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पीले पत्ते-भाग 1: डॉ प्रवीण के साथ क्या हादसा हुआ था?

अनुभा ने डा. प्रवीण की ओर देखा. वे शांत और अनिर्विकार भाव से व्हीलचेयर पर पड़े हुए थे. किसी वृक्ष का पीला पत्ता कब उस से अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता, वैसे ही प्रवीण का जीवन भी पीला होता जा रहा था. वह अपने प्यार से बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी हरीतिमा ला पाती थी. इन निष्क्रिय हाथपैरों में कब हलचल होगी? कब इन पथराई आंखों में चेतना जागेगी… ये विचार अनुभा के मन से एक पल को भी नहीं जा पाते थे.

‘‘मम्मी, मैं गिर पला,’’ तभी वेदांत रोते हुए वहां आया और अपनी छिली कुहनी दिखाने लगा.

‘‘अरे बेटा, तुझे तो सचमुच चोट लग गई है. ला, मैं दवाई लगा देती हूं,’’ अनुभा ने उसे पुचकारते हुए कहा.

अनुभा फर्स्टएड किट उठा लाई और डेटौल से नन्हें वेदांत की कुहनी का घाव साफ करने लगी.

‘‘मम्मी, आप डाक्तर हैं?’’ वेदांत अपनी तोतली जबान में पूछ रहा था.

वेदांत का सवाल अनुभा के हृदय को छू गया, बोली, ‘‘मैं नहीं बेटा, तेरे पापा डाक्टर हैं, बहुत बड़े डाक्टर.’’

‘‘डाक्तर हैं तो फिल बात क्यों नहीं कलते, मेला इलाज क्यों नहीं कलते.’’

‘‘बेटा, पापा की तबीयत अभी ठीक नहीं है. जैसे ही ठीक होगी, वे हम से बहुत सारी बातें करेंगे और तुम्हारी चोट का इलाज भी कर देंगे.’’

अस्पताल के लिए देर हो रही थी. वेदांत को नाश्ता करवा कर उसे आया को सौंपा और खुद डा. प्रवीण को फ्रैश कराने के लिए बाथरूम में ले गई. आज वह उन के पसंद के कपड़े स्काईब्लू शर्ट और ग्रे पैंट पहना रही थी. कभी जब वह ये कपड़े प्रवीण के हाथ में देती थी तो वे मुसकरा कर कहते थे,  ‘अनु, आज कौन सा खास दिन है, मेरे मनपसंद कपड़े निकाले हैं.’ पर अब तो होंठों पर स्पंदन भी नहीं आ रहे थे. डा. प्रवीण को तैयार करने के बाद उसे खुद भी तैयार होना था. वह विचारों पर रोक लगाते हुए हाथ शीघ्रता से चलाने लगी. यदि अस्पताल जाने में देर हो गईर् तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी. डा. प्रवीण को तो उस ने कभी भी अस्पताल देरी से जाते नहीं देखा था, यहां तक कि वे कई बार जल्दी में टेबल पर रखा नाश्ता छोड़ कर भी चले जाते.

आज अस्पताल में ठीक 11 बजे हार्ट सर्जरी थी. डा. मोदी, सिंघानिया अस्पताल से इस विशेष सर्जरी को करने आने वाले थे. अनुभा डा. प्रवीण को ले कर अस्पताल रवाना हो गई. आज भी पहले मरीज को डा. प्रवीण ही हाथ लगाते हैं. यह अनुभा के मन की अंधश्रद्धा है या प्रवीण के प्रति मन में छिपा अथाह प्रेम, किसी भी कार्य का प्रारंभ करते हुए प्रवीण का हाथ जरूर लगवाती है. इस से उस के मन को समाधान मिलता है. आज भी डा. प्रवीण ने पेशेंट को छुआ और फिर वह औपरेशन थिएटर में दाखिल हुआ. अनुभा ने प्रबंधन से अस्पताल की अन्य व्यवस्थाओं के बारे में पूछा. सारा काम सही रीति से चल रहा था. अस्पताल के व्यवस्थापन में अनुभा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

डा. प्रवीण के केबिन में बैठीबैठी अनुभा खयालों के गहरे अंधकार में डूबउतरा रही थी. गले में स्टेथोस्कोप डाले हुए डा. प्रवीण रहरह कर अनुभा की आंखों के सामने आ रहे थे. एक ऐक्सिडैंट मनुष्य के जीवन में क्याक्या परिवर्तन ला देता है, उस के जीवन की चौखट ही बदल कर रख देता है. आज भी अनुभा के समक्ष से वह दृश्य नहीं हटता जब उन की कार का ऐक्सिडैंट ट्रक से हुआ था. एक मैडिकल सैमिनार में भाग लेने के लिए डा. प्रवीण पुणे जा रहे थे. वह भी अपनी मौसी से मिल लेगी, यह सोच साथ हो ली थी. पर किसे पता था कि वह यात्रा उन पर बिजली बन कर टूट कर गिरने वाली थी. तेजी से आते हुए ट्रक ने उन की कार को जोरदार टक्कर मारी थी. नन्हा वेदांत छिटक कर दूर गिर गया था. अनुभा के हाथ और पैर दोनों में फ्रैक्चर हुए थे. डा. प्रवीण के सिर पर गहरी चोट लगी थी. करीब एक घंटे तक उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई थी. डा. प्रवीण बेहोश हो गए थे. कराहती पड़ी हुई अनुभा में इतनी हिम्मत न थी कि वह रोते हुए वेदांत को उठा सके. बस, पड़ेपड़े ही वह मदद के लिए पुकार रही थी.

2-3 वाहन तो उस की पुकार बिना सुने निकल गए. वह तो भला हो कालेज के उन विद्यार्थियों का जो बस से पिकनिक के लिए जा रहे थे, उन्होंने अनुभा और प्रवीण को उठाया और अपनी बस में ले जा कर अस्पताल में भरती करवाया. आज भी यह घटना अनुभा के मस्तिष्क में गुंजित हो, उसे शून्य कर देती है. अस्पताल में अनुभा स्वयं की चोटों की परवा न करते हुए बारबार प्रवीण का नाम ले रही थी. पर डा. प्रवीण तो संवेदनाशून्य हो गए थे. अनुभा की चीखें सुन कर भी वे सिर उठा कर भी नहीं देख रहे थे. डाक्टरों ने कहा था कि मस्तिष्क से शरीर को सूचना मिलनी ही बंद हो गई है, इसलिए पूरे शरीर में कोई हरकत हो ही नहीं सकती.

अनुभा प्रवीण को बड़े से बड़े डाक्टर के पास ले गई पर कोई फायदा नहीं हुआ. आज इस घटना को पूरे 2 वर्ष बीत गए हैं. डा. प्रवीण जिंदा लाश की तरह हैं. पर अनुभा के लिए तो उन का जीवित रहना ही सबकुछ है. डा. प्रवीण के मातापिता डाक्टर बेटे के लिए डाक्टर बहू ही चाहते थे. किंतु अनुभा के पिता का इलाज करतेकरते दोनों के मध्य प्रेमांकुर फूट गए थे और यही बाद में गहन प्रेम में परिवर्तित हो गया. कितने ही डाक्टर लड़कियों के रिश्ते उन्होंने ठुकरा दिए और एक दिन डा. प्रवीण अनुभा को पत्नी बना कर सीधे घर ले आए थे. शुरुआत में मांबाप का विरोध हुआ, किंतु धीरेधीरे सब ठीक हो ही रहा था कि यह ऐक्सिडैंट हो गया. डा. प्रवीण के मातापिता को एक बार फिर कहने का मौका मिल गया कि यदि डाक्टर लड़की से विवाह हुआ होता तो आज वह अस्पताल संभाल लेती.

चीनिया केला बड़ा अलबेला

फल और सब्जी के रूप में देश भर में केला काफी पसंद किया जाता है. यह स्वादिष्ठ, आयरन से भरपूर, आसानी से पचने वाला, सस्ता और लोकप्रिय फल है. हरे केले की सब्जी भी काफी लजीज होती है. इस के अलावा आटा और चिप्स बनाने में भी अब इस का इस्तेमाल बढ़ रहा है. देश में फलों के कुल क्षेत्रफल के 20 फीसदी हिस्से में केला उगाया जाता है.

केले की खेती के लिए 6 से 7.5 पीएच मान की अम्लीय मिट्टी काफी अच्छी मानी जाती है. खेतों की मिट्टी की जांच कराने के बाद उस का सही इलाज कर के किसी भी खेत में केले की खेती की जा सकती है. केला उत्पादक किसान बृजनंदन प्रसाद बताते हैं कि कृषि वैज्ञानिकों से सलाह ले कर उन्होंने पहले 2 बीघे खेत में केले की खेती शुरू की.

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3-4 महीने में ही केले के पौधे लहलहाने लगे. केले की खेती के लिए सब से अच्छी बात यह है कि इसे साल भर में कभी भी लगाया जा सकता है. इस के पौधों को मजबूत बनाने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम की जरूरत होती है. प्रति हेक्टेयर केले के 3630 पौधे ही लगाने चाहिए और पौधों के बीच 1.82 मीटर की दूरी रखनी चाहिए.

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चीनिया केला बिहार की लोकप्रिय किस्म है. इस के पौधे केले की दूसरी प्रजातियों की तुलना में ज्यादा कोमल, पतले और कम बढ़वार वाले होते हैं. राज्य के वैशाली जिले में चीनिया केले की बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. इस के अलावा समस्तीपुर और मुजफ्फरपुर जिलों में भी इस की खेती होती है. चीनिया केले का तना लंबा, पतला और हलके हरे रंग का होता है. इस के पत्ते चौड़े और लंबे होते हैं. इस केले की घौद काफी कसी हुई होती है और उस में 8 से 10 हत्थे होते हैं. एक घौद का वजन 12 से 15 किलोग्राम तक होता है. हर घौद में 120 से 150 केले होते हैं. डंठल समेत एक केले की लंबाई 10 से 15 सेंटीमीटर होती है. इस के फल की नोक काफी पतली होती है. पके हुए चीनिया केले के छिलके का रंग चमकीला पीला होता है. इस के फलों की भंडारण कूवत बाकी किस्म के केलों से बेहतर होती है. पके हुए फलों को कमरे के सामान्य तापमान पर 3-4 दिनों  के लिए भंडारित किया जा सकता है. एक फसल चक्र 16-17 महीने का होता है. प्रति हेक्टेयर 40 से 45 टन चीनिया केले की उपज मिल जाती है.

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चीनिया केले का गूदा मुलायम, सफेद, सुगंधित और खट्टेमीठे स्वाद का अनोखा मिश्रण होता है. भंडारण की अवस्था में पके केले से सुगंध निकलती रहती है चीनिया केले के पौधों पर पत्तों के रोग और धारीदार विषाणु रोग के प्रकोप का खतरा ज्यादा होता है, लेकिन इस के पौधों पर पनामा रोग का असर नहीं के बराबर होता है. बहुवर्षीय खेती परंपरा के तहत आज भी वैशाली जिले के किसानों के बीच चीनिया केला काफी मशहूर है. बिहार के अलावा चीनिया केले की किस्म बंगाल में अमृतपानी और चीनी चंपा व दक्षिण भारत में पूवन और पंचानकोदैन और केरल में कुन्नन नाम से जानी जाती है. चीनिया के अलावा मालभोग, मिठाई, राजा, कैवेंडिस, कैवेंडिंस व इसम आदि केले की खास किस्में हैं. वहीं हरे या कच्चे केले को सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. सब्जी के रूप में केले की अबू, अवाक व टंडुक आदि किस्मों को पसंद किया जाता है.

Crime Story: बीवी का दलाल

सौजन्य-सत्यकथा

नाम से ही जाहिर है कि उस के नाम के आगे बंगाली विशेषण महज इसलिए लग गया था
कि वह मूलरूप से बंगाल का रहने वाला है. पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के गांव चंडीपुरा से अपनी जिंदगी का सफर और दौड़ शुरू करने वाले महज 27 वर्षीय साजिद बंगाली को ढेर सा पैसा कमाने के लिए अपनी मंजिल भोपाल आ कर मिली थी.भोपाल की गिनती बेहद शांत और खूबसूरत शहरों मेें बेवजह नहीं होती. दुनिया भर की सर्वे रिपोर्ट्स मानती हैं कि बसने के लिहाज से भोपाल एक बेहतरीन शहर है. लेकिन इन दिनों भोपाल एक और जिस खूबी के चलते बदनाम हो रहा है वह धड़ल्ले से पसरता देहव्यापार है. अब तो इस में विदेशी लड़कियों ने भी पैठ बना ली है.

साजिद भोपाल आया तो था कामकाज की तलाश में, लेकिन काफी मेहनत और मशक्कत के बाद भी मनमाफिक काम और दाम नहीं मिले तो उस का माथा भन्ना गया. 2 साल पहले तक वह मुंबई में कपड़े काटने का काम करता था. मुंबई खर्चीला और महंगा शहर है, लिहाजा अच्छी आमदनी वाले भी बस पेट भर खापी पाते हैं, मौजमस्ती और ऐशोआराम की जिंदगी तो हाड़तोड़ मेहनत करने वालों को भी नसीब नहीं होती.

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2 साल पहले अपने एक दोस्त की सलाह पर साजिद भोपाल आया तो उस के साथ उस की पत्नी शबनम (बदला नाम) भी थी. साजिद को उम्मीद थी कि अगर भोपाल में भी मुंबई के बराबर आमदनी हो तो उस की माली हालत सुधर जाएगी, भोपाल में रहने और खाने पीने पर खर्च भी कम होगा. कुछ दिन उस का दोस्त उस के साथ भोपाल में रहा लेकिन मुनासिब काम न मिलने पर नाउम्मीद हो कर वापस मुंबई चला गया.

साजिद भी शायद वापस चला जाता लेकिन पुराने भोपाल में रहते उस ने पैसा कमाने का एक जो शार्टकट देखा तो उस की आंखें चमक उठीं. उसे यह तो समझ आ ही गया था कि मुंबई हो या भोपाल, कपड़े काटने के काम में उसे हर जगह उतने ही पैसे मिलेंगे, जिन से गुजारा महीने में एक हफ्ता रोजे रख कर ही होगा.

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कम उम्र में ही अभावों के थपेड़े खा चुके साजिद ने जब पड़ोस में रहने वाली एक अधेड़ महिला को देखा तो उसे लगा कि यह धंधा क्या बुरा है, जिस में पैसा बूंदबूंद कर नहीं आता बल्कि तेज बारिश सा बरसता है और मजे की बात यह कि इस में मेहनत भी कुछ खास नहीं करनी पड़ती.वह महिला जिसे साजिद और उस की पत्नी शबनम आंटी कहने लगे थे, अपनी 2 जवान बेटियों के साथ रहती थी. बहुत जल्द साजिद को समझ आ गया था कि आंटी अपनी दोनों बेटियों से देहव्यापार करवाती है. वह दौर बीत चुका है जब जिस्मफरोशी सिर्फ रात का धंधा हुआ करता था. आंटी के यहां तो सूरज सिर पर चढ़ते ही ग्राहकों की भीड़ लगने लगती थी, लेकिन रात की बात वाकई और होती थी.

तकरीबन बेरोजगारी काट रहे साजिद को यह देख हैरानी भी होती थी और कोफ्त भी कि आंटी के यहां ऐशोआराम की तमाम चीजें हैं. उन का पूरा घर खूब शौपिंग करता है, ठाठ से रहता है और पैसों की कमी क्या होती है, यह शायद ही वे तीनों जानती हों.गरीबी और अभाव आदमी को क्या कुछ करने को मजबूर नहीं कर देते, यह साजिद की इस वक्त की मानसिकता को देख सहज समझा जा सकता था. एक दिन उस ने ऐसा फैसला ले लिया जो कहने को तो नैतिकता के खिलाफ था, लेकिन इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं कि आखिर जिस्मफरोशी के धंधे में बुराई क्या है, सिवाय इस के कि यह कानूनन जुर्म है. सभ्य समाज की देह पर यह एक ऐसा कोढ़ है जिस के बगैर समाज भी पूरी तरह सभ्य नहीं कहा जा सकता.
साजिद का यह फैसला अपनी जवान बीवी शबनम सेदेहव्यापार करवाने का था. एक दिन कुछ झिझकते हुए उस ने शबनम से यह पेशकश की तो शबनम बिना किसी नानुकुर के तैयार हो गई. तय है शबनम साजिद से कहीं ज्यादा अपनी मजबूरियां समझ रही थी. वह सोचती थी कि यह भी कोई जिंदगी है कि शाम को चूल्हा जलेगा या नहीं, इस बात की गारंटी भी हर सुबह नहीं रहती. दूसरे पति की बेबसी भी उसे समझ आ रही थी, जो 24 परगना से शुरू होते वाया मुंबई भोपाल आने तक ज्यों की त्यों थी.

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शबनम के हां कहने पर साजिद कितना खुश हुआ होगा और उसे उस के जमीर ने कितना कचोटा होगा, इस का सटीक विश्लेषण तो शायद मशहूर कहानीकार प्रेमचंदजी भी होते तो न कर पाते. लेकिन इतना जरूर तय है कि इस दंपति के फैसले को एक झटके में अनैतिक करार दे देना उन के साथ ज्यादती ही होगी.

नैतिकताअनैतिकता, गलतसही और कानूनीगैरकानूनी की दार्शनिक बहस और पचड़े से परे साजिद दूसरे दिन सीधा आंटी के पास जा पहुंचा. पड़ोस में रहते उस ने यह बात शिद्दत से महसूस की थी कि उन की पत्नी शबनम आंटी की बेटियों से कहीं ज्यादा खूबसूरत, गदराई और जवान है, इसलिए ग्राहक उसे ज्यादा पसंद करेंगे और जल्द ही वे दोनों अपने आलीशान मकान में होंगे जहां कार, एसी, फ्रिज, नौकरचाकर जैसी तमाम सहूलियतें उन के पास होंगी. जैसी कि उम्मीद थी साजिद की पेशकश को आंटी ने एक झटके में कबूल कर लिया.

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इस की वजह यह थी कि उस के पास ग्राहकों की खासी तादाद थी जो खूबसूरत जवान लड़कियों पर पैसा लुटाने को बेताब रहते थे. ऐसे में शबनम उन्हें हीरे की खदान लगी, क्योंकि कई ऐसे नियमित ग्राहक भी थे जो उन की बेटियों से ऊबने लगे थे और नए माल की फरमाइश करते रहते थे.इस तरह शबनम देहव्यापार के धंधे में आ गई और वाकई देखते ही देखते उन की गरीबी दूर होने लगी. शबनम पर पैसा लुटाने वालों की भीड़ बढ़ने लगी तो साजिद के दिमाग में बिजली सी कौंधी कि क्यों न यह कारोबार खुद के दम पर चलाया जाए. इस खयाल के पीछे वजह यह थी कि अभी मोटा कमीशन आंटी की जेब में चला जाता था, जिसे देख साजिद को लगता था कि यह पैसे भी उस के हो सकते हैं बशर्ते वह स्वतंत्र रूप से बीवी का दलाल बन कर यह धंधा शुरू कर दे.

इस इच्छा को अमल में लाने उस ने भोपाल के देहव्यापार के दलालों से संपर्क बढ़ाना शुरू कर दिया. मेहनत रंग लाई और कुछ दिनों बाद ही साजिद ने मकान बदल लिया. आंटी ने इस पर कोई खास ऐतराज नहीं जताया. तजुर्बेकार होने के कारण वे इस धंधे के बुनियादी उसूल समझती थीं कि इस कारोबार में सप्लाई कम है और डिमांड ज्यादा है और वे शबनम से जितना ज्यादा कमा सकती थी उतना कमा चुकी थी.दलालों से मिलने पर साजिद की हिम्मत और बढ़ी तो जल्द ही उस ने ज्यादा पैसे कमाने की गरज से जरूरत की मारी दूसरी लड़कियों से भी धंधा करवाना शुरू कर दिया. इस तरह उस की आमदनी बढ़ने लगी, क्योंकि अब उसे भी मोटा कमीशन मिलने लगा था और शबनम की कमाई तो सौ टका उसी की होती थी. दूसरी लड़कियों के आ जाने से शबनम अब खास ग्राहकों को ही खुश करती थी जो भारीभरकम पैसे देते थे.

2 साल में ही साजिद और शबनम की गरीबी दूर हो गई थी. इस दौरान उन्होंने खासा पैसा बना लिया था. साजिद चाहता तो इस पैसे से अपना कारोबार शुरू कर सकता था, लेकिन लालच बुरी बला वाली कहावत बेवजह नहीं गढ़ी गई है, जिस के चलते आदमी की अक्ल और समझ पर परदा पड़ जाता है. यही साजिद के साथ हो रहा था.साजिद अब तक भोपाल के ही नहीं, बल्कि देश भर के दलालों के नेटवर्क से जुड़ चुका था. देहव्यापार का धंधा भी कितनी तरक्की कर रहा है, यह भी इसी दौरान उसे समझ आया था कि इस में कालगर्ल्स आजकल एक जगह टिक कर धंधा नहीं करतीं, बल्कि शहरशहर जा कर सर्विस देती हैं. इस में उन्हें पैसा भी ज्यादा मिलता है और पुलिस का खतरा भी कम होता है.

दुनिया का सब से बड़ा यह कारोबार हाइवे के टूटेफूटे ढाबों से ले कर फाइवस्टार होटल्स तक में चलता है. यह बात भी साजिद ने शिद्दत से देखी और समझी थी लेकिन होटलों के खतरों से भी वह नावाकिफ नहीं था. इसलिए उस ने और पैसा कमाने की गरज से दलाल के मार्फत भोपाल के एयरपोर्ट रोड पर बनी इंद्रविहार कालोनी में 11 हजार रुपए महीने का एक आलीशान मकान किराए पर ले लिया था.लेकिन पैसों के नशे में चूर साजिद खुद को होशियार समझ रहा था. वह यह नहीं सोच पा रहा था कि उस के नाम और काम के चर्चे पुलिस के कानों में पड़ चुके हैं और पुलिस मौके का इंतजार कर रही है, जो उसे आखिरकार बीती 28 जनवरी को मिल ही गया.

एयरपोर्ट कालोनी लालघाटी स्थित इंद्रविहार कालोनी का मकान नंबर सी-106 वह मकान था, जो साजिद ने 15 जनवरी के आसपास किराए पर लिया था. इस मकान की अंदरूनी सजावट उस ने दिल से की थी. साजिद जानता था कि जो कस्टमर एक बार के 10-15 हजार रुपए और एक रात के 25-30 हजार रुपए तक देने की हैसियत रखते हैं, उन्हें तमाम चीजें लग्जरी चाहिए होती हैं.अहतियात बरतते वह ठिकाने जरूर बदलता रहता था, लेकिन पुलिस वाले सैक्स रैकेट चलाने वालों की इस तरह की चालबाजियों को उन से ज्यादा जानतेसमझते हैं.

भोपाल क्राइम ब्रांच के एएसपी निश्चल झारिया कई दिनों से साजिद बंगाली नाम के इस दलाल पर मुखबिरों के जरिए नजर रखे हुए थे. लेकिन मौका उन्हें 28 जनवरी को तब मिला, जब एक भरोसेमंद मुखबिर ने उन्हें यह खबर दी कि इंद्रविहार कालोनी के मकान नंबर सी-106 में देहव्यापार हो रहा है और इस में कुछ विदेशी लड़कियां भी सर्विस दे रही हैं. निश्चल झारिया ने इस गिरोह को दबोचने की कमान और जिम्मेदारी डीएसपी क्राइम सलीम खान और टीआई आलोक श्रीवास्तव को सौंप दी. इन दोनों ने विदेशी चिडि़यों और देसी बहेलिए को रंगेहाथों पकड़ने की योजना बना कर एक सिपाही को ग्राहक बना कर भेजा.

ठीक इस के पहले रामकिशोर मीणा मोबाइल पर साजिद बंगाली से बात कर रहे थे. रामकिशोर सतना के स्टेट बैंक औफ इंडिया की ब्रांच में सहायक मैनेजर हैं, जो भोपाल किसी काम से आए थे. शौकीन और रंगीनमिजाज रामकिशोर को साजिद का मोबाइल नंबर उन के एक दोस्त ने दिया था. व्यावसायिक इलाके के एम.पी. नगर थाने के सामने भोपाल का सब से बड़ा मौल डीबी मौल है. यहां से रामकिशोर ने कड़ाके की ठंड में ‘गरमी’ पाने की मंशा से साजिद को फोन किया तो उन्हें निराशा हाथ नहीं लगी.

जब साजिद आश्वस्त हो गया कि रामकिशोर को उन के नियमित और विश्वसनीय ग्राहक ने भेजा है तो उस ने बातचीत के तुरंत बाद वाट्सऐप पर उन्हें 4 युवतियों की अर्धनग्न तस्वीरें भेज दीं. इन में से एक तसवीर रिया नाम की विदेशी गोरी चिकनी लड़की की भी थी, जिस का फिगर 36-28-36 बताया गया था. देसी तो कई बार आजमा चुके, क्यों न इस बार विदेशी लड़की ट्राई की जाए, यह सोचते हुए उन्होंने साजिद से रिया का रेट पूछा तो जवाब मिला एक बार के 10 हजार रुपए और लड़की हर तरह की सर्विस देगी.
रामकिशोर को चूंकि रिया पहली नजर में ही पसंद आ गई थी, इसलिए उन्होंने तुरंत हां कर दी. सौदा पट गया तो साजिद ने फोन पर उन से कहा कि आप वहीं इंतजार करें, एक स्कोडा कार आप को लेने आ रही है. इस कार का नंबर उस ने रामकिशोर को बता दिया.

इंतजार के 10 मिनट 10 साल सरीखे बीते, जिन में रामकिशोर रिया के संगमरमरी जिस्म के उतारचढ़ावों की कल्पना में डूबे रहे. जैसे ही कार उन के नजदीक आई तो वे फुरती से उस में बैठ गए. मानो देर हो गई तो गंगा डुबकी का मुहूर्त हाथ से निकल जाएगा.मकान के भव्य कमरे में जैसे ही रिया रामकिशोर के सामने पड़ी, तो उन के रहेसहे होश भी उड़ गए. सचमुच रिया संगमरमर की शिला जैसी थी और फिगर भी वही था जो साजिद ने बताया था. खजुराहो और अजंता एलोरा की मैथुनरत मूर्तियां भी रामकिशोर को साकार होती लग रही थीं.

आम भारतीय ग्राहक की सहज होने की कमजोरियां ऐसे वक्त में ही उजागर होती हैं. रामकिशोर रिया से उस की राष्ट्रीयता वगैरह पूछने लगे. अच्छा तो यह रहा कि उन्होंने उस से उस की जाति और गोत्र वगैरह नहीं पूछे.उधर रिया इस बेवजह और फिजूल की संगोष्ठी के मूड में कतई नहीं थी, फिर भी उस ने औपचारिक लेकिन पेशेवर अंदाज में जवाब दे दिया कि वह उजबेकिस्तान ताशकंद की रहने वाली है और इन बेकार की बातों में वक्त जाया करने से कोई फायदा नहीं, आप तो बस अपना काम करो और बढ़ लो.
रिया को मालूम था कि रामकिशोर ने उस की सिंगल यानी एक बार के लिए बुकिंग कराई है, जिस का चार्ज 10 हजार रुपए है और टाइम लिमिट 40 मिनिट. उसे रामकिशोर की बातों पर झल्लाहट आ रही थी कि आया है मौजमस्ती करने और देह सुख लेने, लेकिन बात 1966 में हुए ताशकंद समझौते की कर रहा है. इस ऐतराज पर रामकिशोर को गुस्सा आ गया और उन्होंने पूछा कि पूरी रात का क्या लोगी तो रिया ने झट जवाब दिया 25 हजार रुपए.

रामकिशोर की हालत बार में बैठे उस शराबी की तरह हुई जा रही थी, जो जाता तो एकदो पैग पीने की गरज से है लेकिन नशा न होते देख फुल बोतल गटक जाता है. लिहाजा वे 25 हजार देने को तैयार हो गए जो रिया ने तुरंत रखवा लिए. शर्त या प्रावधान यह भी था कि रामकिशोर जैसे चाहेंगे वैसे वह उन्हें मजा या सुख कुछ भी कह लें, देगी.पैसे दे कर रामकिशोर ने अपनी यह ख्वाहिश रिया को बता दी कि वे औरल सैक्स चाहते हैं तो उस ने कोई नानुकुर नहीं की क्योंकि पैकेज में यह शामिल था लेकिन उस बाबत उस ने लाइट बंद की तो रामकिशोर बोले यह सब मैं रोशनी में चाहता हूं.

इस पर रिया ने उन से कहा कि रोशनी में करवाना है तो 2 हजार रुपए एक्स्ट्रा देने होंगे. इस पर भी वे तैयार हो गए तो रिया ने ये पैसे भी नकद ले लिए और जैसा वे चाहते थे, करना शुरू कर दिया.

यही वह वक्त था जब पुलिस के भेजे सिपाही ने साजिद से एक लड़की के बाबत सौदा तय कर अपने अधिकारियों को छापा मारने का सिगनल दे दिया था. फिल्मी स्टाइल में पुलिस ने छापा मारा और हमेशा की तरह एकएक कर 4 कालगर्ल्स और 4 ग्राहकों को आपत्तिजनक अवस्था में पकड़ा, जिन में से एक रामकिशोर मीणा भी थे.हर छापे की तर्ज पर ही मकान से आपत्तिजनक सामग्री जिन में कंडोम, ब्लू फिल्मों की सीडी और कामोत्तेजक दवाएं वगैरह होती हैं, भी जब्त हुईं और पंचनामा भी बन गया. साजिद के साथ उस की पत्नी शबनम भी गिरफ्तार कर लिए गए. पकड़ी गई लड़कियों में से 2 नेपाली थीं और एक पश्चिम बंगाल की थी.

पुलिसिया खानापूर्तियों के बाद पता चला कि रिया टूरिस्ट वीजा पर भारत आई थी और वह दिल्ली के मालवीय नगर में रहती है. वह कोई 7 साल से यह धंधा कर रही थी और 17 साल की उम्र में ही इस धंधे में आ गई थी. साजिद ने एक दलाल अजय से उसे 15 दिन के लिए डेढ़ लाख रुपए में हायर किया था या ठेके पर लिया था एक ही बात है. पता यह भी चला कि इन कालगर्ल्स का सारा खर्च मेजबान दलाल उठाते हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में घूम कर धंधा करती हैं. भोपाल में रिया और दूसरी कालगर्ल्स का खर्च साजिद उठा रहा था. नेपाली लड़कियां रिया के मुकाबले सस्ती थीं.

देखा जाए तो साजिद घाटे का सौदा नहीं कर रहा था, क्योंकि रिया औसतन उसे 30 हजार रुपए रोज दिलवा रही थी यानी 15 दिन के साढ़े 4 लाख रुपए. अजय को डेढ़ लाख देने के बाद साजिद बचे 3 लाख रुपए में से अगर एक लाख खर्च भी कर रहा था तो 15 दिन में 2 लाख रुपए तो कमा ही रहा था. इतनी ही रकम वह पत्नी शबनम और दूसरी कालगर्ल्स से बना रहा था.इस कहानी के लिखे जाने तक रिया के बारे में पुलिस और जानकारियां जुटाने में लगी थी और सभी की एचआईवी जांच भी करा रही थी क्योंकि कुछ महीने पहले ही एक छापे में कुछ अफ्रीकन लड़कियां पकड़ी गई थीं, जिन में से 2 की रिपोर्ट एचआईवी पाजिटिव आई थी.

एक साजिद का गिरोह पकड़े जाने से यह नहीं माना जा सकता कि देहव्यापार बंद हो गया. हां, इतना जरूर हर किसी को समझ आ गया कि अब देहव्यापार काफी हाईटेक हो चला है और भोपाल जैसे शहर में भी विदेशी कालगर्ल्स की मांग तेजी से बढ़ रही है. रामकिशोर मीणा जैसे पकड़े गए लोग अपनी इच्छाओं को नहीं, बल्कि किस्मत को कोसते नजर आते हैं कि उन्होंने छापे वाले दिन ही सौदा क्यों किया या छापा उसी दिन क्यों पड़ा जिस दिन उन्होंने सौदा किया था.

रही बात साजिद की तो उसे कोई खास नुकसान होगा, ऐसा लग नहीं रहा. जमानत पर छूट जाने के बाद वह कहीं और जा कर कारोबार जमा लेगा. लेकिन मुकदमा लंबा खींचने में वह कोई कसर नहीं छोड़ेगा. जिस ने भी इस छापे की खबर पढ़ी उस ने साजिद को कोसा कि कैसा बेशर्म आदमी था जो बीवी को भी देहव्यापार की दलदल में घसीट लाया. शायद ही कोई इस बात का जवाब दे पाए कि गरीबी भुखमरी और अभावों की दलदल इस सब से बेहतर थी क्या?

पीले पत्ते-भाग 2: डॉ प्रवीण के साथ क्या हादसा हुआ था?

इस घटना के करीब 6 महीने बाद तक वह इस तरह खोईखोई रहने लगी थी मानो डाक्टर प्रवीण के साथ वह भी संवेदनाशून्य हो गई हो. इस संसार में रह कर भी वह सब से दूर किसी अलग ही दुनिया में रहने लगी थी.  डा. प्रवीण का जीवनधारा प्राइवेट अस्पताल बंद हो चुका था. अनुभा के मातापिता ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ. इसी समय डा. प्रवीण के खास दोस्त डा. विनीत ने अनुभा का मार्गदर्शन किया. दर्द से खोखले पड़ गए उस के मनमस्तिष्क में आत्मविश्वासभरा, उसे समझाया कि वह अस्पताल अच्छे से चला सकती है.

अनुभा ने निराश स्वर में उत्तर दिया था, ‘पर मैं डाक्टर नहीं हूं.’ डा. विनीत ने उसे समझाया था कि वह डाक्टर नहीं है तो क्या हुआ, अच्छी व्यवस्थापक तो है. कुछ डाक्टरों को वेतन दे कर काम पर रखा जा सकता है और कुछ विशेषज्ञ डाक्टरों को समयसमय पर बुलाया जा सकता है. शुरूशुरू में उसे यह सब बड़ा कठिन लग रहा था, पर बाद में उसे लगा कि वह यह आसानी से कर सकती हैं. डा. प्रवीण के द्वारा की गई बचत इस समय काम आई. डा. विनीत ने जीजान से सहयोग दिया और बंद पड़े हुए जीवनधारा अस्पताल में नया जीवन आ गया.

अब तो अस्पताल में 4 डाक्टर, 8 नर्स और 8 वार्डबौय का अच्छाखासा समूह है और रोज ही अलगअलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ डाक्टर आ कर अपनी सेवा देते हैं. वहां मरीजों की पीड़ा देख कर अनुभा अपने दुख भूलने लगी. जब व्यक्ति अपने से बढ़ कर दुख देख लेता है तो उसे अपना खुद का दुख कम लगने लगता है. डा. प्रवीण को भी इसी अस्पताल में नली के द्वारा तरल भोजन दिया जाने लगा. अनुभा ने प्रवीण की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि हर दिन उन की  शेविंग भी की जाती, व्हीलचेयर पर बैठे डाक्टर प्रवीण इतने तरोताजा लगते कि अजनबी व्यक्ति आ कर उन से बात करने लगते थे. डा. प्रवीण आज भी अपने केबिन में अपनी कुरसी पर बैठते थे. अनुभा डा. प्रवीण के सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं चाहती थी.

अनुभा की मेहनत और लगन देख कर उस के सासससुर भी उस क लोहा मान गए थे और अनुभा तो इसे अपना पुनर्जन्म मानती है. कहां पहले की सहमीसकुचाई सीधीसादी अनुभा और अब कहां आत्मविश्वास से भरी सुलझे विचारों वाली अनुभा. जिंदगी के कड़वे अनुभव इंसान को प्रौढ़ बना देते हैं, दुख इंसान को मांझ कर रख देता है और वक्त द्वारा ली गई परीक्षाओं में जो खरा उतरता है वह इंसान दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है. आज अनुभा इसी दौर से गुजर रही थी. अब वह सबकुछ ठीक तरह से संभालने लगी थी. डा. प्रवीण जो सब की नजरों में संवेदनाशून्य हो गए थे, उस की नजरों में सुखदुख के साथी थे. कोई भी बात वह उन्हें ऐसे बताती जैसे वे सभीकुछ सुन रहे हों और अभी जवाब देंगे. निर्णय तो वह स्वयं लेती पर इस बात की तसल्ली होती कि उस ने डा. प्रवीण की राय ली.

सबकुछ ठीक चल रहा था पर आजकल अनुभा को कुछ परेशान कर रहा था, वह था डा. विनीत की आंखों का बदलता हुआ भाव. औरत को पुरुष की आंखों में बदलते भाव को पहचानने में देर नहीं लगती. जितनी आसानी से वह प्रेम की भावना पहचान लेती है, उतनी ही आसानी से आसक्ति और वासना की भी. पुरुषगंध से ही वह उस के भीतर छिपी भावना को पहचानने में समर्थ होती है. यह प्रकृति की दी हुई शक्ति है उस के पास और इसी शक्ति के जोर पर अनुभा ने डा. विनीत के मन की भावना पहचान ली. आतेजाते हुए डा. विनीत का मुसकरा कर उसे देखना, देर तक डा. प्रवीण के केबिन में आ कर  बैठना, उस से कुछ अधिक ही आत्मीयता जताना, वह सबकुछ समझ रही थी.

डा. विनीत के इस व्यवहार से वह अस्वस्थ हो रही थी. वह तो डा. विनीत को प्रवीण का सब से अच्छा दोस्त मानती थी, क्या मित्रता भी कीमत मांगती है? क्या व्यक्ति अपने एहसानों का मूल्य चाहता है? क्या मार्गदर्शक ही राह पर धुंध फैला देता है? वह इन सवालों में उलझ कर रह जाती थी. एक दिन अनुभा जब वेदांत को छोड़ने प्ले स्कूल जा रही थी, डा. विनीत ने उसे रोक लिया और कहा, ‘‘कब तक अपनी जिम्मेदारियों का बोझ अकेले उठाती रहोगी. अनुभा, अपना हाथ बंटाने को किसी को साथ क्यों नहीं ले लेती?’’ ‘‘ये सारी जिम्मेदारियां मेरी अपनी हैं और मुझे अकेले ही इन्हें उठाना है. फिर भी मैं अकेली नहीं हूं, मेरे साथ प्रवीण और वेदांत हैं,’’ अनुभा ने कुछ सख्ती से जवाब दिया.

किंचित उपहासनात्मक स्वर में डा. विनीत बोले, ‘‘प्रवीण और वेदांत, एक छोटा बच्चा जिस के बड़े होने तक तुम न जाने अपने कितने अरमान कुचल दोगी और दूसरी ओर एक ऐसी निष्चेतन देह से मोह जिस में प्राण नाममात्र के लिए अटके पड़े हैं.’’‘‘डा. विनीत, आप प्रवीण के लिए ऐसा कुछ भी नहीं कह सकते. वे जैसे भी हैं, मैं उन के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. जब तक उन का सहारा है, मैं हर मुश्किल पार कर लूंगी.’’

‘‘तुम निष्प्राण देह से सहारे की बात कर रही हो. अनुभा, तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस के सहारे तुम यहां तक आई हो,’’ डा. विनीत तल्खी से बोले.

हुंडई वरना के पावरट्रेन में है कुछ खास, जानें यहां

अभी तक हम हुंडई वरना की इंजन के बारे में बात कर रहे थे आज हम बात करेंगे, हुंडई वरना के पावरट्रेन की बता दें पावरट्रेन को कई ट्रांसमिशन कॉम्बो से कवर किया गया है.

आपको इसमें कई  अलग-अलग तरह की सुविधाएं दी गई हैं, जैसे- पेट्रोल इंजन, मैनुअल या सीवीटी, डीजल और मैनुअल ऑटोमेटिक कनवर्टर के साथ ही टर्बो-पेट्रोल और डीसीटी भी उपलब्ध है. इतनी सारी च्वाइस है आपके पास आप जिसमें कम्फर्टेबल समझे अपनी कार को वैसे ड्राइव कर सकते हैं. इसलिए  हुंडई वरना # #BetterThanTheRest.

जेनेलिया डिसूजा एक महीने से जूझ रही थी कोरोना से, पोस्ट शेयर कर दी जानकारी

कोरोना वायरस अब बॉलीवुड सितारों के घर में भी पैर पसारने लगा है. बॉलीवुड के कई सितारों के घर में कोरोना वायरस घुस चुका हैं. इस बीमारी से लगभग हर कोई परेशान चल रहा है. इसी बीच एक्ट्रेस जेनेलिया डिसूजा ने सभी को चौकाने वाला पोस्ट शेयर किया है.

कोरोना वायरस से लड़ने वाले सितारों के लिस्ट में अब जेनेलिया डिसूजा का नाम भी शामिल हो गया है. सोशल मीडिया पर जेनेलिया ने एक पोस्ट शेयर करके खुलासा किया है कि तीन हफ्टे पहले ही उनकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटीव आई थी.

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इतना ही नहीं तीन हफ्ते तक इलाज करवा कर जेनेलिया पूरी तरह से ठीक हो चुकी हैं.पोस्ट शेयर करते हुए जेनेलिया ने लिखा है कि पिछले 21 दिनों से मैं आईसोलेशन में थी. मुझे कोरोना वायरस को कोई लक्षण नजर नहीं आ रहा था . लेकिन अब भगवान कि दुआ से सब ठीक चल रहा है मेरी रिपोर्ट भी निगेटीव आ गई है.

 

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21 दिनों तक आइसोलेशन में रहना मेरे लिए सबसे ज्यादा मुश्किल वक्त था. आगे जेनेलिया ने कहा आप फोन पर किसी से कितनी भी बात कर लें लेकिन आपका अकेलापन आपको परेशान करते रहेगा. मुझे इस बात से खुशी है कि इस समय को बीताकर अपने पति , बच्चे और परिवार के बीच में वापस आ चुकी हूं. यहीं वो लोग है जो मुझे मुश्किल वक्त से भी निकलने का हिम्मत देते हैं.

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जेनेलिया ने पोस्ट करते हुए लिखा हुए अपने फैंस के लिए लिखा है कि टेस्ट करवाना न भूलें, हेल्दी खाना खाएं, इससे आप सुरक्षित रहेंगे.

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गौरतलब है कि जेनेलिया डिसूजा ने रितेश देखमुख से शादी की है इन दोनों के दो बच्चें हैं. वैसे देखा जाए तो जेनेलिया डिसूजा की तरह कई कलाकार है जो कोरोना जैसी खतरनाक बीमारी के चपेट में आ गए हैं. जैसे अमिताभ बच्चन, पार्थ समथान, अभिषेक बच्चन .

साथ निभाना साथिया 2: ‘गोपी बहु’ की सास के रोल में नहीं दिखेंगी ‘कोकिला बेन’ फैंस हुए नाराज

स्टार प्लस का पसंदीदा शो ‘साथ निभाना साथिया’ लगातार कुछ समय से सोशल मीडिया पर छाया हुआ है. सबसे ज्यादा इन दिनों ‘साथ निभाना साथिया’ का म्यूजिक बैंड पसंद किया जा रहा है जिसमें कोकिला बेन रसोड़े का राज पूछती नजर आ रही हैं. ये बात सुनते ही फैंस के खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

इसी बीच ‘साथ निभाना साथिया’ के फैंस के लिए एक दुखद खबर आ रही है. हो सकता है कि कोकिला बेन ‘साथ निभाना साथिया पार्ट 2’ में इस बार गोपी बहू के सास के रूप में नजर न आएं.

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आगे साथ निभाना साथिया कि स्टार रुपल पटेल ने कहा है कि इस समय में सीरियल ‘ये रिश्ते हैं प्यार के’ में काम कर रहीं हूं. मुझे इस बात से खुशी है कि इस सीरियल को खूब पसंद किया जा रहा है. लेकिन अभी तक साथ निभाना साथिया के मेकर्स ने मुझे अप्रोच नहीं किया है.

 

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वहीं सूत्रों से खबर आ रही है कि सीरियल साथ निभाना साथिया अक्टूबर से ऑन इयर कर दिया जाएगा. अब तक इस शो के स्टारकास्ट के बारे में कोई खुलासा नहीं हुआ है.

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एक बार फिर देबोलीना भट्टाचार्या गोपी बहू के किरदार में नजर आएंगी. कुछ वक्त पहले ही गोपी बहू ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर फोटो पोस्ट किया था, जिसमें वह एक संस्कारी बहू के रूप में नजर आ रही थी.

 

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Aa Rahi He Apki GOPI BAHU.❤???

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साथ निभाना साथियां के पहले सीजन को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया था. गोपी बहू सभी के दिलों पर राज करती हैं. अब देखना ये हैं कि इस सीजन की गोपी बहू को फैंस कितना पसंद करते हैं.

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उम्मीद तो यही जताया जा रहा है कि गोपी बहू को पहले से ज्यादा प्यार मिलेगा.

पहले चलना सिखाया, अब रास्ता दिखाएगी… सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन की ‘इंडिया वाली मां’

मां ऐसा शब्द है, जिसमें बहुत-सी भावनाएं छुपी होती हैं. एक मां ही है जो अपने बच्चे के भविष्य की मजबूत नींव रखती है. वैसे तो दुनिया भर में मां का प्यार एक समान होता है, लेकिन एक भारतीय मां, अपने कर्तव्य और निस्वार्थ प्यार के मामले में सबसे आगे रहती है. वो अपने बच्चों का भविष्य बनाने में उनका साथ देती है और उनका हौसला बढ़ाती है. वो उन्हें उड़ने के लिए पंख भी देती है और सदा उनके आसपास रहती है, ताकि जब वो गिरें तो वो झट से उन्हें संभाल सके. बच्चे भले ही हाथ छोड़ दें, मां साथ नहीं छोड़ती चाहे उनकी उम्र कितनी ही बढ़ जाए. सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन का नया शो ‘इंडिया वाली मां, ऐसी ही एक मां की प्यारी और अपनी-सी लगने वाली कहानी है, जो कभी अपने बेटे का साथ नहीं छोड़ती, भले ही उसके बेटे को ये लगे कि उसे अपनी मां की जरूरत नहीं है.

इस शो के ३ प्रमुख किरदार हैं; काकू जिसका किरदार निभाएंगी सुचिता त्रिवेदी, हंसमुख जिसका किदार निभाएंगे नितेश पांडे, और रोहन जिसका किरदार निभाएंगे अक्षय  म्हात्रे.

इंडिया वाली मां, अपने बेटे के प्रति एक मां के संकल्प और समर्पण की कहानी है. जय प्रोडक्शंस के निर्माण में बना यह शो 31 अगस्त से हर सोमवार से शुक्रवार रात 8:30 बजे सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन पर प्रसारित किया जाएगा.

 

एक बच्चा हर मुश्किल में अपनी प्यारी मां के पास ही जाता है. मां भी अपने बच्चों का सबसे बड़ा सहारा होती है. भले ही हम बड़े होकर आत्मनिर्भर बन जाएं, लेकिन तब भी एक मां की भावनाएं नहीं बदलतीं. मां भले ही हमारे सपने पूरे करने के लिए हम पर ज़ोर डाले, लेकिन वो हमारा ख्याल रखना कभी नहीं छोड़ती. लेकिन यह रिश्ता वक्त के साथ बदलने क्यों लगता है? आखिर जाने, अनजाने में हम अपनी मां से दूर क्यों होने लगते हैं? ऐसी ही कहानी है कौशल्या यानी काकू की, जो भुज की रहने वालीं एक सीधी-सादी और आजाद ख्यालों वाली मां हैं, जो अपने मददगार पति हंसमुख के साथ सुकून से जिंदगी जी रही हैं. दोनों का रिश्ता भी बहुत प्यारा है. काकू हंसमुख पर निर्भर है और उन्हें उनकी छत्रछाया और उनके प्यार के साए में रहना बहुत अच्छा लगता है. लेकिन इस पति-पत्नी के बीच केवल एक ही दिक्कत है और वो है उनका बेटा रोहन. जहां काकू अमेरिका में बसे अपने बेटे का ध्यान पाने के लिए तरसती हैं, वहीं हंसमुख एक प्रैक्टिकल इंसान हैं और इस बात को समझते हैं कि रोहन अब उनसे दूर हो गया है. हालांकि काकू एक आदर्श मां की तरह अपने बेटे की अनदेखी को नजरअंदाज करती हैं और ये मानती हैं कि उन्हें हमेशा की तरह अपने बेटे के साथ खड़े रहना चाहिए. काकू के यही इरादे उन्हें अपने बेटे की ओर ले जाते हैं, जिसमें वो तमाम मुश्किलों से संघर्ष करते हुए एक इंडिया वाली मां का असली मतलब समझाती हैं.

इंडिया वाली मां शुरू हो रहा है 31 अगस्त रात 8:30 बजे से, हर सोमवार से शुक्रवार, सिर्फ सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन पर.

Crime Story: ‘हक की लड़ाई’ बेटे ने मांगा डेढ़ करोड़ का मुआवजा

कहते हैं कि कुछ रिश्ते खून के होते हैं बाकी सब संयोग से बनते हैं, लेकिन खास बात यह

भी है कि रिश्तों की यह दुनिया जितनी सुकून देती है, उतनी ही उलझनें भी पैदा करती है. क्योंकि कभी रिश्ते फूलों की तरह महकते हैं तो कभी कांटे बन कर जिंदगी के सुख और चैन ही छीन लेते हैं.

लेकिन संयोग से बने रिश्तों से अलग कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जो बनते नहीं, बल्कि किन्हीं वजहों से बनाए जाते हैं. कुछ रिश्ते जताए जाते हैं तो कुछ सिर्फ दिखाए जाते हैं. ऐसा ही एक रिश्ता है एक मां और एक बेटे के बीच का, जिस का राज जब खुला तो मामला उच्च न्यायालय तक पहुंच गया.

आरती महास्कर वह नाम है, जो पिछले कई दिनों से मुंबई में ही नहीं बल्कि देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है. आरती पर आरोप है कि उन्होंने 38 साल पहले अपने ही बेटे श्रीकांत सबनीस को 2 साल की उम्र में चलती ट्रेन में जानबूझ कर छोड़ दिया और अभिनेत्री बनने के सपने लिए मायानगरी मुंबई आ गईं.

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अब ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर की कहानी परदे के पीछे से झांक रही है. इतना ही नहीं, वह इंसानी रिश्तों की अहमियत और उन के बदलते मिजाज को ले कर तमाम सवाल खड़े कर रही है.

उन तमाम सवालों का जवाब क्या होगा? इसे कोई नहीं जानता, लेकिन बेटे ने जो सवाल खड़ा कर दिया, उस का जवाब दे पाना आरती महास्कर नाम की उस मां के लिए शायद बेहद मुश्किल हो गया है. क्या है श्रीकांत सबनीस की कहानी? इसे जानने के लिए हमें उस के अतीत के पन्नों को खंगालना होगा, वह कहानी कुछ इस तरह सामने आई—

 

उस रोज जनवरी, 2020 की 6 तारीख थी. मुंबई उच्च न्यायालय परिसर में वादकारियों की चहलकदमी बदस्तूर जारी थी. सौम्य, सजीला, गोरा और गठीले बदन वाला बेहद हैंडसम श्रीकांत सबनीस न्यायाधीश ए.के. मेनन के कक्ष में उन के सामने सावधान की मुद्रा में खड़ा था. उस की उम्र यही कोई 40 वर्ष थी.

काला कोट पहने लगभग श्रीकांत की ही उम्र के एडवोकेट संजय कुमार, जो श्रीकांत के वकील थे, हाथों में फाइल लिए अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में जज के सामने खड़े थे. फाइल के भीतर कुछ जरूरी दस्तावेज थे, उन्हीं दस्तावेजों की एकएक प्रति न्यायाधीश मेनन के सामने डेस्क पर रखी थी, जिन्हें जज साहब पढ़ने में तल्लीन थे.

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सफेद रंग के पन्नों पर नीली स्याही से उकेरे गए शब्द जैसेजैसे श्री मेनन पढ़ते गए, आश्चर्य और हैरत के महासागर में डूबतेउतराते गए. शायद यह देश की पहली चौंकाने वाली घटना थी, जिस में याचिकाकर्ता श्रीकांत सबनीस ने अपनी सगी मां ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर से मानसिक आघात की क्षतिपूर्ति के बदले डेढ़ करोड़ रुपए का मुआवजा मांगा था.

मां से मांगे गए मुआवजे के पीछे रोंगटे खड़े कर देने वाली जो पीड़ा एक कहानी के रूप में परोसी, वाकई वह किसी रोमांचित कर देने वाली फिल्मी पटकथा से कम नहीं थी.

बात करीब 41 साल पहले सन 1978 के आसपास की है. पुणे (महाराष्ट्र) के दीपक सबनीस के साथ खूबसूरत ऊषा सबनीस दांपत्य सूत्र में बंधी तो उस का जीवन चांदनी की भीनी खुशबू की तरह महक उठा. घर में चारों ओर खुशियां छाई थीं. मां के समान दुलारने वाली सास थीं तो पिता की तरह प्यार देने वाले ससुर.

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सखी समान राज छिपाने वाली हरदिल अजीज ननद थी तो सच्चे और वफादार दोस्तों के समान देवर, मिलाजुला कर घर के सदस्यों का भरपूर प्यार ऊषा के खाते में आया था.

कुल मिला कर ऊषा सबनीस वहां बहुत खुश थी. इन्हीं खुशियों के बीच वह एक बेटे की मां बन गई, जिस का नाम श्रीकांत सबनीस रखा. उन के जीवन में श्रीकांत के आने से चारों ओर बहार सी छा गई थी.

 

दीपक सबनीस पत्नी से खुश थे ही, बेटे के जन्म के बाद वह और निहाल हो गए. भौतिक सुखसुविधाओं की तमाम वस्तुएं घर में थीं, इसलिए उन्हें अब किसी और चीज की लालसा नहीं थी. उसी में वह खुशहाल जीवन जी रहे थे.

इस के विपरीत ऊषा की आकांक्षाएं अनंत थीं. बचपन से ही उस की ख्वाहिश रुपहले परदे पर खुद को दिखाने की थी. ऊषा फिल्मी दुनिया में जाना चाहती थी.

वह जब भी कोई फिल्म देखती तो अभिनेत्री के स्थान पर खुद को रख कर देखती थी. ऐसा कर के ऊषा के मन को भरपूर सुकून मिलता था और मन ही मन वह खूब खुश हुआ करती थी. खुली आंखों से देखे गए सपनों को वह पति से शेयर भी करती.

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दीपक उस का मन रखने के लिए हां तो कह देता लेकिन सच्चे दिल से उसे पत्नी की ये बातें अच्छी नहीं लगती थीं. वह कभी नहीं चाहता था कि उस की पत्नी फिल्मी दुनिया की ओर रुख करे.

दीपक सबनीस यही चाहता था कि ऊषा एक कुशल गृहिणी की तरह घर में रह कर सासससुर और बच्चे की सेवा करे लेकिन ऊषा की सोच इस के विपरीत थी. उसे तो हीरोइन बनने की सनक सवार थी. इतना ही नहीं, उस ने ठान लिया था कि उसे अपने सपने पूरे करने के लिए राह की हर मुश्किलों को पार कर के आगे बढ़ते जाना है. इस बात को ले कर अकसर उस का पति दीपक से विवाद भी हो जाया करता था.

 

बात सन 1981 के सितंबर की है. आंखों में अभिनेत्री बनने के सपने लिए ऊषा 2 साल के बेटे श्रीकांत को अपने साथ ले कर पुणे से मुंबई चल दी थी. उस ने कहीं सुना था कि फिल्मी दुनिया में कुंवारियों को हीरोइन के रूप में तरजीह दी जाती है. हालांकि शरीर की कसावट से वह अविवाहित लगती थी, लेकिन वास्तव में उस के पास तो अपना खुद का बेटा था. बेटे को ले कर वह परेशान थी.

उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने 2 साल के बेटे का क्या करे? मुंबई पहुंच चुकी ऊषा की समझ में जब कुछ नहीं आया तो उस ने अपने दुधमुंहे बेटे श्रीकांत को जानबूझ कर ट्रेन के डिब्बे में किसी निर्मोही की तरह बिलखता छोड़ दिया और सपनों की तलाश में मायानगरी में गुम हो गई.

 

ट्रेन में 2 साल के रोते बच्चे की आवाज टीटीई के कानों के परदे से टकराई थी. बच्चे की करुण क्रंदन सुन कर टीटीई ने डिब्बे के अंदर झांका तो बच्चे को अकेला रोता देख कर उस का हृदय भर आया था.

ट्रेन में सवार सभी यात्री उस में से उतर कर अपनेअपने गंतव्य स्थान को जा चुके थे. 2 साल का बच्चा ही डिब्बे में अकेला मां की गोद पाने के लिए बिलख रहा था. उस की मां उस के आसपास कहीं नहीं दिख रही थी.

प्लेटफार्म पर मौजूद तमाम यात्रियों से उस ने बच्चे के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन किसी ने उस नन्हीं सी जान को नहीं पहचाना. टीटीई की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अंत में टीटीई ने बच्चे को राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी) को सौंप दिया. जीआरपी ने लिखापढ़ी करने के बाद वह बच्चा अनाथाश्रम को सौंप दिया था.

दुधमुंहे श्रीकांत का अपना भरापूरा परिवार था. घर था, प्यार करने वाले दादादादी और पिता थे, फिर भी वह अनाथों की तरह अनाथाश्रम में पहुंच गया था. वहां वह अन्य अनाथ बच्चों की तरह पल रहा था. उन अजनबी चेहरों के बीच नन्हा श्रीकांत अपनों को तलाशता रहता. उन में उस का अपना कोई नहीं था. अनजान और अजनबी चेहरों को देख कर वह अकसर रोता ही रहता था.

अगले दिन स्थानीय अखबारों में नन्हें श्रीकांत के ट्रेन में पाए जाने की खबर प्रमुखता से प्रकाशित की गई थी. समाचारपत्रों के माध्यम से लावारिस श्रीकांत की तसवीर राजस्थान के एक दंपति ने भी देखी. उस दंपति की अपनी कोई औलाद नहीं थी, जिस के बाद उस दंपति ने श्रीकांत को गोद ले लिया.

 

बाद में यह जानकारी श्रीकांत की नानी को मिली तो वह तड़प कर रह गईं. उन्होंने राजस्थान के उस दंपति से श्रीकांत को मांगा तो उन्होंने बच्चा देने से इनकार कर दिया. तब नानी ने कोर्ट की शरण ली. आखिर उन्होंने 4 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ कर राजस्थानी दंपति से श्रीकांत को हासिल कर लिया. उस समय श्रीकांत करीब 6 साल का हो चुका था. इस के बाद वह अपनी नानी के पास ही पलाबढ़ा.

तकदीर का खेल देखिए, जिस मजबूत वृक्ष के सहारे श्रीकांत को घनी छाया मिल रही थी, वही उस से सदा के लिए छिन गई. सन 1991 में उस की नानी सदा के लिए दुनिया छोड़ गईं. नानी के देहांत के बाद वह अपनी मौसी आशा के साथ रहने लगा. अब तक श्रीकांत की जिंदगी खानाबदोश की जिंदगी हो गई थी.

मौसी आशा से उसे पिछली जिंदगी की सारी सच्चाई पता चली तो श्रीकांत का कलेजा फट गया. मां पर उसे काफी गुस्सा आया लेकिन वह नहीं जानता था कि इस वक्त उस की मां कहां हैं? लेकिन मन ही मन उस ने ठान लिया कि मां को एक न एक दिन जरूर ढूंढ़ निकालेगा. तब उस से अपनी त्रासद जिंदगी के एकएक पल का हिसाब मांगेगा.

नानी के बाद सहारा बनी मौसी आशा ने श्रीकांत को एक नई जिंदगी दी. सन 2006 में उन्होंने श्रीकांत की शादी करा दी. नई जिंदगी की शुरुआत श्रीकांत ने अपने तरीके से की. वह बतौर एक मेकअप आर्टिस्ट अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो गया और मां की तलाश में पुणे से मुंबई आ गया.

मुंबई के जुहू में किराए का कमरा ले कर पत्नी के साथ रहने लगा. वह जानता था कि उस की मां मुबंई में रहती है. दिनरात वह यही कोशिश करता था कि किसी तरह उस की मां से मुलाकात हो जाए.

 

आखिर श्रीकांत की यह इच्छा भी पूरी हो गई. सन 2017 में श्रीकांत सबनीस को सोशल मीडिया की मदद से किसी तरह मां का पता चल गया. वह उस तक पहुंचा था. लेकिन मां की सच्चाई जान कर वह हैरान रह गया था. मां ऊषा सबनीस से अब आरती महास्कर बन चुकी थी और किसी धनाढ्य उदय महास्कर से शादी कर के अपना संसार बसा चुकी थी. ऊषा से आरती महास्कर का चोला ओढ़े ऊषा ने पति से अपना अतीत छिपा लिया था.

उस ने यह बात दूसरे पति से कभी नहीं बताई थी कि पुणे के रहने वाले दीपक सबनीस से उस की शादी हुई थी. उस से अपना एक बेटा भी है, जिसे उस ने हीरोइन बनने की लालसा में मुंबई की ट्रेन में लावारिस छोड़ दिया था.

 

आरती महास्कर उर्फ ऊषा सबनीस ने यह राज अपने सीने में हमेशा के लिए दफन कर लिया था और उदय महास्कर के साथ नई जिंदगी की पारी शुरू कर दी थी. बाद के दिनों में उस से 2 बच्चे भी हुए, जो आज भी हैं.

कहते हैं, ठान लो तो पत्थर के सीने से भी दूध निकाल सकते हैं. श्रीकांत ने ऐसा ही कुछ किया था. मौसी आशा द्वारा बताई अतीत को सच साबित करने के लिए श्रीकांत ने सोशल मीडिया का सहारा लिया और साथ ही अपने परिचितों से अपनी मां का पता लगाने का आग्रह भी किया. उस की मेहनत रंग लाई. डेढ़ साल बाद यानी सितंबर, 2018 में आखिरकार श्रीकांत ने मां ऊषा उर्फ आरती महास्कर का मोबाइल नंबर ढूंढ ही लिया.

उस ने मां से बात की. लेकिन मां आरती महास्कर ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया. उस ने मां को याद दिलाने के लिए 38 साल पहले घटी पूरी घटना विस्तार से बताई तब जा कर उस की मां ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर ने यह तो स्वीकार किया कि वह उसी का बेटा है.

 

38 सालों से सीने में दबा राज अचानक सामने आया तो आरती महास्कर विचलित सी हो गई. वह सोच नहीं पा रही थी कि वह इस राज को राज कैसे रखेगी. बच्चों के सामने जब यह सच्चाई खुल कर आएगी तो क्या होगा? यह सोच कर आरती महास्कर कांप गई थी.

इस से पहले कि आरती की सच्चाई खुल कर सब के सामने आती, उस ने पति उदय महास्कर को सारी सच्चाई बता दी. किसी तरह पतिपत्नी ने मामला आपस में फिलहाल सुलझा लिया था. एक दिन आरती और उदय महास्कर ने श्रीकांत को अपने पास बुलाया और उसे समझाया कि यह बात उन के बेटों से कभी नहीं बताएगा कि वह उन्हीं का बेटा है, नहीं तो उन के घर में भूचाल आ जाएगा.

श्रीकांत को मां और सौतेले पिता से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे उसे अपना बेटा नहीं स्वीकारेंगे. मां के इनकार से उस का कलेजा छलनीछलनी हो गया था. उसी समय उस ने फैसला किया कि वह मां को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेगा.

38 सालों से जिस तरह वह अपनों के होते हुए भी उन के प्यार के लिए तरसा है, अनाथों की तरह यहांवहां जीया है, उन सब का हिसाब उन से जरूर लेगा. उस के बाद श्रीकांत मां के पास से लौट आया और मुंबई हाईकोर्ट की शरण में जा पहुंचा.

6 जनवरी, 2020 को श्रीकांत ने न्यायाधीश ए.के. मेनन की अदालत में एक याचिका दायर की. याचिका में उस ने लिखा था कि 38 साल पहले सन 1981 में मां ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर ने मुझे मुंबई (तब बंबई) स्टेशन पर ट्रेन में छोड़ दिया था.

 

मां भी यह मान चुकी थी कि ट्रेन में वह उसे छोड़ गई थी. मां ने यह तो माना कि वह उस का बेटा है. यह भी बताया कि कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के चलते उसे छोड़ना पड़ा था, लेकिन वह अब मिलना नहीं चाहती.

तब मैं ने वहीं जा कर मां और अपने सौतेले पिता उदय महास्कर से मुलाकात की. वहां उन दोनों ने कहा कि वह अपनी सच्चाई उन के बच्चों के सामने नहीं बताए. मैं एक तो पहले से ही परेशान था, लेकिन अपनी मां और सौतेले पिता की यह शर्त सुन कर और ज्यादा परेशान हो गया.

याचिका में श्रीकांत ने कहा कि कोर्ट मां को मुझे अपना बेटा घोषित करने और यह ऐलान करने का आदेश दे कि उस ने 2 साल की उम्र में उसे छोड़ दिया था. मैं ने बरसों तक मानसिक आघात सहा है और असुविधाओं को झेला है.

मां से बिछुड़ने पर जिंदगी दर्दभरी हो गई. मां की ममता को अनाथों की तरह तरसा है. मातापिता के होते हुए भी अनाथों की तरह रहा हूं. तब तक भिखारी की तरह जीना पड़ा, जब तक अपनी नानी के पास नहीं पहुंच गया. जिस ममता के लिए मैं तरसा हूं, मुझे बेटे का दरजा न देने के एवज में डेढ़ करोड़ का मुआवजा दें.

याचिकाकर्ता श्रीकांत सबनीस ने आगे बताया कि मैं अपने अतीत से बेखबर था. मेरी मौसी ने मुझे अतीत की पूरी हकीकत बयान की.

इस के बाद सोशल मीडिया की मदद से किसी तरह मैं अपनी मां ऊषा तक पहुंचा, लेकिन अब मां ऊषा सबनीस से आरती महास्कर बन चुकी थी और अपने दूसरे पति उदय महास्कर के साथ संसार बसा चुकी थी. अपनी पहचान बताने के बावजूद आरती महास्कर ने उसे सब के सामने बेटा स्वीकारने से इनकार कर दिया.

इसी के बाद श्रीकांत ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और पिछले 38 साल तक झेले मानसिक संत्रास के लिए डेढ़ करोड़ रुपए के मुआवजे की भी मांग की.

इस घटना ने देश भर में सनसनी पैदा कर दी थी. इस के बाद श्रीकांत सबनीस और आरती महास्कर के बीच जंग शुरू हो गई थी. यह मामला अभी भी न्यायालय में चल रहा है. कथा लिखे जाने तक मुकदमे में काररवाई जारी थी.

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