रेटिंग: एक स्टार
भारत के दार्जिलिंग के चाय बागानों में जन्मे, दून स्कूल में पढ़ाई करने के बाद न्यूयौर्क के इथाका कालेज से फिल्म और फोटोग्राफी में बैचलर औफ फाइन आर्ट्स की डिग्री प्राप्त करने वाले सुधांशु सरिया ने लघु फिल्में बनानी शुरू कीं. ‘ए टाइगर स्पोट’, ‘हिस न्यू हैंड्स’, ‘एलओई वी’, ‘नौक नौक नौक’, ‘टैप्स’ जैसी लघु फिल्में बनाने के बाद सुधांशु सरिया ने फिल्म ‘आर्टिकल 370’ के लिए ‘मैं हूं’ गीत भी लिखा.
अब बतौर लेखक और निर्देशक सुधांशु सरिया अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उलझ’ ले कर आए हैं, जिस में उन्होंने सब गुड़गोबर कर दिया. ‘उलझ’ को देख कर अहसास ही नहीं होता कि यही सुधांशु सरिया को 2020 में लघु फिल्म ‘नौक नौक नौक’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया था.
सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर सुधांशु सरिया ने सब कुछ गलत परोस दिया है. फिल्म देख कर लेखक और निर्देशक की अज्ञानता ही ज्यादा उभर कर आती है. कहने के लिए यह जासूसी रोमांचक कहानी है, पर फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है. शायद यही वजह है कि निर्देशक सुधांशु सरिया फिल्म के प्रदर्शन से पहले सीधे पत्रकारों का सामना करने के बजाय अपनी मार्केटिंग टीम और पीआर टीम के पीछे छुपने का प्रयास कर रहे थे.
जासूसी और रोमांचक फिल्म ‘उलझ’ की कहानी युवा आईएफएस अधिकारी सुहाना भाटिया (जान्हवी कपूर) के इर्दगिर्द घूमती है, जिस के परिवार में देशभक्तों की विरासत है. उन के दादाजी भी आईएफएस अधिकारी थे और उन के पिता धनराज भाटिया (आदिल हुसैन) भी आईएफएस रहे हैं और अब उन्हें संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया है. सुहाना परिवार की विरासत को बनाए रखने, अपने मूल्यों और गरिमा के प्रति सच्ची रहने और अपने देश के साथ कभी भी विश्वासघात न करने के लिए दृढ़ संकल्पित है.
फिल्म की शुरू होती है नेपाल से, जहां सुहाना भाटिया की भारतीय दूतावास में नियुक्ति है. जब सुहाना नेपाल में भारतीय राजदूत खुराना (अरूण मलिक) के साथ वहां के मंत्री छेत्री (हिमांशु गोखानी) से मिलने जाती है तो बातचीत पटरी से उतरते देख खुराना से एक कदम आगे बढ़ कर सुहाना भाटिया बड़ी ही सावधानी से मंत्री के रिश्तेदारों की आपत्तिजनक तस्वीरें उजागर करती है. हैरान मंत्री पहले विश्वास करने से इनकार कर देता है, लेकिन सुहाना विनम्रता से उन्हें बताती है कि और भी बहुत कुछ है. मंत्री नरम पड़ जाते हैं और इस तरह से कार्य करते हैं जो नेपाल और भारत दोनों के हितों की पूर्ति करता है.
इस के बाद सुहाना भाटिया को इंग्लैंड में भारतीय दूतावास में उप उच्चायुक्त बना कर भेज दिया जाता है. इस से वहां पहले से कार्यरत लोग उन पर नेपोटिज़्म के चलते यह पद पाने की चर्चा करते हैं. उधर, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहजाद आलम (रूषद राणा) आतंकवादी यसीन मिर्जा (हिमांशु मलिक) को भारत भेजने का ऐलान करते हैं, जिस के चलते भारतीय विदेश मंत्री मनोहर रावल (राजेंद्र गुप्ता) उन्हें भारत के स्वाधीनता समारोह में आने का निमंत्रण देते हैं. जबकि सुहाना अपने देसी ड्राइवर सलीम (राजेश तैलंग) की सलाह को नजरअंदाज कर नकुल (गुलशन देवैया) के साथ रात बिताती है, एक आदमी जिस से वह कुछ ही घंटे पहले मिली थी और जिस ने अपनी बुद्धि और आकर्षण से उसे मोहित कर लिया था.
अगली सुबह, उसे पता चलता है कि यह एक भयावह जाल था. भारत की प्रतिभाशाली युवा राजनयिक होने के बावजूद, सुहाना अब एक कठपुतली बन कर रह गई हैं. इस के बाद कहानी कई मोड़ों से हो कर गुजरती है. मुसीबत में फंसी सुहाना को रौ औफिसर कुट्टी (रोशन मैथ्यू) की मदद मिलती है.
फिल्म की कहानी और पटकथा वाहियात है. यह फिल्म लेखक और निर्देशक के दिमागी दिवालियापन को रेखांकित करती है. ‘क्वीन’ और ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी सफल फिल्मों के बाद लगातार ‘मिशन मजनू’, ‘बेलबौटम’, ‘ब्लैकमेल’, ‘बाजार’ और ‘ट्यूबलाइट’ जैसी असफल फिल्मों की पटकथा लिखने वाले पटकथा लेखक परवेज शेख से उम्मीद करना भी गलत ही है. आप एयरपोर्ट या किसी भी साधारण सरकारी कार्यालय में नहीं घुस सकते, मगर इस फिल्म के लेखक और निर्देशक की समझ के अनुसार लंदन स्थित भारतीय दूतावास, राजदूत के घर वगैरह कहीं कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं है. कोई भी आ जा सकता है. वाह! क्या सिनेमाई स्वतंत्रता है.
इस फिल्म को देख कर सभी आईएफएस के लोग सोचेंगे कि उन्होंने बेवजह ही पढ़ाई की. कहानी जब तक नेपाल में रहती है, तब तक उम्मीद बंधती है कि फिल्म में कुछ दम होगा, लेकिन सुहाना भाटिया के लंदन पहुंचते ही पूरी फिल्म बिना किसी लौजिक वाली वाहियात फिल्म बन कर रह जाती है. नेपाल में सुहाना ने अपनी बुद्धिमत्ता का जो परिचय दिया था, वह लंदन पहुंचते ही एकदम मूर्ख नजर आने लगती है.
लंदन में सुहाना उप उच्चायुक्त के पद पर बैठी हैं, उन्हें अपने इस पद की गरिमा बरकरार रखनी चाहिए, मगर वह तो पहले ही दिन एक अंजान इंसान आईएसआई एजेंट हुमायूं द्वारा नकुल बन कर मिलते ही दोस्ती का हाथ बढ़ाता है और सुहाना उस पर अंधविश्वास कर उस के साथ रात बिताने के लिए उस के घर चली जाती हैं तथा उस के साथ शारीरिक संबंध भी बनाती हैं, बिना यह सोचे कि वहां पर कैमरे लगे हो सकते हैं. ऐसा लगता है जैसे सुहाना तो सिर्फ सैक्स करने के लिए ही आईएफएस अफसर बन कर लंदन पहुंची हैं. क्या उन के देशभक्त परिवार की यही सोच है? अब आप इसे लेखक और निर्देशक का दिमागी दिवालियापन नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे?
इतना ही नहीं, क्या पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भारत में किसी धार्मिक स्थल पर जाएं और वहां उस वक्त भी आम श्रद्धालुओं का आनाजाना जारी रहना संभव है? खैरात पाने वाले कतारों में बैठे हों और आसपास प्रधानमंत्री के लिए संकट पैदा करने वाले लोग बहुत आराम से अपना काम करते रहें, क्या यही प्रोटोकोल है? अफसोस तो यह है कि इस तरह की फिल्म को सेंसर बोर्ड बड़ी आसानी से प्रमाणपत्र भी दे देता है. यह फिल्म इस बात की ओर इशारा करती है कि किस तरह बौलीवुड भारतपाक राजनीति के बारे में अपनी गलत समझ रखता है, तर्क से रहित और जमीनी हकीकत से कटा हुआ है.
पिछले माह ही, भारत ने जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी हमलों में 12 सैनिकों को खोया है. ऐसे माहौल में, ‘उलझ’ जैसी फिल्म की ओर कौन आकर्षित होगा, जहां एक शत्रु राष्ट्र के प्रधानमंत्री का भारत में खुले हाथों से स्वागत किया जाता है? ‘उलझ’ में तमाम उन तत्वों को चित्रित किया गया है, जो भारतीय कूटनीति को अप्रसन्न कर सकते हैं और वर्तमान वास्तविकताओं का खंडन कर सकते हैं. पाकिस्तान और भारत के विदेश मंत्री आपस में साजिश रचते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भारत में मरवाने की साजिश रचें, पर दोनों देशों की खुफिया एजेंसियों को कानोंकान भनक न लगे… वाह क्या बात है.
वास्तव में फिल्म शुरू होने के 10 मिनट बाद ही निर्देशक सुधांशु सरिया और उन की लेखकीय टीम का फिल्म पर से पकड़ खत्म हो जाती है. मजेदार बात यह है कि फिल्मकार ने चित्रित किया है कि सुहाना को बहुभाषी नकुल का ‘एक्लेयर’ उच्चारण कनाडाई-फ्रेंच जैसा लगता है, इस के बावजूद सुहाना नकुल की पहचान के बारे में उस के झूठ को क्यों स्वीकार करती है? क्या सिर्फ सैक्स करने के लिए? यह पटकथा की सब से बड़ी कमजोर कड़ी है.
फिल्म में देशभक्ति का जलवा भी नजर नहीं आता. इस के अलावा, फिल्म बेहद धीमी गति से बढ़ते हुए घिसीपिटी बातों से दर्शकों को बोर करती है. भारत बनाम पाकिस्तान संबंध, शांति संधि, मैत्रीपूर्ण यात्रा, आईएसआई, रौ, इनसाइड स्टूल कबूतर, विश्वासघात, और दिल टूटना—यह सब हम सैकड़ों बौलीवुड फिल्मों में देख चुके हैं.
कैमरामैन श्रेया देव दुबे ने लंदन की प्राकृतिक सुंदरता, शहर की सुरंगों और निर्जन स्थानों को प्रभावी ढंग से अपने कैमरे से कैद किया है. आखिर सब्सिडी का कर्ज जो चुकाना है.
आईएफएस अफसर सुहाना भाटिया के किरदार में जान्हवी कपूर कहीं से भी फिट नहीं बैठतीं. ऊपर से लेखकों ने अपनी बेवकूफियों से इस किरदार को अति कमजोर बना डाला. नकुल के किरदार में गुलशन देवैया एक बार फिर बेहतरीन कलाकार साबित हुए हैं. एक बहुभाषी चरित्र अपनी भाषाई चुनौतियों के साथ आता है, लेकिन देवैया इस कार्य के लिए तैयार दिखते हैं. शिष्टता से ले कर सांठगांठ तक, देवैया अपनी भूमिका के विभिन्न रंगों में दर्शकों को अपनी तरफ खींचते हैं. सेबिन जोसेफकुट्टी के किरदार में रोशन मैथ्यू ने काफी उम्मीदें बढ़ाई हैं. कमजोर किरदार होते हुए भी भारतीय विदेश मंत्री मनोहर रावल के किरदार में राजेंद्र गुप्ता अपनी छाप छोड़ जाते हैं. मियांग चांग, राजेश तैलंग, अली खान, आदिल हुसैन और जैमिनी पाठक के जिम्मे करने को कुछ नहीं आया.