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Best Hindi Story : खुशी का गम

Best Hindi Story : मेरे बेटे आकाश की आज शादी है. घर मेहमानों से भरा पड़ा है. हर तरफ शादी की तैयारियां चल रही हैं. यद्यपि मैं इस घर का मुखिया हूं, लेकिन अपने ही घर में मेरी हैसियत सिर्फ एक मूकदर्शक की बन कर रह गई है. आज मेरे पास न पैसा है न परिवार में कोई प्रतिष्ठा. चूंकि घर के नौकरों से ले कर रिश्तेदारों तक को इस बात की जानकारी है, इसलिए सभी मुझ से बहुत रूखे ढंग से पेश आते हैं.

बहुत अपमानजनक है यह सब लेकिन मैं क्या करूं? अपने ही घर में उस अपमानजनक स्थिति के लिए मैं खुद ही तो जिम्मेदार हूं. फिर मैं किसे दोष दूं? क्या खुशी, मेरी पत्नी इस के लिए जिम्मेदार है? अंदर से एक हूक सी उठी. और इसी के साथ मन ने कहा, ‘उस ने तो तुम्हें पति का पूरा सम्मान दिया, पूरा आदर दिया, लेकिन तुम शायद उस के प्यार, उस के समर्पण के हकदार नहीं थे.’

खुशी एक बहुत कुशल गृहिणी है जिस ने कई सालों तक मुझे पत्नी का निश्छल प्यार और समर्पण दिया. पर मैं ही नादान था जो उस की अच्छाइयां कभी समझ नहीं पाया. मैं हमेशा उस की आलोचना करता रहा. उसे मानसिक रूप से प्रताडि़त करता रहा. अपने प्रति उस के लगाव को हमेशा मैं ने ढोंग समझा.

मैं सारा जीवन मौजमस्ती करता रहा और वह मेरी ऐयाशियों को घुटघुट कर सहती रही, मेरे अपमान व अवमाननापूर्ण व्यवहार को सहती रही. वह एक सीधीसादी सुशील महिला थी और उस का संसार सिर्फ मैं और उस का बेटा आकाश थे. वह हम दोनों के चेहरों पर मुसकराहट देखने के लिए कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहती थी लेकिन मैं अपने प्रति उस की उस अटूट चाहत को कभी समझ न पाया.

मैं कब विगत दिनों की खट्टीमीठी यादों की लहरों में बहता चला गया. मुझे पता भी नहीं चला था.

उन दिनों मैं कालिज में नयानया आया था. वरिष्ठ छात्र रैगिंग कर रहे थे. एक दिन मैं कालिज में अभी घुसा ही था कि एक दूध की तरह गोरी, अति आकर्षक नैननक्श वाली लड़की कुछ घबराई और परेशान सी मेरे पास आई और सकुचाते हुए मुझ से बोली, ‘आप बी.ए. प्रथम वर्ष में हैं न, मैं भी बी.ए. प्रथम वर्ष में हूं. वह जो सामने छात्रों का झुंड बैठा है, उन लोगों ने मुझ से कहा है कि मैं आप का हाथ थामे इस मैदान का चक्कर लगाऊं. अब वे सीनियर हैं, उन की बात नहीं मानी तो नाहक मुझे परेशान करेंगे.’

‘हां, हां, मेरा हाथ आप शौक से थामिए, चाहें तो जिंदगी भर थामे रहिए. बंदे को कोई परेशानी नहीं होगी. तो चलें, चक्कर लगाएं.’
मेरी इस चुटकी पर शर्म से सिंदूरी होते उस कोमल चेहरे को मैं देखता रह गया था. मैं अब तक कई लड़कियों के संपर्क में आ चुका था लेकिन इतनी शर्माती, सकुचाती सुंदरता की प्रतिमूर्ति को मैं ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

उस के मुलायम हाथ को थामे मैं ने पूरे मैदान का चक्कर लगाया था और फिर ताली बजाते छात्रों के दल के सामने आ कर मैं ने उस का कांपता हाथ छोड़ दिया था कि तभी उस ने नजरें जमीन में गड़ा कर मुझ से कहा था, ‘आई लव यू’, और यह कहते ही वह सुबकसुबक कर रो पड़ी थी और मैं मुसकराता हुआ उसे छोड़ कर क्लास में चला गया था.

बाद में मुझे पता चला था कि उस सुंदर लड़की का नाम खुशी था और वह एक प्रतिष्ठित धनाढ्य परिवार की लड़की थी. उस दिन के बाद जब कभी भी मेरा उस से सामना होता, मुझ से नजरें मिलते ही वह घबरा कर अपनी पलकें झुका लेती और मेरे सामने से हट जाती. उस की इस अदा ने मुझे उस का दीवाना बना दिया था. मैं क्लास में कोशिश करता कि उस के ठीक सामने बैठूं. मैं उस का परिचय पाने और दोस्ती करने के लिए बेताब हो उठा था.

मेरे चाचाजी की लड़की नेहा, जो मेरी ही क्लास में थी, वह खुशी की बहुत अच्छी सहेली थी. मैं ने नेहा के सामने खुशी से दोस्ती करने की इच्छा जाहिर की और नेहा ने एक दिन मुझ से उस की दोस्ती करा दी थी. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बढ़ गई और खुशी मेरे बहुत करीब आ गई थी.

मैं जैसेजैसे खुशी के करीब आता जा रहा था, वैसेवैसे मुझे निराशा हाथ लगती जा रही थी. मैं स्वभाव से बेहद बातूनी, जिंदादिल, मस्तमौला किस्म का युवक था लेकिन खुशी अपने नाम के विपरीत एक बेहद भावुक किस्म की गंभीर लड़की थी.

कुछ ही समय में वह मेरे बहुत करीब आ चुकी थी और मैं उस की जिंदगी का आधारस्तंभ बन गया था, लेकिन मैं उस के नीरस स्वभाव से ऊबने लगा था. वह मितभाषी थी, जब भी मेरे पास रहती, होंठ सिले रहती. जहां मैं हर वक्त खुल कर हंसता रहता था, वहीं वह हर वक्त गंभीरता का आवरण ओढे़ रहती.

दिन गुजरने के साथ जैसेजैसे उस के व्यक्तित्व का यह पहलू मेरे सामने आ रहा था वैसेवैसे उस के प्रति मेरा मोहभंग होता जा रहा था. जहां वह मानसिक रूप से दिन पर दिन मेरे करीब आती जा रही थी, वहीं मैं जानबूझ कर अपने को उस से दूर करता जा रहा था, क्योंकि मैं जानता था कि उस के और मेरे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मुझे एहसास होता जा रहा था कि यदि हम ने शादी कर ली तो मैं उस के साथ कभी सुखी नहीं रह पाऊंगा. यह सोच कर मैं ने धीरेधीरे उस से मिलना कम कर दिया. लेकिन नेहा से मुझे पता चला कि मेरे इस रवैये से वह बहुत दुखी और परेशान रहने लगी थी, क्योंकि वह मुझ से भावनात्मक तौर पर जुड़ चुकी थी.

नेहा ने तो मुझे यह भी बताया कि अगर मैं खुशी से शादी नहीं करूंगा तो वह अपनी जान दे देगी, लेकिन किसी और लड़के से शादी नहीं करेगी. नेहा की इस बात से मैं परेशान हो गया था, और एक दिन खुशी को मैं ने अपने और उस के विरोधाभास के बारे में बताया कि हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर होने की वजह से वह कभी मेरे साथ सुखी नहीं रह पाएगी. इसलिए बेहतर यही होगा कि हम अपने रास्ते अलग कर लें.

मेरी इस बात को सुन कर खुशी बहुत रोई थी और उस दिन घर जा कर उस ने अपने दोनों हाथों की नसें काट कर खुदकुशी करने का प्रयास किया था.

उस दिन खुशी के घर वालों को मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पता चल गया. अगले ही दिन उस के घर वाले उस की और मेरी शादी का प्रस्ताव ले कर मेरे मातापिता से मिले थे.

नेहा ने मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पहले ही मेरे मातापिता को सबकुछ बता दिया था, सो मेरे मातापिता ने मेरी राय बिना पूछे उस से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया था. बाद में मैं ने अपने मातापिता से इस रिश्ते को तोड़ने की लाख मिन्नतेंकीं लेकिन उन्होंने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया और आखिरकार मेरी शादी खुशी से हो गई.

विवाह के बाद खुशी ने मुझे वे सारी खुशियां दी थीं जिन की एक पति को अपने पत्नी से अपेक्षा होती है. शादी के बाद के पहले 2-3 वर्ष बहुत अच्छे बीते. वक्त के साथ मैं एक प्यारे से बेटे का पिता बन गया था. उस को गोद में उठा कर मैं बेपनाह खुशियों से भर जाता. उसे लाड़दुलार कर मुझे बहुत सुकून मिलता लेकिन लगभग 3 सालों के विवाहित जीवन के बाद हमारे दांपत्य जीवन में कुछ ठहराव सा आने लगा था. हमारे संबंधों में एकरसता और ऊब की शुष्कता पसरती जा रही थी.

मैं शुरू से ही रसिक स्वभाव का था. नईनई लड़कियों से दोस्ती करना मेरा प्रिय शगल था.

गुवाहाटी में मेरा काफी पुराना अच्छा- खासा साडि़यों का शोरूम था. मुझे व्यापार के लिए अधिक समय नहीं देना पड़ता था, पुराने कर्मचारी मेरी दुकान बहुत अच्छी तरह से संभाल रहे थे. गुवाहाटी के अलावा शिलांग में भी मेरा साडि़यों का एक बड़ा शोरूम था, सो मैं सप्ताह में एक बार शिलांग जरूर जाया करता था. वहां कई लड़कियां मेरी मित्र थीं. शिलांग में एक दोस्त के यहां मेरा परिचय फ्लोरेंस नाम की एक खासी जाति की लड़की से हुआ था. पहली ही नजर में वह लड़की मेरी निगाहों में चढ़ गई थी. उस से पहले मैं जितनी खासी लड़कियों के संपर्क में आया वे सब महज कागजी गुडि़याएं थीं, जिन के जीवन का उद्देश्य सिर्फ मौजमस्ती तथा सैरसपाटा हुआ करता था, लेकिन फ्लोरेंस बेहद जिंदादिल और बिंदास होने के साथसाथ मानसिक रूप से बहुत परिपक्व थी. वह कभी अर्थहीन बातें नहीं करती थी. उस का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था.

एक दिन बातों ही बातों में फ्लोरेंस ने मुझे बताया कि वह एक अच्छी नौकरी की तलाश में है, क्योंकि वह कंपनी, जिस में वह काम कर रही थी, उस की शिलांग की शाखा बंद होने वाली थी.

फ्लोरेंस ने जैसे ही मुझे यह बताया मैं ने उसे अपने शिलांग वाले साड़ी के शोरूम में मैनेजर के पद पर रख लिया था. अब जैसेजैसे मैं उस के संपर्क में आ रहा था, मेरा उस के प्रति खिंचाव बढ़ता ही जा रहा था. दूसरी लड़कियां जहां मेरी अमीरी और आकर्षक व्यक्तित्व की वजह से मेरे आसपास तितलियों की तरह मंडराया करती थीं वहीं फ्लोरेंस मुझ से पर्याप्त दूरी बनाए रखती, जिस की वजह से मैं उस की ओर शिद्दत से खिंचता जा रहा था.

इधर उस की ओर मेरे खिंचाव का एक कारण और था. फ्लोरेंस के नाम कई एकड़ जमीन थी. अगर मैं फ्लोरेंस से रिश्ता कायम कर लेता तो मैं उस की जमीन का मालिक बन जाता. सो जमीन के लालच में मैं उस से रिश्ता कायम करना चाहता था और एक दिन मुझे वह मौका मिल गया जिस की मुझे चाहत थी.

उस दिन फ्लोरेंस मेरे पास बहुत खराब मूड में आई और मेरे कुरेदने पर रो पड़ी. मुझ से बोली, ‘मेरे भाई बहुत जल्लाद हैं. हम खासियों में मां परिवार की मुखिया होती है. बेटियां वंश आगे चलाती हैं. बेटियों को ही मां की जमीनजायदाद मिलती है. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी हूं. इसलिए मां की सारी जमीन मुझे मिली है. मेरे दोनों भाइयों की निगाहें मेरी जमीन पर उगने वाले फलों से होने वाली आमदनी पर गड़ी हुई हैं.

‘मैं तो नौकरी पर आ जाती हूं तो मेरे भाई ही खेतों में मजदूरों से काम करवाते हैं. खेती से होने वाली आमदनी पर अपना नियंत्रण रखने के लिए मेरे भाई मेरी शादी एक निकम्मे, नाकारा खासी आदमी से कराने पर जोर दे रहे हैं.’

उसे इस तरह रोते देख मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उस से बोला, ‘अरे, मेरे होते हुए तुम क्यों चिंता करती हो? मैं तुम्हारे भाइयों से बातें करूंगा और उन्हें धमकाऊंगा. तुम बिलकुल भी मत डरो. मेरे होते हुए कोई तुम पर अपनी मरजी नहीं थोप सकेगा.’

यह कह कर मैं ने उसे चूमना शुरू कर दिया. तब फ्लोरेंस ने मेरे चंगुल से छूटने के लिए बहुत हाथपांव मारे लेकिन उस दिन मेरे ऊपर उस का नशा इस कदर हावी था कि मैं ने उस की एक न सुनी और आखिरकार कुछ प्यार और कुछ जोरजबरदस्ती करते हुए मैं ने उसे आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया. उस दिन मैं ने महसूस किया कि मेरी इस जबरदस्ती से फ्लोरेंस बहुत अधिक नाराज नहीं थी. धीरेधीरे वह मुझे दिलोजान से चाहने लगी थी.

फ्लोरेंस के शोख बिंदास व्यक्तित्व के सामने खुशी का सीधासादा व्यक्तित्व मुझे नीरस लगने लगा था. फ्लोरेंस बातें करने में इतनी वाक्पटु थी कि मामूली बात को भी वजनदार और आकर्षक बना कर सामने रखती. मुझे उस से महज बातें करना बहुत अच्छा लगता था.

अब व्यापार के काम के बहाने मैं हफ्तों फ्लोरेंस के घर पड़ा रहता था. धीरेधीरे शिलांग के साडि़यों के शोरूम की पूरी बागडोर उस ने अपने हाथों में ले ली थी. इधर मुझे यह खुशखयाली भी रहने लगी कि फ्लोरेंस की सारी जमीन अब मेरी है. मैं ही उस का असली मालिक हूं.

फ्लोरेेंस से मेरे संबंधों की खबर खुशी और मेरे परिवार वालों को लग गई थी जिस की वजह से खुशी बहुत दुखी रहने लगी थी. मैं जब भी घर जाता, वह मुझ से कहती, ‘देखो, तुम क्यों उस खासी युवती को इतनी अहमियत दे रहे हो? क्या मुझे और मेरे बेटे को तुम्हारा साथ, तुम्हारा वक्त नहीं चाहिए? आज तुम मानो या न मानो पर देखना, एक दिन वह खासी औरत तुम्हारा साडि़यों का शोरूम हड़प लेगी. तुम ने यहां का शोरूम भी नौकरों के भरोसे छोड़ दिया है. वहां की आमदनी पहले से आधी रह गई है. तुम क्यों अपना सर्वनाश करने पर तुले हुए हो?’

खुशी की बातें सुन कर मैं गुस्से में भर उठा था और उस को चांटा मार कर घर से बाहर निकल आया था.

उसी दिन मैं शिलांग चला गया था. समय पंख लगा कर उड़ता चला गया और मेरा बेटा बड़ा हो चला था. जैसेजैसे वह समझदार होता जा रहा था, वह भी मुझ से दूर होता जा रहा था. मैं उसे अपने करीब लाने की भरसक कोशिश करता, पर वह मुझ से हमेशा अनमना सा रहता और अजनबियों की तरह पेश आता.

फ्लोरेंस से भी मेरा एक बेटा था जिसे मैं बेहद प्यार करता था. जैसेजैसे वह बड़ा हो रहा था वह भी मेरे नियंत्रण से बाहर होता जा रहा था.
इधर पिछले कुछ सालों से खुशी का कुछ दूसरा ही रूप मुझे देखने को मिल रहा था. गुवाहाटी वाला साडि़यों का शोरूम अब खुशी संभाल रही थी. उस के देखभाल करने के बाद वहां की बिक्री लगभग दोगुनी हो गई थी.

अब मेरा बेटा आकाश भी बड़ा हो चला था और कालिज के बाद वह भी शोरूम में बैठने लगा था, लेकिन एक बात जो मुझे खाए जा रही थी वह यह कि खुशी के प्रति मेरे अवमाननापूर्ण व्यवहार के प्रतिक्रियास्वरूप वह मुझ से बहुत कटाकटा सा रहने लगा था और दुकान की तिजोरी की चाबी भी वह अपने पास रखने लगा था. इस वजह से मैं रुपएपैसे के मामले में उन का मोहताज हो गया था. जब कभी मुझे रुपएपैसों की जरूरत होती, खुशी ही मुझे थोड़ेबहुत रुपए दे देती. इस तरह रुपयों के लिए पूरी तरह खुशी पर निर्भर होने की वजह से मेरे आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंची थी और मुझ में धीरेधीरे हीनता की भावना घर करती जा रही थी.

उधर जिस जमीन के लालच में मैं ने फ्लोरेंस से रिश्ता जोड़ा था, उस जमीन के कागजों की फ्लोरेंस ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी. न जाने वह उन्हें कहां छिपा कर रखती थी. उस पर कई महीनों से फ्लोरेंस से मेरी गंभीर अनबन चल रही थी. वह मुझ पर बहुत जोर डाल रही थी कि मैं खुशी को तलाक दे कर उस से अदालत में शादी कर लूं. लेकिन मैं खुशी को तलाक नहीं देना चाहता था. शायद इस की वजह यह थी कि मैं खुशी से भावनात्मक रूप से बहुत जुड़ा हुआ था. इस वजह से फ्लोरेंस और मुझ में झगड़ा बढ़ता ही गया और एक दिन फ्लोरेंस और उस के बेटे हनी ने मिल कर शिलांग वाले साडि़यों के शोरूम पर पूरी तरह से अपना कब्जा जमा लिया था. मैं जब भी शिलांग वाले शोरूम में जाता, हनी मुझे तिजोरी को हाथ तक न लगाने देता.

अब मुझे एहसास होने लगा था कि फ्लोरेंस के साथ रिश्ता कायम कर के मैं ने जिंदगी के हर क्षेत्र में नुकसान उठाया था. फ्लोरेंस की वजह से मैं ने खुशी और आकाश की उपेक्षा और अवहेलना की. मैं ने अपनी पत्नी की उपेक्षा की जिस की वजह से मेरे बेटे ने मुझे कभी पिता का आदरमान नहीं दिया और मैं अपने ही घर में बेगाना बन कर रह गया.

फ्लोरेंस से रिश्ता रखने की वजह से मेरे परिवार वालों ने मुझे पुश्तैनी संपत्ति से बेदखल कर उसे खुशी और आकाश के नाम कर दिया था. मेरी लापरवाही के चलते मेरा गुवाहाटी का शोरूम भी खुशी और आकाश के कब्जे में चला गया था. अब मुझे एहसास हो रहा था कि मैं जिंदगी की लड़ाई में बुरी तरह से हार गया था.

एक वक्त था जब कुदरत ने मुझे दुनिया की हर नियामत बख्शी थी. सुशील पत्नी, एक प्यारा सा बेटा, चलता हुआ व्यापार, सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन मैं ने यह सबकुछ अपनी ही बेवकूफी से गंवा दिया था. शायद यही मेरी गलतियों की सजा है, लेकिन अब मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो चला है और इस के लिए मैं खुशी और आकाश से माफी मांगूंगा. फ्लोरेंस से अपने सारे संबंध हमेशा के लिए तोड़ लूंगा. दोबारा से शोरूम में बैठ कर व्यापार संभालूंगा. खुशी बहुत अच्छी है. वह जरूर मुझे माफ कर देगी.

शोरूम में बैठ कर काम संभालने के खयाल ने मुझे बहुत सुकून दिया था. फिर भी मन के एक कोने में कहीं यह डर छिपा हुआ था कि क्या आकाश और खुशी मुझे फिर से व्यापार संभालने देंगे? क्या वे दोनों मेरी पिछली भूलों को नजरअंदाज कर पाएंगे?

इसी डर और आशंका के साथ मैं शोरूम पर पहुंचा और खुशी से बोला, ‘खुशी, मैं ने पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया. अपने गलत आचरण से तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया. मैं वादा करता हूं कि पुरानी भूलों को अब कभी नहीं दोहराऊंगा. मैं ने फ्लोरेंस और हनी से सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. बस…तुम मुझे एक बार माफ कर दो.’

खुशी तो कुछ नहीं बोली लेकिन आकाश बोल पड़ा, ‘अब आप को अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मेरी मां ने कितने दिन और कितनी रातें आप की वजह से रोरो कर गुजारी हैं, यह मैं ने अपनी आंखों से देखा है और अब आप माफी मांग रहे हैं. नहीं, बिलकुल नहीं. आप हमारी माफी के बिलकुल भी हकदार नहीं हैं. इतने सालों तक हम ने बिना आप के सहारे के अकेले, अपने दम पर जिंदगी जी है, आगे भी जी लेंगे.

अब आप कारोबार संभालने की बात कर रहे हैं, जबकि पहले आप ने ही सारा कारोबार चौपट कर दिया था. यह शोरूम बंद होने के कगार पर आ पहुंचा था. आप यहां से जाइए, हम दोनों की जिंदगी में अब आप की कोई जगह नहीं है.’

आकाश की इन कड़वी पर सच बातों को सुन कर मेरा दिल बैठ गया और मैं ने हताश कदमों व टूटे दिल से वापस लौटने के लिए कदम बढ़ाए थे कि तभी खुशी बोल पड़ी, ‘आकाश बेटा, पापा से ऐसा नहीं कहते. गलतियां किस से नहीं होतीं? पापा को अपनी गलतियों का एहसास हो गया, यही बहुत है. सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. हां, पर अब आप को मेरी एक बात माननी पडे़गी कि आप भविष्य में फ्लोरेंस और हनी से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे और न उन से मिलने शिलांग जाएंगे.’

‘खुशी, अगर तुम्हें मेरी बातों पर यकीन है तो मैं तुम्हारी कसम खा कर कहता हूं कि भविष्य में मैं उन से कोई संबंध नहीं रखूंगा. मैं ने उन से हमेशाहमेशा के लिए अपने रिश्ते तोड़ लिए हैं.’

यह सुन कर खुशी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव परिलक्षित हुए. फिर अपनी कुरसी से उठते हुए उस ने मुझ से कहा, ‘यह जगह आप की है. आप आइए, यहां बैठिए.’

मैं एक बार फिर खुशी की अच्छाइयों के सामने नतमस्तक हो गया था. मुझ में एक बार फिर से जिंदगी जीने की तमन्ना जाग उठी थी.

लेखिका – रेणु दीप

Romantic Story : टूटी हुई लड़ियां – सना की जिंदगी की लड़ियां क्या फिर से जुड़ पाईं

Romantic Story : सना की अम्मी कमरे से सूटकेस उठा लाईं और उस में रखा सामान बाहर निकालने लगीं. ये रहे सातों सूट, यह रहा लहंगा, यह कुरती, यह चुन्नी, यह रहा बुरका, यह मेकअप का सामान और यह रहा नेकलेस…

नेकलेस का केस हाथ में आना था कि उन्हें गुस्सा आ गया और बोलीं, ‘‘कंजूस मक्खीचूस, कितना हलका नेकलेस है. एक तोले से भी कम वजन का होगा.’’

सना के अब्बू बोल पड़े, ‘‘सना की अम्मी, वे लोग कंजूस नहीं हैं, बड़े चालाक किस्म के इनसान हैं. यह सोने का हार सना के मेहर में होता न और मेहर पर सिर्फ लड़की का हक होता है, इसलिए इतना हलका बनवा कर लाए. जिन की नीयत में खोट होता है, वे ही ऐसा करते हैं… इसलिए कि कोई अनबन हो जाए, मंगनी टूट जाए या फिर तलाक हो जाए, तो ज्यादा नुकसान नहीं होता. हार वापस मिला तो मिला, न मिला तो न सही…’’

सना के अब्बू ने थोड़ा दम लिया, फिर अपने दोस्त अबरार से बोले, ‘‘अबरार भाई, यह सारा सामान उठा कर ले जाइए और उन के यहां पटक आइए…’’ अबरार सोचविचार में गुम थे. कहां तो उन्हें हज पर जाने का मौका मिलने वाला था, अब कहां वे पचड़े में पड़ गए. शादी कराना कोई आसान काम है? नेकियां भी मिलती हैं, जिल्लत भी. निबट जाए तो अच्छा, नहीं तो बड़ी फजीहत.

सना के अब्बू दोबारा बोले, ‘‘अबरार भाई, कहां खो गए? सामान उठाइए और ले जाइए.’’

अबरार चौंक पड़े, फिर सामान सूटकेस में रखने लगे.

सना के अब्बू कुछ याद करते हुए फिर बोले, ‘‘और हां, उन्होंने यह जो 10 हजार रुपए भिजवाए हैं, इन्हें भी लेते जाइए, उन के मुंह पर मार देना. बड़े गैरतमंद बनते हैं. हमें मुआवजा दे रहे हैं… 10 हजार रुपए ही खर्च हुए हैं हमारे… मंगनी में कमोबेश 50 हजार रुपए खर्च हुए हैं.’’

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘मंगनी में पूरे 50 लोग आए थे. मंगनी क्या पूरी बरात थी. आप तो थे ही… आप ने सबकुछ देखा है… हम ने कोई कोरकसर रख छोड़ी थी भला? ऐसा क्या था, जो हम ने न बनवाया हो? बिरयानी, कोरमा, कबाब, खीर और शीरमाल भी. ऊपर से सागसब्जी सो अलग…’’

कमरे का दरवाजा पकड़े खड़ी सना सिसक पड़ी. उस के गुलाबी मखमली गालों पर आंसू मोतियों की तरह लुढ़क आए. मंगनी के दिन कितनी धूमधाम थी. उस की होने वाली सास और जेठानी आई थीं और ननद भी.

सभी को उस की ससुराल से आया सामान दिखाया गया. कुछ ने तारीफ की, तो कुछ ने मुंह बिचका दिया. इतने नाम वाले बनते हैं और इतना कम सामान. कम से कम 11 सूट तो होते ही. खाली हार उठा लाए. न झुमके हैं, न नथ और न ही अंगूठी.

सना की ननद ने उसे लहंगाकुरती पहनाई थी. चुन्नी सिर पर डाली थी. सब ने मिलजुल कर उसे सजायासंवारा था. माथे पर टीका, गले में नेकलेस, कानों में झुमके और नाक में एक छोटी सी नथ पहनाई थी.

नथ, टीका और झुमके सना की अम्मी ने उस के लिए जबतब बनवाए थे, ताकि शादी में गहनों की कमी न रहे.

सना की नजर सामने रखे सिंगारदान पर पड़ गई. आईने में अपना अक्स देख कर उसे शर्म आ गई थी. वह किसी शहजादी से कम नहीं लग रही थी. उस की अम्मी उस की बलाएं लेने लगी थीं. सास और ननद को अपनी पसंद पर गर्व होने लगा था, पर जेठानी जलभुन गई थी. उस का बस चले तो वह यह रिश्ता होने ही न दे.

वह घर में अपने से ज्यादा खूबसूरत औरत नहीं चाहती थी. उस का मान जो कम हो जाएगा. सभी लोग देवरानी की तारीफ करेंगे और फिर यह पढ़ीलिखी भी तो है. उस की तरह अंगूठाटेक तो नहीं है.

उस दिन से सना बहुत खिलीखिली सी रहने लगी थी. सुबहशाम सजनेसंवरने लगी थी, मंगनी में आए सूट पहनपहन कर देखने लगी थी कि किस सूट में वह कैसी लगती है. हार भी पहन कर देखती थी, फिर खुद शरमा जाती थी.

सना सपने देखने लगी कि उस की बरात गाजेबाजे के साथ बड़ी ही धूमधाम से आ रही है. वह दुलहन बनी बैठी है. बड़े सलीके से उस का सिंगार किया गया है. हाथपैरों में मेहंदी तो एक दिन पहले ही लगा दी गई थी. लहंगा, कुरती और चुन्नी में वह किसी हूर से कम नहीं लग रही है.

कभी सना सोचती, कैसा है उस का हमसफर? मोबाइल फोन की वीडियो क्लिप में तो बिलकुल फिल्मी हीरो जैसा लगता है. खूबसूरत तो बहुत है, उस की सीरत कैसी है? पढ़ालिखा है. सरकारी नौकरी करता है, तो उस की सोच भी अच्छी ही होगी.

यह वीडियो क्लिप सना का छोटा भाई बना कर लाया था. वह इसी वीडियो क्लिप को देखा करती थी और तरहतरह की बातें सोचा करती थी.

उधर सना के मंगेतर आफताब का हाल भी कुछ अलग न था. मंगनी वाले दिन जब सना का बनावसिंगार किया गया था, तो उस की ननद ने भी उस की वीडियो क्लिप बना ली थी और जब से आफताब ने इस क्लिप को देखा था, वह बेताब हो उठा था. सना से बातें करने की कोशिश करने लगा था, पर सना को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

अलबत्ता, जब सास और ननद के फोन आते, तो सना सलामदुआ कर लिया करती थी, पर आफताब से नहीं. उसे बहुत अजीब सा लग रहा था.

एक दिन जब सना अपनी ननद से बातें कर रही थी, तो बातें करतेकरते उस की ननद ने मोबाइल फोन आफताब को पकड़ा दिया था.

कुछ देर सना यों ही बातें करती रही. सास और जेठानी की खैरियत पूछती रही, फिर उसे लगा कि उधर उस की ननद नहीं कोई और है. उस ने फोन काटना चाहा, पर आफताब बोल पड़ा, ‘सना, प्लीज फोन मत काटना, तुम्हें मेरी कसम है…’

इतना सुनना था कि सना का रोमरोम जैसे खिल उठा. वह बेसुध सी हो गई. फिर आफताब ने क्या कहा, क्या उस ने जवाब दिया, उसे कुछ पता नहीं.

फिर उस दिन से यह सिलसिला ऐसा चला कि दिन हो या रात, सुबह हो या शाम दोनों एकदूसरे से बातें करते नहीं थकते थे. बातें भी क्या… एकदूसरे की पसंदनापसंद की. कौनकौन से हीरोहीरोइन पसंद हैं? फिल्में कैसी अच्छी लगती हैं? टैलीविजन सीरियल कौनकौन से देखते हैं? सहेलियां कितनी हैं और बौयफ्रैंड कितने हैं?

बौयफ्रैंड का नाम पूछने पर सना नाराज हो जाती और गुस्से में कहती, ‘‘7 बौयफ्रैंड्स हैं मेरे. शादी करनी है तो करो, वरना रास्ता पकड़ो…’’

यह सुन कर आफताब को मजा आ जाता. वह लोटपोट हो जाता. फिर सना को मनाने लगता. प्यारमुहब्बत का इजहार और वादे होने लगते.

इस तरह बहुत ही हंसीखुशी से दिन गुजर रहे थे. अब तो बस शादी का इंतजार था. शादी भी ज्यादा दूर न थी. कमोबेश 2 महीने रह गए थे. शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं.

एक दिन अबरार सना के घर आए. वे कुछ परेशान से थे. सना की अम्मी ने पूछा, ‘‘क्या बात है अबरार भाई? आप कुछ परेशान से लग रहे हैं?’’

‘‘परेशानी वाली बात ही है भाभी,’’ असरार बोले.

‘‘क्या बात है? बताइए भी.’’

अबरार ने धीरे से कहा, ‘‘लड़के ने मोटरसाइकिल की मांग की है.’’

यह सुन कर सना की अम्मी को हंसी आ गई, ‘‘बड़ा नादान लड़का है. यह भी कोई कहने की बात है… क्या हम इतने गएगुजरे हैं कि मोटरसाइकिल भी नहीं देंगे.’’

शाम को जब सना के अब्बू घर आए और उन्हें यह बात पता चली, तो उन्हें बड़ा अफसोस हुआ. वे बोले, ‘‘सना की अम्मी, लड़के वाले बहुत लालची किस्म के लग रहे हैं.’’

बात आईगई हो गई. धीरेधीरे समय गुजरता रहा. इधर एक बात और हुई. आफताब का फोन आना बंद हो गया. सना को चिंता हुई. क्या वह बीमार है? बीमार होता, तो पता चलता. कहीं बाहर गया है? बाहर कहां जाएगा. वैसे तो दिन हो या रात, दम ही नहीं लेता था. पर अब. अब उसे चैन कैसे पड़ रहा है. आज कितने दिन हो गए हैं उस से बातें किए हुए?

आखिरकार सना ने उस का फोन नंबर मिलाया. उधर से काल रिसीव नहीं की गई. उस ने दोबारा फोन मिलाया. फिर नहीं रिसीव की गई. इस के बाद फोन बिजी बताने लगा. सना पर उदासी छा गई. वह बारबार मोबाइल फोन की ओर हसरत भरी नजरों से देखती. शायद अब आफताब का फोन आए. शायद अब. कभीकभी जब किसी और का या फिर कंपनी का फोन आता, वह खुश हो कर दौड़ पड़ती, अगले ही पल निराश हो जाती.

आखिर में उस ने एक एसएमएस टाइप किया, ‘प्लीज, आफताब बात करो. इतना मत सताओ. तुम्हें मेरी कसम.’ कई दिन गुजर गए, उधर से न तो एसएमएस आया और न ही काल हुई.

इसी बीच एक दिन अबरार का आना हुआ. आज फिर वे कुछ परेशान से थे. पूछने पर वे बोले, ‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि लड़के वालों की मरजी क्या है?’’

यह सुनते ही सना के अब्बूअम्मी डर गए. अबरार ने बताया, ‘‘लड़के की मां कह रही थीं कि उन के बेटे के रिश्ते अब भी आ रहे हैं. एक लड़की वाले तो कार देने को तैयार हैं…’’

इतना सुनना था कि सना के अब्बू उठ खड़े हुए. वे गुस्से से कांपने लगे, ‘‘अबरार भाई, मैं उन के हथकडि़यां लगवा दूंगा… उन का लालच दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. अरे, उन का लड़का सरकारी नौकरी करता है… बैंक में मुलाजिम है… तो हमारी लड़की भी कोई जाहिल नहीं है.’’

अबरार भाई सकते में आ गए. वे उठ खड़े हुए और सना के अब्बू को समझाने लगे, ‘‘गफ्फार भाई, ऐसा मत बोलिए, ठंडे दिमाग से काम लीजिए. गुस्से में सब बिगड़ जाता है.’’

‘‘क्या खाक ठंडे दिमाग से काम लें… क्या आप को नहीं लगता कि सबकुछ बिगड़ रहा है… वे मंगनी तोड़ने के मूड में हैं. उन्हें हम से बड़ी मुरगी मिल गई है.’’

‘‘आप ठीक फरमा रहे हैं. शायद उन्हें हम से ऊंची पार्टी मिल गई है.’’

‘‘तो क्या ऐसी हालत में मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा… जेल भिजवा दूंगा उन्हें… समझ क्या रखा है?’’

‘‘गफ्फार भाई, जरा सोचिए, अगर आप ने ऐसा किया, तो बड़ी बदनामी होगी…’’

‘‘बदनामी, किस की बदनामी?’’

‘‘आप की, लोग कहेंगे कि लड़की का बाप हो कर लड़के वालों को हथकड़ी लगवाता है… जेल भिजवाता है… सना बिटिया के लिए रिश्ते आने बंद हो जाएंगे. लड़की वालों को बड़े सब्र से काम लेना पड़ता है.’’

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘इस से पहले कि वे मंगनी तोड़ें, हम उन के रिश्ते को लात मार देते हैं… इस से वे बदनाम हो जाएंगे कि दहेज में गाड़ी मांग रहे थे. उन्हें रिश्ता ढूंढ़े नहीं मिलेगा. हमारी सना बेटी के लिए हजारों रिश्ते आएंगे. आखिर उस में क्या कमी है? खूबसूरत है और खूब सीरत भी. अभी उस की उम्र ही क्या हुई है.’’ फिर एक दिन लड़के वालों की तरफ से 3-4 लोग आए. इन लोगों में उन के यहां की मसजिद के इमाम साहब भी थे और अबरार भी. बैठ कर तय हुआ कि दोनों पक्ष एकदूसरे का सामान वापस कर दें और लड़की वाले का मंगनी के खानेपीने में जो खर्च हुआ है, उस का मुआवजा लड़के वाले दें.

सना की अम्मी कमरे के अंदर से बोलीं, ‘‘दिखाई में हम लोग लड़के को सोने की अंगूठी पहना आए थे और 5 हजार रुपए नकद भी दिए थे. मिठाई और फल भी ले गए थे, सो अलग…’’

‘‘यही कहा जा रहा है कि जो भी दियालिया है, वह एकदूसरे को वापस कर दें. मिठाई और फल तो लड़के वाले भी लाए होंगे?’’ इमाम साहब बोले. सना की अम्मी बोलीं, ‘‘वे ठहरे लड़के वाले, वे भला क्यों लाने लगे मिठाई और फल. बिटिया को सिर्फ 251 रुपल्ली पकड़ा गए थे, बस…’’

आज अबरार मंगनी का वह सारा सामान जो लड़के के यहां से आया था, लेने आए थे और साथ में 15 हजार रुपए भी लाए थे. 10 हजार रुपए मुआवजे के और 5 हजार रुपए जो लड़की वाले लड़के को दे आए थे. सोने की अंगूठी भी ले कर आए थे.

अबरार जब सूटकेस उठा कर चलने लगे, तो सना बोली, ‘‘अंकल, एक चीज रह गई है, वह भी लेते जाइए.’ ‘‘वह क्या है बेटी? जल्दी से ले आइए,’’ वे बोले.

‘‘अंकल, आप सूटकेस मुझे दे दीजिए, मैं इसी में रख दूंगी,’’ सना ने उन से सूटकेस लेते हुए कहा सना कमरे के अंदर गई. सूटकेस बिस्तर पर रखा और कैंची उठाई. शाम को जब सूटकेस आफताब के घर पहुंचा, तो उस के घर की औरतें उसे खोल कर देखने लगीं कि सारे कपड़े, मेकअप का सामान और नेकलेस है भी या नहीं सूट तो सारे दिखाई पड़ रहे हैं. बुरका भी है, लहंगा, कुरती और चुन्नी भी. बचाखुचा मेकअप का सामान भी है.

‘‘यह क्या…’’ आफताब की भाभी चीख पड़ीं, ‘‘यह लहंगा तो कई जगह से कटा हुआ है.’’

दोबारा देखा, लहंगा चाकचाक था. कुरती उठा कर देखी, वह भी कई जगह से कटीफटी थी. सारे के सारे सूट उठाउठा कर देख डाले. सब के सब तारतार निकले. नकाब का भी यही हाल था. जल्द से नेकलेस उठा कर देखा. उस की भी लडि़यां टूटी हुई थीं.

Best Short Story : अनोखा पहलवान – आखिर क्या खास था उस पहलवान में

Best Short Story : बगदाद के खलीफा को कुश्ती करवाने का बड़ा शौक था. वह हर वर्ष कुश्ती प्रतियोगिता आयोजित करता था और जो पहलवान जीतता उसे कीमती भेंट दे कर सम्मानित करता था. उस के अपने दरबार में भी 5 नामी पहलवान थे. इस बार कुश्ती प्रतियोगिता के सभी मुकाबले जीतने वाले शाही पहलवान अली जुनैद को ले कर काफी चर्चा हो रही थी. निर्णायकों ने जब उसे सर्वश्रेष्ठ पहलवान घोषित किया, तो खलीफा की खुशी का ठिकाना न रहा, किंतु तभी जनता ने निर्णायकों पर पक्षपात का आरोप लगाया.

यह सुन कर खलीफा के कान खड़े हो गए. उस ने खीज कर घोषणा करवा दी, ‘‘शाही पहलवान जुनैद सर्वश्रेष्ठ है. अगर किसी को शक है तो 5 दिन के भीतर उसे चुनौती दे तो प्रतियोगिता दोबारा होगी. पर ध्यान रहे, चुनौती देने वाला यदि हार गया तो उस का कत्ल करा दिया जाएगा और यदि जीत गया तो उसे स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली भेंट की जाएगी.’’ इस घोषणा से बगदाद शहर में तहलका मच गया. दूरदराज के इलाकों से आए पहलवान अपने खेमे उखाड़ कर वापस जाने लगे. बाकी खेमों में भी एकदम सन्नाटा छा गया.

जुनैद पहलवान दाएं पैर में जंजीर बांध कर शहर भर में घूमा, पर उस के पीछे घिसटती जंजीर को किसी ने नहीं दबाया. जुनैद पहलवान मस्ती में झूमता हुआ गलीगली घूम रहा था. उस के पीछे बच्चों के झुंड किलकारियां मारते, तालियां पीटते चल रहे थे. धूल उड़ रही थी. तभी एक घर के पास पहलवान ने ठिठक कर पीछे देखा. उस के पांव की जंजीर को दबाने वाला व्यक्ति निर्भय पीछे खड़ा मुसकरा रहा था. वह काफी कमजोर और वृद्ध था पर उस का साहस कमाल का था. उस ने पहलवान से बात की और उस के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा. पहलवान गंभीर हो गया. वह उस मरियल से आदमी की कही बात पर गंभीरता से सोचविचार कर रहा था.

‘‘अच्छा, मुझे मंजूर है. मैं आप से कुश्ती लडं़ूगा,’’ पहलवान ने जैसे उस की चुनौती स्वीकार कर ली. बच्चों ने ठहाके लगाए. बड़ा शोर मचाया. सभी जानते थे कि निर्भय अपनी मौत को बुला रहा है. यह बात आग की तरह पूरे शहर में फैल गई. सिर पर पांव रख कर भागने को तैयार पहलवान भी ठहर गए. खलीफा भी हैरान था. आखिर कुश्ती का दिन निश्चित हुआ. खौफनाक तूफान को एक नन्हे दीपक से भिड़ते देखने भीड़ जमा हुई. भय और कुतूहल का माहौल था.

निश्चित समय पर शाही पहलवान अली जुनैद मुसकराता हुआ मैदान में आया. खलीफा अपने साथियों के साथ पहले ही जम गया था. कनातों के पीछे से शाही दरबार की औरतें यह नजारा देख रही थीं. जब सींकिया पहलवान मैदान में आया तो उसे देखते ही दर्शकों ने भारी शोर मचाया, पर वह बहुत अकड़ कर चल रहा था. शाही पहलवान से हाथ मिला कर उस ने अखाड़े में नाटकीय उछलकूद शुरू कर दी. लोग हंसने लगे. कोई बोला, ‘‘भला यह मरने पर क्यों उतारू है?’’ तो किसी ने कहा, ‘‘पागल लगता है.’’

निर्णायकों ने इशारा किया. दर्शकों ने दम साध लिया. इस से पहले कि शाही पहलवान अपना दांव लगाता, उस सींकिया पहलवान ने शाही पहलवान को चित्त कर दिया और उछल कर उस की छाती पर बैठ गया. खलीफा का चेहरा उतर गया. सभी अविश्वास से एकदूसरे का मुंह देखने लगे. पर होनी सब के सामने थी. तभी ऐलान हुआ, शाही पहलवान कुश्ती हार गया.

खलीफा क्रोधित हो उठा. उस ने शाही पहलवान को बुलाया और बहुत फटकारा. पहलवान सिर झुका कर खामोश खड़ा था. ‘‘तुम बोलते क्यों नहीं? मेरी बात का जवाब दो. तुम हार कैसे गए?’’ ‘‘क्या जवाब दूं. मैं कुश्ती हार गया क्योंकि मैं पहलवान ही नहीं, एक इंसान भी हूं. इस व्यक्ति ने मुझे बताया था कि वह बहुत गरीब है. 3 साल से उस के खेत में एक दाना भी अन्न नहीं उगा. घर में कुंआरी बहन बैठी है. अगर वह यह प्रतियोगिता जीत जाए तो ईनाम में मिलने वाले धन से वह अपनी समस्या सुलझा लेगा,’’ जुनैद ने बताया.

खलीफा अली जुनैद की उदारता से हक्काबक्का रह गया. ‘‘पर तुम इस की सहायता अपने पास जमा धन से भी तो कर सकते थे. खजाने से काफी रकम मिलती है तुम्हें?’’ खलीफा ने पूछा. ‘‘हुजूर मेरे पास एक कौड़ी भी जमा नहीं है. जो मिलता है मैं गरीबों में बांट देता हूं,’’ पहलवान ने कहा. ‘‘शाबाश,’’ खलीफा ने लपक कर पहलवान को गले लगा लिया. फिर वह गरीब तो खैर मालामाल हुआ ही पहलवान की झोली भी मुहरों से भर दी गई.

Love Story : भरमजाल – रानी के जाल में कैसे फंस गया रमेश

Love Story : आज पार्क जा कर जौगिंग करने में मेरा बिलकुल भी मन नहीं लगा. हालांकि, रमेश को छोड़ कर बाकी सभी दोस्त थे, मगर रमेश से मेरी कुछ ज्यादा ही पटती थी. 25 सालों से हम दोनों एकसाथ इस पार्क में जौगिंग करने आते रहे हैं. कुछ तो वैसे ही रमेश का न होना मुझे एक अधूरेपन का एहसास करा रहा था और कुछ दोस्तों ने जब उस के बारे में उलटीसीधी बात करनी शुरू की, तो मेरा मन और भी परेशान हो गया.

‘‘4 महीने बाद 60वां जन्मदिन होने वाला था रमेश का. उम्र के इस पड़ाव पर ऐसा काम करते हुए उसे जरा भी शर्म नहीं आई. देखने में कितना धार्मिक लगता था और काम देखो कैसा किया. सारा समाज थूथू कर रहा है उस पर,’’ एक दोस्त ने कहा. दूसरे दोस्त ने नाकभौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे तो भाभीजी पर तरस आ रहा है. अच्छा हुआ दोनों लड़कों ने घर से निकाल दिया ऐसे बाप को…’’

इस से ज्यादा सुनने की ताकत मुझ में नहीं थी. ‘‘कुछ काम है…’’ कह कर मैं वापस घर आ गया और रमेश के बारे में सोचने लगा. रमेश और मेरी कारोबार के सिलसिले में एकदूसरे से जानपहचान हुई थी. यह जानपहचान कब दोस्ती और फिर गहरी दोस्ती में बदल गई, पता ही नहीं चला.

रमेश बहुत ही साफदिल, अपने काम में ईमानदार और सामाजिक इनसान था. उस के इन्हीं गुणों के चलते हमारी दोस्ती इतनी बढ़ी कि 25 साल तक हम रोजाना एकसाथ जौगिंग करने जाते रहे. हम दोनों अपनी सारी बातें जौगिंग के दौरान ही कर लेते थे. कई बार तो दूसरे दोस्त हमें लैलामजनू कह कर चिढ़ाते थे.

इतने सालों में रमेश ने अपना कारोबार काफी बढ़ा लिया था. ट्रांसपोर्ट के कारोबार के साथ ही अब उस ने दिल्ली के पौश इलाके में पैट्रोल पंप भी खोल लिया था. एक तरफ लक्ष्मी उस पर पैसा बरसा रही थी, वहीं दूसरी तरफ उस की सुंदर सुशील पत्नी ने 2 बेटे उस की गोद में दे कर दुनिया का सब से अमीर इनसान बना दिया था.

जिंदगी ने अच्छी रफ्तार पकड़ ली थी, मगर सब से अमीर आदमी सुखी भी हो, ऐसा जरूरी नहीं होता. वह लालच के ऐसे दलदल में धंसता चला जाता है कि जब तक उसे एहसास होता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है. 2 साल पहले बाजार में गिरावट आई, तो सभी के कारोबार ठप हो गए. रमेश किसी भी तरह कारोबार को चलाना चाहता था. उस ने अपने पैट्रोल पंप पर पैट्रोल भरने के लिए लड़कियां रख लीं और वाकई उस के पैट्रोल पंप की कमाई पहले से काफी ज्यादा बढ़ गई.

ग्राहक वहां पैट्रोल लेने के बहाने लड़कियां देखने ज्यादा आने लगे. अब रमेश हर तीसरे महीने पहली लड़की को हटा कर किसी नई और खूबसूरत लड़की को काम पर रखता. मुझे उस की इस सोच से नफरत हुई. मैं ने उसे समझाने की कोशिश भी की, तो उस ने कहा ‘आल इज फेयर इन बिजनेस’.

मैं अपनी आंखों से देख रहा था कि पैसा कैसे एक सीधेसादे इनसान की अक्ल मार देता है. ज्यादातर उस के मैनेजर ही इन लड़कियों को काम पर रखते थे. पर वे लड़कियां काम कैसा कर रही हैं, यह देखने के लिए रमेश कभीकभार अपने पैट्रोल पंप पर ही पैट्रोल भरवाने चला जाया करता था.

उन्हीं दिनों एक लड़की रानी, उस के पैट्रोल पंप पर काम करने आई. एक शाम को मैं उसी की गाड़ी में काम के सिलसिले में उस के साथ गया था. उस दिन रमेश ने पहली बार रानी को देखा था. गठे हुए बदन की लंबीपतली थोड़ी सांवली सी थी वह, उम्र यही होगी कोई 23-24 साल यानी रमेश के बेटे से भी छोटी उम्र की थी.

रमेश ने मैनेजर को बुला कर पूछा, तो उस ने बताया कि यह नई लड़की है रानी, अपना काम भी बखूबी कर रही है. उस के बाद रमेश और मैं वापस आ गए. 3 महीने बाद मैनेजर का रमेश के पास फोन आया कि रानी आप से मिलना चाहती है. वह काम से हटने को तैयार नहीं है. उसे समझाने की बहुत कोशिश की, मगर कहती है कि एक बार मालिक से मिलवा दो, फिर चली जाऊंगी.

रमेश ने कहा, ‘‘उसे मेरे दफ्तर भेज देना.’’

दफ्तर आते ही रानी रमेश के पैरों में गिर गई और लगी जोरजोर से रोने, ‘‘मालिक, मुझे काम से मत निकालो. मेरे घर में कमाने वाली सिर्फ मैं ही हूं. बाप शराबी है. वह पैसे के लिए मुझे बेच देगा. 3 महीने से आधी तनख्वाह उस के हाथ में रख देती थी, तो शांत रहता था. बड़ी मुश्किल से अच्छी नौकरी और अच्छे लोग मिले थे. मैं आप के सब काम कर दिया करूंगी, ओवरटाइम भी करूंगी. उस के पैसे भी चाहे मत देना, पर मुझे काम से मत निकालो.’’ रमेश ने 1-2 बार उस से कहा भी कि उठो, ऐसे पैरों में मत गिरो, मगर वह पैरों को पकड़े रोती रही. आखिरकार रमेश को ही उसे उठाना पड़ा और मानना पड़ा कि वह उसे काम से नहीं निकालेगा.

ऐसा सुनते ही रानी ने रमेश का हाथ चूम लिया. 60 साल के बूढ़े रमेश के अंदर कमसिन रानी के चुंबन से एक सिहरन सी दौड़ गई. रानी के जाने के बाद भी रमेश उसी के बारे में सोचता रहा. वह खुद को उस की तरफ खिंचता हुआ महसूस कर रहा था. 1-2 बार उस ने अपने इन विचारों को झटका भी कि वह यह क्या सोच रहा है. मगर रानी का गठीला बदन और उस का चुंबन रहरह कर उसे उस से मिलने को बेचैन कर रहे थे.

उस दिन के बाद से रमेश अकसर अपने पैट्रोल पंप पर जाने लगा. पहले वह वहां बैठता नहीं था. अब उस ने वहां बैठना भी शुरू कर दिया था. रानी के दफ्तर आने वाली बात रमेश ने मुझे बताई थी और जब उस ने अपनी उस सोच के बारे में मुझे बताया, तभी मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, ‘‘तुम रानी से दूर ही रहो. फिसलने की कोई उम्र नहीं होती. कीचड़ में कितना धंस जाओगे, खुद तुम्हें भी पता नहीं चलेगा.’’

मेरे समझाने के बाद से रमेश ने मुझ से रानी के बारे में बातें करना बंद कर दिया, मगर मैं बरसों पुराना दोस्त था उस का, उस की बदलती हरकतों को बखूबी देख पा रहा था. अगले 3 महीने का समय भी इसी तरह निकल गया. अब रमेश ने रानी को बुला कर कहा, ‘‘देखो, अब मुझे तुम्हें यहां से हटाना होगा, नहीं तो बाकी की लड़कियां भी यही मांग करेंगी कि हमें भी काम से मत हटाओ.’’

‘‘मगर, मैं कहां जाऊंगी मालिक?’’ ‘‘शहर से बाहर निकल कर हमारा एक फार्म हाउस है, वहां उस घर की देखभाल के लिए किसी की जरूरत है. मैं तुम्हें वहां नौकरी दे सकता हूं. चौबीस घंटे वहीं रहना होगा. खानापीना सब हम देंगे और तनख्वाह अलग.’’

रानी ने खुशीखुशी हां भर दी. अब रानी फार्म हाउस में काम करने लगी. कभीकभी रमेश अपने दोस्तों को वहां ले जाता, तो रानी खाना भी बना देती थी सब के लिए.

रानी हर काम में माहिर थी. फार्म हाउस पूरा चमका दिया था उस ने. रमेश को यह देख कर बहुत अच्छा लगा. एक बार कहीं बाहर से आते हुए रमेश फार्म हाउस पर चला गया. वहां जा कर पता चला कि चौकीदार छुट्टी पर है. तब रानी ही गेट खोलने आई. चायपानी, नाश्ता सब दे दिया और जाने लगी, तो रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हें यहां कोई दिक्कत तो नहीं है?’’

‘‘जितना चाहा था, उस से भी ज्यादा मिल गया मालिक. आप की वजह से ही मैं आज इज्जत की जिंदगी जी रही हूं, नहीं तो मेरा बाप कब का मुझे बेच देता,’’ कहतेकहते वह रोने लगी. रमेश ने उस के आंसू पोंछे, तो रानी ने रमेश का हाथ पकड़ लिया, ‘‘सर, आप बहुत ही अच्छे इनसान हैं. आजकल अपने कर्मचारियों के बारे में कौन सोचता है.’’ और फिर से उस का हाथ चूमने लगी और बोली, ‘‘आप तो मेरे लिए सबकुछ हैं.’’

उस चुंबन की सिहरन ने रमेश के हाथों वह काम करवा दिया, जो रानी उस से कराना चाहती थी. उस के बाद से तो रमेश का हर हफ्ते का यही काम हो गया. वह हर हफ्ते काम का बहाना बना कर फार्म हाउस आ जाता. रानी ने उसे अपनी बातों में इस कदर उलझा लिया था कि अब रमेश को अपने घर और बीवीबच्चों की भी चिंता नहीं थी. इस बीच रमेश ने मुझ से मिलनाजुलना बंद कर दिया था. फिर अचानक एक दिन भाभी (रमेश की पत्नी) का फोन आया कि रमेश ने दूसरी शादी कर ली है.

यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. मुझे यह तो अंदाजा था कि कुछ गलत हो रहा है, मगर इस हद तक होगा, यह नहीं सोचा था. शादी की उम्र तो उस के बेटों की थी, ऐसे में जब उन्हें अपने बाप की करतूत का पता चला, तो उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया.

रमेश ने पार्क आना बंद कर दिया. आता भी किस मुंह से. इतने सालों से कमाई इज्जत पल में मिट्टी में मिल गई. सारा समाज रमेश पर थूथू कर रहा था. शादी के 6 महीने बाद ही रानी ने एक बच्चे को जन्म दे दिया. रमेश रानी के साथ फार्म हाउस में ही रह रहा था. एक दिन अचानक रात में रमेश मुझ से मिलने आया. वह जानता था कि उस की हरकत से मैं भी बहुत नाराज हूं.

मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोला, ‘‘मुझे मालूम है कि तुम मेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहते, पर एक बार मेरी बात सुन लो. मैं यही चाहता हूं और कुछ नहीं. तुम्हारी माफी भी नहीं.’’ फिर रमेश ने शुरू से आखिर तक सारी बातें मुझे बताईं. रमेश ने यह भी बताया कि यह बच्चा उस का है ही नहीं. मगर रमेश ने रानी के साथ संबंध बनाए थे, उस का वीडियो रानी के आशिक ने चुपके से बना लिया था. रमेश पर शादी करने का दबाव डाला गया.

‘‘शादी के बाद ही उसे सारी सचाई का पता चल गया था. रानी ने सिर्फ पैसों के लिए उसे फंसाया था. यह उस की और उस के आशिक की सोचीसमझी चाल थी,’’ यह सब कह कर रमेश फूटफूट कर रोने लगा और मेरे घर से चला गया. मैं तो यह सुन कर सन्न सा बैठा रह गया. अपने दोस्त की जिंदगी अपनी आंखों के सामने बरबाद होते हुए देख रहा था. जिसे रमेश प्यार समझ रहा था, वह केवल एक भरमजाल था. उस ने अपनी इज्जत, परिवार, दोस्तों को तो खोया ही, साथ ही उस प्यार से भी इतना बड़ा धोखा खाया.

काश, वह पहले ही समझ जाता, तो इतने सालों से कमाई हुई उस की इज्जत पर इतना बड़ा कलंक तो नहीं लगता. वह इतना समझता कि 60 साल की उम्र प्यार करने के लिए नहीं, बल्कि अपने परिवार के लिए होती है.

Best Short Story : अलविदा काकुल – क्या कागज की नाव सा था उनका रिश्ता?

Best Short Story : पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण… काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई. 2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली. शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’ पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’ ‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी. ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया. ‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’ मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा. ‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा. मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया. काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते. एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा. मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था. इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया. ‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’ ‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए. अलविदा…काकुल…अलविदा…

Hindi Story : सौतेले लोग – कौशल के जीवन में कैसा था सौतेले रिश्ते का प्रवेश

Hindi Story : कौशल के जीवन में जैसे कोई सुनामी आ गई थी. वे अपने दफ्तर के दौरे पर थे. पत्नी अंकिता बच्चों को स्कूल भेज कर घर की साफसफाई कर रही थी. आज जाने उसे क्या सूझा था कि उस ने घर को धो डालने का प्लान बना लिया था. जैसे ही उस ने पाइप लगा कर कमरे में पानी डाला, अचानक बिजली आ गई. उसे आहट भी नहीं हुई होगी कि बिजली उस की मौत का पैगाम ले कर आई है. कमरे में कूलर लगा था और उसी के करैंट में वह बिलकुल स्याह हो चुकी थी. पूरा घर अंदर से बंद था. लगभग 3 बजे जब दोनों बच्चे स्कूल से आए और दरवाजा खोलने की कोशिश की तो पता ही नहीं चला अंदर क्या हुआ है. अड़ोसीपड़ोसी इकट्ठे हो गए. दरवाजा खुला तो कौशल को फोन से सारी बातें बताई गईं. पुलिस बुलाई गई. ससुराल से ले कर स्वजनों तक खबर करैंट की भांति दौड़ गई.

2 मासूम बच्चे 3 साल की बेटी और 5 साल का बेटा. सभी सहमे और डरे हुए थे. नियति को तो जो करना था उस ने अपना खेल, खेल लिया था. कौशल उजड़ गए थे. न बच्चे संभलते, न गृहस्थी, न नौकरी. दोनों बच्चों को उन्होंने ननिहाल भेज दिया था. तब उन्हें अपनी मां की बड़ी याद आई थी. एक वर्ष पहले ही उन की मौत हुई थी. वे होतीं तो बच्चे आज बिना घरघाट के नहीं रहते. कौशल का सबकुछ लुट चुका था. दिमाग और दिल से भी वे डर गए थे. पत्नी का नीलावर्ण उन की आंखों से दूर नहीं हो पा रहा था. कौशल की नजर अब अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों और मैरिज पोर्टल्स पर भी जाती पर उन की नैया को दोबारा कौन पार उतारेगा, कहीं आस न बंधती. ड्यूटी पर जाते तो दोनों बच्चों का मासूम चेहरा याद आता. पत्नी का स्नेह याद आता. सोचते कि अब जाने कैसे होंगे दोनों.

वे जब भी ससुराल जाते, उन्हें दोनों बच्चों के रूखे बाल दिखाई देते और उन के भोले प्रश्न उन्हें अंदर से कुरेद देते, पापा, ‘आप हम लोगों के साथ क्यों नहीं रहते? मम्मी रहतीं तो हम लोग आप के पास ही होते न.’ उन्हें बच्चों से अलग रहना इसलिए भी नहीं भाता कि ये उन के अक्षरज्ञान का समय था. मां नहीं है और पिता भी इतनी दूर. इस से वे तड़प जाते. हजार कोशिशों के बाद जो रिश्ते मिलते, उन में संदेह ज्यादा जबकि संभावना कम दिखाई देती. एक टीचर उन से ब्याह के लिए राजी थी. उस का नाम था कला. उस से कौशल कुमार ने शादी से संबंधित बातें कीं. वह बहुत ही व्यस्त टीचर थी. स्कूल में पढ़ाने के बाद भी बच्चों के 3 बैच उस से ट्यूशन पढ़ने आते. उस के लिए शादी सामान्य सी बात थी. क्या हुआ, आप के 2 बच्चे हैं तो वे भी मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ लेंगे. मैं शादी के लिए राजी हूं, पर नौकरी छोड़ पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा.

कौशल कला की नौकरी छोड़ने वाली बात को दिल से लगा बैठे थे. बच्चों के लिए मां ढूंढ़ रहे थे. पर मां कहां मिली. वह तो मास्टरनी ही होगी. टुकुरटुकुर बेचारे बिना मुंह के बच्चे देखते रह जाएंगे. ‘मम्मा खीर बनाओ,’ बेटा तो मम्मी से पीले चावल की फरमाइश करता था. बच्चे नहीं खाते तो पत्नी सुबह ही पुआपूरी बना कर खिला देती थी. अब सिर्फ उंगली पकड़ कर तीनों भागते ही नजर आएंगे. उन की आंखों के कोर भीग गए.

कौशल की चिंता जायज थी. एक जीवन खुशियों से भरा था, दूसरा डरावना महसूस हो रहा था. 2 नादान मासूम बच्चे और हजार प्रश्नों से घिरे कौशल. किसी ने उन्हें दूसरी लड़की का पता भी बताया पर मालूम हुआ उस के तो विवाहपूर्व ही प्रेमप्रसंग काफी चर्चे में हैं. वह भी कौशल से ब्याह करना चाहती थी. इस विषय पर पूछे जाने पर उस ने बड़ी बेबाकी से कहा, इतने दिनों तक ब्याह नहीं हुआ तो थोड़ाबहुत तो चलता है और आप कौन सा मुझ से पहली शादी करने वाले हैं, आप के साथ मुझे आप के बच्चों को भी तो संभालना पड़ेगा. कौशल उस की बातों से दुखी हो गए. वे जानबूझ कर विवाह के लिए कैसे हां करते. उस के चरित्र का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा. इतने बोल्ड तो कौशल नहीं हो पाते. उन्हें लगता वे मर जाते तो पत्नी कुछ भी कर के बच्चों को पाल लेती पर वे अकेले 2 बच्चों की नैया पार नहीं लगा सकते. वे अपने दोस्तों के घर भी जाते तो उन के लिए सिर्फ संवेदना दी जाती.

उन्हें तो जीवन चाहिए था. एक खुशगवार घर का, एक मुसकराती पत्नी का, 2 हंसतेखेलते बच्चों के विकास का. पता नहीं वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे. उन्हें अपने विधुर जीवन पर तरस आता. अंकिता और दोनों बच्चों की तसवीर ले कर वे घंटों रो लेते पर जीवन का हल नहीं दिखाई पड़ता. कईकई दिनों तक वे छुट्टियां ले कर बिना खाए घर में ही रह जाते. न किसी से मिलते न बातें करते. अखबार के विज्ञापन में पत्नी ढूंढ़ते. इसी तलाश में वे गरीब से गरीब घर की लड़कियों को भी देख आए थे. विधवा और छोड़ दी गई महिलाओं के साथ भी वे गठबंधन को राजी थे पर कुछ न कुछ फेरे सामने आते ही गए. विधवा स्त्री भी 2 बच्चों के पिता के नाम पर तैयार नहीं हुई थी. एक महिला तो कौशल से पूछ बैठी थी, पत्नी दुर्घटना में मरी या मारा था. कौशल टूट चुके थे. हालांकि वे बच्चों के लिए सौतेली मां नहीं लाना चाहते थे. यह उन के जीवन की मजबूरी थी. उन्होंने मन को कड़ा किया और एक विवाह प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. जीवन की मजबूरियों ने उन्हें बहुत मजबूर किया था. इस बार अनामिका से विवाह की सहमति उन्होंने दे दी.

कौशल एक अच्छे इंसान थे. अनामिका उन के सामने दुबली सी आम लड़की थी. उस ने उन की मजबूरियों को सुना था, जाना था और अपनी सहमति दे दी थी. विवाह हो गया. अनामिका ने गृहस्थी संभाल ली. सभी कहते थे, ‘सौतेली मां बच्चों का खयाल नहीं रखेगी, अपनी ही सुखसुविधाओं का खयाल रखेगी.’ वर्षों की धारणा को अनामिका ने मिट्टी में मिला दिया था. बेटी को उस ने कंठहार बना लिया था. बेटे को भी वह पूरी देखरेख में रखती. कौशल का अब समय अच्छा था कि उन्हें अनामिका जैसी पत्नी मिली थी. खानापीना, झाड़ूबुहारू, बरतनकपड़े और आखिर में पति के पांव दबा कर सोना उस की आदत थी. कौशल के घर वाले दबाव बनाते कि एक कामवाली बाई को क्यों नहीं रखते. बच्चों के लिए ट्यूटर क्यों नहीं रखते. पत्नी को मशीन क्यों बनाया है. कईर् बार उन्होंने अनामिका से कहा पर उस ने कहा कि वह सारे दिन घर में क्या करेगी.

वे कहते थे कि घर अनामिका का अधिकार क्षेत्र है, वही जाने कैसे घर चलाना है. अनामिका भी तुरंत कौशल के पक्ष में खड़ी हो जाती. मुझे सारे काम करने पसंद हैं. मैं कर पाती हूं, फिर क्या जरूरत है इन सब की. धीरेधीरे बच्चे पढ़ने लगे. नौकरी में आ गए. अनामिका वैसे ही सेवाभाव से कार्यरत रही. पुरानी मान्यताएं और परंपराएं उस के सामने गलत साबित होती गईं. समझ में नहीं आता किस के कैसे रूप हैं. घर वालों को लगता कौशल ही सौतेला व्यवहार कर रहे हैं. पर उन्हें खाना मिलता है. बच्चे खुशीखुशी पढ़ाई कर रहे हैं. जब सबकुछ दिखाई पड़ रहा है तो कोई चाहे जैसे अपनी गृहस्थी चलाए. सब के रिश्ते तो सौतेले ही हैं. बच्चे मां को आदर देना सीख गए थे. कोई काम बिना बताए नहीं करते.

दूसरों को गृहस्थी में टांग अड़ाने की न तो गुंजाइश थी, न जरूरत. इसलिए सभी मन मसोस कर चुप रहते. तभी पड़ोस में मदन भैया की अचानक मौत हो गई. सुना था कि उन्होंने अपनी पत्नी के मरने के बाद दूसरा विवाह किया था जबकि उन के 4 बच्चे थे. पर मदन भैया की दूसरी पत्नी बीमारी का ऐसा स्वांग रचती कि बेचारे मदन भैया ही खाना बना कर पत्नी व बच्चों को खिलाते.

पैसों के लिए भी तकरार होती. इसी बीच मदन भैया को हार्टअटैक हो गया. अब पत्नी सौतेले बच्चों से बातें भी नहीं करती. कैसे चलेगी गृहस्थी उन पांचों की. मदन भैया के क्रियाकर्म के बाद सौतेले लोग क्या कहेंगे, समझ में नहीं आया पर अनामिका की सेवा, उस की कर्तव्यनिष्ठा ने सारे रिश्तों को मात दे दी थी.

अनामिका से जब मुलाकात हुई तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘दीदी, हर कोई अपनाअपना वर्तमान बनाता है. क्या फर्क पड़ता है अगर मैं सुबह से शाम तक खटती हूं. ऐसा तो हर मां करती है. मेरी मां भी किया करती थीं. फिर मेरा तो परिवार ही छोटा है.’ तब लगने लगा कि कौशल मेरी नजरों में, पत्नी के साथ जो सौतेला व्यवहार करता है वह सौतेला नहीं, बल्कि मोहब्बत से भरा अपनापन है. मैं अपने नजरिए से उन का अपनापन नहीं जान पाई थी. आखिर, मैं भी कितना जानती थी अनामिका और कौशल को. पर मुझे उन के बीच सौतेलापन दिखाई पड़ता था. पर अब लगा, सौतेले लोगों को समझ पाना इतना भी आसान नहीं. सचमुच जीवन जीना एक कला है, सभी इसे समझ नहीं पाते.

Hindi Kahani : सीख – लावण्या तान्या से किस बात के लिए नाराज रहता था

Hindi Kahani : हर शनिवार की तरह आज भी तान्या जब दिन में 12 बजे सो कर उठी तो लावण्या के चेहरे पर नाराजगी देख फौरन प्यार से बोली, ‘‘मम्मी, बहुत भूख लगी है, खाना तैयार है न? जल्दी लगा दो, मैं फ्रैश हो कर आई.’’

वहीं बैठे तुषार ने पत्नी का खराब मूड भांप कर समझाते हुए कहा, ‘‘लावण्या, क्यों दुखी हो रही हो? यह तो हर छुट्टी का रुटीन है उस का. चलो, हम भी उस के साथ लंच कर लेते हैं. इस बहाने उस के साथ थोड़ा समय बिता लेंगे.’’

लावण्या कुढ़ते हुए तीनों का खाना लगाने लगी. तान्या आई. डाइनिंग टेबल पर बैठते हुए बोली, ‘‘आप लोग भी खा रहे हैं मेरे साथ, लेकिन अभी तो 12 ही बजे हैं?’’

तुषार बोले, ‘‘इस बहाने ही तुम्हारी कंपनी मिल जाएगी.’’

‘‘यह बात तो ठीक है पापा, मैं खा कर अभी फिर सो जाऊंगी, आज पूरा दिन आराम करना है.’’

लावण्या कुछ नहीं बोली. तीनों खाना खाते रहे. तान्या ने खाना खत्म कर प्लेट उठाई, रसोई में रखी और बोली, ‘‘अच्छा पापा, थोड़ा और आराम करूंगी. और हां मम्मी, मुझे उठाना मत.’’

तान्या ने अपने रूम का दरवाजा बंद किया और फिर सोने चली गई. पतिपत्नी ने बस चुपचाप एकदूसरे को देखा, कहा कुछ नहीं. कहने लायक कुछ था भी नहीं. दोनों मन ही मन इकलौती, आलसी और लापरवाह बेटी के तौरतरीकों पर दुखी थे.

लंच खत्म कर तुषार टेबल साफ करने में लावण्या का हाथ बंटाने लगे. फिर बोले, ‘‘मेरी जरूरी मीटिंग है, कुछ तैयारी करनी है. तुम थोड़ा आराम कर लो.’’

लावण्या ‘हां’ में सिर हिला कर दुखी मन से अपने बैडरूम में जा कर लेट गई. वह सचमुच बहुत दुखी हो चुकी थी. बेटी के रंगढंग उसे बहुत चिंतित कर रहे थे.

तान्या का बीकौम हो चुका था. वह सीए कर रही थी. अब, उस की आर्टिकलशिप चल रही थी. तान्या सुबह साढ़े 9 बजे के आसपास निकलती थी, रात को 9 बजे तक ही आती थी. वह लोकल टे्रन से ही आतीजाती थी.

तान्या काफी थक जाती है, यह जानती है लावण्या. उसे तान्या की इस भागदौड़ से सहानुभूति भी है लेकिन वह हमेशा यही सोचती है कि यह मेहनत ही उस की बेटी का भविष्य बनाएगी.

लावण्या और तुषार ने मन ही मन अपनी बेटी को उच्च शिक्षित, आत्मनिर्भर बनते देखने का सपना संजोया है. वह उस से घर के किसी काम में हाथ बंटाने की उम्मीद भी नहीं करती. वह बस यही चाहती है कि वह पढ़ेलिखे. लेकिन तान्या को पता नहीं क्या हो गया है, वह झुंझलाते हुए बिना कोई बात किए औफिस निकल जाती है. आते ही बैग ड्राइंगरूम में ही पटकती है और टीवी देखने को बैठ जाती है, डिनर करती है और फिर सोने चली जाती है.

कई बार लावण्या ने सोचा कि कहीं उस की बेटी को औफिस में कोई परेशान तो नहीं कर रहा है, पता नहीं कितने अच्छेबुरे खयाल उस के दिल को परेशान करने लगे थे.

एक दिन रात को उस ने बड़े स्नेह से उसे दुलारते हुए पूछा था, ‘‘क्या बात है, बेटी? इतना चिढ़ते हुए औफिस क्यों जाती हो? अब तो 8 महीने ही बचे हैं सीए फाइनल की परीक्षा में, 4 महीने पहले से तुम्हें छुट्टियां भी मिल जाएंगी, बात क्या है?’’

तान्या ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘मम्मी, मुझे सोने दो, मैं थक गई हूं.’’

लावण्या ने फिर थोड़ी गंभीरता से पूछा, ‘‘सो जाना, पहले बताओ, इतने खराब मूड में क्यों रहती हो?’’

‘‘आप को पता नहीं मेरी बात समझ आएगी या नहीं.’’

‘‘मतलब? ऐसी क्या बात है?’’

तान्या उठ कर बैठ गई थी, ‘‘मम्मी, मेरा मन नहीं करता कुछ करने का.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मेरा मन करता है, घर में रहूं, आराम करूं, टीवी देखूं, बस.’’

लावण्या अवाक् सी बेटी का मुंह देखती रह गई थी, कहा, ‘‘यह क्या बात हुई, तान्या?’’

‘‘हां मम्मी, कोई शौक नहीं है मुझे पढ़ने का, औफिस जाने का.’’

‘‘क्या कह रही हो, तान्या? तुम पढ़ाई में तो अच्छी रही हो, तुम्हारा दिमाग भी तेज है और अब तो कम समय ही बचा है फाइनल का.’’

‘‘हां, पता है, पर मेरा मन नहीं करता कुछ करने का. बस, आराम करना अच्छा लगता है मुझे घर में.’’

लावण्या बेटी का आलसी, आरामपसंद स्वभाव जानती तो थी ही, कहने लगी, ‘‘तुम्हें तुम्हारे ही अच्छे भविष्य के लिए पढ़ायालिखाया जा रहा है और तुम ऐसी बातें कर रही हो, बहुत दुख हो रहा है मुझे.’’

‘‘आप को भी तो शौक नहीं रहा जौब करने का, मुझे भी नहीं है तो कौन सी बड़ी बात हो गई.’’

‘‘पर मेरा टाइम और था, तान्या. अब अपने पैरों पर खड़े होना बहुत जरूरी है, लड़कियां हर क्षेत्र में कितना आगे हैं, तुम्हारे पापा तुम्हें हर तरह से आत्मनिर्भर व सफल होते देखना चाहते हैं. हर सुखसुविधा है घर में तुम्हारे लिए, कुछ करोगी नहीं तो क्या करोगी?’’

‘‘वही जो आप कर रही हैं, आप को अपनी लाइफ में कोई कमी लगती है क्या? मैं भी हाउसवाइफ बन जाऊंगी, मुझे क्यों घर के बाहर धक्के खाने भेजना चाहते हो आप लोग?’’

लावण्या ने अपना सिर पकड़ लिया, बेटी की चलती जबान पर गुस्सा भी आया. फिर भी शांत, संयत स्वर में कहा, ‘‘तुम ने अब तक क्यों नहीं बताया कि तुम्हें पढ़ने का शौक नहीं है, कुछ करना नहीं है तुम्हें?’’

‘‘बता कर क्या होता? पापा मुझे ले कर इतने ऊंचे सपने देखते हैं, उन का मूड खराब हो जाता, आप ने आज पूछा तो मैं ने बता दिया.’’

इतने में तुषार ने आवाज दी थी और लावण्या तान्या के रूम से चली गई. तुषार ने लावण्या का उतरा चेहरा देखा, कारण पूछा. पहले तो लावण्या ने छिपाने की कोशिश की लेकिन फिर तान्या की सारी सोच तुषार के सामने स्पष्ट कर दी. दोनों सिर पकड़ कर बैठ गए थे. वे दोनों तो पता नहीं क्याक्या सपने देख रहे हैं और बेटी तो कुछ करना ही नहीं चाहती. तुषार ने इतना ही कहा, ‘‘बाद में प्यार से समझाएंगे, ऐसे ही औफिस के कामों से घबरा गई होगी.’’

फिर वह बाद आज तक नहीं आ पाया था. सोमवार से शुक्रवार तान्या बात के मूड में नहीं होती थी. शनिवार और रविवार पूरा दिन सोती थी. शाम को टीवी देखती थी. रविवार की शाम से ही उस का मूड अगले दिन औफिस जाने के नाम से खराब होना शुरू हो जाता था.

लावण्या मन ही मन आहत थी. मन तो होता था कि बेटी छुट्टियों में मांबाप के साथ हंसेबोले, बातें करे पर बेटी तो अपने आराम की दुनिया से बाहर निकलना ही नहीं चाहती थी. कई बार लावण्या ने फिर समझाया था, ‘‘और भी लड़कियां पूरा दिन काम करती हैं औफिस में, किसी का रुटीन यह नहीं रहता, घर वालों से बात तो ठीक से करती होंगी सब, कुछ घूमतीफिरती भी होंगी, बाहर जाती होंगी फैमिली के साथ, दोस्तों के साथ, तुम्हें तो दोस्तों से मिलने में भी आलस आता है.’’

‘‘मुझे बस आराम करने दिया करो, मम्मी. मुझे कुछ नहीं करना है.’’

‘‘22 साल की तो हो ही गई हो, शादी के बाद कैसे ऐडजस्ट करोगी?’’

‘‘मैं तो कुछ नहीं करूंगी, जल्दी ही जौब भी छोड़ दूंगी.’’

‘‘कैसे बीतेगी तुम्हारी लाइफ? इतना आराम, इतना आलस अच्छा नहीं है.’’

तान्या हंसते हुए बोली, ‘‘एक अच्छी पोस्ट वाला अमीर लड़का ढूंढ़ देना. बस, कट जाएगी लाइफ.’’

लावण्या उस का मुंह देखती रह गई थी. फिर वह परेशान रहने लगी थी बेटी की सोच से.

तुषार बैडरूम में आए. लावण्या को करवटें बदलते देख बोले, ‘‘अरे, तुम सोईं नहीं?’’

‘‘जब भी तान्या के बारे में सोचती हूं परेशान हो जाती हूं. क्यों इतना आराम चाहिए उसे लाइफ में?’’

‘‘अपना मूड मत खराब करो, समझ जाएगी धीरेधीरे.’’

ऐसे ही कुछ दिन और बीते, फिर महीने. मार्च का महीना चल रहा था, जुलाई से तान्या फाइनल के लिए छुट्टी पर रहने वाली थी. फाइनल की क्लास के लिए 60 हजार रुपए फीस भरी गई थी. लेकिन वह एक दिन भी नहीं गई थी.

एक दिन तुषार भी परेशान हो कर बोले, ‘‘तान्या, कैसे पास करोगी फाइनल? इतना टफ होता है, पैसे तो सब डूब ही गए?’’

‘‘अरे पापा, पहली बार फेल हो गई तो दूसरी बार दे दूंगी परीक्षाएं, क्या फर्क पड़ता है, कितनी बार भी दे सकते हैं परीक्षाएं, कोई चिंता नहीं है इस बात की.’’

तुषार को गुस्सा आ गया, ‘‘दिमाग खराब हो गया है? तुम्हें न समय की वैल्यू है न पैसे की, परेशान हो गए हैं हम.’’

तान्या पैर पटकते हुए अपने रूम में गई और लेट कर सो गई.

लावण्या की तो अब नींद ही उड़ने लगी थी. यही चिंता रहती कि आत्मनिर्भर नहीं भी हुई तो कम से कम आराम और आलस तो छोड़े. क्या होगा इस का.

1 महीना और बीता, एक रविवार को दिन में 12 बजे तान्या की आंख किसी के रोने की आवाजों से खुली. कोई जोरजोर से सिसकियां ले रहा था.

तान्या ने बिस्तर छोड़ा, ड्राइंगरूम में आई, वहां पूना में रहने वाली तुषार की चचेरी बहन नीता अपने पति विपिन और 25 वर्षीया बेटी रेनू के साथ बैठी थी. माहौल बहुत गंभीर था. तान्या सब को नमस्ते करते हुए एक कोने में बाल बांधती हुई बैठ गई. रेनू रोए जा रही थी.

नीता सिसकियां भरते हुए कह रही थी, ‘‘तुषार, तू ने मुझे कितना समझाया था. रेनू को अच्छी तरह पढ़ाऊंलिखाऊं, फिर इस का विवाह करूं लेकिन हम ने बेटी को बोझ समझते हुए इस की पढ़ाई छुड़वा कर जल्दी से जल्दी इस का विवाह करना ठीक समझा. अब इस का पति मनोज इसे कम पढ़ेलिखे होने का ताना मारता है. जरूरत के पैसे भी अपमान कर के देता है. अपने दोस्तों की पढ़ीलिखी पत्नियों के सामने इसे नीचा दिखाता है. कभीकभी हाथ भी उठा देता है. इस के ऊपर ही घर का सारा काम है. तू ने कितना समझाया था. मैं ने तेरी बात नहीं सुनी. मैं इसे वहां नहीं जाने दूंगी अब.’’

रेनू रोते हुए बोली, ‘‘मामाजी, मैं क्या करूं? मेरी मदद करो. मेरी वहां कोई इज्जत नहीं है. एकएक पैसे के लिए हाथ फैलाना पड़ता है. घर के बहुत सारे काम मुझे ही करने पड़ते हैं. मेरी जेठानी औफिस जाती हैं. सास भी टीचर हैं. सब कहते हैं तुम्हें घर में ही तो रहना है. घर के सब काम तो करने ही पड़ेंगे. पता नहीं क्या सोच कर उन्होंने मुझे अपनी बहू बनाया. मैं तो उन के जितनी पढ़ीलिखी नहीं, थक जाती हूं, मामाजी, क्या करूं अब?’’

तुषार ने कहा, ‘‘पहले आप लोग फ्रैश हो कर कुछ खाओ, फिर सोचते हैं क्या करना है.’’

लावण्या ने तान्या के भोले चेहरे पर पहली बार चिंता की लकीरें देखीं. फिर उसे बाथरूम में जाते देखा. लावण्या रसोई में व्यस्त हो गई. जब तक उस ने सब का खाना टेबल पर लगाया, नहाधो कर एकदम तैयार हाथ में बैग लिए तान्या को देख कर चौंकी. सब डाइनिंग टेबल पर बैठे थे. तुषार ने कहा, ‘‘बेटा, तैयार क्यों हो गई? कहीं जाना है क्या?’’

‘‘हां पापा, क्लास है मेरी, घाटकोपर जाना है.’’

लावण्या और तुषार चौंके, ‘‘क्या?’’

तान्या ने अपनी प्लेट में खाना रखते हुए कहा, ‘‘हां पापा, क्लास जा रही हूं, फाइनल में कम ही दिन बचे हैं,’’ बाकी मेहमानों की उपस्थिति का ध्यान रखते हुए उन पर नजर डालते हुए तान्या ने आगे कहा, ‘‘मम्मी, जल्दी निकलूंगी. स्नेहा से बाकी नोट्स भी लेने हैं. पहले ही बहुत देर हो गई है.’’

बाकी मेहमान तो नहीं समझे, लावण्या और तुषार बेटी का आशय समझ गए. तुषार मुसकराते हुए बस इतना ही बोले, ‘‘हां, देर तो हो गई है पर इतनी भी नहीं. अब भी समय है.’’

तुषार और लावण्या ने एकदूसरे को चमकती आंखों से देखा. उन की न सही, किसी और की ही सही, एक सीख से उन की बेटी ने कुछ करने की दिशा में आज एक कदम तो उठा ही लिया था.

Best Hindi Story : विद्या का मंदिर – क्या थी सतीश की सोच

Best Hindi Story : “अरे रे, रोकना,” रमा ने एक बार जब फिर राहुल से कार रुकवाई, तो राहुल के मुंह से निकल पड़ा, “ओह नो.”

सामने उस के वही चिरपरिचित हनुमानजी का मंदिर था जिस को वह रोज ही यहां से गुजरते हुए देखता था. पहले यह छोटा सा मंदिर था. देखते ही देखते मंदिर ने भव्य रूप ले लिया था. बढ़ते ट्रैफिक और रोज जाम जैसी स्थिति पैदा होने के मद्देनजर सड़कों को चौड़ी करने के लिए कई अवैध रूप से कब्जा की हुई इमारतों, छोटीमोटी दुकानों को हटा दिया गया. लेकिन इस मंदिर को छूने की हिम्मत किसी को न हुई. सड़क चौड़ी हुई, ट्रैफिक प्लान भी बदला. लेकिन यह मंदिर अपनी जगह पर जस का तस रहा. हां, इस का स्वरूप बदलता रहा. मंदिर में एक के बाद एक भगवान की प्रतिमाएं स्थापित होती रहीं और मंदिर का आकार छोटे से बड़ा होता गया. एक विशालकाय हनुमानजी की प्रतिमा मंदिर के बाहर ऊपर स्थापित कर दी गई. बाईं ओर से एक सड़क जाती और दाईं ओर से दूसरी. रास्ता वन-वे हो गया. वैसे तो मंदिर का मुख्यद्वार सड़क के दाईं ओर खुलता था, लेकिन हनुमानजी की प्रतिमा सड़क को 2 भागों में विभाजित करने वाले स्थान पर मंदिर के ऊपर स्थापित की हुई थी. सिंदूरी रंग की विशालकाय मूर्ति बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती थी.

राहुल को जो बात सब से ज्यादा अखरती थी, वह थी, वे 2 दुकानें.  मंदिर के बाईं ओर शराब की दुकान और दाईं ओर चिकन कौर्नर.  रोज शाम को इन 2 दुकानों में  जितनी भीड़ उमड़ती थी, उतनी भीड़ तो मंदिर में भी नहीं उमड़ती. बजरंगबलीजी भले ही बल में अव्वल हों, मगर लोकतंत्र के पैमाने में कहीं टिक नहीं पाते थे. सामने बड़ी सी हनुमानजी की प्रतिमा और उन के दोनों तरफ ये दुकानें एक अजीब सा विरोधाभास उत्पन्न करती थीं. शाम को मंदिर में होती आरती और शंखनाद की ध्वनि इन 2 दुकानों में भीड़ से उत्पन्न कोलाहल में दब के रह जाती. यह दृश्य राहुल को बहुत ही हास्यास्पद लगता था. हनुमानजी को क्या देखने को मिल रहा…यह विचार आते ही राहुल को हंसी आ जाती. कभीकभी तो मन करता राहुल का कि हनुमानजी की मूर्ति को कपड़े से ढक दे या इन 2 दुकानों को यहां से हटा दे, इन में दूसरा विकल्प बिलकुल भी संभव न था.

उसी हनुमानजी के मंदिर के आगे रमा ने गाड़ी रुकवा दी.

“मुझे, मंदिर में चलने के लिए मत कहना,” राहुल ने अड़ते हुए कहा.

“भगवान हनुमानजी से भी आशीर्वाद ले लो,” हनुमानजी की प्रतिमा को हाथ जोड़ते हुए रमा बोली.

“मम्मी, आप यह चौथे मंदिर में जा रही हो,” झुंझलाते हुए राहुल ने गाड़ी से उतरते हुए कहा.

राहुल की बातों को अनसुना कर रमा मंदिर में भगवानजी के आगे नतमस्तक हो गई. राहुल उखड़ा सा खड़ा रहा.

पापा की कार राहुल को मुश्किल से ही छूने को मिलती थी, कारण, वे अभी भी राहुल को बच्चा समझते थे और थोड़ा डरते भी थे उस की ड्राइविंग से. नौकरी पर लगते ही राहुल ने सब से पहले अपने लिए कार खरीदी. मम्मीपापा मना ही करते रह गए. लाल रंग की नई चमचमाती कार घर में खड़ी हो गई.

दूसरे दिन राहुल का अपनी नई कार चलाने की सारी खुशी और जोश उस समय ठंडा हो गया, जब उस ने बैग में अपना लंचबौक्स रख, कार की चाबी हवा में घुमाते हुए औफिस जाने के लिए निकलने ही वाला था कि रमा ने रोक दिया.

“पहले गाड़ी देवी मां के मंदिर जाएगी. वहां देवी की पूजा और आशीर्वाद के बाद ही कार चलाएगा.”

“मम्मी, मैं इन सब में विश्वास नहीं करता,” अपनी नई गाड़ी चलाने को उतावला राहुल लापरवाही से बोला.

“मुझे कुछ नहीं सुनना,” रमा ने अपना अंतिम फैसला सुनाया, तो राहुल खीझ गया.

मुंह फुला कर राहुल चाबी वहीं टेबल पर जोर से पटक और बिना कुछ बोले तेजी से औफिस के लिए निकल गया.

“क्यों बच्चे का मूड खराब करती हो,” अखबार पढ़ते हुए सतीश चंद्र बोले.

“आप तो चुप ही रहिए. आप को तो पूजापाठ में कोई आस्था है नहीं, राहुल को भी वैसे ही बना रहे हो,” कार की चाबी को कस कर पकड़ती हुई रमा बोली.

इतवार को सुबहसुबह रमा ने राहुल को उठा दिया.

“मम्मी, चाय तो पिला दो पहले,” उनींदा सा राहुल बोला.

“कोई चायवाय नहीं. मंदिर में पूजा के बाद ही चायनाश्ता करेंगे. जल्दी उठ और नहा कर तैयार हो जाओ, नहीं तो मंदिर में फिर बहुत भीड़ हो जाएगी.”

अधखुली आंखों से राहुल ने देखा- सामने मम्मी तैयार खड़ी थी.

“अभी सोने दो, रोज तो जल्दी उठना पड़ता है,” बोल कर राहुल ने बिस्तर पर दूसरी ओर करवट ले कर लिहाफ अपने ऊपर तक खींच कर फिर सो गया.

“कल औफिस कार से जाना है कि नहीं?” राहुल के ऊपर से लिहाफ खींचती हुई रमा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा.

राहुल को पता था कि बिना देवी के मंदिर जाए मां कार चलाने नहीं देगी. कार चलाने की लालसा ने राहुल के अंदर एकाएक ऊर्जा का संचार कर दिया. एक झटके से उठा और जल्दी से नहा कर तैयार होने लगा.

शहर से 14 किलोमीटर दूर मुख्य सड़क पर बना यह मंदिर अपनी प्राकृतिक छटा से यात्रियों का मन बरबस ही मोह लेता  है. एक ओर विभिन्न किस्म के हरेभरे पेड़ों से आच्छादित पहाड़ियां और दूसरी ओर थोड़ी सी समतल भूमि पर निर्मित देवी मां का मंदिर और पीछे विस्तृत क्षेत्र में फैली बरसाती नदी, जिस में उथला पानी का स्तर. नदी के स्वच्छ, निर्मल जल में छोटेबड़े,  सफेदस्लेटी रंग के गोलाकार पत्थर स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं, कभीकभार हिरन व हाथी भी नदी के आसपास विचरित करते दिख जाते हैं. दूर सड़क से यह विहंगम दृश्य बड़ा रमणीक लगता है.

इतवार होने की वजह से सच में मंदिर में बहुत भीड़ थी. मंदिर की मान्यता है कि नया वाहन लेने पर देवी से पूजा करवाने पर वाहन और चालक दोनों सुरक्षित रहते हैं. किस्मकिस्म की चमचमाती ब्रैंडेड नई दोपहिया और चौपहिया वाहनों की असंख्य गाड़ियां मंदिर के बाहर खचाखच खड़ी हुई थीं. ऐसा लग रहा, मानो शहर के सारे शोरूमों की गाड़ियां यहीं एकसाथ इकट्ठी हो गई हों. बड़ी मुश्किल से पार्किंग की जगह मिली. भिखारियों की अच्छीखासी तादाद मंदिर के बाहर मंड़रा रही थी.

जब भी कोई नई गाड़ी मंदिर के आगे रुकती, मांगने वालों की टोली उस को घेर लेती. दुआओं का सिलसिला चालू हो जाता- ‘साहब…आप की गाड़ी सलामत रहे…ईश्वर खूब तरक्की दे.’ कुछ नई गाड़ी का नशा… कुछ दुआओं का असर… लोग दरियादिली से इन भिखारियों को खुल कर रुपए दे रहे थे. अभी राहुल और रमा ठीक से उतरे भी नहीं थे कि भिखारियों ने उन को भी घेर लिया और शुरू हो गया उन का राग…आप की गाड़ी सलामत…ईश्वर…

“यह क्या 10 रुपए…” रमा ने जब 10 रुपए दिए तो भिखारिन ने हिकारत से कहा.

“तो कितना दे?” व्यंग्य से राहुल बोला.

“सौ रुपए.” गाड़ियों की बढ़ती कीमतों के साथसाथ भिखारियों के भाव भी बढ़ गए थे.

“सौ रुपये? पकड़ना है तो पकड़…” जैसे ही रमा ने यह कहा, दूसरी भिखारिन ने आ कर लपक लिया.  उस के बाद तो दोनों भिखारिनों में तकरार शुरू हुई, तो दोनों ने वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी और देवी मां को चढ़ावा चढ़ाने के लिए मंदिर परिसर में बनी दुकान की ओर बढ़ गए.

प्रसाद खरीद कर मांबेटे ने मंदिर के अंदर प्रवेश किया. मंदिर घंटेघड़ियालों के साथ देवी मां के जयकारों से गुंजायमान था. पूरा माहौल भक्तिमय था. पूजा की थाली ले कर दोनों श्रद्धालुओं के लिए बनी लंबी कतार में खड़े हो गए. मई महीने की गरमी में लाइन में खड़ेखड़े दोनों का बुरा हाल हो गया.

“मम्मी, देखो न, कितनी गरमी है,” पसीना पोंछते हुए राहुल ने कहा.

“तभी तो मैं सुबह जल्दी उठने के लिए कह रही थी,” गरमी से बेहाल रमा बोली.

लंबी लाइन धीरेधीरे आगे खिसक रही थी. पूजा के लिए लगी कतार से मंदिर का दाईं ओर का हौल दिखाई दे रहा था, जहां पर भंड़ारा चल रहा था. लोग पंक्तियों में बैठे भोजन का आनंद ले रहे थे. छोले, पूरी, तरकारी, हलवे की खुशबू  हवा में तैर रही थी. सुबह से खाली पेट राहुल को खाने को देख कर जी ललचाने लगा. उस का मन कर रहा था कि पूजा की पंक्ति से हट कर वह खाने की पंगत में बैठ जाए. लेकिन वह मन मसोस कर रह गया और बेताबी से अपने नबर आने का इंतजार करने लगा. जैसेतैसे कर के दोनों की बारी आई. श्रद्धा से पूजा की थाली रमा ने पंडितजी को पकड़ा दी, जिस में पुष्प, फल, मिष्ठान, श्रीफल, देवी मां की लाल चुनरी और एक काली चोटी थी. पंडितजी ने पूजामंत्रोच्चार के बाद सब से पहले उन से दक्षिणा रखवाई, प्रसाद दिया, फिर कार के पास आ कर नारियल फोड़ कर उस का पानी बोनट के ऊपर छिड़क दिया. नारियल वास्तव में तगड़ा था. पानी से लबालब भरा हुआ था. नारियल के फोड़ने से जो अमृतस्राव बहा, वह राहुल के सूखे गले को तो नहीं, पर, कार के बोनट को तरबतर कर गया. नारियल जल कई दिशाओं से होता हुआ बोनट से जमीन पर गिरने लगा, जो पहले से ही कई श्रीफलों के उत्सर्ग से पसीजी हुई थी. उस के पश्चात पंडितजी ने लाल चुनरी कार के साइड मिरर में बांध दी, काली चोटी को गाड़ी के सामने नीचे लटका दिया और पूजा संपन्न हो गई.

राहुल ने राहत की सांस ली और कार में सीट बेल्ट लगाते हुए कहा, “मम्मी, आप भी… अगर पूजा करवाने से सबकुछ सुरक्षित रहता, तो इतने ऐक्सिडैंट न होते सड़कों पर.”

“देखा नहीं कितनी सारी गाड़ियां थीं. बड़ी मान्यता है इस देवी मंदिर की, दूरदूर से लोग आते हैं.  कितना आलीशान हो गया है. शादी के बाद जब तेरे पापा ने अपना स्कूटर खरीदा  था, उस समय तो यह मंदिर छोटा सा था. गाड़ियां तो इक्कीदुक्की हुआ करती थीं. अब देखो,” गर्व से रमा बोली.

अभी गाड़ी थोड़ी दूर ही चली थी कि सामने एक भगवान शनिदेव मंदिर के आगे गाड़ी रुकवा दी रमा ने. यहीं पर ही यह सिलसिला नहीं थमा, एक बार फिर भगवान गणेशजी के मंदिर में राहुल से कार रुकवा दी. फिर वही पूजा शुरू हो गई. और अब यह हनुमानजी का मंदिर. सुबह से निकले हुए, भूख से राहुल का पेट बुरी तरह कुलबुला रहा था.

“आगे शिवजी का मंदिर है, मैं वहां बिलकुल कार नहीं रोकूंगा,” राहुल चेतावनी देते हुए बोला.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते. बस, शिवजी का मंदिर और आगे बिलकुल सड़क पर एक पीर की मजार,” बेटे को मनाने की कोशिश करती हुई रमा बोली.

सतीश चंद्र का फोन बारबार आ रहा था, कभी राहुल को तो कभी रमा को. एक बार फिर फोन की घंटी बज उठी.

“कहां हो तुम लोग?” चिंतित स्वर में सतीश चंद्र बोले.

“बस, पहुंचने ही वाले हैं,” कह रमा ने फोन बंद कर दिया.

“क्या बात है? बड़ी देर कर दी,” 3 बजे घर पहुंचने पर सतीश चंद्र ने व्यग्रता से पूछा.

“पापा, यह आप मम्मी से पूछें.” डाइनिंग टेबल पर खाना लगा देख राहुल तेजी से बाथरूम में हाथ धोने चला गया.

डाइनिंग टेबल पर बैठ वह खाने पर एक तरह से टूट पड़ा.

मुंह में खाना ठूंसे हुए राहुल पापा से बोला, “पापा, मम्मी का बस चलता, तो पता नहीं कितने मंदिरों में और ले जाती मुझे.”

“मुझे तो पता है, तभी तो मैं जाता नहीं,” मुसकरा कर चटकारे लेते हुए पत्नी की ओर देख कर सतीश चंद्र बोले.

जैसे ही रमा ने घूर कर पति की ओर देखा, वे चुपचाप नजरें नीचे कर खाना खाने लगे.

“जब इतनी कम दूरी में 5 मंदिर, तो पता नहीं शहर में कितने होंगे और पूरे देश में. और पापा, मैं ने गौर किया कि मसजिदें भी कम नहीं हैं. एक से बढ़ कर एक. ओ माय गौड!”

“निकल गया न तुम्हारे मुंह से भगवान का नाम,” रमा ने राहुल के शब्दों को पकड़ते हुए कहा.

“मम्मी, आप भी…”

“छोड़ो यह सब, खाना खाओ,” अपनी मुसकराहट को दबाने का असफल प्रयास करते हुए वे बोले.

शाम को रमा चाय और पकौड़े बना कर लाई. आज वह प्रसन्नमना है. बातचीत के साथ तीनों चाय के साथ पकौड़ों का आनंद लेने लगे.

“सुनो जी, मां का मंदिर इतना सुंदर बन गया है कि आप भी देखते, तो दंग रह जाते.”

“और तुम ने उसी रास्ते में सरकारी स्कूल के उखड़ते प्लास्टर और उधड़ते फर्श को नहीं देखा?” जिला शिक्षा अधिकारी के पद से रिटायर हुए सतीश चंद्र का दर्द छलका.

“राहुल के पापा,” रमा तो किसी और ही दुनिया में विचरण कर रही थी. आराधना स्थलों की चकाचौंध से अभिभूत थी. सतीश का कहा तो वह ग्रहण ही न कर पाई. भावातिरेक में बोलती चली जा रही थी, “देवी मां का मंदिर इतना आलीशान हो गया, आप पहचान भी न पाओगे. सुना है मैं ने कि आसपास के लोगों ने मंदिर के लिए जमीन दान की है.”

“अच्छा, पर मैं ने तो लोगों को सरकारी स्कूलों की जमीन का अतिक्रमण करते देखा है. वहां इन की दान प्रवृत्ति कहां चली जाती है.”

“आप भी…मूड खराब कर देते हो, बात को पता नहीं कहां से कहां ले जाते हो,” तमक कर रमा बोली.

“नहीं रमा, समझ में नहीं आता कि हम सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की जर्जर स्थिति पर शर्म करें या फिर आराधना स्थलों की भव्यता पर गर्व? बात को समझने की कोशिश करो.”

“पूजास्थल भी तो हमारी शान है. तमाम स्कूल और नर्सिंग होम हैं तो शहर में.”

“हां हैं, लेकिन क्या वे सब की पहुंच में हैं?

“मंदिर में लोग दुआएं मांगने आते हैं, मन्नतें करते हैं. कितना चढ़ावा चढ़ता है… है न राहुल?” रमा ने उत्कंठा से राहुल की ओर समर्थन की अपेक्षा से देखा.

“उं…मैं तो परेशान हो गया था,” मम्मी की देवी मां की पूजा से मुक्त, चायपकौड़ों से तृप्त, सोफे पर अलसाए सा लेटे हुए, फोन पर उंगलियां घुमाते राहुल ने अनमने मन से कहा.

“दुआ तो मन के कोने में भी हो जाती है, लेकिन इलाज के लिए अस्पताल चाहिए होते हैं,” अपने विचारों में खोए सतीश चंद्र के मुंह से बरबस ही निकल गया.

“आप से तो बात करना ही बेकार है,” झुंझलाती हुई कपप्लेटों को समटते हुए रमा बोली.

“पापा, पहले मैं ने कभी नोटिस नहीं किया था यह, बस. आज जब मम्मी ने इतने सारे मंदिरों में रुकवाया, तो ध्यान गया कि जराजरा सी दूरी पर इतने धार्मिकस्थल क्यों हैं.”

“तुम्हें, इस से क्या समस्या है? ” तुनकती हुई रमा बोली.

“समस्या मुझे नहीं है, देश को है. एक बैड के न मिलने से तड़पतड़प कर प्राण गंवाने वाले समाज की प्राथमिकता कम से कम मंदिरमसजिद या चर्चमठ तो नहीं होने चाहिए,” थोड़ा चिंतित स्वर में राहुल बोला.

“दिमाग खराब हो गया इस का,” कह रमा वहां से उठ किचन में खाना बनाने चली गई.

“पापा, अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व अन्य विकसित राष्ट्रों में चर्च की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो रही है, और हमारे देश में…” अब तो राहुल मोरचे पर आ गया, “यूरोप में तो कुछ चर्चों को तो अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल  करना शुरू कर दिया.”

“हमारे देश में लोग आज भी लोकपरलोक में ही उलझे हुए हैं,”  बेहद अफसोस से सतीश चंद्र के मुंह से निकल पड़ा.

“हमारे देश में आज भी लोग रोजगार, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. विकास सिर्फ शहरों तक ही सीमित है. गांवों से लगातार हो रहा पलायन हमारे गांवों की स्थिति को दर्शाता है. सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं. गरीबी, अशिक्षा, विस्फोटक रूप से बढ़ती जनसंख्या आज भी मुंहबाए खड़ी हैं. अंधविश्वास की जड़ें और गहराई से फैलती जा रही हैं. जिस देश में इतनी समस्याएं हों  और जहां पहले से ही इतने धार्मिकस्थल हो, वहां पर आएदिन नित नए धार्मिकस्थल का निर्माण क्या सही है?” राहुल ने पापा की ओर देखते हुए कहा.

पापाबेटे धार्मिक स्थलों के मुद्दे पर इतना मशगूल हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं  चला. रमा ने जब खाने के लिए बुलाया, तब उन्हें समय का एहसास हुआ.

“पापा, मैं कह रहा था कि मंदिर…”

“उफ्फ, क्या मंदिरमंदिर लगा रखा है. ऐसा तो नहीं हैं कि हमारे देश ने कोई तरक्की नहीं की. आज घरों में गाड़ी आम बात हो गई है. क्या जमघट था गाड़ियों का देवी मां के मंदिर में,” रमा के संस्कार उसे इस महिमा जगत से निकलने की इजाजत ही नहीं दे रहे थे.

“हां, आंकड़ों में खूब तरक्की की है,” सतीश चंद्र ने खिन्नता से कहा.

“क्या मतलब?” रमा ने उत्तेजित होते हुए कहा.

“रमा, सरकारी संस्थाओं की एक आत्मा होती है, जो सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी संवेदनशीलता से अस्तित्व में रहती है.”

“अभी भी तो हैं सरकारी स्कूल,” रमा बेफिक्री से बोली.

“हां हैं, टिमटिमाते दीये की तरह. याद है तुम्हें ‘इंगलिश मीडियम’ मूवी का वह डायलौग जो इरफान के मुख से बेसाख्ता निकल गया था- ‘सरकारी स्कूलों की इतनी बुरी दशा तो हमारे समय में भी नहीं थी.’ हम ने बहुतकुछ खो दिया है,” एक अफसोस स्वर में उभर आया.

“आप भी क्या बात करते हो, कहां मंदिर और कहां स्कूल.”

“रमा, स्कूल ही असली मंदिर है- विद्या का मंदिर. हम ने अपनी सामाजिक संस्थाओं को कमजोर किया है. किसी चीज का न होना या मामूली सा होना अलग बात है, लेकिन किसी अच्छी चीज का खराब होना एक खतरनाक संकेत है. हमारे समय में कितनी प्रतिष्ठा हुआ करती थी सरकारी स्कूलों की. हम सब भी तो सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं. आज थोड़ी सी आय वाला भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में भेजने से कतरा रहा है. ऐसे में तो हम उन को रौंदते जा रहे हैं जो इस भगदड़ में चल ही नहीं पा रहे है. बहुतकुछ करना चाहता था इन बच्चों के लिए, इन स्कूलों के लिए, किया भी है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था,” ढहता सरकारी स्कूलों का ढांचा, समर्पित शिक्षकों का अभाव, प्रधानाचार्य की स्कूल के प्रति उदासीनता अनायास ही सतीश चंद्र की आंखों के आगे घूमने लगे. वे खामोश हो खाना खाने लगे.

कुछ पलों तक तो डाइनिंग टेबल पर बस चम्मचों, खाने और डोंगों के खुलने व बंद होने की आवाजें ही आती रहीं.

“एक से बढ़ कर एक स्कूल खुले हुए हैं,” रमा अभी भी हथियार डालने को तैयार न थी.

“क्या वे सब की पहुंच में हैं? नहीं…हम ने ऐसे पेड़ लगा दिए हैं, जिन के फल तोड़ना हरेक के बस की बात नहीं. हम अंतिम छोर में रहने वालों के स्कूलों और अस्पतालों को लील गए.”

“ऐसा नहीं कि दुआएं कुबूल नहीं होतीं. आराधना भी सफल होती है. इन के लिए पूजास्थल तो चाहिए ही.  काश, आप कभी तो मेरे साथ, मेरी आस्था में शामिल हो जाया करो,” बोलतेबोलते रमा का स्वर भीगने लगा.

“जिस दिन तुम नहीं, राहुल गाड़ी रोक कर कहेगा, ‘जरा रुक कर चलते हैं, यहां पर एक सरकारी स्कूल देखने लायक है और यहां के बच्चे देश के विभिन्न उच्च पदों पर आसीन हैं,’ उस दिन मैं समझूंगा कि हमारी आराधना सफल हो गई और उस दिन इन धार्मिक स्थानों की भव्यता देखने को मैं अवश्य जाऊंगा,” खाने की मेज से उठते हुए सतीश चंद्र के उद्गार शब्द बन बह निकले.

Romantic Story : जो बीत गई सो बात गई – विशाल और नंदिता का क्या रिश्ता था

Romantic Story : अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.

वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

Love Story : एहसास – कैसे उबर पाई श्रेया इस गर्त से

Love Story : आईने में निहारती, तैयार होती श्रेया से किरण ने पूछा, ‘‘कहां जा रही हो इस समय?’’ श्रेया बड़बड़ाई, ‘‘ओह मौम, आप को बताया तो था कि आज मनजीत की बर्थडे पार्टी है, उसी में जा रही हूं.’’

‘‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि तुम लोगों की बर्थडे पार्टी इतनी देर से क्यों शुरू होती है? थोड़ी पहले नहीं हो सकती क्या?’’

मांबेटी की तकरार सुन कर किशोर को लगा कि अगर उन्होंने मध्यस्थता नहीं की, तो बात बिगड़ सकती है. ड्राइंगरूम से उन्होंने कहा, ‘‘किरण, यह तुम लोगों की किटी पार्टी नहीं है, जो दोपहर में होती है. यह तो जवानों की पार्टी है… श्रेया बेबी, तुम जाओ, मम्मी को मैं समझाता हूं.’’

‘‘थैंक्स ए लौट… पापा… बाय सीयू.’’

‘‘बाय ऐंड टेक केयर स्वीटहार्ट… थोड़ीथोड़ी देर में फोन करती रहना.’’

श्रेया ने सैनिकों की तरह सैल्यूट मारते हुए कहा, ‘‘येस सर,’’ और चली गई.

उस के जाते ही किरण की बकबक शुरू हुई, ‘‘श्रेया को आप ने बिलकुल आजाद कर दिया है. मेरी तो यह सुनती ही नहीं है.’’

‘‘किरण, सोचो, यह हमारी संतान है.’’

‘‘वह भी एकलौती… और लाडली भी,’’ पति की बात बीच में काटते हुए किरण बोली.’’

‘‘तुम गुस्से में कुछ भी कहो, लेकिन हमें अपनी संतान पर भरोसा होना चाहिए. श्रेया 21 साल की हो गई है. बच्चों की यह उम्र बड़ी नाजुक होती है. इस उम्र में ज्यादा रोकटोक ठीक नहीं है. कहीं विद्रोह कर के गलत रास्ते पर चली गई तो…’’

‘‘लेकिन यह भी तो सोचो, रात 9 बजे वह पार्टी में जा रही है, वहां न जाने कैसेकैसे लोग आए होंगे.’’

किशोर ने दोनों हाथ हवा में फैलाते हुए कहा, ‘‘किरण, अब श्रेया की चिंता छोड़ कर मेरी चिंता करो. कुछ खानेपीने को मिलेगा कि किचकिच से ही पेट भरना होगा.’’

‘‘जब देखो तब मजाक, बात कितनी भी गंभीर हो, हंस कर उड़ा देते हो.’’ बड़बड़ाते हुए किरण किचन में चली गई.

श्रेया की तरह ही किशोर भी मांबाप की एकलौती संतान थे. अमेरिका के एक विशाल स्टोर को कौटन की शर्ट्स सप्लाई करने का बढि़या बिजनैस था उन का. नोएडा के इंडस्ट्रियल एरिया में बहुत बड़ी फैक्टरी भी थी, जहां शर्ट्स तैयार होती थीं. नोएडा के ही सैक्टर 15ए जैसे पौश एरिया में उन की विशाल कोठी थी. राज्य के ही नहीं, केंद्र के भी तमाम राजनेताओं और अधिकारियों से उन के अच्छे संबंध थे.

इन्हीं संबंधों की वजह से वे एनजीओ भी चलाते थे. एनजीओ का कामकाज श्रेया संभालती थी. शायद श्रेया के लिए ही उन्होंने एनजीओ का काम शुरू किया था. इस से भी उन्हें मोटी कमाई होती थी, लेकिन पुराने विचारों वाली किरण को श्रेया से हमेशा शिकायत रहती थी. उसे ले कर जब भी पतिपत्नी में बहस होती, किरण बनावटी गुस्सा कर के एक ही बात कहती, ‘‘मेरी तो इस घर में कोई गिनती ही नहीं है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. इस घर में पहला नंबर तुम्हारा ही है.’’

‘‘ये सब बेकार की बातें हैं,’’ किरण उसी तरह कहती, ‘‘छोड़ो इन बातों को. मैं इतनी भी बेवकूफ नहीं, जितना तुम समझते हो.’’

श्रेया की सहेली थी, मनजीत कौर. दोनों ने एमबीए साथसाथ किया था. एमबीए करने के बाद जहां श्रेया अपने एनजीओ का कामकाज देखने लगी थी, वहीं मनजीत एक मल्टीनैशनल कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हो गई थी, लेकिन दोनों के संबंध आज भी वैसे ही थे. वे सप्ताह में कम से कम 2-3 बार तो मिल ही लेती थीं, लेकिन रविवार की शाम का खाना निश्चित रूप से दोनों किसी रैस्टोरैंट में साथसाथ खाती थीं.

मनजीत को पार्टियों का बहुत शौक था इसलिए वह अकसर पार्टियों में जाती रहती थी. इस के बाद श्रेया से मिलने पर पार्टियों की चर्चा भी करती थी. कभीकभार श्रेया भी मौका मिलने पर मनजीत के साथ डिस्कोथिक, होटल या रैस्टोरैंट में होने वाली पार्टियों में चली जाती थी. एक दिन मनजीत ने कहा, ‘‘यार श्रेया, इस संडे को एक अलग तरह की पार्टी है. तू कभी इस तरह की पार्टी में गई नहीं है इसलिए मैं चाहती हूं कि तू भी उस पार्टी में मेरे साथ चल.’’

‘‘अलग तरह की पार्टी. उस पार्टी में क्या होता है?’’ श्रेया ने हैरानी से पूछा.

‘‘चल कर खुद ही देख लेना. लौटने में थोड़ी देर हो सकती है, इसलिए घर में कोई बहाना बना देना. बहाना क्या बनाना, बता देना कि मेरी बर्थडे पार्टी है.’’

उसी पार्टी में शामिल होने के लिए मनजीत जब श्रेया को एक फार्महाउस में ले कर पहुंची, तो उसे बहुत हैरानी हुई. श्रेया ने पूछा, ‘‘तू मुझे यहां क्यों ले आई?’’

‘‘यहीं तो वह पार्टी है. इस तरह की पार्टियां ऐसी ही जगहों पर होती हैं, क्योंकि ये एकदम व्यक्तिगत होती हैं. इन पार्टियों में वही लोग आते हैं, जो आमंत्रित होते हैं. अनजान लोगों को अंदर बिलकुल नहीं जाने दिया जाता,’’ मनजीत ने समझाया.

दोनों फार्महाउस की विशाल इमारत के सामने पहुंचीं, तो वहां खड़ा एक युवक आगे बढ़ा और मनजीत से हाथ मिलाते हुए बोला, ‘‘तो यही हैं आप की फ्रैंड श्रेयाजी,’’ इस के बाद वह श्रेया को गहरी नजरों से देखते हुए बोला, ‘‘मैं अमन हूं, आप पहली बार मेरी इस पार्टी में आई हैं, इसलिए आप का विशेष रूप से स्वागत है.’’

कानफोड़ू डीजे म्यूजिक, म्यूजिक की ताल पर थिरकते युवकयुवतियां. पूरा हौल सिगरेट के धुएं से भरा था. मनपसंद दोस्त… सबकुछ तो था यहां. फिर भी श्रेया का मन नहीं लग रहा था. इसलिए उस के मुंह से निकल गया, ‘‘व्हाट ए बोरिंग पार्टी… यहां के म्यूजिक में कोई दम नहीं है. यहां तो सब जैसे नशे में हैं.’’

श्रेया की बात का कोई और जवाब देता, उस से पहले वही स्मार्ट युवक, जो गेट पर मिला था, उस के सामने आ कर बोला, ‘‘हाय श्रेया, शायद आप यहां खुश नहीं हैं. आप को न मेरी यह पार्टी अच्छी लग रही है और न ही यह म्यूजिक.’’

‘‘जी, आप की इस पार्टी में मैं बोर हो रही हूं. म्यूजिक में भी कोई दम नहीं है. क्राउड भी बहुत है. फिर यहां मैं देख रही हूं कि लोग डांस करने के बजाय छेड़छाड़ ज्यादा कर रहे हैं. मुझे यह सब पसंद नहीं है.’’

‘‘दरअसल, मेरा डीजे आज छुट्टी पर है इसलिए इस डीजे को लगाना पड़ा. आप पहली बार इस पार्टी में आई हैं, इसलिए आप को यहां का माहौल रास नहीं आ रहा है. बेसमैंट में मेरा पर्सनल कमरा है. वहां अच्छा म्यूजिक कलैक्शन भी है और एकांत भी. आप वहां चल सकती हैं. वहां हर चीज की व्यवस्था है. खानेपीने की, म्यूजिक की और आराम करने की भी.’’

अमन की बातें सुन कर श्रेया का दिमाग घूम गया, वह होंठों ही होंठों में बुदबुदाई, ‘‘हूं, अमीर बाप की औलाद, अपनेआप को समझता क्या है? आप का एकांत, म्यूजिक, ड्रिंक और आराम आप को मुबारक.’’

‘‘मिस श्रेया, एक मिनट. आप को मुझ से बात न करनी हो, तो कोई बात नहीं. लेकिन जाने से पहले मेरी एक बात जरूर सुन लीजिए.’’

दोनों हाथ कमर पर रख कर श्रेया बोली, ‘‘बोलो.’’

‘‘मिस श्रेया, मैं ने आप से जो कहा, शायद उस से आप ने मुझे पैसे वाले बाप का बिगड़ा बेटा समझ लिया. आप सोच रही हैं कि यह फार्महाउस मेरे बाप का है और मैं उन के पैसे पर ऐश कर रहा हूं. यही सोच है न आप के दिमाग में मेरे लिए.’’

श्रेया ने कोई जवाब नहीं दिया. वह होंठ चबाते हुए यही सोच रही थी कि इस का कहना सच है. यही धारणा थी उस के मन में उस के प्रति.

श्रेया को चुप देख कर अमन आगे बोला, ‘‘श्रेया, ऐसी बात नहीं है. फौर योर काइंड इन्फौरमैशन, 2 साल पहले मैं लंदन से पढ़ाई पूरी कर के दिल्ली आया हूं. वहां 4 साल पढ़ाई करने के बाद जीतोड़ मेहनत कर के जो कमाया है, कुछ वह रकम और कुछ बैंक से कर्ज ले कर यह फार्महाउस खरीदा है. यह फार्महाउस मैं पार्टियों के लिए किराए पर देता हूं और खुद भी पार्टियां करता हूं. बाप की एक पाई भी इस में नहीं लगी है. आप जैसे ग्राहकों की मेहरबानी से मैं इस फार्महाउस से मोटी कमाई कर रहा हूं. उम्मीद है कि अगले साल तक मैं इस में रैस्टोरैंट और डिस्कोथिक भी शुरू कर दूंगा. इस के अलावा ऐंटरटेनमैंट के बिजनैस में मोटी रकम लगाने का इरादा है. जस्ट विश मी ए लक, आप ने मुझे जो समय दिया, उस के लिए धन्यवाद. चलिए.’’

श्रेया ने हाथ बढ़ा कर अमन को रोका, ‘‘रुकिए, मिस्टर अमन, सौरी. आप को मैं पहचान नहीं पाई, यह मैं स्वीकार करती हूं. ऐक्चुअली आज मेरा मूड ठीक नहीं है. चलिए, आप का म्यूजिक कलैक्शन देखती हूं. मेरा मतलब सुनती हूं.’’

‘‘थैंक यू, चलिए.’’

अगले दिन सुबह श्रेया की आंख खुली, तो मम्मी झकझोर रही थीं, ‘‘श्रेया…श्रेया… ओ श्रेया…’’

श्रेया दोनों हाथों से सिर दबाते हुए बोली, ‘‘ओह मौम, कितने बजे हैं? मेरा तो सिर फटा जा रहा है…’’

‘‘साढ़े 11 बज रहे हैं और अब भी तेरा सिर फटा जा रहा है? पार्टी में क्या पिया था?’’

‘‘क्या… साढ़े 11…’’ इतना कहतेकहते श्रेया को रात की बातें याद आ गईं. पैप्सी पीतेपीते उसे चक्कर आ गया था. फिर उसे होश नहीं रहा. अच्छा हुआ कि मनजीत ने उसे झकझोर कर जगाया था और घर तक छोड़ गई थी. श्रेया कान पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘ओ मौम, आप तो जानती हैं कि मैं हार्ड ड्रिंक नहीं लेती. आप की कसम मम्मी.’’

श्रेया ने कसम खाई, तो किरण को थोड़ी राहत महसूस हुई. उन्होंने बेटी का हाथ पकड़ कर उठाते हुए कहा, ‘‘चल उठ, जल्दी से नहाधो कर नाश्ता कर ले.’’

अंगड़ाई ले कर आलस्य को झटकते हुए श्रेया पलंग से उठ कर खड़ी हुई. मम्मी के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘मम्मी, पापा तो चले गए होंगे? उन से थोड़ा काम था.’’

‘‘तो मोबाइल पर बात कर ले,’’ किरण ने कहा, ‘‘रास्ते में होंगे. अभी फैक्टरी नहीं पहुंचे होंगे.’’

बाथरूम का दरवाजा बंद करते हुए श्रेया बोली, ‘‘जाने दीजिए. रात को आएंगे, तो बात कर लूंगी. एक प्रोजैक्ट के बारे में चर्चा करनी थी. खैर, अब तो वह हो नहीं पाएगी.’’

शाम को किशोर लौटे, तो घर का माहौल देख कर ही समझ गए कि स्थिति ठीक नहीं है. ब्रीफकेस मेज पर रख कर सोफे पर पसरते हुए बोले, ‘‘भई, कोई मुझे भी तो बताएगा कि यहां क्या हुआ है?’’

‘‘आप की लाडली कह रही है कि उसे एक प्रोजैक्ट तैयार करना है, जिस में राजस्थान के एक गांव में देहव्यापार करने वाली महिलाओं में होने वाले यौन रोगों के बारे में पता कर के उन के इलाज और उन के पुनर्वास के लिए क्या व्यवस्था की जा सकती है, इस का सर्वे करना है. यह वहां जा कर उन के बीच रह कर उन के बारे में सर्वे करेगी. लड़की के लिए यह कैसा प्रोजैक्ट है?’’

किशोर उठ खड़े हुए, ‘‘रियली, यह बात है. मैं तो समझा श्रेया ने किसी क्रिश्चियन लड़के से प्यार कर लिया है और…’’

‘‘अरे, आप भी कैसे बाप हैं?’’

‘‘देखो किरण, तुम्हें श्रेया की चिंता है न? तुम्हारा सोचना है कि उस गांव में वह अकेली जाएगी. तो सुनो, मुझे तो इस बात की जरा भी चिंता नहीं है. रही बात तुम्हारी चिंता की, तो हम एक काम करते हैं. हम भी इस के साथ चलते हैं. जैसलमेर में मेरा एक दोस्त रहता है. उसी के पड़ोस में एक मकान किराए पर ले लेंगे. तब तो अपनी लाड़ली अकेली नहीं रहेगी. फिर इस के एनजीओ में काम करने वाले लोग भी तो रहेंगे. यह वहां अपना काम करेगी और हम लोग जैसलमेर घूमेंगे. श्रेया, तुम्हें कब जाना है?’’

‘‘प्रोजैक्ट जल्दी ही जमा करना है. आप को जब समय मिले, पहुंचा दीजिए. प्रोजैक्ट जमा होने के बाद ही मंत्रालय से ऐड मिलेगा. मैं इस प्रोजैक्ट को किसी भी हालत में हाथ से नहीं जाने देना चाहती.’’

15 दिन में तैयारी कर के किशोर बेटी श्रेया और पत्नी किरण के साथ जैसलमेर से 60 किलोमीटर दूर रेत के धोरों के बीच बसे एक कसबे में रहने वाले सरपंच के यहां जा पहुंचे. किशोर को देखते ही सरपंच ने कहा, ‘‘आइए…आइए… किशोरजी, कल रात को ही आप लोगों के बारे में साहब का फोन आया था.’’

श्रेया अपने पापा और मम्मी के साथ वहां के एक गांव में देहव्यापार करने वाली महिलाओं के जीवन पर अध्ययन करने आई थी. उसे यहां महीने, डेढ़ महीने रहना था. किशोर के एक मित्र जैसलमेर में डिप्टी कलैक्टर थे. उन्होंने ही शहर से इतनी दूर श्रेया के रहने के लिए सरपंच से कह कर एक मकान की व्यवस्था करवा दी थी. किशोर, श्रेया और किरण को चायनाश्ता कराने के बाद सरपंच ने वहां खड़े एक युवक से कहा, ‘‘बुधिया, यह ले चाबी. साहब को उस मकान पर पहुंचा दे, जहां इन के रहने की सारी व्यवस्था की गई है.’’

‘‘यह लड़का…’’ किशोर ने पूछा.

‘‘अरे साहब, यह बुधिया है. आप यहां नए हैं. पूरे दिन आप के साथ रहेगा. घर की साफसफाई करेगा, घरबाहर के काम करेगा. पहले यह एक ढाबे पर काम करता था. खाना भी बना लेता है. गरीब घर का लड़का है, जो इच्छा हो, जाते समय दे दीजिएगा,’’ सरपंच ने कहा.

श्रेया 18-19 साल के उस युवक को देख रही थी. गठा शरीर, भरीपूरी पानीदार आंखें, बिखरे बाल. शरीर से चिपकी टीशर्ट और हाफ पैंट.

धीरेधीरे सब व्यवस्थित हो गया. अच्छा गांव था. साफ दिल के लोग थे. रोज सवेरे श्रेया और बुधिया निकल पड़ते. किशोर अपनी कार ले गए थे. श्रेया स्वयं गाड़ी चलाती थी, इसलिए उसे कहीं भी आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. देहधंधा करने वाली महिलाओं से श्रेया मिलती, उन से बातें करती, सवाल करती और उन के जवाब वौइस रिकौर्डर में रिकौर्ड कर लेती. शाम को घर आ कर अपने लैपटौप में सब सेव कर लेती. अगले दिन फिर वही काम.

उस शाम श्रेया बाथरूम से निकली, तो उस के युवा शरीर में जवानी की उथलपुथल मची थी. यह भी कैसा इलाका है. वह जिस गांव में सर्वे कर रही थी, वहां के लोग पत्नियों से धंधा कराते हैं, व्यभिचार की कमाई खाते हैं. पैसों के लिए अपनी पत्नी को दूसरे के हवाले करते हैं. न जाने कैसेकैसे लोग उन के पास आते हैं और उन से कितनी ही महिलाओं को कैसेकैसे यौनरोग लग गए हैं.

फिर भी वे धंधा करती हैं. अपनी ये बीमारियां न जाने कितने लोगों को बांट रही हैं. इस के अलावा भी गांवों में ऐंटरटेनमैंट के नाम पर पत्नी से व्यभिचार, एक से अधिक लोगों से संबंध, पत्नी को पत्नी न समझ कर उस का हर तरह से शोषण, ऐसीऐसी बातें श्रेया को जानने को मिलतीं, जिन से उस का  रोमरोम सिहर उठा था.

श्रेया समय से प्रोजैक्ट पूरा कर के नोएडा वापस आ गई. उस ने प्रोजैक्ट तैयार कर के जमा भी कर दिया. काम पूरा होने के कुछ दिन बाद एक दिन किरण ने पति से कहा, ‘‘अपनी श्रेया को पता नहीं क्या हो गया है? जैसलमेर से लौटने के बाद वह चुपचुप रहती है.’’

‘‘वह ज्यादा बोलती है, तब भी तुम्हें परेशानी होती है. अब चुप है, तो भी तुम्हें परेशानी हो रही है,’’ किशोर ने हंसी में कहा.

‘‘बच्चे जैसे रहते हैं, उसी तरह रहें, तो अच्छे लगते हैं. मैं बड़बड़ाती हूं, तो इस का मतलब यह नहीं कि वह अपना स्वभाव ही बदल ले,’’ थोड़ा परेशान हो कर किरण ने कहा.

‘‘सयानी लड़की है. हर चीज मैं नहीं पूछ सकता. मां लड़कियों की सहेली जैसी होती है. अब तुम्हीं पता करो कि चुप्पी की वजह क्या हो सकती है?’’

इस के बाद किरण ने श्रेया से चुप्पी की वजह पूछी, तो उस ने जो बताया, सुन कर वह सन्न रह गईं. उसी शाम श्रेया को एम्स के रिटायर्ड स्किन स्पैशलिस्ट डा. स्वजन को दिखाया गया. डा. स्वजन ने श्रेया की गहन जांच की. उस के बाद उन्होंने उसे किरण के साथ बाहर भेज कर किशोर को अंदर बुला लिया और बड़ी गंभीरता से बोले, ‘‘आप की बेटी का किसी ऐसे आदमी से संबंध है, जो खतरनाक यौनरोग का शिकार है. यह यौनरोग उन्हीं मर्दों को होता है, जो अकसर बाजारू औरतों के पास जाते हैं. यह रोग उन्मुक्त सैक्स करने वालों को होता है, यह ऐसा रोग है, जो जीवन भर पीछा नहीं छोड़ेगा. जब तक दवा चलती रहेगी, ठीक रहेगा. दवा बंद होने के कुछ दिन बाद फिर उभर आएगा.’’

किशोर क्या कहते, उन का सिर शर्म से झुक गया. उन्होंने श्रेया को जो छूट दी थी, उस ने उस का गलत फायदा उठाया था. उन्हें बेटी पर बहुत विश्वास था, लेकिन उस ने उन के विश्वास को तोड़ दिया था. अब उन्हें पश्चात्ताप हो रहा था कि उन्होंने पत्नी की बात मानी होती, तो आज बेटी की जिंदगी बरबाद न होती. बेटी तो नासमझ थी, वे तो समझदार थे. अगर अपनी समझदारी दिखाते हुए बेटी पर अंकुश लगाए रहते, तो आज यह दिन देखने को न मिलता. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें, इसलिए डाक्टर जो कहते रहे, सिर झुकाए सुनते रहे.

डाक्टर ने आगे कहा, ‘‘इस के लिए बच्चे ही नहीं, मांबाप भी उतने ही दोषी हैं. मांबाप के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं होता और जिन के पास समय होता है, वे अपने बच्चों को आधुनिक बनाने के चक्कर में बिगाड़ देते हैं. बच्चे देर रात तक पार्टियां करते हैं, डिस्कोथिक जाते हैं, उन्हें रोकते ही नहीं. इस तरह की जगहों पर जाने वाले बच्चे ही ऐसे रोग लाते हैं. वहां नशा करने के बाद वे किस से मिलते हैं, क्या करते हैं, उन्हें होश ही नहीं रहता. उस के बाद जिंदगी बरबाद हो जाती है. आप की बेटी को एड्स भी हो सकता था. अब आप इस बात का ध्यान रखें कि आगे वह उस आदमी से न ही मिले, तो अच्छा रहेगा वरना दवा भी फायदा नहीं करेगी.’’

डाक्टर की बातें सुन कर किशोर को श्रेया पर गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन इस के लिए वे खुद को भी दोषी मान रहे थे. उन्होंने ही उसे आजादी दे रखी थी. उन्होंने सोचा, अगर इन सब बातों की जानकारी किरण को हो गई, तो वह बेटी का ही नहीं, उन का भी जीना हराम कर देगी. वे डाक्टर के कैबिन से बाहर आए, तो किरण ने उन्हें सवालिया नजरों से घूरा. श्रेया की नजरों में भी सचाई जानने की उत्सुकता थी. जब किशोर कुछ नहीं बोले, तो श्रेया ने पूछ ही लिया, ‘‘पापा, डाक्टर ने आप को अकेले में क्यों बुलाया था, कोई गंभीर बात है क्या?’’

‘‘नहीं, कोई गंभीर बात नहीं है. डाक्टर ने ऐसे ही बातचीत के लिए बुलाया था. चलो, घर चलते हैं,’’ कह कर किशोर आगे बढ़ गए, तो पीछेपीछे श्रेया और किरण भी चल पड़ीं. घर आ कर वे ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि श्रेया को वे उस की बीमारी के बारे में कैसे बताएं, जिस से वह स्वयं को उस आदमी से मिलने से रोक सके. वे सामने बैठी श्रेया को एकटक ताक रहे थे. श्रेया को पापा की नजर बदलीबदली सी लगी. इस तरह उन्होंने उसे पहले कभी नहीं देखा था. श्रेया से रहा नहीं गया, तो उस ने कहा, ‘‘क्या बात है पापा, डाक्टर ने क्या कहा, मुझे क्या हुआ है?’’

किशोर ने पलभर में निर्णय ले लिया. उन्हें लगा कि सचाई छिपाने का कोई फायदा नहीं है. बेटी को बचाने के लिए उन्होंने शर्मसंकोच त्याग कर कहा, ‘‘बेटा, केयरफुली, डाक्टर के कहने के अनुसार तुम्हें खतरनाक यौन रोग हुआ है. यह बीमारी तुम्हें किसी ऐसे आदमी से मिली है, जिसे यह बीमारी पहले से रही होगी.’’

श्रेया बच्ची नहीं थी, उस की समझ में आ गया कि पापा क्या कह रहे हैं. पापा की बातें सुनते ही उसे कमरा गोलगोल घूमता हुआ लगा. बड़ी मुश्किल से उन के मुंह से निकला, ‘‘व्हाट…आप? हैव यू गोन मैड. नो…नो… दिस इज नौट पौसिबल.’’

‘‘श्रेया प्लीज. जस्ट टैल मी कि तुम्हारा किस आदमी से संबंध है. बेटा, अब उस से बिलकुल संबंध मत रखना. डाक्टर ने कहा है कि अगर उस आदमी से संबंध खत्म नहीं किए, तो यह बीमारी कभी ठीक नहीं होगी.’’

पापा की बात सुन कर श्रेया को झटका सा लगा. उस की समझ में यह नहीं आया कि आज तक उस ने ऐसा कुछ किया ही नहीं, तो फिर डाक्टर या पापा उस से ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं. राजस्थान में वह ऐसी औरतों से मिली जरूर है, जिन्हें इस तरह की बीमारी थी, तो क्या मिलने भर से उसे इस बीमारी ने पकड़ लिया, लेकिन ये लोग संबंध बनाने की बात कर रहे हैं जबकि आज तक उस ने किसी पुरुष से संबंध बनाया ही नहीं है.

श्रेया उठी और पापा के सीने पर सिर रख कर फफक पड़ी. किशोर बिना कुछ बोले उस की पीठ सहलाने लगे. उन्होंने श्रेया को रोने दिया, जिस से उस का मन हलका हो जाए, रो लेने के बाद श्रेया ने किशोर से सीने पर सिर रखेरखे ही कहा, ‘‘पापा, आप सोच रहे होंगे कि नासमझी में बच्चों से गलतियां हो जाती हैं, लेकिन मैं ने इस तरह की कोई गलती नहीं की है.’’

‘‘कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया, सो हो गया. तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. हम तुम्हारे साथ हैं. जरूरत पड़ी, तो हम तुम्हारा इलाज विदेश तक में कराएंगे. ठीक है, तुम आराम करो. इस सब के बारे में अभी अपनी मम्मी को कुछ मत बताना, वे बेकार में परेशान होंगी,’’ कह कर किशोर बगल में रखे फोन से किसी को फोन करने लगे.

श्रेया सोच में डूब गई. तभी उसे 8-9 महीने पहले की फार्महाउस की वह पार्टी याद आ गई. फार्महाउस के स्मार्ट मालिक अमन की बातों से प्रभावित हो कर श्रेया बेसमैंट में स्थित उस के कमरे में चली गई थी. बहुत अच्छा कमरा था. सोफासैट, छोटा सा बार और कुछ बार स्टूल, अमन ने कहा, ‘‘बोलिए, क्या लेंगी श्रेयाजी? व्हाइट वाइन या रैडवाइन? हाऊ अबाउट चिल्ड बीयर?’’

‘‘सौरी, नो हार्ड ड्रिंक फौर मी. जस्ट गिव मि ए ग्लास औफ पैप्सी, अगर हो, तो… न हो तो पीने के लिए पानी ही दे दीजिए.’’

‘‘औफकोर्स पैप्सी है. आप सामने की रैक से अपने मनपसंद गाने की सीडी सलैक्ट कीजिए, तब तक मैं पैप्सी ले आता हूं,’’ कह कर अमन बार की ओर चला गया, तो श्रेया सीडी देखने लगी. थोड़ी देर बाद अमन श्रेया के पास आ कर बोला, ‘‘श्रेया, यह लो पैप्सी. भई, मुझे तो कोक पसंद है, हम दोनों की ड्रिंक भले ही सौफ्ट है, लेकिन मुझे उम्मीद है कि हमारी फ्रैंडशिप हार्ड होगी… चीयर्स.’’

श्रेया ने मुसकराते हुए अपना गिलास धीरे से अमन के गिलास से टकराया और पैप्सी की चुसकी लेने लगी. थोड़ी देर बाद श्रेया का सिर चकराने लगा. क्या हुआ, वह सोच पाती, उस के पहले ही अमन ने उसे बांहों में भर लिया था. ‘ओह नो…’ अब उस की समझ में आया कि सादी पैप्सी पीने के बावजूद अगले दिन वह क्यों सुस्त थी. उस का शरीर क्यों टूट रहा था. उस के मुंह से चीख निकल गई, ‘‘यू रास्कल, आई विल किल यू.’’

श्रेया की चीख सुन कर फोन पर बातें कर रहे किशोर फोन छोड़ कर बोले, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

‘‘कुछ नहीं पापा, डाक्टर सच कह रहे हैं. मेरे साथ धोखा हुआ है. मगर…’’

श्रेया की बात काटते हुए किशोर बोले, ‘‘जो हुआ बेटा जाने दो. मैं ने कहा न कि मैं तुम्हारा इलाज विदेश में कराऊंगा. जब मैं तुम्हारे साथ हूं, तो तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है.’’

श्रेया एक बार फिर पापा के सीने से लग कर सिसकते हुए बोली, ‘‘थैंक्यू पापा. मुझे भी अपनी गलती का एहसास हो गया है लेकिन हमें उस आदमी की शिकायत पुलिस में करनी चाहिए. अन्यथा वह मेरी जैसी न जाने कितनी युवतियों की जिंदगी बरबाद करता रहेगा.’’

किशोर फटी आंखों से बेटी को देखते रहे. उस के चेहरे पर दृढ़ता देख कर सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘ठीक है बेटी, हम इस की भी व्यवस्था करते हैं. अभी कमिश्नर साहब से बात कर के सारी बात बताते हैं.’’

पिता की बातें सुन कर श्रेया एक बार फिर से फफक पड़ी.

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