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नागिन 5 Promo : क्या बानी की खातिर अपनी मां के खिलाफ जाएंगे जय और वीर?

एकता कपूर के सुपर नैचुरल शो में जबरदस्त हाई वोल्टेज ड्रामा देखने को मिल रहा है. आदि नागिन यानी बानी की सास की एंट्री होने के बाद इस सीरियल में ड्रामा होना शुरू हो गया है. वहीं जय और वीर को ये बात समझ नहीं आ रही है कि इन दोनों में से कौन सही है और कौन गलत है.

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बता दें कि जय और वीर की परेशानी आने वाले एपिसोड में दूर हो जाएंगी. दोनों की गलत फैमी भी खत्म होगी की किसकी गलती  ज्यादा है. इस बात सबूत नागिन 5 का प्रोमो है. जिसमें दिखाया गया है कि जय और वीर अपनी मां का साथ न देकर बानी के साथ नजर  रहे हैं.

 

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दरअसल, प्रोमो में दिखाया गया है कि बानी की सास उस पर डानलेवा हमला करती हैं. तभी जय और वीर उन्हें बचाने के लिए बानी का साथ देते नजर आते हैं.

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ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि नागिन 5 का अगला एपिसोड बहुत ज्यादा दिलचस्प होगा. अब देखना ये है कि जय और वीर सचमुच अपने मां से अलग हो जाएंगे या फिर दोनों कीगलतफैमी को दूर कर देंगे. इसके लिए आपको अगले सप्ताह तक का इंतजार करना होगा.

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इससे पहले भी इस सीरियल में कई तरह के ड्रामा देखने को मिल चुका है . इन दिनों हर घर में नागिन 5 ककी चर्चा में बनी रहती है. फैंस को भी इस सीरियल में पहले से ज्यादा दिलचस्पी आ रही है.

बिग बॉस 14 : बेडरूम में लॉक हुई निक्की तम्बोली ने मचाया हंगामा तो फैंस ने किए ये कमेंट

वैसे तो बिग बॉस के घर में आए दिन कुछ न कुछ नया ड्रामा होते रहता है. ऐसे में बीती रात भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला जहां निक्की तम्बोली कोजमकर ड्रामा करते देखा गया. पहले तो निक्की तम्बोली प्यार से बेडरूम में एंट्री कर ली. उसके बाद निक्की ने खुद का सामान चुराना भी शुरू कर दिया .

तभी निक्की तम्बोली को अभिनव शुक्ला ने चोरी करते देख रूम से जाने को कहा तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया. जिसके बाद निक्की तम्बोली की वजह से बिग बॉस के घर में सुबह 3 बजे तक जमकर हंगामा होता रहा.

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रुबीना दिलाइक की टीम लाख कोशिशो के बाद भी निक्की तम्बोली को रूम से बाहर नहीं निकाल पाई. हंगामे के बाद रुबीना के टीम ने निक्की को बेडरूम में बंद कर दिया. रुबीना दिलाइक बेडरुम के गेट पर बैठ गई और निक्की तम्बोली गेट से बाहर न जा सकी.

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एली गोनी और जस्मिन भसीन के लाख मना करने के बाद भी अभिनव शुक्ला और  रुबीना दिलाइक ने किसी की एक नहीं सुनी. जिसके बाद निक्की तम्बोली जमकर हंगामा मचाती रहीं.

जिसके बाद निक्की अपना गुस्सा जाहिर करते हुए घर के अंदर के सामन को तोड़ना फोड़ना शुरू कर दिया. वहीं दूसरी तरफ फैंस निक्की तम्बोली का यह अंदाज देखकर खुश हो गए.

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वहीं कुछ लोगों का कहना है कि निक्की तम्बोली ने जान बुझकर चोरी किया है ताकी घर में हंगामा हो. इन सभी हालातों को देखऩे के बाद एजाज खान भी हैरान हो गए.

फैंस निक्की तम्बोली की वाह-वाही भी कर रहे हैं. उनका मानना है कि निक्की ने जो किया अच्छा किया है. अब देखना है आगे बिग बॉस में क्या होता है.

मौसम की जानकारी घर बैठे मौसम मोबाइल एप पर

लेखिका- डा. पूजा गुप्ता सोनी

देशभर में बदलते मौसम और उस से जुड़ी अहम जानकारियों को लोगों तक आसानी से पहुंचाने के लिए सरकार ने एक मोबाइल एप की शुरुआत की है. पृथ्वी विज्ञान मंत्री हर्षवर्धन ने मौसम संबंधी पूर्वानुमान के लिए मौसम नाम के एप को लौंच किया. इस एप में आप अपने शहर का नाम डाल कर उस शहर के मौजूद तापमान से ले कर मौसम विभाग द्वारा दी गई चेतावनी तक का पता भी लगा सकते हैं. इतना ही नहीं, अगले कुछ दिनों तक के मौसम का हाल भी जान सकते हैं.

इस से आप अपने फोन के जरीए देश के किसी भी शहर के मौसम का हाल जान सकेंगे. इस एप के जरीए लोगों तक भारतीय मौसम विभाग द्वारा दी गई पुख्ता जानकारी लोगों को घर बैठे मिल सकती है. मौसम एप की तकनीकी उपयोगिता वर्तमान मौसम : एप लगभग 200 शहरों के तापमान, आर्द्रता, हवा की गति और दिशा के साथसाथ मौजूदा मौसम की जानकारी देगा.

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इस एप पर जानकारी दिन में 8 बार अपडेट की जाएगी. सूर्योदय और सूर्यास्त के साथसाथ चंद्रोदय और चंद्रमा की जानकारी भी देगा.

तात्कालिक पूर्वानुमान : शुरुआत में एप पर 800 स्टेशन और जिलों के 3 घंटों के गैप से मौसम अपडेट किया जाएगा. शहर का पूर्वानुमान : यह एप देश के तकरीबन 450 शहरों के लिए अगले 7 दिनों के मौसम का पूर्वानुमान और पिछले 24 घंटे की जानकारी भी एप पर मौजूद रहेगी.

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चेतावनी : यह एप सभी मौसम में लोगों को चेतावनी देने के लिए 5 दिनों के लिए दिन में 2 बार लाल, पीले और नारंगी रंग के कोड के माध्यम से अलर्ट करेगा. इस में सभी जिलों के लिए रंग आधारित अलर्ट (लाल, पीला, नारंगी) सिस्टम भी होगा, जिस के जरीए प्रतिकूल मौसम के बारे में लोगों को आगाह किया जाएगा. रंग कोड रैड सब से गंभीर श्रेणी है, जो अधिकारियों से कार्यवाही करने का आग्रह करती है, औरेंज कोड अधिकारियों और जनता को सतर्क रहने का संकेत देता है और यैलो कोड अधिकारियों और जनता को खुद को अपडेट रखने के लिए प्रेरित करता है. रडार : यह हर 10 मिनट में अपडेट किया जाए.

आलू पनीर और प्याज के परांठे बनाएं ऐसे

सर्दी के मौसम में ज्यादातर लोग परांठे खाने पसंद करते हैं. ऐसे में कई तरह के पराठें आपको घर पर बना सकते हैं. तो आइए जानते हैं.  आलू, पनीर औऱ प्याज के परांठे बनाने के आसान तरीके. घर पर आप कैसे इस परांठे को आसान तरीके से बना सकते हैं. आप चाहे तो इस परांठे को बनाकर अपने दोस्त को भी बुला सकते हैं.

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समाग्री

आटा

पानी

तेल

जीरा

बारीक कटा प्याज

मिर्च

पनीर

आलू

नमक

लाल मिर्च पाउडर

चाट मसाला

गर्म मसाला

हरी धनिया

विधि

सबसे पहले आप आटा गुंथ कर कटोरे में रख लें. आटा आप अपने फैमली मेंबर को देखते हुए गुंथे. इसके बाद आप गैस पर आलू उबलने के लिए रख दें.

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जब आलू उबल जाए तो उलके छिलके उतार लें. उसके बाद से आप प्याज को बारीक काट लें. कटे हुए प्याज के साथ हरी मिर्च और धनिया पत्ता भी काटे. उसके बाद से सभी को आलू के साथ मिला लें.

अब आलू में सभी लिखे गए मसाले को एक साथ मिक्स करलें लेकिन नमक को मिक्स करते वक्त ध्यान रखे उसे अपने स्वाद अनुसार ही मिक्स करें.

अब आटा के लोई बना लेंऔर उसके अंदर आलू के स्टफड को भर दें. और अच्छे से उसे परांंठे के सेप दे दे. ध्यान रखे कि यह आलू का परांठ बीच से फटे न.

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अब तावा पर धीमी आंच में इस परांठे को अच्छे से बना लें. आलू के परांठे को बनाते समय उसमें आगे औप पीछे के भाग में रिफाईन या घी लगा सकते हैं.

आप चाहे तो इस परांठे को धनिया के चटनी या फिर सॉस के साथ मिक्स करके खा सकते हैं. यह पराठें सर्दियों में शानदार होते हैं.

 

मुक्ति -भाग 4 : मां के मनोभावों से क्या अनभिज्ञ था सुनील

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था. आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था. मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी. सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या? उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’ ‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया?’’ सुनील ने चिंता जताई.

‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’ सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो. ‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’ ‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’ शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था. शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’ ‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

मुक्ति -भाग 3 : मां के मनोभावों से क्या अनभिज्ञ था सुनील

बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी. एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था. सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं. मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज करवाने में समर्थ नहीं था. अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है. सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

मुक्ति -भाग 2 : मां के मनोभावों से क्या अनभिज्ञ था सुनील

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’ ‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’ ‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’ ‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला. ‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’ ‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’ ‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’ ‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’ शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को

अपने साथ अमेरिका में नहीं रख सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी. चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’ ‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’ ‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्ह?ीं रह गए हो, बेटा.’ सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’ सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था. सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

Crime Story: बीवी का कातिल

सौजन्या- सत्यकथा

14अगस्त, 2020 की सुबह के साढ़े 3 बजे का समय रहा होगा. 5 वर्षीय सायमा और उस की छोटी बहन शुमायला बुरी तरह घबराई हुई अपनी खाला फरजाना के घर पहुंचीं. खाला के घर पहुंचते ही दोनों ने जोरजोर से दरवाजा पीटना शुरू कर दिया.

‘‘खाला…खाला, किवाड़ खोलो.’’उस वक्त फरजाना का परिवार गहरी नींद में सोया था. बच्चियों के चीखने चिल्लाने की आवाज सुन फरजाना के पति तौफीक की आंखें खुल गईं.

दरवाजे पर दोनों बच्चियों को बदहवास स्थिति में देख वह भी हैरत में पड़ गया. तौफीक ने दोनों बच्चियों को घर में अंदर ले जा कर उन के आने की वजह पूछी. लेकिन दोनों बहनें डर के मारे बुरी तरह सहमी हुई थीं.

तब तक तौफीक की बीवी फरजाना भी कमरे से बाहर आ गई थी. सुबहसुबह अपनी बहन की बेटियों को देख कर वह किसी अनहोनी की आशंका के चलते घबरा गई.

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फरजाना ने उन से आने का कारण पूछा तो वे कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं थीं. फरजाना ने दोनों बच्चियों को पीने के लिए पानी दिया और प्यार से आने की वजह पूछी तो सायना ने सुबकते हुए खाला को इतना ही बताया कि अब्बू ने अम्मी को काट डाला. खून से लथपथ अम्मी घर में पड़ी हैं.

यह सुन कर फरजाना का दिल बैठ गया. वह बुरी तरह घबरा गई. बच्चियों के मुंह से यह बात सुन कर तौफीक और उस की बीवी फरजाना दोनों शहनाज के घर की ओर दौड़े. शहनाज के घर पहुंच कर देखा तो उस का दरवाजा खुला पड़ा था. सामने बरामदे में चारपाई पर शहनाज पड़ी थी. उस के बिस्तर के साथसाथ आसपास फर्श पर खून फैला था. लेकिन वहां पर तसलीम कहीं नजर नहीं आ रहा था. दोनों मियां बीवी ने शहनाज को हिलाडुला कर देखा तो पता चला वह दम तोड़ चुकी है.

इस घटना की जानकारी मिलते ही अड़ोसीपड़ोसी भी तसलीम के घर पर जमा हो गए. घटना की चश्मदीद गवाह तसलीम की 2 बेटियां थीं जो इतनी बुरी तरह से घबराई हुई थीं कि कुछ भी कहनेबताने की स्थिति में नही थीं. जबकि वहां जमा लोग मामले की सच्चाई जानने के लिए उतावले थे.

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तभी फरजाना ने सायना और शुमायला को प्यार करते हुए उन से जानकारी ली. सायना ने बताया कि रात में आते ही अब्बू अम्मी से लड़ने लगे. बाद में उन्होंने गड़ासे से काट कर अम्मी को मार डाला. इस खबर ने पूरे इलाके में सनसनी फैला दी थी. वहां मौजूद लोगों ने फोन द्वारा इस घटना की सूचना पुलिस को दे दी.

यह घटना संभल जिले के थाना नखासा क्षेत्र के कस्बा सिरसी के मोहल्ला सराय सादक में घटी थी. घटना की जानकारी मिलते ही नखासा थानाप्रभारी देवेंद्र सिंह धामा और सीओ अरुण कुमार पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.

पुलिस ने घटनास्थल का जायजा लिया. शहनाज की रक्तरंजित लाश बरामदे में चारपाई पर पड़ी थी. उस की गरदन पर तेजधार हथियार के घाव साफ दिखाई दे रहे थे. उस घर में तसलीम अपने परिवार के साथ रहता था, जो घटना को अंजाम दे कर फरार हो गया था.

घटनास्थल पर तसलीम का साढ़ू तौफीक और उस की बीवी फरजाना मौजूद थी. पूछताछ के दौरान उन दोनों ने ही पुलिस को सारी जानकारी दी.सूचना मिलने पर संभल के एसपी यमुना प्रसाद भी घटनास्थल पर पहुंच गए. उन्होंने मृतका के बच्चों से घटना के बारे में पूछताछ की.

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इस मामले के सारे तथ्य जुटा कर पुलिस ने आवश्यक काररवाई की और लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दी. मृतका शहनाज की बहन फरजाना ने अपने बहनोई तसलीम के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करा दिया.

मुकदमा दर्ज होते ही पुलिस आरोपी तसलीम की तलाश में जुट गई. पुलिस ने आरोपी की तलाश में कई मुखबिरों को भी लगा दिया था. इसी दौरान 15 अगस्त, 2020 को पुलिस ने मुखबिर की सूचना पर तसलीम को सिरसी बिलारी बसअड्डे से हिरासत में ले लिया.

थाने में जब उस से कड़ी पूछताछ की गई तो उस ने अपना जुर्म कबूल कर लिया. पुलिस ने उस की निशानदेही पर घटना में प्रयुक्त गड़ासा भी बरामद कर लिया. पुलिस पूछताछ में इस मामले की जो सच्चाई सामने आई, वह इस प्रकार थी.तसलीम मूलरूप से उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर के कस्बा नगीना का रहने वाला था. लगभग 16 साल पहले उस का विवाह हसनपुर कस्बे की शहनाज के साथ हुआ था. तसलीम का एक साढ़ू तौफीक सिरसी में रहता था, जहां पर उस का पहले से ही आनाजाना था.

करीब 3 साल पहले वह रोजगार की तलाश में सिरसी में अपने साढ़ू के पास आ कर रहने लगा. तौफीक का सिरसी में अपना मकान था. तसलीम अपने बच्चों के साथ उसी के मकान में रहने लगा. समय के साथ तसलीम की बीवी 4 बेटियों की मां बन गई.तसलीम अपने बीवीबच्चों को साढ़ू के घर छोड़ कर काम करने जम्मूकश्मीर चला गया. वहां पर वह एक ईंट भट्ठे पर काम करता था. पिछले दिनों लौकडाउन लगा तो भट्ठे का काम बंद हो गया. तब वह अपने घर वापस चला आया. उस की आमदनी खत्म हो गई थी, जिस से उस का परिवार आर्थिक तंगी से जूझने लगा.

लेकिन साढ़ू के घर रहते हुए उसे बच्चों के खानेपीने की कोई चिंता नहीं थी, क्योंकि बच्चे खाला के घर रहते और वहीं पर खातेपीते थे. तसलीम को कोई काम नजर नहीं आया तो उस ने मिट्टी के बरतन बनाने शुरू कर दिए. वह उन पर रंग कर के बेचने लगा. उस का काम चल निकला तो उस ने सिरसी में ही मुरादाबाद रोड पर अपनी दुकान सजा ली. इस से उसे आमदनी होने लगी.

लेकिन तसलीम इस काम से संतुष्ट नहीं था. वह ज्यादा पैसे कमा कर अपने साढ़ू की तरह मकान बनाना चाहता था. उसे बच्चों को ले कर साढ़ू के घर में रहना अखरता था. हालांकि उस के साढ़ू तौफीक को उस के परिवार से कोई परेशानी नहीं थी.कभीकभी तसलीम अपनी बीवी शहनाज को साढ़ू से हंसतेबोलते देखता तो मन ही मन कुढ़ने लगता था. उसे शक होने लगा कि वह घर से बाहर रह कर काम करता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के पीछे उस की बीवी अपने बहनोई के साथ रंगरलियां मनाती हो.

उस के दिमाग में संदेह की गांठ बनी तो वह दोनों के हावभावों पर नजर रखने लगा. तसलीम पहले से ही भांग का नशा करता था, उस का ज्यादातर वक्त नशे में ही गुजरता था. यह बात उस की बीवी को भी मालूम थी. नशे की आदत को ले कर मियांबीवी में कई बार कहासुनी भी हो जाती थी.

जब 2 परिवार एक साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं तो मिलजुल कर रहना पड़ता है. तौफीक और तसलीम के परिवारों के बीच ऐसा ही था. तसलीम की चारों बेटियां काफी समझदार हो चुकी थीं. उन में 10 वर्षीय सोफिया सब से बड़ी थी. फरजाना और शहनाज दोनों सगी बहनें थीं, इसी वजह से दोनों के परिवार और बच्चे मिलजुल कर रहते थे. लेकिन तसलीम को यह बात हजम नहीं हो रही थी. उस के मन में बीवी और साढ़ू के संबंधों को ले कर संदेह हुआ तो वह गहराता ही गया. इसे ले कर वह खोयाखोया सा रहने लगा. उस ने साढ़ू के घर से निकलने के लिए किराए का मकान लेने की योजना बनाने लगा.

घटना से 15 दिन पहले उस ने अपने साढ़ू के घर के पास ही किराए का मकान ले लिया और अपने बच्चों को उसी में शिफ्ट कर दिया. यह सब अचानक होते देख उस की बीवीबच्चों के साथ फरजाना भी परेशान हो उठी. इस तरह मकान बदलने से तौफीक, उस की बीवी फरजाना के साथ शहनाज भी परेशान हो उठी. तसलीम की 2 बड़ी बेटियां सोफिया और सानिया खाला को छोड़ कर किराए के मकान में जाने को तैयार नहीं थीं. तभी से दोनों अपनी खाला फरजाना के साथ रह रही थीं.

तसलीम को अचानक ऐसा क्या हुआ कि उस ने बीवीबच्चों को बिना बताए इतना बड़ा कदम उठा लिया था. इस बारे में तौफीक और उस की बीवी फरजाना ने उस से बात की तो उस ने कहा कि अब हम तुम पर कब तक बोझ बने रहेंगे. मुझे अपने बच्चों को साथ ले कर आप के घर पर रहना अच्छा नहीं लगता. इसीलिए मुझे किराए का मकान लेने पर मजबूर होना पड़ा.

उस की यह बात किसी को हजम नहीं हुई. हालांकि तसलीम ने किराए का घर ले लिया था. लेकिन उस की बीवी और बच्चे पहले की तरह ही तौफीक के घर आतेजाते रहते थे.इसी दौरान जम्मूकश्मीर से ईंट भट्ठे के मालिक का फोन आ गया. उस ने अपना कामधंधा बंद कर जम्मूकश्मीर जाने की योजना बना ली. लेकिन उस के मन में बैठा शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा. उसे लगा कि उस के घर से जाते ही तौफीक और उस की बीवी शहनाज को मिलने की आजादी मिल जाएगी.

यही सोच कर उस ने शहनाज पर तौफीक के घर जाने पर पूरी पाबंदी लगा दी. इस के बाद ही शहनाज और उस की बहन फरजाना को उस के किराए का मकान लेने का राज समझ आया. हालांकि तसलीम ने जम्मूकश्मीर काम पर जाने का पक्का मन बना लिया था. 16 अगस्त, 2020 को उस की दिल्ली से जम्मूकश्मीर के लिए फ्लाइट थी. लेकिन वह अपनी बीवी को ले कर परेशान रहने लगा था. बाद में उस ने बीवी के साथसाथ बच्चों पर भी घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी थी, जिसे ले कर मियांबीवी के बीच विवाद खड़ा हो गया.

इसी वजह से दोनों आए दिन लड़तेझगड़ते रहते थे. दोनों के बीच विवाद बढ़ता देख कर तौफीक और उस की बीवी फरजाना ने भी उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन उस ने उन दोनों को भी उलटासीधा बोल कर घर से निकाल दिया.13 अगस्त, 2020 को तसलीम घर से निकला और देर रात लगभग 2 बजे घर पहुंचा. तसलीम ने उसी दिन सिरसी के बाजार से 200 रुपए में एक गड़ासा खरीद कर थैले में रख लिया था.

घर पहुंचते ही उस ने फिर से बीवी शहनाज से लड़नाझगड़ना शुरू कर दिया. मांबाप के बीच हुई कहासुनी को सुन कर दोनों बेटियां भी जाग गईं. उसी दौरान मियांबीवी लड़तेझगड़ते दूसरे कमरे में चले गए.थोड़ी देर बाद शहनाज कमरे से निकल कर बरामदे में चारपाई डाल कर सो गई. लेकिन उस दिन तसलीम की आंखों से नींद कोसों दूर थी. उस के दिलोदिमाग पर शैतान हावी था. उस ने फैसला कर लिया था कि वह बदचलन बीवी को उस की करनी का फल दे कर ही रहेगा.

रात के लगभग 3 बजे शहनाज और उस की दोनों बच्चियां गहरी नींद सो रही थीं. चारों तरफ रात का सन्नाटा पसरा था. तभी तसलीम पर शैतान सवार हुआ और वह पहले से घर में छिपाया हुआ गड़ासा निकाल लाया. उस ने सोती हुई शहनाज के पास जाते ही उस के गले पर लगातार 2-3 वार कर डाले, शहनाज की आवा तक नहीं निकल पाई और उस की मौत हो गई.

आहट सुन कर उस की बेटी शुमायला जाग गई. घर में घोर अंधेरा था. इस के बावजूद उसे लगा कि कोई उस की अम्मी को मार रहा है. उस ने अपनी बहन सायना को उठा कर कहा कि कोई अम्मी को मार रहा है. दोनों बच्चियां बुरी तरह डर गईं, लेकिन उन दोनों ने अंधेरा होने के बावजूद अपने अब्बू को पहचान लिया था.

यह सब देख दोनों ने शोर मचाने की कोशिश की तो तसलीम ने दोनों को मारने की धमकी दी. वे दोनों डर कर सहम गईं और अपना मुंह बंद कर चारपाई पर लेट गईं.इस के काफी देर बाद तसलीम घर से निकल गया. उस के जाने के बाद सायना और शुमायला घर से निकलीं और अपनी खाला फरजाना के घर पर जा कर सारी बात बताई.

तसलीम ने पुलिस को बताया कि उस ने ऐसा इसलिए किया ताकि बीवी की चरित्रहीनता का असर उस की बेटियों पर न पड़े. इसीलिए उसे अपनी बीवी की हत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा.  तसलीम से पूछताछ के बाद पुलिस ने उसे कोर्ट में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

मुक्ति -भाग 1 : मां के मनोभावों से क्या अनभिज्ञ था सुनील

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है. सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था. शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था. अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता? सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी. शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं. शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं. सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं. ‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’ ‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’ सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’ ‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’ ‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’ ‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’ ‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला. ‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’ ‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’ ‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’ ‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’ शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को

अपने साथ अमेरिका में नहीं रख सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी. चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’ ‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’ ‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्ह?ीं रह गए हो, बेटा.’ सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’ सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था. सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी. एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था. सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं. मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज करवाने में समर्थ नहीं था. अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है. सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था. आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था. मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी. सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या? उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’ ‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया?’’ सुनील ने चिंता जताई.

‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’ सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो. ‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’ ‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’ शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था. शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’ ‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

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