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अनोखा अरेंज मैरिज : नए जमाने की अनूठी पहल

‘‘पा पा, कल संडे है न?’’ मेरे घर आते ही पलक ने पूछा.

‘‘हां बेटे, संडे है तो क्या हुआ?’’ मैं ने उस के पास बैठते हुए सवाल किया.

‘‘आप का संडे का दिन मेरे नाम होता है न, पापा,’’ उस ने प्यार से कहा.

‘‘हां बेटा, मेरा संडे आप के नाम ही होता है.’’

‘‘तो इस संडे हम गुलशन के घर जा रहे हैं.’’

‘‘गुलशन कौन है?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘अरे बाबा, वही मेरी बैस्ट फ्रैंड. आप उसे कैसे भूल सकते हो?’’

पलक ने नाराज होने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘ओके, ओके. लेकिन मैं क्यों जा रहा हूं तुम्हारी फ्रैंड के घर?’’ मैं ने चौंकते हुए अगला सवाल किया.

‘‘इसलिए पापा क्योंकि कल गुलशन का बर्थडे है.’’

‘‘मगर बर्थडे में तो बच्चे जाते हैं न. आप की दोस्त है तो आप जाओ. मैं क्यों जाऊं आप के साथ?’’

‘‘क्योंकि गुलशन की मम्मी चाहती हैं कि आप भी आओ. उन्होंने आप को स्पैशली इनवाइट किया है,’’ पलक ने बात क्लियर की.

‘‘मगर, मु झे क्यों इनवाइट किया है उन्होंने? मैं ने अचरज से पूछा.

‘‘क्योंकि गुलशन की मम्मी आप को बहुत पहले से जानती हैं.’’

‘‘बहुत पहले से जानती हैं, मगर मैं तो नहीं जानता.’’

‘‘अरे पापा, मामला कुछ यह है कि उस दिन हम घूमने गए थे न. बस, उस की तसवीरें मैं ने अपने व्हाट्सऐप पर लगाई थीं और वे तसवीरें जब गुलशन देख रही थी तो उस की मम्मी भी उस के पास बैठी थी. उन्होंने भी तसवीरें देखीं और आप को देखते ही पहचान लिया. आप उन के पुराने क्लासमेट हो न,’’ पलक ने विस्तार से सारी बात बताई.

‘‘क्लासमेट, मगर क्या नाम है तुम्हारी फ्रैंड की मम्मी का?’’ मु झे अभी भी बात क्लियर नहीं हुई थी.

‘‘उन का नाम तो मु झे नहीं पता मगर अब चलो, बस. यह देखो उन की तसवीर,’’ पलक ने उन की तसवीर दिखाई मगर मैं पहचान नहीं सका.

पलक बोली, ‘‘हो सकता है वे बदल गई हों. कितने साल हो गए. शक्ल बदल भी जाती है न. आप उन्हें देखोगे तो पहचान जाओगे.’’

मैं तैयार तो हो गया मगर मन में कई सवाल थे कि पता नहीं कौन है, जो मु झे पहचानती है. मेरी क्लासमेट के रूप में बहुत से नाम मेरे जेहन में आए मगर मैं सम झ नहीं पाया कि वह कौन है?

फिर अगले दिन यानी संडे को मैं पलक के साथ उस की फ्रैंड गुलशन के घर पहुंचा. उस की मां ने बहुत प्यार से हमारा स्वागत किया. मगर अब भी अपनी क्लासमेट यानी उस की मां को सामने देख कर भी मैं पहचान नहीं पा रहा था.

मेरी हालत देख कर वह हंसने लगी. उस के गालों पर डिंपल पड़ा तो मु झे थोड़ाथोड़ा ऐसा लगा जैसे मैं इस चेहरे को पहचानता हूं.

गुलशन की मां ने फिर हमारी क्लास 8 की ग्रुप फोटो दिखाते हुए बताया, ‘‘यह तुम हो और यह हूं मैं.’’

‘‘अरे रजनीगंधा,’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘जी हां, रजनीगंधा. यही हमारा निकनेम था. यानी मेरा और रजनी का जौइंट निकनेम,’’ गुलशन की मम्मी ने कहा.

‘‘हां, याद है मु झे. तुम दोनों की दोस्ती इतनी प्यारी थी कि सारे स्कूल के बच्चों ने प्यार से तुम्हारे यानी सुगंधा और रजनीबाला के नाम को मिला कर रजनीगंधा नाम रखा था तो तुम सुगंधा हो.’’ अब सारा मामला मेरे सामने क्लियर हो गया था.

‘‘हां, मैं सुगंधा हूं और मानती हूं कि मैं थोड़ी बदल गई हूं. दरअसल सूरत में तो ज्यादा परिवर्तन नहीं आया मगर बच्चे हुए, उस दौरान मैं थोड़ी मोटी हो गई और इसी वजह से मेरी शक्ल भी बदलती गई.’’

‘‘वैसे, तुम अब ज्यादा अच्छी लग रही हो. अब ज्यादा सुंदर हो गई हो,’’ मैं अपने जज्बात रोक नहीं पाया.

‘‘सही कह रहे हो?’’ शरमाते हुए सुगंधा ने पूछा.

‘‘बिलकुल हंड्रैड परसैंट. पहले तो तुम ज्यादा ही दुबली हुआ करती थीं और बाल भी छोटे थे. अब काफी मैच्योर और खूबसूरत लग रही हो.’’

गुलशन और पलक एकदूसरे को देख कर मुसकरा पड़ीं.

‘‘तो फिर आप दोनों की दोस्ती पक्की,’’ गुलशन ने दोनों के हाथ मिलाते हुए कहा तो मैं थोड़ा सकपका गया.

‘‘आप दोनों की दोस्ती ऐसी ही बनी रहे,’’ कहते हुए पलक भी मुसकराई.

मैं ने मौका देख कर गुलशन की मां यानी सुगंधा से पूछा, ‘‘घर में और कौनकौन हैं? आप के पति क्या करते हैं और इनलौज कहां हैं?’’
वह थोड़ी गंभीर हो गई और बोली, ‘‘मैं अपने पति से अलग हो चुकी हूं. बड़ी बेटी उन के साथ है और गुलशन मेरे साथ. मैं जौब करती हूं और खुद के बल पर ही अपनी और अपनी बेटी की जिंदगी संवार रही हूं.’’

‘‘ओह, ओके,’’ कह कर मैं चुप हो गया.

मु झे पूछने की इच्छा तो हुई कि तलाक की वजह क्या थी मगर कुछ पूछ नहीं सका क्योंकि इस तरह किसी की निजी जिंदगी में झांकना मुझे उचित नहीं लगा. मैं खुद भी तो अकेला ही था. मेरी पत्नी की इस कोरोना काल में मृत्यु हो चुकी थी.

मैं बोल पड़ा, ‘‘मैं भी अकेले ही अपनी बेटी पलक की जिम्मेदारी उठा रहा हूं और इस में कोई परेशानी नहीं. बस, दुख जरूर है कि मेरी जीवनसाथी मेरे साथ नहीं है. लेकिन मैं भी आप की तरह ही अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह निभा रहा हूं.’’

‘‘जरूर, यह बात मैं सम झ सकती हूं विशाल, कि आप अपनी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से निभा रहे हैं. तभी तो पलक इतनी सयानी और प्यारी बच्ची है. वह बहुत अच्छे से अपनी जिंदगी को एक दिशा दे रही है,’’ सुगंधा ने पलक की तारीफ की.

‘‘जी, मु झे और क्या चाहिए भला? मैं बस इतना ही चाहता हूं कि पलक पढ़लिख कर कुछ बन जाए और फिर एक अच्छे से लड़के के साथ उस के हाथ पीले कर मैं उस की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊं. वैसे, आप की गुलशन भी बहुत प्यारी और सम झदार है बिलकुल आप की तरह,’’ मैं ने कहा. सुन कर सुगंधा मुसकरा उठी.

सुगंधा अब मेरे साथ थोड़ी कंफर्टेबल होने लगी थी. समय के साथ गुलशन और पलक की दोस्ती तो पक्की होती ही गई, साथ ही, मेरी और सुगंधा की दोस्ती भी थोड़ीथोड़ी अच्छी होती गई. दरअसल इस के पीछे पलक और गुलशन का हाथ था. वे दोनों अकसर मु झे और सुगंधा को मिलाने की कोशिश करतीं. मैं पलक के इरादों से वाकिफ होने लगा था मगर मु झे सम झ नहीं आ रहा था कि वह ऐसा कर क्यों रही है? हमारी बच्चियां हमें मिलाने की कोशिश में क्यों हैं?

एक दिन पलक सुबहसुबह उठी और बताया कि संडे यानी कल हम फिल्म देखने जा रहे हैं.

मैं फिर से थोड़ा सकपकाया और पूछने लगा, ‘‘मगर बेटा, फिल्म देखने क्यों?’’

‘‘क्योंकि गुलशन भी आ रही है. पापा प्लीज.’’

‘‘तो गुलशन आ रही है न. तुम उस के साथ जाओ,’’ मैं ने बात साफ करनी चाही.

‘‘पापा, आप भूल रहे हो कि हम अभी इतने बड़े नहीं जो फिल्म देखने अकेले चले जाएं.’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. अच्छा चलो, ठीक है. मैं गार्जियन की तरह तुम दोनों के साथ चलूंगा,’’ मैं ने सहमति दी.

‘‘सिर्फ आप ही नहीं, गुलशन की मम्मा भी आ रही हैं,’’ पलक ने बताया.

‘‘वह आ रही है तो मेरी क्या जरूरत?’’ मैं फिर पीछे हटने लगा.

मगर पलक ने आंखें तरेरीं, ‘‘उस की मां आ सकती है तो मेरे पापा क्यों नहीं आ सकते? मेरी खुशी के लिए आप इतना भी नहीं कर सकते हो?’’

मैं ने हथियार डाल दिए. अपनी बेटी को प्यार से गले लगाया और हंसता हुआ बोला, ‘‘चलो ठीक है. हर बार की तरह यह संडे भी तुम्हारे ही नाम.’’

‘‘ओफकोर्स, मेरे ही नाम क्योंकि मैं ही हूं आप की इकलौती वारिस,’’ कह कर वह हंसने लगी.

बेटी के साथ मेरी ट्यूनिंग शुरू से ही बहुत अच्छी थी. इसलिए उसे अकेले पालने की जिम्मेदारी उठाना मेरे लिए कठिन नहीं रहा. वह मु झे सम झती थी और हर तरह से मेरी हैल्प करती थी और कोशिश करती थी कि उस की किसी बात से मुझे तकलीफ न हो. यही वजह थी कि पलक मुझे अपनी उम्र से कहीं ज्यादा सम झदार लगती थी.

पलक और गुलशन ने पहले से ही औनलाइन टिकट बुक कर रखे थे. हम दोनों सिनेमाहौल में पहुंचे तो सुगंधा से मेरी नजरें मिलीं और मु झे अच्छा सा महसूस हुआ.

वह काफी स्मार्ट और आकर्षक लग रही थी. उस ने अपने लंबे बालों को खुला छोड़ा हुआ था और एक लाइट ब्लू कलर की खूबसूरत सी ड्रैस पहनी हुई थी.

मुझे याद है जब वह छोटी थी यानी स्कूल में हम दोनों साथ थे तब मैं सुगंधा पर कभी गौर भी नहीं करता था. उस समय हमारी उम्र भी कम थी और उस के बाल भी बहुत छोटे थे. वह इतनी खूबसूरत भी नहीं थी. साधारण सी थी और लड़कों जैसा व्यवहार करती थी. 8वीं के बाद उस ने स्कूल चेंज कर लिया था. इसलिए मैं ने कभी उस के लिए कोई आकर्षण महसूस नहीं किया था. आकर्षण अभी भी मु झे ऐसा कुछ महसूस नहीं हो रहा था. मगर वह मु झे अच्छी लग रही थी और उस का साथ भी मु झे भाने लगा था.

अब तो अकसर ही हर संडे किसी न किसी बहाने हम चारों कहीं घूमने चले जाते.

कभी एकदूसरे के घर, कभी कहीं बाहर या कभी फिल्म देखने, कभी कोई इवैंट तो कभी यों ही.

गुलशन और पलक काफी खुश रहने लगी थीं क्योंकि उन्हें भी अब घूमने में मजा आता था. एक दिन गुलशन की मम्मी यानी सुगंधा का बर्थडे था और इस के लिए पलक मु झे 4 दिन पहले से ही तैयार करने लगी थी. मु झे क्या पहनना है, पार्टी के लिए क्या गिफ्ट ले कर जाना है, किस तरह से पेश आना है वगैरह.

वह मुझे इस तरह से हिदायतें दे रही थी जैसे कोई पेरैंट्स अपने बच्चों को हिदायत देते हैं.

हंसी तो मु झे तब आई जब वह मु झे सम झाने लगी, ‘‘सुगंधा आंटी से आप जरा प्यार से बात किया करो और उन से कहना कि वह बेहद खूबसूरत लग रही हैं.’’

मैं ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, मगर ऐसा क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे वाकई खूबसूरत लगती हैं न, पापा.’’

‘‘हां, ठीक है पर मैं भी तो अच्छा लगता हूं न,’’ मैं ने उस की आंखों में झांका.

‘‘अरे पापा, मेरी आंखों में क्यों झांक रहे हो, उन की आंखों में झांक कर पूछना कि क्या आप उन्हें अच्छे लगते हैं?’’ दादी अम्मा की तरह पलक ने सम झाया.

‘‘उस से मुझे क्या करना है? मैं उन्हें अच्छा लगूं या नहीं, उस से क्या फर्क पड़ेगा? मु झे तो यह देखना है कि मैं अपनी बेटी को अच्छा लगता हूं या नहीं,’’ मैं अपनी बेटी की बात का मतलब अच्छे से सम झ रहा था मगर उस की टांग खींचने में मजा आ रहा था.

‘‘क्या पापा, आप भी बच्चों जैसी बातें करते हो. चलो, तैयार हो जाओ. मैं भी तैयार हो रही हूं,’’ पलक ने और्डर दिया.

‘‘पलक, आप भूल गए हो कि अभी हमें जाने में 2 घंटे हैं.’’

‘‘तो आप को तैयार करने में भी मु झे 2 घंटे लगेंगे, पापा. चलो, जल्दी से तैयार होना शुरू हो जाओ.’’

मैं सोचने लगा कि यह पलक भी कितनी बड़ी हो गई है और मु झे कितना तेवर दिखाने लगी है. जैसे कि वह मेरी बेटी नहीं, मेरी मम्मी बन गई हो और आजकल तो कुछ ज्यादा ही बदले हुए अंदाज हैं इस के. ऐसा लगता है जैसे पलक और गुलशन मिल कर कुछ न कुछ खिचड़ी पका रही हैं.

उस दिन बर्थडे पार्टी में सिर्फ सुगंधा और गुलशन ने मु झे और पलक को इनवाइट किया था. केक वगैरह काटने के बाद पलक और गुलशन अपने कमरे में घुस गईं. मैं और सुगंधा अकेले रह गए. मु झे थोड़ा अजीब भी लग रहा था और मैं सम झ नहीं पा रहा था कि सुगंधा से क्या बात करूं.

सुगंधा ही मेरी उल झन सम झती हुई बोली, ‘‘हमारे दोनों बच्चे न, ज्यादा ही सम झदार बन रहे हैं. ये कहीं न कहीं हमें एकदूसरे के करीब लाने की कोशिश में लगे हैं.’’

‘‘क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बिलकुल लगता है. मैं तो खुद ही सोच में हूं कि ये दोनों चाहते क्या हैं?’’ तभी अंदर से दोनों बेटियां निकलीं और हंसती हुई बोलीं, ‘‘हम चाहते हैं कि आप दोनों शादी करें.’’

‘‘क्या, शादी, और हम दोनों?’’ हम दोनों ही अचरज से एकदूसरे की तरफ देखने लगे.

सुगंधा के चेहरे पर थोड़ी सी  झिझक और शर्म की रेखाएं आईं और फिर वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘यह सब क्या है गुलशन?’’

‘‘सही तो है न, मम्मा. आप अकेली हो. मु झे अगर अंकल जैसे पापा मिल जाएं तो क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘सही बात है. मैं भी तो अकेली कितनी बोर हो जाती हूं. मम्मी के बगैर जिंदगी अच्छी नहीं लगती. मु झे मम्मी और पापा दोनों चाहिए. प्लीज मेरे लिए एक मम्मी ला दो, पापा. और जब सुगंधा आंटी जैसी मम्मी सामने हैं तो इन के अलावा मु झे कोई और चाहिए ही नहीं,’’ पलक ने भी गुलशन की हां में हां मिलाते हुए कहा.

मैं और सुगंधा एकदूसरे की तरफ देखते रह गए. मु झे सम झ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दूं. सुगंधा भी पसोपेश में थी क्योंकि हम दोनों के मन में ऐसा कुछ नहीं था पर हमारी बेटियों के मन में बहुतकुछ चल रहा था. यह आभास तो हमें बहुत समय से हो रहा था पर क्या यह उचित होगा? क्या सही में बच्चों की इन कोशिशों को बेकार नहीं जाने देना चाहिए? क्या हम एकदूसरे के साथ मिल कर बेहतर जीवन जी सकते हैं?

कहीं न कहीं मेरे मन में भी यह बात आने लगी थी. वाकई पिछले कुछ दिनों में मैं ने अपनी जिंदगी का सही अर्थों में आनंद लिया. पलक भी उतनी ही खुश नजर आती है क्योंकि सुगंधा आंटी साथ होती हैं. मु झे भी सुगंधा के साथ अच्छा ही लगता है. मैं ने सुगंधा की तरफ देखा. उस की आंखों में स्वीकृति नजर आ रही थी.

मैं ने पलक और गुलशन को सम झाते हुए कहा, ‘‘देखो, हमें थोड़ा समय चाहिए सोचने के लिए.’’

‘‘ठीक है, हम आप को 2 दिनों का समय देते हैं और उस के बाद मैं दादाजी के पास जाऊंगी आप दोनों का रिश्ता ले कर. अगर वे स्वीकृति देते हैं तो बात पक्की हो जाएगी और इस तरह आप दोनों की अरेंज मैरिज हम दोनों बेटियां करवा देंगे,’’ पलक की बात सुन कर मैं और सुगंधा काफी जोर से हंस पड़े.

वाकई बात बहुत मजेदार थी. आज हमारी बेटियां हमारी अरेंज मैरिज करा रही थीं. हमें एकदूसरे से मिलवाने की कोशिशों में लगी थीं. क्यों न उन की कोशिशों को एक खूबसूरत मोड़ दे कर हम एक नई जिंदगी की शुरुआत करें.

मैं ने अचानक हामी में सिर हिलाया, ‘‘ठीक है, ऐसा ही होगा.’’

हम दोनों ने हामी भर दी तो हमारी बेटियां हमें ले कर मेरे पिताजी के पास पहुंचीं. पिताजी यों ही मुसकरा रहे थे. उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी.

उन्होंने प्यार से दोनों के सिर पर हाथ फेरा और हमारी शादी पक्की हो गई.

प्राइवेट हौस्पिटल : कशमश भरी नौकरी

डाक्टर चांडक आज सुबह से ही बहुत खुश थे, सरकारी मैडिकल कालेज हौस्पिटल में आ कर. इतने खुश थे जैसे किसी को चांद मिल गया हो या फिर पंछी को आसमां मिल गया हो. आज सुबह से ही बहुत ही अच्छा लग रहा था हौस्पिटल में, जैसे नौकरी का पहला दिन हो.

डाक्टर चांडक को देख कर उन के अधीनस्थ रैजिडेंट डाक्टर, नर्सिंग स्टाफ व दूसरे लोग उन्हें वापस यहां देख कर बहुत ही खुश थे.

‘‘सर, आप को वापस यहां देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है,’’ इंचार्ज सिस्टर आशा बोली.

‘‘हां, मुझे भी,’’ मुसकराते हुए उन्होंने नर्सिंग स्टाफ से कहा.

सब यही सोच रहे थे कि क्यों डाक्टर चांडक को आज बहुत ही अच्छा लग रहा है? ऐसी भी क्या खास बात है?

बात दरअसल कुछ महीने पहले की है. डा. चांडक इसी मैडिकल कालेज में प्रोफैसर थे, पिछले 25 सालों से. अब उन की उम्र 50 साल से ज्यादा हो गई है. मतलब उन का चिकित्सीय अनुभव 25 साल से ज्यादा का हो गया है. उन के बारे में कहा जाता है कि वे मरीज के कमरे में प्रवेश करते समय ही पहचान जाते हैं कि इस मरीज की तकलीफ क्या है? ऊपर से डा. चांडक का मधुर स्वभाव व निर्मल मुसकराता चेहरा मरीज ही नहीं नर्सिंग स्टाफ व जूनियर डाक्टर को भी प्रभावित और प्रोत्साहित करता है.

डा. चांडक की उपलब्धियां उन की मेहनत के साथसाथ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण भी थीं पर इन सब के बावजूद वे अपने प्राइवेट मित्रों जितना कमा नहीं पाते थे. हालांकि उन की लग्जरी लाइफ कोई खास कम नहीं थी. अच्छा बड़ा सरकारी क्वार्टर के साथ ही उन के पास अपने होम टाउन में 3 बीएचके फ्लैट था. 2 कारें जिन में एक खुद के लिए और एक बेटे के लिए. 2-3 सालों में विदेश में एक बार घूम कर आते थे और दूसरे बड़े शहरों में कालेज परीक्षा इंटरव्यू लेने जाते थे तो अपनी पत्नी को भी साथ में ले जाते थे.

कुल मिला कर डाक्टर चांडक अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक व सरकारी नौकरी से संतुष्ट थे. हालांकि उन की आर्थिक स्थिति अपने प्राइवेट डाक्टर्स जैसी अतिसंपन्न नहीं थी. उन के डाक्टर मित्र शहर की हर नई प्रौपर्टी में निवेश करते थे. साल में कम से कम 2 बार विदेश यात्राएं करते थे और उन के पास हर साल नई लग्जरी गाड़ी होती थी.

तभी उन की शांत जिंदगीरूपी तालाब में हलचल हुई, लहरें उठीं और तूफान बनी और समुद्रतट से जोरदार टकराई. उन का दोस्त सोनी, जो उन के साथ मैडिकल कालेज में पढ़ता था, और दूसरे शहर में प्रैक्टिस करता था. साथ में उन के साथ मैडिकल कालेज में डाक्टर बना था, शहर में ही कौन्फ्रैंस में मिला.

कालेज का सदाबहार टौपर और मैडिसिन में गोल्ड मैडलिस्ट, अपने दोस्त की आर्थिक हालत देख कर उसे बहुत दुख हुआ और वह डाक्टर चांडक से गुस्से में बोला, ‘तेरी प्रतिभा सरकारी तालाब में जंग खा रही है. अब तो प्राइवेट प्रैक्टिस के लिए तैयार हो जा. अब तो लगभग सारी जवाबदारियां भी पूरी हो चुकी हैं. अब रिस्क ले, सौरी रिस्क नहीं कमा ले.’

‘पर अपना हौस्पिटल, वह भी इस उम्र में शुरू करूं?’ उन्होंने आश्चर्य से अपने दोस्त को कहा.

‘भाई, अब कोई भी नया डाक्टर अपना हौस्पिटल खुद शुरू नहीं करता है. ऊपर से पुराने जमेजमाए बड़ेबड़े डाक्टर भी अपने हौस्पिटल बेच रहे हैं और कौरपोरेट हौस्पिटल में जा रहे हैं बड़ेबड़े पैकेज के साथ. अपने हौस्पिटल के इनवैस्टमैंट व मैनेजमैंट का झंझट नहीं. बहुत सारा बड़ा पैकेज दे रहे हैं और तुम तो अनुभवी हो और मैडिकल कालेज के प्रोफैसर हो. तुम को तो बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. तुम अपनेआप को कुएं से बाहर निकालो और समुद्र नहीं तो तालाब में ही आ जाओ. देखो, दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है,’ उस ने अपने दोस्त को समझाने के लिए कहा.

डा. चांडक की पत्नी शुरू से ही उन्हें प्राइवेट में कुछ करने को कह रही थीं. दूसरों को छोड़ो जब उन की मैडिकल की पढ़ाई चल रही थी तभी उन्होंने प्राइवेट का ही सोचा था पर पासआउट होते ही उन को तुरंत ही दूसरे दिन अपने ही मैडिकल कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नियुक्ति मिली और प्राइवेट हौस्पिटल खोलने के लिए निवेश भी बड़ा चाहिए था. उन्होंने सोचा कि कुछ समय नौकरी करूंगा और बाद में अपना प्राइवेट क्लीनिक खोल लूंगा पर जवाबदारियां बढ़ती गईं और दूसरा उन्हें सरकारी कालेज में मरीज देखने के साथसाथ स्टूडैंट्स को पढ़ाने का भी मजा आ रहा था पर अब बेटा बैंक की जौब में सैटल हो चुका था और बेटी की शादी हो चुकी थी. अब उन्होंने दूसरे दोस्तों व परिवार के साथ सलाहमशविरा किया. ज्यादातर का मंतव्य प्राइवेट प्रैक्टिस करने का था.

हिम्मत कर के एक दिन सरकार को इस्तीफा दे दिया और उसी शहर में ही नया खुला कौरपोरेट हौस्पिटल जो अभी 1 साल पहले ही उस की नई ब्रांच खुली थी, अच्छाखासा पैकेज और इंसैंटिव दे रही थी, उन्होंने अपनी नई नौकरी जौइन कर ली.

यहीं से उन की जीवन की चिकित्सक तरीके की दूसरी पारी शुरू होती है. पहले दिन वह थोड़ी उत्सुकता और थोड़ी झिझक के साथ अस्पताल पहुंचे. अस्पताल के जगहजगह पर सिक्योरिटी गार्ड थे और हर जगह उन को पूछ कर अंदर जाना पड़ा क्योंकि यहां के सिक्योरिटी गार्ड्स उन को पहचानते नहीं थे. उन की चैंबर बेसमैंट में थी जो दूसरे डाक्टर के साथ थी.

उन के चैंबर के बाहर काले रंग की मंहगी प्लेट पर गोल्डन रंग में नाम के साथ डिग्री व पूर्व प्रोफैसर, मैडिकल कालेज टंगी हुई थी. बाहर सिस्टर नर्स बहुत छोटी सी टेबल पर बैठी थी. वेटिंगरूम बहुत बड़ा था और सरकारी हौस्पिटल की लकड़ी की बैंचों की जगह बड़ेबड़े सोफे रखे थे जिस में आदमी बैठते ही धंस जाता है. बीच में कांच की बड़ी डिजाइनर सैंटर टेबल थी जिस पर मैडिकल की पत्रिकाएं पड़ी हुई थीं जो हिंदी भाषा में और कौमन मैन को सम?ा में आए, ऐसी भाषा में थीं. यहां डाक्टर की जगह, ज्यादातर बड़ा स्थान मरीज व उन के रिश्तेदारों के लिए था. उन की चैंबर और उस की छत छोटी थी जबकि सरकारी हौस्पिटल में उन के कक्ष में ऐग्जामिनेशन टेबल से ज्यादा उन की खुद की टेबल थी.

उन्होंने बाहर सरसरी तौर पर नजर डाली फिर अपने कक्ष में प्रवेश किया. कुछ समय बाद सिस्टर एक चार्ट पेपर ले कर अंदर आई, ‘सर, आप के आज के पेशेंट्स की ओपीडी लिस्ट है,’ पेपर मेज पर रखते हुए उस ने कहा.

‘कितने मरीज हैं?’

‘सर, 7 मरीज अभी हैं और 5 शाम को हैं,’ नर्स ने नाम के साथ बताया.

‘क्या सिर्फ इतने ही पेशेंट? डाक्टर को हैरतअंगेज आश्चर्य हुआ. इतने मरीज तो वे अपने चैंबर से वार्ड तक जातेजाते रास्ते में ही देख लेते थे. वहां उन की रोजाना ओपीडी 100 से ज्यादा ही थी,’ उन्होंने मन ही मन बुदबुदाते कहा.

‘डा. चांडक, आप ने आज तक सरकारी हौस्पिटल में ही अभी तक काम किया है. यह शायद प्राइवेट हौस्पिटल में आप का पहला अनुभव है.

आप को बुरा न लगे तो मैं कुछ महत्त्वपूर्ण बातें आप को बताना चाहता हूं,’ सूटेडबूटेड मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने उन से कहा. चपरासी दोनों के लिए कौफी रख कर गया.

‘यहां मरीज व उन के रिलेटिव्स को ज्यादा प्रश्न पूछने की आदत होती है क्योंकि हमारे ज्यादातर मरीज पढ़ेलिखे व संभ्रांत घर के होते हैं और यहां आने से पहले इंटरनैट में काफी कुछ सर्च कर के आते हैं. हमारा मूल उद्देश्य मरीजों की संतुष्टि है. जब तक वे प्रश्न पूछें उन्हें संतोषजनक जवाब देते रहना है. भले ही इस में आप को झल्लाहट हो, भले ही आप को अच्छा नहीं लगे. सर, यहां व सरकारी हौस्पिटल में यही महत्त्वपूर्ण अंतर है,’ मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने कौरपोरेट हौस्पिटल की संस्कृति से परिचय कराया.

‘डाक्टर का मूल कर्तव्य दर्दी की संतुष्टि से ज्यादा दर्दी का दर्द तकलीफ मूलरूप से मिटाना होता है न कि दर्दी और उस के संबंधियों को खुश करना होता है,’ उन्होंने मन ही मन कहा पर आज पहला दिन था इसलिए उन्होंने बहस करने की जगह चुपचाप सुना.

पहला मरीज शहर के बाहर का था. अनेक अस्पतालों में उस का इलाज चल चुका था और कई डाक्टरों से सलाह ले चुका था पर ठीक नहीं हुआ. डा. चांडक ने उस की फाइल देखी और मरीज का परीक्षण किया. देखा कि मरीज लंबे समय से बीमार है. उस की जांच कर के उन्होंने एक टैस्ट के लिए लेबोरेटरी में उसे भेजा. लेबोरेटरी से डाक्टर का फोन आया और आश्चर्य के साथ बोला, ‘‘सर, सिर्फ एक ही टैस्ट?’’

‘बाकी सारे टैस्ट मरीज के किए हुए हैं,’ उन्होंने शांत मन से कहा.

‘वह बात आप की सही है, सर. पर यहां आए हर मरीज के सारे टैस्ट कराए जाते हैं, भले ही वह एक दिन पहले ही दूसरी जगह क्यों न कराए हों,’ किसी डा. नीरज ने यहां के सिस्टम को बताते हुए कहा.

2 घंटे बाद रिपोर्ट आई. उन्हें पता था कि रिपोर्ट पौजिटिव ही आएगी.

‘देखिए, आप को पेट की टीबी है. इसीलिए पेट लंबे समय से दर्द कर रहा है.

6 महीने दवा लेनी पड़ेगी, मैं 1 महीने की दवा लिखता हूं. आप चाहें तो यह दवा अपने शहर में सरकारी हौस्पिटल से भी ले सकते हैं. चाहें तो यहां महीने में एक बार आ कर मेरे से लिखा कर ले जा सकते हैं,’ उन्होंने पेपर पर दवा लिखते हुए दर्दी को औप्शन दिए.

‘धन्यवाद डाक्टर साहब. एक साल से परेशान हो गए थे, कोई पक्का निदान नहीं हो रहा था. अब तो हम आप से ही दवा लेंगे,’ मरीज को अभी तक दूसरे डाक्टर पर विश्वास नहीं था.

‘सर, आप को इस मरीज को ऐडमिट करना था,’ मैनेजर ने हलकी नाराजगी से कहा.

‘यह तो एक डाक्टर को तय करना है कि मरीज के साथ क्या करना चाहिए?’ उन्होंने गुस्से को दबा कर कहा.

डा. चांडक की ओपीडी दिनोंदिन बढ़ रही थी क्योंकि उन का निदान, टैस्ट और दवाई कम से कम. कोई बिना जरूरत के ऐडमिशन व टैस्ट नहीं.

इस कारण हौस्पिटल का स्टाफ तक अपनी जानपहचान वालों को डा. चांडक को बताने को कहता था. उन की ओपीडी तो बढ़ रही थी पर इस तुलना में हौस्पिटल में ऐडमिशन नहीं हो रहे थे. दूसरे टैस्ट बहुत ही कम हो रहे थे.

एक बार हौस्पिटल संचालक ने उन्हें बुलाया, ‘डा. चांडक, आप की ओपीडी काफी अच्छी हो गई है पर उन की तुलना में ऐडमिशन क्यों नहीं हो रहे हैं? अब आप को 3 महीने हो गए. हम सभी को टारगेट देते हैं. आप को अगले महीने यह टारगेट पूरे करने होंगे,’ कहते हुए एक प्रिंट पेपर उन की ओर बढ़ा कर कहा.

‘टारगेट? यह तो कंपनियां अपने सेल्समैन को देती हैं. यह कैसे संभव है कि पहले से ही बता सकते हैं कि किस मरीज को दवा देनी है कि किस को ऐडमिट करना है?’ उन्हें आज का दिन बहुत ही खराब लगा पूरी जिंदगी में.

जब वे कालेज में राउंड लेते थे तब 2 असिस्टैंट प्रोफैसर और रेजिडैंट डाक्टर उन के साथ झुंड की तरह चलते थे. उन का मरीज पर 1-1 वाक्य बोलना महत्त्वपूर्ण होता था. उन की जब क्लीनिकल क्लास लेते थे तब पिन ड्रौप साइलैंस होता था. वह माहौल यहां नहीं था. पूरी रात घर पर भी चिंतामग्न थे पर पहले महीने उन्हें फीस के रूप में 5 लाख से भी ज्यादा का चैक मिला जो उन की 3 महीने की सैलरी के बराबर थी तो उन्हें लगा कि क्यों उन के सारे साथी प्राइवेट की ओर भागते हैं.

‘सर, डाक्टर निशांत आप से मिलना चाहते हैं,’ रिसैप्शनिस्ट ने इंटरकौम पर कहा.

‘मैं यूरोलौजिस्ट हूं. मैं यहां 1 साल पहले काम करता था. अभी अपने शहर में खुद का हौस्पिटल शुरू किया है. यहां मेरा दोस्त राजेश आप के वार्ड में ही भरती है. बस, उस का डायग्नोसिस व प्रोग्नोसिस जानने आया हूं,’ अपना परिचय दे कर दोस्त की तबीयत के बारे में उन्होंने मैडिकल भाषा में पूछा.

उन्होंने अच्छी तरह से पूरा केस बताया और कब डिस्चार्ज करना है वह भी बताया. डाक्टर निशांत इतने सीनियर डाक्टर के संयम व सादगी से बहुत ही प्रभावित हुए. चाय पीतेपीते बातों ही बातों में चांडक ने हौस्पिटल के टारगेट के बारे में पूछा तो डाक्टर निशांत यह सुन कर हंसने लगे.

‘सर, इस हौस्पिटल में 200 करोड़ से भी ज्यादा निवेश हुआ है. ऊपर से हर महीने का मैंटेनैंस खर्च, 100 से ज्यादा सिक्योरिटी गार्ड्स, 200 से ज्यादा स्टाफ, 10-10 लिफ्ट और सैंट्रली वातानुकूलित एसी का लाखों रुपए का बिल, इन सब का अंतिम बो?ा मरीज पर ही पड़ता है.’

‘इतना सारा खर्च व मुनाफे के लिए न सिर्फ बहुत सारे मरीज बल्कि ढेर सारे ऐडमिशन, टैस्ट आदि भी चाहिए. इसलिए न चाहते हुए भी मैनेजमैंट को टारगेट देना ही पड़ता है और डाक्टर्स को वे टारगेट पूरे करने पड़ते हैं. नहीं तो हौस्पिटल चल ही नहीं पाएगा.’

‘ओहो,’ डाक्टर चांडक को प्राइवेट हौस्पिटल का अर्थशास्त्र समझ में आया.

डाक्टर चांडक मरीजों को भरती तो करते थे पर बिना जरूरत ऐडमिशन उन की आत्मा को गंवारा नहीं था. ऐसा नहीं था कि मरीज भरती के लिए मना करते थे या बिल देने से मना करते थे. ज्यादातर मरीज संभ्रांत घर के होते थे. साथ में लगभग सभी के पास मैडिक्लेम पौलिसी भी थी.

कालेज में भी उन्हें कई कंपनी वाले अच्छी औफर करते थे, खासकर दवा व टैस्ट के लिए पर उन्होंने वही किया जो सही था और मन को गंवारा था. इस कारण वे अपने जूनियर डाक्टर, स्टाफ व मरीजों में प्रिय थे. सब लोग दिल से उन का सम्मान करते थे.

जब पहले महीने उन्हें 5 लाख से भी से ज्यादा राशि का चैक मिला, जिस में इंसैंटिव नहीं था तो वह फूले नहीं समाए. सरकार में 25 साल की नौकरी के बाद भी उन की सैलरी प्राइवेट हौस्पिटल से कई गुना कम थी. अब उन्हें समझ में आया कि ज्यादातर डाक्टर साथी क्यों प्राइवेट की ओर रुख करते हैं. शायद घर वाले भी इसलिए प्राइवेट करने को कहते थे. भविष्य में यह चैक की राशि बढ़ने वाली थी, रौकेट की तरह.

पर वे येनकेनप्रकारेण टारगेट पूरा करने में सक्षम नहीं थे. इसीलिए ऐडमिनिस्ट्रेशन का उन पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था. वे धर्मसंकट में फंस गए. ढेर सारी प्राइवेट कमाई या फिर आत्मा की संतुष्टि. इस कारण वे तनाव में रहने लगे और उन का सदा हंसमुख निर्मल चेहरा चिंताग्रस्त हो गया.

‘पापा, क्या बात है, आजकल बहुत तनाव में लग रहे हो?’ बेटे ने पास आ कर उन से आदरभाव से पूछा.

‘हां बेटा, बहुत चिंताग्रस्त हूं,’ फिर उन्होंने अपने मन का द्वंद्व बताया, ‘समझ में नहीं आ रहा है, बेटा कि मैं क्या करूं?’

‘पापा, आप हमेशा ही कहते हो कि जो दिल को सही लगे वही करो. दिमाग का क्या है वह तो स्वार्थी है, हमेशा नफेनुकसान के बारे में सोचता है. इसलिए आप ने मुझे बोर्ड मैरिट में आने के बाद भी साइंस की जगह मेरा मनपसंद कौमर्स विषय लेने दिया, सब के साइंस के जोर देने पर भी मैं डाक्टर का बेटा हूं तो मुझे डाक्टर बनना चाहिए.’

‘पापा, आप जो भी निर्णय लेंगे, हम सब आप के साथ हैं,’ बेटे ने पिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘थैंक्यू बेटा,’ बेटे ने उन की मन की गांठ खोल दी.

‘दूसरे दिन सुबह ही कालेज में पहुंच गए. डीन सर उन के 2 साल सीनियर थे, मैडिकल स्टूडैंट के समय में. उन्होंने आने का कारण पूछा तो बोले,’ मैं कालेज वापस जौइन करना चाहता हूं, उन्होंने धीरे से जैसे शर्मिंदगी के भाव से कहा.

‘अरे वापस क्यों,’’ मुसकराते हुए डीन सर ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारा इस्तीफा सरकार ने मंजूर ही कब किया था? यह देखो सरकार का कल ही पत्र आया है जिस में लिखा है कि सरकार में डाक्टरों की भारी कमी है और प्रोफैसरों की तो और भी ज्यादा कमी है और प्रोफैसर के कारण मैडिकल कालेज को हर साल 3 रैजिडैंट डाक्टर्स की सीट्स मिलती हैं जिस के कारण सरकार को विशेषज्ञ डाक्टर मिलते हैं. इसलिए उन का इस्तीफा नामंजूर किया जाता है,’ पत्र पढ़ कर वे बहुत खुश हुए.

‘सर, मैं कब जौइन करूं?’ उन्होंने झोंपते हुए पूछा.

‘कल ही आ जाओ. वापस आना है तो देरी क्यों?’ कहते हुए उन्होंने मुसकराते हुए कौफी मंगवाई.

‘डा. चांडक, मनुष्य मिट्टी जैसा होता है. इसलिए तुम उस माहौल में रह नहीं सके,’ डीन सर ने वैसे ही समझाया जैसे पहले दिन मैडिकल कालेज में ऐडमिशन के समय समझाया था कि जितना प्रैक्टिकल सीखोगे उतना ही जिंदगी में अच्छे डाक्टर बनोगे.

1947 के बाद कानूनों से रेंगती सामाजिक बदलाव की हवाएं

15 अगस्त, 1947 को भारत को जो आजादी मिली वह सिर्फ गोरे अंगरेजों के शासन से थी. असल में आम लोगों, खासतौर पर दलितों व ऊंची जातियों की औरतों, को जो स्वतंत्रता मिली जिस के कारण सैकड़ों समाज सुधार हुए वह उस संविधान और उस के अंतर्गत 70 वर्षों में बने कानूनों से मिली जिन का जिक्र कम होता है जबकि वे हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं. नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का सपना इस आजादी का नहीं, बल्कि देश को पौराणिक हिंदू राष्ट्र बनाने का रहा है. लेखों की श्रृंखला में स्पष्ट किया जाएगा कि कैसे इन कानूनों ने कट्टर समाज पर प्रहार किया हालांकि ये समाज सुधार अब धीमे हो गए हैं या कहिए कि रुक से गए हैं.

15 अगस्त, 2024 को लालकिले से सैक्युलर सिविल कोड और उस के जुड़वां भाई कम्युनल सिविल कोड शब्दों का जन्म हुआ है वरना तो इन शब्दों का जिक्र किसी शब्दकोष, कानूनी किताब या संविधान में नहीं मिलता. 15 अगस्त, 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन शब्दों का इस्तेमाल करते कहा, हम ने कम्युनल सिविल कोड में 75 साल बिताए हैं, अब हमें सैक्युलर सिविल कोड में जाना होगा, तभी हम धर्म के आधार पर भेदभाव से मुक्त हो सकेंगे.

बस, इतना सुनना था कि जल्द ही इन शब्दों के माने और मंशा सामने आ गए कि दरअसल नरेंद्र मोदी यूनिफौर्म सिविल कोड की बात कर रहे हैं. यह बात रत्तीभर भी नई नहीं है, बल्कि यह भाजपा के सनातनी एजेंडे का सनातनी हिस्सा है जिस का मकसद सिर्फ और सिर्फ कट्टर हिंदुओं को खुश करना, पौराणिक एवं धर्म राज स्थापित करना और मुसलमानों को कानूनी डंडा दिखा कर डराना व परेशान करना है, ठीक वैसे ही जैसे तीन तलाक कानून और जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया था और जीएसटी कानून ला कर राज्य सरकारों का संघीय अधिकार कम करना था.

यूनिफौर्म सिविल कोड या सैक्युलर सिविल कोड का समाज के सामाजिक सुधारों से कोई लेनादेना नहीं है. यह बहुसंख्यक हिंदुओं को विवाह या विरासत के कानूनों में कोई छूट देने के लिए बनाया जाने वाला प्रस्ताव नहीं है, यह सिर्फ मुसलिम और ईसाई विवाह, विरासत, तलाक कानूनों में दखलंदाजी का उद्देश्य लिए है.

आज भी हिंदू औरतें पतियों के जुल्मों की मारी हैं. तलाक के लिए वर्षों उन की चप्पलें अदालतों में घिसती हैं. हिंदू समाज विवाह के विषय में जाति और दहेज से मुक्त नहीं हुआ है. विरासत में बेटियों को पराया माना जा रहा है. हिंदू संयुक्त परिवार कानून के कारण रामायण और महाभारत काल से भाईभाई में जो विवाद होता था, आज भी होता है क्योंकि जो सुधार कानूनों ने किए उन्हें लागू करने में लोगों, सरकारों, अदालतों और भगवा गैंग ने स्पीडब्रेकर लगा कर धीमा कर दिया.

संविधान का तुलनात्मक अध्ययन

भगवाई प्रधानमंत्री मोदी के यूनिफौर्म सिविल कोड या सैक्युलर सिविल कोड पर वरिष्ठ कांग्रेसी जयराम रमेश ने, यह कहते कि यह भीमराव अंबेडकर का अपमान है, एतराज जताया है. अफसोस यह है कि उन सहित किसी कांग्रेसी नेता को यह एहसास ही नहीं कि आजादी के बाद से ही कांग्रेस के राज में बिना वोटों की चिंता किए समाज सुधार के जो कानून बने हैं उन्हें गिना कर कभी हल्ला नहीं मचाया गया. कांग्रेस की स्थिति हनुमान जैसी हो गई है जिसे अपनी ताकत का अंदाजा या स्मरण नहीं.

नरेंद्र मोदी की और उन की पार्टी भारतीय जनता पार्टी की हकीकत इस से परे कुछ और है जो बरबस ही जवाहरलाल नेहरू और भीमराव अंबेडकर व उन के बनाए संविधान को तो आरक्षण के कारण कोसती है लेकिन हिंदू कोड बिल की याद नहीं दिलाती कि इसी के बलबूते सैक्युलर सिविल कोड की बात संभव हुई.

आज तक कट्टर हिंदूवादियों के दिमाग से नासूर बन कर हिंदू कोड बिल रिसता है क्योंकि इस का विरोध श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संसद में पुरजोर तरीके से किया था और यहां तक कह दिया था कि यह बिल हिंदू संस्कृति को टुकड़ों में बांट देगा. जनसंघ इसी कोड बिल के कारण पैदा हुआ जिस के आधार पर आज नरेंद्र मोदी सैक्युलर सिविल कोड की बात कर रहे हैं.

आखिर ऐसा क्या था हिंदू कोड बिल में जिसे 75 साल बाद कम्युनल कहा जा रहा है, इसे समझने के लिए जरूरी है कि उस दौर में झांका जाए और तब के बने संविधान और उस के अंतर्गत बने कानूनों को परखा जाए जिन्होंने समाज सुधारों की एक मजबूत बुनियाद रखी चाहे उन पर बनी इमारतें टेढ़ीमेढ़ी ही हों.

पहले एक नजर पाकिस्तान और बंगलादेश के संविधानों पर डाली जाए तो बहुत सी समानताएं होते हुए भी एक बड़ा फर्क सामने आता है. अविभाजित पाकिस्तान में 3 बार संविधान यानी दस्तूर ए पाकिस्तान बना और तीनों ही बार अल्लाह के नाम पर बना. इसलाम पाकिस्तान का राजकीय धर्म है और तमाम कानून शरीयत के मुताबिक बने. मार्च 1949 में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने पाकिस्तानी संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव पेश करते कहा था कि पूरे ब्रह्मांड पर संप्रभुता अल्लाह की है. मुसलमानों को व्यक्तिगत और सामूहिक क्षेत्रों में इसलाम की शिक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुसार अपने जीवन को व्यवस्थित करने में सक्षम बनाया जाएगा जैसा कि पवित्र कुरान और सुन्ना में निर्धारित किया गया है.

यह प्रस्ताव 1956, 1962 और 1973 के संविधानों में यथावत रहा. तब से ले कर अब तक पाकिस्तान अल्लाह और इसलाम के नाम पर चल रहा है जिस के चलते लोग भूख और अभावों से बिलबिला रहे हैं लेकिन क्या मजाल कि वे एक शब्द भी इन के बारे में बोल पाएं कि ऊपरवाला हमारी सुध क्यों नहीं लेता. यानी, पाकिस्तानियों ने गोरों के हाथों से सत्ता ले कर या तो मौलानाओं को दे दी या रजवाड़ों की तरह रह रहे अशरफ मुसलमानों के हाथों में दे दी.

इंदिरा गांधी के कारण बने बंगलादेश का संविधान भी हालांकि सभी धर्मों को समान दर्जा और सम्मान देने की बात करता है लेकिन हकीकत कुछ और है जो 22 मार्च, 2014 को शेख हसीना ने इसलामिक फाउंडेशन के एक जलसे में इन शब्दों में बयां की थी कि देश मदीना चार्टर और पैगंबर मुहम्मद के अंतिम उपदेश व निर्देशों के अनुसार चलेगा. देश में कभी भी पवित्र कुरान और सुन्नत के खिलाफ कानून नहीं बनेगा. लेकिन 5 अगस्त, 2024 को न तो पवित्र कुरान उन्हें बचा पाया, न अल्लाह कुछ कर पाया और न ही मदीना चार्टर काम आया.

सार यह है कि इन दोनों देशों में भारत जैसा संविधान और कानून नहीं बने तो इस की इकलौती वजह कठमुल्लाओं के हाथों नाचते नेता थे जिन में जवाहरलाल नेहरू की तरह दूरदर्शिता और सख्ती नहीं थी, जिन्होंने कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर के साथ बनाए संविधान और कानून लागू किए और जिन के चलते आज कोई भी भारतीय गर्व से कह सकता है कि हम औरों से कहीं बेहतर हैं और सुकून से जी रहे हैं.

संविधान निर्माण और उठापटक

15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ तब हर किसी के मन में यह सवाल था कि अब देश चलेगा कैसे? समाज और देश का भविष्य इसी सवाल के जवाब से तय होना था. 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश पार्लियामैंट में एक अधिनियम पारित हुआ था जिस का नाम था- इंडियन इंडिपैंडैंस एक्ट यानी भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 जिसे मंजूरी 18 जुलाई, 1947 को मिली थी. इस के मुताबिक, ब्रिटेन शासित भारत को 2 भागों- भारत तथा पाकिस्तान – में विभाजित किया गया था. इस काम के लिए लौर्ड माउंटबेटन को नियुक्त किया गया था.

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के प्रावधानों के तहत आजादी कई शर्तों पर मिली थी जिन्हें सभी राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया था. लेकिन दोनों देशों के सामने तमाम तरह की मुसीबतें सिर उठाए खड़ी थीं. पाकिस्तान घोषिततौर पर इसलामिक राष्ट्र बन गया और मोहम्मद अली जिन्ना वहां के गवर्नर जनरल बने. भारत की कमान संभालने की जिम्मेदारी पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिली.

जिन्ना नेहरू की तरह पेशे से वकील थे और नेहरू की तरह लिबास से ही नहीं, बल्कि विचारों से भी आधुनिक थे. कांग्रेस छोड़ कर मुसलिम लीग जौइन कर वे मुसलमानों के सर्वमान्य नेता बन गए थे और मुसलिम हितों की दुहाई देते मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बनाए जाने की जिद पर अड़ गए थे. इस के पीछे उन की दलील यह थी कि हिंदूबाहुल्य भारत में मुसलमान अमनचैन से नहीं रह पाएंगे.

उन की जिद पूरी तरह नाजायज नहीं थी हालांकि कहीं न कहीं इस के पीछे पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बन जाने की उन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी थी. पाकिस्तान बनने के बाद वे वहां के राष्ट्रपिता करार दिए गए और कायदे आजम की उपाधि भी उन्हें मिली. जिन्ना कानून से चलने वाला पाकिस्तान चाहते थे लेकिन उन का यह सपना पूरा नहीं हो पाया क्योंकि आजादी के एक साल बाद ही टीबी की बीमारी के चलते उन की मौत हो गई. जिन्ना के बाद पाकिस्तान कट्टरवादी मुसलमानों के हाथों में जो पड़ा तो आज तक उन की गिरफ्त में है और इसीलिए दुर्गति का शिकार भी है.

इधर भारत में कानून के राज को ले कर एक और महाभारत छिड़ गया था क्योंकि संविधान का मसौदा हिंदुत्व से यानी मनुस्मृति से मेल नहीं खाता था. विनायक दामोदर सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाना चाहते थे जिस में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ स्थान जन्म से ही मिलता और अछूतों, जो आज एससीएसटी कहलाए जाते हैं, को शहरों व गांवों के बाहरी क्षेत्र में रहने की जगह मिलती है. हर व्यक्ति को वोट का अधिकार तो इस प्रणाली में सपना होता.

अविभाजित भारत के लिए संविधान बनाने की प्रक्रिया 1946 में शुरू हो गई थी जब प्रोविंसों के चुने प्रतिनिधियों से एक तरह की संसद का गठन हुआ था. 389 सदस्यों वाली संविधान सभा ने 3 वर्षों में संविधान बनाया था और इसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया. बहुत से सामाजिक सुधार उसी दस्तावेज की देन हैं जिस पर कांग्रेस और नेहरू की छाप है.

कांग्रेस उस समय भारी बहुमत में थी और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री पर कट्टर हिंदूवादियों से उन्हें दोदो मोरचों पर लड़ना पड़ रहा था. एक तरफ कांग्रेस विरोधी हिंदूवादी गुट और दल थे, मसलन आरएसएस, हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद और मंदिरों व मठों में बैठे तमाम साधुसंत तो दूसरी तरफ वे सवर्ण कांग्रेसी नेता थे जो हिंदू राष्ट्र चाहते थे. इन में वल्लभभाई पटेल, डा. राधाकृष्णन, डा. राजेंद्र प्रसाद भी थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे, जिन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देते भारतीय जनसंघ बनाया था. अब इसे भाजपा के नाम से जाना जाता है.

नेहरू अंबेडकर की जोड़ी

अंगरेज तो चले गए लेकिन हिंदुत्व का मसला या सनातनी विवाद ज्यों का त्यों रहा. नेहरू सोशलिस्ट डैमोक्रैसी चाहते थे लेकिन हिंदूवादी, जिन में कुछ कांग्रेसी भी शामिल थे, एक धार्मिक राष्ट्र की जिद पर अड़े थे जो हिंदू धर्मग्रंथों के मुताबिक चले यानी वर्णव्यवस्था के तहत कानून बनें.

नेहरू ने कहा था, ‘‘जीवन ताश के एक खेल की तरह है. आप को जो हाथ दिया जाता है, वह नियतिवाद है पर जिस तरह से आप इसे खेलते हैं, वह स्वयं इच्छा है.’’ नेहरू ने हर व्यक्ति को अपनी इच्छा से चलने की स्वतंत्रता संविधान से ले कर हिंदू कोड बिल और जमींदारी उन्मूलन से दी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी, जिस की जड़ में हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद हैं, के नरेंद्र मोदी ने 2014 में केंद्र की सत्ता में आते ही इसे नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानूनों, लैटरल एंट्री, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को समाप्त कर छीन ली जिन से आम लोगों के अधिकार कम होने लगे. राज्यों की संघीय शक्तियां भी पिछले 10 वर्षों में कम हुईं.

नेहरू ने जो लड़ाई लड़ी, नई लड़ाई नहीं थी बल्कि आजादी के पहले से चली आ रही थी. दोटूक कहें तो यह लड़ाई सवर्ण उच्च पुरुष बनाम दलित, आदिवासी मुसलमान और सवर्ण औरतें थी. लेकिन इन औरतों की भूमिका अदृश्य थी जिन्हें भीमराव अंबेडकर ने सब से पहले कानूनी तौर पर बराबरी का हक दिया था. हैरत की बात तो यह है कि इन औरतों का अंबेडकर से सीधे कोई लेनादेना ही नहीं था. लेकिन नेहरू और अंबेडकर को उन की चिंता थी कि अगर इन के हक में कानून नहीं बने तो ये पौराणिक युग की महिलाओं जैसे पुरुषों की गुलामी ढोती रहेंगी जिस का असर देश की तरक्की पर भी पड़ेगा. 1937 में चुनाव हुए थे जिन में महज 3 करोड़ वोटर थे जो तब की आबादी के 6ठे हिस्से थे. कुछ ही औरतों को वोट डालने का हक मिला था. प्रोविंसों के चुनावों से चुने लोगों ने कौंस्टीट्युएंट असैंबली चुनी थी जिस ने भारत का संविधान बनाया जिस में हर नागरिक को वोट देने का अधिकार मिला. शूद्रों, दलितों, उन की औरतों और सवर्ण औरतों को पहली बार वोट डालने का मौका मिला.

हिंदू कोड बिल और कट्टरपंथियों का विरोध

वह 11 अप्रैल, 1947 का दिन था जब अंबेडकर ने चुनावों से पहले बनी संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल का मसौदा पेश किया. तब तक भारत को आजादी भी नहीं मिली थी पर यह पक्का था कि ब्रिटिश भारत का विभाजन होगा. इस बिल के एक प्रावधान के मुताबिक अगर कोई हिंदू पुरुष बिना वसीयत किए मर जाता है तो मृतक की विधवा, पुत्र और पुत्री को उस की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलेगा. अलावा इस के, बेटियों को भी बेटों की तरह जायदाद में बराबर का हक देने की बात कही गई थी. इतना ही नहीं, हिंदू कोड बिल हिंदू पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने को भी प्रतिबंधित करने की बात कह रहा था और हैरतअंगेज तरीके से महिलाओं को भी तलाक का अधिकार देने की वकालत कर रहा था.

इस के बाद क्या हुआ, यह जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि आजादी के वक्त तक औरतों को, सवर्णों की औरतों को भी, कोई हक ही हासिल नहीं था. उन की हालत घर के आंगन में बंधे मवेशियों सरीखी हुआ करती थी. पति दो, तीन या चार या 16,000 शादियां कर ले तो वे विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं क्योंकि इस का अंजाम होता अहल्या या सीता जैसी श्रापित जिंदगी जीना या फिर घरपरिवार, समाज से निष्काषित हो कर किसी तीर्थस्थल या आश्रम में भीख मांगना व हर कभी शारीरिक शोषण के लिए तैयार रहना. तब की तथाकथित सभ्य ऊंची सवर्ण जातियों के शिक्षित और अभिजात्य समाज में औरतों की यह बदहाली आम थी. उस की हैसियत एक दासी और पांव की जूती जैसी ही हुआ करती थी.

सवर्ण हिंदू समाज औरतों के प्रति कितना क्रूर और बर्बर था (और एक हद तक आज भी है), सतीप्रथा इस का बेहतर उदाहरण है, जिस पर अंगरेजों ने साल 1829 में कानून बना कर रोक लगाई थी. लेकिन इस से समस्या पूरी तरह हल नहीं हो पाई. विधवाएं, खासतौर से सवर्ण विधवाएं, आज भी पारिवारिक, सामाजिक और उस से भी ज्यादा धार्मिक तिरस्कार की शिकार हैं. उन्हें मनहूस की उपाधि मिली हुई है. इस स्थिति से बचने के लिए कई महिलाएं पति की मौत के बाद आत्महत्या कर लेती हैं क्योंकि वे इस अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पातीं. बारबार करवाचौथ को शानोशौकत से मनाना इसी मानसिकता की निशानी है. मंगलसूत्र के नाम पर आज वोट मांगने/लेने की कोशिश वही मानसिकता है.

हिंदू कोड बिल में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने का अंबेडकर का मकसद यही था कि महिलाएं आत्मसम्मान और स्वाभिमान की जिंदगी जिएं. एक हद तक वे अपने मकसद में कामयाब भी रहे हैं. यानी, कानून बना कर ही समाज सुधार किया जा सकता है. यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह जाती.

हिंदू समाज या धर्मसत्तात्मक समाज का लाभ पुरुषों को मिलता है. यह हकीकत सम?ाते हुए अंबेडकर ने जो कानून बनाए उन्हें देख कट्टरवादी इतना तिलमिलाए थे कि एक दफा तो उन का विरोध देख नेहरू ने इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली थी. हिंदू कोड बिल चूंकि कई कुरीतियों को दूर कर रहा था इसलिए कट्टरपंथियों ने जम कर बवाल काटा था. दरअसल इस से ब्राह्मणों, पंडेपुजारियों, पेशवाओं और सामंतों का कारोबार भी खतरे में पड़ रहा था और समाज पर से उन का दबदबा भी खत्म हो रहा था.

तब हिंदूवादियों ने एक दलील यह दी थी कि संसद सदस्यों को जनता ने नहीं चुना है, इसलिए इतने बड़े विधेयक को पारित करने का संसद को अधिकार नहीं है. उधर संसद के बाहर करपात्री महाराज यानी हरिहरानंद उर्फ हरिनारायण ओझा धरनाप्रदर्शनों के जरिए विरोध जता रहे थे.

राम राज्य परिषद के संस्थापक इस संत ने तो यहां तक कह दिया था कि हम एक अछूत का लिखा संविधान नहीं मानेंगे. यह बिल हिंदू धर्म में हस्तक्षेप है. यह हिंदू रीतिरिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों के खिलाफ है. उसी वक्त आरएसएस भी देशभर में प्रदर्शन कर हिंदू कोड बिल की मुखालफत कर रहा था.

निर्णायक कदम

नेहरू ने सियासी जोखिम उठाते साफ कर दिया था कि अगर पहले आम चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला तो ही वे हिंदू कोड बिल वाले कानून बनाएंगे. कांग्रेस को बहुमत मिला तो उन्होंने अपना कहा पूरा भी किया क्योंकि मुसलमानों, दलित, आदिवासियों और महिलाओं ने भी कांग्रेस पर भरोसा जताते इन सुधारवादी कानूनों की बाबत अपनी सहमति नेहरू की अगुआई वाली कांग्रेस को दी थी.

1950 में लागू संविधान का बनाया जाना, उस की एकएक धारा पर लंबी, गंभीर और बेहद सार्थक बहस होना एक उदार नेता की देन है. जवाहरलाल नेहरू इस मामले में महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे नेताओं से अलग थे. उन्हें राजनीति में क्यों सर्वसहमति का स्थान मिल गया, यह एक रहस्य सा ही है क्योंकि वे कट्टरपंथियों के बीच तार्किक शक्ति थे और बेहद अल्पमत में होते हुए भी अपनी मंशा चला पा रहे थे.

जनता का अधिकार

जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के जरिए देश का समाज पूरी तरह हिला डाला हालांकि उन्हें न तो इस का श्रेय मिला, न उन्होंने नरेंद्र मोदी और भाजपा की तरह इस का ढोल पीटा. उस समय उन्हें छूट थी कि वे 1947 में गवर्नर इन काउंसिल जैसी शासन पद्धति देश पर थोप देते यानी 1935 के गवर्मेंट औफ इंडिया एक्ट, जो ब्रिटिश पार्लियामैंट ने पास किया था, की तरह की सरकार बनाते जिस में न तो हरेक को बराबर माना जाता न ही हरेक को वोट का अधिकार मिलता, न मौलिक स्वतंत्रताएं होतीं. भारत की स्थिति इंगलैंड और अमेरिका से अलग थी. इन दोनों देशों में जनता ने या तो राज्य से या अपने मूल देश से लड़ कर आम जनता के लिए अधिकार हासिल किए थे पर वहां प्लेट में रख कर दिए गए, कांग्रेस की बदौलत.

भारत में आजादी की लड़ाई जनता के मौलिक अधिकारों के लिए हुई ही नहीं थी, तिलक से ले कर नेहरू तक का स्वतंत्रता संग्राम केवल इंगलैंड के शासन से मुक्ति पाने के लिए था. इस का सुबूत है कि तब 1947 में बने पाकिस्तान का शासन सिर्फ गोरे साहबों को हटा कर पंजाबी उर्दूभाषी मुसलमानों के हाथ में आया और मौलिक अधिकार वहां आज तक, असल में, नहीं हैं.

26 जनवरी, 1950 से लागू भारत के संविधान का हर शब्द एक राज्य की प्रभुसत्ता से ले कर जनता को अधिकार देता है. हर आर्टिकल में शासक के हाथ बांधे गए हैं. देश के समाज में जो बदलाव आया है, चाहे वह आधाअधूरा हो, इसी संविधान के कारण आया है और इसे जनता ने लिया नहीं, नेहरू ने दिया. इन अधिकारों के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गई.

आज कहा जा सकता है कि हिंदूहिंदू चिल्लाने से समाज का सुधार नहीं होगा. समाज का सुधार या तो जमीनी बदलाव से होता है या कानूनों से जिस के दर्शन पिछले 10 वर्षों से कहीं नहीं हो रहे हैं.

संविधान सहित जो कानून कांग्रेस ने बनाए उन से समाज में भारी बदलाव हुआ पर यह विटामिन की गोलियों की तरह का सा रहा, एंटीबोयोटिक इंजैक्शन का नहीं. दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के बाद मौर्फिन के इंजैक्शन लगा कर समाज सुधारों और जनता के अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इसलिए लगता है कि नेहरू-गांधी और आज के मोदी युग में जो हुआ उसे परखा जाना चाहिए. कई भागों में प्रकाशित किए जाने वाले इस लेख में यही प्रयास किया गया है.

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जमींदारी प्रथा का उन्मूलन

कांग्रेस सरकार ने 1950 से कानूनों के जरिए जमींदारी प्रथा भी खत्म करने का काम शुरू कर दिया था. तब जमीनें रसूखदारों की हुआ करती थीं. दलित, आदिवासी और पिछड़े तो बैल की तरह उन में जुते रहते थे. अलगअलग राज्यों ने अपनी सहूलियत से जमींदारी खत्म की तो निचले तबके के लोगों को मालिकाना हक मिलने लगा. आज जो ताकत ओबीसी, एससी के पास है वह जमींदारी प्रथा समाप्त होने के कारण मिली थी. उस ने गांवों में मिल्कीयत को बदला, कुछ जातियों का प्रभाव कम किया.

भारत में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने के लिए साल 1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून बनाया गया था. यह कानून 1 जुलाई, 1952 से लागू हुआ था. इस कानून के तहत, 7 जुलाई, 1949 के बाद किसी भी संपत्ति का हस्तांतरण मान्य नहीं होगा. अगर कोई संपत्ति हस्तांतरित की जाती है तो उसे संपदा हस्तांतरक माना जाएगा. इस कानून के लागू होने के बाद, कृषकों को जमीन का स्वत्वाधिकार वापस मिल गया. इस से कृषकों और राज्य के बीच सीधा संबंध बन गया.

इस कानून को लागू करने से पहले साल 1946 में हुए चुनावों के बाद कांग्रेस के मंत्रिमंडल ने जमींदारी प्रथा खत्म करने के लिए विधेयक पेश किए थे. ये विधेयक साल 1950 से 1955 के बीच अधिनियम बन कर लागू हो गए. कुछ राज्यों, जैसे कि उत्तर प्रदेश और बिहार ने साल 1949 में ही जमींदारी उन्मूलन बिल लागू कर दिया था. अब लोगों को मालिकाना हक मिलने लगा.

भारत में जमीन की मिल्कीयत का कानून हमेशा स्पष्ट रहा है. जब अंगरेज भारत में आए और उन्होंने व्यापार करना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यहां तो संपत्ति का कोई कानून न हिंदुओं का है न मुसलिम शासकों का. जमीन से लगान मिलना ही राजा की आय थी, इसलिए यह जिम्मा पंचायतों पर छोड़ रखा गया था जो मनमाने ढंग के फैसले करती थीं. अंगरेजों ने 1793 में परमानैंट सैटलमैंट के तहत एकमुश्त रकम के बदले हजारों एकड़ जमीन एक जने को दे दी कि वह जैसे चाहे लगान वसूल करे पर एक तय राशि ईस्ट इंडिया कंपनी को दे.

जमीन का वितरण

यह परमानैंट सैटलमैंट कुछ समय तो चला क्योंकि गोरे या गोरों की दी गई वरदी में भारतीय सैनिकों को लगान वसूल करने के लिए घरघर नहीं जाना पड़ता था. यह परमानैंट सैटलमैंट के अंतर्गत नियुक्त को मिला जो एक तरह से अपने इलाकों के राजा बन गए और उन्होंने हर जुल्म ढाह कर लगान वसूला. उन की शान देखते बनती थी. वे गोरे अफसरों से भी ज्यादा अमीर होने लगे. आजादी की लड़ाई के दौरान ही जमींदारी प्रथा को हटाने की मुहिम शुरू हो गई थी पर अधिकतर जमींदार ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ थे. पहले वे अंगरेजभक्त थे, बाद में धर्मभक्त बन गए.

श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जो कांग्रेस छोड़ कर आए थे), बलराज मधोक व दीनदयाल उपाध्याय की बनाई गई भारतीय जनसंघ को इन जमींदारों का पूर्ण समर्थन मिला. जवाहरलाल नेहरू ने ही सभी कांग्रेस राज्य सरकारों के मारफत जमींदारों की जमीनों का अधिग्रहण करा डाला और राजसी समाज को लोकतांत्रिक समाज में बदलने की नींव डाल दी. जमींदारों के लठैतों की शक्ति छीन कर जमीन जोतने वालों को दे दी गई. जमीदारों के लठैतों की लाठी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आज भी प्रतीक है. जमींदारों ने पहले हिंदू भावना, फिर भारतीय जनसंघ और बाद में उन की संतानों ने भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया.

भारत की कृषि क्रांति जमींदार उन्मूलन के बिना संभव न हो पाती. स्वतंत्रता के पहले दशक में भारत में अनाज की भारी कमी हुई क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, स्कूलों में शिक्षा मिलने और जमींदारी उन्मूलन के कारण आबादी तो बढ़ी पर जमीन पर पूंजी लगाने का पैसा उन किसानों के पास नहीं था जिन्हें जमींदारों से मुक्ति तो मिल गई पर हाथ में कोरी जमीन के अलावा कुछ न था.

जमींदारी उन्मूलन के बाद ही गांवों में समाज सुधार चालू हुआ. जातिबंधन टूटने लगे. गांवों में पुश्तों से राज करने वाले ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों ने शहरों का रुख किया जहां सरकारी और गैरसरकारी नौकरियां मिल रही थीं. गांवों का समाज अगर बदला तो जमींदारी उन्मूलन कानूनों के कारण.

हिंदू कोड बिल का विरोध

कांग्रेस सरकार ने बीच में छोड़े गए हिंदू कोड बिल वाला काम पूरा करने के लिए 1955 में एचएमए विशेष विवाह अधिनियम 1954 और फिर 1955 में भारतीय दंड संहिता में धारा 498ए व आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 198ए की शुरुआत कर के हिंदू विवाह को बदला. विवाह, उत्तराधिकार और गोद लेने के लिए कांग्रेस सरकार द्वारा कानून में जो संशोधन किए गए, उन का विपक्षी पार्टियों द्वारा भयंकर विरोध हुआ. पंडोंपुजारियों ने भी हिंदू समाज को उद्वेलित कर खूब धार्मिक प्रतिरोध किया.

सब से बड़ा विरोध तलाक के प्रावधान को ले कर था, जो हिंदू धर्म के लिए अभिशाप माना जाता था. तब तक बेटियों को उन के मातापिता द्वारा यही कह कर ससुराल के लिए विदा किया जाता था कि अब वही उन का घर है और वहां से ही उन की अर्थी उठेगी. मतलब बेटी अपनी ससुराल में कितनी भी प्रताडि़त हो, मारीपीटी जाए या उस की जान ही क्यों न ले ली जाए मगर वह अपने पति से तलाक ले कर अपने मायके वापस नहीं आ सकती थी. यह स्त्रियों के प्रति हिंदू पितृसत्तात्मक समाज की सब से बड़ी क्रूरता थी, जिस से कांग्रेस ने मुक्ति दिलाई.

चाहे बेटी विवाहित हो या अविवाहित, बेटे और बेटियों को समान उत्तराधिकार के सिद्धांत का भी हिंदू पितृसत्तात्मक समाज द्वारा जम कर विरोध किया गया. विपक्षी पार्टियां और धर्म के ठेकेदार बेटियों को संपत्ति पर हक नहीं देना चाहते थे. वे उन्हें हमेशा पुरुषों पर निर्भर रखना चाहते थे. मगर कांग्रेस पार्टी ने बेटियों को आर्थिक रूप से मजबूत और स्वावलंबी बनाने के लिए घोर विरोध के बावजूद कानून में संशोधन किया.

संविधान के निर्माण और समाज सुधारों में जमींदारी उन्मूलन के बाद सब से बड़ा सुधार 1955 में बना हिंदू मैरिज एक्ट है जिस ने हिंदू समाज को बदल डाला. इन कानूनों के चलते आज के युवा बिना किसी व्यवधान के मनपसंद पार्टनर से शादी कर पा रहे हैं. जातियों का जाल भी अंतर्जातीय शादियों से टूट रहा है. 1955 के मैरिज एक्ट में एक से ज्यादा शादियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. यह उन सवर्ण महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं था जो बातबेबात पर देखते ही देखते अपनी ही सौत का दरवाजे पर स्वागत और आरती उतारने को मजबूर हो जाती थीं. यह मर्दों की मनमानी पर रोक थी लेकिन औरतों की गैरत इसी से सलामत है.

इस एक्ट ने तलाक को कानूनी दर्जा दे कर भी उन की गैरत सलामत रखी और महिलाओं को भी तलाक मांगने का हक मिला जिस से वे कई दुश्वारियों से बच गईं.

एक वक्त में हिंदू पुरुष कभी भी पत्नी को घर से बाहर निकाल देने का अधिकार रखता था जो खत्म हो गया तो विवाह संस्था के सही माने भी सामने आए. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसों ने इस का सख्त विरोध किया. वे संस्कार के नाम पर विवाह को दैविक मानते थे जबकि उन के सामने लाखों विधवाएं जानवरों से बदतर जीवन जी रही थीं.

हिंदू परिवारों में यह एक्ट क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जिस के तहत पत्नी दोयम दरजे की और आसानी से छोड़ देने या भगा देने की आशंका से मुक्त हो गई. इस कानून में जो कमियां रह गई थीं उन्हें नेहरू सरकार ने स्पैशल मैरिज एक्ट 1954 बना कर दूर किया. जिस में अंतर्धर्मीय शादियों को कोई सामाजिक और कानूनी मान्यता नहीं थी जो इस कानून के जरिए मिली. इस से पहले विधर्मी से शादी करने के लिए सब को धर्म बदलना होता था.

अधिनियम की खासीयत

इस अधिनयम की खासीयत यह है कि 2 अलगअलग धर्मों के स्त्रीपुरुष कुछ सामान्य शर्तों का पालन करते शादी कर सकते हैं और उस में धर्म व उस के ठेकेदारों का कोई दखल नहीं, रजिस्टर ही काफी है. यह और बात है कि धर्म के धंधे और मकड़जाल के अलावा लोगों का शादी को एक संस्कार समझने से यह लोकप्रिय नहीं हो पाया, नहीं तो इस से बड़ा सैक्युलर कानून शायद ही कोई और हो. फिर मोदी का यह कहना कि हम कम्युनल सिविल कोड में जी रहे हैं, एक भड़ास और कुंठा ही लगती है, जिसे वे यूसीसी या अब नए शब्द एससीसी के जरिए निकाल रहे हैं. सैक्युलर सिविल कोड तो नेहरू स्पैशल मैरिज एक्ट, इंडिया सक्सैशन एक्ट के जरिए पहले ही बना चुके हैं.

पौराणिक कानूनों की चाहत

240 पर अटकी भाजपा के लिए यह नामुमकिन सा काम है क्योंकि उस के सहयोगी दल जब लैटरल एंट्री और वक्फ जायदाद कानून पर ही सहमत नहीं तो एससीसी पर क्या राजी होंगे. एक सैकंड को मान भी लिया जाए कि ऐसा हो गया तो सब से ज्यादा नुकसान भगवाई दुशाले में लिपटे नए प्रभावित एक्ट से महिलाओं के हिस्से में आना तय दिख रहा है क्योंकि उन से शादी, तलाक और जायदाद सहित कई दूसरे अधिकार व सहूलियतें छिन जाएंगी और वे धीरेधीरे 1950 के पहले के युग में पहुंच जाएंगी. भाजपा सरकार ने अपराध कानूनों में जो बदलाव किए हैं, वे बहुत से मौलिक हकों को छीनने वाले हैं. यह उस की मानसिकता का नमूना है.

नरेंद्र मोदी शायद थक गए हैं. गठबंधन को वे ज्यादा ढो पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा, इसलिए मुमकिन है अभी से उस की तैयारी यह जताते कर रहे हैं कि अगर हिंदू अपना हित चाहते हैं, मनुस्मृति वाले पौराणिक कानूनों यानी सिर्फ सवर्ण पुरुषों का राज चाहते हैं तो मुझे 400 पार कराएं नहीं तो वे इसी तरह याद दिलाते रहेंगे कि देखो, आजादी के पहले का दौर कितना सुनहरा था कि किसी गरीब, दलित की जमीनजायदाद छीन लो, कुछ नहीं होगा. जब जी करे, उस की पीठ पर कोड़े बरसाओ, वह कहीं नहीं जाएगा क्योंकि उस की सुनवाई के लिए कोई थाना, अदालत और कानून नहीं. जब चाहो दूसरी या तीसरी शादी कर लो. कोई पुलिस वाला समन या वारंट ले कर नहीं आएगा. बीवी से अनबन हो तो तलाक के लिए अदालत तो दूर की बात है पंचायत तक भी जाने की जहमत आप को नहीं उठानी पड़ेगी क्योंकि इस बाबत भी कोई कानून वजूद में नहीं होगा.

इस की वजह यह कि पिछले जन्म के पुण्यों और दानदक्षिणा के प्रताप से इस जन्म में आप ऊंची जाति के मर्द हैं. अब नेहरू सरकार ने 1955 में आप के ये ठाटबाट छीन लिए तो हम क्या करें. हमारी कोशिश तो धर्मराज की वापसी की है.

यहां एक दिलचस्प और गौरतलब बात यह भी है कि यूसीसी या एससीसी की एक मंशा उत्तराखंड की तरह देशभर में मुसलिमों से एक से ज्यादा शादी के मौके या हक छीनने की है जो बिलाशक वक्त की मांग है लेकिन इस का असर इसलाम से ज्यादा दूसरे धर्मों पर पड़ेगा.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के एक ताजा सर्वे में उजागर हुआ है कि बहुविवाह की दर मुसलिमों में महज 1.9 फीसदी है जबकि ईसाईयों में उस से ज्यादा 2.1 फीसदी है. हिंदू इस मामले में मुसलमानों से 1.9 फीसदी की दर के साथ थोड़े ही पीछे हैं. बौद्ध समुदाय में यह दर 1.5 तो आदिवासियों में 2.4 फीसदी है. दलितों में यह दर 1.5 फीसदी है. यह और बात है कि इसलाम में दूसरी, तीसरी और चौथी शादी करने की अनुमति है लेकिन यह जरा भी आसान नहीं है. उस के लिए कड़ी शर्तें तय हैं.

महिलाओं को हक

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 व स्पैशल मैरिज एक्ट 1954 अधिनियमों के बाद अगले ही साल हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 भी अस्तित्व में आ गया जिस ने महिलाओं को संपत्ति संबंधी वे बहुत सारे हक दिए जो पहले केवल पुरुषों को हासिल थे. यह अधिनियम स्पष्ट करता है कि हिंदू महिला के पास जो भी संपत्ति है उसे उस के पास पूर्ण संपत्ति के रूप में रखा जाना चाहिए और इस से निबटने व अपनी मरजी से इसे निबटाने का महिला को पूरा हक है. हर पुरुष की अपनी कमाई संपत्ति में पत्नी, मां व बेटियों को बराबर का हिस्सा दिया गया. यह अद्भुत था. अचानक कानून ने औरतों के लिए हकों का सैलाब बना दिया.

यह एक अकल्पनीय बात महिलाओं के लिए थी क्योंकि सनातनियों का संविधान और कानून मनुस्मृति तो उसे संपत्ति का अधिकार देता ही नहीं. उलटे, उसे ही पुरुषों की संपत्ति करार देता है. आज की नौकरीपेशा और व्यवसायी महिला को जो आत्मविश्वास और सम्मान हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने दिया है वह सामाजिक क्रांति साबित हुई है. आज भारत में जो आजादी औरतों में दिख रही है, वह उसी की देन है.

उसी साल पास हुआ हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरणपोषण अधिनियम 1956 गोद लिए बच्चे के अधिकार जैविक संतान की तरह सुनिश्चित करता है बल्कि कुछ शर्तों के साथ गोद लेने की प्रक्रिया को भी परिभाषित करता है. अलावा इस के, यह एक्ट विधवा बहुओं और मातापिता के भरणपोषण की जिम्मेदारी भी तय करता है. यानी, अब विधवा का हक कोई हड़प नहीं सकता. आज भी आएदिन ऐसे समाचार सुर्खियों में रहते हैं कि बूढ़े अशक्त मांबाप ने बेटे या बेटी पर भरणपोषण का दावा किया.

ये मामले बताते हैं कि मांबाप की महिमा का राग अलापते रहने वाले धर्म की हकीकत दरअसल क्या है और कैसे कानून के जरिए उसे सुधारा गया. हिंदू धर्म ने कभी औरतों की सुध नहीं ली. आज भी कोई हिंदू धर्म की सुधार की बात नहीं कर रहा. भगवा गैंग उन्हें मंदिरों में धकेल रहा है और अंधविश्वासी बना रहा है.

इसी तरह हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956 नाबालिगों के संपत्ति संबंधी अधिकारों को परिभाषित करता है. अवयस्कों के अधिकार किसी भी समाज में वयस्कों जितने ही अहम होते हैं. उन के अधिकारों के लिए बना यह अधिनियम भी मील का पत्थर साबित हुआ.

दहेज निषेध अधिनियम 1961

दहेज निषेध अधिनियम के बावजूद देश में दहेज की प्रथा को रोकना असंभव माना गया. इस के अतिरिक्त दहेज की मांग को पूरा करने के लिए ससुराल पक्ष और पति स्त्री के साथ विभिन्न प्रकार की क्रूरताएं करता और कहींकहीं तो स्त्री को जान से भी मार दिया जाता. महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए कांग्रेस सरकार ने कानून में संशोधन किया.

1984 में कानून में बदलाव करते हुए, जो 2 अक्तूबर 1985 को लागू हुआ, कहा गया कि शादी के समय दुलहन या दूल्हे को उपहार देने की अनुमति है मगर प्रत्येक उपहार, उस का मूल्य, इसे देने वाले व्यक्ति की पहचान और विवाह में किसी भी पक्ष के साथ व्यक्ति के संबंध का वर्णन करते हुए एक सूची बनाई जानी आवश्यक है. दहेज संबंधी हिंसा की पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की प्रासंगिक धाराओं में और संशोधन किए गए.

दहेज निषेध अधिनियम, भारतीय कानून? 1 मई, 1961 को अधिनियमित किया गया, जिस का उद्देश्य दहेज देने या लेने को रोकना है. दहेज निषेध अधिनियम के तहत, विवाह के किसी भी पक्ष द्वारा या विवाह के संबंध में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई संपत्ति, सामान या धन दहेज में शामिल है. दहेज निषेध अधिनियम भारत में सभी धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होता है.

एक और कानून संविधान के संशोधन के साथ लाया गया जिस में आर्टिकल 45 जोड़ा गया जिस के अनुसार 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान करने का निर्देश था (बाद में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया गया). 1950 से 1960 के बीच सरकारी प्राइमरी स्कूलों, जिन में हर जाति, हर धर्म के बच्चे जा सकते थे, की संख्या 2,09,700 बढ़ने लगी. 1988 तक 5,48,100 स्कूल हो गए थे जिन्होंने असल में समाज को बदला. 1950 में शहरी बच्चे तो 90 फीसदी स्कूलों में जा रहे थे जो ब्रिटिश सरकार ने म्यूनिसिपल बौडीज से खुलवाए थे पर गांवों में केवल 20 फीसदी पढ़ रहे थे. स्कूलों की शिक्षा का देश पर बड़ा प्रभाव पड़ा जिसे आज गिनाने की जरूरत नहीं है. उस समय केवल कुछ क्रिश्चियन स्कूल ही प्राइवेट स्कूल थे. अधिकांश नेता सरकारी शिक्षा प्राप्त कर के ही आए थे.

समाज सुधार का एक बड़ा कदम असल में संविधान में आरक्षण से कर दिया गया. कांस्टीट्यूशनल एसैंबली (संविधान सभा) ने न केवल नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की, उस ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 1932 के पूना पैक्ट के अनुसार आरक्षण दे दिया. इस सुधार के कारण अछूतों जिन्हें, एससी, एसटी कहा जा रहा है, की एक पौध पैदा हो गई जो अब तक चाहे पूरे समाज को बदल न पाई हो पर अब इज्जत से जी सकती है. यह संविधान संसद की उस गोल बिल्डिंग से निकला जिसे मोदी सरकार ने नए संसद भवन की शास्त्रीय हिंदू धार्मिक पूजापाठ किए जाने के बाद छोड़ दिया. शायद उन की हिम्मत गोल भवन को गंगाजल से धोने की नहीं हुई और उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपए का खर्च नए संसद भवन के लिए जनता के सिर पर मढ़ दिया.

वैज्ञानिक सोच पर जोर

जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति के सार को आंतरिक विकास, दूसरों के प्रति व्यवहार, दूसरों को समझने की क्षमता और सभी को स्वयं को सम?ाने की क्षमता के रूप में लिया. इस के जरिए नेहरू ने विज्ञान एवं वैज्ञानिक सोच पर बल दिया. इस का भारत की संस्कृति पर एक नवीनीकरणकारी प्रभाव पड़ा. उन्होंने तानाशाही, रूढि़वाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ देश में एक माहौल बनाने का काम किया था. उसी दौरान भारतीय जनसंघ का परिवार अपना काम करता रहा और हिंदू की रक्षा के बहाने उसे इन सुधारों से उलट दिशा में ले जाने वाले कदम उठाता रहा.

नेहरू का मानना था कि वैज्ञानिक ज्ञान और तकनीकी प्रगति भारत और उस के लोगों की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं. नेहरू ने नवाचार को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास को चलाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान, शिक्षा और बुनियादी ढांचे पर जोर दिया था. वे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष थे जिस ने राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और ?अन्य वैज्ञानिक संस्थानों को बनाने में अहम भूमिका अदा की.

विज्ञान की शिक्षा का असर गुरुकुलों की शिक्षा से अलग होता है. विज्ञान न धर्म देखता है, न जाति, न देश, न रंग, न जैंडर, न आयु. नेहरू की वैज्ञानिक शिक्षा जिस के स्कूलों में दिए जाने से एक नई चेतना आई हालांकि उसी समय हिंदूमुसलमान, गौपूजा, पूजापाठ, संस्कार, अखंड भारत का प्रचार कर के समाज के अग्रणी, पढ़ेलिखे वर्ग के कुछ लोग हिंदू महासभा व भारतीय जनसंघ के मारफत पुरातनवादी विचार भी थोप रहे थे. पाकिस्तान में बढ़ती कट्टरता के कारण हिंदू भयभीत भी थे कि कहीं फिर से मुगलों जैसा राज भारत में न हो जाए.

भारत जैसे देश में ही नहीं, शिक्षित अमेरिका में भी गुलामी के लिए हुए गृहयुद्ध के 150 वर्षों बाद भी वहां मौजूद 13-14 फीसदी अश्वेत आज भी बराबरी का स्थान नहीं पा पाए हैं. अश्वेत बराक ओबामा 8 वर्ष राष्ट्रपति रहे, अब अश्वेत कमला हैरिस राष्ट्रपति पद के लिए डैमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हैं पर जमीनी तथ्य यह है कि अश्वेतों का दर्जा आज भी दोयम है, उन्हें जेलों में मारा जाता है. 20 डौलर के नोट के ?ागड़े को ले कर एक अश्वेत की गोरे पुलिसमैन द्वारा टांग से गरदन दबा कर हत्या तक कर दी जाती है.

यही भारत में हुआ है. शुरुआती दशकों में कानूनों से समाज सुधार और समाज बदलाव का प्रयास किया गया पर साथ ही, ठीक उलटी दशा में चलने वाला हिंदू गौरव का ढोल और जोर से बजने लगा. 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या वाले देश में इस ढोल की कर्कश आवाज बंद करना असंभव था और नतीजा था कि बहुत से समाज सुधार, जो कानूनों से लाए गए, कानूनी किताबों के पन्नों में बस फड़फड़ा रहे हैं. फिर भी संतोष है कि आज कानूनी ढांचा ऐसा है कि कट्टरपंथी एक हद तक ही जा पाते हैं.

इस के बाद के दशकों में किन कानूनों में क्या हुआ, इस बारे में अगले अंकों में पढ़ें.

अगले अंक में जारी…

रीता सा शजर-ए-बहार

मोबाइल में समय देखते ही एकाएक अगले मैट्रो स्टेशन पर बिना कुछ सोचे वह उतर गया. ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन से निकल कर धीरेधीरे चलते हुए ग्रीन पार्क इलाके की छोटी सी म्युनिसिपल मार्केट की ओर निकल आया, यह सोच कर कि वहीं रेहड़ीपटरी से कुछ ले कर खा लेगा. लेकिन आसपास कोई रेहड़ीपटरी वाला नहीं था तो वहीं एक छोटे से तिकोने पार्क की मुंडेर पर बैठ गया यह सोचते हुए कि इतनी जल्दी वापस जा कर भी क्या करेगा. कुछ देर यों ही इधरउधर देखता रहा और आतीजाती गाडि़यों को गिनने लगा. वापस घर जाने की कोई तो वजह होनी ही चाहिए हर इंसान के पास. मगर उस के पास कोई वजह ही नहीं है.

बहुत मुश्किल है 50 की उम्र में फिर से काम की तलाश में यहांवहां भटकना और मायूसी में आ कर बिस्तर पर पड़ जाना. दिल्ली की गरमी जूनजुलाई में अपने पूरे शबाब पर होती है मगर आज बादल छाए हुए हैं तो हवा में तपिश नहीं है. फिर वह उठ कर टहलने लगा. इस के दाहिने ओर सड़क के उस तरफ एक ऊंची दीवार दूर तक जाती दिखाई दे रही थी और उस के बाएं थोड़ी दूर पर ऊंची रिहायशी इमारतें.

चलतेचलते उस की निगाह सामने बड़े से गेट के ऊपर स्पास्टिक सोसाइटी औफ नौर्दर्न इंडिया के बोर्ड पर पड़ी तो वह सड़क पार कर वहां पहुंचा कि शायद इन्हें किसी वौलंटियर की जरूरत हो. पता करने में क्या हर्ज.

वह गेट की ओर बढ़ गया. गेट की सलाखों से भीतर झांका तो दूर तक हरियाली फैली हुई थी. उसे ऐसे झांकते देख कर गार्ड दौड़ता हुआ आया. उस से बात करने पर मालूम हुआ कि दोपहर 2 बजे तक ही मैडम मिलती हैं जो यहां की सर्वेसर्वा हैं. उसे शुक्रिया कहते हुए वह मायूस हो कर वहीं लौट आया.

भूख तो लग रही थी. उस ने छोटी सी मार्केट पर नजर डाली. एक पर आयशा बुटीक का बोर्ड था, एक बार्बर शौप और एक अन्नपूर्णा स्वीट. यार, यह तो महंगी दुकान है, कुछ खाया तो बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे, सारा मसला तो पैसे का ही है.

यही सोचते वह वहीं उसी मुंडेर पर आ कर बैठ गया. कुछ ही पल बीते थे कि एक अधेड़ उम्र की महिला कार से उतर कर उस के नजदीक आ कर बैठ गई. उस ने देखा कि पकी उम्र के बावजूद वह खूबसूरत दिख रही थी. बस, खिचड़ी बाल उस की उम्र की चुगली कर रहे थे, शायद खिजाब का इस्तेमाल नहीं करती.

‘‘सिगरेट है तुम्हारे पास?’’ उस के इस अप्रत्यक्ष सवाल से हतप्रभ सा वह उसे ही देखता रह गया.

‘‘क्यों, क्या तुम स्मोक नहीं करते?’’

‘‘जी, अब नहीं.’’

‘‘मतलब; पहले करते थे तो छोड़ क्यों दी?’’

‘‘जी, दिल की वजह से.’’

‘‘मतलब इश्क?’’

‘‘नहीं, स्टंट,’’ कह कर वह मुसकरा दिया.

‘‘मतलब कि दिल के ही मरीज हो, दोनों एक ही बात है,’’ और वह खिलखिला कर हंस दी. हवा में थोड़ी ठंडक सी बढ़ती महसूस हुई.

‘‘कमबख्त मु झ से छूटती ही नहीं. डाक्टर भी वार्निंग दे चुके हैं. मगर लगता है मु झे भी दिल का दर्द लेना होगा सिगरेट जैसी बुरी लत को छोड़ने के लिए.’’

‘‘आप के साथ ऐसा न हो,’’ एकदम उस की जबान से निकला.

उस ने नजरें उठा कर उसे गौर से देखा और बोली, ‘‘मेरे लिए सिगरेट ला दोगे और 2 ले कर आना.’’

‘‘2,’’ उस ने उठते हुए सवालिया निगाह से देखा.

‘‘अकेला होना सिगरेट को भी तो बुरा लगता होगा न?’’ और वह फिर खिलखिला दी. आसमान में बादल थोड़े से और काले पड़ने लगे.

थोड़ा आगे चल कर कोने में बनी छोटी सी पानबीड़ी की दुकान पर पहुंच कर उस ने सिगरेट मांगी.

‘‘कौन सी सिगरेट बाबू?’’

‘धत्त तेरी, यह पूछा ही नहीं उस से,’ उस ने मन ही मन खुद को लताड़ा. लड़कियों को मोर ब्रैंड की सिगरेट बहुत पसंद होती है, लगभग 30 वर्ष पहले कही गई उस की कालेजफ्रैंड नीलिमा की बात अचानक याद आ गई.

‘‘मोर की सिगरेट है तुम्हारे पास?’’ उस की बात सुन कर दुकानदार ने मुसकरा कर उसे गौर से देखा और बोला, ‘‘मिल तो जाएगी बाबू, डेढ़ सौ की एक पड़ेगी.’’

उस ने बिना कुछ कहे 300 रुपए उसे दिए और 2 सिगरेट ले कर मुड़ा तो दुकानदार आवाज लगा कर उसे माचिस देते हुए बोला, ‘‘बाबू यह भी लेते जाओ, जलाने के लिए किस से मांगोगे?’’

दुकानदार की इस सम झदारी और दयालुता की मन ही मन तारीफ करता हुआ वह वापस अपनी जगह लौट आया लेकिन महिला वहां नहीं थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो उस की औडी भी वहां नहीं थी. कुछ मिनट इधरउधर देखने के बाद वह फिर उसी मुंडेर पर बैठ गया.

कहां चली गई सिगरेट मंगा कर? खामखां मु झे हैरान किया. अब इन सिगरेट्स का मैं क्या करूं? दुकानदार को वापस कर दूं? नहीं यार, उसे बुरा लगेगा. उसे क्या हर दुकानदार को बुरा लगेगा बिकी हुई चीज के पैसे वापस करना और फिर यह दुकानदार तो भला मानस है. वरना कौन इस बात की परवा करता है कि सिगरेट ले जाने के बाद कोई उसे जलाएगा कैसे. वह तो सब ठीक है मगर अब इन का करूं क्या?

इसी उधेड़बुन में था कि किसी के हाथ कंधे पर महसूस हुए. उस ने थोड़ा घूम कर देखा तो वह खड़ी मुसकरा रही थी.

‘‘मुझे मिस कर रहे हो न?’’ कहती हुई उस के नजदीक बैठ गई.

‘‘जी, लीजिए आप की सिगरेट.’’

‘‘तुम्हें लड़कियों की पसंद की काफी नौलेज है,’’ उस ने सिगरेट लेते हुए कहा.

‘‘जी, ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन आप ऐसा क्यों कह रही हैं?’’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया. बस, चुपचाप सिगरेट जलाने के साथ एक गहरा कश लगा कर धुआं नाक से छोड़ती हुई बोली, ‘‘लो, एक कश तुम भी लगा लो.’’

‘‘नहीं,’’ उस ने उस के चेहरे को गौर से देखते हुए इनकार किया.

‘‘लो, ले लो, एक सुट्टे से कुछ नहीं होता,’’ और उस ने सिगरेट उस के हाथ में पकड़ा दी. वैसे भी, नशा करने का मजा अकेले नहीं लिया जाता.

‘‘एक्चुअली मैं गाड़ी पीछे पार्किंग में लगाने चली गई थी तुम्हें बिना बताए, बुरा मत मानना.’’

‘‘क्यों, क्या कोई फर्क पड़ता है?’’ सिगरेट अभी उस की उंगलियों में ही थी.

‘‘तुम इतने उखड़े से क्यों हो? देखने में तो सोफेस्टिकेटिड लग रहे हो और तुम्हारी लैंग्वेज व अंदाज बता रहा है कि एजुकेटेड भी हो. सबकुछ खो चुके हो?’’

उस के सवाल से उस की गरदन हलकी सी झुक गई.

‘‘मर्दों के कंधे और गरदन हमेशा सीधे ही अच्छे लगते हैं, सीधे हो कर बैठो,’’ उस की आवाज में नायकों जैसी खनक थी.

उस ने अपनी उंगलियों में फंसी सिगरेट उसे वापस पकड़ा दी.

‘‘किसी से प्रौमिस किया है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘नहीं, बस यों ही.’’

‘‘सोफेस्टिकेटिड लगना क्या नकलीपन नहीं है?’’

‘‘सोफेस्टिकेटिड होना जरूरी है और होना भी चाहिए.’’

‘‘मैं केवल सोफेस्टिकेटिड लग भर रहा हूं, शायद, हूं नहीं.’’

वह बहुत देर तक उस के चेहरे को पढ़ती सी रही, फिर एकाएक बोली, ‘‘एक अजनबी लड़की के सामने ऐब करते हुए शरमा रहे हो,’’ और वह फिर खिलखिला कर हंस दी. हवा में ठंडक और नमी बढ़ने लगी. ‘‘तुम्हें अजीब सा नहीं लग रहा है कि एक अजनबी लड़की इतनी बेतकल्लुफी से बातें कर रही है और सिगरेट मंगा कर पी रही है?’’

‘‘नहीं, इस में क्या अजीब? बस, यही अलग सा लग रहा है कि एक औडी वाली महिला अपनी एयरकंडीशंड गाड़ी से उतर कर यों गरमी में मुझ अजनबी से क्यों…’’

‘‘ओय, महिला मत बोल,’’ वह सीधे तू पर आ गई.

‘‘तो?’’

‘‘लड़की बोल, गर्ल्स बोलते हुए मौत आती है?’’

उस की इस बात पर वह मुसकरा कर रह गया.

‘‘क्या सुबह से कुछ नहीं खाया?’’ उस ने सवालिया निगाह से उसे देखा, ‘‘इतनी फीकी मुसकान सिर्फ भूखे पेट वालों की होती है. चल, कुछ खा कर आते हैं,’’ वह उठते हुए बोली.

लेकिन वह बैठा ही रहा.

‘‘ओए, चल न. क्यों भैंस की तरह पसरा है? चल, खड़ा हो,’’ उस ने उस का हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश की.

‘‘अरे, सुनिए तो,’’ उस ने झिझकते हुए कहा, ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं.’’

उस की यह बात सुन कर वह अपनी ऐड़ी पर थ्रीसिक्सटी डिग्री घूम गई और ठहाका लगा कर हंसती हुई बोली, ‘‘यार, अपनी 47 की एज में पहली बार एक लड़के को एक लड़की से यह कहते हुए सुन कर मजा आ गया.’’ फिर एकाएक धीरे से बोली, ‘‘बीवी छोड़ कर चली गई?’’ फिर उस का हाथ पकड़ कर ग्रीन पार्क की मेन मार्केट की ओर बढ़ चली.

वह बिना कुछ कहे सम्मोहित सा उस के साथ चल दिया, यह सोचते हुए कि क्या यह कोई जादूगरनी है अथवा ब्रेन रीडर. जो भी है, है बिलकुल निश्च्छल. अपने मस्तिष्क में ढेर सारे सवाल लिए उस के कदम से कदम मिला कर चलता रहा और वह उसे ले कर बर्गर शौप में एक टेबल के सामने बैठ गई. 2 बर्गर और 2 सौफ्ट ड्रिंक वेटर उन के सामने रख कर हट गया.

‘‘चलो, अब शुरू करो,’’ और वह खाने में मशगूल हो गई. लेकिन उस की निगाह उसी के चेहरे पर टिकी रह गई.

‘‘ज्यादा सोचने से कुछ हासिल नहीं होता. बस, ब्लडप्रैशर बढ़ जाता है. मैडिसन तो लेते होगे हार्ट के लिए? वैसे, बीपी की मैडिसन तो मैं भी लेती हूं, फिर हार्ट की मैडिसन तो और भी कौस्टली आती है, फिर?’’

‘‘जी, मैं कुछ सम झा नहीं.’’

‘‘या फिर सम झना नहीं चाहते? सैंसिटिव लोग हमेशा तकलीफ में रहते हैं.’’

‘‘आप भी सैंसिटिव हो?’’

‘‘हां, थोड़ी तो हूं, लेकिन इतनी नहीं कि सबकुछ गंवा दूं.’’

‘‘जी, प्रैक्टिकल होना अच्छी बात है.’’

‘‘तुम क्यों नहीं हुए? जबकि पुरुष सच में प्रैक्टिकल होते हैं. यह पूरी दुनिया उन्हीं की रचाई हुई है. स्त्रियों ने क्या किया बच्चे जनने के सिवा. तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’

‘‘शायद, आप ज्यादा पर्सनल हो रही हैं.’’

‘‘तो एक?’’ इतनी हैरानी से मेरा मुंह मत देखो. खाते रहो. हम खाते हुए भी बात कर सकते हैं.’’

‘‘चलिए, फिनिश हो गया,’’ उस ने उठते हुए कहा.

‘‘बेटे से इतना प्यार करते हो? वह अपनी मां के साथ है?’’

‘‘मु झ भूखे को खाना खिलाने के लिए थैंक्यू.’’

‘‘थैंक्यू मत कहो,’’ फिर उस की वही नायिकाओं वाली खनक गूंज गई और उस का हाथ पकड़ कर पेमैंट करती हुई बाहर चली आई.

‘‘मैं ने तो तुम्हें थैंक्यू नहीं कहा, मियां.’’

उस ने जल्दी से हाथ छुड़ा कर सामने आते हुए कहा, ‘‘आप यह सब कैसे…’’

‘‘अरे मस्तक पर सजदे का इतना बड़ा निशान ले कर घूम रहे हो, अंधा भी जान जाएगा कि… अबे तुम सच में इतने ही भोले हो?’’ और वह फिर खिलखिला दी. चलते हुए बाजार में सभी की निगाहें उस पर आ कर रुक गईं.

‘‘अब तुम वही फौरमैलिटी वाले सवाल मत पूछना कि तुम कौन हो और इतना सब कैसे जानती हो?’’ उस ने फिर से उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आओ चलें,’’ चलते हुए अपनी गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए बोली, ‘‘कार तो चला लेते होगे?’’

‘‘जी, मगर मेरा लाइसैंस रिन्यू नहीं हुआ है.’’

‘‘क्यों, यही सोच कर कि अब गाड़ी नहीं रही तो ड्राइविंग लाइसैंस का क्या, यही न? चलो, मेरे साथ बैठो, ड्राइविंग मैं करती हूं. तुम भी याद रखोगे कि एक शानदार पायलट के साथ लौंग ड्राइव पर गए थे.’’

‘‘लौंग ड्राइव?’’

‘‘क्यों डर गए क्या?’’ वह फिर खिलखिला कर हंस दी.

‘‘घर पर कोई इंतजार तो नहीं करेगा?’’

‘‘कोई नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है. आओ बैठो, चलते हैं,’’ और उस ने कार आगे बढ़ा दी.

‘‘मकान किराए का है या…?’’

‘‘जी, बस वही बचा रहा. मकान नहीं, फ्लैट है. पुश्तैनी है तो बच गया.’’

‘‘हूं.’’ और वह बिना कुछ बोले गाड़ी चलाती रही.

‘‘दोबारा जीरो से शुरू करना बहुत मुश्किल होता है, है न?’’ और वह कनखियों से देखती इंतजार करती रही कि शायद वह कुछ बोले, लेकिन वह चुप बाहर खिड़की से झांकता रहा.

‘‘तुम्हें डर तो नहीं लग रहा?’’

‘‘डर, कैसा डर?’’

‘‘कुछ नहीं. बस यों ही पूछ लिया.’’

कुछ ही देर में गाड़ी महरौली की पहाडि़यों में किसी मकबरे के दरवाजे पर थी. उस ने सवालिया निगाहों से उसे देखा तो वह उतरते हुए बोली, ‘‘आओ चलें.’’ फिर उस ने गाड़ी में से स्कार्फ निकाल कर सिर पर बांध लिया और वहीं नजदीक एक दुकान से फूलों की टोकरी ले कर उस का हाथ थामे दरवाजे की ओर बढ़ गई. अंदर जा कर उस ने बड़ी तन्मयता से फूल बिछाए और हाथ जोड़ कर होंठों ही होंठों में बुदबुदाने लगी.

वह उसे ऐसा करते देख विस्मित था. कुछ देर बाद वह माथा टेक कर आते ही उस का हाथ पकड़ एक तरफ ले जा कर आंखें तरेरते हुए बोली, ‘‘तुम ने न दुआ मांगी और न ही सिर ढका? क्यों?’’

उस के इस तरह से झिड़कने पर वह सिर्फ मुसकरा दिया.

‘‘जवाब दो, क्या तुम वहाबी हो?’’

‘‘आप यह सब जानती हैं?’’

‘‘मेरे जानने या न जानने से कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है.’’

‘‘फिर यह सब जानने में इतना इंट्रैस्ट क्यों?’’

‘‘मतलब, कम्युनिस्ट हो?’’

‘नहीं, हो तो तुम मजहबी ही,’ वह खुद से खुद ही बोली.

उस ने उस की कलाई पकड़ी और दूर ले जा कर बैठ गया.

‘‘क्या तुम राइटर हो या पेंटर?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हारे हाथ बहुत सौफ्ट हैं.’’

‘‘आप का इंट्यूशन क्या कहता है?’’

‘‘यही कि मुझे तुम से प्यार होता जा रहा है.’’

‘‘आप की इस बात पर हंसा जा सकता है.’’

‘‘तो हंसो, रोका किस ने है? मैं भी देखना चाहती हूं कि हंसते हुए तुम कैसे दिखते हो.’’

‘‘आप ने तो कहा था कि आप प्रैक्टिकली स्ट्रौंग हैं?’’

‘‘क्या यथार्थवादी प्रेम नहीं कर सकते?’’

‘‘कर सकते हैं मगर मु झ जैसे फटीचर से नहीं.’’

‘‘खुद को फटीचर मत कहो,’’ उस की फिर वही नायिकाओं वाली खनक गूंज गई.

कुछ देर वह उस के चेहरे को यों ही देखता रहा, फिर बोला, ‘‘मैं बालों को खिजाब से रंगता हूं.’’

‘‘उम्र बालों से नहीं, चेहरे से दिखती है.’’

‘‘मेरा तात्पर्य उम्र से नहीं, बल्कि सचाई से है, मैं सच्चा नहीं हूं जबकि आप सच्ची हैं.’’

‘‘हर वक्त गहरा सोचना जरूरी तो नहीं.’’

‘‘जी, आदत हो जाती है. आप भी अकेली हैं?’’

‘‘मुझ में इंट्रैस्ट ले रहे हो?’’

‘‘शायद. लेकिन सम झने की कोशिश जरूर कर रहा हूं.’’

‘‘पहले खुद को तो सम झ लो.’’

‘‘यहां क्यों ले कर आई हैं आप मुझे?’’

‘‘यहां सुकून है, मैं अकसर आती हूं यहां.’’

‘‘जी, कब्रिस्तान में सुकून के सिवा और कुछ होता भी नहीं.’’

‘‘कब्रिस्तान, तुम इस जगह को कब्रिस्तान कहते हो?’’

‘‘और फिर क्या कहें? जमीन के नीचे सोए हुए लोगों के ऊपर इमारत तामीर कर दी गई और क्या, बस.’’

‘‘मालूम नहीं, इन सोए हुए लोगों को आदमी जगाने की कोशिश क्यों करता है जबकि वहां कोई सुनने वाला नहीं होता.’’

‘‘जब इंसान अकेला था तो भीड़ तलाशता रहा और अब जब भीड़ है तो एकांत तलाश रहा है.’’

‘‘ऐसा नहीं है जैसा तुम सोचते हो.

इंसान दुनिया के छल, प्रपंच और आपाधापी से मुक्त होने के लिए ऐसी जगह पर आता है. बेशक, कुछ वक्त के लिए ही सही, साथसाथ अपने जज्बात भी कह जाता है.’’

‘‘आप सुल झी हुई बात कह रही हैं लेकिन सभी आप के जैसा नहीं सोचते.’’

‘‘और सभी तुम्हारे जैसा भी नहीं सोचते, रियलिस्टिक बंदे,’’ उस के होंठों पर मुसकान सी खिली हुई थी. दूर कहीं बादलों के गरजने की आवाज हुई और ठंडी हवा बहने लगी.

‘‘तो फिर सुकून मिला?’’

‘‘तुम जैसा साथी साथ में हो तो सुकून मिल सकता है क्या?’’ इस बार वह, बस, हंस दी. ‘‘तुम इतने रूखे तो लगते नहीं हो, लेकिन तुम्हारी सैंसिटिविटी ने तुम्हारी लचक को हाईजैक कर लिया है.’’

‘‘नहीं. नाकामी ने.’’

‘‘नाकामी का अर्थ पैसे से लगाया जाए या परिवार से?’’

‘‘आप स्वतंत्र हैं सम झने के लिए.’’

‘‘तुम इतने ईजी क्यों हो, यार?’’

‘‘ईजी मतलब? मैं सम झा नहीं?’’

‘‘यही कि दूसरों की बातों को आसानी से मान जाना, उन्हें तवज्जुह देना और साथ ही स्पेस देना. और देखो न, मेरी भी सभी बातें तुम ने आसानी से मान लीं जबकि हम एकदूसरे के लिए अजनबी हैं.’’

‘‘अजनबी?’’

‘‘हां, अजनबी.’’

‘‘मैं ने तो ऐसा सोचा ही नहीं.’’

‘‘मैं, कनुप्रिया श्वेताम्बर, प्रोफैसर कनुप्रिया. और तुम?’’

‘‘छोडि़ए, क्या करेंगी जान कर? चलिए चलते हैं,’’ उस ने कलाई छोड़ कर उठते हुए कहा.

‘‘मुझ से भाग रहे हो या खुद से?’’

‘‘शायद, दोनों से.’’

‘‘नाम नहीं बताओगे?’’

‘‘वैसे, आप लगभग सभी कुछ तो जानती हैं.’’

‘‘कह सकते हो लेकिन जानती नहीं, सिर्फ अनुमान लगाती हूं जो अकसर सही होते हैं. तुम अकेले रहते हो,’’ उस ने उठते हुए कहा, ‘‘खाना तो खुद बनाते होगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘कैसा बनाते हो?’’

‘‘बस, खाया जा सके, वैसा.’’

‘‘तो फिर चलो, आज से मु झे खाना बना कर खिलाओ,’’ और उस ने अपनी बाईं कलाई उस के दाएं हाथ में पकड़ा कर खंडहर से बाहर कदम बढ़ाया. हलकीहलकी बारिश की फुहारें उन के स्वागत को तत्पर थीं.

जब वह उस के घर पहुंचा तो उसे लगा कि यह घर कुछ जानापहचाना सा है. कनुप्रिया ने कहा, ‘‘जनाब, अब याद आया कि नहीं, हम जब चौथी कक्षा में थे तो तुम मेरी क्लास में ही थे और एकदो बार घर भी आए थे. मैं जब पार्किंग में गाड़ी में बैठी सोच रही थी कि कैसे दिन गुजारा जाए, तुम्हारे बालों के ठीक करने के स्टाइल से तुम्हें पहचान लिया. इतनी बातें पक्का करने के लिए कीं कि तुम वही हो न?’’

वह भौचक्का रह गया पर लगा कि जिंदगी को अब एक राह मिलेगी.

पुरुष होती नारी

नगर निगम की सीमा से बाहर एक नई कालोनी ‘गृहनिर्माण सहकारी समिति’ के नाम से धंधेबाजों ने बसाई जिस का नामकरण हुआ ‘लक्ष्मी नगर.’ यह नामकरण विश्लेषणात्मक था. लक्ष्मी शब्द जहां धनसंपदा की दात्री का पर्याय था वहीं झांसी वाली मर्दानी रानी लक्ष्मीबाई का भी पर्याय था.

शहर से बाहर होने के कारण इस अविकसित कालोनी में प्लौटों के भाव शहर की अपेक्षा खासे कम थे, लिहाजा, नवधनाढ्यों ने यहां धड़ाधड़ प्लौट खरीद लिए. धंधेबाजों की पौबारह हो गई. उन्होंने सड़क, पुलिया आदि बनवा कर लोगों को आकर्षित करने का प्रयास किया, किंतु इन प्रयासों के बावजूद यहां मकान बनने धीरेधीरे शुरू हुए, क्योंकि संपर्क सड़क की बुरी हालत, कालोनी के मुख्य मार्ग से दूर होने एवं बिजलीपानी आदि बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण लोगों में निर्माण कार्य के प्रति उत्साह नहीं बढ़ा.

संपन्न लोगों ने तो इनकम टैक्स से बचने एवं फालतू पैसों को लगा कर प्लौट हथियाने भर का ही खयाल रखा, मगर जो मध्यमवर्गीय लोग शहर में मकान की किल्लत भुगत रहे थे, धीरेधीरे वे ही यहां मकान बनवाने आगे आए.

नूपुर ऐसे ही लोगों में थी. उसे शहर में 2 कमरे वाले फ्लैट में रहना पड़ रहा था. किराया भी ज्यादा था और मकान मालिक से उस की खटक गई थी इसलिए वह वहां रहने में दिक्कत महसूस कर रही थी. पास ही उस की अंतरंग सहेली नसरीन रह रही थी इसलिए यहां बनी रही वरना इस फ्लैट को छोड़ कर तो वह कभी की कहीं और रहने चली जाती.

इस अप्रिय स्थिति से मुक्ति पाने को नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लाट पर मकान बनवा कर अपना सपना साकार करने का निश्चय किया. अपने इस सपने में वह नित नएनए रंग भरती उसे साकार करने को बेचैन थी.

उस के पति सौरभ ने उसे बहुत समझाया, ‘‘देखो नूपुर, वहां जंगल में अभी बसने में खतरे हैं इसलिए जल्दबाजी मत करो.’’

‘‘खतरे कहां नहीं हैं?’’ नूपुर का यही जवाब होता.

पिछले दिनों शहर की इस पौश कालोनी में इन के पड़ोस में ही दिनदहाड़े ताले टूट गए थे. चोर काफी माल ले उड़े थे. नूपुर का संकेत किराए पर लिए अपने फ्लैट वाली कालोनी की तरफ था. सौरभ भी इस संकेत को समझ गया था, फिर भी बोला, ‘‘यहां की अपेक्षा वहां ज्यादा खतरे हैं. वहां अभी जंगल है. कुछ बसावट हो जाने दो, फिर हम भी कदम बढ़ाएंगे.’’

‘‘इसी तरह सभी सोचेंगे तो लक्ष्मीनगर कभी बसेगा ही नहीं. किसी को तो पहल करनी होगी,’’ नूपुर एकदम झल्ला पड़ी.

‘‘वह पहल हम ही क्यों करें, नूपुर?’’

‘‘तो फिर यह पहल हम ही क्यों न करें, सौरभ?’’

‘‘तुम सच में बहुत जिद्दी हो. खतरों से खेलना तुम्हारा स्वभाव है.’’

‘‘तुम्हें जब मेरे स्वभाव का पता है तो फिर मुझे क्यों रोक रहे हो? हमारा सपना साकार होने दो.’’

‘‘जानबूझ कर मुसीबत मोल लेनी है तो लो, करो अपने मन की. बाद में रोना मत…’’

‘‘ऐसा मौका ही नहीं आएगा, सौरभ. तुम चिंता मत करो, मैं सारी स्थिति से निबट लूंगी.’’

सौरभ ने नूपुर को समझाना व्यर्थ जान कर और मगजपच्ची नहीं की. उस ने प्रवाह में पड़े तिनके की तरह खुद को मान लिया. फिर भी उसे यह चिंता तो थी ही कि नूपुर यह सारा काम कैसे संभालेगी. वह स्वयं तो हफ्ते में एक रोज इतवार के दिन ही इस शहर में आ पाता था, बाकी के दिन वह दूसरे शहर में अपनी नौकरी में व्यस्त रहता था.

वह सोचने लगा, घर में नूपुर के अलावा और कोई तो है नहीं. संतान होती तो वह सहायक होती. ऐसे में नितांत अकेली नूपुर यह काम कैसे पूरा कराएगी. यह काम कोई 1-2 दिन का तो है नहीं. महीनों लग जाते हैं, तब कहीं मकान का काम पूरा हो पाता है. ऐसे में नूपुर कैसे तो कालेज जाएगी और कैसे निर्माण कार्य की निगरानी रखेगी.

इतनी छुट्टी इसे कालेज से कैसे मिलेगी. घर शहर में, कालेज शहर की दूसरी दिशा में और यह लक्ष्मीनगर तीसरी दिशा में. ये तीनों जगहें कैसे भटकेगी. चकरघिन्नी बन जाएगी.

माना कि इस के पास स्कूटर है, मगर तीनों जगहों की दूरी कितनी है. स्कूटर तो खुद को ही चलाना पड़ता है, वह खुद थोड़े ही चलता है.

आनेजाने की इस मेहनत के अलावा कारीगर, ठेकेदार, बिल्डर, मजदूर आदि से मगजपच्ची करनी होगी. ये लोग परेशान करते ही हैं. निगरानी बारबार न होने पर आंख में धूल झोंक देते हैं. यह इन सब से कैसे निबटेगी? ज्यादा दौड़धूप करेगी तो बीमार पड़ जाएगी. मकान का काम सहज नहीं होता. जानकारों ने इसीलिए कहा है कि मकान बना कर और ब्याह कर के देख. मकान और विवाह दोनों कठिन काम हैं, मगर यह किसी की सुने तब न. यह तो अपने मन की ही करती है.

सौरभ की इन चिंताओं के बावजूद नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लौट पर अपने घर का सपना साकार करने का काम शुरू कर दिया. इस इलाके में अभी एक ही मकान सामने की पंक्ति में शैलेंद्रजी का बना था. उन्होंने तो अपना ताला लगा रखा था. वे अभी यहां रहने नहीं आए थे. नूपुर को काम शुरू कराते देख वह खुश हुए. उन्होंने उस का हौसला बढ़ाया था.

मगर नूपुर के हितचिंतकों ने तो उसे सचेत किया, ‘‘व्यर्थ की परेशानी में मत पडि़ए, मैडम. सुख की जान को दुख में मत डालिए. अभी रुकिए.’’

मगर नूपुर ने किसी की नहीं सुनी. उस ने बढ़ाए कदम पीछे नहीं हटाए. वह पूरे उत्साह एवं लगन से अपना सपना साकार करने में जुटी रही.
नूपुर साइट पर नजर रखने लगी. दिन में कई चक्कर साइट पर लगाने शुरू किए. घर, कालेज और साइट इसी त्रिभुज के बीच फिरकनी की तरह फिरने लगी. जरूरत पड़ने पर रात को भी चक्कर लगाती.

जिस रोज छत पड़ी उस रोज तो नूपुर आधी रात तक वहीं डटी रही. छत पड़ने के बाद ही दनदनाती हुई देर रात अपने घर, शहर लौटी. ठेकेदार, राजमिस्त्री, मजदूर आदि सभी उस के साहस पर चकित हुए.

सौरभ ने उस की सहायता के लिए आदिवासी युवा बुधसिंह को अपने यहां से भेज दिया. उसे स्कूटर पर बिठा कर वह दनदनाती हुई साइट पर आतीजाती रही.

नूपुर ने अपनी सहेली नसरीन से आग्रह किया कि वह भी अपने प्लौट पर निर्माण कार्य शुरू करा दे. वह उस के यहां की भी निगरानी रखेगी, मगर नसरीन के मित्रों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. वे यही कहते रहे कि यह जंगल जब आबाद हो जाएगा तभी सोचेंगे. हमें अभी कोई जल्दी नहीं है. मगर नूपुर को तो जल्दी थी.

वह चाहती थी कि उस का सपना साकार हो जाए जिस से वह फ्लैट छोड़ कर यहां रहने आ जाए. मकान मालिक के सामने फ्लैट की चाबी फेंक कर उस से कहे कि संभाल अपनी धर्मशाला, हम तो अपने सपनों के महल में जा रहे हैं. अब तेरी तानाशाही हम पर नहीं चलेगी. हम अपनी मरजी के मालिक होंगे.

इस के विपरीत सौरभ यही चाह रहा था कि मकान का काम तेजी से न चले. इस में देरी हो तो ठीक रहेगा ताकि वहां रहने का मुहूर्त अभी न आए. मगर नूपुर की दिनरात की व्यस्तता और भागदौड़ के कारण वह यह भी चाहता था कि इस परेशानी से नूपुर को जल्दी छुटकारा मिले.

इस तरह सौरभ काम में देरी चाहता भी था और नहीं भी. वह बहुत ही असमंजस की स्थिति में था. लेदे कर खुद को यही कहकह कर समझता रहता था कि मकान का काम पूरा हो जाने पर भी हम अभी वहां रहने नहीं जाएंगे. अकेली नूपुर को वहां वीराने में नहीं छोडेंगे. वहां अभी सन्नाटे के सिवा है क्या? एक मकान यहां तो दूसरा उस कतार के सिरे पर. चारों ओर मैदान ही मैदान. लोगों ने अपनेअपने प्लौट की घेराबंदी कराकरा कर अपना कब्जा कर रखा है.

बीच कालोनी में ऊंचे गुंबद वाला महालक्ष्मी का भव्य मंदिर ही जैसे घोषणा करता है कि यह वीराना नहीं बस्ती है. न दुकान, न फेरी वाले. रात को सियार हुआंहुआं का डरावना शोर करते हैं. खासा डरावना माहौल है. ऐसे में तो बड़े परिवार वाले ही रहने का साहस कर सकते हैं. हमारा परिवार तो बिलकुल छोटा सा है. उस में भी मैं स्वयं तो हफ्ते में एक दिन ही यहां आ पाता हूं. नहींनहीं, हम अभी वहां रहने नहीं जाएंगे.

सौरभ ऐसा निश्चय तो मन ही मन कर रहा था, मगर वह जानता था कि नूपुर हमेशा की तरह इस बार भी उस की एक नहीं सुनेगी, वह अपने मन की करेगी. वह तो कब से पर तौल रही है. यहां से उड़ कर वहां जाने को बेताब है. बहुत ही जिद्दी औरत है. किसी बात का उसे खौफ ही नहीं.

वह स्वयं रात को वहां जाने में डरता है, मगर वह नहीं डरती. स्कूटर पर दनदनाती हुई रातबिरात चली जाती है. उस जिद्दी औरत को वह कैसे रोकेगा वहां जाने से. मकान का काम पूरा होते ही वह अपना मालअसबाब उठा कर वहां चल देगी. रस्सी तुड़ा रहे पशु की तरह हो रही है उस की हालत. इसी संभावना की आशंका से सौरभ ने कर्ज ले कर पुरानी मारुति कार खरीद ली. उस ने सोचा कि नूपुर यदि वहां चली गई तो स्कूटर के बजाय कार में उस वीराने में उस की सुरक्षा रहेगी.

कार पा कर नूपुर खुश तो हुई, मगर सोचने लगी कि यह रकम कार पर खर्च करने के बजाय मकान पर खर्च होती तो कितना अच्छा रहता. वह तो मकान को ही तरजीह दे रही थी. अपने नए निवास को सारी सुविधाओं वाला बनाने में ही वह जुटी हुई थी.

मकान का काम लगभग पूरा होते ही नूपुर ने अपने डेरेडंडे उखाड़ने शुरू किए तो सौरभ ने आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘‘अभी हम वहां नहीं जाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ नूपुर चौंकी.

‘‘अभी वहां बिजली का कनेक्शन नहीं हुआ है.’’

‘‘उस की चिंता मत करो. अस्थायी व्यवस्था हम ने कर रखी है.’’

‘‘मगर स्थायी व्यवस्था होने तक रुकने में क्या हर्ज है?’’

‘‘मुझे तो इस फ्लैट के मालिक की सूरत से नफरत है. मैं उस की परछाईं से दूर चली जाने को तड़पती रही हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं, मगर कुछ रोज और अभी उसे सहन कर लो.’’

‘‘नहीं, हम तो अपने घर में जाएंगे, तुरंत जाएंगे.’’

इस घोषणा ने सौरभ को चिंतित किया. वह उस वीराने में नूपुर के अकेली रहने की कल्पना से ही सिहर उठा. उसे यही डर कचोटने लगा कि यदि उस वीराने में कुछ हो गया तो वह कहीं का नहीं रहेगा.

कुछ दिन पहले ही उस ने अखबारों में पढ़ा था कि एक रात शहर की एक मशहूर कालोनी में कच्छाबनियानधारी 10-12 चोर खिड़की तोड़ कर एक मकान में घुस गए और घर के सभी प्राणियों को एक कमरे में बंद कर लूटपाट की. टैलीफोन के तार काट दिए. घर में छोटेबड़े 15 व्यक्ति होते हुए भी वे चोरों का मुकाबला नहीं कर पाए.

इस घटना की जानकारी ने सौरभ को भीतर तक दहला दिया था. वह यही सोचसोच कर परेशान हो रहा था कि उस वीराने में तो खिड़की क्या, दरवाजे भी तोड़ कर चोर घुस सकते हैं. वहां चीखनेचिल्लाने पर भी कोई मदद को नहीं आएगा. पुलिस थाना भी दूर है. जिस गांव की सीमा में यह लक्ष्मीनगर बसाया गया वह भी दूर है. इन्हीं संभावनाओं के काल्पनिक चित्रों से सौरभ भयभीत रहने लगा, किंतु नूपुर उस के डर की खिल्ली उड़ाती कहती रही, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.’

तब सौरभ झल्ला पड़ता था, ‘तुम्हारा मन कितना ही बलशाली हो, मगर तन तो तुम्हारा औरत का है, नूपुर. जरा सोचो, दुस्साहस मत करो, बुद्धिमानी से काम लो. अभी उस जंगल में मत जाओ.’

इस पर नूपुर दोटूक शब्दों में कह देती, ‘मैं तो जाऊंगी, भले ही कुछ भी हो. मैं हर खतरे से जू?ांगी. खयाली डर से मैं नहीं डरती.’

उस के इस दृढ़ निश्चय से विचलित हो कर सौरभ ने पिस्तौल खरीदने का निश्चय किया. उस ने सोचा पिस्तौल नूपुर के लिए सुरक्षाकवच का काम करेगी. इस से उस का बल बढ़ेगा. आपातकाल में पिस्तौल से मुकाबला संभव हो सकेगा. पिस्तौल के नाम से ही चोर आतंकित रहेंगे.

आयकरदाता होने के कारण नूपुर के नाम से भी लाइसेंस बन जाएगा.

नूपुर ने जब पिस्तौल वाली बात सुनी तो झल्लाई, ‘‘तुम सच में बहुत डरपोक हो और मुझे भी डरपोक बना देते हो. जरा सोचो, पास में पिस्तौल बेशक हो मगर उसे चलाने की हिम्मत न हो तो वह किस काम की. इसलिए खास चीज तो हिम्मत है, जो मेरे पास है और खूब है.’’

सौरभ जानता था कि नूपुर बहुत हिम्मत वाली है. गांव की बेटी होने के कारण उस का बचपन जंगलों में भटकते हुए ही बीता था. एक बार बाल्यावस्था में ही उस ने गांव में रात में सेंध लगा रहे चोरों की आहट पा कर शोर मचा दिया था, इसीलिए चोर पकड़ में आ गए थे. भूतप्रेत, सांपबिच्छू से भी वह डरती नहीं थी. स्कूल में बास्केटबौल की वह खिलाड़ी रही थी. कालेज में आने पर एथलीट के रूप में उस की पहचान बनी थी.

उस ने कई इनाम पाए थे. प्राध्यापिका बन जाने पर भी वह तेजतर्रार रही थी. हर काम में अग्रणी भूमिका रहती थी उस की, इसीलिए कालेज में सहयोगियों ने उस का नाम ‘नेताजी’ रख दिया था. चुनाव में धांधली करने वाले एक छुटभैये नेताजी को इस नेताश्री ने अपनी ड्यूटी में मजे चखा दिए थे. नूपुर के ऐसे साहसिक कई कारनामे सौरभ को पता थे.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली घटना उसे नूपुर की अंतरंग सहेली नसरीन के बारे में पता चली थी कि नसरीन और नूपुर आसपास ही रहती थीं.

दोनों में खूब घुटती थी. सहपाठी एवं पड़ोसी होने के कारण दोनों में घनिष्ठता बढ़ती ही गई थी, जो धीरेधीरे इतनी बढ़ गई कि दोनों एक ही कमरे में रहने लगी थीं. दोनों एक ही बिस्तर पर सोतीं, इसीलिए लोगों को उन में समलैंगिक संबंध का संदेह होने लगा था. इस संदेह की पुष्टि नसरीन के कथन से भी होती थी. वह जबतब कक्षा में अपनी सहपाठिनों से कहा करती थी कि वह नूपुर की बीवी है. वे दोनों विवाह करेंगी.

इस कथन से चौंक कर दोनों के परिवार वालों ने उन के विवाह की जल्दबाजी की थी. सौरभ के कानों तक जब यह बात आई थी तो वह इस रिश्ते से हिचकिचाया था. उस की यह हिचकिचाहट समझाने बुझाने के बाद ही दूर हुई थी, मगर विवाह के बाद भी उसे लगा था कि नूपुर सच में थोड़ी मर्दानी है. मगर उस मर्दानी पत्नी को औरतजात मान कर भी वह उस के लिए पिस्तौल की व्यवस्था करने में जुट गया था.

इधर नूपुर ने पिस्तौल आने तक रुकने का सौरभ का प्रस्ताव ठुकरा दिया. वह अपना फ्लैट खाली कर अपनी स्वप्नकुटी में, उस वीराने में चली गई. वहां जा कर उसे बेहद खुशी हुई. आदिवासी युवा बुधसिंह को सहायक के रूप में पा कर उस को सुविधा हुई. वह बहुत ही बेफिक्री से खुली हवा में सांस लेने लगी, पर सौरभ उस की निश्चिंतता एवं खुशी पर चकित हुआ.

नूपुर के वहां जा कर बसने से इलाके के एकमात्र पड़ोसी शैलेंद्रजी को भी खुशी हुई. वह इस सान्निध्य को सराहने लगे, नूपुर के साहस की दाद देने लगे.

धीरेधीरे इस लक्ष्मीनगर के अन्य विद्यार्थियों से भी नूपुर ने देखते ही देखते परिचय पा लिया. वह सब की सुध लेने लगी. उन की हिम्मत बंधाने लगी. उन से आग्रह करने लगी कि एकदूसरे के सुखदुख में सहभागी बनें. अपनेआप में सिमटेसिमटे न रहें. एकदूसरे के नजदीक आएं. हमारे घर बेशक दूरदूर हों मगर मन पासपास रहें.

इस अविकसित बस्ती में नई चेतना जगाने में नूपुर कामयाब रही. उस की प्रेरणा से यहां स्नेहसम्मेलन हुआ. सभी निवासी एकत्रित हुए. सहभोज हुआ. सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए. नूपुर का भाषण सब से ज्यादा सराहा गया.

नूपुर ने सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था के लिए संबंधित थाने से भी संपर्क साधा. क्षेत्रीय विधायक, गांव के पंच, सरपंच आदि सभी से मिली. लोगों की शिकायतों के समाधान में योगदान दिया.

नूपुर की इन गतिविधियों से प्रभावित हो कर क्षेत्रीय विधायक ने नूपुर की अध्यक्षता में एक सुरक्षा समिति गठित की. संबंधित शासकीय विभागों को इस समिति की सूचना दे कर आग्रह किया कि वे समिति से सहयोग करें. नतीजतन, लगभग एक माह में ही दरमियाने कद, उजले रंग, अच्छे नाकनक्श वाली हंसमुख नूपुर इस सारे क्षेत्र में पहचानी जाने लगी. स्लेटी रंग की कार को ऊबड़खाबड़ रास्तों पर दौड़ाने वाली इस नारी को राह चलते लोग तारीफ की नजरों से देखने लगे. लोगों ने उस का नाम रखा नई लक्ष्मीबाई.

इतना सबकुछ होते हुए भी दूर बैठे सौरभ को अपनी पत्नी की चिंता सताती रहती थी. पिस्तौल का विधिवत लाइसैंस बन जाने के बाद उस ने वह नूपुर को सौंप दी थी. फिर भी उस के मन में संशय बना ही रहता था. वह रोज रात को बारबार टैलीफोन पर उस से संपर्क साधता रहता था.

एक रोज आधी रात को बुरा सपना देखने पर उस का मन उद्वेलित हुआ. तुरंत उस ने नूपुर से संपर्क साधा. काफी देर तक घंटी बजने के बाद नूपुर ने चोंगा उठाया. सौरभ ने घबराए से स्वर में पूछा, ‘‘क्यों नूपुर, क्या हाल है?’’

‘‘सब ठीक है,’’ नूपुर ने जम्हाई लेते हुए कहा.

‘‘फिर इतनी देर क्यों लगा दी? कितनी देर तक घंटी बजती रही.’’

‘‘मैं गहरी नींद में थी, पर तुम अभी तक जाग रहे हो?’’

‘‘नहीं, सो गया था, मगर खराब सपना आया इसलिए तुम्हें जगाया. सच, सब ठीक है न?’’

‘‘हां बाबा, विश्वास न हो तो आ कर देख लो. तुम सच में बहुत डरपोक हो.’’

चोंगा रखने के बाद भी सौरभ आश्वस्त नहीं हुआ. उसे लगा यह बुरा स्वप्न कहीं भावी अनिष्ट का सूचक न हो. इस आशंका ने उसे उद्वेलित
कर दिया.

वह बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. कुछ देर कमरे में टहलने के बाद उस का मन हुआ कि नूपुर के पास चला जाए. यहां नींद आएगी नहीं. उस ने घर को ताला लगाया. सर्वेंट क्वार्टर में सोए नौकर को जगाया और उसे जानकारी दी कि वह नए घर जा रहा है.

लगभग 4 घंटे बाद वह नए घर पहुंचा. इस समय सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. तभी उसे जाने क्या सूझ, जीप को शैलेंद्रजी के घर के सामने रोक कर वह दबेपांव अपने नए घर के सामने जा खड़ा हुआ. चारों ओर सन्नाटा था. वह लोहे के बड़े मेन गेट के भीतर उतर गया और भीतरी दरवाजे के सामने जा कर कुछ देख वहां खड़ा आहट लेता रहा. तभी उस ने कौलबेल का बटन दबा दिया. 2-3 बार बटन दबाने और दरवाजा खटखटाने पर भीतर से ही बुधसिंह ने पूछा, ‘‘कौन है?’’

सौरभ ने बदले स्वर में कहा, ‘‘तेरा बाप. उस लक्ष्मीबाई से कह कि सीधी तरह दरवाजा खोल दे वरना हम दरवाजा तोड़ देंगे. हल्ला मचाएगी तो जान ले लेंगे. खोल फाटक.’’

बुधसिंह ने सहमे स्वर में अंदर दरवाजा खटखटाते हुए कहा, ‘‘मैडम, लगता है चोर आ गए हैं. वे फाटक खोलने को कह रहे हैं.’’

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. तू डर मत, मैं चोरों का मुकाबला करूंगी,’’ नूपुर बोली.

सांस रोके सौरभ दरवाजा खोलने का इंतजार करने लगा. उसे लगा कि नूपुर शोर मचाएगी. लोगों को मदद के लिए पुकारेगी. थाने में फोन करेगी. मगर उस की आशा के विपरीत अंदर शांति बनी रही.

इधर सौरभ का दिल धकधक करने लगा. तभी दरवाजा खुलने की चरमराहट हुई. सौरभ कार की आड़ में छिप गया. वह डरा कि नूपुर कहीं गोली न चला दे.

उधर दरवाजा खोल कर नूपुर दहाड़ी, ‘‘लो, खोल दिया दरवाजा. आओ सामने, बोलो क्या चाहिए?’’

कार के पीछे छिपे सौरभ ने घबराए से स्वर में कहा, ‘‘यह तो मैं हूं, पिस्तौल मत चलाना, नूपुर.’’

यह सुन कर नूपुर ठठा कर हंसती हुई बोली, ‘‘मेरी परीक्षा लेने आए थे.’’

तभी सौरभ ने पास आते हुए कहा, ‘‘हां, तुम सच में नई लक्ष्मीबाई हो.’’

इधर बुधसिंह अवाक सा खड़ा तमाशा देखता रहा.

बिस्तर पर जाने के बाद नूपुर ने सौरभ से शिकायती लहजे में कहा, ‘‘तुम्हें मेरे बारे में हमेशा संदेह ही रहा है.’’

तभी सौरभ उसे बांहों में भरता हुआ बोला, ‘‘तुम हो ही पहेली जैसी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तुम अब स्त्री के साथसाथ पुरुष भी बनती जा रही हो. तुम में पुरुषत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है.’’

बेसहारा

“किस की बात कर रहे हो, वह मेरा दर्द कैसे समझेगी? वह पराया खून है, हमेशा पराया ही रहेगा.”

अपनी सास ममता के कमरे के पास से गुजरते हुए रिंकी को ये शब्द सुनाई दे रहे थे जो वे अपने बेटे विवेक से कह रही थीं. हालांकि, विवेक अपनी मां की बातों का विरोध कर रहा था, “तुम हमेशा रिंकी को पराया क्यों समझती हो, मां? वह भी तो इसी घर की सदस्य है. पता नहीं क्यों तुम उस के पीछे पड़ी रहती हो?”

“तुम क्या जानो, मांबेटे के बीच जो सहज रिश्ता होता है, उस की जगह बहू नहीं ले सकती. तुम हमारे अपने खून हो, वह तो पराया खून है. पराए कभी अपने नहीं हो सकते.”

रिंकी का मन हुआ कि वह उन से पूछे कि पिछले चारपांच सालों से उस की निश्च्छल सेवा और प्यार में ऐसी क्या कमी रह गई थी कि वे आज भी उसे पराई ही समझती हैं. लेकिन मजबूर थी, चाह कर भी वह उन के साथ कभी सख्ती नहीं बरत सकी.

ममता को जब भी किसी सलाह की जरूरत होती तो वे अपने तीनों बेटों विवेक, तुषार और नैतिक को बुलातीं. गलती से भी अपनी दोनों बहुओं को उस में शामिल न करतीं. उन के दोनों बेटे शादीशुदा थे और दोनों अलगअलग बैंकों में मैनेजर थे. छोटे बेटे नैतिक की अभी शादी नहीं हुई थी. वह मेरठ से इंजीनियरिंग कर रहा था.

रिंकी का दिल हमेशा अपनी सास के भावनात्मक सहारे और प्यार के लिए तरसता था. लेकिन प्यार के बदले में सास के ताने और कठोर शब्द उस के दिल को चुभते थे. उसे समझ में नहीं आता था कि वह सास से क्या कहे, उन्हें कैसे समझाए? उन के व्यवहार से वह नाराज हो कर मायके चली जाती थी. लेकिन मायके में भी कितने दिन तक रह पाती. बेटियां आज भी बोझ ही समझी जाती हैं. मायके में भी खुशियों का कोई भंडार नहीं था.

जब 10 दस साल की थी तभी उस के पिता की मृत्यु हो गई. इकलौते भाई श्यामसुंदर की शादी हो गई. उस के बाद उसे दादादादी के पास भेज दिया गया क्योंकि भाभी नहीं चाहती थी कि वह उस के साथ रहे. जब थोड़ी और बड़ी हुई तो होस्टल में डाल दी गई. बीए पास करते ही उस की शादी हो गई. मांबाप का प्यार तो उसे कभी मिला ही नहीं.

शादी के बाद उसे अपनी सास का अपने बेटों के प्रति उमड़ता प्यार देख कर बहुत अच्छा लगा. उसे वे अपनी मां के प्यार की प्रतिमूर्ति लगीं और उन का प्यार पाने की हर संभव कोशिश की. लेकिन न जाने क्यों, वे कभी भी उसे अपनी बेटेबेटियों की तरह स्वीकार नहीं कर पाईं. उन्हें केवल अपने खून पर भरोसा था. उन्हें लगता था कि एक मां के दिल का दर्द उस के बेटों से ज़्यादा कोई नहीं समझ सकता. जब भी वे किसी परेशानी में होतीं तो अपने बेटों से ही अपना दर्द साझा करतीं. उन की बहू हमेशा उन के लिए एक अजनबी सी रहती थी, जिस से वे बस काम लेतीं, लेकिन कभी अपने दिल के करीब नहीं आने देतीं.

उन की 3 बेटियां भी थीं जो अलगअलग शहरों में रहती थीं. जब भी वे आतीं, अपनी मां से मीठीमीठी बातें कर के उन से बहुत प्यार जताती थीं.

रिचा अपनी मां की कुछ ज्यादा ही लाडली थी, इसलिए वह उन का दिमाग ज्यादा चाटती, ‘मां, आप की जगह कौन ले सकता है. आप हैं तो हमारा मायका है. आप के बाद हमें इतना प्यार कौन देगा? मैं हमेशा यही चाहती हूं कि आप का प्यार, स्नेह और आशीर्वाद हम बहनों पर हमेशा बना रहे. मैं अपने घर में जरूर रहती हूं, लेकिन हमेशा आप की चिंता करती हूं. तुम कितनी दुबली हो गई हो. अपना खयाल रखना.

आजकल तो बहुएं अपनी सास को घर में रहने दें, यही बड़ी बात है. उन्हें मां मानना तो दूर की बात है आदिआदि.’

इस तरह वह मां के दिल में बहू के प्रति नफरत भर कर चली जाती और रिंकी को मां का खयाल रखने की खूब नसीहत देती. ममता को लगता कि उन की तीनों बेटियां ही उन का सब से ज्यादा खयाल रखती हैं, बहू तो सिर्फ अपना फर्ज निभाती है. इसीलिए वे हर सुखदुख में बहूओं को नजरअंदाज कर बेटियों को तरजीह देतीं.

ममता का अर्थ तो हम सभी जानते हैं, यही न कि एक मां का अपने बच्चों के प्रति स्नेह. पर बहुत सारे लोगों को लगता होगा, प्यार महोब्बत ओर ममता में क्या अंतर है. मैं तो कहूंगा अंतर तो कुछ नहीं,पर जो स्नेह मां अपनी ममता के भाव से जाहिर करती वह दूसरा कोई नहीं कर पाता. प्यार-मोहब्बत तो सब करते है, पिता से ले कर प्रिय या प्रेयसी तक पर इन में वह मां वाला स्नेह नहीं होता.

यह भी सच है कि मां का अपने बच्चों के लिए प्यार अनमोल होता है, खासकर बेटी संग का रिश्ता बहुत खूबसूरत होता है. मां बेटी में अपने बचपन को देखती है. वह अपने सपने बेटेबेटियों के जरिए पूरा करने की चाह रखती है. उम्र बढ़ने के साथ मां और बेटी का रिश्ता सहेलियों जैसा हो जाता है. मां अपने बच्चों को हर खुशी देना चाहती है, तो वहीं बेटी भी मां से अपने दिल की हर बात शेयर करती है. एक बेटी के लिए मां परिवार का वह सदस्य है जो उस के दिल की बात को सुनती है और सब से पहले समझती है. लेकिन ऐसा बहू के साथ नहीं होता, क्योंकि सास के दिल में कहीं न कहीं यह बात जरूर रहती कि यह दूसरे परिवार से आई है.

जब हम बेटी और बहू की बात करते हैं तो रिश्ते का दूसरा छोर मातापिता या सासससुर होते हैं. दोनों छोर एकदूसरे के बिना पूरे नहीं हो सकते. एक बहू वो सब कुछ कर सकती है जो एक बेटी कर सकती है, बस, फर्क इतना है कि बहू को उस घर को वंश देने का मौका मिलता है, जो एक बेटी अपने घर को कभी नहीं दे सकती क्योंकि उस का जन्म किसी और घर का वंश बढ़ाने के लिए होता है.

मदर्स डे,फादर्स डे मनाए जाते हैं. मां का प्यार दिल की गहराई से उतर कर इंटरनैट पर आ गया है. ममता देवी की बेटियां अपनी मां के लिए तरहतरह की तारीफें लिखतीं, ‘आप जैसी मां कहां मिल सकती है. आप का निस्वार्थ प्यार पा कर हम बहनों का जीवन सफल हो गया. आप से बात करने मात्र से ही मेरा सारा कष्ट दूर हो जाता है. मां, सारी दुनिया आप की तरह क्यों नहीं है आदिआदि.’

मां भी उतना ही भावुक हो कर जवाब देतीं.

रिंकी समझ न पाती थी कि वाट्सऐप पर मांबेटी के बीच प्यार दिखाना कितना सच था. हर मां का प्यार निस्वार्थ होता है, चाहे वह बेटी की मां हो या बेटे की या फिर बहू की. मां तो मां होती है, उस की नजर में सभी बच्चे बराबर होते हैं. वैसे भी, प्यार एक एहसास है, जिसे खुशबू की तरह महसूस किया जाता है. इसे सिर्फ मां पर अपना दबदबा दिखाने के लिए नहीं दिखाया जाता. लेकिन वह अपनी दोनों भाभियों के सामने कुछ भी कह कर अपने लिए मुसीबत खड़ी नहीं करना चाहती थी.

धीरेधीरे समय बीतता गया. नैतिक की भी शादी हो गई. उस की पत्नी माया डाक्टर थी. उस ने जल्दी ही अपना घर बसा लिया, क्योंकि उसे अस्पताल जाने में परेशानी होती थी. फिर भी उस की सास ममता को लगता था कि अगर जरूरत पड़ी तो वह उसे यमराज के हाथों से छीन लेगी.

दरअसल इंसानी ज़िंदगी एक इम्तिहान है. कइयों की ज़िंदगी में कई इम्तिहान आते हैं. कई पास होते हैं तो कोई फेल. लेकिन डाक्टरी ऐसा पेशा है जिस में हर दिन हर डाक्टर के लिए एक नहीं, कई इम्तिहान होते हैं. हर मरीज़ डाक्टर के लिए एक इम्तिहान होता है. डाक्टर इम्तिहान में कामयाब है, तो मरीज़ की हालत सुधरेगी और नाकामयाब है, तो मरीज़ की हालत बिगड़ेगी. हर मरीज़ डाक्टर के सामने एक चुनौती पेश करता है जिसे उस को स्वीकार करना पड़ता है.

एक दिन सुबहसुबह ममता देवी बाथरूम में गिर पड़ीं और सिर में चोट लग गई. उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराया गया. पूरी रात बेहोश पड़ी रहीं. अगले दिन उन्हें होश आया. वे थोड़ाबहुत बोल पाईं, पर उन का बायां हाथ और पैर लकवाग्रस्त हो गया. स्थिति गंभीर थी, घर में सभी को इस की जानकारी दी गई. ममता की तीनों बेटियां भी आ गईं. अपनी बेटियों को देख कर उन का चेहरा खिल उठा. तीनों बहनें कुछ देर वहीं बैठी रहीं.

सब से पहले उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उस की मां की इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है. वे उस की समीक्षा करते हुए आंसू बहाती रहीं. उन की आलोचना को अनदेखा करते हुए जब रिंकी ने घर की बढ़ती जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए कम से कम एक बहन को घर या अस्पताल में रहने के लिए कहा तो कोई भी रुकने को तैयार नहीं हुई. तीनों ने ही किसी जरूरी काम का बहाना बना कर वहां रहने में असमर्थता जताई और मां को जल्दी आने का आश्वासन दे कर चली गईं.

उस दिन ममता की आंखें भर आईं. शायद उस ने सोचा हो कि बेटियों के लिए मृत्युशैया पर पड़ी अपनी मां की देखभाल से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कोई काम हो सकता है क्या? ममता के बीमार दिल पर यह पहला आघात था.

छोटी बहू माया डाक्टर थी, इसलिए आसानी से उन के इलाज की सारी व्यवस्था अच्छे ढंग से कर दी गई. पर उस के पास भी इतना समय नहीं था कि ममता देवी के पास कुछ देर बैठ सके. उन की देखभाल और उन के पास रहने की सारी ज़िम्मेदारी रिंकी पर आ गई थी.

समय के साथ पेरैंट्स बूढ़े हो जाते हैं और उन्हें अपने बच्चों की जरूरत होती है. जिस तरह बचपन में मांबाप अपने बच्चों की परवरिश करते हैं, उसी तरह बच्चों को भी अपने मांबाप को उन के बुढ़ापे में संभालना चाहिए. लेकिन बड़े होने पर ये बच्चे सब भूल जाते हैं.

कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद ममता देवी घर आ गई थीं. रिंकी ने उन की देखभाल में दिनरात एक कर दिया था. ऐक्सरसाइज कराने में वह मदद करती थी जिस से वे तेज़ी से ठीक हो रही थीं. काम इतना बढ़ गया था कि उसे हर पल किसी अपने की ज़रूरत महसूस होती थी. जब भी उस की ननदें ममता से मिलने आती थीं, तो वह उन से कुछ दिन अपनी मां के पास रहने का अनुरोध करती थी, क्योंकि बेटियों के साथ रहने से ममता देवी के जल्दी ठीक होने की संभावना थी. इस से उसे कुछ मदद भी मिल जाती. लेकिन तीनों बहनें कोई न कोई बहाना बना कर चली जाती थीं.

ममता देवी भी चाहती थीं कि ऐसे मुश्किल समय में उन्हें अपनी बेटियों का साथ मिले और वे अपना दर्द उन से साझा कर सकें. एक दिन उन्होंने खुद ही सब से छोटी बेटी से कहा, ‘बेटी, कुछ दिन मेरे पास ही रहो. तुम तीनों बहनों से ज़्यादा मेरे करीब और कौन है जो मेरा दुखदर्द समझ सके?’ यह बोलतेबोलते उन का गला भर आया और वे सिसकियां भरने लगीं.

‘हां मां, क्या यह कहने लायक बात है? एक मां अपनी बेटियों से ज्यादा किसी के करीब नहीं हो सकती. पर क्या करूं मां, बच्चों के स्कूल खुल गए हैं, वरना मैं खुद ही तुम्हारे पास रहने को बेचैन रहती हूं,’ यह कह कर वह घर की जिम्मेदारियां गिनाते हुए चली गई. ममता के बीमार दिल पर यह दूसरा झटका था.

रिंकी को हैरानी हुई कि वह ममता की बेटी नहीं थी, पर इतने दिनों से साथ रहने के कारण वह उस से इतना जुड़ गई थी कि वह उन्हें दर्द में देख नहीं सकती थी और उसे सांत्वना देने की पूरी कोशिश करती थी. ममता अब पूरी तरह से अपनी बहू रिंकी पर निर्भर थी. उन की गंभीर हालत में भी उन के बच्चों के पास उन के लिए समय नहीं था. उन की बहू, जिसे वे हमेशा एक अजनबी की तरह समझती थीं, अब उन लोगों से भी ज्यादा उस का खयाल रख रही थी जिन्हें वे अपना मानती थीं.

रिंकी के प्रयासों से वे धीरेधीरे ठीक हो रही थीं. एक महीने के भीतर ही वे अपने पैरों पर खड़ी होने लगीं और चलने लगीं. आज उन्हें किसी के सहारे की जरूरत नहीं थी. ममता उसी बहू के सहारे जिंदा थीं जिस का वे अकसर तिरस्कार किया करती थीं. कैसा जमाना आ गया है, जिस मांबाप के सहारे बच्चे बड़े होते हैं उसी को अंत में बेसहारा कर देते हैं.

लेखिका – पूनम

एक नई शुरुआत

दिवाकर जी ने एक बार फिर करवट बदली और सोने की कोशिश की लेकिन उन की कोशिश नाकाम रही, हालांकि देखा जाए तो बिस्तर पर लेटेलेटे वे पूरी रात करवटें ही तो बदलते रहे थे.

नींद उन से किसी जिद्दी बच्चे की तरह रूठी हुई थी. समझ नहीं पा रहे थे कि नींद न आने का कारण स्थान परिवर्तन है या मन में उठता पत्नी मानसी की यादों का रेला.

मन खुद ही अतीत के गलियारे की तरफ़ निकल गया जब बरेली में अपने घर में थे तो पत्नी मानसी से बोलतेबतियाते कब नींद की आग़ोश में चले जाते उन्हें पता न चलता. नींद भी इतनी गहरी आती कि मानसी कभीकभी तो प्यार से उन को कुंभकरण तक की उपाधि दे डालती.

सुबह होने पर भी नींद मानसी की मीठी सी झिड़की से ही खुलती क्योंकि मानसी द्वारा बनाई अदरक-इलायची वाली चाय की सुगंध जब उन के नथुनों में भर जाती तो वे झटपट फ्रैश हो कर पलंग पर ही बैठ जाते और फिर वहीं पर बैठ कर ही वे दोनों चाय का आनंद लेते. पीतेपीते वे मानसी की तरफ़ ऐसी मंत्रमुग्ध नज़रों से देखते मानो कह रहे हों कि तुम्हारे हाथ की बनाई सुगंधित चाय का कोई जवाब नहीं.

मानसी उन्हें अपनी ओर इस तरह ताक़तें देख कर लजा कर लाल हो जाती, जानती थी कि संकोची स्वभाव के दिवाकरजी शब्दों का प्रयोग करने में पूरी तरह अनाड़ी हैं, उन की इन प्यारभरी निगाहों का मतलब वह वखूबी समझने लगी थी.

वे दोनों एकदूसरे के प्यार में पगे जीवन का भरपूर आनंद उठा रहे थे. बेटे नमन की शादी कर वे अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे. उन को रिटायर हो कर 6 महीने हो रहे थे, दिवाकरजी मानसी के साथ भारतभ्रमण का प्रोग्राम मन ही मन बना चुके थे. मानसी को अपने इस प्लान की बाबत बता कर वे सरप्राइज देना चाहते थे क्योंकि नौकरी की आपाधापी, फिर बेटे नमन को उच्चशिक्षा दिला कर सैटिल करने में ही उन की आय का अधिकांश भाग खर्च हो जाता था.

वह तो मानसी इतनी संतुष्ट प्रवृत्ति की थी कि उस ने कभी भी दिवाकरजी से किसी चीज की कोई मांग व किसी तरह की कोई शिकायत नहीं की. परिवार के सुख को ही अपना सुख माना. इसी कारण दिवाकरजी का मन कभीकभी अपराधबोध से भर उठता कि 30 साल के बैवाहिक जीवन में वे मानसी के मन की खुशी के लिए कुछ क्यों नहीं सोच पाए. चलो देर आयद, दुरुस्त आयद वाली कहावत सोच कर खुद ही मुसकरा दिए.

कहते हैं कि इंसान का भविष्य उस के जन्म के समय ही लिख दिया जाता है. इंसान सोचता कुछ और है, होता कुछ और है. लेकिन ऊपरवाले के इंसाफ को भी कैसे गलत ठहराया जा सकता है. मानसी एक रात को सोई तो सुबह उस के लाख झकझोरने के बाद भी न उठी तो अचानक लगे इस आघात से दिवाकरजी हतप्रभ रह गए थे. किसी तरह हिम्मत बटोर कर बेटे नमन को फोन कर के इस अप्रत्याशित घटना की सूचना दी. दोनों बेटा व बहू फ्लाइट ले कर पंहुच गए थे. कुछेक दिन इस अप्रत्याशित घटना से उबरने में लगे, फिर आगे के बारे में उन के बहूबेटे ने आपस में विचारविमर्श किया कि अब पापाजी को यहां अकेले छोड़ कर जाना ठीक नहीं रहेगा.

सारी जरूरी क्रियाकलापों से निबटने के बाद नमन व नीरा दिवाकरजी के काफी नानुकुर करने के बाद भी उन का अकेलापन दूर करने के लिए उन्हें अपने साथ मुंबई ले आए थे. दिवाकरजी अपने बच्चों के साथ मुंबई आ जरूर गए थे लेकिन उन का मन यहां रम नहीं पा रहा था. अकेलेपन से पीछा यहां भी नहीं छूटा था. वहां बरेली में तो फिर भी उन के कुछ पहचान वाले व यारदोस्त थे. यहां तो उन की किसी से जानपहचान नहीं थी. और नमन व नीरा सुबह 8 बजे घर से निकल कर रात 8 बजे तक ही घर लौट पाते थे.

उन दोनों के औफिस जाने के बाद खाली घर उन को एकदम खाने को दौड़ता. कामवाली बाई आ कर घर की साफसफाई कर जाती, साथ ही, उन को खाना बना कर खिला देती.

एकाएक गला सूखने का एहसास होते ही उन्होंने पानी पीने के लिए पलंग के पास रखी साइड टेबल की ओर हाथ बढ़ाया. टेबल पर रखा जग खाली था. शायद नीरा जग में पानी भरना भूल गई होगी, यह सोच कर दबेपांव उठ रसोई में जा कर फिल्टर से पानी भरा और अपने कमरे में आ कर पलंग पर बैठ कर पानी पिया.

नींद तो आ नहीं रही थी, सो अब उन को चाय की तलब लगने लगी थी. वैसे, चाय बनानी तो उन को आती थी लेकिन रसोईघर में होती खटरपटर से कहीं नमन व नीरा की नींद न टूट जाए, इस ऊहापोह में उलझे कुछ देर पलंग पर ही बैठे रहे.

सिर में कुछ भारीपन सा महसूस होने पर सोचा, कुछ देर खुली हवा में ही घूम आएं. वैसे भी इन 10-15 दिनों में वे केवल 2 बार ही घर से निकले थे. एक बार बहू नीरा उन को कपड़े दिलाने मार्केट ले गई थी. दूसरी बार बेटा नमन घर के पास बनी लाइब्रेरी दिखा लाया था ताकि मन न लगने पर वे लाइब्रेरी में आ कर मनपसंद क़िताबें पढ कर अपना मन बहला सकें. लाइब्रेरी के पास ही एक पार्क भी था, नमन ने पापाजी को पार्क का भी एक चक्कर लगवा दिया था, जबकि नमन जानता था कि उन को घूमने का कोई खास शौक नहीं है.

उन्होंने सोचा कि पार्क में जा कर कुछ देर ठंडी हवा का आनंद लिया जाए और पार्क की तरफ कदम बढ़ा दिए. घर से बाहर निकलने पर पाया, धुंधलका कुछकुछ छंटने लगा था, सूरज आसमान में अपनी लालिमा बिखेरने की तैयारी में था. पार्क में इक्कादुक्का लोग घूम रहे थे, कुछेक जौगिंग भी कर रहे थे.

एक खाली बैंच देख कर दिवाकरजी उस पर जा कर बैठ गए. एक तो रातभर की उचटती नींद, दूसरे पार्क में बहती ठंडी बयार ने जल्दी ही उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया. अभी उन को सोते हुए कुछ ही समय हुआ होगा कि उन को महसूस हुआ जैसे उन को कोई झकझोर रहा है. आंखें खोलीं तो पाया कि एक महिला, जिस की उम्र लगभग 50-55 वर्ष के आसपास की होगी, उन के ऊपर झुकी हुई थी. दिवाकरजी उसे देख कर एकदम सकपका गए और एकदम सीधे खड़े हो गए. “अरे, यह कैसा मजाक है?”

उन के आंखें खोलते ही वह महिला भी हड़बड़ा गई और पीछे हट गई, “आप ठीक तो हैं न, मैं ने समझा आप लंबी यात्रा पर निकल गए,” कह कर खिलखिला कर हंसने लगी, “अब जब आप ठीक हैं तो प्लीज़ मेरा यह बैग देखते रहिएगा,” कह कर दिवाकर जी की सहमति व असहमति जाने बिना दौड़ गई.

दिवाकरजी सोचने लगे, बड़ी अजीब महिला है, जान न पहचान बड़े मियां सलाम और उन्हें यों सोते देख कर इतना खिलखिला कर हंसने की क्या बात थी.

दिवाकरजी ने ध्यान से देखा, व्हीलचेयर पर बैठी वह महिला सैर करने को निकल गई.

दूसरे दिन दिवाकरजी ने नोट किया कि वही महिला आज अपनी मेड को साथ ले कर आई थी. उस की मेड व्हीलचेयर धकेल कर उन को सैर करवा रही थी. किसीकिसी दिन वह महिला एक युवक के साथ भी आती जो उस के बेटे जैसा लगता था. एक दिन वही महिला खुद ही अपनी व्हीलचेयर चला कर आ रही थी कि अचानक किसी गड्डे के आ जाने से व्हीलचेयर फंस गई. दिवाकरजी ने देखा तो उस की व्हीलचेयर को बाहर निकालने में उस की मदद की.

इस के बाद से दोनों की बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. उस ने बताया, तकरीबन 5-6 महीने पहले चोट लगने के कारण उस की हिपबोन सर्जरी हुई थी, इसी कारण व्हीलचेयर की जरूरत हुई.

तकरीबन 15-20 मिनट के बाद वही महिला अपने रूमाल से पसीना पोंछती हुई दिवाकरजी की बगल में आ कर बैठ गई. उन से अपना बैग लिया. उस में से फ्लासक निकाला और एक कप में चाय उड़ेल कर दिवाकरजी की ओर बढ़ा दिया, साथ ही पूछा, “वैसे, चाय तो पीते हैं न आप?” चाय की तलब तो उन को कब से हो रही थी, सो सारा संकोच एकतरफ रख चाय का कप ले लिया और चाय पीने लगे, साथ ही, कनखियों से उस महिला की ओर भी देखते जा रहे थे.

फ्लास्क के ढक्कन में चाय डाल कर वह खुद भी वहीं बैठ कर चाय पीने लगी.

दिवाकरजी ने उस महिला की तरफ उचटती सी नजर डाली, वह ट्रैक सूट पहने हुए थी, कसी हुई काठी और खिलता हुआ गेहुंआ रंग, चमकीली आंखें, एकदम चुस्तदुरुस्त लग रही थी. इस से पहले उन्होंने किसी महिला को बरेली में ऐसी ड्रैस पहने नहीं देखा था. अपनी पत्नी मानसी को सदैव साड़ी पहने ही देखा था.

चाय पीतेपीते वह बोली, ‘‘मेरा नाम वसुधा है, यहीं पास की उमंग सोसाइटी में रहती हूं, पास के ही एक स्कूल में पढ़ाती हूं. हर रोज इस पार्क में सैर करना मेरा नियम है. पार्क के तीनचार चक्कर लगाती हूं, फिर बैठ कर चाय पीती हूं और घर चली जाती हूं.

मानसी के अलावा दिवाकरजी ने कभी किसी महिला से बातचीत नहीं की थी, सो पहले वसुधा से बात करने में उन्हें संकोच सा अनुभव हो रहा था.

“लगता है आप यहां नए आए हैं, वरना मैं ने आज तक पार्क में किसी को इस तरह सोते नहीं देखा?”

दिवाकरजी यह सुन कर कुछ झेंप से गए, “वो क्या है कि घुटनों के दर्द के कारण अधिक घूम नहीं पाता,” उन्होंने जैसे बैंच पर बैठ कर सोने के लिए सफ़ाई सी दी.

किसी अपरिचित महिला से बातचीत का यह उन का पहला मौका था. मानसी के अलावा किसी और महिला से बातचीत उन्होंने कभी न की थी. और तो और, बहू नीरा से भी वे अभी तक कहां खुल पाए थे. लेकिन वसुधा की जिंदादिली व साफगोई ने उन को अधिक देर तक अजनबी नहीं रहने दिया.

“अब जब मैं आप का नाम जान ही चुकी हूं, तो आप को आप के नाम से ही पुकारूंगी. वो क्या है कि भाईसाहब का संबोधन मुझे बहुत औपचारिक सा लगता है,” कह कर वह एक बार फिर से खिलखिला कर हंस पड़ी. इस बार उन को वसुधा की खनकती हंसी बहुत प्यारी लगी, प्रतिउत्तर में वे भी हलका सा मुसकरा दिए. फिर मन ही मन सोचा, पत्नी मानसी के जाने के बाद शायद आज ही मुसकराए हैं, यह कमाल शायद वसुधा के बिंदास स्वभाव का ही था.

दिवाकरजी आश्चर्यचकित थे, वसुधा की तरफ देख रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि कितनी जिंदादिल है यह. वे भी अब वसुधा से कुछकुछ खुलने लगे थे.

‘‘अच्छा, आप के घर में कौनकौन है,” उन्होंने वसुधा से पूछा.

“कोई नहीं, मै अकेली हूं. पति का निधन हुए 8 साल हो चुके हैं.”

“फिर आप इतनी खुश व जिंदादिल कैसे रहती हैं?”

“अरे, मैं खुद हूं न अपने लिए, मैं सिर्फ जीना ही नहीं चाहती, जिंदा रहना चाहती हूं. जिंदगी हर समय पुरानी यादों के बारे में सोच कर मन को मलिन करने का नाम नहीं है. जीना है तो ज़िंदगी में आगे बढ़ना ही पड़ता है. वर्तमान में जीना ही जीवन का असली आनंद है. वैसे भी जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए. कितना जिएं, इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि किस तरह जिएं.

“खुश रहने के लिए मैं ने ढेर सारे शौक पाल रखे हैं. कभी मार्केट जा कर ढेर सारा ऊन खरीद कर ले आती हूं, उस से स्वेटर, मोजे, टोपे बना बना कर घर के सामने बनी झुग्गियों में बांट देती हूं. इस से उन लोगों की आंखों में खुशी की जो चमक आती है, मेरा मन खुश हो जाता है. व्यस्त रहने से समय अच्छी तरह बीत जाता है और मन भी खुश रहता है.

“अच्छा, अब आप अपने बारे में कुछ बताइए,” वसुधा ने कहा.

“हां, मैं यहां पास ही की सनशाइन सोसाइटी के फ्लैट नंवर 703 में अपने बहूबेटे के साथ रहता हूं. पत्नी मानसी मेरा साथ छोड़ कर लंबी यात्रा पर चली गई है.

बहूबेटे मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत हैं. सुबह 8 बजे घर से निकलते हैं, फिर रात 8 बजे तक ही लौट पाते हैं. मेड आ कर घर की साफसफाई करती है, मुझे खाना खिला कर चली जाती है. टीवी देखना मुझे अधिक पसंद नहीं है, खाली घर सारा दिन काटने को दौड़ता है.”

“मेरा कहा मानिए, हर रोज सुबह सैर करने की आदत बना लीजिए. सैर करने से तन स्वस्थ व मन प्रफुल्लित रहता है. रोज यहां आने से आप के कुछेक मित्र भी बन जाएंगे, फिर टाइम का पता ही नहीं चलेगा.” यह कह कर वसुधा अपने घर की ओर निकल गई. वसुधा के जाने के बाद दिवाकरजी काफी देर तक उस की कही बातों को मन ही मन दोहराते रहे. वैसे कह तो ठीक ही रही थी, बीती यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. वसुधा पार्क से चली जरूर गई थी लेकिन दिवाकर के दिलदिमाग पर अपने विचारों की गहरी छाप छोड़ गई थी.

घर पहुंचने पर दरवाजे की घंटी बजाई, सकुचाती हुई बहू नीरा ने दरवाजा खोल दिया, ‘‘इतनी सुबहसुबह आप कहां चले गए थे, पापाजी?” नीरा ने पूछा.

“पास के पार्क में चक्कर लगाने चला गया था.”

“अच्छा, अब आप फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं.”

“अरे नहीं बहू, तुम अपने औफिस जाने की तैयारी करो, आज चाय मैं बनाता हूं.”

नीरा ने आश्चर्यचकित हो कर उन की तरफ देखा क्योंकि पिछले 10-15 दिनों से जब से यहां आए हैं, उन के मुंह से सिर्फ हां या हूं शब्द ही सुने थे. आज वे उन दोनों के लिए चाय बनाने की कह रहे थे, कुछ बात तो जरूर है वरना एकदम चुपचाप रहने वाले पापाजी आज उन दोनों के लिए चाय बनाने की जिद ठान कर बैठे हैं. शायद पार्क में कोई हमजोली मिल गया हो. चाय पी कर बहूबेटे दोनों अपने औफिस के लिए निकल गए. हां, जातेजाते इतनी अच्छी चाय बना कर पिलाने के लिए उन का धन्यवाद करना नहीं भूले.

दिवाकरजी का मन आज बहुत खुश था. आज उन को घर काटने को नहीं दौड़ रहा था. अपना बिस्तर ठीक किया. तब तक मेड आ चुकी थी. अच्छी तरह घर की साफसफाई करवाई. अपनी पसंद का खाना बनवाया. खा कर थोड़ी देर आराम किया. फिर अपना चश्मा ठीक करवाने मार्केट निकल गए.

मार्केट में घूमतेघूमते याद आया कि कितने दिनों से उन्होंने हेयरकटिंग नहीं करवाई है. हेयरकटिंग करवा कर लौटे तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट थी. उन्हें याद आया कि मानसी को उन के बड़े बालों से कितनी चिढ़ थी. घर लौटते समय उन का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा दिए और सोचा वे अब से सिर्फ जिएंगे ही नहीं, जिंदा रहेंगे. मानसी के जाने के बाद आज कितने दिनों बाद वे मुसकराए थे.

अब हर रोज सुबह पार्क जाने का नियम बना लिया. पार्क में वसुधा से रोज मुलाकात होती लेकिन अब पार्क में जा कर बैंच पर बैठने के बजाय वे धीरेधीरे पार्क के दोतीन चक्कर लगाने लगे, फिर बैंच पर बैठ कर वसुधा का इंतजार करते. वसुधा दौड़ लगा कर आती, फ्लासक से कप में चाय उड़ेल कर उन की ओर बढ़ा देती. चाय पीतेपीते वे दोनों थोड़ी देर गपशप करते, फिर अपनेअपने घर की तरफ निकल लेते.

दिवाकर ने महसूस किया कि उन्हें वसुधा के साथ की आदत पड़ती जा रही है. वसुधा को भी उन के साथ समय बिताना अच्छा लगता. पिछले कई महीनों से यही सिलसिला चल रहा था.

एक दिन दिवाकर सो कर उठे तो सिर में भारीपन सा महसूस हुआ, चैक किया तो पता चला कि उन को तेज बुखार है. ऐसे में पार्क जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. औफिस जाने से पहले नमन ने डाक्टर को दिखा कर दवा दिलवा दी थी. उन दोनों के औफिस में औडिट चल रहा था, सो, छुट्टी लेना मुमकिन न था.

पूरे 2 दिन हो गए थे उन को बिस्तर पर पड़े हुए, बुखार तो उतर गया था लेकिन कमजोरी अभी बाकी थी.

तीसरे दिन दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी. इस समय कौन होगा, सोचते हुए उठे और दरवाजा खोला. सामने वसुधा खड़ी थी. वसुधा को यों अचानक अपने घर पर देख वे हैरान रह गए. फिर ध्यान आया कि परिचय देते समय खुद उन्होंने ही तो अपना फ्लैट नंबर वसुधा को बताया था.

“मुझे लग ही रहा था कि तुम्हारी तबीयत खराब होगी,” वसुधा आते ही बोली, “डाक्टर को दिखाया, नहीं दिखाया होगा, आदतन खुद ही प्रश्न कर खुद ही जवाब भी दे दिया. पूरे दिन वह दिवाकर के साथ ही रही. इस बीच दिवाकर ने कई बार वसुधा से उस के घर जाने को कहा लेकिन मन ही मन वसुधा का उन की इस तरह चिंता करना बहुत अच्छा लग रहा था.

दोतीन दिन आराम करने के बाद दिवाकर ने ठीक महसूस होने पर पार्क जाना शुरू कर दिया. उन्हें देख कर वसुधा के चेहरे पर उजली सी मुसकान खिल गई.

धीरेधीरे वसुधा व दिवाकर की पार्क में समय बिताने की अवधि बढ़ती गई. सैर करते, फिर बैंच पर बैठ कर कई बार चाय पीतेपीते एकदूसरे के जीवन जीने के नजरिए के बारे में अपनीअपनी राय एकदूसरे के सामने रखते. जब से वे

वसुधा से जुडे थे उन के स्वभाव में काफी परिवर्तन आ गया था. अब उन्हें वसुधा की बातें अच्छी लगने लगी थीं.

एक दिन दिवाकरजी जैसे ही पार्क से घर लौटे, बेटे नमन ने टोका, ‘‘पापा, आजकल आप पार्क में कुछ ज्यादा समय नहीं बिताने लगे हैं. जहां तक मुझे मालूम है, आप को घूमने का इतना अधिक शौक तो है नहीं.”

“हां तो, पार्क में ठंडी हवा चल रही होती है, लोग घूम रहे होते हैं, फिर मैं पेपर भी वहीं बैठ कर पढ़ लेता हूं,” दिवाकरजी ने जवाब दिया.

“नहीं, पापा, वह बात नहीं है. मेरा दोस्त बता रहा था कि आजकल आप किसी औरत के साथ…” आगे की बात नमन ने बिना कहे ही छोड़ दी.

दिवाकरजी ने आग्नेय नेत्रों से नमन की ओर देखा, फिर लगभग चिल्लाते हुए बोले, “तुम्हें अपने दोस्त के कहे पर विश्वास है पर अपने पापा पर नहीं. अब इस उम्र में क्या यही सब करने को रह गया है,” कह कर तेजी से अपने कमरे की तरफ जा कर दरबाजा बंद कर लिया.

मन बहुत खिन्न था. पूरे दिन मन में विचारों का घमासान चलता रहा. क्या वे व वसुधा सिर्फ अच्छे दोस्त हैं, क्या उन को वसुधा के साथ जीवन की नई शुरुआत करनी चाहिए, परंतु वसुधा के मन में क्या है, कैसे पता करें आदिआदि.

दूसरे दिन पार्क पहुंचे तो चेहरे पर परेशानी साफ नजर आ रही थी.

“क्या बात है, कुछ परेशान लग रहे हो?” वसुधा ने पूछा.

“कल मेरा बेटा हमारे, तुम्हारे रिश्ते पर सवाल उठा रहा था.”

“तो तुम ने क्या कहा?”

“मुझे क्या कहना चाहिए था?” दिवाकर ने वसुधा की तरफ प्रश्न उछाल दिया.

“मुझे नहीं पता, आज मुझे घर पर कुछ काम है, सो जल्दी जाना है,” कह कर वसुधा अपने घर जल्दी ही चली गई.

दिवाकरजी ने सोचा, कहीं इस तरह का प्रश्न पूछ कर उन्होंने कोई गलती तो नहीं कर दी वरना रोज तो घंटों बैठ कर दुनियाजहान की बातें करती थी. पता नहीं वह उन के बारे में न जाने क्या सोच रही होगी. कहीं वसुधा ने उन से बातचीत करना बंद कर दिया तो?

वे घर तो आ गए थे लेकिन मन में उठ रहे विचारों की उठकपटक से बहुत परेशान थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसी औरत से मिलने पर नमन को एतराज़ क्यों है? क्या एक स्त्री, पुरूष सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं हो सकते? परंतु अगले ही पल विचार आया कि इस में उन के बेटे का भी क्या दोष है. इस तथाकथित समाज में इस तरह के रिश्तों को सदैव शक की निगाह से ही देखा जाता है तो क्या उन्हें अपने व वसुधा के रिश्ते को कोई नाम दे कर इस उलझन को दूर कर देना चाहिए.

कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे. मन में ऊहापोह की स्थिति निरंतर बढ़ती जा रही थी क्योंकि वे वसुधा जैसी जिंदादिल व बेबाक बात करने वाली दोस्त को खोना नहीं चाहते थे.

एक दिन औफिस से आ कर नमन ने कहा, ‘‘पापा, आप से कुछ बात करनी थी?”

“हां, हां, कहो क्या बात है?”

“पापा, मेरा प्रमोशन हो गया है.”

“अरे, यह तो बड़ी खुशी की बात है परंतु यह सव बताते हुए तुम इतना सकुचा क्यों रहे हो?”

“पापा, असल में बात यह है कि मेरी कंपनी किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में तीनचार साल के लिए मुझे विदेश भेज रही है और नीरा भी मेरे साथ जा रही है. ऐसे में आप का यहां अकेले रहना व इतने बड़े फ्लैट का किराया देना मुश्किल हो जाएगा. सो, आप का बरेली वापस जाना ही ठीक रहेगा.”

“तुम अपनी लाइफ का फैसला करो, मेरा मैं खुद देख लूंगा,” दिवाकरजी ने तुनक कर कहा.

दूसरे दिन पार्क जाते समय मन ही मन एक फैसला कर लिया, आज वसुधा से वे क्लीयर बात कर ही लेंगे कि वह उन के बारे में क्या सोचती है. आखिर मालूम तो करना ही पड़ेगा कि उस के मन में क्या चल रहा है.

बेटे के विदेश जाने के समय तक उन दोनों में परस्पर कुछ लगाव सा हो गया था. लेकिन सिलसिला अभी तक सिर्फ बातचीत तक ही सीमित था. दोनों ने आपस में इस पर खुल कर कोई बातचीत नहीं की थी. दिवाकरजी अपने इस रिश्ते को ले कर सीरियस थे. बेटे के जाने से पहले ही वे इस बात को अंजाम देना चाहते थे, इसीलिए आज उन्होंने वसुधा से बात करने की ठानी, ताकि कोई फैसला लिया जा सके.

जैसे ही वसुधा पार्क के चक्कर लगा कर उन की बगल में आ कर बैठी, विना किसी लागलपेट के वसुधा की तरफ देख कर कहा, ‘‘वसुधा, शादी करोगी मुझ से?”

“शादी और तुम से, वह भी इस उम्र में,” वसुधा ने चौंकते हुए उन की तरफ देखा.

“उम्र की बात छोड़ो, तुम तो सिर्फ यह बताओ कि शादी करोगी या नहीं मुझ से?”

वसुधा कोई जवाब न दे कर चुपचाप उन को देखती रही.

इस के बाद उन दोनों के बीच चुप्पी छा गई. 5 दिन हो गए थे, वे दोनों पार्क आते, वसुधा पार्क के चक्कर लगा कर उन के पास बैठती, चाय पिलाती लेकिन पहले की तरह गपशप व बातचीत का आदानप्रदान बंद था, क्योंकि दोनों के मन में ही विचारों की जंग छिड़ी हुई थी.

एक दिन दिवाकर पार्क पहुंचे, दोतीन चक्कर लगा कर बैंच पर आ बैठे. उन की द्रष्टि बारबार पार्क के गेट की तरफ जाती क्योंकि वसुधा आज अभी तक पार्क में नहीं आई थी. उन को वसुधा की कमी बहुत ज्यादा खल रही थी कयोंकि आज उन का बर्थडे था और इस खुशी को वे वसुधा के साथ बांटना चाहते थे. बहूबेटे को तो शायद याद भी नहीं था कि आज उन का वर्थडे है. पत्नी मानसी उन के इस दिन को बहुत खास बना देती थी. उन की पसंद का खाना बना कर और भी न जाने बहुत सी ऐसी गतिविधियां कर के वह उन को खुशखबर देती. तभी उन की नजर पार्क के गेट की तरफ पड़ी, देखा, सामने से वसुधा चली आ रही थी. उस के हाथ में आज एक गिफ्टपैक था.

रोज की तरह वसुधा ने अपना बैग व गिफ्ट पैकेट उन को थमाया और बिना कुछ बोले, सैर करने निकल गई. जब लौट कर आई, उन की बगल में बैठते हुए बोली, ‘‘हैपी बर्थडे टू यू. हां, यह गिफ्ट पैकेट तुम्हारे लिए है.”

“तो तुम्हें याद था कि आज मेरा बर्थडे है?”

“लो, उस दिन तुम ने ही तो बताया था कि मानसी मेरा जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाती थी. गिफ्ट देख कर उन के चेहरे पर खुशी की चमक आ गई.

दिवाकर ने गिफ्ट को खोलने की बहुत कोशिश की परंतु गिफ्ट पैकिंग पर लगा टेप खोल ही नहीं पा रहे थे.

वसुधा ने उन के हाथ से पैकेट लिया और मुसकराते हुए बोली, “एक गिफ्टपैक तो खुलता नहीं और ख्वाब देख रहे हैं शादी करने के.

“इस में तुम्हारे लिए शर्टपैंट है और सैर करने के लिए ट्रैक सूट. कुरतापजामा पहनने वाले आदमी मुझे कतई पसंद नहीं और पार्क में आ कर बैंच पर बैठ कर सोने वाले तो बिलकुल नहीं. मुझे स्मार्ट पति पसंद है,” कह कर आदतन खिलखिला कर हंस दी, “सो, यह ट्रैक सूट पहन कर पार्क के तीनचार चक्कर लगाने पड़ेंगे हर रोज. घूमने का शौक तो है नहीं और मन में लड्डू फूट रहे हैं शादी करने के,” वसुधा ने मुसकराते हुए कहा.

वसुधा उन की बगल में आ कर बैठ गई. दिवाकर ने कुछ नहीं कहा. कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. लेकिन कनखियों से दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. एकाएक दोनों की नज़रें मिलीं तो दोनों ठहाका मार कर हंस दिए. इस हंसी ने सारे सवालों के जवाब दे दिए थे. वे दोनों ही जिंदगी की एक नई शुरुआत करने को मन ही मन तैयार थे. अपने बच्चों से इस बाबत बात की, तो उन को खुशी हुई सुन कर कि कैसे 2 बुजुर्ग अपनी दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार हैं.

लेखिका – माधुरी

ऐसा भी होता है : ट्रेन में रखे लावारिस ब्रीफकेस का माजरा क्या था

‘‘भाई साहब, यह ब्रीफकेस आप का है क्या?’’ सनतकुमार समाचार- पत्र की खबरों में डूबे हुए थे कि यह प्रश्न सुन कर चौंक गए.

‘‘जी नहीं, मेरा नहीं है,’’ उन्होंने प्रश्नकर्त्ता के मुख पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. उन से प्रश्न करने वाला 25-30 साल का एक सुदर्शन युवक था.

‘‘फिर किस का है यह ब्रीफकेस?’’ युवक पुन: चीखा था. इस बार उस के साथ कुछ और स्वर जुड़ गए थे.

‘‘किस का है, किस का है? यह पूछपूछ कर क्यों पूरी ट्रेन को सिर पर उठा रखा है. जिस का है वह खुद ले जाएगा,’’ सनतकुमार को यह व्यवधान अखर रहा था.

‘‘अजी, किसी को ले जाना होता तो इसे यहां छोड़ता ही क्यों? यह ब्रीफकेस सरलता से हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला. यह तो हम सब को ले कर जाएगा,’’ ऊपरी शायिका से घबराहटपूर्ण स्वर में बोल कर एक महिला नीचे कूदी थीं, ‘‘किस का है, चिल्लाने से कोई लाभ नहीं है. उठा कर इसे बाहर फेंको नहीं तो यह हम सब को ऊपर पहुंचा देगा,’’ बदहवास स्वर में बोल कर महिला ने सीट के नीचे से अपना सूटकेस खींचा और डब्बे के द्वार की ओर लपकी थीं.

‘‘कहां जा रही हैं आप? स्टेशन आने में तो अभी देर है,’’ सनतकुमार महिला के सूटकेस से अपना पैर बचाते हुए बोले थे.

‘‘मैं दूसरे डब्बे में जा रही हूं…इस लावारिस ब्रीफकेस से दूर,’’ महिला सूटकेस सहित वातानुकूलित डब्बे से बाहर निकल गई थीं.

‘लावारिस ब्रीफकेस?’ यह बात एक हलकी सरसराहट के साथ सारे डब्बे में फैल गई थी. यात्रियों में हलचल सी मच गई. सभी उस डब्बे से निकलने का प्रयत्न करने लगे.

‘‘आप क्या समझती हैं? आप दूसरे डब्बे में जा कर सुरक्षित हो जाएंगी? यहां विस्फोट हुआ तो पूरी ट्रेन में आग लग जाएगी,’’ सनतकुमार एक और महिला को भागते देख बोले थे.

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, यहां से भागने से क्या होगा. इस ब्रीफकेस का कुछ करो. मुझे तो इस में से टकटक का स्वर भी सुनाई दे रहा है. पता नहीं क्या होने वाला है. यहां तो किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है,’’ एक अन्य शायिका पर अब तक गहरी नींद सो रहा व्यक्ति अचानक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘करना क्या है. इस ब्रीफकेस को उठा कर बाहर फेंक दो,’’ कोई बोला था.

‘‘आप ही कर दीजिए न इस शुभ काम को,’’ सनतकुमार ने आग्रह किया था.

‘‘क्या कहने आप की चतुराई के. केवल आप को ही अपनी जान प्यारी है… आप स्वयं ही क्यों नहीं फेंक देते.’’

‘‘आपस में लड़ने से क्या हाथ लगेगा? आप दोनों ठीक कह रहे हैं. इस लावारिस ब्रीफकेस को हाथ लगाना ठीक नहीं है. इसे हिलानेडुलाने से विस्फोट होने का खतरा है,’’ साथ की शायिका से विद्याभूषणजी चिल्लाए थे.

‘‘फिर क्या सुझाव है आप का?’’ सनतकुमार ने व्यंग्य किया था.

‘‘सरकार की तरह हम भी एक समिति का गठन कर लेते हैं. समिति जो भी सुझाव देगी उसी पर अमल कर लेंगे,’’ एक अन्य सुझाव आया था.

‘‘यह उपहास करने का समय है श्रीमान? समिति बनाई तो वह केवल हमारे लिए मुआवजे की घोषणा करेगी,’’ विद्याभूषण अचानक क्रोधित हो उठे थे.

‘‘कृपया शांति बनाए रखें. यदि यह उपहास करने का समय नहीं है तो क्रोध में होशहवास खो बैठने का भी नहीं है. आप ही कहिए न क्या करें,’’ सनतकुमार ने विद्या- भूषण को शांत करने का प्रयास किया था.

‘‘करना क्या है जंजीर खींच देते हैं. सब अपने सामान के साथ तैयार रहें. ट्रेन के रुकते ही नीचे कूद पड़ेंगे.’’

चुस्तदुरुस्त सुदर्शन नामक युवक लपक कर जंजीर तक पहुंचा और जंजीर पकड़ कर लटक गया था.

‘‘अरे, यह क्या? पूरी शक्ति लगाने पर भी जंजीर टस से मस नहीं हो रही. यह तो कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र लगता है. आतंकवादियों ने बम रखने से पहले जंजीर को नाकाम कर दिया है जिस से ट्रेन रोकी न जा सके,’’ सुदर्शन भेद भरे स्वर में बोला था.

‘‘अब क्या होगा?’’ कुछ कमजोर मन वाले यात्री रोने लगे थे. उन्हें रोते देख कर अन्य यात्री भी रोनी सूरत बना कर बैठ गए. कुछ अन्य प्रार्थना में डूब गए थे.

‘‘कृपया शांति बनाए रखें, घबराने की आवश्यकता नहीं है. बड़ी सुपरफास्ट ट्रेन है यह. इस का हर डब्बा एकदूसरे से जुड़ा हुआ है. हमें बड़ी युक्ति से काम लेना होगा,’’ विद्याभूषण अपनी बर्थ पर लेटेलेटे निर्देश दे रहे थे.

तभी किसी ने चुटकी ली, ‘‘बाबू, आप को जो कुछ कहना है, नीचे आ कर कहें, अब आप की बर्थ को कोई खतरा नहीं है.’’

‘‘हम योजनाबद्ध तरीके से काम करेंगे,’’ नीचे उतर कर विद्याभूषण ने सुझाव दिया, ‘‘सभी पुरुष यात्री एक तरफ आ जाएं. हम 5 यात्रियों के समूह बनाएंगे.

‘‘मैं, सनतकुमार, सुदर्शन, 2 और आ जाइए, नाम बताइए…अच्छा, अमल और धु्रव, यह ठीक है. हम सब इंजन तक चालक को सूचित करने जाएंगे. दूसरा दल गार्ड के डब्बे तक जाएगा, गार्ड को सूचित करने, तीसरा दल लोगों को सामान के साथ तैयार रखेगा, जिस से कि ट्रेन के रुकते ही सब नीचे कूद जाएं. महिलाओं के 2 दल प्राथमिक चिकित्सा के लिए तैयार रहें,’’ विद्याभूषण अपनी बात समाप्त करते इस से पहले ही रेलवे पुलिस के 2 सिपाही, जिन के कंधों पर ट्रेन की रक्षा का भार था, वहां आ पहुंचे थे.

‘‘आप बिलकुल सही समय पर आए हैं. देखिए वह ब्रीफकेस,’’ विद्याभूषणजी ने पुलिस वालों को दूर से ही ब्रीफकेस दिखा दिया था.

‘‘क्या है यह?’’ एक सिपाही ने अपनी बंदूक से खटखट का स्वर निकालते हुए प्रश्न किया था.

‘‘यह भी आप को बताना पड़ेगा? यह ब्रीफकेस बम है. आप शीघ्र ही इसे नाकाम कर के हम सब के प्राणों की रक्षा कीजिए.’’

‘‘बम? आप को कैसे पता कि इस में बम है?’’ एक पुलिसकर्मी ने प्रश्न किया था.

‘‘अजी कल रात से ब्रीफकेस लावारिस पड़ा है. उस में से टिकटिक की आवाज भी आ रही है और आप कहते हैं कि हमें कैसे पता? अब तो इसे नाकाम कर दीजिए,’’ सनतकुमार बोले थे.

‘‘अरे, तो जंजीर खींचिए…बम नाकाम करने का विशेष दल आ कर बम को नाकाम करेगा.’’

‘‘जंजीर खींची थी हम ने पर ट्रेन नहीं रुकी.’’

‘‘अच्छा, यह तो बहुत चिंता की बात है,’’ दोनों सिपाही समवेत स्वर में बोले थे.

‘‘अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं. किसी भी तरह इस बम को नाकाम कर के हमारी जान बचाइए.’’

‘‘काश, हम ऐसा कर सकते. हमें बम नाकाम करना नहीं आता, हमें सिखाया ही नहीं गया,’’ दोनों सिपाहियों ने तुरंत ही सभी यात्रियों का भ्रम तोड़ दिया था.

कुछ महिला यात्री डबडबाई आंखों से शून्य में ताक रही थीं. कुछ अन्य बच्चों के साथ प्रार्थना में लीन हो गई थीं.

‘‘हमें जाना ही होगा,’’ विद्याभूषण बोले थे, ‘‘सभी दल अपना कार्य प्रारंभ कर दीजिए. हमारे पास समय बहुत कम है.’’

डरेसहमे से दोनों दल 2 विभिन्न दिशाओं में चल पड़े थे और जाते हुए हर डब्बे के सहयात्रियों को रहस्यमय ब्रीफकेस के बारे में सूचित करते गए थे.

बम विस्फोट की आशंका से ट्रेन में भगदड़ मच गई थी. सभी यात्री कम से कम एक बार उस ब्रीफकेस के दर्शन कर अपने नयनों को तृप्त कर लेना चाहते थे. शेष अपना सामान बांध कर अवसर मिलते ही ट्रेन से कूद जाना चाहते थे.

कुछ समझदार यात्री रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था को कोस रहे थे, जिस ने हर ट्रेन में बम निरोधक दल की व्यवस्था न करने की बड़ी भूल की थी.

गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दल को मार्ग में ही एक मोबाइल वाले सज्जन मिल गए थे. उन्होंने चटपट अपने जीवन पर मंडराते खतरे की सूचना अपने परिवार को दे दी थी और परिवार ने तुरंत ही अगले स्टेशन के स्टेशन मास्टर को सूचित कर दिया था.

फिर क्या था? केवल स्टेशन पर ही नहीं पूरे रेलवे विभाग में हड़कंप मच गया. ट्रेन जब तक वहां रुकी बम डिस्पोजल स्क्वैड, एंबुलैंस आदि सभी सुविधाएं उपस्थित थीं.

ट्रेन रुकने से पहले ही लोगों ने अपना सामान बाहर फेंकना प्रारंभ कर दिया और अधिकतर यात्री ट्रेन से कूद कर अपने हाथपांव तुड़वा बैठे थे.

गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दस्ते का काम बीच में ही छोड़ कर सनतकुमारजी का दस्ता जब वापस लौटा तो उन की पत्नी रत्ना चैन से गहरी नींद में डूबी थीं.

सनतकुमार ने घबराहट में उन्हें झिंझोड़ डाला था :

‘‘तुम ने तो कुंभकर्ण को भी मात कर दिया. किसी भी क्षण ट्रेन में बम विस्फोट हो सकता है,’’ चीखते हुए अपना सामान बाहर फेंक कर उन्होंने पत्नी रत्ना को डब्बे से बाहर धकेल दिया था.

‘‘हे ऊपर वाले, तेरा बहुतबहुत धन्यवाद, जान बच गई, चलो, अब अपना सामान संभाल लो,’’ सनतकुमार ने पत्नी को आदेश दे कर इधरउधर नजर दौड़ाई थी.

घबराहट में ट्रेन से कूदे लोगों को भारी चोटें आई थीं. उन की मूर्खता पर सनतकुमार खुल कर हंसे थे.

इधरउधर का जायजा ले कर सनतकुमार लौटे तो रत्ना परेशान सी ट्रेन की ओर जा रही थीं.

‘‘कहां जा रही हो? ट्रेन में कभी भी विस्फोट हो सकता है. वैसे भी ट्रेन में यात्रियों को जाने की इजाजत नहीं है. पुलिस ने उसे अपने कब्जे में ले लिया है.’’

‘‘सारा सामान है पर उस काले ब्रीफकेस का कहीं पता नहीं है.’’

‘‘कौन सा काला ब्रीफकेस?’’

‘‘वही जिस में मैं ने अपने जेवर रखे थे और आप ने कहा था कि उसे अपनी निगरानी में संभाल कर रखेंगे.’’

‘‘तो क्या वह ब्रीफकेस हमारा था?’’ सनतकुमार सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘क्या होना है, तुम और तुम्हारी नींद, ट्रेन में इतना हंगामा मचा और तुम चैन की नींद सोती रहीं.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि आप अपने ही ब्रीफकेस को नहीं पहचान पाओगे. मेरी तो थकान से आंख लग गई थी ऊपर से आप ने नींद की गोली खिला दी थी. पर आप तो जागते हुए भी सो रहे थे,’’ रत्ना रोंआसी हो उठी थीं.

‘‘भूल जाओ सबकुछ, अब कुछ नहीं हो सकता,’’ सनतकुमार ने हथियार डाल दिए थे.

‘‘क्यों नहीं हो सकता? मैं अभी जा कर कहती हूं कि वह हमारा ब्रीफकेस है उस में मेरे 2 लाख के गहने हैं.’’

‘‘चुप रहो, एक शब्द भी मुंह से मत निकालना, अब कुछ कहा तो न जाने कौन सी मुसीबत गले पड़ेगी.’’

पर रत्ना दौड़ कर ट्रेन तक गई थीं.

‘‘भैया, वह ब्रीफकेस?’’ उन्होंने डब्बे के द्वार पर खड़े पुलिसकर्मी से पूछा था.

‘‘आप क्यों चिंता करती हैं? उस में रखे बम को नाकाम करने की जिम्मेदारी बम निरोधक दस्ते की है. वे बड़ी सावधानी से उसे ले गए हैं,’’ पुलिसकर्मी ने सूचित किया था.

रत्ना बोझिल कदमों से पति के पास लौट आई थीं. ट्रेन के सभी यात्रियों को उन के गंतव्य तक पहुंचाने का प्रबंध किया गया था. सनतकुमार और रत्ना पूरे रास्ते मुंह लटाए बैठे रहे थे. सभी यात्री आतंकियों को कोस रहे थे. पर वे दोनों मौन थे.

विस्फोट हुआ अवश्य था पर ट्रेन में नहीं सनतकुमार और रत्ना के जीवन में.

शिल्पशास्त्र या ज्योतिषशास्त्र : अंतिम भाग

पिछले 5 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें आदि के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया है, उसे पढि़ए-

वास्तुशास्त्र या वास्तुनाग

शिल्पशास्त्र में ऐसीऐसी ऊटपटांग बातें लिखी गई हैं कि कोई भी तर्कशील व्यक्ति अपना माथा पकड़ ले. इस में ज्योतिषी, अंधविश्वास और छद्मविज्ञान का उपयोग किया गया है, जिस से हिंदू समाज को मूर्ख बनाया जा रहा है.

शिल्पशास्त्र में हर घर की जमीन के अंदर एक आदमी की कल्पना की गई है, जिसे ‘वास्तुपुरुष’ कहा गया है. इसी तरह हर घर की जमीन के अंदर एक नाग (सांप) की कल्पना की गई है, जिसे ‘वास्तुनाग’ कहा गया है.

इस नाग की स्थिति तीनतीन महीने के बाद बदलती है. तीन महीने मुंह पूर्व में, पीठ उत्तर में और पूंछ पश्चिम में. फिर तीन महीने पीठ पूर्व में, मुंह दक्षिण में और पूंछ उत्तर में है. इस तरह आगे के तीनतीन महीनों की भिन्नभिन्न स्थितियां हैं. (शिल्पशास्त्र 2/16).

यदि वास्तुनाग के सिर वाले स्थान पर (जो तीन महीने पूर्व दिशा है, तीन महीने उत्तर दिशा है) खुदाई की जाए, कोई पेड़पौधा आदि लगाने के लिए यदि जगह खोदी जाए तो इस से पत्नी और बच्चों का विनाश होता है. यदि उस स्थान को खोदा जाए जहां उस नाग का पेट पड़ता हो तो सभी प्रकार का सुख प्राप्त होता है. यदि उस की नाभि के स्थान को खोदा जाए तो गुप्तांगों का रोग होता है, घुटने पर खोदा जाए तो लंबे समय के लिए प्रवास मिलता है, उस की जंघा पर खोदा जाए तो क्षयरोग होता है और उस की पूंछ खोदने पर मृत्यु होती है.

दारापत्यप्रणाशो भवति च खनने मस्तके नागराजस्य,
श्रीसंपत्ति: प्रभुत्वं यदि हृदि जठरे सर्वभागैरूपेत:.
नाभिगात्रेरतिशभयदो गृह्यदेशे च रोगो,
जान्वो दीर्घप्रवासी क्षयमपि जघने पुच्छदेशे च मृत्यु:.
(शिल्पशास्त्रम् 2/21-22)

यहां शिल्पशास्त्र ने काफी गप्पें हांकी हैं. यहां सांप के घुटने और जांघ की बात कही गई है. ये दोनों टांग के हिस्से हैं. सांप की टांग होती ही नहीं तो उस के घुटने और जांघें कहां से टपक पड़ेंगी?

दूसरे, यह नाग (सांप) सचमुच का नहीं, बल्कि कल्पित है. इसी लिए शिल्पशास्त्र ने कहा है-

स्थाने स्थाने प्रकल्पन्ते विपाके नाग अंतक: (2/15)
अर्थात वास्तुनाग की कल्पना की जाती है (प्रकल्पन्ते).

प्रश्न है कि यह कल्पित नाग किसी का क्या कुछ बना या बिगाड़ सकता है? यदि सचमुच का भी नाग हो और उस के सिर पर खुदाई करें, कुदाल वगैरह चलाएं तो वह खुद मर जाएगा. इधर, उस कल्पित नाग के कल्पित सिर पर कुदाल चलाने के शिल्पशास्त्र आदमी की पत्नी व उस के बच्चों की मौत की घोषणा कर रहा है.

कल्पित नाग के उन अंगों पर खुदाई के अच्छेबुरे फल शिल्पशास्त्र ने बता दिए हैं, जो अंग सचमुच के नाग के भी नहीं होते. यह सारा कुछ ऐसे लगता है मानो शिल्पशास्त्र भांग के नशे में लिखा गया हो.

वास्तु पुरुष की पूंछ?

जैसे नाग के न घुटने होते हैं, न जांघ, उसी तरह पुरुष की पूंछ नहीं होती परंतु यदि भांग का सुरूर हो तो शायद यह सब संभव है. इसीलिए वास्तु (घर) में जैसे कल्पित नाग के न होने वाले अंगों के भी अच्छेबुरे फल बता दिए गए हैं, वैसे ही वास्तु पुरुष की पूंछ पर खुदाई न करने की बात कही गई है.

वास्तो: शिरसि पुच्छे च,
आयु : कामं खनन्नैव.
शिल्पशास्त्रम् 2/23

(वास्तु पुरुष की पूंछ और उस के सिर पर अपनी जिंदगी (उमर) चाहने वाला कभी खुदाई न करे.)

दो अध्याय समाप्त हो गए हैं. क्या आप ने शिल्प संबंधी कोई बात सम झी, सुनी या सीखी है, इस शास्त्र से?

तीसरे अध्याय में केवल दो बातें हैं. पहली है, जब आप घर बनाने के लिए खुदाई करने जा रहे हों तो आप को क्या दिखाई देने पर कैसा फल मिलेगा.

यदि तब ध्वज, वस्त्र आदि दिखाई दे तो धन प्राप्ति होती है, यदि जल से पूर्ण घड़ा दिखाई दे तो धन व स्वर्ग आदि प्राप्त होता है.

ध्वजवस्त्रपताकादि दर्शने धनसम्भव :
पूर्णकुंभे भवेद् वित्तं प्राप्रोति कनकादिकम्
शिल्पशास्त्रम् 3/1

परंतु यदि आप को कोई अपाहिज, भिक्षुक, विधवा, रोगी और लंगड़ा दिखाई दे और आप तब भी घर बनाना शुरू कर दें तो आप की मृत्यु निश्चित है :

हीनांगो भिक्षुकश्चैव वन्ध्या रोगार्त्तिखंजकौ,
दृश्यते चेद् गृहारंभे कर्त्तुश्च मरणं धु्रवम्.
शिल्पशास्त्रम् 3/3

यह ‘अपाहिज’ व ‘लंगड़े’ के प्रति दुर्भावना का परिचायक है, जबकि आज इन लोगों के लिए इस तरह के ठेस पहुंचाने वाले शब्द इस्तेमाल करना भी उचित नहीं सम झते. इन्हें ‘शारीरिक तौर पर चुनौतीपूर्ण’ कहते हैं. जो स्वयं भिखारी है, जो स्वयं विधवा है, जो स्वयं शारीरिक तौर पर परेशान हैं, वे बेचारे उस घर बनाने वाले की मृत्यु के कारण कैसे बन सकते हैं? क्या इन्हें देखने से ही गृहकर्ता के मुंह में पोटैशियम साइनाइड पहुंच जाएगी? इन्हें देखने से कितने गृहकर्ता या गृहस्वामी आज तक मर चुके हैं?

यह सारा कथन उक्त लोगों के प्रति अकारण द्वेषपूर्ण प्रचार है. हमें इस से बचना होगा.

इस अध्याय की दूसरी बात है उन अंधविश्वासों की सूची जो घर बनाते समय सूत्र (= धागे) के टूट जाने आदि से संबंधित हैं.

कहा है, यदि विस्तार करते समय सूत्र टूट जाए तो इस से मृत्यु होने की आशंका पैदा हो जाती है. अत: घर बनवाने वाले को चाहिए कि वह विधिविधान के साथ शांति कर्म (शांति के लिए पूजापाठ), हवन आदि करवाए :

सूत्रस्य छेदनात् क्षिप्रं दु:खं स्यान्मरणान्तकम्,
अतो विधिविधानेन शांतिहोमं तु कारयेत्. शिल्पशास्त्रम्, 3/4

जब सूत्र को गिनतीमिनती आदि के लिए फैलाया जाए, तब यदि गाय के रंभाने की आवाज सुनाई दे तो निश्चित है कि वहां धरती में किसी गाय की हड्डियां होंगी. इस के फलस्वरूप वास्तुपति (= गृहस्वामी) की मृत्यु निश्चित है :

सूत्रे बिस्तीर्यमाने तु धेनु: शब्दायते यदि,
गवास्थीन्यत्र
जानीयान्मृत्युर्वास्तुपतेर्भवेत्
शिल्पशास्त्रम्, 3/8

अब यदि सचमुच में धरती के नीचे किसी मृत गाय की हड्डियां हों भी तो कोई दूसरी जीवित गाय उस धरती पर सूत्र फैलाने के समय कैसे रंभा सकती है? धरती के नीचे की हड्डियों, उस के ऊपर के सूत्र तथा दूर स्थित किसी गाय, इन तीनों में आपस में क्या संबंध है? गाय को किस माध्यम से पता चलेगा कि उस स्थान पर गाय की ही हड्डियां हैं? अब यदि वे हैं भी और मान लो गाय को भी पता चल गया है, तब गाय या वे हड्डियां उस की मृत्यु का कारण कैसे हो सकती हैं, जो वहां घर बनवा रहा है?

लोग जब गाय के बछड़े को दूध नहीं देते या जब उस का बछड़ा मर जाने पर नकली बछड़ा वहां उस के आगे डाल देते हैं, तब तो गाय किसी की मृत्यु का कारण नहीं बनती, फिर वह गृहस्वामी की मृत्यु का कारण कैसे बन सकती है, जबकि उस ने उस गाय को मारना तो एक ओर रहा, कभी देखा तक भी नहीं? यदि गाय में किसी को मारने की दैवीय शक्ति है, तब तो ‘गौहत्या बंद करो’ के नारे लगाने की किसी को जरूरत ही नहीं, तब तो उन हत्यारों से गाएं खुद ही हिसाब बराबर कर लेंगी. हत्यारे को तो गाय मार नहीं सकतीं, परंतु जिस ने कुछ भी नहीं बिगाड़ा, उस की वह मौत ला देगी- ऐसा कोई घोर अंधविश्वासी ही मान सकता है, कोई स्वस्थ व सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति नहीं.

कुत्ता, गधा व कौआ

शिल्पशास्त्र कहता है कि यदि सूत्र विस्तार करते समय कुत्ते का रोना सुनाई दे तो इस का मतलब है कि गृहस्वामी शीघ्र ही कुत्ते के काटने से मारा जाएगा :

सूत्रे विस्तीर्यमाने तु कक्कुरो यदि रुघते,
अचिरेणैव कालेन शूना निहत एव स:
-शिल्पशास्त्रम् 3/9

जो कुत्ता खुद रो रहा है, वह अपना तो दुख दूर नहीं कर पा रहा. वह किसी दूसरे की मृत्यु का सूचक व कारक कैसे हो सकता है? आज तो टीके बन चुके हैं, कुत्ते के काटने की दवा के तौर पर. समय पर पूरा कोर्स करने से कोई नहीं मरता. अत: यह शिल्पशास्त्रीय कथन एकदम निरर्थक है.

यदि गधा रेंकता सुनाई दे तो जहां घर बनाते ही, उस स्थान को खाली कर जाओ और घर कहीं अन्यत्र बनाओ. यदि गृहस्वामी का मुख देख कर कौआ शब्द करने लगे तो उस की अचानक मृत्यु हो सकती है :

गर्दभो शब्दयते तत्र तद्गेहं परिवर्जयेत्,
काको दृष्ट्वा मुखं रौति धु्रवं मृत्युर्विनिर्दिशेत्.
-शिल्पशास्त्रम् 3/10

गधा यदि रेंकता है तो क्या वह गृहस्वामी से यह कहता है कि तुम यह जगह छोड़ कर चले जाओ और अन्यत्र घर बनाओ? यदि वह ऐसा कहता भी हो तो कोई दूसरा गधा भी उस की बात न मानेगा, इंसान की तो बात ही छोडि़ए. फिर शिल्पशास्त्र किस आधार पर उस जगह को छोड़ कर भागने के लिए कह रहा था? क्या यह भोलेभाले लोगों को इस तरह भगा कर खुद उन की भूमि को हथियाने का षड्यंत्र तो नहीं?

आगे कहा है कि यदि किसी गृहस्वामी को देख कर कौआ शब्द करे तो सम झो वह मृत्यु के आगे की सूचना दे रहा है. यह किस आधार पर कहा है? क्या कौआ मृत्यु के यहां संदेशहर का काम करता है? कौआ गृहस्वामी को देख कर चाहे रोटी का टुकड़ा मांगता हो, पर वास्तुशास्त्र को मृत्यु ही मृत्यु सर्वत्र दिखाई देती है. लोग इस तरह डरेंगे, तभी तो इन के जाल में फंसेंगे.

यदि सूत्र विस्तार करते समय सांप दिखाई दे तो सम झो वह गृहपति थोड़ा समय ही जीवित रहेगा और सांप के काटने से मरेगा :

सूत्रे विस्तीर्यमाने तु पन्नगो यदि दृश्यते,
अचिरेणैव कालेन सर्पेण निहतो धु्रवम्.
शिल्पशास्त्रम् 3/11

आज तो कई बड़ेबड़े होटलों में लोग चुन कर सांप का मीट खाते हैं, अपने ये शिल्पशास्त्र सांप दिखे जाने को ही मौत का वारंट बता रहे हैं. यदि सांप दिखाई दे गया है तो क्या उस का इलाज नहीं किया जा सकता? इस तीसरे अध्याय में भी शिल्प के बारे में कुछ नहीं, उस का छिलका तक नहीं. सिर्फ अंधविश्वासपूर्ण और थोड़ी बातें हैं.

चतुर्थ अध्याय में कहा गया है कि जिस स्थान पर राख, हड्डी, काठ, कोयला, भूसा, बाल, खोपड़ी, रक्त, दांत, मिट्टी का घड़ा मिला हो, वहां घर नहीं बनाना चाहिए. जो वहां रहेगा उस के यश और धन का श्रय होगा :

भस्मास्थि काष्ठमंगारं तुषं बालं कपालकम्,
रक्तपुत्तिकदन्तं च मृद्भाण्डास्थीति यत्र वै,
तत्रावासो न कर्तव्य : कृते कीर्तिधनक्षयम्. -शिल्पशास्त्रम् 4/1

ये चीजें किसी के यश और धन का क्षय कैसे करेंगी, इस के बारे में शिल्पशास्त्र ने कुछ नहीं बताया. इन चीजों को वहां से हटा देने पर और भूमि की साफसफाई करने के बाद ये किसी को क्या कहेंगी, सम झ नहीं आता.

यदि उस स्थान से, जहां घर बनाना है, खोदते समय ईंट निकले तो धन का लाभ होता है, परंतु यदि पत्थर निकले तो सारी संपत्ति का क्षय होगा. यदि सांप निकले तो मौत होगी, यदि कोयला निकले तो वहां घर बनाने वाले का सारा कुछ नष्ट हो जाएगा.

इष्टकायामर्थलाभ: पाषाणे सर्वसम्पद:,
सर्पादौ निधन कर्त्तुरंगारे च कुलक्षयम्.
-शिल्पशास्त्रम्, 4/2

यदि ईंट निकलने पर धन लाभ होता है, फिर तो पत्थर निकलने पर स्वर्ण, रत्न, हीरक आदि मिलने चाहिए, परंतु शिल्पशास्त्र पहली संपत्ति के भी नष्ट होने की बात करता है, जो खुद पत्थर है वह यह सब कैसे कर सकता है?

सर्प यदि निकला है तो उसे ठिकाने लगाओ, वह तुम्हारी मृत्यु कैसे ला सकता है? रही बात कोयले की. जिस स्थान पर नीचे कोयले की खाने हैं, वहां रहने वाले का भी किसी का सारे का सारा कुल नष्ट नहीं हुआ, तुम्हारा कुल धरती के नीचे से निकले कोयले के एक टुकड़े से ही नष्ट हुआ जा रहा है? है कोई तुक इस में?

यदि घर के पूर्व में ढलान हो तो वह वृद्धिकारक होती है, उत्तर में हो तो धनदायक होती है, पर पश्चिम में हो तो हानिकारक होती है. इसी तरह दक्षिण की ओर झुके मकान में रहना भी मृत्युकारक होता है :

पूर्वप्लवो वृद्धिकरो धनदश्चोत्तरप्लव:,
दक्षिणो मृत्युदश्चैव धनहा पश्चिमप्लव : शिल्पशास्त्रम् 4/3

यदि पूर्व में ढलान वृद्धिकारक है और उत्तर में धनदायक, तो पश्चिम में वह हानिकारक क्यों? क्या उधर से खजाना खिसक जाएगा? किस आधार पर? कैसे, उस के धनदायक या वृद्धिदायक होने का भी क्या प्रमाण है? जैसे उस के धनात्मक पक्ष गप और मनगढ़ंत हैं, उसी तरह उस के ऋणात्मक पक्ष हैं.

दक्षिण की ओर झुके मकान से ही क्यों मृत्यु होती है, बाकी दिशाओं में उस के झुके रहने से क्यों नहीं होगी? क्या उन दिशाओं में झुके मकानों में रहने वाले अमर हैं?

पीपल का पेड़

पीपल के पेड़ की प्रशंसा में कई बार जमीनआसमान के कुलाबे मिलाए जाते हैं. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि इसे घर के पूर्व में नहीं लगाना चाहिए. इसी तरह दक्षिण में इमली का, पश्चिम में बरगद का तथा उत्तर में उदुंबर (गूलर) का पेड़ लगाना वर्जित है :

पूर्वेडश्वत्थं वर्जयित्वा तिन्हड़ीं दक्षिणे तथा,
पश्चिमांशे वटं तद्वदुत्तरे न हयुदुम्बरम्. – शिल्पशास्त्रम् 4/4

ये पेड़ जिन दिशाओं में वर्जित कहे गए हैं, वे किस आधार पर कहे गए हैं? वास्तुशास्त्र या शिल्पशास्त्र के पास केवल बातें हैं, जिन्हें आंखें बंद कर के स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस के पास किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है. जो कह दिया, बस वही अंतिम शब्द बन गया. कोई जरा सी भी बुद्धि रखने वाला और जरा सा भी स्वाभिमानी व्यक्ति इस को आंखें मूंद कर कैसे स्वीकार कर सकता है?

आगे के कई श्लोकों में ऐसे ही अन्य वृक्षों के बारे में फतवे जारी किए गए हैं कि यदि पूर्व दिशा में जलभरण होता हो तो पुत्र की हानि होती है, यदि आग्नेय (=दक्षिण पूर्वी) दिशा में होता हो तो अग्निभय होता है, दक्षिण दिशा में हो तो शत्रुभय होता है, यदि नैनहत्य (दक्षिण पश्चिमी) दिशा में हो तो पत्नी से कलह होती है, पश्चिम में हो तो पत्नी दुष्ट होगी, वायव्य (= पश्चिम उत्तर) दिशा में हो तो संपत्ति का क्षय होता है, और उत्तर पूर्व में हो तो वृद्धिकारक होता है :

प्रागादिस्थे सलिले सुतहानि: शिखिमयं रिपुभयं च,
स्त्रीकलह : स्त्रीदौष्टयं नै:ष्टं वित्तामृज वृद्धि:.
-शिल्पशास्त्रम् 4/7

यह फल कथन भी पहले फलकथनों के समान ही निराधार, निर्मूल, मनगढ़ंत और थोथा है. इसी के साथ अध्याय चार समाप्त हो जाता है.
पांचवें अध्याय के केवल 4 श्लोक मिलते हैं, जिन में साधारण सी बातें हैं. पूर्व का कमरा किस नक्षत्र में शुभ होता है, किस दिशा के द्वार में किस ओर मुंह कर के प्रवेश करना चाहिए, आदि.

बिना कोई शिल्प के कोई बात बताए शिल्पशास्त्र समाप्त हो जाता है. क्या इस तरह के ग्रंथ शिल्प की दृष्टि से किसी काम के हैं? ये शिल्प के नाम पर ज्योतिषी, लालबु झक्कड़पन, पुरोहितवाद, अंधविश्वास, छद्मविज्ञान और शकुन आदि को ही प्रचारित करते हैं. इन से सावधान रहने में ही हिंदू समाज का भला है, क्योंकि यह यथार्थ में शिल्पशास्त्र नहीं बल्कि शिल्प का छीछड़ा है, शिल्प का विद्रूप है.

पति पर निर्भर न रहे पत्नी

रीवा और ईशान को शादी के बंधन में बंधे कुछ ही महीने हुए हैं. रीवा एक मल्टीनैशनल कंपनी में वर्किंग है और ईशान का अपना सफल बिजनैस है. जब रीवा और ईशान ने एक होने का निर्णय लिया था तभी उन के कानों में घरपरिवार और आसपास के लोगों की खुसफुसाहट पड़ने लगी थी कि अगर ईशान इतना अच्छा कमाता है तो रीवा को भला नौकरी करने की क्या जरूरत है. रीवा और ईशान दोनों अपने कैरियर के अच्छे मुकाम पर थे और उन दोनों ने लोगों की बातों को अनदेखा करते हुए अपना अलग घर बसाने का निर्णय लिया.

अगर घरपरिवार की सोच के हिसाब से सोचें तो उन्होंने ऐसा निर्णय ले कर बहुत गलत किया लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो उन्होंने बहुत सही निर्णय लिया.

लोगों का काम है कहना

भले ही समाज बदल रहा है और बदलते समय के साथ भारतीय समाज के लोगों की सोच में भी काफी बदलाव आया हो लेकिन आज भी पुरानी सोच के लोगों के मुंह से काम के साथ घर संभालने वाली महिलाओं को ‘जब पति इतना कमाता है तो तुम्हें जौब करने की क्या जरूरत’ सुनने को मिल ही जाता है. लेकिन मौडर्न एज के मैरिड कपल्स ने ‘कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना’ वाली कहावत को सही मानते हुए अपने कैरियर को न छोड़ने का निर्णय लिया.

आप ही सोचिए अगर लड़का अपने कैरियर को बनाने में मेहनत करता है और लड़की भी उतनी ही मेहनत करती है तो उस की मेहनत को कम क्यों आंका जाए और उस से जौब छोड़ने की उम्मीद क्यों की जाए?

पकापकाया नहीं खुद की मेहनत का

हमारे समाज में अधिकांश कपल शादी के बाद पेरैंट्स के साथ उन के बनाए उन के सैटल घर में रहते हैं जहां उन्हें सबकुछ रेडीमेड मिलता है लेकिन वहीं जब रीवा की ईशान की तरह आप अपने घर में अलग रहने का निर्णय लेते हैं तो उस घर में वे हर चीज खुद से करते हैं जिस से उन में न केवल कौन्फिडैंस आता है बल्कि उन्हें दुनियादारी की सम झ और आटेदाल का भाव भी पता चलता है जो हर कपल को सीखना चाहिए.

अलग रहने का एक फायदा यह भी होगा कि आप को फैमिली, नातेरिश्तेदारों की चूंचूं भी नहीं सुननी पड़ेगी और अकेले रहने से नातेरिश्तेदार आप की वैल्यू करेंगे, इज्जत करेंगे कि आप ने अपना घर खुद बनाया है. सास, ननद देवरानी, जेठानी के ताने देने पर लड़की को नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी. वैसे भी, आज के जमाने में एक व्यक्ति की कमाई से न घर बनाया जा सकता है न चलाया जा सकता है. आज की जरूरत है कि पतिपत्नी दोनों काम करें.

पतिपत्नी के बीच प्यार और नजदीकी बढ़ेगी

शादी के बाद हर कपल ऐसी प्लानिंग करे कि वे अलग घर में रहें भले ही और वह घर एक कमरे का हो या दो कमरे का, यंग कपल का अपना अलग किचन होना चाहिए.

इस से उन में अलग रहने का, जीवन के उतारचढ़ावों का सामना करना आएगा, खुद पर गर्व होगा कि वे खुद का घर बना और चला सकते हैं जहां लड़के और लड़की दोनों की भागीदारी होगी. इस से कपल के बीच प्यार और नजदीकी भी बढ़ेगी. पति भी पत्नी की कमाई की वैल्यू करेगा और घरपरिवार दोनों के खर्चे से ही चलेगा.

औरतों को मिलेगी अपनी पहचान

लड़कियों के लिए नौकरी या कमाई करना सिर्फ पैसा कमाने का जरिया होने से ज्यादा आत्मसम्मान, इंडिपैंडैंट बने रहने और अपनी पहचान बनाने का जरिया होता है. यह बात उन परिवारों और समाज को सम झने की जरूरत है जिन्हें लगता है कि पति अच्छा कमाता है तो पत्नी को घर से बाहर जा कर काम करने की क्या जरूरत है.

पतिपत्नी दोनों का होगा घर

जब पतिपत्नी दोनों मिल कर शादी के बाद अपना अलग घर बसाएंगे तो वह घर पतिपत्नी दोनों की कमाई से बनेगा और चलेगा. ऐसे में घर दोनों का होगा और लड़कियों की आखिरकार, शादी के बाद ‘उस का घर कौन सा’ की समस्या भी दूर होगी.

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