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Romantic Story : लक्ष्य – कहीं सुधा ने निलेश को माफ करने में देर तो नहीं कर दी थी ?

Romantic Story : निलेश और सुधा दोनों दिल्ली के एक कालेज में स्नातक के छात्र थे. दोनों में गहरी दोस्ती थी. आज उन की क्लास का अंतिम दिन था. इसलिए निलेश कालेज के पार्क में गुमसुम अपने में खोया हुआ फूलों की क्यारी के पास बैठा था. सुधा उसे ढूंढ़ते हुए उस के करीब आ कर पूछने लगी,  ‘‘निलेश यहां क्यों बैठे हो?’’

उस का जवाब जाने बिना ही वह एक सफेद गुलाब के फूल को छूते हुए कहने लगी, ‘‘इन फूलों में कांटे क्यों होते हैं. देखो न, कितना सुंदर होता है यह फूल, पर छूने से मैं डरती हूं. कहीं कांटे न चुभ जाएं.’’ निलेश से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘आज किस सोच में डूबे हो, निलेश?’’

निलेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा हूं कि जब हम किसी से मिलते हैं तो कितना अच्छा लगता है पर बिछड़ते समय बहुत बुरा लगता है. आज कालेज का अंतिम दिन है. कल हम सब अपनेअपने विषय की तैयारी में लग जाएंगे. परीक्षा के बाद कुछ लोग अपने घर लौट जाएंगे तोकुछ और लोग की तलाश में भटकने लगेंगे. तब रह जाएगी जीवन में सिर्फ हमारी यादें इन फूलों की खूशबू की तरह. यह कालेज लाइफ कितनी सुहानी होती है न, सुधा.

‘‘हर रोज एक नई स्फूर्ति के साथ मिलना, क्लास में अनेक विषयों पर बहस करना, घूमनाफिरना और सैर करना. अब सब खत्म हो जाएगा.’’ सुधा की तरफ देखता हुआ निलेश एक सवाल कर बैठा, ‘‘क्या तुम याद करोगी, मुझे?’’

‘‘ओह, तो तुम इसलिए उदास बैठे हो. आज तुम शायराना अंदाज में बोल रहे हो. रही बात याद करने की, तो जरूर करूंगी, पर अभी हम कहां भागे जा रहे हैं?’’ वह हाथ घुमा कर कहने लगी, ‘‘सुना है दुनिया गोल है. यदि कहीं चले भी जाएं तो हम कहीं न कहीं, किसी मोड़ पर मिल जाएंगे. एकदूसरे की याद आई तो मोबाइल से बातें कर लेंगे. इसलिए तुम्हें उदास होने की जरूरत नहीं.’’

सुधा का अंदाज देख कर निलेश गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दुनिया बहुत बड़ी है, सुधा. क्या पता दुनिया की भीड़ में हम खो जाएं और फिर कभी न मिलें? इसलिए आज तुम से अपने दिल की बातें करना चाहता हूं. क्या पता कल हम मिलें, न मिलें. नाराज मत होना.’’ वह घास पर बैठा उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘सुधा, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या तुम भी मुझ से प्यार करती हो?’’

यह सुनते ही सुधा के चेहरे का रंग बदल गया. वह उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो, निलेश? हमारे बीच प्यार कब और कहां से आ गया? हम एक अच्छे दोस्त हैं और दोस्त बन कर ही रहना चाहते हैं. अभी हमें अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए, न कि प्यार के चक्कर में पड़ कर अपना समय बरबाद करना चाहिए. प्यार के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं.

‘‘सौरी, तुम बुरा मत मानना. सच तो यह है कि मैं शादी ही नहीं करना चाहती. शादी के बाद लड़कियों की जिंदगी बदल जाती है. उन के सपने मोती की तरह बिखर जाते हैं. उन की जिंदगी उन की नहीं रह जाती, दूसरे के अधीन हो जाती है. वे जो करना चाहती हैं, जीवन में नहीं कर पातीं. पारिवारिक उलझनों में उलझ कर रह जाती हैं. मेरे जीवन का लक्ष्य है कुशल शिक्षिका बनना. अभी मुझे बहुत पढ़ना है.’’

‘‘सुधा, पढ़ने के साथसाथ क्या हम प्यार नहीं कर सकते? मैं तो प्यार में सिर्फ तुम से वादा चाहता हूं. भविष्य में तुम्हारे साथ कदम मिला कर चलना चाहता हूं. जब अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तभी हम घर बसाएंगे. अभी तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं, और रही बात शादी के बाद की, तो तुम जो चाहे करना. मैं कभी तुम्हें किसी भी चीज के लिए टोकूंगा नहीं.’’

‘‘पर मैं कोई वादा करना नहीं चाहती. अभी कोई भी बंधन मुझे स्वीकार नहीं.’’ तब सुधा की यह बात सुन कर उस ने कहा, ‘‘प्यार इंसान की जरूरत होती है. आज भले ही तुम इस बात को न मानो, पर एक दिन तुम्हें यह एहसास जरूर होगा. इन सब खुशियों के अलावा अपने जीवन में एक इंसान की जरूरत होती है. जिसे जीवनसाथी कहते हैं. खैर, मैं तुम्हारी सफलता में बाधक बनना नहीं चाहता. दिल ने जो महसूस किया, वह तुम से कह बैठा. बाकी तुम्हारी मरजी.’’

वह अनमना सा उठा और घर की तरफ चल पड़ा. उस के पीछेपीछे सुधा भी चल पड़ी. कुछ देर चुपचाप उस के साथसाथ चलती रही. अब दोनों बस स्टौप पर खड़े थे, अपनीअपनी बस का इंतजार करने लगे. तभी सुधा ने खामोशी तोड़ने के उद्देश्य से उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे जीवन में भी तो कोई लक्ष्य होगा. स्नातक के बाद क्या करना चाहोगे क्या यों ही लड़की पटा कर शादी करने का इरादा?’’

यह सुन कर निलेश झुंझलाते हुए बोला, ‘‘ऐसी बात नहीं  है, सुधा. मैं तुम्हें पटा नहीं रहा था. अपने प्यार का इजहार कर रहा था. पर जरूरी तो नहीं कि जैसा मैं सोचता हूं वैसा ही तुम सोचो, और प्यार किसी से जबरदस्ती नहीं किया जाता. यह तो एक एहसास है जो कब दिल में पलने लगता है, हमें पता ही नहीं चलता. आज के बाद कभी तुम से प्यार का जिक्र नहीं करूंगा. दूसरी बात, जीवन के लक्ष्य के बारे में अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं. वक्त जहां ले जाएगा, चला जाऊंगा.’’

‘‘निलेश, यह तुम्हारी जिंदगी है, कोई और तो नहीं सोच सकता. समय को पक्ष में करना तो अपने हाथ में होता है. अपने लक्ष्य को निर्धारित करना तुम्हारा कर्तव्य है.’’

इस पर निलेश बोला, ‘‘हां, मेरा कर्तव्य जरूर है लेकिन अभी तो स्नातक की परीक्षा सिर पर सवार है. उस के बाद हमारे मातापिता जो कहेंगे वही करूंगा.’’ तभी सुधा की बस आ गई और वह बाय करते हुए बस में चढ़ गई. निलेश भी अपने गंतव्य पर चला गया.

सुधा अब अपने घर आ चुकी थी. जब खाना खा कर वह अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी तो सोचने लगी,

क्या सचमुच निलेश मुझ से प्यार करता है? या यों ही मुझे आजमा रहा था. पर उस ने तो अपने जीवन का निर्णय मातापिता पर छोड़ रखा है. उन्हीं लागों को हमेशा प्रधानता देता है. क्या जीवन में वह मेरा साथ देगा? अच्छा ही हुआ जो उस का प्यार स्वीकार नहीं किया. प्यार तो कभी भी किया जा सकता है, पर जीवन का सुनहला वक्त अपने हाथों से नहीं जाने दूंगी. समय के भरोसे कोई कैसे जी सकता है? जो स्वयं अपना निर्णय नहीं ले सकता वह मेरे साथ कदम से कदम मिला कर कैसे चल सकता है? क्या कुछ पल किसी के साथ गुजार लेने से किसी से प्यार हो जाता है? निलेश न जाने क्यों ऐसी बातें कर रहा था? यह सोचतेसोचते वह सो गई.

अगले दिन वह परीक्षा की तैयारी में लग गई. निलेश से कम ही मुलाकात होती. एकदिन सुबह वह उठी तो रमन, जो निलेश का दोस्त था ने बुरी खबर से उसे अवगत कराया कि निलेश के पापा एक आतंकी मुठभेड़ में मारे गए हैं. आज सुबह 6 बजे की फ्लाइट से वह अपने गांव के लिए रवाना हो गया. उस के पापा की लाश वहीं गांव में आने वाली है. वह बहुत रो रहा था. उस ने कहा कि तुम्हें बता दें.

यह सुन वह बहुत व्याकुल हो उठी. उस को फोन लगाने लगी पर उस का फोन स्विच औफ आ रहा था. वह दुखी हो गई, उसे दुखी देख उस की मां ने सवाल किया कि सुधा क्या बात है, किस का फोन था? तब उस ने रोंआसे हो कर कहा, ‘‘मां, निलेश के पापा की आतंकी मुठभेड़ में मृत्यु हो गई,’’ यह कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए और कहने लगी, क्यों आएदिन ये आतंकी देश में उत्पात मचाते रहते हैं? कभी मंदिर में धमाका तो कभी मसजिद में करते हैं तो कहीं सरहद पर गोलीबारी कर बेकुसूरों का सीना छलनी कर देते हैं. क्या उन की मानवता मर चुकी है या उन के पास दिल नहीं होता जो औरतों के सुहाग उजाड़ लेते हैं. आतंक की डगर पर चल कर आखिर उन्हें क्या सुख मिलता है?’’

सुधा के मुख से यह सुन उस की मां उस के करीब जा कर समझाने लगी, ‘‘बेटी, कुछ लोगों का काम ही उत्पाद मचाना होता है. अगर उन के दिल में संवेदना होती तो ऐसा काम करते ही क्यों? पर तुम निलेश के पिता के लिए इतनी दुखी न हो. सैनिक का जीवन तो ऐसा ही होता है बेटी, उन के सिर पर हमेशा कफन बंधा होता है. वे देश के लिए लड़ते हैं, पर उन का परिवार एक दिन अचानक ऐसे ही बिखर जाता है. मरता तो एक इंसान है लेकिन बिखर जाते हैं मानो घर के सभी सदस्य. हम उस शहीद को नमन करते हैं. ऐसे लोग कभी मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं.’’

पर सुधा अपने कमरे में आ कर सोचने लगी कि काश, निलेश के लिए वह कुछ कर पाती. आज वह कितना दुखी होगा. एक तरफ मैं ने उस का प्यार ठुकरा दिया, दूसरी तरफ उस के सिर से पिता का साया उठ गया. इस समय मुझे उस के साथ होना चाहिए था. आखिर दोस्त ही दोस्त के काम आता है. कई बार जब मैं निराश होती तो वह मेरा साहस बढ़ाता. आज क्या मैं उस के लिए कुछ नहीं कर सकती? वह बारबार फोन करती पर कोई जवाब नहीं आता तो निराश हो जाती.

2 महीने बाद परीक्षा हौल में उस की आंखें निलेश को ढूंढ़ रही थीं. पर उस का कोई अतापता नहीं था. वह सोचने लगी, क्यों उस के विषय में वह चिंतित रहने लगी है? वह मात्र दोस्त ही तो था, एकदिन जुदा तो होना ही था. फिर उसे ध्यान आया कि कहीं उस की परीक्षा खराब न हो जाए, और वह अपना पेपर पूरा करने लगी.

एक महीने बाद जिस दिन रिजल्ट निकलने वाला था, वह कालेज गई तो सभी दोस्तों से उस का हाल जानने का प्रयत्न किया पर किसी ने उसे संतुष्ट नहीं किया. सभी अपने कैरियर की बातों में मशगूल दिख रहे थे. वह घर लौट गई. एकदिन अपनी डिगरी हाथ में ले कर सोचने लगी कि काश, निलेश को भी स्नातक की उपाधि मिली होती तो उस की खुशियां भी दोगुनी होती. न जाने वह जिंदगी कहां और कैसे काट रहा है? जिन आंखों को देख कर वह उन में समा जाना चाहता था क्या वे आंखें अब उसे याद नहीं आतीं? कालेज के अंतिम दिन जो बातें मुझ से की थीं, क्या वह सब नाटक था या यों ही भावनाओं में बह कर बयां कर दिया था, पर मैं ने भी तो उसे तवज्जुह नहीं दी थी. कहीं वह मुझ से नाराज तो नहीं. उस के मन में अनेक खयालों के बुलबुले उठते रहते.

इस तरह 2 साल गुजर गए. उस ने स्नातक के बाद बीएड भी कर लिया, ताकि स्कूल में पढ़ा सके. जब उसे निलेश की याद सताती तो वह चित्र बनाने बैठ जाती. उसे चित्र बनाने का बहुत शौक था. स्कूल में भी बच्चों को चित्रकला का पाठ सिखाने लगी. इस तरह वह अपने चित्रों के साथ दिल बहलाती रही. अब वह किसी से नहीं मिलती, अपने सभी दोस्तों से कन्नी काटती रहती. अपना काम करती और घर आ कर गुमसुम रहती.

उस की हालत देख उस के मातापिता भी परेशान रहने लगे. उस की शादी के लिए उसे किसी लड़के की तसवीर दिखाते तो उस में निलेश की तसवीर ढूंढ़ने लगती. उस के प्यारभरे शब्द याद आने लगते. तब वह मन ही मन कहने लगती, क्या उसे निलेश से प्यार होने लगा है, पर वह तो मेरी जिंदगी से, शहर से जा चुका है. क्या वह लौट कर कभी आएगा मेरी जिंदगी में. इस तरह उस की यादों में सदा खोई रहती.

एक दिन उस के स्कूल के बच्चों ने चित्रकला प्रतियोगिता में जब अनेक स्कूलों के साथ हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया तो उन की तसवीर अखबार में प्रकाशित हुई, उन के साथ सुधा की भी तसवीर उन बच्चों के साथ साफ दिखाई दे रही थी.

उधर जब एक समाचारपत्र पढ़ते हुए निलेश ने सुधा की तसवीर देखी तो दंग रह गया और सोचने लगा, आखिर सुधा अपनी मंजिल पर पहुंच ही गई. उस ने जो कहा था, कर दिखाया. सचमुच जब मन में दृढ़विश्वास हो तो सफलता मिल ही जाती है. मैं भी कितना मशगूल हो गया कि अपने दोस्तों को भूल गया. कल क्या थी मेरी जिंदगी और आज क्या बन गई. कहां उसे पाने का ख्वाब देखा करता था, और आज उस की कोई तसवीर भी मेरे पास नहीं. मैं तो आज भी सुधा से प्यार करता हूं, पर न जाने क्यों वह प्यार से अनजान है. क्यों न एकबार उसे फोन किया जाए. बधाई तो दे ही सकता हूं.

उस ने फोन किया तो सुधा उस की आवाज सुन चकित रह गई. जब उस ने ‘हैलो सुधा,’ कहा तो आवाज पहचान गई, और शब्दों पर जोर दे कर वह बोल पड़ी, ‘‘क्या तुम निलेश बोल रहे हो?’’

‘‘हां, सुधा.’’

‘‘तुम तो सचमुच दुनिया की भीड़ में खो गए, निलेश, और मैं तुम्हें ढूंढ़ती रही.’’ उस ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘क्यों ढूंढ़ती रही, सुधा? तुम तो मुझ से प्यार भी नहीं करती थी?’’ तब वह रोष प्रकट करती हुई बोली, ‘‘पर दोस्ती तो थी तुम से? क्यों कभी पलट कर मुझे देखने की आवश्यकता नहीं समझी?’’

वह उधर से उदास स्वर में बोला, ‘‘जीवन की कठिनाइयों ने भूलने पर मजबूर कर दिया सुधा वरना मैं तुम्हें कभी नहीं भूला. मैं तो अपनेआप को ही भूल चुका हूं. पापा क्या गुजर गए, मेरी तो दुनिया ही बदल गई. मैं दिल्ली लौट जाना चाहता था अपनी स्नातक की परीक्षा देने के लिए. पर जिस दिन दिल्ली के लिए रवाना हो रहा था, मां की तबीयत खराब हो गई. अस्पताल ले गया तो जांच में पता चला कि मां को ब्रेन ट्यूमर है. इसलिए मैं उन की देखभाल करने लगा. मां को ऐसी हालत में छोड़ कर जाना उचित नहीं समझा. मेरी मां अकेले न जाने कब से अपने दर्द को छिपाए जी रही थीं. कहतीं भी तो किस से. पापा तो थे नहीं.

‘‘मेरी पढ़ाई खराब न हो, मां ने कुछ नहीं बताया. ऐसे में उन्हें अकेले छोड़ दिल्ली आता भी तो कैसे.’’

‘‘ओह, तुम इतना सबकुछ अकेले सहते रहे. अब तुम्हारी मां कैसी हैं?’’

निलेश ने धीरे से कहा, ‘‘अभी 2 महीने पहले ही तो औपरेशन हुआ है बे्रन ट्यूमर का. अभी भी इलाज चल रहा है. कीमोथेरैपी करानी पड़ती है. ब्रेन ट्यूमर कोई छोटी बीमारी तो होती नहीं, कई तरह के साइड इफैक्ट हो जाते हैं. बहुत देखभाल की जरूरत होती है. इसलिए मैं कहीं उन्हें छोड़ कर जा भी नहीं सकता. तुम अपनी सुनाओ. आज तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचते देख मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया. स्कूल के बच्चों के साथ चित्रकारिता में इनाम लेते हुए अखबार में तसवीर देखी, तो फोन उठा लिया. आखिर तुम चित्रकारी में सफल हो ही गई. बहुत बधाई. तुम सफलताओं के ऊंचे शिखर पर विराजमान रहो, मैं तुम्हें दूर से देखता रहूं, यह मेरी कामना है.’’

‘‘धन्यवाद निलेश, पर मैं तुम से एक बार मिलना चाहती हूं. तुम नहीं आ सकते तो अपने घर का पता ही बता दो, मैं आ जाऊंगी.’’

यह सुन नीलेश को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उस ने पूछा, ‘‘सुधा, सचमुच मुझ से मिलने आओगी?’’

‘‘यकीन नहीं हो रहा न, एक दिन यकीन भी हो जाएगा. अपने घर का पता मैसेज कर देना.’’

एक सप्ताह बाद सुधा, अपने मातापिता की अनुमति ले कर घर से निकल कोलकाता एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर निलेश के बताए पते पर एक टैक्सी में सवार हो कर उस के गांव पहुंच गई. ज्योंज्यों वह उस के घर के करीब जा रही थी उस के दिल में उथलपुथल मचने लगी कि उस के घर के सदस्य क्या कहेंगे. वह ज्यादा निलेश के परिवार के बारे में जानती भी तो नहीं. वह गांव के वातावरण से अनभिज्ञ थी. उस ने टैक्सी ड्राइवर से रुकने को कहा और टैक्सी से उतर स्वयं ढूंढ़ते हुए वह निलेश के घर पहुंच गई. वह दरवाजा खटखटाने लगी. दरवाजा खुलते ही उस की नजर निलेश पर पड़ी तो खुशी का ठिकाना न रहा.

निलेश ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘सुधा, मैं कहीं सप तो नहीं  देख रहा हूं.’’

उस का कान मरोड़ते हुए वह बोली,‘‘तो जाग जाओ अब सपने से.’’

सुधा का बैग उस ने अपने हाथों में ले कर कमरे में प्रवेश किया. जहां उस की मां एक पलंग पर बैठी थीं. पलंग से सटी एक मेज थी जिस पर दवाइयां रखी थीं. कमरा बहुत बड़ा था. सामने की दीवार पर एक तसवीर टंगी थी, जिस पर फूलों की माला लटक रही थी. सुधा ने उस की मां के चरणों को स्पर्श किया तो वे पलंग पर बैठे उसे आश्चर्यचकित नजरों से देखने लगीं.

तभी निलेश ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘मां, यह सुधा है, दिल्ली से आई है. कालेज में मेरे साथ पढ़ती थी.’’ उस की मां सुधा से औपचारिक बातें करने लगीं, पर सुधा की नजरें दीवार पर लगी उस तसवीर पर टिकी थीं.

निलेश ने कहा, ‘‘सुधा, यह मेरे पिताजी की तसवीर है. वह पलंग से उठ कर उस तसवीर को स्पर्श कर भावविह्वल हो गई. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. निलेश की मां देख कर समझ गई कि  यह बहुत भावुक लड़की है.’’

उन्होंने उस का ध्यान हटाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘बेटी, मेरे पति जिंदा होते तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होते, पर नियति को कौन टाल सकता है. आओ, मेरे पास बैठो. लगता है तुम मेरे बेटे से बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतनी दूर से मिलने आई हो वरना इस कुटिया में कौन आता है. मेरी बूढ़ी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. क्या तुम मेरे बेटे को पसंद करती हो?’’

यह सुन सुधा ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘हम और निलेश कालेज में बहुत अच्छे दोस्त थे.’’

जब निलेश की मां ने कहा, ‘‘तो क्या अब नहीं हो?’’ मुसकराते हुए उस ने बड़ी सहजता से कहा, ‘‘हां, अभी भी मैं उस की दोस्त हूं, तभी तो मिलने आई हूं.’’

निलेश की मां मुसकराने लगीं, और उस के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘सदा खुश रहो बेटी, मेरा बेटा बहुत अच्छा है, पर मेरी बीमारी के कारण वह कोई डिगरी न पा सका. मैं ने बहुत समझाया कि दिल्ली जा कर अपनी पढ़ाई पूरी कर ले, मेरा क्या है, आज हूं कल नहीं रहूंगी. पर उस की तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

सुधा ने तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘मांजी, आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी. आप को इस हालत में छोड़ कर कोई भी बेटा कैसे जा सकता था?’’

तभी निलेश चाय का प्याला ले कर कमरे में उपस्थित हुआ और सुधा की बातें सुन कर सोचने लगा कि क्या यह वही सुधा है? जो परिवार की जिम्मेदारी के नाम से कोसों दूर भागती थी. मां को खुश करने के लिए कितना अच्छा नाटक कर रही है. न जाने क्यों झूठी तसल्ली दे रही है. वह उस के करीब जा कर कहने लगा, ‘‘सुधा, तुम सफर में थक गई होगी, फ्रैश हो कर चाय पी लो.’’ चाय मेज पर रखते हुए उसे आदेश दिया.

निलेश की मां पलंग से उठीं और अपने कमरे से बाहर चली गईं ताकि वे दोनों आपस में बातें कर सकें. उन के जाते ही सुधा निलेश से सवाल कर बैठी,  ‘‘निलेश, क्या चाय तुम ने बनाई है?’’

‘‘हां, सुधा, मुझे सबकुछ काम करना आता है और कोई है भी तो नहीं हमारी मदद करने के लिए घर में.’’

सुधा आश्चर्यचकित होती हुई बोली, ‘‘तुम लड़का हो कर भी अकेले कैसे सब मैनेज कर लेते हो. अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, ताकि तुम्हें जीवन में कुछ आराम तो मिलता.’’

निलेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह तुम कह रही हो सुधा. आजकल की लड़कियां घर की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहना चाहतीं. हर लड़की के सपने होते हैं. किसी लड़की के उन सपनों को मैं बिखेरना नहीं चाहता. मैं जैसा भी हूं, अकेले ही ठीक हूं.’’

सुधा अचानक एक प्रश्न कर बैठी, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करना चाहोगे?’’

वह उस की तरफ देख कर फीकी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘सुधा, क्यों मजाक कर रही हो?’’

‘‘यह मजाक नहीं निलेश, हकीकत है. क्या तुम मुझ से शादी करोगे? तुम से बिछड़ने के बाद एहसास हुआ कि जीवन में एक हमसफर तो होना ही चाहिए. अब जीवन में मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है. मैं ने जो चाहा, सब किया पर खुशी की तलाश में अब तक भटक रही हूं. मुझे लगता है कि वो खुशी तुम हो, कोई और नहीं. न जाने क्यों दिल तुम्हें ही पुकारता रहा. तुम ने ठीक कहा था. प्यार कब किस से हो जाए पता नहीं चलता, जब पता चला तो दिल पर तुम्हारा ही नाम देखा. तुम्हारी प्यारभरी बातें, मुझे सोने नहीं देतीं.’’

‘‘यही तो प्यार है, सुधा, दो दिल मिलते हैं पर कभीकभी एकदूजे को समझ नहीं पाते, और जब समझते हैं तो बहुत देर हो जाती है. सुधा, सच तो यह है कि मैं तुम्हें खुश नहीं रख पाऊंगा. क्या तुम इस गांव के वातावरण में मेरे साथ रह पाओगी? मेरी परिस्थिति अब तुम्हारे सामने हैं. जैसी जिंदगी तुम्हें चाहिए, मैं नहीं दे सकता. तुम्हें बंधन पसंद नहीं और मैं उन्मुक्त नहीं. तुम्हारे सपने अधूरे रह जाए, यह मुझे मंजूर नहीं.’’

चाय की चुस्की लेते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, मेरे सपने तो अब पूरे होंगे. अब तक मैं शहर के बच्चों को पढ़ाती रही, चित्रकला भी सिखाती रही पर अब तुम्हारे गांव के बच्चों के साथ बिताना चाहती हूं. शहर में तो सभी रहना चाहते हैं, पर अब मैं तुम्हारे गांव के बच्चों को पढ़ाऊंगी. एक अलग अनुभव होगा मेरे जीवन में. इस तरह तुम्हारी मां की देखभाल भी कर पाऊंगी, अब मेरा नजरिया बदल गया है. जिम्मेदारी और प्यार का एहसास तो तुम्हीं ने कराया है. तुम ठीक कहा करते थे कि बंधन में सुख भी होता है और दुख भी.’’

वह सुधा की बातें सुन, अवाक उसे देखने लगा. उस का जी चाहा कि सुधा को गले लगा ले. वह सोचने लगा, वक्त ने सुधा को कितना परिपक्व बना दिया या मेरी जुदाई ने प्यार का एहसास करा दिया है कि जब किसी से प्यार होता तो सभी परिस्थितियां अनुकूल दिखाई देने लगती हैं.

‘क्या सोच रहे हो, निलेश, दरअसल, तुम से जुदा हो जाने के बाद मुझे एहसास हो गया कि दोस्ती और प्यार के बिना इंसान जीवनपथ पर चल नहीं सकता. कभी न कभी औरत हो या पुरुष दोनों को जीवन में एकदूसरे की आवश्यकता होती ही है. फिर तुम क्यों नहीं मेरी जिंदगी में. आज उस प्यार को स्वीकार करने आई हूं जो कभी ठुकरा दिया था. बोलो, क्या मुझे स्वीकार करोगे?’’

‘‘सुधा, बात स्वीकार की नहीं, लक्ष्य की है. तुम तो अपनी सफलता की सारी मंजिले पार कर गई. पर मैं आज भी लक्ष्यविहीन हूं. तुम्हारे शब्दों में कहूं तो समय पर भरोसा जो करता था.’’

उसे दिलासा देते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, परिस्थितियां इंसान को बनाती हैं, और बिगाड़ती भी हैं. इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. तुम ने तो अपनी मां के लिए अपना कैरियर दांव पर लगा दिया. ऐसा बेटा होना भी तो आजकल इस संसार में दुर्लभ है. क्या तुम्हारा यह लक्ष्य नहीं? आज मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे पास अभी भी समय है, अपनी अधूरी शिक्षा पूरी कर सकते हो. बीए कर सेना में भरती हो सकते हो तुम्हारे पिता की भी यही इच्छा थी न?’’

यह सुन निलेश की खुशी का ठिकाना न रहा,‘‘तुम सचमुच ग्रेट हो. यहां आते ही मेरी हर समस्या को तुम ने ऐसे सुलझा दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.’’

तभी दरवाजे की ओर से निलेश की मां ने जब यह सुना तो खुशी से फूले न समाईं. अपने बेटे के भविष्य को ले जो उन के हृदय पर संकट के बादल घिर आए थे, वे सब छंट गए. आगे बढ़ कर सुधा को उन्होंने गले लगा लिया.

सुधा ने कहा, ‘‘आंटी, यदि आप इजाजत दें तो मैं अपनी नौकरी और शहर छोड़ कर यहीं आ जाऊं?’’

‘‘आंटी नहीं, सुधा, आज से तुम मुझे मां कहोगी,’’ निलेश की मां ने जब यह कहा तो दोनों मुसकरा पड़े. सुधा ने अपने मातापिता की इजाजत ले कर निलेश से शादी कर ली और गांव में ही जीवन व्यतीत करने लगी.

निलेश ने स्नातक की परीक्षा पास कर सेना में भरती होने के लिए अर्जी दे दी थी. आज वह अपने देश की सीमा पर तैनात है. शादी के 6 महीने बाद ही निलेश की मां की मृत्यु हो गई थी.

आज वे जीवित होतीं तो कितनी खुश होतीं. सीमा पर तैनात निलेश यही सोच रहा है. शायद यही जीवन की रीत है. कभी मिलती खुशी तो कभी गम की लकीर. पर जिंदगी रुकती तो नहीं है. सुधा ठीक तो कहा करती थी कि इंसान चाहे तो कभी भी, कुछ भी कर सकता है. पर आज अगर अपने लक्ष्य तक पहुंचा हूं तो सुधा के सहयोग से. जीवन का हमसफर साथ दे तो कोई भी जंग इंसान जीत सकता है.

Emotional Story : नई दिशा – आलोक के पत्र में क्या था ?

Emotional Story : नीता स्कूल से लौट कर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली, शाम के 6 बजने वाले थे. उस ने किताबें टेबल पर रख दीं और थकी सी पलंग पर बैठ गई.

उसे कमरा बेहद सूना लग रहा था. ‘आलोक आज चला जो गया था. अगर वह कुछ दिन और रहता तो कितना अच्छा लगता पर…’ सोचतेसोचते वह पिछले दिनों की यादों में खो गई.

उस दिन ठंड कुछ ज्यादा थी. घर के अंदर भी ठंड का एहसास हो रहा था. मम्मी धूप में बैठी स्वैटर बुन रही थीं. धीरज जोरजोर से बोल कर सबक याद कर रहा था. नीता टिफिन तैयार कर रही थी कि तभी घंटी बजी.

दरवाजा खोलने मम्मी ही गईं. सामने एक अपरिचित युवक खड़ा था.

‘चाचीजी, नमस्ते. आप ने पहचाना मुझे?’ वह हाथ जोड़ कर बोला.

‘आप…कौन?’ उन्हें चेहरा जानापहचाना लग रहा था.

‘मैं रामसिंहजी का बेटा, आलोक…’ वह बोला.

‘अरे, तुम रामसिंह भैया के बेटे हो. कितने बड़े हो गए हो. तभी तो मुझे लगा मैं ने तुम्हें कहीं देखा है,’  वे हंस कर बोलीं, ‘बेटा, अंदर आओ न.’

वे दरवाजे से एक तरफ हट गईं. आलोक ने बैग कंधे से उतार कर नीचे रख दिया. फिर आराम से सोफे पर बैठ गया. उस ने एक पत्र अपनी जेब से निकाल कर मम्मी को दिया.

‘अच्छा, तो तुम यहां पीएससी की परीक्षा देने आए हो?’ पत्र पढ़ते हुए मम्मी ने पूछा.

‘जी चाचीजी,’ उस ने आदर से कहा.

‘ठीक है. इसे अपना ही घर समझो,’ फिर वे रुक कर बोलीं, ‘अरी, नीता बिटिया, देख कौन आया है और सुन चाय भी बना ला.’

नीता की समझ में कुछ नहीं आया. कौन है, देखने के लिए वह बाहर आ गई.

‘बेटी, यह आलोक है, तेरे बचपन का दोस्त. जानती है एक बार इस ने तेरी चोटी रस्सी से बांध दी थी. मुश्किल से बाल काट कर खोलनी पड़ी थी,’ मम्मी ने हंस कर बताया.

‘मम्मीजी, मुझे तो कुछ याद नहीं, कब की बात है?’ नीता ने पूछा.

‘उस दिन तेरा जन्मदिन था. बड़ी अच्छी फ्रौक पहन, 2 चोटियां कर के तू आलोक को बताने गई थी. आलोक उस समय तो कुछ नहीं बोला. मैं इस की मां के साथ बातों में लगी थी कि तभी इस ने चुपके से तेरी चोटी बांध दी थी,’ मां ने याद दिलाया.

‘अब मुझे याद आ गया,’ आलोक अचानक बोला, ‘नीता, मुझे माफ करना. अब ऐसी गलती नहीं करूंगा.’

नीता शरमा कर अंदर चाय बनाने चली गई.

आज से करीब 12 साल पहले नीता और आलोक के पापा विजय नगर में आसपास रहते थे. कालोनी में उन की दोस्ती की अकसर चर्चा हुआ करती थी.

दोनों की जाति अलगअलग थी पर विचार एक से थे. दोनों परिवारों की स्थिति भी एक जैसी थी. पर नीता के पापा अपने काम के सिलसिले में इंदौर आ बसे. इस शहर में उन का धंधा अच्छा चल निकला. इसलिए वे यहीं के हो कर रह गए.

इतने सालों बाद अब आलोक परीक्षा देने उन के यहां आया था.

सुबह से शाम तक नीता उस का खयाल रखती. इस साल वह भी 12वीं की परीक्षाएं देने वाली थी. आलोक पढ़ाई में तेज था. अपनी पढ़ाई के साथसाथ वह नीता को भी पढ़ाई के गुर सिखलाता. ‘मन लगा कर पढ़ोगी तो जरूर अच्छे नंबर आएंगे,’ वह समझाता. नीता को भी उस की बातें बहुत अच्छी लगतीं.

मम्मी ने आलोक को एक अलग कमरा दे दिया था ताकि वह अपनी तैयारी ठीक से कर सके. वह 2 पेपर दे चुका था. पेपर बहुत अच्छे हुए थे. आलोक का चायनाश्ता, खानापीना, सभी मम्मी ने नीता के हवाले कर दिया था. नीता का जवान दिल जैसे आलोक को पा कर मस्त हो रहा था. रात को घंटों वह आलोक के पास बैठी रहती. मम्मी भी उन की बातों से अनजान रहतीं.

आलोक का आखिरी पेपर 2 दिन बाद था. वह तैयारी करना चाहता था पर नीता ने जिद कर के आलोक और धीरज के साथ पिक्चर जाने का मन बना लिया. फिर दूसरे दिन कमला पार्क में पिकनिक का प्रोग्राम भी बना डाला.

आलोक पिकनिक नहीं जाना चाहता था पर उसे मजबूरन नीता का साथ देना पड़ा. इन 2 दिनों में नीता के मन में आलोक के प्रति एक अजीब आकर्षण पैदा हो गया था. जैसे वह मन ही मन आलोक की तरफ खिंचती चली जा रही थी.

उस दिन आलोक का अंतिम पेपर था. नीता भी उसे खाना दे कर कैमिस्ट्री का कुछ पूछने बैठ गई. रात अधिक हो चुकी थी. उस के मम्मीपापा दूसरे कमरे में बेखबर सो रहे थे. अचानक नीता ने आलोक का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘आलोक, जाने क्यों तुम मुझे अच्छे लगने लगे हो.’

आलोक भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था. उस का मन हुआ कि वह नीता के बहुत करीब हो जाए. पर तभी वह संभल गया, ‘जिस चाचीजी ने मुझ पर विश्वास किया है, क्या उन्हें समाज के सामने जलील होना पड़ेगा?’ ऐसा सोच कर उस ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया.

‘देखो नीता, यह समय हमारे प्यार करने का नहीं है बल्कि अपनाअपना कैरियर बनाने का है. अगर हम ने इस समय ऐसावैसा कुछ किया तो शायद हमें जीवन भर पछताना पड़े. इसलिए मैं तो कहता हूं कि तुम 12वीं में अच्छी डिवीजन लाओ.

‘मैं भी नौकरी की तैयारी करता हूं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि नौकरी लगते ही सब से पहले पिताजी को तुम्हारे घर भेजूंगा, हमारे रिश्ते की बात चलाने के लिए,’ उस ने नीता को समझाया.

‘हां आलोक, मम्मी भी मुझे डाक्टर बनाने का सपना देख रही हैं. अच्छा हुआ जो तुम ने मुझे सोते से जगा दिया,’ वह शरमा कर बोली.

थोड़ी देर चुप्पी रही. ‘मैं कल पेपर दे कर चला जाऊंगा. मुझे एक इंटरव्यू की तैयारी करनी है. अब तुम अपने कमरे में जाओ. रात बहुत हो चुकी है,’ मुसकराते हुए आलोक बोला.

नीता भी मन में नई दिशा में बढ़ने का संकल्प ले कर अपने कमरे की ओर चल पड़ी

Online Hindi Story : लक्ष्मण रेखा – मिसेज राजीव कैसे बन गईं धैर्य का प्रतिबिंब

Online Hindi Story : मेहमानों की भीड़ से घर खचाखच भर गया था. एक तो शहर के प्रसिद्ध डाक्टर, उस पर आखिरी बेटे का ब्याह. दोनों तरफ के मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी. इतना बड़ा घर होते हुए भी वह मेहमानों को अपने में समा नहीं पा रहा था.

कुछ रिश्ते दूर के होते हुए भी या कुछ लोग बिना रिश्ते के भी बहुत पास के, अपने से लगने लगते हैं और कुछ नजदीकी रिश्ते के लोग भी पराए, बेगाने से लगते हैं, सच ही तो है. रिश्तों में क्या धरा है? महत्त्व तो इस बात का है कि अपने व्यक्तित्व द्वारा कौन किस को कितना आकृष्ट करता है.

तभी तो डाक्टर राजीव के लिए शुभदा उन की कितनी अपनी बन गई थी. क्या लगती है शुभदा उन की? कुछ भी तो नहीं. आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डाक्टर राजीव सहज ही मिलने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. उन की आंखों में न जाने ऐसा कौन सा चुंबकीय आकर्षण है जो देखने वालों की नजरों को बांध सा देता है. अपने समय के लेडीकिलर रहे हैं डाक्टर राजीव. बेहद खुशमिजाज. जो भी युवती उन्हें देखती, वह उन जैसा ही पति पाने की लालसा करने लगती.

डाक्टर राजीव दूल्हा बन जब ब्याहने गए थे, तब सभी लोग दुलहन से ईर्ष्या कर उठे थे. क्या मिला है उन्हें ऐसा सजीला गुलाब  सा दूल्हा. गुलाब अपने साथ कांटे भी लिए हुए है, यह कुछ सालों बाद पता चला था. अपनी सुगंध बिखेरता गुलाब अनायास कितने ही भौंरों को भी आमंत्रित कर बैठता है. शुभदा भी डाक्टर राजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन की तरफ खिंची चली आई थी.

बौद्धिक स्तर पर आरंभ हुई उन की मित्रता दिनप्रतिदिन घनिष्ठ होती गई थी और फिर धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के लिए अपरिहार्य बन गए थे. मिसेज राजीव पति के बौद्धिक स्तर पर कहीं भी तो नहीं टिकती थीं. बहुत सीधे, सरल स्वभाव की उषा बौद्धिक स्तर पर पति को न पकड़ पातीं, यों उन का गठा बदन उम्र को झुठलाता गौरवर्ण, उज्ज्वल ललाट पर सिंदूरी गोल बड़ी बिंदी की दीप्ति ने बढ़ती अवस्था की पदचाप को भी अनसुना कर दिया था. गहरी काली आंखें, सीधे पल्ले की साड़ी और गहरे काले केश, वे भारतीयता की प्रतिमूर्ति लगती थीं. बहुत पढ़ीलिखी न होने पर भी आगंतुक सहज ही बातचीत से उन की शिक्षा का परिचय नहीं पा सकता था. समझदार, सुघड़, सलीकेदार और आदर्श गृहिणी. आदर्श पत्नी व आदर्श मां की वे सचमुच साकार मूर्ति थीं.

उन से मिलते ही दिल में उन के प्रति अनायास ही आकर्षण, अपनत्व जाग उठता, आश्चर्य होता था यह देख कर कि किस आकर्षण से डाक्टर राजीव शुभदा की तरफ झुके. मांसल, थुलथुला शरीर, उम्र को जबरन पीछे ढकेलता सौंदर्य, रंगेकटे केश, नुची भौंहें, निरंतर सौंदर्य प्रसाधनों का अभ्यस्त चेहरा. असंयम की स्याही से स्याह बना चेहरा सच्चरित्र, संयमी मिसेज राजीव के चेहरे के सम्मुख कहीं भी तो नहीं टिकता था.

एक ही उम्र के माइलस्टोन को थामे खड़ी दोनों महिलाओं के चेहरों में बड़ा अंतर था. कहते हैं सौंदर्य तो देखने वालों की आंखों में होता है. प्रेमिका को अकसर ही गिफ्ट में दिए गए महंगेमहंगे आइटम्स ने भी प्रतिरोध में मिसेज राजीव की जबान नहीं खुलवाई. प्रेमी ने प्रेमिका के भविष्य की पूरी व्यवस्था कर दी थी. प्रेमिका के समर्पण के बदले में प्रेमी ने करोड़ों रुपए की कीमत का एक घर बनवा कर उसे भेंट किया था.

शाहजहां की मलिका तो मरने के बाद ही ताजमहल पा सकी थी, पर शुभदा तो उस से आगे रही. प्रेमी ने प्रेमिका को उस के जीतेजी ही ताजमहल भेंट कर दिया था. शहरभर में इस की चर्चा हुई थी. लेकिन डाक्टर राजीव के सधे, कुशल हाथों ने मर्ज को पकड़ने में कभी भूल नहीं की थी. उस पर निर्धनों का मुफ्त इलाज उन्हें प्रतिष्ठा के सिंहासन से कभी नीचे न खींच सका था.

जिंदगी को जीती हुई भी जिंदगी से निर्लिप्त थीं मिसेज राजीव. जरूरत से भी कम बोलने वाली. बरात रवाना हो चुकी थी. यों तो बरात में औरतें भी गई थीं पर वहां भी शुभदा की उपस्थिति स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी थी. मिसेज राजीव ने ‘घर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए’ कह कर खुद ही शुभदा का मार्ग प्रशस्त कर दिया था.

मां मिसेज राजीव की दूर की बहन लगती हैं. बड़े आग्रह से पत्र लिख उन्होंने हमें विवाह में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. सालों से बिछुड़ी बहन इस बहाने उन से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.

बरात के साथ न जा कर मिसेज राजीव ने उस स्थिति की पुनरावृत्ति से बचना चाहा था जिस में पड़ कर उन्हें उस दिन अपनी नियति का परिचय प्राप्त हो गया था. डाक्टर राजीव काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. डाक्टरों के अनुसार उन का एक छोटा सा  औपरेशन करना जरूरी था. औपरेशन का नाम सुनते ही लोगों का दिल दहल उठता है.

परिणामस्वरूप ससुराल से भी रिश्तेदार उन्हें देखने आए थे. अस्पताल में शुभदा की उपस्थिति, उस पर उसे बीमार की तीमारदारी करती देख ताईजी के तनबदन में आग लग गई थी. वे चाह कर भी खुद को रोक न सकी थीं.

‘कौन होती हो तुम राजीव को दवा पिलाने वाली? पता नहीं क्याक्या कर के दिनबदिन इसे दीवाना बनाती जा रही है. इस की बीवी अभी मरी नहीं है,’ ताईजी के कर्कश स्वर ने सहसा ही सब का ध्यान आकर्षित कर लिया था.

अपराधिनी सी सिर झुकाए शुभदा प्रेमी के आश्वासन की प्रतीक्षा में दो पल खड़ी रह सूटकेस उठा कर चलने लगी थी कि प्रेमी के आंसुओं ने उस का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था. उषा पूरे दृश्य की साक्षी बन कर पति की आंखों की मौन प्रार्थना पढ़ वहां से हट गई थी.

पत्नी के जीवित रहते प्रेमिका की उपस्थिति, सबकुछ कितना साफ खुला हुआ. कैसी नारी है प्रेमिका? दूसरी नारी का घर उजाड़ने को उद्यत. कैसे सब सहती है पत्नी? परनारी का नाम भी पति के मुख से पत्नी को सहन नहीं हो पाता. सौत चाहे मिट्टी की हो या सगी बहन, कौन पत्नी सह सकी है?

पिता का आचरण बेटों को अनजान?े ही राह दिखा गया था. मझले बेटे के कदम भी बहकने लगे थे. न जाने किस लड़की के चक्कर में फंस गया था कि चतुर शुभदा ने बिगड़ती बात को बना लिया. न जाने किन जासूसों के बूते उस ने अपने प्रेमी के सम्मान को डूबने से बचा लिया. लड़के की प्रेमिका को दूसरे शहर ‘पैक’ करा के बेटे के पैरों में विवाह की बेडि़यां पहना दीं. सभी ने कल्पना की थी बापबेटे के बीच एक जबरदस्त हंगामा होने की, पर पता नहीं कैसा प्रभुत्व था पिता का कि बेटा विवाह के लिए चुपचाप तैयार हो गया.

‘ईर्ष्या और तनावों की जिंदगी में क्यों घुट रही हो?’ मां ने उषा को कुरेदा था.

एकदम चुप रहने वाली मिसेज राजीव उस दिन परत दर परत प्याज की तरह खुलती चली गई थीं. मां भी बरात के साथ नहीं गई थीं. घर में 2 नौकरों और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. इतने लंबे अंतराल में इतना कुछ घटित हो गया, मां को कुछ लिखा भी नहीं. मातृविहीन सौतेली मां के अनुशासन में बंधी उषा पतिगृह में भी बंदी बन कर रह गई थी. मां ने उषा की दुखती रग पर हाथ धर दिया था. वर्षों से मन ही मन घुटती मिसेज राजीव ने मां का स्नेहपूर्ण स्पर्श पा कर मन में दबी आग को उगल दिया था.

‘मैं ने यह सब कैसे सहा, कैसे बताऊं? पति पत्नी को मारता है तो शारीरिक चोट ही देता है, जिसे कुछ समय बाद पत्नी भूल भी जाती है पर मन की चोट तो सदैव हरी रहती है. ये घाव नासूर बनते जाते हैं, जो कभी नहीं भरते.

‘पत्नीसुलभ अधिकारों को पाने के लिए विद्रोह तो मैं ने भी करना चाहा था पर निर्ममता से दुत्कार दी गई. जब सभी राहें बंद हों तो कोई क्या कर सकता है?

‘ऊपर से बहुत शांत दिखती हूं न? ज्वालामुखी भी तो ऊपर से शांत दिखता है, लेकिन अपने अंदर वह जाने क्याक्या भरे रहता है. कलह से कुछ बनता नहीं. डरती हूं कि कहीं पति को ही न खो बैठूं. आज वे उसे ब्याह कर मेरी छाती पर ला बिठाएं या खुद ही उस के पास जा कर रहने लगें तो उस स्थिति में मैं क्या कर लूंगी?

‘अब तो उस स्थिति में पहुंच गई हूं जहां मुझे कुछ भी खटकता नहीं. प्रतिदिन बस यही मनाया करती हूं कि मुझे सबकुछ सहने की अपारशक्ति मिले. कुदरत ने जिंदगी में सबकुछ दिया है, यह कांटा भी सही.

‘नारी को जिंदगी में क्या चाहिए? एक घर, पति और बच्चे. मुझे भी यह सभीकुछ मिला है. समय तो उस का खराब है जिसे कुदरत कुछ देती हुई कंजूसी कर गई. न अपना घर, न पति और न ही बच्चे. सिर्फ एक अदद प्रेमी.’

उषा कुछ रुक कर धीमे स्वर में बोली, ‘दीदी, कृष्ण की भी तो प्रेमिका थी राधा. मैं अपने कृष्ण की रुक्मिणी ही बनी रहूं, इसी में संतुष्ट हूं.’

‘लोग कहते हैं, तलाक ले लो. क्या यह इतना सहज है? पुरुषनिर्मित समाज में सब नियम भी तो पुरुषों की सुविधा के लिए ही होते हैं. पति को सबकुछ मानो, उन्हें सम्मान दो. मायके से स्त्री की डोली उठती है तो पति के घर से अर्थी. हमारे संस्कार तो पति की मृत्यु के साथ ही सती होना सिखाते हैं. गिरते हुए घर को हथौड़े की चोट से गिरा कर उस घर के लोगों को बेघर नहीं कर दिया जाता, बल्कि मरम्मत से उस घर को मजबूत बना उस में रहने वालों को भटकने से बचा लिया जाता है.

‘तनाव और घुटन से 2 ही स्थितियों में छुटकारा पाया जा सकता है या तो उस स्थिति से अपने को अलग करो या उस स्थिति को अपने से काट कर. दोनों ही स्थितियां इतनी सहज नहीं. समाज द्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा को पार कर सकना मेरे वश की बात नहीं.’

मिसेज राजीव के उद्गार उन की समझदारी के परिचायक थे. कौन कहेगा, वे कम पढ़ीलिखी हैं? शिक्षा की पहचान क्या डिगरियां ही हैं?

बरात वापस आ गई थी. घर में एक और नए सदस्य का आगमन हुआ था. बेटे की बहू वास्तव में बड़ी प्यारी लग रही थी. बहू के स्वागत में उषा के दिल की खुशी उमड़ी पड़ रही थी. रस्म के मुताबिक द्वार पर ही बहूबेटे का स्वागत करना होता है. बहू बड़ों के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद पाती है. सभी बड़ों के पैर छू आशीष द्वार से अंदर आने को हुआ कि किसी ने व्यंग्य से चुटकी ली, ‘‘अरे भई, इन के भी तो पैर छुओ. ये भी घर की बड़ी हैं.’’ शुभदा स्वयं हंसती हुई आ खड़ी हुई.

आशीष के चेहरे की हर नस गुस्से में तन गई. नया जवान खून कहीं स्थिति को अप्रिय ही न बना दे, बेटे के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मिसेज राजीव ने आशीष के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, आगे बढ़ कर चरणस्पर्श करो.’’

काम की व्यस्तता व नई बहू के आगमन की खुशी में सभी यह बात भूल गए पर आशीष के दिल में कांटा पड़ गया, मां की रातों की नींद छीनने वाली इस नारी के प्रति उस के दिल में जरा भी स्थान नहीं था.

शाम को घर में पार्टी थी. रंगबिरंगी रोशनियों से फूल वाले पौधों और फलदार व सजावटी पेड़ों से आच्छादित लौन और भी आकर्षक लग रहा था. शुभदा डाक्टर राजीव के साथ छाया सी लगी हर काम में सहयोग दे रही थी. आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट, पार्टी का मीनू सभीकुछ तो उस के परामर्श से बना था.

शहनाई का मधुर स्वर वातावरण को मोहक बना रहा था. शहर के मान्य व प्रतिष्ठित लोगों से लौन खचाखच भर गया था. नईनेवली बहू संगमरमर की तराशी मूर्ति सी आकर्षक लग रही थी, देखने वालों की नजरें उस के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं लेती थीं. एक स्वर से दूल्हादुलहन व पार्टी की प्रशंसा की जा रही थी. साथ ही, दबे स्वरों में हर व्यक्ति शुभदा का भी जिक्र छेड़ बैठता.

‘‘यही हैं न शुभदा, नीली शिफौन की साड़ी में?’’ डाक्टर राजीव के बगल में आ खड़ी हुई शुभदा को देखते ही किसी ने पूछा.

‘‘डाक्टर राजीव ने क्या देखा इन में? मिसेज राजीव को देखो न, इस उम्र में भी कितनी प्यारी लगती हैं.’’

‘‘तुम ने सुना नहीं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज?’’

‘‘शुभदा ने शादी नहीं की?’’

‘‘शादी की होती तो अपने पति की बगल में खड़ी होती, डाक्टर राजीव के पास क्या कर रही होती?’’ किसी ने चुटकी ली, ‘‘मजे हैं डाक्टर साहब के, घर में पत्नी का और बाहर प्रेमिका का सुख.’’

घर के लोग चर्चा का विषय बनें, अच्छा नहीं लगता. ऐसे ही एक दिन आशीष घर आ कर मां पर बड़ा बिगड़ा था. पिता के कारण ही उस दिन मित्रों ने उस का उपहास किया था.

‘‘मां, तुम तो घर में बैठी रहती हो, बाहर हमें जलील होना पड़ता है. तुम यह सब क्यों सहती हो? क्यों नहीं बगावत कर देतीं? सबकुछ जानते हुए भी लोग पूछते हैं, ‘‘शुभदा तुम्हारी बूआ है? मन करता है सब का मुंह नोच लूं. अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. तुम यहां नहीं रहोगी.’’

मां निशब्द बैठी मन की पीड़ा, अपनी बेबसी को आंखों की राह बहे जाने दे रही थी. बच्चे दुख पाते हैं तो मां पर उबल पड़ते हैं. वह किस पर उबले? नियति तो उस की जिंदगी में पगपग पर मुंह चिढ़ा रही थी.

बेटी साधना डिलीवरी के लिए आई हुई थी. उस के पति ने लेने आने को लिखा तो उस ने घर में शुभदा की उपस्थित को देख, कुछ रुक कर आने को लिख दिया था. ससुराल में मायका चर्चा का विषय बने, यह कोईर् लड़की नहीं चाहती. उसी स्थिति से बचने का वह हर प्रयत्न कर रही थी. पर इतनी लंबी अवधि के विरह से तपता पति अपनी पत्नी को विदा कराने आ ही पहुंचा.

शुभदा का स्थान घर में क्या है, यह उस से छिपा न रह सका. स्थिति को भांप कर ही चतुर विवेक ने विदा होते समय सास और ससुर के साथसाथ शुभदा के भी चरण स्पर्श कर लिए. पत्नी गुस्से से तमतमाती हुई कार में जा बैठी और जब विवेक आया तो एकदम गोली दागती हुई बोली, ‘‘तुम ने उस के पैर क्यों छुए?’’

पति ने हंसते हुए चुटकी ली, ‘‘अरे, वह भी मेरी सास है.’’

साधना रास्तेभर गुमसुम रही. बहुत दिनों बाद सुना था आशीष ने मां को अपने साथ चलने के लिए बहुत मनाया था पर वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हुई. लक्ष्मणरेखा उन्हें उसी घर से बांधे रही.

आंतरिक साहस के अभाव में ही मिसेज राजीव उसी घर से पति के साथ बंधी हैं. रातभर छटपटाती हैं, कुढ़ती हैं, फिर भी प्रेमिका को सह रही हैं सुबहशाम की दो रोटियों और रात के आश्रय के लिए. वे डरपोक हैं. समाज से डरती हैं, संस्कारों से डरती हैं, इसीलिए उन्होंने जिंदगी से समझौता कर लिया है.

सुना था, इतनी असीम सहनशक्ति व धैर्य केवल पृथ्वी के पास ही है पर मेरे सामने तो मिसेज राजीव असीम सहनशीलता का साक्षात प्रमाण है.

Hindi Story : वारिस – सौत का दुख झेलती महिला की कहानी

Hindi Story : जीवन में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जिन के लिए हम किसी को दोषी नहीं ठहरा पाते, न खुद को, न समाज को, न संस्कार, न दोस्त, न मातापिता को. सजा खुद काटनी पड़ती है. कुछ ऐसा ही अघट घटा था प्रमिला के साथ, जिस के लिए कुसूरवार वह किसी को नहीं मानती.

आज वह अपनेआप को कोसने लगी. ऐसा सुलूक तो कोई गैरों के साथ भी नहीं करता. वह अपने उस दिन को याद करने लगी जिस दिन उस ने प्रेमपाल सिंह से शादी के लिए ‘हां’ कह दी थी. वह आत्मालाप कर रही थी, ‘काश, प्रेमपाल से शादी की कुंडली मिली न होती. काश कि मैं मां की कोख में ही मर गई होती.’ अनेक बुरे खयाल उस के जेहन में बादलों की तरह उमड़घुमड़ रहे थे.

उस दिन करवाचौथ था. उस दिन ही दूध वाले ने दूध देते वक्त मजाकमजाक में कह दिया, ‘‘भाभीजी, आज तो आप ने भी व्रत रखा होगा?’’

प्रमिला ने मुसकराते हुए जवाब दिया था, ‘हां.’

‘तब तो भाईसाहब की सौ साल उम्र हो जाएगी. भाईसाहब के लिए तो पचासपचास साल की दुआएं मांगी जाएंगी. 50 आप और 50 दूसरी मेमसाब द्वारा.’ वह दूध नापनाप कर बरतन में डालता रहा और व्यंग्य का बाण छोड़ कर चलता बना. प्रमिला का मन किया कि उसे डपट दे. मगर उसे तो ऐसी बातें सुनने की आदत सी पड़ गई थी. वह अपने दुख को दूसरों को सुनाने के बजाय खुद को कोसने लगती.

नहीं भूल पाती वह उस दिन को जब प्रेमपाल ने अपना और प्रमिला का मैडिकल चैकअप करवाया था. उसे पता चल गया था कि वह मां नहीं बन सकती. वह उस के वंश को बढ़ा नहीं सकती, ब्याह के 7 साल बीत चुके थे.

उस ने ही थकहार कर प्रेमपाल से जिद की थी कि किसी बड़े शहर में बड़े डाक्टर से जांच करवाई जाए. डाक्टर ने जो बात बताई वह दिल को धड़काने से कहीं ज्यादा प्रमिला की जान लेने वाली थी. प्रमिला अपनेआप को धिक्कारती कि उस ने किसी बड़े डाक्टर के पास चैकअप करवाने की बात क्यों सोची? वैसे तो प्रेमपाल की कभी इच्छा ही नहीं होती थी कि वह किसी बड़े डाक्टर के पास जाए. उसे अंदर ही अंदर डर लगता कि कहीं उस के ‘सीमन’ में ही कोई कमी न हो पर प्रमिला की जिद के आगे झकना पड़ा था. हकीकत सामने अलग आ गई. प्रमिला में ही मातृत्व क्षमता नहीं थी.

बावजूद इस के, प्रमिला ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था. उस ने अपने पति प्रेमपाल से बस इतना कहा था, ‘‘डाक्टरों के कहने से क्या होता है. मुझे पूरा भरोसा है, आप पिता बनेंगे.’

उस दिन के बाद से प्रमिला ने सोमवार, मंगलवार, शनिवार, एकादशी और न जाने कितने तरह के व्रतउपवास रखे. हरेक मंदिर में पूजाअर्चना की पर बंजर जमीन बंजर ही रही. अब प्रमिला कहां जाती, किस से मन्नत मांगती. अब उस की समझ के सबकुछ बाहर हो चुका था. उस के हृदय में अनेक प्रकार के संशय आने लगे थे. वह हालात से लड़तेलड़ते हार रही थी. जैसे यशोदा मइया ने कृष्ण को पाला था, उसी तरह वह बच्चा गोद ले सकती थी.

प्रमिला की बहन शर्मिला ने एक दिन अचानक ही कह दिया, ‘मेरे पेट में जो बच्चा पल रहा है, इसे गोद ले लो. जन्म तो मैं दूंगी मगर पालेगी तू. समझ कि इस बच्चे की मां तुम हो.’

दरअसल, प्रमिला की बड़ी बहन शर्मिला के 2 लड़के पहले से थे. दोनों अभी छोटे थे. दोनों बच्चों के बीच का फर्क भी मात्र 2 साल का ही था. दोनों बच्चे छोटे होने के कारण वह अपना औपरेशन नहीं करवा पाई थी. उस ने अपने पति राकेश से कहा था कि वह अपनी नसबंदी करवा ले, मगर उस ने टाल दिया था और जब 2 जवां दिल मिले तो चूक होनी ही थी और इस तरह शर्मिला के पेट में बच्चा आ गया. राकेश ने उसे अबौर्शन करवाने से भी मना कर दिया था. शर्मिला पहले 2 बच्चों का पालन करने में इतनी व्यस्त रहती थी कि तीसरे बच्चे के पालने की बात सोच कर वह सिहर उठी थी.

प्रमिला की खुशी का ठिकाना नहीं था. सच कहा जाए उस दिन प्रमिला इतनी खुश हुई कि उसे लगा ही नहीं कि उस की अपनी कोई संतान नहीं है.

मौसम ने भी अपना रंग बदला. उस दिन खूब बारिश हुई. शाम का वक्त हो चला था. प्रमिला ने मौसम का मिजाज देख पति के कंपनी से आने के पहले पकौड़े तले और चाय बनाई. प्रेमपाल की शुरू से आदत थी, जब भी बारिश होती वे कहते, ‘प्रमिला आज मौसम बड़ा सुहाना हो रहा है, पकौड़े हो जाएं तो मजा आ जाए.’ वह कितनी भी थकीमांदी हो पर प्रेमपाल की हर खुशी का खयाल रखती.

खुशी का इजहार करने का इस से अच्छा तरीका और क्या हो सकता था, भला. मौसम भी सुहाना और पति के मनपसंद पकौड़े. मगर एकाएक जैसे मौसम बदला, सर्द हवा चुभने लगी. मेज पर रखे पकौड़ेचटनी फीके लगने लगे. प्रेमपाल ने बच्चे गोद लेने की बात अस्वीकार कर कहा था, ‘मुझे पता है कि हम किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं लेकिन बच्चा पराया ही कहलाएगा. वंश चलाने के लिए पितृगुण विद्यमान रहना आवश्यक है. तुम चाहो तो हमारा वंश फल सकता है.’

प्रमिला विमूढ़ सी ताकती रही.

‘कैसे?’ यह सवाल प्रमिला ने मन ही मन खुद से किया. शायद वह सच से पूरी तरह वाकिफ न थी या असलियत को वह सुनना नहीं चाहती थी. प्रेमपाल ने वह सच सामने ला कर रख दिया. प्रमिला को सच सुनते ही लगने लगा जैसे वह लहरों की मरजी से डोलने वाला कोई छोटा सा तिनका है, जिस की कोई दिशा निर्धारित नहीं. वह घृणा के साथ कमरे के अंदर चली गई. दरअसल, प्रेमपाल की ही कंपनी के एक साथी इकबाल ने बच्चा गोद लेने का सुझव दिया था. उस वक्त भी उस ने अपने मित्र इकबाल से कहा था, ‘गोद तो मैं बच्चा ले सकता हूं पर अपने दिल से उसे प्यार नहीं दे पाऊंगा. अपना खून तो अपना ही होता है.’

परम मित्र तो मित्र ही ठहरा. उस ने समस्या का समाधान ढूंढ़ना शुरू कर दिया या समस्या का समाधान उस के पास स्वयं चला आया. एक दिन उस ने उस से एकाएक कहा, ‘प्रेम, तुम से एक बात करनी थी.’

‘‘हां बताओ.’

‘तुम्हारे भले की बात है. पौढ़ी गांव की एक पहाड़न है. उस की 6 लड़कियां हैं. बेचारी बहुत ही गरीब है. लड़कियों के लिए दूल्हा ढूंढ़ रही है. बेचारी बहुत ही गरीब है. लड़कियों के पिता भी नहीं हैं. मैं ने तुम्हारे बारे में बताया है. तुम अगर चाहो तो तुम्हें अपना वारिस मिल सकता है.’

‘वह कैसे?’

‘‘उस की बड़ी विधवा लड़की की बच्चेदानी को किराए पर ले लेते हैं. बच्चों के पैदा होने तक आने वाला सारा खर्च तुम उठाओे. बच्चे की डिलीवरी से ले कर उस के परिवार की आवश्यकताओं तक को पूरा करोगे. किराया स्वरूप 2 लाख रुपए एडवांस देना होगा.’

‘उस की मां और लड़की राजी हैं?’

‘हां, मैं ने उसे समझ दिया है. जिस तरह रिकशेवाले, मजदूर आदि लोग अपनाअपना अंग श्रम देने के बदले पैसा लेते हैं, उसी तरह वंदना भी एक अंग कुछ दिनों के लिए किराए पर दे रही है. तुम एक दिन चल कर मिल लो.’

प्रेमपाल ने तुरंत उस गरीबन से मिलने और बात करने की ठानी. पौड़ी गांव पहुंचते ही सब बदल गया. हुआ यों कि जैसे ही प्रेमपाल की नजर पहाड़न वंदना पर पड़ी तो वह उसे एकटक देखता रह गया. नीली आंखें, गोरा बदन, भूरे बाल. उस की खूबसूरती देख कर वह फिसल गया. वह सबकुछ भूल गया. उस के ऊपर दीवानगी छा गई. इकबाल भी उस का भाव समझ गया. थोड़ी देर इधरउधर की बातचीत के बाद वे दोनों अपनी कार में आ गए.

इकबाल ने लौटते वक्त हंसते हुए कहा, ‘तुम कहो तो मैं तुम्हारी दूसरी शादी करवा दूं.’ उस की हंसी और उस की बातें प्रेमपाल की गंभीरता से टकरा कर वापस लौट आईं.

इकबाल ने तो प्रेमपाल के दिल की बात कह दी थी. प्रेमपाल सोचने लगा, हिंदू कानून दूसरी पत्नी रखने की इजाजत नहीं देता पर दूसरे ही पल उसे लगा कि कानून में छेद भी तो होते हैं.

प्रमिला आसन्न संकट से सिहर उठी थी. किसी सुहागन के घर में ‘सौत’ का आना, जीतेजी नरक का दुख झेलना है. कमरे में बैठी वह तर्क देदे कर खुद को देर तक समझती रही पर दिल और दिमाग के फासले को पाटना आसान नहीं होता. उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया था. मनुष्य जब सहीगलत का फैसला नहीं कर पाता, सबकुछ वक्त पर छोड़ कर निश्चिंत होने की कोशिश करने लगता है.

प्रेमपाल अपनेआप को तसल्ली देता कि सबकुछ ठीक हो जाएगा. कुछ देर की उम्मीद फिर उम्मीद का टूटना, एक सिलसिला सा बन गया था. यह नियति है या किसी का दर्द, छटपटाहट फिर एक वीरानी, जिस से प्रमिला को सच से डर लगने लगा था. डर जो अंदर तक हिलाता है, अनियमित दिनचर्या बनाता है, अनिश्चित रफ्तार दे कर मन को नीरसता की ओर मोड़ देता है. यहीं आ कर नारी होना भारी पड़ने लगता है.

धीरेधीरे यह बात घर की चारदीवारी से फुदक कर जहांतहां पहुंच गई थी. गांव, शहर, जिला, जहांजहां प्रमिला के जानने वाले थे, सब ने अपनीअपनी तरफ से सुझव दिए. इन सुझवों से प्रमिला की चिंता दोहरीतिहरी होती गई. प्रमिला ने जो उम्मीद की आंखें प्रकृति के ऊपर टिका रखी थीं वहां से भी उस ने आंखें हटा ली थीं क्योंकि प्रेमपाल अपनी चाहत की भट्टी में कइयों की आहुति देने को आतुर था. प्रेमपाल ने शादी की तारीख रख इतनाभर कहा था, ‘प्रमिला, तुम इसे अगर गलत समझती हो तो गलत लगेगा. इसे व्यावहारिक दृष्टि से सोचो तो फिर वह सही लगने लगेगा.’

उस दिन के बाद से प्रमिला ने सोच लिया था कि वह यह घर छोड़ अपने पिता के पास चली जाएगी. उस का बूढ़ा पिता, जो शुगर, ब्लडप्रैशर आदि बीमारियों से पीडि़त एक मामूली सा किसान था. 3 बेटियों के ब्याह के बाद कर्ज में लदा पड़ा था. आखिर प्रमिला किस तरह उन पर बोझ बने पर सुनने में यह भी आया था, प्रेमपाल ने अपने ससुर निरंजन से यह बात साफसाफ कह डाली थी, ‘या तो प्रमिला अपनी सौतन को स्वीकार कर ले या फिर मुझे छोड़ दे.’

निरंजन ने इस बात पर कोई टिप्पणी नहीं की थी. दरअसल, निरजंन सोच नहीं पा रहे थे कि किन शब्दों से अपनी बेटी प्रमिला को आश्वस्त करे. प्रमिला इस वजह से चुप हो गई थी. दरअसल, उस ने मौन से समझता कर लिया था.

एक दिन प्रेमपाल बरात ले कर अपनी दूसरी शादी के लिए निकल पड़ा. प्रेमपाल की बरात तो गई मगर सिर्फ 4 लोग ही बरात में गए. न कोई बैंडबाजा, न सजावट, न ही सिर पर सेहरा. यों उस ने अपने कई मित्रों, रिश्तेदारों को कहा तो था पर सब ने इस शादी में शामिल होना शर्मिंदगी व अपना अपमान समझ. गोया प्रेमपाल ब्याह करने नहीं, बच्चे पैदा करने की मशीन लाने जा रहा हो. सच भी यही था. ब्याह के 3 साल में तीन बच्चे हुए. जब वंदना ने पहला बच्चा जना तो प्रेमपाल ने आसमान की तरफ सिर उठाया. फिर उस ने फूटफूट कर खुशी के आंसू बहाते हुए बच्ची को प्रमिला की गोद में दिया तो अवसाद का वह टुकड़ा, जिसे वह कई महीनों से चुभला रही थी, अब नदारद था. उसे मातृत्व का एहसास हुआ और उस ने उसी वक्त वंदना से कह दिया, ‘यह बच्ची तुम मुझे गोद दे दो.’

वंदना ने सहर्ष ही इसे स्वीकार कर लिया, ‘आप ही इस की बड़ी मां हैं, पालना तो आप को ही है.’

दो लड़कियों के बाद तीसरा लड़का तो हुआ मगर 3 महीने बाद ही उस ने भी दम तोड़ दिया. पैदा होने के बाद से ही उसे दवाइयों के सहारे पाला जा रहा था. दवाइयों के सहारे वह 3 महीने खींचतान कर जिया तो जरूर पर अगले महीने ही उस ने दम तोड़ दिया. बड़ेबड़े डाक्टरों की दवा खातेखाते ठीक होने के बजाय उस का स्वास्थ्य और बिगड़ता चला गया. सुनने में यह भी आया था कि जब वंदना का तीसरे बच्चे के वक्त 8वां महीना चल रहा था, उस की किसी बात को ले कर प्रेमपाल से कहासुनी हो गई थी. प्रेमपाल ने आव देखा न ताव, उस की धुनाई कर दी. उसी वक्त बच्चे को पेट में चोट लग गई थी. दूसरे दिन वंदना को पेट में जोर से दर्द उठा. आननफानन वंदना को अस्पताल में भरती कराया.

तीसरा बच्चा भी औपरेशन से हुआ. बच्चे को पैदा होते ही सांस लेने में तकलीफ होने लगी. प्रेमपाल ने डाक्टर से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, मेरे बेटे को कुछ नहीं होना चाहिए, चाहे जितने भी पैसे लग जाएं.’’ पर न डाक्टरों के महंगे इलाज और न ही जिस ईश्वर पर ज्यादा भरोसा था वे काम आए. दूसरी ओर बच्चा होने के 10 दिनों बाद ही वंदना के पेट में दर्द होने लगा. इस दर्द ने उस से फिर कभी मां बनने की शक्ति छीन ली.

डाक्टरों ने उस के पेट से बच्चेदानी को निकाल दिया. संपत्ति का मालिक, घर का वारिस, बुढ़ापे का सहारा अब इस दुनिया में नहीं था. अब कुछ बची थी तो निराशा ही निराशा. जैसे ही प्रेमपाल गम में डुबा, उस ने गम को डुबो दिया शराब में. वह सोचता था, अगर वह गम को शराब में न डुबोता तो गम उसे डुबो देता. हां, ऐसा नहीं था कि प्रेमपाल पहले पीता नहीं था. पहले वह पी कर खुशी में झमता था और अब गम में पड़ा रहता था.

अब तो वह गम और शराब दोनों ही अंदरअंदर पिए जा रहा था. वह अपनी करनी पर पछता रहा था. वह महसूस करता कि उस का शरीर हलका हो गया है और एक जोर की हवा उसे कहीं ले जा रही है. वंदना उस की ऐसी हालत देख निश्ंिचत थी. प्रमिला ने तो बच्ची गोद लेने के बाद कइयों से पीछा छुड़ाने के लिए अपना सारा ध्यान बच्चों के लालनपालन में लगा दिया था.

उसे एक पल की फुरसत न थी, न दिल दुखने वाली बातें सोचने का वक्त. हां, कई बार प्रेमपाल प्रमिला के पास आता था पर प्रमिला ने उस से साफसाफ कह दिया था. ‘मुझे और मेरी बेटी को दो वक्त की रोटी मिल जाए, बस, मुझ से इतना ही संबंध रखिए.’

प्रेमपाल कई बार बिगड़ कर कहता, ‘क्या करना है इतने पैसों का? लड़कियों के लिए बहुत बना दिया है. दोदो घर हैं- एक तुम्हारा एक प्रमिला का. लाख रुपए से ऊपर मेरी तनख्वाह है. पैसा जितना जमा होगा, लड़के वाले ही ले जाएंगे. फिर भी साले दानदहेज में सौ नुक्स निकालेंगे.’

वंदना हर दिन की तरह उस दिन भी समझने गई थी लेकिन उस दिन उस ने मुद्दे की बात कही क्योंकि वह जानती थी कि प्रेमपाल को कौन सा गम खाए जा रहा है.

‘मैं जानती हूं, आप को अपने बेटे का दुख है. मैं आगे मां नहीं बन सकती. क्यों न हम दोनों कोई लड़का गोद ले लें ताकि आप को अपनी संपत्ति का वारिस मिल जाए.’

प्रेमपाल एकटक वंदना को देखता ही रह गया. वंदना के चेहरे में उसे प्रमिला नजर आने लगी थी. उसे ऐसा लगा जैसे वक्त के झंके ने उसे फिर से पीछे धकेल दिया है. वही पुराने दिन फिर से उस के सामने आ कर खड़े हो गए हैं.

Love Story : प्यार के फूल – धर्म की नफरत के बीच पनपते प्यार की कहानी

Love Story : हिंदुस्तान में कर्फ्यू की खबर टीवी पर देख कर मैं ने अपने मातापिता को फोन किया और उन की खैरियत पूछते हुए कहा, ‘‘पापा, आखिर हुआ क्या है, कर्फ्यू क्यों?’’

पापा बोले, ‘‘क्या होना है, वही हिंदूमुसलिम दंगे. हजारों लोग मारे गए, इसलिए घर से बाहर न निकलने की हिदायत दी गई है.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी भारत व पाकिस्तान को अलग हुए कितने वर्ष हो गए लेकिन ये दंगे न जाने कब खत्म होंगे. क्यों धर्म की दीवार दोनों मुल्कों के बीच खड़ी है. और बस, यही सोचते हुए मैं 8 वर्ष पीछे चली गई. जब मैं पहली बार सिडनी आई थी और वहां लगे एक कर्फ्यू में फंसी थी. पापा अपने किसी सैमिनार के सिलसिले में सिडनी आने वाले थे और मेरे जिद करने पर उन्होंने 2 दिन की जगह 7 दिन का प्लान बनाया और मम्मी व मुझे भी साथ में सिडनी घुमाने ले कर आए. उस प्लान के मुताबिक, पापा के 2 दिन के सैमिनार से पहले हम 5 दिन पापा के साथ सिडनी घूमने वाले थे और बाकी के 2 दिन अकेले. मुझे अच्छी तरह याद है उस समय मैं कालेज में पढ़ रही थी और जब मैं ने सिडनी की जमीन पर कदम रखा तो हजारों सपने मेरी आंखों में समाए थे. मेरी मम्मी पूरी तरह से शाकाहारी हैं, यहां तक कि वे उन रैस्टोरैंट्स में भी नहीं जातीं जहां मांसाहारी खाना बनता है. जबकि वहां ज्यादातर रैस्टोरैंट्स मांसाहारी भोजन सर्व करते हैं.

विदेश में यह एक बड़ी समस्या है. इसलिए पापा ने एअर बीएनबी के मारफत वहां रहने के लिए न्यू टाउन में एक फ्लैट की व्यवस्था की थी. सिडनी में बहुत से मकानमालिक अपने घर का कुछ हिस्सा इसी तरह किराए पर दे देते हैं जिस में सुसज्जित रसोई, बाथरूम और कमरे होते हैं. ताकि लोग वहां अपने घर की तरह रह सकें. एअरपोर्ट से घर जाते समय रास्ते को देख मैं समझ गई थी कि सिडनी एक साफसुथरा और डैवलप्ड शहर है. एक दिन हम ने जेटलेग के बाद आराम करने में गुजारा और अगले दिन ही निकल पड़े डार्लिंग हार्बर के लिए, जो कि सिडनी का मुख्य आकर्षण केंद्र है. समुद्र के किनारेकिनारे और पास में वहां देखने लायक कई जगहें हैं. जनवरी का महीना था और उन दिनों वहां बड़े दिनों की छुट्टियां थीं. सो, डार्लिंग हार्बर पर घूमने वालों का हुजूम जमा था. फिर भी व्यवस्था बहुत अच्छी थी. हम ने वहां ‘सी लाइफ’ के टिकट लिए और अंदर गए. यह एक अंडरवाटर किंग्डम है, जिस में विभिन्न प्रकार के समुद्री जीवों का एक्वेरियम है. छोटीबड़ी विभिन्न प्रजातियों की मछलियां जैसे औक्टोपस, शार्क, वाइट रीफ, पोलर बेयर, सी लायन और पैंगुइन और न जाने क्याक्या हैं वहां. सभी को बड़ेबड़े हालनुमा टैंकों में कांच की दीवारों में बंद कर के रखा गया है. देखने वालों को आभास होता है जैसे समुद्र के अंदर बनी किसी सुरंग में भ्रमण कर रहे हों. खास बात यह कि दुलर्भ प्रजाति मैमल डगोंग भी वहां मौजूद थी जिसे ‘सी पिग’ के नाम से भी जाना जाता है.

पूरा दिन उसी में बीत गया और शाम को हम बाहर खुली हवा का लुत्फ उठाने के लिए पैदल ही रवाना हो गए. वहीं फ्लाईओवर के ऊपर पूरे दिन सैलानियों को सिडनी में घुमाती मोनोरेल आतीजाती रहती हैं जो देखने में बड़ी ही आकर्षक लगती हैं. शायद कोई विरला ही हो जो उस ट्रेन में बैठ कर सफर करने की ख्वाहिश न रखे. खैर, पहला दिन बड़ा शानदार बीता और हम शाम ढलते ही घर आ गए. बड़े दिनों का असली मतलब तो मुझे वहां जा कर ही समझ आया. वहां सुबह 5 बजे हो जाती और सांझ रात को 9 बजे ढलती. शाम 6 बजे पूरा बाजार बंद हो जाता. दूसरे दिन हम ने फिर डार्लिंग हार्बर के लिए कैब पकड़ ली. वहां पर ‘मैडम तुसाद’, जोकि एक ‘वैक्स म्यूजियम’ है, देखा. उस में विश्व के नामी लोगों के मोम के पुतले हैं जोकि हुबहू जीवित इंसानों जैसे प्रतीत होते हैं. उन में हमारे महानायक अमिताभ बच्चन, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के भी पुतले हैं. वहां माइकल जैक्सन के साथ हाथ में सिल्वर रंग का दस्ताना पहन उसी की मुद्रा में मैं ने भी फोटो खिंचवाया. ‘कोई मिल गया’ फिल्म का ‘जादू’, जोकि एक साइकिल की टोकरी में बैठा था, बच्चों की भीड़ वहां जमा थी. खैर, पूरा दिन हम ने वेट वर्ल्ड कैप्टेन कुक का जहाज और समुद्री पनडुब्बी का म्यूजियम देखने में बिता दिया. मैं मन ही मन सोच रही थी कहां मिलती हैं ये सब जगहें हिंदुस्तान में देखने को. और सिर्फ मैं नहीं, मम्मी भी बहुत रोमांचित थीं इन सब को देख कर. वहीं डार्लिंग हार्बर से ही दूर देखने पर सिडनी हार्बर ब्रिज और ओपेरा हाउस भी नजर आते हैं.

तीसरे दिन हम ने स्काई टावर व टोरंगा जू देखने का प्लान बनाया. स्काई टावर से तो पूरा सिडनी नजर आता है. यह सिडनी का सब से ऊंचा टावर है जो 360 डिगरी में गोल घूमता है और उस के अंदर एक रैस्टोरैंट भी है. कांच की दीवारों से सिडनी देखने का अपना ही मजा है. उस के ऊपर स्काई वाक भी होता है यानी कि घूमते टावर के ऊपर चलना. वहां चलना मेरे बस की बात नहीं थी. सो, हम ने टोरंगा जू की तरफ रुख किया. यहां विश्व के बड़ेबड़े जीवजंतुओं के अलावा अनोखे पक्षी देखने को मिले और बर्ड शो तो अपनेआप में अनूठा था. मुझे अच्छी तरह याद है, वहां मुझे सनबर्न हो गया था. आस्ट्रेलिया के ऊपर ओजोन परत सब से पतली है. मैं वहां रोज सनस्क्रीन लगाती. लेकिन उसी दिन बादल छाए देख, न लगाया. और कहते हैं न कि सिर मुंडाते ही ओले पड़ना. बस, वही हुआ मेरे साथ. हौल्टर नैक ड्रैस पहनी थी मैं ने, तो मेरे कंधे बुरी तरह से झुलस गए थे. एक शाम हम ने बोंडाई बीच के लिए रखी थी. वहां जाने के लिए कैब ली और जैसे ही बीच नजदीक आया, आसपास के बाजार में बीच संबंधी सामान जैसे सर्फिंग बोर्ड, स्विमिंग कौस्ट्यूम, वाटर ट्यूब और कपड़े बिक रहे थे. बीच पर पहुंचते ही नीले समुद्र पर आतीजाती लहरों को देख कर मैं बहुत रोमांचित हो गई और वहां की साफसुथरी सुनहरी रेत, मन करता था उस में लोटपोट हो जाऊं. लहरों पर सर्फिंग करते लोग तो फिल्मों में ही देखे थे, यहां हकीकत में देखे.

विदेशों में थोड़ा खुलापन ज्यादा है. सो, रंगबिरंगी चटख बिकनी पहनी लड़कियां बीच पर अपने साथियों के कमर में हाथ डाले घूम रही थीं और मुझे पापा के साथ वह सब देख झिझक हो रही थी. अगले 2 दिन पापा का सैमिनार था, सो उन्होंने कहा, ‘अब 2 दिन मैं अपने काम में बिजी और तुम से फ्री, तुम दोनों मांबेटी आसपास का बाजार घूम लेना.’ सो, पापा के जाते ही मम्मी और मैं निकल पड़े आसपास की सैर को. न्यू टाउन की मार्केट बहुत अच्छी थी. स्टोर्स के शीशे से डिस्प्ले में नजर आते इवनिंग गाउन मन को बहुत लुभा रहे थे. 2 घंटे में बाजार देखा, सबकुछ डौलर में बिकता है वहां. सो, भारत से बहुत महंगा था. छोटीमोटी शौपिंग की और फिर मैं ने मम्मी से कहा, ‘चलिए न मम्मी, ओपेरा हाउस को नजदीक से देख कर आते हैं और टाउन साइड की मार्केट भी देखेंगे.’

मम्मी परदेस में अकेले जाने के नाम से ही डर गई थीं. पर मैं ने कहा, ‘मेरे पास सिडनी का नक्शा है, आप चिंता न कीजिए.’ मेरे ज्यादा जिद करने पर मम्मी मान गईं और मैं ने बोटैनिकल गार्डन के लिए टैक्सी ले ली. यह समुद्र के किनारे अपनेआप में एक बड़ा गार्डन है जिस में वर्षों पुराने कई तरह के पेड़ हैं और बस, उसी के अंदरअंदर चलते हुए ओपेरा हाउस आ जाता है. तकरीबन 20 मिनट में वहां पहुंच हम ने गार्डन की सैर की और पहुंच गए ओपेरा हाउस जहां शहर के बड़ेबडे़ शो होते हैं. नीले समुद्र में कमल की पत्तियों की आकृति लिए सफेद रंग का यह औडिटोरियम कई हिंदी फिल्मों में दर्शाया गया है. वहां मैं ने कुछ फोटो खींचे और पैदल चलने लगी. मुझे अपने पर गर्व महसूस हो रहा था. मैं वहीं थी जहां ‘दिल चाहता है’ फिल्म में आमिर खान और प्रीति जिंटा पर एक गाना फिल्माया गया है ‘जाने क्यूं लोग प्यार करते हैं…’ बस, उस के बाद हम आ गए गार्डन के बाहर और पैदल ही गए जौर्ज स्ट्रीट और पिटर्स स्ट्रीट. ऊंचीऊंची बिल्डिंगों के बीच इस बाजार में दुनिया की हर चीज मौजूद थी.

हलकीहलकी बारिश होने लगी थी और उस के साथ अंधेरा भी. मम्मी ने कहा, ‘अब हमें घर चलना चाहिए’. मैं ने ‘हां’ कहते हुए एक कैब को रुकने का इशारा किया और न्यू टाउन चलने को कहा. टैक्सी ड्राइवर 23-24 वर्ष का हिंदीभाषी लड़का था. मम्मी ने पूछ लिया, ‘आप भी भारतीय हैं?’ वह कहने लगा, ‘नहीं, मैं पाकिस्तानी मुसलिम हूं?’ और बस, अभी कुछ दूरी तक पहुंचे थे कि देखा आगे पुलिस ने ट्रैफिक डाइवर्ट किया हुआ था, पूछने पर मालूम हुआ शहर में दंगा हो गया है. सो, पूरे शहर में कर्फ्यू लगा है. सभी को अपनेअपने घरों में पहुंचने के लिए कहा जा रहा था. यह बात सुन कर मेरे और मम्मी के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आई थीं. मम्मी ने टैक्सी ड्राइवर से पूछा, ‘कोई और रास्ता नहीं है क्या न्यू टाउन पहुंचने का?’ उस ने कहा, ‘नहीं, पर आप चिंता मत कीजिए. मैं आप को अपने घर ले चलता हूं. यहीं पास में ही है मेरा घर. जैसे ही कर्फ्यू खुलेगा, मैं आप को न्यू टाउन पहुंचादूंगा.’

मम्मी और मैं दोनों एकदूसरे के चेहरे को देख रहे थे और टैक्सी ड्राइवर ने हमारे चेहरों को पढ़ते हुए कहा, ‘चिंता न कीजिए, आप वहां बिलकुल सुरक्षित रहेंगी, मेरे अब्बाअम्मी भी हैं वहां.’ खैर, परदेस में हमारे पास और कोई चारा भी न था. 5 मिनट में ही हम उस के घर पहुंच गए. वहां उस ने हमें अपने अब्बाअम्मी से मिलवाया और उन्हें हमारी परेशानी के बारे में बताया. उस की अम्मी ने हमें चाय देते हुए कहा, ‘इसे अपना ही घर समझिए, कोई जरूरत हो तो जरूर बताइए. और आप किसी तरह की फिक्र न कीजिए. यहां आप बिलकुल सुरक्षित हैं.’ मैं ने सोचा मैं पापा को फोन कर बता दूं कि हम कहां हैं लेकिन फोनलाइन भी ठप हो चुकी थी. सो, बता न सकी. बातबात में मालूम हुआ वह ड्राइवर वहां अपनी मास्टर्स डिगरी कर रहा है. उस के अब्बा टैक्सी ड्राइवर हैं और आज किसी निजी कारण से वह टैक्सी ले कर गया था और यह हादसा हो गया. खैर, 2 दिन उस की अम्मी ने हमारी बहुत खातिरदारी की. खास बात यह कि मुसलिम होते हुए भी उन्होंने 2 दिनों में कुछ भी मांसाहारी खाना नहीं बनाया क्योंकि हम शाकाहारी थे. जब उन्हें मालूम हुआ कि मुझे सनबर्न हुआ है तो वे मुझे दिन में 4 बार ठंडा दूध देतीं और कहतीं, ‘कंधों पर लगा लो, थोड़ी राहत मिलेगी.’ मैं उस परिवार से बहुत प्रभावित हुई और स्वयं उस से भी जो मास्टर्स करते हुए भी टैक्सी चलाने में कोई झिझक नहीं करता. जैसे ही फोनलाइन खुली, मैं ने पापा को फोन कर कहा, ‘पापा हम सुरक्षित हैं.’ और कर्फ्यू हटते ही वह टैक्सी ड्राइवर हमें न्यू टाउन छोड़ने आया.

पापा ने उस से कहा, ‘बेटा, परदेस में तुम ने जो मदद की है उस का मैं शुक्रगुजार हूं. तुम्हारे कारण ही आज मेरा परिवार सुरक्षित है. न जाने कभी मैं तुम्हारा यह कर्ज उतार पाऊंगा भी या नहीं.’ वह बोला, ‘मैं इमरान हूं और यह तो इंसानियत का तकाजा है, इस में कर्ज की क्या बात?’ और इतना कह वह टैक्सी की तरफ बढ़ गया. मैं पीछे से उसे देखती रह गई और अनायास ही मेरा मन बस इमरान और उस की बातों में ही खोया रहा. मुझ से रहा न गया और मैं ने उसे फेसबुक पर ढूंढ़ कर फ्रैंड बना लिया. अब हम कभीकभी चैट करते. उस से बातें कर मुझे बड़ा सुकून मिलता. शायद, मेरे मन में उस के लिए प्यार के फूल खिलने लगे थे. खैर, 3 वर्ष इसी तरह बीत गए. मैं इमरान से चैट के दौरान अपनी हर अच्छी और बुरी बात साझा करती. मैं समझ गई थी कि वह एक नेक और खुले विचारों का लड़का है. वक्त का तकाजा देखिए, 3 साल बाद मैं मास्टर्स करने सिडनी गई और एअरपोर्ट पर मुझे लेने इमरान आ गया. उसे देख मैं उस के गले लग गई. मुझ से रहा न गया और मैं ने कह दिया, ‘आई लव यू, इमरान’ वह कहने लगा, ‘आई नो डार्लिंग, ऐंड आई लव यू टू.’ इमरान ने मुझे बांहों में कसा हुआ था और वह कसाव धीरेधीरे बढ़ता जा रहा था.

मैं तो सदा के लिए उसी घेरे में कैद हो जाना चाहती थी. सो, मैं ने पापा को फोन कर कहा, ‘पापा, मैं सुरक्षित पहुंच गई हूं और इमरान लेने आया है मुझे और एक खास बात यह कि आप मेरे लिए शादी के लिए लड़का मत ढूंढि़ए. मेरा रिश्ता तय हो गया है इमरान के साथ.’ मेरी पसंद भी पापा की पसंद थी, इसलिए उन्होंने भी कहा, ‘हां, मैं इमरान के मातापिता से बात करता हूं.’ और बस कुछ महीनों में हमारी सगाई कर दी गई और फिर शादी. एक बार तो रिश्तेदारों को बहुत बुरा लगा कि मैं एक हिंदू और मुसलिम से विवाह? लेकिन पापा ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया था कि वे अपनी बेटी का भलाबुरा खूब समझते हैं. आज मुझे इमरान से विवाह किए पूरे 5 वर्ष बीत गए हैं, मैं हिंदू और वह मुसलिम लेकिन आज तक धर्म की दीवार की एक भी ईंट हम दोनों के बीच नहीं आई. हम दोनों तो जियो और जीने दो की डोर से बंधे अपना जीवन जी रहे हैं. सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते हैं, रिश्तेदारों के साथ. दोनों परिवार एकदूसरे की भावनाओं का खयाल रखते हुए एक हो गए हैं. मुझे कभी एहसास ही नहीं हुआ कि मैं एक मुसलिम परिवार में रह रही हूं. अपनी बेटी को भी हम ने धर्म के नाम पर नहीं बांटा.

मैं ने तो अपना प्यार पा लिया था. हमारे भारत के जब से 2 हिस्से क्या हुए, धर्म के नाम पर लोग मारनेकाटने को तैयार हैं. आएदिन दंगे होते हैं. कितने प्रेमी इस धर्म की बलि चढ़ा दिए जाते हैं. लोगों को अपने बच्चों से ज्यादा शायद धर्म ही प्यारा है या शायद एक खौफ भरा है मन में कि गैरधर्म से रिश्ता रखा तो अपने धर्म के लोग उन से किनारा कर लेंगे. धर्म के नाम पर दंगों में लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं, उन्हें घरों से उठा लिया जाता है. मैं सोच रही थी, कैसा धर्मयुद्ध है ये, जो इंसान को इंसान से नफरत करना सिखाता है या फिर धर्म के ठेकेदार इस युद्ध का अंत होने ही नहीं देना चाहते और धर्म की आड़ में नफरत के बीज बोए जाते हैं, जिन में सिर्फ नश्तर ही उगते हैं. न जाने कब रुकेगी यह धर्म की खेती और बोए जाएंगे भाईचारे के बीज और फिर खिलेंगे प्यार के फूल.

Hindi Kahani : एक झूठ – धोखे से की गई शादी का क्या होता है अंजाम ?

Hindi Kahani : इकबाल जल्दीजल्दी निभा के लिए केक बना रहा था. दरअसल, आज निभा का बर्थडे था. इकबाल ने अपने औफिस से छुट्टी ले ली थी. वह निभा को सरप्राइज देना चाहता था.

उस ने निभा की पसंद का खाना बनाया था, पूरा घर सजाया था और निभा के लिए एक खूबसूरत सी ड्रैस भी खरीदी थी. आज की शाम वह निभा के लिए यादगार बना देना चाहता था.

शाम में जब निभा घर लौटी तो इकबाल ने दरवाजा खोला. निभा के अंदर कदम रखते ही इकबाल ने पंखा चला दिया और रंगबिरंगे फूल निभा के ऊपर गिरने लगे. निभा को बांहों में भर कर इकबाल ने धीरे से कहा,”जन्मदिन मुबारक हो मेरी जान.”

इकबाल का हाथ थाम कर निभा ने कहा,”सच इकबाल, तुम मेरी जिंदगी की सच्ची खुशी हो. कितना प्यार करते हो मुझे. ख्वाहिशों का आसमान छू लिया है मैं ने तुम्हारे दम पर… अब तमन्ना यही है मेरा दम निकले तुम्हारे दर पर…”

इकबाल ने उस के होंठों पर उंगली रख दी,”दम निकलने की बात दोबारा मत करना निभा. तुम ने मेरी जिंदगी हो. तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं.”

केक काट कर और गिफ्ट दे कर जब इकबाल ने अपने हाथों से तैयार किया हुआ खाना डाइनिंग टेबल फर सजाया तो निभा की आंखों में आंसू आ गए,”इतना प्यार मत करो मुझ से इकबाल. हम लिवइन में रहते हैं मगर तुम तो मुझे पत्नी से ज्यादा मान देते हो. हमारा धर्म एक नहीं पर तुम ने प्यार को ही धर्म बना दिया. मेरे त्योहार तुम मनाते हो. मेरे रिवाज तुम निभाते हो. मेरा दिल हर बार तुम चुराते हो. कब तक चलेगा ऐसा?”

“जब तक धरती पर मैं हूं और आसमान में चांद है…”

दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए थे. धर्म, जाति, ऊंचनीच, भाषा, संस्कृति जैसे हर बंधन से आजाद उन का प्यार पिछले 5 सालों से परवान चढ़ रहा था.

5 साल पहले एक कौमन फ्रैंड की पार्टी में दोनों मिले थे. उस वक्त दोनों ही दिल्ली में नए थे और जौब भी नईनई थी. समय के साथसाथ दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई. एकदूसरे के विचार और व्यवहार से प्रभावित इकबाल और निभा धीरेधीरे करीब आने लगे थे. दोनों के बीच दूरियां सिमटने लगीं और फिर दोनों अलगअलग घर छोड़ कर एक ही घर में शिफ्ट हो गए. किराया तो बचा ही जीवन को नई खुशियां भी मिलीं.

जल्दी ही दोनों ने मिल कर एक फ्लैट किस्तों पर ले लिया. दोनों मिल कर मकान की किस्त भी देते और घर के दूसरे खर्चे भी करते. दोनों के बीच प्यार गहरा होता गया. रिश्ता गहरा हुआ तो दोनों ने घर वालों को बताने की सोची.

इकबाल के घर वालों में केवल मां थीं जो बहुत सीधी थीं. वह तुरंत मान गई थीं. मगर निभा के यहां स्थिति विपरीत थी. उस के पिता इलाहाबाद के जानेमाने उद्योगपति थे. शहर में अपनी कोठी थी. 3-4 फैक्ट्रियां थीं. 100 से ज्यादा मजदूर काम करते थे. उन की शानोशौकत ही अलग थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी पर पतिपत्नी दोनों ही अव्वल दरजे के धार्मिक और कट्टरमिजाज थे. मां अकसर ही धार्मिक कार्यक्रमों में शरीक हुआ करती थीं.

धर्म की तो बात ही अलग है. यहां तो जाति के साथसाथ गोत्र, वर्ण, कुंडली सब कुछ देखा जाता था. ऐसे में निभा को हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि वह घर वालों से कुछ कहे.

एक बार दीवाली की छुट्टियों में जब वह घर गई तो उसे शादी के लिए योग्य लड़कों की तसवीरें दिखाई गईं. निभा ने तब पिता से सवाल किया,”पापा क्या मैं अपनी पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती?”

पापा ने गुस्से से उस की तरफ देखा. तब तक मां ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और बोलीं,” देख बेटा, तू अपनी पसंद की शादी करने को तो कर सकती है, पर इतना ध्यान रखना कि लड़का अपने धर्म, अपनी जाति और अपनी हैसियत का होना चाहिए. थोड़ा भी इधरउधर हम स्वीकार नहीं करेंगे. इसलिए प्यार करना भी है तो आंखें खोल कर. वरना तू तो जानती ही है गोलियां चल जाएंगी.”

“जी मां,” कह कर निभा खामोश हो गई.

उसे पता था कि इकबाल के बारे में बता कर वह खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी दे मारेगी. इसलिए उस ने रिश्ते का सच छिपाए रखना ही उचित समझा. वक्त इसी तरह बीतता रहा.

एक दिन सुबह निभा बड़ी परेशान सी बालकनी में खड़ी थी. इकबाल ने पीछे से उसे बांहों में भरते हुए पूछा,”हमारी बेगम के चेहरे पर उदासी के बादल क्यों छाए हुए हैं?”

निभा ने खुद को छुड़ाते हुए परेशान स्वर में कहा,”क्योंकि आप के शहजादे दुनिया में आने के लिए निकल चुके हैं.”

“क्या?”

“हां इकबाल. मैं मां बनने वाली हूं और यह जिम्मेदारी मैं अभी उठा नहीं सकती. एक तरफ घर वालों को कुछ पता नहीं और दूसरी तरफ मेरा कैरियर भी पीक पर है. मैं यह रिस्क अभी नहीं ले सकती.”

“तो ठीक है निभा गर्भपात करा लो. मुझे भी यही सही लग रहा है.”

“पर क्या यह इतना आसान होगा?”

“आसान तो नहीं होगा बट डोंट वरी, हम पतिपत्नी की तरह व्यवहार करेंगे और कहेंगे कि एक बच्चा पहले से है और इसलिए अभी दूसरा बच्चा इतनी जल्दी नहीं चाहते.”

“देखो क्या होता है. शाम को आ जाना मेरे औफिस में. वहीं से लैडी डाक्टर के पास चलेंगे. ”

और फिर निभा ने वह बच्चा गिरा दिया. इस के 5-6 महीने बाद एक बार फिर गर्भपात कराना पड़ा. निभा को काफी अपराधबोध हो रहा था. शरीर भी कमजोर हो गया था. पर वह करती क्या…. उसे कोई और रास्ता ही समझ नहीं आया था. पर अब इस बात को ले कर वह काफी सतर्क हो गई थी और जरूरी ऐहतियात भी लेने लगी थी.

एक दिन औफिस में ही उस के पास खबर आई कि उस के पिता का ऐक्सीडैंट हो गया है और वे काफी गंभीर अवस्था में हैं. निभा एकदम बदहवाश सी घर लौटी और जरूरी सामान बैग में डाल कर निकल पड़ी. अगली सुबह वह हौस्पिटल में थी. उस के पापा आखिरी सांसें ले रहे थे.

उसे देखते ही पापा ने कुछ बोलने की कोशिश की तो वह करीब खिसक आई और हाथ पकड़ कर कहने लगी,” बोलो पापा, आप क्या कहना चाहते हैं?”

“बेटा मैं चाहता हूं कि मेरा सारा काम तुम्हारा चचेरा भाई नहीं बल्कि तुम संभालो. वादा कर बेटा…”

निभा ने उन के हाथों पर अपना हाथ रख कर वादा किया. फिर कुछ ही देर बाद उन का देहांत हो गया. अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया कर वह 14 दिनों बाद दिल्ली लौटी. इकबाल भी औफिस से जल्दी आ गया था. निभा उस के गले लग कर बहुत रोई और फिर अपना सामान पैक करने लगी.

इकबाल चौंकता हुआ बोला,”यह क्या कर रही हो निभा?”

“मुझे हमेशा के लिए घर लौटना पड़ेगा इकबाल. पापा ने वादा लिया है मुझ से. उन का सारा कारोबार मुझे संभालना है.”

“वह तो ठीक है मगर एक बार मेरी तरफ भी तो देखो. मैं यहां अकेला तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा? मकान की किस्तें, अकेलापन और तुम्हारे बिना जीने का दर्द कैसे उठा पाऊंगा? नहीं निभा नहीं. मैं नहीं रह पाऊंगा ऐसे…”

“रहना तो पड़ेगा ही इकबाल. अब मैं क्या करूं?”

“मत जाओ निभा. यहीं से संभालो अपना काम. कोई मैनेजर नियुक्त कर लो जो तुम्हें जरूरी जानकारी देता रहेगा.”

“इकबाल लाखोंकरोड़ों का कारोबार ऐसे नहीं संभलता. पापा अपने कारोबार के प्रति बहुत जनूनी थे. उन्होंने कोई भी काम मातहतों पर नहीं छोड़ा. हर काम में खुद आगे रहते थे. तभी आज इस मुकाम तक पहुंचे. उन्हें मेरे चचेरे भाई पर भी यकीन नहीं. मेरे भरोसे छोड़ कर गए हैं सब कुछ और मैं उन को दिया गया अंतिम वचन कभी तोड़ नहीं सकती.”

“और मुझ से किए गए प्यार के वादे? उन का क्या? उन्हें ऐसे ही तोड़ दोगी? नहीं निभा, तुम्हारे बिना मैं यहां 2 दिन भी नहीं रह सकता.”

“तो फिर चले आओ न…” आंखों में चमक लिए निभा ने कहा.

“मतलब?”

“देखो इकबाल, तुम एक बार मेरे पास इलाहाबाद आ जाओ. हमें एकदूसरे की कंपनी मिल जाएगी और फिर देखेंगे…कोई न कोई रास्ता भी निकाल ही लेंगे.”

फिर क्या था 10 दिन के अंदर ही इकबाल इलाहाबाद पहुंच गया. दोनों ने एक होटल में मुलाकात कर आगे की योजना तैयार की.

अगली सुबह इकबाल मैनेजर बन कर निभा के घर में खड़ा था. निभा ने अपनी मां से इकबाल का परिचय कराया,” मां यह बाला हैं. हमारे नए मैनेजर.”

इकबाल ने बढ़ कर मां के पैर छू लिए तो मां एकदम से अलग होती हुई बोलीं,”अरे नहीं बेटा. तुम मैनेजर हो. मेरे पैर क्यों छू रहे हो?”

“क्योंकि बड़ों के आशीर्वाद से ही सफलता के रास्ते खुलते हैं मां.”

“बेटा अब तुम ने मुझे मां कहा है तो यही आशीष देती हूं कि तुम्हारी हर इच्छा पूरी हो.”

बाला यानी इकबाल ने हाथ जोड़ कर आशीर्वाद लिया और अपने काम में लग गया. निभा ने मां को बताया, “मां, दरअसल बाला कालेज में मेरा क्लासमैट था. इस ने एमबीए की पढ़ाई की हुई है. पढ़ाई के बाद कुछ समय से दिल्ली में काम कर रहा था. यहां मुझे अकेले इतना बड़ा कारोबार संभालना था तो मेरी हैल्प के लिए आया है. वैसे इस का घर तो जमशेदपुर में है. यहां बिलकुल अकेला है यह. मां, क्या हम इसे अपने बड़े से घर में रहने के लिए एक छोटा सा कमरा दे सकते हैं?”

“क्यों नहीं बेटा? इसे गैस्टरूम में ठहरा दो. कुछ दिनों में यह खुद अपने लिए कोई घर ढूंढ़ लेगा.”

“जी मां…” कह कर निभा अपने कैबिन में चली गई. योजना का पहला चरण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ था. इकबाल घर में आ भी गया था और मां को कोई शक भी नहीं हुआ था. मैनेजर के रूप इकबाल बाला बन कर निभा के साथ काम करने लगा.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. इकबाल और निभा ने मिल कर कारोबार अच्छी तरह संभाल लिया था. मां भी खुश रहने लगी थीं. इकबाल समय के साथ मां के संग काफी घुलमिल गया. वह मां की हरसंभव सहायता करता. हर मुश्किल का हल निकालता. बेटे की तरह अपनी जिम्मेदारियां निभाता. यही नहीं, कई बार उस ने अपने हाथों से बना कर मां को स्वादिष्ठ खाना भी खिलाया. उस के बातव्यवहार से मां बहुत खुश रहती थीं.

इस बीच दीवाली आई तो इकबाल ने उन के साथ मिल कर त्योहार मनाया. किसी को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह हिंदू नहीं है.

एक बार कारोबार के किसी काम के सिलसिले में निभा को दिल्ली जाना था. इकबाल भी साथ जा रहा था. तभी मां ने कहा कि वे भी दिल्ली घूमना चाहती हैं. बस फिर क्या था, तीनों ने काम के साथसाथ घूमने का भी कार्यक्रम बना लिया.

तीनों अपनी गाड़ी से दिल्ली के लिए निकले. लेकिन नोएडा के पास हाईवे पर अचानक निभा की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उस वक्त निभा गाड़ी चला रही थी और मां बगल में बैठी थीं. ऐक्सीडैंट इतना भयंकर हुआ कि गाड़ी पूरी तरह डैमेज हो गई. निभा को गहरी चोटें लगीं पर उतनी नहीं जितनी मां को लगीं. मां के सिर में कांच घुस गए थे और खून बह रहा था. वह बीचबीच में होश में आ रही थीं और फिर बेहोश हो जा रही थीं.

करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ा अस्पताल था. निभा ने मां को वहीं ऐडमिट करने का फैसला लिया.

रात का समय था. हाईवे का वह इलाका थोड़ा सुनसान था. हाथ देने पर भी कोई भी गाड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. कोई और उपाय न देख कर इकबाल ने मां को गोद में उठाया और तेजी से अस्पताल की तरफ भागा. पीछेपीछे निभा भी भाग रही थी.

निभा ने ऐंबुलैंस वाले को काल किया मगर ऐंबुलैंस को आने में वक्त लग रहा था. इतनी देर में इकबाल खुद ही मां को गोद में उठाए अस्पताल पहुंच गया.

मां को तुरंत आईसीयू में ऐडमिट किया गया. उन्हें खून की जरूरत थी. संयोग था कि इकबाल का ब्लड ग्रुप ओ पौजिटिव था. उस ने मां को अपना खून दे दिया. मां को बचा लिया गया था. इस दौरान इकबाल लगातार दौड़धूप करता रहा.

इस घटना ने मां के दिल में इकबाल की जगह बहुत ऊंची कर दी थी. वापस घर लौट कर एक दिन मां ने इकबाल को सामने बैठाया और प्यार से उस के बारे में सब कुछ पूछने लगीं. पास ही निभा भी बैठी हुई थी.

निभा ने मां का हाथ पकड़ कर कहा,”मां मैं आज आप से एक हकीकत बताना चाहती हूं.”

“वह क्या बेटा?”

“मां यह बाला नहीं इकबाल है. हम ने झूठ कहा था आप से.”

इतना कह कर वह खामोश हो गई और मां की तरफ देखने लगी. मां ने गौर से इकबाल की तरफ देखा और वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गईं. दरवाजा बंद कर लिया. निभा और इकबाल का चेहरा फक्क पड़ गया. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब इस परिस्थिति से कैसे निबटें.

अगले दिन तक मां ने दरवाजा नहीं खोला तो निभा को बहुत चिंता हुई. वह दरवाजा पीटती हुई रोतीरोती बोली,”मां, माफ कर दो हमें. तुम नहीं चाहती हो तो मैं इकबाल को वापस भेज दूंगी. गलती मैं ने की है इकबाल ने नहीं. मैं ने ही उसे बाला बन कर आने को कहा था. प्लीज मां, माफ कर दो.”

मां ने दरवाजा खोल दिया और मुंह घुमा कर बोलीं,”गलती तुम्हारी नहीं. गलती बाला की भी नहीं. गलती तो मेरी है जो मैं उसे पहचान न सकी.”

निभा और इकबाल परेशान से एकदूसरे की तरफ देखने लगे. तभी पलटते हुए मां ने हंस कर कहा,”बेटा, मैं ही पहचान न सकी कि तुम दोनों के बीच कितना गहरा प्यार है. इकबाल कितना अच्छा इंसान है. धर्म या जाति से क्या होता है? यदि सोचो तो समझ आएगा. बेटा, पलभर में मेरा धर्म भी तो बदल गया न जब इकबाल ने मुझे अपना खून दिया. मेरे शरीर में उसी का खून तो बह रहा है. फिर क्या अंतर है हम में या उस में. इतने दिनों में जितना मैं ने समझा है इकबाल मुझे एक शरीफ, ईमानदार और साथ निभाने वाले लड़का लगा है. इस से बेहतर जीवनसाथी तुम्हें और कौन मिलेगा?”

“सच मां, आप मान गईं…” कह कर खुशी से निभा मां के गले लग गई. आज उसे जिंदगी की सब से बड़ी खुशी मिल गई थी. पास ही इकबाल भी मुसकराता हुआ अपने आंसू पोंछ रहा था

Best Hindi Story : अपनी जमीं अपना आसमां – क्या रश्मि अपने पति को बचा पाई ?

Best Hindi Story : सत्यकांत के अपने दोस्त की बीवी पूजा से अनैतिक संबंध होने को ले कर पत्नी रश्मि बेटी पाहुनी को ले कर मायके आ तो गई पर वहां भी परेशानियां कम न थीं. क्या रश्मि इस का समाधान खोज पाई? रश्मि आज फिर अपनी बेटी पाहुनी के साथ परेशान सी घर आई थी. रश्मि के विवाह को 12 वर्ष हो गए थे, मगर सत्यकांत के व्यवहार में जरा भी बदलाव नहीं आया था. वह पैसे को पानी की तरह बहाता था.

आज फिर रश्मि को कहीं से पता चला कि वह अपना पैसा अपने दोस्त विराज की पत्नी, जिस का नाम पूजा है, के साथ औनलाइन बिजनैस में लगा रहा है. रश्मि ने पूजा को पहले भी देख रखा था. गहरे मेकअप की परतें और भड़कीले कपड़ों में पूजा एक आइटम गर्ल अधिक, पढ़ीलिखी सभ्य महिला कम लगती थी. रश्मि को अच्छे से पता था कि पूजा वे सारे हथकंडे अपनाती थी जिन से वह सत्यकांत जैसे बेवकूफ पुरुष को काबू में रख सके. रातदिन ‘सत्यजी, सत्यजी’ कह कर वह सत्य की झठी तारीफ करती थी. सत्य बेवकूफ की तरह पूजा की थीसिस भी लिख रहा था और अपने निजी फायदे के लिए पूजा का पति विराज मुंह में दही जमा कर बैठा हुआ था. आज रश्मि के सिर के ऊपर से पानी गुजर गया था.

इसलिए वह सलाह लेने अपने घर आ गई थी. छोटी बहन अंशु बोली, ‘‘आप पढ़ीलिखी हो, खुद कमाती हो, क्यों उस गलीच इंसान के साथ अपनी और पाहुनी की जिंदगी बरबाद कर रही हो?’’ भैया बोले, ‘‘अरे, तेरा कमरा अभी भी खाली पड़ा है.’’ वहीं भाभी बोलीं, ‘‘डाइवोर्स का केस फाइल करना बच्चू पर और जब एलिमोनी देनी पड़ेगी, दिन में तारे नजर आ जाएंगे.’’ रश्मि ने पाहुनी के मुरझए चेहरे की तरफ देखा. पाहुनी सुबकते हुए कह रही थी, ‘‘पापा उतने भी बुरे नहीं हैं जैसा आप सब बोल रहे हो.’’ तभी रश्मि की मम्मी सुधा बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे पापा ने तो हमारी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी है. 38 साल की उम्र में ही बूढ़ी लगने लगी है. मेरी बेटी महीने में लाख रुपए कमाती है. क्यों वह किसी आवारा के पीछे जिंदगी खराब करे?’’ रश्मि ने घर आ कर बहुत देर तक घर छोड़ने के फैसले के बारे में सोचा. उसे लगा कि अगर आज वह पाहुनी के आंसू से पिघल जाएगी तो कभी भी इस दलदल से बाहर नहीं निकल पाएगी.

सत्यकांत रातदिन झठ बोलता था. वह इतना झठ बोलता था कि उसे खुद याद नहीं रहता था. रात को सत्यकांत 11 बजे आया था. रश्मि ने सत्यकांत को अपने फैसले से अवगत करा दिया था. सत्यकांत ने बस इतना ही कहा, ‘‘सोचसमझ कर फैसला लेना. ऐसा न हो कि कुएं से खाई में गिर जाओ. तुम्हारे घर वाले तुम्हारे पैसों के कारण रातदिन मेरे खिलाफ कान भरते हैं, मगर एक बात याद रखना कि यह केवल तुम्हारी गलतफहमी है कि मेरे और पूजा के बीच कुछ है. रश्मि सत्यकांत के इन झठे वादों से तंग आ चुकी थी. उस ने अपना और पाहुनी का सामान पैक कर लिया था. उसे लग रहा था कि कम से कम अपने घर में वह तनावमुक्त तो रह पाएगी. जब रश्मि पाहुनी के साथ अपने घर पहुंची तो सब लोगों ने उस का खुलेदिल से स्वागत किया.

अपनी छोटी बहन अंशु और भाभी मंशा की मदद से वह अपने कपड़े और छोटेमोटे सामान कमरे में जमाने लगी. रश्मि ने देखा कि उस के कमरे में एक अलमारी पुरानी चादरों से अटी पड़ी है. ठंडी सांस भरते हुए रश्मि ने सोचा कि अभी भी घर का वह ही हाल है. सबकुछ अस्तव्यस्त. मंशा भाभी भी घर के रंग में ही रंग गई थीं. मंशा भाभी बोलीं, ‘‘अरे दीदी, आप इस के ऊपर अपने महंगे कभीकभार पहनने वाले कपड़े रख दो. जल्द ही मैं ये सामान हटवा दूंगी.’’ तभी अंशु बोली, ‘‘अरे, मेरे कमरे में एक अलमारी पूरी खाली है. आप के कपड़े वहां रख देते हैं.’’ रश्मि के सारे महंगे सूट और साडि़यां अंशु अपने कमरे में ले गई थी. रश्मि पाहुनी के साथ उस कमरे को अपना घर बनाने की कोशिश कर रही थी कि तभी रश्मि को बाहर शोर सुनाई दिया.

जब रश्मि बाहर निकली तो देखा कि अंशु उस की कांजीवरम सिल्क की साड़ी पहन कर मौडलिंग कर रही है. रश्मि को देख कर अंशु बोली, ‘‘दीदी, इस बार औफिस में ट्रैडिशनल डे पर ये ही पहनूंगी.’’ तभी भैया के छोटे बेटे भव्य से उस साड़ी के ऊपर पानी गिर गया. रश्मि को ऐसा लगा मानो साड़ी पर उकेरे हुए मोर को किसी ने जबरदस्ती नहला दिया हो. अंशु बोली, ‘‘सौरी दीदी, मैं इसे ड्राईक्लीन करवा दूंगी.’’ तभी रश्मि की मम्मी बोलीं, ‘‘अरे, मैं घर पर ही धो दूंगी.’’ रश्मि को अंदर ही अंदर झंझलाहट तो हुई मगर वह चुप ही रही. रात में जब रश्मि और पाहुनी डिनर के लिए बाहर आए तो डाइनिंग टेबल पर सजी क्रौकरी देख कर रश्मि की भूख ही मर गई थी. क्रौकरी का रंग पीला पड़ गया था और खाना भी बेहद बदमजा बना हुआ था. रश्मि ने देखा कि पाहुनी बस खाने से खेल रही थी.

रात में रश्मि पाहुनी से बहुत देर तक बात करती रही थी. फिर तकरीबन 10 बजे रश्मि उठ कर रसोई में गई. वह पाहुनी को दूध देना चाहती थी. फ्रिज खोल कर देखा तो एक गिलास ही दूध था. मम्मी रश्मि से बोलीं, ‘‘अरे रश्मि, तेरा भाई तो अकेला कमाने वाला है. अब तू आ गई है तो थोड़ा उसे भी चैन मिल जाएगा.’’ रश्मि मम्मी की बात सुन कर थोड़ी अचकचा गई थी, क्या सत्यकांत वास्तव में उस के परिवार के बारे में सही बोल रहा था? अगले दिन रश्मि सवेरे 5 बजे उठ कर नहा ली थी और अपने कपड़े भी धो कर डाल दिए थे. अब समस्या थी पाहुनी की, वह बिना दूध के आंख नहीं खोलती है. रश्मि ने फिर खुद अपने पैसों से 4 लिटर दूध खरीद लिया. पाहुनी को दूध देने के बाद जब वह तैयार होने लगी तो मम्मी बोलीं, ‘‘रश्मि, आज बहुत बरसों बाद गाढ़े दूध की चाय नसीब होगी.’’

रश्मि जब नाश्ता ले कर अंदर आई तो पाहुनी अभी भी रात के कपड़ों में ही बैठी थी. रश्मि ने गुस्से में कहा, ‘‘तुम अब तक नहाई क्यों नहीं?’’ पाहुनी रोंआसी सी बोली, ‘‘कोई बाथरूम खाली नहीं है.’’ रश्मि ने प्यार से पाहुनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘चलो, फिर छुट्टी कर लेते हैं.’’ पाहुनी बिदकते हुए बोली, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’ फिर पाहुनी मुंहहाथ धो कर ही स्कूल के लिए तैयार हो गई थी. टिफिन में भी रश्मि बस ब्रैडजैम ही रख पाई थी. दफ्तर में रश्मि दिनभर सोचती रही थी कि वह क्या करे. पाहुनी को वह ऐसे नहीं देख सकती थी. वापसी में रश्मि ने पाहुनी की पसंद के स्नैक्स, ड्राईफ्रूट्स और भी न जाने कितना सामान ले लिया था.

मगर जब रश्मि घर पहुंची तो शर्म के कारण उस ने पूरा सामान मम्मी के हाथों में पकड़ा दिया था. मम्मी गर्व से बोलीं, ‘‘ऐसी बेटी क्या कभी मायके पर बोझ होती है?’’ भैया और भाभी के लिए रश्मि अब एक कमाई का जरिया थी. मम्मी संकेत में बहुत बार रश्मि को यह समझ चुकी थीं कि छोटी बहन अंशु की शादी उस की और भैया की संयुक्त जिम्मेदारी है. आज जैसे ही रश्मि औफिस से आई तो उस ने देखा कि अंशु उस का सिल्क का सूट लथेड़ते हुए आ रही है. रश्मि एकाएक चिल्ला कर बोली, ‘‘अंशु, किस से पूछ कर तुम यह सूट पहन कर गई थी?’’ अंशु खिसियाती हुई बोली, ‘‘दीदी, आज औफिस में पार्टी थी. मैं ड्राईक्लीन करवा दूंगी.’’ तभी मम्मी तपाक से बोलीं, ‘‘अरे, जब 38 साल की उम्र में तुम्हें ही इतना शौक है तो वह तो बस अभी 24 साल की है. इस घर में मेरा और तेरा नहीं होता.

यह हमारा घर है, रश्मि. अब इस घर की जिम्मेदारी भी तेरी है.’’ इसी तरह मन को समझते हुए, समझते करते हुए और घर की जिम्मेदारी उठाते हुए एक माह बीत गया था. रश्मि ने एकाध बार सत्यकांत से बात करने की कोशिश की, मगर सत्यकांत को शायद यह अरेंजमैंट पसंद आ गया था. जब रश्मि अपने बड़े भाई सुशांत के साथ वकील के यहां गई तो वकील ने कहा कि तुम्हारे पति के खिलाफ डोमैस्टिक वौयलैंस का केस कर सकते हैं, क्योंकि पैसे न कमाना, बाहर गर्लफ्रैंड होना, ऐसी बातों से कुछ नहीं होगा. रश्मि बोली, ‘‘वकील साहब, शादी को 12 साल हो गए हैं. अब भी डोमैस्टिक वौयलैंस का केस बन सकता है?’’ वकील बोला, ‘‘क्यों नहीं. एक ऐसा रामबाण है मेरे पास जो कभी खाली नहीं जाता है. बस, तुम्हें थोड़ी हिम्मत रखनी पड़ेगी.’’ फिर वकील ने जो बताया, उसे सुन कर रश्मि का दिल कांप गया. वकील के अनुसार, रश्मि बेटी पाहुनी के साथ वापस अपने घर जाए और जब सत्यकांत घर आए, उस की उपस्थिति में ही खुद को नुकसान पहुंचाए. तभी डोमैस्टिक वौयलैंस का पक्का केस बनेगा.

पूरा एक हफ्ता एलिमोनी की रकम तय करने में निकल गया था. मम्मी को एक करोड़ रुपए की रकम भी कम लग रही थी तो अंशु और मंशा भाभी 60 लाख रुपए में समझता करना चाहते थे. रश्मि थोड़ा ?िझकती हुई बोली, ‘‘भैया, क्या सत्यकांत से ऐसे पैसे लेना ठीक रहेगा?’’ मम्मी तपाक से बोलीं, ‘‘हमें उस बात से कोई मतलब नहीं है. तेरी जिंदगी बरबाद कर दी है उस ने. उन पैसों को तेरे भैया के बिजनैस में लगा देंगे, अंशु की शादी भी थोड़ी ठीक से हो जाएगी.’’ रश्मि रोज इसी उधेड़बुन में लगी रहती थी. क्या हिंदू शादी में सिंदूर की कीमत वाकई इतनी महंगी है? क्या अपने घर आ कर उसे कोई चैन मिला था? यहां पर भी सब को बस उस के पैसों से मतलब था. एक हफ्ता इसी कशमकश में बीत गया. पाहुनी रोज अपने मामा, मामी और बाकी घर वालों के मुंह से सत्यकांत को फंसाने के नएनए आइडियाज सुनती थी और अपने ही आप में सिमट जाती थी. रात में कभी भी उठ कर पाहुनी डर के कारण चिल्लाने लगी थी. पाहुनी अब रश्मि से खिंचीखिंची सी रहती थी. एक रात जब रश्मि ने पूछा तो पाहुनी गुस्से में बोली, ‘‘मम्मी, तुम गंदी हो.’’ रश्मि फिर उस रात के बाद से पाहुनी से नजर नहीं मिला पाई.

फिर 15 दिनों बाद सुशांत ही बोला, ‘‘रश्मि, पाहुनी को ले कर कब अपने घर जा रही हो. वकील साहब कह रहे हैं, जितना देर करोगी उतनी ही दिक्कत होगी.’’ रश्मि ने कहा, ‘‘भैया, कोई और उपाय नहीं है. पाहुनी बहुत डरी हुई है.’’ मंशा भाभी आंखें तरेरती हुई बोलीं, ‘‘और कोई उपाय होता तो आप के भैया थोड़े ही न आप से कहते और फिर ये पैसे हम सब के, आप के और पाहुनी के ही काम आएंगे.’’ रश्मि धीमे स्वर में बोली, ‘‘भाभी, आप ठीक कह रही हैं, मगर फिर भी मेरा मन नहीं मान रहा है.’’ मम्मी रुखाई से बोलीं, ‘‘तुम्हारे मन के कारण ही तुम आज यहां खड़ी हो.’’ उस रात बहुत देर तक रश्मि अपने कमरे में बिना लाइट जलाए बैठी रही, तभी मम्मी के मोबाइल की घंटी से रश्मि की तंद्रा टूटी. मम्मी किसी को अपने घुटने के औपरेशन का खर्चा बता रही थीं, ‘‘अरे, पूरे 6 लाख रुपए का खर्च है.

अगर सत्यकांत ने 15 लाख रुपए भी दिए तो भी मैं करा लूंगी. ‘‘रश्मि को धीरेधीरे सुशांत लौटा देगा, फिर कौन अपनी शादीशुदा बेटी को ऐसे सपोर्ट करता है जैसे हम कर रहे हैं. अंशु के लिए रिश्ता भी देख रहे हैं. अब तो रश्मि और सुशांत मिल कर सब देख लेंगे. ‘‘अब देखो, रश्मि के पास पाहुनी है. सो, उस की दूसरी शादी कैसे हो सकती है, हम लोगों के साथ रहेगी तो उस की जिंदगी भी कट जाएगी.’’ रश्मि को लगा जैसे पहले सत्यकांत उस के साथ छल कर रहा था और अब उस के खुद के घर वाले उस के टूटे रिश्ते पर अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं. रात में जब रश्मि ने अपनी मम्मी को खिचड़ी दी तो संयत स्वर में कहा, ‘‘मम्मी, अगले हफ्ते तक मैं और पाहुनी अपने घर चले जाएंगे.’’ मम्मी ने खिले स्वर में कहा, ‘‘यह हुई न मेरी बेटी वाली बात.’’ शनिवार की शाम को रश्मि ने अपना सामान फिर पैक कर लिया था. सुशांत बोला, ‘‘चल, मैं तुझे छोड़ आता हूं.’’ रश्मि बोली, ‘‘भैया, यह सफर मेरा है तो रास्ता भी मुझे तय करने दीजिए.’’ रश्मि का औटो जब एक छोटे से मकान के आगे रुका तो पाहुनी बोली, ‘‘मम्मी, यह किस का घर है?’’ रश्मि बोली, ‘‘यह हमारा घर है. यहां की हर ईंट में बस प्यार और अपनापन होगा. घर क्या था एक छोटी सी बरसाती थी, साथ में अटैच्ड टौयलेट और रसोई भी थी. नीचे रश्मि की दोस्त निधि भी रहती थी और उस की बेटी ऊर्जा, पाहुनी की हमउम्र थी. निधि ने रश्मि की समस्या सुन कर उसे बहुत कम किराए पर यह बरसाती दिलवा दी थी.

सुरक्षा की दृष्टि से व हवाधूप के हिसाब से यह काफी अच्छा औप्शन था. रश्मि ने वकील को फोन लगाया और कहा, ‘‘वकील साहब, मुझे बिना किसी झठ के अपना केस लड़ना है. क्या आप लड़ पाएंगे?’’ वकील बोला, ‘‘क्यों नहीं, मगर समय लगेगा. और बस, वाजिब रकम ही मिल पाएगी.’’ रश्मि हंसती हुई बोली, ‘‘बस, वाजिब ही चाहिए.’’ नीचे से पाहुनी की खुल कर हंसने की आवाज आ रही थी. रश्मि को ऐसा लगा, जैसे बहुत दिनों बाद उस ने खुल कर हवा में सांस ली हो, जहां पर थोड़ी सी जमीं उस की है और थोड़ा सा आसमां भी उस का ही है. वह अपनी जमीं पर पांव रख कर अपने सपनों को अपने ही आसमां में बुनने के लिए तैयार है. नई जिंदगी के लिए अब शायद रश्मि तैयार थी.

Supreme Court : एनवायरमैंट और व्हीकल्स

Supreme Court : प्रदूषण फैलाने वाले कमर्शियल व्हीकल्स बौर्डरों से दिल्ली में घुसे ही नहीं कि इस के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बिना किसी और कानूनी अधिकार के कई वर्ष पहले एक स्पैशल टैक्स ठोंक दिया था. उस टैक्स को वसूलने का अधिकार म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन को दिया गया.

अब उस टैक्स को कई साल हो गए हैं पर फिर भी वह खत्म नहीं किया जा रहा. जिन कमर्शियल व्हीकल्स को दिल्ली में आना होता है वे इस, लगभग नाइंसाफी वाले, टैक्स को भर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में आम कमर्शियल व्हीकल्स वाला तो जा नहीं सकता क्योंकि वहां वकीलों पर खर्च लाखों में होता है. यह भी पक्का नहीं मालूम कि अगर सुप्रीम कोर्ट अपने 2015 के इस निरर्थक फैसले को बदल भी दे तो सरकार अपनी ओर से कहीं कोई और टैक्स न ठोंक दे.

एनवायरमैंट कंपनसेशन चार्ज. इसी नाम से यह टैक्स दिल्ली के 153 एंट्री पौइंट्स पर वसूला जा रहा है और जो ठेकेदार इस टैक्स को वसूल रहा है वह वसूली का खर्च इस में से काटता है. कौर्पोरेशन को 800-900 करोड़ रुपए मिल रहे हैं और कहा जाता है कि इस टैक्स को क्लीयर करने में धांधली किए जाने के बाद भी यह रकम इतनी बड़ी बन गई है.

सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में सोचा था कि इस टैक्स को लगाने से दिल्ली में वाहन आएंगे ही नहीं और दिल्ली वालों को राहत मिलेगी. वर्ष 2015 के बाद से अब तक 10 साल हो गए हैं. कौर्पोरेशन का खजाना जनता की पीठ पर छुरा रख कर भरा जा रहा है पर किसी भी सूरत में ऐसा नहीं लग रहा कि जिन वाहनों को दिल्ली में कुछ काम नहीं, वे दिल्ली से होते हुए न जा कर कहीं और से जाएंगे.

ऐतिहासिक तौर पर बड़ा शहर होने के कारण आसपास की सड़कें और उन के किनारे के शहर इस तरह बसे हैं कि सारी सड़कें दिल्ली में पहुंचती हैं. पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण जाना हो तो चाहे कितना दावा किया जाए, अभी भी दिल्ली से होते हुए जाना व्हीकल्स के लिए आसान भी है और जरूरी भी.

सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं सोचा कि दिल्ली की भीड़भाड़ का सामना कोई कमर्शियल व्हीकल किसी भी हालत में नहीं करना चाहता. उस ने म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन के हाथों लहरें गिनने का काम दे दिया और 10 साल हो गए, कभी यह परखने की कोशिश नहीं की कि क्या उस का यह फैसला केवल वसूली का जरिया बन जाएगा ?

Politics : राइटिज्म के पंजे में दुनिया

Politics : जब देशों में कट्टरवाद की लहरें उठनी शुरू होती हैं तो वे एक से दूसरे देश में कोराना वायरस की तरह फैलती हैं. एक समय बराबरी और सब को अवसर के नारों से डैमोक्रेसी ने अपना झंडा फहराया था पर मुसलिम देशों से शुरू हुआ धार्मिक कट्टरवाद अब अमीर, डैमोक्रेटिक देशों में फैल रहा है. इटली, आस्ट्रिया, जरमनी, पोलैंड, फ्रांस, अमेरिका अब एक अजीब से डैमोके्रसी विरोधी, विदेशी रंग के विरोधी दलों की गिरफ्त में आते जा रहे हैं.

समाजशास्त्री इस का चाहे जो विश्लेषण करें, यह बदलाव बेहद खतरनाक है और 200 सालों की जनचेतना व स्वतंत्रताओं के निगलने को तैयार बैठा है. अमेरिका इस का सिरमौर है. भारत पहले से ही शिकार हो चुका है. बंगलादेश में अति कट्टरवाद फैल रहा है. सब जगह नाजी खून के बुलबुले उठ रहे हैं कि हम श्रेष्ठ हैं. बाहरी लोग हमारे कल्चर और फैब्रिक को खराब कर रहे हैं.

जो हिंदूमुसलिम भारत में हो रहा है वह अमेरिका में गोरों, लेटिनों और कालों में हो रहा है, यूरोप में गोरों और मुसलिम शरणार्थियों में हो रहा है, पाकिस्तान में अफगानों को ले कर हो रहा है. इन सब देशों में पुलिस और सेना के अफसरों के चेहरों पर भारी मुसकान है क्योंकि उन्हें लग रहा है कि अब असल ताकत उन के पास आने वाली है.

भारत में जो बुलडोजरी राज चल रहा है, वैसा ही अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप उन 14 लाख अवैध घुसपैठियों पर लागू करने की धमकी दे रहे हैं, वही आस्ट्रिया में फ्रीडम पार्टी कह रही है. वैसा ही कुछ इटली की जौर्जिया मैलोनी कह रही हैं जो ट्रंप और मोदी को इसीलिए पसंद करती हैं. रूस में पुतिन को कोई हिला नहीं पा रहा है. वे पूरे यूरोप पर सैनिक कब्जा करने का सपना पाले हुए हैं. और फार राइट कट्टरवादी पार्टियां उन से फिर भी कोई ज्यादा नाराज नहीं हैं.

यह राइटिस्ट, दक्षिणपंथी राजनीति न केवल इन देशों को महंगी पड़ेगी बल्कि यह आम लोगों के लिए कहर भी लाएगी. डैमोक्रेसी में जियो और जीने दो का सिद्धांत चलता है पर ये राइटिस्ट यह विश्वास करते हैं कि उन के हिसाब से जियो वरना जियो या न जियो. जो हम से अलग दिखता है, अलग धर्म का है, अलग बोली बोलता है, वह पराया है और उसे साथ रहने का हक नहीं है.

दुनिया ने जो सहयोग का माहौल बनाया था वह विवादों में बदल रहा है, कुछ देशों में अपने ही लोगों के गुटों में तो कहीं दूसरे देशों के साथ. रूस, यूक्रेन, इजराइल, फिलिस्तीन, तुर्किए, सीरिया ऐसे पटाखे हैं जो रोज फट रहे हैं. अब ये हर जगह फटते दिखने लगें, तो आश्चर्य नहीं क्योंकि राइटिस्ट केवल हिंसा, जिद, कट्टरता की भाषा समझते हैं.

दुनिया में फैली राइटिज्म की बीमारी कोविड की तरह की छूत की हो सकती है और जरमनी के 1940-1945 के दिनों को वापस ला सकती है. अब कल पर भरोसा थोड़ा कम हो गया है.

Central Government : हैल्थ पर टैक्स

Central Government : केंद्र सरकार के आर्थिक सर्वे ने बहुत सी मतलब की और बहुत सी बेमतलब की बातों में स्वास्थ्य सुधारने का दावा करने वाले हैल्थ फूड्स की बढ़ती बिक्री पर चिंता जाहिर की है और उन्हें कीमती कर के उन की खपत कम करने की सिफारिश की है. यह संभव है कि विज्ञापनों के बल पर इन हैल्थ फूड्स में बहुत सी चीनी, प्रिजर्वेटिव, अनावश्यक मैटल व कैमिकल डाले जा रहे हों पर उन्हें टैक्स लगा कर महंगा करना गलत होगा.

अगर ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं तो इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए और इन को बनाने वालों से पूछताछ की जानी चाहिए. वहीं यह भी देखना चाहिए कि आखिर लोग क्यों कमजोरी महसूस करते हैं और क्यों एडवरटाइज किए गए हैल्थफूड लेते हैं? क्या इसलिए कि उन्हें इन का पर्याय नहीं मालूम?

हमारे देश में स्वास्थ्य के जोखिम तो गंदी हवा, गंदा पानी, गंदगीभरी सड़कें, गंदगी में लिपटा स्ट्रीट फूड, गंदे बरतनों में बनाया गया खाना है. हर शहर की हर सड़क पर 10-20 खोमचे खाना बेचते नजर आ जाएंगे और वह खाना कैसी गंदगी में बनता है और कैसे परोसा जाता है, यह साफ दिखता है.

हमारे यहां दूध देने वाली गाय-भैंसों को कैसे रखा जाता है, इस के लिए सर्वे की जरूरत नहीं है. मीट प्रोडक्ट्स को किस तरह हैंडल किया जाता है, यह साफ दिखता है. गंदे पानी से सब्जियां धोई जाती हैं, यह भी दिखता है और कीटाणु इन सब में अंदर तक चले जाते हैं, यह कोई बताने की बात नहीं.

हैल्थ फूड्स को बलि का बकरा सिर्फ टैक्स इकट्ठा करने के लिए बनाया जा रहा है. सरकार तो शराब, भांग पर भी टैक्स लेने से परहेज नहीं करती और देशभर की सरकारें इन्हें पिलाखिला कर खरबों रुपए कमा रही हैं.

हैल्थ फूड्स की बिक्री 13.7 फीसदी सालाना बढ़ रही है और घरों में 10-11 फीसदी का खर्च हैल्थ फूड्स पर हो रहा है. ये आंकड़े सिर्फ टैक्स जमा करने की बुरी नीयत से दिए जा रहे हैं.

अगर सरकार जागरूक होती तो दिल्ली चुनावों में यमुना के पानी को ले कर महासंग्राम न छिड़ता कि वह प्रदूषित ही नहीं, विषैला भी है. हमारी सारी नदियां गंदे पानी से भरी हैं और नलों में आने वाला पानी पीने लायक न हो, ऐसी साजिश सरकार ने कर रखी है ताकि बौटल वाले पानी का व्यापार जम कर हो. मीठे ड्रिंक भी इसीलिए बिकते हैं कि अच्छा पानी म्युनिसिपल कमेटियां कहीं भी उपलब्ध करा ही नहीं सकतीं.

हैल्थ फूड काम के हैं या नहीं, यह बहस अलग है. असली बात तो यह है कि इन पर टैक्स की बात क्यों की जाए? सरकार सेहत के नाम पर अपनी जेब क्यों भरे?

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