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Story In Hindi : अग्निपरीक्षा – श्रेष्ठा की जिंदगी में क्या तूफान आया?

Story In Hindi : जीवन प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत, मनोरम पहाड़ी रास्ता नहीं है क्या, जहां मानव सुख से अपनों के साथ प्रकृति के दिए उपहारों का आनंद उठाते हुए आगे बढ़ता रहता है.

फिर अचानक किसी घुमावदार मोड़ पर अतीत को जाती कोई संकरी पगडंडी उस की खुशियों को हरने के लिए प्रकट हो जाती है. चिंतित कर, दुविधा में डाल उस की हृदय गति बढ़ाती. उसे बीते हुए कुछ कड़वे अनुभवों को याद करने के लिए मजबूर करती.

श्रेष्ठा भी आज अचानक ऐसी ही एक पगडंडी पर आ खड़ी हुई थी, जहां कोई जबरदस्ती उसे बीते लमहों के अंधेरे में खींचने का प्रयास कर रहा था. जानबूझ कर उस के वर्तमान को उजाड़ने के उद्देश्य से.

श्रेष्ठा एक खूबसूरत नवविवाहिता, जिस ने संयम से विवाह के समय अपने अतीत के दुखदायी पन्ने स्वयं अपने हाथों से जला दिए थे. 6 माह पहले दोनों परिणय सूत्र में बंधे थे और पूरी निष्ठा से एकदूसरे को समझते हुए, एकदूसरे को सम्मान देते हुए गृहस्थी की गाड़ी उस खूबसूरत पहाड़ी रास्ते पर दौड़ा रहे थे. श्रेष्ठा पूरी ईमानदारी से अपने अतीत से बाहर निकल संयम व उस के मातापिता को अपनाने लगी थी.

जीवन की राह सुखद थी, जिस पर वे दोनों हंसतेमुसकराते आगे बढ़ रहे थे कि अचानक रविवार की एक शाम आदेश को अपनी ससुराल आया देख उस के हृदय को संदेह के बिच्छु डसने लगे.

श्रेष्ठा के बचपन के मित्र के रूप में अपना परिचय देने के कारण आदेश को घर में प्रवेश व सम्मान तुरंत ही मिल गया, सासससुर ने उसे बड़े ही आदर से बैठक में बैठाया व श्रेष्ठा को चायनाश्ता लाने को कहा.

श्रेष्ठा तुरंत रसोई की ओर चल पड़ी पर उस की आंखों में एक अजीब सा भय तैरने लगा. यों तो श्रेष्ठा और आदेश की दोस्ती काफी पुरानी थी पर अब श्रेष्ठा उस से नफरत करती थी. उस के वश में होता तो वह उसे अपनी ससुराल में प्रवेश ही न करने देती. परंतु वह अपने पति व ससुराल वालों के सामने कोई तमाशा नहीं चाहती थी, इसीलिए चुपचाप चाय बनाने भीतर चली गई. चाय बनाते हुए अतीत के स्मृति चिह्न चलचित्र की भांति मस्तिष्क में पुन: जीवित होने लगे…

वषों पुरानी जानपहचान थी उन की जो न जाने कब आदेश की ओर से एकतरफा प्रेम में बदल गई. दोनों साथ पढ़ते थे, सहपाठी की तरह बातें भी होती थीं और मजाक भी. पर समय के साथ श्रेष्ठा के लिए आदेश के मन में प्यार के अंकुर फूट पड़े, जिस की भनक उस ने श्रेष्ठा को कभी नहीं होने दी.

यों तो लड़कियों को लड़कों मित्रों के व्यवहार व भावनाओं में आए परिवर्तन का आभास तुरंत हो जाता है, परंतु श्रेष्ठा कभी आदेश के मन की थाह न पा सकी या शायद उस ने कभी कोशिश ही नहीं की, क्योंकि वह तो किसी और का ही हाथ थामने के सपने देख, उसे अपना जीवनसाथी बनाने का वचन दे चुकी थी.

हरजीत और वह 4 सालों से एकदूजे संग प्रेम की डोर से बंधे थे. दोनों एकदूसरे के प्रति पूर्णतया समर्पित थे और विवाह करने के निश्चय पर अडिग. अलगअलग धर्मों के होने के कारण उन के परिवार इस विवाह के विरुद्घ थे, पर उन्हें राजी करने के लिए दोनों के प्रयास महीनों से जारी थे. बच्चों की जिद और सुखद भविष्य के नाम पर बड़े झुकने तो लगे थे, पर मन की कड़वाहट मिटने का नाम नहीं ले रही थी.

किसी तरह दोनों घरों में उठा तूफान शांत होने ही लगा था कि कुदरत ने श्रेष्ठा के मुंह पर करारा तमाचा मार उस के सपनों को छिन्नभिन्न कर डाला.

हरजीत की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. श्रेष्ठा के उजियारे जीवन को दुख के बादलों ने पूरी तरह ढक लिया. लगा कि श्रेष्ठा की जीवननैया भी डूब गई काल के भंवर में. सब तहसनहस हो गया था. उन के भविष्य का घर बसने से पहले ही कुदरत ने उस की नींव उखाड़ दी थी.

इस हादसे से श्रेष्ठा बूरी तरह टूट गई  पर सच कहा गया है समय से बड़ा चिकित्सक कोई नहीं. हर बीतते दिन और मातापिता के सहयोग, समझ व प्रेमपूर्ण अथक प्रयासों से श्रेष्ठा अपनी दिनचर्या में लौटने लगी.

यह कहना तो उचित न होगा कि उस के जख्म भर गए पर हां, उस ने कुदरत के इस दुखदाई निर्णय पर यह प्रश्न पूछना अवश्य छोड़ दिया था कि उस ने ऐसा अन्याय क्यों किया?

सालभर बाद श्रेष्ठा के लिए संयम का रिश्ता आया तो उस ने मातापिता की इच्छापूर्ति के लिए तथा उन्हें चिंतामुक्त करने के उद्देश्य से बिना किसी उत्साह या भाव के, विवाह के लिए हां कह दी. वैसे भी समय की धारा को रोकना जब वश में न हो तो उस के साथ बहने में ही समझदारी होती है. अत: श्रेष्ठा ने भी बहना ही उचित समझा, उस प्रवाह को रोकने और मोड़ने के प्रयास किए बिना.

विवाह को केवल 5 दिन बचे थे कि अचानक एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई. आदेश जो श्रेष्ठा के लिए कोई माने नहीं रखता था, जिस का श्रेष्ठा के लिए कोई वजूद नहीं था एक शाम घर आया और उस से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की. श्रेष्ठा व उस के पिता ने जब उसे इनकार कर स्थिति समझाने का प्रयत्न किया तो उस का हिंसक रूप देख दंग रह गए.

एकतरफा प्यार में वह सोचने समझने की शक्ति तथा आदरभाव गंवा चुका था. उस ने काफी हंगामा किया. उस की श्रेष्ठा के भावी पति व ससुराल वालों को भड़का कर उस का जीवन बरबाद करने की धमकी सुन श्रेष्ठा के पिता ने पुलिस व रिश्तेदारों की सहायता से किसी तरह मामला संभाला.

काफी देर बाद वातावरण में बढ़ी गरमी शांत हुई थी. विवाह संपन्न होने तक सब के मन में संदेह के नाग अनहोनी की आशंका में डसते रहे थे. परंतु सभी कार्य शांतिपूर्वक पूर्ण हो गए.

बैठक से तेज आवाजें आने के कारण श्रेष्ठा की अतीत यात्रा भंग हुई और वह बाहर की तरफ दौड़ी. बैठक का माहौल गरम था. सासससुर व संयम तीनों के चेहरों पर विस्मय व क्रोध साफ झलक रहा था. श्रेष्ठा चुपचाप दरवाजे पर खड़ी उन की बातें सुनने लगी.

‘‘आंटीजी, मेरा यकीन कीजिए मैं ने जो भी कहा उस में रत्तीभर भी झूठ नहीं है,’’ आदेश तेज व गंभीर आवाज में बोल रहा था. बाकी सब गुस्से से उसे सुन रहे थे.

‘‘मेरे और श्रेष्ठा के संबंध कई वर्ष पुराने हैं. एक समय था जब हम ने साथसाथ जीनेमरने के वादे किए थे. पर जैसे ही मुझे इस के गिरे चरित्र का ज्ञान हुआ मैं ने खुद को इस से दूर कर लिया.’’

आदेश बेखौफ श्रेष्ठा के चरित्र पर कीचड़ फेंक रहा था. उस के शब्द श्रेष्ठा के कानों में पिघलता शीशी उड़ेल रहे थे.

आदेश ने हरजीत के साथ रहे श्रेष्ठा के पवित्र रिश्ते को भी एक नया ही

रूप दे दिया जब उस ने उन के घर से भागने व अनैतिक संबंध रखने की झूठी बात की. साथ ही साथ अन्य पुरुषों से भी संबंध रखने का अपमानजनक लांछन लगाया. वह खुद को सच्चा साबित करने के लिए न जाने उन्हें क्याक्या बता रहा था.

आदेश एक ज्वालामुखी की भांति झूठ का लावा उगल रहा था, जो श्रेष्ठा के वर्तमान को क्षणभर में भस्म करने के लिए पर्याप्त था, क्योंकि हमारे समाज में स्त्री का चरित्र तो एक कोमल पुष्प के समान है, जिसे यदि कोई अकारण ही चाहेअनचाहे मसल दे तो उस की सुंदरता, उस की पवित्रता जीवन भर के लिए समाप्त हो जाती है. फिर कोई भी उसे मस्तक से लगा केशों में सुशोभित नहीं करता है.

श्रेष्ठा की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. क्रोध, भय व चिंता के मिश्रित भावों में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हृदय की धड़कन तेज दौड़तेदौड़ते अचानक रुक जाएगी.

‘‘उफ, मैं क्या करूं?’’

उस पल श्रेष्ठा के क्रोध के भाव 7वें आसमान को कुछ यों छू रहे थे कि यदि कोई उस समय उसे तलवार ला कर दे देता तो वह अवश्य ही आदेश का सिर धड़ से अलग कर देती. परंतु उस की हत्या से अब क्या होगा? वह जिस उद्देश्य से यहां आया था वह तो शायद पूरा हो चुका था.

श्रेष्ठा के चरित्र को ले कर संदेह के बीज तो बोए जा चुके थे. अगले ही पल श्रेष्ठा को लगा कि काश, यह धरती फट जाए और वह इस में समा जाए. इतना बड़ा कलंक, अपमान वह कैसे सह पाएगी?

आदेश ने जो कुछ भी कहा वह कोरा झूठ था. पर वह यह सिद्घ कैसे करेगी? उस की और उस के मातापिता की समाज में प्रतिष्ठा का क्या होगा? संयम ने यदि उस से अग्निपरीक्षा मांगी तो?

कहीं इस पापी की बातों में आ कर उन का विश्वास डोल गया और उन्होंने उसे अपने जीवन से बाहर कर दिया तो वह किसकिस को अपनी पवित्रता की दुहाई देगी और वह भी कैसे? वैसे भी अभी शादी को समय ही कितना हुआ था.

अभी तो वह ससुराल में अपना कोई विशेष स्थान भी नहीं बना पाई थी. विश्वास की डोर इतनी मजबूत नहीं हुई थी अभी, जो इस तूफान के थपेड़े सह जाती. सफेद वस्त्र पर दाग लगाना आसान है, परंतु उस के निशान मिटाना कठिन. कोईर् स्त्री कैसे यह सिद्घ कर सकती है कि वह पवित्र है. उस के दामन में लगे दाग झूठे हैं.

जब श्रेष्ठा ने सब को अपनी ओर देखते हुए पाया तो उस की रूह कांप उठी. उसे लगा सब की क्रोधित आंखें अनेक प्रश्न पूछती हुई उसे जला रही हैं. अश्रुपूर्ण नयनों से उस ने संयम की ओर देखा. उस का चेहरा भी क्रोध से दहक रहा था. उसे आशंका हुई कि शायद आज की शाम उस की इस घर में आखिरी शाम होगी.

अब आदेश के साथ उसे भी धक्के दे घर से बाहर कर दिया जाएगा. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि ये सब झूठ है. वह पवित्र है. उस के चरित्र में कोई खोट नहीं कि तभी उस के ससुरजी अपनी जगह से उठ खड़े हुए.

स्थिति अधिक गंभीर थी. सबकुछ समझ और कल्पना से परे. श्रेष्ठा घबरा गई कि अब क्या होगा? क्या आज एक बार फिर उस के सुखों का अंत हो जाएगा? परंतु उस के बाद जो हुआ वह तो वास्तव में ही कल्पना से परे था. श्रेष्ठा ने ऐसा दृश्य न कभी देखा था और न ही सुना.

श्रेष्ठा के ससुरजी गुस्से से तिलमिलाते हुए खड़े हुए और बेकाबू हो उन्होंने आदेश को कस कर गले से पकड़ लिया, बोले, ‘‘खबरदार जो तुमने मेरी बेटी के चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश भी की तो… तुम जैसे मानसिक रोगी से हमें अपनी बेटी का चरित्र प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. निकल जाओ यहां से… अगर दोबारा हमारे घर या महल्ले की तरफ मुंह भी किया तो आगे की जिंदगी हवालात में काटोगे.’’

फिर संयम और ससुर ने आदेश को धक्के दे कर घर से बाहर निकाल दिया. ससुरजी ने श्रेष्ठा के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘घबराओ नहीं बेटी. तुम सुरक्षित हो. हमें तुम पर विश्वास है. अगर यह पागल आदमी तुम्हें मिलने या फोन कर परेशान करने की कोशिश करे तो बिना संकोच तुरंत हमें बता देना.’’

सासूमां प्यार से श्रेष्ठा को गले लगा चुप करवाने लगीं. सब गुस्से में थे पर किसी ने एक बार भी श्रेष्ठा से कोई सफाई नहीं मांगी.

घबराई और अचंभित श्रेष्ठा ने संयम की ओर देखा तो उस की आंखें जैसे कह रही थीं कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. मेरा विश्वास और प्रेम इतना कमजोर नहीं जो ऐसे किसी झटके से टूट जाए. तुम्हें केवल नाम के लिए ही अर्धांगिनी थोड़े माना है जिसे किसी अनजान के कहने से वनवास दे दूं.

तुम्हें कोई अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता नहीं. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं और रहूंगा. औरत को अग्निपरीक्षा देने की जरूरत नहीं. यह संबंध प्यार का है, इतिहास का नहीं.

श्रेष्ठा घंटों रोती रही और आज इन आंसुओं में अतीत की बचीखुची खुरचन भी बह गई. हरजीत की मृत्यु के समय खड़े हुए प्रश्न कि यह अन्याय क्यों हुआ, का उत्तर मिल गया था उसे.

पति सदासदा के लिए अपना होता है. उस पर भरोसा करा जा सकता है. पहले क्या हुआ पति उस की चिंता नहीं करते उस का जीवन सफल हो गया था.

पुराणों के देवताओं से कहीं ज्यादा श्रेष्ठकर संयम की संगिनी बन कर सासससुर के रूप में उच्च विचारों वाले मातापिता पा कर स्त्री का सम्मान करने वाले कुल की बहू बन कर नहीं, बेटी बन कर उस रात श्रेष्ठा तन से ही नहीं मन से भी संयम की बांहों में सोई. उसे लगा कि उस की असल सुहागरात तो आज है. Story In Hindi

लेखिका : प्रिया रानी 

Hindi Stories Love : सफर में हमसफर – सुमन को कैसे मिल गया सफर में उस का हमसफर

Hindi Stories Love : रात के तकरीबन 8 बजे होंगे. यों तो छोटा शहर होने पर सन्नाटा पसरा रहता है, पर आज भारतपाकिस्तान का क्रिकेट मैच था, तो काफी भीड़भाड़ थी. वैसे तो सुमन के लिए कोई नई बात नहीं थी. यह उस का रोज का ही काम था.

‘‘मैडम, झकरकटी चलेंगी क्या?’’

सुमन ने पलट कर देखा. 3-4 लड़के खड़े थे.

‘‘कितने लोग हो?’’

‘‘4 हैं हम.’’

‘‘ठीक है, बैठ जाओ,’’ कहते हुए सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया.

सुमन ने एक ही नजर में भांप लिया था कि वे सब किसी कालेज के लड़के हैं. सभी की उम्र 20-22 साल के आसपास होगी. आज सुबह से सवारियां भी कम मिली थीं, इसलिए सुमन ने सोचा कि चलो एक आखिरी चक्कर मार लेते हैं, कुछ कमाई हो जाएगी और शकील चाचा को टैक्सी का किराया भी देना था.

अभी कुछ ही दूर पहुंच थे कि लड़कों ने आपस में हंसीमजाक और फब्तियां कसना शुरू कर दिया.

तभी उन में से एक बोला, ‘‘यार, तुम ने क्या बैटिंग की… एक गेंद में छक्का मार दिया.’’

‘‘हां यार, क्या करें, अपनी तो बात ही निराली है. फिर मैं कर भी क्या सकता था. औफर भी तो सामने से आया था,’’ दूसरे ने कहा.

‘‘हां, पर कुछ भी कहो, कमाल की लड़की थी,’’ तीसरा बोला और सब एकसाथ हंसने लगे.

सुमन ने अपने ड्राइविंग मिरर से देखा कि वे सब बात तो आपस में कर रहे थे, पर निगाहें उसी की तरफ थीं. उस ने ऐक्सलरेटर बढ़ाया कि जल्दी ही मंजिल पर पहुंच जाएं. पता नहीं, क्यों आज सुमन को अपनी अम्मां का कहा एकएक लफ्ज याद आ रहा था.

पिताजी की हादसे में मौत हो जाने के चलते उस के दोनों बड़े भाइयों ने मां की जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया था.

सुमन ग्रेजुएशन भी पूरी न कर पाई थी, मगर रोजरोज के तानों से तंग आ कर वह भाइयों का घर छोड़ कर अपने पुराने घर में अम्मां को साथ ले कर रहने आ गई, जहां से अम्मां ने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी और उस बंगले को भाईभाभी के लिए छोड़ दिया.

ऐसा नहीं था कि भाइयों ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की, पर सिर्फ एक दिखावे के लिए.

अम्मां और सुमन आ तो गए उस मकान में, पर कमाई का कोई जरीया न था. कितने दिनों तक बैठ कर खाते वे दोनों?

मुनासिब पढ़ाई न होने के चलते सुमन को नौकरी भी नहीं मिली. तब पिताजी के करीबी दोस्त शकील चाचा ने उन की मदद की और बोले, ‘तुम पढ़ने के साथसाथ आटोरिकशा भी चला सकती हो, जिस से तुम्हारी पैसों की समस्या दूर होगी और तुम पढ़ भी लोगी.’

पर जब सुमन ने अम्मां को बताया, तो वे बहुत गुस्सा हुईं और बोलीं, ‘तुम्हें पता भी है कि आजकल जमाना कितना खराब है. पता नहीं, कैसीकैसी सवारियां मिलेंगी और मुझे नहीं पसंद कि तुम रात को सवारी ढोओ.’

‘ठीक है अम्मां, पर गुजारा कैसे चलेगा और मेरे कालेज की फीस का क्या होगा? मैं रात के 8 बजे के बाद आटोरिकशा नहीं चलाऊंगी.’

कुछ देर सोचने के बाद अम्मां ने हां कर दी. अब सुमन को आटोरिकशा से कमाई होने लगी थी. अब वह अम्मां की देखभाल अच्छे से करती और अपनी पढ़ाई भी करती.

सबकुछ ठीक से चलने लगा, पर आज का मंजर देख कर सुमन को लगने लगा कि अम्मां की बात न मान कर गलती कर दी क्या? कहीं कोई ऊंचनीच हो गई, तो क्या होगा…

तभी अचानक तेज चल रहे आटोरिकशा के सामने ब्रेकर आ जाने से झटका लगा और सुमन यादों की परछाईं से बाहर आ गई.

‘‘अरे मैडम, मार ही डालोगी क्या? ठीक से गाड़ी चलाना नहीं आता, तो चलाती क्यों हो? वही काम करो, जो लड़कियों को भाता है,’’ एक लड़के ने कहा.

तभी दूसरा बोला, ‘‘बैठ यार रोहित. ठीक है, हो जाता है कभीकभी.’’

‘‘सौरी सर…’’ पसीना पोंछते हुए सुमन बोली. अभी वे कुछ ही दूर चले

थे कि उन में से चौथा लड़का बोला, ‘‘हैलो मैडम, मैं विकास हूं. आप का क्या नाम है?’’

सुमन ने डरते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुमन है.’’

‘‘पढ़ती हो?’’

‘‘बीए में.’’

‘‘कहां से?’’

‘‘जेएनयू से.’’

‘‘ओह, तभी मुझे लग रहा है कि मैं ने आप को कहीं देखा है. मैं वहां लाइब्रेरी में काम करता हूं,’’ वह लड़का बोला.

‘‘अच्छा… पर मैं ने तो आप को कभी नहीं देखा,’’ सुमन बेरुखी से बोली.

तभी सारे लड़के खिलखिला कर हंस दिए.

रोहित बोला, ‘‘क्या लाइन मार रहा है? ऐ लड़की, जरा चौराहे से लैफ्ट ले लेना, वहां से शौर्टकट है.’’

चौराहे से मुड़ते ही सुमन के होश उड़ गए. वह रास्ता तो एकदम सुनसान था. सुमन ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘पहले वाला रास्ता तो काफी अच्छा था, पर यह तो…’’

‘‘नहीं, हम को तुम उसी रास्ते से ले चलो,’’ रोहित बोला.

अब तो सुमन का बड़ा बुरा हाल था. उस के हाथपैर डर से कांप रहे थे. आज सुमन को अम्मां की एकएक बात सच होती दिख रही थी. अम्मां कहती थीं कि इतिहास में औरतें दर्ज कम, दफन ज्यादा हुई हैं. वे रहती पिंजरे में ही हैं, बस उन के आकार और रंग अलग होते हैं. समाज को औरतों का रोना भी मनोरंजन लगता है. हम औरतों को चेहरे और जिस्म के उतारचढ़ाव से देखा और पहचाना जाता है, इसलिए तुम यह फैसला करने से पहले सोच लो…

तभी पीछे से उन में से एक लड़के ने अपना हाथ सुमन के कंधे पर रखा और बोला, ‘‘जरा इधर से राइट चलना. हमें पैसे निकालने हैं.’’

सुमन की तो जैसे सांस ही हलक में अटक गई. उस का पूरा शरीर एक सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ा गया.

सुमन ने कहा, ‘‘आप लोगों ने आटोरिकशा नहीं खरीदा है. मैं अब झकरकटी में ही छोड़ूंगी, नहीं तो मैं आप सब को यहीं उतार कर वापस चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे वापस चली जाओगी तुम?’’ रोहित ने पूछा.

‘‘क्या बोला?’’ सुमन ने अपनी आवाज में भारीपन ला कर कहा.

‘‘अरे, मैं यह कह रहा हूं कि इतनी रात को सुनसान जगह में हम सभी कहां भटकेंगे. हमें आप सीधे झकरकटी ही छोड़ दो,’’ रोहित बोला.

‘‘ठीक है… अब आटोरिकशा सीधा वहीं रुकेगा,’’ सुमन बोली.

सुमन के जिंदा हुए आत्मविश्वास से उन का सारा डर पानी में पड़ी गोलियों की तरह घुल गया. उसे लगा कि उस के चारों ओर महकते हुए शोख लाल रंग खिल गए हों और वह उन्हें दुनिया के सामने बिखेर देना चाहती है. अभी तो उस के सपनों की उड़ान बाकी थी, फिर भी उस ने दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और सामने दिखे एटीएम पर आटोरिकशा रोक दिया.

विकास हैरानी से सुमन के चेहरे पर आतेजाते भाव को अपलक देखे जा

रहा था. सुमन इस से बेखबर गाड़ी का मिरर साफ करती जा रही थी. वह पैसा निकाल कर आ गया और सभी फिर चल पड़े.

बमुश्किल एक किलोमीटर ही चले होंगे, तभी सुमन को सामने खूबसूरत सफेद हवेली दिखाई दी. आसपास बिलकुल वीरान था, पर एक फर्लांग की दूरी पर पान की दुकान थी और मैच भी अभीअभी खत्म हुआ था. भारत की जीत हुई थी. सब जश्न मना कर जाने की तैयारी में थे.

सुमन ने हवेली से थोड़ी दूर और पान की दुकान से थोड़ा पहले आटोरिकशा रोक दिया. सभी वहां झूमते हुए उतर गए, पर विकास वहीं खड़ा उसे देख रहा था.

सुमन गुस्से से बोली, ‘‘ऐ मिस्टर… क्या देख रहे हो? क्या कभी लड़की नहीं देखी?’’

‘‘देखी तो बहुत हैं, पर तुम्हारी सादगी और हिम्मत का दीवाना हो गया यह दिल…’’ विकास बोला.

उन सब लड़कों ने खूब शराब पी रखी थी. तभी उस में से एक लड़के ने पीछे मुड़ कर देखा कि विकास वहीं खड़ा है और उसे पुकारते हुए सभी उस के पास वापस आने लगे.

यह देख सुमन घबरा गई. उधर पान वाला भी दुकान पर ताला लगा कर जाने वाला था.

सुमन तेजी से पलट कर जाने लगी, मगर विकास ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया और घुटनों के बल बैठ कर बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

यह सुन कर सारे दोस्त ताली बजाने लगे. गहराती हुई रात और चमकते हुए तारों की झिलमिल में विकास की आंखों में सुमन को प्यार की सचाई नजर आ रही थी.

पता नहीं, क्यों सुमन को विकास पर ढेर सारा प्यार आ गया. शायद इस की वजह यह रही होगी कि बचपन से एक लड़की प्यार और इज्जत से दूर रही हो.

सुमन अपने जज्बातों पर काबू पाते हुए बोली, ‘‘चलो, कल कालेज में मिलते हैं. तब तक तुम्हारा नशा भी उतर जाएगा.’’

तभी उन में से एक लड़का बोला, ‘‘सुमन, हम ने शराब जरूर पी रखी है, पर अपने होश में हैं. हम इतने नशे में भी नहीं हैं कि यह न समझ पाएं कि औरत का बदन ही उस का देश होता है और हमारे देश में हमेशा से औरतों की इज्जत की जाती रही है. चंद खराब लोगों की वजह से सारे लोग खराब नहीं होते.’’

सुमन मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो… कल मिलते हैं कालेज में.’’

इस के बाद सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया, मगर उसे ऐसा लग रहा था जैसे चांदसितारे और बदन को छूती ठंडी हवा उस के प्यार की गवाह बन गए हों और वह इस छोटे से सफर में मिले हमसफर के ढेरों सपने संजोए और खुशियां बटोरे अपने घर चल दी. Hindi Stories Love

Social Story : ऐतिहासिक कहानी – समर्पणा

Social Story : आंखें मलमल कर उस ने देखा है तो वही. पर यह कैसे संभव है…?

आश्चर्य, हर्ष व उत्साह से उल्लासित जया के कदमों में मानो पर लग गए. वह राजभवन की घुड़साल, पशुशाला, रसोई, स्नानागार व वाटिकाओं को पार कर ऊपरी मंजिल में स्थित अपनी कोठरी में जा घुसी. दूसरे ही पल एक कपड़े की पुटलिया हाथ में थामे आंध्र देश के वारंगल की जनानी ड्योढी में ‘महाराज रुद्र’ के सम्मुख खड़ी थी.

धोंकनी सी चलती अपनी सांसों को मुश्किल से नियंत्रित कर उस ने कहा, ‘आप इन्हें धारण कर लीजिए. अपने महाराज वीरभद्र शीघ्र पधार रहे हैं.’

उस के नयनों में अनोखी चमक थी. उस के होंठों पर हलकी मुसकराहट अठखेलियां कर रही थी. कपड़े की पुटलिया में रुद्रंबा को अपनी चमचम करती स्वर्णा पाजेब. सोने के ही बिछुए, मंगलसूत्र, रत्नों के कई बहुमूल्य हार, मांग भरने की सिंदूर की सुनहरी डिबिया व रत्नचूर्ण से निर्मित माथे की बिंदी, कंगन आदि अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. ‘जयलक्ष्मी, तू मेरी दासी नहीं मुंहबोली बहन है, पर क्या ऐसी हंसीठिठोली तेरे लिए उचित है?’ रुद्रंबा का स्वर तीखा था.

‘तू भूल गई क्या कि हम सब ने आज से 3 महीने पहले महाराज वीरभद्र के मृत तन को अग्निचिता में सुला दिया था और उन के अंतिम चिन्हों को कृष्णा की उत्ताल लहरों में बहा कर, उन्हें अश्रुपूर्ण विदा भी दी थी? और तू कह रही है कि वे जीवित आ रहे हैं?’ रुद्रंबा रुंधे गले से बोली.

‘महादेवी, मेरा एक भी बोल झूठा हो तो दीवार पर लटकी इस चाबुक से मेरी गरदन काट कर घूरे में फेंक दीजिए. और लीजिए, इस खिड़की से स्वयं झांक लीजिए कि मैं सत्य से कितनी निकट या दूर हूं,’

रुद्रंबा ने तेजी से उठ कर वातायन से झांका. अपलक वह देखती ही रह गई. सचमुच महाराज वीरभद्र को कांधे पर बैठाए कई व्यक्तियों की भीड़ गोलकुंडा के मुख्य राजभवन के प्रमुख द्वार की ओर उमड़ रह थी. बिलकुल सामने सूर्य की लालिमा सारे जग में सिंदूर बिखेर रही थी. कई पक्षियों के नियमबद्ध झुंडों ने इसी पल आसमान में किलोल करते हुए खुशी का इजहार किया.

रुद्रंबा की दृष्टि सहसा अपने वर्तमान विधवा वेश पर गई. श्वेत परिधान, सूखे केश व रंगहीन मुख को परिवर्तित कर वह थोड़े समय के ही बाद माथे पर मुकुट, राजसी वस्त्रों, अनगिनत गले की माल और चमचमाते बंद, गले के उत्तरीय और रत्नजटित पगरखियों को पहन कर गोलकुंडा की ‘रुद्र महाराज’ के रूप में सिंहासनारूढ़ हो जाएगी.

60 वर्ष तक गोलकुंडा पर राज कर उस के पिता गणपति ने ही उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में राज्य सिंहासन पर बैठाते हुए उसे न केवल सदैव पुरुष वेश धारण करते रहने, अपितु जनता को भी उसे हमेशा ‘रुद्र महाराज’ के रूप में संबोधित करने का आदेश दिया था.

रुद्रंबा उस पल को याद करते हुए अचानक सोचने लगी कि पुरुषों के उस के समाज ने नारी जाति को कितना अपमानित किया है? एक ‘पति’ नामधारी प्राणी से पुट लिया की इन सब वस्तुओं का महत्व है, अन्यथा इन्हें किसी कोने में या कहीं भी रख देने में इन की सार्थकता है. यही नहीं, कहीं तो स्वर्ग सिधारे पति की चिता में ही एक-दो नहीं, बल्कि हजारों उस की रानियों और उपपत्नियों को जीवित बैठा कर भी समाज आनंदित हो जाता है क्या?

‘नहीं जया, मैं इन्हें धारण कर अपने नारीत्व का मखौल नहीं उड़ाऊंगी. एक बात बता यदि मैं इन सब से सज्जित हो कर उन के सामने चली भी गई तो क्या उन्हें यह विश्वास नहीं हो जाएगा कि मैं उन की अनुपस्थिति में भी इसी सधवा वेश में आनंदित रहती थी? तब क्या उन के पुरुषत्व पर ठेस नहीं लगेगी?’

‘मैं अपढ़ आप की ऊंचीऊंची बातें क्या समझूं? मेहरबानी कर आप इन्हें अवश्य धारण करें. आप को मेरी कसम. अन्यथा आप मेरा मरा मुंह देखें, यदि इन्हें आप ने अभी धारण नहीं किया,’ जया कक्ष के एक कोने में मुंह सुजा कर जा बैठी.

‘ओह जया. अपनी कसम दे कर तू ने मुझे किस उलझन में डाल दिया. चल, तेरी खुशी के लिए मैं इन्हें धारण कर लेती हूं- अपनी बहन के लिए मैं हृदय पर पत्थर रख कर फिर से सधवा बन जाती हूं. जा, जा कर स्वागत की भाली सजा…

वैसे, तू सुन ले. ‘रुद्र महाराज’ राज्य की संप्रभु हैं. उन का स्थान सर्वोच्च है. साधारण कानून उस पर लागू नहीं हो सकते. हां, सधवा रुद्र राजमहल से बाहर तो जाएगी नहीं.

प्रमुदित जया दौड़ पड़ी. उस ने अपने हाथों में तुरतफुरत रुद्रंबा का सिंगार किया और उन्हें पुटलिया की वस्तुओं के अतिरिक्त भी कई सिंगारिक उपकरणों से विभूषित कर दिया.

एकांत में रुद्रंबा ने पति से प्रश्न किया कि आखिर वे 3 महीने कहां रहे? वे क्यों गायब हो गए थे?

वीरभद्र ने उसे बताया कि एक राजसी अश्व पर आरूढ़ वह वारंगल के जंगलों में शिकार के लिए निकला था. शिकार कोई नहीं मिला. लौटते हुए निद्रित अवस्था में उस का अश्व गोलकुंडा से निकल कर उत्तरपश्चिम दिशा में देर्वागति की सीमा में पहुंच गया, यह उसे ज्ञात नहीं हुआ. अचानक उसे कई सैनिकों ने घेर लिया. उसे बंदी बना कर देवगिरि के शासक सिंघणा के सम्मुख ले जाया गया. सीमोल्लंघन के अपराध में उसे 3 महीने तक बंदीगृह में काटने पड़े.

पर, तुम सावधान हो जाओ, क्योंकि वहां मुझ से कोई परिचित तो था नहीं. अत: मैं ने जब अपनेआप को गोलकुंडा राजमहल का एक सेवक घोषित किया, तो जानती हो सिंघणा ने मुझ से क्या कहा? उस ने भरे दरबार में मुझे धमकी दी कि बहुत शीघ्र वह एक कमजोर नारी द्वारा संचालित गोलकुंडा पर आक्रमण कर, उसे देवगिरि का एक अंग बना लेगा.

वीरभद्र ने मानो सोते हुए सांप पर पैर रख दिया. रुद्रंबा फुफकार कर बोली, ‘आने दो सिंघणा को यहां. उसे ज्ञात हो जाएगा कि पिछले वर्षों में मैं ने यहां राज किया है, कोरा अभिनय नहीं. युद्धस्थल में मैं ने मदुरा के शासकों व उड़ीसा के गंगों को जैसे शिकस्त दी थी, सिंघणा भी मेरे हाथों, एक नारी द्वारा बुरी तरह परास्त ही होगा.’

रुद्रंबा का मस्तिष्क वीरभद्र से बात करते हुए भी पूरी तरह यह मंथ रहा था कि आखिर गोलकुंडा में वीरभद्र के स्थान पर किस की अन्येष्टि की गई. दोष किस का रहा?

जया को जब उस ने अपने पति से हुई वार्तालाप की बातें बताईं तो उस का भी यही प्रश्न था कि राजकीय सम्मान के साथ महाराज वीरभद्र के स्थान पर किसे अंत्येष्टि का लाभ मिला और क्यों?

‘रुद्र महाराज’ के आदेश पर राज्य प्रधान भागता चला आया. तनिक कठोरता दिखाने पर उस ने स्वीकार कर लिया कि उस के किसी कर्मचारी ने किसी ऐसे व्यक्ति की अंतिम क्रिया करा दी, जिस का क्षतविक्षत तन, जिस का खून किया गया था, महाराज वीरभद्र से बहुत मिलताजुलता था.

रुद्रंबा ने तुरंत राज्य प्रधानी को जीवनभर के लिए बंदीगृह में डाल दिया. मूल उत्तरदायित्व उसी का था, कर्मचारी का नहीं.

रुद्रंबा द्वारा रुद्र महाराज का चोला धारणा कर लेने से वीरभद्र से उस के संबंधों में अनजाने ही एक गंभीर दरार पैदा हो गर्ई थी. वीरभद्र कभी राज्य सिंहासन पर रुद्रंबा का साथ नहीं दे सकता था क्योंकि दो पुरुष एक सिंहासन पर कैसे बैठते? सामान्य संबंधों में भी रुद्र महाराज संपूर्णा गोलकुंडा सहित अपने पति की भी ‘महाराज’ थी. उस के पति को भी उसे अपनी शासिका स्वीकारना चाहिए. यह भाव उसे पति से विलग करता गया. वीरभद्र ने भी इसे अपनी नियति मान कर अपनेआप को निम्नतर व उपेक्षित बना लिया. अत: वे दोनों अनजान बनते गए.

जब पतिपत्नी में एकसमान धरातल, सहजता व बराबरी न हो तो दोनों में सामंजस्य कठिन है. वीरभद्र व रुद्रंबा के विवाह बाद से ही ऐसे संबंध थे. पति को पुन: पा कर रुद्रंबा ने यद्यपि हर्ष व आनंद का प्रदर्शन किया, पर उस के मन में तार जया के प्रयासों के उपरांत भी झंकृत नहीं हो सके थे.

वीरभद्र ने देवगिरि से लौटने के पश्चात बातों ही बातों में रुद्रंबा से कहा, ‘रुद्र, तुम्हें विश्वास हो या नहीं, पर मैं तुम्हें मन से चाहता हूं, तुम्हारी मैं पूजा करता हूं. इन तीन महीनों में एकदूसरे से दूर रहने के कारण मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति प्रेम की चिंगारी और भी तीव्र हो चुकी है.’

रुद्रंबा कुछ बोली नहीं, पर मन ही मन वह हंस पड़ी.

समय का रथ स्वाभाविक गति से चलता गया. अचानक एक दिन सिंघणा अपनी विशाल सेना ले कर वारंगल में आ धमका. उस का मंतव्य वारंगल को हस्तगत कर गोलकुंडा का विलय देवगिरि में करना था.

पूर्व की भांति रुद्र महाराज ने काकतीय सैनिकों को ललकारा. उन का नेतृत्व करते हुए उस ने उन्हें अपनी व राष्ट्र की स्वाधीनता को अक्षुण्य रखने की प्रेरणा दी. जनसाधारण ने अपनी शासिका की पूर्व युद्ध प्रवीणता को याद कर उसे युद्ध के लिए भावभीनी विदाई दी.

रुद्रंबा शत्रु पर टूट पड़ी. युद्ध भयानक हुआ. इस में रुद्र महाराज की फुरती व सक्रियता दर्शनीय थी. सिंघणा जिसे बच्चों का खेल मान रहा था, उस के विपरीत नारी की सेना का सामना करने में उसे पसीने छूट गए. स्थिति ऐसी हुई कि गोलकुंडा के बहादुर सैनिकों ने देवगिरि को बुरी तरह परास्त कर दिया. सिंघणा को प्राण बचा कर भागना पड़ा. पीठ दिखाने के बाद भी सिंघणा ने देवगिरि में जा कर घोषित किया कि नारी शासिका को अभयदान दे कर वह लौट आया है. चाटुकारों ने उस की बात का समर्थन किया.

रुद्रंबा की भूल यही थी कि उस ने भागते शत्रु का पीछा नहीं किया. उस का कहना था, ‘पीठ दिखाने वाले शत्रु का पीछा करना नैतिकता का प्रतिकार है.’

विजयी रुद्र महाराज का वारंगल की जनता ने अभूतपूर्व स्वागत किया. उसे न केवल पुष्पमालाओं, प्रत्युत्त बहुमूल्य उपहारों से लाद दिया गया. रात्रि में घरघर में दीपमालिका जैसे जगमगाहट हुई.

इस सम्मान से अभिभूत जया की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं था. उस ने अपनी रानी की अपने ढंग से राजमहल में अगवानी की. रुद्रंबा के तन के घावों को हाथों से संभाल कर धोते हुए उन पर वैद्यजी के परामर्श के अनुसार उस ने कई प्रकार की जड़ीबूटियों का लेप किया.

उसे पलंग पर सावधानी से लिटाते हुए जया अचानक बोली, ‘महाराज, आप को एक गुप्त बात भी मुझे बतानी है.’ उस ने फुसफुसा कर उस के कान में जो बात बताई, उस से रुद्रंबा विस्मित हो कर मौन हो गई. तत्काल उस ने प्रश्न किया, ‘तुझे किस ने बताया?’

‘मुझे कौन बताता, मैं ने अपने ही हाथों में सैनिक वेश उन्हें दिया था.’

‘सच…? तो छोड़ मेरे घावों को. लालटेन उठा व चल मेरे साथ,’ जया ने आज्ञा का पालन किया. वे दोनों युद्ध स्थल में पहुंची. वहां वे एकएक मृत व्यक्ति का मुख लालटेन के प्रकाश में टटोलती रहीं. अचानक जया बोली, ‘महाराज, ये रहा उन का तन. गले में डाली इस विशेष गलमाल को मैं ने विदा लेते समय डाली थी.

रुद्रंबा जड़ खड़ी रह. इस सैनिक वेशधारी की युद्ध प्रवीणता की तो रुद्रंबा ने युद्धकाल में ही खूब प्रशंसा की थी. पर ये वे होंगे, यह उस की कल्पना के परे था.

तभी उसे युद्धकाल की वह घटना भी याद आ गई. ‘जया, इन्होंने तो आज मेरे प्राण भी बचाए थे. एक सैनिक का तीर न जाने किधर से आ कर मेरे तन के आरपार होने को था, पर इन्होंने अपने अश्व से उतर कर उस तीर को अपनी छाती पर ले लिया. मैं तो स्वयं अपने प्राणरक्षक को ढूंढ़ रही थी. ओह, जया…

अपने प्राणी का उत्सर्ग कर, मेरे पति ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मुझ मूर्ख को देखो कि मैं ने यह बताने पर भी कि ये मुझे प्राणों से अधिक चाहते हैं, मैं ने उन की बात सुनीअनसुनी कर दी.

मृत पति वीरभद्र का मुख अपने दोनों हाथों में थाम कर, उस पर निर्मल अश्रुओं की झड़ी लगा कर उन के मुख को उस ने धो डाला.

जया तो खड़ीखड़ी तीव्र विलाप कर रही थी, तभी अपने पीछे खड़े एक बीस वर्षीय युवक के बोल रुद्रंबा को सुनाई दिए, ‘नानी, मैं तो आप को ही अब तक अपनी प्रेरणा का पुंज मानता था, पर नाना के अमर बलिदान ने तो मुझे हिला ही डाला.’  प्रताप रुद्र, रुद्रंबा का धेवता आंसू पोंछता हुआ बोल उठा.

इसी समय मुमम्मा, रुद्रंबा की बेटी ने वीरभद्र के चरणों से सिर उठा कर कहा, ‘अम्मां, तुम ने पिताजी की बहुत उपेक्षा की है, पर देखो, उन के मुख पर कितनी प्रखर ओज है इस समय?’

रुद्रंबा क्या प्रत्युत्तर देती? उस के अनवरत अश्रु ही मौन उत्तर दे रहे थे.

‘नाना के मृत तन के सम्मुख मैं शपथ लेता हूं कि आप दोनों की प्रसिद्धि को मैं आंच नहीं आने दूंगा- आप दोनों की प्रतिष्ठा को मैं बनाए रखूंगा.’

अगले चार वर्षों के पश्चात पूरे 34 वर्ष शासन करने के पश्चात जब रुद्र महाराज ने 1289 में अंतिम सांस ली, तो गोलकुंडा चतुर्दिक उन्नति कर चुका था.

रुद्र महाराज की बेटी मुमम्मा ने अपनी मां की इच्छानुसार गोलकुंडा का शासन संभाला, पर उस ने थोड़े समय के ही पश्चात सिंहासन अपने बेटे प्रताप रुद्र को सौंप दिया.

प्रताप रुद्र ने नानी के सम्मुख से ही अश्व संचालन, युद्धकला व शासन के दांवपेच सीखे थे. इसलिए वह काकतीयों का सफलतम व अत्यंत प्रतिभाशाली शासक सिद्ध हुआ. उस ने तो अपने काल में मलिक काफूर व दिल्ली की सेना को भी करारी शिकस्त दी. पूरे दक्षिण भारत को रोंद देने वाले काफूर की गति गोलकुंडा में आ कर प्रताप रुद्र के सामने इतनी कमजोर हो गई कि दिल्ली को गोलकुंडा से समझौता कर के ही किसी प्रकार अपने प्राण बचाने पड़े.

प्रताप अपनी नानी रुद्रंबा का अत्यंत आभारी था, जिस ने उसे प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत बनाया. इस से पूर्ण भारत में कश्मीर में यशोवती, दिद्दा व सुगंध, पूर्वी चालुक्यों में विजयामहादेवी, कदंबों में दिवा भारसी और उड़ीसा की भौमकार वंशीय पृथ्वी, दंडी, धर्मा व बैकुंला महादेवी कोई भी उत्तराधिकारी न होने अथवा अपने बेटे के बालिग होने तक सिंहासनारूढ़ रह चुकी थी. पर पूरे 34 वर्ष तक के लंबे अंतराल में सफल शासिका रहने में (वृद्ध भी. सदैव पुरुष वेश में) रुद्रंबा अग्रणी कही जा सकती है. Social Story

लेखक : डा. प्रभात त्यागी

Story In Hindi : परीक्षा – क्या हुआ जब खटपट की वजह से सुषमा मायके को तैयार हो गई?

Story In Hindi : पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

‘‘आज नहीं, किसी दूसरे दिन,’’ पंकज ने घबरा कर कहा.

सुधीर ने पंकज की बांह पकड़ ली, ‘‘क्या बात है? कुछ आपस में खटपट हो गई है क्या?’’

पंकज ने फिर ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर बात टालनी चाही, लेकिन सुधीर पीछे पड़ गया, ‘‘जरूर कोई बात है, आज तक तो तुझे इतना उदास कभी नहीं देखा. बताओ, क्या बात है? अगर कोई बहुत निजी बात हो तो…?’’

पंकज थोड़ा हिचकिचाया. फिर बोला, ‘‘निजी क्या? अब तो बात आम हो गई है. दरअसल बात यह है कि आमदनी कम है और सुषमा के शौक ज्यादा हैं. अमीर घर की बेटी है, फुजूलखर्च की आदत है. परेशान रहता हूं, रोज इसी बात पर किचकिच होती है. दिमाग काम ही नहीं करता.’’

‘‘वाह यार,’’ सुधीर उस की पीठ पर हाथ मार कर बोला, ‘‘तुम्हें जितनी तनख्वाह मिलती है, क्या उस में 2 आदमियों का गुजारा नहीं हो सकता है? बस, अभी 3-4 साल तक बच्चा पैदा नहीं करना. मैं तुम से कम तनख्वाह पाता हूं, लेकिन हम दोनों पतिपत्नी आराम से रहते हैं. हां, फालतू खर्च नहीं करते.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन इंसान गुजारा करना चाहे तब तो? खर्च का कोई ठिकाना है? जितना बढ़ाओ, बढ़ेगा. सुषमा इस बात को समझने को तैयार नहीं है,’’ पंकज ने मायूसी से कहा.

‘‘यार, समझौता तो करना ही होगा. अभी तो नईनई शादी हुई है, अभी से यह उदासी और झिकझिक. तुम दोनों तो शादी के पहले ही एकदूसरे को जानते थे, फिर इन 5-6 महीनों में ही…’’

पंकज उठ गया और उदास स्वर में बोला, ‘‘शुरू में सबकुछ सामान्य व सहज था, किंतु इधर 1-2 महीनों से…अब सुषमा को कौन समझाए.’’

सुधीर ने झट से कहा, ‘‘मैं समझा दूंगा.’’

पंकज ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे बाप रे, मार खानी है क्या?’’

सुधीर ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘लगता है, तू बीवी से रोज मार खाता है,’’ फिर वह पंकज की बांह पकड़ कर थिएटर की ओर ले गया, ‘‘तो चल, तुझे ही समझाता हूं. आखिर मैं एक अभिनेता हूं. तुझे कुछ संवाद रटा देता हूं. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

पंकज को घर लौटने में काफी देर हो गई. लेकिन वह बड़े अच्छे मूड में घर के अंदर घुसा. सुषमा के झुंझलाए चेहरे की ओर ध्यान न दे कर बोला, ‘‘स्वीटी, जरा एक प्याला चाय जल्दी से पिला दो, थक गया हूं, आज दफ्तर में काम कुछ ज्यादा था. अगर पकौड़े भी बना दो तो मजा आ जाए.’’

सुषमा ने उसे आश्चर्य और क्रोध से घूर कर देखा. फिर झट से रसोईघर से प्याला और प्लेट ला कर उस की ओर जोर से फेंकती हुई चिल्लाई, ‘‘लो, यह रहा पकौड़ा और यह रही चाय.’’

पंकज ने बचते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो? चाय की जगह भूकंप कैसे? यह घर है कि क्रिकेट का मैदान? घर के बरतनों से ही गेंदबाजी, वह भी बंपर पर बंपर.’’

उस के मजाक से सुषमा का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘न तो यह घर है और न  ही क्रिकेट का मैदान. यह श्मशान है श्मशान.’’

‘‘यह भी कोई बात हुई. पति दिनभर दफ्तर में काम करे और जब थक कर घर लौटे तो पत्नी उस का स्वागत प्रेम की मीठी मुसकान से न कर के शब्दों की गोलियों और तेवरों के तीरों से करे?’’

‘‘यह घर नहीं, कैदखाना है और कैदखाने में बंद पत्नी अपने पति का स्वागत मीठी मुसकान से नहीं कर सकती, पति महाशय.’’

पंकज ने सुषमा की ओर डर कर देखा. फिर मुसकरा कर समझाने के स्वर में बोला, ‘‘यह भी कोई बात हुई सुषमा, घर को कैदखाना कहती हो? यह तो मुहब्बत का गुलशन है.’’

किंतु सुषमा ने चीख कर उत्तर दिया, ‘‘कैदखाना नहीं तो और क्या कहूं? मैं दिनरात नौकरानी की तरह काम करती हूं. अब मुझ से घर का काम नहीं होगा.’’

‘‘अभी तो हमारी शादी को चंद महीने हुए हैं. हमें तो पूरी जिंदगी साथसाथ गुजारनी है. फिर पत्नी का तो कर्तव्य है, घर का कामकाज करना.’’

सुषमा ने पंकज की ओर तीखी नजरों से देखा, ‘‘सुनो जी, घर चलाना है तो नौकर रख लो या होटल में खाने का इंतजाम कर लो, नहीं तो इस हालत में तुम्हें पूरी जिंदगी अकेले ही गुजारनी होगी. अब मैं एक दिन भी तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं हूं. मैं चली.’’

सुषमा मुड़ कर जाने लगी तो पंकज उस के पीछे दौड़ा, ‘‘कहां चलीं? रुको. जरा समझने की कोशिश करो. देखो, अब इतने कम वेतन में नौकर रखना या होटल में खाना कैसे संभव है?’’

सुषमा रुक गई. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी कम तनख्वाह थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी. तुम ने मेरे मांबाप को धोखा दे कर शादी कर ली. अगर वे जानते कि वे अपनी बेटी का हाथ एक भिखमंगे के हाथ में दे रहे हैं तो कभी तैयार नहीं होते. अगर तुम अपनी आमदनी नहीं बढ़ा सकते तो मैं अपने मांबाप के घर जा रही हूं. वे अभी जिंदा हैं.’’

पंकज कहना चाहता था कि उस के बारे में पूरी तरह से उस के मांबाप जानते थे और वह भी जानती थी, कहीं धोखा नहीं था. शादी के वक्त तो वह सब को बहुत सुशील, ईमानदार और खूबसूरत लग रहा था. लेकिन वह इतनी बातें नहीं बोल सका. उस के मुंह से गलती से निकल गया, ‘‘यही तो अफसोस है.’’

सुषमा ने आगबबूला हो कर उस की ओर देखा, ‘‘क्या कहा? मेरे मातापिता के जीवित रहने का तुम्हें अफसोस है?’’

पंकज ने झट से बात मोड़ी, ‘‘नहीं, कुछ नहीं. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गृहस्थी की गाड़ी का पहिया पैसे के पैट्रोल से चलता है तो उस में प्यार का मोबिल भी तो जरूरी है. क्या रुपया ही सबकुछ है?’’

‘‘हां, मेरे लिए रुपया ही सबकुछ है. इसलिए मैं चली मायके. तुम अपनी गृहस्थी में प्यार का मोबिल डालते रहो. अब बनावटी बातों से काम नहीं चलने का. मैं चली अपना सामान बांधने.’’

सुषमा ने अंदर आ कर अपना सूटकेस निकाला और जल्दीजल्दी कपड़े वगैरह उस में डालने लगी. पंकज बगल में खड़ा समझाने की कोशिश कर रहा था, ‘‘जरा धैर्य से काम लो, सुषमा. हम अभी फालतू खर्च करने लगेंगे तो कल हमारी गृहस्थी बढ़ेगी. बालबच्चे होंगे लेकिन अभी नहीं, 4-5 साल बाद होंगे न. तो फिर कैसे काम चलेगा?’’

सुषमा ने उस की ओर चिढ़ कर देखा, ‘‘बीवी का खर्च तो चला नहीं सकते और बच्चों का सपना देख रहे हो, शर्म नहीं आती?’’

‘‘ठीक है, अभी नहीं, कुछ साल बाद ही सही, जब मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी, कुछ रुपए जमा हो जाएंगे, ठीक है न? अब शांत हो जाओ.’’

किंतु सुषमा अपना सामान निकालती रही. वह क्रोध से बोली, ‘‘अब तुम्हारी पोल खुल गई है. मैं इसी वक्त जा रही हूं.’’

‘‘आखिर अपने मायके में कब तक रहोगी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहेंगे, इस की चिंता तुम करो. अब मैं लौट कर नहीं आने वाली.’’

पंकज चौंक पड़ा, ‘‘लौट कर नहीं आने वाली? तुम जीवनभर मायके में ही रहोगी?’’

सुषमा ने जोर दे कर कहा, ‘‘हांहां, और मैं वहां जा कर तुम्हें तलाक दे दूंगी, तुम जैसे मर्दों को अकेले ही रहना चाहिए.’’

पंकज हतप्रभ हो गया, ‘‘तलाक, क्या बकती हो? होश में तो हो?’’

‘‘हां, अब मैं होश में आ गई हूं. बेहोश तो अब तक थी. अब वह जमाना गया जब औरत गाय की तरह खूंटे से बंधी रहती थी,’’ सुषमा ने चाबियों का गुच्छा जोर से पंकज की ओर फेंका, ‘‘लो अपनी चाबियां, मैं चलती हूं.’’

सुषमा अपना सामान उठा कर बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी. पंकज ने कहा, ‘‘सुनो तो, रात को कहां जाओगी? सुबह चली जाना, मैं वादा करता हूं…’’

उसी वक्त दरवाजे पर जोरों की दस्तक हुई. पंकज ने उधर देखा, ‘‘अब यह बेवक्त कौन आ गया? लोग कुछ समझते ही नहीं. पतिपत्नी के प्रेमालाप में कबाब में हड्डी की तरह आ टपकते हैं. देखना तो सुषमा, कहीं वह बनिया उधार की रकम वसूलने तो नहीं आ गया. कह देना कि मैं नहीं हूं.’’

लेकिन सुषमा के तेवर पंकज की बातों से ढीले नहीं पड़े. उस ने हाथ झटक कर कहा, ‘‘तुम ही जानो अपना हिसाब- किताब और खुद ही देख लो, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

दरवाजे पर लगातार दस्तक हो रही थी.

‘‘ठीक है भई, रुको, खोलता हूं,’’ कहते हुए पंकज ने दरवाजा खोला और ठिठक कर खड़ा हो गया. उस के मुंह से ‘बाप रे’ निकल गया.

सुषमा भी चौंक कर देखने लगी. एक लंबी दाढ़ी वाला आदमी चेहरे पर नकाब लगाए अंदर आ गया था. उस ने झट से दरवाजा बंद करते हुए कड़कती आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, जो कोई अपनी जगह से हिला.’’

पंकज ने हकलाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं भाई? और क्या चाहते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं कौन हूं, उस से तुम्हें कोई मतलब नहीं. घर में जो भी गहनारुपया है, सामने रख दो.’’

पंकज को ऐसी परिस्थिति में भी हंसी आ गई, ‘‘क्या मजाक करते हैं दाढ़ी वाले महाशय, अगर इस घर में रुपया ही होता तो रोना किस बात का था. आप गलत जगह आ गए हैं. मैं आप को सही रास्ता दिखला सकता हूं. मेरे ससुर हैं गनपत राय, उन का पता बताए देता हूं. आप उन के यहां चले जाइए.’’

सुषमा बिगड़ कर बोली, ‘‘क्या बकते हो, जाइए.’’

किंतु आगंतुक ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. उस ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में जेब से रिवाल्वर निकाला और उसे हिलाते हुए कहा, ‘‘जल्दी माल निकालो वरना काम तमाम कर दूंगा. देवी जी, जल्दी से सब गहने निकालिए.’’

सुषमा चुपचाप खड़ी उस की ओर देखती रही तो उस ने रिवाल्वर पंकज की ओर घुमा दिया, ‘‘मैं 3 तक गिनूंगा, उस के बाद आप के पति पर गोली चला दूंगा.’’

पंकज ने सोचा, ‘सुषमा कहेगी कि उसे क्या परवा. वह तो पति को छोड़ कर मायके जा रही है.’ किंतु जैसे ही आगंतुक ने 1…2…गिना, सुषमा हाथ उठा कर बेचैन स्वर में बोली, ‘‘नहीं, नहीं, रुको, मैं तुरंत आती हूं.’’

नकाबपोश गर्व से मुसकराया और सुषमा जल्दी से शयनकक्ष की ओर भागी. वह तुरंत अपने गहनों का बक्सा ले कर आई और आगंतुक के हाथों में देते हुए बोली, ‘‘लीजिए, हम लोगों के पास रुपए तो नहीं हैं, ये शादी के कुछ गहने हैं. इन्हें ले जाइए और इन की जान  छोड़ दीजिए.’’

नकाबपोश रिवाल्वर नीची कर के व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘कमाल है, एकाएक आप को अपने पति के प्राणों की चिंता सताने लगी. बाहर से आप लोगों की अंत्याक्षरी सुन रहा था. ऐसे नालायक पति के लिए तो आप को कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. जब आप को तलाक ही देना है, अकेले ही रहना है तो कैसी चिंता? यह जिंदा रहे या मुर्दा?’’

सुषमा क्रोध से बोली, ‘‘जनाब, आप को हमारी आपसी बातों से क्या मतलब? आप जाइए यहां से.’’

पंकज खुश हो गया, ‘‘यह हुई न बात, ऐ दाढ़ी वाले महाशय, पतिपत्नी की बातों में दखलंदाजी मत कीजिए. जाइए यहां से.’’

आगंतुक हंस कर सुषमा की ओर मुड़ा, ‘‘जा रहा हूं, लेकिन मेमसाहब, एक और मेहरबानी कीजिए. अपने कोमल शरीर से इन गहनों को भी उतार दीजिए. यह चेन, अंगूठी, झुमका. जल्दी कीजिए.’’

सुषमा पीछे हट गई, ‘‘नहीं, अब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगी.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर फिर पंकज की ओर ताना, ‘‘तो चलाऊं गोली?’’

सुषमा ने चिल्ला कर कहा, ‘‘लो, ये भी ले लो और भागो यहां से.’’

वह शरीर के गहने उतार कर उस की ओर फेंकने लगी. नकाबपोश गहने उठा कर इतमीनान से जेब में रखता गया. पंकज भौचक्का देखता रहा.

आगंतुक ने जब गहने जेब में रखने के बाद सुषमा की कलाइयों की ओर इशारा किया, ‘‘अब ये कंगन भी उतार दीजिए.’’

सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘नहीं, ये कंगन नहीं दूंगी.’’

वे शादी के कंगन थे, जो पंकज ने दिए थे.

आगंतुक ने सुषमा की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘मुझे मजबूर मत कीजिए, मेमसाहब. आप ने जिद की तो मुझे खुद कंगन उतारने पड़ेंगे, लाइए, इधर दीजिए.’’

अब पंकज का पुरुषत्व जागा. वह कूद कर उन दोनों के नजदीक पहुंचा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरी पत्नी का हाथ पकड़ो? खबरदार, छोड़ दो.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर हिलाया, ‘‘जान प्यारी है तो दूर ही रहो.’’

लेकिन पंकज रिवाल्वर की परवा न कर के उस से लिपट गया.

तभी ‘धांय’ की आवाज हुई और पंकज कराह कर सीना पकड़े गिर गया. आगंतुक के रिवाल्वर से धुआं निकल रहा था. सुषमा कई पलों तक हतप्रभ खड़ी रही. फिर वह चीत्कार कर उठी, ‘‘हत्यारे, जल्लाद, तुम ने मेरे पति को मार  डाला. मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

नकाबपोश जल्दी से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप नाहक अफसोस कर रही हैं. आप को इस नालायक पति से तो अलग होना ही था. मैं ने तो आप की मदद ही की है.’’

सुषमा का चेहरा आंसुओं से भीग गया. उस की आंखों में दर्द के साथ आक्रोश की चिंगारियां भी थीं. आगंतुक डर सा गया.

सुषमा उस की ओर शेरनी की तरह झपटी, ‘‘मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तू जाता कहां है?’’ और वह उसे बेतहाशा पीटने लगी.

नकाबपोश नीचे गिर पड़ा और चिल्ला कर बोला, ‘‘अरे, मर गया, भाभीजी, क्या कर रही हैं, रुकिए.’’

सुषमा उसे मारती ही गई, ‘‘हत्यारे, मुझे भाभी कहता है?’’

आगंतुक ने जल्दी से अपनी दाढ़ी को नोच कर हटा दिया और चिल्लाया, ‘‘देखिए, मैं आप का प्यारा देवर सुधीर हूं.’’

सुषमा ने अवाक् हो कर देखा, वह सुधीर ही था.

सुधीर कराहते हुए उठा, ‘‘भाभीजी, केवल यह दाढ़ी ही नकली नहीं है यह रिवाल्वर भी नकली है.’’

सुषमा ने फर्श पर गिरे पंकज की ओर देखा.

तब वह भी मुसकराता हुआ उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘हां, और यह मौत भी नकली थी. अब मैं यह कह सकता हूं कि हर पति को यह जानने के लिए कि उस की पत्नी वास्तव में उस से कितना प्यार करती है, एक बार जरूर मरना चाहिए.’’

सुधीर और पंकज ने ठहाका लगाया और सुषमा शरमा गई.

सुधीर हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, हमारी गलती को माफ कीजिए. आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. उस में जो थोड़ा व्यवधान हो गया था उसे ही दूर करने के लिए यह छोटा सा नाटक करना पड़ा.’’

सुषमा ने हंस कर कहा, ‘‘जाओ, माफ किया.’’

‘‘भाभीजी, आमदनी के अनुसार जरूरतों को समेट लिया जाए तो पतिपत्नी हमेशा  प्यार और आनंद से रह सकते हैं,’’ सुधीर ने समझाने के लहजे में कहा तो सुषमा ने हंस कर सहमति में सिर हिला दिया.  Story In Hindi

लेखक : प्रमोद कुमार सिंह

Love Story In Hindi : पति, पत्नी और बिंदास वो

Love Story In Hindi : गौरव और नगमा के बीच शुरू हुई हंसीठिठोली बढ़ती जा रही थी. गौरव मर्यादा की लाइन लांघना नहीं चाहता था, लेकिन नगमा तो सरेआम उस का हाथ पकड़ लेती, उसे खींच कर शाम के सिनेमा शो में ले जाती.

गौ?रव सर्दी की ठंड के बावजूद पसीने में भीग गया था. पसीना आने के बावजूद वह इस तरह कांप रहा था मानो मलेरिया बुखार चढ़ा हो. उठ कर देखा तो रात के 12 बजे थे. बिस्तर के दूसरे छोर पर शिवानी बेखबर सो रही थी.

तौलिए से पसीना पोंछा और लेट कर सोचने लगा, कितना भयानक सपना था. गौरव को सब पुरानी बातें याद आने लगीं.

नगमा गौरव की वरिष्ठ अधिकारी थी. जब नई आई थी तो गौरव के अहम ने उसे अपना अधिकारी नहीं माना था. बातबात पर दोनों में बहस होती थी और कभीकभी तो गुस्से में नगमा उसे अपने कमरे से बाहर जाने का आदेश भी दे देती थी. कभी ऐसा भी होता था कि नगमा बुलाती थी और वह नहीं जाता था. जाता था तो फाइल उस के सामने रखता नहीं था, पटक देता था.

अहम के टकराव का एक और खास कारण था. गौरव अपनी मेहनत व लगन से पदोन्नति पाता हुआ इस पद पर पहुंचा था. मगर नगमा स्पर्धा से आई थी. जो परीक्षा पास कर के आते हैं उन में श्रेष्ठ होने की भावना आ जाती है.

लेकिन जब से एक पार्टी में नगमा और गौरव की भेंट हुई, दोनों का एकदूसरे के प्रति नजरिया ही बदल गया था.

कार्यालय की एक लड़की का विवाह था. बहुत से लोग आमंत्रित थे. गौरव अपनी पत्नी के साथ आया था. आते ही सब अपनेअपने परिचितों को या तो ढूंढ़ रहे थे या उन से नजरें बचा कर छिपते फिर रहे थे.

‘अरे, शिवानी तू,’ नगमा ने आश्चर्य से कहा, ‘मुझे तो सपने में भी आशा नहीं थी कि तू अब कभी मिलेगी.’

‘पर मेरे सपने में तो तू बारबार आती है,’ शिवानी ने नगमा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘कितनी चिट्ठियां डाली थीं, पर एक का भी जवाब नहीं दिया.’

‘मैं उस समय कोलकाता में प्रशिक्षण के लिए गई हुई थी. तेरी शादी का तो बाद में पता लगा,’ अचानक शिवानी के पीछे गौरव को सकपकाया सा खड़ा देख नगमा आश्चर्य से बोली, ‘तो क्या ये…’

‘हां, मेरे पति हैं,’ शिवानी हंस पड़ी.

‘बहुत खुशी हुई आप से मिल कर,’  नगमा ने हंस कर नाटकीयता से कहा, ‘तो आप हैं हमारे जीजू.’

शिवानी के मौसा और नगमा के मामा में रिश्ता तो दूर का था, पर अकसर शादीब्याह में मिल जाने से दोनों में अच्छीखासी दोस्ती हो गई थी.

‘चलो, अब तो पता लग गया न,’ गौरव ने व्यंग्य से कहा, ‘मैं आप के लिए शीतल पेय ले कर आता हूं.’

गौरव नगमा से दूर होने के लिए ही शीतल पेय का बहाना बना कर खिसक गया. दरअसल, वह दोनों के बीच अपने को काफी असहज सा अनुभव कर रहा था.

‘पता नहीं नगमा, ऐसा क्यों लग रहा है कि तुझे गौरव अच्छा नहीं लगा. क्या यह मेरा भ्रम है?’ शिवानी ने पूछा.

नगमा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘दरअसल, हम दोनों में रोज तूतू मैंमैं होती है. हम लेखा विभाग में एकसाथ हैं और हमारा आंकड़ा 36 का है.’

‘ओह,’ शिवानी ने हाथ फैला कर कहा, ‘पर मुझे इस बात का पता नहीं.’

‘क्यों, क्या तेरे ये रोज दफ्तर से आ कर मेरी बुराई नहीं करते?’ नगमा ने टेढ़ी मुसकान से पूछा.

‘नहीं. दरअसल, इन्हें दफ्तर की बातें घर में करने की आदत नहीं है,’ शिवानी ने कहा, ‘पर कभीकभी बड़े खराब मूड में घर आते हैं.’

‘कोई बात नहीं, अब ठीक कर दूंगी,’ नगमा ने मुसकरा कर कहा, ‘ये जीजू कहां गायब हो गए.’

गौरव हाथ में 2 गिलास ले कर आ रहा था.

‘बहुत भीड़ है. बड़ी मुश्किल से 2 गिलास हाथ लगे,’ गौरव ने दोनों को गिलास पकड़ाते हुए कहा.

‘जीजू,’ नगमा ने गिलास पकड़ कर अनूठे व्यंग्य से कहा, ‘मुश्किल तो अब बढ़ गई है आप की. अब करिए तकरार.’

‘कोई बात नहीं,’ गौरव भी नहले पर दहला मारते हुए बोला, ‘प्यार का पहला कदम तकरार से ही शुरू होता है.’

शिवानी और नगमा इस विनोद पर ठठा कर हंस पड़ीं. फिर नगमा ने कहा, ‘इस भ्रम में मत रहना, जीजूजी.’

अब जब भी नगमा गौरव को अपने कक्ष में बुलाती थी तो काफी पहले से ही आ जाती थी. धीरेधीरे जब यह एक नियम सा हो गया तो दफ्तर के लोगों की मुसकराहट काफी चौड़ी हो गई.

वित्तीय वर्ष के अंतिम दिन चल रहे थे. इन दिनों लेखाकार बहुत व्यस्त हो जाते हैं. इन का काम देररात तक चलता है. यह कार्यालय भी कोई अलग नहीं था.

फाइलें इत्यादि लाने, ले जाने में बहुत समय खराब होता था, इसलिए गौरव को अधिकतर नगमा के ही कक्ष में बैठना पड़ता था. इस पर कंप्यूटर भी यहीं था. किसी और से कुछ पूछना या कराना होता था तो उसे भी यहीं बुला लिया जाता था. कुछ समझने या समझने के लिए गौरव को नजदीक आना पड़ जाता था. एक बार जब गौरव फाइल सामने रख कर खोल रहा था तो उस का हाथ नगमा के हाथ पर पड़ गया. गौरव को जैसे ही गलती का एहसास हुआ, हाथ उठाने लगा.

नगमा ने मुसकरा कर हाथ रोक दिया और बोली, ‘रहने दो न, जीजू, अच्छा लगता है.’

नगमा गौरव को जीजू केवल अकेले में ही कहती थी और लोगों को इस रिश्ते के बारे में कुछ पता नहीं था.

‘छोड़ो भी, कोई देख लेगा तो गजब हो जाएगा,’ गौरव ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की.

‘कह देना कि मैं साली हूं और इस रिश्ते में तो यह सब चलता है,’ नगमा ने हंसते हुए गौरव को मुक्त कर दिया.

इस के बाद जो यह खेल शुरू हुआ तो चलता ही रहा.

रात में देर हो जाने से गौरव नगमा को अपनी मोटरसाइकिल पर घर छोड़ने भी जाता था. घर में उस की मां मिलती थीं. पिताजी नागपुर में अपनी दूसरी बेटी के साथ रहते थे. वे अपना काम छोड़ कर नहीं आ सकते थे.

एक छुट्टी पर गौरव शिवानी को भी नगमा के घर ले गया था. मां मिल कर बहुत खुश हुई थीं. इस तरह दोनों के और ज्यादा मिलने के रास्ते साफ हो

गए थे.

‘जीजू, आप के साथ एक दिन पिक्चर चलना है,’ नगमा ने कहा.

‘मरवाओगी क्या,’ गौरव ने सिहर कर कहा, ‘शिवानी को भी साथ ले चलेंगे.’

‘बहुत डरपोक हो, जीजू,’ नगमा हंस पड़ी, ‘एकदम चूहे की तरह.’

‘नहींनहीं, किसी के साथ देख

लिया तो गजब हो जाएगा,’ गौरव ने विद्रोह किया.

‘अरे, देखने दो न,’ नगमा ने कहा, ‘जब कोई देखेगा तो देखा जाएगा. अगर किसी ने देख भी लिया तो कितना मजा आएगा,’ नगमा हंस रही थी.

‘तुम्हें हंसी छूट रही है,’ गौरव ने चिढ़ कर कहा.

नगमा ने सिनेमा के टिकट मंगवा लिए और दोनों ने 6 से 9 वाला शो देखा. पूरे शो में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े बैठे रहे. बहुत अच्छा लग रहा था. साथ ही, डर भी था कि कहीं पकड़े न जाएं, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं और हंसते हुए दोनों वापस घर आ गए.

लौटते समय गौरव ने शिवानी के लिए फूलों का गजरा और उस की मनपसंद रसमलाई खरीदी. घर पहुंचा तो अपने मनपसंद सामान को देख कर शिवानी मुसकराई.

‘क्या बात है,’ शिवानी ने मीठा व्यंग्य कसा, ‘लगता है आज कुछ खास

बात है.’

‘है तो,’ गौरव हंसा, ‘थोड़ी देर में बताऊंगा, जरा तरोताजा हो जाऊं. वैसे गजरा बेचने वाली ‘चांद सा बेटा’ वाला आशीर्वाद दे रही थी.’

एक दिन नगमा और गौरव ने एक अच्छे वातानुकूलित रैस्तरां में बैठ कर खाना खाया. लगभग अंधेरे कोने में दोनों बैठे थे. गौरव डर रहा था, कोई पहचान न ले, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हौसले और बुलंद हो गए.

नगमा कुछ अधिक ही रोमांटिक हो रही थी. बस, गौरव ही सहमासहमा सा था.

‘चलो, जल्दी चलो,’ मोटरसाइकिल पार्किंग से बाहर लाते हुए गौरव ने कहा, ‘ज्यादा देर ठीक नहीं.’

‘क्या जीजू,’ नगमा ने कहा, ‘कहते हैं न कि गुनाह बेलज्जत. सारा मजा किरकिरा कर रहे हो. चलो, आज किसी होटल में एक कमरा ले लेते हैं.’

‘दिमाग खराब हो गया है क्या?’ गौरव ने डांट कर कहा.

नगमा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘जीजू, आप का चेहरा देखने लायक है. मुझे बहुत हंसी आ रही है.’

रास्तेभर नगमा गौरव को पकड़ कर बैठी रही. घर के सामने नगमा को

उतार कर बिना हायहैलो किए वह चल दिया.

घर पहुंचने से पहले गौरव ने एक पिज्जा पैक करवाया. शिवानी को पिज्जा बहुत अच्छा लगता था. एक सुंदर, मोटा, सुगंधित गजरा भी लिया.

न जाने क्यों आज गौरव के दिल में डर बैठ गया था. धीरेधीरे लगता है नगमा उस पर हावी हो रही है.

‘लो, मैं बहुत दिनों से पिज्जा की याद कर रही थी,’ शिवानी ने पैकेट पकड़ते हुए कहा, ‘अच्छा हुआ आप ले आए. और यह गजरा, हाय राम, बहुत भारी है, मेरा जूड़ा ही गिर जाएगा. वैसे खुशबू अच्छी है.’

‘बस, तुम इसी तरह खुश रहो तो मैं लाता रहूंगा,’ गौरव ने कहा, ‘जल्दी से खा लो, ठंडा हो जाएगा.’

‘क्यों, तुम नहीं खाओगे?’

‘मैं खा कर आया हूं,’ गौरव ने तौलिए से मुंह पोंछते हुए कहा, ‘दरअसल, एक आदमी का काम कर दिया तो वह 2 पिज्जा दे गया. नगमा और मैं ने एक वहीं खा लिया.’

‘ओह, यह नगमा भी बड़ी खाऊ है,’ शिवानी हंस पड़ी, ‘पर है मजेदार

और चुलबुली.’

गौरव इस से सहमत था. गौरव पलंग पर करवटें बदल रहा था. बारबार नगमा की होटल वाली बात सता रही थी. वह सचमुच ही डर गया था. शिवानी को अधिक धोखा नहीं दे सकता. कुछ न कुछ करना पड़ेगा.

‘सोते क्यों नहीं,’ शिवानी ने कुहनी मार कर कहा, ‘न सोते हो, न सोने देते हो.’

गौरव को कुछ समय बाद झपकी आ गई. नींद में टटोल कर देखा तो बैड पर शिवानी का सा इकहरा, जानापहचाना बदन नहीं था, नगमा का गुदाज, मांसल शरीर था, कमरा भी नगमा का था.

‘मैं यहां कैसे आ गया?’ गौरव ने आश्चर्य से पूछा.

‘सो जाओ यार,’ नगमा ने कहा, ‘मैं ने तुम्हें शिवानी से खरीद लिया है. वह कुछ नहीं बोलेगी.’

गौरव का सपना टूट गया. सर्दी की ठंडक के बावजूद वह पसीने से भीग गया था. घड़ी में देखा तो रात के 12 बजे थे. शिवानी को बिस्तर के दूसरे छोर पर बेखबर सोता देख आश्वस्त हुआ. यह नगमा का नहीं, उस का अपना कमरा व अपना बिस्तर था.

कितना भयानक सपना था. अब वह पुरानी यादों से बाहर आ गया था.

आज वह अवश्य अपने तबादले के लिए प्रबंध निदेशक से बात करेगा. इस तरह नहीं चलेगा.

दफ्तर पहुंचा तो नगमा से आंखें मिलाने में डर रहा था.

संध्या को उसे मजबूरन नगमा को घर छोड़ने जाना पड़ा. दिनभर गंभीर था और उस समय भी. नगमा अपनी आदत के अनुसार उसे छेड़े जा रही थी.

आज दरवाजे पर मां को प्रतीक्षा में खड़े पाया. देखते ही वह खुश हो गई.

‘‘मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने के लिए खड़ी थी,’’ मां ने कहा, ‘‘नगमा की शादी तय हो गई है. अगले महीने तुम्हें और शिवानी को आना है.’’

सुनते ही गौरव के मुंह से गहरी व लंबी राहत की सांस निकली. Love Story In Hindi

Ahmedabad Plane Crash : अहमदाबाद विमान दुर्घटना के सवालों को गीता से भटका कर धर्म की ठेकेदारों की पीआर करते न्यूज़ चैनल

Ahmedabad Plane Crash : अहमदाबाद विमान हादसे से जब पीड़ित परिवारजन दुख में थे और देश की जनता हादसे में हुई गड़बड़ी को जानने की चिंता में थी तो धर्मांध मीडिया दानदक्षिणा पर पलने वाले ठेकेदारों की पीआर करने में मस्त थी.

अहमदाबाद विमान हादसे में 275 से अधिक लोगों की जान गई. हादसा इतना भयावह था कि एक व्यक्ति के अलावा कोई नहीं बच पाया. इतने बड़े हादसे में किसी इकलौते व्यक्ति का बच जाना बेहद ही आश्चर्य की बात है. यह हैरान कर देने वाली न्यूज थी लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया को इस व्यक्ति के बच जाने की न्यूज से बड़ी खबर हाथ लग गई. वो खबर थी कि विमान हादसे में गीता बच गई.

आज तक की स्टार एंकर श्वेता सिंह ने तो इस पर पूरी एक रिपोर्ट ही पेश कर दी, जैसे यह दुनिया के लिए एक बड़ी खबर हो. दुनिया भारतीय मीडिया के इस तरह के प्रोपगेंडे से भली भांति परिचित है इसलिए भारत के अलावा इस खबर को किसी ने सीरियसली नहीं लिया.

हिंदुत्ववाद की राजनीति चमकाने में और धर्म की दानदक्षिणा वाले धंधे को उभारने में भारतीय मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. पिछले वर्षों में मीडिया ने एक ऐसा वर्ग पैदा कर दिया है जिस की खुराक फेक न्यूज़ है. धर्म और राष्ट्रवाद की आड़ में कुछ भी परोस दो यह वर्ग पचा लेता है क्योंकि यह वर्ग पौराणिक कथाओं की गपबाजी को संपूर्ण सच मानता है.

गीता बच गई. कैसे? यह न पूछिये कि किस फायरमैन के साथ लगी, कौन सी सीट पर थी, वहां कौन बैठा था. बस यह जानकर कि हिंदुओं के धर्मग्रंथ इतने शक्तिशाली होते हैं कि भीषण दुर्घटनाओं में भी बच जाते हैं. हिंदू होने पर गौरवांवित होइए. यहां तर्क की जरूरत नहीं. सवाल पूछने से धर्म संकट में पड़ जाएगा. श्वेता सिंह की नौकरी चली जाएगी. बीजेपी का वोट बैंक खतरे में पड़ जाएगा लेकिन वे लोग जो विवेक रखते हैं सवाल तो पूछेंगे ही. क्या वह गीता फायर प्रूफ थी? क्या गीता को ईश्वर ने बचाया? क्या गीता में खुद को बचा लेने का सेंस था?

जवाब बिल्कुल सरल है. ऐसी हर दुर्घटना में जहां कोई जीवित नहीं बचते बहुत सी चीजें बच जाती हैं. भीषण दुर्घटनाओं में इंसानों का मरना स्वाभाविक होता है. यह सब चंद पलों में हो जाता है. भयंकर दुर्घटनाओं में इंसानों का मरना और इंसान के सामान का बच जाना दोनों बातें एक जैसी नहीं हैं.

कई बार इंसान मर जाता है, जल जाता है लेकिन उस के जूते सही सलामत होते हैं. कई हादसों के बाद इंसान की क्षतविक्षत लाशों से उन की हाथ की घड़ियां चलती हुईं मिली हैं. कई बार खाने पीने का सामान तो कई हादसों में किताबें सही सलामत मिलती हैं. क्या जूतों, किताबों और घड़ियों का सही सलामत बच जाना कोई चमत्कार है?

पाकिस्तान में इस्माइली मुसलिमों की एक स्कूल बस को आतंकियों ने बम से उड़ा दिया था. 140 बच्चों की मौत हुई थी लेकिन उस भीषण धमाके के बाद भी कई स्कूली बच्चों के स्कूल बैग बच गए थे. इन स्कूल बैग्स में बच्चों की किताबें थीं, उन का होमवर्क था जिसे आज भी उन बच्चों के घरवालों ने संभाल कर रखा है.

इसी साल हुए कुम्भ के दौरान धार्मिक पुस्तकों के स्टाल पर भीषण आग लगी थी जिस में सैंकड़ों गीता, रामायण, भगवत पुराण और वेद जल कर राख हो गए थे. इस आग के बाद किताबों के जले हुए कूड़े को कूड़े की गाड़ी में भर कर ले जाया गया था. अगर कुम्भ की इस आग में जलीं गीताएं खुद को नहीं बचा पाईं तो अहमदाबाद विमान हादसे वाली गीता कैसे बच गई? क्या यह गीता चमत्कारित थी? अगर ऐसा था तो गीता अपने साथ उन तीन मासूम बच्चों को क्यों नहीं बचा पाई जो मासूम बच्चे अपने मांबाप के साथ लंदन जा रहे थे? अगर गीता इतनी चमत्कारिक थी कि वह खुद को भीषण आग से बचा ले गई तो उसे इंसानों से क्या बैर था? ऐसी गीता को स्वार्थी क्यों न कहा जाए?

क्या श्वेता सिंह उस गीता को दुबारा आग में रख कर अग्निपरीक्षा के लिए तैयार हैं? अगर इस परीक्षण में यह पुस्तक खुद में फायर प्रूफ साबित होती है तो इस से पूरी दुनिया को कितना फायदा होगा? कितने लोगों की जान बचाई जा सकती है? कितने हादसों को रोका जा सकता है? गीता के फायरप्रूफ होने की चमत्कारिक तकनीक का इस्तेमाल कर सूर्य के ऊपर सोलर मिशन भेजे जा सकते हैं. या इसी तकनीक के सहारे धरती के कोर जो बुरी तरह जल रहा है की स्टडी की जा सकती है.

Social Story : जाति, तर्क और कर्तव्य का खेल

Social Story : मिता और अखिल जातिवादी जहर से अच्छी तरह वाकिफ थे और जब उन्होंने इस दकियानूसी परंपरा के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तो उन के अपने ही लोग उन का विरोध करने लगे. दरवाजे की घंटी बजने पर नमिता ने गेट के बाहर देखा तो 32-33 साल का एक युवक खड़ा था. छरहरा सा शरीर था. कुछ दबा हुआ रंग था, हां कद ऊंचा था. बाल सलीके से बनाए हुए थे. काली पैंट के साथ सफेद कमीज पहनी हुई थी, जो थोड़ी मैली हो चुकी थी. ‘‘सुना है, आप के यहां कमरा खाली है?’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, खाली तो है. एक कमरा, किचन, बाथरूम और डाइनिंग स्पेस है. 3,500 रुपए से कम किराए में नहीं देंगे और बिजली का मीटर अलग से लगा है,’’ नमिता बोली. नमिता के पास अपने घर के बगल से लगा 100 वर्ग गज का एक प्लौट था, जिस में एक कमरा, किचन, बाथरूम बने हुए थे, जिसे वह किराए पर उठा देती थी. छोटा और पुरानी बनावट का होने के कारण कोई अच्छी सर्विस वाला व्यक्ति किराए पर नहीं लेता था और अकसर कोई लेबर, औटो वाले, सिक्योरिटी गार्ड जैसे लोगों को ही उठाना पड़ता था. कम आमदनी के कारण कोई भी 2-3 हजार रुपए से ज्यादा नहीं देना चाहता था.

एक तो रहना, फिर बिजलीपानी. नमिता को 2,500 रुपए चूरन के पैसों के बराबर भी न लगते और ऊपर से इतना किराया भी कई बार याद दिलादिला कर मिलता. लेकिन जब खाली पड़ा रहता तो गंदगी होती, इसलिए किराए पर उठा देना ही ठीक लगता. कम से कम साफसफाई तो होती रहती थी. ‘इस बगल वाले मकान को तुड़वा कर होस्टल बनवा लेंगे. पढ़ने वाले बच्चे रख लिया करेंगे. किराया भी समय पर देंगे और ज्यादा किचकिच भी नहीं करेंगे,’ नमिता के पति अखिल अपनी योजनाएं बनाते रहते. ‘होस्टल तो तब बनवा लेंगे न, जब पैसा होगा. अब क्या मकान बनवाना आसान काम है,’ नमिता मुंह बना कर कहती. ‘जब सस्ता मिल गया तो प्लौट ले लिया, यह ही क्या कम है. बेटी की शादी में काम आएगा,’ नमिता की अपनी सोच और योजना थी. ‘‘दीदी, कुछ कम कर लो, इतना कहां से दे पाएंगे.

सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं एक सोसाइटी में. कुल 12,500 रुपए मिलते हैं जिस में बीवीबच्चों का खर्चा भी चलाना है,’’ वह युवक गिड़गिड़ाने सा लगा तो नमिता को अच्छा नहीं लगा. ‘कहां हमारे बच्चे एक दिन में हजारों की खरीदारी कर लाते हैं और कहां 10-12 हजार में पूरे महीने का खर्चा चलाना पड़ता है.’ कितना कठिन होता होगा, उसे एहसास था. ‘‘3,000 रुपए से कम में नहीं देंगे, एक महीने का किराया एडवांस में देना होगा और बिजली का मीटर अलग लगा है उस का बिल अलग देना होगा,’’ उस ने जबरदस्ती कठोर बनने का प्रयास करते हुए कहा. ‘‘कुछ कम हो जाता तो अच्छा था,’’ वह बोला पर नमिता टस से मस नहीं हुई. आखिर में 1,000 रुपए एडवांस दे कर वह कमरा बुक करने को कहने लगा. ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’ नमिता ने पूछा. वह कठोर हृदय नहीं थी और देश के हालात और निम्नवर्ग की स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थी.

निजीकरण ने देश के बेरोजगार वर्ग को 10-12 हजार का मजदूर बना कर रख दिया था. ‘इतनी सी कमाई में कौन कैसे जी सकता है,’ इस प्रश्न से वह अकसर जू?ाती रहती थी. ‘‘हमारा नाम दीपक है और एक बात और बताना चाहते हैं आप को.’’ उस ने बड़े कातर भाव से कहा. ‘‘क्या? कहो.’’ ‘‘हम जाति के वाल्मीकि हैं.’’ नमिता को एक बार तो ?ाटका सा लगा मगर फिर भी उस ने खुद को रोक लिया क्योंकि वह भी कोई ऊंची जाति से नहीं थी, न ही उस की सोच नकारात्मक थी और समाज में फैले जातिवादी जहर से वह अच्छी तरह से परिचित थी.

प्लौट के बगल में जो परिवार था वे बड़े अहं वाले एवं पूजापाठ वाले व्यक्ति थे. वैसे तो लोग कहते थे कि वे ओबीसी हैं मगर बहुत धार्मिक व रूढि़वादी सोच के थे. उन्हें दीपक का अपने बगल में रहना घोर नागवार गुजरेगा पर नमिता भी जिद्दी थी और गलत बात पर झाकना या समझता कर लेना उस की प्रवृत्ति में नहीं था. ‘‘ठीक है, तुम कोई गलत काम तो करते नहीं हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं है. तुम अपना सामान ले कर रहने आ जाना.’’ ‘‘धन्यवाद दीदी. आप को किराया बिलकुल समय से मिल जाया करेगा.’’ उस के चेहरे पर सम्मान व संतुष्टि के भाव थे. महीने की एक तारीख को दीपक अपनी पत्नी और 2 बच्चों के साथ रूम में शिफ्ट होने आ गया.

उस के पास बहुत सारे गमले थे जिन में उस ने फूलों वाले पौधे लगा रखे थे. पत्नी, बच्चे खूब सुंदर और साफसुथरे थे. जाति व स्त्रीपुरुष के नाम पर मनुष्य मनुष्य में भेद करने वाली सामाजिक व्यवस्था से नमिता को बड़ी खीझ होती थी. अपने बगावती तेवरों के साथ वह समाज में किसी भी तरह के अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध थी और खुल कर अपनी बात कहती थी, साथ ही, खुद अमल भी करती थी. अपनी दोनों बेटियों के बाद सास और ससुराल वालों के पूरे जोर डालने पर भी उस ने तीसरा बच्चा नहीं किया. बेटेबेटी के भेद पर उसे सख्त एतराज था.

ऊंची जाति वालों का खून क्या ज्यादा गाढ़ा होता है या उन के ब्लड ग्रुप अन्य जाति वालों से अलग होते हैं? महल्ले वाले नाकभौं सिकोड़ेंगे, यह वह जानती थी, फिर भी उस ने दीपक को कमरा किराए पर दे दिया था. उस के 2 बच्चे, एक बेटा, एक बेटी थे. पत्नी का नाम पार्वती था. वह घर पर ही रहती. सलीके से कपड़े पहनती थी, बेशक ज्यादा महंगे नहीं होते थे लेकिन रंगों का अच्छा चयन और पहननेओढ़ने का तरीका उन्हें खूबसूरत बनाता था, लंबेघने बाल उस की सुंदरता को बढ़ा देते थे. घर को साफसुथरा रखती थी. दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे. दीपक बातचीत और व्यवहार में बहुत शिष्ट था और नमिता को दीदी कह कर पुकारता था. जब भी सामने पड़ता, नमस्ते कर लेता था.

‘‘दीदी, तुम ने मेहतर को किराए पर रख लिया है कमरे में?’’ पड़ोसी का बेटा कुछ नाराजगी व कुछ गुस्से में बोला उस के घर आ कर. ‘‘हां, तो क्या हुआ? क्या वह इंसान नहीं है? और मेरा घर मैं चाहे जिस को दूं. वैसे भी, मैं इन सब बातों पर विश्वास नहीं करती.’’ ‘‘उस के घर के कपड़े या कोई सामान हमारे घर में आ गिरा तो हम क्या करेंगे और कैसे वापस करेंगे?’’ ‘‘वे अपने घर में रहते हैं, तुम अपने घर में और तुम कौन होते हो आपत्ति करने वाले? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि इस देश में प्रजातंत्र है और जातपांत, धर्म के आधार पर भेद करना कानून के खिलाफ है?’’ नमिता ने आवेश में उसे बहुत सारी बातें सुना डालीं. लड़का भुनभुनाता हुआ चला गया. दीपक और उस का परिवार कमरे में रहने लगा था.

नमिता अपने घरबाहर के कामों में व्यस्त हो गई. वैसे भी किराएदार कैसे रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, इन सब मामलों में वह ज्यादा दखल नहीं देती थी. अखिल की भी ऐसी ही आदत थी. न ही वे समय पर किराए के लिए किराएदार का दिमाग खाते थे. कोरोनाकाल में रह रही एक महिला से तो नमिता ने महीनों किराया ही नहीं लिया था. एक महीना पूरा होने में 4-6 दिन ही बाकी थे कि दीपक एक दिन नमिता से बोला, ‘‘दीदी, कल कमरा खाली कर देंगे. बच्चों को वहीं बस्ती में रहना अच्छा लगता है जहां वे पहले रहते थे. यहां उन का मन नहीं लगता.’’ ‘‘क्यों, क्या परेशानी है यहां?’’ चौंक गई नमिता. ‘‘कुछ नहीं. बस, बच्चों का मन नहीं लगता यहां.’’ ‘‘तो फिर आए ही क्यों थे?’’ गुस्सा आ गया उसे.

‘इस के लिए सब की नाराजगी की परवा नहीं की और यह झट से भागने लगा. भगोड़ा.’ उस ने मन ही मन सोचा. सचमुच महीना पूरा होते ही बाकी का किराया और बिजली का बिल दे कर दीपक कमरा खाली कर अपना सामान ले कर चला गया. नमिता से अपना गुस्सा दबाए नहीं दब रहा था. वह लगातार अपनी भड़ास दीपक को भलाबुरा कह कर निकाल रही थी, ‘‘ये लोग होते ही इसी लायक हैं. किए का एहसान नहीं मानते और शर्मिंदा करते हैं.’’ ‘‘तुम करती भी तो हो ऐसे ही काम. ज्यादा भलमनसाहत दिखाने का यही परिणाम होता है,’’ अखिल कहता. नमिता क्या कहती. मनमसोस कर रह गई पर उस के मन से दीपक के प्रति नाराजगी नहीं गई. दीपावली की लाइट्स लगवानी थीं, इसलिए इलैक्ट्रिशियन रविंद्र को बुलाया था अखिल ने. अखिल अपनी निगरानी में झालरें लगवा रहा था.

रविंद्र जबतब घर की बिजली के काम करने आता रहता था और बहुत बोलता था. ‘‘आप ने अपने घर में किराए पर वाल्मीकि को रख लिया था?’’ वह पूछ रहा था. ‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ अखिल ने कहा. ‘‘पूरा महल्ला जानता है. कोई उस बेचारे से बोलता भी नहीं था. बहिष्कार सा कर रखा था सब ने उस का. इसलिए तो खाली कर के चला गया,’’ रविंद्र ने भेद खोला तो अखिल और नमिता दोनों स्तब्ध रह गए. कहां तो चिल्लाचिल्ला कर सारे नेता कहते हैं कि अब देश से जातिवाद खत्म हो गया है और कहां कदमकदम पर वही जाति, धर्म की लड़ाइयां. वोट लेते समय उसी धर्म और जाति का इस्तेमाल, दलितों को बहलाफुसला कर उन के वोट हड़पना और फिर उन को उसी हजारों सालों पुरानी स्थिति में बनाए रखने का षड्यंत्र रचना. क्यों हजारों सालों बाद भी वाल्मीकि केवल गंदगी साफ करने का काम करें. हर साल कितने सफाईकर्मी गटर में उतर कर जहरीली गैस से मर जाते हैं और हम बस, खबरें पढ़ कर रह जाते हैं. क्यों नहीं बदलता इस देश का समाज? क्यों नहीं बदलती यहां की व्यवस्था? मन में कुलबुलाते प्रश्नों के कोई जवाब नहीं थे नमिता और अखिल के पास.

दीपक तो कमरा खाली कर के चला ही गया था. खाली पड़े हिस्से में फिर से धूलमिट्टी, गंदगी जमा होने लगी थी. ‘चला गया तो चला जाने दो. फिर किसी और को उठा देंगे किराए पर. वह खुद ही डरपोक था वरना जब हम कुछ नहीं कह रहे थे तो उसे बाकी लोगों की परवा करने की जरूरत ही क्या थी.’ नमिता को बीचबीच में रोष आ जाता. ‘कमजोर आदमी मानसिक दबाव में जल्दी आ जाता है और सामाजिक बहिष्कार तो एक अमानवीय कृत्य है वह भी सिर्फ जाति के आधार पर. इसलिए वह इन तथाकथित सभ्य, प्रबुद्ध, प्रगतिशील जनों के बीच में रहने के बजाय अपने साथी बस्ती वालों के साथ रहने चला गया. हमें उस की स्थिति समझनी चाहिए न कि उस से नाराज होना चाहिए,’ अखिल ने संपूर्ण स्थिति का अपना तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया. काफी हद तक नमिता भी उस से सहमत थी. उस के बाद कई लोग रूम देखने आए.

एक कमरा, किचन, बाथरूम कोई कमजोर व्यक्ति ही लेता और सब को 2-3 हजार और बिजली का खर्चा भी ज्यादा लगता. एक हद तक सही भी था कि जो खुद 10-12 हजार कमा कर गुजारा कर रहा हो वह 5 हजार किराए में ही दे देगा तो खाएगा क्या पर नमिता भी फ्री में तो नहीं दे सकती थी. खैर, सौदा पटा नहीं और बगल का हिस्सा खाली ही पड़ा रहा. ‘‘दीदी, कोई आया है, किराए के लिए मकान देखने,’’ कामवाली ने उसे बुलाया. ‘‘कह दो अभी आती हूं.’’ 24-25 साल का एक लड़का था. ‘‘कौन हो?’’ ‘‘यहीं फैक्टरी में काम करता हूं. किराए पर कमरा चाहिए,’’ युवक ने कहा. लड़का इटावा का रहने वाला था. साथ में पत्नी और एक बच्चा था. ‘‘3,000 रुपए किराया और बिजली का अलग से देना होगा,’’

नमिता ने स्पष्ट कहा. ‘‘3,000 रुपए तो बहुत हैं. 25,00 में दे दो. कुल 12,000 ही तो कमाता हूं. आप की दया से मेरा परिवार रह लेगा,’’ वह युवक बोला. अमित नाम था उस का. आधार कार्ड और 500 रुपए एडवांस ले कर नमिता ने उसे आ कर रहने को कह दिया. वह उसी दिन फटाफट अपना सामान और पत्नी, बच्चे को ले कर रहने आ गया जैसे कि कहीं सड़क पर रह रहा था. नमिता ने चैन की सांस ली. उसे इधरउधर से सुनने को मिल रहा था कि चूंकि उस ने एक वाल्मीकि को किराए पर रख लिया था, इसलिए उस के इस घर में अब कोई किराएदार नहीं आ रहा था रहने को. अब अमित आ गया तो नमिता को लग रहा था कि जैसे उस ने इन महल्ले वालों को जवाब दे दिया हो. दोनों पतिपत्नी सफाईधुलाई आदि में लगे थे. एक दिन ही बीता था कि अमित दनदनाता हुआ उस के पास आया. नमिता कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस ने अपने गुस्से का इजहार कर दिया,

‘‘तुम ने अपने घर में मेहतर को रख रखा था?’’ वह गुस्से में था. ‘‘तो क्या हुआ? वह कोई गलत काम तो करता नहीं था. सिक्योरिटी गार्ड का काम करता था और तुम्हें क्या परेशानी है उस से. मैं वैसे भी इन सब बातों को नहीं मानती,’’ नमिता का भी गुस्सा फूट पड़ा. ‘‘तुम्हें बताना चाहिए था.’’ वह बदतमीजी से ‘तुमतुम…’ कर के बोल रहा था. ‘‘जब से मेरी पत्नी को पता चला है उस की तबीयत खराब हो गई है,’’ वह बहुत गुस्से में था. नमिता को उस की बीमार सी पत्नी की शक्ल याद आ गई, ‘‘नहीं रहना तो भाग जाओ अपना सामान उठा कर. हम चाहे वाल्मीकि को रखें चाहे किसी और को, हमारी मरजी है. हमारा घर है,’’ नमिता को इतना गुस्सा आ रहा था कि मन कर रहा था कि अभी धकेल कर बाहर निकाल दे. उसे अपने स्वभाव पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों वह हर ऐरेगेरे पर भरोसा कर लेती है और उन से सहानुभूति रखने लगती है. अगली सुबह अमित अपना सामान और अपना परिवार ले कर कमरा खाली कर के जा चुका था.

नमिता और अखिल कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले इस देश में जिस में आजादी के बाद जातिधर्म के भेद को खत्म कर कानून के समक्ष समानता स्थापित हो चुकी है जबकि वास्तव में तो यहां हर जाति के ऊपर एक जाति है जो खुद को ऊंची जाति का और दूसरी को नीची जाति का समझती है. धोबी खुद को जाटव से ऊंचा समझता है तो जाटव खुद को वाल्मीकि से. ठाकुर से ऊपर ब्राह्मण हैं तो कोइरी, तेली के ऊपर बनिया. सारा समाज ही जातियों में विभाजित है. वैवाहिक विज्ञापनों में बाकायदा जाति के अनुसार वरवधू के कौलम छपते हैं. नमिता और अखिल भूल गए थे लेकिन अब अच्छी तरह से समझ गए थे कि जो जाती नहीं कभी, वह ही जाति होती है. Social Story 

Story In Hindi : धरा – क्या शिखा अपनी बच्ची को बचा पाई?

Story In Hindi : अपनी 3 बेटियों के साथ खुश थी लेकिन सास सुमित्रा को एक पोता चाहिए था, जिस के चलते उसे चौथी बार भी मां बनने के लिए मजबूर किया गया. क्या शिखा सास की उम्मीदों पर खरी उतर पाने में कामयाब हो सकी? ‘‘डाक्टर से 4 दिनों बाद का अपौइंटमैंट ले लेता हूं,’’ चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने कहा तो शिखा का कलेजा धक्क से रह गया. ‘‘एक काम करो, जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो.

औफिस जाते समय हो सकेगा तो डाक्टर से मिल कर कल या परसों का ही समय ले लूंगा, क्योंकि यह काम जितनी जल्दी निबट जाए, अच्छा है.’’ ‘‘हां, वह तो ठीक है, अरुण पर एक बार ठंडे दिमाग से सोच कर देख लेते कि कहीं हम…’’ ‘‘अब इस में सोचना क्या है?’’ शिखा की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण बोला, ‘‘वैसे भी कितनी मुश्किल से तो एक डाक्टर मिला है और तुम्हें और वक्त चाहिए. यह काम तो उसी दिन हो जाता पर तुम्हें ही वक्त चाहिए था. पता है न, इन सब कामों में रिस्क कितना बढ़ गया है. नौकरी पर तो आफत आएगी ही, जेल भी हो सकती है. लेकिन जो भी हो, यह तो करवाना ही पड़ेगा. मां सही ही कह रही हैं कि जितनी जल्दी इस समस्या से छुटकारा पा लें, अच्छा है.’’ ‘‘पर, अरुण…’’ ‘‘क्या, पर? कहना क्या चाहती हो तुम? पता है न, सिर्फ तुम्हारी मूर्खता के कारण आज 3-3 बेटियां पैदा हो गईं.

लेकिन इस बार कोई मूर्खता नहीं करूंगा मैं क्योंकि मुझे में अब और बोझ उठाने की ताकत नहीं है,’’ भुनभुनाते हुए अरुण ने अखबार में आंखें गढ़ा दीं कि तभी ढाई साल की प्यारी सी जूही ‘पापापापा’ कर उस की गोद में चढ़ने की कोशिश करने लगी. लेकिन अरुण ने बड़ी निर्दयता से उसे परे धकेल दिया और उठ कर कमरे में चला गया. अरुण का व्यवहार देख शिखा की आंखों से दो बूंद आंसू टपके और रोती हुई बच्ची को गोद में उठा कर वह भी अरुण के पीछेपीछे कमरे में आ गई. ‘‘अरुण, एक बार सोच कर देखो न, अगर यह बेटा होता तो क्या उस की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती तुम्हें?’’ यह बोलते शिखा की आवाज भर्रा गई, ‘‘अरुण, यह भी तुम्हारा ही खून है न. और क्या पता, कल को यही बेटी तुम्हारा नाम रोशन करे.

अरुण, एक बार फिर से सोच कर देखो,’’ शिखा गिड़गिड़ाई. लेकिन अरुण यह बोल कर बाथरूम में घुस गया कि ज्यादा भावना में बहने की जरूरत नहीं है और बच्चे को सिर्फ जन्म देने से ही सबकुछ नहीं हो जाता, पालने के लिए पैसे भी चाहिए होते हैं. इसलिए ज्यादा मत सोचो, वरना हम फैसला लेने में कमजोर पड़ जाएंगे. अरुण के तर्कवितर्क के आगे शिखा की एक न चली. सोनी और मोही को स्कूल भेज कर वह जल्दीजल्दी अरुण के लिए नाश्ता बनाने लगी. औफिस जाते समय रोज की तरह प्यारी सी जूही जब पापा का लंचबौक्स ले कर लड़खड़ाते कदमों से ‘पापापापा’ करने लगी तो अरुण को उसे गोद में उठाना ही पड़ा.

लेकिन जैसे ही मां सुमित्रा पर उस की नजर पड़ी, जूही को गोद से उतार कर फिर वही हिदायत दे कर घर से निकल पड़ा. हाथों में कुछ लिए जिस तरह से सुमित्रा ने शिखा को घूर कर देखा, वह सकपका कर रह गई. अरुण को औफिस भेज कर वह जूही को दूध पिला कर सुलाने की कोशिश करने लगी. वह जानती थी, सुमित्रा को मंदिर से आने में घंटाभर तो लगेगा ही. रोज ही ऐसा होता है. मंदिर में पूजा के बाद भजनकीर्तन कर के ही वे घर लौटती हैं. लेकिन यह कैसी पूजा है, जहां देवी की पूजा तो होती है लेकिन वहीं एक अजन्मी बच्ची को, जिसे देवी का रूप कहा गया है, मां के पेट में ही मारने का फरमान सुना दिया गया. हां, सुमित्रा ही नहीं चाहती कि यह बच्ची पैदा हो.

वह इस बच्ची को मां की कोख में ही मार देना चाहती है और अरुण भी अपनी मां का ही साथ दे रहे हैं. शिखा क्या करे? किस से जा कर कहे कि वह अपनी बच्ची को जन्म देना चाहती है. उसे इस दुनिया में लाना चाहती है. शिखा आज तनमन दोनों से कमजोर महसूस कर रही थी. दुख तो उसे इस बात का हो रहा था कि एक मां हो कर भी वह अपनी बच्ची को बचा नहीं पा रही है और सब से ज्यादा दुख उसे इस बात का हो रहा है कि एक बाप हो कर भी कैसे अरुण अपनी ही बेटी को मारने के लिए तत्पर है. क्या जरा भी मोह नहीं है उसे अपनी इस अजन्मी बच्ची से? यही अगर बेटा होता तो इस घर के लोगों की खुशियों का ठिकाना न होता. लेकिन बेटी जान कर कैसे इन सब के मुंह सूज गए.

जल्द से जल्द ये लोग इस बच्ची से छुटकारा पाना चाहते हैं. कैसा समाज है यह, जहां बेटे का स्वागत तो होता है पर बेटियों का नहीं. लेकिन अगर बेटी ही नहीं रहेगी, फिर बहू कहां से आएगी? यह क्यों नहीं समझते लोग? अपने पेट पर हाथ फिराते हुए शिखा फफक कर रो पड़ी. वह अपनी अजन्मी बच्ची को मारना नहीं चाहती थी, बल्कि उसे जन्म देना चाहती थी. लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि कैसे अपनी अजन्मी बच्ची को इन हत्यारों से बचाए. शिखा का मन करता कभी यहां से कहीं दूर भाग जाए, ताकि उस की बच्ची को कोई मार न सके. जो बच्चा अभी इस दुनिया में आया भी नहीं है, उसे उस की मां की कोख में ही मारने की तैयारी करने वाला कोई और नहीं, बल्कि इस के पापा और दादी हैं. लेकिन एक मां हो कर कैसे शिखा अपनी ही बच्ची को मरते देख सकती थी? शिखा अपनी 3 बेटियों के साथ बहुत खुश थी.

लेकिन सुमित्रा को ही एक पोता चाहिए था, जिस के लिए उसे चौथी बार मां बनने के लिए मजबूर किया गया. शिखा तो सोनोग्राफी करवाना ही नहीं चाहती थी. लेकिन सुमित्रा के आगे उस की एक न चली. सुमित्रा चाहती थी कि जांच में अगर लड़की निकली तो उसे खराब करवा देंगे, क्योंकि और लड़की नहीं चाहिए थी उसे इस घर में. लड़कियों को पालना घाटे के सौदे की तरह देखती थी सुमित्रा. उस की नजर में तो बेटा ही वंश कहलाता है और बेटा ही अपने मातापिता को मोक्ष दिलाता है. हमेशा वह शिखा को कड़वी गोलियां पिलाती रहती यह कह कर कि बड़ी बहू ने बेटे के रूप में उसे 2-2 रत्न दिए. लेकिन इस करमजली ने सिर्फ बेटियां ही पैदा की हैं. उसे अपने बेटे अरुण के वंश की चिंता हो चली थी. कैसे भी कर के वह शिखा से एक बेटा चाहती थी. लेकिन सुमित्रा को नहीं पता कि बेटा या बेटी होना अपने हाथ की बात नहीं है और एक मां के लिए तो बेटा और बेटी दोनों अपनी ही संतान होती हैं.

लेकिन पता नहीं सुमित्रा को यह बात समझ क्यों नहीं आती थी. आएदिन सुमित्रा यह बोल कर शिखा को ताना मारती कि 3-3 बेटियां पैदा कर के नातेरिश्तेदारों में उस ने उस की नाक कटवा दी. जब कोई कहता कि छोटी बहू तो एक बेटा तक पैदा नहीं कर पाई तो सुमित्रा का कलेजा जल उठता था. पोते के लिए आएदिन वह कोई न कोई कर्मकांड कराती ही रहती थी जिस में उस के हजारों रुपए स्वाहा हो जाते थे मगर सुमित्रा को इस बात का कोई गम न था. उसे तो बस कैसे भी कर के एक पोता चाहिए था. इस के लिए वह कई पोतियों का बलिदान करने को भी तैयार थी. जूही के समय जांच कर डाक्टर ने बताया था कि शिखा के पेट में लड़का है. लेकिन पैदा हो गई लड़की तो डाक्टर पर से भी सुमित्रा का विश्वास उठ गया. इसलिए इस बार उस ने अच्छे डाक्टर से जांच करवाने की ठानी थी ताकि फिर कोई भूल न हो सके.

लेकिन शिखा को डर था कि जांच में अगर कहीं लड़की निकली तो ये लोग उस के बच्चे की कब्र उस की मां की कोख में ही बना देंगे. इसलिए वह जांच करवाने से टालमटोल कर रही थी मगर टालमटोल कर के भी क्या हो गया? जांच तो करवानी ही पड़ी और शिखा को जिस बात का डर था, वही हुआ. बेटी का नाम सुनते ही सुमित्रा के कलेजे पर सांप लोट गया. अरुण का भी एकदम से मुंह लटक गया. सुमित्रा तो उसी वक्त यह बच्चा गिरवा देना चाहती थी मगर डाक्टर ने मना कर दिया कि वह यह सब काम नहीं करता. अब रूल इतना कड़ा बन गया है कि पता चलने पर डाक्टर की डिग्री तो जब्त होती ही है, जेल की भी हवा खानी पड़ती है. लेकिन चोरीछिपे कहींकहीं अब भी लिंग परीक्षण तो होता ही है. इधर, अरुण ऐसे किसी डाक्टर की खोज में था जो इस मुसीबत से छुटकारा दिला सके और उधर शिखा यह सोच कर बस रोती रहती कि कैसे भी कर के अरुण और सुमित्रा इस बच्चे को न मारें, विचार बदल लें अपना.

दुख तो इस बात का हो रहा था कि एक मां हो कर भी वह अपने बच्चे को बचा नहीं पा रही थी. पेट पर हाथ रख वह अपने अजन्मे बच्चे से माफी मांगती और कहती कि इस में उस की कोई गलती नहीं है. वह तो चाहती है कि वह इस दुनिया में आए. लेकिन उस के पापा और दादी ऐसा नहीं चाहते. आधी रात में ही वह हड़बड़ा कर उठ बैठती और जोरजोर से हांफने लगती. फिर अपने पेट पर हाथ फिराते हुए कलप उठती. नींद में जैसे उस के पेट से आवाज आती, ‘मां, मुझे मत मारो. मुझे भी इस दुनिया में आने दो न, मां. बेटी हूं तो क्या हुआ, बोझ नहीं बनूंगी, हाथ बंटाऊंगी. गर्व से आप का सिर ऊपर उठवाऊंगी. बेटी हूं इस धरा की. इस धरा पर तो आने दो मां,’ कभी आवाज आती, ‘तेरे प्यारदुलार की छाया मैं भी पाना चाहती हूं, मां. चहकचहक कर चिडि़या सी मैं भी उड़ना चाहती हूं, मां.

महकमहक कर फूलों सी मैं भी खिलना चाहती हूं, मां. मां, पता है, मुझे पापा और दादी नहीं चाहते कि मैं इस दुनिया में आऊं. लेकिन तुम तो मेरी मां हो न, फिर क्यों नहीं बचा लेतीं मुझे मुझे कहीं अपनी कोख में ही छिपा लो न, मां. बोलो न मां, क्या तुम भी नहीं चाहतीं कि मैं इस दुनिया में आऊं?’ शिखा अकबका कर नींद से उठ कर जाग बैठती और अपना पेट पकड़ कर सिसकती हुई कहती, ‘नहीं, मैं तुम्हें नहीं मारना चाहती. लेकिन तुम्हारी दादी और पापा तुम्हें इस दुनिया में नहीं आने देना चाहते हैं. सो मैं क्या करूं? प्लीज, मुझे माफ कर दो, मेरी बच्ची,’ शिखा चीत्कार करती कि कोई उस के बच्चे को बचा ले. आखिर कोई तो कहे, शिखा यह बच्चा नहीं गिरवाएगी, जन्म देगी इसे, क्योंकि इस का भी अधिकार है इस दुनिया में आने का. लेकिन ऐसा कोई न था इस घर में जो इस अनहोनी को रोक सके. वह चाहती तो अपने पति और सास के खिलाफ भ्रूण हत्या के मामले में केस कर सकती थी पर फिर अपनी 3 मासूम बच्चियों का खयाल कर चुप रह जाती. औरत यहीं पर तो कमजोर पड़ जाती है और जिस का फायदा पुरुष उठाते हैं. लेकिन यहां तो एक औरत ही औरत की दुश्मन बनी बैठी थी.

एक औरत ही नहीं चाहती थी कि दूसरी औरत इस दुनिया में आए. भगवान और पूजापाठ में अटूट विश्वास रखने वाली सुमित्रा से किसी बाबा ने कहा था कि महापूजा करवाने से जरूर शिखा को इस बार लड़का होगा. उस बाबा की बात मान कर पूजा पर हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी जब शिखा के पेट में लड़की होने की बात पता चली तो बाबा बोले कि जरूर उस पूजा में कोई चूक रह गई होगी, जिस के चलते शिखा के पेट में फिर से लड़की आ गई. बेटे के लिए शिखा ने वह सब किया, जोजो सुमित्रा उस से करवाती गई. इस के बावजूद उस के पेट में लड़की आ गई तो क्या करे वह? अंधविश्वास का ऐसा चश्मा चढ़ा था सुमित्रा की आंखों पर कि एक भी काम वह बाबा से पूछे बिना न करती थी. अभी पिछले महीने ही ग्रहशांति की पूजा के नाम पर उस बाबा ने सुमित्रा से हजारों रुपए ऐंठ लिए. लेकिन यही सुमित्रा जरूरतमंदों या किसी गरीब, असहाय इंसान की एक पैसे से भी मदद कर दे, आज तक ऐसा नहीं हुआ कभी. दया नाम की चीज ही नहीं है सुमित्रा के दिल में. तीनों पोतियां तो उसे फूटी आंख नहीं सुहातीं.

जब देखो, उन्हें झिड़कती रहती है. बातबात पर तानाउलाहना तो मामूली बात है. लेकिन जब नातेरिश्तेदारों के सामने भी सुमित्रा शिखा और उस की बेटियों का अपमान करती है तो उस का कलेजा दुख जाता है. औफिस से आते ही अरुण ने बताया कि डाक्टर ने कल का समय दिया है और इस के लिए उस ने छुट्टी भी ले ली है. शिखा ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया और किचन में चली गई. समझ नहीं आ रहा था उसे कि क्या करे. कैसे कहे अरुण से कि वह अपनी बच्ची को नहीं मारना चाहती, जन्म देना चाहती है इसे, क्योंकि इस का भी हक है इस दुनिया में आने का. लेकिन जानती है कि इस बात से घर में कुहराम मच जाएगा और अरुण तो वही करेगा जो उस की मां चाहती हैं. इसलिए वह आंसू पी कर रह गई. रात में जब अरुण अपने लैपटौप पर व्यस्त था तब बड़ी हिम्मत जुटा कर शिखा बोली, ‘‘अरुण, सुनो, मत करो न ऐसा. गलती क्या है इस की. यही न कि यह एक लड़की है. लेकिन आज लड़कियां किसी भी बात में कम हैं क्या? सानिया मिर्जा, झुलन गोस्वामी, ये सब बेटियां ही तो हैं. क्या इन्होंने अपने मातापिता का नाम ऊंचा नहीं किया? और अपने ही घर में खुद नीता दीदी को देखो न.

आज वे इतने बड़े बैंक में मैनेजर हैं. बैंक की तरफ से वे विदेश भी जा चुकी हैं. गरीब परिवारों की बेटियों को भी देख लो न. जब परिवार पर जिम्मेदारियों का बो?ा पड़ा तो बेटियां औटोरिकशा और ट्रेन तक चलाने लगीं. आज की बेटियां तो चांद तक पहुंच चुकी हैं, हवाईजहाज उड़ाने लगी हैं.’’ शिखा की बात पर कोई ध्यान न दे कर अरुण वैसे ही लैपटौप चलाता रहा. ‘‘अरुण, देखना, हमारी बेटियां भी एक दिन हमारा नाम जरूर रोशन करेंगी, यह मेरा विश्वास है. अरुण, देखो, छुओ मेरे पेट को कि क्या तुम्हारे दिल में अपनी बच्ची के लिए दर्द नहीं हो रहा? फिर कैसे तुम इसे मरते देख सकते हो? प्लीज, अपना फैसला बदल दो. बेटियां तो आने वाला सुनहरा कल होती हैं. हमें ही देख लो न, हम 4 बहनें ही हैं तो क्या हम अपने मम्मीपापा का ध्यान नहीं रखते? रखते हैं न? बारीबारी से हम उन की जिम्मेदारी बड़ी शिद्दत से निभाते आए हैं. बेटियां बो?ा नहीं होती हैं. अरुण, एक बार मेरी बात पर विचार कर के देखो, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है.’’

अरुण लैपटौप शटडाउन करते हुए बोला कि वह अपनी मां की बात से बाहर नहीं जा सकता है, सो प्लीज, वही बातें बारबार दोहरा कर उस का मूड न खराब करो. यह बात तो तय थी कि यह सब सुमित्रा के कहने पर ही हो रहा था. वही नहीं चाहती थी कि शिखा बेटी पैदा करे. वही चाह रही थी कि जितनी जल्दी हो, इस बच्चे को गिरवा दिया जाए. हां, माना कि अरुण को भी बेटे की चाह है पर अपनी बच्ची को मारना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था. अरुण ने आज तक अपनी मां की एक भी बात नहीं काटी. उन्होंने जो कहा, किया. यहां तक कि शिखा से शादी भी उस ने अपनी मां के कहने पर ही की थी, वरना तो उस की पसंद कोई और थी तो आज वह अपनी मां के फैसले से अलग कैसे जा सकता था. समाज और लोग यह क्यों नहीं समझते कि प्रकृति ने बेटियों को भी बेटे के बराबर जीने का हक दिया है.

उसे भी इस हवा में सांस लेने का उतना ही अधिकार है जितना लड़कों को और मां के पेट में बेटों की तरह बेटियां भी तो 9 महीने रहती हैं. फिर वह इस दुनिया में क्यों नहीं आ सकती? कोई तो जवाब दे? अपने मन में ही सोच शिखा बिलख पड़ी पर कौन था उस का रोना सुनने वाला. कोई तो नहीं. वह पति जो उस के साथ सात वचनों में बंधा था, वह भी नहीं. कहते हैं, ‘प्रकृति और पुरुष मिल कर सृष्टि का संचालन करते हैं. लेकिन, जब प्रकृति ही नहीं बचेगी, फिर सृष्टि का संचालन क्या संभव है?’ अपने मन में ही सोच शिखा ने अरुण की तरफ देखा, जो चैन की नींद सो रहा था. लेकिन शिखा को नींद कैसे आ सकती थी भला. घड़ी में देखा तो सुबह के 4 बज रहे थे. शिखा वहां से उठ कर बेटियों के कमरे में जाने ही लगी कि देखा सुमित्रा अपने कमरे में ध्यान लगा कर बैठी थी.

वह रोज सुबहसवेरे उठ कर ध्यान लगा कर बैठ जाती है. फिर स्नान आदि से निवृत्त हो कर पूजापाठ, मंदिर आदि के बाद ही नाश्ता करती है. मन हुआ शिखा का कि वहां जा कर उन के पैर पकड़ ले और कहे, बख्श दे उन की बच्ची को. इस के लिए जीवनभर वह सुमित्रा की गुलाम बन कर रहेगी परंतु वह अपनी सास के स्वभाव को अच्छे से जानती थी. बहुत ही कड़क मिजाज की औरत है, जो कह दिया सो कह दिया. उन की बात पत्थर की लकीर होती है. कल को अगर सुमित्रा कह दे कि अरुण अपनी पत्नी शिखा को छोड़ दे तो वह भी करने को तैयार हो जाएगा अरुण. तभी तो सुमित्रा कहते नहीं थकती कि अरुण उस का श्रवण बेटा है. शिखा को लग रहा था कि समय बस यहीं ठहर जाए. अपने पेट पर हाथ रख वह रो पड़ती. सोच कर ही वह सिहर उठती कि आज उस का बच्चा हमेशा के लिए उस से बिछुड़ जाएगा. फोन की आवाज से शिखा चौंक उठी. अरुण का फोन बज रहा है. उसे जगा कर शिखा खुद किचन में चली गई. सुमित्रा को चाय दे कर वह अरुण के लिए चाय ले कर कमरे में पहुंची तो देखा कि वह बाथरूम में था. आश्चर्य हुआ कि बिना चाय पिए अरुण की तो नींद ही नहीं खुलती कभी तो आज कैसे?’ शायद बेटी के मरने की खुशी में नींद खुल गई होगी,’ सोच कर ही शिखा का मन कड़वा हो गया. वह कंबल समेट ही रही थी कि अरुण कहने लगा कि जल्दी से उस के कपड़े जमा दे. अभी आधे घंटे में निकलना है. ‘‘पर कहां?’’ शिखा ने अचकचा कर पूछा, ‘‘आज तो आप ने छुट्टी ले रखी है और हमें अस्पताल जाना था एबौर्शन के लिए?’’ ‘‘वह सब छोड़ो अभी,’’ शिखा की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण बोला, ‘‘मुझे अभी दिल्ली के लिए रवाना होना पड़ेगा. कल बहुत बड़े क्लाइंट के साथ अर्जैंट मीटिंग है.

जानती हो शिखा, अगर यह मीटिंग सक्सैस रही तो इस बार मेरा प्रमोशन होना तय है और सब से बड़ी बात कि बौस ने इस काम के लिए मुझे चुना है, यह बहुत बड़ी बात है,’’ अरुण काफी खुश लग रहे थे. उन की खुशी उन के चेहरे से साफ झलक रही थी. लेकिन जातेजाते अस्पताल का काम सुमित्रा को थमा गए. शिखा यह सोच कर बस रोए जा रही थी कि जिस बच्ची को उस ने अपनी कोख में 3 महीने संभाल कर रखा, आज उसे उस के शरीर से नोच कर फेंक दिया जाएगा. जूही को गोद में लिए शिखा अस्पताल जाने के लिए घर से निकल ही रही थी कि सुमित्रा का फोन घनघना उठा. जाने उधर से किस ने क्या कहा कि फोन सुमित्रा के हाथ से छूट कर नीचे गिर पड़ा और वह खुद भी लड़खड़ा कर जमीन पर गिर पड़ी. ‘‘मम्मीजी, मम्मीजी… क्या हुआ आप को?’’ शिखा घबरा कर सुमित्रा को उठाने लगी. लेकिन सुमित्रा, ‘वो…निशा’ बोल कर बेहोश हो गई. शिखा ने जब फोन उठाया तो सुन कर वह भी सन्न रह गई. अस्पताल से फोन था. निशा का ऐक्सिडैंट हो गया, लेकिन अब शिखा क्या करेगी, क्योंकि अरुण तो मीटिंग में है और उस ने अपना फोन भी म्यूट कर के रखा हुआ था. तभी उसे पड़ोस के राहुल का खयाल आया, जो शिखा को अपनी बहन की तरह मानता है. सारी बातें जानने के बाद वह सुमित्रा के साथ मुंबई जाने को तैयार हो गया और जो सब से पहली फ्लाइट मिली, उस में टिकट करा कर वे तुरंत मुंबई के लिए रवाना हो गए.

शिखा इसलिए नहीं गई क्योंकि सोनी और मोही अभी स्कूल से आई नहीं थीं. अरुण को जब निशा के ऐक्सिडैंट का पता चला तो वह भी वहीं से फ्लाइट पकड़ कर मुंबई पहुंच गया. शिखा भी अपने भाई को बुला कर तीनों बच्चों को ले कर मुंबई पहुंच गई, क्योंकि यहां उस का जी घबरा रहा था. मन में अजीब बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. दरअसल निशा अपनी गाड़ी से जब घर आ रही थी, तभी पीछे से एक ट्रक ने उसे जोर का धक्का दे दिया और गाड़ी दूर जा कर पलट गई. ट्रक वाला तो वहां से नौदो ग्यारह हो गया लेकिन आसपास के लोगों ने तुरंत पुलिस को फोन कर निशा को गाड़ी से बाहर निकालने की कोशिश की. खून से लथपथ निशा को जल्दी अस्पताल पहुंचाया गया, तब जा कर उस का इलाज शुरू हुआ. वरना तो शायद वह बच भी न पाती. पता चला कि ट्रक ड्राइवर शराब पी कर गाड़ी चला रहा था. अकसर हमें सुनने को मिलता रहता है कि शराब पी कर गाड़ी चालक ने 4 लोगों को कुचल डाला.

फूड स्टाल पर खाना खा रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी. जाने क्यों लोग ऐसी हरकतें करते हैं? खुद की जान तो जोखिम में डालते ही हैं, दूसरों की जिंदगी भी तबाह कर देते हैं. खैर, शुक्र था कि निशा की जान बच गई. लेकिन अभी उसे एकडेढ़ महीना और अस्पताल में रहना होगा. डाक्टर का कहना था कि निशा की कमर और हाथपैरों की हड्डी के जुड़ने में वक्त लगेगा. अपनी बेटी की हालत देख अभी भी सुमित्रा के आंसू रुक नहीं रहे थे. बारबार उस के दिमाग में यही बात चल रही थी कि अगर निशा को कुछ हो जाता तो, तो वह भी मर जाती. ‘‘मां, अब दीदी ठीक हैं. आप चिंता मत करो और डाक्टर ने कहा है कि दीदी अब खतरे से बाहर हैं. फिर आप क्यों रो रही हो? मां, अब मुझे निकलना होगा, क्योंकि शिखा को डाक्टर के पास भी तो ले कर जाना है न? अभी थोड़ी देर पहले डाक्टर का फोन आया था, कह रहे थे कि इस काम में जितनी ज्यादा देर होगी, रिस्क उतना ही ज्यादा बढ़ेगा. इसलिए जा कर यह काम निबटा ही लेता हूं,’’ अरुण बोला. आज सुमित्रा भली प्रकार से शिखा का दर्द महसूस कर पा रही थी.

अपने बच्चे के लिए मां की तड़प वह बहुत गहराई से महसूस कर रही थी. शिखा भले ही चुप थी, मगर उस के दिल में क्या चल रहा है, सुमित्रा से छिपा न रहा. यही कि आज जब अपनी बेटी की जान पर बन आई तो किस कदर सुमित्रा छटपटा उठी. फिर यही उस ने शिखा के लिए क्यों नहीं महसूस किया? मां और बच्चे का रिश्ता तो हर रिश्ते से बड़ा होता है, क्योंकि उन का रिश्ता 9 महीने ज्यादा होता है. एक मां अपने बच्चे को अपने खून से सींचती है, फिर कैसे एक मां उस के बहते खून को देख सकती है भला. अपनी करनी की सोच कर सुमित्रा का रोमरोम सिहर उठा कि कैसे वह एक मां की गोद उजाड़ने चली थी और होती कौन है वह ऐसा करने वाली? आज जब उस की बेटी पर मुसीबत आ पड़ी, तब उसे एहसास हुआ कि वह शिखा के साथ कितना बड़ा अन्याय करने जा रही थी. ‘यह मैं क्या करने जा रही थी? प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने जा रही थी. एक मां से उस के बच्चे को छीनने का पाप करने जा रही थी? ओह, कितनी बड़ी पापिन हूं मैं? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी.

मेरी पोती इस दुनिया में जरूर आएगी,’ अपने मन में ही सोच सुमित्रा उठ खड़ी हुई. ‘‘रुको अरुण, अब कोई एबौर्शन नहीं होगा, बल्कि मेरी पोती इस दुनिया में आएगी,’’ यह सुन अरुण हैरान हो गया कि मां सुमित्रा यह क्या बोल रही हैं? कल तक तो यही पीछे पड़ी थीं कि जितनी जल्दी हो इस मुसीबत से छुटकारा पाओ. ‘‘क्या सोच रहे हो, यही न कि कल तक मैं जिस बच्चे से नफरत करती थी, अचानक आज मुझे क्या हो गया? तो आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो चुका है अरुण कि मैं जो करने जा रही थी, वह गलत ही नहीं, बल्कि महापाप था. अपनी बेटी को जिंदगी और मौत से जूझते देख मैं खुद कितनी मौतें मरी हूं, यह मैं ही जानती हूं. एकएक पल कैसे कटा मेरा, नहीं बता सकती तुम्हें, तो फिर उस मां का क्या हाल होगा जिस की आंखों के सामने ही उस की बेटी के टुकड़े कर दिए जाएंगे? ‘‘मैं ने तय कर लिया है कि मेरी धरा यानी इस धरती पर वह जरूर आएगी,’’ शिखा को अपने सीने से भींचते हुए सुमित्रा कलपते हुए बोली, ‘‘बहू, मुझे माफ कर दो. मैं पुत्रमोह में अंधी हो गई थी, इसलिए तुम्हारा दर्द समझ नहीं पाई.’’

यह सुन शिखा भी सुमित्रा के गले लग कर फूटफूट कर रोने लगी. आज अरुण भी दिल से अपनी मां का शुक्रगुजार था कि उन्होंने उस की अजन्मी बेटी की जिंदगी बख्श दी. नहीं पता है शिखा को पर कितना दुख हो रहा था उसे अपनी ही बेटी को मारने का सोच कर भी. सुमित्रा के कारण वह चुप था, वरना तो वह कभी ऐसा सोच भी नहीं सकता था. कई बार अपने आंसुओं को अंदर ही रोके रखने के प्रयास में अरुण की आंखें लाल हो जाया करती थीं और फिर वही जमा आंसू को बाथरूम में जा कर बहाता था. लेकिन आज वह बहुत खुश है. अरुण और शिखा के साथसाथ सुमित्रा को भी धरा के आने का बेसब्री से इंतजार था. Story In Hindi 

Love Story In Hindi : जवानी की आग – रीता अपने मौसा के साथ कैसे बुझा रही थी आग

Love Story In Hindi : रीता को घर के काम से फुरसत ही नहीं मिलती थी. घर में सब से बड़ी बेटी होने की वजह से वह घर का सारा काम संभालती. उस की मां अधिकतर नानी के घर जा कर रहती. रीता लापरवाह सी अपने काम में व्यस्त रहती. अकसर उस का मौसा चौरे उन के घर आता और उस से हमदर्दी जताता. चौरे सरकारी विभाग में इंजीनियर था और उस के पास अनापशनाप काफी पैसा था. वह इश्कबाज था और लड़कियों पर अकसर दिल खोल कर पैसा उड़ाता था. रीता के लिए भी वह कभी साड़ी, तो कभी मेकअप का सामान ला कर देता रहता. रीता को घर में इस सामान के बारे में कोई पूछता भी नहीं था कि उस के पास ये सब कहां से आ रहा है. उस के पिता पैतृक संपत्ति के हिस्से की बाट जोह रहे थे.

छोटी बेटियों पर वे ध्यान देते, लेकिन घर की बड़ी लड़की रीता जैसे घर की काम वाली ही मानी जाती. उसे सिर्फ काम करने के लिए कहा जाता. छोटी बहनें इधरउधर मटरगश्ती करती रहतीं, पर रीता घर के कामों में ही उलझी रहती. मां को तो अपने मायके से ही लगाव था, इसलिए वे तो अधिकतर मायके में ही रहतीं. रीता ही घर चला रही थी. मौसा चौरे के लिए यह सुनहरा मौका था. वह जबतब आ कर रीता से परांठे बनाने को कहता, कभी आमलेट बनवाता. सामान वह खुद ही ले कर आता. अकसर वह रीता के आसपास ही मंडराता रहता. धीरेधीरे उस ने रीता को कभीकभार अपने फ्लैट पर बुलाना भी शुरू कर दिया. अकसर जब रीता की मौसी कहीं बाहर गई होतीं, तो वह रीता को अपने फ्लैट पर बुला लेता और उस के साथ मौजमस्ती करता.

इधर मौसा के कहने पर रीता की मां भी उसे आसानी से भेज देतीं. वे यह भी नहीं सोचतीं कि उस की बेटी अपनी ही मौसी का घर उजाड़ रही है. बस, इसी तरह रीता अपनी मौसी की सौत बन कर अपने मौसा के साथ अपनी उभरती जवानी की आग बुझाती. मौसा अपनी हवस पूरी करता और रीता अपने भीतर की आग को मौसा के आगोश में आ कर शांत करती. अंत में हुआ यह कि रीता को दिन चढ़ गए. यह देख कर रीता की मां के होश उड़ गए. रीता के पिता तो गांव आनेजाने में ही लगे रहते थे. रीता की मां ने उस के मौसा चौरे को खूब खरीखोटी सुनाई. इस के एवज में उस ने रीता के मौसा से मोटी रकम ऐंठ ली. अब रीता के कुंआरेपन के गर्भ के लिए इधरउधर डाक्टर की खोज हुई.

रीता को बारबार उलटी होती तो छोटी बहनें पूछतीं, इसे उबकाई क्यों आ रही हैं? आखिर रीता की मां ने अपनी भाभी के साथ जा कर शहर की सैंडीमन नर्स की शरण ली. उसे मुंहमांगी रकम दी. सैंडीमन इस काम के लिए शहर में जानी जाती थीं. किसी भी कुंआरी लड़की का अनचाहा गर्भ यदि गिराना होता तो यही एकमात्र नर्स थीं, जिस के पास सुरक्षित गर्भपात किया जाता था. आखिर, रीता का गर्भ गिरा दिया गया, क्योंकि चौरे ने नोटों की गड्डी दीं और सैंडीमन नर्स एक अनुभवी चिकित्सक थीं. सैंडीमन के सहयोग से रीता को उस नाजायज गर्भ से मुक्ति मिली. वह अब दोबारा अपने मौसा के संग गुलछर्रे उड़ाने को आजाद थी, लेकिन इस बार नर्स ने उसे बताया कि वह गर्भनिरोधक इस्तेमाल करे. अधिकतर लड़कियां पहली बार इन सब बातों से अनजान रहती हैं. जवानी की धधकती आग में वे सबकुछ भूल कर अपना सर्वस्व चौरे जैसों के हाथों लुटा देने को तत्पर रहती हैं.

Social Story : दूसरा भगवान – धर्म से किस तरह हार गए डाक्टर रंजन?

Social Story : डाक्टर रंजन के छोटे से क्लिनिक के बाहर मरीजों की भीड़ थी. अचानक लाइन में लगा बुजुर्ग धरमू चक्कर खा कर गिर पड़ा. डाक्टर रंजन को पता चला. वे अपने दोनों सहायकों जगन और लीला के साथ भागे आए.

डाक्टर रंजन ने धरमू की नब्ज चैक की और बोले, ‘‘इन्हें तो बहुत तेज बुखार है. जगन, इन्हें बैंच पर लिटा कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखो,’’ समझा कर वे दूसरे मरीजों को देखने लगे.

वहां से गुजरते पंडित योगीनाथ और वैद्य शंकर दयाल ने यह सब देखा, तो वे जलभुन गए.

‘‘योगी, यह छोकरा गांव में रहा, तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा. हमारे पास दवा के लिए इक्कादुक्का लोग ही आते हैं. इस के यहां भीड़ लगी रहती है,’’ भड़ास निकालते हुए वैद्य शंकर दयाल बोला.

‘‘वैद्यजी, आप सही बोल रहे हैं. अब तो झाड़फूंक के लिए मेरे पास एकाध ही आता है,’’ पंडित योगीनाथ ने भी जहर उगला.

उन के पीछेपीछे चल रहे पंडित योगीनाथ के बेटे शंभूनाथ ने उन की बातें सुनीं और बोला, ‘‘पिताजी, आप चिंता मत करो. यह जल्दी ही यहां से बोरियाबिस्तर समेट कर भागेगा. बस, देखते जाओ.’’

शंभूनाथ के मुंह से जलीकटी बातें सुन कर उन दोनों का चेहरा खिल गया. हरिया अपने बापू किशना को साइकिल पर बिठाए पैदल ही भागा जा रहा था. किशना का चेहरा लहूलुहान था.

वैद्य शंकर दयाल ने पुकारा, ‘‘हरिया, ओ हरिया. तू ने खांसी के काढ़े के उधार लिए 50 रुपए अब तक नहीं दिए. भूल गया क्या?’’

‘‘वैद्यजी, मैं भूला नहीं हूं. कई दिनों से मुझे दिहाड़ी नहीं मिली. काम मिलते ही पैसे लौटा दूंगा. अभी मुझे जाने दो,’’ गिड़गिड़ाते हुए हरिया ने रास्ता रोके वैद्य शंकर दयाल से कहा. किशना दर्द से तड़प रहा था.

‘‘शंभू, तू इस की जेब से रुपए निकाल ले.’’

‘‘वैद्यजी, रहम करो. बापू को दिखाने के लिए सौ रुपए किसी से उधार लाया हूं,’’ हरिया के लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी पिता के कहते ही शंभूनाथ ने रुपए निकाल लिए.

डाक्टर रंजन आखिरी मरीज के बारे में दोनों सहायकों को समझा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, मेरे बापू को देखिए. इन की आंख फूट गई है.’’

‘‘हरिया, घबरा मत. तेरे बापू ठीक हो जाएंगे,’’ हरिया की हिम्मत बढ़ा कर डाक्टर रंजन इलाज करने लगे.

बेचैन हरिया इधरउधर टहल रहा था कि तभी वहां जगन आया, ‘‘हरिया, तेरे बापू की आंख ठीक है. चल करदेख ले.’’

इतना सुनते ही हरिया अंदर भागा गया. ‘‘आओ हरिया, दवाएं ले आओ. शुक्र है आंख बच गई,’’ डाक्टर रंजन बोले. सबकुछ समझने के बाद हरिया ने डाक्टर रंजन को कम फीस दी, फिर हाथ जोड़ कर वैद्यजी वाली घटना सुनाई.

डाक्टर रंजन भौचक्के रह गए. ‘‘डाक्टर साहब, काम मिलते ही मैं आप की पाईपाई चुका दूंगा,’’ हरिया ने कहा. जगन और लीला लंच करने के लिए अपनेअपने घर चले गए. डाक्टर रंजन अकेले बैठे क्लिनिक में कुछ पढ़ रहे थे, तभी वहां दवाएं लिए हुए सैल्समैन डाक्टर रघुवीर आया, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की सभी दवाएं ले आया हूं. कुछ दिनों के लिए मैं बाहर जा रहा हूं. जरूरत पड़ने पर आप किसी और से दवा मंगवा लेना,’’ बिल सौंप कर वह चला गया.

‘‘मैं जरा डाक्टर साहब के यहां जा रही हूं,’’ नेहा की बात सुन कर मां चौंक गईं.

‘‘क्या हुआ बेटी, तुम ठीक तो हो?’’

‘‘मां, मैं बिलकुल ठीक हूं. मेरा नर्सिंग का कोर्स पूरा हो गया है. घर में बोर होने से अच्छा है कि डाक्टर साहब के क्लिनिक पर चली जाया करूं. वहां सीखने के साथसाथ कुछ सेवा का मौका भी मिलेगा. पिताजी ने इजाजत दे दी है. तुम भी आशीर्वाद दे दो.’’

मां ने भी हामी भर दी. नेहा चली गई. डाक्टर रंजन के साथ अजय और शंभू गपशप मार रहे थे.

‘‘आज हम दोनों बिना पार्टी लिए नहीं जाएंगे,’’ अजय बोला.

‘‘नोट छाप रहे हो. दोस्तों का हक तो बनता है,’’ शंभू की बात सुन कर डाक्टर रंजन गंभीर हो गए. चश्मा मेज पर रखा, फिर बोले, ‘‘मेरी हालत से तुम वाकिफ हो. मैं जिन गरीब, लाचारों का इलाज करता हूं, उन से दवा की भी भरपाई नहीं होती. मैं ने बचपन में अपने मांबाप को गरीबी और बीमारियों के चलते तिलतिल मरते देखा है, इसलिए मैं इन के दुखदर्द से वाकिफ हूं.’’

‘‘क्या रोनाधोना शुरू कर दिया? मैं पार्टी दूंगा. चलो शहर. मैं डाक्टर रंजन की तरह छोटे दिल वाला नहीं,’’ शंभू बोला.

डाक्टर रंजन चुप रहे. तभी वहां नेहा दाखिल हुई. ‘‘आओ नेहा, सब ठीक तो है?’’ डाक्टर रंजन के पूछने पर नेहा ने आने की वजह बताई. ‘‘कल से आ जाना,’’ डाक्टर रंजन बोले.

‘‘ठीक है सर,’’ कह कर नेहा वहां से चल दी.

‘‘नेहा, ठहरो. डाक्टर साहब पार्टी दे रहे हैं,’’ शंभू ने टोका.

‘‘आप एंजौय करो. मैं चलती हूं,’’ कह कर नेहा चल दी.

‘‘शंभू, जलीकटी बातें मत करो,’’ अजय ने समझाया.

‘‘डाक्टर क्या पार्टी देगा? चलो, मैं देता हूं,’’ शंभू की बात रंजन को बुरी लगी. वे बोले, ‘‘तेरी अमीरी का जिक्र हरिया भी कर रहा था.’’

इतना सुनते ही शंभू के तनबदन में आग लग गई, ‘‘डाक्टर हद में रह, नहीं तो…’’ कह कर शंभू वहां से चला गया. अजय हैरान होते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों क्या बक रहे हो? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

वैद्य शंकर दयाल भागाभागा पंडित योगीनाथ के पास गया. पुराने मंदिर का पुजारी त्रिलोकीनाथ भी वहीं था. ‘‘मुझे अभीअभी पता चला है कि डाक्टर की दुकान ग्राम सभा की जमीन पर बनी है और खुद सरपंच ने जमीन दी है.’’

वैद्य शंकर दयाल की बात सुन कर वे दोनों उछल पड़े. पंडित योगीनाथ बोला, ‘‘इस में हमारा क्या फायदा है?’’ ‘‘डाक्टर को भगाने की तरकीब मैं बताता हूं… वहां देवी का मंदिर बनवा दो.’’

‘‘सुनहरा मौका है. नवरात्र आने वाले हैं,’’ वैद्य शंकर दयाल की हां में हां मिलाते हुए त्रिलोकीनाथ बोला.

‘‘वैद्यजी, तुम्हारा भी जवाब नहीं.’’ ‘‘सब सोहबत का असर है,’’ पंडित योगीनाथ से तारीफ सुन कर वैद्य शंकर दयाल ने कहा.

‘‘नेहा डाक्टर के साथ कहां जा रही है. अच्छा, यह तो सरपंच की बेटी के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगा है,’’ बड़बड़ाते हुए शंभू दयाल ने शौर्टकट लिया.

‘‘चाची, नेहा कहां है?’’ घर में घुसते ही शंभू ने पूछा.

‘‘क्या हुआ शंभू?’’ सुनते ही नेहा की मां ने पूछा.

शंभू ने आंखों देखी मिर्चमसाला लगा कर बात बता दी. मां को बहुत बुरा लगा. उन्होंने नेहा को पुकारा, ‘‘नेहा बेटी, यहां आओ.’’

नेहा को देख कर शंभू के चेहरे का रंग उड़ गया. ‘‘मेरी बेटी पर लांछने लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आई,’’ मां ने शंभू को फटकार कर भगा दिया. ‘तो वह कौन थी?’ सोचता हुआ शंभू वहां से चल दिया.

पंडित योगीनाथ, त्रिलोकीनाथ और वैद्य शंकर दयाल सरपंच उदय प्रताप से मिलने गए. ‘‘श्रीमानजी, आप इजाजत दें, तो हम वहां देवी का मंदिर बनवाना चाहते हैं. बस, आप जमीन का इंतजाम कर दें,’’ त्रिलोकीनाथ बोले.

सरपंच बोले, ‘‘हमारी सारी जमीन गांव से दूर है और ग्राम सभा की जमीन का टुकड़ा गांव के आसपास है नहीं,’’ झट से पंडित योगीनाथ ने डाक्टर वाली जमीन की याद दिलाई. त्रिलोकीनाथ ने भी समर्थन किया.

‘‘उस जमीन के बारे में पटवारी से मिलने के बाद बताऊंगा,’’ सरपंच उदय प्रताप की बात सुन कर वे सभी मुसकराने लगे. डाक्टर रंजन, नेहा, जगन और लीला एक सीरियस केस में बिजी थे, तभी वहां अजय आया, ‘‘रंजन, गांव में बातें हो रही हैं कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा और तुम्हारा क्लिनिक यहां से हटेगा.’’

‘‘तुम जरा बैठो. मैं अभी आता हूं,’’ कह कर डाक्टर रंजन मरीजों को देखने में बिजी हो गए. फारिग हो कर वे अजय के पास आए. नेहा, जगन और लीला भी वहीं आ गए.

‘‘रंजन, मुझे थोड़ी सी जानकारी है कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा. कुछ दान देने वालों ने सीमेंटईंट वगैरह का इंतजाम भी कर दिया है. 1-2 दिन बाद ही काम शुरू हो जाएगा.’’

अजय की बात सुन कर नेहा बोली, ‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात घर पर नहीं सुनी.’’

‘‘तुम जानते हो, मैं दूसरे गांव से यहां आ कर अपनी दुकान में बिजी हो जाता हूं. तुम अपने मरीजों में बिजी रहते हो. न तुम्हारे पास समय है, न मेरे पास,’’ कह कर अजय डाक्टर रंजन को देखने लगे.

तभी वहां दनदनाता हुआ शंभूनाथ आया, ‘‘डाक्टर, तुम गांव के भोलेभाले लोगों को बहुत लूट चुके हो. अब अपना तामझाम समेट कर यह जगह खाली करो. यहां मंदिर बनेगा,’’ जिस रफ्तार से वह आया था, उसी रफ्तार से जहर उगल कर चला गया. सभी हक्केबक्के रह गए.

कुछ देर बाद डाक्टर रंजन बोले, ‘‘नेहा, तुम मरीजों को देखो. मैं सरपंचजी से मिलने जाता हूं. आओ अजय,’’ वे दोनों वहां से चले गए.

‘‘पिताजी, समय खराब मत करो. मंदिर बनवाना जल्दी शुरू करवा दो. मैं डाक्टर को हड़का कर आया हूं. सरपंच के भी सारे रास्ते बंद कर देता हूं,’’ शंभूनाथ ने पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ को समझाया.

‘‘सरपंच को तुम कैसे रोकोगे,’’ वैद्य शंकर दयाल ने पूछा.

‘‘वह सब आप मुझ पर छोड़ दो. जल्दी से मंदिर बनवाना शुरू करवा दो,’’ तीनों को समझाने के बाद शंभूनाथ वहां से चला गया.

‘‘सरपंचजी, आप किसी तरह हमारे क्लिनिक को बचा लो.’’

‘‘रंजन, मैं पूरी कोशिश करूंगा, क्योंकि उस जमीन के कागजात अभी तैयार नहीं हुए हैं. मैं कल कागजात पूरे करवा देता हूं,’’ डाक्टर रंजन को सरपंच उदय प्रताप ने भरोसा दिलाते हुए कहा.

रात में मंदिर बनाने का सामान आया. ट्रक और ट्रैक्टरों ने उलटासीधा लोहा, ईंट वगैरह सामान उतारा. जगह कम थी. टक्कर लगने से क्लिनिक की बाहरी दीवार ढह गई. सुबह डाक्टर रंजन ने यह सब देखा, तो वे दंग रह गए. नेहा, जगन, लीला शांत थे.

तभी पीछे से अजय ने डाक्टर रंजन के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘इस समय हम सिर्फ चुपचाप देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते हैं.

‘‘मैं ने इस सिलसिले में शंभूनाथ से बात की, तो वह बोला कि मैं कुछ नहीं कर सकता,’’ कह कर अजय चुप हो गया.

जेसीबी, ट्रैक्टर वगैरह मैदान को समतल कर रहे थे. जेसीबी वाले ने जानबूझ कर क्लिनिक की थोड़ी सी दीवार और ढहा दी. ‘धड़ाम’ की आवाज सुन कर सभी बाहर आए.

‘‘डाक्टर साहब, गलती से टक्कर लग गई. आज नहीं तो कल यह टूटनी है,’’ बड़ी बेशर्मी से जेसीबी ड्राइवर ने कहा. सभी जहर का घूंट पी कर रह गए.

शंभूनाथ ने पुजारी त्रिलोकीनाथ से कहा, ‘‘पुजारीजी, सब तैयारी हो चुकी है. आप बेफिक्र हो कर मंदिर बनवाना शुरू कर दो. मेरे एक दोस्त ने, जो विधायक का सब से करीबी है, विधायक से थाने, तहसील, कानूनगो को फोन कर के निर्देश दिया है. उस जमीन पर सिर्फ मंदिर ही बने. अब हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है.’’

सारी बातें सुनने के बाद पुजारी त्रिलोकीनाथ खुश हो गए. डाक्टर रंजन और अजय बहुत सोचविचार के बाद थाने गए. थानेदार ने जमीन के कागजात मांगे. कागजात न होने के चलते रिपोर्ट दर्ज न हो सकी. दोनों बुझे मन से थाने से निकल आए.

सरपंच उदय प्रताप पटवारी और कानूनगो से मिले, ‘‘आप किसी तरह से डाक्टर के क्लिनिक के कागजात आज ही तैयार कर दो. बड़ी लगन और मेहनत से डाक्टर रंजन गांव वालों की सेवा कर रहे हैं. कृपया, आप मेरा यह काम कर दो,’’ सरपंच की सुनने के बाद उन दोनों ने असहमति जताई. सरपंच उदय प्रताप को बड़ा दुख हुआ.

दोनों की नजर तहसील से बाहर आते उदय प्रताप पर पड़ी. उन की चाल देख डाक्टर रंजन और अजय समझ गए कि काम नहीं हुआ. ‘‘काम नहीं हुआ क्या सरपंचजी,’’ डाक्टर रंजन ने पूछा.

‘‘नहीं. बस एक उम्मीद बची है. विधायक साहब से मिले लें,’’ सरपंच उदय प्रताप का सुझाव दोनों को सही लगा. तीनों उन से मिलने चल दिए.

नेहा, जगन, लीला वगैरह बड़ी बेचैनी से तीनों के आने का इंतजार कर रहे थे. ‘‘डाक्टर साहब, हम आखिरी बार कह रहे हैं कि क्लिनिक खाली कर दो, नहीं तो सब इसी में दब जाएगा,’’ शंभूनाथ की चेतावनी सुन कर वे तीनों बाहर आए. शंभूनाथ वहां से जा चुका था.

विधायक का दफ्तर बंद था. घर पहुंचे, तो गेट पर तैनात पुलिस ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया. थकहार कर उदय प्रताप, अजय और डाक्टर रंजन गांव आ गए.

मंदिर की नींव रख दी गई थी. प्रसाद बांटा जा रहा था. जयकारे गूंज रहे थे.

‘‘पंडितजी ने मंदिर के लिए सही जगह चुनी है. उन्होंने गांव के लिए सही सोचा,’’ एक बुजुर्ग ने योगीनाथ की तारीफ करते हुए कहा.

तीनों के जानपहचान वाले डाक्टर रंजन को कोस रहे थे. कुछ गालियां दे रहे थे.

‘‘चोर है, गरीबों को लूट रहा है, नकली दवाएं देता है, पानी का इंजैक्शन लगा कर पैसे बना रहा है, पंडितजी इस को सही भगा रहे हैं,’’ एक आदमी बोला. एक आदमी सरपंच को भी बुराभला कह रहा था, ‘‘अब की इसे वोट नहीं देंगे, यह डाक्टर के साथ मिल कर गांव को लूट रहा है.’’

कुछ ही लोग सरपंच और डाक्टर रंजन के काम को अच्छा कह रहे थे. सरपंच उदय प्रताप डाक्टर रंजन के क्लिनिक के बाहर खड़े थे. नेहा, जगन, लीला और अजय भी वहीं मौजूद थे.

‘‘बेटे, जगह खाली करने के सिवा अब और कोई चारा नहीं है. गांव के भोलेभाले लोग पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ के मकड़जाल में फंस चुके हैं. हमारी सुनने वाला कोई नहीं. कोर्ट के चक्कर में फंसने से भी कोई हल नहीं निकलेगा,’’ सरपंच की बात सुन कर डाक्टर रंजन मायूस हो गए.

बहुत देर बाद डाक्टर रंजन ने पूछा, ‘‘फिर, मैं क्या करूं?’’

सरपंच उदय प्रताप बोले, ‘‘बेटे, गांव के नासमझ लोगों पर मंदिर बनवाने का भूत सवार है. इन्हें डाक्टररूपी दूसरे भगवान से ज्यादा जरूरत पत्थररूपी भगवान की चाह है. इन लोगों को हम जागरूक नहीं कर सकते. इन्हें सिर्फ इन का जमीर, इन की अक्ल ही जागरूक कर सकती है. हम हार चुके हैं रंजन, हम हार चुके हैं.’’

मायूस हो कर सरपंच उदय प्रताप वहां से चले गए. सभी मिल कर क्लिनिक खाली करने लगे. डाक्टर रंजन शांत खड़े थे.

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