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एक रिक्त कोना

सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे:

‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?

‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे.

आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरीचोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज  चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं.

5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता.

चेहरा धोते समय भूलकर भी न करें ये 6 गलतियां

अक्सर आप चेहरा धोते समय ऐसी गलतियां करती रहती हैं जिससे चेहरा साफ होने के बजाय बेजान नजर आने लगता है. ये गलतियां आपके चेहरे के लिए खतरनाक भी साबित हो सकती हैं. तो आइए बताते हैं कि चेहरा धोते समय कौन-सी सावधानियां बरतनी चाहिए.

  1. अगर आपको मेकअप उतारना है तो बजाय चेहरा धोने के आप सबसे पहले उसे कौटन से अच्छी तरह पोछ लीजिए. उसके बाद ही चेहरे को पानी से साफ कीजिए. मेकअप को सीधे पानी से धोने पर मेकअप के कण त्वचा के रोम-छिद्रों में चले जाते हैं जिससे वो बंद हो जाते हैं.
  2. चेहरा धोने का पानी न तो बहुत गर्म होना चाहिए और न ही बहुत ठंडा. बहुत अधिक ठंडा और बहुत अधिक गर्म पानी चेहरे को नुकसान पहुंचा सकता है. ऐसे में हल्के गुनगुने पानी से ही चेहरा साफ करना चाहिए.

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3. अगर आप चेहरा साफ करने के लिए स्क्रबर का इस्तेमाल करती हैं तो इस बात का ध्यान रखें कि कोमल हाथों से ही स्क्रबिंग करें. वरना चेहरे पर रगड़ के निशान भी बन सकते हैं.

4. चेहरे को बहुत अधिक धोना भी सही नहीं है. चेहरे को बार-बार धोने से चेहरे का निखार कम हो जाता है.

5. अगर आप अपना चेहरा धोने जा रहे हैं तो सबसे पहले अपने हाथों को साफ कर लीजिए. गंदे हाथों से चेहरा साफ करने का कोई फायदा नहीं है.

6. चेहरे को साबुन से तो बिल्कुल भी नहीं धोएं. अगर आपका फेसवाश खत्म हो गया है तो बजाय किसी रासायनिक पदार्थ के आप बेसन का इस्तेमाल कर सकती हैं.

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एक लड़की ऐसी भी : भाग 3

खूबसूरत काजल थोड़ी जिद्दी स्वभाव की फैशनपरस्त और आधुनिक विचारधारा वाली युवती थी. वह अपना जीवन अपने तरीके से जीना चाहती थी. आसमान में पंख फैला कर वह उड़ना चाहती थी. काजल की ये बातें न तो उस के मांबाप को पसंद थीं और न ही भाईबहनों को. इसलिए उस के पिता उसे डांट दिया करते थे. पिता की बातों से उस का मन खट्टा हो जाता था.

काजल के पड़ोस में विजय पाठक रहता था. उस का पांडेयजी के घर आनानाजाना था. वह चौरीचौरा के भोपाबाजार स्थित एयरटेल फ्रैंचाइजी पर काम करता था. काजल और उस के घर वाले यह बात जानते थे. एक दिन काजल ने अपने मन की बात विजय से कह दी कि वह भी नौकरी करना चाहती है. उस के लिए भी कहीं बात करे.

काजल की बातों को उस ने गंभीरता से लिया और वह जहां नौकरी करता था, वहां के मालिक अनूप जायसवाल से उस के लिए भी बात कर ली. अनूप ने विजय से काजल को अपने यहां नौकरी पर रखने को कह दिया.

इस तरह काजल नौकरी करने लगी. उस के पिता अनिल पांडेय को जब यह बात पता चली तो वह आगबबूला हो गए. उन्हें मोबाइल की दुकान पर काजल का नौकरी करना पसंद नहीं था. उन्होंने उसे नौकरी छोड़ देने की चेतावनी भी भी दी. लेकिन उस ने पिता की बात नहीं मानी और नौकरी करती रही.

कभीकभी काजल फिल्मी गाने गुनगुनाया करती थी. उस के स्वर में दर्द छिपा होता था. काजल के इस शौक के बारे में जान कर विजय ने उसे सुझाव दिया कि वह चाहे तो अपना स्वर सिंगिंग ऐप पर लोड कर सकती है. इस से भविष्य में उसे सिंगिंग के क्षेत्र में अवसर मिल सकता है.

विजय का यह सुझाव काजल को जंच गया और उस ने स्टार सिंगिंग ऐप पर अपने कई गाने अपलोड कर दिए. उसी ऐप पर आगरा जिले के खंदौली क्षेत्र के प्यायू खंदौली का रहने वाला हरिमोहन शर्मा भी था. उस ने भी अपने कई गाने अपलोड किए हुए थे. स्टार सिंगिंग ऐप के जरिए काजल और हरिमोहन का एकदूसरे से परिचय हुआ. यह अप्रैल, 2018 की बात है.

काजल और हरिमोहन के बीच यह परिचय जब दोस्ती में बदला तो दोनों ने एकदूसरे को अपनेअपने मोबाइल नंबर दे दिए थे. अब ऐप के बजाए दोनों सीधे फोन पर बातें करने लगे थे.

बीटेक पास हरिमोहन एक अच्छे परिवार का होनहार युवक था. 4 भाईबहनों में वह दूसरे नंबर का था. वह पढ़ने में भी अव्वल था. हरिमोहन आगरा में रह कर एक बड़े कोचिंग इंस्टीट्ट से एसएससी के विद्यार्थियों को तैयारी कराता था.

हरिमोहन सरकारी नौकरी के लिए भी तैयारी कर रहा था. अपनी तैयारी के उद्देश्य से ही वह एसएससी की कोचिंग में विद्यार्थियों को पढ़ाता था. इसी बीच उस के जीवन में काजल ने चुपके से कदम रख दिया था.

जल्दी ही काजल और हरिमोहन की दोस्ती प्यार में बदल गई. दोनों एकदूसरे से अपनी मोहब्बत का इजहार भी कर चुके थे. जब दोनों का प्यार परवान चढ़ा तो हरिमोहन दिसंबर, 2018 और मार्च, 2019 में काजल से मिलने आगरा से गोरखपुर आया और बस से गोरखपुर से चौरीचौरा पहुंचा. कुछ घंटे प्रेमिका काजल के साथ बिताने के बाद उसी दिन वह आगरा लौट आया था.

काजल से मिलने के बाद हरिमोहन की दिनचर्या ही बदल गई थी. उस ने उस के बिना जीने की कल्पना तक छोड़ दी थी. इधर काजल की भी यही स्थिति थी. दिनरात वह प्रेमी के खयालों में खोई रहती थी. अपने दिल की प्यास बुझाने के लिए वह घंटों फोन पर चिपकी रहती थी और प्यार की मीठीमीठी बातें करती थी. पहली ही भेंट में हरिमोहन ने काजल को मोबाइल गिफ्ट किया था.

जब से काजल हरिमोहन के संपर्क में आई थी, तब से उस की जीवनशैली काफी बदल गई थी. यह बात घर वाले महसूस कर रहे थे. घर वालों ने जब उस से मोबाइल के बारे में पूछा तो उस ने झूठ बोलते हुए कह दिया कि उस की एक सहेली ने गिफ्ट किया है.

लेकिन काजल की प्रेम कहानी घर वालों से ज्यादा दिनों तक नहीं छिप पाई. पिता अनिल पांडेय को छोड़ कर घर के सभी सदस्यों को उस के प्रेमप्रसंग के बारे में पता चल चुका था. मां और बड़ी बहन ने तो काजल को समझाया भी था कि वह अपनी हरकतों में सुधार लाए, नहीं तो घर में कयामत आ सकती है.

लेकिन काजल पर मां और बहनों के समझाने का कोई असर नहीं हुआ. उस ने ठान लिया था कि हरिमोहन ही उस के जीवन का शहजादा है. उस के अलावा वह किसी अन्य पुरुष को अपने जीवन में जगह नहीं दे सकती.

काजल समझ चुकी थी कि उस के घर वाले इस रिश्ते के लिए राजी नहीं होंगे, जबकि वह हरिमोहन के बिना नहीं जी सकती. ऐसे में उसे क्या करना चाहिए, वह अकसर यही सोचती रहती थी.

काजल को टीवी के क्राइम सीरियल बहुत पसंद थे. सीरियल देख कर उस के दिमाग में विचारों की उठापटक होने लगी. जल्दी ही उस ने मन ही मन एक खतरनाक योजना बना ली.

उस की खतरनाक योजना यह थी कि वह दिखाने के लिए खुद की फरजी हत्या करेगी और सारा इलजाम किसी और पर डाल देगी. घर वाले थोड़े दिन उस की याद में तड़पेंगे, फिर धीरेधीरे उसे भूल जाएंगे.

दूसरी ओर वह हरिमोहन के साथ स्वच्छंद जीवन जीती रहेगी. समय आने पर वह खुद को घर वालों के सामने आ जाएगी. घर वाले थोड़ा नाराज होंगे, लेकिन फिर उसे माफ कर अपना लेंगे.

काजल ने यह बात हरिमोहन को बता कर उसे भी योजना में शामिल कर लिया. अब उसे बस सही समय का इंतजार था. इसी बीच सीमा को ले कर काजल और विजय में विवाद हो गया था. काजल बड़ी बहन सीमा को इसलिए अपने यहां नौकरी पर नहीं रखने देना चाहती थी कि उस की योजना पर पानी फिर सकता था.

वैसे भी घर वाले उस पर दबाव डाल रहे थे कि वह नौकरी छोड़ दे. लड़कियों का मोबाइल की दुकान पर नौकरी करने को लोग अच्छी निगाहों से नहीं देखते. दूसरी ओर काजल हरिमोहन के संपर्क में बनी हुई थी और उस पर दबाव डाल रही थी कि वह उसे जल्द से जल्द अपने साथ ले जाए.

उस के घर वाले उस के बाहर निकलने पर कभी भी पाबंदी लगा सकते हैं. उस ने अपनी योजना देवरिया में रह रहे फुफेरे भाई राजमणि को भी बता दी थी. यह बात अगस्त, 2019 के आखिरी सप्ताह की थी.

योजना के मुताबिक, 10 सितंबर, 2019 की सुबह साढ़े 9 बजे काजल अपना बड़ा पर्स ले कर यह कह कर घर से निकली कि वह दुकान पर अपना हिसाब करने जा रही है. आज के बाद वह नौकरी नहीं करेगी. हिसाब कर के थोड़ी देर में घर लौट आएगी.

यह सुन कर घर वाले यह सोच कर खुश हुए कि काजल में सुधार आ रहा है. लेकिन वे यह नहीं समझ पाए कि विश्वास की जमीन पर धोखे की काली चादर बिछा कर काजल उन के दिए संस्कारों को कलंकित करने वाली है. बहरहाल, उस ने पर्स में अपने सभी सर्टिफिकेट, आधार कार्ड, बैंक पासबुक आदि जरूरी कागजात रख लिए थे, ताकि जरूरत पड़ने पर उन का इस्तेमाल कर सके.

इधर हरिमोहन चौरीचौरा आ कर टैंपो स्टैंड पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा था. जैसे ही काजल वहां पहुंची, सब से पहले उस ने उस का फोन स्विच्ड औफ करा दिया. टैंपो से दोनों कुसम्ही जंगल में स्थित वनसप्ती माता के मंदिर गए. हरिमोहन अपने साथ ग्लिसरीन और लाल रंग ले आया था.

उस ने ग्लिसरीन में लाल रंग मिला कर खून तैयार किया. जंगल के एकांत जगह पर जा कर काजल के सिर पर ग्लिसरीन से बना नकली खून उड़ेल दिया.

उस के बाद हरिमोहन ने काजल के हाथपैर और मुंह बांध कर अपने मोबाइल से 3-4 ऐंगल से फोटो खींचे, जिसे देखने से ऐसा लगे कि बदमाशों ने अपहरण कर के उस की हत्या कर लाश जंगल में फेंक दी हो.

फोटो खींचने के बाद दोनों वहां से मोहद्दीपुर आए, वहां वी मार्ट बाजार से हरिमोहन ने काजल के लिए कपडे़ खरीदे. फिर दोनों टैंपो से नौसढ़ चौराहे पहुंचे. दोनों ने वहां एक रेस्टोरेंट में नाश्ता किया. नौसढ़ से ही आगरा जाने वाली एसी बस में सवार हो कर दोनों आगरा पहुंच गए.

बीच रास्ते में हरिमोहन ने काजल का सिम तोड़ कर चलती बस से बाहर फेंक दिया और सेट भी. फिर उसी बस में बैठेबैठे उस ने काजल की नकली हत्या की सभी तसवीरें उस के पिता अनिल कुमार पांडेय के वाट्सऐप पर भेज दीं.

बहरहाल, पुलिस ने राजमणि पांडेय को भी आरोपी बना लिया. उस का दोष यह था कि वह पुलिस की गतिविधियों की सूचना काजल तक पहुंचाता रहा था. पुलिस ने काजल की सहीसलामत बरामदगी के बाद जेल में बंद विजय पाठक और अनूप जायसवाल को रिहा करा दिया.

पुलिस ने अपनी हत्या की कहानी गढ़ने, झूठे सबूत तैयार करने, पुलिस को गुमराह करने और सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने की आईपीसी की धाराओं 364, 193, 419, 468/34 और 66डी आईटी ऐक्ट में दोनों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर लिया था.

काजल और हरिमोहन ने पुलिस के सामने इकरार किया था कि जेल से छूटने के बाद दोनों शादी करेंगे. जिंदगी रहने तक एकदूसरे से कभी अलग नहीं होंगे.

कथा लिखे जाने तक दोनों आरोपी गोरखपुर मंडलीय कारागार में बंद थे. काजल के मांबाप ने बेटी से सदा के लिए संबंध तोड़ लिए. लेकिन हरिमोहन के घर वालों ने काजल को बहू के रूप में स्वीकार लिया था.

कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

92 साल की उम्र में हुआ इस एक्टर का निधन, आखिरी वक्त में दिखने लगे थे ऐसे

दिग्गज एक्टर श्रीराम लागू का पुणे में 92 साल की उम्र में निधन हो गया. उनका अंतिम संस्कार गुरुवार को किया जाएगा. श्रीराम लागू ने अपने फिल्मी करियर में सैकड़ों हिंदी और 40 से ज्यादा मराठी फिल्मों में काम किया है. श्रीराम लागू ने वो आहट: एक अजीब कहानी, पिंजरा, मेरे साथ चल, सामना, दौलत जैसी कई फिल्मों में काम किया है. आइए जानते हैं उनके करियर और निजी जिंदगी के बारे में…

चुनौतीपूर्ण भूमिका…

साल 1980 में प्रदर्शित बीआर चोपड़ा निर्देशित फिल्म इंसाफ का तराजू में सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका डाक्टर श्रीराम लागू के हिस्से में आई थी. इस फिल्म में वे ज़ीनत अमान और पद्मिनी कोल्हापुरे के बलात्कार के आरोपी राज बब्बर के वकील थे. इंसाफ का तराजू 80 के दशक की सर्वाधिक चर्चित और हिट फिल्मों में से एक थी क्योंकि बलात्कार पर इससे पहले कोई फिल्म ऐसी नहीं बनी थी जो समाज में हलचल मचाते उसे इस संवेदनशील मुद्दे पर नए सिरे और तरीके से सोचने मजबूर कर दे.

कारोबारी राज बब्बर 2 बहनों का बलात्कार करता है और उसे बचाने का जिम्मा लेते हैं क्रिमनल लायर मिस्टर चंद्रा यानि श्रीराम लागू. इस फिल्म के अदालती दृश्य काफी वास्तविक और प्रभावी बन पड़े थे. जिरह में बचाव पक्ष का वकील कैसे-कैसे घटिया और बेहूदे सवाल पीड़िता से पूछता है. यह श्रीराम लागू ने पर्दे पर जितने प्रभावी ढंग से उकेरा, वह शायद ही कोई दूसरा कलाकार कर पाता. कटघरे में खड़ी ज़ीनत अमान से यह पूछना कि बलात्कार के वक्त आरोपी के हाथ उस वक्त कहां थे, कंधों पर या जांघों पर और आपने अपने बचाव में क्या-क्या किया जैसे दर्जनों सवाल अदालतों का वीभत्स और कड़वा सच तब भी था और आज भी है. फिल्म में ज़ीनत अमान की दयनीयता पर श्रीराम लागू की क्रूरता भारी पड़ी थी. अलावा इसके इस फिल्म का यह डायलाग भी खूब चर्चित हुआ था कि अगर कोई चश्मदीद गवाह होता तो बलात्कार होता ही क्यों.

पेशे से ईएनटी सर्जन थे श्री राम लागू…

खैर यह हिन्दी फिल्म थी, इसलिए अंत सुखद ही हुआ लेकिन श्रीराम लागू ने अपने किरदार को जिस तरह से अंजाम दिया वही उनकी खूबी थी, जिसके लिए वे आज तक याद किए जाते हैं और आगे भी याद किए जाएंगे. 80 से भी ज्यादा हिन्दी फिल्मों में विभिन्न शेड्स में अभिनय करने वाले श्रीराम लागू पेशे से ईएनटी सर्जन थे और मराठी थियेटर का जाना माना नाम थे. मामूली शक्ल सूरत वाले श्रीराम लागू की एक्टिंग की अपनी एक अलग स्टाइल थी जिसे बदलने की कोशिश उन्होने कभी नहीं की. ठीक वैसे ही जैसे दूसरे उन सरीखे कई चरित्र अभिनेताओं ने नहीं की. इनमें खास नाम इफ़्तिखार, जगदीश राज, ओम प्रकाश, असित सेन, केष्टो मुखर्जी, उत्पल दत्त और एके हंगल के हैं. ये तमाम कलाकार चार दशकों तक एक से ही नजर आए और हर भूमिका में दर्शकों ने उन्हें हाथों हाथ भी लिया.

महाराष्ट्र के सतारा में जन्मे श्रीराम लागू ने पढ़ाई पुणे और मुंबई से की औए ईएनटी सर्जन बनने के बाद प्रेक्टिस करने लगे. कालेज के दिनों में उन्होंने स्टेज पर एक्टिंग की जो सराही भी गई. थियेटर तो उनकी सांस था. कुछ साल बतौर डाक्टर वे दक्षिण अफ्रीका में भी रहे, लेकिन जब भारत वापस आए तो बचपन से मन में दबी कुचली इस ख़्वाहिश को और ज्यादा नहीं रोक पाये कि फिल्मों में काम किया जाये, जिसके लिए उनके माता पिता कभी राजी नहीं हुये थे.

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42 साल की उम्र में बने एक्टर…

इस वक्त श्रीराम लागू की उम्र 42 साल थी , जाहिर है इस अधेड़वास्था में उन्हें कोई हीरो वाले रोल तो मिलते नहीं लिहाजा वे खामोशी से चरित्र अभिनेता बन गए . गंभीरता और परिपक्वता उनके चेहरे पर हमेशा पसरी रहती थी जिसके चलते वे दूसरे कलाकारों से अलग हटकर दिखते थे. शायद डाक्टरी के पेशे ने उन्हें ऐसा बना दिया था. हालांकि फिल्मों में काम हासिल करने उन्हें कोई स्ट्रगल नहीं करना पड़ा लेकिन बतौर चरित्र अभिनेता उन्हें पहचान साल 1977 में प्रदर्शित फिल्म घरौंदा से मिली. गुलजार की लिखी इस कहानी में बढ़ते शहरीकरण के साइड इफेक्ट और बिल्डर्स की ठगी और बेइमानिया दर्शाई गईं थीं. अमोल पालेकर और ज़रीना बहाव प्यार करते हैं लेकिन मुंबई में उनके पास घर नहीं है इस कशमकश को बेहद खूबसूरत तरीके से निर्देशक भीमसेन ने घरौंदा में दिखाया गया था .

मिला बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर पुरुस्कार…

एक घर हासिल करने के लिए ज़रीना बहाव, अमोल पालेकर के कहने पर अपने बूढ़े लेकिन रईस बॉस मिस्टर मोदी यानि श्रीराम लागू से शादी कर लेती है, लेकिन शादी के बाद उसके भारतीय संस्कार उसे पति को धोखा देने से रोकते हैं और वह उससे ही प्यार करने लगती है. अमोल पालेकर बेचारा हाथ मलता रह जाता है. फिल्म का गाना, दो दीवाने शहर में रात में और दोपहर में आशियाना ढूंढते हैं…… खूब पॉपुलर हुआ था और आज भी शिद्दत से सुना और गुनगुनाया जाता है. इस फिल्म के आखिरी दृश्य में श्रीराम लागू को हार्ट अटैक आता है जिसे उन्होंने इतने जीवंत तरीके से जिया था कि हाल में बैठे दर्शकों को वे सचमुच में मरते से लगे थे. फिल्म समीक्षकों ने इस दृश्य को जबरदस्त करार दिया था. मिस्टर मोदी के किरदार के बाबत श्रीराम लागू को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर पुरुस्कार भी मिला था .

लावारिश का गंगू गनपत… 

घरौंदा की जबरदस्त कामयाबी के बाद भी उन्हें उल्लेखनीय रोल नहीं मिले, लेकिन कई भूमिकाओं को उन्होंने अपने अभिनय के दम पर उल्लेखनीय बना दिया. इनमें से एक है प्रकाश मेहरा निर्देशित और अमिताभ बच्चन अभिनीत 1981 में प्रदर्शित फिल्म लावारिस, जिसने बॉक्स ऑफिस पर हाहाकार मचा दिया था. लावारिस फिल्म में श्रीराम लागू की भूमिका दूसरे कलाकारों के मुक़ाबले काफी छोटी थी. वे लावारिस हीरो के पिता बने थे जो दिन रात शराब के नशे में धुत अपने सौतेले बेटे को गलियां देता रहता है.

गंगू गनपत का यह किरदार अनूठा था जिसमें वह बार बार हरामी, कुत्ता और नाली के कीड़े जैसी गालियां एक खास अंदाज में बका करता है. तब अमिताभ बच्चन का करियर और शोहरत दोनों शबाब पर थे पर श्रीराम लागू गंगू गनपत को जीते उनके सामने बिलकुल नहीं लड़खड़ाये थे. इस फिल्म के डायलौग कादर खान ने लिखे थे जिन्होने पहली बार नाजायज औलाद की जगह नाजायज बाप शब्द का प्रयोग किया था . इस छोटी सी भूमिका में श्रीराम लागू ने जान डाल दी थी और हैरत की बात यह है कि व्यक्तिगत जीवन में वे शराब और सिगरेट जैसे नशे से परहेज करते थे.

फिर 2 साल बाद आई निर्देशक सावन कुमार टाक की फिल्म सौतन जिसके संवाद जाने माने साहित्यकार कमलेश्वर ने लिखे थे. राजेश खन्ना , टीना मुनीम , पद्मिनी कोल्हापुरे , प्रेम चोपड़ा और प्राण सरीखे नामी सितारों के सामने उनके पास करने कुछ खास नहीं दिख रहा था.  लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों और फिल्मी पंडितों ने एक सुर में माना था कि श्रीराम लागू ने गोपाल के किरदार में अपनी प्रतिभा से जान डाल दी है. इस फिल्म में वे पदि्मिनी कोल्हापुरे के पिता बने थे. दरअसल में यह भूमिका ऐसे अधेड़ गरीब दलित की थी जिसकी परित्यक्ता बेटी पर चारित्रिक लांछन रईसों ने लगा रखा है. एक दयनीय दलित पिता के इस रोल को दर्शकों ने खूब सराहा था तो तय है इसलिए कि यह पात्र और श्रीराम लागू का अभिनय दोनों वास्तविकता के काफी नजदीक थे.

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विलेन भी बने…

दूसरी कई फिल्मों में वे छोटी मोटी भूमिकाओं में दिखे, लेकिन अधिकांश में उन्हें अभिनय प्रतिभा दिखाने का मौका नहीं मिला और इसका अफसोस भी उन्हें कभी नहीं रहा. 1982 में सुभाष घई की फिल्म विधाता में वे खलनायक बने थे पर दर्शकों ने उन्हें इस रूप में ज्यादा पसंद नहीं किया था. हालांकि हास्य को छोड़कर तमाम भूमिकाएं उन्होंने बेहद सहज तरीके से निभाईं इसीलिए वे एक सहज कलाकार फिल्म इंडस्ट्री में माने जाते थे जो आमतौर पर पब्लिसिटी से दूर ही रहता था. 90 के दशक में वे हिन्दी फिल्मों में न के बराबर दिखे और जिनमे दिखें वे सब की सब सी ग्रेड फिल्में थीं .

मराठी थियेटर और सिनेमा से मिली पहचान…

हिन्दी फिल्मों से ज्यादा पहचान उन्हें मराठी थियेटर और सिनेमा से मिली. पिंजरा , सिंहासन और सामना उनकी यादगार मराठी फिल्में हैं. नट सम्राट वह पहला नाटक है जिसकी भूमिका के लिए वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे. इस के लेखक विष्णु वामन शिरवाडकर को साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिला था. इस नाटक में श्रीराम लागू ने गणपत बेलवलकर की भूमिका निभाई, जिसे मराठी थियेटर में मील का पत्थर माना जाता है. इस नाटक से ताल्लुक रखती दिलचस्प बात यह किवदंती है कि गणपतबेलवलकर का रोल इतना कठिन है कि जिस किसी कलाकार ने भी इसे निभाना चाहा वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया. खुद श्रीराम लागू भी इस रोल को करने के बाद हार्ट अटैक की गिरफ्त में आ गए थे. शायद इसीलिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने उन्हें श्रद्धांजलि देते नट सम्राट ही कहा .

नाम और पैसा तो खूब मिला लेकिन नहीं मिली पहचान…

ऐसा लगता है कि व्यावसायिक सिनेमा के फेर में पड़कर वे थियेटर से दूर होते चले गए, हालांकि इस बात को उन्होंने एक इंटरव्यू में बेमन से नकारा था लेकिन अपनी आत्म कथा लमन जिसका मतलब माल ढोने वाला होता है में उनका यह दर्द झलका था.

समाजसेवी अन्ना  हज़ारे से वे खासे प्रभावित थे और कुछ वक्त वहैसियत सामाजिक कार्यकर्ता भी उन्होने गुजारा लेकिन उल्लेखनीय कुछ नहीं कर सके.उनकी पत्नी दीपा भी नामी कलाकार रहीं हैं. हिन्दी फिल्मों से श्रीराम लागू को नाम और पैसा तो खूब मिला लेकिन वह पहचान नहीं मिल पाई जिसके कि वे हकदार थे और ज़िंदगी भर उसके लिए बैचेन भी रहे. शायद ऐसे ही मौकों के लिए मशहूर शायर निदा फाजली ने यह गजल गढ़ी होगी कि – कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता ….

एडिट बाय-निशा राय

मुख्यमंत्री ने संभाला भाजपा का विद्रोह

17 दिसम्बर को जब देश भर में लोग ‘नागरिकता बिल’ और ‘जेएनयू में पुलिस की बर्बरता‘ के खिलाफ सडको पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे उसी समय उत्तर प्रदेश की विधानसभा में भाजपा के ही एक सौ से अधिक विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहे थे. इससे साफ पता चलता है कि पार्टी और देश में लोकतंत्र की बात करने वाली भाजपा कितना लोकतांत्रिक रह गई है. सत्ता के दबाव में आवाज को कमजोर किया जा सकता है पर दबाया नहीं जा सकता.

मौका मिलते ही विरोधी स्वर पहले से अधिक मजबूत होकर मुखर हो जाते है. मुख्यमंत्री से बातचीत के बाद यह लड़ाई भले ही दब जाये पर अंदर सुलग रहा विरोध का स्वर फिर भड़क सकता है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के 100 से अधिक विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ विधानसभा में ही धरने पर बैठ गये. कई स्तर की वार्ता के बाद भी जब भाजपा विधायक अपने ही दल के संसदीय कार्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री की बात मानने को तैयार नहीं हुये तो विधानसभा का सदन पूरे दिन के लिये स्थगित कर दिया गया.

भाजपा इस घटना को विधायक नंद किशोर गुर्जर से ही जोड़ कर देख रही है. असल में यह मसला भाजपा के दूसरे विधायकों का भी है. डर वश यह विधायक अपने ‘मन की बात‘ नहीं कह पा रहे थे जैसे ही उनको विधायक नंद किशोर गुर्जर के साथ पुलसिया उत्पीड़न का पता चला वह एक जुट हो गये. भाजपा में पार्टी के विधायको का यह विद्रोह तमाम विधायकों का दर्द है. मौका मिलते ही सभी विधायको ने एकजुट होकर पार्टी के खिलाफ धरना दे दिया.

भाजपा के विधायकों का यह दर्द है कि मुख्यमंत्री स्तर पर उनकी बात सुनी नहीं जा रही है. संगठन स्तर पर वह सनील बंसल तक अपनी बात नहीं पहुंचा पा रहे है. भाजपा के मंत्री तक उनकी बात सुन नहीं रहे है. ऐसे में यह दर्द जब ब-सजय गया तो नंद किशोर गुर्जर के बहाने बाहर आ गया. विधायक अकेले अकेले स्तर पर यह बात कहते रहते हैं पर उनकी बात को अनसुना किया गया.

भाजपा में धर्म का सहारा लेकर सारे मुददों को दरकिनार करने का काम किया जाता है. बारबार विधायकों को यह सम-हजयाया जाता है कि चुनाव वह धर्म के मुददे पर ही जीत कर आये है. धर्म के मुददे पर विधायक भी खामोश हो जा रहे थे. जैसे ही इन विधायकों को सहारा मिला सभी के विरोध के स्वर बुलंद हो गये.

नंद किशोर गुर्जर का विवाद गाजियाबाद जिले के लोनी विधानसभा से विधायक नंद किशोर गुर्जर पर एक फूड इंसपेक्टर ने आरोप लगाया कि उस पर मीट की दुकान बंद कराने के लिये दबाव डाल रहे थे. ऐसा ना करने पर उससे मारपीट की गई. इसका औडियो वायरल हो गया. इसके बाद विधायक और उनके समर्थकों पर मुकदमा कायम हो गया. भाजपा ने भी विधायक के खिलाफ कारण बताओं नोटिस जारी किया. विधायक का कहना है कि उन पर सारे आरोप गलत थे. विधायक का आरोप है कि पुलिस ने उनको घर से उठवाने की धमकी दी. नंद किशोर गुर्जर पहले पार्टी नेताओं से इस बारे में बात कर चुके थे. अपने खिलाफ बात कर चुके थे. जब पार्टी स्तर पर बात नहीं बनी तो नंद किशोर गुर्जर ने इस बात को सदन में उठाने का प्रयास किया.

संसदीय कार्यमंत्री सुरेश खन्ना ने जब नंद किशोर गुर्जर को संदन में यह बात कहने की अनुमति नही दी तो वह अपनी जगह से ही कहने की कोशिश करने लगे. प्रदेश सरकार के मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी और सुरेश राणा ने नंद किशोर गुर्जर को सम-हजयाने का प्रयास किया. नंद किशोर गुर्जर के साथ भाजपा के 100 से अधिक विधायक समर्थन देने लगे तो साथ में विपक्ष के विधायक भी शामिल हो गये. ऐसे में 200 से अधिक विधायक भाजपा की सरकार के खिलाफ नारे लगे. तीन बार अलग अलग चरणों में विधायक नंद किशारे गुर्जर को सम-हजयाने का प्रयास भाजपा नेताओं के द्वारा किया गया.

नंद किशोर तो बहाना है, सत्ता पक्ष के विधायक अपने एक साथी के साथ खुलकर इस तरह से अपनी ही सरकार और संगठन के खिलाफ खडे हो गये. उत्तर प्रदेश के इतिहास में यह सबसे बड़ी घटना है. विधायक सरकार के कामों से परेशान है. विधायकों के आरोप है कि प्रशासन उनकी सुनता नहीं. एसपी नही थानेदार तक उनकी नहीं सुनता है. ऐसे में वह सभी दुखी और परेशान है. जिससे मौका मिलते ही अपनी ही पार्टी के खिलाफ खडे हो गये. असंतो-नवजया दबाने के लिये नंद किशोर गुर्जर से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही मुलाकात कराई गई.

मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद मामला भले ही ठंडा पड जाये पर इससे भाजपा के अंदर बने हालत खुलकर बाहर आ गये है. भाजपा अब अनुशासन ने नाम पर अपने ही विधायकों के खिलाफ कुछ कडे कदम उठाने का विचार भी कर रही है. जिससे आगे कोई विधायक इस तरह की हालत पैदा ना कर सके. विरोध के स्वर मौका पाते फिर नहीं भडकेगे इसकी गांरटी नहीं ली जा सकती.

मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग

रानवजयट्रीय लोकदल के नेता अनिल दुबे का मानना है कि भाजपा की सरकार ने विधानसभा में अपना बहुमत खो दिया है. उसके विधायक पार्टी के विरोध में खडे है. ऐसे में मुख्यमंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिये. समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि ‘जहां सत्ता पक्ष के विधायक ही दुखी है वहा जनता कितना खुश है यह सोचने वाली बात है.‘

छोटी सरदारनी: क्या मेहर के बच्चे का सारा सच जान पाएगी हरलीन?

कलर्स के शो छोटी सरदारनी में मेहर की प्रेग्नेंसी का खुलासा हो चुका है. गिल फैमिली में खुशी का माहौल है. हर कोई मेहर और सरब को बधाई दे रहा है, लेकिन अब लगता है शो में जल्द ही इन खुशियों पर ग्रहण लगने वाला है. आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आने वाला ट्विस्ट…

मेहर ने किया हरलीन से वादा

पिछले एपिसोड में आपने देखा कि प्रैग्नेंसी के चलते हरलीन मेहर का ख्याल रखना शुरू कर देती है, इससे मेहर अपने आप में शर्मिंदगी महसूस होने लगती है. मेहर हरलीन से कहती है कि जब उसे जरूरत हो तो वह कुछ भी मांग सकती है.

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मेहर की प्रैग्नेंसी रिपोर्ट लगी हरलीन के हाथ

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पार्टी में परम मेहर की प्रेग्नेंसी रिपोर्ट लेकर आता है, जो हरलीन के हाथ लग जाती है. लेकिन हरलीन के हाथ लगी प्रैग्नेंसी रिपोर्ट में ऐसा क्या था, जिसे देखकर वह हैरान रह जाती है.

क्या पूरा सच पता कर पाएगी हरलीन

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हरलीन को अपनी आंखो पर भरोसा नही हो रहा है, वो विश्वास नही कर पा रही है की मेहर की रिपोर्ट में जो उसने देखा वह सच है.

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इसी के साथ ये देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या हरलीन मेहर की प्रैग्नेंसी से जुड़ा पूरा सच पता लगा पाएगी? जानने के लिए देखते रहिए ‘छोटी सरदारनी’, सोमवार से शनिवार, रात 7:30 बजे, सिर्फ कलर्स पर.

गौभक्ति का उन्माद

गाय, गौभक्त, गौरक्षक की आड़ में धार्मिक उन्माद, सामाजिक वैमनस्यता, मानवों में भेदभाव आदि फैलाने की राजनीति करती भारतीय जनता पार्टी सत्ता पर काबिज हो गई है. कुछ छोटी राजनीतिक पार्टियां, जो ऐसी राजनीति नहीं करती हैं, सत्ता के लालच में उन पार्टियों के संग सत्ता की भागीदार बनी हुई हैं. वहीं, सर्वधर्म समभाव की राजनीति करने वाली पार्टियां सत्ताधारियों से खुल कर लोहा लेने से कतरा रही हैं, बहुसंख्य मतदाताओं के भटक जाने का डर जो उन्हें है. यह है देश में आज का राजनीतिक परिदृश्य.

धार्मिक पुस्तकों में गाय के बारे में सकारात्मक बातें हैं तो नकारात्मक भी दर्ज हैं. बल्कि, यों कहें कि धार्मिक ग्रंथों में विपरीत बातें मौजूद हैं. इस में शक नहीं कि गाय का दूध पौष्टिक होता है. उस के बच्चे, जिसे बछड़ा कहते हैं, बड़ा हो कर खेतीकिसानी के काम आता है. इसलिए, गौधन को उपयोगी धन कहा जाता है.

हिंदू धर्म के कुछ मतों के अनुसार, गौदान सर्वश्रेष्ठ दान है. और दान केवल ब्राह्मणों को दिया जाता है. गौदान की महिमा से कुछ हिंदूग्रंथ भरे पड़े हैं, उन में गाय की जो महिमा की गई है वह सम झ से परे है.

गोरखपुर के गीता प्रैस द्वारा प्रकाशित कल्याण के गौसेवा अंक (1995) को तो गौदान महिमा के लिए ही प्रकाशित किया गया था, इस में लिखा था कि लोग गौदान में कंजूसी न करें क्योंकि ऐसा करने से पिछली सात व अगली सात पीढि़यों को स्वर्ग मिलने की गारंटी है. ?यह पाठकों के मन में बैठाया गया. इस प्रकार के प्रचार के बल पर 50-60 वर्षों बाद भाजपा आज अपनी मंजिल पा पाई है.

‘‘गौदान करने से मनुष्य अपनी सात पीढ़ी पितरों का और सात पीढ़ी आने वाली संतानों का उद्धार करता है.’’

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(महाभारत अनु. पर्व 74/8)

आगे कहा गया, पाप धोने के लिए गौदान तो डिटर्जेंट पाउडर की तरह है.

‘‘जो गायबैल दान करता है वह सब पापों से छूट जाता है और उत्तम लोक प्राप्त करता है.’’

(महा. अनु. 71/51, 76/20)

लेकिन दान पाने वाले को दूध से मतलब है, बूढ़ी गाय की देखभाल से नहीं. इसलिए व्यवस्था है, बूढ़ी, रोगग्रस्त, दुबलीपतली, दूध न देने वाली और बिना बछड़े की गाय दान नहीं करनी चाहिए. अच्छे स्वभाव वाली, जवान, बछड़े वाली और दुधारू गाय ही ब्राह्मण को दान करनी चाहिए.’’

(स्कंद पुराण प्रभास खंड 208, कल्याण गौसेवा अंक)

‘‘गाय का शृंगार ऐसा हो कि सोनाचांदी भी दान में मिल सके.’’

‘‘जो व्यक्ति गाय के सींगों को सोने से, खुरों को चांदी से, पीठ पर तांबा चढ़ा कर, कांसे का बरतन दूध दुहने के लिए और गहनेकपड़ों से सजा कर ब्राह्मण को दान करता है, वह सदा विष्णुलोक में निवास करता है.’’

गौदान करने से पुरखे तर जाते हैं और देवता प्रसन्न होते हैं. इसे चालाकी कहा जाएगा कि ब्राह्मण को देने वाली गाय देवता को अर्पित कराई जाती है अर्थात नाम देवता का हो और उस का उपभोग ब्राह्मण ही करे. गरुणपुराणकार श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण को गाय दान कराता है.

‘‘गौदान च ततो दद्यात् पितृणां तारणाय वै.

गौरेषा हि मया दत्ता प्रीतये तेज्स्तु माधव.’’       (ग. पुराण 12/13)

स्पष्ट है गौदान से स्वर्ग की गारंटी मिलना ब्राह्मणों की साजिश है, ताकि मुफ्त का गौधन उन्हें मिलता रहे.

गौमांस के सेवन पर काफी तथ्य हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं पर जो समाज झूठी आस्थाओं और मान्यताओं पर टिका हो वह इन्हें मानने को तैयार ही नहीं होता. हत्या करने वाले का सिर फोड़ना उन्हें तर्क देने से ज्यादा सरल लगता है.

अब गौमांस नहीं खाने वाले हिंदू गौभक्त हो चुके हैं. लेकिन मुसलमान और ईसाई गौमांस से परहेज नहीं करते हैं. अगर कहीं गौधन कट जाता है तो गौभक्त बावेला मचा देते हैं. इस बावेले से हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हुआ है, जिस से हिंदूवादी पार्टियां सत्ता पर कब्जा करने में सफल हो गई हैं. इस प्रकार गौभक्ति का मूल लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना बन चुका है अर्थात कहीं निगाहें और कहीं निशाना वाली कहावत चरितार्थ हुई है.

गाय की पूंछ पकड़ कर ही भाजपा ने सत्ता प्राप्त की है. गाय के नाम पर विधर्मियों के प्रति जितनी घृणा फैलाई जाएगी, उतनी ही तेजी से हिंदू वोटों का धु्रवीकरण होगा और हिंदूवादी पार्टी यानी भाजपा को फायदा मिलेगा. इसी स्वार्थ के कारण गौभक्ति ने उन्माद का रूप ले लिया. गौभक्ति का यह उन्माद निर्दोर्षों का और देश का बहुत अहित कर रहा है.

पशु व चमड़ा व्यवसाय चौपट

ग्रामीण जगत में कृषि के बाद पशु व्यापार सदियों से चला आ रहा है. यह व्यापार अधिकतर मेवाती मुसलमानों के हाथों में है. हाटबाजारों में पशुओं का क्रयविक्रय होता है. पशुओं को इधर से उधर लानेलेजाने में मालिकों की अपेक्षा मजदूरों की संख्या अधिक रहती है, जिस से हजारों गरीबों की रोजीरोटी इस व्यापार से चलती है.

मध्य प्रदेश में ही क्या, लगभग पूरे ही देश में गौवध अब प्रतिबंधित है लेकिन हिंदूवादी संगठनों से जुड़े भाजपा के लोग यह प्रदर्शन करते हैं कि हम ही गौरक्षक हैं और उन की सरकार ने ही पूर्व में गौवध बंद किया है. बिक्री के लिए ले जाए जाने वाले पशु  झुंड को देखते ही ये लोग शोर मचा देते हैं कि यह पशुधन कटने जा रहा है.

मोदी सरकार के पिछले व मौजूदा कार्यकाल में ‘मौब लिंचिंग-मौब लिंचिंग’ का शोर गूंज रहा है. गांवदेहातों में खौफ फैला हुआ है. देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि हिंदू और मुसलमान एकदूसरे को शक की निगाह से देखने लगे हैं. हिंदू समाज को भड़काने और उन के दिमाग में यह बिठाने की कोशिश की जा रही है कि मुसलमान सिर्फ गायों को मारते हैं. हिंदुत्वहिंदुत्व का शोर मचा कर मुसलमानों और दलितों की हत्या का खौफनाक खेल खेला जा रहा है. देश में गौरक्षकों के नाम पर हत्यारों के गिरोह पैदा हो गए हैं. इन के जरिए गुंडागर्दी फैला कर लोगों में भय पैदा किया जा रहा है. इन के जरिए भावनाओं को भड़का कर धु्रवीकरण किया जा रहा है.

हरियाणा के नूह जिले के कोलगांव में रोतीकलपती अस्मीना को जा कर देखिए. उस के 26 साल के जवान बेटे रकबर को इन गौरक्षकों ने पीटपीट कर मार डाला था. उस की आंखों से आज भी बेटे को याद कर के जारजार आंसू बहते हैं. उस के जवान बेटे का कुसूर क्या था? वह सीधासादा ग्वाला अपने पिता और दोस्त के साथ बाजार से दुधारू गाएं खरीद कर ला रहा था. गायभैंस से तो उस का घर चलता था, उन्हीं का दूध बेच कर 7 बच्चों के परिवार को उस की मां अस्मीना ने पाला था.

अस्मीना और उस का बेटा रकबर अपने जानवरों से प्यार करता था. मगर गायों को प्यार करने वाले, उन को सानीपानी देने वाले, उन को तालाब पर ले जा कर रोज नहलाने वाले, दिनरात उन से प्यारदुलार करने वाले रकबर को गौरक्षकों ने गौतस्कर घोषित कर के लाठीडंडों से पीटपीट कर मार डाला. रकबर के दर्द की कल्पना ही थर्रा देती है. और आज तक उस को मारने वाले खुले घूम रहे हैं, क्योंकि उन्हें सत्ता की शह मिली हुई है.

सितंबर 2015 में दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या ने पूरी दुनिया में सनसनी मचा दी थी. बूढ़े अखलाक को   गौरक्षकों ने यह कह कर मार दिया कि उन के घर में गाय का गोश्त रखा है. उन के छोटे बेटे को मारमार कर अधमरा कर दिया. फोरैंसिक रिपोर्ट आने के बाद पता चला कि उन के घर की फ्रिज से जो मांस मिला था, वह गाय का नहीं, बल्कि बकरे का था. आज अखलाक के बड़े बेटे सरताज, जो भारतीय एयरफोर्स के अधिकारी हैं, अपने निर्दोष पिता के कत्ल पर इंसाफ पाने के लिए अदालत के चक्कर लगा रहे हैं. उन की मां और छोटे भाई की हालत ठीक नहीं है. किस ने दिया इस निर्दोष परिवार को इतना दुख? यह देश में गुंडाराज चलाने वाले लोगों की शह का नतीजा है कि अखलाक की हत्या करने वालों के नाम तक चार्जशीट से हटा दिए गए हैं.

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अखलाक से ले कर अब तक डेढ़ सौ से ज्यादा लोग मौबलिंचिंग में मारे जा चुके हैं. गौरक्षा के नाम पर देशभर में अराजकता, अपराध और दहशत का माहौल बना हुआ है. गुजरात में 200 से अधिक ऐसे गौरक्षक समूह हैं जो अपनी आक्रामकता के कारण कानूनव्यवस्था के लिए चुनौती बने हुए हैं.

गौर करने वाली बात है कि मोदी सरकार के बीते कार्यकाल में बीफ का एक्सपोर्ट पिछली सरकारों के मुकाबले सब से ज्यादा रहा है. भाजपा राज में यह बहुत तेजी से बढ़ा है. यह भी गौर करने वाली बात है कि देश में सब से बड़े बूचड़खाने किसी मुसलमान या दलित के नहीं हैं, बल्कि इन के मालिक जैन और हिंदू लोग हैं. फिर ये गौरक्षक बीफ एक्सपोर्ट कंपनियों के मालिकों तक क्यों नहीं पहुंच पाते? मोदी सरकार इन बूचड़खानों को क्यों नहीं बंद करवा देती है? उन के लाइसैंस क्यों नहीं रद्द कर दिए जाते हैं? गौरक्षा की चिंता में इंसानों की हत्या करने वाले आखिर बीफ एक्सपोर्ट को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव क्यों नहीं बनाते?

मोदी सरकार ऐसा कभी चाहती ही नहीं है, क्योंकि यह धंधा नेताओं और व्यापारियों की कमाई का बड़ा स्रोत है. हैरत की बात है कि गोवा, जहां भाजपा की सरकार थी, में बीफ पर कोई पाबंदी नहीं थी. इन के ही मंत्री किरन रिजुजू और गोवा के तब के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर, जो बीफ के मुद्दे पर भाजपा से अलग राय रखते थे, के पीछे ये गौरक्षक कभी नहीं पड़े. न ही किसी भाजपाई ने बीफ खाने वाले इन भाजपा नेताओं की कभी निंदा की. इसलिए नहीं की क्योंकि भाजपा के लिए गाय सिर्फ सियासी धंधा है. इन्हें गायों की फिक्र न कभी थी, न है. गुजरात में जहरीला चारा खा कर 16 गाएं मर गईं. कौन जिम्मेदार है? कहां हैं ये गौरक्षक? क्यों नहीं पकड़ कर मारा उन को, जिन्होंने गायों को जहरीला चारा दिया?

27 अगस्त, 2017 को छत्तीसगढ़ में गौशाला चलाने वाले भाजपा के जमुल नगर पंचायत उपाध्यक्ष हरीश वर्मा की गौशाला से मरी हुई गायों के सैकड़ों शव और कंकाल निकले. उन कंकालों पर मौजूद बचाखुचा मांस कुत्ते नोच रहे थे. चारों तरफ सड़ांध फैली हुई थी. गौशाला में बड़ी संख्या में गाएं भूखीप्यासी मर गईं. गौशाला के नाम पर, गायों की सेवा के नाम पर हरीश ने 93 लाख रुपए सरकारी कोष से लिए. फिर भी गायों को सानीभूसी नहीं मिली. गौशाला में वैसे ही बूढ़ी, लाचार और बीमार गाएं लाई जाती हैं, ऐसे में अगर उन को वहां भी दानापानी न मिले तो कैसे तड़पतड़प कर मर जाती हैं, यह सोच कर ही आंसू निकल आते हैं.

हरीश वर्मा के पास एक तालाब है, जिस में मांगुर मछली पलती है. यह मछली मांस खाती है, इसलिए वह गौशाला में भूखप्यास से मरी हुई गायों को तालाब में डाल देता था और लोगों को पता ही नहीं चलता था. जब उस का तालाब बंद हुआ तब गायों के कंकाल सामने आए. कहां थे तब ये बजरंग दल वाले गौरक्षक?

गाय के नाम पर इस देश में सिर्फ राजनीति होती रही, मारपीट, दंगे, हत्याएं होती रहीं. मगर भाजपा राज में गायों के लिए कुछ नहीं हुआ. राजस्थान के जालौर जिले से 27 जुलाई, 2017 को भारी वर्षा के कारण एक गौशाला में 700 गाएं मर गईं. गौशाला में भूखप्यास के कारण गाएं इतनी अशक्त हो गई थीं कि उठ तक नहीं पाईं. जहां बैठी थीं वहीं पानीकीचड़ में सन गईं और मर गईं. बारिश के कारण चारा नष्ट हो गया. 3,300 गाएं घायल हो गईं.

वर्ष 2016 के जुलाई माह में जयपुर के हिंगोनिया गौशाला में 500 गायों की मौत हुई. साफ है कि देशभर में गौशालाओं में गायों को रखने के लिए बुनियादी ढांचा तक मुहैया नहीं है. गायों को मां का दर्जा देने वालों ने ही उन के चारागाहों पर कब्जे कर के बड़ीबड़ी कालोनियां खड़ी कर ली हैं. देशभर में गायों को चरने के लिए हरी घास के चारागाह गायब हो चुके हैं.

हरियाणा में 368 गौशालाएं हैं. 212 लाख गाएं हैं. 1950-52 में चकबंदी के दौरान पंचायती जमीन में चारागाहों के लिए जो जमीनें छोड़ी गई थीं, उन सभी पर अब कब्जा हो चुका है. बड़ीबड़ी कालोनियां, दुकानें और सरकारी दफ्तर बन गए हैं. पंचायत और विकास विभाग के पास कब्जे की रिपोर्टें भी हैं, लेकिन कोई इस पर कार्यवाही नहीं करना चाहता. आखिर ऐसी जगहों पर क्यों नहीं दिखाई देते गौरक्षा का नारा देने वाले?

बीते साल छत्तीसगढ़ में 200 से अधिक गायों की भूख और कुपोषण से मौत हो गई. किसी ने ललकारा क्यों नहीं? देशभर में सड़क दुर्घटनाओं में और पोलिथीन खाखा कर हजारों गाएं मरती हैं. सड़क दुर्घटना से मरने वाली गायों की संख्या को ले कर तो कोई आंकड़ा ही इस सरकार के पास नहीं है. क्या सड़कों पर लावारिस घूम रही गायों के लिए कुछ नहीं किया जाना चाहिए? गौरक्षा का नारा देने वालों को गायों के साथ हो रहे ये अत्याचार दिखाई नहीं देते?

अफसोसनाक है कि आज युवावर्ग को बरगला कर उस की सारी ऊर्जा गाय के नाम पर बेवकूफ बनाने और नफरत की राजनीति फैलाने के लिए खर्च की जा रही है. गौरक्षा के नाम पर आम लोगों को वहशी भीड़ में बदला जा रहा है. मोदी सरकार ने गाय के नाम पर आयोग बना दिए, मंत्रालय बना दिए, करोड़ों रुपए अपने मंत्रियोंअधिकारियों की जेबों में भर दिए, मगर गाय का भला न हुआ. सिर्फ भावनाएं भड़का कर निर्दोष मुसलमानों और दलितों का कत्ल हुआ. बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण और बुनियादी समस्याओं से देश की जनता का ध्यान भटकाने के लिए मोदीराज में गाय का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है. गाय वोट देती है, गाय नोट देती है, गाय, दरअसल, उन के लिए सिर्फ सियासी धंधा भर है.इस प्रकार चमड़ा व हड्डी व्यापार भी चौपट है.

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उपभोक्ताओं पर संकट

गौभक्ति के उन्माद की सजा छोटे किसानों व उपभोक्ताओं को भुगतनी पड़ रही है. छोटे किसानों की कृषि आज भी बैलों पर निर्भर है. पशु व्यापार ठप होने से उन्हें अच्छे बैल नहीं मिलते. उन्हें औनेपौने दामों में अनचाहे बैलों को खरीदना पड़ता है.

गौभक्ति की सजा उपभोक्ताओं को बहुत महंगी पड़ रही है. दुधारू पशु न मिलने से दूध का उत्पादन घट चुका है. पहले जो दूध 15-16 रुपए लिटर मिलता था, अब वह 45 रुपए लिटर मिल रहा है. बच्चे दूध को तरसते हैं. होटल व्यवसाय ठप होने की कगार पर है. सहकारी दुग्ध डेयरियों को इतना घाटा हो रहा है कि कर्मचारियों को वेतन देने के लाले पड़ रहे हैं. पूरी तरह से शुद्ध घी मिलना बंद हो चुका है.

सोचना यह है कि जब ब्राह्मण बूढ़ी गाय को कसाई को बेचते हैं तब गौभक्त क्यों चुप रहते हैं? बूढ़ी गाय बेचने वाले हिंदुओं को सख्त सजा देने की मांग क्यों नहीं उठाई जाती है?

जो लोग गाय पालते हैं वे दूध दुहने के बाद उसे डंडा मार कर भगा देते हैं.

33 करोड़ देवों का यह पुंज नालियों की टट्टी, पन्नी,

कचरा आदि खा कर सड़कों पर आवारा फिरता है और आवागमन में बाधक बनता है.

पशुधन का तड़प कर मरना

गौभक्ति के उन्माद से बचने के लिए व्यापारियों ने अब अनुपयोगी (बूढ़े) पशुओं को खरीदना बंद कर दिया है. जब पशु अपनेआप उठनेबैठने योग्य नहीं रहते तो मालिक उन्हें एकांत जगह में छोड़ कर उन के जिंदा रहते ही उन्हें तिलांजलि दे देते हैं.

ऐसे जानवरों की मृत्यु देखी नहीं जाती है. भूखेप्यासे एक ही स्थान पर पड़े रहते हैं, कीड़े पड़ जाते हैं.

कौआ, चील, गिद्ध आदि चोंच मारते हैं, कुत्ता, सियार व अन्य हिंसक जानवर उन की खालें खींचते हैं.

सोचना यह है कि बूढ़े पशुओं को महीनों तड़पातड़पा कर मारना अच्छा है या एक  झटके में प्राण लेना? क्या यही गौभक्ति है? ऐसी तड़प से बचने के लिए आज असाध्य रोगों से पीडि़त व्यक्ति तक सरकार से इच्छामृत्यु का अधिकार मांग रहे हैं.

हां, गौरक्षा के नाम पर खूब कमाई हो रही है. गौसदनों को सरकारी पैसा मिल रहा है और अंधविश्वासी लोगों से चंदा भी. गौभक्ति के उन्माद से लोगों की रोजीरोटी छिन रही है, उपभोक्ता परेशान हैं, सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं, भ्रष्टाचार पनप रहा है और बूढ़े पशुओं की तड़प देख कर हृदय कांप उठता है.

बिहाइंड द बार्स : भाग 3

नोरा को चाय देकर मृणालिनी नहाने-धोने बैरक के बाहर बने स्नानागारों की ओर चली गयी. वह साढ़े पांच फुट लम्बी, सुन्दर नैन-नक्श वाली जवान और धाकड़ औरत थी. तीन साल पहले जब वह मानव तस्करी का दोष साबित होने पर इस जेल में आयी थी, तब अपनी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देती थी. जेल नियमों के अनुसार हर बैरक में तीन कैदी रखे जाते हैं. अपनी बैरक में मृणालिनी बड़ी ठसक के साथ आधी से ज्यादा जगह हथिया कर रहती थी.  खाने की लाइन में सबसे आगे लगती थी. शौचालय-स्नानागार का इस्तेमाल भी वह बाकी कैदी औरतों से पहले करती थी. दूसरी औरतें भले अपनी बारी के इंतजार में घंटों लाइन में खड़ी रहें, मगर मृणालिनी के पहुंचते ही सब पीछे हट जाती थीं. किसी ने कुछ कहा नहीं कि मृणालिनी का पारा चढ़ जाता था और ज्यादा चढ़ा तो हाथ भी उठ जाता था. पीट-पीट कर अधमरा कर देती थी. मां-बहन की गालियां तो ऐसे फर्राटे से बकती थी कि खूंखार और बदजुबान कहे जाने वाले पुलिस अधिकारी भी शरमा जाएं.

मगर जेल अच्छे-अच्छों के दिमाग ठिकाने लगा देती है. मृणालिनी ने फाइव स्टार होटलों की चमक से लेकर इस कालकोठरी के अन्धकार तक सारे  रंग देख लिये हैं. जेल में मृणालिनी की दबंगई का ज्वार भी साल खत्म होते-होते उतर गया. ‘सुख के सब साथी, दुख में न कोए’ इसका अहसास उसे जेल आने के बाद भलीभांति हो चुका था. साल होते-होते उसका सारा जोश ठंडा पड़ गया. जब पहली बार उसकी गिरफ्तारी हुई थी तब उसने सोचा था कि अपनी ऊंची पहुंच के चलते वह पलक झपकते ही जेल से बाहर आ जाएगी. वह सोचती थी कि अपराध की जिस काली कमाई से उसने अपने घरवालों और दोस्तों की तिजारियों भरी हैं, वे जल्दी ही उसे इन सलाखों से बाहर निकाल लेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सजा मिलने के बाद तो उसके ससुरालियों ने पूरी तरह उससे नाता तोड़ लिया और जिस पति ने उसकी काली कमाई पर अपना करोड़ों का व्यवसाय खड़ा कर लिया था उस पति ने भी उसकी ओर पलट कर नहीं देखा. जिन दोस्तों के साथ वह धंधा करती थी, वह तो ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींघ. किसी ने उसका साथ नहीं दिया. बड़े-बड़े धनाड्य और पावरफुल लोग जो कभी उसके एक इशारे पर नाचते थे, जितना पैसा बोलती थी सिर के बल आकर देते थे, उन्होंने पहचानने तक से इंकार कर दिया.

मृणालिनी की जिन्दगी संगीन अपराधों में लिप्त रही थी. वह अपने गिरोह के साथ सुन्दर और जवान औरतों की खरीद-फरोख्त का धंधा करती थी. दूर-दराज के गांवों से नाबालिग लड़कियां  उठवाती थी और हरियाणा-राजस्थान के सुदूर इलाकों में बड़े किसानों-ठेकेदारों को बेचती थी. छोटी उम्र की लड़कियों को चकलाघरों तक पहुंचाने में मृणालिनी को महारत हासिल थी. इस मामले में तो वह धंधे से जुड़े पुरुषों को भी पीछे छोड़ चुकी थी. बड़े-बड़े नेताओं-अधिकारियों तक उसने पहुंच बना ली थी. नेताओं, जजों, पुलिस अधिकारियों, व्यापारियों को उसने भरपूर सेवाएं दीं. कम उम्र की हसीनाओं की लम्बी-चौड़ी फौज मृणालिनी के पास थी, जिन्हें वह जिस्म के सौदागरों के पास भेजकर मोटी रकम वसूलती थी. इस पापकर्म से उसने खूब पैसा कमाया. दो-दो मकान बना लिये. बैंक बैलेंस बढ़ा लिया. उसके कारण उसका पति करोड़ों के बिजनेस में खेलने लगा. लेकिन पाप का घड़ा कभी न कभी तो भरता है और फूटता है. मृणालिनी के पाप का घड़ा भी जल्दी ही भर गया. जिस वक्त वह पकड़ी गयी उसके कब्जे से पुलिस ने ग्यारह नाबालिग बच्चियों को छुड़ाया, जिन्हें देश के अलग-अलग गांवों से अगवा करके कई दिनों से भूखा-प्यासा मृणालिनी ने घर के तहखाने में बंद कर रखा था. वह इन लड़कियों का सौदा राजस्थान के देह सौदागरों के साथ पक्का कर चुकी थी. अबकी बार बहुत मोटी कमाई होनी थी, लेकिन उससे पहले ही मृणालिनी की मुखबिरी हो गयी और वह रंगे हाथों पकड़ी गयी.

सजा होने के बाद मृणालिनी के धंधे से जुड़े तमाम लोग तितर-बितर हो गये. उसके सास-ससुर ने यह कह कर उससे किनारा कर लिया कि वह क्या करती है, इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं है क्योंकि वह ससुराल में कम ही आती थी, ज्यादातर तो अपनी मां के साथ उसी घर में रहती है जहां तयखाने में लड़कियां मिली हैं. मृणालिनी के पैसे से अपना बिजनेस स्थापित करने वाला उसका पति भी इस बात से पूरी तरह मुकर गया कि उसे मृणालिनी के धंधे के बारे में कुछ भी मालूम है. सालों केस चला और मृणालिनी को सजा हो गयी. उसका पति आज तक उससे मिलने जेल नहीं आया. हां, काफी टाइम तक उसकी मां ही उससे मिलने जेल आती रही, लेकिन अब उसका आना भी बंद हो चुका है. बेचारी बूढ़ी और बीमार औरत आज अपने बुढ़ापे में बिल्कुल अकेली रह गयी है. पेट पालने के जुगाड़ में लगी रहती है. मृणालिनी भले अपराध के दलदल में फंसी थी, लेकिन अपनी मां का अकेला सहारा थी. वह सहारा उनसे छिन गया है. मृणालिनी अपनी मां को याद करके कभी-कभी सारी रात रोती है. उन्होंने मृणालिनी को बहुत समझाया था कि गलत रस्ता छोड़ दे. जो कुछ वह कर रही है उसका गम्भीर परिणाम भुगतना पड़ेगा, मगर मृणालिनी ने कभी अपनी मां की सुनी ही नहीं. उसके सिर पर तो दौलत कमाने का भूत सवार हो गया था. वह ऐसे धंधे में उतर चुकी थी जिसकी कमाई देखकर उसे अच्छे-बुरे की समझ कुंद पड़ गयी थी.

मृणालिनी जेल आने के बाद कुछ वक्त तक काफी ठसक में रही, लेकिन अब तो ऐसा लगता है जैसे वह अपने गुनाहों का पश्चाताप कर रही हो. हालांकि जेल में आने के बाद उसने अपनी दबंगई की जो छाप दूसरी कैदी औरतों के ऊपर डाली थी, वह छाप अभी मिटी नहीं है. उसकी कद-काठी देखकर औरतों को उससे बात करते अब भी डर लगता है. तमाम औरतें उसका हुकुम मानती हैं. जेल में वह लेडी डॉन है. उसकी बात को काटने की हिम्मत किसी औरत में नहीं है. हालांकि अब मृणालिनी जेल में बंद ज्यादातर औरतों के साथ घुलमिल गयी है. जरूरतमंद औरतों की मदद भी बढ़चढ़ कर करती है. कल रात भी उसने नोरा की डिलिवरी में बहुत तत्परता दिखायी. उसका दिमाग न चलता तो बच्चे की नाल काटने का इंतजाम भी न हो पाता. नाल न कटती तो पता नहीं सुबह तक जच्चा-बच्चा जीवित भी बचते या नहीं. सुबह सारी औरतें मृणालिनी की तत्परता के गुन गा रही थीं. दस बजे जब जेल की डॉक्टर ने नोरा और उसके बच्चे का मुआयना किया तो दोनों ही स्वस्थ थे. डॉक्टर ने कुछ दवाएं लिख कर दीं, जो काउंटर पर जाकर मृणालिनी ले आयी थी.

एक लड़की ऐसी भी : भाग 2

इस के बाद सीओ सुमित शुक्ला ने काजल की लाश वाली तसवीर कंप्यूटर में एनलार्ज कर के देखी तो वे हैरत में पड़ गए. तसवीर में काजल के सिर के जिस भाग से खून बह रहा था, वहां उस के सिर में चोट का कोई निशान नजर नहीं आ रहा था.

हैरानी वाली बात तब सामने आई, जब उस के सिर से बहे खून का निरीक्षण किया गया. पड़ताल के दौरान पता चला कि माथे पर खून जैसा दिखने वाला पदार्थ कुछ और था. क्योंकि वह खून होता तो सूख कर काला पड़ जाता, जबकि ऐसा नहीं हुआ था. यह बात पुलिस को शक करने पर मजबूर कर रही थी. इस सब से सीओ सुमित शुक्ला को यह मामला पूरी तरह संदिग्ध लगने लगा.

काजल हत्याकांड संदिग्ध लगते ही सीओ सुमित शुक्ला और थानाप्रभारी नीरज राय ने काजल के घर से दुकान आने वाले रास्ते पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज की जांच की. उन फुटेज में काजल कहीं भी नहीं दिखी.

पुलिस ने फिर से काजल की काल डिटेल्स की जांच की तो पता चला उस के घर से निकलने के कुछ देर बाद ही यानी साढ़े 9 बजे उस का मोबाइल स्विच्ड औफ हो गया था. तब से उस का फोन लगातार बंद आ रहा था. पुलिस विजय और अनूप से काजल के बारे में फिर से पूछताछ करने जेल पहुंची. पूछताछ के दौरान विजय और अनूप ने पुलिस को बताया कि 10 सितंबर को काजल ड्यूटी पर आई ही नहीं थी. यह सुन कर पुलिस और भी परेशान हो गई.

पुलिस इस सोच में थी कि घर से निकली काजल दुकान नहीं पहुंची तो कहां गई? इस सवाल का जवाब पाने के लिए पुलिस जेल से लौट कर सीधे अनिल पांडेय के घर पहुंची. पुलिस ने इस बार पांडेय परिवार के सभी सदस्यों से अलगअलग पूछताछ की. पूछताछ में किसी के बयान एकदूसरे से जरा भी मेल नहीं खा रहे थे.

काजल को ले कर पुलिस अफसरों के दिमाग में जो शक था, वह अब यकीन में बदलता जा रहा था. इस पूछताछ के दौरान पुलिस को काजल के एक ऐसे सच के बारे में पता चला, जिस से पुलिस को विश्वास हो गया कि काजल की हत्या नहीं हुई है, बल्कि वह स्वेच्छा से किसी के साथ चली गई है. मतलब काजल जिंदा है.

पुलिस के लिए काजल चुनौती बन गई थी. किसी भी सूरत में उसे जिंदा बरामद करना जरूरी था. पुलिस को इस बात का यकीन था कि काजल परिवार के किसी न किसी सदस्य से बात जरूर करेगी, इसलिए पुलिस ने अनिल पांडेय, उन की पत्नी और बड़ी बेटी सीमा तीनों के मोबाइल सर्विलांस पर लगा दिए. इस की जानकारी परिवार के किसी भी सदस्य को नहीं थी.

पुलिस की मेहनत रंग लाई. 13 सितंबर को सीमा के मोबाइल पर देवरिया जिले के खुखुंदू निवासी उस के फुफेरे भाई राजमणि पांडेय का फोन आया. राजमणि ने सीमा से काजल के मामले में चल रही पुलिस जांच की जानकारी मांगी तो उस ने विस्तार से उसे पूरी बात बता दी.

पुलिस को राजमणि के बातचीत के अंदाज से उस पर संदेह हो गया. पुलिस ने राजमणि का भी मोबाइल नंबर सर्विलांस पर लगा दिया. इस से पुलिस को काजल की लोकेशन फिरोजाबाद की मिली.

काजल की लोकेशन फिरोजाबाद मिलते ही पुलिस टीम काजल को जिंदा बरामद करने फिरोजाबाद रवाना हो गई. पुलिस फिरोजाबाद पहुंची तो पता चला कि कुछ देर पहले ही काजल वहां से जा चुकी थी.

इस का मतलब साफ था कि कोई था, जो पुलिस की पलपल की सूचना काजल तक पहुंचा रहा था. इसी वजह से फिरोजाबाद गई पुलिस टीम खाली हाथ गोरखपुर लौट आई.

इस बीच पुलिस को काजल का नया फोन नंबर मिल गया था. पुलिस ने वह नंबर भी सर्विलांस पर लगा दिया. 15 सितंबर की सुबह सर्विलांस के जरिए काजल के फोन की लोकेशन बस स्टैंड के पास मिली. पुलिस की एक टीम सादे कपड़ों में बस स्टैंड जा पहुंची और बस स्टैंड को चारों ओर से घेर लिया ताकि वह भाग न सके.

नीले रंग की फ्रौक और उसी से मैच करता लाल रंग का प्लाजो पहने एक गोरीचिट्टी खूबसूरत युवती और एक इकहरे छरहरे बदन का युवक बस स्टैंड परिसर में खड़े किसी के आने का इंतजार कर रहे थे. उन के हावभाव से पुलिस को दोनों पर शक हुआ.

शक के आधार पर पुलिस दोनों के पास पहुंची और इतना ही कहा कि तुम्हारा लुकाछिपी का खेल खत्म हुआ काजल. यह सुन कर दोनों वहां से भागने की कोशिश करने लगे. लेकिन पुलिस ने दोनों को धर दबोचा और उन्हें हिरासत में ले कर थाना चौरीचौरा ले आई. काजल के साथ पकड़ा गया युवक काजल का प्रेमी हरिमोहन था.

काजल के जिंदा होने की सूचना थानाप्रभारी नीरज राय ने सीओ सुमित शुक्ला और एसएसपी डा. सुनील गुप्ता को दे दी. काजल के जिंदा और सहीसलामत बरामदगी की सूचना मिलते ही सीओ सुमित शुक्ला गोरखपुर से चौरीचौरा थाने पहुंच गए. उन्होंने काजल से सख्ती से पूछताछ की.

काजल बिदांस हो कर सीओ शुक्ला के एकएक सवाल का जवाब देती चली गई. उस के जवाब सुन कर शुक्लाजी दांतों तले अंगुलियां दबाते रह गए. पूछताछ के बाद उसी दिन शाम 3 बजे उन्होंने थाना परिसर में प्रैस कौन्फ्रैंस कर के काजल हत्याकांड के नाटक से परदा उठा दिया था.

प्रैस कौन्फ्रैंस के बाद पुलिस ने काजल और हरिमोहन को अदालत में पेश किया, जहां से दोनों को जेल भेज दिया गया. काजल को अपने किए पर तनिक भी मलाल नहीं था. काजल और हरिमोहन से की गई पुलिसिया पूछताछ में कहानी कुछ इस तरह सामने आई—

45 वर्षीय शिक्षक अनिल कुमार पांडेय मूलरूप से उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर के चौरीचौरा इलाके के ओमनगर मोहल्ले के रहने वाले थे. उन के परिवार में पत्नी सलोनी के अलावा 3 बेटियां और 2 बेटे थे. अनिल कुमार पांडेय एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक थे.

अनिल पांडेय के पांचों बच्चों में दूसरे नंबर की काजल अन्य भाईबहनों से थोड़ी अलग थी. ग्रैजुएशन कर चुकी काजल का मन आगे की पढ़ाई में नहीं लग रहा था, इसलिए उस ने आगे की पढ़ाई छोड़ दी और घर पर ही रहने लगी.

मांबाप उस के इस फैसले से खुश नहीं थे. उस के पिता ने आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उसे समझाया भी, लेकिन वह आगे की पढ़ाई के लिए तैयार नहीं हुई.

जायकेदार मखनी मटर मसाला

आज आपको मखनी मटर मसाला की रेसिपी बताते हैं, जो आप पार्टी के दौरान भी सर्व कर सकती हैं. इसे चावल या रोटी के साथ गर्मागर्म घर पर आए मेहमानों को परोसें और खुद भी आनंद लें. तो चलिए जानते हैं जायकेदार मखनी मटर मसाला की रेसिपी.

सामग्री

1 कप मटर उबले हुए

1 बड़ा चम्मच अदरक व लहसुन पेस्ट

1-2 हरीमिर्चें कटी

1 आलू

1 बड़ा चम्मच फ्रैश क्रीम या मलाई

तलने के लिए तेल

1/4 छोटा चम्मच गरम मसाला

1/4 छोटा चम्मच हलदी पाउडर

1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर

1 बड़ा चम्मच घी

1 टमाटर कटा हुआ

नमक स्वादानुसार

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बनाने की विधि

आलू को धो कर छील लें. फिर इस के बड़े टुकड़े काट कर गरम तेल में डीप फ्राई कर लें. उबले मटर, अदरक व लहसुन पेस्ट, हरीमिर्च व टमाटर एकसाथ पीस लें.

कड़ाही में घी गरम कर हलदी, धनिया पाउडर, 1/4 चम्मच नमक व गरममसाला डाल कर भूनें. इस में उबले मटर का पेस्ट डाल कर भून लें.

फिर इसमें 3/4 कप पानी डाल कर उबलने दें. तले आलू के टुकड़े डालें व फ्रैश क्रीम डाल कर आंच से उतार लें. चावलों के साथ सर्व करें.

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– व्यंजन सहयोग : अनुपमा गुप्ता

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