समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है, ‘मायावती डर की वजह से अलग राह पर चलने का फैसला कर रही हैं.‘ असल में मायावती अगर ‘इंडिया’ ब्लौक का हिस्सा बनतीं तो गठबंधन के दूसरे दलों के लिए मुश्किल हो जाती. मायावती और ममता बनर्जी दोनों जिस स्वभाव की नेता हैं, उस से उन के साथ किसी का तालमेल होना कठिन है. इन दोनों से ही ‘इंडिया’ ब्लौक को कोई लाभ नहीं होने वाला.

मायावती और ममता बनर्जी दोनों के ही अगले कदम का किसी को पता नहीं होता.

2014 के बाद से मायावती का रुझान मोदी सरकार की तरफ रहा है. ममता बनर्जी तो एनडीए का हिस्सा ही रह चुकी हैं. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में सीमित हैं. बाकी देश में उन के नाम पर वोट नहीं. यही हाल मायावती का है. उत्तर प्रदेश में वे भले ही खुद के पास 13 फीसदी दलित वोट मान कर चल रही हों पर होने वाले लोकसभा चुनाव को देखें तो वे अपने बलबूते एक भी सीट जीतने की हालत में नहीं हैं.

बहुजन समाज पार्टी पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार….’ का नारा दे कर मनुवाद का विरोध करती थी. मनुवाद के लोग कैसे दलित समाज पर अत्याचार करते हैं, इस को ले कर वे नुक्कड़ नाटक करती थीं. कांशीराम ने बसपा को ओबीसी और दलित वोटर के सहारे आगे बढ़ाने का काम किया था. यह कारवां आगे बढ़ता तो सब से पहला प्रभाव समाजवादी पार्टी पर पड़ता. इसलिए पिछड़ों के नेता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सपा-बसपा का गठबंधन कर ‘मिले मुलायम कांशीराम…’ का नारा दे कर 1993 में सरकार बना ली.

मायावती की तुनकमिजाजी से यह सरकार समय से पहले ही गिर गई. तब मुलायम सिह यादव पिछड़ी जातियों को ले कर वहां से अलग हो गए. इस के बाद बसपा के पास केवल दलित वोटर रह गए. उन की ताकत इतनी नहीं थी कि वे अपने बलबूते सरकार बना सकें. यही वजह है कि 1995, 1996 और 2002 में मायावती भाजपा की मदद से ही मुख्यमंत्री बनीं. 2007 में बसपा की बहुमत से तब सरकार बनी जब सवर्ण वोटर उस के साथ जुड़े. यहां तक मायावती अपनी दलित राजनीति को छोड़ चुकी थीं. बसपा ‘तिलक तराजू…’ वाले नारे को छोड़ ‘हाथी नहीं गणेश है…’ का नारा देने लगी थी. यहीं से पार्टी का बुरा दौर शुरू हो गया.

दलित मुददों से भटकीं तो घटे वोट

साल 1996 में बसपा ने 6 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, तब बसपा को 20.6 फीसदी वोट मिले थे. साल 1998 में बसपा को 4 सीटें मिलीं और वोट प्रतिशत बढ़ कर 20.9 फीसदी हो गया. साल 1999 में बसपा को 14 सीटें मिलीं और वोट 22.08 फीसदी हो गया. साल 2004 में सीटें बढ़ कर 19 हो गईं और 24.67 फीसदी वोट मिले. बसपा ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन साल 2009 में किया जब पार्टी को 20 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई और 27.42 फीसदी वोट मिले.

बसपा की स्थिति साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से बदलती चली गई. 20 सांसदों वाली बसपा को 2014 चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई और उस का वोट प्रतिशत भी गिर कर 19.77 फीसदी पर आ गया. बसपा के वोट में करीब 8 फीसद की गिरावट आई.

1996 के बाद बसपा का यह सब से बुरा प्रदर्शन था. साल 2019 में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया. जिस का बसपा को भरपूर फायदा हुआ और जीरो सीटों वाली बसपा ने 10 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि उस का वोट और कम हुआ. इस चुनाव में बसपा को सपा के साथ गठबंधन कर 19.43 फीसदी वोट ही वोट मिले.

बसपा का हाथी नहीं रहा सब का साथी

अब तक बसपा का वोट ट्रांसफर होना बंद हो गया. 2019 के लोकसभा में अगर बसपा का वोट सपा के प्रत्याशी को ट्रांसफर हुआ होता तो सपा-बसपा को अधिक सीटें मिल जातीं. 2024 में बसपा के लिए अपना वोट बचाना मुश्किल है. वह ‘इंडिया’ गठबंधन को क्या वोट दिलाएगी, सोचने वाली बात है.

मायावती को दलित नेता के रूप में इसलिए पहचान मिली है क्योंकि 1990 के बाद उत्तर प्रदेश में कोई दलित नेता पहचान नहीं बना पाया. ‘इंडिया’ गठबंधन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकाजुर्न खड़गे को दलित नेता के रूप में उभारने की कोशिश कर रहा है पर उन की पहचान दलित नेता की नहीं है.

‘इंडिया’ गठबंधन में रह कर मायावती 3 से 4 फीसदी वोट जोड़ सकती थीं, लेकिन उस से अधिक वे इंडिया गठबंधन में परेशानी पैदा करतीं. सीट शेयर को ले कर उन का टकराव दूसरे दलों से होता. वे चाहती थीं कि ‘इंडिया’ ब्लौक उन को पीएम फेस बनाए. मायावती और ममता बनर्जी दोनों को साध कर चलना ‘इंडिया’ ब्लौक के वश में नहीं. ‘इंडिया’ ब्लौक के सभी घटक ओबीसी समीकरण वाले हैं. ऐसे में मायावती की दलित राजनीति के साथ टकराव होता रहता. अपने स्वभाव के चलते मायावती खुद को ऊपर रखने का काम करतीं. ऐसे में साथ चलना संभव न होता.

मायावती पौराणिक व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी हैं. अब वे मनुवाद का विरोध नहीं करतीं. आज का दलित पढ़ालिखा है. वह अपने मुददे समझता है. उसे पता है कि राममंदिर उस के किसी काम का नहीं है. उस के हिस्से में मंदिर के बाहर सड़क साफ करना ही आएगा. ऐसे में राममंदिर और उस के आसपास घूमती राजनीति से उसे कुछ नहीं मिलने वाला. सो, वह ‘इंडिया’ ब्लौक की तरफ बढ़ सकता है. दलितों के वोट ‘इंडिया’ ब्लौक को बिना मायावती के साथ रहने से ही मिल सकते हैं.

मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से कोई बहुत प्रभाव नहीं पड़ने वाला क्योंकि दलित वोटर मायावती के सच को समझ चुका है. मायावती भी परिवारवाद को ही बढ़ा रही हैं. कांशीराम ने अगर अपने परिवार को आगे बढ़ाया होता तो क्या मायावती नेता बन पातीं? ऐसे में मायावती अगर दलित समाज के नेता को अपना उत्तराधिकारी बनातीं तो समाज का भला होता. मायावती के भतीजे आकाश आनंद से दलित समाज का क्या भला होगा, सोचने वाली बात है.

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