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उलझे धागे : दामिनी के गले की फांस क्या चीज बन रही थी ? – भाग 3

‘‘मैं नौकरी कर रही हूं और सिद्ध भी. मांजी को भी पैसे की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है लेकिन तुम्हें अपना जीवन चलाने के लिए कोई ठोस आधार होना चाहिए कि नहीं. मेरे और सिद्ध के रहते विनय चाह कर भी तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पाया. सही माने में इन पैसों की आज सब से ज्यादा जरूरत तुम्हें ही है,’’ दामिनी ने शैली के कंधे पर स्नेह से हाथ रखा.

‘‘दामिनी, जब तुम्हें विनय से कुछ भी नहीं चाहिए था तो फिर तुम ने उसे तलाक दे कर हमें आजाद क्यों नहीं कर दिया? यदि तुम ऐसा कर देतीं तो आज मैं विनय की ब्याहता होती,’’ शैली ने शिकायत की.

‘‘तुम्हारा सवाल बिलकुल वाजिब है लेकिन मेरी अपनी वजह भी अपनी जगह सही है. दरअसल, जब मैं ने विनय का घर छोड़ा था उस समय मैं तुम दोनों के प्रति नफरत और गुस्से से भरी हुई थी. ‘मैं खुश नहीं हूं तो क्या, चैन से तुम्हें भी नहीं रहने दूंगी,’ की भावना मेरे भीतर उबाल मार रही थी, इसलिए मैं ने तुम दोनों को आजाद नहीं किया. फिर जब मैं ने तुम दोनों के रिश्ते को अलग नजर से देखना शुरू किया तब तक सिद्ध भी रिश्तों को सम  झने लगा था. उसे विनय से ‘पापा’ वाला लगाव हो चुका था.

‘‘मैं विनय को तो छोड़ सकती थी लेकिन सिद्ध से उस के पापा को नहीं छीन सकती थी. बस, इसीलिए मैं तुम लोगों से दूर रह कर भी तुम्हारी जिंदगी में बनी रही. खैर, अब छोड़ो इन पुरानी बातों को. तुम अपना बैंक डिटेल मु  झे दे दो ताकि मैं ये पैसे ट्रांसफर कर सकूं.’’ दामिनी ने एक गहरी सांस छोड़ कर अपनी बात खत्म की.

दामिनी रिश्तों के उल  झे हुए धागों को सुल  झाने की कोशिश कर रही थी लेकिन रिश्तों के समीकरण भी कभी एक फौर्मूले से हल हुए हैं, भला. शैली चुपचाप अपनी बैंक पासबुक लेने भीतर चली गई.

हायटस हर्निया की बीमारी का क्या इलाज संभव है ?

सवाल

मैं 57 वर्षीय पुरुष हूं. मुझे हायटस हर्निया है. बैठे बैठे और चलने पर मुझे सीने में दर्द उठता है. यह हायटस हर्निया क्यों होता है? इस का इलाज क्या है? कृपया मुझे बताइए.

जवाब

हमारे शरीर के अंदर सीने और पेट के बीच गुंबद की शक्ल की पेशी पाई जाती है, जिस का काम सांस लेने और छोड़ने में फेफड़ों की मदद करना है और सीने तथा पेट के अंगों को एकदूसरे से अलग रखते हुए शरीर के दोनों क्षेत्रों को हिस्सों में विभाजित करना है.

यह पेशी डायफ्राम या मध्यच्छद के नाम से जानी जाती है. इस पेशी में कुछ सामान्य छेद होते हैं, जिन से छाती के कुछ अंग नीचे पेट में उतर आगे बढ़ जाते हैं. जैसे छाती में मुंह से शुरू हुई खाने की नली पेट में उतर आमाशय में खुल जाती है. दिल से प्रकट हुई महाधमनी पेट में पहुंच अनेक उदरीय धमनियों को जन्म देती है और पेट के निचले भाग में पहुंच 2 श्रोणिफलक धमनियों में बंट श्रोणि के तमाम अंगों और बाद में जांघिक धमनी बन दोनों टांगों को रक्त पहुंचाती है.

कुछ लोगों में डायफ्राम में बना वह छेद, जिस से खाने की नली नीचे पेट में उतरती है, अधिक खुल जाता है और जरूरत से ज्यादा चौड़ा हो जाता है. नतीजतन आमाशय पेट से फुदक कर सीने में आ बैठता है. चूंकि सीने में इतनी जगह नहीं होती कि वह आमाशय को अपने अंदर बैठा सके, इसलिए आमाशय के ऊपर आने से सीने में दबाव महसूस होने लगता है. साथ ही, सीने में जलन महसूस हो सकती है, डकारें आ सकती हैं, पेट भराभरा रह सकता है. इस से भूख मर जाती है.

यह विकार ही हायटस हर्निया कहलाता है. अधिकांश मामलों में कुछ छोटीछोटी सावधानियां बरत कर और कुछ दवाएं ले कर हायटस हर्निया पर नियंत्रण पाया जा सकता है. भरपेट भोजन के बजाय थोड़ाथोड़ा खाने, भोजन करने के बाद लेटने से परहेज बरतने, मिर्चमसाले व तले भोजन और चायकौफी से परहेज रखने तथा डाक्टरी सलाह से ऐसिडरोधक दवाएं लेने से प्राय: यह नियंत्रण में आ जाता है. जिन कुछ लोगों को इन उपायों से आराम नहीं आता उन का औपरेशन करना पड़ सकता है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

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यह भूल मत करना : माधवी की शादी हुई या नहीं ? – भाग 3

‘‘क्या पता, क्यों? माधवी, मुझे लगता है युवावस्था का पहला प्रेम ही दोषी है इस के लिए. आज शायद मैं सतीश का चेहरा याद भी नहीं कर सकती.’’

‘‘फिर मौसाजी ने क्या कहा? आप ने क्या किया?’’

‘‘मैं ने उसी समय वह सबकुछ जला दिया था, मगर उस के बाद…’’ कहतेकहते मौसी फिर चुप हो गईं. जाने क्या था जो वे कह नहीं पा रही थीं.

‘‘मौसी, क्या हुआ उस के बाद?’’ मैं ने उन्हें टोका तो उन्होंने मेरा बाजू इतना कस कर दबाया कि मैं चीत्कार सी कर उठी. वे बोलीं, ‘‘उस के बाद आज 12 बरस हो गए माधवी,’’ कहतेकहते वे फिर चुप हो गईं.

‘‘बताइए न मौसीजी,’’ मैं ने फुसफुसा कर कहा तो वे हांफती सी बोलीं, ‘‘उस के बाद आज तक उन्होंने मुझे हाथ तक नहीं लगाया, माधवी. मैं पत्नी हो कर भी अब उन की पत्नी नहीं. मैं केवल शकुन, आरती और राजेश की मां हूं, बस,’’ कहतेकहते वे चुपचाप रोए जा रही थीं. आंखों में जाने कब से रोक रखा बांध टूट गया था. मैं अब उन्हें गोद में भर कर चुप करा रही थी.

जाने कब तक वे रोती रहीं, मुझे समय का पता ही न चला. मेरी साड़ी भिगो दी उन के आंसुओं ने. जब उन की सिसकियां रुकीं तो मैं ने उन का चेहरा ऊपर करते हुए कहा, ‘‘मौसी, मौसी, क्या मौसाजी आप को तंग करते हैं?’’ कहते हुए मैं सहम रही थी कि न जाने क्या उत्तर मिले.

‘‘नहीं माधवी, यही तो बात है जो मुझे मारे जाती है. वे सही माने में जैंटलमैन हैं. मेरे मन में कब से सतीश की जगह तुम्हारे मौसाजी ने ले ली थी, मगर मेरी एक नादानी ने हमारे बीच कठिनाई से पनपे प्रेम व विश्वास को तोड़ डाला. मैं कैसे विश्वास दिलाऊं उन्हें कि संदूक में पड़े पत्र बरसों से मैं ने देखे भी नहीं, पर हां, यह है तो मेरी ही भूल न? मैं ने भी तो 2 बरस यही किया था. मैं ने तो इन्हें निरपराध होने पर भी सजा दी थी. खैर, जाने दो. तुम ऐसी गलती न करना, माधवी. अगर आलोक तुम से प्रेम करता है और तुम उस से तो विवाह कर लो.’’

‘‘मुझे नहीं मालूम, मौसी,’’ मैं ने कहा.

‘‘परसों तुम्हारी बरात आ रही है. तुम क्या यह विश्वास करती हो कि आलोक भारत आने पर तुम से ही विवाह करेगा? अगर हां, तो रुको और यदि नहीं तो भूल जाओ. आजकल लडक़ेलड़कियों को मिलनेबोलने की स्वतंत्रता है, इसलिए इसे ‘प्रेम’ न समझ. अगर प्रेम है भी तो यह विवाह में ही परिणत होगा, इस की भी कोई गारंटी नहीं है न?’’

‘‘हां, मौसी, नहीं है,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘माधवी, जीवन बरबाद मत कर लेना, बस, सही कहूंगी. रातभर सोच लो. तुम चाहो तो मैं जापान फोन लगा कर आलोक से स्पष्ट बात करूं?’’

‘‘मैं सोचती हूं, मौसी,’’ मैं ने कहा.

मैं सोचने लगी कि कभी भी आलोक ने हमारे भविष्य को ले कर कोई बात न की थी. पत्नी, घर, विवाह आदि शब्द कभी हमारी बातचीत में आए ही नहीं, तब मैं कैसे कुछ पूछूं? मौसी क्या कहेंगी उस से, यही न, ‘आलोक, तुम हमारी माधवी से शादी करोगे क्या? वह तुम से प्रेम करती है.’ छि:छि:, ऐसे पूछ सकते हैं क्या? और मैं 2-3 बार लिख भी चुकी हूं कि मेरे मातापिता मेरे लिए वर ढूंढ़ रहे हैं, मुझे लड़के वाले देखने आए थे, मेरी सगाई हो गई है. उस का रुझन होता तो क्या वह कुछ न कहता.

अगर मैं अपने मातापिता से कह कर विवाह रुकवा दूं तो भी क्या निश्चित है कि कल आलोक मुझ से ही विवाह करेगा. यदि किसी को पता भी चल गया तो फिर मेरा विवाह तो कहीं भी न हो पाएगा. मातापिता का जो अपमान होगा, सो अलग.

यही सब सोचतेसोचते मेरी आंखें लग गईं. सुबह जब मैं उठी तो मैं ने फैसला कर लिया था. दोपहर को मौसी को बहाने से बुला कर मैं ने छत पर उन्हें धीरे से कागजों का एक पुलिंदा दिया और बोली, ‘‘मौसी, यह सब जला देना.’’

यह देखसुन कर मौसी ने मुझे सवालिया नजरों से देखा. मैं फिर बोली, ‘‘आप ठीक कहती हैं, मौसी, आप की भूल मैं न दोहराऊंगी.’’

‘‘हां, माधवी. और देखो, पहली रात या उस के बाद भी कभी भावना की रौ में बह कर अपने इस अल्हड़ एकतरफा प्रेम को स्वीकार न कर बैठना. कोई पति, पत्नी के अन्य प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकता, चाहे वह कितना ही सात्विक, निश्च्छल क्यों न रहा हो, समझं.’’

‘‘हां, मौसी,’’ मैं ने कहा और मौसी के साथ वहीं बैठ कर आलोक के पत्र, कार्ड और फोटो जलाने लगी.

फिर वही शून्य – भाग 3 : समर को सामने पा कर सौम्या का क्या हुआ ?

अलार्म की आवाज ने विचारों की शृंखला को तोड़ दिया. सारी रात सोचतेसोचते ही बीत गई थी. एक ठंडी सांस ले कर मैं उठ खड़ी हुई.

फिर 1 साल बाद ही भारत आना हुआ. इस बीच वीरां का विवाह भी हो चुका था. जब इस बात का पता चला तो मन में एक टीस सी उठी थी.

‘‘तुम्हारी पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाया है, वहां तो क्या खाती होगी तुम यह सब,’’ मम्मी मेरे आने से बहुत उत्साहित थीं.

‘‘वीरां कैसी है, मम्मी? वह अपने ससुराल में ठीक तो है न?’’

‘‘हां, वह भी आई है अभी मायके.’’

‘‘अच्छा, तो मैं जाऊंगी उस से मिलने,’’ मैं ने खुश हो कर कहा.

इस पर मम्मी कुछ खामोश हो गईं. फिर धीरे से बोलीं, ‘‘हम ने तुम से एक बात छिपाई थी. वीरां की शादी के कुछ दिन पहले ही समर रिहा किया गया था. उस का एक पांव बेकार हो चुका है. बैसाखियों के सहारे ही चल पाता है. अभी महीना भर पहले ही उस का भी विवाह हुआ है. तुम वहां जाओगी तो जाहिर है, अत्यंत असहज महसूस करोगी. बेहतर होगा किसी दिन वीरां को यहीं बुला लेना.’’

वज्रपात हुआ जैसे मुझ पर. नियति ने कैसा क्रूर मजाक किया था मेरे साथ. समर की रिहाई  हुई तो मेरी शादी के फौरन बाद. किस्मत के अलावा किसे दोष देती? समय मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल चुका था. अब हो भी क्या सकता था?

इसी उधेड़बुन में कई दिन निकल गए. पहले सोचा कि वीरां से बिना मिले ही वापस लौट जाऊंगी, लेकिन फिर लगा कि जो होना था, हो गया. उस के लिए, वीरां के साथ जो मेरा खूबसूरत रिश्ता था, उसे क्यों खत्म करूं? अजीब सी मनोदशा में मैं ने उस के घर का नंबर मिलाया.

‘‘हैलो,’’ दूसरी तरफ से वही आवाज सुनाई दी जिसे सुन कर मेरी धड़कनें बढ़ जाती थीं.

विधि की कैसी विडंबना थी कि जो मेरा सब से ज्यादा अपना था, आज वही पराया बन चुका था. मैं अपनी भावनाओं पर काबू न रख पाई. रुंधे गले से इतना ही बोल पाई, ‘‘मैं, सौम्या.’’

‘‘कैसी हो तुम?’’ समर का स्वर भी भीगा हुआ था.

‘‘ठीक हूं, और आप?’’

‘‘मैं भी बस, ठीक ही हूं.’’

‘‘वो…मुझे वीरां से बात करनी थी.’’

‘‘अभी तो वह घर पर नहीं है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मैं रिसीवर रखने लगी कि समर बोल उठा, ‘‘रुको, सौम्या, मैं…मैं कुछ कहना चाहता हूं. जानता हूं कि मेरा अब कोई हक नहीं, लेकिन क्या आज एक बार और तुम मुझ से शाम को उसी काफी शाप पर मिलोगी, जहां मैं तुम्हें ले जाता था?’’

एक बार लगा कि कह दूं, हक तो तुम्हारा अब भी इतना है कि बुलाओगे तो सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आ जाऊंगी, लेकिन यह सच कहां था? अब दोनों के जीवन की दिशा बदल गई थी. अग्नि के समक्ष जिस मर्यादा का पालन करने का वचन दिया था उसे तो पूरा करना ही था.

‘‘अब किस हैसियत से मिलूं मैं आप से? हम दोनों शादीशुदा हैं और आप की नजरों का सामना करने का साहस नहीं है मुझ में. किसी और से शादी कर के मैं ने आप को धोखा दिया है. नहीं, आप की आंखों में अपने लिए घृणा और वितृष्णा का भाव नहीं देख सकती मैं.’’

‘‘फिर ऐसा धोखा तो मैं ने भी तुम्हें दिया है. सौम्या, जो कुछ भी हुआ, हालात के चलते. इस में किसी का भी दोष नहीं है. मैं तुम से कभी भी नफरत नहीं कर सकता. मेरे दिल पर जैसे बहुत बड़ा बोझ है. तुम से बात कर के खुद को हलका करना चाहता हूं बाकी जैसा तुम ठीक समझो.’’

मैं जानती थी कि मैं उसे इनकार नहीं कर सकती थी. ?एक बार तो मुझे उस से मिलना ही था. मैं ने समर से कह दिया कि मैं उस से 6 बजे मिलने आऊंगी.

शाम को मैं साढे़ 5 बजे ही काफी शाप पर पहुंच गई, लेकिन समर वहां पहले से ही मौजूद था. जब उस ने मेरी ओर देखा, तो उठ कर खड़ा हो गया. उफ, क्या हालत हो गई थी उस की. जेल में मिली यातनाओं ने कितना अशक्त कर दिया था उसे और उस का बायां पैर…बड़ी मुश्किल से बैसाखियों के सहारे खड़ा था वह. कभी सोचा भी न था कि उसे इन हालात में देखना पडे़गा.

हम दोनों की ही आंखों में नमी थी. बैरा काफी दे कर चला गया था.

‘‘वीरां कैसी है?’’ मैं ने ही शुरुआत की.

‘‘अच्छी है,’’ एक गहरी सांस ले कर समर बोला, ‘‘वह खुद को तुम्हारा गुनाहगार मानती है. कहती है कि अगर उस ने जोर न दिया होता तो शायद आज तुम मेरी…’’

मैं निगाह नीची किए चुपचाप बैठी रही.

‘‘गुनाहगार तो मैं भी हूं तुम्हारा,’’ वह कहता रहा, ‘‘तुम्हें सपने दिखा कर उन्हें पूरा न कर सका, लेकिन शायद यही हमारी किस्मत में था. पकड़े जाने पर मुझे भयंकर अमानवीय यातनाएं दी जातीं. अगर हिम्मत हार जाता, तो दम ही तोड़ देता, लेकिन तुम से मिलन की आस ही मुझे उन कठिन परिस्थितियों में हौसला देती. एक बार भागने की कोशिश भी की, लेकिन पकड़ा गया. फिर एक दिन सुना कि दोनों तरफ की सरकारों में संधि हो गई है जिस के तहत युद्धबंदियों को रिहा किया जाएगा.

‘‘मैं बहुत खुश था कि अब तुम से आ कर मिलूंगा और हम नए सिरे से जीवन की शुरुआत करेंगे. जब यहां आ कर पता चला कि तुम्हारी शादी हो चुकी है, तो मेरी हताशा का कोई अंत न था. फिर वीरां भी शादी कर के चली गई. जेल में मिली यातनाओं ने मुझे अपंग कर दिया था. मैं ने खुद को गहन निराशा और अवसाद से घिरा पाया. मेरे व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगा था. जराजरा सी बात पर क्रोध आता. अपना अस्तित्व बेमानी लगने लगा था.

‘‘उन्हीं दिनों नेहा से मुलाकात हुई. उस ने मुझे बहुत संबल दिया और जीवन को फिर एक सकारात्मक दिशा मिल गई. मेरा खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था. मैं तुम्हें तो खो चुका था, अब उसे नहीं खोना चाहता था. तुम मेरे दिल के एक कोने में आज भी हो, मगर नेहा ही मेरे वर्तमान का सच है…’’

मैं सोचने लगी कि एक पुरुष के लिए कितना आसान होता है अतीत को पीछे ढकेल कर जिंदगी में आगे बढ़ जाना. फिर खुद पर ही शर्मिंदगी हुई. अगर समर मेरी याद में बैरागी बन कर रहता, तब खुश होती क्या मैं?

‘‘…बस, तुम्हारी फिक्र रहती थी, पर तुम अपने घरसंसार में सुखी हो, यह जान कर मैं सुकून से जी पाऊंगा,’’ समर कह रहा था.

‘‘मुझे खुशी है कि तुम्हें ऐसा साथी मिला है जिस के साथ तुम संतुष्ट हो,’’ मैं ने सहजता से कहने की कोशिश की, ‘‘दिल पर कोई बोझ मत रखो और वीरां से कहना, मुझ से आ कर मिले. अब चलती हूं, देर हो गई है,’’ बिना उस की तरफ देखे मैं उठ कर बाहर आ गई.

जिन भावनाओं को अंदर बड़ी मुश्किल से दबा रखा था, वे बाहर पूरी तीव्रता से उमड़ आईं. यह सोच कर ही कि अब दोबारा कभी समर से मुलाकात नहीं होगी, मेरा दिल बैठने लगा. अपने अंदर चल रहे इस तूफान से जद्दोजहद करती मैं तेज कदमों से चलती रही.

तभी पर्स में रखे मोबाइल की घंटी बज उठी. अनिरुद्ध का स्वर उभरा, ‘‘मैं तो अभी से तुम्हें मिस कर रहा हूं. कब वापस आओगी तुम?’’

‘‘जल्दी ही आ जाऊंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा. सौम्या, वह बात कहो न.’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘वही, जिसे सुनना मुझे अच्छा लगता है.’’

मैं ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ कर कहा, ‘‘मैं आप से बहुत प्यार करती हूं,’’ जेहन में समर का चेहरा कौंधा और आंखों में कैद आंसू स्वतंत्र हो कर चेहरे पर ढुलक आए. जीवन में फिर वही शून्य उभर आया था.

दोस्त अजनबी : आखिर क्या हुआ था सुधा और पुण्पावती के बीच ? – भाग 3

‘तुम्हारा ट्रिप कैसा रहा?’

‘बहुत अच्छा,’ अभी मैं आगे बताने ही जा रही थी कि पुण्पा ने पूछा, ‘तुम ने मेरे हस्बैंड कीह अलमारी तो नहीं खोली थी?’

‘क्याऽऽ…’ मैं इस अप्रत्याशित प्रश्न पर यकीन नहीं कर पा रही थी.

‘मेरे हस्बैंड की कोई एक चीज भी छू ले तो इन्हें तुरंत पता चल जाता है. जानती हो, हमारे यहां भारत में 200 गमले हैं. यदि कोई एक फूल भी तोड़ ले तो इन्हें तुरंत पता चल जाता है,’’ पुष्पा बोलती ही जा रही थी. मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था. मैं कुछ क्षण के लिए अवाक ही खड़ी रह गई.

‘मगर मैं तुम्हारे हस्बैंड की अलमारी क्यों छूने लगी. मैं तो तुम्हारे साथ ही थी,’ किसी तरह मेरे मुंह से आवाज निकली.

‘यों ही पूछा, मेरे हस्बैंड कह रहे थे कि लगता है किसी ने मेरी अलमारी को हाथ लगाया है. उन्हें गलतफहमी हुई होगी.’

‘हो सकता है, मुझे नहीं मालूम.’  मैं ने यह कह तो दिया, मगर उस के बाद पुण्पा की दी हुई चाय जैसे कुनेन घोल कर बनाई हुई लगी.

‘तुम जानती हो, किसी ने मेरे घर की तलाशी ली है.’

‘थैंक गौड, मैं तो चली गर्ई थी,’ मैं ने राहत की सांस लेते हुए कहा. मगर मुझे माहौल में घुटन सी महसूस होने लगी.

‘पता नहीं. लोग दोस्त बन कर पीठ में खंजर भूंकते हैं,’ पुण्पा बोलती जा रही थी. मुझे लगा यह पुण्पा का असली चेहरा था या ट्रिप पर जाने से पहले वाली पुण्पा असली थी.

‘मुझे तो लोग चोर समझते हैं, मैं तो चोर हूं. बाप रे बाप.’ पुण्पा पर जैसे दौरा सा पड़ गया था. मैं घबरा गई. उस के पति दूसरे कमरे थे. समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें बुलाऊं या नहीं. सुन तो वे भी रहे होंगे. मैं चुपचाप पत्थर बनी बैठी रही. उस के पति का एटिट्यूट भी मुझे कुछ अजीब सा ही लगा.

मुझे टैंशन होते ही कमजोरी लगने लगती है. इस समय वैसा ही लग रहा था. मैं अभी पुण्पा की बात को समझने की कोशिश कर ही रही थी कि उस ने कहा, ‘ऐसा करते हैं कि इस समय मैं भिंडीआलू बनाती हूं और तुम मटरमशरूम बना दो.’

वह अचानक इस तरह सामान्य लहजे में बोली कि एक झटके में तो मुझे समझ ही नहीं आया कि चोरी का इलजाम लगातेलगाते वह अचानक खाने की बात पर कैसे आ गई. यों तो मैं मानसिक रूप से काम करने के लिए तैयार थी क्योंकि मैं कभी भी किसी पर बोझ बन कर नहीं रहती हूं. मगर पुण्पा की बेसिरपैर की बातों ने मेरी सोचनेसमझने की ताकत छीन ली थी, शरीर को जैसे काठ मार गया था. वैसे भी, मेरे आने के दिन से पुण्पा मुझे बारबार बता रही थी कि वह सर्वाइकल की मरीज है, इसलिए वह कोई काम नहीं कर सकती. उस के घर की अस्तव्यस्तता और गंदगी देख कर मैं खुद भी यह अनुमान लगा चुकी थी कि वाकई 2 महीने पहले उस के पति ने भारत लौटने से पहले ही घर साफ किया होगा.

पति के जाने के बाद शायद ही उस के घर में वैक्यूम क्लीनर का इस्तेमाल हुआ होगा. हालांकि यूरोप में भारत की तरह धूल मिटटी के अभाव में रोज सफाई की जरूरत तो नहीं पड़ती थी. ‘मैं तो सलाद या दलिया ही खाती हूं, वह भी एक बार बना कर दोनों समय खा लेती हूं,’ पुष्पा ने स्काइप पर भी ये बातें बताई थीं. जिस दिन मैं उस के घर पहुंची थी उस दिन जरूर उस ने बढिय़ा नाश्ता कराया था, उस के बाद से तो खाना बनाना क्या, बरतन मांजने का काम भी मैं ने अपने ऊपर ले लिया था.

मगर इस समय 2 सब्जियां, दाल, चावल और रोटी बनाने का न तो मेरा मूड ही था न ही बाद में बरतन मांजने की ताकत.

‘रहने दो. केवल मगटर वाले चावल ही बना लेते हैं,’ मैं ने धीरे से कहा.

‘अरे, ऐसा कैसे हो सकता है, मैं और आलोक ‘अतिथि देवो भव’ पर विश्वास करते हैं. तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है. तुम केवल मटरमशरूम बना दो. बाकी खाना तो आलोक बना देंगे.’

मुझे मालूम था यह केवल कहने की बात है. बनाना तो मुझे ही पड़ेगा.

‘आलोक, भिंडी काट दो,’ कह कर वह भिंडी ले कर आलोक के कमरे में चली गई. मशरूम और मटर मेरे सामने रख दिया. तुम बनाओ, मैं भी सीखूंगी.

मुझे इस समय अनुराग बेइंतहा याद आ रहे थे. मन कर रहा था उन के कंधे पर सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगूं. ‘क्यों भेजा तुम ने मुझे यहां, मना नहीं कर सकते थे…’ मगर अब कुछ नहीं किया जा सकता था. पुण्पा वापस आ कर मेरे सामने बैठ गई और मैं मशरूम साफ करने लगी.

‘जानती हो, भारत से जो दूसरे प्रोफैसर आए थे उन्हें मेरे साथ क्याक्या किया?’

मैं मन ही मन डर गई, पता नहीं किस के माध्यम से मुझे क्या सुनाने लगे. मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. प्रो. गुप्ता, जो भारत से यहां पौलिटिकल साइंस के विजिटिंग प्रोफैसर बन कर आए थे, इसी बिल्डिंग में रहते थे, उन से पुष्पा के संबंध अच्छे नहीं थे. यह अनुमान तो उस की बातों से पहले ही लगा चुकी थी. पर अब पुण्पा की मानसिकता जानने के बाद मुझे प्रो. गुप्ता से सहानुभूति होने लगी थी.

‘मुझे यह पता नहीं था कि विदेश में आ कर मुझे यह सब सहना पड़ेगा. पता नहीं मेरे अगेंस्ट कांस्परेसी क्यों कर रहे हैं…’ पुण्पा बड़बड़ा रही थी.

गुस्से और थकान के बावजूद मुझे हंसी आ गई, ‘क्यों, तुम ऐसी क्या चीज हो जो सारी दुनिया तुम्हारे खिलाफ कांस्परेसी करेगी भला?’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल तो गया पर मैं डर गर्ई कि अब वह प्रोफैसर गुप्ता को छोड़ कर मेरे पीछे न पड़ जाए. पर वह अपनी धुन में मगन बोलती ही जा रही थी, ‘जानती हो, उन की वाइफ आ रही थीं तो मैं ने कहा मेरे लिए एक किलो चावल और थोड़ी सी चायपत्ती लेती आएं.’

मेरे कान खड़े हो गए क्योंकि और चीजों के साथ मैं ये दोनों चीजें भी साफ लाई थी, पुण्पा को भेंट करने. परदेश में भारतीय आटाचावलमसाले जैसी चीजें कैसी अनमोल उपहार होती हैं, यह वही समझ सकता है जो देश के बाहर इन चीजों के लिए तरसा हो.

‘जानती हो, मैं ने पैसे दिए तो उन्होंने नहीं लिए. मगर सारी जगह मेरी बदनामी कर गए. मुझे लालची बताया.’

मैं चुपचाप सुनती रही और अपने काम में लगी रही. मुझे लग रहा था कि यह सिर्फ उस के मन का वहम होगा. ‘तुम्हें कैसे पता?’ आखिर रहा न गया, तो पूछ ही बैठी.

‘पता कैसे नहीं?’ पुण्पा नाराज हो गई, ‘मुझे लोगों ने बताया कि पूरी इंडियन कम्यूनिटी में हमारी बदनामी हो रही है. भला मैं ने ऐसा क्या किया था?’  उस ने खुद ही प्रश्न पूछा. कोई उत्तर न पा कर मेरी तरफ मुखातिब हुई, ‘सुनो, तुम जो चावलवावल लाई हो न, उन्हें भी नहीं रखूंगी. तुम इन्हें वापस ले जाना.’ अब वह असली बात पर आ गई थी.

‘अरे, ऐसा भी कहीं होता है क्या? तुम ने थोड़े ही मंगाया था, वह तो मैं खुद लाई थी. अब मैं उन का क्या करूंगी?’ जब उस ने बात शुरू की थी तभी मैं ने अनुमान लगा लिया था कि बात मेरे उपहारों तक जरूर आएगी.

‘पर वापस ले जाना, मैं नहीं रखूंगी,’ पुण्पा ने ऐलान कर दिया था.

उस से बहस करना बेकार था. उपहार वापस ले जाने की कल्पना अजीब सी लगी, साथ में इतना बोझा वापस ढोना भी मुश्किल था. आते समय मैं यह सोच कर निश्चिंत थी कि वापसी पर कम से कम चावलों का बोझ नहीं होगा. इधर मामामामी ने भी ढेर सारी चीजें लाद दी थीं. उन में रास्ते के लिए जूस की बोतलें पानी और केक वगैरह के पैकेट्स भी थे. उन पैकेटों को मैं ने ड्राइंग टेबल पर यह सोच कर रख दिया था कि इसे यहां अगले 2 दिनों में खापी लेंगे, नहीं तो छोड़ जाऊंगी. मैं चुप रही.

‘लोग सोचते हैं, मैं बड़ी लालची हूं. तुम बताओ अगर तुम्हारे साथ ऐसा हुआ होता तो क्या तुम ऐसे चीजें रखतीं?’

मैं चुपचाप सब्जी चलाती रही.

‘सब्जी बनने वाली है,’ मैं ने बात बदलने की गर्ज से कहा.

‘ओह, मैं तो भूल ही गई. ऐसा करो दूसरी सब्जी भी चढ़ा दो, भिंडी कट गई होगी, मैं लाती हूं. तुम बस तेल, जीरा डाल कर छौंक दो. तब तक मैं आटा निकाल दूंगी. मेरे से तो आटा मंढ़ता नहीं, हस्बैंड से कहूंगी, मांढ देंगे.’

‘नहीं, मैं ही मांढ़ दूंगी,’ मैं ने मन मार कर कहा.

‘ओहो, तुम क्या सोचोगी कि तुम्हें काम करने के लिए ही बुलाया है. तुम तो देख ही रही हो, मेरा तो हाथ ही नहीं चलता. चलो, रोटी तो मैं ही सेंक दूंगी. बस, तुम बेल देना.’

मेरे होंठों पर बरबस मुसकान आ गई. मुश्किल से उसे रोक कर कहा, ‘अरे, उतना ही टाइम लगता है. मैं बेल भी लूंगी और सेंक भी लूंगी.’

‘नहीं भाई, मैं अब मेहमान से इतना काम भी तो नहीं करवा सकती न, रोटी तो मैं ही सेंकूंगी. फिर बरतन मांजने में भी मेरे हाथ अकड़ जाते हैं. वे तो मेरे हस्बैंड मांज देंगे.’

‘जानती हो, जब पिछली बार मैं इंडियन एसोसिएशन के कार्यक्रम में गई थी तो जो कुछ भी पार्टी में बचा था उस में से खूब चीजें भर लाई थी. मैं सोच रही थी ये लोग मुझे लालची समझते हैं तो दिखा ही देती हूं कि मैं कितनी लालची हूं.’ मैं चुपचाप सुनती रही. ‘और जानती हो मैं ने क्या किया, मैं ने वे सारी चीजें डस्टबिन में फेंक दीं.

‘मुझे लालची समझते हो न. तो देखो, मैं सचमुच लालची हूं.’

पुण्पा की अनर्गल बातें मेरे थके दिमाग को जकड़ती जा रही थीं. हाथ मशीन की तरह चल रहे थे. खाना तैयार था. पुण्पा ने प्लेट लगा कर आलोक को खाना कमरे में ही दे दिया. हम खाना खाने बैठे, मेरी भूख मर चुकी थी.

‘मटरमशरूम बहुत अच्छे बने हैं,’ पुण्पा ने कहा. मेरा न मुसकराने का मन किया न थैंक्स कहने का. ‘सुनो, मटरमशरूम कैसे बने हैं? सुधा ने बनाए हैं.’ उस ने वहीं बैठेबैठे अपने पति से पूछा.

‘ठीक हैं,’ आलोक का संक्षिप्त सा उत्तर आया.

‘चलो आलोक को अच्छे लगे,’ उस के चेहरे पर संतुष्टि आई, ‘ऐसा करना कल कोफ्ते बना देना, इन्हें अच्छे लगे तो इन्हें भी सिखा देना.’ मेरे दिल की सारी जलन जरूर मेरी आंखों में उतर आई होगी. मैं रोटी को अच्छी तरह चबाने की कोशिश करने लगी.

‘बाप रे बाप, कैसेकैसे लोग होते हैं…’ वह फिर बड़बड़ाने लगी, ‘मैं तो चोर हूं, लालची हूं.’

‘‘ओप्फ, इनफ इज इनफ, पुण्पा. तुम्हारी तो सूई जैसे वहीं अटक गई है,’ मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था.

वह भी अचकचा गई, फिर संभली, ‘नहींनहीं, तुम्हें नहीं मालूम, मेरे घर की तलाशी ली गई है.’

‘किसने ली तुम्हारे घर की तलाशी? मैं ने?’ मुझे लग रहा था जैसे इस औरत के साथ मैं खुद भी पागल हो जाऊंगी.

पुण्पा को इस सीधे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी. वह लडख़ड़ाई, ‘मैं ने तुम्हें तो कुछ नहीं कहा.’

‘तो तुम ये सब बातें मुझे क्यों सुना रही हो?’ चाहते हुए भी मैं अपनी आवाज सामान्य नहीं कर पा रही थी. पुण्पा हड़बड़ा गई थी. मैं ने स्वयं पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते हुए कहा, ‘देखो पुण्पा, तुम मुझे अच्छी लगीं. हम करीब एक साल तक स्काइप पर बातें करते रहे. अगर मुझे तुम पर विश्वास न होता या तुम अच्छी न लगतीं तो क्या मैं परदेश में अकेली ऐसे ही तुम्हारे घर चली आती? दुनिया तुम्हें क्या समझती है, इस से मेरा कोई लेनादेना नहीं है.’ और जैसेतैसे रोटी निगल कर मैं उठ खड़ी हुई.

‘अरे, ठीक से तो खाओ.,’

मेरी बात का शायद उस पर, फौरीतौर पर ही सही, असर हुआ लग रहा था.

‘बस हो गया,’ मैं ने अपनी प्लेट धो कर रख दी, और कुछ करने की हिम्मत नहीं थी.

‘सुनो, आज तुम मेरे पास ही सोना.’

‘तुम्हारे हस्बैंड?’

‘वे बैठक में सो जाएंगे.’

अटपटा लगा. कुछ कहने जा रही थी कि याद आया, मेरे घर की तलाशी हुई है…तो क्या… इस के आगे दिमाग ने सोचने से भी इनकार कर दिया. धप्प से कुरसी पर ढह गई. अब तक पुण्पा भी खा चुकी थी. हाथ धो कर उस ने पति को आवाज लगाई, ‘आलोक, बरतन देख लेना, प्लीज. और मुझे ले कर बैडरूम में आ गई. मैं अपने को खुद की निगाह में ही गिरा हुआ महसूस कर रही थी. यंत्रचलित सी पुण्पा के पीछे आ कर बैड पर लेट गई.

पुष्पा मेरी बगल में लेटी थी. अचानक उस की बड़बड़ाहट फिर से शुरू हो गई, ‘उफ, समझ नहीं आ रहा कि क्या हो रहा है यहां, लोग खामखां मेरे पीछे पड़े हैं. सब लोग मिल कर मेरे अगेंस्ट कान्स्परेसी कर रहे हैं. लोग दोस्त बन कर पीठ में छुरा घोंपते हैं.’

अचानक वह पलटी और मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में दबाते हुए बड़ी राजदारी से बोली, ‘जानती हो, मेरे पति जनखे हैं.’

मन घिन से गनगना गया. मैं ने झटके से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, ‘शर्म करो, तुम्हारी बेटी है.’

वह हंस पड़ी, ’तो तुम ने मेरी बात का विश्वास कर लिया? सच में?’

‘चुप रहो, मुझे सोने दो.’ मैं ने करवट बदल ली मगर मेरी सारी इंद्रियां जागृत हो कर मेरी पीठ में समा गई थीं. डर, क्षोभ, गुस्से, घृणा से मेरे आंसू निकल आए. यह तो पक्का था कि उस की दिमागी हालत ठीक नहीं थी. सीत्जोफ्रेनिया…ओह कहीं यह सीत्जोफ्रेनिक तो नहीं है. ऐसे मरीजों के बारे में पढ़ी, सुनी और तमाम फिल्मों में देखी घटनाएं याद आ गईं. डर से हाथपांव ठंडे पडऩे लगे.

मैं ने फैसला कर लिया कि मैं कल ही वापस अपने घर चली जाऊंगी. चाहे कितने ही यूरो का नुकसान क्यों न हो, चाहे प्लेन से तुरंत का किराया दे कर जाना पड़े, पर मैं हरगिज यहां नहीं रुकूंगी. भाड़ में जाए बर्लिन. दिल कर रहा था भाग कर अनुराग की बांहों में समा जाऊं. ओह अनुराग, क्यों भेज दिया तुम ने इस पागल औरत के पास. मन में आया कि इस के पति से बात कर उन्हें इस को किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाने को कहूं, मगर उस के पति भी मुझे असामान्य ही लगे, इसलिए चुप रही.

बाहर किचन से अभी भी खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. पुण्पा सो चुकी थी. तमाम थकान के बावजूद मैं सो नहीं पा रही थी. अनुराग बेतरह याद आ रहे थे. जब भी आंख लगती, अजीबअजीब सपने दिखने लगते.

अचानक पुण्पा ने करवट बदली और बोली, ‘सब लोग मेरे पीछे पड़ गए हैं, मुझे बदनाम करने में लगे हैं.’

जब तक मैं ने उस की ओर देखा, वह फिर से सो चुकी थी. अब तक उस के पति भी काम कर के जा चुके थे. घर में सन्नाटा पसरा हुआ था. मैं नहीं चाहती थी कि पुण्पा की आवाज उस सन्नाटे को तोड़े. पता नहीं कितनी मुद्दत के बाद अनुराग को अपने मनप्राणों के इतना करीब महसूस किया था.

‘नींद अच्छी आई?’ चौंक कर आंखें खुल गईं. सुबह होनी ही शुरू हुई थी. डर कर पुण्पा की तरफ देखा. वह लेटी थी, पर बिलकुल तरोताजा लग रही थी. ‘मैं कुछ भी खाऊं, मैं मायोनीज खाऊं, भिंडी खाऊं, टैक्सी में जाऊं न जाऊं किसी को क्या? डा. गुप्ता…’ मैं तड़प कर उठ बैठी. पुण्पा का बड़बड़ाना मेरी बरदाश्त के बाहर हो रहा था.

‘भाड़ में जाने दो डा. गुप्ता को,’ मैं ने अपने स्वर को भरसक संयत करते हुए कहा, ‘वे हिंदुस्तान जा चुके हैं. इतने बड़े हिंदुस्तान में वे कहां और तुम कहां? अब कभी जिंदगी में वे तुम्हें नहीं मिलेंगे. फिर उन के नाम का शोर क्यों मचाए जा रही हो?’ वह भौचक्की सी मुझे देखे जा रही थी. ‘पुण्पा, मैं आज वापस चली जाऊंगी अपने घर,’ मैं ने उसे एक भी शब्द बोलने का मौका दिए बिना ही कहा.

‘‘क्यों? वह भी शायद मेरी इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से घबरा गई, बर्लिन…’

‘तुम्हारी मां बीमार हैं, तुम्हारे पति जल्दी आए हैं, तुम्हें कभी भी इंडिया जाना पड़ सकता है. तुम्हीं ने तो बताया था,’ न चाहते हुए भी मेरे स्वर में कड़वाहट घुलती जा रही थी.

‘ओह, हांहां,’ उस ने संभलने की कोशिश की, ‘मैं इंतजार कर रही हूं, भाई का फोन आने दो. शायद 3-4 दिनों में जाना पड़े.’

‘इसलिए बेहतर यही है कि मैं आज ही निकल जाऊं.’

‘तुम्हारा टिकट?’

‘मैं प्रीपोन करवा लूंगी और अपना बर्लिन का टिकट कैंसिल करवा लूंगी, तुम चाहे तो रख लेना अपना,’ मैं अपनी झुंझलाहट छिपा नहीं पा रही थी. मैं बिस्तर छोड़ चुकी थी, ‘जल्दी निकलती हूं, तुम तो शायद यूनिवर्सिटी जाओगी.’

‘नहीं, आज मेरी क्लास नहीं है. मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. ऐसा करते हैं, कुछ हैवी नाश्ता कर लेते हैं. तुम कोफ्ते बना लो, मैं परांठें सेंक लेती हूं.’

मेरा दिल कर रहा था, दीवार से सिर फोड़ लूं, ‘तुम क्यों परेशान होगी, मैं बाहर ही खा लूंगी.’

‘अरे, अतिथि को ऐसे थोड़े ही न जाने देंगे. मेरे हस्बैंड नाराज हो जाएंगे.’

मुझे लग गया कि छुटकारे का कोई रास्ता नहीं है. मैं ने महसूस किया था कि पुण्पा के पति का व्यवहार भी मेरे प्रति अच्छा नहीं था, लग रहा था कि पुण्पा की हर बात में उन की सहमति है. मैं ने जल्दी से फ्रिज में से गोभी निकाली और कद्दूकस करने लगी, पुण्पा, तुम नहा कर आओ, तब तक नाश्ता तैयार करती हूं.’

‘अरे, सांस तो लेने दो. ऐसा लग रहा है जैसे कि किसी जंगल में बैठी हो,’  उस के स्वर में शिकायत थी.

‘मैं आज की बुकिंग हर हाल में करवा लेना चाहती हूं,’ मैं उस की कोई बात नहीं सुन पा रही थी.

वह मेरे स्वर की दृढ़ता को भांप गई थी, जल्दी से बाथरूम में घुस गई. मेरे हाथ इतनी तेजी से चल रहे थे कि मुझे खुद हैरानी हो रही थी. जब तक पुण्पा नहा कर निकली, मैं नाश्ता बना कर अपनी चीजें समेट चुकी थी.

‘अरे वाह, तुम तो बिलकुल तैयार हो.’

‘हां, चलो नाश्ता कर लें.’

नाश्ते के बाद पुण्पावती ने टेबल पर रखे लिफाफे की ओर इशारा किया, ‘सुधा, वह अपना पैकेट भी ले जाना.’

‘नहीं, पहले ही बहुत वजन हो गया है, इसे यहीं छोड़ देती हूं.’

‘क्यों, मैं क्या करूंगी इन का?’ पुष्पा के तेवर फिर बदल गए. वह बड़बड़ाती हुई दूसरे कमरे से एक बड़ा सा लिफाफा ले आई. उस में मेरे लाए हुए चावल, चायपत्ती वगैरह थीं. उस ने उसे करीबकरीब मेरे सामने पटकते हुए कहा, ‘इन्हें भी ले जाओ, अगर छोड़ोगी तो कूड़ेदान में फेंक दूंगी.’

गुस्से से मेरा शरीर जलने लगा, ‘तो फेंक दो, मैं तुम्हारे लिए लाई थी, अब तुम्हारा जो जी चाहे करो.’

‘आलोक हम जा रहे हैं,’ उस ने कहा और अपना बैग उठा लिया. दरवाजे के पास आ कर वह मुझ से बोली, ‘सुधा, वह लिफाफा उठा लो, प्लीज. मुझे तो सर्वाइकल है. डाक्टर ने एक किलो से ज्यादा सामान उठाने से मना किया है.’

आने के बाद से यह बात मैं न जाने कितनी बार सुन चुकी थी. मैं ने लिफाफा उठाया और उस के पीछे चल दी.

‘अब क्या करना है इस का?’

‘आगे डस्टबिन है, उस में फेंक देंगे,’ उस ने बेहद ठंडे स्वर में कहा. दिल में धक्का सा लगा. इतने महंगे बासमती चावल, दार्जिलिंग चायपत्ती, घर का कुटा गरममसाला आदि सब को यह पगली डस्टबिन में फेंक देगी. यदि पता होता तो बुदापैश्त में ही किसी को उपहारस्वरूप दे देती. पाने वाला कितना खुश होता. पर अब इस की बातें सुन कर हाथों में जान ही नहीं महसूस हो रही थी. अपमान की आग अंदर धधक रही थी. पर यह नहीं कह पा रही थी कि इसे वापस ले जाती हूं. आगे ही डस्टबिन था. पुण्पा रुक कर मेरी ओर देखने लगी. मैं ने डस्टबिन के पास ही लिफाफा रख दिया और पुण्पा के आगेआगे चलने लगी. मैट्रो में भी भीड़ का बहाना कर मैं ने पुण्पा से दूरी बनाए रखी. मेरा उस की शक्ल तक देखने का मन नहीं कर रहा था. स्टेशन जा कर मैं ने बर्लिन और बुदापैश्त के पुराने टिकट कैंसिल करवाए और बिना हिसाब पूछे आज की वापसी बुकिंग कराने के लिए अपना डैबिट कार्ड आगे कर दिया. टिकट हाथ में लेते ही सुकून की ठंडी लहर दिल में दौड़ गई. पुष्पा से शिकायत भी कुछकुछ दूर हो गई.

ट्रेन में देरी थी. घर के घुटनभरे माहौल में जाने का मन नहीं था, ‘पुण्पा, तुम घर जाओ, मैं थोड़ी देर यहीं मौल में घूमूंगी.’

‘नहीं, आज तो तुम चली ही जाओगी. मैं तुम्हारे साथ ही टाइम बिताऊंगी.’

खीझ गया मन, पता नहीं यह प्यार था या निगरानी. मन को तसल्ली दी, चलो कुछ देर की बात और है, फिर तो इस बला से छुटकारा मिल ही जाएगा. पुण्पावती जो पिछले एक साल में स्काइप पर बात करकर के मेरी बहुत अच्छी दोस्त बन गई थी, अब नितांत ही अजनबीअपरिचित लग रही थी.

शाम तक मौल में टहलती रही पुण्पावती ने बात करने की बहुत कोशिश की मगर गिफ्ट फेंकने के बाद मेरा मन उस से बिलकुल हट चुका था. डर भी लग रहा था कि न जाने किस बात पर क्या बोल दे. मैं ने अंदाज लगाया कि अब घर से केवल सामान उठाने भर का वक्त बचा है. घर आ कर पुण्पावती ने कहा, ‘कुछ खा लो.’

‘नहीं, बहुत खा लिया.’

‘मगर…’

‘प्लीज पुण्पावती.’

“पासपोर्ट प्लीज,” बाहर कोई नौक कर रहा था.

हड़बड़ा गई. दरवाजा खोला. अरे, ट्रेन किसी दूसरे देश के प्लेटफौर्म पर रुकी थी. जल्दी से पासपोर्ट, टिकट उसे दिया.

पुण्पा से छुटकारे का एहसास इतना सुखद था कि यह भी नहीं पूछा कि ट्रेन कहां रुकी है. थैंक्स कह कर टीटी पासपोर्ट आदि वापस कर चला गया.

ओह, अब तो मैं ट्रेन में हूं, मुझे उस के बारे में सोचने की कोई जरूरत नहीं है. कुछ देर बाद मैं अनु यानी अपने अनुराग के पास होऊंगी. ओह, मैं ने केबिन की अलमारी से निकाल कर केक खाया और पानी पी कर बर्थ पर लेट गई. कंफर्टर को ऊपर तक खींच लिया. केबिन अनु की खुशबू से भरता जा रहा था.

छंटती हुई काई : क्या निशात के ससुराल वाले दकियानूसी सोच छोड़ पाएं ? – भाग 3

3 साल पहले हनीफ ने ही मुझे मेरी बड़ी बेटी के लिए अपनी रिश्तेदारी का रिश्ता बतलाया था. लड़का रेलवे में असिस्टैंट ड्राइवर था. मेरी बेटी गणित में एमएससी कर रही थी. हनीफ के मारफत बेटी का फोटो और बायोडाटा वरपक्ष के पास पहुंच गया था. लड़के के अब्बा ने हनीफ के साथ 3-4 और दाढ़ी वालों को बुला रखा था.

मैं भी बेटी का पैगाम ले कर उन के घर पहुंचा. मन में हजारों प्रश्न उठ रहे थे. कैसा रिवाज है जिन की आपस में शादी होनी है उन की रायमशवरा या रजामंदी लेना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. बुजुर्गवार और माअशरे के ठेकेदार रिश्ता पूरी तरह से व्यवसायिकता की खोल में लिपटा रहता है. लड़के की पोस्ट कामकाजी दरजे के हिसाब से उस की बोली लगाई जाती है मंसूरी समाज में.

‘‘कितने की शादी करेंगे आप?’’ अप्रत्यक्ष रूप से एक बुजुर्गवार पूछ रहे थे कि कतने में खरीदेंगे आप लड़के को?

‘‘मैं रेलवे कर्मचारी हूं. बेटी की पढ़ाई में आमदनी का आधे से ज्यादा हिस्सा खर्च किया है. 2 बेटियां और हैं पढ़ने वाली,’’ मैं ने अपनी स्थिति बतलाई तो काले चारखाने वाला बड़ा रूमाल पीठ पर डाले हुए दाढ़ी वाले शख्स बीच में बात काटते हुए बोले, ‘‘वह सब छोङिए, आप यह बतलाइए कि पक्यात में कितना कैश देंगे आप? बाकी मिलनी, घरेलू सामान, बाराम के इंतजाम वगैरा में कितना खर्च करेंगे आप?’’

अभी मैं खुद को जवाब देने के लिए तैयार कर ही रहा था कि मोटेताजे और लुंगीकुरता पहने हुए अधेड़ व्यक्ति ने जुमाला उछाला, ‘‘लड़का रेलवे में है. लोग तो ₹20 लाख शादी के लिए देने को तैयार हैं. हमें पढ़ीलिखी लड़की चाहिए, इसलिए आप अपनी हैसियत बताइए?’’

जी चाहा जोर से चिल्ला कर कहूं कि लड़के को पढ़ालिखा कर विवाह की मंडी में ऊंची कीमत पर बेचने के लिए बेटा पैदा किया जाता है क्या? पर एक बेटी का बाप हूं, इसलिए बहुत कुछ सोच कर चुप रहना पड़ा.

हैसियत… क्या हैसियत है बेटी के बाप की. आसानी से जिब्ह होने वाले मुरगे से ज्यादा हैसियत नहीं है बेटे वालों की नजरों में. होश संभालने से ले कर अब तक यही तो देख रहा हूं मंसूरी समाज में.

‘‘रिटायरमैंट पर ₹30 लाख मिलेंगे. तीनों बेटियों की शादी में ₹10-10 लाख खर्च करने का सोचा है मैं ने,’’ शब्द गले में अटकने लगे. सरेआम अपने कपड़े उतरते से लगे मुझे.

‘‘₹10 लाख… क्या मजाक कर रहे हैं आप कामिल साहब…लड़के के लिए पूरे ₹5 लाख पक्यात में, सोनाचांदी, घरेलू सामान, बारात की बेहतरीन खातिरदारी और वरपक्ष के साथ मंगनी की रस्म में और बारातियों के लिए बेहतरीन तोहफे…कुल मिला
कर ₹25 लाख की शादी तो होनी ही चाहिए,’’ हनीफ मेरा दोस्त हो कर भी अपनी रिश्तेदारों की तरफदारी में बोल रहा था.

‘‘लेकिन मेरी हैसियत नहीं है उतना खर्च करने की,’’ छाती फटने लगी मेरी.

बेटी का बाप होना गुनाह है क्या? क्या उसे अपनी जिंदगीभर की मेहनत की कमाई दुल्हे की मुंहमांगी कीमत देेने के लिए इकट्ठी करनी चाहिए? अगर ऐसा न करें तो जिंदगीभर कुंआरी बेटी का मुरझाया चेहरा देखते रहें और फिर खुद अपनी गुरबत और पशेमानी के फंदे में लटक कर आत्महत्या कर लें.

‘‘माफ कीजिएगा, मैं इतना खर्च नहीं कर सकूंगा. लेकिन हां, मैं पूरे एतबार और एतमाद से कह सकता हूं कि मेरी बेटी इतनी काबिल, समझदार, सलीकेमंद है कि आप का घर बरकतों से भर जाएगा,’’ मैं ने दलीलें दीं तो दुबलेपतले आंखों मेें सुरमा लगाए दाढ़ी वाले ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा,‘‘फिर तो ऐसी नेक लड़की के रहते हुए आप के घर में दौलत के खजाने खुल जाने चाहिए थे,’’ उन का निहायत नामाकूल जुमले का तंज तीर की तरह सीधा घुसा कलेजे में.

‘‘ससुराल को गुलशन बनाना, सासससुर की खिदमत करना, देवरननदों रिश्तेदारों का खयाल रखना यह तो हर लडक़ी का फर्ज होता है. इस में कौन सी अनोखी बात करेगी आप की बेटी,’’ ठहाका लगाते हुए बोला एक अधेड़ लाल दाढ़ी वाले ने. सुन कर बाकी सब भी मुसकराने लगे.

मेरे आक्रोश का ज्वालामुखी फटने ही वाला था कि मैं ने आखिरी उम्मीद से हनीफ की तरफ देखा. मुझ से निगाहें मिलते ही वह निगाहें चुरा कर दीवार पर लगे मक्कामदीना के तुगरे को देखने लगा. मानों कहना चाह रहा हो कि सौरी दोस्त.

मंसूरी समाज की बरसों की रवायत पर चल कर ही समाज में सिर उठा कर जी पाओगे, वरना या तो तुम्हें बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा या फिर जिंदगीभर कुंआरी बेटी के अरमान पूरे न कर पाने की कसक सीने में लिए तिलतिल धुलते हुए वक्त से पहले मर जाओगे.

मैं सलाम कर के मायूस कदम उठाते हुए उन के घर से निकल रहा था कि तभी एक कटीला जुमला बबूल की टहनी की तरह मेरी पीठ पर चुभा, ‘‘हैसियत कौड़ियों की नहीं, ख्वाब महलों के देखते हैं.’’

निराश व बोझिल कदमों से मैं घर तो पहुंच गया लेकिन उस तीखे जुमले का पैनापन आज तक दिमाग की नसों को जख्मी कर रखा है और मुझे रातभर सोने नहीं देता.

लालची, लोभी दूसरों की कमाई से अपना घर भरने का ख्वाब देखने वाले लडक़ों के मांबाप के प्रति मन वितृष्णा से भर गया. सहसा एक संकल्प बिजली की तरह दिमाग में कौंधा था. अब चाहे जिंदगीभर मेरी बेटियां कुंआरी बैठी रहें, मैं दहेज मांगने वालों से शादी नहीं करवाऊंगा. अपनी गाढ़ी कमाई से ऊंची तालिम, अच्छी तरबीयत दे कर उन्हें उन के पैरों पर खड़ा कर के बाहैसियत बनाऊंगा. अगर लडक़े वाले खुद रिश्ता ले कर आएंगे, जिन की आंखों में चांदी की पुतलियां न होंगी, दूसरों की दौलत देख उन की लार न टपकती होंगी, उसी लडक़े का ही रिश्ता मंजूर करूंगा.

हनीफ अब वक्तबेवक्त मुझ से फोन पर अपनी बेटी के मसले पर बात करता था. मैं संजीदगी से उस की परेशानी की गहराई को भीतर तक महसूस कर रहा था.

‘‘हनीफ भाई, मैं अपनी अहलिया के साथ कल मऊरानीपुर जा रहा हूं. आप के समधीसमधन को समझाबुझा कर मामले को सुलझाने की पूरी कोशिश करूंगा.’’

दूसरे दिन मैं हनीफ के समधी के साथ उन के मेहमानखाने में बैठा था. मेरी बीवी भी निशात की सास के साथ बैठी थी. इस से पहले कि मैं अपनी बात शुरू करता, निशात की सास बम की तरफ फट पड़ीं, ‘‘आप लोगों को उन लोगों ने अच्छी तरह कान भर कर भेजा होगा. हम ने बहू पर कोई जुल्म नहीं किया. उलटे उसी ने हमें खुदकशी करने और पुलिसथाने की धमकी दी तो इस से पहले कि कोई मुसीबत या फसाद हो हम ने
सहीसलामत बहू को उस के घर पहुंचा दिया. उस ने हमारे घर
को दोजख बना दिया था,’’ कह कर वे रोने लगीं.

‘‘अच्छाअच्छा, तुम खामोश रहो, मैं सचाई बतलाता हूं,’’ कह कर निशात के ससुर ने बहू की हरकतों का कच्चा चिट्ठा खोलना शुरू किया,”कामिल भाई, बहू रोज 10 बजे सो कर उठती. सुबह सभी का नाश्ता और टिफिन मेरी बीवी खुद तैयार कर करती हैं. बहू उठ कर बच्ची को संभालने लग जाती, कभीकभी दालचावल पका कर अपने कमरे में चली जाती. अपने कमरे की सफाई के लिए भी नौकरानी का इंतजार करती रहती. 3 बजे तक टीवी सीरियल देखने के बाद अपने कमरे में जा कर सो जाती, तो शाम को ही कमरे से निकलती. पूछने पर कहती कि एमए फाइनल की तैयारी कर रही हूं.

“सासससुर, रिश्तेदारों के सामने सामान ताले में बंद रखती है. पक्यात के ₹5 लाख और दहेज की कार का बेटे को हरदम ताना देती है. हमें जाहिल, गंवार और बेटों को निकम्मा और नाकारा कहती है. आप ही बताइए, क्या यह एक पढ़ीलिखी, तमीजदार खानदान की बेटी की तहजीब है? बहू से उम्मीद की जाती है कि वह घर में सुकून और आपसी मेलमिलाप बनाए रखेगी. पर हमारे घर में सब उलटा हो रहा है. बहू तो बेटे को कुछ समझती ही नहीं. रत्तीभर खबरें फोन पर अपने घर वालों को देती है. जवाब में उस की मां अलग रहने के हथकंड़े और तरीके सिखाती हैं. छोटीछोटी बातों में कभी मुुंह फुला लेती है, कभी खुदकशी के लिए दुपट्टा पंखे से बांधने लगती है.

“हमलोग थाना, कोर्टकचहरी के चक्करों से दूर ही रहते हैं, इसलिए हम खुद उसे उस के मायके छोड़ आए,’’ कहते हुए निशात के ससुर टोपी उतार कर अपने सिर पर हाथ फेरने लगे.

समधी की बातें सुन कर मैं ने यही निष्कर्ष निकाला की यह परिवार बहुत ही कट्टरपंथी और औरतों को सिर्फ मशीन और मुफ्त की नौकरानी से ज्यादा अहमियत नहीं देता है. दोनों पक्षों के आरोपोंप्रत्यारोपों के मकड़जाल में न उलझ कर हनीफ की बेटी को ससुराल वापस लाने का सार्थक प्रयास करना था, इसलिए मैं समधीजी से विनम्रता से बोला, ‘‘अजमेरी साहब, आप पसमांदा समाज समिति के सेक्रैटरी हैं, फिर भी आप ने बेटे की शादी में मुंहमांगा दहेज लिया. आप को तो बिना दहेज के बेटे की शादी कर के मंसूरी समाज में मिसाल कायम करना चाहिए था लेकिन आप ने यह महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी उठाने में कोताही की. आप ने मांगे हुए धन से अमीरी का आसमान छूने की कोशिश की. पढ़ीलिखी व रोशनखयाल लड़की यह सब कैसे बरदाश्त करेगी…”

‘‘और हां, बाजी,’’ मैं ने समधिन को सुनाते हुए ऊंची आवाज से बोला,”आप किसी की बेटी ब्याह कर लाई हैं या अपने घर में बिना तनख्वाह की कामवाली?’’

‘‘6-7 लोगों का खाना बनाने की जिम्मेदारी अकेली लड़की पर डाल कर आप खुद बैठक में बैठ कर मोहल्लापुराण पढ़ती रहती हैं. आप को चाहिए था कि आप खुद बहू को पहले घर के तौरतरीके सिखलातीं, बावर्चीखाने में उस की मदद करतीं. आप खुद पायरिया और आप का एक बेटा टीबी का मरीज है. एक बेटा चर्मरोग से ग्रस्त है. सब के लिए एक गिलास, एक कटोरा, एक ही थाली, एक ही तौलिया रख कर आप संक्रामक बीमारियों को घर के हर अफराद में फैलाने की नासमझी कर रही हैं. बहू की सही और जायज बातों को आप ने अपने तंग नजरिए
और अशिक्षा के कारण हरदम गलत साबित किया. आप ने बहू को कभी बेटी की नजरों से देखने की जहमत नहीं की. दूसरे घर में पलीबङी लड़की से उम्मीद करती हैं कि वह आप के घर की हर गलतसही बात से समझौता कर ले. आप सुन रही हैं न मेरी बात…

“हां, एक बात और, कोई भी बेटी का खुद्दार बाप अपनी बेटी पर जुल्म होते देख, उस की बेइज्जती होते देख, चुपचाप नहीं बैठेगा. अगर गुस्से में आ कर हनीफ भाई ने आप के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर दी तो दहेज उत्पीड़न के केस में पूरा घर बिना जमानत जेल में ठूंस दिया जाएगा. केस चलेगा, आपसी रंजिशें बढ़ेंगी और दोनों खानदानों की इज्जत खाक में मिल जाएगी और आप के दोनों कुंआरे बेटे, हनीफ की 2 कुंआरी बेटियां अनब्याही ही रह जाएंगी जिंदगीभर. 2 घरों की आपसी लड़ाई का आप की मासूम पोती के मुस्तकबिल पर कितना बुरा असर पड़ेगा, कभी सोचा है आप ने?’’

‘‘तो क्या हम बहू के सामने घुटने टेक दें,’’ समधिन गरजीं.

‘‘नहीं बाजी, आप पर कोई आंच नहीं आएगी. बस, आप अपना रवैया और तंग नजरिए की जगह बहू की बातों को रौशनखयाली से समझने की कोशिश कीजिए. बहू की छोटीछोटी गलतियों को तूल देने के बजाय उन गलतियों की वजह की जड़ तक पहुंच कर बहू को इतना खुला और अपनत्व वाला माहौल दें कि वह आप सब को अपना हमदर्द और हितैषी समझने लगें. बस, यही गुजारिश है,’’ मेरी आवाज 7 लोगों से भरे कमरे के सन्नाटे को चीरती रही.

‘‘अच्छा भाई साहब, बाजीजान… अब हमें इजाजत दीजिए. मैं आप के खानदान को नेक तौफिकों से नवाजने की कामना करता हूं.’’

मैं और मेरी बीवी अजमेरी भाई साहब के घर से निकले तो रास्ते में मोबाइल बज उठा, ‘‘अब्बू, जद्दा वाले रियाज भाई ने अभीअभी बड़ी बाजी से स्काईअप पर बात कर के शादी का प्रपोजल दिया है,’’ मैं ने शुक्रगुजार निगाहों से आसमान की तरफ देखा और स्कूटर की स्पीड बढ़ा दी.

5वें दिन हनीफ भाई का फोन आया, ‘‘कामिल भाई, कल निशात के ससुराल वाले उसे लेने आ रहे हैं. इस मौके पर बिरादरी के मोअज्जीज बुर्दगार लोगों, पसमांदा समाज के मैंबरान का खानापीना होगा. आप की फैमिली का मुझे बेसब्री से इंतजार रहेगा,’’ हनीफ की खुशी से उछाल मारती लहरों ने मेरे मन पर जमे अवसाद को हमेशाहमेशा के लिए खत्म कर दिया था.

वह नाजुक सी लड़की : क्या मंजरी और रोहन की शादी हो पाई ? – भाग 3

सीलन से भरी हुई कोठरी में, जगहजगह से प्लास्टर उखड़ा हुआ, जहां बरसों से सफेदी नहीं हुई थी.
जमीन पर गंदा फटा हुआ चादर बिछा कर सोना पड़ता था. कुछ महिलाओं ने उसे देखते ही अश्लील इशारे करने शुरू कर दिए थे. खाने में चावल के साथ कीड़े और दाल कम पानी ज्यादा… लेकिन आखिर पेट का सवाल था. कब तक भूखी रहती. अपने हाथों से कीड़े हटा कर चावल खा लेती. फिर तो वह दालचावल खुद से साफ करवाने की कोशिश करती थी. कभीकभी सब्जी के नाम पर कुछ मिल जाता तो कभी अचार भी मिल जाता.

लेकिन सुजाता ने अपनी नाजुक सी बहू को अकेला नहीं छोड़ा था. वे बस की लंबी यात्रा कर के उस से मिलने हर हफ्ते आ जातीं. वे अपने साथ खाना, नाश्ता ले कर आतीं, उसे प्यार से अपने हाथों से खिलातीं. उस के लिए धुले हुए कपड़े और दूसरी जरूरत की चीजें भी ले कर आतीं.

उन का प्यारदुलार मंजरी के लिए औक्सीजन का काम करता. उस को यहां से जल्दी छूटने का आश्वासन देतीं. उन से मिलने के बाद उस के मन में फिर से जीने का उत्साह जाग उठता था. वह जो कुछ भी सामान खाने का दे कर जातीं, सब के बीच बांट देती. जो खाने के लिए रोटी मिला करती उन्हीं को बचा कर रख लेती और सुबह पानी में भिगो कर खा लेती, यही उस का नाश्ता होता.

नारी निकेतन का उद्देश्य महिलाओं को व्यवसायिक प्रशिक्षण दे कर उन के पुनर्वास की व्यवस्था करना होता है. सिलाई, कढ़ाई और दूसरे गृहउद्योग का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था कागजों में होती है. नियमकायदे केवल बनाए जाते हैं, लेकिन उन का अनुपालन कितना होता है, इस बात से कोई अनजान नहीं है.

वहां पर एक थी गीता दीदी, जो उस को बेटी की तरह प्यार करती थीं. वे बड़ी उम्र की थीं, उन्होंने अपने जेठ के सिर पर डंडा मार दिया था, क्योंकि वह उन की बेटी के साथ बलात्कार करना चाह रहा था. जेठ की मौत हो गई थी, इसलिए उन पर हत्या का मुकदमा चल रहा था.

एक दिन वे मंजरी से बोलीं,”देख मंजरी, सिलाई अच्छी तरह सीख लो, हो सकता है, इसी हुनर से तुम अपने पैरों पर खड़ी हो कर जीवन में आगे बढ़ सको.”

“दीदी, सिलाई सीखने के बहाने सब के कपड़े सिलवाती रहती हैं. दिनभर मशीन चलातेचलाते पैरों में दर्द भी हो जाता है. तब जा कर 2 वक्त का खाना मिलता है.”

“क्यों दीदी, बबिता को मैडम ब्यूटी पार्लर भी भेजती हैं. मैं तो इतनी सुंदर हूं. फिर भी मुझे बाहर नहीं भेजतीं. काश, मुझे बबिता की जिंदगी मिल जाए. रोज बाहर घूमना, सजधज कर रहना, अच्छे कपड़े पहनना. ब्यूटी पार्लर में बाल कटवाना, फेशियल करवाना, नेलपौलिश लगाना.”

“मंजरी चुप हो जाओ. तुम्हें बबिता का दर्द पता नहीं है. उसे रोज नई जगह भेजा जाता है, कभी दी का औफिस, तो कभी कोई होटल. हर दिन, हर घड़ी उसे काल में सजी हुई मिठाई की तरह भूखे लोगों के सामने परोस दिया जाता है. वह जल्लाद भला क्यों रहम करे, वह चाहे उन की बेटी की ही की उम्र की हो तो भी वह भूखे लोग उस के जिस्म के हर हिस्से को नोचते. हवस की भूख ऐसी रहती है कि आंसू और उस की चीखचीत्कार उस की आग की लौ पर घी डालने की तरह उन के वहशीपन को बढ़ाती जाती है,” यह सब बताते हुए उन का चेहरा आंसू से भीग उठा था. वह भी सिसकियां भर रही थी. वह सहम उठी थी.

एक दिन नारी निकेतन में जोरशोर से सफाई का कार्यक्रम चल रहा था. 1-2 कमरों में रंगरोगन भी करवाया गया था. उस दिन खाना भी अच्छा मिला था, पता लगा कि आज यहां का इंस्पैक्शन करने बड़े अधिकारी आ रहे हैं. कभी मैनेजर तो कभी अधिकारी आते रहते, कभीकभी नेता भी आते.

गीता दीदी ने उसे बताया था कि यहां से लड़कियों को रात में कहीं भेजा जाता है. फिर कई बार उस ने भी गौर किया था कि लड़कियों के गले पर, गालों पर कालेकाले निशान होते थे. वह छोटी थी, इसलिए कल्पना भी नहीं कर सकती कि ऐसा भी कुछ हो सकता है. उस के लिए ये बातें अविश्वसनीय और अकल्पनीय थीं.

एक बार कोई अधिकारी ने बाहर औफिस में बुला कर उस से पूछताछ की थी. वह तो सोच बैठी थी कि अब उस के मुकदमे की जल्द सुनवाई होने वाली है, लेकिन गीता दी ने बताया कि तुम्हारी सुंदरता पर किसी की नजर फिसली थी. वह तुम्हारी अस्मत के साथ खेलना चाहता था पर वार्डन मैडम ने मना कर दिया था कि इस के ऊपर किसी नेता की नजर है, इसलिए इसे नहीं भेज सकती.

अब वह डरी और सहमी हुर्ई रहा करती. सुजाता मांजी को भी आए 15 दिन से अधिक हो चुके थे. वह अपने जीवन से निराश हो कर अपने जीवन का अंत करने के विषय में सोचती रहती.

एक दिन सुजाता मांजी आईं, उन का चेहरा उतरा हुआ था. चिंता और परेशानी के भाव के कारण वह गुमसुम थी. उस के बहुत कुरेदने पर वे उस से लिपट कर रो पड़ी थीं, “बेटी मैं हार गई. तुम्हारे पापा तुम्हारा नकली बर्थ सर्टिफिकेट बनवा कर तुम्हें नाबालिग सिद्ध करने की कोशिश में लगे हुए हैं. मुझे पता लगा है कि वह तुम्हारे ननिहाल गए हुए हैं, वहां तुम्हारे मामा लोगों को तुम्हारी झूठीसच्ची बातें बता कर उन की सहानुभूति ले रहे हैं.”

जब दोनों काफी देर तक रो चुकीं तो मंजरी आवेश में बोली, “मांजी, यह समय रो कर हार मानने का नहीं है. आप किसी को नानी के पास भेजिए. मैं पत्र लिख कर दूंगी. मेरे पत्र से उन्हें सचाई का पता लगेगा.”

“बेटी, पुलिस हम लोगों की निगरानी कर रही है और तुम्हारी मम्मी के उस गुंडे के हाथ पुलिस बिकी हुई है. इसलिए बहुत गुपचुप तरीके से किसी के द्वारा तुम्हारा असली बर्थ सर्टिफिकेट मंगवाना पड़ेगा, जिसे कोर्ट में पेश करने के बाद तुम्हें बाहर निकालना संभव हो जाएगा.”

मंजरी के चाचा भी अपने भाईभाभी के विरोध में गवाही दे चुके थे. सुजाता के भाई जो दिल्ली में रहते थे, वह और चाचा राधेश्याम दोनों उस के ननिहाल गए और वहां उन्होंने सारा सच बताया, तब उन की आंखों के सामने से झूठ का आवरण हटा और उन्होंने झटपट उस का असली बर्थ सर्टिफिकेट नगरपालिका से निकलवा दिया.

कोर्ट की काररवाई तो मंथरगति से चल रही थी, पर सुजाता की अथक प्रयासों के कारण माधुरीजी द्वारा पेश किए गए फर्जी दस्तावेजों की पोल खुल गई थी. राधेश्यामजी की गवाही और सहयोग को भी कोर्ट ने स्वीकार किया.

2 वर्षों की नाटकीय पीड़ा को सहने के बाद उसे वहां से मुक्ति और आजादी की मिली थी. वह सुजाता, रोहन की ऋणी थी, उन के गले लग कर वह घंटों सिसकती रही थी, पर यह खुशी के आंसू थे.

बाहर आने के बाद उसे मालूम हुआ था कि मांजी का परिवार आर्थिक रूप से बरबाद हो चुका है. दुकान बंद हो चुकी है. सब कुछ जेल, कोर्टकचहरी और वकील के साथसाथ पुलिस की जेब गरम करने में उन की
भेंट चढ़ गए हैं. खेत गिरवी पर रखे हुए हैं. यहां तक कि खाने के लाले पड़ गए थे. लेकिन धन्य थीं सुजातामां जिन्होंने हार नहीं मानी और अपने बेटे के प्यार के लिए उस नाजुक सी लडक़ी को नर्क से निकाल कर ले ही आईं.

रोहन और मंजरी का स्वागत करने के लिए सुजाता घर पहुंच चुकी थीं. आसपास की महिलाएं ढोलक की थाप पर गीत गा रही थीं. साधारण सी गोटा लगी हुई लाल साड़ी, हाथों में कांच की चूडिय़ां, माथे पर बिंदिया… सौंदर्य की लालिमा से उस का चेहरा दमक रहा था.

21 वर्ष की छोटी सी उम्र में उस नाजुक सी लडक़ी ने अपने छोटे से जीवनकाल में क्याक्या नहीं देख लिया था, लेकिन वह टूटी नहीं और आखिर उस के सच्चे प्यार की जीत हुई.

सुजाता की दोनों बाहें फैली हुई थीं और उन के बीच उन के जिगर के टुकड़े इतने करीब थे, वे विश्वास नहीं कर पा रही थीं. आखिर में वह चरिप्रतीक्षित पल आ ही गया जब वह नाजुक सी लडक़ी अपने प्रिय की बांहों में खो गई थी.

कुछ ही सालों में मंजरी ने जो हुनर नारी निकेतन में सीखा था, उस के सहारे कपड़ों का काम शुरू कर दिया. सुजाता, सुरेश तो अनुभवी थे ही, रोहन ने भी रातदिन मेहनत की और जिंदगी को पटरी पर ला दिया.

वो जलता है मुझ से : विजय को तकलीफ क्यों होने लगी थी ?

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राममंदिर प्राणप्रतिष्ठा : सोशल मीडिया पर होती ऊलजलूल शास्त्रार्थ बहस

राममंदिर निर्माण को ले कर वैष्णवों और शैवों की तनातनी को ले कर हिंदुओं में जो असमंजस था उस की भ्रूणहत्या होने लगी है. इस की वजह यह है कि शंकराचार्य यह नहीं बता पा रहे कि किस धर्मग्रंथ में कहां यह लिखा है कि आधेअधूरे मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा होना सनातन धर्म में वर्जित या निषेध बताया गया है. हालांकि इतना ही खरा सच यह भी है कि वैष्णव संत भी नहीं बता पा रहे कि आधेअधूरे मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा फलां या अमुक धर्मग्रंथ के मुताबिक होना शास्त्र सम्मत है.

अब यह स्पष्ट हो चुका है कि चारों पीठों के शंकराचार्य 22 जनवरी को अयोध्या के जलसे में नहीं जाएंगे. क्यों नहीं जाएंगे, इस पर एक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद साफ कर चुके हैं कि अयोध्या में शास्त्रीय विधि की उपेक्षा हो रही है. मंदिर अभी पूरा बना नहीं है और प्रतिष्ठा की जा रही है. हम धर्मशास्त्र के हिसाब से ही चलना चाहते हैं और उसी के अनुसार जनता को चलाना चाहते हैं. राम हैं, यह हमें धर्मशास्त्र ने ही बताया. जिस शास्त्र से हम ने राम को जाना उसी शास्त्र से हम प्राणप्रतिष्ठा भी जानते हैं.

इन शंकराचार्य का रोना यह भी है कि जब वे शास्त्रों और विधिविधान की बात करते हैं तो उन्हें झट से एंटी मोदी कह दिया जाता है. बात सही है क्योंकि देश का माहौल राममय से ज्यादा मोदीमय है. अब अनुभव तो यह है और सिद्धांत भी है कि जो राजा कह दे वही कानून हो जाता है और जो उस के पुरोहित कह दें वही विधान हो जाता है. एक पुरानी कहावत इस माहौल पर सटीक बैठती है कि सूर्य पूर्व दिशा से नहीं उगता बल्कि जिस दिशा से वह उदय होता है उसी दिशा को पूर्व मान लिया जाता है.

सोशल मीडिया पर खामोशी

राममंदिर को ले कर खासा जोश सोशल मीडिया पर है लेकिन उस में तर्क नहीं है, आस्था का सैलाब उमड़ा पड़ रहा है. अव्वल तो कोई भी शैव इस का विरोध नहीं कर रहा लेकिन वैष्णवों ने शंकराचार्यों की ही वैसी ही छिलाई शुरू कर दी है जैसी कि वे आदतन कांग्रेसियों, वामदलों, नक्सलियों, नास्तिकों, खालिस्तानियों, मुसलमानों और बुद्धिजीवियों की किया करते हैं.

वायरल हो रही एक पोस्ट में शंकराचार्यों को एक मजार पर दिखाया गया है. इस में लिखा है कि श्रीराम मंदिर प्राणप्रतिष्ठा से नाराज शंकराचार्य कभीकभी दरगाह पर चले जाते हैं क्योंकि वहां सब काम पूरे मुहूर्त के साथ सनातनी विधिविधान से होते हैं.

इस और ऐसी दर्जनों सैकड़ों पोस्टों पर शंकराचार्य के अनुयायी बेचारे खामोश रहने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि धर्म क्या कहता है. यही हाल वैष्णवों का है जिन्हें धर्म की एबीसीडी भी नहीं मालूम लेकिन आज उन का दबदबा है. इसलिए बहस में वे स्वभाविक तौर पर भारी पड़ रहे हैं.

शैव हों या वैष्णव, इन दोनों ही संप्रदायों में ब्राह्मणों का वर्चस्व है जो बमुश्किल 3 फीसदी देश की आबादी का हिस्सा हैं. 12 फीसदी गैरब्राह्मण सवर्णों को छोड़, बाकी 85 फीसदी तो दलित, आदिवासी, मुसलमान और ओबीसी वाले हैं जिन के लिए धर्म का मतलब वही होता है जो ये धर्माचार्य बताते रहते हैं.

इस का यह मतलब नहीं कि 15 फीसदी सवर्ण धर्म के सिद्धांत, दर्शन या विधिविधान समझते हैं. फर्क इतना है कि उन्हें कर्मकांड करने की और मंदिरों में जाने की मनाही नहीं है क्योंकि धर्म का धंधा चलता तो आखिर उन्हीं से है. अब मुट्ठीभर पैसे वाले पिछड़े और दलित भी इस जमात में शामिल हो गए हैं लेकिन इस से उन की सामाजिक हैसियत नहीं बदलने वाली. फिर भी दिल को बहलाने को खयाल बुरा नहीं वाली तर्ज पर वे मेहनत की कमाई पंडेपुजारियों पर उड़ा रहे हैं.

सोशल मीडिया लाख बकवास सही लेकिन हकीकत भी यही है कि इस पर कुछ सार्थक मुद्दों पर भी बात हो जाती थी जो राममंदिर के हल्ले के चलते बंद हो गई है. वैष्णवजन सुबह से ले कर रात तक इस पर रामधुन बजाते इस पर देश और समाज की तरह कब्जा जमा चुके हैं. ‘राम आएंगे तो अंगना सजाऊंगी…’ टाइप के भजन दिनरात बज और बजाए जा रहे हैं.

आम आदमी के हितों से सरोकार रखते मुद्दों का गायब होना तथाकथित लोकतंत्र के लिहाज से बेहद खतरनाक और नुकसानदेह है. मीडिया भी दिनरात ‘राम आएंगे…’ गा रहा है और घरों, खासतौर से सवर्णों के, में इस बात पर चर्चा नहीं हो रही कि फुटकर महंगाई इतनी और उतनी बढ़ गई है, बेरोजगारी की दर कितने फीसदी इस तिमाही में बढ़ी है. हां, लोगों को सोशल मीडिया पर लुढ़कते ज्ञान की पोस्टों से यह चिंता जरूर सता रही है कि मिट्टी का एक दीया 5 रुपए का मिल रहा है, इस से पहले कि वह 10 रुपए का हो जाए उसे खरीद लेना ही बुद्धिमानी की बात है.

मुद्दे की बात दीया और पूजापाठ रह जा रही है तो इस की वजह शैव और वैष्णवों की मिलीजुली साजिश है कि तुम इतने मंदिर हथिया लो, उतने पर हमारा कब्जा रहेगा. मकसद यह कि लोग पूजापाठी बने रहें, उस में ही हमारा तुम्हारा कल्याण है. बाकी सब तो मोह, माया और मिथ्या है. देश पिछड़ता है तो पिछड़े हमारी बला से, हमारा रसूख और दबदबा कायम रहना चाहिए. इस छद्म युद्ध में अहम दक्षिणा है जो राममंदिर से आए, श्याम मंदिर से आए या फिर शंकर या फिर देवी मंदिर से, कोई फर्क नहीं पड़ना.

धर्म पर बहस तो इस की पैदाइश के साथ ही होती रही है जिस से लोग हर दौर में भ्रमित रहे हैं. यह जाल धर्म के ठेकेदार ही एक नियमित अंतराल से बुनते हैं. प्राचीन भारत में धार्मिक बहसों को शास्त्रार्थ कहा जाता था. मध्यकाल का आचार्य शंकर और मंडन मिश्र का और कुमारिल भट्ट बनाम बौद्ध भिक्षुओं के बीच का शास्त्रार्थ आज भी मिसाल है. आर्य समाज के मुखिया दयानंद सरस्वती का तो जिक्र तक अब नहीं होता जिन्होंने कुछ सुधार कर बहुत सी विसंगतियां थोप दी थीं.

इन शास्त्रार्थ का नतीजा क्या निकला, यह सोशल मीडिया वीरों, जो आमजन ही होते हैं, को नहीं मालूम क्योंकि उन्हें धर्मग्रंथ कभी पढ़ने ही नहीं दिए गए. वे संस्कृत में थे जो आज भी द्विजों की भाषा है. बुद्ध और भीमराव आंबेडकर ने गहराई से इन्हें पढ़ा और ब्राह्मणों व ब्राह्मणत्व के चिथड़े उड़ा कर रख दिए.

अब ये दोनों ही आज राम, कृष्ण और शंकर से कम नहीं पूजे जाते. इस साजिश को सोशल मीडिया पर कोई उजागर नहीं करता और जो आधेअधूरे ज्ञान व जानकारियों की बिना पर ही सही तर्क करते हैं उन्हें ‘हो हो’ कर धकिया दिया जाता है. इस मानसिकता के ताजे शिकार बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर, सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और ताजा उदाहरण बिहार के आरजेडी विधायक फ़तेह बहादुर का है जो भाजपा और कांग्रेस दोनों पर ही अंधविश्वास फ़ैलाने का आरोप लगाते हैं.

उन की इस दलील को खारिज नहीं किया जा सकता कि जो लोग पत्थर में प्राण डालने की बात कर रहे हैं वो देश के लिए बहुत कारगर साबित होंगे. इन्हें देश की सीमा पर सुरक्षा बलों के साथ और देश के सभी अस्पतालों में तैनात कर देना चाहिए जिस से कि वहां मरने वालों में ये प्राण डाल सकें.

बीजेपी के शोरशराबे के बावजूद सोशल मीडिया पर विपक्षी पकड़ मजबूत है

राजनेताओं ने हमेशा से मतदाताओं से संवाद करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल किया है. पहले अखबार, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों और रेडियो के माध्यम से वे जनता तक अपनी पहुंच बनाते थे, लेकिन अब फेसबुक, व्हाट्सऐप, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म ने उन की चाहत को उड़ान दी और इन माध्यमों से उन्हें अपनी बात हवा की तेजी से फैलाने का अवसर हाथ लगा.

सोशल मीडिया को जो चीज़ विशिष्ट बनाती है वह है उस का पैमाना, उस की गति और वह न्यूनतम लागत जिस का लाभ उठाते हुए नेता सोशल मीडिया के ज़रिए अपने मन की बात दुनियाभर में फैला सकते हैं. मौजूदा दौर की डिजिटल क्रांति के बीच ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफौर्म दुनिया के कई हिस्सों में राजनीतिक विमर्श की प्रकृति को स्थायी रूप से बदल रहे हैं. दुनियाभर में राजनीतिक लोग, बड़े निकायों की तरह, बड़ी आबादी तक पहुंचने के लिए नियमित रूप से इन माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं.

भारतीय राजनीति में भी सोशल मीडिया बेहद अहम भूमिका निभा रहा है. आज सभी पार्टियों और नेताओं के सोशल मीडिया हैंडल हैं और वे लोगों के साथ निरंतर संपर्क बना कर रखते हैं. देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से ले कर गांव के प्रधान तक सोशल मीडिया पर ऐक्टिव है. पार्षदों के, विधायकों के, सांसदों के पास अपनेअपने मीडिया सैल हैं. उन में सोशल मीडिया प्लेटफौर्म की जानकारी रखने वालों की बड़ी टीम काम करती है. उस टीम का काम होता है दिनभर नेताजी से जुड़े कामों और बातों पर ट्वीट बना बना कर पोस्ट करना, उन को पैसे दे कर लाइक और रीट्वीट करवाना. ये रोज के अखबारों में पार्टी या उन के नेता से जुड़ी खबर छपने पर उस की कटिंग या फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं और व्यूअर्स की संख्या बढ़ाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं. इस तरह की मीडिया टीम पर सारे नेता हर महीने लाखों रुपए खर्च करते हैं. कुछ प्राइवेट कंपनियां भी नेताओं के लिए यह काम करती हैं. सोशल मीडिया के बिना आज के वक्त में राजनीति अधूरी है.

ये प्रोफैशनल्स कोई और नहीं, बल्कि बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियां हैं जो नेताओं की ‘सोशल’ छवि को दुनिया के सामने प्रस्तुत करती हैं. ये कंपनियां विभिन्न पैकेजों के आधार पर अपनी सेवाएं दे रही हैं, मसलन यदि नेताजी को मात्र सोशल मीडिया अकाउंट्स पर पोस्ट डलवानी हैं तो उस की कीमत एक लाख रुपए है. यदि दोतीन लोगों की टीम नेताजी की छवि सुधारने में लगाई जाती है तो पैकेज 3 से 5 लाख रुपए का हो जाता है. सब से बड़ा पैकेज 5 से 8 लाख रुपए का है जिस में नेताजी के साथ औडियोवीडियो प्रोफैशनल्स की 3 से 4 लोगों की टीम चलती है जिस में उन के वीडियोज लाइवस्ट्रीम किए जाते हैं.

साथ ही, कई कंपनियां नेताजी के भाषण भी लिख रही हैं जिस से उन की सोशल मीडिया रीच बढ़े. यह सारी कवायद इसलिए है ताकि नेताजी की छवि और उन का स्वरूप विस्तृत लगे. भाजपा से ले कर कांग्रेस की आईटी सैल में अलगअलग टीमें बनी हुई हैं जो प्रत्याशियों के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर नजर रख रही हैं. जिस की जितनी रीच, उस को चुनावी टिकट मिलने की संम्भावना उतनी ही अधिक बन रही है.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस मीडिया सैल के अनुसार, पार्टी के 70 हजार से अधिक व्हाट्सऐप समूह हैं जिन के माध्यम से 90 लाख लोगों तक पार्टी अपना एजेंडा एक क्लिक के माध्यम से पहुंचाती है. विधानसभा चुनाव के दौरान बूथ स्तर पर 60 हजार से अधिक मतदान केंद्रों पर कोऔर्डिनेटर बनाए गए जिन्होंने सोशल मीडिया के जरिए जनता तक अपनी बात पहुंचाई.

अयोध्या में रामलला के मंदिर निर्माण का शोर सोशल मीडिया पर आजकल खूब है. लोकसभा चुनाव सिर पर है, इसलिए रामलला को राजनीतिक हथियार बना कर बीजेपी सोशल मीडिया पर अपने महिमामंडल में जुटी है. बावजूद इस के, विपक्षी पार्टियों की आवाज भी खूब गूंज रही है. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की सोशल मीडिया पर फैनफौलोइंग लगातार बढ़ रही है, तो अखिलेश यादव भी पीछे नहीं हैं. वहीं, अगर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्षी नेता राहुल गांधी की बात करें तो दोनों ही ट्विटर पर काफी ऐक्टिव हैं. ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फौलोअर्स की संख्या अगर 90 मिलियन (9 करोड़) है तो सत्ता में न होते हुए भी राहुल गांधी के 22.6 मिलियन यानी 2.25 करोड़ फौलोअर्स हैं. मोदी के फौलोअर्स की संख्या भले ज़्यादा हो मगर मोदी के मुकाबले राहुल दोगुने लाइक (Like) और रीट्वीट (Retweet) हासिल कर रहे हैं. ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद से राहुल गांधी के फौलोअर्स की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है. वहीं, प्रधानमंत्री के फौलोअर्स बढ़ने की गति कम हुई है.

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