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Family Story : पापा कूलकूल – कैसे सिखाया सुगंधा को पापा ने सबक

Family Story : ‘‘मु झे ‘सू’ कह कर पुकारो, पापा. कालिज में सभी मुझे इसी नाम से पुकारते  हैं.’’ ‘‘अरे, अच्छाभला नाम रखा है हम ने…सुगंधा…अब इस नाम मेें भला क्या कमी है, बता तो,’’ नरेंद्र ने हैरान हो कर कहा.

‘‘बड़ा ओल्ड फैशन है…ऐसा लगता है जैसे रामायण या महाभारत का कोई करेक्टर है,’’ सुगंधा इतराती हुई बोली.

‘‘बातें सुनो इस की…कुल जमा 19 की है और बातें ऐसी करती है जैसे बहुत बड़ी हो,’’ नरेंद्र बड़बड़ाए, ‘‘अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है…कालिज जाने के लिए सजना शुरू करती है तो पूरा घंटा लगाती है.’’

‘‘हमारी एक ही बेटी है,’’ नरेंद्र का बड़बड़ाना सुन कर रेवती चिल्लाई, ‘‘उसे भी ढंग से जीने नहीं देते…’’

‘‘अरे…मैं कौन होता हूं जो उस के काम में टांग अड़ाऊं ,’’ नरेंद्र तल्खी से बोले.

‘‘अड़ाना भी मत…अभी तो दिन हैं उस के फैशन के…कहीं तुम्हारी तरह इसे भी ऐसा ही पति मिल गया तो सारे अरमान चूल्हे में झोंकने पड़ेंगे.’’

‘‘अच्छा, तो आप हमारे साथ रह कर अपने अरमान चूल्हे में झोंक रही हैं…’’

‘‘एक कमी हो तो कहूं…’’

‘‘बात सुगंधा की हो रही है और तुम अपनी…’’

‘‘हूं, पापा…फिर वही सुगंधा…सू कहिए न.’’

‘‘अच्छा सू बेटी…तुम्हें कितने कपड़े चाहिए…अभी 15 दिन पहले ही तुम अपनी मम्मी के साथ शापिंग करने गई थीं… मैचिंग टाप, मैचिंग इयर रिंग्स, हेयर बैंड, ब्रेसलेट…न जाने क्याक्या खरीद कर लाईं.’’

‘‘पापा…मैचिंग हैंडबैग और शूज

भी चाहिए थे…वह तो पैसे ही खत्म हो गए थे.’’

‘‘क्या…’’ नरेंद्र चिल्लाए, ‘‘हमारे जमाने में तुम्हारी बूआ केवल 2 जोड़ी चप्पलों में पूरा साल निकाल देती थीं.’’

‘‘वह आप का जमाना था…यहां तो यह सब न होने पर हम लोग आउटडेटेड फील करते हैं…’’

‘‘और पढ़ाई के लिए कब वक्त निकलता है…जरा बताओ तो.’’

‘‘पढ़ाई…हमारे इंगलिश टीचर

पैपी यानी प्रभात हैं न…उन्होंने हमें अपने नोट्स फोटोस्टेट करने के लिए दे दिए हैं.’’

‘‘तुम्हारे इस पैपी की शिकायत मैं प्रिंसिपल से करूंगा.’’

‘‘पिं्रसी क्या कर लेगा…वह तो खुद पैपी के आगे चूहा बन जाता है…आखिर, पैपी यूनियन का प्रेसी है.’’

‘‘प्रेसी…तुम्हारा मतलब प्रेसीडेंट…’’ नरेंद्र ने उस की बात समझ कर कहा, ‘‘बेटा, बात को समझो…हम मध्यवर्गीय परिवार के  सदस्य हैं…इस तरह फुजूलखर्ची हमें सूट नहीं करती.’’

‘‘बस…शुरू हो गया आप का टेपरिकार्डर,’’ रेवती चिढ़कर बोली, ‘‘हर वक्त मध्यवर्गीय…मध्यवर्गीय. अरे, कभी तो हमें उच्चवर्गीय होने दिया करो.’’

‘‘रेवती…तुम इसे बिगाड़ कर ही मानोगी…देख लेना पछताओगी,’’ नरेंद्र आपे से बाहर हो गए.

‘‘क्यों, क्या किया मैं ने? केवल उसे फैशनेबल कपड़े दिलवाने की तरफदारी मैं ने की…आप तो बिगड़ ही उठे,’’ सुगंधा की मां ने थोड़ी शांति से कहा.

‘‘मैं भी उसे कपड़े खरीदने से कब मना करता हूं…लेकिन जो भी करो सीमा में रह कर करो…जरा इसे कुछ रहनेसहने का सही सलीका समझाओ.’’

‘‘लो, अब कपड़े की बात छोड़ी तो सलीके पर आ गए…अब उस में क्या दिक्कत है, पापा,’’ सुगंधा ठुनकी.

‘‘तुम जब कालिज चली जाती हो तो तुम्हारी मां को घंटा भर लग कर तुम्हारा कमरा ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि वह मेरे पीछे मेरा कमरा ठीक करें…मेरा कमरा जितना बेतरतीब रहे वही मुझे अच्छा लगता है…यही आजकल का फैशन है.’’

‘‘और साफसफाई रखना…सलीके से रहना?’’

‘‘ओल्ड फैशन…हर वक्त नीट- क्लीन और टाइडी जमाने के लोग रहते हैं…नए जमाने के यंगस्टर तो बस, कूल दिखना चाहते हैं…अच्छा, मैं चलती हूं…नहीं तो कालिज के लिए देर हो जाएगी.’’

अपने मोबाइल को छल्ले की तरह नचाती हुई वह चलती बनी. रेवती ने भी चिढ़ कर नाश्ते के बरतन उठाए और किचन में चली गई.

‘कहां गलती कर दी मैं ने इस बच्ची को संस्कार देने में,’ नरेंद्र अपनेआप से बोले, ‘नई पीढ़ी हमेशा फैशन के हिसाब से चलना पसंद करती है…इसे तो कुछ समझ ही नहीं है…एक बार मन में ठान ली उसे कर के ही मानती है. ऊपर से रेवती के लाड़प्यार ने इसे कामचोर और आरामतलब अलग बना दिया है. मैं रेवती को समझाता हूं कि पढ़ाई के साथ घर के कामकाज व उठनेबैठने, पहनने का सलीका तो इसे सिखाओ वरना इस की शादी में बड़ी मुश्किल होगी, तब वह तमक कर कहती है कि मेरी इतनी रूपवती बेटी को तो कोई भी पसंद कर लेगा…’

‘‘क्या बड़बड़ा रहे हैं अकेले में आप?’’ रेवती नरेंद्र से बोली.

‘‘तुम्हारी लाड़ली के बारे में सोच रहा हूं,’’ नरेंद्र ने चिढ़ कर कहा.

‘‘ओहो, अब आप शांत हो जाओ… कितना खून जलाते हो अपना…’’

‘‘सब तुम्हारे ही कारण जल रहा है…तुम उसे दिशाहीन कर रही हो.’’

‘‘आप ऐसा क्यों समझते हो जी, कि मैं उसे दिशाहीन कर रही हूं,’’ रेवती रहस्यमय ढंग से कहने लगी, ‘‘मुझे तो लगता है कि आप ने अपनी सुविधा के लिए उस से बहुत सी आशाएं लगा रखी हैं.’’

‘‘अब इकलौती संतान है तो उस से आशा करना क्या गलत है…बोलो, गलत है.’’

‘‘देखो,’’ रेवती समझाने के ढंग से बोली, ‘‘पुरानी पीढ़ी अकसर परंपरागत मान्यताओं, रूढि़यों और अपने तंग नजरिए को युवा पीढ़ी पर थोपना चाहती है जिसे युवा मन सहसा स्वीकार करने में संकोच करता है.’’

‘‘ठीक है, मेरा तंग नजरिया है… तुम लोगों का आधुनिक, तो आधुनिक ही सही,’’ नरेंद्र के बोलने में उन का निश्चय झलकने लगा था, ‘‘जब सारे समाज में ही परिवर्तन हो रहा है तो मेरा इस तरह से पिछड़ापन दिखाना तुम दोनों को गलत ही महसूस होगा.’’

‘‘ये हुई न समझदारी वाली बात,’’ रेवती ने खुश होते हुए कहा, ‘‘आप की और सू की लड़ाइयों से आजकल घर भी महाभारत बना हुआ है…आप उसे और उस की पीढ़ी को दोष देते हो…वह आप को और आप की पुरानी पीढ़ी को दोष देती है…’’

‘‘तुम ही बताओ, रेवती,’’ नरेंद्र ने अब हथियार डाल दिए, ‘‘क्या सुगंधा और उस की पीढ़ी के बच्चे दिशाहीन नहीं हैं?’’

रेवती चिढ़ कर बोली, ‘‘आप को  तो एक ही रट लग गई है…अरे भई, दिशाहीनता के लिए युवा वर्ग दोषी नहीं है…दोषी समाज, शिक्षा, समय और राजनीति है.’’

नरेंद्र फिर चुप हो गए. लेकिन गहन चिंता में खो गए. ‘जैसे भी हो आज इस समस्या का हल ढूंढ़ना ही होगा,’ वह बड़बड़ाए, ‘सच ही है, हमारा भी समय था. मुझे भी पिताजी बहुत टोकते थे, ढंग के कपड़े पहनो…करीने से बाल बनाओ…समय पर खाना खाओ…रेडियो ज्यादा मत सुनो…बड़ों से अदब से बोलो…पैसा इतना खर्च मत करो. सही भाषा बोलो…ओह, कितनी वर्जनाएं होती थीं उन की, किंतु मैं और छुटकी उन की बातें मान जाते थे…यहां तो सुगंधा हमारी एक भी बात सुनने को तैयार नहीं.

‘उस से यही सुनने को मिलता है कि ओहो पापा, आप कुछ नहीं जानते. लेकिन मैं भी उसे क्यों दोष दे रहा हूं… जरूर मेरे समझाने का ढंग कुछ अलग है तभी उसे समझ नहीं आ रहा…उस की फुजूलखर्ची और फैशनपरस्ती से ध्यान हटाने के लिए मुझे कुछ न कुछ करना ही होगा.’

नरेंद्र अब उठ कर कमरे में चहलकदमी करने लगे. रेवती ने उन्हें कमरे में टहलते देखा तो चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं. अचानक नरेंद्र की आवाज आई, ‘‘रेवती, दरवाजा बंद कर लो. मैं अभी आता हूं.’’

रेवती दौड़ कर बाहर आई. दरवाजे से झांक कर देखा तो नरेंद्र कालोनी के छोर पर लंबेलंबे डग भरते नजर आए… उस ने गहरी सांस भर कर दरवाजा बंद किया.

अब उन्हें दुख तो होना ही है जब सुगंधा ने उन के द्वारा रखे अच्छेखासे नाम को बदल कर सू रख दिया.

वह भी घर में शांति चाहती है इसलिए विभिन्न तर्क दे दे कर दोनों को

चुप कराती रहती है…यह सही है

कि बेटी के लिए उस के मन में बहुत ज्यादा ममता है…वह नरेंद्र की

कही बात पर कांप उठती है, ‘रेवती, तुम्हारी अंधी ममता सुगंधा को कहीं बिगाड़ न दे.’

‘कहीं सचमुच सुगंधा दिशाहीन हो गई तो वह क्या करेगी…’ रेवती स्वयं से सवाल कर उठी, ‘सुगंधा जिस उम्र में पहुंची है वहां तो हमारा प्यार और धैर्य ही उसे काबू में रख सकता है. सुगंधा को उस की गलती का एहसास बुद्धिमानी से करवाना होगा…जिस से वह सोचने पर मजबूर हो कि वह गलत है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए.’ सुगंधा का बिखरा कमरा समेटते हुए रेवती सोचती जा रही थी.

शाम घिर आई थी…सुबह 11 बजे के निकले नरेंद्र अभी तक नहीं लौटे थे… अचानक बजी कालबेल ने उस का ध्यान खींचा. दरवाजा खोला तो नरेंद्र थे…हाथों में 4 बडे़बडे़ पैकेट लिए.

‘‘सुगंधा आ गई क्या?’’ नरेंद्र ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…’’

‘‘आप कहां रह गए थे?’’

उस के प्रश्न को अनसुना कर के नरेंद्र बोले, ‘‘रेवती, जरा पानी ले आओ… बड़ी प्यास लगी है.’’

गिलास में पानी भरते समय उस के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे.

‘‘क्या है इन पैकेटों में?’’ गिलास पकड़ाते हुए उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम खुद देख लो,’’ नरेंद्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘और सुनो, मेरा सामान दे दो…मैं जरा उन्हें ट्राई कर लूं… फिर तुम भी अपना सामान ट्राई कर लेना.’’

रेवती की हंसी कमरे में गूंज गई, ‘‘ये क्या, अपने लिए आसमानी रंग की पीले फूलों वाली शर्ट लाए हो क्या?’’ वह हंसती हुई बोली.

नरेंद्र ने उस के हाथ से शर्र्ट खींच कर कहा, ‘‘हां भई, हमारी लाड़ली फैशनपरस्त है. अब तो उस के पापा भी फैशनपरस्त बनेंगे तभी काम चलेगा.’’

‘‘और यह मजेंटा कलर का बरमूडा…यह भी आप का है?’’ रेवती के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ रहे थे.

‘‘यह हंसी तुम संभाल कर रखो… अभी कहीं और न हंसना पडे़…ये देखो… तुम अपनी डे्रस देखो.’’

‘‘ये…ये क्या?’’ रेवती चौंक कर बोली, ‘‘आप का दिमाग खराब तो नहीं हो गया…खुद तो चटकीले ऊलजलूल कपडे़ ले आए, अब मुझे ये मिडी पहनाओगे….’’

‘‘क्यों भई, फैशनपरस्त बेटी की फैशनपरस्ती को तो खूब सराहती हो. अब मैं भी तो तुम्हें सराह लूं. चलो, जरा ये मिडी पहन कर दिखाओ.’’

‘‘आप का दिमाग तो सही है…इस उम्र में मैं मिडी पहनूंगी…मुझे नहीं पहननी,’’ रेवती भुनभुनाई.

‘‘चलो, जैसी तुम्हारी मर्जी. तुम्हें नहीं पहननी, न पहनो. मैं तो पहन रहा हूं,’’ कहते हुए नरेंद्र कपड़ों को हाथ में लिए बाथरूम में घुस गए.

‘‘अब समझ आया,’’ रेवती बोली, ‘‘देखें, आज पितापुत्री का युद्ध कहां तक खिंचता है…’’ वह मुसकराई किंतु साथ ही उस के दिमाग में विचार आया…उस ने फटाफट सामान समेटा और किचन में घुस गई.

‘‘ममा…ममा…’’ सुगंधा के चीखने की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘आ गई मेरी लाडली…’’ वह मुसकराती हुई कमरे में आई. सुगंधा की पीठ उस की ओर थी, ‘‘ममा, मेरा पिंक टाप नहीं दिखाई दे रहा. आप ने देखा… और आज आप ने मेरा रूम भी ठीक नहीं किया,’’ कहतेकहते सुगंधा मुड़ी तो हैरानी से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘ममा, आप मिडी में…वह भी स्लीवलेस मिडी में.’’

क्यों, ‘‘क्या हुआ…क्या तुम ही फैशन कर सकती हो…हम नहीं,’’ नरेंद्र ने पीछे से आ कर कहा.

‘‘ऐं…पापा, आप बरमूडा में…क्या चक्कर है. पापा, आप तो ये ड्रेस चेंज कीजिए. कैसे अजीब लग रहे हैं…और मम्मी आप भी…कोई देखेगा तो क्या कहेगा.’’

‘‘क्यों, क्या कहेगा…यही कि हम 21वीं सदी के पेरेंट्स हैं…तुम्हें इन ड्रेसेस में क्या खराबी नजर आ रही है?’’

‘‘इन ड्रेसेस में कोई खराबी नहीं है,’’ सुगंधा ने सिर झटका, ‘‘कैसे दिख रहे हैं इन ड्रेसेस को पहन कर आप लोग.’’

‘‘मुझे पापा मत कहो, डैड कहो,’’ नरेंद्र बोले.

‘‘ऐं, डैड…’’ सुगंधा चौंकी, ‘‘क्या हो गया है आप को…ममा, पानी ले कर आओ…पापा की तबीयत वाकई खराब है.’’

तब तक रेवती कोल्डड्रिंक की बोतल ले कर पहुंच गई…सुगंधा ने कोल्डडिं्रक देख कर कहा, ‘‘हां, ममा, ये मुझे दो…आप पापा के लिए पानी ले कर आओ.’’

‘‘अरी हट….ये कोल्डडिं्रक तेरे पापा के लिए ही है…कह रहे हैं पानीवानी सब बंद, ओल्ड फैशन है…पीऊंगा तो केवल कोल्डडिं्रक या हार्डडिं्रक…’’

‘‘ऐं… ममा,’’ सुगंधा रोंआसी हो गई, ‘‘यह पापा को क्या हो गया है…’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र ने फिर बीच में टोका.

‘‘अरे, छोड़ अपने पापा को,’’  रेवती बोली, ‘‘बोल, आज डिनर में क्या बनाऊं? पिज्जा, बर्गर, सैंडविच, मैगी…या…’’

‘‘ममा, सचमुच आज आप यह सब बनाओगी…’’ सुगंधा खुश हो कर बोली.

‘‘आज ही नहीं, हमेशा ही बनाऊंगी,’’ रेवती ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब ?’’ सुगंधा फिर चौंकी.

‘‘मतलब यह कि आज से मैं ने  और तेरे पापा ने निर्णय लिया है कि जो तुझे पसंद है वही इस घर में होगा…तुझे अपने पापा से शिकायत रहती है न कि वे तुझे टोकते रहते हैं.’’

‘‘ममा, आज क्या हो गया है आप लोगों को.’’

‘‘हमें कुछ नहीं हुआ है, बेटा,’’ नरेंद्र ने प्यार से कहा, ‘‘हम तो अपनी बेटी के रंग में रंगना चाहते हैं ताकि घर में शांति बनी रहे.’’

‘‘हां, हां…ये बरमूडा और मिडी पहन कर आप लोग घर में शांति जरूर करवा दोगे लेकिन बाहर अशांति छा जाएगी…लोग क्या कहेंगे कि…’’

‘‘यही तो मैं कहता हूं…आज तुम्हें भी समझ आ गई, सू…’’

‘‘हां, आप लोगों को देख कर मुझे यह बात समझ आ रही है कि फैशन उतना ही अच्छा लगता है जो दूसरों की निगाह में न खटके.’’

‘‘मेरी समझदार बच्ची,’’ रेवती भावविह्वल हो कर बोली.

‘‘बेटा…क्या हमारे पास एकमात्र यही रास्ता रह गया है कि बदलते हुए परिवेश से समझौता कर लें या पुराणपंथी दकियानूसी लकीर के फकीर कहलाएं…’’

सुगंधा अवाक् अपने पिता को देख रही थी.

नरेंद्र कह रहे थे, ‘‘तुम लोगों के पास जोश तो है बेटा लेकिन होश नहीं…तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हारी पीढ़ी भी कल पुरानी हो जाएगी…तुम्हें भी नई पीढ़ी से ऐसा ही व्यवहार मिलेगा तब तुम्हारी बात कोई सुनने को तैयार नहीं होगा…’’

‘‘ठीक कहते हैं आप…युवा वर्ग और बुजुर्ग आपस में एकदूसरे के पूरक हैं…केवल दृष्टिकोण और कार्यों में दोनों  एकदूसरे से बिलकुल विपरीत हैं,’’  सुगंधा ने कहते हुए सिर हिलाया.

‘‘और इन दोनों में जब आपसी समझदारी हो तो दोनों वर्गों के कार्यों और परिणामों में सफलता मिलनी ही निश्चित  है.’’

‘‘आज से मेरा उलटीसीधी बातों पर जिद करना बंद. मुझे पता होता

कि आप मुझे इतना प्यार करते हैं तो मैं आप को कभी दुखी नहीं करती, पापा.’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र की इस बात पर तीनों खुल कर हंस पडे़ और हंसतेहंसते रेवती की आंखें बरस पड़ी यह सोच कर कि उस के समझदार पति ने उसे और उस की बेटी को दिशाहीन होने से बचा लिया.

Story In Hindi : टूटा रोबोट – लावारिस बच्चे को कैसे मिला परिवार

Story In Hindi : छोटे मासूम को देख सुजाता और सारंग उसे अपने साथ रखने की जिद करने लगे, लेकिन कुछ साल बाद यही मासूम उन दोनों की इनसिक्योरिटी का कारण बन गया. पाइन के घने दरख्तों के बीच खुद किसी दरख्त सा खिला था यह घर. पांव तले नम मिट्टी और ऊपर किसी शांत नदी की तरह बहते बादल. देख कर लगता था कि अगर सुकून की कोई महक होती होगी तो हूबहू इस घर जैसी होती होगी. जैसे दूब सारे मौसम अपने ऊपर झेल कर धरती को ढांपे रखती है वैसे ही शहर के तमाम शोरगुल और आपाधापी से दूर सुब्रत बंदोपाध्याय के इस घर को इन दरख्तों ने ढांप रखा था.

कुल 4 लोग थे इस घर में. सुब्रत, उन की पत्नी सुदेशना और 2 बच्चे सुजाता व सारंग. जिंदगी बिना भंवर वाली धारा सी बह रही थी कि एक दिन जाने कहां से एक छोटी सी लहर आ गई. इतवार था उस दिन. घनी पत्तियों के बीच से किसी तरह जगह बना कर निकल भागी धूप की एक पतली सी लकीर बाहर दरवाजे पर खेल रही थी और भीतर सब अपनेअपने पसंदीदा काम में मगन थे. सुब्रत सोफे में धंसे ‘गोरा’ पढ़ रहे थे. सुदेशना शारदा संगीत का अभ्यास कर रही थीं. सुजाता कलरिंग बुक में उल झी थी और सारंग नए रोबोट में.

अचानक सुदेशना को लगा जैसे दरवाजे पर कोई आहट हुई है. उस ने आवाज दी, ‘सारंग, देखो लगता है दरवाजे पर टवी रो रही है. जाओ अंदर ले आओ उसे.’

मम्मी की आवाज सुन कर सारंग ने रोबोट की तरह झटके लेते हुए टुकड़ोंटुकड़ों में गरदन मोड़ी और उसी अंदाज में चलता दरवाजे तक गया. लेकिन वहां उस की प्यारी बिल्ली टवी नहीं, कुछ और था. कुछ ऐसा जिसे देख कर वह भूल गया कि वह पिछले एक घंटे से रोबोट बना हुआ था और अपने नए रोबोट के साथ धरती को बचाने के लिए एक सीक्रेट मिशन पर काम कर रहा था. सारंग सफेद चेहरा लिए दौड़ता हुआ अंदर आया और बिना कुछ बोले खड़ा हो गया.

‘क्या हुआ सारंग? टवी को चोट लग गई?’

‘नहीं पापा.’

‘फिर क्या हुआ?’

‘पापा, टवी तो लिली की झाडि़यों में सो रही है आराम से.’

‘फिर क्या है?’

सुजाता बोली, ‘मम्मी कुछ नहीं है. यह आप का प्यारा सारंग न, इस दुनिया में रहता ही नहीं है. रोबोट और कौमिक्स. जब देखो खयालों के वंडरलैंड में घुसा रहता है. रुकिए, मैं देखती हूं क्या है.’

सुजाता बाहर गई लेकिन ठीक सारंग की तरह दौड़ते हुए भीतर आ गई, ‘मम्मी, वहां एक टोकरी रखी है, बड़ी सी.’

सुब्रत और सुदेशना दोनों एक पल में दरवाजे पर जा पहुंचे. वहां सचमुच बांस की टोकरी रखी थी, जिस के भीतर से एक महीन, मुलायम आवाज छन कर बाहर आ रही थी. सुब्रत ने जल्दी से खोल कर देखा, उस में एक बच्चा था. सफेद, नरम, नाजुक.

दोनों के चेहरे पर एकसाथ यह सवाल तैर गया, ‘यह बच्चा कहां से आ गया?’

दोनों बच्चे सिर के बल गिरतेपड़ते से मम्मीपापा के पीछेपीछे चले आए. सुब्रत ने जब टोकरी खोली तो भीतर लेटे उस नरम, मुलायम जीव को देख कर दोनों सम्मोहित से चीख पड़े, ‘बच्चा!’

‘देखो मम्मी, इस के बाल कित्ते सुंदर हैं, पंख जैसे मुलायम.’

‘अरे, ये तो सच्ची के हैं, पापा. और इस के हाथ देखो आप, ऐसे लग रहे हैं न जैसे गुलाबी रंग की पंखुड़ी हों’ सारंग ने उत्साह में भर कर दीदी की बांह कस कर पकड़ ली, ‘देख दीदी, इस के छोटेछोटे हाथ चल भी रहे हैं.’

दोनों बच्चे एकसाथ बोले, ‘मम्मी, प्लीज, इसे हम ही रख लेते हैं न?’

सुब्रत और सुदेशना कुछ सम झ ही नहीं पा रहे थे. ऐसे कौन छोड़ गया इतने छोटे से बच्चे को और क्यों?

सुब्रत बोले, ‘पुलिस को इन्फौर्म करना पड़ेगा. क्या पता किसी ने बच्चा चुराया हो और डर से या किसी दूसरी वजह से यहां छोड़ गया हो.’

‘हां, लेकिन यह सब बाद में सोचेंगे. पहले आप इसे अंदर ले चलिए. भूखा होगा.’

सुदेशना की बात मान कर सुब्रत टोकरी समेत बच्चे को अंदर ले आए. सुदेशना

ने हौले से उसे बाहर निकाला और गोद में उठा लिया. गोद में आते ही बच्चे

की रुलाई थम गई और वह सुदेशना की बांहों में चिपक कर उन के चेहरे की ओर टुकुरटुकुर ताकने लगा. इस पूरी प्रक्रिया में कुतूहल से भरे बच्चे मम्मीपापा के पीछेपीछे यों चलते रहे जैसे साड़ी के पीछे पल्लू चलता है.

सुदेशना ने बच्चे को जांचते हुए कहा, ‘अरे, कपड़े भी भीग गए हैं इस के. मु झे तो लगा था कि लड़की होगी, बट इट इज अ बौय.’

सारंग की खुशी दोगुनी हो गई, ‘मेरी टीम में एक और रोबोट बढ़ गया. दीदी, तू तो गई काम से. अब हम दोनों मिल कर तु झे चिढ़ाया करेंगे.’

सुजाता ने मुंह बनाया, ‘चल हट, बड़ा आया चिढ़ाने वाला. यह मेरी बात मानेगा. गुड बौय बनेगा. तेरी तरह रोबोट नहीं.’

सुदेशना टोकरी को टटोलने लगी कि शायद उस में कपड़े हों, लेकिन उस में केवल बच्चों वाला एक पतला सा कंबल था और एक मुड़ा हुआ कागज. सुदेशना ने हैरत से सुब्रत को देखा. कागज खोला. घिसटती हुई हैंडराइटिंग में कुछ शब्द लिखे थे उस पर, ‘इस बच्चे की मां इसे जन्म देते हुए दुनिया से चली गई. पिता के बारे में कुछ पता नहीं. इस वक्त आप कुछ मत सोचिए, बस, यह सोचिए कि क्या आप का यह सुंदर घर इस मासूम को छाया नहीं दे सकता.’

घबराई हुई सुदेशना ने वह कागज 2 बार पढ़ा, ‘यह सब है क्या? सुब्रत, क्या लगता है आप को, क्या इस कागज में लिखी बात सच हो सकती है?’

कुछ देर पहले जो घर इतना शांत था, वहां इस मासूम लहर के आने से सवालों के, कशमकश के तूफान उठ खड़े हुए थे. सुब्रत और सुलोचना यह तय ही नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें? पुलिस को खबर करें या फेसबुक पर पोस्ट डाल दें बच्चे की तसवीर के साथ?

सुदेशना बोली, ‘सुब्रत, पुलिस तो चिल्ड्रनहोम में भेज देगी न इसे. फिर वे लोग अपनी व्यस्तता के हिसाब से इन्वैस्टिगेशन करेंगे. कोई भी नतीजा मिलने तक इसे वहीं रखा जाएगा. यह इतना छोटा सा है, मासूम सा. इन दिनों कैसीकैसी खबरें सुनाई दे रही हैं. दिल नहीं चाह रहा कि इसे वहां भेजें.’

‘लेकिन सुदेशना, पुलिस को खबर करना जरूरी है. हां, इतना हो सकता है कि हम उन से रिक्वैस्ट करें कि जब तक इस के पेरैंट्स नहीं मिलते, इसे हमारे पास रहने दें और अगर वे नहीं मिलते हैं तो हम इसे एडौप्ट कर लेंगे.’

सुदेशना के चेहरे पर मुसकान खिल गई, ‘थैंक्यू सुब्रत. यह ठीक रहेगा. है न बच्चो?’

सारंग चहक उठा, ‘यस मम्मा. और देखो, इस ने भी मेरी उंगली कस कर पकड़ ली है. इस के माने यह भी हमारे साथ रहना चाहता है. लेकिन यह बोलता

क्यों नहीं?’ सुजाता बोली, ‘इसीलिए कहती हूं खिलौनों के अलावा किताबें भी उठा लिया कर कभीकभी. इत्ता छोटा बच्चा बोलता है क्या? उस के तो दांत भी अभी नहीं हैं.’

‘दांत से क्या?’ सारंग ने तर्क किया, ‘दांत तो पड़ोस वाले मेजर अंकल के भी नहीं हैं पर कैसे नौन स्टौप बोलते हैं.’

मम्मी ने सारंग को आंखें दिखाईं, ‘सारंग, बुजुर्गों के बारे में ऐसे बदतमीजी से बोलते हैं क्या, बहुत बिगड़ रहे हो तुम.’

सारंग ने मुर झाए फूल की तरह गरदन झुका ली. सब हंस पड़े. सुब्रत बंदोपाध्याय अपनी पत्नी को देख रहे थे. ममता की कैसी निस्वार्थ गंध फूट रही थी वहां. उस के भीतर जो मां थी, वह इस नए जीवन को देख कर मानो और चौकन्नी हो गई. उस ने फौरन छोटे कपड़ों की खोज में पुराने सूटकेस खंगाल डाले. बच्चे को चम्मच से दूध पिलाया और जब वह सो गया तो एक तृप्ति की निगाह उस पर डाल मुसकरा दी.

‘क्या देख रहे हैं सुब्रत?’

‘यही कि ममता से भरी स्त्री और उस की छांव में सोते बच्चे को देख कर कितनाकुछ सीखा व महसूस किया जा सकता है.’

सुदेशना हंस दी, ‘तो क्या सीखा?’

‘यही कि बच्चा केवल मौजूद क्षण में जीता है. उस के मन में न अतीत का खयाल होता है न भविष्य का. इस वक्त तुम भी ऐसे ही जी रही हो. तुम को नहीं मालूम है कि कल क्या होगा. तुम केवल इस पल में हो और इस पल में जो सब से खूबसूरत भूमिका हो सकती है, उसे जी रही हो.’

‘और आप भी मिस्टर सुब्रत. अब जाइए पुलिस स्टेशन. देखिए, वे लोग क्या कहते हैं.’

एक हफ्ता बीता, फिर दूसरा और फिर तीसरा. पुलिस इन्वैस्टिगेशन में बच्चे के मातापिता के बारे में कोई सुराग न मिला. आखिरकार एडौप्शन की फौर्मलिटी पूरी कर ली गईं और उस बच्चे की किलकारी हमेशा के लिए सुब्रत बंदोपाध्याय के घर का हिस्सा बन गई. सब बहुत खुश थे उस दिन. बच्चा अगू…अगू… की आवाज निकालते हुए अपनी रहस्यमय भाषा में जाने क्या कह रहा था. सारंग टकटकी बांधे उसे देखता रहा, ‘दीदी देखो, यह अपना नाम बता रहा है- अगू.’

सुजाता बोली, ‘फिर कर दी न रोबोटों वाली बात. यह उस का नाम नहीं है. उस का नाम तो हम को सोचना पड़ेगा.’

‘ओह, तो फिर इस का नाम है- पावर रेंजर.’

‘नहीं,’ सुजाता ने उसे कोहनी से ठेला, ‘इस का नाम है माशा.’

सुब्रत बोले, ‘अरे, तुम लोग लड़ना छोड़ो, यह बोलो सत्यजीत कैसा है?’

‘एकदम हिस्टौरिकल, नहीं चलेगा.’

‘तो चलो, मम्मी को फैसला करने दो.’

‘हां, ठीक है. मैं करती हूं फैसला और मेरा फैसला यह है कि आज से इस प्यारे बच्चे का नाम है स्नेहमोय.’

सुजाता उछल पड़ी, ‘वाओ, मंजूर. लेकिन मैं इसे ‘स्ने’ कह कर बुलाऊंगी. कितना स्वेग लगेगा न पुकारते हुए.’

उस दिन लकड़ी के बड़े से फ्रेम में लगी फैमिली फोटो बदली गई. नई तसवीर में सुदेशना की गोद में गुलाबी मुलायम स्नेहमोय मुसकरा रहा था. सुजाता और सारंग उस कुरसी के आजूबाजू लटके हुए थे जिस पर पापा बड़ी शान से बैठे थे. टवी अपनी झबरीली पूंछ को अमन के झंडे की तरह हिलाती पापा की गोद में बैठी थी.

खुशी की इस सोंधी गंध में लिपटे दिन बीतते गए और फिर जैसे चमकती चीजों पर किन्हीं अनजाने रास्तों से आ कर धूल बैठ जाती है, वैसे ही इस खुशी पर तनाव की गर्द न जाने कहां से आ कर बैठने लगी. दोनों बच्चे स्नेहमोय को प्यार करते थे, लेकिन कहीं न कहीं उन को यह लगने लगा था जैसे उन के हिस्से का स्नेह भी स्नेहमोय ले रहा है. जैसे उन का कुछ छिन रहा है. खासतौर पर सारंग, बातबात पर चिढ़ जाता. कभी सीढि़यों के नीचे छिपा सुबकता मिलता तो कभी किसी पेड़ की आड़ में. सुदेशना उसे बुलाती, ‘सारंग, इधर आओ. तुम मु झे प्यार करते हो. करते हो न? तुम्हें तो धरती को बचाने वाला सुपरहीरो बनना है न?’

‘हूं.’

‘तो सुपरहीरो ऐसे चिढ़ते थोड़े हैं. क्यों गुस्सा करते रहते हो? चलो, मु झे बताओ कि तुम्हें क्या परेशानी है?’

दुलारनेसम झाने पर सारंग सामान्य हो जाता, लेकिन जैसे झाड़ने के थोड़ी देर बाद धूल फिर घूमती हुई आ जाती है वैसे ही उस का मूड फिर उखड़ जाता. सुब्रत और सुदेशना सम झ रहे थे कि वह किस तरह के साइकोलौजिकल पेन में हैं, लेकिन यह नहीं सम झ पा रहे थे कि उस पेन से उसे निकालने के लिए वे क्या करें?

‘सुदेशना आजकल तुम्हारे सुर नहीं गूंजते घर में?’ उस दिन अचानक सुब्रत ने पूछा तो सुदेशना डूबीडूबी सी आवाज में बोली, ‘मन ही नहीं होता, सुब्रत. कई बार हमारे भीतर इतना शोर भर जाता है कि बाहर चुप सी पसर जाती है. शायद वह चुप जरूरी भी होती है, क्योंकि उस के बिना हम सम झ ही नहीं पाते कि भीतर के शोर को कैसे रोकें? इन दिनों यही सोच रही हूं कि हमें इस बारे में भी सोचना चाहिए था कि कल को बच्चे स्नेहमोय को ले कर इन्सिक्योर तो महसूस नहीं करेंगे.

मु झे डर है कि यह बेबी राइवलरी कहीं सारंग को ईष्यालु न बना दे. सुजाता तो सम झदार है, फिर भी खी झ जाती है कभीकभी. वह कहती है, आप तो बस स्ने को ही देखा करो.’

सुब्रत किताब के पीछे से झांकते हुए बोले, ‘सुदेशना, तुम अगर खुद इस तरह साइकोलौजिकल पेन महसूस करोगी तो कुछ ठीक नहीं कर पाओगी. यह नौर्मल है. कई बार दूसरे बच्चे को देख कर सैल्फ वर्थ के लिए बच्चे स्ट्रगल करने लगते हैं. लेकिन हमारे लिए अच्छी बात यह है कि सारंग और सुजाता में ईष्या फील नहीं है, वे बस अपने प्यार को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इसीलिए उस की गलतियां खोजते हैं.’

‘तो क्या करें हम?’ सुदेशना ने परेशान हो कर यह सवाल किया ही था कि सुजाता की आवाज सुनाई दी, ‘मम्मीपापा, आप लोग बिजी तो नहीं हैं?’ सामने सुजाता ऐसा खी झा हुआ चेहरा लिए खड़ी थी कि लग रहा था जैसे आंसुओं की धार बस बहने ही वाली थी.

‘क्या हुआ सुजाता?’

सुजाता ने कोफ्त से कहा, ‘वही पुरानी कहानी है, पापा. मु झे कहते हुए बुरा लग रहा है, बट, कुछ कीजिए इस स्ने का. मेरी स्टडी का सारा सामान तहसनहस कर देता है. अभी मेरे पूरे प्रोजैक्ट पर कलर फैला दिया. कल सबमिट करना है मु झे. अब क्या करूंगी मैं? आप लोग कुछ सम झा नहीं सकते उसे?’

‘वह छोटा है सुजाता. बड़ा हो जाएगा तो नहीं करेगा. तुम और सारंग उस के जितने थे, तब तुम लोग भी यही सब करते थे. और बेटा, इरिटेट होना किसी बात का इलाज नहीं है. तुम को थोड़ा पेशेंस रखना पड़ेगा. वह अभी बस 3 साल का है और तुम 15 साल की. सम झदार होने दो उसे. खुद नासम झ मत बनो.’

अभी सुजाता की नाराजगी का निबटारा हो ही रहा था कि ड्राइंगरूम से चीजों के फेंके जाने की आवाजें आने लगीं. तीनों भाग कर पहुंचे तो देखा, स्ने एक कोने में टवी के पास सहमा हुआ खड़ा है और सारंग अपने सारे खिलौने यहांवहां फेंक रहा है, ‘ले लो, सब तुम ले लो. नहीं चाहिए मु झे कोई खिलौना. लो, तोड़ो इन को भी. आओ, तोड़ो.’ सारंग पूरी ताकत लगा कर

चीखने लगा.

यह तो जाहिर था कि सारंग का यह गुस्सा स्ने की वजह से था पर हुआ क्या था?

मम्मीपापा को देख कर सारंग और जोर से चिल्लाने लगा, ‘उस ने मेरे रोबो का हाथ तोड़ दिया. मेरा पहला रोबो था वह.’

‘वह पुराना हो गया था, सारंग. प्लास्टिक आइटम्स की लाइफ बहुत ही कम होती है, टूट जाते हैं पुराने होने पर.’

‘वह आइटम नहीं था, पापा. बहुत बुरा है ये स्ने. मैं छोटा था तब कभी ऐसा नहीं करता था.’

‘यह बात तुम को कैसे पता? याद है तुम दादाजी के जमाने का रेडियो तोड़ कर छिपा आए थे? स्ने ने अपनी गलती छिपाई तो नहीं.’

सारंग का चेहरा कड़ा हो गया, ‘करिए आप लोग उसी की तारीफ, करिए उसी को प्यार. लेकिन अब कोई भी चैन से नहीं रह सकता इस घर में, खिलौने तक नहीं.’

इन शब्दों के साथ एक सन्नाटा सा पसर गया सब के चेहरे पर, लेकिन दीवार पर लगी फैमिली फोटो तो अब भी खुशी की सोंधी महक में डूबी थी. सुदेशना स्ने को सुलाने चली गई और सुब्रत जाने क्या सोचते हुए बच्चों के कमरे की ओर बढ़ गए, ‘तुम दोनों बहुत गुस्सा हो न स्ने से, लेकिन आज कौन सा दिन है,

याद है?

पापा ने याद दिलाया तो सुजाता और सारंग की आंखों में एकएक पल कौंध गया उस दिन का.

‘3 साल हो गए, पापा. मैं तो भूल ही गई थी उस दिन को.’

‘याद है तुम दोनों ने कैसे जिद पकड़ ली थी कि उसे अपने यहां ही रख लें?’

‘हां पापा, याद है. उस की पंखुड़ी जैसी हथेलियां और पंख जैसे बाल.’

‘और उस का मेरी उंगली को कस कर पकड़ लेना.’

सुब्रत धीरे से बोले, ‘लेकिन अब हमें सोचना पड़ेगा कि उस के लिए क्या करना है. मैं ने और तुम्हारी मम्मी ने सोचा है कि 2 साल बाद उसे बोर्डिंग स्कूल भेज देंगे. उस की बढ़ती शरारतों और तुम लोगों की शिकायत का शायद यही एक सौल्यूशन है.’

यह सुनते ही दोनों बच्चों के चेहरे गंभीर हो गए. लग रहा था कोई खलबली मच गई हो अंदर. दोनों बिना कुछ बोले खिड़की के बाहर देखने लगे. डहेलिया के उस पौधे पर ढेर सारे फूल खिले थे जो स्ने के आने पर मम्मी ने लगाया था. मन में एक अजीब सा शोर मच गया.

‘पापा, हमारी शिकायतों का यह मतलब नहीं था.’

यह कहते हुए एक भीगी सी चुप्पी छा गई उन के चेहरे पर. लेकिन अगले ही पल एक चहचहाती हंसी ने उस चुप्पी को तोड़ दिया. स्ने टूटे रोबो को ले कर उछलता हुआ आया और बोला, ‘दादा, देखो, मैं ने इछके हात पल बाम लगा के पत्ती बांद दी है. अब छब थीक हो जाएगा. है न?’

सारंग ने हंसते हुए स्ने के मुलायम बालों को बिखेर दिया, ‘यस जूनियर रोबो, अब सब ठीक हो जाएगा.’

उस दिन सुब्रत बंदोपाध्याय के कैमरे में ए

क ताजा तसवीर कैद हुई. उस तसवीर में सब से खास था- एक टूटा रोबो जिस ने तमाम टूटती चीजों को जोड़ दिया था.

लेखिका : अनुपमा ऋतु

Family Story Hindi : दानिया – मां को उमर के चंगुल से कैसे निकाला

Family Story Hindi : अब्बू के जाने के बाद दानिया और उस की मां एकदम अकेले पड़ गए जिस का फायदा उमर ने बखूबी उठाया. लेकिन दानिया भी उस से दो कदम आगे निकली और उमर का परदाफाश करने में सफल हो गई.

स्कूल से लौटते हुए दानिया ने दूर से देखा, उस के छोटे से घर से मौलवी उमर मियां जल्दीजल्दी निकल रहे हैं. दानिया के कदम धीमे हो गए, आंखों में पानी आ गया. उस का छोटा सा दिल उदास हुआ. बहुत उदास. स्कूल से घर की दूरी बस 15 मिनट की ही थी पर जिस तरह से स्कूल से निकल कर बच्चे बातें करते, मस्ती करते चलते हैं, उन्हें आधा घंटा लग जाता था.
साथ चलते बच्चों ने टोका, ‘‘जब घर पास आ गया,
तू धीरे चलने लगी?
जल्दी चल.’’
‘‘तुम लोग जाओ, मैं चली जाऊंगी, कुछ सामान लेना है. अम्मी ने आते हुए लाने के लिए कहा था, ले कर आती हूं,’’ कहतेकहते दानिया ने रास्ता बदला और कुछ दूरी पर एक दुकान के बाहर खाली जगह देख कर बैठ गई. वैसे तो आजकल जब से सब के हाथों में फोन आया है, भले ही फोन सस्ता सा हो, बचपन का समय कम हो गया है और दानिया की बात कुछ अलग ही थी, 15 साल की दानिया को वक्त और हालात ने समय से पहले बहुत बड़ा कर दिया था. सांवली रंगत पर तीखे नैननक्श. अपने सुंदर बालों की लंबी सी चोटी बांधती. इस समय तो यूनिफौर्म का रिबन भी बांध रखा था. छोटा सा सरकारी स्कूल था जहां दानिया बचपन से पढ़ रही थी. उत्तर प्रदेश के कैराना कसबे में ही पैदा हुई थी.

3 साल पहले तक दानिया अपने अब्बू और अम्मी के साथ हंसीखुशी रहती थी पर जब से कोरोना महामारी उस के अब्बू को लील गई तब से जो हो रहा है वह तो न कभी उस ने सोचा होगा, न उस की अम्मी अदरा ने. 35 साल की अदरा पर जैसी मुसीबत आई थी, उस की कल्पना भी कभी कोई स्त्री नहीं करती.

जब भी दानिया उमर को देखती, उस का मन करता, इसे खत्म कर दे, इस का वह हाल करे कि उमर जैसे धर्म के ठेकेदार बुरे कामों से तोबा कर लें पर ऐसा कब होता है. धर्म के ठेकेदारों की चांदी तो हर युग में रही है. अगर फायदा ही न हो तो धर्म की ठेकेदारी ही की क्यों जाए. उसे अपने अब्बू याद आने लगे. बहते आंसुओं को पोंछ वह फिर उमर और अपनी अम्मी के बारे में सोचने लगी. करीब 40 साल का पतलादुबला, शातिर, थोड़ी बड़ी दाढ़ी, सिर पर हमेशा सफेद टोपी, मजहब के उपदेश देने वाला, मीठीमीठी बातें कर के सामने वाले को लूटने वाला उमर अपनी पत्नी शाहीन के साथ आराम से गुजरबसर करता, मसजिद में बैठा रहता.

वह घरों में जा कर बच्चों को कुरान पढ़ाता. उस के घर में भी कुरान पढ़ने वाले बच्चों की भीड़ लगी रहती. दूर से देखने पर वह एक बहुत अच्छा इंसान लगता पर उस का असली रूप कुछ और था जो उस की पत्नी नहीं जानती थी, उस का 8 साल का बच्चा अमान तो क्या ही जानता. शाहीन कम पढ़ीलिखी, परदे में रहने वाली, बाहर की दुनिया से पूरी तरह बेखबर, शौहर को सबकुछ मानने वाली औरत थी. उसे लगता, उस का शौहर रातदिन लोगों को दीनी तालीम देने में जुटा है.

जब दानिया के अब्बू नहीं रहे, घर में ऐसी तंगहाली हुई कि मांबेटी के खाने के लाले पड़ गए. उस के अब्बू एक दुकान में टेलर ही थे. कितनी जमापूंजी हो सकती थी. भूखे रहने की नौबत आ गई तो अदरा मौलवी उमर के पास जा पहुंची. उमर को ऐसे ही मौकों की तलाश रहती थी. वह ऐसी जरूरतमंद औरतों की मदद करने के बहाने उन्हें देह व्यापार में धकेल देता. पूरा गिरोह यही काम करता. औरतें बदनामी के डर से चुप रह जातीं और इस दलदल में बुरी तरह फंसी रहतीं.

शाहीन की तरह अदरा भी कम पढ़ीलिखी थी वरना यह नौबत न आती. उस के मायके में भी उस का विवाह आम घरों की तरह एक काम की तरह निबटा दिया गया था पर उस के शौहर शौकत अपनी बेटी दानिया को पढ़ालिखा कर पैरों पर खड़ा करना चाहते थे.

यह कल्पना कर के कि अभी उस की अम्मी के साथ उमर क्या कर के निकला होगा, दानिया को उबकाई आने को हुई. आजकल यही होता था, कभी उमर आ कर अदरा के साथ संबंध बनाता, कभी किसी को भी रात में भेज देता. एक कमरे के बहुत छोटे से घर में पार्टिशन के लिए बीच में चादर डाल दी गई थी. दानिया को सोता हुआ बन जाना पड़ता था पर चादर के उस पार से आ रही आवाजें दानिया का दिल दहलाए रखतीं. कभीकभी रात को अदरा को किसी के पास ले जाने के लिए उमर खुद आ जाता.

घर अब खानेपीने की चीजों से भरा रहने लगा था. दानिया को किसी चीज की कमी नहीं थी. आसपास के लोगों को दिखाने के लिए उमर यों ही कपड़ों की गठरी लाता-ले जाता रहता जिस से लगे कि अदरा कपड़े सिलती रहती है. सब को यही लगता कि मौलवी साहब एक गरीब औरत की मदद कर रहे हैं. दानिया को खयाल आया कि अम्मी खाने के लिए उस का इंतजार कर रही होंगी, वे दोनों खाना साथ ही खाती थीं. वह उदास सी घर चल दी. घर जा कर दानिया ने अदरा को लस्तपस्त पड़े देखा. चौंक कर अपना बैग एक तरफ फेंका उस ने. अम्मी से लिपट गई, ‘‘क्या हुआ अम्मी?’’ और रोने लगी.

अदरा थकी सी उठ कर बैठी और बेटी के गले लग कर जोरजोर से रोने लगी. दोनों मांबेटी एकदूसरे से लिपटी रोती रहीं. वे दोनों ही नहीं, घर की जैसे हर चीज रो रही थी- दीवारें भी उदास थीं. इस घर ने 3 जनों का हंसताखेलता समय देखा था. अब मांबेटी की बरबादी यह छोटा सा घर भी नहीं देख पा रहा था, हर तरफ उदासी थी.

घर सिर्फ ईंट, सीमेंट से ही नहीं बना होता, घर में रहने वालों के दिल से भी ऐसा जुड़ा होता है कि जब किसी सुखी घर में जाओ तो साफसाफ महसूस होता है कि घर में एक सुख है, शांति है. दानिया ने रोते हुए पूछा, ‘‘अम्मी, हम यहां से कहीं जा नहीं सकते?’’

‘‘काफी कोशिश की थी, बेटा पर जब तुम्हारे अब्बू चले गए तो रिश्तेदारों ने भी पलट कर नहीं पूछा, कहीं हम मांबेटी की जिम्मेदारी उन पर न आ जाए. कहां जाएं, कहीं कोई नहीं है और इस उमर के हाथ बहुत लंबे लगते हैं. बस, तुम्हें पढ़ालिखा दूं. पर बेटा, अब थक चुकी, बरदाश्त नहीं होता,’’ कहतेकहते अदरा फिर एक बच्ची की तरह बेटी के सीने लग गई तो बेटी का दिल भी ममत्व से भर गया. बेटी जरा सी भी बड़ी हो जाए तो वह मां की मां बन जाती है. दानिया ने मां के सिर को सहलाया, ‘‘अम्मी, चिंता न करो, मैं कुछ करती हूं.’’
‘‘न, न, बेटी. इन से बची रहना. इन लोगों के सामने भी न आना. मैं ने बहुत सख्ती से उमर से कह रखा है कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा नहीं होना चाहिए.’’
‘‘ठीक है, अम्मी, देखते हैं. आओ, खाना खा लेते हैं. मैं हाथ धो कर कपड़े बदल कर आती हूं, फिर खाना लगाती हूं.’’ दोनों मांबेटी चुपचाप खाना खाती रहीं. दोनों ही पता नहीं क्याक्या सोचती रहीं. पसरा सन्नाटा घर को और उदास करता रहा.

कैराना की सीमा से बाहर निकल कर थोड़ीथोड़ी दूर पर छोटेछोटे ढाबे, कुछ अच्छे होटल, बार खुल गए थे. अब लोग वीकैंड में यहां खानेपीने को जाने लगे थे. इन्हीं में से एक बार एंड रैस्टोरैंट था, ‘चेतन बार’. इस के मालिक कपिल ने इस का नाम अपने बेटे चेतन के नाम पर रखा था जो करीब 22 साल का था. अमीर लड़कों के सारे ठाटबाट के साथ जीता था वह. देखने में अच्छा था वह. जब भी दानिया के स्कूल की छुट्टी होती, बाहर खड़े लड़कों में अपने मवाली ग्रुप के साथ चेतन भी खड़ा होता और दानिया को देखने के लिए रुका रहता.

दानिया के स्कूल और घर के रास्ते के बीच में थी कपिल की कोठी. यों ही आतेजाते दानिया को देख कर चेतन का दिल उस में अटक गया था. अब तक जब भी दानिया की नजरें उस से मिलीं, दानिया की आंखों में एक रुखाई थी पर अब जब वह चेतन की आंखों में अपने लिए एक चाहत महसूस कर चुकी थी, दानिया के मन में बहुतकुछ चलता रहता.

वह अपनी उम्र की लड़कियों से ज्यादा चतुर हो चुकी थी, ज्यादा सजग. आसपास के लड़कों से भी उस की अच्छी दोस्ती थी. वह सब से हंसतीबोलती चलती. लोग उसे पसंद करते. उस की इमेज एक अच्छी, शरीफ लड़की की थी. छोटे कसबे में जो भी इन मांबेटी से परिचित थे, सब मांबेटी के हौसले की तारीफ करते पर इन का दुख कोई नहीं जानता था. अपने दुखों की हवा भी मांबेटी ने किसी को लगने नहीं दी थी. समाज ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो अपने दुख चुपचाप पीते हैं. ऐसे लोग जान चुके होते हैं कि दुख बांटा तो भारी पड़ेगा.
एक दिन उमर कपिल को ले कर अदरा से मिलवाने आया हुआ था. उस दिन दानिया स्कूल से जल्दी घर लौट आई थी. उसे अपनी तबीयत कुछ खराब लग रही थी. वह जैसे ही अंदर आई, उमर और कपिल चौंक पड़े. नई उम्र का भोला, मासूम चेहरा दोनों को अपने काम का लगा. दानिया ने उन पर दूसरी नजर नहीं डाली. किसी से कुछ न कहा. उस के सीने में फिर एक आग लगी. मां का डरा हुआ दयनीय चेहरा देखा, बीच की चादर खींची और अपने बिस्तर पर लेट गई.

उमर और कपिल ने आपस में इशारा किया और निकल गए. उमर ने जातेजाते अदरा के हाथ में कुछ रुपए देते हुए कहा, ‘बाद में फोन करूंगा.’ अपने काम के लिए उमर ने उसे एक सस्ता फोन भी ले कर दे दिया था. दानिया ने यह भी महसूस किया कि जिन निगाहों से कपिल और उमर ने अभी उसे देखा था, वह शायद आगे अपनेआप को भी बचा न सके. वह अम्मी की तरह किसी मुसीबत में फंस सकती है. दोनों के जाते ही दानिया ने उठ कर बीच की चादर हटा दी. अदरा ने उस के हाथ को छू कर देखा, ‘‘जल्दी आ गई, तबीयत तो ठीक है?’’
‘‘शायद पीरियड होने वाला है. पेट में बहुत दर्द था. टीचर से बोल कर आ गई. यह नया आदमी कौन था?’’
‘‘चेतन बार वाला.’’
दानिया चौंकी, कहा कुछ नहीं.
दानिया अब हर समय यह सोचने लगी कि अपनी अम्मी को कैसे इस मुसीबत से बाहर निकाले. दिमाग चलता रहता, मंसूबे बनाती रहती. बाहर निकल कर कपिल ने उमर से कहा, ‘‘मां को तो देख ही लेंगे, मु झे अपने बार के लिए यह लड़की चाहिए. उसे बारगर्ल की नौकरी करने के लिए बोल दो. ऐसी लड़की बार में रहेगी तो मु झे बहुत फायदा होगा.’’
‘‘नहीं, साहब. लड़की तो कुछ नहीं करेगी. उस की मां ने मना किया है. लड़की को कुछ कहा तो वह तूफान खड़ा कर देगी.’’
कपिल ने एक भद्दा ठहाका लगाया, कहा, ‘‘और तुम मां से डर गए?’’
उमर कुछ बोला नहीं, सोचता रहा.
कुछ दिनों बाद उमर ने अदरा के सामने दानिया के लिए बारगर्ल की नौकरी का प्रस्ताव रखा. अदरा भड़क गई. उमर ने कहा, ‘‘अरे, तुम चिल्ला क्यों रही हो? बारगर्ल का मतलब धंधा करना थोड़े ही होता है. काउंटर पर ही तो खड़े होना है. वेटर की तरह सम झ लो.’’
‘‘मु झे कुछ सम झाने की जरूरत नहीं है. मेरी बेटी अभी पढ़ेगीलिखेगी. उस से दूर रहो.’’ उमर चला गया, जातेजाते कह गया, ‘‘अपनी बेटी से भी एक बार पूछ लेना.’’

दानिया आई तो अदरा ने सब बताया. वह कुछ देर सोचती रही, फिर बोली, ‘‘शाम को थोड़ी देर ही जाना है न. खाली ही रहती हूं, कुछ कमा लूंगी. शायद आप को फिर यह सब न करना पड़े.’’
‘‘नहीं बेटा, इन लोगों से दूर ही रहो.’’
‘‘पर साथसाथ काम करती रहूंगी तो मैं शायद आप को इस मुसीबत से बचा सकूं. मु झे आप का साथ चाहिए. ये लोग खतरनाक हैं, जानती हूं लेकिन मु झे कोशिश करने दें अम्मी. मु झ पर यकीन करो, मैं बहुतकुछ सोच चुकी हूं. मु झे थोड़ा बाहर निकलने दें. मैं आप की मदद करना चाहती हूं. घर और स्कूल ही करती रही तो आप को इस से निकाल नहीं पाऊंगी. मु झे बाहर जाने दें.’’
‘‘पर तू सोच क्या रही है? इन से कैसे सामना कर सकते हैं? कैसे बच सकती हूं?’’ कहतेकहते अदरा की आंखें भर आईं. आगे थकी सी बोली, ‘‘ठीक है, पर संभल कर रहना.’’

चेतन और दानिया आंखों ही आंखों में बहुतकुछ कहसुन चुके थे. चेतन का इश्क जोर मार रहा था. दानिया के दिल में चेतन की चाहत के अलावा भी बहुतकुछ था या यह भी कह सकते हैं कि और कुछ ज्यादा था. उस का ध्यान इस समय प्यारमोहब्बत में नहीं, यहां से अपनी अम्मी को बाहर निकालने में था. उस दिन वह जानबू झ कर अपने दोस्तों के साथ नहीं निकली, थोड़ी देर से निकली.
अप्रैल के दिन थे. बहुत तेज गरमी में अपना सिर और मुंह ढके वह चेतन को देख कर जरा धीरे चलने लगी जिस का रोज इस समय दानिया को देखने का नियम बन गया था. वह एक कोने में पान की दुकान पर खड़ा रहता. आज वह दानिया को अकेले देख कर उस के साथसाथ धीरेधीरे चलने लगा. छोटी जगहों में ऐसे मौके या तो बहुत कम मिलते हैं या जानबू झ कर दिए जाते हैं.
दानिया एक सुनसान सड़क पर मुड़ गई. चेतन हैरान हुआ. एक पेड़ के नीचे जा कर दानिया ने खड़े हो कर अपना चेहरा अपने दुपट्टे से साफ किया. चेतन अपलक उस की तरफ देख रहा था. दानिया का चेहरा उसे उस समय दुनिया का सब से सुंदर चेहरा लगा. उस के देखते रहने से इस बार दानिया शरमा गई जिस से चेतन उस पर और कुरबान हुआ. आज पहली बार बोला, ‘‘तुम्हारा क्या नाम है?’’
दानिया को हंसी आ गई, बोली, ‘‘नाम भी नहीं पता और दीवाने की तरह खड़े रहते हो?’’
चेतन भी हंस दिया, बोला, ‘‘नाम से क्या होता है?’’
‘‘बहुतकुछ होता है.’’
‘‘तुम्हें मेरा नाम पता है?’’
‘‘हां.’’
‘‘कैसे?’’
‘‘जैसे तुम्हें पता था मेरा नाम. तुम पूछने की ऐक्ंिटग ही तो कर रहे थे.’’
चेतन जोर से हंस दिया, ‘‘बहुत तेज हो. मतलब, तुम्हें भी मेरा नाम तुम्हारे दोस्तों ने पता कर के बताया है.’’
‘‘तुम डरे नहीं मेरे नाम से?’’
‘‘न, इस में डरने की क्या बात है? ऐसे ही मिलती रहोगी मु झ से? तुम्हारी अम्मी कपड़े सिलती हैं न?’’
‘‘बहुत पूछताछ करवा ली.’’
‘‘छोटी सी तो जगह है. सब तो जानते हैं एकदूसरे को.’’
‘‘अब जा रही हूं, कल तुम्हारे पापा हमारे घर आए थे. तुम्हारे बार में नौकरी करने के लिए कह रहे थे,’’ कहतेकहते दानिया का चेहरा बहुत उदास हो गया, ‘‘अब शायद तुम से वहीं मिलना हुआ करेगा. हम तो गरीब लोग हैं, जहां काम मिलेगा, वहीं कर लेंगे.’’

चेतन को यह सुन कर बहुत दुख हुआ. दानिया को बस यही देखना था कि चेतन को उस के दुख से दुख होता है या नहीं. दानिया को राहत मिली. उस की आगे की प्लानिंग पर चेतन का स्वभाव बहुत निर्भर करता था. चेतन ने कहा, ‘‘अगर तुम बार में आती भी हो तो मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा. शाम को मैं भी वहां होता हूं. तुम्हें देख
भी लिया करूंगा, तुम्हारा ध्यान भी रख लूंगा.’’
‘‘यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात होगी. हम मांबेटी का तो कोई है नहीं,’’ कहते हुए दानिया ने अपने आंसू पोंछे जो निकले ही नहीं थे.
चेतन गंभीर हुआ, बोला, ‘‘चिंता मत करो. पापा भी उमर मियां के साथ मिल कर काफी अच्छे काम करते रहते हैं. उमर मियां ने ही बताया होगा कि तुम्हारे यहां पैसे की तंगी है, अब तुम चिंता मत करो.’’

दानिया ने मन में सब को गालियां दीं पर उदास बनी रही. शाम को उमर ने अदरा को फोन किया, ‘‘दानिया से पूछा, काम करेगी वह?’’

तब तक दानिया अपनी सहमति दे चुकी थी. तय हुआ कि एक आदमी दानिया को बाइक से ले जाया करेगा, छोड़ कर भी जाएगा. दानिया को कुछ आधुनिक कपड़े ले कर दे दिए गए. बार में जाने वाले पहले दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर बहुत रोईं पर दानिया ने बहुत हिम्मत रखी. उस ने कहा, ‘‘अम्मी, अब देखना आप, एक महीना भी नहीं लगेगा, मैं सब संभाल लूंगी. उमर को मैं सबक सिखाऊंगी.’’

पहले दिन जब वह चेतन बार गई, चेतन उसे एक टेबल पर बैठे ही दिख गया. वह शाम को यहीं रहता था. कपिल ने सोचा था कि दानिया को बारगर्ल के साथसाथ और भी बहुतकुछ बना कर रखेगा पर ऐसा न हो, इसलिए दानिया ने पहले से ही चेतन को अपनी अदाओं, प्यार में गुलाम सा बना लिया था. चेतन को उस के सिवा अब और कुछ न दिखता.

दानिया आधुनिक कपड़ों में चमक गई थी. चेतन की निगाहें उस पर से हट ही नहीं रही थीं. दानिया ने काम सम झ कर सब संभाल लिया. वहां के 2-3 लोगों को चेतन ने पता नहीं क्या कहा था कि अब दानिया की तरफ उठने वाली नजरों में अश्लीलता नहीं थी. दानिया सब देखसम झ रही थी. पहला दिन ठीक तरह से बीत गया. 10 बजे रात को उसे घर छोड़ आया गया.

अदरा कहीं बाहर गई थी. दानिया को अपने सीने पर फिर एक बो झ सा महसूस हुआ. आज ही चेतन ने भी उसे एक फोन दे दिया था. वह फ्रैश हो कर चेतन से मीठीमीठी पर दुखी, उदास बातें करने लगी. उस ने महसूस किया कि चेतन कोमल दिल रखता है.

अदरा एक घंटे बाद थकी सी आई. अपनी अम्मी की हालत देख कर दानिया की आंखें भर आईं. उमर के लिए दिल में नफरत के अलाव धधक उठे. दोनों एकदूसरे से कुछ देर तक कुछ नहीं बोलीं. फिर कपड़े बदल कर अदरा दानिया के पास ही लेट गई. उस के बार के काम के बारे में पूछती रही, तसल्ली करती रही कि दानिया के साथ सबकुछ ठीक तो रहा.

कुछ दिन और बीते. चेतन कुछ और दीवाना हुआ. सब को ताकीद कर दी कि दानिया के साथ कुछ भी गलत न हो. दानिया इस चिंता से आजाद हुई तो और अच्छी तरह काम संभाल लिया. वह बार में 3 घंटे ही रहती. अब तो चेतन ही उसे अपनी बाइक पर कभीकभी छोड़ देता. दानिया उसे सचमुच बहुत अच्छी लगने लगी थी. दानिया उसे अपने दुखड़े सुनाती रहती. चेतन का दिल और हमदर्दी से भर जाता. एक दिन चेतन ने उस से पूछा, ‘‘कहीं बाहर चलें, पानीपत चलते हैं, कुछ घूम कर आते हैं?’’

‘‘मुझे ऐसी लड़की मत सम झना, चेतन. मेरे सामने बहुत काम हैं जो मु झे अपनी खुशियों से पहले पूरे करने हैं. सबकुछ उस के बाद सोचूंगी.’’
‘‘अब तो सब ठीक है न? तुम्हें 3 घंटे के हिसाब से पापा अच्छे पैसे देते हैं.’’
‘‘हम कितनी मुश्किल में हैं, चेतन, तुम सोच भी नहीं सकते?’’
‘‘प्लीज, मु झे दोस्त ही समझ कर बता दो.’’
‘‘यह हम मांबेटी का सच और दुख है, इसे मैं किसी से बांटना नहीं चाहती.’’
चेतन का मुंह उतर गया. दानिया ने फिर मुलायम, उदास स्वर में कहा, ‘‘क्या मैं तुम्हें सचुमच अपना दोस्त मान सकती हूं?’’
‘‘हां, अगर मु झ पर विश्वास कर सको. मैं तुम्हारे किसी भी काम आ गया तो मु झे बहुत खुशी होगी.’’

ऐसा नहीं था कि चेतन का पहले किसी लड़की से संबंध नहीं रहा था. अमीर था, सुविधाएं थीं. उस ने 2 लड़कियों के साथ टाइम पास किया था पर दानिया से उसे सचमुच लगाव हो गया था. उस की उदासउदास, सुंदर, बड़ीबड़ी आंखें हमेशा उसे अपनी तरफ खींचतीं. वह अब यह सोचने लगा था कि दानिया के साथ ज्यादा दूर तक तो नहीं चल पाएगा, बहुत सारे मसले होंगे पर जब तक साथ है, वह दनिया के लिए अब सबकुछ करने का मन बना चुका था.

चेतन ने दानिया का हाथ पकड़ा और चूम लिया. दानिया का तनमन पहली बार किसी पुरुष स्पर्श से लहरा सा गया. उस के अंदर अचानक कुछ पिघलने सा लगा. वह एक जादू में घिर गई. इस उम्र के भी अपने ही रंगढंग हैं. चेतन ने प्यार से कहा, ‘‘मु झे बताओ, क्या दुख हैं तुम दोनों को?’’
इस समय दोनों दानिया के घर से कुछ ही दूर थे. चेतन ने रास्ते में बाइक रोक रखी थी. रात के अंधेरे में दानिया उमर के सब कारनामे बताती चली गई. चेतन सांस रोके, हैरान, बुत सा बना सुनता रहा. दानिया के आंसू अंधेरे में चमके तो चेतन को होश आया. उस ने हाथ बढ़ा कर उस की आंखें पोंछी. उस के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘यकीन करना मुश्किल है, कैसे लोग हैं आसपास. मु झे बताओ, कैसे तुम्हारी हैल्प करूं?’’
‘‘चेतन, मैं उमर से बदला लेना चाहती हूं, अम्मी को यहां से दूर ले जाना चाहती हूं.’’
‘‘कैसे ले पाओगी बदला?’’
‘‘मैं ने सब सोच लिया है, साथ दोगे?’’
‘‘हां, बोलो.’’
कपिल का आसपास के कई शहरों में बिजनैस था. वे अकसर टूर पर रहते. मां अमिता भजनकीर्तन में समय बिता देती. चेतन इकलौता लड़का था, दिन में कालेज जाता, कभी नहीं भी जाता. उसे आगे बिजनैस ही देखना था. उस के ऊपर फिलहाल कम ही जिम्मेदारियां थीं. उस ने सोचा, अभी वह आराम से दानिया की हैल्प कर सकता है.
‘‘बोलो, दानिया, क्या करना है,
उमर का परदाफाश करना है, सब को बता दें?’’
‘‘कोई जल्दी यकीन नहीं करेगा. धर्म की बड़ीबड़ी बातें करने वालों की समाज में बड़ी इज्जत होती है. लोग इन जैसों के पीछे पागल हैं. देखा नहीं तुम ने, हमारे धार्मिक गुरु हों या तुम्हारे, कैसेकैसे कांड कर के खुलेआम मजे करते हैं. मु झे उमर के बेटे अमान को किडनैप करना है और अपनी अम्मी को बचाना है.’’
चेतन कुछ सोच रहा था. दानिया उसे सोचों में घिरे देख परेशान हो गई, कहीं चेतन पीछे हट गया तो बड़ी मुश्किल होगी. उस ने फौरन चेतन के कंधे पर सिर रख दिया, ‘‘चेतन, मु झे पहली बार ऐसा दोस्त मिला है जिस से मैं ने अपने दुख बांटे हैं. तुम मेरी हैल्प नहीं भी करोगे तो भी मैं उमर से बदला तो ले कर रहूंगी.’’
नाजुक सी लड़की ने लड़के के कंधे पर सिर रखा हुआ था. लड़की उदास थी. लड़का कैसे न मानता. चेतन ने दानिया का चेहरा उठा कर उस के गाल चूम लिए. दानिया ने चूमने दिए.
चेतन ने कहा, ‘‘जैसा कहोगी, हो जाएगा. बताना, क्या सोचा है, क्या करना है. अभी तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

दानिया ने चैन की सांस ली. चेतन ने दानिया को ऊपर से नीचे तक देखा, इस समय वह रैड टौप और ब्लू जीन्स में थी. बालों को उस ने ऊपर कर के बांधा हुआ था पर बाल फिर भी इधरउधर बिखर गए थे. चेहरे पर परेशानी थी पर फिर भी रंगत पर एक चमक थी. दानिया ने पूछ लिया, ‘‘क्या देख रहे हो?’’
‘‘देख रहा हूं कि एक नाजुक सी लड़की अपनी अम्मी को बचाने के लिए क्याक्या करने को तैयार है.’’
‘‘हां, तैयार तो हूं.’’
‘‘ठीक है, चलो. आगे प्लान करते हैं, कैसे क्या करना है,’’ कहते हुए चेतन ने उसे अपनी आगोश में ले लिया. दानिया भी उस के सीने से जा लगी. इस समय उसे कोई खौफ नहीं था, इस से ज्यादा सड़क पर कुछ और हो भी नहीं सकता था. अदरा की हालत ने सचमुच दानिया को बहुत होशियार बना दिया था.

अब दानिया रातदिन यही सोचती रहती कि कैसे क्या करना है. चेतन से भी इस बारे में बात करती रहती. 8 साल का अमान बहुत शरारती बच्चा था. दानिया के घर से कुछ ही दूर एक खेल का मैदान था जहां आसपड़ोस के बच्चे शाम को खेला करते. कुछ लोग टहलते रहते. कुछ किसी पेड़ के नीचे बैठ कर महफिल जमाए रखते. बड़े शहरों की तरह अभी यहां लड़केलड़कियां साथ नहीं दिखते थे. कसबाई माहौल था. प्यारमोहब्बत अब फोन पर या छिप कर ही चला करती.

अमान दानिया को पहचानता था. कई बार उमर उसे और अपनी पत्नी को अपने साथ दानिया के घर ले आता जिस से आसपास वालों को कुछ शक न हो. दानिया ने जब सब प्लानिंग कर ली. चेतन से सब तय हो गया. उस ने अदरा से बस इतना ही कहा, ‘‘अम्मी, हमारी मुसीबत खत्म होने ही वाली है. हम दोनों बहुत जल्दी यहां से निकल जाएंगे.’’ अदरा पूछती रह गई पर इस से ज्यादा दानिया ने कुछ नहीं कहा. बस, अम्मी के गले लग गई और कहा, ‘‘मुझ पर यकीन करना, बस.’’

दानिया ने अगले 2 दिनों की स्कूल की छुट्टी ले ली थी. अदरा के पूछने पर इतना ही कहा, ‘‘कुछ जरूरी काम है. बाहर जा रही हूं. कोई पूछे तो कह देना, मेरी तबीयत खराब है.’’ चेतन अब उस से कई बार कह देता था कि बार भी रोजरोज आने की जरूरत नहीं है. पापा हों, तो शक्ल दिखा देना कि तुम काम कर रही हो. वहां सब मेरे ही आदमी हैं. जो कहूंगा, वही बोलेंगे.’’

इस बात से दानिया को बहुत राहत हो गई थी. तय हुआ था कि पार्क के माहौल का जायजा ले कर दानिया सबकुछ चेतन को बता देगी. अमान के सामने नहीं जाएगी वरना अमान बाद में सब को बता सकता था कि दानिया उसे ले गई थी. दानिया ने दूर से नोट किया कि अमान रोज घर जाने से पहले आइसक्रीम खाता है. बाकी बच्चे उस से आगेआगे चले जाते हैं. अमान थोड़ा आराम से आइसक्रीम खाता हुआ चलता है.

यही समय चेतन ने अमान को किडनैप करने का चुना. उस के 2 दोस्त नीरज और कपिल पहले से पार्क में इधरउधर टहलते रहे. जब अमान घर जाने के समय आइसक्रीम खाता हुआ धीरेधीरे चलने लगा, नीरज ने बहुत तेजी से उस के मुंह पर एक रूमाल रख कर उसे बेहोश किया और पास खड़ी हुई कार में उसे धकेल सा दिया और कार दौड़ पड़ी, जिस में चेतन पहले से बैठा हुआ था. यह पूरा मंजर दानिया ने बहुत दूर से देखा. पहले कदम की सफलता ने उसे जोश से भर दिया.

कैराना से कार से बस 20 मिनट दूर ही शामली में एक पुरानी बस्ती में चेतन के दोस्त राजीव का एक छोटा सा घर खाली पड़ा था. राजीव दिल्ली चला गया था. उस घर की चाबी चेतन के पास ही रहती थी. अमान को वहीं रखा जाना था. चेतन ने अपने यहां काम करने वाले कमल को इस काम में हैल्प के लिए चुना था जो अभी उस घर में चेतन के आने का इंतजार कर रहा था. चेतन अमान को गोद में उठा कर अंदर ले गया. कमल ने उसे अपनी बांहों में ले कर बिस्तर पर लिटा दिया. चेतन ने दानिया को यहां तक पहुंचने का मैसेज डाल दिया. दानिया ने जवाब में थम्सअप की इमोजी भेज दी.

रात में दानिया ने अदरा को सब बता दिया. वह सुन कर घबरा गई पर दानिया ने जब पूरी बात सम झाई तो उसे कुछ तसल्ली हुई. यहां से जाने का मौका दिखा, रातदिन जलते तनमन को सुकून मिलने की उम्मीद दिखी तो बेटी को अपने सीने से लगा लिया. दानिया तो सो गई पर अदरा की आंखों से नींद उड़ी हुई थी. क्या सब ठीक हो जाएगा? क्या सब सचमुच ऐसा ही होगा जैसा दानिया ने सोच लिया है? कहीं उस की बेटी किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ेगी?

अगले 2 दिन न तो उमर आया, न अदरा को कहीं जाना पड़ा. सब जगह शोर मच गया कि अमान गायब है. लोग हैरान थे कि इतने शरीफ उमर मियां का क्या कोई दुश्मन हो सकता है? उस की पत्नी का रोरो कर बुरा हाल था. पुलिस तफ्तीश कर रही थी. मैदान में जा कर पूछताछ की गई. आखिरी बार उसे वहीं देखा गया था. दानिया ने अदरा से कहा, ‘‘आप पहले उमर को फोन कर के यहां बुलाओ, उस से बात करूंगी. फिर मु झे चेतन के कुछ और साथियों से भी बात करनी है जो इस समय हमारे साथ हैं.’’

चेतन के बारे में दानिया अदरा को सबकुछ बता चुकी थी. आगे की प्लानिंग पूरी तरह से तैयार थी. अदरा ने उमर को शाम को फोन कर के आने के लिए कहा. दानिया लगातार चेतन के संपर्क में थी. अब सारी मुसीबत खत्म होने का समय आ गया था. उड़ी शक्ल ले कर दुखी सा उमर शाम को आ गया, बीच में लटकी चादर को देखा, इशारे से पूछा, ‘‘दानिया है?’’
‘‘हां, उसे बहुत तेज बुखार है. अमान का कुछ पता चला?’’
‘‘नहीं, सारा कामधंधा ठप हुआ पड़ा है. पता नहीं कौन ले गया है. तुम ने मु झे क्यों बुलाया है?’’ फिर विद्रूप हंसी हंसा, ‘‘क्या तुम्हें भी धंधे की आदत हो गई है. 2 दिन तुम्हें कहीं नहीं भेजा, किसी को यहां नहीं भेजा तो तुम ने मु झे बुलवा लिया.’’
‘‘तुम ने जिस नरक में मु झे धकेला है, वह आदत नहीं, मेरी मजबूरी थी.’’
‘‘अब तो दानिया कपिल को पसंद आ गई है.’’
इतने में दानिया एक कोने से निकल कर आई, ‘‘मु झे पता है, अमान कहां है?’’
उमर को जैसे करंट लगा. वह झटके से खड़ा हो गया. ‘‘क्या बकवास कर रही है, तु झे कैसे पता?’’
‘‘तु झे क्या लगता है, तू हमेशा बेसहारा औरतों को अपने जाल में फंसाता रहेगा, किसी को पता नहीं चलेगा?’’
‘‘अमान कहां है? तु झे तो ऐसा मजा चखाऊंगा कि याद रखेगी. मेरे सेठ लोग तेरा क्या हाल करेंगे, तू सोच भी नहीं सकती.’’
‘‘तू सोच सकता है कि तेरे बेटे के साथ क्याक्या हो सकता है?’’
‘‘तू चाहती क्या है?’’
यही कि तू मु झे इतने पैसे दे कि मैं अपनी अम्मी के साथ यहां से निकल सकूं और फिर हमें तेरी शक्ल कभी न दिखे.’’
‘‘मैं पुलिस को बताता हूं.’’
‘‘चल, मु झे भी बहुतकुछ बताना है.’’

उमर अब डरा. ‘‘मैं पैसे ले कर आता हूं. मु झे अपना बच्चा सहीसलामत चाहिए पर मैं तेरी बात पर यकीन कैसे करूं?’’

दानिया ने अपने फोन में अमान की कई फोटोज दिखाईं. किसी में वह सो रहा था, किसी में रो रहा था.

दानिया ने कहा, ‘‘तू ने पता नहीं कितनी औरतों के साथ बुरा किया है, उन से धंधा करवाता है, समाज के सामने धर्म का ठेकेदार बनता है, तेरी पोल खुलनी ही चाहिए और तू अभी कहीं जाएगा नहीं, फोन पर ही मेरे लिए पैसे मंगवा.’’

उमर ने दांत पीसते हुए मांबेटी को देखा और किसी को फोन किया, ‘‘सेठ, अमान मिल जाएगा, मु झे कुछ रकम चाहिए. इसी समय अदरा के घर भेज दो, जल्दी.’’

आधे घंटे तीनों एकदूसरे को घूरते रहे, सन्नाटा रहा. फिर एक आदमी आया. उमर को एक बैग दिया और चला गया. उमर ने वह बैग दानिया की तरफ फेंका, ‘‘चलो, अमान का पता बताओ.’’

बीच में टंगी चादर हटी, चेतन अपने 3 साथियों के साथ बाहर निकला. ये सब अभी तक जैसे सांस रोके ही सब बात सुन रहे थे जिस से इन की कोई आवाज चादर के उस पार न जाए. उमर के होश उड़ गए. अदरा को
देख चिल्लाया, ‘‘यह सब क्या है? तुम दोनों को मैं छोड़ूंगा नहीं.’’

चेतन ने उमर को एक थप्पड़ मारा. वह हिल गया. ‘‘तू किसी को क्या पकड़ेगा या छोड़ेगा, तू तो खुद ही गया अब.’’ फिर उस ने एक जगह रखे फोन को उठाया, अपने साथियों से कहा, ‘‘थैंक्यू दोस्तो. इस कपटी की यह वीडियो रिकौर्डिंग हम संभाल कर रखेंगे. इस ने जरा सा भी इन दोनों को या किसी और औरत को भी परेशान किया तो यह आदमी ऐसा फंसेगा कि याद रखेगा. मेरे पापा को तो कोई परेशानी नहीं आएगी, उन से तो मैं बात कर ही लूंगा. यही काम से गया. उमर मियां, जाओ, अब सच में सब को अच्छी बातें सिखाओ और कुछ पर खुद भी अमल कर लेना.’’
‘‘तुम चिंता मत करो,’’ दानिया की तरफ देख चेतन का एक पक्का दोस्त राजू हंसा, ‘‘तुम्हारा दोस्त बहुत अच्छा है, अपने बाप से भी पंगा लेने को तैयार है.’’ फिर उमर को एक डंडा जमा
दिया, ‘‘तू तो अब ह्यूमन ट्रैफिकिंग में अंदर जाएगा.’’
दानिया अपनी अम्मी के गले लग गई. दोनों की आंखों से आंसू बह निकले. राजू ने उमर से कहा, ‘‘तुम जाओ, अमान तुम्हें थोड़ी देर बाद मिल जाएगा.’’ उमर चला गया. एक दोस्त अमान को लेने चला गया. अदरा ने चेतन के आगे हाथ जोड़ दिए, सुबक उठी, ‘‘तुम ने आज हमारी बहुत मदद की.’’

‘‘अरे, आंटी,’’ कहते हुए चेतन ने उन के हाथ पकड़ लिए और अपने सिर पर रख लिए, ‘‘आप बस आशीर्वाद दीजिए कि आने वाले समय में भी मैं ऐसी हिम्मत दिखा पाऊं. अभी तो मु झे अपने पापा से भी निबटना है. आप दोनों के लिए पानीपत में छोटा सा घर देख लिया है. आप वहां चली जाइए. दानिया वहां से आगे की पढ़ाई पूरी कर लेगी. मैं आप दोनों से मिलता रहूंगा. अभी आप दोनों यहां की पैकिंग जल्दी कीजिए और फौरन यहां से निकल जाइए. मैं यहां सब देख लूंगा. मैं आप लोगों के बाकी इंतजाम कर के अभी आता हूं. आप जरूरी सामान ले लो, कुछ बचा तो मैं पहुंचा दूंगा. अभी आया,’’ कह कर चेतन बाहर चला गया.

अदरा ने दानिया को गले लगा लिया. उस का मुंह बारबार चूमती रहीं, ‘‘तुम ने अपनी मां को बहुत मुसीबत से बड़ी होशियारी से निकाला है, शाबाश.’’ दोनों जल्दीजल्दी अपना जरूरी सामान बांधने लगीं. इतने में दानिया के फोन पर चेतन का मैसेज आया, ‘जा तो रही हो लेकिन मैं आगे मिलता रह सकता हूं न? हमारी दोस्ती रहेगी न?’’

‘हां’ में जवाब दे कर दानिया मुसकरा दी. आगे उस का और चेतन का रिश्ता कैसा रहेगा, यह तो किसी को नहीं पता था पर यह साफ था कि दोस्ती बनी रहने वाली थी.

Story In Hindi : हम मम्मी जैसी बेवकूफ नहीं – सीमा से अधिक दबती स्त्री की व्यथा

Story In Hindi : घरगृहस्थी और बच्चों की जिम्मेदारियां निभाती स्त्री अपना मूल्य आंकती नहीं है. कनिका ने तो अपने अस्तित्व को जिंदगीभर दबा कर रख दिया था लेकिन आज उसे एहसास हो रहा था कि अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़नी होगी.

‘‘कनिका को अपने आने की खबर तो कर देती. कहीं ऐसा न हो कि उन्हें सरप्राइज देने के चक्कर में खुद सरप्राइज्ड हो जाओ,’’ मीनाक्षी का पति उसे सम झाते हुए बोला.
‘‘नहीं, मैं तो उस के चेहरे पर अचानक से मु झे देख कर आने वाली खुशी देखना चाहती हूं. अच्छा, अब मैं चलूं. आप भी वहां पहुंच कर मु झे खबर कर देना और अपना ध्यान रखना,’’ मीनाक्षी अपना बैग ले कर बाहर निकलते हुए बोली.

मीनाक्षी का पति 2 दिनों के लिए औफिस टूर पर जा रहा था और उन के दोनों ही बच्चे बाहर रह कर पढ़ाई कर रहे थे. वैसे तो उस की छोटी बहन उस के ही शहर में रहती थी लेकिन मिलनाजुलना कम ही हो पाता था. एक तो घरगृहस्थी का चक्कर, दूसरा कनिका के पति और सास को उस के मायके वालों का वहां आना कम ही पसंद था.

2-3 दिनों पहले जब मीनाक्षी की कनिका से बात हुई तब कनिका की आवाज से लग रहा था कि कुछ सही नहीं है. मीनाक्षी ने मिलने आने के लिए कहा तो कनिका हंसते हुए बोली, ‘अरे दीदी, घबराओ मत, मैं ठीक हूं. हलकाफुलका बुखार है. दवा ले ली है, शाम तक सही हो जाऊंगी.’

कल ही उस के पति ने औफिस टूर के बारे में बताया तो उस ने कनिका से मिलने का प्रोग्राम बनाया. पता था कि उस के पति व सास को अच्छा नहीं लगेगा लेकिन कनिका की खुशी के लिए वह उन की बेरुखी सह लेगी.

वैसे भी, इस बार रक्षाबंधन पर भी कहां उस से मिलना हुआ था. उस ने दोपहर तक कनिका का इंतजार किया लेकिन वह देर शाम तक ही मायके पहुंची. तब तक वह वापस आ गई थी.

कैब में बैठेबैठे मीनाक्षी अतीत के गलियारों में पहुंच गई. दोनों बहनों में 2 साल का ही अंतर था. बहनें कम, सहेलियां ज्यादा थीं वे दोनों. पढ़नेलिखने में दोनों ही बहुत होशियार थीं लेकिन कनिका को पढ़ाई के साथसाथ सिलाईबुनाई का भी बड़ा शौक था. जहां उस की शादी एक प्राइवेट बैंक मैनेजर से हुई वहीं कनिका की शादी मनीष से हुई जो सरकारी विभाग में यूडीसी के पद पर कार्यरत था.

दोनों ही बहनों को घरबार अच्छा मिला. मांपिताजी तो यह सोच कर बहुत खुश थे लेकिन उन की खुशी ज्यादा दिन टिक न सकी. कनिका का परिवार संयुक्त था, जिस में सासससुर, जेठजेठानी, देवर और एक ननद थी. जेठजेठानी तो उस की शादी के थोड़े दिनों बाद ही अलग हो गए. सारे परिवार के काम की जिम्मेदारी अब कनिका पर आ गई थी. इतना काम करने पर भी उस के पति, सास व ननद का व्यवहार उस के साथ अच्छा न था.

उस की सास छोटीछोटी बातों पर कलेश करती. वहीं पति भी लड़ने झगड़ने, गालीगलौज और यहां तक कि हाथ उठाने में भी गुरेज न करता. शुरू के एकडेढ़ साल तो कनिका ने ससुराल की बातों पर परदा डाले रखा. इस बीच, वह एक बेटी की मां बन गई थी. वह तो अभी भी न बताती लेकिन अब उस के पति व सास ने अति कर दी थी. कनिका के पिताजी, भाई को जब यह बात पता चली तो वे वहां गए और इस बारे में बात की तब उस के ससुर ने बीचबचाव करते हुए हाथ जोड़ सम झौता करने के लिए कहा और वादा किया कि आगे से ऐसा नहीं होगा.

बेटी की जिंदगी का सवाल था. शादीशुदा बेटी को घर पर बैठाना इतना आसान कहां और वह भी एक बच्चे की मां. इसी तरह एकडेढ़ साल और निकल गया और कनिका की गोद में एक बेटी और आ गई. दूसरी बेटी होने के बाद सास व पति ने फिर से अपना वही रूप धर लिया. कनिका अपनी बेटियों की खातिर सबकुछ बरदाश्त कर रही थी. कितनी ही बार मांपिताजी ने इस रिश्ते को तोड़ उसे वापस लाने का प्रयास किया लेकिन हर बार वह अपनी बेटियों के बारे में सोच कर आने से मना कर देती.

दिन बीतते रहे. उस की ननद व देवर की भी शादी हो गई और कनिका ने एक बेटे को जन्म दिया. सब ने यही सोचा कि पोता व छोटी बहू आने से उस की सास कनिका के प्रति नरम हो जाए लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और इस का सब से बड़ा कारण कनिका का पति था. उसे परिवार में अपने भाईबहन सब की फिक्र थी, केवल अपनी पत्नी को छोड़ कर. जब पति ही साथ न दे तो दूसरों से क्या उम्मीद.

मीनाक्षी को आज भी याद है जब गरमी की छुट्टियों में वह मायके आई हुई थी तो एक दिन कनिका की ससुराल से किसी का फोन आया. सुन कर पिताजी व उस का भाई दौड़े गए. जा कर देखा तो उस के पति ने कनिका को इतनी बेरहमी से पीटा हुआ था कि वह लहूलुहान थी. उस पर भी उस की सास अपने बेटे का पक्ष लेते हुए कनिका में ही कमियां निकाल रही थी. अब शायद कनिका की सहनशक्ति भी जवाब दे चुकी थी. वह भी इस बार बच्चों को छोड़ मायके आ गई लेकिन अभी उसे आए 2 दिन भी न हुए थे कि उस ने वापस अपने बच्चों के पास जाने के लिए रट लगा ली.

सब ने उसे कितना सम झाया कि कुछ दिन यहीं रहो. तभी तुम्हारे ससुराल वालों को अक्ल आएगी. करने दो उन्हें घर का काम अकेले और पालने दो बच्चों को. तुम मां हो तो वह भी तो उन का बाप है. पता तो चले कि बच्चे कैसे पाले जाते हैं और काम कैसे होता है.

लेकिन कनिका ने किसी की न सुनी. उसे बस अपने बच्चों की फिक्र थी और उन की फिक्र में उस ने खाना भी छोड़ दिया. बस, एक ही रट लगा रखी थी कि ‘मैं अपने बच्चों के बगैर नहीं रह सकती. मु झे यहां नहीं रहना. मु झे उन के पास ही जाना है. इस में मेरे बच्चों की क्या गलती है?’

उस की जिद के आगे किसी की न चली और आखिर में भैया उसे ससुराल छोड़ आए.

कनिका की सास व पति ने कितनी बातें सुनाई थीं उस के भाई को- ‘बहन को दो दिन ही रखना भारी पड़ गया.’ और भी न जाने क्याक्या.

उस दिन के बाद कनिका ने कभी भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के बारे में उन्हें नहीं बताया. साल में एकदो बार ही वह मायके आती थी और वह भी अकेले.

कैब के रुकने से मीनाक्षी की तंद्रा टूटी. ड्राइवर को पैसे दे वह नीचे उतरी और अगले ही पल वह कनिका के दरवाजे पर खड़ी थी.

दरवाजा कनिका की बड़ी बेटी ने खोला. उसे यों अचानक सामने देख कनिका की बड़ी बेटी के साथसाथ छोटी बेटी, जो सामने ही सोफे पर बैठी थी, एकदम से सकपका गई और फिर संभलते हुए उसे नमस्ते कर अंदर ले गई. मीनाक्षी को उन का व्यवहार कुछ अजीब लगा.

अपनी बड़ी बहन को सामने देख कनिका भी एक बार तो हैरान रह गई. फिर खुश होते हुए बोली, ‘‘मीनाक्षी, तू? अरे, तू ने तो खबर भी नहीं दी आने की,’’ कहते हुए वह उस के गले लग गई.
‘‘खबर तो परायों को करते हैं. मैं तो अपनी हूं और ऐसे अचानक न आती तो तेरे चेहरे की खुशी कैसे देख पाती.’’
मीनाक्षी ने ध्यान से देखा, कनिका का चेहरा उतरा हुआ था. इतनी सी उम्र में वह उम्रदराज लग रही थी. उस की दोनों बेटियां अब 15-17 साल की हो चुकी थीं. वे दोनों उस के लिए चायनाश्ता ले आईं.

चाय पीते हुए अचानक से कनिका के सिर पर ढका हुआ दुपट्टा फिसल गया. कनिका जल्दी से अपने सिर का दुपट्टा ढकने लगी कि तभी मीनाक्षी की नजर उस के सिर पर बंधी पट्टी पर गई तो वह चौंकते हुए बोली, ‘‘कनिका, यह तेरे सिर पर चोट कैसे?’’
‘‘कुछ नहीं दीदी, फिसल गई थी.’’
‘‘ऐसे कैसे फिसली कि सिर के ऊपर चोट आई? अपनी बहन से छिपा रही है. सचसच बता, क्या बात है? कहीं इसलिए ही तो तू मु झे आने के लिए मना नहीं कर रही थी? क्या मनीष ने…’’ मीनाक्षी ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए प्यार से पूछा.

कनिका अब चुप न रह सकी. उस की आंखों में ठहरा हुआ दर्द आंसुओं के रूप में बह निकला और उस ने रोते हुए बताया, ‘‘कल मेरी सास आई थी और छोटी सी बात का बतंगड़ बना रोने लगी. अपनी मां को रोता देख ये गुस्से से इतने पागल हो गए कि मेरी बात सुने बगैर राजू का बैट उठा कर मेरे ऊपर चढ़ गए.’’

यह सुन कर मीनाक्षी के होश उड़ गए, ‘‘कोई इतना भी राक्षस हो सकता है क्या?’’ मीनाक्षी ने जब कनिका की बेटियों से कहा, ‘‘अब तो तुम बड़ी हो गई हो. अपने पापा व दादी को क्यों नहीं रोकतीं और सम झातीं. अच्छा लगता है क्या कि वे तुम्हारी मां पर हाथ उठाएं?’’ तो वे दोनों सम झने के बजाय नाराज होती हुई बोलीं, ‘‘मौसीजी, आप मम्मी को क्यों नहीं सम झातीं. सारी गलती मम्मी की है. क्यों दादी के मुंह लगती हैं. पापा सारा दिन औफिस में कितना काम करते हैं. थकहार कर घर आए और फिर यह सब सुनने को मिले तो किसे गुस्सा नहीं आएगा. अरे मम्मी, चुपचाप अपनी गलती मान बात क्यों नहीं खत्म करतीं. सच कहूं, मम्मी बहुत बहस करती हैं तो किसे गुस्सा नहीं आएगा.’’
‘‘गलती न होते हुए भी अपनी गलती मान लें, तुम्हारी मां. कल को तुम्हारी शादी होगी और तुम्हारे साथ कोई ऐसा सलूक करे तो?’’
‘‘मौसीजी, हम मम्मी जैसी बेवकूफ नहीं. हमें पता है कहां बोलना है और कहां चुप रहना है. हम सब संभाल लेंगी.’’

उन दोनों लड़कियों की बात सुन मीनाक्षी आवाक रह गई. जिन बेटियों को कभी उस की दादी व बाप ने गोद में नहीं लिया वे दोनों आज उन्हीं का पक्ष ले रही थीं.

और जिस मां ने उन बेटियों की खातिर इतना जुल्म बरदाश्त करते हुए अपनी पूरी जिंदगी स्वाहा कर दी, उस के प्रति उन्हें तनिक भी सहानुभूति नहीं. उलटा, वे तो उसे ही कसूरवार ठहरा, बेवकूफ बता रही थीं. बेटियां तो मां की होती हैं उस का हमसाया, लेकिन जिस का हमसाया ही साथ छोड़ जाए तो वह क्या करे?

मीनाक्षी ने कनिका की तरफ देखा. मानो पूछना चाह रही हो कि आखिर क्या मिला तुम्हें. जिन बच्चों की खातिर तुम ने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी, वे ही तु झे कसूरवार ठहरा रहे हैं. मांपिताजी की बात मान लेती तो शायद?

लेकिन सारे प्रश्न मीनाक्षी के भीतर ही घुट कर रह गए. वह कुछ भी कह कर कनिका की पीड़ा बढ़ाना नहीं चाहती थी. लेकिन उस ने मीनाक्षी की आंखों में सभी प्रश्न पढ़ लिए थे और उस का एक ही जवाब था कि-
‘वह मां है. औलाद बुरी हो सकती है, मां नहीं. मैं ने अपना फर्ज निस्वार्थ भाव से निभाया आगे उन की मरजी.’

मीनाक्षी बोली, ‘‘हां कनिका, मैं यही तो कह रही हूं कि तुम ने मां और पत्नी बन कर अब तक अपने सारे फर्ज निभाए. इन की खातिर तुम ने अपने आत्मसम्मान को भी जीतेजी मार दिया. अब तो बच्चे बड़े हो गए. वे अपनी जिम्मेदारी खुद उठा सकते हैं. अपनी ही क्यों, अपने पापा की भी जिन के प्रति उन के मन में इतना सम्मान और सहानुभूति है. तेरी परवा तो पहले भी इस घर में किसी को नहीं थी. सोचा था, बच्चे तो तेरी कद्र करेंगे लेकिन?’’ कहते हुए मीनाक्षी रुक गई.
‘‘मेरी किस्मत में शायद यही लिखा था और वैसे भी इस उम्र में कहां जाऊंगी मैं, कौन मु झे सहारा देगा? अब तो यही मेरा घर है. इतनी कट गई और कट जाएगी.’’
‘‘कैसी बात कर रही है. तू इतनी लाचार कैसे हो सकती है. तु झे सहारे की जरूरत कब से पड़ने लगी? तू इस घर की नींव है और तेरे सहारे पर ही यह घर टिका है. यह इस घर में सब को पता है लेकिन तेरा पति पुरुषदंभ में यह बात स्वीकार नहीं करता और बच्चे अपने स्वार्थवश. उन्हें लगता है, मां तो कुछ करती ही नहीं, उन की जरूरतें तो उन के पापा ही पूरी करते हैं.’’
‘‘यह सही भी तो है, मीनाक्षी. मैं कौन सा कहीं कमाने जा रही हूं.’’
‘‘कनिका, हम औरतों की यही तो सब से बड़ी कमी है कि हम खुद ही अपनेआप को कमतर आंकती हैं. अपना पूरा जीवन बच्चों की परवरिश और घर को संवारने में निकाल देती हैं. लेकिन परिवार की नजरों में यह कोई काम नहीं. यह तो हमारा कर्तव्य था. उन्हें यह काम, काम नहीं लगते तो क्यों न यह न लगने वाले काम कुछ दिन इन को सौंप दिए जाएं. पता तो चले घर का काम कैसे होता है. दालरोटी बनाने में कितना पसीना बहाना पड़ता है.’’
‘‘लेकिन, बच्चे ये सब कैसे करेंगे और ये… कहीं घर से निकाल दिया तो? मैं तो कमाती भी नहीं.’’
‘‘कनिका, यह घर जितना तेरे पति का है, उतना तेरा भी. कोई तु झे घर से नहीं निकाल सकता. बच्चों की फिक्र कुछ दिन के लिए छोड़ दे और कमाती कैसे नहीं, अरे, तेरे हाथ में तो इतना हुनर है. भूल गई क्या? तेरी सिलाईबुनाई की महल्ले वाले कितनी प्रशंसा करते थे. तु झे कपड़े सिलने के लिए दोगुने पैसे देने के लिए तैयार थे. कनिका, जितना तू दबेगी, उतना ही तु झे सब दबाएंगे.

‘‘और अब तो देख, तेरी चुप्पी का फायदा उठा कर बच्चे भी तु झ से जबान लड़ाने लगे हैं. यों मरमर कर कब तक जिएगी. अपने लिए तु झे पहले खुद ही आवाज उठानी पड़ेगी. तभी कोई दूसरा तेरा साथ देगा. याद है, जब हम पढ़ते थे तो टीचरजी ने हमें क्या सबक सिखाया था कि एक बार अपने डर पर काबू पा लोगी तो फिर तुम्हें कोई नहीं डरा पाएगा. चीखनेचिल्लाने वाला डरपोक होता है. एक बार उस का विरोध कर के तो देखो.’’

मीनाक्षी की बातें सुन कनिका कुछ नहीं बोली. मीनाक्षी की बातों ने उस के अंदर एक अंतर्द्वंद्व उत्पन्न कर दिया. मीनाक्षी के साथ वह हंसबोल रही थी लेकिन भीतर ही भीतर आत्ममंथन भी कर रही थी. मीनाक्षी तो जाने से पहले उस के पति से मिल कर इस बारे में बात करना चाहती थी लेकिन कनिका ने उसे सम झाबु झा कर भेज दिया. उसे सम झ आ गया था कि अपनी लड़ाई उसे खुद ही लड़नी है.

उस दिन के बाद उस ने घर की कुछ जिम्मेदारियां बच्चों पर डालनी शुरू कर दीं. शुरू में तो बच्चों ने इस का विरोध किया और पति वह तो उसी तरह से गालीगलौज व मारपीट पर उतर आया लेकिन पहले जहां कनिका झगड़ा शुरू होने से पहले ही घर की शांति के लिए अपनी हार मान लेती थी, इस बार उस ने पुरजोर विरोध किया. इस की उस के पति को अपेक्षा न थी. बच्चे भी हतप्रभ थे. कनिका की आंखों में विरोध देख उस का पति चीखताचिल्लाता अपने कमरे में चला गया.

शुरूशुरू में तो सब को यही लगा कि कनिका एकदो दिन में ही फिर से घर का काम संभाल लेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. बरसों से कनिका ने जिस घर को बड़े जतन से संजो कर रखा था और जिस काम की किसी ने कभी कद्र न की, आज उस बिखरते से घर को देख सभी को अपनी गलती का एहसास हो रहा था.

पति ने चीखनाचिल्लाना बंद कर दिया था. बच्चों ने पासा पलटते देख कनिका की खुशामद करनी शुरू कर दी लेकिन कनिका तो अब मां से मैं तक के सफर पर चल पड़ी थी. हां, उस ने पूरी तरह घरपरिवार की जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा लेकिन अब उस ने घरपरिवार की खातिर अपनी खुशियों का गला घोंटना छोड़ दिया था.

लेखक : सरोज प्रजापति

Kahani In Hindi : मुंबई की एक वेश्या – औरत के दिल छूते एहसास की कथा

Kahani In Hindi : वेश्या शब्द के साथ ही स्त्री की एक तिरस्कृत छवि दिमाग में घूम जाती है लेकिन मुंबई में मैं जिस वेश्या से मिला उस ने मेरे मन में इस शब्द के मायने ही बदल दिए.

हवाएं जब उम्मीद के विपरीत बहती हैं तो कुछ अप्रत्याशित होता है और जब कुछ अप्रत्याशित होता है तो समय के गर्भ से एक नई कहानी जन्म लेती है. यह कुदरत का दस्तूर है.

मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन पर एक प्रौढ़ बैठा हुआ था. उस की उम्र 45 के आसपास रही होगी, लेकिन स्वस्थ इतना कि अपनी उम्र से 10 साल छोटा लग रहा था. वह उत्तर भारत के एक गांव जटपुर का रहने वाला था.

उस की सामान्य देह, मध्यम आकार की मूंछ, सफाचट दाढ़ी और उस का ठेठ देहाती लहजा उस उसे मुंबई वालों से कुछ अलग ठहराता था. वैसे तो वह धोतीकुरता या फिर कुरतापाजामा पहनता था लेकिन मुंबई आया तो पैंटशर्ट पहन कर जो उस के शरीर पर ठीक से फब नहीं रहे थे.

हर उत्तर भारतीय जिस ने कभी मुंबई के दर्शन नहीं किए उसे मुंबई एक शानदार आधुनिक शहर ही लगता है. यह मुंबइया फिल्मों का असर है जो मुंबई नगरिया कल्पना में ऐसी नजर आती है. उस की कल्पना में मुंबई की गरीबी, झोंपड़पट्टियां और चालें नजर नहीं आती हैं. हर उत्तर भारतीय के लिए मुंबई एक मायानगरी है. ऐसे ही उस प्रौढ़ रणवीर को भी लगा था. लेकिन मुंबई आ कर उस का यह भ्रम दूर हुआ. उस ने अभी मुंबई के पौश इलाके नहीं देखे थे. वह तो बेचारा पहली बार मुंबई आया था, अपने बेटे को एक शिक्षण संस्थान में छोड़ने जहां उस के बेटे ने एडमिशन लिया था. वह आज गर्व से अपना सीना चौड़ा किए हुए था. उस के लिए यह बड़ी बात थी.
रणवीर अपने बेटे को उस संस्थान में छोड़ कर अब मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन पर बैठा था. उसे मुंबई बिलकुल भी ऐसी नहीं लगी थी जैसी उस ने सोची थी. वह स्टेशन पर बैठा वहां लगे भीमकाय सीलिंग फैन को देख रहा था जिस की पंखुडि़यां बहुत बड़ीबड़ी थीं.

अभी ट्रेन चलने में बहुत समय बाकी था. उसे चाय की तलब लगी. बाहर बारिश की हलकीहलकी फुहारें पड़ रही थीं जबकि इस समय उत्तर भारत गरमी से तप रहा था. मुंबई में तो सुबह से ही बारिश हो रही थी. रणवीर ने सोचा, इन हलकी फुहारों में बाहर निकला जा सकता है और गरम चाय का मजा लिया जा सकता है.
वह सड़क किनारे ऊंचे उठे फुटपाथ पर चलने लगा. उसे यहां का बाजार भी कुछ अलग न लगा. वह सोचने लगा, ऐसे बाजार तो अपने बिजनौर और मेरठ में भी देखने को मिल जाते हैं. कुछ दूर चलने पर उसे चाय की एक अच्छी दुकान मिल गई जहां वह आराम से बैठ कर चाय पी सकता था. चाय पीतेपीते उस ने सोचा, क्यों न अपनी पत्नी राधिका के लिए कुछ यादगार चीज खरीद ले वरना वह पूछेगी कि मुंबई से उस के लिए क्या लाए.
यही सोच कर रणवीर कुछ और आगे बढ़ा तब उस ने एक दुकान से राधिका के लिए एक खूबसूरत सा गुलाबी पर्स खरीद लिया. उसे लगा कि वह काफी आगे निकल आया है, अब उसे वापस स्टेशन की ओर चलना चाहिए. बारिश की हलकीफुलकी फुहारें अभी भी पड़ रही थीं, इसलिए फुटपाथ पर इक्कादुक्का आदमी ही नजर आ रहे थे.
रणवीर अपने कंधे पर हलका सा बैग लटकाए जा रहा था. तभी उसे पीला छाता लगाए और हरी साड़ी पहने फुटपाथ पर एक औरत खड़ी दिखाई दी. जैसे ही रणवीर उस के पास से गुजरा, उस ने कहा, ‘‘चलोगे.’’
रणवीर ने गरदन घुमा कर उस की तरफ देखा और प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछा, ‘‘कहां?’’
‘‘रूम पर,’’ त्वरित जवाब आया.
‘‘क्यों, क्या है वहां पर?’’
‘‘मजा,’’ उस औरत ने मुसकराते हुए कहा.
रणवीर सम झ चुका था कि वह औरत जरूर कोई वेश्या है. उस ने उस से पीछा छुड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं शादीशुदा हूं. घर पर मेरी बीवी है.’’
‘‘अरे साहब, घर का एक ही तरह का खाना खातेखाते मन नहीं भरता क्या? कभीकभी बाहर का खाना भी खा लिया करो.’’
‘‘नहीं जी, हमें एक ही तरह का खाना खाने की आदत है. हम बाहर का खाना नहीं खाते.’’
‘‘अरे, चलो तो सही, बहुत जायकेदार खाना खाने को मिलेगा. घर का खाना भूल जाओगे. आज सुबह से बोहनी भी नहीं हुई. एक भी कस्टमर नहीं मिला.’’
‘‘अरे बहन, मु झे माफ कर. हम बाहर का कैसा भी खाना नहीं खाते.’’
‘बहन’ शब्द सुनते ही वह अचकचा गई. उस ने बड़े अचंभे से पूछा, ‘‘बहन, मैं तुम्हारी बहन कैसे हुई?’’
‘‘देखो बहन, हम तो बचपन से ही यह सीखते आए हैं कि अपनी पत्नी को छोड़ कर दुनिया की सारी औरतें अपनी मां और बहन ही हैं. तुम मेरी हमउम्र हो तो तुम्हें मां तो कह नहीं सकता, तब तुम मेरी बहन हुई न.’’

वह औरत आंखें फाड़े रणवीर को देखे जा रही थी. रणवीर में उसे अपने भाई का अक्स उभरता नजर आ रहा था. रणवीर के प्रति उस के मनोभाव बदलने लगे थे. उसे इस भयंकर नारकीय जीवन में पहली बार किसी ने ‘बहन’ कह कर पुकारा था. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोई किसी वेश्या को इतनी इज्जत से ‘बहन’ कह कर भी पुकार सकता है. उसे तो सब गंदी नाली का कीड़ा ही सम झते हैं. सचमुच, उस की आंखें सजल हो उठीं.
‘‘रो मत, बहन. मैं जानता हूं तुम्हारी मुसीबतें क्या होती हैं और दुनिया तुम्हें किस नजर से देखती है.’’
यह सुन कर वह फफकफफक कर रो पड़ी जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. रणवीर ऊहापोह में था, फिर भी उस ने उस का सिर अपने कंधे पर रख लिया जैसे दुख में वह अपनी बहन को सांत्वना दे रहा हो.
रणवीर ने तो उसे आदतन ‘बहन’ बोल दिया था. लेकिन वह तो इतनी भावुक
हो गई थी जैसे उसे बहुत दिनों के बाद सचमुच अपना सगा भाई मिल गया हो. रणवीर ने भी सोचा कि जब उस ने उसे बहन बोल ही दिया है तो एक सच्चे जाट की तरह उसे भाई का किरदार निभाना चाहिए.
‘‘अच्छा, अब रो मत, बहन.’’

‘‘भैया, अब रोऊं न तो क्या करूं? मुंबई आने के 25 साल बाद आज पहली बार किसी ने ‘बहन’ कह कर पुकारा है. तुम्हारे लिए हो सकता है इस बात का कोई मूल्य न हो लेकिन मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात है. हमें तो हर कोई वेश्या की दृष्टि से ही देखता है और देखे भी क्यों न, हम हैं ही बदनाम गलियों की वेश्या. हमें तो सपने में भी कोई ‘बहन’ कह कर नहीं पुकारता.’’
‘‘इस का मतलब तुम मुंबई से नहीं हो?’’
‘‘नहीं भैया, मैं तो शहडोल, मध्य प्रदेश से हूं. मेरा प्रेमप्रसंग मेरे पड़ोस में रहने वाले युवा किराएदार रतन से हो गया था जो रायपुर, छत्तीसगढ़ का रहने वाला था. मैं अपने मांबाप के खिलाफ जा कर उस के संग भागी थी. कुछ दिन इधरउधर घुमाने के बाद वह मु झे मुंबई में वेश्याओं के एक दलाल के हाथ बेच कर भाग गया. मैं इस शहर में वेश्या बन गई. चकलाघर मेरा घर बन गया.’’
‘‘कोई संतान?’’
‘‘हां, उस हरामजादे रतन की एक बेटी की मां बनी थी. उसे पालपोस कर इस गंदे माहौल में बड़ा किया. उस की शादी की. मेरी सहेली वेश्याओं ने खूब मदद की. मेरी बेटी और दामाद की इज्जत पर कोई आंच न आए, इसलिए उन से मैं ने सारे संबंध तोड़ लिए. मेरा दामाद बहुत नेक है जिस ने सबकुछ जान कर भी मेरी जैसी वेश्या की बेटी से शादी की.’’
‘‘तो बहन, यहां से निकल और हमारे गांव चल. वहां बहुत काम है. इज्जत की जिंदगी जी.’’
यह सुन कर वह हंसी और रणवीर से पूछा, ‘‘भैया, क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘रणवीर.’’
‘‘सुनो रणवीर भैया, हम वेश्याएं इतनी बुरी सम झी जाती हैं जहां हम जाती हैं, चालीस कोस तक की आबोहवा हमारे वहां होने से गंदी हो जाती है. एक बड़े कारखाने का काला धुआं भी हवा को इतना गंदा नहीं करता जितना एक वेश्या कर देती है. मेरे वहां पहुंचने से तुम्हारा पूरा गांव गंदा ही नहीं हो जाएगा बल्कि किसी गंदे नाले की तरह सड़ जाएगा और लोग तुम्हें जिम्मेदार ठहराएंगे कि मुंबई से किस गंद को उठा लाया.’’
रणवीर उस वेश्या की खरी बात सुन कर दंग रह गया.
‘‘रणवीर भैया, तुम ने मु झे बहन कहा, इसलिए तुम्हें बता रही हूं, मेरा असली नाम नीलम है और तुम ने बहुत अच्छा किया कि तुम ने रूम पर जाने से मना कर दिया. नहीं तो वहां से बुरी तरह लुटपिट कर भागते. बाहरी लोगों के साथ हम ऐसा ही सुलूक करती हैं. तुम समय के बलवान हो, बच गए,’’ नीलम ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘मैं तो बहन तुम्हें इस दलदल से अब भी निकालना चाहता हूं.’’
‘‘भैया, यह दलदल इतना भयानक है कि इस में फंसी कोई लड़की कभी नहीं निकल सकती. हम इस दलदली दरिया की वे मछलियां हैं जिन की यहां से निकलते ही सांस फूलने लगती है. यहां की गंदगी ही हमारा भोजनपानी है. यहां से बाहर की शुद्ध हवा हमारे लिए जहरीली है. जैसे खारे समुद्र की मछलियां साफ पानी में जिंदा नहीं रह सकतीं, बस, ऐसी ही मछलियां हम बन गई हैं जो इस गंदगी से बाहर नहीं रह सकतीं.’’
‘‘तो बहन, फिर मैं चलूं.’’
‘‘ऐसे नहीं, भैया. बहन से मिले हो तो अतिथि सत्कार तो करूंगी ही. आओ, तुम्हें चाय पिलाती हूं.’’

सामने ही चाय की एक गुमटी थी. वहां बैठने की जगह तो नहीं थी, वे दोनों वहीं खड़े हो कर चाय पीने लगे. रणवीर ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘नीलम, क्या इतने दिनों में तुम्हें अपने घर की याद नहीं आई?’’
‘‘क्या मुंह ले कर जाती मैं वहां, भैया? मेरे परिवार वाले तो अभी भी यही सोचते होंगे कि मैं रतन के साथ सुखपूर्वक जीवन जी रही हूं, इसीलिए उन के पास वापस नहीं गई. उन्हें यह पता चलेगा कि मैं वेश्या बन गई हूं तो उन का दिल कांप उठेगा. वे तो जीतेजी ही मर जाएंगे. बस, इस वजह से मैं कभी उन के पास वापस नहीं गई. हमारी तो दुनिया ही अलग है.’’
‘‘नीलम, तुम इस धंधे में रह कर भी दूसरों के बारे में इतना भला कैसे सोच लेती हो?’’
‘‘रणवीर भैया, क्या तुम्हें पता है खारे पानी में रहने वाली मछली अपने अंदर शुद्ध पानी का निर्माण करती है, बस वैसा ही हमारा भी चित्त है. हम तो यह भी नहीं चाहती दुनिया की कोई बहूबेटी इस धंधे में आए और भैया, हमारी अच्छाई की वजह से ही तो तुम दूसरी बार बचे हो,’’ नीलम ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘वह कैसे?’’ रणवीर ने बड़ी जिज्ञासा और आश्चर्य से पूछा.
‘‘भैया हो, इसलिए चाय में नशा नहीं मिलाया. नहीं तो, इस सामान से भी हाथ धो बैठते,’’ नीलम ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘अच्छा, तुम यह काम भी कर लेती हो.’’
‘‘भैया, इस भूखे पेट ने बहुतकुछ करना सिखा दिया. ग्राहक तो रोज नहीं मिलता, लेकिन इस भूखे पेट को तो रोज रोटी चाहिए.’’

रणवीर को अब नीलम से कुछ डर सा लगने लगा. अब उस ने वहां से निकलना ही बेहतर सम झा. उस ने चाय खत्म कर के कहा, ‘‘ठीक है बहन, अब मैं चलता हूं.’’
‘‘भैया, एक बात भूल रहे हो. मेरा शगुन,’’ नीलम ने हथेली आगे करते हुए कहा.
रणवीर सोचने लगा, ‘आखिर आ ही गई अपनी औकात पे.’
उस ने अपनी जेब से 200 रुपए का नोट निकाल कर आगे बढ़ा दिया और यह सोच कर आगे बढ़ने लगा कि चलो, 200 रुपए में पीछा छूटा.
तभी नीलम बोली, ‘रणवीर भैया, एक मिनट.’

यह कह कर वह बराबर वाली मिठाई की दुकान पर गई और वहां से मिठाई का डब्बा ले कर आई. उस ने उस डब्बे पर कम से कम 500-600 रुपए खर्च किए होंगे. उस डब्बे को रणवीर को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘भैया, भाभी कै लिए भेंट. भाभी से कहना मुंबई में कोई दूर की बहन मिल गई थी. उसी ने यह भेंट भेजी है. भैया, हम गरीब जरूर हैं लेकिन इतने भी नहीं कि रिश्ते न निभा सकें.’’

उस के शब्द रणवीर के गाल पर झन्नाटेदार तमाचे की तरह लगे. कहां तो वह एक वेश्या की औकात माप रहा था और कहां उस वेश्या ने उस की औकात माप कर रख दी थी. वह जा तो रहा था रेलवे स्टेशन की तरफ लेकिन नीलम को ले कर अभी भी उस के जेहन में सैकड़ों प्रश्न उमड़घुमड़ रहे थे. जिंदगीभर उस को यह वाकेआ याद रहने वाला था.

CIBIL Score : शादी का मापदंड “सिबिल स्कोर”

CIBIL Score : पहले शादी के समय राहुकेतु या मांगलिक होना बाधा बन रहे थे, अब मैडिकल चैकअप के साथसाथ सिबिल स्कोर भी एक महत्त्वपूर्ण मापदंड बन गया है.

महाराष्ट्र के मुर्तिजापुर में एक अनोखा मामला सामने आया. एक दूल्हे का कम सिबिल स्कोर देख कर लड़की ने शादी से इनकार कर दिया. लड़की और उस के परिवार वालों ने जब लड़के की आर्थिक स्थिति जांची तो पता चला कि लड़के ने कई बैंकों से कर्ज ले रखा है. इस के अलावा उस का सिबिल स्कोर भी बहुत कम था.

पहले शादी के समय राहुकेतु या मांगलिक होना बाधा बन रहे थे. लेकिन अब मैडिकल चैकअप के साथसाथ सिबिल स्कोर भी एक महत्त्वपूर्ण मापदंड बन गया है. सिबिल स्कोर जांच करने के बाद ही रिश्ते की बात आगे बढ़ाने का फैसला किया जा रहा है. ज्यादा कर्ज या कम सिबिल स्कोर वाले लोगों से रिश्ते से दूरी बनाई जा रही है. एक कम सिबिल स्कोर यह संकेत देता है कि व्यक्ति का वित्तीय इतिहास कमजोर रहा है. वह लोन चुकाने में डिफौल्टर रहा है.

पहले शादीब्याह के लिए मुख्य रूप से जन्मकुंडली मिलान, परिवारों की पहचान और ग्रहनक्षत्र के अनुसार पंडितों से सलाह ली जाती थी लेकिन अब आर्थिक स्थिति ध्यान में रखते हुए सिबिल स्कोर को भी महत्त्व दिया जा रहा है. यह नया बदलाव रिश्तों को और अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए किया जा रहा है ताकि भविष्य में आर्थिक समस्याओं से बचा जा सके.

क्या होता है सिबिल स्कोर

सिबिल स्कोर क्रैडिट इंफौर्मेशन ब्यूरो इंडिया लिमिटेड (सिबिल) द्वारा जारी किया जाने वाला एक अंक है जो किसी व्यक्ति की क्रैडिट योग्यता को दर्शाता है. ये 300 से 900 तक के अंक होते हैं. एक अच्छा सिबिल स्कोर किसी व्यक्ति को लोन या क्रैडिट कार्ड प्राप्त करने में मदद करता है और अधिक अंक होने पर बेहतर डील मिलती है.

सिबिल स्कोर कैसे आया ट्रैंड में

महाराष्ट्र में सिबिल स्कोर दिखाने की वजह से एक रिश्ता टूट गया और यह खबर वायरल हो गई. इस के बाद कई राज्यों में लड़कियां सिबिल स्कोर देख कर ही रिश्ता फाइनल कर रही हैं. फैमिली कोर्ट में कुछ इस तरह के मामले देखने को मिले हैं.

शादी के पहले सिबिल स्कोर चैक करना जरूरी क्यों

एडवोकेट यज्ञ दत्त शर्मा कहते हैं कि शादी से पहले लड़की का यह जानने का हक है कि उस का रिश्ता जिस के साथ जुड़ने जा रहा है वह आर्थिक रूप से मजबूत है या नहीं या वह कर्ज में तो नहीं डूबा है. कई मामलों में देखा गया है कि लड़के की चमकदमक देख कर लड़की वाले अपनी बेटी की शादी तय कर देते हैं और फिर बाद में पता चलता है कि लड़के पर भारी कर्ज है. यहां तक कि लड़की पर दबाव बनाया जाता है कि वह मायके से पैसे ले कर आए. मायके से पैसा न ले कर आने पर बहू पर घरेलू हिंसा तक होती है.

इसलिए अब मातापिता यह सुनिश्चित कर के ही अपनी बेटी का हाथ किसी लड़के के हाथ में देते हैं जो आर्थिक रूप से मजबूत हो और कर्ज में न फंसा हो. लड़के का सिबिल स्कोर 750 से अधिक होने पर ही लड़कियां शादी के लिए राजी हो रही हैं.

कुछ सालों पहले ऐसा ही एक मामला सुनने को मिला था जहां एक बड़े सरकारी बैंक में जौब करने वाले लड़के की शादी एक लड़की से तय हो जाती है. मातापिता यह सोच कर अपनी इकलौती बेटी की शादी में भरपूर दानदहेज देते हैं कि लड़का इतने बड़े बैंक में, इतनी ऊंची पोस्ट पर है तो उन की बेटी उम्र भर सुखी रहेगी. लेकिन शादी के कुछ सालों बाद पता चलता है कि लड़के पर कई तरह के लोन हैं और वह कर्ज में डूबा हुआ है.

4 भाईबहनों और बुजुर्ग मातापिता की जिम्मेदारी उस पर ही थी. बहनों की शादी करवाने और घर बनवाने के लिए उस ने काफी कर्ज ले रखे थे, साथ ही, बहुत से क्रैडिट कार्ड का इस्तेमाल कर के बिल सही समय पर नहीं भरने के कारण उस का सिबिल स्कोर खराब हो गया था.

ऐसा ही एक और मामला है जहां एक लड़की की शादी अच्छे घरपरिवार में और सरकारी जौब वाले लड़़के से होती है लेकिन शादी के कुछ महीने बाद ही उसे पता चलता है कि लड़का मैडिकली अनफिट है और उस ने यह बात लड़की व उस के परिवार वालों से छिपाई थी. शादी को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था और लड़की ने तलाक की अर्जी दे दी. आज दोनों के तलाक का केस चल रहा है. लड़का हो या लड़की, पूरी जांचपड़ताल के बाद ही शादी की बात आगे बढ़नी चाहिए ताकि भविष्य में कोई पछतावा न हो.

हां, भले ही यह बात लड़के वालों को या लड़की वालों को बुरी लग सकती है लेकिन शादी से पहले यह सब जान लेना दोनों पक्षों के लिए जरूरी है ताकि शादी के बाद बात तलाक तक न पहुंचे.

सिबिल स्कोर क्यों होता है खराब

आयकर से जुड़े विशेषज्ञ बताते हैं कि सिबिल स्कोर खराब होने का मुख्य कारण है समय पर लोन या क्रैडिट कार्ड का भुगतान न करना. इस के अलावा बहुत ज्यादा कर्ज लेना, क्रैडिट कार्ड का अधिक इस्तेमाल करना, लोन न भर कर बारबार लोन के लिए आवेदन करने से भी सिबिल स्कोर खराब होता है.

ऐसा देखा गया है कि बाद में कर्ज का दबाव वधू पक्ष पर डाल दिया जाता है. इसलिए मातापिता सारी जांचपड़ताल के बाद ही शादी की बात आगे बढ़ाते हैं.

कैसे चैक कर सकते हैं सिबिल स्कोर

बैंक में जा कर सिबिल स्कोर की जानकारी ले सकते हैं. इस के अलावा गूगल में कई तरह की साइटें सिबिल स्कोर बताती हैं, ध्यान रखें कि वे फर्जी न हों. लोन देने से पहले बैंक भी अपने स्तर पर सिबिल स्कोर चैक करते हैं.

अर्थिक सुदृढ़ता की अहमियत

आजकल की लड़कियां मानती हैं कि शादी के बाद जीवन में आर्थिक मजबूती होना जरूरी है. कर्ज या पारिवारिक उत्तरदायित्व के चलते लड़के भविष्य में असुरक्षित महसूस कर सकते हैं, इसलिए लड़कियां सिबिल स्कोर चैक करती हैं.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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सिबिल स्कोर का महत्त्व

685 से कम सिबिल स्कोर अच्छा नहीं माना जाता. आयकर विभाग में काम करने वाले हरमेश चंद के अनुसार, इस से कम स्कोर आने का मतलब है कि लोन ले कर चुकाया नहीं गया है.
इस के अलावा सिबिल स्कोर में लोन कबकब लिया गया और कबकब चुकाया गया या नहीं चुकाया गया, इस की जानकारी भी होती है.
सिबिल स्कोर 700 से कम होने पर बैंक के अधिकारी जांच करने के बाद ही लोन देते हैं.
750 से अधिक सिबिल स्कोर होने पर तुरंत लोन मिल जाता है.

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वित्तीय पारदर्शिता की आवश्यकता

विशेषज्ञों का भी मानना है कि विवाह जैसे महत्त्वपूर्ण निर्णय में वित्तीय पारदर्शिता आवश्यक है. सिबिल स्कोर की जांच से न केवल वर्तमान ऋण और देनदारियों की जानकारी मिलती है, बल्कि इस से यह भी पता चलता है कि व्यक्ति अपने वित्तीय दायित्वों को कितनी गंभीरता से लेता है.

क्या पड़ेगा इस का असर

अब सवाल यह उठता है कि यदि केवल लड़कियां ही लड़कों का सिबिल स्कोर चैक करती हैं तो क्या अब लड़के भी लड़कियों का सिबिल स्कोर चैक करेंगे? हां, लड़के भी शादी से पहले लड़की पर एजुकेशन लोन जांच रहे हैं ताकि शादी के बाद लोन उन्हें न चुकाना पड़े. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर यह परंपरा बनी रही तो इस का असर मध्य और निम्न आय वर्ग के परिवारों पर पड़ सकता है.

इस के साथ कुछ और भी सवाल उठ रहे हैं जैसे कि-
– क्या समाज में आर्थिक दबाव बढ़ने लगा है?
– क्या लड़कों को लड़कियों के बारे में जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए?
– क्या पाश्चात्य संस्कृति का असर इन पर पड़ रहा है?
– कोरोना के बाद मानसिकता में बदलाव आया है?

वैसे तो यह खराब भी नहीं है क्योंकि ऐसा करने से लड़के और लड़कियां एकदूसरे को अच्छे से सम झ सकते हैं. हालांकि, अभी यह शुरुआत में है लेकिन धीरेधीरे यह एक बड़ा ट्रैंड बन सकता है. इस का उद्देश्य रिश्तों को वित्तीय दृष्टिकोण से भी मजबूत बनाना है.

अर्थात सिबिल स्कोर अब केवल एक वित्तीय मापदंड नहीं रह गया, बल्कि यह वैवाहिक जीवन की स्थिरता और सुरक्षित भविष्य के लिए भी महत्त्वपूर्ण बनता जा रहा है.

Competitive Exams : वैश्यों से पिछड़ रहे ब्राह्मण युवा

Competitive Exams : वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है लेकिन उस में जातिवादी मानसिकता ज्यों की त्यों है. फर्क इतना भर आया है कि मुख्यधारा वाले सवर्णों की नई पीढ़ी में बनिए कहे जाने वाले वैश्यों ने शिक्षा और नौकरियों में दूसरे सवर्णों, खासतौर से ब्राह्मणों के लिए एक चुनौती पेश कर दी है. समाज के लिहाज से देखना दिलचस्प होगा कि यह सिलसिला क्या गुल खिलाएगा.

जब किसी अखबार में किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की मैरिट लिस्ट खबर की शक्ल में या ब्रैंडेड स्कूलों के बड़ेबड़े इश्तिहारों में चुने गए छात्रों के फोटो सहित छपते हैं तो बरबस ही हर कोई इन्हें बड़ी बारीकी से पढ़ता है फिर भले ही उस का कोई वास्ता इन से हो या न हो. दरअसल पढ़ने वालों की दिलचस्पी यह देखने और जानने में ज्यादा रहती है कि उन की जाति के कितने छात्र कहां सलैक्ट हुए.

भारतीय समाज में जातिवाद की गहरी जड़ों का अंदाजा इस एक बात से भी लगाया जा सकता है कि हर किसी की इच्छा अपनी जाति के बच्चों को अव्वल जगह पर देखने की रहती है. और जब अपनी जाति के बच्चे उम्मीद से या पहले के मुकाबले कम दिखते हैं तो वे निराश हो कर आरक्षण और शिक्षा नीति वगैरह को कोसने लगते हैं.

आरक्षण से हटते अगर अनारक्षित जातियों की बात करें तो समीकरण अब बदल रहे हैं. स्कूल से ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं तक की मैरिट लिस्ट में ब्राह्मणों की तादाद कम हो रही है जबकि वैश्यों की बढ़ रही है.

हालांकि कोई भी मैरिट लिस्ट जाति के आधार पर नहीं बनती लेकिन उन में सब से पहले खोजी जाति ही जाती है. नतीजा आते ही जाति के ठेकेदार खासतौर से सोशल मीडिया पर यह ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते हैं कि देखो, सौ में से बीस बच्चे हमारी जाति के हैं जो हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण हैं (यह आंकड़ा आमतौर पर अंदाजे से और सरनेम देख कर लगाया जाता है और फिर उस में 2 या 3 का गुणा कर दिया जाता है).

अगर आरक्षण नहीं होता तो यही संख्या 40 होती जबकि आरक्षण से इस का दूरदूर तक कोई ताल्लुक नहीं होता, बशर्ते सीधेसीधे यह मान लिया जाए कि बात उस प्रतिस्पर्धा की की जा रही है जो केवल अनारक्षित यानी सवर्ण जातियों के छात्रों के बीच होती है.

पिछले दिनों जब 10वीं और 12वीं के नतीजे जारी हुए और स्कूलों ने छात्रों की मैरिट लिस्टें समाचारों और विज्ञापनों के जरिए जारी कीं तो हर किसी को देख यह हैरानी हुई कि इन सूचियों में ब्राह्मण लड़कों की तादाद न के बराबर है जबकि ब्राह्मण लड़कियां लिस्ट में दूसरी जाति वाले बच्चों की बराबरी में हैं. हैरानी यह देख कर भी लोगों को हुई कि वैश्य समुदाय के लड़केलड़कियां दोनों दौड़ में हैं. आइए दिल्ली और उस के आसपास के कुछ बड़े स्कूलों की ऐसी ही लिस्ट पर गौर करें-

दिल्ली पब्लिक स्कूल मोहाली की लिस्ट में एक भी बच्चा ब्राह्मण नहीं दिखा. इस लिस्ट में टौपर नाम सिमर कौर का था, जिन्होंने 97.2 फीसदी नंबर हासिल किए थे. 96.2 फीसदी नंबर ले कर अभिजोत सिंह दूसरे नंबर पर थे. पावनी गार्गय 96 फीसदी के साथ तीसरे नंबर पर थीं. इस के बाद नाम थे कनव महाजन, कीर्ति चंद्रा और रणविजय सिंह पोरस के.

एक दूसरे बड़े स्कूल दून पब्लिक स्कूल पंचकूला की लिस्ट में शामिल थे धन्य कौशिक, अदित जस्ता, प्रगति अरोड़ा, अतुल्य राय, रितेश सरकार और प्रत्यूष राथोया. मोहाली के ही एक दूसरे स्कूल शिवालिक पब्लिक स्कूल की लिस्ट में हर्सिरत कौर गिल, निहारिका गोगना, खुश्मीत कौर और सिमरत कौर थे.

एक और ब्रैंडेड सूरजपुर स्थित डीएवी सीनियर पब्लिक स्कूल की लिस्ट में आस्था सिंह, अन्वि बंसल, रमनीत कौर, अश्मीत कौर सुदन, अरुणा झा, सिमरजीत कौर अयन अग्रवाल के नाम थे जबकि देश के नामी स्कूलों में शुमार के आर मंगलम वर्ल्ड स्कूल वैशाली की लिस्ट में नियति गर्ग, अमरीन कौर मथारू, पुण्या जैन, हरिशिका पांडे, आदित्य सिन्हा, गौरवी क्वात्र, शौर्य महाजन, ध्वनी तलवार, राव्या रस्तोगी, अर्जुन भारद्वाज सहित प्राची खन्ना और श्रेयांश त्यागी के नाम थे जबकि इसी स्कूल की 10वीं की मैरिट लिस्ट में विहान चतुर्वेदी, नौमिका सैनी अरिन्दन अग्रवाल के अलावा आर्याव सरीन और रिद्धि ने जगह बनाई थी.

इस स्कूल की सौ से भी ज्यादा छात्रों की लिस्ट में वैश्य बच्चों का वर्चस्व साफसाफ दिखा जिन में जानेमाने सरनेम मसलन गुप्ता, जैन, मित्तल, अग्रवाल जैसों ने जगह बनाई, लेकिन ब्राह्मण छात्र एक भी नहीं दिखा. लगभग यही हाल देशभर के स्कूलों का रहा माना जा सकता है कि अव्वल आने की होड़ में वैश्य अब ब्राह्मणों को पछाड़ रहे हैं तो इस की अपनी बड़ी दिलचस्प वजहें भी हैं.

दिल्ली के एक कोचिंग इंस्टिट्यूट ने बीती 30 मई के एक इंग्लिश अखबार में कुछ स्कूलों की मैरिट लिस्ट शाइनिंग स्टार औफ सीबीएसई शीर्षक से प्रकशित की थी. इस में भी वैश्य छात्रों की भरमार थी, मसलन करनाल रोड स्थित जैन भारती विद्यालय के टौप तीन में विशेष चौहान, अतिशय जैन और जाह्नवी के नाम थे. शालीमार बाग के जसपाल कौर पब्लिक स्कूल के 3 टौपर्स में मनकीरत सिंह भाटिया, रवलीन कौर वोहरा व रिशिता ललवानी के नाम थे. यानी सिंधी बच्चे भी टौप रेस में जगह बना रहे हैं. इस समुदाय की गिनती व्यापारी वर्ग में होती है.

गाजियाबाद के कविनगर स्थित स्कूल में आद्या चौधरी, आन्या गर्ग और तन्वी त्यागी ने बाजी मारी थी. पीतमपुरा के किट वर्ल्ड स्कूल में काविश सहित देवांशी ग्रोवर और किरात प्रीत अव्वल थे. हौज खास के लक्ष्मण पब्लिक स्कूल की टौपर्स लिस्ट में तो तीनों बच्चे वैश्य समुदाय के थे. ये थे रिद्धि वर्मा, मोक्ष जैन और नेयोंल्का चुग.

इसी तरह महाराजा अग्रसेन पब्लिक स्कूल अशोक विहार के टौपर्स भी इसी समुदाय से थे, तनुष गोयल, वंशिका जैन और ख्याति कपूर. महाराजा अग्रसेन आदर्श पब्लिक स्कूल में जरूर एक ब्राह्मण युवक शिवेंद्र नारायण ठाकुर का नाम अवनि अग्रवाल और आकांक्षा कौशिक के साथ था जो दरअसल यह बताजता रहा था कि कोई 60 टौपर्स में से एक ब्राह्मण युवक भी है.

पीतमपुरा स्थित ही महाराजा अग्रसेन मौडल स्कूल के 4 टौपर्स प्रज्ञा गर्ग, कश्वी गोयल, सहज अग्रवाल और कुंजल रावत थे. सिलसिला यहीं नहीं थमता. इसी इश्तिहार में मौडर्न कौन्वेंट स्कूल द्वारका की लिस्ट में संस्कार अग्रवाल, तृषित गुप्ता के साथ एक कायस्थ छात्र अर्नव माथुर भी शामिल था.

ये लिस्टें जाहिर करती हैं कि अब शिक्षा पर से ब्राह्मण समुदाय के छात्रों का दबदबा बहुत कम हो रहा है और जिन का बढ़ रहा है उन्हीं के समुदाय के लोग बड़े पैमाने पर शिक्षा का कारोबार चला रहे हैं. यानी वैश्य, जिन के सब से ज्यादा नामी कोचिंग इंस्टिट्यूट हैं खासतौर से कोचिंग सिटी कोटा के 85 फीसदी कोचिंग संचालक बनिए ही हैं. उधर ब्राह्मण अभी मंदिरों में घंटेघडि़याल बजा रहे हैं तो उन के आगे होने की बात सोचना ही फुजूल है.

बनियों से है होड़

साहित्य, समाज और राजनीति में ब्राह्मणबनिया गठजोड़ का जिक्र एक चिंताजनक दिलचस्पी से किया जाता रहा है. इस गठजोड़ के तहत ब्राह्मण लोगों को कर्मकांडों और पूजापाठ के लिए उकसा कर अपना आर्थिक हित दानदक्षिणा की शक्ल में झटक कर साधता था तो बनिया यानी वैश्य यानी व्यापारी न केवल पूजापाठ के आइटमों का कारोबार करता था बल्कि तीर्थयात्रा और भागवत जैसे खर्चीले धार्मिक आयोजनों के लिए भी सूद पर पैसा देता था. यह गठजोड़ कमोबेश मामूली बदलावों के साथ अभी भी कायम है.

90 के दशक तक ब्राह्मणों व बनियों के संबंध बड़े मधुर और एकदूसरे का धंधा चलवाने व चमकाने के हुआ करते थे लेकिन इन दोनों की ही नई पीढ़ी अपनेअपने पैतृक व्यवसायों से दूर हो रही है. कारण शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा है जिस में वैश्य छात्र बाजी मार रहे हैं जबकि दोनों वर्गों के बच्चों को लगभग बराबरी के साधन व सहूलियतें मिली हुई हैं और दोनों ही आरक्षण के दायरे से बाहर हैं.

कल तक बनियों की जो पीढ़ी कामचलाऊ और हिसाबकिताब लायक पढ़लिख कर अपने व्यापारकारोबार में लग जाती थी, अब वह उच्च और तकनीकी शिक्षा हासिल कर सरकारी और प्राइवेट नौकरियों की तरफ भाग रही है और कामयाब भी हो रही है जबकि ब्राह्मणों के उच्च शिक्षित बच्चे पूजापाठ का व्यवसाय अपनाने में हिचक रहे हैं.

लेकिन उन के साथ दिक्कत यह है कि वे मैरिट में पिछड़ने के कारण पहले की तरह आसानी से नौकरियां हासिल नहीं कर पा रहे हैं. कर्मकांड और पूजापाठ के कारोबार में पहले की तरह कम पढ़ेलिखे ब्राह्मण ही रह गए हैं या वे जिन्हें लाख कोशिश के बाद भी नौकरी नहीं मिली.

क्यों पिछड़ रहे

ब्राह्मण युवकों के पिछड़ने की वजहें भले ही कुछ भी बताई जाती रहें लेकिन उस की एक बड़ी और अहम वजह यह है कि वे अब भी रटना नहीं छोड़ पा रहे. पोथीपत्री रट कर और बांच कर इन के पूर्वज काम चलाते रहे. यही आदत स्कूल और कालेज लैवल के छात्रों तक में कायम है जो बदलते सिलेबस और पैटर्न के चलते उन्हें ही नुकसानदेह साबित हो रही है. उलट इस के, वैश्यों के बच्चों का दिमाग आनुवंशिक रूप से अभी भी गणितीय है. वे केवल नफानुकसान का आकलन नहीं करते बल्कि विश्लेषण भी करते हैं. यह पैतृक गुण उन्हें प्रतिस्पर्धा में सफल बनाने में मददगार साबित होता है.

अलावा इस के, वैश्यों की नई पीढ़ी के शिक्षा में अव्वल रहने की बड़ी वजह यह भी है कि उन के परंपरागत व्यवसाय पहले की तरह मुनाफे की गारंटी नहीं रह गए हैं. ईकौमर्स कंपनियों ने छोटी दुकानें तक को डूबने के कगार पर ला दिया है. अब वह दौर गया जब बनिए का बेटा 10वीं या 12वीं करने के बाद ही पिता की गद्दी संभाल लेता था. उसे यह एहसास है कि अब पुश्तैनी धंधे पहले जैसे नहीं चलने वाले, लिहाजा, बेहतरी इसी में है कि पढ़लिख कर अच्छी सी नौकरी कर ली जाए.

भोपाल के 5 नंबर मार्केट इलाके के एक जमेजमाए कैमिस्ट राजेश गोयल के दोनों बच्चे बेंगलुरु की सौफ्टवेयर कंपनी में खासे पैकेज पर नौकरी कर रहे हैं. राजेश बताते हैं कि बेटे स्पर्श ने पहले ही कह दिया था कि वह यह दुकानदारी, जिस में 12-14 घंटे खड़े रहना पड़ता है, नहीं करेगा, इस में कोई भविष्य नहीं है. व्यवसाय हो तो बड़े स्तर का हो नहीं तो कंपनी की नौकरी भली. यह स्थिति और मानसिकता लगभग सभी वैश्य बच्चों की है जो बचपन से ही खुद को पढ़ाईलिखाई और अच्छे कैरियर के लिए तैयार करने लगते हैं.

यों तो जातिवाद का रोग कुछ या ज्यादा अंशों में सभी में है लेकिन ब्राह्मणों में बचपन से जातिगत श्रेष्ठता का अहंकार भर जाता है जो पिछड़ने पर कुंठा की शक्ल ले लेता है. गांवदेहातों के स्कूलों में अभी भी ब्राह्मण बच्चे छुआछूत के रिवाज को ढोते नजर आते हैं तो शहरी ब्राह्मणों के बच्चों में यह मानसिकता मौजूद है लेकिन देहातों की तरह प्रदर्शित नहीं होती.

ब्राह्मण बच्चे घरेलू माहौल के चलते ज्यादा भाग्यवादी और अंधविश्वासी भी हो जाते हैं. सार यह कि ब्राह्मण बच्चा 6ठी क्लास से ही खुद को अव्वल मान और सम झ बैठता है जिस की कीमत उसे वास्तविक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ कर चुकानी पड़ती है.

3-4 दशक पीछे चलें तो शैक्षणिक और इस के बाद सरकारी नौकरी हासिल करने की प्रतिस्पर्धा कायस्थों और ब्राह्मण के बीच ही ज्यादा हुआ करती थी. अब दोनों की ही जगह वैश्य बच्चों ने ले ली है. ब्राह्मणों की तरह कायस्थ भी होड़ में पिछड़ रहे हैं क्योंकि वे भी जातिगत श्रेष्ठता का दंभ नहीं छोड़ पा रहे. उन्हें खुद को सब से बुद्धिमान सम झने के मिथ्या संस्कार घर से ही मिलते हैं. इस बुद्धि पर तरस तब आता है जब वे इम्तिहान में औसत नंबर ही ला पाते हैं.

पहले ग्रेजुएट होते ही इन दोनों जातियों के बच्चों को छोटीबड़ी कोई न कोई नौकरी आसानी से मिल ही जाती थी जो अब मुश्किल होती जा रही है. मंडल क्रांति के बाद हालात बदले तो पिछड़ों के साथसाथ बनियों के बच्चों ने भी स्कूल से ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं तक में अपनी सशक्त हाजिरी दर्ज कराना शुरू कर दिया. इस के बाद कमंडल और राम मंदिर का हल्ला मचा तो ब्राह्मण बच्चे और कट्टर होते रेस में पिछड़ते गए.

नौकरियों में भी पिछड़े

भोपाल के एक सरकारी विभाग से रिटायर हो चुके इंजीनियर सुशील वरण चक्रवर्ती बताते हैं, आज से 30-40 साल पहले अगर किसी विभाग में 40 इंजीनियरों की भरती होती थी तो उस में 25-30 सरनेम ब्राह्मणों और कायस्थों के होना तय होता था. वह पूरी पीढ़ी अब रिटायरमैंट के कगार पर है लेकिन नई भरतियों में सामान्य श्रेणी में अब 40 फीसदी के लगभग सरनेम वैश्यों के हुआ करते हैं. यही स्थिति ब्यूरोक्रेसी की भी है.

एक अंदाजे के मुताबिक 90 के दशक में ब्राह्मण आईएएस 1,500 के लगभग थे जो अब 800 के करीब बचे हैं. वैश्य आईएएस की तादाद 40 साल में ब्राह्मणों के बाद दूसरे नंबर पर है जो हालात यही रहे तो एक नंबर पर भी आ सकती है.

छोटे स्तर पर इसे बताते हुए पटवारी संघ के अध्यक्ष रहे इसी साल रिटायर होने जा रहे मुकुट सक्सेना बताते हैं कि पहले तो पटवारी या लेखपाल का मतलब ही कायस्थ होता था. इस के बाद नंबर ब्राह्मणों का होता था जो बजाय पटवारी बनने के शिक्षक बनना ज्यादा पसंद करते थे क्योंकि इस नौकरी में बाध्यताएं कम और आराम ज्यादा है.

80 के दशक तक 35-40 फीसदी शिक्षक ब्राह्मण हुआ करते थे जो अब घट कर 10 फीसदी के लगभग रह गए हैं. मुकुट याददाश्त पर जोर देते हुए कहते हैं कि जनरल कैटेगरी में 100 में से मुश्किल से एक पटवारी ही वैश्य निकलता था जो अब नई भरतियों में 15 के लगभग होते हैं. निश्चित रूप से उन्होंने ब्राह्मणों और कायस्थों की जगह ही हथियाई है.

यानी ब्राह्मण युवकों को वैश्य युवकों की चुनौती अब स्कूली स्तर से ही भारी पड़ने लगी है. कायस्थ रेस में हैं लेकिन उन की मौजूदगी स्थिर है. क्षत्रिय आज भी पहले की तरह इनेगिने हैं. भोपाल के एक बड़े स्कूल की हिंदी की एक शिक्षिका की नाम न छापने की शर्त पर मानें तो 9वीं क्लास में टौप 10 में रहे केवल एक बच्चा ही ब्राह्मण है, 4 वैश्य हैं और बचे 5 पिछड़े समुदाय के हैं. यह हाल हायर क्लासेस तक यानी 12वीं की मैरिट लिस्ट तक कैसे है, यह ऊपर बताई लिस्टों से भी जाहिर होता है.

लेकिन लड़कियां अव्वल

किसी भी मैरिट लिस्ट में लड़कियों की आधी के लगभग भागीदारी बेहद सुखद है. 10वीं और 12वीं के नतीजे आते ही ये शीर्षक देखने को मिलते हैं कि फिर से बेटियों ने बाजी मारी या लड़कियां अव्वल आईं. इन लिस्टों में ब्राह्मण लड़के भले ही पिछड़ रहे हों लेकिन ब्राह्मण लड़कियों की मौजूदगी जरूर रहती है. इस की एक बड़ी वजह लड़कियों का अपने पांवों पर खड़े होने का जज्बा और पारिवारिक व सामाजिक घुटन से नजात पाना है.

सवर्ण युवतियों की पारिवारिक और सामाजिक हालत बहुत अच्छी नहीं है. उन पर तमाम बंदिशें और बाध्यताएं लदी हैं. इन में भी धार्मिक ज्यादा हैं, मसलन फलां व्रतउपवास करो, सत्संग में चलो, उन दिनों में इतने नियमकायदे व कानूनों से रहो, छोटे कपड़े मत पहनो, शाम के बाद घर से मत निकलो वगैरहवगैरह.

उन्हें रीतिरिवाजों का भी सख्ती से पालन करने को मजबूर किया जाता है लेकिन अच्छा यह है कि आजकल का माहौल देख पढ़ाईलिखाई से नहीं रोका जाता.

ऐसे ही एक ब्राह्मण बैंककर्मी युवती बताती है कि आजादी की चाह न केवल ब्राह्मण बल्कि तमाम सवर्ण युवतियों को पढ़ाई और प्रतिस्पर्धा में आगे रहने को उकसा रही है. उन से वे तमाम अपेक्षाएं रखी जाती हैं जो उन की मम्मियों से भी रखी जाती थीं. पढ़ीलिखी होने के बाद भी वे मजदूरों और गुलामों सरीखी जिंदगी जी रही हैं. उन की अपनी कोई पहचान या अस्तित्व नहीं, जो भी है पति और उस के खानदान से है. लड़कियों की नई पीढ़ी इन बेडि़यों में जकड़े नहीं रहना चाहती.

सवर्ण युवतियों का पढ़लिख पाना सवर्ण युवकों की तरह आसान नहीं है जो देररात तक आवारागर्दी और मटरगश्ती करते हैं, जबकि लड़कियों को घर के कामकाज भी करने पड़ते हैं, उन्हें जेबखर्च भी लड़कों के मुकाबले आधा मिलता है. यह एक अभिजात्य किस्म का शोषण है जिस से मुक्ति की चाह उन्हें ज्यादा से ज्यादा और अच्छे से अच्छा पढ़ने को मजबूर कर रही है. उन्हें एहसास है कि शिक्षा ही इकलौता जरिया है जो उन्हें अपनी मनमुताबिक जिंदगी जीने का मौका देगा. अगर पिछड़े तो चूल्हाचौका, घरगृहस्थी की झं झटें उन का इंतजार कर रही हैं.

स्कूली मैरिट से इतर भी ब्राह्मण लड़कियों ने प्रतियोगी परीक्षाओं में शानदार मुकाम हासिल किया है. इसी साल सिविल सर्विसेज में प्रयागराज की शक्ति दुबे ने पहली रैंक हासिल की थी और उस से भी 4 साल पहले भोपाल की जागृति अवस्थी ने दूसरी रैंक हासिल कर साबित कर दिया था कि ब्राह्मण लड़कियां किसी से कम नहीं. अपनी पसंदीदा पत्रिका ‘गृहशोभा’ को दिए इंटरव्यू में जागृति ने इस बात पर जोर दिया था कि पेरैंट्स का सहयोग व प्रोत्साहन सहित घर का माहौल कामयाबी में काफी माने रखता है.

ब्राह्मण युवकों को सम झाने वाला कोई नहीं कि उन्हें दौड़ में बने रहने के लिए कड़ी मेहनत और तार्किक बुद्धि की जरूरत है जो पोथीपत्रियों से नहीं बल्कि, बकौल जागृति अवस्थी, पत्रपत्रिकाओं से मिल सकती है. अलावा इस के, उन्हें भाग्यवाद और अंधविश्वास सहित जातिगत पूर्वाग्रह भी छोड़ने होंगे जो उन के पिछड़ने की बड़ी वजहें हैं.

Women : महिलाओं की पहचान काबिलीयत है परंपराएं नहीं

Women : सिंदूर और मंगलसूत्र के नाम पर वर्षों से महिलाओं को यह याद दिलाया जाता रहा है कि उन की पहचान उन के पति से जुड़ी हुई है. यह केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक नियंत्रण का तरीका भी है, जिस के चलते महिलाओं की काबिलीयत इन पारंपरिक प्रतीकों के नीचे दबी रह जाती है.

महिलाओं को सम्मान और समान अधिकारों की बातें और प्रवचन देना आजकल का फैशन सा बन गया है. राजनीति हो, समाज हो या धर्म तीनों हमेशा से ही दोगले हैं. ये एक तरफ महिलाओं को देवी सा सम्मान देने, अपने पैरों पर खड़ा होने, ऊंची उड़ान भरने के लिए प्रोत्साहित करते हैं तो दूसरी तरफ परंपराओं का खोखला ज्ञान दे कर नियंत्रण में भी रखने की कोशिश करते हैं. जब भी कोई महिला राजनीति में आती है, समाज में अग्रसर होती है या अपनी स्वतंत्र पहचान बनाना चाहती है तो सब से पहले सवाल उस के पहनावे पर उठते हैं, ‘मांग में सिंदूर है या नहीं?’, ‘गले में मंगलसूत्र क्यों नहीं पहना?’, ‘उस के रिश्ते क्या हैं?’, ‘उस का चालचलन कैसा है?’

हमारे समाज और राजनीति में महिलाओं को अकसर उन के योगदान, काबिलीयत और मेहनत से नहीं, बल्कि उन की व्यक्तिगत पहचान, रिश्तों और पारंपरिक प्रतीकों से आंका जाता है.

सिंदूर, मंगलसूत्र, विदेशी मूल या करोड़ों की गर्लफ्रैंड जैसे टैग्स के माध्यमों से महिलाओं की छवि को धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रंग देने का चलन बढ़ता जा रहा है. सवाल यह है कि क्या महिलाओं की पहचान उन के व्यक्तिगत जीवन और धार्मिक प्रतीकों से ही तय होगी? मतलब, अभी महिलाओं की अपनी पहचान की आजादी की लड़ाई बाकी है.

सिंदूर और मंगलसूत्र : पहचान या नियंत्रण

सिंदूर और मंगलसूत्र समाज और धर्म में विवाहित महिलाओं के लिए सुहाग की निशानी माने जाते हैं. अब ये निशानियां किस ने और क्यों बनाईं, यह भी एक चर्चा का विषय है क्योंकि क्या ही हो जाता अगर मंगलसूत्र आदमी पहन लेते. खैर, यह भी एक तरह का संदेश है. समाज महिलाओं को कहता है कि बिना शादी के कोई भी स्त्री पूरी नहीं और समय आने पर इन्हीं प्रतीकों से हम (समाज) तुम पर नियंत्रण रखेंगे. यही होता भी है. समयसमय पर इन प्रतीकों को महिलाओं की पहचान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो उन की काबीलियत व व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर सवाल खड़े करता है.

उदाहरण: 2024 में एक महिला पत्रकार को एक टीवी डिबेट के दौरान यह कह कर अपमानित किया गया कि उन्होंने सिंदूर नहीं पहना है. क्या उन के विचार और पेशेवराना काबिलीयत सिंदूर के अभाव में कम हो जाते हैं?

दूसरा उदाहरण: एक महिला आईपीएस अधिकारी को एक सरकारी समारोह में मंगलसूत्र न पहनने के कारण ट्रोल किया गया. सवाल यह है कि क्या उन के कंधों पर कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उन की वैवाहिक स्थिति से मापी जानी चाहिए?

तीसरा उदाहरण : बौलीवुड अभिनेत्री कियारा आडवाणी, जिन्होंने 7 फरवरी, 2023 को अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा से विवाह किया, को विवाह के बाद सार्वजनिक कार्यक्रमों में सिंदूर और मंगलसूत्र न पहनने के कारण सोशल मीडिया पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. उन की व्यक्तिगत पसंद को ले कर लोगों ने उन्हें ‘संस्कृति विरोधी’ करार दिया, जबकि उन के अभिनय कौशल और पेशेवराना उपलब्धियों को नजरअंदाज कर दिया गया.

और अभी हाल ही में भारतीय सेना की अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी पर मध्य प्रदेश के एक मंत्री ने ‘जिन्होंने सिंदूर उजाड़ा उन की ही बहन’ जैसी टिप्पणी की, जिस से उन की पेशेवर उपलब्धियों को नजरअंदाज कर उन के व्यक्तिगत जीवन पर सवाल उठाए गए.

सच तो यह है कि सिंदूर और मंगलसूत्र के नाम पर महिलाओं को यह याद दिलाया जाता है कि उन की पहचान उन के पति से जुड़ी है. यह केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक नियंत्रण का तरीका भी है. ‘टैग्स’ जो महिलाओं को चोट पहुंचाते हैं

महिलाओं के लिए कुछ विशेषण राजनीति में आम हो गए हैं-

‘करोड़ों की गर्लफ्रैंड’, ‘पार्टी की बहू’, ‘ग्लैमर डौल’, ‘सिर्फ आरक्षण से आई है’, ‘डैकोरेशन पीस’, ‘बोलती बहुत है’, ‘चुप क्यों रहती है?’, ‘चालू है.’

हर बात में एक तंज, हर उपलब्धि में एक शक. क्या यही है हमारे समाज की स्त्रियों के प्रति सोच? इन टैग्स का उद्देश्य सिर्फ आलोचना नहीं होता. यह एक महिला की आत्मा को कुचलने का प्रयास होता है. यह उसे उस की मेहनत और पहचान से दूर कर एक ‘दूसरों के संदर्भ’ में सीमित कर देता है.

विदेशी बहू : देशभक्ति या राजनीति

महिलाओं को निशाने बनाते हुए या यह कहें कि महिलाओं को नियंत्रण में रखने के लिए किसी भी हद तक जाने से यह पितृसत्तात्मक समाज चूकेगा नहीं. जब भी कोई महिला विदेशी मूल की होती है या विदेशी से विवाह करती है तो उस की निष्ठा और भारतीयता पर सवाल उठाए जाते हैं.

उदाहरण : 2019 में एक प्रमुख महिला राजनेता को विपक्ष ने ‘विदेशी बहू’ कह कर बारबार निशाना बनाया. उन के नेतृत्व, नीतियों और कार्यों को छोड़ कर केवल उन के विदेशी मूल पर चर्चा की गई.

दूसरा उदाहरण : एक महिला उद्यमी, जिस ने भारत में करोड़ों का व्यवसाय खड़ा किया, को केवल इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि उन के पति विदेशी थे. क्या उन की कड़ी मेहनत, शिक्षा और व्यावसायिक कौशल को केवल उन के रिश्ते से परिभाषित करना उचित है?

यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि महिलाओं को उन की काबिलीयत से हटा कर उन के व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित किया जा रहा है. यह महसूस किया जाने लगता है कि यह महिला अपनी काबिलीयत से उन से आगे निकल रही है तो इस सस्ते तरीके से असली मुद्दों से ध्यान भटकाया जाता है.

करोड़ों की गर्लफ्रैंड : एक महिला की कीमत कितनी?

जब भी कोई महिला सफल होती है और उस का संबंध किसी शक्तिशाली पुरुष से होता है तो उस की काबिलीयत को संदेह की नजर से देखा जाता है जबकि संबंध दोनों में होते हैं पर निशाना महिला को बनाया जाता है क्योंकि समाज के ठेकेदार पुरुष हैं और वह पुरुष पर निशाना नहीं साधेंगे.

उदाहरण : 2023 में एक महिला फिल्म निर्माता को ‘करोड़ों की गर्लफ्रैंड’ कहा गया. उन की सफलता को उन के रिश्ते से जोड़ कर उन का अपमान किया गया. क्या एक महिला की सफलता केवल इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस से जुड़ी है?

दूसरा उदाहरण : एक महिला खिलाड़ी, जिस ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन किया, को एक राजनेता की गर्लफ्रैंड के रूप में पेश किया गया. उन की उपलब्धियां, उन के पदक और उन का संघर्ष, सबकुछ गौण कर दिया गया.

यह प्रवृत्ति इस सोच को दर्शाती है कि महिलाओं को उन की मेहनत और संघर्ष से नहीं, बल्कि उन के व्यक्तिगत जीवन से परिभाषित किया जाना चाहिए.

धर्म और राजनीति के जाल में फंसी महिला की पहचान

धर्म और राजनीति का गठजोड़ महिलाओं की पहचान को कमजोर करने का सब से कारगर हथियार बन चुका है.

उदाहरण : 2022 में एक प्रमुख महिला नेता ने जब सिंदूर लगाने से इनकार किया तो उन के राजनीतिक विरोधियों ने इसे धर्मविरोधी कदम कह कर उन की छवि धूमिल करने की कोशिश की. क्या उन का राजनीतिक दृष्टिकोण केवल इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने सिंदूर लगाया या नहीं?

दूसरा उदाहरण : एक महिला शिक्षाविद, जिस ने शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण योगदान दिया, को उन के धार्मिक पहचान के आधार पर ट्रोल किया गया. उन की काबिलीयत को केवल उन के पहनावे और परंपराओं के आधार पर आंका गया. यह मानसिकता इस बात की परिचायक है कि महिलाओं को धर्म और राजनीति के नाम पर नियंत्रित करने का प्रयास लगातार जारी है.

वास्तविक पहचान : काबिलीयत, संघर्ष और नेतृत्व सवाल यह है कि अगर महिलाओं की पहचान उन के रिश्तों, पहनावे और धर्म से नहीं होनी चाहिए तो फिर उन की पहचान कैसे होनी चाहिए?

शिक्षा और संघर्ष : कल्पना चावला, जिन्होंने अंतरिक्ष में जा कर इतिहास रचा. क्या उन की पहचान उन के विवाह से थी या उन की शिक्षा और वैज्ञानिक काबिलीयत से?

खेल और उपलब्धियां : पी वी सिंधु, जिन्होंने बैडमिंटन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन किया. क्या उन की पहचान उन के निजी रिश्तों से है या उन की कड़ी मेहनत और खेलप्रतिभा से?

व्यवसाय और नेतृत्व : किरण मजूमदार शा, जिन्होंने बायोकौन को स्थापित कर एक नई पहचान बनाई. क्या उन के व्यावसायिक कौशल को उन के वैवाहिक जीवन से जोड़ कर देखा गया?

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि महिलाओं की वास्तविक पहचान उन की काबिलीयत, शिक्षा, संघर्ष और नेतृत्व में छिपी होती है.

आत्मनिर्भर स्त्री से डर क्यों

आज की महिला अपनी मरजी से जीना चाहती है. वह पढ़ना, नेतृत्व करना, बोलना और निर्णय लेना चाहती है. लेकिन जैसे ही वह इन सीमाओं को पार करती है, समाज उसे अपने पुराने चश्मे से देखने लगता है.

– इतनी तेज क्यों है?
– इतनी आजादी मिल गई है क्या?
– पति का नाम क्यों नहीं जोड़ती?
– सिंदूर नहीं लगाया, मतलब कुछ गड़बड़ है.
– यह तो ओपन है.

ये सोच महिलाओं से ज्यादा समाज की संकीर्ण मानसिकता का आईना हैं.

नजरिया बदलिए, समाज बदलिए

परिवार और समाज का समर्थन :परिवारों को यह सम झना होगा कि महिलाओं की काबिलीयत और शिक्षा ही उन की असली पहचान है. सिंदूर तो गुलामी का प्रतीक है. अगर यह शृंगार का साधन होता तो विवाहित व अविवाहित सभी लगातीं.

केवल विवाहित औरतों की रक्षा का बीड़ा उठा कर सरकार ने संदेश दिया है कि हर औरत को पति की गुलामी करनी चाहिए और उस की रक्षा के लिए पति जो नहीं कर सकता वह सरकार के हवाई जहाज, मिसाइलें. तोपें, ड्रोन करेंगे. विवाहित औरतें अपने पतियों के कितने अत्याचारों का सामना करती हैं, यह आंकड़ा जमा नहीं किया जाता क्योंकि समाज सभी औरतों को शिकायत करने की इजाजत नहीं देता.

राजनीतिक एजेंडा : महिलाओं को उन के व्यक्तिगत जीवन से जोड़ कर राजनीतिक लाभ उठाना एक सस्ती रणनीति है. इसे रोकने के लिए समाज को जागरूक होना होगा. कभी मंगलसूत्र, कभी सौभाग्य योजना जैसे नाम दे कर विवाहिताओं को आकर्षित करने के चक्कर में उन्हें परमेश्वर की दासी पत्नी बनाया जाता है.

धार्मिक प्रतीकों का सम्मान : धर्म और परंपराएं व्यक्तिगत पसंद होनी चाहिए, न कि महिलाओं की पहचान का मापदंड. समाज, राजनीति में महिलाओं की पहचान को उन के निजी जीवन, रिश्तों और धार्मिक प्रतीकों तक सीमित करना उन की काबिलीयत और उन के संघर्ष का अपमान है. महिलाओं की सही पहचान उन के संघर्ष, मेहनत और नेतृत्व में निहित होती है. सिंदूर, मंगलसूत्र या करोड़ों की गर्लफ्रैंड जैसे टैग्स से परे हमें महिलाओं को उन के असली स्वरूप में देखने व सम झने की जरूरत है. समय आ गया है कि हम महिलाओं की पहचान को परंपराओं और राजनीति के जाल से मुक्त करें और उन्हें उन के वास्तविक योगदान के आधार पर सम्मान दें.

Hindu Women : सिंदूर का मोल सतत गुलामी

Hindu Women : सदियों से हिंदू धर्म ने महिलाओं की पहचान सिंदूर, मंगलसूत्र के इर्दगिर्द बुनी और आज भी इसी तक सीमित रखी. अब भी एक महिला की सफलता उस के पहनावे, वैवाहिक स्थिति या धार्मिक प्रतीकों से आंकी जाती है, न कि उस की मेहनत व काबिलीयत से. धर्म ने महिलाओं के लिए सिंदूर जैसे तमाम प्रतीक लाद दिए, उन्हें पुरुषों के अधीन बनाए रखने के लिए जंजीरें कस दीं.

सिंदूर की महिमा का गुणगान करना आज राजनीतिक हथियार चाहे बन गया हो पर असलियत यही है कि पुरुषों ने हमेशा से स्त्रियों को अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश की है. लेकिन अब वे जमाने लद गए जब स्त्रियां अनपढ़ थीं और आंख बंद कर हर बात को स्वीकार कर लेती थीं. बहुत अंधेरा देख लिया. अब उम्मीद की जाती है कि आज की पढ़ीलिखी लड़की की सोच में कहीं न कहीं तर्क हो.

लकीर के फकीर बने रहना कहां की सम झदारी है. विवेकशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाली महिलाओं का भी यह कर्तव्य होता है कि वे अपने से कमतर मानसिक सोच वाली महिलाओं के दृष्टिकोण को विकसित करने में सहयोग करें. खासकर, आज एक महिला को विरोध करना आना चाहिए. न कह पाने में बड़ी ताकत है.

जवानी की दहलीज में कदम रखती एक लड़की अपनी शादी के बाद के लिए न जाने कितने सपने मन में संजोती है. कभीकभी यह भी सोचती है कि अब वह आजाद पंछी बन कर मस्त गगन में उड़ पाएगी क्योंकि शादी से पहले तो मातापिता और परिवार के बहुत सारे बंधन होते हैं. बहुत सारे कंट्रोल और प्रतिबंध उस की राह रोके खड़े होते हैं. शादी के मंडप में पति द्वारा उस की मांग में सिंदूर भर कर उसे एक नए बंधन में बांध लिया जाता है जिस के तहत वह परपुरुष की तरफ नहीं देख सकती, उस से बात नहीं कर सकती और सिर्फ पति की अमानत बन कर उस के संरक्षण में रह जाती है. क्या यह संभव है? भारतीय महिलाओं ने हो सकता है इसे संभव किया हो लेकिन सवाल यह है कि क्या यह न्यायसंगत है?

सिंदूर से नुकसान

यों तो सिंदूर की रस्मअदायगी भी महिलाविरोधी एक साजिश है पर चलिए इसे यहीं तक सीमित रख लीजिए. विवाह के बाद एक स्त्री को मायके, ससुराल, पासपड़ोस, समाज सभी के द्वारा तरहतरह की हिदायतें दी जाती हैं. उस की मांग में सिंदूर भरा होना जरूरी माना जाता है. जबकि त्वचा विशेषज्ञ बताते हैं कि सिंदूर में मरक्यूरिक सल्फाइड जैसे हानिकारक तत्त्व होते हैं जो स्किन के लिए काफी नुकसानदायक होते हैं.

इस से जलन, खुजली और सिरदर्द जैसी कई परेशानियां उभर कर आ सकती हैं. चलिए माना सिंदूर को वैज्ञानिक पद्धति से बिना किसी कैमिकल के भी बना लिया जाए और उस से कोई नुकसान न हो तो क्या तब भी महिला को यह लगाना जरूरी होना चाहिए? क्या ओढ़नापहनना व्यक्तिगत फैसला नहीं होना चाहिए? इन जैसे कई सवाल मन में उथलपुथल मचाने को तैयार हैं.

‘ओम शांति ओम’ फिल्म का डायलौग ‘एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो, रमेश बाबू?’ खूब दोहराया जाता है. महिला सिंदूर को ईश्वर का आशीर्वाद मानती है. महिला के मुंह से ऐसे डायलौग कहलवा कर उसे भावनात्मक तौर पर कमजोर बनाना नहीं है तो और क्या है? एक महिला कितनी ही बड़ी ऐक्ट्रैस हो, राजनीतिज्ञ हो या विशेषज्ञ, इस बात को सम झती
ही नहीं.

संभव हो सकता है कि पढ़ीलिखी महिलाएं इन्हें केवल अपने कैरियर को चमकाने के लिए इस्तेमाल करती हों, जैसे बचपन में हम जिस कलाकार को जिस साबुन या तेल का विज्ञापन करते देखते थे तो सोचते थे कि यह इसी को इस्तेमाल करता होगा, मगर बड़े होने पर यह बात सम झ में आई कि यह केवल पैसे कमाने तक सीमित है.

महिलाओं की कमजोरी

फिल्मों का लोगों के जीवन में गहरा असर है. कलाकारों की तरह पहनना और व्यवहार करना समाज का शगल हो जाता है. अगर कोई बड़ा कलाकार तंबाकू या गुटके का विज्ञापन करता है तो जरूरी नहीं है कि वह इसे इस्तेमाल भी करता हो. संभव है कि वह अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत हो क्योंकि उसे पैसा कमाना है, इसलिए वह जनता को बेवकूफ बनाता है.

काल्पनिक बातों को सच मान लेना, किसी अज्ञात डर के वशीभूत हो कर आंख बंद कर रिवाज को मान लेना महिलाओं की बहुत बड़ी कमजोरी है. यही कमजोरी पितृसत्तात्मक समाज की जड़ों को सींचने का काम करती है. सदियों से पुरुषों ने यही चाहा है कि महिलाओं के ज्ञान के चक्षु बंद रहें तो वे किसी तरह का विरोध नहीं करेंगी, अपना अधिकार नहीं मांगेंगी.

सिंदूर का एक रूप सिनेबार भी है जिस का उपयोग 8000-7000 ईसा पूर्व का बताया जाता है और यह आधुनिक तुर्की के किसी गांव में पाया गया था. स्पेन में सिनेबार का खनन लगभग 5300 ईसा पूर्व से शुरू हुआ था. उसे रंगने के अलगअलग कामों में इस्तेमाल किया जाता था. उस में पारे की मात्रा होती है. 1500 से 500 ईसा पूर्व से सिंदूर लगाने की परंपरा बताई जाती है. शिवपुराण में भी इस बात का जिक्र है कि भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए पार्वती ने बहुत तपस्या की थी और जब शिव ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया तो पार्वती की मांग में सिंदूर भरा गया.

सिंदूर का नाम ले कर एक महिला को डराया जाता है. पति के साथ होने वाली किसी अनहोनी की आशंका से वह घबरा जाती है और मांग भरभर कर सिंदूर लिए फिरती है.

सिंदूर शब्द खूब चर्चा में है. महिलाओं ने हमेशा से ही सुनीसुनाई बातों को सच मान कर सिंदूर को अपने शृंगार का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बना लिया और अब तो सिंदूर महिलाओं को एक छिपा संदेश दे गया है. जिसे सम झ पाना हर महिला के बस की बात नहीं है. हमारे जीवन में कुछ विश्वास होते हैं, कुछ अंधविश्वास होते हैं. हमें विश्वास को ले कर चलना है और अंधविश्वास को पीछे छोड़ देना है. सोचिए, सिंदूर किसी की जान कैसे बचा सकता है. अगर यह सच होता तो पुरुषों को अमरत्व का वरदान मिला होता.

एक पुरुष अपनी स्त्री को सुरक्षित रखने के लिए कौन सा तावीज पहनता है? कोई नहीं न. मगर इस के बाद भी महिलाओं की औसत आयु पुरुषों से ज्यादा रही है. देखा जाता है कि महिलाएं पुरुषों से अधिक जीती हैं और स्वस्थ भी रहती हैं. हमें इस के पीछे के संकेतों और कारणों को ढूंढ़ना होगा.

महिलाओं के लिए बंदिशें क्यों

स्त्री व पुरुष एकदूसरे के पूरक हैं. दोनों की जिंदगी महत्त्वपूर्ण है. फिर पुरुष के जीवन की इतनी चिंता कि उस की स्त्री तरहतरह के प्रसाधनों से खुद को ढक ले. महिलाओं को तो यह कहने वाला पुरुष चाहिए कि उसे बिंदी व सिंदूर की कोई जरूरत नहीं है. उसे एक साथी के रूप में अपनी पत्नी के साथ उम्र बितानी है. आज के समय में कामकाजी लड़कियां और काफी घरेलू महिलाएं भी सौंदर्य प्रसाधन के नुकसान को सम झते हुए इन का प्रयोग सीमित करने लगी हैं.

हालांकि कई बार उन्हें परिवार के बड़े लोगों से इस बारे में फिक्रे भी सुनने को मिलते हैं पर वे ज्यादा परवा नहीं करतीं. लेकिन समस्या आधी आबादी के बड़े हिस्से की है जो इस बात को सम झने के लिए तैयार ही नहीं है.

यह कैसे संभव है कि एक शादीशुदा महिला किसी दूसरे आदमी से बात न करे, दोस्ती न करे जबकि पुरुष को समाज सारे अधिकार देता है. महिलाओं को रस्मोरिवाज की दुहाई देने वाला समाज दरअसल डबल स्टैंडर्ड मोरैलिटी में विश्वास करता है, जहां पुरुषों के लिए तो कोई नियमकानून नहीं पर महिलाओं के लिए कर्तव्य ही कर्तव्य हैं. विवेकहीन मान्यताओं में जकड़ा समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता. हिंदू धर्म के अतिरिक्त किसी भी दूसरे धर्म में सिंदूर लगाने की परंपरा नहीं है.

तंदुरुस्ती और लंबी उम्र मिलती है पौष्टिक खाने से, मानसिक शांति से, अपने शौकों को पूरा करने की आजादी से, तनाव रहित रहने से. पुरुष के लिए सोचने के साथसाथ महिला को अपने बारे में भी सोचना जरूरी है.

एक पुरुष घर या घर से बाहर जा कर शराब पीता है, सिगरेट पीता है, कोई दूसरा व्यसन करता है या विवाहेतर संबंधों के तहत शारीरिक संबंध बनाता है और एचआईवी एड्स जैसी बीमारी उस के शरीर में प्रवेश कर जाती है तो सिंदूर उसे कैसे बचाएगा? सिंदूर नाम के कैमिकल में किसी के पाप को धोने की ताकत नहीं. अपने पाप का भागी तो उसे बनना ही होगा. सिंदूरी महिमा का दुष्प्रचार ठीक नहीं. यह पब्लिक है, सब जान जाएगी.

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