Chhaava : रेटिंग- 2 स्टार

हमेशा कहा जाता है कि अधूरा ज्ञान सब से ज्यादा खतरनाक होता है और इतिहास को ले कर दिया गया अधूरा सत्य हमेशा विनाशक ही होता है. मगर हमारे फिल्मकार इतिहास को परदे पर सही ढंग से चित्रित न करने का संकल्प ले चुके हैं. छत्रपती शिवाजी महाराज के पुत्र और स्वराज्य की रक्षा के लिए दृढ़संकल्प रहे संभाजी महाराज के जीवन व कृतित्व पर मराठी भाषा में शिवाजी सावंत ने एक उपन्यास ‘छावा’ लिखा था. इसी उपन्यास को आधार बना कर अब फिल्मकार लक्ष्मण उतेकर हिंदी भाषा में ऐतिहासिक बायोपिक फिल्म ‘छावा’ ले कर आए हैं. जो कि 14 फरवरी से हर सिनेमाघर में रिलीज हो चुकी है.

यह फिल्म वीरता और बलिदान के साथसाथ विश्वासघात के दर्द और स्वराज की निरंतर खोज की कहानी है. कैमरामैन से फिल्म निर्देशक बने लक्ष्मण उतेकर ने 2014 में मराठी फिल्म ‘तपाल’ का निर्देशन किया था. उस के बाद 2017 में मराठी में ही ‘लालबाग ची रानी’ का निर्देशन किया. उस के बाद ‘लुका छिपी’, ‘मिमी’, ‘जरा हटके जरा बच के’ जैसी हिंदी भाषा की फिल्में निर्देशित कीं. और अब लक्ष्मण उतेकर ने पहली बार ‘छावा’ नामक ऐतिहासिक फिल्म का निर्देशन किया है.

हम ने जो इतिहास की किताबें पढ़ी तथा ‘संभाजी पर 6 भाषाओं में प्रकाशित लेखक विश्वास पाटिल की किताब ‘संभाजी’ पर ध्यान दें तो फिल्मकार लक्ष्मण उतेकर ने अधूरा व कंफ्यूज्ड करने वाला इतिहास परोसते हुए सिर्फ संभाजी की वीरता को ही चित्रित करने पर अपना सारा ध्यान लगाया है.

यूं तो फिल्म के निर्माताओं की तरफ से फिल्म के शुरू होते ही ‘अस्वीकरण’ दिया गया है कि उन्होंने किसी धर्म या इंसान का अपमान करने के लिए कोई चीज नहीं रखी है. पर फिल्म को मनोरंजक बनाने के मकसद से सिनेमाई स्वतंत्रता लेते हुए कुछ फेर बदल किए हैं. यह पहली बार हुआ है जब लंबेचौड़े डिस्क्लेमर/अस्वीकरण को आवाज भी दी गई है, वरना अबतक होता यह था कि निर्माता ‘अस्वीकरण’ परदे पर दे देते थे, जिसे दर्शक पढ़ नहीं पाता था.

पहली बार ‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए निर्माता से डिस्क्लेमर को पढ़ कर सुनाने का भी आदेश दे रखा है. पर क्या किसी भी ऐतिहासिक किरदार या घटनाक्रम के साथ ऐसा करना उचित है?

फिल्म की कहानी औरंगजेब (अक्षय खन्ना) के बढ़ते अत्याचारों व छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी के जन्म से शुरू होती है. फिर फिल्म की कहानी छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के बाद शुरू होती है. फिर जनवरी 1681 के काल में शुरू होती है, जब मुगल बादशाह औरंगजेब को मराठा राजा छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन की खबर मिलती है. औरंगजेब और मुगल राहत महसूस कर रहे थे और खुश थे कि वह आखिरकार दक्खन (दक्कन) के मराठा साम्राज्य पर कब्जा कर सकते हैं. लेकिन तभी छत्रपति संभाजी महाराज उर्फ छावा (विक्की कौशल) मुगल साम्राज्य के सब से कीमती शहर बुरहानपुर पर हमला करते हैं और मुगलों को हराने के साथ ही इस शहर को बरबाद कर यहां की सारी संपत्ति ले कर रायगढ़ चले जाते हैं.

संभाजी, औरंगजेब को दक्खन पर अपनी शैतानी नजर न डालने की चेतावनी देते हैं. यह खबर सुनते ही औरंगजेब आगबबूला हो जाता है और वह अपनी पूरी सेना के साथ संभाजी महाराज के वर्चस्व को खत्म करने के लिए निकल पड़ता है.

इधर 1682 और 1688 तक दोनों पक्षों के बीच कई लड़ाइयां हुईं जबकि मुगल, मराठों के कब्जे वाले किलों पर नियंत्रण चाहते थे, लेकिन वे सफल नहीं हुए. सत्ता में आने के दो साल बाद, संभाजी उर्फ संभुराजे ने प्रभावशाली परिवारों के लगभग 24 सदस्यों को मार डाला. जब उन्हें पता चला कि कुछ लोग उन की हत्या की साजिश रच रहे थे. 1685 तक, मुगलों ने संभाजी को पीछे धकेल दिया था और उन के गढ़ों पर कब्जा कर लिया था.

1 फरवरी, 1689 को, औरंगजेब ने संभाजी की सौतेली मां सोयराबाई के रिश्तेदारों व संभाजी के दरबार से जुड़े शिर्के और अन्नाजी दत्तो की मदद से धोखे से अपनी फौज के माध्यम से संभाजी को युद्ध के मैदान में गिरफ्तार किया. फिर उन्हें बंदी बना कर भयानक यातनाएं दीं. उन के सभी नाखून उखाड़ दिए गए. दोनों आंखें व जीभ कटवा दी गईं. पर संभाजी ने आह नहीं भरी. औरंगजेब को उन के अंदर दर्द नजर नहीं आया. संभाजी देश और धर्म की रक्षा के लिए मौत का सामना करने में अपनी अविश्वसनीय बहादुरी का परिचय दिया. वह स्वराज्य से समझौता करने को तैयार न हुए. उन्होंने औरंगजेब के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया. अंततः संभाजी की 11 मार्च, 1689 को मृत्यु हो गई.

फिल्म की शुरूआत के संवाद सुनते ही दर्शक कंफ्यूज्ड हो जाता है कि वह ऐतिहासिक फिल्म ‘छावा’ देखने आया है या कोई मैथोलौजिकल फिल्म देखने आया है. संभाजी के जन्म से पहले गीता के श्लोक का हिंदी अनुवाद दोहराया जाता है कि “जबजब अधर्म व अत्याचार बढ़ता है…’’ इस के बाद ही संभाजी का जन्म होता है.

इतना ही नहीं फिल्म में संभाजी को भगवान कृष्ण तक बता दिया गया है. संभाजी के दरबारी कवि ‘कवि कलश’ का तो मानना है कि संभाजी भगवान कृष्ण हैं और वह स्वयं सुदामा हैं. हकीकत यह है कि फिल्मकार लक्ष्मण उतेकर खुद कंफ्यूज्ड है. एक तरफ वह संभाजी को भगवान कृष्ण भी कहला रहे हैं, तो दूसरी तरफ वह उन की वीरता का प्रदर्शन भी कर रहे हैं. कहानी व पटकथा में काफी झोल है.

फिल्मकार लक्ष्मण उतेकर इतिहास, ऐतिहासिक तथ्यों और संभाजी के व्यक्तित्व उन की निडरता व वीरता के बीच समुचित सामंजस्य बैठाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं. मुगल शासक औरंगजेब एक अति खूबसूरत कोबरा सांप की तरह था, पर ‘छावा’ में औरंगजेब को बहुत ही अजीबोगरीब गेअटप दिया गया है.

इतिहासकार विश्वास पाटिल के शब्दों में कहें तो कई दृश्यों में लक्ष्मण उतेकर का औरंगजेब किसी जामा मस्जिद के सामने भीख मांगने वाला भिखारी नजर आता है. हम ने जो इतिहास के पन्नों में पढ़ा है, उस के अनुसार संभाजी महाराज के अति करीबियों ने ही उन्हें धोखा दिया था, तभी उन्हें औरंगजेब के सिपाही कैद करने में सफल हुए थे. उस के बाद औरंगजेब ने संभाजी को बहुत ही कठोर यातनांए दी थीं. पर संभाजी अपने स्वराज्य के लिए टूटे नहीं थे.

अंततः 11 मार्च 1989 के दिन औरंगजेब ने संभाजी को मौत देते हुए उन के शरीर के कई टुकड़े कर फिकवाते हुए घोषणा करवाई थी कि जो इंसान संभाजी के शरीर के टुकड़ों को एकत्र कर उन का अंतिमसंस्कार करेगा, उस के साथ अच्छा नहीं होगा. लेकिन उस गांव के गायकवाड़ परिवार ने निडर हो कर इस काम को अजाम दिया था. उस के बाद औरंगजेब ने रायगढ़ पर हमला किया.

बाद में संभाजी की पत्नी येसुबाई व संभाजी के बेटे साहू को 29 साल तक बंदी बना कर रखा था. पर फिल्म में संभाजी को कुछ यातनाएं देने के दृश्यों के बाद उन की मौत की बात कह कर फिल्म खत्म हो जाती है. फिल्म में औरंगजेब की बेटी जीनत को जरूरत से ज्यादा तवज्जों दी गई है. संभाजी को क्रूरतम यातनाएं देने का आदेश औरंगजेब देते हैं, पर फिल्मकार ने यह सारे आदेश औरंगजेब की बेटी जीनत से दिलवाए हैं, और उस वक्त औरंगजेब अपनी बेटी के आगे लाचार नजर आते हैं.

फिल्म में युद्ध के ही दृश्यों की भरमार है. बतौर निर्देशक लक्ष्मण उतेकर कुछ जगहों पर काफी निराश करते हैं. जिस तरह से उन्होंने विक्की को संभाजी महाराज के रूप में पेश किया है, उस में कई कमियां हैं. कई जगहों पर विक्की का चीखनाचिल्लाना और उन का गुस्सा बनावटी लगता है. वहीं कुछ सीन ऐसे हैं जिन्हें देख कर आप के रोंगटे खड़े हो जाएंगे. संभाजी जैसा वीर बहुत कम ही हुए हैं. संभाजी ने अपने देश/स्वराज के लिए जो यातना सही, वह दिल दहला लेने वाली हैं. अगर छोटीछोटी बातों पर थोड़ा और ध्यान दिया जाता तो शायद यह फिल्म परफैक्ट हो सकती थी.

फिल्मकार लक्ष्मण उतेकर विक्की कौशल के संभाजी के किरदार के अलावा किसी भी अन्य किरदार के साथ न्याय करने में सफल नहीं रहे. येसूबाई का किरदार महज सजावटी गुड़िया के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म की गति काफी धीमी है. इसे एडिटिंग टेबल पर कसे जाने की जरूरत थी.

कुछ एक्शन/युद्ध दृश्य जरूर अच्छे बन पड़े हैं. ग%E

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