भारतीय राजनीति में एक समय था जब दलित राजनीति का केंद्र धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों के खिलाफ मोरचा लेना था, क्योंकि धार्मिक मान्यताओं के चलते ही सालोंसाल दलितपिछड़ों ने बर्बर प्रताड़ना झेली. लेकिन लंबे चले संघर्ष के बाद अब यही कर्मकांड दलितपिछड़ों पर हावी होने लगे हैं. वे इस के जंजाल में फंसते जा रहे हैं. दलित आंदोलन में कर्मकांडों का विरोध इसलिए किया गया था क्योंकि इस बहाने कर्मकांडी विचार थोपने का काम किया जाता था. कर्मकांड लोगों को डराने और दानदक्षिणा लेने के काम आते हैं. बहुजन समाज पार्टी और बामसेफ ने अपने विचारों से दलितों की चेतना जगाने का काम किया था. लेकिन जब बसपा ने सत्ता की चाबी हासिल करने के लिए मनुवादियों से सम झौता करना शुरू किया तो दलित कर्मकांड में फंसने लगे.
मायावती ने अमेठी का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर रख दिया. लेकिन इस से दलित चेतना नहीं जगी. अमेठी के खुटहना गांव में रहने वाले मोतीलाल को बुढ़ापे में रीतिरिवाज से शादी करने की घटना बताती है कि कर्मकांड की जड़ें कितनी गहरी हैं. कर्मकांड में फंसे दलित मायावती को छोड़ पुराणवादियों के चक्कर में पड़ गए हैं. अमेठी देश के एक जानेमाने शहर का नाम है. राजनीतिक रूप से अमेठी देश पर सब से लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी से जुड़ा है. पहले यह लोकसभा क्षेत्र था जो सुल्तानपुर जिले में आता था. अमेठी, सुल्तानपुर और रायबरेली कांग्रेस के सब से मजबूत राजनीतिक किले जैसे थे. 1 जुलाई, 2010 को उत्तर प्रदेश की उस समय की मायावती सरकार ने अमेठी को उत्तर प्रदेश का 72 वां जिला बना दिया. अमेठी में सुल्तानपुर जिले की 3 तहसील मुसाफिरखाना, अमेठी, गौरीगंज तथा रायबरेली जिले की 2 तहसील सलोन और तिलोई को मिला कर जिला बनाया गया था.
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मायावती ने अमेठी का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर कर दिया था. छत्रपति साहूजी महाराज का असली नाम यशवंत राव था. वे महाराष्ट्र के रहने वाले थे. उन्होंने दलित और कमजोर वर्गों की शिक्षा और रूढि़वादिता को खत्म करने के लिए काम किया. कमजोर वर्ग के बच्चों के पढ़ने के लिए छात्रावास बनवाए थे. दलित सुधारक और चिंतक के रूप में उन की पहचान है. जब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री बनीं मायावती ने दलित महापुरुषों को सम्मान देने के लिए उन की मूर्तियां बनवाने व उन के नाम पर जिलों का नामकरण किया. इस कारण ही अमेठी का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर किया गया था. बसपा के बाद जब समाजवादी पार्टी की सरकार आई तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने नाम वापस बदल कर अमेठी रख दिया. नाम बदलने से हालात नहीं बदले 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने गौरीगंज विधानसभा सीट पर चंद्रप्रकाश मिश्रा ‘मटियारी’ को चुनाव मैदान में उतारा. बसपा की ब्राह्मण-सोशल इंजीनियरिंग के चलते चंद्रप्रकाश मिश्रा विधायक चुन लिए गए. वे कहते हैं, ‘‘हमारे क्षेत्र का दलित हमेशा ही हिंदू धर्म पर यकीन करता रहा है.
उसे जब भी मौका मिला है उस ने इस बात को साबित किया भी है. यहां दलित और अगड़ी जातियों के बीच आपसी तालमेल रहा है. कोई किसी का विरोधी नहीं रहा. विधायक के रूप में जब हम ने यहां की जनता की मांग बहिनजी (मायावती) को बताई तो अमेठी को जिले का दर्जा मिला और नया नाम भी.’’ अमेठी गांधी परिवार की राजनीतिक जमीन कही जाती है. पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, उन के पोते संजय गांधी, राजीव गांधी तथा उन की पत्नी सोनिया गांधी, उन के बेटे राहुल गांधी यहां से सांसद चुने जाते रहे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को हरा कर अमेठी में भाजपा का झंडा फहराने का काम किया. कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी दोनों ने ही अमेठी के साथ दिली लगाव रखा. इस के बाद भी यहां धार्मिक कुरीतियों को खत्म नहीं किया जा सका. मायावती ने दलित महापुरुष छत्रपति साहूजी महाराज के नाम पर अमेठी का नाम बदला. लेकिन इस से दलितों की सोच में बदलाव नहीं आया. इस की प्रमुख वजह थी कि यहां के लोगों के मन पर कर्मकांड का मजबूत कब्जा था. अमेठी के आसपास तमाम धार्मिक स्थान हैं. पीपरपुर गांव में महर्षि पिप्पलाद का पौराणिक आश्रम है. सिंहपुर ब्लौक में मां अहरवा भवानी, मुसाफिरखाना में मां हिंगलाज देवी धाम, गौरीगंज में मां दुर्गाभवानी देवी, अमेठी में मां कालिकन देवी धाम सती महारानी मंदिर भी है. अमेठी और आसपास के इलाकों में राजेरजवाड़ों का भी अपना प्रभाव रहा है.
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यहां के दलित बहुत सारे प्रयासों के बाद भी आगे नहीं बढ़ सके. वे अगड़ी जातियों के पीछे ही चलते रहे. बसपा नेता मायावती ने अमेठी जिले का नाम बदल कर छत्रपति साहूजी महाराज नगर रखा पर वे दलित चेतना को जगाने में सफल न रहीं. अगड़ी जातियों का प्रभाव चुनाव लड़ने वाली पार्टी कोई भी रही हो, यहां से जीतने वाले नेता हमेशा ही अगड़ी जातियों के रहे हैं. करीब 3 लाख मतदाताओं वाली गौरीगंज विधानसभा में 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी से राकेश प्रताप सिंह विधायक चुने गए. 2007 में विधायक चुने गए चंद्रप्रकाश चौथे नंबर पर चले गए. 2017 के विधानसभा चुनावों में जब भाजपा की हवा तेज थी, समाजवादी पार्टी का दबदबा रहा. राकेश प्रताप सिंह अपनी सीट बचाने में सफल रहे. पार्टी कोई भी जीते, यहां पर प्रत्याशी अगड़ी जाति का ही जीतता है. सांसद के रूप में 2019 में अमेठी ने भाजपा की स्मृति ईरानी को जिताया था. 2021 के पंचायत चुनाव में राजेश कुमार अग्रहरि चुने गए. जामों की ब्लौक प्रमुख पूनम कुमारी बनीं. वे कहती हैं, ‘‘पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण के कारण राजनीति में महिलाओं का प्रभाव बढ़ रहा है.’’ इन हालात के बाद भी दलित आबादी गरीबी और मुफलिसी में जीने को मजबूर है. अमेठी में लोकसभा सीट के साथ ही साथ जगदीशपुर, गौरीगंज, अमेठी और तिलोई 4 विधानसभा सीटें हैं.
यहां दलितों की संख्या भले ही ज्यादा हो पर अगड़ी जातियों का प्रभाव है. गौरीगंज विधानसभा में ही जामों ब्लौक पड़ता है. यह अमेठी, रायबरेली और प्रतापगढ़ की सीमा में राजमार्ग से 10 किलोमीटर दूर पड़ता है. राजधानी लखनऊ से 130 किलोमीटर दूर खुटहना गांव है. यह जामों ग्राम पंचायत का मजरा है. खुटहना गांव में केवल पासी जाति की दलित आबादी रहती है. पासी जाति के 35 घर यहां हैं. कुछ घर कच्चे बने हैं, कुछ पक्के कहे जा सकते हैं क्योंकि इन में पक्की ईंट की दीवारें बनी हैं. गांव में पढ़ेलिखे लोगों की तादाद न के बराबर है. घरों के बाहर मवेशियों की संख्या कम दिखाई दी. 60 साल की मोहन्ना देवी बनी दुलहन गौरीगंज विधानसभा के जामों ग्राम पंचायत के मजरा खुटहना गांव में ही मोतीलाल रहते हैं. जामों ब्लौक भी है. सुल्तानपुर-लखनऊ हाईवे से करीब 10 किलोमीटर दूर जामों ब्लौक और थाना बना है. जामों में रहने वालों की दिक्कत यह है कि यहां से न तो अमेठी जिला मुख्यालय जाने के लिए कोई सीधी सरकारी बस चलती है और न ही प्रदेश की राजधानी लखनऊ जाने के लिए बस जाती है. जामों से जब गौरीगंज जाने वाली सड़क पर चलते हैं तो 3 किलोमीटर के बाद खुटहना गांव आता है.
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यहां सभी घर पासी जाति के दलितों के हैं. खुटहना गांव में रहने वाले मोतीलाल अचानक मीडिया की सुर्खियों में आ गए. सुर्खियों की वजह यह थी कि 65 साल के मोतीलाल ने 40 साल एकसाथ रहने के बाद 60 साल की मोहनी देवी से शादी की. मोहनी देवी को उन के घरवाले और जानने वाले ‘मोहन्नी’ कहते हैं. मोतीलाल और मोहनी देवी की कहानी रोचक है. यह कहानी बताती है कि दलित चेतना के तमाम दावों के बाद भी अभी एक बड़ा वर्ग धार्मिक जकड़न में है. उस के लिए मंदिर और धर्म बेहद जरूरी व मजबूरी हैं. बहुत साल पहले मोतीलाल की शादी अपनी ही जाति की श्यामा से हुई थी. शादी के कुछ सालों के बाद ही उस की मौत हो गई. मोतीलाल का कोई बच्चा नहीं था. वह अकेला पड़ गया था. अकेला जीवन मुश्किल था. जवान उम्र में विधुर होने के कारण उस के सामने लंबा जीवन पड़ा था. उस ने यह सोच कर दूसरी शादी करने का विचार किया. दूसरी शादी करना सरल नहीं था. मोतीलाल यह सोचने लगा कि किस तरह से वह दूसरी शादी करे. मोतीलाल का पड़ोस के गांव मकदूमपुर आनाजाना होता था. वहां की रहने वाली मोहनी देवी के साथ उस की जानपहचान हुई. मोहनी भी गरीब परिवार की थी.
मोहनी के मातापिता से बात कर के मोतीलाल उस को अपने साथ ले कर गांव आ गया. दोनों के घरपरिवारों को कोई दिक्कत न थी. दोनों ही बिना किसी शादी के कर्मकांड के साथ रहने लगे. उन को कभी इस बात की जरूरत ही महसूस न हुई कि वे रीतिरिवाजों वाली शादी करें. दोनों साथसाथ रहने लगे. दोनों ही मेहनत करते हुए अपना जीवन गुजारने लगे. यहां दोनों के पास रहने के लिए झोंपड़ी टाइप घर था. समय के साथ ही साथ दोनों के 4 बच्चे हो गए. इन में से 2 लड़के सुनील कुमार और संदीप कुमार और 2 लड़कियां सीमा और मीरा हैं. मोतीलाल ने पूरी कोशिश की कि बच्चे पढ़लिख जाएं. ये बच्चे केवल कक्षा 8 से 10 तक ही पढ़ सके. मोतीलाल ने सब से पहले अपनी दोनों बेटियों की शादी कर दी. दोनों लड़के भी मेहनतमजदूरी करने लगे. इस के बाद भी मोतीलाल और उस की पत्नी मोहनी मेहनतमजदूरी करते हैं, जिस में उन का समय भी कटता है और पैसे भी मिलते हैं. इस से उन का गुजारा होता है. कर्मकांडों पर दलितों का बढ़ता भरोसा मरने के बाद होने वाले क्रियाकर्मों पर दलितों का भरोसा बढ़ता जा रहा है. पहले ज्यादातर अगड़ी जातियां ही इन कर्मकांडों के पीछे भागती थीं.
जैसेजैसे दलितों के पास पैसा आने लगा है, वहां भी कर्मकांड बढ़ने लगे हैं. जामों (अमेठी) के रहने वाले पत्रकार और सामाजिक चिंतक भारत तिवारी कहते हैं, ‘‘अब दलित और पिछड़े भी अगड़ी जातियों की तरह से कर्मकांड करने लगे हैं. गांव स्तर पर तमाम मेले देवी और भवानी के नाम पर लगने लगे हैं. इन में दर्शन करने वालों में सब से अधिक संख्या दलितों की होने लगी है. भले ही ये दानदक्षिणा कम दें लेकिन भीड़ बढ़ाने का काम करने लगे हैं जिस की वजह से ये अपने जीवन में उन बातों को शामिल करने लगे हैं.’’ 40 साल एकसाथ रहने के बाद भी मोहनी और मोतीलाल के संबंधों को सामाजिक और धार्मिक मान्यता नहीं मिली थी. इस वजह से इन के बच्चों के सामने परेशानियां पेश आ रही थीं. मोहनी देवी को भी अच्छा नहीं लग रहा था. असल में मोहनी और मोतीलाल दोनों ही अनपढ़ थे. मोतीलाल तो बो झा ढोने की मजदूरी करता था. मोहनी देवी खेती के काम में मजदूरी कर के जो समय बचता था उस में मंदिरमंदिर जा कर देवी भवानी के दर्शन करती. वहां कथाप्रवचन सुनती. इन धर्म के प्रवचनों में शादी के महत्त्व को बताया जाता और बिना शादी के साथ रहने वालों को बताया जाता था कि शादी न करने से कितनी दिक्कतें आती हैं. 65 साल की उम्र में शादी करने वाले मोतीलाल शादी के अगले ही दिन जामों के माल गोदाम पर ढुलाई करते हमें मिले.
उन से जब यह पूछा कि 40 साल साथ रहने के बाद शादी करने की जरूरत क्या आ गई, इस पर वे कहते हैं, ‘‘बिना शादी किए घर के बेटेबेटियों की शादी में होने वाले पूजापाठ का फल नहीं मिलता है. मरने के बाद घरपरिवार का दिया पानी भी नहीं मिलता. इसलिए शादी करनी जरूरी हो गई. बिना शादी के हमारे संबंध पवित्र नहीं माने जा रहे थे. बिना शादी के किसी को अपनी पत्नी बना कर रखने में औरत को ‘उढरी’ कहा जाता है. मोहनी को अब लग रहा था कि ‘उढरी’ कहलाना अच्छा नहीं होता है.’’ मोतीलाल ने पूरी की पत्नी के मन की बात मोहनी देवी की बात का समर्थन उस के बच्चों ने भी किया. इस के बाद घरपरिवार के लोगों ने मिल कर शादी का आयोजन किया जिस में ढोल भी बजा. मोतीलाल ने शादी में पहने जाने वाला ‘मउर’ भी पहना. ‘मउर’ सिर पर पहनी जाने वाली पगड़ी टाइप होती है. जिसे शादी में दूल्हा पहनता है. मोहनी देवी को भी साड़ी पहनाई गई. मंत्र पढ़ने के लिए पंडितजी भी आए और लोगों ने बरात में डांस किया. गांव में एक कोने से बरात निकली और मोतीलाल के घर तक गई. मोहनी और मोतीलाल की शादी कराने वाले तेजराम पांडेय बताते हैं, ‘‘मोतीलाल ने मोहनी से धार्मिक रीतिरिवाज से शादी नहीं की थी.
धर्म कहता है कि ‘उढरी’ के लड़के मातापिता के मरने के बाद जब उस का श्राद्ध करते हैं, पिंडदान करते हैं तो वह उन को नहीं मिलता है. जिस से उन को मोक्ष नहीं मिलता. इस बात की जानकारी होने पर अब यह शादी की जा रही है. मरने के बाद होने वाले कर्मकांडों में श्राद्ध और पिंडदान किया जाता है.’’ आज समाज में कर्मकांडों को इस तरह से महिमामंडित किया जा रहा है कि 40 साल एकसाथ रहने के बाद मोतीलाल और मोहनी को शादी का कर्मकांड करना पड़ा. इस से पूरे समाज को यह संदेश देने का काम किया गया कि बिना शादी के साथ रहना धार्मिक मान्यता नहीं है. शादी के सहारे धार्मिक कर्मकांडों को मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है. मोहनी के मन में इस बात को ठूंसठूंस कर भर दिया गया कि जब तक कर्मकांड वाली शादी नहीं होगी तब तक शादी मानी नहीं जाएगी. शादी करने के बाद ही मोहनी को पत्नी का दर्जा मिल सका. इस के पहले उस को ‘उढरी’ ही माना जा रहा था. ‘उढरी’ औरत को दलित और पिछड़ा समाज भी किसी तरह की मान्यता नहीं देता है. कर्मकांड के डर से मोतीलाल और मोहनी को बुढ़ापे में शादी करने का रिवाज पूरा करना पड़ा. डरासहमा मिला मोतीलाल शादी की जानकारी मिलने के बाद जब यह संवाददाता लखनऊ से 130 किलोमीटर दूर खुटहना गांव मोतीलाल और मोहनी से मिलने के लिए पहुंचा तो पता चला कि दुलहन मोहनी अपने बच्चों के साथ मंदिर दर्शन करने के लिए गई है.
उस के घर में मौजूद लड़की कुछ भी बोलने से मना कर के दरवाजा बंद कर घर के अंदर चली गई. मोहनी और मोतीलाल के घर के लोग इस बात से डर रहे थे कि किसी बाहरी और अनजान व्यक्ति से बात करने से उन को कोई नुकसान हो सकता है. परिवार वालों को डर लग रहा था कि बुढ़ापे में शादी कर के कोई गुनाह तो नहीं कर दिया. कहीं किसी तरह से पुलिस या कानून की कोई दिक्कत पैदा न हो जाए. इस कारण वे किसी भी तरह की बातचीत करने से मना करने लगे. जानकारी करने पर गांव के लोगों ने बताया कि दूल्हा मोतीलाल गांव से 3 किलोमीटर दूर गोदाम पर काम करने के लिए गया हुआ है. हम ने वहां जा कर उस से बात करने की योजना बनाई. यह मालगोदाम जामों ब्लौक के पास था. वहीं मोतीलाल माल ढुलाई का काम करता था. मोतीलाल को जैसे ही हमारे पहुंचने की सूचना मिली, वह छिप गया. हम ने स्थानीय नेताओं और कुछ प्रभावशाली लोगों को अपने साथ लिया. तब मोतीलाल का डर कुछ कम हुआ. हमारे ऊपर उस को थोड़ा सा भरोसा हुआ और वह बातचीत के लिए तैयार हुआ. हमारे सामने आते ही मोतीलाल बोला, ‘‘साहब, शादी कर के कोई गलती कर दी क्या, जिस से आप लोग हमें तलाश कर रहे हैं?’’
जब सभी लोगों ने यह कहा कि गलती की कोई बात नहीं है. ‘सरिता’ देश की बड़ी पत्रिका है उस में तुम्हारी शादी के बारे में छापा जाएगा. तब वह धीरेधीरे बात करने लगा. असल में गांव में रहने वाला गरीब, कमजोर और कम पढ़ालिखा आदमी हर किसी से डरता है. उस को लगता है कि कोई उस का गलत लाभ न उठा ले. उसे कानून और अपने अधिकारों की जानकारी नहीं होती. चार लोग जैसा कहने लगते हैं वह वैसा करने लगता है. यही वजह है कि जब समाज ने कहा कि बिना धार्मिक रीतिरिवाज के साथ रहना शादी नहीं होती तब उस ने वह बात मान ली और 40 साल साथ रहने के बाद शादी करने की रस्म पूरी कर दी. जब हम ने यह पूछा कि 40 साल साथ रहने के बाद ऐसी क्या जरूरत पड़ी कि शादी करनी पड़ी, तो मोतीलाल ने कहा, ‘‘पत्नी मंदिरमंदिर जाती थी. वहां से उसे पता चला कि 40 साल साथ रहने के बाद भी वह पत्नी नहीं ‘उढरी’ ही सम झी जा रही है. जब तक विधिविधान से शादी नहीं होगी, हमें किसी कर्मकांड का लाभ नहीं मिलेगा. पत्नी की इस इच्छा को पूरा करने के लिए हम ने शादी की रस्म निभाई. मैं भले ही कामकाज में लगा रहता था पर मेरी पत्नी कर्मकांड में लगी रहती थी. हम ने उस के मन की बात को पूरा करने के लिए शादी की.’’ मंडल पर भारी पड़ा कमंडल मोतीलाल और मोहनी की शादी वैसे तो पूरी तरह से उन का अपना फैसला माना जा रहा है, लेकिन इस की तह में जा कर देखने की कोशिश की जाए तो यह धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण हुआ है.
मोतीलाल के आसपास के लोग यह मान रहे हैं कि यह धर्म को राह दिखाने वाला काम है. यहां हम धर्म के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव को देख सकते हैं. 1989 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने पिछड़ों को अधिकार दिलाने के लिए मंडल कमीशन को लागू किया. इस का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ा. पिछड़ों के साथ ही साथ दलित वर्ग में भी चेतना जगी. तमाम क्षत्रप पैदा हो गए जिन के कारण अगड़ी जातियां दलितपिछड़ों के पीछे चलने को मजबूर होने लगीं. यह बात अगड़ी जातियों के पैरोकारों को अच्छी नहीं लग रही थी. ऐसे में मंडल का मुकाबला करने के लिए धर्म के सहारे राजनीति को बढ़ाने का काम शुरू हुआ. इस को कमंडल की राजनीति भी कहा जाता है. इस का केंद्र उत्तर प्रदेश में अयोध्या के राममंदिर को बनाया गया. धर्म की राजनीति के सहारे दलितपिछड़ों को दोबारा यह बताया जाने लगा कि धर्म और कर्मकांड ही जीवन को सही राह दिखाते हैं. धर्म की राजनीति, दलित और पिछड़ों को वापस मंदिरों की तरफ लाने में सफल हुई. दलित और पिछड़ों को यह लगा कि जो कर्मकांड अगड़ी जातियों के लोग करते हैं, वही हम भी करेंगे तो हमें भी उन के बराबर गिना जाएगा.
दलित और पिछड़ी जातियों के लोग धार्मिक कर्मकांडों में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी करने लगे. अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा मंदिरों में दर्शन करने, पूजापाठ करने, चढ़ावा चढ़ाने, धार्मिक मान्यताओं को पूरा करने में लगाने लगे. उन के पास भले ही पहनने के लिए ढंग के कपड़े न हों पर पूजा के लिए पंडित को दानदक्षिणा देने के लिए पैसे आ जाते हैं. मरीज का इलाज कराने के लिए भले ही पैसे न हों पर मरने के बाद कर्मकांड पर खर्च करने के लिए पैसे आ जाते हैं. कई बार वे कर्ज ले कर या फिर जमीनजायदाद बेच कर इस काम को पूरा करते हैं. मंडल की राजनीति ने दलित और पिछड़ों को बराबरी का हक और अधिकार देने का जो काम किया था, कर्मकांड और कमंडल की राजनीति में पड़ कर वह सब मटियामेट हो गया है. द्य क्या होती है ‘उढरी’ 40 साल पहले जब मोतीलाल मोहनी को ले कर आए थे तो उन के पास शादी में खर्च करने लायक पैसा नहीं था. अपनी बिरादरी को खिलाने के लिए भी पैसेरुपए नहीं थे.
ऐसे में वे बिना शादी के ही मोहनी के साथ रहने लगे. दलित जातियों में बिना शादी के साथ रहने वाली औरत को ‘उढरी’ कहा जाता है. दलित जातियों की पंचायतों में नियम था कि अगर बिना शादी के किसी महिला के साथ रह रहे हैं तो पंचायत के चौधरी और पंचों को ‘भात’ खिलाना जरूरी होता था. ‘भात’ एक तरह की दावत होती है. जब तक ‘भात’ नहीं खिलाया जाता था तब तक ‘उढरी’ औरत को शादीशुदा नहीं माना जाता था. उस के बच्चों को भी सामाजिक व धार्मिक मान्यता नहीं मिलती थी. सामाजिक और धार्मिक मान्यता के अलगअलग मतलब होते हैं. सामाजिक मान्यता न मिलने के कारण उन के बच्चों के शादीब्याह नहीं हो सकते थे. बिरादरी के लोग उन को दावत में नहीं बुलाते थे.
धार्मिक मान्यता में यह माना जाता है कि बच्चों द्वारा किए गए क्रियाकर्म का पुण्य मातापिता को नहीं मिलता था. बहुत सारी दलित चेतना के बाद भी दलितों की रूढि़वादी सोच में अंतर नहीं आया है. आज भी वह धर्म के प्रभाव में है. मोतीलाल और मोहनी देवी का जीवन भी ऐसा ही रहा है. मोतीलाल भले ही मेहनतमजदूरी में व्यस्त रहते थे, पत्नी मोहनीदेवी धार्मिक रीतिरिवाजों में लगी रहती थी. कई मंदिरों में उसे यही बताया जाता था कि कर्मकांड जीवन में क्या महत्त्व रखते हैं. इन बातों के प्रभाव में आ कर उस ने अपने पति मोतीलाल से कहा कि ‘हमें भी शादी करनी चाहिए तभी हमें कर्मकांडों का हक मिल सकेगा और हमें ‘उढरी’ भी कोई नहीं कह सकेगा.’