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Family Story : काश – क्या मालती ने अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त किया?

Family Story : ‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

Best Hindi Story : अपराधबोध – बरसों से किस बात की टीस थी उसके मन में ?

Best Hindi Story : शहर के व्यस्तम बाजार से गुजर रहा था. पहले तो इस शहर में लगभग हर वर्ष आता था. धीरेधीरे अंतराल बढ़ता गया. अब एक लंबे अंतराल के बाद आया था. हर गुजरने वाले को बड़े गौर से देख रहा था इस आशा के साथ कि शायद वह भी दिख जाए. अचानक उस पर नजर ठहर गई. वही तो थी जिसे मैं वर्षों से ढूंढ रहा था. उस की नजर भी मुझ पर पड़ गई तो वह भी ठिठक गई.

पता नहीं अचानक मुझे क्या हुआ. बिना कुछ देखे मैं उस की ओर लपक लिया. गुजरती हुई एक कार ने उठा के मुझे एक ओर पटक दिया. पता नहीं मुझे क्या हुआ, शायद बेहोश हो गया था. आंखें खोलीं तो देखा, मेरे चारों ओर एक भीड़ थी और एक व्यक्ति मेरे मुंह पर पानी के छींटे मार रहा था. मैं हड़बड़ा कर उठा और चारों ओर देखने लगा. वह मुझे भीड़ के पीछे चिंतित हो देख रही थी.

“मरने का इतना ही शौक है तो किसी रेलगाड़ी के नीचे आ जाओ, मेरी गाड़ी के आगे क्यों कूद गए,” एक सूटिड-बूटिड व्यक्ति क्रोध में बोल रहा था. वह कार मालिक था. मैं ने उस से हाथ जोड़ कर क्षमा मांगी और वह बुदबुदाता चला गया और भीड़ भी छंट गई. वह हाथों में भरेभरे 2 थैले लिए वहीं मुझे घूर रही थी. माथे पर चिंता की लकीरें दृष्टिगोचर थीं और आंखों में पानी.

मैं धीमेधीमे कदमों से चलता हुआ उस के समीप गया. चाह कर मेरे मुंह से दो शब्द न निकल सके. शायद, उस की भी यही हालत थी. बस, देखते रहे एकदूसरे को. जब भीड़ के एकदो धक्के लगे तो सचेत हुए.

“कैसे हो?” चुप्पी उसी ने तोड़ी. मेरे होंठ फड़फड़ा के रह गए. मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं उस के सामने खड़ा था जिसे वर्षों से मिलना चाहता था. गला भी रुंध गया था.

“कहीं चोट तो नहीं लगी? उस ने फिर पूछा.

मैं ने न में सिर हिल दिया.

फिर एक खामोशी छा गई. बोल रहीं थीं तो केवल आंखें. एक बार फिर कोई मुझ से टकराया तो मैं सजग हुआ.

“तुम कैसी हो?” मैं ने पूछा तो उस ने भी सिर हिला कर उत्तर दे दिया कि ठीक है.

“चलो, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं,” मैं ने सुझाया.

“मिलन रैस्तरां चलते हैं,” वह बोली.

मेरे दिल में एक चुभन सी हुई. हम अकसर यहीं मिलबैठ चाय आदि पीते हुए बातें करते थे. रैस्तरां अधिक दूर नहीं था. उस के एक कोने में हम बैठ गए.

“लगता है ढेर सारी शौपिंग हो रही है,” बात चलाने के लिए मैं बोला.

“हां, शादी है बेटी की.”

“अकेले ही शौपिंग कर रही हो?”

“नहीं, नमिता अपने डैडी के साथ गई है दूसरी मार्केट और मैं घर के लिए वापस निकली थी.”

“कितने बच्चे हैं?”

“तीन, दो बेटे और एक बेटी.“

“पति?”

“रिटायर होने वाले हैं?”

इतने में वेटर चाय आदि ले आया.

“अपने बारे में बताओ,” उस ने पूछा.

“सब बच्चे सैटल हो गए हैं. अपनी फैमिली के साथ मस्त हैं. बस, हम दोनों ही हैं,” एक सांस में मैं ने सब बताया दिया और पूछ बैठा, “तुम बताओ, कैसी चल रही है तुम्हारी लाइफ?”

“सब ठीक है, पति बहुत खुले विचारों वाले हैं. बच्चे भी बहुत अच्छे हैं. अभी जमाने कि ज्यादा हवा नहीं लगी है,” वह हंस कर बोली.

उस के बाद फिर एक सन्नाटा पसर गया. हम चाय की चुसकियां लेते हुए एकदूसरे को देखते रहे.

“मैं अकसर शहर में आया करता था, लेकिन वह कभी भी नहीं दिखी, जिस की तलाश में आता था,” मैं ने ही चुप्पी तोड़ी. मैं ने साफ महसूस किया कि उस ने ठंडी सांस भरी थी.

“मैं ने 10 वर्ष प्रतीक्षा की,” वह भरे गले से बोली.

“मैं जानता हूं,” मैं ने स्वीकार किया.

“कैसे?”

“लवली ने बताया था.”

“अरे हां, तुम्हारी बहन लवली मिली थी एक बार रास्ते में. उस ने बताया था कि तुम्हारा तलाक हो गया है,” उस की आवाज में एक दर्द था.

“तलाक के बाद मैं अकसर यहां आता था. तुम्हारा पता नहीं चला. जहां तुम रहा करती थीं, वहां से पता चला कि तुम परिवार सहित शिफ्ट हो गई हो. कोई तुम्हारा नया ऐड्रेस नहीं बता पाया.”

“जब सब खत्म ही हो गया था तो फिर क्यों मिलना चाहते थे. तुम ने दूसरी शादी कर ली, मैं ने भी अपना घर बसा लिया,” इस बार उस की आवाज में तल्खी थी.

एकाएक मुझ से कुछ कहते न बन सका. बस, उस के चेहरे को ताकता रहा, जिस पर गुस्सा नजर आ रहा था. वह भी मुझे घूर रही थी.

“वेल, रश्मि,” पहली बार मैं ने उसे नाम से पुकारा. वैसे मैं उसे रूषी कह कर बुलाया करता था. मेरे मन पर एक बोझ था और अभी भी है- ‘अपराधबोध’.

वह चुप ही रही.

“मैं तुम्हें बताना चाहता था कि मैं ने ऐसा क्यों किया.”

वह अब भी कुछ न बोली.

“मैं अच्छी नौकरी करता था. रहता अकेला ही था दूसरे शहर में. तुम्हारी व तुम्हारे परिवार का पूरा सपोर्ट था. स्टैंड ले लेता तो कोई मुझे रोक नहीं सकता था,” मैं ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

“मुझे इसी बात का तो दुख हुआ था,” वह अब भी गुस्से में थी.

“यह 50 वर्ष पुरानी बात है. आज का युग होता तो शायद मैं भी अपने पेरैंट्स, अपनी बहनों की परवा न करता. तुम जानती हो, वह ज़माना और था जब सब जज़्बातों की कदर करते थे, बड़ों की पूरी इज्जत करते थे, समाज से डरते थे कि लोग क्या कहेंगे. उसूलन मुझे तुम्हारे साथ किया वादा निभाना चाहिए था लेकिन मैं ने अपने जज़्बात निभाए. घर में कोई तुम्हारे फ़ेवर में न था, यह तुम्हें पता ही है. फिर आना तो तुम्हें इसी घर में था. क्या लाभ होता तुम्हें वहां ला कर जहां तुम्हारा तिरस्कार होता. बहनों की भी अभी शादी होनी थी, इसलिए मैं अपना परिवार नहीं छोड़ सकता था.” मेरे भीतर से वह सबकुछ निकल गया जिसे मैं बरसों से मन में दबाए बैठा था, जिस का मेरे मन पर बोझ था.

“एक बार मुझ से बात तो की होती?” वह लगभग चिल्लाते हुए बोली तो आसपास की  टेबल पर बैठे लोग हमारी ओर देखने लगे.

“मैं तुम्हें फेस नहीं कर सकता था. इसे मेरी कमजोरी समझ लो या कायरता,” मैं मन में शर्मिंदगी अनुभव कर रहा था.

“तुम नहीं मिले, एक बार भी नहीं सोचा कि मेरे ऊपर क्या बीतेगी. एक बार बात तो करते. मैं तुम से प्रेम नहीं करती थी बल्कि पूजती थी. तुम्हें भी याद होगा कि एक बार जब हम एकांत में बैठे थे तो मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाई तो तुम ने ही मुझे समझाया था और तुम ने संयम नहीं खोया और मुझे जबरदस्ती रोका. इसलिए तुम्हें पूजती थी,” उस की आंखों में छिपे आंसू उस के गालों पर लुढ़कने लगे. मैं चाह कर भी उस के आंसू न पोंछ सका.

तभी उस के फोन की घंटी बजने लगी. वह बात करने लग गई. मैं ने अंदाजा लगाया कि फोन पर पति से बात कर रही थी.

“उन का फोन था. पिक करने के लिए कह रहे थे. मैं ने उन से कहा है कि वे घर जाएं, मैं भी आ रही हूं.” मेरा अनुमान ठीक था.

उस ने मेरा फोन ले कर अपने फोन पे एक नंबर डायल किया और बताया कि यह उस का फोन नंबर है. वह औटो ले कर बिना अपना घर का पता दिए या मेरा लिए चली गई. मैं वहीं खड़ा देखता रहा जब तक कि औटो आंखों से ओझल नहीं हो गया. आज मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा था. वर्षों से जो मन पर एक अपराधबोध महसूस कर रहा था, वह निकल गया.

सुबह जब मैं वापस जाने के लिए तैयार हो रहा था तो मेरे फोन पर एक अजनबी फोन नंबर से कौल आई. मैंने अटेंड की तो हक्काबक्का रह गया. यह रश्मि के पति सौरभ की कौल थी. वह मिलना चाहता था. मैं असमंजस में पड़ गया. कोई और चारा न देख मैं ने उस से बसस्टैंड पर मिलने के लिए कह दिया क्योंकि एक घंटे बाद मेरी बस निकलने वाली थी.

हम एकदूसरे को नहीं जानते थे, देखा ही नहीं था कभी. बसस्टैंड पहुंचते ही मैं ने उस के फोन पर कौल की तो उस ने तुरंत अटेंड की.

देखा तो वह बस के समीप ही फोन कान पर लगाए बात कर रहा था. उस ने भी मुझे देख लिया. उस के हाथ में एक डब्बा था.

हाथ मिलाने की औपचारिकता के बाद वह डब्बा मुझे पकड़ाते हुए बोला, ”यह रश्मि ने भेजा है, कह रही थी कि आप को खीर बहुत पसंद है. इस के साथ ही मैं आप का धन्यवाद करना चाहता हूं कि आप से मिलने के बाद वह आज वर्षों बाद गहरी और चैन की नींद सोई है. नहीं तो वह आधी रात के बाद करवटें ही बदलती रहती थी. आज पहली बार मैं ने उस के चेहरे पर एक शांति देखी है.  यह कार्ड भी भेजा है. हमारी बेटी की शादी है, आना अवश्य.”

मैं डब्बा और कार्ड लिए किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया. बस कंडक्टर ने सीटी बजाई तो चेता और बस पर चढ़ते हुए केवल उस का धन्यवाद ही कर सका. हम बेवफा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके.

Hindi Kahani : बिना जड़ का पेड़ – क्या किशनराय अपने परिवार से दूर रह पाया?

Hindi Kahani : मैं आज से कोई 5-6 साल पहले अपना घर व व्यवसाय छोड़ कर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया था खुद को अपने सहधर्मी व्यक्तियों के बीच सुरक्षित रखने के लिए,’ यह वे हमेशा अपने से मिलने वाले लोगों से बोला करते. किशनराय हमारे बंगले के पास अभी रहने आए थे. मैं उन के मुख से कई बार यहां भारत के अनुभव व पाकिस्तान में उन की सुखद आर्थिक स्थिति के बारे में सुनता रहता था. एक दिन मैं ने उन से यों ही मजाक में कहा, ‘‘किशनरायजी, आप हमेशा अपने बारे में किस्तों में बताते रहते हैं, कभी साथ बैठ कर अपनी पूरी कहानी सुनाइए,’’ मगर उन के चेहरे के भावों को देख कर मैं ने जल्दी क्षमा मांगी.

उन्होंने गहरी सांस ली और बोले, ‘‘चांडक साहब, इस में क्षमा की बात नहीं है. आप ठीक कहते हैं, मुझे हर किसी से अपनी बात नहीं कहनी चाहिए. लेकिन क्या करूं, मन में रख नहीं रख पाता हूं, अंदर घुटन महसूस करता हूं. सच कहूं, मैं अपनी पूरी कहानी किसी को सुनाना चाहता हूं ताकि जी हलका हो सके.’’ यह कह कर उन्होंने उदासी जाहिर की.

‘‘आज मैं अपने काम से फारिग हूं, आप को एतराज न हो तो मैं आप की कहानी सुनना चाहता हूं. विश्वास कीजिए, मैं आप की कहानी का मजाक नहीं बनाऊंगा,’’ मैं ने संजीदगी से कहा. उन्होंने मेरी ओर गंभीर नजरों से देखा, शायद सोचा हो कि कहूं या नहीं? लेकिन फिर उन्होंने अपनी कहानी शुरू की, अपने पाकिस्तान में जन्म से ले कर व भारत में स्थायी होने तक.

‘‘मेरा जन्म पाकिस्तान में एक रईस व जमींदार हिंदू परिवार में हुआ था. मैं ने बचपन से ले कर जवानी तक कभी भी किसी चीज की कमी महसूस नहीं की, जो चाहा वह मिला. घर पर नौकरों की फौज थी. मेरे बाबा हमारे गांव के सब से बड़े जमींदार थे. गांव में वही होता था जो हमारे बाबा चाहते थे. यह सब आजादी के पहले की नहीं, आजादी के बाद की बात थी.

‘‘हमारा वहां बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था. हम ने कभी भी अपनेआप को अकेला महसूस नहीं किया. 2 साल पढ़ने के लिए मैं कराची गया. लेकिन पढ़ाई बीच में छोड़ कर मैं जल्दी जमींदारी में लग गया.

‘‘कुछ समय बाद हम ने शहर में भी अपना व्यवसाय खोल दिया. हम हिंदू थे पर पूरा गांव मुसलमान था. हमारे नौकर व ग्राहक मुसलिम थे.

‘‘मैं ने कभी जाना भी नहीं कि हिंदू व मुसलिमों में फर्क भी होता है. न ही कभी गांव के मुसलिमों ने हमें यह महसूस होने दिया. 1965 व 1971 में जब हमारे रिश्तेदारों ने, जो पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान जा रहे थे, हमारे दादा से भी हिंदुस्तान चलने का आग्रह किया था. लेकिन दादा अपनी जन्मभूमि छोड़ कर जाने को तैयार ही नहीं थे. वे हठीले जमींदार थे, दूसरा, उन्होंने कभी खतरा महसूस नहीं किया.

‘‘हम लोग वहां सुख व आनंद के साथ जी रहे थे. मेरे बड़े भाई स्थानीय समर्थकों की सहायता से वहां की नगरपालिका के अध्यक्ष बने. उन्होंने वहां की जनता के लिए अच्छे काम किए और लंबे समय तक इस पद पर बने रहे. लेकिन इस बीच अयोध्या के मामले ने हमारे दिलोदिमाग को भीतर तक झकझोरा और हम पहली बार खुद को असुरक्षित समझने लगे. हम अपने दोस्तों व गांव वालों से नजरें मिलाते तो ऐसा लगता जैसे हिंदुस्तान में जो हो रहा है उस के लिए हम जिम्मेदार हैं.

‘‘हमें हिंदुओं के बारे में धार्मिक स्थिति तो पता थी पर सामाजिक व राजनीतिक स्थिति से हम लोग अनजान थे. अब हम जब अपने दूसरी जगहों के रिश्तेदारों से मिलते तो यही चर्चा होती कि क्या हम पाकिस्तान में सुरक्षित हैं? यदि हां, तो कब तक? हमारे चेहरे भले ही शांत हों पर मनमस्तिष्क में द्वंद्व चलता रहता था. मस्तिष्क कह रहा था कि हम सुरक्षित नहीं हैं पर मन कहता कि यह तो हमारी जन्मभूमि है.

‘‘इस बीच रथयात्रा निकली. हिंदुस्तान के दंगों की चर्चा पाकिस्तानी समाज व अखबारों में होने लगी. वहां कुछ लोग इस की प्रतिक्रिया करने लगे. पुराने मंदिर खंडहर फिर समतल मैदान होने लगे. हिंदुओं की दुकानें, जो गिनीचुनी थीं, लूटी जाने लगीं.

‘‘मुझे लग रहा था कि भारत व पाकिस्तान के विभाजन की प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. अब हमारा पाकिस्तान में रहना मुझे असहज लगने लगा. मैं अब जल्द से जल्द विधर्मी देश को छोड़ कर सहधर्मी देश में आने की सोचने लगा ताकि मैं अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकूं. मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. मैं परिवार के सदस्यों के बीच इस बात को ले कर विचारविमर्श करने लगा. लेकिन सब ने मुझे यही समझाया कि यहां से उखड़ कर, वहां पनपना आसान नहीं होगा. यहां की जमींदारी व जमाजमाया व्यवसाय छोड़ कर कहीं तुम्हें वहां पर दरदर की ठोकरें न खानी पड़ें. तुम्हारी हालत बिना जड़ के पेड़ की तरह हो जाएगी. आखिर उन का तर्क सही था.

‘‘लेकिन दूसरी तरफ मन कहता कि जहां चाह वहां राह. दूसरा, मेरा हठीला स्वभाव अपने बाबा पर गया था. ‘‘जब मेरे मुसलमान दोस्तों व गांव वालों को मेरे निर्णय के बारे में पता चला तो वे सब मेरे पास आए और मुझे समझाने लगे, ‘किशन, तुम्हें हम पर विश्वास नहीं, हम लोग न जाने कितनी पीढि़यों से एकसाथ रह रहे हैं, क्या हमारे होते हुए तुम्हें आंच आ सकती है?’ समझाते हुए उन की आंखों में आंसू आने लगे. मैं भी रोने लगा. एक बार तो मैं ने भी अपना निर्णय बदलने की सोची लेकिन कुछ समय बाद के बुरे खयालों से मेरा दिल कांपने लगा.

‘‘आखिरकार, मैं अपना घर, कारोबार व जन्मभूमि, बसबसाया सुख छोड़ कर अनजाने लेकिन सहधर्मी देश की ओर निकल पड़ा, संशयपूर्ण भविष्य को साथ में ले कर.

‘‘घर व गांव को छोड़ते हुए मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मेरे परिजन, गांव वालों व दोस्तों की आंखों में आंसू थे. मेरे दोस्तों व गांव वालों ने विदा करते समय कहा, ‘किशन, यदि तुम्हें पराई जमीन पंसद न आए तो निसंकोच अपने गांव वापस आ जाना,’ यह उन के अंतिम वाक्य थे, जो मुझे न जाने कितनी बार याद आए. ‘‘अभी तक तो मेरी जिंदगी सुख के धरातल पर चल रही थी. पुरखों के बोए बीजों के फल मैं खा रहा था. ऊबड़खाबड़ और परेशानियों वाली जिंदगी के दर्शन अभी तक बाकी थे जो यहां आने के बाद होने लगे.

‘‘नई आशा व विश्वास में आ गया अपने सहधर्मी देश. बहुत सारे सामान व अपने परिवार के साथ मैं मुंबई एयरपोर्ट पर उतरा. सब से पहली परेशानी यहीं से शुरू होती है. यहां पर कस्टम अधिकारियों ने शुरू में बहुत परेशान किया क्योंकि एक तो मैं पाकिस्तान से आया था, दूसरा मेरे साथ पूंजी के रूप में बहुत सारा सोना आभूषणों के रूप में मेरे साथ था पर जब उन्होंने पाकिस्तान में एक हिंदू के रूप में मेरी व्यथा सुनी तो उन का दिल पसीजा और उन्होंने न सिर्फ कस्टम ड्यूटी माफ की बल्कि उन्होंने मेरे और मेरे परिवार को कैंटीन में खाना भी खिलाया. मेरे प्रति एक हिंदू के रूप में यह पहली सहानुभूति थी.

‘‘हिंदुस्तान आ कर कुछ दिन मैं अपनी बड़ी बहन के यहां रहा. कुछ दिनों बाद उन्हीं के शहर में एक मकान भी लिया, जहां मैं ने पहली बार सहधर्मी पड़ोसियों के अनुभव लिए. मैं जहां रह रहा था वहां पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आना जिज्ञासा का विषय नहीं था, क्योंकि हमारी तरह के बहुत सारे परिवार विस्थापित हो कर यहां आ कर बस गए थे. जिज्ञासा का विषय तो हमारा शाही रहनसहन व खानपान था. साथ में, हमारा बड़ा परिवार भी सब की नजरों में चर्चा का विषय था. हमारे यहां 8-10 सदस्यों का परिवार सामान्य समझा जाता था. लेकिन यहां के 2-3 सदस्यों वाले परिवारों में हमें स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय बनना ही था.

‘‘हमारी मातृभाषा सिंधी थी जो यहां की गुजराती भाषा से बहुत भिन्न थी. हालांकि मुझे इस की खास परेशानी नहीं थी क्योंकि कराची में मेरे कुछ दोस्त गुजरात से आए हुए थे, लेकिन बच्चों व बीवी को बहुत परेशानी होती थी. ‘‘हम ने कुछ ही समय में सारी भौतिक सुखसुविधाएं जुटा लीं. हमारा शाहीखर्च उन को आश्चर्यचकित कर देता था. मेरी पत्नी का उन को चायनाश्ते के साथ स्वागत करना विस्मय से भर देता था क्योंकि वे लोग चाय तक ही सीमित रहते थे. बच्चों का दिनभर झगड़ना उन की शांत जिंदगी में तूफान ला देता था. बहुत लोगों ने इस की शिकायत की. लेकिन मेरे कहने पर कि- ये तो बच्चे हैं- वे गुस्से में आ जाते थे, कहते, ‘आप तो बड़े हैं,’ हमारा ऐसा अपमान बहुत बार हुआ.

‘‘काम करने वाली जिस दिन नहीं आती उस दिन जूठे बरतनों व कपड़ों का अंबार लग जाता था. मेरे घर का माहौल देख कर लोगों ने धीरेधीरे आना बंद कर दिया. ‘‘उधर मैं व्यवसाय ढूंढ़ने के लिए इधरउधर अपने भाई के दोस्त के साथ भटकने लगा. व्यवसाय शुरू करना व उसे सुचारु रूप से चलाना कितना मुश्किलभरा होता है, यह मुझे अब पता लगना था. अब तक मैं अपने बापदादा की जमीजमाई जमींदारी पर आराम के साथ जिंदगी गुजार रहा था.

‘‘दूसरी तरफ मेरी बहन के परिवार के साथ मेरा संबंध कटने लगा. वे मुझे व्यवसाय में मदद के लिए असमर्थ लगे. लेकिन आज सोचता हूं कि वे उस समय कितने सही थे. उन का मुझे कुछ समय राह देख कर व्यवसाय शुरू करने की सलाह को मैं ने गलत तरीके से लिया था. आज यह सोच कर ग्लानि से भर उठता हूं.

‘‘मैं ने जल्द ही भाई, दोस्त के कहने पर अहमदाबाद के नजदीक शहर में अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन जो व्यवसाय मैं ने शुरू किया उस का मुझे तनिक भी अनुभव नहीं था. जिस कारण शुरू में मैं बहुत परेशान रहा. ‘‘मेरी परेशानी देख कर मेरी बहन ने अपने बेटे को मेरी मदद करने के लिए भेजा. वह इस मामले में बड़ा अनुभवी व होशियार निकला. उस ने मेरे व्यवसाय को जमाने में मेरी बहुत मदद की. मेरे बच्चे तो बहुत ही छोटे थे.

‘‘बच्चों को भी शुरू में विद्यालय व आसपास के माहौल में सामंजस्य बैठाने में बहुत तकलीफें आईं. भाषा की तकलीफें तो थीं ही, साथ में और भी कई परेशानियां थीं. ‘‘एक बार मेरे बेटे से विद्यालय में राष्ट्रगान बोलने को कहा गया तो उस ने पाकिस्तान का राष्ट्रगान सुना दिया. इस पर विद्यालय व शहर में बहुत हंगामा हुआ. घर पर बुलावा आया, मुझे माफी मांगनी पड़ी व भविष्य में ऐसा नहीं होगा, लिखित आश्वासन भी देना पड़ा. ‘‘हर महीने पुलिस थाने जा कर उपस्थिति के साथ नजराना भी देना पड़ता था. यहां पर व्यवसाय के चक्कर में सरकारी अधिकारियों के साथ रोज पाला पड़ता था.

‘‘मेरा सपना हिंदुस्तान आ कर चकनाचूर हो गया. मैं ने तो यह सपना देखा था कि सहधर्मी देश आ कर मैं सुरक्षित व सुखी रहूंगा. हालांकि मुझे व्यवसाय में सफलता मिल रही थी पर मैं यहां की परेशानियां झेलने में असफल व असमर्थ था. ‘‘जब मैं अपने साथी व्यापारी व रिश्तेदारों से बातें करता तो वे हंस कर कहते, ‘ये तो रोज की साधारण बातें हैं जिन का जिंदगीभर सामना करना पड़ता है. जितना बड़ा व्यापारी उतनी ज्यादा परेशानियां.’

‘‘मैं परेशान हो गया, मन में अजीब सा द्वंद्व पैदा हो गया. कभीकभी सोचता था कि सबकुछ छोड़ कर वापस पाकिस्तान चला जाऊं लेकिन वहां मेरे दोस्त व रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उन के व्यंग्यबाण मैं झेल पाऊंगा? हो सकता है वहां की सरकार मुझे शक की नजरों से देखे.

‘‘इस तनाव के कारण मैं चिड़चिड़ा हो गया. मैं तनाव में रहने लगा. मेरे व्यवहार में अजीब सी कर्कशता आ गई. बच्चे भी सहमने लगे. मैं ने पहली बार जाना कि अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह जुड़ना कितना कठिन व कष्टदायक होता है. ‘‘मुझे बीमार व तनाव में देख कर मेरी पत्नी ने बड़ी बहन को बुलाया. मेरी हालत देख कर मेरी बहन की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘मैं ने रोते हुए कहा कि ‘दीदी, अब मैं यहां और नहीं रह सकता. मेरे में और परेशानियां झेलने की क्षमता नहीं है. मैं अब वापस अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूं.’

‘‘उस ने कहा, ‘क्या हम तुम्हारे नहीं हैं, किशन? और फिर क्या बारबार एक जगह से पेड़ों को उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना आसान है? क्या तुम पहले की तरह वहां रह सकोगे? इतना फैला हुआ व्यापार समेटना क्या आसान है? तुम्हारे बच्चों का यहां मन लग गया है. देखो, वे कितने खुश हैं,’ मस्ती से खेलते बच्चों को देखती हुई बहन आगे बोली, ‘क्या वापस पाकिस्तान जा कर बच्चों की हालत तेरी जैसी नहीं हो जाएगी?’

‘‘कुछ देर रुक कर दीदी आगे बोली, ‘तुम एक बार वहां की जिंदगी को भूल कर, वहां के सारे सुखों को भूल कर, यहां नई जिंदगी शुरू कर दो. यही सोचो कि तुम्हारा जन्म यहीं पर हुआ है. मैं जब ससुराल आई थी, तब मेरा यहां कोई नहीं था. मैं अपना सुखदुख किसी को सुना नहीं सकती थी. लेकिन तुम्हारा तो यहां पूरा परिवार है, मैं हूं, अपने लोगों से तुम्हारा फोन पर संपर्क है. फिर भी तुम जल्दी घबरा गए, जल्दी हार मान गए. मैं तो तुम्हारी तरह वापस भी नहीं जा सकती थी. तू तो मेरा भाई है, तेरे में तो मेरे से भी ज्यादा हिम्मत, हौसला व हिम्मत होनी चाहिए. उठ और हिम्मत से काम ले. सहनशील व संयमशील बन कर जिंदगी को आसान व सफल बना.’ दीदी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा.

‘‘उन की बात सही थी कि मेरा वापस जाना संभव नहीं. मेरे बच्चों की भी हालत मेरी जैसी न हो जाए. अब मुझे यहीं रहना होगा. मुझे ही इस मुल्क के अनुकूल होना पड़ेगा, यह सोच कर मैं ने अपना मन मजबूत किया. इस से जो समस्याएं मुझ में पहाड़ सी दिखती थीं वे कंकड़ के समान दिखने लगीं. मैं वही हंसमुख किशन बना. मुझ में हद से ज्यादा संयमशीलता आ गई. मेरा व्यवसाय अच्छा जमने लगा.’’ किशनराय के घर से आने के बाद मैं सोचने लगा कि सच में कितना मुश्किल होता है अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह पनपना, भले ही वह जगह अपनी मनपंसद व अनुकूल ही क्यों न हो.

Love Story : तबाही – आखिर क्या हुआ था उस तूफानी रात को

Love Story : सब कुछ पहले की तरह सामान्य होने लगा था. 1 सप्ताह से जिन दफ्तरों में काम बंद था, वे खुल गए थे. सड़कों पर आवाजाही पहले की तरह सामान्य होने लगी थी. तेज रफ्तार दौड़ने वाली गाडि़यां टूटीफूटी सड़कों पर रेंगती सी नजर आ रही थीं. सड़क किनारे हाकर फिर से अपनी रोजीरोटी कमाने के लिए दुकानें सजाने लगे थे. रोज कमा कर खाने वाले मजदूर व घरों में काम करने वाली महरियां फिर से रास्तों में नजर आने लगी थीं.

पिछले दिनों चेन्नई में चक्रवाती तूफान ने जो तबाही मचाई उस का मंजर सड़कों व कच्ची बस्तियों में अभी नजर आ रहा था. अभी भी कई जगहों में पानी भरा था. एअरपोर्ट बंद कर दिया गया था. पिछले दिनों चेन्नई में पानी कमरकमर तक सड़कों पर बह रहा था. सारी फोन लाइनें ठप्प पड़ी थीं, मोबाइल में नैटवर्क नहीं था. गाडि़यों के इंजनों में पानी चला गया था, जिस के चलते कार मालिकों को अपनी गाडि़यां वहीं छोड़ जाना पड़ा था. कई लोग शाम को दफ्तरों से रवाना हुए, तो अगली सुबह तक घर पहुंचे थे और कई तो पानी में ऐसे फंसे कि अगली सुबह तक भी न पहुंचे. कई कालेजों और यूनिवर्सिटीज में छात्रछात्राएं फंसे पड़े थे, जिन्हें नावों द्वारा सेना ने निकाला.  पूरे शहर में बिजली नहीं थी.

चेन्नई तो वैसे भी समुद्र के किनारे बसा शहर है, जहां कई झीलें थीं. उन झीलों पर कब्जा कर सड़कें व अपार्टमैंट बना दिए गए हैं. इन 7 दिनों में चेन्नई का दृश्य देख ऐसा मालूम होता था जैसे वे झीलें आक्रोश दिखा कर तबाही मचाते हुए अपना हक वापस मांग रही हों. चेन्नई की सड़कों पर हर तरफ पानी ही पानी नजर आ रहा था.

निचले तबके के लोगों के घर तो पूरी तरह डूब चुके थे. लोग फुटपाथों पर अपने परिवारों के संग सोने को मजबूर थे और सुबह के वक्त जब पेट की आग तन को जलाने लगी, तो वे झपट पड़े एक छोटे रैस्टोरैंट मालिक पर खाने के लिए. क्या करते बेचारे जब बच्चे भूख से बिलख रहे हों. जेब में एक फूटी कौड़ी न हो तो इनसान जानवर बन ही जाएगा न. हर तरफ तबाही का मंजर था. रात के करीब 11 बजे थे. जिस को जहां जगह मिली उस ने वहीं शरण ले ली. ऊपर से मूसलाधार बारिश और नीचे समुद्र का साम्राज्य. ऐसे में दफ्तर से निकली रिया पैदल एक स्टोर की पार्किंग में पनाह के लिए आ खड़ी हुई. धीरेधीरे पार्किंग में 2-4 और लोग भी शरण लेने आ पहुंचे. तभी 2-4 लोग शराब के नशे में धुत्त वहां आ गए और फिर रिया से छेड़छाड़ करने लगे. वह समझ चुकी थी कि उसे वहां खतरा है, लेकिन करती भी क्या? आगे समुद्र की तरह हाहाकार मचाता पानी और पीछे जैसे देह के भूखे भेडि़ए. वे उसे ठीक वैसे ही घूर रहे थे जैसे जंगली जानवर ललचाई नजरों से अपने शिकार को देखते हैं. वहां खड़ी भीड़ यह सब देख रही थी और समझ भी रही थी, लेकिन गुंडेबदमाशों से पंगा कौन ले? अत: सब समझते हुए भी अनजान बने हुए थे.

वहीं भीड़ में खड़े आकाश से यह सब होते देखा न गया तो वह बोल पड़ा, ‘‘अरे भाई साहब क्यों परेशान कर रहे हैं आप इन्हें? पहले ही पानी ने इतनी तबाही मचाई है, ऊपर से आप लोग एक अकेली लड़की को परेशान कर रहे हैं.’’

बस फिर क्या था. अब आफत आकाश पर आन पड़ी थी. उन शराबियों में से एक बोला, ‘‘तू कौन लगता है इस का? क्या लगती है यह तेरी? बड़ी फिक्र है तुझे इस की?’’ और फिर उस लड़की को छूते हुए बोला, ‘‘क्या छूने से घिस गई यह? अब बोल तू क्या कर लेगा? और छुएंगे इसे बोल क्या करेगा तू?’’

आसपास के सभी लोग सहमे से खड़े तमाशा देख रहे थे. सब देख कर भी नजरें इधरउधर घुमा रहे थे. कोई अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहता था.

रिया घबराई, सहमी सी आकाश के पीछे खड़ी हुई. आकाश ही उस का एकमात्र सहारा है, यह वह जान चुकी थी. अब तो उन शराबियों की हरकतें और बढ़ गईं.

आकाश ने रिया को घबराते देख कहा, ‘‘जब तक मैं हूं तुम्हें कुछ नहीं होगा. तुम डरो नहीं.’’

रिया सिर्फ  रोए जा रही थी. अब तो उन शराबियों ने आकाश के साथ हाथापाई भी शुरू कर दी.

तभी भीड़ में से कुछ लोग आकाश का साथ देने लगे और रिया को घेर कर खड़े हो गए ताकि वे उसे परेशान न कर सकें. शराबियों को अब आकाश से मुकाबला करना भारी पड़ रहा था. उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे आकाश के कारण आज उन का शिकार उन के पंजे से छूट गया.

वे आकाश को गालियां दे रहे थे. तभी उन शराबियों में से एक ने छुरा निकाल कर आकाश के सीने में 5-6 वार कर दिए उसे बुरी तरह जख्मी कर वहां से भाग निकले. किसी के मुंह से खौफ के मारे उफ तक न निकली. ऐसी तबाही में आकाश को अस्पताल पहुंचाते भी तो कैसे? जैसेतैसे एक नाव का इंतजाम किया और उसे अस्पताल ले जाया गया. उस के शरीर से बहुत खून बह चुका था. डाक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया.

आकाश चेन्नई में सौफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत था और उस का परिवार मुंबई में रहता था. उसे कंपनी ने तबादले पर यहां भेजा था. मैं और आकाश एक ही दफ्तर में कार्य करते थे. जब मैं ने उस की मौत की खबर अखबारों में पढ़ी तो मुझ से रहा न गया और मैं अगले ही दिन मुंबई चल दी. ताकि उस के परिवार वालों को सांत्वना दे सकूं.

मुंबई पहुंची तो आकाश के घर में मातम पसरा था. उस के बच्चों के आंसू रोके न रुकते थे और उस की पत्नी वह तो स्वयं तबाही का एक मंजर लग रही थी. मैं मन ही मन कुदरत से पूछती रही कि अच्छे काम का तो इनाम मिलता है. तो फिर यह कैसी सजा मिली है आकाश व उस के परिवार को? एक असहाय लड़की की इज्जत को तबाह होने से बचाने की यह सजा? आखिर क्यों?

आकाश के घर में ऐसा हाहाकार मचा था मानो धरती का करूण हृदय भी फूट पड़े और आंसुओं की अविरल धारा में सारा शहर समा जाए. चेन्नई में तो तबाही के बाद जनजीवन सामान्य होने लगा था, किंतु वह तबाही जो चेन्नई से मुंबई आकाश के घर पहुंची थी शायद कभी सामान्य न हो. झीलें तो शायद अपना हक हाहाकार मचा कर मांग रही थीं, किंतु आकाश की पत्नी अपना हक किस से मांगे? क्या कोई लौटा सकता है उन बच्चों के पिता को? आकाश को?

Romantic Story : जो जाती नहीं कभी वह – नमिता और अखिल किसके खिलाफ थे?

Romantic Story : दरवाजे की घंटी बजने पर नमिता ने गेट के बाहर देखा तो लगभग 32-33 साल का एक युवक खड़ा था.
“सुना है, आप के यहां कमरा खाली है…” उस ने पूछा.

“हां, खाली तो है। एक कमरा, किचन, बाथरूम और डाइनिंग स्पेस है… 3,500 से कम किराए में नहीं देंगे और बिजली का मीटर अलग से लगा है…” नमिता बोली।

नमिता के पास अपने घर के बगल से लगा 100 वर्ग गज का एक प्लौट था, जिस में एक कमरा, किचन, बाथरूम बने हुए थे, जिसे वह किराए पर उठा देती थी। छोटा और पुरानी बनावट का होने के कारण कोई अच्छी सर्विस वाला व्यक्ति किराए पर नहीं लेता था और अकसर कोई लेबर, औटो वाले, सिक्युरिटी गार्ड जैसे लोगों को ही उठाना पड़ता था। कम आमदनी के कारण कोई भी 2-3 हजार से ज्यादा नहीं देना चाहता था। एक तो रहना फिर बिजलीपानी। नमिता को 2,500 चूरन के पैसों के बराबर भी न लगते और ऊपर से इतना किराया भी कई बार याद दिलादिला कर मिलता। लेकिन जब खाली पड़ा रहता तो गंदगी होती इसलिए किराए पर उठा देना भी ठीक लगता। कम से कम साफसफाई तो होती रहती थी.

“इस बगल वाले मकान को तुड़वा कर होस्टल बनवा लेंगे। पढ़ने वाले बच्चे रख लिया करेंगे। किराया भी समय पर देंगे और ज्यादा किचकिच भी नहीं करेंगे,” नमिता के पति अखिल अपनी योजनाएं बनाते रहते।

“होस्टल तो तब बनवा लेंगे न जब पैसा होगा। अब क्या मकान बनवाना आसान काम है,” नमिता मुंह बना कर कहती।

“जब सस्ता मिल गया तो प्लौट ले लिया यह ही क्या कम है। बेटी की शादी में काम आएगा…” नमिता की अपनी सोच और योजना थी.

“दीदी, कुछ कम कर लो, इतना कहां से दे पाएंगे। सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं एक सोसाइटी में। कुल 12,500 मिलते हैं जिस में बीवीबच्चों का खर्चा भी चलाना है,” वह युवक गिड़गिड़ाने सा लगा तो नमिता को अच्छा नहीं लगा।

“कहां हमारे बच्चे एक दिन में हजारों की खरीदारी कर लाते हैं और कहां 10-12 हजार में पूरे महीने का खर्चा चलाना…” कितना कठिन होता होगा, उसे एहसास था।

“3,000 से कम में नहीं देंगे और 1 महीने का किराया ऐडवांस में देना होगा और बिजली का मीटर अलग लगा है। बिजली का अलग देना होगा,” उस ने जबरदस्ती कठोर बनने का प्रयास करते हुए कहा।

“कुछ कम हो जाता तो अच्छा था,” वह बोला पर नमिता टस से मस नहीं हुई।

आखिर में 1,000 रुपए ऐडवांस दे कर वह कमरा बुक करने को कहने लगा।

“नाम क्या है तुम्हारा?” नमिता ने पूछा।

वह कठोर हृदय नहीं थी और देश के हालात और निम्नवर्ग की स्थिति से अच्छी तरह से वाकिफ थी। निजीकरण ने देश के बेरोजगार वर्ग को 10-12 हजार का मज़दूर बना कर रख दिया था। ‘इतनी सी कमाई में कौन कैसे जी सकता है?’ इस प्रश्न से वह अकसर जूझती रहती थी।

“हमारा नाम दीपक है और एक बात और बताना चाहते हैं आप को…” उस ने बड़े कातर भाव से कहा।

“क्या? कहो…”

“हम जाति के वाल्मीकि हैं…”

नमिता को एक बार तो झटका सा लगा मगर फिर भी उस ने खुद को रोक लिया क्योंकि वह भी कोई ऊंची जाति से नहीं थी न ही उस की सोच नकारात्मक थी और समाज में फैले जातिवादी जहर से वह अच्छी तरह से परिचित थी। प्लौट के बगल में जो परिवार था वे बड़े अहं वाले एवं पूजापाठ वाले व्यक्ति थे। वैसे तो लोग कहते थे कि वे ओबीसी के हैं मगर बहुत धार्मिक व रूढ़िवादी सोच के थे। उन्हें दीपक का अपने बगल में रहना घोर नागवार गुजरता। पर नमिता भी जिद्दी थी और गलत बात पर झुकना या समझौता कर लेना उस की प्रवृत्ति में नहीं था।

“ठीक है, तुम कोई गलत काम तो करते नहीं हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। तुम अपना सामान ले कर रहने आ जाना।”

“धन्यवाद दीदी…आप को किराया बिलकुल समय से मिल जाया करेगा…” उस के चेहरे पर सम्मान व संतुष्टि के भाव थे।

महीने की 1 तारीख को दीपक अपनी पत्नी और 2 बच्चों के साथ रूम में शिफ्ट होने आ गया। उस के पास बहुत सारे गमले थे जिन में उस ने फूलों वाले पौधे लगा रखे थे। पत्नीबच्चे खूब सुंदर और साफसुथरे थे।

जाति व स्त्रीपुरुष के नाम पर मनुष्यमनुष्य में भेद करने वाली सामाजिक व्यवस्था से नमिता को बड़ी खीज होती थी. अपने बगावती तेवरों के साथ वह समाज में किसी भी तरह के अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध थी और खुल कर अपनी बात कहती थी साथ ही स्वयं अमल भी करती थी. अपनी दोनों बेटियों के बाद सास और ससुराल वालों के पूरे जोर डालने पर भी उस ने तीसरा बच्चा नहीं किया. बेटेबेटी के भेद से उसे सख्त ऐतराज था.

ऊंची जाति वालों का खून क्या ज्यादा गाढ़ा होता है या उन के ब्लड ग्रुप अन्य जाति वालों से अलग होते हैं?
मोहल्ले वाले नाकभों सिकोड़ेंगे, यह वह जानती थी फिर भी उस ने दीपक को कमरा किराए पर दे दिया था. उस के 2 बच्चे, एक बेटा, एक बेटी थे। पत्नी का नाम पार्वती था. वह घर पर ही रहती। घर को साफसुथरा रखती थी. दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे. दीपक बातचीत और व्यवहार में बहुत शिष्ट था और नमिता को दीदी कह कर पुकारता था। जब भी सामने पड़ता नमस्ते कर लेता था.

“दीदी, तुम ने मेहतर को किराए पर रख लिया है…कमरे में…” पड़ोसी का बेटा कुछ नाराजगी और कुछ गुस्से में बोला उस के घर आ कर.

“हां, तो क्या हुआ… क्या वह इंसान नहीं है…और मेरा घर मैं चाहे जिस को दूं…वैसे भी मैं इन सब बातों पर विश्वास नहीं करती.”

“उस के घर के कपड़े या कोई सामान हमारे घर आ गिरा तो हम क्या करेंगे और कैसे वापस करेंगे?”

“वे अपने घर में रहते हैं तुम अपने घर में और तुम कौन होते हो आपत्ति करने वाले? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि इस देश में प्रजातंत्र है और जातपात, धर्म के आधार पर भेद करना कानून के खिलाफ है…” नमिता ने आवेश में उसे बहुत सारी बातें सुना डालीं.”

लड़का भुनभुनाता हुआ चला गया. दीपक और उस का परिवार कमरे में रहने लगा था। नमिता अपने घरबाहर के कामों में व्यस्त हो गई। वैसे भी किराएदार कैसे रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं इन सब मामलों में वह ज्यादा दखल नहीं देती थी। अखिल की भी ऐसी ही आदत थी। न ही वे समय पर किराए के लिए किराएदार का दिमाग खाते थे. कोरोनाकाल में रह रही एक महिला से तो नमिता ने महीनों किराया ही नहीं लिया था. 1 महीना पूरा होने में 4-6 दिन ही बाकी थे कि दीपक एक दिन नमिता से बोला, “दीदी, कल कमरा खाली कर देंगे… बच्चों को वहीं बस्ती में रहना अच्छा लगता है जहां वे पहले रहते थे। यहां उन का मन नहीं लगता.”

“क्यों क्या परेशानी है यहां?” चौंक गई नमिता.

“कुछ नहीं… बस बच्चों का मन नहीं लगता यहां…”

“तो फिर आए ही क्यों थे?” गुस्सा आ गया उसे.

‘इस के लिए सब की नाराजगी की परवाह नहीं की और यह झट से भागने लगा…भगोड़ा…’ उस ने मन ही मन सोचा.

सचमुच महीना पूरा होते ही बाकी का किराया और बिजली का बिल दे कर दीपक कमरा खाली कर अपना सामान ले कर चला गया. नमिता से अपना गुस्सा दबाए नहीं दब रहा था. वह लगातार अपनी भड़ास दीपक को भलाबुरा कह कर निकाल रही थी,”ये लोग होते ही इसी लायक हैं। किए का एहसान नहीं मानते और शर्मिंदा करते हैं.”

“तुम करती भी तो हो ऐसे ही काम…ज्यादा भलमनसाहत दिखाने का यही परिणाम होता है,” अखिल कहता. नमिता क्या कहती. मनमसोस कर रह गई पर उस के मन से दीपक के प्रति नाराजगी नहीं गई।

दीपावली की लाइट्स लगवानी थीं इसलिए इलैक्ट्रिशियन रविंद्र को बुलाया था अखिल ने. अखिल अपनी निगरानी में झालरें लगवा रहा था.
रविंद्र जबतब घर की बिजली के काम करने आता रहता था और बहुत बोलता था.

“आप ने अपने घर में किराए पर वाल्मीकि को रख लिया था?” वह पूछ रहा था.

“तुम्हें कैसे मालूम?”अखिल ने कहा।

“पूरा मोहल्ला जानता है. कोई उस बेचारे से बोलता भी नहीं था. बहिष्कार सा कर रखा था सब ने उसका. इसलिए तो खाली कर के चला गया,” रविंद्र ने भेद खोला तो अखिल और नमिता दोनों स्तब्ध रह गए. कहां तो चिल्लाचिल्ला कर सारे नेता कहते हैं कि अब देश से जातिवाद खत्म हो गया है और कहां कदमकदम पर वही जाति, धर्म की लड़ाइयां…वोट लेते समय उसी धर्म और जाति का इस्तेमाल, दलितों को बहलाफुसला कर उन के वोट हड़पना और फिर उन को उसी हजारों सालों पुरानी स्थिति में बनाए रखने का षड्यंत्र रखना. क्यों हजारों सालों बाद भी वाल्मीकि केवल गंदगी साफ करने का काम करें… हर साल कितने सफाईकर्मी गटर में उतर कर जहरीली गैस से मर जाते हैं और हम बस खबरें पढ़ कर रह जाते हैं. क्यों नहीं बदलता इस देश का समाज…क्यों नहीं बदलती यहां की व्यवस्था… मन में कुलबुलाते प्रश्नों के कोई जवाब नहीं थे नमिता और अखिल के पास.

दीपक तो कमरा खाली कर के चला ही गया था.खाली पड़े हिस्से में फिर से धूलमिट्टी, गंदगी जमा होने लगी थी।

“चला गया तो चला जाने दो. फिर किसी और को उठा देंगे किराए पर…वह खुद ही डरपोक था. वरना जब हम कुछ नहीं कह रहे थे तो उसे बाकी लोगों की परवाह करने की जरूरत ही क्या थी…” नमिता को बीचबीच में रोष आ जाता.

“कमजोर आदमी मानसिक दबाव में जल्दी आ जाता है और सामाजिक बहिष्कार तो एक अमानवीय कृत्य है वह भी सिर्फ जाति के आधार पर. इसलिए वह इन तथाकथित सभ्य, प्रबुद्ध, प्रगतिशील जनों के बीच में रहने के बजाय अपने साथी बस्ती वालों के साथ रहने चला गया. हमें उस की स्थिति समझनी चाहिए न कि उस से नाराज़ होना चाहिए,” अखिल ने संपूर्ण स्थिति का अपना तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया.

काफी हद तक नमिता भी उस से सहमत थी। उस के बाद कई लोग रूम देखने आए। एक कमरा, किचन, बाथरूम कोई कमजोर व्यक्ति ही लेता और सब को 2-3 हजार और बिजली का खर्चा भी ज्यादा लगता। एक हद तक सही भी था कि जो खुद 10-12 हजार कमा कर गुजारा कर रहा हो वह 5 हजार किराए में ही दे देगा तो खाएगा क्या. पर नमिता भी फ्री में तो नहीं दे सकती थी। खैर, सौदा पटा नहीं और बगल का हिस्सा खाली ही पड़ा रहा.

“दीदी, कोई आया है, किराए के लिए मकान देखने,” कामवाली ने उसे बुलाया।

“कह दो अभी आती हूं…”

24-25 साल का एक लड़का था।

“कौन हो?”

“यहीं फैक्टरी में काम करता हूं. किराए पर कमरा चाहिए,” युवक ने कहा। लड़का इटावा का रहने वाला था. साथ में पत्नी और एक बच्चा था.

“3,000 रुपए किराया और बिजली का अलग से देना होगा,” नमिता ने स्पष्ट कहा.

“3,000 रूपए तो बहुत है 25,00 में दे दो। कुल 12,000 ही तो कमाता हूं. आप की दया से मेरा परिवार रह लेगा,” वह युवक बोला।

अमित नाम था उस का. आधार कार्ड और 500 रुपए ऐडवांस ले कर नमिता ने उसे आ कर रहने को कह दिया.

वह उसी दिन फटाफट अपना सामान और पत्नी, बच्चे को ले कर रहने आ गया जैसेकि कहीं सड़क पर रह रहा था. नमिता ने चैन की सांस ली. उसे इधरउधर से सुनने को मिल रहा था कि चूंकि उस ने एक वाल्मीकि को किराए पर रख लिया था इसलिए उस के इस घर में अब कोई किराएदार नहीं आ रहा था रहने को… अब अमित आ गया तो नमिता को लग रहा था कि जैसे उस ने इन मोहल्ले वालों को जवाब दे दिया हो. दोनों पतिपत्नी सफाईधुलाई आदि में लगे थे. सही किराए में रहने को ठिकाना मिल गया था शायद इसलिए दोनों खुश नजर आ रहे थे.

एक दिन न बीता था कि अमित दनदनाता हुआ उस के पास आया.
नमिता कुछ समझ पाती इस से पहले ही उस ने अपने गुस्से का इजहार कर दिया,”तुम ने अपने घर में मेहतर को रख रखा था?” वह गुस्से में था.

“तो क्या हुआ…और वह कोई गलत काम तो करता नहीं था। सिक्युरिटी गार्ड का काम करता था. और तुम्हें क्या परेशानी है उस से. मैं वैसे भी इन सब बातों को नहीं मानती,” नमिता का भी गुस्सा फूट पड़ा।

“तुम्हें बताना चाहिए था…” वह बदतमीजी से ‘तुमतुम…’ कर के बोल रहा था।

“जब से मेरी पत्नी को पता चला है उन की तबियत खराब हो गई है.” वह बहुत गुस्से में था।

नमिता को उस की बीमार सी पत्नी की शक्ल याद आ गई,”नहीं रहना तो भाग जाओ अपना सामान उठा कर… हम चाहे वाल्मीकि को रखें चाहे किसी और को हमारी मरजी है. हमारा घर है,” नमिता को इतना गुस्सा आ रहा था कि मन कर रहा था कि अभी धकेल कर बाहर निकाल दे। उसे अपने स्वभाव पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों वह हर ऐरेगेरे पर भरोसा कर लेती है और उन से सहानुभूति रखने लगती है. अगली सुबह अमित अपना सामान और अपना परिवार ले कर कमरा खाली कर के जा चुका था.

नमिता और अखिल कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले इस देश में जिस में आजादी के बाद जातिधर्म के भेद को खत्म कर कानून के समक्ष समानता स्थापित हो चुकी है जबकि वास्तव में तो यहां हर जाति के ऊपर एक जाति है जो खुद को ऊंची जाति का और दूसरी को नीची जाति का समझती है. धोबी खुद को जाटव से ऊंचा समझता है तो जाटव खुद को वाल्मीकि से. ठाकुर से ऊपर ब्राह्मण हैं तो कोइरी, तेली के ऊपर बनिया. सारा समाज ही जातियों में विभाजित है. वैवाहिक विज्ञापनों में बाकायदा जाति के अनुसार वरवधू के कौलम छपते हैं.

नमिता और अखिल भूल गए थे लेकिन अब अच्छी तरह से समझ गए थे कि जो जाती नहीं कभी वह ही जाति होती है…

Hindi Story : प्यार में कंजूसी – कौन से रिश्ते की डोर को नहीं तोड़ा जा सकता है?

Hindi Story : कुछ दिन से मन में बड़ी उथल- पुथल है. मन में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है जिसे मैं कोई नाम नहीं दे पा रहा हूं. उदासी और खुशी के बीच की अवस्था को क्या कहा जाता है समझ नहीं पा रहा हूं. शायद, स्तब्ध सा हूं, कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूं. चाहूं तो खुश हो सकता हूं क्योंकि उदास होने की भी कोई खास वजह मेरे पास नहीं है.

‘‘क्या बात है पापा, आप चुपचाप से हैं?’’

‘‘नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं…बस, यही सोच रहा हूं कि पानीपत जाऊं या नहीं.’’

‘‘सवाल ही पैदा नहीं होता. चाचीचाचा ने एक बार भी ढंग से नहीं बुलाया. हम क्या बेकार बैठे हैं जो सारे काम छोड़ कर वहां जा बैठें…इज्जत करना तो उन्हें आता ही नहीं है और बेइज्जती कराने का हमें कोई शौक नहीं है.’’

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

‘‘शादी में सब लोग नीचे जमीन पर गद्दे बिछा कर सोते हैं. जरूरी नहीं सब को बिस्तर मिलें ही. नीचे कालीन पर सो जाऊंगा. अपने घर में जब शादी थी तो सब कहां सोए थे. हम ने नीचे गद्दे बिछा कर सब को नहीं सुलाया था.’’

‘‘हमारे घर में कितने मेहमान थे. 30-40 लोग थे. वहां सिर्फ उन्हीं का परिवार है. वे नहीं चाहते वहां कोई जाए… तो क्यों जाएं हम वहां.’’

‘‘उन की चाहत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. मेरी खुशी है, मैं जाना चाहता हूं, बस. अब कोई बहस नहीं.’’

चुप हो गई थी शुभा. फिर मांबेटे में पता नहीं क्या सुलह हुई कि सुबह तक फैसला मेरे हक में था. बैंगलूरु से पानीपत की दूरी लंबी तो है ही सो तत्काल में 2 सीटों का आरक्षण अजय ने करवा दिया.

जिस दिन रात का भोज था उसी दोपहर हम वहां पहुंच गए. नरेनमहेन को तो पहचान ही नहीं पाया मैं. दोनों बच्चे बड़े प्यारे और सुंदर लग रहे थे. चेहरे पर आत्मविश्वास था जो पहले कभी नजर नहीं आता था. बच्चे कमाने लगें तो रंगत में जमीनआसमान का अंतर आ ही जाता है. दोनों बहुएं भी बहुत अपनीअपनी सी लगीं मुझे, मानो पुरानी जानपहचान हो.

एक ही मंडप में दोनों बहनों को   ब्याह लाया था मेरा भाई. न कोई  नातेरिश्तेदार, न कोई धूमधाम. ‘‘भाईसाहब, मैं फुजूलखर्ची में जरा भी विश्वास नहीं करता. बरात में सिर्फ वही थे जो ज्यादा करीबी थे.’’

‘‘करीबी लोगों में क्या तुम हमें नहीं गिनते?’’

मेरा सवाल सीधा था. भाई जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि इतना सीधा नहीं था न मेरे सवाल का जवाब. उस की पत्नी भी मेरा मुंह देखने लगी.

‘‘क्यों छोटी, क्या तुम भी हमारी गिनती ज्यादा करीबी रिश्तेदारों में नहीं करतीं? 6 साल बच्चे हमारे पास रहे. बीमार होते थे तो हम रातरात भर जागते थे. तब हम क्या दूर के रिश्तेदार थे? बच्चों की परीक्षा होती थी तो अजय की पत्नी अपनी नईनई गृहस्थी को अनदेखा कर अपने इन देवरों की सेवाटहल किया करती थी, वह भी क्या दूर की रिश्तेदार थी? वह बेचारी तो इन की शादी देखने की इच्छा ही संजोती रह गई और तुम ने कह दिया…’’

‘‘लेकिन मेरे बच्चे तो होस्टल में रहते थे. मैं ने कभी उन्हें आप पर बोझ नहीं बनने दिया.’’

‘‘अच्छा?’’

अवाक् रह गई शुभा अपनी देवरानी के शब्दों पर. भौचक्की सी. हिसाबकिताब तो बराबर ही था न उन के बहीखाते में. हमारे ममत्व और अनुराग का क्या मोल लगाते वे क्योंकि उस का तो कोई मोल था ही नहीं न उन की नजर में.  नरेनमहेन दोनों वहीं थे. हमारी बातें सुन कर सहसा अपने हाथ का काम छोड़ कर वे पास आ गए. ‘‘मैं ने कहा था न आप से…’’  नरेन ने टोका अपनी मां को. क्षण भर को सब थम गया. महेन ने दरवाजा बंद कर दिया था ताकि हमारी बातें बाहर न जाएं. नईनवेली दुलहनें सब न सुन पाएं.

‘‘कहा था न कि ताऊजीताईजी के बिना हम शादी नहीं करेंगे. हम ने सारे इंतजाम के लिए रुपए भी भेजे थे. लेकिन इन का एक ही जवाब था कि इन्हें तामझाम नहीं चाहिए. ऐसा भी क्या रूखापन. हमारा एक भी शौक आप लोगों ने पूरा नहीं किया. क्या करेंगे आप इतने रुपएपैसे का? गरीब से गरीब आदमी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के चाव पूरे करते हैं. हमारी शादी इस तरह से कर दी कि पड़ोसी तक नहीं जानता इस घर में 2-2 बच्चों का ब्याह हो गया है…सादगी भी हद में अच्छी लगती है. ऐसी भी क्या सादगी कि पता ही न चले शादी हो रही है या किसी का दाहसंस्कार…’’

‘‘बस करो, नरेन.’’

‘‘ताऊजी, आप नहीं जानते…हमें कितनी शर्म आ रही थी, आप लोगों से.’’

‘‘शर्म आ रही थी तभी लंदन जाते हुए भी बताया नहीं और आ कर एक फोन भी नहीं किया. क्या सारे काम अपने बाप से पूछ कर करते हो, जो हम से बात करना भी मुश्किल था? तुम्हारी मां कह रही हैं तुम होस्टल में रहते थे. क्या सचमुच तुम होस्टल में रहते थे? वह लड़की तुम्हारी क्या लगती थी जो दिनरात भैयाभैया करती तुम्हारी सेवा करती थी…भाभी है या दूर की रिश्तेदार…तुम्हारा खून भी उतना ही सफेद है बेटे, बाप को दोष क्यों दे रहे हो?’’  मैं इतना सब कहना नहीं चाहता था फिर भी कह गया.

‘‘चलो छोड़ो, हमारी अटैची अंदर रख दो. कल शाम की वापसी है हमारी. जरा बच्चियों को बुलाना. कम से कम उन से तो मिल लूं. ऐसा न हो कि वे भी हमें दूर के रिश्तेदार ही समझती रहें.’’

चारों चुप रह गए. चुप न रह जाते तो क्या करते, जिस अधिकार की डोर पकड़ कर मैं उन्हें सुना रहा था उसी अधिकार की ओट में पूरे 6 साल हमारे स्नेह का पूरापूरा लाभ इन लोगों ने उठाया था. सवाल यह नहीं है कि हम बच्चों पर खर्चा करते रहे. खर्चा ही मुद्दा होता तो आज खर्चा कर के मैं बैंगलूरु से पानीपत कभी नहीं आता और पुत्रवधुओं के लिए महंगे उपहार भी नहीं लाता.  छोटेछोटे सोने के टौप्स और साडि़यां उन की गोद में रख कर शुभा ने दोनों बहनों का माथा चूम लिया.

‘‘बेटा, क्या पहचानती हो, हम लोग कौन हैं?’’ चुप थीं वे दोनों. पराए खून को अपना बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इस नई पीढ़ी को अपना बनाने और समझाने की कोशिश में ही तो मैं इतनी दूर चला आया था.

‘‘हम नरेनमहेन के ताईजी और ताऊजी हैं. हम ने एक ही संतान को जन्म दिया है लेकिन सदा अपने को 3 बच्चों की मां समझा है. तुम्हारा एक ससुराल यहां पानीपत में है तो दूसरा बैंगलूरु में भी है. हम तुम्हारे अपने हैं, बेटा. एक सासससुर यहां हैं तो दूसरे वहां भी हैं.’’  दोनों प्यारी सी बच्चियां हमारे सामने झुक गईं, तब सहसा गले से लगा कर दोनों को चूम लिया हम ने. पता चला ये दोनों बहनें भी एमबीए हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रही हैं.

‘‘बेटे, जिस कुशलता से आप अपना औफिस संभालती हो उसी कुशलता से अपने रिश्तों को भी मानसम्मान देना. जीवन में एक संतुलन सदा बनाए रखना. रुपया कमाना अति आवश्यक है लेकिन अपनी खुशियों के लिए उसे खर्च ही न किया तो कमाने का क्या फायदा… रिश्तेदारी में छोटीमोटी रस्में तामझाम नहीं होतीं बल्कि सुख देती हैं. आज किस के पास इतना समय है जो किसी से मिला जाए. बच्चों के पास अपने लिए ही समय नहीं है. फिर भी जब समय मिले और उचित अवसर आए तो खुशी को जीना अवश्य चाहिए.

‘‘लंदन में दोनों भाई सदा पासपास रहना. सुखदुख में साथसाथ रहना. एकदूसरे का सहारा बनना. सदा खुश रहना, बेटा, यही मेरा आशीर्वाद है. रिश्तों को सहेज कर रखना, बहुत बड़ी नेमत है यह हमारे जीवन के लिए.’’

शुभा और मैं देर तक उन से बातें  करते रहे. उन पर अपना स्नेह, अपना प्यार लुटाते रहे. मुझे क्या लेना था अपने भाई या उस की पत्नी से जिन्हें जीवन को जीना ही नहीं आया. मरने के बाद लाखों छोड़ भी जाएंगे तो क्या होगा जबकि जीतेजी वे मात्र कंगाली ओढ़े रहे.  भोज के बाद बच्चों ने हमें अपने कमरों में सुलाया. नरेनमहेन की बहुओं के साथ हम ने अच्छा समय बिताया. दूसरी शाम हमारी वापसी थी. बहुएं हमें स्टेशन तक छोड़ने आईं. घुलमिल गई थीं हम से.

‘‘ताऊजी, हम लंदन जाने से पहले भाभी व भैया से मिलने जरूर आएंगे. आप हमारा इंतजार कीजिएगा.’’

बच्चों के आश्वासन पर मन भीगभीग गया. इस उम्र में मुझे अब और क्या चाहिए. इतना ही बहुत है कि कभीकभार एकदूसरे का हालचाल पूछ कर इंसान आपस में जुड़ा रहे. रोटी तो सब को अपने घर पर खानी है. पता नहीं शब्दों की जरा सी डोर से भी मनुष्य कटने क्यों लगता है आज. शब्द ही तो हैं, मिल पाओ या न मिल पाओ, आ पाओ या न आ पाओ लेकिन होंठों से कहो तो सही. आखिर, इतनी कंजूसी भी किसलिए?

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

‘‘शादी में सब लोग नीचे जमीन पर गद्दे बिछा कर सोते हैं. जरूरी नहीं सब को बिस्तर मिलें ही. नीचे कालीन पर सो जाऊंगा. अपने घर में जब शादी थी तो सब कहां सोए थे. हम ने नीचे गद्दे बिछा कर सब को नहीं सुलाया था.’’

‘‘हमारे घर में कितने मेहमान थे. 30-40 लोग थे. वहां सिर्फ उन्हीं का परिवार है. वे नहीं चाहते वहां कोई जाए… तो क्यों जाएं हम वहां.’’

‘‘उन की चाहत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. मेरी खुशी है, मैं जाना चाहता हूं, बस. अब कोई बहस नहीं.’’

चुप हो गई थी शुभा. फिर मांबेटे में पता नहीं क्या सुलह हुई कि सुबह तक फैसला मेरे हक में था. बैंगलूरु से पानीपत की दूरी लंबी तो है ही सो तत्काल में 2 सीटों का आरक्षण अजय ने करवा दिया.

जिस दिन रात का भोज था उसी दोपहर हम वहां पहुंच गए. नरेनमहेन को तो पहचान ही नहीं पाया मैं. दोनों बच्चे बड़े प्यारे और सुंदर लग रहे थे. चेहरे पर आत्मविश्वास था जो पहले कभी नजर नहीं आता था. बच्चे कमाने लगें तो रंगत में जमीनआसमान का अंतर आ ही जाता है. दोनों बहुएं भी बहुत अपनीअपनी सी लगीं मुझे, मानो पुरानी जानपहचान हो.

एक ही मंडप में दोनों बहनों को   ब्याह लाया था मेरा भाई. न कोई  नातेरिश्तेदार, न कोई धूमधाम. ‘‘भाईसाहब, मैं फुजूलखर्ची में जरा भी विश्वास नहीं करता. बरात में सिर्फ वही थे जो ज्यादा करीबी थे.’’

‘‘करीबी लोगों में क्या तुम हमें नहीं गिनते?’’

मेरा सवाल सीधा था. भाई जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि इतना सीधा नहीं था न मेरे सवाल का जवाब. उस की पत्नी भी मेरा मुंह देखने लगी.

‘‘क्यों छोटी, क्या तुम भी हमारी गिनती ज्यादा करीबी रिश्तेदारों में नहीं करतीं? 6 साल बच्चे हमारे पास रहे. बीमार होते थे तो हम रातरात भर जागते थे. तब हम क्या दूर के रिश्तेदार थे? बच्चों की परीक्षा होती थी तो अजय की पत्नी अपनी नईनई गृहस्थी को अनदेखा कर अपने इन देवरों की सेवाटहल किया करती थी, वह भी क्या दूर की रिश्तेदार थी? वह बेचारी तो इन की शादी देखने की इच्छा ही संजोती रह गई और तुम ने कह दिया…’’

‘‘लेकिन मेरे बच्चे तो होस्टल में रहते थे. मैं ने कभी उन्हें आप पर बोझ नहीं बनने दिया.’’

‘‘अच्छा?’’

अवाक् रह गई शुभा अपनी देवरानी के शब्दों पर. भौचक्की सी. हिसाबकिताब तो बराबर ही था न उन के बहीखाते में. हमारे ममत्व और अनुराग का क्या मोल लगाते वे क्योंकि उस का तो कोई मोल था ही नहीं न उन की नजर में.  नरेनमहेन दोनों वहीं थे. हमारी बातें सुन कर सहसा अपने हाथ का काम छोड़ कर वे पास आ गए. ‘‘मैं ने कहा था न आप से…’’  नरेन ने टोका अपनी मां को. क्षण भर को सब थम गया. महेन ने दरवाजा बंद कर दिया था ताकि हमारी बातें बाहर न जाएं. नईनवेली दुलहनें सब न सुन पाएं.

‘‘कहा था न कि ताऊजीताईजी के बिना हम शादी नहीं करेंगे. हम ने सारे इंतजाम के लिए रुपए भी भेजे थे. लेकिन इन का एक ही जवाब था कि इन्हें तामझाम नहीं चाहिए. ऐसा भी क्या रूखापन. हमारा एक भी शौक आप लोगों ने पूरा नहीं किया. क्या करेंगे आप इतने रुपएपैसे का? गरीब से गरीब आदमी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के चाव पूरे करते हैं. हमारी शादी इस तरह से कर दी कि पड़ोसी तक नहीं जानता इस घर में 2-2 बच्चों का ब्याह हो गया है…सादगी भी हद में अच्छी लगती है. ऐसी भी क्या सादगी कि पता ही न चले शादी हो रही है या किसी का दाहसंस्कार…’’

‘‘बस करो, नरेन.’’

‘‘ताऊजी, आप नहीं जानते…हमें कितनी शर्म आ रही थी, आप लोगों से.’’

‘‘शर्म आ रही थी तभी लंदन जाते हुए भी बताया नहीं और आ कर एक फोन भी नहीं किया. क्या सारे काम अपने बाप से पूछ कर करते हो, जो हम से बात करना भी मुश्किल था? तुम्हारी मां कह रही हैं तुम होस्टल में रहते थे. क्या सचमुच तुम होस्टल में रहते थे? वह लड़की तुम्हारी क्या लगती थी जो दिनरात भैयाभैया करती तुम्हारी सेवा करती थी…भाभी है या दूर की रिश्तेदार…तुम्हारा खून भी उतना ही सफेद है बेटे, बाप को दोष क्यों दे रहे हो?’’  मैं इतना सब कहना नहीं चाहता था फिर भी कह गया.

‘‘चलो छोड़ो, हमारी अटैची अंदर रख दो. कल शाम की वापसी है हमारी. जरा बच्चियों को बुलाना. कम से कम उन से तो मिल लूं. ऐसा न हो कि वे भी हमें दूर के रिश्तेदार ही समझती रहें.’’

चारों चुप रह गए. चुप न रह जाते तो क्या करते, जिस अधिकार की डोर पकड़ कर मैं उन्हें सुना रहा था उसी अधिकार की ओट में पूरे 6 साल हमारे स्नेह का पूरापूरा लाभ इन लोगों ने उठाया था. सवाल यह नहीं है कि हम बच्चों पर खर्चा करते रहे. खर्चा ही मुद्दा होता तो आज खर्चा कर के मैं बैंगलूरु से पानीपत कभी नहीं आता और पुत्रवधुओं के लिए महंगे उपहार भी नहीं लाता.  छोटेछोटे सोने के टौप्स और साडि़यां उन की गोद में रख कर शुभा ने दोनों बहनों का माथा चूम लिया.

‘‘बेटा, क्या पहचानती हो, हम लोग कौन हैं?’’ चुप थीं वे दोनों. पराए खून को अपना बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इस नई पीढ़ी को अपना बनाने और समझाने की कोशिश में ही तो मैं इतनी दूर चला आया था.

‘‘हम नरेनमहेन के ताईजी और ताऊजी हैं. हम ने एक ही संतान को जन्म दिया है लेकिन सदा अपने को 3 बच्चों की मां समझा है. तुम्हारा एक ससुराल यहां पानीपत में है तो दूसरा बैंगलूरु में भी है. हम तुम्हारे अपने हैं, बेटा. एक सासससुर यहां हैं तो दूसरे वहां भी हैं.’’  दोनों प्यारी सी बच्चियां हमारे सामने झुक गईं, तब सहसा गले से लगा कर दोनों को चूम लिया हम ने. पता चला ये दोनों बहनें भी एमबीए हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रही हैं.

‘‘बेटे, जिस कुशलता से आप अपना औफिस संभालती हो उसी कुशलता से अपने रिश्तों को भी मानसम्मान देना. जीवन में एक संतुलन सदा बनाए रखना. रुपया कमाना अति आवश्यक है लेकिन अपनी खुशियों के लिए उसे खर्च ही न किया तो कमाने का क्या फायदा… रिश्तेदारी में छोटीमोटी रस्में तामझाम नहीं होतीं बल्कि सुख देती हैं. आज किस के पास इतना समय है जो किसी से मिला जाए. बच्चों के पास अपने लिए ही समय नहीं है. फिर भी जब समय मिले और उचित अवसर आए तो खुशी को जीना अवश्य चाहिए.

‘‘लंदन में दोनों भाई सदा पासपास रहना. सुखदुख में साथसाथ रहना. एकदूसरे का सहारा बनना. सदा खुश रहना, बेटा, यही मेरा आशीर्वाद है. रिश्तों को सहेज कर रखना, बहुत बड़ी नेमत है यह हमारे जीवन के लिए.’’

शुभा और मैं देर तक उन से बातें  करते रहे. उन पर अपना स्नेह, अपना प्यार लुटाते रहे. मुझे क्या लेना था अपने भाई या उस की पत्नी से जिन्हें जीवन को जीना ही नहीं आया. मरने के बाद लाखों छोड़ भी जाएंगे तो क्या होगा जबकि जीतेजी वे मात्र कंगाली ओढ़े रहे.  भोज के बाद बच्चों ने हमें अपने कमरों में सुलाया. नरेनमहेन की बहुओं के साथ हम ने अच्छा समय बिताया. दूसरी शाम हमारी वापसी थी. बहुएं हमें स्टेशन तक छोड़ने आईं. घुलमिल गई थीं हम से.

‘‘ताऊजी, हम लंदन जाने से पहले भाभी व भैया से मिलने जरूर आएंगे. आप हमारा इंतजार कीजिएगा.’’

बच्चों के आश्वासन पर मन भीगभीग गया. इस उम्र में मुझे अब और क्या चाहिए. इतना ही बहुत है कि कभीकभार एकदूसरे का हालचाल पूछ कर इंसान आपस में जुड़ा रहे. रोटी तो सब को अपने घर पर खानी है. पता नहीं शब्दों की जरा सी डोर से भी मनुष्य कटने क्यों लगता है आज. शब्द ही तो हैं, मिल पाओ या न मिल पाओ, आ पाओ या न आ पाओ लेकिन होंठों से कहो तो सही. आखिर, इतनी कंजूसी भी किसलिए?

Online Hindi Story : नेहा और साइबर कैफे

Online Hindi Story : नेहा (बदला हुआ नाम, न भी बदला हो तो कहना ऐसा ही पड़ता है, कोर्ट की रूलिंग आड़े आती है) ने तय किया कि वो भी इंटरनेट सीखे. जरूरी था. बाकि सहेलियां ईमेल का जिक्र किया करती थीं. एमएसएन, याहू के किस्से सुनाया करती थीं. जब भी कहीं उसके सर्किल में कोई याहू मैसेंजर या रैडिफ चैट की बातें करता, वो कोफ्त खाती. आखिर उसे ये सब क्यों नहीं पता.

नेहा ने तय किया वो भी इंटरनेट सीखेगी. उसका भी ऑरकुट पर अकाउंट होगा. सन् 2000 के शुरुआती समय में साईबर कैफे में जाकर एक बंद से कैबिन में 80 रुपए घंटा, 50 रुपए आधा घंटा के हिसाब से इंटरनेट सर्फिंग करना शगल हो चला था. नेहा ने कॉलेज के पास वाले साइबर कैफे में 50 रुपए दिए और आधे घंटे के लिए सिस्टम पर जा बैठी. इंटरनेट एक्सप्लोरर खुला हुआ था. पर करना क्या है उसे कुछ समझ नहीं आया. आज का बच्चा बच्चा कह सकता है कि जो न समझ आए, गूगल से पूछलो.. या यू ट्यूब पर देख लो कि हाऊ टू यूज इंटरनेट फर्स्ट टाइम. पर वो वक्त ऐसा न था. जिसने कभी इंटरनेट नहीं चलाया हो कम से कम एक बार तो कोई बताने वाला होना चाहिए न..

नेहा को लगा, 50 रुपए बर्बाद हो गए. उसे कुछ परेशान होता देख, साइबर कैफे मालिक ने कहा- ‘कोई दिक्कत तो नहीं?’ तकरीबन 24-25 साल के इस गुड लुकिंग गाय को नेहा ने बताया, ‘इंटरनेट सीखना है’. राहुल (सायबर कैफे ऑनर) ने कहा- ‘बस इतनी सी बात. दोपहर 2 से 2.30 नीचे बेसमेंट में आ जाओ. सात दिन की क्लास है. ‘और फीस’ नेहा ने सवाल किया. ‘3 हजार रुपए है, पर आपको 50 परसेंट डिस्काउंट.’

‘मतलब कि मुझे 1500 रुपए देने पड़ेंगे. और अगर सात दिन न आना हो, दो-तीन दिन ही…’ नेहा के ये कहते ही राहुल ने कहा- ‘आप 1000 रुपए दीजिए.. दो या तीन दिन, जब तक सीखना हो सीखो.’ नेहा ने कंप्यूटर स्क्रीन की विंडो मिनिमाइज की और चेयर से उठ खड़ी हुई. बोली- ‘थैंक्स. कल आती हूं 2 बजे. फीस कल ही दूंगी.’ ‘आराम से, कोई जल्दी नहीं है’ राहुल ने मुस्कुरा कर जवाब दिया.

नेहा ठीक 1.55 पर साइबर कैफे के बेसमेंट में कॉपी पैन लेकर मोर्चा संभाल चुकी थी. उसके साथ कोई आठ दस लड़के लड़कियां उस बैच में थे. राहुल ने कंप्यूटर जेंटली ऑन करने, मॉनिटर ऑन करने से लेकर ब्रॉडबेंड आइकन को क्लिक कर मॉडम में नंबर डाइलिंग से शुरुआत की.. और इंटरनेट चलाने के बेसिक्स बताए. आधे घंटे की क्लास शानदार रही. जाते-जाते काउंटर पर राहुल को हजार रुपए दिए और कहा- ‘ये लीजिए फीस.’ राहुल ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘ऊं…. अभी नहीं. पहले सीख लो.. फिर दे देना.’ नेहा सरप्राइज थी. उसने मुस्कुरा कर पैसे जींस की जेब में रख लिए. पहले दिन की क्लास से वो उत्साहित थी. इंटरनेट एक्सप्लोरर नाम के नए दोस्त से हुए इंट्रो ने घर तक के पूरे रास्ते उसके चेहरे पर मुस्कान बनाए रखी.

सात दिन बीत चुके थे. नेहा इंटरनेट सर्फिंग का रोज आनंद ले रही थी, राहुल ने अब तक उससे फीस नहीं ली थी. बल्कि अब साइबर कैफे की आधे, एक घंटे की फीस भी वो उससे नहीं ले रहा था. नेहा दो नए दोस्त पाकर खुश थी. नेहा आज याहू मैसेंजर पर अकाउंट बनाकर चैट कर रही थी. ASL (एज, सेक्स, लोकेशन), LOLZ, OMG जैसे नए टर्म लिखे हुए मैसेज देख उत्साहित थी.

‘ओह तो चैटिंग शैटिंग चल रही है’, अचानक पीछे आए राहुल ने कहा. ‘हम्म.. सीख रही हूं.’ नेहा ने जवाब दिया. ‘कैरी ऑन कैरी ऑन.. अब एक घंटा नहीं पूरा दिन भी इंटरनेट पर कम लगने लगेगा. कुछ दिनों में तो घर पर भी सिस्टम लगवा ही लोगी. असल दोस्तों को भूल जाओगी और वर्चुअल दोस्त ही पसंद आएंगे.’ राहुल का तंज समझ नेहा मुस्कुराई और टेबल पर रखे उसके हाथ पर हाथ इस तरह मारा जैसे बिना कहे कह रही हो, ‘चल हट’. ‘अच्छा नेहा थोड़ी देर में नीचे क्लास में आ जाना, आज कुछ स्पेशल सैशन रखा है. नए स्टूडेंट्स भी हैं, बेसिक तो तुम्हीं बता देना सबको.’ ‘मैं’..मैं तो खुद ट्रेनी हूं, मैं क्या बताऊंगी.’ नेहा के जवाब को इग्नोर कर राहुल फुर्ती से नीचे की ओर रवाना हुआ, जाते-जाते सीढ़ी से उसकी आवाज़ जरूर आई, ‘सीयू इन नेक्स्ट 5 मिनट इन बेसमेंट’.

नेहा ने पांच मिनट बाद याहू मैसेंजर से लॉगआउट किया. सिस्टम शट डाउन कर नीचे बेसमेंट की ओर रवाना हो गई. उसे अजीब सा लग रहा था, कि वो कैसे पढ़ाएगी. नीचे जाकर ऐसा कुछ नहीं हुआ. राहुल ने वीपीएन सर्वर के बारे में बताया, कि कैसे आपके ऑफिस में कोई साइट ब्लॉक हो तो आप उसे वहां भी खोल सकते हो. आईटी टीम को बिना पता चले. फ्रैशर्स को सिखाने के लिए एक दूसरे लड़के को कह दिया, जो करीब 15 दिन से क्लास में आ रहा था. नेहा ने राहत की सांस ली. उसने आंखों ही आंखों में राहुल को थैंक्स भी कहा, लंबी सांस लेते हुए. बाकि स्टूडेंट्स अपने अपने टास्क में बिजी थे, नेहा जाने की तैयारी कर ही रही थी कि राहुल से फिर उसकी नजरें मिली, उसने उसकी तरफ आने का इशारा किया. नेहा पर्स वहीं छोड़ डायस पर टेबल के पीछे लगी कुर्सी पर बैठ गई, जो राहुल की कुर्सी के ठीक बराबर थी. सामने टेबल पर राहुल ने इंटरनेट खोल रखा था.  जैसे ही नेहा की नजर स्क्रीन पर गई, वो सकपका गई. राहुल स्क्रीन पर ही नजरें गड़ाए हुए बोला- ‘ये लो नेहा, आज की ये एक्सरसाइज, आगे भी तुम्हारे काम आएगी, ये न देखा तो इंटरनेट पर क्या देखा, तुम्हारे कॉलेज प्रोजेक्ट्स में भी तुम अब एडवांस हो जाओगी.’ राहुल की लैंग्वेज पूरी क्लास को भ्रमित करने के लिए काफी थी, इसीलिए किसी का ध्यान उस ओर गया भी नहीं कि अब तक नेहा पसीने-पसीने हो चुकी है.

स्क्रीन पर पॉर्न साइट खुली हुई थी. राहुल बिलकुल न्यूट्र्ल फेस किए हुए कुछ न कुछ बोले जा रहा था, नेहा अब तक समझ ही नहीं पा रही थी कि वो कैसे रिएक्ट करे. इतने में राहुल ने नेहा के पैर पर हाथ रखा, टेबल कवर होने के कारण उसकी इस हरकत को सामने क्लास में कोई समझ न पाया. नेहा का डर के मारे कलेजा कांप रहा था. उसने उठने की कोशिश की तो राहुल ने जोर से उसे बैठा दिया. ये मानते हुए कि नेहा अब कुछ बोलने वाली है, राहुल ने उसे टोका, ‘नेहा जी ये भी देख लो.’ ये कहते ही राहुल ने वीएलसी प्लेयर पर कर्सर क्लिक किया. वहां एक वीडियो पॉज्ड था. कुछ धुंधला-धुंधला दिखा, लेकिन तीन या चार सैकेंड के बाद ही नेहा को साफ दिख गया कि ये उसी का वीडियो है. नेहा की आंखों से आंसू टपके, लेकिन सामने क्लास को देखते हुए उसने उन्हें पौंछ लिया. उसने अब तक सिर्फ खबरों में ही पढ़ा था कि बाथरूम्स व्गैरह में हिडन कैमरे से लड़कियों के वीडियो बन रहे हैं. पर खुद को उसका शिकार होते देख वो अब स्तब्ध थी. सात दिन पहले बने दोस्त की मुस्कान के पीछे की दरिंदगी वो समझ ही नहीं पाई. नेहा को याद आ गया था कि तीन दिन पहले वो साइबर कैफे से अपनी फ्रेंड की पार्टी में सीधे गई थी. सुबह की घऱ से निकली हुई थी इसलिए ड्रेस साथ लाई थी. साइबर के वाशरूम में ही उसने ड्रेस चेंज की थी, जो उसकी सबसे बड़ी भूल थी.

राहुल धीरे से फुसफुसाता हुआ बोला- ‘शाम को सात बजे तुम्हारा इंतजार रहेगा, यहीं. बताने की जरूरत तो नहीं न कि न आई तो कल इंटरनेट पर तुम ही धमाल मचाती दिखोगी.’

नेहा झट से सामने अपनी सीट तक आई, टेबल पर रखा पर्स और स्कार्फ उठाया और अपनी स्कूटी की और दौड़ पड़ी.

दोपहर से शाम तक नेहा की हालत बिगड़ी रही, घर वाले सोच रहे थे कि लू लग गई. ‘बार-बार कहते हैं फिर भी ध्यान नहीं ऱखती, धूप में बाहर आती जाती है.’ सब उसे ऐसा कहकर टोक रहे थे. नेहा चाहकर भी किसी को बता न सकी. घबराहट में उसे दो बार वोमिट हुई. कभी राहुल की पोर्न वाली हरकत, तो कभी अपना वीडियो आंखों के सामने आ रहा था. और कभी ये सोचकर ही रूह कांप रही थी कि शाम को वो क्या करने वाला है. इसी बीच मम्मी एप्पल ले आईं. वहीं काटकर उसे खिलाने लगीं. मम्मी ये सोच रही थीं कि भूखे पेट गर्मी असर कर गईं और नेहा चाकू को देख रही थी.

शाम सवा सात बजे नेहा साइबर कैफे पहुंची. जैसा उसने सोचा था, ठीक वैसा ही नजर भी आया. राहुल कैफे में टेबल पर पैर रख कर बैठा था. बत्तियां बुझा रखी थी, बस एक कैबिन की लाइट चल रही थी, उसी से रौशनी बाहर आ रही थी. नेहा को आते देख राहुल ने कहा- ‘आओ जान आओ, तीन दिन से जब से तुम्हें वीडियो में बिना टॉपर के देखा है, इस ही लम्हे का इंतजार कर रहा हूं.’

राहुल ने ये कहते हुए सामने रखा डीओ अपनी पूरी शर्ट और बगलों के नीचे छिड़का. सहमी हुई नेहा कुछ धीमे कदमों से ही राहुल की ओर बढ़ी. राहुल ने होठ आगे कर दिए, इस जबरन हक को मानते हुए, कि जैसा वो पिछले पांच घंटों से इमेजन कर रहा है, अब बस वो होने को है.

एक तेज तमाचे ने राहुल को इमेजिनेशन से बाहर निकाला. उसका गाल पर हाथ पहुंचा ही था कि एक जोर का मुक्का उसकी नाक पर आकर लगा और तेजी से खून बहने लगे. अचानक सकपकाए राहुल ने होठों तक आए खून को हाथ से देखा फिर पागल सा होकर वो नेहा को मारने दौड़ा. वो नेहा की ओर बढ़ा ही था कि बाहर के गेट से दो लड़के दो लड़कियां अंदर आए और नेहा को पीछे कर राहुल को पीटने लगे. चंद मिनटों में राहुल अधमरा हुआ पड़ा था, माफी मांग रहा था. बेशर्मी से बार बार माफी मांग रहा था. नेहा के दोस्तों ने एक-एक कंप्यूटर को खंगाला. साइबर के बाकी सिस्टम्स में तो कुछ नहीं था, एक क्लास रूम और दूसरे ऊपर कैफे एरिया में राहुल के सिस्टम में वॉश रूम की कुछ क्लिप्स थी. क्लास रूम के सिस्टम में ऊपर का ही फोल्डर कॉपी किया हुआ था, जिसमें तकरीबन चार लड़कियों के वॉशरूम वीडियो थे. काफी मार पड़ी तो राहुल गिड़गिड़ाया कि नेहा उसका पहला शिकार ही थी. इंटरनेट पर साइबर कैम के लीक्ड वीडियो देख उसकी भी हिम्मत हुई वो ऐसा करे. नेहा के दोस्तों ने दोनों ही सिस्टम से फोल्डर ऑल्ट प्लस कंट्रोल दबाकर डिलीट किए और फिर गुस्से में दोनों सिस्टम भी तोड़ डाले.

फिर कभी उस साइबर कैफे का ताला खुला किसी ने न देखा. कुछ दिनों बाद वहां एक परचूनी की दुकान खुल गई. राहुल वहां कभी नहीं दिखा, हां, नेहा अक्सर गर्दन ऊंची कर स्कूटी पर वहां से गुजरते हुए नजर आती रही.

लेखिका : सुप्रिया शर्मा

Online Hindi Story : मन के अंदर खालीपन

Online Hindi Story : जब राम्या यहां आई थी तो बहुत सहमी सी थी. बरसों से झेली परेशानियां और जद्दोजहद उस के चेहरे से ही नहीं, उस की आंखों से भी साफ झलक रही थी. 21-22 साल की होने के बावजूद उसे देख लगता था मानो परिपक्वता के कितने बसंत पार कर चुकी है. एक खौफ सदा उस से लिपटा रहता था, कोई उस के पास से गुजर भी जाए तो कांपने लगती थी. किसी का भी स्पर्श उसे डरा जाता और वह एक कोने में दुबक कर बैठ जाती. किसी से घुलनामिलना तो दूर उसे बात तक करना पसंद नहीं था. न हंसती थी, न मुसकराती थी, बस चेहरे पर सदा एक तटस्थता छाई रहती मानो बेजान गुड़िया हो… मन के अंदर खालीपन हो तो खुशी किसी भी झिर्री से झांक तक नहीं पाती है.

बहुत समय लगा उन्हें उसे यह एहसास कराने में कि वह यहां महफूज है और किसी भी तरह का अन्याय या जोरजबरदस्ती उस के साथ नहीं होगी. वह एक सुरक्षित जिंदगी यहां जी सकती है. बस एक बार काम में मन लगाने की बात है, फिर बीते दिनों के घाव अपनेआप ही भरने लगेंगे. धीरेधीरे उन का प्यार और आश्वासन पा कर वह थोड़ीथोड़ी पिघलने लगी थी, कुछ शब्दों में भाव प्रकट करती, पर सिवाय उन के वह और किसी से बात करने से अभी भी डरती थी. खासकर अगर कोई पुरुष हो तो वह उन के पीछे आ कर छुप जाती थी. उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि वह उन पर भरोसा करने लगी है और इस तरह बरसों से उलझी उस की जिंदगी की गांठों को खोलने में मदद मिलेगी.

वैसे भी वह ज्यादातर उन के ही कमरे में बैठी रहती थी या वे जहां जातीं, वह उन के साथ ही रहने की कोशिश करती. जब वे पूछतीं, ‘‘दामिनी, यहां कैसा लग रहा है?’’ तो वह कहती, “ठीक, आप बहुत अच्छी हैं, मीरा दी. आप जैसे लोग भी होते हैं क्या दुनिया में. पीछे छूटी मेरी जिंदगी में क्यों मुझे आप जैसा कोई नहीं मिला.” फिर उस की आंखें छलछला जातीं.

मीरा उस की पीठ थपथपाती तो उस के मायूस चेहरे पर तसल्ली बिखर जाती.

“मीरा दी, फैंसी स्टोर का मालिक आया है. उसे इस बार माल जल्दी और ज्यादा चाहिए. आप के पास भेज दूं क्या?” सोनिया ने आ कर सूचना दी, तो अपने औफिस में बैठी मीरा ने इशारे से उसे भेजने को कहा.

“नमस्ते मीरा मैडम. आप के एनजीओ में बनने वाला सामान हाथोंहाथ बिक रहा है. लोग बहुत पसंद कर रहे हैं. आप ने अपनी लड़कियों को खूब अच्छी ट्रेनिंग दी है. बहुत ही सफाई से हर चीज बनाती हैं. बेंत की टोकिरयां, ग्रीटिंग कार्ड, मोमबत्ती, टेराकोटा और पेपरमैशी की वस्तुएं और अचार, पापड़, बड़ी बनाने में तो वे माहिर हैं ही. सच कहूं तो आप ने इन बेसहारा, समाज से सताई लड़कियों को सहारा तो दिया ही है, साथ ही एक लघु उद्योग भी कायम कर दिया है.

‘‘बहुत पुण्य का काम कर रही हैं आप. पूरे बनारस में नाम है आप के इस संस्थान का,” रामगोपाल लगातार मीरा की तारीफों के पुल बांध रहे थे.

“बस कीजिए रामगोपालजी. यह तो सब इन लड़कियों की मेहनत है, जो इतनी लगन से सारा काम करती हैं. दो बेसहारा लड़कियों को अपने घर में जब आसरा दिया था तो सोचा तक नहीं था कि कभी मैं इन बेसहारा लड़कियों के लिए कोई संस्था खोलूंगी. मेरी यही कोशिश रहती है कि जो भी लड़की मेरी इस ‘मीरा कुटीर’ में आए, वह स्वयं को सुरक्षित समझे और उस की सही ढंग से देखभाल हो. वे जो भी बनाती हैं, उसी की बिक्री से यह एनजीओ चल रहा है. अच्छा बताइए, क्या रिक्वायरमेंट है आप की.”

रामगोपाल ने अपनी लिस्ट उन के आगे रख दी और उन्हें नमस्ते कर वहां से चला गया.

रामगोपाल के जाने के बाद मीरा ने पहले जा कर रसोईघर की व्यवस्था देखी, फिर सफाई को जांचा. कच्चा सामान क्या चाहिए, उस की लिस्ट बनाई और वहां रहने वाली लड़कियों व महिलाओं को हिदायत दी कि माल बनाने में और तेजी लानी होगी. उस के बाद वे आराम करने के लिए अपने कमरे में जा ही रही थीं कि उन की नजर राम्या पर पड़ी. वह बहुत तन्मयता से बेंत की टोकरी बना रही थी. दो महीने हो गए थे उसे यहां आए और धीरेधीरे उस ने खुद को यहां के माहौल में ढालना शुरू कर दिया था. मीरा के कहने पर काम में दिल लगाने से उस के चेहरे पर हमेशा बने रहने वाले डर के चिह्न थोड़े धुंधले पड़ने लगे थे.

कमरे में आ कर पलकें बंद करने के बावजूद मीरा राम्या के ही बारे में सोच रही थीं. एक शाम जब वे दशाश्वमेध घाट से गंगा आरती देख कर लौट रही थीं, तो उन्हें एक गली में वह भागती दिखाई दी थी. तीन आदमी उस के पीछे थे. गली थोड़ी सुनसान थी, पर वे तो बनारस की हर गली से परिचित थीं.

बनारस में ही तो जन्म हुआ था उन का. अब तो पचास साल की हो गई हैं वे. फिर कैसे न पता होता हर रास्ता. पहले तो उन्हें लगा कि शोर मचा कर लोगों को बुलाना चाहिए, पर दिसंबर की ठंड में लोग जल्दी ही घरों में दुबक जाते हैं, सोच कर वे एक मोड़ पर ऐसी जगह खड़ी हो गईं, जहां से उन्हें कोई देख न सके. राम्या जब वहां से निकली, तो उन्होंने फौरन उस का हाथ पकड़ खींच लिया और वहीं बनी गौशाला में घुस गईं. अंधेरे में वे आदमी जान ही
नहीं पाए कि राम्या कहां गायब हो गई. वह बुरी तरह हांफ रही थी, कपड़े फटे हुए थे और शरीर पर जगहजगह चोटों के निशान थे.

“मुझे उन दुष्टों से बचा लीजिए, मैं वहां वापस नहीं जाना चाहती. कहीं आप भी तो उन्हीं की साथी नहीं,” डर कर उस ने उन से अपना हाथ छुड़ा कर फिर भागने की कोशिश की थी.

“चुपचाप खड़ी रहो. तुम यहां सुरक्षित हो,” इस के बावजूद वह आश्वस्त नहीं हो पाई थी. वह लगातार रोए जा रही थी. गौशाला के लोगों को साथ ले वे उसे मीरा कुटीर ले आई थीं. तब उस ने बताया था कि वह मथुरा की रहने वाली है और बनारस में उसे बेचने के लिए लाया गया था. एक दुर्घटना में बचपन में ही उस के मांबाप मर गए थे. चाचाचाची को मजबूरी में उसे और उस के छोटे भाई को अपने पास रखना पड़ा. उन की पहले ही तीन बेटियां थीं. भाई के साथ तो उन का व्यवहार ठीक था, क्योंकि उन्हें लगा कि वह उन का कमाऊ बेटा बन सकता है. पर राम्या जैसेजैसे बड़ी होती गई, चाची की मार और चाचा के ताने बढ़ते गए. सोलह साल की हुई तो उस का रूपरंग दोनों निखार पर थे. उस का गोरापन और नैननक्श दोनों ही चाचा की लड़कियों के लिए जलन का कारण बन गए थे. कई बार उसे लगता कि चाचा उसे लोलुप नजरों से देखता है. बेवजह यहांवहां छूने लगा था वह. एक बार चाची तीनों बेटियों के साथ जब मायके गई हुई थी, तो चाचा दुकान से जल्दी आ गए. भाई को घर का सामान लेने बाजार भेज दिया और फिर उस के साथ दुष्कर्म किया. वह अपने को संभाल भी नहीं पाई थी कि चाची लौट आई और चाचा ने उस पर ही झूठा दोष मढ़ दिया. पति की आदतों को जानने के बावजूद चाची ने कहा कि अब वह इस घर में नहीं रहेगी. चाचा ने तब उसे एक आदमी को बेच दिया. और तब से उसे जिस्मफरोशी के धंधे में धकेल दिया गया. यहां से वहां न जाने कितने शहरों में उसे बेचा गया. बनारस भी उसे बेचने के लिए ही लाया गया था, पर वह भाग निकली.

मीरा के यहां जाने कितनी बेसहारा लड़कियां थीं, पर राम्या की मासूमियत ने उन्हें रुला दिया था. उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा था, “अब यही तुम्हारा घर है. यहां तुम निश्चिंत हो कर रह सकती हो. बस जो काम तुम्हें यहां सिखाए जाएंगे, उन्हें मेहनत से करोगी तो मन लगा रहेगा. लेकिन कभी भी किसी से इस बात का जिक्र मत करना कि तुम जिस्मफरोशी के धंधे में थीं, पता नहीं बाकी लोग इसे किस रूप में लें.”

मीरा को खुशी थी कि राम्या उन के यहां पूरी तरह से रचबस गई थी और अपनी पुरानी जिंदगी भुला कर नए सिरे से जीने की कोशिश कर रही थी. हालांकि शुरुआत में उसे संभालना आसान नहीं था उन के लिए. उस के सब से कटेकटे रहने से मीरा कुटीर की बाकी लड़कियों ने उन से कई बार शिकायत की थी, पर उन्होंने उन्हें राम्या को सहयोग व वक्त देने के लिए कहा था.

“तुम लोग उस से प्यार से बातें करोगे तो वह भी धीरेधीरे हमारे इस परिवार का हिस्सा सा बन जाएगी. शुरू में तो तुम सभी को दिक्कत हुई थी अपने अतीत को भुला कर इस नए जीवन को अपनाने में.”

और फिर हुआ भी ऐसा ही. 6 महीने बीततेबीतते राम्या सब की आंखों का तारा बन गई. उम्र में सब से छोटी होने और अपने भोलेपन के कारण उस ने सब का दिल जीत लिया. काम भी वह बहुत फुरती से करती. खाना तो इतना बढ़िया बनाती कि सब के स्वाद तंतु जाग्रत हो जाते.

एकदम अनगढ़ राम्या ने कितने ही कामों में महारत हासिल कर ली थी. कढ़ाई तो ऐसी करती कि लगता कपड़ों पर असली फूलपत्ते खिले हुए हैं. उस की हंसी अब कुटीर के कोनेकोने में बिखरने लगी थी. जब वह खिलखिलाती तो लगता मानो सारे गम और कड़वाहट उस के साथ ही बह गई है. वह 5वीं तक ही पढ़ पाई थी, इसलिए जब उस ने आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की थी, तो मीरा ने उस का प्रबंध भी करवा दिया था.

“मीरा दी, मैं कुछ बनना चाहती हूं और मुझे यकीन है कि आप की छत्रछाया में मेरा यह सपना अवश्य पूरा होगा,” वह अकसर कहती.

“मैं तो खुद चाहती हूं कि मीरा कुटीर की हर लड़की को एक सार्थक दिशा मिल जाए, तभी मुझे तसल्ली होगी कि मैं अपने मकसद में कामयाब हो पाई हूं.”

मीरा कुटीर में गुझिया, नमकपारे , मट्ठी, बालूशाही, बेसन के लड्डू और नारियल की बर्फी आदि बनाने का औडर्र आ चुका था और सारे लोग उन्हें ही बनाने में बिजी थे.

मीरा औफिस में बैठी उन को पैक कराने की व्यवस्था देख रही थीं कि तभी चारपांच लड़कियां आ कर बोलीं, “मीरा दी, राम्या यहां नहीं रह सकती. उसे इस पवित्र कुटीर से बाहर निकाल फेंकिए. आप नहीं जानतीं कि वह क्या करती थी. हमें अभीअभी पता चला है. दुकानदार का जो आदमी सामान की डिलीवरी लेने आया है, वह उसे पहचान गया है. वह मथुरा का रहने वाला है.”

“मुझे उस के अतीत के बारे में सब पता है.”

“फिर भी आप ने उस जिस्मफरोशी करने वाली लड़की को यहां रख लिया?” फागुनी, जो सब से वाचाल थी, ने मानो उन्हें चुनौती देते हुए पूछा.

“हां, क्योंकि इस पेशे में वह मजबूरी में आई थी. उसे धकेला गया था इस में. अच्छा, अगर तुम्हारे कम उम्र में विधवा होने के बाद एक बूढ़े से विवाह हो ही जाता तो क्या होता. तुम शादी से पहले भाग गईं, इसलिए बच गईं. तुम ही क्या, यहां रहने वाली हर लड़की किसी न किसी त्रासदी का शिकार हुई है, फिर भी तुम राम्या के लिए ऐसा कह रही हो. अभी तक तो वह तुम लोगों को बहुत अच्छी लगती थी और अब एक सच ने उस के प्रति प्यार और ममता को दरकिनार कर दिया. मुझे तुम लोगों से ऐसी उम्मीद नहीं थी. हम समाज को अकसर इसलिए धिक्कारते हैं, क्योंकि उस पर पुरुषों का वर्चस्व है, उस की मनमानी को, ज्यादतियों को गाली देते हैं, पर विडंबना तो देखो यहां जिन पुरुषों की वजह से राम्या को नरक का जीवन जीना पड़ा, उन्हीं पुरुषों की करनी में तुम लोग उन का साथ दे रही हो. राम्या अपने उस नारकीय जीवन से निकल कर एक साफसुथरी जिंदगी जीने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही है. और तुम उस का विरोध कर रही हो. उसे यहां से निकालना चाहती हो, ताकि फिर से कोई भेड़िया उस का सौदा करे. शर्म आनी चाहिए तुम सब को.”

मीरा दी को पता ही नहीं चला था कि कब राम्या वहां आ कर खड़ी हो गई थी.

“मुझे तो तुम लोगों पर गुरूर था कि मैं तुम्हें एक अच्छे जीवन के साथसाथ एक सही सोच भी देने में सफल हो पाई हूं. पर आज मुझे लग रहा है कि मेरी बरसों की तपस्या और मेहनत सब बेकार हो गई है.

“यह मीरा कुटीर तो अपवित्र राम्या के चले जाने से हो जाएगी. कोई सिर उठा कर इज्जत की जिंदगी जीना चाहता है, तो हमीं लोग उसे नीचा दिखाने के रास्ते खोल देते हैं. पति के अन्याय से मुक्त हो कर जब मैं ने इस कुटीर को बनाया था तो संकल्प लिया था कि हर दुखियारी लड़की को पनाह दे कर उस के जीवन को एक सार्थक दिशा दूंगी. दिनरात एक कर दिया मैं ने इस प्रयास में, पर आज एक ही पल में तुम लोगों ने मुझे मेरी ही नजरों में गिरा दिया.”

“माफ कर दो मीरा दी हमें,” फागुनी उन से लिपटते हुए बोली.

“माफी तो राम्या से मांगनी चाहिए तुम्हें. अपने दिल के मैल उस से माफी मांग कर धो लो.”

फागुनी नम आंखों से राम्या से जा कर लिपट गई. फिर उसे न जाने क्या सूझा, उस ने वहां पड़े सूखेगीले रंग, जो वे पैकिंग की खूबसूरती बढ़ाने और पेंटिंग बनाने के लिए किया करती थीं, अपनी मुट्ठी में भर लिए. उसे देख बाकी लड़कियों ने भी ऐसा ही किया और सब मिल कर राम्या पर रंग छिड़कने लगीं, मानो यह उन का उस से माफी मांगने का तरीका हो. रंगों की बौछारों से या खुशी से राम्या के गाल आरक्त हो गए थे. उसे लगा कि आज उसे एक दिशा मिल गई है, जिस पर चल कर वह अपने जीवन में आने वाले हर उतारचढ़ाव का अब आसानी से मुकाबला कर पाएगी.

हर तरफ उड़ते प्यार और विश्वास के रंगों को देख मीरा दी को लगा कि वे सचमुच आज इन लड़कियों को एक सार्थक दिशा देने में सफल हो गई हैं.

Romantic Story : सूनी मांग का दर्द

Romantic Story : कितने बरसों बाद आज किसी ने उस के नाम की टेर दी थी. उस के हाथ आटे से सने हुए थे इसलिए वहीं से उस ने नौकरानी को आवाज दी, ‘‘चम्पा, देख कौन आया है.’’

थोड़ी ही देर में चंपा उस के पास आ कर बोली, ‘‘बाईजी, कोई तरुण आए हैं.’’

‘‘तरुण….’’ वह हतप्रभ रह गई. शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई. उस ने फिर पूछा, ‘‘तरुण कि अरुण…’’

‘‘कुछ ऐसा ही नाम बताया बाईजी.’’

वह ‘उफ’ कर रह गई. लंबी आह भर कर उस ने सोचा, बड़ा अंतर है तरुण व अरुण में. एक वह जो उस के रोमरोम में समाया हुआ है और दूसरा वह जो बिलकुल अनजान है….फिर सोचा, अरुण ही होगा. तरुण नाम का कोई व्यक्ति तो उसे जानता ही नहीं. यह खयाल आते ही उस का रोमरोम पुलकित हो उठा. तुरंत हाथ धो कर वह दौड़ती हुई बाहर पहुंची, देखा तो अरुण नहीं था.

‘‘आप अर्पणा हैं न?’’ आने वाले पुरुष के शब्द उस के कानों में पडे़.

‘‘जी…’’

‘‘मैं अरुण का दोस्त हूं तरुण.’’

मन में तो उस के आया, कह दे कि तुम ने ऐसा नाम क्यों रखा, जिस से अरुण का भ्रम हो लेकिन प्रत्यक्ष में होंठों पर मुसकराहट बिखेरते हुए बोली, ‘‘आइए, अंदर बैठिए…चाय तो लेंगे,’’ और बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए अंदर चली गई.

चाय की केतली गैस पर रखी तो यादों का उफान फिर उफन गया. कैसा होगा अरुण….उसे याद करता भी है…जरूर करता होगा, तभी तो उस ने अपने दोस्त को भेजा है. कोई खबर तो लाया ही होगा…तभी चाय उफन गई. उस ने जल्दी गैस बंद की और चाय ले कर बैठक में आ गई.

‘‘आप ने व्यर्थ कष्ट किया. मैं तो चाय पी कर आया था.’’

‘‘कष्ट कैसा, आप पहली बार तो मेरे घर आए हैं.’’

तरुण चुपचाप चाय की चुस्कियां भरने लगा. उस की खामोशी अपर्णा को अंदर से बेचैन कर रही थी कि कुछ बताए भी…कैसा है अरुण? कहां है? कैसे आना हुआ?

यही हाल तरुण का था, बोलने को बहुत कुछ था लेकिन बात कहां से शुरू की जाए, तरुण कुछ सोच नहीं पा रहा था. आखिर अपर्णा ने ही खामेशी तोड़ी, ‘‘अरुण कैसे हैं? ’’

‘‘उस का एक्सीडेंट हो गया है….’’

‘‘क्या?’’ अपर्णा की चीख ही निकल गई.

‘‘अभी 2 हफ्ते पहले वह फैक्टरी से घर जा रहा था कि अचानक उस की कार के सामने एक बच्चा आ गया. बच्चे को बचाने के लिए उस ने जैसे ही कार दाईं ओर मोड़ी कि उधर से आते ट्रक से एक्सीडेंट हो गया.’’

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’

‘‘बड़ा भयंकर एक्सीडेंट था. उसे देख कर रोंगटे खडे़ हो गए थे. ट्रक से टकरा कर कार नीचे खड्डे में जा गिरी थी. पेट में गहरा घाव है. सिर किसी तरह बच गया पर अभी भी बेहोशी छाई रहती है.’’

‘‘मुझे खबर नहीं दी?’’

‘‘खबर कौन देता? अरुण के डैडी को आप के नाम से चिढ़ है. अरुण पर उन्होंने कितनी बंदिशें नहीं लगाईं, कितनी डांट उसे नहीं पिलाई, फिर भी वह आप को नहीं भुला सका. रातरात भर आप की याद में तड़पता रहा. आप को तो पता ही होगा कि ठाकुर साहब अरुण की शादी टीकमगढ़ के राजघराने में करना चाहते थे. बात भी तय हो गई थी लेकिन अरुण ने साफ मना कर दिया. ठाकुर साहब का पारा चढ़ गया. उन्होंने छड़ी उठा ली और उसे भयंकर ढंग से पीटा लेकिन उस ने ‘उफ’ तक न की.

‘‘यह देख कर भी ठाकुर साहब अपनी जिद पर अटल रहे. लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि बेटे की शादी उस की मरजी से कर दें लेकिन वे सहमत नहीं हुए और एक दिन उन्होंने यहां तक कह दिया कि अरुण ने उन की मरजी के बगैर शादी की तो वे अपने आप को गोली मार लेंगे.

‘‘अरुण इस बात से डर गया. वह आप को खत भी न लिख सका क्योंकि वह जानता था कि डैडी अपने वचन के पक्के हैं. यदि ऐसा हो गया तो वह किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा. दिन ब दिन उस की हालत पतली होती गई. वह आप के गम में आंसू बहाता रहा. उस दिन अस्पताल में अचेतावस्था में उस के होंठों पर जब मैं ने आप का नाम सुना तो मुझे लगा कि आप ही उसे मौत के मुंह से बचा सकती हैं. मेरे दोस्त को बचा लीजिए,’’ इतना कहते ही उस का गला रुंध गया. आंखें छलछला आईं.

इस दुखद वृत्तांत ने अपर्णा का अंतस बेध दिया. वह गहरीगहरी सांसें भरने लगी. मन में धुंधली यादें ताजा हो आईं, अतीत कचोट गया. किन कठिन परिस्थितियों में उसे घर छोड़ना पड़ा, रिश्तेदारों से नाता तोड़ना पड़ा और परिचितों, सहेलियों से मुख मोड़ना पड़ा. कहांकहां नहीं भटकी वह, लेकिन अरुण की याद भुला न सकी. प्रेम का दीपक उस के अंदर सदैव जलता रहा और आज वह उस से अलग होना चाहता है, नहीं वह ऐसा कभी भी नहीं होने देगी. यदि उसे अपने जीवन की कुरबानी भी देनी पडे़ तो वह देगी.

बेशक, उस की शादी अरुण से नहीं हो सकी, लेकिन उस के नाम के साथ उस का नाम जुड़ा तो है. यह सोचते ही उस की आंखें छलछला आईं.

तभी खामोशी को तोड़ता हुआ तरुण बोला, ‘‘अच्छा अपर्णाजी, चलता हूं. आज ही शाम को छतरपुर जाना है, आप तैयार रहिएगा.’’

वह चुप ही रही…‘हां’, ‘न’ उस के मुख से कुछ नहीं निकल सका और तरुण हवा के तेज झोंके सा बाहर निकल गया. अतीत की परछाइयों ने फिर उसे समेट लिया. एकएक लम्हा उसे कुरेदता गया.

कालिज के दिनों में उस का साथ अरुण से हुआ था. अरुण उस की कक्षा का मेधावी छात्र था. दोनों की सीट पासपास थीं इसलिए उन में अकसर किसी विषय पर बहस हो जाया करती थी. अरुण के तर्क इतने सटीक होते थे कि वह परास्त हो जाती. हार की पीड़ा उस के अंदर छटपटाती रहती. वह पूरी कोशिश कर मंजे तर्क उस के सामने रखती, लेकिन वह उतनी ही कुशलता से उस के तर्क काट देता. तर्कवितर्क का यह सिलसिला प्रेम में परिणीत हो गया. दोनों घंटों बातों में मशगूल रहते और अपने प्रेम के इंद्रधनुषी पुल बनाते. कालिज के कैंपस से ले कर चौकचौराहों तक यह प्रेमजोड़ी चर्चित हो गई.

अपर्णा के पिता हरिशंकर उपाध्याय धार्मिक विचारों के थे, वे अध्यापक थे. उन के एक ही संतान थी अपर्णा और उसे वह उच्च से उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे, लेकिन बेटी के जमाने के साथ बदलते रंगों ने उन्हें तोड़ कर रख दिया.

उन्होंने अपर्णा को समझाते हुए कहा, ‘बेटी अपनी सीमा में रहो, जैसे इस परिवार की लड़कियां रही हैं. तुम्हारा इस तरह ठाकुर के लड़के के साथ घूमना मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’

‘पिताजी, मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’ अपर्णा ने जवाब दिया.

‘चुप नादान, तेरा रिश्ता उस से कैसे हो सकता है? वह क्षत्रिय है, हम ब्राह्मण हैं.’

‘लेकिन पिताजी, वह मुझ से शादी करने को तैयार है.’

‘उस के मानने से क्या होगा? जब तक कि उस के परिवार वाले न मानें. वह बहुत बडे़ आदमी हैं बेटी, उन्हें यह रिश्ता कभी मंजूर नहीं होगा.’

‘तब हम कोर्ट में शादी कर लेंगे.’

‘चुप बेशर्म,’ वह गुस्से से आगबबूला हो गए, ‘जा, चली जा मेरी आंखों के सामने से, वरना…. ’

यही हाल अरुण का था. जब उस के डैडी सूर्यभान सिंह को इस बात का पता चला तो वे क्रोध से पागल हो गए. यह उन के लिए बरदाश्त से बाहर था कि उन का लड़का एक मामूली पंडित की लड़की से प्यार करे. उन्होंने पहले अरुण को बहुत समझाया लेकिन जब उन की बात का उस पर कुछ असर नहीं हुआ तो उन्होंने दूसरा गंभीर उपाय सोचा.

वह सीधे हरिशंकर उपाध्याय के पास पहुंचे जो उस समय बरामदे में बैठे स्कूल का कुछ काम कर रहे थे. ठाकुर साहब को देखते ही वह हाथ जोड़ कर खडे़ हो गए.

‘हां, तो पंडित हरिशंकर, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’ अपनी जोरदार आवाज में ठाकुर साहब ने कहा.

‘बहुत ख्वाब देखने लगे हो तुम.’

‘जी ठाकुर साहब, मैं समझा नहीं.’

‘अच्छा, तो तुम्हें यह भी बताना पडे़गा. जिस बात को पूरा कसबा जानता है उस से तू कैसे अनजान है. देखो पंडित, अपनी लड़की को समझाओ कि वह मेरे बेटे से मिलना छोड़ दे वरना मैं तुम बापबेटी का वह हाल करूंगा जिस की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो.’

‘ठाकुर साहब, यह क्या कह रहे हैं आप….मैं आज ही उस की खबर लेता हूं. माफ करें….माफ करें.’

ठाकुर साहब के कडे़ प्रतिबंध के बाद भी अरुण अपर्णा से छुटपुट मुलाकात करने में सफल हो जाता जिस की भनक किसी न किसी तरह ठाकुर सूर्यभान को लग ही जाती और वे गुस्से से भिनभिना उठते.

उन्होंने दूसरा उपाय सोचा, क्यों न हरिशंकर का तबादला छतरपुर से कहीं और करा दिया जाए. और यह कार्य वहां के विधायक से कह कर करवा दिया. इधर पंडित हरिशंकर घबरा गए थे. तबादले का जैसे ही उन्हें आदेश मिला फौरन छतरपुर छोड़ दतिया आ गए. अपर्णा को भी पिताजी के साथ आना पड़ा.

वह दिन अपर्णा के जीवन का सब से बोझिल दिन था, जब बिना अरुण से मिले उसे दतिया आना पड़ा. जुदाई के सौसौ तीर उस के दिल में चुभ गए थे. अरुण का घर से निकलना बंद था. वह जातेजाते एक बार मिल लेना चाहती थी. लेकिन उस की हर कोशिश नाकाम हुई. एक यही दुख उसे लगातार पूरी यात्रा सालता रहा.

पिताजी के साथ अपर्णा चली तो आई लेकिन अरुण को भुला न सकी. दतिया आए अब 1 साल हो गया था. उस दौरान अरुण की उसे कोई खबर नहीं मिली. पढ़ाई भी उस की बंद हो गई. पिताजी को उस की शादी करने की जल्दी थी. मास्टर हरिशंकर ने एक अच्छा घर देख कर अपर्णा की सगाई बिना उस से पूछे ही कर दी. यह पता चलते ही उस ने शादी करने से इनकार कर दिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ अरुण से.

यह सुन कर पिताजी उस पर बरस पडे़, ‘‘तेरी ही वजह से मुझे छतरपुर छोड़ कर दतिया आना पड़ा है फिर भी तू अरुण के नाम की माला जप रही है. कितना सताएगी मुझे. भला इसी में है कि तू घर छोड़ कर कहीं निकल जा.’’

‘ऐसा मत कहिए पिताजी, अपर्णा गिड़गिड़ा पड़ी, समझने की कोशिश कीजिए.’

‘मुझे कुछ नहीं समझना. अगर तू यहां से नहीं जाएगी तो मैं ही चला जाता हूं, ले रह तू यहां….’

आखिर दिल के हाथों मजबूर हो कर अपर्णा ने वह घर त्याग दिया और अपनी सहेली नीता के पास भिंड चली आई. नीता की मदद से उसे भिंड में नौकरी मिल गई. खानेपीने का जरिया हो गया. किराए पर मकान ले लिया. इसी बीच उस के पास शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन उस ने सब को ठुकरा दिया.

वह दिन याद आते ही उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘समाज की यह कैसी रूढि़यां हैं कि आदमी अपना मनपसंद साथी भी नहीं ढूंढ़ सकता? वंश परिवार की परंपराएं उस पर थोप दी जाती हैं. वहां आदमी टूटेगा नहीं तो क्या जुडे़गा?’’

आज अरुण की दुर्घटना की खबर ने उसे बेचैन ही कर दिया. वह नदी के किनारे पड़ी मछली सी फड़फड़ा गई. शाम को जब तरुण आया तो वह जाने को पूरी तरह तैयार बैठी थी, इस समय तक उस ने अपनी मानसिक स्थिति संभाल ली थी.

छतरपुर पहुंचते ही अपर्णा सीधे अस्पताल पहुंची. एक वार्ड में अरुण बेड पर मूर्छित पड़ा था. खून की बोतल लगी थी. हाथपैरों में प्लास्टर बंधा था. दोस्त, परिजन, रिश्तेदार उसे घेर कर खडे़ थे. डाक्टर उपचार में लगा था. उसे समझते देर न लगी कि अभी जरूर कोई गंभीर दौर गुजरा है क्योंकि सभी के चेहरे उदास थे.

ठाकुर सूर्यभान सिंह सिर नीचे झुकाए खडे़ थे. यद्यपि वह एक नजर उस पर डाल चुके थे. आज उसे उन से डर नहीं लगा था. डाक्टर के चेहरे से मायूसी साफ झलक रही थी. सभी की निगाहें उन पर टिक गईं.

‘‘इंजेक्शन दे दिया है. 10 मिनट में होश आ जाना चाहिए,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘लेकिन डाक्टर साहब, कुछ मिनट होश में रहता है फिर बेहोश हो जाता है,’’ ठाकुर साहब व्यग्रता से बोले.

‘‘देखिए, मैं तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं. आप मरीज को खुश रखने की कोशिश कीजिए….कोई गहरा आघात पहुंचा है, जिस की याद आते ही उसे बेहोशी छा जाती है. वैसे ंिचंता की बात नहीं. इस रोग पर काबू पाया जा सकता है,’’ इतना कह कर डाक्टर नर्स के साथ चले गए.

मौत सा सन्नाटा छा गया. किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था. तभी तरुण अपर्णा की ओर देख कर बोला, ‘‘आप कोशिश कीजिए, शायद होश आए. एक हफ्ते से यह इसी तरह पड़ा है. होश में आने पर भी किसी से एक शब्द नहीं बोलता.’’

यह सुनते ही अपर्णा निडर हो कर अंदर गई और अरुण के पास पहुंच कर बोली, ‘‘अरुण, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी, यहीं रहूंगी तुम्हारे पास.’’

‘‘लेकिन तुम ने तो….कोई दूसरा घर बसा लिया….शादी कर ली?’’

‘‘अरुण क्या कहते हो? किस ने कहा तुम से यह….मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘विश्वास तो था लेकिन….’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम्हारे नाम के अलावा कोई दूसरा नाम मेरे होंठों पर कभी नहीं आया. मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखो, सच क्या है तुम्हें पता चल जाएगा,’’ इतना कह कर अपर्णा फूटफूट कर रो पड़ी.

अरुण कुछ क्षण उसे देखता रहा, फिर आह कर उठा. उसे लगा जैसे उस के अंदर हजारों शूल एकसाथ चुभ गए हों.

‘‘अपर्णा….’’ वह गहरी निश्वास भरता हुआ बोला, ‘‘धोखा…विश्वासघात हुआ मेरे साथ…क्या समझ बैठा मैं तुम्हें…सोच भी नहीं सकता, तुम्हारे पिताजी ने यह झूठ मुझ से क्यों बोला?’’

कुछ क्षण अंदर ही अंदर वह सुलगती रही, फिर सोचा इस से तो काम नहीं चलेगा, उसे अगर अरुण को पाना है तो डट कर आगे आना होगा,’’

इस विचार के आते ही वह दृढ़ता से बोली, ‘‘अब मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी अरुण, तुम्हारे पास रहूंगी. देखती हूं कौन मुझे हटाता है.’’

तभी अरुण के सीने में भयंकर दर्द उठा और वह कराह उठा, उस के हाथपैर मछली से फड़फड़ा गए. लोग डाक्टर को बुलाने दौडे़…अरुण हांफता हुआ बोला, ‘‘बहुत देर हो गई अपर्णा, अब मैं नहीं बचूंगा….मुझे माफ…’’ और यहीं उस के शब्द अटक गए. आंखें खुली रह गईं… चेहरा एक तरफ लुढ़क गया. यह देख अपर्णा की चीख ही निकल गई.

उसे जब होश आया तो देखा ठाकुर साहब और 2-3 लोग उस के पास खडे़ थे. अरुण के शरीर को स्ट्रेचर पर रखा जा रहा था. वह तेजी से स्ट्रेचर की तरफ लपक कर बोली, ‘‘इन्हें मत ले जाओ. मैं भी इन के साथ जाऊंगी.’’

ठाकुर साहब अपर्णा को पकड़ते हुए बोले, ‘‘यह क्या कह रही हो अपर्णा? पागल हो गई हो…’’

वह शेरनी सी दहाड़ उठी, ‘‘पागल तो आप हैं, इन्हें पागल बना कर मार दिया, अब मुझे पागल बना रहे हैं. मुझे आप की कृपा की जरूरत नहीं ठाकुर सूर्यभान सिंह. आप ने भले ही मुझे अपने घर की बहू नहीं बनने दिया, लेकिन विधवा बनने से आप मुझे नहीं रोक सकते.’’

वह और जोर से सिसक पड़ी, ‘‘काश, मौत कुछ क्षण ठहर जाती तो वह मांग में सिंदूर तो लगा लेती?’’ आज इस स्थिति में, कुछ पोंछने को भी उस के पास नहीं था. सबकुछ पहले से ही सूनासूना था….

Uttar Pradesh : लखनऊ विकास प्राधिकरण – मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार में अव्वल

Uttar Pradesh : सरकारी संस्थाएं चाहे वह विकास प्राधिकरण, अस्पताल, स्कूल और रेल या बस की सुविधा देने वाले हों इन का उद्देश्य जनता को प्राइवेट सेक्टर से कम कीमत में सुविधा देना होता है. लखनऊ विकास प्राधिकरण प्राइवेट बिल्डरों से भी अधिक मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार वाली संस्था बन गई है.

लखनऊ विकास प्राधिकरण के गोमतीनगर स्थित मुख्यालय में जेई और बिल्डर के बीच पैसे को ले कर हुए विवाद का वीडियो वायरल होने के बाद विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष प्रथमेश कुमार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ दागदार अवर अभियंता रवि प्रकाश यादव के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करते हुए जेई के खिलाफ कार्रवाई के लिए शासन को रिपोर्ट भेज दी थी. मामले का संज्ञान लेते हुए 24 घंटे के भीतर नगर विकास के प्रमुख सचिव पी. गुरुप्रसाद ने जेई को निलंबित कर दिया.

प्रवर्तन जोन-7 में तैनात अवर अभियंता रवि प्रकाश पर सआदतगंज के रामनगर में हो रहे एक व्यावसायिक निर्माण में बिल्डर से घूस लेने का आरोप लगा था. शासन में पुनरीक्षण वाद योजित होने के बावजूद अवर अभियंता ने गलत तरीके से ध्वस्तीकरण की कार्यवाही के लिए फाइल चला दी थी. बिल्डर व उस के सहयोगियों ने एलडीए कार्यालय में आ कर अवर अभियंता से घूस की रकम का तगादा किया था.

वायरल वीडियो का संज्ञान लेते हुए एलडीए उपाध्यक्ष प्रथमेश कुमार ने कठोर कदम उठाते हुए अवर अभियंता को निलंबित करने को ले कर शासन को संस्तुति भेजी थी. जिस के क्रम में नगर विकास विभाग के प्रमुख सचिव पी. गुरुप्रसाद ने आरोपी जेई को निलंबित कर दिया.

अजय प्रताप वर्मा मूलरूप से उन्नाव के अजगैन का रहने वाला है. अजय व इस के चार साथियों के खिलाफ एलडीए के तत्कालीन उप सचिव माधवेश कुमार ने वर्ष 2022 में केस दर्ज कराया था. 2022 में अजय कनिष्ठ लिपिक था. तत्कालीन उप सचिव के पास सेल्स एग्रीमैंट आया था. एग्रीमैंट त्रिवेणी नगर के आदर्श पुरम निवासी शिवानी रस्तोगी का नाम पर था. इस में लिखा था कि शिवानी ने गोमतीनगर योजना के तहत एक जमीन एलडीए से खरीदी है. जांच में पता चला कि एग्रीमैंट फर्जी दस्तावेजों के आधार पर तैयार किया गया था.

जमीन बेचने में गवाह भानु प्रताप शर्मा और अभिनव सिंह से पूछताछ में सामने आया कि ठगी में अजय भी शामिल है. आरोपी ने फर्जी दस्तावेज बना कर एलडीए की वेबसाइट पर जमीन का विवरण अपलोड किया था. इस पर आरोपी को निलंबित कर दिया गया था. अजय को जेल भेजा गया.

एलडीए के योजना सहायकों से ले कर संपत्ति अधिकारियों तक के जाली हस्ताक्षर बना 20 करोड़ के 13 भूखंड बेचने के आरोपी रजिस्ट्री सेल के बाबू पवन कुमार को लोहिया पार्क के पास से गिरफ्तार कर लिया गया. इस से पहले गोमतीनगर थाने में उस के खिलाफ तीन केस दर्ज कराए गए थे. पूछताछ के बाद पवन को कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया गया. 9 लोगों ने उस के खिलाफ गोमतीनगर थाने में तहरीर दी.

पुलिस जांच में एलडीए के संपत्ति अधिकारियों के नाम इस्तेमाल कर 13 भूखंडों की रजिस्ट्री कराने के प्रकरण जानकारी में आए थे. इन रजिस्ट्री पर अधिकारियों, योजना सहायक, अनुभाग अधिकारी के हस्ताक्षर जाली मिले. मामले का खुलासा होने पर उस समय के एलडीए वीसी अक्षय त्रिपाठी ने आरोपी बाबू पवन कुमार को निलंबित कर दिया था.

एलडीए ने गोमतीनगर थाने में तहरीर दी थी. गोमतीनगर थाने में पुलिस ने कूटचित दस्तावेज तैयार कर के जालसाजी, धोखाधड़ी आदि धाराओं में तीनों केस दर्ज कर के पवन गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) की स्थापना 1972 में हुई थी, डेवलपमेंटएड. यह उत्तर प्रदेश शहरी नियोजन और विकास अधिनियम, 1973 के तहत स्थापित किया गया था. एलडीए का मुख्य कार्य लखनऊ के शहरी क्षेत्रों की योजना बनाना और उन का विकास करना है. लखनऊ विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष यानी एलडीए के वीसी का पद आईएएस अफसर के पास रहता है. अब 4 आईएएस इस की निगरानी करते हैं इस के बाद भी हालात बुरे हैं.

ऊपर जिन मामलों को लिखा गया है वह एलडीए में भ्रष्टाचार के यह केस केवल बानगी मात्र है. वैसे यह लिस्ट लंबी है. एलडीए न तो जनता के सपने पूरे कर पा रहा न ही रिश्वतखोरी से विभाग को बचा पा रही है.

लखनऊ विकास प्राधिकरण का मुख्य कार्य जनता के लिए सस्ते आवास के लिए प्लाट या अपार्टमेंट देना है. एक छोटे से कार्यालय से एलडीए ने अपना कार्य शुरू किया था. आज उस का अपना एक भव्य औफिस है. जनता के लिए अब वह जो प्लाट या अपार्टमेंट दे रहे वह पूरी तरह से निजी बिल्डर की तरह से व्यवहार कर रहे हैं.

लखनऊ में अनंत नगर मोहान रोड आवसीय योजना इस का सब से बड़ा प्रमाण है. इस में एलडीए ने सब से मंहगे प्लाट लांच किए हैं. जिन की कीमत 45 लाख से ले कर 1.85 करोड़ रुपए के बीच तय की गई है. इतनी अधिक कीमत के प्लाट कभी लखनऊ विकास प्राधिकरण ने नहीं निकाले थे.

लखनऊ विकास प्राधिकरण ने दिखावे के लिए कुछ मकान ईडब्ल्यूएस व एलआईजी श्रेणी रखे गए हैं. इन की कीमत भी इस वर्ग के लोगों की पहुंच से दूर है. इस में प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत भी भवनों का निर्माण किया जाएगा. योजना में भूखंडों के लिए पंजीकरण का शुभारंभ होते ही बड़ी संख्या में लोग वेबसाइट पर लौगइन बना कर फार्म भर रहे हैं. फार्म भरने के लिए 11 सौ रूपए रजिस्ट्रेशन के लिए देने पड़ रहे हैं.

1100 रुपए का औनलाइन भुगतान कर के रजिस्ट्रेशन पुस्तिका खरीदी जाती है. भूखंड की अनुमानित धनराशि का 5 फीसदी धनराशि जमा करा के सफलतापूर्वक रजिस्ट्रेशन कराया जाता है. अगर किसी को 2 हजार स्क्वायर फीट का प्लाट चाहिए जिस की अनुमानित कीमत करीब 80 लाख रुपए होगी. उस का 5 फीसदी करीब 4 लाख पहले जमा करना होगा. अगर लौटरी में नाम निकल आता है तो 8 किश्तों में पूरा भुगतान करना होता है.

अगर आप के नाम प्लाट नहीं निकला तो लखनऊ विकास प्राधिकरण पहले जमा किए 5 फीसदी पैसे को वापस कर देगा. इस के वापस करने की समय सीमा 3 माह है. लेकिन यह बढ़ भी सकती है. यानी जब लखनऊ विकास प्राधिकरण का मन होगा तब वह पैसा वापस देगा. एक खास बात की इस पर कोई ब्याज देने का वादा भी नहीं है.

यानी सैकड़ों लोगों का लाखों रुपया लखनऊ विकास प्राधिकरण के पास जमा रहता है. यह मुनाफाखोरी किसी साहूकार जैसी ही है.

80 लाख का मकान खरीदने के लिए 65 से 70 लाख तक का ही लोन मिल सकता है. अगर 15 साल का लोग लेते हैं तो एक लाख के लोन पर औसतन 1 हजार प्रति माह की किश्त बनेगी. 70 लाख के लोन पर यह रकम 70 हजार हो जाएगी. लखनऊ में जो गरीबी रेखा के नीचे नहीं है उस का मासिक वेतन औसतन 15 से 20 हजार रुपए है.

सवाल उठता है कि 15-20 हजार मासिक वेतन पाने वाला क्या एलडीए की किसी योजना में प्लाट खरीद सकता है? सवाल है यह योजना किस के लिए है?

निजी बिल्डर्स के लिए जो आज इस में पैसा लगाएंगे और जब 5 साल के बाद प्लाट पर मकान बनने शुरू होंगे तो दोगुनी कीमत पर प्लाट बिकेंगे. इस को खरीदने वाले मुनाफाखोर बिजनेसमैन, रिश्वतखोर सरकारी कर्मचारी, दलाल और नेता होंगे. लखनऊ की वृदांवन कालोनी इस का उदाहरण है. जहां 8 से 12 हजार रुपए स्क्वायर फिट के हिसाब से आवासीय प्लौट रीसेल में बिक रहे हैं.

लखनऊ में अपने घर का सपना देखने वालों के लिए लखनऊ विकास प्राधिकरण के पास कोई कारगर योजना नहीं है. 4 हजार रुपए स्क्वायर फिट का पैसा देने के कितने साल के बाद कब्जा मिलेगा यह पता नहीं? 5 साल का वादा लखनऊ विकास प्राधिकरण कर रहा है. लखनऊ विकास प्राधिकरण से निराश लोगों इसी विभाग के भ्रष्टाचार का शिकार हो जाते हैं.

लखनऊ विकास प्राधिकरण के रिश्वतखोर कर्मचारियों की एक अपनी अलग लौबी है. जो रिश्वत ले कर आप के नाम प्लौट निकालने का जिम्मा लेते हैं. 80 लाख वाला प्लाट लेने के लिए 8 लाख की घूस देनी पड़ती है. दूसरा रास्ता यह है कि मकान खरीदने वाला प्राइवेट बिल्डर्स के हाथ चढ़ जाता है जहां अलगअलग तरह का फ्रौड होता है. लखनऊ पुलिस के पास तमाम ऐसे मामले पहुंचते हैं जिन में मकान लेने के नाम पर फ्रौड किया जाता है.

लखनऊ में अनंत नगर मोहान रोड आवसीय योजना में 785 एकड़ के विशाल क्षेत्रफल में टाउनशिप विकसित की जा रही है. जिस में लगभग डेढ़ लाख लोगों के आशियाने का सपना साकार किए जाने का दावा किया गया है. इस में लगभग 2100 आवासीय भूखंड व 120 व्यावसायिक भूखंड होंगे.

इस के अलावा ग्रुप हाउसिंग के 60 भूखंडों में 10,000 से अधिक फ्लैट्स निर्मित किए जाएंगे. योजना में लगभग 100 एकड़ क्षेत्रफल में एडुटेक सिटी विकसित की जाएंगी. जहां लगभग 10,000 छात्रछात्राओं, शिक्षकों एवं फैकल्टी के सदस्यों के लिए हास्टल व आवासीय भवन बनाए जाएंगे. इस योजना को तैयार होने में 12-13 साल का समय लग गया है.

 

कितना बदल गया है लखनऊ विकास प्राधिकरण

एक छोटे औफिस और एक आईएएस से शुरू हुआ लखनऊ विकास प्राधिकरण 50 साल के सफर में आलीशान औफिस और 4 आईएएस अधिकारियों तक पहुंच गया है. पहले एलडीए वीसी ही अकेला आईएएस होता था. अब एलडीए वीसी से साथ ही साथ सचिव और ओएसडी के पदों पर भी आईएएस अफसर हैं.

इस के अलावा कमीश्नर लखनऊ के ऊपर भी एलडीए की जिम्मेदारी होती है. कुल 4 आईएएस अफसर इस की निगरानी करते हैं. दूसरी ओर, शहर में अवैध निर्माण से ले कर आवासीय योजनाओं तक हालात ठीक नहीं हैं. हर महीने जनता अदालत, जन सुनवाई और दिव्यांग दिवस जैसे आयोजन बस दिखावा बने हुए हैं.

लखनऊ विकास प्राधिकरण की स्थिति सुधरती हुई नजर नहीं आ रही है. जहां उस का काम जनता के अपने घर के सपने को पूरा करने का था वहां अब वह प्राइवेट बिल्डर से भी बड़ी सूदखोर संस्था बन गई है. पिछले 15-20 सालों में देखे तो एलडीए की नाकामी के चलते लखनऊ में बड़ेबड़े प्राइवेट बिल्डर्स आ गए हैं.

लखनऊ विकास प्राधिकरण और आवास विकास परिषद जैसी दोनों सस्थाएं जनता के सपनों को पूरा करने में सफल नहीं हो रही है. प्लाट या अपार्टमेंट एलौट करने के बाद नक्षा बनवाने, अवैध निमाण के नाम पर लंबीचौड़ी रिश्वतखोरी होती है. घरों का व्यवसायिक उपयोग करने नाम पर रिश्वतखोरी होती है. एलौट की गई संपत्ति की सालोंसाल रजिस्ट्री नहीं होती है. जिस ने भी एलडीए से प्लाट या मकान लिया है उस के पास एलडीए के भ्रष्टाचार की एक कहानी मिल जाती है. सब से अधिक भ्रष्ट औफिसों में एलडीए का नाम आता है. अवैध निर्माण में अगर कोई बिल्डिंग सील कर भी दी जाती है, तो उस के बाद भी फिर से करप्शन मीटर चलने लगता है.

 

रिश्वतखोरी का अड्डा

बिल्डिंग की कंपाउंडिंग के नाम फिर से लाखों का खेल शुरू होता है. रिश्वत के बल पर ढाई मंजिल निर्माण की वैधता वाली बिल्डिंग में 3 से 7 मंजिल तक का निर्माण हो जाता है. पहले यह रिश्वत ले कर अवैध निर्माण कराते हैं. इस के बाद बिल्डिंग अगर सील करते हैं. फिर उस को खुलवाने के लिए दो लाख रुपए प्रति मंजिल का खर्च दोबारा करना पड़ता है.

प्राधिकरण में जो कागज रखे जाते हैं, उन में कहा जाता है कि, जितनी बिल्डिंग अधिकतम वैध संभव है उस की कंपाउंडिंग जमा की जा रही है. जब कि बकाया जितना गलत है उस को ध्वस्त करने का शपथपत्र लगाया जाता है.

बैंक गारंटी भी जमा की जाती है. इस के बाद सील खोल दी जाती है. मगर तोड़ा कुछ नहीं जाता है. मिलीभगत कर के बैंक गारंटी भी वापस ले ली जाती है. एक सील बिल्डिंग को खोलने के लिए कम से कम 6 लाख का खर्च प्राधिकरण में जेई से ले कर उच्च अभियंताओं तक जाता है. प्राधिकरण में इस तरह के करीब 100 बिल्डिंगों में खेल चल रहा है. रोजाना अनेक सील बिल्डिंगों की पत्रावलियां अधिकारियों के समक्ष रखी जाती हैं इस खेल में करोड़ों की हेराफेरी होती है.

पहले वह जो 2 लाख रुपए फ्लोर और 50 हजार रुपए महीने दे रहा था, वह अब एक लाख रुपए महीना और 3 लाख रुपए फ्लोर हो जाता है. बिल्डिंग की सील खुलवाने का खर्च अलग से देना पड़ता है. जितनी अधिक फ्लोर हैं, प्रत्येक फ्लोर का दो लाख रुपए का खर्च होता है. इस के बाद में सारी प्रक्रिया धीरेधीरे एलडीए से पूरी करा ली जाती है. इस दौरान इंजीनियरों की मौके की रिपोर्ट और फोटोग्राफ तक कुछ इस अंदाज में खींचे जाते हैं कि, वे बिल्डर के प्रत्यावेदन के अनुरूप रहें ताकि सील खुलने में कोई परेशानी न हो.

अवैध बिल्डिंग में 45 से 70 लाख रुपए कीमत के फ्लैट बेचे जा रहे हैं. औसतन, 5 मंजिल की एक बिल्डिंग जो कि 4000 वर्ग फीट उस में 20 फ्लैट बनाए जाते हैं. लगभग 25 करोड़ रुपए में ये फ्लैट बिकते हैं. जब कि बिल्डिंग निर्माण व भूमि का खर्च मिला कर 3 करोड़ रुपए से अधिक का नहीं आता है. इस का सीधा अर्थ है अवैध बिल्डिंग के निर्माण में तिगुना फायदा होता है. इस लाभ का एक हिस्सा बतौर घूस एलडीए को जाता है. एलडीए का काम लखनऊ के विकास और यहां रहने वालों को किफायती दामों पर घर दिलाना है. एलडीए अपने दोनों ही पैमानों पर खरी नहीं उतर रही है.

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