वे कल मूंछों पर ताव देते आए तो मैं हक्काबक्का रह गया. कारण, इस से पहले तक तो वे हर पल अपनी पूंछ पर ही ताव देते रहते थे. वैसे, औरों की पूंछों पर ताव देना तो दूर, उसे छूना उतना ही डैंजरस होता है जितना बिन सावधानी के बिजली के नंगे तार छूना.

आते ही पहली बार समाज सुधारक वाले मोड में लगे, तो मैं फिर चौंका. यार, कल तक का घोर स्वार्थी आज समाजचिंतक? पर फिर सोचा, यहां आदमी को किसी भी मोड में आते कौन सी देर लगती है? इस देश में कोई किसी भी वक्त किसी भी मोड में आ सकता है, पर आदमी के मोड में कभी नहीं आ सकता. यह सोचा तो मेरी चिंता कुछ कम हुई. आते ही वे मुझ से अपनी समाजसेवा के लिए पुख्ता जानकारी जुटाने लगे, ‘‘यार, अपने महल्ले में कितने पढ़ेलिखे बेरोजगार होंगे?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘सरकार उन को रोजगार न दे सकी, तो क्या हुआ. मेरे पास उन के लिए उन का अपना काम करने का आइडिया है. मैं नहीं चाहता मेरे देश का कोई भी अनपढ़ तो अनपढ़, पढ़ालिखा हाथ तक खाली रहे.’’

‘‘इस देश में आइडियों की कमी नहीं, मेरे दोस्त. नकारे से नकारे आदमी के पास भी ऐसेऐसे धांसू आइडिए मिल जाएंगे कि... कमी है तो बस आइडियों को मूर्तरूप देने वालों की. हवा में तो जितनी मारना चाहो, मार लो पर...’’

‘‘नहीं यार, मैं अपने आइडिए से बेरोजगारी का समूल नाश करना चाहता हूं.’’

‘‘बेरोजगारी का समूल नाश तो छोड़ो, नाश ही हो जाए तो भी...’’ कहते हुए मैं उन के आइडिए को अभी निरखपरख ही रहा था कि वे चहकते हुए बोले, ‘‘मैं पढ़ेलिखे हाथों को भी रोजगार देना चाहता हूं?’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...