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वक्त का दोहराव : शशांक को आखिर कौन सी बात याद आई

शशांक दबे पांव छत पर पहुंचा. पूरे महल्ले में निस्तब्धता छाई हुई थी. कहीं आग से झुलसे मकान, टूटी दुकानें, सड़कों पर टूटी लाठियां, ईंटपत्थर और कहींकहीं तो खून के धब्बे भी नजर आ रहे थे. कितना खौफनाक मंजर था. हिंदू-मुसलिम दंगे ने नफरत की ऐसी आग लगाई है कि इंसान सभ्यता की सभी हदों को लांघ कर दरिंदगी पर उतर आता है.

राजनीतिबाज न जाने कब बाज आएंगे अपनी रोटियां सेंकने से. शशांक के अंतर में अपने दादाजी के कहे वो शब्द याद आ रहे थे कि नेता लोग राजनीति खेल जाते हैं और कितने ही लोग अपनी जान से खेल जाते हैं…

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. मानो एक हंसतेखेलते परिवार का दोफाड़ कर दिया गया. कौन अपना, कौन पराया. हिंदू-मुसलमानों के मन में ऐसा जहर घोला कि देखते ही देखते कल तक एक ही थाली में साथसाथ खाते दोस्त एकदूसरे की जान के दुश्मन बन बैठे. अपने पिताजी के मुंह से सुनी थी उस ने उस वक्त की दास्तान. आज वही कहानी फिर से उस की आंखों के सामने पसरने लगी थी…

हवेलीनुमा दोमंजिला घर और बहुत बड़ा चौक, चौक को पार कर के एक बहुत बड़ा दरवाजा, दरवाजा क्या था, पूरा किले का दरवाजा था, बड़ीबड़ी सांकल, सेफ पोल, बड़ेबड़े ताले उस दरवाजे को खोलना व बंद करना हर एक के बस की बात नहीं थी. मास्टर जीवन लाल ही उसे अपने मुलाजिमों के साथ मिल कर खोलते व बंद करते थे.

लेकिन आज यह क्या, वही दरवाजा, ऐसे लगता था कि बस अब गिरा तब गिरा. लगता भी क्यों न, आज एक बहुत बड़ा झुंड उस दरवाजे को धकेल रहा था, पीट रहा था, यह कैसा झुंड था?

मास्टर जीवनलाल जिन का इस पूरे शहर में नाम था, इज्जत थी, रुतबा था, आज वही मास्टरजी अपने पूरे परिवार के साथ इस हवेली में सांस रोके बैठे हैं.

परिवार में पत्नी, 3 बेटे, 3 बेटियां, बहू, सालभर का एक पोता सभी तो हैं, हंसता खेलता परिवार है.

कुछ समय से चल रही हिंदू मुसलमानों की आपस की दूरियां दिख तो रही थीं पर हालात ऐसे हो जाएंगे, किसी ने सोचा भी न था.

मुसलमान और हिंदू एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे, आपस में इतनी नफरत होगी, कभी किसी ने सोचा भी न था. यह क्या हो गया भाइयो, जन्मजन्म से एकदूसरे के साथ रहते आए परिवार एकदूसरे से इतनी नफरत क्यों करने लगे.

हालात ऐसे हो गए थे कि जवान लड़कियों को उठा कर ले जाया जा रहा था.  बूढ़ों को मार दिया जा रहा था. मास्टर जीवन लाल अपनी तीनों जवान लड़कियों और बहू को हवेली की ऊपर वाली मंजिल पर पलंग के नीचे छिपाए हुए थे और दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देख रहे थे. कभी भी दरवाजा टूट सकता था.

मास्टर जीवन लाल का बड़ा बेटा, कटार लिए खड़ा था कि दरवाजा खुलते ही वह अपनी तीनों बहनों व पत्नी को इसलिए मार डालेगा कि कोई उन्हें उठा कर नहीं ले जा पाए. बहनें व पत्नी सामने मौत खड़ी देख ऐसे कांप रही थीं जैसे आंधी में डाल पर लगा पत्ता फड़फड़ा रहा हो.

पर यह क्या, दरवाजे के पीटने और धकेलते रहने के बीच एक आवाज उभरी. वह आवाज थी मास्टर जीवन लाल के किसी विद्यार्थी की. वह कह रहा था कि अरे, क्या कर रहे हो. यह तो मेरे मास्टरजी का घर है. इस घर को छोड़ दो. आगे चलो, और देखते ही देखते बाहर कुछ शांति हो गई.

रात का यह तूफान जब गुजर गया तो मास्टर जीवन लाल ने सोचा कि यहां से अपने पूरे परिवार को सहीसलामत कैसे बाहर निकाला जाए. इस सोच में वे दरवाजा खोल कर बाहर निकले तो बाहर का भयानक दृश्य देख कर रो पड़े. लाशें पड़ी हैं, कोई तड़प रहा है, कोई पानी मांग रहा है. जिस गली में वे और उन का परिवार बड़ी शान से होली, दीवाली, ईद मनाते थे, पड़ोसियों के साथ हंसीमजाक, मौजमस्ती होती थी, वही गली आज खून से नहाई हुई है. सभी आज कितने बेबस व लाचार हैं, किस को पानी पिलाएं, किस को अस्पताल पहुंचाएं. रात आए तूफान से घबराए, आगे आने वाले तूफान से अपने परिवार को बचाने के लिए वे क्या करें. अपनी तीनों जवान बेटियों को आगे आने वाले तूफान से बचाने की गरज से सबकुछ अनदेखा कर के वे आगे बढ़ गए.

मास्टर जीवन लाल जब बाहर का जायजा लेने निकले तो उन्हें पता चला कि हिंदुओं से यह जगह खाली कराई जा रही है. हिंदुओं को किसी तरह लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है और वहां से आगे.

मास्टर जीवन लाल ने यह सुना तो वे जल्दी ही अपने परिवार की हिफाजत के लिए वापस मुड़े और घर पहुंच कर उन्होंने बीवी व बच्चों से कहा कि घर खाली करने की तैयारी करो. अब यहां से सबकुछ छोड़छाड़ कर जाना होगा.

इतना सुनते ही पूरा परिवार शोक में डूब गया. ऐसा होना लाजिमी भी है. सालों से यहां रह रहे थे. यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, यहीं पढ़े और फिर उन से कहा जाए कि यहां तुम्हारा कुछ नहीं है, तुम यहां से जाओ, कैसा लगेगा. खैर, मास्टर जीवन लाल ने हिम्मत दिखाते हुए सब को तैयार किया और जरूरी कागजात व कुछ पैसे लिए. फिर उस आलीशान हवेली को हमेशा के लिए आंसुओं से अलविदा किया.

पैर हवेली के बाहर निकले तो इतने भारी थे कि उठ ही नहीं रहे थे. दिल हाहाकार कर रहा था. परंतु फिर भी उन्होंने अपने परिवार को देखा हिम्मत की और चल पड़े.

अब मास्टर जीवन लाल बिना छत, बेसहारा अपने परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे खड़े थे. अब उन के पास कुछ न था. हाय समय का फेर देखो, कुछ समय पहले तो खुशियों की लहरें उठ रही थीं और अब यह क्या हो गया. यह कैसा तूफान था. इस तूफानी बवंडर में कैसे फंस गए. कब बाहर निकलेंगे इस तूफान से, पता नहीं.

अब मास्टर जीवन लाल के पास एक ही मकसद था कि अपने परिवार को सहीसलामत हिंदुस्तान पहुंचाया जाए. मास्टर जीवन लाल को पता चला कि ट्रक भर कर लोगों को लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है. बहुत कोशिश के बाद मास्टर जीवन लाल की बहू व पत्नी को एक ट्रक में जगह मिल गई. और पीछे रह गईं मास्टरजी की बेटियां व बेटे.

उफ्फ अब क्या करें अब जो रह गए उन्हें किस के सहारे छोड़ें और जो चले गए उन्हें आगे का कुछ पता नहीं. मास्टरजी इस कशमकश में खड़े थे कि फिर लोगों का जनून उभरा. मार डालो, काट डालो की आवाजें. मास्टरजी फिर से परेशान हो गए. अब वे बेटियों को कहां छिपाएं. मास्टरजी की आंखों से आंसू बह निकले.

इतने में मास्टरजी को एक फरिश्ते की आवाज सुनाई दी. सलाम अलैकम, भाईजान. मास्टरजी ने जब उस ओर देखा तो मास्टरजी के सामने चलचित्र की तरह पुरानी घटनाएं याद आ गईं. दो जिस्म एक जान हुआ करते थे. दोनों परिवार एकसाथ सारे तीजत्योहार एकसाथ मनाते थे. फिर अचानक सलीम भाई को विदेश जाना पड़ गया. और अब मिले तो इस हाल में. न हवेली अपनी थी, न ही देश अपना रह गया था. सबकुछ खत्म हो चुका था. मास्टरजी लुटेपिटे खड़े थे.

सलीम भाई ने मास्टरजी को गले लगा लिया. मास्टरजी का हाल देख कर सलीम भाई भी रो पड़े. सलीम भाई ने मास्टरजी को एक बहुत बड़ी तसल्ली दी, कहा कि भाईजान, आप की बेटियां मेरी बेटियां. अब तुम इन की फिक्र छोड़ो और लाहौर जा कर भाभीजी और बहू को खोजो. मास्टरजी के पास अब कोई चारा भी नहीं था. सलीम भाई का विश्वास ही था, और वे आगे बढ़ गए.

कितना सहा होगा उस वक्त लोगों ने जब अपनी जड़ों से उखड़ कर रिफ्यूजी बन गए होंगे. धर्म क्या यही सिखाता है हमें, तोड़ दो रिश्तों को, मानवीय संवेदनाओं का खून कर दो.

बरसों पुरानी हिंदू, मुसलमान की वह नफरत आज भी बरकरार है तो इन नेताओं की वजह से, धर्म के ठेकेदारों की वजह से, अंधविश्वास की गठरी उठाए लोगों की अंधभक्ति की वजह से.

काश, जल्दी ही हमें समझ में आ जाए कि धर्म तो दिलों को मिलाता है, चोट पर मरहम लगाता है. खून की नदियां नहीं बहाता, बच्चों को रुलाता नहीं, औरतों की इज्जत नहीं उतारता, बसेबसाए घरों को उजाड़ता नहीं. काश, यह बात आने वाली हमारी पीढ़ी जल्दी ही समझ जाए.

शुभ तारीखें : शुभ अशुभ की नंबरबाजी में किस का दिवाला निकले

साल, महीने, सप्ताह और तारीखों में कोई शुभअशुभ के ‘अनिवार्य संबंध’ की खोज करे तब क्या कहिएगा? हम ठहरे निपट मूर्ख, मोटी बुद्धि के. रफ ऐंड टफ सोच के धनी. भला हमें यह कैसे समझ आएगा कि आने वाली या पिछली तारीखों में कौन सी शुभ है या अशुभ? लेकिन अब लगता है हमारी धारणा गलत है. जब पूरी दुनिया कुछ खास तारीखों से जुड़ी शुभअशुभ की संभावना व आशंकाओं से त्रस्त दिखे तो भला हम सही कैसे हो सकते हैं.

विगत वर्षों के अनुभव देखिए.

12-12-12 के जनून को ही ले लीजिए. इस में खास क्या था, हमें समझ नहीं आया. 12 दिसंबर की सुबह से ही जब शुभकामनाओं के एसएमएस आने लगे तो हमें अपनी नादानी पर तरस आया. असल में हमारी बुद्धि पिछड़ी हुई है. हम साक्षात बैकवर्ड यानी आउटडेटेड हो चुके हैं. तभी तो ऐसी अक्षम्य गलतियां कर जाते थे कि अनूठी तारीखों का माहात्म्य समझ ही नहीं आता. सच पूछें तो 12-12-12 के खास दिवस के अनुभव ने हमें चेताया कि भैये, कुछ तो नया, यादगार कर लेना चाहिए था उस दिन.

लोगों में कैसीकैसी दीवानगी थी? कोई बाप बनने को उतावला था तो कोई विवाहसागर में डुबकी लगाने को बेताब. उस दिन किसी की हसरत वाहन के मालिक बनने की थी तो किसी को नए मकानदुकान या प्रौपर्टी की खरीदफरोख्त के मुहूर्त की. ‘समझदार’ दीवानों ने महीनों पहले ही अस्पताल में अपने नवजात मेहमानों के आगमन के लिए बैड, औपरेशन थिएटर बुक करवा लिए थे. अच्छी बात यह रही कि मैडिकल प्रोफैशन ने लोगों की इस भावना का बाकायदा भरपूर साथ निभाया. हां, थोड़ाबहुत अतिरिक्त खर्च हुआ हो तो वह बात अलग थी. कायदे की बात है कि जब सुविधा लेते हैं तो धन तो खर्चना ही पड़ेगा.

विवाह संस्कार संपन्न होने की घटना भी ऐतिहासिक रही. 12-12-17 के दिवस पर समय भी 12:12:12 को चुना गया तो विवाह के अनोखे तौरतरीकों ने भी हमारा दिल खूब लुभाया. हमें तरस आया, काश, हमारा भी विवाह ऐसी ही नायाब तारीख पर होता.

बहरहाल, उस दिन मीडिया द्वारा 12-12-12 के माहात्म्य के ‘नौन स्टौप’ गुणगान से हमें शाम को होश आया कि बहती गंगा में भले ही स्नान न हो पाए, हाथपांव तो धो ही लिए जाएं. लेकिन तब तक समय निकल चुका था, क्या करते? हम ने पत्नीजी से कहा, ‘‘अजी सुनती हो, चलो, अपनीअपनी शादी का ‘नवीनीकरण दिवस’ ही मना डालें?’’ पत्नीजी ने हमें यों घूरा जैसे हम ने कोई अजूबे सरीखी बात कह डाली हो. खैर, डिनर में एक अदद अतिरिक्त सब्जी और रिफाइंड औयल की पूडि़यां बनवा कर हम ने 12-12-12 के अद्भुत दिवस को सैलिब्रेट कर लिया. तभी हमारी गुडि़या ने बंदूक की गोली की तरह सवाल दागा, ‘‘पापा, आप तो इतना लिखते हैं, कालेज में पढ़ाते हैं, आप ही बताइए न, 12-12-12 और 21-12-12 की दीवानगी का राज क्या है?’’

हमारा ‘शाकाहारी नशा’ तुरंत काफूर हो गया. क्या जवाब देते? शाकाहारी नशा मतलब आम आदमी महंगाई में घासफूस से इतर और कुछ अफोर्ड भी तो नहीं कर सकता. बहुत दिनों से सुन रहे थे कि

21-12-12 को भी अद्भुत योग बना था. दुनिया खत्म हो जानी थी उस दिन. इस आशंका की बानगी देखिए, फ्रांस से रूस, अमेरिका सहित एशियाई देशों में लोग इस कदर भयभीत हो गए कि वे जान बचाने के लिए तरहतरह के उपाय करने लगे. सुना था कि फ्रांस में लोग एक पवित्र पहाड़ पर शरण लेने गए तो कुछ जगह लोग बंकरखंदक खुदवा कर अपने को महफूज करने का जीतोड़ प्रयास करने लगे. ऐसे आलम में धर्म के व्यवसाइयों की चांदी होना स्वाभाविक था.

हम इतना जानते हैं ये सब महज अंधविश्वास है. दुखद है लेकिन अपनी उम्र के 45 वसंत के दर्शन कर लेने पर भी आज हमें ऐसी बेसिरपैर की अफवाहों से दोचार होना पड़ता है.

ज्ञानीजन दावा कर रहे थे कि ‘माया सभ्यता’ का कैलेंडर खत्म हो गया. भविष्यवेत्ताओं की भी 21 दिसंबर को दुनिया खत्म हो जाने की भविष्यवाणी थी, इसलिए सब का डरना वाजिब था. लोगों के बीच फैले डर का असर देखिए, अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा को

इस तारीख को ले कर प्रचारित भ्रांतियोंअफवाहों का खंडन करना पड़ा.

खैर, ज्यादा क्या कहें, जब तर्क का स्थान अंधविश्वास ले ले तो फिर बुद्धि के लिए ज्यादा कुछ बचता नहीं है. भेड़चाल से एकदूसरे की सुनसुना कर हम भी उसी धारा में बहकने लगते हैं जहां ऐसे अवसरों को कैश करवाने वाले शातिर हमारी भावनाओं को रुपयों से तोल कर नफेनुकसान की इबारतें लिखते हैं.

हमें एक बात और समझ नहीं आ रही. अगर 12-12-12 तारीख इतनी शुभ और यूनीक थी तो फिर 21-12-12 का अंदेशा विरोधाभास पैदा नहीं करता? मतलब जो इस दिन पैदा हुए या जिन्होंने शादी का लड्डू चखा तो फिर उन के जीवन में तो खुशियां, सुकून, स्थायित्व होना चाहिए था. क्या सिर्फ यह जमात ही 21-12-12 को खुशी मनाती और शेष सब खत्म? गड़बड़झाले में फंसना ही बेकार है.

हमारा सिद्धांत तो सिर्फ सद्कर्म करने का है, फल की चिंता करना बेकार है. हमारे छोटे साहबजादे का इस विषय पर बालसुलभ कमैंट देखिए, ‘‘पापा, अगर 21-12-12 को वास्तव में कोई आकाशीय पिंड पृथ्वी से टकरा कर दुनिया को नष्ट कर देता तो फिर दिसंबर की सर्दी की छुट्टियों से पहले हाफ ईयरली एग्जाम्स कराने की क्या जरूरत थी? क्यों न बच्चों को ऐंजौय करने देते और टैंशन के सब काम 21-12-12 के बाद के लिए लंबित कर देते.’’

सच तो यह है कि 21वीं सदी में प्रवेश के साथ ही ऐसी अजूबी तारीखों के फोबिया ने हमें परेशान कर डाला था. यह अलग बात थी कि हम अपनी नासमझी को स्वीकार कर रहे थे और ज्यादातर लोग इन तारीखों के चक्कर में आज तक फंसे हुए हैं. हमारी पूरी फैमिली भी दुनिया के लेटेस्ट ट्रैंड को देखते हुए इन तारीखों के शुभअशुभ की संभावनाआशंका में पूर्ण श्रद्धासमर्पण किए बैठी है. संभव है गलती हमारी हो जो महत्त्व को ढंग से समझ नहीं पा रहे. लेकिन क्या करें?

हमारे अनुभव हमारी रामकहानी खुद बयां करते हैं. आप एक नजर कुछ अन्य तारीखों पर डाल लीजिए, 10-10-10, 9-2-11, 10-11-12, 7-1-13, 13-1-13, 11-12-13, 31-11-13. विगत या भविष्य की इन खास तारीखों से जुड़े हमारे अनुभवों पर गौर करें. इन के कारण हमारी लाइफ में कैसेकैसे तूफान आए हैं. हमारे एक मित्र, जो भविष्य दर्शन के एक्सपर्ट होने का दावा करते हैं, मिलने हमारे घर आए. अंकों के हिसाब से दूसरों का भविष्य बताने का उन्हें जनून सवार है. चायपानी के बाद उन्होंने हमें कुछ रंगबिरंगे लिफाफों में से एक लिफाफा चुनने को कहा.

असमंजस में हम ने गुलाबी लिफाफा चुन लिया जिस में एक तारीख लिखी थी 7-1-13. हमारे मित्र उसे देखते ही हमें बधाइयां देने लगे, पार्टी की बात भी ठहरा ली गई. कारण, उन के अनुसार

7-1-13 अर्थात इस का अर्थ था ‘साथ एक तेरा.’ इसलिए इस दिन शर्तिया हमारा समय चमकने वाला था. कोई चाहने वाली 7-1-13 पर हम से निश्चित रूप से मिलने वाली थी. लाइफ में ट्विस्ट की संभावना और सुंदर महिला मित्र की कल्पनामात्र से हमारे मन में लड्डू भी फूटने लगे. आगामी सुखद घटना की खुमारी में हमारे पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे.

भविष्यवाणी पक्की थी, सो, हमें भी पूरा विश्वास था. लेकिन 7-1-13 को हुआ उलटा. दरअसल, कालेज से फ्री हो कर हम इंडिया गेट की तरफ सैर के लिए निकल गए. पूरी उम्मीद थी कि वहां कोई खास दोस्त हमारा इंतजार करती मिलेगी. लेकिन जनाब समय ने धोखा दिया और वहां हमारा पाला पुलिस से पड़ गया. संदिग्ध समझ कर पुलिस हमें पकड़ कर थाने ले गई. दिल्ली का माहौल आजकल वैसे भी गरम है. हम लाख सफाई देते रहे लेकिन वह सर्द रात हमें थाने में बितानी पड़ी. बड़ी मुश्किल से दूसरे दिन छूटे. मिलन तो हुआ लेकिन उस से नहीं जो अपेक्षित था, बल्कि उस से जिस से मिलना शायद ही कोई पसंद करता हो.

9-2-11 की तारीख पर हमारी पत्नीजी का अनुभव देखिए. उस दिन वह घर में अकेली थी. साधु के वेश में एक सज्जन घर आए और बातचीत में उन्होंने पत्नीजी को ऐसा सम्मोहित किया कि वह घर में रखी नकदी, जेवरात को दोगुना कराने के उस सज्जन के झांसे में आ गई. वह तथाकथित साधु महाराज हमारी जमा पूंजी को ले कर ऐसा नौ दो ग्यारह हुआ कि उस तारीख 9-2-11 को वह एकदम सही तरीके से चरितार्थ कर गया.

10-10-10 के पावन दिवस का भी बड़ा हल्ला मचा. जानकार लोगों ने उस के शुभ होने का ऐसा ढिंढोरा पीटा कि हम सपरिवार बेवकूफ बने. सुना था यह दिन कारोबारी व्यवसाय, इन्वैस्टमैंट के लिए बहुत शुभ है. यदि थोड़ा भी निवेश करें तो बड़ा रिटर्न मिलना तय था. इसलिए हम ने कोई कसर नहीं छोड़ी. बैंक से लोन लिया. पत्नीजी को एक गोल्डन नैकलैस दिलवाया, तो बेटे को एक बाइक. हम ने पूरे एक लाख रुपए एक कंपनी में निवेश भी कर दिए. बाद में पता चला कि हम जैसे अनेकानेक लोगों को मूर्ख बना कर वह कंपनी भाग गई और हम ठगी का शिकार हो गए. उस मनहूस दिवस को अब हम आज तक भुगत रहे हैं. बैंक के लोन की किस्त और तंगहाली के आलम में 10-10-10 को कोसने के अलावा अब कर भी क्या सकते हैं.

आप हमें मूर्ख कहेंगे जो बारबार शिकार बन जाते हैं लेकिन क्या करें, आम आदमी की मजबूरी है, बेचारा आसान शिकार जो ठहरा. शौर्टकट से प्रौफिट कमाने का लालच छोड़ भी तो नहीं सकता वह. अब तो हमें भी समझ आ गया कि कुछ लोग जनता की साइकोलौजी का बेजा फायदा उठाने के लिए ही ऐसी अफवाहें फैलाते हैं ताकि उन का उल्लू सीधा होता रहे, ठगी का कारोबार फलताफूलता रहे, धर्म की दुकानें चांदी काटती रहें.

10-11-12 की तारीख के लिए हमारी पड़ोसिन ने पत्नीजी के दिमाग में बिठा दिया कि यह जादुई अंक है जो गुप्त शक्तियों से लबरेज है. इस में कम से ज्यादा की और ‘गमन’ की शक्ति छिपी है. इस दिन काम की शुरुआत हो, तो वारेन्यारे हैं. इसी उम्मीद में पत्नीजी ने ड्राइविंग सीखने का उद्घाटन

10-11-12 को कर डाला. सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ना जैसा वाकेआ घटित हो गया. कार चालाने की पहली कोशिश में ही उस ने किसी की नई कार में अपनी कार ठोंक दी. अब आगे मत पूछना कि क्या हुआ होगा. जो भी हुआ वह शुभ तो कतई नहीं था. पुलिस, कचहरी और मुआवजे ने ऐसा सबक सिखाया कि तारीखों में छिपे शुभअशुभ की बातें ही भुला बैठे.

अब कुछ दिनों में और खास तारीखें आने वाली हैं : 19-1-19, 10-9-19, 9-10-19 हमें अभी से भय सताने लगा है कि पता नहीं क्या होगा? संभव है कि भविष्य में ऐसी कोई अफवाह फैल जाए और हमारी तरह फिर कोई शिकार बन जाए. सच पूछें तो हम जानते हैं कि आगामी दशकों में, इसी सदी में अनेकानेक तारीखें अद्भुत अंकीय संयोग पैदा करेंगी लेकिन उन में चमत्कार ढूंढ़ना व्यर्थ है. कारण, उन का कोई वैज्ञानिक आधार या प्रमाण नहीं है.

11-11-18, 11-11-18, 11-12-18, 1-1-19, 10-10-18 जैसी तारीखों को नेल्सन स्कोर (क्रिकेट की भाषा के) समझ कर अंधविश्वास में खुद को जकड़ना कहां की बुद्धिमानी है? ऐसी तारीखें तो हर शताब्दी में आती हैं लेकिन इतिहास गवाह है ऐसा कोई विलक्षण असर कायनात पर तो होता नहीं दिखा. अब समझ अपनीअपनी ही अंधविश्वास में जिए या तर्क की कसौटी पर सोचना शुरू करें.

बहरहाल, कुछ नफानुकसान हो या न हो, लेकिन सर्द मौसम में ऐसी अफवाहों से गरमाहट जरूर महसूस हो रही है.

प्लस माइनस

रात के 8 बज रहे थे. प्रतिबिंब ने सामने की दीवार पर लगी टीवी के पास से रिमोट उठाया और अनाया का इंतजार करते हुए बेड पर लेट कर टीवी देखने लगा.

बमुश्किल आधा घंटा हुआ था कि दरवाजा खुला और मुसकराते हुए अनाया ने प्रवेश किया, “सौरीसौरी, प्रति, मैं थोड़ा सा लेट हो गई, बाय द वे, कितनी देर हो गई तुम्हें आए हुए?”

“अरे छोड़ो यार ये सब बातें, तुम जल्दी से फ्रैश हो कर आ जाओ, मैं ने खाना और्डर कर दिया है, आता ही होगा.”

‘’ठीक है, मैं यों गई और यों आई.’’

15 मिनट के बाद चेंज कर के जब अनाया ने कमरे में प्रवेश किया तो प्रतिबिंब उसे अवाक् सा देखता रह गया.

“कमर तक लहराते खुले केश, दूधिया सफेद रंग और उस पर पिंक कलर की झीनी नाईटी पहने अनाया को सामने इस रूप में देख कर प्रतिबिंब अपने अंदर उठते प्यार और रोमांस के ज्वारभाटे को रोक नहीं पाया और झट से एक प्यारभरा चुंबन अनाया के गाल पर जड़ दिया.

“अरेअरे, यह क्या कर रहे हो, जरा धीर धरो श्रीमानजी. पहले हम पेटपूजा कर लें,” कहते हुए अनाया ने प्रतिबिंब को प्यार से अपने से अलग कर दिया. तभी घंटी बजी, प्रतिबिंब ने दरवाजा खोल कर बैरे से खाना लिया और टेबल पर ला कर रख दिया.

“अच्छा है, हर माह हमारी कंपनी इसी प्रकार दूसरे शहरों में मीटिंग्स अरेंज करती रहे और हम यों ही मस्ती करते रहें. बस, प्रौब्लम यह है कि हम दोनों की विंग अलगअलग होने से आने की टाइमिंग्स अलगअलग हो जाती हैं,” प्रतिबिंब ने खाना खाते हुए कहा.

“और करेंगे भी क्या या इस के अलावा हम कर भी क्या सकते हैं,” अनाया ने कुछ उदास स्वर में कहा.

“अरे यार, अब तुम वही पुराना रोना मत शुरू कर देना वरना इतना अच्छा मूड बरबाद हो जाएगा. अभी बस आज के इन पल को एंजौय करते हैं, बाकी सब बाद में,” प्रतिबिंब ने कहा तो अनाया चुपचाप खाना खाने लगी.

इस के बाद तो भोपाल में टाटा ग्रुप के फाइवस्टार होटल ताज के कमरा न. 103 की बड़ीबड़ी कांच की खिडकियों में पड़े ग्रे कलर के परदे, दीवारों और छत की मद्धिम सुनहरी एलईडी लाइट्स और कमरे की फिजां में गूंज रहे फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ के मधुर बोल- ‘हम बने तुम बने एकदूजे के लिए…’ के बीच प्रतिबिंब और अनाया एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले, परस्पर आबद्ध एक दूसरे में खोए, अधरों पर अधर रखे, अपने प्रेम को सैलिब्रेट कर रहे थे. आज रविवार होने के कारण अवकाश था. ये प्रेमी युगल शायद दोपहर तक सोए रहते यदि प्रतिबिंब का फोन न बजता.

‘अरे यार, यह कौन दुष्ट है जो हमें संडे को भी चैन से सोने नहीं देता,’ अंगड़ाई लेते हुए जैसे ही प्रतिबिंब ने फोन उठाया तो फोन पर उस के पिता थे. स्क्रीन पर अपने पिता का नाम देखते ही प्रतिबिंब एक झटके से बेड से उठ कर सोफे पर इस तरह आ कर बैठा मानो पापा सामने ही आ खड़े हों.

“हां बेटा, कैसे हो, कब लौट रहे हो और मीटिंग कैसे रही?”

“पापाजी, सब बढिया है. मीटिंग के बाद 2 दिन वर्कशौप है, इसलिए मैं 3 दिन बाद शनिवार को वापस दिल्ली लौटूंगा.”

“ठीक है, मैं यह कह रहा था कि वे जो अपने फैमिली फ्रैंड वर्मा अंकल हैं न, उन के एक मित्र वहीं भोपाल में ही रहते हैं, समय निकाल कर उन के यहां जरूर हो आना.”

“ठीक है पापा, मैं कोशिश करूंगा. वैसे, कोई काम है क्या उन से?”

“काम तो कुछ ख़ास नहीं है, वे अपनी बेटी के लिए तुम से मिलना चाह रहे थे. तुम देख लेना, यदि तुम्हें लड़की पसंद होगी तो बात आगे बढ़ाएंगे.”

“’पापा, आप से मुझे कितनी बार कहना पड़ेगा कि मैं किसी भी लडकी को देखने नहीं जाऊंगा. कारण आप को पता है. किसी को भी देख कर बिना वजह इनकार करना मुझे पसंद नहीं है. मैं इस कारण से तो उन से मिलने नहीं जा पाऊंगा, आप से स्पष्ट कहे देता हूं.” यह कह कर प्रतिबिंब ने गुस्से से फोन काट दिया और छत की फौल्स सीलिंग को देखते हुए सोचने लगा- प्यार की भाषा क्यों नहीं समझते ये बड़े लोग, क्यों बारबार इस तरह की परिस्थति बनाते हैं कि हमें उन की बात न मानने के लिए मजबूर होना पड़े.

लाख संतुलन रखने के बाद भी वह इस बात पर अपना आपा खो ही देता है. बगल में गहरी नींद में सोई अनाया को उस ने उठाना उचित नहीं समझा और अपनी चाय ले कर बालकनी में आ बैठा. बादलों की ओट में से सूर्य आसमान में अपनी छटा बिखेरने को आतुर था. उस की किरणें धीरेधीरे बादलों की ओट से प्रकाश बखेर रही थीं. इधर प्रतिबिंब के मन में तूफान उठा हुआ था. तभी उसे अपनी और अनाया की पहली मुलाकात याद आ गई.

भोपाल के ओरिएंटल कालेज से औटोमोबाइल विधा से इंजीनियरिंग करने के बाद प्लेसमैंट के तहत मारुति के गुडगांव स्थित शोरूम में बतौर इंजीनियर वह पहली बार जौइन करने आया था. उस कंपनी में वह नया था, सो उस समय अनाया उस की बहुत मदद करती थी. यद्यपि प्रतिबिंब तकनीकी विंग में था और अनाया सेल्स में थी पर उस का और अनाया का केबिन पासपास था, सो धीरेधीरे दोस्ती हो गई थी. अकसर वे दोनों लंच एकसाथ करते थे. इस सब के बीच कब दोनों एकदूसरे को अपना दिल बैठे थे, उन्हें पता न चला.

अब दोनों अकसर औफिस टाइम के बाद साथसाथ वक्त बिताने लगे थे. उसे याद है, एक बार अनाया 4 दिनों तक औफिस नहीं आई थी और फोन भी लगातार स्विचऔफ जा रहा था. वे 4 दिन उस के लिए किसी वनवास से कम नहीं थे. पांचवें दिन जब वह औफिस आई तो लंचटाइम में वह फट पड़ा था,

“क्या मैनर्स है ये कि न औफिस आएंगे, न इन्फौर्म करेंगे और फोन को भी स्विचऔफ कर देंगे, ताकि कोई चाह कर भी कौन्टैक्ट न कर पाए. तुम जानती हो कि इन 4 दिनों मेरे ऊपर क्या बीती है?”

“सौरी प्रति, वो मैं इतनी मुसीबत में थी कि…” कहतेकहते अनाया की आंखों में आंसू आ गए. फिर उस ने जो बताया उसे सुन कर वह सन्न रह गया, “प्रति, मैं अपनी मां और भाई के साथ रहती हूं और सच कहूं तो वही मेरी दुनिया हैं. मेरी मां स्पैशलचाइल्ड स्कूल में टीचर है जो सुबह जा कर शाम को लौटती है.”

“स्पैशलचाइल्ड स्कूल, मतलब?”

“स्पैशलचाइल्ड मतलब ऐसे बच्चों का स्कूल जिस में शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों को ही पढ़ाया जाता है. ऐसे बच्चे सामान्य बच्चों से अलग होते हैं, इसलिए उन्हें स्पैशल कहा जाता है. 15 वर्ष का मेरा भाई एक स्पैशलचाइल्ड है. अन्य बच्चों के साथसाथ भाई की भी मां देखभाल कर सके, इसलिए उस ने इस फील्ड को चुना और अपने साथ ही वह भाई को भी स्कूल ले जाती है.

“उस दिन भाई की तबीयत ठीक नहीं थी और मां का जाना बेहद जरूरी था तो मां उसे अपने साथ नहीं ले गई थी. उसे खिलापिला और सुला कर स्कूल चली गई थी. शाम को जब मां लौटी तो भाई बुखार से तप रहा था. तुम्हें याद होगा कि उस दिन तुम एक वर्कशौप में चले गए थे. मां ने मुझे फोन किया और मैं तुरंत भागी. हम उसे अस्पताल ले कर गए. डाक्टरों ने उसे सीवियर निमोनिया बताया और भरती कर लिया. इन दिनों मैं इतनी परेशान थी कि भाई के अलावा कुछ भी होश नहीं था, इसलिए तुम्हें भी फोन नहीं कर पाई.”

“ओह, पर यार, तुम अकेले ही परेशान होतीं रहीं, एक बार मुझे बताया तो होता,” प्रतिबिंब ने अनाया के हाथ को पकड़ते हुए कहा. उस दिन पहली बार उस ने अनाया के हाथ को छुआ था और अनाया ने कोई प्रतिरोध नहीं किया था. “बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?” प्रतिबिंब ने अनाया की तरफ देखते हुए कहा.

“अरे, हम गरीबों की तो जिंदगी ही खुली किताब होती है जिस में छिपाने लायक कुछ नहीं होता. पूछो न, क्या पूछना है,” अनाया ने उदास स्वर में कहा.

“तुम ने अपने पापा के बारे में कभी कुछ नहीं बताया. क्या वो…” प्रतिबिंब मानो आगे कुछ बोल ही नहीं पा रहा था.

“प्रतिबिंब, मेरे मम्मीपापा का अंतर्जातीय विवाह था, पापा मेरे गुप्ता थे और मेरी मम्मी सिंधी थी. दोनों के ही परिवार वाले इस विवाह के लिए तैयार नहीं थे तो उन्होंने मंदिर में जा कर शादी कर ली और एकसाथ रहने लगे. बाद में मम्मी के परिवार वालों ने तो आनाजाना प्रारंभ कर दिया था लेकिन पापा के घर वालों ने जो उस समय नाता तोड़ा तो आज तक टूटा हुआ है. पापा और मम्मी दोनों ही टीचर थे और एक ही स्कूल में पढाते थे.

मम्मीपापा के विवाह के 2 साल बाद मेरा जन्म हुआ तो पापा से अधिक मम्मी खुश हुई थी. जब मां दूसरी बार गर्भवती थी तो एक दिन स्कूल से लौटते समय पापा की बाइक को किसी ट्रक वाले ने टक्कर मार दी थी और वे असमय काल के गाल में चले गए थे. मां पर मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पापा के जाने के 3 माह बाद भैया का जन्म हुआ और जन्म होने के एक दिन बाद ही उसे पीलिया हो गया था. 10 दिन अस्पताल में एडमिट रहने के बाद उसे छुट्टी दी गई थी. शुरू में तो कुछ पता नहीं चला लेकिन 2 साल का होने पर भी वह अपनी हमउम्र बच्चों से अलग दिखता था. डाक्टरों को दिखाने और कुछ परीक्षण कराने पर पता चला कि वह मैंटली फिट नहीं है. हां, नानानानी ने उस समय जरूर साथ दिया. पापा के घर वालों ने तो आज तक कदम नहीं रखा, बल्कि मम्मी के बारे में कहा, “’हमारे बेटे को खा गई और अब उस के कर्मों का ही फल है कि ऐसा बेटा पैदा हुआ है.’’

‘’अरे, कोई इतनी गंदी सोच कैसे रख सकता है. यह सब इंसान के हाथ में थोड़े ही होता है,” प्रतिबिंब ने कुछ बेचैन होते हुए कहा था.

“अभी कैसी है उस की तबीयत?’’

“अब ठीक है, कल ही हौस्पिटल से डिस्चार्ज करा कर घर लाई हूं. तभी तो आज औफिस आई हूं.’’

“प्रौमिस करो कि आगे से कुछ भी ऐसा होगा तो तुम मुझे भी बताओगी.’’

“जी, जी बिलकुल.’’

बालकनी से उस ने कमरे में झांक कर देखा तो अनाया अभी भी गहरी नींद में सोई थी. इसलिए वह रूम से होटल के गार्डन में आ गया और एक कप चाय का और्डर दे कर आरामकुरसी पर बैठ गया. इस लुकाछिपी का अंत कब होगा, कब पापा हमारे प्यार को अपना आशीर्वाद देंगे, यह सोचतेसोचते वह फिर सोचने लगा.

उस घटना के बाद तो उन दोनों का प्यार आसमान की ऊंचाई छूने लगा था. अकसर अनाया प्रतिबिंब के लिए अपने घर से खाना ले कर आती, उस के साथ ही खाती और औफिस के बाद भी कभी मौल तो कभी कौफ़ी शौप में चले जाते. एक रविवार को प्रतिबिंब अनाया को बिना बताए उस के घर जा पहुंचा.

उसे देख कर अनाया चौंक गई, “अरे, आप अचानक, क्या हुआ, कल तो आप ने कुछ बताया ही नहीं था?”

“अरे, हद है, देखते ही इतने सवाल दाग दिए तुम ने.’’

“आंटी देखिए, अंदर आने को कहने की जगह गेट पर ही प्रश्न पूछे जा रही है आप की बेटी.’’ अनाया की मम्मी को सामने देख कर प्रतिबिंब ने कहा.

“अरे, आओ बेटा, आओ,” मम्मी ने जब अंदर आने के लिए इशारा किया तो प्रतिबिंब अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया.

“अनाया अकसर तुम्हारे बारे में बात करती रहती है.’’

उस दिन अनाया के भाई के साथ मिल कर उस ने खूब मस्ती की थी. अनाया का भाई आरुष भले ही स्पैशलचाइल्ड था पर उसे संगीत की बहुत अच्छी समझ थी. पियानो पर बहुत अच्छी धुन भी निकालता था. उस के बाद तो प्रतिबिंब अकसर ही अनाया के घर पहुंच जाता. उस से मिल कर आरुष भी बहुत खुश होता. प्रतिबिंब और अनाया का मूक प्रेम यों ही न जाने कब तक चलता यदि 5 साल पहले 26 जनवरी को वह घटना न हुई होती.

उस साल 26 जनवरी शनिवार को थी. अनाया और प्रतिबिंब ने उस दिन शाम को एक मूवी जाने का प्लान किया था. शुक्रवार सुबह जब प्रतिबिंब अपने फ्लैट में गहरी नींद की आगोश में था कि तभी कौलबेल की आवाज से वह चौंक गया. इतनी सुबह तो मेड के आने का भी टाइम नहीं है, यह सोचते हुए जैसे ही उस ने गेट खोला तो सामने अपने पापा ब्रजभूषण और मां नंदिनी को देख कर चौंक गया.

“अरे मांपापा, आप इस तरह अचानक, विदआउट एनी इन्फौर्मेशन, कैसे?”

“अरे तो क्या अपने बेटे के घर आने के लिए भी परमीशन लेनी पड़ेगी. आ गए, मन किया तुझसे मिलने का. तू बहुत समय से आया नहीं था. और अभी 3 दिन की छुट्टी थी, सोचा, सब साथ रहेंगे,” नंदिनी ने प्यार से उस से कहा.

“ओके.”

अकेले इंसान के घर में उस के गुजारे के लायक ही सामान होता है. सो, सब से पहले उस ने मांपापा की जरूरतों के अनुसार सामन और्डर किया और अनाया को बिजी हो जाने का मैसेज छोड़ कर पूरे दिन अपने मांपापा के साथ रहा.

अगले दिन सुबह नाश्ते के टाइम ब्रजभूषण बोले, “बेटा, यहां पर एक गुप्ताजी हैं, उन की बिटिया सौफ्टवेयर इंजीनियर है, यहीं दिल्ली में ही. तो हम ने सोचा कि तुम से मिलना भी हो जाएगा और यह काम भी.”

“पापा, मैं अभी इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहता. अभी 2 दिन हम तीनों दिल्ली घूमते हैं, फिर कभी देखेंगे,” उस ने बात को टालने की गरज से कहा.

“नहींनहीं, मैं ने उन्हें प्रौमिस कर दिया है, यह है लड़की के औफिस का पता. तुम पहले लड़की से मिल आओ. यदि तुम्हें पसंद होगी तो ही बात आगे बढ़ाएंगे.”

शुरू से घर में पापा का ही दबदबा था. सो, न तो वह अधिक विरोध कर पाया और न ही अभी उस ने अनाया के बारे में उन्हें बताना उचित समझा क्योंकि अभी तो उसे अनाया के मन के बारे में भी पता नहीं था कि वह उन दोनों के रिश्ते के बारे में क्या सोचती है. सो, मांपापा को संतुष्ट करने के उद्देश्य से वह उस दिन गुप्ताजी की लडकी से मिलने गया. जब वह और गुप्ताजी की बेटी एक स्टारबक्स कैफे में बैठे बातचीत कर रहे थे तभी अनाया ने वहां अपनी एक सहेली के साथ प्रवेश किया. अचानक अपने सामने प्रतिबिंब को एक लड़की के साथ बैठा देख कर वह चौंक गई लेकिन फिर भी उसे अनदेखा करती हुई वह तुरंत ही अपनी सहेली को पकड कर बाहर ले गई. इस के तुरंत बाद ही प्रतिबिंब भी घर आ गया.

रास्ते से उस ने अनाया को कई कौल किए. पर अनाया का फोन स्विचऔफ जाता रहा. मां को उस ने लड़की न पसंद आने का बोला और इस के बाद वे लोग रविवार की रात वापस लखनऊ लौट गए.

“सोमवार को लंचटाइम में उस ने अनाया से कहा, “अनाया, वो उस दिन मैं मजबूरी में उस से मिलने गया था. मैं ने तुम्हें बताया था न कि मांपापा आए हैं, उन्होंने किसी को प्रौमिस कर दिया था, सो इसलिए…”

“अरे, तो क्या हो गया, सही तो हैं वे लोग. तुम्हें अब शादी कर लेनी चाहिए. लड़की देखने ही तो भेजा था न?”

“पर मैं नहीं करना चाहता अभी.”

“क्यों नहीं चाहते, हर मातापिता की तरह वे भी चाहते हैं कि वे जल्दी से जल्दी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हों.”

“तुम्हारी मम्मी नहीं चाहतीं क्या?”

प्रतिबिंब के इस प्रश्न से अनाया चौंक गई, बोली, “देखो प्रति, मुझ से जो शादी करेगा उसे भैया और मेरी मां की जिम्मेदारी भी मिलेगी. और आजकल के समय में कौन जिंदगीभर के लिए इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेना चाहेगा. कई रिश्ते आए पर जब मम्मी और भैया के लिए केवल मुझे ही खड़ा पाते हैं तो सहज ही उन के कदम पीछे चले जाते हैं.”

“और यदि इस जिम्मेदारी में मैं तुम्हारा भागीदार बनना चाहूं तो?’’ प्रतिबिंब ने अनाया का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा.

प्रतिबिंब की इस बात को सुन कर अनाया बिना कुछ कहे प्रतिबिंब की तरफ शांतभाव से देखने लगी.

“बोलो अनाया, अगर क्या अपने साथ मुझे इस जिम्मेदारी को ताउम्र निभाने का मौका दोगी?”

“प्रति, मैं तुम्हारी भावनाओं की बहुत कद्र करती हूं और यह भी जानती हूं कि तुम अपने कहे को पूरा भी करोगे पर ध्यान रखो कि तुम अकेले नहीं हो, तुम्हारे साथ तुम्हारा पूरा परिवार है. अपने मातापिता की तुम इकलौती संतान हो, उन्होंने तुम्हारी शादी के लिए न जाने कितने सपने देखे होंगे. क्या तुम्हारा परिवार इतनी बड़ी जिम्मेदारी के साथ इस रिश्ते को मानेगा?” अनाया ने प्रश्नवाचक नजरों से उस की तरफ देखते हुए कहा.

“तुम अपनी बात कहो, मेरे घरवालों को मैं संभाल लूंगा.”

“तुम जैसे सच्चे और अच्छे दोस्त को अपनी जिंदगी का राजदार बनाना किसे बुरा लगेगा,” कह कर अनाया ने प्रतिबम्ब के प्रस्ताव पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी थी.

इस के बाद दीवाली पर जब वह घर गया तो मम्मी ने हर बार की तरह इस बार 10 लड़कियों के फोटो उस के सामने रखे और पसंद करने को कहा तो उस ने बड़े प्यार से मम्मी से कहा, “मम्मी, इन फोटोज की जगह यदि मैं आप से कहूं कि मुझे सचमुच एक लड़की पसंद है, तो?”

“अरे सच में, क्या कह रहा है तू, पसंद है तो बताया क्यों नहीं. कौन है, कहां है, वहीं औफिस में ही है क्या, क्या नाम है, कैसी है बता तो सही?”

“अरेअरे मां, इतनी उतावली क्यों हो रही, सब बता रहा हूं, बोलने का मौका तो दो,” प्रतिबिंब ने सामने पड़े सोफे पर मां को कंधे पकड़ कर बैठाते हुए कहा. और उस के बाद उस ने अनाया का फोटो मोबाइल में दिखाते हुए अनाया के बारे में बताया. पिता के सख्त स्वभाव का होने के कारण प्रतिबिंब का अपनी मां के साथ दोस्ताना रवैया था और उन से वह अपनी हर बात शेयर कर लिया करता था.

अनाया सुंदर तो थी ही, जीवन के संघर्ष के कारण चेहरे पर आत्मविश्वास का दर्प भी था. सो, फोटो देखते ही प्रति की मां बोलीं, “अरे वाह, तू तो छिपा रुस्तम निकला, प्रति. तो फिर देर किस बात की, आज ही पापा को बताती हूं और अगले मुहूर्त में शादी कर लेंगे.”

अपने पिता के दंभी स्वभाव को प्रतिबिंब भलीभांति जानता था, सो बोला,

“मां, इतना आसान नहीं है, अनाया के पिता नहीं हैं, एक विकलांग भाई है और मां हैं जिन की जिम्मेदारी हम दोनों को उठानी होगी. दूसरे, अनाया की आर्थिक स्थिति हम से बहुत कमतर है. तीसरे, अनाया जाति से ब्राह्मण नहीं है. और ये तीनों ही कारण ऐसे हैं जिन पर अनाया का कोई वश नहीं था. हां, आज की डेट में वह एक जिम्मेदार बहन और बेटी है और अब मैं उसे एक जिम्मेदार बहू भी बनाना चाहता हूं. बस, आप का साथ चाहिए, मां,” यह कहते हुए प्रतिबिंब मां नंदिनी के पैरों में बैठ गया.

कुछ ही देर में प्रतिबिंब ने देखा कि नंदिनी के चेहरे की ख़ुशी का स्थान चिंता और भय ने ले लिया है.

“क्या हुआ, मां? कुछ तो बोलो, दोगी न मेरा साथ?”

“क्या बोलूं और क्या कहूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. क्या तू घर में मेरी स्थिति नहीं जानता. और क्या अपने पापा को नहीं जानता. तुझे लगता है मैं उन्हें बताऊंगी और वो मान जाएंगे? समाज में अपनी प्रतिष्ठा को ले कर कितने सजग हैं, यह भी तू जानता है. पर ठीक है, देखते हैं क्या होता है.” यह कह कर नंदिनी ने किसी तरह बात को उस समय टाल दिया था.

अगले दिन जब सब नाश्ते की टेबल पर थे तो अचानक पिता ब्रजभूषण का स्वर उस के कानों में गूंजा, “कौन है यह लड़की जिस के बारे में तुम ने अपनी मम्मी को बताया है.”

“मेरे साथ काम करती है. मम्मी ने आप को सब बता ही दिया होगा,” कह कर प्रतिबिंब ने अपना सिर नाश्ते की प्लेट में झुका दिया.

“तो जो तुम ने कहा है वह सब भूल जाओ. बेवकूफ हो तुम जो इस लडकी से शादी करना चाहते हो जिस के आगे नाथ न पीछे पगहा, ऊपर से मांभाई की जिम्मेदारी. सोचा है, कभी अगर कल को मां को कुछ हो गया तो सारी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर आएगी. इस गैरजाति की लडकी से नैनमटक्का करते तुम्हें समाज में अपनी मानमर्यादा का जरा भी ध्यान नहीं आया. और ये गरीब घरों की लड़कियां, इन की तो नजर ही हमेशा वैल सैटल्ड लडकों पर होती है. मैं इस तरह की किसी भी शादी को कभी भी तैयार नहीं हो सकता और अगर करनी है तो मेरी मौत के बाद ही यह संभव हो सकेगा,” ब्रजभूषण ने अपने गरजते स्वर में कहा और नाश्ते की टेबल पर से बिना नाश्ता किए ही चले गए.

प्रतिबिंब ने भी किसी तरह थोड़ाबहुत नाश्ता अपने हलक से उतारा और 2 घंटे बाद की अपनी ट्रेन की तैयारी करने लगा.

अगले दिन कैंटीन में खाना खाते समय प्रतिबिंब को उदास और खोयाखोया देख कर अनाया बोली, “क्या हुआ, आज जनाब का मूड ठीक नहीं है?”

“नहीं, कुछ नहीं, बस ऐसे ही,” प्रतिबिंब ने बात को टालने की गरज से कहा.

किसी भी बात की तह तक जाना अनाया की खासीयत थी. सो, उस ने आज प्रतिबिंब को भी सचाई बताने के लिए मजबूर कर दिया.

प्रतिबिंब की बात सुन कर वह बोली, “देखो प्रति, तुम्हारे पापा अपनी जगह बिलकुल सही हैं. हम गरीब घरों की लड़कियों को हमेशा से मतलबी, लालची और अमीर लडकों को फंसाने वाली ही माना जाता रहा है. फिर, मेरे साथ तो सब कुछ माइनस है. तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो और अपने मातापिता की पसंद की लड़की से शादी कर के एक खुशहाल जिंदगी जियो,” कह कर अनाया अपना पर्स उठा कर चली गई.

उस पूरे दिन प्रतिबिंब का काम में मन नहीं लगा. वह जल्दी ही अपने फ्लैट पर आ गया और अपनी मां को फोन लगा दिया.

“मां, देखिए, मैं भी पापा का ही बेटा हूं, पापा से कह दीजिएगा यदि वे अनाया से मेरे विवाह को तैयार नहीं हैं तो मैं भी किसी और से शादी नहीं करूंगा. यदि आज अनाया की जगह मैं होता तो क्या अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता. आज के बाद मुझ से शादी की बात कभी मत कीजिएगा.” और इस के बाद उस की शादी की चर्चा घर में होनी बंद हो गई.

इस बात को आज 7 साल हो गए. उस की उम्र 28 से 35 हो चली है. वह और उस के पिता दोनों ही अपनी बात पर कायम हैं. अनाया और प्रतिबिंब समाज की नजर में भले ही पतिपत्नी न हों लेकिन साथसाथ मीटिंग्स अटेंड करना, होटल के एक ही रूम में रुकना और लाइफ को एंजौय करना यह सब अब उन के लिए बहुत कौमन सी बात है क्योकिं दोनों ही एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते और प्रतिबिंब अपने पापा को मना नहीं पा रहा. 3 दिन और भोपाल में रुकने के बाद वे दोनों ही दिल्ली लौट आए. एक सप्ताह तक बाहर रहने के कारण बहुत सारा औफिसवर्क पैंडिग हो गया था. सो, प्रतिबिंब फाइलों में ही उलझा हुआ था कि अचानक मोबाइल की रिंग बजी. जैसे ही उस ने फोन उठाया, मम्मी की रोती हुई आवाज थी.

“बेटा, पापा का ऐक्सिडैंट हो गया है, जल्दी आओ.”

वह घबराता हुआ अनाया के पास पहुंचा और बोला, “अनाया, पापा का ऐक्सिडैंट हो गया है, मैं जा रहा हूं.” यह सुनते ही अनाया भी उस के साथ हो ली और उसे जरूरी हिदायतें दे कर रवाना किया. जैसे ही वह लखनऊ के केजीएमसी पहुंचा तो आईसीयू के बाहर बैठी मां को देख कर घबरा गया. उस के पिता की कार को ट्रक ने टक्कर मार दी थी. सिर और पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे. कुछ ही देर में डाक्टर बाहर आए और बोले, “पैरों से बहुत खून बह चुका है, दिमाग पर भी काफी चोट आई है.”

पिता की गंभीर हालत को देखते हुए उस ने तुरंत पिता को दिल्ली एम्स ले जाने का निर्णय लिया और मां के साथ दिल्ली के लिया रवाना हो गया. दिल्ली में अनाया और उस की मम्मी ने डाक्टर से अपौइंटमैंट से ले कर भरती कराने तक की सारी व्यवस्थाएं कर रखी थीं जिस से उस ने पिता को तुरंत एडमिट करा दिया. सिर पर चोट लगने के कारण ब्रजभूष्ण को 4 दिन बाद होश आया.

लगभग 15 दिनों तक वे एडमिट रहे. इस बीच अनाया और उस की मम्मी ने एक पल को भी प्रतिबिंब और उस की मम्मी को अकेला नहीं छोड़ा. हर दिन अनाया अपने घर से दोनों के लिए ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर ले कर आती. अपने हाथों से नंदिनी को खिलाती. जब प्रतिबिंब और दामिनी फ्लैट पर अपने दैनिक कार्यों के लिए जाते तो वह हौस्पिटल में रुकती. जब कभी प्रतिबिंब पापा को ले कर उदास होता तो वह उसे संबल देती.

सब की मेहनत के परिणामस्वरूप 15 दिनों के बाद ब्रजभूषण को अस्पताल से छुट्टी मिली पर सब से दुखद बात यह थी कि ट्रक की चपेट में आने के कारण एक पैर को काटना पड़ा था. अभी 15 दिन के बाद फिर से विजिट होनी थी, इसलिए वे लखनऊ जाने के बजाय प्रतिबिंब के फ्लैट पर ही रुके थे. सूने घर में रौनक आ जाती जब अनाया आती. वह हर रोज प्रतिबिंब के साथ आती, ब्रजभूषण और दामिनी को अपने हाथों से चाय बना कर पिलाती और फिर प्रतिबिंब उसे छोड़ कर आ जाता.

एक दिन जब प्रतिबिंब अपने औफिस में था तो दामिनी ने कहा, “देखो जी, जिस में हमारा बेटा खुश है उसी में हमें भी खुश होना चाहिए. तुम्हारे इलाज के दौरान अनाया और उस की मां ने जो मदद की है उसे नकारा नहीं जा सकता. हम ने तो अपनी जिंदगी जी ली है, अब बेटे को उस की जिंदगी जीने दो. उस की खुशियों को छीनने का हमें कोई हक नहीं है. कब से वह आप की हां का इंतजार कर रहा है. अब तो हां कर दो जी.” इस दौरान दामिनी बोलती रहीं और ब्रजभूषण बिना एक भी शब्द बोले, बस, सुनते ही रहे मानो वे किसी मानसिक अंतर्द्वंद से गुजर रहे हों.

इस के 2 दिनों बाद आने वाले रविवार की सुबह ब्रजभूषण सुबह जल्दी उठ कर अपने दैनिक कार्यों से निवृत हो तैयार हो कर अपनी स्टिक के सहारे चल कर कभी अंदर जाते, कभी बाहर. उन्हें इस तरह बेचैन देख कर दामिनी बोली, “क्या हुआ जी, इतनी बेचैनी से इधरउधर क्यों घूम रहे हैं?”

“कुछ नहीं, बस ऐसे ही. प्रति उठा कि नहीं. तुम ने नहा लिया. प्रति से कहो, वह भी नहाधो ले. हम आज नाश्ता बाहर करेंगे.”

अब तक प्रतिबिंब भी उठ कर आ गया था और बाहर के खाने से सदा चिढ़ने वाले अपने पापा के इस रूप को देख कर हैरान था. कुछ ही देर में दरवाजे की घंटी बजी तो सामने अनाया को अपने भाई और मां के साथ खड़ा देख कर प्रतिबिंब हैरान रह गया.

“अरे, अनु तुम, यहां, कैसे-क्यों?”

‘’अरे, दरवाजे के बीच से तो हटो, उन्हें अंदर आने दो. मैं ने उन्हें यहां बुलाया है.” अपने पिता की आवाज सुनकर प्रतिबिंब और उस की मां दोनों ही चौंक गए.

उधर, अनाया और उस की मम्मी भी हैरान थीं इस तरह अचानक बुलाए जाने से क्योंकि ब्रजभूषण ने उन्हें जल्दी ही घर आने को कहा था. सब हैरान थे प्रतिबिंब तो डर के कारण कांप रहा यह सोच कर कि आज पापा पता नहीं क्या तूफान लाने वाले हैं पर ब्रजभूषण जी एकदम शांत थे. सब को बैठने का इशारा कर के वे भी सोफे पर बैठ गए और अनाया की मम्मी की तरफ देखते हुए बोले, “क्या आप को पता है कि ये दोनों अपनी जिंदगी एकसाथ बिताना चाहते हैं.”

“जी,’’ अनाया की मम्मी ने सकुचाते हुए कहा.

“तो फिर देर किस बात की है, इन्हें बांध देते हैं इस बंधन में.”

“पर पापा, आप…” प्रतिबिंब ने हैरत से कहा.

“हां, मैं ही कह रहा हूं. हां, मैं मानता हूं कि पहले मैं ही तैयार नहीं था पर अब मेरा नजरिया बदल गया है. जिस समाज की परवा कर के मैं अपने बच्चों को तकलीफ देता रहा. मेरी बीमारी के दौरान वह समाज किसी काम नहीं आया. तो फिर मैं उस समाज की चिंता क्यों करूं. मुझे भरोसा है अनाया पर जो एक जिम्मेदार बेटी और बहन है तो एक जिम्मेदार बहू भी होगी. मुझे माफ़ कर दो मेरे बच्चो,” कह कर ब्रजभूषण चुप हो गए.

ब्रजभूषण की बातें सुन कर पूरे हौल में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. प्रतिबिंब और उस की मम्मी ख़ुशी से ब्रजभूषण के गले लग गए और अनाया ने झुक कर उन के पैर छू लिए. आज अनाया और प्रतिबिंब की शादी के सारे माइनस पौइंट प्लस में बदल गए थे.

बचपन का भाई

देहरादून से गाजियाबाद अधिक दूर न होने की वजह से अकसर जाना होता रहता. वजह, मायके की चाह मन में रहती है. मायके में भरापूरा परिवार है. मां की तरह भाभी भी दिल से लगाव रखती हैं, तो जाने का मन करता और मनभर बात भी हो पाती. हां, भैया से कुछ कम होने लगी है, पहले सा चुलबुलापन बातों में नहीं रहा.

अब तो जब भी मिलना होता, आत्मीयता तो होती पर शब्दों में औपचारिकता आ गई थी. कैसी है तू, विनयजी और बच्चे ठीक हैं न, किसी बात की कोई परेशानी तो नहीं है, सब ठीकठाक है न वगैरहवगैरह?

शायद यही उम्र का तकाजा है कि आप के व्यवहार, बोलचाल, रहनसहन, आदतों में समझदारी व परिपक्वता दिखाई देने लगती है और व्यक्तित्व में गंभीरता आने लगती है.

अभी इसी साल भैया के बेटे की शादी हुई है. बहू स्तुति बड़ी प्यारी लड़की है. अपने व्यवहार और बोलचाल से घर में सब का मन लगाए रखती है. वह एक अच्छी प्राइवेट कंपनी में जौब कर रही है, शनिवार व इतवार उस की छुट्टी रहती है.

कल ही उस का फोन आया, ‘बूआ, इस बार शुक्रवार यानी फ्राइडे को आ जाओ. सोमवार की भी छुट्टी है तो पूरे 3 दिन सब को संग रहने को मिल रहे हैं.’ आ जाओ न, बूआ. साथ में, फूफाजी और दीदी व भैया भी आ जाएंगे, घर के सभी लोग इकट्ठे हो संगसंग रहेंगे व खूब सारी गपशप व मज़े करेंगे.

‘और हां, बुआ, आप इधरउधर आनेजाने का प्रोग्राम मत बनाना, कहीं किसी न किसी रिश्तेदार के यहां जाने के लिए तैयार मत होना. इस बार आप को कहीं किसी और के घर मिलने भी नहीं जाने देंगे. बस, हम सब एकसाथ रहेंगे, संगसाथ समय बिताएंगे.’

हंसते हुए मैं ने कहा, ‘ठीक है, बेटा. जैसा तुम्हारा हुक्म, आज्ञा का पालन किया जाएगा. हम आने की कोशिश करते हैं.’ पतिदेव और बच्चों से बात की तो वीकैंड पर छुट्टी की वजह से सभी जाने के लिए तैयार हो गए.

खैर, शुक्रवार की देर शाम तक हम घर पहुंचे. सभी से मिल बड़ा अच्छा लग रहा था.

भाभी पूछने लगीं, “दीदी चाय बनाऊं या खाना लगा दूं?”

मैं कुछ कहती, इस के पहले ही अर्जुन बोल पड़ा, “मां, खाना ही लगा लो. अभी तो बूआ के साथ बहुत बातें करनी हैं तब चाय पी लेंगे, क्यों बूआ, सही कहा?”

“बिलकुल सही.” और फिर हम दोनों ही हंस दिए.

खापी, देररात तक सब बैठे बतियाते रहे. नींद आने लगी तो अपने कमरों में सोने चले गए.

सुबह थोड़ी देर से आंख खुली क्योंकि कहीं बाहर आ कर घर की जिम्मेदारियों से मुक्त जो हो जाते हैं. नहाधो जब बाहर आई तो भाभी चाय का कप देते हुए बोलीं, “नाश्ते में तुम्हारी पसंद की आलू की सब्जी और कचौड़ी मंगवाई है, मन से खा लेना.”

सभी एकसाथ नाश्ता करने बैठे तो फिर गपों का दौर चल पड़ा. भैया की अपनी फैक्ट्री है तो 10 बजे तक घर से निकल जाते हैं परंतु आज तो आराम से सब के संग बातचीत कर रहे थे. भाभी ने कहा, “आज फैक्ट्री नहीं जाना है क्या? तो भैया हंस कर कहने लगे, चला जाऊंगा भई, घर से बाहर मत निकाल देना,” भैया का कहने का अंदाज ऐसा था कि सभी हंस दिए.

नाश्ते के थोड़ी देर बाद तक भी डाइनिंग टेबल पर ही बैठ बातें करते रहे, फिर अर्जुन और स्तुति की शादी का अलबम देखने में लग गए. दोनों की जोड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी. ये दोनों घूमने कश्मीर गए थे तो वहां के भी फोटो देखने में समय मालूम ही नहीं पड़ा. स्तुति फिर चाय बना लाई तो उस का मजा लिया.

लंच पर भैया आ गए तो भाभी के हाथ का बना बढ़िया खाना खाया, खासतौर से उड़द की दाल और मीठे चावल बहुत अच्छे बने थे. भैया ने जबरदस्ती मेरी प्लेट में एकदो दफा मीठे चावल रखे यह कहते हुए कि “तुझे तो बचपन से बहुत पसंद हैं, अच्छे से खा.”

अर्जुन ने प्रोग्राम बनाया कि अभी थोड़ी देर से घूमने निकलते हैं. पहले कनौट प्लेस में घूमेंगे, फिर इंडिया गेट जाएंगे और वहीं कुछ समय बिताएंगे. बीच में ही अर्जुन की बात काटते हुए भैया कहने लगे, “थोड़ी देर के लिए दरियागंज भी जाएंगे, वहां की फलूदा कुल्फी भी तेरी बूआ को खिलानी है.”

“ठीक है, पापा. पहले कुल्फी बाद में कुछ और.”

अपना इतना ध्यान रखता देख मन बहुत भावुक हो गया था, लग रहा था कि हम वही बचपन वाले भाईबहन हैं जो जब भी बाजार जाते, कुल्फीफालूदा खाए बगैर वापस न आते थे.

खैर, खूब घूमेफिरे, खायापिया और साथ ही बचपन की यादों को ताजा किया.

अगले दिन इतवार था. भैया की भी छुट्टी थी तो प्रोग्राम बना कि नाश्ता करने के बाद दिल्ली से कोई 50 किलोमीटर दूर रिजौर्ट हैं, वहीं चला जाए. पूरा दिन रिजौर्ट में साथ रहेंगे, खाएंगेपिएंगे और वहीं जो भी खेलने की व्यवस्था होगी खेलेंगे, मस्ती करेंगे. बच्चे तो खेलकूद का सुनते ही खुश हो गए और घर से भी क्याक्या ले जा सकते हैं, सोचविचार होने लगा.

नियत समय घर से निकल जहां जाना था, आराम से पहुंच गए.

पहुंचते ही पहले लंच किया जो काफी स्वादिष्ठ था. रिजौर्ट रहने के लिए अच्छा बना हुआ था. रिजौर्ट के अंदर ही इंडोरगेम्स यानी खेलनेकूदने का भी इंतजाम था. बच्चे खेलने चले गए. भैया कहने लगे, “आओ हमारे कमरे में बैठ एकएक कप चाय हो जाए, फिर बच्चों संग एंजौय करेंगे.”

चाय पीतेपीते कितनी ही बचपन की बातें ताजा हो गईं जिन का विनय और भाभी भी सुन कर मजा ले रहे थे.

भैया मेरी तरफ देख कहने लगे, “बचपन में जब कभी यह मेरी कोई शिकायत मम्मी या पापा से करती थी तो मैं पिट्ठूफोड़ खेल खेलते हुए इस की पीठ पर जोर की गेंद मार अपना बदला ले लिया करता था. कई बार इस को स्कूटी पर घूमने जाने के बहाने बैठा कर स्पीडब्रेकर या गड्ढों पर जोर की उछाल दिया करता था, साथ ही, डराता भी रहता था कि अब मेरी किसी भी तरह की शिकायत की तो और भी तंग करूंगा.”

बीच में ही विनय कहने लगे, “फिर आप से डरने लगी होगी, अब से कुछ ऐसा ही मुझे भी करना होगा.” विनय कुछ ऐसे बोले कि उन के अंदाज पर कमरा हंसीठहाकों से गूंज उठा.

शाम हो आई थी. हम सभी बच्चों के पास चले आए. देखते ही बच्चे स्विमिंग पूल पर चलने को कहने लगे. अर्जुन कहने लगा, “हमारा स्विमिंग पूल में नहाने का मन हो रहा है, यदि आप बड़े नहाने का मजा नहीं लेना चाहते हैं तो कुछ देर वहीं बैठिएगा, अच्छा लगेगा.”

वहां जाते ही सारे बच्चे पानी में उतर गए. कुछ देर बाद न-न करने वाले भैया, फिर भाभी और फिर विनय भी पानी में तैरते हुए बच्चों की भांति छपछप करते नजर आए.

मुझे बारबार आने को कह रहे थे पर मैं ऊपर ही बैठी सब को देख आनंदित हो रही थी. तभी भैया और अर्जुन ने आंखों ही आंखों में क्या इशारा किया, पता नहीं, पर अचानक से अर्जुन ने पीछे से मुझे धीरे से धक्का दिया और भैया ने मुझे पकड़ पानी में उतार लिया. कुछ देर तक शायद डर की वजह से मैं चिल्लाती रही लेकिन बाकी सभी मेरी हालत देख हंसते रहे.

भैया कहने लगे, “पानी में मजा आ रहा है न, तुझे चिल्लाते देखने का ही तो मन था, ऐसे ही तो बचपन में भी मेरे तंग करने पर चिल्लाती रहती थी.”

भैया को ऐसा कहते देखा तो वही बचपन वाला भाई आंखों के सामने दिखा, वही भाई, वही बचपन की नोंकझोंक. खैर, पहले तो पानी में डर लग रहा था किंतु सब के साथ फिर बहुत अच्छा लगने लगा.

कुछ देर वहीं रहे. फिर सभी अपनेअपने कमरे में आ कर कपड़े बदल और खापी कर वापस कुछ न कुछ खेलने में व्यस्त हो गए. वहां लूडो और सांपसीढ़ी भी खेलने के लिए रखा हुआ था. मैं और विनय व भैयाभाभी हम चारों लूडो खेलने बैठ गए. भैया मेरे बराबर में बैठे थे.

जब भी मैं अपनी चाल चलती, तभी भैया बोलते, “देख, अब कैसे तेरी गोटी काट कर वापस जहां से शुरू की थी वहीं पहुंचाता हूं. तुझे जीतने नहीं दूंगा, पहले मैं ही गोटियां खत्म कर जीतूंगा.”

खेलतेखेलते मन काफी भावुक हो चला था. जो भाई जिम्मेदारियों की चादर के नीचे कहीं छिप गया था, आज उस के सामीप्य जा कर मालुम हुआ कि आंतरिक तौर पर कुछ नहीं बदलता है.

वह तो समय धीरेधीरे अपनी आगोश में लेते हुए व्यक्तित्व में बदलाव और अपने फर्ज को पूरा करने की गंभीरता सिखाता जाता है और हम मनुष्य कहीं दूर अपना प्यारा बेफिक्रीभरा बचपन छोड़ कब इस जिंदगी के तमाम कर्तव्यों व जिम्मेदारियों को निभाने में लीन या फंसते चले जाते हैं, खुद को ही नहीं मालूम हो पाता.

आज मेरा वही प्यारा बचपन का भाई मेरे सामने था और मैं वही उस की छोटी बहन. कुछ नहीं बदला था, सबकुछ वैसा ही था.

खैर, खेलने के बाद अब सभी को भूख लगने लगी थी. सो, डाइनिंग हौल में जा कर स्वादिष्ठ खाने का मजा लिया. फिर एकएक कप कौफी का ले कर कुछ देर गपें कर अपने कमरों में सोने चल दिए.

अगले दिन जल्दी नाश्ता कर वापस घर की ओर निकल लिए क्योंकि हमें तो देहरादून जाना था. दिल्ली पहुंच कर कुछ खापी और सामान ले कर उदास मन से जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.

रास्तेभर एक अलग तरह की खुशी महसूस कर आंतरिक तौर पर मन बहुत खुश था, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई कीमती वस्तु मिल कर वापस मेरे पास आ गई हो.

सच, आज यह बात सौ प्रतिशत सही साबित हो रही थी कि रिश्तों की डोर समय, साथ, लगाव, आत्मीयता, समर्पण, अनौपचारिकता की गांठ से ही बंधती है. अधिक मजबूती के लिए एकदूसरे को भलीभांति समझने व ज़रूरत पड़ने पर संग-साथ खड़े रहने की गांठ भी लगानी पड़ती है.

सब जानसमझ मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अब भैया के संग बातें भी होंगी, साथसाथ रहने का समय भी जरूर निकालूंगी और कभीकभी वही बचपन वाली गुड़िया बन कर भी रहूंगी.

खुशी व सुकून की मुसकान के साथ पतिदेव और बच्चों पर नजर डाल अपनी राह पर चल दी.

Mahatma Gandhi Birthday: मिलते हैं बापू के तीन बंदरों के चौथे भाई से जो अंधविश्वास की बलि चढ़ गया

 गांधीजी के तीन बंदरों के बारे में बचपन से ही पढ़ा दिया जाता है, मगर क्या आप जानते हैं इन तीन बंदरों का एक और भाई था जिस की सीख आज बहुत मायने रखती है?

वैसे तो राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी से जुड़ा हर पहलू रुचि पैदा करता है लेकिन जिंदगी की पहली सीढ़ी पर बापू से कनेक्शन का जरिया बनते हैं उनके तीन बंदर. इन बंदरों की पौपुलिरटी की सब से बड़ी वजह यह थी कि इन तीनों ने जीवन को आदर्श तरीके से जीने के तीन फार्मूले दिए. ये बंदर स्कूल में ही इंसान को नैतिकता से जुड़े रहने का पाठ पढ़ा देते हैं, ऐसे में अगर मां को शिशु की पहली पाठशाला कहते हैं, तो इन्हें इंसान के पहले ‘मोरल टीचर्स’ कहना गलत नहीं होगा.

चाैथा बंदर कहां गायब हो गया

गांधीजी के तीन बंदर थे, यह बात तो सभी को पता होगी लेकिन अभी भी बहुत सारे लोगों को यह पता नहीं है कि इन बंदरों का एक और भाई था, ‘चौथा बंदर’. इस चौथे बंदर से चीन, जापान को छोड़ कर बाकी मुल्कों की एक बड़ी आबादी आज भी नावाकिफ है. इस चौथे बंदर का नाम है ‘शिजारू’. इस के बाकी के तीन भाइयों (बापू के तीन बंदरों) के नाम इस तरह से हैं. पहला है ‘मिजारू’ जिस ने अपने आंखों को ढक रखा है और लोगों को बुरा नहीं देखने की सीख देता है. दूसरे का नाम है ‘किकजुरा’, जो कानों को ढक कर बुरा नहीं सुनने का मैसेज देता है, तीसरा बंदर ‘इवाजुरा’ ने अपने मुंह को दोनों हथेलियों से बंद कर रखा है, अपने इस मुद्रा से वह लोगों को बुरा बोलने से बचने का संदेश देता है. यहां तक की कहानी तो सभी को पता है लेकिन यहां बात हो रही है चौथे बंदर की, जो सब से उत्तम गुण रखने के बावजूद एक गलत सोच या टैबू की वजह से भुला दिया गया.

गांधीजी के पास कैसे पहुंचे बंदर पहली थ्योरी

ऐसी धारणा है कि 17वीं सदी में जापान के घरों में इन चारों बंदरों की कहानियां सुनी और सुनाई जाती थी जबकि सचाई यह है कि दूसरी और चौथी सदी ईसा पूर्व में ही ये चारों बंदर भाई चीन में मौजूद थे जिस से साबित होती है कि इन की मातृभूमि जापान नहीं चीन है. कुछ प्रबुद्ध लोगों ने इन मूर्तियों का सीधा संबंध बौद्ध दर्शन से माना है. ऐसी सोच रखने वालों का मानना था कि ये तीन बंदर भारत से हो कर चीन, चीन से होते हुए कोरिया और कोरिया से जापान पहुंच गए. ऐसी मान्यता भी है कि ये बंदर चीनी फिलौसफर कंफ्यूशियस के थे जो 8 वीं सदी में जापान पहुंचे थे, जब जापान में शिंतो समुदाय अपने चरम पर था. इस संप्रदाय के लोग बंदरों का काफी सम्मान करते हैं. इतना ही नहीं इन्हें ‘बुद्धिमान बंदर’ के तौर पर जाना जाता है.

जापान के निको शहर के शिन्तो चैत्य (बौद्ध विहार) की दीवार पर तीनों बंदरों के शिल्प को उकेरा गया है. इस शिल्प को देखने और समझने के बाद गांधीजी इन के प्रतीक को अपने साथ जापान से भारत ले कर आए. चीन में बुद्ध के दर्शन का विकास लाओत्से के ताओ के समय हुआ तो जापान में शिन्तो मत में विश्वास करने वालों के समय बुद्ध की शिक्षाओं ने अपनी जड़ें जमाई. ऐसा माना जाता है कि 17वीं सदी में बौद्ध दर्शन से प्रभावित जापान के सम्राट तोकुगावा पर इन बंदरों का गहरा असर था. सम्राट के मरने के बाद उन की समाधि के मुख्य द्वार पर इन तीन बंदरों की मूर्तियां बनवा कर लगाई गई.

गांधी के पास बंदर के पहुंचने की दूसरी थ्योरी

गांधीजी के पास बंदरों के पहुंचने का एक और किस्सा बहुत मशहूर है. ऐसा कहा जाता है कि चीन से कुछ लोग बापू से मिलने आए तो उन्होंने गांधीजी को तीनों बंदरों का सेट उपहार में दिया. इस प्रतिनिधिमंडल ने गांधीजी को बताया कि खिलोने के साइज की ये मूर्तियां चीन में काफी फेमस हैं. इन बंदरों को गांधीजी ने पूरी जिंदगी संभाल कर रखा.

क्यों पौपुलर नहीं हुआ चौथा बंदर

तीन बंदरों की मोरल वैल्यूज से आप का परिचय पहली क्लास तक हो गया था लेकिन सब से गहरी सीख देने वाला चौथा बंदर ‘शिजारू’ को क्यों भूला दिया गया, उसे अपने बाकी भाइयों की तरह दुनिया ने क्यों नहीं स्वीकारा?

चौथे बंदर शिजारू ने अपने दोनों हथेलियों को एक के ऊपर एक चढ़ा कर अपने पेट के आगे कर रखा है. ‘ ‘शिजारू’ इस बात की सीख देता है कि ‘बुरा मत करो’. शिजारू’ ने केवल बुराई से दूर रहने की जरूरत पर जोर नहीं दिया बल्कि यह भी संदेश दिया है कि बुरे काम को करने से भी बचना चाहिए. आज के संदर्भ में जब सोसाइटी में बुराइयों का बोलबाला है, इस बंदर की सीख बहुत ही काम की साबित होती, अगर ये पौपुलर होता. लेकिन अंधविश्वास की वजह से यह खुद में ही सिमट कर रह गया.

दरअसल जापानी कल्चर में नंबर 4 को बुरा माना जाता है शायद यही वजह है कि जापान की सीमाओं के अंदर ही इस का दम घुट गया और बाकी दुनिया तक इस का संदेश नहीं पहुंच पाया.

अभी कहां हैं बापू के तीन बंदर

बापू के तीन बंदर हमेशा उन के साथ ही होते थे. काफी सालों तक ये तीनों बापू के साथ उन के साबरमती आश्रम में रहे. साल 1917 से 1930 तक यह आश्रम स्वतंत्रता संघर्ष का अहम केंद्र रहा, यहां तक कि बापू ने दांडी यात्रा यहीं से शुरू की. उन की मृत्यु के बाद गांधीजी के तीनों बंदरों को दिल्ली के राजघाट स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में रख दिया गया. यह बंदर चीनी मिट्टी से बने हुए हैं. ऐसा कहा जाता है कि एक सज्जन ने गांधी से पूछा कि आप के पास रखे हुए हैं ये बंदर कौन हैं, तो उन्होंने कहा कि ये मेरे गुरु हैं. जापान से पूरे विश्व में मशहूर हुउ इन बुद्धिमान बंदरों को यूनेस्को ने अपनी वर्ल्ड हैरिटेज लिस्ट में शामिल कर रखा है.

कुछ मैं कहूं कुछ तुम कहो – शादी से पहले ही खुल कर करें बात

“देखो कपिल, मैं बारबार औफिस से छुट्टी नहीं कर सकती. औफिस में मेरी एक पोजीशन है,” सारिका ने किचन में से ही जोर से कपिल से अपनी बात कही.

दरअसल, सारिका और कपिल की बेटी रिया की स्कूल की छुट्टी है, कामवाली आज आई नहीं, तो रिया के लिए किसी एक को घर में रहना होगा.

“तुम क्या चाहती हो, मैं नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाऊं? मेरी आज बहुत ही अहम मीटिंग है, मैं छुट्टी नहीं कर सकता. तुम मैनेज करो, मुझे देर हो रही है.”

“तो क्या, मैं नौकरी छोड़ दूं? पिछली बार भी रिया जब बीमार हुई थी तो 3 दिन मैं ने छुट्टी की थी तो इस बार तुम भी तो कर सकते हो. यह जिम्मेदारी हम दोनों की है.” कपिल सारिका की इस बात को अनसुनी कर के घर से निकल गया.

सारिका ने छुट्टी तो कर ली पर वह बारबार यह सोच रही थी कि शादी से पहले तो कपिल की पूरी फैमिली को नौकरी वाली पढ़ीलिखी बहू चहिए थी और बीवी की तनख्वाह तो पूरी चहिए पर अब सपोर्ट के नाम पर जीरो. काश, शादी से पहले हम दोनों ने सारी बातें खुल कर की होतीं कि पैसे कमाने की जिम्मेदारी आधीआधी है, तो घर संभालने की जिम्मेदारी भी आधीआधी होनी चहिए थी.

यह कहानी सिर्फ कपिल और सारिका के घर की नहीं है बल्कि घरघर की है. आजकल लड़कियां भी लड़कों की तरह आत्मनिर्भर हो गई हैं, नौकरी करती हैं, पैसे कमाती हैं. यही नहीं, वे हर उस जिम्मेदारी को बराबरी से निभाती हैं जो आज से बरसों पहले घर के मर्द की होती थी.

महिलाएं तो अपनी सीमाओं को तोड़ कर मर्दों की घर चलाने की जिम्मेदारियों को बांटने लगीं पर अभी भी मर्दों ने उस सीमा को नहीं तोड़ा जहां वे महिलाओं के साथ घर संभालने की ज़िम्मेदारी को बांट सकें. इसलिए यह सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है कि दोनों पार्टनर एकदूसरे की अपेक्षाओं, मूल्यों और जीवन के लक्ष्यों को समझते हों. शादी से पहले कुछ विषयों पर स्पष्ट बातचीत करने से भविष्य के संघर्षों को कम किया जा सकता है.

आजकल लड़कालड़की दोनों समझदार हैं, दोनों आत्मनिर्भर हैं और दोनों अपनी मरजी से जीवन बिताना चाहते हैं पर अचानक शादी के कुछ दिनों बाद ही छोटीछोटी बातों को ले कर मतभेद होने लगते हैं. इन मतभदों से बचने के लिए जरूरी है कि शादी से पहले ही दोनों आपस में कुछ जरूरी बातों पर खुल कर चर्चा करें.

दोनों की सैलरी से संबंधित योजना और जिम्मेदारियां

बहुत सारे घरों में शादी के बाद महिला की कमाई को ले कर बहस होती है. महिलाएं अपनी कमाई को अपनी मरजी से खर्च नहीं कर पातीं. शादी के बाद इन मामलों को ले कर कई बार तनाव उत्पन्न हो सकता है. सो, शादी से पहले यह जानना ज़रूरी है कि दोनों की बचत, खर्च और निवेश को ले कर क्या सोच है. कौन किस हद तक घर के खर्चों की जिम्मेदारी लेगा, महिला पर पैसों को ले कर रोकटोक न हो, यह शादी से पहले ही सुनिश्चित करें.

कैरियर को ले कर भविष्य की योजनाएं

कपल को एकदूसरे के कैरियर के लक्ष्यों के बारे में खुल कर बात करनी चाहिए. आप दोनों कैरियर को प्राथमिकता देंगे या परिवार को? अगर एक पार्टनर कैरियर बदलना चाहता है या दूसरे शहर या देश में काम करना चाहता है, तो उस स्थिति में क्या योजना होगी? यह भी जानना ज़रूरी है कि आप दोनों का कार्यजीवन का संतुलन कैसा होगा.

परिवार और बच्चों की योजना

शादी के बाद अकसर परिवार की तरफ से परिवार को बढ़ाने का दबाव शुरू हो जाता है. परिवार बढ़ाने की बात किसी भी दबाव में नहीं बल्कि आपसी सूझबूझ से करनी चाहिए. ऐसे में लड़कालड़की को शादी से पहले ही इस बारे में खुल कर बात करनी चाहिए कि वे अपने परिवार को कब बढ़ाना चाहते हैं, बाद में बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी किस तरह से बांटी जाएगी, बच्चे के जन्म से ले कर स्कूल की पीटीएम तक पर खुल कर बात करें. इस में दोनों अपनेअपने कैरियर और समय को ध्यान में रख कर एकदूसरे से पहले ही विचारविमर्श करें और दोनों अपने-अपने परिवारों को इस बारे में खुल कर भी बताएं. कई बार ऐसा होता है कि लड़का और लड़की आपस में बात कर लेते हैं लेकिन बाद में परिवारों के दबाव में आ कर दोनों में झगड़ा शुरू हो जाता है. सो, इस बात को सुनिश्चित करें कि परिवार कब बढ़ना है, यह पूर्ण रूप से लड़के और लड़की दोनों की आपसी सहमति से ही हो.

व्यक्तिगत स्वतंत्रता

आजकल औफिसेस में सोशलसर्कल पर बहुत जोर दिया जाता है. औफिस की तरफ से औफिस के स्टाफ को घूमनेफिरने के लिए भी ले जाया जाता है. ऐसे में हर इंसान की अपनी व्यक्तिगत सीमाएं और स्वतंत्रताएं होती हैं. शादी से पहले यह जानना ज़रूरी है कि आप दोनों की सीमाएं क्या हैं और एकदूसरे की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कैसे सम्मान देंगे. इस का संबंध सोशल लाइफ, मित्रों से मिलना और व्यक्तिगत समय से भी हो सकता है.

परिवार के साथ संबंध

शादी के बाद अकसर दोनों पार्टनर्स के परिवारों के साथ संबंध महत्त्वपूर्ण होते हैं. आप को यह स्पष्ट करना चाहिए कि शादी के बाद परिवार के सदस्यों की भूमिका क्या होगी और उन के साथ आप कैसा संबंध बनाए रखना चाहते हैं. अगर किसी के परिवार के साथ कोई समस्या है, तो इसे पहले ही सुलझा लेना चाहिए.

खानपान व जीवनशैली

हर घर का खानपान और जीवनशैली अलगअलग होती है. हमारा ऐसा मानना है की एक हद तक ही दोनों को चाहे वह लड़का हो चाहे लड़की अपनी जीवनशैली में बदलाव करना चाहिए. बहुत से घरों में शादी के बाद मतभेद का एक मुख्य कारण यह भी होता है कि पहले तुम क्या करती थी, कितने बजे उठती थी, क्या कब खाती थी, अब यह यहां नहीं चलेगा क्योंकि तुम्हारी शादी हो गई है. ऐसे में अकसर पढ़ीलिखी महिलाएं एक मानसिक दबाव में आ जाती हैं जिस का असर उन की जीवनशैली और औफिस दोनों पर पड़ता है. अच्छा यही है कि शादी से पहले ही अपनी दिनचर्या के बारे में खुल कर बात करें और समझें कि आप कितनी हद तक एकदूसरे की जीवनशैली को अपना सकते हैं जिस से दोनों में से किसी को भी किसी भी तरह का कोई मानसिक दबाव महसूस न हो.

कैसे और कब करें बात

जो कपल पहले से एकदूसरे को जानते हैं, मतलब love cum arrange marriage वाले लड़केलड़किया, उन के पास तो काफी मौके होते हैं इन सब बातों के बारे में बात करने के लिए लेकिन मातापिता द्वारा चुने रिश्ते में आपस में खुल के बात करने के लिए सही समय और कुछ बातों को ध्यान में रखना जरूरी होता है. सब से पहले बेशक रिश्ता मातापिता ने चुना हो पर पहली मीटिंग और शादी के बीच कुछ महीने का समय जरूर रखें जिस से आपस में एकदूसरे को समझने का मौका मिले. दरअसल, शादी से पहले लड़का और लड़की को एकदूसरे से खुल कर बात करना महत्त्वपूर्ण होता है, ताकि वे एकदूसरे को बेहतर समझ सकें और भविष्य के लिए अच्छे निर्णय ले सकें. इस के लिए सही समय और तरीका भी महत्त्वपूर्ण है.

सही समय चुनें : दोनों डिनर डेट का प्लान करें और दोनों ही एकदूसरे के प्रति सहज महसूस करें तो शहर से बाहर एकदो दिन घूमने जाएं और तब ये बातें करें. ऐसी स्थिति में हों जब दोनों को पर्याप्त समय और ध्यान मिले, बिना किसी दबाव या बाहरी तनाव के बात कर सकें. आप उदाहरण के तौर पर आर्टिकल मार्क कर के किताब तोहफे में भी एकदूसरे को दे सकते हैं.

पहले छोटीछोटी बातें शुरू करें : शुरुआत में हलके और सामान्य विषयों पर बात करें, जैसे कि शौक, पसंदनापसंद, परिवार, दोस्त आदि. इस से दोनों को एकदूसरे को सहज महसूस करने में मदद मिलेगी. फिर अपनी किसी सहेली या दोस्त की शादीशुदा समस्याओं का उदाहरण दे कर जानें कि सामने वाला आप जैसी सोच रखता भी है या नहीं.

समझ और सहानुभूति दिखाएं : एकदूसरे की भावनाओं और विचारों को ध्यान से सुनें और उन्हें समझने की कोशिश करें. अगर किसी विषय पर मतभेद हों तो खुल कर समझने का मौका दें और समाधान पर चर्चा करें.

गोपनीयता का सम्मान करें : हर किसी की कुछ व्यक्तिगत बातें हो सकती हैं जो वे समय के साथ ही साझा करना चाहेंगे, इसलिए धैर्य बनाए रखें. अगर किसी कारणवश कुछ बातों पर असहमति रहे तो भी एकदूसरे की बातों को अपने तक ही रखें.

सही समय पर खुल कर बात करने से रिश्ते में सम्मान, विश्वास और सचाई बढ़ेगी, जो शादी के लिए मजबूत नींव साबित होगी. इन सभी मुद्दों पर स्पष्ट संवाद से शादीशुदा जीवन को बेहतर और तनावमुक्त बनाया जा सकता है. रिश्ते में पारदर्शिता और आपसी समझ से ही एक खुशहाल भविष्य की नींव रखी जा सकती है.

कलियुग में ही खोजने होंगे पतिपत्नी विवाद के हल

अलीगढ़ के रहने वाले 80 साल के मुनेश कुमार गुप्ता स्वास्थ्य विभाग में सुपरवाइजर के पद से रिटायर हुए थे. रिटायर होने के बाद उन का समय घर में गुजरने लगा. मुनेश चिकित्सा विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे. उन्होंने पत्नी गायत्री देवी के नाम 1981 में मकान बनवाया था. इन की 5 संतानों में 3 बेटियां और 2 बेटे हैं. शादी के बाद बेटियां ससुराल चली गईं.

2005 में मुनेश रिटायर हो गए. रिटायर होने से पहले तक पूरा परिवार एकसाथ रहता था. 2008 में पत्नी गायत्री ने छोटे बेटे को अपना मकान दान कर दिया. बड़े बेटे का हक मारे जाने को ले कर मुनेश कुमार का अपनी पत्नी गायत्री देवी के बीच विवाद शुरू हो गया. जब आपस में कोई सुलहसमझौता नहीं हो पाया तो यह मसला पुलिस से होते हुए फैमली कोर्ट पहुंच गया. दोनों अलगअलग बेटों के साथ रहने लगे.

पत्नी गायत्री ने परिवार न्यायालय में पति के खिलाफ भरणपोषण अधिनियम की धारा 125 के तहत यह दावा किया. याची पति मुनेश कुमार की ओर से अधिवक्ता घनश्याम दास मिश्रा ने दलील दी कि 1981 में पत्नी के नाम पर मकान खरीदा. इस के बाद रिटायर होने के बाद मिले एक लाख रुपए भी 2007 में पत्नी के नाम फिक्स्ड डिपौजिट किए थे. इस के बाद भी वह 2,000 रुपए पत्नी को देता था. तब भी पत्नी गायत्री ने परिवार न्यायालय में दावा कर दिया. जबकि पत्नी खुद छोटे बेटे को दान दिए घर में परचून की दुकान चलाती है. पत्नी और छोटे बेटे ने मुनेश कुमार गुप्ता और बड़े बेटे को घर से निकाल दिया है. याचिकाकर्ता से पैंशन के 35,000 रुपए में से 15,000 रुपए भरणपोषण की मांग की जा रही है, जो अवैधानिक है.

इस पर फैमिली कोर्ट ने उन्हें 5 हजार रुपए दिए जाने का आदेश सुनाया. पति ने इसी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की है. 80 साल के पति और 76 साल की पत्नी के बीच गुजारा भत्ता के मुकदमे को देख जज श्याम शमशेरी ने कहा, ‘लगता है कलियुग आ गया है.’ जज ने दंपती को समझानेबुझाने की कोशिश की और उम्मीद जताई कि दोनों पक्षों में समझौता हो जाएगा. कोर्ट ने पत्नीपत्नी को नोटिस जारी किया है और कहा कि उम्मीद है कि अगली तारीख पर दोनों किसी समझौते के साथ आएंगे.

कलियुग कब नहीं था?

जिन युगों की मिसाल दी जाती है उन में सब से पहले सतयुग आता है. इस के बाद त्रेतायुग और द्वापर युग आता है. पौराणिक काल के युगों के उदाहरण इस तरह से दिए जाते हैं जैसे आज जो कुछ हो रहा है उस के लिए कलियुग जिम्मेदार है. तब सवाल उठता है कि क्या सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग में सबकुछ अच्छा ही रहा होगा. पौराणिक कहानियों में जो उदाहरण मिलते हैं वे इस बात को सही नहीं ठहराते.

त्रेतायुग में एक राजा अपनी गर्भवती पत्नी को बिना कोई गुजारा भत्ता दिए जंगल में छोड़ देता है. जब वह पत्नी अपने जुड़वां पुत्रों को जंगल में जन्म दे कर वापस उन को संरक्षण देने का निवेदन करती है तो उसे यह साबित करने के लिए कहा जाता है कि ये पुत्र उस राजा के हैं. भरी सभा में ऐसी बात सुन कर उस के मन को ठेस लगती है और वह जमीन में समा जाती है. कलियुग में आज महिलाओं के तमाम मुकदमों में सुनवाई के दौरान उस की प्राइवेसी का खयाल रखा जाता है. महिलाओं के खिलाफ अपराध को मीडिया कैसे कवर करे, इस बात की पूरी गाइडलाइन है, जिस में उन के नाम, फोटो और परिचय छापने की मनाही होती है. आज का कानून और कोर्ट महिलाओं को ले कर त्रेतायुग से ज्यादा संवेदनशील है.

द्वापर युग में महिलाओं के साथ अपमान, आपसी छलकपट के तमाम उदाहरण हैं. जुआं खेलते समय हार जाने पर पत्नी को दांव पर लगा कर गवां देना और उस के बाद पत्नी का भरी सभा में अपमान होना कौन सा द्वापर का अच्छा उदाहरण है. कलियुग में संविधान और कानून का राज है. क्या आज पति अपनी पत्नी को जुएं के दांव पर लगा सकता है? जुएं में जीती दासी के साथ क्या कोई अपमानजनक काम कर सकता है? कलियुग में कानून और संविधान ने अधिकार दिए हैं जिन का प्रयोग कर के महिला खुद को सुरक्षित समझती है. महिला अपराध को ले कर कानून और जज बहुत संवेदनशील हैं.

उपयोगी कैसे बनें पतिपत्नी

अलीगढ़ के मुनेश कुमार गुप्ता और गायत्री के बीच झगड़े की सब से बड़ी वजह यह है कि इन को एकदूसरे के उपयोगी बने रहना नहीं सिखाया गया. हिंदू शादी में संस्कारों की बहुत बात होती है. सप्तपदी में बताया जाता है कि पतिपत्नी क्या करें और क्या न करें. पौराणिक कहानियों में हमें कहीं पढ़ने को नहीं मिलता कि बूढ़े हो जाने पर पत्नियां पति के लिए क्या करती हैं. वे न तो उन के लिए खाना बनाते दिखती हैं, न ही उन के साथ बैठ कर बात करते दिखती हैं. ऐसे में आज की पत्नियों को पता ही नहीं है कि वे पति की उपयोगी कैसे बनें. बात केवल पत्नियों की ही नहीं है. पतियों को भी नहीं पता कि वे पत्नियों के उपयोगी कैसे बनें?

अगर 80 साल के मुनेश कुमार गुप्ता और 76 साल की गायत्री एकदूसरे के उपयोगी बने होते तो यह लड़ाई कोर्ट तक न पहुंचती. जज साहब की चिंता जायज है. परेशानी की बात यह है कि हमें त्रेता और द्वापर की पौराणिक कंहानियों में इस के हल नहीं मिलते. अगर किसी की पत्नी रेप का शिकार हो जाए तो क्या पति को यह हक है कि वह पत्नी को पत्थर की बना कर पश्चात्ताप करने के लिए सालोंसाल का श्राप दे दे.

पतिपत्नी के बीच केवल गुजारा भत्ता ही उपयोगिता का रास्ता नहीं होता. दोनों सुखदुख के साथी होते हैं. बीमारी में दवा से अधिक साथ की जरूरत होती है. यह साथ बीमार के भले ही काम न आए पर जो दूसरा साथ दे रहा होता है उस को संतोष देता है. जब अस्पताल में किसी बीमार को देखने जाते हैं तो उस बीमार की बीमारी पर भले कोई प्रभाव न पड़े, देखने जाने वाले के मन को सुकून मिलता है.

पतिपत्नी दोनों को एकदूसरे के उपयोगी बनने का काम करना होगा. तभी कोर्ट में और पुलिसथानों में ऐसे विवाद कम हो सकेंगे. इस बात की समझ बनाने के प्रयास समाज के लोगों को करने होंगे. एकदूसरे के उपयोगी कैसे बनें, इस की शिक्षा देनी होगी. पुरुषवादी समाज में अगर कोई अपनी बीमार पत्नी की सेवा करने लगे तो समाज का ‘मेल इगो’ सामने खड़ा हो जाता है. बीमार पत्नी की गंदगी साफ करनी हो, उस के कपड़े बदलवाने हों व ऐसे कई दूसरे निजी काम पति करने से बचता है क्योंकि उसे इस के बारे में बताया ही नहीं गया है.

बात केवल उम्रदराज की ही नहीं है. नई उम्र के पतिपत्नी के बीच बढ़ती दूरियों की सब से बड़ी वजह एकदूसरे का उपयोगी न बने रहना है. अगर आप किसी के उपयोगी होंगे तो वह कभी अपने से दूर नहीं रखेगा. उदाहरण के लिए मोबाइल को ही ले लें. वह दूर हो जाता है तो लगता है उस के बिना नहीं रह पाएंगे. इस तरह की उपयोगिता पतिपत्नी को आपस में बनानी होगी जिस से एक के बिना दूसरा न रह सके. एकदूसरे को छोड़ने की सोच भी न सकें.

दूसरे प्रेमी के साथ मिलकर की पहले आशिक की हत्या

बरेली के प्रेमनगर थाना क्षेत्र के भूड़ पड़रिया मोहल्ले में रहने वाला योगेश सक्सेना उर्फ मुन्नू नाथ मंदिर के पास रेडीमेड कपड़ों की एक दुकान में सेल्समैन की नौकरी करता था. पहली मार्च, 2020 की रात वह दुकान से घर नहीं लौटा तो परिजनों को चिंता हुई. योगेश का बड़ा भाई अंशू भी घर के बाहर था. उसे फोन कर के बताया गया तो उस ने योगेश जिस दुकान पर काम करता था, उस के मालिक जितेंद्र से पता किया तो उस ने बताया कि योगेश तबीयत खराब होने की बात कह कर जल्दी दुकान से घर जाने के लिए निकल गया था. जब वह दुकान से जल्दी निकल गया तो गया कहां, यह प्रश्न योगेश के परिजनों के सामने मुंह बाए खड़ा था. उस की काफी तलाश की लेकिन कोई पता नहीं चला.

2 मार्च की सुबह बरेली थाना कोतवाली और कुमार टाकीज के बीच में खाली पड़े मैदान में एक पेड़ के नीचे एक अज्ञात युवक की अधजली लाश पड़ी मिली. किसी ने लाश की सूचना थाना कोतवाली को दे दी.

सूचना पा कर सीओ (प्रथम) अशोक कुमार और कोतवाली इंसपेक्टर गीतेश कपिल पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए. पुलिस ने लाश व घटनास्थल का निरीक्षण किया. मृतक की उम्र यही कोई 30 से 35 वर्ष रही होगी.

मृतक के गले व चेहरे पर धारदार हथियार के 4 गहरे घाव दिखाई दे रहे थे. मारने के बाद उस की पहचान छिपाने के लिए उस की लाश को जलाया गया था, जो कि पूरी तरह से नहीं जल पाई थी. पास में ही मृतक का मोबाइल भी जला हुआ बरामद हुआ.

लाश की शिनाख्त के लिए आसपास के दुकानदारों को बुलाया गया. उन में जितेंद्र नाम का एक दुकानदार भी था. उस ने लाश देखी तो वह लाश पहचान गया. क्योंकि वह लाश उस के शोरूम के सेल्समैन योगेश सक्सेना की थी. उस ने तुरंत योगेश के भाई अंशू सक्सेना को योगेश की लाश मिलने की सूचना दे दी.

सूचना पर योगेश की मां मुन्नी देवी व भाई अंशू मौके पर पहुंच गए और लाश की शिनाख्त कर दी. शिनाख्त होने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए मोर्चरी भेज दी गई. इंसपेक्टर गीतेश कपिल ने अंशू से पूछताछ की तो उस ने बताया कि योगेश अपने दोस्त की बहन उमा से फोन पर बात करता रहता था. अपनी कमाई भी उसी पर लुटाता था. कई बार उसे समझाया लेकिन वह मानता ही नहीं था.

कोतवाली आ कर इंसपेक्टर गीतेश की तरफ से अज्ञात के खिलाफ भादंवि की धारा 302/201 के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया.

इंसपेक्टर गीतेश ने जांच शुरू की. पुलिस ने योगेश के फोन नंबर की काल डिटेल्स की जांच की. योगेश के नंबर पर अंतिम काल जिस नंबर से की गई थी, उस नंबर से रोज योगेश की बात होने का प्रमाण मिला. घटना की रात उस नंबर से काल आने के बाद ही योगेश दुकान से निकला था. वह नंबर उस की प्रेमिका उमा शुक्ला का था जोकि योगेश के मकान से कुछ दूर भूड़ पट्टी में रहती थी.

इस के बाद 3 मार्च को इंसपेक्टर गीतेश कपिल ने उमा शुक्ला को घर से हिरासत में ले कर कोतवाली में महिला कांस्टेबल की मौजूदगी में कड़ाई से पूछताछ की तो उस ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया.

पूछताछ में उमा ने बताया कि योगेश की हत्या उस ने अपने दूसरे प्रेमी सुनील शर्मा से कराई थी. उस के बाद सुनील शर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया गया. इन दोनों से पूछताछ के बाद जो कहानी निकल कर सामने आई, कुछ इस तरह थी—

उत्तर प्रदेश के महानगर बरेली के प्रेमनगर थाना क्षेत्र के भूड़ पड़रिया मोहल्ले में अशोक सक्सेना सपरिवार रहते थे. वह एक प्राइवेट बस औपरेटर के यहां कंडक्टर थे.

परिवार में पत्नी मुन्नी देवी के अलावा 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. अशोक सक्सेना ने अपनी बड़ी बेटी शालिनी का विवाह कर दिया. इस से पहले कि वह अन्य बच्चों की शादी की जिम्मेदारी से मुक्त होते, 3 साल पहले उन की मृत्यु हो गई.

बड़ा बेटा अंशू शादीबारातों में बैंड बाजा बजाने का काम करने लगा. हाईस्कूल पास योगेश नाथ मंदिर के पास स्थित रेडीमेड कपड़ों की एक दुकान में सेल्समैन की नौकरी कर रहा था. वह इस दुकान पिछले 5 सालों से काम कर रहा था.

योगेश के मकान से कुछ दूरी पर भूड़ पट्टी में महेशचंद्र शुक्ला रहते थे. वह प्राइवेट जौब करते थे. परिवार में उन की पत्नी जानकी और एक बेटी उमा और बेटा अमर उर्फ गुरु था.

20 जुलाई 1990 को जन्मी उमा काफी खुबसूरत और महत्त्वाकांक्षी युवती थी. उस ने बरेली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन की थी. बरेली जैसे महानगर में पलीबढ़ी होने के कारण उस के वातावरण का असर भी उस पर पड़ा था.

उमा का भाई अमर और योगेश एक ही मार्केट में अलगअलग रेडीमेड कपड़ों की दुकान पर काम करते थे. इसी वजह से योगेश और अमर में दोस्ती हो गई. दोनों एकदूसरे के घर भी आते जाते थे. इसी आने जाने में योगेश और उमा एकदूसरे को जानने लगे. दोनों का दिन में कईकई बार आमनासामना हो जाता था.

दोनों की निगाहें आपस में टकराती थीं तो उमा लजा कर अपनी निगाहें नीची कर लेती थी. योगेश की आंखों की गहराई वह ज्यादा देर बरदाश्त नहीं कर पाती थी. शर्म से पलकें झुक जातीं और होंठों पर हल्की मुसकान भी अपना घर बना लेती थी. उमा की इस अदा पर योगेश का दिल बेचैन हो उठता था.

उमा को योगेश अच्छा लगता था. वह उसे दिल ही दिल में चाहने लगी थी. उस की चाहत की तपिश योगेश तक पहुंचने लगी थी. योगेश को तो उमा पहले से ही पसंद थी. इस वजह से योगेश भी अपने कदम बढ़ने से रोक न सका. वह भी उमा को अपनी बांहों में भर कर उस की आंखों की गहराइयों में उतर जाने को आतुर हो उठा.

एक दिन योगेश उमा के कमरे से निकल कर बाहर की ओर जाने लगा कि अचानक वह फिसल गया. इस से उस के दाएं हाथ के अंगूठे में काफी चोट लग गई और अंगूठे से खून निकलने लगा. वहीं आंगन में खड़ी उमा ने देखा तो दौड़ीदौड़ी आई. खून निकलता देख कर वह तुरंत अपने रुमाल को पानी में भिगो कर उस के अंगूठे में बांधने लगी. उसके द्वारा ऐसा करते समय योगेश उस की तरफ प्यार भरी नजरों से देखता रहा.

उमा रुमाल बांधने के बाद बोली, ‘‘जरा संभल कर चला करो. अगर आप इस तरह गिरोगे तो जिंदगी की राह पर कैसे संभल कर चलोगे?’’

‘‘जिंदगी की डगर पर अगर मैं गिरा भी तो जिंदगी भर साथ देने वाले हाथ मुझे संभालने के लिए हमेशा तैयार रहेंगे. ये हाथ किस के होंगे और कौन जिंदगी भर साथ निभाने के लिए मेरे साथ होगा, यह तो अभी मुझे भी नहीं पता.’’ योगेश ने उमा की निगाहों में निगाहें डालते हुए कहा.

योगेश की इस शरारत से उस की नजरें शर्म से थोड़ी देर के लिए झुक गईं. फिर वह बोली, ‘‘छोड़ो इस बात को. आप रुमाल को थोड़ीथोड़ी देर बाद पानी से गीला जरूर कर लेना. इस से आप के अंगूठे का जख्म जल्दी ठीक हो जाएगा.’’

‘‘अंगूठे का जख्म तो ठीक हो जाएगा लेकिन दिल का जख्म…’’ इतना कह कर योगेश तेजी से दरवाजे से बाहर निकल गया.

रूहानी तौर पर एकदूसरे से बंधे होने के बावजूद खुल कर अभी तक न तो योगेश ने प्यार का इजहार किया था और न ही उमा ने. लगन की आग दोनों ओर लगी थी, बस देर थी तो आग को शब्दों की जुबां दे कर बयां करने की.

योगेश जब घर में आता तो उमा का मन अधिक से अधिक उस के पास रहने को करता था. जब भी दोनों मिलते, इधरउधर की बातें करते रहते थे. इस से धीरेधीरे दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए और उन में काफी निकटता आ गई. उमा मिलने व बात करने के उद्देश्य से योगेश के पास पहले से अधिक जाने जाने लगी. एक दिन योगेश घर में अपने कमरे में बैठा कुछ पढ़ रहा था. उमा भी उस से मिलने वहां पहुंच गई.

उमा को देख कर योगेश खुश होते हुए बोला, ‘‘आओ उमा, बहुत देर लगा दी. मैं काफी देर से तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.’’

‘‘घर का काम निपटाने में मम्मी की मदद करने लगी थी, इसीलिए देर हो गई.’’ वह बोली.

‘‘ठीक है, तुम थोड़ी देर बैठो. मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाता हूं.’’ कह कर योगेश चाय बनाने चला गया.

उमा वहीं मेज पर रखी पत्रिका उठा कर उस के पन्ने पलटने लगी. थोड़ी ही देर में योगेश चाय बना कर ले आया. मेज पर चाय रखते हुए योगेश बोला, ‘‘उमा, क्या पढ़ रही हो?’’

योगेश की बात सुन कर उमा ने सिर उठाया और योगेश की तरफ देखते हुए बोली, ‘‘ इस पत्रिका में एक बहुत ही अच्छी कहानी छपी है, वही पढ़ने लगी थी.’’

यह सुन कर योगेश भी उमा के पास बैठ कर चाय पीते हुए उसी पत्रिका को पढ़ने में तल्लीन हो गया. पूरी कहानी पढ़ने के बाद ही योगेश ने पत्रिका के सामने से सिर हटाया और उमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘सही कहा था तुम ने. काफी दिल को छू लेने वाली प्रेम कहानी है. दोनों में कितना प्यार था? अच्छा उमा यह बताओ कि आज के समय में भी इतना पवित्र प्यार करने वाले लोग मिलते हैं?’’

योगेश की बात सुन कर उमा भावुक होते हुए बोली, ‘‘वे बड़ी किस्मत वाले होते हैं, जिन्हें किसी का प्यार मिलता है.’’

उमा की बात बीच में ही काटते हुए योगेश बोला, ‘‘कुछ मेरी तरह बदनसीब होते हैं. जिन्हें प्यार के नाम पर सिर्फ जमाने की ठोकरें मिलती हैं.’’ यह कह कर योगेश के आंसू छलक आए. योगेश की आंखों में आंसू देख उमा तड़प उठी.

योगेश का हाथ अपने हाथों में ले कर वह बोली, ‘‘तुम ऐसा क्यों सोचते हो? तुम तो इतने अच्छे हो कि तुम्हें हर कोई प्यार करना चाहेगा. मैं तुम से कई दिनों से एक बात करना चाहती थी लेकिन इस डर से चुप रही कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ. तुम कहो तो कह दूं.’’

योगेश ने जब उस की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो वह बोली, ‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं. लेकिन तुम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. दिल की बात आज जुबां पर आ ही गई.’’

उमा की बात पर योगेश को विश्वास नहीं हो रहा था. वह उमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘क्यों तुम मेरा मजाक उड़ा रही हो. अगर मैं मान भी लूं कि तुम मुझ से प्यार करती हो तो क्या समाज के ठेकेदार हम दोनों को एक होने देंगे क्योंकि हम एक जाति के नहीं हैं.’’

‘‘जब हम प्यार करते हैं, तो इस जमाने से भी टक्कर ले लेंगे. प्यार तो प्यार होता है. इसे धर्म और जाति के तराजुओं में नही तोला जा सकता है. प्यार तो दो दिलों के मिलन का नाम है.’’

उमा की बात सुन कर योगेश की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े. फिर उस ने उमा को बांहों में भर कर सीने से लगा लिया. उमा भी उस के शरीर से लिपट गई. दोनों एकदूसरे का साथ पा कर काफी खुश थे. दोनों का प्यार दिनोंदिन परवान चढ़ने लगा.

दोनों के परिवारों को भी इस बात का पता चल गया. योगेश की बहनों और भाई ने योगेश को काफी समझाया कि वह उमा के चक्कर में न पड़े, लेकिन योगेश नहीं माना. दूसरी ओर उमा के पिता ने भी उस के लिए रिश्ता तलाशना शुरू कर दिया. जल्द ही बुलंदशहर के रमेश (परिवर्तित नाम) से उमा का रिश्ता पक्का कर दिया. उमा और योगेश कुछ न कर सके, सिर्फ हाथ मलते रह गए. प्रेमिका की शादी किसी और से तय होने पर योगेश पर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. वह दिन रात उमा की यादों में खोया रहता और उस की कही गई बातें याद करता.

27 नवंबर, 2014 को उमा का विवाह रमेश से हो गया. उमा बेमन से अपनी ससुराल चली गई. लेकिन विवाह के बाद उस का पति से मनमुटाव होने लगा. फिर एक वर्ष बीततेबीतते उमा पति का घर हमेशा के लिए छोड़ कर अपने मायके आ गई. इसी बीच उमा ने एक बेटी को जन्म दिया, जिस का नाम उस ने सौम्या रखा.

उमा अब पति रमेश से हमेशा के लिए छुटकारा पाना चाहती थी, लिहाजा उस ने अपने तलाक का मुकदमा भी दायर कर दिया.

एक बार फिर से उमा व योगेश एकदूसरे से मिलने लगे. अब योगेश उमा को अपने से दूर जाने नहीं देना चाहता था, किस्मत ने उसे फिर से उमा का साथ पाने के लिए उसे उमा से मिला दिया था. योगेश उस पर अब अपने से विवाह करने का दबाव बनाने लगा.

उमा मायके आई तो वह अपना खर्च उठाने के लिए गंगाचरण अस्पताल के पास पास स्थित एक कैफे में काम करने लगी. इसी बीच उमा की दोस्ती भूड़ पट्टी में रहने वाले सुनील शर्मा से हो गई.

32 वर्षीय सुनील शर्मा अविवाहित था और बरेली के इज्जतनगर में स्थित इंडियन वेटिनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईवीआरआई) में संविदा पर स्टोर कीपर के पद पर तैनात था. दोनों की दोस्ती जल्द ही प्यार में बदल गई. उमा और सुनील एक ही जाति के थे और सुनील अच्छी नौकरी करता था. इसलिए उमा उस से शादी करना चाहती थी. योगेश उस की जाति का भी नहीं था और सेल्समैन की छोटी सी नौकरी करता था.

उमा ने योगेश को समझाया कि वह उस से शादी नहीं कर सकती लेकिन योगेश मान ही नहीं रहा था. उमा भले ही बदल गई हो और योगेश के प्यार को भुला बैठी हो, लेकिन वह तो उमा को दिलोजान से अभी भी चाहता था. वह उमा को हर हाल में पाना चाहता था.

जब योगेश किसी तरह से मानने को तैयार नहीं हुआ तो योगेश से पीछा छुड़ाने के लिए उमा ने सुनील से बात की तो वह योगेश को ठिकाने लगाने के लिए तैयार हो गया. इस के बाद दोनों ने उस की हत्या की योजना बना ली.

योजनानुसार पहली मार्च को उमा अपने औफिस में थी. योजना के अनुसार, रात साढे़ 8 बजे उमा ने योगेश को मिलने के लिए कुमार टाकीज के पीछे खाली पड़े मैदान में बुलाया. योगेश उस समय दुकान पर था. वह अपने मालिक जितेंद्र से तबीयत खराब होने का बहाना बना कर दुकान से निकल आया और कुमार टाकीज के पीछे मैदान में पहुंच गया.

वहां सुनील शर्मा पहले से मौजूद था. योगेश नजदीक आया तो सुनील ने उस की आंखों में लाल मिर्च का पाउडर फेंक दिया, जिस से योगेश बिलबिला उठा. इस के बाद सुनील ने साथ लाए चाकू से योगेश के गले, चेहरे व शरीर पर 4 प्रहार किए, जिस से योगेश जमीन पर गिर कर तड़पने लगा.

कुछ ही पलों में उस की मौत हो गई. सुनील ने पास ही पड़े पत्थर से उस के चेहरे को कुचला. उस के बाद वह साथ लाई टीवीएस अपाचे बाइक से उमा के पास गया. उसे पूरी बात बता दी. इस के बाद उमा रात 9 बजे उस के साथ बाइक पर बैठ कर घटनास्थल पर आई.

उमा ने सुनील से कहा कि वह बाइक से पैट्रोल निकाल कर योगेश की लाश जला दे, जिस से उस की पहचान न हो सके. इस पर सुनील ने बाइक से पैट्रोल निकाल कर योगेश की लाश पर डाल दिया और आग लगा दी. इस के बाद दोनों वहां से चले गए. लेकिन पुलिस आसानी से उन दोनों तक पहुंच ही गई.

सुनील की निशानदेही पर इंसपेक्टर गीतेश कपिल ने हत्या में प्रयुक्त चाकू, लाश जलाने में प्रयुक्त माचिस की डब्बी, रक्तरंजित कपड़े और सुनील की अपाचे बाइक नंबर यूपी25सी एम3263 बरामद कर ली.

फिर कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दोनों को सीजेएम की कोर्ट में पेश किया गया, वहां से दोनों को जेल भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधरित

पत्नी और दोस्त ने मिलकर दिया धोखा तो फ्रेंड को उतारा मौत के घाट

दौलत व शोहरत की दौड़ में दबंगता के साथ आगे बढ़ते रहे मिक्की बख्शी को अपने अतीत पर ज्यादा रंज नहीं था. यह जरूर था कि वह ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता था जिस से उसे फिर से जेल जाना पड़े. अपराध के क्षेत्र के जानेमाने चेहरे अब भी उस के नाम से खौफ खाते थे.

वह रसूखदार लोगों की महफिलों में शिरकत करने लगा था. उस ने साफसुथरी जिंदगी का नया सफर शुरू करने का संकल्प ले लिया था. अब वह पढ़ीलिखी बीवी व एकलौते बेटे को कामयाबी के शिखर पर देखना चाहता था.

उस ने बीवी के नाम न केवल घर कारोबार कर दिया था, बल्कि नई चमचमाती कार की चाबी भी सौंप दी थी. जिस बीवी के लिए उस ने इतना सब कुछ किया, वही उस के जिगरी दोस्त ऋषि खोसला के साथ मिल कर उस के सीने में छुरा घोंपेगी, उस ने कभी सोचा भी नहीं था.

नागपुर ही नहीं मध्यभारत में कूलर कारोबार में खोसला कूलर्स एक बड़ा नाम है. जानेमाने कूलर ब्रांड के संचालक ऋषि खोसला का भी अपना अलग ठाठ रहा है. हैंडसम, स्टाइलिश पर्सनैलिटी के तौर पर वह यारदोस्तों की महफिलों की शान हुआ करता था. कई छोटीमोटी फिल्मों में भी वह दांव आजमा चुका था. इन दिनों जमीन कारोबार में मंदी का दौर सा चल रहा है, लेकिन ऋषि मंदी के दौर में भी जमीन कारोबार में अच्छा कमा रहा था. लोग उसे बातों का धनी भी कहते थे. वह अपना कारोबार बढ़ाने की कला अच्छी तरह जानता था.

47 वर्षीय ऋषि नागपुर के जिस बैरामजी टाऊन परिसर में रहता था, उसे करोड़पतियों की बस्ती भी कहा जाता है. उस बस्ती में लग्जीरियस लाइफ स्टाइल के शख्स रहते थे. ऋषि का छोटा सा परिवार था. परिवार में पत्नी के अलावा एक बेटा व एक बेटी थे. 18 वर्षीय बेटा विदेश में रह कर पढ़ाई कर रहा था, जो छुट्टी मनाने घर आया हुआ था.   20 अगस्त, 2019 की रात करीब 9 बजे की बात है. ऋषि का भाई मनीष और बेटा शिरडी में साईं बाबा के दर्शन कर घर लौट रहे थे. ऋषि अपने कारोबार के जरूरी काम निपटा कर समय से पहले ही घर पहुंच गया था. घर पर उस ने बेटे व भाई से मुलाकात की. भूख लगी थी सो पत्नी को खाना लगाने को कहा. इसी बीच ऋषि खोसला के पास मधु का फोन आया.

मधु उस की खास महिला मित्र थी. वह उस के अजीज दोस्त विक्की बख्शी की पत्नी थी. कारोबार में भी मधु ऋषि की मदद लिया करती थी. मधु ने उस से कहा कि कड़बी चौक के नजदीक उस की गाड़ी पंक्चर हो गई है. आप तुरंत आ जाइए.

‘‘तुम वहीं रहो, मैं 5 मिनट में पहुंचता हूं.’’ कह कर ऋषि बिना खाना खाए ही घर से निकल गया. मधु का घर कड़बी चौक के पास कश्मीरी गली में था. कश्मीरी गली को नागपुर की सब से प्रमुख पंजाबियों की बस्ती भी कहा जाता है. यहां बड़े कारोबारियों के बंगले हैं. कुछ देर में ऋषि मधु के पास पहुंच गया और मधु को घर पहुंचा आया. मधु को घर छोड़ने के बाद ऋषि अपनी कार नंबर पीबी08ए एक्स0909 से घर लौटने लगा.

ऋषि खोसला ने चुकाई भारी कीमत 

रात के करीब 11 बजे होंगे. ऋषि किसी काम से कड़बी चौक पर खड़ा था, तभी वहां खड़ी उस की कार में एक आटोरिक्शा चालक ने टक्कर मार दी. ऋषि ने आटो चालक को फटकार लगाई तो आटो से उतर कर आए 3 युवक ऋषि से झगड़ा करने लगे. चौक पर वाहनों का आनाजाना चल रहा था. झगड़ा होता देख वहां लोग जमा होने लगे.

ऋषि की नजर आटोरिक्शा में बैठे एक शख्स पर गई. उसे देख कर ऋषि को यह समझने में देर नहीं लगी कि आटो में आए लोग संदिग्ध हैं और वे उस के साथ कुछ भी कर सकते हैं.

कई दिनों से उसे हमला होने का अंदेशा था. ऋषि ने चतुराई से काम लिया. वह उन लोगों से झगड़ने के बजाए कार ले कर सीधे घर की ओर चल पड़ा. वह काफी घबराया हुआ था. बैरामजी टाउन में ऋषि के घर से कुछ देरी पर गोंडवाना चौक है. ऋषि ने अचानक कार रोकी. उसे लग रहा था कि आटो वाले लोग उसे खोजते हुए उस के घर भी पहुंच सकते हैं.

वह अपने बचाव के लिए कहीं भाग जाना चाहता था. ऋषि कार से उतरा. भागने की फिराक में उस ने मोबाइल निकाल कर अपनी दोस्त मधु को जानकारी देने के लिए फोन किया. उस ने मधु को बताया कि उस के घर से लौटते समय कड़बी चौक में उस पर हमला होने वाला था.

वह इस के आगे कुछ कहता, इस से पहले ही आटो और बाइक पर आए लोगों ने ऋषि पर हमला कर दिया. फरसे के पहले ही वार में ऋषि की चीख निकल गई. मोबाइल उस के हाथ से छूट कर 10 फीट दूर जा कर गिरा.

इस के बाद भी उन लोगों ने ऋषि पर कई वार किए. अपना काम कर के हमलावर आटोरिक्शा से फरार हो गए. एक हमलावर वहां से ऋषि की कार ले गया ताकि कोई कार से उसे इलाज के लिए अस्पताल न ले जा सके. उस ने ऋषि की कार सदर क्षेत्र के एलबी होटल के पास ले जा कर खड़ी कर दी. हथियार भी उन्होंने वहीं आसपास डाल दिए थे.

ऋषि की फोन पर मधु से बात चल रही थी लेकिन जब अचानक बातचीत बंद हो गई तो वह घबरा गई. वह उसी समय गोंडवाना चौक पहुंच गई. उस समय वहां काफी लोग जमा थे. वहां पड़ी ऋषि की लाश को देख कर वह चीख पड़ी. इसी बीच किसी ने फोन से पुलिस को सूचना दे दी थी.

सूचना पा कर सदर पुलिस थाने की पुलिस वहां पहुंच गई. पुलिस उपायुक्त विनीता साहू भी वहां पहुंच गईं. मधु ने पुलिस को बताया कि ऋषि उस का प्रेमी था और उस की हत्या उस के पति मिक्की बख्शी व भाई सुनील भाटिया ने की है.

ऋषि को मेयो अस्पताल ले जाया गया, जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. इधर पुलिस लोगों से पूछताछ कर ही रही थी कि तभी मधु आत्महत्या के लिए निकल पड़ी.

वह फुटाला तालाब की ओर जा रही थी. पुलिस उपायुक्त विनीता साहू समझ गईं कि वह कोई आत्मघाती कदम उठाने जा रही है, इसलिए उन्होंने उसे रोक कर समझाया. विनीता ने मधु को आश्वस्त किया कि मिक्की व सुनील को जल्द ही पकड़ लिया जाएगा.

तब तक पुलिस आयुक्त डा. भूषण कुमार उपाध्याय भी वहां पहुंच गए थे. डीसीपी विनीता साहू ने उन्हें पूरी जानकारी से अवगत कराया. पुलिस कमिश्नर डा. उपाध्याय मिक्की की प्रवृत्ति से भलीभांति अवगत थे. क्योंकि वह आपराधिक प्रवृत्ति का था. उन्होंने उसी समय थाना सदर के प्रभारी को आदेश दिया कि मिक्की को इसी समय उठवा लो.

मिक्की बख्शी राजनगर में रहता था. थानाप्रभारी ने एक पुलिस टीम मिक्की के घर भेज दी. घटनास्थल की जरूरी काररवाई निपटाने के बाद थाना सदर पुलिस मधु को ले कर थाने लौट आई. मधु से कुछ जरूरी पूछताछ के बाद उसे घर भेज दिया.

उधर पुलिस टीम मिक्की बख्शी के घर पहुंची तो वह घर पर ही मिल गया. उसे हिरासत में ले कर पुलिस थाने ले आई. पुलिस ने मिक्की से ऋषि खोसला की हत्या के बारे में पूछताछ की तो वह कहता रहा कि ऋषि तो उस का दोस्त था, भला वह अपने दोस्त को क्यों मारेगा. उस की बात पर पुलिस को यकीन नहीं हो रहा था.

पुलिस जानती थी कि वह ढीठ किस्म का अपराधी है, इसलिए पुलिस ने उस से सख्ती से पूछताछ की तो उस ने सच उगल दिया. उस ने स्वीकार किया कि ऋषि खोसला की हत्या उस ने अपने जानकार लोगों से कराई थी. उस की हत्या कराने की उस ने जो कहानी बताई, वह काफी दिलचस्प थी—

मिक्की कैसे बना दबंग 

रूपिंदर सिंह उर्फ मिक्की बख्शी नागपुर शहर का काफी चर्चित व्यक्ति था. करीब 2 दशक पहले शहर में प्रौपर्टी के कारोबार में उस का सिक्का चलता था. विवादित जमीनों से कब्जा खाली कराने के लिए उस के पास अच्छेबुरे हर किस्म के लोग आतेजाते थे.

शुरुआत में मिक्की ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में कांस्टेबल की नौकरी की थी. उस की तैनाती नक्सल प्रभावित क्षेत्र गढ़चिरौली के भामरागढ़ में थी. उसी दौरान निर्माण ठेकेदारों और सरकार के लोगों की फिक्सिंग का विरोध करते हुए उस ने नौकरी छोड़ दी थी. बाद में नागपुर में उस ने बीयरिंग बेचने का व्यवसाय किया.

मिक्की दबंग स्वभाव का तो था ही, जल्द ही उस के पास दबंग युवाओं की टीम तैयार हो गई. शहर ही नहीं, शहर के आसपास भी उस का नाम चर्चाओं में आ गया. वह कारोबारियों का मददगार होने का दावा करता था, लेकिन उस की पहचान वसूलीबाज अपराधी की भी बनने लगी थी.

बाद में मिक्की ने यूथ फोर्स नाम का संगठन तैयार किया. यूथ फोर्स के माध्यम से उस ने युवाओं की टीम का विस्तार किया गया. उस के संगठन में बाउंसर युवाओं की संख्या बढ़ने लगी. यही नहीं यूथ फोर्स के नाम पर मिक्की ने युवाओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र भी शुरू कर दिया. बाद में उस ने यूथ फोर्स नाम की सिक्युरिटी एजेंसी खोल ली.

शहर में सब से महंगी व अच्छी सिक्युरिटी एजेंसी के तौर पर यूथ फोर्स की अलग पहचान बन गई. इस एजेंसी में अब भी करीब 3000 सिक्युरिटी गार्ड हैं. 2 दशक पहले शहर में ट्रक व्यवसाय को ले कर बड़ा विवाद हुआ था. कई ट्रक कारोबारी बातबात पर पुलिस व आरटीओ से उलझ पड़ते थे.  आरोप था कि ट्रक कारोबारियों को जानबूझ कर परेशान किया जा रहा है. उन से अंधाधुंध वसूली हो रही है. उस स्थिति में मिक्की ने उत्तर नागपुर के महेंद्रनगर में यूथ फोर्स संगठन का कार्यालय खोला. उस के कार्यालय में ट्रक कारोबारी फरियाद ले कर जाते थे. मिक्की ने अपने स्तर से कई मामले सुलझा दिए. दरअसल, पुलिस विभाग में मिक्की के कई दुश्मन थे तो कई दोस्त भी थे.

नाम चला तो पैसा भी आने लगा. मिक्की कारों के काफिले में घूमने लगा. 20-25 युवक उस की निजी सुरक्षा में रहते थे. सार्वजनिक जीवन में अपना नाम बढ़ाने का प्रयास करते हुए मिक्की ने एक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी किया.

राजनीति के क्षेत्र में भी उस ने पैर जमाने की कोशिश की. लगभग सभी प्रमुख पार्टियों के बड़े नेताओं से उस के करीबी संबंध बन गए थे. उन पर वह खुले हाथों से पैसे खर्च करता था. मिक्की ने भाजपा के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के समर्थक के तौर पर पहचान बना रखी थी. वह गडकरी के जन्मदिन पर एक भंडारे का आयोजन करता था.

दोस्त ने ही जोड़ा था रिश्ता 

सन 2002 की बात है. तब तक मिक्की की पहचान सेटलमेंट कराने के एवज में बड़ी वसूली करने वाले अपराधी के तौर पर हो गई थी. एक मामले में तत्कालीन पुलिस कमिश्नर एस.पी.एस. यादव ने मिक्की को गिरफ्तार करा कर सड़क पर घुमाया था. उस की आपराधिक छवि के कारण उस की शादी भी नहीं हो पा रही थी. शादी की उम्र निकलने लगी थी. उस के दोस्तों ने उस के लिए इधरउधर रिश्ते की बात छेड़ी. उस के दोस्तों में ऋषि खोसला व सुनील भाटिया प्रमुख थे.

तीनों ने शहर के हिस्लाप कालेज में साथसाथ पढ़ाई की थी. ऋषि खोसला मिक्की का दोस्त ही नहीं, बतौर कार्यकर्ता भी काम करता था. कई मामलों में वह मिक्की के लिए प्लानर की भूमिका निभाता था. हरदम साए की तरह उस के साथ लगा रहता था.

ऋषि को अभिनय का भी शौक था. उस ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया. हिंदी फिल्म ‘आशा: द होप’ में उस ने मुख्य विलेन का किरदार निभाया था. उस फिल्म में अभिनेता शक्ति कपूर थे. शक्ति कपूर से ऋषि खोसला के पारिवारिक संबंध भी बन गए थे.

सुनील भाटिया मिक्की व ऋषि के साथ ज्यादा नहीं रहता था, लेकिन कम समय में उस ने सट्टा कारोबार में बड़ी पहचान बना ली थी. यह वही सुनील भाटिया था जो आईपीएल मैच स्पौट फिक्सिंग के मामले में दिल्ली में पकड़ा गया था. तब सुनील के गिरफ्तार होने के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के कुछ क्रिकेटर भी जांच की चपेट में आए थे.

बताते हैं कि सुनील भाटिया ने क्रिकेट सट्टा की बदौलत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर करोड़ों की दौलत एकत्र की थी. वह आए दिन विदेश में रहता था. पिछले कुछ समय से वह स्वयं को साईंबाबा के भक्त के तौर पर स्थापित कर रहा था. उस ने नागपुर में कड़बी चौक परिसर में  साईं मंदिर भी बनवाया था. वहां हर गुरुवार को वह बड़ा भंडारा कराता था.

शिरडी साईंबाबा के दर्शन के लिए उस ने नागपुर से वातानुकूलित बस की नि:शुल्क सेवा उपलब्ध करा रखी थी. क्रिकेट और राजनीति के अलावा भाटिया के आपराधिक क्षेत्र में भी देशदुनिया के कई बड़े लोगों से सीधे संबंध थे.  मिक्की के लिए रिश्ते की बात चल रही थी. लेकिन सामान्य संभ्रांत परिवार से कोई रिश्ता नहीं आ रहा था. अपराधी के हाथ में कोई अपनी बेटी का हाथ देने को तैयार नहीं था. ऐसे में ऋषि खोसला को न जाने क्या सूझी, एक दिन उस ने दोस्तों की पार्टी में कह दिया कि मिक्की भाई के लिए चिंता करने की जरूरत नहीं है.

कहीं बात नहीं बन रही है तो हम कब काम आएंगे. शादी के लिए सुनील भाई की बहन मधु भी तो है. सुनील भाटिया की बहन मधु ने एमबीए कर रखा था. कहा गया कि वह मिक्की ही नहीं, उस के कारोबार को भी अच्छे से संभाल लेगी. बात व प्रस्ताव पर विचार हुआ.

उस समय सुनील भाटिया हत्या के एक मामले में जेल में था. मधु मिक्की से उम्र में 10 साल छोटी थी. इस के बावजूद वह मिक्की से शादी के लिए राजी हो गई. लिहाजा बड़ी धूमधाम से दोनों की शादी हुई. कई जानीमानी हस्तियां शादी समारोह में शरीक हुई थीं. मधु का मिजाज भी दबंग किस्म का था. शादी के कुछ दिनों बाद ही उस ने मिक्की के संगठन यूथ फोर्स के कारोबार में दखल देना शुरू कर दिया. वह सुरक्षा प्रशिक्षण अकादमी की संचालक बन गई.

मिक्की कारोबार की जिम्मेदारी से मुक्त हो कर अपनी नई दुनिया को संवारने लगा. राजनीति में भी उस का दबदबा कायम होने लगा. सन 2007 व 2012 के महानगर पालिका के चुनाव में मिक्की ने यूथ फोर्स का पैनल लड़ाया. पैनल के उम्मीदवार तो नहीं जीते लेकिन मिक्की की पहचान उभरते नेता के तौर पर बनने लगी थी.

हत्याकांड ने बदल दी जिंदगी 

इस बीच एक ऐसा कांड हुआ, जिस ने मिक्की की जिंदगी के सुनहरे रंगों को ही छीन लिया. सन 2012 की बात है. कोराड़ी रोड पर जमीन विवाद के एक मामले में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता गणेश मते का अपहरण कर लिया गया. बाद में उन की हत्या कर लाश कलमना में रेलवे लाइन पर डाल दी गई. इस हत्या का सूत्रधार मिक्की ही था. मामला 2 करोड़ की वसूली का था. तब राज्य में कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार थी. गृहमंत्री राष्ट्रवादी कांग्रेस के ही थे.

सत्ताधारी पार्टी के नेता की हत्या के मामले को स्थानीय से ले कर प्रदेश स्तर के नेताओं ने चुनौती के तौर पर लिया. मिक्की बचाव का प्रयास करता रह गया. उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था.

वह करीब 3 साल तक जेल में रहा. जेल से छूटा तो मिक्की के लिए सारा नजारा बदल सा गया था. उस की पत्नी मधु ने यूथ फोर्स सिक्युरिटी एजेंसी का कारोबार न केवल संभाल लिया था बल्कि अधिकृत तौर पर उसे अपने नाम कर लिया था. मिक्की के साथ साए की तरह रहने वाले ऋषि खोसला के व्यवहार में भी बदलाव आ गया था. ऋषि उस के बजाए उस की पत्नी मधु से ज्यादा लगाव दिखाने लगा था.

जेल में रहते मिक्की की सेहत में भी काफी बदलाव आ गया था. वह सेहत सुधारने के लिए सुबहशाम सदर स्थित जिम में जाया करता था. मधु अकसर ऋषि के साथ घर से गायब रहती थी. कभी किसी पार्टी में तो कभी क्लबों में वह ऋषि के साथ दिखती.

पहले तो मिक्की को लग रहा था कि पारिवारिक संबंध होने के कारण मधु ऋषि से अधिक घुलीमिली है. वैसे भी दोनों की शादी से पहले की पहचान थी, लेकिन संदेह हुआ तो एक दिन मिक्की ने मधु पर पाबंदी लगाने का प्रयास किया. मजाक में उस ने कह दिया कि ऋषि से ज्यादा चिपकना ठीक नहीं है. यहां कौन किस का सगा है, सब ने सब को ठगा है.

मिक्की की नसीहत का मधु पर कोई फर्क नहीं पड़ा. एक दिन जब मिक्की और मधु के बीच किसी बात को ले कर विवाद हुआ तो सब कुछ खुल कर सामने आ गया. मधु ने साफ कह दिया कि ऋषि से उस के प्रेम संबंध हैं. ऋषि से उसे वह सारी खुशी मिलती है, जिन की हर औरत को जरूरत होती है.

घूम गया मिक्की का दिमाग 

यह सुनते ही मिक्की का दिमाग घूम गया. मधु ने यह भी बता दिया कि जब तुम जेल में थे, तब ऋषि कैसे काम आता था. कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने से ले कर कई मामलों में ऋषि ने अपने घरपरिवार की जिम्मेदारी की परवाह तक नहीं की. उस समय ऋषि ही उस का एकमात्र सहारा था. अब वह किसी भी हालत में ऋषि को खोना नहीं चाहती.

मिक्की ने पत्नी को बहुत समझाया लेकिन वह नहीं मानी. तब मिक्की ने मधु के भाई सुनील भाटिया को सारी बात बता दी  सुनील की समाज में काफी इज्जत ही नहीं बल्कि रुतबा भी था, इसलिए उस ने भी बहन मधु को समझाने की कोशिश की पर मधु तो ऋषि खोसला की दीवानी हो चुकी थी, इसलिए उस ने अपने प्रेमी की खातिर पति और भाई की इज्जत को धूमिल करने में हिचक महसूस नहीं की. वह बराबर ऋषि से मिलती रही.

अपनी बहन मधु पर जब सुनील का कोई वश नहीं चला तो वह तैश में आ गया. उस ने न केवल ऋषि को धमकाया बल्कि उस की पत्नी को भी चेतावनी दी कि वह पति को समझा दे या फिर अपनी मांग का सिंदूर पोंछ ले. मधु और मिक्की के बीच विवाद बढ़ता गया तो मधु ने कश्मीरी गली वाला मिक्की का फ्लैट हड़प कर उस में रहना शुरू कर दिया. वह उसी फ्लैट में रह कर कारोबार संभालती रही.

समय का चक्र नया मोड़ ले आया. एक ऐसा मोड़ जहां शेर की तरह जीवन जीने वाले व्यक्ति को भी भीगी बिल्ली की तरह रहना पड़ रहा था. मिक्की बख्शी नाम के जिस शख्स का नाम सुन कर अच्छेअच्छे तुर्रम खां डर के मारे पानी मांगने लगते थे, वह खुद को एकदम लाचार, असहाय समझने लगा.

मिक्की ने बीवी को क्या कुछ नहीं दिया था. उस ने अपनी आधी से अधिक दौलत उस के नाम कर दी थी. अपने सैकड़ों समर्थकों व चेलों को उस के निर्देशों का गुलाम बना दिया था. वही बीवी अब निरंकुश हो गई थी.

मिक्की ने दोहरी पहचान के साथ इज्जत का महल खड़ा किया था. एक तरफ अपराध क्षेत्र के भाई लोग उस की चरण वंदना करते थे तो वहीं नामचीन व रुतबेदार लोगों के बीच भी उस का उठनाबैठना था.

बन गई योजना

जब मधु ने ऋषि खोसला का साथ नहीं छोड़ा तो अंत में मिक्की और सुनील ने फैसला कर लिया कि ऋषि को ठिकाने लगाना ठीक रहेगा. मिक्की जब जेल में बंद था तो उस की जानपहचान गिरीश दासरवार नाम के 32 वर्षीय बदमाश से हो गई थी. मिक्की ने ऋषि खोसला को निपटाने के लिए गिरीश से बात की. इस के बदले में मिक्की ने उसे अपने एक धंधे में पार्टनर बनाने का औफर दिया. गिरीश इस के लिए तैयार हो गया.

सौदा पक्का हो जाने के बाद गिरीश ने ऋषि खोसला की हत्या करने के संबंध में अपने शागिर्दों राहुल उर्फ बबन राजू कलमकर, निवासी जीजामातानगर, कुणाल उर्फ चायना सुरेश हेमणे, निवासी बीड़गांव, आरिफ इनायत खान निवासी खरबी नंदनवन और अजीज अहमद उर्फ पांग्या अनीस अहमद निवासी हसनबाग से बात की.

ये सभी गिरीश का साथ देने को तैयार हो गए. इस के बाद ये सभी ऋषि खोसला की रेकी करने लगे. 20 अगस्त, 2019 को उन्हें यह मौका मिल गया, तब उन्होंने गोंडवाना चौक पर उस की फरसे से प्रहार कर हत्या कर दी.

मिक्की बख्शी से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने गिरीश दासरवार को गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ करने पर उस ने भी अपना जुर्म स्वीकार कर लिया. चूंकि इन दोनों से और पूछताछ करनी थी, इसलिए मिक्की व गिरीश को प्रथम श्रेणी न्याय दंडाधिकारी एस.डी. मेहता की अदालत में पेश कर 31 अगस्त तक पुलिस रिमांड मांगा. बचाव पक्ष के वकील प्रकाश नायडू ने पुलिस रिमांड का विरोध किया.

दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद अदालत ने दोनों को 25 अगस्त तक का पुलिस रिमांड दे दिया. घटना के 3 दिन बाद अन्य आरोपियों राहुल उर्फ बबन राजू कलमकर, कुणाल उर्फ चायना सुरेश हेमणे, आरिफ इनायत खान और अजीज अहमद उर्फ पांग्या अनीस अहमद को भी बाड़ी क्षेत्र के एक धार्मिक स्थल की इमारत की छत से गिरफ्तार कर लिया. इन आरोपियों पर हत्या, डकैती, सेंधमारी, अपहरण व मारपीट सहित अन्य मामले दर्ज थे.

हत्याकांड को अंजाम देने वाले गिरीश दासरवार पर हत्या के 4 मामले दर्ज थे. सन 2011 में गिरीश दासरवार ने अपने दोस्त जगदीश के साथ मिल कर दिनेश बुक्कावार नामक चर्चित प्रौपर्टी डीलर की हत्या कर दी थी. हत्या के बाद दिनेश के शव को उस ने अपने घर में ड्रम के अंदर छिपा कर रखा था.

आरोपियों में कुछ ओला कैब चलाते हैं. डीसीपी विनीता साहू के नेतृत्व में गठित पुलिस टीम में एसीपी, पीआई महेश बंसोडे, अमोल देशमुख के अलावा विनोद तिवारी, सुशांत सालुंखे, सुधीर मडावी, संदीप पांडे, बालवीर मानमोडे शामिल थे. पुलिस ने सभी अभियुक्तों से पूछताछ के बाद उन्हें न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया.

रघुनाथ सिंह लोधी

दयाशंकर फरार हैं : आखिर क्या वजह थी फरार होने की

‘‘बेटा, पापा को तंग मत करो. तुम्हें जितने लोगों को पार्टी में बुलाना हो बुला लो, पर पापा को बारबार होटल जाने के लिए मत कहो, क्योंकि तुम्हें तो मालूम है कि पापा आजकल फरार चल रहे हैं,’’ मम्मी बोलीं.

बेटा मन मसोस कर रह गया, बोला, ‘‘पापा हर कहीं तो घूमतेफिरते रहते हैं, फिर हम लोगों के साथ होटल क्यों नहीं जा सकते. उन के वहां जाने से होटल वाला 50 प्रतिशत डिस्काउंट तो दे ही देगा, हो सकता है 60 प्रतिशत देदे या फिर फ्री खाना खिला दे.’’

मां बोलीं, ‘‘बात तो ठीक है पर आजकल मीडिया वालों का भरोसा नहीं, कब फोटो खींच लें और बेकार का बवाल खड़ा कर दें. पापा को तो फरार ही रहने दो.’’

ऊपर बात दयाशंकरजी की हो रही है जो शहर के दबंगों में से एक हैं. अकसर उन के खिलाफ थाने में रिपोर्ट होती रहती है. यह बात अलग है कि उन में से कोई दर्ज नहीं होती. वे एक बार ऐसे फंस गए कि सामने वाला चीफ मिनिस्टर का खास निकला और ऊपर से प्रैशर आने की वजह से एफआईआर दर्ज हो गई और यहां तक कि गिरफ्तारी वारंट निकल गया. उसी दिन से दयाशंकरजी फरार हैं. शुरूशुरू में पुलिस वाले घर आते थे. उन के घर वालों से पूछते थे कि दयाशंकरजी घर में हैं? घर वाले कह देते थे, ‘नहीं हैं.’ बस, पुलिस वाले रिपोर्ट में लिख देते थे कि गिरफ्तारी नहीं हो सकी क्योंकि दयाशंकर फरार है. पूरे शहर में दयाशंकर घूमतेफिरते, लोगों से मिलते और बड़े शान से कहते, ‘हम फरार हैं.’

इस घटना के बाद उन के खिलाफ कई मामले आए जैसे कि जमीन हड़पने के, किराए के घर जबरदस्ती खाली कराने के, दुकानों से हजारों रुपए का सामान खरीद कर पैसे न चुकाने के और मारपीट के आदिआदि. पर हर बार थानेदार लोगों को, बिना रिपोर्ट लिखे, भगा देता था कि दयाशंकरजी ऐसा कर ही नहीं सकते हैं, क्योंकि वे तो फरार चल रहे हैं. जब वे शहर में ही नहीं हैं, तो वारदात कैसी. हां, शाम को दरोगा, उन के नए कारनामों के बारे में बताने उन के पास जरूर जाता था. वहां से वह मुरगा, बोतल और एक मोटी रकम के साथ वापस लौटता था.

फरारी के दौरान ही दयाशंकर ने अपनी बड़ी लड़की की शादी धूमधाम से की, जिस में शहर के सारे पुलिस वाले और अफसर शामिल थे. इसी फरारी के समय दयाशंकर ने शहर में पार्षद का चुनाव लड़ा और जीत गए. शपथ लेने भी पहुंच गए. पर पार्टी वालों ने उन्हें सलाह दी कि यहां मीडिया के बहुत लोग हैं, आप पीछे की सीट पर बैठ जाएं. आप का नंबर आते ही हम घोषित कर देंगे कि दयाशंकरजी, न्याय की आशा में फरार हैं और जब तक उन्हें न्याय नहीं मिल जाता, वे जनता के सामने नहीं आएंगे. उन्हें देश की न्याय प्रणाली पर पूरा भरोसा है.

इसी शहर में एक ओम बाबू थे. एक पत्रकार, संपादक और एक मरियल से न्यूजपेपर के मालिक भी. वैसे तो कालेज में पत्रकारिता के विषय में टौप किया करते थे पर वास्तव में आज की दुनिया से अलगथलग थे.

शुरू से जनून था कि किसी की नौकरी नहीं करेंगे, दबाव में कुछ लिखेंगे नहीं, इसीलिए किसी अन्य के न्यूजपेपर में पत्रकार या संपादक की नौकरी नहीं करेंगे. अपना न्यूजपेपर निकालेंगे और जनता को सिर्फ सचाई से अवगत कराएंगे. इतने उच्च विचारों के साथ पेपर तो चलने से रहा. दूसरे पेपर वालों की तरह वे झूठ नहीं लिखते थे कि हमारे पेपर का सर्कुलेशन प्रदेश या शहर में नंबर 1 है, या इस के इतने लाख पाठक हैं. न ही वे इस पेपर की फ्री कौपी बंटवाते थे. पेपर बांटने वाले को भी मात्र 1 रुपया देते थे. आखिर, 8 पृष्ठों वाला उन का पेपर कितना चलता.

किसी भी पेपर में विज्ञापनों की आवक उस की छपी कौपियों की संख्या पर निर्भर रहती है. कम संख्या के कारण बहुत सीमित विज्ञापन मिलते थे. उस के बाद भी यदि कोई विज्ञापन देने आता तो पहले उस के विज्ञापन की प्रामाणिकता सिद्ध करने को कहते, जैसे यदि लंबाई बढ़ाने की दवा का विज्ञापन है तो उस से कहते कि पहले मैडिकल एसोसिएशन से इस दवा की प्रामाणिकता का प्रमाणपत्र लाओ, वरना मैं भ्रामक विज्ञापन नहीं छापूंगा. उन की इन आदतों से कुछ ही विज्ञापन उन के पेपर की शोभा बढ़ाते थे. अपने घर के पुराने नौकर को प्रैस चलाना सिखा दिया था. वह ही छापने का काम करता था और कभीकभी पेपर बांटने का भी. पिताजी के पुराने स्कूटर से काम चला रहे थे.

ओम बाबू दयाशंकरजी के बारे में अकसर सुना करते थे. उन की दबंगई से त्रस्त उन के खिलाफ कई लेख लिखे. उन के गुर्गों से 3 बार पिटे भी. पर उन के खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा. दयाशंकर की धमकियां भी इस निडर पत्रकार को डिगा न सकीं.

एक दिन शहर में एक शादी में उन्होंने दयाशंकर को पार्टी उड़ाते देख लिया. वे अपने दोस्त और शहर के कई और गुंडों के बीच खाने का लुत्फ उठा रहे थे.

ओम बाबू ने अपने करीब खड़े मेहमान से पूछा, ‘‘ये दयाशंकरजी ही हैं न?’’

उन्होंने कहा, ‘‘हां, वही हैं.’’

ओम बाबू बोले, ‘‘अरे, वे यहां क्या कर रहे हैं, वे तो फरार हैं?’’

मेहमान बोला, ‘‘मुझे क्या मालूम. उन्हीं से पूछिए.’’

ओम बाबू खुद दयाशंकर के पास गए और बोले, ‘‘आप क्या दयाशंकर हैं?’’

वे बोले ‘‘हां, हैं.’’

ओम बाबू बोले, ‘‘आप यहां क्या कर रहे हैं, पुलिस ने तो आप को फरार घोषित किया हुआ है?’’

दयाशंकर बोले, ‘‘तो ठीक किया होगा, जब थाने वाले कहते हैं कि हम फरार हैं, तो हम फरार ही होंगे.’’

‘‘पर आप तो यहां सब के सामने खाने का मजा ले रहे हैं,’’ ओम बाबू बोले.

दयाशंकर ने जवाब दिया, ‘‘तो फरारी में क्या पार्टी खाना माना है. आप को कोई तकलीफ हो तो वहां थानेदार मीठा खा रहे हैं, उन से पूछ लो.’’

ओम बाबू भागते हुए थानेदार के पास गए और बोले, ‘‘सर, आप ने तो दयाशंकरजी को फरार घोषित कर रखा है, वे तो यहां पार्टी में हैं.’’

थानेदार बोले, ‘‘हमें तो नहीं दिख रहे हैं, आप को दिख रहे हैं तो थाने में इस की सूचना दीजिए, हम उन को गिरफ्तार कर लेंगे.’’

ओम बाबू अपने पुराने स्कूटर को दौड़ाते हुए थाने पहुंच गए. आज उन को विश्वास था कि उन के पेपर को एक बड़ी न्यूज मिल गई है. थाने पहुंच कर पूछा, ‘‘थानेदार साहब कहां हैं?’’

जवाब मिला कि गिरफ्तारी में गए हुए हैं.

ओम बाबू गुस्से से बोले, ‘‘अरे, वे तो पार्टी खा रहे हैं, वहां मैं भी था. वहीं फरार घोषित दयाशंकर भी था.’’

सिपाही ने कहा, ‘‘तो उन से वहीं मिल लेते, यहां क्यों आए हो?’’

इतने में ही थानेदार साहब वहां पहुंच गए, बोले, ‘‘ओम बाबू, अरे, आप यहां कैसे, क्या काम है?’’

ओम बाबू बोले, ‘‘अरे साहब, मैं ने आप को शादी की पार्टी में दयाशंकर को दिखाया और बोला कि पुलिस रिकौर्ड में वे फरार हैं, पर वे तो यहां पार्टी खा रहे थे. आप उन्हें गिरफ्तार करिए. तब आप ने कहा था कि थाने में जा कर सूचना दीजिए. सो, मैं यहां आ गया.’’

थानेदार बोले, ‘‘मुझे तो वहां दयाशंकर दिखाई नहीं दिए, मुझे ही क्या, किसी और ने भी उन्हें वहां नहीं देखा. आखिर वे फरार हैं तो पार्टी में कैसे आ सकते हैं?’’

ओम बाबू गुस्से से बोले, ‘‘आप सब उन से मिले हुए हो’’

थानेदार साहब बोले, ‘‘तो ओम बाबू, इस में क्या है, अपन फिर वहां चलते हैं और यदि दया शंकरजी वहां मिल गए तो मैं उन को गिरफ्तार कर लूंगा.’’

दोनों फिर शादी की जगह पहुंचे. दयाशंकर को पहले ही खबर हो गई थी और इतनी देर में वे वहां से गायब हो चुके थे.

थानेदार बोले, ‘देखा, ओम बाबू, आप ने खालीपीली में मेरा और पुलिस फोर्स का कीमती वक्त खराब किया. मैं तो पहले ही कह रहा था कि वे फरार हैं, पर आप तो मानने को तैयार ही नहीं थे. सरकारी तंत्र का समय खराब करने और गलत खबर देने के जुर्म में अब मैं आप के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराऊंगा.’’

ओम बाबू के पास थानेदार से हाथ जोड़ कर माफी मांगने के अलावा कोई चारा नहीं था. वे समझ गए थे कि भ्रष्टाचारी तंत्र से निबटना मुश्किल है.

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