रहा था. फिर भी मान्या का खयाल आते ही रमा हिम्मत कर उठ खड़ी हुईं.

किसी तरह अपने को घसीट कर रसोईघर में ले गईं और चुपचाप मान्या को दूध व दलिया दिया. रात की बची सब्जी माइक्रोवेव में गरम कर, 2 परांठे बना कर उस का लंच भी पैक कर दिया. मां का मूड बिगड़ा समझ कर मान्या ने बिना किसी नाजनखरे के नाश्ता किया. लंचबौक्स रख टाटाबाई कहती भागती हुई घर से निकल गई. 9 बजे तक उर्मि भी चली गई. सुयश और सुजय के जाने के बाद अंत में राघव भी चले गए थे.

10 बजे तक घर में सन्नाटा छा जाता है. पीछे एक आंधीअंधड़ छोड़ कर सभी चले जाते हैं. कहीं गीला तौलिया पलंग पर पड़ा है तो कहीं गंदे मोजे जमीन पर. कहीं रेडियो बज रहा है तो किसी के कमरे में टेलीविजन चल रहा है. किसी ने दूध अधपिया छोड़ दिया है तो किसी ने टोस्ट को बस, जरा कुतर कर ही धर दिया है, लो अब भुगतो, सहेजो और समेटो.

कभी आनंदअनुराग से किए जाने वाले काम अब रमा को बेमजा बोझ लगते. सास के जीतेजी उन के उपदेशों पर उस ने ध्यान न दिया…अब जा कर रमा उन की बातों का मर्म मान रही थीं.

‘बहू, तू तो अपनी बहुओं को बिगाड़ के ही दम लेगी…हर दम उन के आगेपीछे डोलती रहती है…हर बात उन के मन की करती है…अरी, ऐसा तो न कहीं देखा न सुना…डोर इतनी ढीली भी न छोड़…लगाम तनिक कस के रख.’

‘अम्मां, ये भी तो किसी के घर की बेटियां हैं. घोडि़यां तो नहीं कि उन की लगाम कसी जाए.’ सास से रमा ठिठोली करतीं तो वह बेचारी चुप हो जातीं.

तब मान्या और उर्मि उस का कितना मान करती थीं. हरदम मांमां करती आगे- पीछे लगी रहती थीं. अब तो सारी सुख- सुविधाओं का उन्होंने स्वभाव बना लिया है…न घर की परवा न मां से मतलब. एक के लिए उस की टीचरी और दूसरी के लिए उस की अफसरी ही सबकुछ है. घर का क्या? मां हैं, सुशीला है फिर काम भी कितना. पकाना, खाना, सहेजना, समेटना, धोना और पोंछना, बस. शरीर की कमजोरी ने रमा के अंतस को और भी उग्र बना दिया था.

सुशीला काम निबटा कर घर से निकली तो 2 बज चुके थे. रमा का शरीर टूट रहा था. बुखार सा लग रहा था. खाने का बिलकुल भी मन न था. उन्होंने मान्या की थाली परोस कर मेज पर ढक कर रख दी और खुद चटाई ले कर बरामदे की धूप में जा लेटीं.

बाहर के दरवाजे का खटका सुन रमा चौंकीं. रोज की तरह मान्या ढाई बजे आ गई थी.

‘‘अरे, मांजी…आप धूप सेंक रही हैं…’’ चहकती हुई मान्या अंदर अपने कमरे में चली गई और चाह कर भी रमा आंखें न खोल पाईं.

हाथमुंह धो कर मान्या वापस पलटी तो रमा अभी भी आंखें मूंदे पड़ी थीं.

‘मेज पर एक ही थाली?’ मान्या ने खुद से प्रश्न किया फिर सोचा, शायद मांजी खा कर लेटी हैं. थक गई होंगी बेचारी. दिन भर काम करती रहती हैं…

रमा को झुरझुरी सी लगी. वह धीरे से उठीं. चटाई लपेटी दरवाजा बंद किया और कांपती हुई अपनी रजाई में जा लेटीं.

उधर मान्या को खाने के साथ कुछ पढ़ने की आदत है. उस दिन भी वही हुआ. खाने के साथ वह पत्रिका की कहानी में उलझी रही तो उसे यह पता नहीं चला कि मांजी कब उठीं और जा कर अपने कमरे में लेट गईं. बड़ी देर बाद वह मेज पर से बरतन समेट कर जब रमा के पास पहुंची तो वह सो चुकी थीं.

‘गहरी नींद है…सोने दो…शाम को समझ लूंगी…’ सोचतेसोचते मान्या भी जा लेटी तो झपकी लग गई.

रोज का यही नियम था. दोपहर के खाने के बाद घंटा दो घंटा दोनों अपनेअपने कमरों में झपक लेतीं.

शाम की चाय बनाने के बाद ही रमा मान्या को जगातीं. सोचतीं बच्ची थकी है. जब तक चाय बनती है उसे सो लेने दिया जाए.

बहुत सारे लाड़ के बाद जाग कर मान्या चाय पीती स्कूल की कापियां जांचती और अगले दिन का पाठ तैयार करती.

इस बीच रमा रसोई में चली जातीं और रात का खाना बनातीं. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटातीं ताकि शाम का कुछ समय अपने परिवार के साथ मिलबैठ कर गुजार सकें.

संगीत के शौकीन पति राघव आते ही टेपरिकार्ड चला देते तो घर चहकने लगता.

उर्मि को आते ही मांजी से लाड़ की ललक लगती. बैग रख कर वह वहीं सोफे पर पसर जाती.

सुजय एक विदेशी कंपनी में बड़ा अफसर था. रोज देर से घर आता और सुयश सदा का चुप्पा. जरा सी हायहेलो के बाद अखबार में मुंह दे कर बैठ जाता था. उर्मि उस से उलझती. टेलीविजन बंद कर घुमा लाने को मचलती. दोनों आपस में लड़तेझगड़ते. ऐसी खट्टीमीठी नोकझोंक के चलते घर भराभरा लगता और रमा अभिमान अनुराग से ओतप्रोत हो जातीं.

लगातार बजती दरवाजे की घंटी से मान्या अचकचा कर उठ बैठी. खूब अंधेरा घिर आया था.

दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला तो सामने तमतमायी उर्मि खड़ी थी.

‘‘कितनी देर से घंटी बजा रही हूं. आप अभी तक सो रही थीं. मां, मां कहां हैं?’’ कह कर उर्मि के कमरे की ओर दौड़ी.

मांजी को कुछ खबर ही न थी. वह तो बुखार में तपी पड़ी थीं. डाक्टर आया, जांच के बाद दवा लिख कर समझा गया कि कैसे और कबकब लेनी है. घर सुनसान था और सभी गुमसुम.

मान्या का बुरा हाल था.

‘‘मैं तो समझी थी कि मांजी थक कर सोई हुई हैं…हाय, मुझे पता ही न चला कि उन्हें इतना तेज बुखार है.’’

‘‘इस में इतना परेशान होने की क्या बात है…बुखार ही तो है…1-2 दिन में ठीक हो जाएगा,’’ पापा ने मान्या को पुचकारा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘अरे, इस में रोने की कौन सी बात है,’’  राघव बिगड़ गए.

अगले दिन, दिनचढ़े रमा की आंख खुली तो राघव को छोड़ सभी अपनेअपने काम पर जा चुके थे.

घर में इधरउधर देख कर रमा अकुलाईं तो राघव उन बिन बोले भावों को तुरंत ताड़ गए.

‘‘मान्या तो जाना ही नहीं चाहती थी. मैं ने ही जबरदस्ती उसे स्कूल भेज दिया है. उर्मि को तो तुम जानती ही हो…इतनी बड़ी अफसरी तिस पर नईनई नौकरी… छुट्टी का तो सवाल ही नहीं…’’

‘‘हां…हां…क्यों नहीं…सभी काम जरूरी ठहरे. मेरा क्या…बीमार हूं तो ठीक भी हो जाऊंगी,’’ रमा ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा था.

राघव ने बताया, ‘‘मान्या तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर गई है. और उर्मि ने सूप बना कर रख दिया है.’’

रमा ने बारीबारी से दोनों चीजें चख कर देखीं. खिचड़ी उसे फीकी लगी और सूप कसैला…

3 दिनों तक घर मशीन की तरह चलता रहा. राघव छुट्टी ले कर पत्नी की सेवा करते रहे. बाकी सब समय पर जाते, समय पर आते.

आ कर कुछ समय मां के साथ बिताते.

तीसरे दिन रमा का बुखार उतरा. दोपहर में खिचड़ी खा कर वह भी राघव के साथ बरामदे में धूप में जा बैठी.

राघव पेपर देखने लगे तो रमा ने भी पत्रिका उठा ली. ठीक तभी बाहर का दरवाजा खुलने का खटका हुआ. रमा ने मुड़ कर देखा तो मान्या थी. साथ में 2-3 उस के स्कूल की ही अध्यापिकाएं भी थीं.

‘‘अरे, मांजी, आप अच्छी हो गईं?’’ खुशी से मान्या ने आते ही उन्हें कुछ पकड़ाया और खुद अंदर चली गई.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ रमा ने पैकेट को उलटपलट कर देखा.

‘‘आंटी, मान्या को बेस्ट टीचर का अवार्ड मिला है.’’

‘‘क्या? इनाम…अपनी मनु को?’’

‘‘जी, आंटी, छोटामोटा नहीं, यह रीजनल अवार्ड है.’’

रोमांचित रमा ने झटपट पैकेट खोला. अंदर गोल डब्बी में सोने का मैडल झिलमिला रहा था. प्रमाणपत्र के साथ 10 हजार रुपए का चेक भी था. मारे खुशी के रमा की आवाज ही गुम हो गई.

‘‘आंटी, देखो न, मान्या ने कोई ट्रीट तक नहीं दी. कहने लगी, पहले मां को दिखाऊंगी…अब देखो न कब से अंदर जा छिपी है.’’ खुशी के लमहों से निकल कर रमा ने मान्या को आवाज लगाई, ‘‘मनु, बेटा…आना तो जरा.’’

अपने लिए मनु का संबोधन सुन मान्या भला रुक सकती थी क्या? आते ही सहजता से उस ने अपनी सहेलियों का परिचय कराया, ‘‘मां, यह सौंदर्या है, यह नफीसा और यह अमरजीत. मां, ये आप से मिलने नहीं आप को देखने आई हैं. वह क्या है न मां, यह समझती हैं कि आप संसार का 8वां अजूबा हो…’’

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’ रमा के माथे पर बल पड़ गए.

मान्या की सहेलियां कुछ सकपकाईं फिर सफाई देती हुई बोलीं, ‘‘आंटी, असल में मान्या आप की इतनी बातें करती है कि हम तो समझते थे कि आप ही मान्या की मां हैं. हमें तो आज तक पता ही न था कि आप इस की सास हैं.’’

‘‘अब तो पता चल गया न. अब लड्डू बांटो…’’ मान्या ने मुंह बनाया.

‘‘लड्डू तो अब मुझे बांटने होंगे,’’ रमा ने पति को आवाज लगाई, ‘‘अजी, जरा फोन तो लगाइए और इन सभी की मनपसंद कोई चीज जैसे पिज्जा, पेस्ट्री और आइसक्रीम मंगा लीजिए.’’

रमा ने मान से मैडल मान्या के गले में डाला और खुद अभिमान से इतराईं. मान्या लाज से लजाई. सभी ने तालियां बजाईं.

 

दलितों पर हावी हो रहे कर्मकांड

भारतीय राजनीति में एक समय था जब दलित राजनीति का केंद्र धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों के खिलाफ मोरचा लेना था, क्योंकि धार्मिक मान्यताओं के चलते ही सालोंसाल दलितपिछड़ों ने बर्बर प्रताड़ना झेली. लेकिन लंबे चले संघर्ष के बाद अब यही कर्मकांड दलितपिछड़ों पर हावी होने लगे हैं. वे इस के जंजाल में फंसते जा रहे हैं. दलित आंदोलन में कर्मकांडों का विरोध इसलिए किया गया था क्योंकि इस बहाने कर्मकांडी विचार थोपने का काम किया जाता था. कर्मकांड लोगों को डराने और दानदक्षिणा लेने के काम आते हैं. बहुजन समाज पार्टी और बामसेफ ने अपने विचारों से दलितों की चेतना जगाने का काम किया था. लेकिन जब बसपा ने सत्ता की चाबी हासिल करने के लिए मनुवादियों से सम झौता करना शुरू किया तो दलित कर्मकांड में फंसने लगे.

मायावती ने अमेठी का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर रख दिया. लेकिन इस से दलित चेतना नहीं जगी. अमेठी के खुटहना गांव में रहने वाले मोतीलाल को बुढ़ापे में रीतिरिवाज से शादी करने की घटना बताती है कि कर्मकांड की जड़ें कितनी गहरी हैं. कर्मकांड में फंसे दलित मायावती को छोड़ पुराणवादियों के चक्कर में पड़ गए हैं. अमेठी देश के एक जानेमाने शहर का नाम है. राजनीतिक रूप से अमेठी देश पर सब से लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी से जुड़ा है. पहले यह लोकसभा क्षेत्र था जो सुल्तानपुर जिले में आता था. अमेठी, सुल्तानपुर और रायबरेली कांग्रेस के सब से मजबूत राजनीतिक किले जैसे थे. 1 जुलाई, 2010 को उत्तर प्रदेश की उस समय की मायावती सरकार ने अमेठी को उत्तर प्रदेश का 72 वां जिला बना दिया. अमेठी में सुल्तानपुर जिले की 3 तहसील मुसाफिरखाना, अमेठी, गौरीगंज तथा रायबरेली जिले की 2 तहसील सलोन और तिलोई को मिला कर जिला बनाया गया था.

ये भी पढ़ें- अधर में प्रतियोगी युवा: सरकारी नौकरी का लालच

मायावती ने अमेठी का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर कर दिया था. छत्रपति साहूजी महाराज का असली नाम यशवंत राव था. वे महाराष्ट्र के रहने वाले थे. उन्होंने दलित और कमजोर वर्गों की शिक्षा और रूढि़वादिता को खत्म करने के लिए काम किया. कमजोर वर्ग के बच्चों के पढ़ने के लिए छात्रावास बनवाए थे. दलित सुधारक और चिंतक के रूप में उन की पहचान है. जब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री बनीं मायावती ने दलित महापुरुषों को सम्मान देने के लिए उन की मूर्तियां बनवाने व उन के नाम पर जिलों का नामकरण किया. इस कारण ही अमेठी का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर किया गया था. बसपा के बाद जब समाजवादी पार्टी की सरकार आई तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने नाम वापस बदल कर अमेठी रख दिया. नाम बदलने से हालात नहीं बदले 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने गौरीगंज विधानसभा सीट पर चंद्रप्रकाश मिश्रा ‘मटियारी’ को चुनाव मैदान में उतारा. बसपा की ब्राह्मण-सोशल इंजीनियरिंग के चलते चंद्रप्रकाश मिश्रा विधायक चुन लिए गए. वे कहते हैं, ‘‘हमारे क्षेत्र का दलित हमेशा ही हिंदू धर्म पर यकीन करता रहा है.

उसे जब भी मौका मिला है उस ने इस बात को साबित किया भी है. यहां दलित और अगड़ी जातियों के बीच आपसी तालमेल रहा है. कोई किसी का विरोधी नहीं रहा. विधायक के रूप में जब हम ने यहां की जनता की मांग बहिनजी (मायावती) को बताई तो अमेठी को जिले का दर्जा मिला और नया नाम भी.’’ अमेठी गांधी परिवार की राजनीतिक जमीन कही जाती है. पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, उन के पोते संजय गांधी, राजीव गांधी तथा उन की पत्नी सोनिया गांधी, उन के बेटे राहुल गांधी यहां से सांसद चुने जाते रहे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को हरा कर अमेठी में भाजपा का झंडा फहराने का काम किया. कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी दोनों ने ही अमेठी के साथ दिली लगाव रखा. इस के बाद भी यहां धार्मिक कुरीतियों को खत्म नहीं किया जा सका. मायावती ने दलित महापुरुष छत्रपति साहूजी महाराज के नाम पर अमेठी का नाम बदला. लेकिन इस से दलितों की सोच में बदलाव नहीं आया. इस की प्रमुख वजह थी कि यहां के लोगों के मन पर कर्मकांड का मजबूत कब्जा था. अमेठी के आसपास तमाम धार्मिक स्थान हैं. पीपरपुर गांव में महर्षि पिप्पलाद का पौराणिक आश्रम है. सिंहपुर ब्लौक में मां अहरवा भवानी, मुसाफिरखाना में मां हिंगलाज देवी धाम, गौरीगंज में मां दुर्गाभवानी देवी, अमेठी में मां कालिकन देवी धाम सती महारानी मंदिर भी है. अमेठी और आसपास के इलाकों में राजेरजवाड़ों का भी अपना प्रभाव रहा है.

ये भी पढें- मृत्यु के बाद भी पाखंड का अंत नहीं

यहां के दलित बहुत सारे प्रयासों के बाद भी आगे नहीं बढ़ सके. वे अगड़ी जातियों के पीछे ही चलते रहे. बसपा नेता मायावती ने अमेठी जिले का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर रखा पर वे दलित चेतना को जगाने में सफल न रहीं. अगड़ी जातियों का प्रभाव चुनाव लड़ने वाली पार्टी कोई भी रही हो, यहां से जीतने वाले नेता हमेशा ही अगड़ी जातियों के रहे हैं. करीब 3 लाख मतदाताओं वाली गौरीगंज विधानसभा में 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी से राकेश प्रताप सिंह विधायक चुने गए. 2007 में विधायक चुने गए चंद्रप्रकाश चौथे नंबर पर चले गए. 2017 के विधानसभा चुनावों में जब भाजपा की हवा तेज थी, समाजवादी पार्टी का दबदबा रहा. राकेश प्रताप सिंह अपनी सीट बचाने में सफल रहे. पार्टी कोई भी जीते, यहां पर प्रत्याशी अगड़ी जाति का ही जीतता है. सांसद के रूप में 2019 में अमेठी ने भाजपा की स्मृति ईरानी को जिताया था. 2021 के पंचायत चुनाव में राजेश कुमार अग्रहरि चुने गए. जामों की ब्लौक प्रमुख पूनम कुमारी बनीं. वे कहती हैं, ‘‘पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण के कारण राजनीति में महिलाओं का प्रभाव बढ़ रहा है.’’ इन हालात के बाद भी दलित आबादी गरीबी और मुफलिसी में जीने को मजबूर है. अमेठी में लोकसभा सीट के साथ ही साथ जगदीशपुर, गौरीगंज, अमेठी और तिलोई 4 विधानसभा सीटें हैं.

यहां दलितों की संख्या भले ही ज्यादा हो पर अगड़ी जातियों का प्रभाव है. गौरीगंज विधानसभा में ही जामों ब्लौक पड़ता है. यह अमेठी, रायबरेली और प्रतापगढ़ की सीमा में राजमार्ग से 10 किलोमीटर दूर पड़ता है. राजधानी लखनऊ से 130 किलोमीटर दूर खुटहना गांव है. यह जामों ग्राम पंचायत का मजरा है. खुटहना गांव में केवल पासी जाति की दलित आबादी रहती है. पासी जाति के 35 घर यहां हैं. कुछ घर कच्चे बने हैं, कुछ पक्के कहे जा सकते हैं क्योंकि इन में पक्की ईंट की दीवारें बनी हैं. गांव में पढ़ेलिखे लोगों की तादाद न के बराबर है. घरों के बाहर मवेशियों की संख्या कम दिखाई दी. 60 साल की मोहन्ना देवी बनी दुलहन गौरीगंज विधानसभा के जामों ग्राम पंचायत के मजरा खुटहना गांव में ही मोतीलाल रहते हैं. जामों ब्लौक भी है. सुल्तानपुर-लखनऊ हाईवे से करीब 10 किलोमीटर दूर जामों ब्लौक और थाना बना है. जामों में रहने वालों की दिक्कत यह है कि यहां से न तो अमेठी जिला मुख्यालय जाने के लिए कोई सीधी सरकारी बस चलती है और न ही प्रदेश की राजधानी लखनऊ जाने के लिए बस जाती है. जामों से जब गौरीगंज जाने वाली सड़क पर चलते हैं तो 3 किलोमीटर के बाद खुटहना गांव आता है.

ये भी पढ़ें- आजादी के बाद गांधीजी कुछ साल और जीते तो आज का भारत कैसा होता ?

यहां सभी घर पासी जाति के दलितों के हैं. खुटहना गांव में रहने वाले मोतीलाल अचानक मीडिया की सुर्खियों में आ गए. सुर्खियों की वजह यह थी कि 65 साल के मोतीलाल ने 40 साल एकसाथ रहने के बाद 60 साल की मोहनी देवी से शादी की. मोहनी देवी को उन के घरवाले और जानने वाले ‘मोहन्नी’ कहते हैं. मोतीलाल और मोहनी देवी की कहानी रोचक है. यह कहानी बताती है कि दलित चेतना के तमाम दावों के बाद भी अभी एक बड़ा वर्ग धार्मिक जकड़न में है. उस के लिए मंदिर और धर्म बेहद जरूरी व मजबूरी हैं. बहुत साल पहले मोतीलाल की शादी अपनी ही जाति की श्यामा से हुई थी. शादी के कुछ सालों के बाद ही उस की मौत हो गई. मोतीलाल का कोई बच्चा नहीं था. वह अकेला पड़ गया था. अकेला जीवन मुश्किल था. जवान उम्र में विधुर होने के कारण उस के सामने लंबा जीवन पड़ा था. उस ने यह सोच कर दूसरी शादी करने का विचार किया. दूसरी शादी करना सरल नहीं था. मोतीलाल यह सोचने लगा कि किस तरह से वह दूसरी शादी करे. मोतीलाल का पड़ोस के गांव मकदूमपुर आनाजाना होता था. वहां की रहने वाली मोहनी देवी के साथ उस की जानपहचान हुई. मोहनी भी गरीब परिवार की थी.

मोहनी के मातापिता से बात कर के मोतीलाल उस को अपने साथ ले कर गांव आ गया. दोनों के घरपरिवारों को कोई दिक्कत न थी. दोनों ही बिना किसी शादी के कर्मकांड के साथ रहने लगे. उन को कभी इस बात की जरूरत ही महसूस न हुई कि वे रीतिरिवाजों वाली शादी करें. दोनों साथसाथ रहने लगे. दोनों ही मेहनत करते हुए अपना जीवन गुजारने लगे. यहां दोनों के पास रहने के लिए झोंपड़ी टाइप घर था. समय के साथ ही साथ दोनों के 4 बच्चे हो गए. इन में से 2 लड़के सुनील कुमार और संदीप कुमार और 2 लड़कियां सीमा और मीरा हैं. मोतीलाल ने पूरी कोशिश की कि बच्चे पढ़लिख जाएं. ये बच्चे केवल कक्षा 8 से 10 तक ही पढ़ सके. मोतीलाल ने सब से पहले अपनी दोनों बेटियों की शादी कर दी. दोनों लड़के भी मेहनतमजदूरी करने लगे. इस के बाद भी मोतीलाल और उस की पत्नी मोहनी मेहनतमजदूरी करते हैं, जिस में उन का समय भी कटता है और पैसे भी मिलते हैं. इस से उन का गुजारा होता है. कर्मकांडों पर दलितों का बढ़ता भरोसा मरने के बाद होने वाले क्रियाकर्मों पर दलितों का भरोसा बढ़ता जा रहा है. पहले ज्यादातर अगड़ी जातियां ही इन कर्मकांडों के पीछे भागती थीं.

जैसेजैसे दलितों के पास पैसा आने लगा है, वहां भी कर्मकांड बढ़ने लगे हैं. जामों (अमेठी) के रहने वाले पत्रकार और सामाजिक चिंतक भारत तिवारी कहते हैं, ‘‘अब दलित और पिछड़े भी अगड़ी जातियों की तरह से कर्मकांड करने लगे हैं. गांव स्तर पर तमाम मेले देवी और भवानी के नाम पर लगने लगे हैं. इन में दर्शन करने वालों में सब से अधिक संख्या दलितों की होने लगी है. भले ही ये दानदक्षिणा कम दें लेकिन भीड़ बढ़ाने का काम करने लगे हैं जिस की वजह से ये अपने जीवन में उन बातों को शामिल करने लगे हैं.’’ 40 साल एकसाथ रहने के बाद भी मोहनी और मोतीलाल के संबंधों को सामाजिक और धार्मिक मान्यता नहीं मिली थी. इस वजह से इन के बच्चों के सामने परेशानियां पेश आ रही थीं. मोहनी देवी को भी अच्छा नहीं लग रहा था. असल में मोहनी और मोतीलाल दोनों ही अनपढ़ थे. मोतीलाल तो बो झा ढोने की मजदूरी करता था. मोहनी देवी खेती के काम में मजदूरी कर के जो समय बचता था उस में मंदिरमंदिर जा कर देवी भवानी के दर्शन करती. वहां कथाप्रवचन सुनती. इन धर्म के प्रवचनों में शादी के महत्त्व को बताया जाता और बिना शादी के साथ रहने वालों को बताया जाता था कि शादी न करने से कितनी दिक्कतें आती हैं. 65 साल की उम्र में शादी करने वाले मोतीलाल शादी के अगले ही दिन जामों के माल गोदाम पर ढुलाई करते हमें मिले.

उन से जब यह पूछा कि 40 साल साथ रहने के बाद शादी करने की जरूरत क्या आ गई, इस पर वे कहते हैं, ‘‘बिना शादी किए घर के बेटेबेटियों की शादी में होने वाले पूजापाठ का फल नहीं मिलता है. मरने के बाद घरपरिवार का दिया पानी भी नहीं मिलता. इसलिए शादी करनी जरूरी हो गई. बिना शादी के हमारे संबंध पवित्र नहीं माने जा रहे थे. बिना शादी के किसी को अपनी पत्नी बना कर रखने में औरत को ‘उढरी’ कहा जाता है. मोहनी को अब लग रहा था कि ‘उढरी’ कहलाना अच्छा नहीं होता है.’’ मोतीलाल ने पूरी की पत्नी के मन की बात मोहनी देवी की बात का समर्थन उस के बच्चों ने भी किया. इस के बाद घरपरिवार के लोगों ने मिल कर शादी का आयोजन किया जिस में ढोल भी बजा. मोतीलाल ने शादी में पहने जाने वाला ‘मउर’ भी पहना. ‘मउर’ सिर पर पहनी जाने वाली पगड़ी टाइप होती है. जिसे शादी में दूल्हा पहनता है. मोहनी देवी को भी साड़ी पहनाई गई. मंत्र पढ़ने के लिए पंडितजी भी आए और लोगों ने बरात में डांस किया. गांव में एक कोने से बरात निकली और मोतीलाल के घर तक गई. मोहनी और मोतीलाल की शादी कराने वाले तेजराम पांडेय बताते हैं, ‘‘मोतीलाल ने मोहनी से धार्मिक रीतिरिवाज से शादी नहीं की थी.

धर्म कहता है कि ‘उढरी’ के लड़के मातापिता के मरने के बाद जब उस का श्राद्ध करते हैं, पिंडदान करते हैं तो वह उन को नहीं मिलता है. जिस से उन को मोक्ष नहीं मिलता. इस बात की जानकारी होने पर अब यह शादी की जा रही है. मरने के बाद होने वाले कर्मकांडों में श्राद्ध और पिंडदान किया जाता है.’’ आज समाज में कर्मकांडों को इस तरह से महिमामंडित किया जा रहा है कि 40 साल एकसाथ रहने के बाद मोतीलाल और मोहनी को शादी का कर्मकांड करना पड़ा. इस से पूरे समाज को यह संदेश देने का काम किया गया कि बिना शादी के साथ रहना धार्मिक मान्यता नहीं है. शादी के सहारे धार्मिक कर्मकांडों को मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है. मोहनी के मन में इस बात को ठूंसठूंस कर भर दिया गया कि जब तक कर्मकांड वाली शादी नहीं होगी तब तक शादी मानी नहीं जाएगी. शादी करने के बाद ही मोहनी को पत्नी का दर्जा मिल सका. इस के पहले उस को ‘उढरी’ ही माना जा रहा था. ‘उढरी’ औरत को दलित और पिछड़ा समाज भी किसी तरह की मान्यता नहीं देता है. कर्मकांड के डर से मोतीलाल और मोहनी को बुढ़ापे में शादी करने का रिवाज पूरा करना पड़ा. डरासहमा मिला मोतीलाल शादी की जानकारी मिलने के बाद जब यह संवाददाता लखनऊ से 130 किलोमीटर दूर खुटहना गांव मोतीलाल और मोहनी से मिलने के लिए पहुंचा तो पता चला कि दुलहन मोहनी अपने बच्चों के साथ मंदिर दर्शन करने के लिए गई है.

उस के घर में मौजूद लड़की कुछ भी बोलने से मना कर के दरवाजा बंद कर घर के अंदर चली गई. मोहनी और मोतीलाल के घर के लोग इस बात से डर रहे थे कि किसी बाहरी और अनजान व्यक्ति से बात करने से उन को कोई नुकसान हो सकता है. परिवार वालों को डर लग रहा था कि बुढ़ापे में शादी कर के कोई गुनाह तो नहीं कर दिया. कहीं किसी तरह से पुलिस या कानून की कोई दिक्कत पैदा न हो जाए. इस कारण वे किसी भी तरह की बातचीत करने से मना करने लगे. जानकारी करने पर गांव के लोगों ने बताया कि दूल्हा मोतीलाल गांव से 3 किलोमीटर दूर गोदाम पर काम करने के लिए गया हुआ है. हम ने वहां जा कर उस से बात करने की योजना बनाई. यह मालगोदाम जामों ब्लौक के पास था. वहीं मोतीलाल माल ढुलाई का काम करता था. मोतीलाल को जैसे ही हमारे पहुंचने की सूचना मिली, वह छिप गया. हम ने स्थानीय नेताओं और कुछ प्रभावशाली लोगों को अपने साथ लिया. तब मोतीलाल का डर कुछ कम हुआ. हमारे ऊपर उस को थोड़ा सा भरोसा हुआ और वह बातचीत के लिए तैयार हुआ. हमारे सामने आते ही मोतीलाल बोला, ‘‘साहब, शादी कर के कोई गलती कर दी क्या, जिस से आप लोग हमें तलाश कर रहे हैं?’’

जब सभी लोगों ने यह कहा कि गलती की कोई बात नहीं है. ‘सरिता’ देश की बड़ी पत्रिका है उस में तुम्हारी शादी के बारे में छापा जाएगा. तब वह धीरेधीरे बात करने लगा. असल में गांव में रहने वाला गरीब, कमजोर और कम पढ़ालिखा आदमी हर किसी से डरता है. उस को लगता है कि कोई उस का गलत लाभ न उठा ले. उसे कानून और अपने अधिकारों की जानकारी नहीं होती. चार लोग जैसा कहने लगते हैं वह वैसा करने लगता है. यही वजह है कि जब समाज ने कहा कि बिना धार्मिक रीतिरिवाज के साथ रहना शादी नहीं होती तब उस ने वह बात मान ली और 40 साल साथ रहने के बाद शादी करने की रस्म पूरी कर दी. जब हम ने यह पूछा कि 40 साल साथ रहने के बाद ऐसी क्या जरूरत पड़ी कि शादी करनी पड़ी, तो मोतीलाल ने कहा, ‘‘पत्नी मंदिरमंदिर जाती थी. वहां से उसे पता चला कि 40 साल साथ रहने के बाद भी वह पत्नी नहीं ‘उढरी’ ही सम झी जा रही है. जब तक विधिविधान से शादी नहीं होगी, हमें किसी कर्मकांड का लाभ नहीं मिलेगा. पत्नी की इस इच्छा को पूरा करने के लिए हम ने शादी की रस्म निभाई. मैं भले ही कामकाज में लगा रहता था पर मेरी पत्नी कर्मकांड में लगी रहती थी. हम ने उस के मन की बात को पूरा करने के लिए शादी की.’’ मंडल पर भारी पड़ा कमंडल मोतीलाल और मोहनी की शादी वैसे तो पूरी तरह से उन का अपना फैसला माना जा रहा है, लेकिन इस की तह में जा कर देखने की कोशिश की जाए तो यह धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण हुआ है.

मोतीलाल के आसपास के लोग यह मान रहे हैं कि यह धर्म को राह दिखाने वाला काम है. यहां हम धर्म के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव को देख सकते हैं. 1989 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने पिछड़ों को अधिकार दिलाने के लिए मंडल कमीशन को लागू किया. इस का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ा. पिछड़ों के साथ ही साथ दलित वर्ग में भी चेतना जगी. तमाम क्षत्रप पैदा हो गए जिन के कारण अगड़ी जातियां दलितपिछड़ों के पीछे चलने को मजबूर होने लगीं. यह बात अगड़ी जातियों के पैरोकारों को अच्छी नहीं लग रही थी. ऐसे में मंडल का मुकाबला करने के लिए धर्म के सहारे राजनीति को बढ़ाने का काम शुरू हुआ. इस को कमंडल की राजनीति भी कहा जाता है. इस का केंद्र उत्तर प्रदेश में अयोध्या के राममंदिर को बनाया गया. धर्म की राजनीति के सहारे दलितपिछड़ों को दोबारा यह बताया जाने लगा कि धर्म और कर्मकांड ही जीवन को सही राह दिखाते हैं. धर्म की राजनीति, दलित और पिछड़ों को वापस मंदिरों की तरफ लाने में सफल हुई. दलित और पिछड़ों को यह लगा कि जो कर्मकांड अगड़ी जातियों के लोग करते हैं, वही हम भी करेंगे तो हमें भी उन के बराबर गिना जाएगा.

दलित और पिछड़ी जातियों के लोग धार्मिक कर्मकांडों में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी करने लगे. अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा मंदिरों में दर्शन करने, पूजापाठ करने, चढ़ावा चढ़ाने, धार्मिक मान्यताओं को पूरा करने में लगाने लगे. उन के पास भले ही पहनने के लिए ढंग के कपड़े न हों पर पूजा के लिए पंडित को दानदक्षिणा देने के लिए पैसे आ जाते हैं. मरीज का इलाज कराने के लिए भले ही पैसे न हों पर मरने के बाद कर्मकांड पर खर्च करने के लिए पैसे आ जाते हैं. कई बार वे कर्ज ले कर या फिर जमीनजायदाद बेच कर इस काम को पूरा करते हैं. मंडल की राजनीति ने दलित और पिछड़ों को बराबरी का हक और अधिकार देने का जो काम किया था, कर्मकांड और कमंडल की राजनीति में पड़ कर वह सब मटियामेट हो गया है. द्य क्या होती है ‘उढरी’ 40 साल पहले जब मोतीलाल मोहनी को ले कर आए थे तो उन के पास शादी में खर्च करने लायक पैसा नहीं था. अपनी बिरादरी को खिलाने के लिए भी पैसेरुपए नहीं थे.

ऐसे में वे बिना शादी के ही मोहनी के साथ रहने लगे. दलित जातियों में बिना शादी के साथ रहने वाली औरत को ‘उढरी’ कहा जाता है. दलित जातियों की पंचायतों में नियम था कि अगर बिना शादी के किसी महिला के साथ रह रहे हैं तो पंचायत के चौधरी और पंचों को ‘भात’ खिलाना जरूरी होता था. ‘भात’ एक तरह की दावत होती है. जब तक ‘भात’ नहीं खिलाया जाता था तब तक ‘उढरी’ औरत को शादीशुदा नहीं माना जाता था. उस के बच्चों को भी सामाजिक व धार्मिक मान्यता नहीं मिलती थी. सामाजिक और धार्मिक मान्यता के अलगअलग मतलब होते हैं. सामाजिक मान्यता न मिलने के कारण उन के बच्चों के शादीब्याह नहीं हो सकते थे. बिरादरी के लोग उन को दावत में नहीं बुलाते थे.

धार्मिक मान्यता में यह माना जाता है कि बच्चों द्वारा किए गए क्रियाकर्म का पुण्य मातापिता को नहीं मिलता था. बहुत सारी दलित चेतना के बाद भी दलितों की रूढि़वादी सोच में अंतर नहीं आया है. आज भी वह धर्म के प्रभाव में है. मोतीलाल और मोहनी देवी का जीवन भी ऐसा ही रहा है. मोतीलाल भले ही मेहनतमजदूरी में व्यस्त रहते थे, पत्नी मोहनीदेवी धार्मिक रीतिरिवाजों में लगी रहती थी. कई मंदिरों में उसे यही बताया जाता था कि कर्मकांड जीवन में क्या महत्त्व रखते हैं. इन बातों के प्रभाव में आ कर उस ने अपने पति मोतीलाल से कहा कि ‘हमें भी शादी करनी चाहिए तभी हमें कर्मकांडों का हक मिल सकेगा और हमें ‘उढरी’ भी कोई नहीं कह सकेगा.’

Social Story in Hindi : किटी पार्टी

लेखक-कंवल भारती

पौश कालोनी का एक इलाका. उस में मिसेज खुशबू की एक दोमंजिला आलीशान कोठी. उस में नीचे वह स्वयं रहती हैं और ऊपर के पोर्शन को अपनी सामाजिक गतिविधियों और मेहमानों के लिए खाली रखती हैं. उन की एक ‘महिला सत्संग’ नाम की संस्था है. उसी के तहत वह महिलाओं की किटी पार्टी करती हैं. अगर यह कहा जाए कि ‘महिला सत्संग’ का मतलब किटी पार्टी ही है, तो गलत न होगा.

किटी पार्टी में शामिल होने वाली महिलाएं हालांकि आती तो संभ्रांत परिवारों से हैं, पर असल में वे बैठीठाली महिलाएं हैं, जिन के पति या तो हैं नहीं या फिर वे बाहर रहते हैं और अकसर वे महिलाएं अकेली रहती हैं.

मिसेज खुशबू भी अकेली रहती हैं. लेकिन उन के बारे में चर्चा यह है कि उन के पति का देहांत हो चुका है, और वह इस शहर में एक प्रतिष्ठित मिशन स्कूल में टीचर रह चुकी हैं. नौकरी से मुक्त होने के बाद वह अपने मूल शहर वापस नहीं गईं, और इसी शहर में अपनी कोठी बना कर बस गईं.

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi – छलना- भाग 1 : क्या थी माला की असलियत?

शाम के 6 बजे थे. मिसेज खुशबू ने चाय के लिए अपनी मेड को आवाज दी. उसी समय दरवाजे की बेल बजी. मिसेज खुशबू ने बाहर का गेट खोला, देखा, एक खूबसूरत स्त्री हाथ में बेग लिए खड़ी है. उन्होंने नीचे से ऊपर तक इस स्त्री पर नजर डाली, टौप और नीली जींस में, आंखों पर काला चश्मा लगाए एक गौर वर्ण की खूबसूरत युवती खड़ी है. मिसेज खुशबू ने मुसकरा कर हेलो किया, फिर पूछा, ‘जी, बताइए?’

‘मैं राधिका हूं. क्या मैं आप से मिल सकती हूं?’

‘ओ… यस, कम… कम,’ और मिसेज खुशबू राधिका को अंदर ड्राइंगरूम में ले गईं.

मेड को आवाज दे कर पानी लाने और एक कप चाय और बना कर लाने के लिए कहा.

चाय पर बातचीत शुरू हुई. मिसेज खुशबू ने पूछा, ‘हां तो बताइए, आप क्या बात करना चाहती थीं?’

‘दरअसल मैम, मैं आप के क्लब की मेंबर बनना चाहती हूं,’ राधिका ने जवाब दिया.

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi : तेरी सास तो बहुत मौडर्न है

‘ओह, नाइस. क्या करती हैं आप?’

‘जी मेम, मैं भी टीचर हूं.’

‘मैं भी का क्या मतलब…? कोई और भी है?’

‘जी, आप भी टीचर थीं ना?’

‘ओह,’ मिसेज खुशबू मुसकराईं.

‘कहां पढ़ाती हैं आप?’

‘जी, गवर्नमेंट गर्ल्स कालेज में.’

‘क्यों मेंबर बनना चाहती हैं?’

राधिका ने विनम्रता से कहा, ‘क्या है कि मैम, कुछ मेलजोल बढ़ेगा, विचारों के आदानप्रदान से लाभ होगा, और समय भी कटेगा.’

मिसेज खुशबू ने कागजी कार्यवाही पूरी कर के राधिका को ‘महिला सत्संग’ का सदस्य बना लिया. फिर कहा, ‘वैसे तो हर महीने के दूसरे और आखिरी वीकेंड पर हमारी सभा होती है. लेकिन कभीकभी खास सभाएं होती हैं, तो फोन से सब को सूचित कर दिया जाता है.’

कोई एक हफ्ते बाद राधिका के फोन पर मिसेज खुशबू का मैसेज आया, ‘इसी संडे को कुछ नए सदस्यों का परिचय कराने के लिए पार्टी रखी गई है. आप शाम 6 बजे आइएगा.’

राधिका ने मैसेज पढ़ा और ओके लिख कर रिप्लाई सेंड कर दिया.

उस दिन राधिका ने सारे जरूरी काम शाम 5 बजे से पहले ही निबटा लिए. वह ठीक शाम के 6 बजे मिसेज खुशबू की कोठी पर पहुंच गई.

पार्टी ऊपर के कमरे में थी. राधिका ने प्रवेश किया तो देखा कि कई महिलाएं सोफे पर विराजमान थीं. वह उन में से किसी को नहीं जानती थी. उस ने सभी उपस्थित महिलाओं को सिर झुका कर हाथ जोड़ कर नमस्कार कहा और एक खाली सोफे पर बैठ गई. कुछ देर में संस्था की बाकी सदस्य भी आ गईं. सब से अंत में आईं, मिसेज खुशबू. उन्होंने पार्टी की कुछ औपचारिक कार्यवाही के बाद नए सदस्यों का परिचय कराना शुरू किया, ‘ये मिस कल्पना हैं. आकाशवाणी में ये अनाउंसर थीं. अब सोशल वर्कर हैं. ये मिसेज नीलम सिंह हैं, फ्रीलांसर हैं. ये मिसेज मधु हैं, इन का खुद का गारमेंट बिजनेस है और सिलाईकढ़ाई का केंद्र भी चलाती हैं. ये हैं हमारी संस्था की सब से महत्वपूर्ण मेंबर सविता भटनागर, स्त्री मामलों की विशेषज्ञ और मशहूर वकील. फिर वह मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोलीं, ‘और ये हैं ब्यूटीफुल लेडी राधिका, जो गवर्नमेंट कालेज में अंगरेजी पढ़ाती हैं और खुले विचारों की हैं.’

ये भी पढ़ें- Raksha Bandhan 2021 : कच्चे धागे- आशा के साथ कौन सी कहानी उस की

‘खुले विचारों से मतलब…?’ मनीषा त्रिपाठी ने पूछा.

राधिका ही बोल पड़ी, ‘प्रगतिशील और वैज्ञानिक भी.’

‘तो क्या हम प्रगतिशील नहीं हैं?’ स्वाति मिश्रा ने सवाल किया.

‘जरूर हो सकती हो. क्यों नहीं हो सकती?’ राधिका ने जवाब दिया.

इस के बाद मनीषा त्रिपाठी ने सभी सदस्यों को रामनवमी की अग्रिम बधाई दी. राधिका ने पूछा, ‘अगर कोई रामनवमी न मनाता हो तो…?’

‘क्या आप रामनवमी नहीं मनाती हैं?’ स्वाति ने पूछा.

‘नहीं, मैं क्यों रामनवमी मनाऊं?’ राधिका ने जवाब दिया.

‘क्या आप हिंदू नहीं हैं?’ मनीषा त्रिपाठी ने पूछा.

‘जरूर हिंदू हूं, पर मैं अंधविश्वासी नहीं हूं,’ राधिका ने जवाब दिया.

‘इस में अंधविश्वास कहां से आ गया? राम कल के दिन पैदा हुए थे,’ मनीषा ने बताया.

राधिका ने शांत हो कर कहा, ‘देखिए, बुरा न मानिए. पहले तो राम ऐतिहासिक नहीं हैं, जैसे बुद्ध हैं, महावीर हैं. दूसरी बात यह कि जो जन्म लेता है, वह भगवान कैसे हुआ? वह तो मनुष्य ही हुआ.’

‘हां, वह मनुष्य रूप में अवतार थे विष्णु के,’ मनीषा ने बताया.

‘उन्हें मनुष्य रूप में अवतार लेने की जरूरत क्यों पड़ी?’

‘रावण और राक्षसों का वध करने के लिए उन्हें अवतार लेना पड़ा था.’

‘रावण और राक्षस लोग विष्णु का क्या नुकसान कर रहे थे, जो उन को मारने के लिए उन्हें धरती पर आना पड़ा?’

‘आप को इतना भी नहीं पता,’ स्वाति ने कहा, ‘रावण और राक्षस लोग ब्राह्मणों के शत्रु थे, उन्हें सताते थे और मार कर खा जाते थे.’

‘ओह, तो इस का मतलब यह हुआ कि राम का अवतार ब्राह्मणों की रक्षा के लिए हुआ था, मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए नहीं. जैसे बुद्ध ने संपूर्ण मानवता को करुणा, मैत्री और अहिंसा का संदेश दिया था.’

फिर राधिका ने आगे कहा, ‘ये राम ब्राह्मणों के भगवान थे, फिर तो आप ने ठीक ही उन की पूजा की.’

मिसेज खुशबू ने देखा, मनीषा और स्वाति के चेहरों पर विषाद की रेखाएं उभर आई थीं. वातावरण में तनाव पैदा हो गया था. उन्होंने तनाव को हलका करने के लिए मधु को गजल सुनाने को कहा, पर तनाव के बीच ही मनीषा और स्वाति पार्टी से उठ कर चली गईं.

‘वादविवाद तो किटी पार्टी का हिस्सा है. इस से गुस्सा हो कर जाना तो ठीक नहीं,’ राधिका ने कहा.

मिसेज खुशबू ने कहा, ‘किटी पार्टी का मतलब सिर्फ पीनाखाना ही नहीं है, वरन इस का उद्देश्य हर तरह के विषयों पर तार्किक बहस चलाना भी है. यहां आज तक ऐसे विषयों पर कभी बहस ही नहीं हुई. सिर्फ खानापीना और घरगृहस्थी की निजी बातें ही ज्यादा हुई हैं.

‘आज पहली बार राधिका के आने से किटी पार्टी में विमर्श की शुरुआत हुई है. और पहली बार मुझे पता चला कि यह कुछ सदस्यों को पसंद नहीं आया.’

‘लेकिन मैम, मैं ने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं, जिस से वे नाराज हो कर चली गईं?’ राधिका ने कहा.

मिसेज खुशबू ने कहा, ‘इट्स ओके.’

इस के बाद पार्टी समाप्त हो गई.

दूसरे दिन मिसेज खुशबू के घर की घंटी फिर बजी. मिसेज खुशबू ने दरवाजा खोला, तो सामने स्वाति मिश्रा को देख कर चौंकी.

‘ओह स्वाति आप? कैसे आना हुआ?’ मिसेज खुशबू ने पूछा.

‘मेम, मुझे कुछ बात करनी है आप से,’ स्वाति ने कहा.

‘ओह, कम… कम,’ मिसेज खुशबू उन्हें घर में ले गईं. ड्राइंगरूम में बैठा कर पूछा, ‘हां बताओ, क्या बात करनी है?’

‘मेम, आप जानती हैं, ये राधिका कौन है?’ स्वाति ने पूछा.

‘ओह, राधिका. वह हमारे ‘महिला सत्संग’ की नई सदस्य बनी हैं. लेकिन तुम इतना परेशान क्यों लग रही हो?’

‘मेम, वह कोटे वाली है,’ स्वाति ने कहा.

‘वाट…? कोठेवाली…? क्या कह रही हो? तुम होश में तो हो? वह टीचर है गवर्नमेंट स्कूल में. कोठेवाली कैसे हो सकती है?’ मिसेज खुशबू ने आश्चर्य के साथ पूछा.

‘सौरी मेम, कोठेवाली नहीं, कोटे वाली.’

‘मतलब…?’

‘मतलब, वह दलित जाति से है. डा. अंबेडकर को मानने वाली है. इसीलिए तो वह राम को नहीं मानती.’

‘तो क्या हुआ? हमारी संस्था यह सब नहीं मानती. हम न तो किसी की जाति पूछते हैं और न ही लिखवाते हैं. आप ने हमारी संस्था के फार्म में जाति का कालम देखा है क्या?’ मिसेज खुशबू ने कठोरता से कहा.

स्वाति ने परेशान हो कर कहा, ‘लेकिन मेम, हम उस के साथ सहज नहीं रह पाएंगे.’

‘क्यों…?’

‘इसलिए कि हम ब्राह्मण हैं… और वह अछूत.’

‘यह क्या ब्राह्मणअछूत लगा रखी है? कौन सी दुनिया में जी रही हो तुम स्वाति ?’ मिसेज खुशबू ने थोड़ा कठोर हो कर कहा.

‘लेकिन, तुम कैसे कह सकती हो, तुम ब्राह्मण हो?’ खुशबू ने पूछा.

स्वाति एकदम चौंक गई. फिर बोली, ‘आप ऐसा कैसे कह रही हैं?’

‘क्यों नहीं कहूं? आप एक सुंदर और सुशिक्षित महिला को अपनी नफरत के काबिल समझती हैं कि वह दलित है? और आप अपने को सम्मान के काबिल समझती हैं कि आप ब्राह्मण हैं? किधर से आप ब्राह्मण हैं और किधर से राधिका दलित है?’ खुशबू ने थोड़ा नाराज हो कर कहा.

स्वाति को इस तरह के सवाल की बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी. वह यही समझती थी कि समाज में ब्राह्मण ही सब से ऊंचा वर्ग है और दलित सब से नीचा. उसे अपने घरपरिवार में इसी तरह के भेदभाव वाले संस्कार मिले थे. एक नीच स्त्री की इतनी हैसियत नहीं कि वह किटी पार्टी में धर्म पर बहस करे और मिसेज खुशबू हैं कि ब्राह्मण और दलित में कोई भेद ही नहीं कर रही हैं. कहीं मिसेज खुशबू भी तो दलित नहीं हैं? उस के मन में संदेह पैदा हुआ. उस ने सोचा कि क्यों न संदेह मिटा लिया जाए. अत: स्वाति ने पूछा, ‘मैम, आप किस जाति की हैं?’

मिसेज खुशबू जरा भी विचलित नहीं हुईं. शुरू में वह ऐसे सवालों से जरूर परेशान होती थीं, लेकिन अब नहीं होतीं. उन्हें समझ में आ गया था कि अगर समाज को बदलना है, तो जाति के बंधन से मुक्त होना जरूरी है. इसलिए उन्होंने स्वाति से ही पूछ लिया, ‘आप ही बताओ, मेरी जाति क्या हो सकती है? मैं पेड़ हूं? पक्षी हूं? पशु हूं या मनुष्य हूं?’

‘औफ कोर्स मैम, आप मनुष्य हैं,’ स्वाति ने जवाब दिया.

‘फिर आप जाति क्यों पूछ रही हैं? जातियां तो पशुपक्षियों में होती हैं.’

‘मैम, जातियां मनुष्यों में भी होती हैं.’

खुशबू ने कहा, ‘मुझे तो मनुष्यों में जातियां नहीं दिखाई देतीं. अगर आप को लगता है कि जातियां होती हैं, तो अलगअलग जातियों की कुछ फिजिकली पहचान भी जरूर होनी चाहिए. यह क्या पहचान है, जरा हमें भी बताइए कि किस चीज से कोई ब्राह्मण होता है, और कोई दलित?’

स्वाति इस सवाल से परेशान सी हो गई थी, पर उस ने अपनी परेशानी को छिपाते हुए पूछा, ‘क्या पहचान…? मैं समझी नहीं.’

खुशबू ने दोहराया, ‘मेरे कहने का मतलब यह है कि आप के पास ब्राह्मण होने की क्या पहचान है, जो राधिका के पास नहीं है. और राधिका के पास दलित होने की क्या पहचान है, जो आप के पास नहीं है?’

स्वाति मौन हो गई. खुशबू ने समझाने के लहजे में फिर कहा, ‘क्या स्वाति, आप का और राधिका का रंग अलगअलग है?’

स्वाति ने कहा, ‘नहीं.’

खुशबू ने फिर कहा, ‘तब क्या शरीर की बनावट अलगअलग है? आप की नाक कहीं और जगह लगी है, और राधिका की कहीं और जगह?’

स्वाति ने जवाब दिया, ‘नहीं.’

खुशबू पूछने लगी, ‘तब क्या आप के और राधिका के हाथपैरों की बनावट में कोई अंतर है यानी आप के हाथपैर बड़े हों और राधिका के छोटे?’

स्वाति सहमते हुए बोली, ‘नहीं मैम, ऐसा कुछ नहीं है. सब बराबर हैं.’

खुशबू ने अपनी बात फिर दोहराई, ‘फिर क्या पहचान है…? आप अपने ब्राह्मण होने की कुछ तो पहचान बताइए.’

स्वाति मौन.

खुशबू ने कहा, ‘अच्छा अपनी पहचान नहीं बताना चाहती, तो मत बताओ. पर, कम से कम आप राधिका के ही दलित होने की पहचान बता दीजिए कि आप ने कैसे पहचाना कि वह दलित है?’

स्वाति के पास कोई जवाब नहीं था, पर वह मिसेज खुशबू की कोई भी दलील मानने को तैयार नहीं थी. अगर मानती तो उसे अपनी उच्चता की भावना छोड़नी पड़ती, जिस का मिथ्या दंभ उस की नसनस में भरा हुआ था. उसे वह छोड़ना नहीं चाहती थी. इसलिए उस ने मिसेज खुशबू से कहा, ‘मैम, मैं अब आप के महिला मंडल में नहीं रहना चाहूंगी. मुझे इजाजत दीजिए, मैं चलती हूं, अपना इस्तीफा भिजवा दूंगी.’

मिसेज खुशबू ने कहा, ‘आप ने सही फैसला किया है. आप जैसी जातिवादी और मनुष्य विरोधी अशिक्षित महिला की मेरे ‘महिला सत्संग’ में जरूरत भी नहीं है. और केवल मेरे ‘महिला सत्संग’ को ही नहीं, आप किसी भी संस्था, समाज के लिए अवांछित तत्व हैं.’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें