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भूस्खलन का दंश झेलते हमारे पर्वतीय क्षेत्र

लेखक – अमृता पांडे

यूं तो मानसून आता है तो मन में एक उमंग जाग उठती है और कवियों की कल्पना का आकाश भी विस्तृत हो जाता है परंतु उत्तराखंड में वर्तमान समय में मानसून पीड़ादायक हो चुका है और चिंतन के लिए मज़बूर कर देता है.

देशभर से आने वाले भूस्खलन के समाचार चिंता बढ़ाने वाले हैं. लगता है कि आदमी की जान बहुत ही सस्ती हो गई है. अभी हाल फिलहाल में हिमाचल के किन्नौर में हुई घटना ने पूरे देश का दिल दहला दिया है. निगुल सेरी नेशनल हाईवे पर यह बस तब दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जब यह उत्तराखंड के हरिद्वार शहर को जा रही थी. दुर्घटना का कारण पहाड़ी से आया भारी मलबा था जिसमें बस थक गई और बस में सवार यात्री भी घंटों दबे रहे. कुछ एक ने तड़प तड़प के वहीं दम तोड़ दिया होगा. कुछ इस भयावह से से डरकर मौत के आगोश में आ गए. कुछ जिंदगी भर के लिए अपंग हो गए. इसी तरह एक पर्यटक वाहन भी सांगला छितकुल मार्ग पर पहाड़ी से दरकी चट्टान की चपेट में आ गया जिसमें 10 पर्यटकों की मौत हो गई.

कहते हैं कि प्रत्यक्ष यात्रा से जो अनुभव प्राप्त होते हैं, वह किताबों में नहीं होते. हम आए दिन समाचार पत्रों में टीवी में भूस्खलन की घटनाएं पढ़ते हैं, देखते हैं और कुछ देर में भूल जाते हैं लेकिन जब प्रत्यक्ष रूप से अपनी आंखों से यह नज़ारा देखते हैं तो दिल कांप उठता है. अभी कुछ ही दिनों पहले कार्यवश उत्तराखंड के पर्वती क्षेत्र में भ्रमण का मौका मिला तो बरसात में होने वाली तबाही का जायज़ा भी लेने को मिला.

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भूस्खलन मानव के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है. यूं तो पूर्वोत्तर के राज्य जिन्हें हम सेवेन सिस्टर्स कहते हैं, भूकंप से सर्वाधिक प्रभावित हैं परंतु यहां पर अपने राज्य उत्तराखंड की बात करूंगी जो स्वयं एक पर्वतीय राज्य हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में 84 डेंजर ज़ोन सक्रिय हैं. यह राज्य हिमालय की नव युवा पर्वत श्रृंखलाओं पर स्थित है और भंगुर, भुरभुरी मिट्टी के अलावा रेत, चूना पत्थर और डोलोमाइट की अधिकता पाई जाती है. टिहरी जिला क्षेत्र में ऋषिकेश- गंगोत्री और बद्रीनाथ हाईवे में 150 किलोमीटर की दूरी में 60 डेंजर ज़ोन बताए जाते हैं. कई बार भूगर्भ वैज्ञानिक सर्वे कराया जा चुका है और इसके अनुसार ट्रीटमेंट किया जाता है परंतु यह अस्थाई उपाय है. इन पर्वतीय इलाकों में भूस्खलन जो़न बढ़ते ही जा रहे हैं. कब पहाड़ी से कोई बोल्डर आकर  गिर जाए, पता ही नहीं. अभी पिछले जुलाई माह में गुडगांव से नैनीताल आ रहे पर्यटक दंपति इसका शिकार हुए, जिसमें पति की मौके पर ही मृत्यु हो गई और पत्नी के सिर में गहरी चोट आई.

एक दूसरी घटना में उत्तराखंड के देवप्रयाग के पास तोता घाटी इलाके से गुजर रहे पत्रकारिता के प्रोफ़ेसर की कार में बॉर्डर गिरने से तत्काल मृत्यु हो गई.भूस्खलन की दृष्टि से बहुत सारे राज्य संवेदनशील हैं जिनमें जम्मू कश्मीर सिक्किम केरल पश्चिम बंगाल गोवा नीलगिरी की पहाड़ियां महाराष्ट्र में कौन क्षेत्र हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड शामिल है.

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हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को इस मामले में सर्वाधिक संवेदनशील कहा जा सकता है. इन दो प्रदेशों में इतना ज्यादा भूस्खलन क्यों होता है, सोचने वाली बात है. पिछले कुछ सालों से यह घटनाएं बढ़ती है चली जा रही हैं. दरअसल हिमालय इलाके बहुत संवेदनशील हैं. यहां पर मिट्टी भुरभुरी और रेतीली होती हैं. ये पहाड़ियां अभी नयी हैं. इन्हें मज़बूत और कठोर होने में वक्त लगता है. मगर समय से पूर्व ही इन पर डायनामाइट की हथौड़ी चला देने से यह कमजोर हो रही हैं और इनमें दरार पड़ रही है, जिससे संतुलन बिगड़ता नज़र आ रहा है. पहाड़ों में बर्फबारी होना आम बात है. बर्फबारी के बाद गर्मी में जब बर्फ पिघलती है तो चट्टान और मिट्टी मुलायम हो जाती है. हिमालय के ऊपरी भाग में ढलान पर गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होने से चट्टाने नीचे की ओर खिसकने लगती है और जब मानसून आता है तो बारिश की मार से ये और कमजोर हो जाती हैं. इस बार अंधाधुंध सड़क निर्माण, वनों की कटाई, पानी का रिसाव मुसीबत को और बढ़ा देता है. भूस्खलन की गति 260 फीट प्रति सेकंड तक मापी गई है जहां पर संभलने का कोई मौका ही नहीं मिलता.

विकास कार्य में आवश्यक है परंतु पर्यावरण की कीमत पर बिल्कुल नहीं. यदि वैज्ञानिक तरीके इस्तेमाल किए जाएं और निर्माण कार्य छोटे पैमाने पर किया जाए, पत्थरों को रोकने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली दीवारें बनाई जाएं और मज़बूत जाल की व्यवस्था की जाए तो हम भूस्खलन की घटनाओं से काफी हद तक बच सकते हैं. हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट, सुरंग का अंधाधुंध निर्माण हो रहा है इसके लिए ड्रिल का प्रयोग करने से पहाड़ियों की ऊपरी सतह दिन प्रतिदिन कमजोर हो रही है और पत्थर हिल रहे हैं.

उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे को मैंने बहुत करीब से देखा है. पहाड़ों पर रिजॉर्ट्स, बड़ी-बड़ी इमारतें बिना मानकों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं. चमोली जिले में हर साल भूस्खलन से मवेशी और इंसान तक करना चाहते हैं पहाड़ियों में स्थित घर भी हर साल भूस्खलन की चपेट में  आते ही रहते हैं. हाल ही में भूस्खलन के कारण उत्तराखंड में दुर्घटना हुई जिसमें एक परिवार के तीन सदस्य दबकर मर गए.

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भूस्खलन के कारण पिथौरागढ़ मार्ग कई बार बंद हो चुका है. अभी 11 अगस्त को गंगोत्री हाईवे के  बंदरकोट के पास भारी मलबा आने से यातायात बाधित रहा. इसी तरह चिन्यालीसौड़ में मोरनी मोटर मार्ग पर चट्टान खिसकने से जेसीबी चालक की दर्दनाक मौत हो गई. ये कुछ एक उदाहरण है. मौत के आंकड़ों का सही पता लगाना बहुत मुश्किल है. कई बार तो दुर्घटना हो जाती है लेकिन उसका रिकॉर्ड नहीं रहता.

भूस्खलन के कारण कई पुल ध्वस्त हो जाते हैं और कई कई दिनों तक ग्रामीणों का संपर्क मुख्य मार्ग से टूट जाता है. आजकल तो महामारी के कारण स्कूल बंद है, मगर पिछले सालों में बच्चों को रस्सी जिसे गरारी कहते हैं, के सहारे नदी पार करते हुए देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे. आज भी आवश्यक सामग्री की खरीदने हेतु ग्रामीण इसी रस्सी या गरारी का सहारा लेकर पार जाते हैं.

पहाड़ी क्षेत्रों में कई वर्षों से सड़कें बन रही हैं लेकिन काम कभी समाप्त होता ही नहीं. मानसून में अत्यधिक बारिश के कारण सड़कों में गड्ढे पड़ते रहते हैं, पहाड़ चटकते रहते हैं और इनकी मरम्मत पुनर्निर्माण जारी रहता है. देखा जाए तो इससे आर्थिक क्षति भी बहुत ज़्यादा होती है.करोड़ो रुपए प्रतिवर्ष खर्च करने के बाद भी नतीजा संतोषजनक नहीं रहता.

मानव सदा से प्रगतिशील और परिवर्तनशील प्राणी रहा है ‌.अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए हमेशा से प्रकृति के साथ प्रयोग या छेड़छाड़ भी करता आया है. मानव और आपदा का संबंध बहुत पुराना है. जब से मानव जीवन अस्तित्व में आया है तब से कदम कदम पर आपदाओं ने डेरा डाला है.जून 2013 में आई केदार आपदा को हम कैसे भूल सकते हैं, जब लगभग 4400 हजार से अधिक लोग इसके शिकार हुए थे.

प्रकृति संरक्षण और संवर्धन मांगती है. उसके साथ छेड़छाड़ के नतीजे़ हमेशा ही घातक साबित हुए हैं. प्रकृति के इशारों को समझते हुए उसके साथ चलने में ही समझदारी है और जीवन की सुरक्षा है.

 

मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा – भाग 2 : विजय जी व इंदु के रिश्ते में क्या दिक्कत थी

लेखक – नरेंद्र कौर छाबड़ा

दोनों बच्चे कालेज पहुंच गए थे. बेटी ने मेडिकल लाइन ली थी, जबकि बेटा एमबीए करना चाहता था. विजयजी अपनी प्रैक्टिस में व्यस्त रहते, लेकिन रात को पूरा परिवार साथ बैठता, खाना साथ ही खाते. एकदूसरे के बारे में जानने, बोलने का यही समय होता. मातापिता के आपसी प्रेम, सहयोग, लगाव को बच्चे बचपन से ही देख रहे थे. सो, उन के अंदर भी वैसे  संस्कार बनते चले गए.

बेटी डाक्टर बन गई. परिवार की तरफ से एक छोटी सी पार्टी रखी गई, जिस में रिश्तेदारों के साथ विजयजी व इंदु के नजदीकी मित्र थे. पार्टी के दौरान ही एक मित्र ने अपने डाक्टर बेटे के लिए विजयजी की बेटी से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. कुछ दिनों बाद ही सारी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद उन की शादी तय हो गई.

मित्र का डाक्टर बेटा विदेश में नामी अस्पताल में कार्यरत था. शादी के बाद वह पत्नी को भी साथ ले गया. बेटे सुभाष को एमबीए के बाद एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनी में अपनी सहकर्मी नीता के साथ काम करते हुए दोनों ही एकदूसरे की ओर आकर्षित हुए. सालभर में ही वे दोनों विवाह सूत्र में बंध गए.

विजयजी व इंदु दोनों ही इस रिश्ते से खुश थे. नीता भी परिवार में घुलमिल गई थी और यथासंभव सहयोग देती थी. नीता अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में कभी पीछे नहीं रही. जुड़वा बेटों के जन्म के बाद 2-3 साल के लिए नीता ने नौकरी छोड़ दी थी.

इंदु अकेली 2 बच्चों को कैसे संभाल पाएगी, यही सोच कर यह निर्णय लिया गया. जब बच्चे स्कूल जाने लगे, तो इंदु ने स्वयं ही नीता से कहा, “तुम चाहो तो अब नौकरी कर सकती हो. बच्चों को मैं देख लूंगी. वैसे अब तुम्हारे ससुरजी भी सेवानिवृत्त होने वाले हैं. हम दोनों मिल कर उन्हें संभाल लेंगे.”

सुभाष ने भी स्वीकृति दे दी. कुछ ही समय बाद नीता को एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई. समय का चक्र चलता रहा. अब तो पोते भी बाहर नौकरी करते हुए परिवार बसा चुके हैं. पिछले कुछ समय से विजयजी का बाहर आनाजाना कुछ कम हो गया है. कुछ अशक्त महसूस करते हैं. उन के मित्रगण ही कभीकभी उन के पास आ जाते हैं. फिर लंबे समय तक गपशप चलती रहती है. इंदु भी कुछ देर बैठती, फिर उन के चायपानी के इंतजाम में लग जाती. उस का भी महीने में 5-7 बार बाहर जाना हो ही जाता था. कभी कोई आयोजन, कभी किटी पार्टी, कभी किसी सामाजिक संस्था का कार्यक्रम.

उस दिन इंदु किटी पार्टी से लौटी तो वह काफी खुश थी. तंबोला में और गेम में उसे इनाम मिले थे. वह उत्साह से विजयजी को बताने लगी, तभी वह बोल पड़े, “तुम तो अपना वक्त अच्छा काट के एंजौय कर आती हो. मैं यहां अकेला बोर होता रहता हूं…”

यह सुन कर इंदु अवाक रह गई. इन को क्या हो गया? इस तरह के ताने पहले तो नहीं देते थे. उसे गुस्सा भी आ गया. वह बोली, “तो अब मैं बाहर जाना बंद कर दूं…” “मैं ने यह तो नहीं कहा,” विजयजी संभलते हुए बोले. “जिस तर्ज में बात कर रहे हो, उस का अर्थ तो यही निकलता है…” कहते हुए इंदु अपने कमरे में चली गई.

इंदु कपड़े बदल कर आई तो टीवी चला दिया. विजयजी चुपचाप सोफे पर बैठे रहे. रात के खाने पर बेटेबहू को महसूस हुआ कि दोनों चुप हैं. इंदु का उतरा चेहरा देख बहू ने पूछ लिया, “मम्मीजी, आप सुस्त क्यों हैं? आज की किटी पार्टी कैसी रही?” “कुछ नहीं, थोड़ी थकान सी लग रही है. पार्टी अच्छी रही,” इंदु ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

बेटाबहू जानते हैं. विजयजी और इंदु का आपस में आत्मीय प्रेम, लगाव है, लेकिन ऊपरी तौर पर नोकझोंक भी चलती रहती है. विजयजी थोड़े शार्ट टेंपर्ड जो हैं. रात को सोते समय विजयजी ने इंदु का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “अभी तक नाराज हो? क्या करूं, तुम अगर ज्यादा देर बाहर रहती हो तो मैं ऊब जाता हूं…”

“मैं ने कहा ना, आगे से मैं कहीं नहीं जाऊंगी. तुम्हें अच्छा नहीं लगता ना…” “तुम से यह किस ने कह दिया? मुझे भला क्यों आपत्ति होने लगी? पगली, 50 साल साथ रह कर भी मेरे प्यार को नहीं जान पाई. मैं तुम्हें मिस करता हूं.” “अगर किसी दिन मैं इस दुनिया से हमेशा के लिए चली गई, फिर क्या करोगे…?”

इंदु के कहते ही विजयजी ने उस के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, “ऐसा कभी मत कहना. मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा…” उन की आंखें नम हो गई थीं. इंदु ने उन की आंखों को पोंछते हुए कहा, “इतने भावुक मत बनो. मैं कहीं नहीं जाने वाली तुम्हें छोड़ कर. चलो, अब मुसकरा दो…” विजयजी ने इंदु के माथे पर चुंबन जड़ा और शुभरात्रि कह कर सो गए.

अगले दिन दोपहर का खाना खा कर इंदु बरतन समेट रही थी. अचानक उसे चक्कर सा आ गया और हाथों में बरतनों समेत वह धड़ाम से गिर गई. बरतनों के गिरने की आवाज सुन कर विजयजी कमरे से निकल वहां पहुंचे. इंदु दर्द के मारे कराह रही थी. विजयजी के वृद्ध शरीर में इतनी शक्ति कहां कि वह उसे उठा कर बिस्तर पर लिटा दें. उन्होंने फौरन पड़ोसी को फोन लगा कर मदद के लिए बुलाया, फिर सुभाष को सूचना दी.

पड़ोसियों ने आ कर इंदु को सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. उसे भयंकर दर्द हो रहा था. आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ देर में ही बेटा सुभाष और बहू नीता भी आ गए. किसी तरह इंदु को उठा कर कार में बैठाया और अस्पताल चल पड़े.

डाक्टर ने एक्सरे निकाले तो पता लगा कि कूल्हे की हड्डी टूट गई है. आपरेशन करना पड़ेगा. अचानक हुए इस हादसे से सभी तनाव में आ गए. अस्पताल में कम से कम 8-10 दिन रहना पड़ेगा. इधर घर में विजयजी को भी देखना पड़ेगा. वह भी अशक्त हो रहे थे. पत्नी की हालत से और अवसादग्रस्त हो गए. आखिर यह फैसला लिया गया कि सुभाष और नीता दोनों ही 10 दिनों की छुट्टियां ले लेंगे.

नियत समय पर आपरेशन सफलतापूर्वक हो गया. 8 दिनों के बाद इंदु की छुट्टी हो गई. घर पर ही महीनाभर तो उन्हें बिस्तर पर रहना था. फिजियोथैरेपिस्ट को भी लगाया गया. सारा दिन उन्हें देखना, नहलानाधुलाना, दवापानी देना यह सब कैसे होगा, यही सोच कर दोनों परेशान हो रहे थे.

बूआजी : सत्यदीप को घर छोड़कर क्यों जाना पड़ा ?

लेखक-हरीश जायसवाल

“गुडमौर्निंग डाक्टर.” आगंतुक डाक्टर दीपक के चैंबर में दाखिल होते हुए बोला, “मेरा नाम सत्यदीप है और मैं यूएसए से आ रहा हूं. पिछले दिनों मेरी आप से लगातार बातें होती रही हैं.” और वह डाक्टर दीपक के सामने रखी कुरसी पर बैठ गया.

“ओह, तो आप बूआजी के सुपुत्र हैं. आप ने आने में देरी कर दी,” डाक्टर दीपक बोले और अभिवादव के तौर पर हाथ जोड़ लिए.

“नहींनहीं डाक्टर, आप को गलतफहमी हो रही है. मेरी मम्मी का नाम तो दीपिका सत्यनारायण है. वे तो कोविड ट्रीटमैंट के लिए आप के नर्सिंगहोम में भरती हैं. मेरी मम्मी अपने मातापिता की इकलौती संतान थीं,” सत्यदीप ने अपनी बात एक ही सांस में कह दी. स्पष्टतौर पर यह बूआ शब्द का विरोध ही था.

“हां सत्यदीप जी, मैं जानता हूं. बूआजी का ही नाम दीपिका, उन के पति का नाम सत्यनारायण और आप का नाम दोनों को मिला कर सत्यदीप रखा गया है. मैं यह भी जानता हूं कि आप उम्र में मुझ से बड़े हैं तथा लगभग 20 बरसों से यूएसए में रह रहे हैं. अब्रॉड जाने के लगभग 2 साल बाद ही आप की शादी हो गई थी और आप शादी के तुरंत बाद ही भाभी जी को ले कर स्टेट्स चले गए थे.“उसी साल आप के पिताजी का देहांत हो गया था. चूंकि आप उस साल अपनी शादी के लिए

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काफी छुट्टियां ले चुके थे, सो आप लोगों के लिए 15 दिनों से अधिक रुकना संभव नहीं था. उस के अगले साल ही आप की पत्नी प्रैग्नैंट हो गई और अपनी सुरक्षा, हाईजीन व बच्चे के लिए विदेशी नागरिकता के दृषिकोण से वहीं पर डिलीवरी करवाने का निर्णय लिया. यद्यपि बूआजी आप की सहायता के लिए वहां गई थीं और लगभग 6 महीने तक आप लोगों के साथ रहीं भी मगर उन्हें वहां का क्लाइमेट और कल्चर सूट न होने के कारण फिर कभी वे उस देश में नहीं गईं हालांकि आप ने उन्हें कई बार बुलाया.

“उस के बाद आप का 4 बार इंडिया आना हुआ. मगर हर बार आप अपनी ससुराल के किसी न किसी फंक्शन को अटेंड करने के लिए ही आए थे. साथ ही. आप इंडिया के टूरिस्ट प्लेसेस को घूमने का प्रोग्राम भी बना कर आए थे. इसी कारण बूआजी से आप की मुलाकातें अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही हुआ करती थीं,” डाक्टर दीपक बोल रहे थे.

“आप मेरे बारे में इतना कुछ कैसे जानते है? क्या आप का कोई रिलेटिव, मेरा मतलब है मम्मी या पापा, भी उस सरकारी स्कूल में सर्विस करता था जहां पर मम्मी थीं?” सत्यदीप ने आश्चर्य से पूछा.

“जी नहीं. मेरी बूआजी के परिवार में एंट्री उस समय हुई जब आप के पिताजी के देहांत को 6 महीने हो चुके थे और अपने इतने बड़े घर में अपना अकेलापन दूर करने के लिए घर के एक हिस्से, जिस में एक बैडरुम, किचन था, को किराए पर देने का निर्णय लिया. उन दिनों मैं और मेरी पत्नी दोनों ही यहां के सरकारी हौस्पिटल में ट्रांसफर हो कर आऐ थे.

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“घर दिखाते समय बूआजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे घर को किसी भी आर्थिक मजबूरी के कारण किराए से नहीं दे रही हैं और न ही वे किराएदार रख रही हैं बल्कि वे तो अपने दुखसुख बांटने के लिए अपना परिवार बढ़ा रही हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान बाजारभाव से इस जगह का किराया 5 हज़ार रुपए प्रतिमाह होता है लेकिन आप को जो भी उचित लगे, आप दे दीजिएगा.

“उस के बाद हम उस घर में बूआजी के साथ लगभग साढ़े 5 साल तक रहे. सरकारी नौकरी छोड़ कर नर्सिंगहोम डालने की रूपरेखा में बूआजी ने सक्रिय सहयोग दिया. हमारे परिवार की  पहली व एकमात्र डिलीवरी भी उसी घर में हुई. अपने बच्चे की देखभाल के लिए उन्होंने हमें कभी भी आया नहीं रखने दी. दलील देती थीं कि बड़े होने के बाद तो बच्चों की अपनी मजबूरियां होंगी और वे हमारे साथ रह पाएं या नहीं, सभीकुछ परिस्थितियों पर निर्भर करेगा. हम आज से ही क्यों अपने बच्चों को व्यावसायिक हाथों में सौंपे.

“हमारे बच्चे के सभी काम उन्होंने पूरी प्रसन्नता और मनोयोग से किए. कभीकभी विशेष परिस्थितियों में हम दोनों को ही नाइट शिफ्ट में जाना पड़ता था, ऐसे में बूआजी सारी रात बच्चे को अपने साथ ही रखती व संभालती थीं.

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“किराए के घर में प्रवेश के पहले दिन जब हम रहने पहुंचे तो शिष्टाचारवश मैं ने उन्हें मम्मीजी कह दिया तो तुरंत उन्होंने प्रतिकार करते हुए कहा कि यह संबोधन मैं सत्यदीप के अलावा किसी और के मुंह से सुनना नहीं चाहती हूं. यह अधिकार सिर्फ और सिर्फ सत्यदीप का है.

मेरे विचार से वे आप से बहुत अधिक स्नेह करती थीं और आप को एक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहती थीं. वे यह भी नहीं चाहती थीं कि वे किसी और की औलाद को अपना लें.

तब आप को क्या कहूं? मैं ने कुतुहल से पूछा था तो उन्होंने कहा था कि ‘तुम दोनों ही मुझे बूआ कह सकते हो क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि एक स्त्री को अपने भाई के बच्चे अपने खुद के

बच्चों से भी अधिक प्रिय होते हैं. बूआ का संबंध अपने भतीजेभतीजियों से ज्यादा निकट होता है और दोनों तरफ से विचारों का आदानप्रदान सम्मानपूर्वक व सुगम होता है.’

“ ‘बिलकुल सही बूआजी. मैं अपनी बूआ की गोद में सिर रख कर सो भी जाती हूं और उन के साथ ताश व अंत्याक्षरी भी खूब खेलती हूं. जो बात मैं अपने मातापिता से नहीं कह पाती हूं वह बूआ के माध्यम से उन तक पहुंचा देती हूं.’ मेरी पत्नी बीच में बोली.

“अब स्थिति यह है कि मेरा बेटा भी उन्हें दादी न कह कर बूआजी ही कहता है. मेरा नर्सिंगहोम खुलने के बाद अनिवार्यता के दृष्टिकोण से अपना निवास यहीं बनवा लिया. मगर बूआजी से

संपर्क निरंतर बना रहा.

“मैं अकेला नहीं, बल्कि मेरे बाद आने वाले अन्य 5 किराएदार भी उन्हें बूआजी कह कर पुकारते हैं और वे घर के सभी सदस्यों से ज्यादा सम्माननीय भी हैं. उन सभी लोगों को सूचित भी कर दिया गया है. आप देखेंगे कि अभी कुछ ही समय में सभी लोग यहां पहुंच चुके होंगे.”

“मगर अभी तो कोरोना प्रोटोकौल चल रहा है. ऐसे में कौन अपनी जान जोखिम में डालेगा?” सत्यदीप हैरानी से बोला.

“अरे साहब, बूआजी ने हम सभी की एक बार नहीं, बल्कि कई बार इस तरह की मदद की है कि उन का कर्जा उतरना कम से कम इस जन्म में तो हमारे लिए संभव नहीं है. कोरोना से भी बड़ी कोई महामारी हो, तब भी हम 6 लोग तो बेझिझक वहां पर पहुंच ही जाते,” डाक्टर बोले, “और हां, नर्सिंगहोम के अकाउंटैंट से मैं ने सिर्फ आप को सूचना देने के लिए बोला था, आप से पैसे मंगवाने के लिए बिलकुल भी नहीं बोला गया था. वह तो साधारण पेशेंट के साथ जैसा व्यवहार करता है, उसी प्रकार उस ने आप के साथ भी कर दिया. वैसे, उस की गलती है भी नहीं क्योंकि यह तो उस की ड्यूटी का एक हिस्सा है. आप के द्वारा भेजा गया पैसा वापस आप के अकाउंट में ट्रांसफर किया जा रहा है.”

अब तक बाकी के पांचों किराएदार भी पहुंच चुके थे. वर्तमान किराएदार ओमप्रकाश तो लगातार रोए जा रहे थे. आंसू तो सभी की आंखों में थे जो बूआजी के प्रति स्नेह व आदर दिखाने के लिए पर्याप्त थे.

तभी बतलाया गया कि बूआजी के मृत शरीर को अंत्येष्टि के लिए ले जाया जा रहा है. कोरोना प्रोटोकौल के अंतर्गत सिर्फ 5 व्यक्ति ही जा सकते थे और वह भी सिर्फ पंचनामे पर साइन करने के लिए.

सत्यदीप तो परिवार का सदस्य था, सो उस का जाना तो अनिवार्य था ही लेकिन बाकी 6 में से कोई भी बूआजी का साथ अंतिम समय में छोड़ने को तैयार नहीं था यह जानते हुए भी कि यह एक तरह का रिस्क है.

आखिरकार, 2 व्यक्ति ऐसे व्यक्ति के साथ गए जिन के अपने तक उन की अंतिमक्रिया में जाने को तैयार नहीं थे. बूआजी का क्रियाकर्म कर के लौटते समय सत्यदीप बोला, “मुझे आप लोगों की बातें सुन कर और आप लोगों के व्यवहार को देख कर ऐसा लगता है जैसे मैं ने अपनी मम्मी के साथ न रह कर बहुत बड़ी गलती कर दी है जिस का पश्चात्ताप मुझे जिंदगीभर रहेगा.” उस की आंखें नम थीं.

“नहींनहीं सत्यदीप जी, ऐसी कोई बात नहीं है. बूआजी को आप से कभी कोई शिकायत नहीं थी. वे आप की मजबूरियों को बहुत अच्छे से समझती थीं. दूसरे, सत्यदीपजी, एक बात और है ना, जो चीज हमारे पास होती है उसे हम हमेशा कमतर ही आंकते हैं. शायद इसी कारण से बूआजी की तारीफें सुन कर आप ऐसा समझ रहे हैं. आप की जगह हम सब में से भी यदि कोई होता तो वह भी वही करता जो आप कर रहे हैं. जीवनयापन की सब की अपनीअपनी विवशताएं हैं,” डाक्टर दीपक सत्यदीप के कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देते हुए बोले.

श्वेता तिवारी अपने दोस्त की वजह से हुईं ट्रोलिंग की शिकार, हेटर्स बोले अब तीसरा तलाक होगा

रोहित शेट्टी के शो खतरों के खिलाड़ी 11 में नजर आ चुकी श्वेता तिवारी इन दिनों सुर्खियों में बनी हुईं हैं. खतरों के खिलाड़ी में हुई कहा सुनी के बाद से वह खूब लोगों के बीच छाई रहीं. श्वेता का यह अंदाज लोगों को खूब पसंद आ रहा है तो वहीं कुछ लोग श्वेता को लेकर ट्रोल भी कर रहे हैं.

हाल ही में श्वेता तिवारी के खास दोस्त विशाल कालांत्री का जन्मदिन था, इस खास मौके पर विशाल को श्वेता ने अपने सोशल मीडिया से बधाई दी है.

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जिसके बाद से कुछ लोग श्वेेता को ट्रोल करना भी शुरू कर दिए. कुछ फैंस ने तो यह भी पूछ लिया कि विशाल कालांत्री के साथ तीसरी शादी करोगी क्या. जिसके बाद से कुछ ने लिखा कि एक और जिंदगी बर्बाद होने वाली है. श्वेता तिवारी का यह अंदाज लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया . शायद यही वजह है कि लोगों ने श्वेता तिवारी को खरीखोटी सुनानी शुरू कर दिया.

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दरअसल विशाल के जन्मदिन पर श्वेता तिवारी ने अपने सोशल मीडिया पर विश करते हुए लिखा था कि अब मैं तुम्हारे बारे में क्या लिखूं, मैं तुमसे कहती हूं कि मैं जब भी कुछ कहती हूं तो तुम मेरी सारी बात मानते हो. मुझे हमेशा सही गलत की पहचान कराते हो, जब मुझे लोगों पर यकीन नहीं होता है तब तुम मेरी मदद करते हो. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं.  जन्मदिन की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं दोस्त.

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श्वेता तिवारी की इतनी प्यारी बात सुनने के बाद फैंस को श्वेता पर भरोसा नहीं हो रहा है. और फिर क्या उन्हें ट्रोल करना शुरू कर दिया.

आदित्या की जिंदगी से मालिनी को हटाने की कोशिश करेगी मीठी, घरवाले होंगे इमली के खिलाफ

टीवी सीरियल इमली में इन दिनों कुछ न कुछ नया देखने को मिल रहा है. एक तरफ जहां आदित्या का प्यार इमली के लिए बढ़ते जा रहा है वहीं दूसरी तरफ मालिनी ने भी ठान लिया है कि वह आदित्या को अपना बनाकर रहेगी.

पिछले एपिसोड में आपने देखा होगा कि इमली आदित्या को पूरी बात बताने की कोशिश करेगी , लेकिन वह मानने को तैयार नहीं होगा.  वहीं मीठी को यह बात समझ में आ गया है कि आदित्या को पाने के लिए मालिनी किसी भी हद तक जा सकती है.

अब इस सीरियल में कई सारे ट्विस्ट आने वाले हैं खूब सारे धमाके होने वाले हैं. फैंस को इस सीरियल में इन दिनों खूब सारा ट्विस्ट देखने को मिलने वाला है.

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मीठी इमली को समझाने की कोशिश करती है कि वह इस वक्त आदित्या से दूर न जाए क्योंकि मालिनी इस वक्त मौके का फायदा उठा सकती है. वहीं आदित्या मालिनी के घर चला जाएगा. जहां घायल हुई मीठी रूकी हुई है, मीठी आदित्या को समझाने की कोशिश करेगी लेकिन आदित्या फिर से नहीं सुनेगा.

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वहीं आदित्या यह समझाने कि कोशिश करेगा मीठी को कि मालिनी आप सभी का बुरा नहीं चाहती है. वह सबके लिए अच्छा सोच रही है. तभी तो उन्होंने कहा था कि मैं आपकी फेवरेट मिठाई लेकर आऊं.

अब मीठी को इस बात पर पूरा यकीन हो जाएगा कि मालिनी इमली को खुलकर चुनौती दे रही है. ऐसे में मालिनी मीठी को कहेगी कि वह यहां से कहीं नहीं जाएगी ताकि ज्यादा गलतफहमी न हो जाए.

आदित्या के पीछे-पीछे जाकर मालिनी कार में बगल वाली सीट पर जाकर बैठ जाएगी, जैसे ही इमली आएगी वह देखकर हटने की कोशिश करेगी, लेकिन आदित्या उसे रोक लेगा. अब देखना है कैसे मालिनी की सच्चाई घर वालों के सामने आएगी.

अश्वगंधा लगाएं कम लागत में अधिक कमाएं

अश्वगंधा औषधीय पौधों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है. सोलेनेसी कुल के इस 1-4 फुट तक ऊंचे पौधे का नाम ‘अश्वगंधा’ मूलत: इस के संस्कृत अर्थ से पड़ा है, जिस का मतलब है ‘अश्व’ के समान ‘गंध’ वाला. इस पौधे के पत्ते और जड़ को मसल कर सूंघने से उन में अश्व (घोड़े) के पसीने और मूत्र/अस्तबल की जैसी गंध आती है, जिस से संभवत: इसे अश्वगंधा नाम मिला. अश्वगंधा बहुत ही आसानी से उगने वाला बहुवर्षीय पौधा है, जिस की 2-3.5 इंच लंबी 1-1.5 इंच चौड़ी नुकीली पत्तियां होती हैं और पुष्प हरिताभ अथवा बैगनी आभा लिए पीताभ, वृंतरहित छत्रक समगुच्छों में होता है, जिस के घंटिकाकार और मृदु रोमश कैलिक्स फलों के साथ बढ़ कर रसभरी की भांति फलों को आवृत्त कर लेता है.

फल मटर के आकार वाले लाल नारंगी रंग के होते हैं. बीज असंख्य, अतिछुद्र, वृक्काकार और बैगन के बीज के समान होते हैं. मूल (जड़) शंक्वाकार मूली की तरह, परंतु उस से कुछ पतली होती हैं. जड़ ही इस का मुख्य उपयोगी भाग है. इस की जड़ों में लगभग काफी अधिक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं, जिन में विथानिन और सोमनीफेरेन मुख्य हैं. इस के अतिरिक्त विदासोमनाइन एनाहाइग्रीन, एनाफ्रीन, आइसोपैलीटरीन, विथानिन ट्रोपनोल कोलीन, सूडोट्रोपनोल, कुसोकाइजीन एकेलाइड भी पाए जाते हैं. इस की जड़ों में स्टार्च रीड्यूसिंग शुगर ग्लाइकोसाइड्स विदानिसिल, हैंट्रियाकोंटेन, क्लोनोजेसिक एसिड और फ्लेवेनायड्स की उपस्थिति भी देखी गई हैं.

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अश्वगंधा का प्रत्येक भाग (जड़, पत्ते, फल व बीज) औषधीय उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है, परंतु सर्वाधिक उपयोग इस की जड़ों का ही है. अश्वगंधा की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग है, फिर भी किसानों में जागरूकता की कमी के कारण इस की खेती बहुत कम क्षेत्रफल में हो रही है, इसलिए अश्वगंधा की मांग और पूर्ति में भारी अंतर को देखते हुए वृहद स्तर पर इस की खेती की नितांत आवश्यकता है. अश्वगंधा का खेतीकरण अश्वगंधा एक बहुवर्षीय पौधा है, जो निरंतर सिंचाई की व्यवस्था में कई वर्षों तक चल सकता है, परंतु इस की ख्ेती 6-7 माह की फसल के रूप में की जाती है.

शुष्क प्रदेशों में प्राय: इसे खरीफ की फसल के रूप में लगाया जाता है और जनवरीफरवरी माह में उखाड़ लिया जाता है. इस की बिजाई का सब से उपयुक्त समय 15 अगस्त से 10 सितंबर तक का है. इस की बड़े पैमाने पर खेती निम्न प्रकार की जाती है: भूमि और जलवायु यह शुष्क और समशीतोष्ण क्षेत्रों का पौधा है. इस की सही बढ़त के लिए शुष्क मौसम ज्यादा उपयुक्त होता है. अत्यधिक वर्षा वाले और ठंडे क्षेत्रों में इस की खेती नहीं की जा सकती है. जड़दार फसल होने के कारण इस की खेती नरम और पोली मिट्टी में अच्छी प्रकार की जा सकती है, क्योंकि इस मिट्टी में इस की जड़ें ज्यादा गहराई में जा सकती हैं. इस प्रकार रेतीली दोमट और हलकी लाल मिट्टियां इस की खेती के लिए उपयुक्त हैं.

खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था हो और पानी न रुके. अत्यधिक उपजाऊ और भारी मिट्टी में पौधे बड़ेबड़े हो जाते है, परंतु जड़ों का उत्पादन अपेक्षाकृत कम ही मिलता है. इस तरह कम उपजाऊ, उचित जल निकासयुक्त बलुईदोमट और हलकी लाल, पर्याप्त जीवांशयुक्त मिट्टी इस की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई हैं. उन्नतशील प्रजातियां अश्वगंधा की नागौरी अश्वगंधा, जवाहर अश्वगंधा-20, जवाहर अश्वगंधा-134, डब्ल्यूएस-90, डब्ल्यूएस-100 आदि प्रजातियां हैं, जिन में से नागौरी और जवाहर अश्वगंधा प्रजातियां अत्यधिक प्रचलित हैं. खेत की तैयारी अश्वगंधा की व्यावसायिकता और अधिकाधिक उत्पादन की दृष्टि से आवश्यक होता है कि मानसून के प्रारंभ में (जुलाईअगस्त) में ख्ेत की 2 बार आड़ीतिरछी जुताई की जाए, तदुपरांत प्रति हेक्टेयर 5 ट्रौली (8-10 टन) सड़ी गोबर की खाद डाल कर दोबारा जुताई की जाए. उस के बाद ख्ेत में पाटा लगा दिया जाना चाहिए.

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बिजाई की विधि व्यावसायिक रूप से इस का प्रवर्धन बीज के द्वारा किया जाता है, जिस में बीज को सीधे खेत में बोया जाता है. सीधे खेत में बिजाई करने की मुख्यत: 2 विधियां अपनाई जाती हैं. पहली छिटकवां विधि और दूसरी लाइन में बोआई. छिटकवां विधि के अंतर्गत 10-12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज ले कर उस में 5-6 गुना बालू/रेत मिला लिया जाता है, तदुपरांत हलका हल चला कर बालू मिश्रित बीजों को छिड़क कर खेत में चला कर बहुत ही हलका पाटा लगाया जाता है. लाइन की बिजाई करने की दशा में 30-45 सैंटीमीटर की दूरी पर 10-15 सैंटीमीटर ऊंची मेंड़ें बना कर उस पर 1-1.5 सैंटीमीटर गहरी लाइन बना लेते हैं. तत्पश्चात इन लाइनों में हाथ से बीज डालते रहते हैं. उस के बाद मेंड़ की मिट्टी से बीज को हलका सा ढक देते हैं. सीडड्रिल मशीन से बोआई सीडड्रिल मशीन में मोटी बालू के साथ बीज को मिला कर भी बोआई की जा सकती है. व्यावसायिक दृष्टिकोण से लाइनों में बोआई ज्यादा खर्चीली होती है.

बोआई करते समय यह ध्यान रखें कि मौसम सूखा हो और बोआई के बाद 5-7 दिनों तक भारी वर्षा की संभावना कम हो. इस के अतिरिक्त यह ध्यान रखें कि बीज नया हो और बोआई के बाद भारी पाटा न लगाएं. अश्वगंधा की फसल में बीजजनित कुछ बीमारियां देखी गई है, जिन से बचने के लिए बोआई से पूर्व थीरम या डायथेन एम-45 दवा से (2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर) उपचार कर के इन रोगों से बचा जा सकता है. जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार के द्वारा भी इन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है. पौधों का विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण सीधी विधि विश्ेषकर छिटकवां विधि से बिजाई करने की दशा में पौधों का विरलीकरण करना आवश्यक होता है.

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इस के लिए बिजाई से 25-30 दिन पश्चात पौधों को इस प्रकार निकाला जाता है कि पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सैंटीमीटर और लाइन से लाइन की औसत दूरी 20-25 सैंटीमीटर रख कर बोई गई फसल में पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. अश्वगंधा की फसल में भी बहुत से खरपतवार आ जाते हैं, जिन के नियंत्रण के लिए हाथ से निराईगुड़ाई की जाती है. पौधों के विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण का कामों साथसाथ भी किया जा सकता है. खाद और उर्वरक अश्वगंधा की फसल को ज्यादा दैनिकी जरूरत नहीं पड़ती है. यदि इस से पूर्व में ली गई फसल में उर्वरक का अधिक प्रयोग किया गया है, तो बिना खाद डाले ही अश्वगंधा की फसल ली जा सकती है. ज्यादा नाइट्रोजन मिलने से तनों की वृद्धि अधिक होती है, जिस से जड़ का विकास कम हो जाता है. औषधीय फसल होने से इस में रासायनिक खादों, खरपतवारनाशी और कीटनाशी के प्रयोग से बचना चाहिए.

बोआई से पहले केवल गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट डालना पर्याप्त होता हैं. सिंचाई अश्वगंधा एक वर्षा आधारित फसल है. यह काफी कम सिंचाई में अच्छी उपज देती है. बिजाई के समय भूमि में मध्यम नमी होना आवश्यक है. बिजाई के 30-35 दिन और 60-70 दिन बाद वर्षा न होने की दशा में हलकी सिंचाई की आवश्यकता होती है. फसल सुरक्षा अश्वगंधा की फसल में भी कुछ रोगों व कीड़ों का प्रकोप देखा गया है, जिस के नियंत्रण के लिए समुचित बीज का उपचार और खड़ी फसल में गौमूत्र या नीम आधारित कीटनाशक का छिड़काव लाभकारी सिद्ध होता है. फसल का पकना और जड़ों की खुदाई अश्वगंधा के पौधे में फूल और फलन दिसंबर महीने में होता है. बोआई के 5-6 माह के उपरांत (जनवरीफरवरी माह) जब इस की निचली पत्तियां पीली पड़ने लगें और इन के ऊपर आए कुछ फल पकने लगें, तब पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए. यदि सिंचाई की व्यवस्था हो,

तो पौधों को उखाड़ने से पूर्व खेत में हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए, जिस से पौधे आसानी से उखड़ जाएं. बहुत कम फल आने पर ही खुदाई करना सर्वोत्तम रहता है, क्योंकि पौधे के अत्यधिक परिपक्व होने की दशा में जड़ें कठोर हो जाती हैं और उन की गुणवत्ता खराब होती है. उखाड़ने के तत्काल बाद जड़ों को तने से अलग कर दिया जाना चाहिए. उस के बाद जड़ों से मिट्टी साफ कर के 7-8 दिनों तक हलकी छाया वाले स्थान पर सुखाया जाना चाहिए. जब ये जड़ें तोड़ने पर ‘खट’ की आवाज से टूटने लगें, तो समझना चाहिए कि जड़ें सूख कर बिक्री के लिए तैयार हैं. उत्पादन का सही मूल्य प्राप्त करने के लिए जड़ों को 3 श्रेणियों में बांटा गया है : ‘ए’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में मुख्य और जड़ का ऊपर वाला भाग आता है, जिस की लंबाई 5-6 सैंटीमीटर या उस से अधिक और व्यास 1-1.5 सैंटीमीटर होता है. इस ग्रेड की जड़ के अंदर का भाग ठोस और सफेद होता है. इस में स्टार्च और एल्केलाइड्स अधिक होता है.

‘बी’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में जड़ का बीच वाला हिस्सा आता है. जड़ के इस भाग की औसतन लंबाई 3.5-5 सैंटीमीटर और व्यास 0.5-0.7 सैंटीमीटर रहता है. ‘सी’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में अधिक मोटी, काष्ठीय कटीफटी खोखली और बहुत छोटी जड़ें आती हैं. उपरोक्त तरीके से श्रेणीकरण करने से उपज का अच्छा मूल्य मिल जाता है, क्योंकि अच्छी फसल में ज्यादातर ‘ए’ और ‘बी’ ग्रेड की जड़ें होती हैं, जिन का बाजार मूल्य अच्छा मिलता है. उपज और आय एक हेक्टेयर फसल से औसतन 4-5 क्विंटल सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं, परंतु अच्छी प्रजातियों में 7-8 क्विंटल तक भी उत्पादन हो सकता है. इस के अतिरिक्त 50-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज का भी उत्पादन होता है. जड़ें औसतन 200-220 रुपए प्रति किलोग्राम और बीज 150-200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक जाता है. इस तरह से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 1,40,000-1,70,000 रुपए जड़ से और 7,500-10,000 रुपए बीज से प्राप्त हो सकते हैं. प्रति हेक्टेयर लागत तकरीबन 24,000-30,000 रुपए आती है. इस तरह शुद्ध लाभ 1,20,000-1,50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर तक मिल सकता है. इस प्रकार अन्य नकदी फसलों की तुलना में अश्वगंधा के खेती में शुद्ध लाभ कम है, परंतु नकदी फसलों की तुलना में इस की खेती आसानी से कम उपजाऊ और कम पानी वाली जमीन में की जा सकती है.

इस को पशुओं से नुकसान का भी खतरा कम रहता है. अश्वगंधा का विपणन अन्य औषधीय पौधों की अपेक्षा आसान है, क्योंकि इस की मांग अधिक है और इस को आसानी से कुछ समय तक भंडारित कर के रखा जा सकता है. इस प्रकार देखा जा सकता है कि अश्वगंधा न केवल मानवीय स्वास्थ्य की दृष्टि से, बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से भी काफी लाभकारी फसल है. कम खर्चे में, कम पानी में और कम उपजाऊ जमीनों में इस का उगना और बिक्री में आसानी के कारण इस का भविष्य उज्ज्वल है. इन्हीं विशेषताओं के कारण भारी संख्या में किसान इस की खेती को अपना कर अच्छा लाभ प्राप्त कर रहे हैं. नोट : अश्वगंधा की उपज, लागत व शुद्ध लाभ क्षेत्र विशेष में खेती और बाजार दर पर आधारित है. यह अन्य क्षेत्र, खेती की तकनीकी, भूमि व जलवायु और बाजार दर में कम या ज्यादा हो सकती है.

मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा

मुद्दों से भटका रही सरकार

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में किसान आन्दोलन और कृषि कानून मुख्य मुददा हो सकता है. विपक्षी दल किसानों के मुद्दों का मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने में लगे है. भाजपा मुददों से ध्यान भटका रही और विपक्षी विधायकों के साथ भेदभाव कर रही है.

मोहनलालगंज विधानसभा क्षेत्र के विधायक अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘विधानसभा सत्र के दौरान भी उत्तर प्रदेश की सरकार सही तरह से सवालों का जवाब नहीं देती. उसके जवाब ऐसे होते है जिससे मुददे की बात को हवा में उडाया जा सके और सदन में हंगामा हो जाये जिससे सदन को स्थगित करने का मौका मिल जाये. विपक्षी विधायकों की मांगों को और उनके क्षेत्र में विकास के कामों की अनदेखी की जा रही है. जिससे विरोधी दल का विधायक अपने क्षेत्र में विकास के काम न करा सके और वह चुनाव हार जाये.’
अम्बरीष पुष्कर मोहनलालगंज सुरक्षित विधानसभा सीट से 2017 में पहली बार विधायक चुने गये. पेशे से वकील अम्बरीष पुष्कर युवा विधायक है. जिस चुनाव में समाजवादी पार्टी के खिलाफ हवा चल रही थी उसमें भी क्षेत्र की जनता ने उनको विधायक चुना. अम्बरीष पुष्कर की लोकप्रियता का देख सत्ताधारी भाजपा की सरकार ने उनके क्षेत्र की उपेक्षा करनी शुरू की. अम्बरीष पुष्कर ने क्षेत्र में लडकियों के डिग्री कालेज खोलने की मांग थी. इसके अलावा कई गांव में सडक बनाने की प्रस्ताव दिया था. लेकिन योगी सरकार ने उनकी मांग को पूरा नहीं किया. अम्बरीष पुष्कर पिछले 4 साल से हर विधानसभा सत्र के दौरान यह मांग करते है.

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मोहनलालगंज उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से जुडी विधानसभा और लोकसभा सीट है. दलित बाहुल्य आबादी होने के कारण यह सुरक्षित क्षेत्र बनाया गया था. भाजपा सरकार को इस क्षेत्र से लगाव नहीं दिखता. इसकी वजह यह है कि यहां से भाजपा का विधायक कभी नहीं रहा. इस कारण योगी सरकार में मोहनलालगंज क्षेत्र के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा.

किसानो के मुददो पर मौन है सरकार :
विधानसभा सत्र शुरू होने पर विरोध दलों ने विकास, मंहगाई, कानून व्यवस्था और किसानों के मुददे पर बात करने का काम किया तो सरकार ने सवालों के सही जवाब न देकर हो-हल्ला करने का बढावा देने लगी. अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘हम लोग यह सवाल कर रहे थे कि भाजपा ने किसानो की आय दोगुनी करने का वादा अपने घोषणा पत्र में किया था लेकिन वह वादा पूरा नहीं किया. सरकार से बढती मंहगाई पर जवाब मांगा जा रहा था. इस सवाल का जवाब देने की जगह पर कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही किसानों के साथ लखीमपुर में धोखधडी पर बोलने लगे.’

‘असल में भाजपा को यह पता है कि आने वाले विधानसभा के चुनाव में कृषि कानून और किसान आन्दोलन मुख्य मुद्दा हो सकता है. ऐसे में योगी सरकार किसानों से जुडी किसी बात का सही तरह से जवाब नहीं देना चाहती. किसान भाजपा के खिलाफ एकजुट ना हो सके. इस कारण उनको अगडा पिछडा और दलित के बीच बांटा जा रहा है. किसानों को समझाने के लिये मंत्री और सांसदो को रैली और सभाए करने को कहा जा रहा है. भाजपा को लगता है कि 5 सौ रूपये महीने की किसान सम्मान निधि के जरीये वह किसानो को खुश कर लेगी.’

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बदले की भावना से होता है काम :
अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘भाजपा सरकार बदले की भावना से काम करती है. इस कारण वह विपक्षी दलों के विधायको के क्षेत्र की योजनाओं को मंजूरी नहीं देती है. यही नहीं पंचायत चुनावों में हारने के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लौक प्रमुख के चुनाव में सरकार ने सत्ता की हनक और दुरूपयोग के बल पर अपने लोगों को जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लौक प्रमुख बनवाया. पंचायती राज चुनाव के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि जिस दल के सदस्य कम जीते हो लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लौक प्रमुख उसी दल के चुने गये हो.’ यह पंचायती राज चुनाव की मूल भावना के पूरी तरह से खिलाफ है.’

मोहनलालगंज क्षेत्र में 30 लाख के करीब जनसंख्या है. इसमें 75 फीसदी गांव का इलाका आता है. प्रति एक हजार पुरूषों पर 906 औरते है. औसत साक्षरता दर 80 फीसदी है. 1993 में यहां से विधायक समाजवादी पार्टी से संत बक्श रावत रहे. इसके बाद 1996, 2002 और 2007 में आरके चौधरी विधायक बने. वह मूलरूप से बसपा के नेता रहे. 2012 में समाजवादी पार्टी की चन्द्रा रावत और 2017 में अम्बरीष पुष्कर विधायक बने. भाजपा ने 2014 और 2019 में लोकसभा के चुनाव में जीत भले ही हासिल की हो पर विधानसभा चुनावो में क्षेत्र की जनता को भाजपा पर भरोसा नहीं रहा है.

बढ रहा शहरी इलाका :
लखनऊ शहर का विस्तार होने के बाद मोहनलालगंज में शहरी इलाका बढ रहा है. बहुत सारी आवासीय योजनाएं और हाईवे यहां से निकल रहे है. जिसकी वजह से गांव में खेती खत्म होती जा रही है. इस कारण क्षेत्र के किसानों की अपनी अलग परेशानियां हो रही है. खेती का नुकसान हो रहा है. जिन शहरी लोगो के पास पैसा है वह किसानों की गरीबी का लाभ उठाकर लालच देकर खेती की जमीन खरीद ले रहे है. यहां बस रही कालोनियों में शहरों की तरह वाली सुविधाएं नहीं है. तमाम गांव कागजों में नगर निगम क्षेत्र में शामिल कर लिये गये है पर यहां शहर जैसी सुविधाएं नहीं है.

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अम्बरीष पुष्कर कहते है ‘खेती की जमीन लगातार कम होने से किसानो की आने वाली पीढियां बेरोजगार हो जायेगी. सरकार ऐसे किसानों के लिये किसी भी तरह की योजना नहीं ला रही. प्राइवेट बिल्डर्स मनमानी तरह से जमीन की खरीददारी कर रहे है. किसानों की सोने वाले कीमत की जमीन माटी के मोल बिक रही है. तमाम किसानों से केवल एग्रीमेंट के आधार पर थोडा सा पैसा देकर जमीन पर कब्जे किये जा रहे है. किसान ऐसे लोगों से अपने पैसे निकलवाने के लिये थाना और तहसील के चक्कर लगाता रहता है. वहां भी उनकी सुनवाई नहीं होती है. जब इन मुददों को लेकर विधानसभा में आवाज उठाने का काम होता है तो सरकार मुददों से ध्यान भटकाने में जुट जाती है.’

Family Story in Hindi : मान अभिमान- क्यों बहुओं से दूर हो गई थी रमा?

अपने बच्चों की प्रशंसा पर कौन खुश नहीं होता. रमा भी इस का अपवाद न थी.ं अपनी दोनों बहुओं की बातें वह बढ़चढ़ कर लोगों को बतातीं. उन की बहुएं हैं ही अच्छी. जैसी सुंदर और सलोनी वैसी ही सुशील व विनम्र भी.

एक कानवेंट स्कूल की टीचर है तो दूसरी बैंक में अफसर. रमा के लिए बच्चे ही उन की दुनिया हैं. उन्हें जितनी बार वह देखतीं मन ही मन बलैया लेतीं. दोनों लड़कों के साथसाथ दोनों बहुओं का भी वह खूब ध्यान रखतीं. वह बहुओं को इस तरह रखतीं कि बाहर से आने वाला अनजान व्यक्ति देखे तो पता न चले कि ये लड़कियां हैं या बहुएं हैं.

सभी परंपराओं और प्रथाओं से परे घर के सभी दायित्व को वह खुद ही संभालतीं. बहुओं की सुविधा और आजादी में कभी हस्तक्षेप नहीं करतीं. लड़के तो लड़के मां के प्यार और प्रोत्साहन से पराए घर से आई लड़कियों ने भी प्रगति की.

मां का स्नेह, सीख, समझदारी और विश्वास मान्या और उर्मि के आचरण में साफ झलकता. देखते ही देखते अपने छोटे से सीमित दायरे में उन्हें यश भी मिला और नाम भी. कार्यालय और महल्ले में वे दोनों ही अच्छीखासी लोकप्रिय हो गईं. जिसे देखो वही अपने घर मान्या और उर्मि का उदाहरण देता कि भाई बहुएं हों तो बस, मान्या और उर्मि जैसी.

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‘‘रमा, तू ने मान्या व उर्मि के रूप में 2 रतन पाए हैं वरना आजकल के जमाने में ऐसी लड़कियां मिलती ही कहां हैं और इसी के साथ कालोनी की महिलाओं का एकदूसरे का बहूपुराण शुरू हो जाता.

रमा को तुलना भली न लगती. उन्हें तो इस की उस की बुराई भी करनी नहीं आती पर अपनी बहुओं की बड़ाई उन्हें खूब सुहाती थी. वह खुशी से फूली न समातीं.

इधर कुछ समय से रमा की सोच बदल रही है. मान्या और उर्मि की यह हरदम की बड़ाई उन्हें कहीं न कहीं खटक रही है. अपने ही मन के भाव रमा को स्तब्ध सा कर देते हैं. वह लाख अपने को धिक्कारेफटकारे पर विचार हैं कि न चाहते हुए भी चले आते हैं.

‘मैं जो दिन भर खटती हूं, परिवार में सभी की सुखसुविधाओं का ध्यान रखती हूं. दोनों बहुओं की आजादी में बाधक नहीं बनती…उन पर घरपरिवार का दायित्व नहीं डालती…वो क्या कुछ भी नहीं…बहुओं को भी देखो…पूरी की पूरी प्रशंसा कैसे सहजता के साथ खुद ही ओढ़ लेती हैं…मां का कहीं कोई जिक्र तक नहीं करतीं. उन की इस सफलता में मेरा काम क्या कुछ भी नहीं?’

अपनी दोनों बहुओं के प्रति रमा का मन जब भी कड़वाता तो वह कठोर हो जातीं. बातबेबात डांटडपट देतीं तो वे हकबकाई सी हैरान रह जातीं.

मान्या और उर्मि का सहमापन रमा को कचोट जाता. अपने व्यवहार पर उन्हें पछतावा हो आता और जल्द ही सामान्य हो वह उन के प्रति पुन: उदार और ममतामयी हो उठतीं.

मांजी में आए इस बदलाव को देख कर मान्या और उर्मि असमंजस में पड़ जातीं पर काम की व्यस्तता के कारण वे इस समस्या पर विचार नहीं कर पाती थीं. फिर सोचतीं कि मां का क्या? पल में तोला पल में माशा. अभी डांट रही हैं तो अभी बहलाना भी शुरू कर देंगी.

क्रिसमस का त्योहार आने वाला था. ठंड खूब बढ़ गई थी. उस दिन सुबह रमा से बिस्तर छोड़ते ही नहीं बन रहा था. ऊपर से सिर में तेज दर्द हो रहा था. फिर भी मान्या का खयाल आते ही रमा हिम्मत कर उठ खड़ी हुईं.

किसी तरह अपने को घसीट कर रसोईघर में ले गईं और चुपचाप मान्या को दूध व दलिया दिया. रात की बची सब्जी माइक्रोवेव में गरम कर, 2 परांठे बना कर उस का लंच भी पैक कर दिया. मां का मूड बिगड़ा समझ कर मान्या ने बिना किसी नाजनखरे के नाश्ता किया. लंचबौक्स रख टाटाबाई कहती भागती हुई घर से निकल गई. 9 बजे तक उर्मि भी चली गई. सुयश और सुजय के जाने के बाद अंत में राघव भी चले गए थे.

10 बजे तक घर में सन्नाटा छा जाता है. पीछे एक आंधीअंधड़ छोड़ कर सभी चले जाते हैं. कहीं गीला तौलिया पलंग पर पड़ा है तो कहीं गंदे मोजे जमीन पर. कहीं रेडियो बज रहा है तो किसी के कमरे में टेलीविजन चल रहा है. किसी ने दूध अधपिया छोड़ दिया है तो किसी ने टोस्ट को बस, जरा कुतर कर ही धर दिया है, लो अब भुगतो, सहेजो और समेटो.

कभी आनंदअनुराग से किए जाने वाले काम अब रमा को बेमजा बोझ लगते. सास के जीतेजी उन के उपदेशों पर उस ने ध्यान न दिया…अब जा कर रमा उन की बातों का मर्म मान रही थीं.

‘बहू, तू तो अपनी बहुओं को बिगाड़ के ही दम लेगी…हर दम उन के आगेपीछे डोलती रहती है…हर बात उन के मन की करती है…अरी, ऐसा तो न कहीं देखा न सुना…डोर इतनी ढीली भी न छोड़…लगाम तनिक कस के रख.’

‘अम्मां, ये भी तो किसी के घर की बेटियां हैं. घोडि़यां तो नहीं कि उन की लगाम कसी जाए.’ सास से रमा ठिठोली करतीं तो वह बेचारी चुप हो जातीं.

तब मान्या और उर्मि उस का कितना मान करती थीं. हरदम मांमां करती आगे- पीछे लगी रहती थीं. अब तो सारी सुख- सुविधाओं का उन्होंने स्वभाव बना लिया है…न घर की परवा न मां से मतलब. एक के लिए उस की टीचरी और दूसरी के लिए उस की अफसरी ही सबकुछ है. घर का क्या? मां हैं, सुशीला है फिर काम भी कितना. पकाना, खाना, सहेजना, समेटना, धोना और पोंछना, बस. शरीर की कमजोरी ने रमा के अंतस को और भी उग्र बना दिया था.

सुशीला काम निबटा कर घर से निकली तो 2 बज चुके थे. रमा का शरीर टूट रहा था. बुखार सा लग रहा था. खाने का बिलकुल भी मन न था. उन्होंने मान्या की थाली परोस कर मेज पर ढक कर रख दी और खुद चटाई ले कर बरामदे की धूप में जा लेटीं.

बाहर के दरवाजे का खटका सुन रमा चौंकीं. रोज की तरह मान्या ढाई बजे आ गई थी.

‘‘अरे, मांजी…आप धूप सेंक रही हैं…’’ चहकती हुई मान्या अंदर अपने कमरे में चली गई और चाह कर भी रमा आंखें न खोल पाईं.

हाथमुंह धो कर मान्या वापस पलटी तो रमा अभी भी आंखें मूंदे पड़ी थीं.

‘मेज पर एक ही थाली?’ मान्या ने खुद से प्रश्न किया फिर सोचा, शायद मांजी खा कर लेटी हैं. थक गई होंगी बेचारी. दिन भर काम करती रहती हैं…

रमा को झुरझुरी सी लगी. वह धीरे से उठीं. चटाई लपेटी दरवाजा बंद किया और कांपती हुई अपनी रजाई में जा लेटीं.

उधर मान्या को खाने के साथ कुछ पढ़ने की आदत है. उस दिन भी वही हुआ. खाने के साथ वह पत्रिका की कहानी में उलझी रही तो उसे यह पता नहीं चला कि मांजी कब उठीं और जा कर अपने कमरे में लेट गईं. बड़ी देर बाद वह मेज पर से बरतन समेट कर जब रमा के पास पहुंची तो वह सो चुकी थीं.

‘गहरी नींद है…सोने दो…शाम को समझ लूंगी…’ सोचतेसोचते मान्या भी जा लेटी तो झपकी लग गई.

रोज का यही नियम था. दोपहर के खाने के बाद घंटा दो घंटा दोनों अपनेअपने कमरों में झपक लेतीं.

शाम की चाय बनाने के बाद ही रमा मान्या को जगातीं. सोचतीं बच्ची थकी है. जब तक चाय बनती है उसे सो लेने दिया जाए.

बहुत सारे लाड़ के बाद जाग कर मान्या चाय पीती स्कूल की कापियां जांचती और अगले दिन का पाठ तैयार करती.

इस बीच रमा रसोई में चली जातीं और रात का खाना बनातीं. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटातीं ताकि शाम का कुछ समय अपने परिवार के साथ मिलबैठ कर गुजार सकें.

संगीत के शौकीन पति राघव आते ही टेपरिकार्ड चला देते तो घर चहकने लगता.

उर्मि को आते ही मांजी से लाड़ की ललक लगती. बैग रख कर वह वहीं सोफे पर पसर जाती.

सुजय एक विदेशी कंपनी में बड़ा अफसर था. रोज देर से घर आता और सुयश सदा का चुप्पा. जरा सी हायहेलो के बाद अखबार में मुंह दे कर बैठ जाता था. उर्मि उस से उलझती. टेलीविजन बंद कर घुमा लाने को मचलती. दोनों आपस में लड़तेझगड़ते. ऐसी खट्टीमीठी नोकझोंक के चलते घर भराभरा लगता और रमा अभिमान अनुराग से ओतप्रोत हो जातीं.

लगातार बजती दरवाजे की घंटी से मान्या अचकचा कर उठ बैठी. खूब अंधेरा घिर आया था.

दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला तो सामने तमतमायी उर्मि खड़ी थी.

‘‘कितनी देर से घंटी बजा रही हूं. आप अभी तक सो रही थीं. मां, मां कहां हैं?’’ कह कर उर्मि के कमरे की ओर दौड़ी.

मांजी को कुछ खबर ही न थी. वह तो बुखार में तपी पड़ी थीं. डाक्टर आया, जांच के बाद दवा लिख कर समझा गया कि कैसे और कबकब लेनी है. घर सुनसान था और सभी गुमसुम.

मान्या का बुरा हाल था.

‘‘मैं तो समझी थी कि मांजी थक कर सोई हुई हैं…हाय, मुझे पता ही न चला कि उन्हें इतना तेज बुखार है.’’

‘‘इस में इतना परेशान होने की क्या बात है…बुखार ही तो है…1-2 दिन में ठीक हो जाएगा,’’ पापा ने मान्या को पुचकारा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘अरे, इस में रोने की कौन सी बात है,’’  राघव बिगड़ गए.

अगले दिन, दिनचढ़े रमा की आंख खुली तो राघव को छोड़ सभी अपनेअपने काम पर जा चुके थे.

घर में इधरउधर देख कर रमा अकुलाईं तो राघव उन बिन बोले भावों को तुरंत ताड़ गए.

‘‘मान्या तो जाना ही नहीं चाहती थी. मैं ने ही जबरदस्ती उसे स्कूल भेज दिया है. उर्मि को तो तुम जानती ही हो…इतनी बड़ी अफसरी तिस पर नईनई नौकरी… छुट्टी का तो सवाल ही नहीं…’’

‘‘हां…हां…क्यों नहीं…सभी काम जरूरी ठहरे. मेरा क्या…बीमार हूं तो ठीक भी हो जाऊंगी,’’ रमा ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा था.

राघव ने बताया, ‘‘मान्या तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर गई है. और उर्मि ने सूप बना कर रख दिया है.’’

रमा ने बारीबारी से दोनों चीजें चख कर देखीं. खिचड़ी उसे फीकी लगी और सूप कसैला…

3 दिनों तक घर मशीन की तरह चलता रहा. राघव छुट्टी ले कर पत्नी की सेवा करते रहे. बाकी सब समय पर जाते, समय पर आते.

आ कर कुछ समय मां के साथ बिताते.

तीसरे दिन रमा का बुखार उतरा. दोपहर में खिचड़ी खा कर वह भी राघव के साथ बरामदे में धूप में जा बैठी.

राघव पेपर देखने लगे तो रमा ने भी पत्रिका उठा ली. ठीक तभी बाहर का दरवाजा खुलने का खटका हुआ. रमा ने मुड़ कर देखा तो मान्या थी. साथ में 2-3 उस के स्कूल की ही अध्यापिकाएं भी थीं.

‘‘अरे, मांजी, आप अच्छी हो गईं?’’ खुशी से मान्या ने आते ही उन्हें कुछ पकड़ाया और खुद अंदर चली गई.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ रमा ने पैकेट को उलटपलट कर देखा.

‘‘आंटी, मान्या को बेस्ट टीचर का अवार्ड मिला है.’’

‘‘क्या? इनाम…अपनी मनु को?’’

‘‘जी, आंटी, छोटामोटा नहीं, यह रीजनल अवार्ड है.’’

रोमांचित रमा ने झटपट पैकेट खोला. अंदर गोल डब्बी में सोने का मैडल झिलमिला रहा था. प्रमाणपत्र के साथ 10 हजार रुपए का चेक भी था. मारे खुशी के रमा की आवाज ही गुम हो गई.

‘‘आंटी, देखो न, मान्या ने कोई ट्रीट तक नहीं दी. कहने लगी, पहले मां को दिखाऊंगी…अब देखो न कब से अंदर जा छिपी है.’’ खुशी के लमहों से निकल कर रमा ने मान्या को आवाज लगाई, ‘‘मनु, बेटा…आना तो जरा.’’

अपने लिए मनु का संबोधन सुन मान्या भला रुक सकती थी क्या? आते ही सहजता से उस ने अपनी सहेलियों का परिचय कराया, ‘‘मां, यह सौंदर्या है, यह नफीसा और यह अमरजीत. मां, ये आप से मिलने नहीं आप को देखने आई हैं. वह क्या है न मां, यह समझती हैं कि आप संसार का 8वां अजूबा हो…’’

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’ रमा के माथे पर बल पड़ गए.

मान्या की सहेलियां कुछ सकपकाईं फिर सफाई देती हुई बोलीं, ‘‘आंटी, असल में मान्या आप की इतनी बातें करती है कि हम तो समझते थे कि आप ही मान्या की मां हैं. हमें तो आज तक पता ही न था कि आप इस की सास हैं.’’

‘‘अब तो पता चल गया न. अब लड्डू बांटो…’’ मान्या ने मुंह बनाया.

‘‘लड्डू तो अब मुझे बांटने होंगे,’’ रमा ने पति को आवाज लगाई, ‘‘अजी, जरा फोन तो लगाइए और इन सभी की मनपसंद कोई चीज जैसे पिज्जा, पेस्ट्री और आइसक्रीम मंगा लीजिए.’’

रमा ने मान से मैडल मान्या के गले में डाला और खुद अभिमान से इतराईं. मान्या लाज से लजाई. सभी ने तालियां बजाईं.

 

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