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रूस के लिए चीन ज्यादा अहम या भारत

चीन से तनाव के बीच रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह रूस की 3-दिनी यात्रा कर लौट आए हैं. रूस हमारे देश का पारंपरिक व ऐतिहासिक भागीदार रहा है. उस का भारत के रक्षा क्षेत्र में किसी भी देश से अधिक योगदान रहा है.

अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में कोई स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं होता, केवल हित स्थायी होते हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालते ही भारत सरकार ने देश के पुराने और नए दोस्तों की लिस्ट पर एक नज़र डाली और कुछ नए दोस्तों को प्राथमिकता दी. निश्चित रूप से मोदी सरकार की इस विदेश नीति का आधार भी राष्ट्रीय हित ही रहे होंगे और उस ने अपने नए व पुराने दोस्तों के बीच संतुलन स्थापित करने का भी प्रयास किया होगा.

लेकिन, मोदी सरकार से चूक कहां हुई कि रूस जैसे रणनीतिक साझेदार भी पीछे छूट गए.

कट्टर सोच बड़ी रुकावट :

वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी का कट्टर राष्ट्रवादी और कट्टर हिंदुत्ववादी वाला वैचारिक बैकग्राउंड जहां उन की सब से बड़ी ताक़त है, तो वहीं यह उन की राजनीति की सब से बड़ी कमज़ोरी भी. कट्टर राष्ट्रवादी और कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा की लहर ने उन्हें सत्ता सौंपी, लेकिन यही विचारधारा  घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वास्तविक राष्ट्रीय हितों की पहचान के मार्ग में सब से बड़ी रुकावट है.

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कट्टर राष्ट्रवादी और कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा का दूसरा पहलू यह है कि देश के कट्टर राष्ट्रवादियों को पाकिस्तान नामक भूत कभी सोचनेसमझने का मौक़ा नहीं देता. इसलिए, वे उस से हार या जीत से आगे बढ़ कर कुछ सोच ही नहीं सके. हालांकि बगल में चीन जैसा शक्तिशाली और बड़ा देश  समयसमय पर पड़ोसी देश (भारत) को जगाने के लिए झटके देता रहा, लेकिन उस के नेताओं के दिमाग़ से पाकिस्तान का ख़ुमार कभी उतरा ही नहीं.

भ्रष्टाचार में भारत, विकास की ओर चीन :

मोदी सरकार और उस से पहले की कांग्रेस सरकार घरेलू स्तर पर फ़र्ज़ी आतंकवाद, मुसलमानों की लिंचिंग, दलितों व अल्पसंख्यकों को मूल सुविधाओं से वंचित रखने जैसी नीतियों से ख़ुद को आज़ाद नहीं करा सकीं और सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबी रहीं.

जबकि, चीन बड़ी ख़ामोशी से विकास का रास्ता तय करता रहा और उस ने अपने देश में विज्ञान व तकनीक का मज़बूत तानाबाना बुन लिया. चीन आज अमेरिका हो या रूस, दुनिया के क़रीब हर बड़े देश का मुख्य साझेदार है और वह सब की ज़रूरत बनता जा रहा है.

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उदाहरण के तौर पर, चीन और रूस के बीच पारस्परिक सालाना व्यापार 110 अरब डौलर से भी अधिक है, तो वहीं भारत और रूस के बीच पारस्परिक सालाना व्यापार केवल 7 अरब डौलर है. उधर, चीन और अमेरिका के बीच सालाना व्यापार 559 अरब डौलर है तो भारत और अमेरिका के बीच सालाना व्यापार केवल 87.9 अरब डौलर है.

भारत और चीन के बीच पिछले साल द्विपक्षीय व्यापार क़रीब 85 अरब डौलर का हुआ, जिस में भारत ने चीन को क़रीब 16 अरब डौलर का निर्यात किया, जबकि  चीन से लगभग 52 अरब डौलर का आयात किया. आयात और निर्यात के बीच इतने बड़े अंतर से ख़ुद भारत की चीन पर निर्भरता साफ़ दिखाई देती है.

रूस का अपना हित :

अब जहां तक मास्को (रूस की राजधानी) की बात है, वह चीन के साथ 110 अरब डौलर के मुक़ाबले भारत से 7 अरब डौलर के लिए बीजिंग (चीनी की राजधानी) को नाराज़ नहीं करना चाहेगा वह भी एक ऐसी सरकार (मोदी सरकार) के लिए जो पुराने संबंधों और समझौतों को नज़रअंदाज़ कर के नए दोस्तों की खोज में इधरउधर भटक रही हो.

सरकार की मानसिकता भी ज़िम्मेदार :

दरअसल, ख़ुद को कट्टर राष्ट्रवादी बताने वाले सत्ताधारी भाजपाई हों, संघी हों या उन के समर्थक, उन सभी की सोच का मुख्य आधार इसलामोफोबिया, भारतीय मुसलमानों से नफ़रत और उन्हें नीचा दिखाने पर है. वे राष्ट्रहित भी इसी सोच के इर्दगिर्द तलाश करते हैं. अब आप इसे घरेलू नीति के रूप में देख लें या विदेश नीति के तौर पर. दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. इन कट्टर राष्ट्रवादी संघियों का ख़याल है कि इसराईल और अमेरिका मुसलमानों के दुश्मन हैं, इसलिए वही हमारे सच्चे दोस्त हो सकते हैं.

मोदी सरकार ने इसी मानसिकता के साथ हर मौक़े पर अमेरिका और इसराईल को हद से ज़्यादा महत्त्व देना शुरू कर दिया और रक्षा क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मान कर रूस व ईरान जैसे भारत के पारंपरिक, भरोसेमंद सहयोगियों को हलके में लेना शुरू कर दिया.

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उधर, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में रूस के पास शतरंज की बिसात पर शह व मात की कई चालें थीं, तो उन्होंने भी भारत के धुरविरोधी चीन और पाकिस्तान के बाज़ारों में नई संभावनाएं खोजनी शुरू कर दीं.

मास्को और बीजिंग के बीच बढ़ता आर्थिक तथा रक्षा सहयोग  निश्चित रूप से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. हालांकि रूस ने भारत और चीन के बीच अपने रिश्तों में एक संतुलन बनाने की कोशिश की, लेकिन पश्चिम की ओर मोदी सरकार के बढ़ते रुझान ने इसे काफ़ी हद तक असंतुलित कर दिया.

याद आई अब :

अब, लद्दाख एलएसी (लाइन औफ ऐक्चुअल कंट्रोल) पर चीन के साथ जारी तनाव के दौरान भारत को एक बार फिर रूस की शिद्दत से याद आई और भारतीय रक्षा मंत्री अपने हथियारों को अधिक धारदार बनाने व उन की मारकक्षमता बढ़ाने के लिए मास्को रवाना हुए, लेकिन उन्हें वहां से लगभग निराश हो कर वापस लौटना पड़ा. दरअसल, भारत सरकार काफ़ी देर से जागी और चीन अंतर्राष्ट्रीय नीति के स्तर पर भी भारत से बाज़ी ले गया. यहां तक कि रूसी अधिकारियों ने ऐलान कर दिया कि भारत-चीन टकराव में मास्को पूरी तरह से निष्पक्ष रहेगा. रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने अपने देश का मत साफ़ करते हुए कहा, “मुझे नहीं लगता कि भारत और चीन को बाहर से कोई मदद चाहिए. मुझे नहीं लगता कि उन्हें मदद करने की आवश्यकता है, खासकर जब मामला देश के मुद्दों से जुड़ा हुआ हो.”

रूस की स्थितियां अनुकूल नहीं :

इतिहास पर नज़र डालें, तो 2017 में डोकलाम विवाद के समय रूस ने तटस्थता की नीति अपनाई. इस से पहले 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में तो भारत का साथ रूस ने दिया लेकिन चीन के खिलाफ 1962 के युद्ध में नहीं. औब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडी प्रोग्राम के हेड, प्रोफ़ैसर हर्ष पंत का कहना है, “रूस के लिए परिस्थितियां कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं. आबादी पाकिस्तान से भी कम है जबकि ज़मीन यानी क्षेत्रफल बहुत ज़्यादा, जो यूरोप से एशिया तक फैला है. अपनी सुरक्षा के लिए रूस पूरी तरह तकनीक पर निर्भर है और इस में उस का बड़ा साथी चीन है. ऐसे में किसी एक का साथ दे कर रूस पड़ोसियों के साथ किसी संघर्ष में उलझने का रास्ता चुने, ऐसा नहीं लगता.”

लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान में रूस की हालत ख़राब है जिस में चीन से उसे मदद चाहिए. इधर, भारत का झुकाव अमेरिका की तरफ होने से रूस का भारत पर विश्वास थोड़ा सा कम हुआ है. ऐसे में भारत को खुली आंखों से यह देखना चाहिए कि रूस के लिए भारत भले ही एक महत्त्वपूर्ण साथी हो, पर वह भारत का एकतरफा समर्थन करने की स्थिति में नहीं है.

सुशांत सिंह राजपूत की मौत का यूं उत्सव मनाना संवेदनाओं की मौत होना है

मैं काफी कोशिश कर रहा था कि इस विषय पर न लिखूं. लेकिन, पिछले 15 दिनों से लगातार मीडिया में इस मुद्दे को सनसनीखेज बनाकर चलाए जाने से अब तंग आ चुका हूं. सुशांत क्या खाते थे?, क्या पीते थे?, उनके क्या सपने थे?, कैसे रहते थे?, दोस्त कोन थे?, भाई क्या करता है?, पिताजी रो रहे हैं?, कमरे कितने हैं?, चादर कैसी है? चाँद पर घर लिया है इत्यादि यह सब बातें मीडिया द्वारा जबरन लोगों को परोसी जा रही हैं.

जाहिर है उनकी खुदखुशी ने पुरे देश को हैरान किया है, जिसे किसी के लिए भी यकीन कर पाना आसान नहीं है. ऐसे मोके पर किसी भी मानवीय प्रवृति वाले इंसान का दुखी होना लाजमी हैं, और होना भी चाहिए. यही तो इंसान को इंसान से जोड़ता है. लेकिन जब यही मानवीयता लोगों के लिए दिखावा और मीडिया के लिए पैंसा कमाने का धंधा बन जाए तो ठगा हुआ भी महसूस होता है.

मैं फ़िल्में अधिक नहीं देखता. लेकिन फ़िल्मी कलाकारों को पहचान जरूर लेता हूँ. मुझे याद है पहली बार सुशांत को मैंने तब जाना था जब देश में जातिवादी एहंकार के चलते कुछ लोग पद्मावत फिल्म का विरोध कर रहे थे (हांलाकि फिल्म देखने के बाद लगा की इस फिल्म का विरोध करणी सेना को नहीं बल्कि प्रगतिशील तबके द्वारा होना चाहिए था). खैर, करणी सेना का विरोध इतना बढ़ा कि डायरेक्टर भंसाली को उनके लोगों ने थप्पड़ तक जड़ दिया.

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इसी के चलते सुशांत सिंह ने अपने नाम के आगे लगने वाले जातीय पहचान “राजपूत” को हटा दिया था. उनके इस फैसलें से उन्होंने यह साबित किया कि वह सिर्फ पर्दे के कलाकार ही नहीं बल्कि समाज के भी कलाकार है. जाहिर है उनके इस फैसले ने मुझे प्रभावित किया था. और मुझे भी प्रसंशक बना दिया. किन्तु उस समय देश के इन्ही सोशल मीडिया यूजर्स ने, जो आज दिन रात उनकी गाथा गाते थकते नहीं, उनके इस कदम पर उन्हें खूब ट्रोल कर  रहे थे.

लेकिन मसला यहां यह नहीं है कि सुशांत कैसे कलाकार थे. मसला यह है कि देश में सुशांत की मौत के अलावा और भी कुछ हो रहा है जो इस खबर को सनसनीखेज बनाके दबाया जा रहा है. जाहिर है देश में कोरोना का कहर अभी भी जारी है. देश में साढ़े 5 लाख कोरोना के मामले सामने आ चुके हैं जिसमें अभी तक 16,475 लोगों की मौत हो चुकी है. हांलाकि, मीडिया में अब कोरोना से मरने वाले लोगों की मौत महज आकड़ा बन कर रह गए हैं. इस पर केंद्र सरकार से सवाल करना मानो पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा हो गया है.

जिस तालाबंदी को ब्रह्मास्त्र मान कर प्रधानमंत्री 21 दिन के युद्ध की घोषणा कर रहे थे. उस युद्ध की विफलता की चर्चा न तो मीडिया में है, और न ही इस कारण लोगों के बीच है. आखिर इतने कठोर तालाबंदी के कारण आज देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है. लोगों की उपभोक्ता क्षमता ख़त्म हो चुकी है. करोड़ों लोगों की नोकरी जा चुकी हैं. लोग भूख से बेदम हो चले हैं. कितने लोग मौत के घाट उतर चुके है, या उसी की प्रतीक्षा में है. लेकिन यह खबरे मीडिया में ठहर ही नहीं रही है.

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तालाबंदी में आत्महत्या”एँ”

आज सुशांत की मौत को लेकर मीडिया में इस बहस को खूब चलाया जा रहा है. एंकर चीख चीख कर कह रहे हैं कि बॉलीवुड में परिवारवाद खूब चलता है. जिसकी वजह सुशांत ने तंग आकर आत्महत्या की. चलो यह माना भी जाए किन्तु इसी दौरान कितने लोग गरीबी, भुखमरी, तालाबदी से उपजे मानसिक तनाव से आत्महत्या कर चुके हैं किन्तु उस पर कोई बात करने को तैयार नहीं. कोई एक प्राइम चलाने को तैयार नहीं. अकेले झारखंड राज्य के आकड़ों को देखा जाए हर 4 घंटे 50 मिनट के भीतर लोगों ने इस तालाबंदी में आत्महत्याएँ की हैं. झारखंड सरकार द्वारा जारी किये आकड़ों में मार्च से लेकर जून 25 तक 449 लोग आत्महत्या कर चुके हैं. अगर इन आकड़ों को माना जाए तो हर दिन 5 लोग आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. इस मामले पर जानकारों का कहना है कि इसका बड़ा कारण बेरोजगारी, पैंसों की तंगी, लाकडाउन से उपजा मानसिक तनाव है.

जाहिर है देश में पहले से रगड़ खाती अर्थव्यवस्था को लाकडाउन ने और खराब स्थिति में लाकर छोड़ दिया है. देश इस समय अभूतपूर्व बेरोजगारी झेल रहा है. और यह समझ आ रहा है कि इसे वापस पटरी पर सामान्य होने में लम्बा समय लगने वाला है. ऐसे में इस तरह की घटनाएं सरकार की नाकामियों को दिखाता है.

वहीँ झारखंड के अलावा अकेले लुधियाना से 100 आत्महत्याओं के होने की पुष्टि हुई है. जिसमें मुख्य तौर पर वही बेरोजगारी, पैसों की तंगी, परिवार की जिम्मेदारी इत्यादि बाते सामने आई हैं. मरने वालों में अधिकतम 30-40 साल की उम्र के युवा हैं. जाहिर है यह उम्र अपने करियर और घर की जिम्मेदारी सँभालने के लिए सबसे ज्यादा दबावयुक्त होती है. यह चीजें सीधा दर्शाती है कि मीडिया का बड़ा खेमा आत्महत्या का सिर्फ एक एंगल सेट करने में लगा हुआ है. जिसमें वह लगातार दर्शकों के दिमाग में यह डालने की कोशिश कर रहा है कि आत्महत्या का तालुक सिर्फ आर्थिक नहीं होता.

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अपवाद से चीजें निर्धारित नहीं होती

जाहिर है यह बात सही है कि आत्महत्या का ताल्लुक सिर्फ आर्थिक नहीं होता. किन्तु कौन सी चिंताएं मानसिक रूप से अधिक दिक्कत में डाल सकती है उसमें सबसे बड़ा कारण आर्थिक होता है. भारत में आए दिन कर्ज तले दबे सैकड़ों किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होते हैं. कितने ही बेहतर करियर(नोकरी) पाने के चक्कर में पढ़ाई में असफल होने के दुःख के चलते आत्महत्या कर लेते हैं. कितने ही घर में खाने का निवाला न होने के चक्कर में परिवार सहित जहर खा कर जान दे देते हैं. किन्तु ऐसे अपवाद ही होते है जिनके पास रोजगार, पैसों, घर की जिम्मेदारी की समस्या नहीं होने के बावजूद आत्महत्या करते हैं.

किन्तु मीडिया का सुशांत की आत्महत्या (जिसमें लगातार कहा जा रहा है कि दोलत, शोहरत, अच्छा जीवन सब कुछ था) को विशेष तौर पर उठाना यह दर्शाता है कि उनकी प्राथमिकता में बहुसंख्यक स्तर पर होने वाले आत्महत्याओं पर बहस खड़ी करने का नहीं है बल्कि चर्चित मामले को सनसनी बना कर इस मामले में टीआरपी बटोरने का है. वहीँ अगर देखा जाए तो सुशांत की आत्महत्या को केंद्र में लाकर वह उन तमाम आत्महत्याओं से ध्यान हटवाना चाहते हैं जो इस तालाबंदी के समय लोगों ने घरों में परेशान होकर की हैं. फिर चाहे वह बेरोजगारी के कारण हो, भुखमरी के कारण हो या तालाबंदी के तनाव के चलते हो.

इसके पीछे कुछ और मंशा?

किन्तु यह मामला इतना सीधा नहीं लगता जितना दिख रहा है, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक रैपर भी लपेटा हुआ है. ध्यान हो तो भारत देश की तालाबंदी बाकी देशो के मुकाबले अधिक कठोर थी. इससे जो सबसे बड़ी समस्या उभर कर आई थी वह प्रवासी मजदूरो की समस्या थी. जाहिर है इससे उत्तर भारत में बिहार राज्य सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक था. जहां लाखों की संख्या में लोगों ने घर वापसी की. ऐसे में सबसे बड़ी दिक्कत उनके सामने भूख और रोजगार की उभर कर आई है.

किन्तु सुशांत के मरने के बाद खासकर बिहार के लोगों में अब यह मामला क्षेत्रीय अस्मिता वाला एंगल भी जोड़ रहा है. जितनी मीडिया में सुशांत की खबर चलती है उतना लोगों को लगता है कि उनके प्रदेश का एक होनहार लड़का लगभग उसी परिवारवाद का शिकार हुआ, जिसे देश ने कांग्रेस कार्यकाल में भोगा, और जिसकी दावेदारी अब तेजस्वी ठोकना चाहते है बिहार में. इसीलिए मीडिया और भाजपा के लिए यह खबर दोनों हाथ लड्डू आने जैसा भी है. मसला यह कि फिलहाल बिहार में तेजस्वी को नेता के तौर पर लोग स्वीकार नहीं करना चाहते है लेकिन बचेकूचे “लालू के बेटे” वाले टेग को इस तरीके से उखाड़ने की कोशिश की जा रही है.

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कई हित साधे गए?

खैर, इस मुद्दे से न सिर्फ बिहार प्रकरण बल्कि भारत-चीन के मुद्दे पर घिरती सरकार को लोगों का ध्यान बिद्काने में ख़ासा मदद मिली. जो सवाल यहां वहां से उठ कर भारत-चीन मसले पर सरकार से हो रहे थे, उन्हें सुशांत की आत्महत्या की ताबड़तोड़ कवरेज करके दबाया गया. जिन लोगों को सीमा पर तनाव की चिंता और शहीदों के मरने का दुःख होना था उन्हें उससे ज्यादा मजा सेलेब्रिटी क्लैश की अपडेटड खबरे पढने में आ रहा था. जो लोग अभिनन्दन के पकिस्तान के कब्जे में लिए जाने पर राष्ट्रीय शोक मना रहे थे उन्हें देश के 10 जवान चीन ने पकड़े उसकी कोई चिंता तक नहीं थी, यहां तक की मलाल तक नहीं हुआ जब यह खबर सामने आई.

देश के लोग सेलेक्टिव क्यों हो चले हैं?

आज हालत यह है कि सरकार देश का नियंत्रण पूरी तरह से डंडे के जौर पर करना चाहती है. पुलिस बल को विशेष छूट दी जा रही है. डंडो की आजमाइश लगातार चल रही है. जो डंडे से नहीं डर रहा उसे देशद्रोही बताया जा रहा है. मुकदमा ठोका जा रहा है. तालाबंदी में यह हाल देखा ही था कि किस तरह से लोगों को भोजन देने की जगह डंडे मारे जा रहे थे. लाखों लोग रास्तों में सैकड़ों मील पैदल चले. कई लोग रास्तों में भूखे पेट मर खप गए. लेकिन लोग इन मामलों में संवेदनशील नहीं हुए.

किन्तु अगर तालाबंदी को छोड़ भी दिया जाए तो देश में अन्यथा डंडो के जौर पर सरकार चलाने पर विश्वास किया जा रहा है. ताजा उदाहरण, तमिलनाडु (तूतीकोरिन) में हुई बाप-बेटे की पुलिस कस्टडी में हुई मौत इसका गवाह है कि किस तरह से पुलिस को सम्पूर्ण अधिकार दिए जा रहे हैं. छोटी छोटी चीजों पर हद पार प्रताड़ना की जा रही है. किन्तु लोगों और मीडिया के लिए तमिलनाडु की घटना चुप्पी साधना मानवीय संवेदना के परखच्चे उड़ाने जैसा हैं. यह गैर मानवीयता व्यवहार दिखाता है कि लोग संवेदना प्रकट करने का सिर्फ दिखावा करते हैं. अगर सच में हमारे भीतर संवेदना होती तो कलाकार सोनू सूद को प्रवासी मजदूरों की मदद करने के लिए हीरो या वीर बनाने की जगह सबसे पहले सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाता. उनसे उनकी लापरवाहियों पर सवाल किया जाता.

आज हकीकत यह है कि देश में स्थिति असमान्य है. लोगों के पास रोजगार नहीं है, या है तो हमेशा जाने का डर लगा रहता है. देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा है. लोग आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. भुखमरी बड़ी समस्या बनकर उभर कर सामने आ चुकी है. जिस कारण मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है. सरकार देश में संभावित उठते रोष को या तो डंडे के बल पर दबाना चाहती है या ध्यान भटकाना चाहती है. लोग जिसे अपनी मानवीय संवेदना समझ रहे है वह या तो भटकाव है या भक्ति है. यही कारण भी है कि लगातार ऐसे मुद्दे लोगों के सामने जबरन हद से ज्यादा परोसे जा रहे हैं जिससे आम लोगों का एक सीमा से ज्यादा कोई लेना देना नहीं है. जिससे न तो उनके रोजगार के मुद्दे हल होने वाले है और न ही स्वास्थय सम्बन्धी. जिससे न तो उन्हें रोटी मिलने वाली है न शिक्षा.

जिद-भाग 3: शिशिर चंचल पर क्यों चिल्लाया ?

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘हम्म… मुझे लगता था कि तेरे पास बंगला है, गाड़ी है, पैसा है, सब है तो तू तो बहुत खुश होगी. लेकिन जब अंकल ने बताया कि तुम साल में एक ही बार पीहर आती हो, तो कुछ खटका सा हुआ. सब ठीक है न चंचल? तुम बिजी रहती हो, इसीलिए कम आ पाती हो न घर?‘‘

अब बारी चंचल की थी, ‘‘हां, बिजी तो रहती हूं. 2 बच्चे, सासससुर, जेठजेठानी और पतिदेव. उस पर से इतनी बड़ी कोठी. कहां समय मिलता है?‘‘

चंचल की आंखों का शून्य, लेकिन आकांक्षा पढ़ चुकी थी, ‘‘और जौब…? तुझे तो अपनी आजादी बहुत पसंद थी. जौब क्यों नहीं की तुम ने?‘‘

‘‘शिशिर…‘‘

‘‘शिशिर? तुम ने बात की थी न शादी से पहले ही उस से तो…? फिर क्या बात हुई?‘‘

‘‘हां, की थी, लेकिन मांजी को पसंद नहीं और शिशिर भी मां का कहा नहीं टाल सकते. सो, अब सुहाना और आशु ही जौब है मेरी,‘‘ मुसकराते हुए चंचल बोली.

‘‘हम्म…तू खुश है?‘‘

‘‘हां बहुत, सबकुछ तो है मेरे पास, किस बात की कमी है?‘‘

तभी भाई का फोन आ गया, ‘‘दीदी, आशु आप को ढ़ूंढ़ रहा है तब से. रोरो कर बुरा हाल कर लिया है अपना. आप आ जाइए, जल्दी.‘‘

‘‘ओह्ह, आई मैं बस. तब तक उसे तुम किंडर जौय दिला लाओ. थोड़ा ध्यान भटकेगा उस का. मैं पहुंच ही रही हूं बस,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट होने के साथ ही चंचल उठ खड़ी हुई.

‘‘निकलना होगा अक्कू मुझे. आशु रो रहा है. आते वक्त नाना के साथ खेलने में इतना बिजी था कि मैं ने डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा.‘‘

‘‘अच्छा सुन, फोन करना… और मिलती भी रहना अब, बिजी मैडम,‘‘ गले लगाते हुए आकांक्षा ने बोला.

हड़बड़ाहट में भी चंचल के चेहरे पर मुसकान आ गई. ‘‘मिलते हैं. चल, बाय. खयाल रखना अपना. मैं फोन करती हूं.‘‘

10 मिनट बाद चंचल अपने घर थी और आशु में बिजी हो गई. उधर आकांक्षा भी अपने वीकेंड वाले काम निबटाने में लग गई है. सबकुछ रुटीन जैसा दिख रहा है, चल भी रहा है, लेकिन दोनों के मन में उथलपुथल मची है.

अपनेअपने रुटीन में बिजी ये दोनों सहेलियां, जिन के पास खुद के बारे में सोचने का समय नहीं होता, वो दोनों ही एकदूसरे के बारे में सोच रही हैं, बल्कि सोचे ही जा रही हैं.

चंचल की आंखों के सामने से आकांक्षा को रोना नहीं आ रहा. और आकांक्षा के जेहन से चंचल के ये शब्द, ‘‘सबकुछ तो है मेरे पास, किस बात की कमी है?‘‘

आकांक्षा जानती है कि इस बात का मतलब है कि जो दिख रहा है, वो सच नहीं है. इधर चंचल आकांक्षा के साथसाथ मौडल मीनाक्षी के बारे में भी सोच रही थी. सब से कमजोर बैकग्राउंड होने के बाद भी उस ने वो पा लिया, जो उस ने चाहा था. उस के पास सब से ज्यादा जो था, वो थी ‘जिद‘, वरना उस के सपनों का कौन मजाक नहीं उड़ाता था कालेज में.

रविवार के बाद सोमवार भी इसी तरह गुजर गया. न औफिस में मन लगा आकांक्षा का, न घर में. मांपापा, भाईबच्चे, सब के होते हुए भी चंचल अपने में खोई सी रही. जाने क्या था वो, जो दोनों के मन में बीज ले रहा था.

मंगल की शाम को चंचल ने भाई को आवाज लगाई, ‘‘मनु, ओ मनु…‘‘

‘‘आया दीदी.‘‘

‘‘एक बात बता… एमबीए कंपलीट हुए मुझे 10 साल हो गए न, इतना गैप हो जाने के बाद कोई जौब मिलेगी क्या मुझे?‘‘

‘‘जौब? अचानक से दीदी? जीजाजी से पूछा आप ने? और समधिनजी, उन को बुरा लगा तो…?‘‘

‘‘मैं ने जो पूछा, उस में से किसी एक बात का भी जवाब नहीं दिया तू ने. तेरे जीजाजी और समधिनजी को नहीं करनी जौब. मुझे करनी है जौब. अब तू कुछ हैल्प कर सकता है तो बता या मैं कुछ और सोचूं?‘‘

अपनी दीदी में अचानक से आए आत्मविश्वास को देख आश्चर्यमिश्रित खुशी से मनु बोला, ‘‘अरे, करूंगा क्यों नहीं? लेकिन सच बात यह है कि इतने गैप के बाद आप को अच्छा पैकेज मिलना मुश्किल है. बहुत स्ट्रगल रहेगा, जौब मिलना भी एक मुश्किल टास्क रहेगा. कंपनियां एक्सपीरियंस्ड लोगों को पहले बुलाती हंै.‘‘

‘‘अच्छा…‘‘ मायूस हो गई चंचल.

‘‘अरे, इस में उदास होने वाली क्या बात है? पूरी बात तो सुनिए.‘‘

‘‘सुना…‘‘

‘‘वर्क फ्रौम होम कर सकती हैं आप दीदी. शेयर मार्केट की करंट स्ट्रेटेजी समझने के लिए एक सर्टिफिकेट कोर्स कर लो आप. फिर आप अपने हिसाब से औनलाइन टाइम स्पैन सलैक्ट कर पाएंगी. और बच्चों को भी देख पाएंगी.‘‘

‘‘हम्म…. ठीक.‘‘

‘‘मुझे कल तक का समय दो, मैं पूरी डिटेल्स पता कर के बताता हूं आप को.‘‘

इधर, डिनर पर पंकज, हमेशा की तरह अपनी कंपनी और मालिक संचेती के बखान किए जा रहा था, लेकिन आकांक्षा का ध्यान न खाने में था और न ही पंकज की बातों में. डिनर के बाद पंकज ने पूछा भी, ‘‘तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी? इतवार से देख रहा हूं तुम्हें, बुझीबुझी सी हो. और तुम ने बताया भी नहीं कि तुम्हारी सहेली से मुलाकात कैसी रही? क्या झटका दे दिया उस ने मेरी जान को?‘‘

‘‘कुछ भी तो नहीं,‘‘ एक फीकी मुसकान के साथ आकांक्षा उठ कर अपने काम में लग गई.

पंकज ने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वह अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुका है. अब न बताएं तो आकांक्षा की मरजी. आकांक्षा भी जानती थी कि औपचारिकता थी वो, दोबारा नहीं पूछने वाला पंकज.

मंगल की रात दोनों सहेलियों के लिए मंगलकारी या यों ही कहिए, क्रांतिकारी रही. आकांक्षा ने खुद को इस बात के लिए तैयार किया कि वो पंकज को साफसाफ शब्दों में बात करेगी कि वो मां बनने की खुशी से अब और दूर नहीं रह सकती और चंचल ने तमाम कोर्सेज देख कर, दिल्ली के एमिटी कालेज में एप्लाई भी कर दिया.

बुधवार की सुबह दोनों के लिए परीक्षा की घड़ी थी जैसे. चंचल शिशिर के फोन का इंतजार कर रही थी और आकांक्षा पंकज के जागने का.

‘‘हैलो, कैसी है मेरी दो जान? और जान की स्वीट सी मम्मी? सुबह हुई या नहीं?‘‘

‘‘हैलो शिशिर, हम सब अच्छे हैं. आप लोग सब कैसे हैं?‘‘

शिशिर को याद आया कि सालों से चंचल ने उसे नाम से नहीं बुलाया है, एकदम से अपना नाम सुन कर चैंक सा गया, ‘‘हम भी बढ़िया. क्या बात है चंचल? सब ठीक है न?‘‘

‘‘हां, सब बढ़िया. क्यों, क्या हुआ?‘‘

‘‘लगा मुझे, अच्छा सुहाना से बात कराओ तो…‘‘

‘‘शिशिर, मुझे आप से कुछ बात करनी है?‘‘

‘‘हां, हां, बताओ.‘‘

‘‘मैंने एमिटी से शेयर मार्केट में स्पेशलाइजेशन सर्टिफिकेट कोर्स एप्लाई किया है.‘‘

‘‘अच्छा? क्यों अपने गरीब भाई को हैल्प करनी है क्या तुम्हें?‘‘ व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए शिशिर बोला.

जिद-भाग 2: शिशिर चंचल पर क्यों चिल्लाया ?

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

चंचल को अपनी इन खयालों की दुनिया से बाहर ले कर आई शिशिर की आवाज, “चंचल, मां बुला रही है, ड्राइंगरूम में, जल्दी आओ.“

यह सुन कर चंचल का दिल जोरों से धड़कने लगा कि अब खैर नहीं. डिनर का वक्त तो टल गया, लेकिन अब पक्की तरह से क्लास लगेगी.

ड्राइंगरूम में पहुंच कर देखा तो सब शांत था यानी कि कोई और बात है, चलो अच्छा हुआ.

मिसेज रस्तोगी ने बिठाया दोनों बहुओं को और अपने फौरेन टूर के बारे में बताने लगीं. इस बार रक्षाबंधन पर उन का यूरोप घूमने का प्लान है, अपनी दोनों बेटियों और दोनों बेटों के साथ. दोनों बहुओं को इस के एवज में छूट दी गई थी कि वो एक हफ्ता अपने पीहर रह कर आ सकती हैं, चाहें तो…

चंचल की आंखों में चमक आ गई, जैसे कि मांगी मुराद मिल गई हो, बल्कि उस से ज्यादा. अब वो आकांक्षा के साथ कितना सारा वक्त बिता पाएगी. बाकी घर वालों को उस की खुशी का राज समझ नहीं आ रहा था, लेकिन चंचल बहुत खुश थी.

आखिरकार रक्षाबंधन का समय भी आ गया. इधर, सुहाना और आशु खुश थे कि एक सप्ताह ननिहाल में धमाल मचाएंगे. तो उधर, चंचल के मन में भाई के साथसाथ आकांक्षा से मिलने की बेचैनी. चंचल के मातापिता तो तब से अपने नातीनातिन को खिलाने को बेताब थे. सालभर में, एक रक्षाबंधन पर ही चंचल घर आती थी और वो भी सिर्फ एक दिन के लिए, आज पूरे सप्ताह के लिए आ रही थी.

शनिवार का दिन त्योहार में गुजर गया, अगला दिन इतवार था, आकांक्षा को भी औफिस से फुरसत थी और चंचल को भी, अपने ससुराल की ड्यूटी से. आकांक्षा के घर मिलना तय हुआ. सुबहसुबह, 11 बजे ही चंचल को भाई आकांक्षा के यहां छोड़ आया.

घंटी बजाते ही उस की आवाज गूंज गई, चारों तरफ.

‘‘आ रही हूं…‘‘

दरवाजा खुलते ही चंचल का मानो सपना टूट गया, इतनी कमजोर सी, बीमार सी आकांक्षा. गले लगाते ही आंसू आ गए उस के, ‘‘क्या हाल बना लिया है अपना तू ने, ये हड्डियांहड्डियां क्यों निकाल रखी हैं? बीमार है क्या?‘‘

आकांक्षा हंसते हुए बोली, ‘‘जैसे, तू खुद बड़ी मुटा गई हो. किधर से दो बच्चों की मां लग रही हो तुम? चल अब अंदर भी आ… सारी चिंता चैखट पर ही कर लोगी क्या?‘‘

घर छोटा सा था आकांक्षा का, लेकिन एकदम रौयल सजा हुआ था. ‘‘तो मैडम को अब महंगी चीजों का शौक भी हो चला है…हम्म…‘‘

‘‘ये सब तो पंकज की पसंद है, शादी के बाद कहां अपना कुछ बच ही जाता है. जो पतिदेव चाहें, बस वही सत्य है.‘‘

आकांक्षा की आंखों में उदासी देख, चंचल ने बात पलटी, ‘‘और बच्चे? बच्चे कहां हैं? वो तो पतिदेव को पसंद हैं या वो भी नहीं?‘‘

‘‘चल तू भी न, देख तेरे फेवरेट वाले दालपकौड़े बनाए हैं. चाय बस बन ही रही है.‘‘

‘‘बन क्या रही है चाय? 8 साल बाद मिलेंगे तो तू मेहमान की तरह चाय पिलाएगी मुझे? तू तो वैसे भी मेरे हाथ की चाय की दीवानी है.‘‘

अब दोनों सहेलियां किचन में हैं और चंचल चाय बना रही है.

‘‘चंचल, तुझे याद है वो मीनाक्षी…?‘‘

‘‘हां, वही मौडल मीनाक्षी न, जिस को सजनेसंवरने से फुरसत नहीं होती थी. हां याद है. हमारी तो कभी बनी ही नहीं थी उस से. वो कहां मिल गई तुझे?‘‘

‘‘मैड़म, सच में मौडलिंग कर रही है. पिछले महीने मैगजीन में उस का फोटो देखा तो आंखें खुली रह गईं. उस ने जो चाहा पा लिया. एक बड़ा नाम है मौडलिंग की दुनिया में वो आज.‘‘

‘‘वाअव… अच्छा है, किसी को तो कुछ मिला.‘‘

‘‘तुम्हें भी तो शिशिर मिल ही गया, क्यों? नहीं मिला क्या?‘‘ आकांक्षा की शरारत शुरू हो चुकी थी.

शिशिर के नाम पर चंचल आज भी झेंप सी गई. चायपकौड़े ले कर दोनों रौयल बैठक में आ कर बैठ गए. चाय पीते हुए चंचल ने फिर आकांक्षा से पूछा, ‘‘अब बता भी… बच्चे कहां हैं? दिख ही नहीं रहे. दादादादी के पास हैं? या सुबहसुबह खेलने निकल लिए.‘‘

इतनी देर से इधरउधर की बातें करते हुए आखिरकार आकांक्षा की आंख में आसूं आ गए.

‘‘आकांक्षा… अक्कू… क्या हुआ बच्चे? बता… सब ठीक है न? तेरी आंख में आंसू, मतलब बहुत बड़ी बात है.‘‘

गले लगा कर चंचल ने फिर से कहा, ‘‘अच्छा सब छोड़, पहले शांत हो जा तू. मेरी अक्कू रोते हुए बिलकुल अच्छी नहीं लगती.‘‘

चंचल ने नाक खींची, तो आकांक्षा के चेहरे पर भी मुसकान आ गई. अब दोनों सहेलियां बिना कुछ बोले, चाय पीने लगीं. चंचल ने अब कुछ नहीं पूछा. वो आकांक्षा को जानती है. कुछ समय ले कर वो खुद बता देगी कि क्या बात है.

‘‘बच्चे नहीं हैं चंचल, नहीं हैं बच्चे,‘‘ फिर से रो पड़ी आकांक्षा.

‘‘ठीक है बाबा, नहीं हैं तो आ जाएंगे. वादा, अब दोबारा नहीं पूछूंगी. तू रो मत बस यार.‘‘

‘‘पंकज को अपना स्टेटस बनाना है. वो हमारी मिडिल क्लास वाली जिंदगी से बिलकुल खुश नहीं हैं. 8 साल हो गए शादी को, इन्हें लगता है, जिंदगी बस महंगी चीजों के पीछे भागने का नाम है.‘‘

एक गहरी सांस ले कर आकांक्षा ने कहा, ‘‘पता नहीं किस की बराबरी करना चाहते हैं. यह घर मुझे अपना घर लगता ही नहीं है. ब्रांडेड और महंगी चीजें बस, मेरी सादगी कहीं पीछे छूट गई है. पहननाओढ़ना, सब उन्हीं के हिसाब से होना चाहिए.‘‘

‘‘अब जब घर में लगभग हर सामान अपनी मरजी का खरीद चुके हैं तो अब इन्हें एक विला खरीदना है. जब तक इतना पैसा जमा नहीं कर लेंगे, विला खरीद नहीं लेंगे, तब तक कुछ और सुध नहीं लेनी.‘‘

‘‘आज संडे भी औफिस गए हैं. मेरी सरकारी नौकरी है. सो, मुझ पर बस नहीं चलता इन का, नहीं तो संडे भी औफिस भेज दें मुझे ये.‘‘

‘‘तुम्हारी बातों से ऐसा लग रहा है अक्कू, मानो मशीन हो तुम दोनों. और इसीलिए पंकजजी बच्चे नहीं चाहते हैं? एम आई राइट?‘‘

जिद-भाग 1: शिशिर चंचल पर क्यों चिल्लाया ?

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘हैलो चंचल, मैं… आकांक्षा बोल रही हूं.‘‘

‘‘आकांक्षा… व्हाट ए बिग सरप्राइज… कैसी है तू? तुझे मेरा नंबर कहां से मिला? और कहां है तू आजकल?‘‘

‘‘अरे बस… बस, एक ही सांस में सारे सवाल पूछ लेगी क्या? थमो थोड़ा, और यह बताओ कि रक्षाबंधन पर घर आ रही हो न इस बार? ससुराल से एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी ले कर आइएगा मैडम… कितनी सारी बातें करनी हैं…‘‘

एक्स्ट्रा छुट्टी के नाम पर थोड़ा सकपकाते और तुरंत ही खुद को संभालते हुए चंचल बोली, ‘‘बड़ी आई छुट्टी वाली… मैडम, आप हैं नौकरी वालीं… हम तो खाली लोग हैं… ये बताइए, आप को कैसे इतनी फुरसत मिल जाएगी. आखिरी बार ज्वाइन करते समय काल की थी. तब से मैडम बस नौकरी की ही हो कर रह गई हैं.‘‘

‘‘चल झूठी, तेरे घर शादी का कार्ड भिजवाया था, तुझे ही फुरसत नहीं मिली.‘‘

‘‘हम्म… तब नहीं आ पाई थी मैं. ये बता कि अभी कहां है?‘‘

‘‘पिछले हफ्ते ही नासिक ज्वाइन किया है और फ्लैट भी तेरी कालोनी में ही मिल गया है. कल शाम को ही अंकलआंटी से मिल कर आई हूं और नंबर लिया तेरा. मुझ से नंबर मिस हो गया था तेरा और तुझ से तो उम्मीद रखना भी बेकार है.‘‘

कभी एकदूसरे की जान के नाम से फेमस लड़कियां 8 साल बाद एकदूसरे से बात कर रही हैं.

चंचल की शादी के बाद आकांक्षा ने सरकारी नौकरी की तैयारी की. सालभर बाद ही नौकरी लग गई और उस के सालभर बाद शादी.

आकांक्षा की शादी का कार्ड तो मिला था चंचल को, लेकिन शादी में जाने की परमिशन नहीं मिल पाई थी, ससुराल से.

‘‘अच्छा अब सेंटी मत हो, औफिस वाले हंसेंगे मेरी बोल्ड आकांक्षा को ऐसे देखेंगे तो.‘‘

‘‘हां यार, चल रखती हूं फोन. मिलते हैं… हां… छुट्टी ले लियो ससुराल से देवी मां, नहीं तो पिटाई होगी तुम्हारी, बता दे रही हूं. चल बाय… आ गया खड़ूस बौस‘‘

‘‘बाय… बाय,‘‘ हंसते हुए फोन कटा, तो चंचल ने देखा कि सासू मां पीछे खड़ी हैं और उन के चेहरे पर सवालिया निशान हैं. कपूर की तरह जिस गति से हंसी चेहरे से गायब हुई, उस से अधिक गति से चंचल रसोई में चली गई. सासू मां की चाय का वक्त था ये और चाय में 5 मिनट की देरी हो चुकी थी.

‘मांजी को ये लापरवाही बिलकुल भी पसंद नहीं. पता नहीं, अब क्याक्या सुनना पड़ेगा? मुझे भी न, ध्यान रखना चाहिए था, ऐसा भी क्या बातों में खो जाना,‘ खुद को मन ही मन डांटते हुए चंचल फिर से आकांक्षा की बात याद करने लगी, ‘‘पिटाई होगी तुम्हारी… बता दे रही हूं.‘‘

‘‘बिलकुल नहीं बदली है ये लड़की,‘‘ आखिर मुसकराहट आ ही गई चंचल के चेहरे पर.

चंचल को पता है कि आकांक्षा न तो एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी ले सकती है, न ही मिलनामिलाना होगा. लेकिन फिर भी वो बहुत खुश है, 10 साल साथ गुजारे हैं चंचल और आकांक्षा ने, स्कूलकालेज, होमवर्क, ट्यूशन, क्लास बंक, लड़कों से लड़नाझगड़ना, क्याक्या नहीं किया है दोनों ने साथ? सारी यादें एकदम ताजा हो गई हैं.

यही सब सोचतेसोचते चंचल सासू मां को चाय पकड़ा आई.

डिनर का समय आसानी से कट गया, बिना किसी शिकवाशिकायत के. चंचल को उम्मीद थी कि बहुत जबरदस्त डांट पड़ेगी और शिशिर भी गुस्सा करेगा. पिछली बार जब छोटे बेटे आशु ने सोफा गीला कर दिया था तो कितनी आफत आ गई थी, याद कर के ही रूह कांप गई चंचल की.

देखा जाए तो चंचल की शादी आकांक्षा के मुकाबले बड़े खानदान में हुई थी. साउथ दिल्ली की बड़ी सी कोठी, हीरों के व्यापारी रस्तोगीजी, सारे शहर में उन का बड़ा नाम, रस्तोगीजी के छोटे और स्मार्ट बेटे शिशिर ने जब चंचल को पसंद किया तो बधाइयों का तांता लग गया था चंचल के घर.

चंचल के भी अरमान पंख लगा कर उड़ने लगे थे. उम्र ही ऐसी थी वो और शिशिर चंचल को भी पहली ही नजर में पसंद आ गए थे. इधर शिशिर के घरपरिवार में भी चंचल की खूब चर्चा थी. चंचल की सुंदरता भी कालेज की सारी लड़कियों को मात देती थी. साथ ही साथ पढ़नेलिखने में इतनी तेज, फाइनेंस से एमबीए किया है. और क्या चाहिए था, रस्तोगियों को अपनी बहू में.

शादी की तैयारियां और इतना अच्छा रिश्ता मिलने की खुशी के बीच, चंचल को भी अपनी जौब का खयाल नहीं आया. उसे शिशिर से बात कर के लगा नहीं कि उन्हें कभी कोई इशू होगा इस से. आकांक्षा ने 1-2 बार कहा कि उसे बात करनी चाहिए शिशिर से, तो चंचल ने बात भी की.

शिशिर ने उसे पूरा विश्वास दिलाया कि किसी को कोई समस्या नहीं है, वो जो चाहे करे.

शादी के 3-4 महीने बाद वहीं दिल्ली में कर लेना जौब एप्लाई. और तुम हो भी इतनी क्वालीफाइड… तुम्हें कौन मना करने वाला है जौब के लिए? मेरी चंचल को तो यों ही मिल जाएगी जौब, चुटकी में,” सुन कर शर्म से चेहरा लाल हो गया था चंचल का इस तारीफ पर.

रस्मोरिवाज और घूमनेफिरने में दिन पंख लगा कर उड़ गए. शादी के 3 महीने बाद चंचल ने अपनी सासू मां से बहुत आराम से बात की, ‘‘मांजी, अब तो सारी रस्में, घूमनाफिरना, सब हो चुका आराम से. मैं जौब के लिए एप्लाई कर देती हूं.‘‘

सासू मां ने बड़ी कुटिल मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘आराम से तो होगा ही बहूरानी… शिशिर के पापा ने इतना बड़ा बिजनेस किस के लिए खड़ा किया है? अपने बच्चों की खुशियों के लिए ही न.”

जौब के लिए उत्तर न मिलता देख चंचल ने आगे कहा, ‘‘जी, मांजी, मैं जौब के लिए अब एप्लाई कर ही देती हूं. मन नहीं लगता मेरा भी सारा दिन घर में.‘‘

इस बार, सासू मां का पारा सातवें आसमान पर था, लगभग चिल्लाते हुए शिशिर को आवाज लगाई, ‘‘शिशिर… ओ शिशिर, मैं ने मना किया था न इतनी ज्यादा पढ़ीलिखी लड़की के लिए. तुझे ही पसंद थी न, ले अब, जौब करनी है इसे… संभाल ले इसे और न मन लगे इस का तो छोड़ आ उसी 2 बीएचके में. वहीं मन लगता है इस का.‘‘

शिशिर सिर झुकाए खड़ा रहा और चंचल को अंदर जाने का इशारा किया.

चंचल के जाने के बाद शिशिर बोला, ‘‘मां, समझा दूंगा मैं उसे, आप नाराज न होइए. दोबारा जबान नहीं खोलेगी वह आप के सामने.‘‘

अंदर जाते ही अब शिशिर को चंचल पर चिल्लाना था, ‘‘क्या जरूरत है तुम्हें जौब करने की? क्या कमी है इस घर में? इतनी बड़ी कोठी की रानी हो तुम, रानी बन कर रहो. क्या तकलीफ है तुम्हें?

‘‘और मां… उन के सामने किसे जबान खोलते हुए देखा तुम ने, जो इतना बोलती हो? मिडिल क्लास से हो कर भी संस्कार नाम की कोई चीज नहीं है तुम में.‘‘

शिशिर को इतना गुस्से में देख, अपनी पढ़ाई पर गर्व करने वाली, अपने चुनाव पर गर्व करने वाली चंचल सहम गई. उस दिन के बाद से उस ने जौब का दोबारा नाम नहीं लिया.

मां ने शिशिर को समझा दिया था, ‘‘जल्दी बच्चेवच्चे कर लो. ज्यादा फैमिली प्लानिंग के चक्कर में न पड़ना. बहू का मन घरगृहस्थी में उलझना भी जरूरी है.‘‘

देखते ही देखते चंचल एक प्यारी सी बेटी सुहाना और एक शैतान से बेटे आशु की जिम्मेदार मां बन गई.

अब चंचल के पास इतना भी समय नहीं होता कि वो खुद पर या खुद से जुड़ी किसी भी बात पर ध्यान दे सके. धीरेधीरे हालात ऐसे हो गए कि चंचल को अपने लिए चप्पल खरीदनी हो या बच्चों के लिए डाइपर, सासू मां से पूछे बिना नहीं ले सकती थी. घर में आने वाली सूई से ले कर सैनिटरी पैड्स तक पर उन की नजर रहती हमेशा. कुछ अपने मांबाप की इज्जत, कुछ अब बच्चों की चिंता, चंचल ने अपनी इस नियति को स्वीकार कर लिया है.

Crime Story: वासना का पानी पीकर बनी पतिहंता

सुनील अपनी ड्यूटी से रोजाना रात 9 बजे तक अपने घर वापस पहुंच जाता था. पिछले 12 सालों से उस का यही रूटीन था. लेकिन 21 मई, 2019 को रात के 10 बज गए, वह घर नहीं लौटा.

पत्नी सुनीता को उस की चिंता होने लगी. उस ने पति को फोन मिलाया तो फोन भी स्विच्ड औफ मिला. वह परेशान हो गई कि करे तो क्या करे. घर से कुछ दूर ही सुनीता का देवर राहुल रहता था. सुनीता अपने 18 वर्षीय बेटे नवजोत के साथ देवर राहुल के यहां पहुंच गई. घबराई हुई हालत में आई भाभी को देख कर राहुल ने पूछा, ‘‘भाभी, क्या हुआ, आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

‘‘तुम्हारे भैया अभी तक घर नहीं आए. उन का फोन भी नहीं मिल रहा. पता नहीं कहां चले गए. मुझे बड़ी चिंता हो रही है. तुम जा कर उन का पता लगाओ. मेरा तो दिल घबरा रहा है. उन्होंने 8 बजे मुझे फोन पर बताया था कि थोड़ी देर में घर पहुंच रहे हैं, खाना तैयार रखना. लेकिन अभी तक नहीं आए.’’

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45 वर्षीय सुनील मूलरूप से उत्तर प्रदेश के रहने वाले मोहनलाल का बड़ा बेटा था. सुनील के अलावा उन के 3 बेटे और एक बेटी थी. सभी शादीशुदा थे. सुनील लगभग 13 बरस पहले काम की तलाश में लुधियाना आया था. कुछ दिनों बाद यहीं के जनकपुरी इंडस्ट्रियल एरिया स्थित प्रवीण गर्ग की धागा फैक्ट्री में उस की नौकरी लग गई. फिर वह यहीं के थाना सराभा नगर के अंतर्गत आने वाले गांव सुनेत में किराए का घर ले कर रहने लगा. बाद में उस ने अपनी पत्नी और बच्चों को भी लुधियाना में अपने पास बुला लिया.

जब सुनील ने धागा फैक्ट्री में अपनी पहचान बना ली तो अपने छोटे भाई राहुल को भी लुधियाना बुलवा लिया. उस ने राहुल की भी एक दूसरी फैक्ट्री में नौकरी लगवा दी. राहुल भी अपने बीवीबच्चों को लुधियाना ले आया और सुनील से 2 गली छोड़ कर किराए के मकान में रहने लगा.

पिछले 12 सालों से सुनील का रोज का नियम था कि वह रोज ठीक साढे़ 8 बजे काम के लिए घर से अपनी इलैक्ट्रिक साइकिल पर निकलता था और पौने 9 बजे अपने मालिक प्रवीण गर्ग की गुरुदेव नगर स्थित कोठी पर पहुंच जाता. वह अपनी साइकिल कोठी पर खड़ी कर के वहां से फैक्ट्री की बाइक द्वारा फैक्ट्री जाता था. इसी तरह वह शाम को भी साढ़े 8 बजे छुट्टी कर फैक्ट्री से मालिक की कोठी जाता और वहां बाइक खड़ी कर अपनी इलैक्ट्रिक साइकिल द्वारा 9 बजे तक अपने घर पहुंच जाता था.

पिछले 12 सालों में उस के इस नियम में 10 मिनट का भी बदलाव नहीं आया था. 21 मई, 2019 को भी वह रोज की तरह काम पर गया था पर वापस नहीं लौटा. इसलिए परिजनों का चिंतित होना स्वाभाविक था. राहुल अपने भतीजे नवजोत और कुछ पड़ोसियों को साथ ले कर सब से पहले अपने भाई के मालिक प्रवीण गर्ग की कोठी पर पहुंचा.

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प्रवीण ने उसे बताया कि सुनील तो साढ़े 8 बजे कोठी पर फैक्ट्री की चाबियां दे कर घर चला गया था. प्रवीण ने राहुल को सलाह दी कि सब से पहले वह थाने जा कर इस बात की खबर करे. प्रवीण गर्ग की सलाह मान कर राहुल सीधे थाना डिवीजन नंबर-5 पहुंचा और अपने सुनील के लापता होने की बात बताई.

उस समय थाने में तैनात ड्यूटी अफसर ने राहुल से कहा, ‘‘अभी कुछ देर पहले सिविल अस्पताल में एक आदमी की लाश लाई गई थी, जिस के शरीर पर चोटों के निशान थे. लाश अस्पताल की मोर्चरी में रखी है, आप अस्पताल जा कर पहले उस लाश को देख लें. कहीं वह लाश आप के भाई की न हो.’’

राहुल पड़ोसियों के साथ सिविल अस्पताल पहुंच गया. अस्पताल में जैसे ही राहुल ने स्ट्रेचर पर रखी लाश देखी तो उस की चीख निकल गई. वह लाश उस के भाई सुनील की ही थी.

राहुल ने फोन द्वारा इस बात की सूचना अपनी भाभी सुनीता को दे कर अस्पताल आने के लिए कहा. उधर लाश की शिनाख्त होने के बाद आगे की काररवाई के लिए डाक्टरों ने यह खबर थाना दुगरी के अंतर्गत आने वाली पुलिस चौकी शहीद भगत सिंह नगर को दे दी. सुनील की लाश उसी चौकी के क्षेत्र में मिली थी.

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दरअसल, 21 मई 2019 की रात 10 बजे किसी राहगीर ने लुधियाना पुलिस कंट्रोलरूम को फोन द्वारा यह खबर दी थी कि पखोवाल स्थित सिटी सेंटर के पास सड़क किनारे एक आदमी की लाश पड़ी है. कंट्रोलरूम ने यह खबर संबंधित पुलिस चौकी शहीद भगत सिंह नगर को दे दी थी.

सूचना मिलते ही चौकी इंचार्ज एएसआई सुनील कुमार, हवलदार गुरमेल सिंह, दलजीत सिंह और सिपाही हरपिंदर सिंह के साथ मौके पर पहुंचे. उन्होंने इस की सूचना एडिशनल डीसीपी-2 जस किरनजीत सिंह, एसीपी (साउथ) जश्नदीप सिंह के अलावा क्राइम टीम को भी दे दी थी.

लाश का निरीक्षण करने पर उस की जेब से बरामद पर्स से 65 रुपए और एक मोबाइल फोन मिला. फोन टूटीफूटी हालत में था, जिसे बाद में चंडीगढ़ स्थित फोरैंसिक लैब भेजा गया था. लाश के पास ही एक बैग भी पड़ा था, जिस में खाने का टिफिन था. मृतक के सिर पर चोट का निशान था, जिस का खून बह कर उस के शरीर और कपड़ों पर फैल गया था.

उस समय लाश की शिनाख्त नहीं हो पाने पर एएसआई सुनील कुमार ने मौके की काररवाई पूरी कर लाश सिविल अस्पताल भेज दी थी.

अस्पताल द्वारा लाश की शिनाख्त होने की सूचना एएसआई सुनील कुमार को मिली तो वह सिविल अस्पताल पहुंच गए. उन्होंने अस्पताल में मौजूद मृतक की पत्नी सुनीता और भाई राहुल से पूछताछ कर उन के बयान दर्ज किए और राहुल के बयानों के आधार पर सुनील की हत्या का मुकदमा अज्ञात हत्यारों के खिलाफ दर्ज कर आगे की तहकीकात शुरू कर दी.

एएसआई सुनील कुमार ने मृतक की फैक्ट्री में उस के साथ काम करने वालों के अलावा उस के मालिक प्रवीण गर्ग से भी पूछताछ की. यहां तक कि मृतक के पड़ोसियों से भी मृतक और उस के परिवार के बारे में जानकारी हासिल की गई, पर कोई क्लू हाथ नहीं लगा.

सब का यही कहना था कि सुनील सीधासादा शरीफ इंसान था. उस की न तो किसी से कोई दुश्मनी थी और न कोई लड़ाईझगड़ा. अपने घर से काम पर जाना और वापस घर लौट कर अपने बच्चों में मग्न रहना ही दिनचर्या थी.

एएसआई सुनील की समझ में एक बात नहीं आ रही थी कि मृतक की लाश इतनी दूर सिटी सेंटर के पास कैसे पहुंची, जबकि उस के घर आने का रूट चीमा चौक की ओर से था. उस की इलैक्ट्रिक साइकिल भी नहीं मिली. महज साइकिल के लिए कोई किसी की हत्या करेगा, यह बात किसी को हजम नहीं हो रही थी.

बहरहाल, अगले दिन मृतक की पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी आ गई. रिपोर्ट में बताया गया कि मृतक के सिर पर किसी भारी चीज से वार किया गया था और उस का गला चेन जैसी किसी चीज से घोटा गया था. मृतक के शरीर पर चोट के भी निशान थे. इस से यही लग रहा था कि हत्या से पहले मृतक की खूब पिटाई की गई थी. उस की हत्या का कारण दम घुटना बताया गया.

पोस्टमार्टम के बाद लाश मृतक के घर वालों के हवाले कर दी गई. सुनील की हत्या हुए एक सप्ताह बीत चुका था. अभी तक पुलिस के हाथ कोई ठोस सबूत नहीं लगा था. मृतक की साइकिल का भी पता नहीं चल पा रहा था.

एएसआई सुनील कुमार ने एक बार फिर इस केस पर बड़ी बारीकी से गौर किया. उन्होंने मृतक की पत्नी, भाई और अन्य लोगों के बयानों को ध्यान से पढ़ा. उन्हें पत्नी सुनीता के बयानों में झोल नजर आया तो उन्होंने उस के फोन की कालडिटेल्स निकलवा कर चैक कीं.

सुनीता की काल डिटेल्स में 2 बातें सामने आईं. एक तो उस ने पुलिस को यह झूठा बयान दिया था कि पति ने उसे 8 बजे फोन कर कहा था कि वह घर आ रहा है, खाना तैयार रखना.

लेकिन कालडिटेल्स से पता चला कि मृतक ने नहीं बल्कि खुद सुनीता ने उसे सवा 8 बजे और साढ़े 8 बजे फोन किए थे. दूसरी बात यह कि सुनीता की कालडिटेल्स में एक ऐसा नंबर था, जिस पर सुनीता की दिन में कई बार घंटों तक बातें होती थीं. घटना वाली रात 21 मई को भी मृतक को फोन करने के अलावा सुनीता की रात साढ़े 7 बजे से ले कर रात 11 बजे तक लगातार बातें हुई थीं.

यह फोन नंबर किस का था, यह जानने के लिए एएसआई सुनील कुमार ने मृतक के भाई और बेटे से जब पूछा तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की. बहरहाल, एएसआई सुनील कुमार ने 2 महिला सिपाहियों को सादे लिबास में सुनीता पर नजर रखने के लिए लगा दिया. साथ ही मुखबिरों को सुनीता की जन्मकुंडली पता लगाने के लिए कहा. इस के अलावा उन्होंने उस फोन नंबर की काल डिटेल्स निकलवाई तो पता चला कि वह नंबर आई ब्लौक निवासी मनदीप सिंह उर्फ दीपा का है.

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मनदीप पेशे से आटो चालक था. सन 2018 में वह जालसाजी के केस में जेल भी जा चुका था. मनदीप शादीशुदा था और उस की 3 साल की एक बेटी भी थी. हालांकि उस की शादी 4 साल पहले ही हुई थी, लेकिन उस की पत्नी से नहीं बनती थी. पत्नी ने उस के खिलाफ वूमन सेल में केस दायर कर रखा था.

सुनीता पर नजर रखने वाली महिला और मुखबिरों ने यह जानकारी दी कि सुनीता और मनदीप के बीच नाजायज संबंध हैं. इस बीच फोरैंसिक लैब भेजा गया मृतक का फोन ठीक हो कर आ गया, जिस ने इस हत्याकांड को पूरी तरह बेनकाब कर दिया.

एएसआई सुनील कुमार ने उसी दिन सुनीता को हिरासत में ले कर पूछताछ की तो वह अपने आप को निर्दोष बताते हुए पुलिस को गुमराह करने के लिए तरहतरह की कहानियां सुनाने लगी. जब उसे महिला हवलदार सुरजीत कौर के हवाले किया गया तो उस ने पूरा सच उगल दिया.

सुनीता की निशानदेही पर उसी दिन 3 जून को 30 वर्षीय मनदीप सिंह उर्फ दीपा, 18 वर्षीय रमन राजपूत, 23 वर्षीय सन्नी कुमार और 21 वर्षीय प्रकाश को भाई रणधीर सिंह चौक से जेन कार सहित गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ में सभी ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए बताया कि उन्होंने सुनीता और मनदीप के कहने पर सुनील की हत्या की थी.

पांचों अभियुक्तों को उसी दिन अदालत में पेश कर 3 दिनों के पुलिस रिमांड पर लिया गया. रिमांड के दौरान हुई पूछताछ में सुनील हत्याकांड की जो कहानी सामने आई, वह पति और जवान बच्चों के रहते परपुरुष की बांहों में देहसुख तलाशने वाली एक औरत के मूर्खतापूर्ण कारनामे का नतीजा थी.

सुनील जब धागा फैक्ट्री में अपनी नौकरी पर चला जाता था तो सुनीता घर पर अकेली रह जाती थी. इसी के मद्देनजर उस ने पास ही स्थित प्ले वे स्कूल में चपरासी की नौकरी कर ली. पतिपत्नी के कमाने से घर ठीक से चलने लगा.

इसी प्ले वे स्कूल में मनदीप उर्फ दीपा की बेटी भी पढ़ती थी. पहले मनदीप की पत्नी अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने और लेने आया करती थी, पर एक बार मनदीप अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने आया तब उस की मुलाकात सुनीता से हुई.

सुनीता को देखते ही वह उस का दीवाना हो गया. हालांकि सुनीता उस से उम्र में 10-11 साल बड़ी थी, पर उस में ऐसी कशिश थी, जो मनदीप के मन भा गई. यह बात करीब 9 महीने पहले की है.

सुनीता से नजदीकियां बढ़ाने के लिए मनदीप रोज बेटी को स्कूल छोड़ने के लिए आने लगा. इधर सुनीता भी मनदीप पर पूरी तरह फिदा हो थी. आग दोनों तरफ बराबर लगी थी. इस का एक कारण यह था कि अपनी उम्र के 40वें पड़ाव पर पहुंचने के बाद और 3 युवा बच्चों की मां होने के बावजूद सुनीता के शरीर में गजब का आकर्षण था.

दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद पति सुनील जब घर लौटता तो खाना खाते ही सो जाता था. जबकि उस की बगल में लेटी सुनीता उस से कुछ और ही अपेक्षा करती थी. लेकिन सुनील उस की जरूरत को नहीं समझता था. उसे मनदीप जैसे ही किसी पुरुष की तलाश थी, जो उस की तमन्नाओं को पूरा कर सके.

यही हाल मनदीप का भी था. पत्नी से मनमुटाव होने के कारण वह उसे अपने पास फटकने नहीं देती थी, इसलिए जल्दी ही सुनीता और मनदीप में दोस्ती हो गई, जिसे नाजायज रिश्ते में बदलते देर नहीं लगी थी. पति और बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सुनीता स्कूल जाने के बहाने घर से निकलती और मनदीप के साथ घूमतीफिरती. कई महीनों तक दोनों के बीच यह संबंध चलते रहे.

इसी बीच अचानक सुनील को सुनीता के बदले रंगढंग ने चौंका दिया. उस ने अपने बच्चों से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि स्कूल से लौटने के बाद मम्मी बनसंवर कर न जाने कहां जाती हैं और आप के काम से लौटने के कुछ देर पहले वापस लौट आती हैं. सुनील को तो पहले से ही शक था, उस ने सुनीता का पीछा किया और उसे मनदीप के साथ बातें करते पकड़ लिया. यह 2 मई, 2019 की बात है.

मनदीप की बात को ले कर सुनील का सुनीता से खूब झगड़ा हुआ और उस ने सुनीता का स्कूल जाना बंद करवा दिया. यहां तक कि उस ने उस का फोन भी उस से ले लिया.

बाद में सुनीता ने माफी मांग कर भविष्य में ऐसी गलती दोबारा न करने की कसम खाई और स्कूल जाना शुरू कर दिया था. बात करने के लिए मनदीप ने उसे एक नया फोन और सिमकार्ड दे दिया था. वे दोनों फोन पर बातें करते, मिल भी लेते थे. पर अब वे पहले जैसे आजाद नहीं थे.

इस तरह चोरीछिपे मिलने से सुनीता परेशान हो गई. एक दिन सुनीता ने अपने मन की पीड़ा जाहिर करते हुए मनदीप से कहा, ‘‘मनदीप, तुम कैसे मर्द हो, जो एक मरियल से आदमी को भी ठिकाने नहीं लगा सकते. तुम भी जानते हो कि सुनील के जीते जी हमारा मिलना मुश्किल हो गया है.’’

मनदीप ने उसे भरोसा दिया कि काम हो जाएगा. फिर दोनों ने मिल कर सुनील की हत्या की योजना बनाई. अब मनदीप के सामने समस्या यह थी कि वह यह काम अकेले नहीं कर सकता था.

नवंबर, 2019 में मनदीप जब जालसाजी के केस में जेल गया था, तब उस की मुलाकात जेल में बंद पंकज राजपूत से हुई थी. पंकज लुधियाना के थाना टिब्बा में दर्ज दफा 307 के केस में बंद था.

दोनों की जेल में मुलाकात हुई और दोस्ती हो गई थी. कुछ दिन बाद मनदीप की जमानत हो गई और वह जेल से बाहर आ गया. बाहर आने के बाद वह बीचबीच में पंकज से जेल में मुलाकात करने जाता रहता था.

सुनील की हत्या की योजना बनाने के बाद उस ने जेल जा कर पंकज को अपनी समस्या के बारे में बताया. पंकज ने उसे अपने 2 साथियों रमन और प्रकाश के बारे में बताया.

उस ने मनदीप के फोन से रमन को फोन कर मनदीप का साथ देने को कह दिया. रमन ने इस काम के लिए 10 हजार रुपए मांगे, जो मनदीप ने दे दिए थे. रमन और प्रकाश ने अपने साथ सन्नी को भी शामिल कर लिया था.

सुनीता ने किराए के हत्यारों को सुनील का पूरा रुटीन बता दिया कि वह कितने बजे काम पर जाता है, कितने बजे किस रास्ते से घर लौटता है, वगैरह.

इन बदमाशों ने तय किया कि सुनील को घर लौटते समय रास्ते में कहीं घेर लिया जाएगा. सुनील की हत्या के लिए 20 मई, 2019 का दिन चुना गया था पर टाइमिंग गलत होने से उस दिन सुनील बच गया.

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अगले दिन 21 मई को रात 8 बजे मनदीप सन्नी को अपने साथ ले कर बीआरएस नगर से अपनी जेन कार द्वारा एक धार्मिक स्थल पर पहुंचा. रमन और प्रकाश भी बाइक से वहां पहुंच गए थे. इस के बाद चारों सुनील के मालिक की कोठी के पास मंडराने लगे.

सुनील अपने मालिक की कोठी पर फैक्ट्री की चाबियां देने के बाद अपनी इलैक्ट्रिक साइकिल से घर के निकला तो चीमा चौक के पास चारों ने उसे घेर कर जेन कार में डाल लिया. उस की साइकिल सन्नी ले कर चला गया जो उस ने लेयर वैली में फेंक दी थी.

सुनील को कार में डालने के बाद मनदीप ने उस के सिर पर लोहे की रौड से वार कर उसे घायल कर दिया. फिर सब ने मिल कर उस की खूब पिटाई की. इस के बाद साइकिल की चेन उस के गले में डाल कर उस का गला घोंट दिया.

सुनील की हत्या करने के बाद वे उस की लाश को सिटी सेंटर ले आए और सड़क किनारे सुनसान जगह पर फेंक कर रात 11 बजे तक सड़कों पर घूमते रहे. इस के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए. शाम साढ़े 7 बजे से रात के 11 बजे तक सुनीता लगातार फोन द्वारा मनदीप के संपर्क में थी. वह उस से पलपल की खबर ले रही थी.

रिमांड अवधि के दौरान पुलिस ने हत्या में प्रयुक्त चेन भी बरामद कर ली, लेकिन कथा लिखे जाने तक मृतक की साइकिल बरामद नहीं हो सकी.

रिमांड खत्म होने के बाद पुलिस ने सुनील की हत्या के अपराध में उस की पत्नी सुनीता, सुनीता के प्रेमी मनदीप उर्फ दीपा, रमन, प्रकाश और सन्नी को अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जिला जेल भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

सौजन्य : मनोहर कहानी

मुझसे अपनी फीलिंग्स किसी से जल्दी बताई नहीं जाती हैं इस कारण मेरे पति मुझसे दूर होते जा रहे हैं, मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं जीवन में पति की दखलंदाजी से बेहद परेशान हूं. मेरा अपना एक पर्सनल स्पेस है जिस से मैं कंप्रोमाइज नहीं करना चाहती. मेरी 3 महीने पहले अरेंज मैरिज हुई है. मुझे मेरे पति पसंद हैं और उन्हें भी मुझ से कोई दिक्कत नहीं है. कुछ हफ्तों पहले की बात है जब उन्होंने मुझ से कहा कि उन्हें लगता है मुझ उन से प्यार नहीं और मैं ने उन्हें अपने दिल का हाल बताते हुए कह दिया था कि मैं हमेशा से ही इंट्रोवर्ट किस्म की रही हूं, न मुझसे अपनी फीलिंग्स बताई जाती हैं और न ही किसी के लिए मैं बहुत जल्दी कुछ फील करती हूं.

जब से मेरे पति ने यह सब सुना है तब से वे मुझसे कटने लगे हैं. सैक्स करने से भी कतराने लगे हैं, ढंग से बात नहीं करते और अब तो मैं जहां भी जाती हूं, सवाल करने लगते हैं. किसी मेल कलीग का कौल आता है तो उन की शक्ल बनने लगती है. समझ नहीं आता इस मुश्किल का हल क्या है.

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जवाब

आप ने अपने मन की बात अपने पति को बता कर सही तो किया लेकिन शायद आप के शब्दों का चुनाव या अपनी बात कहने का तरीका सही नहीं होगा, तभी वे इस तरह से रिऐक्ट कर रहे हैं. आप को जरूरत है कि आप एक बार फिर उन से बैठ कर बात करें.

जब तक आप उन्हें सही से समझ नहीं देंगी कि आप का व्यक्तित्व ही ऐसा है लेकिन अब आप अपनी तरफ से इस रिश्ते में ढलने की कोशिश कर रही हैं, तब तक उन्हें खुद कुछ सम?ा नहीं आएगा. आप को भी यह समझने की जरूरत है कि आप के पति को इस बात से जरूरत से ज्यादा बुरा लगा है कि आप को उन से प्यार नहीं.

उन का पजेसिव होना और आप की प्राइवेसी में दखल देने का कारण उन की फीलिंग्स को लगी चोट है. बात कीजिए, उन्हें समझाइए और खुद भी समझने की कोशिश कीजिए कि शादी का मतलब सिर्फ सैक्स या एक घर में रहना ही नहीं है बल्कि यह एक कमिटमैंट है जिसे प्यार के साथ अच्छी तरह पूरा किया जा सकता है.

आप दोनों नवविवाहित हैं. साथ घूमेंफिरें, टूर पर जाएं, डिनर डेट्स का मजा लें. प्यार के पीछे भागने से या शिकायत करने से कुछ होगा नहीं. प्यार एक प्रोसैस है, जबरदस्ती किसी से नहीं हो सकता, समय देने से ही मुश्किल हल होगी, नहीं तो नहीं.

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जानिए कैसे तैयार होती है ऐस्प्रैसो कौफी

दोस्त के बर्थडे, विवाह आदि अवसरों पर गरमागरम ऐस्प्रैसो कौफी तो आप ने अवश्य पी होगी, यह सफेद एवं भरपूर झाग वाली बढि़या कौफी है. इस का स्वाद साधारण कौफी से कहीं बेहतर होता है. तभी तो केवल एशियावासी ही नहीं, यूरोपवासी भी इस के दीवाने हैं. ऐस्प्रैसो, जिसे लोग कौफी की एक किस्म समझते हैं, वास्तव में केवल कौफी बनाने का एक अत्यंत सरल और द्रुतगति वाला तरीका है, जो कुछ ही सैकंड में कौफी के ढेरों कप तैयार कर देता है.

ऐस्प्रैसो का जन्म इटली में 1910 में अत्यंत रोचक परिस्थितियों में हुआ. इटली का एक रेस्तरां अपने स्वादिष्ठ भोजन के लिए बहुत प्रसिद्ध था. वहां लोग दूरदूर से भोजन करने आते और साथ ही भोजन के बाद गरम चाय या कौफी पीना पसंद करते. इतने लोगों के लिए ढेरों कप कौफी तुरंत तैयार करना अत्यंत कठिन हो जाता था.

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होटल की पाकशाला के कर्मचारियों को फौरन कौफी या चाय बड़े पैमाने पर न बना पाने के कारण ग्राहकों और होटल मालिक की दोहरी झिड़कियां सुननी पड़ती थीं, अत: उन्होंने एक मीटिंग बुलाई, जिस में येत्से नामक एक 17 वर्षीय किशोर भी शामिलथा. उस ने कहीं पढ़ रखा था कि भाप से पानी गरम किया जा सकता है. उस ने इन कर्मचारियों को सलाह दी कि यदि भाप की मशीन बनाई जाए तो उन की समस्या हल हो सकती है. कर्मचारियों को येत्से का सुझाव पसंद आया. उन्होंने यह विचार अपने मालिक के दोस्त के सामने रखा और दोस्त ने अपने मित्र यानी रेस्तरां के मालिक को यह बात बताई. मालिक ने फौरन इस पर अमल किया और भाप के युग में इस नई तकनीक का प्रयोग करते हुए ऐस्प्रैसो मशीन का निर्माण हुआ.

ऐस्प्रैसो वास्तव में औद्योगिक क्रांति का उत्पादन है वरना तब तक तो कौफी भी चाय की भांति पतीलों में ही उबाली जाती थी. ऐस्प्रैसो 1900 के आसपास तक मिलती नहीं थी. बाद में यह पद्धति व्यवहार में लाई गई. छोटे स्टीम बौयलरों में पाइप को फिट कर देना, यही तो ऐस्प्रैसो मशीन है. प्रथम ऐस्प्रैसो मशीन का डिजाइन, आविष्कार और इस के अधिकार का श्रेय डेसी डेरियो पवोनी को जाता है. ऐस्प्रैसो कौफी किस्म नहीं बल्कि इसे बनाने की एक विधि है, जिस में सुधार का श्रेय माइक स्विज को जाता है. जिन्होंने कौफी के बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए एक पुस्तक लिखी, जिस के जरिए ‘मौडर्न रोस्टिंग कौफी’ का आविष्कार हुआ. इस में निरंतर सुधार होता रहा. इंगलैंड, अमेरिका, इटली, फ्रांस तथा कई अन्य देशों में एक ही सिद्धांत पर अनेक डिजाइनों का विकास होता रहा. यह कौफी को भाप द्वारा तैयार करने की विधि है. इस के जरिए कौफी के चूर्ण को भाप द्वारा उबाला और फुलाया जाता है. स्वादिष्ठ कौफी का कप पीने के लिए आवश्यक है कि कौफी अत्यंत महीन हो और अच्छी ऐस्प्रैसो ‘स्ट्रौंग फ्लेवर’ वाली होनी चाहिए.

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स्वाद में थोड़ी सी कड़वी लगने वाली कौफी, चीनी, दूध, क्रीम और चौकलेट पाउडर के मेल से स्वादिष्ठ बन जाती है. अनुपात से ज्यादा पानी मिल जाए तो भी कौफी खराब स्वाद वाली बन जाती है. जैसे 6.8 ग्राम बीज में जब बहुत ज्यादा पानी डाला जाए तो कौफी खराब ही बनेगी. कौफी की स्वाभाविक कड़वाहट को कम करने के लिए उस में डाला गया पानी उलटा असर पैदा करता है. यह कौफी से अम्लता बाहर निकालता है. एक कप कौफी के पानी में 6.8 ग्राम पिसी कौफी डालना उपयुक्त रहता है. ऐस्प्रैसो कौफी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूरोप में लोग सदैव ऐस्प्रैसो कौफी का ही और्डर देते हैं. इटली में तो विशेषतौर पर जब कौफी का और्डर दिया जाता है तो ऐस्प्रैसो कौफी ही दी जाती है.

इटलीवासियों को ऐस्प्रैसो कौफी से विशेष लगाव है. पेस्ट्री, केक हो, हैमबर्गर या पैटीज ऐस्प्रैसो कौफी अवश्य साथ होनी चाहिए. इटली की ऐस्प्रैसो कौफी स्वादिष्ठ होती है क्योंकि वे उसे बनाने का सही ढंग जानते हैं. यद्यपि इटली साधारणत: अच्छी किस्म की कौफी आयात नहीं करता, फिर भी वहां पर कौफी इतनी अच्छी तरह पीसी व भूनी जाती है कि लाजवाब स्वाद प्रदान करती है. पीने वाला एक कप में ही संतुष्ट हो जाता है. बच्चे और किशोर तो बड़े चाव से कौफी में दूध, क्रीम व चौकलेट मिला कर पीते हैं. ऐस्प्रैसो कौफी हर देश, हर प्रांत में अलगअलग तरीके से बनती है तथा अलगअलग अनुपात में उस में अन्य चीजें मिलाई जाती हैं. अलगअलग देशों में ऐस्प्रैसो कौफी के नाम भी अलगअलग हैं. इटली, फ्रांस व अमेरिका के कई स्थानों पर तो इसे ‘कैपूसिन’ नाम से पुकारा जाता है, क्योंकि फ्रांसिस्कन पादरी भूरी पोशाक के ऊपर सफेद पोशाक पहनते हैं. ठीक वैसे ही कौफी है, भूरे मिश्रण पर सफेद सुंदर झाग.

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अब तो इस विधि से कई अन्य पेय (कौफी पेय के अंतर्गत ही) भी तैयार किए जा रहे हैं. इन में दूध, कौफी, क्रीम, चौकलेट को विभिन्न अनुपात में हर देश, प्रांत के लोगों के स्वाद के हिसाब से मिलाया जाता है. यही कारण है कि कौफी दुनिया के सभी भागों में अत्यंत लोकप्रिय है. आज तो लोगों की बातचीत, चर्चा, गोष्ठी, किसी भी चीज की कल्पना कौफी के बिना अधूरी है. विश्वविद्यालय परिसर में तो छात्र अपना खाली समय कौफी हाउस में ही बिताना पसंद करते हैं. वहां भी ‘ऐस्प्रैसो कौफी’ मुख्य आकर्षण होता है. इस की लोकप्रियता को देखते हुए जगहजगह शहरों में कौफी हाउस भी खुलने लगे हैं.

जिद-भाग 4: शिशिर चंचल पर क्यों चिल्लाया ?

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘नहीं, अपनी हैल्प करनी है मुझे,‘‘ आत्मविश्वास भरा जवाब आया चंचल का.

‘‘अपनी हैल्प? हाहाहा…दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा चंचल? तुम को किस बात की कमी है?‘‘

‘‘ये जुमला 10 सालों से सुनती आ रही हूं, शिशिर. अब बस भी करो ये ड्रामा. मुझे कब, कैसे, क्या करना है, सबकुछ तो आप और मांजी फैसला लेते हैं. मेरी अपनी कोई मरजी, कोई अस्तित्व नहीं छोड़ा है आप ने. ये कमी है मुझे.‘‘

‘‘हां, तो सही सोचते हैं हम लोग. समझ है ही कहां तुम में. देखो, अपने पीहर 3 दिन रुकी हो और कैसी बातें करनी लगी हो. दिल्ली चली जाओ, आज ही.‘‘

‘‘नहीं, दिल्ली तो मैं रविवार को ही जाऊंगी. बस, आप को बतानी थी ये बात, सो बता दी मैं ने.‘‘

‘‘कह रहा हूं न मैं, आज ही जाओ. और ये कोर्स वगैरह का भूत उतारो अपने दिमाग से, बच्चों पर ध्यान दो बस.‘‘

‘‘शिशिर, बच्चे जितने मेरे हैं, उतने ही आप के भी हैं. और ये मेरा आखिरी फैसला है, सोच लीजिए आप,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट हो गया. पीछे खड़ा मनु बहुत खुश है, दीदी को शादी के बाद आज अपने असली रूप में देख रहा है.

‘‘फैसला? मेरी चंचल फैसले कब से करने लगी? वो तो फैसले मानती है बस,‘‘ अब शिशिर को थोड़ी घबराहट हुई, चंचल की ‘जिद‘ दिख रही थी उसे.

आकांक्षा का घर, आज समय से पहले, ब्रैडआमलेट और चाय बना कर तैयार है. हालांकि आज आकांक्षा औफिस के लिए तैयार नहीं हुई है.

‘‘क्या बात है डार्लिंग? आज तो फेवरेट नाश्ता और वो भी समय से पहले? क्या डिमांड होने वाली है आज? हां, और तुम ये आज तैयार क्यों नहीं हुईं? नौकरीवौकरी छोड़ने का इरादा है क्या?‘‘

‘‘हां पंकज, नौकरी छोड़ने का ही इरादा है.‘‘

आमलेट गले में अटक गया पंकज के, ‘‘पगला गई हो क्या?‘‘ गुस्से में चिल्लाया, लेकिन तुरंत उसे अहसास हुआ कि गुस्से से बात नहीं संभाली जा सकती.

‘‘क्या हुआ बेटा? औफिस में कोई दिक्कत? मैं बात करूं चावला से?‘‘

‘‘नहीं, दिक्कत घर में है, औफिस में नहीं.‘‘

‘‘नाराज हो मुझ से? कुछ चाहिए मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

‘‘हां, चाहिए.‘‘

‘‘क्या चाहिए, मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

खूब समझती है इन चिकनीचुपडी बातों को आकांक्षा. पहले की तरह ही गंभीर रहते हुए आकांक्षा बोली, ‘‘बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘क्या…?‘‘

‘‘मां बनना चाहती हूं मैं. कितने साल और इंतजार करूं अब मैं?‘‘

‘‘तुम जानती हो अक्कू, अभी हम तैयार नहीं हंै. विला ले लें, फिर जितने चाहे बच्चे करना. नहीं रोकने वाला मैं.‘‘

‘‘हम नहीं पंकज, केवल तुम तैयार नहीं हो. मैं पिछले 4 साल से कह रही हूं तुम्हें. पहले गाड़ी, फिर फ्लैट और अब विला. कल कुछ और शामिल हो जाएगा तुम्हारी लिस्ट में.‘‘

‘‘मैं खुश हूं पंकज, जो है उस में और मेरे बच्चे भी खुश रहेंगे, जानती हूं मैं. भौतिक सुखों का कोई अंत नहीं है, मैं थक गई हूं, इस तरह दौड़तेदौड़ते. मुझे ठहराव चाहिए, बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘सुनो तो आकांक्षा…‘‘

‘‘नहीं पंकज, ये मेरा आखिरी फैसला है. अगर तुम्हें नहीं मंजूर, तो मैं कल ही इस्तीफा दे दूंगी. आज छुट्टी ली है बस,‘‘ मुसकराते हुए आकांक्षा बोली.

पंकज को समझ नहीं आ रहा था, वो छुट्टी की बात सुन कर खुश हो या बच्चे की बात सुन कर चिंतित. फिलहाल उसे अपना ‘विला‘ का सपना टूटते हुए दिख रहा था और दिख रही थी आकांक्षा की ‘जिद‘.

जिद तो दोनों ने कर ली थी, लेकिन जिद इतनी भी आसानी से पूरी नहीं होती. एक तरफ, चंचल की सासू मां ने हंगामा मचाया हुआ था, तो दूसरी तरफ, पंकज भी सारे दिन परेशान रहा कि कैसे अपनी बीवी को समझाए वो, कहां, बच्चों के चक्कर में पड़ गई है?

बुध का दिन इसी हलचल में गुजर गया. गुरुवार की सुबह शिशिर ने अपनी नाराजगी जताते हुए फोन नहीं किया, न ही चंचल का फोन उठाया. पंकज को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था, बात टालने के लिए वो भी टूर पर निकल गया, इतवार तक.

इतवार भी आ गया. चंचल को भी आज ही दिल्ली लौटना था, लेकिन चंचल ने न जाने का फैसला किया. इधर, आकांक्षा भी अपना सारा सामान पैक कर बैठी थी. पंकज को लगा था, 2-4 दिन दूर रहेगी आकांक्षा उस से तो खुद ही अक्ल आ जाएगी. पंकज के बिना आकांक्षा का कहां मन लगना था. लेकिन जो वो देख रहा था, वो अप्रत्याशित था.

‘‘आकांक्षा, क्या बचपना है ये?‘‘

‘‘बच्चों बिना कैसा बचपना? बच्चे तो इस घर में आने से रहे तो मैं ही बच्चा बन कर देख लेती हूं.‘‘

‘‘बस भी करो ये पागलपन… परेशान हो गया हूं मैं.‘‘

‘‘सो तो मैं भी. चलो परेशानी खत्म कर देते हैं. मैं ने साथ वाली कालोनी में एक रूम व किचन देख लिया है. तलाक के कागजात भिजवा दूंगी.‘‘

‘‘चलती हूं.‘‘

पंकज के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो मानो.

‘‘ठहरो आकांक्षा… बैठो, बात तो करो.‘‘

‘‘क्या बात करनी है पंकज? तुम्हारा फैसला मुझे पता है.‘‘

‘‘अच्छा, क्या पता है तुम को? यही ना कि मुझे अपने जैसा बेटा नहीं चाहिए, बल्कि तुम्हारे जैसी बेटी चाहिए. एकदम समझदार, मजबूत और निडर…‘‘

इस बार, आकांक्षा खुद को रोक नहीं पाई. पंकज को गले लगाते ही सालों का दर्द आंसुओं के साथ बहा दिया, आकांक्षा ने. रह गया तो उन दोनों के बीच का प्यार बस.

उधर, दिल्ली में जब शिशिर पूरे परिवार के साथ घर लौटा, तो चंचल और बच्चों को वहां न देख गुस्से से आगबबूला हो गया.

‘‘चंचल की इतनी हिम्मत? अभी बताता हूं उसे…‘‘

इस बार फोन नहीं किया, शिशिर ने, सीधा नासिक के लिए फ्लाइट ली. ‘‘बहुत बोलने लगी है, पीहर बैठ जाने को बोलूंगा न तो अपनेआप सीधी हो जाएगी.‘‘

रात होतेहोते शिशिर चंचल के घर पहुंच ही गया. चंचल जैसे उसी के इंतजार में बैठी थी. डोरबैल बजी, चंचल ने दरवाजा खोला, एकदम सपाट चेहरे के साथ. न खुशी, न नाराजगी. लेकिन शिशिर तो नाराज था ही.

‘‘अपना सामान पैक करो चंचल… और तुम घर में क्यों नहीं हो? यहां क्यों हो? चल क्या रहा है दिमाग में तुम्हारे.‘‘

‘‘हाथपैर धो कर खाना खा लो शिशिर, डिनर तैयार है. बाद में बात करते हैं.‘‘

तभी आशु आ कर शिशिर से लिपट गया, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए.‘‘

बेटे को देख कर शिशिर अपना गुस्सा भूल गया, कुछ देर को. और फ्रेश होने चला गया.

डिनर के बाद चंचल ने उसे छत पर बुलाया, ‘‘हम्म, बताइए, क्या बोल रहे थे आप?‘‘

‘‘क्या बोलूंगा? तुम फोन क्यों नहीं उठा रही हो? और घर क्यों नहीं पहुंची अब तक?‘‘

‘‘क्या आप को सच में नहीं पता शिशिर?‘‘

‘‘अगर ये तुम्हारे बेकार से सर्टिफिकेट कोर्स और जौब के लिए है तो मुझे कोई बात नहीं करनी इस बारे में. तुम अच्छे से जानती हो, मां को बिलकुल पसंद नहीं ये सब और बच्चे…? बच्चों का भी खयाल नहीं आया तुम्हें? उन्हें कौन देखेगा?‘‘

‘‘शांत हो जाओ शिशिर, बात तो मुझे भी करनी है आप से और इसी बारे में करनी है, लेकिन इस तरह नहीं.‘‘

‘‘जो कौर्स और जौब तुम्हारे लिए बेकार है, वो मेरी आत्मनिर्भरता है. और इतने सालों से बच्चों को देख रही हूं न, आगे भी देख लूंगी.‘‘

‘‘मुझे नहीं पसंद, कह दिया न…‘‘

‘‘बात आप की पसंद की नहीं है, मेरे अस्तित्व की है.‘‘

‘‘तो ठीक है, आज से मेरे घर के दरवाजे बंद तुम्हारे लिए…‘‘

‘‘ठीक है, आप जब चाहें, जा सकते हैं.‘‘

इतना शांत जवाब? शिशिर अंदर तक हिल गया. सिर पकड़ कर बैठ गया, दस मिनट.

‘‘चंचल, क्या तुम सच में मेरे बिना रहना चाहती हो?‘‘

‘‘नहीं… मैं आप के साथ रहना चाहती हूं, लेकिन अपनी पहचान के साथ.‘‘

सुबकते हुए शिशिर बोला, ‘‘ठीक है, सुबह चलो साथ.‘‘

‘‘और मांजी?‘‘

‘‘परेशान मत होओ, सुबह सब साथ चलते हैं. सुहाना मैं और तुम, जब सब साथ मिल कर मनाएंगे तो मां भी मान ही जाएगी.‘‘

दोनों के चेहरे पर प्यार भरी मुसकराहट आ जाती है.

 

 

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