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रामदेव की दवाई पर कोर्ट का वार, क्या सचमुच था कोरोनिल का इलाज?

यह किसी आजाद देश और नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ही संभव है कि कोई गेरुआ वस्त्र धारी बाबा मानवीय संकट के समय रातोंरात ‘कोरोनिल’ नामक कोविड-19 महामारी के दौरान दवाई ले आता है और बड़ेबड़े दावे करने लगता है, और देश का स्वास्थ्य मंत्रालय मौन रहता है. आंखों पर पट्टी बांध कर लूटने की छूट दी जाती है. विज्ञापन प्रकाशित होते हैं मगर इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया जाता. क्या सिर्फ नरेंद्र मोदी की सत्ता में दबाव, प्रभाव, और संपर्क के कारण पूरी व्यवस्था रामदेव के इस कृत्य को देखते रह गई जिस में उन्होंने स्वयं बताया था कि कोरोनिल बेच कर उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए हैं.

इस घटनाक्रम को ध्यान से देखने वाले समझ सकते हैं कि देश में कानून और व्यवस्था नाम की चीज़ कितनी है. और बाबा रामदेव जैसे लोगों को मौका मिलता है तो वह रुपये के कारण कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं और दोनों हाथों से लूटते हैं. ये देश की जनता को बेवकूफ बनाने का काम करते हैं और मजे की बात यह है कि गेरुआ कपड़ा पहन कर अपने आप को ‘बाबा’ घोषित कर संसार में इज्ज़त भी पाते रहते हैं. अब जब न्यायालय ने इस सब को संज्ञान लिया है तो लगभग 3 साल बाद रामदेव के गले में मानो घंटी बंध गई है.

कौन बाधेगा गले में घंटी?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने योग गुरु रामदेव को कोविड-19 के इलाज के लिए ‘कोरोनिल’ के इस्तेमाल से संबंधित कुछ आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्ट हटाने का निर्देश दिया है. न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने कहा कि वह रामदेव के खिलाफ चिकित्सकों के कई संघों द्वारा दायर याचिका को स्वीकार कर रहे हैं. न्यायाधीश ने कहा कि कुछ आपत्तिजनक पोस्ट और सामग्री को हटाने के निर्देश दिए जाते हैं.

अदालत ने कहा कि अगर निर्देश का पालन नहीं किया जाता है, तो सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ इस सामग्री को हटा देगा. प्रतिवादी को 3 दिनों में उन ट्वीट को हटाने के निर्देश दिए जाते हैं. अदालत ने कहा कि अगर निर्देश का पालन नहीं किया जाता है, तो सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ इस सामग्री को हटा देगा. यह याचिका रामदेव, उन के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण और पतंजलि आयुर्वेद के खिलाफ चिकित्सक संघों द्वारा दायर 2021 के मुकदमे का एक हिस्सा है.

न्यायमूर्ति भंभानी ने पक्षकारों को सुनने के बाद 21 मई को इस मुद्दे पर आदेश सुरक्षित रख लिया था. मुकदमे के अनुसार, रामदेव ने ‘कोरोनिल’ के संबंध में अप्रमाणित दावे करते हुए इसे कोविड-19 की दवा बताया था, जबकि इसे केवल रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की दवा के तौर पर लाइसेंस दिया गया था. चिकित्सक संघों ने आरोप लगाया कि रामदेव द्वारा बेचे जाने वाले उत्पादों की बिक्री को बढ़ाने के लिए गलत सूचना के आधार पर अभियान चलाया गया, जिस में ‘कोरोनिल’ भी शामिल है. दरअसल, अगर देश में कानून का राज है तो ऐसे बाबाओं पर कानून का अंकुश लगाया जाना चाहिए और गले में घंटी बांध कर देश को बताना होगा कि आप को इन के धोखे से बचना है और अब यह जेल में रहेंगे.

अपने लिए न सही : हिम्मत जुटाती बहू की मन आंदोलित करती कथा

‘‘देखो मम्मा, शालू जो भी बनाए, तुम चुपचाप खा लिया करो. जब कोई उस की बनाई चीज न खाए तो उसे बहुत दुख होता है,’’ अजय ने अपनी धुन में वह सब कह दिया जो मैं कभी अपने पति के मुंह से नहीं सुन पाई थी और जिसे सुनने की चाह सदा मेरे मन में रही.

अपनी पत्नी की भावनाओं का अजय को कितना खयाल है. सही तो है, 4 सदस्यों का यह घर है ही कितना बड़ा कि जिस में कोई किसी की भावनाएं न समझ पाए और उन का आदर न कर पाए.

मेरे सामने चटपटी सब्जी, करारी पूरियां, साथ में हलवा और भरवां करेले की सब्जी परोसी हुई थी. सबकुछ स्वादिष्ठ और खुशबूदार था.

जीवन कितना छोटा सा है. कभीकभी इतना छोटा कि बरसों पुरानी बातें, जिन का मानस पटल पर गहरा प्रभाव छूट चुका होता है, कभी पुरानी लगती ही नहीं. लगता है जैसे कल ही सबकुछ घटा हो.

‘देखो मंदा, तुम्हारे मायके में चटपटी, करारी चीजें खाई जाती होंगी, मगर इस घर में इतना करारा और मिर्चमसालेदार खानापीना नहीं चलता,’ अभी मुझो ब्याह कर घर में आए मात्र 2 ही दिन हुए थे तब सासुमां का आदेश मेरे कानों में पड़ा था.

इन 2 दिनों में मैं वह सब कहां देख पाई थी कि मेरे ससुराल वाले कितना तीखा या हलका खाते हैं. अगर मुझे कुछ दिन यह देखनेपरखने का अवसर दिया गया होता तो मुझ से ऐसी भूल न होती. मुझे तो डोली से उतरते ही पति विजय ने रसोई में यह कहते धकेल दिया था, ‘देखो मंदा, मां और बाबूजी खानेपीने में बहुत एहतियात बरतते हैं. अगर खाना इन की इच्छा का न हो तो मां बहुत चिढ़ जाती हैं, पता नहीं क्यों, इन्हें खाना अच्छा न होने पर बहुत गुस्सा आता है.’ उस वक्त मैं ने सिर्फ ‘जी’ कह कर गरदन झुका दी थी.

25-26 साल हो गए उस घटना को, तरोताजा हैं आज भी वे तेवर, वे अंदाज, जिन के द्वारा मुझे मेरी औकात समझाई गई थी.

‘औकात’ शब्द शायद शालीन न लगे परंतु आज भी यह उतना ही सत्य है जितना 25-26 साल पहले मेरी अवस्था पर सटीक बैठता था. अपनी ‘औकात’ या अपना ‘स्थान’ मैं इस घर में कभी भी समझ नहीं पाई थी कि मैं क्या हूं. मेरी हैसियत क्या है, किस पर मेरी क्या मरजी चल सकती है? कौन मेरे अधिकार में है? किस से मन की कहूं और वह मुझे समझे, मैं ने कभी नहीं जाना.

‘यह गुलाबी रंग की साड़ी क्यों उठा लाई, मां को यह रंग अच्छा नहीं लगता. लाल रंग की लानी थी न’, जब मैं मायके से आई थी तब भाई द्वारा उपहार में दी गई साड़ी पर विजय ने कटाक्ष करते हुए कहा था. मारे डर के मैं वह साड़ी कभी नहीं पहन पाई क्योंकि सासुमां को उस रंग से चिढ़ है. अब क्यों चिढ़ है, यह मैं ने कभी नहीं पूछा.

मेरे बेटा हुआ और उस के बाद दूसरी संतान का मुंह मैं ने नहीं देखा, क्योंकि सासुमां को बच्चों की लाइन लगाना पसंद न था. ‘शेर का एक ही होता है,’ ऐसा उन का मानना था. उन का एक ही था, इसलिए मेरा भी एक ही रहा.

मैं सोचती हूं कि मैं ने अपना जीवन अपने मुताबिक कब जिया और वे अपना जीवन जीने के बाद मेरा जीवन भी जीती रहीं. पति कब मेरे पास बैठें, मुझ से बात करें, इस पर भी सदा उन्हीं का राज रहा.

‘आज महिला समिति की मीटिंग है, शाम को देर हो जाएगी, समय पर अपने पिताजी को चायनाश्ता और खाना खिला देना. अजय की पोशाक मैं जातेजाते लेती जाऊंगी, उसे भी समय से दूध पिला देना. चलो विजय,’ कहते हुए मांबेटा खटखट करते कब निकल जाते, पता ही न चलता था. मैं आया बनी घर का सारा काम करती रहती, क्योंकि मन में स्वामिनी जैसा भाव तो कभी जागा ही नहीं था.

अजय मुझे अपना बच्चा कम मालिक ज्यादा लगता था. एक अदृश्य दीवार सदा मुझे अपनी संतान और अपने बीच महसूस होती. अधिकार की भावना मुझ में कभी जागी ही नहीं थी और न ही अजय मुझे मां जैसी अहमियत देता था.

अजय जब 15-16 वर्ष का था तब मेरे ससुर का देहांत हो गया था. मौत वह शाश्वत सचाई है जिसे कभी कोई बदल नहीं पाया. भला पिताजी के देहांत पर मेरा क्या जोर था जो मांबेटा अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारते रहे. गमगीन खड़े विजय के कंधे पर हाथ रख कर मैं ने जरा पुचकारना चाहा था, सांत्वना देनी चाही थी, तब वह मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े थे, ‘बाप मरा है मेरा, कोई गली का कुत्ता नहीं मरा जो मुझे रोने से रोक रही हो.’

यह सुन कर तो मैं अवाक रह गई थी, ‘अरे, इस घर में बाकी सब तो मेले में आए हैं न. जिस का मरा, बस उसी का मरा है. बेटा, मैं हूं न तेरे साथ,’ सासुमां का बेटे से लिपट कर रोना, मानो मुझे ही अपराधिनी बनाता गया, जैसे मरने वाला मेरा कुछ भी नहीं लगता था, जैसे मैं इस घर की कुछ थी ही नहीं. समझ ही न पाती थी कि मैं क्या करूं, क्या न करूं.

अवसाद और आक्रोश से मन सदा भरा रहता, नसें तनी रहतीं. हर पल का तनाव धीरेधीरे मेरे स्वास्थ्य पर अपना प्रभाव दिखाने लगा. अकसर खाना खाने के बाद मुझे उलटी हो जाती, मन जलता रहता. जब हालत ज्यादा बिगड़ती तभी डाक्टर को दिखाया जाता. डाक्टर बताता कि पेट में तेजाब की मात्रा बढ़ जाने से ऐसा होता है. नतीजतन, तली चीजें तो मेरे लिए धीरेधीरे जहर ही बन गईं. खट्टा और चटपटा भोजन मुझ से छूट गया.

आज लगभग 10 साल हो गए, मैं परहेज पर हूं. भारी भोजन खा ही नहीं पाती, सिर्फ देख कर ही संतोष कर लेती हूं. सासुमां आज भी हर चीज पर बड़े ठाट से अधिकार जमाए राज कर रही हैं.

मैं ने जब घर के सदस्यों की गणना की तब अपना नाम उन के साथ नहीं जोड़ा था. मैं घर की 5वीं सदस्या हूं मगर मेरा होना, न होना एकसमान ही तो है. इसीलिए तो कहा था कि घर में मात्र 4 सदस्य हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का आदर करते हैं. यदि इस 5वीं सदस्या की कोई एहमियत होती तो पूरी और चटपटा भोजन मेरे सामने नहीं परोसा जाता.

सासुमां अपने पोते के लिए अपनी पसंद की बहू लाईं. मेरी पसंद, नापसंद किसी ने पूछी ही नहीं. मेरे बेटे ने भी नहीं. बस, सूचित भर कर दिया गया कि फलांफलां तारीख को शादी है.

शादी की सारी खरीदफरोख्त सासुमां और अजय ने ही मिल कर की. अपनी बहू को मैं ने पहली बार शादी के बाद ही देखा.

‘‘मम्मा,’’ शालू ने कहा तो सहसा मेरी तंद्रा टूटी. पता नहीं क्यों आंखें भर आई थीं. शादी के काम से थक गई तो बुखार ने आ जकड़ा था, वरना शादी के 15-20 दिनों बाद तक भी मैं ने अपनी बहू को रसोई में काम नहीं करने दिया था. उस से ज्यादा बातचीत भी नहीं की थी. सच कहूं तो मौका ही नहीं मिला था.

‘‘अरे, यह क्या? अजय आप के सामने यह क्या रख गए? हद हो गई,’’ कहते हुए शालू ने आननफानन अजय को भी वहीं बुला लिया. फिर बोली, ‘‘मम्मा क्या यह सब खाएंगी? आप को क्या पता नहीं कि वे एसिडिटी की मरीज हैं, बावजूद इस के इन्हें बुखार भी है.’’

अपनी बहू के इन शब्दों पर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘दादीमां ने कहा, दे आओ, तो मैं दे आया,’’ कहते हुए अजय कुछ हिचकिचाया था. वह फिर बोला, ‘‘आज तुम ने पहली बार खाना बनाया है न.’’

‘‘तो क्या आप मम्मा को जहर खिला देंगे? यह पूरी, खट्टा, तले करेले, क्या मैं मम्मा के लिए कुछ और नहीं बना सकती हूं?’’ बहू बोली.

अजय की नजर में तो मेरा महत्त्व कभी इतना था ही नहीं. शायद इसी वजह से वह परेशान था कि मेरी इतनी परवा क्यों और किसलिए. मेरे मन के भीतर की बच्ची, जो शरीर के बूढ़ा हो जाने के बाद भी परिपक्व नहीं हो पाई थी, वात्सल्य को सदा तरसती ही रही थी, स्नेह से भीग गई थी.

मेरी बहू ने झपट कर वह थाली उठाई और बाहर चली गई. हक्काबक्का सा अजय मेरी ओर देखता रहा.

‘‘मम्मा, आप की खिचड़ी, उठिए.’’ कहते हुए शालू ने मु?ो सहारा दे कर बैठाया. मेरे सामने तौलिया बिछा कर बड़े स्नेह से चम्मच भर कर खिलाने लगी. पूरी उम्र की पीड़ा न जाने कहां से एकत्रित हो कर मेरे गले में आ अटकी थी, सो मैं भावातिरेक में मुंह ही न खोल पाई.

‘‘अरे, खा लेगी खुद, यह कोई बच्ची है क्या. चल, इधर आ, पंडिताइन आई है, उस की थाली निकाल दे. महरी का हिस्सा भी अभी तक नहीं निकाला. कब से समझ रही हूं. तू सुनती क्यों नहीं,’’ कहती हुई सासुमां दनदनाती हुई भीतर चली आई थीं.

‘‘पहले मम्मा को खिचड़ी खिला दूं, दादी मां, फिर आप जो कहेंगी…’’

‘‘अरे, आज पहले दिन खाना बनाया तो यह क्या अनापशनाप बनाने बैठ गई? यह खिचड़ी क्यों बनाई. सारी उम्र यही बनाते रहने का इरादा है क्या. यह बीमारी का भोजन बना कर सब अपशकुन कर दिया,’’ शालू की बात काटते हुए सासुमां बोलीं.

‘‘इस में अपशकुन वाली क्या बात है, दादीमां? बीमारी की हालत में भी मम्मा…’’

‘‘अगर एक दिन तेरे हाथ का बना खा लेगी तो यह मर नहीं जाएगी. तू ने किस से पूछ कर खिचड़ी बना ली,’’ सासुमां ने फिर शालू की बात काटते हुए कहा.

‘‘दादीमां,’’ कहते हुए जोर से चीखी मेरी बहू, ‘‘शुभशुभ बोलिए.’’

सासुमां के सामने शालू के इतनी ऊंची आवाज में बोलने पर मैं, मेरे पति विजय और मेरा बेटा अजय अवाक रह गए थे.

‘‘खिचड़ी जैसी मामूली चीज बनाने के लिए भी क्या मुझे आप की इजाजत लेनी पड़ेगी और वह भी अपनी बीमार सासुमां के लिए. यह सब क्या है, पापा? अजय, आप बोलिए न कुछ,’’ शालू ने खिचड़ी का डोंगा एक तरफ रख कर इन दोनों से पूछा, जिन से मैं भी कभी कुछ न पूछ पाई थी.
‘‘तुम दादी के सामने ऐसे कैसे बोल…’’

‘‘और वे जो मम्मा के लिए इस तरह बोल रही हैं? यह आप की मां हैं या घर में पलती कोई नौकरानी. इतने दिन से मैं सब देखसुन रही हूं. किसी को मम्मा की परवा ही नहीं है. पापा, आप समझइए न अपने बेटे को, जितनी इज्जत आप अपनी मां की करते हैं, कम से कम अजय को उतनी तो अपनी मां की करनी चाहिए,’’ अजय की बात काट कर शालू बोली तो मेरे पति चौंक गए. कभी वे अपनी मां का मुंह देखते तो कभी अपनी बहू का और कभी मेरा, जो कोई दोष न होने पर भी स्वयं को दोषी मान रही थी, क्योंकि मेरी ही वजह से सारा बवाल उठ खड़ा हुआ था न.

मेरी बहू मेरी तरह बेजबान गाय नहीं है, यह जान कर मु?ो खुशी भी हो रही थी, मगर बेवजह अशांति से मु?ो घबराहट भी होने लगी थी.
‘‘देखा, अजय, कितनी जबान चलती है तेरी औरत की. संभाल इसे वरना उम्रभर पछताएगा. देखा तू ने, कैसे यह मेरे सामने बोल रही है,’’ सासुमां पूरी ताकत से दहाड़ी.

‘‘शालू, तुम चलो अपने कमरे में,’’ अजय ने पत्नी की बांह पकड़ते हुए कहा.

‘‘लेकिन मैं ने किया क्या है जो दादीमां इतनी हायतोबा मचा रही हैं? यह मेरी जबानदराजी कैसे हो गई, पापा? आप ही बताइए.’’

इस चक्रव्यूह में मेरी बहू हड़बड़ा गई थी.

‘‘कल यह कहां गई थी, जरा पूछ इस से? पूरी शाम बाहर बिता कर आई है,’’ सासुमां ने पैंतरा बदलते हुए कहा.

‘‘हैं,’’ कहते हुए निरीह गाय सी शालू मेरा मुंह देखने लगी, जैसे इस अप्रत्याशित आरोप के बाद उस ने कुछ याद करने का प्रयास किया हो.

‘‘कौन आया था इसे लेने, जरा पूछ? बिना मुझ से पूछे यह कहां गई थी?’’

‘‘वह मेरी बूआ का बेटा था, दादीमां. आप पूजा कर रही थीं, इसलिए मैं मम्मा से कह कर चली गई थी,’’ कहते हुए सवालिया भाव लिए शालू ने मुझे देखा. उस ने अपनी सुरक्षा में वे दो शब्द मुझ से चाहे जो मेरी सुरक्षा में कभी किसी ने नहीं कहे थे.

‘‘तुम दादीमां से बिना पूछे कहां गई थीं?’’ कहते हुए अविश्वासभरी आंखों से अजय ने पत्नी को देखा.

शालू हैरान थी कि बात कहां से कहां चली आई थी. सासुमां अधिकार अपने हाथ से निकल जाने का डर सह नहीं पा रही थीं, इसीलिए मेरी बहू के चरित्र पर लांछन लगाने से भी बाज नहीं आई थीं. अजय, जिसे मैं कभी गोद में ले कर लाड़प्यार नहीं कर पाई थी, उसी अजय पर मैं आकंठ क्रोध में डूब गई. कैसा पुरुष है अजय, पत्नी को कैसी नजरों से घूरने लगा है, कान का कच्चा कहीं का, जैसा बाप वैसा बेटा. इस ने सारे संस्कार अपनी दादी से पाए हैं.

‘‘कहां गई थीं तुम?’’ अजय ने फिर सवाल किया.

स्वयं को ‘मर्द’ प्रमाणित करने का यही तो एक आसान तरीका है न उस के पास. यही तरीका उस के पिता ने भी अनेक बार अपनाया था. मुझे प्रताडि़त करा कर सासुमां का चेहरा दर्प से खिल जाता था, चमक उठता था, मानो कह रही हों कि देखा न, बड़ी चली थी मेरा बेटा हथियाने. चैन से जीना है तो चुपचाप मेरी चाकरी कर वरना चोटी पकड़ घर से बाहर निकलवा दूंगी.

‘‘किस के साथ गई थी तू?’’ कहते हुए अजय का हाथ मेरी बहू पर उठ गया.

मैं समझ ही नहीं पाई कि मुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई. तेज बुखार में भी शरीर ने मेरा साथ देने से इनकार नहीं किया. मैं ने झपट कर शालू को अपनी गोद में खींच कर अजय को परे धकेल दिया और कहा, ‘‘हाथ काट कर फेंक दूंगी जो इसे मारा. जानवर कहीं के, बापबेटा दोनों एकजैसे नामर्द.’’

यह सुन कर बापबेटा अवाक रह गए थे. ‘नामर्द’ शब्द पता नहीं मेरी जीभ से कैसे फिसल गया. मैं फिर बोली, ‘‘पत्नी के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकते थे तो इस के साथ फेरे लेने क्यों चल पड़े थे? तुम्हारी यही मर्दानगी है कि बिना सोचे समझे पत्नी पर शक करो?’’

यह सुन कर तो सासुमां को काठ मार गया, जैसे सब हाथ से निकल गया.

‘‘इज्जत चाहते हो तो इज्जत देना सीखो, अजय. उसी नक्शेकदम पर मत चलो जिस पर चल कर तुम्हारा बाप सारी उम्र न खुद चैन से जिया और न मुझे ही जीने दिया,’’ मैं कहे जा रही थी और शालू मेरी छाती में समाई थरथर कांप रही थी.

‘‘बस, मेरी बच्ची, बस, डर मत. मैं हूं तेरे साथ.’’

फूटफूट कर रो पड़ी शालू. मुझ से लिपट कर अस्फुट शब्दों में पूछने लगी, ‘‘मम्मा, मम्मा, मैं आप के सामने ही तो गई थी. वह मेरी बूआ का बेटा था. आप से पूछ कर ही तो गई थी न मैं.’’

‘‘हां, बेटा, तू मुझ से पूछ कर ही गई थी,’’ कहते हुए मैं ने अजय की आंखों में देख कर उत्तर दिया.

मैं ने शालू को कस कर बांहों में जकड़ लिया. अवाक था अजय, जैसे विश्वास ही न कर पा रहा हो कि मैं ही उस की वह डरीसहमी मां हूं जो कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करती थी और आज उसे और उस के पिता को भी ‘नामर्द’ शब्द से सुशोभित कर रही थी.

‘‘किसी चीज को उतना ही खींचना चाहिए जितनी वह खिंच सके. ज्यादा खींचने पर वह टूट जाती है या पलट कर प्रहार करती है, समझे तुम.’’

अजय चुपचाप सुनता रहा.

कमरे में शांति छा गई. मात्र शालू रोती रही. सासुमां चली गईं, उन के पीछेपीछे मेरे पति और फिर अजय भी चले गए.

‘‘चुप हो जाओ, शालू, बस,’’ मैं ने शालू को पुचकारा. फिर अपनी प्यारी बहू का चेहरा सामने किया. इस से पहले मैं ने उसे इतनी पास से कहां देखा था. ऐसा लगा जैसे वह मेरी अजन्मी संतान है जिस की चाह मैं सदा मन में पाले रही. अजय के बाद एक बेटी की चाह, जिसे सासुमां ने पूरा नहीं होने दिया था.

‘‘मम्मा, मैं ने ऐसा क्या कर दिया जो…’’

‘‘तुम ने ऐसा कुछ नहीं किया, बेटी. बस, यह मेरी ही शराफत थी जिस का असर तुम पर भी पड़ा. लाओ, मुझे अपने हाथ का बना खाना तो खिलाओ,’’ मैं ने उस की बात काटते हुए खिचड़ी के डोंगे की तरफ इशारा किया.

आंसू पोंछ कर शालू ने हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया, बोली, ‘‘मम्मा, आप जब अच्छी हो जाएंगी तब मैं आप को बढि़या पकवान बना कर खिलाऊंगी.’’

‘‘मेरे लिए तो यही पकवान हैं, बेटे. तुम्हें मेरी इतनी चिंता है और इस खिचड़ी के लिए तुम ने क्याक्या नहीं सुना और मैं ने क्याक्या नहीं देखा.’’

रोतेरोते मुसकरा दी वह, फिर बड़े स्नेह से मुझे खिचड़ी खिलाने लगी. मैं सोचने लगी कि अकारण ही मैं ने अपना जीवन डरडर कर बिता दिया.

क्यों मैं वह हिम्मत पहले नहीं जुटा पाई जो आज अनायास ही जुटा ली? पहले वह सब क्यों नहीं कह पाई जो आज इतनी दृढ़ता से कह दिया.

खातेखाते मेरा मन असीम तृष्णा से भर गया. प्यार से मैं ने शालू का माथा चूम लिया. देर से ही सही मैं ने कुछ कह पाने का साहस तो जुटाया, अपने लिए न सही अपनी बहू के लिए ही सही.

तुम हो नागचंपा :पाखंडी बाबाओं की पोल खोलती कहानी

‘आज तो आप बहुत ही सुंदर लग रही हैं,’ दर्पण में अपनेआप को निहारती, अपनी आवाज को अपने पति महीप जैसी भारी बना कर स्नेह रस उड़ेलती कामिनी खिलखिला कर हंस पड़ी. खुद पर वह न्योछावर हुई जा रही थी.

गुलाबी सीक्वैंस साड़ी के साथ डीप बैक-नैक का ब्लाउज शादी से पहले मां से छिप कर बनवाया था. महीप का कामिनी के प्रति रवैया किसी नवविवाहित पति सा क्यों नहीं है, यह सोचसोच कर व्यथित होने के स्थान पर पति को रिझाना उचित समझ था उस ने. आज अपनेआप को नख से शिख तक शृंगार में लिपटाए वह पति को खुद में डुबो देना चाहती थी.

कामिनी की शादी 2 माह पहले महीप से हुई थी. एक मध्यम श्रेणी का व्यापारी महीप कासगंज में रह रहा था. पास के एक गांव में पहले वह बड़े भाइयों, पिता, चाचाताऊ आदि के साथ खेतीबाड़ी का काम देखता था. गांव छोड़ कासगंज आने का कारण पास के एक आश्रम में रहने वाले स्वामी के प्रति आस्था के अतिरिक्त कुछ न था.

स्वामीजी ने एक बार गांव में प्रवचन क्या दिया कि महीप उन के विचारों को प्रतिदिन सुनने की आस लिए आश्रम के समीप जा बसा. पिता से पैसे ले कर गत्ते के डब्बे बनाने का एक छोटा सा धंधा शुरू किया. धीरेधीरे जीवनयापन योग्य कमाई होने लगी.

कामिनी उत्तर प्रदेश के रामनगर की थी. परिवार की सब से बड़ी संतान कामिनी से छोटे 2 भाई पढ़ रहे थे. पिता स्कूल मास्टर थे और मां घर संभालती थी. रामनगर के सरकारी कालेज से बीए करते ही कामिनी का हाथ महीप के हाथों में दे दिया गया. रिश्ता पिता के एक मित्र ने करवाया था. मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी कामिनी की कामना रुपयापैसा नहीं केवल पति का प्रेम था, जो विवाह के 2 माह बीत जाने पर भी वह अनुभव नहीं कर पा रही थी. सखीसहेलियों से सुने तमाम किस्से ऐसी कहानियां लग रही थीं जिन का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं. अब तक कुल 2 रातें ऐसी गुजरी थीं, जब पति के प्रेम में डूब स्वयं को वह किसी राजकुमारी से कम नहीं सम?ा रही थी, लेकिन बाकी के दिन महीप से हलका सा स्पर्श पाने को तरसते हुए बीते थे.

आज गुलाबी साड़ी के साथ गले में कुंदन का चोकर नैकलेस, कानों में मैचिंग लटकते झुमके, गुलाबी और सिल्वर रंग की खनखनाती चूडि़यों का सैट और गुलाब की हलकी रंगत व महक लिए शिमर लिपस्टिक लगा कर वह महीप को मोहपाश में जकड़ लेना चाहती थी. अपने चांद से रोशन चेहरे को आईने में देख मुसकराई ही थी कि याद आई परफ्यूम की वह शीशी जो पारिवारिक मित्र आकाश ने विवाह से 2 दिनों पहले कामिनी को देते हुए कहा था, ‘मैं नागचंपा की सुगंध वाला परफ्यूम उपहार में इसलिए दे रहा हूं ताकि तुम को याद रहे कि शादी के बाद नागचंपा के पेड़ सी बन कर रहना है. कोमल भी, कठोर भी. पता है न कि यह पेड़ खुशबूदार फूलों के साथसाथ लंबी व घनी पत्तियों से लद कर खूब छाया देता है, लेकिन इस की लकड़ी इतनी सख्त और मजबूत होती है कि काटने वालों की कुल्हाड़ी की धारें मुड़ जाती हैं.’

कामिनी ने अलमारी खोल कर गिफ्ट निकाला. शीशी का ढक्कन खोला तो उस की सुगंध में डूब गई, ‘आज तो महीप का मुझ में खो जाना निश्चित है.’ आकाश को मन ही मन धन्यवाद देते हुए कामिनी ने नागचंपा परफ्यूम लगा लिया.

नईनवेली ब्याहता कामिनी के पायल की रुझान से महीप का 2 कमरे वाला मकान पहले ही झनक रहा था, आज नागचंपा की खुशबू से पूरा घर महक उठा.

महीप का दुपहिया घर के सामने रुका तो कामिनी ठुमकते हुए दरवाजे तक पहुंची. महीप के भीतर दाखिल होते ही वह तिरछी मुसकराहट बिखरा कर प्रेमभरे नेत्रों से उसे देखने लगी. महीप माथे पर बल लिए उड़ती सी नजर कामिनी पर डाल आगे बढ़ गया.

कामिनी ने चाय बना ली. ट्रे में 2 कप चाय और नमकीन लिए मुसकराती सोफे पर बैठे महीप के पास जा कर खड़ी हो गई.

‘‘यहां क्यों खड़ी हो गईं? वहां रख दो न चाय,’’ टेबल की ओर इशारा कर रुखाई से महीप बोला.

ट्रे टेबल पर रख कामिनी महीप से सट कर बैठ गई. महीप मूर्ति सा बना बैठा रहा. कामिनी ने उस के बालों को सहलाते हुए कान को हौले से चूम लिया.

‘चटाक…’ की तेज आवाज कमरे में गूंजी, कामिनी गाल पर हाथ रख भयमिश्रित आश्चर्य से महीप को देखती रह गई. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती, महीप का कठोर स्वर सुनाई दिया, ‘‘शर्म नहीं आती, इस तरह सजधज कर पति के सामने कुलटाओं सी हरकतें कर रही हो?’’

‘‘आप मेरे पति हैं. शादी हुई है आप से. पतिपत्नी में कैसी शर्म? पिछले 2 महीनों में आप का रवैया पति जैसा तो बिलकुल भी नहीं है. ऐसा क्यों है? क्या कमी है मुझ में?’’

‘‘कमी यह है कि तुम पतिपत्नी के मिलन को मौजमस्ती सम?ाती हो. जानती भी हो कि क्या कारण होता है इस का?’’

‘‘मेरे विचार से तो दोनों के बीच इस संबंध से प्रेम पनपता है, वे इस मिलन के बहाने एकदूसरे के नजदीक आते हैं. भविष्य में सुखदुख बांट लेने से जीवन जीना आसान हो जाता है. बहुत जरूरी है यह संबंध. यह सच नहीं है क्या?’’ कामिनी एक सांस में बोल गई.

‘‘मुझे पता था कि तुम्हारी सोच भी बिगड़े लोगों जैसी ही होगी. आज जान लो कि पतिपत्नी संबंध का कारण केवल संतान उत्पत्ति है और वह एक बार संबंध बनाने के बाद ही हो जाना चाहिए. यदि ऐसा नहीं होता तो इस का अर्थ है कि पत्नी ने कुछ पाप किए हैं. मैं जान गया था कि तुम पापी हो. आज तुम्हारे निर्लज्ज रूप ने समझा दिया कि बदचलन भी हो.’’

‘‘पापी? बदचलन? ये कैसी बातें कर रहे हैं आप?’’

‘‘मेरे सामने इस तरह लुभावना स्वरूप बनाए क्यों चली आईं? तुम्हें लगा कि मैं इतना मूर्ख हूं जो तुम पर फिदा हो कर अभी संबंध बनाने लगूंगा? संतान के लिए पत्नी के पास मैं महीने में एक बार जाने वालों में से हूं. मु?ो अपने जैसा समझ लिया क्या?’’

कामिनी की रुलाई फूट पड़ी, सुबकते हुए बोली, ‘‘मैं ने तो ऐसा कभी नहीं सुना कि संबंध केवल बच्चे के लिए बनते हैं, न ही महीने में एक बार मिलन से गर्भवती होने की बात किसी ने मुझ से की है. आप को किस ने कहा यह सब?’’

‘‘कभी साधु लोगों की संगत में जाओ तो कुछ अच्छी बातें पता लगेंगी. घर बैठे कौन तुम्हें ज्ञान देने आएगा. होंगी 2-4 तुम्हारे जैसी मूर्ख सहेलियां जो स्त्रीपुरुष संबंधों को तुम्हारी तरह ही मजे की चीज सम?ाती हैं. उन से ही सीख ली होगी अब तक तुम ने. कल चलना मेरे साथ स्वामीजी के आश्रम में. बहुतकुछ जान पाओगी वहां. पास ही है अपने घर के,’’ स्वयं को ज्ञानी सम?ा अकड़ता हुआ महीप उठ खड़ा हुआ. कामिनी टूटे हुए मन के टुकड़ों को सहेज पीड़ा से भरी अंदर के कमरे में चली गई.

कामिनी को ले कर महीप अगले दिन सुबहसुबह स्वामीजी के आश्रम में चला गया. प्रवचन शुरू होने में समय था, इसलिए कुछ लोग ही थे वहां पर. कामिनी सब से आगे की पंक्ति में बैठ गई. महीप उन लोगों की लाइन में लग गया जो आज स्वामीजी का विशेष दर्शन करना चाहते थे. यह दर्शन प्रवचन के बाद स्वामीजी के कमरे में होते थे. कितना समय स्वामीजी के साथ व्यतीत करना है, उस के अनुसार पैसे दे कर परची काटी जाती थी.

प्रवचन शुरू होतेहोते बहुत लोगों के एकत्र हो जाने से वहां काफी भीड़ हो गई थी. नीचे मोटी दरी बिछी थी, जिस पर बैठे लोग बेसब्री से स्वामीजी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. स्वामीजी जल्द ही आ गए. पीली धोती, पीला कुरता, माथे पर लंबा तिलक. भीड़ पर मुसकान फेंकते स्वामीजी सिंहासननुमा कुरसी पर विराजमान हो गए. व्याख्यान आरंभ करते हुए बोले, ‘‘आज मैं उन स्त्रियों के विषय में बताऊंगा जो पति की आज्ञा का पालन नहीं करतीं और उन की सेवा न करने पर उन्हें अगले जन्म में कैसेकैसे पाप भोगने पड़ते हैं.’’

सभी ध्यानपूर्वक उन को सुन रहे थे. कामिनी को आशा थी कि पत्नी के हित में भी स्वामीजी कुछ कहेंगे लेकिन उसे यह विचित्र लगा कि पति के एक भी कर्तव्य की बात स्वामीजी ने नहीं की. पत्नी के लिए अनेक उलटेसीधे नियम बताए जो कामिनी पहली बार सुन रही थी, फिर भी वह प्रवचन सुनने और समझने का पूरा प्रयास कर रही थी.

व्याख्यान पूरा हुआ तो महीप ने उसे बताया कि दर्शनों के लिए बनी आज की सूची में उस का व कामिनी दोनों के नाम हैं. जल्द ही उन को एक कमरे में बुला लिया गया, जहां स्वामीजी मखमली कुरसी पर विराजमान थे. सामने 4 प्लास्टिक की कुरसियां रखी थीं. एक सहायक हाथ में कागजपैन लिए आज्ञाकारी सा स्वामीजी की बगल में खड़ा था. महीप व कामिनी के पहुंचते ही सहायक ने उन का परिचय नपेतुले शब्दों में स्वामीजी को दे दिया.

दोनों स्वामीजी के सामने बैठ गए. स्वामीजी के ‘बोलो…’ कहते ही महीप ने एक बार में पत्नी के गर्भवती न होने का दुखड़ा सुनाया. कामिनी सिर झुकाए खड़ी थी.

उस पर ऊपर से नीचे भरपूर दृष्टि डालने के बाद स्वामीजी ने कहा, ‘‘कामिनी कुछ दिन आश्रम में बिताए तो अच्छा है. एक विशेष अनुष्ठान द्वारा

इस के पापों का नाश कर शुद्धीकरण कर दिया जाएगा. चाहो तो आज ही इसे यहां छोड़ दो.’’

‘‘लेकिन मैं तो कोई सामान नहीं लाया. कामिनी के कपड़े…’’ महीप की बात अधूरी रह गई.

स्वामीजी बीच में बोल उठे, ‘‘यहां आश्रम के दिए कपड़े पहनने होंगे, ले कर आते तो भी व्यर्थ ही रहता तुम्हारा लाना.’’

‘‘ठीक है, इसे आज यहीं छोड़ कर जा रहा हूं मैं,’’ महीप स्वामीजी की ओर देख हाथ जोड़ते हुए बोला. कामिनी क्या चाहती है, यह किसी ने जानना भी आवश्यक नहीं सम?ा. महीप वापस घर लौट गया. कामिनी को आश्रम के एक कमरे में भेज दिया गया जहां बैंच रखी थीं. कुछ अन्य लोग भी किसी प्रतीक्षा में वहां थे. सभी को शांत रहने व आपस में बातचीत न करने को कहा गया था. दोपहर को एक सेविका ने खाने की थाली ला कर दे दी.

धीरेधीरे सब लोग चले गए. कामिनी अकेले गुमसुम सी बैठी अपनी बीती जिंदगी में विचर रही थी. रहरह कर उसे आकाश की याद आ रही थी. आकाश उस के पिता का प्रिय शिष्य था. बचपन से ही उन के घर आताजाता था. साइकोलौजी में पीएचडी करने के बाद कामिनी के कालेज में पढ़ाने लगा था. वहां पढ़ने वाली लड़कियां आकाश सर का बहुत सम्मान करती थीं. वह उन सभी को कभी कमजोर न पड़ने और आंखें खोले रखने को कहा करता था.

कामिनी को भी वह विपत्ति में ढाढ़स बंधाते हुए हिम्मत बनाए रखने को कहता था. जब मां के बीमार हो जाने पर क्लास टैस्ट में कामिनी को बहुत कम अंक मिले थे तो आकाश ने उस से कहा था, ‘एक बेटी का फर्ज निभाते हुए पढ़ाई को समय न दे पाने का मतलब यह नहीं कि हाथ से सब फिसल गया. अब वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए यह सोच कर मेहनत करना कि अपने लिए भी कुछ फर्ज निभाने हैं और खुद को अब समय देना है तुम्हें.’

‘काश, आकाश आज यहां होता तो बताता कि कहां कमी रह गई? क्या उस ने पत्नी का फर्ज नहीं निभाया? क्या सचमुच उस ने पाप किए हैं? शादी के बाद पतिपत्नी अपने रिश्ते को निभाते हुए आनंदित हों तो क्या यह गलत है? मन के साथ देह मिलन क्या बुरी सोच है? क्या संतान को जन्म देना ही उद्देश्य है विवाह का?’ सोचते हुए कामिनी उठ कर खिड़की से बाहर झांकने लगी.

शाम का झटपुटा रात की ओर चल दिया. वापस बैंच पर बैठ थकी कामिनी ने आंखें मूंद दीवार से सिर टिका लिया.

‘‘वहां चली जाओ,’’ कानों में आश्रम की एक सेविका का स्वर पड़ा तो कामिनी की तंद्रा भंग हो गई. चुपचाप उठ कर उस कमरे की ओर चल दी जहां सेविका ने इशारा किया था. बंद दरवाजा उस के जाते ही खुल गया. यह देख वह आश्चर्यचकित रह गई कि स्वामीजी ने उस के लिए स्वयं दरवाजा खोला है.

कमरा गुलाब की महक से गुलजार था. होता भी क्यों न? गुलाब ही गुलाब दिख रहे थे यहांवहां. स्वामीजी की मोटे कुशन वाली आराम कुरसी और बड़े से पलंग पर गुलाब की पंखुडि़यां बिखरी थीं. कांच की साइड टेबल पर गुलाब के फूल की छोटी सी टहनी एक पतले गुलदस्ते में सजी थी. कुछ दूरी पर दीवार से सटी लकड़ी की नक्काशी वाली डाइनिंग टेबल थी, लेकिन कुरसियां केवल 2 ही लगी थीं. टेबल पर एक गिलास में गुलाबी पेय पदार्थ रखा दिख रहा था.

‘‘बहुत थक गई होगी. यहां कुरसी पर बैठ जाओ, इसे पी लो. दूध है जिस में गुलाब का शरबत मिला है,’’ स्वामीजी ने कहा तो थकान से बेहाल कामिनी ने गिलास मुंह से लगा खाली कर दिया.

कुछ देर बाद एक सेवक खाना ले कर आ गया. 2 प्लेटें और कई व्यंजनों के डोंगे मेज पर सज गए. स्वामीजी कुछ देर चुप रहे, फिर होंठों पर मुसकान लिए बोले, ‘‘तुम जानती हो कि पत्नी के पापी होने पर गर्भधारण में समस्या आती है. कुछ दिन मेरे साथ रहो, मैं स्वयं अपने हाथों से शुद्धीकरण कर पापों से मुक्ति दिलवा दूंगा. अनुष्ठान आज से ही प्रारंभ हो जाएगा. तुम को केवल अपना ध्यान सब ओर से हटा लेना होगा. ये गुलाब के फूल भी इसी अनुष्ठान के कारण बिछे हैं बिस्तर पर. सुगंध से शांति मिलेगी. आज जो दूध तुम ने पिया है उस में भी विशेष भस्म डाली गई है जो तुम को सब चिंताओं से दूर कर चैन की नींद सुला देगी. खाना खा लो अब, नहीं तो नींद आने लगेगी.’’

कामिनी को सचमुच तेज नींद घेरने लगी. इस का कारण कामिनी की थकान थी या दूध में मिली भस्म, वह समझ नहीं पाई. पलपल गहराता नशा उस के सोचनेसम?ाने की शक्ति छीन रहा था. बैठेबैठे लुढ़कने लगी तो स्वामीजी ने उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

कुछ देर में खाना खा कर स्वामीजी कामिनी के पास आ कर बैठ गए. उसे हौले से सहलाते हुए वे कुछ बुदबुदा रहे थे. कामिनी ने आंखें खोल उन का हाथ हटा असहमति जताई. नींद से बो?िल कामिनी स्वयं को शक्तिहीन सा महसूस कर रही थी. अधखुले नेत्रों से अत्यंत व्याकुल हो उस ने स्वामीजी की ओर देखा तो मुसकराते हुए वे बोले, ‘‘डरो मत. मैं कुछ मंत्र पढ़ रहा हूं. तुम्हारी देह से पापमूलक तत्त्व मेरे स्पर्श के साथ बाहर निकलते जाएंगे. आराम से लेटी रहो तुम.’’

कामिनी का स्वयं पर नियंत्रण नहीं था. चाह कर भी उठ नहीं पा रही थी. उसे अच्छी तरह समझ में आ रहा था कि यह स्वामी भेड़ की खाल में भेडि़या है. स्वामी अपनी पिपासा शांत कर सो गया. कामिनी की नींद आधी रात को टूटी. सोच रही थी कि क्या करे अब? महीप तो स्वामी पर इतना विश्वास करता है कि कामिनी द्वारा सब सच बता देने के बाद भी वह स्वामी का ही पक्ष लेगा. शायद इस चक्रव्यूह से वह निकल नहीं पाएगी.

महीप 2 दिनों बाद आया तो स्वामी ने कामिनी को कुछ दिन और वहां रहने का परामर्श दिया. कामिनी वापस जाने की कल्पना करती तो महीप की अप्रसन्न भावभंगिमाएं और क्रूर व्यवहार ध्यान आ जाता. यहां स्वामी की लोलुपता कांटे सी चुभ रही थी.

आश्रम में बैठे हुए जब स्वामीजी की अनुपस्थिति में कामिनी को महीप से कुछ देर बात करने का अवसर मिला तो कामिनी ने स्वामीजी की नीयत को ले कर शंका जताई. जैसा उस ने सोचा था वही हुआ. महीप ने उसे आंखें तरेर कर देखते हुए धीमी आवाज में 2-4 भद्दी गालियां दे डालीं.

स्वामीजी की आज्ञा मान कामिनी को वहां कुछ और दिनों के लिए छोड़ महीप वापस चला गया. आश्रम में कामिनी को एक सेविका के सुपुर्द कर दिया गया. उस के खानेपीने, कपड़ों और दिन में क्याक्या करना है, इस का प्रबंध वह सेविका कर रही थी. पूरा दिन स्वामी प्रवचन व भक्तों से मिलनेजुलने में व्यतीत करता और रात कामिनी के अंक में. इस बार महीप आया तो कामिनी को वापस भेजने की अनुमति स्वामी ने दे दी.

दिन बीतते रहे, लेकिन महीप के व्यवहार में कामिनी को कोई बदलाव दिखाई नहीं दिया. बातबात पर उस का हाथ उठा देना और एक रात के अतिरिक्त बाकी समय कामिनी के सामने त्योरियां चढ़ाए रखना अनवरत जारी था. कामिनी दिनरात महीप को सही राह सुझाने का उपाय सोचती, अपरोक्ष रूप से स्वामी का विरोध भी करती लेकिन महीप पर तो स्वामी जैसे लोगों का जादू सिर चढ़ा रहता है जो अपना भलाबुरा भी नहीं सोचते.

कामिनी का प्रयास होता कि महीप जब उसे आश्रम चलने को कहे तो वह कोई बहाना बना कर टाल दे.आश्रम से अनुष्ठान पूरा न हो पाने के फोन महीप के पास लगातार आ रहे थे. कामिनी पर एक दिन जब उस ने आश्रम चलने के लिए जोर डाला तो कामिनी के मना करते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. महीप द्वारा अनुष्ठान के बाद पाप धुल जाने और गर्भधारण करने की संभावना जतलाने का भी कामिनी पर कोई असर न दिखा तो आगबबूला हो उस ने कामिनी को तेज धक्का दे दिया. फर्श पर पेट के बल गिरी कामिनी का सिर दीवार से टकरातेटकराते बचा. हक्कीबक्की सी घबरा कर वह जल्दी से उठी. कुछ देर यों ही खड़ी रही, फिर दनदनाती हुई महीप के पास गई और उस के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया. महीप के क्रोध की आग में इस थप्पड़ ने घी का काम किया.

‘‘अब तो तुम्हें स्वामीजी के आश्रम में चलना ही पड़ेगा. जाते ही तुम्हारी शिकायत लगाऊंगा उन से,’’ कामिनी का हाथ पकड़ उसे खींचता हुआ महीप दरवाजे की ओर चल दिया. कामिनी को कुछ नहीं सू?ा रहा था. चुपचाप आंखों में आंसू लिए महीप के साथ चल पड़ी.

आश्रम से सभी भक्त-श्रोता जा चुके थे. स्वामीजी के कक्ष में महीप ने कामिनी के साथ प्रवेश किया. कामिनी को देख स्वामीजी गदगद हो उठे. महीप ने समीप रखे दानपात्र में 100 के नोटों की गड्डी डाल प्रणाम में सिर ?ाका दिया. स्वामीजी का आशीर्वाद पा कर महीप ने कामिनी के हाथ उठाने की बात उन को बताई. स्वामीजी मुसकराए, महीप का मन खिला कि अब कामिनी से वे अवश्य क्षमा मंगवा कर रहेंगे.

स्वामीजी ने कामिनी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, फिर बोले, ‘‘इस का मुखमंडल देख रहे हो? कैसा दपदप कर रहा है. अनुष्ठान के प्रथम चरण का प्रभाव है यह. कोई पुण्यात्मा ही जन्म लेगी भविष्य में इस के गर्भ से. इस की मार को तुम ईश्वर का प्रसाद सम?ा कर ग्रहण करो. यह कुपित हो गई तो तुम पर दुखों का पहाड़ टूट सकता है.’’

महीप मन ही मन सहमति, असहमति के बीच झूलता हुआ भीगी बिल्ली बना बैठा रहा. कामिनी को स्वामीजी अनुष्ठान के लिए अपने कमरे में ले गए. महीप उस के कमरे से बाहर आने की प्रतीक्षा में आश्रम में यहांवहां टहल रहा था कि उसे आश्रम के दानकक्ष में बुला लिया गया. स्टाफ ने विशेष चढ़ावे की मांग की क्योंकि उन का कहना था कि ऐसा अवसर कुछ ही लोगों को मिलता है, जिस के परिवार के किसी सदस्य का स्वामीजी स्वयं शुद्धीकरण करते हैं. महीप ने प्रसन्न हो कर सामर्थ्य से अधिक दान दे दिया.

3-4 बार आश्रम जाने के बाद कामिनी ने यह जान लिया था कि उसे स्वामीजी की विशेष अतिथि मान वहां खूब सत्कार होता है. पति की रुखाई और दुर्व्यवहार से आहत कामिनी अब वहां जाने के लिए मना नहीं करती थी. स्वामीजी अब उसे कुछ दिनों के लिए रोक लेते और महीप को वापस भेज देते. घर में कामिनी व स्वयं पर एक रुपया भी खर्च करना महीप को अखर जाता था, लेकिन आश्रम में दानदक्षिणा दे अपनी जेब ढीली करवा कर वह प्रसन्न था.

स्वामीजी ने जब से कामिनी की मार को प्रसाद सम?ा कर ग्रहण करने को कहा था, तब से महीप कामिनी की ओर आंख उठा कर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था. उस के बाद जब भी वह कामिनी के समीप गया तो कामिनी ने मुंह फेर लिया. महीप ने हाथ बढ़ा कर उस का मुंह अपनी ओर करना चाहा तो कामिनी ने हाथ ?ाटक दिया. महीप लाचार सा चुपचाप सो गया.

कामिनी को अपने इस व्यवहार पर खुद से शिकायत थी, लेकिन यह अचानक तो हुआ नहीं था. स्वामी के चक्रव्यूह में महीप भी फंसा था और कामिनी को भी फंसा दिया था उस ने. यद्यपि आश्रम में कामिनी को ऐशोआराम की जिंदगी मयस्सर थी, लेकिन उसे यह चाहिए ही कब था? वह तो महीप की अर्धांगिनी बन कर पति से वह सब चाहती थी जो जीवन बगिया महका दे.

कोई रास्ता न सूझाने पर कामिनी को उकताहट होने लगी. कुछ दिनों के लिए उस ने मायके जाने का कार्यक्रम बना लिया. मायके पहुंच कर भी अपनी पीड़ा मन में दबाए रही. 2 छोटे भाइयों के सामने एक खुशहाल दीदी बने रहना पड़ता और मातापिता के सम्मुख उन की समझदार, सहनशील बेटी. महीप को ले कर कुछ कहना शुरू भी करती तो उन से वही रटारटाया जवाब मिलता, ‘‘बेटियों को ससुराल में बहुतकुछ सहना पड़ता है, इस में कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात तब है जब रिश्ता टूट जाए, लड़की मायके वापस लौट आए और उस के मांबाप किसी को मुंह दिखाने के काबिल न रहें.’’

उस दिन आकाश से बाजार में भेंट हो जाना कामिनी के लिए सुखद संयोग था. साथसाथ चलते बातचीत होती रही. जीवन में घट रही घटनाओं को आकाश से सांझा किया तो वह चौंक उठा, ‘‘कैसे अजीबोगरीब आदमी हैं तुम्हारे पति. भूल गईं कि मैं ने तुम्हें नागचंपा इत्र भेंट करते हुए क्या कहा था? नागचंपा की पत्तियों के आकार जैसे नाग के फन क्यों नहीं दिखाए जब महीप तुम पर अत्याचार कर रहा था. फिर उस स्वामी को भी सह रही हो. क्यों? स्वामी ने छूने की जब पहली कोशिश की तो तुम नागचंपा पेड़ की लकड़ी सी क्यों नहीं बन गईं? वह गलीज तुम्हारी इच्छा, तुम्हारी इज्जत यहां तक कि तुम्हारी कोमल भावनाओं पर अपनी कुटिल कुल्हाड़ी चलाता रहा, क्यों नहीं तब नागचंपा की सख्त लकड़ी बन नीचता की उस कुल्हाड़ी की धार निस्तेज कर दी तुम ने? नागचंपा के फूलों सी तुम्हारी उजली देह की महक और पत्तियों की छाया लेता रहा वह. कितना सम?ाया था विवाह से पहले मैं ने. क्या लाभ हुआ उस का?’’ सब सुनने के बाद व्यग्र हो आकाश ने प्रश्न कर डाले.

‘‘तो क्या करूं?’’ आकाश के प्रश्न के उत्तर में कामिनी ने प्रतिप्रश्न कर कुछ क्षणों की चुप्पी साध ली फिर बोली, ‘‘महीप ने जीवन नर्क बना दिया. स्वामी के आश्रम में मन पक्का कर कुछ घंटों चुपचाप अपनी देह सामने रख देती हूं, उस के बाद तो शांति है. कोई कुछ कहता नहीं, उलटे स्वामी के नजदीक होने से वहां का हर कार्यकर्ता मुझे सम्मान देता है.’’

‘‘तुम शायद समझ नहीं पा रही स्वामी का खेल. तुम्हारे पति के दिमाग में यह ठूंस दिया कि महीने में एक बार ही बनाना है संबंध. नतीजतन महीप करीब ही नहीं आ पाया तुम्हारे. इस से न तो आपसी अंडरस्टैंडिंग बनी न दोनों को शरीर का सुख मिला. महीप को भी पत्नी सुख की चाह तो होती ही होगी. अपनी उस इच्छा को दबाने से कुंठित प्रवृत्ति का होता जा रहा है वह. गुस्सा उतरता है तुम पर. तुम्हें वह गर्भधारण न करने पर पापी समझ रहा है. इधर तुम महीप के बरताव से परेशान स्वामी के सामने समर्पण कर रही हो, उस के सामने जिस के कारण तुम पापी कहलाई जा रही हो. दान के नाम पर पैसा भी तुम्हारे घर से जा रहा है. कुछ सम?ा? असली गुनाहगार महीप नहीं, स्वामी है.’’

‘‘मैं ने तो बहुत कोशिश की महीप को स्वामी की असलियत बताने की, लेकिन वह उन के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहता,’’ कामिनी बेबस दिख रही थी.

‘‘स्वामी बहुत शातिर है. पहले अपने प्रवचनों से पत्नियों का आत्मविश्वास तोड़ता है, फिर ऐक्सप्लौयट करता है. तुम पति के सामने स्वामी की पोल न खोलो, इस के लिए तुम्हारे गुस्से को प्रसाद का नाम दे कर एक तरफ तुम्हें अपनी ओर कर लिया तो दूसरी ओर तुम्हारे पति के मन में हीनभावना उत्पन्न कर उस की हिम्मत तोड़ रहा है. वह मूर्ख महीप मन ही मन व्याकुल हो कर भी स्वामी की कलाई नहीं छोड़ रहा.’’

‘‘मेरी जिंदगी यों ही चलेगी क्या अब?’’ कामिनी निराशा के गर्त में डूब रही थी.

‘‘महीप तुम्हारे नजदीक आ जाए तो स्वामी की पट्टी उस की आंखों से उतर जाएगी. कुछ सोचता हूं. कल मिलोगी?’’

‘‘ठीक है. मेरा मोबाइल नंबर ले लो और अपना दे दो. बता देना जहां मिलना हो. घर पर मम्मीपापा के सामने तो बात नहीं हो सकेगी.’’

घर पहुंच कर कामिनी सुकून महसूस कर रही थी, उधर आकाश समाधान खोजने में जुटा था. रात 10 बजे आकाश का मैसेज आया कि कामिनी उस से 2 दिनों बाद कालेज की कैंटीन में मिले, कल नहीं.

कामिनी निर्धारित दिन सहेलियों से मिलने का बहाना बना कर कैंटीन चली आई. आकाश भी नियत समय पर आ गया. कामिनी के पास ही कुरसी ले कर बैठते हुए बोला, ‘‘मैं ने तुम को 2 दिनों बाद आने को इसलिए कहा था कि अपने एक मित्र की सहायता से महीप के बारे में कुछ पता लगवाऊं. वह दोस्त महीप के गांव का रहने वाला है. उस ने कई बातें बताई हैं मु?ो. सब से पहले उस बात का जिक्र करूंगा जिस से मुझे यह सोचने में मदद मिली कि हमें क्या करना चाहिए.’’

‘‘बताओ न फिर जल्दी,’’ कामिनी अधीर हो रही थी.

‘‘कई वर्षों पहले महीप के गांव में एक महिला के अंदर देवी आया करती थी और महीप उस को बहुत सम्मान देता था. उस की हर बात मानता था.’’

‘‘अच्छा, तो क्या हुआ उस का बाद में?’’

‘‘होगा क्या, जब तक गांव में रही, देवी आने का नाटक कर खूब लूटा लोगों को. बाद में पति के साथ गांव छोड़ कर चली गई. खैर, असली मुद्दा यह नहीं है कि उस का क्या हुआ. मैं तो तुम्हें यह कहना चाह रहा था कि तुम्हें भी अपने पति के सामने देवी होने का ढोंग करना होगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह कैसा समाधान है?’’

‘‘यही है समाधान. तुम्हारे पति को पाखंडी लोगों पर विश्वास है तो इस का फायदा उठाओ. वह देवी को अवश्य सम्मान देगा, तब देवी बनीं तुम अपनी बात मनवा लेना. मैं महीप के जीवन और परिवार से जुड़ी कुछ बातें बता दूंगा जो मेरे दोस्त ने मु?ो बताई हैं. वे सब किस्से तुम अपनी शक्ति से पता लगने का नाटक करना. महीप का ध्यान कहीं और किसी अन्य शक्ति में लगेगा तो स्वामी के बंधन से वह खुद ही आजाद हो जाएगा.’’

‘‘तुम कहते हो तो कोशिश कर लूंगी,’’ कामिनी सहमति में सिर हिला कुरसी से उठ खड़ी हो गई.

‘‘एक बात और,’’ आकाश कामिनी को रोकते हुए बोला, ‘‘याद है न तुम कैसे भारी सी आवाज निकालती थीं. उसी तरह बोलना देवी बन कर.’’
कामिनी की हंसी छूट गई, ‘‘हां, अच्छा याद दिलाया. एक दिन मैं खुद से बात करते हुए महीप की आवाज निकाल रही थी, लेकिन महीप को इस बारे में कुछ पता नहीं.’’

‘‘जब समय मिले फोन पर इस बारे में जानकारी देती रहना.’’

चलने से पहले आकाश ने उसी अंदाज में कामिनी को ‘औल द बैस्ट’ कहा जैसे परीक्षा से पहले कहा करता था.

कासगंज लौटने के बाद कामिनी योजनानुसार देवी बनने के अवसर की तलाश में रहने लगी. एक दिन वह नहा कर निकली तो आंगन में खड़े हो कर भारी आवाज में जोरजोर से चिल्लाने लगी, ‘‘मुझे मीठा चाहिए, कुछ गरमगरम. पूरी और आलू की सब्जी खाऊंगी और पान भी. मीठा पान. अभी…’’

कमरे से भागता हुआ महीप आंगन में आया और कामिनी को खींचता हुआ अंदर कमरे में ले गया. कामिनी आंखें निकाल गुर्रा कर बोली, ‘‘जो कहा है, करो जल्दी. जाओ, अभी चाहिए, जो मैं ने मांगा है.’’

महीप को उस महिला की याद आ गई जिस पर गांव में देवी आती थी. कामिनी में किसी दैवीय शक्ति का प्रवेश महीप को डरा रहा था. ‘देवी की इच्छा पूरी न की तो श्राप दें देंगी’ सोचते हुए महीप भागाभागा बाजार गया. गाजर का हलवा, पूरियां हलवाई से पैक करने को कहा तब तक पान खरीदा, फिर उलटे पांव दौड़ते हुए घर आ गया. कामिनी झूम रही थी. दोनों चीजें उस के सामने रख महीप चुपचाप खड़ा हो गया. एक पूरी और थोड़ा सा हलवा खा कर कामिनी ने बाकी उस की ओर बढ़ा दिया, ‘‘लो, खाओ तुम भी.’’ पान भी आधा उसे दे दिया.

महीप सब खा कर आनंदित तो हुआ लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोला. अभी तक वह आश्रम में अधिक से अधिक दान देने के चक्कर में अपना मन मारे रहता था.

कुछ देर झूमने के बाद कामिनी बिस्तर पर जा कर लेट गई. 10 मिनट यों ही लेटे रहने के बाद धीरे से आंखें खोल कर देखा. महीप उस के पास ही बैठा था. कामिनी धीमी आवाज में बोली, ‘‘मुझे क्या हुआ था, अभी कुछ याद नहीं. थकान बहुत हो रही है. पानी पीती हूं.’’ महीप चुपचाप उठ कर उस के लिए पानी ले आया. कुछ देर बाद बिना कुछ कहे काम पर निकल गया. कामिनी को महीप का बदला हुआ रूप अच्छा लग रहा था.

2 दिन निकल गए. तीसरे दिन कामिनी फिर नहाने के बाद कमरे में नाश्ता कर रहे महीप के सामने आ कर खूब मोटी, भारी आवाज बना कर बोली, ‘‘मुझे साड़ी चाहिए, गुलाबी रंग की. ठीक वैसी ही जैसी तुम ने मालती को दी थी 5 वर्षों पहले. मालती तो तुम से फिर भी क्रोधित ही रही थी लेकिन मैं प्रसन्न हो जाऊंगी. अभी मैं जा रही हूं. तुम जल्दी ही सारा सामान एकत्र कर मेरी तसवीर के आगे रखने के बाद कामिनी को सजा देना. समझ गए न? उसे अपने हाथों से साड़ी पहनाना, बिंदी, सिंदूर लगाना,’’ बात पूरी करते ही कामिनी ?ामने लगी, फिर लेट गई.

महीप हतप्रभ था. मालती कई वर्ष उस की प्रेमिका रही थी. दोस्त की बहन मालती ने उस से अनेक उपहार लिए थे, फिर नाराजगी का ?ाठा नाटक कर किसी और से विवाह कर लिया था. महीप को डर था कि देवी द्वारा बताया मालती का किस्सा कहीं कामिनी को भी पता न लग गया हो. कामिनी अपने सामान्य रूप में आई तो मालती का नाम तक न लिया. चैन की सांस लेते हुए महीप ने देवी का बताया सामान खरीदा और कामिनी को सजाने के लिए छुट्टी का दिन चुना.

‘‘आप मुझे सजाएंगे? कोई खास बात है क्या?’’ कामिनी ने अनजान बनते हुए पूछा.

‘‘बस, यों ही. तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती शायद. सजतीधजती नहीं हो आजकल,’’ महीप ने बात बना दी.

कामिनी के गोरे मखमली बदन पर साड़ी लपेटते हुए महीप को एक सुखद अनुभव हो रहा था. मेकअप किया तो लगा ऐसे स्पर्श की अनुभूति तो पहले हुई ही नहीं थी. उस का रोमरोम कामिनी के जिस्म को पाने की लालसा करने लगा.

आकाश ने महीप के विषय में जो जानकारी जुटाई थी उस में महीप के एक मित्र अजीत का विशेष उल्लेख था. महीप स्वामीजी का चेला बनने से पहले देवी वाली महिला का भक्त होने के साथसाथ बचपन के दोस्त अजीत के बहुत करीब था. अपनी समस्याएं, उलझनें, विचार वह अजीत के साथ सांझा किया करता था. इस बार देवी बनी कामिनी ने अजीत का नाम लिया और महीप के समक्ष यादें ताजा करवा दीं. उस दिन जब कामिनी सामान्य हुई तो महीप ने उसे अपने मित्र अजीत के विषय में बहुतकुछ बताया, ‘‘मेरा बहुत मन करता है अजीत से मिलने का,’’ कहते हुए महीप की आंखें नम हो गईं.

कामिनी ने आकाश को उस दिन मैसेज किया कि शायद समय आ रहा है, धीरेधीरे महीप स्वामी के पंजे से मुक्त हो सकता है.

2 दिनों बाद नहा कर जब कामिनी बाहर निकली तो जोरजोर से हंसने लगी. महीप हाथ जोड़ सिर ?ाकाए सामने खड़ा रहा. देवी ने भारीभरकम आवाज में कहा, ‘‘इस के बाद अब मैं कब आऊंगी, पता नहीं. जातेजाते इतना कहना चाहती हूं कि सुगंधित साबुन…’’ कामिनी ने अपनी बात पूरी नहीं की थी कि महीप को लगातार हाथ जोड़े अपनी ओर ताकते उसे हंसी आने लगी. किसी तरह अपनी हंसी दबा कर बात वहीं छोड़ वह चुपचाप बिस्तर पर जा कर लेट गई.

महीप ने अनुमान लगाया कि देवी चाहती हैं कि वह अच्छा सा खुशबूदार साबुन खरीद उस का प्रयोग कामिनी पर करे. उस दिन शाम को चंदन की खुशबू वाला साबुन ले कर वह घर आया. कामिनी को दिखाते हुए बोला, ‘‘जब तुम्हें मैं अपने हाथों से सजाता हूं तो अच्छा लगता है न? देखो यह नहाने का महकदार साबुन ले कर आया हूं तो कल सुबह… समझ गईं न?’’

कामिनी लाज से लाल हो गई. उस की ?ाकी पलकें और मुसकान लिए गुलाबी होंठ देख महीप का दिल फूल सा खिल उठा. रातभर वह यह सोच कर ही रोमांचित हुआ जा रहा था कि क्या सचमुच ऐसा हो सकेगा?

अगले दिन कामिनी उठी तो सिर चकरा रहा था. बोली, ‘‘अपच जैसा हो रहा है. महीना भी नहीं आया.’’

‘‘डाक्टर के पास चलते हैं,’’ महीप आज पहली बार कामिनी की चिंता करता दिख रहा था.

क्लिनिक पर गए तो खुशखबरी मिली, कामिनी के मां बनने के संकेत थे.

घर पहुंच कर कामिनी लेट गई. महीप उस के समीप बैठ कर भविष्य के सपने देख रहा था कि दरवाजे की घंटी बज गई. बेमन से महीप ने दरवाजा खोला तो आश्चर्यचकित रह गया. स्वामीजी आए थे. अंदर घुसते ही बोले, ‘‘बहुत दिनों से तुम लोग नहीं आए तो मैं ने सोचा, आज मैं ही कामिनी से मिलने चलता हूं.’’

महीप को स्वामीजी का केवल कामिनी से मिलने की इच्छा जताना बिलकुल अच्छा नहीं लगा, फिर भी उन को आदर से बैठाते हुए बोला, ‘‘कामिनी की तबीयत ठीक नहीं है. आप बैठिए, उसे बुलाता हूं.’’

अधीर स्वामीजी उठ कर बैडरूम तक पहुंच गए. उसे बेटी कहते हुए बाहुपाश में कस गालों को चूम लिया. महीप के लिए स्वामीजी का यह रूप बिलकुल नया था. दोनों को आश्रम में जल्द हाजिर होने की आज्ञा दे कर वे चले गए.

स्वामीजी के प्रति महीप का क्रोध देख कामिनी बोली, ‘‘मैं ने आप को कितनी बार समझने की कोशिश की इन के बारे में, लेकिन आप ने कभी सुनना ही नहीं चाहा. अनुष्ठान के बहाने न जाने कितनी लड़कियों का शोषण किया होगा इस स्वामी ने.’’

‘‘अब क्या होगा? यह तो तुम्हारा पीछा ही नहीं छोड़ेगा,’’ घबराया सा महीप बोला.

‘‘आप को डरने की जरूरत नहीं है. हम पुलिस के पास चलेंगे. इस के द्वारा शोषित कुछ लड़कियों के मोबाइल नंबर हैं मेरे पास, उन से भी बात करती हूं.’’

महीप अब तक आश्रम में दिए दान का मोटामोटा हिसाब लगा पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा था. कामिनी ने आकाश को मैसेज कर पूरी बात बताते हुए यह भी लिखा, ‘‘जब मु?ो विश्वास हो जाएगा कि महीप पूरी तरह बदल गए हैं तब अपने देवी बनने का सच बता दूंगी.’’

आकाश ने जवाब दिया, ‘‘अपने पति को फूलों की सुगंध और पत्तियों की छांव देते हुए सुधारने का काम काबिल ए तारीफ है. इस के अलावा तुम मजबूत लकड़ी बन कर स्वामी जैसे लोगों के होश ठिकाने लगवाने का काम भी कर रही हो. तो कामिनी आज फख्र से कहता हूं कि तुम हो नागचंपा.’’

जाति के चक्रव्यूह में मारी जा रही ‘अपर कास्ट विमेन’

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को बजट का जवाब देते कहा कि केंद्र की सरकार चाहे युवा हो या किसान सभी को चक्रव्यूह में फंसाने का काम कर रही है. राहुल ने इसी के साथ जातीय जनगणना का मुद्दा भी उठाते हुए हलवा सेरेमनी का जिक्र कर दिया. राहुल गांधी ने बजट के हलवा सेरेमनी की फोटो दिखाते कहा, ‘इस फोटो में कोई पिछड़ा, दलित या आदिवासी अफसर नहीं दिख रहा है.’ यह सुन कर निर्मला हंस पड़ीं और तभी राहुल ने कहा कि देश का हलवा बंट रहा है और वित्त मंत्री हंस रही हैं.

राहुल ने आगे कहा कि 20 अफसरों ने हलवा बनाया और अपने 20 लोगों में बांट दिया. बजट कौन बना रहे हैं, वही दो या तीन प्रतिशत लोग. हम जातिगत जनगणना ला कर इस विषमता को खत्म करेंगे. राहुल गांधी ने महाभारत युद्ध में चक्रव्यूह बना कर अभिमन्यु की हत्या का जिक्र करते कहा कि 6 लोगों कर्ण, द्रोणाचार्य, दुशासन, अश्वत्थामा, कृपा, शकुनि, दुर्योधन ने मिल कर अभिमन्यु की हत्या की थी. आज भी 6 लोगों ने अपने चक्रव्यूह में देश को फंसा रखा है. ये 6 लोग हैं नरेंद्र मोदी, अमित शाह, अजीत डोभाल, मोहन भागवत, अंबानी और अडानी.

इस के बाद लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर एकदूसरे से जातीय जनगणना के मुद्दे पर भिड़ गए. इन दोनों की बहस में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव भी कूद गए. राहुल गांधी ने कहा था कि देश का बजट बनाने वालों में दलित और ओबीसी जातियों को शामिल नहीं किया जाता. राहुल ने जाति जनगणना कराने की डिमांड भी रखी थी. अनुराग ठाकुर ने इस का जवाब देते कहा कि जिस को जाति का पता नहीं, वो गणना की बात करता है.

यह बात राहुल गांधी को आपत्तिजनक लगी, उन्होंने कहा कि उन का अपमान किया गया. अखिलेश यादव भी बहुत गुस्से में थे, उन्होंने कहा कि सदन में किसी की जाति कैसे पूछी जा सकती है. राहुल गांधी और अखिलेष की जोडी ने भाजपा को बैकफुट पर डाल दिया.

असल में राहुल गांधी केवल पिछड़ा, दलित या आदिवासी अफसरों की बात कर रहे थे. इस में एक सब से बडी जाति का जिक्र करना वे भूल गए, वह है सवर्ण महिलाएं. सवर्ण महिलाएं एक ऐसा वर्ग है जो संपन्न और शिक्षित होने के बाद भी बेचारा है.

अपर कास्ट विमेन की बात कौन करेगा?

राहुल गांधी ने केवल पिछड़ा, दलित या आदिवासी अफसरों की बात की. इस के पहले चुनावी भाषणों में भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र ने 4 जातियों का जिक्र किया था. उन में महिला, युवा, किसान और गरीब का नाम लिया था. राहुल गांधी हों या नरेंद्र मोदी दोनों देश की आबादी का 10 फीसदी करीब 12 करोड अपर कास्ट महिलाओं के वर्ग को नहीं देख रहे हैं. यह वे महिलाएं है जो अब आत्मनिर्भर भी हैं. लखनऊ की रहने वाली अमृता सिंह पढीलिखी हैं, जौब करती हैं. उन्होंने अपने सोशल मीडिया पर लिखा कि- ‘औरत का घर न मायका है और न ससुराल’.

इस के जवाब में ढेर सारी महिलाओं के दर्द फूट पडे. सब ने करीबकरीब इस बात का समर्थन किया और कहा कि ‘इस कारण ही महिलाएं बेचारी हैं.’ ये महिलाएं सवर्ण वर्ग ही है. धर्म के शिकंजे में जकडी हुई हैं, संस्कारी हैं. धर्म के नाम पर इन को ऐसे कामों में लगाए रखा जाता है जिन का इन के जीवन में कोई लाभ नहीं है. ये पति के कल्याण के लिए व्रत रखती हैं, पुत्र के अच्छे भविष्य के लिए व्रत रखती हैं. ये कभी निर्जला व्रत रखती हैं तो कभी पैदल कलशयात्रा नंगेपांव करती हैं. धार्मिक हादसों में सब से ज्यादा मरने वाली महिलाएं ही होती हैं. उत्तर प्रदेश के हाथरस में मरने वाले 122 लोगों में से 116 महिलाएं थीं.

अपर कास्ट महिलाएं नौकरी कर रही हैं. ये राजनीति में भी हैं और बिजनैस भी कर रही हैं. इस के बाद भी इन की चर्चा कहीं नहीं हो रही है. महिलाओं को राजनीति में आरक्षण मिला है. निकाय और पंचायत चुनावों में 33 फीसदी का आरक्षण मिला है. इस की वजह से छिटपुट इन के चेहरे राजनीति में दिख जाते हैं. चुनावी आंकडो से देखें तो साफ पता चलता है कि इन के पास पैसा और लोग दोनो ही नहीं होते जो इन को चुनाव लडा सकें. ऐेसे में चुनाव जीतने के लिए पैसा घरपरिवार लगाता है.

चुनाव जीतने के बाद महिला की जगह उस का बेटा, पति या दूसरा कोई करीबी कुरसी संभालता है. प्रधानपति, सांसद पति, विधायक पति प्रतिनिधि बन कर इन का काम करते हैं. कभी पुरुष नेता के बारे में नहीं सुना होगा कि उस की जगह उस की पत्नी कामकाज देख रही है. सवर्ण औरतों की हालत यहां ज्यादा खराब है क्योंकि वह बंधन तोडने में सफल नहीं हो पाई है. सामाजिक बंधन, पारिवारिक बंधन और धार्मिक बंधन की यही सब से अधिक शिकार होती हैं. इन को ही सब से ज्यादा परदा करना होता है. किसी गैरमर्द के साथ इन का उठना, बैठना और बोलना खराब माना जाता है.

महिलाएं उठाएं जिम्मेदारी

आज सोशल मीडिया का दौर है. हर महिला के हाथ में स्मार्टफोन है. जिस पर फेसबुक, इंस्टाग्राम और कई साइटें हैं जिन पर महिलाओं ने अपने खाते खोल रखे हैं. ज्यादातर महिलाओं के पति, पिता इन पर नजर रखते हैं. महिलाएं अपने मनपंसद दोस्त से बात नहीं कर सकतीं. किसी पुरुष मित्र से मिलने जाती हैं तो पति साथ रहता है. फोन से ले कर मित्र से मिलने तक की आजादी नहीं है इन को. कई बार जब वे अपना टाइम पास करने के लिए किटी पार्टी में जाती हैं तो पति वहां छोडने और लेने जाते हैं. इस तरह उन को व्यक्तिगत आजादी नहीं है.

लखनऊ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता राजेश तिवारी कहते हैं, ‘पारिवारिक विवादों में सब से अधिक विवाद का कारण मोबाइल फोन हो गया है. पति व पत्नी के बीच यह झगडे का सब से बडा कारण है. यह झगडा तलाक तक पहुंच जाता है. महिलाएं अब आजादी चाहती हैं लेकिन तमाम सोच बदलने के बाद भी महिलाओं को आजादी देने के मसले में झगडे बढ रहे हैं. इस वर्ग की परेशानियों को समझने की जरूरत है.’

सैंट्रल बैंक औफ इंडिया में सीनियर मैनेजर सुप्रिया वर्मा कहती हैं, ‘महिलाएं अपने कमाए पैसों पर भी अपना अधिकार नहीं रखतीं. बैक खाता खोलना, बचत योजनाओं में हिस्सा लेना, होम लोन लेना, आईटीआर दाखिल करने जैसे तमाम मुददों पर अपनी राय नहीं रखतीं, पति पर निर्भर होती हैं. अगर महिलाएं ये काम खुद कर लें तो पति को दूसरे उपयोगी काम करने का समय मिलेगा. दूसरे, वे खाली समय का सही उपयोग कर सकेंगी.’

घर, परिवार और समाज में आर्थिक फैसले करने में महिलाओं को पहल करनी चाहिए. तभी वे सही मानो में आत्मनिर्भर बन सकेंगी. केवल नौकरी करने या पैसे कमाने से आत्मनिर्भर नहीं बन पाएंगी. आर्थिक फैसले वे खुद लें. इस के लिए उन को पढना पडेगा, समझना पडेगा, जानकार लोगों से बात करनी पडेगी. जो समय वे किटी पार्टी या गपशप में लगाती हैं, उसे न कर के उन को अपनी जानकारी बढाने का प्रयास करना होगा.

सरकार को इस ‘अपर कास्ट विमेन’ को भी एक वर्ग मान कर देखना होगा. समाज में यह व्यवस्था करनी होगी कि ये महिलाएं धर्म के जाल से निकल कर उत्पादक कामों में लगें. जिस तरह से राहुल गांधी हर जगह दलित, पिछडा और ओबीसी को देखते हैं उसी तरह से ‘अपर कास्ट विमेन’ को भी अलग वर्ग में वे देखें. वे प्रधानमंत्री के 4 वर्गों- महिला, युवा, किसान और गरीब – में अपर कास्ट विमेन को अलग से देखें. तभी इस सब से बडे वर्ग की तरक्की हो सकती है.

अपर कास्ट महिलाओं को केवल महिला वर्ग में रखने से काम नहीं चलेगा. यह आर्थिक विकास की सब से बडी धुरी है. इन को मुख्यधारा में शामिल करना बेहद जरूरी है. तभी देश व समाज तरक्की करेगा.

आंकलनों में कमला हैरिस आगे, डोनाल्ड ट्रंप पीछे

यह आश्चर्य की बात साफसाफ दुनिया ने देखी. अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में किस तरह डोनाल्ड ट्रंप, जो बाइडेन पर भारी दिखाई दे रहे थे, वे लगातार हमलावर थे. अपने देश और दुनिया में डोनाल्ड ट्रंप की चर्चा जोरों पर थी. साफसाफ दिख गया जो बाइडेन पिछड़ते चले जा रहे थे. डोनाल्ड ट्रंप के हावभाव और बातें ऐसी थीं मानो अब राष्ट्रपति पद चंद कदम की दूरी पर है और वे शपथ लेने ही वाले हैं. मगर जैसे ही जो बाइडेन ने राष्ट्रपति पद से अपनी उम्मीदवारी को वापस लिया और कमला हैरिस सामने आईं तो डोनाल्ड ट्रंप की बोलती बंद दिखाई दे रही है.

इसे अगर ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि सचमुच चुनाव में व्यक्तित्व कमाल करता है और कमला हैरिस डैमोक्रेटिक पार्टी की राष्ट्रपति पद प्रबल दावेदार बन कर सामने हैं तब से अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव बेहद रोचक हो गया है. ट्रंप के गढ़ में भी कमला हैरिस को बहुत सम्मान और प्यार मिल रहा है. कमला हैरिस ट्रंप के सामने कितनी टिकती हैं, इसे ले कर अमेरिकी मीडिया ने सर्वे रपट पेश की है, जिस में चौंकाने वाले नतीजे दिखाई दे रहे हैं.

ताजा सर्वे के मुताबिक, डोनाल्ड ट्रंप के राज्य एरिजोना, गढ़ वाले मिशिगन, जार्जिया और पेन्सिल्वेनिया में ट्रंप मामूली अंतर से आगे हैं, जबकि विस्कान्सिन में दोनों 47 फीसद के साथ बराबरी पर हैं. इस से पहले जब बाइडेन चुनावी मैदान में थे तो ट्रंप इन राज्यों में काफी आगे थे.

भारतवंशी हैं कमला हैरिस

दरअसल, इन सर्वे रपट में कमला हैरिस कहीं डोनाल्ड ट्रंप पर भारी पड़ती दिखाई दे रही हैं तो कहीं उन के बराबरी में दिखाई दे रही हैं. यानी, कमला हैरिस और डैमोक्रेटिक पार्टी थोड़ी और ताकत लगा दें तो ट्रंप का सत्ता में वापसी करना मुश्किल हो जाएगा. अब अमेरिका का यह राष्ट्रपति चुनाव काफी रोमांचक हो गया है. एक समय में डोनाल्ड ट्रंप की ही चारों तरफ चर्चा थी लेकिन अब धीरेधीरे खत्म होती जा रही है और डोनाल्ड ट्रंप भी स्वयं पीछे हो गए हैं.

यहां उल्लेखनीय है कि पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का साथ मिलने से कमला हैरिस और मजबूत हो गई हैं. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और उन की पत्नी मिशेल ने कमला हैरिस की उम्मीदवारी पर समर्थन दे दिया. यह वीडियो वायरल हो गया या फिर किया गया मगर इस से कमला हैरिस की लोकप्रियता बढ़ गई. ओबामा ने एक वीडियो संदेश में कहा, ‘उन्हें और मिशेल को कमला हैरिस का समर्थन कर के गर्व हो रहा है. हमें लगता है वे अमेरिका की शानदार राष्ट्रपति बनेंगी, उन्हें हमारा पूरा समर्थन है.’

पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार 81 वर्षीय जो बाइडेन की उम्र और उन की क्षमताओं को ले कर उन पर हमलावर थे. अब यही बात अब कमला हैरिस के पक्ष में जाती दिख रही है और उम्र को ले कर दबाव अब ट्रंप के ऊपर होगा. कुल मिला कर कमला हैरिस तुरुप का वह पत्ता बन कर सामने आई हैं जो अमेरिका के चुनाव के परिणाम बदल सकती हैं.

सर्वेक्षण बताता है कि युवाओं का झुकाव कमला हैरिस की ओर ज्यादा है. हैरानी नहीं कि कमला अपना चुनावी अभियान अमेरिका के युवाओं के भविष्य और स्वतंत्रता की रक्षा से जोड़ कर बढ़ा रही हैं. अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भरोसा जताया है कि कमला हैरिस निश्चित रूप से ट्रंप को हरा सकती हैं.

गौरतलब है कि बराक ओबामा को ले कर अभी तक स्थिति स्पष्ट नहीं थी. माना जाता है कि ओबामा को बड़ी डैमोक्रेटिक लौबी का समर्थन हासिल है, इसलिए उन का समर्थन हैरिस के लिए बड़ी जीत है. बराक और मिशेल ओबामा ने 2016 में हिलेरी क्लिंटन और 2020 में जो बाइडेन के लिए चुनाव में प्रचार किया था. अब डैमोक्रेटिक पार्टी में हैरिस ही राष्ट्रपति पद के लिए सब से बड़ी दावेदार हैं, हालांकि अंतिम निर्णय अगले माह होने वाली पार्टी के नैशनल कन्वेंशन में होगा.

सर्वे के अनुसार अधिसंख्य मतदाता यह मानते हैं कि 59 वर्षीय हैरिस मानसिक रूप से तेज और चुनौतियों से निबटने में सक्षम हैं, जबकि 78 वर्षीय ट्रंप के बारे में 49 फीसद मतदाताओं की ही यह राय है. वहीं, केवल 22 फीसद मतदाता ही जो बाइडन के बारे में ऐसा सोचते हैं. यहां पाठकों को बताते चलें कि कमला हैरिस वर्तमान में अमेरिकी उपराष्ट्रपति हैं और भारतवंशी हैं.

मंडराने लगा है अग्निवीरों के भस्मासुर बन जाने का खतरा

पंजाब के मोहाली के आसपास वाहन लूटने, चोरी और लूटपाट की वारदातों को हथियारों के दम पर एक गिरोह अंजाम दे रहा है. इस का अंदाजा पुलिस वालों को कुछ दिनों से था लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी यह गिरोह उन की पकड़ से दूर था. इस गिरोह के सदस्यों को दबोचने के लिए पुलिस जीजान से दिनरात एक किए हुए थी. बीती 20 जुलाई तक पुलिस के पास इतनी जानकारी भर थी कि इस गिरोह के सदस्य आमतौर पर हाईवे पर वाहन लूटने के बाद फर्जी नंबरप्लेट का इस्तेमाल कर उसे बेच देते हैं.

देशभर में ऐसी सैकड़ों वारदातें रोज होती रहती हैं. कई में अपराधी पकडे भी जाते हैं और उन्हें सजा भी होती है. सजा भुगतने के बाद कितने मुजरिम सही रास्ता पकड़ते हैं और कितने दोबारा जुर्म में लग जाते हैं, इस का आंकड़ा किसी के पास नहीं लेकिन यह मामला कई मानो में आम वारदातों से हट कर है और इस पर हर किसी को चिंता होनी चाहिए क्योंकि इस में सरकार का एक नादानीभरा फैसला भी न केवल शामिल है बल्कि एक हद तक जिम्मेदार भी है. कैसे, इसे समझने से पहले थोड़े से में एक पौराणिक कहानी को समझना जरूरी है.

एक समय में भस्मासुर नाम के एक राक्षस ने शिव की घनघोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया. तो शिव ने उसे मनचाहा वर मांगने को कहा. भस्मासुर ने कहा, ‘प्रभु, मुझे ऐसा वर दो कि जिस किसी के भी सिर पर मैं हाथ रखूं वह जल कर भस्म हो जाए.’ ऐसा खतरनाक वर दे दिया तो उस का अंजाम क्या होगा, यह शिव ने नहीं सोचा. अब भस्मासुर की मौज ही मौज थी. वह जिस के सिर पर हाथ रख देता वह वहीं भस्म हो कर मर जाता था.

वह समाज और लोगों के लिए खतरा बनने लगा तो उसे खत्म करने के लिए विष्णु ने सुंदर औरत का रूप रखा और दूर से भस्मासुर के सामने नाचने लगे. सुंदर महिला पर मोहित भस्मासुर भी उन की कौपी करने लगा. इसी दौरान मौका देख सुंदर औरत बने विष्णु ने अपने सिर पर हाथ रखा तो भस्मासुर ने भी वैसा ही किया यानी अपने सिर पर हाथ रख लिया और खुद को ही भस्म कर डाला. इस पौराणिक कहानी को लोग तरह तरह से कहतेसुनते हैं. मसलन, वरदान मिलते ही भस्मासुर ने पहला प्रयोग शिव पर ही करने की ठान ली और वह उन के पीछे दौड़ा तो शिव घबरा गए और जान बचाने के लिए भागतेभागते एक गुफा में छिप गए. तब विष्णु ने उन्हें बचाने के लिए सुंदर स्त्री का रूप रखा और उस का खात्मा किया.

इस कहानी से जो बहुत से सबक मिलते हैं उन में से पहला यही है कि शिव को भस्मासुर को ऐसा खतरनाक वरदान देना ही नहीं चाहिए था. ठीक यही बात या कहानी अग्निवीरों पर भी लागू होती है. मोहाली के लूटमार गैंग का मुखिया इश्मित, दरअसल, अग्निवीर था.

इश्मित सिंह साल 2022 में बतौर अग्निवीर सेना का हिस्सा बना था. उन दिनों उस की तैनाती पश्चिम बंगाल में थी. मई के महीने में उस ने घर जाने की बाबत एक महीने की छुट्टी ली थी लेकिन वक्त पर वह वापस ड्यूटी पर गया नहीं. जाता भी कैसे, वह तो अपना छोटा सा गिरोह बना कर उस का सरगना भी बन बैठा था. कैसे और भी अग्निवीर अपनी राह भटकते जुर्म की दुनिया का हिस्सा बन समाज व देश के लिए खतरा और चुनौती बन सकते हैं, यह बात इश्मित की कहानी से आसानी से समझी जा सकती है.

पकडे जाने के बाद उस के बयान से एक बात साफ़तौर पर जाहिर हुई कि वह सेना में अपनी कम सैलरी से खुश या संतुष्ट नहीं था. अग्निवीर की नौकरी में अनिश्चित भविष्य को ले कर भी वह चिंतित रहता था. इसी वजह से उस ने सेना में वापस जाने से इनकार कर दिया था. लेकिन अब तक वह हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले चुका था और उस के मन के वे सारे डर खत्म हो चुके थे जिन के चलते कोई भी युवा जुर्म के रास्ते पर पांव रखने से पहले डरता है.

लेकिन इश्मित नहीं डरा, यानी 2 साल की सेना की नौकरी उस में देशप्रेम और किसी भी तरह की जिम्मेदारी की भावना पैदा करने में नाकाम रही थी. किसी भी आम युवा की तरह उसे भविष्य की चिंता खाए जा रही थी. यह सवाल बारबार उस के जेहन में सिर उठा रहा था कि नौकरी खत्म होने के बाद क्या? एकमुश्त मिले 10-11 लाख रुपयों से तो जिंदगी गुजर होने से रही. इस मामूली रकम से कोई इज्जतदार कारोबार भी होने से रहा और अहम बात, ऐसे लड़के से कौन लड़की शादी करने तैयार होगी जिस के बेरोजगार होने की तारीख रोजगार मिलने के दिन ही लिखी जा चुकी हो.

इश्मित को कोई और काम भी नहीं आता था लेकिन हथियारों से जरूर वह खिलौनों की तरह खेलने लगा था. एक दिन इन्हीं खिलौनों को रोजगार का जरिया बना लेने का खतरनाक आइडिया उस के दिमाग में आया तो जल्द ही उस ने उसे अमलीजामा भी पहना दिया. यह उस की जिंदगी की एक और बड़ी भूल या गलती साबित हुई. जिन दिनों यह खतरनाक खयाल उस के दिलोदिमाग में पनप रहा था उस वक्त उसे सही सलाह देने वाला कोई नहीं था कि यह गलत है. जुर्म के रास्ते का अंजाम जेल या पुलिस की गोली है और एक सैनिक को इस से बचना चाहिए. हालांकि, यह बात भी सच है कि इश्मित हमेशा के लिए सैनिक नहीं बनने वाला था. 2 साल बाद ही उसे फिर सड़कों पर आ जाना था, यानी, बेरोजगार होने से भी ज्यादा दुखदाई बात रोजगार मिलने के बाद उस का छिन जाना है.

2 साल की ट्रेनिंग ने इश्मित को सैनिक तो नहीं बल्कि मुजरिम बना दिया. इसी उधेड़बुन में एक दिन वह पश्चिम बंगाल से पंजाब की तरफ चल दिया लेकिन रास्ते में ही उतर गया, स्टेशन था कानपुर, मकसद था नए रोजगार के लिए हथियार खरीदना. यानी, उसे यह भी मालूम था कि नाजायज हथियार कहां मिलते हैं. मोहाली में उस के साथी उस का इंतजार कर रहे थे. उन में से एक उस का भाई प्रभदीप सिंह था तो दूसरा बलकरण सिंह था जो उस का दोस्त था.

इस त्रिमूर्ति ने वारदातों को अंजाम देना शुरू कर दिया. ये लोग ऐप के जरिए टैक्सी बुक करते थे और सुनसान में मौका देख ड्राइवर को लूट लेते थे व गाड़ी ले जा कर उस का नंबर बदल कर बेच देते थे. सहूलियत के लिए इश्मित ने बलोंगी में एक कमरा भी किराए पर ले लिया था. 20 जुलाई की रात भी इन तीनों ने चप्पडचिड़ि के नजदीक एक टैक्सी रोकी और ड्राइवर की आंखों में मिर्च झोंक कर गाड़ी ले उड़े. ड्राइवर ने विरोध किया तो इन लोगों ने उसे गोली चला कर डराया भी. लुटेपिटे ड्राइवर ने बलोंगी थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई तो इस बार तीनों पकड़ में भी आ गए.

मोहाली के सदर कुराली थाने में पूछताछ के दौरान जैसे ही इश्मित के अग्निवीर होने की बात पता चली तो पुलिस वालों को पहले तो यकीन नहीं हुआ लेकिन सच सामने था और भारतीय न्याय संहिता की धाराओं 307 (जान से मारने, चोट पहुंचाने या अवरोध पैदा करने की कोशिश के बाद चोरी करना), 308 (जबरन वसूली) और 125 (मानव जीवन को खतरे में डालना) के तहत दर्ज भी हो रहा था. 22 जुलाई को यह बात फैली तो कई सवाल भी उठे जिन में से अधिकतर वही थे जो अग्निपथ स्कीम के ऐलान के बाद विपक्षी दलों ने उठाए थे.

तो क्या इश्मित महाभारत के अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंस गया था. इस सवाल का जवाब बेहद आसान है कि हां, ऐसा ही कुछ हुआ था क्योंकि अग्निवीरों की भरती का फैसला सरकार की नोटबंदी जैसी मूर्खताओं में से एक है जिस के साइड इफैक्ट सामने आने लगे हैं.

यह वह वक्त था जब लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी अग्निवीरों की तुलना अभिमन्यु से कर रहे थे. लेकिन जिद्दी और अड़ियल सरकार हमेशा की तरह कुछ सुनने को तैयार नहीं. अपनी गलती छिपाने की कोशिश में वह और गलतियां किए जा रही है. अगर यह योजना फूलप्रूफ थी तो क्यों भाजपाशासित राज्य अग्निवीरों को रिजर्वेशन देने की घोषणा कर रहे हैं और कुछ अग्निवीरों को रैगुलर नौकरी देने से बाकियों में से कोई इश्मित पैदा नहीं होगा, इस की गारंटी कौन लेगा.

कडवा सच तो यह है कि सरकार हथियार चलाने की ट्रेनिंग दे कर यवाओं को सैनिक नहीं बल्कि उन्हें अपराधी बनाने का गुनाह कर रही है. और दूसरी गलती इस योजना को खत्म न कर इस में सुधार की फुजूल बातें कर रही है. महज 2 साल में एक मामला सामने आया है, इस के बाद कितने आएंगे, यह अंदाजा लगाना मुश्किल है. जब अग्निवीर 4 साल पूरे कर बेरोजगार हो कर घर वापस लौटेंगे तो उन के हाथ में कोई हुनर नहीं बल्कि हथियार होंगे, उन्हें चलाने की प्रैक्टिस होगी और वे इश्मित की तरह इसे रोजगार का जरिया बनाने से चूकेंगे नहीं. अग्निवीर योजना वैसे भी चुनाव में नकारी जा चुकी है.

4 जून के नतीजों में भाजपा उन्हीं राज्यों में ज्यादा दुर्गति की शिकार हुई है जिन से ज्यादा से ज्यादा युवा सेना में जाते हैं और अब अग्निवीर बन रहे हैं. ये राज्य हैं उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब. इस के बाद भी सरकार सबक नहीं ले रही तो घर के न घाट के रह जाने वाले इन अग्निवीरों का भगवान ही कहीं हो तो मालिक है. ये भस्मासुर क्या गुल खिलाएंगे, इस का आगाज सामने है, अंजाम सहज समझा जा सकता है.

दूसरा मोड़: औरत की बेबसी व दर्द बयां करती कहानी

‘पानी, पानी, पानी दो मुझे. गला सूख रहा है मेरा. ओह मां, कहां हो?’ यह सुन कर अस्पताल के कमरे में बैड के पास ही कुरसी पर आंखें मूंदे बैठी किरण हड़बड़ा कर हरकत में आ गई. उस ने देखा, उस की बहू पूजा होश में आ गई है जो इधरउधर देखती हुई पानी मांग रही है.

रात के 3 बज रहे थे. ऐसे में किरण ने डाक्टर को बुला लेना ही उचित सम?ा कर कौलबेल का स्विच दबा दिया. तुरंत ही डाक्टर व नर्स आ पहुंचे और पूजा का चैकअप करने लगे.

कल शाम पूजा खरीदारी कर के घर लौट रही थी, तभी सामने से तेजी से आते ट्रक ने उस की कार को साइड से टक्कर मार दी थी. कार उलट गई थी और ट्रक वाला भाग गया था. हादसा देखने वाले कुछ लोगों ने तुरंत ही पुलिस की सहायता ली और पूजा को अस्पताल पहुंचाया. उस के सिर पर गहरी चोट आई थी. बहुत खून बह चुका था और वह बेहोश थी. घर पर सूचना मिलते ही किरण, उस का पति विवेक और बेटा जयंत अस्पताल पहुंच गए थे.

डाक्टरों ने पूजा का यथासंभव उपचार किया. उसे खून भी चढ़ाया गया, फिर भी उस की हालत स्थिर नहीं थी. जब तक उसे होश नहीं आ जाता, खतरा मंडरा रहा था. अब उसे होश आया देख किरण की जान में जान आई थी.

किरण कुछ देर तो वहीं खड़ी रही, फिर डाक्टर और नर्स को कमरे में छोड़ कर बालकनी में चली गई और खुली हवा में उस ने सांस ली. मद्धिम चांदनी बिखेरता पूर्णिमा का चांद ढलने को था जिस से तारों में और भी चमक आ गई थी. चारों तरफ शांति थी.

थकी हुई सी किरण वहीं बैंच पर बैठ गई. उस की आंखों से नींद कोसों दूर थी. आंखों के सामने थी उस के अतीत की किताब जिस के पन्ने खुलते जा रहे थे.

किरण मध्यवर्गीय परिवार की बेटी थी. वह 3 बहनों में सब से बड़ी थी, इसलिए जिम्मेदारी का एहसास उसे बचपन से ही कराया गया था. ग्रेजुएशन के बाद उसे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई और उस के लिए मानो समय वहीं रुक गया. 4-5 साल के अंदर ही उस की दोनों छोटी बहनों ने अपनी पसंद के लड़कों से शादी कर के घर बसा लिए लेकिन किरण वहीं की वहीं थी. वह अब भी अविवाहित थी.

पिताजी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. मातापिता का सहारा अब किरण ही थी. अब उस की शादी कर देनी चाहिए, यह खयाल तो उन्हें आता था लेकिन इस दिशा में वे कोशिश कहां कर रहे थे. किसी चमत्कार के ही इंतजार में थे कि दूल्हा खुदबखुद चल कर आएगा.

वैसे भी, किरण शांत और सुशील स्वभाव की लड़की थी. ऐसी लड़कियों से मांबाप की इज्जत को भी कोई खतरा नहीं होता, फिर भला वे उस की शादी की ज्यादा चिंता क्यों करें.

किरण जब 35 वसंत पार कर चुकी तब पड़ोसिन रमा चाची ने एक रिश्ता किरण के लिए बताया. लड़का विधुर वकील था. पत्नी का हाल ही में निधन हो चुका था और उस के 5 साल का एक बेटा भी था. किरण ने कोई एतराज नहीं किया. मांबाप भी मान गए और उस की शादी विवेक के साथ हो गई.

ससुराल पहुंचते ही सासससुर ने नन्हे गोलमटोल जयंत को किरण के हवाले कर दिया. किरण ने भी खुशी से उसे अपना लिया और मां का प्यार देने की भरसक कोशिश की. लेकिन जयंत को उसे ‘मौसी’ कहने के लिए सम?ाया गया था, सो, वह उसे मौसी ही कहता था. सिर्फ जरूरत पड़ने पर ही वह किरण से बात करता था. बाकी का समय उस का दादादादी के साथ ही गुजरता था.

विवेक का भी किरण से कोई खास लगाव नहीं था. वह अब भी अपनी मृत पत्नी की यादों में खोया रहता था और बाकी समय काम में व्यस्त रहता. उस के लिए भी किरण की कोई अहमियत नहीं थी. कभी किसी मामले में वह उस की राय नहीं लेता था. किरण मन ही मन दुखी रहती. सोचती कि उस ने क्यों शादी की? क्या शादी का मतलब एक घर से निकल कर दूसरे घर आ कर रहना ही होता है?

विवेक ने उस से शादी से पहले ही कह दिया था कि जयंत के अलावा उसे अब कोई बच्चा नहीं चाहिए और किरण ने भी उस समय हामी भर दी थी. लिहाजा, किरण अपने बच्चे को जन्म भी नहीं दे सकती थी. फिर भी उस की कोशिशें जारी थीं कि जयंत उसे मां सम?ा कर प्यार करे. विवेक उसे पत्नी समझ कर अपनाए और सासससुर की वह लाड़ली बहू बन कर रहे.

वैसे, किरण को रुपएपैसे की कमी नहीं थी. समाज में वह एक इज्जतदार और अमीर वकील की पत्नी का दर्जा पा चुकी थी.

समय गुजरता जा रहा था. पहले सास और एक साल बाद ससुर भी गुजर गए. जयंत अब 12 साल का हो गया था. अब तो वह किरण को उलटे जवाब देना भी सीख गया था. अपने मित्रों के सामने भी वह किरण को अपमानित कर देता था. विवेक से इस बात की शिकायत करने के बारे में तो किरण सोच भी नहीं सकती थी क्योंकि विवेक स्वयं भी तो ऐसा ही कर रहा था.

किरण अब पछता रही थी कि बच्चे वाले विधुर पुरुष के साथ शादी कर के उस ने बड़ी गलती की थी, लेकिन अब क्या हो सकता था. उस के मांबाप भी अब नहीं थे और बहनें तो थीं ही पराई. अब जीवन ऐसे ही गुजरता जाएगा, किसी दूसरे मोड़ के बारे में तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि वह सुखदायी होगा.

बहरहाल, किरण की अच्छी देखभाल से ही जयंत पढ़ाई में अव्वल आता रहा और देखते ही देखते उस ने इंजीनियरिंग भी कर ली. कुछ ही दिनों में उसे अच्छी नौकरी भी मिल गई. अब वह अपनी सफलता का सारा श्रेय अपने पिता को ही देता था, मानो घर में वह सिर्फ पिता के साथ ही रह रहा था. कहता था, ‘मेरी मां तो बचपन में ही गुजर गई. मौसी कच्चापक्का जैसा भी खाना सामने धर देती थी, मैं खा लेता था. वह तो पापा ही थे जिन्होंने मुझे कभी मां की कमी खलने नहीं दी.’

ऐसा कहते वह यह भूल जाता था कि उस के जरा भी बीमार पड़ने पर किरण रातरात भर जाग कर कैसे उस का ध्यान रखती थी, दवाइयां देती थी, डाक्टर के पास ले जाती थी. विवेक के पास समय ही कहां होता था. स्कूल से ले कर कालेज तक उस की किताबें और दूसरी चीजों को किरण ही सहेज कर रखती थी जिस से कि वह अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा सके.

खैर, जयंत अब एक होनहार, जवान और कमाऊ इंजीनियर था. वह विवेक जैसे मशहूर वकील का बेटा था. उस के लिए रिश्तों की कमी नहीं थी.

पूजा भी अच्छे खानदान की सुंदर कन्या थी. जयंत और विवेक को पसंद आ गई. किरण की राय जानने का तो कोई सवाल ही नहीं था और शादी हो गई. पूजा बहू बन कर घर में आ गई.

शुरू में तो पूजा किरण की इज्जत करती थी. एकदो बार किरण को ‘मम्मी’ कह कर भी उस ने संबोधित किया लेकिन जयंत की देखादेखी जल्दी ही ‘मौसी’ कहना शुरू कर दिया.

अब जयंत के साथसाथ किरण को पूजा के नखरे भी उठाने पड़ते थे. उस की पसंद का खाना बनाना पड़ता था. आदतन वह अपने कपड़े कहीं भी फेंक कर चल पड़ती थी. समेट कर न रखने पर किरण को डांटती भी थी.

एक बार पूजा किसी बात को ले कर किरण से बहुत खुश हुई और ‘मौसी, ले लो’ कह कर उसे 500 रुपए का नोट पकड़ा दिया. उस समय किरण का मन हुआ कि वह दहाड़ें मार कर रोए लेकिन वह चुप रही, मानो सहनशक्ति का दूसरा नाम ही किरण था.

कभी फुरसत मिलने पर किरण सोचती थी कि जिस दूसरे सुखद मोड़ की वह कल्पना करती है वह मोड़ साकार न होने वाली कल्पना बन कर ही रह जाएगा.

किरण कभी पूजा के बारे में सोचने लगती कि पूजा की दोनों बहनें अमेरिका में हैं. मम्मीपापा भी ज्यादातर वहीं रहते हैं. फिर भी पूजा मेरी तरह अकेली नहीं है. ससुराल में वह प्यारी, लाड़ली बहू और पति की प्रेमिका है. मायके में वह प्यारीदुलारी गुडि़या है. मेरा तो कहीं भी, कोई भी नहीं.

पूजा ने बेटे को जन्म क्या दिया, मानो घर खुशियों से भर उठा हो. अब किरण को फुरसत मिलनी बिलकुल ही बंद हो गई. नन्हे ‘चिपी’ के साथ किरण के दिन गुजरने लगे. अब वह दादी बन गई थी लेकिन जानती थी कि चिपी जब बोलना शुरू करेगा, उसे मौसी के अलावा कुछ नहीं कहेगा.

चिपी जब एक साल का हुआ, उस ने एकएक शब्द बोलना शुरू किया. अब तक वह मौसी कहना सीखा नहीं था. विवेक को वह ‘दा’ कहता था तो किरण को भी वह ‘दा’ ही कहता था.

इस पर किरण को जरा सी आशा बंध गई कि किसी दिन वह दादी भी कह देगा और कल यह हादसा हो गया. जब पूजा को अस्पताल पहुंचाया गया था तब उस की हालत देखते हुए डाक्टर ने विवेक की तरफ मुखातिब हो कह दिया था, ‘हम अपनी तरफ से बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता. केस बहुत ही गंभीर है. अगर और कुछ घंटे यह होश में न आई तो आप सम?ा सकते हैं कि क्या होगा.’

उस समय विवेक, जयंत और चिपी को गोदी में उठाए किरण सभी तो वहां मौजूद थे. फूटफूट कर रोते जयंत को विवेक और किरण दिलासा दे रहे थे कि बेटे, पूजा को कुछ नहीं होगा. डाक्टरों पर भरोसा रखो. सब ठीक होगा.

इस समय किरण इस परिवार की एक सदस्या थी. उसे कोई अलग नहीं समझ रहा था. शायद दुख की घडि़यों में अपने और पराए में फर्क करना लोग भूल जाते होंगे.

महिला वार्ड में पूजा के पास रहने की इजाजत किसी एक को, वह भी किसी महिला को ही मिल सकती थी, सो, किरण ने यह जिम्मेदारी खुद पर ली और विवेक, जयंत तथा चिपी को घर भेज दिया.

पूजा के साथ अब अस्पताल के कमरे में किरण ही अकेली थी. आंखें बंद कर के बिस्तर पर बेहोश पड़ी पूजा को देख कर किरण मन ही मन उस के ठीक होने के लिए प्रार्थना कर रही थी. शायद उस की प्रार्थना सुन ली गई और पूजा होश में आ गई.

डाक्टर और नर्स अब भी अंदर ही थे. किरण बाहर बैठी उन का इंतजार कर रही थी. करीब आधे घंटे बाद नर्स ने आ कर किरण को सूचना दी कि खतरा टल गया है. पूजा ठीक है और वह कमरे में जा कर पूजा के पास बैठ सकती है. नर्स और डाक्टर चले गए. किरण कमरे में आ गई. पूजा की चादर ठीक की और कुरसी पर बैठ गई.

पूजा होश में थी और किरण की तरफ ही अपलक देख रही थी. शायद कुछ कहना भी चाह रही थी पर कमजोरी या दवाइयों के असर के कारण वह जल्दी ही नींद की आगोश में चली गई. किरण ने भी राहत की सांस ली और कुरसी पर बैठेबैठे ही उस की आंख लग गई.

15 दिन अस्पताल में रह कर पूजा घर आई. अस्पताल में किरण ने पूजा की जो देखभाल की वह देख कर तो कोई भी यही कहता कि यह पूजा की सास नहीं बल्कि मां है. घर आ कर भी वह पूजा की सेवा में लगातार जुटी हुई थी. डाक्टर के मुताबिक तो किरण की सही देखभाल ही पूजा को बचाने में कारगर साबित हुई थी. विवेक और जयंत की आंखों में भी अब किरण के प्रति आदरभाव झलकने लगा था.

एक दोपहर विवेक घर पर ही थे और जयंत औफिस गया हुआ था. पूजा सोई हुई थी और किरण पास ही कुरसी पर बैठी हुई थी. तब विवेक ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘किरण, तुम इतना प्यार करती हो अपनी बहू से? सच में, अगर तुम्हारा प्यार और आत्मीयतापूर्ण देखभाल पूजा को नसीब न होती तो बेचारी का न जाने क्या हुआ होता. सच में तुम्हें वह इतनी प्यारी है?’’ मानो विवेक भावना के प्रवाह में बह कर किरण का मन टटोलने की कोशिश कर रहे थे.

‘‘नहीं, मैं प्यार नहीं करती पूजा से,’’ किरण लगभग चिल्लाई.

यह सुन कर विवेक को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. न ही किरण से दोबारा कुछ पूछने की वह हिम्मत जुटा पाए. कुछ देर चुप्पी छाई रही.

‘‘विवेकजी, मैं किरण से यानी अपनेआप से प्यार करती हूं, क्योंकि मुझसे से कोई प्यार नहीं करता,’’ चुप्पी तोड़ती हुई किरण एक छोटे बच्चे की तरह बोली, ‘‘सोचो, अगर पूजा को कुछ हो जाता तो आप की ही तरह जयंत की भी दूसरी शादी हो जाती. जयंत की दूसरी पत्नी घर में आ जाती.

क्या जयंत उस से प्यार करता? क्या चिपी उसे मौसी न कहता? क्या वह आप की लाड़ली बहू होती? नहीं होती न? वह बिलकुल मेरे जैसे होती. अरे, दूसरी किरण होती वह. प्यार नाम की चीज से कोसों दूर, ‘‘कहती हुई किरण ने एक लंबी सांस ली फिर आगे बोली, ‘‘देखिए, मैं ने उस दूसरी किरण को जन्म लेने ही नहीं दिया. अच्छा किया न मैं ने? कहो मैं ने अच्छा किया या बुरा?’’

विक्षिप्त सी किरण विवेक को ?िं?ाड़ कर पूछ रही थी. किरण को पता नहीं था कि पूजा जाग गई है, सुन रही है और जयंत भी न जाने कब आ कर पास ही खड़ा उस की बात सुन रहा है.

‘‘जवाब क्यों नहीं देते, मैं ने अच्छा किया या बुरा?’’ किरण ने फिर पूछा तो विवेक ने कुछ कहे बिना उस का हाथ कस कर पकड़ लिया, मानो अपनी अब तक की गलतियों की वे क्षमा मांग रहे हों.

तभी जयंत आगे बढ़ा और किरण को गोद में उठा कर उस का माथा चूमता हुआ बोला, ‘‘मां, मेरी प्यारी मां, तू मेरे सामने थी और मैं तु?ो तसवीर में देखता रहा,’’ कहते हुए जयंत ने उसे बिस्तर पर पूजा के साथ लिटाया. इधर विवेक के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे और जयंत अब किरण को चुप कराने की चेष्टा कर रहा था.

‘‘किरण, तुम मेरे जीवन में उजाला ले कर आईं, फिर भी मैं ने तुम्हारी कद्र नहीं की. इस घर की स्वामिनी होते हुए भी मैं ने तुम्हें तुम्हारे हक से वंचित रखा. जयंत और पूजा भी मेरा ही अनुसरण करते हुए तुम्हारी उपेक्षा करते रहे. इन सब का जिम्मेदार मैं ही हूं. न जाने क्यों, मैं ने तुम्हारे से, वास्तविकता की दुनिया से दूरी बनाए रखी, लेकिन अब मैं तुम्हारे पास आ गया हूं. अब मु?ो अपना लो, किरण,’’ कहते हुए विवेक ने किरण का हाथ कस कर पकड़ लिया.

अब किरण का मन धीरेधीरे शांत हो रहा था. वह चुप थी. छत की तरफ टकटकी लगाए देख रही थी. उस के साथ लेटी हुई पूजा अब हरकत में आ गई और उस का दूसरा हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘बोलो मम्मी, मैं आप की कौन हूं? बेटी हूं या बहू? बताइए?’’ फिर चिपी को संबोधित करती हुई बोली, ‘‘चिपी, आप दादी को ‘दा’ क्यों कहते हो? बोलो, दादी.’’ और चिपी भी जब तोतली जबान में दादी बोला तो किरण हंस पड़ी.

उसे लगा, जिस दूसरे सुखदायी मोड़ की वह कल्पना किया करती थी वह आ चुका है. पहला मोड़ कंकड़, पत्थर और कांटों भरा था तो दूसरा मोड़ हरियाली, महकते फूल और प्यार की बौछारों से सराबोर है. इंतजार रंग लाया है. अब उस की बाकी की जिंदगी इसी मोड़ पर आगे बढ़ती जाएगी, इस में कोई शक नहीं.

सहयात्री : संबंधों की परिभाषा बुनती कथा

रेलवे स्टेशन पर एसी कोच में बैठी ट्रेन चलने का इंतजार कर रही शालिनी का बेटा रमेश अभी सारा सामान ठीक से लगा कर बाहर निकला ही था कि ट्रेन चलने की सीटी बज गई. मां को चलने से पहले खिड़की से झांकते हुए विदाई के अंदाज में मुसकराते हुए अपने मन को सम?ाने का प्रयास कर ही रहा था कि रमेश ने पास से निकले 70 वर्षीय राधेश्याम को देखा, जो ट्रेन के उसी डब्बे के दरवाजे पर चढ़ने की जल्दी में थे. उन का एक बैग जल्दी के चलते रमेश के कुछ ही आगे गिर गया.

राधेश्याम की उम्र शरीर की शिथिलता के सामने हार मान गई थी. तभी उस की मदद करने के लिए रमेश दौड़ा. इधर शालिनी ने अचानक अपने बेटे को दौड़ते देखा तो चिंतित सी दरवाजे की तरफ लपकी. जब तक शालिनी पंहुचती तब तक रमेश राधेश्याम के पास तक ट्रेन के डब्बे में सामान सहित सुरक्षित पहुंचा चुका था. रमेश का तो मन था कि वह अंदर सीट तक छोड़ कर आए मगर समय की कमी थी. ट्रेन कभी भी चल सकती थी. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े राधेश्याम कृतज्ञता से रमेश के हाथ को पकड़े धन्यवाद कर रहे थे और रमेश इसे अपना फर्ज बता रहा था कि तभी ट्रेन ने दूसरी सीटी भी बजा दी और शालिनी ने मुसकराते हुए दरवाजे से ही रमेश को विदा किया.

चेहरे की भावभंगिमा से ही राधेश्याम सम?ा तो रहे थे कि शालिनी और उस लड़के के बीच कोई आत्मीय संबंध है. फिर भी जिज्ञासा के चलते मदद से खुश राधेश्याम ने वहीं खड़ेखड़े शालिनी से पूछ लिया, ‘‘मैडम, यह आप का बेटा है?’’

मुसकराती शालिनी ने कहा, ‘‘जी हां.’’

ट्रेन पकड़ने की खुशी से गदगद राधेश्याम ने कहा, ‘‘बड़ा ही सुशील बच्चा है. आप खुशकिस्मत हैं.’’ सहमति में गरदन हिलाते हुए शालिनी ने मुसकराते हुए राधेश्याम की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘यह सारा सामान आप ही का है?’’

‘‘जी हां, मैं अपनी बेटी के पास लंबी अवधि के लिए जा रहा हूं, इसलिए सामान थोड़ा ज्यादा हो गया.’’

‘‘लाइए, मैं लिए चलती हूं,’’ कहते हुए शालिनी एक हाथ से एक थैला पकड़ दूसरे हाथ से कोच का दरवाजा खोलते हुए आगे बढ़ी.

अपने दोनों हाथों में बाकी सामान लिए राधेश्याम भी पीछेपीछे चल दिए. दोनों हाथों में सामान लिए लाचार राधेश्याम की सुविधा को देखते हुए शालिनी ने दरवाजे को देर तक पकड़े रखा. शालिनी ने पूछा, ‘‘आप का बर्थ नंबर कौन सा है?’’

‘‘जी, सीट नंबर 7 है.’’

‘‘अरे वाह, मेरा सीट नंबर 9 है. मतलब आमनेसामने की ही सीट है,’’ दोनों पलभर के लिए मुसकरा दिए. सामान अपनी जगह रख चैन की सांस लेते हुए राधेश्याम ने कहा, ‘‘अगर आज आप के बेटे ने मदद न की होती तो शायद मेरी ट्रेन ही छूट जाती.’’

सामने की सीट पर शालीनता से बैठी शालिनी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह तो उस का फर्ज था. अगर आप की जगह मैं होती तो क्या आप का बेटा मेरी मदद न करता?’’

‘‘आप सही कह रही हैं,’’ राधेश्याम ने सहमति जताते हुए कहा.

शालिनी ने अपने पर्स से तब तक एक किताब निकाल ली. ऊपर लिखी भाषा को पढ़ने में असमर्थ राधेश्याम ने पूछा, ‘‘यह किस भाषा की किताब है?’’

‘‘तेलुगू है,’’ शालिनी ने छोटा सा उत्तर दिया.

‘‘अच्छा तो आप आंध्र प्रदेश से हैं?’’ राधेश्याम मुसकराते हुए अंदाज में बोले.

‘‘जी, वर्तमान में मैं समाजसेविका हूं और अभी मैं अपने बेटे के पास दिल्ली आई हुई थी. मैं राज्य प्रशासन में सीनियर औडिटर के पद से 5 साल पहले ही सेवानिवृत्त हुई हूं. कोई खास काम नहीं रहता, इसलिए थोड़ी समाजसेवा हो जाती है और मन भी लगा रहता है. कभीकभी बेटे के पास दिल्ली चली आती हूं. और आप?’’ प्रश्नवाचक चिह्न के साथ शालिनी ने राधेश्याम की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘जी, मेरा नाम राधेश्याम भटनागर है और मैं दिल्ली में ही अध्यापक था. लगभग 10 साल हो चुके हैं सेवानिवृत्ति के. मैं अपनी बेटी के पास भोपाल जा रहा हूं. वह वहां प्रोग्राम एनालिस्ट के पद पर है. उस के 2 जुड़वां बच्चे हैं, बेटी को बच्चे संभालने में दिक्कत न हो, इसलिए आजकल ज्यादातर मैं बेटी के पास ही रहता हूं. बस, अपना सालाना जीवित प्रमाणपत्र देने के लिए आया था. सुनते ही दोनों एकसाथ हंस पड़े.
राधेश्याम ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘कभी ये दिन भी देखने पड़ेंगे, सोचा न था.’’

शालिनी ने किताब से नजरें उठाते हुए राधेश्याम की तरफ प्रश्नवाचक चिह्न के साथ देखा और पूछा, ‘‘ऐसे दिन का क्या मतलब?’’

राधेश्याम तपाक से बोले, ‘‘मतलब यही कि हमें खुद ही सिद्ध करना पड़ेगा कि हम जिंदा हैं.’’

‘‘यह बात तो आप ने सही कही,’’ शालिनी ने राधेश्याम की बात में सहमति जताते हुए कहा.

‘‘लेकिन सरकार भी क्या करे और कोई चारा भी तो नहीं और फिर हमें पैंशन तो मिल रही है न. यह एक बड़ा सुख है. साल में एक बार की परेशानी जरूर है, लेकिन कम से कम बाकी सब परेशानियां तो नहीं हैं,’’ शालिनी ने राधेश्याम की बात से सहमति के साथ अपना पक्ष रखते हुए कहा.

मगर राधेश्याम ने फिर भी अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘‘मैं सब सम?ाता हूं, मैडम. मगर जब जिंदा होने का प्रमाण देता हूं तब थोड़ा बुरा सा महसूस तो होता ही है.’’

‘‘आप की बात भी सही है,’’ शालिनी ने मुसकराते हुए कहा, साथ ही प्रश्न किया, ‘‘आप की बेटी के जुड़वां बच्चों की देखभाल के लिए आप अकेले क्यों? आप की पत्नी…’’ कह कर शालिनी रुक गई.

राधेश्याम ने हलकी सी गरदन नीचे की ओर खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘जी, वे 4 साल पहले ही हमारा साथ छोड़ कर भाग गईं.’’ एकदम आश्चर्य से भरी शालिनी ने एक बार फिर किताब से नजरें राधेश्याम की तरफ करते हुए चश्मे के अंदर से ?ांकते हुए देखा. ‘‘वह अपने पिता के पास है,’’ राधेश्याम ने मानो शालिनी के मन में उठ रहे प्रश्न का मुसकराते हुए जवाब दिया. शालिनी के मन में अभी संवेदना के भाव आए ही थे कि राधेश्याम ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘हमारी मैडम तो दूसरी दुनिया में सुकून से हैं.’’

शालिनी को राधेश्याम का मजाक करने के अंदाज में अपनी दिवंगत पत्नी के चले जाने का इस तरह से बताना कुछ अच्छा नहीं लगा. शालिनी ने शिकायतभरे अंदाज में मुंह बनाते हुए उन से कहा, ‘‘यह भी कोई बात हुई? कोई इस तरह परिचय देता है क्या अपनी दिवंगत पत्नी का?’’

राधेश्याम, जो अब तक अपनी बात पर खुद ही हंस रहे थे, मुसकराते हुए कटाक्षभरे अंदाज में बोले, ‘‘अरे मैडम, दूसरी दुनिया में तो वे अचानक ही चली गईं मुजे अकेला छोड़ कर. अब तो वे वहां सुखी हैं और मैं यहां अकेला बुढ़ापे के दिन काट रहा हूं. जब तक वे साथ रहीं, मेरे पास समय नहीं था. अब मेरे पास समय है तो वे मेरे साथ नहीं हैं. अब इस बेवफा पत्नी को आप ही कहो कि छोड़ कर भागना न कहूं तो और क्या कहूं?’’

शालिनी सैद्धांतिक रूप से राधेश्याम से सहमत तो न थी मगर इतनी कष्टभरी घटना को भी मजाक में कह देने के राधेश्याम की इस बेबाक अंदाज की कायल हो गई. अब उस का मन किताब से ज्यादा सामने बैठे राधेश्याम की बातों में लग रहा था.

शालिनी ने गौर से देखा, पूरी तरह से सफेद हो चुके रेशमी बालों के साथ ही सफेद भौंहों के नीचे दिख रही दोनों आंखों में अभी भी चमक साफ दिख रही थी. आंखों में उम्र के निशान दूरदूर तक न थे. शालिनी को राधेश्याम की बेबाक बातें अच्छी लग रही थीं जबकि शालिनी के सामने बैठे राधेश्याम शालिनी से एकदम उलट थे.

इधर राधेश्याम बोलते ही जा रहे थे, ‘‘हम तो टीचर हैं, मैडम, जिंदगीभर बोलने का ही खाया है. आप ठहरीं सीनियर औडिटर. जीवनभर सब के काम में कमियां ही निकाली होंगी,’’ और यह कह कर राधेश्याम हंस पड़े.

शालिनी को राधेश्याम की बात एक बार फिर अच्छी नहीं लगी मगर अचानक ही शालिनी ने शांत मन से राधेश्याम की बात का मनन किया तो पाया कि मजाक में ही सही मगर जीवनभर उस के कार्य करने और विभागीय जिम्मेदारियों के चलते वह घर पर भी हमेशा सब में कमियां निकालने और सुधारने में ही तो लगी रही.

उसे याद आया कि एक बार उस के दिवंगत पति प्रभाकरण जोकि उसी के विभाग में प्रशासनिक पद पर थे, ने भी यही कहा था मगर तब शालिनी अपने पति पर बहुत गुस्सा हुई थी और पूरे

1 हफ्ते तक घर का माहौल भी खराब रहा था. मगर अब इन सब बातों से क्या फायदा? शालिनी अपनी स्मृतियों से बाहर आते हुए राधेश्याम से पूछ बैठी, ‘‘अच्छा, तो आप को कैसे पता, मैं घर पर औडिटर ही बन कर रही?’’

एक बार फिर मुसकराते हुए राधेश्याम ने कहा, ‘‘मैडम, मैं भी तो जिंदगीभर अपने घर में टीचर बन कर ही बोलता रहा और अब भी देखो, बोलता ही रहता हूं.’’ और फिर दोनों एकसाथ हंस पड़े.

शालिनी बहुत दिनों बाद इतना खुल कर हंस रही थी. उसे यह खुलेमन और बक्कड़ सहयात्री राधेश्याम, किताब से ज्यादा रुचिकर लगा.

शालिनी ने किताब को एक तरफ रख दिया और मुसकराते हुए उस की बातों में खो गई. देररात आखिर दोनों ने अपनाअपना खाना निकाला और आत्मीयताभरे माहौल में एकदूसरे के खाने का हिस्सा भी बने. दोनों की आदतें एकदम विपरीत होने के बावजूद एकदूसरे को सम?ाने की कोशिशें भी जारी थीं.

राधेश्याम ने सोने से पहले अपनी दवाइयां लीं और लेटते हुए शालिनी की तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘मैडम, आप मेरी बेटी का नंबर नोट कर लीजिएगा.’’ राधेश्याम की इस अजीब सी हरकत पर शालिनी को एक बार फिर से आश्चर्य हुआ.

राधेश्याम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अगर मैं सुबह नहीं उठा तो कम से कम आप मेरे घर पर फोन कर सूचना तो दे देंगी न,’’ और कह कर हंस दिए.

शालिनी को राधेश्याम का यह मजाक बिलकुल पसंद नहीं आया. भला कोई अपने मरने की बात किसी अजनबी से इस तरह कहता है क्या? राधेश्याम समझ गए और अपनी बात पलटते हुए बोले, ‘‘मैडम, मैं तो सुबह 5 बजे अपने स्टेशन पर उतर जाऊंगा तब तक आप तो सोती रहेंगी. हम दोनों के पास बातें करने का मन हो तो नंबर तो होना चाहिए कि नहीं?’’

शालिनी ने राधेश्याम का नंबर पूछ कर अपने मोबाइल में ‘राधेश्याम सहयात्री’ के नाम से सेव भी कर लिया और ‘गुड नाइट’ कह कर कंपार्टमैंट की लाइट बंद कर दी.

इन बातों को बीते अब लगभग 2 साल हो चले हैं. शालिनी के एकाकी जीवन में किताबें थीं या रोज सुबह ‘राधेश्याम सहयात्री’ की तरफ से आने वाला ‘सुप्रभात’ का एक संदेश, जिस की अब शालिनी को आदत पड़ चुकी थी. शालिनी को रोज की दिनचर्या से जब भी समय मिलता वह राधेश्याम के सुप्रभात के संदेश पढ़ लिया करती और उत्तर भी जरूर देती.

यों तो राधेश्याम के सुप्रभात के संदेशों में लिखी ज्यादातर बातें या तो सैद्धांतिक होतीं जो उम्र की इस दहलीज पर व्यर्थ ही लगतीं. मगर सीखने की कोई उम्र नहीं होती. फिर भी इतने संदेशों में से 1-2 बार काम की बात मिल ही जाती थी, जिस से शालिनी को अच्छा लगता था. सब से ज्यादा मुसकराहट शालिनी के चेहरे पर अभी भी उस छोटी सी मुलाकात के दौरान राधेश्याम द्वारा की गई छोटीछोटी नादानियां थीं जिन्हें याद कर शालिनी अभी भी कभीकभी मुसकरा लेती थी.

आज अचानक शालिनी की तबीयत बहुत तेजी से खराब हुई. शालिनी के बेटे रमेश को जैसे ही पता चला, औफिस छोड़ भागता हुआ आया और शालिनी को सीधे हौस्पिटल में भरती कराया. तबीयत खराब होने के चलते अगले 3 दिनों से शालिनी आईसीयू में भरती रही. डाक्टर शालिनी की स्थिति के बारे में कुछ नहीं बता रहे थे. रमेश से डाक्टर ने कह दिया है कि अगले 24 घंटे बहुत संवेदनशील हैं. कुदरत ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा.

शालिनी के कमरे में बैठा रमेश आशाभरी नजरों से अपनी मां की तरफ देख ही रहा था कि अचानक शालिनी का फोन बज उठा. उस ने देखा स्क्रीन पर ‘राधेश्याम सहयात्री’ लिखा था. जिज्ञासा के साथ रमेश ने फोन उठाया मगर इस से पहले कि वह ‘हैलो’ कह पाता, उधर से एक महिला की आवाज आई, ‘‘शालिनीजी हैं?’’

‘‘जी नहीं, मैं उन का बेटा रमेश बोल रहा हूं.’’ रमेश ने यह कह कर प्रश्नवाचक अंदाज के साथ पूछा, ‘‘आप कौन?’’ उधर से महिला की आवाज आई, ‘‘जी, मैं राधेश्यामजी की बेटी अनिता बोल रही हूं.’’

अनिता बोल रही थी, ‘‘मेरे पिताजी को दिवंगत हुए 6 महीने हो चुके हैं. उन्होंने मरने से पहले मुझे एक जिम्मेदारी दी थी कि मैं रोज शालिनीजी के इस नंबर पर एक सुंदर सा सुप्रभात का संदेश भेजा करूं और अगर लगातार 3 दिनों तक उधर से कोई उत्तर न आया तो मैं ने सोचा कि फोन लगा कर शालिनीजी की तबीयत के बारे में पूछ लूं. पिछले 4 दिनों से सुप्रभात संदेश का शालिनीजी की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण मैं ने उन की तबीयत के बारे में जानने के लिए यह फोन लगाया है.’’

रमेश कुछ जवाब देता तब तक शालिनी के कमरे से मौनिटर पर लगी हृदयगति दिखाने वाली रेखा एक शांत आवाज के साथ सीधी दिशा में चलने लग गई थी.

इस ‘सहयात्री’ वाले रिश्ते को महसूस कर रमेश स्तब्ध था. उधर से रमेश का उत्तर सुनने के लिए लगातार ‘‘हैलो… हैलो…’’ की आवाज आ रही थी.

रमेश ने रुंधे गले से कहा, ‘‘आप के पिताजी की सहयात्री आज वापस उसी डब्बे में जा कर बैठ गई हैं, जहां आप के पिता पिछले 6 महीने से उन का शायद इंतजार कर रहे हैं.’’

लोकेश

लोकेश विद्यालय में नयानया आया था. वह 8वीं कक्षा का छात्र था. वह अधिकतर गंभीर रहता था. बहुत कम बोलता था और कक्षा में एकदम अलग बैठता था. खेलते समय भी वह एक कोने में अकेला खड़ा दिखाई देता. उस का कोई दोस्त नहीं था. लोकेश इतना उदास क्यों रहता है, यह हम नहीं जान सके, किंतु उस के कुछ शरारती साथियों ने उस के इस सीधेपन का खूब लाभ उठाया. वे जबतब उसे चिढ़ाते. उस की भाषा पर उस की मैदानी बोली का प्रभाव था इसलिए उस के बोलने के लहजे का बच्चे खूब मजाक उड़ाया करते थे. पर लोकेश बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए चुपचाप उन की फबतियां सुनता रहता. कभीकभी तो बच्चों को इस बात पर भी गुस्सा आता कि वह उन के चिढ़ाने का बुरा क्यों नहीं मानता और उन की बातों का उत्तर क्यों नहीं देता?

लोकेश के पिता मनोरंजन कर अधिकारी थे. किसी कारण दंड के रूप में उन का स्थानांतरण शहर से कसबे में कर दिया गया था. कई वर्ष से एक ही स्थान पर रहने से उन का परिवार ऊब गया था और इस ऊब का असर लोकेश पर भी पड़ा था. उस के पिता तो पहले ही चिड़चिड़े स्वभाव के थे और इस तबादले से तो वे और भी चिड़चिड़े हो गए थे. पहाड़ में मैदान जैसी सुविधाएं नहीं होतीं इसलिए वे बारबार सरकार को कोसते रहते थे. घर में अकसर तनाव का माहौल रहता था. उस तनाव का असर लोकेश पर भी पड़ता था और इसीलिए वह कक्षा में गंभीर बना रहता था. यह उन दिनों की बात है, जब पहाड़ में पहाड़ी क्षेत्र को अलग राज्य बनाए जाने का आंदोलन चल रहा था. आएदिन हड़ताल, जुलूस, सभा, गोष्ठियां होती रहती थीं. इस आंदोलन के कारण लोगों में पहाड़ी और मैदानी का भेदभाव कूटकूट कर भर गया था. यह भावना बच्चों में भी आ गई थी. वे अकसर अपने मैदानी साथियों को कहते कि जब उत्तराखंड राज्य बनेगा तो तुम्हें तो यहां से भागना पड़ेगा.

आंदोलनकारियों द्वारा अकसर स्कूल बंद करा दिए जाते थे और बच्चों को अध्यापकों सहित जुलूस में शामिल कर लिया जाता था. विद्यालय में पढ़ रहे मैदानी अभिभावकों के बच्चे जुलूस में शामिल होने में अकसर सकुचाते थे. पहाड़ी बच्चे मैदान विरोधी नारे लगाते समय अकसर उन्हें चिढ़ाते. लोकेश का दूसरे बच्चों के साथ घुलनेमिलने में समय लगने का एक और कारण था, उस का मैदानी होना.

आंदोलन ने जब उग्र रूप ले लिया तो सारे कर्मचारी हड़ताल पर चले गए, महिलाएं तक सड़कों पर उतर आईं. सरकारी स्कूलकालेज बंद करा दिए गए. प्राइवेट स्कूलों को भी जबरदस्ती बंद करा दिया गया. प्राइवेट स्कूलों में तो जब फीस आती है, तभी अध्यापकों का वेतन निकलता है. एक महीने तक भी हड़ताल नहीं खुली तो हम ने घरघर संपर्क कर चुपकेचुपके विद्यालय लगाने और बच्चों को पढ़ाने का निश्चय किया, लेकिन आंदोलनकारियों को जैसे ही भनक लगती, वे स्कूल बंद कराने आ धमकते. कई सरकारी कर्मचारी भी वेतन मिलना बंद होने के डर से कार्यालय खोल दिया करते थे. ऐसे लोगों को आंदोलनकारी ‘गद्दार’ कहते और एक नारा लगाते थे, ‘गद्दारों की एक दवाई, जूताचप्पल और पिटाई.’

ऐसे चुपकेचुपके काम करने वालों के लिए आंदोलनकारियों ने एक और नुसखा निकाल लिया था. आंदोलनकारी महिला और पुरुष झुंड में जाते और स्कूल या कार्यालय खोलने वाले कर्मचारियों के मुख पर कालिख पोत देते और हाथों में जबरदस्ती चूडि़यां पहना देते. फिर उन लोगों को जुलूस में शामिल कर लेते. इस डर से कई लोगों ने चोरीचोरी काम करना बंद कर दिया. हम ने विद्यालय बंद नहीं किए और विद्यार्थियों को पढ़ाते रहे. एक दिन आंदोलनकारी कालिख और चूडि़यां लिए हमारे विद्यालय में भी आ धमके. प्रधानाध्यापक मैं ही था और उस समय मैं 8वीं कक्षा को पढ़ा रहा था. आंदोलनकारी कक्षा के बाहर जमा हो गए थे. उन्होंने नारा लगाया, ‘गद्दारों की दवाई…’ और लोगों ने नारे को पूरा किया.

उन में से एक चिल्लाया, ‘‘इस को बाहर खींचो.’’

सारे बच्चे सहम गए. मैं भी था. उन में से एक आदमी कक्षा में घुस आया और बोला, ‘‘जब सब जगह हड़ताल है तो तुम कैसे स्कूल खोले हुए हो? गद्दार,’’ उस ने कहा और मेरा हाथ पकड़ लिया. इतने में एक और व्यक्ति भीतर आ गया. उस के हाथ रंगे हुए थे. वह मुझे छूता इस से पहले ही लोकेश अपने स्थान पर खड़ा हो गया और चिल्लाया, ‘‘ठहरो, अगर किसी ने प्राचार्य को हाथ लगाया तो ठीक नहीं होगा,’’ फिर तुरंत अपनी सीट से उठ कर मेरे सामने खड़ा हो गया और बोला, ‘‘हमारे प्राचार्य हमें पढ़ा कर कौन सा अपराध कर रहे हैं? हड़ताल को 4 महीने हो गए हैं क्या हमारी पढ़ाई का हर्जाना आप लोग पूरा करेंगे? हमारे बदले परीक्षा देने आप लोग जाएंगे क्या?

‘‘आंदोलन का यह कौन सा तरीका है कि पढ़ाई को नुकसान पहुंचाओ. ऊपर से अध्यापकों का अपमान? क्या हम सभाओं में नहीं आते? क्या हम जुलूस में सम्मिलित नहीं होते? फिर आप हमारी पढ़ाई का नुकसान करने पर क्यों तुले हुए हैं? क्या आप के बच्चे नहीं हैं आप को अच्छा लगता है कि आप के बच्चे घर पर बैठे रहें?’’ थोड़ी देर रुकने के बाद लोकेश फिर बोला, ‘‘आप दूसरे लोगों के साथ जो इच्छा हो, व्यवहार करें. किंतु यहां हमारे आचार्यों के साथ कुछ भी अनुचित हुआ तो हम से बुरा कोई नहीं होगा.’’ लोकेश ने आंदोलनकारी से मेरा हाथ छुड़ा लिया. फिर अपने साथियों की ओर मुड़ कर बोला, ‘‘हम सब एक हैं. बोलो, छात्र एकता…’’ सारे बच्चों ने उत्तर दिया, ‘‘जिंदाबाद.’’

आंदोलनकारियों की उस के बाद कुछ करने की हिम्मत नहीं हुई. वे चुपचाप वहां से खिसक लिए. मैं सचमुच भयभीत हो गया था और कांपने लगा था. लोकेश के साहस को देख कर मेरे आंसू छलक पड़े. मैं ने उसे गले लगा लिया. उस दिन से वह सभी छात्रों का मित्र ही नहीं, नेता भी बन गया. 

बदला

‘‘सुगंधा, तुम बहुत खूबसूरत हो. तुम्हारी खूबसूरती पर मैं एक क्या कई जन्म कुरबान कर सकता हूं.’’

‘‘चलो हटो, तुम बड़े वो हो. कुछ ही मुलाकातों में मसका लगाना शुरू कर दिया. मुझे तुम्हारी कुरबानी नहीं, बल्कि प्यार चाहिए,’’ फिर अदा से शरमाते हुए सुगंधा ने रमेश के सीने पर अपना सिर टिका दिया.

रमेश ने सुगंधा के बालों में अपनी उंगलियां उलझा दीं और उस के गालों को सहलाते हुए बोला, ‘‘सुगंधा, मैं जल्दी ही तुम से शादी करूंगा. फिर अपना घर होगा, अपने बच्चे होंगे…’’

‘‘रमेश, तुम शादी के वादे से मुकर तो नहीं जाओगे?’’

‘‘सुगंधा, तुम कैसी बात करती हो? क्या तुम को मुझ पर भरोसा नहीं?’’

सुगंधा रमेश की बांहों व बातों में इस कदर डूब गई कि रमेश का हाथ कब उस के नाजुक अंगों तक पहुंच गया, उस को पता ही नहीं चला. फिर यह सोच कर कि अब रमेश से उस की शादी होगी ही, इसलिए उस ने रमेश की हरकतों का विरोध नहीं किया.

दोनों की मुलाकातें बढ़ती गईं और हर मुलाकात के साथ जीनेमरने की कसमें खाई जाती रहीं. रमेश ने शादी का वादा कर के सुगंधा के साथ जिस्मानी संबंध बना लिया और फिर अकसर दोनों होटलों में मिलते और जिस्म की भूख मिटाते. इस तरह दोनों जब चाहते जवानी का मजा लूटते.

रमेश इलाहाबाद के पास के एक गांव का रहने वाला था. उस के परिवार में मातापिता और एक छोटा भाई दिनेश था. छोटे से परिवार में सभी अपनेअपने कामों में लगे हुए थे. पिताजी पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हो कर अब घर पर ही रह कर खेतीबारी का काम देखने लगे थे. छोटा भाई दिनेश दिल्ली यूनिवर्सिटी से एमए कर रहा था.

लखनऊ में एक विदेशी फर्म में कैशियर के पद पर काम करने की वजह से रमेश लखनऊ में एक फ्लैट ले कर रह रहा था. चूंकि घरपरिवार ठीक था और नौकरी भी अच्छी थी, इसलिए उस की शादी भी हो गई थी. बीवी को वह साथ नहीं रखता था, क्योंकि मां से घर का काम नहीं होता था.

रमेश जिस फर्म में काम करता था, उसी फर्म में सुगंधा क्लर्क के पद पर काम करने आई थी.

सुगंधा को देखते ही रमेश उस पर मोहित हो गया और डोरे डालना शुरू कर दिया.

रमेश की शराफत, पद और हैसियत देख कर सुगंधा भी उसे पसंद करने लगी.

रमेश ने सुगंधा को बताया कि वह कुंआरा है और उस से शादी करना चाहता है. अब चूंकि रमेश ने उस से शादी का वादा किया, तो वह पूरी तरह उस की बातों में ही नहीं, आगोश में भी आ गई.

समय सरकता गया. रमेश सुगंधा की देह में इस कदर डूब गया कि घर भी कम जाने लगा. वह घर वालों को पैसा भेज देता और चिट्ठी में छुट्टी न मिलने का बहाना लिख देता था.

एक दिन पार्क में जब वे दोनों मिले, तो सुगंधा ने रमेश से कहा, ‘‘रमेश, अब हमें शादी कर लेनी चाहिए. अभी तक आप ने मुझे अपने घर वालों से भी नहीं मिलाया है. मुझे जल्दी ही अपने मातापिता से मिलवाइए और उन्हें शादी के बारे में बता दीजिए.’’

रमेश सुगंधा को आगोश में लेते हुए बोला, ‘‘अरी मेरी सुग्गो, अभी शादी की जल्दी क्या है? शादी भी कर लेंगे, कहीं भागे तो जा नहीं रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मुझे शादी की जल्दी है. रमेश, अब मुझे अकेलापन अच्छा नहीं लगता है,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘ठीक है, कल शाम को मेरे कमरे पर आ जाना. वहीं शादी के बारे में बात करेंगे,’’ रमेश ने सुगंधा के नाजुक अंगों से खेलते हुए कहा.

‘‘मैं शाम को 8 बजे आप के कमरे पर आऊंगी,’’ रमेश ने सुगंधा के होंठों का एक चुंबन ले कर उस से विदा ली.

रमेश ने अभी तक शादी का वादा कर सुगंधा के साथ खूब मौजमस्ती की, लेकिन उस की शादी की जिद से उसे डर लगने लगा था. सच तो यह था कि वह सुगंधा से छुटकारा पाना चाहता था, क्योंकि एक तो सुगंधा से उस का मन भर गया था. दूसरे, वह उस से शादी नहीं कर सकता था.

शाम को 8 बजने वाले थे कि रमेश के कमरे पर सुगंधा ने दस्तक दी. रमेश ने समझ लिया कि सुगंधा आ गई है. उस ने दरवाजा खोला और उसे बैडरूम में ले गया.

‘‘हां, अब बताओ सुगंधा, तुम्हें शादी की क्यों जल्दी है? अभी कुछ दिन और मौजमस्ती से रहें, फिर शादी करेंगे,’’ रमेश ने उसे सीने से चिपकाते हुए कहा.

‘‘नहीं, जल्दी है. उस की कुछ वजहें हैं.’’

‘‘क्या वजहें हैं?’’ रमेश ने चौंकते हुए पूछा.

तभी बाहर दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों चौंके. रमेश सुगंधा को छोड़ कर दरवाजा खोलने के लिए चला गया. सुगंधा घबरा कर एक तरफ दुबक कर बैठ गई.

इतने में रमेश को धकेलते हुए 3 लोग बैडरूम में आ गए.

‘‘अरे, तू तो कहता था कि यहां अकेले रहता?है. ये क्या तेरी बीवी है या बहन,’’ उन में से एक पहलवान जैसे शख्स ने कहा.

‘‘देखो, जबान संभाल कर बात करो,’’ रमेश ने कहा.

तभी एक ने रमेश के गाल पर जोर का थप्पड़ मारा और उसे जबरदस्ती कुरसी पर बैठा कर बांध दिया. तीनों सुगंधा की ओर बढ़े और उसे बैड पर पटक दिया.

सुगंधा चीखतीचिल्लाती रही. उन से हाथ जोड़ती रही, पर उन्होंने एक न सुनी और बारीबारी से तीनों ने उस के साथ बलात्कार किया. उधर रमेश कुरसी से बंधा कसमसाता रहा.

जब सुगंधा को होश आया, तो वह लुट चुकी थी. उस का अंगअंग दुख रहा था. वह रोने लगी. रमेश उसे हिम्मत बंधाता रहा.

फिर सुगंधा के आंसू पोंछते हुए रमेश ने कहा, ‘‘सुगंधा, इस को हादसा समझ कर भूल जाओ. हम जल्दी ही शादी कर लेंगे, जिस से यह कलंक मिट जाएगा.’’

सुगंधा उठी और अपने घर चली गई. वह एक हफ्ता की छुट्टी ले कर कमरे पर ही रही और भविष्य के बारे में सोच कर परेशान होती रही थी, लेकिन रमेश द्वारा शादी का वादा उसे कुछ राहत दे रहा था.

सुगंधा हफ्तेभर बाद रमेश से मिली, तब बोली कि अब वह जल्द ही उस से शादी कर ले, क्योंकि वह बहुत परेशान है और वह उस के बच्चे की मां बनने वाली है.

‘‘क्या कहा तुम ने? तुम मेरे बच्चे की मां बनने वाली हो? सुगंधा, तुम होश में तो हो. अब तो यह तुम मुझ पर लांछन लगा रही हो. मालूम नहीं, यह मेरा बच्चा है या किसी और का,’’ रमेश ने हिकारत भरी नजरों से देखते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं रमेश, ऐसा मत कहो. यह तुम्हारा ही बच्चा है. हादसे वाले दिन मैं तुम से यही बात बताने वाली थी,’’ सुगंधा ने कहा, पर रमेश ने धक्का दे कर उसे निकाल दिया.

सुगंधा जिंदगी के बोझ से परेशान हो उठी. जब लोगों को मालूम होगा कि वह बगैर शादी के मां बनने वाली है, तो लोग उसे जीने नहीं देंगे. अब वह जान दे देगी.

अचानक रमेश का चेहरा उस के दिमाग में कौंधा, ‘धोखेबाज ने आखिर अपना असली रूप दिखा ही दिया.’

एक दिन जब सुगंधा बाजार जा रही थी, तो देखा कि रमेश किसी से बातें कर रहा था. उस आदमी का डीलडौल उसे कुछ पहचाना सा लगा.

सुगंधा ने छिपते हुए नजदीक जा कर देखा, तो रमेश जिन लोगों से हंस कर बातें कर रहा था, वे वही लोग थे, जिन्होंने उस रात उस के साथ बलात्कार किया था.

अब सुगंधा रमेश की साजिश समझ गई थी. उस ने मन में ठान लिया कि अब वह मरेगी नहीं, बल्कि रमेश जैसे भेडि़ए से बदला लेगी.

रमेश से बदला लेने की ठान लेने के बाद सुगंधा ने पहले परिवार के बारे में पता लगाया. जब मालूम हुआ कि रमेश शादीशुदा है, तो वह और भी जलभुन गई. उसे पता चला कि उस का छोटा भाई दिनेश दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था. उस ने लखनऊ की नौकरी छोड़ दी.

दिल्ली जा कर सब से पहले सुगंधा ने अपना पेट गिराया, फिर उस ने वहीं एक कमरा किराए पर ले लिया, जहां दिनेश रहता था. धीरेधीरे उस ने दिनेश पर डोरे डालना शुरू किया.

दिनेश को जब सुगंधा ने पूरी तरह अपने जाल में फांस लिया, तब उस ने दिनेश को शादी के लिए उकसाया. उस ने शादी की रजामंदी दे दी.

दिनेश ने रेलवे परीक्षा में अंतिम रूप से कामयाबी पा ली. अब वह अपनी मरजी का मालिक हो गया. उस ने सुगंधा से शादी के लिए अपने मातापिता को लिख दिया. लड़का अपने पैरों पर खड़ा हो गया है, इसलिए उन्होंने भी शादी की इजाजत दे दी.

सुगंधा ने भी शर्त रखी कि शादी कोर्ट में ही करेगी. दिनेश को कोई एतराज नहीं हुआ.

जब दिनेश ने अपने मातापिता को लिखा कि उस ने कोर्ट में शादी कर ली है, तो उन्हें इस बात का मलाल जरूर हुआ कि घर में शादी हुई होती, तो बात ही कुछ और थी. अब जो होना था हो गया. उन्होंने गृहभोज के मौके पर दोनों को घर बुलाया.

पूरा घर सजा था. बहुत से मेहमान, दोस्त, सगेसंबंधी इकट्ठा थे. रमेश भी उस मौके पर अपने दोस्तों के साथ आया था. दुलहन घूंघट में लाई गई.

मुंह दिखाई के समय रमेश और उस के दोस्त उपहार ले कर पहुंचे. रमेश ने जब दुलहन के रूप में सुगंधा को देखा, तो उस के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई.

रमेश और उस के दोस्त जिन्होंने सुगंधा के साथ बलात्कार किया था, सब का चेहरा शर्म से झुक गया.

इस तरह सुगंधा ने अपना बदला लिया.

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