कमला बार-बार फ़ोन करती है, पूछती है, 'बीबीजी काम पर कबसे आ जाऊं ?' हर बार उसको टका सा जवाब मिलता है कि 'अभी मत आ. अभी सोसाइटी में किसी बाहरी को आने की परमिशन नहीं है.' पिछले तीन महीने से कमला घर में बंद बैठी है. खाने के लिए बेटे की मोहताज हो गयी है. लॉक डाउन से पहले वो छह घरों में बर्तन-झाड़ू करके 18000 हज़ार रुपया महीना कमा रही थी. उसका और उसके बीमार पति का गुज़ारा इस पैसे से चल जाता था. लॉक डाउन हुआ तो डेढ़ महीने में सारी बचत ख़तम हो गयी. अब सुबह शाम की रोटी बेटा देता है, वो भी बड़ा अहसान जता कर. अब उसकी भी तो कमाई खटाई में पड़ी है. किराए की ऑटो चलाता है. दो महीने तो बिलकुल काम बंद रहा और अब जो थोड़ा बहुत खुला है तो दिन भर में दो सौ रूपए भी कमाई नहीं है. जिसमे से आधा ऑटो मालिक ले लेता है. फिर उसके भी तीन बच्चे हैं, बीवी है, उनको भी रोटी खिलानी है.

इसीलिए कमला चाहती है कि इससे पहले कि बेटा भी रोटी देने से मना कर दे, जिन घरों में वो काम करती थी वो उसको अब जल्दी ही वापस बुला लें. लेकिन कोरोना के डर से नब्बे फ़ीसदी लोगों ने अपनी कामवालियों को अभी आने की अनुमति नहीं दी है.

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दिल्ली कीर्ति नगर में ऍफ़ ब्लॉक कॉलोनी में रहने वाली मिसेज़ सेठी कहती हैं, 'पता नहीं कहाँ-कहाँ से आती हैं, किससे-किससे मिलती हैं, कितनी बीमारियां समेटे घूमती हैं. जब तक कोरोना की मुसीबत टल ना जाए, कोई पुख्ता दवाई ना आ जाए, तब तक इन कामवालियों से दूरी बनाये रखने में ही भलाई है. इनको बुला कर कौन बीमारी को न्योता दे.'

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