बेटे की मैथ की कौपी को फर्श पर से उठाते हुए भारती ने साड़ी के पल्लू को अपने दांतों के बीच दबा लिया. उस का गला भारी हो गया था. उस ने बृजमोहन की ओर देखते हुए बस इतना ही कहा, ‘‘बातबात पर बेटे पर इतना गुस्सा न कर के आप उसे अगर प्यार से, दुलार से सवाल समझा दिया करते तो उस का मैथ का रिजल्ट अच्छा होता.’’
बृजमोहन चुप रहा.
भारती फिर से कहने लगी, ‘‘खाली गुस्सा करने से कभी किसी का भला हुआ है? बाबूजी कहते हैं बचपन में मैथ में आप के अच्छे मार्क्स आते थे इसीलिए मैं रोज उसे ढकेल कर आप के पास भेजती हूं और आप हैं कि रोज उसे सिर्फ दुत्कार देते हैं.’’
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अब बृजमोहन भी लगा बरसने, ‘‘देखो, तुम्हीं देखो इस सवाल को. यह भी नहीं कर सकता. तुम्हारे बेटे को न टेबल याद है, न कुछ और. एक ही चीज को इतनी बार समझा रहा हूं और क्या करूं? अपना सिर फोड़ लूं?’’
भारती थोड़ी देर चुपचाप पति की ओर देखती रही. फिर संतमोहन को ले कर कमरे से निकल गई. वह बेचारा आंखें मलता हुआ मां के साथ चला गया.
बस, यही रोज का सिलसिला है. बृजमोहन काम से लौट कर चाय पीने के बाद बेटे को पढ़ाने बैठते हैं. बाकी सब्जैक्ट्स की गाड़ी तो ठीकठाक चलने लगती है मगर मैथ आते ही रोज रेल की टक्कर हो जाती है. फिर यह पढ़ाना नहीं दुर्घटना हो जाता है.
ये समय बड़ा बलवान -भाग 3: सूरत का दृश्य अचानक क्यों बदल गया था