Download App

पति पर निर्भर न रहे पत्नी

रीवा और ईशान को शादी के बंधन में बंधे कुछ ही महीने हुए हैं. रीवा एक मल्टीनैशनल कंपनी में वर्किंग है और ईशान का अपना सफल बिजनैस है. जब रीवा और ईशान ने एक होने का निर्णय लिया था तभी उन के कानों में घरपरिवार और आसपास के लोगों की खुसफुसाहट पड़ने लगी थी कि अगर ईशान इतना अच्छा कमाता है तो रीवा को भला नौकरी करने की क्या जरूरत है. रीवा और ईशान दोनों अपने कैरियर के अच्छे मुकाम पर थे और उन दोनों ने लोगों की बातों को अनदेखा करते हुए अपना अलग घर बसाने का निर्णय लिया.

अगर घरपरिवार की सोच के हिसाब से सोचें तो उन्होंने ऐसा निर्णय ले कर बहुत गलत किया लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो उन्होंने बहुत सही निर्णय लिया.

लोगों का काम है कहना

भले ही समाज बदल रहा है और बदलते समय के साथ भारतीय समाज के लोगों की सोच में भी काफी बदलाव आया हो लेकिन आज भी पुरानी सोच के लोगों के मुंह से काम के साथ घर संभालने वाली महिलाओं को ‘जब पति इतना कमाता है तो तुम्हें जौब करने की क्या जरूरत’ सुनने को मिल ही जाता है. लेकिन मौडर्न एज के मैरिड कपल्स ने ‘कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना’ वाली कहावत को सही मानते हुए अपने कैरियर को न छोड़ने का निर्णय लिया.

आप ही सोचिए अगर लड़का अपने कैरियर को बनाने में मेहनत करता है और लड़की भी उतनी ही मेहनत करती है तो उस की मेहनत को कम क्यों आंका जाए और उस से जौब छोड़ने की उम्मीद क्यों की जाए?

पकापकाया नहीं खुद की मेहनत का

हमारे समाज में अधिकांश कपल शादी के बाद पेरैंट्स के साथ उन के बनाए उन के सैटल घर में रहते हैं जहां उन्हें सबकुछ रेडीमेड मिलता है लेकिन वहीं जब रीवा की ईशान की तरह आप अपने घर में अलग रहने का निर्णय लेते हैं तो उस घर में वे हर चीज खुद से करते हैं जिस से उन में न केवल कौन्फिडैंस आता है बल्कि उन्हें दुनियादारी की सम झ और आटेदाल का भाव भी पता चलता है जो हर कपल को सीखना चाहिए.

अलग रहने का एक फायदा यह भी होगा कि आप को फैमिली, नातेरिश्तेदारों की चूंचूं भी नहीं सुननी पड़ेगी और अकेले रहने से नातेरिश्तेदार आप की वैल्यू करेंगे, इज्जत करेंगे कि आप ने अपना घर खुद बनाया है. सास, ननद देवरानी, जेठानी के ताने देने पर लड़की को नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी. वैसे भी, आज के जमाने में एक व्यक्ति की कमाई से न घर बनाया जा सकता है न चलाया जा सकता है. आज की जरूरत है कि पतिपत्नी दोनों काम करें.

पतिपत्नी के बीच प्यार और नजदीकी बढ़ेगी

शादी के बाद हर कपल ऐसी प्लानिंग करे कि वे अलग घर में रहें भले ही और वह घर एक कमरे का हो या दो कमरे का, यंग कपल का अपना अलग किचन होना चाहिए.

इस से उन में अलग रहने का, जीवन के उतारचढ़ावों का सामना करना आएगा, खुद पर गर्व होगा कि वे खुद का घर बना और चला सकते हैं जहां लड़के और लड़की दोनों की भागीदारी होगी. इस से कपल के बीच प्यार और नजदीकी भी बढ़ेगी. पति भी पत्नी की कमाई की वैल्यू करेगा और घरपरिवार दोनों के खर्चे से ही चलेगा.

औरतों को मिलेगी अपनी पहचान

लड़कियों के लिए नौकरी या कमाई करना सिर्फ पैसा कमाने का जरिया होने से ज्यादा आत्मसम्मान, इंडिपैंडैंट बने रहने और अपनी पहचान बनाने का जरिया होता है. यह बात उन परिवारों और समाज को सम झने की जरूरत है जिन्हें लगता है कि पति अच्छा कमाता है तो पत्नी को घर से बाहर जा कर काम करने की क्या जरूरत है.

पतिपत्नी दोनों का होगा घर

जब पतिपत्नी दोनों मिल कर शादी के बाद अपना अलग घर बसाएंगे तो वह घर पतिपत्नी दोनों की कमाई से बनेगा और चलेगा. ऐसे में घर दोनों का होगा और लड़कियों की आखिरकार, शादी के बाद ‘उस का घर कौन सा’ की समस्या भी दूर होगी.

हिंदी माह : देश के माथे की बिंदी सरीखा है हिंदी का हाल

हिंदी के महीने के बारे में आप को पता है न, यह बहुत ही खास समय होता है, विशेषकर, सरकारी कार्यालयों के लिए. इस महीने में हम काफी हद तक अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा लेकिन कानूनन सरकारी यानी राजभाषा हिंदी के आंगन में सम्मान के सुंदर पौधे जरूर लगाते हैं. हर शहर में मुश्किल है लेकिन बड़े शहरों में नगर समितियां बनी हैं जो अनेक आयोजन करवाती हैं.

कार्यालयों को इन आयोजनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए आग्रहपत्र भेजे जाते हैं. उन्हें प्रेरित किया जाता है कि प्रतियोगिता के जमाने में कुछ नया व दिलचस्प हो ताकि सहभागिता बढ़े और हिंदी फैले, यहांवहां उगे. आयोजकों द्वारा यह खयाल जरूर रखा जाता है कि मेजबान और मेहमान जरूर कहें ‘वी एंजौयड अ लौट.’ यह प्रशंसनीय है कि सरकार के आदेशों ने हिंदी का मामला संजीदा बनाया है, इसलिए आयोजन करने ही पड़ते हैं.

एक कार्यालय में आयोजन का विषय रहा. ‘चित्र देखो कहानी लिखो प्रतियोगिता.’ बिलकुल ऐसा लगा जैसे किसी बालपत्रिका द्वारा नन्हेमुन्नों के लिए प्रतियोगिता हो रही है. शायद कर्मचारियों के हिंदी प्रेम को बुनियादी स्तर पर उगाने के लिए ही यह विषय रखा गया था. प्रतियोगिता सुबह 11 बजे रखी गई थी. लेकिन बेमौसमी बारिश होने लगी.

खराब मौसम के कारण प्रतियोगिता देर से शुरू होने की घोषणा हो चुकी थी. छतरी में भीगते बचते, मौसम को ‘एंजौय अ लौट’ करते आयोजनस्थल पर पहुंचे, तो पता चला आयोजन स्थल का दरवाजा बंद था. कोई मेजबान या उन का चेला नहीं दिखा.

समझदार आयोजकों को पता होता है कि आएगा आने वाला, तभी पुरस्कार पाएगा. दरवाजा खोला तो देखा मीटिंग चल रही है. यही सोचा कि गलत जगह आ गए हैं. गलत समय पर आने वाली बारिश में भीगा चेहरा साफ कर देखा, लगा कि जगह तो यही है. पूछ ही लिया, क्या यहां हिंदी से संबंधित प्रतियोगिता हो रही है. जवाब मिला, ‘नो, इट्स अ सैमिनार औन इंगलिश टीचिंग.’

अच्छा रहा कि आयोजकों का कार्यालय सामने ही था. वहां से पता चला कि प्रतियोगिता, कर्मचारी मनोरंजन कक्ष में कुछ ही कदम की दूरी पर हो रही है. ढूंढ़ते हुए फिर गलत जगह पहुंच गए. फिर काफी सीढि़यां उतर कर मनोरंजन कक्ष पहुंचे. यहां भी दरवाजे के बाहर कोई नहीं, उन्हें पता था आएगा आने वाला.

अंदर पहुंचे तो टेबल टैनिस की मेज, कैरम बोर्ड, व्यायाम के उपकरण. आयोजक प्रतिनिधि बोले, वहां अभी सैमिनार चल रहा है, सोचा, यहीं निबटा लेते हैं. अपनी हिंदी की प्रतियोगिता खेल ही तो है, प्रतियोगी ज्यादा नहीं थे टैनिस टेबल के चारों ओर बैठे. कुछ और महालेटलतीफ आए तो छोटा टेबल रख कर ऐडजस्ट किया गया.

इधर प्रतियोगी सोच रहे थे, उधर आयोजक विषय का साधन ढूंढ़ रहे थे. हां, क्या विषय था…चित्र देखो…उन्होंने चित्र ढूंढ़ लिया था. एक पुराने कैलेंडर में छपा दक्षिण भारतीय प्राकृतिक दृश्य. पहले उन्होंने एकएक कर सभी प्रतियोगियों को दिखाया, फिर कहा, ध्यान से देख लीजिए, पूरे कैलेंडर को ही पुराने टेप के एक टुकड़े से चिपकाने लगे. मगर वह चिपकता नजर नहीं आया. एक प्रतियोगी ने सुझाव दिया, चित्र वाला पेज ही चिपकाइए. झट से पेज फाड़ कर चिपका दिया.

प्रतियोगिता शुरू करने की घोषणा करने के लिए बारिश में भी पहुंचे आयोजक सदस्य ने कहा, इत्मीनान से देखिए और दिमाग से लिखिए. एक प्रतियोगी ने कहा, ‘‘दिमाग से नहीं, हम तो दिल से लिखेंगे.’’ प्रतियोगिता के बीच में परंपरागत समोसे

व गुलाबजामुन परोसे गए. प्रतियोगिता संपन्न हो गई. मगर परिणाम भारतीय कार्यसंस्कृति के लालफीते के नीचे दब गए और घोषित होने बाकी रहे.

दोपहर बाद दूसरी प्रतियोगिता निबटानी थी. बदलते समय के साथ यहां अंदाज नया रहा. तकनीक साथ ली गई और मुख्य प्रेरणास्त्रोत रहे समझदार बक्से पर आ रहे शो. प्रतियोगियों के सामने स्क्रीन पर चित्र दिखाए गए व निश्चित समयसीमा में पूछा गया कि चित्र किस का.

हैरानी यह रही कि इन चेहरों में फिल्म व टीवी से जुड़े चेहरे नहीं थे. आयोजकों, प्रतियोगियों व अन्य को खूब आनंद आया. उन्हें नयापन अच्छा लगा. सवाल हिंदी में पूछे गए, मुसकराहटों का आदानप्रदान भी हिंदी में ही हुआ. सो, इस तरह हिंदी सप्ताह एक दिन में सही तरीके से मना लिया गया.

इस कार्यक्रम से जुड़े सब लोगों ने एंजौयड अ लौट किया. एक नटखट व्यक्ति का सुझाव था कि अगले पखवाड़े में रिऐलिटी शो जैसा ही कोई कार्यक्रम हो ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग दिलचस्पी लें व प्रतियोगी भी बढ़ें. बढि़या है, हिंदी के बहाने कुछ तो हो रहा है. यह अलग बात है कि कुछ लोग इसे काफी कुछ कहते हैं और कुछ सिरफिरे हरकुछ कहते हैं. कुछ भी कह लो, हिंदी के महीने में आयोजनों के मोरों का नृत्य जरूरी है.

मेरी बीवी बहुत खर्चीली है और उस के अजीबोगरीब शौक हैं.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी उम्र 28 साल है और मेरी शादी हुए 2 साल हो चुके हैं. जब मेरी शादी हुई तब मेरा काफी अच्छा बिजनैस था और किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं थी. मेरी पत्नी को शौपिंग करना बेहद पसंद है. उसे अच्छे से अच्छा ब्रैंड पहनना पसंद है और शादी के बाद से मैं ने भी उसे कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया. उस ने जो चाहा उसे दिलवाया और उस ने जहां कहा मैं उसे वहां घूमाने भी ले कर गया. अब पिछले कुछ समय से मेरा बिजनैस ठीक नहीं चल रहा और इस वजह से मेरे ऊपर कर्जा भी काफी हो गया है. मगर इस के बावजूद मेरी पत्नी अपने खर्चे बिलकुल भी कंट्रोल नहीं कर रही है और उस के खर्च उठातेउठाते मेरा पूरा बजट हिल जाता है. मैं क्या करूं?

जवाब –

बिजनैस हर समय एकजैसा नहीं चलता. इस में उतारचढ़ाव आते रहते हैं. अलबत्ता आप अपनी जगह बिलकुल सही है.

आप ने शुरुआत से ही अपनी पत्नी की हर ख्वाइश पूरी करने की कोशिश की है जिस से कि उन को अब इस की आदत लग चुकी है. जिस का स्वभाव खर्चीला होता है उस के लिए खर्चे कंट्रोल करना आसान नहीं होता.

आप अपनी पत्नी के साथ बैठें और उन्हें प्यार से समझाएं कि कुछ समय के लिए उन्हें अपने खर्चे कंट्रोल करने चाहिए नहीं तो उन के खर्चे पूरे करने के चक्कर में आप के ऊपर कर्जा बढ़ता चला जाएगा. आप अपनी पत्नी को सारी स्थिति समझाएं कि आप की आमदनी अब पहले जितनी नहीं रही जिस कारण आप परेशान रहते हैं और उधार ले कर शौक पूरे करना कोई समझदारी नहीं है.

आप उन्हें जौब करने की सलाह भी दे सकते हैं जिस से कि उन के खर्चे भी नहीं रुकेंगे और साथ ही आप की थोड़ीबहुत मदद भी हो जाएगी.

आजकल की लड़कियां वैसे भी किसी के ऊपर आश्रित नहीं रहना चाहतीं और परिवार की भी मदद करना चाहती हैं तो इस के लिए जौब एक बैस्ट औप्शन है.

अगर आप अपनी पत्नी को प्यार से समझाएंगे तो वे जरूर आप की बात समझेंगी भी और बेतहाशा खर्च करने की आदत पर रोक भी लगा लेंगी.

हां, पत्नी से कुछ न छिपाएं क्योंकि अगर आप की पत्नी को सबकुछ पता होगा तभी वे आप की मदद कर पाएंगी.

ऐसे में आप उन्हें समझाएं कि उन्हें सिर्फ कुछ समय के लिए ही अपने खर्चों पर ब्रेक लगानी है और जब आप का बिजनैस फिर से अच्छा चलने लगेगा तब सब सामान्य हो जाएगा.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

तंत्रमंत्र का खेला : बाबा के भ्रमजाल से निकल पाई सुजाता

‘‘यह क्या है शैलेश? तुम्हें मना किया था न कि अगली बार लेट होने पर क्लास में एंट्री नहीं मिलेगी,’’ प्रोफैसर महेंद्र सिंह गुस्से से चीख उठे. ‘‘सौरी सर, आज आखिरी दिन था मजार में हाजिरी लगाने का, आज 40 दिन पूरे हो गए हैं, कल से मैं समय से पहले ही हाजिरी दर्ज करा लूंगा.’’

‘‘यह क्या मजार का चक्कर लगाते रहते हो? इतना पढ़नेलिखने के बाद भी अंधविश्वासी बने हो,’’ प्रोफैसर ने व्यंग्य किया. ‘‘सर, ऐसा न कहिए,’’ एक छात्र बोल उठा.

‘‘सर, आप को रेलवे स्टेशन पर बनी मजार की ताकत का अंदाजा नहीं है,’’ दूसरे छात्र ने हां में हां मिलाई. ‘‘सर, आप ने देखा नहीं, मजार

2 प्लेटफौर्म्स के बीच में बनी है, तीसरे, चौथे, 5वें प्लेटफौर्म्स जगह छोड़ कर बनाए गए हैं,’’ एक कोने से आवाज आई. ‘‘सर, अंगरेजों के जमाने से ही इस मजार का बहुत नाम है, 40 दिनों की नियम से हाजिरी लगाने पर हर मनोकामना पूरी हो जाती है,’’ किसी छात्र ने ज्ञान बघारा.

आज भौतिकी की क्लास में मजार का पूरा इतिहासभूगोल ही चर्चा का विषय बना रहा. प्रोफैसर भी इस वार्त्तालाप को सुनते रहे. महेंद्र सिंह का पूरा छात्रजीवन व नौकरी के शुरू के वर्ष भोपाल में बीते हैं. पिछले वर्ष उन्हें इस छोटे से जिले से प्रोफैसर का औफर आया तो वे अपनी पत्नी को ले कर इस कसबेनुमा जिले परसिया में चले आए, जहां सुविधा व स्वास्थ्य के मूलभूत साधन भी उपलब्ध नहीं हैं. इस कसबे को जिले में बदलने के 5 वर्ष ही हुए हैं, इसलिए विकास के नाम पर तहसील, जिला अस्पताल व सड़कों का विस्तार कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है.

सरकारी अस्पताल में जरूरी उपकरण और विशेषज्ञ डाक्टर्स की कमी बनी हुई है. बेतरतीब तरीकों से बने मकानों के बीच में, कहींकहीं सड़कें बन गई हैं तो सीवर और नाली का अभी कोईर् अतापता नहीं है. आसपास के गांवों के समर्थ लोग इस शहर में मकान बना कर रहने तो लगे हैं पर मानसिकता और आचरण से वे

अभी भी गंवई विचारधारा से जुड़े हैं. केवल 3 से 4 किलोमीटर के दायरे में इस कसबेनुमा शहर की हद सिमट कर रह गई है. इस दायरे से बाहर नदी है, जंगल हैं और हैं शुद्ध प्राकृतिक हवा के संग हरेभरे खेतखलिहान के नजारे. जो भी बैंक, तहसील व दूसरे विभागों से ट्रांसफर हो कर, दूरदराज से यहां आते हैं, वे अच्छे बाजार, संचार साधनों की असुविधा, यातायात के साधनों की कमी से उकता कर जल्दी ही इस जगह से भाग जाना चाहते हैं. नए खुले आईटीआई में महेंद्र सिंह को उन के अनुभव के आधार पर प्रोफैसर के पद का औफर मिला, तो वे मना न कर सके और भोपाल के अपने संयुक्त परिवार को छोड़ कर अपनी पत्नी को साथ लिए यहां चले आए. पत्नी सुजाता बेहद आधुनिक व उच्च शिक्षित है, इसीलिए कभीकभार वह भी कालेज में गैस्ट फैकल्टी बन क्लास लेने आ जाती.

सुजाता जब भी कालेज में आती, छात्रों की बांछें खिल जातीं. वैसे तो यह कोएड इंस्टिट्यूट है किंतु लड़कियों की संख्या उंगलियों में गिनी जा सकती है. लड़कियां साधारण ढंग से तैयार हो कर कालेज आती हैं. फैशन से उन का दूरदूर तक कोई नाता नहीं हैं. बस, बालों की खजूरी चोटी या पफ उठा बाल बना भर लेने से उन का शौक पूरा हो जाता है. नीले कुरते और सफेद सलवारदुपट्टा डाले 18 से 20 वर्षीया सहपाठिनों के सामने 35 वर्षीया सुजाता भारी पड़ती. नाभि दिखने वाली साड़ी, खुले और करीने से कटे बाल, गहरी लिपस्टिक से सजे होंठ और आंखों में गहरा काजल सजाए वह जब भी क्लास लेने आती, लड़कों में मैम को प्रभावित करने की होड़ मच जाती. वे उसे फिल्मी हीरोइन से कम न समझते.

महेंद्र सिंह अपने साथी शिक्षकों के बीच गर्व से गरदन अकड़ा कर घूमते, मानो चुनौती सी देते हों कि मेरी बीवी से बढ़ कर तुम्हारी बीवियां हैं क्या. साथी शिक्षक पीठ पीछे सुजाता और महेंद्र का मजाक बनाते, मगर उन के सामने उन की जोड़ी की तारीफ में कसीदे काढ़ते. उस दिन महेंद्र जब घर लौटे तो चाय पीते हुए, दिनभर की चर्चा में मजार का जिक्र करना न भूले. यह सुनते ही

निसंतान सुजाता की आंखें एक आस से चमक उठीं कि हो सकता है कि इसीलिए ही समय उसे यहां परसिया खींच लाया है.

सुजाता जितनी वेशभूषा से आधुनिक थी उतनी ही धार्मिक थी. आएदिन घर में महिलाओं को बुला कर धार्मिक कार्यक्रम करवाना उस की दिनचर्या में शामिल था. इसी वजह से वह अपने महल्ले वालों में काफी लोकप्रिय हो गई थी. आसपास के मकानों में ज्यादातर नजदीकी गांव से आ कर बसने वाले परिवार थे. वे दोचार सालों के भीतर ही परसिया में अपने छोटेबड़े बच्चों को पढ़ाने के लिए घर बना कर रहने आ गए थे. उन में से कुछ पंडित, कुछ पटेल तो एकदो राठौर परिवार थे.

कुछ परिवारों की महिलाएं अंगूठाछाप हैं तो कुछ 10वीं या 12वीं तक पढ़ी हैं किंतु इस के बाद विवाह हो जाने के कारण वे आगे न पढ़ सकीं. अभी तक यहां 16-17 वर्ष में शादी और 20-21 वर्ष में गौना कर देने का चलन रहा है. ऐसे परिवारों के बीच सुजाता को कार्यक्रम करवाने के लिए इन महिलाओं से बढ़ कर कौन मिलता. ये महिलाएं, जो गांव में दिनभर किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहती थीं, यहां परसिया में घर से बाहर, कुरसियां डाले, दिनभर गाउन पहन कर बतियाती रहतीं. गाउन पहनना उन के लिए आधुनिकता की निशानी है. बस, इतना ही फैशन करना आता है इन को.

सुजाता का शुरू में तो यहां बिलकुल मन नहीं लगता था मगर धीरेधीरे उस ने अपनेआप को साथी महिलाओं के साथ सामूहिक कार्यक्रम में व्यस्त कर लिया. उसे रहरह कर भोपाल याद आता. वहां की चमचमाती सड़कों की लौंग ड्राइव, किट्टी पार्टी, बड़े ताल का नजारा, क्लब और अपनी आधुनिक सखियों का साथ. शादी के 10 वर्षों बाद सारी शारीरिक जांचों के परिणामों से उसे मालूम हो गया था कि वह कभी मां नहीं बन सकती. वह अपने खाली समय को किसी न किसी तरह व्यस्त रखती ताकि खाली दिमाग में कोई खुराफात न पैदा हो जाए.

जहां भोपाल में वह किट्टी, क्लब और सोशल वर्क में बिजी थी वहीं यहां के माहौल में वह पूरी तरह रम गई थी. हां, मगर नियम से, वह यहां के एकलौते ब्यूटीपार्लर में जाना न भूलती. यहां की ब्यूटीशियन से ज्यादा तो उसे ब्यूटी नौलेज थी, इसीलिए उसे भी वह तरहतरह के ब्यूटी टिप्स देती रहती.

ब्यूटीशियन रमा जबलपुर में अपनी मौसी के घर रह कर,

6 महीने का कोर्स कर के परसिया में अपना पार्लर खोल कर बैठ गई थी. यहां युवतियां थ्रेडिंग और फेशियल खूब करवाती थीं. उस का पार्लर चल निकला. परंतु सुजाता के आने के बाद रमा को वैक्सिंग, मैनीक्योर, पैडिक्योर, हेयर कटिंग के नए तरीके जानने को मिले. वह सुजाता को देखते ही खिल उठती और सोचती, कितनी उच्चशिक्षित है मगर स्वभाव उतना ही सरल है. इधर, सुजाता का मन मजार के चक्कर लगाने को मचलने लगा. वह सोचती सारे वैज्ञानिक तरीके अपना कर देख ही लिए हैं, कोई परिणाम नहीं मिला. अब इस मजार के चक्कर लगा कर भी देख लेती हूं. जब इस विषय में महेंद्र की राय लेनी चाही तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उन्होंने भी सुजाता की आंखों में आशा की चमक को देख लिया था. महेंद्र से कोई भी जवाब न पा कर सुजाता सोच में पड़ गई. उस ने अपने पड़ोसियों से इस विषय में बात करने का मन बना लिया.

दूसरे दिन हमेशा की तरह दोपहर में जब सारी महिलाएं अपने चबूतरे पर या प्लास्टिक की कुरसियां डाल कर गपों में मशगूल हो गईं, सुजाता ने मजार का जिक्र छेड़ दिया. फिर क्या था, सभी के पास तर्क निकल आए कि मजार इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों है? सभी सवर्र्ण और पिछड़े वर्ग के परिवारों की महिलाओं में वैसे तो पूजापाठ के नियमों में बहुत अंतर था मगर मजार के विषय में वे सभी एकमत थीं. लगेहाथ महिलाओं ने सुजाता की दुखती रग पर हाथ रखते हुए उसे भी संतान की मनौती मांगने के लिए 40 दिन मजार का फेरा लगाने का सुझाव दे ही दिया. कुछ का तो कहना था कि 40 दिन पूरे होने से पहले ही उस की गोद हरी हो जाएगी. जितने मुंह उतनी बातें सुन कर सुजाता ने तय कर लिया कि वह कल सुबह से ही मजार जाने लगेगी. महेंद्र उस के इस फैसले से खुश तो नहीं हुआ, किंतु उस ने उसे उस के विश्वास के साथ फैसला लेने को स्वतंत्र कर दिया.

मजार का रास्ता रेलवे स्टेशन के ओवरब्रिज से गुजर कर 2 प्लेटफौर्म्स के बाद है. छोटा सा स्टेशन होने के कारण, बहुत ही कम यात्रीगाड़ी के फेरे लगते हैं. दिनभर पास के अंचल से कोयला खदानों का कोयला लाद कर गुजरने वाली मालगाडि़यों का ही तांता लगा रहता है, जो ज्यादातर तीसरे प्लेटफौर्म से गुजरती हैं. दूसरे और तीसरे प्लेटफौर्म के बीच में ही मजार है, जिसे चारों तरफ से घेर कर ओवरब्रिज की सीडि़यों से जोड़ दिया गया है. जिस से लोगों की मजार में आवाजाही से रेलवे स्टेशन के सुरक्षा प्रबंधन पर कोई असर नहीं पड़ता. लोगों का आनाजाना एक ओर से लगा ही रहता.

जब से यह जगह जिले में परिवर्तित हुई है तब से भीड़ बढ़ने लगी और एक बाबा की मौजूदगी भी. वह हफ्ते में 3 दिन मजार में, शेष 4 दिन स्टेशन के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठा मिलता.

कोई कहता कि बाबा मुसलिम है तो कोई उस के हिंदू होने का दावा करता. मगर बाबा से जाति पूछने की हिम्मत किसी में नहीं थी. बाबा से लोग अपनी परेशानियां जरूर बताते जिन्हें वह अपने तरीके से हल करने के उपाय बताता. बाबा बड़ा होशियार था, वह शाकाहारियों को नारियल तोड़ने तो मांसाहारियों को काला मुरगा काट कर चढ़ाने का उपाय बताता. लोगों के बुलावे पर उन के घर जा कर भी झाड़फूंक करता. जो लोग उस के उपाय करवाने के बाद मनमांगी मुराद पा जाते, वे खुश हो उस के मुरीद हो जाते. लेकिन जो लोग सारे उपाय अपना कर भी खाली हाथ रह जाते, वे अपने को ही दोषी मान कर चुप रहते. इसीलिए, बाबा का धंधा अच्छा चल निकला.

सुजाता सुबह के समय जब घर से निकली उस समय जाड़े के मौसम के कारण कोहरा छाया हुआ था. वह तेज कदमों से स्टेशन की ओर निकल गई. उस के घर और स्टेशन के बीच एक किलोमीटर का ही फासला तो था. अभी मजार में अगरबत्ती सुलगा कर पलटी ही थी कि बाबा से सामना हो गया. उस ने प्रणाम करने को झुकना चाहा पर उस की मंशा भांप कर बाबा दो कदम पीछे हट गया. मेरे नहीं, इस के पैर पकड़ो, वह जो इस में समाया है. उस ने उंगली से मजार की तरफ इशारा करते हुए कहा, जिस मंशा से यहां आई हो, वह जरूर पूरी होगी. बस, अपने मन में कोई शंका न रखना.

सुजाता गदगद हो गई. आज सुबह

इतनी सुहावनी होगी, उस ने सोचा न था. उसे पड़ोसिनों ने बताया तो था यदि मजार वाले बाबा का आशीर्वाद भी मिल जाए तो फिर तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई ही समझो.

खुश मन से सुजाता ने जब घर में प्रवेश किया, तो उस का पति चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ने में तल्लीन था. सुजाता गुनगुनाते हुए घर के कार्यों में व्यस्त हो गई. महेंद्र सब समझ गया कि वह मजार का चक्कर लगा कर आई है, मगर कुछ न बोला. वह सोचने लगा कितने सरल स्वभाव की है उस की पत्नी, सब की बातों में तुरंत आ जाती है, अब अगर मैं वहां जाने से रोकूंगा तो रुक तो जाएगी मगर उम्रभर मुझे दोषी भी समझती रहेगी कि मैं ने उस के मन के अनुसार कार्य न कर के, उसे संतान पाने के आखिरी अवसर से भी वंचित कर दिया. आज जा कर आई है तो कितनी खुश लग रही है वरना कितनी बुझीबुझी सी रहती है. चलो, कोई नहीं, 40 दिनों की ही तो बात है, फिर खुद ही शांत हो कर बैठ जाएगी. मेरे टोकने से इसे दुख ही पहुंचेगा.

दिन बीतते देर नहीं लगती, 40 दिन क्या 4 महीने बीत गए, मगर सुजाता का मजार जाना न रुका. अब वह गैस्ट फैकल्टी के कार्य में भी रुचि नहीं लेती, न ही आसपड़ोस की महिलाओं के संग कार्यक्रम में मन लगाती. अपने कमरे को अंदर से बंद कर, घंटों न जाने कैसे तंत्रमंत्र अपनाती. इन सब बातों से बेखबर एक दिन अचानक रमा उस महल्ले से गुजरी. उस ने सोचा, सुजाता भाभी की खबर भी लेती चलूं, अरसा हो गया उन्हें, वे पार्लर नहीं आईं. दोपहर का समय, दरवाजे की घंटी सुन सुजाता को ताज्जुब हुआ कि इस समय कौन है? दरवाजा खोलते ही रमा को देख कर खुशी से चहक उठी. उसे लगभग खींचते हुए भीतर ले गई.

मगर रमा उसे देख कर हैरान थी कि क्या यह वही सुजाता है जो कितनी सजीसंवरी रहती थी. सामने मैलेकुचैले गाउन में, कालेसफेद बेतरतीब बालों की खिचड़ी के साथ, न मांग में सिंदूर, न मंगलसूत्र, न चूडि़यां, न बिंदी पहने सुजाता किसी सड़क पर घूमती पगली से कम नहीं लगी. ‘‘भाभी, आप को क्या हो गया है? तबीयत तो ठीक है न आप की? भाईसाहब ठीक तो हैं न?’’ रमा ने हैरानी से पूछा. ‘‘अब आई है, तो बैठ. तुझे सब बताती हूं. मेरी तबीयत को कुछ नहीं हुआ बल्कि मेरे चारों तरफ भूतों का डेरा हो गया है. कोई मेरी बात का विश्वास नहीं करता. यहां देख मैं इसे सोफे पर रातभर जाग कर टीवी देखती रहती हूं. अगर झपकी आई तो सो गई वरना पूरी रात यों ही कट जाती है. ये भूत दिनरात मेरे चारों तरफ मंडराते रहते हैं. दिन में भी कभी महल्ले के बच्चे के रूप में तो कभी पड़ोसिन के रूप में आ कर बैठ जाते हैं. फिर चाय बनाने या कुछ लेने भीतर जाओ, तो गायब हो जाते हैं.’’

‘‘भाभी, ऐसी बातें कर के मुझे मत डराओ?’’ रमा घबरा गई. ‘‘यह मेरी जिंदगी की सचाई बन गई है. ये देखो, मेरे हाथ में ये निशान. अगर मैं चूड़ी, बिंदी, कुछ भी पहनती हूं तो ऐसे निशान बन जाते हैं. सजनेसंवरने पर मुझे ये भूत बहुत परेशान करते हैं, इसीलिए मैं अब सादगी से रहती हूं, बाल भी नहीं रंगती, मेहंदी भी नहीं लगाती,’’ सुजाता बोली.

‘‘भाईसाहब, आप को कुछ समझाते नहीं हैं क्या?’’ रमा सुजाता की बातें सुन कर उलझन में पड़ गई. ‘‘मेरे पति के अंदर तो खुद ही आत्मा आती है. जब वह आत्मा आती है तो उन की आवाज भर्रा जाती है, चेहरा सर्द हो जाता है, उसी आत्मा ने मुझे सादगी से रहने का आदेश दिया है.’’

‘‘मैं चलती हूं भाभी, बेटे के स्कूल से लौटने का समय हो गया है,’’ कह कर रमा उठ खड़ी हुई. सुजाता की बातें सुन कर रमा के रोंगटे खड़े हो गए. उस ने वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी. रमा अपनी स्कूटी स्टार्ट कर ही रही थी कि सामने से शैलेश आता दिखा. शैलेश उसी की गांवबिरादरी का है, रिश्ते में उस का चचेरा भाई लगता है. उसे देख कर वह रुक गई. उसी ने तो 2 महीने पहले उसे स्कूटी चलानी सिखाई थी. उस ने सुजाता के दरवाजे पर नजर डाली. सुजाता ने अपनेआप को फिर से घर में कैद कर लिया था. उस ने शैलेश को अपने पीछे बैठने का इशारा किया और वहां से सीधा अपने घर को चल पड़ी.

शैलेश ने जो बताया उसे सुन कर रमा हैरान रह गई. ‘‘सुजाता जब पहली बार मजार में गई थी तो उसी दिन बाबा ने उस के बारे में पूरी जानकारी उस से जुटा ली. सुजाता धीरेधीरे बाबा की कही बातों का आंख मूंद कर विश्वास करने लगी थी. किंतु 40 दिन बीतने के बाद भी जब कोई परिणाम न मिला तो बाबा ने उसे समझाया कि यह सब तुम्हारे पति की शंका करने की वजह से हो रहा है. जब तक वे भी सच्चे मन से इस ताकत को नमन नहीं करेंगे, तब तक तुम अपने लक्ष्य को नहीं पा सकतीं. यह सुन कर सुजाता ने अपने पति को भी मजार लाने का फैसला किया और रोधो कर, गिड़गिड़ा कर, उसे यहां तक लाने में सफल हो ही गई. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, शैलेश? रमा की उत्सुकता चरम पर थी.’’ ‘‘लेकिन जब मैं ने महेंद्र सर से कहा तो वे गुस्से से लालपीले हो कर कहने लगे, ‘ये सारी बातें बकवास हैं, ये फेरे लगाने से कुछ नहीं होता बल्कि अब तो सुजाता घरेलू कार्य में भी रुचि नहीं लेती. बीमारों की तरह पूरे दिन वह लेटी रहती है. चलो, मैं भी वहां का नजारा देख कर आता हूं.

‘‘उस दिन बाबा स्टेशन से पहले पीपल के पेड़ के नीचे बैठे आसपास से आए आदिवासियों को घेर कर बैठे थे. उस दिन मजार का मेला भी था जो मजार पर न लग कर बाहर पास के मैदान में लगता है. उस दिन की भीड़ को देखते हुए किसी को भी स्टेशन की सुरक्षा के लिहाज से मजार तक जाने नहीं दिया जाता. इसलिए जो भी भक्त, चादर, अगरबत्ती, धूप जो भी चढ़ाना चाहे, वह बाबा को सौंप देता है. इसीलिए बाबा के चारों तरफ भीड़ जुटी थी. जिस में गरीब आदिवासी महिलाएं, उन की बेटियां बहुत श्रद्धा के साथ हाथ जोड़ लाइन से आगे बढ़ती जा रही थीं.’’ ‘‘सर, उन सब को बड़े ध्यान से देख रहे थे. थोड़ी देर में जब बाबा की नजर मेरे साथ खड़े सर पर पड़ी तो वे समझ गए कि ये सुजाता मैम के पति होंगे. उन्होंने उन्हें दूसरे दिन आ कर बात करने को कहा. सर मेरे साथ वापस आ गए.

‘‘तब तक तो मैं भी नहीं जानता था कि मैं खुद बाबा के हाथों का मोहरा बन कर रह गया हूं. वह एकतरफ सुजाता मैम को बच्चे के ख्वाब दिखा कर बरगला रहा था तो दूसरी तरफ प्रोफैसर को दूसरी शादी के सब्जबाग दिखाने लगा. इन दोनों को अपनी बातों का विश्वास दिलाने को, बाबा जब न तब, मुझे और मेरे दोस्तों को बुला कर हमारी मनोकामनाओं के पूरी होने के उदाहरण देता. हम भी उस की बात में हां में हां मिलाते, क्योंकि हमें बाबा की ताकत पर भरोसा भी था और डर भी.’’ ‘‘धीरेधीरे उस ने मैम के दिमाग में यह बात भर दी कि उस का रहनसहन, पहनावा आकर्षक होने के कारण, पीपल के पेड़ के भूत, उस पर आसक्त हो गए हैं. इसलिए उसे सब से पहले अपने आप को सादगी में रखना होगा. दूसरी तरफ, प्रोफैसर को दूसरी शादी के लिए रिश्ते दिखाने लगा. उन्हीं में से एक रिश्ते में 16 साल की एक गरीब की लड़की का रिश्ता भी था, जो प्रोफैसर को बहुत ही भा गया.

‘‘आजकल सर के बहुत चक्कर लग रहे हैं उस लड़की के गांव के. यहां से 15 किलोमीटर पर ही तो है वह गांव. वहां आदिवासी परिवार हैं. उन के वहां अभी भी बालविवाह, बहुविवाह का चलन है. अब क्या है, सर की पांचों उंगलियां घी में हैं. वे भी बस लगता है अपनी बीवी के पूरी पागल होने के इंतजार में हैं ताकि उसे पागलखाने भेज कर, उस की सहानुभूति भी बटोर लें और फिर उस कन्या से विवाह कर संतान भी पैदा कर लें. ‘‘मेरी गलती, बस, यही है कि मैं बाबा और सर की चालों को पहले समझ ही नहीं पाया वरना मैम की कुछ मदद कर देता. मगर अब उन की मानसिक स्थिति को केवल किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ से मिल कर ही संभाला जा सकता है.’’

लेकिन मानसिक रोग विशेषज्ञ इस शहर में मौजूद ही नहीं हैं और दूसरे बड़े शहर में ले जा कर इलाज कराने के मूड में प्रोफैसर हैं ही नहीं. शैलेश के मुख से यह सब सुन रमा घोर चिंता में आ गई.

बेचारी सुजाता भाभी, यह मक्कार बाबा जब प्रोफैसर को अपनी बातों में न उलझा पाया तो उस ने दूसरा जाल फेंका जिस में बड़ेबड़े ऋ षिमुनि न पार पा पाए. तो फिर उस जाल में यह प्रोफैसर कैसे बच पाता. वह दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी को भूल गया, मौकापरस्त आदम जात. यह सोच कर रमा अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

ईश्वर और आतंकवाद : दोनों में समानता को समझिए

रामभरोसे ईश्वर की तलाश में है. सरकार आतंकवादी की तलाश में है. दोनों परेशान हैं कि दोनों को दोनों ही नहीं मिल रहे.

दोनों ही छिपे रहते हैं. उन के तो बस कारनामों का ही पता चलता है जिस से उन की उपस्थिति का भ्रम बनता है. काम चाहे जिस ने किया हो पर नाम इन के मढ़ दिया जाता है.

रामभरोसे के 8 बच्चे हैं और वह इन सब के लिए कह देता है कि सब ईश्वर की देन हैं जबकि महल्ले भर को उस के एकएक बच्चे के बारे में पता है. शाखा के एक भाई साहब रात को चोरीचोरी उस के  घर के बाहर एक स्टिकर चिपका गए थे, ‘हिंदू घटा देश बंटा.’ तब से राम भरोसेजी ने अपने घर में हिंदुओं को घटने नहीं दिया. बच्चों के हिस्से की रोटी घट गई. दूध घट गया.

पत्नी के तन का कपड़ा जहांजहां से फटता गया वहांवहां से घटता गया पर रामभरोसे ने हिंदू नहीं घटने दिया. हर साल जब ताली ठोंक कर बधाई देने वाले अपनी खरखरी आवाज में नाचगा कर बधाई दे रहे होते तो महल्ले के लोगों को पता चलता कि रामभरोसे ने एक हिंदू और बढ़ा दिया है. रामभरोसे मुश्किल से 5 रुपए निकाल पाते जबकि वे 500 मांग रहे होते. अंतत: वे 5 रुपए रामभरोसे के मुंह पर मार कर और थूक कर चले जाते. रामभरोसे देशभक्ति से अपनी शर्म उसी तरह ढक लेते जिस तरह बहुत सारे लोग अपने पाप ढक लेते हैं, अपनी सांप्र- दायिकता ढक लेते हैं.

आतंकवादी भी 10 घटनाएं करता है और 100 घटनाएं अपने नाम पर जुड़वा लेता है. शाम को दफ्तर का चपरासी जाते समय बाहर लगा बल्ब खींच ले जाता है और अगले दिन कह देता है कि आतंकवाद बढ़ गया है, देखो आतंकवादी रात में बल्ब खींच कर ले गए. अब छिपा आतंकवादी सफाई देने थोड़े ही आ सकता है.

हत्या, चोरी, डकैती, अपहरण सारे अपराध आतंकवादियों के नाम लिख कर पुलिस दिनदहाड़े टांगें पसार कर सो जाती है. जब जागती है तो जा कर 2-4 डकैती डाल लीं, राहजनी कर ली, दारू पी मुर्गा खाया, वीआईपी ड्यूटी की और सो गए. प्रेस वालों से कह दिया कि सारे अपराध आतंकवादी कर गए.

ज्यादातर आतंकवादी विदेशी या विदेश प्रेरित माने जाते हैं इसलिए मामला विदेश मंत्रालय से संबंधित माना जाता है. बेचारे विदेश मंत्री ओबामा और हिलेरी के नखरे देखें या तुम्हारी चोरीडकैती की चिंता करें. उन का भी काम यह कह कर चल जाता है कि विदेश प्रभावित आतंकवाद बहुत बढ़ गया है.

सरकार परमाणु बम फोड़ सकती है, सीमा पर फौज खड़ी कर सकती है, मिसाइल का परीक्षण कर सकती है पर आतंकवादी नहीं तलाश सकती. जैसे रामभरोसे को ईश्वर नहीं मिलता वैसे ही सरकार को आतंकवादी नहीं मिलता.

मिल भी जाए तो आतंकवादी को पकड़ने की परंपरा हमारे पास नहीं है, उसे मार दिया जाता है. अगर उसे पकड़ लिया गया तो वह बता सकता है कि मैं ने पुलिस के रास्ते में बम जरूर बिछाए थे पर दफ्तर का बल्ब नहीं चुराया, डकैती नहीं डाली, राहजनी नहीं की, इसलिए उसे मार दिया जाना जरूरी है.

ज्ञात तो ज्ञात अज्ञात आतंकवादी तक मार गिराए जाते हैं. देश ने शायद ऐसी गोलियां तैयार कर ली हैं जो आंख मूंद कर चलाए जाने पर भी किसी आतंकवादी को ही लगती हैं और उसे मार गिराती हैं. सैनिक की गोली से मारा जाने वाला हर व्यक्ति आतंकवादी होता है. उस की धर्मप्राण गोली किसी निर्दोष को लगती ही नहीं.

रामभरोसे ईश्वर की आराधना करते हैं, पूजा करते हैं, आरती करते हैं, व्रत- उपवास करते हैं, माथा रंगीन रखते हैं, चोटी रखते हैं, हाथ में कलावा बांधते हैं, जहां कहीं सिंदूर लगा पत्थर दिख जाए तो माथा झुकाते हैं, पर ईश्वर नहीं मिलता.

सरकार के सैनिक भी इधर से उधर गाडि़यां दौड़ाते हैं, मुखबिर पालते हैं, संदेशों की रिकार्डिंग करते हैं, डिकोडिंग करते हैं, रातरात भर जागते हैं, कंबिंग आपरेशन करते हैं, रिश्तेदारों को टार्चर करते हैं पर आतंकवादी नहीं मिलते.

दोनों की ही ग्रहदशा एक जैसी है. दोनों के ही आराध्य अंतर्धान हैं. रामभरोसे ने मंदिर में उस की संभावित मूर्ति बैठा रखी है. सुरक्षा सैनिकों ने उन के संभावित चित्र बनवा रखे हैं. दोनों ही सोचते हैं कि एक बार मिल जाए तब देखते हैं कि फिर कैसे छूटते हैं हमारी पकड़ से. शायद उसी खतरे को सूंघ कर ही न ईश्वर खुले में आता है और न ही आतंकवादी.

ईश्वर सर्वत्र है. आतंकवादी भी सर्वत्र हैं. सरकारी नेताओं की भाषा में कहें तो वर्ल्डवाइड फिनोमिना. वे पंजाब में रहे हैं, वे कश्मीर की जन्नत में रह रहे हैं, वे असम में हैं वे त्रिपुरा में हैं, नागालैंड में हैं, वे तमिलनाडु में हैं, वे बस्तर में हैं, बिहार, उड़ीसा, झारखंड में हैं. वे केरल में उभर आते हैं व पश्चिम बंगाल में वारदातें कर के भाग जाते हैं. वे कभी अयोध्या में दिखते हैं तो बनारस और मथुरा में भी दिख सकते हैं, वे मालेगांव में होते हैं तो बेलगांव में भी होते हैं. वे कहां नहीं हैं. वे लंका में हैं, वे अफगानिस्तान में हैं, नेपाल में हैं और यहां तक कि अमेरिका की चांद पर भी बाजे बजाते रहते हैं.

वे चित्र प्रदर्शनियों में चित्र फाड़ते हैं, फिल्में नहीं बनने देते, बन जाती हैं तो चलने नहीं देते, वे क्रिकेट के मैदान में पिचें खोद देते हैं, वे लाखों संगीत प्रेमियों को प्रभावित करने वाले गजल गायकों के कार्यक्रम नहीं होने देते, वे दिलीप कुमार के घर के बाहर प्रदर्शन करते हैं. वे मंदिर तोड़ते हैं, गिरजा तोड़ते हैं, मसजिद तोड़ते हैं. वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों का दिल तोड़ते हैं.

अगर सरकार की आंख भेंगी न हो और वह विकलांग न हो तो बहुत सा आतंक साफसाफ देखा जा सकता है. और उसी तरह अगर रामभरोसे का मन साफ हो तो उसे भी ईश्वर दिख सकता है जैसे गांधीजी को दरिद्र में दिख गया था और उन्होंने उसे दरिद्र नारायण का नाम दिया था. पर अभी न तो सरकार को आतंकवादी दिख रहा है और न ही रामभरोसे को ईश्वर.

हिमाचल प्रदेश का आर्थिक संकट, जीएसटी की गलत नीतियों की देन

जीएसटी को ले कर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच ही विवाद नहीं है. बिजनेसमैन भी परेशान है. केंद्र सरकार इस पर झुकने के लिए तैयार नहीं है. इस की ताजी मिसाल केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और श्री अन्नपूर्णा होटल श्रंखला के मालिक डी. श्रीनिवासन के बीच का मसला भी है. जीएसटी बैठक के दौरान होटल व्यवसायी श्रीनिवासन ने कहा था कि मिठाई पर 5 प्रतिशत जीएसटी है, नमकीन पर 12 प्रतिशत और क्रीम बन पर 18 प्रतिशत, लेकिन सादे बन पर कोई जीएसटी नहीं है. इस पर ग्राहक मजाक करते हुए कहते हैं ‘बस मुझे बन दे दो, क्रीम मैं खुद डाल लूंगा’

उन के यह कहे जाने के बाद वहां मौजूद लोगों की हंसी छूट गई. यह वीडियो वायरल हो गया. व्यापारी पर माफी मांगने का दबाव बनाया गया. इस के बाद होटल व्यवसायी ने वित्त मंत्री से माफी मांगते कहा ‘वह किसी पार्टी से नहीं जुड़े हैं. उन्हें माफ कर दिया जाए.’ इस वीडियो को भाजपा के किसी नेता ने वायरल कर दिया.

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए एक्स पर लिखा कि कोयंबटूर में अन्नपूर्णा रेस्तरां जैसे छोटे व्यवसाय के मालिक ने सरल जीएसटी व्यवस्था की मांग की, लेकिन उन के अनुरोध को अहंकार और घोर अनादर के साथ लिया गया’.

इस मसले ने तूल पकड़ लिया. तब तमिलनाडु भाजपा प्रमुख के. अन्नामलाई की तरफ से बयान में कहा गया कि वह अपने पदाधिकारियों द्वारा किए गए इस कृत्य के लिए क्षमा मांगते हैं, जिन्होंने एक सम्मानित व्यवसायी और माननीय वित्त मंत्री के बीच एक निजी बातचीत को साझा कर दिया. इस घटना से समझा जा सकता है कि जीएसटी को ले कर केंद्र कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है. ऐसे में यह जनता और राज्य दोनों पर बोझ बन गई है.

संकट में हिमाचल प्रदेश

हिमाचल प्रदेश आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है. इस के चलते वेतन के देर से मिलने और तमाम वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाने का काम शुरू हो गया है. हिमांचल तो एक उदाहरण है. इसी क्रम में पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश जैसे कई राज्य और हैं जिन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ सकता है. इस का एक बड़ा कारण जीएसटी कानून की नीतियां हैं. आंध्र प्रदेश और बिहार को केंद्र सरकार आर्थिक सहायता देने का काम कर रही है. क्योंकि इन दो राज्यों के बल पर केंद्र सरकार सत्ता में बनी है.

राज्य सरकारों ने केंद्र को आर्थिक समस्याओं के कारण ही समर्थन दे रखा है. राज्य सरकारों को पता है कि एक देश एक टैक्स के जमाने में वह केंद्र सरकार से विरोध ले कर सत्ता पर काबिज नहीं रह पाएगी. बिहार, झारखंड, ओडिसा, तेलंगाना और उत्तराखंड जैसे राज्यों को भी अपना राजस्व बढ़ाने पर काम करना होगा. नहीं तो उन के सामने भी ऐसे हालात आने में देर नहीं लगेगी. केंद्र के विरोधी दलों वाले राज्यों के सामने दूसरे संकट भी हैं. ऐसे में केंद्र सरकार से राज्य कोई पंगा नहीं लेना चाहते हैं.

हिमाचल प्रदेश में इन दिनों आर्थिक संकट गहराया हुआ है. सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार का खजाना खाली हो गया है. इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब राज्य के 2 लाख कर्मचारियों और 1.5 लाख पेंशनर्स को 1 तारीख को सैलरी और पेंशन नहीं मिली है. अब केंद्र सरकार से राजस्व घाटा अनुदान की 490 करोड़ रुपए की मासिक किस्त मिलने के बाद ही कर्मचारियों को वेतन मिल पाएगा.

नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने कहा कि ‘इन दिनों प्रदेश आर्थिक संकट से गुजर रहा है. इसी वजह से अब तक कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला है और रिटायर कर्मियों को भी पेंशन नहीं मिली है. सभी के लिए यह गहन चिंता का विषय बना हुआ है. हिमाचल दिवालियापन की ओर बढ़ता जा रहा है.‘

मौजूदा समय में हिमाचल पर करीब 94 हजार करोड़ रुपए का कर्ज है. इस वित्तीय बोझ ने राज्य की वित्तीय स्थिति को काफी कमजोर हो गई है. कांग्रेस सरकार पर कर्मचारियों और पेंशनर्स के लिए करीब 10 हजार करोड़ रुपए की देनदारियां बाकी चल रही हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव जीत कर सत्ता में वापस आने के लिए कांग्रेस ने कई बड़े वादे किए थे. सुक्खू सरकार में आने के बाद इन वादों पर बेतहाशा खर्च किया गया.

इस वित्तीय बोझ ने राज्य की वित्तीय स्थिति को अत्यधिक कमजोर कर दिया है, जिस के कारण राज्य सरकार को पुराने कर्ज चुकाने के लिए नए कर्ज लेने पड़ रहे हैं. कर्मचारियों और पेंशनर्स के लिए राज्य सरकार पर लगभग 10 हजार करोड़ रुपए की देनदारियां बकाया हैं. हिमाचल प्रदेश के इतिहास में पहली बार, राज्य के 2 लाख कर्मचारियों और 1.5 लाख पेंशनर्स को 1 तारीख को सैलरी और पेंशन नहीं मिल पाई.

हिमाचल सरकार के बजट का 40 फीसदी सैलरी और पेंशन देने में ही चला जाता है. लगभग 20 फीसदी कर्ज और ब्याज चुकाने में खर्च हो जाता है. हिमाचल प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति को देखते हुए सरकार ने बड़ा फैसला लिया. मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने आदेश दिया कि मुख्यमंत्री, मंत्री, मुख्य संसदीय सचिव, बोर्ड निगमों के चेयरमैन दो महीने तक वेतन-भत्ता नहीं लेंगे. हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने सभी विधायकों से भी वेतनभत्ता दो महीने के लिए छोड़ने की मांग रखी थी.

सीएम सुक्खू ने कहा, ‘आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है इसलिए वो दो महीने के लिए अपना और अपने मंत्रियों का वेतनभत्ता छोड़ रहे हैं.’ उन्होंने विधायकों से कहा कि हो सके तो दो महीना एडजस्ट कर लीजिए. अभी वेतन-भत्ता मत लीजिए. आगे देख लीजिएगा. सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू का आरोप है कि ‘पिछली भाजपा सरकार द्वारा छोड़ा गया कर्ज विरासत में मिला है, जो राज्य को फाइनेंशियल इमरजैंसी में धकेलने के लिए जिम्मेदार है. हम ने राजस्व प्राप्तियों में सुधार किया है. पिछली सरकार ने 5 साल में 665 करोड़ रुपए का आबकारी राजस्व एकत्र किया था और हम ने सिर्फ एक साल में 485 करोड़ रुपए कमाए. हम इस पर काम कर रहे हैं और राज्य की वित्तीय सेहत सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है.’

केंद्र सरकार पर आरोप

राज्य में 1,89,466 से अधिक पेंशनभोगी हैं, जिन के 2030-31 तक बढ़ कर 2,38,827 होने की उम्मीद है. केंद्र सरकार ने कर्ज सीमा को 5 फीसदी से घटा कर 3.5 फीसदी कर दिया है. जिस का अर्थ है कि राज्य सरकार जीडीपी का केवल 3.5 फीसदी कर्ज के रूप में जुटा पाएगी. जीएसटी में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच जो विरोध है उस का प्रभाव भी राज्यों पर पड़ रहा है. 101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2016 के लागू होने के बाद 1 जुलाई, 2017 से जीएसटी को लागू को लागू किया गया.

केंद्र सरकार ने ‘एक देश एक टैक्स’ को देश के विकास के लिए बेहद उपयोगी मानते इस को बड़े जोरशोर से लागू किया था. उस समय केंद्र सरकार ने कहा था कि राज्यों के नुकसान की पूरी भरपाई की जाएगी. इसी आधार पर राज्यों को जीएसटी लागू करने के लिए राजी किया गया था. जीएसटी लागू होने के बाद केंद्र सरकार ने जीएसटी में आने वाली राज्यों की परेशानियों को दूर नहीं किया. कानूनन केंद्र को राजस्व नुकसान की भरपाई करनी होती है.

जीएसटी कानून में यह तय किया गया था कि इसे लागू करने के बाद पहले 5 साल में राज्यों को राजस्व का जो भी नुकसान होगा, उस की केंद्र सरकार भरपाई करेगी. आधार वर्ष 2015-16 को मानते हुए यह तय किया गया कि राज्यों के इस प्रोटेक्टेड रेवेन्यू में हर साल 14 फीसदी की बढ़त को मानते हुए गणना की जाएगी. 5 साल के ट्रांजिशन पीरियड तक केंद्र सरकार महीने में दो बार राज्यों को मुआवजे की रकम देगी. कहा गया कि राज्यों को मिलने वाला सभी मुआवजा जीएसटी के कम्पेनसेशन फंड से दिया जाएगा.

राज्यों को मुआवजे की भरपाई के लिए जीएसटी के तहत ही एक कम्पेनसेशन सेस यानी मुआवजा उपकर लगाया जाता है. यह उपकर तंबाकू, औटोमोबाइल जैसे गैर जरूरी और लग्जरी आइटम पर लगाया जाता है. इस उपकर के कलैक्शन से जो फंड बनता है उसी से राज्यों के मुआवजे की भरपाई सरकार करती है. लौकडाउन में इस फंड में भी कुछ खास रकम नहीं आई जिस के बाद केंद्र सरकार के लिए राज्यों को मुआवजा देने में काफी मुश्किल आने लगी.

केंद्र सरकार ने सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार किया है कि जीएसटी के तहत निर्धारित कानून के हिसाब से राज्यों की हिस्सेदारी देने के लिए उस के पास पैसे नहीं है. सरकार को यह आभास हो गया था कि राज्यों को मुआवजा देने के लिए कम्पेनसेशन सेस संग्रह काफी नहीं है. कंपनसेशन सेस संग्रह हर महीने 7,000 से 8,000 करोड़ रुपए हो रहा था, जबकि राज्यों को हर महीने 14,000 करोड़ रुपए देने पड़ रहे हैं. जीएसटी एक्ट का सेक्शन 10(1) सरकार को यह अधिकार देता है कि वह जीएसटी काउंसिल की इजाजत से टैक्स संग्रह की अन्य राशि में से भी राज्यों को मुआवजा दे.

ऐसे में जब तक केंद्र राज्यों जीएसटी की परेशानियों को हल नहीं करेगी तब तक राज्यों के सामने आने वाले आर्थिक संकट दूर नहीं होगा. इस के साथ ही साथ राज्य सरकारों को भी अपने खर्चों पर काबू करना होगा. फिजूलखर्ची खत्म करनी होगी. आय के दूसरे रास्ते तलाशने होगे जो जनता पर बहुत बोझ डाले बिना हो जाएं. दूसरे राज्यों को हिमांचल प्रदेश से सबक लेना चाहिए. खुद को जरूरत के हिसाब से तैयार करना चाहिए.

दिल्ली में कैसे खत्म होगा उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव

1991 में केंद्र की कांग्रेस सरकार दिल्ली में विधानसभा गठन को मंजूरी दी. यह कानून बनाते समय केंद्र सरकार ने गुत्थी को उलझा दिया. दिल्ली न तो पूरी तरह से केंद्र शासित है और न ही यह पूर्ण राज्य है. ऐेसे में दिल्ली की जनता उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच फुटबौल बनी हुई है. दिल्ली का यह तमाशा पूरे देश की छवि को खराब कर रहा है. देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली पर पूरी दुनिया की निगाह होती है. दिल्ली की तुलना दूसरे केंद्र शासित प्रदेशों से नहीं की जा सकती है. दिल्ली को राज्य का दर्जा देते समय पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने अगर सही से काम किया होता तो यह हालत नहीं होते.

1991 में संविधान में 69वां संशोधन कर किया गया था. इस के तहत केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कहा गया. जिस के बाद अनुच्छेद 239एए और 239एबी को लाया गया. इस के तहत दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कहा गया है. उपराज्यपाल को इस का प्रशासक बनाया गया. इस के चलते ही दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों या केंद्र शासित क्षेत्र से अलग है. दिल्ली न तो पूरी तरह से केंद्र शासित प्रदेश रह गया है और न ही अब यह राज्य रह गया है. यही वजह है कि दिल्ली में मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच टकराव होता रहता है.

अनुच्छेद 239एए के तहत मिले अधिकार:

केंद्र शासित क्षेत्र होते हुए भी दिल्ली की अपनी विधानसभा है, जहां अन्य राज्यों की तरह सुरक्षित सीटों का प्रावधान है. विधायकों का चुनाव सीधे जनता करती है. दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में भी मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल का प्रावधान किया गया है, जो विधानसभा के लिए सामूहिक रूप से जिम्मेदार होते हैं. दिल्ली में चुनाव कराने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग के पास है. निर्वाचित मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल को उपराज्यपाल पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं. दिल्ली के उपराज्यपाल के पास अन्य राज्यपालों की तुलना में अधिक शक्तियां हैं.

दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली के पास पुलिस, कानून-व्यवस्था और भूमि संबंधी अधिकार नहीं हैं. वह इन से जुड़े कानून नहीं बना सकती है. ए तीनों अधिकार केंद्र सरकार के पास हैं. केंद्र और दिल्ली की सरकार अगर किसी एक मुद्दे पर कानून बनाती है तो केंद्र का कानून क्षेत्र में लागू होगा. अगर सरकार और उपराज्यपाल के बीच में कोई मतभेद होते हैं तो उपराज्यपाल राष्ट्रपति के पास मामला भेज सकते हैं. इमरजैंसी की स्थिति में उपराज्यपाल फैसले ले सकते हैं. अनुच्छेद 239एबी इमरजेंसी की स्थिति में लागू होता है. अगर मंत्रिमंडल सरकार नहीं चला पा रहा है तो उपराज्यपाल राष्ट्रपति को इमरजैंसी लगाने की सिफारिश कर सकते हैं.

पूर्ण राज्य बनने पर क्या होगी तस्वीर:

1991 में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने 69वें संविधान संशोधन के जरीए दिल्ली को विशेश राज्य का दर्जा दिया था. इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानि एनसीआर घोषित किया गया है. उपराज्यपाल यानि लेफ्टिनेंट गवर्नर को दिल्ली का प्रशासक बनाया गया. आज के समय में दिल्ली उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच फुटबौल बनी हुई है. अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए तो उपराज्यपाल की जगह पर दूसरे राज्यों की तरह से राज्यपाल की नियुक्ति करनी होगी.

अभी दिल्ली के पास अपना लोक सेवा आयोग नहीं है. ऐसे में यूपीएससी में दिल्ली के अपने इस्तेमाल के लिए अधिकारियों का कोई कैडर नहीं है. जिस में अधिकारियों की नियुक्ति दिल्ली सरकार अपने हिसाब से कर सकेगी और नियुक्तियों में राज्यपाल का हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा जैसा कि पूर्ण दर्जा प्राप्त राज्यों में होता है. दिल्ली को अपनी पुलिस और अन्य सेवाओं के लिए भुगतान करना होगा जिन का भुगतान वर्तमान में केंद्र सरकार करती है. प्रदेश को चलाने के लिए प्रशासनिक खर्च कई गुना बढ़ जाएगा जिस की भरपाई करने के लिए दिल्ली सरकार को कई करों को बढ़ाना पड़ेगा और इस का अंतिम बोझ लोगों की जेब पर पड़ेगा.

दिल्ली में वैट की दर बेंगलुरू, मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों की तुलना में कम है. जब दिल्ली में पूर्ण राज्य होगा तो सरकार को अपने खर्चों का इंतजाम खुद ही करना पड़ेगा तो उसे टैक्स की दर बढ़ानी पड़ेगी जिस से यहां पर महंगाई बढ़ेगी. दिल्ली को अन्य राज्यों से बिजली और पानी खरीदना जारी रखना पड़ेगा क्योंकि यहां जगह नहीं होने के कारण सरकार बिजली संयंत्र स्थापित नहीं कर सकती है. केजरीवाल सरकार फ्री बिजली और पानी देती है वह संभव नहीं रह जाएगा. दिल्ली में अभी बिजली की दरें पूरे देश में सब से कम है उन्हें भी बढ़ाना पड़ेगा. दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलते ही वित्त आयोग की तरफ उतना पैसा ही मिलेगा जैसा अन्य राज्यों को मिलता है.

दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने से सब से अधिक लाभ यह होगा कि यहां के मुख्यमंत्री भी अन्य राज्यों की तरह अपने विवेक से निर्णय ले सकेगा और उसे हर निर्णय के लिए उपराज्यपाल से अनुमति लेने की जरुरत नहीं होगी. दिल्ली की जनता के लिए लाभ यह होगा कि उसे अपने समस्या के समाधान के लिए किस नेता या अधिकारी से मिलना है. समस्याओं का समाधान हो सकेगा. जैसे बरसात के दिनों में दिल्ली में जल भराव हुआ तो यह समझना मुश्किल का था कि कौन इस का समाधान करेगा. इसी तरह से पेयजल की कमी को ले कर उहापोह के हालात थे.

मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल में टकराव पुराना है

आम आदमी पार्टी की जब से दिल्ली में सरकार बनी है तब से दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच टकराव की खबरें आम होती रही हैं. इस से परेशान हो कर आम आदमी पार्टी अब यह मांग करने लगी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए. दिल्ली में असली राज उस राज्यपाल का चलता है जो जनता से चुन कर नहीं आता है. दिल्ली का मुख्यमंत्री जो जनता से चुन कर आता है उस का राज नहीं चलता है. ऐसे में टकराव पुराना है.

साल 1952 में जब दिल्ली की गद्दी पर कांग्रेस पार्टी के नेता चैधरी ब्रह्म प्रकाश मुख्यमंत्री थे तो उस समय भी चीफ कमिश्नर आनंद डी पंडित के साथ एक लंबे समय तक तनातनी चलती रही. इस के बाद मुख्यमंत्री को 1955 में इस्तीफा देना पड़ा. साल 1956 में दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया था. दिल्ली की विधानसभा और मंत्रिमंडल का प्रावधान खत्म कर दिया गया. 1966 में दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट के तहत दिल्ली नगरपालिका का गठन किया गया. इस के प्रमुख उपराज्यपाल होते थे. नगरपालिका के पास विधायी शक्तियां नहीं थी. 1990 तक दिल्ली में इसी तरह शासन चलता रहा.

1991 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने संविधान में 69वां संशोधन विधेयक पारित किया गया. इस संशोधन के बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 में लागू हो जाने से दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ. दिल्ली विधानसभा में 70 सदस्य तय किए गए. इन का कार्यकाल 5 साल रखा गया. जब तक केंद्र और दिल्ली मे एक ही पार्टी की सरकार रही दिल्ली के राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच अपने अपने अधिकारों को ले कर जो भी विवाद खड़े उन को आपस में सुलझा लिया गया.

केजरीवाल और उपराज्यपाल के बीच खींचतान

जब कांग्रेस की केंद्र में सरकार थी तो दिल्ली में कांग्रेस का ही मुख्यमंत्री था. जब भाजपा की केंद्र में सरकार रही तो दिल्ली में भाजपा का मुख्यमंत्री रहा तो आपसी टकराव विवाद की सूरत में बाहर नहीं आता था. 2014 के बाद परेशानी तब सामने आई जब केंद्र में भाजपा की सरकार थी और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी. अरविंद केजरीवाल उस के मुख्यमंत्री बने. आम आदमी पार्टी ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीती थीं. कांग्रेस को 8 सीटें मिली थीं. कांग्रेस के सहयोग से पहली बार आप नेता अरविंद केजरीवाल 28 दिसंबर 2013 को पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे. अक्टूबर 2012 में अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाने का ऐलान किया था. इतने कम समय में दिल्ली में अपनी सरकार बना लेना राजनीति में बड़ी उपलब्धि थी. यह सरकार लंबी नहीं चली 49 दिन बाद ही अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया.

2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए. इस आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटों पर जीत दर्ज करते हुए इतिहास रचा और सत्ता में वापसी की. 2020 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 70 में से 62 सीटों पर जीत मिली. इस तरह से 3 बार अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके हैं. अब 2025 के विधानसभा चुनाव की तैयारी है. इस के लिए तमाम दांवपेंच चले जा रहे हैं. जनता चाहती है कि दिल्ली में सरकार किसी की हो. मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच खींचतान से छुटकारा मिलना चाहिए.

मेरी सास कुछ दिनों के लिए हमारे पास रहने आ गई हैं और मेरे पति उन की सेवा करने के कारण उन के पास ही सो जाते हैं.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी हाल ही में शादी हुई है और मेरे पति का काम शहर में है. इस वजह से मुझे और मेरे पति को गांव छोड़ कर शहर में शिफ्ट होना पड़ा. वैसे तो मुझे यह बात काफी अच्छी लगी क्योंकि मैं शुरुआत से ही अपने पति के साथ अकेली रहना चाहती थी. मेरी सासूमां गांव में रहती हैं लेकिन कुछ दिन पहले उन के पैर में फ्रैक्चर हो गया और उन के ध्यान रखने के लिए गांव में कोई नहीं था जिस कारण वे हमारे साथ शहर में रहने आ गईं. मेरे पति को अपनी मां से बहुत प्यार है और जब से वे आई हैं तब से मेरे पति उन की बहुत अच्छे से देखभाल कर रहे हैं. शुरुआत में तो मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई पर कभीकभी वे अपनी मां का ध्यान रखतेरखते उन्हीं के पास सो जाते हैं जोकि मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मैं रात को उन्हें मिस करती रह जाती हूं. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब –

आप की परिस्थिति को अच्छे से समझा जा सकता है. क्योंकि आप की हाल ही में शादी हुई है और ऐसे में अपने पति के बिना सोना आप के लिए काफी मुश्किल हो जाता होगा पर आप को पति की फीलिंग्स की रिस्पैक्ट करनी चाहिए. आप की सास बीमार हैं और उन के पास उन की देखभाल करने के लिए कोई नहीं है तो ऐसे में आप के पति के अलावा कौन देखेगा उन्हें?

ऐसे में आप को अपने पति का साथ देना चाहिए और सास की सेवा करनी चाहिए. वे हमेशा के लिए तो आप के पास रहने नहीं आई हैं बल्कि अपनी परेशानियों के चलते आई हैं. आप यह सोचिए कि अगर आप की सास की जगह आप की खुद की मां होती तो आप को भी उन की उतनी ही चिंता होती जितनी आप के पति को अभी अपनी मां की है.

रही बात अपने पति को रात में मिस करने की तो आप इस बारे में अपने पति से बात कीजिए कि वे अपनी मां के सोने के बाद आप के पास आ जाया करें और जब तक आप के पति अपनी मां की सेवा कर रहे होते हैं तब तक आप भी उन के पास बैठें और अपनी सास का खयाल रखें.

ऐसे में आप के पति को भी खुशी होगी कि आप को भी अपनी सास की चिंता है और अगर आप उन के साथ रहेंगी तो वे सोएंगे भी नहीं और अपनी मां के सोने के बाद आप के पास आ जाया करेंगे.

इन छोटीछोटी बातों की वजह से अपनी वैवाहिक जिंदगी को खराब न होने दें क्योंकि यह सब तो जीवन का हिस्सा हैं और आप दोनों को ही एकदूसरे को समझना है और एकदूसरे का साथ देना है.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

पिता या हैवान : बेटी को बनाता था हवस का शिकार

किसी ने सच ही कहा है कि इंसान को हैवान बनते जरा भी देर नहीं लगती. हम आएदिन लड़कियों के साथ हो रहे रेप के बारे में सुनते रहते हैं और यह सब सुन कर हमारा खून इतना खौल उठता है कि कभीकभी लगता है कि इन्हें कानून द्वारा बीच चौराहे पर फांसी पर लटका देना चाहिए. मन में एक और विचार आता है कि इन आरोपियों के अंदर इतनी दरिंदगी आती कहां से है? जवान लड़कियों के साथसाथ अब छोटीछोटी बच्चियों के साथ भी सनकी लोग दुष्कर्म करते जा रहे हैं.

ऐसा ही एक सनसनीखेज मामला मध्य प्रदेश के गुना जिले से सामने आया है जिस ने लोगों के दिल और दिमाग को हिला कर रख दिया है. मध्य प्रदेश के गुना जिले में एक 8 साल की छोटी सी बच्ची के साथ बलात्कार कर हत्या करने का मामला सामने आया है. आरोपी ने पहले 8 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया और फिर उस के हाथों और पैरों को पत्थरों से बांध कर शव को एक कुएं में फेंक दिया.

पिता नहीं दरिंदा

आप जान कर हैरान हो जाएंगे कि इस मामले को अंजाम किस ने दिया होगा. जहां एक तरफ मांबाप अपने बच्चों पर जान छिड़कते हैं और अपने बच्चों के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैय्यार रहते हैं वहीं इस सनसनीखेज मामने को अंजाम उस 8 साल की मासूम बच्ची के बाप ने ही दिया है. बिना कुछ सोचे, बिना किसी की परवाह किए अपनी ही फूल जैसी बच्ची के साथ बलात्कार कर उसे मौत के घाट उतार दिया सनकी बाप ने.

दरअसल, उस बच्ची का शव पिछले दिनों कुएं से बरामद किया गया और शव मिलते ही परिजनों ने सब से पहले पुलिस को सुचित किया. पुलिस अधिकारी ने बताया कि जिला मुख्यालस से लगभग 75 किलोमीटर दूर चाचौड़ा पुलिस थाना छेत्र के एक गांव में रहने वाली 8 वर्षीय बच्ची 3 दिन पहले अपने घर से लापता हो गई थी और पीड़िता को आखिरी बार अपने पिता के साथ देखा गया था.

पुलिस की सख्ती

पुलिस ने शव मिलते ही पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया और पोस्टमार्टम रिपोर्ट आते ही पता चला कि बच्ची की मौत से पहले उस के साथ बलात्कार किया गया था. पुलिस को शुरुआत से ही पीड़िता के पिता पर शक था क्योंकि जहां एक तरफ 8 साल की बच्ची के लापता होने पर मांबाप का खून सूख जाता है, वहीं दूसरी यह बाप अपनी बच्ची को ढूंढ़ने में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था.

रविवार सुबह बच्ची के अंतिम संस्कार के बाद पुलिस ने पिता को हिरासत में लिया और सख्ती से पूछताछ करने के दौरान उस ने अपना मुंह खोल अपनी दास्तान सुनाई. उस का कहना था कि वह अपनी बच्ची से जरा भी प्यार नहीं करता था और उसे अपनी बेटी बिलकुल भी पसंद नहीं थी, जिस वजह से उस ने अपनी 8 साल की बेटी के साथ दुष्कर्म किया और फिर हाथपैरों को पत्थरों से बांध कर कुएं में धकेल दिया.

कहां जाएं लङकियां

यह घटना सभ्य समाज के मुंह पर एक तमाचा ही है कि जब हम अपनी लड़कियों को बाहर के दरिंदों से बचाने के लिए घर में रहने को कहते हैं लेकिन जब घर में अपना बाप ही दरिंदा निकल जाए तो ऐसे में लड़कियां कहां जाएं?

दरअसल, इन सब मामलों में देखा जाए तो हमारे कानून व्यवस्था भी जिम्मेदार है. आरोपियों को पता है कि अगर हम आज कोई गुनाह करते हैं तो सजा मिलतेमिलते पता नहीं कितने साल निकल जाएंगे और कुछ आरोपी तो जेल में अपनी सजा का इंतजार करतेकरते मस्त जिंदगी गुजार लेते हैं. यही अगर ऐसे गुनाहों की सजा हाथोंहाथ मिलने लगें और इन आरोपियों की कोई सुनवाई न हो तो बाकी आरोपियों के लिए यह एक सबक बन सकता है.

बुलडोजर पर रोक से खत्म होगी योगी की राजनीति

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर को ले कर साफ कह दिया है कि ‘बिना हमारी अनुमति के कोई भी सरकार पूरे देश में बुलडोजर एक्शन न ले’. फिलहाल यह रोक 1 अक्टूबर तक के लिए लगाई गई है. कोर्ट ने कहा कि बुलडोजर एक्शन देश के कानून को ध्वस्त करने जैसा है. सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से इस मामले को लिया है उस से साफ है कि आगे भी बुलडोजर पर रोक लगी रहेगी. पहला सवाल यह है कि अब बुलडोजर पर प्रतिबंध लगने के बाद यूपी के बुलडोजर बाबा पहले जैसे लोकप्रिय बने रहेंगे ? दूसरा सवाल अगर बुलडोजर एक्शन इतना बुरा है तो जनता ने इस को पसंद क्यों किया ? बुलडोजर बाबा ने लगातार दूसरी बार विधानसभा का चुनाव कैसे जीता ?

बुलडोजर बाबा की लोकप्रियता बुलडोजर से बनी तो बुलडोजर भी पूरे देश में ही नहीं विदेशों तक में मशहूर हो गया. इतना प्रचार तो बुलडोजर बनाने वाली कंपनी करोड़ों रूपया खर्च कर के भी नहीं पाती. क्या बुलडोजर केवल विध्वंस का प्रतीक है. बुलडोजर जस्टिस इतना लोकप्रिया हो गया कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि बुलडोजर का महिमामंडन न किया जाए. बुलडोजर जस्टिस का महिमामंडन बंद होना चाहिए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह निर्देश अवैध निर्माण सार्वजनिक सड़क, फुटपाथ और किसी भी अनधिकृति निर्माण पर लागू नहीं होगा. सवाल उठता है कि अवैध निर्माण गिराने के लिए बुलडोजर का प्रयोग किया जाएगा या नहीं ?

क्या है बुलडोजर ?

एक मषीन जिस का काम निर्माण करना था वह भारत में न्याय का प्रतीक बन गई. इस मषीन का नाम ‘बैकहो लोडर’ है. जो ‘बुलडोजर’ के नाम से लोकप्रिय हो गया है. हाल के कुछ सालों में राजनीति से ले कर कोर्ट और मीडिया में बुलडोजर को नाम प्रयोग तेजी से बढ़ा. यह पीले रंग में देखी जाने वाली मषीन है. शुरुआत में यह पीला नहीं सफेद रंग या लाल रंग की होती थी. जब कंस्ट्रक्शन साइट्स पर जेसीबी मशीन से काम चलता था. तब दूर से मशीन दिखाई नहीं देती थी.

रात में भी इन मशीनों को दूर से नहीं देखा जा सकता था. इस कारण बाद में जेसीबी मशीन का रंग पीला कर दिया जिस के चलते जेसीबी मशीन को दूर देख कर पहचाना जाने लगा. पीले रंग के चलते लोग दूर से समझ सकते हैं कि वहां मशीन खड़ी है, वहां खुदाई या दूसरा निर्णाम काम चल रहा है. इस मशीन का नाम जेसीबी नहीं है. जेसीबी उस कंपनी का नाम है जो यह मशीन बनाती है. इस भारी भरकम मशीन का सही नाम ‘बैकहो लोडर’ है.

1945 में शुरू हुई जेसीबी कंपनी ने 1953 में पहला बैकहो लोडर बनाया था. इस का रंग नीला और लाल था. इस के बाद इस मशीन में बहुत से बदलाव किए गए और 1964 में एक पीले रंग का बैकहो लोडर बनाया गया. यहीं से इन मशीनों का रंग पीला हो गया. जेसीबी ही नहीं, बल्कि ऐसी मशीनें बनाने वाली अन्य कंपनियां भी इन मशीनों का रंग पीला ही रखती हैं. शुरुआत में यह मशीन ट्रैक्टर के साथ जुड़ी होती थीं लेकिन समय के साथ इस के मौडल में बदलाव किए गए.

ब्रिटिश कंपनी जेबीसी एक्सावेटर्स लिमिटेड का मुख्यालय रोसेस्टर स्टाफोर्डशायर में स्थित है. भारी उपकरण बनाने के लिए जानी जाने वाली इस कंपनी के मालिक और फाउंडर ब्रिटिश अरबपति जोसेफ सायरिल बम्फोर्ड थे. 2001 में जोसेफ की मौत हो गई और उन की कंपनी का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया. भारत में भी जेसीबी इंडिया की 6 फैक्ट्री और एक डिजाइन सेंटर है. कंपनी ने भारत में बनी मशीनों का निर्यात 110 से ज्यादा देशों में किया है. विश्व की तीसरी सब से बड़ी निर्माण उपकरण बनाने वाली कंपनी जेसीबी बैकहो लोडर के साथ 300 से ज्यादा तरह की बड़ी मशीनों का निर्माण भी करती है.

इन की बड़ी मशीनों का प्रयोग निर्माण कार्य, खेती, भार उठाना या जमीन खोदना आदि कामों मंव किया जाता है. जेसीबी के अलावा भारत में वोल्वो, महिंद्रा एण्ड महिंद्रा जैसी कई कंस्ट्रक्शन इक्यूपमेंट मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां हैं बैकहो लोडर का निर्माण करती हैं. बैकहो लोडर की कीमत 10 लाख रुपए से शुरू होती है जो 40-50 लाख रुपए तक जाती है.

उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ यह रोग

बुलडोजर न्याय का एक्शन शुरू करने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी ही पार्टी में तमाम विरोध के बाद 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. अपने बुलडोजर एक्शन से वह देश में दूसरे नम्बर के सब से चर्चित मुख्यमंत्री बन गए. उन का मौडल भाजपा ही नहीं गैर भाजपा शासित राज्यों में प्रयोग होने लगा. बुलडोजर का सब से चर्चित प्रयोग उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ. जहां अपराधी विकास दुबे ने 9 पुलिस वालों की हत्या कर दी थी. इस के बाद पुलिस ने बुलडोजर जस्टिस करते हुए विकास दुबे का पूरा घर गिरा दिया गया. एनकांउटर में विकास दुबे मारा गया.

माफियाओं के अवैध निर्मार्णो पर बुलडोजर चलने लगा. मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद दर्जनों अपराधियों बुलडोजर एक्शन का सामना करना पड़ा. तमाम अपराधियों पर यह बुलडोजर चला. सीएए और एनआरसी का विरोध करने वालों के खिलाफ भी यह कदम उठाया गया. इस के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम ही ‘बुलडोजर बाबा’ पड़ गया. जनता उन को और उन के बुलडोजर जस्टिस पर मेहरबान हो गई. लोकतंत्र में वोट को लोकप्रियता का पैमाना माना जाता है.

क्यों चर्चित हुआ बुलडोजर एक्शन ?

2022 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहले ऐसे मुख्यमंत्री बन कर उभरे जो लगातर दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे. इस जीत का श्रेय उन की कड़क कानून व्यवस्था यानि बुलडोजर को दी गई. तमाम चुनावी रैलियों में बुलडोजर को भी ला कर रखा जाने लगा था. धीरेधीरे उत्तर प्रदेश से चला बुलडोजर देश के दूसरे राज्यों में भी असर करने लगा. मध्य प्रदेश दिल्ली और गुजरात जैसे तमाम राज्यों से होता यह बुलडोजर असम तक पहुंच गया.

सवाल उठता है कि जनता ने बुलडोजर जस्टिस को क्यों पंसद किया. इस का बहुत सीधा सा जवाब है. पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में गुंडागर्दी बढ़ गई थी. अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण दे कर उन को विधायक, सांसद बनने के लिए पार्टियों ने टिकट देने शुरू किए. बदले में यह अपराधी माफिया नेताओं और उन पार्टियों को बूथ कैप्चरिंग कर चुनाव जितवाने में मदद करते थे. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने एक संभा में मंच पर माफिया अतीक अहमद के कुत्ते से हाथ मिलाया. ऐसे अपराधियों के भय में गवाह कोर्ट नहीं जाते थे. जो जाता था उस का गोली से मार दिया जाता था. कई वकील और जज भी उन के मुकदमें सुनने से इंकार कर देते थे.

अतीक अहमद ने अपने भाई के खिलाफ विधानसभा का चुनाव लड़ने वाले विधायक बन चुके राजू पाल को सरेबाजार गोली मार कर हत्या कर दी. उस को जब अस्पताल ले जाया जा रहा था तो फिर उस का पीछा कर के दोबारा गोली मारी गई कि कहीं वह जिंदा न बच जाए. इस मामले में कोई गवाही देने को तैयार नहीं था. उमेश पाल ने इस की गवाही देने का साहस दिखाया. कोर्ट ने उमेश पाल को सरकारी सुरक्षा भी दी. इस के बाद भी अतीक अहमद के साथियों ने उमेश पाल और उस के सुरक्षा कर्मियों को गोली मार दी.

जब योगी का बुलडोजर ऐसे लोगों पर चला तो जनता को लगा कि अपराधियों के खिलाफ भी कुछ हो सकता है. इस के पहले भी मायावती ने कुंडा के विधायक रघुराज प्रताप सिंह के खिलाफ पोटा के तहत मुकदमा कायम कर के अपने समर्थकों को खुश करने का काम किया था. रघुराज प्रताप सिंह, रायबरेली के विधायक अखिलेश सिंह के घर जेसीबी चलवाई थी. यह दोनों जेल से तब बाहर आए जब मायावती मुख्यमंत्री मद से हट गई थी. नेता अपनी छवि को मजबूत करने के लिए इस तरह के काम करते हैं. भाजपा नेता कल्याण सिंह जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो नकल कानून ले कर आए थे. कक्षा 10 और 12 में नकल करते बच्चों को जेल भेजने का प्रावधान था.

1980 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो प्रदेश की सब से बड़ी समस्या डकैत थे. डकैती और अपहरण प्रदेश में उद्योग जैसा बन गया था. इस को खत्म करने के लिए सरकार ने डकैती उन्मूलन अभियान चलाया. जिस में डकैतों का एनकाउंटर होने लगा. इस के जवाब में डकैतों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के भाई जस्टिस चन्द्रशेखर प्रताप सिह और उन के 14 साल के बेटे की गोली मार कर हत्या कर दी थी. उस समय चले डकैत उन्मूलन अभियान का असर हुआ की 10 सालों में डकैती की समस्या खत्म हो गई.

कल्याण सिंह जब मुख्यमंत्री बने तो श्रीप्रकाश शुक्ल नामक माफिया गैंग ने उन को जान से मारने की धमकी दी थी. इस के बाद कल्याण सिंह एसटीएफ यानि स्पैशल टास्क फोर्स बनाई. जिस ने 4 माह में श्रीप्रकाश शुक्ला सहित उस के पूरे गिरोह को खत्म कर दिया. उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था किस मुख्यमंत्री के राज में सब से बेहतर रही तो इस सवाल के जवाब में 3 नाम जनता बताती है कल्याण सिंह, मायावती और योगी आदित्यनाथ.

सोशल मीडिया के जमाने में बुलडोजर एक्शन को बड़ी आसानी से बुलडोजर जस्टिस बता दिया गया. 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार में योगी आदित्यनाथ ने 58 रैलियों में बुलडोज़र शब्द का इस्तेमाल किया. पार्टी ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की. योगी के प्रशसंकों ने बुलडोज़र और बुलडोज़र बाबा के नाम का टैटू बनवा लिया.

अब इस बुलडोजर एक्शन पर सुप्रीम रोक लग गई है. बुलडोजर एक्शन को जनता इसलिए पंसद कर रही थी कि इस से न्याय जल्द होते दिखता था. हमारे देश में पुलिस की विवेचना इतनी लचीली है कि अपराधियों के खिलाफ सही सबूत पेश नहीं हो पाते हैं. सबूतों के अभाव में मुकदमें छूट जाते हैं. जनता अपराध और अपराधी के खिलाफ बोलने का साहस नहीं जुटा पाती. डरा धमका कर मुकदमें वापस ले लिए जाते हैं. ऐसे में पूरे देश में त्वरित न्याय की मांग बनी रहती है. बुलडोजर जैसे गैर कानून काम लोकप्रिय हो जाते हैं.

कानून और व्यवस्था दो अलगअलग काम हैं. संविधान ने कोर्ट और पुलिस को दो अलगअलग जिम्मेदारियां दी हैं. अगर पुलिस खुद ही फैसला करने लगेगी तो यह ठीक नहीं होगा. अपराध रोकने के लिए बुलडोजर जैसी नीतियां 18वीं और 17वीं सदी में सही मानी जा सकती थी. 21वीं सदी में इस की बात करना उचित नहीं है. बड़ी मुश्किल से देश के अंदर रूल औफ लौ यानी क़ानून का राज स्थापित हो पाया है. इसे और बेहतर बनाया जाना है. इसे तोड़ा नहीं जा सकता.

खत्म हो जाएगी बुलडोजर बाबा की लोकप्रियता

2022 में माकपा नेता वृंदा करात ने जहांगीरपुरी में बुलडोजर कार्रवाई को चुनौती देने वाली एक रिट याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की. याचिका में बुलडोजर कार्रवाई रोकने की मांग की गई. इस के साथ ही साथ जमीयत उलेमा ए हिंद ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में आए दिन होने वाली बुलडोजर कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग की. सरकार का कहना है कि किसी के अपराधी होने से नहीं उस के अवैध निर्माण करने के कारण यह काम किया गया है. इस को ‘रूल औफ लौ’ कहा.

जमीयत उलेमा ए हिंद की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने जस्टिस बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की पीठ से कहा कि ‘2022 में जहांगीरपुरी में हिंसा भड़की थी. हिंसा के बाद कई लोगों के घरों पर बुलडोजर कार्रवाई की गई, इन लोगों पर यह आरोप था कि उन्होंने हिंसा भड़काई थी.’ याचिका में कहा गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाए जाने का आरोप लगाया गया है. याचिका में ‘बुलडोजर जस्टिस’ की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अपील की गई थी.

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर पर रोक लगा दी है. इस का राजनीतिक नफा और नुकसान भी तलाशा जा रहा है. योगी आदित्यनाथ के विरोधी नेताओं को समीक्षकों का मानना है कि योगी की एक मात्र उपलब्धि बुलडोजर रही है. अब इस के रोक के बाद उन की राजनीति खत्म हो जाएगी. जिस से सपा, बसपा और कांग्रेस को चुनाव जितने में मदद मिल सकेगी.

समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने बुलडोजर एक्शन पर रोक लगने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते कहा कि बुलडोजर का प्रयोग लोगों को डराने और विपक्ष की आवाज दबाने के लिए था. इस के बंद होने से न्याय हो सकेगा.’ कोर्ट के बुलडोजर फैसले पर कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी ने कहा कि ‘जब तक आरोपी का दोश साबित न कर दिया जाए, तब तक वो आरोपी साबित नहीं होता है. एक सस्ती लोकप्रियता के लिए यूपी की बीजेपी सरकार ने बुलडोजर का सहारा लिया.’

बसपा सुप्रीमो मायावती ने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म ‘एक्स’ पर पोस्ट किया ‘बुलडोजर विध्वंस कानून का राज का प्रतीक नहीं होने के बावजूद इस के प्रयोग की बढ़ती प्रवृति चिंतनीय है. वैसे बुलडोजर व अन्य किसी मामले में जब आम जनता उस से सहमत नहीं होती है तो फिर केंद्र को आगे आ कर उस पर पूरे देश के लिए एक समान गाइडलाइंस बनाना चाहिए, जो नहीं किए जा रहे हैं. वरना बुलडोजर एक्शन के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल दे कर केंद्र सरकार की जिम्मेदारी को खुद नहीं निभाना पड़ता, जो यह जरूरी था. केंद्र व राज्य सरकारें संविधान व कानूनी राज के अमल होने पर जरूर ध्यान दें.’

अब देखना है कि बुलडोजर पर प्रतिबंध के बाद योगी आदित्यनाथ कैसे चुनाव प्रचार करेंगे. जिस से जनता के बीच उन की छवि बनी रह सके. जैसे ही उन की लोकप्रियता घटेगी भाजपा में ही उन का विरोध शुरू हो जाएगा. इस का प्रभाव भाजपा के चुनाव पर पड़ेगा. भाजपा की खींचतान में विपक्षी कांग्रेस और समाजवार्दी पार्टी 2027 में उत्तर प्रदेश जीतने में सफल हो जाएंगे. उत्तर प्रदेश के बाद 2029 में दिल्ली की कुर्सी भी भाजपा नहीं बचा पाएगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें