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Coaching Institutes : कोचिंग, स्कूल और टीचर्स

Coaching Institutes : देश में कोचिंग व्यवसाय का सब से ज्यादा जाना जाने वाला शहर कोटा अब काफी समय से विवादों में है क्योंकि वहां पढ़ने वाले लाखों छात्रों में से कुछ तनाव न झेल पाने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं. अब कोचिंग कंपनियों का कीकर के जंगल की तरह बढ़ना और फीस के नाम पर उन का लाखों रुपए सालाना चार्ज करना सब को अखरने लगा है. इस बीच राजस्थान सरकार ने कोचिंग सैंटरों के कंट्रोल और रैगुलेशन पर एक नए कानून बनाने का प्रस्ताव रखा है.

जैसा सरकारें करती हैं, किसी भी समस्या को हल करने के लिए एक कानून बना कर पेश कर देती हैं. नए बनाए गए हर कानून में रिश्वत वसूलने के बीसियों तरीके रहते हैं. राजस्थान सरकार के इस प्रस्तावित कानून में भी ऐसा ही है. इस में मुख्य काम रजिस्ट्रेशन है. हर कोचिंग संस्थान को सरकार के पास अपना रजिस्ट्रेशन कराना पड़ेगा लेकिन यह रजिस्ट्रेशन छात्रों का तनाव आखिर कैसे दूर करेगा, यह कहीं स्पष्ट नहीं है.

राज्य सरकार का प्रस्तावित कानून कोचिंग सैंटरों पर सुरक्षा के प्रबंध करने, ज्यादा अच्छी शिक्षा देने, उन के समुचित विकास की जिम्मेदारी डालने जैसे महान वाकयों से भरा है पर उन से समस्या कैसे हल होगी, यह सम झाना असंभव है.

हर सरकारी कानून किसी न किसी पर एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालता है और कोचिंग संस्थानों के रजिस्ट्रेशन पर होने वाला खर्च, जिस में मोटा खर्च रिश्वत का होगा, किसी न किसी तरीके से छात्रों से ही वसूला जाएगा. इस कानून के बनने से इंस्पैक्टरों, रजिस्ट्रेशन दफ्तरों, कंट्रोलिंग अथौरिटी की मौज तो हो जाएगी पर अपने बच्चों को कोचिंग के लिए भेजने वाले मांबापों की जेबें और ज्यादा हलकी होंगी. कुकुरमुत्तों की तरह खुलने वाले कोचिंग संस्थानों पर नियंत्रण बाजार का होना चाहिए, सरकार का नहीं. बाजार में अगर महंगे कोचिंग सैंटर, जिन की फीस देना हरेक के बस का नहीं है तो कुछ सस्ते भी पनप जाएंगे जहां पढ़ कर कुछ गरीब छात्रों को लगेगा कि शायद वे नीट, आईआईटी, क्लैट, आईआईएम की परीक्षाएं अपनी मेहनत व कोचिंग की पढ़ाई से पास कर लेंगे. सड़कछाप कोचिंग सैंटर हो सकता है बेकार हों लेकिन उन का होना भी जरूरी है.

समस्या तो यह है कि हमारे स्कूल क्या कर रहे हैं जो अपने स्टूडैंट्स को कोचिंग संस्थानों के स्टूडैंट्स जैसे रैडी नहीं कर पा रहे? ऐसे स्कूलों को दंड देने के कानून क्यों न बनाए जाएं? स्कूलों का तो रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है तो फिर वे ऐसे छात्र क्यों नहीं पैदा कर पाते जो स्कूली शिक्षा के आधार पर ही प्रतियोगी परीक्षाओं को क्वालीफाई कर सकें? व्यावसायिक संस्थानों में एडमिशन के लिए जो परीक्षा प्रणाली है, वह 10वीं, 12वीं तक की शिक्षा का आधार क्यों नहीं बनाई जाती?

देशभर के स्कूलों के 10वीं से 12वीं तक के वे शिक्षक जिम्मेदार हैं जो मोटा वेतन पा कर भी अधपढ़े छात्र बना रहे हैं. इन्हें कंट्रोल और रैगुलेट करने के कानून क्यों नहीं बनते? दरअसल इसलिए नहीं बनते क्योंकि उन का दर्जा तो गुरुओं का है. वे तो पूजनीय हैं. छात्र उन की तनमनधन से सेवा करें, यह उन का सांस्कारिक कर्तव्य है. राजस्थान का प्रस्तावित कानून इसी महान संस्कृति को और मजबूत करेगा, कानून प्रबंधकों, जो व्यवसायी हैं, को कंट्रोल करेगा. टीचर्स को नहीं, जो पूजनीय की श्रेणी में आते हैं. छात्रों की आत्महत्याएं तो एक बहाना है, सिर्फ.

Content Creators : दुराज्ञान का बाजार

Content Creators : कुछ सौ अखबारों से देश की जनता को जो जानकारी मिला करती थी, आज 20-25 लाख कंटैंट क्रिएटरों से मिल रही है. ये 20-25 लाख वे हैं जिन के सोशल मीडिया पर 1,000 से ज्यादा फौलोअर्स हैं. इन में से 8-10 हजार को विज्ञापनदाताओं से पैसा मिल जाता है विज्ञापनों का काफी पैसा सोशल मीडिया के कंटैंट क्रिएटर बटोर ले ही जाते हैं.

किसी बड़े अखबार या टैलीविजन चैनल से न बंध कर स्वतंत्रता से कुछ कर दिखाने व उसे सोशल मीडिया पर डाल कर उस का इन्फ्लुएंस बढ़ते देखना किसी भी क्रिएटर के लिए खुशी की बात हो सकती है लेकिन यह न भूलें कि यह कंटैंट न तो सौ फीसदी सही है और न क्रिएटर लंबे समय तक के लिए जगह बना रहा है. बरसाती मेढकों की तरह कुछ समय टरटर कर के ये लोग चुप हो जाते हैं. इन के पास न समय होता है, न स्किल और न साधन ही कि ये किसी भी विषय पर गहराई तक नजर डाल कर जांचपरख कर सकें और ट्रेडमार्क कराने लायक अपना नाम कमा सकें.

ये लोग सोशल मीडिया के जरिए समाज में बेहद दुराज्ञान फैला रहे हैं. ये तो अरसे पहले पेड़ के नीचे बैठ कर काल्पनिक कहानियां सुनाने वालों से भी बदतर हैं जो धर्म, समाज, इतिहास के साथ भूतप्रेतों, गड़े खजानों, चुटकियों में सेहत ठीक करने वाली दवाओं के बारे में बताया करते थे. वे लोग दुराज्ञानी थे और तब की मूढ़ जनता उन्हीं के दुराज्ञान के कारण लाखों तकलीफें सहती थी.

आज पेड़ की जगह मोबाइल ने ले ली है और पेड़ के नीचे बैठने की जगह बिस्तर ने ले ली है और भीड़ वैसी ही है फौलोअर्स की शक्ल में. आज अगर एक देश के बाद दूसरे देश में अंधविश्वासों, पाखंडों, गलत सूचनाओं से धार्मिक भेदभाव, लड़कियों के साथ भेदभाव, विध्वंसक राजनीति, चुराई सामग्री को मोटिवेशनल कहने का ढोंग करना, सासबहू के रिश्ते को हिंसक बनानाबताना ज्यादा हो रहा है तो इसलिए कि सोशल मीडिया इस तरह के इन्फ्लुएंसरों से भरा है जो अधकचरा राजनीतिक ज्ञान, सामाजिक अज्ञान के साथ सैक्स, हिंसा, बेईमानी, लूट आदि जम कर फैला रहे हैं और कुछ नया करने के चक्कर में कुछ भी परोस रहे हैं.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप आए हैं, कनाडा बालबाल बचा है, फ्रांस में ला पेन की पार्टी मजबूत हो रही है तो इसलिए कि भारत समेत हर जगह इन्फ्लुएंसरों की सुनी जा रही है. पढ़ेलिखे, दूर की सोच रखने वाले प्रतिष्ठित और हर तथ्य की जांच कर पेश किए जाने वाले कंटैंट को न देख कर लोग कुछ चौंकाने वाला, कुछ मजेदार, कुछ सैक्सी कंटैंट देखना पसंद कर रहे हैं. यह ऐसा दुराज्ञान है जो हरेक की सोच को बुरी तरह दूषित कर रहा है.

हत्याएं पहले भी होती थीं पर लाशों को सूटकेसों में बंद नहीं किया जाता था, सीमेंट के ड्रमों में नहीं डाला जाता था. विवाहेतर प्रेम पहले भी होते थे पर उन में त्याग की अनुभूति होती थी, विवाह कर के जान लेने की इच्छा नहीं. सोशल मीडिया के कंटैंट क्रिएटरों ने देखनेसुनने वालों का दिमाग कुंद कर दिया है. वे सहीगलत का फैसला नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें सिर्फ गलत दिखाया जा रहा है और बिकता भी वही है जो गलत है.

ऐसा नहीं कि पहले फालतू का कंटैंट तैयार नहीं किया जाता था पर प्रकाशकसंपादक उसे कूड़े के टोकरे में डाल देते थे. कुछ ही प्रकाशक गलत बातों के बल पर पनपते थे. नतीजा था कि जो पढ़ालिखा है वह सम झदार है, यह माना जाता था. आज पैसे वाले, डिग्रीहोल्डर, शिक्षित, सोशल मीडिया के दुराज्ञान के शिकार गलत ही गलत को सही मानते हैं और उस खोखली नींव पर महल बना रहे हैं जिस में क्रैक तो आएंगे ही.

सैकड़ों शारीरिक व मानसिक रोगों के लिए यह दुराज्ञान, जो सड़कछाप कंटैंट क्रिएटरों की देन है, जिम्मेदार है. दुनिया के देशों में धैर्य, भाषा, रंग, जाति, मूल देश की पहचान के कारण पैदा हो रही खाइयों के लिए सोशल मीडिया जिम्मेदार है जिसे अधपढ़े मदारी किस्म के इन्फ्लुएंसर्स परोस रहे हैं, जिसे चटखारे लेले कर लोगों द्वारा देखा, सम झा व अपनाया जा रहा है.

तर्क, तथ्य, विश्लेषण, दूरगामी परिणामों, इतिहास पर निर्भर जानकारी को पचा सकने की सम झ लोगों में कम हो गई है क्योंकि जंक ज्ञान, जंक फूड की तरह, मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य खराब कर रहा है. इस के दोषी धर्म, सरकार व बिग बिजनैस तीनों हैं जो लोगों की मूर्खता पर ही टिके हैं. लोगों को सहीगलत का ज्ञान पहचान में न आए, यह आज के सोशल मीडिया की देन है.

USA : धार्मिकता, कट्टरता, अमेरिका

USA : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को फिर से गोरों का देश बनाने में लगे हैं जहां ब्राउन और काले हों तो लेकिन वे केवल गुलामी करने के लिए हों, वहां की बड़ी कंपनियों के सीईओ जैसे पद पर नहीं. उन का अगला टारगेट अमेरिका के वे विश्वविद्यालय हैं जो दुनियाभर के प्रभावशाली छात्रों को अपने यहां पढ़ने को आमंत्रित करते हैं. हर देश के बड़े उद्योगपतियों, नेताओं, वैज्ञानिकों, प्रशासकों, विचारकों, पत्रकारों में आज 5-7 बड़े विश्वविद्यालयों से निकले लोग मिल जाएंगे जिन के हाथों में अपनेअपने देश की कमान है. डोनाल्ड ट्रंप इस सौफ्ट पावर से खुश नहीं हैं, उन्हें तो कोई भी ब्राउन, ब्लैक, यैलो इन विश्वविद्यालयों में नहीं चाहिए.

दुनियाभर के देशों के लिए यह आधी अच्छी खबर है आधी बुरी. अच्छी इसलिए कि अब योग्य लोग अमेरिका में पढ़ने जाने के बहाने वहीं बसेंगे नहीं. ये लोग अमेरिका में बसते ही नहीं रहे, अपनेअपने देश के कट्टरपंथी विचारों की पोटली भी ले जाते रहे हैं. वे वहां मंदिर, मसजिदें, बौद्धमठ, गुरुद्वारे बनवा रहे हैं. ये लोग पढ़ने के बहाने वहां जा कर अब अपनी गंद वहां नहीं फैलाएंगे, यह अच्छी बात है.

बुरी इसलिए कि जो भी युवा इन विश्वविद्यालयों में प्रवेश पर जाते थे वे अपनेअपने देश के मकड़जालों से निकल जाते थे. ये युवा उन देशों से अमेरिका जाते हैं जहां रिश्वतखोरी, पाखंड, गंद, बदबू, भाईभतीजावाद, अस्थिरता का बोलबाला है.

इन में सब से ज्यादा विदेशी छात्र भारत से जा रहे हैं. पहले चीन नंबर एक पर था पर अब उस का अपना देश पश्चिमी देशों का मुकाबला कर रहा है. इन भारतीय, अफ्रीकी, पाकिस्तानी, बंगलादेशी, सीरियाई, ईरानी, लेबनानी युवाओं को नामी विश्वविद्यालयों में जगह नहीं मिलेगी तो देशों की विदेशी मुद्रा बचेगी. ब्रेन ड्रेन में वैसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि ये युवा अपनेअपने देश में निकम्मे साबित होते हैं. यह तो अमेरिका का समाज था जो कंकरों को हीरा बनाता था. अब डोनाल्ड ट्रंप हीरों को कंकड़ बना रहे हैं, चाहे वे गोरे ही क्यों न हों. सो, अमेरिका जा कर अब कोई क्या करेगा?

अमेरिका उसी राह पर है जिस पर पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान, भारत जैसे देश धर्म की लकीर पीटने को महानता सम झते हैं. अमेरिका को 2028 में एक और ट्रंप मिल गया तो उस का सर्वनाश पक्का है. जैसे हिटलर ने जरमनी की मेहनत को 1940 में युद्ध में झोंक कर नष्ट कर दिया था.

भारत का इतिहास भी ऐसा रहा है. अंगरेजों को पैर जमाने की जगह इसीलिए मिली कि औरंगजेब के कट्टरपन के बाद हिंदू कट्टरपन पनपा और आज 300 वर्षों बाद भी यह थम नहीं रहा.

अमेरिका में ट्रंप विश्वविद्यालयों को बंद कर के जो बीज बो रहे हैं वे वैसे ही हैं जैसे दक्षिणी अमेरिका में 17वीं सदी में ईसाई पुजारियों ने तब की वहां की सभ्यताओं को नष्ट कर के ईसाइयत थोपने के लिए बोए थे, जिस का खमियाजा आज भी पूरा दक्षिण अमेरिका झेल रहा है जबकि वहां भी वही गोरे यूरोपीय गए जो उत्तरी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में गए थे. डोनाल्ड ट्रंप भारत के वर्तमान नेताओं की तरह कट्टरता के बीज बो रहे हैं जो देश की प्रगति को तो नष्ट करेंगे ही, उस के टुकड़े भी कर देंगे.

Kahani In Hindi : लता आ गई – सफलता का शौर्टकट अपनाने के बाद क्या हुआ?

Kahani In Hindi : ‘‘क्या हुआ? कुछ पता चला क्या?’’ अपने पुत्र सोमेश और पति वीरेंद्र को देखते ही बिलख उठी थीं दामिनी. सोमेश ने मां की दशा देख कर अपनी डबडबा आई आंखों को छिपाने के लिए मुंह फेर लिया था.

‘‘लता अब नहीं आएगी,’’ आराम- कुरसी पर पसरते हुए दामिनी से बोल कर शून्य में टकटकी लगा दी थी वीरेंद्र बाबू ने.

‘‘क्या कह रहे हो जी? क्यों नहीं आएगी लता? मैं अपनी बेटी को बहुत भली प्रकार से जानती हूं. वह अधिक दिनों तक अपनी मां से दूर नहीं रह सकती,’’ दामिनी अवरुद्ध कंठ से बोलीं.

‘‘मैं सब जानतासमझता हूं पर यह समझ में नहीं आता कि तुम्हारी लाड़ली को कहां से ले आऊं. पता नहीं लता को आसमान खा गया या जमीन निगल गई. मैं दसियों चक्कर तो थाने के लगा चुका. पर हर बार एक ही उत्तर, ‘प्रयत्न कर रहे हैं, हम पुलिस वाले भी इनसान ही हैं. जान की बाजी लगा दी है हम ने, पर हम लता को नहीं ढूंढ़ पाए. पुलिस के पास क्या कोई जादू की छड़ी है कि पलक झपकते ही आप की बेटी को प्रस्तुत कर दे?’ पुलिस को वैसे भी छोटेबड़े सैकड़ों काम होते हैं,’’ वीरेंद्र बाबू धाराप्रवाह बोल कर चुप हो गए थे.

घर में शांति थी. सदा चहकती रहने वाली उन की छोटी बेटी रेनू देर तक सुबकती रही थी.  ‘‘बंद करो यह रोनाधोना, तुम सब को जरूरत से अधिक छूट देने का ही यह फल है जो हमें आज यह दिन देखना पड़ रहा है. मैं तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा,’’ वीरेंद्र बाबू स्वयं पर नियंत्रण खो बैठे थे. रेनू का रुदन कुछ और ऊंचा हो गया था.

‘‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे,’’ दौड़ती हुई दामिनी पति के पास आईं और बोलीं, ‘‘जहां क्रोध दिखाना चाहिए वहां से तो दुम दबा कर चले आते हो. सारा क्रोध बस घर वालों के लिए है.’’

‘‘क्या करूं? तुम ही कहो न. वैसे भी तुम तो खुद भी बहुत कुछ कर सकती हो. तुम जैसी तेजतर्रार महिला के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. जाओ, जा कर दुनिया फूंक डालो या किसी का खून कर दो,’’ वीरेंद्र बाबू इतनी जोर से चीखे थे कि दामिनी भी घबरा कर चुप हो गई थीं.  फिर अचानक मानो बांध टूट गया हो. वीरेंद्र बाबू फूटफूट कर रो पड़े थे.

रेनू दौड़ कर आई थी और पिता को सांत्वना देने लगी.  ‘‘ऐसे दिल छोटा नहीं करते जी, सब ठीक हो जाएगा. हमारी लता को कुछ नहीं होगा,’’ दामिनी बोलीं.

रेनू लपक कर चाय बना लाई थी. मानमनुहार कर के मातापिता को चाय थमा दी थी. तभी प्रभात ने वहां प्रवेश किया था.

‘‘रेनू, मुझे भी एक कप चाय मिल जाती तो…आज सुबह से कुछ नहीं खाया है,’’ प्रभात इतने निरीह स्वर में बोला था कि रेनू ने अपने लिए बनाई चाय उसे थमा कर बिस्कुट की प्लेट आगे बढ़ा दी थी.

‘‘मां, स्वयं को संभालो. 4 दिन से घर में चूल्हा नहीं जला है. कब तक मित्रों, संबंधियों द्वारा भेजा खाना खाते रहेंगे? अगले सप्ताह से मेरी और रेनू दोनों की परीक्षाएं प्रारंभ हो रही हैं. दिन भर घर में रोनाधोना चलता रहा तो सबकुछ चौपट हो जाएगा,’’ प्रभात ने अपनी मां दामिनी को समझाना चाहा था.

‘‘चौपट होने में अब बचा ही क्या है. 4 दिन से मेरी बेटी का पता नहीं है और तुम मुझे स्वयं को संभालने की सलाह दे रहे हो? कोई और भाई होता तो बहन को ढूंढ़ने के लिए दिनरात एक कर देता.’’

‘‘क्या चाहती हैं आप. लतालता चिल्लाता हुआ सड़कों पर चीखूं, चिल्लाऊं? या मैं भी घर छोड़ कर चला जाऊं? सच कहूं तो जो हुआ उस सब के लिए आप और पापा दोनों ही दोषी हैं. जिस राह पर लता चल रही थी उस पर चलने का अंजाम और क्या होना था?’’

‘‘शर्म नहीं आती, भाई हो कर बहन पर दोषारोपण करते हुए? वह क्या सबकुछ अपने लिए कर रही थी. कितने सपने थे उस के, अपने और अपने परिवार को ऊपर उठाने के. सदा एक ही बात कहती थी… परिवार को ऊपर उठाने के लिए संपर्कों की आवश्यकता होती है. उस का उठनाबैठना बड़े लोगों के बीच था.’’

‘‘तो जाइए न उन बड़े लोगों के पास लता को ढूंढ़ने में सहायता की भीख मांगने. जो संपर्क कठिन समय में भी काम न आएं वे भला किस काम के?’’ तीखे स्वर में बोल पैर पटकता हुआ प्रभात अपने कक्ष में चला गया था.

उस के पीछे सोमेश भी गया था. वह किसी प्रकार प्रभात और रेनू को समझाबुझा कर उन का ध्यान पढ़ाई की ओर लगाना चाहता था.

मेज पर सिर रखे सुबकते प्रभात के सिर को सहलाते हुए उस ने सांत्वना देनी चाही थी. स्नेहिल स्पर्श पाते ही उस ने सिर उठाया था.  ‘‘स्वयं को संभालो मेरे भाई. वास्त- विकता को स्वीकार कर लेने से आधी समस्या हल हो जाती है,’’ सोमेश ने सामने पड़ी कुरसी पर बैठते हुए कहा था.

‘‘कैसी वास्तविकता, भैया?’’ प्रभात ने पूछा.

‘‘यही कि लता के लौटने की आशा नहीं के बराबर है. वह अवश्य ही किसी हादसे की शिकार हो गई है. नहीं तो 4-5 दिन तक लता घर न लौटे ऐसा क्या संभव है? मांपापा भी इस बात को समझते हैं, पर स्वीकार नहीं कर पा रहे.’’

‘‘अब क्या होगा, भैया?’’

‘‘जो भी होगा मैं और पापा संभाल लेंगे. पर मैं नहीं चाहता कि तुम या रेनू अपनी पढ़ाई छोड़ कर 1 वर्ष बरबाद कर दो.’’

‘‘आप ही बताइए, मैं क्या करूं… किताब खोलते ही लता दीदी का चेहरा सामने घूमने लगता है.’’

‘‘मन तो लगाना ही पड़ेगा. मैं तो खास कुछ कर नहीं सका. पढ़ाईलिखाई में कभी मन ही नहीं लगा. पर तुम तो मेधावी छात्र हो. मेरी तो छोटी सी नौकरी है…चाह कर भी किसी की खास सहायता नहीं कर पाता. अब मैं चलता हूं. तुम भी अपनी किताबें आदि संभाल लो और कल से कालेज जाना प्रारंभ करो.’’  धीरज रखने का पाठ पढ़ा कर सोमेश चला गया था. मन न होने पर भी प्रभात ने किताब खोल ली थी. पर हर पृष्ठ पर लता का ही छायाचित्र नजर आ रहा था.

किसी तरह प्रथम श्रेणी में एम.ए. करते ही लता को स्थानीय कालेज में व्याख्याता के पद पर अस्थायी नियुक्ति मिल गई थी. पर उस को इतने से ही संतोष कहां था. हर कार्य में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना या यों कहें हर स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में उसे महारत हासिल थी. कोल्हू के बैल की तरह काम करने में उस का विश्वास नहीं था. काम दूसरे करें और प्रस्तुतीकरण वह, लता तो इसी शैली की कायल थी, जिस से सब की नजरों में बनी रहे.

कालेज के स्थापना दिवस समारोह में जब उसी क्षेत्र के विधायक और राज्य सरकार के मंत्री नवीन राय पधारे तो प्रधानाचार्य महोदय ने उन के स्वागत- सत्कार का जिम्मा लता के कंधों पर डाल दिया था.  लता तो कल्पना लोक की सैर पर निकल पड़ी थी. अब उस के पांव धरती पर टिकते ही नहीं थे.  उस ने अपने स्वागतसत्कार से नवीन राय पर ऐसी छाप छोड़ी थी कि शहर में 2 दिन के लिए आए मंत्री महोदय 10 दिन तक वहीं टिके रहे थे.

हर रोज जब लालबत्ती वाली मंत्री की गाड़ी लता को घर छोड़ने आती तो दामिनी गर्व से फूल उठतीं. वे आ कर बेटी के स्वागत के लिए द्वार पर खड़ी हो जातीं. पर साथ ही आसपड़ोस की सब खिड़कियां खुल जातीं और विस्फारित नेत्र टकटकी लगा कर पूरे दृश्य को आत्मसात करने लगते थे. ‘‘मां, कैसे संकीर्ण विचारों वाले लोग रहते हैं इस महल्ले में. मेरे आते ही खिड़की या बालकनी में खड़े हो कर ऐसे घूरने लगते हैं जैसे लाल बत्ती वाली गाड़ी कभी किसी ने देखी नहीं,’’ एक दिन घर पहुंचते ही बिफर उठी थी लता.

‘‘गोली मारो इन सब को. सब के सब जलते हैं हम से. चलो, खाना खा लो,’’ दामिनी ने समझाया था.

‘‘खाना तो मैं खा कर आई हूं मां पर अब इस संकीर्ण विचारों वाले महल्ले में मेरा दम घुटने लगा है,’’ लता सामने पड़ी आरामकुरसी पर ही पसर गई थी.

‘‘चलो, लता तो खा कर आई है. आजकल इसे घर का खाना अच्छा कहां लगता है,’’ सोमेश ने व्यंग्य किया था.

‘‘तो आज सोमेश भैया आए हुए हैं. क्यों, क्या बात है, आज भाभी ने खाना नहीं बनाया क्या?’’ लता ने नजरें घुमाई थीं.

‘‘मैं खाना खाने नहीं, तुम से मिलने आया हूं. आजकल शहर में बड़ी चर्चा है तुम्हारी. मैं ने सोचा आज स्वयं चल कर देख लूं,’’ सोमेश रूखे स्वर में बोला था.

‘‘तो देख लिया न भैया, पड़ोसी और मित्र तो तरहतरह की बातें कर ही रहे हैं…आप भी अपनी इच्छा पूरी कर लो,’’ लता ने उत्तर दिया था.  ‘‘लता, मुझ में और पड़ोसियों में कुछ तो अंतर किया होता. मैं तुम्हारा बुरा चाहूंगा, ऐसा कहते हुए तुम्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ?’’ सोमेश भीगे स्वर में बोला था.

‘‘तुम ने तो विवाह होते ही अलग घर बसा लिया. लता बेचारी अपने बल पर आगे बढ़ना चाहती है तो तुम्हें उस पर भी आपत्ति है,’’ उत्तर लता ने नहीं दामिनी ने दिया था.

‘‘मां, अलग घर बसाने का आदेश भी आप का ही था. मैं ने मीनू से विवाह आप की इच्छा से ही किया था फिर भी यथा- शक्ति आप सब की मदद करता हूं मैं.’’  ‘‘क्या करती बेटे. दिनरात की कलह से त्रस्त आ कर ही मैं ने तुम से अलग होने को कहा था. पर अब अच्छा यही होगा कि व्यर्थ ही दूसरों के मामले में टांग अड़ाना बंद करो,’’ दामिनी तीखे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, लता मेरी बहन है और उसे विनाश की राह पर जाने से रोकना मेरा कर्तव्य है. मैं इस समय लता से बात कर रहा हूं. आप बीच में न बोलें.’’

‘‘भैया ठीक कह रहे हैं. मेरे मित्र कटाक्ष करते हैं, ताने मारते हैं. आज मेरा मित्र अरुण उपहास करते हुए कह रहा था कि अब तो तुम्हारी बहन मंत्रीजी के साथ घूमती है. करोड़पति बनते देर नहीं लगेगी,’’ प्रभात ने सोमेश की हां में हां मिलाई थी.

‘‘सोमेश भैया और प्रभात, तुम्हें अपनी बहन पर विश्वास हो न हो, मुझे खुद पर विश्वास है. मैं आप को आश्वासन देती हूं कि कभी गलत राह पर पैर न रखूंगी,’’ लता ने सोमेश और प्रभात को समझाया था. पर बात सोमेश के गले नहीं उतरी थी. वह भीतरी कक्ष में टेलीविजन के चैनल बदलने में व्यस्त वीरेंद्र बाबू के पास पहुंचा था  ‘‘पापा, आप सदा समस्या को सामने खड़ा देख कर शुतुरमुर्ग की तरह मुंह क्यों छिपा लेते हैं…किंतु इस समय यदि आप चुप रह गए तो सर्वनाश हो जाएगा,’’ सोमेश ने अनुनय की थी. पर वीरेंद्र बाबू ने कुछ नहीं कहा.  हार कर सोमेश चला गया था. प्रभात और रेनू अपनी पढ़ाई में मन लगाने का प्रयत्न करने लगे थे.  ‘‘पता नहीं भैया को क्या हो गया है? मंत्री महोदय तो बड़े ही सज्जन व्यक्ति हैं. सभी उन का सम्मान करते हैं. आज ही कह रहे थे कि कब तक इस अस्थायी पद पर कार्य करती रहोगी. दिल्ली चली आओ. अच्छे से अच्छे कालेज में नियुक्ति हो जाएगी वहां. साथ ही राजनीति के गुर भी सीख लेना. फिर देखना मैं तुम्हें कहां से कहां पहुंचाता हूं,’’ लता ने बड़ी प्रसन्नता से बताया था.

‘‘तू चिंता मत कर बेटी. मैं तेरे साथ हूं. पर एक बात कहे देती हूं, राजधानी जाना पड़ा तो मैं तेरे साथ चलूंगी. अकेले नहीं जाने दूंगी तुझे,’’ दामिनी बड़े लाड़ से बोली थीं.

‘‘अरे मां, तुम तो व्यर्थ ही परेशान होती हो. कहने और करने में बहुत अंतर होता है. नेता लोग बहुत से आश्वासन देते रहते हैं पर सभी पूरे थोड़े ही होते हैं,’’ लता लापरवाही से बोली थी और सोने चली गई थी. पर दामिनी देर तक स्वप्नलोक में डूबी रही थीं. उन्हें लता के रूप में सुनहरा भविष्य बांहें पसारे सामने खड़ा प्रतीत हो रहा था.  पर लता की आशा के विपरीत मंत्री महोदय ने राजधानी पहुंचते ही एक कन्या महाविद्यालय में उस की स्थायी नियुक्ति करवा कर नियुक्तिपत्र भेज दिया था.  कई दिनों तक घर में उत्सव का सा वातावरण रहा था. बधाई देने वालों का तांता लगा रहा था. सोमेश को भी लगा कि लता को अच्छा अवसर मिला है और उस का जीवन व्यवस्थित हो जाएगा.

शीघ्र ही मांबेटी ने अपना बिस्तर बांध लिया था. राजधानी पहुंचते ही लता ने अपना नया पद ग्रहण कर लिया था. उधर दामिनी को अपना घर छोड़ कर लता के साथ रहना भारी पड़ने लगा था. यों भी नवीन राय के साथ लता का घूमनाफिरना उन्हें रास नहीं आ रहा था.  दामिनी ने कई बार लता को समझाया कि अब तो स्थायी नियुक्ति मिल गई है. नवीन राय से किनारा करने में ही भलाई है. पर वह मां की सलाह सुनते ही बिफर उठती थी. दामिनी बेटी के आगे असहाय सी हो गई थीं. कुछ करने की स्थिति में नहीं थीं.

रेनू और प्रभात की परीक्षा निकट आई तो वे अपने शहर लौट गईं. कुछ दिनों तक लता के फोन आते रहे थे. फिर फोन वार्त्तालाप के बीच की दूरियां बढ़ने लगी थीं. दामिनी फोन करतीं तो वह व्यस्तता का बहाना बना देती थी.

फिर अचानक एक दिन लता सबकुछ छोड़ कर वापस लौट आई थी. दामिनी के पैरों तले से जमी  निकल गई थी. उस को देखते ही वे सबकुछ भांप गई थीं.

‘‘घर से निकलने की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारे पापा और भाइयों को इस की भनक भी नहीं लगनी चाहिए. मैं सब संभाल लूंगी. हो जाती हैं ऐसी गलतियां कभीकभी. उस के लिए कोई अपना जीवन तो बरबाद नहीं कर देता,’’ उन्होंने लता को चुपचाप समझा दिया था.  उन्होंने एक नर्सिंग होम में सारा प्रबंध भी कर दिया था. पर कुछ हो पाता उस से पहले ही लता रहस्यमय तरीके से गायब हो गई थी. लता को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया गया पर कोई फल नहीं निकला था. कई माह तक रोनेकलपने के बाद परिवार के सभी सदस्यों ने मन को समझा लिया था कि लता अब इस संसार में नहीं है.  दामिनी लता के लौटने की आशा पूरी तरह त्याग चुकी थीं पर एक दिन लता अचानक लौट आई.

कुछ क्षणों तक तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उन्हें लगा जैसे कि वे कोई सपना देख रही हों. शीघ्र ही वे उसे अंदर के कमरे में ले गईं.

‘‘कहां मर गई थीं तुम? और अब अचानक कहां से प्रकट हो गईं? किसी ने देखा तो नहीं तुम्हें? तुम जानती भी हो कि तुम ने क्या किया है? हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. जितने मुंह उतनी ही बातें,’’ दामिनी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी.

‘‘मां, आप अवसर दो तो मैं सब विस्तार से बता दूं,’’ लता ने उन के प्रश्नों की गति पर विराम लगा दिया था.  लता ने जब सारा घटनाक्रम समझाया तो दामिनी की समझ में नहीं आया कि रोएं या हंसें.

‘‘मां, मंत्री महोदय निसंतान थे. अपनी संतान को उन्होंने अपना लिया. वे मुझ से विवाह करने को तैयार नहीं थे. अत: मैं उन्हें छोड़ आई.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रही हूं. तुम तो उन के हाथ की कठपुतली बन गईं. यह भी नहीं सोचा कि हम सब पर क्या बीतेगी?’’ दामिनी बिलख उठी थीं.

‘‘मां, संभालो स्वयं को. यह समय भावुक होने का नहीं है. मैं ने मंत्री महोदय से इतना धन ऐंठ लिया है जितना तुम ने देखा भी नहीं होगा. हम शीघ्र ही यह शहर छोड़ कहीं और जा बसेंगे. अपना जीवन नए सिरे से प्रारंभ करने के लिए.’’

दामिनी ने आंसू पोंछ डाले थे. लता के लिए चायनाश्ता बनाते समय वे एक नई कहानी गढ़ रही थीं जिस से लता के गायब होने और पुन: अवतरित होने की अभूतपूर्व घटना को तर्कसंगत बनाया जा सके.

Story In Hindi : अग्निपरीक्षा – श्रेष्ठा की जिंदगी में क्या तूफान आया?

Story In Hindi : जीवन प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत, मनोरम पहाड़ी रास्ता नहीं है क्या, जहां मानव सुख से अपनों के साथ प्रकृति के दिए उपहारों का आनंद उठाते हुए आगे बढ़ता रहता है.

फिर अचानक किसी घुमावदार मोड़ पर अतीत को जाती कोई संकरी पगडंडी उस की खुशियों को हरने के लिए प्रकट हो जाती है. चिंतित कर, दुविधा में डाल उस की हृदय गति बढ़ाती. उसे बीते हुए कुछ कड़वे अनुभवों को याद करने के लिए मजबूर करती.

श्रेष्ठा भी आज अचानक ऐसी ही एक पगडंडी पर आ खड़ी हुई थी, जहां कोई जबरदस्ती उसे बीते लमहों के अंधेरे में खींचने का प्रयास कर रहा था. जानबूझ कर उस के वर्तमान को उजाड़ने के उद्देश्य से.

श्रेष्ठा एक खूबसूरत नवविवाहिता, जिस ने संयम से विवाह के समय अपने अतीत के दुखदायी पन्ने स्वयं अपने हाथों से जला दिए थे. 6 माह पहले दोनों परिणय सूत्र में बंधे थे और पूरी निष्ठा से एकदूसरे को समझते हुए, एकदूसरे को सम्मान देते हुए गृहस्थी की गाड़ी उस खूबसूरत पहाड़ी रास्ते पर दौड़ा रहे थे. श्रेष्ठा पूरी ईमानदारी से अपने अतीत से बाहर निकल संयम व उस के मातापिता को अपनाने लगी थी.

जीवन की राह सुखद थी, जिस पर वे दोनों हंसतेमुसकराते आगे बढ़ रहे थे कि अचानक रविवार की एक शाम आदेश को अपनी ससुराल आया देख उस के हृदय को संदेह के बिच्छु डसने लगे.

श्रेष्ठा के बचपन के मित्र के रूप में अपना परिचय देने के कारण आदेश को घर में प्रवेश व सम्मान तुरंत ही मिल गया, सासससुर ने उसे बड़े ही आदर से बैठक में बैठाया व श्रेष्ठा को चायनाश्ता लाने को कहा.

श्रेष्ठा तुरंत रसोई की ओर चल पड़ी पर उस की आंखों में एक अजीब सा भय तैरने लगा. यों तो श्रेष्ठा और आदेश की दोस्ती काफी पुरानी थी पर अब श्रेष्ठा उस से नफरत करती थी. उस के वश में होता तो वह उसे अपनी ससुराल में प्रवेश ही न करने देती. परंतु वह अपने पति व ससुराल वालों के सामने कोई तमाशा नहीं चाहती थी, इसीलिए चुपचाप चाय बनाने भीतर चली गई. चाय बनाते हुए अतीत के स्मृति चिह्न चलचित्र की भांति मस्तिष्क में पुन: जीवित होने लगे…

वषों पुरानी जानपहचान थी उन की जो न जाने कब आदेश की ओर से एकतरफा प्रेम में बदल गई. दोनों साथ पढ़ते थे, सहपाठी की तरह बातें भी होती थीं और मजाक भी. पर समय के साथ श्रेष्ठा के लिए आदेश के मन में प्यार के अंकुर फूट पड़े, जिस की भनक उस ने श्रेष्ठा को कभी नहीं होने दी.

यों तो लड़कियों को लड़कों मित्रों के व्यवहार व भावनाओं में आए परिवर्तन का आभास तुरंत हो जाता है, परंतु श्रेष्ठा कभी आदेश के मन की थाह न पा सकी या शायद उस ने कभी कोशिश ही नहीं की, क्योंकि वह तो किसी और का ही हाथ थामने के सपने देख, उसे अपना जीवनसाथी बनाने का वचन दे चुकी थी.

हरजीत और वह 4 सालों से एकदूजे संग प्रेम की डोर से बंधे थे. दोनों एकदूसरे के प्रति पूर्णतया समर्पित थे और विवाह करने के निश्चय पर अडिग. अलगअलग धर्मों के होने के कारण उन के परिवार इस विवाह के विरुद्घ थे, पर उन्हें राजी करने के लिए दोनों के प्रयास महीनों से जारी थे. बच्चों की जिद और सुखद भविष्य के नाम पर बड़े झुकने तो लगे थे, पर मन की कड़वाहट मिटने का नाम नहीं ले रही थी.

किसी तरह दोनों घरों में उठा तूफान शांत होने ही लगा था कि कुदरत ने श्रेष्ठा के मुंह पर करारा तमाचा मार उस के सपनों को छिन्नभिन्न कर डाला.

हरजीत की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. श्रेष्ठा के उजियारे जीवन को दुख के बादलों ने पूरी तरह ढक लिया. लगा कि श्रेष्ठा की जीवननैया भी डूब गई काल के भंवर में. सब तहसनहस हो गया था. उन के भविष्य का घर बसने से पहले ही कुदरत ने उस की नींव उखाड़ दी थी.

इस हादसे से श्रेष्ठा बूरी तरह टूट गई  पर सच कहा गया है समय से बड़ा चिकित्सक कोई नहीं. हर बीतते दिन और मातापिता के सहयोग, समझ व प्रेमपूर्ण अथक प्रयासों से श्रेष्ठा अपनी दिनचर्या में लौटने लगी.

यह कहना तो उचित न होगा कि उस के जख्म भर गए पर हां, उस ने कुदरत के इस दुखदाई निर्णय पर यह प्रश्न पूछना अवश्य छोड़ दिया था कि उस ने ऐसा अन्याय क्यों किया?

सालभर बाद श्रेष्ठा के लिए संयम का रिश्ता आया तो उस ने मातापिता की इच्छापूर्ति के लिए तथा उन्हें चिंतामुक्त करने के उद्देश्य से बिना किसी उत्साह या भाव के, विवाह के लिए हां कह दी. वैसे भी समय की धारा को रोकना जब वश में न हो तो उस के साथ बहने में ही समझदारी होती है. अत: श्रेष्ठा ने भी बहना ही उचित समझा, उस प्रवाह को रोकने और मोड़ने के प्रयास किए बिना.

विवाह को केवल 5 दिन बचे थे कि अचानक एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई. आदेश जो श्रेष्ठा के लिए कोई माने नहीं रखता था, जिस का श्रेष्ठा के लिए कोई वजूद नहीं था एक शाम घर आया और उस से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की. श्रेष्ठा व उस के पिता ने जब उसे इनकार कर स्थिति समझाने का प्रयत्न किया तो उस का हिंसक रूप देख दंग रह गए.

एकतरफा प्यार में वह सोचने समझने की शक्ति तथा आदरभाव गंवा चुका था. उस ने काफी हंगामा किया. उस की श्रेष्ठा के भावी पति व ससुराल वालों को भड़का कर उस का जीवन बरबाद करने की धमकी सुन श्रेष्ठा के पिता ने पुलिस व रिश्तेदारों की सहायता से किसी तरह मामला संभाला.

काफी देर बाद वातावरण में बढ़ी गरमी शांत हुई थी. विवाह संपन्न होने तक सब के मन में संदेह के नाग अनहोनी की आशंका में डसते रहे थे. परंतु सभी कार्य शांतिपूर्वक पूर्ण हो गए.

बैठक से तेज आवाजें आने के कारण श्रेष्ठा की अतीत यात्रा भंग हुई और वह बाहर की तरफ दौड़ी. बैठक का माहौल गरम था. सासससुर व संयम तीनों के चेहरों पर विस्मय व क्रोध साफ झलक रहा था. श्रेष्ठा चुपचाप दरवाजे पर खड़ी उन की बातें सुनने लगी.

‘‘आंटीजी, मेरा यकीन कीजिए मैं ने जो भी कहा उस में रत्तीभर भी झूठ नहीं है,’’ आदेश तेज व गंभीर आवाज में बोल रहा था. बाकी सब गुस्से से उसे सुन रहे थे.

‘‘मेरे और श्रेष्ठा के संबंध कई वर्ष पुराने हैं. एक समय था जब हम ने साथसाथ जीनेमरने के वादे किए थे. पर जैसे ही मुझे इस के गिरे चरित्र का ज्ञान हुआ मैं ने खुद को इस से दूर कर लिया.’’

आदेश बेखौफ श्रेष्ठा के चरित्र पर कीचड़ फेंक रहा था. उस के शब्द श्रेष्ठा के कानों में पिघलता शीशी उड़ेल रहे थे.

आदेश ने हरजीत के साथ रहे श्रेष्ठा के पवित्र रिश्ते को भी एक नया ही

रूप दे दिया जब उस ने उन के घर से भागने व अनैतिक संबंध रखने की झूठी बात की. साथ ही साथ अन्य पुरुषों से भी संबंध रखने का अपमानजनक लांछन लगाया. वह खुद को सच्चा साबित करने के लिए न जाने उन्हें क्याक्या बता रहा था.

आदेश एक ज्वालामुखी की भांति झूठ का लावा उगल रहा था, जो श्रेष्ठा के वर्तमान को क्षणभर में भस्म करने के लिए पर्याप्त था, क्योंकि हमारे समाज में स्त्री का चरित्र तो एक कोमल पुष्प के समान है, जिसे यदि कोई अकारण ही चाहेअनचाहे मसल दे तो उस की सुंदरता, उस की पवित्रता जीवन भर के लिए समाप्त हो जाती है. फिर कोई भी उसे मस्तक से लगा केशों में सुशोभित नहीं करता है.

श्रेष्ठा की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. क्रोध, भय व चिंता के मिश्रित भावों में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हृदय की धड़कन तेज दौड़तेदौड़ते अचानक रुक जाएगी.

‘‘उफ, मैं क्या करूं?’’

उस पल श्रेष्ठा के क्रोध के भाव 7वें आसमान को कुछ यों छू रहे थे कि यदि कोई उस समय उसे तलवार ला कर दे देता तो वह अवश्य ही आदेश का सिर धड़ से अलग कर देती. परंतु उस की हत्या से अब क्या होगा? वह जिस उद्देश्य से यहां आया था वह तो शायद पूरा हो चुका था.

श्रेष्ठा के चरित्र को ले कर संदेह के बीज तो बोए जा चुके थे. अगले ही पल श्रेष्ठा को लगा कि काश, यह धरती फट जाए और वह इस में समा जाए. इतना बड़ा कलंक, अपमान वह कैसे सह पाएगी?

आदेश ने जो कुछ भी कहा वह कोरा झूठ था. पर वह यह सिद्घ कैसे करेगी? उस की और उस के मातापिता की समाज में प्रतिष्ठा का क्या होगा? संयम ने यदि उस से अग्निपरीक्षा मांगी तो?

कहीं इस पापी की बातों में आ कर उन का विश्वास डोल गया और उन्होंने उसे अपने जीवन से बाहर कर दिया तो वह किसकिस को अपनी पवित्रता की दुहाई देगी और वह भी कैसे? वैसे भी अभी शादी को समय ही कितना हुआ था.

अभी तो वह ससुराल में अपना कोई विशेष स्थान भी नहीं बना पाई थी. विश्वास की डोर इतनी मजबूत नहीं हुई थी अभी, जो इस तूफान के थपेड़े सह जाती. सफेद वस्त्र पर दाग लगाना आसान है, परंतु उस के निशान मिटाना कठिन. कोईर् स्त्री कैसे यह सिद्घ कर सकती है कि वह पवित्र है. उस के दामन में लगे दाग झूठे हैं.

जब श्रेष्ठा ने सब को अपनी ओर देखते हुए पाया तो उस की रूह कांप उठी. उसे लगा सब की क्रोधित आंखें अनेक प्रश्न पूछती हुई उसे जला रही हैं. अश्रुपूर्ण नयनों से उस ने संयम की ओर देखा. उस का चेहरा भी क्रोध से दहक रहा था. उसे आशंका हुई कि शायद आज की शाम उस की इस घर में आखिरी शाम होगी.

अब आदेश के साथ उसे भी धक्के दे घर से बाहर कर दिया जाएगा. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि ये सब झूठ है. वह पवित्र है. उस के चरित्र में कोई खोट नहीं कि तभी उस के ससुरजी अपनी जगह से उठ खड़े हुए.

स्थिति अधिक गंभीर थी. सबकुछ समझ और कल्पना से परे. श्रेष्ठा घबरा गई कि अब क्या होगा? क्या आज एक बार फिर उस के सुखों का अंत हो जाएगा? परंतु उस के बाद जो हुआ वह तो वास्तव में ही कल्पना से परे था. श्रेष्ठा ने ऐसा दृश्य न कभी देखा था और न ही सुना.

श्रेष्ठा के ससुरजी गुस्से से तिलमिलाते हुए खड़े हुए और बेकाबू हो उन्होंने आदेश को कस कर गले से पकड़ लिया, बोले, ‘‘खबरदार जो तुमने मेरी बेटी के चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश भी की तो… तुम जैसे मानसिक रोगी से हमें अपनी बेटी का चरित्र प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. निकल जाओ यहां से… अगर दोबारा हमारे घर या महल्ले की तरफ मुंह भी किया तो आगे की जिंदगी हवालात में काटोगे.’’

फिर संयम और ससुर ने आदेश को धक्के दे कर घर से बाहर निकाल दिया. ससुरजी ने श्रेष्ठा के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘घबराओ नहीं बेटी. तुम सुरक्षित हो. हमें तुम पर विश्वास है. अगर यह पागल आदमी तुम्हें मिलने या फोन कर परेशान करने की कोशिश करे तो बिना संकोच तुरंत हमें बता देना.’’

सासूमां प्यार से श्रेष्ठा को गले लगा चुप करवाने लगीं. सब गुस्से में थे पर किसी ने एक बार भी श्रेष्ठा से कोई सफाई नहीं मांगी.

घबराई और अचंभित श्रेष्ठा ने संयम की ओर देखा तो उस की आंखें जैसे कह रही थीं कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. मेरा विश्वास और प्रेम इतना कमजोर नहीं जो ऐसे किसी झटके से टूट जाए. तुम्हें केवल नाम के लिए ही अर्धांगिनी थोड़े माना है जिसे किसी अनजान के कहने से वनवास दे दूं.

तुम्हें कोई अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता नहीं. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं और रहूंगा. औरत को अग्निपरीक्षा देने की जरूरत नहीं. यह संबंध प्यार का है, इतिहास का नहीं.

श्रेष्ठा घंटों रोती रही और आज इन आंसुओं में अतीत की बचीखुची खुरचन भी बह गई. हरजीत की मृत्यु के समय खड़े हुए प्रश्न कि यह अन्याय क्यों हुआ, का उत्तर मिल गया था उसे.

पति सदासदा के लिए अपना होता है. उस पर भरोसा करा जा सकता है. पहले क्या हुआ पति उस की चिंता नहीं करते उस का जीवन सफल हो गया था.

पुराणों के देवताओं से कहीं ज्यादा श्रेष्ठकर संयम की संगिनी बन कर सासससुर के रूप में उच्च विचारों वाले मातापिता पा कर स्त्री का सम्मान करने वाले कुल की बहू बन कर नहीं, बेटी बन कर उस रात श्रेष्ठा तन से ही नहीं मन से भी संयम की बांहों में सोई. उसे लगा कि उस की असल सुहागरात तो आज है. Story In Hindi

लेखिका : प्रिया रानी 

Hindi Stories Love : सफर में हमसफर – सुमन को कैसे मिल गया सफर में उस का हमसफर

Hindi Stories Love : रात के तकरीबन 8 बजे होंगे. यों तो छोटा शहर होने पर सन्नाटा पसरा रहता है, पर आज भारतपाकिस्तान का क्रिकेट मैच था, तो काफी भीड़भाड़ थी. वैसे तो सुमन के लिए कोई नई बात नहीं थी. यह उस का रोज का ही काम था.

‘‘मैडम, झकरकटी चलेंगी क्या?’’

सुमन ने पलट कर देखा. 3-4 लड़के खड़े थे.

‘‘कितने लोग हो?’’

‘‘4 हैं हम.’’

‘‘ठीक है, बैठ जाओ,’’ कहते हुए सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया.

सुमन ने एक ही नजर में भांप लिया था कि वे सब किसी कालेज के लड़के हैं. सभी की उम्र 20-22 साल के आसपास होगी. आज सुबह से सवारियां भी कम मिली थीं, इसलिए सुमन ने सोचा कि चलो एक आखिरी चक्कर मार लेते हैं, कुछ कमाई हो जाएगी और शकील चाचा को टैक्सी का किराया भी देना था.

अभी कुछ ही दूर पहुंच थे कि लड़कों ने आपस में हंसीमजाक और फब्तियां कसना शुरू कर दिया.

तभी उन में से एक बोला, ‘‘यार, तुम ने क्या बैटिंग की… एक गेंद में छक्का मार दिया.’’

‘‘हां यार, क्या करें, अपनी तो बात ही निराली है. फिर मैं कर भी क्या सकता था. औफर भी तो सामने से आया था,’’ दूसरे ने कहा.

‘‘हां, पर कुछ भी कहो, कमाल की लड़की थी,’’ तीसरा बोला और सब एकसाथ हंसने लगे.

सुमन ने अपने ड्राइविंग मिरर से देखा कि वे सब बात तो आपस में कर रहे थे, पर निगाहें उसी की तरफ थीं. उस ने ऐक्सलरेटर बढ़ाया कि जल्दी ही मंजिल पर पहुंच जाएं. पता नहीं, क्यों आज सुमन को अपनी अम्मां का कहा एकएक लफ्ज याद आ रहा था.

पिताजी की हादसे में मौत हो जाने के चलते उस के दोनों बड़े भाइयों ने मां की जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया था.

सुमन ग्रेजुएशन भी पूरी न कर पाई थी, मगर रोजरोज के तानों से तंग आ कर वह भाइयों का घर छोड़ कर अपने पुराने घर में अम्मां को साथ ले कर रहने आ गई, जहां से अम्मां ने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी और उस बंगले को भाईभाभी के लिए छोड़ दिया.

ऐसा नहीं था कि भाइयों ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की, पर सिर्फ एक दिखावे के लिए.

अम्मां और सुमन आ तो गए उस मकान में, पर कमाई का कोई जरीया न था. कितने दिनों तक बैठ कर खाते वे दोनों?

मुनासिब पढ़ाई न होने के चलते सुमन को नौकरी भी नहीं मिली. तब पिताजी के करीबी दोस्त शकील चाचा ने उन की मदद की और बोले, ‘तुम पढ़ने के साथसाथ आटोरिकशा भी चला सकती हो, जिस से तुम्हारी पैसों की समस्या दूर होगी और तुम पढ़ भी लोगी.’

पर जब सुमन ने अम्मां को बताया, तो वे बहुत गुस्सा हुईं और बोलीं, ‘तुम्हें पता भी है कि आजकल जमाना कितना खराब है. पता नहीं, कैसीकैसी सवारियां मिलेंगी और मुझे नहीं पसंद कि तुम रात को सवारी ढोओ.’

‘ठीक है अम्मां, पर गुजारा कैसे चलेगा और मेरे कालेज की फीस का क्या होगा? मैं रात के 8 बजे के बाद आटोरिकशा नहीं चलाऊंगी.’

कुछ देर सोचने के बाद अम्मां ने हां कर दी. अब सुमन को आटोरिकशा से कमाई होने लगी थी. अब वह अम्मां की देखभाल अच्छे से करती और अपनी पढ़ाई भी करती.

सबकुछ ठीक से चलने लगा, पर आज का मंजर देख कर सुमन को लगने लगा कि अम्मां की बात न मान कर गलती कर दी क्या? कहीं कोई ऊंचनीच हो गई, तो क्या होगा…

तभी अचानक तेज चल रहे आटोरिकशा के सामने ब्रेकर आ जाने से झटका लगा और सुमन यादों की परछाईं से बाहर आ गई.

‘‘अरे मैडम, मार ही डालोगी क्या? ठीक से गाड़ी चलाना नहीं आता, तो चलाती क्यों हो? वही काम करो, जो लड़कियों को भाता है,’’ एक लड़के ने कहा.

तभी दूसरा बोला, ‘‘बैठ यार रोहित. ठीक है, हो जाता है कभीकभी.’’

‘‘सौरी सर…’’ पसीना पोंछते हुए सुमन बोली. अभी वे कुछ ही दूर चले

थे कि उन में से चौथा लड़का बोला, ‘‘हैलो मैडम, मैं विकास हूं. आप का क्या नाम है?’’

सुमन ने डरते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुमन है.’’

‘‘पढ़ती हो?’’

‘‘बीए में.’’

‘‘कहां से?’’

‘‘जेएनयू से.’’

‘‘ओह, तभी मुझे लग रहा है कि मैं ने आप को कहीं देखा है. मैं वहां लाइब्रेरी में काम करता हूं,’’ वह लड़का बोला.

‘‘अच्छा… पर मैं ने तो आप को कभी नहीं देखा,’’ सुमन बेरुखी से बोली.

तभी सारे लड़के खिलखिला कर हंस दिए.

रोहित बोला, ‘‘क्या लाइन मार रहा है? ऐ लड़की, जरा चौराहे से लैफ्ट ले लेना, वहां से शौर्टकट है.’’

चौराहे से मुड़ते ही सुमन के होश उड़ गए. वह रास्ता तो एकदम सुनसान था. सुमन ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘पहले वाला रास्ता तो काफी अच्छा था, पर यह तो…’’

‘‘नहीं, हम को तुम उसी रास्ते से ले चलो,’’ रोहित बोला.

अब तो सुमन का बड़ा बुरा हाल था. उस के हाथपैर डर से कांप रहे थे. आज सुमन को अम्मां की एकएक बात सच होती दिख रही थी. अम्मां कहती थीं कि इतिहास में औरतें दर्ज कम, दफन ज्यादा हुई हैं. वे रहती पिंजरे में ही हैं, बस उन के आकार और रंग अलग होते हैं. समाज को औरतों का रोना भी मनोरंजन लगता है. हम औरतों को चेहरे और जिस्म के उतारचढ़ाव से देखा और पहचाना जाता है, इसलिए तुम यह फैसला करने से पहले सोच लो…

तभी पीछे से उन में से एक लड़के ने अपना हाथ सुमन के कंधे पर रखा और बोला, ‘‘जरा इधर से राइट चलना. हमें पैसे निकालने हैं.’’

सुमन की तो जैसे सांस ही हलक में अटक गई. उस का पूरा शरीर एक सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ा गया.

सुमन ने कहा, ‘‘आप लोगों ने आटोरिकशा नहीं खरीदा है. मैं अब झकरकटी में ही छोड़ूंगी, नहीं तो मैं आप सब को यहीं उतार कर वापस चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे वापस चली जाओगी तुम?’’ रोहित ने पूछा.

‘‘क्या बोला?’’ सुमन ने अपनी आवाज में भारीपन ला कर कहा.

‘‘अरे, मैं यह कह रहा हूं कि इतनी रात को सुनसान जगह में हम सभी कहां भटकेंगे. हमें आप सीधे झकरकटी ही छोड़ दो,’’ रोहित बोला.

‘‘ठीक है… अब आटोरिकशा सीधा वहीं रुकेगा,’’ सुमन बोली.

सुमन के जिंदा हुए आत्मविश्वास से उन का सारा डर पानी में पड़ी गोलियों की तरह घुल गया. उसे लगा कि उस के चारों ओर महकते हुए शोख लाल रंग खिल गए हों और वह उन्हें दुनिया के सामने बिखेर देना चाहती है. अभी तो उस के सपनों की उड़ान बाकी थी, फिर भी उस ने दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और सामने दिखे एटीएम पर आटोरिकशा रोक दिया.

विकास हैरानी से सुमन के चेहरे पर आतेजाते भाव को अपलक देखे जा

रहा था. सुमन इस से बेखबर गाड़ी का मिरर साफ करती जा रही थी. वह पैसा निकाल कर आ गया और सभी फिर चल पड़े.

बमुश्किल एक किलोमीटर ही चले होंगे, तभी सुमन को सामने खूबसूरत सफेद हवेली दिखाई दी. आसपास बिलकुल वीरान था, पर एक फर्लांग की दूरी पर पान की दुकान थी और मैच भी अभीअभी खत्म हुआ था. भारत की जीत हुई थी. सब जश्न मना कर जाने की तैयारी में थे.

सुमन ने हवेली से थोड़ी दूर और पान की दुकान से थोड़ा पहले आटोरिकशा रोक दिया. सभी वहां झूमते हुए उतर गए, पर विकास वहीं खड़ा उसे देख रहा था.

सुमन गुस्से से बोली, ‘‘ऐ मिस्टर… क्या देख रहे हो? क्या कभी लड़की नहीं देखी?’’

‘‘देखी तो बहुत हैं, पर तुम्हारी सादगी और हिम्मत का दीवाना हो गया यह दिल…’’ विकास बोला.

उन सब लड़कों ने खूब शराब पी रखी थी. तभी उस में से एक लड़के ने पीछे मुड़ कर देखा कि विकास वहीं खड़ा है और उसे पुकारते हुए सभी उस के पास वापस आने लगे.

यह देख सुमन घबरा गई. उधर पान वाला भी दुकान पर ताला लगा कर जाने वाला था.

सुमन तेजी से पलट कर जाने लगी, मगर विकास ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया और घुटनों के बल बैठ कर बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

यह सुन कर सारे दोस्त ताली बजाने लगे. गहराती हुई रात और चमकते हुए तारों की झिलमिल में विकास की आंखों में सुमन को प्यार की सचाई नजर आ रही थी.

पता नहीं, क्यों सुमन को विकास पर ढेर सारा प्यार आ गया. शायद इस की वजह यह रही होगी कि बचपन से एक लड़की प्यार और इज्जत से दूर रही हो.

सुमन अपने जज्बातों पर काबू पाते हुए बोली, ‘‘चलो, कल कालेज में मिलते हैं. तब तक तुम्हारा नशा भी उतर जाएगा.’’

तभी उन में से एक लड़का बोला, ‘‘सुमन, हम ने शराब जरूर पी रखी है, पर अपने होश में हैं. हम इतने नशे में भी नहीं हैं कि यह न समझ पाएं कि औरत का बदन ही उस का देश होता है और हमारे देश में हमेशा से औरतों की इज्जत की जाती रही है. चंद खराब लोगों की वजह से सारे लोग खराब नहीं होते.’’

सुमन मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो… कल मिलते हैं कालेज में.’’

इस के बाद सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया, मगर उसे ऐसा लग रहा था जैसे चांदसितारे और बदन को छूती ठंडी हवा उस के प्यार की गवाह बन गए हों और वह इस छोटे से सफर में मिले हमसफर के ढेरों सपने संजोए और खुशियां बटोरे अपने घर चल दी. Hindi Stories Love

Social Story : ऐतिहासिक कहानी – समर्पणा

Social Story : आंखें मलमल कर उस ने देखा है तो वही. पर यह कैसे संभव है…?

आश्चर्य, हर्ष व उत्साह से उल्लासित जया के कदमों में मानो पर लग गए. वह राजभवन की घुड़साल, पशुशाला, रसोई, स्नानागार व वाटिकाओं को पार कर ऊपरी मंजिल में स्थित अपनी कोठरी में जा घुसी. दूसरे ही पल एक कपड़े की पुटलिया हाथ में थामे आंध्र देश के वारंगल की जनानी ड्योढी में ‘महाराज रुद्र’ के सम्मुख खड़ी थी.

धोंकनी सी चलती अपनी सांसों को मुश्किल से नियंत्रित कर उस ने कहा, ‘आप इन्हें धारण कर लीजिए. अपने महाराज वीरभद्र शीघ्र पधार रहे हैं.’

उस के नयनों में अनोखी चमक थी. उस के होंठों पर हलकी मुसकराहट अठखेलियां कर रही थी. कपड़े की पुटलिया में रुद्रंबा को अपनी चमचम करती स्वर्णा पाजेब. सोने के ही बिछुए, मंगलसूत्र, रत्नों के कई बहुमूल्य हार, मांग भरने की सिंदूर की सुनहरी डिबिया व रत्नचूर्ण से निर्मित माथे की बिंदी, कंगन आदि अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. ‘जयलक्ष्मी, तू मेरी दासी नहीं मुंहबोली बहन है, पर क्या ऐसी हंसीठिठोली तेरे लिए उचित है?’ रुद्रंबा का स्वर तीखा था.

‘तू भूल गई क्या कि हम सब ने आज से 3 महीने पहले महाराज वीरभद्र के मृत तन को अग्निचिता में सुला दिया था और उन के अंतिम चिन्हों को कृष्णा की उत्ताल लहरों में बहा कर, उन्हें अश्रुपूर्ण विदा भी दी थी? और तू कह रही है कि वे जीवित आ रहे हैं?’ रुद्रंबा रुंधे गले से बोली.

‘महादेवी, मेरा एक भी बोल झूठा हो तो दीवार पर लटकी इस चाबुक से मेरी गरदन काट कर घूरे में फेंक दीजिए. और लीजिए, इस खिड़की से स्वयं झांक लीजिए कि मैं सत्य से कितनी निकट या दूर हूं,’

रुद्रंबा ने तेजी से उठ कर वातायन से झांका. अपलक वह देखती ही रह गई. सचमुच महाराज वीरभद्र को कांधे पर बैठाए कई व्यक्तियों की भीड़ गोलकुंडा के मुख्य राजभवन के प्रमुख द्वार की ओर उमड़ रह थी. बिलकुल सामने सूर्य की लालिमा सारे जग में सिंदूर बिखेर रही थी. कई पक्षियों के नियमबद्ध झुंडों ने इसी पल आसमान में किलोल करते हुए खुशी का इजहार किया.

रुद्रंबा की दृष्टि सहसा अपने वर्तमान विधवा वेश पर गई. श्वेत परिधान, सूखे केश व रंगहीन मुख को परिवर्तित कर वह थोड़े समय के ही बाद माथे पर मुकुट, राजसी वस्त्रों, अनगिनत गले की माल और चमचमाते बंद, गले के उत्तरीय और रत्नजटित पगरखियों को पहन कर गोलकुंडा की ‘रुद्र महाराज’ के रूप में सिंहासनारूढ़ हो जाएगी.

60 वर्ष तक गोलकुंडा पर राज कर उस के पिता गणपति ने ही उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में राज्य सिंहासन पर बैठाते हुए उसे न केवल सदैव पुरुष वेश धारण करते रहने, अपितु जनता को भी उसे हमेशा ‘रुद्र महाराज’ के रूप में संबोधित करने का आदेश दिया था.

रुद्रंबा उस पल को याद करते हुए अचानक सोचने लगी कि पुरुषों के उस के समाज ने नारी जाति को कितना अपमानित किया है? एक ‘पति’ नामधारी प्राणी से पुट लिया की इन सब वस्तुओं का महत्व है, अन्यथा इन्हें किसी कोने में या कहीं भी रख देने में इन की सार्थकता है. यही नहीं, कहीं तो स्वर्ग सिधारे पति की चिता में ही एक-दो नहीं, बल्कि हजारों उस की रानियों और उपपत्नियों को जीवित बैठा कर भी समाज आनंदित हो जाता है क्या?

‘नहीं जया, मैं इन्हें धारण कर अपने नारीत्व का मखौल नहीं उड़ाऊंगी. एक बात बता यदि मैं इन सब से सज्जित हो कर उन के सामने चली भी गई तो क्या उन्हें यह विश्वास नहीं हो जाएगा कि मैं उन की अनुपस्थिति में भी इसी सधवा वेश में आनंदित रहती थी? तब क्या उन के पुरुषत्व पर ठेस नहीं लगेगी?’

‘मैं अपढ़ आप की ऊंचीऊंची बातें क्या समझूं? मेहरबानी कर आप इन्हें अवश्य धारण करें. आप को मेरी कसम. अन्यथा आप मेरा मरा मुंह देखें, यदि इन्हें आप ने अभी धारण नहीं किया,’ जया कक्ष के एक कोने में मुंह सुजा कर जा बैठी.

‘ओह जया. अपनी कसम दे कर तू ने मुझे किस उलझन में डाल दिया. चल, तेरी खुशी के लिए मैं इन्हें धारण कर लेती हूं- अपनी बहन के लिए मैं हृदय पर पत्थर रख कर फिर से सधवा बन जाती हूं. जा, जा कर स्वागत की भाली सजा…

वैसे, तू सुन ले. ‘रुद्र महाराज’ राज्य की संप्रभु हैं. उन का स्थान सर्वोच्च है. साधारण कानून उस पर लागू नहीं हो सकते. हां, सधवा रुद्र राजमहल से बाहर तो जाएगी नहीं.

प्रमुदित जया दौड़ पड़ी. उस ने अपने हाथों में तुरतफुरत रुद्रंबा का सिंगार किया और उन्हें पुटलिया की वस्तुओं के अतिरिक्त भी कई सिंगारिक उपकरणों से विभूषित कर दिया.

एकांत में रुद्रंबा ने पति से प्रश्न किया कि आखिर वे 3 महीने कहां रहे? वे क्यों गायब हो गए थे?

वीरभद्र ने उसे बताया कि एक राजसी अश्व पर आरूढ़ वह वारंगल के जंगलों में शिकार के लिए निकला था. शिकार कोई नहीं मिला. लौटते हुए निद्रित अवस्था में उस का अश्व गोलकुंडा से निकल कर उत्तरपश्चिम दिशा में देर्वागति की सीमा में पहुंच गया, यह उसे ज्ञात नहीं हुआ. अचानक उसे कई सैनिकों ने घेर लिया. उसे बंदी बना कर देवगिरि के शासक सिंघणा के सम्मुख ले जाया गया. सीमोल्लंघन के अपराध में उसे 3 महीने तक बंदीगृह में काटने पड़े.

पर, तुम सावधान हो जाओ, क्योंकि वहां मुझ से कोई परिचित तो था नहीं. अत: मैं ने जब अपनेआप को गोलकुंडा राजमहल का एक सेवक घोषित किया, तो जानती हो सिंघणा ने मुझ से क्या कहा? उस ने भरे दरबार में मुझे धमकी दी कि बहुत शीघ्र वह एक कमजोर नारी द्वारा संचालित गोलकुंडा पर आक्रमण कर, उसे देवगिरि का एक अंग बना लेगा.

वीरभद्र ने मानो सोते हुए सांप पर पैर रख दिया. रुद्रंबा फुफकार कर बोली, ‘आने दो सिंघणा को यहां. उसे ज्ञात हो जाएगा कि पिछले वर्षों में मैं ने यहां राज किया है, कोरा अभिनय नहीं. युद्धस्थल में मैं ने मदुरा के शासकों व उड़ीसा के गंगों को जैसे शिकस्त दी थी, सिंघणा भी मेरे हाथों, एक नारी द्वारा बुरी तरह परास्त ही होगा.’

रुद्रंबा का मस्तिष्क वीरभद्र से बात करते हुए भी पूरी तरह यह मंथ रहा था कि आखिर गोलकुंडा में वीरभद्र के स्थान पर किस की अन्येष्टि की गई. दोष किस का रहा?

जया को जब उस ने अपने पति से हुई वार्तालाप की बातें बताईं तो उस का भी यही प्रश्न था कि राजकीय सम्मान के साथ महाराज वीरभद्र के स्थान पर किसे अंत्येष्टि का लाभ मिला और क्यों?

‘रुद्र महाराज’ के आदेश पर राज्य प्रधान भागता चला आया. तनिक कठोरता दिखाने पर उस ने स्वीकार कर लिया कि उस के किसी कर्मचारी ने किसी ऐसे व्यक्ति की अंतिम क्रिया करा दी, जिस का क्षतविक्षत तन, जिस का खून किया गया था, महाराज वीरभद्र से बहुत मिलताजुलता था.

रुद्रंबा ने तुरंत राज्य प्रधानी को जीवनभर के लिए बंदीगृह में डाल दिया. मूल उत्तरदायित्व उसी का था, कर्मचारी का नहीं.

रुद्रंबा द्वारा रुद्र महाराज का चोला धारणा कर लेने से वीरभद्र से उस के संबंधों में अनजाने ही एक गंभीर दरार पैदा हो गर्ई थी. वीरभद्र कभी राज्य सिंहासन पर रुद्रंबा का साथ नहीं दे सकता था क्योंकि दो पुरुष एक सिंहासन पर कैसे बैठते? सामान्य संबंधों में भी रुद्र महाराज संपूर्णा गोलकुंडा सहित अपने पति की भी ‘महाराज’ थी. उस के पति को भी उसे अपनी शासिका स्वीकारना चाहिए. यह भाव उसे पति से विलग करता गया. वीरभद्र ने भी इसे अपनी नियति मान कर अपनेआप को निम्नतर व उपेक्षित बना लिया. अत: वे दोनों अनजान बनते गए.

जब पतिपत्नी में एकसमान धरातल, सहजता व बराबरी न हो तो दोनों में सामंजस्य कठिन है. वीरभद्र व रुद्रंबा के विवाह बाद से ही ऐसे संबंध थे. पति को पुन: पा कर रुद्रंबा ने यद्यपि हर्ष व आनंद का प्रदर्शन किया, पर उस के मन में तार जया के प्रयासों के उपरांत भी झंकृत नहीं हो सके थे.

वीरभद्र ने देवगिरि से लौटने के पश्चात बातों ही बातों में रुद्रंबा से कहा, ‘रुद्र, तुम्हें विश्वास हो या नहीं, पर मैं तुम्हें मन से चाहता हूं, तुम्हारी मैं पूजा करता हूं. इन तीन महीनों में एकदूसरे से दूर रहने के कारण मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति प्रेम की चिंगारी और भी तीव्र हो चुकी है.’

रुद्रंबा कुछ बोली नहीं, पर मन ही मन वह हंस पड़ी.

समय का रथ स्वाभाविक गति से चलता गया. अचानक एक दिन सिंघणा अपनी विशाल सेना ले कर वारंगल में आ धमका. उस का मंतव्य वारंगल को हस्तगत कर गोलकुंडा का विलय देवगिरि में करना था.

पूर्व की भांति रुद्र महाराज ने काकतीय सैनिकों को ललकारा. उन का नेतृत्व करते हुए उस ने उन्हें अपनी व राष्ट्र की स्वाधीनता को अक्षुण्य रखने की प्रेरणा दी. जनसाधारण ने अपनी शासिका की पूर्व युद्ध प्रवीणता को याद कर उसे युद्ध के लिए भावभीनी विदाई दी.

रुद्रंबा शत्रु पर टूट पड़ी. युद्ध भयानक हुआ. इस में रुद्र महाराज की फुरती व सक्रियता दर्शनीय थी. सिंघणा जिसे बच्चों का खेल मान रहा था, उस के विपरीत नारी की सेना का सामना करने में उसे पसीने छूट गए. स्थिति ऐसी हुई कि गोलकुंडा के बहादुर सैनिकों ने देवगिरि को बुरी तरह परास्त कर दिया. सिंघणा को प्राण बचा कर भागना पड़ा. पीठ दिखाने के बाद भी सिंघणा ने देवगिरि में जा कर घोषित किया कि नारी शासिका को अभयदान दे कर वह लौट आया है. चाटुकारों ने उस की बात का समर्थन किया.

रुद्रंबा की भूल यही थी कि उस ने भागते शत्रु का पीछा नहीं किया. उस का कहना था, ‘पीठ दिखाने वाले शत्रु का पीछा करना नैतिकता का प्रतिकार है.’

विजयी रुद्र महाराज का वारंगल की जनता ने अभूतपूर्व स्वागत किया. उसे न केवल पुष्पमालाओं, प्रत्युत्त बहुमूल्य उपहारों से लाद दिया गया. रात्रि में घरघर में दीपमालिका जैसे जगमगाहट हुई.

इस सम्मान से अभिभूत जया की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं था. उस ने अपनी रानी की अपने ढंग से राजमहल में अगवानी की. रुद्रंबा के तन के घावों को हाथों से संभाल कर धोते हुए उन पर वैद्यजी के परामर्श के अनुसार उस ने कई प्रकार की जड़ीबूटियों का लेप किया.

उसे पलंग पर सावधानी से लिटाते हुए जया अचानक बोली, ‘महाराज, आप को एक गुप्त बात भी मुझे बतानी है.’ उस ने फुसफुसा कर उस के कान में जो बात बताई, उस से रुद्रंबा विस्मित हो कर मौन हो गई. तत्काल उस ने प्रश्न किया, ‘तुझे किस ने बताया?’

‘मुझे कौन बताता, मैं ने अपने ही हाथों में सैनिक वेश उन्हें दिया था.’

‘सच…? तो छोड़ मेरे घावों को. लालटेन उठा व चल मेरे साथ,’ जया ने आज्ञा का पालन किया. वे दोनों युद्ध स्थल में पहुंची. वहां वे एकएक मृत व्यक्ति का मुख लालटेन के प्रकाश में टटोलती रहीं. अचानक जया बोली, ‘महाराज, ये रहा उन का तन. गले में डाली इस विशेष गलमाल को मैं ने विदा लेते समय डाली थी.

रुद्रंबा जड़ खड़ी रह. इस सैनिक वेशधारी की युद्ध प्रवीणता की तो रुद्रंबा ने युद्धकाल में ही खूब प्रशंसा की थी. पर ये वे होंगे, यह उस की कल्पना के परे था.

तभी उसे युद्धकाल की वह घटना भी याद आ गई. ‘जया, इन्होंने तो आज मेरे प्राण भी बचाए थे. एक सैनिक का तीर न जाने किधर से आ कर मेरे तन के आरपार होने को था, पर इन्होंने अपने अश्व से उतर कर उस तीर को अपनी छाती पर ले लिया. मैं तो स्वयं अपने प्राणरक्षक को ढूंढ़ रही थी. ओह, जया…

अपने प्राणी का उत्सर्ग कर, मेरे पति ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मुझ मूर्ख को देखो कि मैं ने यह बताने पर भी कि ये मुझे प्राणों से अधिक चाहते हैं, मैं ने उन की बात सुनीअनसुनी कर दी.

मृत पति वीरभद्र का मुख अपने दोनों हाथों में थाम कर, उस पर निर्मल अश्रुओं की झड़ी लगा कर उन के मुख को उस ने धो डाला.

जया तो खड़ीखड़ी तीव्र विलाप कर रही थी, तभी अपने पीछे खड़े एक बीस वर्षीय युवक के बोल रुद्रंबा को सुनाई दिए, ‘नानी, मैं तो आप को ही अब तक अपनी प्रेरणा का पुंज मानता था, पर नाना के अमर बलिदान ने तो मुझे हिला ही डाला.’  प्रताप रुद्र, रुद्रंबा का धेवता आंसू पोंछता हुआ बोल उठा.

इसी समय मुमम्मा, रुद्रंबा की बेटी ने वीरभद्र के चरणों से सिर उठा कर कहा, ‘अम्मां, तुम ने पिताजी की बहुत उपेक्षा की है, पर देखो, उन के मुख पर कितनी प्रखर ओज है इस समय?’

रुद्रंबा क्या प्रत्युत्तर देती? उस के अनवरत अश्रु ही मौन उत्तर दे रहे थे.

‘नाना के मृत तन के सम्मुख मैं शपथ लेता हूं कि आप दोनों की प्रसिद्धि को मैं आंच नहीं आने दूंगा- आप दोनों की प्रतिष्ठा को मैं बनाए रखूंगा.’

अगले चार वर्षों के पश्चात पूरे 34 वर्ष शासन करने के पश्चात जब रुद्र महाराज ने 1289 में अंतिम सांस ली, तो गोलकुंडा चतुर्दिक उन्नति कर चुका था.

रुद्र महाराज की बेटी मुमम्मा ने अपनी मां की इच्छानुसार गोलकुंडा का शासन संभाला, पर उस ने थोड़े समय के ही पश्चात सिंहासन अपने बेटे प्रताप रुद्र को सौंप दिया.

प्रताप रुद्र ने नानी के सम्मुख से ही अश्व संचालन, युद्धकला व शासन के दांवपेच सीखे थे. इसलिए वह काकतीयों का सफलतम व अत्यंत प्रतिभाशाली शासक सिद्ध हुआ. उस ने तो अपने काल में मलिक काफूर व दिल्ली की सेना को भी करारी शिकस्त दी. पूरे दक्षिण भारत को रोंद देने वाले काफूर की गति गोलकुंडा में आ कर प्रताप रुद्र के सामने इतनी कमजोर हो गई कि दिल्ली को गोलकुंडा से समझौता कर के ही किसी प्रकार अपने प्राण बचाने पड़े.

प्रताप अपनी नानी रुद्रंबा का अत्यंत आभारी था, जिस ने उसे प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत बनाया. इस से पूर्ण भारत में कश्मीर में यशोवती, दिद्दा व सुगंध, पूर्वी चालुक्यों में विजयामहादेवी, कदंबों में दिवा भारसी और उड़ीसा की भौमकार वंशीय पृथ्वी, दंडी, धर्मा व बैकुंला महादेवी कोई भी उत्तराधिकारी न होने अथवा अपने बेटे के बालिग होने तक सिंहासनारूढ़ रह चुकी थी. पर पूरे 34 वर्ष तक के लंबे अंतराल में सफल शासिका रहने में (वृद्ध भी. सदैव पुरुष वेश में) रुद्रंबा अग्रणी कही जा सकती है. Social Story

लेखक : डा. प्रभात त्यागी

Story In Hindi : परीक्षा – क्या हुआ जब खटपट की वजह से सुषमा मायके को तैयार हो गई?

Story In Hindi : पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

‘‘आज नहीं, किसी दूसरे दिन,’’ पंकज ने घबरा कर कहा.

सुधीर ने पंकज की बांह पकड़ ली, ‘‘क्या बात है? कुछ आपस में खटपट हो गई है क्या?’’

पंकज ने फिर ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर बात टालनी चाही, लेकिन सुधीर पीछे पड़ गया, ‘‘जरूर कोई बात है, आज तक तो तुझे इतना उदास कभी नहीं देखा. बताओ, क्या बात है? अगर कोई बहुत निजी बात हो तो…?’’

पंकज थोड़ा हिचकिचाया. फिर बोला, ‘‘निजी क्या? अब तो बात आम हो गई है. दरअसल बात यह है कि आमदनी कम है और सुषमा के शौक ज्यादा हैं. अमीर घर की बेटी है, फुजूलखर्च की आदत है. परेशान रहता हूं, रोज इसी बात पर किचकिच होती है. दिमाग काम ही नहीं करता.’’

‘‘वाह यार,’’ सुधीर उस की पीठ पर हाथ मार कर बोला, ‘‘तुम्हें जितनी तनख्वाह मिलती है, क्या उस में 2 आदमियों का गुजारा नहीं हो सकता है? बस, अभी 3-4 साल तक बच्चा पैदा नहीं करना. मैं तुम से कम तनख्वाह पाता हूं, लेकिन हम दोनों पतिपत्नी आराम से रहते हैं. हां, फालतू खर्च नहीं करते.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन इंसान गुजारा करना चाहे तब तो? खर्च का कोई ठिकाना है? जितना बढ़ाओ, बढ़ेगा. सुषमा इस बात को समझने को तैयार नहीं है,’’ पंकज ने मायूसी से कहा.

‘‘यार, समझौता तो करना ही होगा. अभी तो नईनई शादी हुई है, अभी से यह उदासी और झिकझिक. तुम दोनों तो शादी के पहले ही एकदूसरे को जानते थे, फिर इन 5-6 महीनों में ही…’’

पंकज उठ गया और उदास स्वर में बोला, ‘‘शुरू में सबकुछ सामान्य व सहज था, किंतु इधर 1-2 महीनों से…अब सुषमा को कौन समझाए.’’

सुधीर ने झट से कहा, ‘‘मैं समझा दूंगा.’’

पंकज ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे बाप रे, मार खानी है क्या?’’

सुधीर ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘लगता है, तू बीवी से रोज मार खाता है,’’ फिर वह पंकज की बांह पकड़ कर थिएटर की ओर ले गया, ‘‘तो चल, तुझे ही समझाता हूं. आखिर मैं एक अभिनेता हूं. तुझे कुछ संवाद रटा देता हूं. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

पंकज को घर लौटने में काफी देर हो गई. लेकिन वह बड़े अच्छे मूड में घर के अंदर घुसा. सुषमा के झुंझलाए चेहरे की ओर ध्यान न दे कर बोला, ‘‘स्वीटी, जरा एक प्याला चाय जल्दी से पिला दो, थक गया हूं, आज दफ्तर में काम कुछ ज्यादा था. अगर पकौड़े भी बना दो तो मजा आ जाए.’’

सुषमा ने उसे आश्चर्य और क्रोध से घूर कर देखा. फिर झट से रसोईघर से प्याला और प्लेट ला कर उस की ओर जोर से फेंकती हुई चिल्लाई, ‘‘लो, यह रहा पकौड़ा और यह रही चाय.’’

पंकज ने बचते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो? चाय की जगह भूकंप कैसे? यह घर है कि क्रिकेट का मैदान? घर के बरतनों से ही गेंदबाजी, वह भी बंपर पर बंपर.’’

उस के मजाक से सुषमा का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘न तो यह घर है और न  ही क्रिकेट का मैदान. यह श्मशान है श्मशान.’’

‘‘यह भी कोई बात हुई. पति दिनभर दफ्तर में काम करे और जब थक कर घर लौटे तो पत्नी उस का स्वागत प्रेम की मीठी मुसकान से न कर के शब्दों की गोलियों और तेवरों के तीरों से करे?’’

‘‘यह घर नहीं, कैदखाना है और कैदखाने में बंद पत्नी अपने पति का स्वागत मीठी मुसकान से नहीं कर सकती, पति महाशय.’’

पंकज ने सुषमा की ओर डर कर देखा. फिर मुसकरा कर समझाने के स्वर में बोला, ‘‘यह भी कोई बात हुई सुषमा, घर को कैदखाना कहती हो? यह तो मुहब्बत का गुलशन है.’’

किंतु सुषमा ने चीख कर उत्तर दिया, ‘‘कैदखाना नहीं तो और क्या कहूं? मैं दिनरात नौकरानी की तरह काम करती हूं. अब मुझ से घर का काम नहीं होगा.’’

‘‘अभी तो हमारी शादी को चंद महीने हुए हैं. हमें तो पूरी जिंदगी साथसाथ गुजारनी है. फिर पत्नी का तो कर्तव्य है, घर का कामकाज करना.’’

सुषमा ने पंकज की ओर तीखी नजरों से देखा, ‘‘सुनो जी, घर चलाना है तो नौकर रख लो या होटल में खाने का इंतजाम कर लो, नहीं तो इस हालत में तुम्हें पूरी जिंदगी अकेले ही गुजारनी होगी. अब मैं एक दिन भी तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं हूं. मैं चली.’’

सुषमा मुड़ कर जाने लगी तो पंकज उस के पीछे दौड़ा, ‘‘कहां चलीं? रुको. जरा समझने की कोशिश करो. देखो, अब इतने कम वेतन में नौकर रखना या होटल में खाना कैसे संभव है?’’

सुषमा रुक गई. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी कम तनख्वाह थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी. तुम ने मेरे मांबाप को धोखा दे कर शादी कर ली. अगर वे जानते कि वे अपनी बेटी का हाथ एक भिखमंगे के हाथ में दे रहे हैं तो कभी तैयार नहीं होते. अगर तुम अपनी आमदनी नहीं बढ़ा सकते तो मैं अपने मांबाप के घर जा रही हूं. वे अभी जिंदा हैं.’’

पंकज कहना चाहता था कि उस के बारे में पूरी तरह से उस के मांबाप जानते थे और वह भी जानती थी, कहीं धोखा नहीं था. शादी के वक्त तो वह सब को बहुत सुशील, ईमानदार और खूबसूरत लग रहा था. लेकिन वह इतनी बातें नहीं बोल सका. उस के मुंह से गलती से निकल गया, ‘‘यही तो अफसोस है.’’

सुषमा ने आगबबूला हो कर उस की ओर देखा, ‘‘क्या कहा? मेरे मातापिता के जीवित रहने का तुम्हें अफसोस है?’’

पंकज ने झट से बात मोड़ी, ‘‘नहीं, कुछ नहीं. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गृहस्थी की गाड़ी का पहिया पैसे के पैट्रोल से चलता है तो उस में प्यार का मोबिल भी तो जरूरी है. क्या रुपया ही सबकुछ है?’’

‘‘हां, मेरे लिए रुपया ही सबकुछ है. इसलिए मैं चली मायके. तुम अपनी गृहस्थी में प्यार का मोबिल डालते रहो. अब बनावटी बातों से काम नहीं चलने का. मैं चली अपना सामान बांधने.’’

सुषमा ने अंदर आ कर अपना सूटकेस निकाला और जल्दीजल्दी कपड़े वगैरह उस में डालने लगी. पंकज बगल में खड़ा समझाने की कोशिश कर रहा था, ‘‘जरा धैर्य से काम लो, सुषमा. हम अभी फालतू खर्च करने लगेंगे तो कल हमारी गृहस्थी बढ़ेगी. बालबच्चे होंगे लेकिन अभी नहीं, 4-5 साल बाद होंगे न. तो फिर कैसे काम चलेगा?’’

सुषमा ने उस की ओर चिढ़ कर देखा, ‘‘बीवी का खर्च तो चला नहीं सकते और बच्चों का सपना देख रहे हो, शर्म नहीं आती?’’

‘‘ठीक है, अभी नहीं, कुछ साल बाद ही सही, जब मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी, कुछ रुपए जमा हो जाएंगे, ठीक है न? अब शांत हो जाओ.’’

किंतु सुषमा अपना सामान निकालती रही. वह क्रोध से बोली, ‘‘अब तुम्हारी पोल खुल गई है. मैं इसी वक्त जा रही हूं.’’

‘‘आखिर अपने मायके में कब तक रहोगी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहेंगे, इस की चिंता तुम करो. अब मैं लौट कर नहीं आने वाली.’’

पंकज चौंक पड़ा, ‘‘लौट कर नहीं आने वाली? तुम जीवनभर मायके में ही रहोगी?’’

सुषमा ने जोर दे कर कहा, ‘‘हांहां, और मैं वहां जा कर तुम्हें तलाक दे दूंगी, तुम जैसे मर्दों को अकेले ही रहना चाहिए.’’

पंकज हतप्रभ हो गया, ‘‘तलाक, क्या बकती हो? होश में तो हो?’’

‘‘हां, अब मैं होश में आ गई हूं. बेहोश तो अब तक थी. अब वह जमाना गया जब औरत गाय की तरह खूंटे से बंधी रहती थी,’’ सुषमा ने चाबियों का गुच्छा जोर से पंकज की ओर फेंका, ‘‘लो अपनी चाबियां, मैं चलती हूं.’’

सुषमा अपना सामान उठा कर बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी. पंकज ने कहा, ‘‘सुनो तो, रात को कहां जाओगी? सुबह चली जाना, मैं वादा करता हूं…’’

उसी वक्त दरवाजे पर जोरों की दस्तक हुई. पंकज ने उधर देखा, ‘‘अब यह बेवक्त कौन आ गया? लोग कुछ समझते ही नहीं. पतिपत्नी के प्रेमालाप में कबाब में हड्डी की तरह आ टपकते हैं. देखना तो सुषमा, कहीं वह बनिया उधार की रकम वसूलने तो नहीं आ गया. कह देना कि मैं नहीं हूं.’’

लेकिन सुषमा के तेवर पंकज की बातों से ढीले नहीं पड़े. उस ने हाथ झटक कर कहा, ‘‘तुम ही जानो अपना हिसाब- किताब और खुद ही देख लो, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

दरवाजे पर लगातार दस्तक हो रही थी.

‘‘ठीक है भई, रुको, खोलता हूं,’’ कहते हुए पंकज ने दरवाजा खोला और ठिठक कर खड़ा हो गया. उस के मुंह से ‘बाप रे’ निकल गया.

सुषमा भी चौंक कर देखने लगी. एक लंबी दाढ़ी वाला आदमी चेहरे पर नकाब लगाए अंदर आ गया था. उस ने झट से दरवाजा बंद करते हुए कड़कती आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, जो कोई अपनी जगह से हिला.’’

पंकज ने हकलाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं भाई? और क्या चाहते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं कौन हूं, उस से तुम्हें कोई मतलब नहीं. घर में जो भी गहनारुपया है, सामने रख दो.’’

पंकज को ऐसी परिस्थिति में भी हंसी आ गई, ‘‘क्या मजाक करते हैं दाढ़ी वाले महाशय, अगर इस घर में रुपया ही होता तो रोना किस बात का था. आप गलत जगह आ गए हैं. मैं आप को सही रास्ता दिखला सकता हूं. मेरे ससुर हैं गनपत राय, उन का पता बताए देता हूं. आप उन के यहां चले जाइए.’’

सुषमा बिगड़ कर बोली, ‘‘क्या बकते हो, जाइए.’’

किंतु आगंतुक ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. उस ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में जेब से रिवाल्वर निकाला और उसे हिलाते हुए कहा, ‘‘जल्दी माल निकालो वरना काम तमाम कर दूंगा. देवी जी, जल्दी से सब गहने निकालिए.’’

सुषमा चुपचाप खड़ी उस की ओर देखती रही तो उस ने रिवाल्वर पंकज की ओर घुमा दिया, ‘‘मैं 3 तक गिनूंगा, उस के बाद आप के पति पर गोली चला दूंगा.’’

पंकज ने सोचा, ‘सुषमा कहेगी कि उसे क्या परवा. वह तो पति को छोड़ कर मायके जा रही है.’ किंतु जैसे ही आगंतुक ने 1…2…गिना, सुषमा हाथ उठा कर बेचैन स्वर में बोली, ‘‘नहीं, नहीं, रुको, मैं तुरंत आती हूं.’’

नकाबपोश गर्व से मुसकराया और सुषमा जल्दी से शयनकक्ष की ओर भागी. वह तुरंत अपने गहनों का बक्सा ले कर आई और आगंतुक के हाथों में देते हुए बोली, ‘‘लीजिए, हम लोगों के पास रुपए तो नहीं हैं, ये शादी के कुछ गहने हैं. इन्हें ले जाइए और इन की जान  छोड़ दीजिए.’’

नकाबपोश रिवाल्वर नीची कर के व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘कमाल है, एकाएक आप को अपने पति के प्राणों की चिंता सताने लगी. बाहर से आप लोगों की अंत्याक्षरी सुन रहा था. ऐसे नालायक पति के लिए तो आप को कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. जब आप को तलाक ही देना है, अकेले ही रहना है तो कैसी चिंता? यह जिंदा रहे या मुर्दा?’’

सुषमा क्रोध से बोली, ‘‘जनाब, आप को हमारी आपसी बातों से क्या मतलब? आप जाइए यहां से.’’

पंकज खुश हो गया, ‘‘यह हुई न बात, ऐ दाढ़ी वाले महाशय, पतिपत्नी की बातों में दखलंदाजी मत कीजिए. जाइए यहां से.’’

आगंतुक हंस कर सुषमा की ओर मुड़ा, ‘‘जा रहा हूं, लेकिन मेमसाहब, एक और मेहरबानी कीजिए. अपने कोमल शरीर से इन गहनों को भी उतार दीजिए. यह चेन, अंगूठी, झुमका. जल्दी कीजिए.’’

सुषमा पीछे हट गई, ‘‘नहीं, अब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगी.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर फिर पंकज की ओर ताना, ‘‘तो चलाऊं गोली?’’

सुषमा ने चिल्ला कर कहा, ‘‘लो, ये भी ले लो और भागो यहां से.’’

वह शरीर के गहने उतार कर उस की ओर फेंकने लगी. नकाबपोश गहने उठा कर इतमीनान से जेब में रखता गया. पंकज भौचक्का देखता रहा.

आगंतुक ने जब गहने जेब में रखने के बाद सुषमा की कलाइयों की ओर इशारा किया, ‘‘अब ये कंगन भी उतार दीजिए.’’

सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘नहीं, ये कंगन नहीं दूंगी.’’

वे शादी के कंगन थे, जो पंकज ने दिए थे.

आगंतुक ने सुषमा की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘मुझे मजबूर मत कीजिए, मेमसाहब. आप ने जिद की तो मुझे खुद कंगन उतारने पड़ेंगे, लाइए, इधर दीजिए.’’

अब पंकज का पुरुषत्व जागा. वह कूद कर उन दोनों के नजदीक पहुंचा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरी पत्नी का हाथ पकड़ो? खबरदार, छोड़ दो.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर हिलाया, ‘‘जान प्यारी है तो दूर ही रहो.’’

लेकिन पंकज रिवाल्वर की परवा न कर के उस से लिपट गया.

तभी ‘धांय’ की आवाज हुई और पंकज कराह कर सीना पकड़े गिर गया. आगंतुक के रिवाल्वर से धुआं निकल रहा था. सुषमा कई पलों तक हतप्रभ खड़ी रही. फिर वह चीत्कार कर उठी, ‘‘हत्यारे, जल्लाद, तुम ने मेरे पति को मार  डाला. मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

नकाबपोश जल्दी से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप नाहक अफसोस कर रही हैं. आप को इस नालायक पति से तो अलग होना ही था. मैं ने तो आप की मदद ही की है.’’

सुषमा का चेहरा आंसुओं से भीग गया. उस की आंखों में दर्द के साथ आक्रोश की चिंगारियां भी थीं. आगंतुक डर सा गया.

सुषमा उस की ओर शेरनी की तरह झपटी, ‘‘मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तू जाता कहां है?’’ और वह उसे बेतहाशा पीटने लगी.

नकाबपोश नीचे गिर पड़ा और चिल्ला कर बोला, ‘‘अरे, मर गया, भाभीजी, क्या कर रही हैं, रुकिए.’’

सुषमा उसे मारती ही गई, ‘‘हत्यारे, मुझे भाभी कहता है?’’

आगंतुक ने जल्दी से अपनी दाढ़ी को नोच कर हटा दिया और चिल्लाया, ‘‘देखिए, मैं आप का प्यारा देवर सुधीर हूं.’’

सुषमा ने अवाक् हो कर देखा, वह सुधीर ही था.

सुधीर कराहते हुए उठा, ‘‘भाभीजी, केवल यह दाढ़ी ही नकली नहीं है यह रिवाल्वर भी नकली है.’’

सुषमा ने फर्श पर गिरे पंकज की ओर देखा.

तब वह भी मुसकराता हुआ उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘हां, और यह मौत भी नकली थी. अब मैं यह कह सकता हूं कि हर पति को यह जानने के लिए कि उस की पत्नी वास्तव में उस से कितना प्यार करती है, एक बार जरूर मरना चाहिए.’’

सुधीर और पंकज ने ठहाका लगाया और सुषमा शरमा गई.

सुधीर हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, हमारी गलती को माफ कीजिए. आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. उस में जो थोड़ा व्यवधान हो गया था उसे ही दूर करने के लिए यह छोटा सा नाटक करना पड़ा.’’

सुषमा ने हंस कर कहा, ‘‘जाओ, माफ किया.’’

‘‘भाभीजी, आमदनी के अनुसार जरूरतों को समेट लिया जाए तो पतिपत्नी हमेशा  प्यार और आनंद से रह सकते हैं,’’ सुधीर ने समझाने के लहजे में कहा तो सुषमा ने हंस कर सहमति में सिर हिला दिया.  Story In Hindi

लेखक : प्रमोद कुमार सिंह

Love Story In Hindi : पति, पत्नी और बिंदास वो

Love Story In Hindi : गौरव और नगमा के बीच शुरू हुई हंसीठिठोली बढ़ती जा रही थी. गौरव मर्यादा की लाइन लांघना नहीं चाहता था, लेकिन नगमा तो सरेआम उस का हाथ पकड़ लेती, उसे खींच कर शाम के सिनेमा शो में ले जाती.

गौ?रव सर्दी की ठंड के बावजूद पसीने में भीग गया था. पसीना आने के बावजूद वह इस तरह कांप रहा था मानो मलेरिया बुखार चढ़ा हो. उठ कर देखा तो रात के 12 बजे थे. बिस्तर के दूसरे छोर पर शिवानी बेखबर सो रही थी.

तौलिए से पसीना पोंछा और लेट कर सोचने लगा, कितना भयानक सपना था. गौरव को सब पुरानी बातें याद आने लगीं.

नगमा गौरव की वरिष्ठ अधिकारी थी. जब नई आई थी तो गौरव के अहम ने उसे अपना अधिकारी नहीं माना था. बातबात पर दोनों में बहस होती थी और कभीकभी तो गुस्से में नगमा उसे अपने कमरे से बाहर जाने का आदेश भी दे देती थी. कभी ऐसा भी होता था कि नगमा बुलाती थी और वह नहीं जाता था. जाता था तो फाइल उस के सामने रखता नहीं था, पटक देता था.

अहम के टकराव का एक और खास कारण था. गौरव अपनी मेहनत व लगन से पदोन्नति पाता हुआ इस पद पर पहुंचा था. मगर नगमा स्पर्धा से आई थी. जो परीक्षा पास कर के आते हैं उन में श्रेष्ठ होने की भावना आ जाती है.

लेकिन जब से एक पार्टी में नगमा और गौरव की भेंट हुई, दोनों का एकदूसरे के प्रति नजरिया ही बदल गया था.

कार्यालय की एक लड़की का विवाह था. बहुत से लोग आमंत्रित थे. गौरव अपनी पत्नी के साथ आया था. आते ही सब अपनेअपने परिचितों को या तो ढूंढ़ रहे थे या उन से नजरें बचा कर छिपते फिर रहे थे.

‘अरे, शिवानी तू,’ नगमा ने आश्चर्य से कहा, ‘मुझे तो सपने में भी आशा नहीं थी कि तू अब कभी मिलेगी.’

‘पर मेरे सपने में तो तू बारबार आती है,’ शिवानी ने नगमा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘कितनी चिट्ठियां डाली थीं, पर एक का भी जवाब नहीं दिया.’

‘मैं उस समय कोलकाता में प्रशिक्षण के लिए गई हुई थी. तेरी शादी का तो बाद में पता लगा,’ अचानक शिवानी के पीछे गौरव को सकपकाया सा खड़ा देख नगमा आश्चर्य से बोली, ‘तो क्या ये…’

‘हां, मेरे पति हैं,’ शिवानी हंस पड़ी.

‘बहुत खुशी हुई आप से मिल कर,’  नगमा ने हंस कर नाटकीयता से कहा, ‘तो आप हैं हमारे जीजू.’

शिवानी के मौसा और नगमा के मामा में रिश्ता तो दूर का था, पर अकसर शादीब्याह में मिल जाने से दोनों में अच्छीखासी दोस्ती हो गई थी.

‘चलो, अब तो पता लग गया न,’ गौरव ने व्यंग्य से कहा, ‘मैं आप के लिए शीतल पेय ले कर आता हूं.’

गौरव नगमा से दूर होने के लिए ही शीतल पेय का बहाना बना कर खिसक गया. दरअसल, वह दोनों के बीच अपने को काफी असहज सा अनुभव कर रहा था.

‘पता नहीं नगमा, ऐसा क्यों लग रहा है कि तुझे गौरव अच्छा नहीं लगा. क्या यह मेरा भ्रम है?’ शिवानी ने पूछा.

नगमा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘दरअसल, हम दोनों में रोज तूतू मैंमैं होती है. हम लेखा विभाग में एकसाथ हैं और हमारा आंकड़ा 36 का है.’

‘ओह,’ शिवानी ने हाथ फैला कर कहा, ‘पर मुझे इस बात का पता नहीं.’

‘क्यों, क्या तेरे ये रोज दफ्तर से आ कर मेरी बुराई नहीं करते?’ नगमा ने टेढ़ी मुसकान से पूछा.

‘नहीं. दरअसल, इन्हें दफ्तर की बातें घर में करने की आदत नहीं है,’ शिवानी ने कहा, ‘पर कभीकभी बड़े खराब मूड में घर आते हैं.’

‘कोई बात नहीं, अब ठीक कर दूंगी,’ नगमा ने मुसकरा कर कहा, ‘ये जीजू कहां गायब हो गए.’

गौरव हाथ में 2 गिलास ले कर आ रहा था.

‘बहुत भीड़ है. बड़ी मुश्किल से 2 गिलास हाथ लगे,’ गौरव ने दोनों को गिलास पकड़ाते हुए कहा.

‘जीजू,’ नगमा ने गिलास पकड़ कर अनूठे व्यंग्य से कहा, ‘मुश्किल तो अब बढ़ गई है आप की. अब करिए तकरार.’

‘कोई बात नहीं,’ गौरव भी नहले पर दहला मारते हुए बोला, ‘प्यार का पहला कदम तकरार से ही शुरू होता है.’

शिवानी और नगमा इस विनोद पर ठठा कर हंस पड़ीं. फिर नगमा ने कहा, ‘इस भ्रम में मत रहना, जीजूजी.’

अब जब भी नगमा गौरव को अपने कक्ष में बुलाती थी तो काफी पहले से ही आ जाती थी. धीरेधीरे जब यह एक नियम सा हो गया तो दफ्तर के लोगों की मुसकराहट काफी चौड़ी हो गई.

वित्तीय वर्ष के अंतिम दिन चल रहे थे. इन दिनों लेखाकार बहुत व्यस्त हो जाते हैं. इन का काम देररात तक चलता है. यह कार्यालय भी कोई अलग नहीं था.

फाइलें इत्यादि लाने, ले जाने में बहुत समय खराब होता था, इसलिए गौरव को अधिकतर नगमा के ही कक्ष में बैठना पड़ता था. इस पर कंप्यूटर भी यहीं था. किसी और से कुछ पूछना या कराना होता था तो उसे भी यहीं बुला लिया जाता था. कुछ समझने या समझने के लिए गौरव को नजदीक आना पड़ जाता था. एक बार जब गौरव फाइल सामने रख कर खोल रहा था तो उस का हाथ नगमा के हाथ पर पड़ गया. गौरव को जैसे ही गलती का एहसास हुआ, हाथ उठाने लगा.

नगमा ने मुसकरा कर हाथ रोक दिया और बोली, ‘रहने दो न, जीजू, अच्छा लगता है.’

नगमा गौरव को जीजू केवल अकेले में ही कहती थी और लोगों को इस रिश्ते के बारे में कुछ पता नहीं था.

‘छोड़ो भी, कोई देख लेगा तो गजब हो जाएगा,’ गौरव ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की.

‘कह देना कि मैं साली हूं और इस रिश्ते में तो यह सब चलता है,’ नगमा ने हंसते हुए गौरव को मुक्त कर दिया.

इस के बाद जो यह खेल शुरू हुआ तो चलता ही रहा.

रात में देर हो जाने से गौरव नगमा को अपनी मोटरसाइकिल पर घर छोड़ने भी जाता था. घर में उस की मां मिलती थीं. पिताजी नागपुर में अपनी दूसरी बेटी के साथ रहते थे. वे अपना काम छोड़ कर नहीं आ सकते थे.

एक छुट्टी पर गौरव शिवानी को भी नगमा के घर ले गया था. मां मिल कर बहुत खुश हुई थीं. इस तरह दोनों के और ज्यादा मिलने के रास्ते साफ हो

गए थे.

‘जीजू, आप के साथ एक दिन पिक्चर चलना है,’ नगमा ने कहा.

‘मरवाओगी क्या,’ गौरव ने सिहर कर कहा, ‘शिवानी को भी साथ ले चलेंगे.’

‘बहुत डरपोक हो, जीजू,’ नगमा हंस पड़ी, ‘एकदम चूहे की तरह.’

‘नहींनहीं, किसी के साथ देख

लिया तो गजब हो जाएगा,’ गौरव ने विद्रोह किया.

‘अरे, देखने दो न,’ नगमा ने कहा, ‘जब कोई देखेगा तो देखा जाएगा. अगर किसी ने देख भी लिया तो कितना मजा आएगा,’ नगमा हंस रही थी.

‘तुम्हें हंसी छूट रही है,’ गौरव ने चिढ़ कर कहा.

नगमा ने सिनेमा के टिकट मंगवा लिए और दोनों ने 6 से 9 वाला शो देखा. पूरे शो में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े बैठे रहे. बहुत अच्छा लग रहा था. साथ ही, डर भी था कि कहीं पकड़े न जाएं, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं और हंसते हुए दोनों वापस घर आ गए.

लौटते समय गौरव ने शिवानी के लिए फूलों का गजरा और उस की मनपसंद रसमलाई खरीदी. घर पहुंचा तो अपने मनपसंद सामान को देख कर शिवानी मुसकराई.

‘क्या बात है,’ शिवानी ने मीठा व्यंग्य कसा, ‘लगता है आज कुछ खास

बात है.’

‘है तो,’ गौरव हंसा, ‘थोड़ी देर में बताऊंगा, जरा तरोताजा हो जाऊं. वैसे गजरा बेचने वाली ‘चांद सा बेटा’ वाला आशीर्वाद दे रही थी.’

एक दिन नगमा और गौरव ने एक अच्छे वातानुकूलित रैस्तरां में बैठ कर खाना खाया. लगभग अंधेरे कोने में दोनों बैठे थे. गौरव डर रहा था, कोई पहचान न ले, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हौसले और बुलंद हो गए.

नगमा कुछ अधिक ही रोमांटिक हो रही थी. बस, गौरव ही सहमासहमा सा था.

‘चलो, जल्दी चलो,’ मोटरसाइकिल पार्किंग से बाहर लाते हुए गौरव ने कहा, ‘ज्यादा देर ठीक नहीं.’

‘क्या जीजू,’ नगमा ने कहा, ‘कहते हैं न कि गुनाह बेलज्जत. सारा मजा किरकिरा कर रहे हो. चलो, आज किसी होटल में एक कमरा ले लेते हैं.’

‘दिमाग खराब हो गया है क्या?’ गौरव ने डांट कर कहा.

नगमा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘जीजू, आप का चेहरा देखने लायक है. मुझे बहुत हंसी आ रही है.’

रास्तेभर नगमा गौरव को पकड़ कर बैठी रही. घर के सामने नगमा को

उतार कर बिना हायहैलो किए वह चल दिया.

घर पहुंचने से पहले गौरव ने एक पिज्जा पैक करवाया. शिवानी को पिज्जा बहुत अच्छा लगता था. एक सुंदर, मोटा, सुगंधित गजरा भी लिया.

न जाने क्यों आज गौरव के दिल में डर बैठ गया था. धीरेधीरे लगता है नगमा उस पर हावी हो रही है.

‘लो, मैं बहुत दिनों से पिज्जा की याद कर रही थी,’ शिवानी ने पैकेट पकड़ते हुए कहा, ‘अच्छा हुआ आप ले आए. और यह गजरा, हाय राम, बहुत भारी है, मेरा जूड़ा ही गिर जाएगा. वैसे खुशबू अच्छी है.’

‘बस, तुम इसी तरह खुश रहो तो मैं लाता रहूंगा,’ गौरव ने कहा, ‘जल्दी से खा लो, ठंडा हो जाएगा.’

‘क्यों, तुम नहीं खाओगे?’

‘मैं खा कर आया हूं,’ गौरव ने तौलिए से मुंह पोंछते हुए कहा, ‘दरअसल, एक आदमी का काम कर दिया तो वह 2 पिज्जा दे गया. नगमा और मैं ने एक वहीं खा लिया.’

‘ओह, यह नगमा भी बड़ी खाऊ है,’ शिवानी हंस पड़ी, ‘पर है मजेदार

और चुलबुली.’

गौरव इस से सहमत था. गौरव पलंग पर करवटें बदल रहा था. बारबार नगमा की होटल वाली बात सता रही थी. वह सचमुच ही डर गया था. शिवानी को अधिक धोखा नहीं दे सकता. कुछ न कुछ करना पड़ेगा.

‘सोते क्यों नहीं,’ शिवानी ने कुहनी मार कर कहा, ‘न सोते हो, न सोने देते हो.’

गौरव को कुछ समय बाद झपकी आ गई. नींद में टटोल कर देखा तो बैड पर शिवानी का सा इकहरा, जानापहचाना बदन नहीं था, नगमा का गुदाज, मांसल शरीर था, कमरा भी नगमा का था.

‘मैं यहां कैसे आ गया?’ गौरव ने आश्चर्य से पूछा.

‘सो जाओ यार,’ नगमा ने कहा, ‘मैं ने तुम्हें शिवानी से खरीद लिया है. वह कुछ नहीं बोलेगी.’

गौरव का सपना टूट गया. सर्दी की ठंडक के बावजूद वह पसीने से भीग गया था. घड़ी में देखा तो रात के 12 बजे थे. शिवानी को बिस्तर के दूसरे छोर पर बेखबर सोता देख आश्वस्त हुआ. यह नगमा का नहीं, उस का अपना कमरा व अपना बिस्तर था.

कितना भयानक सपना था. अब वह पुरानी यादों से बाहर आ गया था.

आज वह अवश्य अपने तबादले के लिए प्रबंध निदेशक से बात करेगा. इस तरह नहीं चलेगा.

दफ्तर पहुंचा तो नगमा से आंखें मिलाने में डर रहा था.

संध्या को उसे मजबूरन नगमा को घर छोड़ने जाना पड़ा. दिनभर गंभीर था और उस समय भी. नगमा अपनी आदत के अनुसार उसे छेड़े जा रही थी.

आज दरवाजे पर मां को प्रतीक्षा में खड़े पाया. देखते ही वह खुश हो गई.

‘‘मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने के लिए खड़ी थी,’’ मां ने कहा, ‘‘नगमा की शादी तय हो गई है. अगले महीने तुम्हें और शिवानी को आना है.’’

सुनते ही गौरव के मुंह से गहरी व लंबी राहत की सांस निकली. Love Story In Hindi

Ahmedabad Plane Crash : अहमदाबाद विमान दुर्घटना के सवालों को गीता से भटका कर धर्म की ठेकेदारों की पीआर करते न्यूज़ चैनल

Ahmedabad Plane Crash : अहमदाबाद विमान हादसे से जब पीड़ित परिवारजन दुख में थे और देश की जनता हादसे में हुई गड़बड़ी को जानने की चिंता में थी तो धर्मांध मीडिया दानदक्षिणा पर पलने वाले ठेकेदारों की पीआर करने में मस्त थी.

अहमदाबाद विमान हादसे में 275 से अधिक लोगों की जान गई. हादसा इतना भयावह था कि एक व्यक्ति के अलावा कोई नहीं बच पाया. इतने बड़े हादसे में किसी इकलौते व्यक्ति का बच जाना बेहद ही आश्चर्य की बात है. यह हैरान कर देने वाली न्यूज थी लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया को इस व्यक्ति के बच जाने की न्यूज से बड़ी खबर हाथ लग गई. वो खबर थी कि विमान हादसे में गीता बच गई.

आज तक की स्टार एंकर श्वेता सिंह ने तो इस पर पूरी एक रिपोर्ट ही पेश कर दी, जैसे यह दुनिया के लिए एक बड़ी खबर हो. दुनिया भारतीय मीडिया के इस तरह के प्रोपगेंडे से भली भांति परिचित है इसलिए भारत के अलावा इस खबर को किसी ने सीरियसली नहीं लिया.

हिंदुत्ववाद की राजनीति चमकाने में और धर्म की दानदक्षिणा वाले धंधे को उभारने में भारतीय मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. पिछले वर्षों में मीडिया ने एक ऐसा वर्ग पैदा कर दिया है जिस की खुराक फेक न्यूज़ है. धर्म और राष्ट्रवाद की आड़ में कुछ भी परोस दो यह वर्ग पचा लेता है क्योंकि यह वर्ग पौराणिक कथाओं की गपबाजी को संपूर्ण सच मानता है.

गीता बच गई. कैसे? यह न पूछिये कि किस फायरमैन के साथ लगी, कौन सी सीट पर थी, वहां कौन बैठा था. बस यह जानकर कि हिंदुओं के धर्मग्रंथ इतने शक्तिशाली होते हैं कि भीषण दुर्घटनाओं में भी बच जाते हैं. हिंदू होने पर गौरवांवित होइए. यहां तर्क की जरूरत नहीं. सवाल पूछने से धर्म संकट में पड़ जाएगा. श्वेता सिंह की नौकरी चली जाएगी. बीजेपी का वोट बैंक खतरे में पड़ जाएगा लेकिन वे लोग जो विवेक रखते हैं सवाल तो पूछेंगे ही. क्या वह गीता फायर प्रूफ थी? क्या गीता को ईश्वर ने बचाया? क्या गीता में खुद को बचा लेने का सेंस था?

जवाब बिल्कुल सरल है. ऐसी हर दुर्घटना में जहां कोई जीवित नहीं बचते बहुत सी चीजें बच जाती हैं. भीषण दुर्घटनाओं में इंसानों का मरना स्वाभाविक होता है. यह सब चंद पलों में हो जाता है. भयंकर दुर्घटनाओं में इंसानों का मरना और इंसान के सामान का बच जाना दोनों बातें एक जैसी नहीं हैं.

कई बार इंसान मर जाता है, जल जाता है लेकिन उस के जूते सही सलामत होते हैं. कई हादसों के बाद इंसान की क्षतविक्षत लाशों से उन की हाथ की घड़ियां चलती हुईं मिली हैं. कई बार खाने पीने का सामान तो कई हादसों में किताबें सही सलामत मिलती हैं. क्या जूतों, किताबों और घड़ियों का सही सलामत बच जाना कोई चमत्कार है?

पाकिस्तान में इस्माइली मुसलिमों की एक स्कूल बस को आतंकियों ने बम से उड़ा दिया था. 140 बच्चों की मौत हुई थी लेकिन उस भीषण धमाके के बाद भी कई स्कूली बच्चों के स्कूल बैग बच गए थे. इन स्कूल बैग्स में बच्चों की किताबें थीं, उन का होमवर्क था जिसे आज भी उन बच्चों के घरवालों ने संभाल कर रखा है.

इसी साल हुए कुम्भ के दौरान धार्मिक पुस्तकों के स्टाल पर भीषण आग लगी थी जिस में सैंकड़ों गीता, रामायण, भगवत पुराण और वेद जल कर राख हो गए थे. इस आग के बाद किताबों के जले हुए कूड़े को कूड़े की गाड़ी में भर कर ले जाया गया था. अगर कुम्भ की इस आग में जलीं गीताएं खुद को नहीं बचा पाईं तो अहमदाबाद विमान हादसे वाली गीता कैसे बच गई? क्या यह गीता चमत्कारित थी? अगर ऐसा था तो गीता अपने साथ उन तीन मासूम बच्चों को क्यों नहीं बचा पाई जो मासूम बच्चे अपने मांबाप के साथ लंदन जा रहे थे? अगर गीता इतनी चमत्कारिक थी कि वह खुद को भीषण आग से बचा ले गई तो उसे इंसानों से क्या बैर था? ऐसी गीता को स्वार्थी क्यों न कहा जाए?

क्या श्वेता सिंह उस गीता को दुबारा आग में रख कर अग्निपरीक्षा के लिए तैयार हैं? अगर इस परीक्षण में यह पुस्तक खुद में फायर प्रूफ साबित होती है तो इस से पूरी दुनिया को कितना फायदा होगा? कितने लोगों की जान बचाई जा सकती है? कितने हादसों को रोका जा सकता है? गीता के फायरप्रूफ होने की चमत्कारिक तकनीक का इस्तेमाल कर सूर्य के ऊपर सोलर मिशन भेजे जा सकते हैं. या इसी तकनीक के सहारे धरती के कोर जो बुरी तरह जल रहा है की स्टडी की जा सकती है.

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