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Hindi Kahani : मीत मेरा मनमीत तुम्हारा – अंबुज का अपनी भाभी से क्यों था इतना लगाव

Hindi Kahani : ‘‘प्रेरणा भाभी, कहां हो आप?’’ अंबुज ने अपना हैल्मेट एक ओर रख दिया और दूसरे हाथ का पैकेट डाइनिंगटेबल पर रख दिया. बारिश की बूंदों को शर्ट से हटाते हुए वह फिर बोला, ‘‘अब कुछ नहीं बनाना भाभी… अली की शौप खुली थी अभी… बिरयानी मिल गई,’’ और फिर किचन से प्लेटें लेने चला गया.

प्रेरणा रूम से बाहर आ गई. वह नौकरी के लिए इंटरव्यू दे कर कानपुर से अभीअभी लौटी थी. रात के 8 बज रहे थे. पति पंकज अपने काम के सिलसिले में 1 सप्ताह से बाहर था. इसीलिए वह अंबुज की मदद से आराम से इंटरव्यू दे कर लौट आई वरना पंकज उसे जाने ही नहीं देता. गुस्सा करता. अंबुज ने ही विज्ञापन देखा, फार्म भरवाया, टिकट कराया और ट्रेन में बैठा कर भी आया. सुबहशाम हाल भी पूछता रहा. तभी तो नौकरी पक्की हो गई तो उसे बता कर प्रेरणा को कितनी खुशी हुई थी. पंकज से तो शेयर भी नहीं कर सकती.

‘‘अरे तुम बारिश में नाहक परेशान हुए अंबुज. मैं इतनी भी नहीं थकी हूं. अभी बना लेती फट से कुछ. मालूम है 3-4 दिनों से तुम सूपब्रैड, टोस्ट से ही काम चला रहे होंगे. बाहर का खाना भी तुम्हें सूट नहीं करता,’’ प्रेरणा उस के गीले कपड़ों को देखते हुए बोली.

‘‘कपड़े बदल आओ अंबुज. तब तक मैं अदरक वाली चाय बना लेती हूं.

पीनी है या नहीं?’’ वह उसे छेड़ते हुए बोली. उसे मालूम था उस के हाथ की अदरक वाली चाय अंबुज को पसंद है.

‘‘हां भाभी… चाय मुझ से सही नहीं बनती, इसलिए बनाई ही नहीं,’’ कह वह सिर खुजलाते हुए चेंज करने चला गया.

‘‘वाह मजा आ गया भाभी. लग रहा है बरसों बाद चाय पी रहा हूं,’’ अंबुज कपड़े बदल कर आ गया था.

‘‘हां, मुझे लग रहा है देवरानी का इंतजाम जल्दी करना पड़ेगा,’’ प्रेरणा मुसकराई, ‘‘इतने सारे फोटो दे कर गई थी कोई पसंद की?’’

‘‘छोडि़ए भाभी वह सब… ऐपौइंटमैंट लैटर कब मिल रहा है यह बताइए.’’

‘‘बस अगले हफ्ते. पर पहले यह सोचो कि तुम्हारे भैया को कैसे मनाएंगे. नौकरी तक पहुंचने में तुम ने ही सब कुछ किया है. इस में भी तुम्हारी ही मदद चाहिए. अंबुज बेटाजी मुझ से तो वे मानने से रहे. तुम्हें ही कुछ करना होगा वरना सारी मेहनत बेकार,’’ प्रेरणा हंसते हुए बोली.

‘‘अरे मैं उन्हें समझा लूंगा भाभी. आप चिंता क्यों करती हैं? फिर इस में बुराई भी क्या है?’’

‘‘हां, पता नहीं क्या सोच, क्या ईगो ले कर बैठे हैं. कभी तो मेरी भी पढ़ाईर् काम आए. उन्हें दूसरी नौकरी जबतक मिलेगी या इन का काम जबतक बनेगा मैं थोड़ा तो सहयोग कर ही सकती हूं. शुरू में कंपनी 30 हजार सैलरी दे रही है. घर आराम से चल जाएगा. अभी हम 3 ही तो हैं. शिफ्ट हो जाएंगे वहीं.’’

‘‘सो तो है पर…’’

‘‘परवर कुछ नहीं देवरजी. समझाओ उन्हें, वहां पापा का छोटा ही सही पर एक प्लाट भी है, जिसे वे मेरे नाम कर गए हैं. बेकार ही पड़ा है. इस्तेमाल हो जाएगा. वहीं कोई बिजनैस कर लेंगे अपने पैसों से, घर की चिंता छोड़ दें. तुम भी उन के साथ लग जाओ. दोनों ही औटोमोबाइल इंजीनियर हो, साथ में जम कर काम करो… अपना काम सब से बढि़या. नौकरी तो ये दिल से करना भी नहीं चाहते हैं. बेकार ही पीछे पड़े हैं… तुम्हारे कहने पर शायद मान जाएं.’’

‘‘हां सही कह रही हैं आप. पहले क्यों नहीं आया खयाल इस बात का?’’

‘‘कहा था एक बार, मगर वही ईगो की बात है न.’’

‘‘ठीक है, मैं बात करता हूं भैया से.’’

‘‘आते ही मत कहना. घर रात 12 बजे पहुंचेंगे. सुबह का इंतजार कर लेना,’’ अंबुज का उतावलापन देख कर प्रेरणा ने कहा.

‘‘हांहां, भाभी पर कल पहले आप ट्रीट तो दीजिए, इंटरव्यू सफल होने की खुशी में एक मूवी तो बनती है.’’

‘‘डन,’’ कहते हुए प्रेरणा मुसकरा दी.

जब से प्रेरणा ब्याह कर घर आई थी अंबुज उस का देवर कम दोस्त अधिक बन गया था. घर में और कोई तो था नहीं. पंकज की मां पहले ही चल बसी थीं. प्रेरणा केवल 1 साल अंबुज से बड़ी थी और पंकज प्रेरणा से 8 साल बड़ा. उम्र का फासला तो था ही पर अपने पिता के निधन के बाद उन की सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए पंकज और भी धीरगंभीर व्यक्तित्व का बन गया था. अपने मरने से पहले मां ने अपने पति के मित्र की लड़की प्रेरणा से शादी करने को राजी कर लिया था.

‘‘देख पंकज, अब बहुत जिम्मेदारी हो ली… बहन विदा कर दी. पापा का इलाज करवाया… अंबुज को भी पढ़ालिखा रहा है. अगले साल उस की भी नौकरी लग जाएगी. तुझे शादी करनी ही पड़ेगी अब वरना मेरा म…’’

‘‘अम्मां,’’ पंकज ने मां को आगे नहीं बोलने दिया.

‘‘तू हामी भर दे. मैं अभी फोन कर देती हूं घनश्यामजी को.’’

इस तरह प्ररेणा पंकज की दुलहन बन घर आ गई थी. पंकज के धीरगंभीर व्यक्तित्व में प्रेरणा सहज न रह पाती, जबकि उस के उलट अंबुज का हंसमुख स्वभाव उस से मैच करता. दोनों की पसंद भी मिलतीजुलती थी. अकसर पंकज के पास समय ही नहीं रहता न ही काम के अलावा उस का कहीं मन लगता. प्रेरणा ‘धमाल’ मूवी देखना चाहती थी. अंबुज 3 टिकट ले आया. पंकज को ये सब बातें बचकानी लगतीं, ‘‘ऐसी फिल्मों में मेरी कोई रुचि नहीं. तुम दोनों ही देख आओ.’’

पंकज जानता था कि उस की बोर कंपनी में वे भी ऐंजौय नहीं कर पाएंगे. प्रेरणा को अधिक साथ अंबुज का ही मिला. वह उस से काफी घुलमिल गई थी. दोनों की पसंद भी एक. मूवी हो या टीवी के प्रोग्राम अकसर समय मिलता तो साथ देखते. महिने की शौपिंग भी दोनों साथ कर आते.

मजाक में कभीकभी प्रेरणा कहती थी, ‘‘जरा सी चूक हो गई अम्मांजी से. बड़े से नहीं छोटे से मेरा ब्याह कराना चाहिए था. पसंद भी एकजैसी और स्वभाव भी. अंबुज हैल्पिंग भी है वरना मैं तो यहां गृहस्थी अकेले संभाल न पाती.’’

दोनों ने मिल कर पंकज को किसी तरह कानपुर शिफ्ट होने के लिए मना लिया.

‘‘इंडस्ट्रियल एरिया है भैया. चलो वहीं चल कर कुछ साथ करते हैं. यहां हर कोने में अम्मा की यादें बसी हैं… बड़ा खालीखाली सा लगता है… आप का भी मन नहीं लगता है. इसीलिए बाहर रहते हो. चलते हैं भैया,’’ अंबुज बोला.

सभी कानपुर शिफ्ट हो गए थे. प्रेरणा अपनी नौकरी पर जाने लगी. 2-3 सालों में भाइयों की मेहनत रंग लाई. वहां ‘कार ऐवरी सौल्यूशन पौइंट’ नाम से वे नामी गैराज के मालिक बन गए. मोटर पार्ट्स की फैक्टरी लगाई. फिर ‘ग्रीन कैब’ और कार डैकोर का बिजनैस भी चालू किया.

‘‘काम तो अच्छा चल पड़ा भाभी… आप महान हो. आप सही में प्रेरणा हो. बस अब आप काम छोड़ दो… बहुत हुआ. अब तो चाचा कहने वाली गुडि़या ला दो,’’  एक दिन प्रेरणा को सोफे पर बैठा कर अंबुज बोला.

‘‘क्यों नहीं अंबुज पर पहले मेरी देवरानी का इंतजाम करो. फिर आराम ही आराम करूंगी. तब चाचा कहने वाली गुडि़या भी आ जाएगी और पापा कहने वाला गुड्डा भी,’’ कह प्रेरणा जोर से हंस पड़ी थी.

‘‘सच घर इतना बड़ा हो गया पर रहने वाले वही 3… रहने वालों की संख्या बढ़नी ही चाहिए और उत्सव भी मनने चाहिए. अब शादी के लिए और मना नही करोगे आप देवरजी. रिश्ते के लिए आए फोटो में सुरुचि का फोटो बारबार उठा कर देख रहे थे. वह पसंद है न? शरमाने से काम नहीं चलेगा,’’ प्रेरणा न उस की कमर में चिकोटी काटी, तो उस का चेहरा गुलाबी हो गया.

प्रेरणा के आने के 5 साल बाद घर में 2 बंदों का इजाफा हुआ. एक प्रेरणा  ने बेटी को जन्म दिया और दूसरे अंबुज से शादी के बाद सुरुचि का घर में प्रवेश हुआ. शुरूशुरू में सब ठीक था, पर धीरेधीरे सुरुचि पैसों का हिसाब रखने लगी. प्रेरणा के प्रबंध में भी कोई न कोई नुक्स निकाली रहती. अंबुज का प्रेरणा से पूछपूछ कर काम करना भी उसे न भाता और न ही वह चाहती कि उस का अंबुज प्रेरणा के कहे पर चले. उसे साथ ले कर घूमनाफिरना, मूवी, मार्केट जाना, बिस्तर में बैठ कर साथ टीवी देखना, हंसीमजाक करना उस के कलुषित मन को और कसैला बना देता.

उस ने अंबुज से कई बार कहने की कोशिश की पर वह डपट देता कि कूड़ा दिमाग है तुम्हारा. साफ करो, मां के बाद भाभी मेरी मां समान हैं, बड़ी बहन भी हैं और दोस्त भी.

अंबुज के सामने तो वह चुप हो जाती पर प्रेरणा को रहरह कर ताने देने से बाज न आती. प्रेरणा का खून खौल उठता पर कलह बचाने के उद्देश्य से उस ने उसे कुछ न कहना ही उचित समझा. अंबुज से वह थोड़ी दूरी भी रखने लगी, जिस से सुरुचि को बुरा न लगे. उसे इस बात का ध्यान रहता. सुरुचि को तब भी चैन नहीं आया.

एक दिन उस ने मौका पा कर पंकज के कान भरने चाहे, ‘‘भैया आप तो बड़े भोले हो… काम में इतने व्यस्त रहे हैं… कुछ जानते ही नहीं कि घर में क्या हो रहा है.’’

‘‘क्या हो रहा है का मतलब?’’

तब सुरुचि ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया. सुन कर पंकज उसी पर आपे से बाहर हो गया. बोला, ‘‘छि: ऐसी घटिया बातें सोची भी कैसे तुम ने? अंबुज को वह अपना देवर नहीं छोटा भाई मानती है… अंबुज ने भी उसे बड़ी बहन का दर्जा दिया… मैं अधिक व्यस्त रहता हूं तो वह उस के साथ मिल कर घर की हर जरूरत का खयाल रखता है तो इस का यह मतलब है?’’

इसी बीच प्रेरणा वहां आ गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ पंकज?’’ पंकज को गुस्से में देख वह घबरा गई थी.

अंबुज भी वहां आ पहुंचा. वह समझ रहा था जो कड़वाहट सुरुचि ने उस के मन में घोलनी चाही थी वही जहर भैया के सामने उगल दिया होगा.

‘‘ऐसे शादी नहीं चल सकती. तुम्हें भाभी से माफी मांगनी होगी. फिर तुम चाहे जहां जाओ,’’ कह अंबुज ने वहां से खिसक रही सुरुचि को पकड़ लिया.

बीचबचाव करती प्रेरणा पास आ गई, ‘‘यह क्या तरीका है अंबुज पत्नी से बात करने का… छोड़ो इसे.’’

अंबुज ने पकड़ ढीली की तो सुरुचि एक ओर हट गई.

‘‘इस में गलत क्या है? किसी भी नवविवाहिता को बुरा लगेगा कि उस का पति उस से अधिक दूसरे को महत्त्व दे रहा है. यह तुम्हारे साथ अकेले कुछ समय बिताना चाहती है तो इस में हरज क्या है? हर जगह मुझे साथ ले चलो या हर बात में मैं घुसी रहूं यह भी ठीक नहीं. मैं ने पंकज से पहले ही कहा था… अंबुज अब तुम शादीशुदा हो. तुम दोनों की अपनी लाइफ, अपनी प्राइवेसी होनी चाहिए,’’ प्रेरणा बोली.

‘‘हां, प्रेरणा ने मुझ से पहले ही कहा था… मैं इसे नाहक ही गलत समझ रहा था. इस ने जिद कर के तुम्हें शादी की सालगिरह पर फ्लैट गिफ्ट करने के लिए खरीदवाया… यह तुम दोनों को सुखी देखना चाहती है. इस ने 2 बिजनैस भी अंबुज के नाम से अलग करवा दिए,’’ कह पंकज अलमारी से सारे पेपर्स निकाल लाया था, ‘‘तुम अगले हफ्ते क्या आज ही यह सब अपने पास रखो… जाओ तैयारी करो और खुश रहो.’’

‘‘भैयाभाभी, मुझे माफ कर दीजिए मैं ने आप को गलत समझा,’’ सुरुचि चरणों में गिर पड़ी.

अंबुज गुडि़या को गोद में उठाए उस के गाल पर प्यार करने के बहाने अपनी नम आंखों को पौंछ रहा था.

प्रेरणा समझ गई कि सब से अलग जाने की कल्पना से अंबुज का दिल कितना आहत हो उठा.

बोली, ‘‘कोई नहीं देवरजी पास ही तो हैं. दोनों जब चाहो आतेजाते रहना,’’ और फिर वह सुरुचि को प्यार से गले लगाते हुए बोली, ‘‘यह मीत मेरा पर मनमीत तुम्हारा ही है,’’ कह मुसकरा उठी.

Love Story : चलो एक बार फिर से – क्यों होने लगा काव्या का मोहभंग 

Love Story : ‘‘काव्या,कल जो लैटर्स तुम्हें ड्राफ्टिंग के लिए दिए थे, वे हो गया क्या?’’ औफिस सुपरिंटेंडैंट नमनजी की आवाज सुन कर मोबाइल पर चैट करती काव्या की उंगलियां थम गईं. उस ने नमनजी को ‘गुड मौर्निंग’ कहा और फिर अपनी टेबल की दराज से कुछ रफ पेपर निकाल कर उन की तरफ बढ़ा दिए.

देखते ही नमनजी का पारा चढ़ गया.

बोले, ‘‘यह क्या है? न तो इंग्लिश में स्पैलिंग सही हैं और न हिंदी में मात्राएं… यह होती है

क्या ड्राफ्टिंग? आजकल तुम्हारा ध्यान काम पर नहीं है.’’

‘‘सर, आप चिंता न करें, कंप्यूटर सारी मिस्टेक्स सही कर देगा,’’ काव्या ने लापरवाही से कहा. नमनजी कुछ तीखा कहते उस से पहले ही काव्या का मोबाइल बज उठा. वह ‘ऐक्सक्यूज मी’ कहती हुई अपना मोबाइल ले कर रूम से बाहर निकल गई. आधा घंटा बतियाने के बाद चहकती हुई काव्या वापस आई तो देखा नमनजी कंप्यूटर पर उन्हीं लैटर्स को टाइप कर रहे थे. वह जानती है कि इन्हें कंप्यूटर पर काम करना नहीं आता. नमनजी को परेशान होता देख उसे कुछ अपराधबोध हुआ. मगर काव्या भी क्या करे? मनन का फोन या मैसेज देखते ही बावली सी हो उठती है. फिर उसे कुछ और दिखाई या सुनाई ही नहीं देता.

‘‘आप रहने दीजिए सर. मैं टाइप कर देती हूं,’’ काव्या ने उन के पास जा कर कहा.

‘‘साहब आते ही होंगे… लैटर्स तैयार नहीं मिले तो गुस्सा करेंगे…’’ नमनजी ने अपनी नाराजगी को पीते हुए कहा.

‘‘सर तो आज लंच के बाद आएंगे… बिग बौस के साथ मीटिंग में जा रहे हैं,’’ काव्या बोली.

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘यों ही… वह कल सर फोन पर बिग बौस से बात कर रहे थे. तब मैं ने सुना था,’’ काव्या को लगा मानो उस की चोरी पकड़ी गई हो. वह सकपका गई और फिर नमनजी से लैटर्स ले कर चुपचाप टाइप करने लगी.

काव्या को इस औफिस में जौइन किए लगभग 4 साल हो गए थे. अपने पापा की मृत्यु के बाद सरकारी नियमानुसार उसे यहां क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. नमनजी ने ही उसे औफिस का सारा काम सिखाया था. चूंकि वे काव्या के पापा के सहकर्मी थे, इस नाते भी वह उन्हें पिता सा सम्मान देती थी. शुरूशुरू में जब उस ने जौइन किया था तो कितना उत्साह था उस में हर नए काम को सीखने का. मगर जब से ये नए बौस मनन आए हैं, काव्या का मन तो बस उन के इर्दगिर्द ही घूमता रहता है.

काव्या का कुंआरा मन मनन को देखते ही दीवाना सा हो गया था. 5 फुट 8 इंच हाइट, हलका सांवला रंग और एकदम परफैक्ट कदकाठी… और बातचीत का अंदाज तो इतना लुभावना कि उसे शब्दों का जादूगर ही कहने का मन करता था. असंभव शब्द तो जैसे नैपोलियन की तरह उस की डिक्शनरी में भी नहीं था. हर मुश्किल का हल था उस के पास… काव्या को लगता था कि बस वे बोलते ही रहें और वह सुनती रहे… ऐसे ही जीवनसाथी की तो कल्पना की थी उस ने अपने लिए.

मनन नई विचारधारा का हाईटैक औफिसर था. वह पेपरलैस वर्क का पक्षधर था. औफिस के सारे काम कंप्यूटर और मेल से करने पर जोर देता था. उस ने नमनजी जैसे रिटायरमैंट के करीब व्यक्ति को भी जब मेल करना सिखा दिया तो काव्या उस की फैन हो गई. सिर्फ काव्या ही नहीं, बल्कि औफिस का सारा स्टाफ ही मनन के व्यवहार का कायल था. वह अपने औफिस को भी परिवार ही समझता था. स्टाफ के हर सदस्य में पर्सनल टच रखता था. उस का मानना था कि हम दिन का एक अहम हिस्सा जिन के साथ बिताते हैं, उन के बारे में हमें पूरी जानकारी होनी चाहिए और उन से जुड़ी हर अच्छी और बुरी बात में हमें उन के साथ खड़े रहना चाहिए.

अपनी इस नीति के तहत हर दिन किसी एक व्यक्ति को अपने चैंबर में बुला कर चाय की चुसकियों के साथ मनन उन से व्यक्तिगत स्तर पर ढेर सी बातें करता था. इसी सिलसिले में काव्या को भी अपने साथ चाय पीने के लिए आमंत्रित करता था.

जिस दिन मनन के साथ काव्या की औफिस डेट होती थी, वह बड़े ही मन से तैया हो कर आती थी. कभीकभी अपने हाथ से बने स्नैक्स भी मनन को खिलाती थी. अपने स्वभाव के अनुसार वह उस की हर बात की तारीफ करती थी. काव्या को लगता था जैसे वह हर डेट के बाद मनन के और भी करीब आ जाती है. पता नहीं क्या था मनन की गहरी आंखों में कि उस ने एक बार झांका तो बस उन में डूबती ही चली गई.

मनन को शायद काव्या की मनोदशा का कुछ कुछ अंदाजा हो गया था, इसलिए वह अब काव्या को अपने चैंबर में अकेले कम ही बुलाता था. एक बार बातोंबातों में मनन ने उस से अपनी पत्नी प्रिया और 2 बच्चों विहान और विवान का जिक्र भी किया था. बच्चों में तो काव्या ने दिलचस्पी दिखाई थी, मगर पत्नी का जिक्र आते ही उस का मुंह उतर गया, जिसे मनन की अनुभवी आंखों ने फौरन ताड़ लिया.

पिछले साल मनन अपने बच्चों की गरमी की छुट्टियों में परिवार सहित शिमला घूमने गया था. उस की गैरमौजूदगी में काव्या को पहली बार यह एहसास हुआ कि मनन उस के लिए कितना जरूरी हो गया है. मनन का खाली चैंबर उसे काटने को दौड़ता था. दिल के हाथों मजबूर हो कर तीसरे दिन काव्या ने हिम्मत जुटा कर मनन को फोन लगाया. पूरा दिन उस का फोन नौट रीचेबल आता रहा. शायद पहाड़ी इलाके में नैटवर्क कमजोर था. आखिरकार उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ दिया-

‘‘मिसिंग यू… कम सून.’’

देर रात मैसेज देखने के बाद मनन ने रिप्लाई में सिर्फ 2 स्माइली भेजीं. मगर वे भी काव्या के लिए अमृत की बूंदों के समान थीं. 1 हफ्ते बाद जब मनन औफिस आया तो उसे देखते ही काव्या खिल उठी. उस ने थोड़ी देर तो मनन के बुलावे का इंतजार किया, फिर खुद ही उस के चैंबर में जा कर उस के ट्रिप के बारे में पूछने लगी. मनन ने भी उत्साह से उसे अपने सारे अनुभव बताए.

मनन महसूस कर रहा था कि जबजब भी प्रिया का जिक्र आता, काव्या कुछ बुझ सी जाती. कई दिनों के बाद दोनों ने साथ चाय पी थी. आज काव्या बहुत खुश थी.

दोपहर में नमनजी ने एक मेल दिखाते हुए काव्या से उस का रिप्लाई बनाने को कहा. कंपनी सैक्रेटरी ने आज ही औफिस स्टाफ की कंप्लीट डिटेल मंगवाई थी. रिपोर्ट बनाते समय अचानक काव्या मुसकरा उठी जब मनन की डिटेल बनाते समय उसे पता चला कि अगले महीने ही मनन का जन्मदिन है. मन ही मन उस ने मनन के लिए सरप्राइज प्लान कर लिया.

जन्मदिन वाले दिन सुबहसुबह काव्या ने मनन को फोन किया, ‘‘हैप्पी बर्थडे सर.’’

‘‘थैंकयू सो मच. मगर तुम्हें कैसे पता?’’ मनन ने पूछा.

‘‘यही तो अपनी खास बात है सर… जिसे यादों में रखते हैं उस की हर बात याद रखते हैं,’’ काव्या ने शायराना अंदाज में इठलाते हुए कहा.

मनन उस के बचपने पर मुसकरा उठा.

‘‘सिर्फ थैंकयू से काम नहीं चलेगा… ट्रीट तो बनती है…’’ काव्या ने अगला तीर छोड़ा.

‘‘औफकोर्स… बोलो कहां लोगी?’’

‘‘जहां आप ले चलो… आप साथ होंगे तो कहीं भी चलेगा…’’ काव्या धीरेधीरे मुद्दे की तरफ आ रही थी. अंत में तय हुआ कि मनन उसे मैटिनी शो में फिल्म दिखाएगा. मनन के साथ 3 घंटे उस की बगल में बैठने की कल्पना कर के ही काव्या हवा में उड़ रही थी. उस ने मनन से कहा कि फिल्म के टिकट वह औनलाइन बुक करवा लेगी.

अच्छी तरह चैक कर के काव्या ने लास्ट रौ की 2 कौर्नर सीट बुक करवा ली. अपनी पहली जीत पर उत्साह से भरी वह आधा घंटा पहले ही पहुंच कर हौल के बाहर मनन का इंतजार करने लगी. मगर मनन फिल्म शुरू होने पर ही आ पाया. उसे देखते ही काव्या ने मुसकरा कर एक बार फिर उसे बर्थडे विश किया और दोनों हौल में चले गए. चूंकि फिल्म स्टार्ट हो चुकी थी और हौल में अंधेरा था इसलिए काव्या ने धीरे से मनन का हाथ थाम लिया.

फिल्म बहुत ही कौमेडी थी. काव्या हर पंच पर हंसहंस के दोहरी हुई जा रही थी. 1-2 बार तो वह मनन के कंधे से ही सट गई. इंटरवल के बाद एक डरावने से सीन को देख कर उस ने मनन का हाथ कस कर थाम लिया. एक बार हाथ थामा तो फिर उस ने पूरी फिल्म में उसे पकड़े रखा. मनन ने भी हाथ छुड़ाने की ज्यादा कोशिश नहीं की.

फिल्म खत्म होते ही हौल खाली होने लगा. काव्या ने कहा, ‘‘2 मिनट रुक जाते हैं. अभी भीड़ बहुत है,’’ फिर अपने पर्स में कुछ टटोलने का नाटक करते हुए बोली, ‘‘यह लो… आप से ट्रीट तो ले ली और बर्थडे गिफ्ट दिया ही नहीं… आप अपनी आंखें बंद कीजिए…’’

मनन ने जैसे ही अपनी आंखें बंद कीं, काव्या ने एक गहरा चुंबन उस के होंठों पर जड़ दिया. मनन ने ऐसे सरप्राइज गिफ्ट की कोई कल्पना नहीं की थी. उस का दिल तेजी से धड़कने लगा और अनजाने ही उस के हाथ काव्या के इर्दगिर्द लिपट गए.

काव्या के लिए यह एकदम अनछुआ एहसास था. उस का रोमरोम भीग गया. वह मनन के कान में धीरे से बुदबुदाई, ‘‘यह जन्मदिन आप को जिंदगी भर याद रहेगा.’’

मनन अभी भी असमंजस में था कि इस राह पर कदम आगे बढ़ाए या फिर यहीं रुक जाए…

हिचकोले खाता यह रिश्ता धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था. जब भी काव्या मनन के साथ होती तो मनन उसे एक समर्पित प्रेमी सा लगता और जब वह उस से दूर होती तो उसे यह महसूस होता जैसे कि मनन से उस का रिश्ता ही नहीं है… जहां काव्या हर वक्त उसी के खयालों में खोई रहती, वहीं मनन के लिए उस का काम उस की पहली प्राथमिकता थी और उस के बाद उस के बच्चे. कव्या औफिस से जाने के बाद भी मनन के संपर्क में रहना चाहती थी, मगर मनन औफिस के बाद न तो उस का फोन उठाता था और न ही किसी मैसेज का जवाब देता था. कुल मिला कर काव्या उस के लिए दीवानी हो चुकी थी. मगर मनन शायद अभी भी इस रिश्ते को ले कर गंभीर नहीं था.

एक दिन सुबहसुबह मनन ने काव्या को चैंबर में बुला कर कहा, ‘‘काव्या, मुझे घर पर मैसेज मत किया करो… घर जाने के बाद बच्चे मेरे मोबाइल में गेम खेलने लगते हैं… ऐसे में कभी तुम्हारा कोई मैसेज किसी के हाथ लग गया तो बवाल मच जाएगा.’’

‘‘क्यों? क्या तुम डरते हो?’’ काव्या ने उसे ललकारा.

‘‘बात डरने की नहीं है… यह हम दोनों का निजी रिश्ता है. इसे सार्वजनिक कर के इस का अपमान नहीं करना चाहिए… कहते हैं न कि खूबसूरती की लोगों की बुरी नजर लग जाती और मैं नहीं चाहता कि हमारे इस खूबसूरत रिश्ते को किसी की नजर लगे,’’ मनन ने काव्या को बातों के जाल में उलझा दिया, क्योंकि वह जानता था कि प्यार से न समझाया गया तो काव्या अभी यही रोनाधोना शुरू कर देगी.

अपने पूरे समर्पण के बाद भी काव्या मनन को अपने लिए दीवाना नहीं बना पा रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा क्या करे जिस से मनन सिर्फ उस का हो कर रहे. वह मनन को कैसे जताए कि वह उस से कितना प्यार करती हैं… उस के लिए किस हद से गुजर सकती है… किसी से भी बगावत कर सकती है. आखिर काव्या को एक तरीका सूझ ही गया.

मनन अभी औफिस के लिए घर से निकला ही था कि काव्या का फोन आया.

बेहद कमजोर सी आवाज में उस ने कहा,  ‘‘मनन, मुझे तेज बुखार है और मां भी 2 दिन से नानी के घर गई हुई हैं. प्लीज, मुझे कोई दवा ला दो और हां मैं आज औफिस नहीं आ सकूंगी.’’

ममन ने घड़ी देखी. अभी आधा घंटा था उस के पास… उस ने रास्ते में एक मैडिकल स्टोर से बुखार की दवा ली और काव्या के घर पहुंचा.

डोरबैल बजाई तो अंदर से आवाज आई, ‘‘दरवाला खुला है, आ जाओ.’’

मनन अंदर आ गया. आज पहली बार वह काव्या के घर आया था. काव्या बिस्तर पर लेटी हुई थी. मनन ने इधरउधर देखा, घर में उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था.

मनन ने प्यार से काव्या के सिर पर हाथ रखा तो चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, तुम्हें तो बुखार है ही नहीं.’’

वह उस से लिपट कर सिसक उठी. रोतेरोते बोली, ‘‘मनन, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती… मैं नहीं जानती कि मैं क्या करूं… तुम्हें कैसे अपने प्यार की गहराई दिखाऊं… तुम्हीं बताओ कि मैं ऐसा क्या करूं जिस से तुम्हें बांध सकूं… हमेशा के लिए अपना बना सकूं…’’

‘‘मैं तो तुम्हारा ही हूं पगली… क्या तुम्हें अपने प्यार पर भरोसा नहीं है?’’ मनन ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा.

‘‘भरोसा तो मुझे तुम पर अपनेआप से भी ज्यादा है,’’ कह कर काव्या उस से और भी कस कर लिपट गई.

‘‘बिलकुल सिरफिरी हो तुम,’’ कह कर मनन उस के बालों को सहलातासहलाता उस के आंसुओं के साथ बहने लगा. तनहाइयों ने उन का भरपूर साथ दिया और दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. अपना मन तो काव्या पहले ही उसे दे चुकी थी आज अपना तन भी उस ने अपने प्रिय को सौंप दिया था. शादीशुदा मनन के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं थी, मगर काव्या का कुंआरा तन पहली बार प्यार की सतरंगी फुहारों से तरबतर हुआ था. आज उस ने पहली बार कायनात का सब से वर्जित फल चखा था.

काव्या अब संतुष्ट थी कि उस ने मनन को पूरी तरह से पा लिया है. झूम उठती थी वह जब मनन उसे प्यार से सिरफिरी कहता था. मगर उस का यह खुमार भी जल्द ही उतर गया. 2-3 साल तो मनन के मन का भौंरा काव्या के तन के पराग पर मंडराता रहा, मगर फिर वही ढाक के तीन पात… मनन फिर से अपने काम की तरफ झुकने लगा और काव्या को नजरअंदाज करने लगा. अब काव्या के पास भी समर्पण के लिए कुछ नहीं बचा था. वह परेशानी में और भी अधिक दीवानी होने लगी.

कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता… उन का रिश्ता भी पूरे विभाग में चर्चा का विषय बन गया. लोग सामने तो मनन की गरिमा का खयाल कर लेते थे, मगर पीठ पीछे उसे काव्या का भविष्य बरबाद करने के लिए जिम्मेदार ठहराते थे. हालांकि मनन तो अपनी तरफ से इस रिश्ते को नकारने की बहुत कोशिश करता था, मगर काव्या का दीवानापन उन के रिश्ते की हकीकत को बयां कर ही देता था, बल्कि वह तो खुद चाहती थी कि लोग उसे मनन के नाम से जानें.

बात उड़तेउड़ते दोनों के घर तक पहुंच गई. जहां काव्या की मां उस की शादी पर

जोर देने लगीं, वहीं प्रिया ने भी मनन से इस रिश्ते की सचाई के बारे में सवाल किए. प्रिया को तो मनन ने अपने शब्दों के जाल में उलझा लिया था, मगर विहान और विवान के सवालों के जवाब थे उन के पास… एक पिता भला अपने बच्चों से यह कैसे कह सकता है कि उन की मां की नाराजगी का कारण उस के नाजायज संबंध हैं. मनन काव्या से प्यार तो करता था, मगर एक पिता की जिम्मेदारियां भी बखूबी समझाता था. वह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहता था.

इधर काव्या की दीवानगी भी मनन के लिए परेशानी का कारण बनने लगी थी. एक दिन काव्या ने मनन को अकेले में मिलने के लिए बुलाया. मनन को उस दिन प्रिया के साथ बच्चों के स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में जाना था, इसलिए उस ने मना कर दिया. यही बात काव्या को नागवार गुजरी. वह लगातार मनन को फोन करने लगी, मगर मनन उस की मानसिकता अच्छी तरह समझता था. उस ने अपने मोबाइल को साइलैंट मोड पर डाल दिया. मीटिंग से फ्री हो कर मनन ने फोन देखा तो काव्या की 20 मिस्ड कौल देख कर उस का सिर चकरा गया. एक मैसेज भी था कि अगर मुझ से मिलने नहीं आए तो मुझे हमेशा के लिए खो दोगे.

‘‘सिरफिरी है, कुछ भी कर सकती है,’’ सोचते हुए मनन ने उसे फोन लगाया. सारी बात समझाने पर काव्या ने उसे घर आ कर सौरी बोलने की शर्त पर माफ किया. इतने दिनों बाद एकांत मिलने पर दोनों का बहकना तो स्वाभाविक ही था.

ज्वार उतरने के बाद काव्या ने कहा, ‘‘मनन, हमारे रिश्ते का भविष्य क्या है? सब लोग मुझ पर शादी करने का दबाव बना रहे हैं.’’

‘‘सही ही तो कर रहे हैं सब. अब तुम्हें भी इस बारे में सोचना चाहिए,’’ मनन ने कपड़े पहनते हुए कहा.

‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें मुझ से ऐसी बात करते हुए… क्या तुम मेरे साथ बिस्तर पर किसी और की कल्पना कर सकते हो?’’ काव्या तड़प उठी.

‘‘नहीं कर सकता… मगर हकीकत यही है कि मैं तुम्हें प्यार तो कर सकता हूं और करता भी हूं, मगर एक सुरक्षित भविष्य नहीं दे सकता,’’ मनन ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मगर तुम्हारे बिना तो मेरा कोई भविष्य ही नहीं है,’’ काव्या के आंसू बहने लगे.

मनन समझ नहीं पा रहा था कि इस सिरफिरी को कैसे समझाए. तभी मनन का कोई जरूरी कौल आ गई और वह काव्या को हैरानपरेशान छोड़ चला गया. काव्या ने अपनेआप से प्रश्न किया कि क्या मनन उस का इस्तेमाल कर रहा है… उसे धोखा दे रहा है?

नहीं, बिलकुल नहीं… मनन ने कभी उस से शादी का कोई झूठा वादा नहीं किया, बल्कि पहले दिन से ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी. प्यार की पहल खुद उसी ने की थी… उसी ने मनन को निमंत्रण दिया था अपने पास आने का…’’ काव्या को जवाब मिला.

तो फिर क्यों वह मनन को जवाबदेह बनाना चाह रही है… क्यों वह अपनी इस स्थिति के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा रही है… काव्या दोराहे पर खड़ी थी. एक तरफ मनन का प्यार था, मगर उस पर अधिकार नहीं था और दूसरी तरफ ऐसा भविष्य था जिस के सुखी होने की कोई गारंटी नहीं थी. क्या करे, क्या न करे… कहीं और शादी कर भी ले तो क्या मनन को भुला पाएगी? उस के इतना पास रह कर क्या किसी और को अपनी बगल में जगह दे पाएगी? प्रश्न बहुत से थे, मगर जवाब कहीं नहीं थे. इसी कशमकश में काव्या अपने लिए आने वाले हर रिश्ते को नकारती जा रही थी.

इसी बीच प्रमोशन के साथ ही मनन का ट्रांसफर दूसरे सैक्शन में हो गया. अब

काव्या के लिए मनन को रोज देखना भी मुश्किल हो गया था. प्रमोशन के साथ ही उस की जिम्मेदारियां भी पहले से काफी बढ़ गई थीं. इधर विहान और विवान भी स्कूल से कालेज में आ गए थे. मनन को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखना पड़ता था. इस तरह काव्या से उस का संपर्क कम से कमतर होता गया. मनन की बेरुखी से काव्या डिप्रैशन में रहने लगी. वह दिन देखती न रात… बारबार मनन को फोन, मैसेज करने लगी तो मनन ने उस का मोबाइल नंबर ब्लौक कर दिया.

एक दिन काव्या को कहीं से खबर मिली कि मनन विभाग की तरफ से किसी ट्रेनिंग के लिए चेन्नई जा रहा है और फिर वहीं 3 साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर रहेगा. काव्या को सदमा सा लगा. वह सुबहसुबह उस के औफिस में पहुंच गई. मनन अभी तक आया नहीं था. वह वहीं बैठ कर उस का इंतजार करने लगी. जैसे ही मनन चैंबर में घुसा काव्या फूटफूट कर रोने लगी. रोतेरोते बोली, ‘‘इतनी बड़ी बात हो गई और तुम ने मुझे बताने लायक भी नहीं समझा?’’

मनन घबरा गया. उस ने फौरन चैंबर का गेट बंद किया और काव्या को पानी का गिलास थमाया. वह कुछ शांत हुई तो मनन बोला, ‘‘बता देता तो क्या तुम मुझे जाने देतीं?’’

‘‘इतना अधिकार तो तुम ने मुझे कभी दिया ही नहीं कि मैं तुम्हें रोक सकूं,’’ काव्या ने गहरी निराशा से कहा.

‘‘काव्या, मैं जानबूझ कर तुम से दूर जाना चाहता हूं ताकि तुम अपने भविष्य के बारे में सोच सको, क्योंकि मैं जानता हूं कि जब तक मैं तुम्हारे आसपास हूं, तुम मेरे अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकती. मैं इतना प्यार देने के लिए हमेशा तुम्हारा शुक्रगुजार रहूंगा…’’

‘‘मैं अपने स्वार्थ की खातिर तुम्हारी जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता. मुझे लगता है कि हमें अपने रिश्ते को यही छोड़ कर आगे बढ़ना चहिए. मैं ने तुम्हें हमेशा बिना शर्त प्यार किया है और करता रहूंगा. मगर मैं इसे सामाजिक मान्यता नहीं दे सकता… काश, तुम ने मुझे प्यार न किया होता… मैं तुम्हें प्यार करता हूं, इसीलिए चाहता हूं कि तुम हमेशा खुश रहो… हम चाहे कहीं भी रहें, तुम मेरे दिल में हमेशा रहोगी…’’

सुन कर काव्या को सदमा तो लगा, मगर मनन सच ही कह रहा था. अंधेरे में भटकने से बेहतर है कि  उसे अब नया चिराग जला कर आगे बढ़ जाना चाहिए.

काव्या ने अपने आंसू पोंछ, फिर से मुसकराई, फिर उठते हुए मनन से हाथ मिलाते हुए बोली, ‘‘नए प्रोजैक्ट के लिए औल द बैस्ट… चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएं हम दोनों… और हां, मुझे पहले प्यार की अनुभूति देने के लिए शुक्रिया…’’ और फिर उस के साथ चैंबर से बाहर निकल गई.

Romantic Story : कच्‍चा पक्‍का बंधन – जो टूट न सका

Romantic Story : आज सलोनी विदा हो गई. एअरपोर्ट से लौट कर रंभा दी ड्राइंगरूम में ही सोफे पर निढाल सी लेट गईं. 1 महीने की गहमागहमी, भागमभाग के बाद आज घर बिलकुल सूनासूना सा लग रहा था. बेटी की विदाई से निकल रहे आंसुओं के सैलाब को रोकने में रंभा दी की बंद पलकें नाकाम थीं. मन था कि आंसुओं से भीग कर नर्म हुई उन यादों को कुरेदे जा रहा था, जिन्हें 25 साल पहले दफना कर रंभा दी ने अपने सुखद वर्तमान का महल खड़ा किया था.

मुंगेर के सब से प्रतिष्ठित, धनाढ्य मधुसूदन परिवार को भला कौन नहीं जानता था. घर के प्रमुख मधुसूदन शहर के ख्यातिप्राप्त वकील थे. वृद्धावस्था में भी उन के यहां मुवक्किलों का तांता लगा रहता था. वे अब तक खानदानी इज्जत को सहेजे हुए थे. लेकिन उन्हीं के इकलौते रंभा के पिता शंभुनाथ कुल की मर्यादा के साथसाथ धनदौलत को भी दारू में उड़ा रहे थे. उन्हें संभालने की तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं. पिता ने किसी तरह वकालत की डिगरी भी दिलवा दी थी ताकि अपने साथ बैठा कर कुछ सिखा सकें. लेकिन दिनरात नशे में धुत्त लड़खड़ाती आवाज वाले वकील को कौन पूछता?

बहू भी समझदार नहीं थी. पति या बच्चों को संभालने के बजाय दिनरात अपने को कोसती, कलह करती. ऐसे वातावरण में बच्चों को क्या संस्कार मिलेंगे या उन का क्या भविष्य होगा, यह दादाजी समझ रहे थे. पोते की तो नहीं, क्योंकि वह लड़का था, दादाजी को चिंता अपनी रूपसी, चंचल पोती रंभा की थी. उसे वे गैरजिम्मेदार मातापिता के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते थे. इसी कारण मैट्रिक की परीक्षा देते ही मात्र 18 साल की उम्र में रंभा की शादी करवा दी.

आशुतोषजी का पटना में फर्नीचर का एक बहुत बड़ा शोरूम था. अपने परिवार में वे अकेले लड़के थे. उन की दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी. मां का देहांत जब ये सब छोटे ही थे तब ही हो गया था. बच्चों की परवरिश उन की बालविधवा चाची ने की थी.

शादी के बाद रंभा भी पटना आ गईं. रिजल्ट निकलने के बाद उन का आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला पटना में ही हो गया. आशुतोषजी और रंभा में उम्र के साथसाथ स्वभाव में भी काफी अंतर था. जहां रंभा चंचल, बातूनी और मौजमस्ती करने वाली थीं, वहीं आशुतोषजी शांत और गंभीर स्वभाव के थे. वे पूरा दिन दुकान पर ही रहते. फिर भी रंभा दी को कोई शिकायत नहीं थी.

नया बड़ा शहर, कालेज का खुला माहौल, नईनई सहेलियां, नई उमंगें, नई तरंगें. रंभा दी आजाद पक्षी की तरह मौजमस्ती में डूबी रहतीं. कोई रोकनेटोकने वाला था नहीं. उन दिनों चाचीसास आई हुई थीं. फिर भी उन की उच्छृंखलता कायम थी. एक रात करीब 9 बजे रंभा फिल्म देख कर लौटीं. आशुतोषजी रात 11 बजे के बाद ही घर लौटते थे, लेकिन उस दिन समय पर रंभा दी के घर नहीं पहुंचने पर चाची ने घबरा कर उन्हें बुला लिया था. वे बाहर बरामदे में ही चाची के साथ बैठे मिले.

‘‘कहां से आ रही हो?’’ उन की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था.

‘‘क्लास थोड़ी देर से खत्म हुई,’’ रंभा दी ने जवाब दिया.

‘‘मैं 5 बजे कालेज गया था. कालेज तो बंद था?’’

अपने एक झूठ को छिपाने के लिए रंभा दी ने दूसरी कहानी गढ़ी, ‘‘लौटते वक्त सीमा दीदी के यहां चली गई थी.’’ सीमा दी आशुतोषजी के दोस्त की पत्नी थीं जो रंभा दी के कालेज में ही पढ़ती थीं.

आशुतोषजी गुस्से से हाथ में पकड़ा हुआ गिलास रंभा की तरफ जोर से फेंक कर चिल्लाए, ‘‘कुछ तो शर्म करो… सीमा और अरुण अभीअभी यहां से गए हैं… घर में पूरा दिन चाची अकेली रहती हैं… कालेज जाने तक तो ठीक है… उस के बाद गुलछर्रे उड़ाती रहती हो. अपने घर के संस्कार दिखा रही हो?’’

आशुतोषजी आपे से बाहर हो गए थे. उन का गुस्सा वाजिब भी था. शादी को 1 साल हो गया था. उन्होंने रंभा दी को किसी बात के लिए कभी नहीं टोका. लेकिन आज मां तुल्य चाची के सामने उन्हें रंभा दी की आदतों के कारण शर्मिंदा होना पड़ा था.

रंभा दी का गुस्सा भी 7वें आसमान पर था. एक तो नादान उम्र उस पर दूसरे के सामने हुई बेइज्जती के कारण वे रात भर सुलगती रहीं.

सुबह बिना किसी को बताए मायके आ गईं. घर में किसी ने कुछ पूछा भी नहीं. देखने, समझने, समझाने वाले दादाजी तो पोती की विदाई के 6 महीने बाद ही दुनिया से विदा हो गए थे.

आशुतोषजी ने जरूर फोन कर के उन के पहुंचने का समाचार जान लिया. फिर कभी फोन नहीं किया. 3-4 दिनों के बाद रंभा दी ने मां से उस घटना का जिक्र किया. लेकिन मां उन्हें समझाने के बजाय और उकसाने लगीं, ‘‘क्या समझाते हैं… हाथ उठा दिया… केस ठोंक देंगे तब पता चलेगा.’’ शायद अपने दुखद दांपत्य के कारण बेटी के प्रति भी वे कू्रर हो गई थीं. उन की ममता जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम कर रही थी. रंभा दी अपनी विगत जिंदगी की कहानी अकसर टुकड़ोंटुकड़ों में बताती रहतीं, ‘‘मुझे आज भी जब अपनी नादानियां याद आती हैं तो अपने से ज्यादा मां पर क्रोध आता है. मेरे 5 अनमोल साल मां के कारण मुझ से छिन गए. लेकिन शायद मेरा कुछ भला ही होना था…’’ और वे फिर यादों में खो जातीं…

इंटर की परीक्षा करीब थी. वे अपनी पढ़ाई का नुकसान नहीं चाहती थीं, इसलिए परीक्षा देने पटना में दूर के एक मामा के यहां गईं. वहां मामा के दानव जैसे 2 बेटे अपनी तीखी निगाहों से अकसर उन का पीछा करते रहते. उन की नजरें उन के शरीर का ऐसे मुआयना करतीं कि लगता वे वस्त्रविहीन हो गई हैं. एक रात अपनी कमर के पास किसी का स्पर्श पा कर वे घबरा कर बैठ गईं. एक छाया को उन्होंने दौड़ते हुए बाहर जाते देखा. उस दिन के बाद से वे दरवाजा बंद कर के सोतीं. किसी तरह परीक्षा दे कर वे वापस आ गईं.

मां की अव्यावहारिक सलाह पर एक बार फिर वे अपनी मौसी की लड़की के यहां दिल्ली गईं. उन्होंने सोचा था कि फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर के बुटीक वगैरह खोल लेंगी. लेकिन वहां जाने पर बहन को अपने 2 छोटेछोटे बच्चों के लिए मुफ्त की आया मिल गई. वे अकसर उन्हें रंभा दी के भरोसे छोड़ कर पार्टियों में व्यस्त रहतीं. बच्चों के साथ रंभा को अच्छा तो लगता था, लेकिन यहां आने का उन का एक मकसद था. एक दिन रंभा ने मौसी की लड़की के पति से पूछा, ‘‘सुशांतजी, थोड़ा कोर्स वगैरह का पता करवाइए, ऐसे कब तक बैठी रहूंगी.’’

बहन उस वक्त घर में नहीं थी. बहनोई मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, आराम से रहिए न… यहां किसी चीज की कमी है क्या? किसी चीज की कमी हो तो हम से कहिएगा, हम पूरी कर देंगे.’’

उन की बातों के लिजलिजे एहसास से रंभा को घिन आने लगी कि उन के यहां पत्नी की बड़ी बहन को बहुत आदर की नजरों से देखते हैं… उन के लिए ऐसी सोच? फिर रंभा दी दृढ़ निश्चय कर के वापस मायके आ गईं.

मायके की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. पिताजी का लिवर खराब हो गया था. उन के इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे. रंभा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं थी. रंभा ने अपने सारे गहने बेच कर पैसे बैंक में जमा करवाए और फिर बी.ए. में दाखिला ले लिया. एम.ए. करने के बाद रंभा की उसी कालेज में नौकरी लग गई.

5 साल का समय बीत चुका था. पिताजी का देहांत हो गया था. भाई भी पिता के रास्ते चल रहा था. घर तक बिकने की नौबत आ गई थी. आमदनी का एक मात्र जरीया रंभा ही थीं. अब भाई की नजर रंभा की ससुराल की संपत्ति पर थी. वह रंभा पर दबाव डाल रहा था कि तलाक ले लो. अच्छीखासी रकम मिल जाएगी. लेकिन अब तक की जिंदगी से रंभा ने जान लिया था कि तलाक के बाद उसे पैसे भले ही मिल जाएं, लेकिन वह इज्जत, वह सम्मान, वह आधार नहीं मिल पाएगा जिस पर सिर टिका कर वे आगे की जिंदगी बिता सकें.

आशुतोषजी के बारे में भी पता चलता रहता. वे अपना सारा ध्यान अपने व्यवसाय को बढ़ाने में लगाए हुए थे. उन की जिंदगी में रंभा की जगह किसी ने नहीं भरी थी. भाई के तलाक के लिए बढ़ते दबाव से तंग आ कर एक दिन बहुत हिम्मत कर के रंभा ने उन्हें फोन मिलाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, कौन?’’

आशुतोषजी की आवाज सुन कर रंभा की सांसों की गति बढ़ गई. लेकिन आवाज गुम हो गई.

हैलो, हैलो…’’ उन्होंने फिर पूछा, ‘‘कौन? रंभा.’’

‘‘हां… कैसे हैं? उन की दबी सी आवाज निकली.’’

‘‘5 साल, 8 महीने, 25 दिन, 20 घंटों के बाद आज कैसे याद किया? उन की बातें रंभा के कानों में अमृत के समान घुलती जा रही थीं.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’ रंभा ने प्रश्न किया.

‘‘तुम क्या चाहती हो?’’ उन्होंने प्रतिप्रश्न किया.

‘‘मैं तलाक नहीं चाहती.’’

‘‘तो लौट आओ, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’ और सचमुच दूसरे दिन बिना किसी को बताए जैसे रंभा अपने घर लौट गईं. फिर साहिल पैदा हुआ और फिर सलोनी.

रंभा दी मुंगेर के जिस कालेज में इकोनौमिक्स की विभागाध्यक्ष और सहप्राचार्या थीं, उसी कालेज में मैं हिंदी की प्राध्यापिका थी. उम्र और स्वभाव में अंतर के बावजूद हम दोनों की दोस्ती मशहूर थी.

रंभा दी को पूरा कालेज हिटलर के नाम से जानता था. आभूषण और शृंगारविहीन कठोर चेहरा, भिंचे हुए होंठ, बड़ीबड़ी आंखों को ढकता बड़ा सा चश्मा. बेहद रोबीला व्यक्तित्व था. जैसा व्यक्तित्व था वैसी ही आवाज. बिना माइक के भी जब बोलतीं तो परिसर के दूसरे सिरे तक साफ सुनाई देता.

लेकिन रंभा दी की सारी कठोरता कक्षा में पढ़ाते वक्त बालसुलभ कोमलता में बदल जाती. अर्थशास्त्र जैसे जटिल विषय को भी वे अपने पढ़ाने की अद्भुत कला से सरल बना देतीं. कला संकाय की लड़कियों में शायद इसी कारण इकोनौमिक्स लेने की होड़ लगी रहती थी. हर साल इस विषय की टौपर हमारे कालेज की ही छात्रा होती थी.

मैं तब भी रंभा दी के विगत जीवन की तुलना वर्तमान से करती तो हैरान हो जाती कि कितना प्यार, तालमेल है उन के परिवार में. अगर रंभा दी किसी काम के लिए बस नजर उठा कर आशुतोषजी की तरफ देखतीं तो वे उन की बात समझ कर जब तक नजर घुमाते साहिल उसे करने को दौड़ता. तब तक तो सलोनी उस काम को कर चुकी होती.

दोनों बच्चे रूपरंग में मां पर गए थे. सलोनी थोड़ी सांवली थी, लेकिन तीखे नैननक्श और छरहरी काया के कारण बहुत आकर्षक लगती थी. वह एम.एससी. की परीक्षा दे चुकी थी. साहिल एम.बी.ए. कर के बैंगलुरु में एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर नियुक्त था. उस ने एक सिंधी लड़की को पसंद किया था. मातापिता की मंजूरी उसे मिल चुकी थी मगर वह सलोनी की शादी के बाद अपनी शादी करना चाहता था.

लेकिन सलोनी शादी के नाम से ही बिदक जाती थी. शायद अपनी मां के शुरुआती वैवाहिक जीवन के कारण उस का शादी से मन उचट गया था.

फिर एक दिन रंभा दी ने ही समझाया, ‘‘बेटी, शादी में कोई शर्त नहीं होती. शादी एक ऐसा पवित्र बंधन है जिस में तुम जितना बंधोगी उतना मुक्त होती जाओगी… जितना झुकोगी उतना ऊपर उठती जाओगी. शुरू में हम दोनों अपनेअपने अहं के कारण अड़े रहे तो खुशियां हम से दूर रहीं. फिर जहां एक झुका दूसरे ने उसे थाम के उठा लिया, सिरमाथे पर बैठा लिया. बस शादी की सफलता की यही कुंजी है. जहां अहं की दीवार गिरी, प्रेम का सोता फूट पड़ता है.’’

धीरेधीरे सलोनी आश्वस्त हुई और आज 7 फेरे लेने जा रही थी. सुबह से रंभा दी का 4-5 बार फोन आ चुका था, ‘‘सुभि, देख न सलोनी तो पार्लर जाने को बिलकुल तैयार नहीं है. अरे, शादी है कोई वादविवाद प्रतियोगिता नहीं कि सलवारकमीज पहनी और स्टेज पर चढ़ गई. तू ही जरा जल्दी आ कर उस का हलका मेकअप कर दे.’’

5 बज गए थे. साहिल गेट के पास खड़ा हो कर सजावट वाले को कुछ निर्देश दे रहा था. जब से शादी तय हुई थी वह एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह घरबाहर दोनों के सारे काम संभाल रहा था. मुझे देख कर वह हंसता हुआ बोला, ‘‘शुक्र है मौसी आप आ गईं. मां अंदर बेचैन हुए जा रही हैं.’’

मैं हंसते हुए घर में दाखिल हुई. पूरा घर मेहमानों से भरा था. किसी रस्म की तैयारी चल रही थी. मुझे देखते ही रंभा दी तुरंत मेरे पास आ गईं. मैं ठगी सी उन्हें निहार रही थी. पीली बंधेज की साड़ी, पूरे हाथों में लाल चूडि़यां, पैरों में आलता, कानों में झुमके, गले में लटकी चेन और मांग में सिंदूर. मैं तो उन्हें पहचान ही नहीं पाई.

‘‘रंभा दी, कहीं समधी तुम्हारे साथ ही फेरे लेने की जिद न कर बैठें,’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘आशुतोषजी पीली धोती में मंडप में बैठे कुछ कर रहे थे. यह सुन कर ठठा कर हंस पड़े. फिर रंभा दी की तरफ प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘आज कहीं, बेटी और बीवी दोनों को विदा न करना पड़ जाए.’’

रंभा दीदी शर्म से लाल हो गईं. मुझे खींचते हुए सलोनी के कमरे में ले गईं. शाम कोजब सलोनी सजधज कर तैयार हुई तो मांबाप, भाई सब उसे निहार कर निहाल हो गए. रंभा दी ने उसे सीने से लगा लिया. मैं ने सलोनी को चेताया, ‘‘खबरदार जो 1 भी आंसू टपकाया वरना मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

सलोनी धीमे से हंस दी. लेकिन आंखों ने मोती बिखेर ही दिए. रंभा दी ने हौले से उसे अपने आंचल में समेट लिया.

स्टेज पर पूरे परिवार का ग्रुप फोटो लिया जा रहा था. रंभा दी के परिवार की 4 मनकों की माला में आज दामाद के रूप में 1 और मनका जुड़ गया था.

उन लोगों को देख कर मुझे एक बार रंभा दी की कही बात याद आ गई. कालेज के सालाना जलसे में समाज में बढ़ रही तलाक की घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि प्रेम का धागा मत तोड़ो, अगर टूटे तो फिर से जोड़ो.

आज उन्हें और उन के परिवार को देख कर यह बात सिद्ध भी हो रही थी. रंभा दी के प्रेम का धागा एक बार टूटने के बावजूद फिर जुड़ा और इतनी दृढ़ता से जुड़ा कि गांठ की बात तो दूर उस की कोई निशानी भी शेष नहीं है. उन के सच्चे, निष्कपट प्यार की ऊष्मा में इतनी ऊर्जा थी जिस ने सभी गांठों को पिघला कर धागे को और चिकना और सुदृढ़ कर दिया.

Hindi Story : मुट्ठी भर प्यार – धरा कौन सी खबर सुनकर परेशान हो गई थी?

Hindi Story : ‘‘धरा, मम्मी गुजर गईं. मैं निकल रही हूं अभी,’’ सुबकते हुए बूआजी ने बताया.

मैं उन से एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बोल ही कहां पाती…सूचना ही इतनी अप्रत्याशित थी. सुन कर जैसे यकीन ही नहीं आया और जब तक यकीन हुआ फोन कट चुका था. इतना भी नहीं पूछ पाई कि यह सब कैसे और कब हुआ.

वे मानें या न मानें पर यह सच है कि जितना हम बूआ के प्यार को तरसे हैं उतनी ही हमारी कमी बूआजी ने भी महसूस की होगी. हमारे संबंधों में लक्ष्मण रेखाएं मम्मीपापा ने खींच दीं. इस में हम दोनों बहनें कहां दोषी हैं. कहते हैं कि मांबाप के कर्मों की सजा उन के बच्चों को भोगनी पड़ती है. सो भोग रहे हैं, कारण चाहे कुछ भी हों.

कितनाकितना सामान बूआजी हम दोनों बहनों के लिए ले कर आती थीं. बूआजी के कोई बेटी नहीं थी और हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के लिए भी जो कुछ थीं बस, बूआजी ही थीं. अत: अकेली बूआजी हर रक्षाबंधन पर दौड़ी चली आतीं. उमंग और नमन भैया के हम से राखी बंधवातीं और राखी बंधाई में भैया हमें सुंदर ड्रेसें देते, साथ में होतीं मैचिंग क्लिप, रूमाल, चूडि़यां, टौफी और चौकलेट.

हम बूआजी के आगेपीछे घूमते. बूआजी अपने साथ बाजार ले जातीं, आइसक्रीम खिलातीं, कोक पिलातीं, ढेरों सामान से लदे जब हम घर में घुसते तो दादीमां बूआजी को डांटतीं, ‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी? इन दोनों के पास इतना सामान है, खिलौने हैं, पर इन का मन भरता ही नहीं.’

बूआजी हंस कर कहतीं, ‘मम्मी, अब घर में शैतानी करने को ये ही 2 बच्चियां हैं. घर कैसा गुलजार रहता है. ये हमारा बूआभतीजी का मामला है, कोई बीच में नहीं बोलेगा.’

थोडे़ बड़े हुए तो मुट्ठी में बंद सितारे बिखर गए. बूआजी को बुलाना तो दूर पापाजी ने उन का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी. बूआजी आतीं, भैया आते तो हम चोरीचोरी उन से मिलते. वह प्यार करतीं तो उन की आंखें नम हो आतीं.

पापामम्मी ने कभी बूआजी को अपने घर नहीं बुलाया. भैया से भी नहीं बोले, जबकि बूआजी हम पर अब भी जान छिड़कती थीं. राखियां खुल गईं. रिश्ते बेमानी हो गए. कैसे इंतजार करूं कि कभी बूआजी बुलाएंगी और कहेंगी, ‘धरा और तान्या, तुम अपनी बूआजी को कैसे भूल गईं? कभी अपनी बूआ के घर आओ न.’

कैसे कहतीं बूआजी? उन के आगे रिश्तों का एक जंगल उग आया था और उस के पार बूआजी आ नहीं सकती थीं. जाने ऐसे कितने जंगल रिश्तों के बीच उग आए जो वक्तबेवक्त खरोंच कर लहूलुहान करते रहे. बूआजी के एक फोन से कितना कुछ सोच गई मैं.

मैं अतीत से बाहर आ कर अपने कर्तव्य की ओर उन्मुख हुई. तान्या को मैं ने फौरन फोन मिलाया तो वह बोली, ‘‘दीदी, फिलहाल मैं नहीं निकल पाऊंगी. बंगलौर से वहां पहुंचने में 2 दिन तो लग ही जाएंगे. फ्लाइट का भी कोई भरोसा नहीं, टिकट मिले न मिले. फिर ईशान भी यहां नहीं हैं. मैं तेरहवीं पर पहुंचूंगी. प्लीज, आप निकल जाइए,’’ फिर थोड़ा रुक कर पूछने लगीं, ‘‘दीदी, आप को खबर किस ने दी? कैसे हुआ ये सब?’’ पूछतेपूछते रो दी तानी.

‘‘तानी, मुझे कुछ भी पता नहीं. बस, बूआजी का फोन आया था. कितना प्यार करती थीं हमें दादी. तानी, क्या मेरा जाना मम्मीपापा को अच्छा लगेगा? क्या मम्मीपापा भी उन्हें अंतिम प्रणाम करेंगे?’’

‘‘नहीं, दीदी, यह समय रिश्तों को तोलने का नहीं है. मम्मीपापा अपने रिश्ते आप जानें. हमें तो अपनी दादी के करीब उन के अंतिम क्षणों में जाना चाहिए. दादी को अंतिम प्रणाम के लिए मेरी ओर से कुछ फूल जरूर चढ़ा देना.’’

मैं ने हर्ष के आफिस फोन मिलाया और उन्हें भी इस दुखद समाचार से अवगत कराया.

‘‘तुम तैयार रहना, धरा. मैं 15 मिनट में पहुंच रहा हूं.’’

फोन रख मैं ने अलमारी खोली और तैयार होने के लिए साड़ी निकालने लगी. तभी दादी की दी हुई कांजीवरम की साड़ी पर नजर पड़ी. मैं ने साड़ी छुई तो लगा दादी को छू रही हूं. उन का प्यार मुझे सहला गया. दादी की दी हुई एकएक चीज पर मैं हाथ फिरा कर देखने लगी. इतना प्यार इन चीजों पर इस से पहले मुझे कभी नहीं आया था.

आंखें बहे जा रही थीं. दादी की दी हुई सोने की चेन, अंगूठी, टौप्स को देने का उन का ढंग याद आ गया. लौटते समय दादी चुपचाप मुट्ठी में थमा देतीं. उन के देने का यही ढंग रहा. अपना मुट्ठी भर प्यार मुट्ठी में ही दिया.

हर्ष को भी जब चाहे कुछ न कुछ मुट्ठी में थमा ही देतीं. 1-2 बार हर्ष ने मना करना चाहा तो बोलीं, ‘‘हर्ष बेटा, इतना सा भी अधिकार तुम मुझे देना नहीं चाहते. तुम्हें कुछ दे कर मुझे सुकून मिलता है,’’ और इतना कहतेकहते उन की आंखें भर आई थीं.

तभी से हर्ष दादी से मिले रुपयों पर एक छोटा सा फूल बना कर संभाल कर रख देते और मुझे भी सख्त हिदायत थी कि मैं भी दादी से मिले रुपए खर्च न करूं.

मुझे नहीं पता कि मम्मीपापा का झगड़ा दादादादी से किस बात पर हुआ. बस, धुंधली सी याद है. उस समय मैं 6 साल की थी. पापादादी मां से खूब लड़ेझगड़े थे और उसी के बाद अपना सामान ऊपर की मंजिल में ले जा कर रहने लगे थे.

इस के बाद ही मम्मीपापा ने दादी और दादा के पास जाने पर रोक लगा दी. यदि हमें उन से कुछ लेते देख लेते तो छीन कर कूड़े की टोकरी में फेंक देते और दादी को खूब खरीखोटी सुनाते. दादी ने कभी उन की बात का जवाब नहीं दिया.

जब पापा कहीं चले जाते और मम्मी आराम करने लगतीं तो हम यानी मैं और तानी चुपके से नीचे उतर जातीं. दादी हमें कलेजे से लगा लेतीं और खाने के लिए हमारी पसंद की चीजें देतीं. बाजार जातीं तो हमारे लिए पेस्ट्री अवश्य लातीं जिसे पापामम्मी की नजरें बचा कर स्कूल जाते समय हमें थमा देतीं.

मम्मी पापा से शिकायत करतीं. पापा चांटे लगाते और कान पकड़ कर प्रामिस लेते कि अब नीचे नहीं जाएंगे. और हम डर कर प्रामिस कर लेतीं लेकिन उन के घर से निकलते ही मैं और तानी आंखोंआंखों में इशारा करतीं और खेलने का बहाना कर दादी के पास पहुंच जाते. दादी हमें खूब प्यार करतीं और समझातीं, ‘‘अच्छे बच्चे अपने मम्मीपापा का कहना मानते हैं.’’

तानी गुस्से से कहती, ‘‘वह आप के पास नहीं आने देते. हम तो यहां जरूर आएंगे. क्या आप हमारे दादादादी नहीं हो? क्या आप के बच्चे आप की बात मानते हैं जो हम मानें?’’

दादी के पास हमारे इस सवाल का कोई उत्तर नहीं होता था.

दादी के एक तरफ मैं लेटती दूसरी तरफ तानी और बीच में वह लेटतीं. वह रोज हमें नई कहानियां सुनातीं. स्कूल की बातें सुनातीं और जब पापा छोटे थे तब की ढेर सारी बातें बतातीं. हमें बड़ा आनंद आता.

दादाजी की जेब की तलाशी में कभी चुइंगम, कभी जैली और कभी टौफी मिल जाती, क्योंकि दादाजी जानते थे कि बच्चों को जेबों की तलाशी लेनी है और उन्हें निराश नहीं होने देना है. उन के मतलब का कुछ तो मिलना चाहिए.

दादी झगड़ती हुई दादाजी से कहतीं, ‘तुम ने टौफी, चाकलेट खिलाखिला कर इन की आदतें खराब कर दी हैं. ये तानी तो सारा दिन चीज मांगती रहती है. देखते नहीं बच्चों के सारे दांत खराब हो रहे हैं.’

दादाजी चुपचाप सुनते और मुसकराते रहते.

तानी दादी की नकल करती हुई घुटनों पर हाथ रख कर उन की तरह कराहती. कभी पलंग पर चढ़ कर बिस्तर गंदा करती.

‘तानी, तू कहना नहीं मानेगी तो तेरी मैडम से शिकायत करूंगी,’ दादी झिड़कती हुई कहतीं.

‘मैडम मुझ से कुछ कहेंगी ही नहीं क्योंकि वह मुझे प्यार करती हैं,’ तानी कहती जाती और दादी को चिढ़ाती जाती. दादी उसे पकड़ लेतीं और गाल चूम कर कहती, ‘प्यार तो तुझे मैं भी बहुत करती हूं.’

सर्दियों के दिनों में दादी हमारी जेबों में बादाम, काजू, किशमिश, पिस्ता, रेवड़ी, मूंगफली कुछ भी भर देतीं. स्कूल बस में हम दोनों बहनें खुद भी खातीं और अपने दोस्तों को भी खिलातीं.

तानी और मुझे साड़ी बांधने का बड़ा शौक था. हम दादी की अलमारी में से साड़ी निकालतीं और खूब अच्छी सी पिनअप कर के साड़ी बांधतीं हम शीशे में अपने को देख कर खूब खुश होते.

‘दादी, हमारे कान कब छिदेंगे? हम टौप्स कब पहनेंगे?’

‘तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ, मेरे कंधे तक आ जाओ तो तुम्हारे कान छिदवा दूंगी और तुम्हारे लिए सोने की बाली भी खरीद दूंगी.’

दादी की बातों से हम आश्वस्त हो जातीं और रोज अपनी लंबाई दादी के पास खड़ी हो कर नापतीं.

एक बार दादाजी और दादी मथुरा घूमने गए. वहां से हमारे लिए जरीगोटे वाले लहंगे ले कर आए. हम लहंगे पहन कर, टेप चला कर खूब देर तक नाचतीं और वह दोनों तालियां बजाते.

‘दादी, ऊपर छत पर चलो, खेलेंगे.’

‘मेरे घुटने दुखते हैं. कैसे चढ़ पाऊंगी?’

‘दादी, आप को चढ़ना नहीं पड़ेगा. हम आप को ऊपर ले जाएंगी.’

‘वह कैसे, बिटिया?’ उन्हें आश्चर्य होता.

‘एक तरफ से दीदी हाथ पकड़ेगी, एक तरफ से मैं. बस, आप ऊपर पहुंच जाओगी.’ तानी के ऐसे लाड़ भरे उत्तर पर दादी उसे गोद में बिठा कर चूम लेतीं.

दादी का कोई भी बालपेन तानी न छोड़ती. वह कहीं भी छिपा कर रखतीं तानी निकाल कर ले जाती. दादी डांटतीं, तब तो दे जाती. लेकिन जैसे ही उन की नजर बचती, बालपेन फिर गायब हो जाती. वह अपने बालपेन के साथ हमारे लिए भी खरीद कर लातीं, पर दादी के हाथ में जो कलम होती हमें वही अच्छी लगती.

हम उन दोनों के साथ कैरम व लूडो खेलतीं. खूब चीटिंग करतीं. दादी देख लेतीं और कहतीं कि चीटिंग करोगी तो नहीं खेलूंगी. हम कान पकड़ कर सौरी बोलतीं. दादाजी, इतनी अच्छी तरह स्ट्रोक मारते कि एकसाथ 4-4 गोटियां निकालते.

‘हाय, दादाजी, इस बार भी आप ही जीतेंगे,’ माथे पर हाथ मार कर मैं कहती, तभी तान्या दादाजी की गोटी उठा कर खाने में डाल देती.

‘चीटिंगचीटिंग दादी,’ कहतीं.

‘ओह दादी, अब खेलने भी दो. बच्चे तो ऐसे ही खेलेंगे न,’ सभी तानी की प्यारी सी बात पर हंस पड़ते.

‘दादी, आप के घुटने दबाऊं. देखो, दर्द अभी कैसे भागता है?’ तानी अपने छोटेछोटे हाथों से उन के घुटने सहलाती. वह गद्गद हो उठतीं.

‘अरे, बिटिया, तू ने तो सचमुच मेरा दर्द भगा दिया.’

तानी की आंखें चमक उठतीं, ‘मैं कहती न थी कि आप को ठीक कर दूंगी, अब आप काम मत करना. मैं आप का सारा काम कर दूंगी,’ और तानी झाड़न उठा कर कुरसीमेज साफ करने लगती.

‘दादी, आप के लिए चाय बनाऊं?’ पूछतेपूछते तानी रसोई में पहुंच जाती.

लाइटर उठा कर गैस जलाने की कोशिश करती.

दादी वहीं से आवाज लगातीं, ‘चाय रहने दे, तानी. एक गिलास पानी दे जा और दवा का डब्बा भी.’

तानी पानी लाती और अपने हाथ से दादी के मुंह में दवा डालती.

एक बार मैं किसी शादी में गई थी. वहां बच्चों का झूला लगा था. मैं भी बच्चों के साथ झूलने लगी. पता नहीं कैसे झूले में मेरा पैर फंस गया. मुश्किल से सब ने खींच कर मेरा पैर निकाला. बहुत दर्द हुआ. पांव सूज गया. चला भी नहीं जा रहा था. मैं रोतेरोते पापामम्मी के साथ घर आई. पापा ने मुझे दादी के पास जाने नहीं दिया. जब पापामम्मी गए तब मैं चुपके से दीवार पकड़ कर सीढि़यों पर बैठबैठ कर नीचे उतरी. दादी के पास जा कर रोने लगी.

उन्होंने मेरा पैर देखा. मुझे बिस्तर पर लिटाया. पैर पर मूव की मालिश की. हीटर जला कर सिंकाई की और गोली खाने को दी. थोड़ी देर बाद दादी की प्यार भरी थपकियों ने मुझे उन की गोद में सुला दिया. कितनी भी कड़वी दवा हम दादी के हाथों हंसतेहंसते खा लेती थीं.

मेरा या तानी का जन्मदिन आता तो दादी पूछतीं, ‘क्या चाहिए तुम दोनों को?’

हम अपनी ढेरों फरमाइशें उन के सामने रखते. वह हमारी फरमाइशों में से एकएक चीज हमें ला देतीं और हम पूरा दिन दादी का दिया गिफ्ट अपने से अलग न करतीं.

बचपन इसी प्रकार गुजरता रहा.

नानी के यहां जाने पर हमारा मन ही न लगता. हम चाहती थीं कि हम दादी के पास रह जाएं, पर मम्मी हमें खींच कर ले जातीं. हम वहां जा कर दादाजी को फोन मिलाते, ‘दादाजी, हमारा मन नहीं लग रहा, आप आ कर ले जाइए.’

‘सारे बच्चे नानी के यहां खुशीखुशी जाते हैं. नानी खूब प्यार करती हैं, पर तुम्हारा मन क्यों नहीं लग रहा?’ दादाजी समझाते हुए पूछते.

‘दादाजी, हमें आप की और दादी की याद आ रही है. हमें न तो कोई अपने साथ बाजार ले कर जाता है, न चीज दिलाता है. नानी कहानी भी नहीं सुनातीं. बस, सारा दिन हनी व सनी के साथ लगी रहती हैं. हम क्या करें दादाजी?’

दादाजी रास्ता सुझाते, ‘बेटा, धरा और तानी सुनो, तुम अपने पापा को फोन लगाओ और उन से कहो कि हम आप को बहुत मिस कर रहे हैं. आप आ कर ले जाओ.’

दादाजी की यह तरकीब काम कर जाती. हम रोरो कर पापा से ले जाने के लिए कहते और अगले दिन पापा हमें ले आते. हम दोनों लौट कर दादी और दादाजी से ऐसे लिपट जाते जैसे कब के बिछुड़े हों.

पापा ने हमें पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया. हम लौटते तो दादाजी और दादी को इंतजार करते पाते. उन की अलमारी हमारे लिए सौगातों से भरी रहती. हाईस्कूल पास करने के बाद दादाजी ने मुझे घड़ी दी थी.

हम बड़े हुए तो पता चला कि दादाजी केवल पेंशन पर गुजारा करते हैं. हमारा मन कहता कि हमें अब उन से उपहार नहीं लेने चाहिए, लेकिन जब दादी हमारी मुट्ठियों में रुपए ठूंस देतीं तो हम इनकार न कर पाते. होस्टल जाते समय लड्डूमठरी के डब्बे साथ रखना दादी कभी न भूलतीं.

दोनों बहनों का कर्णछेदन एकसाथ हुआ तो दादी ने छोटेछोटे कर्णफूल अपने हाथ से हमारे कानों में पहनाए. और जब मेरी शादी पक्की हुई तो दादी हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं. जब नहीं रहा गया तो मुझे बुला कर बोली थीं, ‘धरा बेटा, अपना दूल्हा मुझे नहीं दिखाएगी.’

‘अभी दिखाती हूं, दादी,’ कह कर एक छलांग में ऊपर पहुंच कर हर्ष का फोटो अलमारी से निकाल दादी की हथेली पर रख दिया था. दादी कभी मुझे तो कभी फोटो को देखतीं, जैसे दोनों का मिलान कर रही हों. फिर बोली, ‘हर्ष बहुत सुंदर है बिलकुल तेरे अनुरूप. दोनों में खूब निभेगी.’

मैं ने हर्ष को मोबाइल मिलाया और बोली, ‘हर्ष, दादी तुम से मिलना चाहती हैं, शाम तक पहुंचो.’

शाम को हर्ष दादी के पैर छू रहा था.

मेरी शादी मैरिज होम से हुई. शादी में पापा ने दादादादी को बुलाया नहीं तो वे गए भी नहीं. विवाह के बाद मैं अड़ गई कि मेरी विदाई घर से होगी. विवश हो मेरी बात उन्हें रखनी पड़ी. मुझे तो अपने दादाजी और दादी का आशीर्वाद लेना था. दुलहन वेश में उन्हें अपनी धरा को देखना था. उन से किया वादा कैसे टालती.

मेरी विदाई के समय दादाजी और दादी उसी प्रकार बाहरी दरवाजे पर खड़े थे जैसे स्कूल जाते समय खड़े रहते थे. मैं दौड़ कर दादी से लिपट गई. दादाजी के पांव छूने झुकी तो उन्होंने बीच में ही रोक कर गले से लगा लिया. दादी ने सोने का हार मेरी मुट्ठी में थमा दिया और सोने की एक गिन्नी हर्ष की मुट्ठी में.

जब भी मायके जाती, दादी से सौगात में मिले कभी रिंग, कभी टौप्स, कभी साड़ी मुट्ठी में दबाए लौटती. दादी ने मुझे ही नहीं तानी को भी खूब दिया. उन्होंने हम दोनों बहनों को कभी खाली हाथ नहीं आने दिया. कैसे आने देतीं, उन का मन प्यार से लबालब भरा था. वह खाली होना जानती ही न थीं. उन के पास जो कुछ अपना था सब हम पर लुटा रही थीं. मम्मीपापा देखते रह जाते. हम ने उन की बातों को कभी अहमियत नहीं दी, बल्कि मूक विरोध ही करते रहे.

‘‘अरे धरा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं. अलमारी पकड़े  क्या सोच रही हो?’’ हर्ष बोले तो मैं जैसे सोते से जागी.

‘‘हर्ष, मेरी दादी चली गईं, मुट्ठी भरा प्यार चला गया. अब कौन मेरी और तुम्हारी मुट्ठियों में सौगात ठूंसेगा? कौन आशीर्वाद देगा? मैं दादी को निर्जीव कैसे देख पाऊंगी,’’ हर्ष के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

मैं जब हर्ष के साथ वहां पहुंची तो लगभग सभी रिश्तेदार आ चुके थे. दादी के पास बूआजी तथा अन्य महिलाएं बैठी थीं. मैं बूआजी को देख लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही पूछा, ‘‘बूआजी, मम्मीपापा?’’

बूआजी ने ‘न’ में गरदन हिला दी. मैं दनदनाती हुई ऊपर जा पहुंची. मेरा रोदन क्षोभ और क्रोध बन कर फूट पड़ा, ‘‘आप दोनों को मम्मीपापा कहते हुए आज मुझे शर्म आ रही है. पापा, आप ने तो अपनी मां के दूध की इज्जत भी नहीं रखी. एक मां ने आप को 9 महीने अपनी कोख में रखा, आज उसी का ऋण आप चुका देते और मम्मी, जिस मां ने अपना कोख जाया आप के आंचल से बांध दिया, अपना भविष्य, अपनी उम्मीदें आप को सौंप दीं, उन्हीं के पुत्र के कारण आज आप मां का दरजा पा सकीं. एक औरत हो कर औरत का दिल नहीं समझ सकीं. आप आज भी उन्हीं के घर में रह रही हैं. कितने कृतघ्न हैं आप दोनों.

‘‘पापा, क्या आप अपनी देह से उस खून और मज्जा को नोच कर फेंक सकते हैं जो आप को उन्होंने दिया है. उन का दिया नाम आप ने आज तक क्यों नहीं मिटाया? आप की अपनी क्या पहचान है? यह देह भी उन्हीं के कारण धारण किए हुए हो. यदि आप अपना फर्ज नहीं निभाओगे तो क्या दादी यों ही पड़ी रहेंगी. आप सोचते होंगे कि इस घड़ी में दादाजी आप की खुशामद करेंगे. नहीं, उमंग भैया किस दिन काम आएंगे.

‘‘यदि आज आप दोनों ने अपना फर्ज पूरा नहीं किया तो इस भरे समाज में मैं आप का त्याग कर दूंगी और दादाजी को अपने साथ ले जाऊंगी’’

चौंक पडे़ दोनों. सोचने लगे, तो ऐसी नहीं थी, आज क्या हुआ इसे.

‘‘सुनो धरा, तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था.’’

‘‘क्यों नहीं आती? मेरी दादी गई हैं. उन्हें अंतिम प्रणाम करने का मेरा अधिकार कोई नहीं छीन सकता. आप लोग भी नहीं.’’

‘‘होश में आओ, धरा.’’

‘‘अभी तक होश में नहीं थी पापा, आज पहली बार होश आया है, और अब सोना नहीं चाहती. आज उस मुट्ठी भर प्यार की कसम, आप दोनों नीचे आ रहे हैं या नहीं?’’

धारा की आवाज में चेतावनी की आग थी. विवश हो दोनों को नीचे जाना ही पड़ा.

Family Story : सब से बड़ा रुपय्या

Family Story : बुढ़ापे में बेटाबहू और बेटीदामाद से मानसम्मान, प्यार पा कर शेखर और सरिता को अपनी जिंदगी सुंदर सपने के समान दिख रही थी. लेकिन सपना तो सपना ही होता है. आंख खुलते ही व्यक्ति हकीकत की दुनिया में लौट आता है. बिलकुल ऐसा ही शेखर और सरिता के साथ हुआ.

सु ख क्या होता है इस का एहसास अब प्रौढ़ावस्था में शेखर व सरिता को हो रहा था. जवानी तो संघर्ष करते गुजरी थी. कभी पैसे की किचकिच, कभी बच्चों की समस्याएं.

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्होंने ही की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया.

वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.
शेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर चिंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था. देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालों पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को, यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी. उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती. शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म-विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

लेखक : सर्वेश वार्ष्णेव

Best Hindi Story : एक रिक्त कोना

Best Hindi Story : कितने अकेलेपन में जी रहा था सुशांत. मां के लिए बरसों से उस का नन्हा मन तड़पा था. वही तड़प, वही दर्द, वही जमे आंसू आज शुभा के प्यार की हलकी सी आंच से पिघल कर आंखों से बाहर बह निकले. क्या शुभा सुशांत के मन का रिक्त कोना भर सकी? सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे:

‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?
‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे. आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरीचोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं. 5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता.

Ideology : शादी की दावत में दिखता, विचारधारा का अंतर

Ideology : शादी की दावत में अलगअलग तरह के खाने का इंतजाम खाने वालों की पंसद, विचारधारा और पीढ़ी के अंतर को दिखाता है.

शादी की दावत में अब आने वाले लोगों की पंसद के हिसाब से खाने के स्टाल लगने लगे हैं. शादियों की दावत में पहले शाकाहारी और मांसाहारी खाने का ही अंतर होता था. इन के खाने से इस बात का अंदाजा लगाना सरल हो जाता था कि किस विचारधारा के लोग है. धीरेधीरे रात की दावतों में कहींकहीं शराब का भी इंतजाम होता था. आज भी कौकटेल पार्टी होती है. कौकटेल और नौनवेज अभी भी मुख्यधारा में शामिल नहीं की जाती है. यह कुछ गिनती के लोगों के लिए होती है. शादी की दावत में अब भी विभाजन दिखता है. यह क्षेत्र के हिसाब से होता है.

देशी खाने के साथ ही साथ अब साउथ इंडियन, चाइनीज, मैक्सिकन, इटैलियन और मुगलई खाना भी होता है. हर खाने के अलगलग कांउटर लगते हैं. इन पर खड़ी भीड़ को देख कर समझना सरल होता है कि किस विचार और पीढ़ी के लोग वहां पर होंगे.

ज्यादातर युवा लोग इन कांउटर पर दिखते हैं. जो विचारों के दकियानूसी और रुढ़िवादी नहीं होते हैं. इन के विचार आजाद ख्याल के होते हैं. यह जिस तरह से खाने में नई विचारधारा को जगह देते हैं उसी तरह से अपनी बातचीत और सोच में भी नई विचारधारा को जगह देते हैं.

दकियानूसी और रूढ़िवादी सोच के लोग उसी दालचावल में लगे रहते हैं. उन को लगता है कि चाइनीज, मैक्सिकन, इटैलियन और मुगलई खाने से उन का धर्म न खत्म हो जाएं. जैसे इस तरह के लोग केक खाने से बचते हैं. जब उन को यह बताया जाता है कि केक एगलेस है तो भी वह उस को खाने से बचते हैं. अब चाइनीज व्यंजन को सब से ज्यादा पंसद किया जाता है. इस के स्टाल पर खाने वाले युवा ही दिखते हैं. इन की सोच भी आधुनिक दिखती है.

चाइनीज के मशहूर व्यंजन

शादी की दावत में चाइनीज फूड में कई तरह के लोकप्रिय व्यंजन हैं इन में फ्राइड राइस, नूडल्स, मंचूरियन, स्प्रिंग रोल, मोमोज और चिली पोटैटो प्रमुख हैं. फ्राइड राइस चावल, सब्जियों, अंडा और सोया सौस के साथ बनाया जाता है. नूडल्स में जैसे कि चाउमीन, वेज नूडल्स, और स्पाइसी नूडल्स शामिल हैं. मंचूरियन भी काफी पंसद किया जाता है. इस को सब्जियों, सौस और चिकन या पनीर के साथ बनाया जाता है.

स्प्रिंग रोल सब से ज्यादा पंसद किया. इस को स्टार्टर माना जाता है. जिसे सब्जियों और नूडल्स की फिलिंग के साथ बनाया जाता है. इस के बाद नंबर आता है मोमोज का. इस को सब्जियों, मांस या पनीर के साथ बनाया जाता है और भाप में पकाया जाता है या डीप फ्राइड किया जाता है. चिली पटैटो भी एक स्वादिष्ट और मसालेदार स्नैक्स है जिसे आलू, शिमला मिर्च, प्याज, चिली सौस और सोया सौस के साथ बनाया जाता है. सूप के रूप में ‘स्वीट एंड सौस’ को पंसद किया जाता है.

मैक्सिकन भी बन रही है पंसद

मैक्सिकन फूड भी शादी की दावत का बड़ा हिस्सा हो गया है. यह काफी स्वादिष्ट फूड होता है. जिन में सब से पसंदीदा टैकोस, एनचिलाडास, बरिटोस, क्वेसाडिलास, गुआकामोल, साल्सा, और पिको डी गैलो है. टैकोस नरम या कुरकुरे टार्टिला में विभिन्न तरह की सामग्री जैसे ग्रिल्ड मीट, पनीर, बीन्स और साल्सा के साथ परोसे जाते हैं.

एनचिलाडास टार्टिला को चिकन या पनीर की फिलिंग के साथ लपेटा जाता है, चिली सौस में डुबोया जाता है और फिर बेक किया जाता है. बरिटोस एक बड़े आकार की टार्टिला होती हैं, जिन में विभिन्न तरह की सामग्री जैसे मीट, बीन्स, साल्सा, पनीर और चावल भरे जाते हैं.

क्वेशाडिलास टार्टिला के दो टुकड़ों के बीच पनीर और अक्सर अन्य सामग्री जैसे चिकन, मांस या सब्जियां भर कर बनाया जाता है. इसी तरह से गुआकामोल को एवोकाडो, प्याज, धनिया, मिर्च और नींबू के रस से बनाया जाता है. साल्सा एक प्रकार की चटनी है जो टमाटर, प्याज, मिर्च और धनिया से बनाई जाती है. पिको डी गैलो ताजी किस्म साल्सा है जो टमाटर, प्याज, धनिया और मिर्च से बनाई जाती है.

एलोटे, स्ट्रीट फूड जैसा है जिस में पके हुए मकई के दाने पर मैयोनेज, पनीर, मिर्च और नींबू का रस डाला जाता है. पोसोले सूप है जो मक्का और मांस से बनाया जाता है. चिली रेलेनोस पोब्लानो मिर्च होती है जो मांस, फलों और मेवों से भरी जाती है और फिर बेक की जाती है. टार्टिला सूप टार्टिला के टुकड़े, मांस, सब्जियां और साल्सा से बनता है. टैमल्स मक्का के आटे से बने होते हैं और इस में नमकीन या मीठी फिलिंग होती है.

बिरिया एक स्टू है जो मांस से बनाया जाता है, जो धीरेधीरे पकाया जाता है और फिर साल्सा के साथ परोसा जाता है. मार्गरिटा लोकप्रिय मैक्सिकन कौकटेल है जो टैकीला, नींबू के रस और चीनी से बनाया जाता है. मैक्सिकन भोजन में कई अन्य स्वादिष्ट व्यंजन भी हैं जो लोगों को पसंद आते हैं. शादियों में इन व्यंजनों में मांस यानी मीट का प्रयोग कम किया जाता है. मैक्सिकन फूड में सब्जियों का प्रयोग अधिक होता है. इस को खाने वाले खूब पंसद करते हैं.

सब से ज्यादा पंसद किए जाने वाले इटैलियन फूड

चाइनीज और मैक्सिकन के बाद सब से ज्यादा इटैलियन फूड पंसद किया जाता है. इस में पहले नंबर पर पिज्जा आता है. इस के बाद पास्ता, रिसोट्टो और तिरामिसु शामिल हैं. पिज्जा इटली का सब से प्रसिद्ध व्यंजन है. अब यह दुनियाभर में बहुत लोकप्रिय है. भारत में समोसा के बाद सब से अधिक पिज्जा पंसद किया जाता है. अलगअलग आकार और स्वाद के कारण यह सब को पंसद आते है. इटली में सब से लोकप्रिय पिज्जा मार्गेरिटा है. जो टमाटर सौस, मोजेरेला चीज और ताजी तुलसी से बना होता है. शादियों की दावत में अब यह मौजूद रहता है.

दूसरे नंबर पर पास्ता आता है. पास्ता भी अलगअलग तरह के उपलब्ध है. इन में स्पैगेटी, पेन, फेरफेट्टे प्रमुख है. पास्ता को अलगअलग तरह सौस जैसे कि टमाटर सौस, बेकन सौस, और क्रीम सौस के साथ खाते हैं.

रिसोट्टो चावल से बनाया जाता है. इस को क्रीम, पनीर, और सब्जियों के साथ पकाया जाता है. तिरामिसु इटालियन डेसर्ट है जो स्पंज केक, काफी, मस्कार्पोन चीज और कोको से बनाया जाता है. इन के अलावा जलान्या, रिसोट्टो अला मिलानीज, पास्ता कार्बोनारा, ओसो बुको, पोलेंटा, टार्टेलिनी और ग्नोची जैसे व्यंजन भी है. शादियों में पिज्जा और पास्ता सब से अधिक मिलते हैं.

शादियों में शाकाहारी मुगलई

मुगलई व्यंजनों की बात हो तो ज्यादातर में मीट का प्रयोग होता है. शादी की दावतों में मीट को कम पंसद किया जाता है. इस के बाद भी मुगलई कांउटर जरूर होता है. इन में शाकाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं. मुगलई डिश में सब से ज्यादा पसंद की जाने वाली डिश में बिरयानी, मटन रोगन जोश, चिकन कोरमा, मुगलई पराठा, और शाही टुकड़ा है.

बिरयानी को चावल, चिकन या मटन और मसाले के साथ पका कर तैयार किया जाता है. जो लोग मीट नहीं पसंद करते वह वेज बिरयानी बनवाते हैं. जिस में सोयाबीन का प्रयोग किया जाता है.

मटन रोगन जोश एक मसालेदार ग्रेवी में पका व्यंजन होता है. चिकन कोरमा चिकन को दही, काजू और मसालों के साथ पका कर तैयार किया जाता है. मुगलई पराठा एक भरवां पराठा है जिस में मटन कीमा, अंडा और मसालों की स्टफिंग होती है.

शाही टुकड़ा एक किस्म की मिठाई है जिस में ब्रेड, दूध और रबड़ी को घी और मसालों के साथ पकाया जाता है. मुगलई व्यंजनों में कवाब, निहारी, और मुगलई चिकन जो भी लोकप्रिय हैं. शाकाहारी दावतों में भी बिरयानी और शाही टुकड़ा जरूर शामिल होता है.

साउथ इंडियन डिश

शादी की दावत में साउथ इंडियन डिश जरूरी हो गई है. इस में सब से ज्यादा मसाला डोसा पसंद किया जाता है. इस के बाद इडली, सांभर, रसम, वड़ा, पुट्टू और अप्पम भी काफी लोकप्रिय हैं. इडली को भाप में पकाया जाता है. जिसे बाद में सांभर और नारियल की चटनी के साथ परोसा जाता है.

सांभर का प्रयोग हर डिश के साथ होता है. यह एक दाल करी है जो इडली, डोसा, वड़ा और चावल के साथ खाई जाती है. रसम एक मसालेदार और स्वादिष्ट सूप है जो चावल के साथ परोसा जाता है.

वड़ा यह एक तली हुई डिश है जिसे नारियल की चटनी और सांभर के साथ परोसा जाता है. पुट्टू स्टीम्ड राइस केक है जिसे चावल के आटे और नारियल से बनाया जाता है. अप्पम, यह एक तरह का पैनकेक है जिसे नारियल के दूध या कुर्मा के साथ परोसा जाता है. पेसारट्टू मूंग दाल से बना एक डोसा है. शादियों में सब से ज्यादा मसाला डोसा और पनीर डोसा पंसद किया जाता है. इडली और सांभर वड़ा भी पंसद किया जाता है.

शादी की दावत में देशी व्यंजन

उत्तर भारतीय की शादी कम से कम 15 से 20 किस्म की डिश होती हैं. इन की संख्या 25 से 30 और उस से अधिक भी हो सकती है. एक व्यंजन के तमाम स्वाद और प्रकार भी होते हैं. इस की शुरूआत चाट से होती है. इस में पानीपूरी यानि गोलगप्पे सब से पहले पंसद किए जाते हैं.

आलू टिक्की, दही की चटनी और पुदीने के साथ तैयार की जाती है. कचौरी और पापड़ी चाट भी इस का हिस्सा बनने लगी हैं. कचौड़ी को गरम चटपटे आलू के साथ खाते हैं. पापड़ी चाट खस्ते के छोटेछोटे पीस तल कर गोल आकार में काटा जाता है. ठंडे दही, पुदीने और इमली की चटनी के साथ परोसा जाता है.

ढोकला वैसे तो गुजराती डिश है. उत्तर भारत की शादी की दावत में यह प्रमुख रूप से मिलने लगा है. इसे छोले और चावल से बनाया जाता है. हल्का, मीठा और हरी मिर्च के साथ परोसा जाता है. मिनी वेज समोसे, भेलपूरी का प्रयोग स्नैकस के रूप में होता है. यह मीठा, मसालेदार और तीखे स्वाद का मिश्रण होता है.

चाट के बाद पीने के लिए अलगअलग तरह की ड्रिंक भी होते हैं. क्रैनबेरी मिक्सर में कुचली हुई बर्फ, क्रैनबेरी जूस, नींबू का रस और ऊपर से छिड़का हुआ नींबू का छिलका शामिल होता है. रास्पबेरी डाइक्विरी स्वाद को और भी चटपटा बनाने के लिए मुट्ठी भर रास्पबेरी को एक चम्मच कच्ची चीनी और नींबू के साथ मिला कर दिया जाता है.

मल्टीकलर मिक्सर कुछ ताजा ब्लूबेरी और रास्पबेरी, ग्रेनेडिन, क्लब सोडा, नींबू सोडा और अच्छी मात्रा में बर्फ डाल कर तैयार होता है. वर्जिन मोजिटो सब से ज्यादा पंसद किया जाता है. वर्जिन मैंगो मार्गरीटा ताजे कटे आम, बर्फ, नींबू और लाइम सोडा, और दो बड़े चम्मच चीनी मिला कर बनता है.

कई तरह का सलाद शादियों की दावत का सब से बड़ा हिस्सा होता है. अंकुरित मूंग सलाद में अंकुरित मूंग को कटे हुए खीरे, टमाटर, प्याज और धनिया और पुदीना जैसी ताजी जड़ीबूटियों के साथ मिलाया जाता है. कचूंबर सलाद को खट्टे नींबू के रस, चाट मसाला और तीखेपन के लिए हरीमिर्च के स्पर्श से बना यह सलाद बारीक कटे खीरे, टमाटर, प्याज और शिमला मिर्च मिला कर तैयार किया जाता है.

स्टार्टर के रूप में पनीर टिक्का, ग्रिल्ड पनीर के टुकड़ों को कुरकुरे लेटिस, कटे हुए प्याज और शिमला मिर्च के ऊपर रख कर परोसा जाता है. मुख्य खाने में पनीर बटर मसाला में नरम पनीर के टुकड़ों को एक मलाईदार टमाटर आधारित ग्रेवी में पकाया जाता है, जिस में जीरा, धनिया और गरम मसाला जैसे सुगंधित मसाले डाले जाते हैं.

दालमखनी को धीमी आंच पर पकाया जाता है. काली दाल और राजमा को टमाटर, क्रीम और मक्खन की स्वादिष्ट ग्रेवी में पकाया जाता है, तथा इस में दालचीनी, इलायची और लौंग जैसे सुगंधित मसाले मिलाए जाते हैं. वेजिटेबल बिरयानी को सुगंधित बासमती चावल को गाजर, मटर और आलू जैसी सब्जियों, तले हुए प्याज, सुगंधित मसालों और ताजी जड़ीबूटियों के मिश्रण के साथ तैयार किया जाता है.

आलू, करेला, पनीर, अरहर की दाल, से तैयार कई व्यंजन होते हैं. मीठे में गुलाब जामुन, रसमलाई और जलेबी प्रमुख होती है. मीठे में मूंग का हलवा, फ्रूटस केक जैसी डिश भी होती है. हर कोई अपनी विचार पंसद के काउंटर पर जाता है. उस की प्लेट देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस क्लास का है.

जिस का मतलब यह है कि शादी की दावत में खाने वालों की प्लेट और उन का कांउटर देख कर समझा जा सकता है कि उन की विचारधारा और सोच क्या है? वह किस तरह की सोच और विचार वाले हैं. प्लेट में खाना रखने को देख कर भी उन की सोच का अंदाजा लगाया जा सकता है.

Financial Tips : मैं गुड़गांव के 2 बीएचके अपार्टमेंट में रहता हूं, 3 बीएचके खरीदना चाहता हूं

Financial Tips : मैं गुड़गांव के 2 बीएचके अपार्टमेंट में रहता हूं, 3 बीएचके खरीदना चाहता हूं, मैं 60 हजार महीना कमाता हूं, लेकिन क्‍या लोन लेना मेरे लिए सही रहेगा, मेरी अभी शादी हुई है ?

जवाब : गुड़गांव जैसे बड़े शहर में हर किसी का सपना होता है कि उस का एक अपना घर हो, जिस में वो अपने परिवार के साथ सुखशांति से रह सके. लेकिन गुड़गांव में अपने बजट में घर खरीदना ऐसा है जैसे कोयले के खान से हीरा निकालना. हालांकि यह काम मुश्किल नहीं है, पर गुड़गांव में जितनी ऊंची अपार्टमेंट्स है उतनी ही ऊंची उन की कीमत भी है. लोग सालों कमा कर घर खरीदने के लिए पैसा जमा करते हैं, फिर भी उन्हें गुड़गांव में घर खरीदने के लिए लोन लेना ही पड़ता है.

आप फिलहाल 2 बीएचके में रह रहे हैं और 3 बीएचके अपार्टमेंट खरीदना चाहते हैं. वहीं आप की मौजूदा आय 60 हजार रूपए प्रति माह है, इस के साथ ही आप की हाल ही में शादी भी हुई है. यह परिस्थिति आप के खर्चों और दायित्वों को प्रभावित कर सकती है. चुकी अपार्टमेंट लेने के लिए आप को लोन लेना ही पड़ेगा, इसलिए लोन लेने से पहले कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करना बहुत जरुरी है.

अगर हम होम लोन लेने की योग्यता की बात करें तो बैंक आप की मासिक आय का 40 प्रतिशत तक इएमआई के रूप में स्वीकार करते हैं. इस का साफसाफ मतलब है कि आप की सैलरी से 40 हजार रुपए तक की इएमआई जा सकती है. लेकिन यह अन्य वित्तीय दायित्वों पर भी निर्भर करता है. वहीं आप की मौजूदा बचत अगर कम है और आप ने पहले से कोई बड़ा लोन नहीं ले रखा है तो आप को बैंक 50 से 60 लाख तक का लोन दे सकता है. लेकिन यह बात यही नहीं ख़त्म हो जाती है, लोन लेने के बाद आप को उसे मैनेज भी करना होगा.

गुड़गांव जैसे बड़े शहर में 3 बीएचके अपार्टमेंट खरीदने के लिए कम से कम 70 से 80 लाख रूपए की जरुरत पड़ेगी. इस के साथ ही अपार्टमेंट की कीमत लोकेशन और बिल्डर के अनुसार ज्यादा भी हो सकती है. नामचीन बिल्डर की प्राइम लोकेशन में मौजूद अपार्टमेंट में थ्री बीएचके की कीमत 1 करोड़ रुपए तक हो सकती है. वहीं अगर आप 70 से 80 लाख वाले अपार्टमेंट में थ्री बीएचके लेना चाहते है तो आप को प्रौपर्टी का 20 प्रतिशत डाउन पेमेंट करना होगा.

इस के बाद आप को 50 से 60 लाख रुपए के होम लोन की जरुरत होगी. इस लोन की मासिक इएमआई लगभग 45 से 50 हजार रुपए तक हो सकती है. यह आप की सैलरी का 80 से 90 फीसदी हिस्सा ले लेगी. इस के बाद आप को घर की ग्रोसरी, बिजली, पानी, मेंटेनेंस और अन्य खर्चें भी देने होंगे. यह बहुत ही जोखिम भरा निर्णय साबित होगा.

इस के अतिरिक्त आप की हाल ही में शादी हुई है तो आप के खर्चों में वृद्धि होना स्वाभाविक है. इस के साथ ही मैडिकल इमरजैंसी, अन्य आर्थिक जरूरतें और भविष्य में बच्चों की प्लानिंग भी आप करते हैं तो आप के लिए बचत बहुत मायने रखती है.

ऐसे में 3 बीएचके के लिए होम लोन लेना बुद्धिमानी भरा फैसला बिल्कुल भी नहीं है. फिलहाल आप 2 बीएचके में रह रहे हैं, यह आप की आवश्यकता पूरा कर रही है.

अगर आप 3 बीएचके खरीदने के लिए फिर भी इच्छुक हैं तो आप को बचत ज्यादा करनी होगी. आप को यह ध्यान देना होगा कि आप कैसे और बचत कर सकते हैं. आप को पूरी तरह से फिजूल खर्चों पर रोक लगानी होगी, जो की एक कठोर निर्णय है. कम से कम आप को महीने में अपनी सैलरी से 30 से 40 प्रतिशत तक की बचत करनी होगी. अगर आप 4 से 5 साल लगातार ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं तो आप के पास थ्री बीएचके के लिए डाउन पेमेंट की राशी जमा हो जाएगी. इस के बाद होम लोन लेने पर रकम कम हो जाएगी और ईएमआई का बोझ हल्का रहेगा.

इस के साथ ही एक और विकल्प यह भी हो सकता है कि आप को अपनी सैलरी बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. अगर आने वाले समय में आप की सैलरी 1 लाख रूपए तक हो जाती है और बचत भी आप अच्छी खासी कर लेते हैं तो होम लोन की ईएमआई आप के लिए आसान रहेगी.

इस के साथ यह भी हमेशा ध्यान रखें कि प्रौपर्टी बजार में उतार चढ़ाव भी आते रहते है सही समय में सही कीमत पर प्रौपर्टी की खरीदारी करना भी महत्वपूर्ण है.

फिलहाल आप के लिए बड़ा होम लोन लेना बहुत ही जोखिम भरा फैसला साबित होगा. अभी आप को भविष्य के लिए बचत करनी जरुरी है. आर्थिक स्तिथि बेहतर होने पर ही थ्री बीएचके अपार्टमेंट लेने का फैसला समझदारी भरा होगा. जल्दबाजी में निर्णय लेने से बचें और अपनी मौजूदा आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करें.

Hindi Story : चोरी की जिंदगी – अपनेपराए की फर्क समझाती कथा

Hindi Story : प्रेम कुमार, रिटायर्ड सैफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी इतने अच्छे ओहदे की थी कि घर, गाड़ी और बैंकबैलेंस कुछ हद तक ठीकठाक सा था. हालांकि ज्यादातर पैसा उन्होंने पानी की तरह बच्चों पर बहा दिया था.

बच्चों (2 बेटों और एक बेटी) की हर ख्वाहिश पूरी करना उन्हें अच्छे से अच्छा खानाओढ़ना देना, उन्हें अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाना और तीनों बच्चों को ऊंचे पदों पर आसीन करना उन का सपना था, जो अब लगभग पूरा हो चुका है.

लगभग इसलिए कि बड़ा बेटा अनिल एमटैक कर के एक आईटी कंपनी में अच्छे ओहदे पर नौकरी करते हुए कंपनी की तरफ से 2 साल के लिए अमेरिका चला गया और बेटी तान्या डबल एमए, बीएड के बाद यूनिवर्सिटी औफ दिल्ली में लैक्चरर थी. लेकिन तीसरी औलाद यानी कि छोटा बेटा सुनील बीए करने के बाद न जाने कितने एंट्रैंस की तैयारियां कर रहा था, न जाने कितने तरह के टैस्ट दे चुका था और न जाने किनकिन कोर्सों के लिए आएदिन पिता से पैसे लेता रहता. कौन जाने कुछ कर भी रहा था या केवल मौजमस्ती में ही सब समय और पैसा बरबाद कर रहा था.

बस, प्रेम कुमारजी को चिंता थी तो केवल सुनील की. हर समय यही कहते, ‘न जाने यह नालायक कुछ करेगा भी कि नहीं. कौन जाने मुंबई जा कर क्या करता है, क्या नहीं.’

बेशक प्रेम कुमार नौकरी के पूरे समय बेंगलुरु में रहे, लेकिन रिटायर होते ही 2 दिनों बाद ही अपने गांव ज्योतिसर (कुरुक्षेत्र के नजदीक) आ पहुंचे. जो खेतीबाड़ी चाचा के बेटों राम लाल और श्याम लाल को आधाआधा पर जोतने के लिए दी थी, उन के बेटे राघव और माधव अब उसे हड़पने की फिराक में थे.

प्रेम कुमार जब भी खेतों में जाते, राघव और माधव उन्हें यह कह कर घर वापस भेज देते कि, ‘बड़े चाचा क्या इस उम्र में भी काम करोगे का?

अरे, हम हैं न ई का देखभाल की खातिर. हम तोहार बच्चे न सही मगर बच्चे जैसन तो हैं न. जाइबे घर जाई के आराम करी के. और हम तो कहत कि आपन कहां ईहा गांम में आपन जिंदगी खराब करेत रहिन. अपन उही सहर में जा के रहो आराम से.’

प्रेम कुमार को थोड़ा अटपटा लगता जब राघव-माधव हर बार खेतों से उन्हें वापस घर भेज देते. वे कमाई के नाम पर हिसाब भी न देते, बस, केवल अनाज उन के घर पहुंचा देते.

अगर कभी प्रेम कुमार पैसों का जिक्र करते कि खर्च के लिए जरूरत है तो कहते, ‘लो भई, बड़े चाचा, अब आप ने के कमी है, थारो तो पेनसन भी आवे है, खर्च तो हमारे न पूरा पड़यो है.’

आखिर एक दिन प्रेम कुमार ने साफ लफ्जों में कह दिया कि अब से वे अपने खेतखलिहान खुद संभालेंगे. उन्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं. इस पर राघव-माधव बिगड़ पड़े. और हो गई आपस में तूतूमैंमैं. यहां तो बात हाथापाई तक आ पहुंची. राघव-माधव बोले, ‘कोण से खेत चाचा? अब तक मेहनत की हम लोगां ने, और अब आप कहो खेत आपने दे दें. फेर हमारा के? जे खेत तो ना मिले अब थाने.’

प्रेम कुमारजी ने रामलाल और श्यामलाल से कहा तो वे बोले, ‘‘भाईसाहब अब बच्चे बड़े हो गए हैं, खुद समझदार हैं, जो कह रहे हैं ठीक ही होगा.’’

गांव में पंचायत बैठाई गई. पंचायत भी राघव-माधव का साथ ही देने लगी, क्योंकि उन दोनों ने पंचायत की जेब पहले से गरम कर रखी थी. प्रेम कुमार ने शहर आ कर पुलिस थाने में कंपलेंट की, लेकिन थाने के चक्कर काटकाट कर प्रेम कुमार की चप्पल घिस गई, मामला ज्यों का त्यों. अब प्रेम कुमार ने कोर्ट केस कर दिया लेकिन राघव-माधव ने पहले से ही अपने पांव इतने फैला रखे थे कि कहीं कुछ भी प्रेम कुमार को बात बनती नजर न आती.

उधर प्रेम कुमार के बड़े बेटे अनिल ने अमेरिका में अमेरिकी लड़की से शादी कर ली और शादी की तसवीरें मातापिता को भेज कर सूचित कर दिया कि उस ने शादी कर ली, और कहा, ‘‘कोई मजबूरी थी, कुछ समय बाद इंडिया आ कर सब बात बताऊंगा.’’

खैर, प्रेम कुमार ने कहा कि, ‘‘ठीक है, बेटा. सफाई देने की जरूरत नहीं. जो किया, ठीक किया.’’

बेटी के लिए कब से रिश्ता ढूंढ़ रहे हैं मगर आजकल हर लड़के वाले इतनी बड़ी बोली बोलते हैं कि प्रेम कुमार सबकुछ बेच कर भी डिमांड पूरी न कर सकें.

तान्या जब भी छुट्टी में घर आती मां से हमेशा यही कहती, ‘‘मां, समझाओ न बाबा को, क्यों परेशान होते हैं. नहीं करनी मुझे शादीवादी. कभी सुना है कि जो गाय बेचता है वह पैसे देता है. गाय बेचने जाओगे तो पैसे ले कर आओगे न.’’

‘‘सुनाजी आप ने, क्या कह रही है तान्या, पता नहीं आजकल के बच्चे पढ़लिख कर कैसी सोच के हो जाते हैं. भला दानदहेज बिना कभी शादी होती है. हां, यह बात अलग है कि लड़के वाले के मुंह थोड़े ज्यादा ही खुल गए हैं.’’

‘‘सब सुन और देख रहा हूं. आजकल बच्चे कुछ अधिक ही सयाने हो गए हैं,’’ प्रेम कुमार को एक और भी चिंता सताए जा रही थी. जो तान्या पतलीदुबली सी छुईमुई सी हुआ करती थी, वह अब आत्मनिर्भर होने के साथसाथ शारीरिक तौर पर भी बदल रही थी. तान्या का बदन गदराया हो गया था. उस की चालढाल बदल गई थी. तान्या के उभार पहले से ज्यादा गदराए हुए हैं जोकि किसी मर्द की छुअन से ही हो सकते हैं (क्योंकि प्रेम कुमार भी तो खेलेखाए हुए हैं अपने वक्त में) लेकिन प्रेम कुमार कुछ कह नहीं रहे बल्कि इसलिए वे जल्द से जल्द तान्या की शादी कर देना चाहते हैं.

एक तान्या की चिंता, दूसरे सुनील की फिक्र. न तो वह किसी एंट्रैंस में क्लीयर हो रहा है, न ही कोई नौकरी मिल रही है, उस पर ये राघव-माधव ने खेतखलिहान पर कब्जा कर लिया.

अनिल को फोन पर बताया कि राघव-माधव खेत अपने कब्जे में ले रहे हैं. कहीं सुनवाई नहीं हो रही. उन की पहुंच बहुत ऊपर तक है.

अनिल ने दोटूक सा जवाब दे कर फोन रख दिया कि, ‘‘मैं यहां विदेश में बैठा क्या कर सकता हूं, सुनील वहां है सुनील से कहिए.’’

सुनील को फोन किया तो बोला, ‘‘पापा, अब तक इन खेतों से क्या बना पाए? ले भी लें अगर तो क्या करेंगे. कौन जोतेगा, कौन देखभाल करेगा?

कुछ लेदे कर समझता कर लो, वही सही रहेगा.’’

‘‘हूं ऊऊ कहता है समझोता कर लो, बापदादा की जमीनजायदाद ऐसे ही छोड़ दूं? कोई बताए जरा इन को तुम ने इसी खेत की रोटी खाई है. भला, डिप्लोमा इंजीनियर की कमाई में इतना कहां जो तुम्हारी हर इच्छा पूरी कर पाता. वह तो इन खेतों की वजह से खुद भी आगे पढ़ता रहा और बच्चों को भी पढ़ा दिया. और आज कहता है, छोड़ दो, क्या मिला इन खेतों से,’’ गुस्से में बड़बड़ाते हुए प्रेम कुमार बाहर चले गए. कुछ दिनों बाद प्रेम कुमार की पत्नी दयावती की अचानक हार्टअटैक से मृत्यु हो गई.

मां की मृत्यु के बाद बेटी अपने पिता को दिल्ली ले आई कुछ दिनों के लिए. बेटी ने खूब सेवा की पिता की, खूब अच्छे से खयाल रखा. लेकिन एक दिन शादी की चर्चा पर बापबेटी में खूब बहस हो गई.

‘‘तान्या, इतनी मुश्किल से ऐसा लड़का मिला है जो कम बजट में शादी के लिए तैयार है, लेकिन अब तुम्हें क्या एतराज है? चाहती क्या है तू? जो बात है, साफसाफ कह. मैं पागल नहीं हूं, दुनिया देखी है मैं ने, सब जानता हूं. जो जिंदगी तू जी रही है न, मैं सब समझता हूं. समय से अपने घर जा और मैं भी चैन की सांस ले सकूं.’’

‘‘पापा, मुझे नहीं करनी शादीवादी इन लड़कों से जिन्हें आप ढूंढ़ढूंढ़ कर ला रहे हैं. अगर आप को मेरी शादी की इतनी फिक्र है तो जहां मैं चाहती हूं वहीं मेरी शादी करा दीजिए. लेकिन मुझे पता है कि आप मेरी पसंद के लड़के को कभी स्वीकार नहीं करोगे, इसलिए मैं ने अब तक आप लोगों से कुछ नहीं बताया. आप लोग जातधर्म के पचड़ों में पड़े रहते हैं.

‘मेरी नजर में अक्षित में कोई कमी नहीं. अच्छा, स्वस्थ, सुंदर लड़का है. आईपीएस औफिसर है. मुझ पर जान लुटाता है और क्या चाहिए. जो कुछ है सब सामने है. मैं आप की तरह चोरी की जिंदगी नहीं जी रही. देखती थी मैं आप को अकसर जब आप मां को अपने बटुए को हाथ तक नहीं लगाने देते थे.

‘‘बालकनी में छिप कर कितनीकितनी देर तक बटुए से तसवीर निकाल कर बिना पलक झपके उसे निहारते रहते, ऐसा महसूस करते जैसे वह आप के सामने है और आप उस से बातें करने लग जाते थे. तब उस समय आप को मां पर बहुत प्यार आता था.

‘‘मैं वह तसवीर कभी नहीं देख पाई थी. यह राज मुझ पर तब खुला जब एक दिन मैं अपनी किसी सहेली के साथ एक प्रोजैक्ट पर काम करने के लिए बाजार सामान लेने गई तब मैं ने आप को देखा, आप शिवानी मैम के घर के बाहर स्कूटर रोक कर इधरउधर चोरों की तरह देख रहे थे जैसे कहीं कोई आप की चोरी न पकड़ ले और फिर आप मैम के घर के अंदर चले गए. तब मुझे समझ आया कि शिवानी मैम मुझे इतना प्यार क्यों करती है. उस चोरी की जिंदगी से तो यह जातपांत से दूर हमारी जिंदगी लाख गुना अच्छी है.’’

‘‘हां, जी है मैं ने चोरी की जिंदगी, इंसान हूं मैं भी, मुझे भी कुछ पल का सुकून चाहिए था. जो मुझे शिवानी की निकटता से मिला. लेकिन तुम्हारी तरह किसी गैरजात से तो रिश्ता नहीं बनाया था मैं ने. कहां हम जमींदार, मैं उच्च कोटि का इंजीनियर और कहां वह नाई का बेटा. क्या बराबरी हमारी और उस की.’’

‘‘वाह पापा, आप के उच्च कोटि वाले इतना मोटा दहेज मांगते हैं कि जिस की किस्तें भरतेभरते इंसान खत्म हो जाए फिर भी किस्तें न खत्म हों. और वह आप के उच्च कोटि वाले, आप के सगे वाले ही आप की जमीन हड़प रहे हैं और आप कोर्टकचहरी के चक्कर काट रहे हैं, जिस से कुछ हासिल होता नजर नहीं आ रहा और आप का वह उच्च कोटि वाला अपना सपूत जो विदेश में न जाने किस से शादी कर के वहीं बस गया.

भारत उसे रास नहीं आ रहा, इसलिए उस ने यहां आना तो दूर, यहां से नाता ही तोड़ लिया और आप का वह उच्च कोटि वाला दूसरा सपूत जो आप से कह रहा है कि कुछ लेदे कर समझोता कर लो, जमीन का क्या करोगे, मैं कुछ नहीं कर सकता.’’

‘‘तू चाहे कुछ भी कह, अपने तो अपने होते हैं और गैर, गैर ही रहेंगे. हो सकता है उस की कोई मजबूरी रही हो. मैं कल ही अनिल से बात करता हूं और चाहे तू कुछ भी कर ले, इस नाई के बेटे से तो तेरी शादी मेरे जीतेजी नहीं होगी. मेरे मरने के बाद जो जी चाहे करते रहना सब के सब.’’
तान्या के पिता बोलते हुए गुस्से से गांव जाने के लिए निकल गए.

अगले दिन प्रेम कुमार ने अनिल को फिर से फोन किया. अनिल के कोई जवाब न देने पर दोतीन दिनों तक फोन करते रहे. आखिर एक दिन अनिल ने साफ कह दिया, ‘‘पापा, मुझे डिस्टर्ब मत किया कीजिए. अपनी समस्याएं आप सुलझाइए.’’

इधर तान्या ने अक्षित को पापा की जमीन की सारी कहानी बताई. अक्षित की पहुंच और रुतबा काफी अच्छा था, इस वजह से जमीन का फैसला जल्दी हो गया और प्रेम कुमारजी को उन की जमीन मिल गई. अब प्रेम कुमार को एहसास हो गया था कि कौन अपना है और कौन पराया. कौन उच्च कोटि का है और कौन छोटा. इंसान कर्मों से उच्चता को प्राप्त होता है न कि जातबिरादरी या धर्म से.

Hindi Kahani : नक्काशी – मनुष्य जीवन की एक विशिष्ट कहानी

Hindi Kahani : जीवन से बहुत अधिक अपेक्षा न रख कर हमेशा अगर हम यह मान कर चलें कि जो भी होगा वह मुझ से है और सबकुछ नवीन और सहज होगा तो हमारी पूरी सोच और दृष्टिकोण रूपांतरित हो जाते हैं. जीवन को अपने हाथ में रख कर यदि आप सोचते हैं कि आप चमत्कारिक रूप से सब अपने हिसाब से कर लेंगे तो आप के हाथ केवल निराशा आएगी. जिंदगी को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार करें, वरना गांभीर्य और बोझिलता बहुत बढ़ जाएगी और यह घाटे का सौदा है.

अपनी डायरी में ये सब लिख कर अनामिका उठीं और खिड़की पर आ गईं. मैक्लोडगंज अभी जाग रहा था. दूर धौलाधार की चोटियां आकाश को गहराई तक भेद रही थीं. उगता हुआ सूरज अपनी उच्चतम प्रकाष्ठा में, अपनी नरम किरणें पहाड़ों पर बिखेर रहा था. ठंडी और स्फूर्तिदायक हवा एकदम साफ थी. सड़कों पर लामा मठों की तरफ आजा रहे थे. ये वही लोग थे जो बर्बर और असभ्य चीनियों से बचते हुए इस क्षेत्र में आ कर बस गए थे लेकिन ऐसा नहीं है कि ये सब भाग कर आए थे, बल्कि इन के प्रशिक्षण और आस्थाएं ऐसी थीं कि यदि जरूरत पड़े तो ये बर्बर यातनाएं भी सह सकते थे पर कभीकभी पवित्र वस्तुएं, अभिलेख, गोपनीय लेखन और परंपरा को बचाने के लिए भाग कर आने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. उन को ध्यान से देखती हुई अनामिका अपने जीवन की घटनाओं को याद कर रही थीं. आखिर वे भी तो सब छोड़ कर आई थी.

सुबह के 8 बज चुके थे. वे दिन की शुरुआत चाय से करती हैं. उन को नौर्लिंग रैस्तरां की चाय ही पसंद है, इसलिए वे अपने होम स्टे से निकल कर दस कदम दूर बने इस छोटे से रैस्तरां में आ गईं. अनामिका को देख कर वहां के स्टाफ ने ‘ताशी डेलेक’ बोल कर उन का अभिवादन किया और चाय बनवाने चला गया. आजकल अनामिका बहुत से प्रयोग कर रही थीं. परंपरागत भारतीय चाय को छोड़ कर वे मक्खन वाली नमकीन तिब्बती चाय पीती हैं.

अपने जीवन के साथ भी उन्होंने ऐसा ही कुछ प्रयोग किया है. वे 55 साल की महिला हैं और तलाकशुदा हैं. अद्वितीय तेज और शीतलता की मूर्ति, जैसे सूरज और चंद्रमा एक हो गए हों. 5 वर्षों पहले उन्होंने तलाक ले लिया था, जबकि घर, परिवार और रिश्तेदार यह बात हजम नहीं कर पा रहे थे कि जब उस घर में सारी जिंदगी गुजार दी तो अब इस उम्र में तलाक लेने का क्या औचित्य था?

लेकिन अनामिका एक प्रेम और सम्मानरहित रिश्ते को ढोती रही थीं. उस हद से ज्यादा अमीर व्यक्ति को, जिसे समाज उन का पति कहता था, उसे अनामिका की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों का एहसास तक नहीं था और स्वभाव में क्रूरता व गुस्सा अलग से था. अपने बेटे को पढ़ालिखा कर अनामिका ने बड़ा किया और जब वह विदेश चला गया तो अनामिका ने खुद को उस सोने के पिंजरे से आजादी दिलाई, जिस में उन का साथ सिर्फ उन के बेटे ने दिया था.

तब से अनामिका ‘सोलो ट्रैवलर’ बन कर अकेली भारत दर्शन कर रही हैं और पिछले कुछ महीनों से यहां मैक्लोडगंज में ‘कुंगा होम स्टे’ में रुकी हुई हैं. एक नया शौक उन में जागा है और वह है फोटोग्राफी का. उन के बेटे ने अमेरिका से ही निकोन का कैमरा भेजा है, जिसे अनामिका खूब इस्तेमाल करती हैं. इतनी देर में चाय आ गई और अनामिका भी अपने खयालों की दुनिया से बाहर आ गईं.

उन के पास वाली कुरसी पर मयंक गुप्ता बैठे उन की तरफ देख कर मुसकरा रहे थे. अनामिका कुछ झिझक गईं क्योंकि उन को नहीं पता चला कि मयंक गुप्ता कब से उन के पास बैठे थे. मयंक गुप्ता दिल्ली यूनिवर्सिटी से रिटायर्ड प्रोफैसर हैं. उन की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी. सब बच्चे शादीशुदा थे. अब जीवन के इस पड़ाव पर अपने अन्य दोस्तों की तरह उन्होंने घर में बैठने की अपेक्षा ‘यायावरी’ को चुना. वे पिछले कुछ महीनों से यहां मैक्लोडगंज में एक किराए के घर में रह रहे हैं. दोनों रोज इस वक्त चाय पीते हैं. इन की मुलाकात इसी नौर्लिंग रैस्तरां में हुई थी.

मयंक गुप्ता अनामिकाजी को ‘बंडल औफ कौन्ट्राडिक्शन’ कहते थे. उन के हिसाब से मृदु स्वभाव वाली अनामिका के अंदर एक विद्रोही स्त्री भी रहती है.

मयंक गुप्ता ने अनामिका के मौन को देखते हुए चुप रहना ही बेहतर समझ और चुपचाप कौफी पीने लगे.

फिर मनचाहा विश्राम ले कर अनामिका ने उन की ओर देखा.

‘‘आप की नक्काशी सीखने की क्लास कैसी चल रही है?’’ वे बोलीं.

‘‘अच्छी चल रही है. यह ऐसा विषय है जिसे मैं पसंद करता हूं. तिब्बती लोगों में खास बात यह है कि ये लकड़ी को बरबाद नहीं करते. धारदार चाकू से लकड़ी काट कर सुंदर कलाकृति बना देते हैं.’’

‘‘जीवन भी तो ऐसा ही है प्रोफैसर गुप्ता, एक औब्जेक्ट पर दृश्य तत्त्वों की नियुक्ति और एक अप्रत्यक्ष वस्तु को खोजने के लिए उपक्रम करना,’’ अनामिका कुछ गंभीर हो कर बोलीं.

‘‘जीवन का इस तरह अन्वेषण करना एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक यात्रा है, अनामिका. बाकी सबकुछ निरर्थक ही नहीं बल्कि खंडित भी है.

वास्तव में, जीवन जिया कैसे जाता है, बेहतर दशाएं क्या हो सकती हैं, ये सब हमारे समाज ने हमें कभी सिखाया ही नहीं है. नक्काशी करना और जीवन को जीना एकसमान है. बस, दोनों को पूरी मर्यादा और गरिमा के साथ किया जाए तो अच्छा पैटर्न बन कर सामने आता है.

अनामिका को मयंक गुप्ता ज्यादा ही प्रबुद्ध और विनम्र लगते थे. 6 फुट से भी लंबे मयंक गुप्ता पर्वत समान अडिग, गहन रूप से शांत और सहज प्रकृति के व्यक्ति थे. उन के स्वभाव में एक नरमी थी जो मिस अनामिका को अपनी शादीशुदा जिंदगी में कभी नहीं मिली थी.

‘‘और आज का ‘थौट औफ द डे’ क्या है?’’ अनामिका ने बात बदलते हुए मज़ाकिया लहजे में पूछा.

‘‘आज लामा सोग्याल नक्काशी सिखाते हुए बता रहे थे कि एक महत्त्वपूर्ण सूत्र यह भी है कि अपने पूरे अस्तित्व के साथ संपूर्णता पाने का प्रयत्न करें, मतलब जीवन की अनंत व स्वाभाविक भव्यता के बीच जीने के प्रयत्न करना.’’

‘‘हां, क्योंकि सबकुछ अस्थायी है, प्रोफैसर गुप्ता,’’ अनामिका बोलीं.

बाहर सैलानियों की चहलकदमी बढ़ गई थी. कुछ विदेशी पर्यटक नौर्लिंग में इकट्ठा होना शुरू हो गए थे. इस वक्त रैस्तरां में जो इजराइली संगीत बज रहा था उस की धुन अनामिका को विशेष प्रिय थी. जब हम फुरसत में होते हैं तो संगीत अपनी उपस्थिति बहुत अलौकिक तरीके से दर्ज करवाता है.

दोनों संगीत सुनते रहे और कुछ देर बाद विदा ली.

मयंक गुप्ता अनामिका की आंखों की तरलता देखते रहते थे और मन में सोचते रहते थे कि अनामिकाजी जैसे सरल लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं. अनामिका इतनी अद्भुत थीं कि पिछले 2 महीनों से हर पल उन को उन्हीं का खयाल बना रहता था. अब तो नौर्लिंग में सुबह की कौफी पीने के लिए आना और अनामिकाजी से बातें करना, जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन रहा था.

अनामिका एक घंटे की ध्यान की क्लास के लिए वहां से 2 किलोमीटर दूर धर्मकोट के तुषिता सैंटर जाती थीं.

आज भी वे उस तरफ सड़क पर पैदल चलती जा रही थीं. यह इलाका भारत का हिस्सा तो बिलकुल भी नहीं लगता था और यही बात इस को विशिष्ट बनाती थी. बीचबीच में मठों से घंटों की आवाज और हवाओं में लाल चंदन की धूप की खुशबू दिव्यता का एहसास करवाती.

कुछ तिब्बती महिलाएं वहां से गुजर रही थीं, जो अब अनामिका को पहचानने लग गई थीं. सब उन को ‘ताशीडेलेक’ बोल कर अभिवादन करती हुई आगे गुजर रही थीं. तिब्बती महिलाएं भड़कीले लाल, नीले, पीले वस्त्र पहनती हैं लाल मूंगा और हरे फिरोजा पत्थर की मालाओं के साथ, जो अनामिका को बहुत पसंद थे.

अब अनामिका तुषिता सैंटर के सामने थीं. बांसुरी, तुरही, घडि़याल की आवाजें आ रही थीं. इस का मतलब कि सुबह का ध्यान सत्र शुरू होने वाला था. आकाश नीला, विस्तृत और सुंदर दिख रहा था. बादल के छोटेछोटे टुकड़े तैर रहे थे

जैसे किसी पेंटर ने एक बड़े कैनवास पर सफेद रंग का ब्रश फेर दिया हो. अंदर धातु के अगरदान रखे हुए थे जिन से तेज खुशबूदार धुआं ऊपर की ओर उठ रहा था. कुछ लोग प्रार्थनाचक्र घुमा रहे थे. अनामिका ने भी चक्र घुमाया और अंदर चली गईं.

अगले दिन मयंक गुप्ता नौर्लिंग नहीं आए, न ही उन्होंने फोन किया. अनामिका उन का इंतजार करती रहीं और फिर सुबह के सत्र के लिए तुषिता की तरफ चली गईं. वापस आते वक्त वे मयंक गुप्ता को फोन मिलाने का सोचने लगीं लेकिन बाद में फोन वापस बैग में डाल कर उन के घर की तरफ मुड़ गईं. अनामिका को फोन का उपयोग असहज कर देता था, इस का कारण उन को भी नहीं पता था. फोन उन्होंने सिर्फ अपने बेटे से बात करने के लिए ही रखा था.

अंत में वे मयंक गुप्ता के घर के सामने खड़ी थीं. दरवाजा उन के तिब्बती सहायक जामयांग ने खोला और मिस अनामिका सीधे मयंक गुप्ता के कमरे की तरफ चली गईं. कमरे के अंदर चीजें व्यवस्थित थीं. फर्श और दीवारों पर लकड़ी का काम था और अनेक मक्खन के दीये जल रहे थे. सबकुछ साफ, सुंदर और रोशन.

मयंक गुप्ता कोई किताब पढ़ रहे थे और वह भी इतने ध्यान से कि उन को अनामिका के वहां होने तक का एहसास न हुआ. वहां तरहतरह की किताबें थीं, ‘दि सर्मन औन दि माउंट’, ‘राबिया-बसरी के गीत’, ‘मैडम ब्लीवट्स्कीन की सेवन पोर्टलस एफ समाधि’ इत्यादि. दूसरी तरफ टेबल पर नक्काशी का सामान- छेनी, गोज और कुछ अलगअलग आकार के लकड़ी के टुकड़े पड़े थे. बहुत ही कलात्मक और बौद्धिक शौक थे मयंक गुप्ता के.

‘प्रोफैसर गुप्ता,’ अनामिकाजी धीमे से बोलीं.

मयंक गुप्ता एकदम से चौंक गए. उन को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अनामिका उन के कमरे में, उन के सामने खड़ी थीं.

अनामिका को सही से पता था कि मयंक गुप्ता उन को किस रूप में देखते हैं, लेकिन फिर भी मयंक गुप्ता के सान्निध्य में जो नरमी और आत्मीयता उन को मिलती थी वह बहुत अमूल्य और अनोखी थी. चट्टान जैसे मजबूत लेकिन जल की तरह तरल मयंक गुप्ता के मन में कई बार अनामिका का हाथ पकड़ कर बैठने की इच्छा उठती थी लेकिन उन्होंने कभी कोशिश नहीं की. वैसे भी, प्रेम कोई निश्चित प्रयास नहीं है, इस में सहज भाव से डूबना होता है, समाहित होना होता है.

‘‘आप आज आए नहीं, मैं इंतजार कर रही थी.’’

‘‘ओह, मेरा इंतजार. दरअसल मैं आज नक्काशी की क्लास भी नहीं गया. कोई खास वजह नहीं है. बस, मन ही नहीं था.’’

‘‘क्या पढ़ रहे थे आप?’’

‘‘आजकल विश्व साहित्य पढ़ रहा हूं. सुबह से निजार कब्बानी की कविताओं में डूबा हुआ था.’’

‘‘अच्छा. लेकिन मैं ने कभी उन के बारे में नहीं सुना. आप उन की कोई पंक्ति सुनाइए जो आप को सब से ज्यादा पसंद हो.’’

‘‘हां जरूर, अनामिका.’’

इतनी देर में जामयांग चाय ले कर आ गया और वे दोनों वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ गए. मयंक गुप्ता ने चाय का एक घूंट पिया और कविता कहनी शुरू की.

‘‘मैं कोई शिक्षक नहीं हूं, जो तुम्हें सिखा सकूं कि कैसे किया जाता है प्रेम. मछलियों को नहीं होती शिक्षक की जरूरत, जो उन्हें सिखाता हो
तैरने की तरकीब और पक्षियों को भी नहीं, जिस से कि वे सीख सकें उड़ान के गुर. तैरो खुद अपनी तरह से, उड़ो खुद अपनी तरह से, प्रेम की कोई पाठ्यपुस्तक नहीं होती.’’ अनामिकाजी कहीं खो गई थीं और मयंक गुप्ता एकदम चुप हो गए.

‘‘बहुत ही सुंदर है. कविताओं के सम्मोहन उन के काम आते हैं जिन को इन की जरूरत है. लेकिन ज्यादातर लोग तो अंधी दौड़ में शामिल हैं,’’ अनामिकाजी कुछ सोचते हुए बोलीं.

‘‘जरूरत से ज्यादा बौद्धिकता और आधुनिकता ने हमारे स्वाभाविक मृदु भाव छीन लिए हैं, अनामिका.’’

‘‘जी, समाज हर बात को ‘इंटैलेक्चुअल लैंस’ से ही देखता है और भाव जगत को देखनेसमझने की कोशिश कोई नहीं करता.’’

मयंक गुप्ता अनामिका को ध्यान से देख रहे थे और उन की आंखों में जो गूढ़ सांकेतिक भाषा थी, मिस अनामिका समझ पा रही थीं.

‘‘भाव जगत एक विस्तृत विषय है- एक आदिम अवस्था, सामाजिक तो बिलकुल भी नहीं.’’ मयंक गुप्ता चाय पीते हुए बोले.

‘‘और, शब्द केवल संकेत दे सकते हैं. प्रेम जैसे विस्तृत विषय को केवल जिया जा सकता है, जाना नहीं जा सकता,’’ अनामिका बोलीं.

मयंक जैसे किसी नए लोक में थे- यथार्थ और स्वप्न के पार की कोई दुनिया. दोनों एकदूसरे को देख रहे थे और जामयांग उन दोनों को. वह खाने में त्सम्पा बना कर लाया था.

मयंक कुछ सहज हुए और मजाक में बोले कि तिब्बती लोग जीवन के पहले खाने से अंतिम खाने तक त्सम्पा और चाय पर ही निर्भर रहते हैं. उस के बाद दोनों घंटों बैठे बातें करते रहे और फिर अनामिका वापस होम स्टे आ गईं.

मयंक गुप्ता को ले कर अनामिका के विचार उदार थे और वे यह भी जानती थीं कि प्रोफैसर का उन के प्रति आकर्षण स्वाभाविक और विशुद्ध है. प्रेम सामाजिक नहीं, अस्तित्वगत है. इतना व्यापक कि हर रूप में बांटा जा सकता है. जीवन और प्रेम भी कभी तार्किक हुए हैं भला?

उन दोनों का ऐसे ही मिलना चलता रहा और हिमपात के दिन आ गए. पूरी धौलाधार हिमपात के दिनों में बर्फ की चमकती पोशाक पहन लेती थी. जीवन में पहली बार रुई जैसी नर्म ताजा बर्फ के फूल आसमान से झरते हुए अनामिकाजी देख रही थीं और खुद को अकल्पनीय दुनिया में पा रही थीं. उस दिन अनामिका कुदरत के इस तिलिस्म को देखने दूर तक चली गईं और धर्मकोट के ऊपरी शिखर पर जा कर अचंभित हो गईं. बर्फबारी रुकी हुई थी और बहती हुई ठंडी हवा के शोर में एक नई आवाज भी सुनाई दे रही थी, मठों से संगीत की आवाज. ध्वज जोरजोर से लहरा रहे थे. दूर की पहाडि़यों में जो दरारें थीं, उन में बर्फ ऐसे भर गई थी जैसे घाव भरते हैं.

अनामिका ने खूब तसवीरें लीं और मयंक गुप्ता के घर की तरफ चल पड़ीं. मयंक स्वास्थ्य कारणों से बर्फबारी के कारण बाहर नहीं आ रहे थे.

पिछले तीनचार दिनों से वे घर में ही थे. उन के पास जाते ही अनामिका पहाड़ों और बर्फ की सुंदरता का बखान करने लगीं और गरमजोशी से मयंक को तसवीरें दिखाने लगीं. वे 55 साल की महिला नहीं, बिलकुल बच्चे जैसी लग रही थीं और मयंक गुप्ता उन को अनवरत देखते, सुनते जा रहे थे, जबकि खोए वे अपने खयालों में थे.

प्रेम में दूसरा ही सबकुछ हो जाता है, खुद से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण. ‘मैं’ का विसर्जन हो जाता है, बचता है सिर्फ ‘होना’, मयंक गुप्ता यह महसूस कर पा रहे थे. उन की आंखें अप्रत्याशित कारणों से नम हो उठीं और उन्होंने मिस अनामिका के कंधे पर हाथ रख दिया. यह पहली बार हुआ था. इस छुअन से अनामिका अपनी तिलिस्मी दुनिया से बाहर यथार्थ में आ गईं और उन की सिसकी निकल गई. यह वह आत्मीय स्पर्श था जो उन्हें आजीवन नहीं मिला था.

वे दोनों देर तक चुपचाप बैठे रहे. अनामिका जान चुकी थीं कि जीने के लिए नियम या सामाजिक बंधन नहीं बल्कि अनाम प्रेम चाहिए.
मयंक गुप्ता के हाथ उन के सिर और कंधे को सहलाते रहे और अनामिका देर तक रोती रहीं. 30 साल की चट्टान जैसी कठोर शादीशुदा जिंदगी की दुखद, निरर्थक और भयावह यादें आज खुद को प्रत्यक्ष रूप से उद्घाटित कर रही थीं.

‘‘यदि मेरे साथ चलने पर तुम्हारी जिंदगी में कोई खुशी आ सकती है तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं, अनामिका. हम अगला आने वाला जीवन एकसाथ गुजार सकते हैं.’’

अनामिका कुछ संभली और उन्होंने अपने आंसू पोंछे.

वे मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘प्रोफैसर गुप्ता, मैं सारा जीवन खंडित वार्त्तालाप करती आई हूं लेकिन अब इतने सालों बाद मुझे मेरे अंदर के स्वर स्पष्ट भाषा में निर्देश दे रहे हैं कि अब मुझे किसी भी तरह के बंधन की नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की जरूरत है. मैं आप के प्यार के साथ मुक्त हो कर जीना चाहती हूं जैसे एक दिन आप ने कविता में बोला था कि तैरो खुद अपनी तरह से, उड़ो खुद अपनी तरह से.’’

मयंक चुप रहे. कुछ पलों के बाद गरिमा के साथ उन्होंने अनामिका की बात को मुसकराते हुए मौन समर्थन दिया. जीवन की वास्तविकता एक हद पर जा कर हम से शब्द छीन लेती है. विशुद्ध प्रेम के उज्ज्वल प्रकाश में निराशा का एक कतरा भी नहीं रहता और एक गहरी समझ का उदय होता है.

उस दिन अनामिका ने अपने अगले ट्रैवल डैस्टिनेशन के बारे में भी बात की. हिमाचल के पहाड़ों पर लंबा समय गुजार देने के बाद अब वे जंगलों की तरफ जाना चाहती थीं और आखिरकार एक महीने बाद वे चली भी गईं.

इस बात को एक साल बीत चुका था और अनामिका इन दिनों सुंदरवन के जंगलों में फोटोग्राफी कर रही थीं.

मयंक और वे लगातार फोन और चिट्ठियों के माध्यम से संपर्क में बने रहते थे और एक बार दोनों की मुलाकात जिम कार्बेट में हुई थी जब अनामिका ने मयंक को जंगल सफारी के लिए बुलाया था. पत्रों में वे मयंक को अपने नएनए अनुभव बतातीं और मयंक उन को ‘थौट औफ द डे’.

आज मयंक अपनी किताबों में डूबे हुए थे कि जामयांग उन के पास एक कोरियर ले कर आया. मयंक खुशी से उछल पड़े, यह अनामिका ने भेजा था. जल्दीजल्दी उन्होंने खोला तो उस में मयंक की जिम कार्बेट वाली एक फ्रेम्ड तसवीर निकली, जो मयंक को भी याद नहीं था कि अनामिका ने कब खींची थी और साथ में एक पत्र तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से एक एंट्री पास था. बिना वक्त गंवाए मयंक ने चिट्ठी पढ़नी शुरू की तो पता चला कि इस साल का ‘एमेच्योर फोटोग्राफर औफ द ईयर’ का पुरस्कार मिस अनामिका को मिलने जा रहा था और अनामिका ने उन को उस कार्यक्रम के लिए अगले हफ्ते दिल्ली बुलाया था.

मयंक की आंखों में चमक आ गई. वे सोचने लगे कि अनामिका ने स्वतंत्र जीवन की अमर और अंतहीन प्रकृति को पा लिया था. सालों की गहन विनयशीलता, कष्ट, सादगी और संयम मनुष्य की मनोवृत्ति की नक्काशी कर के कैसे बदल देते हैं, अनामिका को देख कर समझ आ रहा था.

लेखक – अनुजीत

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