चीन से तनाव के बीच रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह रूस की 3-दिनी यात्रा कर लौट आए हैं. रूस हमारे देश का पारंपरिक व ऐतिहासिक भागीदार रहा है. उस का भारत के रक्षा क्षेत्र में किसी भी देश से अधिक योगदान रहा है.
अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में कोई स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं होता, केवल हित स्थायी होते हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालते ही भारत सरकार ने देश के पुराने और नए दोस्तों की लिस्ट पर एक नज़र डाली और कुछ नए दोस्तों को प्राथमिकता दी. निश्चित रूप से मोदी सरकार की इस विदेश नीति का आधार भी राष्ट्रीय हित ही रहे होंगे और उस ने अपने नए व पुराने दोस्तों के बीच संतुलन स्थापित करने का भी प्रयास किया होगा.
लेकिन, मोदी सरकार से चूक कहां हुई कि रूस जैसे रणनीतिक साझेदार भी पीछे छूट गए.
कट्टर सोच बड़ी रुकावट :
वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी का कट्टर राष्ट्रवादी और कट्टर हिंदुत्ववादी वाला वैचारिक बैकग्राउंड जहां उन की सब से बड़ी ताक़त है, तो वहीं यह उन की राजनीति की सब से बड़ी कमज़ोरी भी. कट्टर राष्ट्रवादी और कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा की लहर ने उन्हें सत्ता सौंपी, लेकिन यही विचारधारा घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वास्तविक राष्ट्रीय हितों की पहचान के मार्ग में सब से बड़ी रुकावट है.
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कट्टर राष्ट्रवादी और कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा का दूसरा पहलू यह है कि देश के कट्टर राष्ट्रवादियों को पाकिस्तान नामक भूत कभी सोचनेसमझने का मौक़ा नहीं देता. इसलिए, वे उस से हार या जीत से आगे बढ़ कर कुछ सोच ही नहीं सके. हालांकि बगल में चीन जैसा शक्तिशाली और बड़ा देश समयसमय पर पड़ोसी देश (भारत) को जगाने के लिए झटके देता रहा, लेकिन उस के नेताओं के दिमाग़ से पाकिस्तान का ख़ुमार कभी उतरा ही नहीं.
भ्रष्टाचार में भारत, विकास की ओर चीन :
मोदी सरकार और उस से पहले की कांग्रेस सरकार घरेलू स्तर पर फ़र्ज़ी आतंकवाद, मुसलमानों की लिंचिंग, दलितों व अल्पसंख्यकों को मूल सुविधाओं से वंचित रखने जैसी नीतियों से ख़ुद को आज़ाद नहीं करा सकीं और सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबी रहीं.
जबकि, चीन बड़ी ख़ामोशी से विकास का रास्ता तय करता रहा और उस ने अपने देश में विज्ञान व तकनीक का मज़बूत तानाबाना बुन लिया. चीन आज अमेरिका हो या रूस, दुनिया के क़रीब हर बड़े देश का मुख्य साझेदार है और वह सब की ज़रूरत बनता जा रहा है.
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उदाहरण के तौर पर, चीन और रूस के बीच पारस्परिक सालाना व्यापार 110 अरब डौलर से भी अधिक है, तो वहीं भारत और रूस के बीच पारस्परिक सालाना व्यापार केवल 7 अरब डौलर है. उधर, चीन और अमेरिका के बीच सालाना व्यापार 559 अरब डौलर है तो भारत और अमेरिका के बीच सालाना व्यापार केवल 87.9 अरब डौलर है.
भारत और चीन के बीच पिछले साल द्विपक्षीय व्यापार क़रीब 85 अरब डौलर का हुआ, जिस में भारत ने चीन को क़रीब 16 अरब डौलर का निर्यात किया, जबकि चीन से लगभग 52 अरब डौलर का आयात किया. आयात और निर्यात के बीच इतने बड़े अंतर से ख़ुद भारत की चीन पर निर्भरता साफ़ दिखाई देती है.
रूस का अपना हित :
अब जहां तक मास्को (रूस की राजधानी) की बात है, वह चीन के साथ 110 अरब डौलर के मुक़ाबले भारत से 7 अरब डौलर के लिए बीजिंग (चीनी की राजधानी) को नाराज़ नहीं करना चाहेगा वह भी एक ऐसी सरकार (मोदी सरकार) के लिए जो पुराने संबंधों और समझौतों को नज़रअंदाज़ कर के नए दोस्तों की खोज में इधरउधर भटक रही हो.
सरकार की मानसिकता भी ज़िम्मेदार :
दरअसल, ख़ुद को कट्टर राष्ट्रवादी बताने वाले सत्ताधारी भाजपाई हों, संघी हों या उन के समर्थक, उन सभी की सोच का मुख्य आधार इसलामोफोबिया, भारतीय मुसलमानों से नफ़रत और उन्हें नीचा दिखाने पर है. वे राष्ट्रहित भी इसी सोच के इर्दगिर्द तलाश करते हैं. अब आप इसे घरेलू नीति के रूप में देख लें या विदेश नीति के तौर पर. दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. इन कट्टर राष्ट्रवादी संघियों का ख़याल है कि इसराईल और अमेरिका मुसलमानों के दुश्मन हैं, इसलिए वही हमारे सच्चे दोस्त हो सकते हैं.
मोदी सरकार ने इसी मानसिकता के साथ हर मौक़े पर अमेरिका और इसराईल को हद से ज़्यादा महत्त्व देना शुरू कर दिया और रक्षा क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मान कर रूस व ईरान जैसे भारत के पारंपरिक, भरोसेमंद सहयोगियों को हलके में लेना शुरू कर दिया.
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उधर, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में रूस के पास शतरंज की बिसात पर शह व मात की कई चालें थीं, तो उन्होंने भी भारत के धुरविरोधी चीन और पाकिस्तान के बाज़ारों में नई संभावनाएं खोजनी शुरू कर दीं.
मास्को और बीजिंग के बीच बढ़ता आर्थिक तथा रक्षा सहयोग निश्चित रूप से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. हालांकि रूस ने भारत और चीन के बीच अपने रिश्तों में एक संतुलन बनाने की कोशिश की, लेकिन पश्चिम की ओर मोदी सरकार के बढ़ते रुझान ने इसे काफ़ी हद तक असंतुलित कर दिया.
याद आई अब :
अब, लद्दाख एलएसी (लाइन औफ ऐक्चुअल कंट्रोल) पर चीन के साथ जारी तनाव के दौरान भारत को एक बार फिर रूस की शिद्दत से याद आई और भारतीय रक्षा मंत्री अपने हथियारों को अधिक धारदार बनाने व उन की मारकक्षमता बढ़ाने के लिए मास्को रवाना हुए, लेकिन उन्हें वहां से लगभग निराश हो कर वापस लौटना पड़ा. दरअसल, भारत सरकार काफ़ी देर से जागी और चीन अंतर्राष्ट्रीय नीति के स्तर पर भी भारत से बाज़ी ले गया. यहां तक कि रूसी अधिकारियों ने ऐलान कर दिया कि भारत-चीन टकराव में मास्को पूरी तरह से निष्पक्ष रहेगा. रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने अपने देश का मत साफ़ करते हुए कहा, “मुझे नहीं लगता कि भारत और चीन को बाहर से कोई मदद चाहिए. मुझे नहीं लगता कि उन्हें मदद करने की आवश्यकता है, खासकर जब मामला देश के मुद्दों से जुड़ा हुआ हो.”
रूस की स्थितियां अनुकूल नहीं :
इतिहास पर नज़र डालें, तो 2017 में डोकलाम विवाद के समय रूस ने तटस्थता की नीति अपनाई. इस से पहले 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में तो भारत का साथ रूस ने दिया लेकिन चीन के खिलाफ 1962 के युद्ध में नहीं. औब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडी प्रोग्राम के हेड, प्रोफ़ैसर हर्ष पंत का कहना है, “रूस के लिए परिस्थितियां कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं. आबादी पाकिस्तान से भी कम है जबकि ज़मीन यानी क्षेत्रफल बहुत ज़्यादा, जो यूरोप से एशिया तक फैला है. अपनी सुरक्षा के लिए रूस पूरी तरह तकनीक पर निर्भर है और इस में उस का बड़ा साथी चीन है. ऐसे में किसी एक का साथ दे कर रूस पड़ोसियों के साथ किसी संघर्ष में उलझने का रास्ता चुने, ऐसा नहीं लगता.”
लब्बोलुआब यह है कि वर्तमान में रूस की हालत ख़राब है जिस में चीन से उसे मदद चाहिए. इधर, भारत का झुकाव अमेरिका की तरफ होने से रूस का भारत पर विश्वास थोड़ा सा कम हुआ है. ऐसे में भारत को खुली आंखों से यह देखना चाहिए कि रूस के लिए भारत भले ही एक महत्त्वपूर्ण साथी हो, पर वह भारत का एकतरफा समर्थन करने की स्थिति में नहीं है.