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नानू का बेटा: मानुषी ने बेटे के जन्म पर खुशी क्यों जताई

लेखक- राघवेन्द्र रावत

सुधा की बिटिया ने बेटे को जन्म दिया तो मानुषी भी बहुत खुश थी क्यों न हो तीनों बहनों के बच्चों परिवार में तीसरी पीढ़ी का अगुआ जो था और फिर सुधा और मानुषी के बीच प्रेम और स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ था जो शादी के बाद भी बना हुआ था .दोनों अपनी अपनी दुनिया में खुश थी लेकिन जीवन के सुख दुःख एक दूसरे से साझा कर लेती थीं. मानुषी सुधा से दो साल बड़ी थी ,पिता के शांत हो जाने के बाद वह अब सचमुच बड़ी बहिन की तरह सुधा का ख्याल रखती थी. कोरोना जब सामाजिक ताने बाने को तार- तार कर रहा था तब दोनों बहनें अपने अपने शहर के हालत के बारे में बात करती बल्कि देश दुनिया की चिंता भी उनकी बातों में उभर आती .दोनों कोरोना से बचने के उपाय एक दूसरे से साझा करती. मानुषी का पति वरिष्ठ नागरिक की देहरी छू चूका था और दिल का मरीज होने के नाते उसे उनकी ज्यादा फिक्र रहती थी और फिर खुद भी डायबिटिक थी अतः बहुत सावधानी बरत रही थी.

सुधा तो अब अपने नवासे गोलू की तीमारदारी में लगी रहती. नवजात शिशु  और जच्चा के अपने बहुत काम होते हैं लेकिन वह ख़ुशी की उस नाव पर सवार थी जिसके आगे किसी लहर से परेशानी नहीं अनुभव हो रही थी .उस नन्हे मेहमान ने घर में नई ऊर्जा का संचार कर दिया था परंतु यह डर मन में बना रहता था कि बच्चा और उसकी बिटिया रक्षिता दोनों कोरोना से ग्रसित न हो जाएँ.

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बच्चे की अठखेलियों के वीडियो दोनों बहनों के घरों में देखे जाने लगे. अब सामान्य कॉलकी जगह वीडियोकॉल ने ले ली थी क्योंकि बच्चे की हरकतें देखना सब को भा रहा था .बच्चे ने तो अभी बोलना शुरू भी नहीं किया था लेकिन सारा घर तुतलाने लगा था.

अचानक एक दिन सुबह छः बजे मानुषी के फोन की घंटी बजी तो मानुषी परेशान हो उठी ,उठ कर देखा तो सुधा का फोन था. वह भीतर से किसी अनहोनी से बहुत डर गई . इतनी सुबह तो सुधा कभी फोन नहीं करती,कहीं बच्चा बीमार तो नहीं हो गया जिसे सब अब प्यार से नानू का बेटा कहने लगे थे.खैर उसने फोन उठा कर बात की तो सुधा भी घबराई हुई थी और उसने छूटते ही कहा कि–“ मैं रक्षिता को टैक्सी से तेरे पास भेज रही हूँ. परसों सब का कोरोनाटेस्टकराया था तो मुकुल(सुधा का पति) और मैं दोनों पॉजिटिव आये हैं. मुकुल तो अस्पताल में भरती है ,मेरे पास भी एस.डी.एम् ऑफिस से फोन आ चुका है, सुबह एम्बुलेंस लेने आएगी ,रक्षिता के टेस्ट का रिजल्ट अभी नहीं आया है ,मेरे जाने के बाद उसकी देख भाल कौन करेगा इसलिए उसे तेरे पास भेज रही हूँ ,वो शाम तक तेरे पास पहुँच जाएगी”

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मानुषी के मुंह से सिर्फ ठीक है भेज दे निकला, और फोन कट गया. इस अप्रत्याशित स्थिति की उसने कल्पना भी नहीं की थी. उसे समझ नहीं आ रहा था एक और बहन और बहनोई की चिंता ऊपर से रक्षिता अपने के साथ उसके पास आ रही थी. ऐसा कैसे हो सकता है कि जब सब बच्चे को खिला रहे हों और साथ रहे हों ,तब रक्षिता संक्रमित होने से कैसे बच  सकती है ? एक ओर  उसके मन में जच्चा (रक्षिता) और उसके के बच्चे की देख भाल का द्वन्द चल रहा था तो दूसरी और अपने पति अनिल के संक्रमित होने के खतरे की चिंता थी. लेकिन सुधा ने तो उसे कुछ भी कहने का मौका ही कहाँ दिया था.

शाम को टैक्सी से रक्षिता अपने बीस दिन के प्यारे से बेटे को लेकर मानुषी के पास पहुँच गई. मानुषी ने उसे गेस्ट रूम में ठहरा कर अगले चौदह दिन के आइसोलेशन की हिदायत यह समझाते हुए दे दी कि अभी टेस्ट रिपोर्ट नहीं आई है अतः दूसरे बच्चे की सेहत के लिए अलग रहना जरूरी है. रक्षिता ने सब ध्यान से सुना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी,यधपि उसे मौसी का व्यवहार बड़ा अटपटा सा लग रहा था. यहाँ तक कि उसकी कजिन नम्रता भी दूरी बनाये हुए थी.

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उधर सुधा ने फोन करके बता दिया कि उसे भी अस्पताल में आइसोलेशन में रख कर इलाज़ शुरू कर दिया है. उसने मानुषी से रक्षिता के बारे में पूछा तो उसने कह दिया –“ तू उसकी चिंतामत कर अपना ख्याल रख “ तीन प्राणी और तीन जगह ,न कोई एक दूसरे से मिल सकता था ,न कहीं आ जा सकता था. कोरोना ने मानवीय रिश्तों के बीच संक्रमण के भय से जो सामाजिक दूरी बना थी ऐसी जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी.

रक्षिता को दो दिन में हीगेस्ट रूम जेल लगाने लगा था. न तो वह बाहर आ सकती थी न ही कोई उसके कमरे में आता था. यहाँ तक कि खाने पीने का सामान या अन्य किसी चीज की जरूरत होती तो मानुषी कमरे के बाहर रख कर फोन कर देती और रक्षिता उसे कलेक्ट कर लेती. अभी उसकी डिलीवरी को बाईस दिन ही तो हुए थे. बच्चे की देख भाल ,उसके शू- शूपोट्टी के कपडे धोना ,उसकी मालिश करना ,दवाई देना ,सब जंजाल लग रहा था.  रात भर बच्चा सोने नहीं देता था अतः वह जल्दी दुखी हो गई. आगरा में तो मम्मी यानि सुधा कर रही थी. वह मन ही मन माँ के मौसी घर भेजने के निर्णय को गलत मान रही थी. सुधा भी मानुषी के व्यवहार से ज्यादा खुश नहीं थी ,उसे लगता था कि वैसे तो वीडियोकॉल पर दूर से सब बच्चे से लाड लड़ा रहे थे लेकिन जब बच्चा पास आ गया तो उसे अछूत करार दे रखा है और वह भी उसकी सगी बहन ने उधर अनिल भी मानुषी के प्रोटोकॉल से बहनों के रिश्ते में खटास आने के डर से रहा था. वह जब भी छोटे बच्चे की रोने की आवाज़ सुनता गेस्ट रूम की सीडियां चढ़ने को होता लेकिन मानुषी के डर से मन मसोस कर रह जाता. नम्रता तो मानुषी से निगाह बचा कर नानू के बेटे को देख आती.

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तीसरे दिन आखिर सुधा ने मानुषी से कह दिया कि रक्षिता का जयपुर में मन नहीं लग रहा. मानुषी ने साफ़ कह दिया –“ बच्चे और अनिल की सेहत को देखते हुए यह सब एक हफ्ते तक चलेगा ,तू और मुकुल कब अस्पताल से डिस्चार्ग होंगे ?” सुधा की बात को नज़रअंदाज़ करते हुएमानुषी ने सवाल दागा  सुधा ने बताया की अभी चार दिन तो कम से कम अस्पताल में रहना होगा. बच्चे की आवाज़ का जादू धीरे धीरे घर में फैलने लगा था. मानुषी ने चौथे दिन से बच्चे की बाहर धूप में लिटा कर मालिश करने के लिए कह दिया. खुद मानुषी बच्चे और रक्षिता के खान- पान और दवाइयों आदि की व्यवस्था में मशगूल रहती . रिश्तों में दरार से ज्यादा वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाह पर ध्यान दे रही थी | उसे मालूम था कि प्रसव के बाद माँ और बच्चे की देख भाल कैसे की जाती है ,आखिर उसने भी तो दो बच्चे पाल पोस कर बड़े किये थे.

अब अनिल सीढ़ियां चढ़ कर दूर से बच्चे को निहारने लगा था. नानू का बेटा नाम उसी ने तो दिया था. पूरे घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार नानू के बेटे ने कर दिया था. अब नम्रता भी बच्चे को खिलाने लगी थी. नानू के बेटे की अठखेलियों से रिश्तों की कड़वाहट फीकी पड़ने लगी थी.

दस दिन के बाद सुधा और मुकुल को अस्पताल से छुट्टी मिली ,अब वह घर आ गई थी लेकिन इन दस दिनों में जो देख भाल उसकी बेटी रक्षिता और उसके बच्चे की मानुषी ने की थी उसने शुरुआत की कडवाहट को दूर कर दिया था. उसे समझ आ गया था कि भावुकता में वह मानुषी को कोस रही थी जबकि मानुषी ने वह सब बच्चे की सेहत के लिया किया था.

वह दिन भी आ गया जब मानुषी के घर मेंनानू के बेटे को गोद में लेने की होड़ होने लगी.  पंद्रह दिन बाद जब रक्षिता वापस आगरा लौट रही थी तो मौसी से जेठ भर कर मिली. नानू का बेटा मौसी की गोद में खुश था. गाड़ी में बिठाते हुए मानुषी ने इतना ही कहा –“ ठीक से जाना , पहुँच कर फोन जरूर करना, बेटियां घर की रौनक भी होती हैं और जिम्मेवारी भी ” रक्षिता के मुंह से सिर्फ इतना ही निकला -मौसी …. और दो आंसू उसके गाल पर ढुलक आये |मानुषी ने महसूस किया कि उसका कंधा रक्षिता के आंसुओं से नम हो रहा था. अनिल यह सोच कर खुश था कि आखिर नानू के बेटे और मानुषी ने रिश्तों की डोर में गाँठ पड़ने से बचा ली .

बंटवारा -भाग 1: फौजिया की सास उसे क्यों डांटती थी

लेखिका- आरती पांड्या

चूल्हे पर रोटियां सेंकते सेंकते फौजिया सामने फर्श पर बैठे पोतेपोतियों को थाली में रोटी और रात का बचा सालन परोसती जा रही थी, साथ ही, बगल में रखी टोकरी में भी रोटियां रखती जा रही थी ताकि शौहर और बेटों के लिए समय से खेत पर खाना भेज सके. तभी उस की सास की आवाज़ सुनाई पड़ी, “अरी खस्मनुखानिये, आज मैनू दूधरोट्टी मिल्लेगी कि नै?”

सास की पुकार पर फौजिया ने जल्दी से पास रखे कटोरदान में से 2 बासी रोटियां निकाल कर एक कटोरे में तोड़ कर गुड़ में मींसीं और उस में थोड़ा पानी व गरम दूध डाल कर अपनी बगैर दांत वाली सास के खाने लायक लपसी बना कर पास बैठी बेटी को कटोरा थमा दिया, “जा, दे आ बुड्ढी नू.” कटोरा तो पकड़ लिया रज़िया ने, लेकिन जातेजाते अम्मी को ताना ज़रूर दे गई, “जब तू तज्ज़ी रोटी सेंक रही है हुण बेबे नू बस्सी रोटी किस वास्ते दें दी?”

फौजिया ने कोई जवाब न दे कर गुस्से से बेटी को घूरा और वहां से जाने का इशारा किया, तो रजिया बड़बड़ाती हुई चली गई.  फौजिया ने अपनी बड़ी बहू सलमा को आवाज़ दे कर खेत में खाना पंहुचाने को कहा और जल्दीजल्दी सरसों का साग व कच्ची प्याज फोड़ कर रोटियों के साथ टोकरी में रख कर टोकरी एक तरफ सरका दी.

रज़िया को अपनी दादी के प्रति अम्मी के दोगले व्यवहार से बहुत चिढ़ है. लेकिन उस का कोई वश नहीं चलता, इसीलिए हर रोज़ अपनी अम्मी से छिपा कर वह दादी के लिए कुछ न कुछ खाने का ताज़ा सामान ले जा कर चुपचाप उसे खिला देती है और दादी भीगी आंखों व भरे गले से अपनी पोती को पुचकारती रहती हैं. आज जब रज़िया नाश्ते का कटोरा ले कर बेबे के पास गई तो वह अपनी फटी कथरी पर बैठी अपने सामने एक पुरानी व मैली सी पोटली खोल कर उस में कुछ टटोल रही थी पर उस की आंखें अपनी पोती के इंतज़ार में दरवाज़े की तरफ ही गड़ी हुई थीं.

रजिया ने रोटी का कटोरा बेबे  को पकड़ा कर अपने दुपट्टे के खूंट में बंधे 3-4 खजूर निकाल कर झट से तोड़ कर कटोरे में डाले और बेबे  को जल्दी से रोटी ख़त्म करने को कहा. बेबे  की बूढ़ी आंखों में खजूर देख कर चमक आ गई और उस ने कटोरा मुंह से लगा लिया. तभी रजिया की नज़र खुली पोटली पर पड़ी जिस में किसी बच्ची की लाख की चूड़ियां, चांदी की पतली सी हसली और पैरों के कड़े एक छींटदार घाघरे व चुनरी में लिपटे रखे हुए थे. बेबे ने एक हाथ से पोटली पीछे सरकानी चाही, तो रज़िया ने पूछा, “बेबे, आ की?”

पोती के सवाल को पहले तो बेबे ने टालना चाहा  मगर रजिया के बारबार पूछने पर  लाख की लाल चूड़ियों को सहलाती हुई बोली, “ये म्हारी सचाई, म्हारो बचपण छे री छोरी.”

दादी को अलग ढंग से बात करते सुन रजिया को थोड़ी हैरानी हुई और उस ने हंस कर पूछा, “अरी बेबे, आज तू केसे गल्लां कर दी पई?” बेबे ने चेहरा उठाया, तो आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. कुछ देर रुक कर बोली, “आज मैं तैनू सच्च दसां पुत्तर.” और फिर बेबे ने जो बताया उसे सुन कर रज़िया का कलेजा कांप उठा और वह बेबे से लिपट कर रोते हुए बोली, “बेबे, मैं तैनू जरूर त्वाडे असली टब्बर नाल मिल्वाइन. तू ना घबरा.” और अपने आंसू पोंछती हुई वह खाली कटोरा ले कर आंगन में आ गई.

रज़िया 18-19 साल की एक संजीदा और समझदार लड़की है जो अपने अनपढ़ परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर अपनी एक सहेली की मदद से 8वीं तक की पढ़ाई कर चुकी है और अब उसी सहेली अफशां के स्मार्टफोन के ज़रिए  फेसबुक व व्हाट्सऐप जैसी आधुनिक दुनिया की बातों के बारे में भी जान गई है. यों तो रज़िया के अब्बू और तीनों भाई उस का घर से निकलना पसंद नहीं करते पर अफशां चूंकि गांव के सरपंच अजीबुर्रहमान की बेटी है, इसलिए उस के घर जाने की बंदिश रजिया पर नहीं है. अफशां लाहौर के एक कालेज में पढ़ती है और छुट्टियों में ही घर आती है. इसलिए उस से मिल कर शहरी फैशन और वहां के रहनसहन के बारे में जानने की उत्सुकता रज़िया को अफशां के घर ले जाती है.

रज़िया के अब्बा 4 भाई और 3 बहनें थीं जिन में से सब से बड़ी बहन का पिछले साल इंतकाल हो गया. बाकी 2 बहनें अपनेअपने परिवारों के साथ आसपास के गांवों में रहती हैं और चारों भाई इसी गांव में पासपास घर बना कर रहते हैं. हालांकि इन की बीवियां एकदूसरे को ज़रा भी पसंद नहीं करती हैं मगर खेतों का बंटवारा अभी तक नहीं हुआ है. इसलिए सभी भाई एकसाथ खेतों में काम करते हैं और उन की बीवियों को जगदिखाई के लिए अपनेपन का नाटक करना पड़ता है.

सभी भाइयों के बच्चे अंगूठाछाप हैं क्योंकि उन के खानदान में पढ़ाईलिखाई को बुरा माना जाता है. रज़िया ने अफशां की मदद से जो थोड़ी किताबें पढ़ लीं हैं उस की वजह है रज़िया का मंगेतर जहीर, जो चाहता था कि निकाह से पहले रजिया थोड़ा लिखनापढ़ना सीख ले. वह खुद भी 12वीं पास कर के पास ही के कसबे में नौकरी करता है और साथ ही, आगे की पढ़ाई भी कर रहा है. वह हमेशा रज़िया को आगे और पढ़ने के लिए कहता रहता है. लेकिन रजिया के अब्बू उसे किसी स्कूल में भेजने के खिलाफ हैं, इसलिए अफशां से ही जो भी सीखने को मिल जाता है उसी से रजिया तसल्ली कर लेती है.

आज बेबे की बातें सुनने के बाद रजिया ने मन ही मन तय किया कि वह हर हाल में अपनी बेबे को उस के अपनों से मिलवा कर रहेगी. इस के लिए चाहे उसे अपने खानदान से लड़ाई ही क्यों न करनी पड़े. मगर सिर्फ तय कर लेने से तो काम बनेगा नहीं, उस के लिए कोई राह भी तो निकालनी पड़ेगी. तभी रजिया को अफशां के फोन पर देखे फेसबुक के देशविदेश के लोगों का ख़याल आया और वह तुरंत अफशां के घर की तरफ लपक ली.

सुबह-सुबह रजिया को आया देख कर हैरान अफशां ने आने की वजह पूछी, तो रजिया उस के कंधे पर सिर रख कर सिसकने लगी. अफशां उसे अपने कमरे में ले गई और आराम से बैठा कर उस की परेशानी की वजह पूछी. तब रजिया ने अपनी बेबे का पूरा इतिहास उस के सामने रख दिया. “बाजी,  बेबे हिंदुस्तानी हैं.” रजिया की यह बात सुन कर अफशां ने हंस कर कहा कि पाकिस्तान में बसे आधे से ज़्यादा लोग हिंदुस्तानी ही हैं क्योंकि बंटवारे के वक्त वे लोग यहां आ कर बसे हैं. “ना बाजी, बेबे साडे मज़हब दी नहीं हैगी” और फिर रजिया ने बेबे की पूरी आपबीती अफशां को सुनाई.

शोषकों की देवी है सरस्वती

   बेहद सहजता और सरलता से वरिष्ठ मराठी साहित्यकार 77 वर्षीय यशवंत मनोहर ने बातचीत में ये शब्द इस प्रतिनिधि से कहे . उनकी आवाज में न तो उत्तेजना थी न कोई पूर्वाग्रह लग रहा था और न ही सरस्वती पूजकों के प्रति किसी तरह का आक्रोश झलक रहा था . फिर उन्होंने सरस्वती को शोषकों को देवी बताते क्यों एक अहम पुरुस्कार को विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया ये और ऐसे कई सवाल कतई नए नहीं हैं और न ही नागपुर की इस साधारण सी दिखने बाली असाधारण घटना को सरसरी तौर से देखने के बाद ख़ारिज करने की इजाजत देते .

इस वाकिये को दक्षिणपंथ और वामपंथ की वैचारिक लड़ाई से जोडकर देखा जाना भी कुछ विश्लेषकों की जल्दबाजी ही समझी जायेगी क्योंकि यशवंत खुद को पूरे फख्र से सिर्फ आम्बेडकरबादी घोषित करते हैं और खुलेतौर पर मनुवाद पर प्रहार अपनी रचनाओं में करते हैं  . यही वह बिंदु है जहाँ से हजारों सालों और फिर आजादी के बाद भी ज्ञान और शिक्षा पर सवर्णों के दबदबे पर प्रहार होना शुरू हो गए थे . तब सवर्ण के माने सिर्फ ब्राम्हण हुआ करते थे और दलित के माने भंगी चमार ,डोम और महार जैसे जाति सूचक शब्द जो अपमान के पर्याय आज भी होते हैं .

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लेकिन अब दोनों का दायरा बढ़ रहा है और एक हद तक अर्थ प्रधान भी होता जा रहा है .पैसे बाले शूद्र यानी दलित को इस शर्त के साथ मुख्यधारा में दाखिला मिल जाता है कि जब तक  वह पूजा पाठ करेगा और पंडों व ब्राम्हणों को धर्म के निर्देशानुसार दान दक्षिणा देता रहेगा तब तक  उसकी जाति पर अगर कोई अहम वजह न हो ऊँगली नहीं उठाई जाएगी और न ही उसे जलील  किया जाएगा . लेकिन सभी शिक्षित दलित इस शर्त पर राजी नहीं हैं और जो नहीं हैं उन्होंने अतीत को याद रखा है कि जब तक धर्म धर्मग्रन्थ और देवी देवताओं का पूजा पाठ है तब तक दलित उद्धार एक सपना ही रहेगा . मुट्ठी भर दलितों के कथित भले को समूचे दलित समुदाय का उद्धार नहीं माना जा सकता .

यशवंत मनोहर इस मसले पर गंभीर हैं इसीलए उन्होंने न केवल कई पुरुस्कार और सम्मान ठुकराए बल्कि खुले तौर पर उसकी वजह भी बताई जो अपने आप में एक जोखिम उठाने जैसी बात न केवल मौजूदा बल्कि हर दौर में रही है . उनके अपने तर्क और विचार इस मुद्दे पर हैं जिन्हें आसानी से दरकिनार कोई भी नहीं कर सकता .

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कौन हैं यशवंत मनोहर

नागपुर के येरला के एक गरीब परिवार में पैदा हुए यशवंत मनोहर की गिनती आज अग्रणी मराठी साहित्यकारों में होती है . उन्होंने सौ के लगभग किताबें लिखी हैं जिनमे से अधिकतर वंचित शोषकों और महिलाओं के इर्द गिर्द घूमती नजर आती हैं . वे बताते हैं कि उन्होंने 1956 – 57 में 16 साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था तब वे मेट्रिक में थे . ` मैंने पर्याप्त आभाव देखे हैं , यशवंत कहते हैं , लेकिन पढ़ाई जारी रखी और सभी कक्षाएं अव्वल दर्जे में उत्तीर्ण की फिर मराठी साहित्य से एमए करने के बाद महाराष्ट्र लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रोफेसर बन गया . 17 साल पहले नागपुर के एक कालेज से मराठी साहित्य के विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुआ और फिर साहित्य में सक्रिय हो गया .

यशवंत जिस माहौल से आकर साहित्यकार बने हैं वह वैसा ही है जैसा इफरात से धर्म ग्रंथों सहित दलित साहित्य और कई फिल्मों में दिखाया गया है कि दलितों को तिरिस्कृत करो , दबाकर रखो ,जब जी चाहे मारो कूटो और उन्हें पढ़ने तो बिलकुल भी मत दो क्योंकि अगर वे शिक्षित हो गए तो चुनौती बन जायेंगे और मुफ्त की गुलामी ढोना बंद कर देंगे .और अब छुटपुट ही सही ऐसा हो भी रहा है . नागपुर की घटना इसका जीता जागता उदाहरण है .

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यशवंत मनोहर ने धार्मिक , जातिगत , आर्थिक और हर तरह का शोषण बहुत नजदीक से देखा और भुगता भी है . शुरुआती पढ़ाई के लिए वे औरंगावाद गए तो कई नए लोगों से उनकी मुलाकात हुई . दलित विमर्श की चर्चाएँ होने लगीं इसी दौरान भीमराव आम्बेडकर के साथ साथ उनके किशोर मष्तिष्क पर फुले दंपत्ति के कार्यों और दर्शन का गहरा असर पड़ा और उन्होंने लेखन के जरिये दिल की भड़ास निकालना शुरू कर दी . वे बताते हैं , आखिरी निष्कर्ष मैंने  यही निकाला कि सारे फसाद भेदभाव और शोषण की जड़ धर्म और गढ़े गए देवी देवता हैं जिनके जरिये सामाजिक अन्याय को मान्यता सी मिली हुई है . इसका हर स्तर पर व्यापक विरोध जरुरी है .

यह हुआ था नागपुर में

तो क्या विदर्भ साहित्य संघ के समारोह में सरस्वती की प्रतिमा का विरोध इसी भड़ास की देन था इस सवाल पर वे कहते हैं हाँ लेकिन यह भी अहम् है कि यह संघ मेरी नजर में आरएसएस का पिट्ठू है . गौरतलब है कि 14 जनबरी को विदर्भ साहित्य संघ का सालाना जलसा नागपुर के रंग शारदा हाल में आयोजित था जिसमें यशवंत मनोहर को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड के लिए आमंत्रित किया था जिसे उन्होंने स्वीकार भी लिया था .

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`लेकिन 11 जनवरी को मुझे खटका सा हुआ कि ये लोग कुछ गड़बड़झाला करने की कोशिश कर सकते हैं लिहाजा मैंने यह जानने अपने एक सहयोगी को भेजा कि मंच पर क्या क्या होगा` . जब मुझे यह पता चला कि वहां सरस्वती प्रतिमा भी होगी तो मैंने सम्मान लेने में असमर्थता जता दी लेकिन विदर्भ साहित्य संघ प्रतिमा हटाने तैयार नहीं हुआ उनकी दलील यह थी कि यह रिवाज तो 90 साल से चला आ रहा है जिसे मेरे लिए बदला नहीं जा सकता तो मैंने भी सोचा कि मैं उनके रीति रिवाजों के लिए खुद को क्यों बदलूं जबकि वे मेरे स्वभाव को अच्छी तरह से जानते हैं .

बकौल यशवंत यदि उक्त संघ का कोई पदाधिकारी उनसे सम्पर्क करता तो कोई बीच का रास्ता निकल सकता था . इस बीच के रास्ते के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि मूर्ति सावित्री फुले की क्यों नहीं लगाई जा सकती जिन्होंने देश में स्त्री शिक्षा की अलख जलाई . सभी नेताओं सरकार और कला व साहित्य के आयोजकों को चाहिए के वे ऐसे जलसों में संविधान की प्रति रखें न कि एक काल्पनिक देवी की जिसके जरिये शुद्रो और महिलाओं को ज्ञान और शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जाता है . मेरा विरोध मूर्ति से नहीं बल्कि उस सिस्टम से है जो मूर्तियाँ गढ़कर शूद्रों को नीचा दिखाता है .

मेरे लिए मसला न गुरुर का है और न सुर्खियाँ बटोरने की मेरी मंशा है यशवंत कहते हैं मैं चाहता हूँ समाज बदले क्योंकि मैं खुद को परिवर्तन यात्रा का यात्री मानता हूँ . हम कब  तक बेकार के धार्मिक रीति रिवाजों को ढोते रहेंगे जिनसे किसी को कुछ हासिल नहीं होता मैं तार्किक रूप से यह भी जानना चाहता हूँ कि साहित्य का धर्म से क्या लेना देना . क्यों हरेक राजनैतिक सांस्कृतिक और सामाजिक साहित्यिक आयोजन में सरस्वती की प्रतिमा पूजी जाती है जो सरासर शोषण की प्रतीक है कोई अगर यह पूछे कि कैसे है तो मैं तर्कों के साथ ही सवालों का जबाब देने हाजिर हूँ .

गलत क्या –

देखा जाए तो यशवंत मनोहर गलत कुछ नहीं कह रहे क्योंकि देश इन दिनों पूजा पाठ में कैसे बर्बाद हो और पिछड़ रहा है इसकी एक बेहतर मिसाल पिछले दिनों देखने में आई थी जब देश के कई शहरों में कोरोना वेक्सीन के पहुँचने पर उसका पूजा पाठ किया था मानों यह वैज्ञानिकों ने नहीं बल्कि पंडे पुजारियों ने बनाई हो . इस ढकोसले का मकसद या साजिश कुछ भी कह लें हमेशा की तरह दूसरों की मेहनत का श्रेय निकम्मों द्वारा झटक लेना था

यह माहौल तो नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही परवान चढ़ना शुरू हो गया था जो इन दिनों पूरे शबाब पर है . आम लोगों की समस्याओं के हल के लिए सरकार के पास कोई नीति रीति नही हैं हाँ मूर्तियाँ जरूर इफरात से गढ़ी जा रहीं हैं . पंडे पुजारियों को खुश रखने कोई मौका नहीं छोड़ा जा रहा उनकी रोजी रोटी के इंतजाम के लिए अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाया जा रहा है  . हिन्दू हुडदंगी खुलेआम तांडव मचा रहे हैं जिससे देश में दहशत फ़ैल रही है किसानों का दर्द समझने सरकार तैयार नही क्योंकि धर्म की नजर में वे भी शूद्र ही तो होते हैं. उन्हें खालिस्तानी और वामपंथी कहते बदनाम किया जा रहा है .   .

देश के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह कुछ और करें न करें दशहरे पर सेना के साथ शस्त्र पूजन कर अपना क्षत्रिय धर्म जरूर निभाते हैं और पिछले साल अक्तूबर में तो इसे वे फ़्रांस तक ले गए थे और राफेल के पहियों के नीचे नीबू रख हिन्दू धर्म व दर्शन के झंडे गाड दिए थे .

अब फिर 16 फरबरी को देश भर में वसंत पंचमी पर धूमधाम से सरस्वती पूजा होगी . स्कूल कालेजों में नई पीढ़ी के तरह तरह के उपनयन टाइप के संस्कार समारोहपूर्वक संपन्न किये जायेंगे . देश के भविष्य कहे जाने बाले बच्चों को भी अंधभक्त बनाने उन्हे  बताया जाएगा कि शिक्षा और ज्ञान मेहनत से नहीं बल्कि सरस्वती पूजा से आते हैं तो कोई वजह नहीं कि यशवंत मनोहर जैसे साहित्यकारों से किसी तरह की असहमति रखी जाए जो सरस्वती को शोषकों की देवी करार देते हैं .

बंटवारा -भाग 5 : फौजिया की सास उसे क्यों डांटती थी

लेखिका- आरती पांड्या

नियत दिन पर रजिया अपनी बेबे को ले कर अपना वादा पूरा करने के लिए चल पड़ी. उस के अब्बू ने तो साथ चलने से इनकार कर दिया, इसलिए अफशां ने अपने अब्बा से गुजारिश की तो अजीबुर्रहमान अमीरन और रजिया को ले कर कराची रेलवे स्टेशन पंहुच  गए. वहां पंहुचने पर पता चला कि दूतावास की तरफ से भारत जाने का प्रबंध केवल लक्ष्मी के लिए  किया गया है, इसलिए और कोई उस के साथ नहीं जा सकता है. रजिया ने बेबे की उम्र का हवाला देते हुए साथ जाने की इजाज़त मांगी लेकिन पाकिस्तान सरकार ने अनुमति नहीं दी. निराश रजिया ने भीगी आंखों से अपनी बेबे को रुखसत किया और अफशां के अब्बा के साथ अपने गांव वापस आ गई. अफशां द्वारा बेबे के आने की सूचना  मिलने पर संजय व उस के पापा अमृतसर के लिए रवाना हो गए.

इतना लंबा सफ़र अकेले तय करने में लक्ष्मी को बहुत घबराहट हो रही थी. तब उस के साथ सफ़र कर रही एक महिला ने उस से बातें करनी शुरू कीं और बेबे की कहानी सुनने के बाद उस ने रास्तेभर बेबे की पूरी देखभाल की और अमृतसर पर लक्ष्मी के परिवार वालों को उसे सौंप कर ही वहां से गई. अमृतसर स्टेशन पर कुछ रेलवे अधिकारियों के अलावा  प्रैस के संवाददाता और संजय एवं उस के पिता बरसों से बिछुड़ी लक्ष्मी की प्रतीक्षा में फूलों के गुलदस्ते ले कर खड़े थे.  संजय और उस के पिता ने आगे बढ़ कर लक्ष्मी के पैर छू कर जब अपना परिचय दिया तो लछमी ने आंखें मिचमिचाते हुए उन दोनों को पहचानने का प्रयास किया और फिर दोनों को कलेजे से लगा कर सिसकने लगी.

कुछ और घंटों की यात्रा पूरी करने के बाद लक्ष्मी जब अपने राजस्थान पंहुची तो इतने लंबे सफ़र से उस का तन तो थका हुआ था लेकिन अपनी धरती पर पांव रखने की ख़ुशी ने उस थकान को मन पर हावी होने ही नहीं दिया और घर के दरवाज़े पर अपनी प्रतीक्षा करते अपने किसना को देख कर तो उस के पैरों में जैसे पंख लग गए व उस ने अपने किसना को कलेजे से ऐसे चिपका लिया जैसे अब वह अपने भाई से कभी अलग नहीं होगी. घर के अंदर पंहुचने पर संजय की मां ने भी अपनी बरसों से बिछुड़ी बूआ सास के पांव छुए और उस का सत्कार किया.  चायनाश्ता करते हुए  जब लक्ष्मी ने बंसी, सरजू और लाली के बारे में पूछा, तब किशनचंद ने बताया कि बंसी भैया का 2 वर्ष पहले कैंसर से देहांत हो गया और उन के बच्चे जयपुर में कारोबार करते हैं. सरजू भैया मोर गांव में ही रहते हैं और लाली अपने परिवार के साथ कोटा में रहती है.

मोर गांव का नाम सुनते ही लक्ष्मी ने गांव जाने की रट पकड़ ली. तब किशनचंद ने कुछ दिनों बाद गांव ले चलने का आश्वासन दे कर अपनी बीरी को शांत किया. लेकिन 15 दिन निकल गए और अपनीअपनी व्यस्तताओं के चलते किसी का भी गांव जाना न हो सका. लक्ष्मी के अंदर भी अब कभीकभी अमीरन अपना सिर उठाने लगती और उसे अपने बच्चों, विशेषरूप से रजिया, की याद सताने लगती. मगर संकोचवश वह किसी को इस विषय में कुछ न बताती थी.

अचानक मार्च के महीने से दुनिया का माहौल एकदम बदल गया और हर तरफ कोरोना का डर व्याप्त हो गया. तब अमीरन ने लक्ष्मी को अपने टब्बर की तरफ से लापरवाह हो जाने के लिए फटकार लगाई और उस ने संजय से कहा कि वह उस की बात एक बार रजिया से करवा दे. संजय ने तुरंत फोन मिलाया तो अफशां ने अगले दिन बेबे के परिवार से बात करवाने का वादा किया.

अगले दिन अफशां ने रजिया के घर पंहुच कर बेबे से सब की बात करवानी चाही तो बेबे की बहु और पोताबहुएं तो काम के बहाने इधरउधर खिसक गईं और रजिया के भाई खेतों पर थे.  रजिया ने फोन अफशां के हाथ से ले कर अपनी बेबे से बात करने लगी तो बेबे भी खूब चटखारे ले कर अपने भाई व उस के परिवार के बारे में बताने लगी. तभी रजिया का अब्बा अकरम वहां आ गया और जब उसे पता चला कि रजिया फोन पर बेबे से रूबरू है तो उस ने बेटी के हाथ से फोन छीन कर अपनी मां को दोबारा फोन न करने की हिदायत देते हुए कहा कि वह अब पाकिस्तान वापस आने के बारे में सोचे भी न, क्योंकि इस परिवार के लिए वह मर चुकी है. फिर अकरम ने फोन काटा और अफशां के हाथ में थमा कर वहां से चला गया.

रजिया अपने अब्बू के व्यवहार से दुखी हो कर रोने लगी तो अफशां ने उसे दिलासा देते हुए कहा कि उसे जब भी बेबे से बात करनी हो, तो वह उस के घर आ कर आराम से बात कर सकती है.

अपने बेटे के ज़हरबुझे शब्दों से आहत लक्ष्मी फोन हाथ में पकडे निश्छल बैठी रह गई. यह देख कर संजय ने उसे बड़े प्रेम से समझाते हुए कहा कि ‘काका अपनी मां के यहां आ जाने से दुखी हो कर ऐसे बोल रहे होंगे, असलियत में नाराज़ नहीं होंगे.‘  उस की बात सुन कर लक्ष्मी ने अपने आंसू तो पोंछ लिए लेकिन मन ही मन वह जानती थी कि अकरम ने जो भी कहा है, उस का एकएक शब्द सच्चा है.

अब सीमापार लक्ष्मी का कोई टब्बर नहीं है. जीवन की यह कैसी विडंबना है कि जिस परिवार में जन्म लिया वह अब अपना हो कर भी अपना नहीं है और जो नाता ज़बरदस्ती जुड़ा था वह अधिक अपना था लेकिन उसे मानने से उस के अपने बेटे ने ही इनकार कर दिया. कहां जाए अब अमीरन का चेहरा ओढ़े यह लक्ष्मी. यह परिवार अब उस के भाई और बच्चों का है जिस पर उस का कोई अधिकार नहीं है और जिन पर अधिकार बनता है उन्होंने तो उस को जीतेजी ही मार दिया है. वह अब जाए तो कहां जाए? इस बंटवारे ने केवल ज़मीनें ही नहीं बांटी हैं बल्कि रिश्तों के भी टुकड़ेटुकड़े कर दिए हैं.

मन ही मन कुछ तय करने के बाद लक्ष्मी ने किशनचंद से बात की और कहा कि अब वह अपना बाकी जीवन अपने गांव में ही बिताना चाहती है, इसलिए उस को जल्द से जल्द गांव भेजने का प्रबंध करवा दिया जाए. बीरी की इच्छा पूरी करते हुए उसे (लक्ष्मी) को ले कर किशनचंद मोर गांव गए और वहां अपने पैतृक घर के एक हिस्से में लक्ष्मी के रहने का प्रबंध करवा कर लौट आए. और लछमी के गांव जाने के पूरे एक महीने बाद आज सुबहसुबह गांव से सरजू भैया का फोन आया कि बीरी सुबहसुबह परलोक सिधार गई.

आजीवन जो धरती उसे नसीब नहीं हुई, उस ने अंत में अपने अंक में उसे समेट लिया था.

बंटवारा -भाग 4: फौजिया की सास उसे क्यों डांटती थी

लेखिका- आरती पांड्या

दफ्तर से शाम को घर पंहुचने पर संजय ने अपने दादू को लक्ष्मी की कहानी के बारे में बताया. तो किशन चंद मेघवाल तुरंत पलंग पर सीधे बैठ गए और खुश हो कर चिल्लाए, “म्हारी बीरी मिली गई.” दादू से इस प्रतिक्रया की उम्मीद संजय को हरगिज़ न थी. उस ने दादू को तकिए से टिका कर बैठाते हुए पूछा कि क्या लक्ष्मी उन की बहन का नाम है?

किशनचंद ने आंसू पोंछते हुए हामी भरी और बताया कि वे उस समय करीब 5 वर्ष के रहे होंगे, इसलिए ज़्यादाकुछ याद नहीं है पर उस दिन घर में खूब रौनक थी. उन को लड्डू खाने को मिले थे और घर में गानाबजाना हो रहा था. लेकिन कुछ देर बाद ही शोर मचने लगा की लक्ष्मी गायब हो गई है और मासा रोने लगी थी. सब ने बहुत ढूंढा लेकिन बीरी  कहीं नहीं मिली. मासा ने तो इसी दुख में बिस्तर पकड़ लिया और जल्दी ही दुनिया से चली गईं. परिवार वाले भी धीरे धीरे बीरी को भूल गए. “के संजय बेटा, म्हारी बात हो सके छे बीरी से?” किशनचंद ने पोते से पूछा.

“पता करता हूं दादू,” संजय ने जवाब दिया और फिर से फेसबुक पर लक्ष्मी की कहानी पर नज़र दौडाने लगा तो नीचे एक व्हाट्सऐप नंबर दिखाई दिया. संजय ने तुरंत उस नंबर पर मैसेज कर के अपना फोन नंबर भेजा और वीडियोकौल करने को कहा. इस के बाद उस ने यह खबर मनीष को दी और फिर अपने पापा व मम्मी को बताने गया. पापा तो खबर सुन कर खुश हो गए लेकिन मां ने एक सवाल खड़ा कर दिया- “तुम्हें क्या मालूम कि ये असली लक्ष्मी हैं या आतंकवादियों की नई  चाल? तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि वह औरत बाबूजी की बहन ही हैं? जानते तो हो कि आजकल न जाने कितने धोखेबाज़ झूठी कहानियां बना कर लोगों को लूटते रहते हैं. तुम तो इन चक्करों से दूर ही रहो बेटा.”

मां की बात में दम तो था लेकिन संजय का मन कह रहा था कि एक बार इस कहानी की सचाई जाननी ज़रूरी है. उधर पाकिस्तान में अफशां ने जैसे ही संजय मेघवाल का संदेश और फोन नंबर देखा, वह रजिया के घर की तरफ दौड़ी. रजिया की भाभियां और अम्मी आंगन में बैठ कर गेंहू साफ़ कर रही थीं. अफशां को अपने घर आया देख कर वे सब चौंक गईं और अफशां उन लोगों को इतना हैरान देख कर अपने आने की वजह उन लोगों को बताने ही वाली थी कि तभी बेबे की कोठरी से निकलते हुए रजिया की नज़र अफशां पर पड़ी और वह अफशां बाजी चिल्लाती हुई दौड़ कर उस के पास आई व उस का हाथ पकड़ कर बहाने से उसे छत पर ले गई. अफशां ने उसे बताया कि वह बेबे की बात उन के भाई से करवाने के लिए यहां आई है, इसलिए अभी बेबे के पास चलना ज़रूरी है.

रजिया ने मारे ख़ुशी के अफशां के हाथ पकड़ कर उस को नचा डाला और फिर उसे ले कर बेबे के पास गई. फौजिया ने बेटी को अफशां के साथ बेबे के पास जाते हुए देखा तो वह लपक कर आई और रजिया से बोली कि बेबे की कोठरी  में तो बहुत गरमी है, इसलिए अफशां को बैठक में ले जा कर बैठाए. उस पर अफशां ने कहा कि वह बेबे से ख़ास किस्म की शीरमाल बनाने के बारे में पूछने आई है. फौजिया ने झट से कहा कि शीरमाल बनाना तो उस को भी आता है वही सिखा देगी लेकिन रजिया ने अम्मी को परे करते हुए कहा कि अफशां शीरमाल के बारे में बेबे से पूछना चाहती है, इसलिए वह बीच में न पड़े और फिर दोनों सहेलियां दौड़ कर बेबे के पास पंहुच गईं.

अफशां ने रजिया से कोठे का दरवाज़ा बंद करने को कहा और फिर शुरू हुआ बरसों से बिछुड़े भाई और बहन का वार्त्तालाप जिस में बातें तो कम हुईं लेकिन दोनों तरफ से आंसू ज़्यादा बहे. बेबे फोन में दिखाई दे रहे सफ़ेद बालों वाले बूढ़े के चेहरे में अपने छोटे से किसना को ढूंढ रही थी और किशनचंद मेघवाल अपनी जर्जर बूढ़ी बहन की हालत देख कर दुखी हो रहे  थे. फिर बेबे से फोन ले कर अफशां ने संजय से कहा कि अगर वे लोग बेबे को हिंदुस्तान बुलाना चाहते हैं तो उस के लिए उन लोगों को ही कोशिश करनी होगी क्योंकि यहां बेबे के बेटे इस मामले में उस की कोई मदद नहीं करेंगे. संजय ने उस से कहा कि वह बेबे को भारत लाने का सारा प्रबंध होते ही अफशां को सूचित कर देगा.

इधर, अफशां को काफी देर से बेबे की कोठरी में दरवाज़ा बंद कर के बैठे हुए देख कर रजिया की छोटी भाभी ने फ़ौरन अपनी सास के कान भरे और दरवाज़ा खुलवाने को कहा. फौजिया दनदनाती हुई आई और दरवाज़े पर लात मार कर रजिया से दरवाज़ा खोलने को कहा. तो झट से अपना फोन कुरते की जेब में डाल कर अफशां बेबे से शीरमाल की रैसिपी पूछने लगी और रजिया ने दरवाज़ा खोल दिया.

बीकानेर में अपने घर में बैठे किशनचंद मेघवाल ने पोते से पूछा कि उन की बीरी को भारत लाने   का प्रबंध कैसे किया जाएगा? संजय ने अपने दादू को हौसला देते हुए कहा कि वह जल्दी ही भारतीय विदेश मंत्रालय में इस बारे में पत्र लिखेगा और दादू को उन की बीरी से मिलवाने का प्रयत्न करेगा.

कुछ महीनों के प्रयास के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय से बात कर के अमीरन उर्फ़ लक्ष्मी के भारत लौटने का प्रबंध करवा दिया और सरकारी हुक्म होने के कारण बेबे के बेटे उस के भारत जाने में कोई रुकावट नहीं डाल सके. मगर अपनी मां को धमकी ज़रूर दे दी कि अगर वह हिंदुस्तान गई तो बेटे वापस उस को अपने घर में कभी नहीं आने देंगे. अपने देश जाने की ख़ुशी में बेबे ने बेटे की बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया और अपने टीन के बक्से में सफ़र पर ले जाने का सामान रखने लगी.

ड्राइविंग के वक्त ज़रूरी है पैदल चालकों का ध्यान रखना

जब हम गाड़ी चला रहे होते हैं तब हम  आमतौर पर अपनी कारों में काफी सुरक्षित होते हैं, लेकिन ऐसे में ज़रूरी है की हम पैदल चलने वालों की सुरक्षा पर भी नजर रखें. जब आप भारी आबादी वाले क्षेत्र में ड्राइव कर रहे हों,  तो सतर्क रहें  और उन पैदल चालकों पर ध्यान दें जो आपके रास्ते में आ सकते हैं.

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आपके पास अपनी गाड़ी में सुरक्षा के सभी नए उपकरण मौजूद हैं लेकिन पैदल चालक अपनी सुरक्षा के लिए आपकी सतर्कता पर निर्भर करते हैं. तो ज़रूरी है की आप गाड़ी चलाते वक्त अपना फोकस सड़क पर ही रखें और रास्ते में आने वली सभी ज़ेब्रा क्रोसिंग पर गाड़ी रोकें और आपके साथ सड़क का इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों का सम्मान करें.

सुशांत के जन्मदिन पर कंगना रनौत ने फिर साधा रिया चक्रवर्ती पर निशाना

21 जनवरी को दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का 35वां जन्मदिन है. सुशांत सिंह राजपूत का जन्म 21 जनवरी 1986 को हुआ था. लेकिन सुशांत के बारे में किसी ने नहीं सोचा था कि सिर्फ 34 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह देंगे.

वो भी उनकी मौत एक दर्दनाक तरीके से होगी, सुशांत के मौत के बाद से लगातार कंगना रनौत बॉलीवुड के कई लोगों पर निशाना साधते नजर आ रही हैं.

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सुशांत के बर्थ एनिवर्सी पर भी कंगना ने कई लोगों पर निशाना साधा है. कंगना ने ट्वीट कर लिखा है सबकुछ छोड़कर सुशांत डे को सेलिब्रेट कीजिए. किसी को हक मत दीजिए की वो आपको बताए, किसी पर भी खुद से अधिक विश्वास मत कीजिए, ऐसे लोगों को छोड़ दीजिए जो कहते हैं कि ड्रग्स के समास्या का सामाधान है.

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हालांकि अपने इस ट्वीट में कंगना ने किसी का नाम नहीं लिया है लेकिन उसने साप तौर पर इशारा कर दिया है रिया चक्रवर्ती के तरफ. रिया चक्रवर्ती पर सुशांत की फैमली ने कई तरह के आरोप लगाए हैं. जिसके बाद रिया चक्रवर्ती एक महीने तक जेल में भी रही थी.

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जबकी लोगों को लगने लगा है कि सीबीआई सुशांत सिंह राजपूत के मौत को सुसाईड के रूप में मानेगी. सुशांत के लिए उनकी बहन श्वेता सिंह कृति लगातार लड़ते नजर आ रही थीं, जिसके बाद अब वह सुशांत के जन्मदिन पर फैंस से अपील की हैं कुछ खास करने के लिए. सुशांत सिंह राजपूत को आज पूरा देश याद कर रहा है. सुशांत चले गए लेकिन अपने चाहने वालों के लिए कई खूबसूरत यादे छोड़कर गए हैं.

Happy B’day Sushant: चांद पर जमीन खरीदने वाले पहले एक्टर थे सुशांत सिंह राजपूत

21जनवरी का दिन बॉलीवुड के लिए बेहद खास है. आज ही के दिन स्टार सुशांत सिंह राजपूत का जन्म हुआ था. सुशांत भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन आज भी उनकी खूबसूरत यादें हमारे साथ है. सुशांत के जाने का गम हर किसी को है.

सीरियल्स से अपनी कैरियर को शुरू कर फिल्मों तक अपनी पहचान बनाने वाले सुशांत सिंह राजपूत को अंतरिक्ष से खास लगाव था. अभी तक के सबसे पहले सितारे थें जिन्होंने चांद पर जमीन खरीदा था.

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बहुत लोगों को सुशांत के बारे में जानकर हैरानी होगी की सुशांत ने चांद पर प्लॉट खरीदा था लेकिन ये बात सच है कि उन्होंने साल 2018 में चांद पर जमीन खरीदा था. उनका ये प्लॉट ये ‘सी ऑफ मासकोवी’ में हैं.

अब आप जानना चाहेंगे कि सुशांत ने अपनी जमीन कैसे खरीदी थी, तो आइए आपको बताते हैं कि उन्होंने ये जमीन कैसे खरीदी थी , उन्होनें इस जमीन को इंटरनेशनल लूनर लैंड्स के जरिए खरीदा था.

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उन्हें अंतरिक्ष से बहुत लगाव था उनके पास किस्म किस्म के टेलिस्कोप था, जिससे वह अपनी जमीन और अन्य ग्रहों को देखा करते थें.

हालांकि इंटरनेशनल संगठनों का मानना है कि अंतरिक्ष हमारी धरोहर है उस पर कोई कब्जा नहीं कर सकता है. जिसपर सुशांत ने बात करते हुए कहा था कि सभी लोगों की सोच अललग होती है. मेरी मां कहती थी कि मेरा जीवन एक कहानी होगा जिसे मैं खउद बयां करुंगा तो मेरे साथ भी कुछ ऐसा होगा.

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आगे सुशांत ने कहा था कि आज में चांद पर जाने कि बाचत करता हूं और चांद पर जाना सपना है मेरा. गौरतलब है कि 34 वर्षीय सुशांत ने पिछले साल 14 जून को अपने फ्लैट पर आतत्महत्या कर ली थी. जिसे पूरे देश को बहुत बड़ धक्का लगा था. आज मर कर भी सुशांत हमारे बीच अमर हैं.

परख-भाग 1: दिव्या सौरभ की मां को क्यों पसंद नहीं करती थी

दिव्या और सौरभ की दोस्ती अनुराग में बदलने लगी, तो दिव्या के शुभचिंतकों ने उसे चेताया था, ‘‘दिव्या सौरभ तक तो तुम्हारी दोस्ती ठीक है, लेकिन तुम उस की मां को नहीं जानती. वे बहुत ही सख्त और तुनकमिजाज हैं. उन के साथ तुम चार दिन भी नहीं टिक पाओगी.’’

दिव्या को मिले इस सुझाव में उस का हित कम ईर्ष्या ज्यादा दिखाई दे रही थी. सौरभ जैसे अच्छी नौकरी करने वाले सुंदर, सुशील और अच्छे चरित्र वाले लड़के को भला कौन अपना नहीं बनाना चाहेगा.

दिव्या उस से अपने रूप और गुण की समानता कर रही थी. वह चाहती थी कि उस की पसंद पर उस के मातापिता गर्व करें. उन्हें उस के भविष्य को ले कर जरा भी चिंता न हो. लोग उस की पसंद पर सहज ही ईर्ष्या करें. सौरभ को ले कर ऐसा साफ दिखाई दे रहा था.

लेकिन, सौरभ की मां को ले कर लोगों के विचार दिव्या को थोड़ा परेशान जरूर कर रहे थे. उन के इस अभिप्राय में वजूद भी था. सौरभ हमेशा अपने परिवार से जुड़ा रहा. कभी किसी तरह की चर्चा या झंझट में नहीं पड़ता था. जरा भी चिंता किए बगैर सब के सामने सच कह देता था. किसी से ज्यादा मेलमुलाकात भी नहीं रखता था.

स्वभाव से सौरभ थोड़ा सख्त था, इसलिए लोग खासकर लड़कियां उसे अंतर्मुखी और घमंडी कहती थीं, पैसे वाला होने का ताना भी मारती थीं.

लोगों ने सौरभ की मम्मी के बारे कितनी भी धारणाएं क्यों न पाली हों, पर दिव्या को ऐसा कुछ भी नहीं लगता था. लेेकिन जब उन के बारे में इस तरह की बातें कुछ ज्यादा ही सुनने को मिलने लगीं, तो दिव्या के मन में भी संदेह उपजने लगा.

तब एक दिन उस ने सौरभ से पूछ ही लिया, ‘‘सौरभ, मुझे मम्मी के बारे में जो भी बातें सुनने को मिल रही हैं, उन में कितनी सचाई है?’’

पलभर तो सौरभ दिव्या को टकटकी लगाए निहारता रहा. वह दिव्या को चाहता था, इसलिए उस के ऐसा कहने में उस के लिए न कोई हैरानी की बात थी और न अनोखी. यह बुरी लगने वाली बात भी नहीं थी.

सौरभ ने कहा, ‘‘तुम मेरी मम्मी के बारे में जो जानना चाहती हो, उस के बारे में मैं जो भी बताऊंगा, उस पर तुम्हें शायद यकीन न हो. इसलिए तुम खुद ही चल कर उन से मिल लो तो ज्यादा अच्छा रहेगा और उन्हें अच्छे से जानसमझ भी लोगी. इस तरह तुम्हारे मन में जो संदेह है, दूर हो जाएगा.’’

दिव्या असमंजस में पड़ गई. उस के सवाल पर असमंजस में तो सौरभ भी पड़ गया था. शायद इसीलिए वह ज्यादा कुछ कह नहीं सका था. लेकिन जब वह जाने लगा तो बोला, ‘‘दिव्या, मैं जब भी तुम्हें मम्मी से मिलने के लिए बुलाऊं, तुम पूरी तरह से मानसिक रूप से तैयार हो कर आना.’’

इस के बाद दिव्या उलझन में रहने लगी थी. उसे सौरभ की मां से मिलने की बात पर घबराहट सी होने लगती थी, क्योंकि वह पहली बार सौरभ की मम्मी से मिलने वाली थी.

बेटे को वश में कर लेने वाली लड़की को वे जरूर परखना चाहेंगीं. वैसे तो वे दिव्या की मां की परिचित थीं, लेकिन उस ने अपनी शुरुआती पढ़ाई गुरुकुल में की, उस के बाद फाइन आर्ट का कोर्स करने शांति निकेतन चली गई थी. इसलिए उन्होंने उसे कभी देखा नहीं था. शुभचिंतक उसे होशियार कर रहे थे कि असली कसौटी पर तो अब उसे जाना है. सौरभ की मम्मी यानी अपनी होने वाली सास की परीक्षा मेें उसे हर हाल में खरा उतरना है.

एक दिन सौरभ ने हंसीहंसी में कहा था, ‘‘दिव्या, मैं ने तो तुम्हें विशेष योग्यता वाले नंबर दे दिए हैं, लेकिन अगर मम्मी ने तुम्हें पास होने लायक नंबर भी दे दिए, तो समझो कि तुम टौप कर गई.’’

जिस तरह भगवान बुद्ध की यशोधरा गाया करती थीं, उसी तरह ‘रे मन आज परीक्षा तेरी, विनती करती मैं तुझ से बात न बिगड़े मेरी’ दिव्या भी गाती हुई, दिल पर असहनीय बोझ लिए धड़कते दिल से सौरभ के कहने पर उस के घर जा पहुंची.

यहां असहनीय शब्द का उपयोग इसलिए किया गया है, क्योंकि जब सौरभ ने दिव्या को फोन कर के आने के लिए कहा था, तो उस ने पूछा था, ‘‘मुझे शादी तुम से करनी है या तुम्हारी मां से?’’

सौरभ ने बिना किसी संकोच या झिझक के जवाब दिया था, ‘‘तुम्हें मुझ से नहीं, मेरी मां के अरमानों से शादी करनी है.’’

बस, इतना कह कर सौरभ ने फोन काट दिया था. एक बार तो दिव्या के मन में आया कि वह मना कर दे, क्योंकि वह 21वीं सदी में जीने वाली लड़की थी. उस का भी अपना अस्तित्व, महत्व, गौरव और इज्जत थी. शादी दो जवां दिलों की व्यक्तिगत संपत्ति होती है. इस में किसी अन्य को दखल देने का क्या हक है.

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