Download App

Social Story In Hindi : संस्कार – रेलगाड़ी में वह किस वजह से असुरक्षित महसूस कर रही थी ?

Social Story In Hindi : लगभग 3 वर्ष बाद मैं लखनऊ जा रही थी. लखनऊ मेरे लिए एक शहर ही नहीं, एक तीर्थ है, क्योंकि वह मेरा मायका है. उस शहर में पांव रखते ही जैसे मेरा बचपन लौट आता है. 10 दिन के बाद भैया की बड़ी बेटी शुभ्रा की शादी थी. मैं और मेघना दोपहर की गाड़ी से जा रही थीं. राजीव बाद में पहुंचने वाले थे. कुछ तो इन्हें काम की अधिकता थी, दूसरे इन की तो ससुराल है. ऐनवक्त पर पहुंच कर अपना भाव भी तो बढ़ाना था.

मेरी बात और है. मैं ने सोचा था कि कुछ दिन वहां चैन से रहूंंगी, सब से मिलूंगी. बचपन की यादें ताजा करूंगी और कुछ भैयाभाभी के काम में भी हाथ बंटाऊंगी. शादी वाले घर में सौ तरह के काम होते हैं.

अपनी शादी के बाद पहली बार मैं शादी जैसे अवसर पर मायके जा रही थी. मां का आग्रह था कि मैं पूरी तैयारी के साथ आऊं. मां पूरी बिरादरी को दिखाना चाहती थीं कि आखिर उन की बेटी कितनी सुखी है, कितनी संपन्न है या शायद दूर के रिश्ते की बूआ को दिखाना चाहती होंगी, जिन का लाया रिश्ता ठुकरा कर मां ने मुझे दिल्ली में ब्याह दिया था. लक्ष्मी बूआ भी तो उस दिन से सीधे मुंह बात नहीं करतीं.

शुभ्रा के विवाह में जाने का कुछ तो अपना ही चाव कम नहीं था, उस पर मां का आग्रह. हम दोनों, मांबेटी ने बड़े ही मनोयोग से समारोह में शामिल होने की तैयारी की थी. हर मौके पर पहनने के लिए नई और आधुनिक पोशाक, उस से मैचिंग चूड़ियां, गहने, सैंडिल और न जाने क्याक्या जुटाया गया.

पूरी उमंग और उत्साह के साथ हम स्टेशन पहुंचे. राजीव हमें विदा करने आए थे. हमारे सहयात्री कालेज के लड़के थे, जो किसी कार्यशाला में भाग लेने लखनऊ जा रहे थे. हालांकि गाड़ी चलने से पहले वे सब अपने सामान के यहांवहां रखरखाव में ही लगे थे, फिर भी उन्हें देख कर मैं कुछ परेशान हो उठी. मेरी परेशानी शायद मेरे चेहरे से झलकने लगी थी, जिसे राजीव ने भांप लिया था. ऐसे में वह कुछ खुल कर तो कह न पाए, लेकिन मुझे होशियार रहने के लिए जरूर कह गए. यही कारण था कि चलतेचलते उन्होंने उन लड़कों से भी कुछ इस तरह से बात की, जिस से यात्रा के दौरान माहौल हलकाफुलका बना रहे. गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी. हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे. लड़कों में अपनीअपनी जगह तय करने के लिए छीनाझपटी, चुहलबाजी शुरू हो गई.

वैसे, मुझे युवा पीढ़ी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. न ही मैं ने कभी अपने और उन में कोई दूरी महसूस की है. मैं तो हमेशा घरपरिवार के बच्चों और नौजवानों की मनपसंद आंटी रही हूं. मेरा तो मानना है कि नौजवानों के बीच रह कर अपनी उम्र के बढ़ने का एहसास ही नहीं होता, लेकिन उस समय मैं लड़कों की शरारतों और नोकझोंक से कुछ परेशान सी हो उठी थी.

ऐसा नहीं कि बच्चे कुछ गलत कर रहे थे. शायद मेरे साथ मेघना का होना मुझे उन के साथ जुड़ने नहीं दे रहा था. कुछ आजकल के हालात भी मुझे परेशान किए हुए थे. देखने में तो सब भले घरों के लग रहे थे, फिर भी एकसाथ 6 लड़कों का ग्रुप, उस पर किसी बड़े का उन के साथ न होना, उस पर उम्र का ऐसा मोड़, जो उन्हें शांत, सौम्य और गंभीर नहीं रहने दे रहा था. मैं भला परेशान कैसे न होती.

मेरा ध्यान शुभ्रा की शादी, मायके जाने की खुशी और रास्ते के बागबगीचों, खेतखलिहानों से हट कर बस, उन लड़कों पर केंद्रित हो गया था. थोड़ी ही देर में हम उन लड़कों के नामों से ही नहीं, आदतों से भी परिचित हो गए.

घुंघराले बालों वाला सांवला सा, नाटे कद का अंकित फिल्मों का शौकीन लगता था. उस के उठनेबैठने में फिल्मी अंदाज था तो बातचीत में फिल्मी डायलौग और गानों का पुट था. एक लड़के को सब सैम कह कर बुला रहे थे. यह उस के मातापिता का रखा नाम तो नहीं लगता था, शायद यह दोस्तों द्वारा किया गया नामकरण था. चुस्तदुरुस्त सैम चालढाल और पहनावे से खिलाड़ी लगता था. मझली कदकाठी वाला ईश ग्रुप का लीडर जान पड़ता था. नेवीकट बाल, मूंछों की पतली सी रेखा और बड़ीबड़ी आंखों वाले ईश से पूछे बिना लड़के कोई काम नहीं कर रहे थे. बिना मैचिंग की ढीलीडाली टीशर्ट पहने, बिखरे बालों वाला, बेपरवाह तबीयत वाला समीर था, जो हर समय चुइंगम चबाता हुआ बोलचाल में अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहा था.

मेरे पास बैठे लड़के का नाम मनीष था. लंबा, गोराचिट्टा, नजर का चश्मा पहने वह नीली जींस और कीमती टीशर्ट में बड़ा स्मार्ट लग रहा था. कुछ शर्मीले स्वभाव का पढ़ाकू सा लगने वाला मनीष एक अंगरेजी नोवल ले कर बैठा ही था कि आगे बढ़ कर रजत ने उस का नोवल छीन लिया. रजत बड़ा ही चुलबुला, गोलमटोल हंसमुख लड़का था. हंसते हुए उस के दोनों गालों पर गड्ढे पड़ते थे. रजत पूरे रास्ते हंसताहंसाता रहा. पता नहीं क्यों मुझे लगा कि उस की हंसी, उस की शरारतें, सब मेघना के कारण हैं. इसलिए हंसना तो दूर, मेरी नजरों का पहरा हरदम मेघना पर बैठा रहा.

मेरे ही कारण मेघना बेचारी भी दबीघुटी सी या तो खिड़की से बाहर झांकती रही या आंखें बंद कर के सोने का नाटक करती रही. अपने हमउम्र उन लड़कों के साथ न खुल कर हंस पाई, न ही उन की बातचीत में शामिल हो सकी. वैसे न मैं ही ऐसी मां हूं और न मेघना ही इतनी पुरातनपंथी है. वह तो हमेशा सहशिक्षा में ही पढ़ी है. वह क्या कालेज में लड़कों के साथ बातचीत, हंसीमजाक नहीं करती होगी. फिर भी न जाने क्यों, शायद घर से दूरी या अकेलापन मेरे मन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे गया था. उन से परिचय के आदानप्रदान और बातचीत में मैं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. मुझे लगा, वे मेघना तक पहुंचने के लिए मुझे सीढ़ी बनाएंगे. उन लड़कों के बहानों से उठी नजरें जब मेघना से टकरातीं तो मैं बेचैन हो उठती. उस दिन पहली बार मेघना मुझे बहुत ही खूबसूरत नजर आई और पहली बार मुझे बेटी की खूूबसूरती पर गर्व नहीं, भय हुआ. मुझे शादी में इतने दिन पहले इस तरह जाने के अपने फैसले पर भी झुंझलाहट होने लगी थी. वास्तव में मायके जाने की खुशी में मैं भूल ही गई थी कि आजकल औरतों का अकेले सफर करना कितना जोखिम का काम है. वह सभी खबरें जो पिछले दिनों मैं ने अखबारों में पढ़ी थीं, एकएक कर के मेरे दिमाग पर दस्तक देने लगीं.

कई घंटों के सफर में आमनेसामने बैठे यात्री भला कब तक अपने आसपास से बेखबर रह सकते हैं. काफी देर तक तो हम दोनों मुंह सी कर बैठी रहीं, लेकिन धीरेधीरे दूसरी तरफ से परिचय पाने की उत्सुकता बढ़ने लगी. शायद यात्रा के दौरान यह स्वाभाविक भी था. यदि सामने कोई परिवार बैठा होता तो क्या खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान किए बिना हम रहतीं और सफर में कुछ महिलाओं का साथ होता तो क्या वे ऐसे ही अनजबी बनी रहतीं. उन कुछ घंटों के सफर में तो हम एकदूसरे के जीवन का भूगोल, इतिहास, भूत, वर्तमान सब बांच लेतीं.

चूंकि वे जवान लड़के थे और मेरे साथ मेरी जवान बेटी थी, इसलिए उन की उठी हर नजर मुझे अपनी बेटी से टकराती लगती. उन कही हर बात उसी को ध्यान में रख कर कही हुई लगती. उन की हंसीमजाक में मुझे छींटाकशी और ओछापन नजर आ रहा था. कुछ घंटों का सफर जैसे सदियों में फैल गया था. दोपहर कब शाम में बदली और शाम कब रात में बदल गई, मुझे खबर ही न हुई, क्योंकि मेरे अंदर भय का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा घना था.

हालांकि जब भी कोई स्टेशन आता, लड़के हम से पूछते कि हमें चायपानी या किसी अन्य चीज की जरूरत तो नहीं. उन्होंने मेघना को गुमसुम बैठे बोर होते देखा तो अपनी पत्रपत्रिकाएं भी पेश कर दीं. जबजब उन्होंने कुछ खाने के लिए पैकेट खोले तो बड़े आदर से पहले हमें पूछा. हालांकि हम हमेशा मना करती रहीं.

मैं ने अपनेआप को बहुत समझाया कि जब आपत्ति करने लायक कोई बात नहीं तो मैं क्यों परेशान हो रही हूं. मैं क्यों सहज नहीं हो जाती, लेकिन तभी मन के किसी कोने में बैठा भय फन फैला देता. कहीं मेरी जरा सी ढील, बात को इतनी दूर न ले  जाए कि मैं उसे समेट ही न सकूं. मैं तो पलपल यही मना रही थी कि यह सफर खत्म हो और मैं खुली हवा में सांस ले सकूं.

कानपुर स्टेशन आने वाला था. गाड़ी वहां कुछ ज्यादा देर के लिए रुकती है. डब्बे में स्वाभाविक हलचल शुरू हो गई थी, तभी एक अजीब सा शोर कानों से टकराने लगा. गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी. स्टेशन आतेआते बाहर का कोलाहल कर्णभेदी हो गया था. हर कोई खिड़कियों से बाहर झांकने की कोशिश कर ही रहा था कि गाड़ी प्लेटफार्म पर आ लगी. बाहर का दृश्य सन्न कर देने वाला था. हजारों लोग गाड़ी के पूरी तरह रुकने से पहले ही उस पर टूट पड़े थे, जैसे शेर शिकार पर झपटता है. स्टेशन पर चीखपुकार, लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, हर तरफ आतंक का वातावरण था.

इस से पहले कि हम कुछ समझते, बीसियों लोग डब्बे में चढ़ कर हमारी सीटों के आसपास, यहांवहां जुटने लगे, जैसे गुड़ की डली पर मक्खियां चिपकती चली जाती हैं. वह स्टेशन नहीं, मानो मनुष्यों के समुद्र पर बंधा हुआ बांध था, जो गाड़ी के आते ही टूट गया था. प्लेटफार्म पर सिर ही सिर नजर आ रहे थे. तिल रखने को भी जगह नहीं थी.

कई सिर खिड़कियों से अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे. मेघना ने घबरा कर खिड़की बंद करनी चाही तो कई हाथ अंदर आ गए, जो सबकुछ झपट लेना चाहते थे. मेघना को पीछे हटा कर सैम और अंकित ने खिड़कियां बंद कर दीं. पलट कर देखा मनीष, रजत और ईश, तीनों अंदर घुस आए आदमियों के रेवड़ को खदेड़ने में लगे थे. किसी को धकिया रहे थे तो किस से हाथापाई हो रही थी. समीर ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जल्दीजल्दी सारा सामान बंद खिड़कियों के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया.

लड़कों को उन धोतीकुरताधारी, निपट देहातियों से उलझते देख कर जैसे ही मैं ने हस्तक्षेप करना चाहा तो ईश और सैम एकसाथ बोल उठे, आंटीजी, आप दोनों निश्चिंत  हो कर बैठिए. बस, जरा सामान पर नजर रखिएगा. इन से तो हम निबट लेंगे.

तब याद आया कि सुबह लखनऊ में एक विशाल राजनीतिक रैली होने वाली थी, जिस में भाग लेने यह सारी भीड़ लखनऊ जा रही थी. लगता था जैसे रैली के उद्देश्य और उस की जरूरत से उस में भाग लेने वाले अनभिज्ञ थे. ठीक, वैसे ही उस रैली के परिणाम और इस से आम आदमी को होने वाली परेशानी से रैली आयोजक भी अनभिज्ञ थे.

पूरी गाड़ी में लूटपाट और जंग छिड़ी थी. जैसे वह गाड़ी न हो कर शोर और दहशत का बवंडर था, जो पटिरयों पर दौड़ता चला जा रहा था. लड़कों का पूरा ग्रुप हम दोनों, मांबेटी की हिफाजत के लिए डट गया था. एक मजबूत दीवार खड़ी थी हमारे और अनचाही भीड़ के बीच, उन छहों की तत्परता, लगन और निष्ठा को देख कर मैं मन ही मन नतमस्तक थी. उस पल शायद मेरा अपना बेटा भी होता तो क्या इस तरह अपनी मां और बहन की रक्षा कर पाता.

कानपुर से लखनऊ तक के उस कठिन सफर में वे न बैठे, न उन्होंने कुछ खायापिया. इस बीच में अपनी शरारतें, चुहलबाजी, फिल्मी अंदाज, सबकुछ भूल गए थे. उन के सामने जैसे एक ही उद्देश्य था, हमारी और सामान की हिफाजत.

मैं आत्मग्लानि की दलदल में धंसती जा रही थी. इन बच्चों के लिए मैं ने क्या धारण बना ली थी, जिस के कारण मैं ने एक बार भी इन से ठीक व्यवहार नहीं किया. एक बार भी इन से प्यार से नहीं बोली, न ही इन के हासपरिहास अथवा बातचीत में शामिल हुई. क्या परिचय दिया मैं ने अपनी शिक्षा, अनुभव, सभ्यता और संस्कारों का. और बदले में इन्होंने दिया इतना शिष्ट सम्मान और सुरक्षा.

उस दिन पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में महिलाओं का अकेले यात्रा करना कितना असुरक्षित है. साथ ही एक सीख भी मिली कि कम से कम शादीब्याह तय करते समय या यात्रा पर निकलने से पहले हमें शहर में होने वाली राजनीतिक रैलियों, जलसे, जुलूसों की जानकारी भी ले लेनी चाहिए. उस दिन महिलाओं के साथ घटी दुर्घटनाएं अखबारों के मुखपृष्ठ की सुर्खी बन कर रह गईं. कुछ घटनाओं को तो वहां भी जगह नहीं मिल पाई.

लखनऊ स्टेशन का हाल तो उस से भी बुरा था. प्लेटफार्म तो जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया था.

सामान, बच्चे, महिलाओं को ले कर यात्री उस भीड़ से निबट रहे थे. चीखपुकार मची थी. भीड़ स्टेशन की दुकानें लूट रही थी. दुकानदार अपना सामान बचाने में लगे थे. प्रलय का सा आतंक हर यात्री के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था. मेरी तो आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था. इतना सारा कीमती सामान और साथ में खूबसूरत जवान बेटी. उस पर किसी भीड़ जिस की न कोई नैतिकता, न सोच, बस, एक उन्माद होता है.

वैसे तो भैया हमें लेने स्टेशन आए हुए थे, लेकिन उस भीड़ में हम उन्हें कहां मिलते. उस भीड़ में तो सामान उठाने के लिए कुली भी न मिल सका. उन लड़कों के पास अपना तो मात्र एकएक बैग था. अपने बैग के साथ सैम ने हमारी बड़ी अटैची उठा ली. छोटी अटैची मेरे मना करने पर भी मनीष ने उठा ली. मेेघना के पास पानी की बोतल और मेरे पास मात्र मेरा पर्स रह गया. हमारे दोनों बैग भी ईश और अंकित के कंधों पर लटक गए थे. उन सब ने भीड़ में एकदूसरे के हाथ पकड़ कर एक घेरा सा बना लिया, जिस के बीच हम दोनों चल रही थीं. उन्होंने हमें स्टेेशन से बाहर ऐसे सुरक्षित निकाल लिया, जैसे आग से बचा कर निकाल लाए हों.

मेरे पास उन का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं थे. उस दिन अगर वे नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता, इतना सोचने मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ने जब उन का आभार प्रकट किया तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से मुसकराते हुए कहा था, ‘‘क्या बात करती हैं आप, यह तो हमारा फर्ज था.’’

दिल ही दिल में सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए मैं ने उन्हें शुभ्रा की शादी में शामिल होने की दावत दी, लेकिन उन का आना संभव नहीं था क्योंकि वे मात्र 4 दिनों के लिए लखनऊ एक कार्यशाला में शामिल होने आए थे. उन के लिए 10 दिन रुकना असंभव था. फिर भी एक शाम हम ने उन्हें खाने पर बुलाया. सब से उन का परिचय करवाया. वह मुलाकात बहुत ही सहज, रोचक और यादगार रही. सभी लड़के सुशिक्षित, सभ्य और मिलनसार थे.

हम लोग अकसर युवा पीढ़ी को गैरजिम्मेदार, संस्कारविहीन और दिशाहीन कहते हैं, लेकिन हमारा ही अंश और हमारे ही दिए संस्कारों को ले कर बड़ी हुई यह युवा पीढ़ी भला हम से अलग सोच वाली कैसे हो सकती है. जरूर उन्हें समझने में कहीं न कहीं हम से ही चूक हो जाती है. Social Story In Hindi

Family Story In Hindi : बेटियों की मां – राधिका ने क्या फैसला लिया था, जिससे सब हैरान थें?

Family Story In Hindi : “राधिका सुनो, कल सुबह आयुष के साथ रचना और अखिलेश घर पर आएंगे,” राधिका के पति अजय ने फोन टेबल पर रखते हुए कहा.

गिलास में पानी भरती राधिका ने आश्चर्य से पूछा, “क्या…? क्या कहा आप ने? रचना और जीजाजी घर आ रहे हैं?”

“हम्म… अभी उन्हीं का फोन था,” अजय ने कहा.

इतना सुनते ही राधिका के हाथ से पानी भरा गिलास छूट गया, “क्या…?”

‘लेकिन, इतने सालों बाद कैसे याद आ गई उन को हमारी?’ राधिका ने मन ही मन में सोचा. और यह खबर सुनते ही उसे उन से जुड़ी पुरानी कड़वी यादें भी ताजा हो गईं कि उस को कैसेकैसे ताने सुनाए जाते थे.

राधिका की दूसरी बेटी होने पर ननदोईजी ने उस के पूर्व जन्मों के खराब कर्म बताए थे और ननद ने तो उस की मां की परछाईं को ही बुरा बता कर हायतोबा पूरे अस्पताल में मचा दी थी.

उस के अतीत के पन्नों में ननद और ननदोई से जुड़े वाकिए याद करने के लिए सिर्फ ताने ही थे. उसे उन की सभी बातें आज याद आ रही थीं, कैसे मायके वालों के सामने उन्होंने कहा था, “अब ये तो अपनेअपने कर्म हैं. जिन के कर्म अच्छे होते हैं, उन के ही वंश आगे बढ़ते हैं.

“खैर, अब तो साले साहब की जिम्मेदारी और बढ़ गई. चलिए… कोई बात नहीं. हमारे दोनों बेटे आप की बेटियों के लिए भाई होने का फर्ज निभाएंगे. मेरे बच्चों की जिम्मेदारी बढ़ गई. उस पर से जमाना इतना खराब है.”

सास भी बेटीदामाद का ही साथ देती थीं. उन्होंने कभी भी उस की बेटियों को दादी के हिस्से का प्यार नहीं दिया. अजय के कहने पर राधिका हमेशा चुप ही रही.

अजय हमेशा उस से एक ही बात कहता, “राधिका, कुछ बातों का जवाब समय दे तो ज्यादा बेहतर होता है.”

अजय और राधिका पारिवारिक झगड़े और तनाव से बचने के लिए पूना रहने आ गए, ताकि वे अपनी बेटियों को एक खुशहाल माहौल दे सकें.
लेकिन उस दिन के बाद से राधिका ने अपने ननदननदोई से सिर्फ बात करने की फार्ममैलिटी ही निभाई. इतने सालों में न ससुराल में कोई फंक्शन हुआ, न ननद के घर जा कर कभी मिलना होता. आखिरी बार बाबूजी की तेरहवीं पर मिलना हुआ था.

“राधिका, क्या सोचने लगी हो?” अजय ने कहा.

अजय की बात सुन कर राधिका अपनी यादों से बाहर आई.

“कुछ नहीं, बस कुछ पुरानी बातें याद आ गईं. समय कितनी जल्दी बदल गया. पता नहीं, वे लोग बदले की नहीं.”

“ओह राधिका, अब समय बदल गया है, तो निश्चित ही उन की सोच भी बदली होगी. पुराने जख्म कुरेदने पर सिर्फ दर्द ही होगा, समझी. तो बेहतर होगा कि हम उन्हें भूल ही जाएं.”

“पता नहीं, अब तो यह मिलने के बाद ही पता चलेगा कि कितना बदलाव आया है, लेकिन जहां तक उन से जुड़ा मेरा अनुभव कहता है कि कुछ लोग कभी नहीं बदलते…”

“वैसे, आ क्यों रहे हैं?” राधिका ने पूछा.

“मैनेजमैंट कालेज में आयुष का एडमिशन कराना है,” अजय ने बताया.

“किस कालेज में?” राधिका ने फिर सवाल किया.

“उसी कालेज में, जहां अपनी श्रद्धा लैक्चरर है.”

“क्या…?” सुन कर राधिका चौंक पड़ी.

“आयुष अभी पढ़ाई ही कर रहा है. लेकिन, वह तो श्रद्धा से 2 साल बड़ा है.”

“हां, हाईस्कूल और 12वीं में कई बार फेल हुआ. इस वजह से वह पीछे रह गया.”

अजय ने यह बात अपनी बेटियों श्रद्धा और आर्या को भी बताई. दोनों बहुत खुश हुईं. दोनों बेटियां शांत, संस्कारी और बहुत ही समझदार थीं. दोनों बहनों में सिर्फ एक साल का ही अंतर था. एक बेटी लैक्चरर थी और दूसरी बेटी वकालत कर रही थी.

अगले दिन रविवार था. अजय अपनी कार से लेने एयरपोर्ट पहुंचे. कार को श्रद्धा ही ड्राइव कर रही थी. दोनों बापबेटी बहुत ही खुश दिख रहे थे. अजय के चेहरे पर बेटियों के लिए चिंता की कोई शिकन या अफसोस न देख कर अखिलेश और रचना आश्चर्य में हो गए.

बेटियों ने पूरी जिम्मेदारी उठा रखी थी. घर बाहरअंदर सबकुछ अच्छे से व्यवस्थित था. घर के काम के लिए राधिका ने कोई बाई नहीं रखी थी.

घर पहुंचने पर राधिका ने सब का स्वागत खुशीखुशी किया.

उसी दिन आर्या शाम को 7 बजे घर आई. उस ने आ कर बूआफूफा के पैर छुए. देर से आने की बात सीमा और अखिलेश को अच्छी नहीं लगी.

तभी रचना ने आंखें दिखाते हुए कहा, “भैया, आप ने तो बेटियों को बहुत छूट दे रखी है. ये ऐसे ही रात को हमेशा अकेले आतीजाती हैं क्या? तो यह सब इन के लिए अच्छा नहीं… आएदिन देखिए न्यूज में लड़कियों के साथ कैसीकैसी घटनाएं होती रहती हैं.”

अजय अपने चिरपरिचित अंदाज में चुप ही रहे, क्योंकि उन का मानना था कि ऐसे लोगों को कुछ बोलने का फायदा नहीं, जिन की मानसिकता संकीर्ण हो.

इतना सुन कर आर्या का मन हुआ कि पलट कर जवाब दे दे, लेकिन राधिका की तरफ नजर गई, तो उस ने उसे इशारे से चुपचाप अंदर जाने के लिए कहा.

रात को सब काम खत्म कर के राधिका अपने कमरे में जा ही रही थी कि उस की नजर अपनी बेटियों के कमरे की तरफ गई, जहां से उसे बात करने की आवाज आ रही थी. वह कमरे के बाहर से ही खड़ी हो कर दोनों बेटियों की बातों को सुनने लगीं.

आर्या बोली, “दीदी, बूआजीफूफाजी किस जमाने की और कैसी बातें कर रहे हैं? आज तो मुझे उन की बातें सुन कर बहुत गुस्सा आया. मन तो हुआ कि पलट कर जवाब दे दूं, लेकिन मां की वजह से चुप हो गई.

“मुझे तो लगा था कि वे पापा की बहन हैं, तो उन की ही तरह अच्छे विचारों की होंगी.”

श्रद्धा ने कहा, “तू क्यों इतना अपने दिमाग पर जोर दे रही है? कौन सा वे हमारे साथ रहने वाले हैं? हमें क्या मतलब उन के विचारों से, कुछ ही दिनों की बात है बस. वैसे भी मम्मीपापा कहते हैं न कि मेहमान का अपमान कभी नहीं करना चाहिए.”

“हम्म…”

इधर आयुष फेसबुक और व्हाट्सएप पर अपने स्टेटस अपडेट करने में व्यस्त था. दोपहर में राधिका अपने ननदननदोई को कमरे से दोपहर के खाने के लिए बुलाने गई, जहां उस ने अपने ननदननदोई को बात करते सुना, “चलो, अब हमारी टैंशन खत्म. आयुष को अब आराम से खाना और कपड़े प्रैस कर के सब मिल जाएंगे. होस्टल में रहता तो हमारी चिंता और खर्चा दोनों बनी और बढ़ी रहती.”

उसी दिन रात के खाने पर अपनी आदत से मजबूर अखिलेश ने कहा, “देखिए, अजय हम ने तो आप की बहन से कहा कि आयुष को होस्टल में रख देते हैं, लेकिन आप की बहनजी हमारे पीछे ही पड़ गईं. कह रही हैं, नहीं आखिर आयुष का भी कुछ फर्ज है अपनी बहनों के लिए. अब भाई की उम्र थोड़ी न रही, जो हर जगह बेटियों के साथ आजा सके. तो इसी बहाने भैयाभाभी की मदद हो जाएगी और बेटियों को भी सुरक्षा मिल जाएगी. आखिर भाई को कोई बेटा होता तो हमें यह सब न सोचना होता.”

“क्यों भाभीजी… सही कहा न मैं ने? आखिर आप बेटियों की मां हैं, तो आप को बेहतर पता होगा,” एक तरफ ननदननदोई की व्यंग्यात्मक मुसकान, तो वहीं दूसरी तरफ राधिका ने खीर परोसते हुए दोनों बेटियों की तरफ देखा, जिन की बूआफूफा से मिलने की खुशी नाराजगी और दुख में बदल गई थी.

तभी राधिका ने मुसकराते हुए कहा, “जीजाजी, यह खीर लीजिए, बिलकुल सही कहा आप ने. मैं तो सोच रही थी कि आप का ही फैसला सही है. आयुष को आप होस्टल में ही रख दीजिए, क्योंकि ध यहां रहेगा तो उस के बहाने उस के चार दोस्त भी मिलने आतेजाते रहेंगे. ये तो सामान्य सी बात है. अब न तो हम, न ही बेचारा आयुष उन्हें घर आने से मना भी नहीं कर सकते. क्योंकि अच्छा नहीं लगेगा दोस्तों को यों मना करते, क्यों आयुष बेटा? सही कह रही हूं न मैं. और जैसा कि आप ने अभी कहा कि मैं बेटियों की मां हूं, तो उन की सुरक्षा की दृष्टि से बाहरी लड़कों का घर में आनाजाना ठीक नहीं. क्यों जीजाजी, सही कहा न मैं ने?

“और दूसरी तरफ एकसाथ कालेज के लिए निकले तो लोगों के हजार सवाल भी होंगे कि छोटी बहन लेक्चरर और बड़ा भाई अभी मैनेजमैंट कोटे से एमबीए करने जा रहा है, तो अच्छा नहीं लगेगा.

“अब सब के सामने यह सब सुन कर आयुष को भी अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए माफी चाहूंगी कि मैं अपने घर में आयुष को नहीं रख पाऊंगी. लेकिन, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. जब भी उस को कोई मदद चाहिए होगी, हम सब जरूर कर देंगे.

“तो आप कल ही होस्टल जा कर देख लीजिए. चाहे तो श्रद्धा आप के साथ चली जाएगी. अनजान शहर में आप की मदद भी हो जाएगी. ठीक है न बेटा?”

अपनी मां के मुंह से इस तरह का मीठा प्रहार सुन कर दोनों बेटियों के चेहरे पर खुशी छा गई.

राधिका अच्छी तरह जानती थी कि उन लोगों को उस की बेटियों से ज्यादा अपने बेटे की चिंता थी कि कहीं उन का बेटा शहर की चमकधमक में बिगड़ न जाए या रैगिंग वगैरह का शिकार न हो. लेकिन, यह बात स्वीकार कैसे करें? उन का अहम जो बीच मे आड़े आ रहा था.

राधिका की बातें सुन कर अखिलेश और रचना निरुत्तर नजरें झुकाए गुस्से से उसे घूरते देखते रह गए. लेकिन कुछ भी बोल न पाए.

लेखिका : रागिनी पाठक

Hindi Poem : चले चलो

Hindi Poem : क्या लिखूँ , सब शब्दों में है आपना प्रेम
आ से अरमान है, तो अंग्रेज़ी के ए से अरदास है

शब्दों में सफलता भी है निराला भी है
ढेरों गीत गाते हुए चले चलो चले चलो

याद है, मंजिल तो मिल ही जाएगी
हौसले बुलंद हो तो हाथ में तलवार नहीं

दिल में प्यार की तलाश ज़ुबान पर शब्दों की मिठास
हर एक में अपने पन की भावना ले कर चले चलो

चले चलो, चले चलो चले चलो
राह दूर नही, सब मिल जायेगा

मिठे बोल हमको मंजिल पर पताका लहरायेंगे
बस तुम हिम्मत से चलें चलो

लेखिका : रमा सेठी

Romantic Story In Hindi : गुनहगार हूं मैं

Romantic Story In Hindi : ऐसा क्यों होता है जिसे कई बार देखा हो, देख कर भी न देखा हो. आतेजाते नजर पड़ जाती हो लेकिन उसे ले कर कोई विचार, कोईर् खयाल न उठा हो कभी. ऐसा होता वर्षों बीत चुके हों. फिर किसी एक दिन बिना किसी खास बात या घटना के अचानक से उस का ध्यान आने लगता है. मन सोचने लगता है उस के विषय में. वह पहले जैसी अब भी है, कोई विशेषता नहीं. फिर भी उस के खयाल आते चले जाते हैं और वह अच्छी लगने लगती है अकारण ही, हो सकता है पहले उस के मन में कुछ हो या न भी हो, वहम हो मेरा कोरा. अभी भी उस का मन वैसा ही हो जैसा पहले मेरा था. उस को ले कर सबकुछ कोरा.

लेकिन, मु झे यह क्या होने लगा? क्या सोचने लगा मन उस के बारे में? क्यों उस का चेहरा आंखों के सामने  झूलने लगा हर वक्त? यह क्या होने लगा है उसे ले कर, नींद भी उड़ने लगी है. मैं नाम भी नहीं जानता. जानना चाहा भी नहीं कभी. लेकिन आजकल तो हाल ऐसा हो गया है कि बुद्धि भ्रष्ट सी हो गई है. आवारा मन भटकने लगा है उस के लिए. अब तो प्रकृति से मांगने लगा हूं कि मिल जाए वह तो सब मिल गया मु झे. एक  झलक पाने को मन मचलता रहता है. कहने की हिम्मत नहीं पड़ती.

अब सोचता हूं तो बहुतकुछ असमानताएं नजर आती हैं, उस में और मु झ में. उम्र, जाति, धर्म और भी न जाने क्याक्या? लेकिन ये सब क्यों होने लगा, यह सम झ नहीं पा रहा हूं. खुद में एक लाचारी सी है. मन की निरंतर बढ़ती हुईर् चाहत. क्या करूं अपनी इस बेवकूफी का? अपने पर गुस्सा भी आता है दया भी. जितना सोचता हूं कि न सोचूं, उतना ही सोचता जाता हूं और पता भी नहीं चलता कब रात गुजर गई सोचतेसोचते. क्या इसे प्यार कहेंगे?

कितना अजीब है यह सबकुछ. पता चलने पर क्या सोचेंगे लोग. वैसे पता चलने नहीं दूंगा किसी को मरते दम तक. उस से कहने की तो हिम्मत ही नहीं है. मान लो, कह भी दिया तो क्या होगा? कहीं गलत सम झ बैठी. कहीं हल्ला कर दिया इस बात का, मेरा प्रेम तो छिछोरा बन कर रह जाएगा. अब दिखती है तो देखता हूं मैं और चाहता हूं कि देखे वह मु झे. लेकिन सामने पड़ते ही न जाने कौन सी  िझ झक, कौन सी मर्यादा रोक लेती है? देख नहीं पाता, देखना चाहता हूं जीभर के. वह देखती है लेकिन नजर टकराने जैसा. जैसे आमनेसामने से गुजरते हैं. अजनबी या पहचाने चेहरे. बस, इस से ज्यादा कुछ नहीं. छोटा शहर, छोटा सा महल्ला, क्या करूं?

खत भी कैसे लिखूं कि उसे पता हो कि मैं ने लिखा है, लेकिन पता न चले किसी और को. पता चले और तमाशा खड़ा हो तो कह सकूं कि मैं ने नहीं लिखा. फिर पत्र उसी तक पहुंचे तो भी ठीक, घर में किसी के हाथ लगा तो उस की मुश्किल. शक के दायरे में तो आ ही जाऊंगा मैं. वैसे, यदि उस की हां हो तो फिर कोई डर नहीं मु झे. फिर चाहे जमाने को पता लग जाए. बस, उस के दिल में हो कुछ मेरे लिए.

आजकल तो मोबाइल का जमाना है, लेकिन मोबाइल तो पत्रों से भी ज्यादा विस्फोटक हैं. फिर, मु झे नंबर भी पता नहीं. पता लगाने की कोशिश कर सकता हूं. लेकिन मैं ने उस के हाथ में कभी मोबाइल देखा ही नहीं. कोशिश की तो थी उस का नंबर पता लगाने की. किसी भी नंबर से कर सकता था फोन. लेकिन सफल नहीं हुआ. मान लो, किसी दिन सफल हो भी जाऊं तो क्या होगा? क्या कहेगी, क्या सम झेगी वह? मानेगी या मना कर देगी. मु झे ऐसा करना चाहिए या नहीं. बहुत बड़ा सामाजिक, आर्थिक भेद है. क्या करूं मैं? यह सब हो कैसे गया?

क्या यह प्यार है या कुछ और. या मेरी बढ़ती उम्र की कोई अतृप्त लालसा. यही सोच कर हैरान, परेशान हूं कि ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ. न मेरे सपनों की राजकुमारी से मेल खाती है वह, न कोई विशेषताएं हैं मु झे खींचने लायक उस में. फिर मैं किस  झं झट में अपनेआप फंसता जा रहा हूं. क्या यह मन का भटकना है, क्या कोई बुरा समय शुरू हो गया है मेरा. क्या सच में प्यार हो गया है मु झे. मैं दिनोंदिन पागल और बेचैन हो रहा हूं उस के लिए, मेरे न चाहने पर भी.

मैं क्या करूं, यह कोई फिल्म या कहानी नहीं है. यह जीवन है. एक मध्यवर्गीय महल्ला है जहां ऐसा सोचना भी ठीक नहीं. फिर इसे परिणित करना बहुत मुश्किल है और मान लो कि ऐसा हो भी जाए जैसा चाहता हूं मैं, तब क्या होगा, लड़की का भविष्य, मेरा वर्तमान, कहां जाएंगे भाग कर?

पुलिस, कोर्टकचहरी, मीडियाबाजी सबकुछ होगा. फिर अपने मातापिता के साथ आतीजाती दिखती लड़की से बात करना भी संभव नहीं है. लेकिन अचानक से यह सब क्यों होने लगा मन में. उस का खयाल, उस का चेहरा घूमता रहता है और दिनरात बेकरारी बढ़ती ही जा रही है निरंतर. यह गलत है, मैं जानता हूं, लेकिन यह बेईमान मन सुने, तब न. अब, बस, घुटते रहना है और किसी एक दिन ऐसी गलती भी होनी है मु झ से. जिस का क्या परिणाम होगा, मु झे पता नहीं या पता है, इसलिए हिम्मत नहीं जुटा पाता. लेकिन मन कर के रहेगा मनमानी और होगा कोई तमाशा.

मैं रोक रहा हूं खुद को लेकिन पता नहीं कब तक? मैं तो यही सोच कर परेशान हूं कि यह सब क्यों हो रहा है मेरे साथ. क्या कहूंगा मैं उस से. मान लो, मौका मिला भी और कहा, ‘तुम से प्यार करता हूं,’ आगे शादी की बात पर क्या कहूंगा? वह नहीं कहेगी तुम तो शादीशुदा हो? 2 बच्चों के बाप? शर्म नहीं आती तुम्हें. बात सही है. मैं हूं शादीशुदा. तो क्या मैं बोर हो चुका हूं अपनी पत्नी से? नहीं, ऐसा नहीं है, मैं चाहता हूं उसे. और बच्चों से कौन बाप बोर होता है? तो क्या मु झे नएपन की तलाश है. क्या मैं ऐयाशी की तरफ बढ़ रहा हूं. नहीं, वह तो कहीं भी कर सकता हूं.

यही लड़की क्यों पसंद और प्रिय है मु झे. क्या कह सकता हूं? क्या करूं मनचले मन ने जीना हराम कर रखा है. क्यों यह लड़की मेरी जिंदगी में घुसती चली जा रही है, मेरे मनमस्तिष्क में समाती ही जा रही है. ऐसा भी नहीं कि मैं छोड़ दूं उस की खातिर अपना परिवार. फिर किस हक से मैं उसे चाहता हूं पाना. सम झ के बाहर है बात. किस अधिकार से कहूं उस से. क्या वह हां कह सकती है. नहीं, बिलकुल नहीं. अगर कह दिया, तो होगा क्या आगे? शादी और प्रेम के भंवर में फंस जाऊंगा मैं. बदनामी, अपमान अलग. यह कैसी मुसीबत मोल ले ली मैं ने. सब इस मन का कियाधरा है. धिक्कार है ऐसे मन में. मैं अपने को विवश और दुविधा में क्यों पा रहा हूं?

क्या करूं, सोचसोच कर परेशान हूं. ठीक तो यही होगा कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खुश रहूं. उन्हीं में मन लगाऊं. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. अब मेरी हालत ऐसी हो गई है कि मैं उस साधारण सी दिखने वाली 25 वर्ष की लड़की को 45 की उम्र में देखे बिना चैन नहीं पा रहा हूं. दिल बच्चों की तरह मचल रहा है. उस के घर से निकलने, छत पर टहलने वापस आने के समय पर मैं ध्यान दे रहा हूं ताकि मैं उसे देख सकूं. देख ही तो सकता हूं और कुछ तो मेरे वश में है नहीं.

मैं घर की छत पर हूं. मेरे घर से लगा हुआ उस का घर है. वह अपनी छत पर है. मैं उस की तरफ देख रहा हूं. बीचबीच में उस की नजर भी मु झ पर पड़ रही है. लेकिन उस की नजर मेरी नजर से जुदा है. उस की नजर पड़ने पर मैं अपनी नजरें हटा नहीं रहा हूं, बल्कि पूरी बेशर्मी से उसे देखे जा रहा हूं. उसे शायद आश्चर्य हो रहा होगा मु झ पर. जिस आदमी ने कभी नहीं देखा उस की तरफ तब भी जब वह अविवाहित था और अब ऐसे देख रहा है.

उस ने नजरें हटा लीं. वह छत से उतर कर नीचे चली गई. थोड़ी देर बाद मैं भी. अब मेरा क्या काम छत पर. उस के कालेज जाने के समय पर मैं भी निकल पड़ता उस के पीछे. वह कालेज चली जाती. मैं सीधा निकल जाता. जब वह कालेज से लौटती तो मैं भी सारे कामधाम छोड़ कर उस के पीछे चल देता. वह अपने घर और मैं मजबूरी में अपने घर. जी तो यही चाहता कि मैं उस के साथ उस के घर चला जाऊं. अपने घर बुलाना, थोड़ा नहीं, बहुत मुश्किल है. काश, शादी के पहले यह सब कोशिश की होती, तो बात बन जाती. इतने पीछेपीछे चलने पर उस का ध्यान मेरी ओर खिंचना स्वाभाविक था. यह कोई एकदो दिन की बात नहीं थी कि वह इसे इत्तफाक मान लेती. अब वह भी मेरी तरफ गौर से देखने लगी. शायद उसे मु झ पर शक हो चला हो तो या उसे महसूस हुआ हो कि मैं उसे चाहने लगा हूं. हो सकता है उसे मु झ में बदनीयती नजर आने लगी हो कह नहीं सकता. मेरी पत्नी को जरूर मेरे इस टाइमबेटाइम घर से आनेजाने पर शक हुआ. तभी तो उस ने टोका. लेकिन मैं ने उसे टाल दिया. छत पर जाता, तो पत्नी भी छत पर आने लगी. मेरे कार्य में व्यवधान पड़ने लगा. लेकिन मैं ऐसा जाहिर कर रहा था मानो मु झे पेट की शिकायत हो, या खुली हवा में सांस लेना, डाक्टर के अनुसार, जरूरी था मेरे लिए.’’

पत्नी ने पूछा भी,‘‘ तुम्हें कुछ हुआ है, कोई बीमारी है, डाक्टर से मिले?’’

मेरा जवाब था, ‘‘हां, खुली हवा में टहलने के लिए, पैदल चलने के लिए कहा डाक्टर ने,’’ अब कैसे बताऊं कि जो दिल में बस चुकी है वह पैदल ही कालेज आतीजाती है. मु झे उम्मीद तब जगी जब वह मेरे घर कुछ काम से आई. आती तो वह पहले भी थी लेकिन उस वक्त मैं ने कभी ध्यान नहीं दिया. पड़ोसी थी, सो, मेरी पत्नी से परिचय था उस का. उस के परिवार का. आनाजाना लगा रहता था. लेकिन अब वह आई तो मु झे लगा कि वह मेरे लिए आई है और आती रहेगी मेरे लिए. वह मु झ से नमस्ते अंकल कहती. पहले कोई फर्क नहीं पड़ता था. लेकिन अब कहती तो दिल पर तीर चलने लगते.

मैं अब पहले से भी ज्यादा सजसंवर कर रहता. एक भी बाल सफेद नहीं दिखने देता था. दाढ़ी रोज बनाता था. अच्छे कपड़े पहनने लगा था. पहनता तो पहले भी था लेकिन अब अपने चेहरे, बाल, कपड़ों का ज्यादा ध्यान रखने लगा था. मेरा इस तरह उस के पीछपीछे आना, उसे एकटक ताकना, शायद उसे आभास हो गया था कि मेरे दिल में उस के लिए कुछ है. कुछ नहीं, बल्कि बहुतकुछ है.

उस में भी मु झे काफी परिवर्तन दिखाई देने लगे थे. उस की वेशभूषा, पहनावा, करीने से संवारे गए बाल. जो पहले कभी नहीं था. वह अब होने लगा था. उस का इतराना, बल खा कर चलना, पीछे मुड़ कर देखना, मुसकराना, नजर मिलते ही गालों पर लाली दौड़ जाना, उस के देखने में मु झे साफ फर्क नजर आने लगा था. यह मेरा भ्रम नहीं था.

उसे आभास हो चुका था कि मैं उस पर दिलोजान से फिदा हूं. लेकिन वह मु झ पर क्यों मेहरबान हो रही थी, मेरी सम झ में नहीं आ रहा था. उम्र का असर था. लग रहा होगा उसे, चाहता है कोई. चाहत कब देखती है उम्रबंधन? ये तो समाज के बनाए रिवाज हैं. जो न मु झे मंजूर हैं और न शायद उसे. आग बराबर लगी हुई थी दोनों तरफ. बहुत दिन इसी सोच में बीत गए कि वह कोई बात करे ताकि आगे की शुरुआत हो सके. लेकिन मैं भूल गया था कि शुरुआत पुरुष को ही करनी होती है.

मु झे उस के हावभाव से सम झ लेना चाहिए था. यदि मैं ने देर की, तो शायद बात हाथ से निकल जाए. वैसे भी, बहुत देर हो चुकी थी. इस से पहले कि और देर हो जाए, मु झे कह देना चाहिए उस से. लेकिन मैं क्या कहूं? कैसे कहूं? मेरे कहने पर यदि उस ने अनुकूल उत्तर न दिया. उलटा कुछ कह दिया, तो फिर कैसे रह पाऊंगा पड़ोसी बन कर? क्या इज्जत रह जाएगी मेरी महल्ले में? लेकिन चाहत है तो कहना होगा. अब बिना कहे काम नहीं चल सकता. मेरी नजर उस से टकराती तो मैं मुसकरा देता. जवाब में वह भी मुसकरा देती. अब बनी बात. लाइन क्लीयर है. अब कह सकता हूं मैं अपने दिल की बात. वह कालेज जा रही थी और मैं उस के पीछे थोड़े अंतर से चल रहा था. उस ने अपनी गति धीमी कर दी. मैं भी अपनी गति से चलता रहा. थोड़ी देर में बगल में था मैं उस की. अब हम साथसाथ चल रहे थे.

‘नमस्ते,’ इस बार उस ने अंकल नहीं कहा. या कहा हो, मैं ने सुना नहीं. यदि मैं न सुनना चाहूं तो कौन सुना सकता है. लेकिन उस ने कहा नहीं शायद.

‘नमस्ते,’ मैं ने कहा, मेरे दिल की धड़कनें तेज होने लगीं.’’

‘‘कहां?’’ मैं ने पूछा यह जानते हुए भी कि वह कालेज जा रही है.

‘‘कालेज,’’ उस ने धीरे से मुसकराते हुए कहा.

‘‘और आप?’’

मैं हड़बड़ा गया. कोई उत्तर देते नहीं बना. क्या कहूं कि तुम से मिलने, तुम से बात करने के लिए तुम्हारे पीछे आता हूं. लेकिन कह न सका.

‘‘बस, यों ही टहलने.’’

‘‘रोज, इसी समय.’’

उस की इस बात पर मु झे लगा कि वह निश्चिततौर पर सम झ चुकी है मेरे टहलने का मकसद. मैं धीरे से मुसकराया. ‘‘हां, तुम्हें क्या लगा?’’ उफ यह क्या बेवकूफाना प्रश्न कर दिया मैं ने.

‘‘नहीं, मु झे लगा.’’ और वह चुप हो गई.

‘‘तुम्हें क्या लगा?’’ मैं ने बात को पटरी पर लाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं’’ कह कर वह चुप रही.

‘‘कौन सी क्लास में पढ़ती हो?’’ बात आगे बढ़ाने के लिए कुछ तो पूछना ही था.

‘‘एमए प्रीवियस.’’

‘‘किस विषय से?’’

‘‘समाजशास्त्र से.’’

‘‘बढि़या सब्जैक्ट है.’’

दोनों तरफ थोड़ी देर के लिए फिर शांति छा गई. मैं सोच रहा था, क्या बात करूं. कालेज निकट आ रहा है. यही समय है अपनी बात कहने का. पहली बार इतना अच्छा मौका मिला है.

‘‘पढ़ाई मैं कोई दिक्कत हो तो बताना,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं, सरल विषय है. दिक्कत नहीं होती.’’

‘‘यदि हो तो?’’

‘‘जी, जरूर बताऊंगी.’’

‘‘मैं ने इसलिए कहा, क्योंकि इसी विषय में मैं ने भी पीएचडी की हुई है.’’

‘‘मैं जानती हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘आप प्रोफैसर हैं समाजशास्त्र के?’’

‘‘जी’’ मैं ने गर्व से कहा.

‘‘मैं पूछूंगी आप से यदि कोई दिक्कत आई तो.’’

‘‘क्या ऐसे बात नहीं कर सकती. बिना दिक्कत के?’’

‘‘क्यों नहीं, आखिर हम पड़ोसी हैं,’’ उस ने कहा.

मु झे अच्छा लगा. मैं ने पूछा, ‘‘आप मोबाइल रखती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कभी देखा नहीं आप को मोबाइल के साथ?’’

‘‘मैं जरूरत के समय ही मोबाइल चलाती हूं.’’

‘‘सोशल मीडिया, मेरा मतलब फेसबुक आदि पर नहीं हैं आप?’’

‘‘नही, ये सब समय की बरबादी है. घर के लोगों को भी पंसद नहीं.’’

‘‘आप का नंबर मिल सकता है,’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया.

‘‘क्यों नहीं,’’ कहते हुए उस ने अपना नंबर दिया जिसे मैं ने अपने मोबाइल पर सेव कर लिया.

‘‘मु झे तो आप का नाम भी नहीं पता?’’ मैं ने पूछा. मैं पूरी तरह सामने आ चुका था खुल कर. बड़ी मुश्किल से मौका मिला था. मैं इस मौके को बेकार नहीं जाने देना चाहता था.

‘‘रवीना,’’ उस ने हलके से मुसकराते हुए कहा. उस का कालेज आ चुका था. उस ने आगे कहा, ‘‘चलती हूं.’’ और वह कालेज में दाखिल हो गई, मैं सीधा निकल गया.

आगे जाने का कोई मकसद नहीं था. मकसद पूरा हो चुका था. मैं वापस घर की ओर चल दिया. मु झे तैयार हो कर कालेज भी जाना था. लेकिन कालेज के लंच में जब रवीना का कालेज छूटता था, मैं फिर तेजी से उस के कालेज की ओर बढ़ चला. मेरा और उस का कालेज एक किलोमीटर के अंतर पर था. फर्क इतना था या बहुत था कि वह अपने कालेज में छात्रा थी और मैं अपने कालेज में प्रोफैसर.

सुबह के समय सड़क खाली होती है, लेकिन लंच के समय यानी दोपहर 2 बजे भीड़भाड़ होती है. वह कालेज से निकल चुकी थी. मैं ने अपने कदम तेजी से उस की तरफ बढ़ाए. मैं उस तक पहुंचता, तभी वह किसी लड़के की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ कर पलभर में नजरों से ओ झल हो गई. मेरा खून खौल उठा. मैं क्या सम झता था उसे, क्या निकली वह? पढ़ाई करने जाती है या ऐयाशी करने. बेवफा कहीं की. और मैं क्या हूं, शादीशुदा होते हुए भी आशिकी कर रहा हूं. बेवफा तो मैं हूं अपनी बीवी का.

लेकिन नहीं, मु झे सारे दोष उस में ही नजर आ रहे थे. उसे यह सब शोभा नहीं देता. लड़कियों को अपनी इज्जत, अपने सम्मान के साथ रहना चाहिए. मांबाप की दी हुई आजादी का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए. मैं उसे कोस रहा था. फिर मैं ने स्वयं को सम झाते हुए कहा, होगा कोई रिश्तेदार, परिचित. कल पूछ लूंगा. लेकिन मेरा इस तरह पूछना क्या ठीक रहेगा? उसे बुरा भी लग सकता है. जो भी हो, पूछ कर रहूंगा मैं. तभी चैन मिलेगा मु झे. दूसरे दिन नियत समय पर वह घर से कालेज के लिए निकली और मैं भी. उस ने फिर अपनी चाल धीमी कर दी. मैं उस की बगल में पहुंच गया.

‘‘कल लौटते वक्त नहीं दिखीं आप?’’ मैं ने बात को दूसरी तरफ से पूछा.

‘‘हां, कल भैया के दोस्त मिल गए थे. वे घर ही जा रहे थे. उन्होंने बिठा लिया,’’ अब जा कर मेरे कलेजे को ठंडक मिली. फिर भी मैं ने पूछा, ‘‘भैया के दोस्त या’’ वह मेरी बात का आशय सम झ गई.

‘‘क्या, आप भी अंकल…’’

‘‘मेरे सीने पर जैसे किसी ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया हो. ‘अंकल’ शब्द दिमाग में हथौड़े की तरह बजने लगा.’’

‘‘क्या मैं बूढ़ा नजर आता हूं?’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर अंकल क्यों कहती हो?’’

‘‘तो क्या कहूं, भाईसाहब?’’

‘‘फिर तो अंकल ही ठीक है,’’ हम दोनों हंस पड़े. यदि कहने के लिए संबोधन के लिए ही कुछ कहना है तो अंकल ही ठीक है. बड़े शहरों की तरह यहां सर, या सरनेम के आगे जी लगा कर बुलाने का चलन तो है नहीं.

‘‘मैं तुम्हें फोन कर सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं? आप घर भी आ सकते हैं. मु झे भी बुला सकते हैं. मैं तो अकसर आती रहती हूं,’’ उस ने सहजभाव से कहा. लेकिन मु झे उस में अपना अधिकार दिखाई पड़ा. मेरे हौसले बढ़ चुके थे.

‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां.’’

‘‘आज तक किसी ने कहा नहीं मु झ से. मु झे भी लगा कि मैं सुंदर तो नहीं, हां, बुरी भी नहीं. ठीकठाक हूं.’’

‘‘लेकिन मैं कहता हूं कि तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘आप को लगती हूं?’’

उस ने प्रश्न किया या मेरे मन की गहराई में चल रहे रहस्य को पकड़ा. जो भी हो. उस ने कहा इस तरह जैसे वह अच्छी तरह जान चुकी थी कि मैं उसे पसंद करता हूं. तभी तो उस ने कहा, आप को लगती हूं.

‘‘लगती नहीं, तुम हो.’’

मैं ने कहा. वह चुप रही. लेकिन हौले से मुसकराती रही. उस के गालों पर लालिमा थी.

मैं ने मौका देख कर अपने मन की बात स्पष्ट रूप से कहनी चाही.

‘‘एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं, आप कहिए.’’

‘‘मैं…मैं…मैं… आप से…’’

‘‘पहले तो आप मु झे आप कहना बंद करिए. आप प्रोफैसर हैं, मैं स्टूडैंट हूं,’’ उस ने यह कहा, तो मु झे लगा जैसे कह रही हो कि आप में और मु झ में बहुत अंतर है. ‘‘मैं आप का सम्मान करती हूं और आप…’’

मैं चुप रहा. उस ने कहा, ‘‘कहिए, आप कुछ कहने वाले थे.’’

‘‘मैं कहना तो बहुतकुछ चाहता हूं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं.’’

‘‘मैं जानती हूं. आप क्या कहना चाहते हैं. लेकिन कहना तो पड़ेगा आप को,’’ उस

ने मेरी तरफ तिरछी नजर से मुसकराते

हुए कहा.

‘‘पहले तुम वादा करो कि यह बात हमारेतुम्हारे बीच में रहेगी. बात पसंद आए या न आए,’’ मैं हर तरफ से निश्ंिचत होना चाहता था. सुरक्षित भी कह सकते हैं. पहले तो लगा कि कहूं यदि तुम जानती हो तो कहने की क्या आवश्यकता है. लेकिन जाननेभर से क्या होता है?

‘‘मैं वादा करती हूं.’’

‘‘हम कहीं मिल सकते हैं. रास्ते चलते कहना ठीक न होगा.’’

‘‘लेकिन कहां?’’

‘‘थोड़ी दूर पर एक कौफी शौप है.’’

‘‘वहां किसी ने देख लिया तो क्या उत्तर देंगे. छोटा सा शहर है.’’

‘‘तुम मेरे कालेज आ सकती हो. कालेज के पार्क में बात करते हैं. वहां कोई कुछ नहीं कहेगा. यही सम झेंगे कि पढ़ाई के विषय में कोई बात हो रही होगी.’’

‘‘कब आना होगा?’’

‘‘12 बजे.’’

‘‘कालेज बंक करना पड़ेगा.’’

‘‘प्लीज, एक बार, मेरे लिए,’’ शायद उस ने मेरी दयनीय हालत देख कर हां कर दिया था. दोपहर के 12 बजे. कालेज का शानदार पार्क. दिसंबर की गुनगुनी धूप. कालेज के छात्रछात्राएं अपने सखासहेलियों के साथ कैंटीन में, पार्क में बैठे हुए थे. कुछ पढ़ाई पर, कुछ सिनेमा, क्रिकेट पर बातें कर रहे थे. मैं बेचैनी से उस का इंतजार कर रहा था. वह आई. मैं उस की तरफ बढ़ा. मेरी धड़कनें भी बढ़ीं.

‘‘आइए,’’ मैं ने कहा. और हम पार्क की तरफ चल दिए.

‘‘कहिए, क्या कहना है?’’

‘‘देखो, तुम ने वादा किया है. बात हम दोनों के मध्य रहेगी.’’

‘‘मैं वादे की पक्की हूं.’’

‘‘मेरी बात पर बहुत से लेकिन, किंतुपरंतु हो सकते हैं जो स्वाभाविक हैं. लेकिन, मन के हाथों मजबूर हूं. बात यह है कि मैं तुम से प्यार करता हूं. करने लगा हूं. पता नहीं कैसे?’’

मैं ने कह दिया. हलका हो गया मन. फिर उस की तरफ देखने लगा. न जाने क्या उत्तर मिले. मैं डरा हुआ था.

‘‘मैं तो आप से बहुत पहले से प्यार करती थी जब आप मेरे पड़ोस में रहने आए थे. लेकिन आप ने कभी मेरी ओर ध्यान ही नहीं दिया. जिस दिन आप की शादी हुई थी, बहुत रोई थी मैं. फिर मन को सम झा लिया था किसी तरह. मैं आप से आज भी प्यार करती हूं लेकिन…’’

‘‘मैं जानता हूं कि मैं विवाहित हूं, 2 बच्चे हैं मेरे. लेकिन तुम साथ दो तो…’’

‘‘मैं आप के साथ हूं. आप के प्यार में. कोई लड़की जब किसी से सच्चा प्यार करती है तो किसी भी हद तक जा सकती है. मैं किसी बंधन में नहीं हूं. आप सोच लीजिए.’’

‘‘थैंक यू, मु झे कुछ नहीं सोचना. जो होगा, देखा जाएगा,’’ मैं ने कह तो दिया लेकिन कहते समय पत्नी और बच्चों का चेहरा सामने घूम गया. इस के बाद हमारी अकसर मुलाकातें होने लगीं. मोबाइल पर तो बातें होती ही रहतीं. सावधानी हम दोनों ही बरत रहे थे. कभी वह कुछ पूछने के बहाने, पढ़ाई के बहाने, घर भी आ जाती. हम सिनेमा, पार्क, रैस्तरां जहांजहां भी मिल सकते थे. मिलते रहे. वह कालेज से गायब रहती और मैं भी. एक दिन मैं ने उस से मोबाइल पर कहा, ‘‘बेकरारी बढ़ती जा रही है तुम्हें पाने की. तुम्हें छूने की. प्लीज कुछ करो.’’

‘‘मेरा भी यही हाल है, मैं कोशिश करती हूं.’’

फिर एक दिन ऐसा हुआ हमारी खुशनसीबी से कि उस

के परिवार के लोगों को एक शादी में जाना था 2 दिनों के लिए और उसी समय मेरी पत्नी को उस के मायके से बुलावा आ

गया. दिसंबर के अंतिम सप्ताह में वैसे भी स्कूल, कालेज बंद

रहते हैं. वह अपने घर में अकेली थी. मैं अपने घर में. बीच में एक दीवार थी. रात को मैं उस के घर या वह मेरे घर आए तो शायद ही कोई देखे. फिर भी सावधानी से हम ने तय किया कि मैं उस की छत पर पहुंच कर छत की सीढि़यों से नीचे जाऊंगा. दोनों छतें सटी हुई थीं.

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड और रात के 11 बजे महल्ले वाले अपनेअपने घरों की रजाइयों में दुबके होंगे. जबकि प्रेम की अगन, हम दोनों को एकदूसरे से मिलने के लिए बेकरारी बढ़ा रही थी. मैं अपने घर की छत पर पहुंचा. धीरे से उस की छत पर पहुंचा पूरी सावधानी से. मन में डर था. कोई देख न ले. प्रेम आदमी में हिम्मत और जोश भर देता है. यह बात तो आज पक्की हो गई थी.

मैं उस के बैडरूम में था उस के साथ. मैं उसे जीभर कर देख रहा था. और वह मु झे. मैं उस से लिपट गया. उस ने विरोध नहीं किया. मैं उसे चूमने लगा. उस ने मेरा साथ दिया. मैं ने उस के कपड़े उतारने की कोशिश की. उस ने कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या? मन तो मिल चुके हैं,’’ मैं ने अपने हाथ वापस खींच लिए. उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर फूल की तरह रखा और उस से लिपट गया. मैं उसे फिर से चूमने लगा. वह भी मु झे चूमने लगी. सर्दी में गरमी का एहसास होने लगा. मैं ने फिर आगे बढ़ना चाहा. उस ने फिर कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या?’’

‘‘तुम डर रही हो. घबराओ मत. मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा. और मेरे हाथ फिर से उस के वस्त्र उतारने की ओर बढ़े.

‘‘यह सब तो तुम अपनी पत्नी के साथ कई बार कर चुके होगे. मैं तुम से सैक्स नहीं, केवल प्यार चाहती हूं.’’

‘‘सैक्स भी तो प्यार प्रदर्शित करने का एक माध्यम है. क्या तुम मु झे नहीं चाहती. यदि प्रेम करती हो तो फिर संबंध बनाने से इनकार क्यों?’’ उस के जिस्म पर मेरे होंठ और हाथ हरकत कर रहे थे. उस का शरीर समर्पण मुद्रा में था.

‘‘अगर तुम यही चाहते हो तो यही सही. मैं आप की खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं. आगे कुछ हो तो आप संभाल लेना.’’

मैं शिकारी की मुद्रा में था. इस अनमोल समय को मैं किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था. एकदो बार दिमाग ने सम झाने की कोशिश की. लेकिन इस स्थिति में दिमाग की कौन सुनता है. दिमाग खुदबखुद शरीर के बाकी हिस्से के साथ शामिल हो जाता है. वह शरमाती रही. मैं उसे निर्वस्त्र करता रहा. उस ने कहा, ‘‘एक बार फिर सोच लो.’’

मैं ने कहा, ‘आई लव यू’ और मैं आगे बढ़ता रहा. वह धीरेधीरे कराहती रही और मैं आगे बढ़ता रहा. कुछ समय बाद वह मेरा साथ देने लगी. मेरे चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. उस के चेहरे पर संतुष्टि के साथ डर भी था. मैं ने उसे गोली निकाल कर दी.

‘‘इसे खा लो.’’

‘‘पूरी तैयारी के साथ आए हो,’’ उस ने गोली हाथ में ले ली. फिर वह मु झ से लिपट कर रोने लगी.

‘‘मु झे छोड़ना मत. मैं ने अपना सबकुछ तुम्हें सौंप दिया.’’

मैं ने उसे कभी न छोड़ने का वादा किया. सुबह 4 बजे में वापस लौटा. मेरे मन पर भी कुछ बो झ सा आ गया था. मैं भी सही और गलत पर विचार करने लगा था. और वह तो अब जैसे मु झ पर ही निर्भर हो चुकी थी. मु झे ही अपना सबकुछ मान बैठी थी. उस का बारबार फोन आना. अपना अधिकार जता कर बात करना. भविष्य के बारे में बात करना. बातबात पर रो देना. कभी भी मेरे कालेज चले आना. फिर मिलने की बात करना. इन सब बातों ने मु झे भारी दबाव में ला दिया था.

मैं स्वयं को मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त सा पा रहा था. मैं ने उसे सम झाया कि देखो, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं. इस तरह तुम्हारी जिद और अधिकार हमारे प्रेमभरे संबंधों के लिए घातक हैं. हम बिना किसी बंधन के ज्यादा सुखी रह सकते हैं. तुम्हें अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिए. मेरी बात पर उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘मैं कहां अधिकार जता रही हूं. प्रेम के बदले प्रेम ही तो मांग रही हूं. पहले आप मिलने के लिए कितने उतावले रहते थे. अब तो बस हां या न में उत्तर देते हो. पहले की तरह सुबह आते भी नहीं हो.’’

‘‘इन दिनों मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है,’’ कहने को तो मैं ने कह दिया. लेकिन सच बात यही थी कि मैं अपने अंदर अब वह जोश वह उत्साह नहीं पा रहा था, चाह कर भी. उस की बारबार की शिकायतों से तंग आने लगा था मैं. तो क्या मु झे उस से जो चाहिए था उस की पूर्ति हो चुकी थी? क्या उस के प्रति मेरी दीवानगी मात्र उस के शरीर को पाने तक सीमित थी? क्या चंद रातों के लिए मैं ने अपना सुकून और एक लड़की का जीवन दांव पर लगा दिया था? क्या मु झे अपनी पत्नी से ऐसा कुछ नहीं मिल रहा था जो मैं ने इस लड़की में तलाशना चाहा? कहीं यह मेरी अधेड़ावस्था के कारण तो नहीं.

प्यार तो उस समय करता था मैं उस से. आज भी करता हूं लेकिन वह बात नहीं रही अब? क्यों नहीं रही वह बात? क्या मैं उस के शरीर का भूखा था मात्र? अब क्यों उस के पीछेपीछे नहीं जाता मैं? क्यों उस से कतराता रहता हूं. इस के लिए कहीं न कहीं वह भी दोषी है. एकदम से पीछे पड़ जाना, बारबार फोन करना, हरदम मिलने की कोशिश करना कहां तक उचित है? लेकिन मु झे उसे सम झाना होगा. उस पर ध्यान भी देना होगा. कमउम्र की लड़की है. न जाने गुस्से या नाराजगी में क्या कर बैठे? वह जबजब मिली, नईपुरानी शिकायतों के साथ मिली. और मैं प्रेम से उसे प्रेम की परिभाषा सम झाता रहा. जिस में त्याग की भावना मुख्य थी. लेकिन सम झाना व्यर्थ ही रहता. वह अधिकार चाहती थी. जो मैं उसे नहीं दे सकता था.

‘‘आप ने ही तो कहा था कि मेरे लिए सबकुछ कर सकते हो.’’

‘‘हां, तो कर तो रहा हूं. तुम से मिलता हूं, बात करता हूं.’’

‘‘मु झे अपना अधिकार चाहिए.’’

‘‘हमारे बीच अधिकार की बात कहां से आ गई?’’

‘‘प्यार है तो अधिकार तो आएगा ही, मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं, अरमान हैं. मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. घर बसाना चाहती हूं.’’

‘‘अब वह शादी की बात कहां से आ गई? तुम क्या चाहती हो? मैं अपने बीवी, बच्चे छोड़ दूं? क्या वे मु झे इतनी आसानी से छोड़ देंगे? समाज, कानून भी कोईर् चीज है.’’

‘‘आप ने जो वादे किए थे उन का क्या?’’

‘‘मैं ने प्यार करने का, निभाने का वादा किया था.’’

‘‘तो ले चलो मु झे कहीं दूर अपने साथ. मत करना शादी. मैं ऐसे ही रहने को तैयार हूं.’’

‘‘उफ यह क्या मुसीबत मोल ले ली मैं ने. कहां ले जाऊं इसे? कहां रखूं? लोगों को पता चलेगा. पत्नी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी मेरे बारे में. मैं उस से स्पष्ट नहीं कह सकता था कि मेरा पीछा छोड़ो. वह कुछ भी कर सकती थी. इन दिनों उस के तेवर ठीक नजर नहीं आ रहे थे मु झे. वह मेरा नाम लिख कर आत्महत्या कर सकती थी. वह पुलिस थाने जा कर यौनशोषण का आरोप लगा सकती थी मु झ पर. मु झे ऐसी किसी भी स्थिति से बचने के लिए उसे यह एहसास दिलाना जरूरी था कि मैं जल्द ही उस की इच्छा पूरी करने के लिए कोई कदम उठाने जा रहा हूं. क्या करूं, कैसे पीछा छुड़ाऊं? जिस लड़की के लिए मैं मरा जा रहा था आज उस से पीछा छुड़ाने के विषय में सोच रहा था.’’

मैं भूल गया था कि वह कोई सैक्स का खिलौना नहीं थी कि जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल कर दिया और रख दिया एक तरफ. वह जीवित हाड़मांस की 25 वर्षीया नौजवान लड़की थी. उस की इच्छाएं, अरमान होना स्वाभाविक था. लेकिन मेरा अपना जीवन था. मैं प्रोफैसर था. विवाहित था. 2 बच्चों का बाप था. यह बात मु झे उस रात उस के घर में जा कर उस से संबंध बनाने से पहले सोचनी चाहिए थी. तो क्या करूं पीछा छुड़ाने के लिए. ले जाऊं कहीं दूर और फेंक दूं मार कर उस की लाश को कहीं. क्या मैं यह कर सकता हूं? क्या यह मु झे करना चाहिए? तो क्या उसे अपनी गैरकानूनी पत्नी बना कर रख लूं. लोग यही तो कहेंगे कि दूसरी औरत रख ली है. हत्यारा बनने से तो बचूंगा. फिर मेरी उम्र और उस की उम्र में 20 वर्ष का अंतर है. जब मु झ से शारीरिक सुखों की पूर्ति नहीं होगी, तो खुद ही चली जाएगी छोड़ कर. सारा प्यार एक तरफ धरा रह जाएगा. नहीं…नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

एक दिन उस ने रोते हुए कहा, ‘‘जल्दी कुछ करो, मेरे घर वाले शादी के लिए लड़का तलाश रहे हैं.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है. तुम्हारी उम्र का पढ़ालिखा, अच्छी नौकरी वाला जीवनसाथी मिलेगा. जो सिर्फ तुम्हारा होगा.’’

‘‘मैं किसी से शादी नहीं करूंगी. मेरी शादी होगी तो सिर्फ तुम से… वरना सारा जीवन कुंआरी रहूंगी.’’

मैं ने उसे सम झाते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है तुम अपने पैरों पर खड़ी हो. यदि शादी की तुम्हारी शर्त है तो मेरी भी एक शर्त है. तुम्हें प्रोफैसर की पत्नी बनना है तो पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

मैं ने दांव चलाया. दांव चल गया. उस ने जोश में कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं आप को अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाऊंगी. लेकिन प्यार कम नहीं होना चाहिए.’’

उस के आखिरी वाक्य से मैं आहत

सा हुआ. लेकिन मु झे रास्ता मिल गया.

अच्छा रास्ता जो लड़की के भविष्य के लिए उचित था.

‘‘हां, प्यार कम नहीं होगा. वादा रहा. लेकिन तुम्हें किसी बड़ी कंपनी या सरकारी नौकरी में ऊंची पोस्ट पर आना होगा. इस के लिए तुम्हें खूब तैयारी करनी होगी. सबकुछ भूल कर कम से कम 12 घंटे पढ़ना होगा. चाहो तो किसी बड़े शहर में कोचिंग जौइन कर लो. साथ ही, अपनी पढ़ाई भी जारी रखो. मैं इस में तुम्हारी मदद करूंगा.’’

‘‘लेकिन मेरे घर वाले मु झे बाहर भेजने के लिए राजी नहीं होंगे.’’

‘‘तुम पढ़ाई पर ध्यान दो. तुम्हारी लगन और मेहनत देख कर वे खुद तुम्हें भेजेंगे. मैं भी सम झाऊंगा उन्हें.’’

‘‘लेकिन अपना वादा याद रखना.’’

‘‘तुम अपना वादा तो निभाओ.’’

‘‘मैं बीचबीच में मिलती रहूंगी. मिलना होगा आप को. फोन पर बात भी करनी होगी.’’

‘‘मु झे मंजूर है,’’ मैं ने खुशी के साथ कहा.

यदि लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो कर भी मु झ से जुड़ी रहना चाहे तो मु झे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. ऐसा मेरा मानना था. धीरेधीरे उम्र बढ़ेगी. सम झ भी बढ़ेगी. लड़की नौकरी में होगी तो उस का अपना स्टेटस भी होगा. वह अपने बराबर का रिश्ता देखेगी. चार लोगों में उसे भी तो अपने पति से मिलवाना होगा. मु झे नहीं लगता कि वह आज से 5 वर्ष बाद मु झे किसी से अपने पति के रूप में मिलवाना पसंद करेगी.

इस बीच मेरी पत्नी का शक मजबूत हो चुका था. अब वह उसे घर आने की बात पर टाल देती. उस से ठीक से बात नहीं करती. मु झ से भी कई बार उसे ले कर  झगड़ा हो चुका था. मेरे मोबाइल की घंटी बजते ही  झट से पत्नी आ कर मोबाइल उठा कर पूछती. जब उसे यकीन हो जाता कि दूसरी तरफ मेरी प्रेमिका है तो वह उलटीसीधी बातें सुनाती. गालियां देती और मोबाइल पटक देती. कई बार मेरे कालेज भी आ जाती. एकदो बार उस ने बात करते हुए पकड़ भी लिया और उसे और मु झे खूब खरीखोटी सुनाई. मैं ने अपनी पत्नी को कई बार सम झाया कि वह कम उम्र की नादान लड़की है. पढ़ाईलिखाई में मदद मांगने आती है. लेकिन पत्नी का स्पष्ट कहना था कि मु झे बेवकूफ बनाने की जरूरत नहीं है. मैं सब सम झती हूं. घर में मेरे सम्मान की धज्जियां उड़ने लगीं. पत्नी बातबात पर व्यंग्य करने से नहीं चूकती.

मैं ने अपनी पत्नी की आड़ ले कर उसे डराते हुए सम झाया, ‘‘मेरे मोबाइल पर बात मत करना. खासकर जब मैं घर में रहूं. तुम्हारे घर वालों से शिकायत कर दी, तो तुम्हारे घर वाले तुम्हें चरित्रहीन सम झेंगे. तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हारा विवाह कर देंगे. यदि तुम हम दोनों का भला चाहती हो, सुखी भविष्य देखना चाहती हो तो अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाओ. इसी दिन के लिए मैं बारबार फोन करने, मिलने के लिए मना करता था. यह दुनिया शुरू से प्यार की दुश्मन रही है. लेकिन तुम ने प्यार को प्यार न सम झ कर अधिकार सम झ लिया.’’

उस ने रोंआसे स्वर में कहा, ‘‘जब तुम्हारी पत्नी ने मु झे भलाबुरा कहा, तब तुम ने क्यों कुछ नहीं कहा. अपने प्यार का अपमान होते देखते रहे.’’

मैं ने गुस्से से कहा, ‘‘यदि मैं कुछ कहता तो वह तुम्हारा तमाशा बना कर रख देती. जो मैं नहीं चाहता था. तुम सम झतीं क्यों नहीं बात?’’

वह सम झ गई. उदास हो कर घर चली गई. मैं ने लड़की के पिता बिहारीलालजी को एक पत्र लिखा और उन के बैंक के पते पर पोस्ट कर दिया. पत्र में बहुत विश्वसनीयता से उन की पुत्री के गैर लड़के से संबंधों की जानकारी लिखी थी. बिहारीलालजी बैंक में अंकाउंटैंट थे. उन के परिवार में इस बेटी के अलावा एक बेटी, एक बेटा और पत्नी थी. मैं जानता था कि भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार में लड़की बाहर चाहे जो करे लेकिन प्रेम के नाम पर यदि मातापिता उसे डांटेंमारें तो वह किसी अपराधी की तरह सिर  झुका कर सब सुनतीसहती रहेगी. यही हुआ भी. उस के मातापिता डांट रहे थे. उन की आवाजें मेरे घर तक आ रही थीं. मेरी पत्नी ने मु झ पर व्यंग्य करते हुए कहा, ‘‘लो, लड़की ने तो तुम जैसे न जाने कितने फंसा रखे हैं.’’

मैं ने पत्नी को जम कर लताड़ते हुए कहा, ‘‘गंवार, बेवकूफ औरत. वह एक सीधीसाधी लड़की है. कम उम्र की है. बचपना है उस में. मैं तो उसे टीचर बन कर पढ़ाता था. तुम ने मु झे भी नहीं बख्शा. इस उम्र में हो जाता है लगाव. मैं उस के पिता से बात कर के उन्हें सम झाऊंगा. दोबारा मेरा नाम उस के साथ जोड़ने की गलती मत करना. वह सिर्फ मेरे लिए एक स्टूडैंट है. और ऐसी न जाने कितनी छात्राएं मु झ से पढ़ाई संबंधी सवाल पूछती हैं. कभीकभी कम उम्र के बच्चों को लगाव हो जाता है. इस का अर्थ यह तो नहीं कि मैं उस का प्रेमी हो गया.’’

पत्नी खामोश हो गई. कभीकभी तेज स्वर में सचाई से  झूठ बोलना सच को छिपा देता है. दूसरे ही दिन मैं बैंक में जा कर बिहारीलालजी से मिला. मु झे देख कर वे आश्चर्य में पड़ गए. मैं ने कहा, ‘‘कुछ बात करनी थी. थोड़ा सा समय लूंगा आप का.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘थोड़ा एकांत में.’’

वे बैंक से बाहर आ गए. मैं ने कहा, ‘‘कल आप के घर से तेज आवाजें आ रही थीं.’’ उन के चेहरे पर तनाव आ गया.’’

‘‘मैं पहले ही इस संबंध में आप को बताना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं हुई. अब जब आप को सब पता चल ही चुका है तो मेरी सलाह मानिए. आप की बेटी पढ़ने में होशियार है. किसी लड़के के बहकावे में आ गई है. लड़की सभ्य, संस्कारी, पढ़ने में तेज है. इस तरह की बातों पर शोर करने से मामला बिगड़ता है. कल गुस्से में लड़की ने कोई गलत कदम उठा लिया तो मुश्किल हो जाएगी आप के लिए.’’

‘‘आप ही बताइए, क्या करूं मैं?’’

‘‘मेरी मानिए, लड़की को कुछ समय कोचिंग और कालेज की पढ़ाई के लिए बाहर भेज दीजिए. यदि नौकरी में आ गई तो आप के दोनों बच्चों को भी मार्गदर्शन मिल जाएगा. घर की मदद भी हो जाएगी. यह सारा  झमेला भी खत्म हो जाएगा.’’

‘‘आप जानते हैं उस लड़के को?’’

‘‘नहीं, मैं ने एकदो बार उसे मोटरसाइकिल पर घूमते देखा है आप की लड़की को. आप यह सब छोडि़ए और लड़की के भविष्य व परिवार के सम्मान की खातिर उसे दिल्ली भेज दीजिए. दोतीन साल की बात है. इस बीच कोई अच्छा रिश्ता आ जाए तो बुला कर शादी कर दीजिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ बिहारीलालजी मेरी बात से सहमत थे.

उन्होंने तब तक लड़की का घर से निकलना बंद कर दिया. उस का मोबाइल छीन लिया. जब तक कि वे उसे दिल्ली के एक अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट में नहीं छोड़ आए. मैं ने राहत की सांस ली. एक प्यारभरी गलती, एक विवाहित पुरुष की प्यार करने की गलती, एक कम उम्र की लड़की से प्यार करने का अपराध और बाद में उस से अपने सुखद भविष्य, शांतिपूर्ण गृहस्थी और लड़की की भलाई के लिए मु झे जो करना था, वह मैं ने किया. इसे गुनाह छिपाने का सकारात्मक तरीका भी कहा जा सकता है.

कालेज के समय पर उस के फोन आते. वह ‘आई लव यू’, ‘आई मिस यू’ के मैसेज करती. मु झे बेइंतहा प्यार करने की बात कहती और साथ ही अपना वादा याद रखने की बात कहती. मैं बदले में यही कहता, ‘कुछ बन कर दिखाओ, प्यार के लिए, पहले.’

वह शायद पढ़ाई में व्यस्त होती गई. अब फोन आते, लेकिन पहले वह पढ़ाई संबंधी मार्गदर्शन लेती, उस के बाद अंत में आई लव यू पर अपनी बात खत्म करती. मैं जानता हूं होस्टल का खुलापन, हमउम्र लड़केलड़कियों की एक कालेज में पढ़ाई के साथ मौजमस्ती. धीरेधीरे उस का मेरी तरफ से ध्यान हटेगा. अपने हमउम्र किसी लड़के पर उस का  झुकाव बढ़ेगा.

उस ने एक दिन फोन कर के बताया कि वह बैंक के साथसाथ पीएससी की तैयारी भी कर रही है. कालेज की पढ़ाई खत्म हो चुकी है. उस ने यह भी बताया कि पिताजी को किसी ने मेरे बारे में उलटासीधा पत्र लिखा था. इसलिए उन्होंने मु झे दिल्ली भेज दिया. जबकि ऐसा नहीं था. उस ने यह भी बताया कि शादी के लिए पिताजी ने एक लड़का पसंद किया है. मु झे बुलाया है. लेकिन मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, वापस नहीं आऊंगी. यदि वे रुपए न भी भेजें, तो कोई पार्टटाइम जौब कर लूंगी. फिर धीरेधीरे फोन अंतराल से आने लगे. कईकई दिनों में. फोन आते भी तो आई लव यू भी कई बार नहीं कहा जाता.

मेरी उम्र 50 वर्ष हो चुकी थी. उसे गए हुए 5 वर्ष बीत चुके थे. मु झे पता चला उस के पिता से कि उस ने पीएचडी कर ली है. नैट निकाल लिया है. वह साथ ही आईपीएस की तैयारी भी कर रही है. मु झे खुशी हुई कि उस ने मु झे फोन लगा कर नहीं बताया. इच्छा हुई कि एक बार उस से मिलूं, इस मिलने में कोई प्रेम नहीं था, वासना नहीं थी. बस, देखना था कि कितना भूल चुकी है वह.

मैं ने 3 माह लगातार साबुन से बाल धोए. न बाल कटवाए, न डाई करवाई. इस से मेरे बालों की पिछली सारी ब्लैक डाई निकल चुकी थी. मेरे सारे बाल सफेद थे. और चेहरे पर सफेद चमचमाती दाढ़ी. आंखों में पावर का चश्मा. मैं इग्नू के काम से दिल्ली आया हुआ था. सोचा, मिलता चलूं और परिवर्तन देखूं. होस्टल का पता उसी के द्वारा मु झे मालूम था. मैं होस्टल के बाहर था. वह गु्रप में लड़कियों के साथ हंसीमजाक कर रही थी. मु झे देख कर वह सकते में आ गई.

मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने अपनी साथ की लड़कियों से कहा, ‘‘यह मेरे अंकल हैं,’’ सभी लड़कियों ने मु झे ‘हाय अंकल,’ ‘नमस्ते अंकल’ कहा. उसे लगा मैं कुछ कह न दूं. वह मु झे फौरन होस्टल के गैस्टरूम में ले गई. उस समय वहां कोई नहीं था. वह मु झ पर भड़क कर बोली, ‘‘आप बिना बताए कैसे आ गए? आए थे तो कम से कम हुलिया ठीक कर के आते. इस समय आप अंकल नहीं, दादाजी लग रहे हैं. क्या जरूरत थी आप को यहां आने की?’’

मु झे खुशी हुई उस की बात सुन कर. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘तुम से मिलने की इच्छा हुई, तो चला आया.’’

‘‘ऐसे कैसे चले आए? यह गर्ल्स होस्टल है. फिर आशिकी का भूत सवार तो नहीं हो गया ठरकी बुड्ढे. जो हुआ मेरा बचपना था. अगर वह बात किसी को बता कर बदनाम करने की कोशिश की तो जेल भिजवा दूंगी यौनशोषण का केस लगा कर.’’

तभी उस का फोन बजा. वह एक तरफ जा कर बात करने लगी.

‘‘हां, रमेश, कल की पार्टी मेरी तरफ से. उस के बाद पिक्चर का भी प्रोग्राम है. हां, मेरा सलैक्शन हो गया है कालेज में.’’

‘‘यह रमेश कौन है?’’ मैं ने पूछा, हालांकि मु झे पूछने की जरूरत नहीं थी.

‘‘मेरा बौयफ्रैंड है,’’ फिर उस ने मु झे सम झाया, ‘‘प्लीज, पुरानी बातें भूल जाओ. मैं ने गुस्से में जो कहा, उस के लिए माफ करना. यहां मेरा अपना टौप का सर्कल है. यदि किसी को तुम्हारे बारे में पता चलेगा तो मेरा मजाक उड़ाएंगे सब.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ मैं पूरी तरह निश्ंिचत हो कर उठा.

‘‘अंकल, आप ने पढ़ाई में मेरी जो मदद की है, उस के लिए धन्यवाद. एक बार गलती हम दोनों से हुई थी. उसे याद करने की जरूरत नहीं. प्लीज, आप जाइए. कोई पूछे तो कहना आप मेरे अंकल हैं. घर के लोगों ने कहा था कि दिल्ली जा रहे हो, तो बेटी के हालचाल पूछते हुए आना.’’

‘‘हां, बिलकुल यही कहूंगा.’’

मैं होस्टल के गैस्टरूम से बाहर निकला. उस का मु झे भूलना, मु झ से चिढ़ना, मु झ से बचना, यही तो चाहता था मैं. जो हो चुका था. मेरी गलती का, अपराध का सफल प्रायश्चित्त हो चुका था. मैं खुश था, मेरे मन का सारा बो झ उतर चुका था. मैं अपनी सफाई, सम झदारी से बच तो निकला था लेकिन दाग फिर भी धुला नहीं था पूरी तरह.

घर पर जब कभी कोई नैतिकता, प्रेम, विश्वास की बात करता तो पत्नी के मुंह से निकल ही जाता, तुम तो रहने ही दो. तुम्हारे मुंह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं. और मैं चुप रह जाता. चुप रहने में ही भलाई सम झता. कहने को अपनी सफाई में बहुतकुछ कह सकता था मैं. लेकिन, मैं खामोश रहता क्योंकि अंदर से मैं जानता था कि कहीं न कहीं से गुनहगार हूं मैं. Romantic Story In Hindi

Hindi Love Stories : मेरे हमदर्द मेरे दोस्‍त

Hindi Love Stories : दरवाजे की तेज खटखटाहट से मैं नींद से हड़बड़ा कर उठी. 7 बज चुके थे. मैं ने झट से शौल ओढ़ा और दरवाजा खोला. सामने दूध वाले को पा कर मैं बड़बड़ाती हुई किचन में डब्बा लेने चली गई. ‘इतनी जोर से दरवाजा पीटने की क्या जरूरत है?’

रोज बाई सुबह 6 बजे तक आ जाती थी. उस के पास दूसरी चाबी थी. चाय बना कर वह मुझे उठाती और नाश्ता तैयार करने लग जाती. मैं ने डब्बा बढ़ा कर दूध लिया. तब तक काम वाली बाई प्रेमा भी सामने से आ गई.

मैं उसे देर से आने पर बहुतकुछ कहना चाहती थी पर डर था कि कहीं वापस न चली जाए. उस को तो कई घर मिल जाएंगे पर मुझे प्रेमा जैसी कोई नहीं मिलेगी. मैं ने प्रेमा से कहा. ‘‘अच्छा, तू झट से चाय बना दे और नहाने का पानी गरम कर दे.’’

‘‘मेमसाहब, एक तो गीजर खराब, बाथरूम की लाइट नहीं जलती, दरवाजे की घंटी नहीं बजती और फिर गैस का पाइप…आप ये सब ठीक क्यों नहीं करातीं. मेरा काम बहुत बढ़ जाता है,’’ वह एक ही सांस में उलटा मुझे ही सुनाने लग गई. उस को कहने की आदत थी और मुझे सुनने की. बस, यों ही हमारा गुजारा चल रहा था. कभीकभी तो लगता था, सबकुछ छोड़ कर भाग जाऊं. पर जाऊं कहां? वहां भी तो अकेली ही रहूंगी. उम्र के 52 वसंत पार करने के बाद भी मैं एक नीरस सी जिंदगी ढो रही थी.

रोज सुबह कोचिंग सैंटर जाना, 3-4 बैच को पढ़ाना, जौइंट ऐंट्रैंस और नीट की तैयारी करवाना, फिर वापस शाम को घर आ जाना. प्रेमा जो बना कर चली जाती, उसी को गरम कर के खा लेती और टीवी के चैनल बदलतेबदलते सो जाती.

न मैं किसी के घर जाती न कोई मेरे घर आता. यहां तक कि औफिस के कलीग से भी मेरी कोई खास बातचीत नहीं होती. दबीछिपी जबान में मुझे अकड़ू और खूसट की संज्ञा से जाना जाता. मैं ने भी

हालात के तहत पारिवारिक व सामाजिक दायरा बढ़ाने की कोशिश नहीं की.

मैं तैयार हो कर अपने सैंटर पहुंच गई. दिल्ली के इस इंस्टिट्यूट में लगभग 200 बच्चे पढ़ते थे. मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे मैनेजमैंट ने कई बार एकेडमिक हैड के लिए कहा, पर मैं कोई जिम्मेदारी लेने से बचती थी. मेरे औफिस पहुंचते ही मिसेज रीना बोलीं, ‘‘लंच के बाद कहीं मत जाना, मुंबई आईआईटी से डाक्टर सिंह आ रहे हैं. अपने स्टूडैंट्स से भी कह देना कि औडिटोरियम में 3 बजे तक पहुंच जाएं. वे अपना अनुभव शेयर करेंगे और बच्चों को कुछ टिप्स भी देंगे.’’

‘‘ठीक है, कह दूंगी. सो, दोपहर के बाद कोई क्लास नहीं होगी.’’

‘‘तुम छुट्टी की बात तो नहीं सोच रही हो न. अरे, इतने बड़े प्रोफैसर हैं आईआईटी में. अब डीन होने का उन्हीं का नंबर है. और हां, वे हमारे साथ 2 बजे लंच भी करेंगे. तुम भी तब तक कौमनरूम में पहुंच जाना.’’

लंच के लिए हम लोग कौमनरूम में इकट्ठे हुए. तभी पिं्रसिपल जोसेफ डाक्टर सिंह को ले कर कमरे में आए. मैं उन को देख कर एकदम धक सी रह गई. पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ, अचानक मेरे दिल ने तेजी से धड़कना शुरू कर दिया. इस से पहले कि मैं संभल पाती, पिं्रसिपल साहब ने मेरा परिचय कराते हुए कहा, ‘ये नीरजा हैं. हमारे यहां की बेहद डैडीकेटिड टीचर.’ जानते हैं, इन का पढ़ाया बच्चा…’’ मैं ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया.

‘‘अरे, नीरजा तुम, यहां,’’ कह कर उन्होंने बड़े ही नपेतुले शब्दों में मुझे ऊपर से नीचे तक देखा.

‘‘आप जानते हैं इन्हें?’’ पिं्रसिपल जोसेफ ने पूछा.

‘‘हां, हम दोनों ने एकसाथ ही, एक ही कालेज से एमबीए किया था. कुछ याद है आप को,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे देखा और बोले, ‘‘मैं, नरेन,’’ और उसी चिरपरिचित मुसकराहट से मेरा स्वागत किया जैसा सदियों पहले.

मैं ने भी मुसकरा कर सिर हिलाया और अपने स्थान पर बैठ गई. मैं उन्हें कभी भूली तो नहीं पर याद कर के करती भी क्या. जो पल हम ने साथसाथ बिताए थे वे लौट कर तो आएंगे नहीं.

असैंबली हौल में उन के परिचय और तजरबे को ले कर जितनी तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी, वे सब आज मेरी झोली में गिरी होतीं. परंतु आज मैं एक कोने में मासूम सी, सहमी सी दुबकी बैठी थी.

इधर उन का लैक्चर शुरू हुआ, उधर मैं यादों के झरोखों में जा गिरी. हमारी पहली मुलाकात एमबीए की उस सिलैक्शन लिस्ट से हुई जिस में मेरा नाम उन्हीं के नाम के नीचे था. एक नामराशि होने के कारण लिस्ट पर उस की उंगली मेरी उंगली के ऊपर थी और वह अपने पंजाबी अंदाज में बोला था, ‘आप का नाम नीरजा है, मुबारकां हो जी, लिस्ट में नाम तो आया.’ मैं मुसकरा कर एकतरफ हो गई. मुझे अपना नाम इस इंस्टिट्यूट में आने की खुशी थी और उस ने समझा मैं उस की बातों पर मुसकरा रही हूं.

एक ही नामराशि के होने के कारण रजिस्टर में हमारे नाम भी आगेपीछे लिखे होते और सीटें भी आसपास ही होतीं. मैं होस्टल में रहती और उस ने लाजपत नगर में पेइंगगैस्ट लिया था. उस इंस्टिट्यूट में किसी का भी नाम आने का मतलब था कि उस का पिछला रिकौर्ड बहुत ही बेहतरीन रहा होगा.

वह काफी हंसमुख और चुलबुला लड़का था. अपने इसी स्वभाव के चलते वह जल्दी ही लोगों में घुलमिल जाता था. उस में यही ऐसी खासीयत थी जो उसे सब से अलग करती और ऊपर से उस का सिख होना.

उस के विपरीत मैं एकदम शांत, शर्मीले स्वभाव की थी. जब भी वह मुझे देख कर मुसकराता, मैं एकतरफ हो जाती. यों कहना चाहिए कि मैं उस से कन्नी काट लेती. सुबह जब भी वह क्लास में आता, एक खुशनुमा माहौल सा पैदा हो जाता. उस की हंसी में भी संगीत की झंकार थी.

मेरा परिवार लखनऊ में रहता था. पापा बैंक में थे और बड़े भैया एक मल्टीनैशनल कंपनी में चेन्नई में तैनात थे. एक दिन मेरा भाई किसी काम के सिलसिले में दिल्ली आया और मुझ से मिलने चला आया. मैं ने अपने कालेज के गैस्टहाउस में ही उस का रहने का इंतजाम करवा दिया था. उस को सुबह शताब्दी से पापा से मिलने के लिए लखनऊ जाना था. अचानक किसी वीआईपी के आ जाने से गैस्टहाउस में उस का रहना कैंसिल हो गया. मैं परेशान हो गई. बाहर कैफे में बैठ कर हम दोनों भाईबहन इसी उधेड़बुन में लगे रहे कि अब क्या करें.

तभी नरेन अपने एक मित्र के साथ पास से गुजरा और मेरी तरफ हाथ हिलाया. वह शायद अपने घर जाने की जल्दी में था. जवाब में मेरी तरफ से रिस्पौंस न पा कर वह अपने स्वभाव के मुताबिक मेरे पास आया. ‘हैलोजी, कोई परेशानी है क्या?’ जैसे उस ने मेरे मन के भाव पढ़ लिए हों. ‘हां, है तो,’ मैं ने बिना कोई समय गंवाए कहा, ‘ये मेरे भैया हैं, आज रात मैं ने इन का गैस्टहाउस में रहने का इंतजाम करवा दिया था पर अब वहां से मना कर दिया गया है. कोई आसपास होटल भी तो नहीं है और जो हैं वो…’

‘बहुत महंगे हैं, है न,’ वह तपाक से बोला.

‘हां,’ मैं ने कहा.

‘कोई नहींजी, मुझे आधे घंटे का समय दो, मैं कोई न कोई बंदोबस्त कर के आता हूं. कुछ न हुआ तो अपने साथ ले चलूंगा,’ फिर वह भैया की तरफ देख कर बोला, ‘आप टैंशन मत लो, मैं बस गया और आया.’ और सचमुच वह थोड़ी देर में आया और एक कमरे की चाबी दे कर बोला, ‘सामने के ब्लौक में दूसरी मंजिल पर यह कमरा है, आराम से रहो.’

मैं उस की तरफ हैरानी से देखने लगी. वह तो होस्टल का कमरा था, वह भी 2 या 4 लड़कों का. उस ने आगे कहा, ‘ये अकेले ही रहेंगे, दूसरे लड़के को मैं ने कहीं और जाने को कह दिया है. आप आराम से रात बिताओ.’

मैं उस के इस एहसान के सामने बौनी पड़ गई. मुन्नाभाई की तरह वह अपने मीठे व्यवहार से कुछ भी कर सकता था. ‘मैं तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं,’ मैं ने कहा.

‘हां, यह हुई न बात. कैंपस के बाहर पिज्जा खाते हैं, पैसे तुम दे देना.’ और फिर उस ने पैसे देने नहीं दिए, कहा, ‘तुम्हारे भाई के सामने नहीं लूंगा, पर उधार रहे.’

उस दिन के बाद मेरा उस के प्रति नजरिया बदल गया. हम कभी कैंपस में साथसाथ घूमते, कभी हैल्थ क्लब में, कभी स्विमिंग पूल में और कभी कैंपस के बाहर. वैसे तो वह अपने दोस्तों या प्रोफैसर्स के साथ ही घिरा रहता पर जब मुझे देखता, वह अकेला ही आता.

साल कब खत्म हुआ, पता ही नहीं चला. अब हम ने अपनी असाइनमैंट रिपोर्ट्स भी साथसाथ तैयार कीं. कैंपस में ही उस का एक बड़ी कंपनी में सिलैक्शन हो गया था. मैं यहीं इसी इंस्टिट्यूट से पीएचडी करना चाहती थी, इसलिए मैं ने कोई इंटरव्यू नहीं दिया. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए.

उस से बिछुड़ने का दर्द मुझे भीतर से खाए जा रहा था. उस के मन में क्या था, यह मैं कैसे जान सकती थी. हम उस दहलीज को भी पार कर चुके थे जिसे बचपना कहते हैं. जहां जीनेमरने की कसमें खाई जाती थीं. न वह मेरे लिए रुक सकता था न मैं उस के साथ जा सकती थी.

एक दिन मैं ने उस के सामने अपना दिल खोल कर रख दिया, ‘अब तो तुम यहां से चले जाओगे, मेरा तुम्हारे बिना दिल कैसे लगेगा.’

‘फिर?’ सवालिया लहजे में उस ने कहा.

‘या तो मुझे अपने साथ ले चलो या यहीं रह जाओ,’ मैं रो सी पड़ी.

‘इन दोनों सूरतों में हमें एक काम तो करना ही पड़ेगा,’ उस ने अपनी बात रखी.

‘क्या?’ मैं ने जानना चाहा.

‘शादी, तुम तैयार हो क्या?’ उस ने बिना किसी हिचकिचाहट से कहा. वह इतनी जल्दी इस नतीजे पर पहुंच जाएगा, मैं ने सोचा भी न था.

‘मैं तो चाहती हूं,’ मैं ने भी बिना कोई समय गंवाए बेबाक कह दिया, ‘मम्मी को थोड़ा मनाना पड़ेगा. वे पुराने रीतिरिवाजों को आज भी मानती हैं पर पापा और भैया तो मान जाएंगे. और तुम्हारे घर वाले?’

‘ओजी, हमारे यहां ऐसा कोई चक्कर नहीं है. मेरी बहन तो एक बंगाली लड़के को पसंद करती थी, बाद में वह खुद ही पीछे हट गया. हम पहले हिंदू हैं, बाद में सिख.’

उस दिन पहली बार मैं ने जाना कि वह भी मुझे उतना ही चाहता है जितना मैं. मैं जिस बात को घुमाफिरा कर पूछना चाहती थी, उस ने खुलेदिल से कह दिया. उस की ऐसी बात उसे दूसरों से अलग करती थी.

अब तो मैं दिनरात उसी के खयालों में डूबी रहती और खुली आंखों से सपने देखती.

घर पर वही हुआ जिस का मुझे डर था. जिन मम्मीपापा पर मुझे भरोसा था उन्होंने ही मेरा भरोसा तोड़ दिया. इस मिलन से साफ इनकार कर दिया. इतना ही नहीं, मुझे सख्त हिदायतें दे दीं कि अगर पीएचडी करनी है तो घर रह कर करो.

घर वालों का विरोध करने का जो साहस होना चाहिए था, उस की मुझ में कमी थी. मैं खामोश हो गई. क्या करती, मैं तब उन पर बोझ थी. काश, उस दिन कहीं से विरोध करने की हिम्मत जुटा पाती तो आज जिंदगी कुछ और ही होती.

उस दिन मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने आई. वह मेरी जिंदगी का बेहद गमगीन पल था. मेरी हालत उस पक्षी की जैसी थी जिसे पता था कि उस के पंख अब कटने ही वाले हैं. पहली बार मैं ने उस की आंखों में आंसू देखे. मैं यह भी नहीं कह सकती थी कि फिर मिलेंगे. मैं उसे बस, देखती ही जा रही थी. एक बार तो हुआ कि उस के साथ गाड़ी में बैठ कर भाग ही जाऊं. पर ऐसा सिर्फ फिल्मों में होता है. काश, मैं ने उस दिन अपनी भावनाओं को दबाया न होता और हिम्मत से काम लेती.

उस का हाथ मेरे हाथ में था. मेरे हाथपांव ठंडे पड़ने लगे और सांसें उखड़ने लगीं. जातेजाते मैं ने उस से कहा, ‘फोन करते रहना. पता नहीं जिंदगी में दोबारा तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं.’

‘क्या होगा फोन कर के,’ कह कर उस ने मेरा हाथ छुड़ा लिया. गाड़ी चल पड़ी. विदाई के लिए न हाथ उठे न होंठ हिले, और सबकुछ खत्म हो गया.

उस के बाद न तो उस ने कोई फोन किया, न मैं ने. मैं भरे गले से वापस लखनऊ आ गई. घर वालों की अनदेखी ने मुझे बागी बना दिया था. बातबात पर मैं तुनक पड़ती. बस, समय यों ही घिसटता रहा.

और आज, अचानक ही अपने चिरपरिचित अंदाज में उस ने कहा था, ‘मैं नरेन, पहचाना मुझे?’

औडिटोरियम में तालियों की तेज गड़गड़ाहट से मैं भूत से वर्तमान में आ गिरी. वह सारी वाहवाही लूटे जा रहा था और मैं कोने में चेहरे पर बनावटी मुसकराहट लिए उसे देखे जा रही थी. अपने हाथ में ढेर सारी फूलमालाएं लादे वह मंच पर बैठा था. उस से नजरें मिलाने की हिम्मत मुझ में नहीं थी.

कुछ ही पलों में वह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे पास आ कर धीरे से बोला, ‘‘मैं कल सुबह वापस चला जाऊंगा. तुम चाहो तो अपने पिज्जा का उधार आज चुका सकती हो. याद है न तुम्हारे भैया के साथ…’’

मैं एकदम पिघल सी गई. बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई को छिपा लिया. इस से पहले कि वह मुझे रोता हुआ देख ले, मैं ने सिर झुकाया और पर्स में से अपना कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘जब फुरसत हो, फोन कर लेना. मैं आ जाऊंगी.’’

कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘चलो, कौफीहोम में मिलते हैं आधे घंटे बाद. तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं, मेरा मतलब घर पर…’’

‘‘न…नहीं,’’ कह कर मैं वहां से चल दी.

मैं कौफी का कप ले कर उसी नीम के पेड़ के नीचे बैठ गई, जहां कभी हम उस के साथ बैठा करते, फिर हम रीगल सिनेमा में पिक्चर देखते और 8 बजे से पहले मैं होस्टल वापस आ जाती. अब न वह रीगल हौल रहा न वे दिन. मैं पुरानी यादों में खोई रही और इतना खो गई कि नरेन के आने का मुझे पता ही न चला.

‘‘मुझे मालूम था, तुम यहीं मिलोगी,’’ मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘आज जब से मैं ने तुम को देखा है, बस तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा और यह बात मेरे जेहन से उतर नहीं रही कि एमबीए करने के बाद भी तुम इस छोटे से इंस्टिट्यूट में पढ़ाती होगी. मैं तो समझता था कि…’’

‘‘कि किसी बड़े कालेज में पिं्रसिपल रही होंगी या किसी मल्टीनैशनल कंपनी में डायरैक्टर, है न?’’ मैं ने बात काट कर कहा, ‘‘नरेन, जिंदगी वैसी नहीं चलती जैसा हम सोचते हैं.’’

‘‘अच्छा, अब फिलौसोफिकल बातें छोड़ो, बताओ कुछ अपने बारे में. कहां रहती हो? घर में कौनकौन हैं?’’ कह कर वह मुसकराने लगा. वह आज भी वैसा ही था जैसा पहले.

‘‘मेरी रामकहानी तो चार लाइनों में समाप्त हो जाएगी. तुम तो बिलकुल भी नहीं बदले. कहो, कैसा चल रहा है?’’

‘‘ओजी, मेरा क्या है. मुंबई गया तो बस वहीं का हो कर रह गया. सेठों की नौकरी पसंद नहीं आई, तो मैं ने आईआईटी से पीएचडी कर ली. फिर वहीं प्रोफैसर हो गया और अब वाइस पिं्रसिपल हूं.’’

‘‘और परिवार में?’’ मैं ने धड़कते दिल से पूछा.

‘‘एक बेटा है जो जरमनी में पढ़ रहा है. पापा रहे नहीं. ममी मेरे पास ही रहती हैं. वाइफ एक कालेज में लैक्चरर हैं. बस, बड़ी खुशनुमा जिंदगी जी रहे हैं.’’

तब तक वेटर आ गया. उस ने मेरे लिए बर्गर और अपने लिए सैंडविच का और्डर दे दिया.

‘‘तुम अब तक मेरी पसंद नहीं भूले,’’ मैं ने संजीदा हो कर पूछा, ‘‘मेरी याद कभी नहीं आई?’’

उस ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर धीरे से कहा, ‘‘उन लमहों की चर्चा हम न ही करें तो अच्छा है. जिंदगी वैसी नहीं है जैसा हम चाहते हैं. लाख रुकावटें आएं, वह अपना रास्ता खुदबखुद चुनती रहती है. हमारा उस पर कोई अख्तियार नहीं है. पपड़ी पड़े घावों को न ही कुरेदो तो अच्छा है.’’ फिर वह एक ठंडी सांस भर कर बोला, ‘‘छोड़ो यह सब, अपनी सुनाओ, सब ठीक तो है न?’’

‘‘क्या ठीक हूं, बस ठीक ही समझो. क्या बताऊं, कुछ बताने लायक है ही नहीं.’’

‘‘क्या मतलब? इतना रूखा सा जवाब क्यों दे रही हो?’’ वह चौंका.

‘‘तुम से शादी होने नहीं दी और घर वाले मेरे लिए कोई घरवर तलाश कर नहीं पाए. लखनऊ से पीएचडी करने की हसरत भी मन में ही रह गई. एक तरह से मेरा कुछ भी करने को मन नहीं करता था. उन दिनों कई अच्छेअच्छे कालेजों और कंपनियों से औफर आए परंतु मैं मातापिता को अकेला छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी. उन के रिटायरमैंट के बाद उन्होंने वहीं रहने का फैसला लिया. मैं ने भी वहीं नौकरी ढूंढ़ ली.

‘‘मैं यह भूल गई थी कि कभी पिता भी बूढ़े होंगे. वे तो गुजर गए, उन को तो गुजरना ही था. मां, भाई के पास मुंबई चली गईं. मैं अकेली वहां क्या करती, फिर दिल्ली में जो मिला, उसी में जिंदगी बसर कर रही हूं. 2 साल पहले मां भी चली गईं और जातेजाते हमारा घर भी भैयाभाभी के नाम कर गईं.

‘‘मैं ने जिन मांबाप के लिए जिंदगी यों ही गुजार दी वे भी चल दिए और जिस घर को पराई नजरों से बचाने में लगी रही, वह भी चला गया. जिंदगी में अब कुछ खोने के लिए बचा नहीं है. सबकुछ उद्देश्यहीन नजर आता है.

‘‘आज मानती हूं, गलती मेरी ही थी. मैं ने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं. कभी यह भी खयाल नहीं आया कि उन के बाद मेरा क्या होगा. मेरी तो सारी जिंदगी बेकार ही चली गई. मेरा अपना अब कोई रहा ही नहीं,’’ कहतेकहते मेरे होंठ थम गए. बरसों की दबी रुलाई सिसकी में फूट पड़ी और मैं सिर ढक कर रोने लगी.

मैं ने कस कर उस का हाथ पकड़ लिया. हम दोनों के बीच एक लंबा सन्नाटा सा पसर गया. थोड़ी देर में जी हलका होने पर मैं ने कहा, ‘‘मैं हर कदम पर छली गई. कभी अपनों से, तो कभी समय से. दोष किस को दूं, बस, बेचारी सी बन कर रह गई हूं.’’

लंबी चुप्पी के बाद नरेन बोला, ‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूं क्या?’’

‘‘मैं जानती हूं आज जीवन के इस मोड़ पर भी तुम मेरे लिए कुछ कर सकते हो. पर मैं तुम से कोई मदद लेना नहीं चाहती. मुझे यह लड़ाई खुद ही खुद से लड़नी है. काश, यह लड़ाई मैं ने उस दिन लड़ी होती, जिस दिन तुम से आखिरी मुलाकात हुई थी.’’

‘‘तुम फिर से घर क्यों नहीं बसा लेतीं,’’ उस ने कहा.

‘‘मेरा घर बसा ही कहां था जो फिर से बसाऊं. वह तो बसने से पहले ही ढह गया था,’’ कह कर मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘मुझे तुम से बहुत हमदर्दी है. उम्र के जिस मोड़ पर तुम खड़ी हो, मैं तुम्हारी परेशानी समझ सकता हूं, पर…’’ कहतेकहते उस का गला भर आया. आगे कुछ कहने के लिए उस को शायद शब्द नहीं मिल रहे थे.

शाम बहुत हो चुकी थी. कौफीहोम भी तकरीबन खाली हो चुका था. अब फिर से हमारे बिछुड़ने की बारी थी. उस ने खड़े होते हुए अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया. मैं कटे वृक्ष की तरह उस की बांहों में गिर पड़ी और अमरबेल की तरह उस से जा कर लिपट गई. उस की बांहों की कसावट को मैं महसूस कर रही थी.

और धीरेधीरे अपनी पकड़ को ढीली कर के मूक बने हुए हम एकदूसरे से विदा हो गए. मेरी जबान ने एक बार फिर से मेरा साथ छोड़ दिया.

फिर एक दिन सुबहसुबह उस का फोन आया. मैं सैंटर जाने की तैयारी कर रही थी. वह बोला, ‘‘सुनो, एक बहुत ही शानदार खबर है. मैं ने तुम्हारे मतलब का एक काम ढूंढ़ा है जिस में तुम्हारा तजरबा बहुत काम आएगा.’’

‘‘तुम ने ढूंढ़ा है तो ठीक ही होगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘बताओ, कब और कहां जाना है. बस, मुंबई मत बुलाना.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. मेरे एक जानने वाले का गुड़गांव के पास एक वृद्धाश्रम है. ऐसावैसा नहीं, फाइवस्टार फैसिलिटीज वाला है. वह खुद तो फ्रांस में रहता है, पर उसे आश्रम के लिए एक लेडी डायरैक्टर चाहिए. तुम्हें किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी. मैं ने हां कर दी है, इनकार मत करना.

‘‘तुम चाहो तो एक महीने की छुट्टी ले लो. न पसंद आए तो यहीं वापस आ जाना. एक नई जिंदगी तो कभी भी शुरू की जा सकती है.’’

उस की बात में एक अपील थी, ठहराव था. एक अच्छे दोस्त और हमदर्द की तरह एक तरह से आदेश भी था.

मैं अपना चेहरा अपने हाथों से छिपा कर रोने लगी. इसी अधिकार की भावना के लिए तो तरस गई थी. मन का एक छोटा सा कोना उसी का था और सदा उसी का रहेगा. उस की यादों की मीठी छावं में बैठने से कलेजे को आज भी ठंडक पहुंचती है. Hindi Love Stories 

Family Story In Hindi : नैटवर्क ही नहीं मिलता – नंदिनी का जीवन क्यों वीरान हो गया था ?

Family Story In Hindi : फोन की घंटी बज रही थी. नंदिनी ने नहीं उठाया. यह सोच कर कि बाऊजी का फोन तो होगा नहीं. दूसरी, तीसरी, चौथी बार भी घंटी बजी तो विराज हाथ में किताब लिए हड़बड़ाए से आए.

‘‘नंदू, फोन बज रहा है भई?’’

विराज ने उसे देखते हुए फोन उठाया पर समझ न पाए कि नंदिनी ने कुछ सुना या नहीं? फोन किस का है, पूछे बिना नंदिनी गैलरी में आ गई. वह जानती है कि बाऊजी का फोन तो नहीं होगा.

मायके से लौटे महीनाभर हो चला है. वह फ्लैट से बाहर नहीं निकली है. शाम को धुंधलका होते ही गैलरी में आ खड़ी होती है. अंधेरा गहराते ही बत्तियां जगमगा उठती हैं मानो महानगर में होड़ शुरू हो जाती है भागदौड़ की. वह हंसतेबतियाते लोगों को ताकते हुए और भी उदास हो जाती है.

विराज उस की मनोस्थिति समझ कर भी बेबस थे. वे जानते हैं बाऊजी के एकाएक चले जाने से नंदिनी के जीवन में आए खालीपन को. बाऊजी नंदिनी के पिता तो बाद में थे, पिता से ज्यादा वे नंदिनी के भरोसेमंद मित्र एवं मां भी थे. मां से ही मन की बातें करती हैं बेटियां. नंदिनी की मां भी बाऊजी ही थे और पिता भी. मां को तो उस ने देखा ही नहीं. हमेशा बाऊजी से सुना कि ‘मां मिट्टी से नहीं, बल्कि फूलों से बनी थीं, बेहद नाजुक. गरम हवा के एक थपेड़े से ही पंखुरीपंखुरी हो बिखर गईं.’

अस्पताल के झूले में गुलाबी गोरी बिटिया को देखते ही बाऊजी ने सीने पर पत्थर रख लिया और अपनी बिटिया के लिए खुद फौलाद बन गए. उन्हें जीना होगा बिटिया के लिए.

विराज ने विवाह के बाद नंदिनी के रिश्तेदारों से पितापुत्री के प्रगाढ़ संबंध, बाऊजी की करुण संघर्ष गाथा को इतनी बार सुना है कि उन्हें रट गई हैं सब बातें. उन्हें भी बाऊजी की कमी खलती है. नंदिनी ने तो बाऊजी की गोद में आंखें खोली थीं. वे समझ रहे हैं उस की मनोस्थिति. नंदिनी को समय देना ही होगा.

नंदिनी कंधे पर स्पर्श पा कर चौंक गई, कैसी जानीपहचानी ममता से भरी कोमल छुअन है. गरदन घुमा कर देखा, विराज हैं.

‘‘क्या सोच रही हो नंदू?’’

‘‘आकाश देख रही हूं, तारे कम नहीं नजर आ रहे?’’

‘‘दिन के ज्यादा उजाले में चौंधिया रहा है पूरा शहर, जमीन से आसमान तक. ऐसे में तारे कम ही नजर आते हैं. चांदतारों का असल सौंदर्य व प्रकाश तो अंधेरे में दिखता है,’’ यह तर्क देतेदेते रुक गए विराज.

नंदू ने बात सिरे से नकार दी, ‘‘नहीं तो, बल्कि मुझे तो एक तारा ज्यादा नजर आ रहा है. वह देखो, वह वाला, एकदम अपनी गैलरी के ऊपर चमकदार.’’

‘‘तुम्हें देख रहा है प्यार से मुसकराते हुए बाऊजी की तरह.’’

यह सुनते ही नंदिनी को करंट सा लगा. विराज का हाथ झटक कर गुमसुम अंदर चली गई. विराज बातबात पर प्रयत्न करते हैं कि किसी तरह नंदिनी का दुखदर्द बाहर निकले किंतु आंसू तो दूर, उस की आंखें नम तक नहीं हो रहीं, मानो सारे आंसू ही सूख चुके हों. न सिर्फ बाऊजी की बातें और यादें, मानो पूरे के पूरे बाऊजी सिर्फ उसी के थे. यादोंबातों तक में किसी की हिस्सेदारी उसे मंजूर नहीं.

नंदिनी सीधे बैडरूम में आ गई. बैडरूम में अकसर पिता की तसवीरें नहीं होतीं पर नंदिनी की तो बात ही अलहदा है. उस के बैडरूम की दाईं दीवार पर सिर्फ तसवीरें ही तसवीरें हैं. बाऊजी के साथ वह या उस के संग बाऊजी. विदाई वेला की तसवीरें. वह तसवीरों पर उंगलियां फेर रही थी कि ड्राइंगरूम में रखा फोन फिर बज उठा. उस का जी धक से रह गया.

घड़ी देखी, 8 बज रहे हैं. उसी ने तो बाऊजी को समय बताए थे – सुबह

10 बजे के बाद और शाम को 7 के बाद.

वरना वे तो उठते ही फोन लगा देते थे. ‘बेटा, तू ठीक तो है? नींद अच्छी आई? नाश्ता जरूर करना? खाना क्याक्या बनाएगी? बढि़या कपड़े पहनना. तमाम सवाल.’

और शाम होते ही ‘विराज औफिस से आ गए? नवेली ने तुझे तंग तो नहीं किया? शाम को घूमने जाते हो न?’ आदि.

सवाल अकसर वही होने के बावजूद उन में इतनी परवा, फिक्र होती कि नंदिनी का मन गुलाबगुलाब हो जाता. कई बार वह सुबह बिस्तर या बाथरूम में होती या शाम को विराज औफिस से ही नहीं लौटते होते, तब पितापुत्री के मध्य समय तय हुआ था. हड़बड़ी में वह बाऊजी से मन की बातें ही नहीं कर पाती थी.

अकसर बेटियां मन की बातें मां से करती हैं, इसी हिसाब से बाऊजी उस के मातापिता दोनों ही थे. उस का तो मायका ही खत्म हो गया. कहने को तमाम नातेरिश्ते हैं, पर सब कहनेभर के. महीने दो महीने में औपचारिक बातें ही होती हैं.

फिर फोन बजा. विचारशृंखला में बाधा पड़ते ही नंदिनी पैर पटकती ड्राइंगरूम में पहुंची ही कि देखा, विराज फोन को डिस्कनैक्ट कर रहे थे. एक हाथ में फोन का प्लग और दूसरे में नवेली को थामे वे ठगे से खड़े रह गए.

नवेली, नाना की प्यारी नातिन, बाऊजी का नन्हा सा खिलौना. इसे तो समझ भी नहीं होगी कि नाना अब कभी नहीं नजर आएंगे. नंदिनी एकटक अपनी बिटिया को देखने लगी.

और विराज…नंदिनी को. वे द्रवित हो उठे उस के दुख से. क्या बीती होगी नंदू के हृदय पर पिता की निश्चल देह देख कर, क्या गुजरी होगी पिता की अस्थियों से भरा कलश देख कर, इतना हाहाकार, ऐसा झंझावात कि अश्रु तक उड़ा ले गए.

उन्होंने बढ़ कर नवेली को नंदिनी की गोद में दे कर अपने पास बैठा लिया. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, कैसे सांत्वना दें कि नंदिनी इस सदमे से उबर आए. धीमे से प्रस्ताव रखा.

‘‘नंदू, कितने दिन हो गए तुम्हें घूमने निकले, आज चलें?’’

‘‘नहीं, मन नहीं होता.’’ Family Story In Hindi

Social Story In Hindi : फरिश्ता – कैसे बदली दुर्गेश्वरी देवी की तकदीर ?

Social Story In Hindi : “सर, कोई बहुत बड़े वकील साहब आप से मिलना चाहते हैं,” वार्ड बौय गणपत ने दरवाजा फटाक से खोलते हुए उत्सुकता व उत्कंठा से हांफते हुए कहा और उस की सांसें भी इस कारण फूली हुई थीं.

मैं ने हाल ही मैं खिड़की से देखा था कि कोई प्राथमिक स्वास्थय केंद्र के सामने बरगद के पेड़ के नीचे बड़ी व लग्जरी गाड़ी मर्सिडीज पार्क कर रहा था. शायद इस बड़ी गाड़ी के कारण गणपत नैसर्गिक रुप से गाड़ी में आने वाले व्यक्ति को बड़ा वकील मान रहा था.

मैं समझ नहीं पा रहा था कि कोई बड़ा सा वकील मुझ से क्यों मिलना चाहता है? सामान्यतया सरकारी अस्पताल में कभीकभार नसबंदी केस बिगड़ने पर मरीज के रिश्तेदार मुआवजे के लिए कोर्ट केस करते हैं. पर उस के लिए सामान्यतया नोटिस मरीज के रिश्तेदार देने आते हैं.

“हैलो डाक्टर साहब, माइसैल्फ एडवोकेट गुप्ता और ये मेरे असिस्टेंट हैं,” काले कोट वाली ड्रैस में सहज उन्होंने मेरे हाथ से हाथ मिलाते हुए कहा.

“बैठिए,” मैं ने कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा.

“आप सोच रहे होंगे कि शहर से आए हुए वकील का आप से क्या काम होगा?” उन्होंने मेरे चेहरे को पढ़ते देख कर मुसकरा कर कहा.

“निशंक,” मैं ने मुसकराते हुए कहा.

“लीजिए चाय,” गणपत मेरे कहे बिना ही चाय ले कर आ गया. यह गणपत कि समझदारी थी या फिर पूंजीवाद का असर?

“यह दुर्गेश्वरी जी की वसीयत है,” फाइल हाथ में ले कर मेरी टेबल पर रख कर खोलते हुए वे बोले.

“पर आप मुझे यह क्यों बता रहे हो? और दुर्गेश्वरी जी कौन है?” मैं नै हैरानगी से उन की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देख कर पूछा.

“मैं आप को सब इसलिए बता रहा हूं कि दुर्गेश्वरी जी ने वसीयत में अपनी आधी संपत्ति, जिस में एक दोमंजिला मकान, लगभग एक किलो सोने के गहने आप के नाम किया है और आधी संपत्ति का मैडिकल ट्रस्ट बना कर आप को उस का मुख्य ट्रस्टी बनाया है,” वकील गुप्ता ने धड़ाका करते हुए आगे बताया, “दुर्गेश्वरी जी वही, आप की वह मरीज हैं जो आप के पास दुर्गा के नाम से इलाज कराने आती थीं.”

मैं हैरान था. उन के पास उतनी संपत्ति कहां से आई, वे तो बहुत ही गरीब थीं, यहां तक कि उन के पास साधारण सी दवा खरीदने के भी पैसे नहीं होते थे.

“पर वे खुद कहां हैं? काफी दिनों से हौस्पिटल भी नहीं आईं,” मैं ने चिंतित स्वर में पूछा. मुझे अभी तक वकील साहब की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि पिछले 2 वर्षों से वे मुझ से सरकारी अस्पताल में इलाज करा रही थीं, मुझ से अच्छा उन की गरीबी को कौन जान सकता है.

“सौरी सर, मुझे आप को बताते हुए दुख हो रहा है कि पिछले सप्ताह ही शहर के मशहूर अपोलो अस्पताल में उन का निधन हो गया,” वकील साहब ने दुखी स्वर में कहा.

“ओह नो, वे मेरी सब से अच्छी मरीज थीं,” मैं ने दुखी स्वर में कहा.

मैं तो उन का संबधी हूं भी नहीं. फिर वसीयत मेरे नाम करने का मतलब क्या है. मैं अभी भी स्तब्ध व आश्चर्य में बुत बन गया था. जिस स्त्री ने मेरे नाम लाखों रुपए किए, उस का सही नाम तक मुझे पता नहीं.

मेरे चेहरे पर प्रश्न देख कर वे बोले, “मैं आप को पूरी बात बताता हूं जिस से आप सारी बात समझ सकें. मैं समझ सकता हूं कि आप के अंदर कई प्रश्न उठ रहे होंगे कि, आखिर सरकारी दवाखाने की मुहताज व छोटे से गांव में अकेले गरीबी में रहने वाली दुर्गेश्वरी देवी कौन थीं? उन के पास इतनी सारी प्रौपर्टी कहां से आई? क्यों वे छोटे से गांव में रहती थीं?

“दरअसल, मैं उन के पति अखिलेश सिंह का बचपन का मित्र हूं. वे भी वकील थे और उन के पति भी मेरे साथ हाईकोर्ट में वकालत करते थे. 5 वर्षों पहले उन की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. और उन का कोई बच्चा नहीं था.

“वे अकेली हो गई थीं, भले ही उन के पति बहुत सारी संपत्ति छोड़ गए थे. उन के काफी रिश्तेदार उन की अकूत जायदाद के लिए आसपास मंडराते थे और जिन रिश्तेदारों को उन के जायदाद का लालच नहीं था वे उन की जवाबदारी लेने से हिचकिचाते थे कि कौन उन की जिंदगीभर जवाबदारियों का बोझ ले.

“स्वार्थी रिश्तेदार उन की मृत्यु की कामना करने लगे और कई रिश्तेदार अपने बच्चे उन्हें गोद देने की जिद करने लगे. दुर्गेश्वरी पर दबाव बढ़ने लगा, एक पति बिन अकेली स्त्री, ऊपर से स्वार्थी रिश्तेदार.

“एक रात उन्होंने अपने कानों से सुना कि उन की हत्या की योजना बन रही है. वे घबरा गईं और उन्हें अपने घर व शहर से भागना हितकर लगा.

“इस देवकरण गांव में उन के बहुत दूर के एक रिश्तेदार रहते थे जिन के यहां शादी के किसी कार्यक्रम में बरसों पहले वे आई थीं.

“वे दूसरे दिन सुबह कुछ गहने व रोकड़ रकम ले कर भाग कर यहां आ गई थीं. यहां अपने दूर के रिश्तेदार से झुठ बोला कि उन के पति की मृत्यु के बाद उन की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई और कोई रिश्तेदार उन्हें रखना नहीं चाहता है. इस कारण वे गांव में जिंदगी गुजारना चाहती हैं. वे लोग कृपया उन्हें छोटा सा मकान किराए पर दिला दें. रिश्तेदार भी अपने यहां रखना नहीं चाहते थे. उन्होंने पुराना सा वर्षो से बंद मकान बहुत ही कम किराए पर दिलाया.

“यह छोटा सा मकान व गांव उन की हैसियत से बहुत ही छोटा था पर उन के जीवन के लिए सुरक्षित था. उस के बाद क्या हुआ, यह आप अच्छी तरह जानते हैं.

“यहां आ कर कभी भी उन्होंने किसी को अपने पैसे व हैसियत के बारे में नहीं बताया. हमेशा जानबूझ कर लाचार व गरीब की तरह जीवन बिताया और सरकारी योजना व अस्पताल का लाभ लिया.

“थोड़े दिनों बाद सबकुछ शांत होने के बाद वे बीचबीच में शहर जाती थीं और अपनी जायदाद का ध्यान रखती थीं. और वहां अपने रिश्तेदारों को यह बताती थीं कि उन्होंने सबकुछ दान में दे दिया है और एक अनाथालय में रह कर सेवाकार्य करती हैं.

“यह सबकुछ सुन कर जो रिश्तेदार उन की संपत्ति के भूखे थे उन्होंने दुर्गेश्वरी जी को बहुत बुराभला कहा और हमेशा के लिए संबध तोड़ लिए. और जिन रिश्तेदारों को उन की संपत्ति का मोह नहीं था, उन लोगों ने अब उन से संबध रखना शुरू कर दिया.

“अब वे भले ही थोड़ीबहुत तकलीफ में जी रही थी पर अब परिस्थतियां उन के अनुकूल और सुरक्षित हो गई थीं. कुछ महीने पहले जब शहर आई थीं तो उन्होंने मुझ से वसीयतनामा बनवाया और मुझे पूरी बात बताई कि क्यों वे आप के नाम अपनी संपत्ति करना चाहती हैं. और मैं भी एकदिन गुपचुप यहां बीच में आया था और उन के फैसले से संतुष्ट हुआ था,” वकील गुप्ता ने उन्हें पूरी बात बताई.

“पर मैं अभी तक यह समझ नहीं पा रहा हूं कि उन्होंने क्यों मुझे अपनी संपत्ति का वारिस बनाया? मैं अभी तक यह बात समझ नहीं पाया हूं,” मैं अभी तक हैरत में था.

“वह आप इस पत्र को पढ़ कर ही समझ सकते हैं जो आप के नाम दुर्गेश्वरीजी ने तब लिखा था जब वे मेरे पास वसीयत बनाने आई थीं. उन्होंने मुझ से कहा था कि उन के मरने के बाद यह पत्र मैं आप को दूं,” वकील साहब ने सीलबंद हालत में एक लिफाफा मुझे दिया, जिस पर मेरा नाम लिखा था.

“आप कब आ रहे हैं कोर्ट में ताकि प्रौपर्टी आप के नाम हैंडओवर हो सके,” वकील गुप्ता ने पूछा.

“जब तक मैं पत्र पढ़ न लूं कि क्यों उन्होंने मुझे वारिसदार बनाया, तब तक मैं कैसे कुछ कहूं?”

मैं ने पत्र खोल कर पढ़ा. बहुत ही खूबसूरत और सलीकेदार लिखावट थी जो कह रही थी कि वे बहुत ही पढ़ीलिखी महिला होंगी.

‘डाक्टर साहब,

‘मैं आप को डाक्टर साहब की जगह फरिश्ता कहूं तो गलत न होगा. न आप मेरे, बल्कि इस छोटे से पिछड़े गांव के कई गरीबों के फरिश्ते हो. आप मेरा पत्र पढ़ रहे होंगे तब तक मैं न सिर्फ गांव से बल्कि दुनिया से ही बहुत दूर जा चुकी होंगी कि आप की दवा भी असर नहीं करेगी. सब को एक दिन जाना होता है और मैं भी जा रही हूं. सच बताऊं डाक्टर साहब, मैं शांति और संतुष्टि से जा रही हूं, क्योंकि जाने से पहले मैं अपने पति की मेहनत व ज्ञान से अर्जित संपत्तिति फरिश्ते के हाथों में दे कर जा रही हूं. जो न सिर्फ सच्चा हकदार है बल्कि उस धन का सदुपयोग भी करेगा और मानवता के काम मैं भी लगाएगा.

‘मुझे अब भी वो दिन याद हैं जब मैं पहली बार सरकारी अस्पताल आई थी. मैं पूरी रात बुखार से तप व कांप रही थी, उस दिन मैं शहर से वापस आई थी और रास्ते में बारिश के कारण पूरी तरह से भीग गई थी. रात को छोटे से गांव में डाक्टर नहीं होगा, यह सोच कर पूरी रात घर पर बुखार से तड़प रही थी. बहुत सुबहसुबह मैं यह सोच कर अस्पताल गई कि शायद नर्स या फिर वार्ड बौय हो जो मुझे दवा दे देगा जिस से कि मुझे थोड़ाबहुत आराम मिले. उस समय सुबह लगभग 8 बजे थे. देखा तो आश्चर्य हुआ कि सुबहसुबह केस बारी पर लंबी लाइन लगी हुई थी. घिसट कर मैं आप के चिकित्सा कक्ष में दाखिल हुई.

‘डाक्टर साहब, मुझे बहुत तेज बुखार है,’ मैं ने मरियल सी आवाज में दरवाजा का हैंडिल पकड़ते हुए कहा.

‘आप ने कुरसी से उठ कर मुझे उठाया और जोर से बोले, ‘गणपत, मां जी को इमरजैंसी रुम में ले कर जाओ.,’

‘गणपत मुझे व्हीलचेयर पर इमरजैंसी रुम में ले गया जो आप के कक्ष के पास ही था. पीछेपीछे आप आए और मुझे जांच कर, नर्स को जरूरी इंजैक्शन व ग्लुकोज चढ़ाने को बोला. मैं इतने बुखार और अर्धबेहोशी में भी सुखद आश्चर्य में थी गांव के सरकारी डाक्टर का फरिश्ते जैसा व्यवहार देख कर. आप के इंजैक्शन व इलाज से मैं दोपहर तक काफी ठीक हो गई थी. मैं प्यास से पानीपानी बोल रही थी, कि किसी ने पानी का गिलास मेरे आगे किया. मैं ने गटागट बिना देखे पानी पिया. पानी के कारण शरीर को जान मिली तो मैं ने देखा कि एक डाक्टर मुझे पानी पिला रहा है. मैं झेंप गई, बोली, डाक्टर साहब, आप ने पानी का गिलास दिया?’

‘हां, गणपत काम से बाहर गया है. आप पानी के लिए कह रही थीं,’ आप ने मुसकरा कर कहा.

‘फिर आप ने मेरे परिवारों वालों के बारे में पूछा. तो मैं ने कहा कि कोई नहीं है. तो आप को मेरे खाने की चिंता हुई और आप ने चपरासी भेज कर अपने घर से मेरे लिए खाना मंगाया. सच कहूं उस दिन पहली बार मेरे पति के जाने के बाद, ‘मेरा कोई दुनिया में है’ यह महसूस हुआ, लगा कि इस गांव में ऊपर वाले ने फरिश्ते के रुप में मेरी संतान की कमी को पूरी कर दी.

‘मैं पूरे 4 साल से इस गांव में रह रही हूं और पूरे गांव वाले हमेशा आप की प्रंशसा करते रहते हैं कि आप के इस गांव के अस्पताल में आने के बाद गांववालों को छोटीमोटी बीमारियों के लिए शहर की ओर नहीं भागना पड़ता है. रात को भी किसी को इमरजैंसी हो तो भी आप मुसकराते हुए इलाज करते हैं. फिर भी आप को कई बार मरीजों को शहर भेजना पड़ता है क्योंकि आप के पास जरूरी साधन और दवाइयां नहीं होती हैं. मेरी बैंक में जमा रकम से मिलने वाले ब्याज से आप ट्रस्ट बना कर जरूरी दवाइयां और साधन ले कर आएं, जिस से मैं इस गांव के प्यार और सुरक्षा के बदले आभार जता सकूं.

‘आप भी दूसरे डाक्टरों की तरह शहर में नर्सिंगहोम खोल कर, प्रैक्टिस कर के लाखोंकरोड़ों कमा सकते थे, वैभवशाली जिंदगी जी सकते थे, खुद का बहुत बड़ा बंगला बना सकते थे, विदेश घूम सकते थे, पर आप ने गांव में सेवा करने का प्रण लिया. यह महान कार्य एक फरिश्ता ही कर सकता है.

‘अभी तक मुझे मेरे पति की संपत्ति के लिए हमेशा चिंता होती कि मेरे मरने के बाद यह गलत हाथों में जाएगी. पर फरिश्ते की तरह आप की मेरे और पूरे गांव की निस्वार्थ भाव से की गई सेवा से मैं बहुत प्रभावित हूं और इसलिए फीस समझ कर ही मैं अपनी आधी संपत्ति आप के नाम पर कर के जा रही हूं.

‘आप की सब से फेवरेट मरीज,

‘दुर्गेश्वरी.’

“वकील साहब, आज तक किसी बड़े से बड़े डाक्टर को इतनी फीस नहीं मिली जितनी मेरे को मिली है.” पत्र पढ़ कर मेरी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. Social Story In Hindi

Family Story : और्डर – नेहा ने दूसरों की खुशी के लिए क्या दिया था त्याग ?

Family Story : ‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी. Family Story

Social Story : पतिहंत्री – क्या प्रेमी के लिए पति को मौत के घाट उतार पाई अनामिका ?

Social Story : काश,जो बात अनामिका अब समझ रही है वह पहले ही समझ गई होती. काश, उस ने अपने पड़ोसी के बहकावे में आ कर अपने ही पति किशन की हत्या नहीं की होती. आज वह जेल के सलाखों के पीछे नहीं होती. यह ठीक है कि उस का पति साधारण व्यक्ति था. पर था तो पति ही और उसे रखता भी प्यार से ही था. उस का छोटा सा घर, छोटा सा संसार था. हां, अनावश्यक दिखावा नहीं करता था किशन.

अनावश्यक दिखावा करता था समीर, किशन का दोस्त, उसे भाभी कहने वाला व्यक्ति. वह उसे प्रभावित करने के लिए क्याक्या तिकड़म नहीं लगाता था. पर उस समय उसे यह तिकड़म न लग कर सचाई लगती थी. उस का पति किशन समीर का पड़ोसी होने के साथसाथ उस का मित्र भी था. अत: घर में आनाजाना लगा रहता था.

समीर बहुत ही सजीला और स्टाइलिश युवक था. अनामिका से वह दोस्त की पत्नी के नाते हंसीमजाक भी कर लिया करता था. धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. अनामिका को किशन की तुलना में समीर ज्यादा भाने लगा. समय निकाल कर समीर अनामिका से फोन पर बातें भी करने लगा. शुरू में साधारण बातें. फिर चुटकुलों का आदानप्रदान. फिर कुछकुछ ऐसे चुटकुले जो सिर्फ काफी करीबी लोगों के बीच ही होती हैं. फिर अंतरंग बातें. किशन को संदेह न हो इसलिए वह सारे कौल डिटेल्स को डिलीट भी कर देती थी. समीर का नंबर भी उस ने समीरा के नाम से सेव किया था ताकि कोई देखे तो समझे कि किसी सखी का नंबर है. समीर ने अपने डीपी भी किसी फूल का लगा रखा था. कोई देख कर नहीं समझ सकता था कि वह किस का नंबर है.

धीरेधीरे स्थिति यह हो गई कि अनामिका को समीर के अलावा कुछ भी अच्छा नहीं लगने लगा. समीर भी उस से यही कहता था कि उसे अनामिका के अलावा कोई भी अच्छा नहीं लगता. कई बार जब वह घर में अकेली होती तो समीर को कौल कर बुला लेती और दोनों जम कर मस्ती करते थे. घर के अधिकांश सदस्य निचले माले पर रहते थे अत: सागर के छत के रास्ते से आने पर किसी को भनक भी नहीं लगती थी.

न जाने कैसे किशन को भनक लग गई.

उस ने अनामिका से कहा, ‘‘तुम जो खेल खेल रही हो उस से तुम्हें भी नुकसान है, मुझे भी और समीर को भी. यह खेल अंत काल तक तो चल नहीं सकता. तुम चुपचाप अपना लक्षण सुधार लो.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो? समीर तुम्हारा दोस्त है. इस नाते मैं उस से बातें कर लेती हूं

तो इस में तुम्हें खेल नजर आ रहा है? अगर तुम नहीं चाहते तो मैं उस से बातें नहीं करूंगी,’’ अनामिका ने प्रतिरोध किया पर उस की आवाज में खोखलापन था.

बात आईगई तो हो गई, लेकिन इतना तय था कि अब अनामिका और समीर का मिलनाजुलना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हो गया था. पर अनामिका समीर के प्यार में अंधी हो चुकी थी. समीर को शायद अनामिका से प्यार तो न था पर वह उस की वासनापूर्ति का साधन थी. अत: वह अपने इस साधन को फिलहाल छोड़ना नहीं चाहता था.

एक दिन समीर ने मौका पा कर अनामिका को फोन किया.

‘‘हैलो’’

‘‘कहां हो डार्लिंग? और कब मिल रही हो?’’

‘‘अब मिलना कैसे संभव होगा? किशन को पता चल गया है.’’

‘‘किशन को अगर रास्ते से हटा दें तो?’’

‘‘इतना आसान काम है क्या? कोई फिल्मी कहानी नहीं है यह. वास्तविक जिंदगी है.’’

‘‘आसान है अगर तुम साथ दो. फिल्मी कहानी भी हकीकत के आधार पर ही बनती है. उसे रास्ते से हटा देंगे. यदि संभव हुआ तो लाश को ठिकाने लगा देंगे अन्यथा पुलिस को तुम खबर करोगी कि उस की हत्या किसी ने कर दी है. पुलिस अबला विधवा पर शक भी नहीं करेगी. फिर हम भाग चलेंगे कहीं दूर और नए सिरे से जिंदगी बिताएंगे.’’

अनामिका समीर के प्यार में इतनी अंधी हो चुकी थी कि उस के सोचनेसमझने की क्षमता जा चुकी थी. समीर ने जो प्लान बताया उसे सुन पहले तो वह सकपका गई पर बाद में वह इस पर अमल करने के लिए राजी हो गई.

प्लान के अनुसार उस रात अनामिका किशन को खाना खिलाने के बाद कुछ देर उस के साथ बातें करती रही. फिर दोनों सोने चले गए. अनामिका किशन से काफी प्यार से बातें कर रही थी. दोनों बातें करतेकरते आलिंगनबद्ध हो गए. आज अनामिका काफी बढ़चढ़ कर सहयोग कर रही थी. किशन को भी यह बहुत ही अच्छा लग रहा था.

उसे महसूस हुआ कि अनामिका सुबह की भूली हुई शाम को घर आ गई है. वह भी काफी उत्साहित, उत्तेजित महसूस कर रहा था. देखतेदेखते उस के हाथ अनामिका के शरीर पर फिसलने लगे. वह उस के अंगप्रत्यंग को सहला रहा था, दबा रहा था. अनामिका भी कभी उस के बालों पर हाथ फेरती कभी उस पर चुंबन की बौछार कर देती. प्यार अपने उफान पर था. दोनों एकदूसरे में समा जाएंगे. थोड़ी देर तक दोनों एकदूसरे में समाते रहे फिर किशन निढाल हो कर हांफते हुए करवट बदल कर सो गया.

अनामिका जब निश्चिंत हो गई कि किशन सो गया है तो वह रूम से बाहर आ कर अपने मोबाइल से समीर को मैसेज किया. समीर इसी ताक में था. समीर के घर की छत किशन के घर की छत से मिला हुआ था. अत: उसे आने में कोई परेशानी नहीं होनी थी. जैसे ही उसे मैसेज मिला वह छत के रास्ते ही किशन के घर में चला आया. अनामिका उस की प्रतीक्षा कर ही रही थी. वह उसे उस रूम में ले कर गई जिस में किशन बेसुध सोया हुआ था.

सागर अपने साथ रस्सी ले कर आया था. उस ने धीरे से रस्सी को सागर के गरदन के नीचे से डाल कर फंदा बनाया और फिर जोर से दबा दिया. नींद में होने के कारण जब तक किशन समझ पाता स्थिति काबू से बाहर हो चुकी थी. तड़पते हुए किशन अपने हाथपैर फेंक रहा था. अनामिका ने उस के पैर को अपने हाथों से दबा दिया. उधर सागर ने रस्सी पर पूरी शक्ति लगा दी. मुश्किल से 5 मिनट के अंदर किशन का शरीर ढीला पड़ गया.

अब आगे क्या किया जाए यह एक मुश्किल थी. लाश को बाहर ले जाने से लोगों के जान जाने का खतरा था. सागर छत के रास्ते वापस अपने घर चला गया. अनामिका ने रोतेकलपते हुए निचले माले पर सोए घर के सदस्यों को जा कर बताया कि किसी ने किशन की हत्या कर दी है. पूरे घर में कोहराम मच गया. पुलिस को सूचना दी गई. योजना यही थी कि कुछ दिनों के बाद अनामिका सागर के साथ कहीं दूर जा कर रहने लगेगी.

पर पुलिस को एक बात नहीं पच रही थी कि पत्नी के बगल में सोए पति की कोई हत्या कर जाएगा और पत्नी को पता नहीं चलेगा. पुलिस अनामिका से तथा आसपास के अन्य लोगों से तहकीकात करती रही. किसी ने पुलिस को सागर और अनामिकाके प्रेम प्रसंग की बात बता दी. पुलिस ने सागर से भी पूछताछ की. उस का जवाब कुछ बेमेल सा लगा तो उस के मोबाइल कौल की डिटेल ली गई. स्पष्ट हो गया कि दोनों के बीच कई हफ्तों से बातें होती रही हैं. कड़ी पूछताछ हुई तो अनामिका टूट गई. उस ने सारी बातें पुलिस को बता दी. सागर और अनामिका दोनों जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए. अब अनामिका को एहसास हुआ कि उस ने समीर के बहकावे में आ कर गलत कदम उठा लिया था.

अब उन के पास पछताने के सिवा कोई चारा नहीं था. Social Story

Hindi Love Stories : लाइफ पार्टनर- अवनि अभिजीत को स्वीकार कर पाई

Hindi Love Stories : अवनि की शादी को लगभग चार महीने बीत चुके थे, परंतु अवनि अब तक अभिजीत को ना मन से और ना ही‌ तन‌ से‌ स्वीकार कर पाई थी. अभिजीत ने भी इतने दिनों में ना कभी पति होने का अधिकार जताया और ना ही अवनि को पाने की चेष्टा की. दोंनो एक ही छत में ऐसे रहते जैसे रूम पार्टनर .

अवनि की परवरिश मुंबई जैसे महानगर में खुले माहौल में हुई थी.वह स्वतंत्र उन्मुक्त मार्डन विचारों वाली आज की वर्किंग वुमन (working woman) थी. वो चाहती थी कि उसकी शादी उस लड़के से हो जिससे वो प्यार करे.अवनि शादी से पहले प्यार के बंधन में बंधना चाहती थी और फिर उसके बाद शादी के बंधन में, लेकिन ऐसा हो ना सका.

अवनि जिसके संग प्यार के बंधन में बंधी और जिस पर उसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, वो अमोल उसका लाइफ पार्टनर ना बन सका लेकिन अवनि को इस बात का ग़म ना था.उसे इस बात की फ़िक्र थी कि अब वो अमोल के संग अपना संबंध बिंदास ना रख पाएगी.वो चाहती थी कि अमोल के संग उसका शारीरिक संबंध शादी के बाद भी ऐसा ही बना रहे.इसके लिए अमोल भी तैयार था.

अवनि अब तक भूली‌ नही ‌अमोल से उसकी वो पहली मुलाकात.दोनों ऑफिस कैंटीन में मिले थे.अमोल को देखते ही अवनि की आंखों में चमक आ गई थी.उसके बिखरे बाल, ब्लू जींस और उस पर व्हाईट शर्ट में अमोल किसी हीरो से कम नहीं लग रहा था.उसके बात करने का अंदाज ऐसा था कि अवनि उसे अपलक निहारती रह गई थी. उसे love at first sight वाली बात सच लगने लगी. सुरभि ने दोनों का परिचय करवाया था.

अवनि और अमोल ऑफिस के सिलसिले में एक दूसरे से मिलते थे.धीरे धीरे दोनों में दोस्ती हो गई और कब दोस्ती प्यार में बदल गई पता ही नही चला.प्यार का खुमार दोनों में ऐसा ‌चढ़ा की सारी मर्यादाएं लांघ दी गई.

अमोल  इस बात से खुश था की अवनि जैसी खुबसूरत लड़की उसके मुठ्ठी में है‌ और अवनि को भी इस खेल में मज़ा आ रहा  था.मस्ती में चूर अविन यह भूल ग‌ई कि उसे पिछले महीने पिरियड नहीं आया है जब उसे होश आया तो उसके होश उड़ गए.वो ऑफिस से फौरन लेडी डॉक्टर के पास ग‌ई. उसका शक सही निकला,वो प्रेग्नेंट थी.

अवनि ने हास्पिटल से अमोल को फोन किया पर अमोल का फोन मूव्ड आउट आफ कवरेज एरिया बता रहा था.अवनि घर आ गई.वो सारी रात बेचैन रही. सुबह ऑफिस पहुंचते ही वो अमोल के सेक्शन में ग‌ई जहां सुरभि ने उसे बताया कि अमोल तो कल‌ ही अपने गांव के लिए निकल गया.उसकी पत्नी का डीलीवरी होने वाला है,यह सुनते ही अवनि के चेहरे का रंग उड़ गया.अमोल ने उसे कभी बताया नहीं कि वो शादीशुदा है. इस बीच अवनि के आई – बाबा ने अभिजीत से अवनि की शादी तय कर दी.अवनि यह शादी नहीं करना चाहती थी.

पंद्रह दिनों बाद अमोल के लौटते ही अवनि उसे सारी बातें बताती हुई बोली-“अमोल मैं किसी और से शादी नहीं करना चाहती तुम अपने बीबी,बच्चे को छोड़ मेरे पास आ जाओ हम साथ रहेंगे ”

अमोल इसके लिए तैयार नही हुआ और अवनि को पुचकारते हुए बोला-“अवनि तुम  एबार्शन करा लो और जहां तुम्हारे आई बाबा चाहते हैं वहां तुम शादी कर लो और बाद में तुम कुछ ऐसा करना कि कुछ महीनों में वो तुम्हें  तलाक दे दे और फिर हमारा संबध यूं ही बना रहेगा”.

अवनि मान गई और उसने अभिजीत से शादी कर ली.शादी के बाद जब अभिजीत ने सुहाग सेज पर अवनि के होंठों पर अपने प्यार का मुहर लगाना‌ चाहा तो अवनि ने उसी रात अपना मंतव्य साफ कर दिया कि जब ‌तक वो अभिजीत को दिल से स्वीकार नही कर लेती, उसके लिए उसे शरीर से स्वीकार कर पाना संभव नही होगा.उस दिन से अभिजीत ने अविन‌ को कभी छूने का प्रयास नही किया.केवल दूर से उसे देखता.ऐसा नही था की अभिजीत देखने में बुरा था.अवनि जितनी खूबसूरत ‌थी.अभिजीत उतना ही सुडौल और आकर्षक व्यक्तित्व का था.

अभिजीत वैसे तो माहराष्ट्र के जलगांव जिले का रहने वाला था,लेकिन अपनी नौकरी के चलते नासिक में रह रहा था.शादी के ‌बाद अवनि को भी अपना ट्रांसफर नासिक के ब्रान्च ऑफिस में परिवार वालों और अमोल  के कहने पर करवाना पड़ा.अमोल ने वादा किया था कि वो नासिक आता रहेगा.अवनि के नासिक‌ पहुंचने की दूसरी सुबह,अभिजीत ने चाय‌ बनाने से पहले अवनि से कहा-” मैं चाय बनाने जा रहा हूं क्या तुम चाय पीना पसंद करोगी .

अवनि ने बेरुखी से जवाब दिया-“तुम्हें तकल्लुफ करने की कोई जरुरत नहीं.मैं अपना ध्यान स्वयं रख सकती हूं.मुझे क्या खाना‌ है,पीना है ,ये मैं खुद देख लुंगी”.

अवनि के ऐसा कहने पर अभिजीत वहां से बिना कुछ कहे चला गया.दोनों एक ही छत में ‌रहते हुए एक दूसरे से अलग ‌अपनी‌ अपनी‌ दुनिया में मस्त थे.

शहर और ऑफिस दोनों ही न‌ए होने की वजह से अवनि ‌अब तक ज्यादा किसी से घुलमिल नहीं पाई थी.ऑफिस का काम और ऑफिस के लोगों को समझने में अभी उसे  थोड़ा वक्त चाहिए था.अभिजीत और अवनि दोनों ही सुबह अपने अपने ऑफिस के लिए निकल जाते और देर रात घर लौटते.सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना दोनों अपने ऑफिस कैंटीन में खा लेते.केवल रात का खाना ही घर पर बनता.दोंनो में से जो पहले घर पहुंचता खाना बनाने की जिम्मेदारी उसकी होती.ऑफिस से आने के बाद अवनि अपना ज्यादातर समय मोबाइल पर देती या फिर अपनी क्लोज  फ्रैंड सुरभि को,जो उसकी हमराज भी थी और अभिजीत को अवनि का room partner संबोधित किया करती थी. अभिजीत अक्सर न्यूज या फिर  एक्शन-थ्रिलर फिल्में देखते हुए बिताता.

अवनि और अभिजीत दोनों मनमौजी की तरह अपनी जिंदगी अपने-अपने ढंग से जी रहे थे, तभी अचानक एक दिन अवनि का पैर बाथरूम में फिसल गया और उसके पैर में मोच आ गई. दर्द इतना था ‌कि अवनि के लिए हिलना डुलना मुश्किल हो गया. डॉक्टर ने अवनि को पेन किलर और कुछ दवाईयां दी साथ में पैर पर मालिस करने के लिए लोशन भी, साथ ही यह हिदायत भी दी कि वो दो चार दिन घर पर ही रहे और ज्यादा चलने फिरने से बचे.

अवनि को इस हाल में देख अभिजीत ने भी अवनि के साथ अपने ‌ऑफिस से एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और पूरे दिन अवनि की देखभाल करने लगा.उसकी हर जरूरतों का पूरा ध्यान रखता.अवनि के मना करने के बावजूद दिन में दो बार उसके पैरों की मालिश करता.अभिजीत जब उसे छूता ‌अवनि को अमोल के संग बिताए अपने अंतरंग पलों की याद ताज़ा हो जाती और वो रोमांचित हो उठती.अभिजीत भी तड़प उठता लेकिन फिर संयम रखते हुए अवनि से दूर हो जाता.अभिजीत सारा दिन अवनि को खुश रखने का प्रयास करता उसे हंसाता उसका दिल बहलाता.

इन चार दिनों में अवनि ने यह महसूस किया की अभिजीत देखने में जितना सुंदर है उससे कहीं ज्यादा खुबसूरत उसका दिल है.वो अमोल से ज्यादा उसका ख्याल रखता है. अभिजीत ने अपने सभी जरूरी काम स्थगित कर दिए थे.इस वक्त अवनि ही अभिजीत की प्रथमिकता थी. इन्हीं सब के बीच ना जाने कब अवनि के मन में अभिजीत के लिए प्रेम का पुष्प पुलकित होने लगा पर इस बात ‌से अभिजीत बेखबर था.

अवनि अब ठीक हो चुकी थी.एक हफ्ते गुजरने को थे.अवनि अपने दिल की बात  कहना चाहती थी, लेकिन कह‌ नही पा रही थी.अवनि चाहती थी अभिजीत उसके करीब आए उसे छूएं लेकिन अभिजीत भूले से भी उसे हाथ नहीं लगाता बस ललचाई आंखों से उसकी ओर देखता.एक सुबह मौका पा अवनि, अभिजीत से बोली-“मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूं”

” हां कहो,क्या कहना है ?”अभिजीत न्यूज पेपर पर आंखें गढ़ाए अवनि की ओर देखे बगैर ही बोला.

अवनि गुस्से में अभिजीत के हाथों से न्यूज पेपर छीन उसके दोनों बाजुओं को पकड़ अपने होंठ उसके होंठों के एकदम करीब ले जा कर जहां दोनों को एक-दूसरे की गर्म सांसें महसूस होने लगी अवनि बोली-“मैं तुमसे प्यार करने लगी हूं मुझे तुम से प्यार हो गया है”.

यह सुनते ही अभिजीत ने अवनि को अपनी बाहों में भर लिया और बोला-“तुम मुझे अब प्यार करने लगी हो,मैं तुम्हें उस दिन से प्यार करता हूं जिस दिन से तुम मेरी जिंदगी में आई हो और तब से तुम्हें पाने के लिए बेताब हूं. तभी अचानक अवनि का मोबाइल बजा.फोन पर सुरभि थी.हाल चाल पूछने के बाद सुरभि ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-“and what about your room partner”

यह सुनते ही अवनि गम्भीर स्वर में बोली- “No सुरभि he is not my room partner.now he is my life partner”.

ऐसा कह अवनि अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर सब कुछ भूल अभिजीत की बाहों में समा गई. Hindi Love Stories 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें