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बढ़ते Uric Acid से हैं परेशान, तो कंट्रोल करने के लिए अपनाएं ये आसान उपाय

Tips To Control Uric Acid : आज के समय में ज्यादातार लोग यूरिक एसिड बढ़ने की समस्या से परेशान है. रक्त में जिस तरह कोलेस्ट्रॉल या शुगर का लेवल बढ़ने से गंभीर बीमारियों के होने का खतरा बना रहता है. ठीक वैसे ही शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ने से समस्याएं बढ़ सकती हैं. दरअसल, यूरिक एसिड वो गंदा पदार्थ होता है, जो शरीर में उन चीजों से जम जाता है जिनमें प्यूरीन की उच्च मात्रा होती है. वैसे तो ये यूरिन के जरिए शरीर से बाहर निकल जाता है लेकिन जब यह अपने आप बॉडी से निकल नहीं पाता है तो इससे पथरी, दर्दनाक गाउट की बीमारी या हड्डियां, किडनी, और दिल को भी नुकसान पहुंच सकता है.

इसलिए जरूरी है कि समय रहते आप यूरिक एसिड को बढ़ने से रोके. आज हम आपको 5 आसान तरीकों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आप यूरिक एसिड (Tips To Control Uric Acid) के बढ़ने की समस्या को कंट्रोल कर सकते हैं.

एक्सरसाइज करें

यूरिक एसिड कंट्रोल करने के लिए आप हेल्दी लाइफस्टाइल को अपनाएं. जैसे कि समय से सोएं और टाइम से उठें. इसके अलावा रोजाना ज्यादा से ज्यादा फिजिकल एक्टिविटी या एक्सरसाइज करें.

नॉन वेज से बनाएं दूरी

यूरिक एसिड (Tips To Control Uric Acid) की समस्या में नॉनवेज बिल्कुल भी नहीं खाना चाहिए, नहीं तो समस्या और ज्यादा बढ़ सकती है. दरअसल, नॉनवेज में प्यूरिन की उच्च मात्रा होती है, जो शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा को बढ़ाता है. ऐसे में फल, हरी पत्तेदार सब्जियां और दाल-चावल आदि को अपनी डाइट में शामिल करें.

पर्याप्त मात्रा में पिएं पानी

नियमित रूप से पर्याप्त मात्रा में पानी पिएं. इससे न सिर्फ यूरिक एसिड (Tips To Control Uric Acid) का स्तर कंट्रोल में रहेगा. साथ ही शरीर हाइड्रेटेड होगा और मौसमी बीमारियों से छुटकारा भी मिलेगा.

मीठी चीजों को खाने से बचें

मीठे खाद्य पदार्थों में नैचुरल स्वीटनर फ्रुक्टोज की भरपूर मात्रा होती है. जब शरीर में फ्रुक्टोज जाता है, तो इससे प्यूरिन जारी होता है जिससे शरीर में यूरिक एसिड का स्तर बढ़ने का खतरा बना रहता है. इसलिए यूरिक एसिड की समस्या से परेशान लोगों को मीठा खाने से बचना चाहिए.

शराब नहीं पिएं

शराब के अत्यधिक सेवन से डिहाइड्रेशन की समस्या होने लगती है. इसके अलावा शराब में प्यूरीन का स्तर सबसे ज्यादा होता है, जिससे यूरिक एसिड की समस्या होने लगती है.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

घूसखोरों का स्वर्ग है मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश में नए साल की शुरुआत ही रिश्वतखोरी से हुई थी. जब लोकायुक्त पुलिस ने ग्वालियर के शाताब्दिपुरम इलाके में एक पटवारी पंकज खड़गे को 5 हजार की घूस लेते रंगेहाथों पकड़ा था. मामला दूसरे हजारोंलाखों मामलों जैसा ही था. भिंड जिले की गोहद तहसील के विशवारी गांव के एक किसान रवि बघेल को अपनी दादी राजाबेटी के नाम की जमीन का नामांतरण करवाना था. अब वह पटवारी भी क्या जो बगैर दक्षिणा के अपनी ड्यूटी ईमानदारी से बजाते माथे पर कलंक का टीका लगा ले. लिहाजा उस ने 15 हजार रुपए मांगे. दूसरे हजारोंलाखों मामलों की तरह इस में भी भावताव और सौदेबाजी हुई और मामला 7 हजार रुपए में तय हुआ.

किसान ने बतौर पेशगी 2 हजार रुपए दे भी दिए लेकिन साथ ही लोकायुक्त पुलिस में शिकायत भी कर दी. नतीजतन साल के पहले ही दिन पटवारी साहब रंगेहाथों धरे गए. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि इस से घूसखोरी खत्म या कम हो गई.

मध्य प्रदेश में घूसखोरी बदस्तूर जारी है और आगे भी रहने की पूरी गारंटी है. 2024 के पहले दिन की तरह ही साल 2023 के आखिरी दिन भी भिंड में ही एक घूसखोर सब इंजीनियर को 25 हजार रुपए की रिश्वत लेते पकड़ा गया था. आरईएस यानी ग्रामीण यांत्रिकी विभाग के इस सब इंजीनियर का नाम दीपक गर्ग है. इस मामले में शिकायतकर्ता ने मनरेगा के तहत गांव में तालाब बनाया था जिस का मूल्यांकन उक्त सब इंजीनयर को करना था जिस से कि उसे भुगतान हो सके.

सौदा 72 हजार रुपए में तय हुआ था लेकिन ठेकेदार ने ईओडब्ल्यू में शिकायत कर दी, फिर फ़िल्मी स्टाइल में कार्रवाई हुई और इंजीनियर साहब के साल का अंत बुरा हुआ. बाद में खुलासा हुआ कि रोजगार सहायक संजीव गुर्जर दीपक गर्ग को 2 लाख 20 हजार रुपए पहले भी दे चुका है लेकिन उस का मुंह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता ही जा रहा था जिस से तंग आ कर उस ने शिकायत कर दी. घूसखोरी के इस मामले में रिश्वत एक पैट्रोल पंप पर दी गई थी जो ऐसे मामलों के लिए बड़ी मुफीद जगह होती है.

अब घूस में सैक्स की मांग

इधर नए मख्यमंत्री मोहन यादव भ्रष्टाचार पर जीरो टालरैंस की बात ही करते रह गए और उधर नया गुल ग्वालियर से ही खिला. इस बार मामला थोड़ा अलग और दिलचस्प था. जीवाजी यूनिवर्सिटी में कैंपस ड्राइव के तहत बीज निगम में संविदा में भरतियां होनी थीं. इस में कुछ लड़कियां भी सेलैक्ट हुई थीं.

इंटरव्यू लेने वालों में से एक बीज निगम का मुलाजिम संजीव तंतुवे भी था. चुनी गई 3 लड़कियों से उस ने 15 जनवरी को फोन कर कहा कि अगर नौकरी चाहिए तो मुझे खुश करना होगा. फाइनल इंटरव्यू भोपाल में होगा और रात में होगा, बैडरूम में होगा. दूसरे दिन सुबहसुबह ही तुम्हें नियुक्तिपत्र मिल जाएगा.

लेकिन 26 साल की एक लड़की को यह पेशकश रास नहीं आई और उस ने पुलिस में शिकायत कर दी. आरोपी ने बाकायदा व्हाट्सऐप पर भी यह मांग की थी जिस के स्क्रीनशौट लड़की ने सेव कर लिए थे. अब ग्वालियर पुलिस की क्राइम ब्रांच इस की जांच कर रही है जो अगर ईमानदारी से हो पाई तो बीज निगम के कई आला अफसर भी लपेटे में आ सकते हैं. क्योंकि संजीव तंतुवे मामूली कंप्यूटर औपरेटर है.

ग्वालियर भोपाल में यह चर्चा आम है कि एक अकेला मुलाजिम इस काम को अंजाम नहीं दे सकता, इस में और भी लोग शामिल हैं. एक रात में वह अकेला कैसे तीनतीन लड़कियों के बैडरूम इंटरव्यू लेता.

इसलिए जन्नत है

मध्य प्रदेश में घूसखोरों को जेल नहीं भेजा जाता बल्कि उन्हें हाथोंहाथ जमानत मिल जाती है. एनसीआरबी की एक ताजी रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार 26 फीसदी बढ़ा है. देशभर में यह 6वें नंबर पर है. पिछले 10 सालों में राज्य में 2,165 घूसखोर पकड़े गए जिन में से किसी को भी जेल नहीं जाना पड़ा. जाहिर है जो एजेंसियां घूसखोरों को रंगेहाथों पकड़ती हैं वही उन्हें जमानत दिलवाने में भी मदद करती हैं और सजा से बचाने में भी मामला ढीला बनाती हैं.

आंकड़े और मामले एक दिलचस्प बात यह भी बताते हैं कि मध्य प्रदेश में भ्रष्ट अफसरों पर कार्रवाई में किस तरह भेदभाव किया जाता है. अगर प्रदेश में केंद्र का कोई अधिकारी भ्रष्टाचार करते पकड़ाता है तो उस की गिरफ्तारी तुरंत होती है लेकिन कोई अफसर घूस ले या फिर करोड़ों की नामीबेनामी जायदाद बना ले तो उसे तुरंत जमानत पर छोड़ दिया जाता है जबकि केंद्र व राज्य दोनों की सरकारी एजेंसियां एक ही कानून भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसी एक्ट 1988) के तहत कार्रवाई करती हैं.

इस अधिनियम के मुताबिक रिश्वत लेते पकड़े जाने पर आरोपी को तुरंत जमानत देने का अधिकार जांच एजेंसी को नहीं है लेकिन प्रदेश की लोकायुक्त पुलिस भ्रष्टाचार के आरोपियों को गैरजमानती धाराओं में गिरफ्तार करने के बाद भी जेल नहीं भेजती. पिछले 15 सालों में कोई भी भ्रष्ट अफसर जेल नहीं गया है. शायद इसीलिए कहा जाता है कि एमपी गजब है.

यह गजब अब और भी दिलचस्प हो चला है. खुलेआम भ्रष्ट अफसरों को रसूख वाले और मलाईदार पद व प्रमोशन दिए जाने लगे हैं. इस की एक ताजी मिसाल इंदौर का उप श्रमआयुक्त रहा लक्ष्मी प्रसाद पाठक है जिसे बीती 9 जनवरी को श्रम मंत्री प्रहलाद पटेल का ओएसडी बना दिया गया. जबकि पिछले साल नवंबर में लोकायुक्त ने श्रम विभाग को पत्र लिखते बताया था कि इस अधिकारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप पहली नजर में सही हैं. लिहाजा उस के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत दी जाए. इस पर कोई ऐक्शन विभाग ने या सरकार ने नहीं लिया लेकिन मंत्री का ओएसडी इस को बनाया तो हल्ला मचा जिस के चलते प्रहलाद पटेल ने इसे लेने से मना कर दिया.

ऐसे दर्जनों मामलों में से एक गवर्नमैंट प्रैस का भी है जिस के उप नियंत्रक विलास मंथनवार को 3 हजार रुपए की घूस लेते लोकायुक्त पुलिस ने पकड़ा था और उसे पद से हटाने को राज्य शासन को पत्र भी लिखा था. लेकिन हैरतअंगेज तरीके से इस अफसर को मुख्यालय में ही खरीद-वितरण की जिम्मेदारी दे दी गई. क्यों मध्य प्रदेश को भ्रष्टाचारियों का जन्नत कहा जाता है, इस का एक और उदाहरण उमरिया जिले का एसडीएम नीलाम्बर मिश्रा है जिसे जुलाई 2019 में एक मामले में 5 हजार रुपए की रिश्वत लेते पकड़ा गया था, तब उस के सुरक्षा गार्ड चंद्रभान सिंह को भी लोकायुत रीवा की टीम ने आरोपी बनाया था. हुआ गया तो कुछ नहीं, लेकिन चलती जांच के बीच नीलांबर मिश्रा को पन्ना जिले का एडीएम बना दिया गया.

ऐसे कई मामले हैं जिन में भ्रष्टाचारी को सजा के बजाय इनाम दिया गया लेकिन नए मुख्यमंत्री मोहन यादव का सारा वक्त रामकाज में गुजर रहा है तो कोई क्या कर लेगा सिवा यह मानने के कि यही रामराज्य होता होगा.

जब दोस्त ही बन जाएं दुश्मन, तो क्या करें ?

‘‘अरे, तुम्हारा फोन कितनी देर से बिजी आ रहा था, किस से बात कर रही थी?’’

‘‘अपनी छोटी ननद से.’’

‘‘क्यों, अभी 2 दिनों पहले भी तुम ने यही बताया था कि ननद से बात कर रही थी.’’

‘‘हां, उस दिन बड़ी ननद से बात कर रही थी.’’

‘‘पर इतनी बात क्यों करती हो ससुराल वालों से?’’

‘‘अरे, तुम्हें बताया तो था कि मेरे उन सब से अच्छे संबंध हैं.’’

‘‘पर बड़ी से तो तुम ने कुछ मनमुटाव बताया था न?’’

‘‘नहीं, अब ऐसा कुछ नहीं. वे तो पुरानी बातें थीं, अब समय के साथ सब ठीक हो

गया है.’’

‘‘फिर भी, क्यों करनी है ससुराल वालों से इतनी बातें?’’

‘‘मु?ो अच्छा लगता है. जब सब अच्छी तरह बात करते हैं तो क्यों दूरियां रखें.’’

‘‘तुम्हें जो करना है करो, मेरा फर्ज तुम्हें सम?ाना था, तुम्हें सम?ा नहीं आ रहा तो तुम्हारी मरजी,’’ चिढ़ कर नीमा ने फोन रख दिया.

रीता ने ठंडी सांस ली, परेशान हो गई है वह नीमा के हर समय के ज्ञान से. रीता का कहना है, ‘‘नीमा मेरी बहुत अच्छी दोस्त है पर इतनी डौमिनेटिंग हो जाती है कि बिना मांगे सलाह देदे कर बोर कर देती है. जरा भी लाइफ में स्पेस नहीं देती, जो बात सुनेगी, उस में टांग अड़ाएगी. अरे भई, मेरे पास भी है दिमाग. मेरी ही उम्र की तो है वह, मैं क्या कोई बच्ची हूं. दोस्ती में स्पेस भी चाहिए होता है, नीमा तो यह बात जानती ही नहीं.’’

  1. दोस्ती बोझ तो नहीं

अनीता की भी यही परेशानी है. फेसबुक पर उस के और उस की पक्की सहेली रीमा के बहुत सारे कौमन फ्रैंड्स हैं. रीमा की एक कौमन फ्रैंड उमा से अनबन हो गई. जब भी उमा की किसी पोस्ट पर अनीता कोई अच्छा कमैंट करती तो रीमा अनीता की जान खा जाती, ‘‘क्यों किया तुम ने उस की पोस्ट पर कमैंट, जाओ, अभी डिलीट करो, तुम्हें पता है न, मैं उसे पसंद नहीं करती.’’

अनीता कहती हैं, ‘‘मु?ो रीमा की यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती. उस की दोस्ती में मेरी सांस जैसे घुटने लगती है. अब तो रीमा की दोस्ती एक बो?ा जैसी होती जा रही है.

‘‘मैं किस की पोस्ट लाइक करूं, किस की पोस्ट पर कैसे कमैंट्स करूं, सब पर अपनी पसंदनापसंद बताती है जैसे मैं अपनी मरजी से कुछ कर ही नहीं सकती. कोई स्पेस नहीं देती है दोस्ती में. मेरी अच्छी दोस्त है पर मेरी हर चीज पर अपना पूरा कंट्रोल रखना चाहती है. आजकल तो हर रिश्ते में स्पेस चाहिए होता है, पर वह तो यह बात जानती ही नहीं.’’

उमेश जब भी अपने अच्छे दोस्त रवि के साथ कहीं बाहर जाता है, दोनों कुछ खाने बैठते हैं. रवि हमेशा वही खाना और्डर करने की जिद करता है जो उसे खाना होता है. जब उमेश कहता है कि दोनों अपनीअपनी पसंद से कुछ मंगवा लेते हैं तो रवि का कहना होता है कि फिर ज्यादा बिल आएगा. हर बार बहस के बाद वही आता है जो रवि को खाना होता है. उमेश बताता है, ‘‘मु?ो सिजलर खाना होता है, तो वह फ्राइड खाना खाना चाहता है जो मु?ो बिलकुल सूट नहीं करता. बात छोटी सी है पर किसी भी बात में वह दूसरे की सुनता ही नहीं. खाने जैसी आम सी बात में भी कभी इतना स्पेस नहीं देता कि बंदा अपने मन से कुछ कर ले.’’

2.दोस्त जब दोस्त न रहे

मेघा और काजल बहुत अच्छी फ्रैंड्स हैं. मेघा को पढ़नेलिखने का शौक है तो काजल को फिटनैस पर ध्यान देने का. काजल कहती है, ‘‘जब भी मेरा जिम जाने का टाइम होता है, मेघा मु?ो जानबू?ा कर उसी टाइम फोन करती है कि छोड़, क्यों जाना है जिम.’’

‘‘मेघा को फिटनैस पर ध्यान देने का जरा भी शौक नहीं है. मेरे हर बार जिम जाने पर इतना ज्यादा टोकते हुए कहती है कि क्या हो जाएगा, अरे, आराम कर और खापी. क्या रखा है हैल्थ पर ध्यान देने में. मु?ो देख, मैं कितने आराम से बस बुक्स पढ़ती हूं. कितना अच्छा शौक है, वगैरहवगैरह.

‘‘उस में बहुत खूबियां हैं पर दोस्ती में दूसरे को स्पेस देने के बारे में बिलकुल नहीं सोचती. बस, यहीं इसी बात पर मु?ो उस से उल?ान होने लगती है. मैं उस की बुक रीडिंग की आदत पर कभी कुछ नहीं कहती पर वह तो मेरे फिटनैस के शौक पर टोकती ही रहती है.’’

रचना और मीता आमनेसामने के फ्लैट्स में रहती हैं. खाली समय में बहुत गपियातीं. कुछ दिन तो सब अच्छा चला पर फिर रचना को उल?ान होने लगी. वह बताती है, ‘‘मीता के बच्चे बड़े हैं, वह घर में उस समय बिलकुल फ्री होती है जब मैं शाम को सैर करने जाती हूं.

3. खुद की भी कुछ मरजी है

मीता को बैठ कर गौसिप करने में बड़ा मजा आता है. वह अकसर उसी समय आती और मेरा सारा प्रोग्राम धरा का धरा रह जाता. जिस समय मैं सैर करना चाहती हूं, उस समय मैं चायनाश्ता बना रही होती. मैं मन ही मन कलपने लगती, उसे ढके शब्दों में बताया भी पर वह इस बात को सम?ाती ही नहीं कि दूसरे का भी कुछ प्रोग्राम हो सकता है.

हार कर एक दिन साफसाफ कहा कि, ‘‘भई, मैं तो ऐक्सरसाइज के मूड में हूं.’’ इस पर वह बोली, ‘‘हां, करो, मैं तो बैठी हूं. तुम करती रहो.’’

उसे सम?ाने में काफी मुश्किल हुई कि दोस्ती में भी स्पेस देना चाहिए.  हर रिश्ते में स्पेस चाहिए होता है. सब को अपने हिसाब से जीने के लिए कुछ समय चाहिए होता है. इंसान की कुछ अपनी मरजी भी होती है, कुछ अपनी इच्छाएं भी होती हैं. उन में दखलंदाजी से बचना चाहिए. घरपरिवार से कुछ समय निकाल कर इंसान दोस्त से जुड़ता है. उस दोस्ती में भी जब घुटन होगी, दोस्ती बंधन सा लगेगी, तो अच्छी दोस्ती में भी धीरेधीरे दूरी बढ़ती जाती है और फिर दोस्ती टूटने में देर नहीं लगती. सो, ऐसे दोस्त बनें जो दोस्त को प्यार भी करें, उस के सुखदुख में उस का साथ भी दें और दें स्पेस जो आज के तनावभरे माहौल में बहुत जरूरी है. आप की दोस्ती दोस्त के गले की हड्डी नहीं बननी चाहिए.

मेरे पति मुझसे लड़ाई करने के बाद कईकई दिनों के लिए घर छोड़कर चले जाते हैं, मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी शादी 10 साल पहले हुई थी. मेरे 2 बच्चे हैं. मेरे पति बिना बात के मुझे मारते हैं, गालियां देते हैं. लड़ाई के बाद वे कईकई दिनों के लिए बाहर चले जाते हैं. मैं क्या करूं?

जवाब

आप ने यह नहीं बताया कि आप नौकरी करती हैं या नहीं? सामान्यतया कोई व्यक्ति तभी किसी पर अत्याचार करता है जब वह जानता है कि उस का कोई और ठिकाना नहीं.

यदि आप पढ़ीलिखी हैं तो सब से पहले आप अपने लिए कोई अच्छी नौकरी ढूंढ़ें और खुद को स्वावलंबी बनाने का प्रयास करें. इस से पति का आप पर एकाधिकार खत्म होगा. यदि आप के पति का व्यवहार शुरू से ऐसा ही है तो आप को अपना रास्ता अलग कर लेना चाहिए और यदि ऐसा कुछ समय से है तो कारण जानने का प्रयास करें. कहीं उन की संगत तो गलत नहीं या फिर वे किस तरह की परेशानी में तो नहीं फंसे हैं. आप का खुद के प्रति बेपरवाह रहना भी एक कारण हो सकता है. अपने पहनावे और मेकअप पर ध्यान दें. स्वयं को थोड़ा सजाएंसंवारें. अपने व्यवहार पर भी ध्यान दें. इस से आप के पति का प्यार आप के प्रति लौट सकता है.

यदि घर में आप के सासससुर हैं तो उन से भी इस संदर्भ में चर्चा कर सकती हैं. नारीहित में काम करने वाली किसी संस्था से भी संपर्क कर सकती हैं. वह संस्था आप को रास्ता दिखाने के साथसाथ आप की सुरक्षा भी सुनिश्चित करेगी.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

कड़वी गोली : बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर क्यों बड़बड़ा रही थी मीना ?

बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर मीना बड़बड़ा रही है. दोष किसी इनसान का नहीं, एक छोटे से पंछी का है जिसे पंजाब में ‘घुग्गी’ कहते हैं. किस्सा इतना सा है कि सामने कोने में ‘घुग्गी’ के एक जोड़े ने अपना छोटा सा घोंसला बना रखा है जिस में उन के कुछ नवजात बच्चे रहते  हैं. अभी उन्हें अपने मांबाप की सुरक्षा की बेहद जरूरत है.

नरमादा दोनों किसी को भी उस कोने में नहीं जाने देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि हम उन के बच्चे चुरा लेंगे या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाएंगे. काम वाली बाई सफाई करने गई तो चोंच से उस के सिर के बाल ही खींच ले गए. इस के बाद से उस ने तो उधर जाना ही छोड़ दिया. मीना घूंघट निकाल कर उधर गई तो उस के सिर पर घुग्गी के जोड़े ने चोंच मार दी.

‘‘इन्हें किसी भी तरह यहां से हटाइए,’’ मीना गुस्से में बोली, ‘‘अजीब गुंडागर्दी है. अपने ही घर में इन्होंने हमारा चलनाफिरना हराम कर रखा है.’’

‘‘मीना, इन की हिम्मत और ममता तो देखो, हमारा घर इन नन्हेनन्हे पंछियों के शब्दकोष में कहां है. यह तो बस, कितनी मेहनत से अपने बच्चे पाल रहे हैं. यहां तक कि रात को भी सोते नहीं. याद है, उस रोज रात के 12 बजे जब मैं स्कूटर रखने उधर गया था तो भी दोनों मेरे बाल खींच ले गए थे.’’

रात 12 बजे का जिक्र आया तो याद आया कि मीना को महेश के बारे में बताना तो मैं भूल ही गया. महेश का फोन न मिल पाने के कारण हम पतिपत्नी परेशान जो थे.

‘‘सुनो मीना, महेश का फोन तो कटा पड़ा है. बच्चों ने बिल ही जमा नहीं कराया. कहते हैं सब के पास मोबाइल है तो इस लैंडलाइन की क्या जरूरत है…’’

बुरी तरह चौंक गई थी मीना. ‘‘मोबाइल तो बच्चों के पास है न, महेश अपनी बातचीत कैसे करेंगे? वैसे भी महेश आजकल अपनेआप में ही सिमटते जा रहे हैं. पिछले 2 माह से दोपहर का खाना भी दफ्तर के बाहर वाले ढाबे से खा रहे हैं क्योंकि सुबहसुबह खाना  बना कर देना बहुओं के बस का नहीं है.’’

मीना के बदलते तेवर देख कर मैं ने गरदन झुका ली. 18 साल पहले जब महेश की पत्नी का देहांत हुआ था तब दोनों बेटे छोटे थे, उम्र रही होगी 8 और 10 साल. आज दोनों अच्छे पद पर कार्यरत हैं, दोनों का अपनाअपना परिवार है. बस, महेश ही लावारिस से हैं, कभी इधर तो कभी उधर.

एक दिन मैं ने पूछा था, ‘तुम अपनी जरूरतों के बारे में कब सोचोगे, महेश?’

‘मेरी जरूरतें अब हैं ही कितनी?’

‘क्यों? जिंदा हो न अभी, सांस चल रही है न?’

‘चल तो रही है, अब मेरे चाहने से बंद भी तो नहीं होती कम्बख्त.’

यह सुन कर मैं अवाक् रह गया था. बहुत मेहनत से पाला है महेश ने अपनी संतान को. कभी अच्छा नहीं पहना, अच्छा नहीं खाया. बस, जो कमाया बच्चों पर लगा दिया. पत्नी नहीं थी न, क्या करता, मां भी बनता रहा बच्चों की और पिता भी.

माना, ममता के बिना संतान पाली नहीं जा सकती, फिर भी एक सीमा तो होनी चाहिए न, हर रिश्ते में एक मर्यादा, एक उचित तालमेल होना चाहिए. उन का सम्मान न हो तो दर्द होगा ही.

महेश ने अपना फोन कटा ही रहने दिया. इस पर मुझे और भी गुस्सा आता कि बच्चों को कुछ कहता क्यों नहीं. फोन पर तो बात हो नहीं पा रही थी. 2 दिन सैर पर भी नहीं आया तो मैं उस के घर ही चला गया. पता चला साहब बीमार हैं. इस हालत में अकेला घर पर पड़ा था क्योंकि दोनों बहुएं अपनेअपने मायके गई थीं.

‘‘हर शनिवार उन का रात का खाना अपनेअपने मायके में होता है.’’

‘‘तो तुम कहां खाते हो? बीमारी में भी तुम्हें उन की ही वकालत सूझ रही है. फोन ठीक होता तो कम से कम मुझे ही बता देते, मैं ही मीना से खिचड़ी बनवा लाता…’’

महेश चुप रहा और उस का पालतू कुत्ता सूं सूं करता उस के पैरों के पास बैठा रहा.

‘‘यार, इसे फ्रिज में से निकाल कर डबलरोटी ही डाल देना,’’ महेश बोला, ‘‘बेचारा मेरी तरह भूखा है. मुझ से खाया नहीं जा रहा और इसे किसी ने कुछ दिया नहीं.’’

‘‘क्यों? अब यह भी फालतू हो गया है क्या?’’ मैं व्यंग्य में बोल पड़ा, ‘‘10 साल पहले जब लाए थे तब तो आप लोगों को मेरा इसे कुत्ता कहना भी बुरा लगता था, तब यह आप का सिल्की था और आज इस का भी रेशम उतर गया लगता है.’’

‘‘हो गए होंगे इस के भी दिन पूरे,’’ महेश उदास मन से बोला, ‘‘कुत्ते की उम्र 10 साल से ज्यादा तो नहीं होती न भाई.’’

‘‘तुम अपनी उम्र का बताओ महेश, तुम्हें तो अभी 20-25 साल और जीना है. जीना कब शुरू करोगे, इस बारे में कुछ सोचा है? इस तरह तो अपने प्रति जो तुम्हारा रवैया है उस से तुम जल्दी ही मर जाओगे.’’

कभीकभी मुझे यह सोच कर हैरानी होती है कि महेश किस मिट्टी का बना है. उसे कभी कोई तकलीफ भी होती है या नहीं. जब पत्नी चल बसी तब नाते- रिश्तेदारों ने बहुत समझाया था कि दूसरी शादी कर लो.

तब महेश का सीधा सपाट उत्तर होता था, ‘मैं अपने बच्चों को रुलाना नहीं चाहता. 2 बच्चे हैं, शादी कर ली तो आने वाली पत्नी अपनी संतान भी चाहेगी और मैं 2 से ज्यादा बच्चे नहीं चाहता. इसलिए आप सब मुझे माफ कर दीजिए.’

महेश का यह सीधा सपाट उत्तर था. हमारे भी 2 बच्चे थे. मीना ने साथ दिया. इस सत्य से मैं इनकार नहीं कर सकता क्योंकि यदि वह न चाहती तो शायद मैं भी चाह कर कुछ नहीं कर पाता.

एक तरह से महेश, मैं और मीना, तीनों ने मिल कर 4 बच्चों को पाला. महेश के बच्चे कबकब मीना के भी बच्चे रहे समझ पाना मुश्किल था. मैं यह भी नहीं कहता महेश के बच्चे उस से प्यार नहीं करते, प्यार कहीं सो सा गया है, कहीं दब सा गया है कुछ ऐसा लगता है. सदा पिता से लेतेलेते  वे यह भूल ही गए हैं कि उन्हें पिता को कुछ देना भी है. छोटे बेटे ने पिता के नाम पर गाड़ी खरीदी जिस की किश्त पिता चुकाता है और बड़े ने पिता के नाम पर घर खरीदा है जिस की किश्त भी पिता की तनख्वाह से ही जाती है.

‘‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तुम्हारे हाथ आते हैं. उस में तुम्हारा दोपहर का खाना, कपड़ा, दवा, टेलीफोन का बिल कैसे पूरा होगा, क्या बच्चे यह सब- कुछ सोचते हैं? अगर नहीं सोचते तो उन्हें सोचना पड़ेगा, महेश.

‘‘यह कुत्ता भी आज तुम्हारे परिवार में फालतू है क्योंकि घर में तुम्हारे पोतेपोतियां हैं जो एक जानवर के साथ असुरक्षित हैं. कल कुत्ता तुम्हारी जरूरत था क्योंकि बच्चे अकेले थे. दोनों बच्चे तुम्हारे साथ किस बदतमीजी से पेश आते हैं तुम्हें पता ही नहीं चलता, कोई भी बाहर का व्यक्ति झट समझ जाता है कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी इज्जत नहीं कर रहे और तुम कबूतर की तरह आंखें बंद किए बैठे हो. महेश, अपनी सुधि लेना सीखो. याद रखो, मां भी बच्चे को बिना रोए दूध नहीं पिलाती. तकलीफ हो तो रोना भी पड़ता है और रोना भी चाहिए. इन्हें वह भाषा समझाओ जो समझ में आए.’’

‘‘मैं क्या करूं? कभी अपने लिए कुछ मांगा ही नहीं.’’

‘‘तुम क्यों मांगो, अभी तो 20 हजार हर महीने तुम इन पर खर्च कर रहे हो. अभी तो देने वालों की फेहरिस्त में तुम्हारा नाम आता है. तुम्हें अपने लिए चाहिए ही क्या, समय पर दो वक्त का खाना और धुले हुए साफ कपड़े. जरा सी इज्जत और जरा सा प्यार. बदले में अपना सब दे चुके हो बच्चों को और दे रहे हो.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता मेरा.’’

‘‘चाहो तो सब हो सकता है. तुम जरा सी हिम्मत तो जुटाओ.’’

वास्तव में उस दिन महेश बेचैन था और उस की पीड़ा हम भी पूरी ईमानदारी से सह रहे थे. बिना कुछ भी कहे पलपल हम महेश के साथ ही तो थे. एक अधिकार था मीना के पास भी, मां की तरह ममत्व लुटाया था मीना ने भी बच्चों पर.

‘‘जी चाहता है कान मरोड़ दूं दोनों के,’’ मीना ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘‘आज किसी लायक हो गए तो पिता की जरूरतों का अर्थ ही नहीं रहा उन के मन में.’’

‘‘पहल महेश को करने दो मीना, यह उस की अपनी जंग है.’’

‘‘इस में जंग वाली क्या बात हुई?’’

‘‘जंग का अर्थ सिर्फ 2 देशों के बीच लड़ाई ही तो नहीं होता, विचारों के बीच जब तालमेल न हो तब भी तो मन के भीतर एक घमासान चलता रहता है न. उस के घर का मसला है, उसी को निबटने दो.’’

किसी तरह मीना को समझा- बुझा कर मैं ने शांत तो कर दिया लेकिन खुद असहज ही रहा. अकसर सोचता, महेश बेचारे ने गलती भी तो कोई  नहीं की. एक अच्छा पिता और एक समर्पित पति बनना तो कोई अपराध नहीं है. महेश ने जब दूसरी शादी न करने का फैसला लिया था तब उस का वह फैसला उचित था. आज यदि वह अकेला है तो हम सोचते हैं कि उस का निर्णय गलत था, तब शादी कर लेता तो कम से कम आज अकेला तो न होता.

अकसर जीवन में ऐसा ही होता है. कल का सत्य, आज का सत्य रहता ही नहीं. उस पल की जरूरत वह थी, आज की जरूरत यह है. हम कभी कल के फीते से आज को तो नहीं नाप सकते न.

संयोग ऐसा बना कि कुछ दिन बाद, सुबहसुबह मैं उठा तो पाया कि बरामदे का वह कोना साफसुथरा है जहां घुग्गी ने घोंसला बना रखा था. बाई पोंछा लगा रही थी.

‘‘बच्चे उड़ गए साहब,’’ बाई ने बताया, ‘‘वह देखिए, उधर…’’

2 छोटेछोटे चिडि़या के आकार के नन्हेनन्हे जीव इधरउधर फुदक रहे थे और नरमादा उन की खुली चोंच में दाना डाल रहे थे.

‘‘अरे मीना, आओ तो, देखो न कितने प्यारे बच्चे हैं. जरा भाग कर आना.’’

मीना आई और सहसा कुछ ऐसा कह गई जो मेरे अंतरमन को चुभ सा गया.

‘‘हम इनसानों से तो यह परिंदे अच्छे, देखना 4 दिन बाद जब बच्चों को खुद दाना चुगना आ जाएगा तो यह नरमादा इन्हें आजाद छोड़ देंगे. हमारी तरह यह नहीं चाहेंगे कि ये सदा हम से ही चिपके रहें. हम सब की यही तो त्रासदी है कि हम चाहते हैं कि बच्चे सदा हमारी उंगली ही पकड़ कर चलें. हम सोचना ही नहीं चाहते कि बच्चों से अपना हाथ छुड़ा लें.’’

‘‘क्योंकि इनसान को बुढ़ापे में संतान की जरूरत पड़ती है जो इन पक्षियों को शायद नहीं पड़ती. मीना, इनसान सामाजिक प्राणी है और वह परिवार से, समाज से जुड़ कर जीना चाहता है.’’

मीना बड़बड़ा कर वहीं धम से बैठ गई. मैं मीना को पिछले 30 सालों से जानता हूं. अन्याय साथ वाले घर में होता हो तो अपने घर बैठे इस का खून उबलता रहता है. महेश के बारे में ही सोच रही होगी. एक बेनाम सा रिश्ता है मीना का भी महेश के साथ. वह मेरा मित्र है और यह मेरी पत्नी, दोनों का रिश्ता भला क्या बनता है? कुछ भी तो नहीं, लेकिन यह भी एक सत्य है कि मीना महेश के लिए बहुत कुछ है, भाभी, बहन, मित्र और कभीकभी मां भी.

‘‘महेश को अपने घर ला रही हूं मैं, ऊपर का कमरा खाली करा कर सब साफसफाई करा दी है. बहुत हो चुका खेलतमाशा…बेशर्मी की भी हद होती है. अस्पताल से सीधे यहीं ला रही हूं, सुना आप ने…’’

मुझ में काटो तो खून नहीं रहा. अस्पताल से सीधा? तो क्या महेश अस्पताल में है? याद आया…मैं तो 2 दिन से यहां था ही नहीं, कार्यालय के काम से दिल्ली गया था. देर रात लौटा था और अब सुबहसुबह यह सब. पता चला महेश के शरीर में शुगर की बहुत कमी हो गई थी जिस वजह से उसे कार्यालय में ही चक्कर आ गया था और दफ्तर के लोगों उसे अस्पताल पहुंचा दिया था.

‘‘नहीं मीना, यह हमारी सीमा में नहीं आता. घर तो उस का वही है, कोई बात नहीं, आज देखते हैं अस्पताल से तो वह अपने ही घर जाएगा.’’

उस दिन मैं दफ्तर से आधे दिन का अवकाश ले कर उसे अस्पताल से उस के घर ले गया. दोनों बेटे जल्दी में थे और बहुएं बच्चों में व्यस्त थीं. सहसा तभी उन का कुत्ता छोटे बच्चे पर झपट पड़ा, शायद वह भूखा था. उस के हाथ का बिस्कुट छिटक कर परे जा गिरा. महेश के पीछे उस ने 2 दिन कुछ खाया नहीं होगा क्योंकि महेश के बिना वह कुछ भी खाता नहीं. महेश को देखते ही उस की भूख जाग उठी और बिस्कुट लपक लिया.

‘‘पापा, आप ने इसे ढंग से पाला नहीं. न कोई टे्रनिंग दी है न तमीज सिखाई है. 2 दिन से लगातार भौंकभौंक कर हम सब का दिमाग खा गया है. न खाता है न पीता है और हमारे पास इस के लिए समय नहीं है.’’

‘‘समय तो आप के पास अपने बाप के लिए भी नहीं है, कुत्ता तो बहुत दूर की चीज है बेटे. रही बात तमीज की तो वह महेश भैया ने तुम दोनों को भी बहुत सिखाई थी. यह तो जानवर है. बेचारा मालिक के वियोग में भूखा रह सकता है या भौंक सकता है फिर भी दुम हिला कर स्वागत तो कर सकता है. तुम से तो वह भी नहीं हुआ…जिन के पास जबान भी है और हाथपैर भी. घंटे भर से हम देख रहे हैं मुझे तो तुम दोनों में से कोई अपने पिता के लिए एक कप चाय लाता भी दिखाई नहीं दिया.’’

मीना बोली तो बड़ा बेटा अजय स्तब्ध रह गया. कुछ कहता तभी टोक दिया मीना ने, ‘‘तुम्हारे पास समय नहीं कोई बात नहीं. महेश नौकर रख कर अपना गुजारा कर लेंगे. कम से कम उन की तनख्वाह तो तुम उन के पास छोड़ दो…बाप की तनख्वाह तो तुम दोनों भाइयों ने आधीआधी बांट ली, कभी यह भी सोचा है कि वह बचे हुए 2 हजार रुपयों में कैसे खाना खाते हैं? दवा भी ले पाते हैं कि नहीं? फोन तक कटवा दिया उन का, क्यों? क्या उन का कोई अपना जानने वाला नहीं जिस के साथ वह सुखदुख बांट सकें. क्या जीते जी मर जाए तुम्हारा बाप?’’

मीना की ऊंची आवाज सुन छोटा बेटा विजय और उस की पत्नी भी अपने कमरे से बाहर चले आए.

‘‘तुम दोनों की मां आज जिंदा होतीं तो अपने पति की यह दुर्गति नहीं होने देतीं. हम क्या करें? हमारी सीमा तो सीमित है न बेटे. तुम मेरे बच्चे होते तो कान मरोड़ कर पूछती, लेकिन क्या करूं मैं तुम्हारी मां नहीं हूं न.’’

रोने लगी थी मीना. महेश और उस के परिवार के लिए अकसर रो दिया करती है. कभी उन की खुशी में कभी उन की पीड़ा में.

‘‘कभी कपड़े देखे हैं विजय तुम ने अपने पापा के. हजारों रुपए अपनी कमीजों पर तुम खर्च कर देते हो. कभी देखा है इतनी गरमी में उन के पास कोई ढंग की सूती कमीज भी है…

‘‘आफिस के सामने वाले ढाबे पर दोपहर का खाना खाते हैं. क्या तुम दोनों की बीवियां वक्त पर ससुर को टिफिन नहीं दे सकतीं. अरे, सुबह नहीं तो कम से कम दोपहर तक पहुंचाने का इंतजाम ही करवा दो.

‘‘बहुएं तो दूसरे घरों से आई हैं. हो सकता है इन के घर में मांबाप का ऐसा ही आदर होता हो. कम से कम तुम तो अपने पिता की कद्र करना अपनी पत्नियों को सिखाओ. क्या मैं ने यही संस्कार दिए थे तुम लोगों को? ऐसा ही सिखाया था न?’’

दोनों भाई चुप थे और उन की बीवियां तटस्थ थीं. अजयविजय आगे कुछ कहते कि मीना ने पुन: कहा, ‘‘बेटा, अपने बाप को लावारिस मत समझना. अभी तुम जैसे 2-4 वह और भी पाल सकते हैं. नहीं संभाले जाते तो यह घर छोड़ कर चले जाओ, अजय तुम अपने फ्लैट में और विजय तुम किराए के घर में. अपनीअपनी किस्तें खुद दो वरना आज ही महेश फ्लैट और गाड़ी बेचने को तैयार हैं…इन्हीं के नाम हैं न दोनों चीजें.’’

महेश चुपचाप आंखें मूंदे पड़े थे. जाहिर था उसी के शब्द मीना के होंठों से फूट रहे थे.

‘‘मीना, अब बस भी करो. आओ, चलें.’’

आतेआते दोनों बच्चों का कंधा थपक दिया. मुझ से आंखें मिलीं तो ऐसा लगा मानो वही पुराने अजयविजय सामने खड़े हों जो स्कूल में की गई किसी शरारत पर टीचर की सजा से बचने के लिए मेरे या मीना के पास चले आते थे. आंखें मूंद कर मैं ने आश्वासन दिया.

‘‘कोई बात नहीं बेटा, जब जागे तभी सवेरा. संभालो अपने पापा को…’’

डबडबा गई थीं दोनों की आंखें. मानो अपनी भूल का एहसास पहली बार उन्हें हुआ हो. मैं कहता था न कि हमारे बच्चे संस्कारहीन नहीं हैं. हां, जवानी के जोश में बस जरा सा यह सत्य भूल गए हैं कि उन्हें जवान बनाने में इसी बुढ़ापे का खून और पसीना लगा है और यही बुढ़ापा बांहें पसारे उन का भी इंतजार कर रहा है.

कहा था न मैं ने कि उन का प्यार कहीं सो सा गया है. उसी प्यार को जरा सा झिंझोड़ कर जगा दिया था मीना ने. सच ही कहा था मैं ने, रो पड़े थे दोनों और साथसाथ मीना भी. जरा सा चैन आ गया मन को, अंतत: सब अच्छा ही होगा, यह सोच मैं ने और मीना ने उन के घर से विदा ली. क्या करते हम, कभीकभी मर्ज को ठीक करने के लिए मरीज को कड़वी गोली भी देनी पड़ती है.

आरोही : विज्ञान पर भरोसा करती एक डॉक्टर की कहानी

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मायावती की जेब में अब नहीं रहा दलित वोटर

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है, ‘मायावती डर की वजह से अलग राह पर चलने का फैसला कर रही हैं.‘ असल में मायावती अगर ‘इंडिया’ ब्लौक का हिस्सा बनतीं तो गठबंधन के दूसरे दलों के लिए मुश्किल हो जाती. मायावती और ममता बनर्जी दोनों जिस स्वभाव की नेता हैं, उस से उन के साथ किसी का तालमेल होना कठिन है. इन दोनों से ही ‘इंडिया’ ब्लौक को कोई लाभ नहीं होने वाला.

मायावती और ममता बनर्जी दोनों के ही अगले कदम का किसी को पता नहीं होता.

2014 के बाद से मायावती का रुझान मोदी सरकार की तरफ रहा है. ममता बनर्जी तो एनडीए का हिस्सा ही रह चुकी हैं. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में सीमित हैं. बाकी देश में उन के नाम पर वोट नहीं. यही हाल मायावती का है. उत्तर प्रदेश में वे भले ही खुद के पास 13 फीसदी दलित वोट मान कर चल रही हों पर होने वाले लोकसभा चुनाव को देखें तो वे अपने बलबूते एक भी सीट जीतने की हालत में नहीं हैं.

बहुजन समाज पार्टी पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार….’ का नारा दे कर मनुवाद का विरोध करती थी. मनुवाद के लोग कैसे दलित समाज पर अत्याचार करते हैं, इस को ले कर वे नुक्कड़ नाटक करती थीं. कांशीराम ने बसपा को ओबीसी और दलित वोटर के सहारे आगे बढ़ाने का काम किया था. यह कारवां आगे बढ़ता तो सब से पहला प्रभाव समाजवादी पार्टी पर पड़ता. इसलिए पिछड़ों के नेता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सपा-बसपा का गठबंधन कर ‘मिले मुलायम कांशीराम…’ का नारा दे कर 1993 में सरकार बना ली.

मायावती की तुनकमिजाजी से यह सरकार समय से पहले ही गिर गई. तब मुलायम सिह यादव पिछड़ी जातियों को ले कर वहां से अलग हो गए. इस के बाद बसपा के पास केवल दलित वोटर रह गए. उन की ताकत इतनी नहीं थी कि वे अपने बलबूते सरकार बना सकें. यही वजह है कि 1995, 1996 और 2002 में मायावती भाजपा की मदद से ही मुख्यमंत्री बनीं. 2007 में बसपा की बहुमत से तब सरकार बनी जब सवर्ण वोटर उस के साथ जुड़े. यहां तक मायावती अपनी दलित राजनीति को छोड़ चुकी थीं. बसपा ‘तिलक तराजू…’ वाले नारे को छोड़ ‘हाथी नहीं गणेश है…’ का नारा देने लगी थी. यहीं से पार्टी का बुरा दौर शुरू हो गया.

दलित मुददों से भटकीं तो घटे वोट

साल 1996 में बसपा ने 6 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, तब बसपा को 20.6 फीसदी वोट मिले थे. साल 1998 में बसपा को 4 सीटें मिलीं और वोट प्रतिशत बढ़ कर 20.9 फीसदी हो गया. साल 1999 में बसपा को 14 सीटें मिलीं और वोट 22.08 फीसदी हो गया. साल 2004 में सीटें बढ़ कर 19 हो गईं और 24.67 फीसदी वोट मिले. बसपा ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन साल 2009 में किया जब पार्टी को 20 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई और 27.42 फीसदी वोट मिले.

बसपा की स्थिति साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से बदलती चली गई. 20 सांसदों वाली बसपा को 2014 चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई और उस का वोट प्रतिशत भी गिर कर 19.77 फीसदी पर आ गया. बसपा के वोट में करीब 8 फीसद की गिरावट आई.

1996 के बाद बसपा का यह सब से बुरा प्रदर्शन था. साल 2019 में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया. जिस का बसपा को भरपूर फायदा हुआ और जीरो सीटों वाली बसपा ने 10 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि उस का वोट और कम हुआ. इस चुनाव में बसपा को सपा के साथ गठबंधन कर 19.43 फीसदी वोट ही वोट मिले.

बसपा का हाथी नहीं रहा सब का साथी

अब तक बसपा का वोट ट्रांसफर होना बंद हो गया. 2019 के लोकसभा में अगर बसपा का वोट सपा के प्रत्याशी को ट्रांसफर हुआ होता तो सपा-बसपा को अधिक सीटें मिल जातीं. 2024 में बसपा के लिए अपना वोट बचाना मुश्किल है. वह ‘इंडिया’ गठबंधन को क्या वोट दिलाएगी, सोचने वाली बात है.

मायावती को दलित नेता के रूप में इसलिए पहचान मिली है क्योंकि 1990 के बाद उत्तर प्रदेश में कोई दलित नेता पहचान नहीं बना पाया. ‘इंडिया’ गठबंधन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकाजुर्न खड़गे को दलित नेता के रूप में उभारने की कोशिश कर रहा है पर उन की पहचान दलित नेता की नहीं है.

‘इंडिया’ गठबंधन में रह कर मायावती 3 से 4 फीसदी वोट जोड़ सकती थीं, लेकिन उस से अधिक वे इंडिया गठबंधन में परेशानी पैदा करतीं. सीट शेयर को ले कर उन का टकराव दूसरे दलों से होता. वे चाहती थीं कि ‘इंडिया’ ब्लौक उन को पीएम फेस बनाए. मायावती और ममता बनर्जी दोनों को साध कर चलना ‘इंडिया’ ब्लौक के वश में नहीं. ‘इंडिया’ ब्लौक के सभी घटक ओबीसी समीकरण वाले हैं. ऐसे में मायावती की दलित राजनीति के साथ टकराव होता रहता. अपने स्वभाव के चलते मायावती खुद को ऊपर रखने का काम करतीं. ऐसे में साथ चलना संभव न होता.

मायावती पौराणिक व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी हैं. अब वे मनुवाद का विरोध नहीं करतीं. आज का दलित पढ़ालिखा है. वह अपने मुददे समझता है. उसे पता है कि राममंदिर उस के किसी काम का नहीं है. उस के हिस्से में मंदिर के बाहर सड़क साफ करना ही आएगा. ऐसे में राममंदिर और उस के आसपास घूमती राजनीति से उसे कुछ नहीं मिलने वाला. सो, वह ‘इंडिया’ ब्लौक की तरफ बढ़ सकता है. दलितों के वोट ‘इंडिया’ ब्लौक को बिना मायावती के साथ रहने से ही मिल सकते हैं.

मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से कोई बहुत प्रभाव नहीं पड़ने वाला क्योंकि दलित वोटर मायावती के सच को समझ चुका है. मायावती भी परिवारवाद को ही बढ़ा रही हैं. कांशीराम ने अगर अपने परिवार को आगे बढ़ाया होता तो क्या मायावती नेता बन पातीं? ऐसे में मायावती अगर दलित समाज के नेता को अपना उत्तराधिकारी बनातीं तो समाज का भला होता. मायावती के भतीजे आकाश आनंद से दलित समाज का क्या भला होगा, सोचने वाली बात है.

क्या आप भी सर्दियों में खाते हैं ज्यादा हरी मटर, तो सेहत पर पड़ सकता है भारी

Green Peas Side Effects : सर्दियों में ज्यादातार लोग हरी मटर खाना पसंद करते हैं. इसमें पोषक तत्वों का खजाना होता है. कैंसर और डायबिटीज की समस्या में तो विशेषतौर पर इसके सेवन की सलाह दी जाती है, क्योंकि इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स इन बीमारियों से लड़ने में सक्षम होते है. ठंड में तो इसका स्वाद और ज्यादा बढ़ जाता है. इसी वजह से लोग हरी मटर का इस्तेमाल सब्जी बनाने से लेकर नमकीन पराठों में करते हैं. लेकिन क्या आपको ये बात पता है कि बहुत ज्यादा मटर का सेवन करना भी शरीर के लिए नुकसानदायक हो सकता है. दरअसल, हरी मटर में एंटीन्यूट्रेंट कंपाउंड की भी कुछ मात्रा पाई जाती है, जो शरीर से कुछ जरूरी पोषक तत्वों को खुद ही बाहर निकाल देते है. इसी वजह से कई लोग हरी मटर न खाने की सलाह देते हैं.

आइए अब जानते हैं कि किन-किन बीमारियों में ज्यादा हरी मटर (Green Peas Side Effects) नहीं खानी चाहिए और किन-किन स्थितियों में इसका सेवन नुकसानदेह हो सकता है.

ज्यादा हरी मटर खाने के नुकसान

बदहजमी

आपको बता दें कि रोजाना या ज्यादा हरी मटर खाने से बदहजमी यानी ब्लॉटिंग की समस्या हो सकती है. हरी मटर में लेक्टिंस और फायटिक एसिड नामक एंटीन्यूट्रेंट तत्व होते हैं, जो पाचन से जुड़ी परेशानी को बढ़ा सकते है. इसके अलावा जिन लोगों को पेट की समस्या रहती है या जिनके पेट में सूजन है, उन्हें भी ज्यादा हरी मटर खाने से बचना चाहिए.

गैस की समस्या

हरी मटर (Green Peas Side Effects) में प्रोटीन की भरपूर मात्रा होती है. इसलिए जिन लोगों की पाचन शक्ति कमजोर होती है, उन्हें हरी मटर का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए. इससे उनके शरीर को पचाने में बहुत ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है, जिससे गैस और एसिडिटी की समस्या उन्हें परेशान कर सकती है.

वजन बढ़ना

नियमित रूप से हरी मटर खाने से वजन भी बढ़ सकता है. चूंकि इसमें डाइट्री फाइबर की उच्च मात्रा होती है, जो मेटाबोलिज्म को बूस्ट करता है. मेटाबोलिज्म के बूस्ट होने से खाना जल्दी-जल्दी पचता है, जिससे भार-भार भूख लगती है. इससे लोग ज्यादा मात्रा में खाना खाते हैं और उनका वजन बढ़ने लगता है.

यूरिक एसिड का बढ़ना

गठिया के मरीजों को भी हरी मटर का सीमित मात्रा में सेवन करना चाहिए. दरअसल, इसे ज्यादा खाने से शरीर में कैल्शियम जमा होने लगता है, जिससे यूरिक एसिड बनने लगता है. गठिया के मरीजों के लिए यूरिक एसिड का बढ़ना खतरनाक होता है.

डायरिया

बहुत अधिक मात्रा में हरी मटर (Green Peas Side Effects) खाने से शरीर में बाउल सिंड्रोम की मात्रा भी बढ़ जाती है, जिससे डायरिया होने का खतरा बना रहता है.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

शरीर में Vitamin B12 की कमी हो सकती है खतरनाक, जानें इसके लक्षण और उपचार

Vitamin B12 Foods : शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विटामिन्स और मिनरल्स की जरूरत होती है, लेकिन आज के समय में खराब लाइफस्टाइल और अस्वस्थ खानपान की वजह से कई लोगों के शरीर में पोषक तत्वों की कमी होने लगी है, जिससे कई गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है. ऐसे में जरूरी है कि आप अपनी डाइट में पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य-पदार्थ को शामिल करें. इन्हीं जरूरी विटामिन्स में से एक है बी 12, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए बहुत जरूरी है.

शरीर में कई महत्वपूर्ण काम जैसे रक्त कोशिकाओं को बनाना, मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत करना और शरीर को एनर्जी देना आदि-आदि सभी कार्य विटामिन B12 ही करता हैं. हालांकि हमारा शरीर इसे खूद नहीं बनाता है. जब बॉडी में इसकी कमी होने लगती है, तो व्यक्ति बीमार पड़ सकता है. इसलिए जरूरी है कि आप अपनी डाइट में विटामिन B12 से युक्त चीजों को शामिल करें.

आइए अब जानते हैं कि शरीर में विटामिन B12 की कमी होने पर कौन-कौने से लक्षण दिखाई देते हैं और इसकी (Vitamin B12 Foods) कमी को कैसे दूर किया जा सकता है.

विटामिन-बी 12 की कमी में नजर आते हैं ये लक्षण

  • थकान
  • कमजोरी
  • जीभ में दर्द
  • पाचन संबंधी समस्या
  • चिड़चिड़ापन
  • बालों और नाखूनों की समस्या
  • स्किन का हल्का पीला पड़ना
  • लिवर में खराबी
  • मुंह में बार-बार छाले होना

विटामिन बी 12 की कमी को कैसे करें दूर ?

  • रोजाना दूध पीने से शरीर में विटामिन बी 12 (Vitamin B12 Foods) की कमी नहीं होती है.
  • विटामिन बी12 की कमी से बचने के लिए नियमित रूप से चीज खाएं. कॉटेज चीज विटामिन बी12 का मुख्य स्रोत है. इससे न सिर्फ शरीर में विटामिन बी12 की कमी दूर होगी. साथ ही मसल्स में भी मजबूती आएगी.
  • दही में कैल्शियम, प्रोटीन और विटामिन बी12 की उच्च मात्रा होती है. इसलिए मांसपेशियों और हड्डियों में मजबूती भरने के लिए अपनी डाइट में दही को जरूर शामिल करें.
  • ब्रोकोली को सभी जरूरी विटामिन और मिनरल्स का खजाना माना जाता हैं. इसी वजह से डॉक्टर भी ब्रोकोली खाने की सलाह देते हैं.
  • इसके अलावा नियमित रूप से फल, हरी सब्जियां और ड्राई फ्रूट्स खाने से भी शरीर में कभी विटामिन बी12 (Vitamin B12 Foods) की कमी नहीं होती है.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

मां-बाप की डांट से परेशान बच्चे क्यों करते हैं खुदकुशी ?

18 साल की पूजा का अपनी बहन से किसी बात को ले कर झगड़ा हुआ. पूजा के मांबाप ने दोनों बहनों की बातचीत सुनी और पूजा को डांट लगाई कि छोटी बहन के साथ झगड़ा न करे. गुस्से में पूजा अपने कमरे में चली गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. घंटों गुजर जाने के बाद जब पूजा बाहर नहीं निकली और न ही कमरे का दरवाजा खुला तो पिता प्रदीप ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से कोई जवाब नहीं मिलने पर प्रदीप ने घर वालों की मदद से दरवाजा तोड़ा तो देखा कि पूजा पंखे से लटकी हुई है. पुलिस आई और पूजा की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज कर जांच आदि में लग गई. पूजा ने खुदकुशी कर एक बार फिर इस सवड्डाल को खड़ा कर दिया कि मांबाप की डांटफटकार से नाराज हो कर बच्चे क्यों जान देने पर उतारू हो जाते हैं? पटना के कदमकुआं महल्ले की चूड़ी मार्केट के मिश्रा लेन में प्रदीप अपनी बीवी और 2 बेटियों के साथ रहते हैं. पूजा बीए पार्ट वन की स्टूडैंट थी. पिता की डांट से नाराज हो कर खुदकुशी कर उस ने अपने मांबाप और परिवार वालों को पुलिस व अदालत के चक्कर दर चक्कर लगाने की सजा दे दी. बेटी की मौत से आहत परिवार के लिए कानूनी पचड़ों में फंसना और भी ज्यादा तकलीफ देने वाला होता है.

कई लड़का इम्तिहान में कम अंक लाने की वजह से पिता से डांट खाने के बाद किसी पुल से नदी में छलांग लगा रहा है. किसी लड़के की मोटरसाइकिल या स्मार्ट फोन की फरमाइश पूरी करने से पिता ने मना कर दिया तो वह सल्फास की गोली खाने में जरा भी देरी नहीं करता है. लड़की के चक्कर में पड़ कर पढ़ाई पर ध्यान नहीं देने के लिए जब मांबाप किसी बच्चे को फटकार लगाते हैं तो कोई अपार्टमैंट की छत से कूद कर जान देता है तो कोई ट्रेन के आगे कूद कर. मांबाप की डांट से आहत या नाराज हो कर और बातबेबात खुदकुशी करने की वारदातें तेजी से बढ़ रही हैं.

आखिर इतना गुस्सा क्यों और कैसे होता है कि अपनी जिंदगी ही खत्म कर ली जाए? समाजशास्त्रियों का मानना है कि आम आदमी में सहनशक्ति में कमी आना, जरा से विरोध और डांट को प्रतिष्ठा का विषय बना लेना और समझौता करने की मानसिकता में कमी आने की वजह से बातबेबात खुदकुशी की वारदातें बढ़ रही हैं. मांबाप कोई भी गलत कदम उठाने से लड़केलड़कियों को रोकते हैं तो युवा खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं.

पटना हाईकोर्ट के वकील अनिल कुमार सिंह कहते हैं कि खुदकुशी करने वाले यह सोचतेसमझते नहीं हैं कि खुद को मिटा कर वे क्या पा लेते हैं. खुदकुशी न तो किसी परेशानी का हल है और न ही यह हिम्मत वालों का काम है. यह तो साफसाफ कमजोरों की गलत और गैरकानूनी हरकत है. खुदकुशी कर बच्चे अपने मांबाप को जिंदगी भर रोने और कोर्ट के चक्कर लगाने के लिए छोड़ जाते हैं. वे एक मिनट भी यह नहीं सोचते हैं कि उन की गलत हरकत से उन का परिवार कितनी बड़ी मुसीबत में फंस सकता है. 

बच्चे यह नहीं समझते हैं कि उन के मांबाप उन्हें डांटफटकार उन के ही भले के लिए लगाते हैं. उन की कमियों को दूर करने, उन्हें अच्छा और कामयाब इंसान बनाने, उन्हें सही रास्ते पर लाने और उन की गलत हरकतों को छुड़ाने के लिए ही वे बच्चों को डांटफटकार लगाते हैं. कोई बच्चा अगर पढ़ाईलिखाई के समय को बरबाद करता है तो अभिभावक को गुस्सा आना जायज है. मांबाप अपने बेटे को बड़ा अफसर बनाना चाहते हैं. उन्हें कामयाब होते देखना चाहते हैं. बच्चों को राह से भटकते देख कर ही वे डांट लगाते हैं.

पटना के एक सरकारी स्कूल की टीचर रेखा पोद्दार कहती हैं कि बच्चों के पढ़ाई में ध्यान नहीं देने, किसी विषय में कम अंक आने या फेल होने पर अभिभावक को बच्चों के साथ सख्त रवैया नहीं अपनाना चाहिए. बढ़ती उम्र के बच्चों का मन बहुत ही कोमल व अपरिपक्व होता है, ऐसे में उन से कोई गलती होने पर ठंडे दिमाग और प्यार से समझाना चाहिए. यह तरीका पिटाई और डांट से ज्यादा कारगर होता है.

अभिभावक के सख्त रवैए से डर कर या नाराज हो कर ही बच्चे खुदकुशी करने जैसा गलत तरीका अपना रहे हैं. हर बड़ेछोटे शहर में खुदकुशी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. इस के पीछे की सब से बड़ी वजह क्या है? कोई इसे कच्ची उम्र की वजह बताता है तो कोई तेजी से बदलती जीवनशैली को. कोई बच्चों के प्रति उन के अभिभावकों की लापरवाही व उपेक्षा को दोष देता है तो कोई बच्चों में हर चीज को तुरतफुरत पाने के उतावलेपन को जिम्मेदार ठहराता है. परिवार के लोगों के बीच बढ़ती संवादहीनता को कोई खुदकुशी की बड़ी वजह करार देता है. 

मनोविज्ञानी अजय मिश्र कहते हैं कि आज के युवा जरा सी डांटफटकार या किसी नाकामी को इज्जत का सवाल बना लेते हैं और उस के बाद उन्हें जीवन ही बेकार लगने लगता है. ऐसे लोग खुदकुशी कर अपने जीवन को खत्म कर लेते हैं पर अपने परिवार वालों के लिए समाज में अपमान और आंसू छोड़ जाते हैं. खुदकुशी करने से पहले युवाओं को ठंडे दिमाग से यह सोचना चाहिए कि खुदकुशी किसी भी समस्या का हल नहीं है. समस्या से लड़ कर ही उस का हल निकाला जा सकता है, न कि उस से भाग कर. खुदकुशी करने वाले अपने परिवार वालों के लिए कई मुसीबतें और समस्याएं छोड़ जाते हैं.

पिछले साल 25 अक्तूबर को पटना में 21 साल की लड़की आर्या की खुदकुशी के बाद से उस के परिवार वाले पुलिस, अदालत, वकीलों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं. आर्या के मां और पिता दोनों नौकरी करते हैं और अब वे जबतब काम से छुट्टी ले कर थानाकचहरी के चक्कर लगा रहे हैं. रिश्तेदारों और पड़ोसियों की तिरछी नजरों का सामना नहीं कर पा रहे हैं.

रिटायर्ड पुलिस अफसर आर के सिंह कहते हैं कि बच्चों और अभिभावकों के बीच तालमेल की कमी से न बच्चे अपने मांबाप से खुल कर बातें कर पाते हैं न ही मांबाप के पास बच्चों की दिक्कतों को सुनने व समझने की फुरसत है. ऐसे हालात में तो बच्चे सही और गलत के बारे में सोचे बगैर ही कोई फैसला ले लेते हैं. आज बच्चों की तुनकमिजाजी आम होती जा रही है. जरा सी उन के मन के लायक बात नहीं हुई तो उन का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता है.

इस तरह की ढेरों वारदातें हमारे आसपास घटित हो रही हैं. खेलने और पढ़ने की उम्र में बातबेबात किसी की जान लेने, खुदकुशी करने की वारदातें इतनी तेजी से बढ़ रही हैं कि हर परिवार भय के माहौल में जीने लगा है. पता नहीं कब किस बात पर उन का बच्चा कोई गलत कदम उठा ले. मासूमों में आखिर इतना गुस्सा कैसे बढ़ गया है कि वे जान लेने या जान देने में जरा भी नहीं हिचकते हैं. ऐसे मामलों को रोकने के लिए कानून से ज्यादा अभिभावकों को समझने और समझाने की जरूरत है.

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