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महाशक्ति की महा हार

अफगानिस्तान ने अमेरिकी फौज को बाहर का रास्ता दिखाया है, उस ने अमेरिका के ढहते प्रभुत्व को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है. दुनियाभर में यह संदेश भी गया कि अमेरिका ऐसा देश है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और वह दुनिया का पुलिसमैन नहीं रह गया है. यह हार लड़ाकू तालिबानियों के दम के चलते ही नहीं हुई बल्कि अंदर से खोखले होते अमेरिका के कारण भी हुई है. अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और तालिबान के वहां की सत्ता पर दोबारा काबिज होने के पूरे प्रकरण ने अमेरिका की साख को कम किया है. अब तक जो अमेरिका पूरी दुनिया का थानेदार बना हुआ था, उस की औकात अब चौकीदार की भी नहीं बची है.

तालिबान से डर कर अफगानिस्तान को छोड़ना यह बताता है कि वहां अमेरिका का खुफिया तंत्र इतनी बुरी तरह फेल हुआ कि 20 सालों में अंदर ही अंदर तालिबान किस कदर मजबूत और एकजुट होता चला गया, इस की भनक तक अमेरिका को नहीं लगी. गौरतलब है कि अमेरिका दुनियाभर में अपनी खुफिया ताकत के लिए ही मशहूर रहा है. कहा जाता रहा कि अमेरिका की खुफिया शक्ति इतनी मजबूत है कि दुनिया में कहां क्या चल रहा है, सब पर उस की नजर रहती है. 9/11 के हमले के बाद जिस तरह से पाकिस्तान में घुस कर अमेरिकी फौजों ने अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था, उसे अमेरिका के खुफिया तंत्र की ही कामयाबी मानी गई थी. तब जो बाइडेन अमेरिका के उपराष्ट्रपति थे और बराक ओबामा राष्ट्रपति. 2 मई, 2011 को एबटाबाद में अमेरिकी सेना के हाथों ओसामा बिन लादेन मारा गया और इस सफलता का श्रेय अमेरिकी खुफिया एजेंसी को दिया गया, मगर अफगानिस्तान में तालिबान की स्थिति को ले कर अमेरिका का खुफिया तंत्र बुरी तरह से फेल हुआ.

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अमेरिकी सेना को लगा कि उस के डर से तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान से भाग खड़े हुए हैं, जो बचे वे अमेरिकी गोलियों का शिकार हो गए. लेकिन यह उस की भूल थी क्योंकि तालिबानी नेता न केवल अपना वर्चस्व बनाए हुए थे, बल्कि अपने लड़ाकों को हथियार और ट्रेनिंग से भी लैस कर रहे थे. यही नहीं, वे अफगान जनता के बीच अपनी जमीन भी मजबूत कर रहे थे. अमेरिका 1968 में वियतनाम में भी इसी तरह फेल हुआ था. 1968 में उत्तर वियतनाम ने दक्षिण वियतनाम पर हमला कर दिया था, जिस में अमेरिकी सेना को बहुत नुकसान हुआ था. उस युद्ध में 30 लाख लोग मारे गए, जिन में करीब 58 हजार अमेरिकी सैनिक थे. यह सबकुछ इसलिए हुआ था क्योंकि उस वक्त भी अमेरिका की खुफिया एजेंसियां यह पता नहीं लगा पाई थीं कि वियतनाम में ऐसा कुछ होने वाला है. उस ने 2003 में इराक में भी मुंह की खाई थी और इराक को भी गृहयुद्ध में धकेल कर वहां से निकल आया था.

इस वक्त भी उस ने यही किया है. आज तालिबान से हार के बाद अमेरिका अपनी सुपर पावर वाली छवि को वैश्विक रूप से खोने की कगार पर है. अरब देशों से भी धीरेधीरे अमेरिका का प्रभुत्व खत्म होता जा रहा है. अफगानिस्तान से जिस तरह अमेरिकी फौज 40 दिनों के भीतर खदेड़ कर निकाली गई है, या यों कहें कि तालिबान से हार मान कर भाग खड़ी हुई है उस से अमेरिका के ढहते प्रभुत्व को सम झा जा सकता है. भले ही लंबे समय से इस बात की चर्चा थी कि अमेरिकी सैनिकों की घरवापसी जल्दी होगी, मगर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जिस आपाधापी में सेना की वापसी करवाई है, उस ने न सिर्फ अफगानिस्तान जैसे देश को गृहयुद्ध में धकेलने का काम किया है, बल्कि इस से दुनियाभर में यह संदेश भी गया है कि अमेरिका ऐसा देश है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. दरअसल, अफगानिस्तान की सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका की थी. 20 वर्षों से अफगान नागरिकों को अमेरिका यह विश्वास दिला रहा था कि ‘मैं हूं ना,’ लेकिन जब अफगानिस्तान को अमेरिका की सब से ज्यादा जरूरत थी तो अमेरिका ने उसे पीठ दिखा दी. वहां के लोगों को धोखा दिया. उन्हें तालिबान के हाथों कटनेमरने के लिए छोड़ दिया.

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इस वजह से दुनियाभर के तमाम छोटे देश, जो अमेरिका को सुपर पावर मानते थे और उन्हें लगता था कि अमेरिका के होने से वे सुरक्षित हैं, अब अमेरिका को संदेह की नजरों से देखने लगे हैं. ताइवान के रक्षा मंत्री ने तो साफ कह दिया है कि उन का देश अमेरिका पर भरोसा करने के बजाय अपने रक्षातंत्र पर भरोसा करेगा. यह एक बड़ा बयान है. इस से साफ जाहिर होता है कि अमेरिका की छत्रछाया में जो देश कल तक खुद को महफूज सम झते थे, अब उन का उस पर से विश्वास उठने लगा है. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अफगानिस्तान में अमेरिका की भागीदारी की आलोचना करते हुए कहा है कि ‘‘वहां उस ने अपनी 20 साल लंबी सैन्य उपस्थिति से ‘शून्य’ हासिल किया है. 20 वर्षों तक अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में जमी रही. वह वहां रहने वाले लोगों को सभ्य बनाने की कोशिश कर रही थी. इस का परिणाम व्यापक त्रासदी, व्यापक नुकसान के रूप में सामने आया. यह नुकसान दोनों को हुआ, यह सब करने वाले अमेरिका को और उस से भी अधिक अफगानिस्तान में रहने वालों को.’’ पुतिन ने कहा, ‘‘किसी पर बाहर से कुछ थोपना असंभव है.

अगर कोई किसी के लिए कुछ करता है, तो उन्हें उन लोगों के इतिहास, संस्कृति, जीवन दर्शन के बारे में जानकारी लेनी चाहिए. उन की परंपराओं का सम्मान करना चाहिए.’’ हालांकि अमेरिका के अफगानिस्तान से इस तरह निकलने के बाद रूस की सिरदर्दी भी बढ़ी हुई है. रूस नहीं चाहता कि मध्य एशिया में कट्टरपंथी इसलाम का फैलाव हो. रूसी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों ने मध्य एशिया में अस्थिरता, तालिबान के फैलाव, चरमपंथियों की संभावित घुसपैठ और अफगानिस्तान में अफीम उत्पादन व तस्करी को ले कर अलर्ट जारी किया है. ऐसे ही अलर्ट पर अब भारत भी है. अब तालिबानी सत्ता कायम होने पर उस के नजदीकी रहे आतंकी संगठन अलकायदा, जैश या लश्कर के आतंकी अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत में आतंकी गतिविधियों को चलाने के लिए करेंगे और कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करेंगे. ऐसे में अमेरिका से भारत को कोई मदद मिलने की संभावना नहीं है.

तालिबान से हार मान कर अपनी खोह में मुंह छिपाने वाला अमेरिका अब क्या तालिबान को नसीहत करेगा या उसे आंख दिखाएगा? अफगानिस्तान से लोकतांत्रिक सरकार का जाना जिस से भारत के अच्छे संबंध थे, अपनेआप में नरेंद्र मोदी सरकार के लिए बड़ा झटका है. भारत ने अफगानिस्तान में इंफ्रास्ट्रक्चर डैवलपमैंट प्रोजैक्ट्स में जो 3 बिलियन डौलर का निवेश किया है उस के भविष्य को ले कर भी डर बना हुआ है. साथ ही, अब यह डर भी है कि कहीं पाकिस्तान अफगानिस्तान की जमीन को भारतविरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल न करने लगे. भारत के लिए ऐसी संकटभरी परिस्थिति पैदा करने के लिए बाइडन प्रशासन जिम्मेदार है. बीते 100 सालों में अमेरिका दुनिया के सामने एक सुपर पावर बन कर उभरा था. दुनियाभर के देशों के आंतरिक मामलों में उस ने अपना दखल बनाया. हर जगह निगरानी की, हर जगह थानेदारी की. हालांकि उस ने कमजोर देशों को हिम्मत भी दी.

उन्हें उन के पड़ोसियों के कहर से बचाया भी. कहा जाने लगा कि अमेरिका जिस के साथ खड़ा हो जाए, उस का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. लेकिन अफगानिस्तान की ऐसी दुर्दशा देख कर अब लोगों को इस बात पर यकीन दिलाना अमेरिका के लिए मुश्किल हो गया है कि- ‘मैं हूं ना.’ अमेरिका अपने गिरेबान में झांके अमेरिका भले इतने साल दुनिया का थानेदार बना रहा, दूसरे देशों में जा कर कट्टरपंथी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ाइयां लड़ता रहा, दूसरों को सुरक्षा और न्याय देने के ढोल पीटता रहा, मगर हकीकत यह है कि अमेरिका का अपना समाज खुद कट्टरपंथी, रूढि़वादी, धर्म, जाति और नस्लवादी समस्याओं से ग्रस्त है. खुद का घर गंदा हो तो दूसरों के घरों को साफ करने का दावा करना बड़ा हास्यास्पद लगता है. सत्ता के संरक्षण में अमेरिकी पुलिस की रंगभेदी, नस्लभेदी, दक्षिणपंथी सोच और व्यवहार की दुनियाभर में आलोचना होती रही है.

भारतीय मूल के अमेरिकी और अश्वेत नागरिकों के खिलाफ अमेरिकी पुलिस का रवैया जल्लाद जैसा है. बीते साल यह नस्लीय भेदभाव अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बड़ा मुद्दा बन चुका है. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर नस्लीय हिंसा को भड़काने का आरोप लगा जब एक अश्वेत अमेरिकी नागरिक जौर्ज फ्लौयड को सरेआम जमीन पर गिरा कर पुलिस के एक गोरे जवान ने अपने घुटनों के नीचे उस की गरदन तब तक दबाए रखी जब तक उस की सांस न टूट गई. फ्लौयड चीखते रहे कि वे सांस नहीं ले पा रहे हैं- ‘आई कांट ब्रीद…..’ लेकिन श्वेत जवान के मन में अश्वेतों के प्रति इतनी नफरत भरी थी कि उस ने फ्लौयड की गरदन तब तक नहीं छोड़ी जब तक वह मर नहीं गया.

जौर्ज फ्लौयड के आखिरी शब्द ‘आई कांट ब्रीद’ इस हत्या के विरोध में सड़कों पर उतरे आम अमेरिकी के लिए नारा बन गए. दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का डंका पीटने वाला अमेरिका अपने ही आंगन में श्वेत पुलिसकर्मी के घुटने तले दम तोड़ते एक अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक को ले कर समता, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों की रक्षा में नाकामी के कारण कठघरे में खड़ा हुआ. बराबरी के अधिकार का खोखला दावा अमेरिका का नया संविधान सब को बराबरी का अधिकार देता है. इसी संविधान की बदौलत अमेरिका में अश्वेत जज, अश्वेत गवर्नर और अश्वेत राष्ट्रपति तक बन चुके हैं. लेकिन क्या सचमुच सिर्फ कानून बन जाने भर से अश्वेत अमेरिकी श्वेतों के मुकाबले बराबरी में आ गए हैं? कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं- द्य साल 2012 में फ्लोरिडा में ट्रेवोन मार्टिन नाम के एक अश्वेत अमेरिकी की हत्या हुई. यह हत्या एक श्वेत सिक्योरिटी गार्ड जौर्ज जिमरमैन ने की थी.

जब मामला अदालत में पहुंचा तो ज्यूरी ने जौर्ज जिमरमैन को निर्दोष करार दिया और साथ ही, यह भी आदेश दिया कि जौर्ज की बंदूक उसे वापस कर दी जाए. द्य 2013 में कोलकाता के सुनंदो सेन को अमेरिका में मैट्रो के आगे धक्का दे कर मार डालने की कोशिश हुई. उसे एक सनकी महिला एरिका मेनेनडेज ने धक्का दिया था. पुलिस को दिए इकबालिया बयान में उस ने कहा कि उस ने सुनंदो को धक्का इसलिए दिया था क्योंकि वह हिंदुओं और मुसलिमों से नफरत करती है. द्य 2013 के अगस्त में विस्कोन्सिन के एक गुरुद्वारे पर मजहबी नफरत से ग्रस्त एक व्यक्ति ने गोलीबारी कर 6 सिखों को मार दिया था. वेड माइकेल पेज नामक वह व्यक्ति पूर्व सैनिक था और उस ने इंड एपाथी नाम से श्वेत नस्लवादी बैंड आरंभ किया था. अमेरिकी मीडिया ने उसे कुंठित शख्स बताया.

17 जुलाई, 2014 न्यूयौर्क में एक अश्वेत अमेरिकी एरिक गार्नर की पुलिस प्रताड़ना के चलते मौत हो गई. इस के पीछे कहानी यह थी कि एरिक का किसी से झगड़ा हो रहा था. पुलिस आई और उस ने एरिक को खुली सिगरेट बेचने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया. एरिक सफाई देते रहे, लेकिन पुलिसवालों ने उसे दबोच लिया और जमीन पर पटक दिया. दम घुटने से एरिक गार्नर की मौत हो गई. द्य 9 अगस्त, 2014 मिसूरी में माइकल ब्राउन नाम के एक अश्वेत की हत्या हुई. हत्या 26 साल के एक श्वेत पुलिस अफसर डैरेन विल्सन ने की थी. केस चला, लेकिन मिसूरी की ग्रैंड ज्यूरी ने डैरेन विल्सन के खिलाफ केस चलाने से इनकार कर दिया. इस के खिलाफ अमेरिका भर में प्रदर्शन हुए, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा.

13 जुलाई, 2019 लौस एंजिल्स में 17 साल की एक लड़की हन्ना विलियम्स नकली बंदूक से एक पुलिस अफसर पर निशाना लगाने की कोशिश कर रही थी. पुलिस अधिकारी ने उसे असली बंदूक मान लिया और बिना सोचेसम झे हन्ना की गोली मार कर हत्या कर दी. द्य और बीते साल 25 मई, 2020 को अश्वेत जौर्ज फ्लौयड की हत्या एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा हुई, जिस के बाद पूरा अमेरिका सुलग उठा. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दुनियाभर में लानतमलामत हुई. पर क्या अमेरिकी समाज की मानसिकता में कुछ बदलाव आया? शायद नहीं. वाशिंगटन पोस्ट की साल 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में श्वेतों की तुलना में दोगुने अश्वेत पुलिस की प्रताड़ना का शिकार होते हैं. अगर अमेरिका में श्वेत और अश्वेत की हत्या होती है तो श्वेत लोगों की हत्याओं का केस सुल झने की दर ज्यादा है.

यही नहीं, अगर किसी अश्वेत ने श्वेत की हत्या कर दी है तो अश्वेत को फांसी होने के चांसेज 80 फीसदी से ज्यादा हैं. इस के अलावा शायद ही कभी ऐसा मौका हो जब अपराध में अश्वेत शामिल हो और उस की गिरफ्तारी न हुई हो. अमेरिका में अगर किसी श्वेत और अश्वेत को एक ही अपराध के लिए सजा हो रही हो, तो अश्वेत की सजा श्वेतों की तुलना में 20 फीसदी ज्यादा होगी. ये सिर्फ वे आंकड़े और उदाहरण हैं जिन में पुलिस वालों ने अश्वेतों पर जुल्म किए हैं. बाकी अमेरिका के श्वेतों में यह धारणा आम है कि वे अश्वेतों से बेहतर हैं, उन की नस्ल बेहतर है और अश्वेत उन के हमेशा से गुलाम रहे हैं और उन्हें रहना चाहिए. यही वजह है कि अमेरिका में हर साल 10 हजार से ज्यादा नस्लभेदी मामले दर्ज किए जाते हैं और इन के शिकार सिर्फ और सिर्फ अश्वेत होते हैं. स्वयंभू समाज सुधारक अमेरिका सारी दुनिया का एक ‘स्वयंभू समाज सुधारक’ बना रहा.

दुनिया के धार्मिक समूहों, जातियों, प्रजातियों की आजादी को ले कर उस ने हर जगह अपनी टांग अड़ा कर रखी. वह सारी दुनिया के देशों में अपने धार्मिक आजादी पर निगाह रखने वाले अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ या यूएस कमीशन औन इंटरनैशनल रिलीजियस फ्रीडम) के दल भेज कर लोगों के धार्मिक अधिकारों और उन के हनन को ले कर अपनी रिपोर्ट जारी करता है. इतना ही नहीं, अपनी रिपोर्ट में वह इस बात की भी जानकारी देता है कि कौन से देश में अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों का हनन हो रहा है और कितना? इस संगठन ने भारत के बारे में भी खूब रिपोर्ट्स जारी की हैं. उस की रिपोर्ट के अनुसार, बीते एक दशक में भारत में असहिष्णुता और धार्मिक आजादी के उल्लंघन की घटनाएं बढ़ी हैं. अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक हिंदूवादी गुटों से धमकियां मिलती हैं, उन का उत्पीड़न होता है और उन के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं.

पुलिस और अदालतों का रवैया पक्षपातपूर्ण है और अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. मुसलिम लड़कों को चरमपंथी बता कर जेल में डाल दिया जाता है और बिना मुकदमे उन्हें वर्षों तक जेल में रखा जाता है. पर दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाले देश में जहां ऐसा होता है, वहीं दुनिया की सब से बड़ी ताकत कहलाने वाले ‘मोस्ट मौडर्न’ देश में क्या सभी कुछ सामान्य है? जौन पेराजो की ई-बुक ‘द न्यू लैफ्ट विंग मोबोक्रेसी’ में अमेरिका के दंगों, फसादों, अराजकता, हिंसा और असहिष्णुता को गिनाया गया है. पेराजो लिखते हैं, ‘क्या जाति (प्रजाति) के आधार पर ब्लैक लाइव्स मैटर जैसे आंदोलन अमेरिका में नहीं हुए? अपने समूचे इतिहास में अमेरिका एक ऐसा देश रहा है जोकि 2 चीजों के लिए जाना गया- पहला प्रवासियों का देश और दूसरा, बेजोड़ धार्मिक विविधता.

हालांकि अमेरिका में वैसे भयानक धार्मिक युद्ध और दशकों तक चलने वाले संघर्ष नहीं हुए जैसे मध्यपूर्व के इसलामी देशों में होते हैं, लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं है कि अमेरिका में धार्मिक आधार से जुड़े संघर्षों का इतिहास नहीं रहा है. अमेरिका में धार्मिक कट्टरता अमेरिका ऐसा देश है जो खुद धार्मिक संघर्षों से पैदा हुआ है. यहां पर यूरोप के वे लोग आ कर बसे जोकि यूरोप में धार्मिक दमन का शिकार हो रहे थे. अमेरिकी क्रांति में धर्म की एक खास भूमिका रही है और क्रांतिकारियों का मानना था कि ब्रिटिश लोगों के खिलाफ युद्ध करना ईश्वर की मरजी है. जहां चर्च औफ इंग्लैंड एक ओर समानता आधारित राज्य बनने की ओर अग्रसर था, वहीं अमेरिका की प्रत्येक कालोनी (औपनिवेशिक बस्ती) में अपने ही तरह की ईसाइयत हावी थी. चूंकि यह ब्रिटेन से दूर था और औपनिवेशिक बस्तियों के बीच गुंजाइश थी,

इसलिए यहां अलगअलग तरह की ईसाइयत भी पनपी और इन औपनिवेशिक बस्तियों के लोगों में अपने धर्म के प्रति बेहिसाब कट्टरता है. अमेरिका में विभिन्न राज्यों और ईसाई संप्रदायों में बहुत लड़ाइयां हुईं. वर्जीनिया में एंग्लिकन लोगों का प्रभाव था जोकि चर्च औफ इंग्लैंड के समर्थक थे, इस कारण से इन लोगों ने बैपटिस्ट और प्रेस्बिटेरियन लोगों का दमन किया. 1830 और 40 के दशक में पूर्वोत्तर और अन्य हिस्सों में कैथोलिक विरोधी हिंसा फैली. इस दौरान स्थानीय अमेरिकियों और आयरिश कैथोलिक लोगों के बीच इतनी हिंसा हुई कि मार्शल लौ लगाना पड़ा. फिलाडेल्फिया इस हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हुआ. वर्ष 1933 और 1939 के दौरान महामंदी के कारण यहूदी विरोधी भावनाएं सारे देश में देखी जाने लगीं.

इस दौरान यहूदियों का अमेरिका में बहुत दमन और उत्पीड़न किया गया. न्यूयौर्क और बोस्टन जैसे शहरी क्षेत्रों में यहूदियों को हिंसक हमलों का सामना करना पड़ा था. यहूदी विरोधी भावनाएं सामाजिक और राजनीतिक भेदभाव के तौर पर दिखाई देने लगीं. सिल्वर शर्ट्स और कू क्लक्स क्लान जैसे संगठनों की ओर से यहूदियों पर हमले किए गए, उन के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया गया और उन्हें डरानेधमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया. अमेरिका में 1950 तक यहूदियों को कंट्री क्लबों में प्रवेश नहीं दिया जाता था. उन्हें कालेज से बाहर निकाल दिया जाता था. उन को चिकित्सा की प्रैक्टिस नहीं करने दी जाती थी और बहुत से राज्यों में उन्हें कोई राजनीतिक पद नहीं दिया जाता था. कहने का तात्पर्य यह है कि जिन बातों को रोकने के लिए अमेरिका दुनिया के दूसरे देशों में अपनी फौजें ले कर पहुंचता रहा है,

उन समस्याओं से तो वह खुद भी ग्रस्त रहा और आज भी है. दुनियाभर को सभ्य बनाने का ठेका लेने वाले अमेरिका में कितनी असभ्यता व्याप्त है, यह कहने की जरूरत नहीं है. ग्लोबल वार्मिंग और अमेरिका आज अमेरिका दुनिया में सब से ज्यादा कूड़ा पैदा करने वाला देश है. और अपना कचरा वह या तो दूसरे देशों में फेंकता है अथवा नदी और समुद्रों में डाल कर उन्हें गंदा करता है. अमेरिका सब से अधिक प्रदूषण फैलाने वाला दुनिया में दूसरा देश है. जब प्रदूषण मुक्त होने की चर्चा किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर होती है तो उस चर्चा से वह खुद को दूर रखता है. खुद परमाणु बम रखने वाला अमेरिका उस वक्त बड़ी चिंता जताने लगता है जब कोई दूसरा देश परमाणु बम बना लेता है.

तब उसे विश्व समुदाय की चिंता होने लगती है. दरअसल, यह चिंता नहीं, बल्कि यह खुद आगे रह कर दूसरों को पीछे धकेलने की बीमारी है. इसीलिए दुनिया में 39 फीसदी देश अमेरिकी दबदबे को सार्वभौमिकता के लिए सब से बड़ा खतरा मानते हैं. तीसरे विश्व युद्ध की आहट इतिहास गवाह है कि जब भी कोई सुपर पावर कमजोर पड़ने लगता है तो एक ऐसा युद्ध होता है जो इंसानियत के लिए भयावह साबित होता है. अमेरिका वैश्विक रूप से कमजोर हो रहा है और चीन शक्तिशाली, ऐसे में आने वाले समय में अगर दुनिया किसी विश्व युद्ध की ओर जाती है तो इस में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इतिहास में जब स्पार्टा को एथेंस की शक्ति से खतरा महसूस हुआ, तब युद्ध हुआ. इस के बाद पहला विश्वयुद्ध तब हुआ जब ब्रिटेन और रूस जैसे देशों को जरमनी की शक्ति से खतरा महसूस होने लगा. और अब वैसी ही स्थितियां अमेरिका, रूस और चीन के बीच शुरू होने वाली हैं.

चीन का उभार पहले दुनिया में 2 बड़ी ताकतें थीं- अमेरिका और सोवियत संघ. बाद में जब सोवियत संघ टूट गया तो उस की ताकत भी छिन्नभिन्न हो गई. ऐसे में दुनिया में अमेरिका ही एकमात्र बड़ी शक्ति के रूप में बचा और उस ने अपनी शक्ति खूब बढ़ाई. उस का प्रभुत्व पूरी दुनिया में धीरेधीरे बढ़ने लगा. वह महाशक्ति के रूप में देखा जाने लगा. लेकिन उसे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ कि उस की नाक के नीचे दूसरी महाशक्ति यानी सोवियत संघ के खाली स्थान पर चीन ने अपनी नजरें गड़ा ली हैं. चीन ने धीरेधीरे अपनेआप को आर्थिक रूप से इतना मजबूत कर लिया कि वह अमेरिका के सामने दूसरी महाशक्ति के रूप में उभरने लगा और अमेरिका को चुनौती देने लगा. हालांकि, चीन की रणनीति अमेरिका की रणनीति से थोड़ी अलग है. अमेरिका जहां दूसरे देशों की धरती पर सिर्फ अपनी सैन्य मौजूदगी दर्ज करता है, वहीं चीन विकास और विस्तार की नीतियों पर काम कर रहा है.

वह इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के बहाने दूसरे देशों में घुसता है और फिर वहां सुरक्षा के नाम पर अपना सैन्य बंदोबस्त करता है. गौरतलब है कि ऐसा वह श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान और कई अन्य देशों में कर चुका है और लगातार कर रहा है. चीन सिर्फ अपनी सैन्य संख्या में ही दुनिया में सब से आगे नहीं है, बल्कि आर्थिक मामले में चीन इस वक्त दुनिया का केंद्रबिंदु बन चुका है. चीन से निकले कोरोना वायरस ने बीते 2 सालों में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी है. अमेरिका इस से अभी उबर नहीं पाया है, मगर चीन ने हैरतअंगेज तरीके से खुद को बहुत जल्दी दुरुस्त कर लिया है. इस वायरस के कारण अमेरिका और चीन के व्यापार में काफी तनाव आ चुका है. अमेरिका गुस्से से फुंफकार तो रहा है मगर ड्रैगन को डसने की हिम्मत उस में नहीं है.

आस्ट्रेलिया और भारत जैसे देश भी चीन से तनावपूर्ण स्थिति की वजह से व्यापारिक और आर्थिक रूप से कमजोर हो रहे हैं. चीन ने अपने देश को आर्थिक और व्यापारिक रूप से इतना ज्यादा मजबूत कर लिया है कि दुनिया के दूसरे तमाम देश चाह कर भी चीन से व्यापारिक रिश्ता तोड़ने की बात नहीं सोच सकते हैं. इस वक्त दक्षिणपूर्व एशिया के छोटे देशों में चीन का प्रभुत्व बढ़ रहा है. यहां तक कि चीन अब मध्य एशिया के देशों में भी दखल देने लगा है. वहीं रूस अपने आसपास के देशों पर अपना प्रभाव जमाने लगा है. भूमध्य सागर में भी रूस का दबदबा देखने को मिल रहा है.

चीन लगातार भारत को घेरने की भी कोशिश में है. इस कड़ी में चीन भारत के पड़ोसी देशों से बेहतर संबंध बनाने की कोशिश में है और श्रीलंका में उस की गतिविधियां चरम पर हैं. श्रीलंका में चीन अपनी विस्तारवादी नीति पर काम कर रहा है और भारत के लिए यह खतरे की घंटी है. वह तमिल मूल के लोगों को लुभाने की कोशिश में भी है. चीन अपनी कर्ज नीतियों के जरिए श्रीलंका में पहले से ही पैठ बना चुका है और अब वह भारतीय तट के नजदीक पहुंचने की हर संभव कोशिश में लगा है. उस ने श्रीलंका में अपना सैन्य अड्डा भी स्थापित कर लिया है.

चीन उत्तरी श्रीलंका में इकोनौमिक एक्टिविटी और प्रस्तावित इंफ्रास्ट्रक्चर डैवलपमैंट प्रोजैक्ट्स पर बहुत तेजी से काम कर रहा है जिस का बाद में रणनीतिक तौर पर फायदा उठाया जा सकता है और यह भारत के लिए चिंता का विषय है. इस से पहले श्रीलंका में चीन के प्रोजैक्ट्स दक्षिणी हिस्से तक ही सीमित थे, लेकिन अब गोताबाया राजपक्षे सरकार उत्तरी श्रीलंका में चीन को जगह दे रही है. श्रीलंका ने हंबनटोटा पोर्ट को 99 साल के पट्टे पर चीन को दिया हुआ है. श्रीलंका के साथ ही चीन सेशेल्स, मौरीशस, मालदीव, बंगलादेश, म्यांमार और पूर्वी अफ्रीकी देशों के साथ समुद्री संबंध बना कर पूरे हिंद महासागर क्षेत्र में अपने पंख फैला रहा है.

Top 10 Best Food Recipes in Hindi : टॉप 10 फूड रेसिपीज हिंदी में

Top Ten Food Recipe in Hindi:  इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आएं हैं, सरिता की Food Recipe in Hindi 2021. इन खास रेसिपी को आप अपने परिवार के साथ बनाकर एंजॉय कर सकते हैं. ये सभी रेसिपी आसानी से घर पर बनाने वाली है जो आपके परिवार को पसंद आएगी. आपका जब मन करें तब इस रेसिपी को ट्राई कर सकती हैं. तो अगर आपको भी बनाना हो टेस्टी खाना तो ट्राई करें Food  Recipe in Hindi

  1. मिर्च के बिना भी बना सकते हैं ये 8 टेस्टी रेसिपीज

बिना मिर्च के बन सकने वाली डिश साबुदाना खिचड़ी को मुख्यतया त्योहारों के दौरान बनाया जाता है. लेकिन इस के बेहतरीन स्वाद की वजह से लोग इसे कई दफा दोपहर के भोजन के तौर पर साबुदाना भी बना लेते हैं. बस, ये सही तरीके से भिगोया हुआ हो.

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2. 5 सुपर फूड: हेल्दी ब्रेस्ट के लिए इन चीजों को करें अपनी डाइट में शामिल

अच्‍छा खान पान स्तनों को स्‍वस्‍थ रख सकता है और स्तनों में पड़नी वाली गांठ से मुक्ति भी दिला सकता है. एक अच्‍छा आहार ही आपको सभी स्तन से संबंधित विकारों विशेष रूप से स्तन कैंसर से लड़ने में सहायता प्रदान कर सकता है. यहां पर स्‍वस्‍थ्‍य स्‍तनों के लिये आवश्‍यक पोषक तत्‍व वाले खाघ पदार्थ दिये हुए हैं.

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3. ऐसे बनाएं लसोड़े का अचार और सब्जियां

लसोड़े के फल में मौजूद प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, फाइबर, आयरन, फास्फोरस व कैल्शियम की प्रचुर मात्रा पाई जाती है. बहुत सी जगहों पर लसोड़े के फलों को सुखा कर चूर्ण बनाया जाता है, जिसे मैदा, बेसन और घी के साथ मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं.

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4. स्टफ्ड मसाला इडली बनाने का आसान तरीका

स्टफ्ड मसाला इडली बनाने के लिए सबसे पहले आलू को मैश करके या फिर कद्दूकस करें. इसके बाद एक पैन गर्म करें और उसमें ऑयल डालें. जब ऑयल गर्म हो जाए तो इसमें करीपत्ता डालें. इसके बाद इसमें प्याज डालकर दो मिनट के लिए फ्राई करें. अदरक−लहसुन पेस्ट डालकर मिक्स करें. अब इसमें हल्दी व नमक डालकर मिलाएं. आखिरी में इसमें कद्दूकस किए हुए आलू डालकर  लो फलेम पर करीबन एक मिनट के लिए पकाएं. लास्ट में कट्टा हुआ धनिया पत्ता मिलाएं.

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5. घर पर ऐसे बनाएं आम की चटनी, अचार और अमावट

 

अब इस में चीनी, नमक मिला दें. इसे गरम करें और जैम की भांति पकाएं. पकाते समय अन्य सामग्री को कपड़े में बांध कर डुबो दें और इस का रस भी निचोड़ लें. कद्दूकस फल को थोड़े से पानी में डाल कर गरम करें. इस से यह थोड़ा मुलायम हो जाएगा.

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6. बच्चों के लिए ऐसे बनाएं मैंगो टॉफी, मैंगो पल्प और मैंगो स्क्वैश

आम (मैंगो) एक ऐसा फल है, जो गरीब अमीर सभी की पहुंच में है. अधिक दिनों तक आम का मजा लेने के लिए प्रसंस्करण कर अनेक चीजें भी बनाई जाती हैं. आम में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. विटामिन सी भी अच्छी मात्रा में होता है. आम का प्रसंस्करण विभिन्न रूपों में होता है. जैसे स्क्वैश, जैम, टौफी, मुरब्बा, नैक्टर, रस, अचार, चटनी इत्यादि.

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7. घर पर ऐसे बनाएं सेब का मुरब्बा

 

सेब का मुरब्बा हम सभी जानते हैं कि सेब सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है, लेकिन सेब से भी ज्यादा उस का मुरब्बा सेहत से भरा होता है. दिल से जुड़ी बीमारियों से ले कर मानसिक तनाव, डिप्रैशन, स्ट्रैस, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा और भूलने की बीमारी को दूर करने वाला होता है. सेब स्कर्वी रोग को दूर करने के साथ एंटीएजिंग, कमजोरी दूर करने और असमय बाल सफेद होने को दूर करता है.

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8. ब्रेकफास्ट रैसिपीज : न्यूट्रीशियस बड़ा पाव

सुबह का ब्रेकफास्ट अच्छा हो तो पूरा दिन अच्छा बीतता है, ऐसे में रोज- रोज एक तरह के ब्रेकफास्ट से ऊब चुके हैं तो आप बड़ा पाव नाश्ते में ट्राई कर सकते हैं. तो आइए जानते हैं कैसे बनाएं हेल्दी ब्रेकफास्ट.

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9. छुट्टियों में उठाइए घूमने का मजा, इन डिशेज के साथ

छुट्टियों में सपरिवार घूमनेफिरने का मजा जरूर उठाइए. लेकिन पूरी तैयारी के साथ जाइए. हां, साथ में कुछ खानेपीने का सामान ले जाना न भूलें ताकि समय, बेसमय खानेपीने की दिक्कत पेश न आए. डबलरोटी, मक्खन, जैम, फल भरपूर मात्रा में साथ रखें. आप की सुविधा के लिए पेश हैं कुछ ट्रैवल व्यंजन.

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10. बारिश में लीजिए बाटीचोखे का मजा

बाटीचोखा के कारीगर विजय साहनी कहते हैं, “बाटीचोखा 2 अलगअलग चीजें होती हैं. बाटी गोलगोल गेहूं के आटे की बनी होती है. इस के अंदर चनेे का बेसन भून कर मसाला मिला कर भरा जाता है. “इस के बाद इसे आग में पका कर खाने के लायक तैयार किया जाता है. इस के साथ खाने के लिए चोखा दिया जाता है, जो आलू, बैगन और टमाटर से तैयार होता है.

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दिशा परमार ने मालदीव में मनाया पति राहुल वैद्य का जन्मदिन, देखें रोमांटिक फोटोज

एक्टर और सिंगर राहुल वैद्य 34 साल के हो गए हैं और वह अपनी पत्नी दिशा परमार के साथ अपना जन्मदिन मालदीव में मना रहे हैंं. इस बर्थडे सेलिब्रेश की खास तस्वीर सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रही है.

राहुल वैद्य के जन्मदिन पर बीबी दिशा परमार ने सफेद रंग की प्यारी सी टीशर्ट गिफ्ट की है. जिस पर हैप्पी बर्थ डे राहुल लिखा है. राहुल और दिशा की शानदार तस्वीर को लोग देखना खूब पसंद कर रहे हैं. यह दोनों काफी ज्यादा खुश नजर आ रहे हैं.

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राहुल वैद्य अपने आउटफिट में काफी ज्यादा प्यारे लग रहे हैं, वह फोटो क्लिक कराने के लिए शानदार पोज देते नजर आ रहे हैं. राहुल के इस तस्वीर को लोगों ने खूब पसंद भी किया है.

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पूल पार्टी के दौरान दिशा परमार ने पिंक रंग की बिकनी पहनी हुई है, दिशा परमार का यह लुक हर किसी का दिल जीत लिया है, दिशा के इस फोटो पर सोशल मीडिया पर खूब सारे कमेंट आएं हैं.

पूल पार्टी के दौरान दिशा और राहुल के चेहरे पर एक प्यारी सी स्माइल थी, जिसे देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह दोनों इस पार्टी के लिए काफी ज्यादा एक्साइटेड थें.

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वहीं राहुल वैद्या कुछ दिनों पहले ही खतरों के खिलाड़ी के कंटेस्टेंट के तौर पर दिखे थें, जिसकी शूटिंग के लिए पूरी टीम के साथ वह कैपटाउन गए थें. जहां राहुल वैद्य के परफॉर्मेंस को खूब पसंद किया गया था.

कुछ दिनों पहले राहुल और दिशा अपने घर में गणपति लेकर आएं थें, जिसके विसर्जन के बाद यह ट्रीप पर निकले हैं.

डायबिटीज और कैंसर के बीच है ये खतरनाक संबंध, आज ही हो जाएं अलर्ट

भारत में डायबिटीज यानी मधुमेह का मर्ज महामारी की तरह बढ़ रहा है. 2030 तक यह सब से बड़ा मूक हत्यारा बन सकता है. इस से भी खतरनाक बात यह है कि इस स्थिति, इस के लक्षणों और जोखिम कारकों के बारे में जागरूकता की बहुत कमी है. आईडीएफ डायबिटीज एटलस 2017 के अनुसार, देश में वर्ष 2017 में 7.29 करोड़ लोगों को डायबिटीज और वर्ष 2045 तक यह संख्या 13.43 करोड़ तक हो जाएगी. यह एक क्रोनिक कंडीशन है, जिस का यदि समय पर प्रबंधन व इलाज न किया जाए, तो यह कई तरह की जटिलताएं पैदा कर सकती है.

डायबिटीज और कैंसर

धूम्रपान को कैंसर के लिए सब से बड़ा जोखिम कारक माना जाता है. वहीं, अनुसंधान से संकेत मिला है कि जिन लोगों को डायबिटीज है या जो अधिक वजन वाले हैं, उन्हें भी कैंसर होने का खतरा बना रहता है. डायबिटीज और कैंसर 2 विषम, बहुसंख्यक, गंभीर और पुरानी बीमारियां हैं जिन के बीच दोतरफा संबंध हैं. अध्ययनों से पता चलता है कि कैंसर के मरीजों में शुरुआती ग्लूकोज असहिष्णुता और इंसुलिन के प्रति असंवेदनशीलता के सकेत मिलते हैं. हाइपरग्लाइसेमिया वाले लोगों में, कैंसर की कोशिकाओं को ग्लूकोज की पर्याप्त आपूर्ति होती है जो ट्यूमर को बढ़ावा दे सकती है. इस से 2 स्थितियों के बीच द्विपक्षीय संबंध होने का पता चलता है- कैंसर हाइपरग्लाइसेमिया को जन्म दे सकता है, और हाइपरग्लाइसेमिया ट्यूमर की वृद्धि को बढ़ा सकता है.

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डायबिटीज के साथ कैंसर होने पर डायबिटीज का नियंत्रण अधिक कठिन बन सकता है. इन स्वास्थ्य स्थितियों के बीच संबंध होने का एक संभावित कारण यह भी है कि इंसुलिन का उच्चस्तर यानी हाइपरइंसुलिनेमिया ट्यूमर के विकास को बढ़ावा दे सकता है. एक और कारण यह है कि एक गतिहीन और अस्वास्थ्यकर जीवनशैली से बीएमआई में वृद्धि हो सकती है यानी मोटापा बढ़ता है. ऐसी स्थिति में डायबिटीज और कुछ प्रकार के कैंसर होने का खतरा बना रहता है.

टाइप 2 डायबिटीज से निम्न प्रकार के कैंसर होने की संभावना दोगुनी हो जाती है- पेंक्रिएटिक कैंसर, लिवर कैंसर, एंडोमेट्रियल या गर्भ कैंसर. निम्न प्रकार के कैंसर का भी 20 से 50 प्रतिशत तक जोखिम रहता है- कोलोरेक्टल कैंसर, ब्लैडर कैंसर, स्तन कैंसर और रक्त कैंसर (नौन-हौजकिंस लिंफोमा).

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Diabetes and Cancer

कुछ सामान्य जोखिम कारक

टाइप 2 डायबिटीज और कैंसर के बीच कुछ सामान्य जोखिम कारक हैं, जिन्हें आगे संशोधित व गैरसंशोधित रूप से वर्गीकृत किया गया है.

संशोधित जोखिम कारक

  1. आयु : जब आप बड़े हो जाते हैं तो टाइप 2 डायबिटीज और कैंसर दोनों का खतरा बढ़ जाता है.
  2. लिंग : कुल मिला कर पुरुषों में कैंसर अधिक होता है. महिलाओं की तुलना में पुरुषों को डायबिटीज का जोखिम भी थोड़ा अधिक होता है.

गैरसंशोधित जोखिम कारक

  1. अधिक वजन : शरीर का वजन अधिक होने पर टाइप 2 डायबिटीज और कुछ प्रकार के कैंसर होने का खतरा बढ़ सकता है.
  2. निष्क्रियता :  शारीरिक गतिविधि अधिक होने पर टाइप 2 डायबिटीज और कुछ प्रकार के कैंसर का खतरा घट जाता है.

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  1. धूम्रपान :  यह कई प्रकार के कैंसर से जुड़ी हुई आदत है. अध्ययनों से पता चलता है कि टाइप 2 डायबिटीज के विकास के लिए धूम्रपान एक बड़ा जोखिम कारक है.
  2. शराब : महिलाओं में प्रतिदिन1 पैग से अधिक और पुरुषों में 2 पैग से अधिक शराब का सेवन होने पर डायबिटीज और कैंसर दोनों का जोखिम बढ़ जाता है.

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डायबिटीज पीडि़त महिलाएं और कैंसर

टाइप 2 डायबिटीज वाली महिलाओं में स्तन और एंडोमेट्रियल कैंसर होना आम बात है. डायबिटीज और कैंसर दोनों के लिए एक और खतरा मोटापे या अधिक वजन से है. इसलिए डायबिटीज वाली महिलाओं में ग्लूकोज का प्रभावी नियंत्रण होना महत्त्वपूर्ण है. कुछ दवाएं, जैसे गर्भनिरोधक गोलियों को सुरक्षित माना जाता है क्योंकि वे कुछ कैंसर जैसे गर्भाशय और ओवेरियन कैंसर के खतरे को कम करती हैं.

कैंसर का उपचार और डायबिटीज नियंत्रण

कैंसर के इलाज हेतु ली जाने वाली दवाएं, जैसे ग्लूकोकोर्टिकोइड्स और कीमोथेरैपी से ब्लडशुगर के स्तर को नियंत्रित करने में मुश्किल हो सकती है, खासकर भोजन के बाद. इसलिए, कीमोथेरैपी को कम करना जरूरी हो सकता

है. यह भी हो सकता है कि ग्लूकोकौर्टिकोइड्स और स्टेरौयड की बड़ी खुराक के बजाय छोटी खुराकें दी जाएं. एक और समस्या यह है कि डायबिटीज से ग्रस्त लोगों में उलटी होने की वजह से आहार व ग्लूकोज को कम करने वाली दवाओं के बीच एक बेमेल पैदा हो सकता है.

डायबिटीज आजकल एक सामान्य कंडीशन है. इस के लक्षणों के बारे में जागरूकता की कमी और अन्य जटिलताओं के कारण इस का समय पर उपचार व प्रबंधन कठिन हो सकता है. डायबिटीज के प्रबंधन के लिए पहली जरूरत यह है कि सप्ताह में 5-6 दिन रोज एक घंटा नियमित व्यायाम किया जाए. तैराकी, टैनिस, एरोबिक्स जैसा किसी भी प्रकार का व्यायाम फायदेमंद हो सकता है. बुजुर्ग रोगियों या घुटने की समस्या वाले लोग टहलने या ऊपरी शरीर का व्यायाम कर सकते हैं. डायबिटीज वाले व्यक्ति के लिए निश्चित प्रकार का आहार लेना जरूरी नहीं है. डाक्टर प्रत्येक व्यक्ति की कैलोरी की जरूरत के अनुसार आहार को घटा या बढ़ा सकते हैं. हालांकि, एक स्वास्थ्य और संतुलित भोजन करने से शुगर का स्तर एकाएक बढ़ने पर काबू पाया जा सकता है. जंक फूड से बचना चाहिए और धूम्रपान नहीं करना चाहिए.

यह महत्त्वपूर्ण है कि कैंसर के उपचार के दौरान डायबिटीज को नियंत्रण में रखा जाए. कैंसर और उस का उपचार शरीर के मैटाबोलिज्म में ऐसे परिवर्तन करता है जो डायबिटीज के लक्षणों को बढ़ा सकते हैं. इस के अलावा, डायबिटीज के कारण रक्त शर्करा का स्तर बढ़ने से शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो सकती है, जबकि उसे कैंसर से लड़ने के लिए मजबूत होना चाहिए.

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संक्रमण का जोखिम

इसी तरह, डायबिटीज कैंसर के उपचार में संभावित रूप से विलंब कर सकता है या उपचार के दौरान संक्रमण के जोखिम को बढ़ा सकता है. चिकित्सक उम्र और आवश्यकता के अनुसार डायबिटीज के लिए दवाएं निर्धारित करते हैं. 3 महीने में एक बार रक्त शर्करा का परीक्षण कराना महत्त्वपूर्ण है. जिन लोगों को डायबिटीज नहीं है उन्हें हर साल एक बार पूरे शरीर की जांच करानी चाहिए. डायबिटीज एक साइलैंट किलर है और केवल अच्छे प्रबंधन से ही इस की जटिलताओं से बचा जा सकता है.

जरूरी बातें

  • –       नियमित अंतराल पर परीक्षण करवाएं. जैसे कि पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर के लिए और महिलाओं में नियमित पैप स्मीयर के लिए.
  • –       सप्ताह में कम से कम 5 दिनों के लिए नियमितरूप से शारीरिक गतिविधि में हिस्सा लें और स्वस्थ आहार लें, ताकि रक्त शर्करा का स्तर नियंत्रण में रहे.
  • –       वजन को काबू में रखें और बीएमआई को उचित स्तर पर रखें. ऐसा इसलिए क्योंकि अधिक वजन और मोटापे से डायबिटीज व कैंसर दोनों का खतरा
  • रहता है.
  • –       समय पर टीकाकरण करवाएं, उदाहरण के लिए, एचपीवी वैक्सीन सर्वाइकल कैंसर को रोकने में मदद कर सकता है.
  • –       सुनिश्चित करें कि आप सुरक्षित यौन आदतों को समझते हैं और उन का अनुसरण करते हैं. कई सहयोगियों से यौन संसर्ग करने से बचें और पर्याप्तरूप से सुरक्षा का उपयोग करें. साथ ही, स्वच्छता बनाए रखें.

– डा. संजय कालड़ा

 (लेखक भारती अस्पताल, हरियाणा के करनाल में एंड्रोकाइनोलौजिस्ट हैं.)   

हिंसक बच्चों को चाहिए मनोवैज्ञानिक सलाह, वरना हो सकता है नुकसान

क्या आपका बच्चा अपने साथी बच्चों से मारपीट, दांत काटने जैसी हरकतें करता है? गुस्से में आप (माता-पिता), नौकर, बड़े भाई-बहनों से भी मारपीट शुरू कर देता है? हर बात में जिदबाजी करता है?    अगर हां, तो उसे तुरंत मनोचिकित्सक के पास ले जाएं.

‘‘कुछ समय पहले एक बच्ची ‘नेहा’ के अभिभावक मेरे पास आए थे. नेहा बेहद हिंसक प्रवृत्ति की थी. पहले वह साथ खेलते बच्चों को पीटती थी बाद में घर के नौकरों, बड़े भाई और माता-पिता को भी उसने मारना शुरू कर दिया. हर बात में जिद करती, कोई उस की बात नहीं सुनता, तो दांत काट लेती थी. घर वालों की हरसंभव कोशिश के बाद भी जब नेहा सुधरी नहीं, तो किसी की सलाह पर उसके अभिभावक उसे लेकर मेरे पास आए. इतनी छोटी बच्ची से बात करना और उस के मन का हाल समझना मेरे लिए बड़ा मुश्किल था पर मात्र 4-5 सिटिंग में ही मैं ने उसे पूरी तरह ठीक कर दिया और अब नेहा बिलकुल ठीक है,’’ यह बताते हैं विम्हांस के प्रमुख मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉक्टर जितेंद्र नागपाल.

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बच्चों में पनपती हिंसात्मक प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार कौन है? यह पूछे जाने पर जितेंद्र नागपाल का कहना है, ‘‘हिंसा के लिए तीन-चौथाई दोषी मैं उनके माता-पिता और पारिवारिक माहौल को मानता हूं. बाकी 25 प्रतिशत फिल्में,टेलीविजन और आपका आतंकवादी माहौल जिम्मेदार है.

‘‘सब से बड़ी बात है कि अभिभावक अपने बच्चों की हिंसात्मक प्रवृत्ति को छिपाते हैं या अपने स्तर पर ही समझा-बुझा कर मामला रफादफा करना चाहते हैं. वह यह मानने को कतई तैयार नहीं होते कि उन का बच्चा किसी मानसिक रोग से पीडि़त है और उसे मनोचिकित्सक की सलाह की जरूरत है, जबकि बच्चों में पनपती इस हिंसा को रोकने के लिए उन्हें मनोचिकित्सा की जरूरत होती है. दंड देना या जलील करना उन्हें और ज्यादा आक्रामक बना जाता है.

‘‘सामाजिक हिंसा और उस से पड़ने वाला असर भी बच्चों को आक्रामक बनाता है. समाज में फैली जातिवाद की भावना, अमीरी-गरीबी का भेद,बच्चों की अंतरात्मा को छलनी कर देता है. दूसरों के द्वारा महत्त्वहीन समझा जाना उसमें एक प्रकार की हीन भावना भर जाता है जो उसके हिंसक बनने का मूल कारण बनता है.

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‘‘गरीब, बेघर, समाज द्वारा दुत्कारे बच्चों में समाज के प्रति एक तरह का आक्रोश पैदा हो जाता है. यही आक्रोश हिंसा के द्वारा बाहर जाहिर होता है. हर क्षण अपने अस्तित्व को साबित करने की लड़ाई ज्यादातर आक्रामक साबित होती है.

‘‘शारीरिक और स्वभावगत कठिनाइयां, बनते-बिगड़ते बंधन या रिश्ते, पारिवारिक कलह, अभिभावकों का बच्चों के साथ असामान्य व्यवहार बच्चे के स्वभाव में अस्थिरता ला देता है. बच्चे के साथ दुर्व्यवहार  जिसमें शारीरिक यातना, यौन उत्पीड़न, उपेक्षा, भावनात्मक उत्पीड़न आदि कई प्रमुख कारण पाए गए हैं ऐसे युवाओं में जिन्होंने बालपन में या किशोरावस्था में हत्याएं की हैं या हिंसक अपराध किए हैं. इस हिंसा का सब से दर्दनाक मूल्य इनसानी जान से हाथ धो बैठना है. इस के साथ ही इतनी कम उम्र में बच्चों का आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो जाना, ड्रग्स की खरीदफरोख्त या उन का सेवन, हथियार रखना व अन्य कई तरह के आपराधिक मामलों में शामिल हो जाते हैं या फिर स्थानीय गुंडों की शागिर्दी में आ कर गलत काम करते हैं.

‘‘पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर बाल अदालतें, इन्हें अवयस्क होने के कारण सजा न दे कर सुधरने के लिए सुधार गृहों में भेजती हैं. सुधार गृहों की भयानक स्थिति में ऐसे बच्चे और अधिक आक्रोश में आ कर बड़े अपराधी बन जाते हैं.

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‘‘अपराध करने वाले इन बाल अपराधियों को सुधारघरों में समाज से अलग कर के सुधारा जाना संभव नहीं है. इन्हें सुधारने के लिए इन की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा अति आवश्यक है. वयस्कों में भी हिंसक प्रवृत्ति होने के मनोवैज्ञानिक कारण ही होते हैं फिर बच्चे तो बच्चे ही हैं. वे अपनी मानसिक कमजोरी के चलते ही हिंसक हो उठते हैं अपराध हो जाने के बाद ही वे समझ पाते हैं कि उन से कोई भयंकर भूल हो गई है.’’

डॉक्टर नागपाल का कहना है, ‘‘12 साल का बच्चा यदि किसी का खून कर रहा है या किसी और अपराध में शामिल है तो इस का यह अर्थ कदापि नहीं है कि यह हिंसक भावना उस में अचानक ही आ गई है. ऐसी सोच उस में बचपन से ही होती है. उपेक्षित बच्चे, मांबाप या रिश्तेदारों का ध्यान आकर्षित कर के व अधिक लाड़- चाव वाले बच्चे हठधर्मिता के द्वारा अपनी बात मनवाना जानते हैं.’’

यदि बच्चा हिंसक हो रहा है तो उसका कारण जानने का प्रयास करें. उसे वक्त दें. उस की बात सुनें. उसे अहसास दिलाएं की वह कीमती है, फुजूल नहीं. उसकी सोच को भटकने न दें. व्यक्तित्व में स्थिरता लाने का प्रयत्न करें. फिर भी यदि बच्चा आपके नियंत्रण में नहीं आता है तो किसी अच्छे मनोचिकित्सक से सलाह अवश्य लें.

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