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कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था. आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था. मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

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