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तुझ संग बैर लगाया ऐसा : भाग 4

लेखक- निखिल उप्रेती

शहर का पुराना और ऐतिहासिक वार्षिक उत्सव अगले महीने आने को था और सभी ओर गहमागहमी फैली हुई थी.

कोविड के चलते पिछले साल से बेनूर पड़े बाजारों में इस साल वैक्सीन आने के बाद से रौनक वापस लौटने लगी थी.

नगरपालिका द्वारा आयोजित रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन इस साल होना ही था और इसी कार्यक्रम में हर साल एक बड़ा और्डर काव्या की बेकरी से जाता था.

यह बाबूजी के अच्छे व्यवहार और ताल्लुकात ही थे, जिस की वजह से उन की निगरानी में तैयार 1-1 सामान का जैसे नगरपालिका के अफसरों को भी इंतजार रहता था.

यही सोचसोच कर काव्या की नींद उड़ी हुई थी। घड़ी का पैंडुलम टनटन करते हुए दाएंबाएं झूल रहा था और काव्या अपने कमरे में बाबूजी की पुरानी कुरसी पर बैठी सोच में डूबी हुई थी.

‘क्या इस बार वे लोग और्डर हमें देंगे?’ ‘बाबूजी के जाने के बाद शायद अब वह बात नहीं रही हमारी बेकरी में।’ ‘मल्होत्रा बेकर्स की वजह से भी नुकसान हो ही रहा है।’ ‘अगर बाबूजी होते तो यह सब न होता। हम दोनों मिल कर इस बेकरी को अच्छे से चलाते…’

ऐसे न जाने कितने ही सवाल घड़ी के उस पैंडुलम की तरह उस के दिमाग के एक सिरे से दूसरे सिरे तक झूलते जा रहे थे.

अगली सुबह वह उठी तो सिर कुछ भारी सा था और आंखें लाल. कौफी के साथ एक पेनकिलर हलक से अंदर धकेलते हुए उस ने नगरपालिका जाने का मन बनाया और फिर जल्दी से नहाने चली गई।

“नमस्ते अंकल, पहचाना मुझे? काव्या… काव्या शर्मा… शर्मा बेकर्स वाले… उन की बेटी हूं मैं,” काव्या नगरपालिका के एक अफसर के सामने हाथ जोड़ती हुई बोली।

“अरे आओ बेटी, आओ बैठोबैठो… तुम्हारे पिता से तो हमारे पुराने संबंध रहे हैं। बहुत याद आती है उन की,” अफसर बाबू ने अपनी नाक से चश्मा नीचे करते हुए जवाब दिया.

काव्या ने बिना वक्त गंवाए वहां आने का कारण बताया तो अफसर बाबू ने चश्मा वापस अपनी नाक पर चढ़ा ली,”बेटी, मैं पूरी कोशिश करूंगा पर इस बार ऊपर से दबाव बहुत है… वह मल्होत्रा बेकर्स वाले का लड़का भी अभी साहब से…अरे वह देखो वह बाहर…”

काव्या ने पलट कर देखा तो बाहर कबीर बड़े साहब से हंसते हुए विदा ले रहा था. काव्या का दिल बैठने लगा.

“अंकल, मैं फिर आउंगी,” कहते हुए वह दौड़ती हुई बाहर निकल आई.

कबीर अभी कुछ आगे ही पहुंचा था कि काव्या ने उसे धरदबोचा.

“अब तुम यहां भी पहुंच गए?”

कबीर उसे वहां देख कर कुछ पल को चौंक सा गया फिर खुद को संभालता हुआ उसी मजाकिया अंदाज में बोला,”अब मेरे घूमनेफिरने में भी ऐतराज है आप को?”

“मैं अच्छे से जानती हूं तुम यहां क्यों आए हो… हर साल और्डर हमारी ही बेकरी को मिलता आया है और इस बार भी मिलेगा,” वह आंखें दिखाती हुई बोली.

“और्डर तो उस को ही मिलेगा जिसे मिलना है। वैसे अब शहर में परिवर्तन की हवाएं चलने लगी हैं, काव्याजी,” कबीर ने एक बार फिर मुसकराते हुए जवाब दिया.

तुझ संग बैर लगाया ऐसा : भाग 3

लेखिका- निखिल उप्रेती

मन परेशान हो तो बहारों में भी खिजा सा महसूस होने लगता है. वही कुछ हाल काव्या का भी था. बाबूजी के जाने का सदमा, सपनों के बिखरने का गम, नई जिम्मेदारियों को उठाने का डर, बाबूजी को जान से भी अजीज उस बेकरी को चलाए रखने का खयाल…. कितना कुछ था उस के दिमाग में जो एकसाथ एक काफिले सा चला ही जा रहा था और अब धीरेधीरे जाने क्यों उन की बेकरी से ग्राहक भी कम होने लगे थे और सामने मल्होत्रा बेकर्स की उस नई बेकरी में रौनक बढ़ने लगी थी.

अपने मन के अंदर पड़ती इन्हीं सभी गांठों का एक सिरा पकड़े वह कब कबीर की बेकरी में जा धमकी उसे खुद खबर न हुई.

“कोई जगराता चल रहा है यहां? इतनी जोर से म्यूजिक चला रखा है…और लोग भी हैं यहां बाजार में… यहां कोई ऐसे शोर नहीं करता,” वह बेकरी में घुसते ही चिल्लाई.

कबीर उस वक्त हाथों में दस्ताने डाले अंदर बनी एक छोटी सी किचन से बाहर निकल ही रहा था.

डोनट्स और साथ में गरमगरम कौफी… “बैठिये,” कहते हुए कबीर एक बार फिर से मुसकराया और अपने हाथों से बनाए ताजे डोनट्स 1 प्लेट में डालते हुए काव्या की ओर चला आया।

“एक बार टेस्ट कर के देखिए… वहां की बेकरी दुकान को भूल जाएंगी,” कबीर ने जानबूझ कर काव्या की बेकरी की तरफ देखते हुए तंज मारा.

“यह शोर बंद करवाओ,” काव्या उसे इग्नोर करती हुई बोली.

उस का चेहरा गुस्से से लाल हुआ जा रहा था. काजल लगी उस की काली आंखें, माथे पर एक छोटी सी बिंदी और पोनी में बंधे उस के बाल… कबीर कुछ देर उसे निहारता रहा.

“बहरे हैं क्या? या ऊंचा सुनते हैं? यह शोर बंद कराइए,” काव्या इस बार जोर से चिल्लाई।

कबीर ने एक कारीगर को इशारा किया और अगले ही पल संगीत का शोर बंद हो गया.

काव्या वापस जाने को मुड़ी ही थी कि कबीर ने उसे रोका,”फिल्म ‘मोहब्बतें’ वाली अमिताभ बच्चन हैं क्या आप जो परिवर्तन पसंद नहीं आप को?”

“मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है आप की इन फुजूल बातों में। बस यह शोर बंद करिए और मुझे मेरा काम करने दीजिए,” वह कबीर को घूरते हुए बोली.

“हां जरूर कीजिए आप अपना काम… जाइएजाइए…आप की बेकरी में बहुत सारे और्डर्स आप का इंतजार कर रहे हैं। कितने लोग बैठे हैं वहां?” कबीर इशारा करता हुआ बोला और फिर ठहाका लगा कर हंसने लगा.

तुझ संग बैर लगाया ऐसा : भाग 2

लेखिका- निखिल उप्रेती

.कबीर ने नई कौफी वैंडिंग मशीन पर एक नजर डाली और फिर मुसकराते हुए बोला,”गरमगरम डोनट, झाग वाली कौफी… वाह, और क्या चाहिए ठंड के मौसम में…”

“अब यह तेरी दुकान है, बेटा। जैसे मरजी चला इसे। बस, काम ईमानदारी से और ग्राहक खुश हों इस बात का खयाल हमेशा रखना,” कबीर के पिता ने उसे प्यारभरी हिदायत देते हुए कहा.

कबीर ने मुसकराते हुए सिर हिलाया. सुबह की मीठी धूप में वह खुद को और भी तरोताजा महसूस कर रहा था। अपने पुरखों की बेकरी में वह अपने मनमुताबिक बदलाव लाना चाहता था.

होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई और फिर कुछ साल देश के बड़े होटलों में काम करने के बाद अब उस ने वापस अपने शहर आ कर अपनी इस बेकरी को संवारने का मन बना लिया था।

पिता और बाकी लोगों ने खूब समझाया की बड़े शहरों की हवा में सांस लेने वाले छोटे शहरों की बयार पसंद नहीं करते पर कबीर का मन पहाड़ों में ही बसता था. यहां की मिट्टी की खुशबू ही अलग थी।

बाजार में छोटीछोटी दुकानों की रौनक, सुबहसुबह दुकानदारों का अपनी दुकानों के आगे पानी के छींटें मारना, दुकान खुलने के बाद अंदर से आती अगरबत्ती की महक…

कबीर कुछ देर दुकान के बाहर खड़ा जाड़ों की धूप का मजा लेने लगा, तभी उस का ध्यान सामने की बेकरी के शटर खुलने की आवाज ने तोड़ा. गणपत और राजू के साथ सामने काव्या खड़ी थी जो उस की तरफ ही देख रही थी.

कबीर ने सड़क के दूसरी तरफ से काव्या की बेकरी के अंदर झांका। बादामी दीवारें जैसे बरसों से सूनी पड़ी थीं, शैल्फ पर धूल दूर से भी देखी जा सकती थी. न जाने क्यों कबीर के चेहरे पर एक मुसकराहट तैरने लगी, जिसे देख कर काव्या ने मुंह मोड़ लिया और बेकरी के अंदर दाखिल हो गई.

“यह लड़का कौन है गणपत?” बेकरी के काउंटर पर अपना बैग रखते हुए काव्या ने सवाल दागा.

“कंपीटिटर है आप का दीदी… गिरधारी लाल मल्होत्रा, मल्होत्रा बेकर्स वाले… उन का पोता कबीर मल्होत्रा। सुना है, बड़े होटलों में काम कर के सबकुछ छोड़छाड़ कर अब यहीं बसना चाहता है,” गणपत ने झाड़ू उठाते हुए जवाब दिया.

“सब जगह छोड़ कर इस को यहीं आना था क्या?” काव्या ने बाहर घूरते हुए देखा तो उस वक्त कबीर अपने कारीगरों से बात करने में लगा हुआ था.

थोड़ी ही देर में कबीर ने अपनी बेकरी के बाहर कुछ टेबल और कुरसियां लगवा दीं और फिर अगले ही पल उस की बेकरी के अंदर से किसी गाने की तेज आवाजें बाजार के हर कोने में फैलने लगीं.

“यह क्या बात हुई? हम भी हैं यहां पर… ऐसे कोई शोर करता है क्या?” कुछ देर चुप रहने के बाद आखिर काव्या के सब्र ने जवाब दे ही दिया और वह तमतमाती हुई अपनी बेकरी से बाहर निकल आई.

तुझ संग बैर लगाया ऐसा : भाग 1

सामान के बैगों से लदीफदी नेहा जब बाजार से घर लौटी तो पसीने से लथपथ हो रही थी. उसे पसीने से लथपथ देख कर उस की मां नीति दौड़ कर उस के पास गईं और उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा,” एकसाथ इतना सारा सामान लाने की जरूरत क्या थी? देखो तो कैसी पसीनेपसीने हो रही हो.”

” अरे मां, बाजार में आज बहुत ही अच्छा सामान दिखाई दे रहा था और मेरे पास में पैसे भी थे, तो मैं ने सोचा कि क्यों ना एकसाथ पूरा सामान खरीद लिया जाए… बारबार बाजार जानाआना भी नहीं पड़ेगा.”

“बाजार में तो हमेशा ही अच्छाअच्छा सामान दिखता है. आज ऐसा नया क्या था?”

“आज कुछ नहीं था, पर 4 दिन बाद तो है ना,” नेहा ने मुसकराते हुए कहा.

“अच्छा, जरा बताओ तो 4 दिन बाद क्या है, जो मुझे नहीं पता. मुझे भी तो पता चले कि 4 दिन बाद है क्या?”

“4 दिन बाद दीवाली है मां, इसीलिए तो बाजार सामानों से भरा पड़ा है और दुकानों पर बहुत भीड़ लगी है.”

“तब तो तुम बिना देखेपरखे ही सामान उठा लाई होगी?” नीति ने नेहा से कहा.

“मां, आप भी ना कैसी बातें करती हैं? अब इतनी भीड़ में एकएक सामान देख कर लेना संभव है क्या? और फिर दुकानदार को भी अपनी साख की चिंता होती है. वह हमें खराब सामान क्यों देगा भला?”

“चलो ठीक है. बाथरूम में जा कर हाथपैर धो लो, फिर खाना लगाती हूं,” नीति ने बात खत्म करने के लिए विषय ही बदल दिया.

खाना खा कर नेहा तो अपने कमरे में जा कर गाना सुनने लगी और नीति सामान के पैकेट खोलखोल कर देखने लगी.

उन्होंने सब से पहले कपड़े के पैकेट खोलने शुरू किए. कपड़े के प्रिंट और रंग बड़े ही सुंदर लग रहे थे.

नीति ने सलवारसूट का कपड़ा खोल कर फर्श पर बिछा दिया और उसे किस डिजाइन का बनवाएगी, सोचने लगी. अचानक उस की निगाह एक जगह जा कर रुक गई. उसे लगा जैसे वहां का कपड़ा थोड़ा झीना सा है. कपड़ा हाथ में उठा कर देखा तो सही में कपड़ा झीना था और 1-2 धुलाई में ही फट जाता.

नीति नेहा के कमरे में जा कर बोली,” कैसा कपड़ा उठा कर ले आई हो? क्या वहां पूरा खोल कर नहीं देखा था?”

“मां, वहां इतनी भीड़ थी कि दुकानदार संभाल नहीं पा रहा था. सभी लोग अपनेअपने कपड़े खोलखोल कर देखने लगते, तो कितनी परेशानी होती. यही तो सोचना पड़ता है ना.”

“ठीक है. वहां नहीं देख पाई चलो कोई बात नहीं. अब जा कर उसे यह कपड़ा दिखा लाओ और बदल कर ले आओ. अगर यह कपड़ा ना हो, तो पैसे वापस ले आना.”

नीति की बात सुन कर नेहा झुंझला कर बोली, “आप भी न मां, पीछे ही पड़ जाती हैंं. अभी थोड़ी देर पहले ही तो लौटी हूं बाजार से, अब फिर से जाऊं? रख दीजिए कपड़ा, बाद में देख लेंगे.”

“तुम्हारा बाद में देख लेंगे कभी आता भी है? 3 महीने पहले तुम 12 कप खरीद कर लाई थींं, उन में से 2 कप टूटे हुए थे. अभी तक वैसे ही पड़े हैं. लाख बार कहा है तुम से कि या तो दुकान पर ही चीज को अच्छी तरह से देख लिया करो और या फिर जब घर में आ कर देखो और खराब चीज निकले तो दुकानदार से जा कर बोलना बहुत जरूरी होता है. जाओ और बोलो, उसे बताओ कि तुम ने अच्छी चीज नहीं दी है.”

“ठीक है मां, मैं बाद में जा कर बदल लाऊंगी,” कह कर नेहा मन ही मन बुदबुदाई,”अच्छी मुसीबत है. अब मैं कभी कुछ खरीदूंगी ही नहीं.”

नेहा के पीछेपीछे आ रही मां नीति ने जब उस की बात सुनी, तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. उन्होंने गुस्से में नेहा से कहा, “एक तो ठीक से काम नहीं करना और समझाने पर भड़क कर कभी न काम करने की बात करना, यही सीखा है तुम ने.”

“मां, अब दो कपड़ों के लिए मैं बाजार जाऊंगी और फिर वहां से आऊंगी भी तो टैक्सी वाले को कपड़ों से ज्यादा पैसा देना पड़ेगा. यह भी समझ में आता है आप को?”

“नहीं आता समझ… और मुझे समझने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि मैं तो दुकान पर ही सारी चीजें ठीक से देख कर रुपएपैसे का मोलभाव कर तब खरीदती हूं.

“तुम्हारी तरह बिना देखे नहीं उठा लाती और अगर कभी ना भी देख पाऊं तो वापस जा कर दुकानदार को दिखाती हूं और खराब चीज बदलती हूं या पैसे वापस लेती हूं.”

“मां, क्या फर्क पड़ता है एक या दो चीजें खराब निकलने से. अब दुकानदार भी कितना चैक करेगा?”

“कितना चैक करेगा का क्या मतलब है? अरे, उस का काम है ग्राहकों को अच्छा सामान देना. सब तुम्हारी तरह नहीं होते हैं, जो ऐसे ही छोड़ दें. इस तरह तो उस की इतनी बदनामी हो जाएगी कि कोई उस की दुकान पर पैर भी नहीं रखेगा.”

“नहीं मां, ऐसा कुछ नहीं होगा. उस की दुकानदारी ऐसे ही चलती रहेगी, आप देखना.”

“क्यों नहीं चलेगी? जब तेरे जैसे ग्राहक होंगे, लेकिन इस का असर क्या पड़ेगा, यह सोचा है. धीरेधीरे सारे दुकानदार चोरी करना सीखेंगे, खराब सामान बेचेंगे और अपनी गलती भी नहीं मानेंगे.

“आज जो बेईमानी है, भ्रष्टाचार का माहौल बना है ना, इस के जिम्मेदार हम ही तो हैं,” नीति ने गुस्से में कहा.

” कैसे? हम कैसे हैं उस के जिम्मेदार? बताइए ना…”

“तो सुनो, हम गलत काम को प्रोत्साहित करते हैं जैसे तुम बाजार गई हो और कोई सामान खरीद कर ले आए. घर आ कर जब सामान को खोल कर देखा तो सामान खराब निकला. तुम ने उस को उठा कर एक ओर पटका. दूसरा सामान खरीद लिया. अब दुकानदार को कैसे पता चलेगा कि सामान खराब है?

“मान लो, उसे पता भी है, पर फिर भी वह जानबूझ कर खराब सामान बेच रहा हो तो… जब जिस का पैसा बरबाद हो गया, उसे चिंता नहीं है तो दुकानदार को क्या और कैसे दोष दे सकते हैं?”

“मां, सभी दुकानदार तो ऐसा नहीं करते हैं न.”

“अभी नहीं करते तो करने लगेंगे. यही तो चिंता की बात है. इस तरह तो उन का चरित्र ही खराब हो जाएगा. हम हमेशा दूसरों को दोष देते हैं, पर अपनी गलती नहीं मानते.”

“अच्छा मां, अगर दुकानदार न माने तो…?”

“हां, कभीकभी दुकानदार अड़ जाता है. बहुत सालों पहले एक बार मैं परदे का कपड़ा खरीदने गई. कपड़ा पसंद आने पर मैं ने 20 मीटर कपड़ा खरीद लिया. घर आ कर कपड़ा अलमारी में रख दिया. 2 दिन बाद मैं ने जब परदे काटने शुरू किए, तो बीच के कपड़े में चूहे के काटने से छेद बने हुए थे. मैं उसी समय कपड़ा ले कर बाजार गई और दुकानदार को कपड़ा दिखाया. उस ने कपड़ा देखा और कहा, “हमारी दुकान में चूहे नहीं हैं. आप के घर पर चूहे होंगे और उन्होंने कपड़ा काटा होगा… मैं कुछ नहीं कर सकता.”

“मैं ने कहा, “चूहे मेरे घर में भी नहीं हैं. कोई बात नहीं, अभी पता चल जाएगा. आप पूरा थान मंगवा दीजिए. अगर वह ठीक होगा, तो मैं मान जाऊंगी.”

नौकर थान ले कर आया. जब थान खोला गया, तो उस में भी जगहजगह चूहे के काटने से छेद बने थे.

“अब तो दुकानदार क्या कहता, उस ने चुपचाप हमारे पूरे पैसे लौटा दिए.

“अगर मैं कपड़ा वापस करने नहीं जाती, तो दुकानदार अच्छा कपड़ा दिखा कर खराब कपड़ा लोगों को देता जाता. अगर सभी लोग यह ध्यान रखें, तो वे खराब सामान लेंगे ही नहीं, तो दुकानदार भी खराब सामान नहीं बेच पाएगा.

“हम अफसरों और नेताओं को गाली देते हैं, पर यह नहीं सोचते कि जब तक हम बरदाश्त करते रहेंगे, तब तक सामने वाला हमें धोखा देता रहेगा. जिस दिन हम धोखा खाना बंद कर देंगे, धोखा देने वाले का विरोध करेंगे, गलत को गलत और सही को सही सिद्ध करेंगे, उसी दिन से लोग गलत करने से पहले सौ बार सोचेंगे अपनी साख बचाने के लिए. बेईमानी करना छोड़ देंगे और तब ईमानदारी की प्रथा चल पड़ेगी,” इतना कहतेकहते नीति हांफने लगी.

मां को हांफता देख कर नेहा दौड़ कर पानी लाई और बोली, “मां, आप बिलकुल सही कह रही हैं. हमें मतलब उपभोक्ताओं को जागरूक बनना बेहद जरूरी है. जब तक हम अपने अधिकारों के प्रति ध्यान नहीं देंगे, तब तक हमें धोखा मिलता रहेगा.”

“ठीक है बेटी, अब इस बात का खुद भी ध्यान रखना और दूसरों को भी समझाना.”

“जी… मैं अभी वापस दुकान पर जा कर दुकानदार से कपड़ा बदल कर लाती हूं,” इतना कह कर नेहा बाजार चली गई, तो नीति ने चैन की सांस ली.

बच्चे के लिए ही नहीं मां के लिए भी फायदेमंद है ब्रैस्ट फीडिंग, जानें 15 फायदे

पहली बार मां बनने की खुशी जितनी एक महिला को होती है उससे अधिक चुनौती होती है ब्रैस्ट फीडिंग,जो जरुरी तो है, लेकिन आजकल की अधिकतर मांओं को लगता है कि इससे उनके शरीर का आकार बदल जायेगा. इसकी वजह उनका कामकाजी होना है. साथ ही उन्हें बार–बार बच्चे की ‘फीड’ कराना मुश्किल लगता है. जबकि बच्चे के जन्म के बाद मां का दूध बच्चे के लिए सबसे अधिक फायदेमंद होता है. बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है. यह दूध अमृत समान होती है.

मुंबई की स्त्री एवम् प्रसूति रोग विशेषज्ञ डा. बंदिता सिन्हा कहती हैं कि ब्रेस्ट फीडिंग को लेकर आज भी शहरी महिलाओं में जागरूकता कम है. जबकि ब्रेस्ट फीडिंग करवाने से ब्रेस्ट कैंसर की संभावना भी कम हो जाती है. जिन महिलाओं ने कभी भी ब्रैस्ट फीडिंग नहीं करवाई है, उनमें ब्रैस्ट कैंसर की रिस्क बढ़ जाती है.

एक अध्ययन में ये पाया गया कि जिन महिलाओं को ब्रैस्ट कैंसर मेनोपोज के बाद हुआ है, उन्होंने कभी भी ब्रैस्ट फीडिंग नहीं करवाई है. जबकि महिलाएं जिन्होंने अर्ली 30 की उम्र में स्तनपान करवाया है, वे 30 की उम्र पार कर स्तनपान करवा चुकी महिलाओं से अधिक ब्रैस्ट कैंसर से सुरक्षित है. इसलिए मां बन चुकी हर महिला को स्तनपान करवाना जरुरी है और उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि इससे बच्चा तंदुरुस्त होता है और साथ में मां का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है.

मां के दूध को बढ़ाता है सातावरी जड़ी बूटी वाला लैक्टेशन सप्लीमेंट

आइए जानते हैं ब्रैस्ट फीडिंग के ऐसे ही 15 फायदे…

– यह सबसे गुणकारी दूध होता है, इसमें पाए जाने वाला प्रोटीन और एमिनो एसिड बच्चे की ग्रोथ के लिए अच्छा होता है, यह बच्चे को कुपोषण का शिकार होने से बचाता है.

– ब्रैस्ट मिल्क बेक्टेरिया मुक्त और फ्रेश होने की वजह से बच्चे के लिए सुरक्षित होता है, जब-जब मां बच्चे को दूध पिलाती है, बच्चे को एंटी बायोटिक, दूध के जरिये मिलता है, जिससे बच्चा किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचता है.

– इसके साथ-साथ मां और बच्चे के बीच में एक प्यार भरा रिश्ता बनता जाता है, जिससे बच्चा मां की निकटता का एहसास करता है.

– बच्चे के जन्म के बाद मां के स्तन से निकलने वाला पहला दूध ‘कोलोस्ट्रम’ कहलाता है, जिसमें एंटीबायोटिक की मात्रा सबसे अधिक होती है, जो बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाती है, इसके अलावा यह दूध बच्चे की अंतड़ियों और श्वसन प्रक्रिया को भी मजबूत बनाती है.

– ब्रैस्ट मिल्क हड्डियों को अच्छी तरह ग्रो करने और मजबूत बनाने में सहायक होती है.

– यह दूध ‘सडेन इन्फेंट डेथ सिंड्रोम’ को कम करने में भी मदद करता है.

– जन्म के बाद बच्चे की प्रारंभिक अवस्था काफी नाजुक होती है, ऐसे में मां का दूध आसानी से पच जाता है, जिससे उसे कब्ज की शिकायत नहीं होती.

मां के लिए फायदे…

– मां के लिए भी इसके फायदे कम नहीं, ब्रैस्ट फीडिंग करवाने से प्रेगनेंसी के दौरान बढ़े हुए मां का वजन धीरे-धीरे कम होता रहता है.

– इतना ही नहीं ब्रैस्ट फीडिंग से महिला में युट्रेस का संकुचन शुरू हो जाता है, डिलीवरी के बाद ब्लीडिंग अच्छी तरह से हो जाती है, जिससे महिला को ब्रैस्ट और ओवेरियन कैंसर का खतरा कम हो जाता है.

– पोस्टपार्टम डिप्रेशन का खतरा मां के लिए कम हो जाता है.

– अधिक उम्र में बच्चा होने पर भी अगर महिला सही तरह से स्तनपान करवाती है तो कैंसर के अलावा मधुमेह,मोटापा,और अस्थमा जैसी बीमारियों से भी अपने आप को बचा सकती है.

– स्तनपान एक साल से अधिक समय तक करवाने से मां और बच्चा दोनों ही स्वस्थ रह सकते हैं.

– जो बच्चे 6 महीने तक लगातार ब्रैस्ट फीड पर निर्भर होते हैं उनकी इम्युनिटी अधिक होती है.

– बच्चे अतिसक्रिय होने से बचते हैं.

अरूण गोविल के भाजपा प्रवेश के निहितार्थ!

फिल्मों में पूरी तरह से नकार दिए गए और 90 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित बहुचर्चित “रामायण” सीरियल में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल की नैया मशहूर फिल्म निर्माता निर्देशक रामानंद सागर ने तो पार लगा ही दी थी. अब लगभग तीन दशक बाद केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को अरुण गोविल की सहारा (बैशाखी) पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मिल गया है. देखना यह दिलचस्प होगा कि चुनाव में अरुण गोविल की “श्रीराम” की छवि को भाजपा नेतृत्व कितना भुना पाता है. पश्चिम बंगाल के प्रतिष्ठा पूर्ण इस चुनाव को, यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने पूरी तरह से “राम मय” बनाकर “संप्रदायिकता” की छौंक भी लगा दी है. यहां सवाल यह भी उठता है हिंदू हिंदुत्व, श्रीराम के उछाल को देख कर भी कि निर्वाचन आयोग मौन क्यों है?

भाजपा यह विधानसभा चुनाव अपने राजनीतिक एजेंडे विकास, और पश्चिम बंगाल की तरक्की के मुद्दे पर नहीं, बल्कि श्री राम का उद्घोष करके लोगों के वोट बटोरना चाहती है. यह इस संपूर्ण प्रकरण से एक बार पूरा सिद्ध हो गया है. आइए! देखते हैं कि कैसे एक फिल्मी चर्चित चेहरे अरुण गोविल को जिसने रामायण में राम की भूमिका की थी, किस तरह भाजपा ने अपने पाले में लेकर चुनावी समीकरण को बदलने की रणनीति तैयार की है. और पश्चिम बंगाल के चुनाव में आखिर किस तो है अरुण गोविल का लाभ उठाने का मकसद है.

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प्रधानमंत्री की नीतियों का मुरीद

जैसे कि सभी अभिनेता, चर्चित चेहरे जब राजनीति में आते हैं तो पार्टी के नेतृत्व की प्रशंसा करते हैं. राम की भूमिका करके देश भर में लोकप्रिय और श्रद्धा के पात्र बन गए अरुण गोविल भी कहते हैं कि वे नरेंद्र मोदी की नीति से हुए प्रभावित हैं. विगत वर्ष जब कोरोना वायरस के संक्रमण के बाद लॉकडाउन हुआ था केंद्र सरकार ने रामायण का प्रसारण किया शो को 7.7 करोड़ से ज्यादा लोगों ने देखा. और यह सब जान गए कि अभी रामायण में काम करने वाले अभिनेता चुके नहीं है और भाजपा इस संदर्भ में बेहद सजग है सो चुनाव में श्री राम की छवि का लाभ उठाने का पूरा पूरा संजाल फैला दिया गया है.
अरुण गोविल ने कहा है कि जय श्रीराम कहने से तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की चिढ़ ने उन्हें भाजपा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया है. उन्होंने ममता बनर्जी का नाम लिए बगैर एक तीर छोड़ा है-” उन्हें समझना चाहिए कि भगवान श्रीराम हमारे आदर्श हैं.”

चिकनी चुपड़ी बातें कहने में होशियार अरुण गोविल कहते हैं
-” जय श्रीराम कहने में कुछ भी बुरा नहीं है. यह कोई राजनीतिक नारा नहीं है. यह हमारी संस्कृति और संस्कार का प्रतिनिधित्व करता है.” कुल मिलाकर के भाजपा का चुनावी चेहरा बनकर अरुण गोविल मैदान में हैं. मगर इसके बावजूद देश की राजनीतिक फिजा में यह सवाल है कि आखिर अरुण गोविल को इतने लंबे समय बाद राजनीति में आने की क्या मजबूरी है? क्या वे राजनीति में आकर देश का कुछ भला करना चाहते हैं या भाजपा का अथवा अपना?

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यहां यह भी समझना होगा कि क्या अरुण गोविल की राम की छवि का चुनावी फायदा भाजपा उठाना चाहती है, क्या यह सच नहीं है कि श्री राम की छवि का लाभ उठाकर अरुण गोविल को उसी तरह कचरे की पेटी में फेंक दिया जाएगा जिस तरह 30 वर्ष पूर्व दीपिका चिखलिया और अरविंद त्रिवेदी को?

अरुण गोविल के बाद दीपका भी!
शायद भाजपा ने एक बड़ी गलती कर दी है अरुण गोविल के साथ दीपका चिखलिया को भी भाजपा में पुनःलांच कर दिया जाना था.अरुण गोविल और दीपिका राम और सीता की छवि में शायद भाजपा को ज्यादा वोट दिला पाते.

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फिल्मों और टीवी सीरियल में काम करना कितना मेहनत भरा है यह सभी जानते हैं. मगर राजनीति ऐसी चीज है कि अगर कोई पार्टी आपके ऊपर हाथ रख दे तो आप रातों-रात नाम भी कमाते हैं और दाम भी. यह सब देश में सब ने देखा है. ऐसे में रामायण सीरियल में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल जैसे ही भाजपा के द्वारा हाथों-हाथ लिए गए तो रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका ने भी लगे हाथ यह कहने से गुरेज नहीं किया है कि एक बार वह पुन: अच्छा ऑफर मिलने पर राजनीति में आना चाहती हैं.

यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि हिंदुत्व का प्रमुख चेहरा बनी भाजपा के पास वर्षों पहले प्रसारित धारावाहिक महाभारत में ‘कृष्ण’ बने अभिनेता नीतीश भारद्वाज व ‘द्रोपदी’ बनी रूपा गांगुली पहले से हैं. यह दोनों भाजपा के पक्ष में सक्रिय रूप से लगे रहते हैं.रूपा गांगुली तो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की स्टार प्रचारक हैं.

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91 के समय काल में अरविंद त्रिवेदी जिन्होंने रामायण में रावण की भूमिका निभाई थी और दीपिका चिखलिया जिन्होंने सीता की भूमिका निभाई थी भाजपा में प्रवेश करके राजनीति की उंचाई को स्पर्श किया और भाजपा को भी दो सांसद दिए थे. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि भाजपा में सदैव हिंदुत्ववादी धार्मिक सीरियल में भूमिका निभाने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों का राजनीति में अच्छा इस्तेमाल किया है और देश की जनता को यह चेहरे दिखा करके वोट बटोरे हैं. मगर देश की जनता को क्या मिला है यह एक विचारणीय प्रश्न है.

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में होगी करण कुंद्रा की एंट्री, बढ़ेंगी कार्तिक-सीरत में दूरियां

सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है ’ काफी लंबे समय बाद अपनी जगह टीआरपी लिस्ट में बना पाया है. जिसके बाद से इस सीरियल के मेकर्स लगातार इस पर काम करते हुए नजर आ रहे हैं. खबर है कि इसमें एक नए चेहरे की एंट्री होने वाला है.

कुछ समय पहले ही यह खबर आई थी कि कार्तिक और सीरत के बीच दरार आने वाला है. नई एंट्री के होते ही सीरत और कार्तिक के बीच  दूरियां होने लगेगी. लंबे वक्त से मेकर्स को एक नए चेहरे का इंतजार था. जो अब खत्म हो गया है.

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अब आप भी यह जानने के लिए ज्यादा इच्छुक है कि कौन है वो नया चेहरा तो आपको बता देते हैं कि करण कुंद्रा इस सीरियल में आने वाले हैं. करण कुंद्रा लंबे समय से टीवी की दुनिया से गायब थें और फैंस को उनक काफी ज्यादा इंतजार था.

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अब इस बात में कोई शक नहीं कि करण कुंद्रा के एंट्री के साथ की इस सीरियल के टाआरपी में उछाल आ जाएगी.

 

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वर्क फ्रंट कि बात करे तो करण कुंद्रा कुछ वक्त पहले एकता कपूर के वेब सीरीज में नजर आएं थें. जहां उन्हें लोगों ने खूब पसंद किया था. अब देखना ये है कि फैंस करण कुंद्रा को कितना ज्यादा प्यार दे पाए हैं. नए सीरियल्स में.

National Award 2019 : सुशांत कि ‘छिछोरे’ बनी बेस्ट फिल्म, कंगना को मिला बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड

सोमवार को 67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का आयोजन किया गया था. जहां सभी दिग्गज कलाकार मौजूद थें. इस समारोह में साल 2019 में बनी फिल्मों के लिए अवार्ड का आयोजन किया गया . इस आयोजन को बीते साल मई में किया जाना था, लेकिन कोरोना कि वजह से नहीं किया गया.

इस बार के अवार्ड में दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म ‘छिछोरे’ को बेस्ट फिल्म का अवार्ड दिया गया. अगर बेस्ट एक्टर और एक्ट्रेस कि बात करें तो कंगना रनौत को फिल्म मर्णिकर्णिका और पंगा के लिए बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला.

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वहीं मनोज वाजपेई को फिल्म ‘भोंसलें ‘ के लिए तो वहीं साउथ एक्टर धनुष को फिल्म ‘ असुरन ‘ के लिए नेशनल अवार्ड मिला है.  इस अवार्ड समारोह में साल 2019 में बनी फिल्मों को पुस्कृत किया गया.

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वहीं आयुष्मान खुराना और विक्की कौशल के लिए पिछला साल काफी ज्यादा अच्छा रहा दोनों स्टार्स ने अच्छी फिल्में दी. बीते साल आयुष्मान खुराना की  ‘बधाई हो’ और अंधाधुंध के लिए बेस्ट फिल्म को अवार्ड मिला है.

साल के शुरुआती दिनों में ही दोनों स्टार्स ने बेस्ट फिल्में दी जिस लिए उन्हें बहुत ज्यादा पसंद किया गया. वही आयुष्मान खुराना की फिल्म आर्टिकल 15 में जमकर कमाई की. तो विक्की कौशल की ‘उर्री द सर्जिकल स्ट्राईक’ कुछ यूजर्स ये सवाल कर रहे हैं कि उर्री को नेशनल अवार्ड से कैसे सम्मानित किया गया.

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हालांकि अवार्ड शओ बेहद ज्यादा शानदार रहा , सभी बड़े कलाकार इस शो में हिस्सा लेने के लिए आएं थें. वहीं फैंस भी इस अवार्ड शो कि सराहना कर रहे थें.

वर्तमान मीडिया से अलग रहे हैं प्रेमचंद

लेखन साबित करता है कि गुलामी के दौर यानी अंगरेजों की हुकूमत के समय में भी मीडिया आज से ज्यादा स्वतंत्र था. आज का शासन जालिम है. उस की दोषपूर्ण नीतियों के खिलाफ कोई कुछ बोल या लिख दे, तो उसे देशद्रोही करार दे दिया जाता है जबकि प्रेमचंद ने अपने जीवनकाल में शासन पद्धति की कड़ी आलोचना करते हुए किसानों के पक्ष में खूब लिखा. एक नजर मुंशी प्रेमचंद की लेखनी पर. किसान अनाज उगाता है. उस अनाज को पूरा देश खाता है. इंडिया कितना भी डिजिटल हो जाए, रोटी डाउनलोड नहीं की जा सकती. अगर देश का किसान किसी मुसीबत में पड़ेगा तो देश के रहने वाले भी मुसीबत में पड़ेंगे.

अभी भी अनाज किसान के पास सस्ता ही मिलता है. वह व्यापारी के पास जा कर महंगा हो जाता है. 15 रुपए किलो बिकने वाले गेहूं से तैयार आटा जब कंपनी बेचती है तो 40 रुपए किलो कीमत का हो जाता है. कृषि कानूनों की आड़ में खेती का निजीकरण होगा, तो अनाज उगाने से ले कर बेचने तक का काम निजी कंपनियों के हाथों में होगा. और फिर महंगाई पर किसी का नियंत्रण नहीं रह जाएगा. लोग कृषि कानूनों की जिस लड़ाई को किसानों की सम?ा रहे हैं, वह उन की अपनी लड़ाई भी है. आज किसानों के पक्ष में न उपभोक्ता खड़े हैं और न ही मीडिया. आज से 80-90 साल पहले कहानीकार प्रेमचंद ने अपनी हर कहानी व उपन्यास में किसानों के शोषण पर जमींदार व शासन व्यवस्था की चोट का जिक्र किया था.

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आज ‘सब से तेज’, ‘सब से पहले’, ‘सब से भरोसेमंद और ‘देशभक्ति’ की बात करने वाले टीवी न्यूज चैनलों व उन के एंकरों ने किसानों के पक्ष में खड़े होने के बजाय सरकार की गोद में बैठना सही सम?ा. इन चैनलों पर बैठे अंजना ओम कश्यप, सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी, रूबिका लियाकत जैसे एंकर किसान से अधिक सरकार के पक्ष में खड़े दिखे. वे सरकार से सवाल पूछने व किसानों की मदद करने के बजाय किसानों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी और चीनी समर्थक बताने वाली बहस आयोजित करते रहे. अपने जमाने में प्रेमचंद ने किसानों की व्यथा को सम?ा था. आज का पौराणिकजीवी मीडिया किसानों की ही नहीं, किसानों के पक्ष में बोलने वालों की आवाज को भी दबाने का काम करता है. एबीपी न्यूज पर रूबिका लियाकत ने आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह को एक बहस के दौरान बोलने से मना किया तो संजय सिंह ने उन के चैनल को बिका हुआ चैनल बताया.

संजय सिंह ने कहा, ‘तुम अडानी और मोदी की गुलाम हो.’ इस बहस में रूबिका लियाकत ने संजय सिंह से सवाल पूछे पर भाजपा के प्रवक्ता से कोई सवाल नहीं पूछा. आजतक के कार्यक्रम ‘हल्लाबोल’ में अंजना ओम कश्यप ने बहस के दौरान यह साबित करने का काम किया कि किसान आंदोलन राजनीति से प्रेरित है. ‘किसान आंदोलन का कैप्टन कौन’ कार्यक्रम में अंजना ने किसान आंदोलन को पंजाब व कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से प्रेरित बता कर आंदोलन की शुरुआत में उस को पंजाब और हरियाणा तक सीमित बताया. उस समय किसानों पर आंसू गैस व पानी की बौछार हो रही थी. चैनलों की बहस में किसानों के आंदोलन को हाशिए पर ढकेलने का काम किया गया. ऐसी ही बहसों का आयोजन सुधीर चौधरी और अर्णब गोस्वामी जैसे कई दूसरे एंकर भी करते रहे. मीडिया की सचाई सम?ाने के बाद किसानों ने चैनलों के रिपोर्टरों को आंदोलन वाली जगह पर घुसने से मना कर दिया. हालत यह हो गई कि चैनल के रिपोर्टरों को अपना माइक व आइडी को छिपा कर किसानों के बीच जाना पड़ा.

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चैनलों ने किसान आंदोलन को विदेशों से प्रेरित बताया. यही नहीं, उन्होंने इस को सरकार गिराने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश बताने का काम किया. इस के लिए विदेशी लोगों द्वारा किए गए ट्वीट को आधार बनाया गया. इस में पौप सिंगर रिहाना जैसे तमाम विदेशी और दिशा रवि जैसे समाजसेवियों को निशाने पर लिया गया. दिशा रवि पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया. यहां भी मीडिया सरकार के ही पक्ष में खड़ा दिखाई दिया. गुलामी के युग में भी प्रेमचंद ने किसानों के मुददों को ले कर जिस तरह का लेखन किया, आज की आजाद पत्रकारिता के दौर में मीडिया के लिए इतना लिखना संभव नहीं है. प्रेमचंद की कहानियों को ले कर उस दौर में ऐसा खौफ सत्ता का नहीं था जितना सोशल मीडिया पर कुछ मैसेज लिखने के बाद केंद्र सरकार बना रही है. धनपत राय श्रीवास्तव, जिन को प्रेमचंद के रूप में जाना जाता है, का जन्म 1880 में हुआ और 1936 में इन की मृत्यु हुई.

प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियां लिखीं. 1918 से ले कर 1936 तक 30 सालों का सफर कथा साहित्य में ‘प्रेमचंद युग’ के नाम से जाना जाता है. यह दौर वह था जब देश गुलाम था. आजादी के लिए सामाजिक और क्रांतिकारी आंदोलन हो रहे थे. अंगरेजों के जुल्म वाले युग में भी प्रेमचंद जमींदारों और कर्ज देने वालों के खिलाफ खुल कर लिख रहे थे. उन के साहित्य में किसान और उस की परेशानियां केंद्र में रहती थीं. आज के किसान आंदोलन के समय देश आजाद है. संविधान ने अभिव्यक्ति की आजादी भी दे रखी है. इस के बाद भी किसानों के समर्थन में ट्वीट करने वालों तक के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लिखा दिया गया. आज के आजादी वाले दौर से कहीं बेहतर प्रेमचंद के समय वाला युग था जहां वे खुल कर किसानों के हित की बात लिख लेते थे. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में पिछड़ी जातियों के किसानों को ही अपना पात्र बनाया था. समाज में किसानों की हालत को सम?ाने के लिए प्रेमचंद की कहानियों से सटीक कोई दूसरा जरिया नहीं है.

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प्रेमचंद की कहानियों में किसानों के जीवन के विभिन्न रंगों का चित्रण किया गया है. प्रेमचंद की कहानियों से ही समाज में किसानों की हालत का पता चलता है. जिस तरह से आज किसान महीनों से आंदोलन कर रहे हैं और सत्ता में बैठे लोग उन्हें ‘देशद्रोही’, ‘परजीवी’ और ‘कीड़ेमकौड़े’ बोल रहे हैं, उस से साफ है कि प्रेमचंद के जमाने के किसान की हालत और आज के किसान की हालत में कोई फर्क नहीं है. प्रेमचंद की कहानियों में किसान को पौराणिक व्यवस्था और कर्ज की आड़ में ब्राह्मण व बनिया परेशान करते थे. आज खेती में सुधार के नाम पर कृषि कानून लागू होने के बाद प्राइवेट कंपनियां ही किसानों की भाग्यविधाता हो जाएंगी. किसानों की मनोदशा और व्यवस्था का दंश पे्रमचंद ने ‘गोदान’ में एक जगह किसान के आर्थिक शोषण को बहुत ही तार्किक व रचनात्मक तरह से पेश करते हुए लिखा.

महाजन एक किसान को 5 रुपए देते हुए कहता है ‘ये 10 रुपए हैं, घर जा कर गिन लेना.’ किसान रुपए गिनने की जिद करता है क्योंकि रुपए कम होते हैं. महाजन उसे 10 रुपए का हिसाब सम?ाते हुए कहता है, ‘एक रुपया नजराने का हुआ कि नहीं?’ किसान जवाब देते कहता है, ‘हां, सरकार.’ इस के बाद महाजन एकएक कर कहता है, ‘एक रुपया तहरीर का?’ किसान फिर जवाब देता है, ‘हां सरकार.’ महाजन अगला जवाब देता है, ‘एक रुपया कागज का?’ किसान उत्तर देता है, ‘हां सरकार.’ महाजन चौथे रुपए का हिसाब देते कहता, ‘एक दस्तूरी का?’ किसान हामी भरते कहता है, ‘हां सरकार.’ और अंत में महाजन कहता है, ‘एक रुपया सूद का?’ किसान चकित होते हुए गुस्से में कहता है, ‘

हां, सरकार.’ महाजन फिर किसान को सम?ाते हुए कहता है, ‘5 नकद, 10 हुए कि नहीं?’ आधी रकम महाजन पहले से ही हड़प जाता है. उस के बाद किसान के पास आधी (5 रुपए) रकम भी नहीं बचती क्योंकि कुछ और रस्में भी होती हैं. पे्रमचंद ने किसान की दुर्दशा व्यक्त करते यह सब दिखाया जो उस समय चलन में था. महाजन को जवाब देते किसान कहता है, ‘नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन के नजराने का, एक रुपया बड़ी ठकुराइन के नजराने का, एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने का, एक रुपया बड़ी ठकुराइन के पान खाने का, बाकी बचा एक, वह आप की क्रियाकरम के लिए’. पे्रमचंद ने किसानों के दुख और व्यवस्था के दंश को ऐसे ही अपनी हर कहानी में व्यक्त किया है. ‘गोदान’ उपन्यास में मुख्य पात्रों का चयन बहुत अद्भुत तरह से किया गया है.

कहानी का मुख्य नायक होरी है. धनिया होरी की पत्नी और गोबर, सोना, रूपा इन के बच्चे हैं. ?ानिया गोबर की पत्नी यानी भोला की विधवा बेटी का नाम है. होरी के भाई हीरा और शोभा हैं. मालती, मेहता, साहूकार, ?िांगुरी सिंह, पंडित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दुलारी सहुआइन गोदान के दूसरे महत्त्वपूर्ण पात्र हैं. कहानी में होरी की इच्छा पछाई गाय लेने की थी. होरी ग्वाला भोला से गाय लाया था. होरी के गांव का नाम बेलारी था. यह गांव भी नहीं एक पुरवा था जिस में 10-12 आधे खपरैल और आधे फूस के घर थे. मालती व मेहता लखनऊ में रहते हैं. राय साहब सेमरी गांव में रहते हैं. ‘गोदान’ उपन्यास यथार्थवाद उपन्यास है, न कि आदर्शवाद. उपन्यास में महाजनी सभ्यता का विरोध हुआ है. कृषक की आर्थिक समस्या का चित्रण हुआ है. यह उपन्यास किसानों की समस्या पर आधारित है. 1936 में लिखे गए इस अंतिम उपन्यास की कथावस्तु किसानों की समस्या है. होरी के पास 5 बीघा जमीन थी. गांव और कथा और शहर की कहानी साथसाथ चलती है उपन्यास में शोषण व अन्याय के विरुद्ध नई पीढ़ी के विद्रोह व असंतोष को दिखाया गया है.

धर्म पर कटाक्ष प्रेमचंद ने केवल महाजन पर ही कटाक्ष नहीं किया. सरकारी नौकरों के किसान और गांव के संबंधों के बारे में लिखा है. उन की कहानियों में यह दिखाया गया कि धर्म के नाम पर पूजापाठ करने वाले लोग भी किस तरह से गलत काम करते हैं. एक जगह ‘गोदान’ में रामसवेक महतो किसान के इस शोषण के संबंध में कहता है, ‘यहां तो जो किसान है, वह सब का नरम चारा है. पटवारी को नजराना और दस्तूरी न दे, तो उस का गांव में रहना मुश्किल. जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे, तो निबाह न हो. थानेदार और कौंस्टेबल तो जैसे उस के दामाद हैं,

जब उन का दौरा गांव में हो जाए, किसान का धरम है कि वह उन का आदरसत्कार करे, नजरनियाज दे, वरना एक रिपोर्ट में गांव का गांव बंध जाए.’ ‘गोदान’ का होरी अपनी मर्यादा बचाने के लिए आजीवन संघर्ष करता है, लेकिन उस की मर्यादा आखिर में तारतार हो उसे ग्लानिबोध से पीडि़त करती है. उस के गांव का पुरोहित दातादीन बहुत धूर्त व चालाक है. किसान को ठगने के सारे हथकंडों से वह परिचित है. सो, वह चोरी तो न करता था क्योंकि उस में जान का जोखिम था, पर चोरी के माल में हिस्सा बंटाने अवश्य पहुंच जाता था. कहीं पीठ में धूल न लगने देता था. पे्रमचंद ने अपनी कहनियों में यह भी दिखाया है कि धार्मिक कामों में लगे लोग भी भ्रष्टाचार में डूबे हैं.

लाला पटेश्वरी भी हर पूर्णिमा को सत्यनारायण की कथा सुनते, दूसरी ओर असामियों को आपस में लड़ा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते. यही धार्मिक अलम्बरदार समाज के नियामक हैं तथा होरी जैसे भोलेभाले किसान इन के षड्यंत्रों में फंस कर पिसते जाते हैं. गोबर द्वारा विधवा ?ानिया से विवाह कर लेने पर ये बिरादरी के दंड के रूप में होरी को लूट लेते हैं. होरी यह सब जानता है, लेकिन बिरादरी का भय उस पर इस कदर हावी है कि वह कहता है, ‘हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उस से बाहर नहीं जा सकते… आज मर जाएं, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगाएगी.’ व्यवस्था पर चोट करती हर कहानी भारत का सब से बड़ा वर्ग किसान है. प्रेमचंद ने इस कृषि के कर्ताधर्ता किसान को अपने उपन्यासों व कहानियों का मुख्य किरदार बनाया था. उन के पहले तथा उन के बाद किसी भी रचनाकार ने प्रमुखता से किसान को केंद्र में नहीं रखा. हिंदी में किसानों की समस्याओं पर ज्यादा कहानियां लिखी नहीं गईं. जो लिखी भी गईं,

उन में प्रेमचंद की सू?ाबू?ा नहीं दिखी. ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ जैसे साहित्य में पे्रमचंद ने किसानों की जटिलताओं को दिखाने का प्रयास किया है. पे्रमचंद ने अपनी कहानियों में किसानों के शोषण व उत्पीड़न को चित्रित किया. उन्होंने कहानियों में समस्या का समाधान भी दिखाया है. पे्रमचंद की कहानियों में किसानों के शोषक वर्ग में सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों की कारगुजारियों को प्रमुख रूप से दिखाया गया है. पे्रमचंद के किसान छोटे सीमांत किसान रहे हैं जिन के पास कम जमीन थी. वे परिवार की मदद से खेती करते थे. 5 बीघे के आसपास की खेती के वे मालिक भी होते थे. वह मेहनतकश किसान था. उस की हैसियत इतनी नहीं होती कि वह अपनी खेती के लिए मजदूर रख सके. खेती को करने के लिए उसे गांव के ही महाजन से कर्ज लेना पड़ता था. जिस के ब्याज की दर किसान पर भारी पड़ती थी.

कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ में प्रेमचंद ने कर्ज और ब्याज की गणना और इस से उपजने वाली त्रासदी को दिखाने का काम किया है. जमींदारों के सामनेनहीं ?ाके प्रेमचंद किसान आंदोलन के समय आज जैसी पत्रकारिता हो रही, इसी तरह अगर उस दौर में पे्रमचंद ने अपनी कहानियों में किसान की जगह सेठ और व्यवस्था चलाने वालों का साथ दिया होता तब उस जमाने के किसान की सचाई कभी सामने न आ पाती. पे्रमचंद की कहानियों में ‘किसान’ के साथ ही साथ ‘जमींदार’, ‘मजदूर’ और ‘बनिया’ का भी चित्रण होता है. कहानी में किसानों की सचाई दिखाने में फेरबदल नहीं किया गया है. आज के संदर्भ में पे्रमचंद की कहानियों के जरिए हालात को सम?ा जा सकता है. पे्रमचंद का मानना था कि भारत को कृषिप्रधान बनाने में किसानों की ही प्रमुख भूमिका थी. ‘जमींदार’ और ‘बनिया’ केवल अपने लाभ के लिए काम करते थे. पे्रमचंद के दौर में भी जमीन के बड़े हिस्से के मालिक ‘जमींदार’ और ‘बनिया’ भी होते थे.

वे खेती नहीं करते थे. ऐसे में उन को किसान नहीं कहा जाता था. पे्रमचंद ने किसान उसी को माना था जो हल की मुठिया पकड़ कर खेत की जोताई करता था. ‘जमींदार’ और ‘बनिया’ मजदूरों के सहारे ही खेती करवाते थे. हल चलाने, बीज बोने और फसल काटने जैसे काम मजदूर वर्ग ही करता था. खेतिहर मजदूर ज्यादातर भूमिहीन थे. उन के पास नाममात्र की जमीन होती थी. उन के मकान भी अकसर ऐसी जमीन पर बने होते थे जिन के मालिक मजदूर नहीं होते थे. जमींदार के पास जमीन थी, परंतु वह खेती का काम स्वयं नहीं करता था. मजदूर वर्ग खेती के तमाम काम करता था, परंतु वह जमीन का मालिक नहीं होता था. ‘पूस की रात’ कहानी में हल्कू कम जमीन वाला किसान था. वह कभीकभी मजदूरी भी करता था. कर्ज और पाखंड पर किया प्रहार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के केंद्र में किसानों को रखा था.

उन की कहानियों में न तो जमीदारों को किसान माना गया और न मजदूरों को. प्रेमचंद के किसान पात्र स्वयं खेती करते थे. पे्रमचंद के किसान ‘होरी’, ‘हल्कू’ और ‘शंकर’ जैसे पात्र रहे हैं. ये कभी ‘तेवर’ दिखाते थे तो कभी ‘धर्मभीरु’ बन जाते हैं. यह हालत आज के दौर के किसान पर सटीक बैठती है. आज भी किसान एक तरफ सरकार के खिलाफ धरना देने जैसे काम करता है तो वहीं राममंदिर के लिए चंदा देता भी नजर आता है. जिस तरह से आज का किसान आर्थिक संकट में है और वह 5 सौ रुपए की किसान सम्मान निधि पाने से खुश हो जाता है वैसे ही पे्रमचंद का किसान आर्थिक संकट से गुजरता रहता है.

पे्रमचंद ने अपनी कहानियों के जरिए बताया है कि किसान इसलिए परेशान है क्योंकि वह कर्जदार है. वह धर्म से डरता है, इस की वजह से वह कर्ज के बो?ा से दबे होने के बाद भी पौराणिक व्यवस्था में पढ़ कर धार्मिक काम करता था. प्रेमचंद अपने किसान की जाति को सामने रखते थे. प्रेमचंद की कहानियों से पता चलता है कि जाति किसान की एक अनिवार्य पहचान होती है. ग्रामीण समाज की बनावट का मुख्य आधार जातियां हैं. प्रेमचंद जब भी किसान की कहानी लिखते थे, उस की जाति का जिक्र किसी न किसी रूप में जरूर करते थे. ‘दो बैलों की जोड़ी’ में ?ारी का किरदार काछी जाति से था. ‘सवा सेर गेहूं’ कहानी में शंकर कुरमी जाति से था. ‘पंच परमेश्वर’ कहानी में अलगू चौधरी था. ऐसे तमाम उदाहरण हैं. प्रेमचंद दलित जाति के किसी भी पात्र को ले कर जब कहानी लिखते थे तब छुआछूत व भेदभाव को जरूर उठाते थे. ‘पूस की रात’ का हल्कू पिछड़ी जाति का था. प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में किसानों की परेशानियों को प्रमुखता से लिखा है. प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में दिखाया है कि हमारे किसानों ने धर्म का एक बड़ा ही विकृत रूप अपनाया है. ‘गोदान’ में गोबर, मातादीन, सिलिया, ?ानिया आदि इस के उदाहरण हैं. पे्रमचंद ने अपनी सहानुभूति का बहुत बड़ा भाग शोषित वर्ग को समर्पित किया है. पे्रमचंद ने अपनी कहानियों में जमीदारों, पूंजीपतियों, महाजनों, धार्मिक पाखंडियों के दोषों पर तीखे प्रहार किए हैं.

प्रेमचंद ने लिखा है कि किसान को सब से अधिक महाजनी सभ्यता से गुजरना पड़ता है. महाजनी सभ्यता क्रूरता तथा शोषण पर आधारित है. किसानों के सम्मान को सम?ा प्रेमचंद ने किसानों के दर्द, आक्रोश और विद्रोह को सामने लाने का काम किया था. यह प्रेमचंद का क्रांतिकारी पक्ष था. ‘प्रेमाश्रम’ में दखलंदाजी और बड़े हुए लगान को तो ‘कर्मभूमि’ में बढ़ते हुए आर्थिक संकट व लगान की लड़ाई को चित्रित किया है. पे्रमचंद ने लिखा कि मुनाफे के लिए किस तरह से किसानों की मेहनत का शोषण किया गया. आज खेती के कानूनों का विरोध करने वाले लोग भी सरकार को यही सम?ाने का काम कर रहे है. ‘प्रेमाश्रम’ में कहानी का चित्रण देखें- ‘किसान बेगार करने को विवश है. विरोध का कोई भाव भी उन में नहीं है. सब के सब सिर ?ाकाए चुपचाप घास छीलते रहे, यहां तक कि तीसरा पहर हो गया. सारा मैदान साफ हो गया. सब ने खुरपियां रख दीं और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गए. बेचारे सम?ाते थे कि काम से अब गला छूट गया लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आ कर हुक्म दिया- गोबर ला कर इसे लीप दो, कोई कंकड़, पत्थर न रहने पाए, कहां हैं नाजिर जी,

इन सब को डोल व रस्सी दिलवा दीजिए’. ‘प्रेमाश्रम’ सहित कुछ अन्य कहानियों में प्रेमचंद दिखाते हैं कि किसान अपने सम्मान के लिए चिंता करता है. वह गाय पालना चाहता है तो सम्मान के लिए, वह कर्ज लेता है तो अपने सम्मान की रक्षा के लिए, वह अपने जीवन में जो भी जोखिम उठाता है, उन सब का मकसद यही है कि सम्मान यानी, प्रेमचंद के शब्दों में, ‘मरजाद’ बना रहे. 26 जनवरी को लालकिले पर कुछ लोग जब धार्मिक ?ांडे को फहरा आए तब केंद्र सरकार ने जबरन किसान आंदोलन को खत्म करने का दबाव बनाया. ऐसे में भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के आंसू निकल आए. अपने नेता के आंसू देख किसानों का जोश व सम्मान उठ खड़ा हुआ और मरता आंदोलन जिंदा हो गया. कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन में आज के मीडिया से प्रेमचंद की तुलना करें तो गुलामी के युग में भी पे्रमचंद का लेखन मुखर विरोध और किसानों का साथ देता दिखता है. आज के समय में प्रेमचंद सरीखा लिखने का प्रयास करना अपने पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लिखाने जैसा है.

एक दिन अचानक : भाग 1

लता दीदी की आत्महत्या की खबर ने मुझे अंदर तक हिला दिया था क्योंकि दीदी कायर कदापि नहीं थीं. फिर मुझे एक दिन दीदी का वह पत्र मिला जिस ने सारे राज खोल दिए और मुझे परेशानी व असमंजस में डाल दिया कि क्या दीदी की आत्महत्या को मैं यों ही व्यर्थ जाने दूं?

मैं बालकनी में पड़ी कुरसी पर चुपचाप बैठा था. जाने क्यों मन उदास था, जबकि लता दीदी को गुजरे अब 1 माह से अधिक हो गया है. दीदी की याद आती है तो जैसे यादों की बरात मन के लंबे रास्ते पर निकल पड़ती है. जिस दिन यह खबर मिली कि ‘लता ने आत्महत्या कर ली,’ सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि यह बात सच भी हो सकती है. क्योंकि दीदी कायर कदापि नहीं थीं. शादी के बाद, उन के पहले 3-4 साल अच्छे बीते. शरद जीजाजी और दीदी दोनों भोपाल में कार्यरत थे. जीजाजी बैंक में सहायक प्रबंधक हैं. दीदी शादी के पहले से ही सूचना एवं प्रसार कार्यालय में स्टैनोग्राफर थीं.

लता दीदी मशहूर लेखिका मालती जोशी की कहानियों की फैन थीं. फुरसत के क्षणों में वे उन की कहानियां पढ़ा करती थीं. एक बार मैं भोपाल गया. मैं ने उन की अलमारी से मालती जोशी की किताब ‘कठपुतली’ निकाली और पढ़ने लगा. 2 दिन में मैं ने कुछ कहानियां पढ़ीं. उन कहानियों ने मुझे इतना प्रभावित किया कि ग्वालियर वापस आते समय मैं ने दीदी से कहा, ‘शेष कहानियां पढ़ कर, यह किताब मैं आप को वापस भिजवा दूंगा.’

‘नहीं भैया, नहीं, यह मेरी प्रिय किताब है और मैं इसे किसी को भी नहीं देती हूं, चाहे वह तुम्हारे जीजाजी ही क्यों न हों, क्योंकि एक बार किसी को किताब दे दो तो वह वापस नहीं मिलती,’ उन्होंने किताब मेरे हाथ से ले ली और अलमारी में रख दी.

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जब कभी 2-3 दिन की छुट्टी पड़तीं तब वे हमारे यहां आ जाते, 2 दिन साथ रहते. उस दौरान हम पार्क में घूमने चले जाते, कभी कोई अच्छी सी फिल्म देख आते. इस प्रकार हंसतेखेलते 3-4 साल निकल गए.  एक दिन जब मैं दफ्तर से घर आया तो मालूम हुआ, दीदी आई हैं. मैं ने मां से पूछा तो उन्होंने बताया कि वे अपनी सहेली प्रेमलता से मिलने गई हैं, कह रही थीं कि उस से कुछ जरूरी काम है.

रात करीब 10 बजे वे घर आईं. मेरी नजर उन के चेहरे पर ठहरी तो लगा कि वे कुछ परेशान हैं और उन के चेहरे पर पहले सी खुशी नहीं है. वे सीधे अंदर के कमरे में चली गईं. मुझे लगा, शायद कपड़े बदलने गई होंगी, लेकिन जब बहुत देर गुजरने पर भी वे ड्राइंगरूम में नहीं आईं, तब मैं ही अंदर के कमरे में चला गया.

वे उदास चेहरा लिए बैठी थीं.

मैं ने पूछा तो बोलीं, ‘अरे कुछ नहीं, भैया, यात्रा कर के आई हूं, उसी की थकान है.’

मुझे उन की बात पर यकीन नहीं  हुआ. मैं ने कहा, ‘दीदी, सच कहूं, आप कुछ छिपा रही हैं, लेकिन आज आप का चेहरा आप का साथ नहीं दे रहा. क्या बहन की शादी के बाद एक भाई इस लायक नहीं रह जाता कि वह बहन के मन की बात जान सके?’

यह सुनते ही वे फफक उठीं और एक अविरल अश्रुधारा उन की आंखों से बहने लगी.

‘अब कुछ बताओगी भी या केवल रोती ही रहोगी,’ मैं ने उन के आंसू पोंछते हुए कहा.‘भैया, हमारी शादी को अब 5 साल 4 माह हो गए, इस बीच मेरी गोद नहीं भरी. इसी कारण आएदिन घर में विवाद होने लगे हैं.’

‘पर इस में आप का क्या दोष है, दीदी?’

‘पर भैया, मेरी ननद और सासूजी मुझे ही दोष देती हैं.’

‘हो सकता है दीदी, दोष जीजाजी में हो?’

‘लेकिन इस बात को उन के घर का कोई मानने के लिए तैयार नहीं है. वे तो यही रट लगाए बैठे हैं कि दोष मुझ में ही है.’

‘ठीक है दीदी, मैं आप के साथ भोपाल चलता हूं और इस बारे में जीजाजी से बात करता हूं.’

मैं दीदी के साथ भोपाल गया और आधी रात तक उन से इसी विषय पर बात करता रहा. वे बोले, ‘देखो भैया, मैं ने तुम्हारी दीदी से शादी की थी तब मेरा एक सपना था कि मेरे घर में मेरे अपने बच्चे हों, जब मैं शाम को बैंक से घर वापस आऊं तब वे प्यार से मेरे पैरों में लिपट जाएं और अपनी तुतलाती जबान से मुझे पापा…पापा…कहें. फिर मैं उन के साथ खेलूं, उन को हंसते हुए देखूं, तो कभी रोते हुए. उन को अपने कंधे पर बैठा कर गार्डन में घुमाने ले जाऊं. मैं उन का अच्छे से पालनपोषण करूं, उन्हें इस योग्य बनाऊं कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊं तब वे मेरा सहारा बनें, मेरा नाम और वंश आगे चलाएं. फिर पंडेपुजारी कहते भी हैं न कि जब तक अपना पुत्र पानी नहीं दे तब तक मरने के बाद भी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती. तब मेरी यह तमन्ना गलत तो नहीं है न?’ जीजाजी ने अपने दिल की बात बताई.

‘जीजाजी, क्या आप यह कहना चाहते हैं कि जिन को पुत्र नहीं होते उन को मुक्ति नहीं मिलती? पर एक सच आप भी जान लीजिए कि इन पंडेपुजारियों ने ये सारी बातें सिर्फ अपना पेट और जेबें भरने के लिए फैला रखी हैं. जीजाजी, आदमी को मुक्ति मिलती है तो अपने किए कर्मों के आधार पर.’

मेरे लाख समझाने के बावजूद वे अपनी ही बात पर अड़े रहे. अब मैं वहां रुक कर और क्या करता. मैं दुखी हो कर वापस घर लौट आया.

एक रात करीब 10 बजे दीदी का  फोन आया. वे बोलीं, ‘तुम्हारे यहां से जाने के बाद अगले ही दिन रायपुर से मेरी सासूजी, ननद के यहां भोपाल आईं. फिर वे दोनों मेरे घर आईं और बोलीं, देखो लता, पास की पहाड़ी पर एक साधु बाबा का डेरा है, तुम हमारे साथ वहां चलो, शायद उन के आशीर्वाद से तुम्हारी गोद भर जाए. मैं उन के साथ वहां गई थी. अब उन्होंने अगली अमावस की रात बुलाया है. खैर, अब उन का स्वभाव और व्यवहार मेरे साथ अजीब सा होता जा रहा है, अब वे दूसरे कमरे में सोने लगे हैं.’

मैं उस से क्या कहता सिवा इस के कि दीदी, थोड़ा सब्र रखो, देखो कुछ दिनों बाद फिर पहले सा सामान्य हो जाएगा.

कुछ दिन बीते. इन दिनों में न तो दीदी का फोन आया और न ही कोई चिट्ठीपत्री आई. एक दिन मैं ने ही उन्हें फोन किया. फोन दीदी ने ही उठाया. मेरे बारबार पूछने पर वे बोलीं, ‘भैया, उन्होंने अपना तबादला जबलपुर करवा लिया है और अब मैं यहां अकेली ही रहती हूं. कहने के लिए यहां उन की बहन और बहनोई हैं,’ इतना कह कर उन्होंने फोन रख दिया.

वक्त गुजरता गया और 6 माह बीत गए. एक दिन जीजाजी के बड़े भाईसाहब, जो हमारे ही शहर में रहते हैं, बाजार में मिल गए. बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि शरद (जीजाजी) ने जबलपुर में अपने ही बैंक में कार्यरत एक तलाकशुदा महिला से शादी कर ली है.

‘जीजाजी ने दूसरी शादी कर ली,’ यह सुनते ही लगा जैसे आसमान में कड़कड़ाती हुई एक बिजली चमकी और सीधे मुझ पर आ गिरी हो. मैं स्तब्ध रह गया और सोचने लगा कि यह खबर पा कर दीदी पर क्या गुजरेगी?

मैं ने रात को फोन पर इस बारे में बात की तो वे बोलीं, ‘भैया, मैं जानती थी कि वे ऐसा ही करेंगे. खैर, अब ये बात छोड़ो, अब तुम मेरी चिंता मत करना, अपनी शादी की बात चलाना और कोई अच्छी लड़की मिले तो तत्काल शादी कर लेना. भैया, अब मैं किसी तरह से अपनी शेष जिंदगी काट लूंगी.’

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