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Holi Special: होली में रंग खेलने के लिए क्या पहनें

होली के त्योहार में हम रंग तो खेलते हैं पर रंगों से न सिर्फ बालों और स्किन को बचाने की जरूरत होती है बल्कि कपड़ों को भी खराब होने से बचाना पड़ता है. कपड़ों से रंग को हटाना मुश्किल तो होता ही है साथ ही रंग में मौजूद केमिकल कपड़ों को खराब कर उन्हें बदनुमा बना देते हैं. ऐसे में जरूरी है होली खेलने के लिए सही कपड़ों का चुनाव किया जाए. ज्यादातर लोग होली आते ही पुराने कपड़ों की तलाश में लग जाते हैं ताकि उनके नए कपड़े खराब न हों. यह एक अच्छा तरीका है कपड़ों को रंगों से बचाने का, लेकिन आजकल होली पर भी फैशनेबल और स्टाइलिश दिखने का ट्रेंड है. तो आइए जाने होली के दिन क्या पहने क्या न पहने…

क्या पहनें

लोग होली के लिए खासतौर पर सफेद रंग के कपड़े पहनते हैं क्योंकि वाइट कलर में अन्य रंग खिलकर आते हैं. लेकिन अगर आप सफेद रंग के कपड़े नही पहन रहे हैं तो होली के रंगों से बचने के लिए पुराने कपड़े पहनें ताकि उनके खराब होने का दुख न हो. कोई भी त्यौहार ट्रैडिशनल या एथनिक लुक में ही अच्छा लगता है. इसलिए इस बार होली पर आप एथनिक थीम रख सकती हैं.

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2- आप चाहे तो कुछ वैसा गेटअप ले सकती हैं, जैसा ऐक्ट्रेस रेखा ने ‘रंग बरसे’ गाने में लिया था. चिकनकारी कुर्ते और लैगिंग्स के साथ रंग खेलने का मजा दोगुना हो जाएगा. कुर्ते के साथ स्कार्फ या दुपट्टा भी आप कैरी कर सकती हैं.

3- होली रंगों का त्यौहार तो फिर क्यों न इस मौके पर कपड़ों के साथ भी एक्सपेरिमेंट किया जाए ? होली पर आप चटख रंगों के कपड़े, जैसे सलवार-कुर्ता या फिर वेस्टर्न आउटफिट्स कैरी कर सकती हैं.

4- होली पर कपड़ों के चुनाव के साथ यह जानना भी जरूरी है कि इस त्यौहार के लिए कौन-सा फैब्रिक सही है. कौटन फैब्रिक को होली खेलने के लिए सबसे सही मटीरियल माना जाता है. चाहे कितनी भी तेज धूप या गर्मी हो, कौटन ठंडक का एहसास कराता है. खास बात यह है कि यह फैब्रिक शरीर में चुभता भी नहीं है.

5- स्टाइलिश दिखना चाहती हैं तो फिर आप टौप या कुर्ते को प्लाजो या शार्ट्स के साथ पहन सकती हैं. आजकल कुर्ते के साथ धोती पैंट पहनने का भी खूब चलन है.

6- साड़ी होली पर पहनने वाला सबसे बेहतरीन परिधान है. साड़ी में आप ऐसा महसूस कर सकती हैं, जैसे रंगों से सराबोर कोई फिल्मी नायिका. लेकिन ध्यान रहे कि आपको साड़ी ठीक से और आत्मविश्वास से कैरी करनी होगी क्योंकि एक बार भींगने के बाद यह शरीर से चिपकने लगती है.

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क्या न पहनें

होली खेलने के लिए जो कपड़े पहनें ध्यान रहे कि वे ज्यादा टाइट या शरीर से चिपकने वाले न हों. ऐसे में ये आपको भद्दा लुक तो देंगे ही साथ ही इरिटेशन भी पैदा कर देंगे. डीप नेकलाइन पहनने से बचें. हाफ स्लीव्स का कोई भी आउटफिट न पहनें. स्कर्ट पहनने से बचें, नहीं तो परेशानी में फंस सकती हैं.

लता मंगेशकर: गूंजती रहेगी स्वर कोकिला की आवाज

जीवन के हर रंग की आवाज बनीं लता मंगेशकर भले ही अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उन की सुमधुरता सदियों तक गूंजती रहेगी. रविवार के दिन की तारीख 6 फरवरी, 2022 देशदुनिया के इतिहास के पन्ने में जुड़ गई. इसी के साथ इतिहास के पन्ने में वह नाम भी दर्ज हो गया, जिस की आवाज आने वाली पीढि़यों तक सुनी जाती रहेगी. सर्द सुबह में चाय का प्याला थामे, मार्निंग वाक करते, छुट्टी के दिन प्लान बनाते, या रोजमर्रा के कामकाज से कुछ पल आराम करते हुए अनगिनत लोग हों, या फिर हाटबाजार में अपनी दिनचर्या पर निकल पड़े मेहनतकश. जिन्होंने भी लता मंगेशकर के निधन की खबर सुनी स्तब्ध रह गए.

पलभर के लिए लगा, जैसे कुछ पल थम गया. एक शून्य आ गया. एफएम रेडियो पर आ रही मधुर आवाज थरथरा उठी. उस संगीत से साजों के म्यूजिक से महीन आवाज अलग होने की कोशिश करने लगी.

लता मंगेशकर की वह भारतीय संस्कृति में रचीबसी विशुद्ध आवाज थी, जिस बारे में शायर गुलजार की लिखी चंद पंक्तियां हैं— मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे…

विश्व के उपमहाद्वीप में 8 दशक की पीढि़यों को संगीत की सुमधुरता की अनुभूति करवाने वाली लता मंगेशकर अपने 30 हजार फिल्मी, गैरफिल्मी गीतों के माध्यम से हर स्त्री की न सिर्फ एक अनूठी आवाज बन गईं, बल्कि उन्होंने उन्हें संपूर्णता के प्रति प्रेरित भी किया. शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिस ने लता मंगेशकर के गानों को गुनगुनाया या गाया न हो.

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लताजी को यह मुकाम यूं ही नहीं मिल गया. यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने न सिर्फ कड़ी मेहनत की, बल्कि कई समस्याओं का भी सामना किया.

लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर,1929 को पंडित दीनानाथ मंगेशकर के घर हुआ था. वह उन की दूसरी पत्नी शेवंती की  संतान थीं. उन्होंने पहली पत्नी नर्मदा के निधन के बाद उन की छोटी बहन शेवंती से शादी की थी. लता उन की सब से बड़ी संतान थीं. लता मंगेशकर का नाम पहले हेमा था. बाद में उन्होंने अपने नाटक भावबंधन के लोकप्रिय किरदार लतिका के नाम पर लता रख दिया था.

कोई उन्हें स्वर कोकिला कहता है, तो किसी ने सुर साम्राज्ञी की उपाधि दी थी. वैसे उन्हें ज्यादातर लोग प्यार से ‘लता दीदी’ ही बुलाते थे. उन की मां येसुबाई देवदासी समुदाय की एक कुशल गायिका थीं.

पुर्तगाल भारत (अब गोवा) की सब से प्रसिद्ध मंदिर गायिका और नर्तकियों में से एक थीं. परिवार में लता से छोटी बहनें मीना, आशा (भोसले), ऊषा और भाई हृदयनाथ हैं.

यही नहीं उन के परिवार का उपनाम भी हर्दिकर से बदल कर मंगेशकर हो गया. ऐसा उन्होंने अपने पैतृक गांव मंगेशी से जुड़ाव बनाए रखने के कारण किया. इलाके में दीनानाथ मंगेशकर की एक खास पहचान थी. वह मराठी के जानेमाने शास्त्रीय गायक थे. लोग उन से शास्त्रीय संगीत सीखने आते थे.

वह जब शिष्याओं को संगीत के रागों को सिखाते तो 4-5 साल की उम्र में लता अपने पिता को टकटकी लगाए देखा करती थीं. जब पिता नहीं होते तब उन की तरह ही गुनगुनाया करती थीं.

लता की प्रतिभा को पहचान कर पिता ने उन्हें संगीत नाटक में अभिनय और गायन करने के लिए मंच पर उतार दिया था. तब उन की उम्र महज 5 साल थी. बाद में उन्होंने अमान अली खां साहब और अमानत खां से संगीत की विधिवत तालीम ली थी.

लता मंगेशकर जब 9 साल की थीं, तब पहली बार अपने पिता के साथ स्टेज पर गाने का मौका मिला था. उन्होंने राग खंबामती गाया था. फिल्मों में गाने के बारे में लता का कहना था कि उन के पिता फिल्मों में गाना गाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन 1942 में अपने एक दोस्त की गुजारिश पर वे तैयार हो गए थे.

इस तरह से लता ने पहली बार मार्च 1942 में एक मराठी फिल्म में गाना गाया था. उन के करियर का पहला गाना ‘नाचु या गाड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी’ रिकौर्ड किया गया था. हालांकि गाना रिकौर्ड होने के बावजूद फिल्म नहीं बन पाई और उस के एक महीने बाद ही दीनानाथ मंगेशकर का निधन हो गया था.

उस समय परिवार चलाने की जिम्मेदारी किशोरी लता मंगेशकर पर आ गई. ऐसे वक्त पर उन्हें फिल्म निर्देशक मास्टर विनायक का सहारा मिला. वह अभिनेत्री नंदा के पिता थे. उन की बदौलत ही लता की आगे की राहें बनती चली गईं.

लता ने भले ही 1942 में 13 साल की उम्र में फिल्मों में गाना शुरू कर दिया था, लेकिन वह 1948 में ‘मजबूर’ फिल्म के सफल प्रदर्शन से हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में शामिल कर ली गईं. फिर भी वह नकारी जाने लगीं. उन के गुरु संगीत निर्देशक गुलाम हैदर तब फिल्म के निर्माता शशिधर मुखर्जी की टिप्पणी पर नाराज हुए थे.

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मुखर्जी ने लता की आवाज को ‘बहुत पतला’ कह कर खारिज कर दिया था. तब गुलाम हैदर ने गुस्से में यहां तक कह दिया था कि एक दिन आएगा, जब वह लता के चरणों में गिरेंगे और उन से अपनी फिल्मों में गाने के लिए विनती करेंगे.

दरअसल, हैदर साहब ने मुखर्जी को दिलीप कुमार और कामिनी कौशल की फिल्म ‘शहीद’ के लिए लता की आवाज सुनाई थी. तब उन्होंने कहा था कि वह अपनी फिल्म में लता को काम नहीं दे सकते हैं.

उन्हीं दिनों हैदर साहब ने मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर के दौरान दिलीप कुमार से लता की आवाज सुनने के लिए अनुरोध किया तब उन्होंने उन के उच्चारण पर सवाल उठाते हुए हिंदी और उर्दू सीखने की सलाह दी.

ऐसी ही नसीहतें नूरजहां से मिली थीं. उन्होंने लता से कहा था कि अभ्यास करो, एक दिन संगीत जगत पर छा जाओगी. उस के बाद से लता मंगेशकर ने किसी और की नकल उतार कर गाना छोड़ दिया और वह अपनी आवाज में गाने के अभ्यास में जुट गईं. इस में हैदर साहब का पूरा साथ मिला, जिन्हें लता ने अपने गुरु के रूप में श्रेय दिया.

इधर लता मंगेशकर को 1948 में सफलता का स्वाद मिला, उधर हिंदी सिनेमा जगत को एक नई आवाज मिल गई. वैसे तब तक उन में स्थापित गायिका का ही असर था, फिर भी उस के अगले साल ही आई एक सस्पेंस से भरी भूतिया फिल्म ‘महल’ के गाने ‘आएगा आने वाला’ ने लोगों को रोमांच से भर दिया.

यह गाना फिल्म में एक बार नहीं, कई बार टुकड़ेटुकड़े में सुनाई देता था, जिसे संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने संगीतबद्ध किया था.

फिल्म देखने वालों पर लता की आवाज का असर इस कदर हुआ था कि लोग फिल्म खत्म होने के बाद गुनगुनाते हुए थिएटर से निकलते थे. इस गाने को परदे पर बेहद खूबसूरत अभिनेत्री मधुबाला पर फिल्माया गया था.

फिल्म की कहानी कमाल अमरोही ने लिखी थी और डिटेक्टर की भूमिका में हीरो थे अशोक कुमार. पूरी फिल्म का तानाबाना लता की आवाज के साथ बुना गया था, जिस से गजब का थ्रिल पैदा हुआ था.

उस गाने के बाद सिनेमाप्रेमियों ने लता मंगेशकर को नूरजहां की छाया से बाहर निकलते हुए महसूस किया था. सिनेमा संगीत के विश्लेषक पत्रकारों और टिप्पणीकारों ने भी लता की आवाज बेहद पसंद आने वाली और अनोखी बताई. इस के बाद उन के संगीत के प्रति जुनून और अनुशासन की खूब प्रशंसा होने लगी थी. उन की मधुरता से भरी आवाज के बारे में तारीफों के पुल बांधे जाने लगे थे. जो न केवल अपने आप में बहुत अच्छी लगने वाली थी, बल्कि उन नायिकाओं के अनुकूल भी थी, जिन के लिए वह गाती थीं.

आवाज को ढालने में थीं माहिर

कारण, वह अपनी आवाज को नायिका के स्वरूप, व्यक्तित्व, हावभाव और किरदार के मुताबिक चालढाल व बोलचाल को देखते हुए इस कदर मोड़ देती थीं कि जैसे लगता था कि नायिका फिल्म में खुद गा रही हो.

अधिकतर नायिकाओं पर उन की आवाज एकदम से फिट बैठती थी. यहां तक की बच्चों पर फिल्माए गए गाने भी लता की आवाज में गवाए जाते थे.

बात उन दिनों की है, जब भारत को आजादी मिली थी. देश विभाजन के खूनखराबे से जूझा था. उन्हीं दिनों लता मंगेशकर का गाया गाना काफी चर्चित हुआ था, ‘यूं ही मुसकराए जा, आंसू पिए जा… उठाए जा उन के सितम…’

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यह गीत नरगिस दत्त, राजकपूर और दिलीप कुमार स्टारर फिल्म ‘अंदाज’ (1949) में फिल्माया गया था. नौशाद के संगीत निर्देशन में इस गीत को टूटे हुए दिलों के लिए एक मरहम के तौर पर महसूस किया.

यही गीत जब सरहद के दूसरी तरफ पहुंचा, तब वहां भी इस का वही असर हुआ, जो आखिर के दिनों में किसी तरह की जुदाई के दर्द जैसा था. उन दिनों लता मंगेशकर मात्र 20 साल की थीं. कोल्हापुर से आई थीं. उन का यही गाना प्रतिभा को दर्शाने वाले मानक में बदल गया.

लता मंगेशकर नूरजहां को जहां बचपन से सुनती आई थीं, वही नूरजहां ने भी उन के कुछ गाने सुने थे. इस बारे में उन से कहा था कि अभ्यास करो, एक दिन संगीत जगत पर तुम राज करोगी.

शुरुआती दिनों में लता मंगेशकर को ले कर जिस ने जो भी कहा था, वह सब दिनप्रतिदिन सच होता चला गया. आज उन के जीवन के हर भाव के गाए गीत हैं.

किसी भी आयोजन पर नजर डालिए, जीवन के कैसे भी उत्सव की कल्पना कीजिए, प्रेम से ले कर विरह तक, शोखियों से ले कर शरारतों तक, वैराग्य से ले कर भजन तक सब कुछ उन के गानों में शामिल हैं.

आज उन की आवाज से जुड़ कर संपूर्ण भारतीय संस्कृति के साथसाथ एक स्त्री की भावना का अनुभव कोई भी आसानी से कर लेता है. उन्होंने अपने करियर में जितने भी गाने गए हैं, उन में संगीतकारों से ले कर गीतकारों तक की भूमिका भी रही है.

सिनेमा के परदे पर गाने वाले अदाकारों की कई पीढि़यां गुजर गईं, किंतु सभी के साथ लता मंगेशकर की ही आवाज चिपकी रही. जिन्हें उन की आवाज नहीं मिली, उन्हें इस का मलाल भी हुआ. इस तरह से लता मंगेशकर ने न केवल हिंदी सिनेमा जगत, बल्कि असमिया, बंगला, गुजराती, तमिल, कन्नड़, मैथिली, कोंकणी, तेलुगु और भोजपुरी सहित 30 से अधिक भाषाओं में गाने गाए.

उन का करियर 1940 के दशक के अंत में मधुबाला की आवाज बनने की शुरुआत से ले कर ‘जेल’ (2009) फिल्म का भक्ति गीत गाया. इस फिल्म में भक्ति गीत को बच्चों के बीच लता मंगेशकर पर ही फिल्माया गया था.

लता मंगेशकर ने अपना आखिरी गीत ‘सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं मिटने दूंगा’ भारतीय जनता पार्टी के लिए 30 मार्च, 2019 को रिकौर्ड करवाया था.

दुनिया में सर्वाधिक गाने का भी विश्व रिकौर्ड लता मंगेशकर के नाम है. जबकि उन के गाए गानों की संख्या को ले कर विवाद भी है. साल 1991 में द गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स लता मंगेशकर के द्वारा 1948 और 1987 के बीच 20 भारतीय भाषाओं में रिकौर्ड किए गए 30,000 गीतों की संख्या दर्ज की थी, जिन में एकल, युगल और कोरस समर्थित गाने थे.

इस के साथ ही लता मंगेशकर को 1974 में लंदन के प्रतिष्ठित रायल अल्बर्ट हाल में लाइव प्रदर्शन करने वाली पहली भारतीय कलाकार होने का भी गौरव प्राप्त है. उस मौके पर उन्होंने हिंदी में अपने संक्षिप्त भाषण में कहा था, ‘यह भारत के बाहर मेरा पहला संगीत कार्यक्रम है. मैं काफी नरवस हूं, लेकिन मैं गर्मजोशी से स्वागत के लिए आभारी हूं.’

लता मंगेशकर की आवाज भले ही सिनेमाई थी, लेकिन उसे अच्छी और शुद्ध स्त्रीत्व के नजरिए से देखा गया. उन के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े जो भी विवाद थे, उस शुद्धता के आगे काफी छोटे पड़ गए थे. वह धीरेधीरे किस तरह से ‘शुद्ध’ और ‘सम्मानजनक’ राष्ट्रीय संस्कृति की विचारधारा बनती चली गईं, किसी को एहसास ही नहीं हुआ.

लता मंगेशकर की कुछ प्रसिद्ध धुनों में 60, 70 और 80 के दशक को स्वर्णिम माना जाता है. उन्हें अकसर किशोर कुमार, मोहम्मद रफी, मुकेश के साथ सहयोग करते देखा गया. नब्बे के दशक में उन्होंने कुमार शानू, एसपी बालसुब्रमण्यम, उदित नारायण, अभिजीत भट्टाचार्य, सोनू निगम के साथ गाने गाए और उन के पसंदीदा संगीतकारों में मदनमोहन, नौशाद, खय्याम, चित्रगुप्त, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ए.आर. रहमान, जतिन-ललित, दिलीप सेन-समीर सेन के नाम प्रमुख थे.

उन का गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ भले ही गैरफिल्मी हो, लेकिन उसे गायन की दृष्टि से मुश्किल गाना माना जाता है. उस गाने को लता ने दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में गाया था. तब शहीदों को याद करने वाले उस गीत का असर इस कदर हुआ कि पूरा माहौल गमगीन हो गया और पं. नेहरू की आंखों में भी आंसू आ गए थे.

भारत रत्न, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, फ्रेंच लीजन औफ औनर, 5 महाराष्ट्र राज्य फिल्म पुरस्कार,  3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और अनगिनत अन्य सम्मानों से बड़ी है उन की वह फिल्मी आवाज, जिस की बदौलत वह अब तक की सब से प्रभावशाली भारतीय फिल्म गायिका बन गईं. द्य

लता ने अदाकारी भी की थी

मंगेशकर के सुर साम्राज्ञी बनने की शुरुआत गायन के साथसाथ एक्टिंग से भी हुई थी. उन के पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय संगीत के गायक और रंगमंच के एक उम्दा कलाकार थे.

उन दिनों संगीतनाटक का काफी चलन था. गीतनृत्य और संगीत से जुड़े लोगों के लिए यही आजीविका का साधन हुआ करता था. महाराष्ट्र के कोल्हापुर में इंदौर से जा बसा दीनानाथ मंगेशर परिवार का भी गहरा संबंध थिएटर से था. उन दिनों उन्होंने मराठी भाषा में कई संगीतमय नाटकों का निर्माण किया था. उन की 5 संतानों में लता मंगेशकर सब से बड़ी थीं.

उन दिनों को याद करती हुई लता मंगेशकर ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उन का परिवार शास्त्रीय संगीत से जुड़ा था और फिल्मी संगीत को पसंद नहीं करता था.

यह जानकारी बहुत कम ही लोगों को है कि 5 साल की उम्र में ही लगा मंगेशकर ने मराठी भाषा में अपने पिता के संगीत नाटकों में एक अदाकारा के रूप में काम करना शुरू कर दिया था. इस का जिक्र उन पर यतींद्र मिश्र की लिखी किताब ‘लता: सुरगाथा’ में किया गया है.

किताब के अुनसार नाट्यमंच पर लता की शुरुआत अभिनय से हुई थी. तब दीनानाथ मंगेशकर की नाटक कंपनी ‘बलवंत संगीत मंडली’ ने अर्जुन और सुभद्रा की कहानी पर आधारित नाटक ‘सुभद्रा’ का मंचन किया था. पंडित दीनानाथ खुद अर्जुन की भूमिका में थे, जबकि 9 साल की लता को नारद की भूमिका दी गई थी.

उस के बाद लता ने अपने पिता की फिल्म ‘गुरुकुल’ में कृष्ण की भूमिका निभाई. साल 1942 में पंडित दीनानाथ मंगेशकर की हृदयरोग से मृत्यु हो जाने के बाद फिल्म अभिनेतानिर्देशक और मंगेशकर परिवार के करीबी दोस्त मास्टर विनायक दामोदर कर्नाटकी ने लता को एक अभिनेत्री और गायिका के रूप में अपना करियर शुरू करने में मदद की थी.

मास्टर विनायक ने लता मंगेशकर को एक मराठी फिल्म ‘पहिली मंगला गौर’ में एक छोटी सी भूमिका दी थी. उस फिल्म में लता ने ‘नताली चैत्रची नवलई’ गीत भी गाया था.

उस के कुछ समय बाद ही वह 1945 में मुंबई चली चली गई थीं. वहां जा कर उन्होंने संगीत की शिक्षा लेनी शुरू कर दी. अपनी शैक्षणिक पढ़ाई के बारे में उन्होंने बताया था कि उन्हें किसी भी तरह की कोई स्कूल की औपचारिक शिक्षा भले ही नहीं मिली हो, लेकिन उन्हें एक नौकरानी ने मराठी पढ़ाई, एक पुरोहित ने संस्कृत सिखाई और रिश्तेदारों ने अन्य विषयों को पढ़ाया. एक मौलवी से उर्दू भी सीखी.

शास्त्रीय संगीत और गायन सीखने के क्रम में ही लता मंगेशकर को 1945 में मास्टर विनायक की हिंदी भाषा की फिल्म ‘बड़ी मां’ में अपनी छोटी बहन आशा भोसले के साथ एक छोटी भूमिका निभाने का अवसर मिला. उन्होंने मराठी फिल्मों में नायिका की बहन जैसी ही छोटीछोटी भूमिकाएं ही निभाईं, लेकिन उन्हें कभी भी मेकअप करना और कैमरे के सामने काम करना पसंद नहीं था.

लता मंगेशकर का कहना था कि उन्होंने एक्टिंग भी मजबूरी में की थी. वह अपने पिता को हुए आर्थिक नुकसान और उन की मृत्यु के बाद कर्ज चुकाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन का घर भी बिक गया था और वह अपने छोटेछोटे भाईबहनों के साथ मुंबई आ गई थीं.

1940 में उन्हें जब गाने के मौके बहुत कम मिलते थे, तब परिवार को पालने के लिए उन्होंने अभिनय शुरू किया. उन्होंने 8 मराठी और हिंदी फिल्मों में अभिनय किया था. उन में उन्हें छोटेमोटे रोल ही मिले थे. उन्हीं दिनों जब एक निर्देशक ने उन्हें उन की भौंहें भी ट्रिम करवाने बात कही थी, तब उन्हें अच्छा नहीं लगा था. हालांकि उन्होंने निर्देशक की बात मान ली थी.

कहते हैं न कि किस की किस्मत कब करवट ले ले, कहना मुश्किल है. लता के साथ भी ऐसा ही हुआ. वर्ष 1947 में मास्टर विनायक का निधन हो जाने के बाद उन की ड्रामा कंपनी प्रफुल्ल पिक्चर्स बंद हो गई. उसी दौरान उन की जिंदगी में संगीत निर्देशक उस्ताद गुलाम हैदर आए. उन्होंने लता की आवाज सुनी तो उन्हें ले कर निर्देशकों के पास गए.

तब लता की उम्र बमुश्किल 19 साल की थी और उन की पतली आवाज नापसंद कर दी गई, लेकिन गुलाम हैदर अपनी बात पर अड़े रहे और फिल्म ‘मजबूर’ (1948) में लता से मुनव्वर सुल्ताना के लिए प्लेबैक करवाया.

लता मंगेशकर ने गीतकार नाजिम पानीपति के गीत ‘दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का ना छोड़ा’ गाना गाया. यह गाना काफी लोकप्रिय हुआ. लोगों ने नई आवाज में उस दौर की गायिकाओं की झलक देखी. लता के करियर में यह पहली बड़ी सफलता वाली फिल्म थी. उस बात को लता मंगेशकर हमेशा याद करती रहती थीं. गुलाम हैदर ने उन से कहा था कि एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी और जो लोग तुम्हें नकार रहे हैं, वही लोग तुम्हारे पीछे भागेंगे.

हुआ भी ऐसा ही. गुलाम हैदर और नूरजहां देश बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए, पर लता के लिए उन की कही बात सच हो गई. ‘मजबूर’ में लता का गाना सुनने के बाद लता को कमाल अमरोही की फिल्म ‘महल’ मिली और उन्होंने ‘आएगा आने वाला’ गाया.

इस के बाद लता को कभी फिल्मों की कमी नहीं हुई. मधुबाला पर फिल्माए गए इस गीत के बाद लता मंगेशकर को कभी पीछे पलट कर नहीं देखना पड़ा.

Holi Special: नारियल बर्फी से बढ़ाए मुंह का स्वाद

अगर आप इस होली के त्यौहार पर बर्फी बनाना चाहती हैं तो आपको सपेशल नारियल बर्फ़ी की आसान रेसिपी बताते है जिसे आप ट्राय कर सकती हैं.

सामग्री

– चीनी (1 कप)

– पानी (1 कप)

– चम्मच घी (2 बड़े)

– नारियल का चूरा (1 कप सूखा)

– 3 इलायची ( पिसी हुई)

–  1 प्याला काजू और पिस्ते के टुकड़े

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बनाने की विधि

– चीनी में पानी डालकर गाढ़ी चाशनी बना लें.

– आंच एकदम धीमी रखें.

– चाशनी में नारियल और पिसी हुई इलायची डाल कर अच्छी तरह मिला लें.

– गोला सा बन जायेगा.

– घी लगाई हुई प्लेट में जल्दी से फैलाएं.

– चाकू से बर्फ़ी काटें.

– ठंडी होने पर हवा-बंद डब्बे में रखें.

– पीले रंग की बनाने के लिये केसर चाशनी में मिलाएं.

– थोड़ा सा नारियल का चूरा और पिस्ते के टुकड़े  ऊपर से सजाएं.

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त्यौहारों के मौसम में ऐसे रखें खुद को फिट

त्यौहार ढेर सारी खुशियां और आनंद लाते हैं लेकिन कई स्वास्थ्य समस्याओं की आशंका को भी बढ़ा देते हैं. ऐसे में जरूरी है कि ‘एक दिन की लापरवाही से क्या फर्क पड़ता है’ वाला रवैया न अपनाएं और पहले से ही प्लानिंग कर लें ताकि आनंद और उल्लास का यह मौसम आप के लिए स्वास्थ्य समस्याओं का निमंत्रण न बने.

1.मीठा थोड़ा ही अच्छा

मीठा भोजन ठंडा और भारी होता है और यह कफ बढ़ाता है. ज्यादा मीठा खाने से थकान, भारीपन, भूख कम लगना, अपच जैसी समस्याएं होती हैं. शूगर हाइपरटैंशन बढ़ाती है, मस्तिष्क के संकेतों को दबाती है. मीठे भोजन से कोलैस्ट्रौल बढ़ता है. मिठाइयों को एकसाथ खाने से पेटदर्द, डायरिया, लूज मोशन जैसी समस्याएं शुरू होने की आशंका बढ़ जाती है. इसलिए, मिठाई थोड़ी मात्रा में ही खाएं. हमेशा स्वस्थ्य और पोषक खाद्य पदार्थों का विकल्प चुनें. मिठाइयों के बजाय सूखे मेवे, फल, फ्लेवर्ड दही को प्राथमिकता दें

2.तैलीय, मसालेदार भोजन से बचें

हमारे देश में मसालेदार भोजन खाने की परंपरा है और त्योहारों के समय तो यह और बढ़ जाती है. मसाले गरम होते हैं. ये शरीर का ताप बढ़ा देते हैं जिस से अनिद्रा की समस्या हो जाती है. अधिक मसालेदार और तीखा खाने से पेट की कई समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं. पेट की अंदरूनी सतह पर सूजन आ जाती है, एसिडिटी की समस्या हो जाती है. अधिक तैलीय व वसायुक्त भोजन करने से रक्तचाप और शूगर का स्तर बढ़ता है.

3.ऐक्सरसाइज न करें तो डांस करें

अगर आप के लिए ऐक्सरसाइज करना कठिन हो तो आप दिल खोल कर नाचें. इस से काफी मात्रा में कैलोरी जल जाएंगी. कई प्रकार की मिठाइयां और घी का सेवन करने के बावजूद स्वस्थ रहने के लिए यह सब से अच्छा वर्कआउट हो सकता है.

4.ओवरईटिंग न करें

इन दिनों कई लोगों का वजन 3-5 किलो तक बढ़ जाता है, इसलिए अपनी प्लेट पर नजर रखनी जरूरी है. लोग  बगैर सोचेसमझे सबकुछ खाते चले जाते हैं. हाई कैलोरी फूड अधिक मात्रा में खाने से हमारी पाचनक्रिया धीमी पड़ने लगती है और हम अधिक थकान महसूस करते हैं. त्योहारों के माहौल में ऐसे भोजन से दूर रहना तो संभव नहीं है, लेकिन इन का सेवन कम मात्रा में करें ताकि कैलोरी इनटैक को कंट्रोल में रखा जा सके.

5.मिलावटी चीजों से रहें सावधान

कई मिठाइयों में कृत्रिम रंगों का उपयोग  किया जाता है. इन से किडनी स्टोन और कैंसर हो सकता है. ऐसी मिठाई को खाने से उलटी, डायरिया की समस्या हो जाती है. कई दुकानदार लड्डू, पनीर, बर्फी और गुलाबजामुन बनाने में मेटानिल यलो, लेड नाइट्रेट और म्युरिएटिक एसिड का इस्तेमाल करते हैं. इन के सेवन से शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है. मिलावट से बचने के लिए मिठाइयों को घर पर ही बनाएं या किसी अच्छी दुकान से खरीदें.

डाइट प्लान का पालन करें

हैवी ब्रेकफास्ट करें, इस से आप का पेट अधिक समय तक भरा हुआ रहेगा. जो भी खाएं, फाइबर और पोषक तत्त्वों से भरपूर हो. दोपहर के खाने में प्रोटीन की मात्रा अधिक रखें. यह पेट को लंबे समय तक भरा हुआ रखेगा और आप भोजन कम मात्रा में खाएंगे. अपने फ्रिज और किचन में हैल्दी स्नैक्स, हरी पत्तेदार सब्जियां और फलों के विकल्प अधिक मात्रा में रखें. सफेद चीनी या कृत्रिम स्वीटनर के बजाय प्राकृतिक स्वीटनर जैसे खजूर, शहद या अंजीर का उपयोग  करें. आप गुड़ का इस्तेमाल भी कर सकती हैं.

6.भरपूर मात्रा में पानी पिएं

हर रोज भरपूर मात्रा में पानी पिएं. अपने दिन की शुरुआत पानी से करें. सुबह खाली पेट 1 लिटर पानी पिएं, इस से आप का पाचनतंत्र साफ रहेगा और आप के शरीर में जल का स्तर भी बना रहेगा. यह रक्त से विषैले पदार्थों को भी साफ कर देगा. एक दिन में कम से कम 3 लिटर पानी पिएं. जो लोग पार्टियों में जम कर ड्रिंक करते हैं, ध्यान रखें कि अल्कोहल के कारण डिहाइड्रैशन होता है. नियमित रूप से अधिक मात्रा में पानी का सेवन कर के शरीर से टौक्सिन को निकालने में सहायता करें. पानी शरीर में अल्कोहल के प्रभाव को भी कम करता है.

7.खरीदारी के लिए जाएं

खरीदारी करना आप के लिए उपयोगी हो सकता है. अपनी शौपिंग की योजना ऐसे बनाएं कि आप को अधिक से अधिक पैदल चलना पड़े. कोशिश करें कि अपनी कार का इस्तेमाल न करें. औनलाइन शौपिंग  करने के बजाय अगर आप मौल या लोकल मार्केट में घूमघूम कर शौपिंग  करेंगे तो आप अधिक मात्रा में कैलोरी खर्च करेंगे. यह आप के लिए फायदेमंद होगा.

8.डिटौक्सिफिकेशन तकनीक

मानव शरीर की रचना ऐसी होती है कि वह अपनेआप ही शरीर से हानिकारक रसायनों को निकाल देता है. लेकिन त्योहारों के मौसम में शरीर में टौक्सिंस की मात्रा ज्यादा बढ़ जाती है. अपने शरीर से टौक्सिंस को निकालने का प्रयास करें. चाय और कौफी के बजाय ग्रीन टी का सेवन करें. अपने दिन की शुरुआत एक गिलास गुनगुने पानी से करें जिस में नीबू का रस भी हो, ताकि शरीर से टौक्सिंस निकल जाएं.

9.हाइपरटैंशन

त्योहारों के मौसम आते ही अधिक कैलोरीयुक्त भोजन का सेवन बढ़ जाता है, जिस से पूरा डाइट प्लान गड़बड़ा जाता है. मिठाइयां घी और चीनी से भरपूर होती हैं जिस से उन में कैलोरी की मात्रा काफी अधिक बढ़ जाती है. त्योहार के दिनों  में खानपान में कंट्रोल नहीं होता और यह पाचनतंत्र पर भारी पड़ता है. इसलिए इन दिनों आप को ज्यादा एहतियात रखने की जरूरत है.

GHKKPM: पाखी का लुक देख भड़के फैंस, कही ये बात

‘गुम है किसी के प्यार में’ (Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin) सीरियल की पाखी (Pakhi) यानी ऐश्वर्या शर्मा अक्सर सुर्खियों में छायी रहती है. अब यूजर्स एक्ट्रेस का ड्रेसिंग सेंस देखकर भड़क गए हैं और उन्हें खरी-खोटी सुना रहे हैं. आइए बताते हैं क्या है पूरा मामला.

हाल ही में ऐश्वर्या शर्मा ने सोशल मीडिया पर कुछ फोटोजे शेयर की है. जिसमें वह पीले रंग की शॉर्ट ड्रेस पहनी हुई है. एक्ट्रेस की ये ड्रेस लूज है साथ ही इसका स्टाइल भी अलग है. पीले रंग की इस ड्रेस के साथ  एक्ट्रेस ने हाई हील्स के साथ लॉग बूट्स पहने हुए हैं. इसके साथ ही कंधे पर गोल्डन कलर का बैग टांगा हुआ है और साथ ही चोटी की हुई है.

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फैंस को पाखी का ये लुक पसंद नहीं आ रहा है. यूजर्स लगातार ऐश्वर्या शर्मा की इन फोटोज पर कमेंट कर रहे हैं. एक यूजर ने लिखा, आप इतनी प्यारी हो लेकिन हेयर स्टाइल अच्छा नहीं है तो वहीं दूसरे यूजर ने लिखा, हेयर स्टाइल कभी अच्छा बना लिया करो पाखी दीदी.

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किसी को एक्ट्रेस का हेयर स्टाइल पसंद नहीं आया तो किसी को एक्ट्रेस का लुक. आपको बता दें कि पाखी-विराट रियलिटी शो ‘स्मार्ट जोड़ी’ में भी नजर आ रहे हैं. शो में कपल ने खुलासा किया था कि जब वो दोनों शादी करने जा रहे थे तो कई लोग खुश हुए तो कई लोगों ने उन्हें ट्रोल किया. पाखी को लेकर कई लोगों ने कहा कि ये कौन है, इससे शादी क्यों कर रहे हो? बहुत गंदी लड़की है, बहुत गंदी औरत है.

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वनराज को कंपनी से निकालेगी मालविका, तोषु को पड़ेगा थप्पड़!

‘अनुपमा’ सीरियल में लगातार महाट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि अनुज और वनराज बिजनेस कॉनट्रैक्ट को लेकर आपस में लड़ते हुए नजर आये. अनुपमा और बापूजी ने दोनों को शांत करवाने की कोशिश की. तो दूसरी तरफ बा हर बार की तरह अनुपमा को वनराज का दुश्मन कहा. शो के आने वाले एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में आप देखेंगे कि वनराज अनुज को हर तरह से निचा दिखाने की कोशिश करेगा.  तो दूसरी तरफ अनुपमा घर से जाने की धमकी देगी. वनराज कहेगा कि उसने अनुपमा को घर में रोक लिया और उसी का बदला दोनों ले रहे हैं. वनराज ये भी कहेगा कि अनुपमा जानती थी कि शिवरात्रि की पूजा उसके लिए काफी खास है लेकिन उसने जानबुझकर अनुज को साथ मिलकर उसका दिन खराब करना चाहती है. रिपोर्ट के अनुसार मालविका अपनी कंपनी से निकाल देगी.

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शो में आप देखेंगे कि अनुपमा वनराज को खूब सुनाएगी, कहेगी कि वनराज की उड़ान अब लंबी नहीं है क्योंकि अनुज ने टेकऑफ कर लिया है. तो दूसरी तरफ बा कहेगी अनुपमा वनराज का मूड ना खराब करे. इस पर अनुपमा कहेगी कि वनराज ने उसकी जिंदगी खराब कर दी. तो बा कहेगी कि अनुपमा तो हंस-खेल रही है, वनराज ने उसकी जिंदगी नहीं बर्बाद की है.

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शो में आप ये भी देखेंगे कि तोषू अनुपमा पर भड़केगा. वह कहेगा कि उसने मां होते हुए भी उनके बेटे के बारे में नहीं सोचा, उसके करियर के बारे में नहीं सोचा. अनुपमा ने सिर्फ अपने अनुज के बारे में सोचा. तोषू अपने आने वाले बच्चे को लेकर कहेगा कि उसका बच्चा पैदा होने से पहले ही अपने बाप की बर्बादी लेकर आया है. तोषू अपने बच्चे को बोझ कहेगा.

 

तोषू के मुंह से होने वाले बच्चे के बारे में ऐसी बातें सुनकर अनुपमा उसे जोर से डांटेगी. तोषू अपने होने वाले बच्चे को मनहूस कह देगा. इस पर वनराज बर्दाश्त नहीं कर पाएगा और उसे जोर से थप्पड़ रसीद करेगा. वनराज कहेगा कि अगर वो इस बच्चे के बारें में कुछ भी अनाप-शनाप बोलेगा तो वो भूल जाएगा कि वो उसका बेटा है.

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फ्रैंडशिप- भाग 3: नैना ने अपना चेहरा क्यों छिपा लिया

पूरा वातावरण  किसी छोटे से गांव की भांति सुंदर लग रहा था. चोखी ढाणी में थोड़ीथोड़ी दूर पर बने कौटेज के बाहर लालटेन जल रही थी. वहीं बाहर खाट भी पड़ी थीं. आप खाट पर बैठ कर भी पूरी चोखी ढाणी की सुंदरता को निहार सकते हो.

आसमान में तारों की झिलमिल के बीच चांदतारों की शरारतों को देखदेख कर खुश हो रहा थातभी सागर ने नैना का हाथ अपने हाथ में ले लिया. नैना के शरीर में एक सुकून व शांति की किरण दौड़ने लगी. नैना को एक सुरक्षा का एहसास होने लगा.

दोनों धीमेधीमे कदमों से चोखी ढाणी में टहलने लगे. टहलतेटहलते दूर एकांत में सीमेंट सी बनी बैंच पर सागर बैठ गया और बोला, “नैनायहां से देखो चोखी ढाणी कितनी खूबसूरत लगती है.”  नैना ने बैंच पर बैठ कर सागर के विशाल कंधों पर अपना सिर टिका लिया. हलके से अपना चेहरा सागर के कंधे में छिपा लिया. फिर हलके से बोली, “सागरतुम ने इग्नोर करने वाली बात पूछी थी न?” नैना बोली.

हां नैनातुम ने उस बात का तो जवाब ही नहीं दिया थाबोलो तो?”

नहीं सागरतुम को तो मैं सपने में भी इग्नोर नहीं कर सकती. तुम जानते हो न शेक्सपियर की वह बात कि रोने के लिए या तो कमरा हो या फिर किसी का कंधा  जहां कभी रो कर हम अपने दुख को हलका कर सकेंजिस से सुकून मिल सके.

नैना,” सागर ने कहा, “क्या हुआ था उस दिनबोलो?”

उस दिन मम्मी और पापा की बहुत याद आ रही थीइसलिए मूड खराब था. मम्मीपापा का दर्दनाक हादसा नहीं भूल पाती.

नैना की बात सुन कर सागर की आंखें भी भर गई थीं.

 सागर ने नैना के सिर को अपने सीने में समेट कर उस पर अपने होंठ रख दिए.

 नैना की आंखों से निकल रहे आंसू सागर के सीने को भिगोने लगे थे. सागर…” नैना ने कुछ कहना चाहा.

कुछ न कहोदेखोखामोशी की आवाज,” सागर की आवाज में हलका सा कंपन था, “यह खामोशी बहुतकुछ कह रही है. सुनोयह खामोश पेड़उस पर धीमीधीमी चलती हवाकालबेलिया नृत्य करती लड़की के घुंघरू की धीमी सी आवाज…

नैना मन ही मन कुदरत से यह मांग रही थी कि यह सुकूनयह प्यार यों ही बना रहे.

बादलों की ओट से चांद सागर की खामोशियों को देख लेता थाफिर किसी बादल की ओट में छिप जाता था शायद  यह सोच कर कि चोरी कहीं पकड़ी न जाए.

सागर”, नैना बोली.

नैना की  आवाज सुन कर सागर ने अपनी गहरी आंखें खोलीं. सागर की आंखों में सितारे झिलमिलाने लगे थे.  मुसकान झरने में घुली ओस सी पवित्र लग रही थी. सागरमैं कितनी शांति महसूस करती हूं तुम्हारे साथ. प्लीजयह फ्रैंडशिप जीवनभर रहेगी न?” नैना ने पूछा.

हां नैनामेरा विश्वास करो. जीवन में तुम से कभी भी छलकपट नहीं करूंगा. तुम मेरी अच्छी दोस्त तो हमेशा रहोगीतुम मेरा प्यार भी हो,” सागर ने कहा.

क्या कह रहे होसागर?” नैना को विश्वास नहीं हो रहा था.

हां नैनामेरा विश्वास करो. तुम  मेरे विचारों जैसी हो. तुम्हारी सादगी  मुझे पसंद है,” सागर ने कहा, “हम परिवारवालों से बात करेंगेवे भी राजी होंगेविश्वास है मुझे.

फिर एक  बार नैना ने अपना चेहरा सागर के सीने में छिपा लियाचोखी ढाणी में नृत्य  की आवाज तेज होने लगी थी और रात के आंचल में सितारों की चमक गहरी हो चली थी.

प्रीत किए दुख होए: भाग 6

शोर सुन कर ममता बाहर आई और पिताजी को देख कर रो पड़ी, ‘‘अच्छे आए आप. कन्यादान तो आज आप को ही करना है. चलिए भीतर, कर दीजिए कन्यादान.’’ ‘‘कन्यादान…? एक दलित लड़की का कन्यादान मैं करूं? दिमाग तो ठीक है तेरा,’’ मुखियाजी बोले.

‘‘हांहां, आप… आप दलित किसे कहते हैं? उसे जिस ने दलित घर में जन्म लिया है? लेकिन उस ने जन्म देते वक्त कहीं कोई निशान दिया कि मैं उसे दलित मान लूं? मैं और काजल दोनों बचपन की सहेलियां हैं. बताइए, क्या फर्क है हम दोनों में? यहां दलित के नाम पर नफरत के बीज बोने का हक किस ने किस को दिया? ‘‘सुंदर और काजल के बीच बचपन का प्यार है. हम सब जातिवाद के चक्कर में इसे नहीं पहचान सके. प्यार की कोई जाति नहीं होती. अब तो सरकार ने भी इसे मान लिया है,’’ इतना कह कर ममता ने उन के हाथ से बंदूक छीन ली और उसे दूर फेंक दिया.

मुखियाजी ने भी अपनी बेटी की सामने घुटने टेक दिए, ‘‘बेटी, आज तू ने बेटी की सही परिभाषा दे कर मुझे एहसानमंद कर दिया. तू ने मुझे आईना दिखा दिया है.’’ दोनों भीतर गए और पंडित ने मुखियाजी से कन्यादान कराया. सभी बाहर निकले. काजल की मांग में सिंदूर और सुंदर के सिर पर सेहरा देखते ही बनता था.

ममता काजल को संभाले खड़ी थी. मुखियाजी ठीक सुंदर के बगल में सीना ताने खड़े हुए थे. डीएसपी साहब भी सादा कपड़ों में काजल व ममता के बगल में खड़े थे. मुखियाजी ने कहा, ‘‘बच्चो, इस समाज की बेहतरी का जिम्मा तुम्हारे ही कंधों पर है. ममता ने जो कहा, मैं तो उस से बड़ा प्रभावित हुआ और मान लिया.’’

पूरी भीड़ ने एक सुर में कहा, ‘हां.’ सरपंच ने कहा, ‘‘मुखियाजी, हम दलित बस्ती के हैं. इसे सही माने में दलित बस्ती बनाएंगे और सब को समान अधिकार दिलाएंगे. जिन बाबू लोगों के पास दलितों की जमीन, मकान वगैरह कब्जे में हैं, उसे कागज समेत वापस करवाएंगे और तमाम दलितों को भी वह सहूलियतें दिलाएंगे, जो बाबू लोगों को मिली हुई हैं.’’

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तभी झाड़ी में से एक दनदनाती गोली मुखियाजी के सीने पर जा लगी. वे कटे पेड़ की तरह गिरे और मर गए. एसटीएफ के जवानों ने खदेड़ कर गोली चलाने वाले को पकड़ लिया और डीएसपी के सामने खड़ा कर दिया. उस ने तुरंत एक थप्पड़ में ही कबूल कर लिया कि उसे मारना था सुंदर को, धोखे से गोली लग गई मुखियाजी को.

सुंदर, काजल व ममता दहाड़ें मार कर मुखियाजी की लाश पर गिरे. ममता रोतेरोते बेहोश हो गई. डीएसपी अंजन कुमार ने लाश को तत्काल पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया और खुद 4-5 जवानों के साथ भीड़ को काबू करने में लगे रहे.

ममता जब होश में आई, तो रोरो कर कहने लगी, ‘‘आज मेरा कन्यादान होना था. अब कब होगा कन्यादान? कौन करेगा कन्यादान?’’ डाक्टर दिलासा देते हुए बोला, ‘‘बेटी, मैं करूंगा यह कन्यादान. मेरा आशीर्वाद है तुझे.’’

तभी लोगों ने देखा कि काजल ने डीएसपी के पैर पकड़ लिए. ‘‘काजल,’’ उन्हें हैरानी हुई और पैर हटा लिए, ‘‘कुछ कहना है?’’

‘‘हां.’’ ‘‘तो कहो, सब के सामने.’’

‘‘सर, आप भी मुझ से प्यार करते थे न?’’

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‘‘बिलकुल, पर अब तुम मेरी बहन हो गई हो. बोलो, कौन सा बलिदान करूं मैं? मेरी बड़ी हसरत थी कि तुम कुछ कहो और मैं उस पर अमल करूं?’’ ‘‘मेरी गुजारिश है कि आप ममता की मांग भर दें. एक डीएसपी भाई

का यह नायाब तोहफा होगा एक गरीब बहन को.’’ काजल ने ममता को खड़ा कर के पूछा, ‘‘ममता, मेरी सहेली, डीएसपी वर पसंद हैं न तुझे? बोल बहन.’’

ममता ने बुझी आंखों से डीएसपी को देखा और उन के सीने से लग गई. डीएसपी ने ममता की मांग भर दी. पंडितजी ने विधिविधान से मंत्र पढ़े और डाक्टर ने कन्यादान किया.

भीड़ ने तालियां बजा कर जोड़े का स्वागत किया. मुखिया मर्डर केस में अदालत ने मास्टर मिश्रा को 20 साल की कैद और हत्यारे को फांसी की सजा सुनाई.

धर्म का टैक्स, डर का हथियार

डर एक सामान्य मनोभाव है जिस के धर्म की गिरफ्त में जाते ही उस का व्यवसाय शुरू हो गया. लोगों को तरहतरह के धार्मिक डर दिखा कर उन से पैसा ?ाटका जाता है. जब युग तर्क, तथ्य और तकनीक का हो तो धर्म के नाम पर पैदा किया गया डर एक बड़ी रुकावट भी है और जेबों पर भारी डाका भी.

कोई और युग मसलन सतयुग, त्रेता या द्वापर होता तो उस बेचारे भक्त का बुत बन जाना तय था या फिर पुजारी के श्राप के मुताबिक वह कुत्ता, बिल्ली, मेंढक या चूहा योनि में भी शिफ्ट हो सकता था. लेकिन वह बच गया क्योंकि श्रापदाता ने सिर्फ श्राप देने की धमकी दी थी जिस से वह सम?ा गया कि यह कोई पौराणिक काल का दुर्वासा टाइप ऋषि नहीं है जिस का दिया श्राप सचमुच फलीभूत हो ही जाएगा. कलियुग का प्रभाव ही इसे कहा जाएगा कि भक्त ने श्राप की धौंस में न आते मंदिर में हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि देखो भाइयो, यह पुजारी मु?ो श्राप की धमकी दे रहा है.

वाकेआ उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल मंदिर का है, तारीख थी 25 जनवरी, 2022, जब इस मंदिर के पुरोहित दिनेश त्रिवेदी के एक असिस्टैंट राजेश शर्मा ने एक भक्त को धमकी दी कि दानदक्षिणा दो, नहीं तो श्राप दे दूंगा. भक्त पहले तो थोड़ा डरा, फिर उस के सिक्स्थ सैंस ने उसे चेताया कि ये पौराणिक भभकियां हैं, श्राप का रिवाज तो द्वापर के साथ ही खत्म हो गया है. आजकल जमाना बद्दुआओं का है और वे भी लग ही जाएं, इस की गारंटी नहीं, इतना ज्ञान जेहन में आते ही वह बिफर पड़ा.

पंडेपुजारियों की लूटमार और धौंसधपट से पीडि़त भक्तों ने देखते ही देखते एक टैंपरेरी यूनियन बना डाली जिस से मौका ए वारदात पर मंदिर प्रबंधन के साथसाथ कुछ पुलिस वाले भी आ पहुंचे. मीडियाकर्मियों ने भी तत्परता दिखाई. थोड़ी सी पंचायत यानी इंवैस्टिगेशन के बाद जो तथ्यनुमा बातें छन कर सामने आईं उन्होंने एक बार फिर मंदिरों व उन के अंदरबाहर घूमते दलालों की कलई खोल दी.

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पता चला कि देशभर के मंदिरों की तरह महाकाल मंदिर में भी इस तरह की घटनाएं रोजमर्रा की बातें हैं. आमजन से ले कर वीआईपी दर्शन, आरती और अभिषेक तक के मनमाने पैसे वसूले जाते हैं जिन में से कुछ की बाकायदा महाकाल थाने में एफआईआर भी दर्ज हुई हैं. दिनेश त्रिवेदी के ही एक और सहयोगी आनंद पांडे ने चंडीगढ़ से आए एक श्रद्धालु अमरदीप से नागनागिन का जोड़ा चढ़ाने के एवज में 500 रुपए मांगे थे.

इस से साबित यह होता है कि सरकारी दफ्तरों में पसरे घूसखोरी के रिवाज का मंदिरों व उन के पंडेपुजारियों की चालचलन से गहरा ताल्लुक है. संक्षेप में कह सकते हैं कि यह रिश्ता मौसेरे भाइयों जैसा है. लेकिन इस से साबित तो यह भी होता है कि देश में मूर्खों की कमी नहीं जो धातु के नागनागिन का जोड़ा चढ़ाने के लिए मंदिर पहुंच जाते हैं.

मंदिर प्रशासक गणेश कुमार धाकड़ ने सीसीटीवी फुटेज देखने के बाद भक्तों को सही जबकि पुजारियों अर्थात दलालों को दोषी पाया और उन के मंदिर में प्रवेश पर पाबंदी की घोषणा करते बात खत्म कर दी.

देशभर के मंदिरों में ऐसे नजारे आम हैं कि मूर्ति का पुजारी भक्तों से बदतमीजी करते उन्हें धकियाता है और अधिकांश भक्त इसे भी प्रभुइच्छा सम?ा प्रसाद की तरह ग्रहण कर लेते हैं. जिन में थोड़ीबहुत गैरत होती है वे पंडेपुजारियों को मन ही मन गाली बकते और कोसते मंदिर कैंपस के बाहर से ही दर्शनलाभ ले लेते हैं. लेकिन जिन का स्वाभिमान आस्था पर भारी पड़ता है, वे वैसा ही हल्ला मचाते विरोध दर्ज कराते हैं जैसा कि महाकाल के मंदिर में हुआ. लेकिन ये भक्त भी गजब के बेशरम होते हैं जो बेइज्जती होने के बाद भी मंदिर जाना नहीं छोड़ते.

कारोबार डर का

उज्जैन के मामले में दिलचस्प बात श्राप का डर दिखाना था जिस का रिवाज लुप्त सा हो चुका है. हालांकि, दूसरे हजारों तरीके सनातन काल से मौजूद हैं जिन से लोगों को पहले डराया जाता है, फिर डर दूर करने के नाम पर उन की जेबें ढीली की जाती हैं.

धर्म का धंधा दरअसल, टिका ही डर पर है जिस पर मशहूर कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचना ‘रंगभूमि’ में एक जगह कहा है-

‘धर्म का मुख्य स्तंभ भय है. अनिष्ट की शंका को दूर कर दीजिए, फिर तीर्थयात्रा, पूजापाठ, स्नानध्यान रोजानमाज किसी का निशान भी न रहेगा. मसजिदें खाली नजर आएंगी और मंदिर वीरान.’

बात सही है. धर्म कोई भी हो, उस का कारोबार सिर्फ डर से चलता है. लोग डरेंगे नहीं तो मंदिरमसजिद, चर्च और गुरुद्वारे क्यों जाएंगे जहां डर दूर करने का ‘तथाकथित’ शर्तिया इलाज किया जाता है. यह डर भी कोई कुदरती नहीं है बल्कि धर्म का पैदा किया हुआ ही है ठीक किसी गांव के बाहर के पीपल के पेड़ का जैसा जिस के बारे में गांव का निक्कमा और चालाक आदमी प्रचार करता है कि वहां मत जाना, वहां भूत, प्रेत और चुड़ैल रहते हैं जो राहगीरों को मार डालते हैं, उन का खून पीते हैं या उन से चिपक जाते हैं.

डर फैलाने की बाबत वह तरहतरह के प्रपंच और षड्यंत्र भी रचता है. जब गांव वाले डर की गिरफ्त में आ जाते हैं तो वह गंडा, तावीज, तंत्रमंत्र और ?ाड़फूंक की दुकान खोल कर बैठ जाता है.

यही हाल ब्रैंडेड मंदिरों व दूसरे धर्मस्थलों का है जहां लोग डर से मुक्ति के लिए ज्यादा जाते हैं. इन मंदिरों में बड़ेबड़े पंडेपुजारी और पुरोहित पैसा समेटने को बैठे होते हैं. उज्जैन के शर्माजी ने नए किस्म का डर फैलाने की कोशिश की थी जिस में वे कामयाब नहीं हो पाए यह और बात है, नहीं तो धार्मिक डर की कमी नहीं जिन से मुक्ति पाने को लोग अपनी मरजी से लुटतेपिटते हैं.

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धर्म के प्रमुख डर

बिना किसी शोध के कहा जा सकता है कि हमारेआप के इर्दगिर्द जितने भी डर हैं उन में से 95 फीसदी धर्म की उपज हैं. इन को सूचीबद्ध करना 19वें पुराण की रचना करने जैसा काम है जिसे भयपुराण कहा जा सकता है. पुराणों सहित तमाम धर्मग्रंथों में लोगों को कितनी तरह से डराया गया है, यह हर कभी सोशल मीडिया पर वायरल होती एक पोस्ट से पता चलता है. इस के मुताबिक, धर्म और उस के दुकानदारों द्वारा फैलाए गए प्रमुख डर ये हैं.-

धर्म के ठेकेदार कहते हैं कि सब से पहले तो हम से डरो, मतलब ऊंची जाति वालों से डरो. फिर भगवान से डरो.

फिर शैतान से डरो.

पिछले जन्म और अगले जन्म के कर्मों से डरो.

गृहतारोंनक्षत्रों से डरो.

हाथ की रेखाओं, जन्मकुंडली, आने वाले भविष्य से डरो.

उपवास में उपवास टूट जाए तो उस से डरो.

मांगी हुई मन्नत पूरी न कर पाए तो डरो.

जादूटोने से डरो.

नीबूमिर्ची के यंत्र से डरो.

चौराहों पर उतार कर रखे गए उतारे से डरो.

काली बिल्ली रास्ता काटे तो डरो.

कौवों की कांवकांव से डरो.

रात को उल्लू दिखे तो डरो.

कुत्ते के रोने से डरो.

रात को गूलर, पीपल के पेड़ों से डरो.

पुराने घरों से डरो.

रात को श्मशान से गुजरते वक्त डरो.

बाईं आंख फड़फड़ाए तो डरो.

खाने में बाल आ जाए तो डरो.

कोई छींके तो डरो.

डरो, डरो और डरो सिर्फ धर्म के नाम पर डरते रहो और भी बहुत सारे डर हैं जो सिर्फ भारत में बड़े गर्व से थोपे जाते हैं क्योंकि यहां लोग दिमाग को लौक कर के चाबी किसी और को दे देते हैं. वे खुद अपनी बुद्धि व तर्क से सोचते ही नहीं. जो सोचते हैं उन्हें नास्तिक, विधर्मी, वामपंथी, देशद्रोही और नक्सली करार दे कर उन का हर स्तर पर बहिष्कार किया जाने लगता है मानो जिंदा रहने और मानव योनि में रहने का हक उसी को है जो धर्म के डर और आतंक को स्वीकारता हो.

डर के मसले पर भगवान और शैतान दोनों में कोई खास फर्क नहीं किया गया है. पौराणिक साहित्य का आधार ही ये 2 तरह की कथित शक्तियां हैं. कहा यह जाता है कि भगवान हमें शैतान से बचाता है यानी कल को शैतान बचाने की जिम्मेदारी निभाने लगे तो लोग उसे भी पूजने लगेंगे जोकि धर्म के दुकानदार नहीं चाहते, इसलिए पूजापाठ की बीमारी कुछ इस तरह फैलाई गई है कि यह किसी नशे की लत से भी ज्यादा घातक हो गई है.

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जब लोग पूजापाठ के आदी हो गए तो इस पर भी डर की दुकान चमकाई जाने लगी कि पूजा अगर गलत तरीके से करोगे तो पाप लगेगा और अनिष्ट हो जाएगा. पूजापाठ को ले कर इतने नियमकानून बना दिए गए कि लोग उन से भी डरने लगे. प्रेमचंदजी ने इस मानसिकता को जड़ से पकड़ा कि अनिष्ट की शंका त्याग दो तो कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी पर धर्म का षड्यंत्र देखिए कि अनिष्ट का कारक भी भगवान की इच्छा को घोषित कर दिया गया.

बाईं आंख फड़कना, बिल्ली का रास्ता काटना, छींक आना जैसे उदाहरण अनिष्ट का संकेत माने जाते हैं जिन के पीछे वैज्ञानिक तो दूर, कोई अवैज्ञानिक वजहें भी नहीं हैं. इन से बड़े उदाहरण हैं पूजा का दीपक बु?ा जाना, कलश का अपनेआप लुढ़क जाना, जानवरों का रोना आदि जिन्हें इफरात से हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता है कि यहां निरूपा राय या कामिनी कौशल की पूजा का दीपक बु?ा नहीं कि वहां उन का बेटा अमिताभ बच्चन या मनोज कुमार मुसीबत में पड़ गया.

पूजापाठ से संबंधित डर पर गौर करें तो मान्यता है कि नीले या काले कपड़े पहन कर पूजा करने से पाप लगता है. अगर किसी लाश को छुआ है और बिना नहाए पूजा कर ली तो ऐसे व्यक्ति को पाप लगता है. लोग तब भी पाप के भागीदार माने जाते हैं जब वे सहवास के बाद बिना नहाए पूजापाठ कर लेते हैं. क्रोध में पूजन करने से भगवान गुस्सा हो जाता है और सजा देता है जैसी सैकड़ों बंदिशें बताती हैं कि भगवान और शैतान में कोई खास अंतर नहीं है. भगवान अगर वाकई भला करने वाला (जैसा कि माना जाता है) और रहम दिल होता तो इन बातों पर क्रुद्ध न होता.

दरअसल, ये और ऐसे सैकड़ों तरह के प्रपंच पैसा कमाने की गरज और मकसद से बनाए गए हैं जिस से लोग इन नियमों को बनाने वाले और उन का पालन करवाने वालों की गुलामी ढोते रहें. नहीं तो नर्क की सजा भुगतने तैयार रहें.

डर का मनोविज्ञान

गरुड़ पुराण में इन सजाओं का इतना वीभत्स चित्रण और वर्णन है कि अच्छेखासे लोग भी डरने लगें.

आम लोग सब से ज्यादा मौत से और पाप से डरते हैं. मृत्यु एक दिन आनी है, यह हर कोई जानता है लेकिन धर्म यह कहते डराता है कि मरने के बाद भी आप चैन से नहीं रह सकते. ऊपर कहीं आप को अपने किए कर्मों की सजा मिलती ही है. इस गरुड़ महापुराण के मुताबिक कुल 84 लाख नर्क हैं और उन में से भी

21 घोर नर्क हैं जहां पापियों को तरहतरह की सजाएं दी जाती हैं. महावीचि नाम का नर्क खून से सना हुआ है जिस में जीवों को कांटों से चुभो कर यातनाएं दी जाती हैं.

इसी तरह कुंभीपाक नाम के नर्क में पापियों को गरम बालू और जलते अंगारों पर नंगे बदन लिटाया जाता है. रौरव नर्क में लोहे के जलते हुए तीरों से लोगों को बींधा जाता है. अप्रतिष्ठ नर्क में खासतौर से उन लोगों को सजा दी जाती है जो ब्राह्मणों को सताते हैं. इस नर्क में मूत्र, मवाद और उलटियों में लोगों को डुबोया जाता है.

अब भला कौन भला आदमी इन नर्कों की यातनाएं भुगतना चाहेगा, इसलिए लोग डरते हैं और खूब दानदक्षिणा भी धर्म के ठेकेदारों के बताए मुताबिक देते हैं. कोई यह नहीं सोचता कि इन कपोलकल्पनाओं का आधार और प्रमाण क्या हैं. लोग ज्यादा ऐसा न सोचने लगें, इस बाबत इफरात से धार्मिक पाखंड आएदिन समारोहपूर्वक आयोजित किए जाते हैं. इन में पुराने, घिसेपिटे पौराणिक प्रसंगों को नएनए रोचक तरीकों से बांचा जाता है.

दिलचस्प बात यह है कि डर के इस कारोबार में मेहनत, लागत और पैसा भी छोटी जाति वालों का लगता है जबकि मुनाफा धर्मगुरुओं के हिस्से में जाता है. बात ‘शोले’ फिल्म के उस डायलौग जैसी है जिस में डाकू गब्बर सिंह रामगढ़ वालों से कहता है कि ‘गब्बर के ताप (कहर) से तुम्हें एक ही आदमी बचा सकता है… खुद गब्बर… और इस के एवज में अगर मेरे आदमी तुम से थोड़ा सा अनाज व पैसा लेते हैं तो कोई गुनाह नहीं करते.’

यही धर्मस्थलों की कहानी है जहां ऊपर वाले के कहर का डर दिखा कर नीचे वाले डर के हथियार से अनाज, पैसा, सोना चांदी, कपड़े, जमीन, दूधमलाई, मिठाईखटाई और जाने क्याक्या वसूला करते हैं. ये डाकू नहीं तो और क्या हैं.

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उज्जैन के महाकाल मंदिर में

3 पुजारियों राजेश शर्मा, अनिकेत शर्मा और अजय शर्मा ने यही किया था. लोचा इतना भर हुआ कि चंडीगढ़ के अमरदीप ठाकुर ‘शोले’ के अपाहिज ठाकुर बलदेव सिंह की तरह अड़ गए थे और ऐसा भी रोजरोज नहीं होता, कभीकभार होता है, इसलिए डर की दुकान पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह धर्म की तरह ही शाश्वत है.

अधिकतर मनोविज्ञानी यह मानते हैं कि डर निहायत ही प्राकृतिक मनोभाव है और आदमी की अधिकांश तकलीफों की वजह सैक्स और डर है. मशहूर मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड सैक्स को डर की वजह बताते रहे लेकिन उन के एक शिष्य और साथी कार्ल गुस्ताव जुंग के मुताबिक, मृत्यु का डर ही सभी मनोरोगों का कारण है. मृत्यु के डर को हिंदू धर्म ने दूर करने के बजाय जम कर किस तरह भुनाया, यह गरुड़ पुराण जैसे ग्रंथों को पढ़ कर सहज सम?ा जा सकता है.

बिना पढ़े अगर लाइफ आफ्टर डैथ की अजीबोगरीब, कपोलकाल्पनिक, हिंसक और वीभत्स थ्योरी किसी को मुफ्त में जाननीसम?ानी है तो उसे ऐसे किसी हिंदू घर में जा कर इस का श्रवण लाभ लेना चाहिए जहां किसी की मौत के बाद गरुड़ पुराण का 13 दिन वाला पाठ चल रहा हो.

मनोविज्ञान कभी किसी काल्पनिक संसार के अस्तित्व से सहमत नहीं हुआ, उलटे वह यह जरूर बताता रहता है कि दिमाग से कमजोर लोग अपने आसपास एक काल्पनिक दुनिया बुन लेते हैं और उस को ही सच मान बैठते हैं. ऐसे लोग सिजोफ्रेनिया के मरीज कहे जाते हैं. जो लोग पार्टटाइम या दिन में कुछ समय के लिए धर्म द्वारा बुनी गई काल्पनिक दुनिया में विचरते हैं उन्हें मानसिक रोगियों की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाना चाहिए, इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं.

महिलाएं डर की मुख्य शिकार

महिलाओं को सेविका, दासी और भोग्या करार देने वाले हिंदू धर्म में मासिकधर्म का डर भी विस्तार से बताया गया है जिसे बिना पढ़े 12-14 साल की वह किशोरी भी सम?ा जाती है जिस का पीरियड शुरू होने वाला होता है और जिस ने भागवत पुराण, भविष्य पुराण, मनु स्मृति और चरक संहिता जैसे दिशानिर्देश देने वाली किताबों के नाम भी नहीं सुने होते.

पहले मासिकधर्म में ही सनातन धर्म के ये फरमान और फतवे युवतियों की रगरग में नसीहतों के इंजैक्शनों के जरिए ठूंस दिए जाते हैं कि अब तुम 5 दिन अपवित्र रहोगी, तुम्हें पूजापाठ नहीं करना है, किचन में दाखिल नहीं होना है, किसी को छूना भी नहीं है और पलंग के नीचे सो सको तो और बेहतर है और साथ ही इन दिनों अचार को हाथ मत लगाना नहीं तो वह खराब हो जाएगा, गाय को छुओगी तो वह बां?ा हो जाएगी. तुम्हें मेकअप भी नहीं करना है और पौधों को पानी भी नहीं देना है नहीं तो वे सूख जाएंगे. वहीं, अगर शादीशुदा हो तो भूले से भी पति के नजदीक न जाना और छूना नहीं, वरना उस की उम्र कम हो जाएगी और तुम जल्द विधवा हो जाओगी.

पीरियड के दौरान महिला को पापिन, अछूत और शूद्रों से भी गईगुजरी माना जाता है जो अगर मंदिर चली जाए तो वह भी अपवित्र हो जाता है. डर का ऐसा रौद्र रूप शायद ही कहीं और देखने में आए कि 4-5 दिन महिला को नियमित बरतनों में खाना भी न दिया जाए. इस डर पर आएदिन हल्ला मचता रहता है लेकिन महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक हैसियत ज्यों की त्यों रहती है.

शिक्षित परिवारों में इतना जरूर बदलाव आया है कि महिलाओं को नीचे नहीं सोना पड़ता, खाने को ठीकठाक मिल जाता है और वे पूजाघर छोड़ कर पूरे घर में घूम सकती हैं यानी डर और हीनभावना दूर करने की कोई कोशिश नहीं की जाती. इन दिनों में उनके ?ाड़ूबुहारी और साफसफाई करने पर कोई पाबंदी नहीं है क्योंकि ये तो शूद्रकर्म होते हैं.

5 दिन महिलाओं की जान योनि से रिसते रक्त, जो निहायत ही प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है, में अटकी रहती है कि कब यह ?ां?ाट खत्म हो और वे सामान्य जिंदगी जिएं. इस दौरान वे डरती रहती हैं कि भूले से भी मुंह से रामश्याम न निकल जाए और पति या घर के अन्य पुरुषों को वे धोखे से टच न कर लें.

धर्म के उद्भव से ले कर आज तक महिलाएं उस की सौफ्ट टारगेट हैं तो हैं. इस पर थोड़ा सा हल्ला बताता है कि हम एक कायर समाज में रहते हैं और मजाक यह कि इसी आधार पर विश्वगुरु बनने का ढिंढोरा पीटा करते हैं.

इलाज क्या

हर किसी के अचेतन में गहरे तक पसरे धार्मिक डर लाइलाज हैं जिन से खुद को बचाए रखना ही कल्याण का इकलौता रास्ता है. इस के लिए जरूरी है दृढ़ इच्छाशक्ति, पाखंडों से लड़ने की क्षमता होना और इन से भी ज्यादा जरूरी है तर्क करना, डराने वालों को उन की हैसियत बताते उन की मंशा पूरी न होने देना जो सिर्फ डरा कर पैसा वसूलने की होती है.

यह लूट असल में एक उपरोक्त टैक्स की तरह है जो आम लोगों की आय का बड़ा हिस्सा खा जाती है. आज भी पौराणिक युगों की तरह हमें भरोसा दिया जा रहा है कि अगर पैसा दिया तो ही धर्म का डर नहीं रहेगा. यह कैसा डर का टैक्स है.

लालच और मुफ्तखोरी पर लगाम ऐसे नहीं कसेगी कि लुटेरों के खिलाफ कभीकभार, फौरीतौर पर अपनी तसल्ली के लिए उन का विरोध करते खुद की पीठ थपथपा ली जाए, बल्कि बहिष्कार धर्मस्थलों का करना पड़ेगा जो धार्मिक डर के डेरे और अड्डे हैं और ऐसा करने की हिम्मत न जुटा पाएं तो डरते रहिए, लुटते रहिए.

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