‘तुम्हारा ट्रिप कैसा रहा?’
‘बहुत अच्छा,’ अभी मैं आगे बताने ही जा रही थी कि पुण्पा ने पूछा, ‘तुम ने मेरे हस्बैंड कीह अलमारी तो नहीं खोली थी?’
‘क्याऽऽ…’ मैं इस अप्रत्याशित प्रश्न पर यकीन नहीं कर पा रही थी.
‘मेरे हस्बैंड की कोई एक चीज भी छू ले तो इन्हें तुरंत पता चल जाता है. जानती हो, हमारे यहां भारत में 200 गमले हैं. यदि कोई एक फूल भी तोड़ ले तो इन्हें तुरंत पता चल जाता है,’’ पुष्पा बोलती ही जा रही थी. मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था. मैं कुछ क्षण के लिए अवाक ही खड़ी रह गई.
‘मगर मैं तुम्हारे हस्बैंड की अलमारी क्यों छूने लगी. मैं तो तुम्हारे साथ ही थी,’ किसी तरह मेरे मुंह से आवाज निकली.
‘यों ही पूछा, मेरे हस्बैंड कह रहे थे कि लगता है किसी ने मेरी अलमारी को हाथ लगाया है. उन्हें गलतफहमी हुई होगी.’
‘हो सकता है, मुझे नहीं मालूम.’ मैं ने यह कह तो दिया, मगर उस के बाद पुण्पा की दी हुई चाय जैसे कुनेन घोल कर बनाई हुई लगी.
‘तुम जानती हो, किसी ने मेरे घर की तलाशी ली है.’
‘थैंक गौड, मैं तो चली गर्ई थी,’ मैं ने राहत की सांस लेते हुए कहा. मगर मुझे माहौल में घुटन सी महसूस होने लगी.
‘पता नहीं. लोग दोस्त बन कर पीठ में खंजर भूंकते हैं,’ पुण्पा बोलती जा रही थी. मुझे लगा यह पुण्पा का असली चेहरा था या ट्रिप पर जाने से पहले वाली पुण्पा असली थी.
‘मुझे तो लोग चोर समझते हैं, मैं तो चोर हूं. बाप रे बाप.’ पुण्पा पर जैसे दौरा सा पड़ गया था. मैं घबरा गई. उस के पति दूसरे कमरे थे. समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें बुलाऊं या नहीं. सुन तो वे भी रहे होंगे. मैं चुपचाप पत्थर बनी बैठी रही. उस के पति का एटिट्यूट भी मुझे कुछ अजीब सा ही लगा.
मुझे टैंशन होते ही कमजोरी लगने लगती है. इस समय वैसा ही लग रहा था. मैं अभी पुण्पा की बात को समझने की कोशिश कर ही रही थी कि उस ने कहा, ‘ऐसा करते हैं कि इस समय मैं भिंडीआलू बनाती हूं और तुम मटरमशरूम बना दो.’
वह अचानक इस तरह सामान्य लहजे में बोली कि एक झटके में तो मुझे समझ ही नहीं आया कि चोरी का इलजाम लगातेलगाते वह अचानक खाने की बात पर कैसे आ गई. यों तो मैं मानसिक रूप से काम करने के लिए तैयार थी क्योंकि मैं कभी भी किसी पर बोझ बन कर नहीं रहती हूं. मगर पुण्पा की बेसिरपैर की बातों ने मेरी सोचनेसमझने की ताकत छीन ली थी, शरीर को जैसे काठ मार गया था. वैसे भी, मेरे आने के दिन से पुण्पा मुझे बारबार बता रही थी कि वह सर्वाइकल की मरीज है, इसलिए वह कोई काम नहीं कर सकती. उस के घर की अस्तव्यस्तता और गंदगी देख कर मैं खुद भी यह अनुमान लगा चुकी थी कि वाकई 2 महीने पहले उस के पति ने भारत लौटने से पहले ही घर साफ किया होगा.
पति के जाने के बाद शायद ही उस के घर में वैक्यूम क्लीनर का इस्तेमाल हुआ होगा. हालांकि यूरोप में भारत की तरह धूल मिटटी के अभाव में रोज सफाई की जरूरत तो नहीं पड़ती थी. ‘मैं तो सलाद या दलिया ही खाती हूं, वह भी एक बार बना कर दोनों समय खा लेती हूं,’ पुष्पा ने स्काइप पर भी ये बातें बताई थीं. जिस दिन मैं उस के घर पहुंची थी उस दिन जरूर उस ने बढिय़ा नाश्ता कराया था, उस के बाद से तो खाना बनाना क्या, बरतन मांजने का काम भी मैं ने अपने ऊपर ले लिया था.
मगर इस समय 2 सब्जियां, दाल, चावल और रोटी बनाने का न तो मेरा मूड ही था न ही बाद में बरतन मांजने की ताकत.
‘रहने दो. केवल मगटर वाले चावल ही बना लेते हैं,’ मैं ने धीरे से कहा.
‘अरे, ऐसा कैसे हो सकता है, मैं और आलोक ‘अतिथि देवो भव’ पर विश्वास करते हैं. तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है. तुम केवल मटरमशरूम बना दो. बाकी खाना तो आलोक बना देंगे.’
मुझे मालूम था यह केवल कहने की बात है. बनाना तो मुझे ही पड़ेगा.
‘आलोक, भिंडी काट दो,’ कह कर वह भिंडी ले कर आलोक के कमरे में चली गई. मशरूम और मटर मेरे सामने रख दिया. तुम बनाओ, मैं भी सीखूंगी.
मुझे इस समय अनुराग बेइंतहा याद आ रहे थे. मन कर रहा था उन के कंधे पर सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगूं. ‘क्यों भेजा तुम ने मुझे यहां, मना नहीं कर सकते थे…’ मगर अब कुछ नहीं किया जा सकता था. पुण्पा वापस आ कर मेरे सामने बैठ गई और मैं मशरूम साफ करने लगी.
‘जानती हो, भारत से जो दूसरे प्रोफैसर आए थे उन्हें मेरे साथ क्याक्या किया?’
मैं मन ही मन डर गई, पता नहीं किस के माध्यम से मुझे क्या सुनाने लगे. मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. प्रो. गुप्ता, जो भारत से यहां पौलिटिकल साइंस के विजिटिंग प्रोफैसर बन कर आए थे, इसी बिल्डिंग में रहते थे, उन से पुष्पा के संबंध अच्छे नहीं थे. यह अनुमान तो उस की बातों से पहले ही लगा चुकी थी. पर अब पुण्पा की मानसिकता जानने के बाद मुझे प्रो. गुप्ता से सहानुभूति होने लगी थी.
‘मुझे यह पता नहीं था कि विदेश में आ कर मुझे यह सब सहना पड़ेगा. पता नहीं मेरे अगेंस्ट कांस्परेसी क्यों कर रहे हैं…’ पुण्पा बड़बड़ा रही थी.
गुस्से और थकान के बावजूद मुझे हंसी आ गई, ‘क्यों, तुम ऐसी क्या चीज हो जो सारी दुनिया तुम्हारे खिलाफ कांस्परेसी करेगी भला?’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल तो गया पर मैं डर गर्ई कि अब वह प्रोफैसर गुप्ता को छोड़ कर मेरे पीछे न पड़ जाए. पर वह अपनी धुन में मगन बोलती ही जा रही थी, ‘जानती हो, उन की वाइफ आ रही थीं तो मैं ने कहा मेरे लिए एक किलो चावल और थोड़ी सी चायपत्ती लेती आएं.’
मेरे कान खड़े हो गए क्योंकि और चीजों के साथ मैं ये दोनों चीजें भी साफ लाई थी, पुण्पा को भेंट करने. परदेश में भारतीय आटाचावलमसाले जैसी चीजें कैसी अनमोल उपहार होती हैं, यह वही समझ सकता है जो देश के बाहर इन चीजों के लिए तरसा हो.
‘जानती हो, मैं ने पैसे दिए तो उन्होंने नहीं लिए. मगर सारी जगह मेरी बदनामी कर गए. मुझे लालची बताया.’
मैं चुपचाप सुनती रही और अपने काम में लगी रही. मुझे लग रहा था कि यह सिर्फ उस के मन का वहम होगा. ‘तुम्हें कैसे पता?’ आखिर रहा न गया, तो पूछ ही बैठी.
‘पता कैसे नहीं?’ पुण्पा नाराज हो गई, ‘मुझे लोगों ने बताया कि पूरी इंडियन कम्यूनिटी में हमारी बदनामी हो रही है. भला मैं ने ऐसा क्या किया था?’ उस ने खुद ही प्रश्न पूछा. कोई उत्तर न पा कर मेरी तरफ मुखातिब हुई, ‘सुनो, तुम जो चावलवावल लाई हो न, उन्हें भी नहीं रखूंगी. तुम इन्हें वापस ले जाना.’ अब वह असली बात पर आ गई थी.
‘अरे, ऐसा भी कहीं होता है क्या? तुम ने थोड़े ही मंगाया था, वह तो मैं खुद लाई थी. अब मैं उन का क्या करूंगी?’ जब उस ने बात शुरू की थी तभी मैं ने अनुमान लगा लिया था कि बात मेरे उपहारों तक जरूर आएगी.
‘पर वापस ले जाना, मैं नहीं रखूंगी,’ पुण्पा ने ऐलान कर दिया था.
उस से बहस करना बेकार था. उपहार वापस ले जाने की कल्पना अजीब सी लगी, साथ में इतना बोझा वापस ढोना भी मुश्किल था. आते समय मैं यह सोच कर निश्चिंत थी कि वापसी पर कम से कम चावलों का बोझ नहीं होगा. इधर मामामामी ने भी ढेर सारी चीजें लाद दी थीं. उन में रास्ते के लिए जूस की बोतलें पानी और केक वगैरह के पैकेट्स भी थे. उन पैकेटों को मैं ने ड्राइंग टेबल पर यह सोच कर रख दिया था कि इसे यहां अगले 2 दिनों में खापी लेंगे, नहीं तो छोड़ जाऊंगी. मैं चुप रही.
‘लोग सोचते हैं, मैं बड़ी लालची हूं. तुम बताओ अगर तुम्हारे साथ ऐसा हुआ होता तो क्या तुम ऐसे चीजें रखतीं?’
मैं चुपचाप सब्जी चलाती रही.
‘सब्जी बनने वाली है,’ मैं ने बात बदलने की गर्ज से कहा.
‘ओह, मैं तो भूल ही गई. ऐसा करो दूसरी सब्जी भी चढ़ा दो, भिंडी कट गई होगी, मैं लाती हूं. तुम बस तेल, जीरा डाल कर छौंक दो. तब तक मैं आटा निकाल दूंगी. मेरे से तो आटा मंढ़ता नहीं, हस्बैंड से कहूंगी, मांढ देंगे.’
‘नहीं, मैं ही मांढ़ दूंगी,’ मैं ने मन मार कर कहा.
‘ओहो, तुम क्या सोचोगी कि तुम्हें काम करने के लिए ही बुलाया है. तुम तो देख ही रही हो, मेरा तो हाथ ही नहीं चलता. चलो, रोटी तो मैं ही सेंक दूंगी. बस, तुम बेल देना.’
मेरे होंठों पर बरबस मुसकान आ गई. मुश्किल से उसे रोक कर कहा, ‘अरे, उतना ही टाइम लगता है. मैं बेल भी लूंगी और सेंक भी लूंगी.’
‘नहीं भाई, मैं अब मेहमान से इतना काम भी तो नहीं करवा सकती न, रोटी तो मैं ही सेंकूंगी. फिर बरतन मांजने में भी मेरे हाथ अकड़ जाते हैं. वे तो मेरे हस्बैंड मांज देंगे.’
‘जानती हो, जब पिछली बार मैं इंडियन एसोसिएशन के कार्यक्रम में गई थी तो जो कुछ भी पार्टी में बचा था उस में से खूब चीजें भर लाई थी. मैं सोच रही थी ये लोग मुझे लालची समझते हैं तो दिखा ही देती हूं कि मैं कितनी लालची हूं.’ मैं चुपचाप सुनती रही. ‘और जानती हो मैं ने क्या किया, मैं ने वे सारी चीजें डस्टबिन में फेंक दीं.
‘मुझे लालची समझते हो न. तो देखो, मैं सचमुच लालची हूं.’
पुण्पा की अनर्गल बातें मेरे थके दिमाग को जकड़ती जा रही थीं. हाथ मशीन की तरह चल रहे थे. खाना तैयार था. पुण्पा ने प्लेट लगा कर आलोक को खाना कमरे में ही दे दिया. हम खाना खाने बैठे, मेरी भूख मर चुकी थी.
‘मटरमशरूम बहुत अच्छे बने हैं,’ पुण्पा ने कहा. मेरा न मुसकराने का मन किया न थैंक्स कहने का. ‘सुनो, मटरमशरूम कैसे बने हैं? सुधा ने बनाए हैं.’ उस ने वहीं बैठेबैठे अपने पति से पूछा.
‘ठीक हैं,’ आलोक का संक्षिप्त सा उत्तर आया.
‘चलो आलोक को अच्छे लगे,’ उस के चेहरे पर संतुष्टि आई, ‘ऐसा करना कल कोफ्ते बना देना, इन्हें अच्छे लगे तो इन्हें भी सिखा देना.’ मेरे दिल की सारी जलन जरूर मेरी आंखों में उतर आई होगी. मैं रोटी को अच्छी तरह चबाने की कोशिश करने लगी.
‘बाप रे बाप, कैसेकैसे लोग होते हैं…’ वह फिर बड़बड़ाने लगी, ‘मैं तो चोर हूं, लालची हूं.’
‘‘ओप्फ, इनफ इज इनफ, पुण्पा. तुम्हारी तो सूई जैसे वहीं अटक गई है,’ मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था.
वह भी अचकचा गई, फिर संभली, ‘नहींनहीं, तुम्हें नहीं मालूम, मेरे घर की तलाशी ली गई है.’
‘किसने ली तुम्हारे घर की तलाशी? मैं ने?’ मुझे लग रहा था जैसे इस औरत के साथ मैं खुद भी पागल हो जाऊंगी.
पुण्पा को इस सीधे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी. वह लडख़ड़ाई, ‘मैं ने तुम्हें तो कुछ नहीं कहा.’
‘तो तुम ये सब बातें मुझे क्यों सुना रही हो?’ चाहते हुए भी मैं अपनी आवाज सामान्य नहीं कर पा रही थी. पुण्पा हड़बड़ा गई थी. मैं ने स्वयं पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते हुए कहा, ‘देखो पुण्पा, तुम मुझे अच्छी लगीं. हम करीब एक साल तक स्काइप पर बातें करते रहे. अगर मुझे तुम पर विश्वास न होता या तुम अच्छी न लगतीं तो क्या मैं परदेश में अकेली ऐसे ही तुम्हारे घर चली आती? दुनिया तुम्हें क्या समझती है, इस से मेरा कोई लेनादेना नहीं है.’ और जैसेतैसे रोटी निगल कर मैं उठ खड़ी हुई.
‘अरे, ठीक से तो खाओ.,’
मेरी बात का शायद उस पर, फौरीतौर पर ही सही, असर हुआ लग रहा था.
‘बस हो गया,’ मैं ने अपनी प्लेट धो कर रख दी, और कुछ करने की हिम्मत नहीं थी.
‘सुनो, आज तुम मेरे पास ही सोना.’
‘तुम्हारे हस्बैंड?’
‘वे बैठक में सो जाएंगे.’
अटपटा लगा. कुछ कहने जा रही थी कि याद आया, मेरे घर की तलाशी हुई है…तो क्या… इस के आगे दिमाग ने सोचने से भी इनकार कर दिया. धप्प से कुरसी पर ढह गई. अब तक पुण्पा भी खा चुकी थी. हाथ धो कर उस ने पति को आवाज लगाई, ‘आलोक, बरतन देख लेना, प्लीज. और मुझे ले कर बैडरूम में आ गई. मैं अपने को खुद की निगाह में ही गिरा हुआ महसूस कर रही थी. यंत्रचलित सी पुण्पा के पीछे आ कर बैड पर लेट गई.
पुष्पा मेरी बगल में लेटी थी. अचानक उस की बड़बड़ाहट फिर से शुरू हो गई, ‘उफ, समझ नहीं आ रहा कि क्या हो रहा है यहां, लोग खामखां मेरे पीछे पड़े हैं. सब लोग मिल कर मेरे अगेंस्ट कान्स्परेसी कर रहे हैं. लोग दोस्त बन कर पीठ में छुरा घोंपते हैं.’
अचानक वह पलटी और मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में दबाते हुए बड़ी राजदारी से बोली, ‘जानती हो, मेरे पति जनखे हैं.’
मन घिन से गनगना गया. मैं ने झटके से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, ‘शर्म करो, तुम्हारी बेटी है.’
वह हंस पड़ी, ’तो तुम ने मेरी बात का विश्वास कर लिया? सच में?’
‘चुप रहो, मुझे सोने दो.’ मैं ने करवट बदल ली मगर मेरी सारी इंद्रियां जागृत हो कर मेरी पीठ में समा गई थीं. डर, क्षोभ, गुस्से, घृणा से मेरे आंसू निकल आए. यह तो पक्का था कि उस की दिमागी हालत ठीक नहीं थी. सीत्जोफ्रेनिया…ओह कहीं यह सीत्जोफ्रेनिक तो नहीं है. ऐसे मरीजों के बारे में पढ़ी, सुनी और तमाम फिल्मों में देखी घटनाएं याद आ गईं. डर से हाथपांव ठंडे पडऩे लगे.
मैं ने फैसला कर लिया कि मैं कल ही वापस अपने घर चली जाऊंगी. चाहे कितने ही यूरो का नुकसान क्यों न हो, चाहे प्लेन से तुरंत का किराया दे कर जाना पड़े, पर मैं हरगिज यहां नहीं रुकूंगी. भाड़ में जाए बर्लिन. दिल कर रहा था भाग कर अनुराग की बांहों में समा जाऊं. ओह अनुराग, क्यों भेज दिया तुम ने इस पागल औरत के पास. मन में आया कि इस के पति से बात कर उन्हें इस को किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाने को कहूं, मगर उस के पति भी मुझे असामान्य ही लगे, इसलिए चुप रही.
बाहर किचन से अभी भी खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. पुण्पा सो चुकी थी. तमाम थकान के बावजूद मैं सो नहीं पा रही थी. अनुराग बेतरह याद आ रहे थे. जब भी आंख लगती, अजीबअजीब सपने दिखने लगते.
अचानक पुण्पा ने करवट बदली और बोली, ‘सब लोग मेरे पीछे पड़ गए हैं, मुझे बदनाम करने में लगे हैं.’
जब तक मैं ने उस की ओर देखा, वह फिर से सो चुकी थी. अब तक उस के पति भी काम कर के जा चुके थे. घर में सन्नाटा पसरा हुआ था. मैं नहीं चाहती थी कि पुण्पा की आवाज उस सन्नाटे को तोड़े. पता नहीं कितनी मुद्दत के बाद अनुराग को अपने मनप्राणों के इतना करीब महसूस किया था.
‘नींद अच्छी आई?’ चौंक कर आंखें खुल गईं. सुबह होनी ही शुरू हुई थी. डर कर पुण्पा की तरफ देखा. वह लेटी थी, पर बिलकुल तरोताजा लग रही थी. ‘मैं कुछ भी खाऊं, मैं मायोनीज खाऊं, भिंडी खाऊं, टैक्सी में जाऊं न जाऊं किसी को क्या? डा. गुप्ता…’ मैं तड़प कर उठ बैठी. पुण्पा का बड़बड़ाना मेरी बरदाश्त के बाहर हो रहा था.
‘भाड़ में जाने दो डा. गुप्ता को,’ मैं ने अपने स्वर को भरसक संयत करते हुए कहा, ‘वे हिंदुस्तान जा चुके हैं. इतने बड़े हिंदुस्तान में वे कहां और तुम कहां? अब कभी जिंदगी में वे तुम्हें नहीं मिलेंगे. फिर उन के नाम का शोर क्यों मचाए जा रही हो?’ वह भौचक्की सी मुझे देखे जा रही थी. ‘पुण्पा, मैं आज वापस चली जाऊंगी अपने घर,’ मैं ने उसे एक भी शब्द बोलने का मौका दिए बिना ही कहा.
‘‘क्यों? वह भी शायद मेरी इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से घबरा गई, बर्लिन…’
‘तुम्हारी मां बीमार हैं, तुम्हारे पति जल्दी आए हैं, तुम्हें कभी भी इंडिया जाना पड़ सकता है. तुम्हीं ने तो बताया था,’ न चाहते हुए भी मेरे स्वर में कड़वाहट घुलती जा रही थी.
‘ओह, हांहां,’ उस ने संभलने की कोशिश की, ‘मैं इंतजार कर रही हूं, भाई का फोन आने दो. शायद 3-4 दिनों में जाना पड़े.’
‘इसलिए बेहतर यही है कि मैं आज ही निकल जाऊं.’
‘तुम्हारा टिकट?’
‘मैं प्रीपोन करवा लूंगी और अपना बर्लिन का टिकट कैंसिल करवा लूंगी, तुम चाहे तो रख लेना अपना,’ मैं अपनी झुंझलाहट छिपा नहीं पा रही थी. मैं बिस्तर छोड़ चुकी थी, ‘जल्दी निकलती हूं, तुम तो शायद यूनिवर्सिटी जाओगी.’
‘नहीं, आज मेरी क्लास नहीं है. मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. ऐसा करते हैं, कुछ हैवी नाश्ता कर लेते हैं. तुम कोफ्ते बना लो, मैं परांठें सेंक लेती हूं.’
मेरा दिल कर रहा था, दीवार से सिर फोड़ लूं, ‘तुम क्यों परेशान होगी, मैं बाहर ही खा लूंगी.’
‘अरे, अतिथि को ऐसे थोड़े ही न जाने देंगे. मेरे हस्बैंड नाराज हो जाएंगे.’
मुझे लग गया कि छुटकारे का कोई रास्ता नहीं है. मैं ने महसूस किया था कि पुण्पा के पति का व्यवहार भी मेरे प्रति अच्छा नहीं था, लग रहा था कि पुण्पा की हर बात में उन की सहमति है. मैं ने जल्दी से फ्रिज में से गोभी निकाली और कद्दूकस करने लगी, पुण्पा, तुम नहा कर आओ, तब तक नाश्ता तैयार करती हूं.’
‘अरे, सांस तो लेने दो. ऐसा लग रहा है जैसे कि किसी जंगल में बैठी हो,’ उस के स्वर में शिकायत थी.
‘मैं आज की बुकिंग हर हाल में करवा लेना चाहती हूं,’ मैं उस की कोई बात नहीं सुन पा रही थी.
वह मेरे स्वर की दृढ़ता को भांप गई थी, जल्दी से बाथरूम में घुस गई. मेरे हाथ इतनी तेजी से चल रहे थे कि मुझे खुद हैरानी हो रही थी. जब तक पुण्पा नहा कर निकली, मैं नाश्ता बना कर अपनी चीजें समेट चुकी थी.
‘अरे वाह, तुम तो बिलकुल तैयार हो.’
‘हां, चलो नाश्ता कर लें.’
नाश्ते के बाद पुण्पावती ने टेबल पर रखे लिफाफे की ओर इशारा किया, ‘सुधा, वह अपना पैकेट भी ले जाना.’
‘नहीं, पहले ही बहुत वजन हो गया है, इसे यहीं छोड़ देती हूं.’
‘क्यों, मैं क्या करूंगी इन का?’ पुष्पा के तेवर फिर बदल गए. वह बड़बड़ाती हुई दूसरे कमरे से एक बड़ा सा लिफाफा ले आई. उस में मेरे लाए हुए चावल, चायपत्ती वगैरह थीं. उस ने उसे करीबकरीब मेरे सामने पटकते हुए कहा, ‘इन्हें भी ले जाओ, अगर छोड़ोगी तो कूड़ेदान में फेंक दूंगी.’
गुस्से से मेरा शरीर जलने लगा, ‘तो फेंक दो, मैं तुम्हारे लिए लाई थी, अब तुम्हारा जो जी चाहे करो.’
‘आलोक हम जा रहे हैं,’ उस ने कहा और अपना बैग उठा लिया. दरवाजे के पास आ कर वह मुझ से बोली, ‘सुधा, वह लिफाफा उठा लो, प्लीज. मुझे तो सर्वाइकल है. डाक्टर ने एक किलो से ज्यादा सामान उठाने से मना किया है.’
आने के बाद से यह बात मैं न जाने कितनी बार सुन चुकी थी. मैं ने लिफाफा उठाया और उस के पीछे चल दी.
‘अब क्या करना है इस का?’
‘आगे डस्टबिन है, उस में फेंक देंगे,’ उस ने बेहद ठंडे स्वर में कहा. दिल में धक्का सा लगा. इतने महंगे बासमती चावल, दार्जिलिंग चायपत्ती, घर का कुटा गरममसाला आदि सब को यह पगली डस्टबिन में फेंक देगी. यदि पता होता तो बुदापैश्त में ही किसी को उपहारस्वरूप दे देती. पाने वाला कितना खुश होता. पर अब इस की बातें सुन कर हाथों में जान ही नहीं महसूस हो रही थी. अपमान की आग अंदर धधक रही थी. पर यह नहीं कह पा रही थी कि इसे वापस ले जाती हूं. आगे ही डस्टबिन था. पुण्पा रुक कर मेरी ओर देखने लगी. मैं ने डस्टबिन के पास ही लिफाफा रख दिया और पुण्पा के आगेआगे चलने लगी. मैट्रो में भी भीड़ का बहाना कर मैं ने पुण्पा से दूरी बनाए रखी. मेरा उस की शक्ल तक देखने का मन नहीं कर रहा था. स्टेशन जा कर मैं ने बर्लिन और बुदापैश्त के पुराने टिकट कैंसिल करवाए और बिना हिसाब पूछे आज की वापसी बुकिंग कराने के लिए अपना डैबिट कार्ड आगे कर दिया. टिकट हाथ में लेते ही सुकून की ठंडी लहर दिल में दौड़ गई. पुष्पा से शिकायत भी कुछकुछ दूर हो गई.
ट्रेन में देरी थी. घर के घुटनभरे माहौल में जाने का मन नहीं था, ‘पुण्पा, तुम घर जाओ, मैं थोड़ी देर यहीं मौल में घूमूंगी.’
‘नहीं, आज तो तुम चली ही जाओगी. मैं तुम्हारे साथ ही टाइम बिताऊंगी.’
खीझ गया मन, पता नहीं यह प्यार था या निगरानी. मन को तसल्ली दी, चलो कुछ देर की बात और है, फिर तो इस बला से छुटकारा मिल ही जाएगा. पुण्पावती जो पिछले एक साल में स्काइप पर बात करकर के मेरी बहुत अच्छी दोस्त बन गई थी, अब नितांत ही अजनबीअपरिचित लग रही थी.
शाम तक मौल में टहलती रही पुण्पावती ने बात करने की बहुत कोशिश की मगर गिफ्ट फेंकने के बाद मेरा मन उस से बिलकुल हट चुका था. डर भी लग रहा था कि न जाने किस बात पर क्या बोल दे. मैं ने अंदाज लगाया कि अब घर से केवल सामान उठाने भर का वक्त बचा है. घर आ कर पुण्पावती ने कहा, ‘कुछ खा लो.’
‘नहीं, बहुत खा लिया.’
‘मगर…’
‘प्लीज पुण्पावती.’
“पासपोर्ट प्लीज,” बाहर कोई नौक कर रहा था.
हड़बड़ा गई. दरवाजा खोला. अरे, ट्रेन किसी दूसरे देश के प्लेटफौर्म पर रुकी थी. जल्दी से पासपोर्ट, टिकट उसे दिया.
पुण्पा से छुटकारे का एहसास इतना सुखद था कि यह भी नहीं पूछा कि ट्रेन कहां रुकी है. थैंक्स कह कर टीटी पासपोर्ट आदि वापस कर चला गया.
ओह, अब तो मैं ट्रेन में हूं, मुझे उस के बारे में सोचने की कोई जरूरत नहीं है. कुछ देर बाद मैं अनु यानी अपने अनुराग के पास होऊंगी. ओह, मैं ने केबिन की अलमारी से निकाल कर केक खाया और पानी पी कर बर्थ पर लेट गई. कंफर्टर को ऊपर तक खींच लिया. केबिन अनु की खुशबू से भरता जा रहा था.