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तानाशाही का किसान विरोध

राष्ट्रीयस्तर पर किसानों का नए कृषि कानूनों को ले कर खुला विरोध, कुछ करे न करे, यह जरूर एहसास दिला रहा है कि संसद में भारतीय जनता पार्टी की सरकार केवल सीटों के बल पर अपनी हर मनमानी पूरी नहीं कर सकती, लोकतंत्र में जनता की राय भी अहम होती है. यह और बात है कि सरकार तानाशाही पर उतारू हो आए और जनता की न सुने. रामायण, महाभारत और पुराण स्मृतियों को सुपर संविधान मानने वाली भाजपा सरकार आम जनता को नहीं, अपने मुनियों को बचाने में लगी है. कृषि कानूनों में बिना किसी सहमति के परिवर्तन करने से करोड़ों किसानों का भविष्य खतरे में चला गया है और अब उन्हें ब्रह्मवाक्य मान कर जनता के गले में उडे़ला जा रहा है.

किसानों का यदि राष्ट्रव्यापी विरोध न होता तो कानूनों से पूंजीपतियों की पक्षधर सरकार का खिलवाड़ चलता रहता और देशवासियों को तरहतरह के जहर के घूंट पीने पड़ते रहते. एक सही लोकतंत्र वह होता है जिस में संसद का बहुमत ही नहीं, सरकार के कदम पर जनता की आम राय भी ली जाती है. हर फैसले पर न तो जबरदस्ती की जा सकती है और न ही केवल अपने गुर्गों की राय को अंतिम माना जा सकता है. एक छोटे वर्ग का विरोध भी सुनने लायक होता है. संसद में सत्ताधारी पार्टी के पिट्ठुओं की तालियों और मेजों की थपथपाहट को जनता की मरजी नहीं माना जा सकता. सरकार के पिछले फैसले, जैसे नोटबंदी और जीएसटी, बुरी तरह फेल हुए हैं. करैंसी नोटों की संख्या बढ़ गई है.

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आतंकवादी पहले की तरह देश में घुसपैठ कर रहे हैं. करों में जीएसटी से न तो सरकारों को लाभ मिला, न व्यापारियों को. दोनों मन मार कर इसे जजिया टैक्स मान कर सह रहे हैं. सरकार हर थोड़े दिनों बाद किसी न किसी कानून में कुछ न कुछ बदलाव करती है क्योंकि संसद में वे केवल बहुमत के आधार पर बने थे, व्यापारियों, उद्योगों और जनता की राय उन में शामिल नहीं थी. नए कृषि कानून भी बिना किसानों की मांग पर बने. कहीं भी ऐसे आंदोलन नहीं हो रहे थे कि मंडियों को खत्म करो या भंडारण कानून को समाप्त करो. यह तो आश्रम में बैठे विश्वामित्र के दिमाग की उपज थी कि राज्यों से बचने के लिए राजा दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण चाहिए और वे अपनी ब्राह्मण श्रेष्ठता का लाभ उठा कर दरबार में जा पहुंचे और किशोर बालकों को राक्षसों से भिड़ा दिया.

किसानों का देशभर का विद्रोह स्पष्ट कर रहा है कि हर ऋषिमुनि का हर फैसला सही नहीं होता. रामायण के मुताबिक, राम और लक्ष्मण का बाकी जीवन सुखी नहीं रहा. हां, यह जरूर है कि इस देश की जनता को जम कर बहकाया जा सकता है धर्म के नाम पर. हर व्यक्ति अपनी जाति बचाने के लिए या अपनी जाति से श्रेष्ठ जाति के स्थान पर पहुंचने के लिए हर कुरबानी देने को तैयार है चाहे वह राजनीतिक, आर्थिक या वैयक्तिक स्वतंत्रता हो. कृषि कानूनों का जम कर विद्रोह साबित कर रहा है कि आज पौराणिक सोच नहीं, आधुनिक सोच चाहिए. यह युग यज्ञोंहवनों का नहीं,

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बल्कि वैज्ञानिक प्रयोगों का है, प्रबंधकला का है. राजाओं के हुक्म की तरह तानाशाही थोपने का नहीं, सब की राय पर गौर करने के साथ आगे बढ़ने का है. धर्मभक्ति की अंधभक्ति भाजपा सरकार का पूरा ध्यान पूजापाठ या उस जैसी गतिविधियों पर लगा है. वैक्सीन, जो प्रयोगशालाओं में बनी, विदेशी यानी मलेच्छ वैज्ञानिकों के हाथों बनी, डौलरों से खरीदी गई, जब भारत आई तो सरकार को उस के पूजापाठ की ज्यादा चिंता रही है और ज्यादातर केंद्रों में किसी न किसी तरह उस का प्रारंभ किसी पूजाअर्चना से किया गया. सरकार बड़ेबड़े विज्ञापन दे कर स्टैच्यू औफ यूनिटी तक को पहुंचाने वाली ट्रेनों की घोषणा कर रही है जो स्टैच्यू औफ यूनिटी नहीं,

व्यक्तिपूजा का चिह्न है, चाहे वहां पूजाअर्चना न के बराबर ही हो रही हो. भाजपा सरकार का कदम यह बताता है कि कांग्रेसी नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने मरने के 50-60 वर्षों बाद दलबदल कर लिया और वे अब भाजपा के सदस्य हो गए हैं. थोड़े दिनों में उन के परिचय में से कांग्रेस का नाम गायब कर दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. चारधाम, अयोध्या, गंगा आरतियों, विवेकानंद, वेद, उपनिषद की बातें चारों ओर बारबार कही जा रही हैं मानो 21वीं सदी की प्रगति की कुंजी यही हैं. हालत यहां तक है कि राफेल विमानों के ऊपर भी फ्रांस जा कर स्वास्तिक टीका लगाया गया जबकि वे बनाए गए थे प्रोटैस्टैंट ईसाईयों द्वारा. हिंदू शास्त्रियों ने पिछले 6 सालों में कुछ बनाया हो, इस का विज्ञापन कहीं नहीं है क्योंकि उन्हें तो ?ागड़ाफसाद कराने के अलावा कोई काम नहीं है. वे लव जिहाद कानून बना रहे हैं, किसानों को कानूनों का विरोध करने पर ईशनिंदक मान रहे हैं, शहरों के नाम बदल रहे हैं, रातदिन ट्विटर पर सरकार की पोल खोल रहे लोगों को पाकिस्तानी कह रहे हैं,

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कांग्रेस को पिछले 6 सालों की गड़बडि़यों को दोष देने में लगे हैं. पूजापाठ का भाजपा के कार्यक्रमों में बड़ा महत्त्व है क्योंकि यह ही लाखों भक्तिसैनिक तैयार करता है जिन्हें जनता सीधे चढ़ावे के रूप में पैसा देती है. पार्टी को अपने कार्यकर्ता रखने ही नहीं पड़ते. ये पूजापाठ करने वाले ?ाठ और गाली के सहारे हर समय आम जनता को भड़काने के मूड में रहते हैं. देश के बारे में जो कुछ कहासुना जा रहा है उस की भाषा पर इन का पूरा नियंत्रण है. देश को ट्रेनों की जरूरत है पर जहां मजदूर हैं वहां से जहां कारखाने हैं, वहां तक. ट्रेनों की जरूरत है कच्चा माल कारखानों तक पहुंचाने और तैयार माल उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिए, जबकि मिल रही हैं उन्हें केवडि़या-वाराणसी, केवडि़या-दादर, केवडि़या-अहमदाबाद, केवडि़या-दिल्ली, केवडि़या-चेन्नई, केवडि़या-रीवां जैसी ट्रेनें. इन ट्रेनों में क्या मजदूर जाएंगे?

कारखानों का सामान जाएगा? नहीं. इन में जाएंगे अंधभक्त व्यक्तिपूजक विशाल मूर्ति के इर्दगिर्द फैल रहे धार्मिक, अर्धधार्मिक व्यापार पर लूट का पैसा खर्च करने. इस का दूसरा उद्देश्य यह है कि लोग वैष्णो देवी, शिरडी, ज्वालाजी जैसे तीर्थस्थलों पर कम जाएं जो पौराणिक स्थल नहीं हैं, जिन से ऋषिमुनि नहीं जुड़े और जिन में संघ का विश्वास नहीं है. कठपुतली बनता मीडिया बालाकोट के मामले में रिपब्लिक टीवी के पत्रकार अर्नब गोस्वामी के व्हाट्सऐप चैट के खुलासे से यह साफ हो गया है कि टीवी चैनलों का इस्तेमाल जम कर राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया जा रहा है और दर्शकों को बेवकूफ बनाने व बहकाने में कुछ टीवी न्यूज चैनल राजनीतिबाजों के बराबर हैं.

यह तो स्वाभाविक है कि आम आदमी को अद्भुत, रोमांचक, रहस्यात्मक कहानियां अच्छी लगती हैं, चाहे कितनी ?ाठी क्यों न हों. धार्मिक ग्रंथ हर समाज में इसीलिए लोकप्रिय हुए क्योंकि उन में ?ाठ को बहुत मजेदार ढंग से वर्णित किया गया. लेकिन जो कीमत समाजों ने धार्मिक ?ाठों के कारण सदियों चुकाई है, वही कीमत आज टीवी के ?ाठ पर जनता चुका रही है. इस से पहले सिनेमा के ?ाठ का जम कर प्रचार किया गया जिस में हीरो अकेला दसियों को मार डालता है या कीर्तन करने से लाइलाज व्यक्ति जी उठता है. मुंबई हाईकोर्ट ने सुशांत सिंह राजपूत की हत्या के मामले में यह माना है कि रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाऊ ने बढ़चढ़ कर आरोप लगाए, खुद ही गवाही दी और खुद ही जज बन कर फैसले सुना दिए. इन चैनलों से दर्शक असल में ?ाठ को पचाने के आदी हो जाते हैं और ?ाठ उन के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है. जितने धर्मभीरु लोग होते हैं वे अकसर ?ाठ बोलने के आदी होते हैं क्योंकि वे ?ाठ को सच मानने को सही मानने लगते हैं. असल में तो वे ?ाठ के ही सहारे जिंदगी जी रहे होते हैं. हमारे व्यापारी बहुत धर्मांध हैं और वे पुजारियों-वाचकों द्वारा परोसे गए ?ाठ को प्रसाद के रूप में ले कर उस का व्यापार में खूब इस्तेमाल करते हैं. टाइम्स नाऊ और रिपब्लिक टीवी जैसे चैनल भरे हुए हैं.

लोकल यूट्यूब चैनल भी कुकुरमुत्तों की तरह ?ाठ का दरिया बहा रहे हैं. यह हवा के प्रदूषण से भी ज्यादा जहरीला है. जैसे साफ हवा सेहतमंद रखती है वैसे ही सच एक समाज को गतिशील व उन्नति की ओर ले जाता है. हमारा देश सड़ रहा है, बदबू दे रहा है, दुनिया के सब से गरीब देशों में से है तो धार्मिक ?ाठे उपदेशों और टाइम्स नाऊ व रिपब्लिक टीवी जैसे चैनलों के ?ाठ के फैलाव के कारण है. देश अब ऐसे मोड़ पर आ गया है जब सुधार की संभावना ही नहीं रह गई क्योंकि ?ाठों के सहारे धड़ाधड़ मंदिर, मठ, आश्रम, धाम भी बन रहे हैं और मीडिया एंपायर भी. दोषी हर हाल में वह जनता है जो ?ाठ को खुशीखुशी गले लगा रही है. उस में हो सकता है आप भी शामिल हों. नागरिक हक को वरीयता दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में वर्षों से एक मंदिर सड़क के बीच बना हुआ था.

चाहे वहां भक्तों की लंबी लाइनें न लगती रही हों लेकिन उस की वजह से ट्रैफिक की लाइनें जरूर लगती थीं. दिल्ली उच्च न्यायालय ने आदेश दे कर उस मंदिर को हटवा दिया है और जनवरी में वह जगह साफ हो गई ताकि चांदनी चौक का ऐतिहासिक मार्ग बिना रोकटोक के चल सके. ?हर शहर में व्यस्त रास्तों में इस तरह के छोटे मंदिर दिख जाएंगे. इन मंदिरों का कोई इतिहास नहीं होता, सिर्फ पुजारियों की मिलीभगत होती है. कहीं भी रास्ते में मंदिर बना दो तो चढ़ावा अपनेआप आता रहता है. पहले तो ये मंदिर खेतों, रास्तों के किनारे ही बना करते थे पर जब से वाहन बढ़ गए, पुजारियों को रास्ते ब्लौक कर मंदिर बनाने में धर्म की प्रभुसत्ता जमाने का मौका मिल गया. दिक्क्त यह है कि सड़क पर आसानी से न चल पाने वाला (पैदल या किसी गाड़ी पर) खुद इतना अंधविश्वासी है कि उस में हिम्मत नहीं होती कि वह रास्ते/ सड़क के मंदिर को हटवाने की सोच सके. धर्म में तार्किकता का कोई स्थान नहीं.

वहां तो कोरी जिद और अंधविश्वास चलते हैं जिन पर चढ़ता है पुजारियों और मौलवियों का रंग. उन्हें हर धार्मिक स्थल से पैसा मिलता है. हाईकोर्ट ने हिम्मत दिखाई और हर तरह के तर्कनिरस्त करते हुए आम आदमी के हक को वरीयता दी. अब ऐसा होने लगा है लेकिन बहुत कम. ज्यादातर मंदिरमसजिद चाहे सड़क के बीच हों या कब्जाई सड़क पर, सुरक्षित ही रहते हैं. कम ही मामलों में कोई नगरनिकाय, कोई व्यक्ति या कोई सरकार फैसला लेती है कि जनहित ऊपर है. सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि राममंदिर के मामले में हठधर्मी, अंधविश्वास, अतार्किक, आस्था, सत्तारूढ़ दल की चाहत को ध्यान में रखते हुए एक वैध बनी मसजिद को अवैध गिराए जाने के बावजूद मंदिर बनाने को उस की जगह दे दी. जबकि, दिल्ली उच्च न्यायालय ने उदाहरण पेश किया है. चांदनी चौक में जिस जगह यह मंदिर बना हुआ था वह संकरा था पर भक्तों से भरी दुकानों व खरीदारों को लंबीचौड़ी शिकायत करने का साहस न था पर फिर भी इसे गिरवा कर न्यायालय ने कहा है कि जरूरी नहीं कि मंदिर तोड़ा न जा सके. बहरहाल, जिस भी अधिकारी ने इस आदेश को पास कर दिया उस की तारीफ की जानी चाहिए.

किराएदार : परिवार का भविष्य क्यों खराब होता जा रहा था

देहधर्म और पूरे परिवार के सुनहरे भविष्य के बीच दोराहे पर खड़ी थी बसंती. क्या उस का धड़कता दिल पराए बीज को अपनी धरती में सिंचित कर के फसल बेगानों को सौंप देने का निर्णय ले पाया?

‘‘बस, यों समझो कि मकान जो खाली पड़ा था, तुम ने किराए पर उठा दिया है,’’ डाक्टर उसे समझा रही थी, लेकिन उस की समझ से कहीं ऊपर की थीं डाक्टर की बातें, सो वह हैरानी से डाक्टर का चेहरा देखने लगी थी.

‘‘और तुम्हें मिल जाएगा 3 या 4 लाख रुपया. क्यों, ठीक है न इतनी रकम?’’

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वह टकटकी लगाए देखती रही, कुछ कहना चाहती थी पर कह न सकी, केवल होंठ फड़फड़ा कर रह गए.

‘‘हां, बोलो, कम लगता है? चलो, पूरे 5 लाख रुपए दिलवा दूंगी, बस. आओ, अब जरा तुम्हारा चैकअप कर लूं.’’

खिलाखिला चेहरा और कसी देहयष्टि. और क्या चाहिए था डा. रेणु को. उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता दिखाई देने लगी.

अस्पताल से घर तक का रास्ता तकरीबन 1 घंटे का रहा होगा. पर यह फासला उस के कदमों ने कब और कैसे नाप लिया, पता ही न चला. वह तो रास्तेभर सपने ही देखती आई. सपना, कि पक्का घर हो जहां आंधीतूफानवर्षा में घोंसले में दुबके चूजों की तरह उस का दिल कांपे न. सपना, कि जब बेटी सयानी हो तो अच्छे घरवर के अनुरूप उस का हाथ तंग न रहे. सपना, कि उस के मर्द का भी कोई स्थायी रोजगार हो, दिहाड़ी का क्या ठिकाना? कभी हां, कभी ना के बीच दिखाई देते कमानेखाने के लाले न पड़ें.

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भीतर कदम रखते ही देसी शराब का भभका बसंती के नथुनों से टकराया तो दिमाग चकरा गया, ‘‘आज फिर चढ़ा ली है क्या? तुम्हें तो बहाना मिलना चाहिए, कभी काम मिलने की खुशी तो कभी काम न मिलने का गम.’’

‘‘कहां से आ रही है छम्मकछल्लो, हुंह? और तेरी ये…तेरी मुट्ठी में क्या भिंचा है, री?’’

एकबारगी उस ने मुट्ठी कसी और फिर ढीली छोड़ दी. नोट जमीन पर फैल गए. चंदू ऐसे लपका जैसे भूखा भेडि़या.

‘‘हजारहजार के नोट? 1,2,3,4 और यह 5…यानी 5 हजार रुपए? कहां से ले आई? कहां टांका फिट करा के आ रही है?’’

उस ने गहरी नजरों से बसंती को नीचे से ऊपर तक निहारा. फिर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल. तू बताती है कि मैं बताऊं, कहां से आई इतनी रकम?’’

‘‘डाक्टरनी मैडम ने दिए हैं.’’

‘‘क्या, क्या? पगला समझा है क्या? डाक्टर लोग तो रुपए लेते हैं, देने कब से लगे, री? तू मुझे बना रही है…मुझे? ये झूठी कहानी कोई और सुन सकता है, मैं नहीं. मुझे तो पहले ही शक था कि कोई न कोई चक्कर जरूर चला रखा है तू ने. कहीं वह लंबू ठेकेदार तो नहीं?’’

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उस ने एक ही सांस में पूरी बोतल गटक ली, ‘‘मैं नहीं छोड़ूंगा. तुझे भी और उसे भी. किसी को नहीं,’’ कहते- कहते वह लड़खड़ा कर सुधबुध खो बैठा.

पूरी रात उधेड़बुन में बीती. बसंती सोचती रही कि वह किस दोराहे पर आ खड़ी हुई है. एक तरफ उस का देहधर्म है तो दूसरी ओर पूरे परिवार का सुनहरा भविष्य. और इन दोनों के बीच उस का दिल रहरह कर धड़क उठता कि आखिर कैसे वह किसी अनजान चीज को अपने भीतर प्रवेश होने देगी? पराए बीज को अपनी धरती में सिंचित करना. और फिर फसल बेगानों को सौंप देना. समय आने पर घर कर चुके किराएदार को अपने हाड़मांस से विलग कर सकेगी? अपने और पराए का फर्क क्या उस की कोख को स्वीकार्य होगा? अनुत्तरित प्रश्नों से लड़तीझगड़ती बसंती ने अपने और चंदू के बीच दीवार बना दी. सुरूर में जबजब चंदू ने कोशिश की तो तकिया ही हाथ आया. बसंती भावनाओं में बह कर सुनहरे सपनों को चकनाचूर नहीं होने देना चाहती थी. अलगाव की उम्र भी बरसभर से कम कहां होगी?

अपने मर्द के साथ बसंती ने डा. रेणु के क्लीनिक में प्रवेश किया तो डा. रेणु का चेहरा खिल उठा. डाक्टर ने परिचय कराया, ‘‘दिस इज बसंती…योर बेबीज सेरोगेट,’’ और फिर बसंती से मुखातिब हो कहने लगी, ‘‘ये ही वे ब्राउन दंपती हैं जिन्हें तुम दोगी हंसताखेलता बच्चा. तुम्हारी कोख से पैदा होने वाले बच्चे के कानूनी तौर पर मातापिता ये ही होंगे.’’

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डाक्टर, बसंती के आगे सारी बातें खोल देना चाहती थी, ‘‘बच्चे से तुम्हारा रिश्ता जन्म देने तक रहेगा. बच्चा पैदा होने से अगले 3 महीने तक यानी अब से पूरे 1 साल तक का बाकायदा ऐग्रीमैंट होगा. जिस में ये सभी शर्तें दर्ज होंगीं. तुम्हारी हर जरूरत का खयाल ये रखेंगे और इन की जरूरत की हिफाजत तुम्हें करनी होगी. अपने से ज्यादा बच्चे की हिफाजत. समझ गईं न? कोई लापरवाही नहीं. सोनेजागने से खानेपीने तक मेरे परामर्श में अब तुम्हें रहना है और समयसमय पर चैकअप के लिए आना होगा. जरूरत पड़ी तो अस्पताल में ही रहना होगा.’’

डाक्टर की हर बात पर बसंती का सिर हिलाना चंदू को कुछ जंचा नहीं. वह बुदबुदाया, ‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल,’ और वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘ये सब नहीं होगा, कहे देते हैं. इतने में तो बिलकुल नहीं, हां. यह तो सरासर गिरवी रखना हुआ न. तिस पर वो क्या कहा आप ने, हां किराएदार. पूरे एक बरस दीवार बन कर नहीं खड़ा रहेगा हम दोनों के बीच? आखिर कितना नुकसान होगा हमें, हमारे प्यार को, सोचा आप ने? इतने में नहीं, बिलकुल भी नहीं. डबल लगेगा, डबल. हम कहे देते हैं, मंजूर हो तो बोलो. नहीं तो ये चले, उठ बसंती, उठ.’’

‘‘हो, हो, ह्वाट ही से, ह्वाट? टेल मी?’’ ब्राउन ने जानने की उत्कंठा जाहिर की. डाक्टर को खेल बिगड़ता सा लगा तो वह ब्राउन की ओर लपकी, ‘‘मनी, मनी, मोर मनी, दे वांटेड.’’

‘‘हाऊमच?’’

‘‘डबल, डबल मनी वांटेड.’’

‘‘ओके, ओके. टैन लैख, आई एग्री. नथिंग मोर फौर अ बेबी. यू नो डाक्टर, इट इज मच चीपर दैन अदर कंट्रीज. टैन, आई एग्री,’’ ब्राउन ने दोनों हाथों की दसों उंगलियां दिखाते हुए चंदू को समझाने की कोशिश की और कोट की जेब से 50 हजार रुपए की गड्डी निकाल कर मेज पर पटक दी.

शुरूशुरू में तो बसंती को जाने  कैसाकैसा लगता रहा. एक लिजलिजा एहसास हर समय बना रहता. मानो, कुछ ऐसा आ चिपका है भीतर, जिसे नोच फेंकने की इच्छा हर पल होती. लेकिन बिरवे ने जाने कब जड़ें जमानी शुरू कर दीं कि उसे पता ही नहीं चला. अब पराएपन का एहसास मानो जाता रहा. सबकुछ अपनाअपना सा लगने लगा. डाक्टर ने पुष्टि कर दी कि उस के बेटा ही होगा तब से उसे अपनेआप पर अधिक प्यार आने लगा था.

लेकिन कभीकभी रातें उसे डराने लगी थीं. वह सपनों से चौंकचौंक जाती कि दूर कहीं जो बच्चा रो रहा है, वह उस का अपना बच्चा है. बिलखते बच्चे को खोजती वह जंगल में निकल जाती, फिर पहाड़ और नदीनालों को लांघती सात समुंदर पार निकल जाती. फिर भी उसे बच्चा दिखाई नहीं देता. लेकिन बच्चे का रुदन उस का पीछा नहीं छोड़ता और अचानक उस की नींद खुल जाती. तब अपनेआप जैसे वह निर्णय कर बैठती कि नहीं, वह बच्चा किसी को नहीं देगी, किसी भी कीमत पर नहीं.

सचाई यही है कि वह बच्चे की मां है. बच्चे को जन्म उसी ने दिया है, बच्चे का बाप चाहे कोई हो. उस का मन उसे दलीलें देता है कि एक बच्चे को अपनी मां से कोई छीन ले, अलग कर दे, ऐसा कानून धरती के किसी देश और अदालत का नहीं हो सकता. लिहाजा, बच्चा उसी के पास रहेगा. यदि फिर भी कुछ ऐसावैसा हुआ तो वह बच्चे को ले कर छिप जाएगी. ऐसेवैसे जाने कैसेकैसे सच्चेझूठे विचार उस का पीछा नहीं छोड़ते. और वह पैंडुलम की तरह कभी बच्चा देने और कभी न देने के निर्णय के बीच झूलती रहती.

आज और कल करतेकरते आखिर वह उन घडि़यों से गुजरने लगी जब कोई औरत जिंदगी और मौत की देहरी पर होती है. तब जब कोई मां अपने होने वाले बच्चे के जीवन की अरदास करती है, दुआ मांगती है कि या तो उस का बच्चा उस से दूर न होने पाए या फिर बच्चा मरा हुआ ही पैदा हो ताकि उस के शरीर का अंश उसी के देश और धरती में रहे, दफन हो कर भी. उस के न होने का विलाप वह कर लेगी…लेकिन…लेकिन देशदुनिया की इतनी दूरी वह कदापि नहीं सह सकेगी कि उम्रभर उस का मुंह भी न देख सके.

बेहोश होतेहोते उस के कान इतना सुनने में समर्थ थे कि ‘केस सीरियस हो रहा है. मां और बच्चे में से किसी एक को ही बचाया जा सकेगा. औपरेशन करना होगा, अभी और तुरंत.’

उस की आंख खुली तो नर्स ने गुडमौर्निंग कहते हुए बताया कि 10 दिन की लंबी बेहोशी के बाद आज वह जागी है. नर्स ने ही बताया कि उस ने बहुत सुंदरसलोने बेटे को जन्म दिया है. चूंकि उस का सीजेरियन हुआ है इसलिए उसे अभी कई दिन और करवट नहीं लेनी है.

‘‘बच्चा कैसा दिखता है?’’ उस ने पूछा तो नर्स उसे इंजैक्शन देती हुई कहने लगी, ‘‘नीली आंखों और गोल चेहरे वाला वह बच्चा सब के लिए अजूबा बना रहा. डाक्टर कह रही थी कि बच्चे की आंखें बाप पर और चेहरा मां पर गया है.

इंजैक्शन का असर था कि उस की आंखें फिर मुंदने लगी थीं. उस ने पास पड़े पालने में अपने बच्चे को टटोलना चाहा तो उसे लगा कि पालना खाली है. पालने में पड़े कागज को उठा कर उस ने अपनी धुंधलाती आंखों के सामने किया. चैक पर 9 लाख 45 हजार रुपए की रकम दर्ज थी.

शिथिल होते उस के हाथ से फिसल कर चैक जमीन पर आ गिरा और निद्रा में डूबती उस की पलकों से दो आंसू ढलक गए.

आन्दोलनकारी नहीं सम्मान निधि वाले किसान है ‘परजीवी’

किसानों सरकार ने किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि देकर उनको ‘परजीवी’ बना दिया. खेती करने के बजाये 5 सौ रूपये महीनें की सरकारी सहायता पाकर वह खुश है. उन्हे ‘एमएसपी’ की नहीं ‘किसान सम्मान निधि‘ की जरूरत अधिक है. ऐसे लोगो को खेत से नहीं सम्मान निधि से लगाव है. किसान परजीवी बना रहेगा तो ना केवल सरकार की दुकान चलती रहेगी बल्कि धर्म की दुकानदारी भी चलेगी. किसान ‘चढावा‘ और ‘चंदा‘ देता रहेगा. जिन किसानों को खेती से प्यार है एमएसपी की चाहत है वह इसको बचाने के लिये जाडा, गर्मी और बरसात की चिंता छोड सरकार के जुल्म और सितम की परवाह किये बिना दिल्ली की सीमा पर डट कर सरकार का मुकाबला कर रहा है. आन्दोलनकारी ‘परजीवी’ नहीं है.

मैदानी इलाके के लोग खेती को गाली की तरह समझते है. वह किसान से अधिक प्राइवेट नौकरी करना इज्जत की बात समझते है. गंगा यमुना के मैदानी इलाकों में भाईभाई के बीच झगडे होते रहे है. रामायण से लेकर महाभारत तक की घटनाएं इसकी गवाह रहीं है. यहां मेहनत की जगह शतरंज की षकुनी चालों से राजपाट हासिल किया जाता रहा है. पूजापाठ का समर्थन करने वाली ब्राहमण जातियां यह चाहती है कि उनको चढावा मिलता रहे. बनिया वर्ग कर्ज में पैसा देकर लोगो का शोषण करता है.

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शोषण से परेशान व्यक्ति पूजापाठ और चढावा के जरीये अपनी किस्मत को चमकाना चाहता है. मैदानी इलाकों की ऊंची जातियों के पास खेती की जमीनें भले ही हो पर वह खेती नहीं करते है. थोडी बहुत खेती मजदूरों के जरीये जमींदार करते है. बडी संख्या में जाट, यादव, अहीर और कुर्मी भी खेती छोडते जा रहे है. केन्द्र सरकार कृषि कानूनो के जरीये किसानों से जमीन छीनकर निजी कंपनियों को देना चाहती है. एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे देश को गुलाम बना कर रखा था. सोचिए कई कंपनियां आने के बाद देश के किसानों का क्या हाल होगा ?

पिछले 20-22 सालों में जाट, यादव, अहीर और कुर्मी खेती छोडकर सरकारी नौकरी, नेतागिरी और बिचैलियें बनकर काम करने लगे. इन्होने खेती करनी छोड दी. किसानों के खेतों पर सरकार ने सडक और शहर बसाकर देश का विकास करना शुरू किया. सरकार के इस विकास का लाभ सरकारी नौकरों और नेताओं ने उठाया. खेती की जमीन के छोटेछोटे हिस्से होने के बाद किसान मजदूर बनकर रह गया. यही वजह है कि जब कृषि कानूनों के जरीये खेती में निजीकरण को बढावा दिया गया तो किसानों ने इसका विरोध शुरू  किया. बहुत सारे किसान भले ही किसान आन्दोलन में हिस्सा लेने दिल्ली की सीमा पर ना गये हो पर केन्द्र सरकार की चतुराई और धोखेबाजी को समझ रहे है. खेती ने करने वाले किसानों के लिये प्राइवेट कंपनियो का जाल भारी पडेगा. खेती के इन हालातों को समझने का हमने प्रयास किया. हमें ऐसे किसान से मिलकर हालात को समझना था जिसे सम्मान निधि की नहीं एमएसपी की जरूरत है.

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‘ग्रांउड जीरो‘ पर हुई बातचीत: 09 फरवरी 2021 को किसान आन्दोलन को 75 दिन पूरे हो गये थे. आजादी के बाद देश का यह सबसे बडा आन्दोलन है जो इतने लंबे समय तक चल रहा है. किसान आन्दोलन को दबाने के लिये उसको खालिस्तान, चीन, पाकिस्तान समर्थक बताया गया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में किसान आंदोलन का मजाक उडाते हुये उसको ‘आन्दोलन जीवी’ और ‘परजीवी’ जैसे षब्दो से नवाजा. सत्ता, राजनीति, किसान आन्दोलनकारियों से दूर हटकर हमने इसको समझने के लिये उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 90 किलोमीटर दूर सीतापुर के किसान से बात करने का विचार बनाया. हमें ऐसे किसान की तलाश थी जो खेती के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो. उसे खेती के विज्ञान की समझ हो और उसने खुद अपनी मेहनत से कुछ बदलाव किया हो. उसे किसान राजनीति के साथ ही साथ कृषि कानूनों और किसान आन्दोलन की समझ हो.

सीतापुर में मौजूद अपने संपर्क सूत्रो के जरीये हमें सरदार स्वर्ण सिंह के बारें में पता चला. हम पहले लखनऊ से सीतापुर पहुचें वहां से लखीमपुर बाईपास पर स्वर्ण सिंह के 20 एकड वाले खेत पर उनसे मुलाकात हुई. खेत में गेहॅू की फसल लहलहा रही थी. सडक से लगा हुआ उनका खेत है. खेत को आवारा पषुओं और नीलगाय से बचाने के लिये चारों तरफ से ऊंची तारबंदी की गई है. तार को फांद कर जब हमने खेत में प्रवेश किया जो स्वर्ण सिंह ने हमें रोक दिया और बताया कि खेत में पैर रखने से पौधे टूट सकते है. हमें मेढ के जरीये खेत में आने को कहा. स्वर्ण सिंह ने बताया कि तारबंदी कराने के कारण किसानों की बडी जमापूंजी इसमें लग गई है. कई बार चोर किस्म के लोग तार को काट भी ले जाते है.

सरदार स्वर्ण सिंह सीतापुर के बनहेटा फार्म पर रहते है. यह सीतापुर से लखीमपुर की तरफ जाने वाली सडक पर लखीमपुर बाईपास के पास है. स्वर्ण सिंह के पास अपनी 10 एकड खेती की जमीन है. इसके साथ ही साथ वह 57 एकड खेत दूसरे किसानों से बटाई पर लेकर उस पर भी खेती करते है. कई दूसरें गावों में भी अब वह दूसरों के खेत लेकर खेती कर रहे है. बटाई पर खेत लेने का बहुत पुराना चलन है. मौजूदा समय में देखे तो हिदी बोली वाले प्रदेशो खासकर उत्तर प्रदेश बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में खेत को बटाई पर देने का चलन बहुत है. यह धीरेधीरे बढ रहा है. यहां की खेतीहर जातियां खेती नहीं करना चाहती. बटाई की खेती को ही ‘कांट्रैक्ट फार्मिग’ भी कहा जाता है.

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हरियाणा के कैथल तहसील के रहने वाले स्वर्ण सिह 1980 में अपने पिता के साथ सीतापुर आये थे. कैथल तहसील अब जिला बन गई है. स्वर्ण जिस समय सीतापुर आये थे उस समय वह कक्षा 4 में पढते थे. सीतापुर आकर पूरा परिवार यहां रहने लगा. उनके पास खेती की जमीन नहीं थी. धीरेधीरे उनके पिता ने खेतों पर काम करके अपनी खेती की जमीन ली और जब बच्चें बडे हुये तो अपनी खेती के साथ ही साथ बटंाई की खेती लेकर भी काम षुरू किया. सरदार स्वर्ण सिंह 57 एकड दूसरे लोगों के खेत लेकर खेती करते है. खुद के साथ ही साथ मूल किसान को भी नकद रकम देते है. स्वर्ण सिंह कहते है ‘हम लोग खेती को रोजगार बनाकर काम करते है. नौकरी हमारी प्राथमिकता में नहीं थी. मेरे छोटे भाई को सिपाही की नौकरी मिली थी पर उसने नौकरी करने की जगह पर खेती करने का ही विचार बनाया. आज वह खेती का काफी काम करता है.‘

नारों से नहीं मेहनत से बढेगी आय: 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों कीक आय दोगुनी करने का वादा किया. 2022 तक यह संभव नहीं हो सकता. देश के किसानों की हालत यह है कि वह 6 हजार रूपये सालाना ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि‘ पाकर खुद को सम्मानित महसूस कर रहे है. इसके जरीये ‘अजगर करे ना चाकरी पंक्षी करे ना काम दास मलूका कह गये सबके दाता राम’ वाली सोंच का आगे बढाया गया है. सरकार ने किसानों को ‘परजीवी’ बना दिया है. वह खुद मेहनत न करके यह चाहता है कि कोई इसकी जमीन ले ले और उनको पैसा दे दे. इस सोंच के सहारे किसान कभी तरक्की नहीं कर सकता है.

47 साल के स्वर्ण सिंह तीन भाई है. इनके नाम सुखबिंदर सिंह और मुखतार सिंह है. घर में सबसे बडे इनके पिता है. उनको मिलाकर 13 लोगों का परिवार है. स्वर्ण सिंह के दो बच्चे है. एक बेटा और एक बेटी है. दोनो ही सांइस ग्रेजूएट है. बेटी ने बीएसएसी करने के बाद टीचर के रूप में अपना कैरियर बनाने की दिशा में काम कर रही है. उसने कई प्रतियोगी परीक्षाएं भी दे रखी है. बेटा भी पढाई कर रहा है. स्वर्ण सिंह और उसके दोनो भाई भी पढे लिखे है. इन तीनो भाईयों ने कभी नौकरी करने की नहीं सोंची. स्वर्ण सिंह बताते है ‘हमें खेती से अच्छा और कुछ भी करना अच्छा नहीं लगता. खेती ही हमारी पहचान है. हमारा खेत, बीज और फसल से परिवार के सदस्यांे सा संबंध है. हमारे बारे में दूसरे किसान कहते है कि ‘सरदार जी अगर गेहॅू के बीज को भूनकर भी खेत में छिडक दे तो अच्छी पैदावार हो जायेगी’.

2018 में स्वर्ण सिंह की पहचान दीपक गुप्ता नामक व्यक्ति से हुई. जो अपने खेत पर 65 हजार का घाटा खा चुके थे. सब्जी की खेती में उनको नुकसान हुआ था. परेषान हालत में वह स्वर्ण सिंह से मिले. स्वर्ण सिंह को कहा कि वह यह खेत ले ले और इसपर खेती करे. स्वर्ण सिंह ने कहा ठीक है. जो लाभ होगा उसमें आधाआधा बांट लेगे. दीपक भी तैयार हो गये. खेती से उस साल लाभ हुआ और स्वर्ण सिंह और दीपक के हिस्से में 52-52 हजार आये. इलाके में स्वर्ण सिंह की पहचान किसान कम कृषि विज्ञानी के रूप मे अधिक होती है. स्वर्ण सिंह पहले सब्जी की खेती भी करते थे. वह बताते है ‘सब्जी की ख्ेाती में मजदूरी अधिक देनी पडती है. मजदूरों के मनरेगा और शहरो में मजदूरी करने करने से मजदूर कम हो गये. मंहगे भी हो गये.‘

मिर्च की खेती में केवल मिर्च की तोडाई में ही 2 से 3 रूपये प्रति किलो मजदूरी देनी होेती है. जबकि टमाटर में 1 से 2 रूपये देना पडता है. जिसकी वजह से फसल की कीमत बढ जाती है. ऐसे में सब्जी की खेती छोडकर गेहॅू और धान की खेती करते है. इसमें लाभ यह है कि काफी पैदावार एमएसपी कानून के तहत खरीद ली जाती है जिससे लाभ हो जाता है. स्वर्ण सिंह कहते है ‘सरकार अगर सब्जी की खेती को बढावा देना चाहती है और किसानों कह कमाई को आगे बढाना चाहती है तो मनरेगा के जरीये किसानों को मजदूर देकर मदद कर सकती है. मनरेगा के तहत मजदूर किसानों के खेत पर काम करे. मजदूरी किसान और सरकार मिलकर दे दे. जिससे मजदूर को मजदूरी मिल जायेगी और किसान को कूछ मजदूरी देनी होगी तो उसका सब्जी की खेती से मुनाफा बढ जायेगा. खेती और मजदूरी दोनो का आपस में रिश्ता है. सरकार की मदद से यह दोनो ही आगे बढ सकेगे.’

मैदानी इलाकों में खूब फलफूल रहा पंजाब मौडल: सरकार और सरकार के समर्थक किसान आन्दोलन को लेकर भले ही पंजाब के किसानों को गाली दे पर यहां के किसानों ने मैदानी इलाको में खेती की तस्वीर को बदल दिया है. केवल स्वर्ण सिंह और उनका परिवार ही नहीं पंजाब और हरियाणा के रहने वाले तमाम लोग मैदानी इलाकों में खेती कर रहे है. इनके पास जितनी अपनी जमीन है उससे कई गुना अधिक जमीन दूसरों की बंटाई पर लेकर खेती कर रहे है. सीतापुर, लखीमपुर, पीलीभीत ही नहीं लखनऊ रायबरेली जैसे जिलों में भी सरदार खेती कर रहे है. हरियाणा पंजाब के इन किसानो ने उसर और बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर मिसाल कामय की है. मैदानी इलाके के किसानों को खेती करने का तरीका सिखाया है.

आज मैदानी इलाको के किसान अपनी घाटे की खेती इन सरदारों के हवाले कर रही है. घाटे की खेती को सरदार लाभ की खेती बना दे रहे है. शुरूआती दिनों में मैदानी इलाके के किसान इनके साथ बहुत अच्छे संबंध नहीं रख रहे थे पर धीरेधीरे अब वह इन पंजाब के किसानों से खेती के तरीके सीख रहे है.

पीलीभीत के रहने वाले किसान पतविंदर सिंह ने बताया कि तराई के कुछ किसान धान की दो फसले लेते है. जबकि सामान्य किसान धान की एक फसल ही साल में ले पाते है. यह किसान आधुनिक खेती करते है. ज्यादा से ज्यादा मशीनों का प्रयोग करते है. बहुत सारी मषीने इनके द्वारा खुद के ही बनाई ली जाती है. यह किसान भी बीज और कीटनाशक की दुकानों से उधार चीजें लेते है. लेकिन फसल बेचने के बाद पैसा घर में बाद में ले जाते है सबसे पहले दुकानदारों का बकाया चुकाते है. मैदानी इलाके के किसान बकाया रकम चुकाने में कई साल लगा देते है. जिसके कारण कई बार वह कर्जदार बने रहते है. अपनी फेसबुक और वाट्सएप की डीपी में ‘मै भी टिकैत’ लगाने वाले दिलजीत सिंह कहते है ‘हमने अपनी मेहनत से मैदानी इलाकों में खेती का नया कल्चर बनाया है. हमारा खेती का मौडल सभी को पसंद आ रहा है.

सभी किसानों को मिले एमएसपी का लाभ: किसान आन्दोलन का जवाब देते हुये ससंद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा ‘एसएसपी ना खत्म की गई और ना कभी खत्म की जायेगी.‘ इसके बाद भी किसान एमएसपी की गारंटी चाहते है. उसको कानूनी दर्जा देने की मांग कर रहे है. एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइज) यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों के लिये बेहद जरूरी है. केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर कहते है किसान यह नहीं बताते कि कृषि कानूनों में काला क्या है ? केन्द्रीय कृषि मंत्री को पता नहीं है कि हर किसान अपना भला समझ रहा है. जब हमने स्वर्ण सिंह से पूछा कि एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गांरटी किसान क्यों मांग रहे है ? इसकी क्या उपयोगिता है ? किसानों को सरकार की बात पर भरोसा क्यों नहीं है ? देष में हर चीज के दाम उत्पादक तय करता है तो खेती से होने वाली पैदावार का दाम खरीददार क्यो तय करे. ?

स्वर्ण सिंह ने अपना उदाहरण देते कहा कि अगर किसान की आय दोगुनी करनी है तो एमएसपी की गांरटी देनी होगी. केवल सरकारी खरीद ही के साथ ही साथ प्राइवेट खरीददारों पर भी यह लागू किया जाये. एमएसपी से कम मूल्य पर खरीद को अपराध घोषित जाये. जब सरकारी और प्राइवेट दोनो तरह की खरीद एमएसपी पर होगी तो मनमानी नहीं हो पायेगी. ऐसे में जरूरी है कि सरकार मंडियों की व्यवस्थ्राा को भी मजबूत करे. जब तक प्राइवेट खरीददारी में एमएसपी लागू नहीं है तब तक सरकारी खरीद में किसानों को बेचने में काफी दिक्कत आती है. सरकारी खरीद में मनमानी की जाती है. सरकारी खरीद के पहले फसल धान और गेहॅू के मानक को देखा जाता है. धान के मामले में केवल धान की नहीं धान की कुटाई के बाद चावल भी देखा जाता है कि कितना चावल निकला और कितना चावल टूट गया. अगर चावल कम निकलता है या ज्यादा टूट जाता है तो उसकी खरीददारी नहीं की जाती है.

धान के लिये सरकारी खरीद सामान्य ग्रेड के लिये 1,868 रूपये और ए-ग्रेड के लिये 1,888 रूपये प्रति कंुतल है. प्राइवेट खरीददार इसी धान को 12 सौ से 13 सौ रूपये प्रति कंुतल की दर से होती है. ऐसे में 5 सौ रूपये के करीब प्रति कुंतल दोनो के बीच फर्क आता है. स्वर्ण सिंह बताते है ‘जब किसान प्राइवेट खरीददार को बेचता है तो उसे लागत से कम कीमत मिलती है. ऐसे में उसको नुकसान होता है. जब सरकारी खरीद यानि एमएसपी पर खरीददारी होती है तो किसान को बचत हो जाती है. इसी वजह से किसान अब एमएसपी की गांरटी चाहता है. एमएसपी केवल कुछ किसानों तक ही सीमित न रह सके इस लिये एमएसपी से कम की खरीद को अपराध घोषित किया जाय.

बाक्स: 1 नहीं होगा निजी कंपनियों को नुकसान: सरकार के लोग तर्क दे रहे है कि अगर प्राइवेट कंपनियांे को एमएसपी पर खरीदने पर बाध्य किया गया तो उनको नुकसान होगा तब उसकी भरपाई नहीं हो पायेगी. यह तर्क सही नहीं है. किसान से खरीद और उपभोक्ताओें तक पहंुचने के बीच मूल्य कई गुना बढ जाती है. स्वर्ण सिंह हमें समझाते कहते है ‘18 रूपये किलो में किसान से जो धान खरीदा जाता है वह चावल के रूप में उपभोक्ताओ को 35 से 60 रूपये किलों में बेचा जाता है. एमएसपी की कीमत के दोगुने और अधिक पर बेचने से नुकसान कैसे होगा ? यह कंपनियां अपने मुनाफें को कम नहीं करना चाहती. इस कारण ही वह एमएसपी देने से भाग रही है. इसी तरह से गेहॅू और दूसरी फसलों के साथ होता है. गेहॅू की एमएसपी 19 रूपये प्रति किलों है और प्राइवेट कंपनियां आटा 40 रूपये प्रति किलो की दर से बेचती है.

बाक्स: 2 कहीं भी फसल बेचने की आजादी का भ्रम: कृषि कानूनों का पक्ष रखते हुये केन्द्र सरकार बारबार कहती है कि इससे किसानों को देष में कहीं भी अपनी फसल बेचने अधिकार होगा. इसके बारे में जब हमने स्वर्ण सिंह के अनुभव पूछा तो उन्होने बताया कि हम सीतापुर से दूर पीलीभीत धान लेकर गये. हमें जितने बढे पैसे मिल रहे थे उतना सीतापुर से पीलीभीत तक धान पहंुचाने में खर्च हो गया. जब तक एमएसपी गांरटी नहीं होगी और प्राइवेट खरीददारों पर लागू नहीं होगी फसलों को कम से कम कीमत पर बेचने के लिये मजबूर किया जायेगा.

बिग बॉस 14: देवोलीना भट्टाचार्जी ने घर से बाहर जाते ही जैस्मिन और पारस के लिए किया ये ट्विट

वैसे तो बिग बॉस के घर में आए दिन नया ड्रामा देखने को मिलते ही रहता है लेकिन इस बार वीकेंड का वार अगर किसी के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल  था तो वह है देवोलीना भट्टाचार्जी . जो बिग बॉस के घर में एजाज खान की कनेक्शन बनकर आई थी. लेकिन इनके जाने के साथ एजाज खान का नाम भी शो से खत्म हो गया.

इसी बीच पारस छाबड़ा और और जैस्मिन भसीन ने एल्जाम लगाया था देवोलीना भट्टाचार्जी पर गंदे-गंदे ट्विट करने का हालांकि इन सभी बातों का जवाब देते हुए देवोलीना ने ट्विट किया है.

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शो में पारस छाबड़ा जैस्मिन भसीन से बात करते हुए कहते हैं कि कहती है मैं उसका सपोर्ट नहीं करता कैसे करुं गंदे-गंदे ट्विट करके डिलीट कर देती है. वहीं जैस्मिन भसीन भी पारस के हां में हां करती नजर आती हैं.

इस बात का जवाब देवोलीना भट्टाचार्जी ने घर से बाहर जानें के बाद दिया , उन्होंने ट्विट करते हुए लिखा कि अगर किसी को लगता है कि मैं ट्विट डिलीट कर देती हूं तो ऐसा गलत है, आप चाहे तो मेरा ट्विटर हैंडल स्क्रोल करके देख सकते हैं. जिससे आपको पता चल जाएगा कि मैंने क्या किया था.

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आगे देवोलीना ने कहा कि मेरे लाइफ के कुछ नियम है जिसे मैं पूरा करती हूं और अपनी लाइन को क्रॉस नहीं करती हूं इसलिए जिसे भी जो कहना है कहे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

पारस पर कमेंट करते हुए देवोलीना ने कहा कि लोग बिग बॉस के घर में सपोर्टर के तौर पर आकर जुड़ जाते हैं लेकिन उन्हें शायद इस बात का पता  भी नहीं होता है कि सपोर्टर का मतलब क्या होता है. और खुद को बादशाह समझते हैं.

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बता दें कि फिलहाल देवोलीना घर से बाहर है अपने फैमली के साथ वक्त बिता रही हैं. फिलहाल किसी नए प्रोजेक्ट्स पर काम करने का उनका इरादा है या नहीं इसका जिक्र देवोलीना ने नहीं किया है.

इंडियन आइडल 12: टीआरपी को देखते हुए शो के जजों ने कंटेस्टेंट्स को दिया ये सरप्राइज

सिंगिंग रियलिटी शो इंडियन आइडल 12 को दर्शक खूब पसंद कर रहे हैं. इस साल के कंटेस्टेंट भी खास पर्फार्मेंस दे रहे हैं. जिससे जज भी काफी ज्यादा प्रभावित हैं इनके काम से, देखना यह है कि इस साल सीजन 12  का विनर कौन बनेगा.

लेकिन सबसे ज्यादा पसंद किए जानें वाले कंटेस्टेंट की बात की जाए तो वो हैं, पवनदीप  सवाई भाट और दानिश जिसे लोग खूब पसंद करते हैं. इनके गाने को लगभग हर कोई पसंद करता है शायद यही वजह है जिसे लोगों को यह दीवाना बना दिए हैं.

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इसी सभी वजह से शो ने एकबार फिर टीआरपी लिस्ट में एंट्री मारी है. शो के मेकर्स इसे जारी रखना चाहते हैं. शायद यही वजह है कि शो में कुछ अलग देखऩे को मिला. इंडियन आइडल में हर हफ्ते एक कंटेस्टेंट को घर से बेघर किया जाता है. लेकिन इस बार किसी को घर से बाहर नहीं किया गया .

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दरअसल हुआ कुछ ऐसा कि पहले सभी कंटेस्टेंट को बुला लिया गया स्टेज पर जिससे सभी के होश उड़े लग रहे थें. तभी अचानक विशाल ददलानी ने सभी से कहा कि इस हफ्ते किसी को बाहर नहीं किया जाएगा. वेलेंटाइन वीक की वजह से और उनके काम की सराहना भी कि तो सभी खुशी से झूम उठे .

वहीं शो के जज हिमेश रशमिया और नेहा कक्कड़ का अंदाज भी मजेदार दिखा , नेहा ने कहा कि उल्लू बनाया तो बड़ा मजा आया वहीं हिमेश ने डांस करना शुरू कर दिया. जिससे सभी लोग खुशी से एक-दूसरे को गले लगाकर डांस करना शुरू कर दिया.

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इस शो को लगभग हर घर में देखा जाता है. इसमें गाना गाने वाले बच्चे भी मजेदार आते हैं जिनकी उम्र को देखकर आप अंदाजा नहीं लगा सकते टेलेंट का.

बता दें कि नेहा कक्कड़ ने भी अपनी कैरियर कि शुरुआत इसी रियलिटी शो से कि थी, और आज जज बनकर नेहा इसी शो को डील कर रही हैं.

डांट: संतमोहन को मैथ से क्या दिक्कत थी ?

बेटे की मैथ की कौपी को फर्श पर से उठाते हुए भारती ने साड़ी के पल्लू को अपने दांतों के बीच दबा लिया. उस का गला भारी हो गया था. उस ने बृजमोहन की ओर देखते हुए बस इतना ही कहा, ‘‘बातबात पर बेटे पर इतना गुस्सा न कर के आप उसे अगर प्यार से, दुलार से सवाल समझा दिया करते तो उस का मैथ का रिजल्ट अच्छा होता.’’

बृजमोहन चुप रहा.

भारती फिर से कहने लगी, ‘‘खाली गुस्सा करने से कभी किसी का भला हुआ है? बाबूजी कहते हैं बचपन में मैथ में आप के अच्छे मार्क्स आते थे इसीलिए मैं रोज उसे ढकेल कर आप के पास भेजती हूं और आप हैं कि रोज उसे सिर्फ दुत्कार देते हैं.’’

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अब बृजमोहन भी लगा बरसने, ‘‘देखो, तुम्हीं देखो इस सवाल को. यह भी नहीं कर सकता. तुम्हारे बेटे को न टेबल याद है, न कुछ और. एक ही चीज को इतनी बार समझा रहा हूं और क्या करूं? अपना सिर फोड़ लूं?’’

भारती थोड़ी देर चुपचाप पति की ओर देखती रही. फिर संतमोहन को ले कर कमरे से निकल गई. वह बेचारा आंखें मलता हुआ मां के साथ चला गया.

बस, यही रोज का सिलसिला है. बृजमोहन काम से लौट कर चाय पीने के बाद बेटे को पढ़ाने बैठते हैं. बाकी सब्जैक्ट्स की गाड़ी तो ठीकठाक चलने लगती है मगर मैथ आते ही रोज रेल की टक्कर हो जाती है. फिर यह पढ़ाना नहीं दुर्घटना हो जाता है.

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इसी तरह से दिन और साल की पटरियों पर जिंदगी की रेल दौड़ती रहती है. अब संतमोहन बड़ा हो गया था. एमएससी के बाद अच्छी जगह से पीएचडी के लिए भागदौड़ कर रहा था. आज यहां परीक्षा तो कल वहां इंटरव्यू.

बेचारे बृजमोहन पत्रपत्रिकाओं के लिए कुछ लिखविख लेते हैं. कहींकहीं कुछ छप भी जाता है. पहले तो बेचारे बारबार हाथ से लिख कर ही फेयर किया करते थे. एक तो सभी संपादक अमनोनीत रचनाओं को वापस नहीं करते और वापस आ भी गई तो उस की दुर्दशा को देखते हुए उसी को दोबारा कहीं भेजा नहीं जा सकता था. तो संतमोहन के लिए घर में कंप्यूटर आना उन के लिए भी वरदान साबित हो गया. फोटोकौपी वाले के यहां दौड़दौड़ कर उन्होंने खुद कंप्यूटर पर हिंदी टाइप करना सीख लिया. अब किसी रचना की फोटोकौपी जितनी बार जहां चाहे भेजो. मगर फिर भी गाड़ी कहीं न कहीं फंस ही जाती.

परसों की बात है, कंप्यूटर खोलते ही नीले स्क्रीन के बाद जब डेस्कटौप के आइकौन आ गए तो वे चौंके, यह क्या! डेस्कटौप पर तो मेरी बिटियादामाद का फोटो था. उस के बदले यह रेगिस्तान कहां से आ गया? उन्होंने बेटे को आवाज लगाई, ‘‘संता, यह डेस्कटौप की तसवीर बदल कैसे गई?’’

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‘‘अरे पापा, आप भी तो बस हर बात में घबरा जाते हैं,’’ संतमोहन ने नहातेनहाते बाथरूम से कहा, ‘‘आप बस अपना काम करते रहिए. सबकुछ ठीक है.’’

इसी तरह कभी मामूली तो कभी गैरमामूली मुसीबत. बेचारे परेशान हो उठते हैं. एक दिन की बात है, वे ‘श’ के लिए जितनी बार कीबोर्ड दबाते उतनी बार ‘ष’ आ जाता. फिर बेटे को बुलाया, ‘‘अरे संता, यह क्या हो गया?’’

बेटा मुश्किल से आता और कहता, ‘‘क्या डैडी आप भी न. दिख नहीं रहा है कैपिटल लौक लगा है?’’

‘‘तो?’’

अब संतमोहन झुंझलाता, ‘‘फिर तो शिफ्ट दबा कर कीबोर्ड प्रैस करने से जो अक्षर आते हैं वही आएंगे. लौक खोलिए.’’

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‘‘ओ,’’ बृजमोहन आश्वस्त होते हैं.

प्रयाग के कुंभ मेले से लौट कर उन्होंने कहा, ‘‘अब की बार कैमरे से कंप्यूटर में फोटो मैं ही लोड करूंगा वरना सीखूंगा कैसे?’’

मगर फिर गाड़ी फेल हो गई. वह भी एक छोटी सी बात पर. कैमरे को उन्होंने सीपीयू से कनैक्ट किया. मगर उसे कंप्यूटर वाली फाइल से होते हुए फोटोग्राफ वाली फाइल में ले जाते हुए बेचारे अटक गए. फिर से लाड़ले को बुलाना पड़ा, ‘‘संता, आ जा बेटा, मेरा उद्धार कर दे.’’

संतमोहन उस समय अपनी स्टडी टेबल के पास बैठ कर थीसिस का काम कर रहा था. जल्द से जल्द उसे फाइनल कर के टाइप के लिए कंप्यूटर में देना है. बीच में डैडी की आवाज सुन कर झुंझलाते हुए उठ खड़ा हुआ, ‘‘क्या बात है, पापा? नहीं होता है तो छोडि़ए न. मैं फुरसत से देख लूंगा.’’

अब उस की मां किचन से निकल आई, ‘‘क्यों अपने पापा बेचारे को डांट रहा है? जा ना, जरा देख ले क्या फंस रहा है. तू जानता है, तभी न तुझ से कहते हैं.’’ कहते हुए भारती चाय की प्याली लिए अंदर दाखिल हो गई. बृजमोहन असमंजस में उदास बैठे थे. भारती ने पूछा, ‘‘क्या हो गया? रूठ गए क्या?’’

‘‘अब कंप्यूटर चलाने के लिए बेटे की डांट सुननी पड़ती है,’’ बृजमोहन मानो बच्चे हो गए थे.

‘‘संता ने आप को डांटा? क्या आप भी न. इतनी सी बात पर बुरा मान गए? अरे, उसे भी तो अपना प्रोजैक्ट का काम पूरा करना है. सर को दिखाना है.’’

इतने में संतमोहन भी अंदर आ गया, ‘‘मैं ने तो कितनी बार आप को समझाया है, डैडी. आप को कुछ ध्यान ही नहीं रहता,’’ कहते हुए वह कैमरे के फोटो को कंप्यूटर में ट्रांसफर करने लगा, ‘‘बस, हो गया न? इतनी सी तो बात है.’’

‘‘इतनी सी बात के लिए तू मुझे इतना डांटेगा?’’ बृजमोहन की आवाज शायद कुछ भारी हो गई थी.

‘‘क्या डैडी, आप भी बिलकुल बच्चे हैं. याद है, बचपन में जब मैं मैथ में गलती किया करता था तो आप मुझ को कितना डांटा करते थे?’’

भारती ने दुलार से बेटे को एक चांटा जमाया, ‘‘तो क्या तू अब अपने डैडी से बदला ले रहा है? वाह.’’

बेटे ने पीछे से बाप को दोनों हाथों से कस कर जकड़ लिया और उन के सिर पर अपना मुंह रगड़ने लगा, ‘‘रूठ गए क्या मुझ से? प्लीज डैडी, सौरी, इतना पढ़ना जो रहता है.’’

भारती को लगा, बापबेटे दोनों की आंखें सितारों की तरह चमक रही हैं.

 

अलविदा -भाग 3 : आखिर दीपा के आंसू क्यों नहीं थम रहे थे ?

दीपा इतनी भी नासमझ नहीं थी कि आलोक सर की कुत्सित चाल को न समझ सके. उन की उंगलियां वर्जनाओं का अतिक्रमण करतीं इस से पहले वह एकाएक तेजी से उठी. चेहरा आलोक सर की तरफ घुमा कर एक जोरदार तमाचा उन के गाल पर जड़ दिया. वे तिलमिला कर पीछे हटे. उन्हें सपने में भी दीपा से ऐसी प्रतिक्रिया का भान न था. दीपा की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं. आंखें शेरनी की तरह लाल. मानो जिंदा निगलने के लिए तैयार हो. आलोक सर उस का रौद्र रूप देख कर सहम गए. अब तक महिलाओं ने या तो समर्पण किया या तो स्कूल छोड़ कर चली गईं. मगर पहली बार दीपा जैसी महिला से उन का पाला पड़ा. आलोक सर ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. समर्पण के मूड में आ गए. गिड़गिड़ाते हुए बोले, ‘‘देखो, यह खबर बाहर तक नहीं जानी चाहिए.’’

‘‘बदनामी होगी?’’ दीपा के चेहरे पर व्यंग्य की रेखाएं खिंच गईं.

‘‘मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं,’’ कह कर वह दीपा के पैरों पर गिर पड़े.

कायर आदमी रंग बड़ी तेजी से बदलता है. दीपा ने उन्हें झटक दिया. धड़ाक से केबिन का दरवाजा खोला. तेज कदमों से बाहर आई. अपनी आपबीती मुझे सुनाई. मेरा सिर गर्व से तन गया.

‘‘तुम ने औरत जाति की लाज रख ली,’’ मैं ने कहा.

जब उस ने स्कूल को अलविदा किया तो वह आत्मविश्वास से भरी थी. चेहरे पर डर, भय का नामोनिशान तक न था. आखिर भय का ही तो फायदा आलोक सर ने उस से उठाना चाहा था. मुझे उस के जाने का दुख था तो खुशी भी थी कि अब कोई आलोक किसी स्त्री को कमजोर समझने की जुर्रत नहीं करेगा.

अलविदा -भाग 2 : आखिर दीपा के आंसू क्यों नहीं थम रहे थे ?

‘‘धीरे बोलो, सुन लेगी,’’ दीपा ने टोका.

‘‘आओ संजना, आओ, बैठो, कैसा चल रहा है?’’

‘‘थोड़ी सी कौपियां बच गई हैं जांचने को. उन्हीं को पूरा करने में लगी हूं.’’

‘‘अनुराधा को दे दी होतीं. आखिर वह करती ही क्या है?’’

‘‘यह तो आप जानें या वह,’’ संजना मुंह बना कर बोली, ‘‘मैं इतना जानती हूं कि वह सिर्फ नाम की डांस टीचर है. क्या आता है उसे? फिल्मी लटकोंझटकों की नकल मार कर कोई डांस टीचर्स नहीं बन सकता.’’

‘‘एक बार कह कर तो देखो.’’

‘‘पिछली दफे आप के सामने ही तो कहा था. साफ इनकार कर दिया था.’’

आलोकनाथ संजना को नाराज नहीं कर सकते थे. इसलिए किंचित नाराज स्वर में बोले, ‘‘अगले सैशन से उन की छुट्टी तय.’’ संजना का सिर गर्व से तन गया.

‘‘और हां, मैं एक बात कहना भूल गया. तुम्हारे लिए खुशखबरी है. तुम्हारे काम से मैं और मैनेजमैंट बहुत खुश हैं. लिहाजा, सर्वसम्मति से तुम्हें कौर्डिनेटर बनाया जाता है.’’

यह सुन कर संजना खुशी से चूर थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर आलोक सर के इस एहसान का बदला कैसे चुकाए?

‘‘मैं आप की शुक्रगुजार हूं,’’ उस के मुंह से इतना ही निकला.

‘‘इस में शुक्रिया की क्या बात है. यह पद तुम अपनी काबिलीयत से पा रही हो. तुम्हारी सैलेरी दोगुनी हो गई है.’’

आलोकनाथ ने तो संजना को हर खुशी से नवाजा. अब बारी थी संजना की. स्कूल में सन्नाटा था. पिं्रसिपलरूम हम टीचर्स के कौमन रूम से थोड़ी दूरी पर था.

‘वहां क्यों बैठी हो. मेरे पास आओ,’ आलोक सर फुसफुसाए.

संजना उन की बगलगीर हो गई. वे उस के कंधे पर हाथ रख कर मुसकराते हुए बातें करने लगे. मुझे नए महीने के उपस्थिति रजिस्टर पर पिं्रसिपल सर के दस्तख्त कराने थे. मैं ने सोचा लगेहाथ यह भी निबटा दिया जाए. रजिस्टर ले कर उन के केबिन के पास पहुंची, तो अंदर संजना और आलोक सर की फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी. एक छोेटे से झरोखे से झांक कर देखा. अंदर जो कुछ हो रहा था उसे देख कर मैं शर्म से गड़ गई. आलोक सर संजना को चूम रहे थे. मैं घबरा कर वापस कौमनरूम में आ गई. वह दृश्य मेरी आंखों के सामने तैरता रहा. मैं ने दीपा को सारा किस्सा बता दिया.

‘‘थोड़े से रुपयों के लिए लोग इतने गिर सकते हैं?’’ दीपा बोली.

‘‘पुरुषों से ज्यादा हम कुसूरवार हैं, जो पुरुषों को शह देती हैं. वे तो तुम पर भी अपना हाथ रखने वाले थे,’’ मैं बोली.

दीपा के चेहरे पर निराशा की रेखाएं खिंच आईं.

‘‘ऐसे माहौल में कोई कब तक काम कर पाएगा?’’ दीपा का स्वर डूबा हुआ था.

‘‘कर पाओगी, बशर्ते अपने आत्मबल को बनाए रखो. नहीं तनख्वाह बढ़ेगी न बढे़, कहीं और कोशिश करो.’’

‘‘वहां भी ऐसा ही हो तब?’’

‘‘जरूरी नहीं सब जगह ऐसा ही हो. फिर भी संजना जैसी महिलाओं को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता. हमें कम ही तनख्वाह मिले, इज्जत से बढ़ कर कुछ नहीं होता,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्यों न इस की शिकायत निदेशक से करें?’’ दीपा बोली.

‘‘वे भी तो पुरुष हैं. जब तक आलोक सर से उन्हें फायदा है, वे उन के खिलाफ कुछ नहीं करेंगे. आलोक सर ने इस स्कूल को खड़ा किया है.’’

अमिताभ सर उम्र, ज्ञान और अनुभव सभी तरह से आलोक सर से सीनियर थे. काफी सुलझे हुए थे. उन्हें भी आलोक सर की हरकतें नागवार लगतीं. चूंकि आलोक सर के ऊपर निदेशक का हाथ था इसलिए सिवा उन्हें झेलने के कुछ कर नहीं पाते.

एक रोज जब बस से हमसब अपनेअपने घरों को लौट रहे थे तब वे कहने लगे, ‘‘जिस तरीके से आलोक सर महिलाओं पर अश्लील टिप्पणियां करते हैं उन के खिलाफ सैक्सुअल हैरेसमैंट का केस हो सकता है. आलोक सर जबतब महिला अध्यापिकाओं पर अश्लील फब्तियां कसने से बाज नहीं आते. भले ही उन का लहजा मजाक में होता हो तो भी शैक्षणिक माहौल में ऐसी सोच का अगर कोई हो तो वह बच्चों को नैतिकता का पाठ कैसे पढ़ा सकता है?

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‘‘हम महिलाएं चाह कर भी उन के खिलाफ कुछ नहीं कर सकती थीं. मान भी लिया जाए, कोई केस उन के खिलाफ करें पर क्या सुबूत है कि हम उन के स्कूल में अध्यापिका हैं. हमारे पास कोई नियुक्तिपत्र तो है नहीं. कानून बनाना कितना आसान होता है. पर क्या सरकार ऐसे अनिश्चित भविष्य के साथ काम करने वाली महिलाओं के बारे में सोचती है. जिन के पास सुबूत ही नहीं कि वे साबित कर सकें कि वे जिस के खिलाफ केस दर्ज करा रही हैं वहां की वे कर्मचारी हैं.’’

सालाना जलसा था. एक बुजुर्ग सज्जन को स्कूल कमेटी ने मुख्य अतिथि के रूप में स्कूल में बुलाया. महोदय एक सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद से रिटायर हुए थे. उम्र यही कोई 76 के आसपास रही होगी. अपने भाषण में वे सिर्फ नैतिकता पर ही जोर देते रहे. कहने लगे, ‘‘राजधानी में एक लड़की के साथ जो बलात्कार हुआ उस के लिए हमारा समाज जिम्मेदार है. अगर हमें यह सब रोकना है तो अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ बचपन से पढ़ाना होगा, जिस के लिए सब से अच्छा प्लेटफौर्म होगा स्कूल. शिक्षकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों को नैतिकता का पाठ एलकेजी से पढ़ाएं.’’

वैसे वे अपने तरह से भी नैतिकता का फार्मूला देने में न चूके. कहने लगे, ‘‘हमें अपनी लड़कियों को मोबाइल देना बंद करना होगा. दूसरे उन पर ढीले कपड़े पहनने का दबाव डालना होगा. पुरुषों से आत्मसंयम बरतने की बात उन्होंने एक बार कही.’’

यानी वे अनियंत्रित रहेंगे. अब यह महिलाओं पर निर्भर करता है कि अगर उन्हें अपना शील बचाना है तो अपना जिस्म ढकें ताकि पुरुषों की कामवासना न भड़के. कोई उन से पूछे जब इंद्र ने अहल्या का छल से बलात्कार किया तब क्या अहल्या ने ढीले कपड़े नहीं पहने होंगे? हम तो उसी सभ्यतासंस्कृति की दुहाई देते हैं. लिंग पूजा को महोदय किस रूप में लेंगे? पुरुष लिंग पुजवाए तो नैतिक और हम स्त्री जरा सा चुस्त कपड़े पहनें तो अनैतिक?

महोदय का भाषण सुन कर मुझे हंसी भी आई और उन की पुरुष मानसिकता को ले कर रंज भी. जब 76 साल के बुजुर्ग सज्जन नैतिकता को इस तरह परिभाषित कर रहे हैं तब तो आलोक सर जो कुछ कर रहे हैं वह शायद गलत नहीं, सीख तो उन्हें अपने बुजुर्गों से ही मिली होगी?

नया सैशन शुरू होने वाला था. कुछ अध्यापिकाओं की छंटनी होने वाली थी. जिस में दीपा का नाम सर्वोच्च था. यह प्राइवेट स्कूलों का पुराना चोंचला है. जब भी तनख्वाह बढ़ाने की बात आती है तब वे कम तनख्वाह वाले नए चेहरों की भरती करते हैं. उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि ऐसा करने से बच्चों की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ता है. वे जिन से खुश होते उन्हीं को रिपीट करते हैं. उन की खुशी का मापदंड था जो उन की शर्तों पर खरा उतरे.

मैं अंगरेजी पढ़ाती थी. उन्हें मुझ जैसी अध्यापिका का मिलना थोड़ा मुश्किल था इसलिए मुझे 2 साल से ढो रहे थे. वहीं दीपा हिंदी पढ़ाती थी, जिस के अध्यापकों की कोई कमी न थी. एक खोजो हजार मिलते हैं. हिंदी अध्यापक तो अंगरेजी स्कूलों के लिए लाश जैसे हो गए हैं. अगर संवैधानिक दबाव न हो तो कब का इन्हें ये लोग दफन कर चुके होते. दीपा को निकालना था, सो एक रोज आलोक सर ने उसे अपने केबिन में बुलाया.

‘‘दीपाजी, आप के काम की बड़ी शिकायतें आ रही हैं.’’

दीपा की नजरें झुकी हुई थीं.

कुछ सोच कर वे आगे बोले, ‘‘मैं ने मैनेजमैंट से बात की है. मैं ने ही उन्हें आप को 1 साल और काम करने के लिए राजी कर लिया है,’’ कह कर वे चुप हो गए. उन की शातिर नजर दीपा की प्रतिक्रिया को पढ़ रही थी. जब उन्हें लगा कि तीर निशाने पर है तो आगे बोले, ‘‘बशर्ते…’’

एकाएक दीपा की खुशी काफूर हो गई. वह दुश्ंिचताओं से घिर गई. उस के सामने ललिता और संजना का चेहरा तैर गया. उसे अपनी सहअध्यापिका की नसीहत भी याद आई. उस ने अपना आत्मविश्वास बटोरा.

आलोक सर अपनी कुरसी से उठे. दीपा कुछकुछ उन की मनोदशा को समझने लगी थी. खुद को कड़ा किया. वे दीपा के पीछे खड़े हो गए. उस के कंधे पर हाथ रख कर बड़े प्यार से सहलाया, ‘‘मुझे तुम्हारे अतीत से सहानुभूति है. तुम्हारे पति ने तुम्हारे साथ जो किया वह अच्छा नहीं था. महंगाई का जमाना है. 6 हजार रुपए में होता ही क्या है. मैं ने 2 हजार रुपए ज्यादा की सिफारिश की है. अगले सैशन से तुम्हें मिलने लगेगा,’’ वे कहते रहे, ‘‘संजना और तुम साथसाथ आई थीं. वह तुम से ज्यादा समझदार थी. कोऔर्डिनेटर बना दी गई. वेतन भी दोगुना. खैर, मैं उस पर नजर रखे हुए हूं. जरा सी भी खामी निकली तो उस का जाना तय.’’

 

सिसकती दीवारें: परिवार में अचानक दुख का माहौल क्यों बन गया था

जिस घर का कोनाकोना चमकता था, जिस की सुंदरता देखते ही बनती थी, जहां मालिक के कहकहों के साथ दीवारें मुसकराती थीं, उस घर की सिसकती दीवारें क्यों अपनों के पुनर्मिलन के इंतजार में अकेली, वीरान और उदास हो गईं?

सामने वाले घर में खूब चहलपहल है. आलोकजी के पोते राघव का पहला बर्थडे है. पूरा परिवार तैयार हो कर इधर से उधर घूम रहा है. घर के बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है. आलोकजी ने घर को ऐसे सजाया है जैसे किसी का विवाह हो. वैसे तो उन के घर में हमेशा ही रौनक रहती है. भरेपूरे घर में आलोकजी, उन की पत्नी, 2 बेटे और 1 बेटी, सब साथ रहते हैं. कितना अच्छा है सामने वाला घर, कितना बसा हुआ, जीवन से भरपूर. और एक मैं, लखनऊ के गोमतीनगर के सब से चहलपहल वाले इलाके में कोने में अकेला, वीरान, उजड़ा हुआ खड़ा हूं. मेरे कोनेकोने में सन्नाटा छाया है. सन्नाटा भी ऐसा कि सालों से खत्म होने का नाम नहीं ले रहा.

अब ऐसे अकेले जीना शायद मेरी नियति है. बस, हर तरफ धूलमिट्टी, जर्जर होती दीवारें, दीवारों से लटकते लंबे जाले, गेट पर लगा ताला जैसे कह रहा हो, खुशी के सब दरवाजे बंद हो चुके हैं. हर आहट पर किसी के आने का इंतजार रहता है मुझे. तरस गया हूं अपनों के चेहरे देखने के लिए, पर यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़तीं.

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मैं हमेशा से ऐसा नहीं था. मैं भी जीवन से भरपूर था. मेरा भी कोनाकोना चमकता था. मेरी सुंदरता भी देखते ही बनती थी. मालिक के कहकहों के साथ मेरी दीवारें भी मुसकराती थीं. सजीसंवरी मालकिन इधर से उधर पायल की आवाज करती घूमती थीं. मालिक के बेटे बसंत और शिषिर इसी आंगन में तो पलेबढ़े हैं. उन से छोटी कूहू और पीहू ने इसी आंगन में तो गुड्डेगुडि़या के खेल रचाए हैं. यह अमरूद का पेड़ मालिक ने ही तो लगाया था. इसी के नीचे तो चारों बच्चों ने अपना बचपन बिताया है.

हाय, एकएक घटना ऐसे याद आती है जैसे कल ही की बात हो. मालिक अंगरेजी के अध्यापक थे. बहुत ज्ञानी, धैर्यवान और बहुत ही हंसमुख. मालिक को पढ़नेलिखने का बहुत शौक था. कालेज से आते, खाना खा कर थोड़ा आराम करते, फिर अपने स्टडीरूम में कालेज के गरीब बच्चों को मुफ्त ट्यूशन पढ़ाते थे. कभीकभी तो उन्हें खाना भी खिला दिया करते थे. आज भी याद है मुझे उन बच्चों की आंखों में मालिक के प्रति सम्मान के भाव. जब भी मालिक को फुरसत होती, साफसफाई में लग जाते. किसी और पर हुक्म चलाते मैं ने कभी नहीं देखा उन्हें.

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मालिक 50 के ही तो हुए थे तब, जब ऐसा सोए कि उठे ही नहीं. मेरा तो कोनाकोना उन की असामयिक मृत्यु पर दहाड़ें मारमार कर रोया. मालकिन के आंसू देखे नहीं जा रहे थे. शिषिर ही तो अपने पैरों पर खड़ा हो पाया था, बस. वह तो मालकिन ने हिम्मत की और बच्चों को चुप करवातेकरवाते खुद को भी संभाल लिया. याद है मुझे, मालिक के जो रिश्तेदार शोक प्रकट करने आए थे, सब धीरेधीरे यह कह कर चले गए थे कि कोई जरूरत हो तो बताना. उस के बाद तो सालों मैं ने किसी की शक्ल नहीं देखी. मालकिन भी इतिहास की टीचर थीं. मालिक के सहयोग से ही वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकी थीं. मालिक हमेशा यही तो कहते थे कि हर औरत को पढ़नालिखना चाहिए, तभी तो मालकिन मालिक के जाने के बाद सब संभाल सकीं.

चारों बच्चों के विवाह की जिम्मेदारी मालकिन ने मालिक को याद करते हुए बड़ी कुशलता से निभाई. सब अपनेअपने जीवन में व्यस्त होते जा रहे थे. बस, मैं मूकदर्शक, घर की बदलती हवा में सांस ले रहा था. घर में बदलाव की जो हवा चली थी उस में मुझे अपने भविष्य के प्रति कुछ चिंता सी होने लगी थी.

शिषिर की पोस्ंिटग दिल्ली हो गई. वह अपनी पत्नी रेखा और बेटे विपुल के साथ वहां चला गया. बसंत की पत्नी रेनू और उस की 2 बेटियों, तन्वी और शुभी से घर में बहुत रौनक रहती. कूहू और पीहू की शादी भी बहुत अच्छे घरों में हो गई. सब बच्चों की शादियों में, फिर उन के बच्चों के जन्म के समय मैं कई दिन तक रोशनी से जगमगाता रहा.

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लेकिन फिर अचानक पता नहीं क्यों रेनू मालकिन से दुर्व्यवहार करने लगी. एक दिन मालकिन स्कूल से आईं तो रेनू ने उन के आराम के समय जोरजोर से टीवी चला दिया. मालकिन ने धीरे करने के लिए कहा तो रेनू ने कटु स्वर में कहा, ‘मां, आप तो बाहर से आई हैं, मैं घर के कामों से अब फ्री हुई हूं, क्या मैं थोड़ा टाइमपास नहीं कर सकती?’

मालकिन को गुस्सा आया पर वे बोलीं कुछ नहीं. फिर रोज छोटी बहू कोई न कोई बात छेड़ कर हंगामा करने लगी. मालकिन को भी गुस्सा आने लगा, बसंत से दबे शब्दों में कहा तो उस ने तो हद ही कर दी. उन्हें ही कहने लगा, ‘मां, आप को समझना चाहिए, रेनू भी क्या करे, घर के सारे काम, आप का खानापीना, कपड़े सब वह ही तो करती है.’

मालकिन की आंखों की नमी मुझे आज भी याद है, उन्होंने इतना ही कहा था, ‘उस से कह दे, कल से मेरा खाना न बनाए, मैं बना लूंगी.’ आज सोचता हूं तो लगता है मालिक शायद बहुत दूरदर्शी थे, क्या उन्हें अंदाजा था कभी यह दिन आएगा, मुझे उन्होंने इस तरह से ही बनाया था कि मेरे 2-2 कमरों के साथ 1-1 किचन था.

बसंत और रेनू शायद यही चाहते थे. 2 दिन के अंदर रेनू ने अपना किचन अलग कर लिया. मैं रो पड़ा, लेकिन मेरे आंसू तो कोई देख नहीं सकता था. बस, ऐसा लगा मालिक ने मेरी दीवारों को अपने हाथ से सहलाया हो.

हद तो तब हो गई जब बसंत ने शराब पीनी शुरू कर दी. अब वह रोज पी कर मालकिन से झगड़ा करने लगा. मालकिन का गुस्सा भी दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था. उन्हें लगता वे जब आत्मनिर्भर हैं तो क्यों किसी की बात सुनें. उन का स्वभाव भी दिन पर दिन उग्र होता जा रहा था. कूहूपीहू आतीं तो घर के बदले रंगढंग देख कर दुखी होतीं.

मालकिन ने एक दिन शिषिर को बुला कर सब बताया. उस ने बसंत को समझाया तो बसंत ने कहा, ‘मां की इतनी ही फिक्र है तो ले जाओ अपने साथ इन्हें.’

मालकिन फटी आंखों से बेटे के शब्दों के प्रहार झेलती रहीं.

बसंत गुर्राया, ‘इन्हें कहो, अपनी तनख्वाह हमें दे दिया करें, हम फिर रखेंगे इन का ध्यान.’

शिषिर चिल्लाया, ‘इतनी हिम्मत, दिमाग खराब हो गया तुम्हारा?’

दोनों में जम कर बहस हुई, नतीजा कुछ नहीं निकला. शिषिर के जाने के बाद बसंत और उपद्रव करने लगा.

मालकिन को कुछ समझ नहीं आया तो उन्होंने एक राजमिस्त्री को बुलवा कर मेरे बीचोंबीच दीवार खड़ी करवा दी, बसंत ने कहा, ‘हां, यह ठीक है, आप उधर चैन से रहो, हम इधर चैन से रहेंगे.’

और देखते ही देखते 2 दिन में मेरे 2 टुकड़े हो गए. मेरी आंखों से अश्रुधारा बह चली, मालिक को याद कर मैं फूटफूट कर रोया. ऐसा लगा मालिक बीच की दीवार को देख उदास खडे़ हैं. लगा कि काश, मालकिन और बसंत ने थोड़ा शांति से काम लिया होता तो मेरे यों 2 टुकड़े न होते.

बात यहीं थोड़े ही खत्म हुई. कुछ दिन बाद शिषिर, कूहू और पीहू आईं, मालकिन सब को देख कर खुश हुईं, शिषिर ने मालकिन, बसंत, कूहू, पीहू को एकसाथ बिठा कर कहा, ‘यह तो कोई बात नहीं हुई, इस मकान के 2 हिस्से आप लोगों ने अपने मन से कर लिए, मेरा हिस्सा कौन सा है?’

मालकिन चौंकी थीं, ‘क्या मतलब?’

‘मतलब यही, आधा आप ने ले लिया, आधा इस ने, मेरा हिस्सा कौन सा है?’

‘हिस्से थोड़े ही हुए हैं बेटा, मैं ने तो रोजरोज की किचकिच से तंग आ कर दीवार खड़ी करवा दी, मैं अपना कमातीखाती हूं, नहीं जरूरत है मुझे किसी की.’

बसंत गुर्राया, ‘बस, अब वही मेरा हिस्सा है, मेरा घर वहीं सैट हो गया.’

शिषिर ने कहा, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता.’

कूहू बोली, ‘मां, हमें भैया ने इसलिए यहां आने के लिए कहा था. साफसाफ बात हो जाए, आजकल लड़कियों का भी हिस्सा है संपत्ति में, बसंत भैया, आधा नहीं मिल सकता आप को, घर में हमारा भी हिस्सा है.’

मालकिन सब के मुंह देख रही थीं. बसंत ने कहा, ‘दिखा दिया सब ने लालच. आ गए न सब अपनी औकात पर.’

खूब बहस हुई, मालकिन ने कहा, ‘ये झगड़े बंद करो, आराम से भी बात हो सकती है.’

बसंत पैर पटकते हुए अपने हिस्से वाली जगह में चला गया, शिषिर बाहर निकल गया, कूहूपीहू ने मां के गले में बांहें डाल दीं. बेटियों का स्नेह पा कर मालकिन की आंखें भर आई थीं. पीहू ने कहा, ‘मां, हमें गलत मत समझना, हम अपने लालची भाइयों को अच्छी तरह समझ गई हैं. हमें कुछ हिस्सा नहीं चाहिए, शिषिर भैया ने कहा था, मकान बेच देते हैं. मां किसी के साथ रहना चाहेंगी तो रह लेंगी या किराए पर रह लेंगी.’

कूहू ने कहा, ‘मां, यह घर हमें बहुत प्यारा है, हम इसे नहीं बेचने देंगी.’

मैं तो हमेशा की तरह चुपचाप सुन रहा था, घर की बेटियों पर बहुत प्यार आया मुझे.

कूहू और पीहू अगले दिन चली गई थीं. उन के जाने के बाद शिषिर इस बात पर अड़ गया कि उसे बताया जाए कि उस का हिस्सा कौन सा है, वह अपने हिस्से को बेच कर दिल्ली में ही मकान खरीदना चाहता था. झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था. हाथापाई की नौबत आ गई थी.

अंतत: फैसला यह हुआ कि मुझे बेच कर 3 हिस्से कर दिए जाएंगे, आगे क्या करना है, इस विषय पर बहस कर शिषिर भी चला गया लेकिन फिर भी बसंत ने मालकिन को चैन से नहीं रहने दिया. थक कर मालकिन ने भी एक फैसला ले लिया, अपने हिस्से में ताला लगा कर अपना जरूरी सामान ले कर वे किराए के मकान में रहने चली गईं. मैं उन्हें आवाज देता रह गया. मेरी आहों ने किसी के दिल को नहीं छुआ. वे हवा में ही बिखर कर रह गईं.

तभी से मेरे दुर्दिन शुरू हो गए. जिस आंगन में मालिक अपनी मनमोहक आवाज में कबीर के दोहे गुनगुनाया करते थे वहां अब शराब और ताश की महफिलें जमतीं. छोटी बहू मना करती तो बसंत उस पर हाथ उठा देता. 2 भाइयों को मां के किराए पर रहने का अफसोस नहीं हुआ.

कूहू और पीहू अपने ससुराल से ही कोशिश कर रही थीं कि सब ठीक हो जाए, फिर दोनों भाइयों ने मिल कर यह फैसला किया कि बसंत भी कहीं किराए पर रहेगा जिस से थोड़ी तोड़फोड़ के बाद मेरे 3 हिस्से करने में उसे कोई परेशानी न हो. उन्होंने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं सिर्फ ईंटपत्थर का एक मकान ही नहीं हूं, मैं वह घर हूं जिसे बनाने में मालिक ने, उन के पिता ने, एक ईमानदार सहृदय अध्यापक ने अपनी सारी मेहनत से एकएक पाई जोड़ कर मजदूरों के साथ खुद भी रातदिन लग कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं की थी.

हर बार मालकिन जब भी किसी काम से यहां आईं, मेरे मन का कोनाकोना खिल गया. लेकिन उन के जाते ही मैं ऐसे रोया जैसे मां अपने बच्चे को छोड़ कर चली गई हो. बसंत ने अभी जाने की जल्दी नहीं दिखाई तो शिषिर ने गुस्से में एक नोटिस भेज दिया. बात कानून तक पहुंचते ही बढ़ गई. मैं ने सुना, एक दिन शिषिर आया, कह रहा था, ‘कूहू और पीहू का क्या मतलब है मकान से. उन्हें एक घुड़की दूंगा, चुप हो जाएंगी. बस, अब तुम जल्दी जाओ यहां से. मुझे अपना हिस्सा बेच कर दिल्ली में मकान खरीदना है.’

बसंत की बातों से अंदाजा हुआ कि मालकिन भी अब यहां नहीं आना चाहतीं. मैं बुरी तरह आहत हुआ. बसंत भी चला गया. मैं खालीपन से भर गया. अब मेरे आकार, बनावट की नापतोल होने लगी. कोनाकोना नापा जाता, लोग आते मेरी बनावट, मेरे रूपरंग पर मोहित होते. एक दिन कोई कह रहा था, ‘इस घर की लड़कियां कोर्ट चली गई हैं, वे पेपर्स पर साइन नहीं कर रही हैं. सब बच्चों के साइन किए बिना मकान बिक भी तो नहीं सकता आजकल, उन्होंने केस कर दिया है.’

मैं उन की बात सुन कर हैरान रह गया, फिर एक दिन कुछ लोग आए, गेट पर एक बड़ा ताला लगा कर नोटिस चिपका कर चले गए, मेरा केस अब कानून के हाथ में चला गया है, नहीं जानता हूं कि मेरा क्या होगा.

काश, मालकिन कहीं न जातीं, बसंत भी यहीं रहता फिर मुझे वह सब देखने को नहीं मिलता जिसे देख कर मैं जोरजोर से रो रहा हूं. पिछले हफ्ते ही मेरे पीछे वाली दीवार कूद कर रात को 2 बजे 3 लड़के एक लड़की को जबरदस्ती पकड़ कर ले आए. उन्होंने लड़की के मुंह पर कपड़ा बांध दिया था. पहले लड़कों ने खूब शराब पी, फिर उस लड़की की इज्जत लूट ली. लड़की चीखने की कोशिश ही करती रह गई, दुष्ट लड़कों ने उस के हाथ भी बांध दिए थे. मैं रोकता रह गया लेकिन मेरी सुनता कौन है. मेरे अपनों ने मेरी नहीं सुनी, वे दुष्ट लड़के तो पराए थे. क्या करता. इस अनहोनी को होते देख, बस, आंसू ही बहाता रहा.

डर गया हूं मैं. क्या यह सब फिर तो नहीं देखना पडे़गा. मेरा भविष्य क्या है, मुझे नहीं पता. काश, मैं यों न उजड़ा होता. एक घरआंगन में कोमल भावनाओं, स्मृतियों व अपनत्व की अनुभूति के सिवा होता ही क्या है? मेरी आंखें झरझर बहती रहती हैं.

अरे, हैप्पी बर्थडे की आवाजें आ रही हैं. सामने राघव ने शायद केक काटा है. आह, कितनी रौनक है सामने, और यहां? नहींनहीं, मैं सामने वाले घर से ईर्ष्या नहीं कर रहा हूं, मैं तो अपने समय पर, अपने अकेलेपन पर रो रहा हूं और अपनों से पुनर्मिलन की प्रतीक्षा कर रहा हूं. सिसकती दीवारें कभी मालिक को याद करती हैं, कभी मालकिन को, कभी बच्चों को. पता नहीं कब तक यों रहना होगा, अकेले, उदास, वीरान.

 

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