Content Creators : कुछ सौ अखबारों से देश की जनता को जो जानकारी मिला करती थी, आज 20-25 लाख कंटैंट क्रिएटरों से मिल रही है. ये 20-25 लाख वे हैं जिन के सोशल मीडिया पर 1,000 से ज्यादा फौलोअर्स हैं. इन में से 8-10 हजार को विज्ञापनदाताओं से पैसा मिल जाता है विज्ञापनों का काफी पैसा सोशल मीडिया के कंटैंट क्रिएटर बटोर ले ही जाते हैं.
किसी बड़े अखबार या टैलीविजन चैनल से न बंध कर स्वतंत्रता से कुछ कर दिखाने व उसे सोशल मीडिया पर डाल कर उस का इन्फ्लुएंस बढ़ते देखना किसी भी क्रिएटर के लिए खुशी की बात हो सकती है लेकिन यह न भूलें कि यह कंटैंट न तो सौ फीसदी सही है और न क्रिएटर लंबे समय तक के लिए जगह बना रहा है. बरसाती मेढकों की तरह कुछ समय टरटर कर के ये लोग चुप हो जाते हैं. इन के पास न समय होता है, न स्किल और न साधन ही कि ये किसी भी विषय पर गहराई तक नजर डाल कर जांचपरख कर सकें और ट्रेडमार्क कराने लायक अपना नाम कमा सकें.
ये लोग सोशल मीडिया के जरिए समाज में बेहद दुराज्ञान फैला रहे हैं. ये तो अरसे पहले पेड़ के नीचे बैठ कर काल्पनिक कहानियां सुनाने वालों से भी बदतर हैं जो धर्म, समाज, इतिहास के साथ भूतप्रेतों, गड़े खजानों, चुटकियों में सेहत ठीक करने वाली दवाओं के बारे में बताया करते थे. वे लोग दुराज्ञानी थे और तब की मूढ़ जनता उन्हीं के दुराज्ञान के कारण लाखों तकलीफें सहती थी.
आज पेड़ की जगह मोबाइल ने ले ली है और पेड़ के नीचे बैठने की जगह बिस्तर ने ले ली है और भीड़ वैसी ही है फौलोअर्स की शक्ल में. आज अगर एक देश के बाद दूसरे देश में अंधविश्वासों, पाखंडों, गलत सूचनाओं से धार्मिक भेदभाव, लड़कियों के साथ भेदभाव, विध्वंसक राजनीति, चुराई सामग्री को मोटिवेशनल कहने का ढोंग करना, सासबहू के रिश्ते को हिंसक बनानाबताना ज्यादा हो रहा है तो इसलिए कि सोशल मीडिया इस तरह के इन्फ्लुएंसरों से भरा है जो अधकचरा राजनीतिक ज्ञान, सामाजिक अज्ञान के साथ सैक्स, हिंसा, बेईमानी, लूट आदि जम कर फैला रहे हैं और कुछ नया करने के चक्कर में कुछ भी परोस रहे हैं.
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप आए हैं, कनाडा बालबाल बचा है, फ्रांस में ला पेन की पार्टी मजबूत हो रही है तो इसलिए कि भारत समेत हर जगह इन्फ्लुएंसरों की सुनी जा रही है. पढ़ेलिखे, दूर की सोच रखने वाले प्रतिष्ठित और हर तथ्य की जांच कर पेश किए जाने वाले कंटैंट को न देख कर लोग कुछ चौंकाने वाला, कुछ मजेदार, कुछ सैक्सी कंटैंट देखना पसंद कर रहे हैं. यह ऐसा दुराज्ञान है जो हरेक की सोच को बुरी तरह दूषित कर रहा है.
हत्याएं पहले भी होती थीं पर लाशों को सूटकेसों में बंद नहीं किया जाता था, सीमेंट के ड्रमों में नहीं डाला जाता था. विवाहेतर प्रेम पहले भी होते थे पर उन में त्याग की अनुभूति होती थी, विवाह कर के जान लेने की इच्छा नहीं. सोशल मीडिया के कंटैंट क्रिएटरों ने देखनेसुनने वालों का दिमाग कुंद कर दिया है. वे सहीगलत का फैसला नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें सिर्फ गलत दिखाया जा रहा है और बिकता भी वही है जो गलत है.
ऐसा नहीं कि पहले फालतू का कंटैंट तैयार नहीं किया जाता था पर प्रकाशकसंपादक उसे कूड़े के टोकरे में डाल देते थे. कुछ ही प्रकाशक गलत बातों के बल पर पनपते थे. नतीजा था कि जो पढ़ालिखा है वह सम झदार है, यह माना जाता था. आज पैसे वाले, डिग्रीहोल्डर, शिक्षित, सोशल मीडिया के दुराज्ञान के शिकार गलत ही गलत को सही मानते हैं और उस खोखली नींव पर महल बना रहे हैं जिस में क्रैक तो आएंगे ही.
सैकड़ों शारीरिक व मानसिक रोगों के लिए यह दुराज्ञान, जो सड़कछाप कंटैंट क्रिएटरों की देन है, जिम्मेदार है. दुनिया के देशों में धैर्य, भाषा, रंग, जाति, मूल देश की पहचान के कारण पैदा हो रही खाइयों के लिए सोशल मीडिया जिम्मेदार है जिसे अधपढ़े मदारी किस्म के इन्फ्लुएंसर्स परोस रहे हैं, जिसे चटखारे लेले कर लोगों द्वारा देखा, सम झा व अपनाया जा रहा है.
तर्क, तथ्य, विश्लेषण, दूरगामी परिणामों, इतिहास पर निर्भर जानकारी को पचा सकने की सम झ लोगों में कम हो गई है क्योंकि जंक ज्ञान, जंक फूड की तरह, मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य खराब कर रहा है. इस के दोषी धर्म, सरकार व बिग बिजनैस तीनों हैं जो लोगों की मूर्खता पर ही टिके हैं. लोगों को सहीगलत का ज्ञान पहचान में न आए, यह आज के सोशल मीडिया की देन है.