दोपहर का खाना निबटा कर सुनीला थोड़ी देर आराम करने के लिए बिस्तर पर लेटी ही थी कि घंटी की आवाज सुन कर उसे फिर दरवाजा खोलने के लिए उठना पड़ा. वह भुनभुनाती सी उठी कि इस मरे पोस्टमैन को भी इसी समय आना होता है. पौस्टमैन से चिट्ठियां ले कर मेज पर रख कर वह जा रही थी कि एक पत्र पर उस की आंखें जमी रह गईं. उस ने पत्र हाथ में उठाया. निसंदेह यह लिखाई आशा की ही थी, पर इतने लंबे अंतराल के बाद...जल्दीजल्दी चिट्ठी खोल कर उस ने पढ़ना प्रारंभ किया:

‘प्रिय सुनीला

‘अमित स्नेह,

‘तुम सोच रही होगी कि इतने सालों बाद कैसे तुम्हें चिट्ठी लिख रही हूं. सच कहूं तो तुम से संवाद स्थापित करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रही थी. किस मुंह से तुम्हें चिट्ठी लिखती. जो कुछ भी मैं ने तुम्हारे साथ किया है, वह तो अक्षम्य है, पर तुम्हारा सरल हृदय तो सागर की तरह विशाल है. तुम उस में मेरा यह अक्षम्य अपराध अवश्य समेट लोगी, यही सोच कर लिखने की धृष्टता कर रही हूं. ‘मेरा हृदय अपने किए पर हमेशा मुझे कचोटता रहता है. सोचती हूं, अनजाने ही छोटे से स्वार्थ के वशीभूत हो कर अपनी ही कितनी बड़ी हानि की जिम्मेदार बनी. इन सालों में अकेले रह कर समझ पाई कि सारे नातेरिश्तों का सुंदर समन्वय ही जीवन को परिपूर्णता व सार्थकता प्रदान करता है और इन्हीं मधुर संबंधों में ही जीवन की परितृप्ति है.

‘सुनीला, मैं अपने क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत हो भूल बैठी थी कि संसार में पतिपत्नी के संबंध से इतर कुछ स्नेहबंधन ऐसे होते हैं जिन के बिना हम स्वयं को भावनात्मक रूप से अतृप्त और असुरक्षित महसूस करते हैं. ‘नासमझी में की गई उस भूल का एहसास मुझे अब हो रहा है जब उन्हीं संबंधों के निर्वाह में मैं ने खुद ठोकर खाई है. ‘अनिमेष भी अब पहले की तरह नहीं रहे हैं. अब उन पर एक संजीदगी सी छा गई है. तुम्हारे आने से शायद घर में खुशियां लौटें. उन की हंसी तो जैसे बीते समय ने चुरा ली है.

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