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Story : भेड़ की खाल में भेडि़या

मौल की सीढि़यां उतरते वक्त मैं बेहद थक गई थी. अंतिम सीढ़ी उतर कर खड़ेखड़े ही थोड़ा सुस्ताने लगी. तभी पीछे से एक मोटरसाइकिल तेजी से आई. उस पर पीछे बैठे नवयुवक ने झपट्टा मार कर एक झटके से मेरे गले से सोने की चेन तोड़ ली और पलक झपकते ही मोटरसाइकिल गायब हो गई.

मेरे मुंह से कोई बोल फूट पाते, इस से पहले ही एकदो प्रत्यक्षदर्शी ‘चोरचोर’ कहते मोटरसाइकिल के पीछे भागे पर 5 मिनट बाद ही मुंह लटकाए वापस लौट आए. चिडि़या उड़ चुकी थी. मेरे चारों ओर भीड़ जमा होने लगी. कोलाहल बढ़ता ही जा रहा था. थकान और घुटन के मारे मुझे चक्कर से आने लगे थे. इस से पहले कि मैं होश खो कर जमीन पर गिरती, 2 मजबूत बांहों ने मुझे थाम लिया.

‘‘हवा आने दीजिए आप लोग…पानी लाओ,’’ बेहोश होने से पहले मुझे ये ही शब्द सुनाई दिए. मैं ने पलकें झपकाते हुए जब फिर से आंखें खोलीं तो भीड़ छंट चुकी थी. एकदो लोग कानाफूसी करते खड़े थे. मैं मौल की अंतिम सीढ़ी पर लेटी थी और मेरा सिर एक युवक की गोद में था. हौलेहौले एक फाइल से वह मुझ पर हवा कर रहा था.

‘‘कैसी तबीयत है, मांजी?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं,’’ कहते हुए मैं ने उठने का प्रयास किया तो उस ने सहारा दे कर मुझे बिठा दिया.

‘‘माताजी, चेन पहन कर मत निकला कीजिए. अब तो पुलिस में रिपोर्ट लिखाने से भी कुछ नहीं होना…वह तो शुक्र मनाइए कि चेन ही गई, गरदन बच गई…’’ आसपास खड़े लोग राय दे रहे थे. मेरे पास चुप रहने के सिवा कोई चारा न था, जबकि मन में आक्रोश फूटा पड़ रहा था. ‘यही है आज की जेनरेशन…देश का भविष्य. हट्टेकट्टे नौजवान बुजुर्गों का सहारा बनने के बजाय उन्हें लूट रहे हैं? भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ा रहे हैं.’

‘‘कहां रहती हैं आप? मैं छोड़ देता हूं,’’ युवक अब तक खड़ा हो गया था.

‘‘यहीं मौल के पीछे वाली गली में.’’

‘‘बाइक पर बैठ जाइए आप? मुझे पीछे से मजबूती से पकड़ लीजिएगा.’’

मैं ने कहना तो चाहा कि मैं पैदल चली जाऊंगी पर चंद कदमों का फासला मीलों का सफर लगने लगा था. इसलिए मैं ने उस युवक की बात मान लेने में ही भलाई समझी. बाइक चली तो ठंडी हवा के झोंके से तबीयत और भी संभल गई. पुराने दिनों की यादें ताजा हो उठीं जब रीना और लीना को ले कर उन के पापा के संग स्कूटर पर पिक्चर देखने और खरीदारी करने जाती थी. रीना आगे खड़ी हो जाती थी और लीना मेरी गोद में. स्कूटर के स्पीड पकड़ते ही संयुक्त परिवार की सारी जिम्मेदारियां, चिंताएं पीछे छूट जाती थीं और खुली हवा में मन एकदम हल्का हो जाता था. कभीकभी तो बिना किसी विशेष काम के ही मैं दोनों बच्चियों को लाद कर इन के संग निकल पड़ती थी. जिंदगी की उन छोटीछोटी खुशियों का मोल अब समझ में आता है.

‘‘बस, यहीं नीले गेट के बाहर,’’ मिनटों का फासला सैकंडों में ही तय हो गया था.

‘‘अरे, यहां तो ताला लगा है?’’ युवक ने चौंक कर पूछा.

मैं ने हंसते हुए चाबी निकाल ली. चेन जाने का गम काफी हद तक अब कम हो गया था.

‘‘वह इसलिए कि मैं अकेली ही रहती हूं. आओ, अंदर आओ,’’ ताला खोल कर मैं उसे अंदर ले गई. फ्रिज से पानी की बोतल निकाली. खुद भी पिया और उसे भी पिलाया. युवक बैठक में सजी तसवीरें देख रहा था, ‘‘ये मेरे पति हैं, जो अब नहीं रहे. और ये दोनों बेटियां और उन का परिवार. दोनों यूरोप में सैटल हैं. 2 बार मुझे भी वहां ले जा चुकी हैं पर मैं महीने भर से ज्यादा वहां नहीं रह पाती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, ऐसे ही…मन ही नहीं लगता. दामाद मां जैसा ही स्नेह और सम्मान देते हैं, पर मेरा मन तो यहां इंडिया में ही अटका रहता है. पता नहीं ये मेरे अंदर छिपे दकियानूसी भारतीय संस्कार हैं या कुछ और…वैसे यहां मेरा वक्त बहुत अच्छे से गुजर जाता है. पूजापाठ, आसपास की औरतों, बहूबेटियों से गपशप…कभी वे आ जाती हैं, कभी मुझे बुला लेती हैं… लो, मैं भी क्या अपनी ही गाथा ले कर बैठ गई. चाय पिओगे या शरबत?’’

‘‘बस, कुछ नहीं. अस्पताल जा रहा…’’

‘‘अस्पताल क्यों? कोई बीमार है?’’ मैं बीच में ही बोल पड़ी.

‘‘अरे, नहीं. मैं डाक्टर हूं. ड्यूटी पर जा रहा था. यहां से तीसरी गली में नालंदा स्कूल के पास रहता हूं. कभी फुरसत में आऊंगा आप की चाय पीने.’’

‘‘अच्छा बेटा, मदद के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘क्या मांजी, आप भी बेटा कहती हैं और धन्यवाद देती हैं,’’ वह मुसकराया और किक लगा कर चलता बना.

अंदर आ कर चाय के कप समेटते मुझे खयाल आया कि मैं ने उस का नाम तो पूछा ही नहीं. अजीब भुलक्कड़ हूं. अपनी सारी रामायण बांच दी और भले आदमी का नाम तक नहीं पूछा. इसीलिए तो रीना व लीना को हमेशा मेरी चिंता लगी रहती है. मैं अपने ही खयालों की दुनिया में खोई सोचने लगी, ‘मां, आप बहुत सीधी और सरल हैं. ठीक है, आसपड़ोस अच्छा है, रिश्तेदार भी संभालते रहते हैं. पर आप हमारे पास आ कर रह जाएं तो हम निश्ंिचत हो जाएं.’

‘मैं यहां बहुत खुश और मजे से हूं मेरी बच्चियों. मुझे अपनी जड़ों से मत उखाड़ो वरना मैं मुरझा जाऊंगी. जब तुम मेरी उम्र की होओगी तभी मेरी भावनाओं को समझ पाओगी,’’ दोनों बेचारी मायूसी में विदा हो जातीं.

दोनों दामादों के साथ दोनों बेटियां भी अच्छी नौकरी में हैं. किसी चीज की कमी नहीं है. मैं जब भी कुछ देना चाहती हूं, वे नम्रता से अस्वीकार कर देते हैं. बस, नातीनातिनों को ही दे कर मन को संतुष्ट कर लेती हूं. पिछली बार जब दोनों आईं तो मैं बैंक से अपने सारे गहने निकाल लाई.

‘तुम दोनों ये बराबरबराबर बांट लो. मुझ पके आम का क्या भरोसा? कब टपक जाऊं?’ दोनों ने पिटारी समेटी और फिर से मेरी झोली में रख दी.

‘हमारे तो शादी वाले गहने भी यहां इंडिया में ही पड़े हैं, मां. वहां इन सब का कोई काम नहीं है आप ही इन्हें बदलबदल कर पहना करें. थोड़ी हवा तो लगेगी इन्हें.’ मेरी पिटारी ज्यों की त्यों वापस लौकर में पहुंचा दी गई थी. दोनों दामाद भी मेरी बराबर परवा करते थे. अभी कल ही छोटे दामाद ने याद दिलाया था, ‘मम्मी, आप के रुटीन चैकअप का वक्त हो गया है. कल करवा आइएगा. मलिक को बोल दिया है न?’ मलिक हमारा विश्वासपात्र आटो वाला है. कभी भी, कहीं भी फोन कर के बुला लो, मिनटों में हाजिर हो जाएगा. यही नहीं, पूरे वक्त बराबर साथ भी बना रहेगा. घर का ताला खोल कर, सामान सहित अंदर पहुंचा कर ही वह लौटेगा.

अगले दिन वह वक्त पर आ गया था लेकिन ड्यूटी पर डाक्टर नदारद था. मुझे बैंच पर बैठा कर वह डाक्टर का पता करने गया. तभी सफेद कोट पहने, गले में स्टेथेस्कोप लटकाए वही युवक मुझे नजर आ गया.

‘‘अरे, मांजी? आप यहां? सब ठीक तो है?’’

‘‘हां, रुटीन चैकअप के लिए आई थी. लेकिन डाक्टर सीट पर नहीं है.’’

‘‘कौन? खुरानाजी? वे तो आज छुट्टी पर हैं. दिखाइए, कौनकौन से टैस्ट, चैकअप आदि हैं?’’

वह कुछ देर परची पढ़ता रहा था, ‘‘हूं, इन में से 2 तो मैं ही कर दूंगा और बाकी भी करवा दूंगा. चलिए, आप मेरे साथ…’’

तभी मलिक भी डाक्टर के छुट्टी पर होने की खबर ले कर लौट आया था. मैं ने मलिक को पूरी बात बताई और बोली, ‘‘बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘प्रवेश शर्मा.’’

‘‘तो प्रवेश, इसे कितनी देर बाद बुलाऊं?’’

‘‘आप इसे रवाना कर दीजिए. टैस्ट होने तक लंच टाइम हो जाएगा. मैं घर जाऊंगा तो आप को भी छोड़ दूंगा.’’

घर लौट कर खाना खा कर मैं लेटी तो देर तक प्रवेश के ही बारे में सोचती रही. ‘कितना अच्छा लड़का है. दिल का जितना अच्छा है, उतना ही प्रोफेशनली साउंड भी है. पूरे वक्त मांजीमांजी ही पुकारता रहा. अस्पताल में तो सब मुझे उस की सगी मां ही समझ कर ट्रीट कर रहे थे…पर अब तक भी मैं ने उस के घरपरिवार के बारे में नहीं पूछा. शादीशुदा तो क्या होगा, कुंआरा ही लगता है. चलो, कल उस के घर हो कर आती हूं. पता बताया तो था उस ने.’

अगले दिन ही मैं ढूंढ़तेढूंढ़ते उस के घर पहुंच गई. वह अस्पताल से लौटा ही था.

‘‘अरे, मांजी आप? मैं तो अभी आप के पास ही आ रहा था. ये आप की 2 रिपोर्टें तो आ गई हैं. ठीक हैं. एक कल आएगी, मैं पहुंचा दूंगा. आप बैठिए न,’’ उस ने कुरसी पर फैले कपड़े समेटते हुए जगह बनाई.

‘‘अकेला हूं तो घर ऐसे ही फैला रहता है.’’

‘‘क्यों? घर वाले कहां गए?’’

‘‘मम्मीपापा और बड़े भैया, बस ये 3 ही लोग हैं परिवार के नाम पर. बड़े भैया एक दुस्साध्य बीमारी से पीडि़त हैं. मेडिकल टर्म में आप समझ नहीं पाएंगी. साधारण भाषा में अपने दैनिक कार्यों के लिए भी वे मम्मीपापा पर आश्रित हैं. पापा रिटायर हो चुके हैं. बड़ी उम्मीदों से वे मकान बेच कर, पैसा जुटा कर भैया को इलाज के लिए विदेश ले गए हैं. वे तो चाहते हैं कि मैं भी वहीं सैटल हो जाऊं. जितना पैसा मैं वहां कमा सकता हूं उतना यहां जिंदगी भर नहीं कमा पाऊंगा, लेकिन मैं अपनी प्रतिभा का लाभ अपने ही देश के लिए करना चाहता हूं. जहां पैदा हुआ, पलाबढ़ा, शिक्षा पाई, उसे जब कुछ देने का वक्त आया तो छोड़ कर चला जाऊं?…पर मांबाप और बड़े भैया के प्रति भी मेरा कर्तव्य बनता है. मैं यहां एक किराए के कमरे में गुजारा कर रहा हूं. अस्पताल के अलावा प्राइवेट क्लीनिक में भी काम कर के पैसा जुटाता हूं और उन्हें भेजता हूं. मैं किसी पर कोई एहसान नहीं कर रहा. बस, देश और बड़ों के प्रति अपना फर्ज पूरा कर रहा हूं.’’

प्रवेश ने मेरा विश्वास जीत लिया था. यदि मेरे कोई बेटा होता तो निश्चित रूप से प्रवेश जैसा ही होता. वही सोचने का अंदाज, वही संस्कार मानो मुझ से घुट्टी पी कर बड़ा हुआ हो. मैं अकसर कुछ न कुछ खास बना कर उसे फोन कर देती. उस के उधड़े कपड़े मरम्मत कर देती. कभी जा कर उस का कमरा ठीक कर आती. वह भी बेटे की तरह मेरा खयाल रखता था. मेरे बुखार में वह पूरी रात मेरे सिरहाने बैठा पानी की पट्टियां बदलता रहा. 2-3 दिन प्रवेश नहीं आया तो मैं व्याकुल हो गई. खीर बना कर मैं ने उसे फोन किया. फोन उस के दोस्त सकल ने उठाया. उस ने बताया कि प्रवेश आपरेशन थियेटर में है.

‘‘वह काफी दिनों से आया नहीं, उस की तबीयत तो ठीक है?’’ मैं अपनी व्यग्रता छिपा नहीं पा रही थी.

‘‘हां, ठीक ही है. वह तो मोना वाले कांड को ले कर अपसेट चल रहा है.’’

‘‘मोना? कौन मोना?’’

‘‘उस ने आप को बताया नहीं? मुझ से तो कह रहा था हम एकदूसरे से सब बातें शेयर करते हैं. तो फिर रहने दीजिए. वह मुझ पर गुस्सा होगा.’’

‘‘नहीं, तुम्हें मेरी कसम. मुझे पूरी बात बताओ.’’

‘‘मोना हमारे बौस की बेटी है. बौस उस की शादी प्रवेश से कर के प्रवेश को आगे की पढ़ाई के लिए विदेश भेजना चाहते हैं. पर वह अपने आदर्शों पर अड़ा है. न तो वह मोना जैसी आधुनिका से शादी के लिए तैयार है और न विदेश में बसने के लिए.’’

‘‘फिर…’’ मेरी सांस अटकने लगी थी.

‘‘बौस ने उसे किसी बिगड़े हुए केस में फंसा दिया. एकाध दिन में उस के सस्पैंशन के आर्डर आने वाले हैं. हम लोग तो समझा रहे हैं कि बदनाम होने से अच्छा है पहले ही रिजाइन कर दो और अपना एक छोटा सा नर्सिंगहोम खोल लो.’’

‘‘सही है,’’ मैं सकल की बातों से सहमत थी.

‘‘पर आंटी, पैसे की समस्या है. प्रवेश जैसा खुद्दार लड़का किसी के आगे हाथ भी तो नहीं फैलाएगा.’’

‘‘अच्छा, उसे शाम को घर भेज देना. मैं ने उस के लिए खीर बनाई है.’’

शाम को उदास चेहरे और पपड़ाए होंठों के साथ प्रवेश कमरे में प्रविष्ट हुआ तो मैं समझ गई, वह रिजाइन कर के आ रहा है. मैं ने उस के हाथमुंह धुलाए और खीर की कटोरी पेश कर दी. वह चुपचाप खाने लगा. मुझे उस पर बेहद लाड़ आ रहा था. उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुम रिजाइन कर आए?’’

‘‘हूं…आप को किस ने बताया?’’ वह बेतरह चौंक उठा.

‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं है. अपनी इतनी बड़ी परेशानी तुम ने मुझ से, अपनी मां से छिपाई? तुम अपना नर्सिंगहोम खोलो. पैसा मैं दूंगी. कैश कम होगा तो गहने दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, नहीं मैं आप से पैसे…’’

‘‘क्यों? क्या मुझे अपनी मां नहीं मानते? यह मांजीमांजी की पुकार ढोंग है? वह रातरात भर पलक झपकाए बिना मेरे सिरहाने बैठना, दवाइयां लाना, देना, बुखार नापना दलिया खिलाना…’’

‘‘पर मैं यह सब…कैसे चुका पाऊंगा?’’

‘‘चुकाने की जरूरत भी नहीं…’’

‘‘नहींनहीं, फिर मैं यह सब नहीं लूंगा.’’

‘‘अच्छा, उधार समझ कर ले लो. धीरेधीरे चुकता कर देना. तुम जैसा खुद्दार आदमी कभी नहीं झुकेगा, मुझे मालूम था. मैं कल ही बैंक से सारा रुपया निकलवाती हूं. अब मुसकराओ और एक कटोरी खीर और लो.’’

अगले दिन प्रसन्नचित्त मन से बैंक से गहनों की पिटारी और ढेर सारा कैश ले कर मैं बाहर निकली. प्रवेश आएगा तो कितना खुश होगा. अगले ही पल मुझे खयाल आया, प्रवेश तो रिजाइन कर चुका है. फिर तो वह घर पर ही होगा. मैं ने मलिक से आटो उधर मोड़ने को कहा. दरवाजा खुला था. बैग लिए दरवाजे के समीप पहुंचते ही मेरे कदम ठिठक गए. प्रवेश और सकल का वार्तालाप साफ सुनाई दे रहा था :

‘क्या फांसा है तू ने बुढि़या को, कल सारा पैसा, गहने ले कर तू विदेश रफूचक्कर हो जाएगा और वहां माइकल के साथ नर्सिंगहोम की पार्टनरशिप में करोड़ों कमाएगा. क्याक्या कहानियां गढ़ी और कैसेकैसे नाटक किए तुम ने बुढि़या को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए. मेरे लिए भी कोई ऐसी बुढि़या फांस दे तो मैं भी वहां आ कर तुझे ज्वाइन कर लूं. आखिर तुम्हारे कहे अनुसार मोना वाली कहानी सुना कर मैं ने भी तुम्हारी हैल्प की है.’

‘श्योर, श्योर व्हाइ नौट,’ प्रवेश की खुशी में डूबी लड़खड़ाती आवाज उभरी. शायद उस ने पी रखी थी, ‘वैसे यही मुरगी क्या बुरी है? मेरे भाग जाने के बाद तुम इस के आंसू पोंछना. मुझे खूब गालियां देना कि वह तो भेड़ की खाल में भेडि़या निकला…बुढि़या के पास खजाना है. बेटियों के भी गहने रखे हैं. बहुत जल्दी भावनाओं में बह जाती है. तुझे थोड़ा वक्त लग सकता है, क्योंकि दूध का जला छाछ को भी फूंकफूंक कर पीता है…’ दोनों का सम्मिलित ठहाका मेरे कानों को बरछी की तरह बींध गया. मेरे कदम जो मुड़े तो फिर आटो तक आ कर ही रुके.

‘‘मलिक, वापस बैंक चलो,’’ बैग को मजबूती से थामे हुए मैं ने दृढ़ता से कहा. मेरा सबकुछ लुटतेलुटते बालबाल बच गया था. मुझे खूब खुश होना चाहिए था लेकिन मेरी आंखों से निशब्द अनवरत आंसू टपक रहे थे. इतना दुख तो मुझे सोने की चेन छिन जाने पर भी नहीं हुआ था.

Hindi Story : चाय फिर कभी साब

लेखका-रमेश चंद्र छबीला

मीनाक्षी का दिल तब अधिक सहम उठा जब उस का एकलौता नन्हा बेटा रमन स्कूल से घर न लौटा. वह घबरा गई और गहरी आशंका से घिर गई कि कहीं रमन को औटो ड्राइवर ने कुछ कर तो नहीं दिया. सोफे पर बैठी मीनाक्षी ने दीवारघड़ी की ओर देखा. 3 बजने वाले थे. उस ने मेज पर रखा समाचारपत्र उठाया और समाचारों पर सरसरी दृष्टि डालने लगी. चोरी, चेन ?पटने, लूटमार, हत्या, अपहरण व बलात्कार के समाचार थे.

2 समाचारों पर उस की दृष्टि रुक गई, ‘12 वर्षीया बालिका से स्कूलवैन ड्राइवर द्वारा बलात्कार, दूसरा समाचार था, स्कूल के औटो ड्राइवर द्वारा 8 वर्षीय बालक का अपहरण, फिरौती न देने पर हत्या.’ पूरा समाचार पढ़ कर सन्न रह गई मीनाक्षी. यह क्या हो रहा है? क्यों बढ़ रहे हैं इतने अपराध? कहीं भी सुरक्षा नहीं रही. इन अपराधियों को तो पुलिस व जेल का बिलकुल भी भय नहीं रहा. पता नहीं क्यों आज इंसान के रूप में ऐसे शैतानों को बच्चियों पर जघन्य अपराध करते हुए जरा भी दया नहीं आती. फिरौती के रूप में लाखों रुपए न मिलने पर मासूम बच्चों की हत्या करते हुए उन का हृदय जरा भी नहीं पसीजता. सोचतेसोचते मीनाक्षी ने घड़ी की ओर देखा. साढ़े 3 बज रहे थे.

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अभी तक रमन स्कूल से नहीं लौटा. स्कूल की छुट्टी तो 3 बजे हो जाती है. घर आने तक आधा घंटा लगता है. अब तक तो रमन को घर आ जाना चाहिए था. मीनाक्षी के पति गिरीश एक प्राइवेट कंपनी में प्रबंधक थे. उन का 8 वर्षीय रमन इकलौता बेटा था. रमन शहर के एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ रहा था. रमन देखने में सुंदर और बहुत प्यारा था दूधिया रंग का. सिर पर मुलायम चमकीले बाल. काली आंखें. मोती से चमकते दांत. जो भी रमन को पहली बार देखता, उस का मन करता था कि देखता ही रहे. वह पढ़ाई में भी बहुत आगे रहता. उस की प्यारीप्यारी बातें सुन कर खूब बातें करने को मन करता था. एक दिन गिरीश ने मीनाक्षी से कहा था, ‘देखो मीनाक्षी, हमें दूसरा बच्चा नहीं पैदा करना है. मैं चाहता हूं कि रमन को खूब पढ़ालिखा कर किसी योग्य बना दूं.’ मीनाक्षी ने भी सहमति के रूप में सिर हिला दिया था.

वह स्वयं भी कंप्यूटर इंजीनियर थी. चाहती तो नौकरी भी कर सकती थी, परंतु रमन के कुशलतापूर्वक लालनपालन के लिए उस ने नौकरी करने का विचार त्याग दिया था. उसे एक गृहिणी बन कर रहना ही उचित लगा. मीनाक्षी के हृदय की धड़कन बढ़ने लगी. कहां रह गया रमन? सुबह 9 बजे औटोरिकशा में बैठ कर स्कूल जाता है. 5 बच्चे और भी उसी औटो में बैठ कर जाते हैं. रमन सब से पहले औटो में बैठता है और सब से बाद में घर आता है. औटोरिकशा चलाने वाला मोहन लाल पिछले वर्ष से बच्चों को ले जा रहा था. अब 3 दिनों से मोहन लाल बुखार में पड़ा था. उस ने अपने छोटे भाई सोहन लाल को भेज दिया था. कल सोहन लाल औटोरिकशा ले कर आया था. सोहन लाल भी नगर में औटो चलाता है.

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उस ने पूछा था, ‘तुम्हारा भाई मोहन लाल नहीं आया. उस का बुखार ठीक नहीं हुआ क्या? कल उस का फोन आया था कि बुखार हो गया है, इसलिए कुछ दिन छोटा भाई आएगा.’ ‘हां मैडमजी, अभी भाई का बुखार ठीक नहीं हुआ है. आज उसे खून की जांच करानी है. जब तक वह नहीं आता, मैं बच्चों को स्कूल ले जाऊंगा.’ ‘ठीक है, जरा ध्यान से ले जाना.’ उस ने रमन को औटो में बैठाते हुए कहा था. ‘आप चिंता न करें मैडमजी. मैं पहले भी कई बार इन बच्चों को स्कूल ले गया हूं. मु?ो इन बच्चों के घर का पता भी मालूम है. 3 बजे छुट्टी होती है. मैं साढ़े 3 बजे तक घर पर रमन को ले आऊंगा.’ ‘बाय, मम्मा…’ रमन ने मुसकरा कर हाथ हिलाते हुए कहा था. कल 3 बज कर 45 मिनट पर सोहन लाल औटोरिकशा में रमन को ले कर आ गया था. रमन के आ जाने पर उस ने चैन की सांस ली थी.

परंतु आज कहां रह गया रमन? पौने 4 बज रहे थे. उसे आज अपनी मूर्खता पर क्रोध आ रहा था कि उस ने सोहन लाल का मोबाइल नंबर क्यों नहीं लिया? न कल लिया और आज भी वह भूल गई थी. मीनाक्षी को ध्यान आया कि सोहन लाल का नंबर तो पिछली बार डायरी में नोट किया था. उस ने डायरी उठा कर झटपट नंबर मिलाया परंतु वह नंबर मौजूद नहीं था. पता नहीं बहुत से लोग नंबर क्यों बदलते रहते हैं? वह झल्‍ला उठी. उस ने मोहन लाल का नंबर मिला कर कहा, ‘‘तुम्हारा भाई सोहन अभी तक रमन को ले कर नहीं आया है, पता नहीं कहां रह गया? मेरे पास उस का मोबाइल नंबर भी नहीं है. इतनी देर तो नहीं होनी चाहिए थी. मैं ने उसे फोन मिलाया है पर उस का फोन लग नहीं रहा है. स्विचऔफ सुनाई दे रहा है. पता नहीं क्या बात हो सकती है?’’ उधर से मोहन लाल का भी चिंतित स्वर सुनाई दिया.

मीनाक्षी ने घबराए स्वर में कहा, ‘‘ओह, मुझे बहुत डर लग रहा है. पता नहीं रमन किस हाल में होगा?’’ ‘‘मैडमजी आप चिंता न करें. रमन बेटा आप के पास पहुंच जाएगा. हो सकता है कहीं जाम में औटो फंस गया हो,’’ मोहन लाल का स्वर था. मीनाक्षी ने रमन की कक्षा में पढ़ने वाले एक बच्चे की मम्मी का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, ‘‘मैं मीनाक्षी बोल रही हूं.’’ ‘‘कहिए मीनाक्षीजी, कैसी हैं आप? 10 तारीख को होटल ग्रीन में किटी पार्टी है.’’ ‘‘हां मालूम है मुझे. यह बताओ कि आप का बेटा कमल स्कूल से आ गया है क्या?’’ बात काट कर मीनाक्षी ने कहा. ‘‘हांहां, आ गया है. वह तो सवा 3 बजे ही आ गया था पर क्या बात है, आप यह क्यों पूछ रही हैं?’’ ‘‘रमन को ले कर सोहन लाल अभी तक घर नहीं आया है.’’ ‘‘क्या कह रही हो मीनाक्षी? अब तो 4 बजने को हैं. स्कूल से छुट्टी हुए तो एक घंटा हो रहा है. कहां रह गया होगा बेटा? आजकल जमाना बहुत खराब चल रहा है.

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रोजाना अखबारों में बेटीबेटों के बारे में दिल दहला देने वाले समाचार छपते रहते हैं, किस पर कितना विश्वास करें? किसी का क्या पता कि कब मन बदल जाए? दिमाग में कब शैतान घुस जाए? हमारी मजबूरी है कि हम अपने घर के चिरागों को इन जैसे लोगों के साथ भेज देते हैं. आप जल्दी से स्कूल फोन करो. कहीं ऐसा न हो कि रमन आज स्कूल में ही रह गया हो. हमारे और आप के यहां तो एकएक ही बच्चा है? यदि कुछ ऐसावैसा हो गया तो…’’ ‘‘नहीं…’’ और सुन नहीं सकी मीनाक्षी. उस ने एकदम फोन काट दिया. उस का हृदय बुरी तरह धड़क रहा था. उस ने स्कूल का नंबर मिलाया. उधर से हैलो होते ही वह एकदम बोली, ‘मेरा बेटा रमन आप के यहां तीसरी कक्षा में पढ़ रहा है. वह अभी तक घर नहीं पहुंचा. स्कूल में तो कोई बच्चा नहीं रह गया है?’ ‘नहीं मैडमजी, यहां कोई बच्चा नहीं है.

स्कूल की 3 बजे छुट्टी हो गई थी. यदि यहां आप का बच्चा होता तो आप को फोन पर सूचना दी जाती. आप का बच्चा कैसे घर पहुंचता है?’ ‘औटोरिकशा में कुछ बच्चे आतेजाते हैं. कल व आज औटो वाले का भाई आया था. औटो वाला मोहन लाल बीमार है.’’ ‘‘ओह… मैडम, आप तुरंत पुलिस को सूचना दीजिए. इतनी देर तक बच्चा घर नहीं पहुंचा तो कुछ गलत हुआ है. कुछ पता नहीं चलता कि इंसान कब शैतान बन जाए.’’ यह सुनते ही मीनाक्षी बुरी तरह घबरा गई. आंखों से आंसू बहने लगे. उस ने गिरीश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ गिरीश की आवाज सुनाई दी. ‘‘रमन अभी तक स्कूल से घर नहीं पहुंचा,’’ मीनाक्षी ने रोते हुए कांपते स्वर में कहा. ‘‘क्या कह रही हो? रमन अभी तक स्कूल से घर नहीं लौटा? अब तो 4 से भी ज्यादा बज रहे हैं. छुट्टी तो 3 बजे हो गई होगी. औटो वाले सोहन का नंबर मिलाया?’’ गिरीश का घबराया सा स्वर सुनाई दिया. ‘‘सोहन का नंबर मेरे पास नहीं है. मैं ने उस के भाई को मिलाया था तो वह बोला कि सोहन के फोन का स्विचऔफ है.

स्कूल वालों से पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि छुट्टी 3 बजे हो गई थी. अब यहां कोई बच्चा नहीं है. वे कह रहे थे कि किसी भी औटो वाले का क्या विश्वास कि कब मन बदल जाए. पुलिस में सूचना दो.’’ ‘‘मैं अभी पहुंच रहा हूं,’’ गिरीश ने चिंतित हो कर कहा. 10 मिनट में ही गिरीश घर पर पहुंच गया. मीनाक्षी को रोते हुए देख कर समझ गया कि रमन अभी तक नहीं आया है. ‘‘क्या सभी बच्चे अपने घर पहुंच गए?’’ ‘‘हां, मैं ने कमल की मम्मी से पूछा था. वह सवा 3 बजे अपने घर पहुंच गया था. मेरा तो दिल बैठा जा रहा है. मेरे रमन को कुछ हो गया तो मैं भी जान दे दूंगी. पता नहीं वह कमीना मेरे रमन को किस तरह सता रहा होगा,’’ कहते हुए मीनाक्षी फूटफूट कर रोने लगी. ‘‘मुझे तो यह औटो वाला सोहन जरा भी अच्छा नहीं लगता. देखने में गुंडा और लफंगा लगता है. जब इस के भाई ने भेज ही दिया तो हम क्या करते, मजबूरी है.

इस के मन में आ गया होगा कि बच्चे को कहीं छिपा दूंगा. 15-20 लाख रुपए मांगूंगा तो 5-7 मिल ही जाएंगे. हो सकता है उस के साथ कोई दूसरा भी मिला हो. देखना अभी इस का फोन आएगा. ‘‘अपने बच्चे के लिए मैं अपने बैंक खाते के सारे रुपए तथा जेवरात दे दूंगी लेकिन रमन को कुछ नहीं होना चाहिए. उस के बिना मैं जीवित नहीं रह पाऊंगी.’’ ‘‘मीनाक्षी, अपनेआप को संभालो. हम पर अचानक यह भयंकर मुसीबत आई है. हमें इस का मुकाबला करना होगा. अब मैं पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखाने जा रहा हूं,’’ गिरीश ने कहा और कमरे से बाहर निकला. तभी घर के बाहर औटोरिकशा के रुकने की आवाज आई. देखते ही गिरीश एकदम चीख उठा, ‘‘अबे, कहां मर गया था उल्लू के पट्ठे?’’ औटो की आवाज व गिरीश का चीखना सुन कर मीनाक्षी भी एकदम कमरे से बाहर आई.

रमन औटो से उतर रहा था. सोहन लाल के हाथ पर पट्टी बंधी थी तथा चेहरे पर मारपिटाई के निशान थे. मीनाक्षी ने रमन को गोद में उठा कर इस प्रकार गले लगाया मानो वर्षों बाद मिला हो. गिरीश ने रमन से पूछा, ‘‘बेटे, तुम ठीक हो?’’ ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं पापा, लेकिन अंकल की लोगों ने मारपिटाई की है,’’ रमन ने कहा. गिरीश व मीनाक्षी चौंके. वे दोनों चकित से सोहन लाल के चेहरे की ओर देख रहे थे. गिरीश ने पूछा, ‘‘सोहन लाल, क्या बात हुई. हम तो बहुत परेशान थे कि अभी तक तुम रमन को ले कर क्यों नहीं आए हो.’’ ‘‘परेशान होने की तो बात ही है बाबूजी. रोजाना तो बेटा साढ़े 3 बजे तक घर आ जाता था और आज इतनी देर तक भी नहीं आया, घबराहट तो होनी ही थी.

इस बीच न जाने क्याक्या सोच लिया होगा आप ने.’’ ‘‘हाथ पर चोट कैसे लगी?’’ मीनाक्षी ने पूछा. ‘‘सब बच्चे अपनेअपने घर चले गए थे. मैं इधर ही लौट रहा था तो औटो में पंचर हो गया. आधा घंटा वहां लग गया. गांधी चौक पर जाम लगा हुआ था. मैं औटो दूसरे रास्ते से ले कर जल्दी घर पहुंचना चाहता था. मैं जानता था कि देर हो चुकी है. ‘‘मैं पटेल रोड पर आ रहा था तो सामने से एक बाइक पर 2 युवा स्टंट करते हुए तेजी से आ रहे थे. जो चला रहा था, उस ने कानों में इयरफोन लगा रखा था. सिर पर हैलमैट नहीं था. मैं समझ गया कि इन की बाइक औटो से टकरा जाएगी.

जैसे ही मैं ने तेजी से औटो बचाया तो सड़क के किनारे खड़ी किसी नेताजी की कार में जरा सी खरोंच आ गई. ‘‘कार पर पार्टी का ?ांडा लगा था. कार से 3 व्यक्ति उतरे. मैं ने उन के आगे हाथ जोड़ कर माफी मांगी, पर वे तो सत्ता के नशे में चूर थे. उन्होंने मेरे साथ मारपिटाई शुरू कर दी. एक ने मु?ो धक्का दिया तो मेरा सिर औटो से जा लगा. लोगों ने बीचबचाव कर मुझे छुड़ा दिया. पास के नर्सिंगहोम में जा कर मैं ने पट्टी कराई और सीधा यहां आ गया. आज तो मोबाइल चार्ज भी नहीं था, इसलिए मेरा फोन भी बंद था,’’ सोहन लाल ने बताया. यह सुन कर गिरीश व मीनाक्षी का क्रोध शांत होता चला गया.

‘‘बाबूजी, आज जो हुआ, उस में मेरा तो कोई दोष नहीं. बस, हालात ही ऐसे बनते चले गए कि देर होती चली गई,’’ सोहन लाल बोला. मीनाक्षी के हृदय में दया व सहानुभूति की लहर दौड़ने लगी. वह बोली, ‘‘सोहन लाल तुम्हारा दोष जरा भी नहीं है. तुम्हें तो चोट भी लग गई है.’’ ‘‘मुझे चोट की जरा भी चिंता नहीं है मैडमजी. यदि रमन बेटे को जरा भी चोट लग जाती तो मैं कभी स्वयं को माफ न करता.

उस का मुझे  बहुत दुख होता. आप लोग अपने बच्चों को हमारे साथ कितने विश्वास के साथ स्कूल भेजते हैं. हमारा भी तो यह कर्तव्य है कि हम उस विश्वास को बनाए रखें. हम लोगों की जरा सी लापरवाही से यह विश्वास टूट जाएगा. मैं तो उन लोगों में हूं जो अपनी जान पर खेल कर सदा यह विश्वास बनाए रखना चाहते हैं.’’ गिरीश ने कहा, ‘‘बैठो सोहन, मीनाक्षी तुम्हारे लिए चाय बना कर लाती है.’’ ‘‘धन्यवाद बाबूजी, चाय फिर कभी. अभी तो मुझे भैया के खून की टैस्ट रिपोर्ट लानी है. काफी देर हो चुकी है,’’ सोहन लाल ने कहा और औटो स्टार्ट कर चल दिया.

Hindi Online Story : सूनी जिंदगी

‘‘सीधेसीधे कहो न कि चंदन तो आ गया, अब चांदनी चाहिए,’’ उदय ने हंस कर इरा से कहा.

उस का मन एक स्वच्छ और निर्मल आकाश था, एक कोरा कैनवस, जिस पर वह जब चाहे, जो भी रंग भर लेती थी. ‘लेकिन यथार्थ के धरातल पर ऐसे कोई रह सकता है क्या?’ उस का मन कभीकभी उसे यह समझाता, पर ठहर कर इस आवाज को सुनने की न तो उसे फुरसत थी, न ही चाह.

फिर उसे अचानक दिखा था, उदय, उस के जीवन के सागर के पास से उगता हुआ. उस ने चाहा था, काश, वह इतनी दूर न होता. काश, इस सागर को वह आंखें मूंद कर पार कर पाती. उस ने आंखें मूंदी थीं और आंखें खुलने पर उस ने देखा, उदय सागर को पार कर उस के पास खड़ा है, बहुत पास. सच तो यह था कि उदय उस का हाथ थामे चल पड़ा था.

दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. संसार का मायाजाल अपने भंवर की भयानक गहराइयों में उन्हें निगलने को धीरेधीरे बढ़ने लगा था. उन के प्यार की खुशबू चंदन बन कर इरा की गोद में आ गिरी तो वह चौंक उठी. बंद आंखों, अधखुली मुट्ठियों, रुई के ढेर से नर्म शरीर के साथ एक खूबसूरत और प्यारी सी हकीकत, लेकिन इरा के लिए एक चुनौती.

इरा की सुबह और शाम, दिन और रात चंदन की परवरिश में बीतने लगे. घड़ी के कांटे के साथसाथ उस की हर जरूरत को पूरा करतेकरते वह स्वयं एक घड़ी बन चुकी थी. लेकिन उदय जबतब एक सदाबहार झोंके की तरह उस के पास आ कर उसे सहला जाता. तब उसे एहसास होता कि वह भी एक इंसान है, मशीन नहीं.

चंदन बड़ा होता गया. इरा अब फिर से आजाद थी, लेकिन चंदन का एक तूफान की तरह आ कर जाना उसे उदय की परछाईं से जुदा सा कर गया. अब वह फिर से सालों पहले वाली इरा थी. उसे लगता, ‘क्या उस के जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया? क्या अब वह निरुद्देश्य है?’

एक बार उदय रात में देर से घर आया था, थका सा आंखें बंद कर लेट गया. इरा की आंखों में नींद नहीं थी. थोड़ी देर वह सोचती रही, फिर धीरे से पूछा, ‘‘सो गए क्या?’’

‘‘नहीं, क्या बात है?’’ आंखें बंद किए ही वह बोला.

‘‘मुझे नींद नहीं आती.’’

उदय परेशान हो गया, ‘‘क्या बात है? तबीयत तो ठीक है न?’’ अपनी बांह का सिरहाना बना कर वह उस के बालों में उंगलियां फेरने लगा.

इरा ने धीरे से अलग होने की कोशिश की, ‘‘कोई बात नहीं, मुझे अभी नींद आ जाएगी, तुम सो जाओ.’’ थोड़ी देर तब उदय उलझा सा जागा रहा, फिर उस के कंधे पर हाथ रख कर गहरी नींद सो गया.

कुछ दिनों बाद एक सुबह नाश्ते की मेज पर इरा ने उदय से कहा, ‘‘तुम और चंदन दिनभर बाहर रहते हो, मेरा मन नहीं लगता, अकेले मैं क्या करूं?’’

उदय ने हंस कर कहा, ‘‘सीधेसीधे कहो न कि चंदन तो आ गया, अब चांदनी चाहिए.’’

‘‘जी नहीं, मेरा यह मतलब हरगिज नहीं था. मैं भी कुछ काम करना चाहती हूं.’’

‘‘अच्छा, मैं तो सोचता था, तुम्हें घर के सुख से अलग कर बाहर की धूप में क्यों झुलसाऊं? मेरे मन में कई बार आया था कि पूछूं, तुम अकेली घर में उदास तो नहीं हो जाती हो?’’

‘‘तो पूछा क्यों नहीं?’’ इरा के स्वर में मान था.

‘‘तुम क्या करना चाहती हो?’’

‘‘कुछ भी, जिस में मैं अपना योगदान दे सकूं.’’

‘‘मेरे पास बहुत काम है, मुझ से अकेले नहीं संभलता. तुम वक्त निकाल सकती हो तो इस से अच्छा क्या होगा?’’ इरा खुशी से झूम उठी.

दूसरे दिन जल्दीजल्दी सब काम निबटा कर चंदन को स्कूल भेज कर दोनों जब घर से बाहर निकले तो इरा की आंखों में दुनिया को जीत लेने की उम्मीद चमक रही थी. सारा दिन औफिस में दोनों ने गंभीरता से काम किया. इरा ने जल्दी ही काफी काम समझ लिया. उदय बारबार उस का हौसला बढ़ाता.

जीवन अपनी गति से चल पड़ा. सुबह कब शाम हो जाती और शाम कब रात, पता ही न चलता था.

एक दिन औफिस में दोनों चाय पी रहे थे कि एकाएक इरा ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं?’’

‘‘हांहां, कहो.’’

‘‘यह बताओ, हम जो यह सब कर रहे हैं, इस से क्या होगा?’’

उदय हैरानी से उस का चेहरा देखने लगा, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘यही कि रोज सुबह यहां आ कर वही काम करकर के हमें क्या मिलेगा?’’

‘‘क्या पाना चाहती हो?’’ उदय ने हंस कर पूछा.

‘‘देखो, मेरी बात मजाक में न उड़ाना. मैं बहुत दिनों से सोच रही हूं, हमें एक ही जीवन मिला है, जो बहुत कीमती है. इस दुनिया में देखने को, जानने को बहुत कुछ है. क्या घर से औफिस और औफिस से घर के चक्कर काट कर ही हमारी जिंदगी खत्म हो जाएगी?’’

‘‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम जो कुछ कर रही हो, वह काफी नहीं है?’’ उदय गंभीर था.

इरा को न जाने क्यों गुस्सा आ गया. वह रोष से बोली, ‘‘क्या तुम्हें लगता है, जो तुम कर रहे हो, वही सबकुछ है और कुछ नहीं बचा करने को?’’

उदय ने मेज पर रखे उस के हाथ पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘देखो, अपने छोटे से दिमाग को इतनी बड़ी फिलौसफी से थकाया न करो. शाम को घर चल कर बात करेंगे.’’

शाम को उदय ने कहा, ‘‘हां, अब बोलो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

इरा ने आंखें बंद किएकिए ही कहना शुरू किया, ‘‘मैं जानना चाहती हूं कि जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए, आदर्श जीवन किसे कहना चाहिए, इंसान का सही कर्तव्य क्या है?’’

‘‘अरे, इस में क्या है? इतने सारे विद्वान इस दुनिया में हुए हैं. तुम्हारे पास तो किताबों का भंडार है, चाहो तो और मंगवा लो. सबकुछ तो उन में लिखा है, पढ़ लो और जान लो.’’

‘‘मैं ने पढ़ा है, लेकिन उन में कुछ नहीं मिला. छोटा सा उदाहरण है, बुद्ध ने कहा कि ‘जीवहत्या पाप है’ लेकिन दूसरे धर्मों में लोग जीवों को स्वाद के लिए मार कर भी धार्मिक होने का दावा करते हैं और लोगों को जीने की राह सिखाते हैं. दोनों पक्ष एकसाथ सही तो नहीं हो सकते. बौद्ध धर्म को मानने वाले बहुत से देशों में तो लोगों ने कोई भी जानवर नहीं छोड़ा, जिसे वे खाते न हों. तुम्हीं बताओ, इस दुनिया में एक इंसान को कैसे रहना चाहिए?’’

‘‘देखो, तुम ऐसा करो, इन सब को अपनी अलग परिभाषा दे दो,’’ उदय ने हंस कर कहा.

इरा ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं बहुतकुछ जानना चाहती हूं. देखना चाहती हूं कि जब पेड़पौधे, जमीन, नदियां सब बर्फ से ढक जाते हैं तो कैसा लगता है? जब उजाड़ रेगिस्तान में धूल भरी आंधियां चलती हैं तो कैसा महसूस होता है? पहाड़ की ऊंची चोटी पर पहुंच कर कैसा अुनभव होता है? सागर के बीचोंबीच पहुंचने पर चारों ओर कैसा दृश्य दिखाई देता है? ये सब रोमांच मैं स्वयं महसूस करना चाहती हूं.’’

उदय असहाय सा उसे देख रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह इरा को कैसे शांत करे. फिर भी उस ने कहा, ‘‘अच्छा उठो, हाथमुंह धो लो, थोड़ा बाहर घूम कर आते हैं,’’ फिर उस ने चंदन को आवाज दी, ‘‘चलो बेटे, हम बाहर जा रहे हैं.’’

उन लोगों ने पहले एक रैस्तरां में कौफी पी. चंदन ने अपनी पसंद की आइसक्रीम खाई. फिर एक थिएटर में पुरानी फिल्म देखी. रात हो चुकी थी तो उदय ने बाहर ही खाना खाने का प्रस्ताव रखा. काफी रात में वे घर लौटे.

कुछ दिनों बाद उदय ने इरा से कहा, ‘‘इस बार चंदन की सर्दी की छुट्टियों में हम शिमला जा रहे हैं.’’

इरा चौंक पड़ी, ‘‘लेकिन उस वक्त तो वहां बर्फ गिर रही होगी.’’

‘‘अरे भई, इसीलिए तो जाएंगे.’’

‘‘लेकिन चंदन को तो ठंड नुकसान पहुंचाएगी.’’

‘‘वह अपने दादाजी के पास रहेगा.’’

शिमला पहुंच कर इरा बहुत खुश थी. हाथों में हाथ डाल कर वे दूर तक घूमने निकल जाते. एक दिन सर्दी की पहली बर्फ गिरी थी. इरा दौड़ कर कमरे से बाहर निकल गई. बरामदे में बैठे बर्फ गिरने के दृश्य को बहुत देर तक देखती रही.

फिर मौसम कुछ खराब हो गया था. वे दोनों 2 दिनों तक बाहर न निकल सके.

3-4 दिनों बाद ही इरा ने घर वापस चलने की जिद मचा दी. उदय उसे समझाता रह गया, ‘‘इतनी दूर इतने दिनों बाद आई हो, 2-4 दिन और रुको, फिर चलेंगे.’’

लेकिन उस ने एक न सुनी और उन्हें वापस आना पड़ा.

एक बार चंदन ने कहा, ‘‘मां, जब कभी आप को बाहर जाना हो तो मुझे दादाजी के पास छोड़ जाना, मैं उन के साथ खूब खेलता हूं. वे मुझे बहुत अच्छीअच्छी कहानियां सुनाते हैं और दादी ने मेरी पसंद की बहुत सारी चीजें बना कर मुझे खिलाईं.’’

इरा ने उसे अपने सीने से लगा लिया और सोचने लगी, ‘शिमला में उसे चंदन का एक बार भी खयाल नहीं आया. क्या वह अच्छी मां नहीं? अब वह चंदन को एक दिन के लिए भी छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी.’

एक शाम चाय पीते हुए इरा ने कहा, ‘‘सुनो, विमलेशजी कह रही थीं कि इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट औफ फिजिकल एजुकेशन से 2-3 लोग आए हैं, वे सुबह 1 घंटे ऐक्सरसाइज करना सिखाएंगे और उन के लैक्चर भी होंगे. मुझे लगता है, शायद मेरे कई प्रश्नों का उत्तर मुझे वहां जा कर मिल जाएगा. अगर कहो तो मैं भी चली जाया करूं, 15-20 दिनों की ही तो बात है.’’

उदय ने चाहा कि कहे, ‘तुम कहां विमलेश के चक्कर में पड़ रही हो. वह तो सारा दिन पूजापाठ, व्रतउपवास में लगी रहती है. यहां तक कि उसे इस का भी होश नहीं रहता कि उस के पति व बच्चों ने खाना खाया कि नहीं?’ लेकिन वह चुप रहा.

थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘ठीक है, सोच लो, तुम्हें ही समय निकालना पड़ेगा. ऐसा करो, 15-20 दिन तुम मेरे साथ औफिस न चलो.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं है, मैं कर लूंगी,’’ इरा उत्साहित थी.

इरा अब ऐक्सरसाइज सीखने जाने लगी. सुबह जल्दी उठ कर वह उदय और चंदन के लिए नाश्ता बना कर चली जाती. उदय चंदन को ले कर टहलने निकल जाता और लौटते समय इरा को साथ ले कर वापस आ जाता. फिर दिनभर औफिस में दोनों काम करते.

शाम को घर लौटने पर कभी उदय कहता, ‘‘आज तुम थक गई होगी, औफिस में भी काम ज्यादा था और तुम सुबह 4 बजे से उठी हुई हो. आज बाहर खाना खा लेते हैं.’’लेकिन वह न मानती.

अब वह ऐक्सरसाइज करना सीख चुकी थी. सुबह जब सब सोते रहते तो वह उठ कर ऐक्सरसाइज करती. फिर दिन का सारा काम करने के बाद रात में चैन से सोती.

एक दिन इरा ने उदय से कहा, ‘‘ऐक्सरसाइज से मुझे बहुत शांति मिलती है. पहले मुझे छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था, लेकिन अब नहीं आता. कभी तुम भी कर के देखो, बहुत अच्छा लगेगा.’’

उदय ने हंस कर कहा, ‘‘भावनाओं को नियंत्रित नहीं करना चाहिए. सोचने के ढंग में परिवर्तन लाने से सबकुछ सहज हो सकता है.’’

चंदन की गरमी की छुट्टियां हुईं. सब ने नेपाल घूमने का कार्यक्रम बनाया. जैसे ही वे रेलवेस्टेशन पहुंचे, छोटेछोटे भिखारी बच्चों ने उन्हें घेर लिया, ‘माई, भूख लगी है, माई, तुम्हारे बच्चे जीएं. बाबू 10 रुपए दे दो, सुबह से कुछ खाया नहीं है.’ लेकिन यह सब कहते हुए उन के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, तोते की तरह रटे हुए वे बोले चले जा रहे थे. इस से पहले कि उदय पर्स निकाल कर उन्हें पैसे दे पाता, इरा ने 20-25 रुपए निकाले और उन्हें दे कर कहा, ‘‘आपस में बराबरबराबर बांट लेना.’’

काठमांडू पहुंच कर वहां की सुंदर छटा देख कर सब मुग्ध रह गए. इरा सवेरे उठ कर खिड़की से पहाड़ों पर पड़ती धूप के बदलते रंग देख कर स्वयं को भी भूल जाती.

एक रात उस ने उदय से कहा, ‘‘मुझे आजकल सपने में भूख से बिलखते, सर्दी से ठिठुरते बच्चे दिखाई देते हैं. फिर मुझे अपने इस तरह घूमनेफिरने पर पैसा बरबाद करने के लिए ग्लानि सी होने लगती है. जब हमारे चारों तरफ इतनी गरीबी, भुखमरी फैली हुई है, हमें इस तरह का जीवन जीने का अधिकार नहीं है.’’

उदय ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘तुम सच कहती हो, लेकिन स्वयं को धिक्कारने से समस्या खत्म तो नहीं हो सकती. हमें अपने सामर्थ्य के अनुसार ऐसे लोगों की सहायता करनी चाहिए, लेकिन भीख दे कर नहीं. हो सके तो इन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए. अगर हम ने अपनी जिंदगी में ऐसे 4-6 घरों के कुछ बच्चों को पढ़नेलिखने में आर्थिक या अन्य सहायता दे कर अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका दिया तो वह कम नहीं है. तुम इस में मेरी मदद करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा.’’

इरा प्रशंसाभरी नजरों से उदय को देख रही थी. उस ने कहा, ‘‘लेकिन दुनिया तो बहुत बड़ी है. 2-4 घरों को सुधारने से क्या होगा?’’

नेपाल से लौटने के बाद इरा ने शहर की समाजसेवी संस्थाओं के बारे में पता लगाना शुरू किया. कई जगहों पर वह स्वयं जाती और शाम को लौट कर अपनी रिपोर्ट उदय को विस्तार से सुनाती.

कभीकभी उदय झुंझला जाता, ‘‘तुम किस चक्कर में उलझ रही हो. ये संस्थाएं काम कम, दिखावा ज्यादा करती हैं. सच्चे मन से तुम जो कुछ कर सको, वही ठीक है.’’

लेकिन इरा उस से सहमत नहीं थी. आखिर एक संस्था उसे पसंद आ गई. अनीता कुमारी उस संस्था की अध्यक्ष थीं. वे एक बहुत बड़े उद्योगपति की पत्नी थीं. इरा उन के भाषण से बहुत प्रभावित हुई थी. उन की संस्था एक छोटा सा स्कूल चलाती थी, जिस में बच्चों को निशुल्क पढ़ाया जाता था. गांव की ही कुछ औरतों व लड़कियों को इस कार्य में लगाया गया था. इन शिक्षिकाओं को संस्था की ओर से वेतन दिया जाता था.

समाज द्वारा सताई गई औरतों, विधवाओं, एकाकी वृद्धवृद्धाओं के लिए भी संस्था काफी कार्य कर रही थी.

इरा सोचती थी कि ये लोग कितने महान हैं, जो वर्षों निस्वार्थ भाव से समाजसेवा कर रहे हैं. धीरेधीरे अपनी मेहनत और लगन की वजह से वह अनीता का दाहिना हाथ बन गई. वे गांवों में जातीं, वहां के लोगों के साथ घुलमिल कर उन की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करतीं.

इरा को कभीकभी महसूस होता कि वह उदय और चंदन के साथ अन्याय कर रही है. एक दिन यही बात उस ने अनीता से कह दी. वे थोड़ी देर उस की तरफ देखती रहीं, फिर धीरे से बोलीं, ‘‘तुम सच कह रही हो…तुम्हारे बच्चे और तुम्हारे पति का तुम पर पहला अधिकार है. तुम्हें घर और समाज दोनों में सामंजस्य रखना चाहिए.’’

इरा चौंक गई, ‘‘लेकिन आप तो सुबह आंख खुलने से ले कर रात देर तक समाजसेवा में लगी रहती हैं और मुझे ऐसी सलाह दे रही हैं?’’

‘‘मेरी कहानी तुम से अलग है, इरा. मेरी शादी एक बहुत धनी खानदान में हुई. शादी के बाद कुछ सालों तक मैं समझ न सकी कि मेरा जीवन किस ओर जा रहा है? मेरे पति बहुत बड़े उद्योगपति हैं. आएदिन या तो मेरे या दूसरों के यहां पार्टियां होती हैं. मेरा काम सिर्फ सजसंवर कर उन पार्टियों में जाना था. ऐसा नहीं था कि मेरे पति मुझे या मेरी भावनाओं को समझते नहीं थे, लेकिन वे मुझे अपने कीमती समय के अलावा सबकुछ दे सकते थे.

‘‘फिर मेरे जीवन में हंसताखेलता एक राजकुमार आया. मुझे लगा, मेरा जीवन खुशियों से भर गया. लेकिन अभी उस का तुतलाना खत्म भी नहीं हुआ था कि मेरे खानदान की परंपरा के अनुसार उसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया. अब मेरे पास कुछ नहीं था. पति को अकसर काम के सिलसिले में देशविदेश घूमना पड़ता और मैं बिलकुल अकेली रह जाती. जब कभी उन से इस बात की शिकायत करती तो वे मुझे सहेलियों से मिलनेजुलने की सलाह देते.

‘‘धीरेधीरे मैं ने घर में काम करने वाले नौकरों के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. शुरू में तो मेरे पति थोड़ा परेशान हुए, फिर उन्होंने कुछ नहीं कहा. वहां से यहां तक मैं उन के सहयोग के बिना नहीं पहुंच सकती थी. उन्हें मालूम हो गया था कि अगर मैं व्यस्त नहीं रहूंगी तो बीमार हो जाऊंगी.’’

इरा जैसे सोते से जागी, उस ने कुछ न कहा और चुपचाप घर चली आई. उसे जल्दी लौटा देख कर उदय चौंक पड़ा. चंदन दौड़ कर उस से लिपट गया.

उदय और चंदन खाना खाने जा रहे थे. उदय ने अपने ही हाथों से कुछ बना लिया था. चंदन को होटल का खाना अच्छा नहीं लगता था. मेज पर रखी प्लेट में टेढ़ीमेढ़ी रोटियां और आलू की सूखी सब्जी देख कर इरा का दिल भर आया.

चंदन बोला, ‘‘मां, आज मैं आप के साथ खाना खाऊंगा. पिताजी भी ठीक से खाना नहीं खाते हैं.’’

इरा ने उदय की ओर देखा और उस की गोद में सिर रख कर फफक कर रो पड़ी, ‘‘मैं तुम दोनों को बहुत दुख देती हूं. तुम मुझे रोकते क्यों नहीं?’’

उदय ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तुम से प्यार किया है और पति होने का अधिकार मैं जबरदस्ती तुम से नहीं लूंगा, यह तुम जानती हो. जीवन के अनुभव प्राप्त करने में कोई बुराई तो नहीं, लेकिन बात क्या है तुम इतनी परेशान क्यों हो?’’

इरा उसे अनीताजी के बारे में बताने लगी, ‘‘जिन को आदर्श मान कर मैं अपनी गृहस्थी को अनदेखा कर चली थी, उन के लिए तो समाजसेवा सूने जीवन को भरने का साधन मात्र थी. लेकिन मेरा जीवन तो सूना नहीं. अनीता के पास करने के लिए कुछ नहीं था, न पति पास था, न संतान और न ही उन्हें अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना था. लेकिन मेरे पास तो पति भी है, संतान भी, जिन की देखभाल की जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है, जिन के साथ इस समाज में अपनी जगह बनाने के लिए मुझे संघर्ष करना है. यह सब ईमानदारी से करते हुए समाज के लिए अगर कुछ कर सकूं, वही मेरे जीवन का उद्देश्य होगा और यही जीवन का सत्य भी…’’

Emotional Story : सामने आ जा ना मां

लेखिका- पल्लवी विनोद

“किस बात की बेचैनी है. सब तो है तुम्हारे पास… शिफान और हैंडलूम की साड़ियों का बेहतरीन कलेक्शन, सब के साथ मैच करती एसेसरीज, पैरों के नीचे बिछा मखमली गलीचा. मोहतरमा और क्या ख्वाहिश है आप की?”

हालांकि सरगम ये सब मुझे हंसाने के लिए कह रही थी, लेकिन ये बातें मुझे इस समय अच्छी नहीं लग रही थी. मेरा मन फूटफूट कर रोना चाह रहा था, जिस का कारण वो खुद भी नहीं समझ रहा था. अचानक से हुई तेज बारिश ने शहर की सड़कों को पानी में डुबो दिया था. उस पर ये ट्रैफिक… घर पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी. बच्चे इंतजार कर रहे होंगे. इतनी बारिश में शांति दीदी भी नहीं आ पाएंगी. खाना कैसे बनेगा? बाहर से मंगवा लूं?

लगातार बजते हौर्न की आवाजों से मेरी बेचैनी और बढ़ रही थी. आंख से निकलते आंसू मुझ से ही सवाल कर रहे थे. ये रास्ता तो तुम ने खुद ही चुना था अब क्यों परेशान हो? तुम को ही तो अपनी मां जैसी जिंदगी नहीं जीनी थी? एक महत्वहीन जिंदगी, जिस का कोई उद्देश्य नहीं था. मां को हमेशा मसालों की गंध में महकता देख तुम ही तो सोचती थी कि मां जैसी कभी नहीं बनूंगी. सच ही तो था ये… चाची की कलफ लगी साड़ियां, उन के शरीर से आती भीनी खुशबू, चाचा का उन की हर बात को मानना और चचेरे भाईबहनों का सब से अच्छे इंगलिश स्कूल में पढ़ना… सबकुछ उसे अपनी और मां की कमतरी का अहसास दिलाता था. उस ने कभी भी अपने मम्मीपापा की जिंदगी में उस रोमांच को महसूस नहीं किया, जो चाचाचाची की जिंदगी में बिखरा हुआ था. बचपन से ही एक छत के नीचे रहते 2 परिवारों के बीच का अंतर उसे अंदर ही अंदर घोलता रहा.

विचारों की तंद्रा घर के सामने आ कर ही टूटी. गाड़ी पार्किंग में खड़ी कर मैं बदहवास सी अंदर गई. वैभव अब तक घर नहीं आए थे. बेटा अंकु मुझे देखते ही लिपट गया. बेटी मुझे देख कर अपने कमरे में चली गई. मैं ने अंकु को पुचकारते हुए पूछा, ”भूख लगी है मेरे बेटे को?”

अंकु ने नहीं में सिर हिलाया. मेज पर रखी प्लेट में ब्रेड का एक छोटा टुकड़ा रखा हुआ था. मुझे लगा कि वैभव ने बच्चों के लिए कुछ और्डर किया होगा? तब तक अंकु ने कहा, ”आज दीदी ने बहुत अच्छा सैंडविच बनाया था मम्मा.”

“ अवनी ने?”

“हां मम्मा, पहले तो बस ब्रेडबटर ही देती थी, लेकिन आज सैंडविच बनाया.”

अंकु के खिलौनों को समेटती हुई अवनी के कमरे की तरफ गई. मोबाइल पर तेजी से चलती उस की उंगलियां मुझे देख कर थम गई थीं. मैं ने अवनी को पुचकारते हुए अपने सीने से लगा लिया, ”मेरी गुड़िया तो बहुत समझदार हो गई है. सैंडविच बनाने लगी है.”

अवनी ने खुद को अलग करते हुए कहा, “ये आप का परफ्यूम… और अब मैं 13 साल की हो गई हूं. आप घर में नहीं रहेंगी तो इतना तो कर ही सकती हूं.”

इतना अटपटा जवाब… ऐसे क्यों बात कर रही है मुझ से? अरे रोज तो शांति दीदी शाम को आ ही जाती हैं, तब तक वैभव की आवाज आई, ”अरे, आज हमारी रानी साहिबा रसोईघर में. कहीं सपना तो नहीं देख रहा हूं मैं.”

उन की मुसकान ने मुझे फिर से सामान्य कर दिया. वैभव ने हमेशा मुझे वो सम्मान दिया, जो चाचा चाची को देते थे. सबकुछ तो ठीक था मेरी जिंदगी में, जैसा मुझे चाहिए था. मैं ही कुछ ज्यादा सोचने लगती हूं. पता नहीं, किस अपराध बोध में घिर जाती हूं. ये परेशनियां तो जिंदगी के साथ लगी ही रहती हैं. आज समाज में वैभव के नाम के बिना भी मेरी पहचान है.

 

जब सब जिंदगी में कुछ ठीक चल रहा हो तो समझ लो जिंदगी करवट लेने वाली है. रात को 11 बजे पापा का फोन आया कि मां की तबियत खराब है. क्या हुआ? कब हुई? ये सब पापा ने सुना ही नहीं. पिछले 3 दिन से इतनी व्यस्त थी कि मां से बात नहीं हुई थी.

सुबह की किरणों के साथ मैं अस्पताल के गेट पर पहुंची. पापा,चाचा आईसीयू गेट के बाहर खड़े थे. मैं उन की तरफ बढ़ने लगी, तो वैभव ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “हिम्मत रखना.” मैं तब भी कुछ समझ नहीं पाई.

सबकुछ शांत था. मां के पास लगे मौनिटर के अलावा… अब कुछ नहीं हो सकता है. ‘दर्शन कर लो,’ कह कर चाचा मुझे अंदर ले कर गए. मां की आंखें बंद थीं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. दर्द की एक लहर मेरे सीने से ले कर हाथ तक दौड़ रही थी. मां का चेहरा देख कर लगा कि वो गहरी नींद में सो रही हैं. कांपते हुए हाथों से मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया. वैसी ही गरम हथेलियां… महसूस हुआ कि उन्होंने भी मेरा हाथ हलके से दबाया है, तब तक वो मुसकराने लगी और सांस के तेज झटके के साथ सब बंद हो गया. मैं चिल्लाती रह गई, लेकिन मां ने कुछ नहीं सुना. ऐसे मुंह फेर लिया जैसे पहचानती ही नहीं हों. भला ऐसे कौन मां जाती है? अचानक से बिना कुछ बोले… बिना मिले…

मैं उन की अलमारी से कपड़ों को निकाल कर उन की गंध खोज रही थी. सब कपड़े धुले हुए थे. चाची के पास इस उम्मीद में बैठी कि उन से मां का स्पर्श मिलेगा, लेकिन वो तो खुद की ही सुधबुध खो चुकी थीं.

अस्पताल से आए कपड़ों में उन का कपड़ा मिला, जो उस दिन उन्होंने पहना हुआ था. वही मसालों की गंध जिस से मुझे चिढ़ थी, आज मां के पास होने का अहसास करा रही थी. हर रस्म अहसास दिला रहे थे कि मां अब वापस नहीं आएगी. दोनों बच्चों के समय मातृत्व अवकाश खत्म होने के बाद मां कुछ महीने मेरे पास ही रही थीं. वैसे भी साल में 2 बार तो मां उन दोनों के जन्मदिन पर आती ही थीं. अब मेरे पास बस उन पलों की यादें ही बची थीं. अवनी का जुड़ाव मां से बहुत ज्यादा था.

तेरहवीं की रस्मों के बाद पूरा परिवार एकसाथ बैठा हुआ था. अगले दिन सब को अपनेअपने घर निकलना था. चाची की आंखें फिर से डूबने लगीं, वो सुबकते हुए कहने लगीं, “भाभी ने मुझे मुंहदिखाई देते हुए कहा था, ये सारे उपहार तो साल दो साल में पुराने पड़ जाएंगे, लेकिन आज मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मेरे जिंदा रहते तुम्हें मायके की कमी महसूस नहीं होने दूंगी.” उन के चलते ही मैं ने अपना पढ़ने और नौकरी करने का सपना पूरा किया.

पापा जो अब तक बिलकुल शांत थे. उन्होंने चाची को समझाते हुए कहा कि वो देवी थीं इस घर को मंदिर बनाने आई थीं अपना काम पूरा कर के चली गईं. अब तुम्हें सब संभालना है. ये क्या बोल रहे थे पापा? मैं ने तो उन्हें कभी मां की तारीफ करते नहीं सुना या उन दोनों के मूक प्रेम को मैं समझ ही नहीं पाई?

मां के जाने के बाद जिंदगी रुक गई थी. कभी लगा ही नहीं वो दूर हो कर भी इस कदर मेरी जिंदगी में मौजूद हैं. शांति दीदी को काम करते देख मैं उन्हें गले लगा लेती. उन से आती गंध में मैं मां को खोजने लगती थी. लगता था, मैं बहुत खराब बेटी हूं. मुझे उन की स्निग्धता और परिपक्वता पर गर्व करना चाहिए था और मैं अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के मद में अंधी बनी रही. अपराध बोध से बड़ी कोई सजा नहीं होती और मुझे नहीं पता था कि इस सजा की अवधि कितनी है.

बढ़ती कमजोरी और मानसिक स्थिरता के कारण मैं ने छुट्टी ले ली. वैभव, बच्चे सब मेरी इस हालत से परेशान थे. परेशान तो मैं खुद भी थी, लेकिन इन सब से उबरने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था.

पतझड़ का सूनापन नई पत्तियों की आमद से ही दूर होता है. नन्हे पक्षियों की चहचहाहट से ही निर्जनता को आवाज मिलती है. एक दिन अवनी ने मुझे अपना मोबाइल दिया और कहने लगी, ”मम्मा, आप को पता है कि नानी आप को कितना प्यार करती थीं? आप जितना मुझे और अंकु को मिला कर करती हो उस से भी ज्यादा. याद है, उस दिन मैं ने अंकु के लिए सैंडविच बनाया था, वो मुझे नानी ने ही सिखाया था. पता नहीं क्यों उस दिन मुझे आप पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मैं ने नानी से कह दिया कि आप ने मम्मा को अपने जैसा क्यों नहीं बनाया. वो मुझ से कहने लगीं कि आप उन से भी अच्छी हैं, लेकिन मुझे उस दिन कोई बात सुनने का मन नहीं कर रहा था. तब उन्होंने ये मैसेज मुझे भेजा था.

“अवनी बेटा तुम्हें लगता है कि आभा तुम लोगों का ध्यान नहीं रख पाती. उसे भी नौकरी छोड़ कर तुम लोगों के साथ पूरे समय घर पर रहना चाहिए. लेकिन, ये तो गलत है ना बेटा. एक औरत जब बच्चों को छोड़ कर घर से काम करने निकलती है, तो वह खुद ही परेशान होती है. इस नौकरी को पाने के लिए जितनी मेहनत तुम्हारे पापा ने की थी, उतनी ही मेहनत मम्मा ने भी की है. मुझ पर घरपरिवार की बहुत जिम्मेदारियां थीं, लेकिन उस ने मुझे कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दिया. जब वो अधिकारी बनी तो तुम्हारे नाना ने कहा कि ये सब तुम्हारे अच्छे कर्मों का फल है. उस की सफलता ने मुझे भी सफल मां बनाया है. उस को कभी गलत मत समझना और हमेशा मजबूती के साथ उस का साथ देना.”

एक बोझ था जो आंसुओं के साथ हलका हो रहा था. अवनी मुझ से चिपकी हुई थी. कह रही थी, आप के अंदर से नानी की खुशबू आ रही है.

विश्‍वगुरु कौन : India या China

India-China : पूर्वी लद्दाख में सैनिकों को पीछे हटाने के लिए भारत के साथ हुए समझौते पर चीन ने सकारात्मक रुख दिखाते हुए अपने सैनिकों की वापसी शुरू कर दी है. उल्लेखनीय है कि भारत और चीन के बीच सीमा रेखा लगभग करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी है. चीन इसे महज दो हजार किलोमीटर बता कर भारत के लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताता रहा है. यह सीमा विवाद ही दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बनता है. 2020 में गलवान में हुई झड़प ने सीमा विवाद को थोड़ा और गंभीर बना दिया था. दरअसल विवादित सीमाएँ विवादित क्षेत्रों में प्रशासनिक उपस्थिति की कमी के कारण जटिल हुई हैं, जो कि दूरदराज के क्षेत्र हैं. असहमति इस तथ्य से भी उत्पन्न होती है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को कभी भी स्पष्ट रूप से सीमांकित नहीं किया गया है, चीन और भारत अक्सर इसके सटीक स्थान पर असहमत होते हैं और भारतीय मीडिया बार-बार भारतीय क्षेत्र में चीनी सैन्य घुसपैठ की खबरें उछालता रहता है.

चीन काफी लम्बे समय से खुद को उन तमाम विवादों से बहुत दूर रख रहा है जिन विवादों में दुनिया के अनेक देश जरूरी और गैर जरूरी रूप से उलझे हुए हैं. जैसे चीन रूस यूक्रेन युद्ध या इजरायल फिलिस्तीन युद्ध पर कोई टिप्पणी नहीं करता. वह अपनी सेना भी कहीं नहीं भेजता, जबकि अमेरिका, भारत लगातार इन युद्धों से जुड़ाव बनाये हुए हैं और युद्ध को लेकर उनकी टिप्पणियां चलती रहती हैं. भारतीय मीडिया तो चार कदम और आगे है. वह बार बार दोहराता है कि रूस और इजराइल प्रधानमंत्री मोदी के कहने पर युद्ध समाप्त करेंगे. प्रधानमंत्री मोदी भी कभी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ अपनी फोटो मीडिया में फ़्लैश करवाते हैं तो कभी पुतिन और नेस्तन्याहु के साथ उनकी तस्वीरें वायरल होती हैं. ऐसा लगता है मानो युद्धों को रुकवाने के लिए सबसे ज्यादा भागदौड़ मोदी ही कर रहे हैं. कभी चीन के राष्ट्रपति या अमेरिका के राष्ट्रपति की ऐसी फोटोज मीडिया में नहीं आती क्योंकि वे अपने देश के विकास और समस्याओं के समाधान में लगे हैं, खासकर चीन.

चीन का पूरा ध्यान अपने देश की आर्थिक उन्नति और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की तरफ है. चीन में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि औसतन 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष है और उसने अपने 800 मिलियन से अधिक लोगों को गरीबी से बाहर निकाल कर उन्हें रोजगार और एक अच्छी जीवनशैली प्रदान की है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनकर उभरने में चीन को 70 वर्षों से भी कम समय लगा है.

गौरतलब है जब 70 साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन की सत्ता संभाली थी तब ये एक बेहद गरीब देश था. न उसके पास कोई व्यापारिक सहयोगी था न किसी तरह के कूटनीतिक रिश्ते. चीन पूरी तरह से ख़ुद पर निर्भर था. बीते 45 वर्षों में चीन ने व्यापारिक रास्ते खोलने और निवेश लाने के लिए अपने बाजार की व्यवस्था में कई ऐसे सुधार किए जो ऐतिहासिक हैं. इस तरह चीन अपने करोड़ों लोगों को गरीबी के दलदल से बाहर खींच लाया. हालाँकि बीच में माओत्सेतुंग के शासन में उनके कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के औद्योगीकरण की कोशिश के नाकाम होने से चीन को बड़ा झटका लगा था. हालात तब और ख़राब हो गए थे जब 1959-1961 के बीच अकाल ने करीब 40 लाख लोगों की जानें ले ली. मगर 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में सुधारों की जिम्मेदारी डेंग जियाओपिंग ने उठाई.

उन्होंने चीनी अर्थव्यवस्था को नया आकार देना शुरू किया. किसानों को अपनी जमीन पर खेती करने का अधिकार दिया गया. इससे उनके जीवन स्तर में सुधार आया और खाने की कमी की समस्या भी दूर हो गई. चीन और अमेरिका ने 1979 में अपने कूटनीतिक संबंधों को दोबारा स्थापित किया और विदेशी निवेश के दरवाज़े खोल दिए गए. चूंकि उस वक्त चीन में मजदूर, मानव संसाधन और किराया बहुत सस्ता था, निवेशकों ने धड़ाधड़ पैसे डालने शुरू किए.

एक समय था जब चीन की आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा थी मगर अब भारत आबादी के मामले में चीन से आगे निकल चुका है. चीन की आबादी 2020 में करीब 1.44 बिलियन थी. चीन की जनसंख्या में सालाना बढ़ोतरी 7 मिलियन से थोड़ी कम है. चीन की एक-संतान नीति के तहत, 1991 से 2017 के बीच अपनी बढ़ती जनसंख्या दर पर काफी काबू पा लिया है, जबकि भारत की जनसंख्या 2024 में 145 करोड़ होने का अनुमान है. चीन की जनसंख्या वर्तमान में प्रति वर्ष 7 मिलियन से थोड़ा कम बढ़ रही है, जबकि भारत की लगभग 18 मिलियन बढ़ती है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, भारत की आबादी अगले तीन दशकों तक बढ़ती रहेगी और फिर इसमें गिरावट आनी शुरू होगी. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2085 तक भारत की आबादी चीन की आबादी से दोगुनी हो जाएगी.

चीन के विकास की बड़ी वजह यह है कि चीन एक साम्यवादी देश है, जो किसी भगवन या देवी देवता को नहीं मानते. वहां केवल श्रम की पूजा होती है. बहुत कम उम्र से चीनी बच्चे अनुशासन, शारीरिक फिटनेस और कौशल प्राप्त करने में लग जाते हैं. चीन ने अपनी युवा आबादी को बेहतर शिक्षा, रोजगार और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर देश के विकास को गति दी है. वहीं भारतीय युवा अपनी सारी ऊर्जा धार्मिक कर्मकांडों को निभाने और धार्मिक यात्राएं, शोभायात्राएं, कांवड़ यात्राएं, जुलूस, मातम अथवा राजनितिक दलों की प्रायोजित रैलियों-दंगों-उत्पात मचाने में गंवा रहा है. सरकार इस आबादी को ना तो अच्छी शिक्षा दे पा रही है, ना अनुशासन और ना रोजगार.

1978 में जब से चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना और सुधारना शुरू किया है, तब से उसकी सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि औसतन 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है. इसी अवधि में उसने स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सेवाओं तक आमजन की पहुंच में उल्लेखनीय सुधार किया है.

चीन अब एक उच्च-मध्यम आय वाला देश है. चीन सरकार ने 2020 में ही अपने देश से अत्यधिक गरीबी को खत्म कर दिया था, जबकि भारत के प्रधानमंत्री मोदी अपनी 140 करोड़ आबादी में से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन बाँट रहे हैं और यह बात बताने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं कि भारत में 80 करोड़ आबादी अपने लिए दो वक्त का भोजन नहीं जुटा सकती, इसलिए सरकार उनको मुफ्त राशन दे रही है. इतना युवा देश होने के बावजूद भारत में बेरोजगारी और भुखमरी चरम पर है और मोदी सरकार हमें विश्वगुरु बनने का सपना दिखा रही है.

चीन और भारत आबादी के लिहाज से बराबर ही हैं. दोनों देशों के बीच जटिल व्यापारिक सम्बन्ध हैं. भारतीय बाजार में चीनी सामान का आधिपत्य है, जो अधिक समय तक भले ना चले मगर सस्ता इतना कि गरीब आदमी की खरीद में आ जाए. चीन ने अपने छोटे छोटे कुटीर उद्योग के माध्यम से घर घर में उद्योगधंधे शुरू करवा दिए और वहां से निकले उत्पादों को दुनिया भर के बाजारों में खपा दिया. मगर भारत में कोई छोटा मोटा धंधा शुरू करने के लिए साधारण लोन प्राप्त करने में आम आदमी को चप्पलें घिस जाती हैं. यही वजह है कि बीते सत्तर सालों में एक जैसी परिस्थिति से निकले भारत और चीन की आर्थिक हालत में जमीन आसमान का अंतर है. चीन उत्पादन के क्षेत्र में आज दुनिया के शीर्ष पर पहुंच चुका है. वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश बन चुका है. दुनिया की 80 % ए.सी. , 70% स्मार्टफोन, 60 % जूते, 74% सोलर सेल, 60% सीमेंट, 45% पानी का जहाज, 50% स्टील चीन ही बनाता है. 50% कोयला का उत्पादन भी चीन ही करता है. चीन को अब ग्लोबल फैक्ट्री कहा जाने लगा है और चीन अरबपतियों के मामले में भी दूसरे नम्बर पर पहुँच चुका है.

आज शायद ही कोई चीज है जो चीन नहीं बनाता है. चीन पूरी दुनिया में झांकता है कि सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज क्या है और किस चीज की मांग सबसे ज्यादा होने वाली है? उसे वह पहले सीखता है, फिर बनाता है और सबसे सस्ते दामों पर बेचता है. चीन अपने सामानों को इतनी बड़ी मात्रा में बनाता है कि उत्पादों के दाम बहुत क़म हो जाते हैं. उनके लेबर बहुत निपुण होते है और उनके पास एडवांस टेक्नोलॉजी होती है जो उनके उत्पादन की क्षमता को कई गुना बढ़ा देते हैं, जिससे उत्पादन की तुलना में लेबर की लागत बहुत कम हो जाती है.

चीन की तरक्की का एक बड़ा कारण उसकी राजनितिक स्थिरता भी है. चीन के नेता हमेशा से अपने देश के प्रति वफादार रहे हैं और देश की उनत्ति को बढ़ावा दिया है. चीन की महिलायें पॉलिटिक्स से लेकर लगभग हर कार्यक्षेत्र में नजर आती हैं. यहां की ज्यादातर औरतें शिक्षित हैं और बड़ी संख्या में पुरुषों के साथ काम करती हैं. ये सर्वविदित है कि काम में महिलाओं की हिस्सेदारी किसी देश को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाती है. आधी आबादी की 80% आबादी नास्तिक है यानि ज्यादातर महिलाओं को धर्म और धार्मिक कर्मकांडों से कोई मतलब ही नहीं है. जिस कारण वे अपनी पूरी ऊर्जा, अपना पैसा और समय कर्म करने में लगाती हैं. वो धर्म पर नहीं कर्म पर विश्वास करती हैं और हमेशा अपनी और परिवार की उन्नति के बारे में सोचती हैं.

चीन की विस्फोटक उन्नति के और भी कई राज हैं जैसे:-चीन में हड़ताल और संघबाजी का न होना, अपने लक्ष्य के प्रति दूर की सोच और कड़ी मेहनत, देश के प्रति अपार देशभक्ति और लगन, बढ़िया शिक्षा होना और बड़ो से लेकर बच्चों तक को टेक्नोलौजी की सही समझ और ज्ञान. भारत और चीन के बीच तुलनात्मक विश्लेषण कई विषयों पर किया जा सकता है, जैसे कि आय असमानता, औद्योगिक विकास, रक्षा बजट, सिंचित क्षेत्र और तंबाकू नियंत्रण आदि. आय असमानता की बात करें तो भारत में आय असमानता चीन की तुलना में बहुत ज्यादा है. भारत में शहरी क्षेत्रों में आय असमानता 40% और ग्रामीण क्षेत्रों में 32% है. औद्योगिक विकास के मामले में चीन में भारत की तुलना में ज़्यादा अर्ध-कुशल श्रम शक्ति है. चीन में व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण का आकार बहुत बड़ा है. चीन ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था भारत के मुकाबले बहुत मजबूत कर ली है. चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट से तीन गुना ज्यादा है. आज भारत की अर्थव्यवस्था दो ट्रिलियन डौलर की है और चीन की नौ ट्रिलियन डौलर की. आज शंघाई दुनिया के सबसे वैभवशाली समृद्ध शहरों में गिना जाता है और चीन का दावा है कि 2025 तक वह न्यूयार्क जैसे नौ शहर बसा लेगा.

मोदी सरकार को उम्मीद है कि एक दिन भारत आर्थिक वृद्धि दर के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा जो बस एक कदम पीछे है. लेकिन हकीकत यह है कि अभी भारत की चीन के साथ तुलना नहीं की जा सकती है. भारत में जरूरी सार्वजनिक सेवाओं का जो हाल है वह चीन में नहीं है. चीन में जरूरी सार्वजनिक सेवाओं का स्तर भारत से कहीं ज्यादा अच्छा है. चीनी लोगों का रहन सहन भी भारतीय लोगों से कहीं ज्यादा अच्छा है.

चीन और भारत दोनों ही देशों में असमानता बहुत ज्यादा है लेकिन चीन में जीवन प्रत्याशा बढ़ाने के लिए भारत से कहीं ज्यादा अच्छे प्रयास किए जा रहे हैं. चीन अपने लोगों की शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भारत से कहीं ज्यादा खर्च कर रहा है. भारत में ऐसे बहुत से शिक्षा संस्थान हैं जो काफी अच्छे हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह भी एक सच्चाई है कि ये केवल देश के एक तबके के लिए ही हैं और आम आदमी का बच्चा इनमें नहीं पढ़ सकता है. आज भी भारत में हर पांच से एक लड़का स्कूल नहीं जाता है और हर तीन में से एक लड़की भी स्कूल नहीं जाती है. यही नहीं देश के कुछ स्कूलों छोड़ दे तो सारे स्कूलों की गुणवत्ता बहुत ही खराब है. सरकारी स्कूलों की हालत यह है कि पूरा का पूरा स्कूल कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले एक शिक्षक के भरोसे चल रहा है. देश में शिक्षा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आधे से ज्यादा बच्चे चार साल की स्कूलिंग के बाद 20 को पांच से भाग देने की स्थिति में नहीं होते हैं.

भारत दुनिया में सबसे ज्यादा जेनरिक दवाओं का उत्पादन करने वाला देश है, लेकिन यहां का स्वास्थ्य क्षेत्र बड़े पैमाने पर अनियंत्रित है. भारत में गरीब लोगों को बहुत ही घटिया क्वालिटी की स्वास्थ्य सेवाएं मिलती हैं. कई मामलों में ये शोषण के स्तर तक पहुंच जाती है. भारत में सार्वजनिक सेवाओं का हाल इतना बुरा है कि बड़े अस्पतालों में इलाज कराना किसी सजा से कम नहीं है. निजी अस्पतालों का खर्चा इतना ज्यादा होता है कि गरीब लोग उसके बारे में सोच भी नहीं सकते हैं. चीन अपने जीडीपी का 2.7 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है लेकिन भारत अपनी जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है.

चीन अपने नागरिकों की भूख को मिटाने, अशिक्षा को खत्म करने और स्वास्थ्य सेवाओं को ठीक करने के लिए प्रतिबद्ध है. यही कारण है कि चीन अपने यहां लोगों को बेहतर जीवन स्तर देने में कामयाब रहा है लेकिन भारत में लोगों का जीवन उस स्तर तक नहीं सुधरा है जिसकी लोगों ने उम्मीद की थी.

जब सहेली या मित्र अंधविश्वासी हो

“अरे, यह तुम ने गले में इतना बड़ा कला धागा क्यों पहन रखा है, पहले तो नहीं पहना था,” नेहा ने कहा तो प्रिय रोंआसी हो कर कहती है, “आजकल मेरा पढ़ने में मन नहीं लग रहा क्योंकि मुझे किसी की नज़र लग गई है. इसलिए मैं ने यह पहना है.”

हर बार की टौपर प्रिय के मुंह से ये शब्द सुन कर नेहा आवक रह गई, बोली, “क्या तुम इन सब अंधविश्वासों को मानती हो? तुम्हारा पढ़ाई में मन इसलिए नहीं लग रहा क्योंकि पढ़ाई से ज्यादा वक्त तुम अपने नए बने बौयफ्रैंड को दे रही हो जिस के चलते क्लास में देर से आती हो और कुछ समझ नहीं पा रही हो. इस में यह काला धागा क्या कर लेगा? तुम अपने दोस्त से कहो कि क्लास में तुम्हें टाइम से ही जाना है. देखना, फिर कैसे पढ़ाई में तुम्हारा मन फिर से लगने लगेगा.”

यह सुन नेहा सोच में पड़ गई क्योंकि इस सच से तो वह मना नहीं कर सकती थी कि आजकल उस का मन पढ़ाई से ज्यादा अपने नए बने बौयफ्रैंड के साथ टाइम स्पैंड करने में ज्यादा लग रहा है.

किसी की नजर न लगे, इसलिए लोग नीबू, मिर्च, जूताचप्पल आदि घरों व गाड़ियों में टांगते हैं. स्टूडैंट भी शगुनअपशगुन को बहुत मानते हैं क्योंकि उन्होंने अपने परिवार को शुरू से ऐसी रूढ़ियों में बंधे हुए ही देखा है. उन के मन में डर होता है कि इन सब रिचुअल को फौलो नहीं किया, तो हमारे साथ कुछ खराब हो जाएगा.

यह बात समझ में आती है कि शुरू से जो माहौल देखो वही सही लगने लगता है. लेकिन अब तो आप घर से बाहर एक नई दुनिया में अपने दोस्तों के साथ हैं, उन से भी बहुतकुछ सीख सकते हैं. अगर एक दोस्त को लगता है कि मेरी दोस्त बहुत अच्छी है, हम बेस्ट फ्रैंड हैं, एकदूसरे की दोस्ती को पसंद करते हैं लेकिन उस की अंधविश्वासी बातों की वजह से मुझे अच्छा नहीं लग रहा और उस रिलेशन में सफोकेशन होने लगा है, तो अपनी अच्छी दोस्ती तोड़ने के बजाय अपने दोस्त को समझा कर उसे सही रास्ते पर लाएं.

अगर दोस्त किसी गलत रास्ते पर है तो उसे सही रास्ते पर लाना भी आप का काम है. लेकिन इस के लिए उसे कुछ इस तरह वैज्ञानिक तर्क दे कर समझाना होगा कि उसे बुरा न लगे और बात भी समझ आ जाए. अब यह दोस्त मेल टू मेल भी हो सकता है, फीमेल टू फीमेल भी हो सकती है और मेलफीमेल हो सकते हैं. लेकिन दोस्त को कुछ भी समझाने से पहले यह समझना होगा कि अंधविश्वास आखिर है क्यों.

अंधविश्वासी होने का कारण परवरिश में छिपा हुआ है

यह सिर्फ इन टीनएजर्स की ही बात नहीं है, दुनिया में ऐसे कई वैज्ञानिक, डाक्टर और इंजीनियर जैसे पढ़ेलिखे लोग हैं जिन का मन बिल्ली के रास्ता काटने पर आज भी शंकाग्रस्त हो उठता है कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं होगी. घर से निकलते वक्त छींक आने पर मन में आशंका होने लगती हैं कि कुछ अमंगल तो नहीं होगा. सवाल यह है कि पढ़ालिखा इंसान भी क्यों और कैसे अंधविश्वासी बनता है.

पढ़ेलिखे इंसानों के भी अंधविश्वासी होने का कारण उन की परवरिश में छिपा हुआ हैं. बचपन में अपने परिवार और आसपास के माहौल में इंसान जो कुछ देखता है, वो सब बातें उस के अवचेतन मन में गहरे तक बैठ जाती हैं. बचपन की इन्हीं सहीगलत बातों को इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ सही मानने लगता हैं. जब इंसान बड़ा हो कर पढ़तालिखता है, तो वह दुविधाग्रस्त हो जाता है कि सही क्या है और गलत क्या है. बचपन में वह देखता है कि घर का कोई भी सदस्य जब घर से बाहर जा रहा हो और ऐसे में यदि किसी को छींक आ जाएं, तो इसे अपशकुन माना जाता हैं. ऐसे में दो मिनट रुक कर फ़िर बाहर जाना चाहिए वरना अमंगल होने की आशंका रहती है. इस बात को कई बार देखनेसुनने पर यह बात उस के मन में घर कर जाती है.

लेकिन जब उन्हें इस का वैज्ञानिक कारण पता चलता है, तो उन्हें समझ आता है छींक आना एक सामान्य मानवीय क्रिया है और इस का शकुनअपशकुन से कोई वास्ता नहीं हैं. ऐसे में जो पढ़ेलिखे लोग, पढ़े हुए पर चिंतनमनन करते हैं, वे तो छींक आने को सामान्य क्रिया मानने लगते हैं. लेकिन उन में से भी कुछ लोगों के साथ यदि कभी ऐसा हुआ हो कि वे कभी किसी शुभ कार्य के लिए बाहर जा रहे हों और किसी को छींक आ गई और उस दिन उन का कार्य सफल न हुआ तो ऐसे में इन पढ़ेलिखे लोगों को भी विज्ञान से ज्यादा बचपन में सुनी हुई बातों पर विश्वास होने लगता हैं क्योंकि उस वक्त इंसान कार्य की असफलता से परेशान रहता है. इसी परेशानी में वह सही या गलत की पहचान नहीं कर पाता. इसलिए, आइए जानें कि सहेली को कैसे समझाएं.

सहेली को बताएं पीरियड्स में रोकटोक अंधविश्वास की देन है

कई सारे घरों में आज भी माहवारी को गंदी चीज माना जाता है. ऐसे में घर की बच्चियों, जिन की माहवारी की अभी शुरुआत हुई है, के दिमाग में भी पीरियड्स को ले कर कई सारी भ्रांतिया भर दी जाती हैं. उन्हें अचार छूने से मना कर दिया जाता है, तुलसी का पौधा छूने से रोका जाता है, कई घरों में तो किचन में भी जाने से रोका जाता है.

अगर आप की सहेली के घर में भी ऐसा होता है, तो उसे बातोंबातों में बताएं कि पीरियड्स में अचार छूने से आचार ख़राब नहीं होता. मैं तो हमेशा ही पीरियड्स में भरे डब्बे में हाथ डाल देती हूं, कभी आचार ख़राब नहीं हुआ, तुम भी एक बार ट्राई जरूर करना और अगर ऐसे हो तो मुझे बताना. आप के घर में पीरियड्स में कितनी आज़ादी है और सहेली के घर में कितनी रोकटोक, इस बारे में खुल कर बात करें. ऐसा करने पर वह जरूर समझेगी.

व्रतत्योहार में भूख से बेहाल हो तब समझाएं

जब सहेली का व्रत हो और वह भूख से बेहाल हो रही हो तब उस से पूछें कि ऐसा कर के तुम किस को खुश करना चाहती हो. अगर ऐसा इसलिए कर रही हो कि तुम्हारे अच्छे नंबर लाने की विश पूरी हो या फिर तुम्हें शादी के लिए मनपसंद जीवनसाथी चाहिए तो डियर, इस में व्रत करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि इस के लिए तुम्हें खूब मेहनत करनी होगी तभी एग्जाम में अच्छे नंबर आएंगे और जहां तक बौयफ्रैंड से शादी करने की बात है, उस के लिए उसे भी अपने पैरों पर खड़े होना होगा ताकि पेरैंट्स को इनकार करने की कोई वजह ही न मिले. इस में व्रत करने से सिर्फ टाइम और एनर्जी वेस्ट होगी.

मंदिर की जगह मौल ले जाएं

जब सहेली आप को मंदिर या किसी धार्मिक स्थल पर चलने को कहे तो मना न करें और अगली बार आप उसे अपने साथ मौल या फिर मूवी देखने ले जाएं और उसे बातोंबातों में बताएं कि मंदिर में तो हम कितना बोर हो गए थे, अब देखो साथ में कितने मज़े कर रहे हैं, शौपिंग, मूवी, खानापीना सब हो गया, कितना रिलैक्स हो गया. क्या ऐसा रिलैक्स हम मंदिर में कर पाते, नहीं न, तो फिर जब भी फ्री टाइम होगा, हम ऐसे ही आउटिंग के लिए चलेंगी. इस तरह करने पर उसे भी मंदिर के बजाए मौल जाना ही अच्छा लगने लगेगा क्योंकि कहीं न कहीं वह यह बात खुद भी जान चुकी होगी कि मौल में मंदिर जाने से ज्यादा एंजौयमैंट हुआ है.

ढोंगी बाबाओं के ढोंग के किस्से पढ़ाएंसुनाएं

आएदिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि इन ढोंगी बाबाओं ने किस तरह जनता को लूटा है. इन बाबाओं के ऊपर रेप केस तक चल रहे हैं. ये किसकिस तरह जनता का माल लूट कर अपने महल खड़े करते हैं, कितनी लग्जरी गाड़ियों में चलते हैं. आएदिन कहीं न कहीं छपता ही रहता है. उन न्यूज़पेपर और मैगज़ीन की कटिंग इन्हें दिखाएं.

आसाराम बापू के भक्त उन पर अंधा विश्वास करते थे. नाबालिग से रेप के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद आसाराम बापू फिलहाल राजस्थान की जोधपुर जेल में बंद हैं. एक जमाने में आसाराम के अंधभक्तों की भरमार थी. आसाराम पर अपने आश्रम में बच्चियों का यौनशोषण और कई महिलाओं का रेप करने के आरोप हैं. राम रहीम को 2 साध्वियों का रेप करने के आरोप में 20 साल की सजा सुनाई गई है.

शनिधाम के संस्थापक दाती महाराज पर भी उन की एक 25 वर्षीया शिष्या ने आरोप लगाया था कि बाबा और उन के अन्य सहयोगियों ने दिल्ली व राजस्थान के पाली स्थित आश्रम में बलात्कार किया. दिल्ली के रोहिणी के विजयविहार इलाके में आध्यात्मिक विश्वविद्यालय के नाम पर आश्रम चलाने वाले इस ढोंगी बाबा ने खुद को कलियुग का कृष्ण घोषित कर रखा था. इस वहशी बाबा ने 16 हजार महिलाओं के साथ संबंध बनाने का लक्ष्य रखा, लेकिन इसी की एक अनुयायी महिला को जब अपनी 4 बेटियों के साथ बाबा की घिनौनी करतूत का पता चला तो उस ने भी वहशी बाबा की पोल खोलने की ठान ली. वीरेंद्र देव पर अब तक अलगअलग थानों में रेप समेत 10 से ज्यादा एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं.

चित्रकूट के चमरौहा गांव के रहने वाले भीमानंद महाराज पर भी सैक्स रैकेट चलाने का आरोप लगा था. बाबा कौशलेंद्र उर्फ फलाहारी बाबा पर भी शिष्या का रेप करने का आरोप लगा. इस तरह के आरोप न जाने कितने बाबाओं पर लगे हैं. जब आप अपनी सहेली को रिसर्च के साथ यह सब बताएंगी और इंटरनैट पर दिखाएंगी तो अगली बार जब वह किसी बाबा के पास प्रवचन सुनने जाएगी तो दस बार सोचेगी जरूर.

बृहस्पतिवार को सिर न धोना अंधविश्वास कैसे है, उसे बताएं

रचना ने बृहस्पतिवार को सिर में तेल डाला था. उसे लगा कहीं जाना तो है नहीं, फिर बाल धोने की भी जरूरत नहीं है. लेकिन शाम के समय रचना की सहेलियों का फोन आया कि चलो, हम सब लोग घूमने जा रहे हैं. ऐसे में रचना कंफ्यूज हो गई कि इतने तेल में बाहर कैसे जाएं. सहेली ने कहा, उस में क्या है, सिर धो लो. लेकिन रचना ने कहा, आज बृहस्पतिवार है, सिर नहीं धो सकते. यह सुन कर सहेली की हंसी छूट गई. सीरियसली, इस वजह से प्रोग्राम कैंसिल कर रही हो?

सब ने बारबार बोला तो वह बिना हेयर वाश किए ही उन के साथ पब में आ गई. वहां आ कर अपने बालों की वजह से वह काफी एंबैरेसिंग फील कर रही थी. अलग ही बैठी थी. ऐसे में आस्था, जोकि उस की बेस्ट फ्रैंड थी, ने जा कर समझाया कि आज के टाइम में तुम कहां इन चक्करों में पड़ी हो. तुम्हारे घर वाले इन बातों को मानते हैं, तो क्या हुआ. तुम तो इन रूढ़ियों को तोड़ सकती हो न.

सिर के बाल भी शरीर के अन्य अंगों की तरह शरीर का एक भाग हैं. हम जिस तरह हाथपैर जैसे अंग कभी भी धो लेते हैं, ठीक उसी तरह सिर के बाल भी कभी भी धो सकते हैं. बिना मतलब अंधविश्वास से मन में किसी तरह का वहम न पालो. मेरा यकीन कर, अमावस्या को या ऐसे किसी भी दिन सिर के बाल धोने से कुछ भी अशुभ नहीं होगा. मैं खुद भी जब चाहे तब बाल धो लेती हूं. मेरे साथ कुछ भी अमंगल नहीं हुआ है. यह सुन सहेली का मन इन अंधविश्वासों से जरूर बाहर आएगा.

अब कुछ वैज्ञानिक तर्क

छींक आने पर 2 मिनट रुक कर बाहर जाते हैं : प्रियंका जल्दीजल्दी में अपने कदम बढ़ाते हुए क्लास की तरफ बढ़ रही थी. उस के साथ आ रही उस की दोस्त रेनू ने उसे टोका, आस्था, 5 मिनट रुक कर चलेंगे, तुम देख नहीं रही हो, मुझे अभी छींक आ गई है. इस पर आस्था ने नाराज हो कर कहा कि हम पहले ही लेट हैं प्रैक्टिकल के लिए. अगर और रुके तो एंट्री नहीं होगी. लेकिन रेनू ने कहा हमारे घर में दादादादी से ले कर मम्मीपापा तक और मुझे भी पूरा विश्वास है कि छींक आने पर यदि दो मिनट न रुक कर वैसे ही बाहर चले गए तो कोई न कोई अनहोनी जरूर होती है. रेनू ने उस की बात नहीं मानी लेकिन आस्था दौड़ते हुए गई और उस ने एंट्री कर ली. लेकिन थोड़े ही देर में जब रेनू पहुंची, तो रूम क्लोज हो चुका था और मैडम की लाख मिन्नतें करने पर भी रेनू को एंट्री नहीं मिली.

उस का प्रैक्टिकल छूटना मतलब मार्क्स कम होना. रेनू का मूड बहुत ख़राब हुआ तो समझाया कि आज तो तुम ने अपनी आंखों से देख लिया न कि तुम्हारे छींकने के बावजूद भी मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन तुम्हारा काफी नुकसान हो गया. अगर तुम न रुकतीं तो शायद नुकसान न होता. अब तुम ही सोचो, अगर यह अपशकुन होता, तो वह मुझे लगता लकिन लगा तुम्हें. इसलिए इस का अपशकुन से कुछ लेनादेना नहीं है.

क्या है छींक आने का वैज्ञानिक कारण : आस्था ने फिर रेनू को तसल्ली से समझाया कि मेरे पापा हमेशा कहते हैं, छींक वह क्रिया है जिस में फेफड़ों से हवा नाक और मुंह के रास्ते अत्यधिक तेजी से बाहर निकाली जाती है. जब हमारे नाक के अंदर की झिल्ली, किसी बाहरी पदार्थ के घुस जाने से खुजलाती है, तब नाक से तुरंत हमारे मस्तिष्क को संदेश पहुंचता है और वह शरीर की मांसपेशियों को आदेश देता है कि इस पदार्थ को बाहर निकालें. सर्दीजुकाम होने पर भी ऐसे ही छींक आती है क्योंकि ज़ुकाम की वजह से हमारी नाक के भीतर की झिल्ली में सूजन आ जाती है और उस से खुजलाहट होती है.

मतलब, छींक आना एक सामान्य मानवीय क्रिया है. अब आप सोचिए कि जब छींक द्वारा हमारा शरीर नाक और गले के उत्तेजक पदार्थों को बाहर निकाल रहा हैं तो उस में शकुनअपशकुन बीच में कहां से आ गया. छींक बेचारी को पता नहीं होता कि कोई शुभकार्य के लिए बाहर जा रहा हैं तो आना चाहिए कि नहीं आना चाहिए. रेनू की समझ में पूरी बात आ चुकी थी और अब वह समझ चुकी थी कि यह सिर्फ एक अंधविश्वास है, और कुछ नहीं.

जब शेषनाग करवट लेते हैं तब भूकंप आता है

रजत ने बताया कि हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि धरती शेषनाग पर टिकी हुई है और जब शेषनाग करवट बदलता हैं, तो वह हिलने लगती है और इसी से भूकंप आता है. जब भी भूकंप आता है तो मेरी दादी यही बोलती थी और इतना पढ़नेलिखने के बाद भी मैं इसी बात को सच मानता रहा हूं. इस सच से परदा उठाया मेरी एक टीचर ने जब उन्होंने इस का वैज्ञानिक तर्क दिया तो बात समझ आई.

भूकंप आने का वैज्ञानिक तर्क

पूरी धरती 12 टैक्टोनिक प्लेटों पर स्थित है. इस के नीचे तरल पदार्थ लावा है. ये प्लेटें इसी लावे पर तैर रही हैं और इन के टकराने से ऊर्जा निकलती है जिस से भूकंप आता है. इस के बाद मैं ने अपने घर पर भी यह बात सब को बताई और उन का तो मुझे नहीं पता लेकिन मेरा चीजों को देखने का नज़रिया बदल गया. अब मैं कोशिश करता हूं कि हर चीज को विज्ञान की कसौटी पर परख कर देखूं.

वाकई यह सच है कि विज्ञान तर्क के आधार पर किसी भी बात को जांचतापरखता हैं जबकि धर्म से जुड़ी किताबें सिर्फ़ बातों का पुलिंदा होती हैं, जिन में अंधविश्वास भरा होता है. इस तरह हर इंसान बचपन से देखीसुनी बातें और वैज्ञानिक सच में से किसे सच माने, इस दुविधा में फंसा रहता हैं और इस तरह बचपन से हुई अपनी परवरिश के कारण ही पढ़ालिखा इंसान भी अंधविश्वासी बन जाता है.

दोस्तो, हम हर विषय की दोदो परिभाषाएं रखते हैं, इसलिए दुविधाग्रस्त हो जाते हैं. कुछ लोगों का कहना होता है कि हमारे पूर्वज ऐसा मानते थे, इसलिए हम भी मानेंगे. हमारे पूर्वज कंदमूल खा कर जंगलों में नग्न रहते थे, तो क्या हम भी कंदमूल खा कर जंगलों में नग्न घूमेंगे? नहीं न. सो, सुनीसुनाई बातों के बजाय अपनी बुद्धि पर भरोसा करें. वैसे भी, जब जागो तभी सवेरा होता है.

Workout करते समय क्या आपको भी होती है घबराहट?

Gym Anxiety :आज लता ने जैसे ही दो मिनट का व्यायाम किया, उस के दिल की धड़कन तेज हो गई. उस का जी घबराने लगा. उस ने झट अपने चिकित्सक को फोन किया. बगैर विलंब उन के पास गई. लता की जांच की गई. उस का मधुमेह बढ़ रहा था. रक्तचाप भी. चिकित्सीय सलाह से उस ने भारी कसरत तुरंत बंद कर दी. अब वह सरल व्यायाम व टहलने को ही प्राथमिकता देती है.

आप ने गौर किया होगा कि बहुत बार ऐसा होता है कि आप अगर हलकाफुलका भी व्यायाम कर रहे हों, यहां तक कि पैदल चल रहे हों या साइकिल चला रहे हों, तब भी शरीर में अचानक ही बेचैनी होना तथा घबराहट लगना एक आम बात सी होने लगती है. बेचैनी और घबराहट ऐसी प्रक्रिया है जिस में शरीर अपने आंतरिक अंगों को नियंत्रित करता है, यानी, कुछ देर की बेचैनी, अचानक पसीना सा आना एक तरह से शरीर के ठंडा होने की एक प्रक्रिया है. बहुत बार कड़ा व्यायाम करने पर शरीर का अंदरूनी तापमान बढ़ जाता है, जिस से त्वचा पर मौजूद हमारे पसीने की ग्रंथियां पसीना छोड़ती हैं. बाहरी तापमान में बदलाव के साथ ही भावनात्मक स्थिति जैसे कारक पसीना आने, घबराहट, बेचैनी का कारण बन सकते हैं.

वहीं, कई मामलों में सामने आया कि यह हालत 10 मिनट से अधिक होने के बड़े स्वास्थ्य संबंधी नुकसान हो सकते हैं. ऐसे में सचेत हो जाना चाहिए. हमारा शरीर यह संकेत भेज रहा होता है कि इसे देखभाल की जरूरत है. ऐसी हालत में जो भी कसरत कर रहे हैं उसे टाल देना चाहिए.

हालांकि कुछ लोगों को जैविक कारकों के कारण दूसरों की तुलना में ज्यादा घबराहट होती है, बेचैनी छाने लगती है और पसीना भी आता है. जिन्हें पसीना कम आता है उन के शरीर में पानी की कमी होती है. लेकिन ज्यादा आना भी सेहत के लिए तो हानिकारक नहीं है. इस से शरीर से ज्यादा तरल पदार्थ निकलता है, इसलिए किसी भी कसरत या व्यायाम से पहले पर्याप्त मात्रा में पानी पीना चाहिए.

शरीर में घबराहट महसूस होने और पसीना आने वाले भागों में मुख्यतौर पर बगलें, मुंह, हथेलियां और पैरों के तले शामिल हैं. ऐक्सरसाइज के दौरान ज्यादा पसीना आने से ब्यूटी व गंध आदि से संबंधित कई समस्याएं हो सकती हैं. अकसर व्यायाम करते समय मौइश्चराइजिंग क्रीम या सनस्क्रीम बह जाती है और वह आंखों में आने लगती है. इस वजह से भी बेचैनी, जलन और घबराहट होती है. इस के लिए जरूरी है कि वर्कआउट से पहले क्रीम की हलकी परत लगाएं. वहीं माथे पर कौटन के कपड़े से बना स्वैट बैंड आप के पसीने को आंखों में आने से रोकता है.

ऐक्सरसाइज करते समय अकसर होंठ सूखने लगते हैं, जो शरीर में पानी की कमी की ओर इशारा करते हैं. इस के लिए दिनभर में कम से कम 8 गिलास पानी तो पीना ही चाहिए. इस से स्वाभाविक है पसीना भी खूब आएगा. ऐक्सरसाइज करते समय सांस चढ़ने से मुंह के बजाय सांस नाक से ही लेनी चाहिए और होंठों पर बारबार जीभ नहीं फिरानी चाहिए क्योंकि मुंह की लार में मौजूद एंजाइम्स से होंठ जल्दी सूखने लगते हैं. ऐसे में बेहतर है कि ऐक्सरसाइज आदि करने से पहले अच्छी क्वालिटी की लिपबाम लगाई जाए. पुरुष भी कोई नया इत्र, डिऔडरैंट या परफ्यूम लगा कर व्यायाम कर रहे होते हैं. उस कारण भी घबराहट और बेचैनी होने लगती है.

 

 

ऐक्सरसाइज के दौरान घबराहट से कुछ लोगों को हलका बुखार भी हो जाता है. मगर वे किसी की बातों मे आ कर अपना व्यायाम चालू रखते हैं. यह घातक है. हम अपने चिकित्सक कभी भी खुद न बनें. इसलिए इस संबंध में चिकित्सीय परामर्श के बगैर आगे कोई दबाव वाला व्यायाम नहीं करना चाहिए.

 

कुछ लोगों को पसीना कम आता है, यह बात तो स्वाभाविक है. लेकिन यदि आप को घबराहट और बेचैनी के बाद भी चलनाफिरना तथा टहलना सुकून दे रहा है तो यह फिक्र की कोई बात नहीं है. मगर इस तरफ से लापरवाह होना नुकसानदायक है. कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी भारी व्यायाम और भागने वाली कसरत अपने मन से आरंभ नहीं करनी चाहिए.

 

यह आप के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है. शरीर है तो सब है. शरीर की भाषा को समझना चाहिए, जैसे तापमान का अचानक बढ़ जाना, माथे पर पसीना छलक उठना, कुछ घबराहट सी होना, बोलने में भारीपन लगना वगैरह. ऐसी स्थिति में कोई भी कसरत न करना समझदारी की निशानी है.

Dhirendra Shastri : गुड़ खाएं, गुलगुलों से परहेज – विदाई वर्णव्यवस्था की क्यों नहीं?

Dhirendra Shastri: हिंदुत्व के नए और लेटेस्ट पोस्टरबौय बागेश्वर बाबा उर्फ़ धीरेंद्र शास्त्री की हिंदू एकता यात्रा के आखिरी दिन बुन्देलखंड के छोटे से कसबे ओरछा में लाखों की तादाद में सवर्ण हिंदू भक्त देशभर से पहुंचे थे. इस 9 दिनी यात्रा का घोषित मकसद एक नारे की शक्ल में यह था कि जातपांत की करो विदाई, हम हिंदू हैं भाईभाई. अब यह बाबा भी शायद ही बता पाए कि आखिर यह हिंदू शब्द क्या बला है और जो थोड़ाबहुत है भी तो उस से यह साफ़ फिर भी नहीं होता कि क्या सभी हिंदू हैं, यानी, दलित भी हिंदू हैं या सदियों पहले की तरह केवल सवर्ण ही हिंदू हैं और अगर वही हिंदू हैं तो उन में अदभुद एकता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में कोई आपसी मतभेद नहीं है क्योंकि उन में रोटीबेटी के संबंध हैं.

 

इस हिंदू या सनातन एकता यात्रा के संपन्न होने के बाद यकीन मानें, कोई सवर्ण किसी दलित के घर, अपनी बेटी तो दूर की बात है, बेटे का भी रिश्ता ले कर यह कहते नहीं गया कि आओ भाई, आज से हमतुम दोनों हिंदू हैं. अब समधी बन जाना शर्म की नहीं बल्कि फख्र की बात है. बागेश्वर बाबा ने हमें हिंदू होने के असल माने समझा दिए हैं तो जातपांत की विदाई की पहली डोली अपने ही आंगन से उठाते एकता की मिसाल कायम करते हैं. यह रिश्तेदारी कायम करना तो दूर की बात है, हिंदू एकता यात्रा के साक्षी बने सवर्णों ने रास्ते में किसी दलित के घर पानी भी नहीं पिया, फिर आग्रह कर खाना खाना तो दूर की बात है, जिसे राजनेता बतौर दिखाने, कभीकभी करते हैं.

 

असल में मुसलमानों का खौफ दिखाती और हर स्तर पर उन के बहिष्कार की अपील करती इस यात्रा में लगभग सभी सवर्ण थे. दलित न के बराबर भी नहीं थे. जातिगत एकता की बात और दुहाई कतई नई बात नहीं हैं. सब से पहले यह मुद्दा आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने उठाया था. बीती 6 अक्तूबर को राजस्थान के बारां में उन्होंने एक बार फिर कहा कि हिंदू समाज को अपनी सुरक्षा के लिए मतभेद भुला कर एकजुट हो जाना चाहिए.

 

अब न तो यह मोहन भागवत बताते और न ही कोई बागेश्वर बाबा बताता कि हिंदू असुरक्षित किस से है और हिंदुओं के ही अलावा उसे खतरा किससे है. इन दोनों किस्मों के लोग डर मुसलमानों और ईसाईयों का दिखाते हैं. देश का यह वह दौर है जिस में सवर्ण यानी पूजापाठी हिंदू लगातार कट्टर होता जा रहा है. जबकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को इस तरह के नारों, भाषणों व यात्राओं से कोई सरोकार ही नहीं है, इसलिए नहीं कि वह पूजापाठी नहीं है बल्कि इसलिए कि वह इसलाम या ईसाईयत को खतरा नहीं मानता. उलटे, कई मानो में तो वह खुद को सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले इन से ज्यादा नजदीकी महसूस करता है.

 

कभी किसी दलित नेता या दलित धर्मगुरु ने इस आशय की कोई बात नहीं कही और न ही इस नए नारे का समर्थन किया कि बटेंगे तो कटेंगे. यह मांग और मुहिम सवर्णों की है जिसे आकार और आवाज ब्राह्मण दे रहे हैं. ये वही ब्राह्मण हैं जो सदियों से दलितों को धर्मग्रंथों की बिना पर लतियाते रहे हैं लेकिन आज उन्हें गले लगाने का ड्रामा कर रहे हैं जिसे दलित बखूबी समझ रहा है.

 

बारीकी से देखें तो अंदरूनी तौर पर हालात एकदम उलट हैं. बात जातिगत भेदभाव मिटाने या खत्म करने की की जा रही है लेकिन वर्णव्यवस्था, जो इस फसाद की जड़ है, पर न बाबा बागेश्वर कुछ बोल रहे और न ही मोहन भागवत. फिर किसी भाजपा नेता से तो इस विषय पर कुछ सुनने की उम्मीद करना ही बेकार की बात है.

 

इस ड्रामे की पोल खोलते मध्यप्रदेश के प्रमुख दलित नेता और कांग्रेसी विधायक फूलसिंह बरैया कहते हैं कि भाजपाई और धर्मगुरु यात्राओं के जरिए नरेंद्र मोदी के इशारे पर गुंडागर्दी कर रहे हैं. ये लोग दलितों के हमदर्द न कभी पहले थे और न आज हैं. ये लोग असल मुद्दों से लोगों का ध्यान बंटा रहे हैं. ये दलितों को अगर मंदिर बुला रहे हैं तो उन का मकसद और मंशा दलितों से मंदिरों में झाड़ूबुहारी करवाना और अपने चप्पलजूतों की रखवाली करवाना है. दिक्कत तो यह भी है कि इस धार्मिक होहल्ले में कोई बेरोजगारी और महंगाई की बात नहीं करता.

 

बरैया हिंदू शब्द पर भी सवाल उठाते कहते हैं कि आखिर हिंदू है कौन, किसी धर्मग्रंथ में हिंदू शब्द का उल्लेख नहीं है. यह एक खूबसूरत तर्क हो सकता है लेकिन मौजूदा समस्याओं का हल इसे भी नहीं कहा जा सकता. अगर किसी धर्मग्रंथ में या पौराणिक साहित्य में हिंदू शब्द का उल्लेख होता तो क्या ये समस्याएं हल हो जातीं और दरअसल समस्याएं हैं क्या जो आम लोगों को बेचैन किए हुए हैं तो समझ आता है कि असल समस्या महंगाई या बेरोजगारी नहीं है बल्कि धर्म है, जाति है और उस से भी बड़ी है भारतीय दिलोदिमाग में पसरी वर्णव्यवस्था, धार्मिक भेदभाव और ऊंचनीच. दलित विचारकों या विद्वानों ने कभी हिंदू एकता की वकालत नहीं की. उलटे, वे वर्णव्यवस्था को खत्म करने की बात करते रहे. लेकिन आजकल के दलित नेता इस पर कुछ नहीं बोलते क्योंकि वे तमाम सिरे से संघ और भाजपा की धार्मिक तिजोरी में दलित हितों और अस्मिता को गिरवी रख सत्ता की मलाई चाट रहे हैं.

 

अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में बसपा प्रमुख पानी पीपी कर वर्णव्यवस्था को कोसते कांशीराम का दिया यह नारा बुलंद करती रहती थीं कि, ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार.’ जब वही मायावती यह कहने लगीं कि, ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश है, हाथी नहीं गणेश है’ तो दलितों ने उन्हें और बसपा को ख़ारिज कर दिया. मायावती और बसपा दोनों अब सियासी दौड़ से बाहर हैं और खुद को ठगा सा महसूस कर रहे दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा सचमुच में ब्रह्मा, विष्णु और महेश वालों की पार्टी को वोट देने को मजबूर हो गया.

 

संविधान हाथ में ले कर घूम रही कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को लोकसभा चुनाव में जरूर उस ने वोट दिया लेकिन पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों ने साफ़ कर दिया कि दलित समुदाय धार्मिक चकाचौंध और बाबाओं के फैलाएं जाल में फंसता जा रहा है क्योंकि वह जातिगत भेदभाव दूर करने के नारे में छिपी वर्णव्यवस्था को नहीं देख पा रहा है जिसे दूर और खत्म करने के लिए कभी नामचीन दलित नेताओं ने हिंदू धर्म तक छोड़ दिया था. इन में संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव आंबेडकर का नाम सब से ऊपर है.

 

उन्होंने कहा था- ‘जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था एकदूसरे से अलग नहीं हैं. वर्णव्यवस्था ने जातिव्यवस्था को वैधता प्रदान की और इस से दलित समुदाय पर अत्याचार हुए. ज्योतिराव फुले वर्णव्यवस्था को ब्राह्मण वर्ग द्वारा दलित और शूद्र समुदाय के शोषण का उपकरण मानते थे. दक्षिण भारत के दलित चिंतक और सुधारक ई वी रामास्वामी पेरियार भी मानते थे कि ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था दलितों व गैरब्राह्मणों के शोषण का आधार हैं. बी एस वेंकटराव की दलील यह थी कि वर्णव्यवस्था ने केवल सामाजिक अन्याय को ही नहीं बल्कि आर्थिक असमानता को भी जन्म दिया. दलितों को उन के श्रम और संसाधनों से वंचित कर उन्हें हमेशा निर्भर बनाए रखा.

 

इन सभी ने इस रोग से छुटकारे की दवा शिक्षा को बताया था लेकिन दलित शिक्षा का हाल यह है कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करने वाली एक याचिका पर अपना फैसला सुनाते सुप्रीम कोर्ट की बैंच के एक जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा था कि सब से पिछड़े वर्गों के लगभग 50 फीसदी छात्र कक्षा 5 के पहले और 75 फीसदी कक्षा 8 के पहले स्कूल छोड़ देते हैं. हाईस्कूल लैवल पर तो यह आंकड़ा 95 फीसदी तक पहुंच जाता है. यानी, एक फीसदी दलित भी स्नातक नहीं हो पाते. ऐसे में वे शायद ही बटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों की हकीकत समझ पाएंगे. बकौल फूलसिंह बरैया, भाजपा हिंदू एकता यात्रा जैसी मुहिम से लोगों को वेबकूफ़ बना रही है जिस से लंबे समय तक राज किया जा सके.

 

किसी धर्मगुरु संघ प्रमुख या हिंदूवादी नेता की मंशा जाति या वर्णव्यवस्था को खत्म करने की नहीं है. क्योंकि यही हिंदू, वैदिक या सनातक धर्म कुछ भी कह लें, की बुनियाद है जिस पर सत्ता के महल और मंदिर खड़े होते हैं. इन सब का मैसेज यह है कि दलित, पिछड़े और आदिवासी सवर्णों की बादशाहत स्वीकारते फिर से उन की गुलामी ढोएं, इस से ही उन के पाप धुलेंगे. यह पाप छोटी जाति और नीच योनि में पैदा होना है. ये वे भाजपाई हिंदू हैं जो पीछे हटने की कोशिश में वक्ती तौर पर आगे बढ़ते जा रहे हैं और कांग्रेसी हिंदू आगे बढ़ने की कोशिश के बाद भी पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि उन के पूर्वज लोकमान्य तिलक जैसे घोर मनुवादी नेता भी थे.

 

आज भी कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार है जिन्हें वर्णव्यवस्था से कोई एतराज नहीं. वे सिर्फ गांधीनेहरू परिवार के कंधों पर सवार हो कर सत्ता की मलाई चाट लेना चाहते हैं और वहां न मिले तो भाजपा के द्वार तो इन के लिए खुले ही हुए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और सुरेश पचोरी जैसे दर्जनों नेता अपने ब्राह्मण होने का गरूर टूटने से बचाने के लिए भाजपा की गोद में जा बैठे. दरअसल ये नेता तिलक के मनुवादी संस्कारों से ग्रस्त थे कि दलितों और औरतों को शिक्षा का अधिकार नहीं और जातिव्यवस्था व वर्णव्यवस्था उन के भले के लिए बनाई गई थीं.

Father Son Story: पापा मेरी जान

‘‘सुरेखा, सुरेखा…’’ किचन में कुकर की सीटी की आवाज के आगे सतीश की आवाज दब गई. जब पत्नी ने पुकार का कोई जवाब नहीं दिया तो अखबार हाथ में उठा कर सतीश खुद अंदर चले आए.

हाथ का अखबार पास पड़ी कुरसी पर पटक कुछ जोर से बोले सतीश, ‘‘क्या हो रहा है? मैं ने कल की खबर तुम्हें सुनाई थी कि पिता के पैसों के लिए बेटे ने उस की हत्या की सुपारी अपने ही एक दोस्त को दे दी. देखा, कलियुगी बच्चों को…बेटाबेटी ने मिल कर अपने बूढ़े मातापिता को मौत के घाट उतार दिया, ताकि उन के पैसों से मौजमस्ती कर सकें. हद है, आज की पीढ़ी का कोई ईमान ही नहीं रहा.’’  सुरेखा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, ‘‘आप इन खबरों को पढ़ कर इतने परेशान क्यों होते हैं? यह भी देखिए कि ये बच्चे किस वर्ग के हैं और कितने पढ़ेलिखे हैं?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम? ये बच्चे बाहर से एमबीए आदि पढ़लिख कर आए थे. जरा सोचो सुरेखा, इन की पढ़ाईलिखाई पर मांबाप ने कितना पैसा खर्च किया होगा. आजकल के बच्चे इतने नकारा हैं कि…’’

कहतेकहते हांफने लगे सतीश. सुरेखा पानी का गिलास ले कर उन के पास चली आईं, ‘‘आप रोजरोज इस तरह की खबरें पढ़ कर अपने को क्यों दुखी करते हैं? छोडि़ए न, हम तो अच्छेभले हैं. बस, 2 महीने रह गए हैं आप के रिटायरमैंट को. अपना घर है. पैंशन आती रहेगी. और क्या चाहिए हमें? जितना है वह अपने बच्चों का ही तो है.’’

सतीश पानी का एक घूंट ले कर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बच्चों का क्यों? तीनों को पढ़ालिखा दिया. अब जो करना है, उन्हें खुद करना है. मैं एक पैसा किसी पर खर्च नहीं करने वाला.’’

सुरेखा चौंकीं, ‘‘अरे, यह क्या कह   रहे हैं? सिर्फ अमन की ही तो   शादी हुई है. अभी तो आभा की होनी है. आरुष भी आगे पढ़ाई करना चाहता है. फिर…’’

इस ‘फिर’ से बचते हुए सतीश बाहर निकल गए. दरअसल, जब से उन्होंने अपनी ही कालोनी में रहने वाले जगत को सुबहसुबह पार्क में फूटफूट कर रोते देखा तो उन की सोच ही बदल गई. जगत उम्र में उन से 10 साल बड़े थे. एक बेटा धनंजय और एक बेटी छवि. धनंजय को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. रिटायरमैंट में मिले फंड के पैसों से छवि की शादी कर दी. बचाखुचा पत्नी की बीमारी में निकल गया. बेटे की शादी के बाद वे साथ ही रहते थे. महीना भर पहले बेटे ने उन्हें घर से निकाल दिया. जगत की समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस उम्र में जाएं तो कहां जाएं. अपनी पूरी कमाई बच्चों पर लगा दी. उन की पढ़ाई और शादी की वजह से अपना घर नहीं बना पाए. पैंशन नहीं, देखरेख करने वाला भी कोई नहीं.

सतीश, जगत का हाल सुन कर हिल गए. धनंजय को बचपन में देखा था उन्होंने. वह ऐसा निकलेगा, क्या कभी सोचा था?  सुरेखा को पता था कि सतीश एक बार जो ठान लेते हैं उस से पलटते नहीं हैं. कल रात ही आरुष ने उन से कहा था, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना चाहता हूं. छात्रवृत्ति के लिए कोशिश तो कर रहा हूं, फिर भी 3 लाख तक का खर्च आ ही जाएगा.

पापा, क्या आप इतने पैसे उधार दे सकेंगे?’’

आरुष ने बिलकुल एक बच्चे की तरह कहा, ‘‘ममा, 2 साल बाद मेरा एमबीए हो जाएगा. इस के बाद मुझे कहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी. मैं पापा के सारे पैसे चुका दूंगा. आप बात कीजिए न उन से,’’ उस समय तो सुरेखा ने हां कह दिया था, पर अपने पति का रुख देख कर उसे शंका हो रही थी कि पता नहीं वे क्या जवाब देंगे.

घर का काम निबटा कर सुरेखा सतीश के कमरे में आईं, तो वे कंप्यूटर के सामने चिंता में बैठे थे. सुरेखा धीरे से उन के पीछे आ खड़ी हुईं. कुछ क्षण रुकने के बाद बोलीं, ‘‘यह क्या चिंता ले कर बैठ गए? बच्चे भी पूछने लगे हैं अब तो. खाना भी सब के साथ नहीं खाते और…’’  सतीश ने पलट कर सुरेखा की तरफ देखा, ‘‘मेरे पास उन से बात करने के लिए कुछ नहीं है. वे अपनी अलग दुनिया में जीते हैं सुरेखा. मैं साथ बैठता हूं तो सब असहज महसूस करते हैं.’’  ‘‘ऐसा नहीं है, सब आप की इज्जत करते हैं. अच्छा, कल बहू मायके जाने को कह रही है, भेज दें?’’

सतीश झल्ला गए, ‘‘तुम ये सब बातें मुझ से क्यों  पूछ रही हो, उन्हें तय करने दो. अमन जिम्मेदार शादीशुदा आदमी  है. उसे अपनी जिंदगी खुद जीनी चाहिए.’’ सुरेखा चुप हो गईं. ऐसे मूड में आरुष के विदेश जाने की बात करतीं भी कैसे?

अगले दिन नाश्ते के समय आरुष ने खुद बात छेड़ दी, ‘‘पापा, मैं ने आप को बताया था न कि एमबीए के लिए मेरा अमेरिका में एक यूनिवर्सिटी में चयन हो गया है. बस, पहले साल मुझे 40 प्रतिशत स्कौलरशिप मिलेगी. मैं सोच रहा था कि अगर आप…’’  सतीश एकदम से भड़क गए, ‘‘सोचना भी मत. तुम्हें इंजीनियर बना दिया, बस, अब इस से आगे मैं कुछ नहीं कर सकता. यही तो दिक्कत है तुम जैसी नई पीढ़ी की, बस अपनी सोचते हो. यह नहीं सोचते कि कल तुम्हारे मातापिता का क्या होगा? हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे जिएंगे?’’

आरुष सकपका गया. अमन भी वहीं बैठा था. उस ने जल्दी से कहा, ‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कहते हैं? हम लोग हैं न.’’  सतीश के होंठों पर व्यंग्य तिर आया, ‘‘तुम लोग क्या करोगे, यह मुझे अच्छी तरह पता है. मुझे तुम लोगों से कोई उम्मीद नहीं, तुम लोग भी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना…’’ प्लेट छोड़ उठ खड़े हुए सतीश. सुरेखा को झटका सा लगा. अपने बच्चों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं सतीश? आज तक बच्चों की परवरिश में कहीं कोई कमी नहीं रखी, अच्छे स्कूलकालेजों में पढ़ाया. अब अचानक उन के सोचने की दिशा क्यों बदल गई है?

अमन उठ कर सुरेखा के पास चला आया, ‘‘मां, पापा को आजकल क्या हो गया है? आजकल इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?’’ अचानक सुरेखा की आंखों से आंसू निकल आए, ‘‘पता नहीं क्याक्या पढ़ते रहते हैं. सोचते हैं कि उन के बच्चे भी उन के साथ…’’

‘‘क्या मां, क्या लगता है उन्हें? हम उन के पैसों के पीछे हैं?’’ अमन ने सीधे पूछ लिया.

सुरेखा की हिचकी बंध गई, ‘‘पता नहीं बेटा, ऐसा ही कुछ भर गया है उन के दिमाग में. मैं तो समझासमझा कर हार गई कि सब घर एक से नहीं होते.’’

अमन ने सुरेखा के हाथ थाम लिए और धीरे से बोला, ‘‘इस में पापा की गलती नहीं है. आजकल रोज इस तरह की खबरें आ रही हैं. पहले भी आती होंगी, पर आजकल मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिय है. आप जाने दीजिए मां, सब ठीक हो जाएगा. पापा से कह दीजिए कि हमें उन के पैसे नहीं चाहिए. बस, हमें चाहिए कि वे सुकून से रहें.’’

अमन और आरुष अपनेअपने रास्ते पर चले गए. आभा अब तक कालेज से नहीं आई थी. इस साल उस की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी. आभा चाहती थी कि वह नौकरी करे. सुरेखा को लगता था कि समय पर उस की शादी हो जानी चाहिए. पर उन की सुनने वाला घर में कोई नहीं था.  आरुष ने अमन की मदद से बैंक से लोन लिया और महीने भर बाद वह अमेरिका चला गया. आभा को भी कैंपस इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. जब उस ने अपनी पहली तनख्वाह सतीश के हाथ में रखी तो वे निर्लिप्त भाव से बोले, ‘‘अपनी कमाई तुम अपने पास रखो, जमा करो. कल तुम्हारे काम आएगी.’’

सुरेखा ने समझ लिया था कि सतीश को समझाना बहुत मुश्किल है, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि कम से कम बच्चे समझदार हैं. 6 महीने बाद अमन को भी मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई. अमन अपनी पत्नी के साथ मुंबई चला गया.  सुरेखा को घर का अकेलापन काटने लगा. आभा का काम कुछ ऐसा था कि दफ्तर से लौटने में देर हो जाती. सुरेखा टोकतीं तो आभा कहती, ‘‘मां, आजकल हर प्राइवेट नौकरी में यही हाल है. देर तक काम करना पड़ता है. कोई जल्दी घर जाने की बात नहीं करता तो मैं कैसे आऊं.’’  आभा इतनी व्यस्त रहती कि उसे खानेपीने की सुध ही नहीं रहती. सुरेखा चाहती थीं कि उन की युवा बेटी शादी कर के सुख से रहे. दूसरी लड़कियों की तरह सजेसंवरे, अपनी दुनिया बसाए. एक दिन वह सतीश के सामने फट पड़ीं, ‘‘आप को पता भी है कि आभा कितने साल की हो गई है? उस की शादी की बात आप चलाएंगे या मैं चलाऊं? मैं अपनी बेटी को खुश देखना चाहती हूं.’’

सतीश अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने रमे हुए थे कि बेटी का रिश्ता खोजना उन्हें भारी लग रहा था. पर सुरेखा के कहने पर वे कुछ चौकन्ने हुए. अखबार में देख कर एक सही सा लड़का ढूंढ़ा. आभा को यह बिलकुल पसंद नहीं था कि वह किसी के देखने की खातिर सजेसंवरे. बड़ी मुश्किल से वह लड़के वालों के सामने आने को तैयार हुई. सुरेखा उत्साह से तैयारी में जुट गईं. बेटी की शादी का सपना हर मां अपनी आंखों में संजोए रहती है.  आभा 2-3 बार उस से कह चुकी थी कि मां, अभी रिश्ता हुआ नहीं है. आप को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं  है. बस, चाय और बिस्कुट रखिए मेज पर.  सुरेखा हंसने लगीं, ‘‘ऐसा कहीं होता है भला? जिस घर में तेरी शादी होनी है उस घर के लोगों की कुछ तो खातिरदारी करनी पड़ेगी.’’

आभा चुप हो गई. सुरेखा ने घर पर ही गुलाबजामुन बनाए, नारियल की बरफी बनाई, नमकीन में समोसे, कटलेट और पनीर मंचूरियन बनाया. साथ ही जलजीरा आदि तो था ही. चुपके से जा कर वे अपने होने वाले दामाद के लिए सोने की चेन भी ले आई थीं. रिश्ता पक्का होने के बाद कुछ तो देना पड़ेगा.

सतीश को जिस बात का अंदेशा था, आखिरकार वही हुआ. प्रमोद चार्टर्ड अकाउंटैंट था और आते ही उस की मां ने बढ़चढ़ कर बताया कि प्रमोद को सीए बनाने में उन्होंने कितने पापड़ बेले हैं.

सतीश ने कुछ देर तक उन का त्याग- मंडित भाषण सुना, फिर पूछ लिया, ‘‘देखिए मैडम, हर मातापिता अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करते ही हैं. मैं ने भी अपने बच्चों की शिक्षा पर बहुत खर्च किया है. आप कहना क्या चाहती हैं, यह स्पष्ट बताइए.’’

प्रमोद की मां सकपका गईं. बात प्रमोद के मामा ने संभाली, ‘‘आप तो दुनियादार हैं सतीशजी. बेटे की शादी भी कर रखी है. आप को क्या बताना.’’

सतीश गंभीर हो गए, ‘‘अगर बात लेनदेन की कर रहे हैं तो मैं आप से कोई संबंध नहीं रखना चाहूंगा.’’

सतीश की आवाज इतनी तल्ख थी कि किसी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. इस के बाद बात बस, औपचारिक बन कर रह गई. उन के जाने के बाद सुरेखा अपने पति पर बरस पड़ीं, ‘‘लगता है, आप अपनी बेटी की शादी करना ही नहीं चाहते. आप का ऐसा रुख रहेगा, तो कौन आप से संबंध रखना चाहेगा भला?’’

सतीश ने अपनी पत्नी की तरफ निगाह डाली और शांत आवाज में कहा, ‘‘मैं ने अपनी बेटी को इसलिए नहीं पढ़ाया कि उस का रिश्ता ऐसे घर में करूं.’’

सुरेखा रोने लगीं, ‘‘आप पैसे के पीछे पागल हो गए हैं. अपनी बेटी की शादी में कौन पैसा खर्च नहीं करता.’’

सुरेखा के रोने का उन पर कोई असर नहीं पड़ा. वे वहां से चले गए. अचानक सुरेखा ने कंधे पर एक कोमल स्पर्श महसूस किया, आभा खड़ी थी. आभा धीरे से बोली, ‘‘मां, रोओ मत. पापा ने सही किया. मुझे खुद दहेज दे कर शादी नहीं करनी. मैं अपने लिए राह खुद बना लूंगी, तुम चिंता मत करो.’’

बेटी का आश्वासन भी सुरेखा को शांत न कर पाया.

6 महीने बाद आभा ने एक दिन सुरेखा से कहा, ‘‘मां, मैं किसी को आप से मिलवाना चाहती हूं.’’

सुरेखा को खटका लगा. पहली बार आभा उस से किसी को मिलवाने को कह रही है. कौन है?

शाम को आभा अपने से उम्र में काफी बड़े एक आदमी को घर ले कर आई, ‘‘मां, मेरे साथ काम करते हैं हरिहरण. बहुत बड़े साइंटिस्ट हैं और हम दोनों…’’

आभा की बात पूरी होने से पहले सुरेखा उसे खींच कर कमरे में ले गईं और बोलीं, ‘‘आभा, उम्र में इतने बड़े आदमी से…ऐसा क्यों कर रही है बेटी? ऊपर से साउथ इंडियन?’’

‘‘मां,’’ आभा ने सुरेखा का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘हरी बेहद सुलझे हुए और इंटेलिजैंट व्यक्ति हैं. आजकल नार्थसाउथ में क्या रखा है मां? तुम्हें भी तो इडलीसांभर पसंद है. क्या तुम होटल जा कर रसम और चावल नहीं खातीं? हरि को तो अपनी तरफ का राजमा, अरहर की दाल और आलू के परांठे बहुत पसंद हैं. हम दोनों एकदूसरे को अच्छे से जाननेसमझने लगे हैं. मैं उन के साथ बहुत खुश रहूंगी मां,’’ कहतेकहते आभा की आंखों में पानी भर आया. सुरेखा ने उसे गले से लगा लिया, ‘‘आभा, मेरे लिए तेरी खुशी से बढ़ कर और कुछ नहीं है बेटी. पर एक मां हूं न, क्या करूं, दिल नहीं मानता.’’

आभा की पसंद के बारे में सतीश ने कुछ कहा नहीं. उन्हें हरिहरण अच्छे लगे. आभा ने कोर्ट में जा कर शादी की. सुरेखा कहती रह गईं कि पार्टी होनी चाहिए, पर हरि ने हंस कर कहा, ‘‘मिसेज सतीश, आप पैसा क्यों खर्च करना चाहती हैं? वह भी दूसरों को खिलापिला कर. सेव इट फौर टुमारो.’’

तीनों बच्चे अपनी जिंदगी में रम गए. गाहेबगाहे आते तो कुछ लेने के बजाय बहुत कुछ दे जाते. सतीश अब पहले से कम बोलने लगे. अब उन्हें भी बच्चों की कमी खलने लगी थी.

ऐसे ही चुपचाप एक दिन रात को जो वे सोए तो सुबह उठे ही नहीं. पहला दिल का दौरा इतना तेज था कि उन के प्राण निकल गए. सुरेखा अकेली रह गईं. आभा महीना भर आ कर उन के पास रह गई, पर उस की भी नौकरी थी, जाना तो था ही. अमन भी आरुष का साथ देने अमेरिका पहुंच गया और वहीं जा कर बस गया.

इतने बड़े घर में सुरेखा अब अकेली पड़ गईं, सतीश की पैंशन, उन के कमाए पैसों और अपने गहनों के साथ. रहरह कर उस के मन में टीस उठती कि समय पर अगर बच्चों की मदद कर दी होती तो आज यह पैसा बोझ बन कर उन के दिल को ठेस न पहुंचाता.

अमन से जब भी वे अपने दिल की बात करतीं, वह तुरंत जवाब देता, ‘‘मां, तुम सब छोड़छाड़ कर यहां आ जाओ हमारे पास. सब साथ रहेंगे. मेरी बेटी बड़ी हो रही है. उसे तुम्हारा साथ चाहिए.’’

बहुत सोचसमझ कर सुरेखा ने अपनी जायदाद के 3 हिस्से किए और कागजात साइन करवाने अमन, आभा और आरुष के पास भेज दिए. सप्ताह भर बाद अमन की लंबी चिट्ठी आई. चिट्ठी में लिखा था, ‘‘मां, हमें वहां से कुछ नहीं चाहिए. हम तीनों बच्चों को आप ने बहुत कुछ दिया है. आप अपना पैसा जरूरतमंदों में बांट दीजिए, किसी अनाथालय के नाम कर दीजिए. शायद इस से पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी. और हां, देर मत कीजिए, जल्दी आइए. अब तो कम से कम हम सब को साथ वक्त बिताना चाहिए.’’

सुरेखा फूटफूट कर रोने लगीं. काश, आज यह दिन देखने के लिए सतीश जिंदा होते. जिस पैसे की खातिर सतीश अपने बच्चों से दूर हो गए, वह पैसा आज उन के किसी काम का रहा नहीं.

Story : डायमंड नेकलेस

नेहा का मन आज सुबह से ही घर के कामों में नहीं लग रहा था. उत्सुकतावश वह बारबार अपने चौथे मंजिल के फ्लैट की छोटी सी बालकनी से झांक कर देख रही थी कि सामने वाले बंगले में कौन रहने आने वाला है ? कल बंगले का सामान तो आ गया था, बस इंतजार था तो उस में रहने वाले लोगों का. इस से पहले जो लोग इस बंगले में रहते थे, वे इतने नकचढ़े थे कि फ्लैट में रहने वालों को तुच्छ सी नजरों से देखते थे. उन्हें अपने पैसों का इतना घमंड था कि आंखें हमेशा आसमान की तरफ ही रहती थीं. नेहा ने कितनी बार बात करने की कोशिश की, पर उस बंगले वाली महिला ने घास नहीं डाली.

किसी ने सच कहा है कि इनसान कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, उसे अपने पैर जमीन पर रखने चाहिए, हमेशा आसमान में देखने वाले कभीकभी औंधे मुंह गिरते हैं. इन बंगले वालों का भी यही हुआ, छापा पड़ा, इज्जत बचाने के लिए रातोंरात बंगला बेच कर पता नहीं कहां चले गए?

“अरे, ये जलने की बू कहां से आ रही है, सो गई क्या?” पति की आवाज सुन कर नेहा हड़बड़ा कर किचन की तरफ भागी, “अरे, ये तो सारी सब्जी जल गई…”

“आखिर तुम्हारा सारा ध्यान रहता कहां है? कल से देख रहा हूं, कोई काम ठीक से नहीं हो रहा है. बंगले वालों का इंतजार तो ऐसे कर रही हो जैसे वो बंगला तुम्हें उपहार में देने वाले हों, अब बिना टिफिन के ही दफ्तर जाऊं क्या? या कुछ बनाने का कष्ट करोगी.”

पति की जलीकटी बातें सुन कर नेहा की आंखों में आंसू आ गए. वह जल्दीजल्दी दूसरी सब्जी बनाने की तैयारी करने लगी.

‘सही तो कह रहे हैं ये, सत्यानाश हो इन बंगले वालों का,’ सुबहसुबह दिमाग खराब हो गया.

पर, नेहा भी करे तो क्या करे…, बड़ा सा घर होगा, नौकरचाकर होंगे, गाड़ी होगी, पलकों पर बैठाने वाला पति होगा, पर सारे सपने चकनाचूर हो गए. छोटा सा फ्लैट, पुराना सा स्कूटर, सीमित आय और वो घर की नौकरानी. सारा दिन किचन में खटती रहती है वह, उस पर पति के ताने कि ढंग से पढ़ीलिखी होती तो इस मंहगाई के दौर में नौकरी कर के घर चलाने में मदद तो करती, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों को तो घर में पढ़ा लेती, इतनी मंहगी ट्यूशनों की फीस बचती.

मन जारजार रोने को हो आया, पर मुझे घरगृहस्थी के काम चैन से करने भी नहीं देते. जैसेतैसे टिफिन तैयार कर के पति को थमाया, गुस्से के मारे पतिदेव ने टिफिन लिया और बिना उस की तरफ देखे चलते बने.

जबतब पति की ये बेरुखी नेहा के दिल को अंदर तक कचोट जाती है. कितना गुमान था उसे अपनी खूबसूरती पर, परंतु पति के मुंह से तो कभी तारीफ के दो बोल भी नहीं निकलते, सुनने को कान तरस गए उस के…

तभी कार की आवाज सुन कर उस की तंद्रा टूट गई. थोड़ी देर पहले का सारा वाकिआ भूल कर वह दौड़ कर बालकनी में पहुंच गई, लगता है, बंगले वाले लोग आ गए. कार से उतरती महिला को देख कर नेहा अंदाजा लगाने लगी, उम्र में मेरे जितनी ही लग रही है. अरे, ये तो… कांची जैसे दिख रही है??? नहींनहीं, वह इतने बड़े बंगले की मालकिन कैसे हो सकती है… पर, नहीं… ये तो वो ही है. उस ने झट से अंदर आ कर बालकनी का दरवाजा बंद कर दिया.

उफ, ये यहां कैसे आ गई? इतनी बड़ी दुनिया में इसे रहने के लिऐ मेरे घर के सामने ही जगह मिली थी क्या?

आज तो दिन नहीं खराब है, सुबहसुबह पता नहीं किस का मुंह देख लिया. हो सकता है, मेरी आंखों का धोखा हो, वो कांची न हो, कोइ ओर हो…, पर पर वो तो वही थी.

हाय री, मेरी फूटी किस्मत, वैसे ही इस घर में कौन से जन्नत के सुख थे, ऊपर से ये नई बला आ गई.

अस्तव्यस्त फैला हुआ घर, किचन में बिखरा फैलारा, ढेर सारे झूठे बरतन, सब बेसब्री से नेहा की बाट जोह रहे थे, पर आज तो उस का मन एकदम खिन्न हो गया था. सारा काम छोड़ कर वह बेमन सी बिस्तर पर लेट गई.

कितने वक्त बाद आज कांची को देख कर फिर अतीत के गलियारों में भटकने लगी.

पुराने भोपाल के एक छोटे से महल्ले में घर था उस का. प्यारा सा, अपनों से भरापूरा घर और घर के साथ ही सब के दुख में रोने के लिए कंधा देने वाला, खुशियों में दिल से खुश होने वाला, अपनत्व से भरपूर, प्यारा सा अपना सा महल्ला. हर एक के रिश्ते को पूरा महल्ला जीता था. सामने वाले घर में जो रिंकी रहती थी, उस की चाची उन के साथ रहती थी, वो पूरे महल्ले की चाची थी. आज वो पोतेपोतियों वाली हो गई हैं, फिर भी अभी तक छोटेबड़े सब उन को चाचीजी कहते हैं. हंसी तो तब आती थी, जब पिताजी उम्र में बडे़ होने के बाद भी उन्हें चाचीजी कहते थे. कोई बंटी की मम्मी को छः नंबर वाली भाभी, कोई दो नबंर वाली आंटी, सब ऐसे उपनामों से पुकारी जाती थी. वे संबोधन कितने अपने से लगते थे, आजकल मिसेस शर्मा, मिसेज गुप्ता, ये… वो… सब दिखावटी से लगते हैं.

गरमियों में शाम को और सर्दियों में दोपहर को सब औरतों की दालान में महफिल जमती थी, जिस में शामिल होता था सब्जी तोड़ना, पापड़, बड़ियां बनाना, सुखाना, ढेरों व्यंजनों की विधियों का आदानप्रदान, स्वेटरों की नईनई डिजाइनें बनाना, एकदूसरे को सिखाना, अपनेअपने सुखदुख साझा करना… क्या जमाना था वो भी… हम बच्चे स्कूल से आ कर बस्ते रखते और जी भर कर धमाचौकड़ी करते,  कभी लंगड़ी, कभी छुपाछुपी, कभी पाली जैसे ढेरों खेल खेला करते थे.

उस जमाने में टेलीविजन तो था नहीं, सो समय की भी कोई कमी न थी, कितनी बेफ्रिकी, सुकून भरे दिन थे वे… घर के आसपास सब जगह कितना भराभरा लगता था, उस दौर में अकेलेपन जैसे शब्द का नामोनिशान नहीं था और आज का वक्त देखो, इन बड़ेबड़ें शहरों में सब अपने छोटेछोटे दड़बों में कैद हैं.

घर से निकलते ही दिखावटीपन का मुखौटा हर किसी के चेहरे पर चढ़ जाता है, आत्मीयता का नामोनिशान नहीं दिखता, दिखते हैं तो बस दौड़तेभागते भावविहीन चेहरे, जिन्हें किसी के सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं होता है. अपना घर और महल्ला याद आते ही नेहा की आंखें डबडबा गईं.

 

उसी प्यारे से अपने से महल्ले में उस की पड़ोसी थी कांची. दोनों के पिता एक सरकारी स्कूल में टीचर थे, वे दोनों भी उसी स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ती थीं. दांतकाटी रोटी थी, फर्क बस इतना था कि जहां कांची कक्षा में प्रथम आती थी, वहीं नेहा सब से आखिरी स्थान पर. यों समझो, बस जैसेतैसे नैया पार हो जाती थी. एक फर्क और था दोनों में, कांची साधारण नाकनक्श की सांवली सी लड़़की थी, वहीं नेहा एकदम गोरीचिट्टी, तीखे नैननक्श, लंबे बाल. ऐसा लगता था जैसे बड़ी फुरसत से बनाया है. पर इन सब के परे उन की दोस्ती थी, उसे कांची की पढ़ाई से या कांची को उस की सुंदरता से कोई फर्क नहीें पड़ता था. एकदूसरे को देखे बिना उन का गुजारा न था. पर हाय री किस्मत, उन की दोस्ती को जाने किस की नजर लग गई ?

नजर क्या लग गई? उम्र का 16वां, 17वां साल होता ही दुखदायी है, पता नहीं कितने रिश्तों की बलि चढ़ा देता है, यही तो उस के साथ हुआ. 16वां साल लगतेलगते उस का रूप ऐसा निखरा कि देखने वाला पलक झपकाना ही भूल जाए और बस यही रूप उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. उसे लगने लगा कि दुनिया में उस0से सुंदर कोई है ही नहीं. पहले जब कांची उसे पढ़ाई करने की सलाह देती थी, तो उस के साथ बैठ कर वो थोड़ाबहुत पढ़ लेती थी और शायद उसी की बदौलत वह 10वीं तक जैसेतैसे पहुंच गई थी. पर अब उसे कांची का टोकना अच्छा न लगता था, जिस की भड़ास वो उस के रंगरूप का मजाक उड़ा कर निकालती.

जिस दिन अर्द्धवार्षिक परीक्षा का परिणाम आया था, वो दिन शायद उन की दोस्ती का आखिरी दिन था. जहां कांची ने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया, वहीं नेहा को सिर्फ पास भर होने लायक नंबर मिले थे. शिक्षकों की डांट से उस का मन पहले ही से खिन्न था, जैसे ही कांची ने उसे समझाना चाहा, वह उस पर पूरी कक्षा के सामने कितना चिल्लाई थी. क्याक्या नहीं कहा उस ने उस दिन. ‘‘अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में? प्रथम आ कर क्या तीर मार लोगी, कोई शादी भी नहीं करेगा तुम से. चूल्हे में जाए ऐसी पढ़ाई, मुझे कोई जरूरत नहीं है. ऊपर वाले ने मुझे ऐसा रंगरूप दिया है कि ब्याहने के लिए राजकुमारों की लाइन लग जाएगी, तुम पड़ी रहो किताबों में औंधी.’’

इतने अपमान के बाद भी कांची ने इतना तो कहा था, ‘‘रंगरूप अपनी जगह है, वो हमेशा हमारे साथ नहीं रहता, पर शिक्षा हमारी आंतरिक सुंदरता को निखारती है और हमेशा हमारे साथ रहती है.’’ और उस की आंखें भर आई थीं.

आज भी वो बातें याद कर के अपनेआप पर शर्म आती है. उस दिन के बाद उस ने मुझ से बात नहीं की, मैं तो करने से रही.

उस के बाद मेरा बिलकुल ही पढ़ने में मन नहीं लगता, बस सपनों में खोई रहती, नतीजा… 10वीं में सप्लीमेंट्री आ गई, वहीं कांची ने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. कभी गुस्सा न करने वाले पिताजी का गुस्सा उस दिन चरम पर पहुंच गया. इतने गुस्से में हम भाईबहनों ने पिताजी को कभी नहीं देखा था. उन का गुस्सा जायज था, स्कूल में दबीछुपी आवाज में उन्हें सुनने को मिला था कि अपनी लड़की को तो पढ़ा नहीं पाए, दूसरों के बच्चों को क्या पढ़ाएंगे ? सारे भाईबहन तो हमेशा पिताजी से ही पढ़ते थे, बस मैं ही उस वक्त कांची के साथ पढ़ने का बहाना बना कर उस के घर भाग जाती थी. तब तो मेरी शामत ही आ गई थी समझो…

पिताजी की दिनचर्या बहुत ही व्यवस्थित थी. वे सुबह 5 बचे उठ कर टहलने जाते थे. अगले दिन से उन्होंने मुझे भी अपने साथ उठा दिया और पढ़ने बैठा कर टहलने चले गए. जब वे लौट कर आए तो देखा कि मैं किताब के ऊपर सिर रख कर सो रही हूं. उस दिन उन्होंने बहुत प्यार से मुझे पढ़ाई के महत्व के बारे में समझाया था, पर मेरे कानों पर जूं तक नहीे रेंगी. जब 4-5 दिनों तक यही हाल रहा तो पिताजी ने एक नई तरकीब निकाली. उन्होंने सुबह मुझे पढ़ने बैठाया और मेरी दोनों चोटियों को एक रस्सी से बांध कर, छत के कुंदे पर अटका दिया और मेरी गरदन बस इतनी ही हिल रही थी कि मैं किताब की तरफ देख सकूं. पढ़ने की हिदायत दे कर पिताजी टहलने चले गए.

मेरा हाल तो देखने लायक था. नींद के झोंके से जैसे ही सिर झुका, बालों की जड़ें ऐसी खिंची जैसे हजारों लाल चींटियां चिपक गई हों. उस दिन मैं ने नींद को भगाने की दिल से कोशिश की थी, पर पढ़ाई में मन भी तो लगे. एक घंटे तक नींद और चोटियों के बीच युद्ध चलता रहा और आखिरकार नींद के आगे पढ़ाई ने हार मान ली. और जब दर्द सहन करने की शक्ति खत्म हो गई, तो मैं चीख मार कर जोरजोर से रोने लगी.

पिताजी की मामूली तनख्वाह में 4 बच्चों को पालती मां… पति के आदर्शों को ढोती मां… घर के अभावों को दूसरों से ढांकतीछुपाती मां…, दिनभर कामकाज से थी, गहरी नींद में सोई हुई थी.

मेरी चीख सुन कर मां बदहवास सी उठ कर दौड़ी. मेरी हालत देख कर वहीं जड़ हो गई, चोटियों के लगातार खिंचने से मेरी पूरी गरदन लाल हो गई थी. ऊपर से रंग इतना गौरा था कि नींद और रोने से पूरा चेहरा भी लाल हो गया था, ठीक उसी वक्त पिताजी का आना हुआ.

हे राम, उस वक्त मां ने पिताजी को जो फजीहत की…, बाप रे बाप. मां ने पूरी दुनिया की लानतें पिताजी को दे मारी, मेरी फूल से बच्ची का ये क्या  हाल कर दिया? खबरदार, जो आज के बाद इस को पढ़ाया तो, आप ने किताबों में इतना सिर फोड़फोड़ कर  कौन से ताजमहल बनवा दिए हमारे लिए, कौन से कलक्टर बन गए आप… जो इसे बनाने चले हो?

मेरे जरीए मां ने शायद उस दिन एक ईमानदार शिक्षक के घर के आर्थिक अभावों का गुस्सा निकाला था, जो इतने सालों से उन के अंदर किसी सुप्त ज्वालामुखी की तरह दबा हुआ पड़ा था. किसी से न डरने वाले पिताजी भी उस दिन मां का वो रूप देख कर दंग रह गए थे, कुछ भी न बोले और उस दिन के बाद पिताजी ने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मुझे तो समझो मुंहमांगी मुराद मिल गई थी. इस के कुछ ही दिनों बाद कांची के पिताजी का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. इतना सब होने के बाद भी जाने से पहले वह मुझ से आखिरी बार मिलने आई थी, पर मैं कमरे से बाहर ही नहीें निकली और वह हमेशा के लिए चली गई.

 

मेरा ध्यान पढ़ाई से पूरी तरह हट चुका था. 10वीं में लगातार तीन वर्ष फेल होने के बाद परेशान हो कर पिताजी ने मेरी पढ़ाई छुड़वा दी. मेरी छोटी बहन ही 11वीं में पहुंच गई थी, अब तो स्कूल जाते मुझे भी बहुत शर्म आने लगी थी. पढ़ाई छूटने पर मैं ने चैन की सांस ली और शायद स्कूल के शिक्षकों ने भी… अब तो मैं पूरी तरह आजाद थी, पत्रिकाओं में से खूबसूरती के नुसखे पढ़ कर उन्हें आजमाना, हीरोइनों के फोटो कमरे में चिपकाना और सपनों के राजकुमार का इंतजार करना, ये ही मेरे जीवन का ध्येय बन गए थे.

पर, एकएक कर के सपनों के महल चकनाचूर होने लगे. सुंदरता की वजह से एक से बढ़ कर एक रिश्तों की लाइन लग गई, पर जैसे ही उन्हें पता चलता कि लड़की 10वीं तक भी नहीं पढ़ी, सब पीछे हट जाते, न पिताजी के पास देने के लिए भारीभरकम दहेज था. मेरी वजह से पूरे घर में मातमी सा सन्नाटा पसर गया था, सब मुझ से कटेकटे से रहने लगे. पिताजी भी चारों तरफ से निराश हो चुके थे. तब इन का रिश्ता आया. एकलौता लड़का था, वो भी सरकारी औफिस में क्लर्क. मांबाप गांव में रहते थे, थोड़ीबहुत खेतबाड़ी थी. उन्हें लड़की की पढ़ाई से कोई मतलब नहीं था, वे तो बस सुंदर लड़की चाहते थे. और जैसेतैसे पिताजी ने मेरी नैया पार लगा दी.

फोन की घंटी की आवाज से नेहा हड़बडा कर उठ बैठी. वह फोन उठाती, तब तक फोन बंद हो चुका था. घड़ी पर नजर पड़ते ही नेहा चौंक उठी. उफ, एक बज गया, सोचतेसोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. बच्चों के आने का वक्त होने वाला है, ऐसा लग रहा है जैसे शरीर में जान ही नही है. अपने को लगभग घसीटती हुई वह किचन में पहुंची. प्लेटफार्म पर पड़ा फैलारा, सिंक में पड़े झूठे बरतन, पलकपावड़े बिछाए उसी का इंतजार कर रहे थे.

‘‘हाय, क्या जिंदगी हो गई है… सारी उम्र चौकाबरतन में निकली जा रही है. पर काम तो किसी भी हाल में करना ही पड़ेगा,’’ ऐसा सोच कर वह जैसेतैसे हाथ चलाने लगी.

शाम को पतिदेव ने चाय पीते हुए गौर किया कि रोज की अपेक्षा आज उस के चेहरे पर कुछ ज्यादा ही मायूसी छाई हुई है, तो चुटकी लेते हुए बोल पड़े, ‘‘क्या हुआ…? तुम्हारी वो बंगले वाली नहीं आई क्या, जो चेहरे पर मातम छाया  हुआ है?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. वो तो आ गई है… आप को पता है कि वो कौन है?’’

‘‘अरे भाई, मैं अंतर्यामी थोड़े ही हूं, जो मुझे औफिस में बैठेबैठे पता चल जाएगा.’’

‘‘वो मेरे बचपन की सहेली कांची है.’’

‘‘अरे वाह, ये तो खूब रही, तुम्हारे बंगले वाले पचड़े का अंत तो हुआ. तुम हमेशा बंगले वाली से दोस्ती करना चाहती थी, लो, तुम्हारी दोस्त ही आ गई, फिर भी चेहरा लटका हुआ है?’’

‘‘आप को कुछ भी तो पता नहीं है, इसलिए आप ऐसा बोल रहे हैं. स्कूल के दिनों में उस से मेरी लड़ाई हो गई थी, किस मुंह से उस के सामने जाऊंगी.’’

इतना सुनना था कि पतिदेव चाय का प्याला टेबल पर पटकते हुए चीखे, ‘‘ऊपर वाला बचाए तुम से… क्या बच्चों जैसे बातें कर रही हो… उस के सामने नहीं जा सकती तो क्या घर में छुप कर रहोगी? बंगले वाली यहां घूमने नहीं आई, रहने आई है.

“कान खोल कर सुन लो, खबरदर, जो आज के बाद मेरे सामने बंगले वाली का जिक्र भी किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ सुबह से पति की डांट, कांची को देख कर सारे दिन का तनाव, शाम को फिर पति की फटकार, नेहा के सब्र का बांध टूट गया. बाथरूम में घुस कर वह रो पड़ी. सब के सामने तो रो भी नहीं सकती. आंसू देखते ही पतिदेव हत्थे से ही उखड़ जाते हैं, उन्हें कुछ भी समझाना उस के बस के बाहर है.

कांची को सामने आए दो दिन हो चुके थे. दो दिनों से अंदर ही अंदर घुटन और तनाव से उस की हालत ऐसी हो गई थी जैसे वह बरसों से बीमार हो. रात को खाने की थाली में दाल देखते ही जैसे घर में तूफान आ गया. पति ने थाली उठा कर रसोईघर में पटक दी और गुस्से से दहाड़ पड़े, ‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या? या सारे सब्जी वाले मर गए हैं, या फिर घर में इतनी कंगाली आ गई है कि सब्जी खरीदने के पैसे नहीं बचे? दो-तीन दिन हो गए, इनसान कब तक सब्र करे, सुबह आलू, टिफन में आलू, रात को दाल… इनसान कब तक खाएगा? हद होती है किसी बात की. एक सब्जी खरीदने का काम तुम्हारे जिम्मे है, क्या वो भी नहीं कर सकती?  तुम्हारा ये खाना… तुम ही खाओ, हम लोग अपना इंतजाम कर लेंगे,’’ गुस्से में बच्चों को ले कर पैर पटकते हुए घर से निकल गए.

 

नेहा सिर पकड़ कर धम्म से सोफे पर बैठ गई… उफ, ये क्या हो गया है मुझ को? सच ही तो कह रहे हैं, आज तीन दिन हो गए हैं… कहीं कांची न देख ले, इस डर से वह सब्जी लेने नीचे तक नहीं उतरी, सब्जी वाला रोज आवाज लगा कर चला जाता है. कांची तो हमेशा के लिए यहां रहने आई होगी, ऐसे कब तक घर में छिप कर बैठूंगी. उफ, इसे भी पूरी दुनिया में क्या यही जगह मिली थी रहने के लिए…? भगवान भी पता नहीं किस बात की सजा दे रहा है मुझे… पतिदेव का गुस्सा सुबह भी सातवें आसमान पर था. न कुछ खाया, न टिफिन ले गए, बिना बात करे ऐसे ही औफिस चले गए. दुखी और उदास मन से वह अपने को कोसती हुई सब्जी वाले का इंतजार करने लगी… पर, ये क्या, एक घंटा हो गया, लेकिन सब्जी वाला तो आया ही नहीं. लगता है, तीन दिन से सब्जी नहीं ली, तो आज उस ने आवाज ही नहीं लगाई. सारा जमाना मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है. वह उठने ही वाली थी कि दूसरे सब्जी वाले की आवाज सुनाई पड़ी, अमूमन इस से वो कभी सब्जी नहीं खरीदती थी, क्योंकि वो सब्जियों को हाथ लगाने पर झल्लाता था. जैसे किसी ने उस की नईनवेली दुलहन को छू लिया हो. पर मरती क्या न करती, थैला लिए सीढ़ियां उतर कर सब्जी लेने आ पहुंची.

सब्जी वाले ने भी ताना मारने का मौका नहीं गंवाया. वह मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद. मेरे ढेले से जो आज आप सब्जी खरीदने आईं. जी, मन में तो आया कि उस का मुंह  नोंच ले, पर हाय री किस्मत, क्याक्या दिन देखने पड़ रहे हैं. मन ही मन कुढ़ते हुए थैला ले कर वह मुड़ी ही थी कि नीचे के फ्लैट वाली मिसेज काटजू लगभग दौड़ती सी आई (उन्हें किसी से भी बात करने के लिए अब ऐसा ही करना पड़ता है. तब से, जब से उन्हें ये बात समझ में आई कि उन्हें देखते ही लोग ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग. इस में गलती लोगों की नहीं है, उन की फितरत ही ऐसी है, हंसहंस के लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना उन का सब से प्यारा शगल था). पर उन्होंने नेहा को गायब होने का मौका नहीं दिया.

‘‘अरे नेहा, क्या हुआ? तबीयत खराब है क्या? 2-3 दिन से दिखाई नहीं पड़ी, चेहरा भी कैसा पीला पड़ा हुआ है.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, थोड़ा घर की साफसफाई में व्यस्त थी.’’

‘‘अरे भाई, इतना भी क्या काम करना कि आसपास की खबर ही न हो… पर, इस में तुम्हारा भी क्या दोष? तुम्हारे यहां बाई नहीं है न, सारा काम खुद ही करना पड़ता है, वक्त तो लगेगा ही…’’

नेहा को मिसेज काटजू की इसी आदत से सख्त चिढ़ थी, जब भी मिलती, ताना मारने से बाज नहीं आती.

‘‘खैर, छोड़ो ये सब, पता है… सामने वाले बंगले में जो आई है न, वो पहले वाली से बिलकुल अलग है. इतनी अमीर है, पर घंमड जरा सा भी नहीं. खुद भी बैंक में अफसर है. कल मैं शाम को इन के साथ घूमने के लिए निकली थी न, तब वह मिली थी, सारा दिन तो वह बैंक मे रहती हैं.

कभीकभी तुम भी कहीं घूम आया करो… अरे, मैं तो भूल ही गई, पुराने स्कूटर पर घूमने में क्या मजा आएगा? भाई साहब से बोल कर अब नई गाड़ी ले भी लो, इतनी भी क्या कंजूसी करना.’’

‘‘अच्छा, मिसेज काटजू, मैं चलती हूं, मुझे बहुत काम है,’’ खून का घूंट पीती हुई नेहा गुस्से के मारे, बिना जवाब सुने सीढ़ियां चढ़ गई.

नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि वह मिसेज काटजू के तानों से दुखी है या कांची के बैंक में अफसर होने पर… जो भी हो, एक बात अच्छी हो गई कि कांची दिनभर घर में नहीं रहती, उसे ज्यादा छिपने की जरूरत नहीं है. वैसे भी वो घर से निकलती ही कितना है, दो बच्चों के साथ खटारा स्कूटर पर कहीं जाने से तो उसे घर में रहना ज्यादा अच्छा लगता है. बच्चे भी नहीं जाना चाहते, उन्हें भी शर्म आती है और पति भी कहां ले जाना चाहते हैं? ये सब सोचते हुए उस की आंखें भर आईं…

8-10 दिन ऐसे ही बीत गए, नेहा की दिनचर्या में एक बड़ा फर्क आया था. वह यह कि उस ने बालकनी में जाना लगभग बंद कर दिया था. वह चाहती थी कि जब तक हो सके, बस कांची का सामना न हो. रोज की तरह आज भी वह अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थी, तभी मां का फोन आया, 3 दिन बाद छोटे भाई की सगाई थी, मां ने आने का आग्रह कर के फोन रख दिया.

कितने बदल गए हैं सब लोग… बदलें भी क्यों न, उस की तरह फालतू कोई नहीं हैं, दोनों छोटी बहनें सरकारी स्कूल में टीचर हैं, भाई भी सरकारी अफसर है. पिताजी को गुजरे तो 3 साल हो गए, याद आते ही उस की आंखें भर आईं.

मायके में मां के अलावा उसे याद करने की किसी के पास फुरसत नहीं है. बहनें और भाई जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फोन लगा लेते हैं बस… एक मां ही है, जो महीने में कम से कम एक बार फोन कर के हालचाल पूछ लेती हैं. पर इस में सारा दोष भाईबहनों का तो नहीं है, मैं मौन सा उन्हें फोन करती हूं, ताली दोनों हाथ से बजती है, एकतरफा रिश्ता कोई कब तक निभाएगा वो तो सिर्फ मां ही निभा सकती है.

अपनी मजबूरी पर उस का दिल जारजार रोने लगा. क्या, मेरा मन नहीं करता  अपनी मा, भाईबहनों से बात करने का, उन के अलावा और कौन है मायके में. फोन का बिल देख कर पतिदेव ऐसेऐसे विषवाण  छोड़ते थे कि कलेजा छलनी हो जाता. पर वह सब्र का घूंट पी लेती थी, क्योंकि इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी न था. सालसालभर मिलना नहीं होता था, कम से कम फोन पर बात कर के ही दिल को तसल्ली मिल जाती थी. पर उस दिन तो अति हो गई, जब पतिदेव बरसे थे, ‘‘अगर इतना ही शौक है फोन पर गप्पें लगाना का तो जरा घर से बाहर निकल कर चार पैसे कमा कर दिखाओ. तब पता चलेगा, पैसे कैसे कमाए जाते हैं, घर बैठ कर गुलछर्रे उठाना बहुत आसान है.’’

सुन कर, अपमान से तिलमिला उठी थी वह, सहने की भी कोई हद होती है. जी में तो आया कि चीखचीख कर कहे कि जब खुद यारदोस्तों से घंटों फोन पर बतियाते हो, तब बिल नहीं आता, मैं क्या अपनी मां से भी बात न करूं, पर कुछ कह न सकी थी, बस तभी बमुशिकल ही फोन को हाथ लगाती थी वह. काश, वो भी आत्मनिर्भर होती, उस के हाथ में भी चार पैसे होते, जिन्हें वह अपना इच्छा से खर्च कर सकती. लो, ऐसे खुशी के मौके पर मैं भी क्या सोचने बैठ गई. मायके जाने के खयाल से शरीर में खुशी की लहर दौड़ गई. अरे, कितनी सारी तैयारी करनी है, आज 10 तारीख तो हो गई. 13 तारीख को सगाई है, तो 12 को निकलना पड़ेगा. सिर्फ कल का ही दिन तो बचा है.

पतिदेव का मूड न उखड़े, इसलिए नेहा उन की पंसद का खाना बनाने में जुट गई. ‘‘क्या बात है? आज इतने दिनों बाद घर में ऐसा लग रहा है, जैसे सचमुच खाना बना हो, बड़ी चहक रही हो, कोई लौटरी लग गई क्या?’’

‘‘आज मां का फोन आया था. राहुल का रिश्ता तय हो गया है. 13 को सगाई है, चलोगे न…?’’सुनते ही पतिदेव के चेहरे की हंसी गायब हो गई. ‘‘अरे, मैं नहीं जा पाऊंगा, औफिस में बहुत काम है, बच्चों की भी पढ़ाई का नुकसान होगा. शादी में सब लोग चलेंगे, अभी तुम अकेली ही चली जाओ.’’

नेहा के सारे उत्साह पर पानी फिर गया. पर उसे इतना बुरा क्यों लग रहा है, ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है. मायके के किसी भी प्रोग्राम में हमेशा ऐसा ही तो होता है… खैर, एक तरह से अच्छा ही हुआ, बच्चों के पास ढंग के कपड़े भी नहीं हैं. खर्च करने से बजट गड़बड़ा जाएगा, शादी मैं तो खर्च करना ही पड़ेगा.

नेहा ने अपना सूटकेस खोल कर साड़ियां निकाली, कुलमिला कर 4-5 भारी साड़ियां हैं, जिन्हें वह कई बार पहन चुकी थी और एकमात्र शादी में चढ़ाया गया सोने का हार, जिसे  पहनने में भी अब उसे शर्म लगती थी, पर बिना पहने भी नहीं जाया जा सकता. कहीं नहीं हैं, पता नहीं घर के समारोहों में भी इतना दिखावा क्यों करना पड़ता है.

पिछली बार बहन की गोद भराई में उस की सास ने तो ताना मार ही दिया था. लगता है, नेहा को पुरानी चीजों से बहुत लगाव है, इसलिए हमेशा यही हार  पहनती है. अरे भाई, अब तो नया ले लो, वो भी बेचारा थक गया होगा. हाल  सब के ठहाकों से गूंज उठा था, पर कहां से ले ले नया हार…? सोचते हुए उस ने जैसे ही हार निकाला…, अरे, इस की एक झुमकी तो टूट रही है. हाय, अब क्या  पहनूंगी? सोने का कुछ न कुछ तो पहनना पड़ेगा, मंगलसूत्र तो बहुत ही हलका है, अकेले उस से काम नहीं चलेगा. सुबह औफिस जाते वक्त इन्हें दे दूंगी, सुनार के यहां डाल देंगे. दिन में जा कर उठा लाऊंगी, परसों तो निकलना ही है. सुबह पति से मनुहार कर के नेहा ने झुमकी सुनार के यहां पहुंचा दी थी.

जल्दीजल्दी घर के काम पूरे कर के वह झुमकी लेने बाजार की तरफ चल पड़ी. बाजार पास ही था, इसलिए पैदल ही चल दी. मायके जाने के उत्साह में कांची कब उस के ध्यान से उतर गई, उसे पता ही नहीं चला. उत्साह का आलम ये था कि जिस बंगले ने उस की नींद उड़ा रखी थी, उस की तरफ भी उस का ध्यान नहीं गया.

तेज कदमों से चलते हुए वह सुनार की दुकान पर पहुंची, झुमकी उठा कर जैसे ही वह पलटी, उस का मुंह खुला का खुला रह गया. सामने कांची खड़ी थी, वो भी उसे देख कर हक्काबक्का रह गई. कुछ पल बाद दोनों को जैसे ही होश आया, खुशी से चीखते हुए कांची उस से लिपट गई.

‘‘हाय, मैं ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तुझ से मुलाकात होगी. एक पल को तो मैं पहचान ही नहीं पाई कि तू ही है या कोई और, कितनी बेडौल हो गई है.’’

‘‘पर, तू तो बिलकुल वैसी की वैसी ही है, जरा भी नहीं बदली,’’ नेहा जबरन मुसकरात हुए बोली.

‘‘तू यहां क्या कर रही है? क्या इसी शहर में रहती है? कहां है तेरा घर? तेरे पति क्या करते हैं और बच्चे…?

‘‘अरे, बसबस…..सांस तो ले ले, मैं कहां भागे जा रही हूं, परसों राहुल की सगाई है, कान की झुमकी उठाने  आई थी. मुझे कल ही निकलना है, आज बहुत काम है, बातें तो फिर होती रहेंगी.’’

नेहा की बेरुखी कांची समझ न सकी, वह तो खुशी के मारे अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘‘अरे वाह, क्या बात है, छोटा सा राहुल इतना बड़ा हो गया. हाय, टपने पुराने महल्ले को देखने का इतना मन कर रहा है…, पर अभीअभी नए घर में शिफ्ट हुए हैं, पहले ही बैंक से बहुत छुट्टियां ले चुकी हूं. आज भी घर के कुछ काम निबटाने थे, छुट्टी पर हूं, नहीं तो मैं भी तेरे साथ चलती, सभी से मिल लेती. खैर, कोई बात नहीं, तू जब लौट कर आएगी तो तेरी बातें सुन कर ही वहां की यादें ताजा कर लूंगी.’’

‘‘ले, तुझे देख कर तो मैं सब भूल गई. तू रुक, मैं जरा कड़े की डिजाइन सुनार को बता दूं.’’

उफ, जिस बला से बच रही थी, वो इस तरह मेरे सामने आएगी, सोचा न था. कहीं झुमकी न देखने लगे, जल्दी से रूमाल में लपेट कर उसे पर्स में डाल ली. कांची की आत्मीयता उसे दिखावा  लग रही थी. जब वो मेरी हालत देखेगी तो जरूर पूछेगी, क्या हुआ तेरे रूपसौंदर्य का, सपनों का राजकुमार नहीं आया लेने, पर अब तो इस से बचना मुश्किल है, नेहा रूआंसी हो उठी.

‘‘चल, अब बता तेरा घर किधर है, पहले मेरे यहां चलते हैं, चाय पिएंगे, फिर मैं तुझे घर छोड़ दूंगी,’’ दुकान से बाहर आते हुए कांची बोली.

‘‘नहीं, आज नहीं. मुझे बहुत देर हो रही है.’’

‘‘चुप रह, मैं कोई बहाना नहीं सुनने वाली, एकाध घंटे में कुछ नहीें बिगड़ने वाला, चल बता, किधर है तेरा घर?’’

‘‘पास में ही है, सतगुरू अपार्टमैंट में रहती हूं.’’

सुनते ही कांची लगभग उछल ही पड़ी, ‘‘क्या बात कह रही है. उस अपार्टमैंट के सामने ही तो मेरा बंगला है. हद हो गई यार… हम दोनों 10 दिनों से एकदूसरे के इतने पास रह रहे हैं और एकदूसरे को दिखे भी नहीं? ये तो  कमाल ही हो गया… मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि मेरी सब से प्यारी दोस्त मेरे पड़ोस में रहती है, अब हमारा बचपन फिर से जी उठेगा,’’ कांची खुशी से फूली नहीं समा रही थी.

‘‘अरे क्या हुआ…? तेरा चेहरा क्यों उतरा हुआ है, कहीं पुरानी बातें तो याद नहीं कर रही, मैं तो वो सब कब का भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा.’’

‘‘बातोंबातों में घर ही आ गया, चल चाय पीते हैं,’’ कांची ने कार बंगले में पार्क करते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, फिर आऊंगी…’’

‘‘चल न यार,’’ कांची उस का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए अंदर ले गई.

बंगले की शानोशौकत देख कर नेहा की आंखें फटी की फटी रह गईं. साजसज्जा के ऐसेऐसे सामान. ऐसी दुर्लभ पेंटिग्स… आलीशान कानूस… जिधर नजर जाती, ठहर जाती. ये सब तो उस ने सिर्फ फिल्मों में ही देखा था, यह तो उस का सपना था…

‘‘कहां खो गई, चल बैडरूम में बैठते हैं,’’ नेहा मंत्रमुग्ध सी उस के पीछे चल पड़ी.

‘‘यहां आराम से बैठ. भोला, जरा चायनाश्ता तो लाना…’’

नेहा जैसे ही बैठने को हुई, उस की नजर बैड पर बिखरे जेवरों पर पड़ी. आश्चर्य के मारे उस का मुंह खुला का खुला रह गया. इतने सारे जेवर… वे भी एक से बढ़ कर एक.

‘‘तू भी क्या सोचेगी? कैसा फैला हुआ पड़ा है? तू तो जानती है, मुझे शुरू से सादगी से रहना ही पसंद है,  पर इन की बिजनैस पार्टियों में इन की खुशी के लिए सब पहनना पड़ता है. राज एक पाटी में गए थे, समझ नहीं आ रहा था कि क्या पहनूं? तो सारे निकाल लिए, रखने का वक्त ही नहीं मिला.

“ये भोला भी, अभी तक चाय नहीं लाया. तू बैठ, मैं अभी देख कर आती हूं,’’ कांची उस की मनोस्थिति से पूरी तरह बेखबर थी.

नेहा को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. उस की नजर तो डायमंड नेकलेस पर अटक गई थी, जो बिलकुल उस के पास ही पड़ा था. इतना खूबसूरत नेकलेस तो उस ने कभी सपने में भी नहीं देखा था, न ही वो उस की कीमत का अंदाजा लगा सकती थी.

अगर ये मैं राहुल की सगाई में पहन कर चली जाऊं, तो… सारे रिशतेदारों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी, और मुह पर ताले पड़ जाएंगे.

अगर मांगू तो… कांची क्या सोचेगी, नहींनहीं, चुपचाप उठा लूं तो… पर, कहीं किसी ने देख लिया तो… कोई भी तो नहीं है, उस ने पर्स से रूमाल निकाल कर नेकलेस पर पटक दिया, इधरउधर देखा और झट रूमाल के साथ नेकलेस उठा कर पर्स में डाल लिया.

‘‘नौकरों के भरोसे कोई काम नहीं होता, ले  गरमागरम चाय पी,’’ कांची ने बैडरूम में घुसते हुए कहा.

नेहा ने इतनी गरम चाय एक घूंट में ही पी ली और उठ खड़ी हुई.

‘‘अरे, बैठ ना…”

‘‘नहीं, मैं तो भूल गई, मुझे प्रेस वाले के यहां से साडियां भी उठानी हैं, मैं फिर आऊंगी.’’

कांची के कुछ कहने से पहले ही उस ने ऐसी दौड़ लगाई, जैसे पीछे भूत पड़े हों, घर में घुस कर ही सांस ली.

धम्म से कुरसी पर बैठ गई, जब सांस में सांस आई तो एहसास हुआ कि ये क्या किया?

हाय, मैं ने चोरी की, वो भी कांची के यहां से.

ये चोरी थोड़े ही है, 2-3 दिन की ही तो बात है. शादी से लौट कर, उस से मिलने जाऊंगी, और धीरे से रख दूंगी. मन के दूसरे कोने से आवाज आई.

पर्स से नेकलेस निकाल कर आईने के सामने गले पर लगाते ही नेहा की सारी ग्लानि बह गई.

वाह… क्या लग रही हूं मैं, सब देखते ही रह जाएंगे. उस ने जल्दी से नेकलेस को सूटकेस में रख लिया.

बच्चे पढ़ाई कर रहे थे, पतिदेव के आने में अभी वक्त था. कई दिन बाद उस ने बालकनी का दरवाजा खोल कर ताजी हवा को महसूस किया. तभी बंगले से कांची निकलती हुई दिखी.

अरे, ये तो इधर  ही आ रही है. हाय, लगता है कि उसे पता चल गया कि मैं ने ही उस का नेकलेस चुराया है. अब क्या करूं? क्या सोचेगी वह मेरे बारे में? मेरी भी मति मारी गई थी, जो मैं ने ऐसा नीच काम किया, क्या करूं?

जल्दी से बालकनी का दरवाजा बंद कर, बच्चों को हिदायत दी कि कोई आ कर पूछे तो कहना कि मम्मी बाहर गई हैं, देर से आएंगी.

नेहा सांस रोके अंदर जा कर बैठ गई.

घंटी बजते ही बेटे ने दरवाजा खोल दिया.

‘‘क्या यह नेहा का घर है?’’

‘‘जी आंटी, पर मम्मी घर पर नहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कोई बात नहीं. मै बाद में आऊंगी,” कांची ने जाते हुए कहा. उस के जाते ही नेहा की जान में जान आई.

उफ, शुक्र है, बच गई, बस कल ट्रेन पकड़ लूं.

सारी रात चिंता के मारे नेहा सो न सकी. सुबह पति और बच्चों के जाने के बाद वह जल्दीजल्दी जाने की तैयारी करने लगी.

ट्रेन तो 11 बजे की है, लगभग 10 बजे घर से निकल जाऊंगी. अरे, सूखे कपड़े तो बालकनी में ही रह गए, अगर नहीं उठाए तो 3 दिन तक वहीं पड़े रहेंगे, मजाल है कि कोई उठा कर अंदर रख दे. बड़बड़ाते हुए नेहा ने जैसे ही बालकनी का दरवाजा खोला, सामने से आती हुई कांची को देख कर उस के हाथपैर फूल गए. कुछ समझ न आया तो बाहर से ताला बंद कर के, ऊपर सीढ़ियों में जा कर छिप गई.

हाय, अगर ऊपर से कोई आ गया तो क्या कहूंगी? क्यों बैठी हू सीढ़ियों में… ये किस मुसीबत में फंस गई, पर अब करे क्या? दम साधे बैठी रही.

कुछ देर बाद सीढ़ियों पर किसी के उतरने की आवाज आई, शायद ताला देख कर कांची चली गई थी. 5 मिनट रुक कर वह नीचे आई और ताला खोला. मायके में अपनी झूठी शान दिखाने के लिए क्याक्या करना पड़ रहा है, बस एक बार ट्रेन में बैठ जाऊं.

10 बजने ही वाले थे. सूटकेस उठा कर, ताला लगाया, चाबी पड़ोस में दे कर सीढ़ियां उतरने लगी, उस की सांस धौंकनी की तरह चल रही थी, ज्यादा गरमी न होने के बाद भी पसीना पीठ से बह कर एड़ियों तक पहुंच रहा था.

भगवान का लाखलाख शुक्र है कि आटो सामने ही दिख गया, बिना मोलभाव (जो उस की आदत नहीं थी) के वह जल्दी से आटो में बैठ कर स्टेशन के लिए निकल पड़ी.

क्या कांची पीछे से आवाज दे रही थी…, नहींनहीं, मेरा भ्रम होगा…

जैसेतैसे स्टेशन पहुंच कर अंदर घुसी ही थी कि सचमुच पीछे से कांची के पुकारने की आवाज सुन कर उस के होश ही उड़ गए…

अब तो ऊपर वाला भी मेरी इज्जत की धज्जियां उड़ने से नहीं बचा सकता. झूठी शान के चक्कर में मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने ऐसा नीच काम किया. अब कांची से आंखें मिलाऊंगी… हे भगवान, काश, ये धरती फट जाए तो मैं उसी में समा जाऊं… क्या करूं? कहां जाऊं…. भागूं…..पर, पैर  जड़ हो गए…

तभी हांफती हुई कांची आई, ‘‘कब से आवाज दे रही हूं? सुन ही नहीं रही है, कल तेरे घर आई, तो भी नहीं मिली. सुबह आई, तो ताला लगा था, मुझे लगा कि गई ये तो… पर, अभी आटो में बैठती हुई दिखी, तब भी आवाज लगाई, पर शायद तू सुन नहीं पाई. नेहा को काटो तो खून नहीं.

‘‘अरे, उस दिन तू मेरे घर आई थी न शायद जल्दबाजी में तेरी झुमकी वहीं गिर गई थी, उसे ही लौटाने आई थी. मैं सोचसोच कर परेशान हो रही थी. अगर न दे पाई तो तू वहां क्या पहनेगी. चल, अब मैं निकलती हूं, पहले ही बैंक के लिए देर हो गई है, तू वहां से आ जा, फिर मिलते हैं.’’

नेहा ठगी सी खड़ी रह गई, डायमंड की चमक पूरी तरह से फीकी पड़ चुकी थी.

 

 

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