टैलीविजन पर अकसर प्रसारित होने वाले मसालों के एक विज्ञापन में आज के नए जमाने की बहू रेसिपी जानने के लिए अपनी सास को टैलीफोन कर कहती है, ‘‘मांजी, आज छोले बनाने हैं, कौनकौन से मसाले डालने हैं?’’ उधर से सास बहू को ढेरों मसालों के नाम गिनवा डालती है. शाम को जब पति घर आता है और छोले की खुशबू उस के नथुनों से टकराती है तो वह सीधा किचन की तरफ खिंचा जाता है और कड़ाही में उंगली डाल कर फिर उसे चाटता है और फौरन इधरउधर निगाहें घुमा कर बीवी से पूछता है, ‘‘मां आई हैं क्या?’’ बीवी हंस कर कहती है, ‘‘नहीं, यह तो फलां मसालों का कमाल है.’’

विज्ञापन का उद्देश्य बेशक किन्हीं विशेष ब्रैंड के मसालों की पब्लिसिटी करना हो, लेकिन विज्ञापन का आशय यह है कि मां के हाथों के बने खाने का जवाब नहीं होता और एक बेटा हमेशा अपनी मां के हाथों के बने खाने का दीवाना होता है. इस बारे में मशहूर शैफ संजीव कपूर कहते हैं, ‘‘जनाब, मां के हाथ के खाने का न कोई जोड़ है, न कोई तोड़. ऐसा इसलिए क्योंकि जब एक मां अपनी औलाद के लिए खाना बनाती है तो उस में उस की ममता, दुलार, स्नेह, लगाव सबकुछ समाया होता है. वह जब सामने बिठा कर अपने बच्चों को भोजन खिलाती है, उसे असीम खुशी मिलती है.’’

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कहावत है कि अपने बच्चों को भोजन करते देखने मात्र से ही मां का पेट भर जाता है. जिस दिन बेटा या बेटी एक निवाला भी कम खाते हैं, मां तुरंत चिंतित हो कर पूछती है, आज खाना अच्छा नहीं बना क्या? एक पुरुष की नजर में उस की मां दुनिया की सब से बेहतरीन कुक होती है. उस के हाथ के खाने में जो स्वाद होता है वह कहीं और नहीं मिलता. दरअसल, ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि जब आप मां के हाथ का खाना खा रहे होते हैं तो बेफिक्री के साथ खा रहे होते हैं. आप पर कोई दबाव नहीं होता. जबकि खाना खाते समय भी पत्नी सिर पर सवार हो कर भोजन की तारीफ सुनने को बेताब रहती है और बीचबीच में बिजली के बिल, बच्चों की ट्यूशन की फीस आदि की भी याद दिलाती रहती है जिस से खाने का मजा किरकिरा हो जाता है.

ऐसा नहीं है कि वास्तव में दुनिया की हर मां बहुत स्वादिष्ठ खाना पकाना जानती हो लेकिन 100 में से 99 पुरुषों को अपनी मां परफैक्ट कुक नजर आती है. ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकतर पुरुष भावनात्मक रूप से अपनी मांओं से इतने गहरे जुड़े होते हैं कि उन के जीवन में किसी भी दूसरी औरत से ज्यादा मां की भूमिका होती है. गायक सोनू निगम अपनी मां के हाथों के बने खाने के दीवाने हैं. वे कहते हैं ‘‘मां के हाथों की बनी अरबी की सब्जी से मैं एक वक्त में 20 रोटियां खा सकता हूं.’’ वहीं अभिनेता तुषार कपूर कहते हैं, ‘‘दुनिया घूम आने के बाद जिस तरह मां के पास सुकून व आराम मिलता है, वैसे ही दुनियाभर का खाना खा लो मगर पेट वास्तविक तौर पर तभी भरता है जब मां खाना बना कर खिलाती है. खाने के बारे में जिस प्रकार के टिप्स मेरी मां मुझे आदेश करती मैं उन का पालन करता हूं.’’

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एक कहावत आम है कि आदमी के दिल का रास्ता उस के पेट से हो कर जाता है. लेकिन यह मां पर लागू नहीं होती. अकसर प्रेमिकाएं और पत्नियां अपने साथी के दिल तक पहुंचने के लिए उन के पेट का ही रास्ता चुनती हैं. वे इस में कितनी कामयाब होती हैं, यह कहना मुश्किल है. दुनियाभर में संबंधों को ले कर हुए तमाम सर्वेक्षण इस बात की गवाही देते हैं कि पतिपत्नी के बीच होने वाले झगड़ों की जड़ में 30-35 प्रतिशत वजहें खाने को ले कर होती हैं. आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि स्वादिष्ठ से स्वादिष्ठ खाना बनाने वाली औरत भी अपने पति को स्वाद के मामले में संतुष्ट नहीं कर पाती. वह हमेशा पत्नी के खाने की तुलना अपनी मां के खाने से करता है. उस समय स्थिति बेहद असमंजस वाली होती है जब औरत के एक ही खाने में उस का पति नुक्स निकाल देता है और बेटा वही खाना बड़े चाव से खा रहा होता है.

उधर, मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि यह एक मानसिक स्थिति है, इस का खाने के स्वाद से कोई लेनादेना नहीं होता बल्कि इस की असली वजह पुरुषों का अपनी मां के साथ लगाव और जुड़ाव होता है. यह वह स्थिति है जिस में स्वादिष्ठ से स्वादिष्ठ व्यंजन बनाने वाली औरत भी उस की मां का स्थान नहीं ले सकती. आमतौर पर जब 2 औरतें मिलती हैं तो इस विषय पर अवश्य चर्चा होती है कि कुछ भी बनाऊं, इन्हें पसंद ही नहीं आता. ऐसे में बेचारी पत्नियां अपने हाथों का जायका बढ़ाने के लिए कुकिंग क्लासेज तक जौइन करने से पीछे नहीं हटतीं. वहां वे जो कुछ सीखती हैं, हर रोज उसे घर पर आ कर खुशीखुशी अपने पति के लिए तैयार करती हैं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

भावनात्मक जुड़ाव

पति का जवाब बस इतना ही होता है, ‘हां ठीक बना है.’ कई बार तो पति अपनी पत्नी को सलाह देते हैं कि अगर सीखना है तो अपनी सास से सीखो कि खाना कैसे बनाया जाता है. कई बार सासबहू के बीच नफरत और तकरार की जड़ में यही कारण छिपा होता है कि आखिर उन के हाथ में उन की सास वाला स्वाद कब और कैसे आएगा. बेशक वे सास से बढि़या खाना क्यों न बनाती हो लेकिन खाने की टेबल पर उन की सास ही छाई रहती हैं. ऐसा शहरों और गांवों हर जगह देखा जा सकता है. गांवों का एक नजारा जब वहां किसी बड़े से कच्चे घर के आंगन में चूल्हे में लकडि़यां जला कर एक मां रोटियां सेंकती है और बच्चों को गरमगरम परोस रही होती है, तब उस का एक ही मतलब होता है, रोटी और बच्चों की भूख. हर घर की यही कहानी है. बच्चे होश संभालते ही अपनी मां की तकरीबन हर गतिविधि से बहुत गहरे तक जुड़ जाते हैं. बच्चे जब खाना खाते हैं तो उन के हर निवाले के साथ मां का दुलार शामिल होता है. लड़के, क्योंकि खाने के मामले में पूरी तरह अपनी मां पर निर्भर होते हैं, इसलिए लड़कियों के मुकाबले उन में मां के प्रति यह स्नेह बहुत तेजी के साथ लगाव का काम करता है. वहीं, लड़कियां थोड़ी बड़ी होने पर खाना बनाने व परोसने में मां का हाथ बंटाने लगती हैं इसलिए जैसेजैसे वे बड़ी होती हैं खाने के मामले में मां पर उन की निर्भरता कम होने लगती है. दूसरी तरफ बेटियों को बचपन से ही यह पढ़ाया जाता है कि एक दिन उसे अपने ससुराल जा कर अपने पति का घर संभालना है, इसलिए मां और घर के साथ उस का रिश्ता भावनात्मक रूप से लड़कों के मुकाबले कम होता है. जबकि बेटों को पता होता है कि उन्हें हमेशा मां के साथ ही रहना है, इसलिए मां के लिए उन की अनुभूतियां पूरी तरह स्थायी होती हैं. इस के पीछे यही मनोविज्ञान काम करता है.

यह मनोविज्ञान दुनिया के किसी एक कोने में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में काम करता है. टैलीविजन पर आने वाले एक धारावाहिक में मुख्य नायक की भूमिका निभा रहे अनस खान कहते हैं, ‘‘मैं ऐक्टिंग में आने से पहले भोजन व्यवसाय से जुड़ा रहा और एक अच्छा कुक भी हूं लेकिन मां के खाने में अनोखा स्वाद कहां से आता है, यह कोई नहीं बता सकता.’’ ऐसे में स्वाद के महत्त्व को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है. तभी तो जहां किसी एक देश से कोई खास शाही मेहमान किसी दूसरे देश के दौरे पर जाता है तो उसे उस देश के हर स्वाद का मजा चखा कर उसे खुश करने की कोशिश की जाती है. मगर मां का स्वाद, बस, मां के हाथों ही.

मां ने लड्डू भेजे हैं…

फिल्मों के व अपने आसपास के उन दृश्यों को याद कीजिए जिन में एक बेटा जब नौकरी या पढ़ाई के लिए घर से दूर जा रहा होता है, तब मां नम आंखों से उस के सामान में अपने हाथों से देसी घी के बने लड्डुओं का डब्बा रखते हुए बेटे को ताकीद करती है कि बेटा, तेरी पसंद के लड्डू हैं, खाना मत भूलना. यहां तक कि जब वह दूर रह रहे बेटे से फोन पर बात करती है तब भी उस का पहला सवाल यही होता है, ‘खाना तो ठीक ढंग से खा रहा है न, बेटा. समय पर खाया कर, आदि.’ ऐसे नजारे होस्टलों में आम होते हैं. जब कोई रूममेट अपने घर से छुट्टियां मना कर लौटता है और साथ में मां के हाथों की गुझिया, मट्ठी, बर्फी या फिर लड्डू लाता है. जैसे ही उस के दोस्तों को इस की भनक लगती है तो छीनाझपटी तक शुरू हो जाती है.

वैसे मां आमतौर पर यह जुमला जरूर कहती है कि अपने दोस्तों को भी जरूर चखा देना, लेकिन अकसर मां के हाथों की ये चीजें, बैड के नीचे, अलमारी अथवा मचान पर दोस्तों से छिपा कर रखी जाती है. फिर दोस्त सूंघतेसूंघते वहां तक पहुंच ही जाते हैं. बौर्डर पर जब कोई मां अपने बेटे के लिए गांव से बेसन या तिल के लड्डू भेजती है तब नजारा देखने लायक होता है. बेटे को मुश्किल से ही उस का स्वाद चखने को मिलता है. जैसे खीर, गाजर का हलवा, अचार, सूजी की बर्फी, बेसन के लड्डू और गूझिया आदि पर तो बस जैसे मां के स्वाद के नाम का ही ठप्पा लगा है.

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