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Bollywood : ‘आजाद’ और ‘इमरजेंसी’ का बुरा हाल, कंगना-अजय की उम्मीदें चकनाचूर

Bollywood : जनवरी माह के दूसरे सप्ताह में प्रदर्शित फिल्मों का बाक्स आफिस पर बुरी तरह से बंटाधार हो गया था. जनवरी माह के तीसरे सप्ताह यानी कि 17 जनवरी को रिलीज हुई दो फिल्मों ‘आजाद’ और ‘इमरजेंसी’ से काफी उम्मीदें थीं. लेकिन यह फिल्म जिस बुरी तरह से बौक्स औफिस पर मुंह के बल गिरी हैं, उस की उम्मीद तो इन फिल्मों के दुश्मनों को भी नहीं थी.

जनवरी के तीसरे सप्ताह 17 जनवरी को प्रदर्शित फिल्म ‘आजाद’ का वितरण मशहूर व अति शक्तिशाली तथा फिल्म ‘पुष्पा 2: द रूल’ का वितरण कर चुके वितरक अनिल थडाणी ने किया है. इस फिल्म में अनिल थडाणी की बेटी राशा थडाणी हीरोईन है. लोग सोच रहे थे कि इस फिल्म को बाक्स आफिस पर सफलता दिलाने के लिए अनिल थडाणी एड़ी चोटी का जोर लगा देंगे. अनिल थडाणी ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगाया, लेकिन उन्होंने अपनी जेब से धन निकाल कर टिकट खरीद कर लोगों को मुफ्त में बांटने से इंकार कर दिया.

अब जब निर्माता व कलाकारों ने फिल्म की टिकटें खरीद कर नही बांटी तो फिल्म का डूबना तय था. ‘आजाद’ में राशा थडाणी के ही साथ अजय देवगन के भांजे अमन देवगन की भी हीरो के तौर पर यह पहली फिल्म है. इस फिल्म में अजय देवगन, डायना पेंटी, मोहित मलिक और पीयूष मिश्रा के भी अहम किरदार हैं. लेकिन फिल्म के निर्देशक अभिषेक कपूर ने इस फिल्म को डुबाने में अपनी सारी ताकत लगा दी.

सबसे पहले तो वह मौलिक कहानी सोच नहीं पाए, ऊपर से ‘लगान’, ‘हाथी मेरे साथी’, ‘तेरी मेहरबानियां’ सहित कम से कम 50 फिल्मों को मिला कर चूंचूं का मुरब्बा बना दिया. फिल्म के नए पुराने किसी भी कलाकार से वह अभिनय ही नही करवा सके. जिस के चलते 80 करोड़ रूपए में बनी फिल्म ‘आजाद’ ने पूरे सप्ताह यानी कि 7 दिन में बामुश्किल 6 करोड़ रूपए ही कमाए, वह भी तब जब 17 जनवरी को ‘सिनेमा लवर्स डे’ के नाम पर टिकट की दर केवल 99 रूपए थी. इन 6 करोड़ रूपए में से निर्माता की जेब मे महज एक करोड़ ही आएंगे. अजय देवगन के करीबी दावा कर रहे हैं कि अपने करियर के ही साथ अपने भांजे अमन देवगन का करियर बनने से पहले ही डुबाने का पश्चाताप करने के लिए अब अजय देवगन अभिनय से संन्यास लेने जा रहे हैं.

17 जनवरी को भाजपा सांसद कंगना रनौत की फिल्म ‘इमरजेंसी’ प्रदर्शित हुई थी, जिस में इंदिरा गांधी का किरदार निभाने के साथ ही इस का सह निर्माण, निर्देशन व लेखन भी कंगना रनौत ने ही किया है. इस फिल्म को किसी अन्य ने नहीं बल्कि कंगना रनौत ने खुद ही डुबा डाला. कंगना रनौत का मानना है कि आजादी 2014 में मिली थी. उन्होंने कांग्रेस शासन की बुराई व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करने के अलावा पिछले 10-12 साल में कुछ नहीं किया. इस वजह से सभी मान कर चल रहे थे कि कंगना ने अपनी फिल्म ‘इमरजेंसी’ में इमरजेंसी यानी कि आपातकाल लागू करने व उस दौरान को बदनाम करने वाले दृश्य/तथ्य पेश करेंगी. पर हुआ उल्टा.

फिल्म में इमरजेंसी का मसला तो 20 मिनट से ज्यादा है ही नही. अपनी भाजपा भक्ति को दिखाने के लिए कंगना ने इंदिरा गांधी को एक कमजोर प्रधानमंत्री साबित करने के अलावा वह पूरी फिल्म में इंदिरा गांधी का महिमामंडन ही करती रहीं. आखिर उन के पास इंदिरा गांधी के करनामों को दिखाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नही रहा. क्योंकि फिल्म तो इंदिरा गांधी की बायोपिक है. इमरजेंसी लगाने के अलावा इंदिरा ने हर काम देशहित में किए. इमरजेंसी व नसबंदी के लिए कंगना ने इंदिरा गांधी की बजाय संजय गांधी को दोष दिया. लेकिन कंगना के इस उबल गेम के चक्कर में वह कांग्रेस व भाजपा दोनों का साथ नही पा सकी.

फिल्म कहानी के अलावा बहुत घटिया तरीके से बनी है. किसी भी कलाकार ने ठीक से अभिनय नहीं किया तो फिल्म की बुराई काफी हुई. यह एक अलग बात है कि कंगना रनौत ने अपने चंद चापलूस यूट्यूबरों व कुछ अन्य पत्रकारों की मदद से उन सभी फिल्म आलोचकों की निंदा कराई जिन्होंने ‘इमरजेंसी’ को खराब फिल्म बताया या लिखा. ऐसा करते हुए कंगना ने दोहरा नुकसान कर डाला.

उधर अब लोगों को उन के चापलूस यूट्यूबरों पर से भी यकीन उठ गया. पूरे एक सप्ताह में फिल्म ‘इमरजेंसी’ ने बौक्स औफिस पर 14 करोड़ रूपए कमा लिए. फिल्म का बजट 70 करोड़ रूपए से अधिक बताया जा रहा है.

जनवरी माह के चौथे सप्ताह, 24 जनवरी को कुछ छोटी फिल्मों के ही साथ अक्षय कुमार की फिल्म ‘स्काई फोर्स’ प्रदर्शित हुई है. जिसे 3 दिन तक 250 रूपए से 400 रूपए की छूट के साथ मुफ्त मे लोग देख सकते हैं. ऐसे में इस का बौक्स औफिस कलेक्शन पर अब अगले सप्ताह बात करेंगें.

Make In India : मेक इन इंडिया बनाम मेक इन अमेरिका

Make In India : जो सवर्ण भारतीय प्रवासी अमेरिकी धरती पर भारत में जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था पर हाएतौबा मचाते रहे और मजे से वहां अश्वेत यानी अल्पसंख्यक आरक्षण का लाभ उठा रहे, वे अब ट्रंप के आने के बाद अपना माथा पीटने पर मजबूर हुए हैं, जाने क्यों?

अमेरिका में जौन एफ कैनेडी व मार्टिन लूथर किंग के आदर्शों से प्रेरित साल 1960 में अल्पसंख्यकों को नौकरियों में अवसर देने वाला आरक्षण लागू किया गया था, लेकिन श्वेत बहुसंख्यक समुदाय की लगातार मांग थी कि इस आरक्षण को खत्म किया जाए. डोनाल्ड ट्रंप ने आज उसी सोच का नेतृत्व कर किया है. ट्रंप ने इस आरक्षण को खत्म करने का फैसला किया है. इस में कुल 32 लाख फेडरल कर्मचारियों में से 8 लाख कर्मचारी इसी आरक्षण के तहत नौकरी प्राप्त किए हुए हैं और इसी आरक्षण का लाभ उठाते हुए तकरीबन 1 लाख भारतीय भी नौकरी कर रहे थे.

गौरतलब है कि यह नियम प्राइवेट सैक्टर पर भी लागू था. गूगल, फेसबुक, वालमार्ट,अमेजन, मैक डोनाल्ड आदि कंपनियों ने इस फैसले को तुरंत प्रभाव से लागू कर दिया है. ज्ञात रहे कि ज्यादातर भारतीय प्रवासी इन्हीं कंपनियों में पेशेवर हैं. इस बंदी के बाद बड़ी आबादी बेरोजगार हो गई है. ये प्रवासी भारतीय भारत में लागू संवैधानिक आरक्षण को गालियां देते हुए अमेरिका में आरक्षण लाभ ले रहे थे.

इधर, ट्रंप की जीत के लिए भारत में भी लोग हवनयज्ञ कर रहे थे. उसी सोच वाले लोग भारत की सत्ता पर काबिज हैं. भारत में सीधा फैसला तो नहीं लिया जा सकता क्योंकि आरक्षण का विरोध करने वाली स्वर्ण आबादी खुद अल्पसंख्यक है इसलिए अघोषित मोनोपोली के तहत आरक्षण के मायने बदल दिए गए हैं. निजी सैक्टर में आरक्षण लागू ही नहीं किया जा सका तो बड़े पदों पर इंटरव्यू के कारण पहुंचने ही नहीं दिया गया और खाली पदों को न भर कर खत्म किया गया. न्यायपालिका में आरक्षण लागू नहीं है. 55% ओबीसी आबादी को 27% के दायरे में सीमित कर दिया गया और सरकारी उपक्रमों का निजीकरण कर के आरक्षण खत्म कर दिया.

इसलिए अमेरिका जो भी कदम उठा रहा है उस से भारत के ओबीसी/एससी/एसटी व अल्पसंख्यक लोगों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है. हर रोज भारत की सत्ता इन के खिलाफ उठाती रही है. ट्रंप ने कैनेडी व मार्टिन लूथर के सपनों का कत्ल किया है लेकिन भारत ने जिंदा गांधी का कत्ल आजादी के समय ही कर दिया था. डा अंबेडकर के संवैधानिक सपनों को कभी ईमानदारी से लागू ही नहीं किया गया था. बस पूना पैक्ट का बोझ उठाए घूम रहे हैं.

Hindi Kahani : ऐसे ढोंगी बाबा यहां मिलेंगे!

Hindi Kahani : नारायण-नारायण… नारदमुनि रोहरा नंद के साथ आकाश मार्ग में भ्रमण कर रहे हैं उन्होंने सुखद,शीतल वायुप्रवाह के आनंदतिरेक में कहा,- भारत भूमि में बाबाओं द्वारा- भोले-भाले लोगों को ठगा जा रहा है! बड़ा अनर्थ हो रहा है.

रोहरानंद ने आकाश से नीचे, धरा की और उचटती निगाह डाल हाथ जोड़कर कहा,-मुनिवर ! कम से कम आप तो ऐसा न कहें! यह सब आपके मुंह से शोभा नहीं देता.

नारदमुनि के चेहरे पर वक्र भाव उदित हुआ,- भला क्यों ? क्या हम सच न कहें, सिर्फ गेरुआ वस्त्र पहन लेने के कारण हम ऐसे ढोंगियों के तरफदार बन जाएं हिमायत करें  .

मुनिवर ! यह कलयुग है, ऐसा तो चलता रहेगा.अब पावन पवित्र बाबाजी कहां मिलेंगे, मैं तो कहता हूं कम से कम ऐसे बाबा भी हैं तो सही, यही क्या कम बड़ी उपलब्धि है.

नारदमुनि- (वीणा के तार झंकृत करते हुए ) अर्थात…

रोहरानंद- ( हाथ जोड़कर )हे देवर्षि! कलयुग में सौ फ़ीसदी खरे बाबा कहां से आएंगे, चहूं और लूट और षडयंत्र फैला हुआ है. हर आदमी खून के आंसू रो रहा है, व्यवस्था ही ऐसी है. ऐसे में मैं तो कहता हूं, कोई आदमी अगर काला चोर है, डाकू है और गेरुए वस्त्र धारण कर या रुद्राक्ष कंठी माला पहन कर, स्वयंभू बाबा और भगवान की डीलरशिप लेकर बैठा हुआ है तो वह प्राणाम्य है.

नारदमुनि-  तुम से बुद्धिजीवी से यह उम्मीद हमें नहीं थी, तुम अगर ऐसे ढोंगी और ठग बाबाओं के पक्षधर बन जाओगे तो इसका संदेश देश में अच्छा नहीं जाएगा. कम से कम तुम जैसे लोगों को, सदैव बुरे लोगों का, विरोध करते रहना चाहिए.

रोहरानंद- मुनिवर विरोध करने से क्या होगा. अपनी ताकत हमें विध्वंस में नहीं निर्माण में खर्च करनी चाहिए.

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नारदमुनि- देखो ! साध्य और साधन हमेशा निर्विवाद होने चाहिए.मैं इन बाबाओं की करतूत देख कर दंग हूं, दाढ़ी बढा ली, ऊंची ऊंची बातें कर रहे हैं और लोगों से दोनो हाथों से माया (रुपए) लिए जा रहे हैं ,इन्हें शर्म नहीं आती…

रोहरानंद-( हाथ जोड़कर ) देवर्षि! आप क्यों अपना खून जला रहे हैं .आकाश मार्ग से देशभर में भ्रमण करते हुए क्या इन बाबाओं के दर्शन करने निकले हैं, छोड़िए इन्हें… मुझे तो लगता है यह सब सौतिया दाह का मामला है.

नारदमुनि- नारायण नारायण. यह तुम क्या कह रहे हो…

रोहरानंद- मुनिवर ! आप अन्यथा न लें, मगर मुझे शंका तो है.

नारदमुनि- नारायण नारायण, इस देश में क्या सच बोलना भी गुनाह है. अगर मैं स्वर्गलोक से आया हूं, ज्ञानी हूं तो, सच तो कहूंगा.मुझे कैसा लार-फांस. न उधो का लेना, न माधो का देना. तो मैं तो सच कहूंगा जो, मैं देखूगा… कहूंगा. अगर इसके बाद भी मुझ पर आक्षेप लगते हैं तो लगाओ, मैं झेलूंगा. मुझ पर तुमने सौतिया दाह का आरोप मढ़ा है…

रोहरानंद- ( करुण भाव से ) मुनिवर क्षमा करें .मैं तो ऐसा हास्य बोध अर्थात ह्यूमर के तहत कह रहा था.

नारदमुनि-( कुद्र स्वर में ) यह इस राष्ट्र की तासीर बन गई है. जब कोई सच बात कहता है तो उसे झूठा सिद्ध किया जाता है और कोई झूठ फरेब करता है तो आंखें मूंद ली जाती है.

रोहरानंद- मुनिवर… यह धर्म का मामला है. इस संदर्भ में कोई कुछ नहीं कहेगा. अगर मैंने साधु-संत का वेश धारण कर लिया तो समझो मेरी पौ बारह हो गई .मैं रात दिन हाथ-पैर की सेवा करवाऊंगा. सुबह-शाम देसी घी का माल पुआ खाऊंगा. धनी मानी क्या, देश के प्रधानमंत्री और क्या राष्ट्रपति मेरी चरण वंदना करेंगे. मुझे और क्या चाहिए.

नारदमुनि- मगर इतनी समझ तो होनी चाहिए की आप समझ सको की सही क्या है और गलत क्या है.

रोहरानंद- मुनिवर! इतनी बुद्धि तो यहां किसी में नहीं है .यहां तो सिर्फ श्रद्धा और विश्वास का मामला है. लोगों के हुजूम ने अगर आपको स्वीकार कर लिया तो आप नारदमुनि हैं, देवर्षी हैं और अगर नहीं माना तो आपकी खैर नहीं.

नारदमुनि- क्या अभिप्राय है. क्या हमें डरा रहे हो…

रोहरानंद- मुनिवर ! यह डराने की बात नहीं हकीकत है.

नारदमुनि- यह कैसा देश है भाई .

रोहरानंद- मुनिवर… यहां चेहरा देखकर श्रद्धा भक्ति उमड़ती है और हवा का रुख देखकर काफूर भी हो जाती है.

नारदमुनि- नारायण नारायण… अजीब देश है अजीब.

रोहरानंद- मुनिवर यह स्वीधान राष्ट है. हर एक स्वाधीनता की आनंद उठा रहा है । कोई बोलने वाला नहीं…

नारदमुनि- अर्थात समय की मार सबसे बड़ी मार है.

रोहरानंद-( हाथ जोड़कर ) मुनिवर! आप सही कह रहे हैं, इस देश में समय से बड़ा कोई नहीं है. समय राजा को धन कमाना देता है और समय ही राजा को रंक.

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Romantic Story : जल्दी आना, मैं राह देखूंगी!

Romantic Story : हम आर्मी के लोगों की जिंदगी बहुत कठिन होती है. घर-परिवार सबसे दूर सीमा पर चौबीस घंटे की मुस्तैदी. महीनों बीत जाते हैं घरवालों से मिले. छुट्टी भी जल्दी मंजूर नहीं होती है. मगर इस बार तो मेरा घर जाना वाकई बहुत जरूरी था. छोटे भाई की शादी थी. कई महीने पहले मैंने हफ्ते भर की छुट्टी के लिए आवेदन भेजा था. बड़ी मुश्किल से छुट्टी मंजूर हुई थी. अगर इतना जरूरी न होता तो मैं न लेता मगर घर में बड़े के नाम पर सिर्फ मैं और मां ही थी. सारी तैयारियां होनी थीं. रंजीत इंजीनियर है. बंगलुरु की एक मल्टीनेशनल कम्पनी में लगा है. पद भी अच्छा है पैसे भी. उसे भी फुर्सत कम ही मिलती है. ऑफिस की जिम्मेदारियां बहुत हैं कंधे पर. रंजीत को भी अपनी शादी के लिए मुश्किल से ही छुट्टी मिली थी. हम दोनों भाई अभी तक कुंवारे थे मगर अब दोनों में से एक की तो बहुत जरूरी थी. पापा की मृत्यु के बाद अब घर में मां की देखभाल के लिए कोई भी नहीं था. उनकी भी उम्र हो रही थी. बीमार पड़ जातीं तो कोई डॉक्टर के पास ले जाने वाला भी पास न होता था. मैं सीमा पर और भाई बंगलुरु में. खैर, उसकी शादी एक सुंदर और सीधी सादी घरेलू लड़की से तय हो गयी थी, जो मां के साथ ग्वालियर में ही रहने को तैयार हो गयी थी.

शादी वाले दिन सारे रिश्तेदार घर में जमा थे. शाम होते-होते रंजीत को घोड़ी पर बिठाने सहित बारात की सारी तैयारियां चरम पर पहुंच गयीं. सारे के सारे लोग सजने-धजने में जुटे थे. मां की खुशी तो वर्णन से बाहर थी. पूरा घर रोशनी में नहाया हुआ था. घोड़ीवाला दरवाजे पर शाम से ही पहुंच गया था. बैंड वाले भी अपना तामझाम लेकर जमा थे. बीच-बीच में संगीत की सुरलहरियां गूंज उठती थीं. शाम घिर आयी थी. मां ने मुझे आवाज लगा कर कहा कि मैं जाकर छोटे को उसके कमरे से ले आऊं, बारात उठने में देर हो रही है. दो घंटे तो रास्ते में ही नाचते-गाते ही निकल जाएंगे.

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मैं भागा-भागा ऊपर के कमरे में गया, जहां छोटा भाई रंजीत तैयार होने गया था. पूरा कमरा खाली पड़ा था. बाहर बालकनी, बाथरूम सब देख लिए. कहीं नहीं. नीचे आकर नीचे के कमरों में भी झांक आया. तमाम आवाजें लगायीं, मोबाइल मिलाया, मगर कोई जवाब नहीं. मोबाइल स्विच ऑफ़ था. मैं वापस उसके कमरे में गया तो उसके शादी के जोड़े के ऊपर एक पत्र मिला.

लिखा था – ‘भइया, मैं किसी घरेलू साधारण सी लड़की से शादी नहीं करना चाहता था. मैंने मां को बहुत समझाया था कि मैं शादी नहीं करूंगा, मगर वह जिद्द पकड़ कर बैठी थी. उसकी जिद्द पर मैं यहां आ गया कि आप दोनों से मिल कर सारी बातें समझा दूंगा, मगर यहां तो मां सारी तैयारियां करके बैठी थी. रिश्तेदारों को भी बुला लिया था. भइया, मुझे यह बात पहले बता देनी चाहिए थी, मगर मैं मां को और आपको मिल कर ही बताना चाहता था. पिछले महीने बंगलुरु में अपनी कंपनी में ही कार्यरत एक इंजीनियर लड़की से मैंने कोर्ट मैरिज कर ली है. मैं उससे बहुत प्यार करता हूं. उसे छोड़ नहीं सकता. भइया, मां को समझा देना. मैं उनसे नजरें नहीं मिला पाऊंगा. उनका दिल टूट जाएगा. मैं वापस जा रहा हूं. संभाल लेना. –  रंजीत

यह पढ़ते ही मेरे तो पैरों तले जमीन खिसक गयी. भाग कर नीचे आया. चाचाजी को बताया. उन्होंने किसी तरह संभाल-संभाल कर पूरी बात मां को बतायी. खुशी वाले घर में अचानक श्मशान की खामोशी पसर गयी. क्या करें? किसी को कुछ सुझायी नहीं दे रहा था. इतने में चाचाजी मेरे पास आए. बोले, ‘बेटा, घर की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी. मैं लड़कीवालों से बात कर लूंगा, तू सेहरा बांध ले…’

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मैं अवाक्. ये कैसी मुसीबत में फंसा गया छोटा. मैं तो खुद किसी मिलिट्री मैन की लड़की से शादी का ख्बाव देख रहा था. मगर अब क्या किया जाए? बारात चलने को उतावली थी, बस दूल्हे का इंतजार था. घराती-बराती सब आ जुटे थे. मेरा तो दिमाग ही सुन्न पड़ गया. घरवालों के दबाव के आगे मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था. कब सेहरा बांध कर घोड़ी पर सवार हुआ, पता ही नहीं चला. कब फेरे पड़े, कब विदायी हुई, कब मैं दुल्हन को लेकर अपने घर आ गया, कुछ होश न रहा.

सुहागसेज पर लंबे घूंघट में सिसकती सीमा को देखकर ही मेरे होश वापस आये थे. उसके चेहरे से घूंघट हटा कर मैंने पहली बार उसका चेहरा देखा तो उस भोले चेहरे पर एक ही सवाल था – मेरी क्या गलती थी?

सच ही तो था. उसने छोटे भाई रंजीत की फोटो देखने के बाद न जाने कितने सपने बुने होंगे, कितनी जुड़ गयी होगी वह उसके व्यक्तित्व से. एक स्मार्ट और अच्छा वेतन पाने वाले इंजीनियर की जगह उसे एक सख्त और कम तनख्वाह पाने वाले जवान से ब्याह दिया गया था, जिसके जीवन का भी कोई भरोसा नहीं था. उसके तो सारे सपने ही बिखर गये थे. वह रात हम दोनों के बीच खामोशी से गुजर गयी. दूसरी रात कुछ बातचीत शुरू हुई. सीमा बहुत ही कोमल और मधुर स्वभाव की थी. ग्रेजुएट थी और घर-परिवार में रच-बस कर रहने वाली घरेलू लड़की थी. कई तरह के पकवान बनाने में माहिर और बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करने वाली लड़की थी. उसके साथ हफ्ता कैसे छूमंतर हो गया पता ही नहीं चला. ससुराल में दूसरे ही दिन से उसने पूरी रसोई संभाल ली थी. मां तो उस पर न्योछावर हुई जाती थी.

हफ्ते भर की छुट्टियां खत्म होने पर जब मैं वापस सीमा पर जाने के लिए तैयार हुआ तो उसने आकर धीरे से कान में कहा था, ‘जल्दी वापस आना. मैं राह देखूंगी.’

उसकी वह बात मेरे कानों में आज तक गूंज रही है. छुट्टी की एप्लीकेशन दे दी है. पता नहीं कब मंजूर होगी. क्योंकि जल्दी तो मुझे भी है.

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Short Hindi Story : ठगी का कोचिंग सेंटर

Short Hindi Story : वे कल मूंछों पर ताव देते आए तो मैं हक्काबक्का रह गया. कारण, इस से पहले तक तो वे हर पल अपनी पूंछ पर ही ताव देते रहते थे. वैसे, औरों की पूंछों पर ताव देना तो दूर, उसे छूना उतना ही डैंजरस होता है जितना बिन सावधानी के बिजली के नंगे तार छूना.

आते ही पहली बार समाज सुधारक वाले मोड में लगे, तो मैं फिर चौंका. यार, कल तक का घोर स्वार्थी आज समाजचिंतक? पर फिर सोचा, यहां आदमी को किसी भी मोड में आते कौन सी देर लगती है? इस देश में कोई किसी भी वक्त किसी भी मोड में आ सकता है, पर आदमी के मोड में कभी नहीं आ सकता. यह सोचा तो मेरी चिंता कुछ कम हुई. आते ही वे मुझ से अपनी समाजसेवा के लिए पुख्ता जानकारी जुटाने लगे, ‘‘यार, अपने महल्ले में कितने पढ़ेलिखे बेरोजगार होंगे?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘सरकार उन को रोजगार न दे सकी, तो क्या हुआ. मेरे पास उन के लिए उन का अपना काम करने का आइडिया है. मैं नहीं चाहता मेरे देश का कोई भी अनपढ़ तो अनपढ़, पढ़ालिखा हाथ तक खाली रहे.’’

‘‘इस देश में आइडियों की कमी नहीं, मेरे दोस्त. नकारे से नकारे आदमी के पास भी ऐसेऐसे धांसू आइडिए मिल जाएंगे कि… कमी है तो बस आइडियों को मूर्तरूप देने वालों की. हवा में तो जितनी मारना चाहो, मार लो पर…’’

‘‘नहीं यार, मैं अपने आइडिए से बेरोजगारी का समूल नाश करना चाहता हूं.’’

‘‘बेरोजगारी का समूल नाश तो छोड़ो, नाश ही हो जाए तो भी…’’ कहते हुए मैं उन के आइडिए को अभी निरखपरख ही रहा था कि वे चहकते हुए बोले, ‘‘मैं पढ़ेलिखे हाथों को भी रोजगार देना चाहता हूं?’’

‘‘अरे दोस्त, पहले खुद को तो रोजगार दे लो. आदमियों तो आदामियों, भगवानों तक से उधार खा डकार चुके हो,’’ मैं ने कहा तो वे मुझ पर गुस्साते बोले, ‘‘हद है यार, मैं तहेदिल से बेरोजगारों का भला करना चाहता हूं और एक तुम हो कि… इस देश के साथ बस एक ही दिक्कत है, और वह यह कि हम गंभीर मुद्दों को भी हवा में उछाल देते हैं खोटे सिक्कों की तरह.’’ उन्होंने यह कहा तो मैं गंभीर हुआ, ‘‘तो क्या आइडिया है तुम्हारे पास?’’

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‘‘सोच रहा हूं कि अब अपने देश के पढे़लिखे बेरोजगारों के लिए कोचिंग सैंटर खोल लूं,’’ उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा तो मैं हंसता रहा. मन किया कह दूं कि अपने देश में कोचिंग सैंटरों के बाद ही तो बेरोजगारी बढ़ी है, पर चुप रहा. सिर्फ इतना कहा, ‘‘मतलब? पर वे तो पहले ही कोचिंग करने के बाद बेरोजगार हुए हैं.’’

‘‘मैं देश में सब से अनूठा पहला कोचिंग सैंटर अपने देश के पढ़ेलिखे बेरोजगारों के लिए खोलना चाहता हूं.’’

‘‘मतलब? अब एक और कोचिंग सैंटर? देखो यार, इस देश में सबकुछ खोलो पर कोई और कोचिंग सैंटर न खोलो. मेरे देश के मांबाप बच्चों को कोचिंग करवाते हुए पहले ही लुट चुके हैं. वैसे, मांबाप अब बच्चा पैदा करने से पहले ही आने वाले के लिए कोचिंग सैंटर में एडवांस में सीट बुक करवाने लगे हैं. तो तुम कौन सा नए टाइप का कोचिंग सैंटर खोलना चाहते हो?’’

‘‘ठगी का कोचिंग सैंटर,’’ कह वे मेरा मुंह देखने लगे, फिर बोले, ‘‘क्यों? कैसा है मेरा आइडिया?’’

मैं ने अपने दांतों तले अपनी उंगली दे डाली.

‘‘यार, उस ठगी के कोचिंग सैंटर में आएगा ही कौन, जबकि मेरे चरित्र प्रमाणपत्र जारी करने वाले औफिसर तक का हर दूसरा बंदा ठग है.’’

‘‘तो होता रहे. पर मेरा ठगी का कोचिंग सैंटर ठगी के घिसेपिटे तरीकों से नहीं, ठगी के अल्ट्रा मौडर्न तकनीकों से लैस होगा. वहां पर ठगी की ट्रेनिंग देने वाले देशी नहीं, इंटरनैशनल लैवल के होंगे.

‘‘माना दोस्त, आज समाज ठगों से भरा हुआ है. धर्म से ले कर कर्म तक हर जगह आज ठगी ही ठगी है. पर वह ठगी, स्किल्ड ठगी नहीं. समाज में साक्षरता दर बढ़ने के बाद भी अधिकतर अनस्किल्ड ठग हैं. अधजल ठगी की छलकती गगरी सिर पर उठाए सब एकदूसरे को ठग रहे हैं और देरसवेर पकड़े जा रहे हैं. ठगी के काम में जो पारंगतता होनी चाहिए, वह बहुत कम लोगों में देखने को मिल रही है.

‘‘वैसे भी, अब ठगी बहुआयामी हो गई है. पारंपरिक ठगी के दिन गए. आजकल ठगी का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है. रोज नई किस्म की ठगी बाजार में देखने को मिल रही है. सच कहूं तो ठगी के क्षेत्र में आज जितने प्रयोग हो रहे हैं, उतने किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं. गुरु से ले कर चेला तक सब ठगी के पाठ पढ़ातेपढ़ते, ठगी करतेकरते आगे बढ़ रहे हैं. मतलब, आज कणकण में भगवान व्याप्त हो या न, पर ठगी कणकण में विद्यमान है. ठगी ही आज के समय की सब से शुद्ध नैतिकता है. जो ठग नहीं, वह नैतिक नहीं.

‘‘जरा नजरें उठा कर देखो तो, दोस्त. आज ठगी की धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक बोलें तो पूछ मत कि हर क्षेत्र में रोजगार की कितनी संभावना है. जितना मन करे ठगी करते जाओ, आगे बढ़ते जाओ. अब जरूरत है तो बस उन्हें नए संदर्भों में एक्सप्लोर करने की. मैं अपने ठगी के सैंटर में बस इन्हीं संभावनाओं को एक्सप्लोर करने की ऐसी क्वालिटीपूर्ण कोचिंग दूंगा, ऐसी क्वालिटीपूर्ण कोचिंग दूंगा कि मेरे कोचिंग सैंटर से निकला छात्र ठगी के क्षेत्र में सगर्व एक से एक कीर्तिमान स्थापित कर सके. ठगी करने के बाद उसे विदेश भागने की जरूरत न पड़ेगी, अपने देश में ही शान से सिर ऊंचा कर रहे. देश को उस पर नाज हो.

‘‘माना, सड़क से ले कर संसद तक आज ठगी का कारोबार चल रहा है, पर कुछ डरासहमा सा. बहुत कम लोग ठगी के फुलटाइमर हैं.

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‘‘मैं अपने कोचिंग सैंटर की तारीफ अपने मुंह से तो नहीं करता, पर इतना जरूर कहना चाहूंगा कि मेरे कोचिंग सैंटर से जो भी ठगी की कोचिंग लेगा, वह पकड़ा नहीं जाएगा. ठगी में उसे कभी भी शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ेगी. वह सिर गर्व से ऊंचा कर ठगी कर सकेगा. इस से पुलिस और कानून दोनों की परेशानी कम होगी. कुल मिला कर मेरे ठगी के कोचिंग सैंटर में ठगी के ऐसेऐेसे अनूठे गुर सिखाए जाएंगे कि जीते जी तो जीते जी, बंदे के मरने के बाद भी मेरे कोचिंग सैंटर का छात्र पकड़ा न जाए. देख लेना, अपने बेटे को भी भेजना हो तो. 4 के साथ एक फ्री रखा है मैं ने अभी. कोई 4 मेरे यहां ऐडमिशन को ले आना और अपने बेटे की फीस बचा लेना,’’ दोस्त ने नेक सलाह दी और समाज कल्याण हेतु आगे हो लिए.

Best Hindi Story : शादी के बाद

Best Hindi Story : रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

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रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

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रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

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कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

Romantic Story : पीयूष का परिवार क्या मंजरी को अपना पाया?

Romantic Story : वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को छेड़ रहे थे. बारबार लटें उस के गालों पर आ कर झूल जातीं, जिन्हें वह बहुत ही प्यार से पीछे कर देता. ऐसा करते हुए जब उस के हाथ उस के गालों को छूते तो वह सिहर उठती. कुछ कहने को उस के होंठ थरथराते तो वह हौले से उन पर अपनी उंगली रख देता. गुलाबी होंठ और गुलाबी हो जाते और चेहरे पर लालिमा की अनगिनत परतें उभर आतीं.

मात्र छुअन कितनी मदहोश कर सकती है. वह धीरे से मुसकराई. पेड़ से कुछ पत्तियां गिरीं और उस के सिर पर आ कर इस तरह बैठ गईं मानो इस से बेहतर कोमल कालीन कहीं नहीं मिलेगा. उस ने फूंक मार कर उन्हें उड़ा दिया जैसे उन लहराते गेसुओं को छूने का हक सिर्फ उस का ही हो.

वह पेड़ के तन से सट कर खड़ी हो गई और अपनी पलकें मूंद लीं. उसे देख कर लग रहा था जैसे कोई अप्रतिम प्रतिमा, जिस के अंगअंग को बखूबी तराशा गया हो. उसे देख कौन पुरुष होगा जो कामदेव नहीं बन जाएगा. उसे चूमने का मन हो आया. पर रुक गया. बस उसे अपलक देखता रहा. शायद यही प्यार की इंतहा होती है… जिसे चाहते हैं उसे यों ही निहारते रहने का मन करता है. उस के हर पल में डूबे रहने का मन करता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ उस ने कुछ क्षण बाद पूछा.

‘‘कुछ भी तो नहीं.’’ वह थोड़ी चौंकी पर पलकें अभी भी मुंदी हुई थीं.

‘‘चलें क्या? रात होने को है. तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘मन नहीं कर रहा है तुम्हें छोड़ कर जाने को. बहुत सारी आशंकाओं से घिरा हुआ है मन. तुम्हारे घर वाले इजाजत नहीं देंगे तो क्या होगा?’’

‘‘वे नहीं मानेंगे, यह बात मैं विश्वास से कह सकता हूं. गांव से बेशक आ कर मैं इतना बड़ा अफसर जरूर बन गया हूं और मेरे घर वाले शहर में आ कर रहने लगे हैं, पर मेरे मांबाबूजी की जड़ें अभी भी गांव में ही हैं. कह सकती हो कि रूढि़यों में जकड़े, अपने परिवेश व सोच में बंधे लोग हैं वे. पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बहू को स्वीकारना अभी भी उन के लिए बहुत आसान नहीं है. पर चलो इस चीज को स्वीकार भी कर लें तो भी दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाना… संभव ही नहीं है उन का मानना.’’

‘‘तुम खुल कर कह सकते हो यह बात पीयूष… दूसरी अन्य कोई जाति होती तो भी कुछ संभावना थी… पर मैं तो मायनौरिटी क्लास की हूं… आरक्षण वाली…’’ उस के स्वर में कंपन था और आंखों में नमी तैर रही थी.

‘‘कम औन मंजरी, इस जमाने में ऐसी बातें… वह भी इतनी हाइली ऐजुकेटेड होने के बाद. तुम अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ़ी हो. फिलौसफी की लैक्चरर के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती हैं. ऊंची जाति नीची जाति सदियों पहले की बातें हैं. अब तो ये धारणाएं बदल चुकी हैं. नई पीढ़ी इन्हें नहीं मानती…

‘‘पुरानी पीढ़ी को बदलने में ज्यादा समय लगता है. दोष देना गलत होगा उन्हें भी. मान्यताओं, रिवाजों और धर्म के नाम पर न जाने कितनी संकीर्णताएं फैली हुई हैं. पर हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा.’’

मंजरी ने पीयूष की ओर देखा. ढेर सारा प्यार उस पर उमड़ आया. सही तो कह रहा है वह… पर न जाने क्यों वही बारबार हिम्मत हार जाती है. शायद अपनी निम्न जाति की वजह से या पीयूष की उच्च जाति के कारण. वह भी ब्राह्मण कुल का होने के कारण. बेशक वह जनेऊ धारण नहीं करता. पर उस के घर वालों को अपने उच्च कुल पर अभिमान है और इस में गलत भी कुछ नहीं है.

वह भी तो निम्न जाति की होने के कारण कभीकभी कितनी हीनभावना से भर जाती है. उस के पिता खुद एक बड़े अफसर हैं और भाई भी डाक्टर है. पर फिर भी लोग मौका मिलते ही उन्हें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वे मायनौरिटी क्लास के हैं. उन का पढ़ालिखा होना या समाज में स्टेटस होना कोई माने नहीं रखता. दबी जबान से ही सही वे उस के परिवार के बारे में कुछ न कुछ कहने से चूकते नहीं हैं.

मंजरी ने पेड़ के तने को छुआ. काश, वह सेब का पेड़ होता तो जमाने को यह तो कह सकते थे कि सेब खाने के बाद उन दोनों के अंदर भावनाएं उमड़ीं और वे एकदूसरे में समा गए. खैर, सेब का पेड़ अगर दोनों ढूंढ़ने जाते तो बहुत वक्त लग जाता, शहर जो कंक्रीट में तबदील हो रहे हैं. उस में हरियाली की थोड़ीबहुत छटा ही बची रही, यही काफी है.

उस ने अपने विश्वास को संबल देने के लिए पीयूष के हाथों पर अपनी पकड़ और

कस ली और उस की आंखों में झांका जैसे तसल्ली कर लेना चाहती हो कि वह हमेशा उस का साथ देगा.

इस समय दोनों की आंखों में प्रेम का अथाह समुद्र लहरा रहा था. उन्होंने मानों एकदूसरे को आंखों ही आंखों में कोई वचन सा दिया. अपने रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगाई और आलिंगनबद्ध हो गए. यह भी सच था कि पीयूष मंजरी को चाह कर भी आश्वस्त नहीं कर पा रहा था कि वह अपने घर वालों को मना लेगा. हां, खुद उस का हमेशा बना रहने का विश्वास जरूर दे सकता था.

मंजरी को उस के घर के बाहर छोड़ कर बोझिल मन से वह अपने घर की

ओर चल पड़ा. रास्ते में कई बार कार दूसरे वाहनों से टकरातेटकराते बची. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे घर में इस बारे में बताए. वह अपने मांबाबूजी को दोष नहीं दे रहा था. उस ने भी तो जब परंपराओं और आस्थाओं की गठरी का बोझ उठाए आज से 10 वर्ष पहले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कदम रखा था तब कहां सोचा था कि उस की जिंदगी इतनी बदल जाएगी और सड़ीगली परंपराओं की गठरी को उतार फेंकने में वह सफल हो पाएगा… शायद मंजरी से मिलने के बाद ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाया था.

जातिभेद किसी दीवार की तरह समाज में खड़े हैं और शिक्षित वर्ग तक उस दीवार को अपनी सुलझी हुई सोच और बौद्धिकता के हथौड़े से तोड़ पाने में असमर्थ है. अपनी विवशता पर हालांकि यह वर्ग बहुत झुंझलाता भी है… पीयूष को स्वयं पर बहुत झुंझलाहट हुई.

‘‘क्या बात है बेटा, कोई परेशानी है क्या?’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा.

‘‘बस ऐसे ही,’’ उस ने बात टालने की कोशिश की.

‘‘कुछ लड़कियों के फोटो तेरे कमरे में रखे हैं. देख ले.’’

‘‘मैं आप से कह चुका हूं कि मैं शादी नहीं करना चाहता,’’ पीयूष को लगा कि उस की झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच रही है.

‘‘तू किसी को पसंद करता है तो बता दे,’’ बाबूजी ने सीधेसीधे सवाल फेंका. अनुभव की पैनी नजर शायद उस के दिल की बात समझ गई थी.

‘‘है तो पर आप उसे अपनाएंगे नहीं और मैं आप लोगों की मरजी के बिना अपनी गृहस्थी नहीं बसाना चाहता. मुझे लायक बनाने में आप ने कितने कष्ट उठाए हैं और मैं नहीं चाहता कि आप लोगों को दुख पहुंचे.’’

‘‘तेरे सुख और खुशी से बढ़ कर और कोई चीज हमारे लिए माने नहीं रखती है. लड़की क्या दूसरी जाति की है जो तू इतना हिचक रहा है बताने में?’’ बाबूजी ने यह बात पूछ पीयूष की मुश्किल को जैसे आसान कर दिया.

‘‘हां.’’

उस का जवाब सुन मां का चेहरा उतर गया. आंखों में आंसू तैरने लगे. बाबूजी अभी चिल्लाएंगे यह सोच कर वह अपने कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ा ही था कि बोले, ‘‘किस जाति की?’’

‘‘बाबूजी वह बहुत पढ़ीलिखी है. लैक्चरर है और उस के घर में भी सब हाइली क्वालीफाइड हैं. जाति महत्त्व नहीं रखती, पर एकदूसरे को समझना ज्यादा जरूरी है,’’ बहुत हिम्मत कर वह बोला.

‘‘बहुत माने रखती है जाति वरना क्यों बनती ऐसी सामाजिक व्यवस्था. भारत में जाति सीमा को लांघना 2 राष्ट्रों की सीमाओं को लांघना है. अभी सुबह के अखबार में पढ़ रहा था कि पंजाब में एक युवक ने अपनी शादी के महज 1 हफ्ते बाद केवल इस कारण आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे शादी के बाद पता चला कि उस की पत्नी दलित जाति की है. उस की शादी एक बिचौलिए के माध्यम से हुई थी. इस बात का खुलासा तब हुआ जब वह अपनी ससुराल गया. दलित पत्नी पा कर वह आत्मग्लानि और अपराधबोध से इस कदर व्यथित हो गया कि ससुराल से लौट कर उस ने आत्महत्या कर ली. तुम भी कहीं प्यार के चक्कर में पड़ कर कोई गलत कदम मत उठा लेना.’’

बाबूजी की बात सुन पीयूष को अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई. मंजरी ने जब यह सुना तो उदास हो गई.

पीयूष बोला, ‘‘एक आइडिया आया है. मैं अपनी कुलीग के रूप में तुम्हें उन से मिलवाता हूं. तुम से मिल कर उन्हें अवश्य ही अच्छा लगेगा. फिर देखते हैं उन का रिएक्शन. रूढि़यां हावी होती हैं या तुम्हारे संस्कार व सोच.’’

मंजरी ने मना कर दिया. वह नहीं चाहती थी कि उस का अपमान हो. उस के बाद से मंजरी अपनेआप में इतनी सिमट गई कि उस ने पीयूष से मिलना तक कम कर दिया. संडे को अपने डिप्रैशन से बाहर आने के लिए वह शौपिंग करने मौल चली गई. एक महिला जो ऐस्कलेटर पर पांव रखने की कोशिश कर रही थी, वह घबराहट में उस पर ही गिर गई. मंजरी उन के पीछे ही थी. उस ने झट से उन्हें उठाया और हाथ पकड़ कर उन्हें नीचे उतार लाई.

‘‘आप कहें तो मैं आप को घर छोड़ सकती हूं. आप की सांस भी फूल रही है.’’

‘‘बेटा, तुम्हें कष्ट तो होगा पर छोड़ दोगी तो अच्छा होगा. मुझे दमा है. मैं अकेली आती नहीं पर घर में सब इस बात का मजाक उड़ाते हैं. इसलिए चली आई.’’

घर पर मंजरी को देख पीयूष बुरी तरह चौंक गया. पर मंजरी ने उसे इशारा किया कि

वह न बताए कि वे एकदूसरे को जानते हैं. पीयूष की मां तो बस उस के गुण ही गाए जा रही थीं. बहुत जल्द ही वह उन के साथ घुलमिल गई. पीयूष की बहन ने तो फौरन नंबर भी ऐक्सचेंज कर लिए. जबतब वे व्हाट्सऐप पर चैट करने लगीं. मां ने कहा कि वह उसे घर पर आने के लिए कहे. इस तरह मंजरी के कदम उस आंगन में पड़ने लगे, जहां वह हमेशा के लिए आना चाहती थी.

पीयूष इस बात से हैरान था कि जाति को ले कर इतने कट्टर रहने वाले उस के मातापिता ने एक बार भी उस की जाति के बारे में नहीं पूछा. शायद अनुमान लगा लिया होगा कि उस जैसी लड़की उच्च कुल की ही होगी. उस के पिता व भाई के बारे में जान कर भी उन्हें तसल्ली हो गई थी.

मंजरी को लगा कि उस दिन पीयूष ने ठीक ही कहा था कि हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा. पीयूष जब उस के साथ है तो उसे भी लगातार कोशिश करते रहना होगा. मांबाबूजी का दिल जीत कर ही वह अपनी और पीयूष दोनों की लड़ाई जीत सकती है.

हालांकि जब भी वह पीयूष के घर जाती थी तो यही कोशिश करती थी कि उन की रसोई में न जाए. उसे डर था कि सचाई जानने के बाद अवश्य ही मां को लगेगा कि उस ने उन का धर्म भ्रष्ट कर दिया है. एक सकुचाहट व संकोच सदा उस पर हावी रहता था. पर दिल के किसी कोने में एक आशा जाग गई थी जिस की वजह से वह उन के बुलाने पर वहां चली जाती थी.

कई बार उस ने अपनी जाति के बारे में बताना चाहा पर पीयूष ने यह कह कर मना कर दिया कि जब मांबाबूजी तुम्हें गुणों की वजह से पसंद करने लगे हैं तो क्यों बेकार में इस बात को उठाना. सही वक्त आने पर उन्हें बता देंगे.

‘‘तुझे मंजरी कैसी लगती है?’’ एक दिन मां के मुंह से यह सुन पीयूष हैरान रह गया.

‘‘अच्छी है.’’

‘‘बस अच्छी है, अरे बहुत अच्छी है. तू कहे तो इस से तेरे रिश्ते की बात चलाऊं?’’

‘‘यह क्या कह रही हो मां. पता नहीं कौन जाति की है. दलित हुई तो…’’ पीयूष ने जानबूझ कर कहा. वह उन्हें टटोलना चाह रहा था.

‘‘फालतू मत बोल… अगर हुई भी तो भी बहू बना लूंगी,’’ मां ने कहा. पर उन्हें क्या पता था कि उन का मजाक उन पर ही भारी पड़ेगा.

‘‘ठीक है फिर मैं उस से शादी करने को तैयार हूं. उस के पापा को कल ही बुला लेते हैं.’’

‘‘यानी… कहीं यह वही लड़की तो नहीं जिस से तू प्यार करता है,’’ बाबूजी सशंकित हो उठे थे.

‘‘मुझे तो मंजरी दीदी बहुत पसंद हैं मां,’’ बेटी की बात सुन मां हलके से मुसकराईं.

मंजरी नीची जाति की कैसे हो सकती है… उन से पहचानने में कैसे भूल हो गई. पर वह तो कितनी सुशील, संस्कारी और बड़ों की इज्जत करने वाली लड़की है. बहुत सारी ब्राह्मण लड़कियां देखी थीं, पर कितनी अकड़ थी. बदमिजाज… कुछ ने तो कह दिया कि शादी के बाद अलग रहेंगी. कुछ के बाप ने दहेज दे कर पीयूष को खरीदने की कोशिश की और कहा कि उसे घरजमाई बन कर रहना होगा.

‘‘क्या सोच रही हो पीयूष की मां?’’ बाबूजी के चेहरे पर तनाव की रेखाएं नहीं थीं जैसे वे इस रिश्ते को स्वीकारने की राह पर अपना पहला कदम रख चुके हों.

‘‘क्या हमारे बदलने का समय आ गया है? आखिर कब तक दलित बुद्धिजीवी अपनी जातीय पीड़ा को सहेंगे? हमें उन्हें उन की पीड़ा से मुक्त करना ही होगा. तभी तो वे खुल कर सांस ले पाएंगे. हमारी बिरादरी में हमारी थूथू होगी. पर बेटे की खुशी की खातिर मैं यह भी सह लूंगी.’’

पीयूष अभी तक अचंभित था. रूढि़यों को मंजरी के व्यवहार ने परास्त कर दिया था.

‘‘सोच क्या रहा है खड़ेखड़े, चल मंजरी को फोन कर और कह कि मैं उस से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, तुम कितनी अच्छी हो, मैं अभी भाभी को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर सरप्राइज देती हूं,’’ पीयूष की बहन ने चहकते हुए कहा.

वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को इस बार भी छेड़ रहे थे. उसे अपलक निहारतेनिहारते उसे चूमने का मन हो आया. पर इस बार वह रुका नहीं. उस ने उस के गालों को हलके से चूम लिया. मंजरी शरमा गई. अपनी सारी आशंकाओं को उतार फेंक वह पीयूष की बांहों में समा गई. उसे उस का प्यार व सम्मान दोनों मिल गए थे. पीयूष को लगा कि वह जैसे कोई बहुत बड़ी लड़ाई जीत गया है.

Romantic Story : रिक्शा वाले से हुआ मालती को प्यार

Romantic Story : मालती और उस का परिवार संजय कालोनी की एक 8×8 फुट की झुग्गी में जबरदस्ती रहा करते थे. मालती से बड़ी और 2 बहनें थीं, जिन की शादी पिछले 2 सालों में हो चुकी थीं. अब उस पैर पसारने भर की झुग्गी में 3 लोग रह रहे थे, मालती और उस के मातापिता. मालती के पिता का भेलपुरी का ठेला था, जिस के सहारे उन की गुजरबसर हो जाती थी. कालोनी की हर औरत चार पैसे फालतू कमाने के लिए झुग्गियों से निकल कर बाहर पौश इलाकों में अमीर लोगों के घरों में झाड़ूपोंछे का काम कर लिया करती थीं,

पर मालती की मां ने पिछले कुछ सालों से बाहर काम पर जाना छोड़ दिया था. 17 साल की मालती के अंदर भी अब जवानी के रंगरूप दिखाई देने लगे थे. उस के शरीर की बनावट में भी काफी फर्क आने लगा था. मालती नगरनिगम के एक सरकारी स्कूल के पढ़ती थी, जो उस की झुग्गी से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर था. उस की कालोनी की बाकी लड़कियां भी उसी स्कूल में जाती थीं. मालती और उस की सहेलियां स्कूल से घर आते समय रास्ते में खूब मस्ती किया करतीं. कभी किसी राह चलते लड़के को छेड़ दिया या किसी इमली वाले से उधार में इमली ले कर खा ली. एक दिन स्कूल के बाहर जब मालती ने अपने ही पड़ोस की झुग्गी में नए रहने आए रघु को देखा, तो वह चौंक गई.

रघु अभी कुछ दिन पहले ही मालती के सामने वाली झुग्गी पर अपने मामा चरण दास के यहां आया था. उस का मामा भाड़े का टैंपो चलाता था और रघु के पास उस का अपना ईरिकशा था. रघु जवान था. 22 साल का रहा होगा. कंधे चौड़े, सीना बाहर, रंग साफ, लंबाई भी कुछ साढ़े 5 फुट, पर अनपढ़. सयानी मालती हमेशा रघु से बात करने के मौके तलाशती, पर मां के रहते ऐसा करना मुश्किल था. पर आज मालती अपनी सारी सहेलियों के साथ उस के ईरिकशा को आगे से घेर कर खड़ी हो गई, मानो उस रघु का अब सबकुछ छिनने वाला हो. पर उन लोगों ने तो सिर्फ मुफ्त में सवारी करने के लिए रघु के ईरिकशा को रोका था. मालती ने फटाफट सब को पीछे वाली सीट पर बैठा दिया. जो कोई बचा, उसे एकदूसरे की गोद में और खुद सारी सीटें भर जाने के बहाने से रघु के साथ वाली सीट पर जा बैठी.

बेचारे रघु ने अभी कुछ ही दिनों पहले ईरिकशा चलाना शुरू किया था. उस के साथ वाली सीट पर अभी तक कोई लेडीज सवारी नहीं बैठी थी. रघु थोड़ा हिचकिचाया, पर भला अपने पड़ोस की लड़की को घर छोड़ने से वह कैसे मना कर सकता था. मालती अपना बस्ता गोद में लिए उस के साथ वाली सीट पर जा बैठी. मालती के बदन की?छुअन से रघु थोड़ा घबराया. मालती ने रघु से पूछा, ‘‘आज स्कूल के बाहर कैसे?’’ ‘‘जी, वह मैं घर जा ही रहा था, तो सोचा कि खाली रिकशा ले जाने से अच्छा क्यों न जातेजाते थोड़ी और सवारी बैठा लूं. आखिर हमारी मंजिल भी तो एक ही हैं,’’ रघु ने बताया. ‘‘पर, मैं ने तो आप का नुकसान करवा दिया,’’ मालती ने भोली सूरत बना कर रघु से कहा. ‘‘वह कैसे?’’ रघु ने मालती से हैरानी से पूछा. ‘‘अरे, इन्हें लगा कि आप पड़ोसी हैं तो पैसे नहीं लेंगे,

’’ मालती ने पीछे बैठी अपनी सहेलियों की ओर इशारा करते हुए बताया. लड़कियों ने अपनी मरजी से ही रघु के ईरिकशा का रेडियो चालू कर लिया था, जिस की वजह से मालती और रघु की आवाज उन तक नहीं पहुंच रही थी. ‘‘तो क्या गलत सोचा इन्होंने? मैं वैसे भी आप लोगों से पैसे नहीं लेता,’’ रघु ने पड़ोसी धर्म निभाते हुए कहा. घर पहुंच कर रघु उस दिन सिर्फ मालती के बारे में ही सोचता रहा. अगले दिन फिर जब स्कूल से निकलते वक्त सामने रघु को ईरिकशा पर देखा तो मालती खिल उठी. आज रघु ने जानबूझ कर अपने साथ वाली सीट मालती के लिए बचा कर रखी थी. मालती ने अपनी सहेलियों से कहा, ‘‘तुम लोग जाओ, आज मुझे जल्दी जाना है. मैं ईरिकशा से चली जाऊंगी.’’ मालती आज फिर बस्ता अपनी गोद में रख कर रघु से सट कर बैठ गई. दोनों में काफी छेड़छाड़ भरी बातें हुईं. हालांकि शुरुआत मालती ने की थी, पर अब रघु भी काफी खुल चुका था. उन दोनों को अब एकदूसरे से प्यार होने लगा.

रघु अब सुबह भी मालती को ईरिकशा पर स्कूल छोड़ दिया करता और दोपहर को अपने साथ ले भी आता. एक दिन रघु मालती को लालकिला घुमाने ले गया. दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर लालकिला घूमने लगे. पूरे दिन दोनों में खूब रंगीन बातें हुईं आखिर में शाम को रघु थक कर दीवानेआम के नजदीक गार्डन में मालती की गोद में सिर रख कर उसे अपने भविष्य के सपने दिखाने लगा, तभी मालती ने कहा, ‘‘हमारी शादी ऐसे नहीं हो सकती रघु.’’ ‘‘क्यों?’’ रघु ने हैरानी से पूछा. ‘‘मेरे घर वालों और तुम्हारे मामा की वैसे भी नहीं बनती, ऊपर से यह लव मैरिज,’’ मालती ने अपनी दुविधा बताते हुए कहा. ‘‘तो चलो भाग चलें,’’ रघु ने बड़ी ही आसानी से मालती की ओर देखते हुए कहा. मंदमंद मुसकराते हुए मालती ने दुपट्टे से मुंह को ढकते हुए अपने होंठ रघु के होंठ पर रख दिए और एक खुश्क हंसी अपने होंठों पर बिखेरी. मालती की हंसी मानो कह रही हो कि वह रघु से सहमत है. अगले दिन मालती स्कूल जाने के लिए रघु के ईरिकशा पर बैठी, तो उस के स्कूल बैग में किताबों की जगह कुछ कपड़े और जरूरी दस्तावेज थे. दोनों ने भाग कर कोर्टमैरिज की और एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगे. कुछ दिन तो दोनों के परिवार वालों ने उन की तलाश की, फिर हार कर अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आए. मालती का पिता शर्मिंदा तो हुआ, पर उस के सिर से मालती की शादी का बहुत बड़ा बोझ कम हो गया था. मालती और रघु अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी खुश थे. देखते ही देखते मालती एक बच्ची की मां भी बन गई.

एक दिन रघु दोपहर को लंच करने के लिए अपने कमरे में आया. उस ने मालती को बताया, ‘‘कुछ दिनों में मेरा एक दोस्त उमेश गांव से आ जाएगा, तो उसे मैं अपना यह ईरिकशा किराए पर दे कर खुद नई ले लूंगा और ऐसे ही अपना धंधा बड़ा करता चला जाऊंगा.’’ पर बातबात पर बीड़ी पीने वाला रघु अकसर बीड़ी के पैकट पर दी हुई चेतावनी को नजरअंदाज कर जाता. रघु को कैंसर तो नहीं, पर टीबी की बीमारी ले डूबी. एक दिन बहुत ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने के चलते रघु को अस्पताल में भरती होना पड़ा. दिनोंदिन नए ईरिकशे के लिए जमा किए हुए पैसे और रघु के दिन कम होते जा रहे थे. रघु सूख कर आधा हो चुका था. तकरीबन 3 दिन सरकारी अस्पताल में लेटे रहने के बाद चौथे दिन रघु को नींद आ ही गई. वह मर चुका था. रघु की निशानी के तौर पर सिर्फ एक ईरिकशा और उस की बेटी ही मालती के पास रह गई थी. मालती गहरे गम के आगोश में अपनी जिंदगी गुजार रही थी. कमाई का भी कोई साधन न था.

मालती को अपनी और बेटी की चिंता खाए जा रही थी. मालती के मन में अकसर यह खयाल उठते, अब गुजरबसर कैसे होगी? बेटी का भविष्य क्या होगा? अकेली बेवा औरत का इस समाज में क्या होगा? ऐसे में एक दिन रघु का एक दोस्त हसन रघु के घर आया. हसन की रघु से अभी कुछ ही दिन पहले दोस्ती हुई थी. मालती ने उसे चायनाश्ता करवाया. कुछ देर वह रघु की मौत पर मौन साधे बैठा रहा, फिर असली मुद्दे पर आ गया. उस ने मालती को दिलासा दिलाते हुए कहा, ‘‘भाभीजी, आप चिंता मत कीजिए, मैं चलाऊंगा रघु भाई का यह ईरिकशा और आप को रोज पूरे 300 रुपए किराया भी दूंगा.’’ मालती को भी आज नहीं तो कल यह करना ही था, इसलिए उस ने भी इस सौदे पर हामी भरते हुए सिर हिला दिया. हसन अपने वादे मुताबिक रोज समय से मालती के घर उस का किराया देने आ जाया करता था. मालती की जिंदगी भी बस कट ही रही थी. एक दिन हसन शराब के नशे में चूर हो कर मालती को किराया देने आया. चूल्हे की आग के सामने रोटी सेंकती मालती के माथे का पसीना उस के चेहरे और गालों से होता हुआ सीधा उस के उभारों पर जा कर ठहर रहा था. यह देख कर हसन मदहोश हो गया. वह विधवा मालती को बिन मांगे ही पति का सुख देने को उतावला हो गया.

मालती ने हसन को बैठने को कहा, तो वह मौकापसंद बिस्तर पर ही पसर गया. मालती जानती थी कि इस समय वह नशे में है, इसलिए मालती अपनी बेटी के साथ वहीं नीचे बिस्तर बिछा कर सो गई. तकरीबन आधी रात को हसन मौका देख कर मालती के साथ जा लेटा और अभी हसन ने उसे छूना शुरू ही किया था कि अचानक मालती की नींद टूट गई. अपने साथ गलत काम होते देख मालती की आंखें फटी की फटी रह गईं. मालती ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई. उस रात के मंजर के बाद हसन भी अब मालती से नजरें चुराने लगा. कईकई दिनों तक किराया न देता और कभी देता भी तो 100 या 200. मालती के पूछने पर हसन कह देता, ‘‘अरे, रिकशा है, कभी टायर भी पंचर हो सकता है, कभी ब्रेक भी फेल हो सकते हैं, कभी मोटर भी खराब हो सकती है. भला है तो एक मशीन ही.’’ मालती ने कहा, ‘‘इतना कुछ पहले तो नहीं होता था वह भी रोजरोज. कुछ दिनों से ही सारी खराबियां होने लगी हैं क्या?’’ मालती के लहजे में ताना था. ‘‘अगर 300 रुपए किराया चाहिए, तो रिकशे की सारी मरम्मत खुद ही करवानी पड़ेगी.

कभी रिकशा खराब हुआ, तो तुम्हीं बनवा कर दोगी और अगर ऐसा नहीं कर सकती तो आगे से बिन बात मुंह भी मत चलाना, नहीं तो ढूंढ़ती रहना दूसरा ड्राइवर.’’ हसन को पता था कि मालती को दूसरा ड्राइवर मिलना मुश्किल था और यह बात भी जानता था कि उस ने तो उसे छोड़ दिया, पर कोई और मालती जैसी जवान विधवा को नोंचे बिना नहीं छोड़ेगा. मालती ने बिना सोचेसमझे हसन से कह दिया, ‘‘हां, छोड़ जाना रिकशा मेरे पास में, बनवा लूंगी खुद. देखती हूं कि कितने पैसे लगते हैं पंचर बनवाने में.’’ हसन अब नीचता पर उतर आया था. उस ने अगले ही दिन रिकशा के पिछले दोनों टायरों को कील से जानबूझ कर पंचर कर के चुपचाप मालती के घर के बाहर लगा दी और अंदर जा कर मालती से कहने लगा, ‘‘यह लो किराया पूरे 300 हैं. हां, और आज घर आते वक्त पिछले दोनों टायर पंचर हो गए, रिकशा बाहर खड़ा है, बनवा देना. मैं कल सुबह आ कर ले जाता हूं.’’ मालती समझ चुकी थी कि हसन अपनी उस दिन की सारी भड़ास निकाल रहा है. तभी मालती को याद आया कि शुरुआत में जब वह इस रिकशे पर रघु के साथ बैठा करती थी, तो उस ने रघु को अच्छी तरह से रिकशा चलाते हुए देखा था.

मालती ने खुद को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘रिकशा चलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है और वह भी ईरिकशा. कल हसन भी देखेगा कि आखिर यह मालती भी एक रिकशे वाले की ही बीवी है.’’ मालती ने एक्सीलेटर ऐंठा और रिकशा आगे बढ़ा. मालती को पहले से ही मालूम था कि ईरिकशे में सिर्फ एक्सीलेटर और ब्रेक ही होते हैं. ईरिकशा चलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं. जिस काम के लिए हसन उस का पूरा किराया मार लिया करता था, मालती ने वही काम सिर्फ 50 रुपए में निबटा दिया. अपना ईरिकशा खुद चला कर मालती काफी आत्मनिर्भर महसूस करने लगी. उन ने अब ठान लिया कि वह किसी का एहसान नहीं लेगी, किसी के भरोसे नहीं रहेगी. वह अब खुद मेहनतमजदूरी कर के ईरिकशा चलाएगी और अपनी बेटी को खूब पढ़ाएगी. अगले दिन सुबह हसन अपने एक आदमी होने के घमंड में मालती के यहां चला आ रहा था. वह यह सोच कर काफी खुश हो रहा था कि मालती को अब उस के सामने झुकना पड़ेगा, पर मालती ने हसन के आते ही उस का हिसाबकिताब कर उसे चलता कर दिया. अब मालती ईरिकशा खुद ही चलाने लगी. अपनी 5 साल की बच्ची को भरोसेमंद पड़ोसन के यहां छोड़ कर मालती खूब मेहनत करती. मालती को शुरुआत में दिक्कतों का सामना तो करना पड़ा, पर धीरेधीरे मालती सभी रास्तों से वाकिफ हो गई. मालती बाकी सभी रिकशे वालों से ज्यादा कमाने लगी. मालती में कोई खास बात तो नहीं, पर फिर भी उस का रिकशा हर वक्त सवारियों से लबालब भरा रहता, पर शायद इस की वजह मालती जानती थी. मालती को पता था कि कुछ लोग तो सिर्फ उस के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए या उस से बतियाने के लिए और कुछ तो मौके की तलाश में उस के रिकशे में बैठते थे. पर अब मालती को इन से कोई खतरा न था, क्योंकि वह ऐसे लोगों से निबटना खूब अच्छी तरह से सीख चुकी थी.

मालती की आमदनी अब हजारों में होने लगी. वजह कुछ भी हो, पर मालती का ईरिकशा एक पल के लिए भी खाली न रहता था. ऐसे ही एक दिन मालती के ईरिकशा पर एक आदमी बैठा. वह आदमी न जाने क्यों मालती के ईरिकशा को अजीब ढंग से घूरे जा रहा था. फिर उस ने मालती से पूछ ही लिया, ‘‘यह ईरिकशा तुम्हारा है?’’ ‘‘हां, क्यों?’’ मालती ने उस से पूछा. ‘‘कुछ नहीं, यह ईरिकशा जानापहचाना सा लगा तो पूछ लिया.’’ मालती को शक हुआ कि शायद यह रघु को जानता है, इसलिए मालती ने शक दूर करते हुए पूछ ही लिया, ‘‘क्यों आप ने कहीं किसी और के पास भी यह ईरिकशा देखा है क्या?’’ ‘‘नहीं, मेरे दोस्त रघु के पास भी ऐसा ही रिकशा था. मैं कई बार बैठ चुका हूं उस के ईरिकशे पर,’’ उस आदमी ने कहा. मालती को याद आया कि कहीं यह वही तो नहीं, जिस के बारे में उस दिन रघु ने मुझ से जिक्र किया था. मालती ने उस से उस का नाम पूछा. ‘‘उमेश नाम है मेरा. क्यों…?’’ ‘‘मैं रघु की विधवा हूं,’’ मालती की इस बात पर उमेश सन्न रह गया. एक पल को तो उसे लगा कि कहीं यह मजाक तो नहीं, पर फिर सोचा कि किसी की बीवी इतना भद्दा मजाक नहीं कर सकती. मालती उमेश को अपने घर ले कर गई. चूंकि वह रघु का दोस्त था, इसीलिए मालती से जो बन पड़ा उस से उस की मेहमाननवाजी की.

उमेश ने बताया, ‘‘रघु भैया तो मुझे अपना रिकशा किराए पर देने वाले थे, पर शायद अब मुझे कोई और काम तलाशना पड़ेगा,’’ उमेश निराश हो कर बोला. उमेश की इस बात पर मालती के मन में खिचड़ी पकी. उस ने रघु का सपना खुद पूरा करने की ठान ली. उस ने उमेश को अपने रिकशे की चाभी पकड़ाई और इस बार पूरे 400 रुपए दिन के हिसाब से ईरिकशा किराए पर दे दिया. मालती ने वैसे भी इतने दिन ईरिकशा चला कर ठीकठाक पैसे जोड़ लिए थे. वह कुछ दिनों में ही एक और रिकशे की मालकिन बन गई. मालती तरक्कीपसंद लोगों में से थी. शायद इसी वजह से महज 5 सालों में ही मालती पूरे 10 ईरिकशे की अकेली मालकिन बन चुकी थी. अब मालती की महीने की कमाई लाखों रुपए तक पहुंच गई थी. जिन मांबाप ने उन की तीसरी औलाद भी लड़की होने पर अपनी सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं, जिस मालती के भाग जाने पर उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा था, आज वही मातापिता मालती के साथ एक 3 बीएच के फ्लैट में ऐशोआराम की जिंदगी काट रहे थे. मालती की बेटी का दाखिला भी अब शहर के एक मशहूर ला कालेज में हो चुका था.

 

लेखक : हेमंत कुमार

Emotional Story : सिमरन क्यों मां नहीं बनना चाहती थी

Emotional Story : पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था. ‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’ सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं. समय बीतता रहा. दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया. सपना को अपने ही शहर में मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था. फिर एक सहपाठी से शादी के बाद वह स्थानीय अस्पताल में काम करने लगी थी. हालांकि सचिन के पापा का वहां से तबादला हो चुका था. फिर भी वह मौका मिलते ही सपना से मिलने आ जाता था. सऊदी अरब में नौकरी पर जाने के बाद भी उस ने फोन और ईमेल द्वारा संपर्क बनाए रखा. इसी बीच सपना और उस के पति सलिल को भी विदेश जाने का मौका मिल गया. जब वे लौट कर आए तो सचिन भी सऊदी अरब से लौट कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा था.

‘‘बहुत दिन लगा दिए लौटने में दीदी? मैं तो यहां इस आस से आया था कि यहां आप अपनी मिल जाएंगी. मम्मीपापा तो जबलपुर में ही बस गए हैं और आप भी यहां से चली गईं. इतने साल सऊदी अरब में अकेला रहा और फिर यहां भी कोई अपना नहीं. बेजार हो गया हूं अकेलेपन से,’’ सचिन ने शिकायत की. ‘‘कुंआरों की तो साथिन ही बेजारी है साले साहब,’’ सलिल हंसा, ‘‘ढलती जवानी में अकेलेपन का स्थायी इलाज शादी है.’’

‘‘सलिल का कहना ठीक है सचिन. तूने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ सपना ने पूछा.

‘‘सऊदी अरब में और फिर यहां अकेले रहते हुए शादी कैसे करता दीदी? खैर, अब आप आ गई हैं तो लगता है शादी हो ही जाएगी.’’

‘‘लगने वाली क्या बात है, शादी तो अब होनी ही चाहिए… और यहां अकेले का क्या मतलब हुआ? शादी जबलपुर में करवा कर यहां आ कर रिसैप्शन दे देता किसी होटल में.’’

‘‘जबलपुर वाले मेरी उम्र की वजह से न अपनी पसंद का रिश्ता ढूंढ़ पा रहे हैं और न ही मेरी पसंद को पसंद कर रहे हैं,’’ सचिन ने हताश स्वर में कहा, ‘‘अब आप समझा सको तो मम्मीपापा को समझाओ या फिर स्वयं ही बड़ी बहन की तरह यह जिम्मेदारी निभा दो.’’ ‘‘मगर चाचीचाचाजी को ऐतराज क्यों है? तेरी पसंद विजातीय या पहले से शादीशुदा बालबच्चों वाली है?’’ सपना ने पूछा.

‘‘नहीं दीदी, स्वजातीय और अविवाहित है और उसे भविष्य में भी संतान नहीं चाहिए. यही बात मम्मीपापा को मंजूर नहीं है.’’

‘‘मगर उसे संतान क्यों नहीं चाहिए और अभी तक वह अविवाहित क्यों है?’’ सपना ने शंकित स्वर में पूछा. ‘‘क्योंकि सिमरन इकलौती संतान है. उस ने पढ़ाई पूरी की ही थी कि पिता को कैंसर हो गया और फिर मां को लकवा. बहुत इलाज के बाद भी दोनों को ही बचा नहीं सकी. मेरे साथ ही पढ़ती थी मणिपाल में और अब काम भी करती है. मुझ से शादी तो करना चाहती है, लेकिन अपनी संतान न होने वाली शर्त के साथ.’’

‘‘मगर उस की यह शर्त या जिद क्यों है?’’

‘‘यह मैं ने नहीं पूछा न पूछूंगा. वह बताना तो चाहती थी, मगर मुझे उस के अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं तो उसे सुखद भविष्य देना चाहता हूं. उस ने मुझे बताया था कि मातापिता के इलाज के लिए पैसा कमाने के लिए उस ने बहुत मेहनत की, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया, जिस के लिए कभी किसी से या स्वयं से लज्जित होना पड़े. शर्त की कोई अनैतिक वजह नहीं है और वैसे भी दीदी प्यार का यह मतलब यह तो नहीं है कि उस में आप की प्राइवेसी ही न रहे? मेरे बच्चे होने न होने से मम्मीपापा को क्या फर्क पड़ता है? जतिन और श्रेया ने बना तो दिया है उन्हें दादादादी और नानानानी. फूलफल तो रही है उन की वंशबेल,’’ फिर कुछ हिचकते हुए बोला, ‘‘और फिर गोद लेने या सैरोगेसी का विकल्प तो है ही.’’

‘‘इस विषय में बात की सिमरन से?’’ सलिल ने पूछा. ‘‘उसी ने यह सुझाव दिया था कि अगर घर वालों को तुम्हारा ही बच्चा चाहिए तो सैरोगेसी द्वारा दिलवा दो, मुझे ऐतराज नहीं होगा. इस के बावजूद मम्मीपापा नहीं मान रहे. आप कुछ करिए न,’’ सचिन ने कहा, ‘‘आप जानती हैं दीदी, प्यार अंधा होता है और खासकर बड़ी उम्र का प्यार पहला ही नहीं अंतिम भी होता है.’’

‘‘सिमरन का भी पहला प्यार ही है?’’ सपना ने पूछा. सचिन ने सहमति में सिर हिलाया, ‘‘हां दीदी, पसंद तो हम एकदूसरे को पहली नजर से ही करने लगे थे पर संयम और शालीनता से. सोचा था पढ़ाई खत्म करने के बाद सब को बताएंगे, लेकिन उस से पहले ही उस के पापा बीमार हो गए और सिमरन ने मुझ से संपर्क तक रखने से इनकार कर दिया. मगर यहां रहते हुए तो यह मुमकिन नहीं था. अत: मैं सऊदी अरब चला गया. एक दोस्त से सिमरन के मातापिता के न रहने की खबर सुन कर उसी की कंपनी में नौकरी लगने के बाद ही वापस आया हूं.’’ ‘‘ऐसी बात है तो फिर तो तुम्हारी मदद करनी ही होगी साले साहब. जब तक अपना नर्सिंगहोम नहीं खुलता तब तक तुम्हारे पास समय है सपना. उस समय का सदुपयोग तुम सचिन की शादी करवाने में करो,’’ सलिल ने कहा.

‘‘ठीक है, आज फोन पर बात करूंगी चाचीजी से और जरूरत पड़ी तो जबलपुर भी चली जाऊंगी, लेकिन उस से पहले सचिन मुझे सिमरन से तो मिलवा,’’ सपना ने कहा. ‘‘आज तो देर हो गई है, कल ले चलूंगा आप को उस के घर. मगर उस से पहले आप मम्मी से बात कर लेना,’’ कह कर सचिन चला गया. सपना ने अशोक दंपती को फोन किया. ‘‘कमाल है सपना, तुझे डाक्टर हो कर भी इस रिश्ते से ऐतराज नहीं है?  तुझे नहीं लगता ऐसी शर्त रखने वाली लड़की जरूर किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त होगी?’’ चाची के इस प्रश्न से सपना सकते में आ गई.

‘‘हो सकता है चाची…कल मैं उस से मिल कर पता लगाने की कोशिश करती हूं,’’ उस ने खिसियाए स्वर में कह कर फोन रख दिया.

‘‘हम ने तो इस संभावना के बारे में सोचा ही नहीं था,’’ सब सुनने के बाद सलिल ने कहा. ‘‘अगर ऐसा कुछ है तो हम उस का इलाज करवा सकते हैं. आजकल कोई रोग असाध्य नहीं है, लेकिन अभी यह सब सचिन को मत बताना वरना अपने मम्मीपापा से और भी ज्यादा चिढ़ जाएगा.’’

‘‘उन का ऐतराज भी सही है सलिल, किसी व्याधि या पूर्वाग्रस्त लड़की से कौन अभिभावक अपने बेटे का विवाह करना चाहेगा? बगैर सचिन या सिमरन को कुछ बताए हमें बड़ी होशियारी से असलियत का पता लगाना होगा,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के घर जाने के बजाय उस से पहले कहीं मिलना बेहतर रहेगा. ऐसा करो तुम कल लंचब्रेक में सचिन के औफिस चली जाओ. कह देना किसी काम से इधर आई थी, सोचा लंच तुम्हारे साथ कर लूं. वैसे तो वह स्वयं ही सिमरन को बुलाएगा और अगर न बुलाए तो तुम आग्रह कर के बुलवा लेना,’’ सलिल ने सुझाव दिया. अगले दिन सपना सचिन के औफिस में पहुंची ही थी कि सचिन लिफ्ट से एक लंबी, सांवली मगर आकर्षक युवती के साथ निकलता दिखाई दिया.

‘‘अरे दीदी, आप यहां? खैरियत तो है?’’ सचिन ने चौंक कर पूछा.

‘‘सब ठीक है, इस तरफ किसी काम से आई थी. अत: मिलने चली आई. कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘सिमरन को लंच पर ले जा रहा था. शाम का प्रोग्राम बनाने के लिए…आप भी हमारे साथ लंच के लिए चलिए न दीदी,’’ सचिन बोला.

‘‘चलो, लेकिन किसी अच्छी जगह यानी जहां बैठ कर इतमीनान से बात कर सकें.’’

‘‘तब तो बराबर वाली बिल्डिंग की ‘अंगीठी’ का फैमिलीरूम ठीक रहेगा,’’ सिमरन बोली. चंद ही मिनट में वे बढि़या रेस्तरां पहुंच गए. ‘बहुत बढि़या आइडिया है यहां आने का सिमरन. पार्किंग और आनेजाने में व्यर्थ होने वाला समय बच गया,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के सुझाव हमेशा बढि़या और सटीक होते हैं दीदी.’’

‘‘फिर तो इसे जल्दी से परिवार में लाना पड़ेगा सब का थिंक टैंक बनाने के लिए.’’ सचिन ने मुसकरा कर सिमरन की ओर देखा. सपना को लगा कि मुसकराहट के साथ ही सिमरन के चेहरे पर एक उदासी की लहर भी उभरी जिसे छिपाने के लिए उस ने बात बदल कर सपना से उस के विदेश प्रवास के बारे में पूछना शुरू कर दिया. ‘‘मेरा विदेश वृतांत तो खत्म हुआ, अब तुम अपने बारे में बताओ सिमरन.’’ ‘‘मेरे बारे में तो जो भी बताने लायक है वह सचिन ने बता ही दिया होगा दीदी. वैसे भी कुछ खास नहीं है बताने को. सचिन की सहपाठिन थी, अब सहकर्मी हूं और नेहरू नगर में रहती हूं.’’

‘‘अपने पापा के शौक से बनाए घर में जो लाख परेशानियां आने के बावजूद इस ने बेचा नहीं,’’ सचिन ने जोड़ा, ‘‘अकेली रहती है वहां.’’

‘‘डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपना साथी है,’’ सिमरन हंसी. ‘‘आई सी…इस ने तेरे बचपन के नाम डरपोक को छोटा कर दिया है सचिन.’’ सिमरन खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं दीदी, इस ने बताया ही नहीं कि इस का नाम डरपोक था. किस से डरता था यह दीदी?’’ ‘‘बताने की क्या जरूरत है जब रातदिन इस के साथ रहोगी तो अपनेआप ही पता चल जाएगा,’’ सपना हंसी. ‘‘रातदिन साथ रहने की संभावना तो बहुत कम है, मैं मम्मीजी की भावनाओं को आहत कर के सचिन से शादी नहीं कर सकती,’’ सिमरन की आंखों में उदासी, मगर स्वर में दृढ़ता थी. सपना ने घड़ी देखी फिर बोली, ‘‘अभी न तो समय है और न ही सही जगह जहां इस विषय पर बहस कर सकें. जब तक मेरा नर्सिंगहोम तैयार नहीं हो जाता, मैं तो फुरसत में ही हूं, तुम्हारे पास जब समय हो तो बताना. तब इतमीनान से इस विषय पर चर्चा करेंगे और कोई हल ढूंढ़ेंगे.’’

‘‘आज शाम को आप और जीजाजी चल रहे हैं न इस के घर?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘अभी यहां से मैं नर्सिंगहोम जाऊंगी यह देखने कि काम कैसा चल रहा है, फिर घर जा कर दोबारा बाहर जाने की हिम्मत नहीं होगी और फिर आज मिल तो लिए ही हैं.’’

‘‘आप मिली हैं न, जीजाजी से भी तो मिलवाना है इसे,’’ सचिन बोला, ‘‘आप घर पर ही आराम करिए, मैं सिमरन को ले कर वहीं आ जाऊंगा.’’

‘‘इस से अच्छा और क्या होगा, जरूर आओ,’’ सपना मुसकराई, ‘‘खाना हमारे साथ ही खाना.’’ शाम को सचिन और सिमरन आ गए. सलिल की चुटकियों से शीघ्र ही वातावरण अनौपचारिक हो गया. जब किसी काम से सपना किचन में गई तो सचिन उस के पीछेपीछे आया.

‘‘आप ने मम्मी से बात की दीदी?’’

‘‘हां, हालचाल पूछ लिया सब का.’’

‘‘बस हालचाल ही पूछा? जो बात करनी थी वह नहीं की? आप को हो क्या गया है दीदी?’’ सचिन ने झल्ला कर पूछा. ‘‘तजरबा, सही समय पर सही बात करने का. सिमरन कहीं भागी नहीं जा रही है, शादी करेगी तो तेरे से ही. जहां इतने साल सब्र किया है थोड़ा और कर ले.’’ ‘‘इस के सिवा और कर भी क्या सकता हूं,’’ सचिन ने उसांस ले कर कहा. इस के बाद सपना ने सिमरन से और भी आत्मीयता से बातचीत शुरू कर दी. यह सुन कर कि सचिन औफिस के काम से मुंबई जा रहा है, सपना उस शाम सिमरन के घर चली गई. उस का घर बहुत ही सुंदर था. लगता था बनवाने वाले ने बहुत ही शौक से बनवाया था. ‘‘बहुत अच्छा किया तुम ने यह घर न बेच कर सिमरन. जाहिर है, शादी के बाद भी यहीं रहना चाहोगी. सचिन तैयार है इस के लिए?’’ ‘‘सचिन तो बगैर किसी शर्त के मेरी हर बात मानने को तैयार है, लेकिन मैं बगैर उस के मम्मीपापा की रजामंदी के शादी नहीं कर सकती. मांबाप से उन के बेटे को विमुख कभी नहीं करूंगी. प्रेम तो विवेकहीन और अव्यावहारिक होता है दीदी. उस के लिए सचिन को अपनों को नहीं छोड़ने दूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत ही अच्छी बात है सिमरन. चाचाचाचीजी यानी सचिन के मम्मीपापा भी बहुत अच्छे हैं. अगर उन्हें ठीक से समझाया जाए यानी तुम्हारी शर्त का कारण बताया जाए तो वे भी सहर्ष मान जाएंगे. लेकिन सचिन ने उन्हें कारण बताया ही नहीं है.’’ ‘‘बताता तो तब न जब उसे खुद मालूम होता. मैं ने उसे कई बार बताने की कोशिश की, लेकिन वह सुनना ही नहीं चाहता. कहता है कि जब मेरे साथ हो तो भविष्य के सुनहरे सपने देखो, अतीत की बात मत करो. मुझे भी अतीत याद रखने का कोई शौक नहीं है दीदी, मगर अतीत से या जीवन से जुड़े कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें चाह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, उन के साथ जीना मजबूरी होती है.’’ ‘‘अगर चाहो तो उस मजबूरी को मुझ से बांट सकती हो सिमरन,’’ सपना ने धीरे से कहा. ‘‘मैं भी यही सोच रही थी दीदी,’’ सिमरन ने जैसे राहत की सांस ली, ‘‘अकसर देर से जाने और बारबार छुट्टी लेने के कारण न नौकरी पर ध्यान दे पा रही थी न पापा के इलाज पर, अत: मैं नौकरी छोड़ कर पापा को इलाज के लिए मुंबई ले गई थी. वहां पैसा कमाने के लिए वैक्यूम क्लीनर बेचने से ले कर अस्पताल की कैंटीन, साफसफाई और बेबी सिटिंग तक के सभी काम लिए. फिर मम्मीपापा के ऐतराज के बावजूद पैसा कमाने के लिए 2 बार सैरोगेट मदर बनी. तब तो मैं ने एक मशीन की भांति बच्चों को जन्म दे कर पैसे देने वालों को पकड़ा दिया था, लेकिन अब सोचती हूं कि जब मेरे अपने बच्चे होंगे तो उन्हें पालते हुए मुझे जरूर उन बच्चों की याद आ सकती है, जिन्हें मैं ने अजनबियों पर छोड़ दिया था. हो सकता है कि विचलित या व्यथित भी हो जाऊं और ऐसा होना सचिन और उस के बच्चे के प्रति अन्याय होगा. अत: इस से बेहतर है कि यह स्थिति ही न आने दूं यानी बच्चा ही पैदा न करूं. वैसे भी मेरी उम्र अब इस के उपयुक्त नहीं है. आप चाहें तो यह सब सचिन और उस के परिवार को बता सकती हैं. उन की कोई भी प्रतिक्रिया मुझे स्वीकार होगी.’’

‘‘ठीक है सिमरन, मैं मौका देख कर सब से बात करूंगी,’’ सपना ने सिमरन को आश्वासन दिया. सिमरन ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. उस की भावनाओं का खयाल रखना जरूरी था. सचिन के साथ तो खैर कोई समस्या नहीं थी, उसे तो सिमरन हर हाल में ही स्वीकार थी, लेकिन उस के घर वालों से आज की सचाई यानी सैरोगेट मदर बन चुकी बहू को स्वीकार करवाना आसान नहीं था. उन लोगों को तो सिमरन की बड़ी उम्र बच्चे पैदा करने के उपयुक्त नहीं है कि दलील दे कर समझाना होगा. सचिन के प्यार के लिए इतने से कपट का सहारा लेना तो बनता ही है.

Online Story Telling : नीना का घर छोड़ने का फैसला सही था

Online Story Telling :  ‘‘अरे रामू घर की सफाई हुई या नहीं? जल्दी से चाय का पानी आंच पर चढ़ाओ.’’

सवेरे सवेरे अम्मां की आवाज से अचानक मेरी नींद खुली तो देखा वे नौकरों को अलगअलग निर्देश दे रही थीं. पूरे घर में हलचल मची थी. आज गरीबरथ से जया दीदी आने वाली हैं. जया दीदी हम बहनों से सब से बड़ी हैं. उन की शादी बहुत ही ऊंचे खानदान में हुई है. साथ में दोनों बच्चे व जीजाजी भी आ रहे हैं. अम्मां चाहती हैं कि इंतजाम में कोई कमी न हो.

तभी बाबूजी की आवाज आई, ‘‘अरे बैठक की चादर बदली कि नहीं? मेहमान आने ही वाले होंगे. सब कुछ साफसुथरा होना चाहिए. कभीकभी तो आ पाते हैं बेचारे. उन को छुट्टी ही कहां मिलती है.’’

तभी अम्मां की नजर मुझ पर पड़ी, ‘‘अरे नीना, तू तो ऐसे ही बैठी है और यह क्या, मुन्नू तो एकदम गंदा है. चल उठ, नहाधो कर नए कपड़े पहन और हां, मुन्नू को भी ढंग से तैयार कर देना वरना मेहमान कहेंगे कि हम ने तुम्हें ठीक से नहीं रखा.’’

अम्मां की बातें सुन कर मन कसैला हो गया. मैं भी शादी के बाद जब 1-2 बार आई थी, तब घर का माहौल ऐसा ही रहता था. पहली बार जब मैं शादी के बाद मायके आई थी, तब सब कैसे खुश हुए थे. क्या खिलाएं, कहां बैठाएं. लग रहा था जैसे मैं कभी आऊंगी ही नहीं.

लेकिन कितने दिन ऐसा आदर सत्कार मुझे मिला. ससुराल जाते ही सब को मेरी बीमारी के बारे में पता चल गया. कुछ दिनों तक तो उन लोगों ने मुझे बरदाश्त किया, फिर बहाने से यहां ला कर बैठा गए. दरअसल, मुझे सफेद दाग की बीमारी थी, जिसे छिपा कर मेरी शादी की गई थी.

फिर घर की प्यारी बेटी, जो पिता की आंखों का तारा व मां के लिए नाज थी, के साथ शुरू हुआ एक नया अध्याय. जो पिता मेरा खुले दिल से इलाज करवाते थे, उन्हें अब मेरी जरूरी दवाएं भी बोझ लगने लगीं. मां को शर्म आने लगी कि पासपड़ोस वाले कहेंगे कि बेटी मायके में आ कर ही बस गई. भाईबहन भी कटाक्ष करने से बाज नहीं आते थे.

अभी यह लड़ाई चल ही रही थी कि पति का बोया हुआ बीज आकार लेने लगा. खैर, जैसेतैसे मुन्नू का जन्म हुआ.

नाती के जन्म की जैसी खुशी होनी चाहिए, वैसी किसी में नहीं दिखी. बस एक कोरम पूरा किया गया.

धीरेधीरे मुन्नू 3 साल का हो गया. तब मैं ने भी ठान ली कि ऐसे बैठे रह कर ताने सुनने से अच्छा है कुछ काम किया जाए.

सिलाईकढ़ाई और पेंटिंग का शौक मुझे शुरू से ही था. शादी के पहले मैं ने सिलाई का कोर्स भी किया था. मैं अगलबगल की कुछ लड़कियों को सिलाई सिखाने लगी. उन को मेरा सिखाने का तरीका अच्छा लगा, तो वे और लड़कियां भी ले आईं. इस तरह मेरा सिलाई सैंटर चल निकला. ढेर सारी लड़कियां मुझ से सिलाई सीखने आने लगीं और इस से मेरी अच्छी कमाई होने लगी.

मुन्नू के 4 साल का होने पर मैं ने उसे पास के प्ले स्कूल में भरती करा दिया. अब मेरे पास समय भी काफी बचने लगा, जिस का सदुपयोग मैं अपने सिलाई सैंटर में किया करती थी. धीरेधीरे मेरा सैंटर एक मान्यता प्राप्त सैंटर हो गया. काम काफी बढ़ जाने के कारण मुझे 2 सहायक भी रखने पड़े. इस से मुझे अच्छी मदद मिलती थी.

अभी जिंदगी ने रफ्तार पकड़ी ही थी कि भैया की शादी हो गई. नई भाभी घर में आईं तो कुछ दिन तो सब कुछ ठीक रहा. मगर धीरेधीरे उन को मेरा वहां रहना नागवार गुजरने लगा.

मां अगर मुन्नू के लिए कुछ भी करतीं तो उन का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता. शुरूशुरू में तो वे कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन बाद में खुलेआम विरोध करने लगीं.

एक दिन तो हद ही हो गई. बाबूजी बाजार से मुन्नू के लिए खिलौने ले आए. उन्हें देखते ही भाभी एकदम फट पड़ीं. चिल्ला कर बोलीं, ‘‘बाबूजी, घर में अब यह सब फुजूलखर्ची बिलकुल भी नहीं चलेगी. इस महंगाई में घर चलाना ऐसे ही मुश्किल हो गया है, ऊपर से आप आए दिन मुन्नू पर फुजूलखर्ची करते रहते हैं.’’

हालांकि ऐसा नहीं था कि घर की माली हालत खराब थी. भैया कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे और बाबूजी को भी अच्छीखासी पैंशन मिलती थी. मुझे भाभी की बातें उतनी बुरी नहीं लगीं, जितना बुरा बाबूजी का चुप रहना लगा. बाबूजी का न बोलना मुझे भीतर तक भेद गया. मैं सोचने लगी क्या बाबूजी पुत्रप्रेम में इतने अंधे हो गए हैं कि बहू की बातों का विरोध तक नहीं कर सकते?

उन्हीं बाबूजी की तो मैं भी संतान थी. मेरा मन कचोट कर रह गया. क्या शादी के बाद लड़कियां इतनी पराई हो जाती हैं कि मांबाप पर भी उन का हक नहीं रहता? खैर जैसेतैसे मन को मना कर मैं फिर सामान्य हो गई. मुन्नू को स्कूल भेजना और मेरा सैंटर चलाना जारी रहा.

मेरा सिलाई सैंटर दिनबदिन मशहूर होता जा रहा था. अब आसपास के गांवों की लड़कियां और महिलाएं भी आने लगी थीं. मेरी कमाई अब अच्छी होने लगी थी, इसलिए मैं हर महीने कुछ रुपए मां के हाथ पर रख देती थी. शुरू में तो मां ने मना किया, परंतु मेरे यह कहने पर कि अगर मैं लड़का होती और कमाती रहती तो तुम पैसे लेतीं न, वे मान गई थीं. कुछ पैसे मैं भविष्य के लिए बैंक में भी जमा करा देती थी.

किसी तरह जिंदगी की गाड़ी चल रही थी. घर में भाभी की चिकचिक बदस्तूर जारी थी. मांपिताजी के पुत्रप्रेम से भाभी का दिमाग एकदम चढ़ गया था. अब तो वे अपनेआप को उस घर की मालकिन समझने लगी थीं. हालांकि मां का स्वास्थ्य बिलकुल ठीक था और वे घर का कामकाज भी करना चाहती थीं, लेकिन धीरेधीरे मां को उन्होंने एकदम बैठा दिया था.

उन्हें खाना बनाने का बहुत शौक था, खासकर बाबूजी को कुछ नया बना कर खिलाने का, जिसे वे बड़े चाव से खाते थे. लेकिन भाभी को यह सब फुजूलखर्ची लगती थी, इसलिए उन्होंने मां को धीरेधीरे रसोई से दूर कर दिया था.

मैं तो उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती थी. मुझे देखते ही वे बेवजह अपने बच्चों को मारनेपीटने लगती थीं. एक दिन मैं दोपहर को सिलाई सैंटर से खाना खाने घर पहुंची तो बाहर बहुत धूप थी. सोचा था घर पहुंच कर आराम से खाना खाऊंगी.

हाथमुंह धो कर खाना ले कर बैठी ही थी कि भाभी ने भुनभुनाना शुरू कर दिया कि कितना आराम है. बैठेबैठाए आराम से खाना जो मिल जाता है. मुफ्त के खाने की लोगों को आदत लग गई है. अरे जितना खर्च इस में लगता है, उतने में तो हम 2 नौकर रख लें.

सुन कर हाथ का कौर हाथ में ही रह गया. लगा, जैसे खाना नहीं जहर खा रही हूं. फिर खाना बिलकुल नहीं खाया गया. हालांकि जितना बन पाता था, मैं सुबह किचन का काम कर के ही सिलाई सैंटर जाती थी. लेकिन भाभी को तो मुझ से बैर था, इसलिए हमेशा मुझ से ऐसी ही बातें बोलती रहती थीं. लेकिन उस दिन उन की बात मेरे दिल को चीर गई और मैं ने सोच लिया कि बस अब बहुत हो गया. अब और बरदाश्त नहीं करूंगी.

उसी क्षण मैं ने फैसला कर लिया कि अब इस घर में नहीं रहूंगी. कुछ दिन बाद

छोटे से 2 कमरों का घर तलाश कर मैं ने अम्मांबाबूजी के घर को छोड़ दिया. हालांकि घर छोड़ते समय मां ने हलका विरोध किया था, लेकिन कब तक मन को मार कर मैं जबरदस्ती इस घर में रहती.

नए घर में आने के बाद मैं नए उत्साह से अपने काम में जुट गई. अपने घर की याद तो बहुत आती थी. मगर फिर सोचती कैसा घर, जब वहां मेरी कोई कीमत ही नहीं. खैर मैं ने अपनेआप को पूरी तरह से अपने काम में रमा लिया.

सिलाई सैंटर में लड़कियों की भीड़ ज्यादा बढ़ गई तो सैंटर की एक शाखा और खोल ली. मुन्नू भी दिनोंदिन बड़ा हो रहा था और पढ़ाई में जुटा था. पढ़ने में वह काफी होशियार था. हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता था.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. अम्मांबाबूजी का हालचाल फोन से पता चल जाता था. कभीकभार मुन्नू से मिलने के लिए वे आ भी जाते थे. अब मेरा काम बहुत बढ़ गया था.

मैं ने एक बुटीक भी खोल लिया था, जिसे हमारे सैंटर की लड़कियां और महिलाएं मिल कर चला रही थीं. मेरा बुटीक ऐसा चल निकला कि मुझे कपड़ों के निर्यात का भी और्डर मिलने लगा. मैं बहुत खुश थी कि मेरी वजह से कई महिलाओं को रोजगार मिला था.

अब मुन्नू भी एम.बी.ए. कर के मेरे आयातनिर्यात का काम देखने लगा था. उस के बारे में मुझे एक ही चिंता थी कि उस की शादी कर दूं.

एक दिन मेरे मायके की पड़ोसिन गीता आंटी मिलीं. कहने लगीं कि तुम को पता है, तुम्हारे मायके में क्या चल रहा है? मेरे इनकार करने पर उन्होंने बताया कि तुम्हारी भाभी तुम्हारे मांबाबूजी पर बहुत अत्याचार करती हैं. तुम्हारा भाई तो कुछ बोलता ही नहीं. अभी कल तुम्हारे बाबूजी मुझ से मिले थे. वे किसी वृद्धाश्रम का पता पूछ रहे थे. जब मैं ने पूछा कि वे वृद्धाश्रम क्यों जाना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं अब इस घर में एकदम नहीं रहना चाहता हूं. बहू का अत्याचार दिनबदिन बढ़ता ही जा रहा है.

सुन कर मैं रो पड़ी. ओह, मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई और मुझे पता भी नहीं चला. मेरा मन धिक्कार उठा.

यहां मेरी वजह से कई परिवार चल रहे थे और वहां मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई है. रात को ही मैं ने फैसला कर लिया, बहुत हुआ अब और नहीं. अम्मांबाबूजी को यहीं ले आऊंगी. अगले ही दिन गाड़ी ले कर मैं और मुन्नू उन को लाने के लिए घर गए. हमें देखते ही वे रोने लगे. हम ने उन्हें चुप कराया फिर साथ चलने को कहा.

अभी वे कुछ बोलते, उस से पहले ही वहां भाभी आ गईं और अपना वही अनर्गल प्रलाप करने लगीं. बाबूजी ने उन की तरफ देखा और शांति से बस इतना कहा, ‘‘हमें जाने दो बहू.’’

अम्मांबाबूजी गाड़ी में बैठ गए. मुझे लगा आज मैं हवा में उड़ रही हूं. आज मैं ने जिंदगी की जंग को जीत लिया था.

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