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Racism : बच्चों के दिमाग में घुसता नस्लवाद

Racism : वह अपने घर के बाहर अन्य बच्चों के साथ खेलने में मगन थी कि तभी कुछ बच्चों के झुंड ने उस पर हमला बोला. एक बच्चे ने अपनी साइकिल का अगला पहिया उस के पेट और प्राइवेट पार्ट पर मार कर उसे गिरा दिया. अन्य बच्चे उस मासूम सी सांवले रंग की लड़की के चेहरे और बदन पर मुक्के बरसाने लगे. वह उस से चीख कर बोले, ‘डर्टी इंडियंस… गो बैक टू इंडिया…’ (गंदे भारतीय… भारत वापस जाओ…).

यह घटना है आयरलैंड की. पीड़ित बच्ची की उम्र मात्र 6 वर्ष. और उस पर हमला करने वाले 8 से 14 साल की उम्र के.

भारतीय मूल की इस बच्ची पर 4 अगस्त को यह नस्लवादी हमला हुआ. उस की भारतीय पहचान को ले कर अपशब्द कहे गए. यह हैरान करने वाली एक डरावनी घटना है. हमला करने वाले बच्चों के घरों में निसंदेह ऐसी नस्लवादी बातें होती होंगी, जिन्होंने उन्हें ऐसा कृत्य करने के लिए प्रेरित किया. उन के दिलों में अभी से काले और सांवले लोगों के प्रति नफरत का जहर भरा जा रहा है, बड़े होने पर वे क्या कारनामे करेंगे, अनुमान लगाया जा सकता है. इंसानियत को खाने वाली यह खरपतवार बड़ी तेजी से दुनियाभर में बढ़ रही है.

बच्ची की मां ने बताया कि वह अपनी बेटी पर घर के बाहर दूसरे बच्चों के साथ खेलते हुए नजर रख रही थी कि तभी भीतर उस का 10 महीने का बच्चा रोने लगा और उसे दूध पिलाने के लिए उसे अंदर जाना पड़ा. इस बीच यह घटना हो गई. लगभग एक मिनट बाद ही बच्ची घर वापस आ गई. वह बहुत परेशान थी और रो रही थी. वह बोल भी नहीं पा रही थी, बहुत डरी हुई थी. बच्ची के साथ आई उस की दोस्त ने बताया कि लड़कों के समूह ने उसके प्राइवेट पार्ट पर साइकिल से टक्कर मारी और 5 लड़कों ने उस के मुंह पर मुक्के मारे. लड़कों ने बच्ची को गाली दी और कहा, ‘गंदे भारतीय, वापस जाओ.’

बच्ची की मां 8 साल से आयरलैंड में नर्स के रूप में काम कर रही है. उस ने हाल ही में आयरिश नागरिकता भी प्राप्त की है, पर वह अब वहां सुरक्षित महसूस नहीं करती. इस घटना के बाद उस की बच्ची ने बाहर जाना छोड़ दिया है. वह दिन भर खिड़की में बैठी बाहर खेलते हम उम्र बच्चों को बड़ी कातर दृष्टि से देखती रहती है, मगर बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती. Racism

Relations : कुछ रिश्ते जो खून के रिश्तों से बड़े होते हैं

Relations : आज के समय जब प्रौपर्टी के लिए भाईभाई का दुश्मन है तब कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह साबित करते हैं कि खून के रिश्ते से भी बड़े कुछ रिश्ते होते हैं जो सीधे दिलों से जुड़े होते हैं. ऐसा ही एक मामला गुजरात से सामने आया है. जहां एक शख्श ने अपनी करोड़ों की जायदाद अपनी नौकरानी की पोती के नाम कर दी.

गुजरात के शाहीबाग़ में रहने वाले पेशे से इंजीनियर गुस्ताद बोरजोरजी टाटा इंडस्ट्रीज में काम करते थे. गुस्ताद का कोई कानूनी उत्तराधिकारी नहीं था. उनकी पत्नी का निधन साल 2001 में ही हो गया था. गुस्ताद बोरजोरजी के घर वर्षो से एक महिला नौकरानी के तौर पर काम करती थी. 2001 में गुस्ताद की पत्नी के निधन के बाद से वो बिलकुल अकेले थे. पत्नी के निधन और टाटा से रिटायरमैंट के बाद उन की देखभाल इसी नौकरानी ने ही की. इस नौकरानी की एक पोती थी जिस का नाम था अमीषा मकवाना.

गुस्ताद के अपनी कोई संतान नहीं थी तो वो नौकरानी की छोटी सी पोती अमीषा को ही अपनी संतान की तरह प्यार करने लगे. अमीषा की पढ़ाईलिखाई और उस के बचपन के सारे खर्च की जिम्मेदारी गुस्ताद ने उठाए. स्कूल के बाद अमीषा घर में ही रहती और पढ़ने के साथसाथ घर के कामों में अपनी दादी का हाथ बंटाटी थी. 2014 में जब अमीषा 13 साल की हुई तो गुस्ताद की मौत हो गई.

अपने पीछे इंजीनियर गुस्ताद अपनी वसीयत छोड़ गए जिस में उन्होंने शाहिबाग़ के मकान के साथ अपनी सरि सम्पत्ति अमीषा मकवाना के नाम कर दिया था. क्योंकि जिस दौरान वसीयत को अमीषा के नाम किया गया वह नाबालिग थी. इस के बाद साल 2023 में मकवाना ने वसीयत की प्रोबेट के लिए वकील आदिल सैयद के माध्यम से शहर की सिविल अदालत का दरवाजा खटखटाया और साक्ष्य प्रस्तुत किए कि वह इंजीनियर के साथ रहती थी तथा उन की मृत्यु तक उन की देखभाल करती थी. गुस्ताद की बेटी के तौर पर उन का ध्यान रखा. सब कुछ देखने के बाद कोर्ट ने संपत्ति को अमीषा को दे दिया. Relations

New Education Bill : क्या नए शिक्षा बिल से रुकेगी स्कूलों की मनमानी

New Education Bill : अन्ना आंदोलन से सत्ता में आई आम आदमी पार्टी के पास अपनी कोई विचारधारा नहीं थी इसलिए आप ने भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को आधार बनाया और लगातार 2024 तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहे लेकिन 2024 के विधानसभा चुनावों में आप की सत्ता चली गई. दिल्ली में 28 वर्षों के बाद बीजेपी सत्ता में आई है.

दिल्ली की जनता आम राज्यों से थोड़ी अलग है. बीजेपी शाषित दूसरे राज्यों में जहां बीजेपी के लिए शिक्षा जैसे मुद्दे गैरजरुरी होते हैं वहीं दिल्ली में बीजेपी शिक्षा पर नीतियां बना रही है. इस की वजह है. आप सरकार में शिक्षा मंत्री रहते हुए मनीष सिसोदिया ने दिल्ली में शिक्षा व्यवस्था और सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए. मनीष सिसोदिया ने प्राइवेट स्कूलों में फीस वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए सख्त दिशानिर्देश जारी किए. अनधिकृत फीस वृद्धि के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया और कई स्कूलों पर अनियमितताओं के लिए कार्रवाई की.

दिल्ली की बीजेपी सरकार की मजबूरी है कि वह दिल्ली में शिक्षा पर बात करे और शिक्षा से संबंधित कुछ ऐसी नीतियां बनाए जिस से पिछली आप सरकार के प्रयासों को टक्कर दिया जा सके.

दिल्ली की बीजेपी सरकार के शिक्षा मंत्री अशीष सूद ने सोमवार को विधानसभा में दिल्ली स्कूल शिक्षा (शुल्क निर्धारण एवं विनियमन में पारदर्शिता) विधेयक, 2025 पेश किया. इस बिल के मुताबिक, निजी स्कूल 3 वर्ष में एक बार ही फीस बढ़ा सकेंगे. इस नए विधेयक में फीस तय करने में स्कूल प्रबंधन के साथसाथ अभिभावकों की भी अहम भूमिका होगी.

दिल्ली स्कूल एजुकेशन (ट्रांसपेरेंसी इन फिक्सेशन एंड रेगुलेशन औफ फीस) बिल, 2025 के क्लोज 5 के मुताबिक किसी भी प्राइवेट स्कूल को फीस बढ़ाने के लिए स्कूल लेवल की 11 सदस्यों की समिति की मंजूरी लेनी होगी जिस में 5 अभिभावक होंगे, 1 चेयरमैन होगा जिसे स्कूल मैनेजमेंट तय करेगा, इन के अलावा इस कमेटी में प्रिंसिपल होगी, 3 टीचर होगी और 1 औब्जर्वर होगा.

इस में स्कूल प्रबंधन के अलावा शिक्षक और अभिभावक भी शामिल होंगे. अभिभावकों का चयन चुनाव के जरिए किया जाएगा.

स्कूल स्तर पर फैसला न होने पर मामला जिला स्तरीय समिति के पास जाएगा. इस में शामिल अधिकारियों, स्कूल, अभिभावकों की रजामंदी से फीस तय होगी.

जिला स्तर पर भी अगर फीस बढ़ोतरी को ले कर फैसला नहीं हो पाता है तो फिर राज्य स्तरीय समिति इस पर अंतिम फैसला करेगी.

इस बिल का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि 15 फीसदी अभिभावकों की सहमति के बाद ही फीस बढ़ोतरी की शिकायत पर कार्रवाई होगी.

● 03 साल में सिर्फ एक बार फीस बढ़ोतरी कर सकेंगे स्कूल

● 50 हजार रुपए प्रति छात्र मुआवजा देना होगा, फीस के नाम पर अपमानित या नाम काटने पर

फीस बढ़ोतरी को ले कर स्कूल यदि सरकार का आदेश नहीं मानते हैं तो उन पर एक लाख से 10 लाख रुपए तक जुर्माना लगेगा. दोबारा गलती करने पर यह जुर्माना दोगुना हो जाएगा. नियमों का बारबार उल्लंघन करने पर स्कूल की मान्यता रद्द की जा सकती है या सरकार उस स्कूल का नियंत्रण भी ले सकती है.

प्राइवेट स्कूलों को ले कर आम आदमी में पहले से ही बहुत सी धारणाएं बैठी हुई हैं. प्राइवेट स्कूल लूटते हैं. मोटी फीस वसूलते हैं और कई बच्चोँ को फीस समय पर न देने की वजह से स्कूल से निकाल देते हैं. कुछ प्राइवेट स्कूलों का रवैया ऐसा होता भी है जिस से लोगों की यह धारणा मजबूत होती है लेकिन प्राइवेट स्कूलों की भी अपनी मजबूरियां होती हैं. प्राइवेट स्कूल सिर्फ समाज सेवा के लिए नहीं होते. इन्हें मैनेजमेंट से ले कर स्कूल के स्टाफ और दूसरे खर्चे भी पूरे करने होते हैं और मुनाफा भी बनाना होता है. इस के लिए इन स्कूलों को फीस में थोड़ी बहुत बढ़ोतरी करनी पड़ती है. इस में गलत कुछ नहीं है लेकिन ज्यादा मुनाफे के चक्कर में फीस में लगातार बढ़ोतरी करते जाना उचित नहीं है. इस से अभिभावकों की परेशानियां बढ़ती हैं. इसी समस्या पर नियंत्रण के लिए यह बिल जरुरी हो जाता है लेकिन इस बिल से प्राइवेट स्कूलों की मनमानी रुकेगी इस बात की गारंटी नहीं है.

अभिभावकों को खुश करने के लिए सरकारें इन निजी स्कूलों को लेकर जब तब तुगलकी फरमान जारी करती रहती है. सरकार को यदि सच में अभिभावकों की चिंता है तो वह सरकारी स्कूलों पर ध्यान क्यों नहीं देती? प्राइवेट स्कूलों की फीस बढ़ोतरी में पूरा मामला डिमांड और सप्लाई का है. हर अभिभावक अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूल में ही पढ़ाना चाहता है. इस से प्राइवेट स्कूलों पर बोझ बढ़ता है और वो इस समस्या से निपटने के लिए फीस बढ़ोतरी का रास्ता अपनाते हैं.

सवाल यह है कि अभिभावकों को अपने बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूल ही क्यों चाहिए? लोगों का मानना होता है कि सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता है. वहां पढ़ाई नहीं होती लेकिन सरकारी स्कूलों की इस बदहाली को सुधारने की जिम्मेदारी किस की है? पिछली सरकार ने सरकारी स्कूलों की गुड़वत्ता को सुधारने के लिए काफ़ी प्रयास किए थे लेकिन बीजेपी सरकार के सत्ता में आते ही वो सारे प्रयास ठंडे बसते में चले गए क्योंकि बीजेपी के लिए शिक्षा कभी जरूरी मुद्दा नहीं रहा. इसी बीजेपी सरकार ने यूपी में 5 हजार सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया. प्राइवेट स्कूलों में फीस वृद्धि को रोकने के लिए लाया गया बिल केवल जनता को खुश करने का एक प्रयास ही है.

इस बिल के अनुसार प्राइवेट स्कूलों की मनमानी फीस बढ़ोतरी को रोकने के लिए स्कूल लेवल की 11 सदस्यों की समिति की मंजूरी लेने की जरूरत होगी. इस कमेटी में 5 अभिभावक भी होंगे 1 चेयरमैन होगा जिसे स्कूल मैनेजमेंट तय करेगा, इन के अलावा इस कमेटी में प्रिंसिपल होगी, 3 टीचर होगी और 1 औब्जर्वर होगा.

बिल का यह मसौदा देखने में क्रांतिकारी लग सकता है लेकिन यह कौन तय करेगा की स्कूल लेवल की यह कमेटी पूरी तरह निष्पक्षता से फैसला करेगी? जब विधायक और सांसद बेचे खरीदे जा सकते हैं तो स्कूल के इन सदस्यों की ईमानदारी की गारंटी कौन तय करेगा? New Education Bill

Guests : सुरक्षा के लिए लोगों को खाने पर बुलाएं

Guests : फ्लैटनुमा मकानों में भले तरहतरह के सुरक्षा उपकरण आने लगे हों मगर टुकड़ोंटुकड़ों में बंट जाने से सामाजिक सुरक्षा गायब हो गई है. फ्लैट में कोई किसी को नहीं जानता और सब अकेले पड़ गए हैं.

लेख का शीर्षक कुछ चौंकाने वाला जरूर है, मगर मेहमानों को खाने पर घर बुलाना वास्तव में आप की सुरक्षा से जुड़ा मामला भी है. आजकल मेहमानवाजी की परम्परा खत्म होती जा रही है. बर्थडे, एनिवर्सरी, त्योहार आदि में अब लोग अपने घर के दो चार सदस्यों के साथ मना कर खुश हो लेते हैं. जिस को कुछ ज्यादा पैसा खर्च करने का शौक होता है वे घरवालों के साथसाथ कुछ दोस्तों रिश्तेदारों को बाहर होटल-रेस्टोरेंट में पार्टी दे देते हैं.

एक पीढ़ी पहले के लोग बच्चों के जन्मदिन पर, नए साल के आगमन पर, तीज त्योहारों पर दोस्तों रिश्तेदारों को घर पर बुला कर खुश होते थे. इस से एक तो घर में रौनक हो जाती थी, दूसरे रिश्तेदार भी आपस में मिल मिला लेते थे. साथ बैठ कर खाना खाना और गप्पशप्पे रिश्तों को मजबूती देते थे. लोग एकदूसरे के दुखसुख से भी दो चार होते थे. आसपड़ोस के लोग भी देखते थे कि फलां के वहां तो कितने लोग आतेजाते हैं, उन के कितने दोस्तरिश्तेदार हैं. वे कितने सामाजिक लोग हैं. इस से आसपास के लोगों पर प्रभाव भी बढ़ता था.

घर पर इस तरह की पार्टियां घर की गृहणी को अपनी पाक कला के प्रदर्शन के लिए बेहतरीन मंच भी प्रदान करती थीं. जब मेहमान उन के बनाए स्वादिष्ट व्यंजनों को उंगलियां चाटचाट कर खाते और कहते – भाभीजी आप की बनाई तरकारी का तो जवाब नहीं. और यह खीर तो सचमुच लाजवाब है. इतना स्वाद कहां से लाती हैं आप? ऐसी तारीफ सुन कर भाभीजी तो फूली नहीं समाती थीं. गालों पर लाली उभर आती थी. घर की औरत को खुशी और तारीफ के ऐसे मौके तो बस ऐसी पार्टियों के आयोजन में ही नसीब होते थे. आज की गृहणियों को ऐसी तारीफ नहीं मिल पाती क्योंकि लोगों ने मेहमानों को घर पर बुलाना और उन की आवभगत करनी ही बंद कर दी है.
दरअसल पहले संयुक्त परिवार में मातापिता, भाईबहन, देवरानीजेठानी, चाचाताऊ सब इकट्ठे रहते थे. रसोई भी इकट्ठी बनती थी. घर की तीन चार औरतें आपस में मिल बांट कर सारा काम आसानी से निपटा लेती थीं. त्योहारों पर ढेर सारे पकवान भी बना लेती थीं. एकदूसरे के अनुभवों से सीखती भी थीं. तीज-त्योहार या किसी अन्य आयोजन पर घर में मेहमान इकट्ठे हुए तो उन की आवभगत करने के लिए काफी लोग होते थे. पर अब एकल परिवार ज्यादा हैं. घर में मात्र दो चार प्राणी. यानी पतिपत्नी और ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे. अब ज्यादातर औरतें नौकरीपेशा भी हैं. ऐसे में उन के पास सिर्फ रविवार का दिन ही होता है जब वे सारा दिन घर पर होती हैं. मगर इस दिन भी उन के पास बहुत काम होते हैं. एक तो हफ्ते भर की थकान, फिर बच्चों की फरमाइश कि आज तो कुछ अच्छा बना कर खिला दो. आज तो कहीं घूमने चल पड़ो. आज तो शौपिंग करा दो. आज तो होमवर्क पूरा करवा दो. आज तो मेरा प्रोजेक्ट बनवा दो. आदिआदि. ऐसे में मेहमानों के लिए टाइम किस के पास है?

फ्लैट कल्चर इधर तेजी से बढ़ा है. छोटेछोटे कबूतरनुमा फ्लैटों में रहने वाले लोग अकसर बगल के फ्लैट में कौन रह रहा है, इस से भी अनभिज्ञ होते हैं. फ्लैट कल्चर ने लोगों को इतना अकेला और स्वार्थी बना दिया है कि बगल के फ्लैट में कोई घटना हो जाए तो जब तक पुलिस नहीं पहुंचती, लोग बाहर आ कर देखते तक नहीं हैं. जिन घरों में लोगों का आनाजाना कम होता है, अकसर चोर-लुटेरों की नजर उन्हीं घरों पर होती है. यही नहीं ऐसे घरों या फ्लैटों पर सोसाइटी के सिक्योरिटी गार्ड भी बुरी नजर रखते हैं और मौका पाते ही किसी न किसी घटना को अंजाम देते हैं. हाल ही में चोरी की ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जहां महिला घर में अकेली थी और उस घर में लोगों की ज्यादा आवाजाही नहीं थी.

अगर आप के घर में लोगों का आनाजाना लगा रहता है और पड़ोसियों से भी आप की बातचीत होती रहती है, ऐसे घरों से आपराधिक प्रवृत्ति के लोग दूर रहते हैं. उन्हें पता होता है कि इन के घर आने जाने वाले और इन को जानने वाले काफी लोग हैं, या ये प्रभावशाली लोग हैं.

सुषमा और उस के पति अनुराग अपनी चार साल की बेटी के साथ नोएडा के वन बैडरूम फ्लैट में रहते हैं. अनुराग नौकरीपेशा हैं और सुबह 9 बजे घर छोड़ देता है. उस की पत्नी 11 बजे बेटी को पास के स्कूल में छोड़ने और 3 बजे वापस लेने जाती है. दिनेश नाम के आदमी की नजर एक दिन सुषमा पर पड़ी, और वह रोज उस के आने जाने के वक्त पर ध्यान देने लगा. उस ने पाया कि दिन भर सुषमा के घर पर कोई भी आताजाता नहीं है. एक दिन उस ने दोपहर में सुषमा के घर की घंटी बजाई और दरवाजा खुलते ही उसे धकियाते हुए अंदर घुस गया. उस ने सुषमा के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की मगर उस के चीखने चिल्लाने पर वह उस के गले में पड़े मंगलसूत्र को नोच कर फरार हो गया. मामला पुलिस में दर्ज हुआ, सोसाइटी में लगे सीसीटीवी में उसे पहचान भी लिया गया मगर वह अभी तक पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ा. ये तो अच्छा हुआ कि उस के पास कोई हथियार नहीं था वरना वह सुषमा पर जानलेवा हमला भी कर सकता था.

इस के विपरीत माधुरी दिल्ली की एक सोसाइटी में अपने दो रूम के फ्लैट में बिलकुल अकेले रहती है. वह एक कंपनी में काम करती है. उस का अपने पड़ोसियों के घर काफी आनाजाना है. अकसर उस की पड़ोसिनें भी उस से मिलने आती हैं. माधुरी अकसर अपने घर पर अपने दोस्तों को बुलाती है. खाना वह बाहर से और्डर कर देती है. फिर खूब पार्टी होती है. घर में शोरगुल रहता है. माधुरी को दिल्ली आए 9 साल हो गए हैं मगर इतने सालों में उन्हें कभी भी असुरक्षा का भान नहीं हुआ.

कहने का मतलब यह कि भले आप अकेले रहते हों या आप एकल परिवार हों, मगर अपनी सुरक्षा के मद्देनजर अपने घर में लोगों का आनाजाना बनाए रखिए. इस से आप के पड़ोसी भी आप के घर पर नजर बनाए रखेंगे. इस का फायदा यह होगा कि अपराधी तत्व आप के घर की तरफ देखने की हिम्मत नहीं करेंगे. Guests

Subhanshu Shukla : टैक्नोलौजी की जीत और भारतीय वैज्ञानिक सोच की हार

Subhanshu Shukla : धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधाभासी हैं, बावजूद इस के धार्मिक कर्मकांडी वैज्ञानिक उपलब्धियों को धार्मिक चोला ओढ़ाने की कोशिश में रहते हैं. ऐसा ही हालिया सुभांशु शुक्ला के अंतरिक्ष स्टेशन के दौरान सामने आया.

सुभांशु शुक्ला एक्सिओम मिशन-4 (Ax-4) के तहत अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की यात्रा करने वाले पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री हैं, और 1984 में राकेश शर्मा के बाद अंतरिक्ष में कक्षा की यात्रा करने वाले दूसरे भारतीय बन गए हैं. सुभांशु शुक्ला ने 25 जून 2025 को स्पेसएक्स के ड्रैगन कैप्सूल के माध्यम से फ्लोरिडा से आईएसएस के लिए उड़ान भरी. उन्होंने वहां पर 18 दिन बिताए, 31 देशों के 60 से अधिक प्रयोग किए, जिन में इसरो के 7 प्रयोग शामिल थे.

15 जुलाई 2025 को कैलिफोर्निया के तट पर सुभांशु उतरे तो यह भारत के लिए बहुत गर्व की बात थी. यह मिशन भारत, पोलैंड, और हंगरी के लिए भी ऐतिहासिक था, क्योंकि इन देशों के अंतरिक्ष यात्री 4 दशकों बाद किसी मानवयुक्त मिशन में शामिल हुए थे.

भारतीय मीडिया ने इस घटना को ऐसे पेश किया जैसे सुभांशु शुक्ला का अंतरिक्ष में जाना भारत की कोई बड़ी उपलब्धि हो लेकिन यह मिशन एक निजी कम्पनी एक्सीओम का एक महत्वकांक्षी प्रोजैक्ट था जिस के तहत सुभांशु शुक्ला को चुना गया था. जैसा की हर बड़े इवैंट पर होता है. सुभांशु शुक्ला की सकुशल वापसी के लिए भारत में यज्ञ हवन होने लगे. सुभांशु शुक्ला आसमान में थे और यहां जमीन पर बैठे निठल्ले लोग उन की लैंडिंग के लिए धार्मिक नौटंकी में लगे थे. क्या यह विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की हत्या नहीं है?

मजहब या धर्म ऐसा ब्रेकर है जो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र कि गति को धीमा करता है. दुनिया के सभी धर्म इतिहास में बने हैं. कोई 1400 साल पुराना है तो कोई धर्म 2 हजार साल पुराना है और कोई धर्म तो सनातन होने का दावा करता है.

धार्मिक गिरोह अपने पुरातन होने का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन सच यही है कि धर्मों का पुराना होना ही इंसानियत के लिए घातक स्थिति है क्योंकि जो धर्म जितना पुराना है वो इंसानी बुद्धि को उतना ही पीछे ले जाने कि जद्दोजहद करता है.

जब हम दुनिया के इतिहास को देखते हैं तो हमें मालूम चलता है कि इंसान की बुद्धि ने धर्मों के खिलाफ बगावत की तब जा कर विज्ञान का उदय हुआ. आज की हर एक तकनीक जिस के बल पर यह दुनिया चल रही है आप और हम जी रहे हैं इस में किसी भी धर्म का कोई योगदान नहीं है. यह सब विज्ञान की ही देन है. कोई भी समाज तब तक आजाद नहीं होता जब तक उस समाज के विचार गुलाम हों. खयालातों की गुलामी को पश्चिमी दुनिया ने तोड़ा और विज्ञान तकनीक और डैमोक्रेसी में कहीं आगे निकल गए लेकिन हम आज भी अपनी धार्मिक मान्यताओं की झूठी दुनिया से बाहर न निकल पाए.

कड़वी सच्चाई तो यही है कि विज्ञान के क्षेत्र में हमारी वास्तविक उपलब्धि शून्य के अलावा कुछ नहीं है. विज्ञान के क्षेत्र में इस महान शून्यता का कारण यह है कि हम वैज्ञानिक चेतना से कोसों दूर हैं. उधार की टैक्नोलौजी पर इतराने से वैज्ञानिक चेतना नहीं आती. विज्ञान का पथ बनाने के लिए कुर्बानियां देनी पड़ती हैं. धर्म कि सत्ता से टकराना होता है.

1530 में कोपरनिकस के प्रयोगों ने यह साबित किया कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है. पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई जिस से दिन और रात होते हैं और एक साल में सूर्य का चक्कर पूरा करती है. कोपरनिकस कि इतनी सी बात से धर्म कि सत्ता हिल गई और निकोलस कोपरनिकस को देश छोड़ना पड़ा.

ज्योरदानो ब्रूनो का गुनाह बस इतना सा था कि उन्होंने निकोलस कोपरनिकस के विचारों का समर्थन किया और कहा कि ‘ब्रह्माण्ड का केंद्र पृथ्वी नहीं’ बस इसी गुनाह के लिए उन्हें जिंदा जला दिया गया.

कोपरनिकस के 80 साल बाद और ज्योरदानो कि मौत के 15 साल बाद गैलीलियो ने अपनी दूरबीन के प्रयोग से कोपरनिकस कि बात को प्रमाणित किया और यह नतीजा निकाला कि वास्तव में धरती यूनिवर्स का केंद्र नहीं. धर्म को यह बात पसंद नहीं आई और गैलीलियो को जेल की सजा हो गई.

चार्ल्स डार्विन ने अपने जीवन के 50 साल लगा कर यह खोज निकाला कि धरती पर जीवन की विविधताओं का स्रोत ईश्वर नहीं है बल्कि विकासवाद है. उन की यह महान खोज धर्म के विरुद्ध साजिश बताई गई और चर्च ने डार्विन को ईश्वर का कातिल करार दे दिया. 24 नवंबर, 1880 को डार्विन ने फ्रांसिस एमसी डेर्मोट के एक पत्र का जवाब देते हुए अपने खत में साफसाफ लिखा था, ‘मुझे आप को यह बताने में खेद है कि मैं बाइबिल पर भरोसा नहीं करता. यही कारण है कि मुझे जीजस क्राइस्ट के ईश्वर की संतान होने पर भी विश्वास नहीं है.’

चर्च को डार्विन के मानव विकास के सिद्धांत बिल्कुल मान्य नहीं थे. डार्विन के सिद्धांतों ने परमेश्वर, उन के पुत्र यीशू और ईसाइयों के प्रमुख धर्मग्रंथ बाइबिल के ही अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े कर दिए थे.

बाइबिल के अनुसार पृथ्वी की रचना क्राइस्ट के जन्म से 4004 साल पहले हुई थी. लेकिन डार्विन के विकासवाद की थ्योरी पृथ्वी की उत्पत्ति को लाखों करोड़ों वर्ष पहले का बताती थी. बाइबिल के मुताबिक ईश्वर ने एक ही सप्ताह में सृष्टि की रचना कर दी थी लेकिन डार्विन कि थ्योरी बाइबिल कि मान्यताओं के बिल्कुल उलट थी. डार्विन ने अपनी किताब, ‘द औरिजिन औफ द स्पीशीज’ में लिखा, “मैं नहीं मानता कि पौधे और जीवित प्राणियों को ईश्वर ने बनाया था.” इन्हीं ईश्वर विरोधी बातों के कारण डार्विन को ईश्वर और धर्म का हत्यारा बताया गया.

धर्म और विज्ञान के बीच कोई समझौता हो ही नहीं सकता. जो लोग धर्म और विज्ञान के बीच गठजोड़ बनाने की कोशिश करते हैं वे दरअसल राजनीति का शिकार होते हैं.

धर्म के सिद्धांत हमेशा से विज्ञान विरोधी रहे हैं और विज्ञान के सिद्धांतों पर धर्म कभी खरा नहीं उतरता इसलिए दोनों के रास्ते जुदा हैं. धर्म को पनपने के लिए विज्ञान की जरूरत पड़ती है. विज्ञान की वैसाखी के बिना आज कोई धर्म जिंदा नहीं रह सकता लेकिन विज्ञान को धर्म की रत्ती भर भी जरूरत नहीं पड़ती.

साइंस के लिए सैंकड़ों लोगों ने अपनी जिंदगियां कुर्बान की हैं. रातों की नींदे उड़ाई हैं तब जा कर आज की दुनिया रहने लायक बनी है. लोग साइंस और टैक्नोलौजी के फर्क को नहीं समझ पाते. टैक्नोलौजी साइंस नहीं है और विज्ञान सिर्फ तकनीक भर नहीं है. साइंस की अलगअलग शाखाएं हैं. कैमेस्ट्री, फिजिक्स, जियोलौजी, एस्ट्रोनोमी और बायोलौजी. विज्ञान के इन सभी क्षेत्रों को समझने के लिए हम टैक्नोलौजी का सहारा लेते हैं और हम टैक्नोलौजी को ही साइंस समझने की भूल करते हैं.
तकनीक टैक्नोलौजी या प्रौद्योगिकी का मतलब विज्ञान नहीं है बल्कि वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित ऐसे उपकरण जिस से हम समस्याओं को हल कर इंसानियत के लिए कुदरत को आसान बना सकें, तकनीक कहलाती है. संक्षेप में कहें तो विज्ञान के सिद्धांतों का इस्तेमाल कर जब हम उस का प्रयोग करते हैं तो वह तकनीक हो जाती है.

हम चंद्रयान के जरिए चांद तक पहुंचे, यह हमारी तकनीक की महान विजय है और इसे सेलिब्रेट जरूर करना चाहिए लेकिन विज्ञान क्या है हमें यह भी समझना चाहिए.

जहां तकनीक विज्ञान का एक मामूली टूल होता है वहीं विज्ञान का हर प्रयोग धर्म की सत्ता के विरुद्ध इंसानी दिमाग का एक महत्वपूर्ण इवेंट होता है. यही फर्क है तकनीक और विज्ञान में. टूल का इस्तेमाल करने के लिए अच्छे टैक्नीशियन और जरूरी बजट की जरूरत होती है लेकिन विज्ञान के सिद्धांतों को गढ़ने के लिए किसी टैक्नीशियन कि नहीं बल्कि वैज्ञानिक समझ की जरूरत होती है.

सैकड़ों टैक्नीशियन मिल कर चांद या मंगल पर जाने की टैक्नोलौजी को एसेम्बल कर उसे सफल बना सकते हैं लेकिन बात जब वैज्ञानिक सिद्धांतों या इन वैज्ञानिक सिद्धांतों पर कोई नवीन आविष्कार करने की हो तब ये सैंकड़ों टैकक्नीशियन्स भी फेल हो जाते हैं.

महंगे बजट और विज्ञान की किताबों को पढ़ कर इंजीनियर टैक्नीशियन बने चंद लोगों के जरिये चांद ही क्या मंगल पर भी पहुंचा जा सकता है लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांतों को गढ़ना और इन सिद्धांतों पर आधारित आविष्कारों से दुनिया कि मुश्किलों को आसान बनाना मंगल पर पहुंचने से बिल्कुल अलग बात है. जिन वैज्ञानिकों ने चांद पर जाने का रास्ता बनाया वो कभी चांद पर नहीं पहुंचे.

चांद पर यान भेज कर इतराने से कोई लाभ नहीं. यह सफलता टैक्नोलौजी की जीत जरूर है लेकिन यह विज्ञान की हार है. हम टैक्नोलौजी के सफलतापूर्वक इस्तेमाल से चांद पर पहुंचे हैं लेकिन सही मायने में देखें तो इस मिशन में हम ने विज्ञान कि हत्या कर दी.

चंद्रयान मिशन को पूरा करने की खातिर भारतीय वैज्ञानिकों को खुद से ज्यादा मंदिरों पर भरोसा था इसलिए इसरो के वैज्ञानिक मंदिरों के चक्कर लगाते रहे और मंदिरों की बलिवेदी पर साइंस और साइंटिफ़िक टेम्परामेंट की बलि चढ़ाते रहे.

इसरो के वैज्ञानिक चांद की धरती पर मशीन भेजने में सफल हुए तो इस का असली श्रेय पश्चिम के उन वैज्ञानिक सोच वाले उन महान हस्तियों को जाता है जिन्होंने विज्ञान के लिए धर्म की सत्ता को चुनौतियां दी और अपने जीवन को संकट में डाला.

विज्ञान का सीधा टकराव मजहबों से है. जिस समाज पर मजहब हावी होगा वहां विज्ञान के लिए जगह बचेगी ही नहीं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बिना आप विज्ञान के साथ चल ही नहीं सकते. जहां मजहब मजबूत होता है वहां साइंटिफ़िक टेम्परामेंट की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है. भारत और पाकिस्तान जैसे देश इस बात का उदाहरण हैं. यहां धर्म हावी है इसलिए विज्ञान के क्षेत्र में दोनों देश फिसड्डी हैं. यही हाल ईरान का है जो एक समय ज्ञान का स्रोत था.

वैज्ञानिक होना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना दोनों में बड़ा अंतर है. एक साइंटिस्ट अगर अपने प्रयोग की सफलता के लिए मंदिर में नारियल फोड़ता है या नमाज पढ़ कर कर अपनी सफलता की दुआ करता है तो असल में वो साइंटिस्ट हो कर साइंस की हत्या कर रहा होता है. जिस साइंटिस्ट के पास साइंटिफ़िक टेम्परामेंट न हो वो साइंटिस्ट नहीं बल्कि साइंस का हत्यारा ही होता है.

चांद पर चंद्रयान भेज देना बड़ी बात जरूर है आप इसे टैक्नोलौजी की जीत कह सकते हैं लेकिन यह विज्ञान की जीत नहीं है.

पश्चिम एशिया के तेल उत्पादक इसलामी देश यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान की टैक्नोलौजी का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं पर क्या वहां से वैज्ञानिकों की खेप पर खेप निकल रही है. सऊदी अरब में बन रहे जेद्दा टौवर जो विश्व की सब से ऊंची इमारत होगी एड्रीयन स्मिथ और गौर्डन गिल्ल हैं कोई सऊदी नहीं.

धर्म या मजहब की सत्ता के बीच दम तोड़ते विज्ञान की जीत तब तक संभव नहीं जब तक हमारे वैज्ञानिकों में साइंटिफ़िक टेम्परामेंट की समझ पैदा न हो. चंद्रयान मिशन चाहे टैक्नोलौजी की जीत हो पर भारतीय विज्ञान की तो हार ही है. Subhanshu Shukla

Hindi Love Stories : बुरके वाली का दीदार

Hindi Love Stories : अपनी कंजूसी की आदत पर अब अमन को गुस्सा आने लगा था. जब कंपनी ने पहले दर्जे के टिकट का खर्चा दिया था, तो वह नाहक ही दूसरे दर्जे के डब्बे में सफर क्यों कर रहा था?

‘और पिसो मक्खीचूस…’ खुद को कोसते हुए अमन ने एक नजर पूरे डब्बे में डाली. एक से बढ़ कर एक गंवार किस्म के लोग बैठे हुए थे. न बैठने की तमीज, न खानेपीने की.

सामने बैठा धोती वाला आदमी आधे घंटे से ‘चबरचबर’ की तेज आवाज करते हुए चने खाए जा रहा था. खाए तो ठीक, लेकिन खाने का यह भी कोई ढंग हुआ?

चने खाते हुए अचानक उस आदमी को जोर से छींक आ गई. बगैर मुंह पर हाथ रखे उस ने जो छींका, तो मुंह में पिसते चनों का आधा हिस्सा सीधे अमर के झक सफेद कुरते पर आ गिरा.

गुस्सा तो ऐसा आया कि उठ कर

2-4 तमाचे लगा दे, लेकिन उस की बड़ी उम्र देख कर अमन रुक गया

और तेज आवाज में कहा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है?’’

अमन सोच रहा था, शायद वह माफी मांगेगा, पर यह क्या? वह तो…

‘‘इस में बदतमीजी की क्या बात है? छींक आ गई, तो इस में मैं क्या कर सकता हूं? जानबूझ कर तो नहीं छींका है,’’ उस आदमी ने दलील दी.

‘‘लेकिन, छींकते वक्त मुंह पर हाथ तो रखा जा सकता है,’’ अमन तमीज सिखाने की गरज से बोला.

धोती वाला आदमी बहाना करने लगा, ‘‘आप की बात ठीक है, पर मैं हाथ रखता उस से पहले ही…’’

‘‘पहले क्या…? मेरे कुरते की तो ऐसी की तैसी हो गई न,’’ अमन बिफरते हुए बोला.

‘‘इस में गुस्सा करने की क्या जरूरत है? लाइए, मैं साफ कर दूं,’’ रूमाल से कुरता साफ करने के लिए वह अमन की तरफ झुका. उस के ऐसा करने में भी दिखावटीपन साफ झलक रहा था.

‘‘बसबस, ठीक है,’’ अमन के ऐसा कहते ही वह आदमी दोबारा अपनी सीट पर पसर गया और उसी अंदाज में चने चबाने लगा.

डब्बा दूसरे दर्जे का था. हर स्टेशन पर मुसाफिर भी दर्जे के हिसाब से ही चढ़तेउतरते. तकरीबन 2 घंटे से कोई भली सूरत नजर नहीं आई थी. कुछ नहीं तो एकाध जनाना शक्ल ही दिख जाए. बीड़ी पर बीड़ी फूंकते इन अक्खड़ मर्दों की शक्लें देखदेख कर तो अमन का मन ऐसा होने लगा, जैसे अगले स्टेशन पर उतर कर पहले दर्जे के डब्बे में चढ़ जाए. जाना भी बहुत दूर था.

गाड़ी प्रीतमपुर स्टेशन पर खड़ी थी. चाय, समोसा और ठंडा वगैरह की तेज आवाजों से किसी तरह अपना ध्यान हटाते हुए अमन नजरें उपन्यास पर गड़ाए था. अचानक इत्र की भीनी

खुशबू उस के नथुनों से टकराई. चौंकना लाजिमी था. नजरें उठा कर इधरउधर देखा, तो रेशमी बुरका पहने हुए एक औरत उस की तरफ चली आ रही थी.

वह सीधे आई और ‘धम’ से अमन के पास पड़ी खाली जगह पर बैठ गई. इत्र की खुशबू से आसपास का माहौल सराबोर हो उठा. उस ने हाथ के बैग को अपनी जांघों पर रखा और दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए उसे पकड़ लिया.

न जाने क्यों, उस का आना अमन को अच्छा लगा. अच्छा क्यों नहीं लगता? उस बदबूदार बदसूरत लोगों के डब्बे में रेशमी कपड़े पहने, इत्र लगाए और उस पर कोई औरत, जो उस के पास बैठी हुई थी.

गाड़ी चल चुकी थी. अब अमन का मन उपन्यास पढ़ने में बिलकुल नहीं लग रहा था. लेकिन वह उसे बंद भी नहीं कर सकता था. उस के बाईं तरफ वह बुरके वाली औरत बैठी थी. दाईं ओर खिड़की थी. पढ़ना बंद करने के बाद यही चारा रहता कि खिड़की के बाहर का नजारा देखता रहे. बाईं तरफ चेहरा घुमाता तो उस बुरके वाली पर अच्छा असर नहीं पड़ता.

‘क्या पता, वह कुछ और ही सोचने लगे. चेहरे पर गिरे परदे की जाली से कहीं उस की तिरछी निगाहों ने मेरे चेहरे को उस की ओर ताकते देख लिया तो क्या सोचेगी? यही कि बदमाश है, मेरी सूरत देखने की कोशिश कर रहा है. लेकिन देखने में मैं कोई बदमाश थोड़े ही लगता हूं. बदमाश लगता तो वह मेरे पास ही क्यों बैठती? और जगहें भी तो खाली थीं…?’

पन्ने पर आंखें गड़ाए अमन यह सब सोचे जा रहा था. लेकिन इस तरह कब तक चलेगा? हिम्मत कर के उस ने उपन्यास बंद किया और उसे बैग के हवाले कर खिड़की के बाहर की तरफ देखने लगा.

बाहर देखते हुए अमन इस ताक में था कि किसी तरह एक बार उस ओर के हालात का जायजा ले ले, जहां वह औरत बैठी थी. 5 मिनट तक यों ही बाहर देखने के बाद अमन ने तेजी से अपना चेहरा बाईं तरफ घुमाया और कुछ इस तरह का स्वांग करने लगा, जैसे वह उसे नहीं, बल्कि डब्बे में बैठे दूसरे मुसाफिरों की ओर देख रहा है.

अचानक अमन की नजरें बैग थामे उस औरत की हथेलियों पर पड़ीं. पलभर को वह ठगा सा रह गया. गोरीगोरी, नरममुलायम हथेलियां व उन पर सोने की अंगूठी. कुलमिला कर नजारा देखने लायक व आंखों को अच्छा लगने वाला था. जब उस की हथेलियां यह गजब ढा रही थीं तो शक्लसूरत के लिहाज से वह… 2 मिनट तक उस की हथेलियों पर टकटकी लगाए जाने क्या सोचता रहा… उस के बाद अचानक अमन के सोचने की कड़ी तब टूटी, जब उस औरत ने अपना हाथ साथ लाए बैग में डाला.

अमन ने झटपट अपनी नजरें खिड़की की तरफ फेर लीं. उसे ऐसा लगा कि शायद उस के देखते रहने के चलते

ही उस ने हाथ बैग में डाल कर उस

का ध्यान कहीं और बंटाने की कोशिश की थी.

अमन को अपनेआप पर थोड़ा गुस्सा भी आया. क्यों वह उस की हथेलियों को एकटक निहारता रहा था?

‘सचमुच बुरा लगा होगा उसे. कहीं यह तो नहीं सोच लिया उस ने कि मेरी नजर उस के सोने की अंगूठी पर है.

‘नहींनहीं, मैं भी अजीब हूं. इतनी देर से न जाने क्या उलटासीधा सोचे जा रहा हूं? हो सकता है कि उस ने मेरी हरकतों  पर गौर ही न किया हो. लेकिन, उस के गोरे रंग और कोमल हथेलियों की याद न चाहते हुए भी बारबार दिल पर बिजली गिरा रही है,’ यह सोच कर भी अमन का मन खुश हो रहा था कि यह सुंदरी जरूर एक न एक बार परदा उठाएगी और उस का चांद सा चेहरा देखने को मिलेगा.

उस औरत के आने से पहले दूसरे दर्जे के सफर को अमन कोस रहा था. अब वही सफर उसे अपार खुशी का एहसास करा रहा था.

अमन फिर उसे देखने का मौका ढूंढ़ने लगा. अब की बार उस ने डब्बे में बैठे दूसरे मुसाफिरों की ओर नजर दौड़ाई. देखते ही वह चौंक गया. तकरीबन हर आदमी की निगाह उस बुरके वाली की तरफ थी. तिरछी निगाहों से उस की ओर देखा तो वह किताब पढ़ रही थी. यकीनन, लोगों की घूरती नजरों से बचने के लिए उस ने किताब खोली होगी.

अब आदमी तो आदमी है, दूसरों की गलतियों को ढूंढ़ने में अकसर अपनी गलतियों की ओर ध्यान नहीं देता. अमन भी तो उस बुरके वाली का चेहरा देखने की फिराक में था.

ऐसा लग रहा था कि अगले ही

पल उस के चेहरे से अमन धीरे से परदा उठा कर कहेगा, ‘वाह, क्या खूबसूरती पाई है.’

जवाब में वह सिर झुका कर शरमाते हुए कहेगी, ‘जी, तारीफ के लिए शुक्रिया.’

उसी अंदाज में अमन का सिर भी नीचे झुका तो आंखें चुंधिया गईं. क्या बेजोड़ रेशमी जूतियां पहनी थीं उस ने. चिलचिल करता बुरका, चमकती अंगूठी, कढ़ाईदार जूतियां पहने उस की मनमोहक वेशभूषा देख कर चेहरे की खूबसूरती के बारे में अमन की सोच और भी बढ़ती जा रही थी.

‘लेकिन, इस का चेहरा देखें तो कैसे? कमबख्त परदा भी तो नहीं हटाती. अच्छा है नहीं हटाती. हटा दे तो शायद कयामत आ जाए. क्या 2-4 गश खा कर गिर पड़ें.’

इधरउधर की बातें सोचने का अमन का सिलसिला टूटा तो देखा कि गाड़ी रायपुर स्टेशन पर खड़ी थी. प्यास लगने के बावजूद वह अपनी जगह से नहीं उठा. क्या पता, इधर वह उठे, उधर कोई और आ कर इस अनमोल जगह पर कब्जा कर ले जाए.

‘‘क्या आप यह पानी की बोतल भर कर ले आएंगे,’’ उस बुरके वाली ने अमन से कहा.

आवाज क्या थी, मानो शक्कर घोल रखी हो. अमन के मना करने का सवाल ही नहीं था.

‘‘अभी लाया, आप जगह का ध्यान रखिए,’’ कहते हुए अमन उठ खड़ा हुआ.

‘‘चिंता मत कीजिए, ज्यादा हुआ तो कह दूंगी कि आप मेरे साथ हैं,’’ उस ने सलीके से कहा.

‘मेरे साथ हैं’ सुन कर मन ही मन अमन इतना खुश हो गया कि होंठों पर बरबस गीत आ गया और बोतल ले कर डब्बे से नीचे उतरा.

पानी लेने जाने से ले कर आने तक उस की मीठी आवाज कानों में रस घोलती रही.

‘‘यह लीजिए,’’ भरी बोतल देते हुए अमन ने कहा.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया,’’ उस ने अमन की ओर देखते हुए कहा. लेकिन परदा नहीं हटाया. बड़ा गुस्सा आया. कुछ कहना है तो कम से कम परदा तो हटा देती. कौन सी नजर लग रही है?

गाड़ी चल पड़ी थी. वह औरत फिर से किताब पढ़ने में मगन हो गई. अमन उस से बात करने का जुगाड़ बैठाने की फिराक में था.

‘कैसे शुरुआत करूं? यह कहूं कि किस लेखक का उपन्यास है? नहींनहीं, कुछ इस तरह से कि आप को उपन्यास पढ़ने का शौक है?’ मेरे पूछने पर उसे अच्छा नहीं लगा तो…? या वह यही कह दे, कि ‘आप को इस से क्या? अपना काम कीजिए.’

‘लेकिन, पिछले स्टेशन पर जब पानी मंगाया था, तब तो बड़े अपनेपन से बोली थी,’ इसी उधेड़बुन में अमन उंगलियां चटकाने व बारबार दांतों से नाखून काटने लगा था.

हिम्मत कर के अमन बोलने ही वाला था कि उस की रसभरी आवाज कानों से टकराई, ‘‘आप को किताबें पढ़ने का शौक नहीं है क्या?’’

एकदम से पूछे जाने के चलते अमन  से जवाब देते नहीं बना, ‘‘हांहां, हैहै,’’ कहते हुए बैग से उस ने उपन्यास निकाल लिया.

‘‘पूरा पढ़ चुके हो, तभी अंदर रखे हुए थे?’’ कुछ सवालिया लहजे में उस ने कहा.

अमन ने कहा, ‘‘बस यों ही अच्छा नहीं था.’’

‘‘लाइए, दिखाइए तो,’’ कहते हुए उस ने बेझिझक उपन्यास अमन के हाथों से खींच लिया. इस दौरान उस की नाजुक उंगलियां अमन की हथेली से छू गईं. एक पल को शरीर में झुरझुरी दौड़ गई और पूरा बदन रोमांचित हो उठा.

पन्ने पलटते हुए बुरके वाली ने कहा, ‘‘आप को दिक्कत न हो, तो मैं यह उपन्यास पढ़ लूं.’’

अमन ने कहा, ‘‘जरूर पढि़ए. वैसे भी अभी मेरी इच्छा नहीं है,’’ लेकिन

साथ ही यह भी जोड़ दिया कि कोई खास नहीं है.

अमन नहीं चाहता था कि बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह उसे उपन्यास पढ़ने में डूब जाने के चलते खत्म हो जाए.

‘‘लग तो दिलचस्प ही रहा है,’’ शुरुआती 2-4 लाइनें पढ़ने के बाद वह बुरके वाली औरत बोली.

दरअसल, वह था ही दिलचस्प, फिर भी अमन ने कहा, ‘‘मुझे तो खास नहीं लगा. खैर, पसंद अपनीअपनी.’’

उस के बाद जो उस औरत ने पढ़ना शुरू किया, तो बोलने का नाम ही नहीं लिया. अमन खाली बैठा खिड़की के बाहर टुकुरटुकुर ताकता रहा. बीच में एकबारगी सोचा कि खाली बैठे बोर होने से अच्छा है, उस का उपन्यास मांग ले. लेकिन यह सोच कर अमन से मांगा नहीं गया कि कहीं वह यह न समझ बैठे

कि वह उस से बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा है.

दीमापुर स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो उपन्यास से नजरें हटाते हुए कुछ चौंकने की मुद्रा में उस ने कहा, ‘‘जी, कौन सा स्टेशन आ गया है.’’

‘‘दीमापुर,’’ अमन ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘सुना है, यहां की रसमलाई बड़ी मशहूर है,’’ कुछ जिज्ञासा के अंदाज में उस ने कहा.

‘‘क्या यह वही दीमापुर है?’’ अब चौंकने की बारी अमन की थी. दरअसल, उस के दोस्त ने इस बारे में जिक्र किया था.

अमन खड़ा हुआ, तो वह बोली, ‘‘कहां जा रहे हो?’’

अमन ने कहा, ‘‘रसमलाई लेने. दोस्त ने कहा था. उधर से निकलो तो एकाध किलो लेते आना.’’

‘‘अच्छा ऐसा करिए, किलो भर मेरी भी बंधवाते लाइए,’’ कह कर उस ने पर्स से 500 रुपए का नोट निकाला.

अमन बोला, ‘‘छुट्टे दे दीजिए, दिक्कत होगी.’’

‘‘जी, छुट्टे नहीं हैं. खैर, आप दे दीजिए. अभी किसी से नोट तुड़वा कर दे दूंगी.’’

इस बीच वह हाथों को जरा भी ऊपर ले जाती तो अमन को लगता, अब चेहरे से परदा हटा, अब हटा. लेकिन कमबख्त ने फिर भी परदा नहीं हटाया.

अमन का धीरज टूटनेटूटने को हो गया. लगा कि तेजी से परदा खींचते हुए कहे, ‘अब हटा भी लीजिए, आखिर इस चांद में क्या राज छिपा है,’ पर ये बातें सोचने तक ही रहीं, जबान से बाहर नहीं निकल सकीं.

अमन मिठाई ले कर आया, तो वह बोली, ‘‘कितने हुए?’’

अमन ने तुरंत कहा, ‘‘400 रुपए.’’

‘‘जी, छुट्टे होते ही दे दूंगी,’’ उस ने कुछ इस तरह से कहा कि अमन के मुंह से निकल गया, ‘‘कोई जल्दी नहीं.’’

प्लेटफार्म छूटते ही अचानक उस ने कहा, ‘‘आप बुरा न मानें, तो मैं आप की जगह पर आ जाऊं. सफर में खिड़की के पास न बैठूं, तो जी मिचलाने लगता है.’’

‘जी नहीं मिचलाएगा तो और क्या होगा? घंटों से चेहरे के आगे परदा जो चढ़ा रखा है,’ अमन ने गुस्से से तकरीबन बुदबुदाते हुए मन ही मन कहा. मन मार कर उसे जगह बदलनी पड़ी.

बाहर का सुंदर नजारा देखते हुए अनायास उस बुरके वाली ने टूटी सलाखों वाली खिड़की से चेहरा बाहर निकाला और तकरीबन पूरी तरह गरदन को पिछले डब्बे की दिशा में मोड़ते हुए चेहरे से परदा हटा दिया.

अमन बरसों से जैसे इसी इंतजार में बैठा था. बिजली की रफ्तार से खिड़की की ओर झपटा. चेहरा देखने के लिए झुका, लेकिन उस से पहले ही बेरहम ने परदा डालते हुए सिर डब्बे के अंदर खींच लिया.

गुस्से में आ कर अमन ने अपनी मुट्ठी हथेली पर इस तरह मारी, जैसे कोई बहुत बड़े फायदे का मौका उस के हाथ से निकल गया हो.

‘‘बड़ा खूबसूरत पेड़ था,’’ उस औरत ने कहा.

चेहरा देखने का मौका चूक जाने के चलते अमन तमतमाया हुआ था. जल्दबाजी में अमन के मुंह से निकल गया, ‘‘होगा, सारे पेड़ ऐसे ही होते हैं.’’

शायद उसे अमन के कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा. पलट कर वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगी. इतने में नोट गिनते सामने बैठे सज्जन पर अमन की निगाह पड़ी, तो बुरके वाली से रसमलाई के पैसे लेने का खयाल दिमाग में आ गया, ‘अरे, मैं तो भूल ही गया था. अभी मांगू लूं, 500 का नोट तुड़वाने के लिए परदा जरूर उठाएगी और मैं चेहरा देख लूंगा.’

उस का छिपा चेहरा देखने की अमन की इच्छा इतनी जोर पकड़ती जा रही थी कि अमन हर बात में यही सोचता कि कैसे उस का चेहरा सामने आ जाए.

मांग तो ले, लेकिन उसे ठीक नहीं लगेगा. सोचेगी, ‘बड़ा अजीब आदमी है, एकाध घंटे के लिए भी धीरज नहीं रख सकता है. पैसे ले कर कोई भागे थोड़े ही जा रही हूं…’

‘ठीक है, नहीं मांगता. पर फिर भूल गया और वह अपने स्टेशन पर उतर गई, तो मुफ्त में 400 रुपए की चपत लग जाएगी… ऐसे कैसे उतर जाएगी? धोखा देगी क्या?’ अमन के दिमाग में उस के चेहरे की ऐसी खूबसूरती का खयाल समा गया था कि उस को सुंदरियों की रानी से कम नहीं समझता था.

लेकिन, एक बात अमन को अब खटकने लगी. आखिर बात क्या है, जो वह अपने चेहरे से परदा नहीं हटा रही? एकाध बार परदा उठा भी ले तो कौन सी आफत आ जाएगी. कहीं यह बदसूरत तो… नहींनहीं, यह बिलकुल नहीं हो सकता. उस की गोरी, नाजुक हथेलियों व रेशमी जूतियां चढ़ाए पैरों के लुभावने खयाल ने अमन की सोचनेसमझने की ताकत ही छीन ली थी.

गाड़ी की रफ्तार धीमी होते देख बुरके वाली ने खिड़की से सिर बाहर निकाल कर देखा और फिर जल्दजल्दी अपना बैग जमाने लगी. अमन को उस का स्टेशन आने का शक हुआ.  पूछा

तो सामान समेटते हुए उस ने जवाब दिया, ‘‘सुलतानगंज आ गया है, मैं यहीं उतरूंगी.’’

‘तो क्या मैं इस का चेहरा नहीं देख पाऊंगा?’ मन में निराशा सी छा गई. ‘चीं’ की तेज आवाजों के साथ ब्रेक लगे और गाड़ी सुलतानगंज स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई.

‘‘आइए, मैं आप को छोड़ दूं,’’ उस के उठने से साथ ही अमन भी खड़ा हो गया. हालांकि उस के पीछे अमन का लालच था कि हो सकता है, इस बीच वह चेहरे से परदा हटा दे.

‘‘आप क्यों तकलीफ कर रहे हैं? बैठिए,’’ वह तहजीब से बोली.

‘‘नहींनहीं, इस में तकलीफ की क्या बात है,’’ कहते हुए अमन उस के पीछेपीछे चलने लगा.

अब की बार अमन ने पक्का इरादा कर लिया कि चेहरा देखने की जिस इच्छा को घंटों से सजाए था, उसे यों ही खाक नहीं होने देगा. ज्यों ही वह दरवाजे के पास आई, हिम्मत बटोर कर शायराना अंदाज में अमन ने कहा, ‘‘आप बुरा न मानें, तो आप के खूबसूरत चेहरे का दीदार कर मैं अपने को खुशकिस्मत मानूंगा.’’

एक पल के इंतजार के बाद झटके से उस ने परदा ऊपर खींच लिया. चेहरा देख कर अमन हक्काबक्का रह गया. हद से बदसूरत, दाग वाली, कंजी आंखों वाला चेहरा उस के सामने था.

अलविदा की औपचारिकता निभा कर उस ने परदा गिराया और स्टेशन के मेन गेट की ओर बढ़ गई. डब्बे के दरवाजे पर बदहवास सा खड़ा अमन उसे जाते हुए देखता रहा.

गाड़ी चलने के बाद अमन लड़खड़ाते कदमों से भीतर आया, तो कुछ याद आते ही दिल पर एक बड़ा सा झटका महसूस हुआ. उस के चांद सरीखे खूबसूरत चेहरे के खयालों में मिठाई के 400 रुपए व अधूरे पढ़े उपन्यास के 100 रुपयों की बलि चढ़ गई थी. अमन निढाल हो कर अपनी सीट पर आ गिरा. Hindi Love Stories

Family Story : उपलब्धि – शादीशुदा होने के बावजूद क्यों अलग थे सुनयना और सुशांत?

Family Story : कभी कभी हालात इनसान को ऐसे मोड़ पर ले आते हैं कि वह समझ ही नहीं पाता कि अब क्या करे, किस ओर जाए? कुछ ऐसा ही हुआ था सुनयना के साथ. एक पल में कितना कुछ बदल गया था उस की जिंदगी में.

काश, आज उस ने सुबह चुपके से सुशांत की बातें न सुनी होतीं. वह किसी से मोबाइल पर कह रहा था, ‘‘हांहां डियर, मैं ठीक 5 बजे पहुंच जाऊंगा नक्षत्र होटल. वैसे भी अब तो सारा वक्त आप के खयालों में गुजरेगा,’’ कहते हुए ही सुशांत ने फोन पर ही किस किया तो सुनयना का दिल तड़प उठा.

सुनयना मानती थी कि सुशांत ने उसे साधारण मध्यवर्गीय परिवार से निकाल कर शानोशौकत की पूरी दुनिया दी. गाड़ी, बंगला, नौकरचाकर, कपड़े, जेवर… भला किस चीज की कमी रखी? फिर भी वह आज स्वयं को बहुत बेबस, लाचार और टूटा हुआ महसूस कर रही थी. वह बेसब्री से 5 बजने का इंतजार करने लगी ताकि नक्षत्र होटल पहुंच कर हकीकत का पता लगा सके. खुद को एतबार दिला सके कि यह सब यथार्थ है, महज वहम नहीं, जिस के आधार पर वह अपनी खुशियां दांव पर लगाने चली है.

पौने 5 बजे ही वह होटल के गेट से दूर गाड़ी खड़ी कर के अंदर रिसैप्शन में बैठ गई. दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और काला चश्मा भी लगा लिया ताकि सुशांत उसे पहचान न सके.

ठीक 5 बजे सुशांत की गाड़ी गेट पर रुकी. स्मार्ट नीली टीशर्ट व जींस में वह

गाड़ी से उतरा और रिसैप्शन की तरफ बढ़ गया. वहां पहले से ही एक लड़की उस का इंतजार कर रही थी. दोनों पुराने प्रेमियों की तरह गले मिले, फिर हाथों में हाथ डाले लिफ्ट की तरफ बढ़ गए.

सुनयना की आंखें भर आईं. उस का कंठ सूखने लगा. उसे महसूस हुआ जैसे वह फूटफूट कर रो पड़ेगी. थोड़ी देर डाल से टूटे पत्ते की तरह वहीं बैठी रही. फिर तुरंत स्वयं को संभालती हुई उठी और गाड़ी में बैठ गई. घर आ कर औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ी. देर तक रोती हुई सोचती रही कि किस मोड़ पर उस से क्या गलती हो गई जो सुशांत को यह बेवफाई करनी पड़ी? वह स्वस्थ है, खूबसूरत है, अपने साथसाथ सुशांत का भी पूरा खयाल रखती है, इतना प्यार करती है उसे, फिर सुशांत ने ऐसा क्यों किया?

हमेशा की तरह सुनयना ने स्वयं को संभालने और दिल की बातें करने के लिए सुप्रिया को फोन लगाया जो उस की सब से प्रिय सहेली थी. उस से वह हर बात शेयर करती. सुनयना की आवाज में झलकते दुख व कंपन को एक पल में सुप्रिया ने महसूस कर लिया. फिर घबराए स्वर में बोली, ‘‘सुनयना सब ठीक तो है? परेशान क्यों लग रही है?’’

सुनयना ने रुंधे गले से उसे सारी बातें बताईं, तो सुप्रिया ठंडी सांस लेती हुई बोली, ‘‘हिम्मत न हार. मैं मानती हूं, जिंदगी कई दफा हमें ऐसी स्थितियों से रूबरू कराती है, जहां हम दूसरों पर क्या, खुद पर भी विश्वास खो बैठते हैं. तू नहीं जानती, मैं खुद इस खौफ में रहती हूं कि कहीं मेरी जिंदगी में भी कोई ऐसा शख्स न आ जाए, जिस के लिए प्रेम की कोई कीमत न हो. मैं घबराती हूं, ठगे जाने से. प्यार में कहीं पछतावा हाथ न लगे, शायद इसलिए अपने काम के प्रति ही समर्पित रहती हूं.’’

‘‘शायद तू ठीक कह रही है, सुप्रिया मगर मैं क्या करूं? मैं ने तो अपनी जिंदगी सुशांत के  नाम समर्पित की थी.’’

‘‘ऐसा सिर्फ  तेरे साथ ही नहीं हुआ है सुनयना. तुझे याद है, स्कूल में हमारे साथ पढ़ने वाली नेहा?’’ सुप्रिया बोली.

‘‘कौन वह जिस की मां हमारे स्कूल में क्लर्क थीं?’’

‘‘हांहां, वही. अब वह भी किसी स्कूल में छोटीमोटी नौकरी करने लगी है. कभीकभी मां को किसी काम में मदद की जरूरत होती है, तो मैं उसे बुला लेती हूं. अटैच हो गई है हम से. पास में ही उस का घर है. अपने बारे में सब कुछ बताती रहती है. उस ने लव मैरिज की थी, पर उस के साथ भी यही कुछ हुआ.’’

‘‘उफ, फिर तो वह भी परेशान होगी. आ कर रो रही होगी, तेरे पास. अंदर ही अंदर घुट रही होगी, जैसे मैं…’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं. उस का रिऐक्शन बहुत अलग रहा. उस ने उसी वक्त खुल कर इस विषय पर अपने पति से बात की. जलीकटी सुना कर अपनी भड़ास निकाली. फिर अल्टीमेटम भी दे दिया कि यदि आइंदा इस घटना की पुनरावृत्ति हुई, तो वह घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकेगी.’’

‘‘उस ने ठीक किया. मगर मैं ऐसा नहीं कर सकती. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं?’’ बुझे स्वर में सुनयना ने कहा.

‘‘यार, कभीकभी ऐसा होता है, जब दिमाग कुछ कहता है और दिल कुछ. तब समझ नहीं आता कि क्या किया जाए. बहुत असमंजस की स्थिति होती है खासकर जब धोखा देने वाला वही हो, जिसे आप सब से ज्यादा प्यार करते हैं. मेरी बात मान अभी तू आराम कर. सुबह ठंडे दिमाग से सोचना और वैसे भी छोटीछोटी बातों पर परेशान होना उचित नहीं.’’

‘‘यह बात छोटी नहीं प्रिया, मेरी पूरी जिंदगी का सवाल है. फिर भी चल, रिसीवर रखती हूं मैं,’’ कह कर सुनयना ने रिसीवर रख दिया और कमरे में आ कर सोने का प्रयास करने लगी. मगर मन था कि लौटलौट कर उसी लमहे को याद करने लगता, जब दिल को गहरी चोट लगी थी.

और फिर यह पहली दफा नहीं है जब सुशांत ने उस का दिल तोड़ा हो. इस से पहले भी रीवा के साथ सुशांत का बेहद करीबी रिश्ता होने का एहसास हुआ था उसे. मगर तब सुशांत ने यह  कह कर माफी मांग ली थी कि रीवा उस की बहुत पुरानी दोस्त है और उस से एकतरफा प्यार करती है. वह उस का दिल नहीं तोड़ना चाहता.

सुनयना यह सुन कर खामोश रह गई थी, क्योंकि प्रेम शब्द और उस से जुड़े एहसास का   बहुत सम्मान करती है वह. आखिर उस ने भी तो सुशांत से मुहब्बत की है. यह बात अलग है कि सुशांत के व्यक्तित्व व संपन्नता के आगे वह स्वयं को कमतर महसूस करती है और जबरन उसे स्वयं से बांधे रखना नहीं चाहती थी. आज जो कुछ भी उस ने देखा, उसे वह मुहब्बत तो कतई नहीं मान सकती थी. यह तो सिर्फ और सिर्फ वासना थी.

देर रात जब सुशांत लौटा तो हमेशा की तरह बहुत ही सामान्य व्यवहार कर रहा था. उस का यह रुख देख कर सुनयना के दिल में कांटे की तरह कुछ चुभा. मगर वह कुछ बोली नहीं. कहती भी क्या, जिंदगी तो स्वयं ही उस के साथ खेल खेल रही थी. पिछले साल उसे पता चला था कि सुशांत ड्रग ऐडिक्ट है, मगर तब उसे इतना अधिक दुख नहीं हुआ, जितना आज हुआ था. उस समय विश्वास टूटा था और आज तो दिल ही टूट गया था.

इस बात को बीते 2 माह गुजर चुके थे, मगर स्थितियां वैसी ही थीं. सुनयना खामोशी से सुशांत की हरकतों पर नजर रख रही थी. सुशांत पहले की तरह अपनी नई दुनिया में मगन था. कई दफा सुनयना ने उसे रंगे हाथों पकड़ा भी, मगर वह पूरी तरह बेशर्म हो चुका था. उस की एक नहीं 2-2, 3-3 महिलाओं से दोस्ती थी.

सुनयना अंदर ही अंदर इस गम से घुटती जा रही थी. एक बार अपनी मां से फोन पर इस बारे में बात करनी चाही तो मां ने पहले ही उसे रोक दिया. वे अपने रईस दामाद के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं, उलटा उसे ही समझाने लगीं, ‘‘इतनी छोटीछोटी बातों पर घर तोड़ने की बात सोचते भी नहीं.’’

सुनयना कभीकभी यह सोच कर परेशान होती कि आगे क्या करे? क्या सुशांत को तलाक देना या घर छोड़ने की धमकी देना उचित रहेगा? मगर वह ऐसा करे भी तो किस आधार पर? यह सारा ऐशोआराम छोड़ कर वह कहां जाएगी? मां के 2 बैडरूम के छोटे से घर में? उस ने ज्यादा पढ़ाई भी नहीं की है, जो अच्छी नौकरी हासिल कर चैन से दिन गुजार सके. भाईभाभी का चेहरा यों ही बनता रहता है. तो क्या दूसरी शादी कर ले? मगर कौन कह सकता है कि दूसरा पति उस के हिसाब का ही मिलेगा? उस के विचारों की उथलपुथल यहीं समाप्त नहीं होती. घंटों बिस्तर पर पड़ेपड़े वह अपनेआप को सांत्वना देती रहती और सोचती कि पति का प्यार भले ही बंट गया हो, पर घरपरिवार और समाज में इज्जत तो बरकरार है.

धीरेधीरे सुनयना ने स्वयं को समझा लिया कि अब यही उस की जिंदगी की हकीकत है. उसे इसी तरह सुशांत की बेवफाइयों के साथ जिंदगी जीनी है.

फिर एक दिन सुबहसुबह सुप्रिया का फोन आया. वह बड़ी उत्साहित थी. बोली, ‘‘सुनयना, जानती है अपनी नेहा ने पति को तलाक देने का फैसला कर लिया है? वह पति का घर छोड़ कर आ गई है.’’

सुनयना चौंक उठी, ‘‘यह क्या कह रही है तू? उस ने इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया?’’

‘‘मेरे खयाल से उस ने कुछ गलत नहीं किया सुनयना. आखिर फैसला तो लेना ही था उसे. मैं तो कहती हूं, तुझे भी यही करना चाहिए. उस ने सही कदम उठाया है.’’

‘‘हूं,’’ कह रिसीवर रखती हुई सुनयना सोच में पड़ गई. दिन भर बेचैन रही. रात भर करवटें बदलती रही. दिल में लगातार विचारों का भंवर चलता रहा. आखिर सुबह वह एक फैसले के साथ उठी और स्वयं से ही बोल पड़ी कि ठीक है, मैं भी नेहा की तरह ही कठोर कदम उठाऊंगी. तभी सुशांत को पता चलेगा कि उस ने मेरा दिल दुखा कर अच्छा नहीं किया. बहुत प्यार किया था मैं ने उसे, मगर वह कभी मेरी कद्र नहीं कर सका. फिर सब कुछ छोड़ कर वह बिना कुछ कहे घर से निकल पड़ी. वह नहीं चाहती थी कि सुशांत फिर से उस से माफी मांगे और वह कमजोर पड़ जाए. न ही वह अब सुशांत की बेवफाई के साथ जीना चाहती थी, न ही अपना दर्द दिल में छिपा कर टूटे दिल के साथ ऐसी शादीशुदा जिंदगी जीना चाहती थी.

मायके वाले उस के काम नहीं आएंगे, यह एहसास था उसे, मगर इस खौफ की वजह से अपनी मुहब्बत का गला घुटते देखना भी मंजूर नहीं था. वह निकल तो आई थी, मगर अब सब से बड़ा सवाल यह था कि वह आगे क्या करे? कहां जाए? बहुत देर तक मैट्रो स्टेशन पर बैठी सोचती रही.

तभी प्रिया का फोन आया, ‘‘कहां है यार? घर पर फोन किया तो सुशांत ने कहा कि तू घर पर नहीं. फोन भी नहीं उठा रही है. सब ठीक तो है?’’

‘‘हां यार, मैं ने घर छोड़ दिया,’’ रुंधे गले से सुनयना ने कहा तो यह सुन प्रिया सकते में आ गई. बोली, ‘‘यह बता कि अब जा कहां रही है तू?’’

‘‘यही सवाल तो लगातार मेरे भी जेहन में कौंध रहा है. जवाब जानने को ही मैट्रो स्टेशन पर रुकी हुई हूं.’’

‘‘ज्यादा सवालजवाब में मत उलझ. चुपचाप मेरे घर आ जा,’’ प्रिया ने कहा तो सुनयना के दिल में तसल्ली सी हुई. उस को प्रिया का प्रस्ताव उचित लगा. आखिर प्रिया भी तो अकेली रहती है. 2 सिंगल महिलाएं एकसाथ रहेंगी तो एकदूसरे का सहारा ही बनेंगी.

सारी बातें सोच कर सुनयना चुपचाप प्रिया के घर चली गई. प्रिया ने उसे सीने से लगा लिया. देर तक सुनयना से सारी बातें सुनती रही. फिर बोली, ‘‘सुनयना, आज जी भर कर रो ले. मगर आज के बाद तेरे जीवन से रोनेधोने या दुखी रहने का अध्याय समाप्त. मैं हूं न. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बनेंगी.’’

सुनयना की आंखें भर आईं. रहने की समस्या तो सहेली ने दूर कर दी थी, पर कमाने का मसला बाकी था. अगले दिन से ही उस ने अपने लिए नौकरी ढूंढ़नी शुरू कर दी. जल्दी ही नौकरी भी मिल गई. वेतन कम था, मगर गुजारे लायक तो था ही.

नई जिंदगी ने धीरेधीरे रफ्तार पकड़नी शुरू की ही थी कि सुनयना को महसूस हुआ कि उस के शरीर के अंदर कोई और जीव भी पल रहा है. इस हकीकत को डाक्टर ने भी कन्फर्म कर दिया यानी सुशांत से जुदा हो कर भी वह पूरी तरह उस से अलग नहीं हो सकी थी. सुशांत का अंश उस की कोख में था. भले ही इस खबर को सुन कर चंद पलों को सुनयना हतप्रभ रह गई, मगर फिर उसे महसूस हुआ जैसे उसे जीने का नया मकसद मिल गया हो.

इस बीच सुनयना की मां का देहांत हो गया. सुनयना अपने भाईभाभी से वैसे भी कोईर् संबंध रखना नहीं चाहती थी. प्रिया और सुनयना ने दूसरे इलाके में एक सुंदर घर खरीदा और पुराने रिश्तों व सुशांत से बिलकुल दूर चली आई.

बच्ची थोड़ी बड़ी हुई तो दोनों ने उस का एडमिशन एक अच्छे स्कूल में करा दिया. अब सुनयना की दुनिया बदल चुकी थी. वह अपनी नई दुनिया में बेहद खुश थी. जबकि सुशांत की दुनिया उजड़ चुकी थी. जिन लड़कियों के साथ उस के गलत संबंध थे, वे गलत तरीकों से उस के रुपए डुबोती चली गईं. बिजनैस ठप्प होने लगा. वह चिड़चिड़ा और क्षुब्ध रहने लगा. इतने बड़े घर में बिलकुल अकेला रह गया था. लड़कियों के साथसाथ दोस्तों ने भी साथ छोड़ दिया. घर काटने को दौड़ता.

एक्र दिन वह यों ही टीवी चला कर बैठा था कि अचानक एक चैनल पर उस की निगाहें टिकी रह गईं. दरअसल, इस चैनल पर ‘सुपर चाइल्ड रिऐलिटी शो’ आ रहा था और दर्शकदीर्घा के पहली पंक्ति में उसे सुनयना बैठी नजर आ गई. वह टकटकी लगाए प्रोग्राम देखने लगा.

स्टेज पर एक प्यारी सी बच्ची परफौर्म कर रही थी. वह डांस के साथसाथ बड़ा मीठा गाना भी गा रही थी. उस के चुप होते ही शो के सारे जज खड़े हो कर तालियां बजाने लगे. सब ने खूब तारीफ की. जजों ने बच्ची से उस के मांबाप के बारे पूछा तो सारा फोकस सुनयना पर हुआ यानी यह सुनयना की बेटी है? सुशांत हैरान देखता रह गया. जजों के आग्रह पर सुनयना के साथ उस की सहेली प्रिया स्टेज पर आई. बच्ची ने विश्वास के साथ दोनों का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, मगर मांएं 2-2 हैं. यही दोनों मेरे पापा भी हैं.’’

सिंगल मदर और सुपर चाइल्ड की उपलब्धि पर सारे दर्शक तालियां बजा रहे थे. इधर सुशांत अपने ही सवालों में घिरा था कि क्या यह मेरी बच्ची है? या किसी और की? नहींनहीं, मेरी ही है, तभी तो इस ने कहा कि पापा नहीं हैं, 2-2 मांएं हैं. पर किस से पूछे? कैसे पता चले कि सुनयना कहां रहती है? अपनी बच्ची को गोद में ले कर वह प्यार करना चाहता था. मगर यह मुमकिन नहीं था. बच्ची उस की पहुंच से बहुत दूर थी. वह बस उसे देख सकता था. मगर उस के पास कोई चौइस नहीं थी.

सुशांत तो ऐसा बेचारा बाप था, जो अपने अरमानों के साथ केवल सिसक सकता था. सुनयना बड़े गर्व से बेटी को सीने से लगाए रो रही थी. सुशांत हसरत भरी निगाहों से उन्हें निहार रहा था. Family Story

15 August Special : मजाक- आजादी की तीसरी घोषणा के इंतजार में

15 August Special : *धन्य* हैं मेरे वे देशवासी जिन्हें 1947 में आजादी मिली थी. वह आजादी नकली थी या असली वे ही जानें, उन दिनों मैं पैदा नहीं हुआ था. पैदा हुआ होता तो आप को बता देता कि वह कैसी आजादी थी. जो उस टाइम किसी वजह से आजाद होने से बच गए थे ठीक उसी तरह जिस तरह सरकारी नौकरी में एकसाथ लगे कुछ पक्के हो जाते हैं और कुछ पक्के होने से रह जाते हैं और बाद में जा कर पक्के होते हैं.

इन की तरह उन्हें भी यह जान कर घोर आश्चर्य होगा कि वे 2014 में आजाद हो चुके हैं. हाय, बेचारों को आजादी की दूसरी नोटिफिकेशन के लिए कितना लंबा इंजार करना पड़ा.

कोई बात नहीं, अपने यहां देर है  अंधेर नहीं. चलो, अब अपनी असली  आजादी का जश्न मनाओ. काश, उन को अपनी आजादी का उसी साल पता चल जाता तो आजादी का मजा ही कुछ और होता. तब 1947 में आजाद हुओं की तरह आज वे भी देश को पता नहीं कहां पहुंचा चुके होते?

देर आए दुरुस्त आए. शुक्र है, उन्हें अपनी आजादी का 7 साल बाद ही सही, पता तो चला. कईयों को तो अपने मरने के बाद भी अपनी आजादी का पता नहीं चल पाता. इसलिए उन्हें भी मेरा प्रणाम. आजादी पर उन्हें मेरी ढेर सारी शुभकामनाएं. अब उन से एक गुजारिश और है कि वे 2014 में आजाद हुओं को आजादी के सारे लाभ बैक डेट से देने की भी नोटिफिकेशन कर दें ताकि उन के खाते में ढेर सारी आजादी जमा हो जाए और जो मेरे जैसे बचेखुचे 2014 के बाद के अभी भी आजाद होने को तड़प रहे हैं, अब मेरी सारी मूलशूल संवदेनाएं अपने और उन के साथ हैं.

पता नहीं, आजादी की तीसरी नोटिफिकेशन अब कब होगी? कोई करेगा भी या मेरे जैसे शेषअशेष गुलाम ही रह जाएंगे. यों जो आजादी की तीसरी नोटिफिकेशन नहीं हुई तो मेरी तरह वे आजादी के उपभोग से सदासदा को वंचित न रह जाएं कहीं.

*मित्रो,* अपनी गुलामी के बारे में आप को यह बताते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि देश 2 बार आजाद होने के बाद भी अभी तक मुझे आजादी नहीं मिली है. न असली, न नकली. असली तो पता नहीं, अपने यहां कुछ है भी या नहीं, जहां नमक तक नकली है.

आज भी घर में बीवी की वही अंगरेजी मैमों वाली गुलामी. औफिस में साहब की वही साबजी वाली गुलामी. घर में वही बीवी की मेम वाली तानाशाही. औफिस में वही साहब की साबजी वाली तानाशाही.

सुबह उठ कर सब से पहले उस के लिए चाय बनाओ. अपनी चाय ठंडी हो जाए तो हो जाए. फिर बिस्तर पर योगा करती, चाय पीती बीवी के आगे भोर का गीत गाओ. उस के बाद जब वह भोर का गीत सुन योगा करतीकरती चाय पी कर सो जाएं तो इस ठंड में ठंडी चाय पी कर अपने भीतर चुस्ती फील करो. उस के बाद अपने लिए औफिस का खुद ही लंच बनाओ. अपने लिए लंच बने या न बने, पर बीवी के लिए ब्रैकफास्ट बना कर हर हाल में छोड़ जाओ. औफिस जाने से पहले सारे घर में झाड़ूपोंछा कर के जाओ.

गिरतेपड़ते औफिस पहुंचो तो वहां काम के बदले साहब के पर्सनल काम. पता नहीं अपने कामों की इतनी लंबी लिस्ट रोज कैसे और कहां से बना कर ले आते हैं? साहब का रौब देखो तो अंगरेजों वाला. बातबात पर उन के रौब को देख कर लगता है जैसे गोरे अंगरेजों ने चोरी से अपना रंग बदल लिया हो यहीं रहने को.

*उन* के घर का काम न करो तो एसीआर खराब करने की धमकी. बातबात पर यों डराना कि मेरे घर के कामों में कोताही बरती तो वे मेरे कैरियर का यह कर देंगे, वे मेरे कैरिअर का वह कर देंगे. पता नहीं तब उन्हें मैं यह कहने से क्यों डरता हूं कि साहब, घर में, औफिस में कैरियर है ही किस का? फिर भी डर के मारे तब दुम दबाए उन के घर जाओ. उन के घर की सब्जीभाजी अपने पैसों से लाओ. जो वे आंखें तरेरते हुए कभी पैसे देने ही लगें तो सिर झुकाए कहो कि साहब, यह भी तो आप के ही पैसे हैं. मेरी जेब आप की जेब…

10 से 5 तक रोज उन के घर का कभी यह काम करो तो कभी वह. शरीर इतना अपने घर के काम करते नहीं टूटता जितना उन के घर के काम करते टूट जाता है. सोच रहा हूं कि इस जन्म में असली आजादी तो शायद मुझे मिलेगी नहीं. भीख में ही जो कहीं से सौपचास वाली आजादी मिल जाती तो मैं भी अपनी आजादी का जश्न मना टशन बना लेता और गाता,”उड़ता फिरूं बन के पंछी मस्त गगन में, आज मैं आजाद हूं उन के अपने किचन में…” 15 August Special

Best Hindi Story : पुरस्कार – एक फौजी की मर्मस्पर्शी कहानी

Best Hindi Story : राम सिंह फौजी के घर से चिट्ठी आई थी. इतनी दूर रहते हुए आदमी के लिए चिट्ठी या खबर ही तो केवल एक सहारा होती है. ये चिट्ठियां भी अजीब होती हैं, कभी खुशी देती हैं, तो कभी दुख भी बढ़ा देती हैं.

राम सिंह फौजी के घर वालों की यह चिट्ठी भी अलग तरह की थी. उस में एक फौजी के घर वालों की सभी दिक्कतें लिखी थीं. बेटे ने लिखा था, ‘पापा, आप कैसे हैं? घर की दीवार गिरने लगी है और दादा भी आजकल बीमार रहते हैं. कोने वाली कोठरी की छत कभी भी गिर सकती है. परसों हुई मूसलाधार बारिश से उस में से बहुत पानी चू रहा था.

‘मां की हालत ठीक है. मैं अब रोजाना स्कूल जाता हूं. मेरी ड्रैस पुरानी हो गई है. पैंट भी मेरी घुटनों पर से फट गई है. ‘पापा, इस बार घर आते समय आप मेरी नई पैंट लेते आना. चप्पल जरूर लाना. छोटू के लिए आप खिलौने वाली टैंक और बंदूक लेते आना. आप जल्दी घर आना पापा.

‘आप का बेटा, राजू.’

राम सिंह सोचने लगा, ‘यह राजू भी होशियार हो गया है. केवल 10 साल का है, लेकिन चिट्ठी भी लिख लेता है. इस बार पैंट और चप्पल जरूर लेता जाऊंगा. छोटू के लिए खिलौने वाला टैंक और बंदूक भी लेता जाऊंगा. मैं इस बार जरूर छुट्टी लूंगा.’

‘‘राम सिंह, खाना खा लिया क्या?’’ पास ही से आवाज आई.

‘‘नहीं यार, खाया नहीं है. अभी थोड़ी देर में खा लूंगा.’’

‘‘कब खा लेगा? 8 बजे आपरेशन पर जाना है और साढ़े 7 बज चुके हैं,’’ राम सिंह का साथी फौजी रंजीत सिंह उस से बोला.

राम सिंह उठ कर भोजन की तरफ बढ़ गया.

‘आजकल यहां के हालात काफी खराब हो चुके हैं. आएदिन गोलीबारी होती रहती है. रोज दोनों तरफ के लोग मारे जाते हैं. न रात को आराम, न दिन को चैन. पता नहीं क्या करने पर उतारू हैं ये लोग. शांति से क्यों नहीं रहते,’ ऐसा सोचते हुए राम सिंह ने बड़े बेमन से खाना खाया. आज राम सिंह को घर के खाने की बहुत याद आई. दूर राजस्थान के रेतीले इलाके में बसे अपने छोटे से गांव की याद ताजा हो गई. घर से चिट्ठी आते ही हर बार उस का यही हाल हो जाता है. पता नहीं, क्यों?

‘‘राम सिंह, जल्दी से तैयार हो जाओ,’’ मेजर सौरभ घोष की आवाज कानों से टकराते ही राम सिंह ने अपनी राइफल, पट्टा, टौर्च वगैरह उठा ली.

‘‘आज हमें चौकी नंबर 2 पर जाना है. वहां हमला हो सकता है. वह चौकी बहुत खास है. वह हमें हर हाल में बचानी होगी,’’ मेजर सौरभ घोष सभी सिपाहियों से कह रहे थे.

सभी सिपाहियों और अफसरों की टुकड़ी वहां से चौकी नंबर 2 की तरफ बढ़ गई. ‘तड़तड़’ की आवाजों के साथ 1-2 फौजी शहीद हो गए, देश की हिफाजत की खातिर उन्होंने अपनी जान दे दी. देर तक गोलीबारी होती रही. अब कुछ ही लोग बाकी रह गए थे. राम सिंह के साथ 5 जवान और थे. दुश्मन की एक गोली राम सिंह के पास ही खड़े रंजीत सिंह को आ कर लगी, जिस से उस ने दम तोड़ दिया.

अपने दोस्त रंजीत सिंह को मरते देख राम सिंह को अपने शरीर का एक अंग जुदा होता महसूस हुआ. अचानक राम सिंह ने जोश में आ कर अपनी जान की परवाह न करते हुए दौड़ कर फायरिंग की. दुश्मन के 3 फौजी मारे गए. अब केवल दुश्मन का एक फौजी बचा था. वह चट्टान की आड़ से गोलियां चला रहा था. राम सिंह ने पेड़ की आड़ से उस पर 3-4 फायर झोंक दिए थे, जो निशाने पर लगे थे और वह दुश्मन भी तड़प कर शांत हो गया. राम सिंह ने 3-4 पल उसे देखा और बेफिक्र हो कर उस के करीब गया. चेहरामोहरा उलटपलट कर देखा और फिर बुदबुदाया, ‘उम्र तो मेरे बराबर की ही लग रही है.’

राम सिंह ने उस की तलाशी ली. उस के परिचयपत्र को टौर्च की रोशनी में पढ़ा. उस पर लिखा था, रफीक अशरफ, सिपाही, 36 लाइट इंफैंटरी. राम सिंह ने उस की पैंट की पिछली जेब टटोली, तो वह चौंका और बोला, ‘‘अरे, यह क्या? शायद इस की चिट्ठी है. चलो, देखते हैं,’’ कहते हुए राम सिंह ने अपने पास खड़े एक साथी को टौर्च पकड़ाई.

राम सिंह को थोड़ीबहुत उर्दू पढ़नी आती थी, जो कि उस ने गांव के मौलवी से बचपन में सीखी थी. राम सिंह ने चिट्ठी पढ़नी शुरू की:

‘अब्बूजान, अस्सलाम अलैकुम. आप कैसे हैं? हम सब अम्मी, सलीम, दादी अम्मां, दादू सब खैर से हैं. मेरा स्कूल लगना शुरू हो गया है.

‘मैं 8वीं जमात में हो गई हूं. सलीम भी चौथी जमात में आ गया है. मास्टरजी ने हम से नई ड्रैस सिलवाने को कहा है. मेरी फ्रौक पुरानी हो गई?है. सलीम भी नई ड्रैस मांग रहा है.

‘अब्बू, हमारे पास जूते भी नहीं हैं. दादू बोलते हैं कि बेटा इस बार तुम्हारे अब्बू ढेर सारी ड्रैस, जूते और चीजें ले कर आएंगे.

‘दादू का कुरता भी फट गया है. पर उन्हें मास्टरजी तो नहीं डांटते न. अम्मी और दादी अम्मां दोनों बहुत उदास रहती हैं. उन के बुरके भी पुराने और तारतार हो गए हैं. आप सालभर हम से दूर क्यों रहते हैं अब्बू?

‘पिछली ईद पर आप नहीं आए थे, सो हम ने उस दिन सेंवइयां भी नहीं बनाई थीं. सलीम बहुत रोया था उस दिन. इस बार आप जरूर आना.

‘घर पर पैसे खत्म हो गए हैं. पैसे के लिए हम ने अपनी एक बकरी बेची थी. असलम दुकान वाले ने अब उधार देना भी बंद कर दिया है. वह कहता है कि पहले वाले पूरे पैसे दो, उस के बाद सामान दूंगा.

‘आप आ जाइए अब्बू. आते समय आप मेरे लिए फ्रौक, सलीम के लिए ड्रैस, जूते, दादू के लिए कुरता, दादी अम्मां और अम्मी के लिए नए बुरके जरूर लाना.

‘अब्बू, यहां आने पर एक बकरी भी खरीदेंगे, सलीम बहुत जिद करता है न.

‘आप की बेटी, सोफिया.’

राम सिंह ने भरे गले से पूरी चिट्ठी पढ़ी. टौर्च की रोशनी में उसे लगा कि मानो उस का और अशरफ का घर एक ही हो. उसे कोई फर्क नहीं लगा. उसे अपने घर की दीवारें और छत गिरती नजर आईं. काश, वह इस फौजी के लिए सारी चीजें पहुंचा सकता और असलम दुकान वाले का उधार भी चुका सकता. दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी थी कि राजपूताना राइफल्स के जवान राम सिंह ने अनोखी वीरता दिखाई. नीचे उस की बहादुरी का पूरा ब्योरा छपा था. पूरा देश राम सिंह की बहादुरी से खुश था, पर इधर राम सिंह खुद को हत्यारा समझ रहा था. आदमी को मारने के अपराध में कानून सजा देता है. वह खुद को सजा के लायक मान रहा था, पर उस ने ‘आम आदमी’ नहीं मारे थे. वे मरने वाले ‘आम आदमी’ नहीं थे. उन्हें मारने पर उसे राष्ट्रपति से ‘सर्वोच्च वीरता पुरस्कार’ देने का ऐलान हुआ.

15 अगस्त को सम्मान समारोह में कुरसी पर बैठा राम सिंह दोनों देशों के नेताओं, हुक्मरानों के बारे में सोच रहा था, ‘ये लोग शांति क्यों नहीं चाहते हैं? रोज सरहद पर बेगुनाह जवान मारे जाते हैं और ये एयरकंडीशनर लगे कमरों में आराम से बैठे उन जवानों को ‘शहीद’ का खिताब देते हैं. क्या बिगाड़ा है इन बेगुनाह जवानों ने इन नेताओं का?

‘दुनिया के सभी देश शांति से रह कर तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं और इधर ये दोनों बेवकूफ देश लड़ कर जनता के अरमानों को काला धुआं बना रहे हैं.’

राम सिंह यही सोच रहा था कि तभी मंच से उस का नाम पुकारा गया. राम सिंह ने वह पुरस्कार और पदक लिया तो जरूर, पर उन्हें लेते समय वह मन ही मन में बड़बड़ा रहा था, ‘मुझे पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है. मुझे सजा दो. मैं ने हत्याएं की हैं. मुझे पुरस्कार मत दो.’ Best Hindi Story

Social Story In Hindi : संस्कार – रेलगाड़ी में वह किस वजह से असुरक्षित महसूस कर रही थी ?

Social Story In Hindi : लगभग 3 वर्ष बाद मैं लखनऊ जा रही थी. लखनऊ मेरे लिए एक शहर ही नहीं, एक तीर्थ है, क्योंकि वह मेरा मायका है. उस शहर में पांव रखते ही जैसे मेरा बचपन लौट आता है. 10 दिन के बाद भैया की बड़ी बेटी शुभ्रा की शादी थी. मैं और मेघना दोपहर की गाड़ी से जा रही थीं. राजीव बाद में पहुंचने वाले थे. कुछ तो इन्हें काम की अधिकता थी, दूसरे इन की तो ससुराल है. ऐनवक्त पर पहुंच कर अपना भाव भी तो बढ़ाना था.

मेरी बात और है. मैं ने सोचा था कि कुछ दिन वहां चैन से रहूंंगी, सब से मिलूंगी. बचपन की यादें ताजा करूंगी और कुछ भैयाभाभी के काम में भी हाथ बंटाऊंगी. शादी वाले घर में सौ तरह के काम होते हैं.

अपनी शादी के बाद पहली बार मैं शादी जैसे अवसर पर मायके जा रही थी. मां का आग्रह था कि मैं पूरी तैयारी के साथ आऊं. मां पूरी बिरादरी को दिखाना चाहती थीं कि आखिर उन की बेटी कितनी सुखी है, कितनी संपन्न है या शायद दूर के रिश्ते की बूआ को दिखाना चाहती होंगी, जिन का लाया रिश्ता ठुकरा कर मां ने मुझे दिल्ली में ब्याह दिया था. लक्ष्मी बूआ भी तो उस दिन से सीधे मुंह बात नहीं करतीं.

शुभ्रा के विवाह में जाने का कुछ तो अपना ही चाव कम नहीं था, उस पर मां का आग्रह. हम दोनों, मांबेटी ने बड़े ही मनोयोग से समारोह में शामिल होने की तैयारी की थी. हर मौके पर पहनने के लिए नई और आधुनिक पोशाक, उस से मैचिंग चूड़ियां, गहने, सैंडिल और न जाने क्याक्या जुटाया गया.

पूरी उमंग और उत्साह के साथ हम स्टेशन पहुंचे. राजीव हमें विदा करने आए थे. हमारे सहयात्री कालेज के लड़के थे, जो किसी कार्यशाला में भाग लेने लखनऊ जा रहे थे. हालांकि गाड़ी चलने से पहले वे सब अपने सामान के यहांवहां रखरखाव में ही लगे थे, फिर भी उन्हें देख कर मैं कुछ परेशान हो उठी. मेरी परेशानी शायद मेरे चेहरे से झलकने लगी थी, जिसे राजीव ने भांप लिया था. ऐसे में वह कुछ खुल कर तो कह न पाए, लेकिन मुझे होशियार रहने के लिए जरूर कह गए. यही कारण था कि चलतेचलते उन्होंने उन लड़कों से भी कुछ इस तरह से बात की, जिस से यात्रा के दौरान माहौल हलकाफुलका बना रहे. गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी. हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे. लड़कों में अपनीअपनी जगह तय करने के लिए छीनाझपटी, चुहलबाजी शुरू हो गई.

वैसे, मुझे युवा पीढ़ी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. न ही मैं ने कभी अपने और उन में कोई दूरी महसूस की है. मैं तो हमेशा घरपरिवार के बच्चों और नौजवानों की मनपसंद आंटी रही हूं. मेरा तो मानना है कि नौजवानों के बीच रह कर अपनी उम्र के बढ़ने का एहसास ही नहीं होता, लेकिन उस समय मैं लड़कों की शरारतों और नोकझोंक से कुछ परेशान सी हो उठी थी.

ऐसा नहीं कि बच्चे कुछ गलत कर रहे थे. शायद मेरे साथ मेघना का होना मुझे उन के साथ जुड़ने नहीं दे रहा था. कुछ आजकल के हालात भी मुझे परेशान किए हुए थे. देखने में तो सब भले घरों के लग रहे थे, फिर भी एकसाथ 6 लड़कों का ग्रुप, उस पर किसी बड़े का उन के साथ न होना, उस पर उम्र का ऐसा मोड़, जो उन्हें शांत, सौम्य और गंभीर नहीं रहने दे रहा था. मैं भला परेशान कैसे न होती.

मेरा ध्यान शुभ्रा की शादी, मायके जाने की खुशी और रास्ते के बागबगीचों, खेतखलिहानों से हट कर बस, उन लड़कों पर केंद्रित हो गया था. थोड़ी ही देर में हम उन लड़कों के नामों से ही नहीं, आदतों से भी परिचित हो गए.

घुंघराले बालों वाला सांवला सा, नाटे कद का अंकित फिल्मों का शौकीन लगता था. उस के उठनेबैठने में फिल्मी अंदाज था तो बातचीत में फिल्मी डायलौग और गानों का पुट था. एक लड़के को सब सैम कह कर बुला रहे थे. यह उस के मातापिता का रखा नाम तो नहीं लगता था, शायद यह दोस्तों द्वारा किया गया नामकरण था. चुस्तदुरुस्त सैम चालढाल और पहनावे से खिलाड़ी लगता था. मझली कदकाठी वाला ईश ग्रुप का लीडर जान पड़ता था. नेवीकट बाल, मूंछों की पतली सी रेखा और बड़ीबड़ी आंखों वाले ईश से पूछे बिना लड़के कोई काम नहीं कर रहे थे. बिना मैचिंग की ढीलीडाली टीशर्ट पहने, बिखरे बालों वाला, बेपरवाह तबीयत वाला समीर था, जो हर समय चुइंगम चबाता हुआ बोलचाल में अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहा था.

मेरे पास बैठे लड़के का नाम मनीष था. लंबा, गोराचिट्टा, नजर का चश्मा पहने वह नीली जींस और कीमती टीशर्ट में बड़ा स्मार्ट लग रहा था. कुछ शर्मीले स्वभाव का पढ़ाकू सा लगने वाला मनीष एक अंगरेजी नोवल ले कर बैठा ही था कि आगे बढ़ कर रजत ने उस का नोवल छीन लिया. रजत बड़ा ही चुलबुला, गोलमटोल हंसमुख लड़का था. हंसते हुए उस के दोनों गालों पर गड्ढे पड़ते थे. रजत पूरे रास्ते हंसताहंसाता रहा. पता नहीं क्यों मुझे लगा कि उस की हंसी, उस की शरारतें, सब मेघना के कारण हैं. इसलिए हंसना तो दूर, मेरी नजरों का पहरा हरदम मेघना पर बैठा रहा.

मेरे ही कारण मेघना बेचारी भी दबीघुटी सी या तो खिड़की से बाहर झांकती रही या आंखें बंद कर के सोने का नाटक करती रही. अपने हमउम्र उन लड़कों के साथ न खुल कर हंस पाई, न ही उन की बातचीत में शामिल हो सकी. वैसे न मैं ही ऐसी मां हूं और न मेघना ही इतनी पुरातनपंथी है. वह तो हमेशा सहशिक्षा में ही पढ़ी है. वह क्या कालेज में लड़कों के साथ बातचीत, हंसीमजाक नहीं करती होगी. फिर भी न जाने क्यों, शायद घर से दूरी या अकेलापन मेरे मन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे गया था. उन से परिचय के आदानप्रदान और बातचीत में मैं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. मुझे लगा, वे मेघना तक पहुंचने के लिए मुझे सीढ़ी बनाएंगे. उन लड़कों के बहानों से उठी नजरें जब मेघना से टकरातीं तो मैं बेचैन हो उठती. उस दिन पहली बार मेघना मुझे बहुत ही खूबसूरत नजर आई और पहली बार मुझे बेटी की खूूबसूरती पर गर्व नहीं, भय हुआ. मुझे शादी में इतने दिन पहले इस तरह जाने के अपने फैसले पर भी झुंझलाहट होने लगी थी. वास्तव में मायके जाने की खुशी में मैं भूल ही गई थी कि आजकल औरतों का अकेले सफर करना कितना जोखिम का काम है. वह सभी खबरें जो पिछले दिनों मैं ने अखबारों में पढ़ी थीं, एकएक कर के मेरे दिमाग पर दस्तक देने लगीं.

कई घंटों के सफर में आमनेसामने बैठे यात्री भला कब तक अपने आसपास से बेखबर रह सकते हैं. काफी देर तक तो हम दोनों मुंह सी कर बैठी रहीं, लेकिन धीरेधीरे दूसरी तरफ से परिचय पाने की उत्सुकता बढ़ने लगी. शायद यात्रा के दौरान यह स्वाभाविक भी था. यदि सामने कोई परिवार बैठा होता तो क्या खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान किए बिना हम रहतीं और सफर में कुछ महिलाओं का साथ होता तो क्या वे ऐसे ही अनजबी बनी रहतीं. उन कुछ घंटों के सफर में तो हम एकदूसरे के जीवन का भूगोल, इतिहास, भूत, वर्तमान सब बांच लेतीं.

चूंकि वे जवान लड़के थे और मेरे साथ मेरी जवान बेटी थी, इसलिए उन की उठी हर नजर मुझे अपनी बेटी से टकराती लगती. उन कही हर बात उसी को ध्यान में रख कर कही हुई लगती. उन की हंसीमजाक में मुझे छींटाकशी और ओछापन नजर आ रहा था. कुछ घंटों का सफर जैसे सदियों में फैल गया था. दोपहर कब शाम में बदली और शाम कब रात में बदल गई, मुझे खबर ही न हुई, क्योंकि मेरे अंदर भय का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा घना था.

हालांकि जब भी कोई स्टेशन आता, लड़के हम से पूछते कि हमें चायपानी या किसी अन्य चीज की जरूरत तो नहीं. उन्होंने मेघना को गुमसुम बैठे बोर होते देखा तो अपनी पत्रपत्रिकाएं भी पेश कर दीं. जबजब उन्होंने कुछ खाने के लिए पैकेट खोले तो बड़े आदर से पहले हमें पूछा. हालांकि हम हमेशा मना करती रहीं.

मैं ने अपनेआप को बहुत समझाया कि जब आपत्ति करने लायक कोई बात नहीं तो मैं क्यों परेशान हो रही हूं. मैं क्यों सहज नहीं हो जाती, लेकिन तभी मन के किसी कोने में बैठा भय फन फैला देता. कहीं मेरी जरा सी ढील, बात को इतनी दूर न ले  जाए कि मैं उसे समेट ही न सकूं. मैं तो पलपल यही मना रही थी कि यह सफर खत्म हो और मैं खुली हवा में सांस ले सकूं.

कानपुर स्टेशन आने वाला था. गाड़ी वहां कुछ ज्यादा देर के लिए रुकती है. डब्बे में स्वाभाविक हलचल शुरू हो गई थी, तभी एक अजीब सा शोर कानों से टकराने लगा. गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी. स्टेशन आतेआते बाहर का कोलाहल कर्णभेदी हो गया था. हर कोई खिड़कियों से बाहर झांकने की कोशिश कर ही रहा था कि गाड़ी प्लेटफार्म पर आ लगी. बाहर का दृश्य सन्न कर देने वाला था. हजारों लोग गाड़ी के पूरी तरह रुकने से पहले ही उस पर टूट पड़े थे, जैसे शेर शिकार पर झपटता है. स्टेशन पर चीखपुकार, लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, हर तरफ आतंक का वातावरण था.

इस से पहले कि हम कुछ समझते, बीसियों लोग डब्बे में चढ़ कर हमारी सीटों के आसपास, यहांवहां जुटने लगे, जैसे गुड़ की डली पर मक्खियां चिपकती चली जाती हैं. वह स्टेशन नहीं, मानो मनुष्यों के समुद्र पर बंधा हुआ बांध था, जो गाड़ी के आते ही टूट गया था. प्लेटफार्म पर सिर ही सिर नजर आ रहे थे. तिल रखने को भी जगह नहीं थी.

कई सिर खिड़कियों से अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे. मेघना ने घबरा कर खिड़की बंद करनी चाही तो कई हाथ अंदर आ गए, जो सबकुछ झपट लेना चाहते थे. मेघना को पीछे हटा कर सैम और अंकित ने खिड़कियां बंद कर दीं. पलट कर देखा मनीष, रजत और ईश, तीनों अंदर घुस आए आदमियों के रेवड़ को खदेड़ने में लगे थे. किसी को धकिया रहे थे तो किस से हाथापाई हो रही थी. समीर ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जल्दीजल्दी सारा सामान बंद खिड़कियों के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया.

लड़कों को उन धोतीकुरताधारी, निपट देहातियों से उलझते देख कर जैसे ही मैं ने हस्तक्षेप करना चाहा तो ईश और सैम एकसाथ बोल उठे, आंटीजी, आप दोनों निश्चिंत  हो कर बैठिए. बस, जरा सामान पर नजर रखिएगा. इन से तो हम निबट लेंगे.

तब याद आया कि सुबह लखनऊ में एक विशाल राजनीतिक रैली होने वाली थी, जिस में भाग लेने यह सारी भीड़ लखनऊ जा रही थी. लगता था जैसे रैली के उद्देश्य और उस की जरूरत से उस में भाग लेने वाले अनभिज्ञ थे. ठीक, वैसे ही उस रैली के परिणाम और इस से आम आदमी को होने वाली परेशानी से रैली आयोजक भी अनभिज्ञ थे.

पूरी गाड़ी में लूटपाट और जंग छिड़ी थी. जैसे वह गाड़ी न हो कर शोर और दहशत का बवंडर था, जो पटिरयों पर दौड़ता चला जा रहा था. लड़कों का पूरा ग्रुप हम दोनों, मांबेटी की हिफाजत के लिए डट गया था. एक मजबूत दीवार खड़ी थी हमारे और अनचाही भीड़ के बीच, उन छहों की तत्परता, लगन और निष्ठा को देख कर मैं मन ही मन नतमस्तक थी. उस पल शायद मेरा अपना बेटा भी होता तो क्या इस तरह अपनी मां और बहन की रक्षा कर पाता.

कानपुर से लखनऊ तक के उस कठिन सफर में वे न बैठे, न उन्होंने कुछ खायापिया. इस बीच में अपनी शरारतें, चुहलबाजी, फिल्मी अंदाज, सबकुछ भूल गए थे. उन के सामने जैसे एक ही उद्देश्य था, हमारी और सामान की हिफाजत.

मैं आत्मग्लानि की दलदल में धंसती जा रही थी. इन बच्चों के लिए मैं ने क्या धारण बना ली थी, जिस के कारण मैं ने एक बार भी इन से ठीक व्यवहार नहीं किया. एक बार भी इन से प्यार से नहीं बोली, न ही इन के हासपरिहास अथवा बातचीत में शामिल हुई. क्या परिचय दिया मैं ने अपनी शिक्षा, अनुभव, सभ्यता और संस्कारों का. और बदले में इन्होंने दिया इतना शिष्ट सम्मान और सुरक्षा.

उस दिन पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में महिलाओं का अकेले यात्रा करना कितना असुरक्षित है. साथ ही एक सीख भी मिली कि कम से कम शादीब्याह तय करते समय या यात्रा पर निकलने से पहले हमें शहर में होने वाली राजनीतिक रैलियों, जलसे, जुलूसों की जानकारी भी ले लेनी चाहिए. उस दिन महिलाओं के साथ घटी दुर्घटनाएं अखबारों के मुखपृष्ठ की सुर्खी बन कर रह गईं. कुछ घटनाओं को तो वहां भी जगह नहीं मिल पाई.

लखनऊ स्टेशन का हाल तो उस से भी बुरा था. प्लेटफार्म तो जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया था.

सामान, बच्चे, महिलाओं को ले कर यात्री उस भीड़ से निबट रहे थे. चीखपुकार मची थी. भीड़ स्टेशन की दुकानें लूट रही थी. दुकानदार अपना सामान बचाने में लगे थे. प्रलय का सा आतंक हर यात्री के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था. मेरी तो आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था. इतना सारा कीमती सामान और साथ में खूबसूरत जवान बेटी. उस पर किसी भीड़ जिस की न कोई नैतिकता, न सोच, बस, एक उन्माद होता है.

वैसे तो भैया हमें लेने स्टेशन आए हुए थे, लेकिन उस भीड़ में हम उन्हें कहां मिलते. उस भीड़ में तो सामान उठाने के लिए कुली भी न मिल सका. उन लड़कों के पास अपना तो मात्र एकएक बैग था. अपने बैग के साथ सैम ने हमारी बड़ी अटैची उठा ली. छोटी अटैची मेरे मना करने पर भी मनीष ने उठा ली. मेेघना के पास पानी की बोतल और मेरे पास मात्र मेरा पर्स रह गया. हमारे दोनों बैग भी ईश और अंकित के कंधों पर लटक गए थे. उन सब ने भीड़ में एकदूसरे के हाथ पकड़ कर एक घेरा सा बना लिया, जिस के बीच हम दोनों चल रही थीं. उन्होंने हमें स्टेेशन से बाहर ऐसे सुरक्षित निकाल लिया, जैसे आग से बचा कर निकाल लाए हों.

मेरे पास उन का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं थे. उस दिन अगर वे नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता, इतना सोचने मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ने जब उन का आभार प्रकट किया तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से मुसकराते हुए कहा था, ‘‘क्या बात करती हैं आप, यह तो हमारा फर्ज था.’’

दिल ही दिल में सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए मैं ने उन्हें शुभ्रा की शादी में शामिल होने की दावत दी, लेकिन उन का आना संभव नहीं था क्योंकि वे मात्र 4 दिनों के लिए लखनऊ एक कार्यशाला में शामिल होने आए थे. उन के लिए 10 दिन रुकना असंभव था. फिर भी एक शाम हम ने उन्हें खाने पर बुलाया. सब से उन का परिचय करवाया. वह मुलाकात बहुत ही सहज, रोचक और यादगार रही. सभी लड़के सुशिक्षित, सभ्य और मिलनसार थे.

हम लोग अकसर युवा पीढ़ी को गैरजिम्मेदार, संस्कारविहीन और दिशाहीन कहते हैं, लेकिन हमारा ही अंश और हमारे ही दिए संस्कारों को ले कर बड़ी हुई यह युवा पीढ़ी भला हम से अलग सोच वाली कैसे हो सकती है. जरूर उन्हें समझने में कहीं न कहीं हम से ही चूक हो जाती है. Social Story In Hindi

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