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इस घटना के करीब 6 महीने बाद तक वह इस तरह खोईखोई रहने लगी थी मानो डाक्टर प्रवीण के साथ वह भी संवेदनाशून्य हो गई हो. इस संसार में रह कर भी वह सब से दूर किसी अलग ही दुनिया में रहने लगी थी.  डा. प्रवीण का जीवनधारा प्राइवेट अस्पताल बंद हो चुका था. अनुभा के मातापिता ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ. इसी समय डा. प्रवीण के खास दोस्त डा. विनीत ने अनुभा का मार्गदर्शन किया. दर्द से खोखले पड़ गए उस के मनमस्तिष्क में आत्मविश्वासभरा, उसे समझाया कि वह अस्पताल अच्छे से चला सकती है.

अनुभा ने निराश स्वर में उत्तर दिया था, ‘पर मैं डाक्टर नहीं हूं.’ डा. विनीत ने उसे समझाया था कि वह डाक्टर नहीं है तो क्या हुआ, अच्छी व्यवस्थापक तो है. कुछ डाक्टरों को वेतन दे कर काम पर रखा जा सकता है और कुछ विशेषज्ञ डाक्टरों को समयसमय पर बुलाया जा सकता है. शुरूशुरू में उसे यह सब बड़ा कठिन लग रहा था, पर बाद में उसे लगा कि वह यह आसानी से कर सकती हैं. डा. प्रवीण के द्वारा की गई बचत इस समय काम आई. डा. विनीत ने जीजान से सहयोग दिया और बंद पड़े हुए जीवनधारा अस्पताल में नया जीवन आ गया.

अब तो अस्पताल में 4 डाक्टर, 8 नर्स और 8 वार्डबौय का अच्छाखासा समूह है और रोज ही अलगअलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ डाक्टर आ कर अपनी सेवा देते हैं. वहां मरीजों की पीड़ा देख कर अनुभा अपने दुख भूलने लगी. जब व्यक्ति अपने से बढ़ कर दुख देख लेता है तो उसे अपना खुद का दुख कम लगने लगता है. डा. प्रवीण को भी इसी अस्पताल में नली के द्वारा तरल भोजन दिया जाने लगा. अनुभा ने प्रवीण की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि हर दिन उन की  शेविंग भी की जाती, व्हीलचेयर पर बैठे डाक्टर प्रवीण इतने तरोताजा लगते कि अजनबी व्यक्ति आ कर उन से बात करने लगते थे. डा. प्रवीण आज भी अपने केबिन में अपनी कुरसी पर बैठते थे. अनुभा डा. प्रवीण के सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं चाहती थी.

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