राष्ट्रीयस्तर पर किसानों का नए कृषि कानूनों को ले कर खुला विरोध, कुछ करे न करे, यह जरूर एहसास दिला रहा है कि संसद में भारतीय जनता पार्टी की सरकार केवल सीटों के बल पर अपनी हर मनमानी पूरी नहीं कर सकती, लोकतंत्र में जनता की राय भी अहम होती है. यह और बात है कि सरकार तानाशाही पर उतारू हो आए और जनता की न सुने. रामायण, महाभारत और पुराण स्मृतियों को सुपर संविधान मानने वाली भाजपा सरकार आम जनता को नहीं, अपने मुनियों को बचाने में लगी है. कृषि कानूनों में बिना किसी सहमति के परिवर्तन करने से करोड़ों किसानों का भविष्य खतरे में चला गया है और अब उन्हें ब्रह्मवाक्य मान कर जनता के गले में उडे़ला जा रहा है.

किसानों का यदि राष्ट्रव्यापी विरोध न होता तो कानूनों से पूंजीपतियों की पक्षधर सरकार का खिलवाड़ चलता रहता और देशवासियों को तरहतरह के जहर के घूंट पीने पड़ते रहते. एक सही लोकतंत्र वह होता है जिस में संसद का बहुमत ही नहीं, सरकार के कदम पर जनता की आम राय भी ली जाती है. हर फैसले पर न तो जबरदस्ती की जा सकती है और न ही केवल अपने गुर्गों की राय को अंतिम माना जा सकता है. एक छोटे वर्ग का विरोध भी सुनने लायक होता है. संसद में सत्ताधारी पार्टी के पिट्ठुओं की तालियों और मेजों की थपथपाहट को जनता की मरजी नहीं माना जा सकता. सरकार के पिछले फैसले, जैसे नोटबंदी और जीएसटी, बुरी तरह फेल हुए हैं. करैंसी नोटों की संख्या बढ़ गई है.

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